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जैन जाति महोदय प्र० प्रकरण.
भाषाकविने बहुत ही ठीक कहा है । सज्जनो ! श्राप जानते हैं मैं उस वैष्णवसम्प्रदायका प्राचार्य हूं यही नहीं मैं उस सम्प्रदायका सर्वतोभावसे रक्षक हूं और साथही उसकी तरफ कड़ी नज़र से देखनेवाले का दीक्षकभी हूं तो भी भरी मजलिस में मुझे यह कहना सत्य के कारण श्रावश्यक हुआ है कि जैनों का ग्रन्थसमुदाय सारस्वत महासागर है उसकी प्रन्थसंख्या इतनी अधिक है कि उन प्रन्थों का
सूचिपत्र भी एक निबन्ध होजायगा.. . उस पुस्तक समुदाय का लेख और लेख्य कैसा गंभीर, युक्तिपूर्ण, भावपूरित, विषद और गाध है । इसके विषयमें इतनाही कहदेना उचित है कि जिन्होंने इस सारस्वत समुद्र में अपने मतिमन्थान को डालकर चिर प्रान्दो - न किया है वेही जानते हैं ....
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(१२) तब तो सज्जनों ! श्राप अवश्य जान गए होंगे कि जैनमत तब से प्रचलित हुआ है जब से संसार सृष्टि का आरम्भ हुआ । (१३) मुझे तो इसमें किसी प्रकार का उजू नहीं है कि जैन दर्शन वेदान्तादिदर्शनों से भी पूर्व का है इत्यादि......... ।
भारतगौरव के तिलक, पुरुषशिरोमणि, इतिहासज्ञ, माननीय पं० बालगंगाधर तिलक, भूतसम्पादक,
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केसरी
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इनके ३० नवम्बर सन् १९०४ को बड़ोदा नगरमें दिये हुए व्याख्यान से—