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________________ (१२) जैन जाति महोदय प्रकरण छट्ठा. उन २ अभिमानियोंने अपनि सत्ता का इस कदर दुरूपयोग करना' सरू कर दिया कि जो अपने स्वधर्मियों के साथ चिरकाल से रोटी बेटी व्यवहार चला आया था. जिसको बन्ध करने में ही अपना गौरव समझ लिया. इतना ही नहीं बल्कि जिन आचार्यश्रीने प्रथक २ वर्ण-जातियों में विभाजित जनता को एक भावी बना के उनका आपस में संबन्ध जोड दिया था और वह चिरकाल से आज प्रथक् प्रथक् बन गया और एक दूसरों को आपस मे भिन्न समझने लग गये । इस कुसम्य के जन्मदाता सरू से तो समाज के अभिमानी अग्रेसर ही थे बाद मे तो यह चेपी रोग देश, प्रान्त, ग्राम और घरघरमे फेल गया और दो चार पीढियें वितजानेपर तो उनके ऐसे संस्कार दृढ हो गये कि हम आपसमे कभी एक थे ही नहीं अर्थात् हम सदैव से अलग ही थे यह भिन्नता यहाँ तक पहुँच गई कि एक दूसरी से घणा तक भी करने लग गये तथापि हमारे प्राचार्यो कि कार्यकुशलता से उनके रोटी व्यवहार एक ही रहा इस का मतलब यह होना चाहिये कि उन आचार्योने यह सोचा होगा कि आज इनके आपस मे वैमानस्य है तथापि अगर रांटो व्यवहार सामिल रहेगा तो कभी फिरसे विशाल भावना मानेसे तुटा हुवा कन्या व्यवहार पुनः चलु हो जायगा ? शायद उन महर्षियों के अत्युतम विचार इस समय प्रेरणा कर रहा हो तो ताजुब नहीं है। एक महाजन संघरूपी संस्था तुट कर तीन विभाग में विभाजित हो गई और उन तीन टुकडो से आगे चलकर अनेक
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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