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(४४) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. कि सत्यासत्य का निर्णयकर सब से पहिले प्रात्म कल्याण के लिए पवित्र धर्म को स्वीकारकर अहिंसा भगवती के उपासक बन उस का ही आराधन और प्रचार करें, यह मेरी हार्दिक भावना है। ___आचार्यश्री के अमृतमय देशनारूपी भानु के प्रखर प्रकाश में पाखण्डी रूप तग तगते तारे एकदम लुप्त हो गए जिन पाखण्डियों के दिल में मिथ्या घमण्ड-अभिमान-मद था वह मानों भास्कर के प्रचण्ड प्रताप से हेम गल जाता है वैसे गल गया । सूरीश्वरजी महाराज के तप तेज और सद्ज्ञान के सामने पाखण्डियोंसे एक शब्द भी उच्चारण नहीं हुआ कारण पहिले दिन के मनोहर व्याख्यान से ही उन भद्रिक जनता के हृदय में सद्ज्ञान रूपी मूर्य प्रकाशित हो गया था अत्याचारियों के दुराचारपर घृणा आ चूकी थी सूरिजी महाराज की तरफ दुनिया का दिल
आकर्षित हो पाया था क्योंकि "पुरुष विश्वासस्य वचन विश्वास" भाचार्यश्री का कहन रहन सहन आचार विचार तप संयम निस्पृहीता और परोपकार परायणता पर राजा प्रजा मुग्ध बन चकी थी फिर आज के व्याख्यान से तो लोगों की श्रद्धा और रूची इतनी बढ़ गई थी कि खन्धेपर के डोरे और गले की कण्ठियों तोड़ डालने को सब लोग बड़े ही भातुर थे।
महाराज रूद्राट्ने खड़े होकर नम्रता पूर्वक अर्ज करी कि हे प्रभो ! श्राप श्रीमानों का कहना अक्षरशः सत्य है । हमारी आत्मा इस बात को ठीक कबूल कर रही है कि जैन धर्म क्षत्रियों