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दम्पति जीवन.
(१२५) क्रूर हो जिस के साथ जिन्दगी तक का सम्बन्ध जोडा जाता है उन को पूर्वोक्त बातों देखने का अधिकार नहीं यह कितना अन्या य है ? माता पिताने जिस के साथ बान्ध दी उस के साथ जाना पड़ता है अगर इस में हा, ना, करे तो वह निर्लज्जों की गिनती में गिनी जाती है इसी कारण से भाज दम्पति जीवन की दुर्दशा हो रही है दम्पति जैसी दुनिया में कोई वस्तु नहीं है पर आज दम्पति में न प्रेम है, न स्नेह है, न श्रद्धा है न विनय विवेक है प्रत्युत जहां देखो वहां द्वेष इर्षा क्लेश कदाग्रह ही पाया जाता है यह कैसा संसार ! यह कैसा शान्तिमय जीवन ! यह कैसा धर्ममय जीवन ! इन सब का कारण स्त्री शिक्षा का प्रभाव और माता पिताओं की स्वच्छन्दता और स्वार्थप्रियता ही है कि जिन्होंने संसारभर को लेश की भट्ठी में होम दिया है । वर्ष बिगडा मास विगडा, दिन विगडा घडीघडी । वीर्य विगडा सन्तान बिगडा, जीवन बिगडा रडीरडी।।१।। रीत बिगडा रिवाज बिगडा, दम्पति बिगडा लडी लडी; गृह विगडा धर्म बिगडा, दुनिया बिगडी खडी खडी ॥ १ ॥
जिस स्त्री समाज के लिए आज उपेक्षा की जाती है वह स्त्री समाज संसार का अर्धाङ्ग है क्या आधा अंग तोड़ कर के फेंक देने से संसार सु चारू रूप से चल सक्ता है ? हरगिज नहीं जिस स्त्री को आज हम पैरों की जूती समझ कर उस का अनादर करते है वही स्त्री ग्रह लता है अर्थात् कल्पलता है जो कार्य पुरुष