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जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा.
है कि भारत में ही नहीं किन्तु भारत के बाहिर भी प्रवासमें जैनधर्म का प्रचार आठ दिशाओं में था । उस समय इस बात का पूर्ण प्रयत्न किया गया था कि कोई देश ऐसा न रहने पावे कि जहाँ के लोग परम पुनीत जैनधर्म की छत्रछाया में सुख और शांतिपूर्वक अपने जीवन को व्यतीत करें । उपर्युक्त कथन कपोल कल्पित नहीं हैं बल्कि ऐतिहासिक सत्य है ।
१ आर्द्रकुमार नामक राजपुत्रने महाराजा श्रोणिक के सुपुत्र अभयकुमार के पूर्ण प्रयत्नसे दीक्षा ग्रहण कर प्रबल उत्कण्ठा से भारत के बाहर अनार्य देशों में अनवरत परिश्रम कर के जैनधर्म का प्रचार बहुत जोरोंसे किया था ।
२ यूरोप के प्रान्त में भूकम्प के
मध्य में आए हुए अष्ट्रिया-हंगेरी नामक कारण जो भूमिपर एकाएक परिवर्तन हुए थे उन को ध्यानपूर्वक अन्वेषण की दृष्टि से अवलोकन करते हुए कई प्राचीन पदार्थ प्राप्त हुए एवं बुडापेस्ट नगर में एक अंग्रेज के बगीचे के खोदने के कार्य के अन्दर भूमिसे भगवान महावीर स्वामी की एक मूर्ति हस्तगत हुई है जो बहुत ही प्राचीन है। इससे मानना पड़ता है कि यूरोप के मध्यस्थलमें भी जैनोपासकों की अच्छी बस्ती थी तथा वे आत्मकल्याण के उज्जवल उद्देश से भगवान की मूर्ति के दर्शन तथा पूजन कर अपने जीवन को सफल बनाकर आत्मोन्नति के ध्येय को सिद्ध करनेमें सतत संलग्न थे । इन्हीं कारणोंसे के लोग जैनमन्दिरों का निर्माण कराते थे तथा उनमें भव्य मूर्त्तियों का अर्चन करते थे ।