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________________ . जैन जातियाँका महोदय. ( २१९ ) सजनों ! मन्दिर और मूर्तियों ने जैन इतिहास पर खूब प्रकाश डाला है और इनसे जैन धर्म का गौरव बढ़ा है तथा इससे यह भी प्रकट होता है कि पूर्व जमाने में जैन धर्म भारत के कोने कोने ही नहीं पर यूरोप तक किस प्रकार देदिप्यमान था । क्या हमारे स्थानकवासी भाई इन बातों पर गम्भीरतापूर्वक विचार नहीं करेंगे कि जैनधर्म में मूर्ति का मानना कितने प्राचीन समय से है तथा मर्ति पूजना प्रात्मकल्याण के लिये कितना आवश्यक निमित्त है । इतिहास और जैनशास्त्रों के अध्ययन से यही सिद्ध होता है कि मूर्तिपूजा करना श्रात्मार्थियों का सबसे पहला कर्त्तव्य है। जैन जातियों का महोदय। भगवान गवान महावीर स्वामीसे लेकर महाराज सम्प्रति एवं में प्रसिद्ध नरेश खारवेल के शासनकाल पर्यन्त जैनधर्म 1/ का प्रचार भारत के कोने कोने में था। ऐसा कोई भी प्रान्त नहीं था कि जहाँ के लोग जैनधर्म को धारण कर उच्च गति के अधिकारी न होते हो। पाठकों को शात होगा कि प्रातः स्मरणीय जैनाचार्य स्वयंप्रभसूरी तथा पूज्यपाद भाचार्य श्री रत्नप्रभसूरीने जिस महाजन वंश को स्थापित किया था वह भी दिन ब दिन उन्नति की ओर निरन्तर अग्रसर हो रहा था। इतना ही नहीं पर इतिहास साफ साफ सिद्ध कर रहा
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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