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श्री जैन जाति महोदय प्र० चोथा.
आज विक्रम की पन्दरखी सदी से प्राचीन कोई शिलालेख नहीं मिलता है पर श्राज उनको अर्वाचीन मानने का साहस किसी ने भी नहीं किया है इसका कारण यह है कि जैसे श्राज प्राचीनता का रक्षण किया जाता है वैसा पूर्व जमाना मे नहीं था इतनाही नहीं बल्फे पुरोधा नन्दिरों का स्मारक कार्य पुनः पुनः कराया जाता था उस समय प्राचीनता की बिलकूल गरज न रखते थे । एक जमाना एसा भी गुजर गया था कि मुसलमानों के राजत्व काल में बहुत से मन्दिर मूर्तियों तोड फोड दी गई थी । उसमें भी प्राचीनता के चिन्ह शिलालेख व शील्पकला नष्ट हो गइ थी । जो कुच्छ रही थी वह स्मारक कार्य कराने मे लुप्त हो गई। इस हालत में प्राचीन शिलालेखादि चिन्ह न मिलने पर उस स्थान व ज्ञातियों को अर्वाचीन नहीं कह सकते है ।
कुच्छ समय के लिये मान लिया जाय कि प्रोसवाल ज्ञाति के प्राचीन शिलालेख न मिलनेपर उस ज्ञाति को हम अर्वाचीन मानले पर यह तो निश्चय मानना पडेगा कि विक्रम कि दशवी सदी पहिले जैन श्वेताम्बर हजारो प्राचार्य और लाखों क्रोडो मनुष्य जैन धर्म पालते थे हजारों लाखों जैन मन्दिर थे. जैनाचार्य और जैन मन्दिर विशाल संख्या मे थे तव उनके उपासक विशाल क्षेत्रमें होना स्वाभाबिक बात है पर आज हम शिलालेखों पर ही श्राधार रखे तो किसी भी जैनधर्म पालनेवाली ज्ञातियोंका शिलालेख नही मिलता है इसपर यह तो नहीं कहा जा सकता है कि जिस समय के शिलालेख नहीं मिले उस समय जैन धर्म पालनेवाली कोई भी ज्ञाति नहीं थी या किसीने जैन