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जैन जाति महोदय प्र० तीसरा.
नहोतो फिर उस नगर में रहनेका प्रयोजन हीं क्या, उस समय मामुली साधुभी एक शिष्यसे विहार नहीं करते थे तो रत्नप्रभाचार्य जेसे महान पुरुष विकट धरतीमें एक शिष्यके साथ पधारे यह बिलकुल असंभव है आगे भाट भोजको या कितनेक यतियोंने
सवालोकी उप्तति और रत्नप्रभसूरिका समय बीयेबाइसे वि. सं. २२२ का बतलाते है वह भी गलत है जिसका खुलासा हम चतुर्थ प्रकरणमें करेंगें दर असल वह समय विक्रम पूर्व ४०० वर्षका था और भिक्षा न मिलनेसे मुनियोंने तप वृद्धि करीथी ।
मुनियों के तपवृद्धि होते हुवेकों बहुत दिन हो गये तब उपाध्याय वीरधवळने सूरिजी अर्ज करी कि यहां के सब लोग देवि उपासक वाममार्ग मांस मदिरा भक्षी है शुद्ध भिक्षा के प्रभाव मुनियोंका निर्वाह होना मुश्किल है ? इस पर आचार्य - श्रीने कहा कि एसाही हो तो विहार करों. मुनिगरण तो पहले से ही तैयार हो रहे थे हुकम मिलतें ही कम्मर बान्ध तय्यार हो गये । यह हाल वहां की अधिष्टायिका चामुंडा देविको ज्ञानद्वारा ज्ञात हुवा तब देविने सोचा कि मेरी सखी चक्रेश्वरी के भेजे हुवे यह महात्मा यहां पर आये है और यहांसे क्षुधा पिपासा पिडित चले जावेंगे तो इसमें मेरी अच्छी न लगेगी इस विचारसे देवी सूरिके पास आई शासन देव्या कथितं भो आचार्य ? अत्र चतुमसकं कुरूं तत्र महालाभो भविष्यति " हे आचार्य । आप मेरी विनंतिसे यहां चतुर्मास करे तांकि आपको बहुत लाभ होगा ? इस पर सूरिजीने देवि की विनंतिको स्वीकार कर मुनियोंसे कह दीया कि जो
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