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जैन जातिमहोदय.
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विवाह से चार वर्ष पश्चात् आपको सांसारिक उलझनें खटकने लगीं । त्याग और वैराग्य की ओर आपकी भावनाएँ प्रस्तुत हुई । पर लालसा मन ही मन रही । कुटुम्ब को कब भाने लगा कि ऐसा सुयोग्य परिश्रमी और सदाचारी नवयुवक इस - स्था में हमें त्याग दे | आपने दीक्षा लेने की बात प्रकट की पर तुरन्त अस्वीकृति ही मिली ।
इसी बीच में आपके पिताश्री का देहान्त हुआ । यकायक सारा गृहस्थी का भार आपपर आ पड़ा तथापि आप अधीर नहीं हुए | आप अपने पिता के जेष्ठ पुत्र थे अतएव सारा उत्तरदायित्व आप पर आ पड़ा | आपके पाँच लघु भ्राता थे जिनके नाम क्रम से इस प्रकार हैं - गणेशमलजी, हस्तीमलजी वस्तीमलजी मिश्री - मलजी और गजराजजी । आपके एक बहिन भी थी, जिनका नाम यत्न बाई था |
कई सांसारिक बंधनों से जकड़े हुए होते भी आपकी अभिलाषा यही रहती थी कि ऐसा कोई अवसर मिले कि मैं शीघ्र ही दीक्षा ग्रहण कर लूँ | संवत् १६६३ में आप अपनी धर्म पत्नी सहित परदेश जाने के लिये यात्रा कर रहेथे। रास्ते में रतलाम नगर आया जहाँ पूज्य श्रीलालजी महाराज का चातुर्मास था । आप वहाँ सपत्नी उतर गये । जाकर व्याख्यान में सम्मिलित हुए । पू० श्रीलालजी के उपदेश का असर आपके कोमल हृदय पर इस प्रकार हुआ कि आपने यह मन ही मन दृढ़ निश्चय कर लिया कि अब मैं घर नहीं जाऊँगा । किसी भी प्रकार हो मैं अब