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धर्मपरीचा विचार ।
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तक संसार का अन्त नहीं है और संसार है सो सुख दुःख रूपी चक्र में भ्रमन करानेवाला है। जीव जहां तक तृष्णा की फांसी में फसा हुआ है पौगलिक सुखों में मन मान रहा है वहां तक मोक्ष दूर है । और सिवाय मोक्ष के सचे सुख और अखण्ड शांति नहीं मिलती है । इस वास्ते ज्ञानियोंने पुकार २ कर कहा है स सुखों के लिए पहिले सत्संग की जरूरत है कारण महात्माओं की सत्संग और शास्त्रों का श्रवण करने से ज्ञान का प्रकाश होता है। वह स्वयं अपनी आत्मा को सच्चा स्वरूप समझा सक्ता है कि है आत्मन् ! यह संसार कारागृह है स्त्री पुत्रादि कुटुम्ब मुसाफिरखाना की माफिक मिला है न जाने यह कब और किस जगह जायगा और में और किस स्थान जाउंगा ? जोबन पतङ्ग का रंग है, शरीर क्षणभंगुर है, लक्ष्मी हाथी के कान की माफिक चञ्चल है इतने पर भी मनुष्य के श्रायुष्य प्रदेश अञ्जली के नीर की सदृश हमेशां क्षय होता जा रहा है इस लिये प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि वह शुद्ध पवित्र सत्य सनातन धर्म की परीक्षा करे कि वह इस अन्म जरा मरण रोग शोकादि संसार से पार कर मोक्ष में ले जाने को समर्थ हो । संसार में सब वस्तु की परीक्षा की जाती है इसी माफिक धर्म की भी परीक्षा होती है । वास्ते बुद्धिमानों को चाहिए कि वह धर्म की परीक्षा करे जैसे :
यथा चतुर्भिः कनकं परीच्यते निर्धषण छेदन ताप ताडनैः ॥ तथैव धर्मोविदुषां परीक्ष्यते श्रुतेन शीलेन तपोदयागुणैः ॥ १ ॥