Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh Part 01
Author(s): Vijayrajendrasuri
Publisher: Rajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमो समणस्स भगवओ महावीरस्स श्री सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय विश्वपूज्य प्रातःस्मरणीय कल्पप्रभु श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वर, पट्टप्रभावक चर्चाचक्रवर्ती परमपूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय धनचन्द्रसूरीश्वर, साहित्यविशारद विद्याभूषण श्रीमद् विजय भूपेन्द्रसूरीश्वर, व्याख्यानवाचस्पति श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वर, शान्तमूर्ति कविरत्न श्रीमद् विजय विद्याचन्द्रसूरीश्वरगुरुभ्यो नमः / सकल-आगम रहस्यवेदी कलिकाल सर्वज्ञ कल्प विद्वन्मान्य प्रातःस्मरणीय प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. निर्मित श्री अभिधानराजेन्द्रः (सकल आगमों के समस्त संकलित शब्दों का ससंदर्भ ज्ञानमय कोष अर्थात् जिनागम कुञ्जी) प्रथमो भागः ('अ' से 'अहोहिय') मुनिराज दीपविजय-यतीन्द्रविजयाभ्यां प्रथमा आवृति संशोधिता संपादिता च प्रस्तुत तृतीय संस्करण प्रकाशन के प्रेरणादाता सुविशाल गच्छाधिपति-शासन सम्राट-धर्म चक्रवर्ती-राष्ट्रसन्त-श्रुत दिवाकर-स्मित भास्करअनेकांत के जगप्रस्तोता अमण शाश्वत धर्म के प्राण व दिशादर्शक-क्षमा दानेश्वरी-जन जन के वात्सल्य महोदधि-सत्साहित्य विधायक-जीव जगत के अक्षय अभयारण्य श्रीमद् विजय जयन्तसेन सूरीश्वरजी महाराज साहब प्रकाशक श्री राजेन्द्रसूरि शताब्दि शोध संस्थान, उज्जैन (M.P.) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकः राजेन्द्रसूरी शताब्दि शोध संस्थान 87/2 विक्रम मार्ग, टावर चोक, एस.एम.कॉम्पलेक्ष, फ्रीगंज, उज्जैन (M.P.). प्राप्ति स्थान: श्री अभिधानराजेन्द्र प्रकाशन संस्था श्री राजेन्द्रसूरी जैन ज्ञान मन्दिर, हाथीखाना, रतनपोल, अहमदाबाद-३८०००१ राज राजेन्द्र प्रकाशन ट्रस्ट: शेखनो पाडो, रीलीफ रोड, अहमदाबाद-३८०००१ राज राजेन्द्र जयंतसेन म्युजियम : मोहनखेडा तीर्थ मार्ग, राजगढ़, (M.P.) पार्श्व पब्लिकेशन: 102, नंदन कोम्प्लेक्ष, मीठाखली गाम, अहमदाबाद-३८०००६ विक्रम संवत् - 2071 वीर संवत - 2540 राजेन्द्रसूरि संवत - 108 तृतीय आवृत्ति इस्वीसन - 2014 [ प्रथम-भाग के सुकृत् सहयोगी ) श्री खीमावत किशोरचन्द्रजी बालचंद्रजी श्री राज राजेन्द्र किशोरमल बसंतीदेवी चेरीटेबल ट्रस्ट खीमेल (रानी स्टेशन) श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक जैन श्वेताबर संघ सुभाष चोक, गोपीपुरा, सुरत टाईप सेटिंग: श्रीमद् जयन्तसेनसूरि सत्साहित्य कृते श्री देवचन्द सुखराम डोलिया इन्दौर (M.P.) मुद्रण व्यवस्था: खुश्बू प्रकाशन 103, नंदन कोम्प्लेक्ष, मीठाखली गाँव, अहमदाबाद-६ मूल्यः संपूर्ण 7 भाग रु : 6000-00 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुविहितसूरिशक्रचक्रचूडामणि-कलिकालसर्वज्ञकल्प-परमयोगिराज जगत्पूज्य गुरुदेव-प्रभुश्रीमद्-विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज दृप्तभ्रान्तविपक्षदन्तिदमने पञ्चाननग्रामणी - राजेन्द्राभिधकोशसंप्रणयनात्सन्दीप्तजैनश्रुतः / / सधस्योपकृतिप्रयोगकरणे नित्यं कृती तादृशः, कोऽन्यः सूरिपदाङ्कितो विजयराजेन्द्रात्परः पुण्यवान ? // 1 // Page #4 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 श्री अभिधानराजेन्द्रः 2014 अनुक्रमणिका 6-6 7-11 * 12-13 * 14-14 15-25 1. प्रस्तावना-तृतीय आवृत्ति 2. सौधर्मबृहत्तपागच्छीयपट्टावली 3. प्रस्तावना-द्वितीय आवृत्ति आभार प्रदर्शन प्रशांत-वपुषं श्रीराजेन्द्रसूरिनुमः ग्रन्थकर्ता का संक्षिप्त जीवन-परिचय 7. प्रस्तावना-प्रथम आवृत्ति उपोद्घात परिशिष्ट-१ सिद्धहेम०प्राकृत व्याकरण 10. अथ प्रशस्ति.. 11. परिशिष्ट-२ प्राकृत सूत्रअनुक्रमणिका 12. परिशिष्ट-३ प्राकृत शब्दरूपावलिः 3. श्रीअभिधानराजेन्द्रः-प्रथमो भागः 26-67 65-80 i 81-147 147-147 148-155 156-176 01-864 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना (तृतीय आवृत्ति) कलिकाल सर्वज्ञ कल्प-प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में तब हुए जब मुगल साम्राज्य डाँवाडोल हो चुका था, मराठा परास्त हो चुके थे और इनके साथ ही राजपूत और नवाब सभी अंग्रेजों की कूटनीतिज्ञ चाल के सामने समर्पित हो चुके थे। भारतीय संस्कृति पर कुठाराघात अपनी चरम सीमा पर था / अंग्रेज अपनी योजित शैली में भारत की अन्तरात्मा कुचलने में सफल हो रहा था। भारत के सभी धर्मावलम्बियों में शिथिलाचार जोर पकड़े हुए था। ऐसे असमंजस भरे काल में विविध जीवनदर्शक साठ ग्रंथों के साथ अभिधान राजेन्द्रः (ज्ञान कोश) लेकर एक देदीप्यमान सूर्य के समान प्रकट हुए। इस ग्रंथ के निर्माण के साथ ही वे एक महान साधक, तपोनिष्ठ, क्रान्तिकारी युगदृष्टा के रूप में समाज और जगत् के असर कारक अप्रतिम पथ प्रदर्शक के रूप में अवतरित हुए। आचार्य प्रवर का यह ग्रन्थराज भगवान् महावीर की वाणी का गणधरों द्वारा प्रश्रुत आर्षपुरुषों की अर्धमागधी भाषा, जिसमें सभी आगमों का संकलन हुआ है, शताब्दी का शिरमोर व विश्ववन्द्य ग्रन्थ है। यह विश्वकोश आगम साहित्य के संदर्भ ग्रन्थ के रूप में अत्यन्त मूल्यवान है। इस ग्रन्थराज की सुसमृद्ध संदर्भ-सामग्री ने, जिससे संसार सर्वथा अनभिज्ञ था, भारतीय विद्वता का मस्तक ऊँचा किया है और यूरोपीय विद्वानों ने इस ग्रन्थराज की मुक्तकंठ से भरपूर प्रशंसा की है। यह सत्यान्वेषक तथा अनुसन्धानकर्ताओं के लिए मूल्यवान पोषक रहा है। इस ग्रन्थराज के विशद ज्ञान गाम्भीर्य और विद्योदधि श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी की चमत्कारपूर्ण अद्वितीय सृजन शक्ति के प्रति हर कोई नतमस्तक हुए बिना नहीं रहता। इस ग्रंथराज के अवलोकन करनेवालों को जैन धर्म तथा दर्शन के अपरिहार्य तथ्यों की जानकारी मंत्रमुग्ध किये बिना नहीं रहती। सूरिजी ने अंधकार-युग में अपना मार्ग स्वयं ही प्रशस्त किया और वे जगत् के लिए पथ-प्रदर्शक बने / उनका चारित्रिक बल, उनकी विद्वता और निर्भीकता प्रशंसनीय ही नहीं बल्कि समस्त विद्वज्जगत पर महान अनुग्रह हुआ है। इस महर्द्धिक ग्रन्थराज के निर्माण ने विद्वत्संसार को चमत्कृत ढंग से प्रभावित किया। इसके अनुकरण और इसकी Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहायता तथा मार्गदर्शन पाकर अनेक विद्वानों ने पूरी शताब्दी भर अपने-अपने कोश-निर्माण की भावना में इस ग्रंथराज के बीजरूप में ही रखी है। यह ग्रन्थराज बीसवीं शताब्दी की एक असाधारण घटना ही है। इसन जैन जैनेतर सभी विद्वन्मण्डल को निरन्तरउपकृत किया है और करता रहेगा। इस ग्रन्थराज में तमाम जैनागमों के अर्धमागधी भाषा के प्रत्येक शब्द का संकलन किया गया है और प्रत्येक शब्द का संस्कृत अनुवाद, लिंग,व्युपत्ति, अर्थ तथा सूत्रानुसार विवेचन और संदर्भ सहित ज्ञान सुविधापूर्वक दिया है, जो सुगम और अवबोध्य है। - इस ग्रन्थराज ने लुप्तप्राय अर्धमागधी भाषा को पुनरुज्जीवित करने के साथ ही इसे अमरत्व प्रदान किया है / आगम शास्त्र जिज्ञासुओं के लिए उनकी तमाम शंकाओं के समाधान के लिए यह अक्षय भंडार है। इस ग्रंथराज के प्रथम खण्ड के अनेकांतवाद, अस्तित्ववाद, अदत्तादान, आत्मा (अप्पा), अभय, अभयारण्य, अर्हन्त जैसे विषयों पर संदर्भ सहित विशद व्याख्या के साथ प्रत्येक पाठक को आश्चर्यचकित करे, इतना ज्ञान आकर्षक रूप से व्याख्यायित है, जिनके अर्थबोध को पाकर हर कोई प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। इस ग्रंथराज के निर्माण के समय कुछ अक्षरों की अनुपलब्धता के कारण उनके स्थान पर वैकल्पिक अक्षर का उपयोग किया गया था जिससे पाठक-वृंद को पठन करने में जो असुविधा होती रही है उसका इस आवृत्ति में जिन वैकल्पिक अक्षरों का उपयोग किया गया था, उन्हें दूर कर दिया गया है तथा सर्वबोध्य अक्षरों का उपयोग कर लिया गया है। जिनके लिए वैकल्पिक अक्षर उपयोग में लिये गये थे वे हैं- अ, इ,उ, ऊ, ऋ, छ, झ, ठ, ड, ड्ड, द,द्भ, द्ग, द्व्य, भ, ल, ट्ठ, क्ष, ज्ञ, त्र, द्ध, द्व, क्व, क्त, ह। अब इस प्रथम भाग की तृतीय आवृत्ति में वैकल्पिक रूप हटाकरप्रवर्त्तमान प्रचलित अक्षरों का यथास्थान उपयोग कर लिया गया है। प्रज्ञा–पुरुष के इस ग्रन्थराज के विषय में, इसकी ज्ञान-गरिमा और आध्यात्मिक साधना की अभिव्यक्ति के विषय में कुछ कहना दैदीप्यमान सूर्य को दीपक दिखाने के समान है। अन्त में इतना ही कि यह चिर प्रतिक्षित संशोधित आवृत्ति आपके हाथों में रखते हुए आनंद की अनुभूति हो रही है। आचार्य जयन्तसेनसूरि Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसौधर्म बृहत्तपागच्छीय पट्टावली श्रीमहावीरस्वामीशासननायक 1 श्रीसुधर्मास्वामी 2 श्रीजम्बूस्वामी 3 श्रीप्रभवस्वामी 4 श्रीसय्यंभवस्वामी श्रीयशोभद्रसूरि श्रीसंभूतविजयजी श्रीमद्रबाहुस्वामी 7 श्रीस्थूलभद्रस्वामी श्रीआर्यसुहस्तीसूरि श्रीआर्यमहागिरि श्रीसुस्थितसूरि श्रीसुप्रतिबद्धसूरि 10 श्रीइन्द्रदिन्नसूरि 11 श्रीदिन्नसूरि 12 श्रीसिंहगिरिसूरि 13 श्रीवज्रस्वामीजी 14 श्रीवज्रसेनसूरिजी 15 श्रीचन्द्रसूरिजी 16 श्रीसामन्तभद्रसूरि 17 श्रीवृद्धदेवसूरि 18 श्रीप्रद्योतनसूरि 16 श्रीमानदेवसूरि 20 श्रीमानतुङ्गसूरि 21 श्रीवीरसूरि 22 श्रीजयदेवसूरि 23 श्रीदेवानन्दसूरि 24 श्रीविक्रमसूरि 25 श्रीनरसिंहसूरि 26 श्रीसमुद्रसूरि 27 श्रीमानदेवसूरि 28 श्रीविवुधप्रभसूरि 26 श्रीजयानन्दसूरि 30 श्रीरविप्रभूसरि 31 श्रीयशोदेवसूरि 32 श्रीप्रद्युम्नसूरि 33 श्रीमानदेवसूरि 34 श्रीविमलचन्द्रसूरि 35 श्रीउद्योतनसूरि 36 श्रीसर्वदेवसूरि 37 श्रीदेवसूरि 38 श्रीसर्वदेवसूरि श्रीयशोभद्रसूरि श्रीनेमिचन्द्रसूरि 40 श्रीमुनिचन्द्रसूरि 41 श्रीअजितदेवसूरि 42 श्रीविजयसिंहसूरि श्रीसोमप्रभसूरि श्रीमणिरत्नसूरि 44 श्रीजगचन्द्रसूरि श्रीदेवेन्द्रसूरि श्रीविद्यानन्दसूरि 46 श्रीधर्मघोषसूरि 47 श्रीसोमप्रभसूरि 48 श्रीसोमतिलकसूरि 46 श्रीदेवसुन्दरसूरि 50 श्रीसोमसुन्दरसूरि 51 श्रीमुनिसुन्दरसूरि 52 श्रीरत्नशेखरसूरि 53 श्रीलक्ष्मीसागरसूरि 54 श्रीसुमतिसाधुसूरि 55 श्रीहेमविमलसूरि 56 श्रीआनन्दविमलसूरि 57 श्रीविजयदानसूरि 58 श्रीहीरविजयसूरि श्रीविजयसेनसूरि श्रीविजयदेवसूरि श्रीविजयसिंहसूरि श्रीविजयप्रभसूरि 62 श्रीविजयरत्नसूरि 63 श्रीविजयक्षमासूरि 65 श्रीविजयदेवेन्द्रसूरि 65 श्रीविजयकल्याणसूरि 66 श्रीविजयप्रमोदसूरि 67 श्रीविजयराजेन्द्रसूरि 68 श्री विजयधनचन्द्रसूरि 66 श्री विजयभूपेन्द्रसूरि 70 श्री विजययतीन्द्रसूरि 71 श्री विजयविद्याचन्द्रसूरि 72 प्रवर्तमान आचार्य श्री विजयजयन्तसेनसूरि Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजेन्द्र कोश धनचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. मोहनविजयजी म.सा. भूपेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. श्री गुलाबविजयजी म.सा. विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. जयन्तसेनसूरीश्वरजी म.सा. Page #10 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना (द्वितीयावृत्ति) अनादि से प्रवमान है श्री वीतराग परमात्मा का परम पावन शासन! अनादि मिथ्यात्व से मुक्त होकर आत्मा जब सम्यक्त्वगुण प्राप्त करती है, तब आत्मिक उत्क्रान्ति का शुभारंभ होता है। सम्यग्दर्शन की उपलब्धि के पश्चात् ही सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का क्रम आत्मा में परिलक्षित होता है। मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान दोनों ही इन्द्रिय तथा मनसे ग्राह्य हैं, अतः इनका समावेशपरोक्षज्ञान में होता है, परन्तु अवधिज्ञान,मनःपर्यायज्ञान एवं केवलज्ञान आत्म ग्राह्य हैं ; अतः ये ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान में समाविष्ट हैं। सम्यक्त्वका सूर्योदय होते ही मिथ्यात्वकाधनाअंधेरा दूर हो जाता है और आत्मा संपूर्णता की ओर गतिमान होती है। यही सम्यक्त्वआत्मा को परोक्ष ज्ञान से प्रत्यक्ष ज्ञान की ओर अग्रेसर करता है। प्रत्यक्ष ज्ञान की उपलब्धि के लिए यह आवश्यक है कि आत्मा लौकिक भावों से अलग हो करलोकोत्तर भावों की चिन्तनधारा में स्वयं को डुबो दे जिन खोजा तिन पाईयाँ गहरे पानी पैठ।' संसार परिभ्रमण का प्रमुख कारण है आश्रव और बन्धादुःख से मुक्ति के लिए इनको दूर करना आवश्यक है तथा इसके साथ ही संवर और निर्जरा भी आवश्यक है। बन्धन सहज है, पर यदि उसके कारण भाव एवं कारण स्थिति से स्वंय को अलग रखा जाये तो अवश्य ही हम निर्बन्ध अथवा अपुनर्बन्धक अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं। जिनागम में अध्यात्म समाया हुआ है। सहज स्थिति की कामना करनेवालों को चाहिये कि वे जिनवाणी का श्रवण, अध्ययन, चिन्तन, अनुशीलन आदिकरते रहें। कर्म और आत्मा का अनादि से घना रिश्ता है, अतः कर्म आत्मा के साथ ही लगा रहता है, जैसे खदान में रहे हुए सोने के साथ मिट्टी लगी हुई होती है। मिट्टी सुवर्ण की मलिनता है और कर्म आत्मा की। प्रयोग के द्वारा मिट्टी सुवर्ण से अलग की जा सकती है। जब दोनों अलग अलग होते हैं तब मिट्टी मिट्टी रूप में और सुवर्ण सुवर्ण के रूप में प्रकट होता है। मिट्टी को कोईसुवर्ण नहीं कहता और न ही सुवर्ण को कोई मिट्टी कहता है। ठीक इसी प्रकार सम्यग्दर्शन प्राप्त आत्मा सम्यग्ज्ञान के उज्ज्वल आलोक में सम्यक् चारित्र के प्रयोगद्वारा अपने में से कर्म रजपूरी तरह झटक देती है और अपनी मलिनता दूर करके उज्ज्व लता प्रकट कर देती है। कर्म की आठों प्रकृतियाँ अपने अपने स्वभावानुसार सांसारिक प्रवृत्तियों में रममाण आत्मा को कर्म के फल भुगतने के लिए प्रेरित करती रहती है। जिन्हें स्वयं का ख्याल नहीं है और जो असमंजस स्थिति में है, ऐसे संसारी जीवों की कर्म प्रकृतियाँ विभाव परिणमन करा लेती हैं। ज्ञानावरणीय कर्म आँखों पर रही हुई पट्टी के समान है। नजर चाहे जितनी सूक्ष्म हो, पर यदि आँखों पर कपड़े की पट्टी लगी हो, तो कुछ भी दिखाई नहीं देता, ठीक इसी प्रकार आत्मा की निर्मल ज्ञानदृष्टि को ज्ञानवरणीय कर्म आवृत कर लेता है। इससे ज्ञानदृष्टि पर आवरण छा जाता है। यह कर्मजीव को उल्टी चाल चलाता है। दर्शनावरणीय कर्म राजा के पहरेदार के समान है। जिस प्रकार पहरेदार दर्शनार्थी को राजदर्शन से वंचित रखता है, उसे महल में प्रवेश करने से रोकता है, उसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्म जीव को आत्मदर्शन से वंचित रखता है। यह जीव को प्रमत्त भाव में आकण्ठ डुबो देता है, अतः जीव अप्रमत्त भाव से सर्वथा दूर रह जाता है। यह जीव के आत्मदर्शन के राजमार्ग को अवरुद्ध कर देता है और जीव को उन्मार्गगामी बनाता है। मधुलिप्त असिधार के समान है वेदनीय कर्म। यह जीव को क्षणभंगुर सुख का लालची बना कर उसे अनन्त दुःख समुद्र में धकेल देता है। साता का वेदन तो यह अत्यल्प करवाता है, पर असाता का वेदन यह अत्यधिक करवाता है। शहद लगी तलवार की धार को चाटने वाला शहद की मधुरता तो पाता है और सुख का अनुभव भी करता है, पर जीभ कट जाते ही असह्य दुःख का अनुभव भी उसे करना पड़ता है। इस प्रकार वेदनीय कर्म सुख के साथ अपारदुःख का भी वेदन करता है। मोहनीय कर्म मदिरा के समान है। मदिरा प्राशन करने वाला मनुष्य अपने होश-हवास खो बैठता है, इसी प्रकार मोहनीय कर्म से प्रभावित Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव अपने आत्म-स्वरूप को भूल जाता है और पर पदार्थों को आत्मस्वरूप मान लेता है। यही एक मात्र कारण है जीव के संसार परिभ्रमण का। 'मोह महामद पियो अनादि, भूलिआपकुंभरमत बादि।' यह जीव के सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र के मार्ग में रुकावट डालता है। जो मनुष्य इस मोहनीय कर्म के स्वरूप से अनभिज्ञ रहता है और जो इसकी स्थिति का अनुभव नहीं करता, वह अपने जीवन में आत्म विकास से वंचित रह जाता है। अहंकार और ममत्व जब तक हममें विद्यमान हैं। तब तक हम मोहनीय कर्म के बन्धन में जकड़े हुए ही हैं। अहंकार और ममत्व जितना जितना घटता जाता है, उतना ही मोहनीय कर्म का बन्धन शिथिल होता जाता है। यह मोहनीय कर्म समस्त कर्मसत्ता का अधिपति है और सबसे लम्बी उम्र वाला है। इस मोहराजा के निर्देशन में ही कर्म सेना आगेकूच करती है। जीव को भेदविज्ञानसे वंचित रखनेवालायही कर्म है। इसने ही जीव को संसार की भूलभुलैया में भटकाये रखा है। और बेड़ी के समान है आयुष्य कर्म। इसने जीवको शरीर रूपी बेड़ी लगा दी है,जो अनादिसे आज तक चली आ रही है। एक बेड़ी टूटती है, तो दूसरी पुनः तुरंत लग जाती है। सजा की अवधि पूरी हुए बिना कैदीमुक्त नहीं होता, इसी प्रकार जब तकजीव की जन्म जन्मकी कैद की अवधि पूरी नहीं होती, तब तकजीव मुक्ति का आनंद नहीं पा सकता। नाम कर्म का स्वभाव है चित्राकार के समान। चित्रकार नाना प्रकार के चित्र चित्रपट पर अंकित करता है, ठीक इसी प्रकार नाम कर्म चर्तुगति में भ्रमण करने के लिए विविधजीवों को भिन्न-भिन्न नाम प्रदान करता है। इसके प्रभाव से जीव इस संसार पट पर नाना प्रकार के नाम धारण करके देव, मनुष्य, तिर्यच और नरक गति में भ्रमण करता है। ___ गोत्र कर्म का स्वभाव कुम्हार के समान है। कुम्हार अनेक प्रकार के छोटे बड़े बर्तन बनाता है और उन्हें विभिन्न आकार प्रदान करता है। गोत्र कर्मभीजीव को उच्च और नीच गोत्र प्रदान करता है, जिससे जीव को उच्च या नीच गोत्रा में जन्मधारण करना पड़ता है। इसी प्रकार अन्तराय कर्म है-राजा के खजाँची के समानाखजाने में माल तो बहुत होता है पर कुञ्जी खजाँची के हाथ में होती है, अतः खजाने में से याचक कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकता। यही कार्य अन्तराय कर्म करता है। इसके प्रभाव से जीवको इच्छित वस्तु उपलब्ध नहीं हो पाती |दान, लोभ, भोग, उपभोग और वीर्य (आत्मशक्ति) के विषय में अन्तराय कर्म के उदय से जीव किसी प्रकार का लाभ प्राप्त नहीं कर सकता। संक्षेप में ही है, जैन दर्शन का कर्मवाद। इसी प्रकार जिनागमों में आत्मवाद, अनेकान्तवाद, षद्रव्य, नवतत्व, मोक्ष मार्ग आदि ऐसे विषयों का समावेश है, जो जीव के आत्म विकास में परम सहायक हैं। द्वादशांगी जिनवाणी का विस्तार है। आत्म कल्याण की कामना करने वालों के लिए द्वादशांगी का गहन अध्ययन् अत्यंत आवश्यक है। संसारस्थ प्रत्येक जीव को स्व-स्वरूप अर्थात् ईश्वरत्व प्राप्त करने का अधिकार केवल जैन धर्म-दर्शनही देता है, अन्य कोई नहीं। सर्व धर्मान् परित्यज्य, मामेकं शरण व्रज।' बुद्धं शरणं गच्छामि .......... धम्मसरणं गच्छामि। और केवलिपण्णत्तं धम्म सरणं पव्वज्जामि। इन तीनों पक्षों के सूक्ष्म एवं गहन अध्ययन से यही निष्कर्ष निकलता है कि अन्तिमपक्ष जीव के लिए केवलीप्रणीतधर्म के दरवाजे खुले रखता है। इस धर्म में प्रवेश करके जीव स्वयं अनन्त ऐश्वर्यवान, केवलज्ञान सम्पन्न बनजाता है। जीव अपने पुरुषार्थ के बल पर परमात्म पद प्राप्त कर सकता है। अन्य समस्तधर्म दर्शनों में जीवको परमात्म प्राप्ति के बाद भी परमात्मा से हीन माना गया है, जब कि जैनधर्मदर्शन में परमात्म पद प्राप्ति के पश्चात् जीव को परमात्म स्वरूप ही माना गया है। यह जैन धर्म की अपनी अलग विशेषता है। परमज्ञानी परमात्मा की पावन वाणीजीव की इस अनुपम एवं असाधारण स्थिति का स्पष्ट बोध कराती है। प्रमाण, नय, निक्षेप,सप्तभंगी एवं स्याद्वादशैली से संवृत्त जिनवाणीमय जिनागमों के गहन अध्ययन के लिए विभिन्न संदर्भग्रन्थों का अनुशीलन अत्यंत आवश्यक है। ___ आज से सौ साल पूर्व उचित साधनों के अभाव में जिनागमों का अध्ययन अत्यन्त दुष्कर था। विश्व के विद्वान जिनागम की एक ऐसी कुंजी तलाश रहे थे, जो सारे रहस्य खोल दे और उनकी ज्ञानपिपासा बुझा सके। ऐसे समय में एक तिरसठ वर्षीय वयोवृद्ध त्यागवृद्ध तपोवृद्धएवं ज्ञानवृद्ध दिव्य पुरुष ने यह काम अपने हाथ में लिया। वे दिव्य पुरुष थे उत्कृष्ट चारित्रा क्रिया पालक गुरुदेवप्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज / उन्होंने जिनागम की कुंजी निर्माण करने का जटिल कार्य सियाणा नगरस्थ श्री सुविधिनाथ जिनालय की छाछाया में अपने हाथ में लिया। कुंजी निर्माण की यह प्रक्रिया पूरे चौदह वर्ष तक चलती रही और सूरत में कुंजी बन कर तैयार हो गयी। यह कुंजी है 'अभिधान राजेन्द्र'। यह कहना जरा भी अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि आगमों का अध्ययन करते वक्त 'अभिधान राजेन्द्र पास में हो तो और कोई ग्रन्थ पास में रखने की कोई आवश्यकता नहीं है। जैनागमों में निर्दिष्ट वस्तुतत्त्व जो 'अभिधान राजेन्द्र में है, वह अन्यत्र हो या न हो, पर जो नहीं है; वह कहीं नहीं है। यह महान ग्रन्थ जिज्ञासु की तमाम जिज्ञासाएँ पूर्ण करता है। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय संस्कृति में इतिहास पूर्वकाल से कोश साहित्य की परम्परा आज तक चली आ रही है। निघंटु कोशमें वेद की संहिताओं का अर्थ स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया है। यास्क' की रचना' निरुक्त' में और पाणिनी के 'अष्टाध्यायी' में भी विशाल शब्द संग्रह दृष्टिगोचर होता है ये सब कोश गद्य लेखन में हैं। इसके पश्चात् प्रारंभ हुआ पद्य रचनाकाल / जो कोश पद्य में रचे गये, वे दो प्रकार से रचे गये। एक प्रकार है, एकार्थक कोश और दूसरा प्रकार है.--अनेकार्थक कोश। कात्यायन की 'नाममाला', वाचस्पति का 'शब्दार्णव', विक्रमादित्य का 'शब्दार्णव' भागुरी का 'त्रिकाण्ड' और धनवन्तरी का निघण्टु, इनमें से कुछ प्राप्य हैं और कुछ अप्राप्य। उपलब्ध कोशों में अमरसिंह का 'अमरकोश' अत्यधिक प्रचलित है। धनपाल का 'पाइयलच्छी नाम माला' 276 गाथात्मक है और एकार्थक शब्दों का बोध कराता है। इसमें 668 शब्दों के प्राकृत रूपप्रस्तुत किये गये हैं। आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिजीने 'पाइयलच्छी नाम माला' पर प्रामाणिकता की मुहर लगाई है। धनञ्जय ने 'धनञ्जय नाम माला' में शब्दान्तर करने की एक विशिष्ट पद्धति प्रस्तुत की है। 'धर' शब्द के योग से पृथ्वी वाचक शब्द पर्वत वाचक शब्द बन जाते हैं-जैसे भूधर, कुधर इत्यादि। इस पद्धति से अनेक नये शब्दों का निर्माण होता हैं। इसी प्रकार धनञ्जय ने 'अनेकार्थनाममाला' की रचना भी की है। कलिकाल, सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य के 'अभिधान चिन्तामणि','अनेकार्थसंग्रह', निघण्टु संग्रह और देशी नाममाला' आदि कोश ग्रन्थ सुप्रसिद्ध हैं। इसके अलावा 'शिलोंछ कोश' 'नाम कोश'शब्द चन्द्रिका', 'सुन्दर प्रकाश शब्दार्णव', शब्दभेद नाममाला'' नाम संग्रह' ,शारदीय नाममाला', शब्द रत्नाकर', 'अव्ययैकाक्षर नाममाला' शेष नाममाला, 'शब्द सन्दोह संग्रह','शब्द रत्न प्रदीप','विश्वलोचन कोश','नानार्थ कोश' पंचवर्ग संग्रह नाम माला','अपवर्ग नाम माला', एकाक्षरी नानार्थ कोश, 'एकाक्षर नाममलिका', एकाक्षर कोश', 'एकाक्षर नाममाला', 'द्वयक्षर कोश', 'देश्य निर्देश निघण्टु', 'पाइय सद्दमहण्णव','अर्धमागधी डिक्शनरी', 'जैनागम कोश','अल्पपरिचित सैद्धान्तिक कोश', 'जैनेन्द्र सिद्धांत कोश' इत्यादिअनेक कोश ग्रन्थ भाषा के अध्ययनार्थ रचे गये हैं। इनमें से कई कोश ग्रन्थ 'अभिधान राजेन्द्र के पूर्व प्रकाशित हुए हैं और कुछ पश्चात् भी। 'अभिधान राजेन्द्र की अपनी अलग विशेषता है। इसी विशेषता के कारण यह आज भी समस्त कोशग्रन्थों का सिरमौर बना हुआ है। सच तो यह है कि जिस प्रकार सूर्य को दीया दिखाने की आवश्यकता नहीं होती, उसी प्रकार इस महाग्रन्थ को प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं है। सूर्य स्वयमेव प्रकाशित है और यह ग्रन्थराज भी स्वयमेव प्रमाणित है, फिर भी इसकी कुछ विशेषताएं प्रस्तुत करना अप्रासंगिक नहीं होगा। 'अभिधान राजेन्द्र अर्धमागधी प्राकृत भाषा का कोश है। भगवान महावीर के समय में प्राकृत लोक भाषा थी। उन्होंने इसी भाषा में आम आदमी को धर्म का मर्म समझाया। यही कारण है कि जैन आगमों की रचना अर्धमगामी प्राकृत में की गई। इस महाकोष में श्रीमद् ने प्राकृत शब्दों का मर्म'अकारादिक्रम से समझाया है, यह इस महाग्रंथ की वैज्ञानिकता है। उन्होंने मूल प्राकृत शब्द का अर्थ स्पष्ट करते वक्त उसका संस्कृत रूप, लिंग, व्युत्पत्ति का ज्ञान कराया है, इसके अलावा उन शब्दों के तमाम अर्थ सन्दर्भ सहित प्रस्तुत किये हैं। वैज्ञानिकता के अलावा इसमें व्यापकता भी है जैन धर्म-दर्शन का कोई भी विषय इससे अछूता नहीं रह गया है। इसमें तथ्य प्रमाण सहित प्रस्तुत किये गये हैं। इसमें स्याद्वाद, ईश्वरवाद, सप्तनय, सप्तभंगी, षड्दर्शन, नवतत्त्व, अनुयोग, तीर्थ परिचय आदि समस्त विषयों की सप्रमाण जानकारी है। सत्तानवे सन्दर्भग्रंथ इसमें समाविष्ट हैं। वैज्ञानिक और व्यापक होने के साथ-साथ यह सुविशाल भी हैं। सात भागों में विभक्त यह विश्वकोश लगभग दस हजार रॉयल पेजों में विस्तारित है। इसमें धर्म-संस्कृति से संबधित लगभग साठ हजार शब्द सार्थव्यख्यायित हुए हैं। उनकी पुष्टि-सप्रमाण व्याख्या के लिए इसमें चार लाख से भी अधिक श्लोक उद्धृत किये गये हैं। इसके सात भागों को यदि कोई सामान्य मनुष्य एक साथ उठाना चाहे, तो उठाने के पहले उसे कुछ विचार अवश्य ही करना पड़ेगा। इस महाग्रंथ के प्रारंभिक लेखन की भी अपनी अलग कहानी है। जिस जमाने में यह महाग्रंथ लिखा गया, उस समय लेखन साहित्य का पूर्ण विकास नहीं हुआ था। श्रीमद् गुरुदेव ने रात के समय लेखन कभी भी नहीं किया। कहते हैं वे कपड़े का एक छोटा सा टुकड़ा स्याही से तर कर देते थे और उसमें कलमगीली करके लिखते थे। एक स्थान पर बैठ कर उन्होंने कभी नहीं लिखा। चार्तुमास काल के अलावा वे सदैव विहार--रत रहे। मालवा, मारवाड़, गुजरात के प्रदेशों में उन्होंने दीर्घ विहार किये , प्रतिष्ठा-अंजनशलाका, उपधान, संघप्रयाण आदि अनेक धार्मिक व सामाजिक Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्य सम्पन्न किये, जिज्ञासुओं की शंकाओं का समाधान किया और प्रतिपक्षियों द्वारा प्रदत्त मानसिक संताप भी सहन किये। साथ-साथ ध्यान और तपश्चर्या भी चलती रही। ऐसी विषम परिस्थिति में केवल चौदह वर्ष में एक व्यक्ति द्वारा इस' जैन विश्वकोश' का निर्माण हुआ, यह एक महान आश्चर्य है। इस महान ग्रंथ के प्रणयन ने उन्हें विश्वपुरुष की श्रेणी में प्रतिष्ठित कर दिया है और विश्वपूज्यता प्रदान की है। श्रीमद् विजय यशोदेवं सूरिजी महाराज'अभिधान राजेन्द्र' और इसके कर्ता के प्रति अपना भावोल्लास प्रकट करते हुए लिखते हैं --आज भी यह (अभिधान राजेन्द्र) मेरा निकटतम सहचर है। साधनों के अभाव के जमाने में यह जो महान कार्य सम्पन्न हुआ है, इसका अवलोकन करके मेरा मन आश्चर्य के भावों से भर जाता है और मेरा मस्तक इसके कर्ता के इस भगीरथ पुण्य पुरुषार्थ के आगेझुक जाता है। मेरे मन में उनके प्रति सम्मानका भाव उत्पन्न होता है, क्योंकि इस प्रकार के (महा) कोश की रचना करने का आद्य विचार केवल उन्हें ही उत्पन्न हुआ और इस विकट समय में अपने विचार पर उन्होंने पालन भी किया। यदि कोई मुझसे यह पूछे कि जैन साहित्य के क्षेत्र में बीसवीं सदी की असाधारण घटना कौन सी है, तो मेरा संकेत इस कोश की ओर ही होगा, जो बड़ा कष्ट साध्य एवं अर्थसाध्य है। प्रस्तुत बृहद् विश्वकोशको पुनः प्रकाशित करने की हलचल और हमारा दक्षिण विहार दोनों एक साथ प्रारम्भ हुए। बंबई चार्तुमास में हमारा अनेक मुनिजनों और विद्वानों से साक्षात्कार हुआ।जो भी मिला उसने यही कहा कि 'अभिधान राजेन्द्र' जो किदुलर्भ हो गया है, उसे पुनः प्रकाशित करके सर्वजन सुलभ किया जाये। हमें यह भी सुनना पड़ा कि यदिआपके समाज के पास वर्तमान में इसके प्रकाशन की कोई योजना न हो, तो हमें इनके प्रकाशन का अधिकार दीजिये। हमनें उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा कि त्रिस्तुतिक जैन संघ इस मामले में सम्पन्न एवं समर्थ है।'अभिधान राजेन्द्र यथावसर शीघ्र प्रकाशित होगा। श्रीमद् पूज्य गुरुदेव की यहमहती कृपा हुई कि हम क्रमशः विहार करते हुए मद्रास पहुँच गये। तामिलनाडू राज्य की राजधानी है यह मद्रास / दक्षिण में बसे हुएदूर-दूर के हजारों श्रद्धालुओं ने इस चार्तुमास में मद्रास की यात्रा की। मद्रास चार्तुमास आज भी हमारे लिए स्मरणीय है। चार्तुमास समाप्ति के पश्चात् पौष सुदी सप्तमी के दिन मद्रास में गुरु सप्तमी उत्सव मनाया गया। गुरुसप्तमी प्रातः स्मरणीय पूज्य गुरुदेव श्री राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज साहब का जन्म और स्मृति दिन है। गुरु सप्तमी के पावन अवसर पर एक विद्वद् गोष्ठी का आयोजन किया गया। उपस्थित विद्वानों ने अपने प्रवचन में पूज्य गुरुदेव श्री के महान कार्यों की प्रशस्ति करते हुए उनकी समीचीनता प्रकट की और प्रशस्ति में 'अभिधान राजेन्द्र' का उचित मूल्यांकन करते हुए इसके पुर्नमुद्रण की आवश्यकता पर जोर दिया। इस ग्रन्थराज का प्रकाशन एक भगीरथ कार्य है। इस महत्त्वपूर्ण कार्य का बीड़ा उठाने का आह्वान मैंने मद्रास संघ को किया। आह्वान होते ही संघ हिमाचल से गुरुभक्ति गंगा उमड़ पड़ी। इस महत्कार्य के लिए भरपूर सहयोग का हमें आश्वासन प्राप्त हुआ। ग्रन्थ की छपाई गतिमान हुई, पर 'श्रेयांसि बहुविध्नानि' की उक्ति के अनुसार हमें यह पुनीत कार्य स्थगित करना पड़ा। कोई ऐसा अवरोध इसके प्रकाशन मार्ग में उपस्थित हो गया कि उसे दूर करना आसान नहीं था। प्रकाशनको स्थगित करना सबके लिए दुःखदथा, पर मैं मजबूर था।आंतरिक विरोधको जन्म देकर कार्य करना मुझे पसन्द नहीं है। __ हमारी इस मजबूरी से नाजायज लाभ उठाया-दिल्ली की प्रकाशन संस्थाओं ने.. ................ / उन्होंने इस पुनीत ग्रन्थ को शुद्ध व्यावसायिक दृष्टि से चुपचाप प्रकाशित कर दिया। श्रीमद् गुरुदेव ने जो भी लिखा, स्वान्तःसुखाय और सर्वजन हिताय लिखा, व्यवसायियों के लिए नहीं। यही कारण है कि इसकी प्रथम आवृत्ति में यह स्पष्ट कर दिया कि इसके पुनःप्रकाशन का अधिकार त्रिस्तुतिकसकल संघको है। ' त्रिस्तुतिकसमाजकी इस अनमोलधरोहर को प्रकाशित करने से पहले त्रिस्तुतिक समाज को इसके प्रकाशन से आगाह करना आवश्यकथा / ऐसा न करके अन्य प्रकाशकों ने एक तरह से नैतिकता का भंग ही किया है। श्री भाण्डवपुर तीर्थ पर अखिल भारतीय श्रीसौधर्मवृहत्तपोगच्छीय श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघका विराट अधिवेशन सम्पन्न हुआ। देश के कोने-कोने से गुरुभक्त उस अधिवेशन के लिए उपस्थित हुए ! पावनपुण्यस्थल श्री भाण्डवपुर भक्तजनों के भक्तिभाव की स्वर लहरियों से गूंज उठा। अधिवेशन प्रारंभ हुआ। संयमयःस्थविर मुनिप्रवर श्री शान्तिविजयजी महाराज साहब आदि मुनि मण्डल की सान्निध्यता में मैंने संघ के समक्ष विश्व की असाधारण कृत्ति इस 'अभिधान राजेन्द्र' के पुनःप्रकाशन का प्रस्ताव रखा / श्री संघ ने हार्दिक प्रसन्नता व हार्दिक व अपूर्व भावोल्लास के साथ मेरा प्रस्ताव स्वीकार किया और उसी जाजम पर श्रीसंघने इसे प्रकाशित करने की घोषणा कर दी / परमकृपालु श्रीमद् गुरुदेव के प्रति श्री संघ की यह अनन्य असाधारण भक्ति सराहनीय है। और आज अखिलभारतीय श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिकसंघके द्वारा यह कोशग्रन्थ पुनर्मुद्रित होकर विद्वज्जनों के समक्ष प्रस्तुत हो रहा है, यह हम सबक लिए परम आनंद का विषय है। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरपट्टप्रभाकर-चत्राचक्रवर्ति-आगमरहस्यवेदी-श्रुतस्थविरमान्य श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-श्रीमद्विजयधनचन्द्रसूरिजी महाराज तामा विद्वच्चकोरजनमोदकर प्रसन्नं, शुभ्रव्रतं सुकविकैरसवद्विलासम् / हृद्ध्वान्तनाशकरणे प्रसरत्प्रतापं, वन्दे कलानिधिसमं धनचन्द्रसूरिम् // 1 // Page #16 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस महाग्रन्थ के पुनर्मुद्रण हेतु एक समिति का गठन किया गया है, फिर भी इस प्रकाशन में अपना अमूल्य योगदान देने वाले श्रेष्ठिवर्य संघवी श्री गगलभाई अध्यक्ष अभा सौ.बृ.त्रिस्तुतिक संघ गुजरात विभागीय अध्यक्ष श्री हीराभाई, मंत्री श्री हिम्मतभाईएवं स्थानीय समस्त कार्यकताओं की सेवाओं को कभी भी भुलाया नहीं जा सकता / इनकी सेवाएं सदा स्मरणीय हैं। इस कार्य में हमें पंडित श्रीमफतलाल झवेरचन्द का स्मरणीय योगदान मिला है / प्रेसकार्य, प्रफरीडिंग एवं प्रकाशन में हमें उनसे अनमोल सहायता मिली है। हम उन्हें नहीं भूल सकते। त्रिस्तुतिक संघ के समस्त गुरुभक्तों ने इस प्रकाशन हेतु जो गुरुभक्ति प्रदर्शित की है, वह इतिहास में अमर हो गई है ! वे सब धन्यवाद के पात्रा हैं, जिन्होंने इस कार्य में भाग लिया है ।शुभम्। नेनावा (बनासकांठा) दिनांक 2-12-1985 - आचार्य जयन्तसेनसूरि Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभार-प्रदर्शनम्। --0-- सुविहितसूरिकुलतिलकायमान-सकलजैनागमपारदृश्व-आबालब्रह्मचारी-जङ्गमयुगप्रधान-प्रातःस्मरणीय-परमयोगिराजक्रियाशुद्ध्युपकारक-श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-सितपटाचार्य-जगत्पूज्य गुरुदेव-भट्टारक श्री 1008 प्रभु श्रीमद् - विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज ने 'श्रीअभिधानराजेन्द्र' प्राकृतमागधी महाकोश का सङ्कलनकार्य मरुधरदेशीय श्री सियाणा नगर में संवत् 1946 के आश्विनशुक्लद्वितीया के दिन शुभ लग्न में आरम्भ किया। इस महान् संकलनकार्य में समय समय पर कोशकर्ता के मुख्य पट्टधर शिष्य श्रीमद्धनचन्द्रसूरिजी महाराज ने भी आपको बहुत सहायता दी। इस प्रकार करीब साढे चौदह वर्ष के अविश्रान्त परिश्रम के फलस्वरूप में यह प्राकृत बृहत्कोष संवत् 1960 चैत्र-शुक्ला 13 बुधवार के दिन श्रीसूर्यपुर (सूरत-गुजरात) में बनकर परिपूर्ण (तैयार) हुआ / गवालियर-रियासत के राजगढ़ (मालवा) में गुरुनिर्वाणोत्सव के समय संवत् 1663 पौष शुक्ला 13 के दिन महातपस्वी-मुनिश्रीरूपविजयजी, मुनिश्रीदीपविजयजी, मुनिश्रीयतीन्द्रविजयजी, आदि सुयोग्य मुनिमहाराजाओं की अध्यक्षता में मालवदेशीय -छोटे बड़े ग्राम-नगरों के प्रतिष्ठित-सद्गृहस्थों की सामाजिक-मिटिंग में सर्वानुमत से यह प्रस्ताव पास हुआ कि-मर्हम-गुरुदेव के निर्माण किए हुए 'अभिधानराजेन्द्र प्राकृत मागधी महाकोश का जैन और जैनेतर समानरूप से लाभ प्राप्त कर सकें, इसलिए इसको अवश्य छपाना चाहिए, और इसके छपाने के लिए रतलाम (मालवा) में सेठ जसुजी चतुर्भुजजीत्-मिश्रीमलजी मथुरालालजी, रूपचंदजी रखबदासजीत्-भागीरथजी, वीसाजी जवरचंदजीत्- प्यारचंदजी और गोमाजी गंभीरचंदजीत्-निहालचंदजी, आदि प्रतिष्ठित सद्गृहस्थों की देख-रेख में श्रीअभिधानराजेन्द्र-कार्यालय और 'श्रीजैनप्रभाकरप्रिन्टिगप्रेस स्वतन्त्र खोलना चाहिए / कोष के संशोधन और कार्यालय के प्रबन्ध का समस्त-भार दिवंगत पूज्य गुरुदेव के सुयोग्य-शिष्य-मुनिश्रीदीपविजयजी (श्रीमद्विजयभूपेन्द्रसूरिजी) और मुनिश्रीयतीन्द्रविजयजी को सोंपा जाए। बस, प्रस्ताव पास होने के बाद सं० 1964 श्रावणसुदी 5 के दिन उक्त कोश को छपाने के लिए रतलाम में उपर्युक्त कार्यालय और प्रेस खोला गया और उक्त दोनों पूज्य-मुनिराजों की देख-रेख से कोश क्रमशः छपना शुरू हुआ, जो सं० 1981 चैत्रवदि 5 गुरुवार के दिन संपूर्ण छप जाने की सफलता को प्राप्त हुआ। इस महान् कोश के मुद्रणकार्य में कुवादिमतमतंगजमदभञ्जनकेसरीकलिकालसिद्धान्तशिरोमणी-प्रातःस्मरणीय-आचार्यश्रीमद्धनचन्दसूरिजी महाराज, उपाध्याय–श्रीमन्मोहनविजयजी महाराज, सचारित्रीमुनिश्रीटीकमविजयजी महाराज, पूर्णगुरुदेवसेवाहेवाक-मुनिश्रीहुकुमविजयजी महाराज, सत्क्रियावान्--महातपस्वी-मुनिश्रीरूपविजयजी महाराज; साहित्यविशारद-विद्याभूषण-श्रीमद्विजयभूपेन्द्रसूरिजी महाराज, व्याख्यानवाचस्पत्युपाध्याय-मुनिश्रीयतीन्द्रविजयी महाराज, ज्ञानी ध्यानी मौनी महातपस्वी-मुनिश्रीहिम्मतविजयजी मुनिश्री लक्ष्मीविजयजी, मुनिश्री-गुलाबविजयजी, मुनिश्री-हर्षविजयजी, मुनिश्रीहंसविजयजी, मुनिश्री--अमृतविजयजी, आदि मुनिवरों ने अपने अपने विहार में दरमियान समय समय पर श्रीसंघ को उपदेश दे देकर तन, मन और धन से पूर्ण सहायता पहुँचाई, और स्वयं भी अनेक भाँति परिश्रम उठाया है, अतएव उक्त मुनिवरों का कार्यालय आभारी है। जिन जिन ग्राम-नगरों के सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय--श्रीसंघ ने इस महान् कोषाङ्कन कार्य में आर्थिक सहायता प्रदान की है, उनकी शुभसुवर्णाक्षरी नामावली इस प्रकार है श्रीसाधर्मबृहत्तपोगच्छीय श्रीसंघ-मालवा श्रीसंघ रतलाम, वाँगरोद, राजगढ़,जावरा, वारोदा-बड़ा,झाबुवा,बड़नगर, सरसी, झकणावदा,खाचरोद,मुंजाखेड़ी, कूकसी, Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुविशाल गच्छाधिपति-शासन सम्राट-धर्म चक्रवर्ती राष्ट्रसन्त-श्रुत दिवाकर-स्मित भास्कर-अनेकांत के जगदर्शन श्रमण शाश्वत धर्म के प्राण व दिशादर्शक-क्षमा दानेश्वरी-जन जन के वात्सल्य महोदधि व प्रेरणा पुंज-सत्साहित्य विधायक-जीव जगत् के अक्षय अभयारण्य श्रीमद् विजय जयन्तसेन सूरीश्वरजी महाराज साहब Page #20 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13 मन्दसोर, खरसोद-बड़ी, आलीराजपुर, सीतामऊ, चीरोला-बड़ा, रींगनोद, निम्बाहेड़ा, मकरावन, राणापुर, इन्दौर, बरड़िया, पारा, उज्जैन, (भाट) पचलाना, टांडा, महेन्दपुर, पटलावदिया, बाग, नयागाम, पिपलोदा, खवासा, नीमच-सिटी, दशाई, रंभापुर, संजीत, बड़ी-कड़ोद, अमला, नारायणगढ़, धामणदा, बोरी, बरड़ाबदा, राजोद, नानपुर श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीयसंघ--गुजरात-- श्रीसंघ-अहमदाबाद, थिरपुर (थराद्), ढीमा, वीरमगाम, वाव, दूधवा, सूरत, भोरोल, वात्यम, साणंद, धानेरा, वासण , बम्बई, धोराजी, जामनगर, पालनपुर, डुवा, खंभात, श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-संघ-मारवाड़ श्रीसंघ-जोधपुर, भीनमाल, शिवगंज, आहोर, साचोर, कोरटा, जालोर, बागरा, फतापुरा, भेसवाड़ा, धानपुर, जोगापुरा, रमणिया, आकोली, भारंदा, मांकले सर, साथू, पोमावा, देवावस, सियाणा, बीजापुर, विशनगढ़, काणोदर, बाली, मांडवला, देलंदर, खिमेल, गोल, मंडवारिया, सांडेराव, साहेला, बलदूट, खुडाला, आलासण, जावाल, राणी, रेवतड़ा, सिरोही, खिमाड़ा, धाणसा, सिरोड़ी, कोशीलाव, बाकरा, हरजी, पावा, मोदरा, गुडाबालोतरा, एंदला का गुड़ा, थलवाड़, भूति, चाँणोद, मेंगलवा, तखतगढ़, डूडसी, सूराणा, सेदरिया, थाँवला, दाधाल, रोवाडा, जोयला, धनारी, भावरी, काचोली, इनके सिवाय दूसरे भी कई गाँवो के संघों की ओर से मदद मिली है, उन सभी का कार्यालय शुद्धान्तःकरण से पूर्ण आभारी है। श्रीअभिधानराजेन्द्रकार्यालय, रतलाम (मालवा) // श्रीः॥ मत्तभ्रान्तविपक्षदन्तिदमने पञ्चाननग्रामणीराजेन्द्राभिधकोशसंप्रणयनात् संदीप्तजैनाऽऽगमः संघस्योपकृतिप्रयोगकरणे नित्यं कृती तादृशो, कोऽन्यः सूरिपदाङ्कितोविजयराजेन्द्रात्परोन्योस्तिकः // Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशान्त-वपुषं श्रीमद् राजेन्द्रसूरिं नुमः विद्यालङ्करणं सुधर्मशरणं मिथ्यात्विनां दूषणं, विद्वन्मण्डलमण्डनं सुजनता सदोधिबीजपदम् / सच्चरित्रनिधिं दयाभरविधि प्रज्ञावतामादिमम्, जैनानां नवजीवनं गुरुवरं राजेन्द्रसूरिं नुमः / / 1 / / धुर्यो यो दशसंख्येकेऽपि यतिनां धर्मे द्रढः संयमे, सत्वात्मा जनतोपकारनिरतो भव्यात्मनां बोधकः / शास्त्राणां परिशीलने दृढमतिानी क्षमावारिधि स्तं शान्तं करुणावतारमनिशं राजेन्द्रसूरि नुमः // 2 // वाणी यस्य सुधासमाऽतिमधुरा दृष्टिमहाजञ्जुला, संव्रज्या सुखशान्तिदा खलु सदाऽन्यायादिदोषापहा / बुद्धिलॊकसुखानुचिंतनपरा कल्याणकों नृणां, लोके सुप्रथिपताऽस्ति तं गुरुवरं राजेन्द्रसूरि नुमः // 3 // य कर्ता जिनबिम्बकाञ्जनशलाका नामनेकाऽऽत्मनां, मूर्तिश्चापि जिनेश्वरस्य शतशः प्रातिष्ठिपन्मन्दिरे / जीर्णोद्धारमनेकजैननिलयस्याचीकरच्छावकै स्तं सत्कार्यकरं मुदा गुरुवरं राजेन्द्रसूरि नुमः॥४॥ लोके यो विहरन् सदा स्ववचनैर्वैरं मिथो देहिनां, दूरीकृत्य सहानुभूतिरुचिरां मैत्री समावर्धयत् / मूढाँश्चापि हितोपदेशवचसा धर्मात्मनः संव्यधाद्, देशोपद्रवनाशकं तमजित राजेन्दसूरिं नुमः // 5 // यो गङ्गाजलभिर्मलान् गुणगुणान् संधारयन् वर्णिराट्, यं यं देशमञ्चकार गरनैस्तं तं त्वपायीन्मुदा। सच्छास्त्रामृतवाक्यावर्षणवशाद् मेघव्रतं योऽधरन, तं सज्ज्ञानसुधानिधिं कृतिनुतं राजेन्दसूरि नुमः // 6 // तेजस्वी तपसा प्रदीप्तवदनः सौम्योऽतिवक्ताचलः, शास्त्रार्थेषु परान् विजित्य विविधर्मानेस्तथा युक्तिभिः / शिष्यांस्तानकरोत्स्वधर्मनिरतान् यो ज्ञानसिन्धुः प्रभु स्ते सूरिप्रवरं प्रशान्त-वपुषं राजेन्द्रसूरिः नुमः // 7 // लोकान्मंदमतीन्स्वधर्मविमुखप्रायान् बहून् वीक्ष्य यो, ___ जैनाचार्यनिबद्धसर्वनिगमानालोङय बुद्ध्या चिरम् / मान् बोधियितुं सुखेन विशदान् धर्मान्महामागधीकोशं संव्यत्तनोत्तमच्छमनसा राजेन्द्रसूरिं नुमः // 8 // गुरुवरगुणराजिम्राजितं सारभूतं, परिपठति मनुष्यो योऽष्टकं शुद्धमेत्तद् / अनुभवति स सर्वां सम्पदं मानावानामिति वदति मुनीशो वाचको मोहनाख्यः // 6 // -उपाध्याय श्री मोहनविजयजी महाराज Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 अर्हम् ग्रन्थकर्ता का संक्षिप्त जीवन परिचय / रागद्वेषप्रदाकुद्वयदलनकृते वैनतेयत्वमाप्तः, सूरीणामग्रगण्यो गुणगणमहितो मोहनीयस्वरूपः / यः "श्रीराजेन्द्रसूरि'' जगति गुरुवरःसाधुवर्गे वरिष्ठः, तस्य स्मर्तुं चरित्रं कियदपि यतते 'श्रीयतीन्द्रो' मुनीद्रः / / 1 / / आज हम उन महानुभाव करुणामूर्ति उपशम (शान्त) रसस्वरूप वर्तमान सकलजैनागमपारदर्शी श्रीसौधर्मबृहत्तपागच्छीय प्रवर जैनाचार्य भट्टारक श्रीश्री 1008 श्रीमद्-विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज का अत्यन्त प्रभावशाली संक्षिप्त जीवन-परिचय देंगे, जो कि इस भारत भूमि में अनेक विद्वज्जनों के पूज्य परोपकारपरायण महाप्रभावक आचार्य हो गये हैं। पूर्वोक्त महात्मा का जन्म श्री विक्रम संवत् 1883 पौषशुक्ल 7 गुरुवार मुताबिक सन् 1826 ईस्वी दिसम्बर 3 तारीख के दिन 'अछनेरा' रेल्वे स्टेशन से 17 मील और 'आगरे के किले से 34 मील पश्चिम राजपूताना में एक प्रसिद्ध देशी राज्य की राजधानी शहर 'भरतपुर' में पारखगोत्रावतंस ओश(वाल) वंशीय श्रेष्ठिवर्य श्रीऋषभदास जी' की सुशीला पत्नी 'श्रीकेसरी बाई' सौभाग्यवती की कुक्षि (कूँख) से हुआ था। आपका नाम रत्नों की तरह देदीप्यमान होने से जातीय जीमनवार पूर्वक 'रत्नराज' रखा गया था। आपके जन्मोत्सव में भगवद्भक्ति, पूजा, प्रभावना, दान आदि सत्कार्य विशेष रूप से कराये गये थे, यहाँ तक कि नगर की सजावट करने में भी कुछ कमी नहीं रखी गई थी। आपकी बाल्यावस्था भी इतनी प्रभावसंपन्न थी कि जिसने आपके माता पिता आदि परिवार के क्या? अपरिचित सज्जनों के भी चित्तों में आनन्द सागर का उल्लास कर दिया, अर्थात सबके लिये आनन्दोत्पादक और अतिसुखप्रद थी। आपने अपने बाल्यावस्था ही में सुरम्य वैनयिक गुणों से माता पिता और कलाचार्यों को रञ्जित कर करीब दस बारह वर्ष की अवस्था में ही सांसारिक सब शिक्षाएँ संपन्न करली थीं। आपके ज्येष्ठ भ्राता 'माणिकचन्दजी' और छोटी बहन 'प्रेमाबाई' थी। पूज्य लोगों की आज्ञा पालन करना और माता-पिता आदि पूज्यों को प्रणाम करना और प्रातःकाल उठकर उनके चरण कमलों को पूजकर उनसे शुभाशीर्वाद प्राप्त करना, यह तो आपका परमावश्यकीय नित्य कर्त्तव्य कर्म था। आपकी रमणीय चित्तवृत्ति निरन्तर स्वाभाविक वैराग्य की ओर ही आकर्षित रहा करती थी, इसीसे आप विषयवासनाओं से रहित होकर परमार्थ सिद्ध करने में और उच्चतम शिक्षाओं को प्राप्त करने में उत्साही रहते थे। सबके साथ मित्रभाव से वर्तना, पूज्यों पर पूज्य बुद्धि रखना, गुणवानों के गुणों को देख कर प्रसन्न होना, सत्समागम की अभिलाषा रखना कलह से डरना, हास्य कुतूहलों से उदासीन रहना, ओर दुर्व्यसनी लोगों की संगति से बचकर चलना, यह आपकी स्वाभाविक चित्तवृत्ति थी। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 बारह वर्ष की अवस्था से कुछ ऊपर होने पर अपने पिता की आज्ञा लेकर बड़े भाई 'माणिकचंदजी' के साथ 'श्रीकेसरियाजी' महातीर्थ की यात्रा की, और रास्ते में 'अम्बर' शहर-निवासी सेठ 'सौभाग्यमलजी' की पुत्री के डाकिनी का दोष निवारण किया और भीलों के संकट से सारे कुटुम्ब को बचाया था। इसी सबब से इस उपकार के प्रत्युपकार में 'सौभाग्यमलजी ने अपनी सुरुपा पुत्री 'रमादेवी' का सगपन (सगाई) आप (रत्नराज) के साथ संयोजन करने का मानसिक विचार किया था। परन्तु यहाँ संबन्धियों का संमेलन न होने के सबब से सेठजी अपने कुटुम्ब सहित घर की तरफ रवाना हो गये। इधर 'माणिकचंदजी' भी अपने छोटे भाई को यात्रा कराकर 'गोडवाड' की पञ्चतीर्थो की यात्रा करते हुए अपने घर को चले आये। कुछ दिन घर में रहकर फिर दोनों भाई व्यापारोन्नति के निमित्त अपने पिता का शुभाशीर्वाद ले बङ्गाल की ओर रवाना हुए। क्रमशः पन्थ प्रसार करते हुए दोनों भाई 'कलकत्ते' शहर में आए और सर्राफी बाजार में आदतिया के यहाँ उतरे। इस शहर में दस पन्द्रह दिन ठहर कर जहाजों में धान (गल्ला) भर, शुभ मुहूर्त में 'सिंहलद्वीप' (सिलोन) की ओर रवाना हुए। मार्ग में अनेक उपद्रवों को सहन करते हुए 'सिंहलद्वीप' में पहुँचे / यहाँ से द्रव्योपार्जन करके कुछ दिनों के बाद कलकत्ता' आदि शहरों को देखते हुए अपने घर को आये। तदनन्तर माता-पिता की वृद्धावस्था समझ कर उनकी सेवा में तत्पर हो वहाँ ही रहना स्थिर किया। काल की प्रबल गति अनिवार्य है, यह मनुष्यों को दुःखित किये बिना नहीं रहती। अकस्मात् ऐसा समय आया कि-माता और पिता के अन्तिम दिन आ पहुँचे और दोनों भाइयों को अत्यन्त शोक होने का अवसर आ गया, परन्तु किञ्चित् धैर्य पकड़ कर माता पिता की अन्तिम भक्ति करने में कटिबद्ध हो, उनकी सुन्दर शिक्षाएँ सावधानी से ग्रहण की, और रातदिन उनके निकट ही रहना शुरू किया, यों करते काल समय आने पर जब माता पिता का देहान्त हो गया, तब दोनों भाई संसारी कृत्य कर विशेष शोक के वशीभूत न हो धर्मध्यान में निमग्न हुए। / तब से आपकी सुरम्य चित्तवृत्ति विशेषरूप से निरन्तर वैराग्य की ओर ही आकर्षित रहने लगी, इसी से आप विषयवासनाओं से रहित होकर परमार्थ सिद्ध करने में और उच्चतम मुनिराजों के दर्शन प्राप्त करने में प्रोत्साहित रहते थे। एक समय श्रीकल्याणसूरिजी' महाराज के शिष्य यतिवर्य श्री प्रमोदविजयजी महाराज विचरते विचरते शहर 'भरतपुर' में पधारे और आज्ञा लेकर उपाश्रय में ठहरे। सब लोग आपके पास व्याख्यान सुनने आने लगे। इधर 'रत्नराज' भी देव दर्शन कर उपाश्रय में व्याख्यान सुनने के लिये आये। इस सुयोग्य सभा में 'श्रीप्रमोदविजयजी' महाराज ने संसार की क्षणिक प्रीति के स्वरूप को बहुत विवेचन के साथ दिखाया कि "अनित्यानि शरीराणि, विभवो नैव शाश्वतः" अर्थात् इस संसार में शरीरादि संयोग सब क्षणिक हैं, याने देखने में तो सुन्दर लगते हैं परन्तु अन्त में अत्यन्त दुःखदायक होते हैं और धन दौलत भी विनाशवान् है इसके ऊपर मोह रखना केवल अज्ञान ही है, क्यों कि "दुःखं स्त्रीकुक्षिमध्ये प्रथममिह भवे गर्भवासे नराणां, बालत्वे चापि दुःखं मललुलिततनुस्त्रीपयः पानमिश्रम् / / तारुण्ये चापि दुःखं भवति विरहजं वृद्धभावोऽप्यसारः, संसारे रे मनुष्याः ! वदत यदि सुखं स्वल्पमप्यस्ति किञ्चित्?" ||1|| Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17 अर्थात् इस संसार में पहिले तो गर्भवास ही में मनुष्यों की जननी के कुक्षि (ख) में दुःख प्राप्त होता है, तदनन्तर बाल्यावस्था में भी मलपरिपूर्ण शरीर स्त्रीस्तनपयः पाने से मिश्रित दुःख होता है, और जवानी में भी विरह आदि से दुःख उत्पन्न होता है, तथा वृद्धावस्था तो बिलकुल निःसार याने कफ वातादि के दोषों से परिपूर्ण है, इसलिये हे मनुष्यो ! जो संसार में थोड़ा भी सुख का लेश हो तो बतलाओ? ||1|| इसवास्ते अरे भव्यो ! परमसुखदायक श्री जिनेन्द्रप्ररूपित अहिंसामय धर्म की आराधना करो जिससे आत्मकल्याण हो। इस प्रकार हृदयग्राहिणी और वैराग्योत्पादिका गुरुवर्य की धर्मदेशना सुनकर 'रत्नराज' के चित्त में अत्यन्त उदा-सीनता उत्पन्न हुई और विचार किया कि-वस्तुगत्या संयोग मोह ही प्राणीमात्र को दुःखित कर देता है, इससे मुझे उचित है कि आत्मकल्याण करने के लिये इन्हीं गुरुवर्य का शरण ग्रहण करूँ, क्योंकि संसार के तापों से संतप्त प्राणियों की रक्षा करने वाले गुरु ही हैं। ऐसा विचार कर अपने संबन्धिवर्गों की अनुमति (आज्ञा) लेकर बड़े समारोह के साथ संवत् 1903 वैशाख सुदी 5 शुक्रवार के दिन शुभयोग और शुभ नक्षत्र में महाराज 'श्री प्रमोदविजयजी' के कहने से उनके ज्येष्ठ गुरुभ्राता 'श्रीहेमविजयजी महाराज के पास यतिदीक्षा स्वीकार की, और संघ के समक्ष आपका नाम 'श्रीरत्नविजयजी' रखा गया। महानुभाव पाठकगण ! उस समय यतिप्रणाली की मर्यादा, प्रचलित प्रणाली से अत्यन्त प्रशंसनीय थी अर्थात् रजोहण मुहपत्ती सर्वदा पास में रखना, दोनों काल (समय) प्रतिक्रमण और प्रतिलेखन करना, श्वेत-मानोपेत वस्त्र धारण करना, स्त्रियों के परिचय से सर्वथा बहिर्भूत रहना, पठन और पाठन के अतिरिक्त व्यर्थ समय न खोकर निद्रादेवी के वशीभूत न होना, निरन्तर अपनी उन्नति के उपाय खोजना, और धर्मविचार या शास्त्रविचार में निमग्न रहना इत्यादि सदाचार से अतीव प्रशंसनीय प्राचीन समय में यतिवर्ग था। जैसे आज कल यतियों की प्रथा बिगड़ गयी है, वैसे वे लोग बिगड़े हुए नहीं थे, किन्तु इनसे बहुत ज्यादा सुधरे हुए थे। हाँ इतना जरूर था कि उस समय (1903) में भी कोई 2 यति परिग्रह रखते थे, परन्तु महाराज श्रीप्रमोदविजयजी' को रहनी कहनी बिलकुल निर्दोष थी, अर्थात् उस समय के और (दूसरे) यतियों की अपेक्षा प्रायः बहुत भागों में सुधरी हुई थी, इसी से पुरुषरत्न'श्री रत्नराजजी ने वैराग्यरागरञ्जित हो यतिदीक्षा स्वीकार की थी। फिर कुछ दिन के बाद 'श्रीप्रमोदविजयजी' गुरु की आज्ञा से श्रीरत्नविजयजी ने 'पूँगी सरस्वती' विरुदधारी यतिवर्य श्रीमान् श्रीसागरचन्द्रजी' महाराज के पास रहकर व्याकरण, न्याय, कोष, काव्य, और अलङ्कार आदि का विशेष रूप से अभ्यास किया। श्रीप्रमोदविजयजी' और श्रीसागरचन्द्रजी' महाराज की परस्पर अत्यन्त मित्रता थी। जब दोनों का परस्पर मिलाप होता था, तब लोगों को अत्यन्त ही आनन्द होता था। यद्यपि दोनों का गच्छ भिन्न २था, तथापि गच्छों के झगड़ो में न पड़कर केवल धार्मिक विचार करने में तत्पर रहते थे, इसलिये 'श्रीसागरचन्द्रजी' ने आपको अपने अन्तेवासी (शिष्य) की तरह पढ़ाकर होशियार किया था। 'सागरचन्द्रजी' मरुधर (मारवाड़) देश के यतियों में एक भारी विद्वान थे, इनकी विद्वता की प्रख्याति काशी जैसे पुण्यक्षेत्र में भी थी, आप ही की शुभ कृपा से श्रीरत्नवियजजी' स्वल्पकाल ही में व्याकरण आदिशास्त्रों में निपुण और जैनागमों के विज्ञाता हो गये, परन्तु विशेषरूप से गुस्साम्य शैली के अनुसार अभ्यास करने के लिये तपागच्छाधिराज श्रीपूज्य श्रीदेवेन्द्रसूरिजी महाराज के पास रहकर जैनसिद्धान्तों का अवलोकन किया और गुरुदत्त अनेक चमत्कारी विद्याओं का साधन किया। आपके विनयादि गुणों की और बुद्धि विलक्षणता को देखकर 'श्रीदेवेन्द्रसूरिजी महाराज ने आपको शहर 'उदयपुर' में श्रीहेमविजयजी' के पास बड़ी दीक्षा और 'पन्यास' पदवी प्रदान करवाई थी और अपने अन्त समय में 'पं० श्रीरत्नविजयजी' से कहा कि-"अब मेरा तो Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 यह समय अलग ही है, और मैंने अपने पाट पर शिष्य श्रीधीरविजय' को धरणेन्द्रसूरि नामाङ्कित करके बैठाया तो है किन्तु अभी यह अज्ञ है, याने व्यवहार से परिचित नहीं है। इसलिये तुमको मैं आदेश करता हूँ कि इसको पढ़ाकर साक्षर बनाना और गच्छ की मर्यादा सिखाना"। इस शुभ आज्ञा को सुनकर पं० रत्नविजयजी' ने साञ्जलिबन्ध होकर तहत्ति' कहा। फिर श्रीपूज्यजी महाराज ने विजयधरणेन्द्रसूरिजी से कहा कि-'तुम रत्नविजय पन्यास के पास पढ़ना और यह जिस मर्यादा से चलने को कहें उसी तरह चलना'। धरणेन्द्रसूरिजी ने भी इस आज्ञा को शिरोधार्य माना। महाराज श्रीदेवेन्द्रसूरिजी ने तो चारों आहार का त्याग कर शहर 'राधनपुर' में अनशन किया और समाधिपूर्वक कालमहीने में काल किया। पीछे से पट्टाधीश श्री धरणेन्द्रसूरिजी' ने 'श्रीरत्नविजयजी' पन्यास को बुलाने के लिये एक रुक्का लिखा कि पेस्तर 'श्रीखन्तिविजयजी' ने खेवटकर उदयपुर राणाजी के पास से 'श्रीदेवेन्द्रसूरिजी महाराज को पालखी प्रमुख शिरोपाव बक्साया था, उसी प्रकार तुम को भी उचित है कि सिद्धविजयजी' से बन्द हुआ जोधपुर और बीकानेर नरेशों की तरफ से छड़ी दुशाला प्रमुख शिरोपाव को खेवटकर फिर शुरू कराओ, इस रुक्के को वाँचकर 'श्री प्रमोदविजयजी महाराज ने कहा कि "सूचिप्रवेशे मुशलप्रवेशः" यह लोकोक्ति बहुत सत्य है, क्यों कि 'श्री हीरविजय सूरिजी महाराज की उपदेशमय वचनों को सुनकर दिल्लीपति बादशाह अकब्बर अत्यन्त हर्षित हुआ और कहने लगा कि"हे प्रभो ! आप पुत्र, कलत्र, धन, स्वजनादि में तो ममत्व रहित हैं इसलिये आपको सोना चाँदी देना तो ठीक नहीं? परन्तु मेरे मकान में जैन मजहब की प्राचीन 2 बहुत पुस्तकें हैं सो आप लीजिये और मुझे कृतार्थ करिये"। इस प्रकार बादशाह का बहुत आग्रह देख हीरविजय सूरिजी' ने उन तमाम पुस्तकों को आगरा नगर के ज्ञानभण्डार में स्थापन किया। फिर आडम्बर सहित उपाश्रय में आकर बादशाह के साथ अनेक धर्मगोष्ठी की; उससे प्रसन्न हो छत्र, चामर, पालखी वगैरह बहु मानार्थ 'श्री हीरविजय सूरिजी' के अगाड़ी नित्य चलाने की आज्ञा अपने नोकरों को दी। तब हीरविजय सूरिजी ने कहा कि हम लोग जंजाल से रहित हैं इससे हमारे आगे यह तूफान उचित नहीं है। बादशाह ने विनय पूर्वक कहा कि- 'हे प्रभो ! आप तो निस्पृह हैं परन्तु मेरी भक्ति है सो आपके निस्पृहपन में कुछ दोष लगने का संभव नहीं है। उस समय बादशाह का अत्यन्त आग्रह देख श्रीसंघ ने विनती की कि-स्वामी ! यह तो जिनशासन की शोभा और बादशाह की भक्ति है इसलिये आपके आगे चलने में कुछ अटकाव नहीं है। गुरुजी ने भी द्रव्य, क्षेत्र,काल,भाव की अपेक्षा विचार मौन धारण कर लिया। बस उसी दिन से श्री पूज्यों के आगे शोभातरीके पालखी छड़ी प्रमुख चलना शुरू हुआ। श्री विजयरत्न सूरिजी महाराज तक तो कोई आचार्य पालखी में न बैठे, परन्तु 'लघुक्षमासूरिजी' वृद्धावस्था होने से अपने शिथिलाचारी साधुओं की प्रेरणा होने पर बैठने लगे। इतनी रीति कायम रखी कि गाँव में आते समय पालखी से उतर जाते थे, तदनन्तर 'दयासूरिजी' तो गाँव नगर में भी बैठने लगे। इस तरह क्रमशः धीरे२ शिथिलाचार की प्रवृत्ति चलते चलते अत्यन्त शिथिल हो गये क्योंकि पेस्तर तो कोई राजा वगैरह प्रसन्न हो ग्राम नगर क्षेत्रादि शिरोपाव देता तो उसको स्वीकार न कर उसके राज्य में जीववधादि हिंसा को छुड़ाकर आचार्य धर्म की प्रवृत्ति में वधारा करते थे, और अब तो श्रीपूज्य' नाम धराकर खुद खेक्ट कराके शिरोपाव लेने की इच्छा करते हैं, यह सब दुःषम काल में शिथिलाचारादिप्रवृत्ति का प्रभाव जानना चाहिये। अत एव हे शिष्य ! "श्रीपूज्यजी ने जो कुछ लिखा है उस प्रमाणे उद्यम करना चाहिये, क्योंकि बहुत दिन से अपना इनके साथ संबन्ध चला आता है उसको एक दम तोड़ना ठीक नहीं है"। तब अपने गुरुवर्य की आज्ञानुसार पन्यास रत्नविजयजी भी नवीन श्रीपूज्यजी को दत्तचित्त होकर पढ़ाना प्रारम्भ किया और गच्छाधीश की मर्यादाऽनुसार बर्ताव कराना शुरू किया। श्री पूज्यजी ने अपने गुरुवर्य की आज्ञानुसार पन्यास श्री रत्नविजयजी को विद्यागुरु समझकर आदर, सत्कार, विनय आदि करना शुरू किया। पन्यासजी ने भी श्रीपूज्य आदि सोलह व्यक्तियों Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को निःस्वार्थ वृत्ति से पढ़ाकर विद्वान् कर दिया। श्रीपूज्यजी महाराज ने अपने विद्यागुरु का महत्त्व बढ़ाने के लिये दफतरीपन का ओहदा अधिकार सौंपा अर्थात् जो पदवियों किसी को दो जायँ और यतियों को अलग चौमासा करने की आज्ञा दी जाय तो उनको पट्टा पन्यास 'श्री रत्नविजयजी' के सिवाय दूसरा कोई भी नहीं कर सके ऐसा अधिकार अर्पण किया। तब ज्योतिष, वैद्यक और मंत्रादि से जोधपुर और बीकानेर नरेशों को रञ्जितकर छड़ी दुशाला प्रमुख शिरोपाव और परवाना श्रीधरणेन्द्रसूरिजी को भेट कराया। एक समय संवत् 1923 का चौमासा 'श्री धरणेन्द्रसूरिजी' ने शहर 'घाणेराव' में किया उस समय पं० श्रीरत्नविजयजी आदि 50 यति साथ में थे परन्तु भवितव्यत अत्यन्त प्रबल होती है करोड़ों उपाय करने पर भी वह होनहार किसी प्रकार टल नहीं सकती, जिस मनुष्य के लिये जितना कर्तव्य करना है वह होही जाता है, याने पर्युषणा में ऐसा मौका आ पड़ा कि श्रीपूज्यजी के साथ श्रीरत्नविजयजी का अतर के बाबत चित्त उद्विग्न हो गया, यहाँ तक कि उस विषय में अत्यन्त वाद विवाद बढ़ गया, इससे रत्नविजयजी भाद्रपद सुदी 2 द्वितीया के दिन 'श्रीप्रमोदरुचि' और 'धनविजयजी' आदि कई सुयोग्य यतियों को साथ लेकर 'नाडोल' होते हुए शहर' 'आहोर' में आये और अपने गुरु श्री प्रमोदविजयजी को सब हाल कह सुनाया। जब गुरुमहाराज ने श्रीपूज्य को हितशिक्षा देने के लिये श्रीसंघ की संमति से पूर्व परंपराऽऽगत सूरिमंत्र देकर रत्नविजयजी को अत्यन्त महोत्सव के साथ संवत् 1923 वैशाख सुदी 5 बुधवार के दिन 'आचार्य' पदवी दी और उसी समय आहोर के ठाकुर साहब 'श्रीयशवन्त सिंह जी ने श्रीपज्य के योग्य छड़ी, चामर, पालखी, सूरजमुखी आदि सामान भेट किया। और श्रीसंघ ने श्रीपूज्यजी को 'श्री विजयराजेन्द्रसूरिजी' महाराज के नाम से प्रख्यात करना शुरू किया। श्रीपूज्य श्री विजयराजेन्द्रसूरिजी महाराज अपनी सुयोग्य यतिमण्डली सहित ग्राम विहार करते हुए मेवाड़देशस्थ 'श्रीशंभूगपधारे। यहां के चौमासी 'श्री फतेहसागरजी' ने फिर पाटोच्छ्व करा के राणाजी के 'कामेती' के पास भेट पूजा करायी। फिर गाँवो गाँव श्रावको से 'खमासमणा' कराते हुए संवत् 1924 का चौमासा 'श्रीसंघ के अत्यन्त आग्रह से शहर 'जावरे' में किया और 'श्रीभगवतीजी' सूत्र को व्याख्यान में बाँचा / यहां पर जनाणी मीठालालजी प्रमुख श्रावकों के मुख से श्रीपूज्यजी की प्रशंसा सुनकर 'नवाबसाहेव' ने एक प्रश्न पूछाया कि- "तुम्हारा धर्म हम अंगीकार करें तो हमारे साथ तुम खाना पीना करसकते हो, या नहीं"? इसका उत्तर श्रीपूज्यजी महाराज ने यह फरमाया कि- "दीन का और जैन का घर एक है इसलिये चाहे जैसी जातिवाला मनुष्य जैनधर्म पालता हो उसके साथ हम बन्धु से भी अधिक प्रेम रख सकते हैं,किन्तु लोकव्यवहार अस्पृश्य जाति न हो तो हम जैन शास्त्र के मुताबिक खाने पीने में दोष नहीं समझते हैं।" इत्यादि प्रश्न का उत्तर सुन और सन्तुष्ट हो अपने वजीर के जरिये मोहर परवाना सहित आपदागिरि, किरणीया, वगैरह लवाजमा भेट कराया। इस चौमासे में 'धरणेन्द्रसूरि' ने एक पत्र (रुक्का) लिखकर अपने नामी यति 'सिद्धकुशलजी' और 'मोतीविजयजी' को जावरे संघ के पास भेजा ! उन दोनों ने आकर संघ से सब वृत्तान्त (हकीकत) कहा, तब संघ ने उत्तर दिया कि-'हम ने तो इनको योग्य और उचित क्रियावान् देखकर श्रीपूज्य मान लिया है और आपके भी श्रीपूज्य गच्छमर्यादाऽनुसार चलेंगे तो हम उन्हें भी मानने को तैयार हैं। इस प्रकार बात चीत करके दोनों यति आपके पास आये और वन्दन विधि करके नयपूर्वक बोले कि आप तो बड़े हैं, थोड़ीसी बात पर इतना भारी कार्य कर डालना ठीक नहीं है, इस गादी की बिगड़ने और सुधरने की चिन्ता तो आपही को है। तब आपने मधुर वचनों से कहा कि मैं तो अब क्रियाउद्धार करने वाला हूँ मुझे तो यह पदवी बिलकुल उपाधिरूप मालूम पड़ती है परन्तु आपके श्रीपूज्यजी गच्छमर्यादा का उल्लंघन करके अपनी मनमानी रीति में प्रवृत्त होने लग गये हैं, इस वास्ते उनको नव कलमें मंजूर कराये बिना अभी क्रियाउद्धार नहीं हो सकता। ऐसा कह नव कलमों की नकल दोनों यतियों को दी, तब उस नकल को लेकर दोनों यति श्रीपूज्यजी के पास गये और सब Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 वृत्तान्त कह सुनाया तब श्रीपूज्यजी ने भी उन कलमों को पढ़ कर और हितकारक समझकर मंजूर की और उस पर अपनी सही। दी और साथ में सूरिपद की अनुमति भी दी। इस प्रकार श्रीधरणेन्द्रसूरिजी को गच्छसामाचारी की नव कलमों को मानकर और अपना पाँच वर्ष का लिया हुवा 'अभिग्रह' पूर्ण हो जावरे के श्रीसंघ की पूर्ण विनती होने से वैराग्यरङ्गरञ्जित हो श्रीपूज्याचार्य श्रीविजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज ने अपना श्रीपूज्यसं छडी, चामर, पालखी, पुस्तक आदि सब सामान श्रीसुपार्श्वनाथजी के मंदिर में चढ़ाकर संवत् 1925 आषाढ वदि 10 बुधवार के दिन : सुयोग्य शिष्य मुनि श्री प्रमोदरुचिजी और श्री धनविजयजी के साथ बड़े समारोह से क्रिया-उद्धार किया, अर्थात् संसारवर्द्धक सब उपाहि को छोड़कर सदाचारी, पञ्च महाव्रतधारी सर्वोत्कृष्ट पद को स्वीकार किया। उस समय प्रत्येक गाँवों के करीब चार हजार श्रावक हाजि उन सभी ने आपकी जयध्वनि करते हुए सारे शहर को गुंजार कर दिया। क्रियाउद्धार करने के अनन्तर खाचरोद संघ के अत्यन्त आग्रह से आपका प्रथम चौमासा (सम्बत् 1625 का) खाचरोद में हुआ, चौमासे में श्रावक और श्राविकाओं को धार्मिक शिक्षण बहुत ही उत्तम प्रकार से मिला और सम्यक्त्व रत्न की प्राप्ति हुई। चौमासे के उत् में श्रीसंघ की ओर से अट्ठाई महोत्सव किया गया, जिस पर करीब तीन चार हजार श्रावक श्राविका एकत्रित हुए, जिससे जैन धर्म की ब भारी उन्नति हुई; इस चौमासे में पाँच सात हजार रुपये खर्च हुए थे और जीर्णोद्धारादि, अनेक सत्कार्य हुए। फिर चतुर्मासे के पूर्ण होने / ग्रामानुग्राम विहार करते हुए 'नीबाड़' देशान्तर्गत शहर 'कूकसी' की ओर आपका आगमन हुआ। 