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(२) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा.
भाचार्य श्री यक्षदेवसूरि महान् प्रभाविक, श्रुतज्ञान के स. मुद्र, स्वमत-परमत के .सर्व शास्त्रों के प.रगामी, लब्धिसंपन्न, अनेक चमत्कारीक विद्याओंसे विभूषित, सूर्यसम तेजस्वी, चंद्रकी भांति शीतल, मेरु समान निष्पकम्प, समुद्रवत् गंभीर, सिंह सदृश गर्जना मात्रसे वादिरूप हस्तियों के मदको चकचूर करने में चतुर, मिथ्यात्त्व, कुमति, व कुरुढीयों का उन्मूलन करनेमें कुशल
और 'अहिंसा परमो धर्मः' का प्रचार करनेमें बडे ही प्रवीण ये इतना ही नहीं परन्तु आपके अज्ञावति हजारों साधु-साध्वीयां सह इस भूमण्डल पर विहार कर चारों और जैन धर्मका झंडा फरकानेंमे बडे ही समर्थ थे।
आपश्रीके पूर्वजोंने जो वाममार्गियोंके दुगचार रूपी किल्ले को निर्मूल कर सदाचार का साम्राज्य स्थापन किया था अर्थात् महाजन वंशकी स्थापना की थी उनका पोषण व वृद्धि करनेमें शाप श्रीमान् बड़े ही प्रयत्नशील थे; कारण जिन महापुरुषों के असीम परिश्रम द्वारा जिस संस्था का जन्म हुआ हो उनका रक्षण पोषण और वृद्धि करना उनके लिये एक स्वाभाविक बात थी। अर्थात् जैन धर्मका प्रचार करनेकी आग उन महापुरुषों के हृदय ही नहीं पर नस २ और रोम २ में ठांस २ के भरी हुई थी।
प्राचार्य श्री कन्कप्रभसूरि कई अरसोंसे उपकेशपुरकी तरफ विहार कर जनताके उपर उपकार कर रहे थे तब प्राचार्य भी यक्षदेवसूरि कोरंटपुर, भीनमाल, चंद्रावती और पद्मावती वगैरह अर्बुदाचलके पासपासके प्रदेश में विचरते हुए हजारों भवि