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जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा.
घुडसवार : - महात्माजी ! हम लोग तो हमेशां शिकार कर अनेक वनचर प्राणीयों को मारते हैं और उनका मांस भी भक्षण करते हैं तो क्या हमको भी पाप के फलरूप नरकादि में जा कर उनका बदला चूकाना पडेगा ?
( २० )
सूरिजी : - बेशक; प्राणियों की घात करनेवालों को अपने पाप का बदला तो अवश्य देना ही पडता है | भला, मैं आप से एक बात पूछता हूं कि आप निर्दोष बन किसी एक स्थान पर बैठे हो वहां यदि कोई दुष्ट बदमास के आप के शरीर में एक कांटा मात्र ही चीपका दे तो क्या आप को दुःख नहीं होगा ? उस दुष्टात्माको सख्त शिक्षा करने को क्या आप तैयार न होंगे ?
घुडसवारः— महाराज ! क्यों नहीं ? दुःख जरूर होगा और मेरी सत्ता चले तो मैं उसे प्राणदंड की शिक्षा करने से भी न चुकूंगा ।
सूरिजी :- भला, आपको तो जरा सा कांटा ही चिपकाया उसके दुःख से विवश हो आप गुस्से में आकर प्राणदंड देने को भी नहीं चुकते हैं तब बिचारे तृरणपर ही अपना निर्वाह करनेवाले निर्दोष जीवों को मार कर उनका मांसभक्षण करना यह कैसा न्याय है ? क्या वह अपना बदला लिये बिना ही आपको छोड देगा ? महानुभाव ! जीवों की परिस्थिति सदैव के लिये एकसी नहीं रहती हैं । कभी निर्बल, कभी सबल, कभी राजा तो कभी रंक इस तरह घूमती रहती है । जिस समय जिसका विशेष जोर होता है उस समय वह अपना बदला किसीन किसी तरह से
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