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________________ ( ३० ) जैनजाति महोदय. मगर का लञ्छनवाला शरीर - पाणिग्रहन राजपद भोगव के एक हजार पुरुषों के साथ मृगशर वद ६ को दीक्षा, कार्तिक शुद्ध ३ को कैवल्यज्ञान. बरहादि २००००० मुनि, वारूणी आदि २२०००० साध्वियों, २२६००० श्रावक, ४७१००० श्राविकाओं कि सम्प्रदाय हुई. दोलत पूर्व सर्वायुष्य पूर्ण कर भाद्र शु०६ को सम्मेतशिखरपर मोक्ष पधारे, नौक्रोड सागरोपम शासन प्रवृत्तमान रहा * इस समय हुन्डावसर्पिणी काल का महाभयंकार असर आप का शासनपर इस कदर का हुवा कि स्वल्पकाल से ही शासन का उच्छेद हो गया अर्थात् सुविधिनाथ भगवान मोक्ष पधारने के बाद थोडे ही काल में मुनि, आर्याए व श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध संघ व सत्यागम और उनकि उद्घोषना करनेवाले लोप हो गये । जैन ब्राह्मणों कि मान्यता जैसे राजा-महाराजा करते थे वैसे ही प्रजा भी करती थी, पर उस समय उनमें पूजा सत्कार का गुण था. इस समय शासन उच्छेद होने से उन ब्राह्मणों में स्वार्थवृत्ति से जो भगवान् आदीश्वर के उपदेश से भरतचक्रवर्तीने चार आर्यवेद जनता का कल्यान के लिये बनाये थे उनमें इतना तो परिवर्तन कर दिया कि जहां नि:स्वार्थपने जनता का कल्यान का रहस्ता था वह स्वार्थवृति से दुनियों को लुंटने के लिये हुवा और नये नये ग्रन्थादि बना लिया. कारण उस जमाना कि जनता ब्राह्मणों के हि आधिन हो चूकी थी, सब धर्म का ठेका ही ब्राह्मणभासोंने ले रखा था; तब तो उन्होंने गौदान, कन्यादान, भूमिदान आदि का विधि-विधान बना के स्वर्ग कि सडक को साफ कर दी; इतना ही नहीं किन्तु एसे ही ग्रन्थ बना दीया कि जो कुच्छ ब्राह्मणों को दीया जाता है वह स्वर्ग में उनके पूर्वजों को भीलजाता हैं. ब्राह्मण हैं सो ही ब्रह्मा है इत्यादि. क्रमशः धर्म्मनाथ भगवान् का शासन तक जैनधम्मं स्वल्पकाल उदय और विशेषकाल ग्रस्त होता रहा. इस सात जिनान्तर में उन ब्रह्मणभासों का इत्तना तो जोर बढ गया कि इनके आगे कीसी कीं चल ही नहीं सक्ति थी. ब्राह्मणों को इतना से ही संतोष नहीं हुवा था पर उन आर्यवेदो का नाम तक बदल के उनके स्थानपर
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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