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________________ (१८) जैन जाति महोदय. १, तेले ३, तथा बेले ८ । इसके अतिरिक्त छुटकर उपवास भी इस बार आपने अनेक किये। प्रापश्रीने कई अर्को तक व्याख्यान में भी सूत्रजी फरमाते रहे । आपका भाषण प्रकृति से ही रोचक तथा तत्परता उत्पन्न करनेवाला था । उपदेश श्रवण कर अपने अज्ञानांधकार को दूर करने के हेतु से अनेक श्रोता निरंतर व्याख्यान श्रवण करने का लाभ उठाते थे । आपकी व्याख्यान देने की शक्ति ऐसी उच्च कोटि की है कि श्रोता का मन प्रफुल्लित होकर आनंदसागर में गोते लगाने लगता है। अनेक श्रावकों को थोकड़े सिखाने का कार्य भी आपने जारी किया। आप बीकानेर से बिहार कर नागोर मेड़ता कैकीन कालू होते हुए ब्यावर और अजमेर के निकटवर्ती स्थलों में उपदेशामृत की वर्षा करते पापं खास अजमेर भी पधारे थे । इस भ्रमण में पापने कई भव्य आत्माओं का उद्धार कर उन्हें सत्पथ पर लगाया । जिस ग्राम में आप पधारते थे जनता एकत्रित हो जाती थी तथा आपके मुख मुद्रा की अलौकिक कान्ति से आकर्षित हो अपने को धर्म पालन करने में समर्थ बनाती थी। वि. संवत् १९६६ का चातुर्मास (अजमेर)। इस वर्ष में आपनी का छठा चातुर्मास राजस्थान के केन्द्र नगर अजमेर में हुआ। वहाँ आप और लालचंदजी आदि ५ साधु ठहरे हुए थे। वैसे तो आप बाल वय से ही ज्ञानोपार्जन में तल्लीन
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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