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(२) वृद्ध विवाह का प्रचार.
जैन जातियों में वृद्धविवाह की वासना तक भी नहीं थी कारण वृद्धावस्थामें जैन लोग केवल आत्मकल्यान की पवित्र भावना रखते हुए स्वपत्नि का भी त्याग कर, धर्म कार्य में ही अपना जीवन सफल बनाते थे जब युवकावस्थामें भी जैनलोग ब्रह्मचर्य व्रत के लिये अमुक दिनों की मर्यादा रखते हैं फिर तो वृद्ध वय का तो कहना ही क्या? विषय कषाय से निवृति होना तो जैनों का परम कर्तव्य ही है जिसमें भी वृद्धवय के लिए तो शास्त्रकार खूब जोर देकर फरमाते हैं कि उन को सर्वथा प्रकारसे ब्रह्मचर्य व्रत पालन करना चाहिए और इसी ब्रह्मचर्य के तप तेज और पुन्य प्रभाव से ही जैन जातियों' का महोदय हुआ था।
कालान्तर धनवानों के मस्तक में विषयवासन का कीड़ा पा घुसा जिसने ब्रह्मचर्य के महत्व को भुला दिया जिसके फल स्वरूपमें अहिंसा परमोधर्मः यानि दया के हिमायतदारोंने जैन कोममें वृद्ध विवाहरूपी रोग फैलाया । जबसे इस महारोग ने समाज में पग पसारा किया तब से ही समाज की बुरी दशा का मंगलाचरण हुआ आज क्रमसः समाज अधोगती को जा रहा है वात भी ठीक है कि जिस समाज में कीड़ीमकोडी की तनोजान से रक्षा की जाती है उसी समाज में सेकडों हत्याकाण्ड हो, हजारों गर्भापात हो, अनेक बाल विधवाए दुराशीष देती हो, असंख्य गुप्त