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प्राचार्य प्रभवसूरि. प्रसन्न रहता था। विनयधर भी चतुर और राजनीति विशारद था अतएव जयसेनने अपना उत्तराधिकारी विनयधर को ही बनाया । यह वात प्रभव को अनुचित प्रतीत हुई। प्रभव इस बात को सहन न कर सका । वह अपने भाई से असहयोग कर नगर के बाहिर चला गया । जाता जाता एक अटवी में पहुँच गया। वह क्या देखता है कि उस स्थानपर बहुत से लश्कर एकत्रित हैं । वह उनके पास गया और उन्हें अपना परिचय इस ढंग से दिया कि सारे दस्युगण चाहने लगे कि यदि यह रूठा राजकुमार हमारा नायक हो जाय तो हम निर्भय होकर चोरियों करेंगे । बना भी एसा ही कि प्रभव उस पल्ली के ४९९ चोरों का नायक बनकर उसने जनता को हर प्रकार से लूटना प्रारम्भ किया । देश भर में त्राहि त्राहि मच गई। उस देश के राजाने इन चोरों को पकड़ने का पूर्ण प्रयत्न किया पर एक भी चोर हाथ नहीं लगा। प्रभवने चोरों को ऐसी युक्तियों बता दी कि कोई उनका बाल भी बांका नहीं कर सकता था। प्रभव की प्रवृति बड़ी उग्र थी। जिस कार्य में वह हाथ डालता उसे सम्यक् प्रकार से सम्पादित करता था। एक वार में वह श्रेष्टि महल में गया और वहाँ जम्बु, कुमार का उपदेश सुना । इस वृति को तिलांजलि दे उसने अपने ४९९ चोरों सहित सौधर्माचार्य के पास दीक्षा ग्रहण की । उसने उग्र प्रवृत्ति के कारण शास्रों का ज्ञान बहुत शीघ्र प्राप्त कर लिया । उसका कार्य इतना श्रेष्ट हुआ कि वह अन्त में वीरात् ६४ संवत् में जम्बुमुनि के पीछे आचार्य पदपर भारुढ हुआ।