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हमारे गुरुदेवों का शास्त्रार्थ (१७९) हमारे गुरूदेवों का शास्त्रार्थ
हमारे पूर्व महर्षियोंने बडी बडी राज सभागों में शालार्थ कर के जैन धर्म का विजयी डंका बजाया था और उस सत्यवा का प्रभाव राजा महाराजाओ और पब्लिक पर भी अच्छा पडता था यह सब उस संवाद का ही फल था। वितण्डांबाद उन महापुरुषों से हजार कोस दूर रहता था आज हमारे शास्त्रोद्धारकों की अभ्यक्षता में सैंकडों लोग जैन धर्म पर असत्याक्षेप कर रहे हैं कोई तो मांस की अदि करनेवाले जैनों को बतलाते हैं, तो कोई जगत्पूज्य भगवान महावीर प्रभु पर व्यभिचार के दोष लगा रहे हैं कोई कलिकाल सर्वज्ञ भगवान हेमचन्द्रसूरि पर अनुचित आक्षेप कर रहे हैं कोई जैनों को म्हलेछ और नास्तिक के नाम से पुकार रहे हैं, इत्यादि उन के लिए तो हमारे सूरीश्वरजीने क्षमा व्रत धारण कर लिया है जब आपस का काम पडता है तब अखबारों के कालम के कालम काले कर देते है या उछृखल किताबें छपवा कर समाज में आग की चिनगारियों लगा देते हैं आपस में नोटीसो और शास्त्रार्थ की चेलेंजें दी जाती है आज मुट्ठीभर जैन कोम के अन्दर जितना द्वेष है उतना शायद् ही किसी दूसरी कौम में होगा ? क्या हमारे गुरूदेव परस्पर के वितण्डावाद को दूर रक्ख अन्य लोगों के किए हुए मिथ्याक्षेपों का उत्तर देने को या शास्त्रार्थ करने को कटिबद्ध तैयार होंगे ?