SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 408
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्यश्री रत्नप्रभसूरि. (५१) मिथ्यात्व वासिता यादृशा गता तादृशा आगता मुनीश्वराः तपोवृद्धि पात्राणि प्रतिलेप्यमास यावत् संतोषेणस्थिताः नगरमे लोग वाममार्गि देवि उपासक मांस मदिरा भक्षी होनेसे मुनियों को शुद्ध भिक्षा न मीली जैसे पात्रे ले के गयेथे वैसेही वापिस आ गये, मुनियोंने सोचा कि आज और भी तपो. वृद्धि हुइ पात्रोका प्रतिलेखन कर संतोषसे अपना ज्ञानध्यानमे मन हो आत्मकल्यानमें लग गये। ... इसपर ( १ ) यति रामलालजीने महाजनवंश मुक्तावलिमें लिखते है कि रत्नप्रभसूरि एक शिष्यके साथ आये भिक्षा न मिलेनसे गृहस्थों की औषधी कर मिक्षा लातेथे. और (२) सेवगलोग कहते है कि उन मुनियों को भिक्षा न मलिनेसे हमारे पूर्वजोंने भिक्षा दी थी (३) भाट भोजक कहते है कि भिक्षा न मीलनेपर आचार्यश्रीका शिष्यं जंगलसे लकडीयों काट, भारी बना, बजारमें बेंचके उसका धान ला रोटी वनाके खाताथा इसी रीतसे उस शिष्यके सिरके बालतक उड गये । एकदा सूरिजीने शिष्यके सिरपर हाथ फेरा तो बाल नहीं पाये तब पुच्छने पर शिष्यने सब हाल सुनाया जब सूरिजीने एक रुइका मायावी साप बनाके राजाका पुत्रको कटाया फिर स्वयं विष उतार के सब नगरकों ओसवाल बनाये । इत्यादि यह सब मनकल्पीत झूठी दन्तकथाओं है कारण अखण्डित चारित्र पालनेवाले पुर्वधर मुनियोंकों एसे विटम्बना करनेकी जरूरत क्या अगर भिक्षा न मीले और तप करनेकी सामर्थ्य
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy