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जैनजातिमहोदय प्र० प्रकरण. श्रीयुत महामहोपध्याय, सत्यसम्पदायाचार्या सर्वान्तर . पंस्वामी राममिश्रजी शास्त्री भूतप्रोफेसर संस्कृत कोलेज बनारस.
(२) यह शास्त्रीजी महोदय अपने मि० पौष श० १ सं० १९६२ को काशी नगरमें दिये हुये व्याख्यान में कहते हैं:
(१) वैदिक मत और जैनमत सृष्टि की प्रादिसे बराबर अविछिन्न चले आए हैं और इन दोनों मतों के सिद्धान्त विशेष घनिष्ठ सम्बन्ध रखते हैं जैसा कि मैं पूर्व में कह चुका हूं अर्थात् सत्कार्यवाद, सत्कारणवाद, परलोकास्तित्व, प्रात्मा का निर्विकारत्व, मोजका होना और उसका नित्यत्व, जन्मान्तर के पुण्य पाप से जन्मान्तर में फलभोग, व्रतोपवासादि व्यवस्था, प्रायश्चित व्यवस्था, महाजनपूंजन, शब्दप्रामाण्य इत्यादि समान हैं।
(२) जिन जैनोंने सब कुछ माना उनसे नफरत करनेवाले कुछ जानते ही नहीं और मिथ्या द्वेषमात्र करते हैं।
(३) सज्जनों ! जैनमत में और बौद्धमत में जमीन प्रासमानका अन्तर है उसे एक जानकर द्वेष करनाप्रज्ञजनों का कार्य है।
(४) सबसे अधिक वह अल है जो जैन सम्प्रदाय सिद्ध मेलों में विघ्न डालकर पापभागी होते हैं।
(५) सज्जनों !झान, वैराग्य, शान्ति, शांति, अदम्भ, मनीp, अक्रोध, अमात्सर्य, अलोलुपता, शम, दम, अहिंसा, समदृष्टिता