SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 456
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ देवि को प्रत्तिबोध. (८५) मैं चमुंडा देवि हुँ आपने मेरा करडका मण्डका छोडाया जिस्का यह फल है सूरिजीने कहा कि इस फल से तो मुझे नुकशान नहीं बल्कि फायदा है पर तु तेग दील में विचार कर कि उस कग्डका मरडका का भविष्य में तुमे क्या फल मिलेगा पूर्वोपार्जित पुन्य से तो यहां देव योनि पाई है पर पशु हिंसारूप घौरपाप से संसार भ्रमण करना अर्थात् तीर्यच हो नरक मे जाना पडेगा इत्यादि सूरिजी उपदेश दे रहे थे। उस समय चक्रेश्वरी आदि देवियों सूरिंजी के दर्शनार्थी आइ थी चमुंडा और सूरिजी का संवाद देख चमुंडा को ऐसे उच्च स्वर से ललकारी, जो कि देवि लज्जित हो अपनि वेदना को वापिस खांच सूरिजी के चरणार्विद में वन्दन नमस्कार कर अपने अज्ञानता से किया हुवा अपराध की माफि मांगी, वहां पर बहुत से लोग एकत्र हो गये थे । - श्री मच्चिका देवी सर्व लोक प्रत्यक्ष श्री रत्नप्रभाचर्येः प्रतिबोधिता " श्री उपकेशपुरस्था श्री महावीर भक्ता कृता सम्यक्त्व धारिणी संजाता अस्तां मांसं कुशममयि रक्तं नेच्छति कुमारिका शरीरे अवतीर्ण सती इति वक्ति भो मम सेवका अत्र उपकेशस्थं स्वयंभू महावीर. बिंबं पूजयति श्री रत्नप्रभाचार्य उपसेवितिं भगवान् शिष्य प्रशिष्य व सेवति तस्याहं तोषंगच्छति । तस्य दुरितं दलयामि यस्य पूजा चित्ते धारयामि" सब लोगों के सामने सच्चिका देवि ( अर्थात् चमुंडा देविने पहला सूरिनी को वचन दीया था कि आप के यहां विराजना से बहुत उपकार होगा वह वचन सत्य कर बतलाने से सरिजीने चमंडा
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy