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(१७८) जैन जाति महोदव प्रकरण छहा. पन्योन्य प्रचलीत सरल भाषा में प्रकाशित कर चुके हैं. और सरल भाषा होने से उन का प्रचार भी काफी हो रहा है जब हमारे आगमोद्वारकोंने पुराणी भाषा को वैसी की तैसी लिखारों के पास प्रेस कोपी करवा कर के उन आगमों को मुद्रित करवा जैन लायब्रेरियों और मुनियों के भंडारों में सुरक्षित बना दिए पर उन से पब्लिक जनताने कितना लाभ उठाया, जैन साहित्य का कितना प्रचार हुआ साहित्य शंसोधक यूरोपिअन लोगोंने उस को हाथ में लिया या नहीं लिया इस की पर्वाह किस को है ? आज तो अपने खुद के जीवन चारित्र लिखाने की मारोमार लग रही है, या पुराणे चर्चात्मक साहित्य जो केश वृद्धिकारक होता है, उस को प्रकाशित करवा कर समाज में अशान्ति फैलाइ जा रही है । या कोइ एक ने पंच प्रतिक्रमण की किताब छपाई तब दूसरेने उस में पांच सात स्तवन स्वाध्याय न्यूनाधिक कर अपने नाम की निशानी ठोक देते हैं यदि कुछ भी न हो तो पांच स्तवन किसी पुस्तक से और पांच किसी अन्य किताब से लेकर अपने नाम से किताब छपा कर के आप साहित्योद्धारक बन जाते हैं पूज्य गुरुदेवों ! आप से एक प्रान्त न कूट तो भी आप अपना अमूल्य जीवन व्यर्थ न खोवे पर जैन तत्वज्ञान अनेक देशों की भन्योन्य भाषाओं में मुद्रित करवा कर जनता के सन्मुख रखें कि आप का उत्तम शान विश्वव्यापि बन जावे । यद्यपि साहित्यरसीक मुनिप्रवरों के प्रयत्न से साहित्य का कुछ प्रचार हुआ है तथापि आज इस कार्य की प्रत्यावश्यक्ता है और यह कार्य हमारे गुरुदेवों पर ही निर्भर है।