'कूकसी' में आसोजी देवीचन्दजी आ अच्छे अच्छे विद्वान् श्रावक रहते थे, जिनके व्याख्यान में पाँच पाँच सौ श्रावक लोग आते थे, इन दोनों श्रावकों ने आपके पास द्रव्यानुयोगविषय अनेक प्रश्न पूछे, जिनके उत्तर आपने बहुतही सन्तोषदायक दिये। उन्हें सुनकर और आपका साधुव्यवहार शुद्ध देखकर अतीव समारो के साथ सब श्रावक और श्राविकाओं ने विधि पूर्वक सम्यक्त्व व्रत स्वीकार किया। यहाँ उन्तीस 26 दिन रहकर अनेक लोगों को जैनमार्गानुगार्म बनाया। फिर क्रम से संवत् 1926 रतलाम, 1627 कूकसी, 1928 राजगढ़ और फिर 1926 का चौमासा रतलाम में हुआ। इस चौमासे चौमासे में श्रावक और श्राविकाओं को धार्मिक शिक्षण बहुत ही उत्तम प्रकार से मिला और सम्यक्त्व रत्न की प्राप्ति हुई। चौमासे के उर में श्रीसंघ की ओर से अट्ठाई महोत्सव किया गया, जिस पर करीब तीन चार हजार श्रावक श्राविका एकत्रित हुए, जिससे जैन धर्म की ब भारी उन्नति हुई; इस चौमासे में पाँच सात हजार रुपये खर्च हुए थे और जीर्णोद्धारादि, अनेक सत्कार्य हुए। फिर चतुर्मासे के पूर्ण होने ग्रामानुग्राम विहार करते हुए 'नीबाड़' देशान्तर्गत शहर कूकसी की ओर आपका आगमन हुआ। 'कूकसी' में आसोजी देवीचन्दजी आ अच्छे अच्छे विद्वान् श्रावक रहते थे, जिनके व्याख्यान में पाँच पाँच सौ श्रावक लोग आते थे, इन दोनों श्रावकों ने आपके पास द्रव्यानुयोगविषय अनेक प्रश्न पूछे, जिनके उत्तर आपने बहुतही सन्तोषदायक दिये। उन्हें सुनकर और आपका साधुव्यवहार शुद्ध देखकर अतीव समारो के साथ सब श्रावक और श्राविकाओं ने विधि पूर्वक सम्यक्त्व व्रत स्वीकार किया। यहाँ उन्तीस 26 दिन रहकर अनेक लोगों को जैनमार्गानुगार्म बनाया। फिर क्रम से संवत् 1626 रतलाम, 1927 कूकसी, 1628 राजगढ़ और फिर 1626 का चौमासा रतलाम में हुआ। इस चौमासे में संवेगी जवेरसागरजी और यती बालचन्दजी उपाध्याय के साथ चर्चा हुई, जिसमें आपको ही विजय प्राप्त हुआ और 'सिद्धान्तप्रकाश नामक बहुत ही सुन्दर ग्रन्थ बनाया गया। संवत् 1930 का चौमासा जावरा में और 1631 तथा 1632 का चौमासा शहर 'आहोर में हुआ। ये दोनों चौमासे एकही गाँव में एक भारी जातीय झगड़े को मिटाने के लिये हुए थे, नहीं तो जैन साधुओं की यह रीति नहीं है कि जिस पर सङ्घ ने भारी उत्सव किया और प्रति प्रश्न तथा उत्तर की पूजा की। सं०१९४५ वीरमगाम, और 1946 का चौमासा सियाणा Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21 में हुआ, इस चौमासे में 'अभिधानराजेन्द्र कोष' बनाने का आरम्भ किया गया। सं० 1947 मे गुड़ा, 1948 आहोर, और 1646 का चौमासा 'निबाहेडा' में हुआ। इसमें ढूँढकपन्थियों के पूज्य नन्दरामजी के साथ चर्चा हुई, जिसमें इढियों को परास्त करके साठ 60 घर मन्दिरमार्गी बनाये। सं० 1950 खाचरोद, 1651 और 1652 का चौमासा 'अभिधानराजेन्द्रकोष' के काम चलने से राजगढ़ ही में हुए। सं० 1953 में चौमासा शहर 'जावरे' में हुआ, यहाँ कातिक महीने में बड़े समारोह के साथ संघ की तरफ से अट्ठाई महोत्सव किया गया, जिसमें बीस हजार रुपये खर्च हुए और विपक्षी लोगों को अच्छी रीति से शिक्षा दी गयी, जिससे जैन धर्म की बहुत भारी उन्नति हुई। सं० 1954 का चौमासा शहर रतलाम में हुआ, यहाँ भी अट्ठाई महोत्सव बड़े धूमधाम से हुआ, जिस पर करीब दश हजार श्रावक और श्राविकाएँ आपके दर्शन करने को आई, और संघ की ओर से उनकी भक्ति पूर्ण रूप से हुई, जिसमें सब खर्च करीब बीस हजार के हुआ, विशेष प्रशंसनीय बात यह हुई कि पाखण्डी लोगों को पूर्ण रूप से शिक्षा दी गयी, जिससे आपको बड़ा यश प्राप्त हुआ। सम्वत् 1655 का चौमासा मारवाड़ देश के शहर 'आहोर' में हुआ, इस चौमासे में भी धार्मिक उन्नति विशेष प्रकार से हुई और इसी वर्ष में श्रीआहोरसंघ की तरफ से 'श्रीगोडीपार्श्वनाथजी' के बावन 52 जिनालय (जिनमंदिर) की प्रतिष्ठा और अञ्जनशलाका आप ही के करकमलों से करायी गयी, जिसके उत्सव पर करीब पचास हजार श्रावक श्राविकाएँ आए और मन्दिर में एक लाख रुपयों की आमद हुई। इस अञ्जनशलाका में नौ सौ 600 जिनेन्द्रबिम्बों की अञ्जनशलाका की गई थी, इतना बड़ा भारी उत्सव मारवाड़ में पहली बार ही हुआ था। इतने मनुष्यों के एकत्रित होने पर भी किसी प्रकार की अनहोनी नहीं हुई यह सब आपका ही प्रभाव था। सं० 1956 का चौमासा शहर शिवगञ्ज में हुआ। जिस में अपने गच्छ की मर्यादा बिगड़ने न पावे इस लिये इस चौमासे में आपने साधु और श्रावक संबन्धी पैंतीस सामाचारी (कलमें) जाहर की, जिसके मुताबिक आजकल आपका साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविकारूप चतुर्विध संघ बर्ताव कर रहा है। सम्वत् 1657 का चौमासा शहर सियाणा में हुआ। यहाँ श्रीसंघ की तरफ से महाराज कुमारपाल का बनवाया हुआ 'श्रीसुविधिनाथ जी' के जिनमन्दिर का उद्धार आप ही के उपदेश से कराया गया था और आस पास चौवीस देवकुलिका बनायी गई थी और उनकी प्रतिष्ठा आपके ही हाथ से करायी गई, इस उत्सव पर मन्दिर में सत्तर 70 हजार रुपयों की आमद हुई और दिव्य एक पाठशाला भी स्थापित हुई। सं० 1658 का चौमासा आहौर, और 1656 का शहर 'जालोर' में हुवा / इस चौमासे में जैनधर्म की बहुत बड़ी उन्नति हुई और मोदियों का कुसंप हटाकर सुसंप किया गया। फिर चौमासे पूर्ण होने पर शहर आहोर में दिव्य ज्ञान-भण्डार की और एक घूमटदार जिनमन्दिर की प्रतिष्ठा की। इस ज्ञानभण्डार में बहुत प्राचीन 2 ग्रन्थ हैं / पैंतालीस आगम और उनकी पञ्चाङ्गी तिबरती(तेहरी) मौजूद है और प्राचीन महर्षियों के बनाये ग्रन्थ भी अगणित मौजूद हैं, और छपी हुई पुस्तकें भी अपरिमित संग्रह की गयी हैं, इसकी सुरक्षा के लिये एक अत्यन्त सुन्दर माबल (पाषाण) की आलमारी बनायी गयी है, जिसके चारो तरफ श्रीगौतमस्वामी जी, श्रीसरस्वती जी, श्रीचक्रेश्वरी जी, और श्रीद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वर जी की मूर्तियां विराजमान हैं / यह भण्डार आप ही की कृपा से संग्रहीत हुआ है। फिर सूरीजी महाराज आहोर से विहार कर 'गुडे गाँव में पधारे। यहाँ माघसुदी 5 के दिन 'अचला जी' के बनवाये हुए मन्दिर की प्रतिष्ठा की! तदनन्तर शिवगञ्ज होकर 'बाली' शहर में पधारे। यहाँ तीन श्रावकों को दीक्षा देकर 'श्रीकेसरिया जी' और 'श्रीसिद्धाचल जी,' तथा 'भोयणी जी' आदि सुतीर्थों की यात्रा करते हुए शहर 'सूरत' में पधारे। यहाँ पर सब श्रावकों ने सर्वोत्तम समारोह से नगरप्रवेश कराया और संवत् 1960 का चौमासा इसी शहर में हुआ। इस चौमासे में बहुत से धर्मद्रोही लोगों ने आपको उपसर्ग किया, परन्तु सद्धर्म के प्रभाव से उन धर्मद्रोही धर्मनिन्दकों का कुछ भी जोर नहीं चला किन्तु सूरीजी महाराज को ही विजय प्राप्त हुआ। इस चौमासे का विशेष दिग्दर्शन 'राजेन्द्रसूर्योदय' और 'कदाग्रह Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 दुर्ग्रह नो शान्तिमन्त्र' आदि पुस्तकों में किया जा चुका है, इससे यहाँ फिर लिखना पिष्टपेषण होगा। सम्वत् 1661 का चौमासा शहर 'कूगसी में हुआ इसी चौमासे में सूरीजी महाराज ने हेमचन्द्राचार्य के प्राकृत व्याकरण को छन्दोबद्ध संदर्भित किया, यह बात उसके प्रशस्तिश्लोकों में लिखी है दीपविजयमुनिनाऽहं यतीन्द्रविजयेन शिष्ययुग्मेन / विज्ञप्तः पद्यमयीं प्राकृतविवृतिं विधातुमिमाम् // अत एव विक्रमाव्दे, भूरसनवविधुमिते दशम्यां तु / विजयाख्यां चमुर्मास्येऽहं कूकसीनगरे।। हेमचन्द्रसंगचितप्राकृतसूत्रार्थबोधिनी विवृतिम् / पद्यमयीं सच्छन्दोवृन्दै रम्यामकार्षमिमाम्॥ अर्थात् मुनिदीपविजय और यतीन्द्रविजय नामक दोनो शिष्यों से छन्दोबद्ध प्राकृतव्याकरण बनाने के लिये मैं प्रार्थित हुआ, इसीलिये विक्रम सं० 1961 के चौमासे में आश्विनशुक्ल विजय दशमी को कूकसीनगर में श्रीहेमचन्द्राचार्य रचित प्रकृतसूत्रों की वृत्तिरूप इस प्राकृतव्याकरण को अच्छे छन्दों में मैनें रचा। चौमासे के उतार पर गाँव 'बाग' में 'विमलनाथ स्वामी जी' की अञ्जनशलाका (प्रतिष्ठा) करायी; फिर माह महीने में शहर 'राजगढ़' में ख जानची 'चुन्नीलाल जी' के बनवाये हुए 'अष्टापद जी' के मन्दिर की अञ्जनशलाका (प्रतिष्ठा) करायी। और शहर 'राणापुर' में 'श्री धर्मनाथस्वामी' की अञ्जनशलाका (प्रतिष्ठा) करायी। तदनन्तर 'खाचरोद' शहर में पधारे। यहाँ कुछ दिन ठहर कर शहर जावरे में 'लक्खा जी' के बनवाये हुए मन्दिर की प्रतिष्ठा की, और सम्वत् 1962 का चौमासा शहर 'खाचरोद' में किया। इस चौमासे में आपने चीरोलावालों को बड़े संकट (दुःख) से छुड़ाया। 'चीरोला' मालवे में एक छोटासा गाँव है, यह गाँव ढाईसौ वर्षों से जातिबाहर था, कारण यह था कि शहर 'रतलाम' और 'सीतामऊ' की दो बारातें एकदम एक ही लड़की पर आई, जिसमें सीमामऊ वाले ब्याह (परण) गये और रतलाम वाले योहीं रह गये। इससे इन्होंने क्रोधित हो चीरोलावालों को जातिबाहर कर दिया। फिर वह झगड़ा चला तो बहुत वर्षों तक चलता ही रहा परन्तु जाति में वे लोग न आ सके, यहाँ तक कि मालवे भर में सब जगह चीरोलावाले जातिबाहर हो गये। कई बार चीरोलावालों ने रतलामवाले पंचों को एक-एक लाख रुपया दण्ड देना चाहा लेकिन झगड़ा नहीं मिटसका, तब बासठ 1962 के चौमासे में चीरोलावाले सब श्रावक लोग आकर विनती की और सब हाल कह सुनाया, तब आपने दया कर खाचरोद आदि के श्रीसंघ को समझाया और सबके हस्ताक्षर कराकर बिना दण्ड लिये ही जाति में शामिल करादिया। यह कार्य असाधारण था, क्योंकि इसके लिये बड़े-बड़े साहूकार और साधूलोग परिश्रम कर चुके थे किन्तु कोई भी सफलता को नहीं प्राप्त हुआ था। आपके प्रभाव ने सहज ही में इस कार्य को पार लगा दिया। इसीसे आपकी उपदेश प्रणाली कितनी प्रबल थी यह निःसंशय मालूम पड़ सकती है ; यह एकही काम आपने नहीं किया किन्तु ऐसे सैकड़ों काम किये हैं। सम्वत् 1963 का चौमासा शहर 'बड़नगर' में हुआ, यहाँ चारो महीने धर्मध्यान का अत्यधिक आनन्द रहा और अनेक प्रशंसनीय कार्य हुए। इस प्रकार क्रियाउद्धार करने के बाद आपके 36 उनतालीस चौमासा हुए। इन सब चौमासाओं में अनेक कार्य प्रशंसनीय हुए और श्रावकों ने स्वामीभक्ति अष्टाहिकामहोत्सव आदि सत्कार्यों में खूब द्रव्य लगाया। कम से कम प्रत्येक चौमासे में 5000 हजार से लेकर 20000 हजार तक खरचा श्रावकों की तरफ से किया गया है, इससे अतिरिक्त शेष काल में भी आपने उलटे मार्ग में जाते हुए अनेक भव्यवों को रोक कर शुद्ध सम्यक्त्वधारी बनाया। आपके उपदेश का प्रभाव इतना तीव्र था कि जिसको सुनकर कट्टर द्वेषी भी शान्त स्वभाव वाले हो गये। रात्रिभोजन नहीं करना, जीवों को जानकर नहीं मारना, चोरी नहीं करना इत्यादि अनेक नियम जिन्होंने आपसे लिये हुए हैं और जैनधर्मविषयक Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 23 दृढ नियमों को परिपालन कर रहे हैं ऐसे आपके उपदेशी केवल जैन ही नहीं हैं किन्तु अन्यमतवाले भी हैं। यति अवस्था में भी आपने सम्वत् 1604 का चौमासा मेवाड़ देशस्थ शहर 'आकोला' में किया था। फिर क्रमशः इन्दौर, उज्जैन, मन्दसोर, उदयपुर, नागौर, जेसलमेर, पाली, जोधपुर, किसनगढ़, चित्तोर, सोजत, शंभुगढ़, बीकानेर, सादरी, भिलाडे, रतलाम, अजमेर, जालोर, घाणेराव, जावरा इत्यादि शहरों में चौमासा कर सैंकड़ों भवभीरु महानुभावों को जैनधर्म के संमुख किया। आपकी विद्वत्ता सारे भारतवर्ष में प्रख्यात थी, कोई भी प्रायः ऐसा न होगा जो आपके नाम से परिचित न हो। ज्योतिषशास्त्र में भी आपका पूर्ण ज्ञान था, जहाँ जहाँ आपके दिये हुए मुहूर्त से प्रतिष्ठा और अञ्जनशलाकाएँ हुई हैं वहाँ हजारों जनसमूह के एकत्र होने पर भी किसी का शिर भी नहीं दुखा / आपके हाथ से कम से कम बाईस अञ्जनशलाकाएँ तो बड़ी बड़ी हुई, जिनमें हजारों रुपये की आमद हुई और छेटी छोटी अञ्जनशलाका या प्रतिष्ठा तो करीब सौ 100 हुई होंगी। इसके अतिरिक्त ज्ञानभण्डारों की स्थापना, अष्टोत्तरी शान्तिस्नात्रपूजा, उद्यापन, जीर्णोद्धार, जिनालय, उपाश्रय, तीर्थसंघ आदि सत्कार्यों में सूरी जी महाराज के उपदेश से भव्यवर्गों ने हजारों रुपये खर्च किये हैं और अब भी आपके प्रताप से हजारों रुपये सत्कार्यों में खर्च किये जा रहे हैं। आपकी साधुक्रिया अत्यन्त कठिन थी इस बात को तो आबालवृद्ध सभी जानते हैं, यहाँ तक कि वयोवृद्ध होने पर भी आप अपना उपकरणादिभार सुशिष्य साधु को भी नहीं देते थे तो गृहस्थों को देने की तो आशाही कैसे संभावित हो सकती है। क्रियाउद्धार करने के पीछे तो आपने शिथिलमार्गों का भी सहारा नहीं लिया और न वैसा उपदेश ही किसी को दिया, किन्तु ज्ञानसहित सत्क्रियापरिपालन करने में आप बड़े ही उत्कण्ठित रहा करते थे। और वैसी ही क्रिया करने में उद्यत भी रहते थे, इसीसे आपकी उत्तमता देशान्तरों में भी सर्वत्र जाहिर थी। प्रभाद शत्रु को तो आप हरदम दबाया ही करते थे, इसीलिये साधुक्रिया से बचे हुए काल में शिष्यों को पढ़ाना और शास्त्रविचार करना, या धार्मिक चर्चा करना यही आपका मुख्य कार्य था। दिन को सोना नहीं, और रात्रि को भी एक प्रहर निद्रा लेकर ध्यानमग्न रहना, इसीमें आपका समय निर्गमन होता था; इसीलिये समाधियोग और अनुभवविचार आपसे बढ़कर इस समय और किसी में नहीं पाया जाता है। शहर 'बड़नगर' के चौमासे में मरुधरदेशस्थ गाँव 'बलदूट' के श्रावक अपने गाँव में प्रतिष्ठा कराने के लिये आपसे विनती करने आये थे, उनसे आपने यह कह दिया था कि 'अब मेरे हाथ से प्रतिष्ठा अञ्जनशलाका आदि कार्य न होंगे'। इसी तरह ‘सूरत' में एक श्रावक के प्रश्न करने पर कहा था कि 'अभी मैं तीन वर्ष पर्यन्त फिर विहारादि करूँगा'। इन दोनों वाक्यों से आपने अपने आयुष्य का समय गर्मित रीति से श्रावक और साधुओं को बता दिया था और ऐसा ही हुआ। आपकी पैदलविहारशक्ति के अगाड़ी युवा साधु भी परिश्रान्त हो जाते थे, इस प्रकार आपने अन्तिम अवस्था पर्यन्त विहार किया, चाहे जितना कठिन से कठिन शीत पड़े परन्तु आप ध्यान और प्रतिक्रमण आदि खुले शरीर से ही करते थे। आपने और अपने जीवन मेंफुलाटीन की साढ़े चार हाथ एक काबली और उतनीही बड़ी दो चादर के सिवाय अधिक वस्त्र भी नही ओढ़ते थे / आपने करीब ढाई सौ मनुष्यों को दीक्षा दी होगी लेकिन कितने ही आपकी उत्कृष्ट क्रया का पालन नहीं कर सके, इसलिये शिथिलाचारी संवेगी और दूंढकों में चले गये, परन्तु इस समय भी आपके हस्त से दीक्षित चालीस साधु और साध्वियाँ हैं जो कि ग्राम ग्राम विहार कर अनेक उपकार कर रहे हैं। सत्पुरुषों का मुख्य धर्म यह है कि भव्यजीवों के हितार्थ उपकार बुद्धि से नाना ग्रन्थ बनाना, जिससे लोगों को शुद्ध धार्मिक रास्ता दिखा। इसीलिये हमारे पूर्वकालीन आचार्यों ने अनेक ग्रन्थ बनाकर अपरिमित उपकार किया है तभी हम अपने धर्म को समझकर दृढ श्रद्धावान् Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 बने हुए हैं, और जो कोई धर्म पर आक्षेप करता है तो उसको उन ग्रन्थों के द्वारा परास्त कर लेते हैं, यदि महर्षियों के निर्मित ग्रन्थरत्नन होते तो आज हम कुछ भी अपने धर्म की रक्षा नहीं कर सकते, इसीलिये जो जो विद्वान् आचार्य आदि होते हैं वे समयानुकूल लोगों के हित के लिये ग्रन्थ बनाते हैं। इसी शैली के अनुसार सूरीजी महाराज ने भी लोकोपयोगी अनेक ग्रन्थ बनाये हैं। सूरीजी महाराज के निर्मित संस्कृत-प्राकृत-भाषामयग्रन्थ १'अभिधानराजेन्द्र' प्राकृतमहाकोश-इस कोश की रचना बहुत सुन्दरता से की गई है अर्थात् जो बात देखना हो वह उसी शब्द पर मिल सकती है। संदर्भ इसका इस प्रकार रखा गया है-पहिले तो अकारादि वर्णानुक्रम से प्राकृतशब्द, उसके बाद उनका अनुवाद संस्कृत में, फिर व्युत्पत्ति, लिङ्गनिर्देश, और उनका अर्थ जैसा जैनागमों में मिल सकता है वैसाही भिन्न भिन्न रूप से दर्शाया गया है। बड़े बड़े शब्दों पर अधिकार सूची नम्बरवार दी गयी है, जिससे हर एक बात सुगमता से मिल सकती है। जैनागमों का ऐसा कोई भी विषय नहीं रहो जो इस महाकोश में न आया हो / केवल इस कोश के ही देखने से संपूर्ण जैनागमों का बोध हो सकता है। इसकी श्लोकसंख्या करीब साढ़े चार लाख है, और अकारादि वर्णानुक्रम से साठ हजार प्राकृत शब्दों का संग्रह है। २'शब्दाम्बुधि' कोश-इसमें केवल अकारादि अनुक्रम से प्राकृत शब्दों का संग्रह किया गया है और साथ में संस्कृत अनुवाद और उसका अर्थ हिन्दी में दिया गया है किन्तु अभिधानराजेन्द्र कोश की तरह शब्दों पर व्याख्या नहीं की हुई है। 3 सकलैश्वर्यस्तोत्र सटीक, 4 खापरियातस्करप्रबन्ध,५ शब्दकौमुदी श्लोकबद्ध, 6 कल्याणस्तोत्र प्रक्रियाटीका, 7 धातुपाठ श्लोकबद्ध, 8 उपदेशरत्नसार गद्य 6 दीपावली (दिवाली) कल्पसार गद्य, 10 सर्वसंग्रह प्रकरण (प्राकृतगाथाबद्ध) 11 प्राकृतव्याकरणविवृति। सूरीजी के संकलित संगीत ग्रन्थ 12 मुनिपति चौपाई, 13 अघटकुँवरचौपाई, 14 घ्रष्टरचौपाई, 15 सिद्धचक्रपूजा, 16 पञ्चकल्याणकपूजा, 17 चौवीसीस्तवन, 18 चैत्यवन्दनचौवीसी, 16 चौवीसजिनस्तुति। सूरीजी महाराज के रचित बालावबोध भाषाग्रन्थ२०-उपासकदशाङ्ग सूत्र बालावबोध, 21 गच्छाचारपयन्ना सविस्तर भाषान्तर, 22 कल्प सूत्र बालावबोध सविस्तर, 23 अष्टाहिकाव्याख्यान भाषान्तर, 24 चार कर्मग्रन्थ अक्षरार्थ, 25 सिद्धान्तसारसागर (बोल-संग्रह), 26 तत्त्वविवेक, 27 सिद्धान्तप्रकाश, 28 स्तुतिप्रभाकर, 26 प्रश्रोत्तरमालिका, 30 राजेन्द्रसूर्यो-दय, 31 सेनप्रश्नवीजक, 32 षड्द्रव्यचर्चा, 33 स्वरोदयज्ञानयन्त्रावली, 34 त्रैलाक्यदीपिकायन्त्रावली, 35 वासट्ठमार्गणाविचार, 36 षडावश्यक अक्षरार्थ, 37 एकसौ आठ बोल का थोकड़ा, 38 पञ्चमीदेववन्दनविधि, 36 नवपद ओली देववन्दनविधि, 40 सिद्धाचल नवाणु यात्रादेववन्दनविधि, 41 चौमासी देववन्दनविधि, 42 कमलप्रभाशुद्धरहस्य, 43 कथासंग्रह पञ्चाख्यानसार। इस प्रकार उत्तमोत्तम ग्रन्थ बनाकर सूरीजी महाराज ने जैनधर्मानुरागियों पर तथा इतर जनों पर भी पूर्ण उपकार किया है। बड़नगर के चौमासा पूरे होनेपर अपनी साधुमण्डली सहित सूरीजी ने शहर 'राजगढ़' की और विहार किया, था इस समय आपके शरीर में साधारण श्वास रोग उठा था। यद्यपि यह प्रथम जोर शोर से नहीं था तथापि उसका प्रकोप धीरे 2 बढ़ने लगा, यहाँ तक कि औषधोपचार होने पर भी वह रोग शान्त नहीं हुआ, किन्तु श्वास की बीमारी अधिक होने पर भी आप अपनी साधुक्रिया में शिथिल नहीं हुए, और सब Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25 साधुओं से कहा कि- "हमारे इस विनाशी शरीर का भरोसा अब नहीं है, इसलिये तुमलोग साधुक्रियापरिपालन में दृढ़ रहना, ऐसा न हो कि जो चारित्र रत्न तुम्हें मिला है वह निष्फल होजाए,सावधानी से इसकी सुरक्षा करना, हमने तो अपना कार्य यथाशक्ति सिद्ध कर लिया है अब तुम भी अपनी आत्मा का उद्धार जिस प्रकार हो सके वैसा प्रयत्न करते रहना"। इस प्रकार अपने शिष्यों को सुशिक्षा देकर सुसमाधिपूर्वक अनशन व्रत को धारण कर लिया और औषधोपचार को सर्वथा बन्द कर दिया। बस तदनन्तर थोड़े ही दिन के बाद परमोपकारी धर्मप्रभावक आचार्यवर्य श्रीमान् श्रीविजयराजेन्द्रसूरीश्वर महाराजजी ने अपने इस अनित्य शरीर का सम्वत् 1963 पौष शुक्ल 7 शुक्रवार मुताबिक 21 दिसम्बर सन् 1906 ई० को समाधियुक्त परित्याग किया, अर्थात् इन नाशवान् संयोगों को छोड़कर स्वर्ग में विराजमान हुए। उपसंहार महानुभाव पाठकवर्ग ! इस समय जीवनचरित्र लिखने की प्रथा बहुतही बढ़ गयी है इसलिये प्रायः बहुत से सामान्य पुरुषों के भी जीवनचरित्र मिलते हैं किन्तु जीवनचरित्र के लिखने का क्या प्रयोजन है यह कोई भी नहीं विचार करता, वस्तुतः सत्पुरुषों की जीवनघटना देखने से सर्व साधारण को लाभ यह होता है कि जिस तरह सत्पुरुष क्रम क्रम से उच्चकोटीवाली अवस्था को प्राप्त हुआ है वैसी ही पाठक भी अपनी अवस्था को उच्चकोटीवाली बनावे और दुर्जन पुरुषों की जीवनघटना देखने से भी यह लाभ होता है कि जिस तरह अपने कुकर्मों से दुर्जन अन्त में दुरवस्था को प्राप्त होता है वैसा वाचक न हो, किन्तु दुर्जन की जीवनघटना की अपेक्षा से सत्पुरुष के ही जीवनचरित्र पढ़ने से शीघ्र लाभ हो सकता है, इसीलिये पाठकों को महानुभाव सूरीश्वरजी का यह जीवनपरिचय कराया गया है, जिससे आपभी ऐसी अवस्था को प्राप्त होकर सदा के सुखभागी बनें , क्योंकि सूरीजी का जीवन इस संसार में केवल परोपकार के वास्ते ही था, न कि किसी स्वार्थ के वास्ते / यदि रागद्वेषरहित बुद्धि से विचारा जाय तो हमारे उत्तमोत्तम जैन धर्म की उन्नति ऐसे ही प्रभावशाली क्रियापात्र सद्गुरुओं के द्वारा हो सकती है। आपका जीवनपरिचय बहुत ही अद्भुत और आश्चर्यजनक है, उसका यह दिग्दर्शनमात्र कराया गया है, किन्तु बड़ा 'जीवनचरित्र' जो बना हआ है उनमें प्रायः बहुत कुछ सूरीजी महाराज का जीवन परिचय दिया गया है, इसलिये विशेष जिज्ञासुओं को बड़ा जीवनचरित्र देखना चाहिये, उसके द्वारा संपूर्ण आपका जीवनपरिचय हो जाएगा और इन महानुभाव महापुरुष के जीवनचरित्र को पढ़ने से क्या लाभ हुआ यह भी सहज में ज्ञात हुआ है। इत्यलं विस्तरेण / नवरसनिधिविधुवर्षे, यतीन्द्रविजयेन वागरानगरे / आश्विनशुक्लदशम्यां, जीवनचरितं व्यलेखि गुरोः॥१॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // अर्हम्॥ / प्रस्तावना / / (प्रथम आवृत्ति) इस संसार में ऐसा कौन प्राणी है जो दुःख से मुक्त होन की अभिलाषा नहीं करता, किन्तु जबतक उन दुःखों से मुक्त होने के सत्य उपाय उसको मालूम न हों तबतक वह कैसे कृतकार्य (सफल) हो सकता है; इसलिये सभी को दुःख से मुक्त होने के सत्य उपाय जानने की बड़ी अभिलाषा रहती है, कि इस अपार संसार समुद्र में निरन्तर भ्रमणकरने वाले प्राणियों को प्राप्त होते हुए अत्युत्कट जन्म-जरा-मरणादि] दुःखों से छूटने का कौनसा उपाय है? यद्यपि विचारशाली और तीक्ष्णबुद्धि वाले मुनष्य इसका उत्तर अवश्य देंगे, कि धर्म के सिवाय और कोई ऐसा दूसरा उपाय इन दुःखों से मुक्त होने का नहीं है; किन्तु धर्माधर्म का विवेक करना ही सर्व साधारण को अतिदुष्कर है अर्थात् कौन धर्म है और कौनसा अधर्म है इसका समझना भी कुछ सहज काम नही है, क्यों कि इस दुनिया में अनेक धर्मनामधारी मत प्रचलित हो रहे हैं, जिनकी गिनती करना भी बहुत कठिन है तो फिर उनमें किसको धर्म और किसको धर्माभास कहा जाए ? हाँ महानुभावों के आदेशानुसार इतना अवश्य कह सकते हैं कि इस पञ्चमकाल में अर्थात् दुःषम आरा में, धर्माभासों का प्रायः प्रचार विशेष होना चाहिये और धर्म की अवनति दशा विशेष होनी चाहिये। इस पर फिर यह जिज्ञासा होगी कि वैसा धर्म कौन है? इसका उत्तर यह है कि जिस धर्म के प्रवर्तक पुरुष किसी के द्वेषी अथवा रागी न हों और जो धर्म किसी जीव के [अत्यन्त प्रिय प्राण का विघातक न हो-अर्थात् जिससे सभी जीवों को सुख ही प्राप्त हो उसे ही धर्म कहना चाहिए। यदि ऐसा धर्म वस्तुतः देखा जाए तो जैन धर्म ही दिखाई देता है क्योंकि उसके प्रवर्तक जिन भगवान् भी रागद्वेष--विजेता हैं और उस धर्म का 'अहिंसा परमो धर्मः' यह सिद्धान्त ही है। यद्यपि अन्य धर्माभासों में भी अहिंसा की महिमा है किन्तु प्रधानरूप से उसकी कारणता जन्मादि] दुःखों से मुक्त होने में नहीं मानी गई है, और उनमें यदि एकाध अंश में दया है तो अन्यांश में हिंसा भी है। जैसे किसी मत का मन्तव्य है कि यदि कोई पशु पक्षी प्राणी इस भव में दुःख सहता हो तो उसको इस जन्म से मुक्त कर देना ही दया है। अथवा जब कभी अवसर प्राप्त हो तो यज्ञ में प्राणियों को मारकर उनको उत्तमगति वाला बना देना / अस्तु-विशेष विस्तार इसका इसी ग्रन्थ के प्रथम भाग में 'अदृगकुमार' और 'अहिंसा' शब्द पर जिज्ञासुओं को देखना चाहिए। इसीलिए कहा हुआ है कि 'पक्षपातो न में वीरे, न द्वेषः कपिलादिषु / युक्तिमद् वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः" ||14 और 'प्रधानं सर्वधर्माणां, जैनं जयति शासनम्' इत्यादि / यह जैनधर्म-दयाधर्म, आचारधर्म, क्रियाधर्म, और वस्तुधर्म से चार भागों में विभक्त है। और इस धर्म का मुख्य कारण शासन है, जो समवसरण में बैठे हुए देवाधिदेव सर्वज्ञ भगवान् श्री तीर्थङ्कर के उपदेश से आविर्भूत होता है और पीछे उन्हीं उपदेशों को श्रीगौतमादि गणधर द्वादशाङ्गी अथवा एकादशागी रूप में संदर्भित करते हैं, जिनका 'सूत्र' नाम से व्यवहार किया जाता है। ये प्रत्येक तीर्थक्करों के शासन काल में विद्यमान दशा को प्राप्त होते हैं / यद्यपि पूर्वकाल में चौदह पूर्वधर, तथा दश पूर्वधर, श्रुतके वली आदि महात्माओं को तो किसी पुस्तकपत्रादि की आवश्यकता ही नहीं थी क्योंकि उनके अतिशय से उन्हें मूल से ही अर्थज्ञान हो जाता था परन्तु आगे वाले जीवों के ज्ञान में दुर्बलता होने से और जैन धर्म के विषय अति गहन होने से उनको स्पष्ट करने के लिये नियुक्ति-भाष्य चूर्णि-टीका-आदि रचने पड़े। परन्तु इस समय में जैन ग्रन्थों का इतना विस्तार हो गया है कि थोड़ीसी आयुष्य में अब कोई मनुष्य सांसारिक कार्य करता हुआ गृहस्थ क्या विरक्त भी इस जैनशासनसागर के पार को प्रायः नहीं जा सकता। कारण यह है कि पहिले तो सब ग्रन्थों की उपलब्धि सब कहीं नहीं होती और जो मिलते भी हैं उनमें कौन विषय कहाँ पर है यह प्रायः ठीक ठीक पता हर एक को नहीं लगता और यदि किसी ग्रन्थ में पता भी लग जाए तो वह विषय दूसरी जगह या दूसरे ग्रन्थों में कहाँ कहाँ पर आया है यह पता नहीं लग सकता। यह कारण तो Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 27 एक तरफ रहा, दूसरी बात यह भी है कि जिस भाषा में जैनदर्शन बना है, वह भाषा वही है जिसने प्राचीन समय में मातृभाषा से राष्ट्रभाषा तक भारतभूमि में स्थान पाया था, और जिसका सर्वज्ञों से और गणधरों से बड़ा आदर किया गया, उसी भाषा का प्रचार इस समय बिलकुल नहीं है और जो नाटकों में जहाँ कहीं दिखाई देता है उसको भी उसके नीचे दी हुई छाया से ही लोग समझ लेते हैं, और यदि किसी ने उसका कुछ अभ्यास भी कर लिया तो उससे जैन धर्म के मूलसूत्रों का अथवा नियूंक्तिगाथाओं का अर्थ समझ में नहीं आ सकता , क्योंकि भगवान् तीर्थङ्कर ने, तथा गणधरों ने अर्धमागधी भाषा में उन सूत्रों का प्रस्ताव किया है, जो कि सामान्य प्राकृत भाषा से कुछ विलक्षण है। पूर्व समय में तो लोग परिश्रम करके आचार्यों के मुख से सूत्रपाठ और उसका अर्थ सुनकर कण्ठस्थ करते थे तभी वे कृतकार्य भी होते थे (इसका संक्षिप्त विवरण पहिले भाग के 'अहालंदिय' शब्द पर देखो) किन्तु आजकल ऐसी परिपाटी के प्रायः नष्ट हो जाने से ज्ञान, दर्शन और चारित्र का अत्यन्त हास हो गया है। इस दशा को देखकर हमारे गुरुवर्य श्रीसौधर्मबृहत्तपागच्छीय कलिकालसर्वज्ञकल्प भट्टारक 1008 श्रीमद्वि-जयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज को बड़ी चिन्ता उपस्थित हुई कि दिनों दिन जैन धर्म के शास्त्रों को हास होता जाता है, इसीलिए बहुत से लोग उत्सूत्र काम भी करने लग गए हैं और अपने धर्मग्रन्थों से बिल्कुल बेखबर से हो गए हैं। ऐसी दशा में क्या करना चाहिये? क्योंकि संसार में उसी मनुष्य का जीवन सफल है जिसने अपने धर्म की यथाशक्य उन्नति की, अन्यथा- 'असंपादयतः किञ्च-दर्थं जातिक्रियागुणैः / यदृच्छाशब्दवत् पुंसः, संज्ञायै जन्म केवलम्' की तरह हो जाता है। ऐसी चिन्ता हृदय में बहुत दिन रही, किन्तु एक दिन रात्रि में ऐसा विचार आया कि- एक ऐसा ग्रन्थ नवीन रूढि से बनाना चाहिये जिसमें जैनागम की मागधी भाषा के शब्दों को अकारादि क्रम से रखकर संस्कृत में उनका अनुवाद, लिङ्ग, व्युत्पत्ति, और अर्थ लिखकर फिर उस शब्द पर जो पाठ मूलमूत्र का आया है उसको लिखना और टीका यदि उसकी प्राचीन मिले तो उसको देकर स्पष्ट करना और यदि ग्रन्थान्तर में भी वही विषय आया हो तो उसकी सूचना (भलावन) दे देना चाहिए। इससे प्रायः अपने मनोऽनुकूल संसार का उपकार होगा। तदनन्तर प्रातःकाल होते ही पूर्वोक्त सूरी जी महाराज ने अपनी नित्य क्रिया को करके इस कार्य का भार उठाया, और दत्तचित्त होरक बाईस वर्ष पर्यन्त घोर परिश्रम करने पर इस कार्य में सफल हुए, अर्थात् 'अभिधानराजेन्द्र' नाम का कोष मागधीभाषा में रचकर चार भागों में विभक्त कर दिया। इसके बाद कितने ही श्रावकों ने और शिष्यों में प्राथर्ना की कि यदि यह ग्रन्थ भी और ग्रन्थों की तरह भण्डार में ही पड़ा रह जाएगा तो कितने मनुष्य इससे लाभ उठा सकेंगे? इसलिए अनेक देश देशान्तरों में जिस तरह इसका प्रचार हो वह काम होना चाहिये। इस पर सूरीजी महाराज ने उत्तर दिया कि मेरा कर्तव्य तो पूर्ण हो गया अब जिसमें समस्त संसार का उपकार हो वैसा तुम लोगों को करना चाहिए, मैं इस विषय में तटस्थ हूँ। तदनन्तर श्रीसङ्घ ने इस ग्रन्थ के विशेष प्रचार होने के लिए छपवाना ही निश्चय किया / तब इस ग्रन्थ के शोधन का भार सूरीजी महाराज के विनीत शिष्य मुनि श्री दीपविजयजी और मुनि श्री यतीन्द्रविजयजी ने ग्रहण किया, जो इस कार्य के पूर्ण अभिज्ञ हैं / जैनधर्म का ऐसा कोई भी साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका-संबन्धी विषय नहीं है जो इस कोश में आया न हो, किन्तु साथ ही साथ विशेषता यह है कि मागधीभाषा के अनुक्रम से शब्दों पर सब विषय रखे गए हैं। जो मनुष्य जिस विषय को देखना चाहे वह उसी शब्दपर पुस्तक खोलकर देख ले। जो विषय जहाँ जहाँ जिस जिस जगह पर आया है उसकी भलावन (सूचना) भी उसी जगह पर दी है। और बड़े बड़े शब्दों पर विषयसूची भी दी हुई है जिससे विषय जानने में सुगमता हो / तथा प्रमाण में मूल सूत्र 1, और उनकी नियुक्ति 2, भाष्य 3, चूर्णि 4, टीका 5 तथा और भी प्रामाणिक आचार्यों के बनाए हुए प्रकरण आदि अनेक ग्रन्थों का संग्रह है। जिस शब्द पर या उसके विषय पर किसी आचार्य या श्रावक की कथा मिली है उसे भी उस शब्द पर संग्रह कर ली है। तथा प्रसिद्ध 2 तीर्थों की और सभी तीर्थकरों की कई पूर्वमवों से लेकर निर्वाणपर्यन्त कथायें दी हुई है; इत्यादि विषय आगे दी हुई संक्षिप्त सूची से समझना चाहिए। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 इस ग्रन्थ में जो संकेत (नियम) रखे गये हैं वे इस तरह हैं 1- मागधीभाषा का मूलशब्द, और उसका संस्कृत अनुवाद, तथा मूल की गाथा, और मूलसूत्र, जिसकी टीका है ] मोटे (ग्रेट) अक्षरों में रखा है। 2- यदि कोई गाथा टीका में भी आई है और उसकी भी टीका है तो उसे दो लाइन (पङ्क्ति) में रखा है। और मोटे अक्षरों में न रखकर गाथा के आदि अन्त में ("") ये चिह्न दिए हैं। फिर उसके नीचे से उसकी टीका चलाई गई है। अन्य स्थल में तो मूल मोटे अक्षरों में, और टीका छोटे (पाइका) अक्षरों में दी गई है। 3- जहाँ कहीं उदाहरण में प्राकृत वाक्य या संस्कृत श्लोक आया है उसके आद्यन्त में " यह चिह्न दिया गया है, किन्तु एक से ज्यादा गाथा या श्लोक जहाँ कहीं बिना टीका के हैं वहाँ पर भी दो दो लैन करके उनको रखा है। और यदि एक ही है तो उसी लैन में रखा है। और जहाँ टीका अनुपयुक्त है वहाँ पर मूलमात्र ही मोटे अक्षरों में रखा है। 4- जिस शब्द का जो अर्थ है उसको सप्तम्यन्त से दिया है और उसके नीचे यह चिह्न दिया है और उसके बाद जिस ग्रन्थ से वह अर्थ लिया गया है उसका नाम भी दे दिया है। यदि उसके आगे उस ग्रन्थ का कुछ भी पाठ नहीं है तो उस ग्रन्थ के आगे अध्ययन उद्देशादि जो कुछ मिला है वह भी दिया गया है और यदि उस ग्रन्थ का पाठ मिला है तो पाठ की समाप्ति में अध्ययन उद्देश आदि रखे गए हैं, किन्तु अर्थ के पास केवल ग्रन्थ का ही नाम रखा है। ५-मागधीशब्द और संस्कृत अनुवाद शब्द के मध्य में तथा लिङ्ग और अनुवाद के मध्य में भी (-) यह चिह्न दिया है। इसी तरह तदेव दर्शयति-तथा चाह- या अवतरणिका के अन्त में भी आगे से संबन्ध दिखाने के लिए यही चिह्न दिया गया है। ६-जहाँ कहीं मागधी शब्द के अनुवाद संस्कृत में दो तीन चार हुए हैं तो दूसरे तीसरे अनुवाद को भी मोटे ही अक्षरों में रखा है किन्तु जैसे प्राकृत शब्द सामान्य पङ्क्ति (लाईन) से कुछ बाहर रहता है वैसा न रखकर सामान्य पङ्क्ति के बराबर ही रखा है और उसके आगे भी लिङ्गप्रदर्शन दिया है; बाकी सभी बात पूर्ववत् मूलशब्द की तरह दी है। 7- किसी किसी मागधीशब्द का अनुवाद संस्कृत में नहीं है किन्तु उसके आगे 'देशी' लिखा है वहाँ पर देशीय शब्द समझना चाहिए, उसकी व्युत्पत्ति न होने से अनुवाद नहीं है। ८-किसी किसी शब्द के बाद जो अनुवाद है उसके बाद लिङ्ग नहीं है किन्तु (धा०) लिखा है उससे धात्वादेश समझना चाहिये। 6- कहीं कहीं (ब०व०) (क०स०) (बहु०स०) (त०स०) (न०त०) (३त०) (४त०) (५त०) (६त०) (७त०) (अव्यपी० स०) आदि दिया हुआ है उनको क्रम से बहुवचन; कर्मधारय समास; बहुव्रीहि तत्पुरुष; नञ्तत्पुरुषः तृतीयातत्पुरुष; चतुर्थीतत्पुरुष; षष्ठीतत्पुरुष; सप्तमीतत्पुरुष; अव्ययीभाव समास समझना चाहिए। 10- पुंस्त्री० न०। त्रि०ा अव्यo--का संकेत क्रम से पुँल्लिङ्ग; स्त्रलिङ्ग नपुंसकलिङ्ग : त्रिलिङ्ग और अव्यय समझना। अध्ययनादि के सङ्केत और वे किन किन ग्रन्थों में हैं... 11- 1 अ०-अध्ययन-आवश्यकचूर्णि, आवश्यकवृत्ति, आचाराङ्ग, उपासकदशाङ्ग, उत्तराध्ययन, ज्ञाताधर्मकथा, दशाश्रुतस्कन्ध, दशवैकालिक, विपाकसूत्र और सूत्रकृतान में हैं। 2 अधि०-अधिकार-अनेकान्तजयपताकावृत्तिविवरण, गच्छाचारपयन्ना, धर्मसंग्रह और जीवानुशासन में हैं। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 29 3 अध्या०- अध्याय-द्रव्यानुयोगतर्कणा में हैं। 4 अष्ट०- अष्टक-हारिभद्राष्टक और यशोविजयाष्टक में हैं। 5 उ०-उद्देश-सूत्रकृताङ्ग, भगवती, निशीथचूर्णि, बृहत्कल्प, व्यवहार, स्थानाङ्ग और आचाराङ्ग में हैं। 6 उल्ला०-उल्लास-सेनप्रश्न में हैं। 7 कर्म-कर्मग्रन्थ-कर्मग्रन्थ में हैं। 8 कल्प-कल्प-विविधतीर्थकल्प में हैं। 6 ठा०-ठाणा-स्थानाङ्गसूत्र में हैं। 10 खण्ड-खण्ड-उत्तराध्ययननियुक्ति में हैं। 11 क्षण-क्षण-कल्पसुबोधिका में हैं। 12 काण्ड-काण्ड-सम्मतितर्क में हैं। 13 द्वा०-द्वात्रिंशिका-द्वात्रिंशदद्वात्रिंशिका में हैं। 14 द्वार-द्वार-पञ्चवस्तुक, पञ्चसंग्रह, प्रवचनसारोद्धार और प्रश्नव्याकरण में हैं। (प्रश्नव्याकरण में आश्रवद्वार और संवरद्वार के नाम से ही द्वार प्रसिद्ध हैं) 15 पद-पद-प्रज्ञापनासूत्र में हैं। 16 परि०-परिच्छेद-रत्नाकरावतारिका में हैं। 17 चू०-चूलिका-दशवकालिक और आचाराङ्ग में हैं। 18 प्रति०-प्रतिपत्ति--जीवाभिगम सूत्र में हैं। 16 पाद-पाद-प्राकृतव्याकरण और उसकी टीका ढुण्ढिका में हैं। 20 पाहु०-पाहुडा-चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, ज्योतिषकरण्डक में हैं। 21 वर्ग-वर्ग-निरयावलिका, अणुत्तरोववाई, अन्तकृद्दशाङ्ग में हैं। 22 विव०-विवरण-षोडशप्रकरण और पञ्चाशक में हैं। २३-प्रका०-प्रकाश-हीरप्रश्न में हैं। 24 प्र०-प्रश्न-सेनप्रश्न में हैं। 25 श०-शतक-भगवती सूत्र में हैं। 26 श्रु०-श्रुतस्कन्ध-सूत्रकृताङ्ग, आचाराङ्ग, ज्ञाताधर्मकथा और विपाकसूत्र में हैं। 27 वक्ष०-वक्षस्कार-जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में हैं। 28 सम०--समवाय-समवायाङ्ग सूत्र में हैं। 26 सू०-सूत्र--पञ्चसूत्र में हैं। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 2 - - अङ्ग अणु० अनु० अने० अन्त० - अष्ट . आचा० - आ०चू० - आ०म०प्र० आ०म०द्वि० आतु० - आ०क० - आव० - उत्त० - उपा० - १२-जिन जिन ग्रन्थों का प्रमाण दिया है उनके सङ्केत और नामअङ्गचूलिका। 26 जी० . जीवाभिगम सूत्र सटीक। अणुत्तरोववाई सूत्र सटीक। 30 जीत०- जीतकल्पवृत्ति। अनुयोगद्वार सूत्र सटीक। 31 जीवा०- जीवानुशासन सटीक / अनेकान्तजयपताकावृत्तिविवरण। 32 जै०इ०- जैनइतिहास। अन्तगडदशाङ्ग सूत्र / 33 ज्यो०- ज्योतिष्करण्डक सटीक अष्टक यथोविजयकृत सटीक / 34 ढुं० - ढुण्डी (प्राकृतव्याकरण) टीका / आचाराङ्गसूत्र सटीक 35 तं० - तन्दुलवयाली पयन्ना टीका। आवश्यकचूर्णि। 36 तित्थु०- तित्थुगाली पयन्नामूल। आवश्यकमलयगिरि (प्रथमखण्ड) 37 दशा०- दशाश्रुतस्कन्ध सूत्रवृत्ति / __ आवश्यकमलयगिरि (द्वितीयखण्ड) 38 दर्श०- दर्शनशुद्धि सटीक / आतुरप्रत्याख्यान पयन्ना टीका। 36 दश०- दशवैकालिकसूत्र सटीक। आवश्यक कथा। ४०द०प०- दशपयन्नामूल। आवश्यकबृहवृत्ति। १चउसरण पयन्ना। उत्तराध्ययन सूत्र सटीक। 2 आतुरप्रत्याख्यान पयन्ना। उपासकदशाङ्ग सूत्र सटीक। 3 संथारगइ पयन्ना / उत्तराध्ययननियुक्ति / 4 चंदविज्जा पयन्ना। एकाक्षरीकोश / 5 गच्छाचार पयन्ना। ओघनियुक्ति सटीक। 6 तंदुलवयाली पयन्ना। औपपातिकसूत्र वृत्ति / 7 देविंदत्थेव पयन्ना। कर्मग्रन्थ सटीक। 8 गणिविजा पयन्ना। कर्मप्रकृति सटीक। 6 महापचक्खण पयन्ना। कल्पसुबोधिका सटीक। 10 मरणविधि पयन्ना। पाइयलच्छीनाममाला कोश। 41 द्रव्या० - द्रव्यानुयोगतर्कणा सटीक / गच्छाचारपयन्ना टीका। द्वा० - द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका (बत्तीसबत्तीसी)सटीक चन्द्रप्रज्ञप्ति सूत्र सटीक। 43 द्वी० - द्वीपसागरप्रज्ञप्ति। जैनगायत्रीव्याख्या। 44 देना०- देशीनाममाला सटीक। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र सटीक / 45 ध०- धर्मसंग्रह सटीक। ज्ञाताधर्मकथा सूत्र सटीक। 46 ध०र०- धर्मरत्नप्रकरण सटीक / नयोपदेश सटीक। 76 ती० - विविधतीर्थकल्प। नन्दीसूत्र सवृत्ति। 800 - बृहत्कल्पवृत्ति सभाष्य / निरयावली सूत्र सटीक / 81 विशे०- विशेषावश्यक सभाप्य सबृहद्वृत्ति / उत्त०नि० - एका० ओघ० औ० कर्म० - - क०प्र० - कल्प० - को० - ग० 26 चं०प्र० जै०गा० जं० - - . 27 47 48 46 ज्ञा० नयो० 0 नि० - - . . Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 31 50 नि०चू० - पं०५० - पं०भा० - पञ्चा० . पञ्चा० - 82 विपा०- विपाक सूत्र सटीक / 83 श्रा० - श्रावकधर्मप्रज्ञप्ति सटीक। 84 षो० - षोडशपूकरण सटीक। 85 स० - समवायाङ्गः सूत्र सटीक! 86 संथा - संथारगपयन्ना सटीक। 87 संस०नि०- संसक्तनियुक्ति मूल / 58 संघा०- सङ्घाचार भाष्य / 86 सत्त०- सत्तरिसयठाणा वृत्ति। 60 सम्म०- सम्मतितर्क सटीक। पं०व० - पं०सं० - पं०सू० - प्रव० - 61 स्था० प्रव०मू० - प्रति० - 62 स्था० स्थानाङ्ग सूत्र सटीक / स्याद्वादमञ्जरी सटीक। सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र सटीक। सूत्रकृताङ्ग सूत्र सटीक। सेनप्रश्र। हारिभद्राष्टक सटीक। प्रश्न - 61 प्रज्ञा० - प्रमा० - पिं० - पिण्ड०मू०६५ पा० . ___प्रा० - भ० - निशीथसूत्र सचूर्णि। पञ्चकल्पचूर्णि। पञ्चकल्प भाष्य। पञ्चाशक सटीक। पञ्चाशक सटीक / पञ्चवस्तुक सटीक पञ्चसंग्रह सटीक। पञ्चसूत्र सटीक। प्रवचनसारोद्धारटीका। प्रवचनसारोद्धार मूल। प्रतिमाशतक सूत्र सटीक। प्रश्नव्याकरण सूत्र सटीक / प्रज्ञापना सूत्र सटीक / प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कार सूत्र / पिण्डनियुक्तिवृत्ति। पिण्डनियुक्ति मूल। पाक्षिक सूत्र सटीक / प्राकृतव्याकरण। भगवती सूत्र सटीक। महानिशीथ सूत्र मूल। मण्डलप्रकरण सवृत्ति। योगबिन्दु सटीक / रत्नाकरावतारिका वृत्ति / राजप्रश्नीय(रायपसेणी) सटीक / ललितविस्तरा वृत्ति। लघुप्रवचनसार मूल। लघुक्षेत्रसमास प्रकरण। व्यवहार सूत्र अक्षरार्थ। वाचस्पत्याभिधान (कोश) व्यवहारसूत्रवृत्ति। 63 सू०प्र०६४ सूत्र०६५ सेन०६६ हा०६७ ही० हीरप्रश्र। महा० - मण्ड० - यो०बि० - रत्ना० - ___रा० - ल० - लघु० - लक्षे० - व्य०अ० - वाच० - व्य० - Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 १३-प्राकृतशब्दों में जो कहीं कहीं () ऐसे कोष्ठक के मध्य में अक्षर दिए गए हैं, उनके विषय में थोड़े से नियम१- कहीं कहीं एक शब्द के अनेक रूप होते हैं परन्तु सूत्रों में एक ही रूप का पाठ विशेष आता है इसलिए उसी को मुख्य रखकर रूपान्तर को कोष्ठक में रखा है-जैसे 'अदत्तादाण' या 'अणुभाग' शब्द है और उसका रूपान्तर अदिण्णादाण या 'अणुभाव' होता है किन्तु सूत्र में पाठ पूर्व का ही प्रायः विशेष आता है तो उसी को मुख्य रखकर दूसरे को कोष्ठक में रख दिया है; अर्थात् 'अदत्ता(दिण्णा) दाण, 'अणुभाग (व)। 2- कहीं कहीं मागधी शब्द के अन्त में (ण) इत्यादि व्यञ्जन वर्ण भी कोष्ठक में दिया गया है वह "अन्त्यव्यञ्जनस्य" || 8/1 / 11 / / इस प्राकृतसूत्र से लुप्त हुए की सूचना है। ३-कहीं कहीं "क-ग-च-ज-त-द-प-य-वां प्रायो लुक्|८/१।१७७। इस सूत्र से एक पक्ष में व्यञ्जन के लोप होने पर बचे हुए (अ) (इ) आदि स्वरमात्र को रूपान्तर में दिया है। 4- इसी तरह "अवर्णो यश्रुतिः" ॥१११८०का भी विषय कोष्ठक में (य) आदि रखा है। 5- तथा "ख-घ–थ-ध-भाम्" ||8|1 / 187 / / इस प्राकृत सूत्र से ख घ थ ध भ अक्षरों को प्रायः हकार होता है और कहीं कहीं हकार न होने का भी रूप आता है तो रूपान्तर की सूचना के लिये (घ) (भ) आदि अक्षर भी कोष्ठक में दिए हैं। यह नियम स्मरण रखने के योग्य है। 6- कहीं कहीं प्राकृतव्याकरण के प्रथमपादस्य 12-13-14-15-16-17-18-16-20-21-22-44 सूत्रों के भी वैकल्पिक रूप, और दूसरे पाद के 2-3-5-8-10-11 सूत्रों से भी किए हुए रूपान्तर को कोष्ठक में दिया है। 7- "फो भहौ" // 8/1 / 236 / / इस सूत्र के लगने से फ को (भ) या (ह) होने पर, दो रूपों में किसी एक को कोष्ठक में दिया गया है। इसी तरह इसी पाद के 241-242-243-244-248-246-252-256-256-261-262-263-264 सूत्रों के विषय भी समझना चाहिये। 8- "स्वार्थे कश्च वा'' ||8/21264|| इस सूत्र से आये हुए क प्रत्यय को कहीं कहीं कोष्ठक में (अ) इस तरह रखा है। इसी तरह "नो णः" / / 8/1 / 228 // सूत्र का भी आर्ष प्रयोगों में विकल्प होता है, इत्यादि विषय प्रथमभाग में दिये हुए प्राकृतव्याकरण-परिशिष्ट से समझ लेना चाहिए। 14- प्राकृत शब्दो में कहीं कहीं संस्कृत शब्दों के लिङ्गों से विलक्षण भी लिङ्ग आता हैकहीं कहीं प्राकृत मान कर ही लिङ्ग का व्यत्यय हुआ करता है जैसे तृतीय भाग के 437 पृष्ठ में 'पिट्ठतो वराह' मूल में है, उस पर टीकाकार लिखते हैं कि 'पृष्ठदेशे वराहः, प्राकृतत्वाद् नपुंसकलिङ्गता'। इसीतरह "प्रावृट-शरत्- तरणयः पुंसि / / 8/131 // इस सूत्र से स्त्रीलिङ्ग का पुंलिग होता है; और दामन्-शिरस्-नभस् शब्दों को छोड़कर सभी सान्त और नान्त शब्द पुंलिड्ग होते हैं, तथा 'वाऽक्ष्यर्थवचनाद्याः' / 1 / 33 गुणाद्याःक्लीबे वा' / 1 / 34! 'वेमाञ्जल्याद्याः स्त्रियाम् 1135 / सूत्रों के भी विषय हैं। अन्यत्र स्थल में भी लोक प्रसिद्धि की अपेक्षा से ही प्राकृत में लिड़गों की व्यवस्था मानी हुई है। जैसे-ततीय भाग के 204 पृष्ठ में 'कडवाइ(ण)-कतावादिन' इत्यादि में पुंस्त्व ही होता है। यद्यपि सभा और कुल का विशेषण मानने से स्त्रीलिंग और नपुंसकलिङ्ग भी हो सकता है किन्तु उन दोनों को ग्रहण नहीं किया है; इसी तरह द्वितीय भाग के 28 पृष्ठ में 'आउक्खेम-आयुःक्षेम' इत्यादि में यद्यपि 'कुशलं क्षेममस्त्रियाम्' इस कोश के प्रामाण्य से नपुंसकत्व और पुंस्त्व भी प्राप्त है तथापि केवल पुंस्त्व का ही स्वीकार है ; क्योंकि काव्यादिप्रयोगों में भी लोकप्रसिद्धि से ही लिङ्ग माना गया है, जैसे अर्द्धर्चादि गण में पद्म शब्द का पाठ होने से पुंस्त्व भी है, तदनुसारही 'भाति पद्मः सरोवरे' यह किसी ने प्रयोग भी किया, किन्तु काव्यानुशासन-साहित्यदर्पण-काव्यप्रकाश-सरस्वतीकण्ठाभरण-रसगङ्गाधरकारादिकों ने पुल्लिङ्ग का आदर नहीं किया है। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 33 इस ग्रन्थ के हर एक भागों में आये हुए शब्दों में से थोडे शब्दों के उपयोगी विषय दिये जाते हैं प्रथम भाग के कतिपय शब्दों के संक्षिप्त विषय१-'अंतर' शब्द पर अन्तर के भेद, द्वीप पर्वतों में परस्पर अन्तर, जम्बूद्वारों में परस्पर अन्तर, जिनेश्वरों में परस्पर अन्तर, ऋषभस्वामी से वीर भगवान् का अन्तर, ज्योतिष्कों का और चन्द्रमण्डल का अन्तर, चन्द्र सूर्यों का परस्पर अन्तर, ताराओं का परस्पर अन्तर, सूर्यों का परस्पर अन्तर, धातकीखण्ड के द्वारों का अन्तर, विमानकल्पों का अन्तर, आहार के आश्रय से जीवों का अन्तर, और सयोगि भवस्थ केवल्यनाहारक का अन्तर इत्यादि विषय देखने के योग्य है। 2- अचित्त' शब्द पर अचित्त पदार्थ का, तथा 'अच्छेर' शब्द पद दश 10 आश्चर्यों का निरूपण देखना चाहिए। ३-'अजीव' शब्द पर द्रव्य-क्षेत्र काल-भाव से अजीव की व्याख्या की हुई है। ४-'अज्जा' शब्द पर आर्या (साध्वी) को गृहस्थ के सामने दुष्टभाषण करने का निषेध, और विचित्र (नाना रंग वाले) वस्त्र पहिरने का निषेध, तथा गृहस्थ के कपडे सीने का निषेध, और सविलास गमन करने का निषेध, पर्या गादी तकिया आदि को काम में लाने का निषेध, स्नान अङ्गरागादि करने का निषेध, गृहस्थों के घर जाकर व्यावहारिक अथवा धार्मिक कथा करने का निषेध, तरुण पुरुषों के आने पर उनके स्वागत करने का, तथा पुनरागमन कहने का निषेध, और उनके उचिताचारादि विषय वर्णित हैं। ५-'अणायार' शब्द पर साधुओं के अनाचार; 'अणारिय' शब्द पर अनार्यों का निरूपण; 'अणुओग' शब्द पर अनुयोग शब्द का अर्थ, अनुयोगविधि, अनुयोग का अधिकारी, तथा अनुयोगों की पार्थक्य आर्यरक्षित से हुई है, इत्यादि; और 'अणुव्वय' शब्द पर भङ्गियों के विभाग देखने के लायक हैं। ६-'अणेगंतवाय' शब्द पर स्याद्वाद का स्वरूप, एकान्तवादियों को दोष, अनेकान्तवादियों के मत का प्रदर्शन, अनेका-न्तवाद के प्रत्यक्षरूप से दिखाई देते हुए भी उसको तिरस्कार करने वालों की उन्मत्तता, एकान्तरूप से उत्पत्ति अथवा नाश मानने में दोष, हर एक वस्तु के अनन्तधर्मात्मक होने में प्रमाण, वस्तु की एकान्तसत्ता माननेवाले सांख्यमत का खण्डन इत्यादि विषय उत्तमोत्तम दिखाए गए हैं। 7 'अण्णउत्थिय' शब्द पर एक जीव एक समय में दो आयुष्य करता है कि नहीं? इसपर अन्ययूथिकों के साथ विवाद, अदत्तादानादि क्रिया के विषय में विवाद, एक समय में एक जीव के दो क्रिया करने में विवाद, कल्याणकारी शील है या श्रुत है? इस पर अन्ययूथिकों के साथ विवाद, और अन्ययूथिकों के साथ गोचरी का निषेध, तथा अन्ययूथिकों को भोजन देने का निषेध, एवं उनके साथ विचारभूमि या विहारभूमि में जाने का निषेध आदि विषय आवश्यकीय हैं। ८-'अदत्तादाण' शब्द पर अदत्तादान के नाम, अदत्तादान का स्वरूप, अदत्तादान का कर्ता, और अदत्तादान का फल इत्यादि विषय उपकारी हैं। ६-'अदृगकुमार' शब्द पर आर्द्रककुमार की कथा, रागद्वेषरहित के भाषण करने में दोषाभाव, बीजादि के उपभोक्ता श्रमण (साधु) नहीं कहे जाते, समवसरणादि के उपभोग करने पर भी अर्हन भगवान् के कर्मबन्ध न होने का प्रतिपादन, केवल भावशुद्धि ही को माननेवाले बौद्धों का खण्डन, बिना हिंसा किए हुए भी मांस खाने का निषेध आदि विषय प्रदर्शित किए गए हैं। 10- 'अधिगरण' शब्द पर कलह करने का निषेध, उत्पन्न हुए कलह को शान्त करने की आज्ञा,कलह उत्पत्ति के कारण, कहल करके दूसरे गण में जाने का निषेध, गृहस्थ के साथ कलह उत्पन्न हो जाने पर उसको बिना शान्त किये पिण्डादि ग्रहण करने का निषेध इत्यादि विषय स्मरण रखने के योग्य हैं। 11- 'अप्पाबहुय' शब्द पर अल्पबहुत्व के चार भेद, पृथ्वीकायादिकों के जघन्याद्यवगाहना से अल्पबहुत्व, आहारक और अनाहारक जीवों का अल्पबहुत्व, सेन्द्रियों का परस्पर अल्पबहुत्व, क्रोधादि कषायों का अल्पबहुत्व, किस क्षेत्र में जीव थोड़े है और किसमें बहुत है इसका निरूपण, जीव और पुद्गलों का अल्पबहुत्व, तथा ज्ञानियों का अल्पबहुत्व आदि अनेक विषय हैं। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 १२-'अमावसा' शब्द पर एक वर्ष में द्वादश अमावास्याओं का निरूपण, तथा उनके नक्षत्रों का योग और उनके कुल, एवं कितने मुहूर्तों के जाने पर अमावास्या के बाद पूर्णमासी और पूर्णमासी के बाद अमावास्या आती है इत्यादि विषय हैं; और 'अयण' शब्द पर अयन का परिमाण, करण का निरूपण, चन्द्रायण के परिज्ञान में करण आदि विषय रमणीय हैं। 13- 'अहिंसा' शब्द पर अहिंसा का स्वरूपनिरूपण, अहिंसा व्रत का लक्षण, जिनको यह मिली है और जिन्होंने इसको ग्रहण की है उनका वर्णन, अहिंसा पालन में उद्यत पुरुषों का कर्तव्य, अहिंसा की पांच भावनाएँ, प्राणीमात्र की हिंसा करने का निषेध, वैदिक(याज्ञिक) हिंसा पर विचार, प्राणी के न मारने के कारण, जैनों के समान अन्य मत में अहिंसा के अभाव का निरूपण, अन्य मत में अहिंसा को मोक्ष की कारणता मुख्य न (गौण) होना, एकान्त नित्य अथवा एकान्त अनित्य आत्मा के मानने वालों के मत में अहिंसा का व्यर्थ हो जाना, आत्मा के परिणामी होने पर भी हिंसा में अविरोध का प्रतिपादन, आत्मा के नित्यानित्यत्व और देह से भिन्नाभिन्नत्व होने में प्रमाण, तथा आत्मा के शरीरावच्छिन्न होने में गुण आदि विषय ध्यान देने के योग्य हैं। प्रथम माग में जिन जिन शब्दों पर कथा या उपकथायें आई हैं उनकी नामावली'अइमुंतय' 'अउज्झा' 'अंगारमद्दग"अंजू' 'अंड' 'अंबड' 'अक्कर' कीर्तिचन्द्र नरचन्द्र की 'अक्खपूया' 'अक्खुद्द' 'अगडदत्त' 'अगहिल्लगराय' 'अचंकारियभट्टा' 'अचल' 'अजिअदेव' 'अज्जगंग' 'अजचंदणा' 'अज्जमंगु''अज्जमणग' 'अज्जरक्ख' 'अज्जरक्खिय' 'अज्जव' (अङ्गर्षिकथा) 'अज्जवहर' 'अजुमणग' ' अट्ठण' 'अट्ठावय' 'अहिअगाम' 'अडवि' 'अणिस्सिओवहाण' 'अणीयस' 'अणुवेलंधर' 'अणुब्भमवेस' 'अण्णायया' 'अण्णियाउत्त' 'अत्तदोसोवसंहार' 'अत्थकुसल' 'अदृगकुमार' 'अप्पमाय' 'अव्वुय' 'अभग्गसेण' 'अभयकुमार' 'अभयदेव' 'अमरदत्त' 'अर' 'अरहण्णय' 'अरिट्ठनेमि' 'अलोभया' 'अवंतिसुकुमाल''असढ' 'अस्साववोहितित्थ' 'अहिच्छत्ता' 'अहिणंदण' 'आदि शब्दों पर कथायें द्रष्टव्य हैं। द्वितीय भाग के कतिपय शब्दों के संक्षिप्त विषय१- 'आउ' शब्द पर आयु के भेद, आयु प्राणीमात्र का अतिप्रिय है इसका निरूपण, आयु की पुष्टि के कारण, और उनके उदाहरणादि देखने चाहिये। 2- 'आउक्काय' शब्द पर अप्कायिकों के भेद, अप्कायिक के शरीरादि का वर्णन, और उसके सचित्त-अचित्त-मिश्र भेदों का निरूपण, उष्ण जल की अचित्तसिद्धि, अप्काय शस्त्र का निरूपण, अप्काय की हिंसा का निषेध, अप्काय के स्पर्श का निषेध, और शीतोदक के सेवन का निषेध आदि विषय हैं / 3- 'आउट्टि शब्द में चन्द्र और सूर्य की आवृत्तियाँ किस ऋतु में और किस नक्षत्र के साथ कितनी होती हैं इत्यादि विषय देखने के योग्य हैं। ४-'आगम' शब्द पर लौकिक और लोकोत्तर भेद से आगम के भेद, आगम का परतः प्रामाण्य, आगम के अपौरुषेयत्व का खण्डन, आप्तों के रचे हुए ही आगम का प्रामाण्य, जहाँ जहाँ प्रामाण्य का संभव है वह सभी प्रमाणीभूत है इसका निरूपण, मूलागम से अतिरिक्त के प्रामाण्य न होने पर विचार,शब्द के नित्यत्व का विचार, जो आगमप्रमाण का विषय होता है वह अन्य प्रमाण का भी विषय हो सकता है इसका विचार, धर्ममार्ग और मोक्षमार्ग में आगम ही प्रमाण है, जिनागम का सत्यत्वप्रतिपादन, सब व्यवहारों में आगम के ही नियामक होने का विचार, बौद्धों के अपोहवाद का संक्षिप्त निरूपण इत्यादि पचीस विषय बड़े रमणीय हैं। 5- 'आणा' शब्द पर आज्ञा के सदा आराधक होने का निरूपण, परलोक में आज्ञा ही प्रमाण है, आज्ञा की विराधना करने में दोष, तथा आज्ञाभङ्ग होने पर प्रायश्चित्त, आज्ञारहित पुरुष का चारित्र ठीक नहीं रह सकता, और आज्ञा के व्यवहार आदि का बहुत ही अच्छा विचार हैं। 6- 'आणुपुव्वी' शब्द पर बहुत ही गम्भीर 12 विषय विद्वानों के देखने योग्य हैं / Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7- 'आता' शब्द पर आत्मा के तीन भेद, आत्मा का लक्षण, आत्मा के कर्तृत्व पर विचार, आत्मा का विभुत्वखण्डन, आत्मा का परिणाम, आत्मा के एकत्व मानने पर विचार, आत्मा का क्रियावत्त्व, और आत्मा के क्षणिकत्व मानने पर विचार इत्यादि विषय हैं। 8- 'आधाकम्म' शब्द पर आधाकर्म शब्द की व्युत्पत्ति और अर्थ, तीर्थकर के आधाकर्म-भोजित्व पर विचार, भोजनादिक में आधाकर्म के संभव होने का विचार,आधाकर्म-भोजियों का दारुण परिणाम, और आधाकर्म-भोजियों का कर्मबन्ध होना, इत्यादि अनेक विषय हैं। 6- 'आभिणिबोहियणाण' शब्द पर 13 विषय विचारणीय है; और 'आयंविलपच्चक्खाण' शब्द पर आचामाम्ल-प्रत्याख्यान के स्वरूप का निरूपण है। 10- 'आयरिय' शब्द पर आचार्यपद का विवेक, आचार्य के भेद; आचार्य का ऐहलौकिक और पारलौकिक स्वरूप, प्रव्राजनाचार्य, और उपस्थापनाचार्य का स्वरूप, आचार्य का विनय करना; आचार्य के लक्षण, जिनके अभाव में आचार्य नहीं हो सकता वे गुण, आचार्य के भ्रष्टाचारत्व होने में दुर्गुण, दूसरे का अहित करना भी दुर्गुण है इसका कथन, प्रमादी आचार्य के लिए शिष्य को दंड करने का अधिकार; गुरु के विनय में वैद्यदृष्टान्त, आचार्य के लिये नमस्कार करने का निरूपण, गुरु की वैयावृत्य, जिस कर्म से गच्छ का अधिपति होता है उसका निरूपण, आचार्य के अतिशय, निर्ग्रन्थयो के आचार्य, एक आचार्य के काल कर जाने पर दूसरे आचार्य के स्थापन में विधि, आचार्य की परीक्षा, आचार्य पद पर गुरू के स्थापन करने के विधि, बिना परिवार के आचार्य होने का खण्डन, स्थापन करने में वृद्ध साधुओं की सम्मति लेने की आवश्यकता, इत्यादि उत्तमोत्तम विषय हैं। ११-'आलोयणा' शब्द पर आलोचना की व्युत्पत्ति, अर्थ और स्वरूप, मूलगुण और उत्तरगुण से आलोचना के भेद, विहारादि भेद से आलोचना के तीन भेद, और उसके भी भेद, शल्य के उद्धारार्थ आलोचना करने में विधि, आलोचनीय विषयों में यथाक्रम आलोचना के प्रकार, आलोचना में शिष्याचार्य की परीक्षा पर आवश्यकदार, आलोचना लेने के स्थान, गोचरी से.आए हुए की आलोचना, द्रव्य-क्षेत्रकाल-भाव भेद से आलोचना के चार प्रकार, आलोचना का समय, तथा किसके निकट आलोचना लेनी चाहिये इस पर विचार, आसन्नमरण जीव के भी आलोचना लेने में ब्राह्मण का दष्टान्त, अदत्तालोचन पर व्याध का दृष्टान्त, आलोचना के आठ और दश स्थानक, कृत कर्मो की क्रम से आलोचना लेनी चाहिये, आलोचना न लेकर मृत होने पर दोष, और आलोचना का फल इत्यादि विषय आवश्यकीय हैं। 12- 'आसायणा' शब्द पर आशातना करने में दोष, और आशातना का फल इत्यादि विवेचन देखने के योग्य है। १३-'आहार' शब्द पर 'सयोगी केवली, अनाहारक होते हैं ' इस दिगम्बर के मत का खण्डन, केवलियों के आहार और नीहार प्रच्छन्न होते हैं इस पर विचार, पृथिवीकायिकादिकों के आहार का निरूपण, तथा वनस्पतियों का, वृक्षोपरिस्थ वृक्षों का, मनुष्यों का, तिर्यगजलचरों का, स्थलचर सादिकों का, खेचरों का, विकलेन्द्रियों का. पञ्चेन्द्रियों के मल परीषों से उत्पन्न जीवों तेजस्कायिक और वायुकायिक के आहार का निरूपण, और सचित्ताहार का प्रतिपादन यावजीव प्राणी कितना आहार करता है इसका परिमाण, आहार के कारण, आहारत्याग का कारण और आहार करने का प्रमाण, भगवान् ऋषभ स्वामी के द्वारा कन्दाहरी युगलियों का अन्नाहारी होना इत्यादि विषय हैं। 15- 'इंदिय' शब्द पर इन्द्रियों के पाँच भेद होने पर भी नामादि भेद से चार भेद, तथा द्रव्यादि भेद से दो भेद, और इन्द्रियों के संस्थान (रचना), इन्द्रियों के विषय, नेत्र और मन का अप्राप्यकारित्व, अवशिष्ट इन्द्रियों का प्राप्यकारित्व, और इन्द्रियों के गुप्तागुप्त दोष का निरूपण आदि विषय द्रष्टव्य हैं / 15- 'इत्थी' शब्द पर स्त्री के लक्षण, स्त्रियों के स्वभाव जानने की आवश्यकता, और उनके कृत्यों का वर्णन, स्त्रीसंबन्ध में दोष, स्त्रियों के साथ विहार नहीं करना, स्त्री के साथ संबन्ध होने से इसी लोक में फल, स्त्री के संसर्ग में दोष, भोगियों की विडम्बना, विश्वास देकर स्त्रियों के अकार्य करने का निरूपण, स्त्रियों के स्वरूप और शरीर की निन्दा, वैराग्य उत्पन्न होने के लिए स्त्रीचरित्र का निरीक्षण, स्त्रियों Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की अपवित्रता, प्राणी का सर्वस्व हरण करने वाली और बन्धन में विशेष कारण स्त्रियां हैं, उनके स्नेह में फसे हुए पुरुष को दुःखप्राप्ति, स्त्री का संबन्ध सर्वथा त्याज्य है इसका निरूपण, और उसके त्याग के कारण, स्त्री के हस्तस्पर्श करने का निषेध, तथा स्त्री के साथ विहार, स्वाध्याय, आहार,उच्चार, प्रस्रवण, परिष्ठापनिका, और धर्मकथादि करने का भी निषेध इत्यादि बहुत अच्छे 20 विषय द्रष्टव्य हैं। 16- 'इस्सर' शब्द पर ईश्वर के जगत्कर्तृत्व का खण्डन, तथा ईश्वर के एकत्व और विभुत्व का खण्डन, अन्य तीर्थकों के माने हुए ईश्वर का खण्डन आदि विषय विचारने के योग्य हैं। 17- 'उईरणा' शब्द भी द्रष्टव्य है, और 'उववाय' शब्द पर 30 विषय ध्यान रखने के योग्य हैं, जैसे-देवता देवलोक में क्यों उत्पन्न होते हैं, अविराधित श्रामण्य होने पर देवलोक में उपपात होता है, और नैरयिक कैसे उत्पन्न होते हैं इत्यादि विषयों पर विचार है। 18- 'उवसंपया' शब्द पर आचार्यादि के काल कर जाने पर साधू के अन्यत्र गमन करने पर विचार, हानि और वृद्धि की परीक्षा करके कर्तव्याकर्तव्य का निरूपण, भिक्षु का एक गण से निकल कर दूसरे गण में प्राप्त हो के विहार, तथा इसी का दूसरा प्रकार, कुगुरु होने पर अन्यत्र गमन करना इत्यादि विचार है। 16- 'उवसम्ग' शब्द पर उपसर्ग की व्याख्या, उपसर्गकारी के भेद से उपसर्ग के भेद, और उपसर्ग का सहन, तथा संयमों का रूक्षत्व आदि विषय हैं। 20- 'उवहि' शब्द पर उपधि के भेद, जिनकल्पिक और स्थविरकल्पिकों के उपधि, जिन कल्पिक और गच्छवासियों के उपधि में उत्कृष्ट विभाग प्रमाण, उपधि के न्यूनाधिक्य में प्रायश्चित्त, प्रथम प्रव्रज्या के ग्रहण करने पर उपधि, प्रव्रज्या को ग्रहण करती हुई निर्ग्रन्थी के उपधि, रात्रि में अथवा विकाल में उपधि का ग्रहण, भिक्षा के लिए गए हुए साधु के उपकरण गिर जाने पर विधि, स्थविरों के ग्रहण योग्य उपधि, साध्वियों को जो उपधि देता हो उसे उनके आने के मार्ग में रख देना चाहिए इत्यादि विषय उपयोगी हैं। 21- 'उसम' शब्द पर ऋषभस्वामी के पूर्व भव का चरित्र, ऋषभस्वामी के तीर्थङ्कर होने में कारण, ऋषभस्वामी का जन्म और जन्ममहोत्सव, ऋषभस्वामी के नाम, और उनकी वृद्धि, और उनका विवाह, पुत्र, नीतिव्यवस्था, राज्याभिषेक, राज्यसंग्रह, लोकस्थिति के लिए शिल्पादि का शिक्षण, वास, तदनन्तर ऋषभस्वामी के पुत्र का अभिषेक, ऋषभस्वामी का दीक्षाकल्याणक, और उनके चीवरधारी होने का कालप्रमाण, भिक्षाकाल का प्रमाण, ऋषमस्वामी के आठ भवों का श्रेयांसकुमार के द्वारा कथन, ऋषभनाथ का श्रामण्य के बाद प्रवर्तनप्रकार श्रामण्यावस्थावर्णन, केवलोत्पत्त्यनन्तर धर्मकथन, ऋषभस्वामी के वन्दनार्थ मरुदेवी के साथ भरत को गमन, और भरत का दिग्विजय, ब्राह्मणों की उत्पत्ति का प्रकार, ऋषभस्वामी की सङ्घसङ्ख्या, और उनके केवल ज्ञान उत्पन्न होने के बाद कितने कालानन्तर भव्यों का सिद्धिगमन प्रवृत्त हुवा, और कब कहा रहा, ऋषभस्वामी के जन्मकल्याणकादि के नक्षत्र, और उनके शरीर की संपत्ति, शरीर का प्रमाण, कुमारावस्था में तथा राज्य करने के समय में और गृहस्थावस्था में जितना काल है उसका मान, ऋषभस्वामी का निर्वाण इत्यादि विषय स्थित हैं। इस से अतिरिक्त भी विषय इस भाग में स्थित हैं जिनका विस्तार के भय से निरूपण नहीं हो सकता। द्वितीय भाग में जिन जिन शब्दों पर कथा या उपकथायें आई हुई हैं उनकी नामावली'आउ' 'आणंद,' 'आधाकम्म,' 'आपई,' 'आभीरवंचग,' 'आयरिय,' 'आराहणा,' 'आरुग्गदिय,' 'आलंबण, 'आलोयणा,' 'आसाढभूइ,''इंददत्त,''इंदभूइ,' 'इच्छकार, 'इत्थिपरिसह, 'इत्थी,' 'इलापुत्त,''इसिभद्दपुत्त, 'इसिभासिय, "इस्सर,' 'उउंबरदत्त,' 'उक्कम,' 'उवघायमाण, "उज्जयंत,' 'उज्जुमतिववहार, 'उज्जुववहार,' 'उज्झियय,' 'उण्हपरीसह,' 'उदयण,' "उदयप्पभसूरि,' 'उद्देसिय,' 'उप्पत्तिय,' 'उप्पत्तिया,' 'उरब्भ,''उववूह,' 'उवसंपया, "उवहि, "उवालंभ,''उस्सारकप्प, इत्यादि शब्दों पर कथायें द्रष्टव्य हैं। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 37 तृतीय भाग में आये हुए कतिपय शब्दों के संक्षिप्त विषय१- 'एगल्लविहार' शब्द पर एकाकी विहार करने में साधू को क्या दोष होता है इस पर विचार, एकाकिविहारियों के भेद, अशिवादि कारण से एकाकी होने में दोषाभाव, गण को छोडकर एकाकी विहार करने पर प्रायश्चित्तादि वर्णित हैं। 2- 'एगावाइ' शब्द पर आत्मा का एकत्व मानने वालों का खण्डन, तथा एक मानने में दोष, अद्वैतवाद (पुरुषाद्वैत) का खण्डन विस्तार से है। 3- 'एसणा' शब्द पर 14 विषय दिये हैं वे भी साधू और गृहस्थों के देखने योग्य हैं, जैसे-साधू को किस प्रकार भिक्षा लेना, और गृहस्थ को किस प्रकार देना चाहिये इत्यादि। 4- 'ओगाहणा' शब्द पर अवगाहना के भेद, औदारिक शरीर की अवगाहना (क्षेत्र) का मान, द्वित्रिचतुरिन्द्रियों की औदारिकावगाहना, तिर्यक्पञ्चेन्द्रियों की औदारिकावगाहना, मनुष्यपञ्चेन्द्रियों की औदारिकशरीरावगाहना, वैक्रिय शरीर की अवगाहना का मान, पृथिव्यादिकों की वैक्रियशरीरावगाहना पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चों की वैक्रिय शरीर की अवगाहना का मान, पृथिव्यादिकों की वैक्रियशरीरावगाहना, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चों की वैक्रियशरीरावगाहना, असुरकुमारों की वैक्रियशरीरावगाहना, आहारकशरीरों की अवगाहना का मान,तैजस शरीर की अवगाहना का मान, निगोद जीवों की अवगाहना का मान, धर्मा-स्तिकाय के अवगाढानवगाढ की चिन्ता, एक जगह एक ही धर्मास्तिकायादि प्रवेशावगाढ है इत्यादि विवेचन है। 