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________________ राजाप्रजा जैनधर्म स्वीकार. . ( २७ ) सुनाया और. जैन धर्म का तात्वीक ज्ञान के साथ मुनि धर्म-श्रावक धर्म और सम्यक्त्व का स्वरूप बतलाया जिसको सुनते ही राज ओर नागरिको के अन्तरपट्ट खुल गये, जो चिरकालसे हृदय मे मिथ्यात्व घुसा हुवा था वह एकदम दूर हो गया, राजाने कहा कि हे भगवान् ! मेने मेरी इतनी उम्भर व्यर्थ गमादी उसके लिये मैं अधिक क्या कहु ? हे प्रभो ! आज मैं जैन धर्म स्वीकार करने को तय्यार हुँ, सूरीश्वरजीने कहा “ जहा सुखम् " तत्पश्चात् विधि विधान के साथ वासक्षेपपूर्वक राजा और प्रजा कों जैनधर्म की दीक्षा दी, राजा सम्यक्त्व को प्राप्त होते ही अपना राजमे रह हुकम निकाला की जो यज्ञ के लिये मंण्डप बनाया गया उसको शीघ्रता से तोडफोड दो जो हजारों लाखो प्राणियों को बलीदान के लिये एकत्र किये थे उन सब को छोड दो, और मेरे राजमे यह संदेसा पहुचा दे कि जो कोइ सक्स किसी निरापराधी जीवों को मारेगा वह प्राणदंड के भागी होगा अर्थात् प्राण के बदले प्राण देना पडेगा राजा प्रजा अहिंसा भगवती के परमोपासक बन गये । इधर हजारो लाखो पशुयों को यज्ञमे बली के लिये एकत्र किये थे उनकों जीवितदान मिलने से वह जाते हुवे आशीर्वाद दे रहे है नगरमें स्थान स्थान जैनधर्म की ओर सूरीश्वरजी महाराज की तारीफ हो रही है पट्टावलियोसे यह पत्ता मिलता है कि इस समय कुल ९०००० घर को जैन बनाये गये थे और सबसे पहले आचार्यश्री स्वयंप्रभसूरिने ही वर्णरूपी जंजिर को तोड के एक " महाजन " संघ की स्थापना करी तत्पश्चात् श्रीमाल नगर के लोग अन्योन्य प्रदेशमें जाने से
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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