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जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा.
मिथ्यारूढीयों का निकन्दन कर नये बनाये हुए जैनोंकी संख्या में वृद्धि आदि कार्यों की मेट होने लगी। अर्थात् एक-दूसरे के कार्यका अनुमोदन कर परस्पर उत्साह में वृद्धि करने लगे । धर्मस्नेह और धर्मोन्नति विषयक वार्तालाप श्रवण कर प्रत्येक मुनि के हृदयमें जैन धर्म प्रचार करने की इस कदर बिजली चमक उठती थी कि अपना सारा जीवन ही जैन धर्म प्रचार में लगा देना यही वास्तवमें जीवनकी सफलता समझने लगे । बात भी ठीक है कि इसी भावनाने सारे विश्व में अहिंसा धर्मका प्रचार किया, इसी भावनाने वर्ण या जातिकी जंजीरे तोडकर उच्च-नीच का भेद मिटाया, इसी माना जनताकी इतस्ततः बिखरी हुई शक्तियों को एकत्र कर महाजन संघ' की स्थापना की, इसी भावनानें जनता में प्रेम - ऐक्यका बीजारोपण कर अंकुर प्रगटाया, इसी भावनाने भूमण्डल पर जैन धर्मका अद्वितीय झंडा फरकाया, इसी भावनानें जैनधर्मानुयायियोंकी संख्या लाखोंकी तादाद में थी उनको करोड़ों की संख्या तक पहुंचा दिया. वही भावना आज हमारे श्रमण संघके हृदय में विशेष रुप धारण कर प्रेरणा कर रही है । इत्यादि उस समयके परोपकार परायण जैनाचार्यों के उच्च आदर्शविचार लिखना हमारी लेखिनीके बहार है इतना ही नही परन्तु बुद्धि के अगम्य है ऐसा साफ २ कह देना अनुचित न होगा । हम दावे के साथ कह सके हैं कि नबनक जैनाचार्यों के हृदय में ऐसी भावना पैदा न हो तबतक जैनधर्मका प्रचार और उन्नन्ति होना बहुत मुश्किल है। जिन महानुभावोंने अनेकानेक कठीनाईयों
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