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________________ ( २२८ ) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. तीर्थराज हैं जिनको जैनियों का बच्चा बच्चा तक जानता है। उनके परम पुनीत नाम शत्रुञ्जय और गिरनार तीर्थ हैं । इस प्रान्त की वल्लभी नगरी के प्रसिद्ध नरेश शिलादित्य के राज्यकालमें जैनधर्म इस प्रान्त के कोने कोनेमें फैल गया था तथा इस की दशा बहुत उन्नत थी। आचार्य श्री देवर्द्वि गाणने वल्लभी नगरी में एक विराट सम्मेलन का आयोजन किया था तथा आगमों को पुस्तकरूपमें लिखाने का प्रावश्यक एवं समयोचित कार्य किया था । ऐसे ऐसे परोपकारी महात्माओं ही का हमारे पर परम अनुग्रह है कि जिन की महनत का हम लाभ उठाते हुए अर्वाचीन आगमान्तर्गत साहित्य देखते हैं। ___पंचासर का राजवंश जैनधर्मोपासक था तथा पाटण के चांवडा वंशी भी चिरकाल से जैनी थे। महाराजा सिद्धराज जयसिंह तो आचार्य हेमचन्द्रसूरी के परम भक्त थे। महाराजा कुमारपाल तो अहंन धर्मोपासक ही नहीं वरन् बड़ा परिश्रमी और जैनधर्म प्रचारक था । इसने जैनधर्म की उन्नति के हित अपना सर्वस्व तक अर्पण कर दिया था। इसके बनाए हुए अनेक जिन मन्दिर तथा शिलालेख बृहत् संख्या में अबतक प्रस्तुत हैं। इन मन्दिरों पर की ध्वजाएँ आज तक कुमारपाल की कमनीय कीर्ति को बतला रही हैं तथा अनुकरणीय आदर्श उपस्थित करती हैं कि यदि किसी के पास धन हो तो वह उसका इस प्रकार सदुपयोग करे जिस के द्वारा कि अनेक भव्य जीवों का प्रात्म कल्याण हो । विक्रम की तेरहवीं शताब्दी तक तो जैनधर्म
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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