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________________ चन्द्रगुप्त मौर्य. ( १६५ ) की सभा में विदेशी दूत था ) के कथनों से भी यह वात फलकती हैं कि चन्द्रगुप्तने ब्राह्मणों के सिद्धान्तों के विपक्ष में श्रमणों ( जैन मुनियों) के धर्मोपदेश को ही स्वीकार करता था | टामस राव एक जगह और सिद्ध करते हैं कि चन्द्रगुप्त मौर्य के पुत्र और पौत्र बिन्दुसार और अशोक भी जैन धर्मावलम्बी ही थे । इस बात को पुष्ट करने के लिये साहबने जगह जगह मुद्राराक्षस, राजतरंगिणी और इन ई अकबरी के प्रमाण दिये हैं । ܝܕ श्रीयुत जायसवाल महोदय Journal of the Behar and Orissa Research Society Volume III में लिखते हैं-" प्राचीन जैन ग्रंथ और शिलालेख चन्द्रगुप्त मौर्य को जैन गजर्षि प्रमाणित करते हैं । मेरे अध्ययनने मुझे जैन ग्रंथों की ऐतिहासिक वार्ताओं का आदर करना अनिवार्य कर दिया है। कोई कारण नहीं कि हम जैनियों के इन कथनों को कि चन्द्रगुप्तने अपनी प्रौदा अवस्था में राज्य को त्याग कर जैन दीक्षा ले मुनिवृति में ही मृत्यु को प्राप्त हुए, न मानें इस बात को माननेवाला मैं ही पहला व्यक्ति नहीं हूँ ।" मि. राईस भी जिन्होंने श्रवया वेलगोल के शिलालेखों का अध्ययन किया है पूर्ण रूप से अपनी राय इसी पक्ष में देते हैं । डाक्टर स्मिथ अपनी Oxford History of India नामक पुस्तक के में लिखते हैं " चन्द्रगुप्त मौर्य का घटना ७५, ७६ पृष्ठ पूर्ण राज्य काल किस प्रकार समाप्त हुआ इस बात का उचित विवेचन एक मात्र जैन कथाओं से ही जाना जाता है । जैनियाँने सदैव उक्त मोर्य सम्राट को बिम्बसार (श्रेणिक) के सदृश जैन धर्मावलम्बी
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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