________________
जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा.
किया इतना ही नहीं पर राजा की मनोभावना रूपी बिजली आचार्यश्री के चरण कमलों की ओर इतनी तो झुक गई कि उन्होंने शेष दिन और रात्री एक योगी की भान्ति विताई और सुबह होते ही अपने कुमर व मन्त्रीश्वर और राज अन्तेउर वगैरह सब परिवार सूरिजी के चरणों में बडे ही समारोह के साथ हाजर हुए। इधर नागरिक लोगों के झुण्ड के झुण्ड उधर मठपति और ब्राह्मण लोग भी बडे ही सज धज के उपस्थित हुए, वन्दन नमस्कार के पश्चात् सूरीश्वरजीने अपना व्याख्यान प्रारंभ किया. कारण पहिले दिन के व्याख्यान की सफलता से श्रपश्री का उत्साह खूब बढा हुआ था ।
( ४० )
श्रोतागण ! इस प्रवाहरूप अनादि संसार के अन्दर परिभ्रमण करते हुए चार गति रूप चक्र यानि नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य, और देवगति जिस में पाप अधर्म दुराचार के जरिए जीवों को नरक गति में जाना पडता है जहां के दुःख कानों द्वारा भवरण मात्र से त्रास छूट जाती है तो वहां जाके उन दुःखों का अनुभव करना तो कितना भयंकर है, वह आप स्वयं विचार कर सकते हैं और दान पुन्य धर्म सदाचारादि का सेवन करने से जीव मनुष्य गति या स्वर्ग में जा कर सुखों का अनुभव करते हैं उन सुखों का वर्णन करते हुए शास्त्रकारोंने फरमाया है कि स्वर्ग सुखों के अनन्तमें भाग भी यहां सुख नहीं है । साथ में यह भी याद रखना चाहिये कि पाप लोहे की बेड़ी के समान है तब पुन्य सोने की बेड़ी तुल्य है। जहां तक इन दोनों बेड़ियों का अन्त न हो वहां