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________________ ( ८४ ) जैन जाति महोदय प्र० चोथा. श्राद्यं प्रतिज्ञा निर्वाही, द्वितीय प्रकृतिः स्थिराः । तृतीय प्रौढ वचनं, चतुः प्रज्ञा प्रकर्षवान् ॥ ६६ ॥ पंचमं प्रपंचश, षष्ठं प्रबल मानसम् । सप्तं प्रभुताकांक्षी, माटे पुट सप्तकम् ||६७ || (विमलचरित्रम् ) (१) प्रतिज्ञा करना और उसको दृढता से पालना (२) प्रकृति के स्थिर अर्थात् धैर्यवन्त शान्तचित्त से कार्य करना (३) प्रौढ वचन - गांभीर्यता के साथ प्रीय और यथेष्ट वचन ( ४ ) बुद्धिमंता - दीर्घदर्शीता (५) प्रपंचज्ञ - सर्व कार्य करने में शक्तिवान् अर्थात् शाम दाम दंड भेदादि नीति कुशलता (६) मन कि मजबूती - बाहुबल अर्थात शौर्य्यता के साथ कार्य्य करना (७) प्रभुताकांक्षी - प्रभुताप्राप्ती कि इच्छावाले अर्थात् महत्व के कार्य्य कर प्रभुता प्राप्त करना एव सात वरदान अम्बिका माताने दीये वैसे ही प्राग्वट ज्ञाति के वीरोने इस वरदानों को ठीक चरितार्थ कर वतलाये थे । जिस के उज्ज्वल दृष्टान्त आज भी इतिहास के उच्चासनपर अपना गौरव वतला रहा है, जैसे पोरवाडो कि संतानमें विक्रम सं. १०८ में जावडशा और भावडशा नाम के पोरवाड ज्ञाति के दानवीर दो रत्न पैदा हुवे जिन्होंने पवित्र तीर्थाधिराज श्री शत्रुंजय का जीर्णोद्धार करवाया था जिन का प्रशंसनिय जीवन जैन संसार में विख्यात है एसे बहुत से नररत्न इस पोरवाड ज्ञातिने पैदा किये जिस्मे विक्रमी आठवी सदीमें पोरवाड वीर नीना व लेहरी जो पाटणाधिपति वनराज चावडके महामात्य व सैनापति पद पर रहे हुवे अनेक वीरता के कार्य कर उज्वल कीर्त्ति को प्राप्त की थी जिन्हों के कुटुम्ब में विमलशाहा
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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