5- 'ओसप्पिणी' शब्द पर अवसर्पिणी शब्द की व्युत्पत्ति, और अवसर्पिणी कितने काल को कहते हैं, अवसर्पिणी काल में संपूर्ण शुभ भाव क्रम से अनन्त गुण से क्षीण होते हैं, और उसी तरह अशुभ भाव बढ़ते हैं, सुषमसुषमा से लेकर दुःषमदुः-षमा पर्यन्त अवसर्पिणी के छ भेद, सुषमादिकों का प्रमाण, भेरुतालादि वृक्ष का वर्णन, अष्टम कल्पवृक्ष का स्वरूप, उस काल में होने वाले मनुष्यादिकों के स्वरूप का वर्णन, और उनकी भवस्थिति, प्रथम से लेकर षष्ठ आरा तक का स्वरूपनिरूपण, जगत की व्यवस्था का वर्णन, भरतभूमिस्वरूप, अवसर्पिणी के तीन भेद इत्यादि विषय दिये हुए हैं। 6- 'ओहि शब्द पर अवधि शब्द की व्युत्पत्ति और लक्षण, अवधि के भेद, अवधि के नामादि सात भेद, अवधि क्षेत्र मान, अवधिविषयक द्रव्य का मान, क्षेत्र और काल के विषय का मान इत्यादि अनेक विचार हैं / 7- 'कजकारणभाव' शब्द पर कापिलादि मतों का खण्डन आदि विषय विचारणीय हैं। ८-'कम्म' शब्द पर कर्म के तीन भेद, और उनके स्वरूप का निरूपण, कर्म और शिल्प में भेद, नैयायिक और वैयाकरगों के कर्म पदार्थ का निरूपण, कर्म के स्वरूप का निरूपण, पुण्य और पापरूप कर्म की सिद्धि, अकर्मवादी नास्तिक के मत का खण्डन, कर्म के मूतत्व पर आक्षेप और परिहार, जगत के वैचित्र्य से भी कर्म की सिद्धि, जीव के साथ कर्म का सम्बन्ध, कर्म का अनादित्व, जगत की विचित्रता में कर्म ही कारण है ईश्वरादि नहीं हैं इसका निरूपण, स्वभाववादी के मत का खण्डन, पुण्य और पाप कर्म रूप ही हैं, पुण्य और पाप के भिन्न लक्षण, कर्म के चार भेद, ज्ञानावरणीय दर्शनावारणीय और मोहनीयों का विचार, नामकर्म गोत्रकर्म और आयुष्यकर्म का निरूपण इत्यादि 37 विषय विचारणीय हैं। 6- 'कसाय' शब्द पर कषायों का निरूपण है। 10- 'काउसग' शब्द पर कायोत्सर्ग का अर्थ, किन किन कार्यो में कितने उच्छास मान व्युत्सर्ग है, किस रीति से कायोत्सर्ग में स्थित होना इत्यादि 15 विषय बड़े गंभीर हैं। 11- 'काम' शब्दपर काम की रूपित्वसिद्धि, अरूपित्व का खण्डन; तथा 'कायटिइ' शब्द पर जीवों की कायस्थिति, जीवों की नैरयिकादि पर्याय से स्थितिचिन्ता, तिर्यक् तथा तिर्यस्त्रियों की, और मनुष्य तथा मनुष्यस्त्रियों की कायस्थिति, देव तथा देवियों की कायस्थिति, पर्याप्तापर्याप्त के विशेष से नैरयिकों की कायस्थिति, इन्द्रियों के द्वारा से जीवों की कायस्थिति, कायद्वार से जीवों की कायस्थिति, इसी तरह Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 - योगद्वार, वेदद्वार, कषायद्वार, लेश्याद्वार सम्यग्दृष्टिद्वार, ज्ञानद्वार दर्शनद्वार, संयमद्वार, उपयोगद्वार, आहारद्वार, भाषकाभाषकद्वार, संज्ञिद्वार, भवस्थितिकद्वार के भेद से जीवों की कायस्थिति, और उदकगर्भादिकों की कायस्थिति इत्यादि 20 विषय हैं। 12- 'काल' शब्द पर कालशब्द की व्युत्पत्ति, काल की सिद्धि, काल का लक्षण, काल के भेद, दिगम्बर की प्रक्रिया से काल का निरूपण, और उसका खण्डन, काल का ज्ञान मनुष्य क्षेत्र में ही होता है इसका निरूपण, काल के संख्येय, असंख्येय और अनन्त भेद से तीन भेद तीर्थकर और गणधरों से कहे हुए हैं, स्निग्ध और रूक्ष भेद से काल के दो भेद, स्निग्ध और रूक्ष के तीन तीन भेद इत्यादि विषय निर्दिष्ट हैं। 13- "किइकम्म' शब्द पर कृतिकर्म में साधुओं की अपेक्षा से साध्वियों का विशेष, यथोचित वन्दना न करने में दोष,कृतिकर्म में द्रव्य और भाव के जनाने के लिये दृष्टान्त, कृतिकर्म करने के योग्य साधुओं का निरूपण, तथा वन्दन करने के योग्य साधुओं का निरूपण, द्रव्यक्षेत्र-काल-भाव से भेद, आचरणा का लक्षण, और पर्याय ज्येष्ठों से आचार्य की वन्दिना का विचार, दैवसिक और रात्रिक प्रतिक्रमण के मध्य में स्तुति मङ्गल अवश्य करना चाहिए, कृतिकर्म किसको करना चाहिए और किसको नहीं इसका विवेचन, पार्श्वस्थादि कों की वन्दना पर विचार, सुसाधु के वन्दना पर गुण का विचार, कृतिकर्म करने में उचितानुचित का निरूपण, कृतिकर्म को कब करना और कब नहीं करना, और कितनी वार कृतिकर्म करना इसका निरूपण, नियत वन्दनस्थान की संख्या का कथन, कृतिकर्म के स्वरूप का निरूपण इत्यादि 21 विषयों का विवेचन है। 14- "किरिया' शब्द पर क्रिया का स्वरूप, क्रिया का निक्षेप, क्रिया के भेद, स्पृष्टास्पृष्टत्व से प्राणातिपातक्रिया का निरूपण, क्रिया का सक्रियत्व और अक्रियत्व, मृषावादादि का आश्रयण करके क्रियाकरने का प्रकार, अष्टादश स्थानों के अधिकार स एकत्व और पृथक्त्व के द्वारा कर्मबन्ध का निरूपण, ज्ञानावरणीयादि कर्म को बाँधता हुवा जीव कितनी क्रियाओं से समाप्त करता है, मृगयादि में उद्यत पुरुष की क्रिया का निरूपण, क्रिया से जन्य कर्म और उसकी वेदना के अधिकार से क्रिया का निरूपण, श्रमणोपासक की क्रिया का कथन, अनायुक्त में जाते हुए अनगार की क्रिया का निरूपण इत्यादि 18 विषय आए हुए हैं। 15- 'कुसील' शब्द पर कुशील किसको कहना, और उनके भेद, कुशील के चरित्र, कुशीलों के निरूपणानन्तर सुशीलों का निरूपण, पार्श्वस्थादिकों का संसर्ग नहीं करना, और उनके संसर्ग में दोष इत्यादि विषय हैं। 16- 'केवलणाण' शब्द पर केवलज्ञान शब्द का अर्थ, केवलज्ञान की सिद्धि, इसका साद्यपर्यवसितत्व, केवलज्ञान के भेद, सिद्ध का स्वरूप, किस प्रकार का केवलज्ञान होता है इसका निरूपण, स्त्रीकथा भक्तकथा देशकथा और राजकथा करनेवाले के लिये केवल ज्ञान और केवल दर्शन का प्रतिबन्ध इत्यादि विषय द्रष्टव्य हैं / 17- 'केवलिपण्णत्त' शब्द पर केवली से कहे हुए धर्म का निरूपण, केवली के भेद, पहिले केवली हो कर ही सिद्धि को प्राप्त होता है, केवली के आहार पर दिगम्बर की विप्रतिपत्ति आदि विषय निरूपित हैं। 18- 'खओवसमिय' शब्द क्षयोपशमिक के भेद तथा औपशमिक से इसका भेद, और उसके अठारह भेद इत्यादि विषय द्रष्टव्य हैं / १६-'खरयर' शब्द पर खरतर गच्छ का संक्षिप्त विवरण; तथा 'खणियवाई' शब्द पर बौद्धों के मत का संक्षिप्त निरूपण, और खण्डन आदि देखने के लायक है। 20- 'खेत्त' शब्द पर क्षेत्र का निरूपण, क्षेत्र के तीन भेद, क्षेत्र के गुण, क्षेत्र का आभवनव्यवहार आदि कई विषय निरूपित हैं / 29- 'गई' शब्द पर स्पृशद्गति और अस्पृशद्गति से गति के दो भेद, प्रकारान्तर से मी दो भेद, गति शब्द की व्युत्पत्ति, नारक तिर्यग् मनुष्य देव के भेद से गति के चार भेद, प्रकारान्तर से पाँच भेद, अथवा आठ भेद, नारकादिकों की शीघ्रगति आदि विषय दिये हुए हैं। 22- 'गच्छ' शब्द पर गच्छविधि, सदाचाररूपी गच्छ का लक्षण, गच्छ का अगच्छत्व, गच्छ में वसने से विशेष निर्जरा होती है इसका निरूपण, शिष्य तथा गच्छ का स्वरूप, आर्यिकाओं के साथ संवाद का निषेध, क्रयविक्रयकारी गच्छ का निषेध, सुगच्छ में बसना चाहिए, Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 39 बसति का रक्षण, अदुष्टभाषण, गच्छमर्यादा, आचार्यादिकों के अभाव होने पर गच्छ में नहीं वसना, गच्छ और जिनकल्प दोनों की प्रशंसा इत्यादि विषय हैं। 23- 'गणह (ध)र' शब्द पर गणधर का स्वरूप, किस तीर्थङ्कर के कितने गणधर हैं, गणधर शब्द का अर्थ, जिनगुणों से गणधर होने की योग्यता होती है उनका निरूपण किया है। 24- 'गब्म' शब्द पर गर्भ में अहोरात्रियों का प्रमाण, मुहूर्तों का प्रमाण, गर्भ में निःश्वासोच्छ्रास का प्रमाण, गर्भ का स्वरूप, ध्वस्तयोनि के काल का मान, कितने वर्ष के बाद स्त्री गर्भधारण नहीं करती और पुरुष निर्वीर्य हो जाता है इसका निरूपण, कितने जीव एक हेला से एक स्त्री के गर्भ में उत्पन्न होते हैं, कुक्षि में पुरुषादि कहाँ बसते हैं, गर्भ में जीव उत्पन्न होकर क्या आहार करता है? गर्भस्थ जीव के उच्चार और प्रस्रवण का विचार, गर्भ से भी जीव नरक या देवलोक को जाता है या नहीं इस गौतम स्वामी के प्रश्न का उत्तर, नवमास का अन्तर हो जाने पर पूर्व भव को जीव क्यों नहीं स्मरण करता? और गर्भगत का शौचादि विचार, स्त्री के गर्भधारण करने के पाँच प्रकार, गर्भपतन का कारण, गर्भषोषण में विधि इत्यादि विषय हैं। 25 -- 'गिलाण' शब्द पर ग्लान के प्रति जागरण, सचित्ताचित्त से चिकित्सा, ग्लान का अनुवर्तन, वैद्यानुवर्तना, वैद्य का उपदेश, ग्लान के लिये एषणा इत्यादि विषय हैं / 26- 'गुण' शब्द पर मूलगुण, उत्तरगुण, एकतीस सिद्धादिगुण, सत्ताईस अनगार गुण, महर्द्धि प्राप्त्यादि, सौभाग्यादि, मृदुत्वौदार्यादि, क्षान्त्यादि, वैशेषिकसंमत गुण, द्रव्यगुणों का परस्पर अभेद, गुणपर्याय के भेद, गुणपर्याय का ऐक्य, और जैनसंमत गुण इत्यादि द्रष्टव्य विषय हैं। 27- 'गुणट्ठाण' शब्द पर चौदह गुणस्थान, कायस्थिति, गुणस्थान में बन्ध इत्यादि विषय हैं। 28- 'गोयरचरिया' शब्द पर जिनकल्पिक स्थविरकल्पिक, निर्ग्रन्थियों की भिक्षा में विधि, भिक्षाटन में विधि, आचार्य की आज्ञा, जाने के समय धार्याधार्य और कार्याकार्य, मार्ग में कि तरह जाना, वृष्टिकाय के गिरने पर विधि, गृह प्रवेश, गृह के अवयवों को पकड़ करके नहीं खड़े होना, अंगुली दिखाने का निषेध, अगारी(स्त्री) के साथ खड़े होने का निषेध, ब्राह्मणादि को प्रविष्ट देख कर के भिक्षा के लिए प्रवेश नहीं करना, तीर्थकर और उत्पन्नकेवलज्ञानदर्शन वाले भिक्षा के लिए भ्रमण नहीं करते, आचार्य भिक्षा के लिए नहीं जाता, ग्राह्यवस्तु, गोचरातिचार में प्रायश्चित्त, साध्वियों की भिक्षा का प्रकार इत्यादि विषय बहुत उपयोगी हैं। 26- 'चक्कवट्टी' शब्द पर चक्रवर्तियों की गति का प्रतिपादन, गोत्रप्रतिपादन, चक्रवर्ती के पुर का प्रतिपादन, चक्रवर्ती का बल, मुक्ताहार, वर्णादि, स्त्रियां, स्त्रियों के सन्तान आदि का निरूपण, उत्सर्पिणी में 12 चक्रवर्ती होते हैं, कौन और कैसे चक्रवर्ती होता है इसका निरूपण इत्यादि विषय हैं। 30- 'चारित्त' शब्द पर कुम्भ के दृष्टान्त से चारित्र के चार भेद, सामायिकादि रूप से चारित्र के पाँच भेद, किस तरह चारित्र की प्राप्ति होती है इसका प्रतिपादन, चारित्र से हीन ज्ञान अथवा दर्शन मोक्ष का साधन नहीं होता है, किन कषायों के उदय से चारित्र का लाभ ही नहीं होता और किन से हानि होती है इसका निरूपण, वीतराग का चारित्र न बढ़ता है और न घटता है, चारित्र की विराधना नहीं करना, आहारशुद्धि ही प्रायः चारित्र का कारण है इत्यादि विषय हैं। 31- 'चेइय' शब्द पर चैत्य का अर्थ, प्रतिमा की सिद्धि, चारणमुनिकृत वन्दनाधिकार, चैत्य शब्द का अर्थ जो ज्ञान मानते हैं उनका खण्डन, चमरकृतवन्दन, देवकृत चैत्यवन्दन, सावद्य पदार्थ पर भगवान् की अनुमति नहीं होती, और मौन रहने से भगवान् की अनुमति समझी जाती है क्योंकि निषेध न करने से अनुमति ही होती है इसपर दृष्टान्त, हिंसा का विचार, साधू को स्वातन्त्र्य से चैत्य में अनधिकार, द्रव्यस्तव में गुण, जिनपूजन से वैयावृत्य, तीन स्तुति, जिन भवन के बनाने में विधि, प्रतिमा बनाने में विधि, प्रतिष्ठाविधि, जिनपूजाविधि, जिनस्नात्रविधि, आभरण के विषय में दिगम्बरों के मत का प्रदर्शन और खण्डन, चैत्यविषयक प्रश्नों पर हीरविजय सूरिकृत उत्तर इत्यादि अनेक विषय हैं। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 32- 'चेइयवंदण' शब्द पर नैषेधिकत्रिय, पूजात्रिक, भावनात्रिक, त्रिदिनिरीक्षणप्रतिषेध, प्रणिधान; अभिगम, चैत्यवन्दनदिक् अवगाह, 3 वन्दना, 3 या 4 स्तुति, जघन्यवन्दना, अपुनर्बन्धकाऽऽदिक अधिकारी हैं, नमस्कार, प्रणि-पात दण्डक, 24 स्तव, सिद्धस्तुति, वीरस्तुति, वैयावृत्य की चौथी स्तुति, 16 आकार, कायोत्सर्ग इत्यादि अनेक विषय आए हैं। __तृतीय भाग में जिन जिन शब्दों पर कथा या उपकथायें आई हुई हैं उनकी संक्षिप्त नामावली'एगत्तभावणा,' 'एलकक्ख,' 'एसणासमिइ,' 'कण्णाणयणीय,' 'कण्णीरह, 'कत्तिय, 'कप्प,' 'कप्पअ,' 'कयण्णू, 'कवड्डिजक्ख,' 'कंडरिय, 'कंबल, 'करंडु,' 'कादिय, 'कायगुत्ति, 'काल,''कालसोअरिय,''कासीराज, 'किइकम्म,' 'कुबेरदत्त,. "कुबेरदत्ता,' 'कुबेरसेणा,' 'कोडिसिला,' 'गंगदत्त,' ‘गयसुकुमाल,' 'गुणचंद,' 'गुणसागर,' 'गुत्तसूरि,' 'गुरुकुलवास,' 'गुरुणिग्गह,,' 'गोट्ठामाहिल,' 'चंडरुद्द,' 'चंदगुत्त,' 'चंदप्पभसूरि,' 'चंपा,' 'चक्कदेव,' 'चेइयवंदण,'। चतुर्थमाग में आये हुए कतिपय शब्दों के संक्षिप्त विषय१- 'जीव' शब्द पर जीव की व्युत्पत्ति, जीव का लक्षण, जीव का कथञ्चिन्नित्यत्व, और कथञ्चित् अनित्यत्व, हस्ति और कुन्थु का समान जीव है इसका प्रतिपादन, जीव और चैतन्य का भेदाभेद, संसारी और सिद्ध के भेद से जीव के दो भेद, संसारियों का सेन्द्रियत्व, सिद्धों का अनिन्द्रियत्व इत्यादि विषय वर्णित हैं। 2- 'जोइसिय' शब्द पर जम्बूद्वीपगत चन्द्र सूर्य की सङ्ख्या , तथा लवण समुद्र के, धातकी खण्ड के, कालोद समुद्र के, पुष्करवर द्वीप के, और मनुष्यक्षेत्रगत समस्त चन्द्रादि की संख्या का मान, चन्द्र-सूर्यो की कितनी पङ्क्तियाँ हैं और किस तरह स्थित हैं इसका निरूपण, चन्द्रादिकों के भ्रमण का स्वरूप, और इनके मण्डल, तथा चन्द्र से चन्द्र का और सूर्य से सूर्य का परस्पर अन्तर इत्यादि अनेक विषय हैं जिनका पूरा 2 निरूपण यहाँ नहीं किया जा सकता। 3- 'जोग' शब्द पर योग का स्वरूप, तथा योग के भेद, और योग का माहात्म्य आदि अनेक बृहत् विषय हैं। 4- 'जोनि' शब्द पर योनि का लक्षण, और उसकी संख्या, और भेद, तथा स्वरूप आदि अनेक विषय हैं। 5 'झाण' शब्द पर ध्यान का अर्थ, ध्यान के चार भेद, शुक्लध्यानादि का निरूपण, ध्यान का आसन, ध्यातव्य और ध्यानकर्ताओं का निरूपण, ध्यान का मोक्षहेतुत्व इत्यादि विषय हैं। 6- 'ठवणा' शब्द पर स्थापनानिक्षेप, प्रतिक्रमण करते हुए गणधर स्थापना करते हैं, स्थापनाचार्य का चालन, स्थापना कितने प्रदेश में होती है इसका निरूपण, स्थापना शब्द की व्युत्पत्ति, और स्थापना के भेद इत्यादि विषय हैं। 7- 'ठाण' शब्द पर साधु और साध्व को एक स्थल पर कायोत्सर्ग करने का निषेध, स्थान के पंद्रह भेद, बादर पर्याप्त तेजस्कायिक स्थान, पर्याप्तापर्याप्त नैरयिक स्थान, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों का स्थान, भवनपति का स्थान, और स्थान शब्द की व्युत्पत्ति इत्यादि विषय हैं। 8- "ठिई' शब्द पर नैरयिकों की स्थिति, पृथिवीविभाग से स्थितिचिन्ता, देवताओं की स्थिति, तथा देवियों की, भवन वासियों की, भवनवासिनियों की, असुरकुमारों की, असुरकुमारियों की, नागकुमारों की, नागकुमारियों की, सुर्वणकुमारों की, सुवर्णकुमारियों की, पृथिवीकायिकों की, सूक्ष्म पृथिवीकायिकों की, आउकायिकों की, बादर आउकायिकों की, तेउकायिकों की,सूक्ष्म तेउकायिकों की, बादर तेउकायिकों की, वायुकायिक-सूक्ष्म वायुकायिक बादर वायुकायिकों की, वनस्पतिकायिक सूक्ष्म वनस्पतिकायिक बादर वनस्पतिकायिकों की, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक, संमूर्छिम पञ्चेन्द्रिय तिर्यक्, जलचरपञ्चेन्द्रिय, संमूर्छिम जलचर पञ्चेन्द्रिय, चतुष्पद स्थलचरपञ्चेन्द्रिय, संमूर्छिम चतुष्पद स्थलचर पञ्चेन्द्रिय, गर्भापक्रान्तिक चतुष्पद स्थलचर पञ्चेन्द्रिय, उरःपरिसर्प स्थलचरपञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक, भुजपरिसर्प स्थलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक, संमूर्छित भुजपरिसर्प स्थलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक, गर्भापक्रान्तिकभुज०, खचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यम्योनिक, समूछिम०, गर्भापक्रान्ति०, मनुष्यों की स्त्रियों की, नपुंसकों की, निर्ग्रन्थों की, वाणव्यन्तरों की, वाणव्यन्तरियों की, ज्योतिष्कों की, ज्योतिष्कियों की स्थिति-चन्द्रविम न में, सूर्य विमान में, ग्रहविमान में, नक्षत्रविमान में, ताराविमान में स्थिति, वैमानिकों Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की स्थिति सौधर्म कल्प में, ईशान कल्प में, सनत्कुमार कल्प में, माहेन्द्र कल्प में, ब्रह्मलोक-लान्तक कल्प में, महाशुक्र-सहस्रार कल्प में, आनत कल्प में प्राणत कल्प में, आरणअच्युत कल्प में स्थिति-अधोऽधोग्रैवेयकों की,अधोमध्यमग्रैवेयकों की, अधउपरिग्रैवेयकों की, मध्यमाधोग्रैवेयकों की, मध्यममध्यमवेयकों की, मध्यमउपरिगौवेयकों की, उपरिमाधोग्रैवेयकों की, उपरिममध्यमग्रैवयकों की, उपरिमउपरिम ग्रैवेयकों की स्थिति-विजयवैजयन्तजयन्तापराजितसर्वार्थसिद्धों में देवों की स्थिति, वेदनीय कर्मों की स्थिति, पुनपुंसकों की स्थिति, अकामकायक्लेशतपस्वियों की, व्यन्तरों में उत्पन्न की स्थिति-बाल मरण से मरे हुये व्यन्तरों की, विधवाओं की अल्पारम्भप्रवृत्त व्यन्तरों में उत्पन्नों की स्थिति इत्यादि विषय बहुत भेद प्रभेद से निरूपित हैं। 6- 'णक्खत' शब्द पर नक्षत्रों की संख्या, इन नक्षत्रों में कब क्या कार्य (गमन प्रस्थानादि) करना, स्वाध्यायादि नक्षत्र-क्षिप्र, मृदु और ज्ञानवृद्धिकर नक्षत्र, चन्द्रनक्षत्रयोग, कितने भाग नक्षत्र चन्द्र के साथ युक्त होते है, प्रमदयोगी नक्षत्र, कौन नक्षत्र कितने तारोंयुक्त है, नक्षत्रों के देवता, नक्षत्रों के गोत्र, भोजन द्वार, नक्षत्रविजय, सायंकाल और प्रातःकाल में नक्षत्रचन्द्रयोग, अमावास्याओं में चन्द्रनक्षत्रयोग, संवत्सरान्तो में नक्षत्रचन्द्रयोग, और संस्थान (रचना) आदि विषय है। 10- ‘णम्मोक्कार' शब्द पर नमस्कार के भेद, सिद्धनमस्कार, वीतराग के अनुग्रह से रहित होने पर भी नमस्कार का फलद होना, सिद्ध गुण अमूर्त ही होते हैं, नमस्कार का क्रम इत्यादि अनेक विषय द्रष्टव्य है। 11 'णय' शब्द पर नय का लक्षण, अपेक्षानय, सप्तभङ्गी, वस्तु का अनन्तधर्मात्मकत्व, एक जगह अनेकाकार नयप्रमाणबुद्धि, नयज्ञान प्रमात्मक है या भ्रमात्मक है इस पर विचार, द्रव्यार्थिक नय, पर्यायार्थिक नय, और उन दोनों का मत, द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक के मध्य में नैगमादि नयों का अन्तर्भाव, नैगमादि 7 मूल नय हैं और उनके मत का संग्रह, 'सिद्धसेन दिवाकर' के मत में 6 नय, नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्दनय, एवंभूत नय, 700 नय, निक्षेपनययोजना, कौन दर्शन किस नय से उत्पन्न हुआ, शब्दब्रह्मवादियों का मत, अद्वैतवादियों का मत, निश्चय और व्यवहार में सभी नयों का अन्तर्भाव, व्यवहार नय से साङ्ख्यमत, वेदान्त और साङ्ख्य का शुद्धाशुद्धत्व, नैगम और संग्रह का व्यवहार में अन्तर्भाव, कणाद और सौगत (बौद्ध) का मत, दिगम्बर मत में नये, शब्दनय, अर्थनय, नयों में सम्यक्त्व, नयफल, ज्ञानाक्रियानय, नयपार्थक्य आदि विषय दिये हुये हैं। १२-'परग' शब्द पर नरकदुःखवर्णन, नरकवेदना, नरक के बहुत से स्वरूप इत्यादि अनेक विषय हैं। 13- 'णाण' शब्द पर पाँच ज्ञान, मति श्रुत भेद से ज्ञान के भेद, ज्ञान का साकारानाकारत्व, ज्ञान का स्वप्रकाशकत्व, तत्त्वज्ञान इत्यादि विषय द्रष्टव्य हैं, और "णिगंथ' शब्द पर निर्ग्रन्थ शब्द की व्युत्पत्ति आदि देखना चाहिये। 14- 'तपस' शब्द पर तप क्या वस्तु है, अनशन व्रत तप कैसे है, बाह्य और आभ्यन्तर तप का निरूपण, तप वैसा करना चाहिए, जिसमें शरीर की ग्लानि न हो, तप का फल, तप के चार भेद इत्यादि विषय हैं / 15- "तित्थयर' शब्द पर तीर्थकर शब्द की व्युत्पत्ति और यह किसका प्रतिपादक है इस का निरूपण, तीर्थकरों के अतिशय, तीर्थकरों के अन्तर, और तीर्थकरों में अष्टादश दोष का अभाव, तीर्थकरों के अभिग्रह और उनकी आदेशसङ्ख्या आवश्यक, और उनके आहार, जन्मावसर में इन्द्रकृत्य, सभानिवेशन, शक्रक्रिया, देवलोक से उतरने के मार्ग मेरुगमन, उपकरण संख्या, उपसर्ग देहमान(उँचाई आदि) चतुर्विशति जिनों के अवधिज्ञानी मुनियों की संख्या, कल्पशोधि, कुमारवास, केवल(ज्ञान)नक्षत्र केवलनगरी, केवलतप,केवलमास-तिथि, केवलराशि, केवलवृक्ष, केवलवृक्षमान, केवलवन, केवलवेला, केलिकाल, केवलिसंख्या, गणसंख्या, गणधरसंख्या, गर्भस्थिति, गृहिकाल, गृहस्थावस्था के तीन ज्ञान, गोत्र, चतुर्दशपूर्वी , चक्रित्वकाल, चरित्र-च्युतिनक्षत्र, च्युतिमास,च्युतिराशि,च्युतिवेला, छद्मस्थत्व, छद्मस्थावस्था में वीरतपमान, यक्ष, यक्षिणी, जन्मनक्षत्र, जन्मनगरी, जन्मदेश, जन्ममास, जन्मराशि, जन्मवेला, जन्मारक, जन्मारकशेषकाल, तत्त्वसंख्या, तीर्थप्रवृत्तिकाल, तीर्थोच्छेदकाल, तीर्थकरनाम, 'चक्रवर्ति बलदेव, वासुदेव, प्रतिवासुदेव, तीथोत्पत्ति, दीक्षाकाल, दर्शन, दीक्षानक्षत्र, दीक्षापर्याय, दीक्षातरु, दीक्षातप, दीक्षापरिवार, दीक्षापुर, दीक्षाज्ञान, दीक्षामास, दीक्षाराशि, दीक्षालोचमुष्टि, दीक्षावान, दीक्षावय, Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 दीक्षाशिविका, दिक्कुमारीकृत्य, अष्टकुमारियों के नाम, और इनके आसनों का चलन, गमनावसर में क्या करती हैं, तीर्थकरमाताओं को नमस्कार, इनका कर्तव्य, दक्षिणरुचकवासियों का कृत्य, पश्चिमरुचकवासियों का कृत्य, उदीची में रुचकवासियों का कृत्य इत्यादि, देवदूष्यवस्त्र, देवदूष्यवस्त्रस्थिति, धर्मप्रभेद, धर्मोप्रदेशक, नाम तीर्थकरों के, पञ्चकल्याणक, पर्यायान्तकृतभूमि, प्रतिक्रमणसंख्या, प्रथमगणधरनाम, प्रथमप्रवर्तिनी, प्रथमाश्रावक, प्रथमश्राविका, प्रत्येकबुद्धसंख्या, प्रमाद परिवह, पारणाकाल, पारणाद्रव्य, पारणादायक, पारणादायकगति, पारणादायकदिव्यपञ्च, पारणादायकवसुधारावृष्टि, पारणापुर, प्रियगति, प्रियनाम, पूर्वप्रवृत्तिकाल, पूर्वप्रवृत्तिच्छेद, जिनों के पूर्व भव, (ऋषभदेव के पूर्वभव 'ऋषभ' शब्द पर हैं) चन्द्रप्रभ के सात मव, शान्तिनाथ के द्वादश पूर्वभव, मुनिसुव्रत के नवभव, नेमिनाथ के नवभव, पार्श्वनाथ के पूर्वभव, वीर के अट्ठाईस भव, शेष जिनों के भव, पूर्वभवगुरुद्ध पूर्वश्रवायु, पूर्वभवक्षेत्र, पूर्वभवदीक्षा, पूर्वभवजिनहेतु, पूर्वभवद्वीप, पूर्वभवनाम, पूर्वभवपुरी, पूर्वभवराज्य, पूर्वभवविजय, पूर्वभवसर्ग, पूर्वभवसूत्र, मुख्यआसन, मुख्यस्थान, मुख्यतप,मुख्य नक्षत्र, मुख्यपरिवार, मुख्यपथ, मुख्यमास, मुख्यरासि, मुख्यविनय, मुख्यवेला, मुख्यारक, मुख्यारकशेषकाल, मुख्यावगा-हना, मुनिस्वरूप, मुनिसंख्या, राज्य, रुद्रनाम, लाञ्छन, शरीरलक्षण, जिनवंश, वस्त्रवर्ण, जिनों के वर्ण, विवाह, विहार, संयम, सांवत्सरिक दान, समवसरण, सर्वायु, सामान्यमुनि, सामायिक, सामायिकसंख्या, श्रावकसंख्या, स्वप्न, स्वप्नविचार इत्यादि अनेक विषय हैं / 16- 'तेउक्काइय' शब्द पर तेज की जीवत्वसिद्धि, अग्नि की जीवत्वसिद्धि, तद्विषयसमारंभ कटुकफलपरिहारोपन्यास, अग्निसमारम्भ में नानाविधप्राणियों की हिंसा, तेजस्कायपिण्डप्रतिपादन, तेजस्कायहिंसानिषेध इत्यादि विषय हैं। 17- 'थंडिल' शब्द पर स्थण्डिल का विवेचन देखना चाहिए। 'दसण' शब्द पर दर्शन की व्युत्पत्ति, सम्यक् और मिथ्या भेद से दर्शन के दो भेद, क्षायिकादि भेद से तीन भेद, तथा दर्शन का पञ्चविधत्व और सप्तविधत्व, कारक रोचक दीपक भेद से तीन भेद, नवविधदर्शन इत्यादि विषय हैं। 18 'दव्व' शब्द पर द्रव्य का निरुक्त, द्रव्य का लक्षण षड्द्रव्यनिगमन, जीवाजीवद्रव्य असख्य अनन्त, द्रव्य के दो भेद, वैशेषिकरीति से नव द्रव्य, और उनमें दोष इत्यादि विषय द्रष्टव्य हैं। 16- 'दाण' शब्द पर दान का विशेष विचार देखना चाहिए। 20- 'देव' शब्द पर देवताओं के दो भेद,तीन भेद, चार भेद, पाँच भेद इत्यादि विषय हैं। .21- 'धम्म' शब्द पर धर्म शब्द की व्युत्पत्ति और अर्थ, धर्म के दो भेद, धर्म का लक्षण, धर्म के भेद और प्रभेद, धर्म के चिह्न, औदार्यलक्षण, दाक्षिण्यलक्षण, निर्मलबोधलक्षण, मैत्र्यादिकों के लक्षण, धर्म के अधिकारी, धर्म के योग्य, अवश्य ही धर्म की रक्षा करना चाहिए इसका निरूपण, अर्थ और काम का धर्म ही मूल है, धर्मोपदेश का विस्तार, धर्म का माहात्म्य, धर्म का मोक्षकारणत्यप्रतिपादन, धर्म का फल, और वह किसको दुर्लभ है और किसको सुलभ है इसका निरूपण, केवलिभाषित धर्म का श्रवण दुर्लभ है,धर्म की परीक्षा, धर्माधर्म का विचार सूक्ष्म बुद्धि से करना चाहिए इत्यादि विषय हैं। चतुर्थ भाग में जिन जिन शब्दों पर कथा या उपकथायें आई हुई हैं उनकी संक्षिप्त नामावली'जत्तासिद्ध,''णंदसिरि,''णंदिसेण,''नरसुंदर,' 'णागजुण, 'णागहत्थिण,''ताराचंद,' 'दमदंत,''दसउर,' 'दसण्णभद्द,' 'धणमित्त,' 'धणवई,' 'धणावह, 'धणसिरी,''धम्मघोस,' 'धम्मजस'। पञ्चम भाग में आए हुए कतिपय शब्दों के संक्षिप्त विषय१-- 'पचक्खाण' शब्द पर अहिंसाप्रत्याख्यान, प्रतिषेधप्रत्याख्यान, भावप्रत्याख्यान, मूलगुणप्रत्याख्यान, सम्यक्त्वप्रतिक्रमण, सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यान अनागतादि दशविध प्रत्याख्यान, अद्याप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यानविधि, दानविधि, प्रत्याख्यानशुद्धि, प्रत्याख्यान का षड्विधत्य, ज्ञानशुद्ध, अनुभाषणाशुद्ध, अनुपालनाशुद्ध, आकार, प्रत्याख्यान में सामायिक, प्रत्याख्याताकृत प्रत्याख्यान दान का निषेध, निर्विषयक प्रत्याख्यान नहीं होता, श्रावक का प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान का फल आदि कई विषय हैं। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 43 2- 'पच्छित्त' शब्द पर प्रायश्चित्त का अर्थ, भाव से प्रायश्चित्त किस को होता है, आलोचनादि दशविध प्रतिसेवना प्रायश्चित्त, तपोऽर्ह प्रायश्चित्त में मासिक प्रायश्चित्त, संयोजनाप्रायश्चित्त, प्रायश्चित्त देने के योग्य पर्षत् (सभा), दण्डानुरूप प्रायश्चित्त, द्वैमासिक, त्रैमासिक, चातुर्मासिक, पाश्चमासिक, और बहुमासिक प्रायश्चित्त, प्रायश्चित्तदानविधि, आलोचना को सुनकर प्रायश्चित्त देना, प्रायश्चित्त का काल, प्रायश्चित्त का उपदेश इत्यादि विषय हैं। 3- 'पज्जसणाकप्प' शब्द पर पर्यषणा कब करना, पर्युषणास्थापना, भाद्रपदपञ्चमीविचार, क्षेत्रस्थापना, भिक्षाक्षेत्र, संखडि, एकनिम्रन्थी के साथ नहीं ठहरना, अगारी के साथ नहीं ठहरना, इच्छा से अधिक नहीं खाना,शय्यासंस्तार, उच्चारप्रस्रवणभूमि, पर्युषणा में केशलोच, उपाश्रय, दिगवकाश इत्यादि देखने के योग्य हैं / 4- 'पडिक्कमण' शब्द पर प्रतिक्रमण शब्द का अर्थ, प्रतिक्रामक, नामस्थापनाप्रतिक्रमश, प्रतिक्रान्तव्य के पाँच भेद, ईय्याप्रतिक्रमण, देवसिकप्रतिक्रमणवेला, रात्रिकप्रतिक्रमण, पाक्षिकादिकों में प्रतिक्रमण, पाक्षिक प्रतिक्रमण चतुर्दशी में ही होता है, मङ्गल, त्रैकालिक प्राणातिपातविरति, श्रावक के प्रतिक्रमण में विधि इत्यादि बहुत विषय हैं। 5- 'पडिमा' और 'पडिलेहणा' शब्द देखने चाहिये / 'पडिसेवणा' शब्द पर प्रतिसेवना शब्द का अर्थ, और भेद आदि का बहुत विस्तार है। 6- 'पत्त' शब्द पर पात्र का लेपकरणादिक देखना चाहिए। 7- 'पमाण' शब्द पर प्रमाण का स्वरूप, प्रमाण का लक्षण, स्वतःप्रामाण्यविचार, प्रमाणसंख्या, प्रमाणफल, द्रव्यादिप्रमाण आदि विषय हैं। 8- 'परिगह' शब्द पर परिग्रह के दो भेद, मूर्छापरिग्रह आदि अनेक भेद द्रष्टव्य हैं। 6- 'परिट्ठवणा' शब्द पर परिष्ठापनाविधि, पृथ्वीकायपरिष्ठापना, अशुद्ध गृहीत आहार की परिष्ठापना, कालगतसाधु की परिष्ठापनिका इत्यादि अनेक विषय हैं। 10- 'परिणाम' शब्द पर परिणाम की व्युत्पत्ति और अर्थ, जीवाजीव के परिणाम, नैरयिकादिकों का परिणाम विशेष, स्कन्ध और पुद्गलों का परिणामित्व, देवताओं का बाह्यपुद्गलों को ले करके परिणामी होने में सामर्थ्य, पुद्गलपरिणाम, वर्ण गन्ध रस स्पर्श के संस्थान से पुद्गल परिणत होते हैं, पुद्गलों का प्रयोग परिणतहोना, दण्डक, जीव का परिणाम, मूलप्रकृति का महदादिपरिणाम, स्वभावपरिणाम, परिणाम के अनुसार से कर्मबन्ध, आकारबोध और क्रिया के भेद से परिणाम इत्यादि विषय द्रष्टव्य हैं। 11- 'पवज्जा' शब्द पर प्रव्रज्या का अर्थ और व्युत्पत्ति, प्रव्रज्या के पर्याय, दीक्षा का तत्त्व, किससे किसको प्रव्रज्या देना, किस नक्षत्र और किस तिथि में दीक्षा लेनी, दीक्षा में अपेक्ष्य वस्तु,दीक्षा में अनुराग आदि, लोकविरुद्धत्याग, सुन्दरगुरुयोग, समवसरण में विधि, पुष्पपात में दीक्षा, वासक्षेपादिरूप दीक्षासामाचारी, दीक्षा किस प्रकार से देना, चैत्यवन्दन, प्रव्रज्याग्रहण में सूत्र, और उसके पालन में सूत्र, प्रव्रज्या में विधि, गुरु से अपना निवेदन, दीक्षा की प्रशंसा, जिस तरह साधर्मिकों की प्रीति हो वैसा चिह्न धारण करना,दीक्षाफल, प्रव्रजित का आर्यिकाओं के द्वारा वन्दन, प्रव्रजित को ऐसा उपदेश करना जिसमें अन्य भी दीक्षा लेने, परीक्षा करके प्रव्राजन, एकादशप्रतिपन्न श्रावक को दीक्षा देना, पण्डक(क्लीब) आदि को दीक्षा नहीं देना इत्यादि अनेक विषय है। 12- 'पुढवीकाइय' शब्द पर पृथिवीकायिक की वक्तव्यता स्थित है। 13- 'पोग्गल' शब्द पर पुद्गल शब्द की व्युत्पत्ति और अर्थ, पुद्गल का लक्षण, पुद्गल भिदुरधर्मवाले हैं, परमाणु का पुद्गल से अन्तर इत्यादि विषय देखने के योग्य हैं। 14- 'बन्ध' शब्द पर बन्धमोक्षसिद्धि, बन्ध के भेद, द्रव्यबन्ध और भावबन्ध, प्रेमद्वेषबन्ध, अनुभागबन्ध, बन्ध में मोदक का दृष्टान्त, ज्ञानावरणीयादि कर्मों का बन्ध इत्यादि अनेक बातें हैं। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 15- 'भरह' शब्द पर भरत वर्ष का स्वरूपनिरूपण, दक्षिणार्द्ध भरत का निरूपण, और वहाँ के मनुष्यों का स्वरूप, भरत के सीमाकारी वैताढ्य गिरि का स्थाननिर्देश, और इसके गुहाद्वय का निरूपण, तथा श्रेणि और कूटों का निरूपण, उत्तरार्द्ध भरत का निरूपण, भरत इस नाम पड़ने का कारण, तदनन्तर राजा भरत की कथा है। 16 ‘भावणा' शब्द पर भावना का निर्वचन, प्रशस्ताप्रशस्त भावना का निरूपण, मैत्र्यादि भावनाओं के चारभेद, सद्भावना से भावित पुरुष का निरूपण इत्यादि विषय आए हैं। पञ्चम भाग में जिन जिन शब्दों पर कथा या उपकथायें आई हुई हैं उनकी संक्षिप्त नामाऽवली'पण्णपरीसह, 'पउमसेह,''पउमावई,' 'पउमसिरी, 'पउमभद्द,' 'पुढविचंद,' 'फासिंदिय,''बंधुमई,"भद्द, "भद्दणंदिन्, 'भरह,' 'भीमकुमार। षष्ठ भाग में आये हुए कतिपय शब्दों के संक्षिप्त विषय१- 'मग्ग' शब्द पर द्रव्यस्तव और भावस्तव रूप से मार्ग के दो भेद, मार्ग का निक्षेप, मार्ग के स्वरूप का निरूपण इत्यादि अनेक विचार हैं। २-'मरण' शब्द पर सपराक्रम और अपराक्रम मरण, पादपोपगमनादिकों का संक्षिप्त स्वरूप, भक्तपरिज्ञा, बालमरण, कालद्वार, अकाम मरण और सकाम मरण, विमोक्षाध्ययनोक्त मरणविधि, मरण के भेद इत्यादि विषय दिए गए हैं। 3- 'मल्लि' शब्द पर मल्लिनाथ भगवान् की कथा द्रष्टव्य है। 4- 'मिच्छत्त' शब्द पर मिथ्यात्व के छ स्थान, मिथ्यात्वप्रतिक्रमण, मिथ्यात्व की निन्दा मिथ्यात्व का स्वरूप, द्रव्य और भाव से मिथ्यात्व के भेद आदि निरूपित हैं। 5- 'मेहुण' शब्द पर मैथुन के निषेध का गंभीर विचार है। 6- 'मोक्ख' शब्द पर मोक्ष की सिद्धि, निर्वाण की सत्ता है, या नहीं , इसका निरूपण, मोक्ष का कारण ज्ञान और क्रिया है, धर्म का फल मोक्ष है, मोक्ष पर साङ्ख्य और नैयायिकों का मत, मोक्ष पर विशेष विचार, मोक्ष पर वेदान्तियों के मत का निरूपण और खण्डन, स्त्री की मोक्षसिद्धि मोक्ष का उपाय इत्यादि विषय हैं। 7- 'रओहरण' शब्द पर रजोहरण शब्द का अर्थ और व्युत्पत्ति, रजोहरण का प्रमाण, मांसचक्षु वाले मनुष्यों को सूक्ष्म जीव दिखाई नहीं दे सकते इसलिये उनको जीवदयार्थ रजोहरण धारण करना चाहिये, रजोहरण की दशा (कि नारी या अग्रभाग) सूक्ष्म नहीं करना चाहिये, रजोहरण के धारण करने का क्रम और नियम, अनिसृष्ट रजोहरण ग्रहण नहीं करना चाहिये इत्यादि विषय देखने के योग्य है। 8- 'राइभोयण' शब्द पर रात्रिभोजन का त्याग, रात्रिभोजन करने वाला अनुद्घातिक होता है, रात्रिभोजन के चार प्रकार, रास्ते में रात्रि को आहार लेने का विचार, कैसा आहार रात्रि में रक्खा जा सकता है इसका विवेक, राजा से द्वेष होने पर रात्रि को भी आहार लेने में दोषाभाव, रात्रि में उद्गार आने पर उगिरण करने में दोष, रात्रिभोजन प्रतिगृहीत हो तो परिष्ठापना करना, रात्रिभोजन के प्रायश्चित्त, औषधि के रात्रि में लेने का विचार इत्यादि अनेक विषय हैं। 6- 'रुद्दज्झाण' शब्द पर रौद्रध्यान का स्वरूप, और उसके चार भेद, रौद्रध्यानी के चिह्न आदि अनेक विषय हैं। 10- 'लेस्सा' शब्द पर लेश्या के भेद, लेश्याके अर्थ, आठ लेश्याओं का अल्पबहुत्व, देवविषयक अल्पबहुत्व, कौन लेश्या कितने ज्ञानों मे मिलती है, कौन लेश्या किस वर्ण से साधित होती है, मनुष्यों की लेश्या, लेश्याओं में गुणस्थानक,धर्मध्य-नियों की लेश्या आदि विषय हैं। 11- 'लोग' शब्द पर लोक शब्द का अर्थ; और व्युत्पत्ति, लोक का लक्षण, लोक का महत्व, लोक का संस्थान आदि विषय हैं। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 45 12- 'वत्थ' शब्द पर लिखा है कि कितनी दूर तक वस्त्र के लिए जाना, कितनी प्रतिमा से वस्त्र का गवेषण करना, याच्या वस्त्र और निमन्त्रण वस्त्र की याच्या पर विचार, निर्ग्रन्थओं के वस्त्र लेने का प्रकार, चातुर्मास्य में वस्त्र लेने पर विचार, आचार्य की अनुज्ञा से ही साधू अथवा साध्वी को वस्त्र लेना चाहिए, वस्त्र का प्रमाण, भिन्न (फटे) वस्त्र लेने की अनुज्ञा, वस्त्रों के रँगने का निषेध, वस्त्र के सीने पर विचार, अन्ययूथिक और पार्श्वस्थादिदकों को वस्त्र देने का निषेध, वस्त्र को यत्न से रखना जिससे विकलेन्द्रियों का घात न हो, वस्त्रों के धोने का निषेध आचार्य के मलिन वस्त्रों के धोने की अनुज्ञा इत्यादि विशेष विचार हैं / 13- 'वसहि शब्द पर किस प्रकार के उपाश्रय में रहना चाहिये इसका निरूपण, उपाश्रय के उद्गमादि दोषों का निरूपण, भिक्षू के वास्ते असंयत उपाश्रय बनावे, अविधि से उपाश्रय के प्रमार्जन में दोष, जहाँ गृहपति कन्दादिकों का आहार करता है वहां नहीं रहना, सस्त्रीक उपाश्रय में नहीं रहना, रुग्ण साधु की प्रतिक्रिया, जहां गृहिणी मैथुन की वाञ्छा करे उस गृहपति के गृह में नहीं बसना, गृहपति के घर में बसने के दोष, प्रतिबद्ध शय्या में बसने के दोष जिसमें घरवाला भोजन बनावे वहां नहीं रहना, और जहां पर घर का मालिक काष्ठ फाड़े या अग्नि जलावे वहां नहीं रहना, जहाँ पर साधर्मिक निरन्तर आते हों वहां नहीं रहना, कार्यवश से चरक और कार्पटिकों के साथ वसने में विधि, वसति के याचन का प्रकार, जहां पर गृहपति के मनुष्य कलह करते हों या अभ्यङ्ग (मर्दन) करते हों वहां नहीं रहना, कब कहां कितना वास करना इसका नियम, जहां राजा हो उस उपाश्रय मे वसने का निषेध, साध्वियों की वसति में साधू के जाने का निषेध इत्यादि विषय हैं। 14- 'विजय' शब्द पर विजय की विशेषवक्तव्या देखना चाहिए। 15 - "विनय' शब्द पर विनय के पाँच 5 भेद और सात 7 भेद, विनयमूलक धर्म की सिद्धि. गुरु के निकट विनय की आवश्यकता, आर्यिका के विनय इत्यादि विस्तृत विषय देखने के योग्य हैं। 16- 'विमान' शब्द पर विमानों की संख्या, और विमानों का मान, विमानों का संस्थान, विमानों के वर्ण, विमानों की प्रभा, गन्ध, स्पर्श, और महत्त्व आदि देखने के योग्य हैं। १७-"विहार' शब्द पर आचार्य और उपाध्याय के एकाकी विहार करने का निषेध, किसके साथ विहार करना और किसके साथ नहीं करना इसका निरूपण, वर्षाकाल में या वर्षा में विहार करने का निषेध, अशिवादि कारणों में वर्षा में भी विहार करना, वर्षा की समाप्ति में विहार करना, मार्ग में युगमात्र देखते हुए जाना चाहिये, नदी के पार जाने में विधि, आचार्य के साथ जाते हुए साधू को विधि, साधुओं का और साध्वियों का रात्रि में या विकाल में विहार करने का विचार इत्यादि विषय द्रष्टव्य हैं। 18- 'वीर' शब्द पर वीरशब्द की व्युत्पत्ति, और कथा देखना चाहिए। षष्ठ भाग में जिन जिन शब्दों पर कथा या उपकथायें आई हुई हैं उनकी संक्षिप्त नामावली'मल्लि' 'महापइरिकतर' 'मुणिसुव्वय' 'मूलदत्ता' 'मूलसिरी' 'मेहघोस' 'मेहषुर' 'मेहमुह' 'मेहरिपुत्त' 'रहणेमि' 'रोहिणी' 'रोहिणेयचोर' 'वद्धमाणसूरि' 'वररुइ' 'वराहमिहिर' 'वरुण' 'ववहारकुसल' "वाणारसी' 'विजइंदसूरि' "विजयकुमार' 'विजयघासे' 'विजयचंद' 'विजयतिलकसूरि' "विजयसेट्टि' "विजयसेण' "विणयंधर' 'विसेसण्णु' 'वीर'। सप्तम भाग में आये हुए कतिपय शब्दों के संक्षिप्त विषय-- 1- 'संथार' शब्द पर संस्तार का विचार है। 'संवर' शब्द पर सम्बर का निरूपण है। 'संसार' शब्द पर संसार की असार दशा दिखाई गई है। 2- 'सक्क' शब्द पर शक्र की ऋद्धि और स्थान, विकुर्वणा, और पूर्वभव, शक्र का विमान, और शक्र किस भाषा को बोलते हैं इसका निरूपण और शक्र की सामर्थ्य आदि वर्णित है। 3- 'सज्झाय' शब्द पर स्वाध्याय का स्वरूप, स्वाध्यायकाल, स्वाध्यायविधि, स्वाध्याय के गुण, स्वाध्याय के फल इत्यादि विषय हैं, तथा 'सत्तमंगी' शब्द पर सप्तभङ्गी का विचार है। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 4- 'सद्द' शब्द पर शब्द का निर्वचन, नामस्थापनादि भेद से चार भेद, बौद्धों के अपोहवाद का खण्डन, नित्यानित्य विचार, और शब्द का पौगलिकत्व, शब्द के दश भेद, मनोज्ञ शब्दों के सुनने का निषेध, शब्द के आकाश गुणत्व का खण्डन इत्यादि विषय हैं। 5- 'सावय' शब्द पर श्रावक शब्द की व्युत्पत्ति और अर्थ, श्रावक के लक्षण श्रावक का सामान्य कर्त्तव्य, निवासविधि, श्रावक की दिनचर्या, श्रावक के 21 एकविंशति गुण इत्यादि विषय हैं। 6- "हिंसा' शब्द पर हिंसा का स्वरूप, वैदिक हिंसा का खण्डन, षड्जीवनिकायों की हिंसा का निषेध, जिनमन्दिर बनवाने में आते हुए दोष का परिहार इत्यादि अनेक विषय हैं। ७-'हेउ' शब्द पर हेतु के प्रयोगप्रकार, कारक और ज्ञापक रूप से हेतु के दो भेद इत्यादि विषय द्रष्टव्य हैं / सप्तम माग में जिन जिन शब्दों पर कथा या उपकथायें आई हुई हैं उनकी संक्षिप्त नामावली'संखपुर' 'संजय' 'संतिदास' 'संतिविजय' 'सक्कह' 'सत्त' 'समुद्दपाल' 'सयंभूदत्त' 'सावत्थी' 'सावयगुण' 'सिंहगिरि' 'सीलंगायरिय' 'सीह 'सुकण्हा' 'सुक्क' 'सुगीव' 'सुज्जसिरी' 'सुजसिव' 'सुट्ठिय' 'सुणंद 'सुणक्खत्त' 'सुदंसण' 'सुदक्खिण' 'सुपासा' 'सुप्पभ' 'सुभद्द' 'सुभूम' 'सुमंगल' 'सुमंगला' 'सुव्यय' 'सूर' 'सेणिय' 'सोमचंद' 'सोमा' 'हरिएस' 'हरिभद्द' इत्यादि शब्दों पर कथाएँ द्रष्टव्य हैं। ---00--- इस तरह से सातों भागों की यह अत्यन्त संक्षिप्त सूची समझना चाहिए, विस्तार तो ग्रन्थ से ही मालूम होगा क्योंकि भूमिका में विशेष विस्तार करके पाठकों का समय व्यर्थ नष्ट करना है। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 47 अकार से ककार तक शब्दों के अन्तर्गत () कोष्ठक में आए हुए शब्दों की अकारादिक्रम से सूचीअइइ-अदिइ-अइति-अदिति। अइवाएमाण-अतिवाएमाण। | अंगारकारिया-इंगारकारिया-अंगालअइंदिअ-अइंदिया अइयाय-अतिवाय। कारिया-इंगालकारिया। अइकंत-अतिकता अइवाहड-अतिवाहड। अंगारग-इंगारंग-अंगालग-इंगालग। अइक्कत अतिकंत। अइविज्ज-अतिविज्ज। अंगारडाह-इंगारडाह अंगालडाह-अंगाअइवंतजोव्वण-अतिकंतजोव्वण। अइविसय अतिविसय। रदाह अंगालदाह-इंगारदाह-इंगाल--- अइक्वंतपचक्खाण अतिकतपच्चक्खाण। | अइविसाया-अतिविसाया। डाह-इंगालदाह। अइगत-अइगय। अइविसाल–अतिविसाल। अंगारपतावणा-इंगारपतावणा-अंगालअइत-अईत-अतीत--अइय-अईय- अबुट्ठि-अतिवुट्ठि। पतावणा-इंगालपतावणा। अतीय। अइसंकिलेस-अतिसंकिलेस। अंगारमद्दग-इंगारमद्दग-अंगालमद्दगअइतद्धा-अईतद्धा-अतीतद्धा-अइयद्धा- | अइसंधाण-अतिसंधाण। इंगालमद्दग। अईयद्धा-अतीयद्धा। अइसंधाणपर-अतिसंधाणपर! अंगाररासि-इंगाररासि--अंगालरासि,इंअइतपचक्खाण-अईतपचक्खाण-अइसंपओग–अतिसंपओग। गालरासि। अतीतपचक्खाण-अइयपच्चक्खाण- | अइसक्कणा-अतिसकणा। अंगारवई-इंगारवई। अईयपचक्खाण अतीयपचक्खाण। | अइसय–अतिसय। अंगारसहस्स-इंगारसहस्स-अंगालसहअइताण-अतिताण-अइयाण-अतियाण / अइसयणाणि अतिसयणाणि। स्स-इंगालसहस्सा अइताणकहा-अतिताणकहा-अइयाणक- | अइसयमईयकाल-अतिसयमईयकाल। | अंगालसोल्लिय-इंगालसोल्लिय। हा-अतियाणकहा। अइसाइ-अतिसाइ। अंगारायतण-इंगारायतण-अंगालायतण। अइताणगिह-अतिताणगिह-अझ्याणगिह-अइसीय-अतिसीय। अंगारिय-इंगारिय-अंगालिय-इंगालिय। अतियाणगिह। अइसुहुम–अतिसुहम। अंगुअ--इंगु। अझ्याणिड्डि-अतियाणिड्डि-अइताणिड्डि-| अइसेस–अतिसेस। अंगुलि-अंगुली। अतिताणिड्डि। अइहि-अतिहि। अंगुलिज्जग–अंगुलेज्जग। अइताणागयण्णाण-अईताणागयण्णाण- अइहिपूआ–अतिहिपूआ। अंगुलिविजा-अंगुलीविज्जा। अतीताणागयण्णाण-अझ्याणागयण्णाण- | अइहिबल-अतिहिबल। अंचिअ-अंचित। अईयाणागयण्णाण-अतीयाणागयण्णाण || अइहिम-अतिहिम। अंचिअरिभिय-अंचियरिभिय। अइमुंतय-अइमुत्तय। अइहिवणीमग–अतिहिवणीमग! अंजणगिरि-अंजणगिरि। अइयात-अइयाय। अइहिसंविभाग–अतिहिसंविभाग। अंजलि-अंजली। अइयार-अईयार-अतियार-अतीयार। | अईव-अतिव। अंतक-अंतग। अइरत्तकंबलसिला-अतिरत्तकंबलसिला। अउअ-अउय। अंतकर-अंतगर। अइरावण-एरावण। अउल-अतुल। अंतकरभूमि-अंतगडभूमि। अइरित्त-अतिरित्त। अंकधर-अंकहर। अंतगत-अंतगय। अइरित्तसिजासणिय-अतिरित्तसिज्जास- अंकिअ-अंकिय। अंतद्धाणी-अंतद्धाणिया। णिय। अंगइसि-अंगरिसि। अंतरकप्प-अंतराकप्प। अइरेग–अतिरेग। अंगच्छेद-अंगच्छेय। अंतरणई-अंतरणदी। अइरेगसंठिय-अतिरेगसंठिय। अंगण-अङ्गण। अंतरदीवग-अंतरदीवय। अइरेण-अचिरेण। अंगसुहफरिस-अंगसुहफासिय।। अंतराइय-अंतराय। अइरोववण्णग-अचिरोववण्णगा अंगार-इंगार-अंगाल-इंगाल! अंतरिक्ख-अंतलिक्ख। अइलोलुय-अतिलोलुय। अंगारकट्टिणी-इंगारकट्टिणी--अंगालकट्टि-| अंतरिक्खजाय-अंतिलिक्खजाय। अइवइत्ताअतिवइत्ता। णी--इंगालकट्टिणी। अंतरिक्खपडिवण्ण-अंतलिक्खपडिवण्ण। अइवाइन्-अतिवाइन-अइवातिन्-अंगारकम्म-इंगारकम्म–अंगालकम्म- अंतरिक्खपासणाह अंतलिक्खपासणाह। अतिवातिन्। इंगालकम्म। अंतरिक्खोदय-अंतलिक्खोदय। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 अंतावेइ अंतावेई। |अचरमंतपएस-अचरिमंतपएस। अणिदाणया-अणियाणया। अंतिअ-अंतिय। अचरमसमय-अचरिमसमय। अणियत-अणियय। अंतेउर-अंतेपुर। अचरमावट्ट-अचरिमावट्ट। अणियतचारिण-अणिययचारिण। अंदोलण-अंदोल्लण। अचल-अयल। अणियतप्प–अणिययप्प। अंधकार-अंधयार। अचलट्ठाण-अयलट्ठाण। अणियतवट्टि-अणिययवट्टि। अंधकारपक्ख-अंधयारपक्ख / अचलपुर-अयलपुर। अणियतवास-अणिययवास। अंघिल्लग–अंधल्लग। अचलभाया-अयलभाया। अणियतवित्ति-अणिययवित्ति। अंबड-अम्मड। अचला-अयला। अणिहुत-अणिहुय। अंबडालग-अंवदालग। अचलिय-अयलिया अणिहुतपरिणाम-अणिहुयपरिणाम। अंबरिस-अंबरीस। अचुक्ख-अचोक्ख। अणुगाम–अणुग्गाम। अंबरिस-अंबरीस-अंबरिसि-अंबरीसि। अचेल-अचेलग। अणुजात-अणुजाय। अंबिया-अंबिया। अचेलपरिसह-अचेलपरीसह। अणुण्णत-अगुण्णय। अंसगय-अंसागय। अच्छतित-अच्छदित। अणुपरिहारि-अनुपरिहारि। अकइ-अकति। अच्छिंदण-आच्छिंदण। अणुपायकिरिया-अणुवायकिरिया। अकइसंचिय-अकतिसंचिय। अच्छिंदित्ता-आच्छिदित्ता-आच्छिदिय- अणुपायण-अणुवायण। अकम्हा-अकम्मा। अच्छिदिय। अणुपालण-अणुवालण। अकम्हाकिरिया-अकम्माकिरिया। अच्छिदमाण-आच्छिमाण। अणुपालणाकप्प-अणुवालणाकप्प। अकम्हादंड-अकम्मादंड। अच्छेर-अच्छेरग। अणुपालणासुद्ध-अणुवालणासुद्ध। अकम्हादंडवत्तिय अकम्मादंडवत्तिय। अञ्जजीयधर-अजजीयहर। अणुप्पदाण-अणुप्पयाण। अकम्हाभय-अकम्माभय। अट्ठपदचिंतण-अट्ठपयचिंतण। अणुभाग-अणुभाव। अकालसज्झायकर-अकालसज्झायका- अद्वपदपरूवणया-अट्ठपयपरूवणया। अणुभागबंध-अणुभावबंध। रिन। अट्ठिगकट्ठुट्ठिय-अट्ठियकट्ठुट्ठिय। अणुभागबंधट्ठाण-अणुभावबंधट्ठाण। अकिरियवाइ-अकिरियावाइ। अडविवास-अडवीवास। अणुभागसंकम-अणुभावसंकम। अकुओभय-अकुतोभय। अणंगकिड्डा-अणंगकीडा। अणुभासणसुद्ध-अणुभासणासुद्धा अकूर-अकूर। अणंतग-अणंतय। | अणुमत-अणुमया अक्केज-अक्केय। अणक्क--अणक्ख। अणुमुक्क-अणुम्मुक्क। अकोसपरिसह-अक्कोसपरीसह! / अणपज्ज-अणपज्ज। अणुमोयण-अणुमोयणा। अकोसपरिसहविजय-अकोसपरीसह-अणवट्ठियसंठाण–अणवद्वितसंठाण। अणुविग-अणुव्विग। विजय। अणविक्खा-अणवेक्खा। अणुव्वय-अणुव्व। अक्खित्त-अक्खेत्त। अणहिलपाङगणयर-अणहिलवाङगणयर। | | अणुसूयता-अणुस्सुयत्ता। अक्खीरमधुसप्पिय-अक्खीरमहुसप्पिय। अणाइज्जवयणपचायाय-अणाएजवयण- अणेक्क-अणेग। अगत-अगद। पच्चायाय। अण्ण-अन्न। अगार-आगार। अणागत-अणागय। अण्णइलाय-अन्नइलाय-अण्णगिलायअगारधम्म-आगारधम्म। अणागतकाल-अणागयकाल। अन्नगिलाय। अग्गाणीअ-अग्गेणी। अणागतकालम्गहण-अणागयकालमगहण। अण्णओ-अण्णत्तो-अण्णदो। अगिअ-अग्गिय। अणिउतय-अणिउँतय। अण्णगोत्तिय-अन्नगोत्तिय। अम्गेई-अग्गेणी। अणिज्जमाण-अपिणज्जमाण। अण्णाहण-अन्नगहण। अगेतण-अग्गेयण। अणिज्जमाणमग अणिज्जमाणमग्ग। अण्णण्ण-अन्नण्ण-अण्णन्न-अन्नन्न। अघुणित-अघुणिय। अणिदा-अणिया। अण्णतर--अन्नतर-अण्णयर-अन्नयर। अचंकारियभट्टा-अचंकारियभट्टा। अणिदाण-अणियाण। अण्णहा-अन्नहा-अण्णह-अन्नह। अचरम-अचरिम। अणिदाणभूय-अणियाणभूय। / अण्णाइस्-अन्नाइस्। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णाणिय-अन्नाणिय। | अद्धिइकरण अद्धितिकरण। अधिगमसम्मदंसण--अभिगमसम्मदंसण। अण्णात अण्णाय। अद्भुव-अधुव। अधिगय-अहिगय। अण्णातउच्छ-अण्णायउछ। अद्धवबंधिणी-अधुवबंधिणी। अधिगरण-अहिगरण। अण्णातचरय-अण्णायचरय। अद्धवसंतकम्म-अधुवसंतकम्म। अधिगरणकिरिया-अहिगरणकिरिया। अण्णादिस-अन्नादिस-अण्णारिसअ- | अद्धवसक्कम्मिया--अधुवसक्कमिया। अधिगरणिया-अहिगरणिया-आहिगरनारिस। अद्भुवसत्तागा-अध्रुवसत्तागा। णिया-आधिगरणिया। अण्णुण्ण-अन्नुण्ण-अण्णुन्न–अन्नुन्न। अद्भुवसाहण-अधुवसाहण। अधिगरणी-अहिगरणी। अतारिस-अतालिस। अद्भुवोदया-अधुवोदया। अधिगार--अहिगार। अत्तसंजोग–अप्पसंजोग। अधम-अहम। अधिटुंत-अहिट्ठत। अत्तहिय-आयहिय। अधम्म-अहम्म। अधिट्ठावण-अहिट्ठावण। अत्तिज्ज–अत्तिय। अधम्मक्खाइ-अहम्मक्खाइ। अधिट्टेइत्ता-अहिढेइत्ता। अत्थादाण-अत्थायाण। अधम्मजुत्त-अहम्मजुत्त। अधिमासग-अहिमासग। अत्थिणत्थिप्पवाय-अत्थिनत्थिष्पवाय। अधम्मत्थिकाय-अहम्मत्थिकाय। अधिमुत्ति-अहिमुत्ति। अस्थिर-अथिर। अधम्मदाण-अहम्मदाण। अधिवइ अहिवइ-अधिवति--अहिवति। अत्थिरछक्क-अथिरछक्क! | अधम्मदार-अहम्मदार। अधेकम्म-अहेकम्म। अत्थिरणाम-अथिरणाम। अधम्मपक्ख-अहम्मपक्ख। अधोहि-अहोहि। अत्थिरतिग–अथिरतिग! अधम्मपजणण-अहम्मपजणण। अपइट्ठाण-अप्पइट्ठाण। अस्थिरदुग-अथिरदुग। अधम्मपडिमा अहम्मपडिमा। अपइट्ठिय-अप्पइट्ठिया अस्थिरव्वय-अथिरव्वय। अधम्मपलज्जण-अहम्मपलज्जण। अपइण्णपसरियत्त-अप्पइण्णपसरियत्त। अस्थिवाय-अथिवाय। अधम्मपलोइ-अहम्मपलोइ। अपच्चक्ख-अप्पचक्ख। अत्थुग्गह-अत्थोवगह। अधम्मराइ-अहम्मराइ। अपच्चक्खाण-अप्पचक्खाण। अत्थुग्गहण अत्थोग्गहण। अधम्मरुइ-अहम्मरुइ। अपचक्खाणकिरिया-अप्पचक्खाणकिअदंडकुदंडिम-अदंडकोदंडिम। अधम्मसमुदायार-अहम्मसमुदायार। | रिया। अदंसण असण। | अधम्मसीलसमुदायार-अहम्मसीलस-अपचक्खाणि-अप्पचक्खाणि। अदत्त-अदिण्ण। मुदायार। अपचक्खाय-अप्पचक्खाय। अदत्तहारि-अदिण्णहारि। अधम्माणुय-अहम्माणुय। अपच्चय-अप्पचय। अदत्तादाण-अदिण्णादाण। अधम्मिजोय-अहम्मिजोय। अपडिकम्म-अप्पडिकम्म। अदत्तादाणकिरिया-अदिण्णादाणकिरिया। अधम्मिट्ठ-अहम्मिट्ठ। अपडिकंत-अप्पडिकंत। अदत्तादाणवत्तिय-अदिण्णादाणवत्तिय। | अधम्मिय-अहम्मिय। अपडिचक्क अप्पडिचक्क। अदत्तादाणविरइ-अदिण्णादाणविरइ। | अधर-अहर। अपडिण्ण-अप्पडिण्ण। अदत्तादाणवेरमण-अदिण्णादाणवेरमण। | अधरगमण-अहरगमण। अपडिबझंत-अप्पडिबज्झंत। अदत्तालोयण-अदिण्णालोयण। अधरिम-अहरिम। अपडिबद्ध-अप्पडिबद्ध। अदूरग-अदूरय। अधरी-अहरी। अपडिबद्धया-अप्पडिबद्धया। अद्दगकुमार-अद्दयकुमार। अधरीलोट्ट-अहरीलोट्ठ। अपडिबद्धविहार-अप्पडिबद्धविहार। अद्दगपुर-अद्दयपुर। अधरुट्ठ-अहरुट्ठ। अपडिबुज्झमाण-अप्पडिबुज्झमाण। अहणो-अद्दण्णो / अधव-अहव-अधवा-अहवा। | अपडियार-अप्पडियार! अद्दागपसिण-अदागपसिन। अधि-अहि। अपडिरूव-अप्पडिरूव। अद्ध-अद्धाण। अधिइ-अहिइ। अपडिलद्ध-अप्पडिलद्ध। अद्धकप्प-अद्धाणकप्प। अधिग-अहिंग। अपडिलद्धसम्मत्तरयणपडिलंभ-अप्पअद्धकुलव-अद्धकुडवा अधिगम अहिगमा डिलद्धसनत्तरयणपडिलंभ। अद्धक्खिकडक्ख-अद्धच्छिकडक्ख। | अधिगमरुइ-अभिगमरुइ-अहिगमरुइ। / अपडिलेस्स-अप्पडिलेस्स। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपडिलेहण-अप्पडिलेहण। | अपमज्जियदुप्पमज्जियसिञ्जासंथार-| अब्भंतरकरण-अभिंतरकरण। अपडिलेहणासील-अप्पडिलेहणाशील। अप्पमज्जियदुप्पमज्जियसिज्जासंथार। | अब्मंतरग–अभिंतरग। अपडिलेहिय-अप्पडिलेहिया | अपमत्त-अप्पमत्त। अब्भंतरठाणिज्ज-अभिंतरठाणिज्ज। अपडिलेहियदुप्पडिलेहियउच्चारपासवण अपमत्तसंजय-अप्पमत्तसंजय। अब्मंतरतव-अभिंतरतव। भूमि-अप्पडिलेहियदुप्पडिलेहियउच्चा- अपमत्तसंजयगुणट्ठाण-अप्पमत्तसंजय अब्भंतरतो--अभिंतरतो। रपासवणभूमि। गुणट्ठाण। अभंतरदेवसिय-अभिंतरदेवसिय। अपडिलेहियदुप्पडिलेहियसिज्जासंथारय | अपमाण-अप्पमाण। अभंतरपरिस-अभितरपरिस। अप्पडिलेहियदुप्पडिलेहियसिज्जासंथारय। अपमाणभोइ-अप्पमाणभोइ। अब्भतरपाणीय-अभितरपाणीय। अपडिलेहियपणग-अप्पडिलेहिगपणग। | अपमाय-अप्पमाय। अब्भतरपुक्खरद्ध-अडिभतरपुक्खरद्ध। अपडिलोमया-अप्पडिलोमया। अपमायपडिलेहा-अप्पमायपडिलेहा। | अभंतरपुप्फफल-अभिंतरपुप्फफल। अपडिवाइ-अप्पडिवाइ। अपमायभावणा--अप्पमायभावणा। अभंतरबाहरिय–अभिंतरबाहरिय। अपडिसलीण-अप्पडिसलीण। अपमायवुडिजणगत्तण-अप्पमायवुडिज-| अब्भंतरय-अभिंतरय। अपडिसुणेत्ताअप्पडिसुणेत्ता। णमत्तण। अभंतरलद्धि-अभितरलद्धि। अपडिहङ-अप्पडिहड। अपमायपडिसेवणा-अप्पमायपडिसेवणाः अब्भंतरसंवुक्का-अभिंतरसंबुक्का। अपडिहणत अप्पडिहणंत। अपमेय-अप्पमेया अभंतरसगडुद्धिया-अभिंतरसगडुद्धिया। अपडिहय–अप्पडिहय। अपराइत-अपराइय। अब्भतरोहि-अभिंतरोहि। अपडिहयगइ-अप्पडिहयगइ। अपरिसाइ-अपरिस्साइ-अपरिसावि- | अब्भंतरिया-अभिंतरिया। अपडिहयपच्चक्खायपावकम्म–अप्पडि-| अपरिस्सावि। अभविय-अभव्व। हयपचक्खायपावकम्म। अपलीण-अप्पलीण। अभिइ-अभीड़। अपडिहयबल-अप्पडिहयबल। अपवत्तण-अप्पवत्तण। अभिण्णाय-अभिजाणिया अपडिहयवरणाणदंसणधर-अप्पडियव अपवित्त-अप्पवित्त / अभिसंग-अभिस्संग। रणाणदंसणधर। अपवित्ति-अप्पवित्ति। अभिसेगभंड-अभिसेयभंड। अपडिहयसासण-अप्पडिहयसासण। अपसंसणिज्ज-अप्पसंसणिज्ज। अभिसंगसभा-अभिसेयसभा। अपडिहारय-अप्पडिहारय। अपसज्झ-अप्पसज्झ। अभिहित अभिहिय। अपडीकार-अप्पडीकार। अपसज्झपुरिसाणुग–अप्पसज्झपुरिसा-| अमग्घाय-अमाघाय। अपडुप्पण्ण-अप्पडुप्पण्णा गुग। अमावसा-अमावासा। अपत्तभूमिग-अपत्तभूमिया अपसत्थ-अप्पसत्था अभिज्ज-अमेज। अपत्थण-अप्पत्थण। अपि-अवि। अमिज्झ-अमेज्झे। अपत्थिय-अप्पत्थिय। अपीडणया-अपीलणया! अमिज्झपुण्ण-अमेज्झपुण्ण! अपत्थियपत्थय-अप्पत्थियपत्थय-अपुस्सुय-अप्पुस्सय। अमिज्झमय-अमेज्झमया अपत्थियपत्थिय-अप्पत्थियपत्थिय। अप्पज्ज-अप्पण्णू। अमिज्झरस-अमेज्झरस। अपद-अपय। अप्पाबहुय-अप्पाबहुग। अमिज्झसंभूय-अमेज्झसंभूय। अपदुस्समाण-अप्पदुस्समाण। अप्फालिय-अफालिय। अमिज्झुक्कर-अमेज्झुक्कर। अपभु-अप्पभु। अप्फोआ-अप्फोया। अयपाद-अयपाय। अपमजणसील-अप्पमज्जपसील। अप्फोडिअ-अप्फोडिह! अयसीवण्ण-अयसिवण्ण। अपमञ्जित्ता-अप्पमज्जित्ता। अप्फोव-अफोव। अरइपरिसह-अरइपरीसह। अपमज्जिय-अप्पमजिय। अबहुस्सुय-अबहुस्सुत! अरइपरिसहविजय-अरइपरीसहविजय। अपमज्जियचारि-अप्पमज्जियचारि। अब्भंगित्ता अभंगेत्ता। अलाभ-अलाह। अपमज्जियदुप्पमजियउचारपासवण भूमि- अब्भंतर-अब्भितर। अलाभपरिसह-अलाहपरिसह-अलाभ-- अप्पमज्जियदुप्पमज्जियउच्चार पासवण- अभंतरओसचित्तकम्म–अभितरओस- परीसह-अलाहपरीसह। / चित्तकम्म। / अलोग–अलोय। भूमि। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 51 अवायाणुप्पेहा-अवायाणुवेहा। आइयावण-आदियावण। ओगसंगसंउत्त। अविरइवाय-अविरइयवाय। आईण-आत्तीण-आदीण। आतंकि आयंकि। अविसंवायणजोग-अविसंवायणाजोग। आईणभोइ-आदीणभोइ। | आतंचणिया आयंचणिया। अव्वत्तव्वगसंचिय-अवत्तव्वगसंचिय। आईणवित्ति-आदीणवित्ति। आयंतकर-आतंतकर। असंणिहिसंचय-असंनिहिसंचय। आईणिय-आदीणिय। आतंतम आयंतम। असंथरमाण-असंथरंत। आउंचणा-आउंटणा। आतंदम-आयंदम। असाधारण-असाहारण। आउक्काय-आउकाय। आतंव-आयंव। असाय-असात। आउस-आउस्स। आतंबज्झयण-आयंवज्झयण। असायण-अस्सायण। आएज-आदेज। आतंभरि--आयंभरि। असायवेयणज्ज-असायावेयणिज्ज। आएज्जवक्क-आदेज्जवक्क। आतकम्म-आयकम्म। असिय--असित। आएजणाम आदेजणाम। आतगवेसय-आयगवेसय। असुभ-असुह। आएज्जवयण-आदेजवयण। आतगय-आयगय। असुभकम्मबहुल-असुहकम्मबहुल। आएजवयणया-आदेजवयणया। आतगुत्त--आयगुत्त। असुभाकिरियादिरहिय-असुहकिरियादि-आएस-आदेस। आतचाइ-आयच्चाइ। रहिय। आएसग आएसय। आतछट्ठवाइ-आयछट्टवाइ। असुभज्झवसाण-असुहज्झवसाण। आकिई आगई। आतजन्म-आयजम्म। असुभणाम-असुहणाम। आगंतुय-आगंतुग। आतजस-आयजस। असुभतरंडुत्तरणप्पाय--असुहतरंडुत्तरण-आगमि--आगामि। आतजोगि-आयजोगि। प्पाय। आगमिस्स-आगामिस्सत्। आतजोणि-आयजोणि। असुभत्त-असुहत्त। आगमेत्ता-आगम्म। आतज्झाण-आयज्झाण। असुभदुक्खभागि-असुहदुक्खभागि। आगासफलिह-आगासफालिय। आतट्ठ-आयट्ठ-अप्पणट्ठ! असुभविवाग–असुहविवाग। आगासफालियसरिसप्पइ-आगासफलि | आतट्ठि-आयट्ठि। असुभा-असुहा। हसरिसप्पह। आतणाण-आयणाण। असुभाणुप्पेहा-असुहाणुप्पेहा। आगासफालियामय-आगासफलिहामय। | आतनिट्ठ-आयनिट्ठ। अहत-अहय। आघायण-आघयण। आतनिप्फेड्य-आयनिप्फेड्य। अहरुट्ठ-अहरोट्ठ। आजग-आजय। आतणीण-आयणीण। अहाकड-अहागडा आजम्मसुरहिपत्त-आयम्मसुरहिपत्त। आतण्ण-आयण्ण। अहिआइ-अहिआइ। आजवंजवीभाव-आयवंजवीभाव।। | आततंत-आयतंत। अहिगरणकर--अहिगरणकड। आजाइ-आयाइन आततंतकर आयतंतकर। अहिगार-अहियार। आढग-आढय। आततत्त-आयतत्त। अहिलंघ-अहिलंख। आढत्त-आरद्ध। आततत्तप्पगास-आयतत्तप्पगास। || आ॥ आणमणी-आणवणी। आततरग-आयतरग। आअ-आग। आणयणप्पओग-आणवणप्पओग। आततुला-आयतुला। आअरिस-अंसअरिस। आणाकारि-आणागारि। आतत्त-आयत्त। आइअंतियमरण-आदिअंतियमरण। आणाजोग-आणाजोय। आतदंड-आयदंड। आइक्खग आइक्खय। आणिय-आणीय। आतदंडसमायार-आयदंडसमाचार। आइज-आदेज। आणुपुव्वसुजाय-आणुपुव्विसुजाय। आतदरिस-आयदरिस। आइजमाण-आदेज्जमाण। आतंक-आयंक। आतद्दोहि-आयद्दोहि। आइज्जवक्क-आदेजवक्क। आतंकदंसि-आयंकदंसि। आतपएस-आयपएस। आइज्जवयण-आदेजवयण। आतंकविवचास-आयकविवचास। आतपरिणइ-आयपरिणइ। आइज्जवयणया-आदेजवयणया। | आतंकसंपओगसंपउत्त-आयंकसंप-1 आतपसंसा-आयपसंसा। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 आतप्पओग-आयप्पओग। आतसमोयार-आयसमोयार। आदसतलोवम-आयंसतलोवम-आदआतप्पओगणिव्वत्तिय आयप्पओगणि- | आतसरीरखेत्तोगाढ-आयसरीरखेत्तो- | रिसतलोवम-आदसतलोवम। व्यत्तिय। गाढा आदंसमंडल-आयसमंडल-आदरिसमंआतप्पभ-आयप्पभा आतसाय-आयसाय। डल-आदसमंडल। आतप्पमाण-आयप्पमाण। आतसायाणुगामि-आयसायाणुगामि। आदंसमुह-आयंसमुह-आदरिसमुहआतप्पवाय-आयप्पवाय। आतसिद्ध आयसिद्ध। आदसमुह। आतप्पियसंबंधणसंयोग-आयप्पियसंबंध | आतसुह-आयसुह। आदंसलिवि-आयंसलिवि-आदरिसपसंयोग। आतसोहि आयसोहि। लिवि-आदस्सलिवि। आतवतत्त-आयवतत्त। आतहित-आयहित आदर-आयर। आतवल-आयवल। आता-अप्पा। आदरण-आयरण। आतववत्-आयववत्। आताणुकंपय-आयाणुकंपय। आदरणया-आयरणया। आतवाल-आयवाल। आताणुस्सरण-आयाणुस्सरण। आदरणिज्जा-आयरणिज्जा। आतवोध-आयवोध। आताणुसासण-आयाणुसासण। आदरतर-आयरतर। आतभाव-आयभाव। आताधीण--आयाधीण। आदराइजुत्त-आयराइजुत्त। आतभाववंकणया-आयभाववंकणया। आताबाग-आयाबग। आदाण-आयाण। आतभाववत्तव्वया-आयभाववत्तव्वया। आताबण--आयाबण। आदाणअट्ठि-आयाणअट्ठि। आतभू-आयभू। आताबणया-आयाबणया। आदाणगुत्त–आयाणगुत्त। आतरक्ख-आयरक्ख। आतावणा-आयावणा! आदाणणिक्खेवदुगुंछ्य-आयाणणिक्खेआतरक्खा-आयरक्खा। आताबित्तए-आयाबित्तए। वदुगुंछय। आतरक्खि-आयरक्खि। आताबिया-आयाविया! आदाणनिरुद्ध-आयाणनिरुद्ध। आतरक्खिय-आयरक्खिय। आतावेमाण-आयाबमाण। आदाणपय-आयाणपय। आतवं-आयवं। आताभिणिवेस-आयाभिणिवेस। आदाणफलिह-आयाणफलिह। आतवस-आयवस। आतामिसित्त–आयाभिसित्त। आदाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिइ आयाआतवस्स-आयवस्स! आतार-आयार। णभंडमत्तनिक्खेवणासमिइ। आतवायपत्त-आयवायपत्त / आताराम-आयाराम। आदाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिय-आयाआतवि-आयवि। आतारामि-आयारामि। णभंडमत्तनिक्खेवणासमिय। आतविज्जा-आयविज्जा। आताव-आयाव। आदाणभय-आयाणभय। आतवीरिय-आयवीरिया आतावाइ-आयावाइ। आदाणभरिय-आयाणभरिय। आतविसोहि-आयविसोहि। आतासय-आयासया आदाणया-आयाणया। आतवेयावच्चकर-आयवेयावञ्चकर। आताहम्म-आयाहम्म। आदाणवंत-आयाणवंत। आतसंजम आयसंजमा आताहिगरणवत्तिय आयाहिगरणवत्तिय। आदाणसोयगहिय--आयाणसोयगहिय। आतसंजमपर-आयसंजमपर। आताहिगरणि-आयाहिगरणि। आदाणिज्ज-आयाणिज्जा आतसंजमोवाय आयसंजमोवाय। आताहिय-आयाहिया आदाणिज्जज्झयण-आयाणिज्जज्झयण। आतसंवेयण-आयसंवेयण। आतिण-आतीण। आदाय आयाय। आतसंवेयणिज्ज-आयसंवेयणिज्ज। आतीकय अप्पीकाय। आदाहिणपयाहिण-आयाहिणपयाहिण। आतसक्खि-आयसक्खि। आत्त-आताय। आदाहिणपयाहिणा-आयाहिणपयाहिणा। आतअप्पसत्तम-आयअप्पसत्तम। आदंस-आयंस--आदरिस-आदस्स। आधमण-आहमण। आतसत्ति--आयसत्ति। आदंसग आयंसग आदरिसग-आदसगा | आधरिसिय आहरिसिय। आतसमप्पण-आयसमप्पण। आदसघरग-आयंसधरण-आदरिसघर-|आधा--आहा। आतसमया-आयसमया। गआदसघरग। आधाकम्म-आहाकम्म। आतसमुब्भव-आयसमुडभव। आदसतल-आयंसतल। आधाकम्मिय-आहाकम्मिय। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 53 आधाण-आहाण। आधाणिय-आहाणिया आधाय-आहाय। आधायग-आहायग। आधार-आहार। आधारसत्ति आहारसत्ति। आधि-आहि। आधिक्क-आहिक्क। आधिगरणिय-आहिगरणिय। आधिगरणिया-आहिगरणिया। आधिण्णु-आहिण्णु। आधित्थेण-आहित्थेण। आधिदेविय-आहिदेविय। आधिबंध-आहिबंध। आधिभोइय-आहिभोइय। आधिरज्ज–अहिरज्ज। आधिवेयणिय-आहिवेयणिय। आधीगड आहीगड। आधीगरण-आहीगरण / आधुणि-आहुणिय। आधुय-आहुय। आधेय आहेय। आधेवच्च-आहेवच्च। आधोरण आहोरण। आधोधिय-आहोहिय। आप-आव। आपई-आवई। आपईधम्म-आवईधम्म। आपगा-आवगा। आपगेज-आवगेज्ज। आपडण-आवडण। आपडव-आवडव। आपडिग-आवडिग। आपडिय-आवडिय। आपण आवण। आपणगिह-आवणगिह। आपणवीहि-आवणवीहि। आपणिग-आवणिग। आपणिज्ज-आवणिज्ज। आपण्ण-आवण्ण। आपण्णपरिहार-आवण्णपरिहार। आपण्णसत्ता-आवण्णसत्ता। आरियधम्म-आयरियधम्मा आपत्त-आवत्त। आरियपएसिय-आयरियपएसिय! आपत्ति-आवत्ति। आरियपण्ण-आयरियपण्ण। आपत्तिसुत्त--आवत्तिसुत्त। आरियव्वेय-आयरियव्वेय। आपदकाल-आवदकाल। आयाम आचाम। आपदेव-आवदेव। आयारवं-आयारमंत। आपमिच्चग-आवमिच्चग। आरभइत्ता-आरम्भइत्ता। आपपित्ता-आवपित्ता। आराहग--आराहय। आपरण्हिय-आवरण्हिय। आरि-आरिय। आपलव-आपिलव। आरुग-आरोग्ग। . आपसरीरअणवकंखवत्तिया-आयसरीर- आरुग्गफल-आरोग्यफल। अणवकंखवत्तिया। आरुगबोहिलाभ-आरोगबोहिलाभ। आपाग-आपाय-आवाग-आवाय। आरुम्गबोहिलाभाइपत्थणाचित्ततुल्लआपाइ-आवाइ। आरोगबोहिलाभाइपत्थणाचित्ततुल्ल। आपाण-आवाण। आरुग्गसाहग-आरोगासाहग्ग! आपाणग-आवाणग। आलिवग आलीवग। आपाय-आवाय। आलिवण-आलीवण। आपायओ-आवायओ। आलिविय-आलीविय। आपायण-आवायण। आलिसंदग-आलिसिंदग। आपायमद्दय-आवायभद्दय। आलुग-आलुय। आपायलिया-आवायलिया। आव-जाव। आपालि-आवालि। आवत-आवत्त-आवड-आवट्ट। आपालाविय-आपिलाविय। आवडपचावडसेढिपसेढियसोत्थिय(सोआपिंजर-आविंजर। वत्थिय)पूसमाणवद्धमाणगमच्छंडमकआपिसलि-आविसलि। रंडाजारामाराफुल्लावलिपउमपत्तसागआपेक्खिय-आवेक्खिय। रतरंगवणलयपउमलयभत्तिचित्त-आआमेट्टघर-आमेट्टगार। वट्टपद्यावडसेढिपसेठियसोत्थिय (सोआमेल-आवेड। वत्थिय) पूसमाणवद्धमाणगमच्छंङमकआमोङग-आमोलय। रंङगजारामाराफुल्लावलिपउमपत्तसाआयइ-आयई। गरतरंगवणलयपउमलयभत्तिचित्त। आयज्झ-आयम्ब। आवतकूङ आवट्टकूड। आयतकण्णायय-आययकण्णायय। आवत्तण-आवट्टण। आयतचक्खु-आययचक्खु। आवत्तणपेढिया आवट्टणपेदिया। आयतजोग-आययजोग। आवतणिज्ज--आवट्टणिज्ज। आयतद्वित-आयतट्ठिय। आवतय-आवट्टय। आयततर-आयतयर। आवत्तायंत आवट्टायंत। आरियक्खेत्त-आयरियक्खेत्त। आवलि-आवली। आरियट्ठाण-आयरियट्ठाण। आवलियणिवाय-आवलियाणिवायआरियदसि-आयरियदंसि। आवलितणिवाय। | आरियदिण्ण-आयरियदिण्ण। आवलियपविट्ठ-आवलियापविट्ठ। आरियदेस-आयरियदेस। |आवलियपविमत्ति-आवलियापाविमत्ति। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 आवलियवाहिर-आवलियावाहिर। आवीक्कम्म-आवीकम्म। आसुरा-आसुरी। // 1 // इइ-इति। इइकह इतिकह। इइकायव्वया-इतिकायव्वया। इइह-इतिह। इइहास-इतिहास। इओ-इत्तो-इदो-एत्तो। इंगिअ-इंगिया इंगिअमरण-इंगियमरण इंदकाइय-इंदगाइय। इंदियत्थकोवण-इंदियत्थविकोपन। इक्खाग-इक्खागु। इक्खागकुल-इक्खागुकुल। इक्खागभूमि-इक्खागुभूमि। इक्खागराय-इक्खागुराया इक्खागवंश-इक्खागुवंश। इक्खु-उच्छु। इक्खुकरण-उच्छुकरण। इक्खुखंङ–उच्छुखंड! इक्खुगंडिया-उच्छुगंडिया। इक्खुघर-उच्छुघर। इक्खुचोयग-उच्छुचोयग! इक्खुजंत-उच्छुजंत। इक्खुडालग-उच्छुडालग। इक्खुपेसिया-उच्छुपेसिया। इक्खुभित्ति-उच्छुभित्ति। इक्खुमेरग-उच्छुमेरग। इक्खुलट्ठि-उच्छुलट्ठि। इक्खुवण-उच्छुवण इक्खुवाड-उच्छवाड। इक्खुवाडिया-उच्छुवाडिया। इक्खुसालग-उच्छुसालग। इच्छक्कार-इच्छाकार। इच्छामित्त-इच्छामेत्त। इड्डि-रिद्धि-इद्धि। इड्डिअप्पवट्टण-इद्धिअप्पवट्टण। इड्डिम-इड्ढिमंत। इत्तो-इदो-इओ। | इत्थिआणमणी-इत्थीआणमणी। इत्थिवस-इत्थीवस। इत्थिकम्म-इत्थीकम्म। इथिविगह-इत्थीविग्गह। इत्थिकला-इत्थीकला। इत्थिविण्णवणा-इत्थीविण्णवणा। इथिकलेवर-इत्थीकलेवर। इत्थिविप्पजह-इत्थीविप्पजह। इत्थिकहा-इत्थीकहा। इस्थिविप्परियासिया-इत्थीविप्परियाइस्थिकाम-इत्थीकाम। सिया। इत्थिकामभोग-इत्थीकामभोग। इथिविलोयण-इत्थीविलोयण। इत्थिगण-इत्थीगण। इत्थिवेय-इत्थीवेय। इत्थिगढभ-इत्थीगब्भा इत्थिवेयण्ण-इत्थीवेयण्ण। इत्थिगुम्म-इत्थीगुम्मा इत्थिसंकिलिट्ठ-इत्थीसंकिलिट्ठ। इथिचिंध-इत्थीचिंध। | इत्थिसंग-इत्थीसंग। इत्थिचोर-इत्थीचोर। इत्थिसंपक्क-इत्थीसंपक्का इत्थिजण-इत्थीजण। इत्थिसंपरिवुड-इत्थीसंपरिवुड। | इस्थिजिय-इत्थीजिय। इत्थिसंवास-इत्थीसंवास। इत्थिट्ठाण-इत्थीठण। इत्थिसंसत्त-इत्थीसंसत्ता इत्थिणपुंसग-इत्थीणपुंसग। इत्थिसढा-इत्थीसड्डा। इत्थिणामगोयकम्म-इत्थीणामगोयकम्म। इत्थिसहाव-इत्थीसहाव। इस्थितित्थ-इत्थीतित्था इत्थिसेवा-इत्थीसेवा। इत्थिदोस-इत्थीदोस। इदाणि--इयाणि-इयण्डिं। इत्थिपच्छाकड-इत्थीपच्छाकड। इंध-चिण्ह। इत्थिपण्णवणी-इत्थीपण्णवणी। इब्भग-इब्भय। इत्थिपरिणज्झयण-इत्थीपरिणज्झयण। इमी-इमा-इमिआ। इत्थिपरिणा-इत्थीपरिणा। इसि-रिसि। इत्थिपरिसह-इत्थीपरिसह। इसिदिण्ण-इसिदत्त। इत्थिपरिसहविजय-इत्थीपरिसहविजय। इस्सर-ईसर। इत्थिपोसय-इत्थीपोसय। इस्सरक-ईसरकड। इत्थिपुंसलक्खणा-इत्थीपुंसलक्खणा। इस्सरकडवाइ-ईसरकडवाइ। इत्थिभाव-इत्थीभाव। इस्सरकारय-ईसरकारय। इथिभोग-इत्थीभोग। इस्सरवाइ-ईसरवाइ। इत्थिमज्झगय-इत्थीमज्झगय। इस्सरविभूइ-ईसरविभूइ। इत्थिरज-इत्थीरज्ज। इस्सरसरिस-ईसरसरिस। इत्थिरयण-इत्थीरयण। इस्सरियमय-इस्सरियामय-ईसरियमयइत्थिराग-इत्थीराग। ईसरियामय। इत्थिरूव-इत्यीरूव। ॥