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(४२) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा.
भावार्थ-कष, छेद-सुलाक, ताप, और ताड़न, एवं चार प्रकारसे स्वर्ण की परीक्षा की जाती है वैसे ही (१) श्रुत (ज्ञानध्यान) (२) शील ब्रह्मचर्य व खान पान रहन सहनादि सदाचार ( ३ ) तपश्चर्या-इच्छा का निरोध (४) दया सर्व प्राणियों प्रति वात्सल्यभाव अर्थात् जिस धर्म में पूर्वोत. चारों प्रकार के परीक्षक गुण होते हैं वही धर्म जगत् का कल्यान करने में समर्थ समझना और उसी को ही स्वीकारकर आत्म कल्यान करना चाहिए।
महानुभावों! योंतो सब धर्मवाले अपने २ धर्म को अच्छा कहते हैं अहिंसा परमो धर्मः और ब्रह्मचर्य को मुख्य मानते हैं पर वह केवल नाम मात्र कहने का ही है न कि वरतन रूप, कारण अहिंसा धर्म बतलाते हुए भी यज्ञ होमादि के नाम से असंख्य निरापराधी प्राणियों के कोमल कण्ठपर तिक्षण छुरा चला देते है ऋतु दानादि के नाम से व्यभिचार के द्वार खोल रक्खे है इतना ही नहीं पर तद्विषय ग्रन्थ भी बना डाले और इश्वर के नाम की छाप ठोक दी गई कि उन का कोई उलंघन नहीं कर सके; पर बुद्धिमान विचार कर सक्ते हैं कि पूर्वोक्त दुराचार से सिवाय स्वार्थ के और क्या अर्थ निकल सक्ता है ? धर्म परीक्षा के चार कारणों से उन पाखण्डियों के माना हुआ धर्म में न तो ज्ञानध्यान है न सदाचार ब्रह्मचर्य है और न तपश्चर्या दया या वात्सल्यता है फिर ऐसा व्यभिचारी धर्म दुनिया का क्या कल्याण कर सक्ता है वह आप स्वयं विचार कर सक्ते हैं। ..
सज्जनों ! जैन धर्म शुद्ध सनातन प्राचिन सर्वोत्तम पवित्र