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(८८) जैन जाति महोदय प्र० तीसरा.
आदि के श्रावकों का प्राचार्य कनकप्रभसूरि और इधर उपकेशपुर के श्रावको के आचार्य रत्नप्रभसूरि अर्थात् इन दोनो नगरो के नामसे दो शाखा हो गइ उन साखाप्रो के नाम से ही उपकेशगच्छ और कोरंटगच्छ कि स्थापना हुईथी वह आज पर्यन्त मोजुद है प्रस्तुतः दोनों नन्दिरों की प्रतिष्ठा का समय विषय निम्न लिखित श्लोक पट्टावलि में है सप्तत्या ( ७० ) वत्सराणं चरम जिनपतेर्मुक्त जातस्य वर्षे. पंचम्यां शुक्ल पक्षे सुर गुरु दिवसे ब्राह्मण सन्मुहूर्ते । रत्नाचायें: सकल गुणयुक्तैः सर्व संघानुज्ञातैः . श्रीमद्वारस्य बिंबे भव शत मथने निर्मितेयं प्रतिष्टाः । १ । उपकेशे च कोरंटे तूल्यं श्रीवीरबिंबयोः । उपळेशगच्छ प्रतिष्ठा निर्मिता शक्त्या श्रीरत्नप्रभसूरिभिः।१।। चारित्र.
कोरंटंगच्छ में भी बडे बडे विद्वानाचार्य हो गये जिनके कर कमलो से कराइ हुइ हजारो प्रतिष्टाए, के लेख मीलते है वर्तमान शिलालेखों मे मी कोरंट गच्छाचार्यों के बहुत शिलालेख इस समय मोजुद है वह मुद्रितभी हो चुके है समय की बलिहारी है जिस गच्छ मे हजारो की संख्या मे मुनिगण भूमण्डलपर विहार करते थे वहां आज एक भी नहीं वि. सं. १९१४ तक कोरंट गच्छ के श्री अजीतसिंहसूरि नाम के श्रीपूज्य थे वह बीकानेर भी आये थे लंगोट के बडे ही सचे और भारी चमत्कारी थे उन्हो के गच्छ के श्रीमाल पोरवाड और कितनेक ओसवालों के गोत्रो की वंशावलियों कि एक वही थी व वीकानेर के उपाश्रयमे रख गये थे यति माणकसुन्दरजी द्वारा वह वही मुझे भी देखने का शोभाग प्राप्त