ई॥ इत्थिलक्खण-इत्थीलक्खण। इस्सरियसिद्धि-ईसरियसिद्धि। इथिलिंग-इत्थीलिंग। इस्सरीकय-ईसरीक्य। इथिलिंगसिद्ध-इत्थीलिंगसिद्ध। ईसि-ईसिं-ईसी। इथिलिंगसिद्धकेवलणाण-इत्थीलिंगसि--- ईसिउट्ठावलंबि-ईसिंउट्ठावलंबि-ईसीउ-- द्धकेवलणाण। द्वावलंबि। इथिवउ-इत्थीवउ। ईसितंवच्छिकरणी-ईसिंतवच्छिकरणीइत्थिवयण-इत्थीवयण। ईसीतंवच्छिकरणी। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55 ईसितुंग-ईसिंतुंग-ईसीतुंग। उउंबरवच-उंबरवच्च। सह-उसिणपरीसह। ईसिपण्णवणिज्ज-ईसिंपण्णवणिज्ज-ईसी | उउंबरीय-उंबरीय। उण्हपरियाव-उसिणपरियाव। पण्णवणिज्ज। उउपरियट्ट-ऊऊपरियट्ट। उण्हाभितत्त-उण्हाहितत्त। ईसिपब्भार--ईसिंपल्भार-ईसीपब्भार। | उउसंधि-उऊसंधि। उत्तमड्ढि-उत्तमरिद्धि। ईसिपडभारगय-ईसिंपन्भारगय-ईसीप-| उंदुर-उर्दुरू। उत्तरकुरा-उत्तरकुरु। ब्भारगय। | उंदुरुमाला-उंदुरूमाला। उत्तरसमा-उत्तरासमा। ईसिपढभारा-ईसिंपडभारा-ईसीपब्भारा। उक्कट्ठ-उक्किट्ठ। उत्तरिज-उत्तरि। ईसिपुरोवाय-ईसिंपुरोवाय-ईसीपुरोवाय। उक्खअ--उक्खा / उत्तरुट्ठ-उत्तरूह। ईसिमत्त-ईसिंमत्त-ईसीमत्त। उचिअकरण-उचियकरण। उत्ताडण-उत्तालण। ईसिरहस्स-ईसिंरहस्स-ईसीरहस्स। उचिअकरणिज्ज-उचियकरणिज्ज। उत्ताडिज्जंत-उत्तालिज्जंता ईसिविच्छेयकडुवा-ईसिंविच्छेयकडुवा-उचिअकिच्च-उचियकिञ्च। उदग-उदय। ईसीविच्छेयकडुवा! | उचिअजोग-उचिजोग। उदगगब्भ-दगगब्भ। ईसिलिंदपुप्फप्पगास-ईसिलिंदपुप्फप्प-उचिअद्विइ-उचियट्ठिइ। उदगलेव-दगलेव। गास-ईसीलिंदपुप्फप्पगास-ईसिं-|उचिअत्त--उचियत्त। उदगसीमय-दगसीमय। लिंधपुप्फप्पगास-ईसिलिंधपुप्फप्प-उचिअत्थापायण-उचियत्थापायण।। उदगहारा-दगहारा। गास-ईसीलिंधपुप्फप्पगास! उचिअपवित्तिप्पहाण--उचियपवित्तिप्प- उदयसायर-उदयसागर। ॥उ॥ हाणा उदर-उयर। उइओइअ-उदिओइअ-उइओदिअ-उचिआचरण-उचियाचरण। उदरगंठि-उयरगंठि। उदिओदि। उचिआणुट्ठाण-उचियाणुट्ठाण। उदरत्ताण-उयरत्ताण। उइण्ण-उदिण्ण। उच्च-उच्च। उदार-उराल। उइण्णकम्म-उदिण्णकम्म। उच्छण-उच्छाण। उद्देसिय-उद्देसिउ। उइण्णबलवाहण-उदिण्णबलवाहण! | उच्छूढसरीरगिह-उच्छूढसरीरधर। उद्धत-उद्धय। उइण्णमोह-उदिण्णमोह। उच्छेद-उच्छेय। उभिंदिउं-उभिदिया उइण्णवेय-उदिण्णवेय। उज्जुग-उज्जुय। उम्माद-उम्माय। उइय-उदिया उज्जुगभूय-उज्जुयभूया उम्मादपमाय-उम्मायपमाय। उइयत्थमिय-उदियत्थमिय। उज्जुगया-उज्जुयया! उम्मिवीइ-उम्मीवीइ। उईण-उदीण। उज्जुगा-उज्जुया। उराल–ओराल। उईणा-उदीणा। उज्जुमइ-रिउमइ। उलुग-उलूग। उईणपाईण-उदीणपाईण। उज्जुसुत्त-उज्जुसुया उलुगच्छि-उलूगच्छि। उईणवाय-उदीणवाय। उज्जुसुत्तवयणविच्छेय-उज्जुसुयवयण- उलुगपत्तलहुय-उलूगपत्तलहुय। उईत्ता-उदीत्ता। विच्छेय। उलुगी-उलूगी। उईरण-उदीरण। उज्जुसुत्ताभास-उज्जुसुयामास। उवएसणा-उवदेसणा। उईरणा-उदीरणा। उट्ठिअ--उट्ठिय। उवक्खइत्ता-उवक्खाइत्ता। उईरिजमाण-उदीरिजमाण। उट्ठिअंदङ-उट्ठियदंड। उवगारण-उवयारण। उईरिय-उदीरिय। उडुंडग-उदंडग। उवगारियालयण-उवगारियलयण। उरत-उदीरेंत। उड्डजाणु-उड्डजाणु। उवचित-उवचिय। उउंबर-उंबर। उडलोग-उडलोय। उवट्टण-उव्वट्टण। उउंबरदत्त-उंबरदत्त। उड्डलोगविभत्ति-उडलोयविभत्ति। | उवट्टणविहि-उव्वट्टणविहि। उउंबरपणग-उंबरपणग। उण्ण-उरण। उवट्ठवणा-उवट्ठावणा। उउंबरपुप्फ-उंबरपुष्फ-उउंबरपुप्फु-| उण्णुइतो-उन्नुइतो। उवट्ठवणाकप्पिय-उवट्ठावणाकप्पिय। उंबरपुप्फु। उण्हपरिसह-उण्हपरीसह-उसिणपरि-उवट्ठवणागहण-उवट्ठावणागहण। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 उवट्ठवणायरिय-उवट्ठावणायरिय। | एगारस-एगारह। / कंकत-कंकय। उवट्ठवणारिह-उवट्ठावणारिह। एगूणवीस-पूणवीसइ। कंखापओस-कंखप्पओस। उवट्ठवणी-उवट्ठावणी। एज-एय। कंचणउर--कंचणपुर। उवट्ठवित्तए--उवठ्ठावित्तए-उवद्ववेत्तए- एजत-एजयंता कंची-कंचि। उवट्ठावेत्तए। एजणं- एयणं। कंडक-कंङग। उवरिम-उपरिम। एजणा-एयणा। कंडुगगइ-कंदुगगइ। उवलीण-उवल्लीण। एजमाण-इज्जमाण। कंसपत्ती-कंसपाई। उववूह-उववूहा। एणिज्ज-एणेज्ज। कक्कोड-कक्कोल। उसम-उसह। एणिज्जय-एणेज्जय। कच्छभी-कच्छवी। उसभकंठ-उसहकंठ। एहि-एताहे। कच्छु-कच्छू। उसभणाराय-उसहणाराय। एत-एय। कच्छुल-कच्छुल्ल। उसभदत्त-उसहदत्त। एतकम्म-एयकम्म। कडजोग-कयजोग। उसमपुर-उसहपुर। एतप्पगार-एयप्पगार। कङि-कडी। उसभपुरी-उसहपुरी। एतप्पहाण-एयप्पहाण। कडुग-कडुय। उसभसेण-उसहसेण। एतसमायार-एयसमायार। कडुगतुंबी-कडुयतुंबी। उसिणपरिसह-उसिणपरीसह। एतारिस प्यास्ति एतारिच्छ प्रयास्च्छि। कडुगफलदंसग कडुयफलदंसग। उसिय-उस्सिय-ऊसिय। एतारूव-एयारूव। कडुगफलविवाग-कडुयफलविवाग। // ए11 एतावंति-एयावंति। कणगावली-कणगावलि। एई-एया। एरिक्ख-एलिक्ख। कणाद-कणाय। एक-एप-एय। एलकक्ख-एलकच्छ। कणिआर-कपिणआर। एकअ-एगअ-एक्काइअ-एगइअ। एलग-एलय। कणिक-कणिय। एक्कइअ-एगइअ-एक्काइय-एगइय। एव-एवं। कण्णधार-कण्णहार। एक्कसि-एक्कसिअ--एकइआ-एक्काइआ // ओ। कण्णपालि-कण्णपाली। ओघसिय-ओग्धसिय। कप्पववहार-कपववहार। एक्कओ-एगओ-एक्दो-एक्कत्तो-एगत्ता। ओघ-ओज। कमण--कमन। एकओखहा-एगओखहा। ओचिझ्य-ओचिच्च। कमलागरखंडवोहय-कमलागरसंडवोह्या एक्कओणतय-एगओणतय। | ओचिइयजोग-ओचिचजोग। कमलापीड-कमलामेल। एक्कओपडाग-एमओपडाग। ओदण-ओयण! कम्भीर-कम्हीर। एक्कओवंका-एगओवंका। ओदणविहि-ओयणविहि। कम्मकारि-कम्मकत्ता। एक्कओवत्त-एगओवत्त। ओभासण-ओहासण। कम्मपगडि कम्मपयडि। एक्कओसमुवायग- एओसमुवायग। ओभासणभिक्खा-ओहासणभिक्खा। | कम्मयकायजोग-कम्मणकायजोग। एक्कओसहिय-एगओसहिय। ओभासमाण-ओहासमाण। कम्मयणाम-कम्मणणाम। एक्कंगिय-एगंगिया ओरसवलसमण्णागय-उरस्सवलस-कम्मयवमगणा-कम्मणवरगणा। एक्कंत-एगता मण्णागय। कम्मायरिय-कम्मारिय। एक्कंतओ-एगंतओ। ओलि-ओली। कम्मोपाहिविणिमुक्क-कम्मोवाहिविणिमुएक्कतकूड-एगंतकूड। ॥क॥ क्क। एगंतचारि-एगंतयारि। कअम्गह-कयम्गह। कयण्णू-कयन्नू। एगचरियापरिसह-एगचरियापरीसह। कइअवपण्णत्ति-कइयवपण्णत्ति। कयविक्कयज्झाण-कयविक्कयंझाण। एमातर-एगयर। कइअवपेमगिरितडी-कइयवपेमगिरितडी।| करणओ-करणतो। एगता-एगया। | कइअविया-कइयविया। करतल-करयल। एगदा-एगया। कइविया कइविका। करतलपग्गहिय-करयलपगहिय। एगया। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करतलपब्मट्ठविप्पमुक्त करयलपन्भट्ठ-1 ओग। कुवलयप्पभ--कुवलयप्पह। विप्पमुक्क। कामासंसप्पओग-कामासंसापओग-कवेणि-कुवेणी। करतलमाइय-करयलमाइय। कामासंसपओग। कुसच्च-कुसत्त। करतलपरिमिय-करयलपरिमिय। कायपरिचारग-कायपरियारग। कुहग-कुहय। करभ-करह। कायरो-कायलो। कूणिय-कोणिय! कलसंगलिया-कलसिंवलिया। कारवण-कारावण। केकय-केयय। कलाद-कलाय। कारवाहिय-कारावाहिय। कारविय-काराविय। केकाइय-केगाइया कलिंकलुस-कलिकलुस। कलुसकम्मण-कलुसकम्म। कालागरु-कालागुरु। केवलदसण-केवलदरिसण। कलुसाउलचेय-कलुसाविलचेय। कालिग कालिय। केवलदसणावरण-केवलदरिसणावरण। कल्लुग-कल्लुय। कालिगसुय-कालियसुय। को उहल-को ऊहल-को उहल्लकविल्लुय-कवेल्लुय। कालिगा-कालिया। कोऊहल्ल। कविल्लुयावाय-कवेल्लुयावाय! कालिगावाय-कालियावाय। कोकस्सर-कोगस्सर। कह-कह। कालोद-कालोय। कोडिग-कोडि। कहकहभूय-कहकगभूय। किरियारय-किरियरया कोडिगण-कोडियगण। काऊण-काऊणं। किसल-किसल। कोत्थुभ-कोत्थुह। काक-काग। कीयकड-कीयगड। कोदंड-कोडंडा काकंदिय-कागंदिया कुंभग-कुंभया कोमुई-कोमुदी काकंदिया-कागंदिया। कुंभगार-कुंभयार। काकजंघ-कागजंघ। कोमुईचार-कोमुदीचार। कुक्खि-कुच्छि। काकजंधा-कागजंघा। कुक्खिकिमि-कुच्छिकिमि। कोरंट-कोरंटग। काकणि कागणि। कुक्खिपूर-कुच्छिपूर। कोलपाल-कोलवाल। काकणिमंसग-कागणिमंसग। कुक्खिवेयणा-कुच्छिवेयणा। कोलपागपट्टण-कोलवागपट्टण। काकणिरयण-कागणिरयण। कुक्खिसंभूय-कुच्छिसंभूय। काकणिलक्खण-कागणिलक्खण। कुक्खिसंवल-कुच्छिसंवल। काकतालिज्ज-कागतालिज्ज। कुक्खिसूल-कुच्छिसूल। काकतुंड-कागतुंड। कुक्खिहार-कुच्छिहार। काकधट्ठ-कागधट्ठ। कुवेर-कुबेर। काकपाल-कागपाल। काकपिंडी-कागपिंडी। कुमुअ-कुमुय। काकल-कागल। कुमुअवणविवोहग-कुमुयवणविवोहग। काकलि-कागलि-काकली-कागली। कुमुआ-कुमुया। काकस्सर-कागस्सर। | कुमुआगर-कुमुयागर। काणक-काणग। कुलकर-कुलगर। कादंब-कार्यब। कुलकरइत्थी-कुलगरइत्थी। कादंबग-कायंबग, कुलकरगंठिया-कुलगरगंडिया। कादंबरी-कायंबरी। कुलकरवंस-कुलगरवंस। कामभोगसंसाप्पओग-कामभोगासंसाप- कलतिलग-कलतिलया आगे से कोष्ठक में शब्दान्तर देने की प्रथाउठा दी गयी है किन्तु उनको ग्रन्थ में ही यथास्थान स्थान दिया जायगा। और 'अन्त्यव्यञ्जनस्य लुक इस सूत्र से लुक् हुए वर्ण का शब्दान्तर में समावेश नहीं है। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक कतिपय सङ्केत१- प्राकृतशैली से अनुस्वार और मकार(गाथाओं में) समस्त दो शब्दों के मध्य में आया करता है, इसलिए अनेक स्थल पर (टीका में) लिखा रहता है कि 'अनुस्वारोऽत्रालाक्षणिकः' तथा 'मकारोऽत्रालाक्षणिकः' जैसे प्र०भा० 528 पृष्ठ में 'असज्झाइय' शब्द पर बृ० की गाथा है- 'पंसुयमंसयरुहिर-केससिलावुट्ठि तह रओघाए' / यहाँ समस्त 'रुहिर' शब्द में भी अनुस्वार है। और 375 पृष्ठ में 'अणुजाण' शब्द पर "सीलेह मंखफलए, इयरे चायंति तंतुमादीसु"। यहाँ 'तन्त्वादिसु' का 'तंतुमादीसु' हुआ / और तृ०भा०६०३ पृष्ठ में भी 'कुसमयमोहमोहमइमोहिय'- 'कुसमयौघमोहमतिमोहित' इस शब्द पर लिखा कि- 'मकारस्तु प्रकृतत्वात्। इस पाठ से भी यह बात सिद्ध होती है। 2- 'बहुत सी जगह गाथाओं में दीर्घ को हस्व, और ह्रस्व को दीर्घ हुआ करता है, उसका कारण यह है कि ऐसा करने से गाथाओं के बनाने में बहुत सुगमता होती है, इसीलिए कहा गया है कि- "अपि माषं कुर्यात् छन्दोभङ्गं न कारयेत्"। और व्याकरणकार भी "दीर्घहस्वौ मिथो वृत्तौ ||14|| इस सूत्र से इस बात का अनुमोदन करते हैं। जैसे 'साहू' को 'सहूं''और' विरुज्झइ (ति) का "विरुज्झई [ती)' होता है। ३-कहीं कहीं प्राकृतशैली से अनुस्वार का लोप भी होता है, जैसे विशेषावश्यक भाष्य के 2086 गाथा में "समवाइ असमवाई, छविह कत्ता य कम्मं च // " (छव्विह त्ति) अनुस्वारस्य लुप्तस्य दर्शनात् / प्रायः करके नियुक्तिकार अपनी गाथाओं में इस नियम को विशेष रूप से काम में लाये हैं, इसलिये उनको गाथा बनाने में अत्यन्त सुगमता हुई है। जैसे तृ० भा० 517 पृष्ठे 'किइकम्म' शब्द पर आवश्यकनियुक्ति है कि- 'गुरुजण वंदावंती, सुस्समण जहुत्तकारिं च // 33 / / इसकी वृत्ति में लिखा है कि 'अनुस्वारलोपोऽत्र द्रष्टव्यः / 4- प्राकृतशैली से कहीं कहीं बहुवचन के स्थान में भी एकवचन हुआ करता है, जैसे आवश्यकवृत्ति के पाँचवें अध्ययन में 'भरतैरवतविदेहेषु' के स्थान में "भरहेरवयविदेहे ऐसा एकवचन किया है। ५-प्रायः सूत्रों में और नियुक्तिगाथाओं में जो निर्विभक्तिक पद आया करते हैं उनमें "स्यम्-जस्-शसा लुक्" ||84|344 // तथा 'षष्ठ्याः ||4|345|| इन सूत्रों से अथवा सौत्र सुप् का लोप समझना चाहिए। जैसे तृतीय भाग के 446 पृष्ठ में उत्त०२४ अ०। का मूलपाठ है कि-"उल्लंघण पल्लंघण" इत्यादि / और इस पर टीकाकार लिखते हैं कि 'उभयत्र सौत्रत्वात् सुपो लुक्' इसी तरह अन्य स्थल में भी समझना चाहिये। 6- सूत्रों में बाहुल्य से प्रथमा के एक वचन में 'अतः सेझैः / / 8 / 3 / 2 / इस सूत्र को न लगाकर "अत एत्सौ पुंसि मागध्याम्" ||8 / 4 / 227 / / इस सूत्र से एकार ही किया गया है, जैसे तृ० भा०४६० पृष्ठ में है कि- "आहारए दुविहे पण्णत्ते"। इस पर टीकाकार की टीका है कि 'आहारको द्विविधः प्रज्ञप्तः। इसी तरह नियुक्तिगाथाओं में भी समझना चाहिए-जैसे "वाहे" का अनुवाद 'व्याधः' है। 7- प्रायः करके सूत्रों में आया करता है कि- "तेणं कालेणं तेणं समएणं" और इसपर टीकाकार लिखा करते हैं कि "तस्मिन् काले तस्मिन् समये" इसको हेमचन्द्राचार्य भी सिद्धहेमव्याकरण के अष्टमाध्याय-तृतीयपाद में "सप्तम्या द्वितीया" |8 / 3 / 137 / / इस सूत्रपर अनुमोदन करते हैं कि 'आर्षे तृतीयाऽपि दृश्यते / यथा-'तेणं कालेणं तेणं समएणं' अस्यार्थः-- 'तस्मिन् काले तस्मिन् समये'। किन्तु रायपसेणी के टीकाकार मलयगिरि लिखते हैं कि 'ते इति प्राकृतशैलीवशात् तस्मिन्निति द्रष्टव्यम्' णमिति वाक्यालङ्कारे। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टान्तश्चान्यत्रापि- 'ण' शब्दो वाक्यालङ्कारार्थः / यथा- 'इमाणं पुढवी' इत्यादि। यह पक्षान्तर भी उनके मत से स्थित है। ५-व्यवहार, बृहत्कल्प, आवश्यकचूर्णि और निशीथ सूत्र, पं०भा०, पं०चूल आदि में प्रायः करके विशेष रूप से सूत्र नियुक्ति और चूर्णि में 'तदोस्तः // 84307 / / इस से और आर्षत्वाद् भी वर्णान्तर के स्थान में तकार हो जाता है, जैसे तृ० भा० "किइकम्म' शब्द के 514 और 515 पृष्ठ में बृहत्कल्प की नियुक्ति है कि-"ओसंकं भे दृटुं, संकच्छेती उ वातगो कुविओ" यहाँ पर शड्काछेदी की दकार को तकार और वाचक की चकार को तकार किया है। इसी तरह "इय संजमस्स वि वतो, तस्सेवठ्ठा ण दोसा य"|| इस गाथा में भी व्यय शब्द की यकार को भी तकार किया है। इसी तरह तृ०भा० 506 पृष्ठ के 'काहिय' शब्द पर निशीथ सूत्र की नियुक्ति और चूर्णि की व्यवस्था है, जैसे 'तक्कम्मो जो धर्म, कधेति सो काधितो होई // 13 // इस नियुक्तिगाथा की चूर्णि है कि- 'एवंविधो काहितो भवति'। यहाँ पर भी काथिक के ककार को तकार किया हुआ है, इसी तरह अन्यत्र भी समझना चाहिये / थकार को धकार तो 'थो धः ||64 / 267 / / और 'अनादौ स्वरादसंयुक्तानां कगतयपफां गधदधवभाः४३९६ा इत्यादि सूत्रों से होता है। ६-संस्कृत शब्दों की सिद्धि तो पचास अक्षरों से है, परन्तु प्राकृत शब्दों की सिद्धि चालीस ही अक्षरों से होती है, क्योंकि स्वरों में तो ऋ, ल, ऐ, औका अभाव है और व्यञ्जन में श, ष, तथा असंयुक्त ङ, आदि कई व्यञ्जनों का अभाव है। १०-व्यञ्जनान्त शब्दों के व्यञ्जन का 'अन्त्यव्यञ्जनस्य लुक्'८1१1११।। इस सूत्र से लुक् होजाने पर किसी शब्द का तो व्यञ्जनान्तत्वही नष्ट हो जाता है और किसी किसी का अजन्त में विपरिणाम हो जाता है, इसीलिए हलन्त शब्दों की सिद्धि के लिये कोई विशेष नियम नहीं है, केवल 'आत्मन्' शब्द और 'राजन्' शब्द की सिद्धि के लिये जो थोड़े से नियम हैं उन्हीं से अन्य नकारान्त शब्दों की भी व्यवस्था की जाती है। ११-यदि किसी ग्रन्थ का पाठ कुछ बीच में छोड़कर फिर लिया है तो जहाँ से पाठ छूटा है वहाँ पर उसी ग्रन्थ का नाम इस बात की सूचना के लिए चलते हुए पाठ के मध्य में भी दे दिया है कि पाठक भ्रम में न पड़ें। 12- प्राकृत भाषा में हिन्दी भाषा की तरह द्विवचन नहीं होता, किन्तु "द्विवचनस्य बहुवचनं नित्यम्' ||8 / 3-130 / / इस सूत्र से द्विवचन के स्थान में बहुवचन हो जाता है, इसलिए द्वित्वबोधन की जहाँ कहीं विशेष आ जाता है; और चतुर्थी के स्थान में षष्ठी "चतुर्थ्याः षष्ठी" ||8/3.131 / / इस सूत्र से होती है। 13- गाथाओं में पाद पूरे होने पर यदि सुबन्त अथवा तिङ्न्त रूप पद पूरा हो जाता है तो (.) यह चिह्न दिया जाता है और जहाँ पाद पूरा होने पर भी पद पूरा नहीं होता है वहाँ [-1 ऐसा चिह्न दिया है। 14- बहुत सी जगह गाथाओं में शुद्ध या व्यञ्जनमिश्रित एकार स्वर आता है किन्तु उसकी दीर्धाक्षर में परिगणना होने से जो किसी जगह मात्रा बढ़ जाती है, उसको कम करने के लिये [ ] ऐसा चिन्ह दिया गया है। यद्यपि 'दीर्घ हस्वौ मिथो वृत्तौ // 14|| इस सूत्र से हस्व करने पर एकार को इकार हो सकता है, किन्तु वैसा करने से सर्वसाधारण को उसकी मूल प्रकृति का ज्ञान नहीं हो सकता, इसलिए ह्रस्वबोधक संकेत दिया गया है, इसी तरह व्याकरणमहाभाष्य में भी लिखा है कि-"अर्ध एकारः, अर्ध ओकारो वा इति राणायनीयाः पठन्ति'। और वाग्भटविरचित प्राकृत पिङ्गलसूत्र में भी लिखा है कि "दीहो संजुत्तपरो, विन्दुजुओ पाडिओ अ चरणंते। स गुरू वंक दुमत्तो, अण्णो लहु होइ सुद्ध एक्ककलो"|| Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस तरह गुरु लघु की व्यवस्था करके लिखते हैं कि 'कत्थ वि संजुत्तपरो, वण्णो लहु होइ दंसणेण जहा। परिहसइ चित्तधिलं, तरुणिकडक्खम्मि णिव्युत्तं' / दूसरा अपवाद-'इहिकारा विन्दुजुआ, एओ सुद्धा अवण्णमिलिआ वि लहू। रहवंजणसंजोए, परे असेसं पि सविहासं' (इकारहिकारी बिन्दुयुतो एऔ शुद्धौ च वर्णमिलितावपि लघू / रेफहकारी, व्यञ्जनसंयोगे परेऽशेषमपि सविभाषम् / / यदि दीर्घमपि वर्ण लघु जिह्वा पठति सोऽपि लघुः / वर्णी अपि त्वरितपठिती दी त्रयो वा एक जानीत // ) / उदाहरण- 'माणिणि ! माणहि काइँ फल, ऍऑ जे चरण पडु कन्त / सहजे "भुअंगम जइ णमइ, किं करिए मणिमन्त?' दूससी विकल्प- 'जइ दीहो वि अ वण्णो, लहु जीही पढइ सो वि लहू / वण्णो वि तुरियपढिओ, दो तिण्णि वि एक्क जाणेहु" यदि दीर्घमपि वर्ण लघु जिह्वा पठति सोऽपि लघुः / वर्णी अपि त्वरितपठितौ द्वौ त्रयो का एकं जानीत / / || उदाहरण- 'अरे रे वाहहि कान्ह ! णाव छोटि डगमग कुगति ण देहि। तइ इथि णदिहि सँतार देइँ, जो चाहसि सो लेहि // छन्द की परम आवश्यकता- 'जेमें न सहइ कणअतुला, तिलतुलिअं अद्धअद्धेण / तेम ण सहइ सवणतुला, अवछंद छंदभंगेण" | 15- कहीं कहीं गाथाओं में शब्दों के आद्यन्त स्वर को 'लुक्' |8/1/10 // सूत्र से लोप कर डालते हैं, और कहीं आर्षत्वात् भी लोप करते हैं जैसे एक उदाहरण तृ०भा० 556 पृष्ठ में 'किरियावाइ (ण)' शब्द पर सूत्रकृताङ्ग की गाथा है कि- "गई च जो जाणणागई च"। इसी तरह अतीत के स्थान में 'तीत' लिखा करते हैं, और प्र० भा० 786 पृष्ठ में अवच शब्दपर 'वेतियरे अझं तू' और 772 पृष्ठ में 'अलाभपरीसह शब्दपर 'अलाभए होउदाहरणं' इत्यादि समझना चाहिए। 16- प्रायः बहुत से स्थल पर 'से णूणं' इत्यादि मूलपाठों में 'से' शब्द आया करता है, उस पर भ० 13-1-3 (स्था० 562-2-5) में लिखा है कि- "से शब्दो मागधीदेशीप्रसिद्धोऽथशब्दार्थः, क्वचिदसावित्यर्थे, क्वचित्तस्येत्यर्थे प्रयुज्यते। प्रकीर्णक विषय 1- ज्योतिष्करण्ङक में लिखा है कि स्कन्दिलाचार्य की प्रवृत्ति समय में दुःषम आरा के प्रभाव से दुर्भिक्ष पड़ जाने पर साधुओं का पढ़ना गुणना सब नष्ट होगया, फिर दुर्भिक्ष शान्त होने पर जब दो संघों का मिलाप हुआ (जो एक मथुरा में और दूसरा वलभी में था) तब दोनों के पाठ में वाचना भेद हो गया, क्योंकि विस्मृत सूत्रार्थ के पुनः स्मरण करके संघटन में अवश्य वाचनाभेद हो जाता है। २-विशेषावश्यक भाष्य आदि कई ग्रन्थों में लिखा हुआ है कि 'आर्यवर' के समय तक अनुयोगों का पार्थक्य नहीं हुआ था, क्योंकि उस समय व्याख्याता और श्रोता दोनों तीक्ष्ण बुद्धिवाले थे, किन्तु 'आर्यरक्षित' के समय से अनुयोगों का पार्थक्य हुआ है, यह बात प्रथम भाग में 'अज्जरक्खिय' शब्द पर और 'अणुओग' शब्द पर विस्तार से लिखी हुई है। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3- तृतीय भाग के 500 पृष्ठ में 'कालियसुय' शब्द पर कालिकश्रुत (एकादशाङ्गी) के व्यवच्छेद की चर्चा है कि सुविधि जिन के तीर्थ का सुविधि और शीतल जिन के मध्य काल में व्यवच्छेद हो गया, और व्यवच्छेद का काल पल्योपमचतुर्थ-भाग माना गया है। इसी तरह और भी षट् (छ:) जिनों में समझना, किन्तु व्यवच्छेद काल तो सातो जिनों के मध्य में इस तरह समझना- "चउभागो 1 चउभागो 2, तिण्णि य चउभाग 3 पलियमेगं च 4 / तिण्णेव य चउभागा 5, चउत्थभागो य 6 चउभागो 7 / 1 / / इति / परन्तु दृष्टिवाद अङ्ग का व्यवच्छेद तो सभी जिनान्तरों में था, और उसकी अवधि भी नहीं की हुई है। 4- यद्यपि मीमांसादर्शन के तन्त्रवार्तिककार कुमारिल भट्ट ने इस प्राकृतभाषा (अर्धमागधी) पर बहुत कुछ आक्षेप किया है, किन्तु वह उसकी अदूरदर्शिता है और व्यर्थ का ही कटाक्ष हैं, क्योंकि इस कोश के 'पागड' शब्द पर विशेषावश्यक भाष्य पर टीकाकार का लेख है कि- 'ननु जैनं प्रवचनं सर्व प्राकृतनिबद्धमिति दुःश्रद्धेयम् / मैवं शङ्क्यम्म्बालस्त्रीमूढमूर्खाणां, नृणां चारित्रकाक्षिणम् / अनुग्रहाय तत्त्वज्ञैः, सिद्धान्तः प्राकृतः कृतः' |1|| और यह विचारसह भी है क्योंकि जो भाषा 'राष्ट्रभाषा' या 'मातृभाषा' के उपयोग से लोगों को उपदेश मिलता है उससे शिक्षित-अशिक्षित पठितापठित स्त्री पुरुष सभी का विशेष उपकार होता है। 5- 'वागरण' शब्द पर आ०म०द्वि०कार लिखते हैं कि भगवान् ऋषभ देव ने शक्रेन्द्र से जो व्याकरण प्रथम कहा था वही ऐन्द्र व्याकरण के नाम से प्रख्यात हुआ / तथा कल्पसुबोधिका में लिखा है कि-२० व्याकरण हैं, अर्थात्- 1 ऐन्द्र, 2 जैनेन्द्र, 3 सिद्धहेम, 4 चान्द्र, 5 पाणिनीय, 6 सारस्वत 7 शाकटायन, 6 वामन, 6 विश्रान्त, 10 बुद्धिसागर, 11 सरस्वतीकण्ठाभरण, 12 विद्याधर, 13 कलापक, 14 भीमसेन, 15 शैव, 16 गौड, 17 नन्दि, 16 जयोत्पल, 16 मुष्टि व्याकरण, और 20 वाँ जयदेव नाम से प्रसिद्ध है। इसीलिए आवश्यकवृत्ति के दूसरे अध्ययन में लिखा है कि जब ऐन्द्रादि आठ व्याकरण हैं तब केवल पाणिनीय व्याकरण पर ही आग्रह नहीं करना चाहिए / यद्यपि प्राकृतकल्पलतिका, प्राकृतप्रकाश, हेमचन्द्र, प्राकृत षड्भाषाचन्द्रिका, प्राकृतमञ्जरी आदि कई प्राकृत के व्याकरण हैं परन्तु जैसा सिद्धहेम का अष्टमाध्याय उत्तम प्राकृत व्याकरण बना है वैसा प्रायः सकलविषयसंग्राहक दूसरा प्राकृत का व्याकरण नहीं है। तथापि उसके गद्यमय होने से लोगों को कठस्थ करने में कठिनता पड़ती देखकर इस कोश के कर्ता हमारे गुरुवर्य पूर्वोक्त सूरीजी महाराज ने अनुग्रह करके सिद्धहेम सूत्रों पर श्लोकबद्ध विवरण रचकर सरल कर दिया, जो कि कोश के प्रथम भाग के परिशिष्टों में संकलित कर दिया गया है। क्योंकि जिस भाषा का ज्ञान अपेक्षित होता है उसके व्याकरण की बड़ी आवश्यकता होती है, अर्थात् बिना व्याकरण के किसी भाषा का पूरा पूरा ज्ञान नहीं हो सकता। इसलिए पहले उसको एक बार खूब मनन करके पश्चात् कोश को देखने से विशेष आनन्द आवेगा। 6- यद्यपि महानिशीथ सूत्र में टीका या चूर्णि नहीं पायी जाती, तथापि हमारी पुस्तक में चतुर्थाध्ययन की समाप्ति में लिखा है कि"अत्र चतुर्थाध्ययने बहवः सैद्धान्तिकाः,केचिदालापकान्न सम्यक् श्रद्दधत्येवं तैरश्रद्दधानरस्माकमपि न सम्यक् श्रद्दधानमित्याह हरिभद्रसूरिः, न पुनः सर्वमेवेदं चतुर्थाध्ययनमन्यानि वाऽध्ययनानि / अस्यैव कतिपयैः परिमितैरा-लापकै रश्रद्दधानमित्यर्थः / यतः स्थानसमवायजीवाभिगमप्रज्ञापनादिषु न कथञ्चिदिदमाचक्षे, यथा प्रतिसंतापस्थलमस्ति-तद्गुहावासिनस्तु मनुजास्तेषु च परमाधार्मिकाणां पुनः पुनः सप्ताष्टवारान यावदुपपत्तेस्तेषां च तैर्दारुणैर्वजशिलाघरट्टसंपुटैर्गि-लितानां परिपीड्यमानानामपि संवत्सरं यावत् प्राणव्यापत्तिर्न भवतीति / वृद्धवादस्तु पुनर्यथा-तावदिदमार्षसूत्रं, विकृतिर्न तावदत्र प्रविष्टा,प्रभूताश्चात्र श्रुतस्कन्धे अर्थाः, शुद्धातिशयेन सातिशयानि गणधरोक्तानि चेह वचनानि, तदेवं स्थिते न किञ्चिदाशङ्कनीयम् // " इसके बाद फिर 'एवं कुशीलसंसग्गिं सव्वोपाएहिं पयहियं' इत्यादि Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62 पञ्चमाध्ययन का प्रारम्भ है / इसी तरह कहीं कहीं चूर्णि भी मिलती है जैसे इसी कोश के प्र०भा० 'अरहंत' शब्द पर 756 पृष्ठ में मूल और चूर्णि दोनों हैं। और 'एस समासत्थो 'वित्थरत्थं तु इमं ऐसा हमारे पुस्तक के 6 पत्र 2 पृष्ठ 26 पडित में लिखा है 7- सूत्रकृताङ्ग की गाथाएँ कई अध्ययनों में ऐसी टूटीसी मालूम पड़ती हैं जैसे छन्दोभङ्गवा ली हों, किन्तु प्रायः वे भी छन्दोलक्षणविहीन नहीं हैं, क्योंकि बहुत से ऐसे भी छन्द हैं जो पढ़ने में असङ्गत से मालूम होते हैं किन्तु लक्षण से पूर्ण सङ्गत हैं। क्योंकि प्राकृत पिङ्गलसूत्र में चन्द्रलेखा-चित्र-नाराच-नील-चञ्चला-ऋषभगजविलसित-चकिता-मदनललिता-वाणिनी-प्रवरललित-गरुडरुतअचलधृति छन्द भी विलक्षण हैं। जैसे मदन ललिता का यह उदाहरण है "विभ्रष्टसम्मलितचिकुरा धौताधरपुटा, म्लायत्पत्त्रावलिकुचतटोच्छवासोर्मितरला / राघाऽत्यर्थ मदनललिताऽऽन्दोलालसवपुः, कंसाराते रतिरसमहो चक्रेऽतिचटुलम्" // 1 // और यदि कहीं पर किसी भी छन्द का लक्षण सङ्गत न हो तो वहाँ आर्ष छन्द समझना चाहिए। पैंतालीस आगमों के नाम, और उनकी मूलश्लोकसंख्या, और हर एक पर पृथक् पृथक् आचार्यों की निर्मित बृहद्वृत्ति, लघुवृत्ति, नियुक्ति और भाष्यादिक, और उनका श्लोकसंख्याप्रमाण इस रीति से है श्रीसुधर्मास्वामीकृत ग्याहर अङ्गो के नाम और व्याख्यातसहित ग्रन्थप्रमाण१-आचाराङ्ग सूत्र, अध्ययन 25, मूलश्लोकसंख्या 2500, और उसपर शीलाङ्गाचार्यकृत टीका 12000, चूर्णि 8300, तथा भद्रबाहुस्वामिकृत नियुक्तिगाथा 368, श्लोक 450, (भाष्य और लघुवृत्ति इस पर नहीं है)। संपूर्णसंख्या 23250 है। 2- सूत्रकृताङ्ग सूत्र, श्रुतस्कन्ध 2, अध्ययन 23, मूलश्लोकसंख्या 2100, और उसपर शीलाङ्गाचार्यकृत टीका 12850, चूर्णि 10000, तथा भद्रबाहुस्वामिकृत नियुक्तिगाथा 208, श्लोक 250, (भाष्य नहीं है) संपूर्ण संख्या 25200 है। संवत् 1583 सें नवीन श्रीहेमविमलसूरि ने दीपिका टीका बनाई है, किन्तु वह पूर्वाचार्यों की गिनती में नहीं है। 3- स्थानाङ्ग सूत्र, अध्ययन (ठाणा) 10, मूलश्लोकसंख्या 3770, और उसपर संवत् 1120 में अभयदेवसूरि ने टीका बनाई है, उसका मान 15250 है, संपूर्ण संख्या 16020 है। ४-समवायाङ्ग सूत्र, (100 समवाय तक समवाय मिलते हैं) मूलश्लोकसंख्या 1667, और उसपर अभयदेवसूरिकृत टीका 3776, चूर्णि पूर्वाचार्य कृत 400, संपूर्ण संख्या 5843 है। 5- भगवती सूत्र (विवाहपन्नत्ति), शतक 41, मूलश्लोकसंख्या 15752, और उसपर श्रीअभयदेवसूरिकृत टीका (द्रोणाचार्य से शोधी हुई) 18616, चूर्णि पूर्वाचार्यकृत 4000, संपूर्ण संख्या 38368 है। संवत् 1568 में दानशेखर उपाध्याय ने 12000 श्लोक संख्या की लघुवृत्ति बनाई है। 6- ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्र, अध्ययन 16, मूलश्लोकसंख्या 5500, और उसपर अभयदेवसूरिकृत टीका 4252 है। इस समय में 16 कथाएँ दिखाई देती हैं, किन्तु पूर्व समय में साढ़े तीन करोड़ कथाएँ थी ऐसी प्रसिद्धि है। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 63 ७-उपासकदशाङ्ग सूत्र, अध्यन 10, मूल श्लोकसंख्या 812, और इसपर अभयदेवसूरिकृत टीका 600, संपूर्ण संख्या 1712 है। ५-अन्तगडदशाङ्ग सूत्र, अध्ययन 60, मूलश्लोकसंख्या 100, और उसपर अभयदेवसूरिकृत टीका 300, संपूर्णसंख्या 1200 है। 6- अणुत्तरोववाइयदशाङ्ग सूत्र, अध्ययन 33, मूलश्लोकसंख्या 262, और उसपर अभयदेवसूरिकृत टीका 100, संपूर्ण संख्या 362 है। 10- प्रश्नव्याकरण सूत्र, 5 आश्रवद्वार और 5 सम्बरद्वाररूप 10 अध्ययन, मूलश्लोकसंख्या 1250, और उसपर अभयदेवसूरिकृत टीका 4600, संपूर्ण संख्या 5850 है। 91- विपाक सूत्र, अध्ययन 20, मूलश्लोकसंख्या 1216, और उसपर अभयदेवसूरिकृत टीका ५००,संपूर्ण संख्या 2116 है। संपूर्ण ग्यारह अङ्गों की मूलश्लोकसंख्या 35656 है, और टीका 73544 है, और चूर्णि 22700 है, तथा नियुक्ति 700 है, और सब मिलकर 132603 है। आचाराङ्ग और सूत्रकृताङ्ग की टीका तो शीलाङ्गाचार्यकृत है और बाकी नवाङ्गी की टीका अभयदेवसूरिकृत है, इसीलिये अभयदेवसूरि का नवाङ्गीवृत्तिकार के नाम से उल्लेख किया जाता है ; अभयदेवसूरिजी का चरित्र प्र०भा०७०६ पृष्ठ में और 'सीलंगायरिय' शब्दपर शीलानाचार्य की कथा देखना चाहिए। बारह उपाङ्गों के नाम, टीका, और संख्या इस तरह है१- उववाई उपाङ्ग, (आचाराङ्ग प्रतिबद्ध) मूलश्लोकसंख्या 1200, और उसपर अभयदेवसूरिकृत टीका 3125, संपूर्ण संख्या 4325 है। 2- रायपसेणी उपाङ्ग, (सूत्रकृताङ्गप्रतिबद्ध) मूलश्लोकसंख्या 2078, और उसपर मलयगिरिकृत टीका 3700, संपूर्ण संख्या 5778 है। 3- जीवाभिगम उपाङ्ग, (स्थानाङ्गप्रतिबद्ध) मूलश्लोकसंख्या 4700, मलयगिरिकृत टीका 14000, लघुवृत्ति 1100, और चूर्णि 1500 है, संपूर्ण संख्या 21300 है। 4- पन्नवणा (प्रज्ञापना) उपाङ्ग, (समवायाङ्गप्रतिबद्ध) मूलश्लोकसंख्या 7787, मलयगिरिकृत टीका 16000, हरिभद्र-सूरिकृत लघृवृत्ति 3728 है, संपूर्ण संख्या 27515 है। ५-जम्बूद्वीपपन्नत्ति उपाङ्ग, (भगवतीप्रतिबद्ध) मूलश्लोकसंख्या 4146, मलयगिरिकृत टीका 12000, चूर्णि 1860 है, संपूर्ण संख्या 18006 है। 6- चन्द्रप्रज्ञप्ति सूत्र, (ज्ञाताप्रतिबद्ध) मूलश्लोकसंख्या 2200, मलयगिरिकृत टीका 1411, लघुवृत्ति 1000 है, संपूर्ण संख्या 12611 है। 7- सूरपन्नत्ति सूत्र उपाङ्ग, (ज्ञाताप्रतिबद्ध) मूलसंख्या 2200, मलयगिरिकृत टीका 6000, चूर्णि 1000, संपूर्ण संख्या 12200 है। चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति दोनों मिलकर ज्ञातप्रतिबद्ध हैं। 5- कल्पिका उपाङ्ग (उपासकदशाङ्गप्रतिबद्ध) काल, सुकाल, महाकाल, कृष्ण, सुकृष्ण, महाकृष्ण, वीरकृष्ण, रामकृष्ण, पितृसेनकृष्ण, सहासेनकृष्ण के नाम से 10 अध्ययन हैं / Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६-कल्पावतंसिका उपाङ्ग, [अन्तगडदशाङ्गप्रतिबद्ध ] पद्म, महापद्म, भद्र, सुभद्र, पद्मभद्र, पद्मसेन, पद्मगुल्म, नलिनी-गुल्म, आनन्द, नन्दन के नाम से 10 अध्ययन हैं। 10- पुष्पिका उपाङ्ग, अणुत्तरोववाईप्रतिबद्ध चन्द्र, सूर, शुक्र, बहुपुत्रिका, पुण्यभद्र, माणिभद्र, दत्त, शिव, वलि, अनादृत नाम से दश 10 अध्ययन हैं। 11- पुष्पचूलिका उपाङ्ग, [प्रश्नव्याकरणप्रतिबद्ध ] श्री, ही, धृति, कीर्ति, बुद्धि, लक्ष्मी, इलादेवी, सुरादेवी, रसदेवी, गन्धदेवी नाम से दश 10 अध्ययन हैं। 12- वह्रिदिशा उपाङ्ग, [विपाकसूत्रप्रतिबद्ध निसङ्क, अत्रि,दह, वह, पगती, जुति, दसरह, दढरह, महाधनु, सत्तधनु, दसधनु, नामेसय के नाम से 12 अध्ययन हैं इन पाँचो उपाङ्गों का एक नाम 'निरयावली' है, और कल्पिका आदि पाँचो उपाङ्गो के 52 अध्ययन हैं / इनकी संपूर्ण मूलग्रन्थसंख्या 1106 है, इनकी वृत्ति 700 श्री चन्द्रसूरिकृत है। संपूर्ण ग्रन्थसंख्या 1806 है // इस तरह बारह उपाङ्गों की मूलसंख्या 25420 है और टीका की संख्या 67636, और लघुवृत्ति 6828, चूर्णि 3360, संपूर्णसंख्या 103544 है। दश पइन्नाओं (प्रकीर्णक) की गाथा संख्या इस तरह है१- चउसरण पइन्ना में 63 गाथा हैं ! 2 आउरपञ्चक्खाण पइन्ना में 84 गाथा हैं। 3 भत्तपञ्चक्खाण पइन्ना में 172 गाथा हैं। 4 संथारग पइन्ना में 122 गाथा हैं। 5 तंदुलवेयाली पइन्ना में 400 गाथा हैं। 6 चन्दविजगपइन्ना में 310 गाथा हैं। 7 देविन्दत्थव पइन्ना में 200 गाथा हैं / 8 गणिविज्जा पइन्ना में 100 गाथा हैं। 6 महापञ्चक्खाण पइन्ना में 134 गाथा हैं (कई लिखी प्रतियों में महापचक्खाण पइन्ना के स्थान में 43 गाथावाला वीरस्तव पइन्ना लिखा है, किन्तु उपर कहे हुए दश पइनाओं से पृथक् भी है परन्तु उनकी यहाँ आवश्यकता न होने से केवल नामनिर्देश ही किया है।) 10 समाधिमरण पइन्ना में 720 गाथा हैं। इन दश पइन्नाओं की संपूर्ण गाथासंख्या 2305 है और प्रत्येक में दश दश अध्ययन हैं, और ये दश पइन्ना भी पैंतालीस आगम की गिनती में हैं। 1 वीरस्तव पइन्ना गाथा 43 है। 2 ऋषिभाषित सूत्र संख्या 750 / 3 सिद्धिप्राभृतसूत्र संख्या 150, और इसकी टीका 750 है। 4 दीवसागरपन्नत्ति संग्रहणी संख्या 250, और इसकी टीका 2500 है। 5 अङ्गविजापइन्ना संख्या 8800 (कहीं 2 पाई जाती) है। 6 ज्योतिष्करण्डक पइन्ना संख्या 500, इसकी टीका मलयगिरिकृत 5400 है, और 21 पाहुडा (प्राभृतक हैं। 7 गच्छाचारपइन्ना, टीका विजयविमलगणिविरचित, मूलटीका संख्या 5850 है, और 4 अधिकार हैं। 8 अङ्गचूलिया ग्रन्थसंख्या 800, इसमें लिखा हुआ है कि "आर्यसुधर्मा स्वामी से उन के शिष्य जम्बूस्वामी ने पूछा कि-ग्यारह अङ्गों की अनचूलिका किस लिए हैं?"इस पर सुधर्मा स्वामी ने उत्तर दिया कि-"जिस तरह आभूषणों से अङ्ग शोभित होते हैं उसी तरह Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अङ्गचूलिका से एकादशाङ्गी शोभित होती है, इसलिए निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को ये जानने के लायक हैं और गुरुपरंपरागम से ग्रहण करने के योग्य है"। फिर जम्बूस्वामी ने पूछा कि-'"गुरुपरंपरागम कैसा?" उत्तर में सुधर्मा स्वामी ने कहा कि-"आगम तीन प्रकार के हैं-१ अन्तागम, 2 अनन्तरागम, और 3 परंपरागम / अर्थ से तो अर्हन् भगवान् का अन्तागम है, और सूत्र के गणधरों का अन्तागम है / तदनन्तर गणधरशिष्यों का अनन्तरागम है, उसके बाद सभी का परंपरागम है " / और अङ्गचूलिका के अन्त में उपाङ्गचूलिका की चर्चा है कि सुधर्मास्वमी जम्बूस्वामी से कहते हैं कि- "सेसं उवंगचूलिया तो गहेयव्वं" अर्थात् अवशिष्ट भाग उपाङ्गचूलिका से लेना चाहिए। छः छेदग्रन्थों के नाम और उनकी ग्रन्थसंख्या १-निशीथ सूत्र, उद्देश 20, मूलश्लोकसंख्या 815, और इस पर लघुभाष्य 7400, और जिनदासगणिमहत्तरविरचित चूर्णि 28000, बृहद्भाष्य 12000 है, यह टीका के नाम से ही प्रसिद्ध है। भद्रबाहुस्वामी की बनाई हुई नियुक्ति गाथाएँ हैं। संपूर्ण ग्रन्थसंख्या 48215 है। शीलभद्रसूरि के शिष्य चन्द्रसूरि ने वि०सं० 1174 में व्याख्या की है। जिनदासगणिमहत्तर ने अनुयोगद्वारचूर्णि, निशीथचूर्णि, बृहत्कल्पभाष्य, आवश्यकचूर्णि इत्यादि अनेक ग्रन्थ बनाए हैं। 2- महानिशीथ सूत्र, अध्ययन 7, चूलिका 2, मूलश्लोसंख्या 4500, मतान्तर में इसकी तीन वाचनाएँ हैं-१ लघुवा–चना; ४२००:२--मध्यवाचना 4500 ३-बृहद्वाचना 11800 है। किन्तु हमारी पुस्तक के अन्त में लिखा है कि "चत्तारि सयसहस्सा, पंचसयाओ तहेव पंचासं / चत्तारि सिलोगा वी, महानिसीहम्मि पाएणं" ||1||4554|| 3- बृहत्कल्पसूत्र, उद्देश 6, मूलसंख्या 473 है / इसपर सं० 1332 में बृहच्छालीय श्रीक्षेमकीर्तिसूरि ने 42000 संख्या परिमित टीका बनायी हैं। भाष्य जिनदासगणिमहत्तरकृत 12000, लघुभाष्य 800, चूर्णि 14325, संपूर्णग्रन्थ-संख्या 76768 हुई / टीका में लिखा हुआ है कि-कः सूत्रमकार्षीत्, को वा नियुक्तिं, को वा भाष्यमिति? उच्यते--पूर्वेषु यन्नवमं प्रत्याख्याननामकं पूर्वं तस्य यत्तृतीयमाचाराख्यं वस्तु तस्मिन् विंशतिनामप्राभृते मूलगुणेषूत्तरगुणेषु वाऽपराधेषु दशवि-धमालोचनादिकं प्रायश्चित्तमुपवर्णितं, कालक्रमेण च दुषमानुभावतो धृतिबलवीर्यबुद्ध्यायुःप्रभृतिषु परिहीयमानेषु पूर्वाणि दुरवगाहानि जातानि ततो मा भूत प्रायश्चित्तव्यवच्छेद इति साधूनामनुग्रहाय चतुर्दशपूर्वधरेण भगवता भद्रबाहुस्वामिना कल्पसूत्रं, व्यवहारसूत्रं चाकारि; उभयोरपि च सूत्रस्पर्शिकनियुक्ति] 4- व्यवहारदशाकल्पच्छेद सूत्र, उद्देश 10, दो खण्ड, मूलश्लोकसंख्या 600, टीका मलयगिरिकृत 33625, चूर्णि 10361, भाष्य 6000 है। नियुक्ति की संख्या अज्ञात है। संपूर्ण ग्रन्थ संख्या 50586 है। 5- पञ्चकल्पच्छेद सूत्र, अध्ययन 16, मूलसंख्या 1133, चूर्णि 2130, और दूसरी टीका की संख्या 3300, भाष्य 3125, संपूर्ण संख्या 6388, और गाथासंख्या 200 है। 6. दशाश्रुतस्कन्धछेदसूत्र, मूलसंख्या 1835, अध्ययन 10, चूर्णि 2245, नियुक्तिसंख्या 168, संपूर्णसंख्या 4248 है। टीका श्रीब्रह्मविरचित है, इसका आठवाँ अध्ययन कल्पसूत्र 1216 है जिसकी टीका कल्पसुबोधिका है (अर्थतो भगवता वर्द्धमानस्वामिना असमाधिस्थानपरिज्ञानपरमार्थ उक्तः, सूत्रतो द्वादशस्वङ्गेषु गणधरैः, ततोऽपि च मन्दमेधसामनु-ग्रहाय अतिशायिभिः प्रत्याख्यानपूर्वादुद्धृत्य पृथक् दशाध्ययनत्वेन व्यवस्थापितः / दशाध्ययनप्रतिपादको ग्रन्थो दशा, स चासौ श्रुतस्कन्धः / दशाकल्प इति पर्यायनाम / अयं च ग्रन्थोऽसमाधिस्थानादिपदार्थशासनाच्छास्त्रम् / अस्याष्टमाध्ययनं कल्पसूत्रमुच्यते, टीका चास्य कल्प-सुबोधिकेति।) Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 7- जीतकल्पच्छेदसूत्र, मूलसंख्या 105, टीका 12000, सेनकृत चूर्णि 1000, भाष्य ३१२४,संपूर्ण संख्या 16232 है, और चूर्णि की व्याख्या 1120 है, और इसकी लघृवृत्ति श्रीसाधुरत्नकृत 5700, और तिलकाचार्यकृत वृत्ति १५००है। साधुजितकल्पविस्तार 375, धर्मघोषसूरिकृत वृत्ति 2650 है, और उसपर पृथ्वीचन्द्रकृत टिप्पण 670, और नियुक्ति-गाथा 168 भद्रबाहुस्वामीकृत है, इसकी चूर्णि और टीकाएँ बहुत है, परंतु प्रायः करे वि०सं० 1200 के पीछे की बनी हुई हैं। __ चार मूलसूत्रों की संख्या इस तरह है१- आवश्यक सूत्र, मूलगाथा 125, टीका हरिभद्रसूरिकृत 22000, नियुक्ति भद्रबाहुस्वामिकृत 3100, चूर्णि 18000 है। दूसरी आवश्यक वृत्ति [चतुर्विंशति] 22000 है, उसकी लघृवृत्ति तिलकाचार्य कृत 12321 है, और अञ्चलगच्छा-चार्यकृत दीपिका 12000 है, इसका भाष्य 4000 है, आवश्यकटिप्पण मलधारि हेमचन्द्रसूरिकृत 4600 है। संपूर्णसंख्या 68146 है, नियुक्ति की टीका हरिभद्रसूरिकृत 22500 है। 1- विशेषावश्यकसूत्र, आवश्यकसूत्र मूल (सामायिकाध्ययन) का विशेष परिकर है] मूलसंख्या 5000 है। श्रीजिन-भद्रगणिक्षमाश्रमण कृत है, और इसकी बृहद्वृत्ति 18000 मलधारिहेमचन्द्रसूरिकृत है, लधुवृत्ति 14000 कोटाचार्यकृत, या द्रोणाचार्यकृत है, बृहद्वृत्ति की टीका तर्कानुविद्या जैनस्थापनाचार्य कृत है। १-पाखी(पाक्षिक) सूत्र, मूल ३६०,सं०११८० में यशोदेवसूरिकृत टीका 2700, चूर्णि 400 है। १-यतिप्रतिक्रमणसूत्रवृत्ति 600 है। 2- दशवैकालिक सूत्र, सय्यंभवसूरिकृत, मूल 700, वृत्ति तिलकाचार्यकृत 7000, दूसरी वृत्ति हरिभद्रसूरिकृत 6810, और मलयगिरिकृत वृत्ति 7700, चूर्णि 7500, लघुवृत्ति 3700 है। नियुक्तिगाथा 450 है। आधुनिक सोमसुन्दरसूरिकृत लघुटीका 4200, तथा समयसुंदरउपाध्यायकृत लघुटीका 2600 है। 2- पिण्डनियुक्ति, भद्रबाहुस्वामिकृत, मूलसंख्या 700, इसपर टीका मलयगिरिकृत ७०००,दूसरी प्रति में 6600 है, वि०सं०११६० में वीरगणिकृत टीका 7500 है और महासूरिकृत लघुवृत्ति 4000 है, संपूर्णसंख्या 16200 है। 3- ओघनियुक्ति, भद्रबाहुस्वामिकृत, मूलगाथा 1170 हैं, द्रोणाचार्यकृत टीका 7000, और इसका भाष्य 3000 है, चूर्णि 7000 है, संपूर्णसंख्या 18450 है। 4- उत्तराध्ययनसूत्र, अध्ययन 36 हैं, मूलसंख्या 2000 है, वादिवेताल शान्तिसूरिकृत बृहद्वृत्ति पाईटीका] 18000 है, दूसरी प्रति में 17645 लक्ष्मीवल्लभी टीका है, सं०११२६ में नेमिचन्द्रसूरि से कृत लघुवृत्ति 13600 है, भद्रबाहुस्वामिकृत गाथानियुक्ति 607 है, और चूर्णि 6000 है, संपूर्णसंख्या 40300 / अब दो चूलिकासूत्र की संख्या और नाम 1- नन्दीसूत्र, देवर्द्धिगणिक्षमाश्रमणकृत, मूलसंख्या 700 है, इसपर मलयगिरिकृत वृत्ति 7735, चूर्णि सं०७३३ में बनी हुई 2000 है, हरिभद्रसूरिकृत लघुटीका 2312 है, संपूर्णसंख्या 12757 है। चन्द्रसूरिकृत टिप्पण 3000 है। 2- अनुयोगद्वारसूत्र, गाथा 1600 हैं, उसपर मलधारिहेमचन्द्रसूरिकृत वृत्ति 6000 है। जिनदासगणिमहत्तर कृत चूर्णि 3000, और हरिभद्रसूरिकृत लघुवृत्ति 3500 है, इसतरह संपूर्णसंख्या 14300 है। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 67 इस तरह ग्यारह अङ्ग, बारह उपाङ्ग, दस पइन्ना, छः छेदसूत्र, चारमूलसूत्र, और दो चूलिकासूत्र मिलकर इस समय पैंतालीस आगमों की संख्या ली जाती है इत्यलं विस्तरेण / --0-- विशेष विज्ञापनइस पुस्तक के संशोधन में हमारे सतीर्थ्य मुनि श्री दीपविजयजी और मुनि श्री यतीन्द्रविजयजी ने पूर्ण परिश्रम किया है किन्तु लेखकों की लिखी हुई पुस्तकों के अत्यन्त जीर्ण होने से और प्रायः एकही एक प्रति के मिलने से भी कहीं कहीं त्रुटित गाथाएँ टीका का अवलम्बन लेकर प्रकरण और विषय के अविरोध से पूरी की गयी हैं उनमें यदि कहीं पर पाठ भेद हो गया हो तो सज्जनों को उसे ठीककर लेना चाहिए। निवेदक उपाध्याय मुनि श्री 108 मोहन विजयजी Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपोद्घातः (68) अर्हम्। तादृक्षमवसरमासाद्य दयापात्राणामनन्य-गतिकानां छागतिकानां कः खलु सचेतनो जन्मी नाऽस्मात् संसृतिसंसरणक्लेशादा- विशसनमे बोध्वं गतिप्रापणमित्यादि ग्रन्थेऽस्मिन्नेव प्रथमभागे त्मानमपवर्तयितुं कामयते? तथा चास्मिन् भवे बम्भ्रम्यमाणस्य कस्य "अद्दगकुमार" "अहिंसा' शब्दयोरु-परि विशेषविस्तरःप्रेक्षणीयो वा प्रेक्षावतो दुःखमनागतमजिहासितं भवति? किन्तु हानोपाय- जिज्ञासूनामिति / अत एवाभियुक्ता-नामाभाणकः - परिज्ञानमन्तरा कथं कृतो कोऽपि समापद्यते? ततो विश्वस्याऽपि "पक्षपातो नमे वीरे, न द्वेषः कपिलादिषु। विश्ववर्त्तिनचेतस्तदुपायजिज्ञासायां साऽभिलाषम्यदेतदपारसंसार- युक्तिमद्वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः / / 1 / / पारावारान्तनिरन्तरनिमग्नकलेवरधारिणामनवरतोत्कटजन्मजराम- रागद्वेषविनिर्मुक्ता-हत्कृतं च कृपापरम्। रणाऽऽदियेदनाऽभिभूतानां कोऽभ्युपायो मौलो हयेमिदंसमूलमुन्मूल प्रधानं सर्वधर्माणां, जैनं जयति शासनम्" // 2 // इत्यादि। यति? यद्यपि खरतरधिषणादीप्तिम--लिनो विचारशालिनो नरा दयाऽऽचारक्रियावस्तुभेदैर्धर्मोऽयमार्हतश्चतुर्धा प्रविभक्तः / निदावाढमुत्तरयितुं प्रागल्भ्यमालम्बिष्यन्तेयद् धर्ममन्तरेण कोऽप्युपायो न नमस्या देवनिर्मितसमयसरणसमवसृतस्य देवाधिदेवस्यभगवतोप्रेक्षापथमारोहति तस्मात् पराड्-मुखीकर्तुम् / परं तु क्षीरनीरयोरिव ऽखिलज्ञस्य श्रीतीर्थकरस्योपदेशादाविर्भूतं शासनमेव / यद्धि धर्माधर्मयोर्धिया के वलिहंस-मपास्य मिश्रणमितथोरन्यतरं श्रीमद्भिर्गोतमादिभिर्गणधरैः समनन्तरं कियत्यप्यनेहसि समतीते विवेक्तुमसाधारणजनाऽतिरिक्तस्याऽसुकरं वर्वर्ति, यतोऽस्मिन् समये द्वादशाङ्गीरूपेणैकादशाङ्गीरूपेण वासंदर्भितं सत्सूत्रनाम्नाव्यव-हियते, परःशतानि मतानि धर्मबुवाणि तत इतः प्रचरन्ति, यानि तथा चैतत् प्रत्येकतीर्थकरशासनसमयेऽस्तित्वदशामा-सादयति / संख्यातुमप्यशक्यानि संख्यावतां महामनीषिणामपि, कि पुनःपार्थक्येन यद्यपि काले पूर्वस्मिन् चतुर्दशपूर्वधर-दशपूर्वधर-श्रुतकेवलिप्रभृतयो धर्मोऽयमयं धर्माभास इति प्रदर्शयितुम् / यद्यपिमहानुभावानामस्मद् महानुभावामहात्मानो ये केचनाऽऽसन् तेषा-मतिशयवैभववशाद् महामान्यानां धन्य-तमानामादेशानुसारेणेयदवश्यमाभाषितुं शक्यते-- यदस्मिन् दुःषमागपरपर्याये पञ्चमे काले धर्माभासानामेव विशेषतः मूलादेवार्थज्ञानं सुकरमतः स्पष्टीकरणप्रवणटीकादिपुस्तकादीप्रायशः प्रचारो भवितुमर्हतिधर्मस्य चाऽवनतिदशा भवितुं युज्यत इति। नामावश्यकतैवनासीत्, परन्तु तादृशज्ञानविकलानांजीवानामर्याचाम वधारणधुरां वोढुमसमर्थानां विस्मृतपदार्थसार्थस्मृतिमलभमानानां पुनरप्यत्र पर्यनुयोगेनस्मृतिसरणावधिरुह्यतेयत्तेषामन्यतमस्तादृशः को दुर्बोधस्य गहनातिगहनविषयस्य स्याद्वादिकदर्शनस्य विशदीकरणाय नु धर्माभिधेयधुरामधिरोहति? तत्रेत्थं प्रातवाक्यमुपढौकयन्त्या भगवद्भिः श्रीभद्रबाहुस्वा-मिप्रमुखैर्यद्यपि नियुक्तिभाष्य चूर्णिहताभियुक्ताः यद्धर्मप्रवर्तकपुरुषा रागद्वेषकलङ्क-पङ्काङ्किताङ्गविकला टीकाऽऽदीनां रचना कृता , तथापि साम्प्रतं जैनग्रन्थस्य भूयान् विस्तरः भवेयुर्धर्मश्व कुञ्जरादिपिपीलिकापर्यन्तस्य कस्यापि प्राणिनः परमप्रेयःप्राणपरिवर्तनोपदेष्टा न स्यात्, प्रत्युत शाश्वतमशाश्वतं च समजनि, यदधुनास्वल्पीयसाऽऽयुषा न कोऽपि क्षमो मनुष्यः सांसारिक कृत्यं समा-चरन् गृहस्थविरक्तान्यतरोऽमुष्माज्जैनशासनसागरात् श्वःश्रेयसमेव प्रापयितुं प्रभवेत, स एव धर्मपदोषादेयपदवीमलइर्तुमलम् / परमार्थतो यदीदृक्षः परमार्थः परामृश्येत् तदा तत्र भवतां पारमुत्त-रीतुम् / हेतुरयमत्र विभाव्यते यत् प्रथमतः सर्वेषां ग्रन्थानां तीर्थकराणामथवा भगवतो वर्द्धमानस्येवाऽऽसन्नोपकारित्वेनानेकान्त समुप-लब्धिरेव नसर्वत्र समुपजायते, ये चाल्पीयांसः क्वचित् क्वचिदपि समुपलभ्यन्ते, के विषयाः कुत्र तत्र विन्यस्ताइतिसर्वसाधारणस्य तत्त्वतो जयपताका प्रादुर्भूयात् / यतस्त एव विमलके वलालोके न कालत्रयवर्तिसामान्यविशेषात्मक निखि-लपदार्थसार्थवेत्तारः, ज्ञानमसुकरम् / यदि कस्यापि कस्मिन्नपि ग्रन्थे जायेतापि विषयाणां शक्राणामपि जन्मस्नात्राद्यष्टमहायातिहार्या-दिसंपादनेनार्चनाहः, यथाकथञ्चिदुपलब्धिस्तथापि चेमेऽभिधेया अन्यत्रान्यत्र ग्रन्थे च कुत्र कुत्र भविष्यन्तीति परामर्शवदाध्यविधुरधुरामधिरुह्या-ल्लब्धवर्णोऽपि / अवितथवस्तुतत्त्वप्रवक्तारः, शान्तरससरसस्वान्तत्वेनरागद्वेषविजयकर्तारः; राद्वान्तश्च तेषामहिंसा परमतो धर्म इति / कारणान्तरमप्येतत्-यदिदं जैनदर्शनं यस्याम् (अर्द्धमागध्याम्) यद्यपि पृथग्भूतेष्वितो धर्माभासेष्वपि किपाकपाकोपलिप्तपाय सदेश्या भाषायामभिनिबद्धम्, एषा सैव, यया प्राक्तनसमये भारतभूम्यां हिंसागर्भिता अहिंसा भगवती यत्र तत्र विलोक्यतेतस्या जिघृक्षा मातृभाषात्वेन, राष्ट्रभाषात्वेन च स्थान प्रापि / यस्याश्च तीर्थकरमधुदिग्धधाराकरालकरवालाग्र लोलरसनानामि, व जनानां न गणधरप्रभृतिभिर्महानादरः कृतोऽमुष्या एव भाषयाः प्रचारः प्रचसुखाकरोतीति एकत्रामत्रे संपृक्तविषमधुकल्पेव न युक्ता / यतस्तेषु लितसमये कियानापि क्वापि नोपलभ्यते / यदपि दशरूपकादिषु यत्र जन्मादिदुःखमुमुक्षूणां प्राधान्येन कारणता तस्या नोप-लभ्यते, अपि तत्र पात्रप्रभेदप्रयुक्ता कतिपय प्रभेदभिन्ना प्राकृतभाषा दृष्टितुयद्यंशतस्तत्र दयाऽभिनिविष्टा, हिंसाऽपि तद्दन्यां--शतोजागर्ति, यथा पथमधिरोहति, तदपि तन्निम्ननिहितच्छायात एव कार्य निर्वहन्ति संसारमोचकानामिदमैदं पर्यमन्यदि नरपशु-शकुनिष्वन्यतमः कोऽपि यथाकथञ्चित् सर्वेऽपि पाठकाः। भवेऽस्मिन् संसारवेदनामनुभवति, तर्हि तस्येतोदेहतः पृथक्करणमेव यदि के नापि प्राकृतप्रकाशादिव्याकरणदर्शनेन समभ्यस्ताऽपि दयापरवशाना कर्त्तव्यमिति / सप्त-तन्तु प्रवणानां यज्वनां तु | शुद्धा प्राकृतभाषा न तावत्या जनागममूलसूत्राणा नियुक्तिगाथा Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (69) उपोद्घातः - चूर्णिप्रभृतीनां तात्पर्यमवधारयितुं शक्यम्, यतस्तीर्थकरगणध- | रादिमिरर्द्धमागध्यामेवैषां प्रस्तावः प्रस्तुतः, या च सामान्यप्रा--- कृतभाषायो नेदीयसी किञ्चिद् विलक्षणतरा। गतवति समये तु गुरुशुश्रूषापरायणाः श्रममविगणय्यान्तेवासि-जनाः स्वस्वाचार्यमुखाम्भोजसकाशात् समुपलब्धमधुबिन्दुनिकरसदृक्षसूत्रानुपूर्वीतदर्थान् संचिन्तानाः कण्ठस्थं कुर्वन्त एव कृतकार्या बभूवुः, किन्त्वद्यश्वीनायास्तादृश्याः परिपाट्याः प्रायशो वैकल्याद् ज्ञानदर्शनचारित्राणां भूयान् हासः समजनि। संक्षिप्तविवरणं चास्याऽत्रैव प्रथमभागे "अहालंदिय" शब्दे तत्त्वबुभुत्सुमिर्जिज्ञासुभिर्द्रष्टव्यम्। निरीक्ष्य चैतादृशी दुर्दशामस्माकं गुरुवर्याणां श्रीसौधर्मबृहत्तपागच्छीयकलिकालसर्वज्ञकल्पभट्टारक 1008 श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरमहाराजानां चेतसि चिन्ताऽतिमहती समुपस्थिता-यत् प्रत्यहमार्हतधार्मिकदार्शनिकशास्त्राणां हानिरेवोपजायते, कारणादस्मादेवाज्ञा बहवः सुझं मन्यानाः कार्यमुत्सूत्रमपि कर्तुमा-रब्धवन्तः, तथा स्वधर्मग्रन्थेभ्यो विस्मृतिसरणिमाश्रिता इव / ततः किमस्यामवस्थायां करणीयमस्माभिः? यतः संसारेऽस्मिन्नसारे तस्यैव मर्त्यस्य जनिः सार्थिका, येन यथाशक्यमात्मधर्मस्योन्नतिः कृता / अन्यथा"असंपादयतः कञ्चि-दर्थ जातिक्रियागुणैः। यदृच्छाशब्दवत् पुंसः संज्ञाथै जन्म केवलम्॥ अथवा-स लोहकारभस्त्रेव, श्वसन्नपिन जीवति / इति लौकिकोक्तिं सार्थकयति / एतादृक्षो विमर्शश्वेतसि प्रभूतकालमुवास, किन्तु कदाचिदेकस्यां क्षणदायां सहसा विचारः प्रादुर्बभूवकोऽप्ये कस्तादृशो ग्रन्थः प्रत्नेतरशल्या रचनीयो, यस्मिन् जैनागमसत्कमागधीभाषाशब्दानामकाराद्यनुक्रमतो विन्यासं विधाय गीर्वाणभाषायां तदनुवादलिङ्गव्युत्पत्तिवाच्यार्थान् निधाय समनन्तरं यथासंभवं तदुपरि मूलसूत्राणां पाठनिर्देशपुरःसरं समुपलब्धपुरातनटीकाचूयादि विवरणं दत्त्वा स्पष्टयितव्यः। यदि स एव विषयो ग्रन्थान्तरेष्वप्युपलभ्येत तर्हि तदनुपदमेव सोऽपि निर्देश्यः / प्रायशोऽस्माद् निजमनोऽनुकूलो लोकस्योपकारो भविष्यतीति / अथोषसि समुत्थाय सूरीन्द्रः स्वनित्यनैमित्तिकीः क्रियाः समाप्यास्य प्रकृतकार्यस्य भारमुवाह / समाहितमानसेन द्वाविंशतिवर्ष यावद् महान्तमपि श्रममविगणय्य तेन कार्यमेतद् विघ्नानपोह्य संपूर्णतां लम्भितम् / यद्- 'अभिधानराजेन्द्र' नामा कोशः प्राकृतभाषाप्रभेदभूतमागध्यां विरचय्य चतुर्षु भागेषु विभक्तः। अथैकदाऽनल्पकल्पाः श्रावकाः शिष्याश्च मुनयः श्रीमदुपाध्यायमोहनविजयदीपविजययतीन्द्रविजयप्रभृतयः साधवो विनेयाः साञ्जलिबन्धं प्रार्थनापुरःसरं व्यजिज्ञपन्-भगवन् ! यदयमपि ग्रन्थो ग्रन्थान्तरसमः पुस्तकभाण्डागारेष्वेव निहितः स्थास्यति तदा कियन्तो जना अनयस्यास्य प्रवररत्नस्येव कोषरत्नस्य लाभभाजो भविष्यन्ति? तस्मादनेकेषु देशदेशान्तरेषु यया रीत्या भूयान् प्रचारः स्यात्, तदुपायः करणीय इति गुरुचरणान्ते विज्ञ-प्तिपुरस्सरं निवेदयामः। तदुत्तरं प्रशान्तगम्भीरया गिरा श्रीसूरीश्वराः नातिस्तोकबहुलं प्रोचुः- | अहमात्मीयं करणीयं पूर्तिमनयमतः परं येनोपायेन निखिललोकोपकारः स्यात् स तु युष्माभिः कर्तुमर्हः, किन्तु वयमात्र-ऽर्थे ताटस्थ्यमुपगताः। ततःश्रीसझे नास्याभिधानस्य विशेषप्रचाराय शीशकाक्षरैः पुष्टचिक्कणपत्रेषु मुद्रापयितुमेव निश्चित्य प्रारभ्यते स्म / पुनरस्य शोधनादिभारः सूरीन्द्राणां विनीतशिष्याभ्यां मुनिश्री दीपविजयमुनिश्रीयतीन्द्रविजयाभ्यां जगृहे, यावस्मिन् कार्ये पूर्णाऽभिज्ञौ वर्तेते। अतः परं वक्तव्यान्तरं भाषा (हिन्दी) भूमिकातोऽवसेयम्।) स्याद्वादनिरूपणेन समवायसत्ताऽपोह-वेदाऽपौरुषेयत्वजगत्सकर्तृकत्व-शब्दाकाशगुणत्वाऽद्वैतवादादिखण्डनेन एकेन्द्रिया-णां भावेन्द्रियज्ञानस्थापनेन च जैनदर्शनस्यातिगाम्भीर्य व्यक्ती-भवतीति दिङ्मात्रमिहतद्दय॑ते अथवस्तुनः स्याद्वादात्मकत्वं सप्तभङ्गीप्ररूपणेन सुखोन्नेयं स्यादिति प्रथमं तस्या निरूपणम्एकत्र वस्तुन्येकैकधर्मपर्यनुयोगवशादविरोधेन व्यस्तयोः समस्तयोश्च विधिनिषेधयोः कल्पनया स्यात्काराङ्कितः सप्तधा वाक्प्रयोगः सप्तभङ्गी॥ एकत्र जीवादी वस्तुनि एकैकसत्त्वादिधर्मविषयप्रश्नवशादविरोधेन प्रत्यक्षादिवाधापरिहारेण पृथग्भूतयोः समुदितयोश्च विधि-निषेधयोः पर्यालोचनया कृत्वा स्याच्छब्दलाञ्छितो वक्ष्यमाणैः सप्तभिः प्रकारैर्वचनविन्यासः सप्तभङ्गी विज्ञेया। सप्तभङ्गाः पुनरिमेस्यादस्त्येव सर्वमिति विधिविकल्पनया प्रथमो भङ्गः 1 स्यान्नाऽस्त्येव सर्वमिति निषेधकल्पनया द्वितीयः 2 स्यादस्त्येव स्यानास्त्येवेति क्रमतो विधिनिषेधकल्पनया तृतीयः ३स्यादवक्तव्यमेवेति युगपद् विधिनिषेधकल्पनया चतुर्थः 4 स्यादस्त्येव स्यादवक्तव्यमेवेति विधिकल्पनया युगपद् विधिनिषेधकल्पनया च पञ्चमः 5 स्यान्नास्त्येव स्यादवक्तव्यमेवेति निषेधकल्पनया युगपद् विधिनिषेधकल्पनया च षष्ठः 6 स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येव स्यादवक्तव्यमेवेति क्रमतो विधिनिषेधकल्पनया युगपद् विधिनिषेधकल्पनया च सप्तमः 7 स्यादित्यव्ययमनेकान्तद्योतकम् / स्यात्-कथञ्चित्, स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावरूपेण अस्त्येव सर्व कुम्भादि, न पुनः परद्रव्यक्षेत्रकालभावरूपेण / तथाहि-कुम्भो द्रव्यतः पार्थिवत्वेनास्ति, न जलादिरूपत्वेन / क्षेत्रतः पाटलिपुत्रकत्येन, न कान्यकुब्जादित्येना कालतः शैशिरत्वेन, न वासन्तिकादित्येन / भावतः श्यामत्येन, न रक्तत्वादिना / अन्यथा इतररूपापत्त्या स्वरूपहानिः स्यादिति / अत्र भने एवकारस्तु अनभिमतार्थव्यावृन्यर्थमुपात्तम् / अस्त्येव कुम्भ इत्येतावन्मात्रोपादाने कुम्भस्य स्तम्भाधस्तित्वेनापि सर्वप्रकारेणास्तित्वप्राप्तेः प्रतिनियतस्वरूपानुपपत्तिः स्यात्, तत्प्रतिपत्तये स्यादिति प्रयुज्यते, स्यात् कोऽर्थः-कथश्चित, स्वद्रव्यादिभिरेवायमस्ति,नपरद्रव्यादिभिरपीत्यर्थः / (2) स्वद्रव्यादि-भिरिव परद्रव्यादिभिरपि वस्तुनोऽसत्त्वानिष्टौ हि प्रतिनियतस्वरू-पाभावाद् वस्तुप्रतिनियमविरोधः / न चास्तित्वैकान्तवादिभिरत्र नास्ति Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपोद्घातः (70) त्वमसिद्धमित्यभिधानीयम्, कथञ्चित् तस्य वस्तुनि युक्तिसिद्ध-त्यात् साधनवत्। न हि कृचिदनित्यत्वादौ साध्ये सत्त्वादिसाधन-स्थास्तित्वं विपक्षे नास्तित्वमन्तरेणोपपन्नम्, तस्य साधनाभास-त्वप्रसङ्गात्। अथ यदेव नियतं साध्यसद्भावेऽस्तित्वं तदेव साध्याभावे साधनस्य नास्तित्वमभिधीयते, तत्कथं प्रतिषेध्यम्? स्वरूपस्य प्रतिषेधत्यानुपपत्तेः, साध्यसद्धावेनास्तित्वं तु यत् तत् प्रतिषेध्यम्, तेनाविनाभावित्वे साध्यसद्भावास्तित्वस्य व्याघातात् तेनैव स्वरूपेणास्ति नास्ति चेति प्रतीत्यभावादिति चेत् / तदसत्। एवं हेतोस्विरूपत्वविरोधात् / विपक्षासत्त्वस्य तात्त्विकस्याभावात्। तात्त्विकस्याभावात् / यदि चायं भावाभावयोरेकत्वमाचक्षीत, तदा सर्वथा न क्वचित् प्रवर्तेत, नापि कुतश्चिन्निवर्तेत / प्रवृत्तिनिवृत्तिविषयस्य भावस्याभावपरिहरिणासंभवात्, अभावस्य च भावपरि-हारेणेति वस्तुनोऽस्तित्वनास्तित्ययोः रूपानन्तरत्वमेष्टव्यम्।तथा चास्तित्वं नास्तित्वेन प्रतिषेध्येनाविनाभावि सिद्धम् / यथा च प्रतिषेध्यमस्तित्वस्य नास्तित्वं तथा प्रधानभावतः क्रमार्पितोभय-त्वादिधर्मपञ्चकमपि वक्ष्यमाणं लक्षणीयम् / / (3) समिति द्वितीयलक्षणादिहोत्तरत्र चानुवर्तनीयम् / ततोऽयमथःक्रमार्पितस्वपरद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया क्रमार्पिताभ्यामस्तित्वनास्तित्वाभ्यां विशेषितं सर्वं कुम्भादि वस्तु स्यात् (कथञ्चित्) अस्त्येव, स्यात् (कथञ्चित्) नास्त्येवेत्युल्लेखेन वक्तव्यमिति !! (4) द्वाभ्यामस्तित्वनास्तित्वाख्यधर्माभ्यां युगपत् प्रधानतयाऽर्पिताभ्यामे कस्य वस्तुनोऽभिधित्सायां तादृशस्य शब्दस्यासम्भवादवक्तव्यं जीवादि वस्त्विति / तथाहि सदसत्त्वगुणद्वयं युगपदेकत्र सदित्यभिधानेन वक्तुमशक्यम्, तस्यासत्त्वप्रतिपादनासमर्थत्वात् / तथैवासदिति अभिधानेन नसद्वक्तुं शक्यम्, तस्य सत्यप्रत्यायने सामर्थ्याभावात् / साङ्केतिकमेकं पदं तदभिधातुं समर्थमित्यपि न सत्यम्, तस्यापि क्रमेणार्थद्वयप्रत्यायने सामोपपत्तेः। "तौ सत्" 312 / 127 / (पाणि०) इति शतृशानचोःसंकेतितसच्छवत्। इति सकलवाचकरहितत्यादवक्तव्यं वस्तुयुगपद् सदसत्त्वाभ्यां प्रधान-भावार्पिताभ्यामाक्रान्तं व्यवतिष्ठते। (5) स्थद्रव्यादिचतुष्टयाऽऽ-पेक्षयाऽस्तित्वे सत्यस्तित्यनास्तित्वाभ्यां सह वक्तुमशक्यं सर्व वस्तु: ततः स्यादस्त्येव स्यादवक्तव्यमेवेत्येवं पञ्चमभड़े नोपदर्श्यते इति (6) परद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया नास्तित्वे सत्यस्तित्वनास्ति-त्वाभ्यां यौगपद्येन प्रतिपादयितुमशक्यं समस्तं वस्तु; ततः स्यान्नास्त्येवस्यादवक्तव्यमेवेत्येवं षष्ठभङ्गेन प्रकाश्यते (7) स्वपरद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षयाऽस्तित्यनास्तित्वयोः सतोरस्तित्वनास्तित्वाभ्यां समसमयमभिधातुमशक्यमखिलं वस्तु, तत एवमनेन भङ्गेनोपदर्श्यते इति॥ उक्तंच"या प्रश्नाद् विधिपर्युदासभिदया बाधच्युता सप्तधा, धर्म धर्ममपेक्ष्य वाक्यरचनाऽनेकात्मके वस्तुनि॥ निर्दोषा निरदेशि देव ! भवता सा सप्तभङ्गी यया, जल्पन् जल्परणाङ्गणे विजयते वादी विपक्ष क्षणात् // 1 // " व्ययुक्तं सत्" / समस्वभावत्वे हेतुस्तु स्याद्वादः, नित्यानित्याद्यनेकधर्मशबलैकवस्त्वभ्युपगम इत्यर्थः / तदनभ्यु-पगमे सर्ववस्तूनां स्वरूपहानिप्रसङ्गः, कस्यचित् व्योमादिवस्तु नित्यमेय, अन्यस्य प्रदीपादिवस्तु अनित्यमेवेत्यस्य प्रतिक्षेपस्तु दिङ्मात्रमुच्यते-सर्वे भावा द्रव्यार्थिकनयापेक्षया नित्याः, पर्या-यार्थिकनयादेशात् पुनरनित्याः, तत्रैकान्तनित्यतया परैरङ्गीकृतस्य प्रदीपस्य तावन्नित्यानित्यत्वव्यवस्थापनमित्थम् / तथाहि-प्रदीपपर्यायापन्नास्तैजसाः परमाणयः स्वरसतः तैलक्षयात् वाता-भिघाताद् वा ज्योतिःपर्यायं परित्यज्य तमोरूपं पर्यायान्तरमासादयन्तोऽपि नैकान्तेनानित्याः; पुगलद्रव्यरूपतयाऽवस्थितत्वात् तेषाम्।न ह्येतायतैयानित्यत्वं यावतापूर्वपर्यायस्य नाश उत्तरपर्यायस्यचोत्पादःनिखलु मृद्रव्यं स्थासक-कोश-कुशूलशिवक-घटाद्यवस्थान्तरमापद्यमानमप्येकान्ततो विनष्टम्, तेषु मृद्रव्यानुगमस्याबालगोपालं प्रतीतत्वात् / न च तमसः पौगलिकत्वमसिद्धम्, चाक्षुषत्वान्यथाऽनुपपत्तेः, प्रदीपालोकवत्। अथ यचाक्षुषं तत्सर्वं स्वप्रतिभासे आलोकमपेक्षते, न चैवं तमः, तत् कथं चाक्षुषम्? नैवम्। उलूकादीनामालोकमन्तरेणापि तत्प्रति-भासनात्, येस्त्वस्मदादिमिरन्यचाक्षुषं घटादिकमालोकं विना नोपलभ्यते, तैरपि तिमिरमालोकयिष्यते, विचित्रत्वाद् भावानाम्। कथमन्यथा पीतश्वेतादयोऽपि स्वर्णमुक्ताफलाया आलोकापेक्ष-दर्शनाः, प्रदीपचन्द्रादयस्तु प्रकाशान्तरनिरपेक्षाः,इति सिद्धं तमश्चाक्षुषम् / रूपयत्त्वात्स्पर्शवत्त्वमपि प्रतीयते, शीतस्पर्शप्रत्य-यजनकत्वात्। यानि त्वनिविडावयवत्वमप्रतिघातित्वमनुद्भूतस्पर्शविशेषत्वमप्रतीयमानखण्डावयविद्रव्यमविभागत्वमित्यादीनितमसः पौगलिकत्वनिषेधाय परैः साधनान्युपन्यस्तानि, तानि प्रदीपप्रभादृष्टान्तेनैव प्रतिषेध्यानि, तुल्ययोगक्षेमत्वात्।नचया-च्यम्-तैजसाः परमाणवः कथं तमस्त्वेन परिणमन्त? इति। पुद्ग-लानां तत्तत्सामग्रीसहकृतानां विसदृशकार्योत्पादकत्वस्यापिदर्शनात्। दृष्टो ह्याट्टैन्धनसंयोगवशाभास्वररूपस्यापि वरभा-स्वररूपधूमरूपकार्योत्पादः, इति सिद्धो नित्यानित्यः प्रदीपः। यदपि निर्वाणादर्वाक् देदीप्यमानो दीपस्तदाऽपि नवनवपर्यायोत्पादविनाशभाक्त्वात् प्रदीपत्वान्वयाच नित्यानित्य एव / / एवं व्योमापि उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकत्वान्नित्यानित्यमेव / तथाहिअवगाहकानां जीवपुद्रलानामवगाहदानोपग्रह एव तल्लक्षणम्, 'अवकाशदमाकाशम्' इति वचनात्। यदा चावगाहका जीवपुद्रलाः प्रयोगतो विनसातो वा एकस्मान्नभःप्रदेशात्प्रदेशान्तरमुपसर्पन्ति, तदा तस्य व्योम्नस्तैरव-गाहकैः सममेकस्मिन् प्रदेशे विभागः, उत्तरस्मिन् प्रदेशे च संयोगः, संयोगविभागौ च परस्पर विरुद्धौ धर्मा , तद्भेदे चावश्यं धर्मिणो भेदः। तथा चाहुः- "अयमेव हि भेदहेतु यद् विरुद्धधर्माध्यासः कारणभेदश्च" इति / ततश्च तदाकाशं पूर्वसंयोगविनाशलक्षणपरिणामापत्त्या विनष्टम्, उत्तरसंयोगोत्पादाख्यपरिणामानुभवाचोत्पन्नम्, उभयत्राकाशद्रव्यस्थानुगतत्वाचोत्पादव्यययोरेकाधिकरणत्वम् / तथा च 'यदप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैक रूपं नित्यम्' इति नित्यलक्षणमाचक्षते, तदपास्तम्। एवंविधस्य कस्यचिद् वस्तुनोऽभावात्। तद्भावाव्ययं नित्थम्, इति तु सत्यं नित्यलक्षणम् / उत्पादविनाशयो: सद्भावेऽपि तद्भावादत्वयि-रूपाद् यन्न व्येति तन्नित्यम् इति तदर्थस्य घटमानत्वात्। यदि हि अप्रच्युतादिलक्षणं नित्यमिष्यते, अथ सप्तमङ्गीदर्शितदिशा स्याद्वादास्तित्वम्दीपादारभ्य व्योमपर्यन्तं सर्वं वस्तु समस्वरूपम्, यतो वस्तुनः द्रव्यपर्यायात्मकत्वमिति। वाचकमुख्योऽप्येवमेवाह-"उत्पाद-व्ययध्रौ- Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (71) उपोद्घातः तदोत्पादव्यययोर्निराधारत्वप्रसङ्गः,नच तयोर्योगे नित्यत्वहानिः। "द्रव्यं पर्यायवियुत, पर्याया द्रव्यवर्जिताः कदा केन किंरूपाः, दृष्टा मानेन केन वा?॥" इति वचनात् / न चाकाशं न द्रव्यम्, लौकिकानामपि घटाऽऽकाशं पटाऽऽकाशमिति व्यवहारप्रसिद्धेरा-काशस्य नित्यनित्यत्वम् / घटाकाशमपि हि यदा घटापगमे पटेना-क्रान्तं, तदा पटाकाशमिति व्यवहारः / न चायमौपचारिकत्वाद् प्रमाणमेव, उपचारस्यापि किञ्चित्साधर्म्यद्वारेण मुख्यार्थस्पर्शि-त्वात्। नमसो हि यत् किल सर्वव्यापकत्वं मुख्यं परिमाणं तत्तदा-र्धयघटपटादिसम्बन्धिनियतपरिमाणवशात् कल्पितभेदं सत् प्रतिनियतदेशव्यापितया व्यवह्रियमाणं घटाकाशपटाकाशादि तत्तत् व्यपदेशनिबन्धनं भवति तत्तद्धटादिसम्बन्धे च व्यापकत्वेनावस्थितस्य व्योम्नोऽवस्थान्तराऽऽपत्तिः, ततश्चावस्थाभेदेऽवस्थावतोऽपि भेदः, तासां ततोऽविष्वगभावात्। इति सिद्धं नित्यानित्यत्वं व्योम्नः / इति नैकान्तनित्यपक्षो युक्तिक्षमः। स्याद्वादे तु-पूर्वोत्तरकारपरिहारस्वीकारस्थितिलक्षणपरिणा-मेन भावानामर्थक्रियोपपत्तिरविरुद्धा / न चैकत्र वस्तुनि परस्परविरुद्धधर्माध्यासायोगादसन् स्यादाद इति वाच्यम्? नित्यानित्यपक्षविलक्षणस्य पक्षान्तरस्याङ्गीक्रियमाणत्यात्, तथैव च सर्वरनुभवात्। तथा च पठन्ति"भागे सिंहो नरो भागे, योऽर्थो भागद्वयात्मकः / तमभाग विभागेन, नरसिंह प्रचक्षते" ||1|| एवं चोपस्थितमिदं नित्यानित्यात्मकं वस्तु, उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकत्वान्यथाऽनुपपत्ते रिति / तथाहि-सर्व वस्तु द्रव्यात्मना नोत्पद्यते,विपद्यते वा, परिस्फुटमन्वयदर्शनात् लूनपुनर्जातनखा-दिषु अन्वयदर्शनेन व्यभिचार इति न वाच्यम् : प्रमाणेन बाध्यमा-- नस्यान्वयस्यापरिस्फुटत्वात् / न च प्रस्तुतोऽन्वयः प्रमाणविरुद्धः; सत्यप्रत्यभिज्ञानासद्धत्वात्। ततो द्रव्यात्मना स्थितिरेव सर्वस्य वस्तुनः, पर्यायात्मना तु सर्व वस्तूत्पद्यते, विपद्यते च, अस्खलि-- तपर्यायानुभवसद्भावात् / न चैवं शुक्ले शङ्गे पीतादिपर्यायानुभवेन व्यभिचारः, तस्य स्खलद्रूपत्वात् / न खलु सोऽस्खलद्पो , येन पूर्वाकारविनाशाजहद्वृत्तोत्तराकारोत्पादविनाभावी भवेत्।नच जीवादौ वस्तुनि हर्षाभाँदासीन्यादिपर्यायपरम्पराऽनुभयः स्खलद्रूपः, कस्यचिद्राधकस्याभावात्।ननूत्पादादयः परस्परं भिद्यन्ते,नवा? यदि मिद्यन्ते, कथमेकं वस्तुत्र्यात्मकम्? न भिद्यन्ते चेत्, तथापि कथमेकं त्र्यात्मकम्? तथाच"यद्युत्पन्त्यादयो भिन्नाः, कथमेकं त्रयात्मकम् ? अथोत्पत्त्यादयोऽभिन्नाः, कथमेकं त्रयात्मकम्? ||1||" इति चेत् / तदयुक्तम् / कथञ्चिदिन्नलक्षणत्वेन तेषां कथञ्चिद् भेदाभ्युपगमात् / तथाहि-उत्पादविनाशध्रौव्याणि स्याद्भिन्नानि, भिन्नलक्षणत्वात्, रूपादिवत् / न च भिन्नलक्षत्वमसिद्धम् / असत आत्मलाभः, सतः सत्तावियोगः, द्रव्यरूपतयाऽनुवर्त्तनं च खलूत्पादादीनां परस्परमसंकीर्णानि लक्षणानि सकललोकसाक्षिका--ण्येव / न चामी भिन्नलक्षणा अपि परस्परानपेक्षाः, खपुष्पवद-सत्त्वापत्तेः / तथाहि-उत्पादः केवलो नास्ति, स्थितिविगमरहितत्वात, कूर्मरोमवत्। तथा विनाशः केवलो नास्ति, स्थित्युत्पत्तिरहितत्वात्, तद्वत् / एवं स्थितिः के वला नास्ति, विनाशोत्पादशू-न्यत्वात्, तद्वदेव / इत्यन्योऽन्यापेक्षणामुत्पादादीनां वस्तुनि सत्त्वं प्रतिपत्तव्यम्। तथा च कथं नैकं त्र्यात्मकम् ? उक्तं च पञ्चाशति "प्रध्वस्ते कलशे शुशोच तनया मौलौ समुल्पादिते, पुत्रः प्रीतिमुवाह कामपि नृपः शिश्राय मध्यस्थताम्। पूर्वाकारपरिक्षयस्तदपराकारोदयस्तद्वयाधारश्चैक इति स्थितं त्रयमयं तत्त्वं तथाप्रत्ययात् // 1 // " तथा च स्थितं नित्यानित्यानेकान्तःकान्त एवेति / एवं सदसदनेकान्तोऽपि। नन्वत्र विरोधः। कथमेकमेव कुम्मादिवस्तु सच, असय भवति? सत्त्वं ह्यसत्त्वपिरहारेण व्यवस्थितम्, असत्त्वमपि सत्त्वपरिहारेण, अन्यथा तयोरविशेषः स्यात्। ततश्च तद्यदिसत्कथम सत् ? अथासत्, कथं सदिति? तदनवदातम्।यतो यदि येनैव प्रकारेण सत्त्वम्, तेनैवाऽसत्त्वम्, येनैवचासत्त्वम्, तेनैवसत्त्वमभ्युपेयेत, तदा स्याद्विरोधः। यदातु स्वरूपेण घटादित्वेन, स्वद्रव्येण हिरण्डयादित्वेन, स्वक्षेत्रेण नगरादित्वेन, स्वकालत्त्वेन वासन्तिकादित्वेन सत्त्वम्, पररूपादिना तु पटत्यतन्तुत्वग्राम्य-त्वग्रैष्मिकत्वादिनाऽसत्त्वम्, तदा क्वविरोधगन्धोऽपि।येतु सौगताः परासत्त्वं नाभ्युपयन्ति, तेषां घटादेः सर्वात्मकत्वप्रसङ्गः। तथाहि-यथा घटस्य स्वरूपादिना सत्वं तथा यदि पररूपादिनाऽपिस्यात, तथा सतिस्वरूपादित्ववत् पररूपादित्वप्रसक्तेः कथं न सर्वात्मकत्वं भवेत्? परासत्त्वेन तु प्रतिनियतोऽसौ सिध्यति। अथन नाम नास्तिपरासत्वम्, किन्तु स्वसत्त्वमेव तदिति चेत्; अहो ! नूतन कोऽपि तर्कवितर्ककर्कशः समुल्लापः / न खलु यदेव सत्त्वम्, तदेवासत्त्वं भवितुमर्हति / विधिप्रतिषेधरूपतया विरुद्धधर्माध्यासेनानयोरैक्यायोगात् / अथ पृथक् तन्नाभ्युपगम्यते; न च नाभ्युपगम्यत एवेति किमिदमिन्द्रजालम्? ततश्चास्यानक्षरमसत्वमेवोक्ते भवति / एवं च यथा स्वासत्त्चासत्त्वात्स्व सत्त्वं तस्य, तथा परासत्त्वासत्त्वात्परसत्त्वप्रसक्तिरनिवारितप्रसरा; विशेषाऽ-भावात्। अथ नाभावनिवृत्त्या पदार्थो भावरूपः प्रतिनियतो वा भवति, अपि तु स्वसामग्रीतः स्वस्वभावनियतएवोपजायत इति किंपरासत्त्वेनेति चेत्? न किश्चित् / के वलं स्वसामग्रीतः स्वस्या-वनियतोत्पत्तिरेव परासत्त्वात्मकत्वव्यतिरेकेण नोपपद्यते, पारमार्थिकस्वासत्त्वासत्त्वात्मकस्वसत्त्वेनैव परासत्त्वासत्त्वात्मकपरसत्त्वेनाप्युत्पत्तिप्रसङ्गात्। इति सूक्तः सदसदनेकान्तः। एवमपरेऽपि भेदाभेदानेकान्तादयः स्वयं चतुरैर्विवेचनीयाः संमतितर्का-दिभ्यो विस्तरभयान्नेह प्रतन्यते। अतोऽनेकान्तवाद एव सन्मार्गः। यदाह-- "इचेयं गणिपिडग, निचं दव्यट्ठियाएँ नायव्वं / पज्जाएण अणिचं, निचानिचं च सियवादो॥१॥ जो सियवायं मासति, पमाणनयपेसलं गुणाधारं। भावेइसे ण ण सयं, सो हि पमाणं पवयणस्स॥२॥ जो सियवायं निंदति, पमाणनयपेसलं गुणाधारं। भावेण दुट्ठभावो, न सो पमाणं पवयणस्स॥३॥" अथ समवायखण्डनम्अयुतसिद्धानामाधार्याधारभूतानामिहप्रत्ययहेतुः सम्बन्धः समवायः। स च समवयनात् समवाय इति, द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषेषु पञ्चसु पदार्थेषु वर्तनाद् वृत्तिरिति चाख्यायते / तथा वृत्त्या समवायसम्बन्धेन तयाधर्मधर्मिणोरितरेतरविनिर्मुण्ठितत्वेऽपि धर्मधर्मिव्यपदेश इष्यते। अत्र जैनाचार्या वदन्तिअयं धर्मी, इमे चास्य धर्माः, अयं चैतत्सम्बन्धनिबन्धनं Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपोद्घातः (72) समवाय इत्येतद् वस्तुत्रयं ज्ञानविषयतया न प्रतिभासते / यथा अविशेषेण सबुद्धिवेद्येष्वपि सर्वपदार्थेषुद्रव्यादिष्वेव त्रिषु सत्तासम्बन्धः शिलाशकलयुगलस्य मिथोऽनुसन्धायकं रालादिद्रव्यं तस्मात् स्वीक्रियते, न सामान्यादित्रये, इति महतीयं पश्यतोहरता / यतः त्रितीयतया प्रतिभासते, नैवमत्र समवायस्यापि प्रतिभानम् ; किन्तु परिभाव्यतां सत्ताशब्दस्य शब्दार्थः / अस्तीति सन्, सतो भावः सत्ता, द्वयोरेव धर्मधर्मिणोः; इति शपथप्रत्यायनीयोऽयं समवायः / किञ्चायं अस्तित्वं तद्वस्तुस्वरूपं निर्विशेषमशेषे-ष्वपि पदार्थेषु त्वयाऽप्युक्तम्। वादिना एको नित्यः सर्वव्यापकोऽमूर्तश्च परिकल्प्यते, ततो यथा तत्किमिदमर्द्धजरतीयम्-यद्रव्या-दित्रय एव सत्तायोगो नेतरत्र इति? घटाश्रिताः पाकजरूपादयो धर्माः समवायसम्बन्धेन समवेताः, तथा कि अनुवृत्तिप्रत्ययाऽभावान्न सामान्यादित्रये सत्तायोग इति चेत् / न / न पटेऽपि, तस्यैकत्वनित्यत्वव्यापकत्वैः सर्वत्र तुल्यत्वात् / यथाऽऽकाश तत्राप्यनुवृत्तिप्रत्ययस्या-निवार्यत्वात् / पृथिवीत्वगोत्वघटत्वादिसाएकोनित्यो व्यापकोऽमूर्तश्च सन् सर्वैः सम्बन्धिभिर्यु-गपदविशेषेण मान्येषु सामान्यं सामा-न्यमिति / विशेषेष्वपि बहुत्वादयमपि संबध्यते, तथा किं नायमपीति? विनश्यदेकवस्तु-समवायाभावे च विशेषोऽयमपि विशेष इति / समवाये च प्रागुक्तयुक्त्या समस्तवस्तुसमवायाऽभावः प्रसज्यते। तत्तदव-च्छेदकभेदान्नायं दोष तत्तदवच्छेदकभेदादेकाकारप्रतीतेरनु-भवात् / स्वरूपसत्त्वसाधम्र्येण इति चेदेवमनित्यत्वापत्तिः, प्रतिवस्तुस्व-भावभेदादिति / अथ कथं सत्ताऽध्यारोपात्सामान्यादिष्वपि सत्सदित्यनुगम इति चेत्तर्हि समवायस्य न ज्ञाने प्रतिभानम्? यतस्तस्येहेतिप्रत्ययः सावधानं मिथ्याप्रत्ययोऽयमापद्यते / अथ भिन्नस्वभावेष्वेकानुगमो मिथ्यैवेति साधनम्। इहप्रत्ययश्चानुभवसिद्धएव। इहतन्तुषुपटः, इहात्मनिज्ञानमिह चेद्रव्यादिष्वपि सत्ताध्यारो-पकृत एवास्तु प्रत्ययानुगमः / असति घटे रूपादय इति प्र-तीते रुपलम्भात् / अस्य च प्रत्ययस्य मुख्येऽध्यारोपस्यासंभवात् द्रव्यादिषु मुख्योऽयमनुगतः प्रत्ययः केवलधर्मधर्म्यनालम्बनत्वा-दस्ति समवायाख्यं पदार्थान्तरं तद्धेतुः; सामान्यादिषु तु गौण इति चेत् ।न। विपर्ययस्यापि शक्यकल्पनत्वात्। इति पराशङ्कामभिसन्धाय पुनरुच्यतेत्वन्मते यथा पृथवीत्वा- सामान्यादिषु बाधकसं-भवान्न मुख्योऽनुगतः प्रत्ययो, द्रव्यादिषु तु भिसम्बन्धात्पृथवी, तत्र पृथवीत्वं पृथिव्या एवस्वरूपमस्तित्वाख्यं नापरं तदभावान्मुख्य इति चेद, ननु किमिदं बाधकम्? अथ सामान्येऽपि वस्त्वन्तरम्। तेनस्वरूपेणैव समं योऽसावभिसम्बन्धः पृथिव्याः स एव सत्ताऽभ्युपगमेऽनवस्था, विशेषेषु पुनः सामान्यसद्भावे स्वरूपहानिः। समवाय इत्युच्यते; "प्राप्तानामेव प्राप्तिः समवायः" इति वचनात्। एवं समय, येऽपि सत्ताकल्पने तवृत्त्यर्थं सम्बन्धान्तराभाव इति समवायत्वामिसम्बन्धात्समवाय इत्यपि किंन कल्प्यते? यतस्त-स्यापि बाधकानीति चेत् / ना सामान्येऽपि सत्ताकल्पने यद्यनवस्था, तर्हि कथं यत्समवायत्वं स्वस्वरूपं तेन सार्द्ध सम्बन्धोऽस्त्येव / अन्यथा नसा द्रव्यादिषु? तेषामपिस्वरूपसत्तायाः प्रागेव विद्यमानत्वात्। विशेषेषु निःस्वभावत्वात् शशविषाणवदवस्तुत्वमेव भयेत् / ततश्च इह समवाये पुनः सत्ताऽभ्युपगमेऽपिनस्वरूपहानिः।स्वरूपस्य प्रत्युतोत्तेज-नात्। समवायत्वमित्युल्लेखेन इहप्रत्ययः समवायेऽपि युक्त्या घटत एव / निःसामान्यस्य विशेषस्य क्वचिदप्यनुपलम्भात् / समयायेऽपि ततायथा पृथिव्यां पृथिवीत्वं समवायेन समवेतं, समवायेऽपि / समवायत्वलक्षणायाः स्वरूपसत्तायाः स्वीकारे उपपद्यत समवायत्वमेवं समवायान्तरेण संबन्धनीयम्, तदप्य-परेणेत्येवं एवाविष्वग्भावात्मकः सम्बन्धः, अन्यथा तस्य स्वरूपाऽभावप्र-सङ्गः दुस्तराऽनवस्थामहानदी / ननु पृथिव्यादीनां पृथिवीत्या इति बाधकाभावात्तेष्वपिद्रव्यादिवन्मुख्य एव सत्तासम्बन्धः; इति व्यर्थ दिसम्बन्धनिबन्धनं समवायो मुख्यस्तत्र त्वतलादिप्रत्ययाभिव्य-जयस्य द्रव्यगुणकर्मस्येव सत्ताकल्पनम्। किञ्च-तैर्वादिभिर्यो द्रव्यादित्रये मुख्यः संगृहीतसकलावान्तरजातिलक्षणव्यक्तिमेदस्य सामान्य--स्योद्भवात् / सत्तासम्बन्धः कक्षीकृतः,सोऽपि विचार्यमाणो विशीर्येत। तथाहि-यदि इह तु समवायस्यैकत्वेन व्यक्तिभेदाभावे जातेरनुद्-भूतत्वाद्रौणोऽयं द्रव्यादिभ्योऽत्यन्तविलक्षणा सत्ता, तदा द्रव्यादीन्यसद्रूपाण्येव स्युः / युष्मत् परिकल्पित इहेतिप्रत्ययसाध्यः समवाय-त्वाभिसम्बन्धः, सत्तायोगात्सत्त्वमस्त्येवेति चेत्। असतां सत्तायोगेऽपिकुतः सत्त्वम्? तत्साध्यश्च समवाय इति / तदेतन्न विपश्चिच्चेत-श्चमत्कारकारणम् / सतां तुनिष्फलः सत्तायोगः। स्वरूपसत्त्वं भावानामस्त्येवेति चेत्तर्हि किं यतोऽत्रापि जातिरुद्भवन्ती केन निरुध्येत / व्यक्तेरभेदेनेति चेत् / न शिखण्डिना सत्तायोगेन / सत्तायोगात्प्राग् भावो न सन्, नाप्यसन् ; तत्तदवच्छेदकवशात्तत्तद्भेदोपपत्तौ व्यक्ति-भेदकल्पनाया दुर्निवारत्यात् / सत्तायोगात्तु सन्निति चेद्वाङ् मात्रमेतत् / सदसद्विलक्षणस्य अन्यो हि घटसमवायोऽन्यश्च पटसमवाय इति व्यक्त एव समवायस्यापि प्रकारान्तरस्यासंभ-वात्। तस्मात् सतामपि स्यात्वचिदेवसत्तेति तेषां व्यक्तिभेद इति; तत्सिद्धौ सिद्ध एव जात्युद्भवः। तस्मादन्यत्रापि मुख्य वचनं विदुषां परिपदि कथमिव नोपहासाय जायेत। एव समवायः, इहप्र-त्ययस्योभयत्राप्यभिचारात् / यदाह"अव्यभिचारी मुख्यो-ऽविकलोऽसाधारणोऽन्तरङ्गश्च / अपोहस्य स्वरूपनिर्वचनपुरस्सरं निरसनम्विपरीतो गौणोऽर्थः, सति मुख्ये धीः कथं गौणे?" ||1|| अपोहत्वं च स्वाकारविपरीताकारोन्मूलकत्वेनावसेयम् / अपो-ह्यते तस्माद्धर्मधर्मिणोः सम्बन्धने मुख्यः समवायः, समवाये च स्वाकाराद्विपरीत आकारोऽनेनेत्यपोह इति व्युत्पत्तेः / तत्त्वतस्तु न समवायत्याभिसम्बन्धे गौण इत्ययं भेदो नास्तीत्यर्थः। किञ्च योऽयमिह किञ्चिद्वाच्यं वाचकं वा विद्यते, शब्दार्थतया कथिते तन्तुषु पट इत्यादिप्रत्ययात्समवायसाधनमनोरथः, स खल्वनुहरते बुद्धिप्रतिबिम्बात्मन्यपोहे कार्यकारणभावस्यैव वाच्यवाचकतया नपुंसकादपत्यप्रसवमनोरथम् / इह तन्तुषु पट इत्या देर्व्यवहारस्या व्यवस्थापितत्वात्। ऽलौकिकत्वात्पांशुलपादानामपि इह पटे तन्तय इत्येवं प्रतीतिदर्शनात् ननु कोऽयम् अपोहो नाम? कि मिदम् अन्यस्मादपोह्यते, इह भूतले घटाभाव इत्यत्रापि समवायप्रस-ङ्गात्। अस्माद्रा अन्यदपोह्यते , अस्मिन् वा अन्यदयो हात इति अथ सत्तानिरसनम्-- व्युत्पत्त्या विजातिव्यावृत्तं वाह्य मे व विवक्षितं , चु - Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (73) उपोद्घातः - ध्याकारो वा, यदि वा अपोहनमपोह इति अन्यव्यावृत्तिमात्रम्, इति अन्यथा यदि शब्दादर्थप्रतिपत्तिकाले कलितो न परापोहः कथत्रयः पक्षाः। न तावदादिमी पक्षौ, अपोहनाम्ना विधेरेव विवक्षितत्वात्। मन्यपरिहारेण प्रवृत्तिः। ततो गां बधानेतिचोदितोऽश्यादीनपि बध्नीयात् / अन्तिमोऽप्यसङ्गतः, प्रतीतिबाधितत्वात् / तथाहि-- पर्वतो देशे यदवोचद्वाचस्पतिः-जातिमत्यो व्यक्तयः, विकल्पानांशब्दानांच गोचरः, वह्निरस्तीति शाब्दी प्रतीतिर्विधिरूपमेवोल्लि-खन्ती लक्ष्यते, नानग्निर्न तासां च तद्वतीनां रूपमतज्जातीयपरावृत्तमित्यर्थतस्तदवगतेन गां भवतीति निवृत्तिमात्रमामुखयन्ती / यदा प्रत्यक्षवाधितं न तत्र बधानेति चोदितोऽश्यादीन् बध्नाति / तदप्यनेनैव निरस्तमायतो साधानान्तरावकाश इत्यतिप्रसिद्धम् / जातेरधिकायाः प्रक्षेपेऽपिव्यक्तीनां रूपमतजातीयव्यावृत्तमेवचेत्, तदा अथ यद्यपि निवृत्तिमहं प्रत्येमीति न विकल्पः तथापि निवृत्तप तेनैव रूपेण शब्दविकल्पयोर्विषयीभवन्तीनां कथमत व्यावृत्तिपरिहारः? दार्थोल्लेख एव निवृत्त्युल्लेखः / न ह्यनन्तरभावितविशेषणप्रती अथ न विजातीयव्या वृत्तं व्यक्तिरूपं, तथाप्रतीतं वा तदा जातिप्रसाद तिविशिष्टप्रतीतिः। ततो यथा सामान्यमहं प्रत्येमीति विकल्पाभावेऽपि एष इति कथमर्थतोऽपितदवगतिरित्युक्तप्रायम्! अथजातिबलादेवान्यतो व्यावृत्तम् / भवतु जातिबलात् स्वहेतुपरम्पराबलाद्वाऽन्यव्यावृत्तम् / साधारणाकारपरिस्फुरणात् विकल्पबुद्धिः सामान्यबुद्धिः परेषाम्, तथा उभयथाऽपि व्यावृत्तप्रतिपत्तौ व्यावृत्तिप्रतिपत्तिरस्त्येव / न चागो-sपोढे निवृत्तप्रत्ययाक्षिप्ता निवृत्तिबुद्धिरपोहप्रतीतिव्यवहा-रमातनोतीति चेत्? ननु साधारणाकारपरिस्फुरणे विधिरूपतया यदि सामान्यबोधव्यवस्था; गोशब्दसंकेतविधावन्योन्याश्रयदोषः; सामान्ये तद्वति वा सङ्केतेऽपि तदोषावकाशात् / न हि सामान्य नाम सामान्यमात्रमभिप्रेतम्, तुरगेऽपि 'तत् किमायातमस्फुरदभावाकारे चेतसि निवृत्तिप्रतीतिव्यवस्थायाः / गोशब्दसङ्केतप्रसङ्गात्; किन्तु गोत्वम्: तावता च स एव दोषः, ततो निवृत्तिमहं प्रत्येमीत्येवमाकाराभावेऽपि निवृत्त्याकारस्फुरणं यदि गवापरिज्ञाने गोत्वसामान्यापरिज्ञानात् / गोत्वसा-मान्यापरिज्ञाने स्थात्, को नाम निवृत्तिप्रतीतिस्थितिमपलपेत्। अन्यथा सति प्रतिभासे गोशब्दवाच्यापरिज्ञानात् / तस्मात् एकपिण्डम-दर्शनपूर्वको यः तत्प्रतीतिव्यवहृतिरिति गवाकारेऽपि चेतसि तुरगबोध इत्यस्तु / सर्वव्यक्तिसाधारण इववहिरध्यस्तो विकल्पबुद्ध-याकारःतत्रायं गौरिति अथ विशेषणतया अन्तर्भूता निवृत्तिप्रतीतिरित्युक्तं, तथापि सङ्केतकरणे नेतरेतराश्रयदोषः / अभिमते च गोशब्दप्रवृत्तावगोशब्देन पद्यगवापोढ इतीदृशाकारो विकल्पस्तदा विशेषणतया तदनुप्रवेशो भवतु, शेषस्याप्यभिधानमुचितम् / न चान्यापोढान्यापोहयोर्विरोधो, किन्तु गौरिति प्रतीतिः। तदा च सतोऽपि निवृत्तिलक्षणस्य विशेषणस्य विशेष्यविशेषणक्षति, परस्परव्यवच्छेदाभावात, सामानाधिकरतत्रानुत्कलनात, कथं तत्प्रतीतिव्यवस्या / अथैवं मतिः-यविधिरूपं ण्यसद्भावात्, भूतलघटाभाववत् / स्वाभावेन हि विरोधो, न स्फुरितं तस्य परापोहोऽप्यस्तीति तत्प्रतीति-रुच्यते, तथापि पराभावेनेत्याबालप्रसिद्धम्। एष पन्थाः श्रुघ्न-मुपतिष्ठते इत्यत्राप्यपोहो सम्बन्धमात्रमपोहस्य विधिरेव साक्षान्निर्भासी / अपि चैवमध्यक्षस्या- गम्यत एव / अप्रकृतपथान्तरापेक्षया एष एव / श्रुघ्नप्रत्यनीकानिष्टप्यपोहविषयत्वमनिवार्यम् / विशेषतो विकल्पादेकल्यावृत्तोल्लेखि- स्थानपेक्षया श्रुघ्नमेव / अरण्यमार्गवद्विच्छेदाभावादुपतिष्ठत एव, नोऽखिलान्यव्यावृत्तमीक्षमाणस्य तस्माद्विध्याकारावग्रहादध्यक्ष- सार्थदूतादिव्यवच्छेदेन पन्था एवेति प्रतिपदं व्यवच्छेदस्य सुलभत्वात्। वद्विकल्पस्यापि विधिविषयत्वमेव नान्यापोहविषयत्वमिति कथमपोहः तस्मादपोहधर्मणो विधिरूप-स्य शब्दादवगतिः; पुण्डरीकशब्दादिव शब्दार्थो धुष्यते? श्वेतिमविशिष्टस्य पास्य। यद्येवं विधिरेवशब्दार्थो वक्तुमुचितः कथमपोहो अत्राभिधीयते गीयत इति चेत् ? उक्तमत्रापोहशब्देनान्यापोहविशिष्टो विधिरुच्यते; तत्र नास्माभिरपोहशब्देन विधिरेव के वलोऽभिप्रेतः, नाप्यन्यव्या विधौ प्रतीयमाने विशेषणतया तुल्यकालमन्यापोहप्रतीतिरिति / न चैवं वृत्तिमात्रम्, किन्त्वन्यापोहविशिष्टो विधिः शब्दानामर्थः / ततश्च न प्रत्यक्षस्याप्यपोहविषयत्वव्यवस्था कर्तुमुचिता, तस्य शाब्दप्रत्य-- प्रत्येकपक्षोपनिपातिदोषावकाशः। यत्तु गोः प्रतीतौ न तदात्मा परात्मेति यस्येव वस्तुविषयत्वे विवादाभावात् / विधिशब्देन च यथाऽध्यय-- सामादपोहः पश्चाग्निश्चीयते इति विधिवादिनां मतम् / सायमतद्रूपपरावृत्तो बाह्योऽर्थोऽभिमतः; यथा प्रतिभासं बुद्ध्याकारश्वतत्र अन्यापोहप्रतीतौ वा सामर्थ्यात् अन्यापोढोऽवधार्यते इति प्रतिषे बाह्योऽर्थोऽध्यवसायादेव शब्दवाच्यो व्यवस्थाप्यते, न स्वलक्षण परिस्फूर्त्या, प्रत्यक्षवद्देशकालावस्थानियतप्रव्यक्तस्वलक्षणास्फुरणात् / घवादिनां मतम् / तदसुन्दरम् / प्राथमिकस्यापि प्रतिपत्तिक्रमादर्शनात् / न हि विधि प्रतिपद्य कश्चिदर्थापत्तितः पश्चादपोहमवगच्छति, अपोहं वा यच्छास्त्रम्प्रतिपद्यान्यापोढम्, तस्माद् गोः प्रतिपत्तिरिति अन्यापोढप्रतिपत्ति "शब्देनाव्यापृताख्यस्य, बुद्धावप्रतिभासनात् / रुच्यते / यद्यपिचान्यापोढशब्दानुल्लेख उक्तः। तथापि नाप्रतिपत्तिरेव अर्थस्य दृष्टाविवेति।" विशेषणभूतस्यान्यापोहस्य; अगवापोढ एव गोशब्दस्य निवेशितत्वात्। इन्द्रियशब्दस्वभावोपायभेदात् एकस्यैव प्रतिभासभेद इति यथा नीलोत्पले निवेशितादिन्दीवर-शब्दान्नीलोत्पलप्रतीतौ तत्काल चेत्? अत्राप्युक्तम्एव नीलिमस्फुरणमनिवार्यम्, तथा गोशब्दादपि अगवापोढे नियेशितात् "जातो नामाश्रयोऽन्यान्यः, चेतसाऽन्तस्य वस्तुनः। गोप्रतीतौ तुल्यकालमेव विशेषणत्वात् अगोऽपोहस्फुरणमनिवार्यम्। यथा एकस्यैव कुतो रूपं, भिन्नाकारावभासि तत् ?" // 1 // प्रत्यक्षस्य प्रस-ह्यरूपाभावग्रहणमभावविकल्पोत्पादनशक्तिरेव, तथा न हि स्पष्टास्पष्टे द्वे रूपे परस्परविरुद्ध एकस्य वस्तुनः स्तः, विधिविकल्पानामपि तदनुरूपानुष्ठानदानशक्तिरेवाभावग्रहणमभि- यत एकेनेन्द्रियबुद्धौ प्रतिभासेतान्येन विकल्पे, तथासति वस्तुन धीयते। पर्युदासरूपाभावग्रहणंतु नियतस्वरूप संवेदनमुभयोरविशिष्टम, | एव भेदप्राप्तेः। न हि स्वरूपभेदादपरो वस्तुभेदः। न च प्रतिभास वृतिमात्र, TANTRE Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपोद्घातः (74) भेदादपरस्वरूपभेदः, अन्यथा तैलोक्यमे कमेव वस्तु स्यात् / दूरासन्नदेशवर्तिनोः पुरुषयोः एकत्र शाखिनि स्पष्टास्पष्टप्रतिभासभेदेऽपि न शाखिभेद इति चेत्? न ब्रूमः प्रतिभासभेदो भिन्नवस्तुनियतः, किन्तु एकविषयत्वाभावनियत इति / ततो यत्रार्थक्रियाभेदादिसचिवः प्रतिभासभेदः तत्र वस्तुभेदः, घटवत्। अन्यत्र पुनर्नियमेनैकविषयतां परिहरतीत्येकप्रतिभासो भ्रान्तः। एतेन यदाह वाचस्पतिः-नच शब्दप्रत्यक्षयोर्वस्तुगोचरत्वे प्रत्ययाभेदः, कारणभेदेन पारोक्ष्यापारोक्ष्यभेदोपपत्तेरिति / तन्नोपयोगि / परोक्षप्रत्ययस्य वस्तुगोचरत्वासमर्थनात् / परोक्षताऽऽ-श्रयस्तु कारणभेद इन्द्रियगोचरग्रहणविरहेणैव कृतार्थः / तन्न शाब्दे प्रत्यये स्वलक्षणं परिस्फुरति किञ्च-स्वलक्षणात्मनि वस्तुनिवाच्ये सर्वात्मना प्रतिपत्तेः विधिनिषेधयोरयोगः। तस्य हि सद्भावेऽस्तीति व्यर्थम्, नास्ति इत्यसमर्थम् : असद्धावे नास्तीति व्यर्थम्, अस्ति इत्यसमर्थम्। अस्ति चास्त्यादिपदप्रयोगः। तस्मात् शब्दप्रतिभासस्य बाह्यार्थभावाभावसाधारण्यं नतद्विषयतां क्षमते। यच वाचस्पतिना जातिमव्यक्तिवाच्यतां स्ववाचैव प्रस्तुत्याऽनन्तरमेवन चशब्दार्थस्य जातेर्भावाभावसाधारण्य नोपपद्यते; सा हि स्वरूपतो नित्याऽपि देशकालविप्रकीर्णानेकव्यक्याश्रयतया भावाभावसाधारणीभवनस्तिनास्तिसंबन्धयोग्या। वर्तमानव्यक्तिसम्बन्धिता हि जातेरस्तिता; अतीतानागतव्यक्तिसम्बन्धिता च नास्तितेति संदिग्धव्यतिरेकित्वादनैकान्तिकं भावाभावसाधारण्यमन्यथासिद्धं वेति विलपितम्, तावन्न प्रकृतक्षतिः, जातौ भरं न्यस्यता स्वलक्षणावाच्यत्वस्य स्वयं स्वीकारात्। किञ्च-- सर्वत्र पदार्थस्य स्वलक्षणस्वरूपेणैवास्तित्वादिकं चिन्त्यते / जातेस्तु वर्तमानादिव्यक्तिसम्बन्धोऽस्तित्वादिकमिति तु बालप्रतारणम् / एवं जातिमद्यक्तिवचनेऽपि दोषः / व्यक्तेश्चेत् प्रतीतिसिद्धः, जातिरधिका प्रतीयताम्; मा वा, न तु व्यक्तिप्रतीतिदोषान्मुक्तिः।। एतेन यदुच्यते कौमारिलैः-सभागत्वादेव वस्तुनो न साधारण्यदोषः। वृक्षत्वं ह्यनिर्धारितभावाभावं शब्दादवगम्यते / तयोरन्यत-रेण शब्दान्तरावगतेन संबध्यत इति तदप्यसङ्गतम्। सामान्यस्य नित्यस्य प्रतिपत्तावनिर्धारितभावाभावत्वायोगात् / यचेदं न च प्रत्यक्षस्येव शब्दानाम् अर्थप्रत्यायनप्रकारो येन तदृष्ट इवास्त्या-दिशब्दापेक्षा न स्याताविचित्रशक्तित्वात् प्रमाणानामिति। तदप्यन्द्रियकशाब्दप्रतिभास योरेकस्वरूपग्राहित्वे भिन्नावभासदूषणेन दूषितम्, विचित्रशक्तित्वं च प्रमाणानां साक्षात्काराध्यवसायाभ्यामपि चरितार्थम् / ततो यदि प्रत्यक्षार्थप्रतिपादनं शाब्देन तद्वदेवाव-भासः स्यात् अभवंश्च न तद्विषयख्यापनं क्षमते / ननु वृक्षशब्देन वृक्षत्वांशे चोदिते सत्त्याद्यशनिश्चयनार्थमस्त्यादिपदप्रयोग इति चेत्? निरंशत्वेन प्रत्यक्षसमधिगतस्य स्वलक्षणस्य कोऽवकाशः पदान्तरेण; धर्मान्तरविधिनिषेधयोः प्रमाणान्तरेण वा। प्रत्यक्षेऽपि प्रमाणान्तरापेक्षा दृष्टति चेत्? भवतु तस्यानिश्चयात्मत्वात् अनभ्य-स्तस्वरूपविषये, विकल्पस्तु स्वयं निश्चयात्मको यत्र ग्राही तत्र किमपरेण? अस्ति च शब्दलिङ्गान्तरापेक्षा, ततो न वस्तुस्वरूपग्रहः। ननु भिन्ना जात्यादयो धर्माः परस्परं धर्मिणश्चेति जाति लक्षणैकधर्मद्वारेण प्रतीतेऽपि शाखिनि धर्मान्तरवत्तया न प्रतीतिरिति किन्न भिन्नाभिधानाधीनो धर्मान्तरस्य नीलचलोचैस्तरत्वादेरवबोधः / तदेतदसङ्गतम् / अखण्डात्मनः स्वलक्षणस्य प्रत्यक्ष प्रतिभासात् / दृश्यस्य धर्मधर्मि भेदस्य प्रत्यक्षप्रतिक्षिप्तत्वात्, अन्यथा सर्वं सर्वत्र स्यादिति अतिप्रसङ्गः। काल्पनिकभेदाश्रयस्तुधर्मधर्मिव्यवहार इति प्रसाधितं शास्त्र; भवतु वा पारमार्थिको धर्म-धर्मिभेदः, तथाऽप्यनयोः समवायादेर्दूषितत्वादुपकारलक्षणैव प्रत्यासत्तिरेषितव्या / एवं च यथेन्द्रियप्रत्यासत्त्या प्रत्यक्षेण धर्मिप्रतिपत्तौ सकलतद्धर्मप्रतिपत्तिः। तथा शब्दलिङ्गाभ्यामपि वाच्यवाचकादिसंपन्धप्रतिवद्वाभ्यां धर्मिप्रतिपत्तौ निरवशेषतद्धर्मप्रतिपत्तिर्भवेत्, प्रत्यासत्तिमात्रस्याविशेषात् / यच वाचस्पतिः- न चैकोपाधिना सत्त्वे विशिष्ट तस्मिन् गृहीते, उपाध्यन्तरविशिष्टतद्ग्रहः / स्वभावो हि द्रव्यस्य उपाधिभिर्विशिष्यते; न तूपाधयो वा, विशेष्यत्वं वा, तस्य स्वभाव इति। तदपिप्लवत एव / न ह्यभेदादुपाध्यन्तरग्रहणत्वमासञ्जितम् / भेदं पुरस्कृत्यैवोपकार-कग्रहणे उपकार्यग्रहणप्रसजनात्। नचाग्निधूमयोः कार्यकारणभाव एव, स्वभावत एव धर्मधर्मिणोः प्रतिनियमकल्पनमुचितम् , तयोरपि प्रमाणासिद्धत्वात्। प्रमाणसिद्धेच स्वभावोपवर्णनमिति न्यायः / पञ्चात्र न्यायभूषणेन सूर्यादिग्रहणे तदुपकार्याशेषवस्तुराशिग्रहणप्रसञ्जनमुक्तम् / तदभिप्रायानवगाहनफलम् / तथाहि-त्वन्मते धर्मधर्मिणोर्भेदः, उपकारलक्षणैव च प्रत्यासत्तिः / तदोपकारक ग्रहणे समानदेशस्यैव धर्मरूपस्यैव चोपकार्यस्य ग्रहणमासञ्जितम्, तत् कथं सूर्योपकार्यस्य भिन्नदेशस्य द्रव्यान्तरस्य वा दृष्टव्यभिचारस्य ग्रहणप्रसङ्ग सङ्गतः / तस्मादेकधर्मद्वारेणाऽपि वस्तुस्वरूपप्रतिपत्तौ सर्वात्मप्रतीतेः, क शब्दान्तरेण विधिनिषेधावकाशः। अस्ति च, तस्मान्न स्वलक्षणस्य शब्दविकल्पलिङ्ग प्रतिभासित्वमिति स्थितम् / नापि सामान्य शाब्दप्रत्ययप्रतिभासि / सरितः पारे गावश्चरन्तीति गवादिशब्दात् सास्नाशृङ्गलाळू लादयोऽक्षराकारपरिकरिताः सजातीयभेदापरामशनात् संपिण्डिप्रायाः प्रतिभासन्ते / न च तदेव सामान्यम् / वर्णाकृत्यक्षराकारशून्यं गोत्वं हि कथ्यते / तदेव च सास्नाशृङ्गादिमात्रमखिलव्यक्तावत्यन्तविलक्षणमपि स्वलक्षणेनैकी-क्रियमाणं सामान्यमित्युच्यते; तादृशस्य बाह्यस्याप्रासेििन्तरेवासौ; केशप्रतिभासवत्। तस्माद्वासनावशा-दुद्धेरेव तदात्मना विवर्तोऽयमस्तु, असदेव वातद्रूपंख्यातु, व्यक्तय एव वा सजातीयभेदतिरस्कारेणान्यथा भासन्ताम्, अनुभवव्य-यधानात्। स्मृतिप्रमोषोवाऽभिधीयताम्, सर्वथा निर्विषयः खल्वयं सामान्यप्रत्ययः, क सामान्यवार्ता? यत् पुनः सामान्याभावे सामान्यप्रत्ययस्याकस्मिकत्यमुक्तम् ? तदयुक्तम्। यतः पूर्वपिण्डदण्डदर्शनस्मरणसहाकारिणाऽतिरिच्यमानाविशेषप्रत्ययजनिका सामग्री निर्विषयं सामान्यविकल्पमुत्पादयति; तदेवं न शाब्दप्रत्यये जातिःप्रतिभाति नापि प्रत्यक्षे, न चानुमानतोऽपि सिद्धिः; अदृश्यत्वे प्रतिबद्धलिङ्गादर्शनात् / नापीन्द्रियवदस्याः सिद्धिः, ज्ञानकार्यतः कादाचित्कस्यैव निमित्तान्तरस्य सिद्धेः। यदाऽपि पिण्डान्तरेऽन्तरालेवा गोबुद्धेरभावं दर्शयेत् तदा शावलेयादिसक-लगोपिण्डानामेवाभावादभावो गोबुद्धरुपपद्यमानः कथमर्था-तर-माक्षिपेत्? गोत्वादेव गोपिण्डः, अन्यथा तुरगोऽपि गोपिण्डः स्यात् / यद्येवं गोपिण्डादेव गोत्वमन्यथा तुरगत्वमपि गोत्वं स्यात्, तस्मात् कारणपरम्परात एव गोपिण्डो, गोत्वं तु भवतु मा वा / ननु सामान्यप्रत्यजननसामर्थ्य यद्येकस्मात् पिण्डादभिन्नम्। तदा विजाती-यव्यावृत्तं पिण्डान्तरमसमर्थम् / अथ भिन्नं, तदा तदेव सामान्यं, नाम्नि परं विवाद इति चेत्? अभिन्नैव सा शक्तिः प्र Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (75) उपोद्घातः तिवस्तुः यथा त्वेकः शक्तस्वभावो भावः तथा अन्योऽपि भवन् कीदृशं दोषमावहति? यथा भवतां जातिरेकाऽपि समानध्वनिप्रसवहेतुरन्याऽपि स्वरूपेणैव जात्यन्तरनिरपेक्षा, तथाऽस्माकं व्यक्तिरपि जातिनिरपेक्षा स्वरूपेणैव भिन्ना हेतुः। यत्तु त्रिलोचनः-अश्वत्वगोत्वादीनां सामान्यविशेषाणां स्वाश्रयेसमवायः सामान्यम् / सामान्यमित्यभिधानप्रत्यययोनिमित्तमिति / यद्येवं व्यक्तिष्वप्ययमेव तथाभिधानप्रत्यय हेतु रस्तु किं सामान्यस्वीकारप्रमादेन? न च समवायः सम्भवी॥ "इहेति बुद्धेः समवायसिद्धि-रिहेति धीश्च द्वयदर्शने स्यात् / न च कचित्तद्विषये त्यपेक्षा, स्वकल्पनामात्रमतोऽभ्युपायः" // 1 // एतेन येयं प्रत्ययानुवृत्तिरनुवृत्तवस्त्वनुयायिनी कथमत्यन्तभेदिनीषु व्यक्तिषु व्यावृत्तविषयप्रत्ययभावानुपातिनीषु भवितुमर्हतीत्यूहाप्रवर्त्तनमस्य प्रत्याख्यातम् / जातिष्वेव परस्परव्यावृत्ततया व्यक्तीयमानास्वनुवृत्तप्रत्ययेन व्यभिचारात् / यत् पुनरनेन विपर्यये वाधकमुक्तम्, अभिधानप्रत्ययानुवृत्तिः कुतश्चिनिवृत्त्यक्वचिदेव भवन्ती निमित्तवती न चान्यन्निमित्तमित्यादि / तन्न सम्यक् / अनुवृत्तमन्तरेणापि अभिधानप्रत्ययानुवृत्तेरतद्रूपपरावृत्तस्वरूपविशे-षात् अवश्यं स्वीकारस्य साधितत्वात्। तस्मात्"तुल्यभेदे यया जातिः , प्रत्यासत्त्या प्रसर्पति। कचिन्नान्यत्र सैवास्तु, शब्दज्ञाननिबन्धम् "||1| यत् पुनरत्र न्यायभूषणेनोक्तम्-नह्येवं भवति यथा प्रत्यासत्त्या दण्हसूत्रादिकं प्रसर्पति क्वचिन्नान्यत्र सैव प्रत्यासत्तिः पुरुषस्फटि-- कादिषु दण्डिसूत्रित्वादिव्यवहारनिबन्धनमस्तु किं दण्डसूत्रादिनेति / तदसङ्ग तम् / दण्डसूत्रयोर्हि पुरुषस्फटिक प्रत्यासन्नयोर्दृष्टयोः दण्डिसूत्रिप्रत्ययहेतुत्वं नापलप्यते / सामान्यं तु स्वप्नेऽपि न दृष्टम्। तद्यदीदं परिकल्पनीयं तदा वरं प्रत्यासत्तिरेव सामान्यप्रत्ययहेतुः परिकल्प्यताम्, कि गुऱ्या परिकल्पनयेत्यभिप्रायापरिज्ञानात्। अथेदं जातिप्रसाधकमनुमानमभिधीयते-यद्विशिष्टज्ञानं तद्विशेषणग्रहणनान्तरीयकम् / यथा दण्डिज्ञानम् / विशिष्टज्ञानं चेदंगौरयमित्यर्थतः कार्यहेतुः; विशेषणानुभवकार्य हि दृष्टान्ते विशिष्टबुद्धिः सिद्धेति / अत्रानुयोगः विशिष्टबुद्धेभिन्नविशेषग्रहणनान्तरीयकत्वं वा साध्यम् ; विशेषणमात्रानुभवनान्तरीयकत्वं वा? प्रथमपक्षे पक्षस्य प्रत्यक्षबाधासाधनावधानमनवकाशयति वस्तुग्राहिणः प्रत्यक्षस्योभयप्रतिभासाभावात् विशिष्टबुद्धित्वं च सामान्यम् / हेतुरनैकान्तिकः / मिन्नविशेषणग्रहणमन्तरेणापि दर्शनात्, यथा स्वरूपवान् घटः / गोत्वं सामान्यमिति वा / द्वितीयपक्षे तु सिद्ध-साधम् / स्वरूपवान् घट इत्यादिवत् गोत्वजातिमान् पिण्ड इति परिकल्पितं भेदमुपादाय विशेषणविशेष्यभावस्येष्टत्वादगोव्यावृ-त्तानुभयभावित्वात् गौरयमिति व्यवहारस्य / तदेव न सामान्यबुद्धिः। वाधकं च सामान्यगुणकर्माधुपाधिचक्रस्य, केवलव्यक्तिग्राहकं पटुप्रत्यक्षम् / दृश्यानुपलम्भो वा प्रसिद्धः। तदेवं विधिरेव शब्दार्थः। स च बाह्योऽर्थोबुद्ध्याकारश्च विवक्षितः तत्र, न बुध्याकारस्य तत्त्वतः संवृत्त्या या विधिनिषेधौ, स्वसंवेदनप्रत्यक्षगम्यत्वात्, अनध्यवसायाच। नापितत्त्वतोबाह्यस्यापि विधिनिषेधौ, तस्य शाब्दे प्रत्ययेऽप्रतिभासनात् / अत एव सर्वधर्माणां तत्त्वतोऽनभि-लाप्यत्वं प्रतिभासाध्यवसाया भावात् तस्मात् बाह्यस्यैव साम्वृतौ विधिनिषेधौ / अन्यथा संव्यवहारहानिप्रसङ्गात्। तदेवं "नाकारस्य न बाह्यस्य, तत्त्वतो विधिसाधनम्। बहिरेव हि संवृत्या, संवृत्याऽपितु नाकृतेः।।१।।" एतेन यद्धर्मोत्तरः--आरोपितस्य बाह्यत्वस्य विधिनिषेधावित्यलौकिकमनागममतार्किकीयं कथयति। तदपहस्तितम्। नन्वध्यवसाये यद्यध्यवसेयं वस्तु न स्फुरति तदा तदध्यवसितमिति कोऽर्थः? अप्रतिभासेऽपि प्रवृत्तिविषयीकृतमिति योऽर्थः / अप्रति-भासाविशेष विषयान्तरपरिहारेण कथं नियतविषया प्रवृत्तिरिति चेत्? उच्यते यद्यपि विश्वमगृहीतं तथापि विकल्पस्य नियतसा-मग्रीप्रसूतत्वेन नियताकारतया नियतशक्तित्वात् नियता एव जलादौ प्रवृत्तिः / धूमस्य परोक्षाग्निज्ञानजननवत्। नियतविषया हि भावाः प्रमाणपरिनिष्ठितस्वभावा न शक्तिसाङ्कर्यपर्यनुयोगभाजः / तस्मात् तदध्यवसायित्वमाकारविशेषयोगात् तत्प्रवृत्तिजनकत्यम् / न च सादृश्यादारोपेण प्रवृत्तिं ब्रूमः, येनाकारे बाह्यस्य बाह्ये वा आकारस्यारोपद्वारेण दूषणावकाशः, किं तर्हि स्ववासनाविपाकवशादुपजायमानैव बुद्धिरपश्यन्त्यपि बाह्यं बाह्ये वृत्तिमातनोतीति विप्लुतैव / तदेवमन्याभावविशिष्टो विजातिव्यावृत्तोऽर्थो विधिः। स एव चापोहशब्दवाच्यः शब्दानामर्थः प्रवृत्ति-- निवृत्तिविषयश्चेति स्थितम्।। अत्र प्रयोगः-यद् वाचकं तत्सर्वमध्यवसितातद्रूपपरावृत्तवस्तुमागोचरम् यथेह कूपेजलमिति वचनम्। वाचकं वेदंगवादिशब्द-रूपमिति स्वभावहेतुः / नायमसिद्धः, पूर्वोक्तेन न्यायेन पारमा-- र्थिकवाच्यवाचकभावस्याभावेऽपि अध्यवसायकृतस्य सर्वव्यवहारिभिरवश्यं स्वीकर्तवयत्वात् / अन्यथा सर्वव्यवहारोच्छेदप्रसङ्गा त्। नाऽपि विरुद्धः, सपक्षे भावात् / न चानैकान्तिकः, तथाहि--शब्दानामध्यवसितविजातिव्यावृत्तवस्तुमात्रविषयत्वमनिच्छद्भिः परैः परमार्थतः"वाच्यं स्वलक्षणमुपाधिरुपाधियोगः, सोपाधिरस्तु यदि वा कृतिरस्तु बुद्धेः।" गत्यन्तराभावात्। अविषयत्वे च वाचकत्वायोगात्। तत्र"आद्यन्तयोर्न समयः फलशक्तिहानेमध्येऽप्युपाधिविरहात् त्रितयेन युक्तः // " तदेवं वाच्यान्तरस्याभावात्। विषयवत्त्वलक्षणस्य व्यापकस्य निवृत्ती विपक्षतो निवर्तमानं वाचकत्त्वमध्यवसितबाह्यविषयत्वेन व्याप्यत इति व्याप्तिसिद्धिः। "शब्देस्तावन्मुख्यमाख्यायतेऽर्थः, तत्रापोहस्तद्गुणत्वेन गम्यः। अर्थश्वैकोऽध्यासतो भासतोऽन्यः, स्थाप्यो वाच्यस्तत्त्वतो नैव कश्चित् / / " अथापोहसिद्धिजैनाचार्यरित्थं पराक्रियते - "अथश्रीमदनेकान्त-समुद्घोषपिपासितः। अपोहमापिबामि द्राक्, वीक्षन्तां भिक्षवः क्षणम्" ||1|| इह तावद्विकल्पानां तथाप्रतीतिपरिहृतविरुद्धधर्माध्यासकथचित्तादात्म्यापन्नसामान्यविशेषस्वरूपवस्तुलक्षणाक्षणदीक्षादीक्षितत्वं प्राक् प्राकट्यत / ततस्तत्त्वतः शब्दानामपि तत्प्रसिद्धमे Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपोद्घातः (76) वायतोऽजल्पियुष्मदीयैः- “स एव शब्दानां विषयो यो विकल्पा-नाम् परस्पराश्रयत्वमिति / एवं च कारणैक्यं, प्रत्यवमर्शक्यं च विकल्प्य " इति कथमपोहः शब्दार्थः स्यात्? अस्तु या, तथाऽप्यनुमानवत् किं दूषणीयम् / अपि च-यदि बुद्धिप्रतिविम्बात्मा शब्दार्थः स्यात्, तदा नशब्दः प्रमाणमुच्यते। अपोहगोचरत्वेऽपि परम्परया पदार्थ प्रतिबन्धात् / कथमतो बहिरर्थे प्रवृत्तिः स्यात्? स्वप्रतिभासेऽनर्थेऽर्थाध्यवसा-- प्रमाणमनुमानमिति चेत्, तत एव शब्दोऽपि प्रमाणमस्तु / याचेत् / ननु कोऽयमर्थाध्यवसायो नाम? अर्थसमारोप इति चेत्, तर्हि अतीतानागताम्बरसरोजादिष्वसत्स्वपि शब्दोपलम्भान्नात्रार्थप्रतिबन्ध सोऽयमानर्थयोरग्निमाणवकयोरिव तद्विकल्पविषयभावे सत्येव इति चेत्, तहभूद् वृष्टिः, गिरिनदीवेगोपलम्भात्, भावी भरण्युदयः, समुत्पत्तुमर्हति / न च समारोपविकल्पस्य स्वलक्षणं कदाचन रेवत्युदयात्, नास्ति रासभशृङ्गम्, समग्र प्रमाणैरनुपलम्भात्, गोचरतामञ्चति / यदि चानर्थेऽर्थसमारोपः स्यात्, तदा इत्यादेरर्थाभावेऽपि प्रवृत्तेऽनुमानेऽपि नार्थप्रतिबन्धः स्यात् / यदि वाहदोहाद्यर्थक्रियार्थिनः सुतरां प्रवृत्तिर्न स्यात्। न हि दाहपाका--द्यर्थी वचोवाच्यापोहोऽपि पारम्पर्येण पदार्थप्रतिष्ठः स्यात्, तदानीमलावूनि समारोपितपावकत्वे माणवके कदाचित्प्रवर्तते / रजतरूपतामञ्जन्तीत्यादिविप्रतारक-वाक्यापोहोऽपि तथा भवेदिति चेत्, ऽवभासमानशुक्तिकायामिव विकल्पात्तत्र प्रवृत्तिरिति चेत् / भ्रान्तिअनुमेयापोहेऽपि तुल्यमेतत्, प्रमेयत्यादिहेत्वनुमे यापेहेऽपि रूपस्त यं समारोपः, तथा च कथं ततः प्रवृत्तोऽर्थक्रियार्थी कृतार्थः पदार्थप्रतिष्ठिताप्रसक्तेः / प्रमेयत्वं हेतुरेव न भवति, विपक्षासत्त्वत- स्यात् / यथा शुक्तिकायां प्रवृत्तो रजतार्थक्रियार्थीति / यदपि प्रोक्तम्ल्लक्षणाभावादिति कुतस्त्या तदपोहस्य तनिष्ठतेति चेत्, तर्हि कार्यकारणभावस्यैव वाच्यवाचकतया व्यवस्थापितत्वादिति / विप्रतारकवाक्यमप्यागम एव न भवति, आप्तोक्तत्वतल्लक्षणा- तदप्ययुक्तम् / यतो यदि कार्यकारणभाव एव वाच्यवाचकभावः स्यात्, भावादित्यादि समस्तं समानम् / यस्तु नाप्तोक्तत्वं वचसि विवेचयितुं तदा श्रोत्रज्ञाने प्रतिभासमानः शब्दः स्वप्रति-भासस्य भवत्येव शक्यमिति शाक्यो वक्ति, स पर्यनुयोज्यः-- किमाप्तस्यैव कारणमिति तस्याप्यसौ वाचकः स्यात् / यथा च विकल्पस्य शब्दः कस्याप्यभावादेवमभिधीयेत, भावेऽप्यस्य निश्चयाभावात्, निश्चयेऽपि कारणम्, एवं परम्परया स्वलक्षणमपि, अतस्तदपि वाचकं भवेदिति मौनव्रतिकत्वात्, वक्तृत्वेऽप्यनाप्तवचनात्, तद्ववसो विवेकावधारणा प्रतिनियतवाच्यवाचकभावव्यवस्थानं प्रलयपद्धतिमनुधावेत्। ततः शब्दः भावाद्वा / सर्वमप्येतचार्वा-कादिवाचां प्रपश्चात, मातापितृपुत्रभ्रातृ सामान्यविशेषात्मकार्थावबोधनि बन्धनमेवेति स्थितम्॥ गुरुसुगतादिवचसां विशेषमातिष्ठमानैरप्रकटनीयमेव / न च नास्ति अथापौरुषेयत्वव्याधातः--- विशेषस्वीकारः, तत्पठितानुष्ठानघटनायामेव प्रवृत्तेर्निर्निबन्ध- आगमस्यापौरुषेयत्वं स्याद्वादमञ्जर्याम् / स हि पौरुषेयो वा नत्यापत्तेः / अथानुमानि-क्येवाऽऽप्तशब्दादर्थप्रतीतिः कथम्?- स्यादपौरुषेयो वा? पौरुषेयश्चेत्सर्वज्ञकृतस्तदितरकृतो या? आद्यपक्षे "पादपार्थविवक्षावान्, पुरुषोऽयं प्रतीयते। युष्मन्मतव्याहतिः। तथा च भवत्सिद्धान्तःवृक्षशब्दप्रयोक्तृत्वात्, पूर्वावस्थास्वहं यथा 1 // " "अतीन्द्रियाणामर्थानां, साक्षाद् द्रष्टा न विद्यते। इति विवक्षामनुमाय, सत्या विवक्षेयम्, आप्तविवक्षात्यात्, मद्वि नित्येभ्यो वेदवाक्येभ्यो, यथार्थत्वविनिश्चयः" ||1|| वक्षावदिति वस्तुनो निर्णयादिति चेत् / तदचतुरस्रम् / अमूदृशव्य- द्वितीयपक्षेतु तत्र दोषवत्कर्तृकत्वेनाऽनाश्वासप्रसङ्गः। अपौरुषे-यश्चेन्न वस्थाया अनन्तरोक्तवैशेषिकपक्षप्रतिक्षेपेण कृतिनिर्वचनत्वात्। किञ्च- संभवत्येव, स्वरूपनिराकरणात्, तुरङ्ग शृङ्गवत् / तथाहिशाखादिमति पदार्थे वृक्षशब्दसङ्केते सत्येतद्विवक्षाऽनुमानमातन्येत्, उक्तिर्यचनमुच्यते इति चेति पुरुषक्रियानुगत रूपमस्य एतक्रियाभावे अन्यथा वा। नतावदन्यथा, केनचित् कक्षे वृक्षशब्दं संकेत्य तदुचारणात्, कथं भवितुमर्हति / न चैतत् के वलं क्वचिद् ध्वनदुपलभ्यते, उन्मत्तसुप्तशुकशारिकादिना गोत्रस्खलन-वता चान्यथाऽपि उपलब्धावप्यदृश्यवक्त्राशङ्कासम्भवात्। तस्माद्यद्वचनंतत्पौरुषेयमेव, तत्प्रतिपादनाच हेतोर्व्यभिचारापत्तेः। संकेतपक्षे तु यद्येष तपस्वी वर्णात्मकत्वात्, कुमारसम्भवादिवचनवत् / वचनात्मकश्च वेदः। तथा शब्दस्तद्वशास्त्वेिव वदेत्, तदा किं नाम खूणं स्यात् / न चाहु:खल्वेषोऽर्थाद्रिभेति / विशेषलाभश्चैवं सति यदेवंविधाननुभूयमान- "ताल्वादिजन्मा ननु वर्णवर्गो, पारम्पर्यपरित्याग इति। यदकथि-परमार्थतः सर्वतो-ऽव्यावृत्तस्वरूपेषु वर्णात्मको वेद इति स्फुटं च। स्वलक्षणेष्वेकार्थकारित्वेनेत्यादि / तदवद्यम् / यतोऽर्थस्य पुंसश्च ताल्यादिततः कथं स्यावाहदोहादेरेकत्वम्, अद्विरूपत्वं समानत्वं वा विवक्षितम्? न तावदाधः दपौरुषेयोऽयमिति प्रतीतिः? ||1 // " इति। पक्षः, षण्डमुण्डादौ कुण्डकाण्डभाण्डादिवाहादेरर्थस्य भिन्नभिन्नस्वैव श्रुतेरपौरुषेयत्वमुररीकृत्यापि तावद्भवद्भिरपि तदर्थव्याख्यानं संदर्शनात् / द्वितीयपक्षेऽपि सदृशपरिणामास्पदत्वम्, अन्यव्यावृत्त्य- पौरुषेयमेवाङ्गीक्रियते / अन्यथा अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकाम इत्यस्य धिष्ठितत्वं वा समानत्वं स्यात्? न प्राच्यः प्रकारः, सदृशपरिणामस्य स्थमांसं भक्षयेदिति किं नार्थो , नियामकाभावात्ततोऽवरं सूत्रमपि सौगतैरस्वीकृतत्वात् / न द्वितीयः, अन्यव्यावृत्तेरतात्त्विकत्येन पौरुषेयमभ्युपगतम् / अस्तु वा अपौरुषेयस्तथापि तस्य न प्रामाण्यम, वान्ध्येयस्येव स्वलक्षणेऽधिष्ठानासंभवात्। किञ्चअन्यतः सामान्येन, आप्तपुरुषाधीना हि वाचां प्रमाणतेति! यत्तु कर्वस्मरणं साधनं तद्विशेषणं विजातीयाद्वा व्यावृत्तिरन्यव्यावृत्तिर्भवेत् ? प्रथमपक्षे, न किञ्चिदसमानं सविशेषणं वा वयेत? प्राक्तनं तावत्पुराणकूप प्रासादारामविहारास्यात्, सर्वस्यापि सर्वतो व्यावृत्तत्वात् / द्वितीये तु विजातीयत्वं वाजि- दिव्यभिचारि, तेषां कःस्मरणेऽमि पौरुषेयत्वात् / द्वितीयं तु कुजरादिकार्याणां वाहादिसजातीयत्वे सिद्धे सति स्यात्, सम्प्रदायाव्यवच्छेदे सति कर्तृस्मरणादिति व्यधिकरणासिद्धः, तच्चान्यव्यावृत्तिरूपमन्येषां विजातीयत्वे सिद्धे सति, इति स्पष्ट / कर्तृस्मरणस्य श्रुतेरन्यत्राश्रयेपुंसि वर्तमानात्। अथापौरुषेयी श्रुतिः, सम्प्र Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (77) उपोद्घातः दायाव्यवच्छेदे सत्यस्मर्यमाणकर्तृकत्वादाकाशवदित्यनुमानरचनायामनवकाशा व्यधिकरणासिद्धिः मैवम्, एवमपि विशेषणे संदिग्धासिद्धतापत्तेः / तथा ह्यादिमतामपि प्रासादादीनां सम्प्रदायो व्यवच्छिद्यमानो विलोक्यते, अनादेयस्तु श्रुतेरव्यवच्छेदी संप्रदायोऽद्यापि विद्यत इति मृतकमुष्टिबन्धमन्वकार्षीत् / तथा च कथं न संदिग्धासिद्धं विशेषणं विशेष्यमप्युभयासिद्धं वादिप्रतिवादिभ्यां तत्र कर्तुः स्मरणात्। न तु श्रोत्रियाः श्रुतो करि स्मरन्तीति मृषोद्यं श्रोत्रियापसदाः खल्वमी इति चेन्ननु यूयमाम्नायमाम्नासिष्ट ताव-ततो 'यो वैवेदांश्व प्रहिणोतीति प्रजापतिः सोमं राजानमन्वसृज-त्ततस्त्रयो वेदा अन्वसृजन्तेति च' स्वयमेव स्वस्य करि स्मारयन्तीं श्रुतिं विश्रुतामिव गणयन्तो यूयमेव श्रोत्रियापसदाः किन्न स्यात् / किं च -क एवमाध्यन्दिनितित्तिरिप्रभृतिमुनिनामाङ्किताः काश्चन शाखास्तत्कृतत्वादेव मन्वादिस्मृत्यादिवदुत्सन्नानां तासां कल्पादौ तैर्दृष्टत्वात्, प्रकाशितत्वाता तन्नामचिह्नेऽनादौ कालेऽनन्तमुनिनामाङ्कितत्वं तासां स्यात्। जैनाश्च कालासुरमेतत्करि स्मरन्ति! कर्तविशेषविप्रतिपत्तेरप्रमाणमेवैतत्स्मरणमिति चेत्, नैवम् / यतो यत्रैव विप्रतिपत्तिः तदेवाप्रमाणमस्तु, न पुनः कर्तृमात्रस्मरणमपि। "वेदस्याध्ययनं सर्वं ,गुर्वध्ययनपूर्वकम्। वेदाध्ययनवाच्यत्वादधुनाऽध्ययनं यथा|१|| अतीतानागतौ कालौ, वेदकारविवर्जितौ। कालत्वात्तद्यथा कालौ, वर्तमानः समीक्षते" // 2 // इति कारिकोक्तेर्वेदाध्ययनवाच्यत्वकालत्वेऽपि हेतुः कुरङ्गशृङ्ग-भङ्गुरं कुरङ्गाक्षीणां चेत इति वाक्याध्ययनं गुर्वध्ययनपूर्वकमेतद्वाक्याध्ययनवाच्यत्वादधुनातनाध्ययनवदतीतानागतौ कालौ प्रक्रान्तवाक्यकर्तृवर्जितौ कालत्वाद्वर्तमानकालवदिति वेदप्रयोजकत्वादनाकर्णनीयौ सकर्णानाम् / अथार्थापत्तेरपौरुषेयत्वनिर्णयो वेदस्य। तथाहिसंवादविसंवाददर्शनादर्शनाभ्यां तावदेष निःशेषपुरुषैः प्रामाण्येन निर्णायि, तन्निर्णयश्वास्य पौरुषेयत्वे दुरापः। यतः"शब्दे दोषोद्भवस्तावद्वक्यधीन इति स्थितिः। तदभावः क्वचित्तावद्, गुणवद्वक्तृकत्यतः।।१।। तद्गुणैरपकृष्टानां, शब्दे संक्रान्त्यसंभवात्। वेदे तु गुणवान् वक्ता, निर्णेतुं नैव शक्यते॥२॥ ततश्च दोषाभावोऽपि, निर्णेतुं शक्यतां कथम्। वक्त्रमावे तु सुज्ञानो, दोषाभावो विभाव्यते // 3 // यस्माद्वकुरभावेन, न स्युर्दोषा निराश्रयाः"। ततः प्रामाण्यनिर्णयान्यथाऽनुपपत्तेरपौरुषेयोऽयमिति। अस्तु तावदत्र कृपणपशुपरम्पराप्राणव्यपरोपणप्रगुणप्रचुरोपदेशापवित्र-वादप्रमाणमेवैष इत्यनुत्तरोत्तरप्रकारः प्रामाण्यनिर्णयोऽप्यस्य न साध्यसिद्धिर्विरुद्धत्वात, गुणवद्वक्तृतायामेव वाक्येषु प्रामाण्यनि-र्णयोपपत्तेः / पुरुषो हि यथा रागादिमान् मृषावादी तथा सत्यशौ-चादिमान् वितथवचनः समुपलब्धः, श्रुतौ तु तदुभयाभावे नैरर्थ-क्यमेव भवेत् / कथं वक्तुर्गुणित्वनिश्चयश्छन्दसीति चेत्कथं पितृपितामहप्रपितामहादेरप्यसौ तस्माद्येन तद्धस्तन्यस्ताक्षरश्रेणेः पारम्पर्योपदेशस्य चानुसारेण ग्राह्यदेयनिधानादौ निःशङ्कः प्रवर्तेथाः, क्वचित्संवादाचेदत एवान्यत्रापि प्रतीहि कार्यादौ संवाददर्शनात् / कदाचित् वचित् संवादस्तु सामग्रीवैगुण्यात् त्वयाऽपि प्रतीयत एवं प्रतीताप्तमन्त्रोपदिष्टमन्त्रवत् / प्रतिपादितश्च प्राक् रागद्वेषाज्ञानशून्यपुरुषविशेषनिर्णयः किं चास्य व्याख्यानं तावत्पौरुषेयमेवापौरुषेयत्वे भावना नियोगादिविरुद्धव्याख्याने भेदाभावप्रसङ्गात्, तथाच को नामात्र विश्रम्भो भवेत् कथं चैतध्वनीनामर्थनिर्णीतिलौकिकध्वन्यनुसारणेति चेत् किं न पौरुषेयत्वनिर्णातिरपि तत्रोभयस्यापि विभावनादन्यथा त्वर्द्धजरतीयम्।न च लौकिकार्थानुसारेण मदीयोऽर्थःस्थापनीय इति श्रुतिरेव स्वयं वक्ति। न च जैमिन्यादावपि तथा कथयति प्रत्यय इत्यपौरुषेयवचनसामोऽप्यन्य एव कोऽपि संभाव्येत, पौरुषेयीणामपिम्लेच्छार्यवाचामे कार्थ्यं नास्ति किं पुनरपौरुषेयवाचां, ततः परमकृ-- पापीयूषप्लावितान्तःकरणः कोऽपिपुमान् निर्दोषः प्रसिद्धार्थे ध्यनिभिः स्वाध्यायं विधाय व्याख्यातीदानींतनग्रन्थकारवदिति युक्तं पश्यामः / अवोचाम च- "छन्दः स्वीकुरुषे प्रमाणमथ चेत्तद्वा-च्यनिश्चायकं / कंचिद्विश्रविदं नजल्पसि ततो ज्ञातोऽस्य मूल्यक्रयी" इति आगमोऽपि नापौरुषेयत्वमाख्याति / पौरुषेयत्वविष्कारिण एवा-स्योक्तवद् सद्भावात् / अपि चेयमानुपूर्वी पिपीलिकादीनामिव देशकृताङ् कुरपत्रकहलकाण्डादीनामिव कालकृताचावर्णानां वेदे न संभवति, तेषां नित्यव्यापकत्वात् / क्रमेणाभिव्यक्तेः सा संभ-वतीति चेत्तर्हि कथमियमपौरुषेयी भवेदभिव्यक्तिः, पौरुषेयत्वा-दिति सिद्धा पौरुषेयी श्रुतिः / अथजगत्कर्तृत्वविध्वंसःयत्तायदुच्यते परैः-क्षित्यादयो बुद्धिमत्कर्तृकाः कार्यत्यात् घटवदिति / तदयुक्तम् / व्याप्तेरग्रहणात् / साधनं हि सर्वत्र व्याप्ती प्रमाणेन सिद्धायां साध्यं गमयेदिति सर्ववादिसंवादः।सचायं जगन्ति सृजन् सशरीरोऽशरीरो वा स्यात्? सशरीरोऽपि किमस्मदादिवद् दृश्यशरीरविशिष्ट उत पिशाचादिवददृश्यशरीरविशिष्टः? प्रथमपक्षे प्रत्यक्षबाधः / तमन्तरेणाऽपि च जायमाने तृणतरुपुर-न्दरधनुरभ्रादौ कार्यत्वस्य दर्शनात् प्रमेयत्वादिवत्साधारणानैकान्तिको हेतुः / द्वितीयविकल्पे पुनरदृश्यशरीरत्वे तस्य माहात्म्यविशेषः / कारणमाहोस्विदस्मदाद्यदृष्टवैगुण्यम् / प्रथमप्रकारः कोशपानप्रत्यायनीयः / तत्सिद्धौ प्रमाणाभावात् इतरेतराश्रय-दोषापत्तेश्च / सिद्धे हि माहात्म्यविशेषे तस्यादृश्यशरीरत्वं प्रत्येतव्यम्, तत्सिद्धौच माहात्म्यविशेषसिद्धिरिति / द्वैतीयीकस्तु प्रकारो न संचरत्येव विचारगोचरे; संशयानिवृत्तेः / किं तस्याऽसत्त्वाददृश्यशरीरत्वं, वान्ध्येयादिवत्, किं वाऽस्मदाद्यदृष्टवैगुण्यात्पिशाचा-दिवदिति निश्चयाभावात् / अशरीरचे तदा दृष्टान्तदाष्टान्तिक यो-वैषम्यम् / घटादयो हि कार्यरूपाः सशरीरकर्तृका दृष्टाः / अशरीरस्य च सतस्तस्य कार्यप्रवृत्तौ कुतः सामर्थ्यमाकाशादिवत् / तस्मात्सशरीराशरीरलक्षणे पक्षद्वये ऽपि कार्यत्वहेतोर्याप्तयसिद्धिः। किञ्चत्वन्मतेन कालात्ययापदिष्टोऽप्ययं हेतुः / धर्येकदेशस्य तरुविद्युदभ्रदादेरिदानीमप्युत्पद्यमानस्य विधातुरनुपलभ्य-मानत्वेन प्रत्यक्षबाधितधर्म्यनन्तरं हेतुभणनात्। तदेवं न कश्चिज्जगतः कर्ता / किञ्चस ईश्वरः खलु नित्यत्वेनैकरूपः सन् त्रिभुवनसर्गस्वभावोऽतत्स्वभावो वा? प्रथम विधायां जगन्निर्माणात्क-दाचिदपि नोपरमेत। तदुपरमे तत्स्वभावत्यहानिः। एवं च सर्गक्रियाया अपर्यवसानादेकस्यापि कार्यस्य न सृष्टिः। घटो हि स्वारम्भक्षणादारभ्य परिसमाप्तेरुपान्त्यक्षर्णयावन्निश्चयनयाभि-प्रायेण न Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपोद्घातः (78) घटव्यपदेशमासादयति / जलाहरणाद्यर्थकियायामसाधकतम-त्यात। स्पर्शशून्या-श्रयत्वम्, अतिनिबिडप्रदेशे प्रवेशनिर्गमयोरप्रतिघातः, पूर्व अतत्स्वभावपक्षे तु न जातु जगन्ति सृजेत्तत्स्वभावायोगा-द्रगनवत् / पश्चा-चावयवानुपलब्धिः, सूक्ष्ममूर्तद्रव्यान्तराऽप्रेरकत्वं, गगनगुणत्वं अपि च-तस्यैकान्तनित्यस्वरूपत्वे सृष्टिवत्संहारोऽपि न घटते / वा? नाद्यः पक्षः। यतः शब्दपर्यायस्याश्रये भाषावर्गणारूपे स्पर्शाभायो नानारूपकार्यकरणेऽनित्यत्वापत्तेः। स हियेनैव स्वभावेन जगन्ति सृजेत् न तावदनुपलब्धिमात्रात् प्रसिद्ध्यति, तस्य सव्यभि-चारत्वात् / तेनैव तानि संहरेत्, स्वभावान्तरेण वा? तेनैव चेत्सृष्टिसंहारयो- योग्यानुपलब्धिस्त्वसिद्धा तत्र स्पर्शस्यानुद्भूतत्वेनोपलब्धिलक्षणयोगपद्यप्रसङ्गः, स्वभावाभेदात् / एकस्वभावात्कारणादनेकस्वभाव- | प्राप्तत्वाभावात्; उपलभ्यमानगन्धाधारद्रव्यवत् / अथ घनसारगन्धकार्योत्पत्तिविरोधात्। स्वभावान्तरेणचेन्नित्यत्वहानिः / स्वभावभेद एव सारादौ गन्धस्यस्पर्शाव्यभिचारनिश्चयादत्रापितन्निर्णयेऽप्यनुपलम्भादहि लक्षणमनित्यतायाः। यथा पार्थिवशरीरस्याहारपरमाणु-सहकृतस्य नुद्भूतत्वं युक्तम्, नेतरत्र, तन्निर्णायकाभावात् इति चेत्, प्रत्यहमपूर्वापूर्वोत्पादे न स्व-भावभेदादनित्यत्वम् / इष्टश्च भवतां माभूत्तावत्तेन्निर्णायकं किञ्चित्, किन्तु पुद्गलानामुद्भूतानुद्भूतस्पर्शानासृष्टिसंहारयोः शंभौ स्वभाव-भेदः। रजोगुणात्मकतया सृष्टी, मुपलब्धेः शब्देऽपिपौद्गलिकत्वेन परैः प्रणिगद्यमाने, बाधकाभावेचसति तमोगुणात्मकतया संहरणे, सात्विकतया च स्थितौ तस्य संदेह एव स्यात्, न त्वभावनिश्चयः, तथा च सन्दिग्धासिद्धो हेतुः। नच व्यापारस्वीकारात् / एवं चावस्था-भेदस्तद्भेदे चावस्थावतोऽपि नास्ति तन्निर्णायकम् / तथाहि-शब्दाश्रयः स्पर्शवान्, भेदान्नित्यत्वक्षतिः। अथास्तु नित्यः सस्तथापि कथं सततमेव सृष्टौ न अनुयातप्रतिवातयोर्विप्रकृष्टनिकटशरीरिणोपलभ्यमानाऽनुपलचेष्टते। इच्छावशाचेन्ननु ता अपीच्छाः स्वसत्तामात्रनिबन्धनात्मलाभाः भ्यमानेन्द्रियार्थत्वात्, तथाविधगन्धाधार-द्रव्यवत्, इति / सदैव किन्न प्रवर्तयन्तीति स एवोपालम्भः।तथा शम्भोरष्टगुणाधिकरणत्वे द्वितीयकल्पेऽपि गन्धद्रव्येण व्यभिचारः, वर्तमानजात्यकस्तूरिकाककार्यभेदानुमेयानां तदिच्छानामपि विषमरूपत्वान्नित्यत्वहानिः केन पूरकश्मीरजादिगन्धद्रव्यं हि पिहितकपाटसंपु-टापवरकस्यान्तर्विशति, वार्यते? किश-प्रेक्षावतां प्रवृत्तिः स्वार्थकारुण्याभ्यां व्याप्ता। ततश्चायं बहिश्च निस्सरति, नचापौद्गलिकम्। अथ तत्र सूक्ष्मरन्ध्रसंभवेनातिनिजगत्सर्ग व्याप्रियते स्वार्थात्कारुण्याद्वा? न तावत्स्वार्थात्, तस्य विडत्वाभावात् तत्प्रवेशनिष्काशौ; अत एव तदल्पीयस्ता, न कृतकृत्यत्वात्। नच कारुण्यात्, परदुःखप्रहाणेच्छा हि कारुण्यम्। ततः त्वपावृतद्वारदशायामिव तदेकार्णवत्वम्, सर्वथा नीरन्धे तु प्रदेशे नैती प्राक्सर्गाज्जीवानामिन्द्रियशरीरविषयानुत्पत्तौ दुःखाभावेन कस्य / संभवत इति चेत्, एवं तर्हि शब्देऽपि सर्वस्य तुल्ययोग क्षेमत्वादसिद्धता प्रहाणेच्छा कारुण्यम् / सर्गोत्तरकाले तु दुःखिनोऽवलोक्य हेतोरस्तु / पूर्व पश्चाचावयवानुपलब्धिः, सौदामिनीदामोल्कादिभिकारुण्याभ्युपगमे दुरुत्तरमितरेतराश्रयम् / कारुण्येन सृष्टिः, सृष्ट्या च रनैकान्तिकी। सूक्ष्ममूर्तद्रव्यान्तराप्रेरकत्वमपि गन्ध्रद्रव्यविशेषसूक्ष्मकारुण्यम् इति नास्य जगत्कर्तृत्वं कथमपि सिद्ध्यतीति संक्षेपः। रजोधूमादि भिर्व्यभि-चारी। न हिगन्धद्रव्यादिकमपि नसि निविशमानं अथ शब्दाकाशगुणत्वखण्डनम् तद्विवर द्वारदे-शोद्भिन्नश्मश्रुप्रेरक प्रेक्ष्यते / गगनगुणत्वं त्वसिद्धम्। अकारादिः पौदलिको वर्णः। तथाहि-न गगनुगुणः शब्दः अस्मदादिप्रत्यक्षत्वात् रूपादिवदिति / पुगलैर्भाषावर्गणापरमाणुभिरारब्धः पौगलिकः। पौगलिकः शब्द पौगलिक-त्वसिद्धिः पुनरस्य-शब्दः पौगलिकः, इन्द्रियार्थत्वात्, इन्द्रियार्थत्वाद्रूपादिवत् / यचास्य पौद्रलिकत्वनिषेधाय स्पर्शशू रूपादिव-देवेत्यतितरां संक्षेपः।। न्याश्रयत्वादतिनिविडप्रदेशे प्रवेशनिर्गमयोरप्रतिघातात्पूर्व पश्चा __ अद्वैतखण्डनम्चावयवानुपलब्धेः सूक्ष्ममूर्तद्रव्यान्तराप्रेरकत्वाद्गगनगुणत्वाचेति पञ्च वेदान्तिनस्त्वेवं प्रजल्पन्ति- 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म नेह नानाऽस्ति हेतवो यौगैरुपन्यस्तास्ते हेत्वाभासाः। तथाहि-शब्दपर्याय-स्याश्रयो किञ्चन / आरामं तस्य पश्यन्तिन तत्पश्यति कश्चन' // 1 // इति न्यायादयं भाषावर्गणा, नपुनराकाशं,तत्र चस्पर्शो निर्णीयत एव। यथा शब्दाश्रयः प्रपञ्चो मिथ्यारूपः, प्रतीयमानत्वात्, यदेवं तदेवम्, यथा शुक्तिशकले स्पर्शवाननुवातप्रतिवातयोर्विप्रकृष्टनिकटशरीरिणोपलभ्यमानानु- कलधौतम्, तथाचायं, तस्मात्तथा। तदेतद्वार्तम्। तथाहि-मिथ्यारूपत्वं पलभ्यमानेन्द्रियार्थत्वात्तथाविधगन्धाधारद्रव्य-परमाणुवत् इत्यसिद्धः तैः कीदृग विवक्षितम् / किमत्यन्तासत्त्वम् उतान्यस्यान्याकारतया प्रथमः / द्वितीयस्तु गन्धद्रव्येण व्यभिचारा-दनै कान्तिकः / प्रतीतत्वम्, आहोस्विदनिर्वाच्यत्वम् / प्रथमपक्षेऽसत्रख्यातिप्रसङ्गः / वर्तमानजात्यकस्तूरिकादिगन्धद्रव्यं हि पिहितद्वारापवरकस्यान्त- द्वितीये विपरीतख्यातिस्वीकृतिः। तृतीये तु किमिदम् अनिर्वाच्यत्वम्? विंशति बहिश्च निर्याति, नचापौद्भलिकम् / अथतत्र सूक्ष्मरन्ध्रसम्भवान्ना- निःस्वभावत्वं चेत् निसः प्रतिषेधार्थत्वे स्वभावशब्दस्यापि तिनिविडत्वमतस्तत्र तत्प्रवेशनिष्क्रमौ, कथमन्यथोद्घाटितद्वारा- भावाभाषयोरन्यतरार्थत्वेऽसत्ख्यातिसत्ख्यात्यभ्युपगमप्रसङ्गः / यस्थायामिव न तदेकार्णवत्वम्? सर्वथा नीरन्ध्रेतु प्रदेशे न तयोः संभव भावप्रतिषेधेऽसत्ख्यातिर-भावप्रतिषेधे सत्ख्यातिरिति / प्रतीत्य इति चेत्तर्हि शब्देऽप्येतत्समानमि-त्यसिद्धो हेतुः / तृतीयस्तु गोचरत्वं निःस्वभावत्व-मिति चेत्, अत्र विरोधः नि प्रपचो, हिनप्रतीयते तडिल्लतोल्कादिभिरनैकान्तिकः। चतुर्थोऽपि तथैव, गन्धद्रव्यविशेष- चेत्कथम् धर्मितयोपात्तः ? कथं च प्रतीयमानत्वं हेतुतयोपात्तम् ? सूक्ष्मरजोधूमादिभिर्व्यभिचारात्। नहि गन्धद्रव्यादिकमपि नासायां तथोपा-दाने वा कथं न प्रतीयते / यथा प्रतीयते, न तथेति चेत्तर्हि निविशमानं तद्विवरद्वारदेशोद्भि-नश्मश्रुप्रेरकं दृश्यते पञ्चमः पुनरसिद्धः, विपरीत--ख्यातिरियमभ्युपगता स्यात् / किञ्चेयमनिर्याध्यता तथाहि-न गगनगुणः शब्दोऽस्मदादिप्रत्यक्षत्वाद्रूपादिवदिति सिद्धः प्रपञ्चस्य प्रत्यक्षवाधिता, घटोऽयमित्याद्याकारं हि प्रत्यक्षं प्रपञ्चस्य पौगलिकः शब्द इति / अथ नायं शब्दः पौद्गलिकः संगच्छत इति यौगाः सत्यतामेव व्यवस्यति, घटादिप्रतिनियतपदार्थपरिच्छेदात्मसङ्गिरमाणाः सप्रणयप्रणयिनीनामेव गौरवार्हाः / यतः कोऽत्र हेतुः? / नस्तस्योत्पादात् / इतरेतरविविक्तवस्तूनामेव च प्रपञ्चशब्द Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (71) उपोद्घातः वाच्यत्वात् / अथ प्रत्यक्षस्य विधायकत्यात्कथं प्रतिषेधे सामर्थ्यम्। प्रत्यक्ष हि-इदमिति वस्तुस्वरूपं गृह्णाति, नान्यत्स्वरूपं प्रतिषेधति। "आहुर्विधातृ प्रत्यक्षं, न निषेद्धृ विपश्चितः। नैकत्व आगमस्तेन, प्रत्यक्षेण प्रबाध्यते" |1|| इति वचनात्, इति चेन्न / अन्यरूपनिषेधमन्तरेण तत्स्वरूपपरि-- च्छेदस्याप्यसंपत्तेः। पीतादिव्यवच्छिन्नं हिनीलं नीलमिति गृहीतं भवति, नान्यथा। केवलवस्तुस्वरूपप्रतिपत्तेरेवान्यप्रतिषेधप्रतिपत्तिरूपत्वात् / मुण्डभूतलग्रहणे घटाभावग्रहणवत्। तस्माद्यथा प्रत्यक्षं विधायकं प्रतिपन्नं तथा निषेधकमपि प्रतिपत्तव्यम् / अपि च-विधायकमेव प्रत्यक्षमित्यङ्गीकृते यथा प्रत्यक्षेण विद्या विधीयते, तथा कि नाविद्याऽपि इति / तथा च द्वैतापत्तिः / ततश्च सुव्यवस्थितः प्रपञ्चः। तदमी वादिनोऽविद्याविवेकेन सन्मात्रं प्रत्य-क्षात्प्रतीयन्तोऽपि न निषेधकं तदिति बुवाणाः कथं नोन्मत्ताः / इति सिद्धं प्रत्यक्षबाधितः पक्ष इति / अनुमानबाधितश्च-प्रपञ्चो मिथ्या न भवति, असद्विलक्षणत्वात्, आत्मवत्। प्रतीयमानत्वं च हेतुर्ब्रह्मात्मनाव्यभिचारी। स हि प्रतीयते न च मिथ्या / अप्रतीय-मानत्वे त्वस्य तद्विषयवचसामप्रवृत्तेऎकतैव तेषां श्रेयसी / साध्यविकलश्च दृष्टान्तः / शुक्तिशकलकलधौतेऽपि प्रपञ्चान्तर्गतत्वेन अनिर्वचनीयतायाः साध्यमानत्वात्। किञ्चेदमनुमानं प्रपञ्चादि-न्नम्, अभिन्नं वा। यदि भिन्नं तर्हि सत्यमसत्यं वा / यदि सत्यं तर्हि तद्रदेव प्रपञ्चस्यापि सत्यत्वं स्यात्। अद्वैतवादप्राकारे खङ्गपापात्। अथासत्यम्, तर्हि न किञ्चित्तेन साधयितुं शक्यम्, अवस्तुत्वात्। अभिन्नं चेत् प्रपञ्चस्वभावतया तस्यापि मिथ्यारूपत्वापत्तिः / मिथ्यारूपं च तत्कथं स्वसाध्यसाधनायालम् / एवं च प्रपञ्चस्यापि मिथ्यारूपत्वासिद्धेः कथं परमब्रह्मणस्तात्त्विकत्वं स्यात्, यतो बाह्मार्थाभावो भवेदिति। अथ वा प्रकारान्तरेण सन्मात्रलक्षणस्य परम ब्रह्मणः साधनं दूषणं चोपन्यस्यते / ननु परमब्रह्मण एवैकस्य परमार्थसतो विधिरूपस्य विद्यमानत्वात्प्रमाणविषयत्वम् / अपरस्य द्वितीयस्य कस्यचिदप्यभावात् / तथाहि-प्रत्यक्षं तदावेदक-मस्ति / प्रत्यक्षं द्विधा भिद्यतेनिर्विकल्पकसविकल्पकभेदात् / ततश्च निर्विकल्पकप्रत्यक्षात् सन्मात्रविषयात्तस्यैकस्यैव सिद्धिः। तथा चोक्तम्"अस्ति ह्यालोचनाज्ञानं, प्रथमं निर्विकल्पकम्। बालमूकादिविज्ञान-सदृशं शुद्धवस्तुजम्" // 1 // नच विधिवत्परस्परव्यावृत्तिरप्यध्यक्षत एव प्रतीयत इति द्वैतसिद्धिः, तस्य निषेधाऽविषयत्वात् 'आहुर्विधातृ प्रत्यक्षं न निषेद्ध' इत्यादिवचनात्। यच सविकल्पकप्रत्यक्षं घटपटादिभे--दसाधकं तदपि सत्तारूपेणान्वितानामेव तेषां प्रकाशकत्वात् सत्ताद्वैतस्यैव साधकम्, सतायाश्च परमब्रह्मरूपत्वात्। तदुक्तम्-"यदद्वैतं तद्ब्रह्मणोरूपम्" इति / अनुमानादपि तत् सद्भावो विभाव्यत एव / तथाहि-विधिरेव तत्त्वं प्रमेयत्वात् / यतः प्रमाण-विषयभूतोऽर्थः प्रमेयः, प्रमाणानां च प्रत्यक्षानुमानागमोपमा-नापित्तिसंज्ञकानां भावविषयत्वेनैव प्रवृत्तेः / ___ तथा चोक्तम्"प्रत्यक्षाद्यवतारःस्याद्भावांशो गृह्यते यदा। व्यापारस्तदनुत्पत्तेरभावांशे जिघृक्षिते" ||1 // यवाभावाख्यं प्रमाणं, तस्य प्रामाण्याभावान्न तत्प्रमाणम्। तद्विषयस्य कस्यचिदप्यभावात्। यस्तु प्रमाणपञ्चकविषयः स विधिरेव / तेनैव च प्रमेयत्वस्य व्याप्तत्वात् / सिद्धं प्रमेयत्वेन विधिरेव तत्त्वम्, यत्तु न विधिरूपं, तन्न प्रमेयम् / यथा खरविषाणम्। प्रमेयं चेदं निखिलं वस्तृतत्त्वम् / तस्माद् विधिरूपमेव। अतो वा तत्सिद्धिः। ग्रामारामादयः पदार्थाः प्रतिभासान्तः- प्रविष्टाः प्रतिभासमानत्वात्, यत्प्रतिभासते तत्प्रतिभासान्तः-प्रविष्टम् / यथा प्रतिभासस्वरूपम् / प्रतिभासन्ते च ग्रामाऽऽरामादयः पदार्थास्तस्मात्प्रतिभासन्तःप्रविष्टाः / आगमोऽपि परमब्रह्मण एव प्रतिपादकः समुपलभ्यते-"पुरुष एवेदं सर्वं यद् भूतं यच भाव्यम्, उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति। यदेजति यन्नजति यद् दूरे यदन्तिके यदन्तरस्य सर्वस्य यदुत सर्वस्यास्य बाह्यतः" इत्यादि। 'श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्योऽनुमन्तव्यः' इत्यादि वेदवाक्यैरपि तत्सिद्धेः। कृत्रिमेणापि आगमेन तस्यैव प्रतिपादनात् / उक्तं च-- "सर्वं वै खल्विदं ब्रह्म, नेह नानास्ति किञ्चन। आरामं तस्य पश्यन्ति,न तत्पश्यति कश्चन" ||1|| इति प्रमाणतस्तस्यैव सिद्धेः परमपुरुष एक एव तत्त्वम्, सकल-भेदानां तद्विवर्तत्वात् / तथाहि--सर्वे भावा ब्रह्मवियर्ताः, सत्वेकरूपेणान्वितत्वात् / यद्यद्रूपेणान्वितं तत्तदात्मकमेव / यथा घटघटीशरावोदञ्चनादयो मृद्रूपेणैकेनान्विता मृद्विवर्ताः। सत्त्वैकरूपेणा-न्वितं च सकलं वस्तु / इति सिद्धं ब्रह्मविवर्तित्वं निखिलभेदानामिति / तदेतत्सर्व मदिरारसाऽऽस्वादगद्गदोद्गदितमिवावभासते, विचारासहत्वात्। सर्व हिवस्तुप्रमाणसिद्धं नतुवाङमात्रेण / अद्वैतमतेच प्रमाणमेव नास्ति, तत्सद्भावे द्वैतप्रसङ्गात् / अद्वैतसा-धकस्य प्रमाणस्य द्वितीयस्य सद्भावात्। अथमतं लोकप्रत्यायनायतदपेक्षया प्रमाणमप्यभ्युपगम्यते। तदसत् / तन्मते लोकस्यै-वासम्भवात् / एकस्यैव नित्यनिरंशस्य परब्रह्मण एव सत्त्वात् / अथास्तु यथाकथञ्चित्प्रमाणमपि / तत्किं प्रत्यक्षमनुमानमागमो वा तत्साधकं प्रमाणभुररीक्रियते? न तावत्प्रत्यक्षम्। तस्य सम-स्तवस्तुजातगतभेदस्यैव प्रकाशकत्यात् , आबालगोपालं तथैव प्रतिभासनात् / 'यच निर्विकल्पकं प्रत्यक्ष तदावेदकम्' इत्युक्तम्। तदपि न सम्यक् / तस्य प्रामाण्यानभ्युपगमात्। सर्वस्यापि प्रमाणतत्त्वस्य व्यवसायात्मकस्यैवाविसंवादकत्वेन प्रामाण्योप-पत्तेः / सविकल्पकेन तु प्रत्यक्षेण प्रमाणभूतेनैकस्यैव विधिरूपस्य परब्रह्मणः स्वप्नेऽपि अप्रतिभासनात् / यदप्युक्तम्"आहुर्विधातृ प्रत्यक्षम्" इत्यादि / तदपि न पेशलम् / प्रत्यक्षेण ह्यनुवृत्तव्यावृत्ता-कारात्मकवस्तुन एव प्रकाशनात्। एतच प्रागेवक्षुण्णम्। न ह्यनु-स्यूतमेकमखण्डं सत्तामात्रं विशेषनिरपेक्ष सामान्य प्रतिभासते, येन यदद्वैतं तद्ब्रह्मणो रूपमित्याधुक्तं शोभेत। विशेषनिरपेक्षसामान्यस्य खरविषाणवदप्रतिभासनात्। तदुक्तम्"निर्विशेष हि सामान्यं, भवेत् खरविषाणवत्। सामान्यरहितत्वेन, विशेषास्तद्वदेव हि" ||1|| ततः सिद्धे सामान्यविशेषात्मन्यर्थे प्रमाणविषये कुत एवैकस्य परमब्रह्मणः प्रमाणविषयत्वम् / यच प्रमेयत्वादित्यनुमानमुक्तम्, तदप्ये तेनैवापास्तं बोद्धव्यम् / पक्षस्य प्रत्यक्षबाधितत्वेन हेतोः कालात्ययापदिष्टत्वात् / यच तत्सिद्धौ प्रतिभासमानत्वसाधनमुक्तम् / तदपि साधनाभासत्वेन न प्रकृतसाध्यसाधना याऽलम् / प्रतिभासमानत्वं हि निखिलभावानां स्वतः, परतो वा? Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपोद्घातः (80) न तावत्स्वतः; घटपटमुकुटशकटादीनां स्वतः प्रतिभासमानत्वेनासिद्धेः / परतः प्रतिभासमानत्वं च परं विना नोपपद्यते इति / यच्च / परमब्रह्मविवर्तवर्तित्वमखिलभेदानामित्युक्तम्, तदप्यत्र स्थलेऽन्वीयमानद्वयाविनाभावित्वेन पुरुषाद्वैतं प्रतिबध्नात्येव / न च घटादीनां चैतन्यान्वयोऽप्यस्ति, मृदाद्यन्वयस्यैव तत्र दर्शनात्, ततो न किश्चिदेतदपि। अतोऽनुमानादपिन तत्सिद्धिः। किञ्च-पक्षहेतुदृष्टान्ता अनुमानोपायभूताः परस्परं भिन्नाः, अभिन्ना वा? भेदे द्वैतसिद्धिरभेदे त्वेकतारूपतापत्तिः / तत्कथमेतेभ्योऽनुमानमात्मानमासादयति / यदि च हेतुमन्तरेणापि साध्यसिद्धिः स्यात्तर्हि द्वैतस्यापि वाङ्मावतःकथं न सिद्धिः? तदुक्तम्"हेतोरद्वैतसिद्धिश्वेद, द्वैतं स्याद्धेतुसाध्ययोः। हेतुना चेद्विना सिद्धिद्वैतं वाङ्मावतो न किम्?" ||1|| "पुरुष एवेदं सर्वम्" इत्यादेः, "सर्वं वै खल्विदं ब्रह्म" इत्यादेश्वागमादपि न तत्सिद्धिः / तस्यापि द्वैताविनाभावित्वेन अद्वैतं प्रति प्रामाण्यासंभवात् वाच्यवाचकभावलक्षणस्य द्वैतस्यैव तत्रापिदर्शनात्। तदुक्तम्"कर्मद्वैत फलद्वैत, लोकद्वैत विरुध्यते। विद्याऽविद्याद्वयं न स्याद्, बन्धमोक्षद्वयं तथा" ||1|| अथ कथमागमादपि तत्सिद्धिः / ततो न पुरुषाद्वैतलक्षणमेकमेव प्रमाणस्य विषयः। इति सुव्यवस्थितः प्रपञ्चः। ईश्वरव्यापकत्वखण्डनम्ईश्वरस्य सर्वगतत्वं नोपपन्नम् / तद्धि शरीरात्मना ज्ञानात्मना वा स्यात्? प्रथमपक्षे तदीयेनैव देहेन जगत्त्रयस्य व्याप्तत्वादितरनिर्मेयपदार्थानामाश्रयानवकाशः / द्वितीयपक्षे तु सिद्धसाध्यता; अस्माभिरपि निरतिशयज्ञानात्मना परमपुरुषस्य जगत्त्रयक्रोडीकरणाभ्युपगमात्। यदि परमेवं भवत्प्रमाणीकृतेन वेदेन विरोधः / तत्र हि शरीरात्मना सर्वगतत्वमुक्तम्-"विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतो मुखो विश्वतः पाणिरुत विश्वतः पाद्" इत्यादिश्रुतेः / यच्चोक्तं तस्य प्रतिनियतदेशवर्तित्वे त्रिभुवनगतपदार्थानामनियतदेशवृत्तीनां यथावन्निर्माणानुपपत्तिरिति / तत्रेदं पृच्छ्यते / स जगत्त्रयं निर्मिमाणस्तक्षादिवत्साक्षाद्देहव्यापारेण निर्मिमीते, यदि वा सङ्कल्पमात्रेण? आद्ये पक्षे एकस्यैव भूभूधरादेर्विधाने अक्षोदीयसः कालपेक्षस्य सम्भवाद्वंहीयसाऽप्यने हसा न परिसमाप्तिः / द्वितीय-पक्षे तु सङ्कल्पमात्रेणैव कार्यकल्पनायां नियतदेशस्थायित्वेऽपि न किञ्चिद् दूषणमुत्पश्यामः / नियतदेशस्थायिनां सामान्यदेवाना-मपि सङ्कल्पमात्रेणैव तत्तत्कार्यसम्पादनप्रतिपत्तेः / किञ्च-तस्य सर्वगतत्वेऽङ्गीक्रियमाणेऽशुचिषु निरन्तरसन्तमसेषु नरकादिस्थ-लेष्वपि तस्य वृत्तिः प्रसज्यते / तथा चानिष्टापत्तिः। अथ युष्मत्प-क्षेऽपि यदा ज्ञानात्मना सर्वजगत्त्रयं व्याप्नोतीत्युच्यते तदाऽशुचिरसास्वादादीनामप्युपलम्भसम्भावनात्, नरकादिदुःखस्वरूपसंवेदनाऽऽत्मकतया दुःखाऽनुभवप्रसङ्गाचानिष्टापत्तिस्तुल्यैवेति चेत्। तदेतदुपपत्तिभिः प्रतिकर्तुमशक्तस्य धूलिभिरियायकरणम् / यता | ज्ञानमप्राप्यकारिस्वस्थलस्थमेव विषयं परिच्छिनत्ति, नपुनस्तत्र गत्वा, तत्कुतो भवदुपालम्भः समीचीन? न हि भवतोऽप्यशुचिज्ञानमात्रेण तद्रसास्वादानुभूतिः / तद्भावे हि स्रक् चन्दनाऽङ्गनारसवत्यादिचिन्तनमात्रेणैवतृप्तिसिद्धौ तत्प्राप्तिप्रयत्नवैफल्यप्रसक्ति-रिति / यत्तु ज्ञानात्मना सर्वगतत्वे सिद्धसाधनं प्रागुक्तम्, तच्छक्तिमात्रमपेक्ष्य मन्तव्यम्। तथा च वक्तारोभवन्तिअस्य मतिः सर्वशास्त्रेषु प्रसरति इति / नच ज्ञानं प्राप्यकारि, तस्याऽऽत्मधर्मत्वेन बहिर्निर्गमाभात्। बहिर्निर्गमे चात्मनोऽचैतन्यापत्त्या अजीयत्वप्र-सङ्गः। न हिधर्मो धर्मिणमतिरिच्य वचन केवलो विलोकितः / यच परे दृष्टान्तयन्ति-यथा सूर्यस्य किरणा गुणरूपा अपि सूर्यनि-क्रम्य भुवनं भासयन्त्येवं ज्ञानमप्यात्मनः सकाशादाहिर्निर्गत्य प्रमेयं परिच्छिनत्तीति / तत्रेदमुत्तरम् / किरणानां गुणत्वमसिद्धम् / तेषां तैजसपुगलमयत्वेन द्रव्यत्वात् / यश्च तेषां प्रकाशात्मा गुणः स तेभ्यो न जातु पृथग्भवतीति संक्षेपः। अथैकेन्द्रियाणां भावेन्द्रियज्ञानसमर्थनेन भावश्रुत समर्थनम्-- एकेन्द्रियाणां तावच्छ्रोत्रादिद्रव्येन्द्रियाभावेऽपि भावेन्द्रियज्ञानं किञ्चिद् दृश्यत एव, वनस्पत्यादिषु स्पष्टतल्लिङ्गोपलम्भात् / तथाहिकलकण्ठोद्गीर्णमधुरपञ्चमोद्गार श्रवणात् सद्यः कुसुमपल्लवादिप्रसवो विरहकवृक्षादिषु श्रवणेन्द्रियज्ञानस्य व्यक्तं लिङ्गमवलोक्यते / तिलकादितरुषु पुनः कमनीयकामिनीकमलदलदीर्धशरदिन्दुधवललोचनकटाक्षविक्षेपात् कुसुमाधाविर्भावश्चक्षुरिन्द्रियज्ञानस्य चम्पकाद्यंहिपेषु तु विविधसुगन्धिगन्धवस्तुनिकुरम्बोन्मिश्रविमलशीतलसलिलसेकात् तत्प्रकटनं घ्राणेन्द्रियज्ञानस्य,वकुलादिभूरुहेषु तु रम्भातिशायिप्रवररूपवरतरुणभामिनीमुखप्रदत्तस्वच्छसुस्वादुसुरभिवारुणीगण्डूषास्यादनात् तदाविष्क-रणं रसनेन्द्रियज्ञानस्य, कुरबकादिविटविष्वशोकादिद्रुमेषु च घनपीनोन्नतकठिनकुचकुम्भविभ्रमापभ्राजितकुम्भीनकुम्भरण-मणिवलयणत्कबूणाभरणभूषितभव्यभामिनीभुजलताऽवगृहनसुखात् निष्पिष्टपद्मरागचूर्णशोणतलतत्पादकमलपाणिप्रहाराय झगिति प्रसूनपल्लवादिप्रभवः स्पर्शनेन्द्रियज्ञानस्यस्पष्ट लिङ्गम-भिवीक्ष्यते। ततश्च यथैतेषु द्रव्येन्द्रियासत्त्वेऽप्येतत् भावेन्द्रियजन्यं ज्ञानं सकलजनप्रसिद्धमस्ति, तथा द्रव्यश्रुताभावे भावश्रुतमपि भविष्यति / दृश्यते हि जलाद्याहारोपजीवनाद् वनस्पत्यादीनामा-हारसंज्ञा, संकोचनवल्ल्यादीनां तु हस्तस्पर्शादिभीत्याऽवयवसं-कोचनादिभ्यो भयसंज्ञा, विरहकतिलक-चम्पक-के शराऽशो-कादीनां तु मैथुनसंज्ञा दर्शितैव; विल्वपलाशादीनां तु निधानी-कृतद्रविणोपरिपादमोचनादिभ्यः परिग्रहसंज्ञा / नचैताः संज्ञा भावश्रुतमन्तरेणोपपद्यन्ते / तस्मात् भावेन्द्रियपञ्चकावरणक्षयोप-शमाद् भावेन्द्रियपञ्चकज्ञानवद् भावश्रुतावरणक्षयोपशमसद्भावा-द् द्रव्यश्रुताभावेऽपि यच यावर भावश्रुतमस्त्येवैकेन्द्रियाणामित्य-लमतितरां पल्लवितेन / इत्थं सत्स्वपि प्रभूतेषु जैन दार्शनिकवि-षयेषु कथमल्पीयस्यस्मिन्नुपोद्घाते पार्यते दर्शयितु मिति विरम्यते कतिपयविषयप्रदर्शनेनेति निवेदयन्ति संशोधकाः Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्हम् ॥अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्॥ [सिद्धहेम०] (सिद्धहेमशब्दानुशासनम्) [अ०८पा०१] नत्या वीरे वन्द्यवन्द्यं, रागद्वेषविवर्जितम्। वहुलाधिकारभावात्, क्वचिदेकस्मिन् पदेऽपि यथाप्राकृतव्याकृतिरियं, छन्दोबद्धा विरच्यते // 1 // काहिइ काही, बिइओ, बीओ इत्यादि बोद्धव्यम्। अथ प्राकृतम्॥१॥ नयूवर्णस्यास्वे // 6|| अथशब्दोऽधिकारार्थ-श्वानन्तर्यार्थ इष्यते। इवर्णोवर्णयोरस्वे, परे वर्णे न संहिता। प्रकृतिः संस्कृतं, तत्र-भवं, वा तत आगतम्॥ वंदामि अज-वइरं, न वेरि-वमो वि अवयासो।। प्राकृतं, संस्कृतस्यान्ते, तदधिक्रियते ततः। दणुइंद-रुहिर-लित्तो, सहइ उइंदो,लहइ एसो। सिद्धं च साध्यमानं च द्विविधं संस्कृतं मतम्॥ संझाबहु अवऊंढो, नव-वारिहरो व्व विज्जुलाभिन्नो। तद्योनेरेव तस्येह, लक्षणं देशजस्सन। नह-प्पभावलि अरुणो, वेद्यं चेत्याधुदाहरणम् // इति विज्ञापनार्थ हि, प्राकृतस्यानुशासनम् / / 'युवर्णस्येति' किं? गूढो-अर-तामरसप्पभम्। संस्कृतानन्तरं कुर्मस्तद् धीरैरवधार्यताम्। 'अस्ये' इति च किं? सिध्येत, पुहवीसो यथा पदम्।। विभक्तिः कारकं लिङ्ग, प्रकृतिः प्रत्ययोऽभिधा / / एदोतोः स्वरे / / 7 / / समाप्तश्चापि सवैद्यः, संस्कृतस्येव प्राकृते। एकारौकारयोः सन्धि-नस्यात् क्वपिस्वरे परे। ऋऋललू विसर्गश्च, ऐऔङअशषाः प्लुतः।। वहुआइ नहुल्लिहणे, आबंधंती' कंचुअं अंगे। एतद्वा वर्णगणो,लोका बोध्योऽनुवृत्तितः। मयरद्वयसरधारणि-धारा-छेअव्व दीसन्ति / / जौ स्ववर्यसंयुक्तौ, वर्णी च भवतो हि तौ॥ उवमासु अपज्जत्ते-भ-कलभ-दन्तावहासमूरुजुअं। ऐदौतौ चापि केषांचित्, कैतवं कैअवं यथा! तं चेअ मिलिअ-विस-दं-म-विरसमालक्खिमो एम्हि।। सौन्दर्यं च सौंअरिअंकौरवाः इति।। अहो अच्छरिअंचापि, 'एदोतोरिति' किं? यथाअस्वरं व्यञ्जनं सर्वे, कृत्स्नं द्विवचनं तथा। अत्थालोअण-तरला, इयरकईणं भमंति बुद्धीओ। चतुर्थ्यास्तु बहुत्वं च, न भवत्यत्र कुत्रचित्॥ अत्थश्चम निरारं-भति हिअयं कइन्दाणं // बहुलम् / / 2 / / स्वरस्योद्धुत्ते // 8 // 'बहुलम्' इत्यधिकृत-माशास्त्रपरिपूरणात्। व्यञ्जनसंपृक्तो यः, स्वरोव्यञ्जनेऽवशिष्यते लुप्ते। वेदितव्यं, यथास्थानं, तत्कार्य दर्शयिष्यते॥ उद्धृत्तः स इह स्याद्, न स्वरसन्धिस्तु तत्परतः॥ आर्षम् // 3 // गयणे चिअ गंध-उमि, कुणन्ति, रयणी-अरो य मणुअत्तं / ऋषीणामिदमार्ष च, प्राकृतं बहुलं भवेत्। निसा-अरो य निसि अरो, बाहुलकात् क्वापि वैकल्प्यम्-|| तचापि दर्शयिष्यामो, यथास्थानं यथाविधि / कुंभारो कुंभअरोच, सूरिसो च सुऊरिसो। वचित् प्रवृत्तिः क्वचिदप्रवृत्तिः, क्वचिद् विभाषा क्वचिदन्यदेव। सन्धिरेव क्वचित् चक्का-ओ च सालाहणो यथा! विवेर्विधानं बहूधासमीदय, चतुर्विधं बाहुलकं वदन्ति / अत एव प्रतिषेधात्-समासेऽपि स्वरस्यतु। दीर्घ--हस्वौ मिथो वृत्तौ // 4 // सन्धौ भिन्नपदत्वं च, देदितव्यं मनीषिभिः / / स्वराणां दीर्घहस्वत्वे, समासे भवतो मिथः। त्यादेः तत्र दीर्घस्य हस्वत्वं, पूर्व तावन्निगद्यते॥ तिबादीनां स्वरस्य स्यात, नतु सन्धिः स्वरे परे। 'अन्तर्वेदि'-पदस्थाने, अन्तावेई प्रयुज्यते। यथा 'भवति इह' स्यात्, तथा-'होइ इह' स्मृतम्॥ सप्तविंशतिरित्यत्र, 'सत्तावीसा' भवेदिदम्॥ लुक् // 10 // क्वचिन्नो 'जुवइ-जणो,' विकल्पस्त क्वचिद् यथा। स्वरस्य बहुलं लुक् स्यात्, संहितायां स्वरे परे। वारी-मई वारि-मई, भुजयन्त्रमथोच्यते॥ निःश्वासोच्छ्रासौनी-सासूसासाच संभवत्यत्र। भुआ-यंतं भुअ-यंत,अथो पतिगृहं त्विदम्। त्रिदशेशः तियसीसो, प्रयुज्यते कोविदैरेवम्। पई-हरंपइ-हरं,अथ वेणुवनं पदम्।। अन्त्यव्यञ्जनस्य॥११॥ 'वेलू-वणं वेलु-वणं,' इत्येवमभिधीयते। शब्दानामन्तिमस्य स्याद्, व्यञ्जनस्येह मुग्यथा। अथ दीर्घस्य हस्वत्वं, निअंबसिल इत्यपि। तमो जम्मो जसो जाय, तावचेत्यादि गद्यते॥ वचिद् विकल्पो-जउँण-यमंच जउँगायडं। समासे तु विभक्तीनां, वाक्यगानामपेक्षया। नइ-सोत्तं नई-सोत्तं, वेद्यं गोरि-हरं त्विदम्॥ अन्त्यत्वं चाप्यनन्त्यत्वे, भवतीत्यवगम्यताम्॥ गोरी-हरं, वहू-मुह, वहू-मुहमुदाहृतम्। यथा सभिक्खू सद्भिक्षुः, सज्जनः सज्जणोऽपिच। पदयोःसन्धिर्वा ||शा एतगुणा एअ-गुणा, तग्गुणा तद्गुणा इति॥ संस्कृतोक्तं सन्धिकाऱ्या ,व्यवस्थितविभाषया। न श्रदुदोः॥१२|| प्राकृते निखिलं वेद्यं, तदुदाहियते यथा।। श्रदुदित्येतयोरनयं, व्यञ्जनं नैव लुप्यते। वासेसी वास-इसी, विसमाऽऽरावो विसम-आयवो भवति। यथा-सद्दहियं सद्दा, उग्गयं चोन्नयं पदम्।। दहि-ईसरो विकल्पाद, दहीसरो, साउ-उअयं तु।। निर्दुरोर्वा // 13 // साऊ-अयमिति वेद्यं, 'पदयोरिति' किं? महइ महए। निर्दुरोरन्त्यलोपो वा, निस्सहं नीसहं यथा। पाओ, पड़, वत्थाओ, मुद्धाए चापि मुद्धाइ। दुस्सहो दूसहो चापि. दुक्खिओ दुहिओ तथा॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (82) [सिद्धहेम० अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०१] स्वरेऽन्तरश्च / 14|| वंकं तंसं अंसू, मंसू पुंछ चकुंपलं पंसू। नान्तरो निर्दुरोश्चान्त्यं,व्यञ्जनं लुप्यते स्वरे। गुंछ मुंढा बुंध, कंकोडो विछिओ गिठी॥ निरन्तरं अंतरऽल्पा, निरसेसंदुरुत्तरम् / / मंजारो दंसणमित्यादिष्वाद्यस्य कार्य्यमिह वेद्यम्। दुरवगाहमित्यादि, क्वचिल्लुक् चापि दृश्यते। पडंसुआ च वयंसो, मणंसिणी चापि माणंसी।। यथा अन्तोवरीत्यत्र, रकारो लोपमाप्तवान् / / मणसिला चेत्यादि-वागमकायं भवेद् द्वितीयस्य। स्त्रियामादविद्युतः // 15 // अणिउतयमइमुतय-मवरि अनयोस्तृतीयस्य। स्त्रियां प्रवर्तमानस्य, शब्दस्यान्त्यं यदस्वरम्। क्वचिच्छन्दःपूरणेऽपि, 'देवं-नाग-सुवण्णअं'। तस्य स्थाने भवत्यात्त्वं, विधुच्छब्दे तु नेष्यते॥ क्वचिन्न-गिट्ठी मजारो, मणसिला मणासिला / / प्रतिपत् पाउिवआस्यात्, संपत् च सरित् सरिआ च। आर्षे 'मणोसिला' रूपं, 'अइमुत्तयम्' इत्यपि। बाहुलकात् 'सरिया' ऽऽद्यपि, 'अविद्युतः' किं? यथा विजू।। वक्रं त्र्यसं श्मश्रुपुच्छं, गुच्छं मूर्धा चकुइमलः।। से रा // 16 // अश्रूपरि वयस्यो मा-जीरो गृष्टिमनस्विनी। स्त्रियां रेफान्तशब्दस्य, 'रा' इत्यादेश इष्यते / पशुव॑न्धश्च कर्को टो, दर्शनं गृष्टि-वृश्चिकौ / / अयमात्त्वापवादोऽस्ति, यथा रूपं धुरा-पुरा / अतिमुक्तकः प्रतिश्रुत, मनस्वी च मनःशिला। क्षुधो हा // 17 // इत्यादयो भूरि शब्दाः, वक्रादौ परिकीर्तिताः॥ क्षुधो धस्यास्तु हादेश-स्तेन रूपं 'छुहा' भवेत्। क्त्वा-स्यादेर्ण-स्वोर्वा // 27 // शरदादेरत् // 18|| क्त्वाप्रत्ययस्य स्यादीनां, प्रत्ययानां च यौ ण-सू। शरदादेरन्तिमस्य, व्यञ्जनस्याद् भवेदिह। तयोरन्तस्त्वनुस्वारो, वा स्यादित्यवधार्यताम् / / शरद् भिषग् यथा स्यातां, सरओ भिसओ क्रमात्॥ यथा-काऊण काऊणं, काउआण पदं तु या। दिक्प्रावृषोः सः // 16 // स्यात् काउआणं, स्यादौ व-च्छेण वच्छणमित्यपि।। दिक्प्रावृषोः सौ भवति, तेन स्यात् पाउसो दिसा / तथा वच्छेसु वच्छेसुं, 'णस्वीरिति' किम्? अग्गिणो। आयुरप्सरसोर्वा // 20 // विंशत्यादेर्लुक् // 2|| आयुषोऽप्सरसश्चान्ते, सो वा भवति, तद्यथा विंशत्यादिपदानां योऽ-नुस्वारस्तस्य लुब्भवेत्। दीहाउसे चदीहाऊ, अच्छराऽच्छरसा भवेत्।। तेन स्याद् विंशतिवींसा, त्रिंशत् तीसा च संस्कृतम्। ककुभो हः // 21 // सक्कयं स्याच संस्कारः, सक्कारो विनिगद्यते। ककुभो भस्य 'हः' स्यात्, ककुहा तेन सिद्ध्यति / मांसादेर्वा // 2 // धनुषो वा // 22 // मांसादीनामनुस्वारो, लोपमेति विकल्पतः। धनुषः षस्य हो वा स्यात्, धणुहं च धणू यथा। मासं मंसं, मासलं मंसलवा, मोऽनुस्वारः // 23 // कासं कंसं, केसुअंकिंसुवा। अन्तिमस्य मकारस्या-नुस्वारोऽत्र विधीयते। सीहो सिंहो, किं कि, वा दाणि दाणिं, जलं फलं गिरि वच्छं, पेच्छेत्यादि निदर्शनम्॥ पासू पंसू वा, कहवा कह स्यात्।। क्वाप्यनन्त्यस्यापि यथा,-वणम्मि च वणमि च / एव एवं नूण नूणं, समुहं संमुहं तथा। वा स्वरे मश्च // 24 // इआणि या इआणिं, स्यादु मांसादीनां निदर्शनम् // मांसं कांस्यं कथं पांसु-सिलः सिंह-किंशुको / अन्तस्थस्य माकरस्या-नुस्वारो वा स्वरे परे। एवं नूनम् इदानीम् किम्, दाणिम् संमुख इत्यपि। पक्षे लुगपवादो मो, मस्य स्थाने भवेदिह। वर्गेऽन्त्यो वा // 30 // उसभं अजिअंवंदे, उसभम् अजिअंच वा। अनुस्वारस्य वर्गान्त्यो , वा तद्वर्गे परे भवेत्। बहुलत्वात् तथाऽन्यस्य, व्यञ्जनस्यापि मो भवेत्।। पको पंको, कञ्चुओ कंचुओ था, साक्षात् सक्खं, यत् जं, तत्तं, विष्वक् च वीसुमथ सम्यक् / सज्झा संझा, कण्टओ कंटओवा। सम्मं, पृथक् पिहम्, इह-मिहयं चाऽऽले/अंवेद्यम्। कंड कण्डं, अन्तरं अंतरं वा, ङ-अ-ण-नो व्य ञ्जने||१५|| चन्दो चंद्रो, कम्पई कंपईना) स्थाने अणनानां स्या-दनुस्वारोऽस्वरे यथा-1 इत्याद्यन्यद्वेदितव्यं च लक्ष्यं, वर्ग किं? यत् संसओ संहरेति। पडित पंतीच, पराङ्-मुखः परंनुहो, कञ्चुकः कंचुओ। केचिद्धीराः शब्दविद्याप्रवीणा, एतत्कायं नैत्यिकं वर्णयन्ति। अपि लाञ्छनं लंछणं, पण्मुख इति छंमुहो, भवति। प्रावृट्-शरत्-तरणयः पुंसि // 31 / / उत्कण्ठा तूकंठ, सन्ध्या संझाच, विन्ध्य इति विंझो। प्रावृट्शब्दः शरच्छब्द-स्तरणिश्चेति ते त्रयः। एवंड्यदिष्यतुष्टय-निदर्शनं चान्यदपि वेद्यम्।। पुंसिस्युस्तरणी चैस,पाउसो सरओयथा॥ वक्रादावन्तः // 26|| स्नमऽदाम-शिरो-नमः॥३॥ वक्रादीनां च शब्दानां, प्रथमादिश्च यः स्वरः। दामन-शिरो-नभो वर्ज, यत् सान्तं नान्तमस्ति था। तस्यान्ते स्यादनुस्वारा-ऽऽगमो लक्ष्यानुसारतः॥ शब्दस्वरूपं तत्सर्वं, पुंल्लिङ्ग मवगम्यताम्॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (83) [सिद्धहेम.] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०१] 'जसो पओ तमो तेओ, उरो' सान्ते निदर्शनम्। 'जम्मो नम्मो तथा मम्मो, नान्ते लक्ष्यमिदं मतम् / / 'अदामेत्यादि' किं प्रोक्तम्?, यथा-दामं सिरं नह। वाऽक्ष्यर्थ-वचनाद्याः॥३३।। वे चाक्षिवाचकाः शब्दा-स्तथा ये वचनादयः। ते पुंसि संप्रयोक्तव्याः,सर्वेऽपीह विकल्पनात्॥ तत्राक्ष्यथां यथा-'अच्छी, अच्छीई'चापि गद्यते। अञ्जल्यादिगणे पाठात्, ‘एसा अच्छी क्वचिद् भवेत्।। चक्खू चक्खूइँ, नयणा, नयणाई च, लोअणा। लोअणाइं च, वचना-दिर्यथा-वयणा तथा / / क्यणाई, विज्जुणा तु,विजुए च, कुलो कुलं। छन्दो छन्दं च, माहप्पो, माहप्पं, भायणाइँ तु॥ भायणाच, तथा दुक्खा, दुक्खाई चेति भण्यते। नेत्ता नेत्ताइमित्यादेः, सिद्धिः संस्कृतवद् भवेत्॥ गुणाद्याः क्लीवे वा // 34 // क्लीवे गुणादयः शब्दाः प्रयोक्तव्या विकल्पतः। गुणा गुणाई, देवाणि, देवा, विन्दुइँ विन्दुणो / खागं खग्गो, मण्डलग्गं, मण्डलग्गोऽपि भण्यते। कररुहं कररुहो, रुक्खा रुक्खाइँ चेत्यपि॥ वेमाजल्याद्याः स्त्रियाम्॥३५॥ येतु शब्दा इमान्ताः स्यु-स्तथाऽजल्पादयश्च ये। ते सर्वे वा स्त्रियां वाच्या-स्तदुदान्हियते यथा--|| गरिमा, महिमा निल्ल-जिमा च धुत्तिमाऽणिमा। एते स्त्रीपुंसयोर्बोध्याः, अथाञ्जल्पादिरुच्यते। अंजली चोरिआ पिट्ठी, तथा पिटुं च चोरिअं। अच्छी अच्छिंच वा पण्हा,पण्हो कुच्छी बली निही। गण्ठी रस्सी विही चैतो-दृशोऽञ्जल्यादिरिष्यते। 'गड्डा गड्डो' ऽनयोः सिद्धि-स्त्र संस्कृतवन्मता। इमेति तन्त्रमाश्रित्य, कार्य्यद्वयमिहेष्यते॥ त्वादेशस्य डिमेत्यस्य, पृथ्वीदीम्नश्च संग्रहः। त्वादेशस्य सदा स्त्रीत्व-मिच्छन्त्येके विपश्चितः।। वाहोरात् // 36|| आकारो बाहुशब्दस्य, स्त्रीत्वेऽन्तादेश इष्यते। "बाहाए जेण धरिओ, एक्काए' इति दृश्यते।। अतो मो विसर्गस्य॥३७॥ अतः परः संस्कृतोत्थो,यो विसर्गो भवेदिह। तस्य स्थाने तु 'मो' होता-दृशादेशो विधीयते॥ सर्वतः सव्वओ, तेन, पुरतः पुरओ तथा। अग्रतस्त्वग्गओवाच्यो, मार्गतो मग्गओऽपिच। सिद्धावस्थापेक्षयाऽपि, भवतो भवओ तथा। भवन्तस्तु भवतो स्यात्, सन्तः संतो, कुतः कुदो। निष्प्रती ओत्परी माल्य-स्थोर्वा ||35|| निष्प्रती ओत् परी वा स्तः,परे माल्ये च तिष्ठतौ। अत्र योऽभेदनिर्देशः,सच सर्वार्थ इष्यते। ओमालं वाऽपि निम्मल्लं, पइट्ठा परिहा तथा।। आदेः॥३६॥ आदेरित्यधिकारोऽयं, 'कगचा-८/१।१७७: ऽवधिको मत इतः परस्तु यः स्थानो, तस्यादेः कार्य्यमिष्यते॥ त्यदाद्यव्ययात् तत्स्वरस्य लुक् // 40 // त्यदाद्यव्ययशब्दाभ्यां,यौत्यदाद्यव्ययौ परौ। तयोरादेः स्वरस्येह, बहुलं लुग विधीयते।। अम्हे एत्थ यथाऽम्हेत्थ, जइइमा जइमाऽपि वा। जइअहंजइहं, चैव-माद्यं वेद्यं निदर्शनम् / / पदादपेर्वा // 41|| पदात्परो योऽपिशब्दस्तस्यादेऽत्र लुग्भवेत्। यथा-केण विकेणावि, वा, तं पि तमवीष्यते। इतेः स्वराउतश्च द्विः॥४२| इतिः पदात् परो यत्र, तस्येकारो विलुप्यते! स्वरात्परस्तकारस्तु, तदीयो द्वित्वमाप्नुयात्।। स्यात् किं तिजं ति दिट्ठ ति, 'न जुत्तं ति' स्वराद् यथातह त्ति झ त्ति पीओ त्ति,पुरिसो त्ति निगद्यते॥ लुप्त-य-र-व-श-ष-सांशषसां दीर्घः // 43 // येषामुपर्यधस्ताद्वा, शषसां यान्ति लोपताम्। यरवाः शषसा वाऽपि, तेषां स्यादादिदीर्घता॥ शस्य यलोपे 'पश्यति, पासई' ति निगद्यते। 'कश्यपः कासवो' 'आव-श्यकमावासयं' तथा। रस्य लोपेतु 'विश्रामः, वीसामो' संप्रयुज्यते। 'विश्राम्यति वीसमइ,' मिश्रमीसंच भण्यते॥ वलोपे त्वश्व आसो स्यात्, शलोपेतु मनः शिला। मणासिला, च दुःशास-नोऽपि दूसासणो भवेत्। षकारस्य यलोपे तु, शिष्यः सीसोऽभिधीयते। तथा रलोपे वर्षास्तु, वासा चाथ वलोपने-। विष्वाणः स्याच वीसाणो, विष्वक् वीसुंच भाष्यते। षस्य लोषे तु निष्षिक्तो,नीसित्तो, सस्य लोपने। सस्यं सासं कस्यचित्तु, कास-ईतिरलोपने // उस ऊसोच विश्रम्भः, वीसम्भोऽथवलोपने। निःस्वःनीसो, सलोपेतु, निस्सहः नीसहो भवेत्॥ अतः समृद्ध्यादौ वा॥४४|| समृद्ध्यादिषु दीर्घः स्या-दकारस्याऽऽदिमस्य वा। सामिद्धी च समिद्धी, भवति पसिद्धी च पासिद्धी। पयडं तु पायडं स्यात्, पाडिवआ पडिवआ वेद्या।। पासुत्तो च पसुत्तो, पडिसिद्धी पाडिसिद्धी स्यात्। सारिच्छोऽपि सरिच्छो, तथा मणंसी च माणंसी॥ माणंसिणी मणसिणी, अहिआई आहिआई वा। पारोहो तु परोहो, भवति पवासू च पावासू॥ पाडिप्फद्धी पडिप्फद्धी, समृद्धयादिरयं गणः // समृद्धिः प्रतिषिद्धिश्च, प्रतिस्पर्धी मनस्विनी। प्ररोहः प्रकटः प्रतिपत्, प्रसुप्तोऽथाभियाति च / सदृक्षश्च मनस्वीच, प्रवासी चैवमादायः। तेन प्रवचनं पाव-यणं, अस्पर्श आफँसो। परकीयं पारकेर, पारकं चापि पठ्यते। चतुरंतं चाउरतं, इत्याद्यपि च सिद्धयति। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सिद्धहेम.] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०१० दक्षिणे हे ||4|| दक्षिणे दस्य दी| हे, परे स्याद्,दाहिणो यथा। 'ह' इति किं? स्याद् दक्खिणो, यथा दीर्घोऽत्र नो भवेत्। इस्वप्नादौ // 46| स्वप्नादिषु भवेदित्व-मादेरस्येहतद्यथा-1 सिविणो सिमिणो, आर्षे, उकार:-सुमिणो यथा। सिविणो, ईसि, डिसो, विलिअंविअणं च उत्तिमो मिरिअं। किविणो तथा मुइंगो, दिण्णं चेत्यादि बौद्धव्यम्। णत्याभावे न भवति, बहुलत्यादयं विधिः। यथा 'दत्तं देवदत्तो, नात्रासौ संप्रवर्तते। स्वप्नो मृदङ्गः कूपणो, दत्तो मरिच-चेतसौ। व्यलीक-व्यजने ईषद्, उत्तमश्वेहपठ्यते। पक्षागार-ललाटे वो // 47|| पक्वाङ्गारललाटे-ष्वादेर्वेत्वं, यथा-पिक्कं / पकं, इङ्गालो अ-ङ्गारो, णिडालं णडालं च। मध्यम-कतमे द्वितीयस्य // 48|| मध्यमे चैव कतमे, द्वितीयस्य स्वरस्य तु। इत्वं स्यातां यथा रूपे, 'मज्झिमो' 'कइमो' इमे। सप्तपणे वा // 4 // सप्तपर्णे द्वितीयस्या-कारस्येत्वं विकल्पनात्। छत्तिवण्णौ छत्तवण्णो, स्यातां रूपे इमे यथा।। मयट्यइर्वा // 50 // अइर्मयटि प्रत्यये स्या-दादेरस्य तु वा यथाविषमयः-विसमओ, स्याद् विसमइओऽपिच।। ईर्हर वा // 51 // हरशब्दे हकारस्या-कारं ईत्थं विकल्पतः। यत् समापद्यते तेन, 'हरो हीरो' ऽभिधीयते।। ध्वनि-विष्वचोरुः॥१२॥ ध्वनिशब्दे तथा विष्वक्-शब्देऽकारस्तु यः खलु। तस्योत्वं क्रियते तेन, 'झुणी वीसु' च सिध्यतः।। चण्ड-खण्डिते णा वा // 53| चण्डखण्डितयोरस्य, सणस्योत्वं विकल्प्यते। तेन खण्डं चुडं रूपं, खण्डिओ खडिओ भवेत्॥ गवये वः॥५४|| गवये तु वकारस्या-कारस्योत्वं प्रसज्यते। 'गउओ गउआ चेति, रूपं सिद्धिमुपागमत्॥ प्रथमे प-थोर्वा // 5 // प्रथमस्य पथोरस्य, वोत्वं स्याद्युगपत् क्रमात्। पुटुमं पुढमं तेन, पढुम पढमं तथा। ज्ञो णत्वेऽभिज्ञादौ // 56|| अभिज्ञादिषु शब्देषु, शस्य णत्वे कृतेपुनः। ज्ञस्यैव यस्त्वकारः स्यादुत्वं तस्य विधीयते। यथा-अहिण्णू सव्वण्णू, आगमण्णू कयण्णुआ। 'णत्वे' च किम्? यथा-'सव्व-जो' 'अहिज्जो' भवेदिदम् // 'अभिज्ञादाविति' च किम्? प्राज्ञः पण्णो भवेद् यथा। यत्रोत्यं ज्ञस्य णत्वे स्यात्, सोऽभिज्ञादिगणः रसूतः।। एच्छय्यादौ // 57|| शय्यादिषु भवेदेत्त्व-मकारस्यादिमस्य तु। सेज्जा एत्थच सुन्देरं, गेन्दुअंचेवमादयः॥ आर्षे पुराकर्मपदं, पुरेकम्मं प्रयुज्यते। वल्ल्युत्कर-पर्यन्ताश्चर्ये वा // 58|| वल्ल्युत्करपर्यन्ता-श्वर्येऽकारस्य वैत्त्वमादिभुवः। तेन हि वेल्ली वल्ली, उक्केरो उक्करो, भवति।। पेरन्तौ पञ्जन्तो, अच्छेरं अच्छरिजं च। अच्छरिअं अच्छअरं, तथाऽच्छरीअं विनिर्दिष्टम्। ब्रह्मचर्ये चः॥४८|| ब्रह्मचर्ये चकारस्या-कार एत्वमवाप्नुयात्। अतो बुधा ब्रह्मचर्य, बम्हचेरं प्रयुञ्जते॥ तोऽन्तरि॥६०|| अन्तःशब्दे तकारस्या-कारम्यत्त्वं विधीयते। तस्मादन्तःपुरं 'अंते-उरं' विद्वद्भिरुच्यते।। अन्तश्चारीभवेदन्ते-आरी,नाये क्वचिद् विधिः। यथा- 'अंतग्गयं 'अंतो,वीसम्भो' विनिगद्यते।। ओत्पद्ये // 61 / / ओत्त्वमादेरतः पद्म-शब्दे, 'पोम्म' ततो भवेत् / पद्म-छोति।व।२।११। सूत्रेण, विश्लेषे 'पउम' स्मृतम्॥ नमस्कारपरस्परे द्वितीयस्य // 6 // द्वितीयस्याऽत औत्वं स्यात्, नमस्कारपरस्परे। अतो रूपे सुनिष्पन्नं-'नमोक्कारो' 'परोप्परं' / / वा // 63|| आदेरस्य तु चौत्त्वं स्याद्, धातावर्पयतौ यथा--| रूपं ओप्पेइ अप्येइ, औप्पिअं अप्पिअंभवेत्॥ स्वपावुच // 6|| 'स्वप्' धातौ क्रमतः स्याता-मादेरस्यौदुतौ स्वरौ / तेन 'सोवइ सुवइ,'द्वयं रूपं विभाष्यते॥ नात्पुनर्यादाइ वा // 65 / / नञः परे 'पुनः' शब्दे, यस्त्वकारोऽस्ति तस्य तु। 'आ आई' इत्यादेशौ वा, स्यातामित्यभिधीयते।। 'न उणा न उणाई' स्याद्, न उणो न उण' द्वयम्। केवलस्यापि यद् रूपं, 'पुणाइ' वापि दृश्यते॥ वाऽलाब्बरण्ये लुक् // 66 // अलाब्वरण्ययोर्याऽऽदे-रकारस्येह लुब्भवेत्। लाउं अलाउं वा लाऊ,अलाऊ च विकल्पनात्॥ एवं रण्णं अरण्णं स्यात्, 'अत इत्येव' नान्यथा। 'आरण्ण-कुञ्जरो' नैवे-त्यादावालोप इष्यते // वाऽव्ययोत्खातादावदातः॥६७।। अव्ययेषु तथोत्खाता-दिष्वाकारस्य वाऽद् भवेत्। तत्राऽव्यये 'जह जहा,' रूपं 'तह तहा' तथा।। 'व वा' 'ह हा' 5 'हवाऽहव'-प्रमुखा बहवो मताः / उत्खातादौ तु-उक्खायं, उक्खयं, चमरो तथा / / चामरो, कलओ काल-ओ परिठ्ठाविओ पुनः। स्यात् परिहवियो, संठ-विओ संठविओ पदम्।। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सिद्धहेम०) अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०१] तलवेण्टं तालवेण्टं, ठविओ ठाविओ भवेत्। तलवोण्टं तालवोण्टं, पायसं पयसं,स्मृतम्॥ हलिओ हालिओ, नारा-ओ नराओ च, खाइरं। खइरं, कुमरोवाच्यः, कुमारो, वलया पुनः // वलाया, बाम्हणो बम्ह-णो, पुव्याण्हो मतान्तरे। पुव्वण्होच, चडू चाडू, दावग्गीच दवग्यपि॥ उत्खातं चामरं ताल-वृन्तं प्राकृतहालिको। स्थापितः कालको नारा-चो बलाका च खादिरः / / कुमारो, ब्राह्मणः पूर्वा-हश्चमौ कस्यचिन्मते। उत्खातादिरयं धीरे-राकृत्या परिगण्यते // घवृद्धेर्वा // 6 // धनिमित्तो वृद्धिरूपो, य आकारोऽस्तु तस्य वाऽद् / 'पवाहो पवहो' वा स्यात्, 'पयारो पयरो' तथा // 'पत्थावो पत्थयो' क्वापि, न 'राओ' रागवाचकः। महाराष्ट्रे // 6 // महाराष्ट्र हकारस्या-ऽऽकारस्य त्वविधानतः / 'मरहट्ठमरहट्ठो,' पुनपुंसकतो भवेत्॥ मांसादिष्वनुस्वारे॥७०|| कृतानुस्वारमांसादा-वाकारो यात्यकारताम्। मंसं कसंतथा पंसू, पंसणो कंसिओऽपि च॥ वंसिओ पंडवो संसि-द्धिओ संजत्तिओ यथा। 'अनुस्वारे' इति कथम्? 'मासं पास्' न चाऽदिह।। मांस कास्यं पांसनं का-सिकं वांशिकपाण्डवौ। पांसुः सांसिद्धिकः सांया-त्रिको मांसादिरिष्यते॥ श्यामाके मः // 71 / / श्यामाके तु मकारस्य, य आकारोऽस्ति तस्य तु। अदादेशेन श्यामाकः, 'सामओ' विनिगद्यते।। इ: सदादौ वा // 7 // सदादिशब्देष्यित्वं स्या-दाकारस्य विभाषया। 'सया सइ' च वा रूपं, 'कुप्पासो कुप्पिसो'ऽपि च। 'निसाअरो निसिअरो,' तथैवान्ये सदादयः॥ आचार्य चोऽच / / 73 / / आचार्यशब्दे चस्याऽऽत-इत्वमत्त्वंचवा भवेत्। रूपं 'आयरिओ' तेन, सिद्धम् 'आइरिओ' तथा॥ ई:स्त्यान-खल्वाटे॥७४|| स्त्यान-खल्वाटयोरादे-रात ईत्वं विधीयते। ठीणं थीण तथा थिण्णं, खल्लीडो तेन सिद्धयति / / उःसास्ना-स्तावके ||7|| सास्ना-स्तावकयोरादे-रात उत्यं निगद्यते। तेन सास्ना भवेत् 'सुण्हा',स्तावकः 'थुवओ' भवेत्॥ ऊद्धाऽऽसारे // 76 / / आसारशब्दे स्यादादे-रात ऊत्त्वं विभाषया। तेन सिद्ध्यति 'ऊसारो, आसारो 'रुपयुग्मकम्॥ आर्यायां यः श्वत्र्वाम् / / 77|| र्यस्याऽऽत ऊत्त्वं 'आर्यायाम,''अज्जू श्वश्रवां ततो भवेत्। 'प्रयश्यामिति' तु किम्? अजा, साध्वी श्रेष्ठाऽपि भण्यते। एद्ग्राह्ये॥७८|| ग्राहाशब्दे भवेदेत्त्व-मातो गेज्झं ततो भवेत्। द्वारे वा||७|| द्वारशब्दे भवेदेत्त्व-माकारस्य विभाषया। देरं पक्षे दुआरं स्याद, दारं बारं पदं तथा।। 'नेरइओ नारइओ,' स्यातां नैरयिकनारकिकयोस्तु। आर्षेऽन्यत्रापि यथा,-'पच्छेकम्म' तथाऽन्यदपि। पारापते रो वा||८|| भवेत् पारापते रस्या-ऽऽकारस्यैत्त्वं विकल्पनात्। तेन 'पारेवओपारा-वओ' रूपद्वयं मतम्॥ मात्रटिवा॥१॥ स्यान्मात्रट्प्रत्यये वाऽऽत-एत्त्वं रूपद्वयं ततः। एकं 'एत्तिअमेत्तं ए-त्तिअमत्तं' तथाऽपरम्॥ बहुला मात्रशब्दे 'भो-भणमेत्तं ततो भवेत्। उदोगाऽऽर्दै // 22 // आकारस्याऽसर्द्रशब्दे स्या-दुत्त्वमोत्त्वं विभाषया। 'उल्लं ओल्लं' तथा पक्षे,'अल्लं अई' च वा भवेत्॥ ओदाल्यां पकौ॥८३| 'आली' शब्दे भवेदात-ओत्त्वंपङ्क्तयर्थबोधने। 'ओली' पक्ति विजानीयात्, 'आली' नात्र, सखी यदि।। हस्वःसंयोगे ||4|| दीर्घवर्णस्य हस्वत्वं, संयोगे परतो भवेत्। तद्यथादर्शनं वेद्यं,न सर्वत्र विधीयते॥ ताम्र 'तम्ब' आनं 'अम्बं,' आस्यम् 'अस्सं' प्रयुज्यते। मुनीन्द्रस्तु'मुणिन्दो' स्यात्, तीर्थ 'तित्थं तथा पुनः।। गुरूल्लापाः 'गुरुल्लावा,'चूर्णः 'चुण्णो' प्रपठ्यते। नरेन्द्रस्तु'नरिन्दो' स्यात्, 'मिलिच्छो' म्लेच्छ उच्यते॥ अधरोष्ठो 'हरुट्ट' सं-वेद्यं,नीलोत्पले तथा। 'नीमुप्पलं' विजानीया-देवमन्यद् निदर्शनम्॥ इत एदा॥८॥ संयोगे तुपरे वाऽऽदे-रित एत्त्वं विभाष्यते। पिण्डं पेण्डं च धम्मिल्ल, धम्मेल्लं विबुधा विदुः। स्यात् सिन्दूरंतु सन्दूर, विण्हू वेण्हू निगद्यते। "पिटुं पेटुं' अनित्यत्वात्, "चिंता' इत्यत्र नो भवेत्॥ किंशुके वा // 86|| एत्वं वाऽऽदेरितो वेद्यं, किंशुके वाचके यथा। 'केसुअंकिंसुअ' चैतद्, द्वयं रूपं विदुर्बुधाः।। मिरायाम् // 7 // भवेदेत्त्वमिकारस्य मिरा मेरा ततो भवेत्। पथि-पृथिवी-प्रतिश्रुन्मूषिक-हरिद्रा-विभीतकेष्वन्॥५|| पथि प्रतिश्रुत् पृथिवी,हरिद्रा-मूषिके तथा। विभीतके भवेदादे-रितोऽत्वमिति भण्यते। पहो च पुहवी पुढयो, पडसुआ मूसओ हलद्दी तु / वा स्यादत्र हलद्दा, 'वहेडओ' कापि वैकल्प्यम्। 'पंथं किरदेसित्ते, 'त्यत्र तु पथिशब्दतुल्यवाच्यस्य। पन्थशब्दस्य रूपं,ज्ञातव्यं शब्दविनिरिह। शिथिलेगुदेवा // 86 // शिथिलेङ्गुदयोरादेरितोऽद्या संप्रयुज्यते। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सिद्धहेम०] (86) अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०१] सढिलं भवति पसढिलं, सिढिलं पसिढिलमिहाऽत्त्ववैकल्प्यात्। इड्डअमङ्गुअमिखुद-शब्दे रूपद्वयं बोध्यम्। तित्तिरौ रः ||10|| रस्येतोऽत्त्वं तित्तिरौ स्यात्, तेन रूपं हि 'तित्तिरो। _ इतौ तो वाक्यादौ ||1|| वाक्यादेरितिशब्द-स्याऽन्त्यस्येतोऽत्र संभवत्यत्त्वम्॥ 'इअ' जम्पिआवसाणे,'इअ' विअसिअ-कुसुमसरोऽपीह। ईर्जिह्वा-सिंह-त्रिंशदिशतौ त्या ||2|| जिहादिषु इकारस्थ, ईकारः संप्रयुज्यते। 'जीहा' सीहो 'तथा' 'तीसा',यत्न तिस्तत्र त्या सह॥ 'वीसा' इति भवेद् रूपं, किन्तु कापि न जायते। 'सिंहदत्तो' 'सिंहराओ' इति बाहुलकान्मतम्॥ लुकि निरः // 6 // निरो रलोपे दीर्घः स्या-दिकारस्येति शब्द्यते। स्थाद् 'नीसासो' 'नीसरइ,' एवमन्यन्निदर्शनम्॥ 'लुंकीति' किम्? यथा-निस्स-हाई अंगाइँ निण्णओ। द्विन्योरुत्।।६४|| द्विशब्दे न्युपसर्गे च, भवेदुत्त्वमितो यथा-1 दु-मत्तोच दु-आई च, दु-रेहो दु-विहो तथा।। दुवयणं, वैकल्प्यं च, भवेद्बाहुलकादिह। दु-उणो बि-उणो चैव, दुइओ बिइओ यथा।। 'क्वचिन्न' द्विरदः शब्दो, 'दिरओ' स्याद् द्विजो 'दिओ'। ओत्वं वापि यथारूपं, 'दो-वयणं' प्रपठ्यते॥ स्याद् 'गुमन्नो' णुम-जइ, न्युपसर्गे निदर्शनम्। अनित्यत्वाद् 'निवडइ,' भवतीत्यादि भूरिशः।। प्रवासीक्षौ |5|| इक्षौ प्रवासिनि तथा, भवेदुत्त्वमितो, यथा-1 'उच्छू 'पावासुओ' चैतद्, द्वयं व्याहियते पदम्॥ युधिष्ठिरे वा // 66|| युधिष्ठिरे भवेदादे-रित उत्त्वं विकल्पनात्। जहुट्ठिलो ततो रूपं, विकल्पेन जहिहिलो॥ ओच द्विधा कृगः // 67|| उत्त्वमोत्त्वं द्विधाशब्दे, वा कृग्धातावितः परे। 'दोहा-किज्जइ' तेन स्यात्, 'दुहा-किज्जइ' इत्यपि / दोहा-इअंदुहा-इअ-मिति, 'कृग' इति किं?'दिहाऽऽगयं येना क्वचित् केवलस्य स्यात्, 'दुहा वि सो सुर-यह-सत्थो'। वा निझरे ना // 8|| निझर तु नकारेण, सहेतो वौत्त्वमिष्यते। 'ओज्झरो' 'जिज्झरो' चैता-दृशं रूपं बुधा विदुः॥ हरीतक्यामीतोऽत् IEl हरीतकीपदे रीका-रस्येतोऽत्त्वं विधीयते। रूपं हरडई तेन, बुधैरेवं प्रयुज्यते। आत् कश्मीरे // 100l आत्त्वमीतोऽस्तु कश्मीरे, कम्हीरा' तेन सिद्ध्यति / पानीयादिष्वित्॥१०१|| पानीयादिषु शब्देषु, स्यादीतोऽत्रेत्त्वमध्रुवम्। पाणि अलिअं ओसि-अंतं जिअइ आणिअं। विलिअंकरिसो वम्मि-ओ तयाणिं च जीअउ ! दुइअंतइअंगहिरं, गहिअंसिरिसोच पलिविअंपसिअ॥ उवणिअमिति संवेद्यः, पानीयादिर्गणो विदुषा। बाहुलकात् क्वचिदेषु, स्याद् वैकल्प्यं ततः करोसोऽपि॥ पाणीअंच अलीअं, उवणीओजीअइ स्याच।। पानीथं ब्रीडितं वल्मी-कं तदानी प्रदीपितम्। अवसीददलीकं चा-नीतं जीवति जीवतु / / उपनीतं गृहीतं च, शिरीषं च प्रसीद च। गभीरतृतीयकरी-षद्वितीयादयःस्मृताः।। उजीर्णे॥१०२।। जीर्णशब्दे भवेदीत-उत्त्वं जुण्ण-सुराततः। जिण्णे भोअणमत्ते च,नात्र बाहुलकाद् भवेत्।। ऊहीन-विहीने वा / / 103 / / ऊत्वं हीने विहीने स्या-दीकारस्य विभाषया। हूणो हीणो विहीणो च, विहूणो सिद्धिमाययुः॥ तीर्थ हे // 10 // ऊत्वमीतो भवेत् तीर्थ-शब्दे हेतु कृते सति। तूहं, 'हे' इति किं प्रोक्तम्?'तित्थं नात्र यथा भवेत्।। ___एत् पीयूषापीड-विमीतक-कीदृशेदृशे // 105 / / पीयूषापीड-बिभीतक-कीदृशेदृशेषु स्यादेत्त्वम्। पेऊस आमेलो, बहेडओ केरिसो ऍरिसो॥ नीड-पीठे वा / / 106|| नीडपीठयोरीतो, वा स्यादेत्त्वं ततश्च सिद्धयन्ति। नेडं नीड पेढे, पीढं वाप्यन्यथाऽपि स्यात्।। उतो मुकुलादिष्वत् // 107 / / मुकुलादीनामादे-रुतो भवेदत्त्वमत्र तेन स्युः। मउलं मउलो मउरं, मउडे अगरुंगलोई च। जहिडिलोऽथ च गरुई, जहुट्ठिलो सोअमल्लमिति शब्दाः। क्वचिदाकारोऽपि स्याद्, यथा-विद्रुतस्तु 'विद्याओ' || मुकुलो मुकुरो गुर्वी ,सौकुमार्य-युधिष्ठिरौ। अगुरुश्च गुडूची च, मुकुटं मुकुलादयः॥ वोपरौ // 108|| उपरौ स्यादुतो वाऽत्त्वम्, अवर उवरि यथा। गुरौ के वा // 106 / / गुरोः कृते स्वार्थिक के, वाऽत्वमादेरुतो भवेत्। गरुओ गुरुओ रूपे, कं विना तु 'गुरू' स्मृतम्। इभृकुटौ // 110|| भृकुटौ स्यादुतश्चादे-रित्वं हि 'भिउडी' भवेत्। पुरुषे रोः // 111 // पुरुषे रोरुतः स्यादिः,पुरिसो वा पउरिसं। ईःसुते // 11 // क्षुतं प्रयुज्यते छीअं. भवेदीत्वमुतो यदा। ऊत् सुभग-मुसले वा / / 113 / / सुभगे मुसले चस्या-दुत ऊत्त्वं विभाषया। सुहवो सूहवो तेन, मुसलं मूसलं भवेत्॥ अनुत्साहोत्सन्ने त्सच्छे॥११४॥ उत्साहोत्सन्नभिन्ने यौ, शब्दे त्सच्छौ निरीक्षितौ / तयोरादेरुकारस्य, नित्यमूत्त्वं विधीयते / / Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (87) [सिद्धहेम.] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०१] ऊसुओ ऊसवो ऊसि-त्तो ऊसइ, उच्छुकः। आत् कृशा-मृदुक मृदुत्वे वा / / 127 // ऊसुओ ऊससइचे--त्यादिवेद्यं निदर्शनम्॥ मृदुक-मृदुत्व-कृशाया-मात्त्वमृतः स्याद्यथा किसा कासा। उत्साहोत्सन्नयोस्तूच्छा-हो उच्छन्नो निगद्यते। माउक्क च मउत्तण-मथमाउक्कं चमत्तअंवा / / लुकि दुरो वा // 115|| इत् कृपादौ // 128|| दुरो रेफस्य लोपे स्या-दुत ऊत्त्वं विकल्पनात्। कृपेत्यादिषु शब्देषु, भवेदित्त्वमृतो यथा। दूसहोदुसहोऽपि स्याद्, दूहयो दुहवो तथा। किया मिट्ठ रसे वाच्यं,मट्ठमन्यत्र पठ्यते।। सूत्रे लुफीति किं? प्रोक्तं, दुस्सहो विरहोऽत्र न। हिअयं दिट्ट सिट्टे, दिट्ठी, सिट्ठी निवो कियो किच्चा।। ओत् संयोगे // 116 // गिट्ठी पिच्छी इद्धी, गिद्धी, तिप्पं घिई किच्छं॥ ओत्त्यमादेरुतो नित्यं, संयोगे परतो भवेत्। सिंगारो भिंगारो, भिंगो किसिओ भिऊ धिणा घुसिणं। तोण्डं मोण्डं पोक्खरं कोट्टिमं वा, किसरो किई सिआलो, विसी विइण्हो छिहा किविणो। कोण्ढो कोन्तो पोत्थओलोद्धओ वा। विद्ध-कई वाहित्तं, किसो समिद्धी च सइ किसाणू वा // वोक्वन्तं वा मोगरोपोग्गलं वा, हि विंचुओ वित्तं, इसी निसंसो च उक्किट्ठ। मोत्था चैतान्यस्य लक्ष्याणि सन्ति। वित्ती तथा विहिओ, किवाणयं वा कृपादयश्चैते। कुतूहले वा हस्वश्च / / 117 // बाहुलकादपि कार्य , वेद्यं सिद्धयेद् यथा रिद्धी। कुतूहले भवेदोत्त्वमुतो ह्रस्वश्च वा ततः। कृपा मृष्टं दृष्ट हृदय-भृगु-सृष्ट कृपतृपौ, कोऊहलं कोउहल्लं, कुऊहलमिति त्रयम्।। घृणा दृष्टिः सृष्टिः कृति-घुसृण-गृष्टिः कृशहृतौ।। अदूतः सूक्ष्मे वा // 118|| वृसी पृथ्वी कृत्या कृषित-कृपणौ वृश्चिकधृती। सूक्ष्मशब्दे भवेदत्त्व-मूतो वा तेन सिद्ध्यति। नृशंसो भृङ्गारः कृशर-सकृतौ व्याहृत-ऋषी।। सण्हं सुण्हं तथाऽऽर्षे तु, 'सुहम' संप्रयुज्यते॥ उत्कृष्ट-बृहित-शृगाल-कृशानु-गृद्धिदुकूले वा लश्च द्विः // 11 // शृङ्गार-बृद्धकवि-वृत्त-कृपाण-तृप्ताः दुकूलशब्दे वाऽत्वं स्या-दूतो लश्च द्विरुच्यते। ऋद्धि-स्पृहे अथ वितृष्ण-समृद्धि कृच्छ्रदुअल्लं च दुऊल च, 'दुगुल्लं' त्वार्ष उच्यते॥ भृङ्गास्तु वृत्तिरपि तेऽत्र कृपादयः स्युः / / ईर्वोढ्यूढे // 120 / / पृष्ठे वाऽनुत्तरपदे // 12 // उद्व्यूढशब्दे स्यादीत्व-मूकारस्य विभाषया। स्यात् पृष्ठेऽनुत्तरपदे, वेत्त्वमृत्वस्य, तद्यथा'उव्वीद' तेन 'उव्यूढं,' द्वयं विद्वद्भिरुच्यते॥ पिट्टी पट्ठी पिट्टि, परि-दुवि संप्रयुज्यते / / उप॑हनूमत्कण्डूय-वातूले // 121 // किमनुत्तरपद इति? महिवटुं यथा भवेत्। भहनूमत्कण्डूय-वातूलेषूत उर्भवत्। मसृणमृगाङ्क-मृत्यु-शृङ्ग-घृष्टे वा // 130 / / भुमया हनुमंतो वा-उलो,कण्डुअइ स्मृतम्। शृङ्गे घृष्ट मृगाङ्केच, मृत्यौ च मसृणे तथा। मधूके वा।१२।। ऋकारस्य भवेदित्वं, विकल्पेनेति दृश्यताम्॥ ऊत उत्वं मधूके वा, महूअं महुअं यथा। स्याद् मिअङ्को मयको वा, मियू मधू च पठ्यते। इदेतौ नूपुरे वा // 123 // सिंग संग विजानीयाद, चिट्ठो घट्ठोऽपि गद्यते // इदेतौ नूपुरे स्याता-मूकारस्य विकल्पनात्। उदृत्वादौ // 13 // निउरं नेउरं पक्षे,नूउरं संप्रकीर्त्यते॥ ऋत्वादीनामृकारस्य, भवेदादेरुकारता। ओत् कूष्माण्डी-तूणीर-कूपर-स्थूल-ताम्बूल-- उऊपुट्टो परामुट्ठो, पउद्योपुहई भुई। गुडूची-मूल्ये // 124 // पउत्तो पाउसो बुंदा-यणो युड्डोच निव्वुअं। कूष्माण्डी-स्थूल-ताम्बूल-गुड्ची-मूल्य-कूपर। पाउओ पाहुडं वुड्डी, उज्जू वुत्तन्त संवुअं॥ निहुअंनिउअंजामा-उओ माउओ भाउओ। तूणीरे च भवत्योत्त्वमूकारस्येति दयत। कोहण्डी कोहली थोरं, तोणीरं कोप्परं तथा। मुणालंच परहुओ, बुंदं पहुडि निव्वुई / / मोल्लं गलोई तंबोलं, व्युत्क्रमेण प्रदर्शितम्॥ विउअं उसहो पिउ-ओ, पुहवीच माउआ। ऋतुः परामृष्टमृणालवृन्दा-वनप्रवृत्तिप्रभृतिप्रवृष्टाः। स्थूणा-तूणे वा // 12 // वृन्दर्षभभ्रातृकमातृकामा-तृकर्जुजामातृकवृद्धिवृद्धाः॥ स्थूणा-तूणयोरोत्त्वमूकारस्य विभाषया। विवृतनिवृतवृत्ता-न्ताभृतिप्राभृतप्राथोणा थूणा तथा तोणं, तूणं चैवमुदाहृतम् / / वृतपितृकपृथिव्यः, संवृतप्रावृषौच! ऋतोऽत् // 126|| परभृतनिभृतस्पृष्टानि निवृत्तपृथ्वी, ऋकारस्याऽऽदिभूतस्य, भवत्यत्त्वमितीर्यते। परिपठति च ऋत्वा-दिं गणं निर्वृतिश्च / / वृषभो वसहो वाच्यो, घृष्टो घट्ठोऽभिधीयते / निवृत्त-वृन्दारके वा॥१३२|| घृतं घयं, तृणं तणं, कृतं कयं, मृगो मओ।। ऋत उत्त्वं वा वाच्यं, निवृत्तवृन्दारके पदे तु यथा। दुहाइअंकृपादिपा-ठतोऽवसेयमित्यपि॥ वुन्दारया च वन्दा--रया नियुत्तं निअत्तं च / / Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सिद्धहेम.] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८ पा०१] वृषमे वा वा / / 133|| वृषभे वेन साकं स्या-दृकारस्योत्त्वमत्र वा। 'उसहो वसहो' चैता-दृशं रूपं प्रयुज्यते॥ गौणान्त्यस्य // 13 // गुणीभूतस्य शब्दस्य, योऽन्त्य ऋत् तस्य उद्भवेत्। स्याद् माउ-मण्डलं,माउ-हरं पिउहरं तथा। माउ-सिआ पिउ-सिआ, तथा पिउ-वणं स्मृतम् / / मातुरिद्धा / / 13 / / मातृ--शब्दस्य गौणस्य, ऋत इत्त्वं विकल्पते। माइ-हरं माउ-हरं,क्वापि माईणमिष्यते / / उदूदोन्मृषि // 136 / / ओदूदुचक्रमादेतद्, मृषाशब्दे भवेदृतः। मोसा मूसा'मुसा मोसा-वाओ' चेदृक् प्रयुज्यते।। _इदुतौ वृष्ट-वृष्टि-पृथक्-मृदङ्ग-नके // 137|| वृष्टौ वृष्टे मृदङ्गे च, नसके पृथगव्यये। ऋकारस्येदुतौ स्यातां, तदुदान्हियते यथा - | स्याद् निइङ्गो मुइङ्गो वा, नत्तिओ नत्तओ तथा। विठ्ठो वुट्ठो तथा विट्ठी, वुट्ठी रूपं पिहं पुहं॥ वा बृहस्पतौ // 138|| बृहस्पती भवेद् ऋतो, विकल्पनादिदुत् तथा। बिहप्फई बुहप्फई, बहप्फई च पाक्षिकम् / / [नगस्वरूपिणीछं०] इदेदोदन्ते // 13 // ऋकारस्य भवेदित्त्वमेत्त्वमोत्त्वं यथाक्रमम्। तेन वृन्तंभवेद् 'विण्टं, वेण्टं वोण्टं' त्रिधाऽऽत्मकम्।। रिः केवलस्य / / 140 // केवलस्य ऋतो रिः स्याद्, 'रिद्धी रिच्छो' ततो भवेत्। ऋणवृषमत्वृषौ वा // 11 // ऋणऋजुऋषभऋतुऋषिषु, ऋतोऽस्तु या रिः रिणं अणं रिलू। उजू 'रिसहो उसहो', रिऊ उऊ स्याद् रिसी इस रूपम्॥ दृशः विप्--टक्सकः॥१४२।। क्विपटक-सगन्तस्य दृशे-र्धातोः रिः स्याद् ऋतो यथा। 'सदृग्वर्णः सरिवण्णो',सदृशः सरिसो मतः।। सदृक्षस्तु 'सरिच्छो' स्याद्,यादृशो जारिसो भवेत्। एवं एयारिसोअन्ना-रिसो अम्हारिसो तथा।। तारिसो केरिसो तुम्हा-रिसो त्यदाद्यन्यादि-(५/१/१५२) सूत्रोक्तः,प्रत्ययः क्विविहेष्यते।। आदृते ढिः॥१४३॥ आदृते तु ऋतो दिः स्याद्, 'आढिओ' तेन सिद्ध्यति। अरिदृप्ते // 14 // दृप्तशब्देऽरिरादेश-ऋकारस्य विधीयते। दृप्तसिंहेन दरिअ-सीहेणेति निगद्यते।। तृत इलिः कृप्त-क्लन्ने // 15 // कृप्त-क्लन्नयोरनयो-लतं इलिरादेश इष्यते तेन। धाराकिलितवत्तं, किलिन्न-कुसुमोवयारेसु / / एत इद् वा वेदना-चपेटा-देवर-केसरे / / 146 / / वेदनायां चपेआयां, देवरे केसरे तथा। एत इत्त्वं विकल्पेन, भवेदित्यवगम्यताम् / / विअणा वेअणा वा स्यात्, चवेडा चविडा तथा। दिअरो देवरो वेद्यः, किसरं केसरं मतम्॥ ऊः स्तेने वा।।१४७॥ एत ऊत्वं तु वास्तेने, थूणो थेणोद्वयं भवेत्। ऐत एत्॥१४॥ ऐकारस्यादिभूतस्य, भवत्येत्त्वं ततो भवेत्। वेहव्वं केढवो वेजो, सेला एरावणो तथा।। तेलुकं चैव कैलासो,रूपाण्येतानि सन्ति च। इत् सैन्धव-शनैश्चरे // 14 // ऐत इत्त्वं भवेन्नित्यं,सैन्धवे च शनैश्चरे। सणिच्छरो सिंधवं च, द्वयं रूपं प्रसिद्धयति। सैन्ये वा / / 150 // ऐत इत्त्वं तु वा सैन्ये, सिन्नं सेन्नं ततो द्वयम्। अइदैत्यादौ च / / 151 // ऐतोऽइः सैन्यशब्दे स्याद्, दैत्यादौ च तथागणे। सैन्यं सइन्नं संप्रोक्तं, दैत्यादिर्लक्ष्यतेऽधुना-/ अइसरिअं वइजवणो, वइआलीअंच कइअयं सइरं। वइएसो च दइचो, चइत्त वइदब्भ-वइसालो।। वइण्हो च वइस्सा-रो दइवअंदइन्न-वइसाहो। भइरव इति दैत्यादि-गणो बुधैाहतःपूर्वैः / / 'विश्लेषेतुन भवति'-चेइअमिति चैत्य इष्यते रूपम्। आर्षे–'चैत्यवन्दनं ची-वन्दण-'मुच्यते सद्भिः। दैत्यो देन्यं भैरवो दैवतं च, वैतालीयं कैतवं स्वैर-चैत्यम्। वैशालो वैशाख-वैश्वानरौ वै-दर्भो वैदेहश्च वैदेश एवम्॥ ऐश्वर्यं च वैजवनं, दैत्यादिर्गण इत्ययम्। आकृत्या गण्यते यस्माद्, न संख्यानियमस्ततः // वैरादौ वा // 152|| वैरादिषु भवेदैतो-ऽइरादेशी विकल्पनात्। तेन रूपद्वयं वैरे,'वइरं वेर--'मीदृशम्॥ कइलासो केलासो, वइसवणो पठ्यते च येसवणो। यइआलिओ च वेआ-लिओ, चइत्तो तथा चेत्तो॥ कइरवमिति केरवमिह, वइसिअमिति वेसिअंवा स्यात्। वइसंपायण-वेसं-पायणरूपद्वयं चमतम्॥ वैरं वैश्रवणो वैश-म्पायनश्चैत्र-कैरवे। कैलासो वैशिको वैता-लिको वैरादिरुच्यते। एच दैवे॥१५३|| ऐत एत्त्वमइत्वं च, दैवशब्दे पृथग्भवेत्। देव्यं दइव्वंदइवं, रूपत्रयमुदाहृतम्॥ उच्चैर्नीचैस्यअः॥१५४|| अअएतादृशादेशो, भवेदैतोऽविकल्पतः। उच्चैर्नीचैरितिपदे, नीचअं उच्चअं तथा॥ ईद् धैर्ये // 15 // धैर्य-शब्दे भवेदैत-ईत्वं 'धीरं ततो भवेत्। ओतोऽद्वाऽन्योऽन्य-प्रकोष्ठाऽऽतोद्य-शिरोवेदना मनोहर-सरोरुहे क्तोश्व वः॥१५६|| शिरोवेदनाऽन्योऽन्य-प्रकोष्ठ-मनोहर-सरोरुहातोये। ओतोऽत्त्वं वा, क-तयो-य॑थासंभवं च वत्वं स्यात् // Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (86) [सिद्धहेम.] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०१] अन्नन्नं अन्नुन्नं, मणोहर मणहरं, सिरोविअणा। वा कदले॥१६७॥ सिरविअणा, आवर्ज, आउज्जं सररुहं सरोरुहमिति / / विभाषया तु कदल-शब्दे स्वरयुतेन हि। रूपं भवति पवट्ठो, तथा पउल्हो प्रकोष्ठशब्दस्स। परेण व्यञ्जनेनादेः, स्वरस्यैत्त्वं विधीयते॥ बाहुलकादपि कार्य, क्वचिदिह वेद्यं यथास्थानम्।। कयलं कयली केली, केलं रूपचतुष्टयम्। ऊत्सोच्छासे / / 157|| वेतः कर्णिकारे ||16|| ओतऊत्त्वं तु सोच्छ्वासे, सूसाओ सिद्धिमृच्छति। कर्णिकारे भवेदेत्त्वमितो वा सस्वरेण हि। गव्यउ-आअः॥१५८|| परेण व्यञ्जनेनेह कण्णेरो कण्णिआरओ।। 'अउ'--'आअ' इत्यादेशौ, स्या-तामोतस्तु गोपदे। अयौ वेत् / / 166 / / गउओ गउआ गाओ,'गाई एसा हरस्स' च॥ प्राकृते तु विकल्पेना-ऽयिशब्दे सस्वरेण हि। __ औत ओत् // 15 // परेण व्यञ्जनेनादेः, स्वरस्यैत्त्वं विधीयते।। औकारस्यादिभूतस्य, भवेदोत्त्वमिति स्थितम्। 'अइ उम्मत्तिए' ऐबी-हेमि चैवं प्रयुज्यते। कौमुदी-'कोमुई कौञ्चः-'कोंचो' यौवनमेव च। ऐकारस्य प्रयोगोऽपि, प्राकृते तेन बुध्यते॥ ओत्-पूतर बदर-नवमालिका-नवफलिका-पूगफले 'जोव्वणं' कौस्तुभः 'कोत्यु-हो' कौशाम्बी च कौशिकः। // 17 // 'कोसंबी' 'कोसिओ' रूपं, यथाक्रममुदीरयेत्। पूतर-नवमालिकयो-नवफलिकाबदरयोश्च पूगफले। उत् सौन्दर्यादौ॥१६०|| व्यञ्जनसहितेनाऽऽदेः, स्वरस्य वौत्त्वं परस्वरेणापि॥ उदादेशो भवेदौतः, सौन्दर्यादिषु, तद्यथा। नोमालिआ पोप्फलं, नोहलिआ पोप्फली तथा बोरी। सुन्देरं सुन्दरिअं,सुगन्धत्तणं दुवारिओ सुंडो। पोरो बोरं रूपं, निदर्शितं कोविदैरेवम्॥ सुद्धोअणी पुलोमी, मुंजायण-सुवण्णिओ भवति। नवा मयूख-लवण-चतुर्गुण-चतुर्थ-चर्तुदशसौन्दर्य-शौण्ड-पौलोमी-दौवारिक-सौवर्णिकाः। चतुर्वार-सुकुमार-कुतूहलोदूखलोलूखले // 171 / / मौजायनः शौद्धोदनिः, सौन्दर्यादिः प्रकीर्तितः॥ उलूखले चतुवरि, सुकुमारे चतुर्दशे। कौशेयके वा / / 161 / / उदूखले मयूखे च,लवणे च चतुर्गुणे।। कौक्षेयकशब्दे स्या-दौकारस्योत्त्यमत्र वैकल्प्यम्। कुतूहले चतुर्थे च, वैकल्प्यं सस्वरेण हि। कुच्छेअयं चकोच्छे-अयं द्विरूपं समुद्दिष्टम्।। परेण व्यञ्जनेनादेः, स्वरस्यौत्त्वं विधीयते।। अउः पौरादौ च // 162|| मोहो मऊहो लवणं, लोणं भवति चोग्गुणो। कौक्षेयके च पौरादौ, य औकारः प्रपठ्यते। चउग्गुणो, चउत्थो चो-त्थो, चउद्दह चोद्दह। तस्य स्याद् अउरादेशः, कउच्छेअयमित्यपि॥ चोव्यारो चचउव्यारो, कोउहल्लं चकोहलं। पौर:-पउरो, गौमो-गउमो, सौधो निगद्यते सउहं। सुकुमालो च सोमालो, ओहलो स्यादुऊहलो / / कौशलमिह कउसलमिति, पौरुषमिह परिसं वेद्यम्॥ तऊखलं ओक्खलं स्या-देवं सर्वमुदाहृतम्॥ स्यात् कौरवः कउरवो, सौराः सउराबुधैर्निगद्यन्ते। अवापोते च // 17 // मौलिः-मउली, मौन-मउणं, कौलास्तथा कउला // उतेऽवेऽपेऽव्यये शब्द-त्रये,वा सस्वरेण हि। पौरो गौडःकौशलं पौरुषं च, सौराः कौलाः कौरवो मौन-सौधौ। परेण व्यञ्जनेनाऽऽदेः, स्वरस्यौत्त्वं विधीयते। मौलिः पौरादिर्गणो धीरवयं-राकृत्या संख्यायते नेह संख्या॥ 'ओ अरई 'अवयरई, तथाऽवयासो भवेय'ओआसो'। आच गौरवे // 13 // 'ओसरइ' 'अवसरई' ओ-सरिअमवसारिअंचैव॥ औत आत्त्वम्, अउश्वःस्या-दादेशो गौरवेपदे। ओवणं, ओघणो, उअ-वणमुअघणोऽथ च बाहुलकात्। 'अवगय-मवसद्दो, उभ, रवी' न चौत्त्वं भवत्यत्र / / स्याद् गारवं गउरवं, कविभिः संप्रकीर्तितम्॥ ऊच्चोपे // 173|| नाव्यावः॥१६४|| उपसर्गे तूपशब्दे, सार्द्ध वा सस्वरेण हि। आवाऽऽदेशोऽस्तु नौ-शब्दे, औतो 'नावा' ततो भवेत्। परेण व्यञ्जनेनादेः, स्वरस्योत्त्वं तथौद्भवेत्॥ एत् त्रयोदशादौ स्वरस्य सस्वरव्यञ्जनेन॥१६॥ सवहसि ओहसि,ऊहसिया उवज्झाओ। त्रयोदशादिषुसंख्या-शब्देषु सस्वरेण हि। ओज्झाओ ऊज्झाओ, त्रयं त्रयं चात्र रूपं स्यात्।। परेण व्यञ्जनेनाऽऽदेः, स्वरस्यैत्त्वं विधीयते॥ उमो निषण्णे // 17 // यथा-तेरह तेवीसा, तेतीसा परिपठ्यते। निषण्ण शब्दे वैकल्प्य आदेशः सस्वरेण हि। ___स्थविर-विचकिलायस्कारे / / 166|| परेण व्यञ्जनेनाऽऽदेः, स्वरस्योमो विधीयते / / स्थविरे च विचकिले-ऽयस्कारे सस्वरेण हि। णुमण्णो च णिसण्णो च, बुधै रूपद्वयं स्मृतम्। परेण व्यञ्जनेनाऽऽदेः, स्वरस्यैत्त्वं विधीयते।। प्रावरणे अङ्ग्वाऊ।।१७५।। थेरो वेइल्लं एक्कारो, विअइल्लमपि क्वचित्। 'अड्ड' 'आउ' इत्यादेशौ, शब्दे प्रावरणे स्मृतौ। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (60) [सिद्धहेम० अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०१] आदेः स्वरस्य स्तः सव्य-जनस्वरपरस्य, वा।। सयद नयरं गया मयंको, रययं कायमणी पयावई। पङ्कुरणं पाउरणं, पावरणमुदाहृतम्। मयणो नयण कयग्गहो, सयलं तित्थयरो रसायलं / / स्वरादसंयुक्तस्यानादेः॥१७६|| 'लायण्ण चैव' 'पायालं,' इति गृह्यते। सूत्रं 'स्यरादसंयुक्त स्यानादेः' निखिलं त्विदम्। अवर्ण इति किं प्रोक्तं, 'सउणो' 'पउणो' 'कई'। इतोऽधिक्रियते कार्य-सिद्धये, तद् विचिन्त्यताम् / / 'पउरं' 'निहओ' 'वाऊ,' राईवं 'निनओ' तथा। क-ग-च-ज-त-द-प-य-वां प्रायो लुक्॥१७७॥ यश्रुतित्रि कर्तव्या, नच'लोअस्स' 'देअरो' / स्वरात्परेऽसंयुक्ता अनादिभूतास्तुसन्ति ये तेषाम्। भवत्यवर्णादित्येव, क्वचित् 'पियइ' इत्यपि॥ क-ग-च-ज-प-य-वानां, प्रायो लुक् प्राकृते भवति॥ कुब्ज-कर्पर-कीले कः खोऽपुष्पे // 181 / / के-तित्थयरोलोओ, गे-नयरं स्याद्नओ मयंको च। कुब्जकर्परकीलेषु, कस्य वर्णस्य खो भवेत्। चे-सई कयग्गहो स्याद, जे-वारययं पयावईच गओ। कुब्जाभिधेयं पुष्पं चेत्, तदा नैव विधीयते॥ ते-जई रसायलं,दे-मयणो,पे-रिऊ सुउरिसोच। 'खुज्जो' च 'खीलओ' चैव, 'खप्परं च तथैव हि। ये-तु विओओ नअणं, वे-लायण्णं च विउहो च। अपुष्प इति किं प्रोक्तं, 'बंधेउं कुज्ज-पुप्फयं'। प्रायोग्रहणात् क्वचिदपि, न भवति यद्वत्-पयागजलमगरू। आर्षेऽन्यत्रापि 'खसिअं' 'कसितं' 'खासि' तथा। विदुरोसमवाओदा-णवो सुकुसुमं तथा सुगओ। 'कासित रूपमप्येवं, विकल्पमिह दृश्यते॥ स्वरात्परः किं कथितः? पुरंदरो संवुडो चसंकरओ।। मरकतमदकले गः कन्दुके त्वादेः // 15 // नकंचरो सगमो,धणंजओ संवरो नात्र / मरकतमदकलशब्दौ, कस्य च गत्वेन सिद्ध्यतः किंतु। किमसंयुक्ताः?-अक्को, वग्गो कजं तथैव विप्पोच। कन्दुकशब्दस्यादे-रेव च गत्वं विनिर्देश्यम्॥ अचो धुत्तो सव्यं, यजं उद्दाम इति च यथा॥ रूपं मरगयं मय-गलो गेंदुअमित्यपि। वचिदपि संयुक्तस्यच, नक्कचर इति भवेद् यथा रूपम्। उक्ता अनादिभूताः,जारो चोरो तरू वण्णो // किराते चः॥१८॥ समासे तु विभक्तीनां, वाक्यगानामपेक्षया। किरातशब्दे चत्वं हि, ककारस्य विधीयते / / पदत्वं चापदत्वंच, तत्र लक्ष्यानुसारतः।। विधिःपुलिन्द एवायं, 'चिलाओ' इति दृश्यते। यथा-आगमिओ आय-मिओ, जलचरस्तथा। न कामरूपिणि विधिः, 'नमो हरकिराययं // वाच्यो 'जलयरो' चेदृक्, सुहदो सुहओऽपि च॥ शीकरे म-हौ वा // 18 // कृचिदादेरपियथा 'सपुनः-सवण' स्मृतम्। शीकरे तु ककारस्य,भ-हौ स्यातां विकल्पनात्। सच सोअ, तथा चिन्हं इन्धं चैव प्रयुज्यते। सीभरो सीहरो, पक्षे सीअरो विनिगद्यते। पिशाची तु पिसाजी स्या--चस्य जत्वेन कुत्रचित्। चन्द्रिकायां मः॥१८॥ व्यत्ययो दृश्यते छापि, तदुदाहियतेऽधुना। चन्द्रिका चन्दिमा जाता, कस्य मे विहिते सति। 'एगत्तं' एकत्वम्, 'एगो' एकोऽमुको-'ऽमुगो' चापि। निकष-स्फटिक-चिकुरे हः॥१८६|| 'लोगस्सुजोयगरा,''असुगो' असुकोऽपि 'आगारो' // निकषे स्फटिके चिकुरे, कस्य हकारो विधीयते तस्मात्। आकारस्तीर्थकरः, तित्थगरो' 'सावगो' विनिर्देश्यः। निहसो फलिहो चिहुरो, क्रमेण रूपाणि सिध्यन्ति। श्रावक इति 'आगरिसो,' आकर्षः कस्य गत्वेऽत्र // ख-घ-थ-ध-भाम् / 187 // व्यत्ययश्चे-(४/४४७) ति सूत्रात्तु, रूपनिष्पत्तिरिष्यते। स्वरात् परेऽसंयुक्ता अनादिभूतास्तु सन्तिये, तेषाम्। दृश्यते चान्यदप्यारे, चस्य टत्वविधानतः॥ ख-घ-थ-भां वर्णानां, प्रायो हः प्राकृते भवति।। यथाऽऽकुञ्चनमित्यत्रा-ऽऽउंटणं रूपमृच्छति। खे-मेहला च साहा, घे-मेहो जहणमिति तथा माहो। यमुना-चामुण्डा-कामुकातिमुक्तके मोऽनुनासिकश्च // 178|| थे-आवसहो, नाहो, धे-बाहो वाहई-न्दहणू॥ यमुना चामुण्डा का-मुकातिमुक्तकपदेषु लुक् मस्य। भे-थणहरो सहावो, सहा नहं सोह इत्युदाहरणम्। अनुनासिकश्च मस्य, स्थाने स्यादित्युदाहियते / / स्वरात्परः किं कथितः? संखो संघो तथा बंधो॥ 'अँउणा' 'काँउओ' चाँउ-डा तथा 'अँणिउत्तयं'। किमसंयुक्ताः? अक्खइ, अग्घइ कत्थइच सिद्धओ बंधइ। कृचिन्न जायते 'अइ-मुंतयं 'अइमुत्तयं'। 'गजंते खे मेहा, अनादिभूताभिधानेन। नावर्णात् पः॥१७॥ प्रायोग्रहणाद् अथिरो, पलय-घणो वा नभं च जिणधम्मो। अवर्णादुत्तरस्याना-देर्लुक् पस्य न जायते। सरिसवखलो पणट्ठभ-ओ, कायं चेदृगिह वेद्यम्॥ शपथः-'सवहो' शापः, 'सांवो' नादेः कदाचन।। पृथकि धो वा // 155|| 'परउद्यो' यतो नात्र, पस्य लोपो विधीयते। पृथक्शब्दे थकारस्य, स्थाने धो वा विधीयते। अवर्णो यश्रुतिः॥१८०|| पिधं पुधं पिहं तेद्वत्, पुहंरूपचतुष्टयम्॥ कगचजे-(४/१७७)त्यादिसूत्रात, लुकि जातेऽवशिष्यते। शृङ्गले खः कः॥१८॥ अवर्णाच परीभूतो, योऽवर्णस्तस्य यश्रुतिः। शृङले खस्य कादेशः सङ्कले तेन सिद्ध्यति। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सिद्धहेम०] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०१] पुन्नाग मागिन्योर्गो मः // 16 // वलिस वडिसं णाली, णाडी वाऽस्ति णलणडं। स्यात् पुन्नागे च भागिन्यां,गकारस्य मकारता। दालिमं दाडिमं आमे-लो आमेडो, गुलो गुडो।। 'पुन्नामाइं वसन्ते च' 'भामिणी' संप्रयुज्यते॥ क्वचिन्नैव, यथा-नीडं निबिडं गउडो तमी। छागेलः // 16 // उडू पीडिअमित्यादि यथालक्ष्यं विभाव्यताम् / / 'छागे गस्य लकारः स्यात्, छालो छाली च सिध्यतः। वेणौ णो वा / / 203 / / ऊत्वे दुर्भग-सुमगे वः॥१९२|| वेणौ तु णस्य लो वा स्यात्, 'वेलू वेणू द्वयं मतम्। दुर्भगे सुभगे चोत्वे, कृतं गस्यतु वो भवेत्। तुच्छे तश्च-द्धौ वा // 20 // दूहवो सूहवोऽनूत्वे-'दुहओ सुहओ' मतः।। तुच्छशब्दे तकारस्य, च-छौ वा स्तो यथाक्रमम्। खचित-पिशाचयोश्चः स-ल्लो वा / / 163 / / चुच्छं छुच्छ तथा तुच्छं, रूपत्रयमुदाहृतम्।। खचिते तथा पिशाचे, चस्य तु स-ल्लौ विकल्पतो भवतः / तगर-सर-तृवरेटः // 20 // खसिओ खइओ तस्माद्, भवति पिसल्लो पिसाओ च।। उसर-तगर-तूबर--पदे, तस्य टकारो विधीयते तस्मात्। जटिले जो झो वा // 164|| टसरो टगरो टूवरो, रूपनयमत्र जानीहि।। जटिले जस्य झो वा स्याद, झडिलो जडिलो तथा। प्रत्यादौ डः // 20 // टो डः।।१९५|| प्रत्यादिषु शब्देषु तु, तस्य मकारः प्रवर्तते तस्मात् / स्वरात्परस्यासंयुक्त-स्यानादेष्टस्य डो भवेत्। पडिवन्नं पडिहासो, पडिहारो पडिनिअत्तं च // नड़ो भडो घडो रूपं, घडइ प्रणिगद्यते॥ पाडिप्फद्धी पडिमा, पडंसुआ पडिवया च पडिसारो। अस्वरात्तु भवेद्घंटा, खट्टा-संयुक्तदर्शनात्। पहुडि पाहुडं, मडयं, बहेडओ हरडई पडाया च।। आदेरेवेत्यतः 'टक्को' क्वचिन्न स्याद्यथा-ऽटइ।। दुष्कृतं दुक्कडं त्वार्षेसुकृतं सुकडं तथा।। सटा-शकट-कैटभे ढः / / 166|| अपहृतं चाऽवहडं, आहृतं त्वाऽऽहडं स्मृतम्॥ सटायां शकटे कैट-भे शब्दे टस्य ढो भवेत्। प्रायः किम्? प्रतिसमयं पइसमयं, प्रतीपमिति पईवंच। केढवो सयढोतद्वत्, सढा रूपं पृथक् पृथक्॥ संप्रति संपइ बोध्यं, तथा प्रतिष्ठा पइट्वा च / / स्फटिके लः // 197|| स्फटिके टस्य लादेशे, 'फलिहो' सिद्धिमृच्छति / प्रति-प्रभृति-मृतक-प्राभृताश्च हरीतको। विभीतक-पताका-व्या-पृताः,प्रत्यादिरिष्यते / चपेटा-पाटौ वा // 198|| इत्वे वेतसे // 207 / / चपेटायां च, वा ण्यन्ते, पटिधातौ च टस्य लः। इत्ये सति तकारस्य, मः स्यात् शब्दे तु वेतसे। चविला चविडा फाले-इफाडेइ प्रसिध्यति। ठो ढः||१९९l वेडिसो, इत्व इति किम्? 'वेअसो' नेत्वमत्र तु॥ गर्मितातिमुक्तके णः // 20 // स्वरात्परस्यासंयुक्त स्थानादेष्ठस्य ढो भवेत्। मढो सढो चकमढो,कुढारो पढईत्यपि।। गर्भितातिमुक्तकयो-स्तस्य णकारः प्रवर्तते तस्मात् / स्वरादित्येव वेकुंठे-ऽसंयुक्तस्यैव चिट्ठइ। अणिउँ तय गडिभणोऽपि, क्वचिन्न- 'अइमुत्तयं भवति॥ अनादेरेव 'हिअए-ठइ' चैवं प्रयुज्यते॥ रुदिते दिना ण्णः // 20 // अङ्कोठे ल्लः // 20 // रुदिते तु दिना साकं, तस्य ण्णे--रुण्णमुच्यते। (अत्र केचित् ऋत्वादिषु अङ्कोठे ठस्य लो द्वित्व-भूतो भवति तेन हि। द इत्यारब्धवन्तः, स तु शौरसेनीमागधीविषय एव दृश्यते इति नोच्यते। प्राकृते अंकोल्लतेल्ल-तुप्पं तु, पदं लोकैः प्रयुज्यते। हि ऋतु:-"रिऊ' 'उऊ' / रजतम्-'रययं' / एतद्-'ए'। गतः- 'गओ' / आगतः-'आगओ'सांप्रतम्-'संपयं'। यतः--'जओ'।ततः-'तओ'।कृतम्पिठरे हो वा रश्च डः // 201 // 'कयं'।ह (ह) तम्- 'हयं / हताशः--'हयासो'। श्रुतः-'सुओ'। आकृतिःपिठरे ठस्य हो वा, हस्य योगे च रस्य डः। 'आकिई'। निवृतः-'निव्वुओ। तातः-'ताओ' / कतरः-'कयरो'। द्वितीयःपिहडो पढरो रूप-द्वयं सिद्धिमुपागमत्। 'दुइ(ई) ओ'। इत्यादयः प्रयोगा भवन्ति / न पुनः 'उदू' रयदमित्यादि क्वचिद् डोलः // 2021 भावेऽपि 'ध्यत्ययश्च' (1/447) इत्येव सिद्धम् / 'दिही' इत्येतदर्थ तु स्वरात्परस्यासंयुक्त-स्यानादेर्डस्य लो भवेत्। 'धृतेर्दिहिः (2/131) इति वक्ष्यामः / ) प्रायो, 'गरुलो' वडवा-मुखं च-'वलयामुहं। सप्तौ रा२१०|| असंयुक्तस्य किं? खग्गो, स्वरात् किम्? मोंडमिष्यते। सप्ततिः सत्तरी जाता, तस्य रे विहिते सति। अनादेरिति किम्? डिमो,प्रायः किम्? वापि वा भवेत्।। अतसी-सातवाहनेलः॥२११॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (62) [सिद्धहेम०] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०१]] अतसी-सातवाहने, तस्य लकारो भवेद, यथा-अलसी। ककुदे हः // 22 // सालवाहणो साला-हणो च सालाहणी भासा / / ककुदे हो दस्य तेन–'कउह' सिद्धिमृच्छति। पलिते वा // 212|| निषधे धो ढः // 226|| पलिते तस्य लो वा स्यात्, पलिलं पलिअं यथा। निषधे धस्य हस्तेन-'निसढो' रूपमाप्नुयात्। पीते वो ले वा // 213|| _वौषधे / / 227|| पीते तस्य तु वः स्यात्, स्वार्थलकारे परे विकल्पेन। ओषधे धस्य ढो वा स्याद, यथा-ओसढमोसहं। भवति पीवलं पीअलमिति, लःकिम्? स्याद् यथा-'पीअं'। नो णः // 228|| वितस्ति वसति-भरत-कातर-मातुलिने हः // 214|| स्वरात्परस्यासंयुक्त-स्थानादेर्नस्यणो भवेत्। वितस्तौ वसतौ मातु-लिने भरत–कातरे। कयणं वयणं नयणं, मयणो माणइ, तथाऽऽरनालं तु। पश्चस्वेषु तकारस्य, हकारादेश इष्यते। आर्षे-अनिलो अनलो, नानारूपाणि सन्तीह। विहत्थी, वसही कापि-नायं स्याद् 'वसई' यथा। वाऽऽदौ // 226 / / भरहो काहलो माहु-लिंग चैतदुदाहृतम्॥ असंयुक्तस्यनस्य स्या-दादिभूतस्य वातुणः। मेथि-शिथिर-शिथिल-प्रथमेथस्य ढः // 215|| णरो नरो, णेइ नेइ, लक्ष्यते च णई नई / / मेथि-शिथिर-शिथिल-प्रथ-मेषु थकारस्य ढो भवत्यत्र। असंयुक्तस्य किम्? न्यायो-'नाओ' नैवात्र णो भवेत्। मेढी सिढिलो सिढिलो,पढमो रूपाणि सिध्यन्ति। निम्ब--नापिते ल–ण्हं वा / / 230|| __ निशीथपृथिव्योर्वा // 216 // निम्ब-नापितर्यानस्य, ल-हादेशौ यथाक्रमम्। निशीथे च पृथिव्यां च, वा थकारस्य ढो भवेत्। लिम्बो निम्बो, हाविओ त, नाविओ, सिद्धिमाप्नुतः। निसीढो च निसीहो च, पुढवी पुहवी तथा।। पो वः // 231 // दशन-दष्ट-दग्ध-दोला-दण्ड-दर-दाह-दम्म स्वरात्परस्यासंयुक्त-स्थानादेः पस्य वो भवेत्। दर्भ-कदनदोहदे दो वा डः // 217| प्रायः, सवहो सायो उवसग्गो कासवो पईवो च। दग्ध-दष्ट दोहादेषु, दोला-दर-दण्ड दाह-दम्भेषु। उवमा कविलं पावं, कुणवं गोवइ च महि-वालो [स्वरादित्येव-'कंपइ'। दशन-कदन-दर्भेषु च, दस्य डकारो विकल्पने॥ असंयुक्तस्येत्येव-'अप्पमतो'। अनादेरित्येव-'सुहेण पढई। प्राय इत्येव-कई डसणं दसणं, डट्ठो दह्रो, मड्ढोच दड्डो च। रिऊ। एतेन पकारस्य प्राप्तयोर्लोपवकारयोः यस्मिन् कृते श्रुतिसुखमुत्पद्यते स तत्र कार्यः। डोला दोला, डंडो दंडो, डाहो-तथा दाहो। पाटि-परुष-परिघ-परिखा-पनस-पारिभद्रे फः / / 232|| डंभो दंभो, डब्मो, दब्भो,कडणं च कयणं च। पाटिधातुर्यदा ण्यन्तः, परुषादिश्च यो गणः। अपि डोहलो दोहलो, डरो दरो चेति रूपाणि / तयोरेव पकारस्य, फकारादेश इष्यते।। दंश-दहोः॥२१८|| यथा-फालेइ फाडेइ, फरुसो फलिहो तथा। स्याद्धातोर्दश-दहयो-दकारस्य डकारता। फलिहा फणसो फालि-हद्दो रूपाण्यभूनि हि।। तेनैव रूपं 'डसइ, डहइ' प्रतिपठ्यते॥ प्रमूते वः॥२३३|| संख्या-गद्दे रः॥२१॥ प्रभूते पस्य वो वा स्थाद, बढुत्तं तेन सिध्यति। संख्यावाचिनि गद्द-शब्देऽपि च रो दकारस्य। नीपाऽऽपीडे मो वा // 234|| वारह तेरह एआ-रहरूपं मग्गरं च यथा।! स्यान्त्रीपाऽऽपीडयोः पस्य, मकारः, पाक्षिको यथा। अनादेरित्येव यथा-'ते दस' प्रतिभाष्यते। नीमो नीवो, तथा-ऽऽमेलो, आमेडो सिद्धिमाप्नुतः॥ असंदुक्तस्येति यावत्,'चउद्दह' यथा भवेत्। पापरः॥२३॥ कदल्यामद्रुमे / / 220|| पापविपदादौ स्यात्, 'पारद्वी' पस्य रे कृते। अद्रुमे कदलीशब्दे, दकारस्य रकारता / फोभ-हौ // 236|| करली, अद्रुम इति, किम्? केली कयली यथा / / स्वरात्परस्यासंयुक्त स्थानादेःफस्य वा भहौ। प्रदीपिदोहदे लः॥२२१|| क्वचिद् भकारः स्यादत्र-रेफो रेभो, शिफा सिभा। प्रपूर्वे दीप्यतौ धातौ, तथा शब्दे च दोहदे। कृचिद् हकारः स्याद् मुत्ता-हलं, क्वचिदुभावपि। दस्य लः स्यात् पलीवेइ, पलित्तं दोहलो यथा / / सभलं सहलं, सेभा-लिआ सेहालिआ तथा। कदम्बे // 22 // वो वः // 237 // स्यात् कलम्बो कयम्बो वा, कदम्बे दस्यले कृते / स्वरात्परस्यासंयुक्त स्थानादेवस्य यो भवेत्। दीपौ धो वा / / 223 / / यथाऽलाबू अलावू चाऽऽलाऊ वस्येह लोपनात् // दीप्यतौ दस्य धो वा स्यात्, यथा-धिप्पइ दिप्पइ / विसिन्यांमः॥२३८|| कदर्थिते वः // 224|| बिसिनी मिसिणीजाता, वस्य भे विहिते सति [स्त्रीलिङ्ग निर्देशा-दिहन कदर्थिते दस्य यः स्याद्, येन सिध्येत् 'कवट्टिओ'। भवति-'विसतंतुपेलवाणं')। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सिद्धहेमा अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०१] कबन्धे मन्यौ // 236 / / स्यात् कमन्धो कयन्धो च, कबन्धे वस्य वा मन्यौ। कैटभे भो बः // 24 // कैटभे भस्य वस्तेन, केढवो' सिद्धिमामुयात्। विषमे मो ढो वा / / 241 / / विषमे मस्य दो वा स्यात्, 'विसढो विसमो' यथा। मन्मथे वा // 242 / / मन्मथे मस्य वस्तेन, वम्महो सिद्धिमृच्छति। वाऽभिमन्यौ // 243|| अभिमन्यौ मकारस्य, वकारो वा विधीयते। 'अहिवन्नू अहिमन्नू, 'द्वयं सिद्धिमुपागमत्॥ भ्रमरे सो वा // 24 // भ्रमरे मस्य सो वा स्याद्, भसलो भमरो यथा। ओदों जः // 24 // पदादेर्यस्य जादेशः, जसो जाइजमो यथा। बहुलात् सोपसर्गस्या-नादेरपि भवेत् क्वचित्।। संजोगो संजमो क्वापिन- 'पओओ' ऽभिधीयते। लोपोऽप्यारे-यथाख्यातम्-अहक्खायं प्रयुज्यते। युष्मद्यर्थपरे तः॥२४६|| युष्मद्यर्थपरे यस्य, तकारादेश इष्यते। तुम्हारिसो तुम्हकेरो, किमर्थपर इतयदः? 'जुम्हदम्हपयरणं नात्र, शब्दपरो यतः। यष्ट्यां लः॥२४७|| यष्ट्यां यस्य लो 'लट्ठी, वेणुलट्टी च भण्यते। वोत्तरीयानीय-तीय-कृपेजः // 248|| उत्तरीयेऽनीय-तीय-कृयेषु प्रत्ययेषु च। द्विरुक्तो यस्य वा जः स्यात्, तदुदाहियतेऽधुना॥ उत्तरिझं उत्तरीअं, करणिज्जं विभाषया / करणीअं,विइज्जो तु वीओ तीयस्य दृश्यताम्। कृद्यस्यपेजा पेआच, द्वन्द्व सर्वमुदाहृतम्। छायायां होऽकान्तौ वा // 24 // अकान्तिवाचके छाया-शब्दे हो यस्य वा भवेत्। वच्छस्स छाही छाया वा, आतपाभाव उच्यते।। डाह-वौ कतिपये // 250 / / यस्य स्यातां कतिपये, डाहो वश्चेत्युभौ क्रमात्। कइवाह कइअवं, द्वयं निवर्तते पदम् / / किरि-मेरे रो मः॥२५१।। किरि-भेरयोः रस्य डः, किडी भेडो च सिद्ध्यतः। पर्याणे डावा // 25 // पडायाणं च पल्लाणं, पर्याणे रस्य डाऽस्तु वा। करवीरे णः // 253|| 'कणवीरो' करवीरे, रस्याऽऽद्यस्य तु णो भवेत्। हरिद्रादौलः // 254 // असंयुक्तस्य रस्य स्याद्, हरिद्रादिगणे तुलः। हलिद्दी सिढिलो लुक्को दलिद्दाइ जद्दहिलो। दलिदो मुहलो दालि-दं हलिदो च काहलो। चलणो वलुणो इङ्गा-लो सक्कालो च निठुलो।। सोमालो कलुणो फालि-हद्दोऽवद्दाल फालिहा। चिलाओ फलिहो चैव, भसलो बढलो तथा / / जढलं चेति रूपाणि, विज्ञेयानि मनीषिभिः / हरिद्रा दारिद्यं शिथिर-मुखराङ्गार-परिखा, हरिद्रः सत्कारोजठर-चरणौ रुग्ण-करुणौ। किरातापद्वार-भ्रमर-सुकुमाराश्च वरुणो, दरिद्रातिर्धातुःपरिघ-वठरौ निषुरमपि॥ युधिष्ठिरःपारिभद्रो, दरिद्रः कातरस्तथा। हरद्रिादिगणश्चाय-माकृत्या परिगण्यते (बहुलाधिकाराचरणशब्दस्य पदार्थवृत्तरेव / अन्यत्र 'चरणकरणं' / भ्रमरे ससंनियोगे एव / अन्यत्र भमरो' / तथा 'जढरं' 'वदरो' 'निठुरो' इत्याद्यपि।)। स्थूले लो रः॥२५५।। स्थूले लस्य रकारः स्यात्, थोरं व्युत्पद्यते तदा। थूलभद्दो हरिद्रादिलत्वे स्थूरस्य सिध्यति। लाहल-लागल-लागृले वाऽऽदेर्णः॥२५६|| लाहले लाङ्गले लागू-ले वाऽऽदेर्लस्य णो भवेत्। णाहलो लाहलो,ण-लं लूङ्गलं च णङ्गलं। लङ्गलं चेति रूपाणि, द्वन्द्वभूतानि चक्षते॥ ललाटे च // 257 / / ललाटे चादिभूतस्य, लस्य णः संप्रवर्तते। णिडालं च णडालं च, चस्त्वादेरिति बोधकः। शबरे वो मः // 258|| शवरे वस्य मत्वेन, समरो सिद्धिमृच्छति। स्वमनीार्वा // 256 / / स्वप्न-नीव्योर्वकारस्य,मकारो वा विधीयते। सिमिणो सिविणो,नीमी नीवी व्युत्पत्तिमेति च / शपोः सः॥२६०।। शेषयोस्तु सकारः स्यात् सर्वत्रात्र, निदर्श्यते। सेसो विसेसो निहसो, कसाओ दस सोहइ / / स्नुषायां ण्हो वा // 261 // स्नुषायां षस्य हो वा स्यात्, ततः 'सुण्हा सुसा' द्वयम्। दश-पापाणे हः // 262 / / दशन्-पाषाणयो) वा, शषयोर्लक्ष्यदर्शनात्। दहमुहो दस-मुहो दहबलो दस-बलो। दह-रहो दस-रहो वारहै-आरह। पाषाणस्य तु पाहाणो, पासाणोऽपि च दृश्यते।। दिवसे सः॥२६३।। दिवसे सस्य हो वा स्याद्, दिवसो दिवहा तथा। हो घोऽनुस्वारात्॥