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________________ (३४) जैन जाति महोदय. छठा भाग १००० तथा सातवों भाग १२००, दशवेकालिक मूल . सूत्र १०००, मेझरनामा ३५०० गुजराती भाषा में । इस प्रकार कुल ८५०० प्रतिएँ प्रकाशित हुई। गुरु महाराज का चातुर्मास सीनोर में था । गुरु महाराज जब संघ के साथ यहाँ पधारे तो आपश्री सामने पधारे थे। संघ का स्वागत खूब धामधूम से हुआ । गुरु महाराजने इच्छा प्रकट की कि मुनीम चुनीलाल भाई के पत्र से ज्ञात हुमा है कि मोशियों स्थित जैन छात्रावास का कार्य शिथिल हो रहा है अतएव तुम शीघ्र ओशियाँ जाओ, वहाँ ठहर कर संस्था का निरीक्षण करो। यद्यपि आप की इच्छा गुरुश्री के चरणों की सेवा करने की थी पर गुरु आज्ञा को शिरोधार्य करना आपने अपना मुख्य कर्त्तव्य समझ पादग, मातर, खेड़ा, अमदावाद, कडी, कलोल, शोरीसार, पानसर, भोयणी, मेसाणा, तारंगा, दांता, कुम्भारिया __ * गुजरात विहारके बीच प्राचार्य श्री विजयनेमीमूरि आ. विजयकमलमूर्ति आ. विजयधर्मसूरि आ. विजयसिद्धिरि आ० विजयवीरसूरि आ. विजयमेघसूरि मा. विजयकमलसूरि आ० विजयनीतिसूरि आ० सगरानंदमूरि मा० बुद्धिसागरसूरि उपाध्यायजी वीरविजयजी उ० इन्द्रविजयजी उ० उदयविजयजी पन्यास गुलाबविजयजी पं० दनविजयजी पं० देवविजयजी पं. लाभविजय जी पं ललितविजयजी पं० हर्षमुनिजी शान्तमूर्ति मुनिश्री हंसविजयजी मु० कर्पूर विजयजी आदि करीबन दो सौ महात्माओं से मिलाप हुमा । परस्पर स्वागत सम्मान और ज्ञानगोष्टि हुई कई महात्मा तो उपकेशगच्छ का नाम तक भी नहीं जानते थे अतः आपत्रीने नम्रता भाव से प्राचार्यश्री स्वयंप्रभसूरि और पूज्यपाद रत्नप्रभसूरि का जैन समाज पर का परमोपकार ठीक तौर से समझाया जिस से सब के हृदय में उन महापुरुषों के प्रति हार्दिक भक्तिभाव पैदा हुमा ।
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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