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________________ (५४) श्री जैन बाति महोदय प्र. चोषा. अवसांन भंति पायो न को, पातिमाह परगट कहुँ। . . मेरू नरिंद संभरि भयुं, तुव जस करि कंकण बहू. ॥ ५ ॥ उदधि बार लगि प्रखल, भगति परवरी हित । प्रह्मा कोट पुतली असुर प्रापहा अगम गति ॥ . महा बेगम के बैर, लुथ लथवथ गहि लुटत । जो न हुति क्रम दसा, हीयो ततखिन फुनि फुटत ॥ भेरू न उबारत खगतलि, अतुर बचन अनदिन सह। . उचरति उभय सरसुरि निसुनि, तब तुहि तीरथ कुंण कहत ।। भेरुशाहका भाइ रामाशाहकी कीर्ति नेक निजरि करै साहिआलम, राम च्यारि पतिसाहां मालिम । बहतरि पाल मेवात वसावें राजकुली निति सेवा प्रावै. ॥१॥ - छंद. सेवै कछवाहा, जोधक जादौ, भारथ जोगै भीछ भला । निरवांण चौहाण चंदेल सोलंखी, देल्ह निसाण जिके दुजला ॥ बड गुजर ठाकुर छेछर छीभर, गौड गहेल महेल मिली । दरबारि तुहारै रामनरेसुर, सेवै राज छतीस कुली. ॥१॥ जे तुवर तार पंवारक सोढा, साखल खीची सोनगरा । राठौड जीके रायजादा रावत, स्वामि कामि संग्राम खडा ॥ जे रावल राजा रांण राजवी, कोडि कला मंडलिक मिली। दरबारि तुहारै रामनरेसुर, सेवै राज छतीस कुली. ॥२॥
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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