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( २२ ) जैन जातिमहोदय प्रकरण पछा. भिन्न गोत्र और जातियों बन गइ, जैसे-कइ तो माम के नाम से, कई व्यापार करने से, कई प्रसिद्ध पुरुषों के नाम से, कई धर्म कार्यो से, कई राज कार्यों से, कई हांसी ठठ्ठा कूतुहल से; इत्यादि एक ही संस्था से अनेक जातियों बन गई कि जिनकी गणना करना मुश्किल है पर इन जातियों बन जाने में भी एक गुप्त रहस्य रहा हुआ है वह यह है कि एक प्रान्न में स्थापित हुई संस्थाने अपने तनधन मान प्रतिष्टा की इतनी उन्नति करली कि वह अनेक शाखा प्रति शाखा रूप से विस्तार पाती हुई वटवृक्ष की भांति भारत के चारो और पसर गई इतना ही नहीं बल्कि अपने भूजबल से देश का रक्षण किया और अपनी उदारता से हजारों लाखों क्रोडो द्रव्य खर्च कर देश समाज और धर्म की उन्नति करी । क्या वह कम महत्व की बात है ? यह सब हमारे पूर्वाचार्यों की उपदेश कुशलता और कार्य पटुता तथा परोपकारपरायणता का सुन्दर फल है अगर संघ संस्था स्थापन करने से ही जैन जातियों में कायरता व कमजोरी श्रागई मान लि जावे तो उन जातियों की इतनी उन्नति होना स्वप्न में भी कल्पना नहीं हो सक्ती । यह तो हमे दावा के साथ कहना पडता है कि उस जमाना में न तो जैन धर्मोपासक कायर थे और न कमजोर थे पर उस समय जैन जातियो के हुंकार मात्र से भूमि कम्प उठती थी। राजतंत्र और व्यापार प्रायः जैन जातियों के ही हस्तगत था. जैन जातियों को कायर-कमजोर कहनेवाले सज्जनों को अपक्ष पात दृष्टि से उस जमाना के इतिहास को पढना चाहिये। देखिये