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________________ ( १८ ) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. साका अच्छा परिचय प्राप्त हुआ। साथ २ यह भी अनुमान कर लिया कि अपने साथ जो शरूप वार्तालाप कर रहा है वह कोई सामान्य मनुष्य नहीं है परन्तु कोई राजा-महाराजा होना मालूम होता है और उसकी धर्म जिज्ञासा लघुकर्मीपनेकी साक्षी दे रही है । क्यों कि जो मनुष्य हरदम दुराचारमें प्रवृत्त रहता है वह यदि एकाएक दुगचारसे मुंह मोड धर्मसुननेकी अभिलाषा व्यक्त करे तो समजना चाहिये कि उस दिनसे उसके हृदयने पलटा खाया है । अत: ऐसे मनुष्यों को धर्म सुनाना भविष्यमें बहुत फलदायक होगा। इस प्रकार विचार कर प्राचार्यश्रीने उन भाग्यशालीयोंको उपदेश देना शरु किया। हं महानुभावो ' इस नाशवान संसारमें धर्म ही एक ऐसा कल्पवृक्ष है कि जिनकी सेवासे जीव इस भवमें और परभवमें गज्यपाट, धनसंपत्ति, सुखसौभाग्य, यशकीर्ति, मानप्रतिष्ठा और सर्व कार्योमें विजयसिद्धि प्राप्त कर सकता है । केवल इतना ही नहीं परन्तु स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति भी धर्म से ही होती है। जिन क्षुद्र प्राणीयोंने पूर्व भव में धर्म नहीं कीया हो और पापकर्म में ही सदा अनुरक्त रह कर समय खो दीया हो उनकों इस भव में हीन, दीन, दुःखी, दुर्भागी, रोग, शोक, और पराधिनतादि अनेकशः दुखों का अनुभव करना पड़ता है और भवान्तर में उसे नरकगति के घोरातिघोरदारूण दुःखों को सहन करना पडता है । इन पाप-पुन्यों का फल आज अपनी द्रष्टि के सन्मुख मौजुद है। इस हेतु रत्नचिंतामणी-कल्पवृक्ष समान मिले हुढे इस मनुष्य भव को सफल करना यही मनुष्य की बुद्धिमत्ता है अर्थात् प्रथम कर्तव्य है। यह
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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