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________________ ( १०६) जैन जति महोदय प्रकरण पांचवा. अपने पुत्र का जन्मोत्सव बड़े समारोह के साथ मनाया । भाप का सुभाग्य नाम सौधर्म रक्खा गया। बाल्यावस्था व्यतीत होने के पश्चात् आपने विद्याध्यनमें खूब प्रवृति रक्खी । आप अपने अध्ययनमें खूब तल्लीन रहते थे । वेद वेदांग के अध्ययन के अतिरिक्ता वैद्यक, ज्योतिष, और नीति के शास्त्रोंसे भी पूर्ण विज्ञ थे। यह यगादि क्रियामें भी आप दक्ष थे | अध्यायन कार्यमें भी शाप की गति थी। आप की शिक्षा प्रणाली इतनी अच्छी थी कि दूर दूरसे शिष्य आकर आपके पास अध्ययन करते थे। छात्रों की संख्या पांचसो के लगभग थी । जो कि सदा पास रहते थे। श्राप के मनमें एक संदेह था कि " पुरुषो वे पुरुषत्व मश्रुते. पशवः पशुत्वं' अर्थात जिस योनिमें जीव इस समय है मरनेपर भी उसी यानिमें जन्म लेगा। इस शंका का आप समाधान कगना चाहते थे। यदि कोई ज्ञानी मिल जाय तो अपना भ्रम भिटा लूँ ऐसा आप का विचार था । संयोगमे एकबार मध्य पापापुर्णमें सोमल ब्राह्मण के यहाँ एक बड़े यज्ञ का विधान हो रहा थ!। उधर भगवान महावीर स्वामी का समवसरण हो रहा था। इन्द्रभूति, वायुभूति, अमिभूति एवम व्यक्त नामक चार अध्यक्षोंने अपने संशय को दूर कर सपरिवार महावीरस्वामी के पास दीक्षा ली थी। उसी सिलसिले में सौधर्म नामक विप्र अपने शिष्यों को लेकर भगवान महावीर प्रभु के पास आया। जब उस की शंकाओ का समाधान हो गया तो उसने भगवान के पास दीक्षा अंगीकार की। इस तरह वह क्रमशः एकादश अध्यापक अपने ४४०० छात्रों
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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