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९-१०-११ वा तीर्थकर.
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( १० ) श्री शितलनाथ तीर्थकर-अच्युत देवलोकसे बैशाख वद ६ को भद्दीलपुरनगर के राजा द्रढरथ की नंदा राणि की कुक्षीमें अवतीर्ण हुवे क्रमशः माघ वद १२ को भगवान का जन्म हुवा । ९० धनुष्य, सुवर्णकान्ति श्रीवत्सचिन्ह विभूषित शरीर, पाणिग्रहन व राजपद भोगव के माघ वद १२ को एक हजार पुरुषों के साथ दीक्षा ग्रहन कर तप करतें को पौष वद १४ को कैवल्यज्ञान हुवा । नंदादि १००० ० ० मुनि सुयशादि १००००६ साध्वियों २८९००० श्रावक ४५८००० श्राविकाओं की सम्प्रदाय हुई। सर्व एक लक्ष पूर्व सर्वायुष्य पूर्ण कर वैशाख वद २ को
ऋगवेद, युजुर्वेद, शामवेद, अथर्ववेद नाम रख दीया. इन वेदो में भी समय समय परिवर्तन होता गया था, जिस कीसी की मान्यता हुइ वह भी इनमें श्रुतियों मीलांते गये. अन्तमें यह छाप ठोक दि कि वेद ईश्वरकृत है और इन वेदो को न माने वह नास्तिक हैं. वेदो में विशेष श्रुतियों हिंसामय यज्ञों के लिये हि रचि गई है. जिस्में भी याज्ञवल्क्य मुलसा और पिप्पलादने तो नरमेघ, मातृमेघ, पितृमेघ, गजमेघ, अश्वमेघ तक का विधि-विधान टोक मारा और एसा यज्ञ किया भी था. वेदो में "याज्ञवल्केतिहोवाच" यानि याज्ञवल्क्य एसा कहता है और उपनिषदों में कहां कहां पिप्पलाद का भी नाम आता है. . आगे मुनिसुव्रतनाथ के शासनान्तर में वसुराजा और परवतने महाकाल व्यन्तर देव कि सहायता से यज्ञकर्म को यहां तक बढाया था कि जिसको लिखना ही लेखनि के बाहर है. आज अच्छे अच्छे इतिहासज्ञ ईसका निर्णय कर चुके है कि भगवान् महावीर और महात्मा बुद्ध के पहिले भारतवर्षमें यज्ञों कि हिंसा-रूदर से नदियो चलती थी. इन दोनों महात्माओंने ही प्रपनि बुलंद अवाज से जनता को जागृत कर हिंसा कर्म को दूर कर शान्ति स्थापन करी थी. उपर बताये याज्ञवल्क्य और वसु-पर्वत का सम्बन्ध त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित्र में सविस्तर है ।