२६४|| अनुस्वाराद् हकारस्य,घकारांचा विधीयते। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (14) [सिद्धहेम०] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०२] सिंघो सीहो च संघारो, संहारो, क्वचिदन्यथा [ (वचिदननु-स्वारादपि ॥अर्हम्।। दाहः-'दाघो)]॥ / / अथ द्वितीयः पादः॥ पट्-शमी-शाव-सुधा-सप्तपर्णेष्वादेश्छः // 26 // संयुक्तस्य / / 1 / / सप्तपर्ण-सुधा-शाव-शमी-षट्ष्यादिमस्य छः। ज्यायामीत् [2/115] इन्यतो यावद, अधिकारोऽयमीरितः। छत्तिवण्णो छुहा ठवो, छमी छट्टो यथाक्रमम्॥ यदितोऽनुक्रमिष्यामस्तत् संयुक्तस्य बुध्यताम्॥ शिरायां वा // 266 / / शक्त-मुक्त-दष्ट-रुग्ण-मृदुत्वे को वा // 2 // शिराशब्दे-भवेदादे-छकारो वा, छिरा सिरा। शक्ते मुक्ते मृदुत्वे च, दष्टे रुग्णे विभाषणा। लुग्भाजन दनुज-राजकुले जः सस्वरस्य नवा // 267 // संयुक्तस्य ककारः स्याद्, यथोदाहियतेऽधुना॥ भाजने दनुजे राज-कुले सस्वरजस्य वा। सक्को सत्तो, मुक्को मुत्तो, मक्को तथा दट्ठो। लुगिष्यते, यथा भाणं भायणं, दणुओ दणु॥ लुक्को लुग्गो, माउत्तणं च माउक्कमिति वेद्यम्। स्याद् ा-उलं, राय-उलं, यथाक्रममुदाहृतम्। क्षः खः क्वचित्तु छ-झौ॥३॥ व्याकरण-प्राकारागते कगोः॥२६८|| क्षस्य खः स्याद्,छ-झौ कापि, 'खओ' लक्खणमुच्यते। व्याकरणप्राकाराऽऽगतेषु कगयोस्तु सस्यरयोः।। छ-झावपि, यथा-खीणं छीणं, झीणं च झिज्जइ। लुग् वा वायरणं वा-रणं च पारो च पायारा॥ ___ष्क-स्कयो म्नि॥४॥ आओ तथाऽऽगओ रूपे, आगतस्येति बुध्यताम्। संज्ञायां ष्कस्कयोः खः, स्याद्, निक्खं पोक्खरिणी यथा। किसलय-कालायस-हृदये यः // 266 / / अवक्खन्दो तथा खन्धा वोरा खन्धो प्रकीर्यते। कालायसे किसलये, हृदये यस्तु-सस्वरः। शुष्क-स्कन्दे वा // 5 // यकारस्तस्य लुग्वा स्याद्, यथा-कालायसं त्विदम्॥ शुष्के स्कन्देष्क-स्कयोःखो, विकल्पेन प्रवर्तते। कालासं स्यात् किसलयं, किसलं, हिअयं हिअं। सुक्खं सुक्कं तथा खन्दो, 'कन्दो चैवमुदाहृतम् / / दुर्गादेव्युदुम्वर-पादपतन-पादपठिन्तर्दः॥२७०|| दुर्गादेव्यां तथा पाद-पतने चाप्युदुम्बरे।। स्वेटकादौ // 6 // क्ष्वेटकादिषु शब्देषु, संयुक्तस्यात्र खो भवेत्। पादपीठे सस्वरो यो, मध्य दो, वा स लुप्यते॥ दुग्गाएवी तु दुग्गावी, उम्बरो स्यादु उउम्बरो। श्वेटकः खेडओ,क्ष्योटकः खोडओ। पा-वडणं च वा पाय-वडणं संप्रकीर्तितम्॥ स्फोटकः खोडओ, स्फेटकः खेडओ। पाय-यडिं तु पा–वीडं, 'अन्तर'-दुर्गा-दरक्षकम्।।(अन्त-रितिकिम्? स्फेटिकः खेडिओ चायं,क्ष्वेटकादिरुदाहृतः॥ दुर्गादेव्यामादौ मा भूत्।)] क्ष्चेटकःक्ष्योटकश्चैव, स्फोटकः स्फेटकस्तथा। यावत्तावज्जीवितावर्त्तमानावट-प्रावारक देवकुलै स्फेटिकश्चेति संख्यातः, क्ष्वेटकादिरयं गणः। वमेवे वः // 27 // ___ स्थाणावहरे॥७॥ प्रावारके देवकुले एवमेवेच जीविते। अहरार्थे स्थाणुशब्दे, खःस्यात् 'खाणू' ततो भवेत्। आवर्तमानावटयोस्तथा यावति तावति। स्तम्मे स्तो वा ||6|| योऽन्तर्वती सस्वरोव-स्तस्य लुग्वा विधीयते। स्तम्भे स्तस्य खकारोवा, खम्भो थम्भो प्रभाप्यते। जा जाव, ताव ता, जीअंजीविअं, अवडो अडो। थ-ठावस्पन्दे॥६ अत्तमाणो तथाऽऽवत्तमाणो, देवउलं पुनः। अस्पन्दार्थे स्तम्भे, स्तस्यठ-थौ स्तो यथा पदं थम्भो / देउलं, पारओ पावारओ एमेव तूच्यते। छम्भो, स्तम्भ्यत इति थ-म्भिज्जइ ठम्भिज्जइ स्याताम् / / एवमेव तथाऽन्तस्तुमेव वस्यास्तिरक्षकम् [अन्तरित्येव। एवमेवेत्यस्य न रते गो वा // 10 // भवति।)] रक्ते क्तस्य गकारोवा, रग्गो रत्तो विभाष्यते। या माषा भगवदवचोमिरगमत् ख्याति प्रतिठां परां, शुल्के ङ्गो वा // 11 // यस्यां सन्त्यधुनाऽप्यमूनि निखिलान्येकादशाङ्गानि च / शुल्के ल्कस्यङ्गो विभाषा, सुङ्गं सुक्कं प्रकीर्तितम्। तस्याः संप्रति दुःपमारवशतो जातोऽप्रचारः पुनः, कृत्ति-चत्वरे चः॥१२॥ संचाराय मया कृते विवरणे पादोऽयमाद्यो गतः ||1|| कृत्ति-चत्वरयोःसंयु-तस्य चः संप्रवर्तते। इति श्रीमत्सौधर्मबृहत्तपागच्छीय-कलिकालसर्वज्ञ किची च चचरं रूप-द्वये सिद्धि मुपागतम्। श्रीमद्भट्टारक-श्रीविजयाराजेन्द्रसूरिविरचि त्योऽचैत्ये // 13 // तायां प्राकृतव्याकृतौ प्रथमः पादः / चैत्यवर्जे त्यस्य चःस्यात्, पचओ सच-मुच्यते। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सिद्धहेम.] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०२] प्रत्यूपे पश्च हो वा // 14 // प्रत्यूषे त्यस्य चः स्यात् तत्संनिधौ षस्य हश्च वा। विधीयचतेच पचूहो, पचूसो तेन सिध्यतः।। त्व-थ्व-द्र-ध्वांच-छ-जझाः क्वचित् // 15|| त्व-थ्व-द्व-ध्वांच-छ-ज-झः क्वचिदेते भवन्ति हि। भुक्त्वा भोचा, ज्ञात्वा णचा, श्रुत्वा सोचा पृथ्वी पिच्छी। विद्वान् विजं, बुवा वुज्झा, एवं चान्यद्रूप वेद्यम्। "भोचा सयलं पिच्छिं, विजं बुज्झा अणण्णयग्गामि। चइऊण तवं काउं, सन्ती पत्ती सिवं परमं / " वृश्चिके श्वेर्च् // 16 // वृश्चिके श्चेः सस्वरस्य,ञ्चुरादेशो विभाष्यते। विञ्चुओ विंचुओ, पक्षे-विञ्छिओ, छोऽत्र बाध्यते। छोऽक्ष्यादौ // 17 // अक्ष्यादिपुछकारःस्थात् संयुक्तस्य, प्रबाध्य खम् / अच्छिं उच्छू लच्छी कच्छो, छीअंछीरंकुच्छी दच्छो। छेत्तं वच्छं उच्छा कच्छा, छुण्णो छारो सारिच्छंच। सरिच्छो मच्छिआकुच्छो, 'अयं वच्छो' छयं छुरो। छुहा, आर्षे तु-सारिक्खं, इक्खू खीरं च दृश्यते। अक्षी-थू-लक्ष्मी-श्रुत-कक्ष-कौक्षे-यकोक्ष-वक्ष:-क्षत-दक्षवृक्षाः।। कक्षा-क्षुर--क्षार-सदृक्ष-कुक्षि-क्षीर-क्षुधः क्षेत्रमथो शृणुष्व। सादृश्यं मक्षिका क्षुण्णः, कथितोऽक्ष्यादिरित्ययम्।। आकृतिग्रहणाः शब्दा, न संख्यानियमस्ततः / क्षमायां कौ // 18|| पृथिव्यर्थे क्षमाशब्दे, क्षस्य छादेश इष्यते। क्षमा क्ष्माऽपि छमा भूमिः, क्षान्त्यर्थे तु क्षमा खमा / / ऋक्षेवा // 16 // ऋक्षे क्षस्य छकारोवा, रिच्छो रिक्खोऽस्त्रियां मतौ। वृक्ष-क्षिप्ते (2/127) तिसूत्रेण, 'रुक्ख-बूढौ च सेत्स्यतः।। क्षण उत्सवे // 20 // उत्सवार्थ क्षणे क्षस्य छः,'छणो' स्यात् खणोऽन्यतः। हस्वात्थ्य -श्व-त्स-प्सामनिश्चले // 21 // ह्रस्वात् थ्य-श्व-त्स-प्सां, स्थाने छो भवति, निश्चले न स्यात्। मिच्छा, पच्छा, संव-च्छलो, जुगुच्छइ च लिच्छइ च।। ह्रस्वात् किम्? ऊसारिओ निश्चल इति किम्? च 'निचलो' येन। आर्ष-तथ्ये चोऽपि तु भवति ततः तच्चमिति रूपम् / / सामोत्सुकोत्सवे वा॥२२॥ उत्सुकोत्सव-सामर्थ्य, वा संयुक्तस्य छो भवेत्। सामच्छं वाच सामत्थं, उच्छुओ ऊसुओ तथा।। उच्छवो ऊसवो वा स्यात्, पृथगुक्तं द्वयं द्वयम्। स्पृहायाम् // 23 // संयुक्तस्य छकारः स्यात्, स्पृहायां फस्य बाधकः। छिहा, बाहुलकात् वापि निस्पृहो 'निप्पिहो' मतः॥ द्य-य्य-यो जः // 24 // ध-य्यानां तु युक्तानो, स्थाने जः संप्रवर्तते। (घ) मज्जं अवजं, (य्य) जज्जो च, सेज्जा, (4) भजा च भारिओ।। अभिमन्यौ ज-जौ वा // 25 // अभिमन्युपदेन्योर्जो,जश्चाऽऽदेशौ विकल्पनात्। अहिमजू अहिमञ्जू, अहिमन्नू तु पाक्षिकः।। [अभिग्रहणात् इह न भवति'मन्नू। साध्वस-ध्य-ह्यां झः॥२६॥ साध्वसे ध्य-ह्ययोश्च स्यान, युक्तयोझे हि, सज्झसं। सज्झाओ वज्झए झाणं, मज्झं बुज्झंचनज्झइ॥ ध्वजे वा // 27 // ध्वजे ध्वस्य झकारोवा, ततः स्यातां 'झओ' 'धओ'। इन्धौ झा॥२८|| इन्धौ धातौ तु युक्तस्य, 'झा' इत्यादेश इष्यते। समिज्झाइच विज्झाइ, चेदृशं संप्रयुज्यते।। वृत्त-प्रवृत्त-मृत्तिका-पत्तन-कदर्थिते टः॥२६॥ वृत्ते प्रवृत्ते पत्तने, मृत्तिकायां कदर्थिते। संयुक्तस्य टकारः स्याद्, यथारूपं कवट्टिओ।। पयट्टो मट्टिओ वट्टो, पट्टणं समुदाहृतम्। तस्याधृदिौ // 30 // धूर्तादीन् वर्जयित्वा टो,'त' स्य स्थाने प्रवर्त्तते। केवट्टो नट्टई संव- ट्टिजट्टोपयट्टइ॥ धृर्तादौ तु विधिनीय, ततो धूर्तादिरुच्यते। धुत्तो कित्ती वत्ता, निवत्तओ वत्तिओ मुहूत्तो च // आवत्तणं च संव-तण च आवत्तओ मुत्ती। निवत्तणं च पक्त्तण-मुक्कत्तिओ वत्तिआ कत्तिओ च / / निव्वत्तओ पवत्तओ, संवत्तओ कत्तरी मुत्तो। आवर्तकावर्तनकीर्तिमूर्तिवार्ताप्रवर्तकमुहूर्तनिवर्तकाश्च / संवर्तकोत्कर्षितमूर्तधूर्तप्रवर्तनं वार्तिककार्तिकौ च।। वर्तिका कर्तरी चापि, संवर्तननिवर्तन। निर्वर्तकमसौ धृर्तादिर्गणः परिकीर्तितः॥ वृन्ते ण्टः // 31 // संयुक्तस्य भवेद्वृन्ते, ण्टाऽऽदेशो निर्विकल्पकः। तालवेण्टं च वेण्टं च यथा सिद्धिं समश्नुते॥ ठोऽस्थि-विसंस्थुले // 3 // विसंस्थुलेऽस्थिशब्दे च, संयुक्तस्य ठकारता। अट्ठी विसंठुलं तेन, पृथक् सिद्धिमुपागमत्।। स्त्यान-चतुर्थार्थ वा / / 33 / / अर्थ-स्त्यान-चतुर्थेषु, वासंयुक्तस्यठे भवेत्। ठीणं थीणं चउत्थोऽहो-ऽधनेऽत्थो धनवाचकः।। टस्याऽनुष्ट्रेष्टासंदष्टे // 34|| संदष्टामिष्टामुष्टं च त्यक्त्वा ष्टस्य तु ठे भवेत्। लट्ठी मुट्ठी सुरहाच, कटुं इट्ठो अणिट्टच / / उट्टो इट्टा च संदट्टोरूपमुष्ट्रादिसंभवम्। गर्ते मः॥३५॥ स्याद् गर्ते 'त' स्य डो, 'गड्डो गड्डा'-ऽयंटस्य वाधकः। सम्मर्द-वितर्दि-विच्छर्द-च्छर्दि-कपर्द-मर्दिते दस्य॥३६।। सम्म विच्छ छर्दि-वितर्दि-कपर्द-मर्दिते च। दस्य डकारो भवति, सम्मड्डो मड्डिओ छड्डी। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 6) [सिद्धहेम० अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०२] सम्मड्डिओ कवड्डो, विच्छड्डो छड्डइ विअड्डी। रूप-स्पयोःफः॥५३॥ गर्दभ वा // 37 // फःष्प-स्पयोर्भवेत्, पुष्पं पुष्पं स्यात्, स्पन्दनं पुन। गर्दभेदस्य डो वा स्याद्, गड्डहो गद्दहो तथा। फन्दणं च प्रतिस्पर्धा पाडिप्फद्धी प्रयुज्यते। कन्दरिका-मिन्दिपाले ण्डः // 38|| बहुलात् क्वापि वैकल्प्यं,यथा-रूपं बुहप्फई। ण्डः संयुक्तस्यवै भिन्दि-पाले कन्दरिकापदे। बुहप्पई च, न क्वापि-निप्पहोच परोप्परं। भिण्डिवालो कण्डलिआ, द्वयं संसिद्धिमृच्छति। भीष्मे ध्मः॥५४|| स्तब्धे ठ-ढौ // 36 // भीष्मे ष्मस्य फकारः स्यात्, रूपं 'भिप्फो यथा भवेत् स्तब्धे संयुक्तयोः स्याता, ठढौ, 'ठड्डो' यथाक्रमम्। लेष्मणि वा // 5 // __ दग्ध-विदग्ध–वृद्धि-वृच्छे ढः॥४०|| श्लेष्मणि ष्मस्य फः, सेफो सिलिम्हो च विकल्पनात्। दग्धे विदग्धे वृद्धौ च, वृद्धे युक्तस्य ढो भवेत्। ताम्राभेम्वः // 56 // दड्डो विअड्डो वुड्डी च बुड्डो, विद्धो कृचिन्मतः [कचिन्न भवति विद्ध-का मुस्यम्बः स्यात् ताम्र आमे, 'तम्ब' अम्बं च सिध्यतः। निरूविअं11 हो भो वा // 57|| श्रद्धर्द्धि-मूर्धार्धेऽन्ते वा // 41 // हृस्य भो वा, यथा-जिडभा जीहा सिद्धिमवाप्नुतः। डः स्याच्छूधर्द्धि-मूर्धाऽर्धेऽन्ते संयुक्तस्य वा, यथा। वा विह्वले वौ वश्च // 56 // सड्डा सद्धा, इड्डी रिद्धी, मुण्ढा मुद्धा अर्बु अद्धं / / विह्वले हस्य भो वा स्याद्, विशब्दे वा च वस्य भः। म्नज्ञोर्णः // 42 // भिन्भलो बिभलो वा च विहलो च त्रयं मतम् / णाणं निण्णं च विण्णाणं, पञ्जुण्णो म्नज्ञयोर्णतः। वोवें // 5 // पञ्चाशत्पञ्चदश-दत्ते॥४३॥ ऊर्चे युक्तस्य भो वा स्याद, उभं उद्धं च सिध्यतः। स्यात् पञ्चाशत्-पञ्चदश-दत्ते युक्तस्य णो, यथा। कश्मीरे म्मो वा // 6 // पण्णासापण्णरह च, दिण्णं त्रयमुदाहृतम्॥ कश्मीर-शब्दे म्भो वा स्यात् संयुक्तस्य, ततो द्वयम्। मन्यौ न्तो वा // 44|| सिद्धिमृच्छति, 'कम्भारा' 'कम्हारा' चेति पाक्षिकम् // मन्यौ युक्तस्यवान्तः स्याद्, मन्तू मन्नू च पठ्यते। __ स्तस्य थोऽसमस्त स्तम्वे // 45|| न्मो मः // 61 // स्तम्ब समस्तं च त्यक्त्वा, 'स्त' स्यथादेश इष्यते। न्मस्य मो वा, यथा--जम्मो वम्महो मम्मणं तथा। ग्मो वा // 62 // थोत्ति थोअंथुई हत्थो, पसत्थो पत्थरोऽत्थिच। तम्बो स्तम्बे, समत्तोतु-समस्तेऽर्थे प्रकीर्तितः॥ ग्मस्य मोवा, यथा-युग्मंजुम्म जुग्गं च कथ्यते। स्तवे वा // 46 // ब्रह्मचर्य-तूर्य-सौन्दर्य-शौण्डीर्ये o रः // 63|| स्तवशब्देस्तस्यथो वा, ततो रूपंथवो तवो। तूर्य-सौन्दर्य-शौण्डीर्य-ब्रह्मचर्येषु 'र्य' स्यरः। पर्यस्ते थ-टौ // 47|| बम्हचेरंचसुन्देरं, सोण्डीरंतूरमित्यपि।। पर्यस्ते स्तस्य तु स्याता,थ-टौ पर्यायभाविनौ। पठ्यते बम्हचरिअं, क्वापिचौर्यसमत्वतः। पल्लत्थो वातु पल्लट्टो,रूपं व्युत्पद्यते द्वयम्। धैर्य वा // 4 // वोत्साहे थो हश्च रः॥४८|| धैर्ये र्यस्य रकारोवा, धीरं धिज्जं च सिद्ध्यतः। उत्साह-शब्दे थादेशः संयुक्तस्य विकल्पनात्। 'सूरो सुजो' इति कथं ? रूपे स्तः, सूर-सूर्ययोः [सूरो सुजो इति तु हस्य रश्चापि, 'उत्थारो, 'उच्छाहो' सिद्धिमाप्नुतः // सूरसूर्यप्रकृति भेदात्।। आश्लिष्टे ल-धौ // 4|| एतः पर्यन्ते // 6 // संयुक्तयोर्यथासंख्यमाश्लिष्ट तुल-धौ स्मृतौ। पर्यन्तशब्दे एतः स्याद्यस्य रस्तेन सिध्यति। आलिद्धो' ईदृशरूपं तदाऽऽश्लिष्टस्य जायते। 'पेरन्तो,' एत इति किम्? 'पजन्तो' परिपठ्यते।। चिह्ने न्धो वा / / 5 / / आश्चर्ये / / 66|| चिह्ने ह्रस्य तु वा न्धः स्याद् ण्हं वाधित्वैव, तद्यथा एतः परस्य रो'र्य' स्याऽऽश्चर्ये, अच्छेरमिष्यते। चिन्धं इन्ध च, चिण्हं तुपक्षे ण्हस्यापि संभवात्। अतो रिआर-रिज-रीअं॥६७|| भस्मात्मनोः पो वा / / 11 / / अतः परस्याश्चर्ये, र्यस्य 'रिआर-रिज-रीअ'-मादेशाः भस्मात्मनोः पकारः संयुक्तस्य, विभाषया भवति। अच्छरिज-मच्छरिअं, तथाऽच्छरीअंच अच्छअरं।। भप्यो भस्सो, अप्पा अप्पाणो, पाक्षिको 'ऽत्ता' ऽपि। पर्यस्त-पर्याण--सौकुमार्ये ल्लः // 68|| रुम क्मोः // 52 // सौकुमार्ये च पर्याणे पर्यस्ते र्यस्य लद्वयम्।। 'ल्ल' इति।। ड्यस्य क्मस्य च पादेशः कुड्यलं कुम्पलं तथा। पल्लट्ट पल्लत्थं पल्लाणं सोअमल्लमिति भवति। रुक्मिणी-रुप्पिणी, रुचमी, रुप्पी च्मः कापि दृश्यते। पलिअङ्को पल्लङ्को पल्यङ्कस्यैव रूपेद्वे। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (67) [सिद्धहेम० अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८ पा०२] बृहस्पति-वनस्पत्योः सो वा // 66 // (क) दुखं दुक्खं (प) अन्तपातः, अन्तप्पाओ निगद्यते। बृहस्पतिवनस्पत्योः, सोयुक्तस्य विकल्पनात्। अघो म-न-याम् // 78|| बहस्सई बहप्फई भयस्सई भयप्फई। युक्ताधो वर्तमानानां, मनयानां तु लुग भवेत्। वणस्सई वणप्फईच सिद्धिमश्नुते पृथक् // (म) जुग्गं रस्सी सरो (न) नग्गो, (य) सामा कुद्धं यथा पदम्। वाष्पे होऽश्रुणि // 70|| सर्वत्र ल-व-रामऽवन्द्रे ||7|| स्यादश्रुवाचके बाष्पे, संयुक्तस्य हकारता। युक्तस्योर्ध्वमधो वा ये, संस्थिताल-व-राः चित्। बाहो नेत्रजलं, 'बप्फो-' ऊष्मार्थेऽयं प्रयुज्यते।। वन्द्रशब्दं विना तेषां मुक् स्यादित्युपदिश्यते।। कार्षापणे // 71 (ऊर्ध्वम्) (ल) उल्का उक्का, वल्कलं वक्कलंच, कार्षापणे हकारः स्यात्, संयुक्तस्येति कथ्यते। (ब) शब्द सद्दो, लुब्धको लोद्धओ च। काहावणो, क्वचिद् ह्रस्वे कृते रूपं कहावणो [कथं 'कट्टावणो। (2) अक्को वग्गो अर्क-वर्गी भवेताम्, "हस्वःसंयोगे"[१/८४] इति पूर्वमेव हस्वत्वे पाश्चादादेशे; कार्षापणशब्दस्य (अधः) (ल) श्लक्ष्णं सण्हं, विक्लबो विक्कवो च॥ वा भविष्यति। (व) पक्वं पकं च पिकं च, (2) चक्रं चक्कं ग्रहोगहो। दुःख-दक्षिण-तीर्थे वा / / 7 / / रात्रिः रत्ती, यथालक्ष्य, लोपः स्यात् कापि, तद्यथा। दुःखे च दक्षिणे तीर्थ या संयुक्तस्य हो भवेत्। (ऊर्ध्वम्) उद्विग्नः स्याद् उव्विगो, द्विगुणो विउणो तथा। दाहिणो दक्खिणो, तित्थं तूहं, दुक्खं दुहं तथा / कल्मषं कम्मसं, सर्व-सव्वं, सन्तिसहस्रशः। कूष्माण्ड्यां ष्मो लस्तु ण्मो वा // 73|| (अधः) काव्यं कव्यं प्रवक्तव्यं, माल्यं मल्ल, द्विपो दिओ। 'मा' इत्येतस्य कूष्माण्ड्यां हः स्याद्,ण्डस्य तु वा चलः। पर्यायेण क्वचित् द्वार-बारं दारं प्रचक्षते। कोहण्डी कोहली चैतद् वयं व्युत्पद्यते ततः॥ एवमुद्विग्न उव्विग्गो, उविण्णो विनिगद्यते। पक्ष्म-श्म-छम-स्म-ह्यां म्हः // 74|| म्हः पक्ष्म--३म-म-स्म-ह्यानां संयुक्तानामादेशः स्यात्। वन्द्रं पदं तु संवेद्यं, संस्कृते प्राकृते समम्। पक्ष्माणि स्यात् पम्हाई, कुश्मानः कम्हाणो पठ्यन्ते। द्रे रो न वा ||8|| ग्रीष्मो गिम्हो भवेद् 'अम्हा-रिसो' अस्मादृशः स्मृतः। द्र-शब्दे तु विकल्पेन, लुक् स्या रेफस्य तद्यथा। ब्रह्मा बम्हा, तथा सुह्याः मुम्हा' जातास्तथा पुनः। चन्दो चन्द्रो च, रुद्दो रुद्रो, भदं भद्रमित्यपि // बम्हणो बम्हचेर च, दृश्यते म्भोऽपि कुत्रचित्। परिवृत्या स्थिते रूपद्वयं वेद्यं हृदे यथा। बम्भणो बम्मचेरंच, सिम्भो रूपं यथा भवेत्। द्रहो दहो, रलोपंतु केऽपि नेच्छन्ति सूरयः। कृचिन्न दृश्यते चायं रश्मिः-रस्सी, स्मरः-सरो॥ ये वोद्रहादयः शब्दास्तरुणाद्यर्थवाचकाः। सूक्ष्म-श्न-कण-स्न-ह-व-क्ष्णां पहः // 7 // ते नित्यं रेफसंयुक्ता देश्या एवेति बुध्यताम्॥ सूक्ष्म-श्न-षण-स्न-ए-ह-क्ष्णा धात्र्याम् // 1 // संयुक्तानामादेशो पहः। धात्र्यां वा मुग रस्य, धत्ती धारी धाई रलोपनात्। सूक्ष्म सहं (*) पण्हो सिण्हो तीक्ष्णे णः // 8 // (ष्ण) विण्हू जिण्हू उण्हीसं स्यात्। तीक्ष्ण-शब्दे णस्य लुग्वा, तिक्खं तिण्हं ततो द्वयम्। (स्न) जोण्हा हाओ पाहुओच, (ह) वण्ही जण्हू तथैव च। ज्ञोञः॥८३|| (6)पुव्वण्हो अवरण्होच, (क्ष्ण) सण्हं तिण्हं प्रयुज्यते। झस्य सम्बन्धिनो ञस्य, लुक् स्यादत्र विभाषया। विप्रकर्ष तु कसणो कसिणो कृष्ण-कृत्स्नयोः।। जाणं णाणं, क्वचिन्न स्याद्, विण्णाणं संप्रयुज्यते॥ होल्हः // 76 // मध्याहे // 4|| हः स्याद् ह्रस्य तु कल्हारं, पल्हाओ रूपमीदृशम्। स्याद् 'मज्झन्नो च मज्झण्हो' मध्याह्ने लुकि हस्य या। क-ग-ट-ड-त-द-प-श-प-स क पामू लुक् // 77 / / दशाहे // 5 // क--ट-ड-त-द-प-श-ष-षानां, स-क-पानां तथोर्ध्व- / दशाहे हस्य लुक वेद्यो, दसारो सिद्धिमृच्छति। भूतानाम् / संयुक्तवर्णसम्ब-न्धिनां लुगडेति शास्ति मुनिः। आदेः श्मश्रु-श्मशाने॥१६॥ (क) मुत्त(ग) दुद्धं (ट) षट्पदः 'छप्पओ च श्मश्रु-श्मशानयोरादे-लुंगादेशे विधीयते (ड) खगःखग्गो (त) उप्पलं उत्पलंच। मासूमंसूच मस्सूच, मसाणं चेह सिध्यति। (द) मद्गुः-मग्गू, मुद्रो-मोग्गरोच, आर्षे सुसाणं सीआणं,श्मशानस्य द्विरूपता। (प) सुत्तो गुत्तो (श) निश्चलो निचलो च। थो हरिश्चन्द्रे ||7|| (ष) गोट्ठी छटो निठुरो च,(स) नेहो चखलिओ तथा। श्वस्य लुक् स्याद् हरिश्चन्द्रे, हरिअन्दो' ततो भवेत्। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सिद्धहेम०] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०२] रात्रौ वा // 8 // रात्रौ युक्तस्य वा लुक् स्याद्, राई रत्ती च सिध्यतः। अनादौ शेषाऽऽदेशयोर्द्रित्वम्।।८६] अनादिभूतयोः शेषाऽऽदेशयोर्द्वित्वमिष्यते। तत्र शेषे यथा-कप्पतरू भुत्तं प्रयुज्यते। आदेशे तु यथा-डक्को जक्खो रगो निगद्यते। क्वचिन्न-कसिणो-उनादाविति किम्? खलिअं यथा। द्वित्वं द्वयोरेव न स्याद्, भिण्डिपालो च विञ्चुओ। द्वितीय-तुर्ययोरुपरि पूर्वः ||6|| द्वितीय-तुर्ययोर्द्वित्व-प्रसङ्गे पूर्ववर्तिनौ। वर्गस्थौ भवतो वर्णावुपरिष्टादितीर्यते॥ शेषे यथा तु वक्खाणं, वाघो मुच्छा न निज्झरो। कष्ठं तित्थं च गुप्फंच, निज्झरो निटभरो तथा। आदेशे तु यथा-जक्खो, (घस्य नास्ति) अच्छी मज्झंच भिडभलो। पट्ठीयुड्डो च हत्थो चाऽऽलिद्धो पुप्फ प्रपठ्यते। तैलादो (2/68) ओखलं, नक्खा नहा सेवादिषु (2/EE) स्मतमम्कइद्धओ कइधओ, समासे वा (2/97) प्रयुज्यते। दीर्घ वा||१|| दीर्घशब्दे तु शेषस्य, घकारस्य विभाषया। उपरि स्यात् पूर्ववर्णो, दिग्घो दीहो द्वयं यथा। नदीर्घानुस्वारात्॥६ दीर्घानुस्वाराभ्यां, लाक्षणिकालाक्षणिकरूपाभ्याम् / शेषस्यादेशस्य च, परस्य द्वित्वं विजानीयात्।। छूढो फासो नीसासो-इलाक्षणिके यथा-ऽऽस्य-माऽऽसं' स्यात् पार्श्व पासं,शीर्ष सीसं द्वेष्यो भवेवेसो। लास्यं लासं, प्रेष्यः पेसो, आज्ञप्तिराणत्ती। अवमाल्यम्-'ओमालं,' आज्ञा-आणा, ह्यनुस्वारात्-1 यस्र-तंसं, चालाक्षणिके संझा तु संध्यायाः। विंज्ञो कंसालो चेत्यादितु नानाविधं लक्ष्यम्। र-होः ||3|| रेफस्यापि हकारस्य न द्वित्वं स्यात् कदाचन। रेफो न शिष्यते क्वापि, तस्मादादेश ईक्ष्यताम्॥ सुन्देरं बम्होरं पेरन्तं शेषस्य हस्यतु। विहलो स्यात्, तथाऽऽदेशस्य रूपं च कहावणो। धृष्टद्युम्ने णः || धृष्टद्युम्ने तु न द्वित्वं णस्याऽऽदेशस्य कर्हिचित्। धद्वज्जुणो ततो रूपं, प्राकृते सिद्धिमृच्छति। कर्णिकारे वा || कर्णिकारे न वा द्वित्वं-णस्य शेषस्य, तद्यथा-। कणिआरो कण्णिआरो, द्वयं सिद्धिमुपागमत्। दृप्ते // 6|| दृप्ते शेषस्य न द्वित्वं, दरिओ दृप्त उच्यते। समासे वा|७|| स्यात् शेषादेशयोर्द्वित्वं, समासे तु विभाषया। नइगामो नइग्गामो, अशेषादेशयोःक्वचित्। स-पिवासो स-प्पिवासो,अइंसण-मऽदसणं। तैलादौ // 6 तैलादिषु यथालक्ष्यमनादेर्व्यञ्जनस्य-तु। अन्त्यानन्त्यस्यवर्णस्य, द्वित्वं स्यादिति संमतम्। तेल्लं बहुत्तं मण्डुक्को, विड्डा वेइल्लमित्यपि। सोत्तं पेम्मंजुव्वणं स्यादनन्त्यस्य, निदर्शनम्। आर्षे तु विस्सोअसिआ, पडिसोओ च भूरिशः। तैल-प्रभूत-मण्डूका ऋजु व्रीडा च यौवनम्। स्रोतो विचकिलं प्रेम, तैलादिः समुदाहृतः / / सेवादौ वा IRELI सेवादिषु यथालक्ष्यमनादेर्व्यञ्जनस्य वा। अन्त्याऽनन्त्यस्य वर्णस्य द्वित्वं स्यादिति कथ्यते। सेव्या सेवा, मेडु नीडं, नक्खा नहा, निहितो तु। निहिओ, बाहित्तो वाहिओ, दइव्वं च दइवं स्यात्।। माउक्कं माउअमे-को एओ कोउहल्ल कोउहलं। थुल्लो थोरो हुत्तं हूअं मुक्को च मूओ च।। वाउल्लो च वाउलो, तुण्हिक्को तुण्हिओ विकल्पवशात् / मुक्को मूओ, खण्णू खाणू, पिण्णं च थीणं च // द्वित्वमनन्त्यस्य यथा-अम्होरं तथाऽम्हकेरंच। सोचिअंसोचिअ वा स्याद्, रूपं तंचेअतंचे। सेवा नीडो निहित-मृदुक-व्याकुल-स्थूल-मूका एकस्तूष्णीक-चिअ-नख-चेआऽस्मदीयाश्च दैवम्। स्त्यानो हूतो निगदति मुनिः स्थाणु-कौतूहलं च सेवादिं तद् ग्रहशशिमितं 16 व्याहृतश्चापि शब्दः। शाङ्गै ङातृ पूर्वोऽत् / / 10 / / शाङे ङात् प्रागकारः स्यात्,'सारङ्ग' सिद्धिमश्नुते। क्ष्मा लाघा-रत्नेऽन्त्यव्यञ्जनात्॥१०१।। अन्तिमाद् व्यञ्जनात् प्रागत् क्ष्मा--इलाघा-रत्न इष्यते। छमा सलाहा रयणं, सूक्ष्मं सुहममाऽऽर्षतः।। स्नेहारन्योर्वा // 10 // स्नेहेऽग्नौ यश्च संयोगस्तस्य मध्ये तु वाऽद्भवेत्। नेहो सणेहो, अगणी अग्गी रूपं विदुर्बुधाः। प्लक्षे लात् / / 103|| अः स्यात् प्लक्षे लकारात् प्राक् 'पलक्खो' सिद्धिमश्नुते। ई-श्री-ही-कृत्स्न-क्रिया-दिष्ट्यास्वित् / / 104 // श्री-ही-कृत्स्न-क्रिया-दिष्ट्या-ऽर्हेषु युक्तान्त्यवर्णतः। प्रागिकारो भवेदेषु षट्सु, तल्लक्ष्यतेऽधुना। सिरी हिरी, च कसिणो किरिआ दिद्विआऽरिहा, 'हयं नाणं किया-हीणं' इत्याचे क्वचिदिष्यते। श-ई-तप्त-वजे वा // 10 // तप्त-वज-र्श-र्षशब्दे संयुक्तस्यान्त्यवर्णतः। प्रागिकारो विकल्पेन, भवेदित्युपदिश्यते।। (श)आयरिसो आयंसो, सुदरिसणो वा सुदंसणो,(र्ष) वासा। वरिसा, वासं वरिसं, वरिस-सयं वाससयमिति च। नित्यं क्वचिद् व्यवस्थित-विभाषया दृश्यते-ऽमरिसो। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (EC) अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। सिद्धहम [अ०८पा०२] हरिसो च परामरिसो, तविओ तत्तो, वइरं वज्ज / लात्॥१०६|| संयुक्तस्य तु लादन्त्य-व्यञ्जनात् प्रागिकारता। किलिन्नं च किलिट्ठो च , क्वचिन्न स्यात्-कमो पवो // स्याद्-भव्य-चैत्य-चौर्यसमेषु यात्॥१०७।। स्यादादिषु चौर्यशब्द-तुल्येषु निनदेषु च। संयुक्तस्य यकारात् प्रागिदादेशे विधीयते // सिआ यथा-सिआवाओ, भविओचेइतथा। (चौर्यसमाः) चोरिअंथेरिअंगम्भीरिअंसोरिअ वीरिअं।। स्वमे नात् / / 105|| स्वप्नशब्दे नकारात् प्रागिकारः, सिविणो यथा। सिग्घेवाऽदितौ / / 106| स्निग्धशब्दे नकारात् प्राग, अदितौ स्तो विकल्पनात्। सणिद्धं च सिणिद्धं च, पक्षे निद्धं निगद्यते।। कृष्णे वर्णे वा // 110| वर्णे कृष्णे णकारात् प्राग, अदितौ स्तो विकल्पनात्। कसणो कसिणो कण्हो, विष्णौ कण्हो प्रयुज्यते / / उच्चाहति // 111 // अर्हत्-शब्दे हकारात् प्राग, अदितावुभवन्ति च। अरहो अरिहोरूप-मरुहो चेति सिध्यति॥ अरहन्तो अरिहन्तो, अरुहन्तो चपठ्यते। पद्म-छद्म-मूर्ख-द्वारे वा // 112|| पोछने च मूर्ख चद्वारे युक्तान्त्यवर्णतः। प्रागुवा, पउमं पोम्म, छम्मं च छउमं तथा।। मूर्खा मुरुक्खो मुक्खोवा, दुवारं द्वारमुच्यते। पक्षे वारं च देरं च दारं चेति त्रयं स्मृतम् / / तन्वीतुल्येषु // 113|| उदन्ता ङीप्रत्ययान्ताः, शब्दास्तन्वीसमाः स्मृताः। संयुक्तस्यान्त्यवर्णात् प्राग, उकारस्तेषु पठ्यते॥ तणुवी लहुवी गरुवी, क्वचिदन्यत्रापि दृश्यते च यथा। सुघ्नं भवति सुरुग्धं, आर्षे-सूक्ष्मं तु सुहूमं स्यात्। एकस्वरे श्वः स्वे॥११४|| एकस्वरे पदे यौ श्वस्-स्व इत्येतौ तयोरिह। वकारात् प्राग, उकारःस्यात्, श्वःकृतं तु-'सुवे कयं'। 'सुवे जणा स्वे, जनास्तु, कृत' 'एकस्वरे' इति? स्वजनः-'सयणो' नात्र, यतोऽनेकस्वरे स्थितः।। ज्यायामीत्॥११॥ ज्या-शब्दे तुयकारात् प्राग् ईत् स्यात् 'जीआ' ततो भवेत्। करेणु-वाराणस्योः र-णोर्व्यत्ययः॥११६|| वाराणस्यां करेण्वां च,र-णयोर्व्यत्ययो भवेत्। पाणारसी, कोणरू, स्त्री-निर्देशात् पुंसि नेष्यते। आलाने लनोः॥११७॥ ल-नयोर्व्यत्ययादाला-नमाऽऽलाणो प्रयुज्यते। अचलपुरे चलोः // 118|| अचलपुरे तु शब्दे, च-लयोः स्थानभेदतः। प्रयुज्यतेऽलचपुरं बुधैः प्राकृतवेदिभिः। महाराष्ट्रे हरोः // 11 // 'मरहट्ठ' महाराष्ट्र हरयोर्व्यत्ययाद्भवेत्। हदे हदोः॥१२०|| हृद-शब्दे ह–दयोर्व्यत्ययेन रूपं दहो भवत्यत्र। 'हरए महपुण्डरिए' इत्याचे दृश्यते तत्तु। हरिताले र-लोर्नवा / / 121 // र-लयोर्व्यत्ययः कार्यो, हरिताले विकल्पनात्। सिद्ध ततो 'हरिआलो, हलिआरो' इति द्वयम् / लघुके लहोः // 122 // लघुके घस्य हत्वे वा लहयोर्व्यत्ययः स्मृतः। हलुलहु,घस्य व्यत्यये नतु हो भवेत् घस्य व्यत्यये कृते पदादित्वादु हो न प्राप्नोतीति हकरणम्।। ललाटे ल-मोः॥१२३॥ ललाट-शब्दे लड़योर्व्यत्ययो वा विधीयते। णडालं च णलाडंच, ललाटे चेति [1/257] लस्य णः ["ललाटेच" [1/257] इति आदेर्लस्य णविधानादिह द्वितीयो लः स्थानी।। ह्ये ह्योः // 124|| ह्य-शब्देह-ययोर्वा स्यात् व्यत्ययः सह्य-गुह्ययोः। सय्हो सज्झो, तथा गुय्हं गुज्झं, रूपे इमे मते। स्तोकस्य थोक्क-थोव थेवाः॥१२५|| थोक-थोव-थेवा वा स्युः,स्तोकशब्दे त्रयःक्रमात्। थोकं थोवंचथेवंच, पक्षे थोअंविधीयते। दुहितृ-भगिन्यो—आ-बहिण्यो / / 126 / / वा भवेद् दुहितु—आ, भगिन्या बहिणी तथा। बहिणी भइणी, धूआ दुहिआ च विभाष्यते // वृक्ष-क्षिप्तयोः रुक्ख-छूढौ // 127 / / वृक्ष-क्षिप्तशब्दयो-र्यथाक्रम "रुक्ख' 'छूढ' इति वा स्तः। रुक्खो वच्छो, छूढं खित्तं, उच्छूढमुक्खित्तं / / वनिताया विलया॥१२८॥ वनिताया विलया वा, विलया वणिआ ततः। गौणस्येषतः कूरः / / 12 / / ईषच्छब्दस्य गौणस्य, कूरादेशो विभाषया। चिंचव्व कूर-पिक्केति, पक्षे स्याद् 'ईसि' निर्वृतम्।। स्त्रिया इत्थी॥१३०।। स्त्री-शब्दस्य भवेदित्थी वा, 'इत्थी थी' प्रयुज्यते। घृतेर्दिहिः॥१३॥ धृतेर्वा दिहिरादेश-स्ततः स्यातां दिही धिई। मारिस्य मञ्जर-वजरौ // 13 // मार्जारस्य विकल्पेन स्यातां मञ्जर-वञ्जरौ / मञ्जरो वञ्जरो, पक्षे मजारो चाऽभिधीयते / वैडूर्य्यस्य वेरुलिअं॥१३३।। वेरुलिअइत्यादेशो, वा वैडूर्यस्व स्यात् ततः। वेरुलिअंदेडुजं च, द्वयं सिद्धिं समश्नुते। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (100) [सिद्धहेम.] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०२॥ एम्हि एत्ताहे इदानीमः // 13 // इदमर्थस्य केरः ||147 // इदानीमो भवेद् एण्हि, एत्ताहेच विकल्पनात्। प्रत्ययस्येदमर्थस्य, 'केर' आदेश इष्यते। इआणि एण्हिम् एत्ताहे, त्रयं चैतत् प्ररूपितम्। तुम्हकेरो अम्हकेरो, युष्मदीयाऽस्मदीययोः। पूर्वस्य पुरिमः॥१३॥ नस्यात् 'मईअ-पक्खे' तु 'पाणिणीया' इहापि च / पूर्वस्य पुरिमो वास्थात्, पुव्वं च पुरिमं तथा। पर-राजभ्यां क-डिक्कौ च // 148|| त्रस्तस्य हित्थ-तट्ठौ // 136|| प्रत्ययः पर-राजभ्या-मिदमर्थः परोऽस्तु यः। त्रस्त-शब्दस्य वा स्याता, हिट्ठ-तट्ठौ विकल्पनात्। तस्य स्थाने भवेतां तु, क-डिक्को केर इत्यपि।। हित्थं तद्वं च तत्थं च, त्रयं सिद्धिं समश्नुते॥ परकीयं तुपारक, परकं पारकेर। बृहस्पतौ बहो मयः // 137 // राजकीयं तु राइक्कं रायकेरं च पठ्यते। बृहस्पतौ बहस्य वा भयो निगद्यते पदे। / युष्मदस्मदोत्र एचयः / / 146 / / भयस्सई भयप्फई भयप्पई ततो भवेत्। यः परो युष्मदस्मद्भ्यां प्रत्ययोऽजिदमर्थकः। बहस्सई बहप्फईबहप्पई चपाक्षिकम्। इदुच्च यत्र वा बृहस्पतौ' (1/138) इति प्रदर्शितौ। एचयस्तस्य, युष्माकमिदं यौष्माकमित्यदः / बिहस्सई बिहप्फई बिहप्पई बुहस्सई। तुम्हेचयं स्याद, आस्माकं भवेदम्हेचयं तथा। बुहप्फई बुहप्पई च तत्र यान्ति सिद्धिताम्। वतेवः॥१५०॥ मलिनोभय-शुक्ति-छुप्ताऽऽरब्ध-पदातेर्मइलावह प्रत्ययस्य वतेवः स्याद्,'मुहुरव्य' निदर्श्यते। सिप्पि-छिक्का-ढत्त पाइकं // 138|| सर्वाङ्गादीनस्येकः / / 151 / / मलिनादेर्मइलादिरादेशो वा विधीयते। सर्वाङ्गात् 'सर्वादःपथ्यड़े [हैम०७/१]त्यादिनाय ईनऽस्ति। तस्येकः मलिनं-मलिणं मइलं, उभयं-अवहंच उवहमिति केचित्। स्यात्, सर्वाङ्गीणः-सव्यति ओगदितः। शुक्तिः-सिप्पी सुत्ती, छुप्तः-छिक्को च छुत्तो च / / पथो णस्येकट् // 152 / / आरब्धश्चाढतो आरद्धो वा, पदातिरिति तु पदम्। "नित्यं णः पन्थश्च" [हे०६/४] सूत्रेणैतेन यः पथो णः स्यात्। पाइको च पयाई, 'उभयोकालं' भवेदार्षे / तस्येकट करणीयः, पान्थः पहिओ ततो भवति। दंष्ट्राया दाढा / / 136 // ईयस्यात्मनो णयः // 153|| दंष्ट्रा-शब्दस्यदाढास्यात, संस्कृतेऽप्ययमिष्यते। आत्मनः पर ईया यो, णयादेशोऽस्तु तस्य तु / बहिसो बाहिं बाहिरौ॥१४॥ आत्मीयं पठ्यते तेन, बुधैरऽप्पणयं पदम्। 'बाहिं बाहिरमित्येतौ स्थाने द्वौ बहिसे मतौ। त्वस्य डिमा--तणौ वा // 154|| अधसो हेहूँ // 11 // त्व-प्रत्यस्य वा स्यातां 'डिमा' 'त्तण' इमौ क्रमात्। हेट्टइत्ययमादेशोऽधसो, हेहमतो भवेत्। पीणिमा पुष्फिडा, पीणत्तणं पुप्फत्तणं तथा। मातृ-पितुः स्वसुः सिआ-छौ // 142|| पक्षे पीणत्तं पुप्फतं, एवमन्यन्निदर्शनम्। मातुःपितुः परः स्वसृ-शब्दः, तस्य सिआ च छा। इम्नः पृथ्व्यादि-शब्देषु नियतत्यादयं विधिः। स्याद् माउच्छा माउसिआ, पिउच्छा च पि (उ)ऊसिया। तदन्यप्रत्ययान्तेषु, साम्प्रतं तु विधीयते / तिर्यचस्तिरिच्छिः॥१३॥ पीनता 'पीणया' चेहाऽ-न्यभाषयां तु-'पीणदा'। तिरिच्छस्तिर्यचः स्थान आदेशो विनिगद्यते। तेनेह 'दा' तलः स्थाने, आदेशो न विधीयते / 'तिरिच्छि पेच्छई' आर्षे-'तिरिआ'ऽपि प्रयुज्यते॥ अनङ्कोठत् तैलस्थ मेल्लः // 15 // . गृहस्य घरोऽपतौ // 144|| अङ्गोठवर्जितात् शब्दात्, 'डेल्लः' तैलस्य कथ्यते। गृहस्य घर आदेशः, पतिशब्दः परोनचेत्। कडुएल्लं,न चाऽडोल्लतेल्लमत्र प्रवर्तते। घर-सामी, राय-घरं पत्यौ-गहवई पुनः॥ शीलाद्यर्थस्येरः॥१४॥ यत्तदेतदोतोरित्तिअ एतल्लुक् च // 156|| शील-धर्म-साध्वर्थे यो, विहितः प्रत्ययो भवेत् / इत्तिओ यत्तदेतद्भ्यः स्याद् मावादेरतोरिह। इर इत्ययमादेशः, तस्य स्थाने विधीयते॥ परिमाणार्थकस्याऽऽदेशो, लुक् स्यादेतदोऽपि च / हासशीलस्तु-हसिरो, रोविरो लज्जिरो तथा। एतावत् इत्तिअं, तावद्यावत् तित्तिअ जित्तिअं। जम्पिरो वेविरो ऊस-सिरोच भमिरोऽपिच॥ इदंकिमश्च डेत्तिअ-डेत्तिल-डेदहाः॥१५७॥ तृन एव इरं केचिदिच्छन्ति, नमिराऽऽदयः। शब्देभ्यो यत्तदेतदभ्यः किमिदंभ्यां च यः परः। तेषां मते न सिध्यन्ति, तृनो बाधाऽत्र रादिना / / अतुर्वा डवतुर्वा स्यात् तस्य स्थाने डितस्त्रयः। क्त्वस्तुमत्तूण-तुआणाः // 146|| डेदहो डेत्तिओ डेत्तिलो, भवेदेतदश्च लुक्। अत्-तूण-तआणाः स्युः, स्थाने क्त्याप्रत्ययस्य तु। एत्तिअंएत्तिलं एदहं स्यादियत् (तुम्) मोत्तुं (अत्) भमिअ(तूण) काऊण, केत्ति केत्तिलं केद्दलं स्यात् कियत्। कट्टा-ऽऽर्षे (तुआण) भेत्तुआण च। जेत्तिअंजेत्तिलं जेद्दहं यावतः Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (101) सिद्धहेम०] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८या०२ तेत्तिअंतेत्तिलं तेदहं तावतः। उपरेःसंव्याने॥१६६।। एत्तिअंएत्तिलं एवमेतावतः। संव्यानेऽर्थे स्थितात्स्वार्थेल्लो भवेद् उपरेरिह। एडहं, चेदृशं सूरिभिर्व्याहृतम्॥ 'अवरिल्लो' 'ऽवरि' रूपमसंव्याने प्रतिष्ठितम् / कृत्वसो हुत्तं // 158|| मुवो मया डमया // 167 / / "वारे कृत्वस्''[ हेम०७/२] हि सूत्रेण यः कृत्वस्प्रत्ययः कृतः। स्वार्थिको प्रत्ययौ स्यातां, भूशब्दाद् ड्मया मया। तस्य स्थाने भवेद् 'हुत्तं' 'सयहुत्तं' निदर्शनम्। भुमया भमया चेमौ, शब्दौ सिद्धिमवाप्नुतः / कथं प्रिवाभिमुखं तु 'पियहुत्तं प्रयुज्यते? शनैसो डिअम्॥१६॥ हुत्तेनाभिमुखार्थेन रूपसिद्धिर्भविष्यति। शनैस्शब्दाद्भवेत् स्वार्थे, डिअम् तु 'सणिअं'यथा। आल्विल्लोल्लाल-वन्त-मन्तेतेर-मणा मतोः / / 15 / / मनाको नवा डयं च // 16 // आलुर, इल्लो, मणो, वन्त-आल-उल्ल-इरः, तथा। डयम् डिअम् च वा स्वार्थे, मनाक्शब्दादिमौ यथा। इत्तो, मन्तो, यथालक्ष्यं, नवाऽऽदेशा मतोः स्मृताः। मणयं मणि पक्षे 'मणा' इत्यपि सिध्यति। (आलु) नेहालूच दयालु (इल्ल) सोहिल्लो भवति जामइल्लो च। मिश्राड्डालिअः||१७०|| (उल्ल)मंसुल्लो दप्पुल्लो (आल) तथा जडालो च सद्दालो॥ मिश्र-शब्दात् तु वा स्वार्थे, 'मालिअः' प्रत्ययो भवेत्। (वन्त)धणवन्त-भत्तिवन्तो(मन्त)हणुमन्तो भवति पुण्णमन्तो च। मीसालिअंतथा पक्षे, 'मीसं' इत्यपि दृश्यते। (इत्त)कव्वइत्तो माणइत्तो (इर) गव्विरो रेहिरो भवेत्। रोदीर्घात् / / 171 / / (मण)स्याद् 'धणमणो,' के षांचिद् मादेशाद् हणुमा मतः।। स्वार्थे दीर्घात् परो वारः, दीहरं दीहमित्यपि! [मतोरिति किम्? धणी,अस्थिओ। ""ऊ त्वादेः सः॥१७२। तो दो तसो वा // 160|| 'भावे त्यतल' (हेम०७/१) हि सूत्रेण,यः त्याऽऽदिर्विहितस्ततः। प्रत्ययस्य तसः स्थाने 'तो''दो' वा भवतो, यथा। स्वार्थे स एव त्वादिर्वा, भवेदित्युपदिश्यते। सव्वत्तो सव्यदो,पक्षे भवेद्रूपं तु सव्वओ। मृदुकत्वेन 'मउअत्तयाइ' अनुवाद्यते। त्रपो हि-ह-त्याः // 161 // स्यात् कणिट्टयरो जिट्टयरो रूपं पृथग्विधम्। प्रत्ययस्य त्रपः स्थाने हि-ह-त्थाः स्युरिमे त्रयः। विद्युत्पत्र-पीतान्घाल्लः॥१७३|| निदर्शनं यत्र-तत्र कुत्राणमिह दृश्यताम्। वा विद्युत्पत्रपीतान्धशब्देभ्यः स्वार्थिकोऽस्तुलः। जहि वा जह वा जत्थ, तत्थ वा तहि वा तह। विजुला पत्तलं अन्धलो च पीवल पीअलं। कहि वा कह वा कत्था-उन्नत्थ वाऽन्नहि वाऽन्नह। पक्षे विजूच पत्तं च पीअं'अन्धो' चतुष्टयम्। वैकाद्दः सि सिअंइआ॥१६२।। यमलस्य संस्कृतस्य 'जमलं' रूपमिष्यते। एक-शब्दात परो यो-दा-प्रत्ययस्तस्य वा त्रयः। गोणादयः॥१७४|| 'इआ सिसि' इत्येते, आदेशाः स्युर्यथाक्रमम्॥ गोणादयो निपात्यन्ते, बहुलं लक्ष्यदर्शनात्। स्थादेकदा 'एक्कसिअं',तथा 'एकसिआ'ऽपरम्। गोणो गावी च गौर्वाच्यो, गावीओ गाव उच्यते। 'एक्कसि' त्रितयं चैतत्, पक्षे स्याद् ‘एगया' पदम्। [एकइआ] बइल्लो बलीवर्दः, आऊआप इतीरितः! डिल्ल-डुल्लौ भवे // 163|| 'पञ्चावण्णा पणपन्ना' पञ्चपञ्चाशदिष्यते। नाम्नः परौ डिल्ल-डुल्लौ, भवेऽर्थे प्रत्ययौ डितौ। तेवण्णा तु त्रिपञ्चाशत्, तेआलीसा त्रिवेदमित् (त्रिचतवारिंशगामल्लिआ, उशन्त्यन्ये, आल्वालौ [2/156] प्रत्ययाविप। दित्यर्थः / / [पुरिल्लं, हेछिल्लं, उवरिल्लं, अप्पुल्लं] विउसग्गो तुव्युत्सर्गः, वोसिरणं व्युत्सर्जनम्। स्वार्थ कश्चवा // 164|| 'बहिद्धा' इत्ययं शब्दो बहिर्वा मैथुनार्थकः / बहिस्तादथवा मैथुनम्।] स्वार्थ को डिल्ल-डुल्लौ च, डितौ वा प्रत्ययास्त्रयः। 'णामुक्कसिअम्'-इत्येतत् कार्य , कत्थइ तु क्वचित्। चन्दओ इहयं,क्वापि द्वित्वं- 'बहुअयं यथा। मुव्वहइ उद्वहति, अपस्मारस्तु वम्हलो। ककारोच्चारणं पैशाचिकभाषार्थमिष्यते। कन्दुट्ट उत्पलं, धिधिक् छिछि द्धिद्धि च पठ्यते। यथावतनकं,इल्ल इतोऽग्रे लक्ष्यते स्फुटम्। 'धिगस्तु' वाक्यमित्येतद् धिरत्थु प्रतिभण्यते। पुरा पुरो वा 'पुरिल्लो' 'पल्लविल्लेण' इत्यपि। पडिसिद्धी पाडिसिद्धी, प्रतिस्पर्धाऽभिधीयते। उल्लः-पिउल्लओ हत्थुल्ला मुहुल्लं त्रयं मतम्। चचिकं स्थासकः, साक्षी सक्खिणो, जन्म जम्मणं / पक्षे-चन्दो इह बहु बहुअं मुहमित्यपि! निहेलणं तु निलयः, मघोणो मघवानिति। स्यात् कुत्सादिविशिष्टं तु 'कम्' संस्कृतवदेव च / महान् महन्तो, आसीसा आशीरिति, भवान् पुनः। यावादिलक्षणः कस्तु, नियतस्थान इष्यते। भवन्तो कुत्रचित् स्यातां हकारस्य डुभौ, यथा। ल्लौ नवैकादा॥१६॥ वृहत्तरं वड्डयर,स्याद् हिमोरो भिमोरओ। नवादेकाच वा स्वार्थे संयुक्तो 'ल्लः प्रवर्तते। ल्लस्य ड्डो दृश्यते क्वापि,क्षुल्लकः खुड्डुओ यथा। ततो नवल्लो एकल्लो, एओ एको नवोऽपि वा। 'घायणो' गायनो, ऽकाण्डम्-'अत्थक्कं च, वडो वढो'। सेवादित्वात् (2/66) कस्य द्वित्वे 'एक्कल्लो' सिद्धिमृच्छति। लज्जावती च लज्जालुइणी ककुदमित्यपि / Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (102) [सिद्धहेम०] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०२ ककुधं, कडुमित्येतत्कुतूहलपदस्य तु। 'हन्दि' शब्दः प्रयुज्येत, लक्ष्यमेतद् निशम्यताम् / चूतो भवति मायन्दो, 'आगया'-असुराः तथा। "हन्दि चलणे णओ सो, ण माणिओ हन्दि हुज्ज एताहे माकन्दः संस्कृतेऽपि स्यात्, भट्टिओ विष्णुरुच्यते। हन्दि ण होही भणिरी, सा खिज्जइ हन्दि तुह कज्जे" / [हन्दि श्मशानं करसी, खेलं खेड्डु, अल्लं दिनं तथा। [विषादे | चरणे नतः सः, न मानितो हन्दि [विकल्प] भविष्यति इदानीम् पौष्पं रजस्तु “तिनिच्छि, समर्थः पक्कलो, बली। (नवा)। हन्दि [ पश्चात्तापे] न भविष्यति भणिरी [भणनशीला] सा खिद्यते हन्दि उज्जल्लो, पण्डको णेलच्छो, शाखा साहुली मता। [सत्यम् तव कार्ये / कासः पहली, ताम्बूलं मतं झसुरं इह। हन्द च गृहाणार्थे / / 181 // पुंश्चली छिछई, चैवं सन्ति लक्ष्याणि भूरिशः। 'हन्द"हन्दि' इमौ शब्दौ गृहाणार्थस्य याचको। वाऽधिकारात्तु पक्षेत्र यथादर्शनमिष्यते। यथा-'हन्द पलोएसुइमं हन्दि गृहण च। तेन गौः-'गउओ' ईदृग्रूपं चापि प्रयुज्यते। मिव पिव विव व्व व विअइवार्थ वा॥१८२२॥ गोला गोआवरी चेमौ, गोला-गोदावरी-भवौ। 'मिव-पिव-विअ-विव-व-व्वां' अमी इवार्थे च वा प्रयुज्यन्ते। भाषाशब्दाश्च सन्तहि बहवस्तान्वीम्यहम्। कुसुमं मिव, हंसो विव, कमलं विअ, चन्दणं पिव च। आहित्थो लल्लक्को, विड्डिर-पञ्चडिओ च उज्जल्लो। सेसस्सव निम्मोओ,खीरोओ सायरो व्य, पक्षे तु। उप्पेहड-विहडप्फड-मडप्फरो अट्टमट्टोच। नीलुप्पलमाला इव, दिशाऽनया त्वन्यदपि बोध्यम्। पड्डिच्छिर-हल्लप्फल इत्याद्या भूरिशोऽभिधाशब्दाः [ इत्यादयो जेण तेण लक्षणे // 183 // महाराष्ट्रविदर्भादिदेशप्रसिद्धा लोकतोऽवगन्तव्याः1]। जेण तेण इत्येतो, सदा लक्षणे बुधैःप्रयोक्तव्यौ। अवयासइ-फुम्फुल्लइ, उप्फालेई क्रियाशब्दाः। जेण भमररु कमलं, 'भमररुअंतेण कमलवणं'। अत एव कृष्ट-घृष्ट-वाक्य-विद्वत्प्रचेतसाम्। णइ चेअ चिअच अवधारणे // 15 // वाचस्पति-प्रोक्त-प्रोत-विष्टरश्रवसां तथा। 'णइचेअञ्च चिअ' इमे--ऽवधारणेऽर्थे यथा-'गईऍणई। अग्निचित्-सोमसुत्-सुग्ल-सुम्लादीनांचभूयसाम्। जं चेअ मउलणं लो-अणाण, ते चेअसप्पुरिसा।। विवादिप्रत्ययान्तानामनुक्तानां तु सूरिभिः / अणुबद्धं तं चिअका-मिणीण, सेवादिदर्शनाद् द्वित्ये। प्रतीतिवैषम्यपरः, प्रयोगो न विधीयते। 'ते चिअ धन्ना' इत्यपि, स च य रूयेण, स च सीलेन। किंतु शब्दान्तरैरेय, तदर्थोऽत्राऽभिधीयते। बले निर्धारण-निश्चययोः // 185|| वाचस्पतिर्गुरुः,कृष्टः कुशलो, विष्टरश्रवाः। निर्धारणे निश्चये,'बले' इतीदं, यथा-'बले सीहो' / [निश्चयेहरिरित्यादिवद् लेखो, भवेत् पर्यायसंभवः। सिंह एवायम्। सोपसर्गस्य घूष्टस्य, प्रयोगः क्रियते बुधैः। अस्थि बले सप्पुरिसो, धणंजओ खत्तिआणं तु। [निर्धारणे।] परिघट्ट निहढं चेत्येवमादि निदर्शनम्। किरेर हिर किलार्थे वा // 16 // आर्षे यथादर्शनं तु, न विरुद्धं किमप्यतः। 'किर इर हिर' इत्येते, त्रयः किलार्थे हि वा प्रयुज्यन्ते। 'घट्टा मट्ठा विउसा, तथैव 'सुअ-लक्खणाणुसारेण' / एते सोदाहरणाः, कथ्यन्ते तेऽवगन्तव्याः। 'वक्वन्तरेसु अपुणो, इत्याद्या विजानीयात्। 'कल्लं किर खर--हिअओ' 'एवं किल तेण सिविणए भणिआ'। अव्ययम् // 17 // 'तस्स इर, "पिअ-वयंसो हिर' किल-शब्दोऽपि वा वाच्यः। अव्ययमित्यधिकार आपादपरिपूरणात्। णवरं केवले // 17 // इतः परं ये वक्ष्यन्ते, ते सर्वेऽप्यव्ययाभिधाः। णवरं तु केवलार्थे ,'णवरं' 'नबरं' च कुत्रचिद् दृष्टम् / तं वाक्योपन्यासे // 176|| 'णवरं पिआइ चिअणि-व्वडन्ति' चैवं प्रयोक्तव्यम्। तमिति वाक्योपन्यासे, प्रयोक्तव्यं यथाविधि। आनन्तर्ये णवरि॥१८८|| 'तं तिअस-बन्दिमोक्खं' एवं सर्वत्र बुध्यताम्। आनन्तर्ये 'णवरि' प्रयुज्यते, तन्निदर्शनं चैतत्। आम अभ्युपगमे // 177 // 'णवरि असे रहु-वइणा, 'णवरणवरि' सूत्रमेकेषाम्। किचित्तु आम-शब्दोऽभ्युपगमे, वाच्ये साधु प्रयुज्यताम्। केवलानन्तर्यार्थयोः 'णवर-णवरि' इत्येकमेव सूत्रं कुर्वते, तन्मते तद्यथा-'आम वहला बणोली' ईदृगुच्यते। उभावप्युभयार्थी। णवि वैपरीत्ये // 176|| अलाहि निवारणे // 18 // णवीति वैपरीत्ये स्यात्, तथाहि-'णवि हो वणे'। अर्थे निवारणे 'ऽलाहि, सुधीभिः समुदीरितम्। पुणरुत्तं कृतकरणे // 17 // अलाहि किं वाइएण, लेहेणेति निदर्श्यते। पुणरुत्तम् इतिशब्दः, कृतकरणेऽर्थे प्रयुज्यते हि, यथा-1 अण णाई नार्थ / / 190|| 'अइ सुप्पइ पंसुलि ! णीसहेहि अङ्गे हि पुणरुत्तं' / / [हे पांसुले ! त्वं 'अण, णाई' इत्येतो, बुधैर्नञोऽर्थे परं प्रयुज्यते।। निःसहैरङ्गैः पुनरुक्तं [वारं वारं] स्वपिपि।] अणचिन्तिअममुणन्ती, णाई रोसं करेमि' यथा। हन्दि विषाद-विकल्प-पश्चात्ताप-निश्चय-सत्ये॥१८०| माई माऽर्थे / / 191|| विषादे निश्चये सत्ये, पश्चात्तापे विकल्पने। 'माई रोसं तु काहीअ,' अत्र माई तु माऽर्थकः। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (103) [सिद्धहेम०] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०२] हद्धी निर्वेदे // 16 // रे अरे संमाषण-रतिकलहे // 201 / / 'हद्धी' इति निर्वेद, हाधिक्-शब्दस्य भवति वाऽऽदेशः। संभाषणे तु 'रे' स्यात्, रतिकलहे संप्रयुज्यते च 'अरे'। तस्प्राद् 'हद्धी हद्धी' तथा च 'हा धाह धाह' इति / रे हिअय! मडह-सरिआ, 'अरे मए मा करेसु उवहासं'। वेव्वे मय-वारण-विषादे // 163|| हरे क्षेपे च / / 202 / / भय-वारण-विषादेषु, 'वेव्ये' इत्यभिधीयते। क्षेपे रतिकलहे संभाषणविषये च कथ्यते तु 'हरे'। "वेव्ये त्ति भये बेव्वे, त्ति वारणे जूरणे अवेव्वे त्ति। (क्षेपे) हरे णिलज ! (रतिकलहे) हरे बहुउल्लाविरीइ वि तुहं, वेव्वे त्ति गयच्छि ! किं णेअं? वल्लह! दुजण ! (संभाषणे) हरे पुरिसा! किं उल्लावेन्तीए उअ जूरन्ती' किं तु भीआए। ओ सूचना पश्चात्तापे॥२०॥ सूचनायां तथा पश्चात्तापे 'ओ' इति पठ्यते। उव्वाडिरीऐं वेव्ये त्ति तीऍ भणिअंन विम्हरिमो'' [वेव्वे इति भये वेव्वे इति 'ओ अविणय तत्तिल्ले (पश्चात्तापे) ओ छाया इत्तिआए न'। वारणे जूरणे [खेदे ] च वेव्वे इति। उल्लापयन्त्या अपि (मया) तव वेव्वे इति उतस्य तु विकल्पार्थवाचकस्यापि 'ओ' भवेत्। मृगाक्षि ! कि ज्ञेयम्। किंउल्लापयन्त्या उत जूरन्त्या किंतु भीतया। उद्वटन्त्या यथा 'नहयले ओ विरएमीति' निगद्यते। (निषेधं कुर्वत्या) वेव्वे इति तया अव्वो सूचना-दुःख-संमाषणापराध-विस्मयानन्दादरभणितं न विस्मरामः] मयखेद-विषाद-पश्चात्तापे // 20 // वेव्व च आमन्त्रणे ||194|| अव्यो दुःखे सूचनायामपराधे च विस्यमे। वेव्ये वेव्व च आमन्त्रणे, यथा-भवति 'वेव्व गोले' वा। संभाषणे भये खेदे,पश्चात्तापविषादयोः। 'वेव्वे मुरन्दले वह-सिपाणि' चेदृशं वाक्यम्। आनन्दादरयोश्चापि प्रयोक्तव्यं हि, तद्यथा। मामि हला हले संख्या वा / / 16 / / [सूचनायाम्] अव्वो दुक्करधारय ! (दुःखे) अव्यो हिययंदलन्ति वयणाणि / 'हला मामि, हले' चैते संख्या आमन्त्रणे तु वा। [संभाषणे अव्वो किमिणं किमिणं, अपराधे विस्मये तु यथा-- | पणवह माणस्स हला,'मामि हु सरिसक्खराण' विच कथितम् / [अपराधे] अव्यो हरन्ति हृदयं तथाऽपिन द्वेष्या भवन्ति युवतीनाम् / अव्वो 'हले हयासस्स' तथा, पक्षे-'सहि एरिसि चिअ गई' तु। किमपि रहस्यं जानन्ति धूर्ता जनाभ्यकाः // अव्वो हरन्ति हिअयं, तह विन दे संमुखीकरणे च |16|| वेसा हवन्ति जुवईण। 'दे' तु संमुखीकरणे, संख्या आमन्त्रणे च वक्तव्यम्। (विस्मये अव्वो किंपि रहस्यं, मुणन्ति धुत्ता जणभहिआ। 'दे' पसिअ ताव सुन्दरि ! 'दे आखुपसिअ निअत्तसु च।। [आनन्दे] अव्वो सुपहायमिणं (आदरे) अव्वो अज्जम्ह सप्फलं जी हुंदान-पृच्छा-निवारणे // 167 / / [भये] अव्यो अइअम्मि तुमे, नवरं जइ सा न जूरिहइ / / [खेदे] अव्वो न जामि छेत्तं, पश्चात्तापेऽभिधीयते तु यथा / / स्याद् 'हुँ' निवारणे दाने,पृच्छायां चापि, तद्यथा-। [विषादे] "अव्यो तह तेण कया, अहयं जह कस्स साहेमि"? 'अप्पणो चिअहुं गेण्ह' 'हुं निर्लज्ज ! समोसर। [पश्चात्तापे।] अव्यो नाशयन्ति धृति पुलकं वर्द्धयन्ति ददति रणरणकम् / 'हुंच साहसु सब्भावं, एवमादि निदर्शनम्। इदानीं तस्यैव गुणा त एव अव्वो कथं नु एतत् ? "अव्वो नासेन्ति दिहिं, हुखु निश्चय-वितर्क-संभावन-विस्यमे / / 198|| पुलयं यड्डेन्तिदेन्ति रणरणयं। 'हु'खु' निश्चय-संभावन-वितर्क-विस्मय-पदेषु वक्तव्यौ। एम्हि तस्सेअ गुणा, ते चिअ अव्वो कहणुए? (निश्चये) 'तं पिहुअच्छिन्नसिरी', 'तं खु सिरीए रहस्सं च'। अइसंभावने // 20 // ऊहसंशयौ द्वावपि, वितर्क-वाच्यौ (ऊहे) हसइ खु एअंसा। अइसंभावने, अइदिअर ! किं नपेच्छसि? 'नहुणवरं संगहिआ' (संशये) खुजलहरो धूमवडलो खु॥ वणे निश्चय-विकल्पानुकम्प्ये च / / 206|| (संभावने) 'एअंखु हसइ' इत्यपि, ‘णवर इमं ण हुतरीउं' च। संभावनेऽनुकम्प्ये च विकल्पे निश्चये वणे! (विस्मये)को खु सहस्ससिरो, हुर्नाऽनुस्वारात् परो वाच्यः। [निश्चये] वणे देमि 'वणे होइ, न होइ' स्याद् विकल्पने। ऊगर्हाऽऽ-क्षेप–विस्मय-सूचने // 166|| दासो न मुच्चइ वणे, अनुकम्प्यो न मुच्यते। 'ऊ' गर्दा-विस्मयाऽऽक्षेप-सूचनेषु प्रयुज्यते। संभावने 'नत्थिवणे जं न देह' विहि परिणामो यथा। मणे विमर्श // 207 / / (गहाँ) ऊ णिल्लज्ज' (सूचने) 'ऊ कण, न विण्णायं गुणं तुह'। मणे विमर्श, 'मन्ये' इत्यर्थेऽपीच्छन्ति केचन / (आक्षेपे) ऊमए भणिअं किं खु' (विस्मये) ऊ मुणि श्राऽहयं कह'। किंस्वित् सूर्यो-'मणे सूरो' रूपमीदृग् विदुर्बुधाः। आक्षेपः सोऽत्र, वाक्यस्य यद् विपर्यासवारणम्। अम्मो आश्चर्ये / / 208|| थू कुत्सायाम् // 200 / / आश्चयेऽर्थे भवेद् अम्मो, 'अम्मो कह तरिजई। कुत्सायां थू, यथा-'लोओ निल्लज्जो थू' प्रयुज्यते। स्वयमोऽर्थे अप्पणो नवा / / 206 / / Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (104) [सिद्धहेम अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८ पा०३] 'स्वयम्' इत्यस्य वाच्ये वा, अप्पणो' संप्रयुज्यते। || अहम्॥ 'अप्पणो विसयं कम-लसरा विअसंति च // // अथ तृतीयः पादः॥ 'करणिलं सयं चेअ, मुणसि' स्याद्धि पाक्षिकम् / वीप्स्यात् स्यादेवीप्स्ये स्वरे मो वा ||1|| प्रत्येकमः पाडिकं पाडिएकं // 210 // 'वीप्साऽर्थकात् पदात् स्यादेः स्थाने मः स्याद् विकल्पनात् प्रत्येकमः पाडिएक, पाडिक्कं च पदे भवेत्। पदे स्वरादौ वीप्सार्थे परे, इत्युपदिश्यते। पाडिक्कं पाडिएक्कं, चपक्षे- 'पत्तेअ-'मिष्यते।। एकेक स्यादेक्कमेक,पक्षे एकेक्कमिष्यते। अङ्ग अङ्गे तथा 'अङ्गमङ्गम्मि' प्रतिपाद्यते। उअ पश्य॥२११|| अतः से?।।२।। 'उअ' इत्यव्ययं पश्येत्यस्यार्थे वाऽभिधीयते। नाम्नोऽदन्तात् भवेद् स्यादेः सेो, 'वच्छो यथा भवेत्। "उअ निचलणिप्फंदा भिसिणी--पत्तम्मि रेहइ बलाआ। वैतत्तदः ||3|| निम्मल-मरगय-भायण-परिट्ठिआ सङ्क-सुत्ति व्व" // [ उअ एतत्तदोरतः स्यादेः सेः स्थाने 'मो' विकल्पनात्। इति पश्य इत्यर्थे, बलाका, विसिनीपत्रे कमलिनीपत्रे राजति / किंभूता 'सो णरो' 'सणरो' 'एसो एस' चैवं निदर्शनम्। बलाका ? निश्चलनिष्पन्दा, निश्चला बहिग्रीवा दिना, निष्पदा जश्शसोलुंक् || ऽन्तरुच्यासादिना,केव? निर्मलमरकतभाजनप्रतिष्ठिताशङ्खशुक्तिरिवा] नाम्नोऽदन्ताजश्शसौ यौ स्यादिसम्बन्धिनौ, तयोः। इहरा इतरथा // 2122 // लुग्भवेत् तद्यथा-'वच्छा एए' 'वच्छे पिपेच्छ' च। 'इहरा' इतस्थाऽर्थे, प्रयोक्तव्यं विभाषया। अमोऽस्य॥शा 'नीसामन्नेहि इहरा' पक्षे- 'इअरहा' इति॥ अतोऽमोऽस्य लुगाख्येयो 'वच्छं पेच्छ' उदाहृतम्। एक्कसरिअंझगिति संप्रति॥२१३|| टा-आमोर्णः // 6 // सम्प्रत्यर्थे झगित्यर्थे स्याद् 'एक्कसरिअंपदम् / अतः परस्य 'टा' इत्येतस्याऽऽमश्वपिणो भवेत्। मोरउल्ला मुघा // 21 // यथा-'वच्छेण वच्छाण' द्वयं सिद्धिमुपागमत्। 'मोरउल्ला' इति पदं, मुधाऽर्थे प्रतिपाद्यते। मिसो हि हिँ हिं // 7 // दरार्धाल्पे // 21 // भिसो 'हि हि हिं' इत्येत आदेशाः स्युस्त्रयः क्रमात्। 'दर' इत्यव्ययम् ईषदर्थेऽर्धार्थे च पठ्यते। रूपं 'वच्छेहि वच्छेहि वच्छेहि चबुधाजगुः। 'दर--विअसिअं'ईषदर्धं विकसितं तथा।। __ ङसेस् त्तो-दो-दु-हि-हिन्तो-लुकः ||6|| किणो प्रश्ने // 216 / अतो डसोसमी स्युः त्तो-दो-दु-हि-हिन्तो-लुकोऽत्र षट्। 'किणो' इत्यव्ययं प्रश्ने, किणो धुवसि' ईदृशम्। 'वच्छाहिंतो च वच्छतो वच्छा वच्छाउ च क्वचित्। तथा वच्छाहि वच्छाओ' दोऽन्यभाषार्थ इष्यते। इ-जे-राः पादपूरणे // 217 / / म्यसस् त्तो-दो-दु-हि-हिन्तो-सुन्तो॥६ इ-जे-रा इत्यमी शब्दा उच्यन्ते पादपूरणे। अतो भ्यसो भवेत् 'तो-दो-हिन्तो-सुन्तो-दु-हि' क्रमात्। 'न उणा इच अच्छीहं' 'अणुकूलं च वोत्तुं जे' / / यथा-वच्छाउ वच्छाहि वच्छेहि त्रयमीदृशम्। स्याद् 'गेण्हइ र कलम-गोवी' वाक्ये र--पूरणम्। वच्छाहिन्तो वच्छेहिन्तो, वच्छासुन्तो वच्छेसुन्तो। 'अहो हंहो च हा हेहो, नाम हीसि अहाह च॥ वच्छतो वच्छाओ चैवं रूपं विद्वद्वर्यैरुक्तम्। अहहाऽयि अरिरिहो' इत्याद्याः संस्कृतोपमाः। उम्नःस्सः।।१०।। प्यादयः॥२१८|| अतः परस्य तु ङसः संयुक्तः 'स्सो' भवेदिह। प्राकृते प्यादयः सर्वे , नियतार्थप्रवृत्तयः / यथा-पिअस्सपेम्त्मस्स,शैत्यमुपकुम्भं त्वदः। प्रयोक्तव्याः, यथा--'पि' 'वि' अप्यर्थे परिकीर्तितौ / / उवकुम्भस्स सीअलत्तणमित्यभिधीयते। या भाषा भगवद्वचोभिरगमद् ख्याति प्रतिष्ठां परां, मे म्मि 2H||11|| यस्यां सन्त्यधुनाऽप्यमूनि निखिलान्येकादशाङ्गानि च। अतः परस्य डेर्डित् डे, म्मिश्चाऽऽदेशौ यथाक्रमम्। तस्याः संप्रति दुःषमारवशतो जातोऽप्रचारः पुनः वच्छे वच्छम्मि, देवम्मि देवं, तं तम्मि इत्यपि। संचाराय मया कृते विवरणे पादो द्वितीयो गतः||१॥ द्वितीयेत्यादि [3/135] सूत्रेणाऽमः स्थाने ङिर्विधास्यते। इति श्रीमत्सौधर्मबृहत्तपागच्छीय-कलिकालसर्वज्ञ जस्-शस्-सि--तो-दो दामि दीर्घः // 12 // जस्-शस्-डसि-तो-दो-द्वाम् सु, स्यादकारस्य दीर्घता। - श्रीमद्भट्टारक-श्रीविजयराजेन्द्रसूरिविरचि [जसि शसि च ] वच्छा [डसि। वच्छाउ वच्छाओ, वच्छा, तायां प्राकृतव्याकृतौ द्वितीयः पादः। वच्छाहि वा पुनः। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (105) (सिद्धहेम.] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०३] वच्छाहिन्तो च, वृक्षेभ्यः वच्छत्तो ह्रस्व [1/4] सूत्रतः। जस्-शसोर्णो वा // 22 // वच्छाओ वच्छाउ तो/दो/द], आमि-रूपं 'वच्छाण' सिध्यति। इदुतः परयोः पुंसि जस्-शसोर्वाऽस्तु णो' इति। डसिग्रहेणैव सिद्धे, 'त्तो दो दु'-ग्रहणेन किम्? गिरिणो तरुणो, पक्षे स्याता रूपे 'गिरी तरू' / [जसशसोरिति द्वित्वमिदुत एत्वस्य बाधनार्थाय भ्यसि, तस्य ग्रहो मतः। इत्यनेन यथासंख्याभावार्थम्।। भ्यसि वा // 13 // सिङसोः पुं-क्लीवे वा।।२३।। भ्यसादेशे परे दीर्घा, वाऽकारस्य विधीयते। इदुतो वा ङसिङसोः, पुंसि क्लीबे च वाऽस्तु'णो'। यथा-'वच्छाहि वच्छेहि, तथाऽन्यदपि बुध्यताम्। गिरिणो तरुणो रूपं दहिणो महुणो तथा। टाण-शस्येत् // 14 // पक्षे 'गिरीओ गिरीउ गिरीहिन्तो,' ऽनया दिशा। टाऽऽदेशे-णे च, शसिच, भवत्येत्त्वमतो, यथा। अन्येषामपि रूपाणि, हि-लुको न भविष्यतः / {शस्]वच्छे पेच्छ, [टा-ण] च वच्छेण, णेति किम्? अप्पणा यतः। डसो 'गिरिस्स' इत्येकं पक्षे रूपं प्रयुज्यते। मिस्भ्यस्सुपि॥१५॥ टोणा // 24 // भिस्-भ्यस्-सुप्सु भवत्येत्त्वमतः, तद्दर्शयाम्यहम्। इदुद्भयां पुंसि क्लीबे च, 'टा' इत्यस्य तु ‘णा' भवेत्। वच्छेहिन्तो च वच्छेहिंवच्छेसु त्रयमीरितम्। [भिस्-वच्छेहि, वच्छेहि, गिरिणा च गामणिणा, तरुणा दहिणा यथा। वच्छेहिं / भ्यस्-वच्छेहि, वच्छेहिन्तो, वच्छेसुन्तो। सुप्-वच्छेसु।) क्लीवे स्वरान्म सेः // 25 // __ इदुतो दीर्घः // 16 // क्लीबे स्वरान्ताद्नाम्नः सेः,स्थाने मोव्यञ्जनं भवेत्। इकारोकारयोर्दी| भिस्-भ्यस्-सुपसु परेषु च। दहिं महुं वणं पेम्म,केऽपीच्छन्त्यनुनासिकम्॥ [दहि, महुँ। स्वरादिति गिरीहिं च गिरीहिन्तो, गिरीसु च तरूसु च। इदुतो निवृत्त्यर्थम्। तरूहिं च तरूहिंन्तो बुद्धीहिं, नापि कुत्रचित्। जस्-शस् ई-इं--णयः सप्रारदीर्घाः॥२६|| 'दिअभूमिसु दाणजलोल्लिआई' तु यादृशम् (द्विजभूमिषु दान नाम्नः परयोर्जस्-शसोःक्लीबे इँ-ई--णयस् त्रयः। एषु सत्सु भवेत् पूर्वस्वराणां दीर्घता, यथा॥ जलार्द्रितानि।] चतुरो वा // 17 // वयणाइँ पङ्कयाई दहीइं पङ्कयाणि च। स्त्रियामुदोतौ वा // 27 // उकारान्तस्य चतुरो भिस्-भ्यस्-सुप्सुपरेषु वा। नाम्नः परयोर्जश्शसोर् उदोतौ वा स्त्रियां मतौ। दीर्घा भवति, चउओ चऊओ, चउहिंच वा। चऊहिं, चउसु स्याद्वाचऊसु, इति बुध्यताम्। तयोस्तु परयोःपूर्वस्वरस्येष्टा च दीर्घता। यथा वुद्धीउ बुद्धीओ, सहीओ च सहीउ च। लुसे शसि // 18|| इदुतोःशसि लुप्ते तुदी| भवति, तद्यथा। पक्षे बुद्धी सही चैवमन्येऽप्यूह्या विचारणात्। ईतःसेश्चाऽऽवा // 28|| गिरी बुद्धी तरू घेणू पेच्छं, चैवं निदर्शनम्। सेर्जश्-शसोश्च वाऽऽकारः, स्त्रियामीतः परस्य तु। 'लुप्ते' इति किम्?'गिरिणो, तरुणोपेच्छ' यद् भवेत्। यथा एसा हसन्तीआ, गोरीआ सन्ति पेच्छ वा। इदुतः किम्? यथा-'वच्छे पेच्छ' नास्त्यत्रदीर्घता। पक्षे हसन्तीगोरीओ, एवमन्यत्रबुध्यताम्। जस्-शस्-[३/१२] इत्यादिना योगः शसि दीर्घस्य यः कृतः। टा-स्-ङरदादिदेद्वा तु उसेः॥२६॥ सोऽस्ति लक्ष्यानुरोधार्थो न सर्वत्र प्रवर्तते। नाम्नः परेषां स्त्रीलिङ्गे टा-उस्-ङीनाक्रमात् बुधैः। णावि [3/22] प्रतिप्रसवार्थ [3/125] शङ्काया विनिवृत्तये / अद् आद् इद् एतश्चत्वारः, सप्राग्दीर्घाः प्रकीर्तिताः। 'लुप्से' इति हि योगोऽस्ति,सज्ञेयः सूक्ष्मदर्शिभिः। केवलस्य ङसेः स्थाने, सप्राग्दीर्घा अमीतुवा। अक्लीवे सौ // 16 // यथा मुद्धाअ मुद्धाइ मुद्धाए च कयं ठिअं। इदुतोः सौ भवेद्द्दीर्घः, सचाक्लीवे विधीयते। कप्रत्यये मुद्धिआअ, मुद्धिआइ च कथ्यते / गिरी बुद्धी तरू घेणू, क्लीबे तु स्याद् दर्हि महुं। एवं सहीअधेणूअ बहुआऽऽदि प्रयुज्यताम्। विकल्प्य केऽपि दीर्घत्वं तदभावे वदन्ति च। मुद्घाहिन्तो च मुद्धाउ मुद्धाओ चेति पाक्षिकम् / सेर्मादेशं, यथा सिध्येत्-अग्गिं वाउं निहिं विहुं। शेषेऽदन्ता-[३/१२४] तिदेशाद्धि, वा दीर्घत्वं जसादिना 3/12) पुंसि जसो मउ मओ वा // 20 // नात आत्॥३०॥ इदुतः परस्य जसोऽउ अओपुंसिवा डितौ। स्त्रियामातः परेषां तु, ङसिटाङि ङसां न चाऽऽत्। अग्गओ अग्गउ स्याताम्, 'अग्गिणो' इति पाक्षिकम्। भवेद् 'मालाअमालाइ मालाए' चेति वै त्रयम्। 'वायओवायउ' प्राज्ञैः'वाउणो'-ऽप्यग्निवन्मतम् / प्रत्यये डीनवा // 31 // शेषे त्वदन्तवद्भावाद् अग्गी वाऊच सिध्यतः। अणादि [हेम०२/४ ] सूत्रतो यो डीरुक्तो, वा स स्त्रियामिह। वोतो मवो // 21 // आत् / हेम०२/४] इत्यापच भवेत् पक्षे, साहणी साहणा यथा। उदन्तात् परस्य जसः, पुंसि वा 'ऽवो' डिदिष्यते। अजातेः पुंसः॥३२॥ साहवो, साहओ पक्षे साहु साहउ साहुणो। अजातिवाचिव{ ल्लिङ्गात् स्त्रियां ङीर्वा विधीयते। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (106) [सिद्धहेम.] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८ पा०३] नीली नीला, हसमाणी हसमाणा, इमीए तु। ऋतामुदस्यमौसु वा // 44|| स्याद् इमाए, इमीणं तु, इमाणं,अभिधीयते / / सि-अम्-औ-वर्जिते स्यादौ ऋदन्तानाम् उद् अस्तु वा। अजातेरिति किम्? यद्वत् करिणी एलया अया। जसि 'भत्तू भत्तुणो च भत्तओ भत्तउ' स्मृतम् / अप्राप्ते तु विभाषेयं, तेन संस्कृतवत् सदा।। भत्तारा पाक्षिकं रूपं, शसि भत्तू च भत्तुणो। गौरी 'कुमारी' इत्यादौ, बुधैर्डीः प्रविधीयते // भत्तारे चेति, टायां तु भत्तारेण च भत्तुणा। किं यत्तदोऽस्यमामि // 33 // भिसि भत्तूहि भत्तारेहिं रूपं, डसि भत्तुणो। किं-यत्-तद्भ्यः स्त्रियां डीवी, न सौ आमि तथाऽमि च / / भत्तूहिंतो च भत्तूहि भत्तूओ भत्तूउ स्मृतम्,। कीओ काओ कीसु कासु, कीएकाए यथा किमः॥ भत्ताराहि च भत्ताराहिन्तो पाक्षिकरूपतः। तथैव जीओ जाओ च, तीओ ताओ ऽस्ति यत्तदोः।। भत्ताराओ च भत्तारा भत्ताराउ प्रयुज्यते। किमऽस्यमामि? का जा सा कंजंतं,काण जाण च // भत्तुस्स भत्तुणो ङसि भत्तारस्सेति पाक्षिकम् / छाया-हरिद्रयोः // 34 // सुपि भत्तूसु पक्षे तु, भत्तारेसु निगद्यते। छयाहरिद्रयोरापः, प्रसङ्गे डीर्विकल्प्यते। व्याप्त्यर्थत्वाद् बहुत्वस्य नाम्न्यपि क्वाप्युदस्तुवा। छाही छाया हलद्दी तु हलद्दा तेन भण्यते।। जस्-शस्-डस्-ङसो जामाउणो च पिउणो पुनः। स्वस्रादेर्मा ॥३शा टायां तु पिउणा रूपं, भिसि रूपं पिऊहिं च। डाप्रत्ययः स्त्रियां स्वस्रादिभ्यः स्यात् तद्यथा ससा / / पिउसु सुपि पक्षे तु पिअरा रूपमिष्यते। दुहिआदुहिआहिं च, नणन्दा गउओ तथा // अस्यमौ स्विति किं प्रोक्तं?(जस्) पिआरा (अम्) पिअरं (सि) गिआ। हस्वोऽमि॥३६॥ आरः स्यादौ // 45|| स्त्रियां नाम्नोम हस्वः स्यात्,'पेच्छ मालं नई बहुं'। ऋतः स्थाने भवेद् आराऽऽदेशः स्यादौ परे, यथानामन्त्र्यात् सौ मः॥३७॥ भत्तारो, चैव भत्तारा, भत्तारं, परिपठ्यते। आमन्त्र्यार्थात् परे सौ तु, नैव 'क्लीवे स्वरान्म सेः [3/35] भत्तारे च भत्तारेहि, भत्तारेण ङसेस्तया। इति सूत्रेण सेर्मो, हे तण ! हे दहि ! हे महु ! लुप्तस्याद्यापेक्षया तु 'भत्तार-विहिअं' मतम्। मो दीर्घो वा // 38|| आ अरा मातुः॥४६॥ आमन्त्र्यार्थात् परे सौ तु 'अतः से?' [3/2] अयं विधिः। मातृसम्बन्धिन ऋतः, स्यादौ तु आ अरा, मतौ। 'अक्लीबे सौ' [3/16] चेति दीर्घः, द्वयं चैतद् विकल्प्यते। माआउमाअरा माआ, माआओ माअराउ च / यथा-हे देव ! हे देवो ! हे हरी ! हे हरिद्वयम्। माअराओ च माअं माअरं इत्यादि साध्यताम्। हे गुरू! हे गुरु ! च, 'हे पहू हे पहु' इत्यपि। जनन्यर्थस्य आ--ऽऽदेशो देवतार्थस्य स्यादरा। एषु प्राप्ते विकल्पोऽस्ति, अप्राप्ते त्विह दृश्यताम्। यथा-माआएँ कुच्छीए, नमो मे माअराण च। हे गोअमा! हे गोअम! , हे हे कासव ! कासवा! 'मातुरिद्वा' [1/135] इतीत्वेन, रूपं 'माईण' सिध्यति। ऋतोऽद्वा॥३६॥ ऋताम्-[३/४४] उत्वे तु 'माऊए अहं वन्दे समन्निअं! अकारान्तस्य वाऽत्वं तु, भवेदामन्त्रणे हि सौ। स्यादौ किं नु? माइदेवो, तथा माइगणो इति। हे पितः ! हे पिअ ततो, पक्षे हि पिअरं मतम्। नाम्न्यरः॥४७॥ नाम्न्य रं वा||४|| ऋदन्तस्याऽर इत्यन्तादेशो स्यादौ हि नामनि। [ संज्ञायाम्। आमन्त्रणे सौ ऋतः, संज्ञायां वा 'अरं' भवेत्। पिअरा पिअरं पिअरे, पिअरेण पिअरेहिमिष्यते रूपम्। स्याद् हे पितः! हे पिअरं! पक्षे 'हे पिअ' इत्यपि। 'जामायरा, भायरा,' रूपं पितृतुल्यमनयोः स्यात्। नाम्नीति तु किम् ? हे कर्तः ! हे कत्तार ! इति स्मृतम्। आ सौ न वा॥४८|| वाऽऽप ए॥४१॥ ऋदन्तस्येह वाऽऽकारः, सौ परे तु विधीयते। आमन्त्रणे सौ परे स्याद्, आप एत्वं विभाषया। पिआ भाया च जामाया, कत्ता, पक्षे भवेद् 'अरः'। हे माले ! महिले ! पक्षे- हे माला महिला ! मता। पिअरो भायरो कत्तारोच जामायरो तथा। आपः किं नु ? हे पिउच्छा ! हे माउच्छा !नचेह 'ए'। राज्ञः॥४६॥ 'अम्मो भणामि भणिए' ओत्वं बाहुलकादिह। राज्ञो न लोपेऽन्त्यस्याऽऽत्वं, वा भवेत् सौ परे यथा। ईदृतोर्हस्वः॥१२ राया तथा च हे राआ! 'रायाणो' चेति पाक्षिकम्। स्यादीदूदन्तयोर्हस्वः, संबुद्धौ सौ परे यथा। शौरसेन्यां तु हे राया हे रायमिति भाष्यते। हे गामणि! हे समणि! एवमन्यन्निदर्शनम्। एवं हे अप्प! हे अप्पं ! इत्यादीनि विदुर्बुधाः। विपः॥४३॥ जस्-शस्-उसि-ङसां णो // 50 // ईदूदन्तस्य ह्रस्वः स्यात्, विबन्तस्येति दृश्यताम्। राजनशब्दात् परेषां वा, जस्-शस्-ङसि-ङसां हि 'गो'। गामणिणा खलपुणा, गामणिणो खलपुणो। रायाणो जस्-शसोः, राया जसि, राए च वा शसि / / Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (107) [सिद्धहेम० अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०३] इसौ रण्णो राइण्णो च, पक्षे तावन्निशम्यताम्। आत्मनष्टो णिआ णइआ॥५७॥ रायाहिन्तो च रायाहिं, राया रायाउ इत्यपि / / आत्मशब्दाद् हि टा-स्थाने वा 'णिआ' णइआमतौ। रायाओ (ङसि) राइणो रण्णो, पक्षे रायस्स पठ्यते। अप्पाणिआऽप्पणइआ, पक्षऽ 'प्पाणेण' कथ्यते। टोणा // 51 // अतः सर्वादेर्डेर्जसः॥५५|| राजनशब्दात् विकल्पेन, टा-स्थाने 'णा' विधीयते। भवेददन्तात् सर्वादर्जसः स्थाने डिदेदिह। रण्णा च राइणा, पक्षे,रायेणेत्यपि सिद्ध्यति / सव्वे अन्ने चजे ते के कयरे इयरे तथा। इर्जस्य णो–णा-ङौ // 52 // डे: स्सि-म्मि-स्थाः // 56 // राजन्-शब्दस्य जस्येत्वंवा णो-णा-डिषु कथ्यते। सर्वादीनामतो H स्युःस्सि--म्मि-स्थास्तु यथाक्रमम्। राइणोपेच्छ चिट्ठन्ति आगओ वा धणं यथा // सव्यत्थ सव्यंस्सि सव्वम्मि, अतः किम्? अमुम्मितु! राइणा चैव, रायम्मि, पक्षे रूपं निशम्यताम्। नवानिदमेतदो हिं।।६०॥ रण्णो रायम्भि रायाणो, राएण रायणा तथा / / इदमेतदौ विना सर्वादेरदन्तात् परस्य H / इणममामा / / 53 // हिमादेशो विकल्पेन, भवेदित्युपदिश्यते। राजन्-शब्दस्य जस्येणम्, अमाम्भ्यां सह येष्यते। सव्वहिं अन्नहिं, किंयत्तद्भ्यः स्याद् हिं स्त्रियामपि। राइण वा धणं पेच्छ, रायं राईण पाक्षिकम् // काहिं जाहिं च ताहिं च, किंयत्तद्भ्यो न डी [3/33 ] रिह। ईदिरभ्यसाम्सुपि॥