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जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा.
वना
उसे भान हुआ कि मुझ भिक्षुक को जैन मुनि बन कर उच्च भा - के रूप में यह राजपुत्र का पद मिला है तो इन्हीं का प्रताप है । उसी समय राजा सम्प्रति नीचे आता है और आचार्यश्री के चरणों में मस्तक झुकाता है । राजाने आचार्यश्री से पूछा क्या आप मुझे पहचानते हैं । आचार्यश्री ने उत्तर दिया कि आप को कौन नहीं पहिचानता ! आप नगर के स्वामी हैं । राजाने पूछा कि भगवन् मैं हूँ कौन ? पूर्व भव का वृत्तान्त कुछ बताइए ताकि मेरी शंका का समाधान हो जावे । आचार्यश्रीने श्रुतज्ञान लगा कर देखा कि यह वही भिक्षुक है उसके पूर्वभव के सब हाल सुना दिया । राजाने जब आचार्य महाराज के मुख से सब वृत्तान्त जाना तो वह कहने लगा कि जिस धर्म के प्रताप से मैंने राज प्राप्त किया है वह सब राजऋद्धि आपको समर्पित है । आचार्यश्रीने कहा कि हमें राजऋद्धि की आवश्यक्ता नहीं है। हमारा तो यही आदेश एवं सलाह है कि जिस धर्म के प्रताप से यह विभव मिला है उसी धर्म के प्रचार में सब द्रव्य - व्यय करो । देश और विदेश में जैन धर्म का प्रचार करो । राजा सम्प्रतिने जिस प्रकार से जैनधर्मका अभ्युदय एवं प्रचार किया था उसका सारा वृतान्त पाठकों को नरेशों के वृतान्त का प्रकरण में विस्तृत मिलेगा ।
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आचार्य सुहस्ती सूरि राजा सम्प्रति के भक्ति के वश हो राज पिण्ड ग्रहण किया करते थे । क्यों कि राजा सम्प्रति बारह व्रतधारी महान् प्रभाविक श्रावक था । उसने बाहरवाँ व्रत को पालने के निमिच मुनिराज से आग्रह किया । आचार्यश्री