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सूरीश्वरजी और सम्प्रति राजा। . (१४३) ने बाहरवें व्रत का लाभ देने के निमित्त ही राजपिण्ड ग्रहण करना प्रारंभ किया था । ( यह जिक्र आर्य महागिरि के मोजुद गी समय की है) जब यह बात आचार्यश्री महागिरि को विदित हुई तो उन्होने आचार्य सुहस्ती सूरि को उपालम्भ दिया कि तुम गीतार्थी हो कर राजपिंड कैसे भोग रहे हो ? तब श्राचार्य सुहस्ती सूरिने नम्रता पूर्वक कहा कि यह राजा बारह व्रतधारी पक्का श्रावक तथा जिन शासन का प्रभाविक व्यक्ति है । यदि मुनि इसके यहां भोजन न लें तो इसके बाहरवें व्रत के पालन की क्या सुविधा हो सकती है । जो मुनि ऐसे श्रावक के यहां का शुद्ध आहार विधिपूर्वक लेते हैं अनुचित नहीं करते । वस इससे ही दोनों आचार्यों के
आपस में मन मुटाव हुआ, मतभेद का बीज बोया गया और आगे चल कर जैन मत के दो पक्ष श्वेताम्बर और दीगम्बर हुए । इस फूट से जिन शासन की बहुत हानि हुई और होती जा रही है । • कलियुग का प्रभाव जिन शासन पर ऐसे ही अवसरों पर पडता है।
आचार्यश्री सुहस्ती सूरिने सम्प्रति नरेश की सहायता से जैन धर्म का आर्य और अनार्य देश में खूब प्रचार किया। उस समय में जगह जगह अनेको मन्दिर बनवाए गए थे। आचार्यश्रीने अपना सारा जीवन जैन शासन की सेवा में बिताते हुए अपने पट्ट पर भार्या सुस्थित और सुप्रतिबद्ध ऐसे दो आचार्यों को नियुक्त कर पांच दिन के अनशन और समाधीपूर्वक आलोचना करके वीरात् २६१ सम्बत् में स्वर्गधाम सिधाए । सम्प्रति नरेशने आपकी यादगार में एक बडा स्तूप भी बनवाया ।