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________________ आचार्यश्री रत्नप्रभसूरि. ( ८३ ) ( १ ) राजाओं और महाराजाओं के दरबारों और सभाओं आदि में जा कर सज्ञान का प्रचार कर जनता को अज्ञान पाखण्ड और मिध्यात्व को दूर करना । ( २ ) जैन मन्दिरों और विद्यालयों की प्रतिष्ठा कराना । ( ३ ) जगह जगह पर प्रतिबोध देकर नये जैनी बनाना । ( ४ ) श्रमण संघ में वृद्धि करना । उपरोक्त कार्यों के अतिरिक्त भी आपने अनेक कार्य सम्पादित किये तत्कालीन भारत में ठौर ठौर अहिंसा धर्म का मंडा फहराया था । एक वार आचार्य महाराज लोहाकोट नगर में विराजमान थे और व्याख्यान में तीर्थकरों की वर्त्तमान चौविसी का वर्णन चल रहा था । जब तिर्थकरों के निर्वाण स्थळ का प्रसंग चल रहा था तो आचार्यश्रीने फरमाया कि बीस तीर्थकरों का निर्वाण एक ही परम पवित्र भूमि पर हुआ । उस स्थल का नाम सम्मेतशिखिर गिरि है । यह भूमि पूजनीय एवम् वन्दनीय है । उस पवित्र भूमि का स्पर्श करने से पापी, अधर्मी और अवनत प्राणियों का उद्धार होता है । सचमुच वह बड़ा अहोभागी है जो ऐसी अद्वितीय भूमि में जाकर अपने पापों से छुटकारा पाता है। पूर्व काल में कई राजा, महाराजा, और सेठ साहुकार चतुर्विध संघ के सहित जाकर यात्रा करते थे । संघ बहुत बड़े निकाल थे और अपने साधर्मी भाइयों को भी इस परम पुनीत यात्रा करने का सुअवसर देते थे | व्याख्यान में इस प्रकार का वर्णन सुनकर श्रोताओं के
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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