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________________ ( २१२, जैन जातिमहोदय प्रकरण पांचवा. अनेक महात्माओंने अनशन द्वारा प्रात्मकल्याण करते हुए देह त्याग किया, इससे इस पर्वत का नाम शत्रुखावतार प्रख्यात हुआ। सचमुच खारवेल नृपति को जैन धर्मके प्रचार की उत्कट लगन थी । वह चाहता ही नहीं किन्तु हार्दिक प्रयत्न भी करता था कि सार संसार में जैन धर्म का प्रचार हो ! उसकी यह उच्च अभिलाषा थी कि जैन धर्म का देदीप्यमान झंडा सारे संसार भरमें फहरे । किन्तु कार्यक्षेत्र सरल भी नहीं था क्योंकि भगवान महावीर स्वामी कथित आगम भी लोप हो रहे थे जिस का तत्कालीन कारण दुकाल का होना था अनेक मुनिगज दृष्टिवाद जैसे अगाध आगमों को विस्मृति द्वाग दुनियां से दूर कर रहे थे । ऐसे आपत्ति के समय में आवश्यक्ता भी इस बात की थी कि कोई महा पुरुष आगमों के उद्धार का कार्य अपने हाथ में ले । खारवेल नरेशने इस प्रकार सा. हित्य की दुःखद दशा. देखकर पूर्ण दूरदर्शिता से काम लिया । विस्मृति के गहरे गतमें गए हुए भागमों का अनुसंधान करना किसी एक व्यक्ति के लिये अशक्य था इसी हेतु खारवेल ने एक विगट सम्मेलन करने का नियन्त्रण किया । इस सभा में प्रतिनिधियों को बुलाने के लिये संदेश दूर और समीप के सब प्रान्तों और देशों में भेजा गया । लोगोंने भी इस सभा के कार्य को सफल बनाने के हेतु पूर्ण सहयोग दिया। - इस सभा में जिनकल्पी की तुलना करनेवाले प्राचार्य बलिस्सह बोधलिङ्ग देवाचार्य धर्मसेनाचार्य श्रादि २०० मुनि एवम् स्थिरकल्पी प्राचार्य सुस्थि सूरी सुप्रतिबद्ध सूरी उमास्वाती प्राचार्य श्यामाचार्य
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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