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( १८०) जैन जाति महोदव प्रकरण कल्या.
हमारे गुरूदेवों का संग्रहकोश
पूर्व जमाने में हमारे साधु महात्मा इतने तो निस्पृही ये कि वे प्रायः जीर्ण वस पात्र वगेरह से अपनी जीवन यात्रा पूर्ण कर लेते थे, और पुस्तकों विगेरह लिखते थे वे भी तमाम भीसंघ के अधिकार में सुप्रत कर देते थे, पर वे स्वयं ममत्व भाव नहीं रखते थे तब ही तो उन का प्रभाव. संसार भर में पडता था और उन को पक्षी की प्रोपमा इस लिए दी जाती थी कि पक्षी स्थानान्तर गमन समये अपनी पांखों लेकर उड जाते हैं वैसे ही मुनिवर्ग भी अपने विहार समय भंडोपकारण सब साथ ले जाते थे। उन को किसी प्रकार का प्रतिबंध न होने से वे भारत के चारों
ओर घूम कर धर्म प्रचार किया करते थे, माज उस निस्पृहीता का इतना तो रूपान्तर हो गया है कि विचारे साधारण लोग कबी एक चतुर्मास करवाते हैं तब उसके खर्चे से ही गृहस्थ लोगों के नाक में दम आजाता है कि दूसरी बार चौमासे का नाम लेना ही भूल जाते हैं, सत्य लिखना कदाच दुनिया निन्दा के रूप में न समझ से वास्ते यहाँपर विशेष उल्लेख करना मैं ठीक नहीं समझता हुँ पर इस पुद्गलीक प्रतिबंध से वे अन्य प्रान्त में विहार तक नहीं कर सक्ते हैं। आज कल भन्योन्य धर्मकार्यों की भावन्द का हिसाब इतना बढ़ गया है कि उस की व्यवस्था करने में भी हमारे अग्रेसर वर्ग को बडी २ कठिनाइयों का सामना करना पड़ता