________________
बालविवाह.
चरक, सुश्रुत, प्रादि वैद्यक शास्त्र में प्रारोग्यसाधन के लिये फरमाते हैं कि
अथास्मै पंचविंशति वर्षाय पोइसाश वर्षा । पत्निभाव हेत धर्मार्थ काम प्रजामाप्यतीति ॥
अर्थात् सोलह वर्ष की कन्या और पचीस वर्ष का वर होना चाहिए परन्तु हमको ऐसे शास्त्रों की पर्वाह भी तो क्या है, पहिले बड़ी लड़की से सगपण किया जाता है; बाद कुंवरजी चारपाईके पागे जितने ही क्यों न रह जाय पर शेठानियों तो अपने शेठजी को बार बार तंग कियाही करती हैं कि वीनणी बड़ी हो गई है अब लाल ( लड़क) का विवाह क्यों नहीं करते हो, कारण औरतों को जितनी हिताहित की परवा नहीं है उतनी गीतगान रंगगग गाजाबाजा और बोटी वधु (वीनणी) की अभिलाषा अधिक रहा करती है। इतना ही नहीं पर घर में बहु प्राजाय तो मैं सास बन जाऊं फिर तो बहु मेरे घरके काम किया करे, और निवृति के समय पग चंपी भी करे,
आखिर शेठजी को लाचार हो करके विवाह करना ही पड़ता है। पर अपने बालबचो के शरीर या उनके भविष्य के लिए अंस मात्र भी विचार नहीं करते हैं कि अपक्व वीर्य की नष्टता के कारण यातो अपनी सन्तान ही निर्देश हो जायगी । शायद् उनके सन्तान हो वह कैसी ? कायर कमजोर, विवेकहीन, कुरूप, और अनेक रोग ग्रसित होगी; इस लिए ही तो शासकारोंने फरमाया है कि-- . " उन पोटश वर्षायाम् । प्रातः पंच विंशतिम् । पयाधत्ते पुमान् गर्भ । कृषिस्थः सविपयते ॥