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________________ ओसवाल ज्ञाति समय निर्णय. (38) मन्दिर मूर्तियों नहीं बनाइ थी । जैसे जैन ज्ञातियोंके प्राचीन शिलालेखों के प्रभाव है वैसेही जैनेतर ज्ञातियोंकी दशा है, तात्पर्य यह है कि किसी ज्ञातियोंका प्राचीन-अचिनका आधार केवल शीलालेखपर ही नही होता है पर दूसरेभी अनेक साधन हुआ करते है कि जिसके जरिये निर्णय हो सके । (३) ओशियों मन्दिरके शिलालेख के विषयमें अव्वलतो वह शिलालेख खास महावीर मन्दिर बनाने का नहीं है पर किसी जिनदासादि श्रावकने महावीर मन्दिरमें रंगमण्डप बनाया जिस विषय का शिलालेख हैं । रंगमंडपसे मन्दिर बहुत प्राचीन है और मन्दिरमें जो महावीर प्रभु कि मूर्त्ति विराजमान है वह वही प्राचीन मूर्ति है कि जो देवीने गाय के दुद्ध और वेलुरेतिसे बनाइ और प्राचार्य रत्नप्रभसूरिने वीरात् ७० वर्षे उनकी प्रतिष्टा करी थी दूसरा उस 'लेखमें सवाल बनाने का कोई जिक्र तक भी नहीं है अगर उस समय आसपास में सवाल बनाये होते तो जैसे पडिहार राजाओंकि बंसावलि ओर उनके गुण प्रशंसा लिखी है उसी माफिक श्रोसवाल बनानेवाले श्राचार्यो कि भी कीर्त्ति वगैरह अवश्य होती पर एसा नहीं वल्के प्रतिष्ठित श्राचार्यका नामतक भी नहीं है उस शिलालेखसे तों उलटा यह सिद्ध होता है कि उस समय अर्थात् वि. स. १०१३ में उस नगरका नाम ओशियों नहीं पर उपशपुर था और उपलदेव पँवारका राज नहीं पर सेंकडो वर्षों से पडिहारोंका राज था. आगे हम ओशियोंका मन्दिर भोर शिलालेखकी तरफ हमारे पाठकोंके चित्तको प्राकर्षित करते है - पट्टावलियों वंसावलियोंसे या पुराणे चिन्हसे ज्ञात होता है कि यह उपकेशपुर इतना
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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