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________________ ( २६ ) जैन जाति महोदय. मुझ जैसे साधारण व्यक्ति के लिये ऐसे बड़े कार्य में हाथ हालना अनाधिकार चेष्टा का काम था कारण कि न तो मैं ऐसा विद्वान हूँ न इतिहासज्ञ की साहित्य की दृष्टि से पाठकों की इच्छा पूरी कर स. तथापि दूसरे किसी को इस ओर कलम उठाते न देख कर मैंने यह साहस किया है । इतने बड़े कार्य के लिये यह मेरा प्रथम ही प्रयास है अतएव सम्भव है अनेक त्रुटियाँ रह गई हों आशा है उदार पाठक लेखक की असमर्थता को ध्यान में रखते हुए नीरक्षीर विवेक की भाँति सार वस्तु को ग्रहण कर लेंगे। तथा जो महाशय इतिहास के मैटर सम्बन्धी भूलों की सूचना देंगे मैं उन का विशेष कृतज्ञ हूँगा । दूसरे संस्करण में इस खण्ड को सर्वाङ्ग सुन्दर बनाने का प्रयत्न करूँगा तथा साहित्य संमार को संतुष्ट करने की चेष्टा करूँगा। इस ग्रंथ के पठन मे यदि पाठकों की रुचि ऐतिहासिक खोज की ओर आकर्षित होगी तो मैं अपने परिश्रम को सफल समदूंगा। दूसरा, तीसरा तथा चौथा खण्ड पृथक २ पुस्तकाकार शीघ्र ही उपस्थित करने का प्रयत्न करूँगा। लुनावा (मारवाड़) वीरात् २४५५ ता.१-१०-१९२६ लेखकमुनि ज्ञानसुन्दर।
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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