५४|| एतद् वयं बाहुलकं कार्य ,पक्षे निशम्यताम्। राजन्-शब्दस्यजस्येत्वं भिस्--भ्यसाम्-सुप्सुवेष्यते। सव्वत्थ सव्वस्सि सव्वम्मि चैवं बुध्यतां परम्। राईहिन्तो च राईहिराईसुन्तो भवेभ्यसि। स्त्रियां तु पक्षे काए च, कीए चैवं विचार्यताम्। मिसि राईहि, राईणं आमि, राईसु सुप्यदः। इदमेतदोरिमस्सि, एअस्सि रूपमिष्यते। पक्षे 'रायाणेहि इत्या-दीनि रूपाणि चक्षते // आमो मेसिं // 61 // आजस्य टा-ङसि-उस्सु सणाणोष्वण॥५५|| अदन्तात् सर्वनाम्नः स्याद्, आमो 'डेसिं' विभाषया। राजन-शब्दस्ययोऽस्त्याजोऽवयवस्तस्य भवेदण। सव्येसिं अवरेसिंच,जेसिंतेसिमिमेसि च। णा-णो-आदेशरूपेषु, टा-ङसि डस् सुया मतः॥ पक्षेऽवराण सव्वाण जाण ताण इमाण च / टायां रण्णा राइणा, ङस्-डस्यो रण्णो च राइणो। स्त्रियां बाहुलकात्-सर्वासां सव्वेसिं प्रयुज्यते। सणाणोष्विति किम्? रायाओ रायस्स च राएण / / किंतम्यां मासः॥६॥ पुंस्यन आणो राजवच / / 56|| अन्नन्तस्य भवेद् 'आण' इति पुंसि विकल्पनात्। किंतद्भ्यां तु परस्यामः, स्थाने डासो विकल्प्यते। पक्षे तु राजवत् कार्य, यथादर्शनमिष्यते॥ तास कास भवेत्, पक्षे-तेसिं केसिं प्रयुज्यते। आणादेशे अतः सेोः [3/2] एवमादि प्रवर्तते। किंयत्तयो ङसः॥६३|| पक्षे तु राज्ञःजस्'-[३/५०] 'टोणा, [3/24] किंयत्तद्भ्यो ङसः स्थाने, डासाऽऽदेशो विकल्प्यते। 'इणम् [3/53] एतद् विधित्रयम्॥ ड्सः स्स (३/१०)स्यापवादोऽयं, पक्षे सोऽपि प्रवर्तते। अप्पाणो अप्पाणा, अप्पाणं अप्पाणे। कास कस्स जास जस्स, तास तस्स प्रयुज्यते। अप्पाणाओ अप्पाणासुन्तो पञ्चम्याम् / / आदन्ताभ्यां च किंतझ्या-मपि डासो विभाषया। अप्पाणेण अप्पाणेहि, टायां भिसि यथाक्रमम् / कस्याः तस्याः कास तास, काए ताए च पाक्षिकम्। अप्माणस्साऽऽप्पाणाण, ङसि चाऽऽमि क्रमेण हि।। ईद्भ्यःस्सा से॥६४|| अप्पाणम्नि तथा अप्पा-खेसु डौ सुपिचोच्यते। ईदन्तेभ्यः किमादिभ्यो, डसः 'स्सा' 'से' विकल्पितौ। अप्पाणं- कयं, पक्षे तु, राजवत् कार्य्यमीक्ष्यताम्। टाङस्-[३/२६] इत्यादिसूत्रस्यापवादोऽयं निरूपितः। अप्पा अप्पो च, हे अप्पा! हे अप्प ! द्वयमीदृशम्। तेन पक्षेऽदादयोऽपि प्रवर्तन्ते, निदर्श्यते। अप्पाणो जसि, अप्पाणो शसि,टायां तु अप्पणा। 'किस्सा कीले कीअ कीआ, कीए कीई' भवन्ति षट्। अप्पेहि भिसि, अप्पाणो अप्पाओऽप्पाउ वै पुनः। जिस्सा जीसे जीअ जीआ, जीए जीइ यदो मताः। अप्पाहि अप्पाहिंतो अप्पा अप्पासुन्तो स्याभ्यसि। 'तिस्सा तीसे तीअतीआ, तीए तीइ' इमे तदः। अप्पणो धणम्, अप्पाणं अप्पे अप्पेसु कीर्त्यते। उहाँहे माला इआ काले // 65|| रायाणो चैव रायाणा एवं सर्व विभाव्यताम्। किंयत्तद्भ्यस्तु : स्थाने, 'माहे डाला इआ' त्रयः। पक्षे त राया इत्यादि, जुवाणो च जुआ तथा। हिंस्सिम्मित्थान् अपाकृत्य, काले वाच्ये भवन्ति वा। बम्हाणो पाक्षिको बम्हा, अद्धाणोऽद्धाऽपि चेष्यते। काहे काला कइआ, जाहे जाला जइआ। उच्छाणो या भवेद्-उच्छा, गावा गावाणो वा भवेत्। ताहे ताला तइआ, पक्षे ते चापि मताः (ताला जाअन्ति गुणा, जाला ते तथैव पूसा पूसाणो, तक्खा तक्खाणो इत्यपि। सहिअएहिं घेप्पन्ति / ) / मुद्धाणो वा च मुद्धा स्यात्, 'साणो सा' श्वा प्रकीर्तितः। 'कहिं कस्सि कम्मि कत्थ' रूपाणीमानि तत्र च / सुकम्माणे पेच्छ, शर्म सम्मं, क्लीबेऽत्र नेष्यते। ङसेम्हीं // 66 // Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (108) सिद्धहेम अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०३] किंयत्तद्भ्यो डसेः स्थाने, म्हाऽऽदेशो वा विधीयते। वेद-तदेतदोङसाम् म्यां से-सिमौ // 1 // कम्हा जम्हा च तम्हा च, काओ जाओ तु पाक्षिकम् / इदम् तद् एतद् इत्येषां, वाऽऽम्ङस्भ्यां सह से-सिमौ ! तदो डोः॥६७|| अस्य तस्य च वैतस्य शीलं-'से सील-मुच्यते। तदः परस्य तुङसे? वा,'तम्हा' च 'तो' यथा। एषां तेषां तथैतेषां शीलं-'सिं सील-मिष्यते। किमो मिणो -मीसौ // 68|| पक्षे 'इमस्स चेमेसिं इमाण, तस्स ताण च। किमः परस्य तु डसे-णिो डीसौ च या स्मृतौ। तेसिं, एअस्स एएसिं एआण' इति बुध्यताम्। किणो कीस, तथा कम्हा, त्रीणि सिद्धिमुपागमन् / कश्चिदामाऽपिसे आदेशं वष्टीदंतदोरिह।। इदमेतत्-किं-यत्तभ्यष्टो मिणा // 66 // से-सिमौ त्रिषु लिङ्गेषु, तुल्यं रूपमवाप्नुतः। इदं--यत्-तत्-किमेतद्भ्योऽदन्तेभ्यस् टो-मिणाऽस्तु वा। वैतदो ङसेस् त्तो ताहे॥८॥ इमेण इमिणा, जेण जिणा, एदेण एदिणा। एतदः परस्य ड्सेस् 'तो, त्ताहे स्तो विकल्पनात्। किणा केण, तिणा तेण, एवं टाया डिणाविधिः। एत्तो एताहे, पक्षे तु, पञ्च रूपाणि, तद्यथा-। तदोणः स्यादौ कचित् / / 70 // एआहिन्तोच एआहि, एआ एआउ एआओ।। तदः स्थाने ण आदेशः, स्यादौ लक्ष्यानुसारतः। त्थे च तस्य लुक् // 3 // ‘णं तिअडा' तां त्रिजटा, 'पेच्छणं पश्य तं यथा। एतदःत्थे परे 'त्तो ताहे-'उनयोः परयोरपि। तेन णेण, तया णाए, तैः तामिर्णेहि णहिँ च। तकारस्य लुग, 'एत्ताहे, एस्थ एत्तो' इति त्रयम् / / किमः कस्त्र-तसोश्च / / 71 // एरदीतौ म्मौ वा।।८४|| किमः को भवति स्यादौ, व्रतसोः परयोस्तथा। एतद आदिवर्णस्य ड्यादेशेम्मौ अदीच वा। यथा-अथम्मि ईयम्मि,पक्षे एअम्मि भण्यते।। को के कं के केण, [त्र] कत्थ, [तस] कओ कत्तो कदो यथा। वैसेणमिणमो सिना |8|| इदम इमः // 72 // सिना सहैतदो वा स्युः, एसेणम् इणमो त्रयः। पुंस्त्रियोरिदमः स्यादौ, स्यादिमो, हि 'इमो' 'इमा' / इणं एसेणमो, एएसा एसो च पाक्षिकम्॥ पुं-स्त्रियोर्नवाऽयमिमिआ सौ // 73 // तदश्चतः सोऽक्लीबे||१६| इदमः सौ परे पुंसि अयं' वा 'इमिआ' स्त्रियाम्। तदेतदोस्तस्य सःस्या-दक्लीबे सौ परे यथा-1 इमो इमा भवेत् पक्षे, एवं रूपचतुष्टयम्। सो पुरिसो, सा महिला, एसो एसा पिओ पिआ। स्सि-स्सयोरत्॥७४|| वाऽदसो दस्य होनोदाम् // 7 // इदमोऽत्त्वं विकल्पेन, स्सि-स्सयोः परयोरिह। अदसो दस्य सौ हो वा, डौ [3/3] आत् [4/448] अस्सि अस्स, इमादेशे इमरिसच इमस्सच। आप्/२/४] मश्च [3/25] नो ततः। बहुलग्रहणादन्यत्राप्ययं संप्रर्वते। अह पुरिसो, अह महिला, अह मोहो-अह वणं च हसइ सआ॥ एहि एभिः, आहि आभिः, एसु एषु प्रयुज्यते। पक्षे तु मुरादेशी, [3/88] अमू अमू अह यवं च हसइ सआ। अॅर्मेन हः // 7 // मुः स्यादौ ||8|| इदमः कृतेमादेशाद्, वा मेन सह होऽस्तुः / अदसौ दस्य तु स्यादौ , मुरादेशोऽभिधीयते। इह, पक्षे-इमरिसच, इमम्मि प्रतिपठ्यते। अमू पुरिसो, अमुणो पुरिसा, च अमुंवणं / / नत्थः // 76|| ततो अमूई वणाई, तथाऽमूणि वणाणि च / न'त्थः [3/56] स्यादिदमो डेस्तु, इहेमस्सि इमम्मि च। अमू माला, अमूओऽमूउ मालाओ, ऽमुणाऽतथा।। णोऽम्-शस्-टा-मिसि॥७७।। ङसौ अमूओऽमूर्हिन्तोऽमूउ, भ्यसि निशम्यताम्। इदमो णोऽस्तु वाऽम्-शस्-टा-भिस्सु, णं णेणणेहिणे। अमूहिन्तो अमूसुन्तो, अमुस्स अमुणो ङसि।। पक्षे इमं इमेणेमेहि इमे सिद्धिमाययुः। आमि डौ सुपि चाऽमूण स्याद् अमुम्मि अमूसु च। अमेणम् // 7 // म्मावयेऔ वा||८|| अमा सहेदमःस्थाने, 'इणम्' वा स्याद, इणं, इमं / दकारान्तस्यादसो वा, ड्यादेशेम्मौ इआऽय च। क्लीवे स्यमेदमिणमो च 176|| ततोऽयम्मि इयम्मि द्रौ, स्यात् पक्ष 'ऽमुम्मि' इत्यपि।। 'इदम्' 'इणम्'च'इणमो', क्लीवे नित्यममी त्रयः। युष्मदः तं तुं तुवं तुह तुम सिना IIRoll स्यम्भ्यां सहेदमः स्थाने, भवन्तीति विभाव्यताम्। युष्मदस्तु सिना साकं, तंतुंतुह तुवं तुम। इदं इणं वा इणमो, धणं चिट्ठइ पेच्छ वा। पञ्च रूपाणि सौ विद्या-दग्रेऽप्येवे विचिन्तयेत्॥ किमः किं // 50 // मे तुम्मे तुज्झ तुम्ह तुम्हे उरहे जसा ||11|| क्लीवे प्रवर्तमानस्य, स्यम्भ्यां सह किमोऽस्तु किं / तुय्हे उरहे तुज्झ तुम्ह, भे तुब्भे च जसा सह। किं कुलं तुह, 'किं किं ते पडिहाइ यथा भवेत्। ब्भो म्हज्झौ वेति [3/104] वचनात् तुम्हे तुज्झे ततोऽष्टकम् / Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (106) [सिद्धहेम०] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०३] तं तुं तुमं तुवं तुह तुमे तुए अमा |2|| तुमे तुमए तुमाइ तइ तए ङिना // 101 / / तुए तुमे तुम तंतुं, तुवं तुह अमा सह। तुमे, तुमाइ, तुमए, तए, तइ, डिना सह। वो तुज्झ तुब्भे तुम्हे उरहे मे शसा ||3|| तु-तुव-तुंम-तुह-तुमा ङौ // 102 / / वो तुज्झतुब्भे तुम्हे भे, उरहे षट्कं शसा सह। डौ युष्मदस् 'तु तुव तुम, तुह तुब्भाः पञ्चतु स्युरादेशाः। 'मो म्हज्झो वेति' [3/104] वचनात्, तुम्हे तुज्झे ततोऽष्ट-कम्। ङस्तु यथाप्राप्त स्यादादेशो दर्शितः पूर्वम्।। भे दि दे ते तइ तए तुमं तुमइ तुमए तुमे तुमाइ टा ||4|| तुम्मितुवम्मि तुमम्मिच, तुहम्मितुब्भम्मि चात्र वैकल्प्यात् '3/104' भे दि दे ते तइ तए, तुमाइ तुमए तुमं / तुम्हम्मिच तुज्झम्मिच, रूपाण्यन्यानि वोध्यानि। तुमे तुमइ सार्ध तु, टया रुद्रमितं [११]पदम्। सुपि।।१०३| मे तुम्मेहिं उज्झेहिं उम्हेहिं तुम्हेहिं उव्हेहिं मिसा ||15|| सुपि युष्मदस्तु-तुव-तुम-तुह-तुब्भाः पञ्च तु स्युरादेशाः / तुरहेहिं उव्हेहि, तुब्भेहिं उज्झेहिं उम्हेहिं। तुसुच तुवेसुतुमेसुच, तुहेसु तुब्भेसु रूपाणि। भे-'डभो म्ह-ज्झौ' [3/104] सूत्रात्, तुम्हे तुज्झे ततोऽष्टौ स्युः / उभस्य [3/104] विकल्पाद् पद्वयं च तुम्हेसु भवति तुज्झेसु। तइ-तुव-तुम-तुह-तुब्मा ङसौ ||6|| सुप्येत्वस्य विकल्पं, केचित् कथयन्ति, तदपि यथा। तइ-तुव-तुम-तुह-तुब्मा ङसौ युष्मदो भवन्त्यमी नित्यम्। तुब्भसु तुम्हसुतुज्झसु, तुवसुतुमसुतुहसुषट्संख्यम्। तो दो दुहि हिन्तो लुक् ङसेर्यथाप्राप्तमेव स्यात्। ब्भस्याऽऽत्वमपि परः तु-भासुच तुम्हासु तुज्झासु॥ स्यात् तइत्तो तुक्त्तो च, तुमत्तो चतुहत्तों च। ब्मो म्ह-ज्झौवा // 104|| तुडभत्तो, नतु तुम्हत्तो तुज्झत्तो, पूर्ववत् [3/104 ] पुनः। युष्मदादेशरूपेषु, यो द्विरुक्तोब्भ उच्यते। एवं दो-दु-हि-हिन्तो-लुक्ष्वप्युदाह्रियतां पुनः। तस्याऽऽदेशौ तु वा 'म्ह-ज्झौ, ' स्याताम्, सर्वमुदाहृतम्। त्वत्तः इत्यस्य तत्तोऽदौ रूपमस्ति वलोपनात्। अस्मदो म्मि अम्मि अम्हि हं अहं अहयं सिना ||10|| तुय्ह तुम तहिन्तो ङसिना // 7 // अम्मि अम्हि म्मि अहयं, अहं हं च सिना सह। तुय्ह तुम्भ तहिन्तो च, त्रयः स्युर्डसिना सह। अस्मदः षट् तु रूपाणि,सौभवन्तीति बुध्यताम्। अम्ह अम्हे अम्हो मो वयं मेजसा / / 106|| तुम्ह तुज्झ च वैकल्प्याद, रूपपञ्चकमिष्यते। तुम-तुय्होय्होम्हा भ्यसि // 98|| अम्हे अम्हो अम्ह मोभेवयं,षट्स्यु र्जसासह। णे णं मि अम्मि अम्ह मम्ह मं ममं मिमं अहं अमा॥१०७।। तुब्भ, तुरह, उय्ह, उम्ह इत्यमी युष्मदो भ्यसि। अम्मि अम्ह मिमणे णं मि मे मम्ह ममं अहं / भ्यसः स्थाने यथाप्राप्तमादेशाः [3/6] पूर्वदर्शिताः। अमा सह दशाऽऽदेशाः संभवन्त्यस्मदोऽत्र तु। तुम्भत्तो तुम्हत्तो उय्हत्तो उम्हत्तो। अम्हे अम्हो अम्हणे शसा॥१०८|| तुम्हत्तो तुज्झत्तो वैकल्प्यात् षड्पी। अम्हे अम्हो अम्हणे च, चत्वारि स्युः शसा सह। तो आदेशे यथा चेयं षड़पो दर्शितामया। मि मे मम ममए ममाइ मइ मए मयाइ णे टा॥१०६।। एवं दो-दु-हि-हिन्तो-सुन्तोषूदाहियतां त्वया। मि मे ममं णे मयाइ, ममाइ ममएमए। तइ-तु-ते-तुम्ह-तुह-तुहं-तुव-तुम-तुमे-तुमो-तुमाइ मइ, चेति नवादेशाः, सार्धं टा-प्रत्ययेन हि। दिदे-इ-ए-तुब्मोन्मोय्हा ङसा IEEll अम्हेहि अम्हाहि अम्ह अम्हे णे मिसा॥११०|| तइ ते तु तुहं तुम्हं, तुमो तुम तुमे तुह। अम्हाहि अम्ह अम्हे णे, अम्हेहि स्युर्मिसासह। तुमाइ तुवदे ए इ तुब्भोडभोरहादि, वा ङसा। मइ-मम-मह-मज्झा ङसौ // 111 / / विकल्पनात् [3/104] तुम्ह तुज्झ उम्ह उज्झ चतुष्टयम्। ङसौ परे 'मइ-मम-मह-मज्झाः स्युरस्मदः। एवं द्वाविंशती रूपाणीह जल्पन्ति कोविदाः। मेर्यथाप्राप्तमेवाऽऽदेशाः स्युः पूर्वदर्शिताः। तु वो मे तुब्भ तुभं तुब्माण तुवाण तुमाण तुहाण यथा मइत्तो मज्झत्तो, ममत्तो च महत्तो च / उम्हाण आमा // 100|| एवं दो-दुहि-हिन्तो-लुक्ष्वप्युदाहियतांपुनः। तुब्भे, तुवाण, उम्हाण, तुमाण, तु, तुहाण भे। ममाम्हौ म्यसि / / 112|| तुब्भ, तुम्भाण, वो, आमा सह स्युर्युष्मदो दश। भ्यसि स्यातां ममाम्हौ द्वौ,यथाप्राप्त भ्यसोऽपि च / क्त्वा स्यादे-[१/२७] रित्यनुस्वारे, सानुस्वारं णपञ्चकम्। अम्हाहिन्तो ममाहिन्तो,अम्हासुन्तो ममत्तो च। यथा-तुवाणं तुब्भाणं तुमाणं च तुहाण च। ममेसुन्तो ममासुन्तो अम्हेसुन्तो च अम्हत्तो। उम्हाणं चेति वर्धन्ते पञ्च रूपाणि णस्य च। मे मइ मम मह महं मज्झ मज्झं अम्ह अम्हं उसो // 113 / / 'भो म्ह-ज्झौ वेति' [3/104] वचनात्, पुनरष्टौ भवन्ति च। अम्हाऽम्ह मे मइ मम, मज्झ मज्झं महं मह। तुझं तुज्झाण तुम्हाण, तुज्झाणं तुम्ह तुज्झच। डसा सह नवादेशाः, संभवन्त्यस्मदोऽवतु। तुम्हाणं तुम्हमित्येवं, त्रयोविंशतिरामि तु। णे णो मज्झ अम्ह अम्हं अम्हे अम्हो अम्हाण ममाण Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (110) [सिद्धहेम०] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०३] महाण मज्झाण आमा // 114|| यथा गिरीहि मालाहि गुरूहिं च सहीहि च। अम्हे महाण मज्झाण अम्होऽम्हाण ममाण णे। विद्यादेवं चातिदेशमनुस्वारेऽनुनासिके। णो अम्हं अम्ह मज्झ स्युर् आमा सार्धं च पञ्च षट् [11] उसेस् त्तो-दो-दु'-[३/८] सूत्रस्य विधिरेषोऽतिदिश्यते। 'क्त्वा स्यादेरिति' [1/27] वा णस्य सानुस्वारं चतुष्टयम्। मालाहिन्तो च मालाओ बुद्धीओ, हिलुको नहि [3/127/126 / / यथा महाणं मज्झाणं अम्हाणं च ममाण च। 'भ्यसम् त्तो दोद' [3/8 ] सूत्रस्याऽतिदेशो दर्शातेऽधुना। मि मइ ममाइ मए मे डिना // 11 // मालाहिन्तो तथा मालासुन्तो, हिस्तु निषेत्स्यते [3/127] / मए ममाइ मई मे, मि,स्युः पञ्च डिना सह। 'ङसः स्सः [3/10] इति सूत्रस्यातिदेशो दर्श्यतेऽधुना। अम्ह-मम मह-मज्झा ङौ // 116|| गिरिस्सेति गुरुस्सेतिदहिस्सेति महुस्स च।। अम्ह-मज्झौ मम-महौ,डौस्युरेतेऽस्मदः परे। डेः स्थाने तुयथाप्राप्तमादेशः पूर्वदर्शितः / 'टा-डस् डे:-[३/२६] इति सूत्रं तु स्त्रियां सम्यगुदाहृतम्। यथा ममम्मि मज्झम्मि, तथाऽम्हम्मि महम्मिच। 'मे म्मि डेः [3/11] इति सूत्रस्यातिदेशो दर्श्यते ऽधुना। सुपि।।११७|| यथा 'गिरम्मि' इत्यादि, डेविधिस्तु निषेत्स्यते [3/128] चत्वारोऽम्हादयोऽत्रापि, भवन्ति सुपि तद्यथा। 'जस्-शस्-ङसि तो' [3/12] सूत्रस्यातिदेशो दर्श्यतेऽधुना। यथा ममेसुमज्झेसु, अम्हेसुचमहेसुच। गिरी गुरू गिरीओ च,गुरूओ च गुरूण च। सुप्येत्वं केऽपिवेच्छन्ति, तन्मतेऽम्हसु मज्झसु। 'भ्यसि वा' [3/13] इति सूत्रस्यातिदेशो नोपदिश्यते। ममसुस्यात् महसुच, ततो रूपचतुष्टयी। 'इदुतो दीर्घ-'-[३/१६] सूत्रेण नित्यं दीर्घस्य शासनात्। केचिद् अम्हस्यात्वमपि, वाञ्छन्त्यम्हासु तन्मते। टाण-शस्येत् [3/14] च' भिस्- भ्यस् [3/15] त्रेस्ती तृतीयादौ // 118|| इत्यतिदेशो निषेत्स्यते [3/126]| त्रेः स्थाने ती तृतीयादौ, प्रत्यये परतो भवेत्। नदी? णो॥१२६॥ तीहन्तो तीसु तिण्हं च, तीहिं चेति प्रकीर्तितम्। इदन्तोदन्तयोर्जस्-शस्-डस्यादेशे परे णवि [3/22] द्वेर्दो वे // 11 // न दीर्घः पूर्ववर्णस्य, अग्गिणो वाउणो यथा। द्विशब्दस्य तृतीयादौ 'दो' 'वे' स्तः, दोहि वेहि च। उसेर्लुक् // 126 // दोण्हं वेण्हं च दोहिन्तो, वेहिन्तो दोसु वेसु च।। आकारान्तादिशब्देभ्यो, लुकू नैवादन्तवद् ङसेः। दुवे दोणि वेण्णि च जस्-शसा / / 120 / / मालाहिन्तो च अग्गीओ, वाउओ-ऽस्ति निदर्शनम्॥ जस्-शसभ्यां सहितस्यस द्वेः, स्थाने स्युः, दोण्णि, वेण्णि, च। भ्यसश्च हिः / / 127|| दुवे,दो, ये, 'दुण्णि विपिण' संयागे [1/84] ह्रस्वदर्शनात्।। हिर्नाऽऽदन्तादिशब्देभ्योऽदन्तवत् स्याद्भ्यसो डसेः। स्तिपिणः॥१२१|| मालाहिन्तो च मालाओ, अग्गीहिन्तो निदर्शनम्॥ जस्-शस्भ्यां सहितस्य त्रे, स्थाने तिण्णि प्रयुज्यते। उमः॥१२८|| चतुरश्चत्तारो चउरो चत्तारि॥१२॥ 'मे' नाऽऽदन्तादिशब्देभ्योऽदन्तवत् र्भवेदिह। चतुर इत्यस्य जस-शसभ्यां.सहाऽऽदेशास्त्रयो मताः। यथा चत्तारि चत्तारो, चउरो आसि पेच्छवा।। यथा-अग्गिम्मि वाउम्मि, दहिम्मि च महुम्मि च॥ संख्याया आमो ण्ह ण्हं // 123 // एत्॥१२६। संख्याशब्दात् परस्याऽऽमो,'ण्ह ण्ह' एतद् द्वयं भवेत्। टा-शस्-भिस्-भ्यस्-सुप्सु नैत्वम्, आदन्तादेरदन्तवत्। दोण्ह पञ्चण्ह सत्तण्ह, तिण्ह छह चउण्ह च।। कयं हाहाण, मालाओ पेच्छ, मालाहि वा कयं / दोण्ह तिण्हंचउण्हं पञ्चण्हं छहं च सत्तण्हं। मालाहिन्तो तथा मालासुन्तो मालासु अग्गिणो। प्रभावाद् बहुलस्येमौ, विंशत्यादेर्न चाप्नुतः॥ वाउणो चेदृशं लक्ष्य, विविधं प्रतिबुध्यताम्। शेषेऽदन्तवत्॥१२४॥ द्विवचनस्य बहुवचनम्॥१३०|| इहोपयुक्तादन्यो यः, स शेष इति कथ्यते। सर्वासां हि विभक्तीनां, स्यादि-त्यादिप्रवर्तिनाम्। तत्र स्यादिविधिः सर्वोऽदन्तवत् सोऽतिदिश्यते॥ स्थाने द्विवचनस्येह, बहुत्यं संप्रयुज्यते॥ येष्वादन्तादिशब्देषु, पूर्व कार्य नदर्शितम्। चतुर्थ्याः षष्ठी।।१३१|| तेष्वदन्ताधिकारोक्तो, लुगादि [3/4 ] विधिरिष्यते // स्थाने चतुर्थ्याः षष्ठी स्यातु, 'नमो देवस्स' ईदृशम्। तत्र तावत् 'जस्-शसोलुंक' [3/4] विधिरेषोऽतिदिश्यते। तादर्थ्यडेर्वा / / 13 / / 'माला गिरी गुरू रेहन्ति वा पेच्छ' यथोच्यते॥ तादर्थ्यडेस् चतुर्युकवचनस्य विभाषया। 'अमोऽस्य' [3/5] इति कार्यस्यातिदेशो दर्शातेऽधुना। षष्ठी, देवस्स देवाय, 'देवार्थ' तस्य बुध्यताम् / / गिरि गुरुं सहिं पेच्छ, गामणिं खलपुंबहुं॥ वधाद् डाइश्च वा / / 133|| 'टा--ऽसमोर्णः' [3/6] इति कार्यस्यातिदेशो दर्श्यतेऽधुना। वधशब्दात् तु तादर्थ्यः षष्ठी डाइ चाऽस्तुथा। कयं हाहाण, मालाण गिरीण धणमीदृशम् / / वहाइवहस्स वहाय वधार्थं त्रयं मतम्। टायास्तु टो णा [3/24 ] टाडसूड़े:-[३/२६ ] इत्ययं दर्शिने वचिद द्वितीयादेः॥१३४|| 'भिसो हि हिँ हिं' [3/7] इत्येतत् कार्य चाप्यतिदिश्यते।। द्वितीयादिविभक्तीनां स्थाने षष्ठी क्वचिद् भवेत् / Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (111) [सिद्धहेम० अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०३] सीमाधरस्स वन्दे, तिस्सा भरिमो मुहुस्स, अम्हो अ (द्विती० षष्ठी) वाक्यं 'जंजते रोइत्था,'ईदृशं संप्रयुज्यते। लद्धोधणस्स, मुक्का चिरस्स (तृती०षष्ठी) चोरस्स वीहइ सा। स्यात् चः 'इह-हचोर्हस्य' [4/268] सूत्रस्यास्य विशेषकः। इअराइँ जाण लहुअक्खराइँ पायन्तिमिल्लसहिआण / (पञ्च० षष्ठी) तृतीयस्य मो-मु-माः // 14 // 'पिट्ठीऍ केस-भारो' (सप्त० षष्ठी) विचिन्तनीयं बुधैरेवम्। त्यादीनां तु विभक्तीनां यत् तृतीयं त्रिकं भवेत्। द्वितीया-तृतीययोः सप्तमी।।१३।। 'मो-मु-माः स्युस्तदन्त्यस्य, पदयोरुभयोरपि। द्वितीयायास्तृतथियाः स्थाने स्यात् सप्तमी क्वचित्। यथा हसामो हसामु हसाम, तुवराम च। गामे वसामि, नयरे न जामि (द्वि०स०) मई वोविरीऍ मलिआई। तुवरामो तुवरामु, तथाऽन्यत्रापि बुध्यताम्। लोए तिसु तेसु अलंकिआ अपुहवी जहा भाइ। (तृती०सप्त०) अत एवैच से / / 145 / / पञ्चम्यास्तृतीया च / / 136|| त्यादेः स्थाने तु यौ 'एच्, से' इत्येतौ परिकीर्तितौ। स्यातां तृतीया--सप्तम्यौ पञ्चम्याः कुत्रचित् यथा। अदन्तादेव तौ स्याता, नाऽन्यस्मादिति हि स्थितिः / चोराद् विभेति 'चोरेण'वीहइ प्रतिपाद्यते। हसए हससे-उतः किम्? ठाइटासिन चेह तौ। 'अन्तेउरे महाराओ आगओ रमिउं' यथा। अदन्ताद् 'एच से' एवेत्यवधारणवारणः। सप्तम्या द्वितीया // 137|| एवकारस्ततोऽदन्तात् सि-इचायपि सिध्यतः। क्वचिद् द्वितीया सप्तम्याः स्थाने सद्भिः प्रयुज्यते। अतो 'हसइ हससि तथा वेवइ वेवसि। भवेदार्षे तृतीयाऽपि, द्वितीया प्रथभास्थले। सिनाऽस्तेः सिः॥१४६|| 'विजुञ्जोयं रत्तिं भरइ, तृतीया तु-तेण कालेणं / सिना मध्यत्रिकस्थेन, सहाऽस्तेः सिर्भवेदिह। तेणं समरणं वा, चउवीसं जिणवरा पि' यथा। सिनेति किम्? 'अत्थि तुम' से आदेशे कृते सति। क्यङोर्यलुक् // 138 // मि-मौ-मैम्हि म्हो-म्हा वा // 147 / / क्यङन्तस्य क्यङ्पन्तस्य, यस्य वा लुक् भवेदिह। अस्तेः स्थाने यथासंख्यं, 'मि-मो-मैः सहवा त्रयः। गरुआइ च गरुआअइ, अगुरुर्गुरुर्भवति, गुरुरिवाचरति। 'म्हि म्हो-म्ह' इत्यादेशास्तु भवन्ति, तन्निदर्श्यते। दमदमाइ दमदमाअ-इ, लोहिआइ लोहिआअइ च। 'एस म्हि' एषोऽस्मीत्यर्थः, गयम्हो च गयम्ह च / त्यादीनामाद्यत्रयस्याद्यस्येचेचौ / / 136 // मुकाराग्रहणात् तस्याऽप्रयोग इति मन्यताम्। त्यादीनां तु विभक्तीनां, यदस्ति प्रथमं त्रिकम् / पक्षे-अत्थि अहं, अत्थि अम्हे, अम्हो वि अत्थिच। इचेचौ स्तः, तदाद्यस्यपदयोरुभयोरपि। ननु सिद्धावस्थायां, 'म्हो' इति सिद्धं हि पक्ष्मसूत्र (2/74 ] बलात्? यथा-हसइ हसए, तथा वेवइ वेवए। प्रायस्तु साध्यमानाऽवस्था मान्या विभक्तिविधौ। 'इचेचः' [4/318] इति सूत्रस्य चकारावुपकारको। नो चेत् 'सव्वे,जे, के,' इत्याद्यर्थ बहूनि सूत्राणि। द्वितीयस्य सि से // 140|| न विधेयानि स्युरतोऽङ्गीका- साध्यमानाऽत्र / त्यादीनां तु विभक्तीनां यद् द्वितीयं त्रिकं भवेत्। अस्थिस्त्यादिना // 148|| सि, से, चस्तः, तदाद्यस्य पदयोरुभयोरपि। अस्तेः स्थाने भवेद् अस्थि-रादेशस्त्यादिभिः सह! यथा-हससि हससे, तथा वेवसि वेवसे। अस्थिसो, अत्थिते, अत्थि तुम, अत्थि अहं तथा। तृतीयस्य मिः॥१४१|| अस्थितुम्हे, अस्थि अम्हे, रूपषट्कमुदाहृतम्। त्यादीनां तु विभक्तीनां यत् तृतीयं त्रिकं भवेत्। रदेदावावे॥१४६।। मिरादेशस्तदाद्यस्य पदयोरुभयोरपि। णेः 'अत् एत् आव आवे' सन्त्वमी च यथाक्रमम्। यथा-हसामि वेवामि, भवेद् बाहुलकादिह। दरिसइ कारेइ करा-वइच करावेइ, वा हसावेइ। मिवेर्मेरिकारलोपो, न मरं न मिये तथा। हासेइ हसावइवा, नैत्त्वं क्वापीह बाहुलकात्। 'बहुजोणय रूसिउं' 'सक्वं' शक्नोमि गद्यते। जाणावेइ, न आवे इत्यादेशः प्रवर्तते क्वापि। बहुप्वाद्यस्यच न्तिन्ते इरे॥१५२।। तेन भवेदिह रूपं सिद्धं 'पाएइ' भावेइ। त्यादीनां तु विभक्तीनां, यदस्ति प्रथमं त्रिकम् / गुर्वादरविर्वा // 150|| तदन्त्यस्य त्रयो 'न्तिन्ते इरे'स्युः पदयोर्द्वयोः। गुदेणैर् अविर्वा स्यात्, शोषितम्-सोसिअंतथा। हसिञ्जन्ति रमिञ्जन्ति वेवन्ति च हसन्ति च। सोसविअंतोषितम्-तोसविअंतोसिअंयथा / उप्पज्जन्ते विच्छुहिरे बीहन्ते च पहुप्पिरे। भमेरामो वा // 151 / / एकत्वेऽपि क्वचिदिरे स्याच सूसइरे इति। [शुष्यतीत्यर्थः।] भ्रमेः परस्य णेराड आदेशो वा विधीयते। मध्यमस्येत्था-हचौ // 143|| भमाडइभमाडेइ, पक्षे रूपं निशम्यताम्। त्यादीनां तु विभक्तीनां, यदस्ति मध्यमं त्रिकम् / भमावइ भमावेइ, भामेइ त्रयमिष्यते। 'इत्था-हचौ तदन्त्यस्य, भवेतां पदयोर्द्वयोः। लुगावी क्त-माव-कर्मसु // 15 // यथा-हसित्था हसह, बेवित्था अपिवेवह। णेलुंग आवि भवेतांक्ते, प्रत्यये भावकर्मणोः। 'इत्था' ऽन्यत्रापि बहुलम्-'यद्यत्ते रोचते' इदम्। केराविअंकारिअंहासिअंचैव हसावि। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (112) [सिद्धहेम०] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०३) [भावकर्म०] कारीअइ च करावी-अइ कारिज्जइ तथा कराविजइ। सी ही हीअ भूतार्थस्य // 162|| हासीअइच हसावी-अइ हासिज्जइ हसाविञ्जइ। प्रत्यो योऽद्यतन्यादिभूतेऽर्थे विहितो भवेत्। अदेल्लुक्यादेरत आः ||153|| तस्य भूतार्थसंज्ञस्य 'सी ही हीअ' भवन्त्यमी। अद्-एन-लोपेषु जातेषु, णेरादेरस्य 'आ' भवेत्। व्यञ्जनादीअ [3/163] करणात् स्वरान्तादयमिष्यते। एति-कारेइ खामेइ, अति-पामइ मारइ। 'कासी काहीच काहीअ' अकार्षीद् अकरोत् तथा। लुकि-कारिअं खामिअंकारीअइ भवति वा च कारिजइ। चकारेत्यर्थकाः,आर्षे-देविन्दो इणभव्बवी। खामीअइ खामिज्जइ, किमदेल्लुकि-इति? कराविज्जइ / / इत्यत्र सिद्धावस्थातः, प्रयुक्ता ह्यस्तनी क्रिया। कराविअंच करावी-अइ, आदेः किम्? यथा संगामेइ। व्यञ्जनादीअः॥१६३|| व्यवहितान्त्ययोर्न स्यात्-कारि, किम्? अतश्च-दूसेइ / / व्यञ्जनान्ताद् भवेद्धातोर्भूतार्थस्य तु 'ईअ' हि। आवे आव्यादेशेऽप्यादेरत आत्वमाह कोऽपिबुधः। बभूवाभूदभवदित्यर्थे वाच्यं 'हुवीअं'तु। कारावेइच, 'हासाविओ जणो सामलीएच'। एवं 'अच्छीअ'आसिष्ट आसाञ्चक्रे तथाऽऽस्त वा। मौवा // 154 // अत आत्वं वाऽदन्ताद्धातोर्भवतीह मौ परे हियथा। अगृह्णाद् अग्रहीत् जग्राह वा 'गेण्हीअ' कथ्यते। हसमि हसामि, च जाणमि, जाणामि लिहामि, लिहमि यथा। तेनास्तेरास्यहेसी॥१६४|| इच मो-मु-मे वा // 15 // भूतार्थः प्रत्ययो योऽत्र कथितःसह तेन हि। अत इत्त्वं चाऽऽत्वं वाऽदन्ताद्धातोः परेषु मु-मे-मोषु। अस्तेर्धातोः पदे स्याताम् 'आस्यहेसी' इमौ यथा। भणिमु भणामु, भणामो, भणिमो, च भणाम भणिम यथा। 'तुम अहं वा सो आसि' ये आसन्निति आसिये पक्षे तु स्यात् भणमो, भणमु भणम, 'वर्तमान'[३/१५८] सूत्रेण एवम् 'अहेसि' इत्यस्य, सर्व याक्यं विभाव्यताम्॥ एत्वे कृते, भणेमो भणेमु सिद्धं भणेम तथा। जात् सप्तम्या इर्वा // 165 / / के // 156|| सप्तम्यादेशभूताद् हि, जात् परो वा इरिष्यते। अत इत्त्वं ते परे स्याद्, हसिअंहासिअं यथा। 'होज्ज होज्जइ' इत्येतत्-'भवेत्' इत्यर्थबोधकम्। सिद्धावस्थापेक्षणात् तु गयमित्यादि सिध्यति॥ मविष्यति हिरादिः // 166|| एच क्त्वा--तुम्-तव्य-भविष्यत्सु / / 157 / / भविष्यदर्थे विहिते प्रत्यये पर इष्यते। क्रवा-तुम्-तव्येषु परतो, भविष्यत्प्रत्यये तथा। तस्यैवादिर्हिरादेशो, यथा 'होहिंइ' इत्ययम्। एत्वम् इत्वम् अतः स्यातां, तत्क्रमेणेहदृश्यताम्। वा भविष्यति भविता, एवं होहिन्ति होहिसि। (क्त्वा) हसिऊण हसेऊण (तुम) हसेउं हसिउं तथा। होहित्था वा हसिहिइ, तथा काहिइ बुध्यताम्। (तव्य) हसिअव्वं हसेअव्वं (भविष्यत्) हसिहिइ हसेहिइ। मि-मो-मु-मे स्सा हा नवा // 167|| वर्तमाना-पञ्चमी-शतृषु वा / / 158|| अर्थे भविष्यति परेषु मु-मो-मि-मेषु पञ्चम्यां वर्तमानायां शतरि प्रत्यये तथा। 'स्सा हा' इमौ हि विदधीत तदादिभूतौ। परतोऽतो विकल्पेन स्थाने स्यादेत्त्वमत्रतु। वाऽयं विधिर्हिमऽपवाद्य भवत्यतो हिः हसइ हसेइ, हसिम हसेम, हसिमु हसेमु इह च भवन्ति। वर्तमाना।] पक्षे भवेदिति बुधैः परिभावनीयम्॥ 'हसउ हसेउ,सुणउ सुणेउ, इति विवुधा हि परिणिगदन्ति। होस्सामो होहामो, तथैव होस्सामि भवति होहामि / [पञ्चमी] वा हसन्तो हसेन्तो च, चिन्नो-जयईत्यतः। [शत।] होस्सामुच होद्दामुच, भवति च होस्साम होहामा आत्वं च दृश्यते-क्वापि-'सुणाउ' इतिरूपतः। पक्षे होहिमि होहिम, होहिमु होहिमो च भवति रूपमिति। जा-जे // 15 // 'हा' न छापि भवेदिह, यथा-हसिहिमो हसिस्सामो। जा-जयोः परयोरस्य भवेदेत्त्वं ततो भवेत्। मो-मु-मानां हिस्सा हित्था // 168|| हसेज च हसेज्जा च, 'होज्जा होज्ज' अतं विना। भविष्यति प्रवृत्तानां,मो-मु-मानां पुनर्मतौ। ईअ-इज्जौ क्यस्य // 16 // 'हिस्सा' हित्था, इमौ धातोः परौ वेत्युपदिश्यते। विज्यादीनां भावकर्मविधिरग्रे प्रवक्ष्यते। हसिहिस्सा हसिहित्था, होहिस्सा पठ्यते च होहित्था। येषां न वक्ष्यते तेषां क्यस्य ईअच इज च। पक्षे होस्सामो होहामो होहिमो च रूपाणि // एतौ भवेतामादेशौ, हासीअइ हसिज्जइ। मेःस्सं // 16 // हसीअन्तो हसिज्जन्तो, पढिज्जइ पढीअइ। धातोः परो भविष्यति काले, मेः स्सं विकल्पतो भवति / हसीअमाणो च हसिज्जमाणो, क्योऽपि वा क्वचित् / होस्सं हसिस्सँ, पक्षे होहिमि होस्सामि होहामि। मए नवेज तुमए नविजेज भवेदिह। कृ-दो हं // 170 // दृशि-वचेर्मीस-डुचं // 161 / / करोतेश्च ददातेश्व, परःकाले भविष्यति। दृशेर्यचेः परो यः क्यस्तस्य स्तो 'डीस मुच्च' च। विहितस्य हि 'मेः' स्थाने 'हम' आदेशो विकल्प्यते। ईअ-इजापवादोऽयम्, यथा 'दीसइ' धुचइ। काहं दाहं करिष्यामि दास्यामीत्यर्थबोधको / Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सिद्धहेम.] (113) अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०३] पक्षे रूपद्वयं वेद्यं, यथा-काहिमि दाहिमि। श्रु-गमि-रुदि-विदि-दृशि-मुचि-वचि–छिदि-मिदि-मुजा सोच्छं गच्छं रोच्छं देच्छंदच्छं मोच्छं वोच्छं भेच्छं मोच्छं // 171 // खादीनां दशधातूनां, म्यन्तानां हि भविष्यति। सोच्छमित्यादयस्तेषां निपात्यन्ते पदे, यथा। सोच्छं श्रोष्यामि तथा, दच्छं द्रक्ष्यामि, मोच् मोक्ष्यामि। वोच्छं वक्ष्यामि पुनः, छेच्छ छेत्स्यामि जानीहि। भेच्छं भेत्स्यामि तथा, भोच्छं भोक्ष्ये च धीवरैरुक्तम्। संगच्छं संगस्ये, रोदिष्यामीति रोच्छमिति भवति। वेदिष्यामि च वेच्छं, तथैव गच्छं गमिष्यामि। सोच्छादय इजादिषु हिलुक् च वा / / 17 / / खादीनां धातूनां स्थाने सोच्छादयो यथासंख्यम्। भविष्यतीजादिष्वा-देशेषु स्युर, हिलुक्याच! सांच्छिइ वातु सोच्छिहिइ, एव सोच्छिन्ति सोच्छिहिन्ति तथा। सोच्छिसि सोच्छिहि सिस्यात्, सोच्छित्था सोच्छिहित्था च / / सोच्छिह सोच्छिहिह स्यात्, सोच्छिमि सोच्छिहिमि भवति रूपम्। सोच्छिस्सामि सोच्छिहामि सोच्छिस्सं सोच्छिमो सोच्छं। सोच्छिहिमो सोच्छिस्सामो सोच्छिहामो सोच्छिहिस्सा च। रूपंच सोच्छिहित्था, एवं मु-मयोरपि ज्ञेयम्। गच्छिइ वा तु गच्छिहिइ, एवं गच्छिन्ति गच्छिहिन्ति तथा। गच्छिसि गच्छिहिसि स्यात्, गच्छित्था गच्छिहित्था च // गच्छिह गच्छिहिह स्यात्, गच्छिमि गच्छिहिमि भवति रूपम्। गच्छिस्सामि गच्छिहामि गच्छिस्संगच्छिमो गच्छं। गच्छिहिमो गच्छिस्सामो गच्छिहामो गच्छिहिस्सा च। रूपंचगच्छिहित्था एवं मु-मयोरपि ज्ञेयम्॥ रुदादीनां च धातूनामप्युदाहार्यमीदृशम् / दुसु मु विध्यादिष्वेकस्मिस्त्रयाणाम् // 173|| विध्यादिषूपपन्नानाम्,एकत्वेऽर्थे प्रवर्तिनाम्। त्रयाणां हि त्रिकाणां तु, स्थाने स्युः 'दु सु मु' क्रमात्॥ हसउसा, हससुतुं, हसामु अहमित्यपि। एवं भवतिपेच्छामु तथा पेच्छउपेच्छसु॥ दकारोचारणं भाषान्तरार्थं प्रतिपद्यताम्। सोर्हिर्वा // 174|| कृतस्य पूर्वसूत्रेण सोः स्थाने हिर्विकल्प्यते। 'देहि देसु' ततो रूपद्वयं सिद्धिं समश्नुते। अत इञ्जस्विजहीजे-लुको वा / / 17 / / अतः परस्य सोः स्थाने 'इज्जे इजसु इज्जहि इत्येते लुक् च चत्वार आदेशाः परिकीर्तिताः। हसेज्जसु हसेजे च हसेजहिचवा हस। पक्षे-हससु, किमतः? यथा स्याद् होसु ठाहिच। बहुषु न्तु हमो // 176|| विध्यादिषूपपन्नानां बहुत्वेऽर्थे प्रवर्तिनाम्। त्रयाणां हि त्रिकाणां तु, स्थाने स्यूर् 'न्तु ह मो' क्रमात्। यथा-[न्तु] हसन्तु हसन्तु हसेर्युवा, [ह] हसह हसेत वा हसत। भवति- [मो] हसामो च हसाम या हसेम स्युरिति बोद्ध्यम्। वर्तमाना-भविष्यन्त्योश्च ज्ज ज्जा वा // 177|| वर्तमानाभविष्यन्त्योर्विध्यादिषु च यः कृतः। प्रत्ययस्तस्य तु स्थाने, 'अजा'--ऽऽदेशो विकल्पितौ। [वर्तमाना] हसेज च हसेज्जा च, पक्षे 'हसइ' सिद्धयति। पढेज च पढेजाच, पक्षे–'पढई' इत्यपि। भविष्यन्ती] पढेज चपढेज च, पक्षे पढिहिइ स्मृतम्। {विध्यादिषु] हसेउपक्षे, हसतु हसिज्जा च हसेन च। एवं सर्वत्र बोद्धव्वं, तृतीये तु त्रिके यथा। अइवाएजा अइवायावेजा चेहपठ्यते। स्याद् न समणुजाणामि, समणुजाणेज्जा न वा। अन्ये तु सूरयोऽन्वासामपिवाञ्च्छन्ति, तद्यथा! लकारदशके 'होज' भवतीत्यादिवाचकम् / मध्ये च स्वरान्ताद्वा // 178|| धातोः स्वरान्तात् प्रकृति-प्रत्ययान्तरगौ तथा। चात् प्रत्ययानां च स्थाने, 'ज्जा'-ऽऽदेशौ विकल्पितौ। वर्तमाना-भविष्यन्त्योर्विध्यादिषुचदर्श्यते। [वर्तमाना] होज्जा होज्जइ होजाइ होज्ज, होइ तु पाक्षिकम्। होजा होजसि होज्जासि होज, होसि तु पाक्षिकम्। [भविष्यन्ती] होज्जाहिइ होजहिइ, होजा होज्ज च पठ्यते। पक्षे 'होहिइ' इत्येतद्रूपं सिद्धि प्रयाति च / होजाहिसि होजहिसिं, होज्ज होज्जा च होहिसि। होजाहिमि होज्जहिमि, होजस्सामि ततः परम् / होज्जहामि च होजस्सं, होज्ज होज्जा--ऽदि बुध्यताम् / / [विध्यादिषु ] होज्ज होजउ होज्जाउ होजा, भवतु वा भवेत्। पक्षे होउ, स्वरान्तात् किम्?-हसेज्जा च हसेजच।। क्रियाऽतिपत्तेः // 17 // क्रियाऽतिपत्तेः स्थाने तु, 'जा'-ऽऽदेशौ प्रकीर्तितौ। अतो-'ऽभविष्यद्' इत्यर्थे 'होज्ज होज्जा' प्रयुज्यते॥ न्त-माणौ // 10 // क्रियाऽतिपत्तेः स्थाने तु, 'न्त-माणौ' इति भाषितौ / अतो 'होन्तो' च 'होमोणो'-ऽभविष्यद् इति बोधकौ / / "हरिण-ठाणे हरिणंक ! जइ सि हरिणाहिवं निवेसन्तो। नसहन्तो चिय तो राहुपरिहवं से जिअन्तस्स''[हरिणस्थाने हरिणाङ्क ! यदि त्वं हरिणाधिपं न्यवेक्ष्यः / नासहिष्यथा एव ततो राहुपरिभवं तस्य जीवतः।।। शत्रानशः।।१८१॥ 'शत-आनश्' इत्यनयोर् 'न्त-माणौ स्तः पृथक् पृथक्। [शत] हसन्तो हसमाणोच, [आन] वेवन्तोवेवमाणों च।। ईच स्त्रियाम्॥१८॥ स्त्रियां शत्रानशोः स्थाने, 'ई,न्त-माणौ' भवन्ति च। हसन्ती हसमाणीच, हसईच शतुस्त्रयम्। वेवन्ती वेवमाणीच वेवई त्रयमानशः॥ या भाषा भगवदचोमिरगमत् ख्याति प्रतिष्ठां परां, यस्यां सन्त्यघुनाऽप्यमूनि निखिलान्येकादशाङ्गानि च। तस्याः संप्रति दुःषमारवशतो जातोऽप्रचारः पुनः वाराय मया कृते विवरणे पादस्तृतीयो गतः // इति श्रीमत्सौधर्मबृहत्तपागच्छीय कलिकालसर्वज्ञश्रीमद् भट्टारक-श्रीविजयराजेन्द्रसूरिविरचि तायां प्राकृतव्याकृतौ तृतीयः पादः। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (114) [सिद्धहेम०] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०४] || अहम्॥ उद्धातेरोरुम्मा वसुआ||११|| || अथ चतुर्थः पादः॥ 'ओरुम्मा वसुआ च स्यातामुत्पूर्व-वातिधातोर्वा / इदितो वा // 1 // 'ओरुम्माइ' च 'वसुआई' च पक्षे भवति उव्वाइ' / / इदितो धातवः सूत्रे ये वक्ष्यन्तेऽत्रभृरिशः। निद्रातेरोहीरोचौ // 12 // तेषां विकल्पेनाऽऽदेशा भवन्तीत्यवगम्यताम् // 'ओहीर उ[ओ ] च'इत्येतो, वा नि-द्रातेः पदे मतौ। कथेर्वज्जर-पज्जरोप्पाल-पिसुण-सङ्घ-बोल्ल-चव-जम्प- यथा-'उ[ओ] इइ निद्दाइ ओहीरइभवेत् त्रयम् / सीस-साहाः॥शा ओघेराइग्घः॥१३॥ 'सज-बोल्ल-चवाः जम्प-पज्जरोप्पाल-यज्जराः। वाऽऽजिघ्रतेः स्याद् आइग्घः,आइग्घइ अग्घाइच। साहो सीसो च पिसुण' आदेशा वा कथेदेशे॥ स्नातेरब्मुत्तः // 14 // पिसुणइ सवइ बोल्लइ, उप्पालइ वज्जरइ च पज्जरइ। स्नातेर् अब्भुत्त' इति वा स्याद् अन्भुत्तइ हाइ च। साहइ जम्पइ सीसइ, चवइ कथयतीति संवेद्यम्। समः स्त्यः खाः॥१॥ 'बुक्क भषण' इति धातोरुत्पूर्वस्यैव तस्य उब्बुक्कइ। संपूर्वस्य स्त्यायतेः 'खाः' स्यात् 'संखाइ' यथा भवेत्। पक्षे 'कहइ' इतीदं रूपं वेद्यं हि कथधातोः // स्थष्ठा-थक्क-चिट्ठ-निरप्पाः॥१६|| अन्यैरेते तु देशीषुपठिता अपि सूरिभिः। 'थक्को चिट्ठो निरप्पः,ठ' स्था-धातोः स्युरिमे यथा। 'विविधेषु प्रत्ययेषु प्रयुक्ताः' इत्यतो मया / / ठइ थक्कइ चिट्ठइ चिट्ठिऊण निरप्पइ। धात्वादेशीकृता होते, तत्सर्वं श्रूयतामिह। वनरिओ कथितो, बजरिअव्वं कथयितव्यमिति भवति / / पहिओ उडिओ पट्ठाविओ उहाविओ तथा। वारणं कथनं, बजरिऊणं चापि कथयित्वा। वचिन्न बहुलात्-थाणं थिअं थाऊण उत्थिओ। कथयन् हि वजरन्तो, सहस्रशः सन्ति चास्य रूपाणि / / उदष्ठ-कुकुरौ // 17 // संस्कृतधातुवदत्र प्रत्ययलोपागमादिविधिः। उदः परस्य स्था-धातोः, स्यातामत्र ठ-कुक्कुरौ। दुःखे णिव्वरः॥३॥ 'उहई' स्यात् तथा 'उक्कुक्कुरइ' द्वयमत्र तु। दुःखविषयस्य कथेः, "णिव्वरो' वा विधीयते। म्लेर्वा-पव्वायौ // 18 // दुःखं कथयतीत्यर्थे , क्रिया 'णिव्वरइ'स्मृता। 'पव्वाय वा' इत्यादेशौ, म्लायतेर्वाऽत्र संमतौ। जुगुप्सेझुण-दुगुच्छ-दुगुञ्छाः ||4|| 'वाइ पव्वायइ तथा, पक्षे रूपं 'मिलाइ' च। 'झुण-दुगुच्छ दुगुञ्छाः' जुगुप्सेर्वा त्रयो मताः। निर्मो निम्माण-निम्मवौ ||16|| झुणइ दुगुच्छइ च दुगुञ्छइ,पक्षे भवति वै जुगुच्छइच। 'निम्माण-निम्मवौ' स्याता, निर्मिमीतेरिमौ यथा। लोपे गस्यदुउच्छइ तथा दुउच्छइ जुउच्छइच। 'निम्माणइ निम्मवइ यथैते सिद्धिमाप्नुतः। बुश्रुक्षि-वीज्योरिव वोजौ // 5 // क्षेणिज्झरो वा // 20 // योज-णीरवौ स्याता, शिवन्त-वीजेस् तथा बुभृक्षेर्वा / क्षयतेर् णिज्झरो वा णिज्झरइ, पक्षे झिज्जइ। वोज्जइ वीजइ तस्माद, भवति बुभुक्खइ च णीरवइ। छदेणेणुम-नूम-सन्नुम-ढक्कौम्बाल-पव्वालाः // 21 // ध्या-गोझा-गौ // 6 // 'स्युर् ढकौम्बाल-पव्याला णुमो नूमश्च सन्नुमः। 'ध्या गा' अनयोर् 'झा गा' इत्यादेशौ हि, झाइ झाअइ च। छदेर्ण्यन्तस्यवाऽऽ-देशाः षडेते, तन्निशम्यताम्। णिज्झाअइ णिज्झाइ च, झाणं गाणं, च गाइ गायइ च / णुमइ च नूमइ, णत्वे णूमइ ढक्कइच सन्नुमइ भवति। ज्ञो जाण-मुणौ / / 7 / / ओम्बालइ पव्वालइ, तथा च छायइ निगद्यन्ते। जानातेः स्तो 'जाण-मुणौ' स्यातां 'मुणइ जाणइ'। निविपत्योर्णिहोडः // 22 // क्वचिद् विकल्पो बहुलात्, यथा-णायं च जाणिअं। निवृगःपतेश्च धातोः, ण्यन्तस्य तुवा 'णिहोड' इति भवतु। वा जाणिऊण णाऊण, रूपं 'मणइ' मन्यते / यथा 'णिहोडइ' पक्षे तथा निवारेइ, पाडेइ। उदो घ्मो धुमा // 8 // दूङो दूमः // 23 // उदः परस्य ध्मा-धातोर् 'धुमा' स्याद्,'उद्धुमाइ' हि। दूङो ण्यन्तस्य दूमः स्यात्, हिअयं मज्झदूमेइ। श्रदो धो दहः / / धवलेर्दुमः // 24 // श्रत्परस्य दधातेर्दह इति वै 'सदहइ'। धवलयतेय॑न्तस्य दुमादेशो वा, दुमइ च धवलइ च। पिबेः पिज्ज–डल्ल-पट्टः-घोट्टाः॥१०॥ स्वर-[४/२३८] सूत्रेण तु दीर्धे दूमिअमिति धवलितं भवति। वा 'पिज्ज-डल्ल-पट्ट-घोट्टाः, एते स्युरत्र वा पिवतेः। __ तुलेरोहामः // 25 // पिजइ डल्लर पट्टइ, घोट्टइ, पक्षे 'पिअइ' रूपम्। तुलेय॑न्तस्य 'ओहामो घा, तुलइ ओहामइ। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (115) सिद्धहेम०] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०४] विरिचेरोलुण्मोल्लुण्ड-पल्हत्थाः // 26 // यापेर्जवः॥४०॥ विरेचतेय॑न्तस्य तु वा, स्युरोलुण्डोल्लुण्ड-पल्हत्थाः। जवो यापयतेर्वा जवइ, जावेइ वेष्यते। ओलुण्डइ उल्लुण्डइ पल्हत्थइ वा विरेअइच। प्लावेरोम्बाल-पव्वालौ॥४१॥ तमेराहोड-विहोमौ // 27 // स्याताम् 'ओम्बाल-पाव्वलौ' स्थाने प्लावयतेस्तु था। तडेय॑न्तस्य वाऽऽहोड-विहोमौ भवतः क्रमात् / ओम्बालइ पव्वालइ,पक्षेपावेइ' सिद्ध्यति। आहोमइ विहोडइ, पक्षे 'तामेइ' सिध्यति। विकोशेः पक्खोडः / / 42|| मिश्रेर्वीसाल-मेलवौ // 28 // वा विकोशयते मधातोः 'पक्खोड' इष्यते। मिश्रयतेय॑न्तस्य तु, वा स्तो वीसाल-मेलवौ। 'पक्खोडइ ततः सिद्धं, पक्षे रूपं 'विकोसई'। वीसालइ मेलवइ, पक्षे 'मिस्सईजायते। रोमन्थेरोग्गाल-वग्गोलौ // 43 // उर्दूलेर्गुण्ठः // 26 // स्याताम् 'ओग्गाल-वग्गोलौ' रोमन्थेस्तु विभाषया। ण्यन्तस्योद्धूलि-धातोःस्याद, गुण्ठऽऽदेशो विभाषया। ओग्गालइ वग्गोलइ, रोमन्थइ तु पाक्षिकम् / ततो गुण्ठइ पक्षे स्याद्, 'उद्भूलेइ' क्रियापदम्। कमेर्णिहुवः॥४४|| भ्रमेस्तालिअण्ट-तमाडौ // 30 // स्यात् कमेः स्वार्थण्यन्तस्य, णिहुवोऽत्र विकल्पनात्। तालिअण्ट-तमामौ द्वौ, भ्रमेय॑न्तस्य वा मतौ। प्रयुज्यते णिहुवइ, तथा कामेइ पाक्षिकम्। स्यात् तालिअण्टइ तमाडइ चेति द्वयं, तथा। प्रकाशेणुव्वः॥४५|| ममाडेइ-भमावेइ,भामेइ त्रयमीरितम्। णुव्वः प्रकाशेर्ण्यन्तस्य, वा पयासेइ णुव्यइ। नशेर्विउड-नासव-हारव-विप्पगाल-पलावाः॥३१।। कम्पेर्विच्छोलः।।४६|| पलायो विउडो विप्पगालो नासव-हारवौ। कम्पेय॑न्तस्य विच्छोलो वा, विच्छोलइ कम्पॅइ। एते पञ्च विकल्पेन स्युर्ण्यन्तस्य नशेरिह। आरोपेर्वलः॥४७॥ विप्पगालइ च पला-वइ हारवइ स्मृतम्। ण्यन्तस्य वाऽऽरुहेः स्थाने वलाऽऽदेशोऽभिधीयते। विउडइ नासवइ, पक्षे 'नासई' सिध्यति। रूपं 'वलइ' संसिद्धम्, आरोवेइ च पाक्षिकम्। दृशेव-दस-दक्खवाः॥३२॥ दोले रङ्कोलः॥४८|| दावो दंसोदक्खवश्व,दृशेर्ण्यन्तस्य वा त्रयः। स्वार्थे ण्यन्तस्य तु दुलेः, रजोलो वा विधीयते। दावइ दंसइ दक्खवइदरिसइ स्मृतम् / सिद्धं रूपं ततो रङोलइ 'दोलइ' पाक्षिकम् / उद्घटेरुम्गः // 33 // रजेः रावः // 46 // ण्यन्तस्य वोद्घटेर् उग्गः, उग्घाडइचउग्गइ। रञ्जर्ण्यन्तस्य वा रावो, यथा-रावेइ रजेइ। स्पृहः सिहः॥३४॥ घटे: परिवाडः॥५०॥ स्पृहो ण्यन्तस्य 'सिह' इत्यादेशः, सिहइ स्मृतम्। परिवामो विकल्पेन घटेर्ण्यन्तस्य जायते। संभावेरासङ्घः॥३५॥ संसिद्धं परिवाडेइ, पक्षे रूपं घडेइच! संभावयतेर्धातोरासको वा विधीयते। वेष्टेः परिआलः ||1|| भवेद् आसङ्घइ तथा, संभावइच पाक्षिकम्। वेष्टर्यन्तस्य तु स्थाने 'परिआलो' विकल्पनात्। उन्नमेरुत्यकोल्लाल-गुलुगुच्छोप्पेलाः // 36 / / 'परिआलेइ वेढेइ, द्वयं संसिद्धिमृच्छति। उत्थबोल्लाल-गुलुगुञ्छोप्पेला वा स्युर् उन्नमः। क्रियः किणो वेस्तु के च // 52 // उत्थडइ उल्लालइ, उप्पेलइ तथा पुनः। रित्यत्र निवृत्तं च, क्रीणातेः किण इष्यते। गुलुगुञ्छइ, पक्षे तु पदम् उन्नावइस्मृतम्। वेः परस्य द्विरुक्तः के चात् किणश्चेति बुध्यताम्। प्रस्थापेः पट्ठव-पेण्डवौ // 37 // रूपं किणइ विक्केइ, तथा विक्किणइ स्मृतम्। प्रस्थापयतेरादेशौ वापट्टव-पेण्डवौ। मियो मा-बीहौ // 53 / / पट्ठवइ पेण्डवइ, पक्षे पट्टावइ स्मृतम्। भा-बीहौ च बिभेतेः स्तः, भाइ बीहइ भाइअं। विज्ञपेर्वो कावुक्कौ // 38 // बीहिअंबहुलाद् 'भीओ,' इति रूपं च सिध्यति। वुक्काबुक्की विजानातेः, स्थाने स्यातां विभाषया। आलीङोऽल्ली॥५|| स्याद् अवुक्कइ वोक्कइ, पक्षे विण्णवइ स्मृतम्। आलीयतेर् भवेद् अल्ली, अल्लीणो च अल्लिअइ। अरल्लिव-चचुप्प-पणामाः॥३६॥ निलीडेर्णिलीअ-णिलुक्क-णिरिग्घ-लुक्क-लिक्क-ल्हिक्काः त्रयो वाऽर्पयतेःस्थाने, पणामश्चचुपोऽल्लिवः। // 55 // अल्लिवइ चचुप्पइ पणामइ, अप्पेइ वा। 'लुक्क-णिलीअ-णिलुक्का, लिक्को ल्हिक्को णिरिग्घ' इत्येते। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (116) [सिद्धहेम०] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०४ आदेशास्तु निलीडो धातोः षड् वा प्रवर्तन्ते। शैथिल्यलम्बने पयल्लः // 7 // लुक्का लिक्का ल्हिक्कइ भवति णिलीअइ तथा णिलुक्कइ च / शैथिल्ये लम्बनेऽर्थे च, 'पयल्लो' या कृगो यथा। तथा णिरिग्घइ रूपं, पक्षे वेद्यं निलिज्जइ तु। लम्बते वा च शिथिलीभवति स्यात् 'पयल्लइ। विलीडे विरा॥५६|| निष्पाताच्छोटे णीलुच्छः॥७१।। विरा विलीडेरादेशो वा, विराइ विलिज्जाइ। आच्छोटेऽर्थे च निष्पाते, ‘णीलुञ्छो' वा कृगो भवेत्। रुते रुञ्ज-रुण्टौ।।५७।। 'णीलुञ्छई' निष्पतति, वाऽऽच्छोटयति कथ्यते। रौतेः स्थाने विकल्पेन रुञ्ज-रुण्टौ प्रकीर्तितौ। क्षुरे कम्मः // 7 // रुञ्जइरुण्टइ ततः, पक्षे रवइ सिध्यति। क्षुरार्थस्य कृगः 'कम्म,' इत्यादेशो विभाषया। श्रुटेर्हणः॥५८|| 'क्षुरं करोति' इत्यर्थे, पदं 'कम्मइ' भण्यते। शृणोतेर्वा हणो, हण-इ सुणइ सिद्धिमितः। __ चाटौ गुललः॥७३॥ धूगेधुवः // 56 // चाटुविषयस्व कृगो, 'गुललो' वा विधीयते। धुनातेर्वा धुवो धुवइ स्याद् धुणइ पाक्षिकम् / प्रयुज्यते 'गुललइ,' चाटुकारं करोत्यतः। भुवेहो-हुव-हवाः // 60|| स्मरेझर-झूर-भर-मल-लढ-विम्हर-सुमर'हो हुव हव' इत्येते भुवः स्थाने विकल्पिताः। पयर-पम्हहाः॥७४|| 'होइ हुवाइ हवइस्युर, 'होन्ति हुवन्ति च हवन्ति' बहुवचने। पम्हुहो विम्हरो झूरः पयरः, सुमरो भरः। पक्षे भवइ भवन्ति च, भविउंपभवइ च परिभवइ। भलो लढो झरो वैते, नवादेशाः स्मरेर्मताः। क्वचिदन्यदपि यथा-भत्तं, उन्भुअइस्मृतम्। झूरइ झरइ विम्हरइ, सुमरइ पयरइचपम्हुहइ सरइ। अविति हुः॥६१॥ भरइ भलइ ढलइ ततः, स्मरेवन्तीह रूपाणि। विदर्जे प्रत्यये 'हु' स्याद्, भुवः स्थाने विभाषया। विस्मुः पम्हुस-विम्हर-वीसराः॥७५|| यथा हुन्ति, भवन् हुन्तो, किम्? अवितीति 'होइ' च। 'पम्हुस विम्हर वीसर' इत्यादेशा भवन्ति विस्मरतेः। पृथक् स्पष्टे णिव्वमः // 6 // 'पम्हुसइ विम्हरइ वीसरइ' च सिद्ध्यन्ति रूपाणि। पृथग्भूते तथा स्पष्ट, कर्तरि 'णिव्वडो' भुयः। पृथक् स्पष्टो वा भवतीत्यर्थे 'णिव्वमइ' स्मृतम्। व्याहृगे: कोक-पोक्कौ // 76| प्रमौ हुप्पो वा // 3 // व्याहरतेर्वा स्याता-मादेशौ द्वौ हि 'कोक्क-पोको' च। प्रभुकर्तृकस्य भुवः, स्थाने हुप्पो विकल्प्यते। कोक्कइ, हस्वत्वे कुक्कइ पोक्कइ, / वाहरइ पक्षे / प्रसरेः पयल्लोवेल्लौ / / 77 // प्रभुत्वं च प्रपूर्वस्यै-वार्थोऽत्रेति विभाव्यताम्। अङ्ग चिअपहुप्पड़, न, पक्षेपभवेइच। उवेल्लश्च पयल्लो वा, स्यातां प्रसरतेरिमौ। ते हूः॥६॥ उवेल्लइ पयल्लई, पक्षे पसरइस्मृतम्। के भुवो हुर्' अणुहूअं, पहूअं हूअमीदृशम्। महमहो गन्धे ||7|| कृगेः कुणः॥६॥ गन्धार्थस्य प्रसरतेः, स्थाने महमहोऽस्तु था। कृगः कृणो वा, कुणइ, करइ स्यात्तु पाक्षिकम् / 'मालई महमहइ,' गन्धे किं? पसरइच। काणेक्षिते णिआरः॥६६॥ निस्सरेणीहर-नील-धाड-वरहाडाः // 7 // काणेक्षितविषयस्य तु, कृगः पदे वा णिआर आदेशः। निस्सरतेर् 'वरहाडो, नीलो धाडो च णीहरो' वा स्युः। काणेक्षितं करोतीत्यर्थे वाच्यं "णिआरइ' हि। वरहाडइ नीलइ णीहरइ च धाडइ च, नीसरइ। निष्टम्मावष्टम्मे णिछह-संदाणं // 67 / / जाग्रेर्जग्गः ||80 // अवष्टम्भे च निष्टम्भे, कृगःसंदाण-णिछौ। जागर्तेर् 'जग्ग' इति तु, स्यादादेशो विभाषया। इत्यादेशौ यथासंख्यं, विकल्पनेहबुध्यताम्। रूप 'जग्गइ' तेन स्यात्, पक्षे 'जागरइ' स्मृतम्। णिळुहइ तु निष्टम्भं करोती-त्यर्थबोधकम्। व्याप्रेराअडुः / / 1 / / 'संदाणइ' अवष्टम्भंकरोतीत्यर्थवाचकम्। धातोयाप्रियतेः स्थाने, 'आअड्डो' वा विधीयते। श्रमेवावभ्फः // 68|| आअडेइ तथा 'वावरेइ' रूपं तु पाक्षिकम्। श्रमविषयस्य तु कृगो, वावम्फो वा विधीयते। संवृगेःसाहर-साहट्टौ // 2 // श्रमं करोति इत्यर्थे , 'वावम्फई' निगद्यते। संवृणोतेस्तु साहर--साहट्टी वा पदे मतौ। मन्युनौष्ठमालिन्ये णिव्वोलः॥६॥ साहट्टइ साहरइ, पक्षे 'संवरइ' स्मृतम्। मन्युनोष्ठाभिमालिन्ये, 'णिव्योलइ' कृगोऽस्तु वा। आदृडः सन्नामः||३|| मलिनीकुरुते स्वौष्ठ क्रुधा, 'णिव्योलइ' स्मृतम्। वाऽऽद्रिङः स्यात्तु 'सन्नामो,' आदरइ सन्नामइ / Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (117) (सिद्धहेम अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०४) प्रहगेःसारः॥४॥ वृषे दिक्कः | सारः प्रहरतेः स्थाने, या पहरइ सारइ। वृषे कर्तरि गर्जेर् वा, ढिक्काऽऽदेशो विधीयते। अवतरेरोह-ओरसौ॥८॥ 'ढिक्कइ' 'गर्जति वृषः' इत्यर्थे परिपठ्यते। 'ओह ओरस' इत्येतो, वाऽत्रावतरतेमतो। राजेरग्घ-छज्ज-सह-रीर-रेहाः॥१०॥ ओहइया ओरसइ, पक्षे 'ओअरइ' स्मृतम्। अग्घो रीरो रेहः, छज्जश्च सहो भवन्तु वा राजेः। शकेश्चय-तर--तीर-पाराः||१६|| अग्घइ छज्जइरीरइ, रेहइ रायइच सहइ तथा। चयस्तरस्तीरपारौ, चत्वारो वा शकेरिमे। मस्जेराउड-णिउड्ड-छुड-खुप्पाः / / 101 // तीरइ पारइ सक्कइ, चयइ तरइ, चयइ च त्यजतेः। (हानि करोति।) आउडुश्च णिउड्डो, वुड्डः खुप्पश्च मञ्जतेर्वा स्युः। तततेरपि तु तरइ वा, तीरयतेरपि भवेत् तीरइ। आउजुइ चणिउड्डइ, बुड्डुइ खुप्पइच मज्जइ च।। पारयतेरपि भवेत्, रूपं 'पारेई पठ्यते / (कर्म समाप्नोति।) पुजेरारोल-वमालौ / / 10 / / फक्कस्यकः // 27 // आरोलश्च वमालश्च, पुजेरेतौ विकल्पितौ। थक्कस्तु फक्कतेः स्थाने भवेत्, 'थक्कइ'सिध्यति। आरोलइ यमालइ, पक्षे–'पुञ्जइ' सिध्यति। श्लाघः सलहः॥५८| लस्जे हः // 10 // श्लाघतेःसलहादेशो भवेत्, 'सलहइ' स्मृतम्। जीहो वा लज्जतेः स्थाने, यथा-जीहइ, लाइ। तिजेरोसुक्कः // 104|| खचेर्वेअडः ||86] ओसुक्कोवा तिजेः स्थाने, ओसुक्कइ चतेअणं। खचतेर् 'वेअडो'वा, 'वेअडइ' 'खचइ' स्मृतम्। मृजेरुग्घुस-लुञ्छ-पुञ्छ-पुंस-फुस-पुस-लुह-हुलपचेः सोल्ल-पउल्लौ ||6|| रोसाणाः // 10 // वा 'सोल्ल-पउल्लौ' इत्यादेशौ स्तः पचतेः स्थले। उग्घुसो रोसणोलुन्छः, पुञ्छः पुंसः फुसः पुसः। 'सोल्लई' या 'पउल्लई' पक्षे 'पयइ' सिध्यति। लुहो हुलो, नवादेशा विकल्पेन मृजेर्मताः / मुचेश्छड्डाव हेम मेल्लोस्सिक्क-रेअव लुछइ पुञ्छइ पुंसइ, रोसाणइ फुसइ पुसइ तथा लुहइ। __णिल्लुञ्छ-धंसामाः ||1|| हुलइ उग्घुसइ, पक्षे-'मज्जइ' इति सिद्धिमेति पदम्। मेल्लोऽवद्वेडो धंसामो, जिल्लुञ्छोस्सिक्क--रेअवाः / भजेर्वेमय-मुसुमूर-मूर-सूर-सूड-विर-पविरञ्जछड्डुश्चैते मुचेः स्थाने, सप्तादेशा विकल्पिताः। करज-नीरजाः // 106 / / जिल्लुन्छइ उस्सिक्कइ, अवहेडइ रेअवइ च धंसाडइ। मुसुमूरो विरो मूरः, सूरः सूडश्च वेमयः। छड्डुइ मेल्लइ, पक्षे-'मुअइ' च रूपं तु भवतीति। पविरः करजो नीरजो वा भञ्जतेर्नव। दुःखे णिव्वलः॥१२॥ मूरइ सूरइ सूडइ, मुसुमूरइ वेमयइच पविरञ्जइ। दुःखविषयस्य मुचेर्णिव्वलो वा विधीयते। नीरजइ च करञ्जइ, विरइच पक्षे भवेद्-'भञ्जई। 'दुःखं मुञ्चति' इत्यर्थे "णिव्वलेइ' क्रियापदम्। अनुव्रजेः पडिअग्गः॥१०७|| वञ्चेर्वेहव-वेलव-जूरवोमच्छाः ||13|| अनुव्रजेः 'पडिअग्ग'इत्यादेशो विकल्प्यते। वा वेहव-वेलव-जूरवा उमच्छोऽपि वञ्चतेः स्थाने। 'पडिअग्गइ' पक्षे तु-'अणुवचइ' सिध्यति। वेहवइ वेलवइ जूरवइ उमच्छइच, वञ्चइच। अर्जेर विढवः // 10 // रचेरुग्गहावह-विडविड्डाः ||4|| अर्जधातोर्विकल्पेन, विढवाऽऽदेश इष्यते। धातोः रचेर् उग्गहावह-विडविड्डास्त्रयो भवन्त्येते। प्रयुज्यते 'विढवइ,' तथा 'अज्जइ' पाक्षिकम् / विमविड्डइ उग्गहइ च अवहइ, पक्षे रयइ भवति। युजो जुञ्ज-जुन-जुप्पाः / / 106 / / समारचेरुवहत्थ सारव-समार केलायाः।।४५|| युजः स्थाने 'जुज्ज-जुज-जुप्पा' एते त्रयो मताः। समारचेर् उवहत्थः, केलायः सारवः समारो वा। जुञ्जइ जुअइ तथा, जुप्पइ' सिद्धिमागमन्। उवहत्थइ केलायइ, समारयइ सारवइ समारइ च। भुजो मुज-जिम जेम-कम्माण्ह-समाण---- चमढ़-चड्डाः // 110 // सिचेःसिञ्च-सिम्पौ||६|| समाणश्चमढश्वड्डः, कम्मो भुञ्जो जिमस्तथा। सिञ्च-सिम्पौ विकल्पेन, सिञ्चतेर्वा पदे स्मृतौ। अण्होजेमो, भुजः स्थानेऽष्टादेशाः परिकीर्तिताः। सिद्धं सिञ्चइ सिम्पइ, पक्षे सेअइभण्यते। 'भुञ्जइ जिमइ च जेमइ, चमढइ कम्मेइ चड्डुइ समाणइ। प्रच्छः पुच्छः / / 67|| 'अण्हइ' इति भुजधातोः, रूपं वेद्यं सुधीभिरतः। प्रच्छे स्थाने भवेत् पुच्छादेशः, पुच्छति सिद्ध्यति। वोपेन कम्मवः // 111 // गजेबुक्कः // 8 // उपेन युक्तस्य भुजेः,'कम्मवो' वा विधीयते। गर्जतर्बुक्क इत्यादेशो वा, बुक्कइ, गजई। तेन सिद्धं 'कम्मयइ,'उवहुजइ इत्यपि। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सिद्धहेम.] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०४] घटेगढः // 112 // घटेर्गढी वा, गढइ, घडइ स्यात्तु पाक्षिकम् / समो गलः॥११३॥ संपूर्वस्य घटेः स्थाने, गलादेशो विकल्पनात्। ततः सिद्धं 'संगलइ,'पक्षे 'संघडइ' स्मृतम्। हासेन स्फुटेर्मुरः॥११४|| हासेन स्फुटनेऽर्थे तु, स्फुटेः स्थाने मुरोऽस्तु वा। हासेनस्फुटतीत्यर्थे , रूपं 'मुरइ' कथ्यते। मण्डेश्चिञ्च-चिञ्चअ-चिचिल्ल-रीम टिविमिक्काः॥११॥ चिञ्चिल्लश्चिशिअश्चिञ्चो, रीडष्टिविडिक्कस्तथा। एते मण्डेर् विकल्पेन, पञ्चादेशाः प्रकीर्तिताः। चिञ्चिल्लइ चिञ्चअइ, टिविडिक्कइ चिञ्चइ। रडिइ तथा, 'मण्डइ,' इति रूपं तु पाक्षिकम्। तुमेस्तोड-तुट्ट-खुट्ट-खुडोक्खुडोल्लुक्क-णिलुक्क-- लुक्कोल्लूराः // 116|| लुक्कोल्लूरौ तुट्ट-खुट्टो, णिलुकश्च खुडोक्खुडौ / तोडोल्लुकौ, तुडेः स्थाने, विभाषा स्युरमी नव। तोडइ तुट्टइखुट्टइ, उल्लुक्कइ उक्खुडइ णिलुक्कइ च। खुडइ तुडइ उल्लूरइ, लुक्कइ रूपं तुडेरेतत्। घूर्णा घुल-घोल-घुम्म-पहल्लाः // 117|| धुलो धोलः पहल्लच, धुम्मो धूर्णरमी मताः / 'घुलइ घोलइ पहल्लइ धुम्मइ सिद्ध्यति। विवृतेर्टसः // 118|| ढंसो वा विवृतेः स्थाने, ढंसइ स्याद् विवट्टइ। क्वथेरट्टः // 11 // वाथेरटो वा, अट्टइ, पक्षे-कढइ सिध्यति। ग्रन्थो गण्ठः॥१२०|| ग्रन्थगण्ठोऽस्तु, गण्ठइ, गण्ठी सद्भिः प्रयुज्यते। मर्थेघुसल-विरोलौ // 121 // घुसलश्च विरोलच, मन्थेरेतौ विकल्पितौ! रूपं घुसलइ विरोलइ, मन्थइइत्यपि। हादेवअच्छः॥१२॥ हादेय॑न्तस्यावअच्छोऽण्यन्तस्यापिस्थले भवेत्। हादते ह्रादयतिवा, अवअच्छर' उच्यते। अत्रेकारस्तु ण्यन्तस्यापि ग्रहार्थः प्रयुज्यते। ने सदो मज्जः॥१२३॥ निपूर्वस्य सदो मज्जः, अत्ता एत्थ णिमज्जई'। छिदेर्दुहाव-णिच्छल्ल-णिज्झोड-णिव्वर-णिल्लूर लूराः॥१२॥ वा स्युर् णिच्छल्ल-णिज्झेडौ, णिल्लूरो लूर-णिव्यरौ। दुहावश्च पमादेशाः, छिद-धातोः पदे यथा। णिच्छल्लइ णिज्झोडइ, पिल्लूरइ णिव्वरइ दुहावइ च। लूरइ इति छिदधातोः, पक्षे 'छिन्दइ मतं रूपम्। आडाओअन्दोद्दालौ॥१२५|| 'ओअन्दोद्दालौ' वा,स्याताम् आङा सहात्र छिद-धातोः / 'ओअन्दइ, उद्दालइ' 'अच्छिन्दइ' इति विकल्पवशात्। मृदो मल-मढ-परिदृट्ट-खड्डु-चडु मडु-पन्नाडाः // 126|| खजु-चड्डौ च पन्नाडः, परिहट्टो मढो मलः। मड्डश्चापि मृदः स्थाने, सप्तादेशाः प्रकीर्तिताः। पन्नाडइ मडुइच,परिहट्टइखड्डइ। मढइ चडुइ तथा, मलइ प्रतिपठ्यते। स्पन्देश्चुलुचुलः॥१२७॥ स्पन्देश्चुलुचुलादेशो, विकल्पेन प्रयुज्यते। सिद्धं 'चुलुचुलइ'तु,पक्षे 'फन्दइ' इत्यपि। निरः पदेवलः॥१२८|| निःपूर्वस्यपदेः स्थाने बलादेशो विकल्प्यते। "निव्वलइ निप्पज्जइ,' द्वयं सिद्धिमगादिदम्। विसंबदेर्विअट्ट-विलोट्ट-फंसाः॥१२॥ विअदृश्च विलोदृश्च, फंसश्चेतित्रयोऽपि वा। विसंपूर्वस्य तुवदेः, स्थाने सन्तु यथाक्रमम्। विअट्टइ ततः सिद्धं, विलोट्टइच फंसइ। विसंवअइ चैतत्तु, पाक्षिकं रूपमिष्यते! शदो झड-पक्खोडौ।।१३०।। शदः स्तो झड-पक्खोडौ, झमइ, या पक्खोडइ। आक्रन्देीहरः॥१३१॥ आक्रन्देहिरो वा स्याद्, णीहरइ अक्कन्दइ। खिदेर् जूर-विसूरौ // 13 // खिदेर् जूर-विसूरौ द्वौ, स्यातामत्र विकल्पनात्। 'विसूरइ' ततः सिद्ध, पक्षे जूरइ, खिज्जइ। रुधेरुत्थङ्घः॥१३३|| रुधेरुत्थक इति वा, उत्थडइचरुन्धइ। निपेधेर्हक्कः // 13 // हक्को निषेधतेर् हक्कइ या पक्षे निसेहइ। कृधेर्जूरः // 13 // कुधेघुरो विकल्पेन, 'जूरइ' 'कुज्झइ' इत्यपि। जनो जा-जम्मौ // 136|| जा-जम्मौ जायतेः स्थाने, सिद्ध 'जाअइ जम्मई'। तनेस्तड-तड-तड्डव-विरल्लाः // 137 // तड़-तजु-तडव-विरल्लाश्चत्वारस्तनःस्थले वास्यः। तड्डइ तडइ तड्डुवइ, तथा विरल्लइ,'तणई' पक्षे। तृपस्थिप्पः॥१३॥ तृप्यतेस्तु पदे थिप्पः, 'थिप्पइ प्रणिगद्यते। उपसरल्लिअः॥१३॥ कृतगुणस्योपसृपेः, स्थाने वा 'अल्लिओ' मतः। ततः सिद्धम् 'अल्लिअइ,'"उवसप्पइ' पाक्षिकम्। संतपेझनः॥१४०॥ संतपेङ् इति वा, संतप्पइ च झङ्क। व्यापेरोअम्गः।।१४१॥ व्याप्नोतेस्तु विकल्पेनाऽऽदेश 'ओअग्ग' इष्यते। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सिद्धहेम०] (119) अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०४] 'ओअग्गइ' ततः पक्षे, रूपं 'वावेइ सिध्यति। समापेः समाणः॥१४॥ समाप्नोतेः समाणो वा, समावेइ समाणइ। क्षिपेर्गलत्याडक्ख-सोल्ल-पेल्ल-णोल्ल-छुह-हुल परीवत्ताः॥१४३|| सोल्लपेल्लौ परी-चत्तौ, गलत्थश्च छहो हुलः। अड्डक्खो णोल्ल इत्येते,नयादेशाः क्षिपेस्तु वा। अड्डक्खइच गलत्थइ, सोल्लइ पेल्लइ छुहइ हुलइधत्तइ। णोल्लइ हस्वत्वे गुल्लइ परीइ, पाक्षिकं खिवइ / उत्क्षिपेर्गुलगुञ्छोत्थजाल्लत्थोन्मुत्तोस्सिक्क-हक्खुवाः // 144|| गुलगुञ्छोत्थडाल्लत्थोब्भुत्तोस्सिक्क-हक्खुवा वा स्युः / उत्पूर्वस्य तु क्षिपेर्, धातोः स्थाने षभादेशाः / गुलगुञ्छ। उत्थत इ, अल्लत्थइ हक्खुवइ च उस्सिका। उन्भुत्तइ इतिपक्षे, रूपं वेद्यं तु 'उक्खिवइ / आक्षिपेीरवः॥१४५|| आपूर्वस्य क्षिपेर्धातोर्णीरवो वा विधीयते। ततः सिद्ध पीरवइ, पक्षे 'अक्खिवइ स्मृतम्। __स्वपेः कमवस-लिस-लोट्टाः॥१४६|| 'कमवस-लिस-लोट्टाः' वा, स्युरमी धातोः स्वपेः स्थले क्रमशः। लोट्टइ लिसइ कमवसइ, भवति तुपक्षे 'सुअइ' रूपम्। वेपेरायम्बायज्झौ / / 147 / / वेपेर् 'आयम्ब आयज्झ' इत्यादेशौ विकल्पनात्। आयम्बइ तथा आयज्झर, पक्षे तु 'येवई'। विलपेझइ-वडवडौ॥१४८|| विलपेस्तु विकल्पेन, झको वडवडश्च वा। झवइ वड़वडइ,पक्षे विलवइ स्मृतम्। लिपो लिम्पः॥१४६॥ लिम्पस्तु लिम्पतेः स्थाने, ततो लिम्पइ सिध्यति। गुप्येर्विर-णडौ / / 150 / / स्थाने धातोर्गुप्यतेवी, भवेतां द्वौ "विरो,णडः। विरइ णडइ पक्षे, गुप्पइ सिद्धिमश्नुते। कृपोऽवहो णिः // 151 // अवहस्तु कृपेः स्थाने, ण्यन्तो भवति, तद्यथा। 'कृपां करोति' इत्यर्थे , अवहावेई पठ्यते। प्रदीपेस्तेअव-सन्दुम-सन्धुक्काब्मुत्ताः।।१५२॥ 'तेअव-सन्दुम-सन्धुक्काब्भुत्ता' वा प्रदीप्यतेरेते। सन्धुक्कइ अब्भुत्तइ, सन्दुमइपलीवइतेअवइ। लुभेः समावः / / 153|| संभावो लुभ्यतेर्वा स्यात्, संभावइ चलुब्भइ। शुभेः खउर-पडहौ // 15 // खउरः पडहो वा स्तः, क्षुभेर्धातोः पदे यथा। खउरइ पड्डहइ, पक्षे 'खुब्भइ' सिध्यति। आङो रमेः रम्म-ढवौ / / 15 / / आङ परस्य तु रभेःस्याता रम्भो ढवश्च वा। आरम्भइ आवढइ, पक्षे 'आरभइ' स्मृतम्। उपालम्भेझख-पचार-वेलवाः॥१५६।। उपालम्भेस्त्रयो वा स्युझन-पचार-बेलवाः। पचारइ वेलवइ, उवालम्भइ झङ्कइ। अवेर्जुम्भो जम्मा // 157 // जृम्भेर् जम्भा, न तु वेः परस्य, जम्भाइ भवति जम्भाअइ। किम्? अवेरिति हि निषेधः, 'सुकेलिपसरो विअम्भइ अ'। भाराक्रान्ते नमेणिसुढः॥१५८|| भाराक्रान्ते तु कर्तरि, णिसुढो वा नमेः स्मृतः। णिसुढइ, वा 'णवइ,' आक्रान्तो नमतीत्यतः। विश्रमेणिव्वा / / 15 / / 'णिव्या' विश्राम्यते 'णिव्वाइ, वीसमइ' द्वयम् / आक्रमेरोहावोत्थारच्छुन्दाः॥१६०॥ आक्रमेः 'छुन्द उत्थार ओहायो' वा त्रयो मताः। ओहावइ उत्थारइ, वा अक्कमइ छुन्दइ। प्रमेष्टिरिटिल्ल-दुण्दुल्ल-ढण्ढल्ल-चक्कम्म-मम्मड-ममम-ममाम-तलअण्ट-झण्ट-झम्प-भुम-गुम-फुम-फुसदुम-दुस-परी-पराः॥१६१॥ चक्कम्मो भम्ममो झम्पष्टिरिटिल्लो भुमो गुमः / ढुण्ढुल्लो भममो ढण्ढल्लोभमाडः फुमः फुसः। तलअण्टस्तथा झण्टो,ढुमो दुस-परी-पराः। इत्थमी भ्रमतेरष्टादशादेशा विकल्पनात्। टिरिटिल्लइ दुण्दुल्लइ, ढण्ढल्लइ तलअण्टइ च झण्टइ। भमडइ चक्कम्मइ भम्मडइभमाडइ भुमइ झम्पइ। गुमइ फुमइ फुसइ ढुमइ, दुसइ परीइ चपरइ भमइपक्षे। भ्रमधातोरिह रूपं, विविधं वेद्यं सुधीभिस्तु। गमेरई-अइच्छाणुवजावजसोक्कुसाक्कुस-पचड-पच्छन्द-णिम्मह–णी-णीण-णीलक्क-पदअ-रम्म-परिअल्लवोल-परिअल-णिरिणास-णिवहावसेहावहराः॥१६२।। अई णी पदओऽइच्छोऽणुवोऽवजसोऽक्कुसः। पचड्डो णिवहः पच्छन्दोऽवसेहश्च णिम्महः। परिअल्लःपरिअलो, णिरिणासस्तथोक्कुसः। रम्भो णीणश्च णीलुक्कोऽवहरो बोल इत्यमी। एकविंशतिरादेशा गमधातोस्तु वा मताः। अणुवज्जइपचड्डइ, अवजसइ अकुसइच पच्छन्दइ। णीणइ अईइ रम्भइ, णिरिसासइ णीइ णीलुक्कइ / पदअइ णिम्महइ अइच्छइ परिअल्लइ च उक्कुसइ बोलइ। अवसेहइ अवहरइ च, णिवहइ परिअलइ वा गच्छ।।। [णीहम्मइ आहम्मइ, पहम्मइ णिहम्मइ तु तथा हम्मइ। 'हम्म गतौ' इति धातोरमुनि रूपाणि वेद्यानि।] आङा अहिपुचुअः॥१६३।। आङा सहितस्य गमेः, स्थाने वाऽस्त्वहिपचुअः। 'अहिपचुअई' स्यावा, तथा-ऽऽगच्छइ' पाक्षिकम् / / समा अमिडः॥१६॥ समा युक्तस्य तु गमेर्, 'अब्भिडो' वा विधीयते। सिद्धं ततो 'अभिडइ,' पक्षे--संगच्छइ स्मृतम्। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (120) [सिद्धहेम.] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०४ अम्याङोम्मत्थः॥१६॥ णिरिणासश्च णिवहोऽवसेहः पडिसा तथा! उम्मत्थस्तु गमेः स्थानेऽभ्याङ्भ्यां युक्तस्य वा भवेत्। सेहश्वावहरश्चैते, षडादेशा नशेस्तुवा।। 'उम्मत्थइ' तथा- भागच्छइ' रूपद्वयं ततः। णिरिणासइ,णिवहइ अवसेहइ पडिसाइ अवहरइसेहइ। प्रत्याङा पलोट्टः।।१६६|| पक्षे 'नस्सई' इत्यप्यमूनि रूपाणि नशधातोः॥ पल्लोट्टस्तु गमेः प्रत्यङ्भ्यां युक्तस्य पदेऽस्तु वा। अवात् काशो वासः॥१७६|| 'पलोट्टई तथा-'पञ्चागच्छइ' स्यात्तु पाक्षिकम् / अवात् परस्य काशस्तु, 'वासः, "ओवासई' स्मृतम्। शमेः पडिसा-परिसामौ // 167|| सन्दिशेरप्पाहः // 18 // शमेः पदे तु पडिसा-परिसामौ विकल्पितौ। .. अप्पाहः संदिशेर्वा स्यात्, अप्पाहइ सन्दिसइ। 'परिसामइ समइ, पडिसाइ' त्रय शमः। दृशो निअच्छ-पेच्छावयच्छावयज्झ-वज्जरमेः संखुड्ड-खेड्डोम्भाव-किलिकिञ्च-कोट् ट्रम सव्ववदेक्खौ अक्खावक्खावअक्ख-पुलोएमोट्टाय–णीसर-वेल्लाः // 16 // पुलएनिआवआस-पासाः॥१८१|| मोट्टायो णीसरो वेल्लः, किलिकिञ्चश्व कोट् ट्रमः। वजौ निअच्छ ओअक्खोऽवयच्छः सव्यवो निः) खेड्डोब्भावौ च संखुडो, रमेर्वा स्युरमी पदें। अवयच्छोऽवयज्झःपेच्छो देक्खःपुलअस्तथा।। संखुड्डइ उन्मावइ, किलिकिञ्चइ कोटुमइ च मोट्टायइ। अवअक्खः पुलोएश्च पासोऽवक्खो, दृशेर् अमी। खेजुइ तथा णीसरइ,खेल्लइ पक्षे 'रमई रूपम्। अवयच्छइ अवयज्झइ, वजइ पेच्छइच सव्ववइ पासइ॥ पूरेग्घामाग्धवोद्धमाकुमाहिरेमाः॥१६६॥ ओअक्खइच निअच्छ, देक्खइ अवअक्खइपुलोएइ। 'अहिरेमोऽग्धवोग्घाड-उद्धमाऽखम' इत्यमी। अवआसइ अवक्खइ, निअइचपुलएह चेदृशं रूपम्॥ पञ्चादेशा विकल्पेन, पूरेः स्थाने प्रकीर्तिताः। 'निज्झाअईस्वरादत्यन्ते निध्यायतेः सिद्धम् / 'अग्धाडइ अग्धवइ, अहिरेमइ पूरइ ! स्पृशः फास-फंस-फरिस-छिव-छिहालुङ् खालिहाः // 15 // उद्धुमाइ अङ्गुमइ, 'सविकल्पमुदाहृतम् / आलुकः फरिसः फंसः, छियः फासः छिहालिहौ। त्वरस्तुवर-जअडौ / / 170|| इत्यमी स्पृशतेःस्थाने, सप्तादेशाः प्रकीर्तिताः।। तुवरो जअडश्चेमौ, भवेतां त्वरतेः पदे। फासइ फंसइ फरिसइ, छिवइ छिहइ आलिहइ तथाऽऽलुइ। सिद्धं रूपं तुवरइ, तथा जअडइ स्मृतम्। इति धातोः स्पृशतेरिह, रूपाणां सप्तकं भवति। त्यादिशत्रोस्तूरः।।१७१।। प्रविशेरिअः // 183|| त्यरः शतरित्यादौ च, तूरः-'तूरन्तो तूरइ'। धातोः प्रविशतेःस्थाने, रिआऽऽदेशो विकल्प्यते। तुरोऽत्यादौ / / 172 / / सिद्धं 'रिअई' पक्षे तु, रूपं पविसई' स्मृतम्। त्वरोऽत्यादौ तुरादेशः, तुरन्तो तुरिओ यथा। प्रान्मृश-मुषोर्हसः॥१८॥ क्षरः खिर-झर-पज्झर-पचड-णिच्चल-णिट् टुआः॥१७३|| प्रात्परस्य तुमुष्णाते-प॑शतेश्च म्हुसो भवेत्। णिचलो णिट्टुओ पचडो झरः पज्झरः खिरः। 'पम्हुसइ' प्रमृशति, वा प्रमुष्णाति कथ्यते। क्षरेरेते षमादेशाः, भवन्तीति विभाव्यताम् / / पिषेर्णिवह-णिरिणास-णिरिणज-रोञ्च-चड्डाः॥१८॥ पज्झरइ पञ्चमइ, खिरई झरई तथा। णिरिणासो णिरिणज्जो, रोचश्चड्डश्च वा पिषेर् णिवहः। णिचलइ णिट्टुअइ,एवं रूपाणि चक्षते॥ रोञ्चइ चड्डुइ णिरिणासइ णिरिणज्जइ च पीसइ णिबहइ। उच्छल उत्थल्लः॥१७॥ भषेभुक्कः॥१८६|| स्याद् 'उत्थल्ल' उच्छलतेः, रूपम् 'उत्थल्लइ स्मृतम् / भषेर्भुक्को विकल्पेन, सिद्धं भसइ भुक्कइ। विगलेः थिप्प-णिट् टुहौ // 17 // कृषःकड्ड-साअड्डाञ्चाणच्छायञ्छाइञ्छाः॥१८७|| धातोर् विगलतेः स्थाने, वा स्यातां थिप्प-णिट् टुहो। कडः साअड्ढ आइञ्छोऽयञ्छोऽणच्छोऽञ्च इत्यमी। वा थिप्पइ णिट् टुहइ, पक्षे "विगलई' स्मृतम्॥ धातौः कृषेः षडादेशाः, विकल्पेन प्रकीर्तिताः / दलि-वल्योर्विसट्ट-वम्फौ।।१७६|| आइञ्छइ साअङ्गद, कङ्कइ अञ्चइ अणच्छह अयञ्छ।। स्यातां विसठ्ठ-वम्फो, वा दलि-वल्योः पदे यथासंख्यम्। पक्षे 'करिसइ रूपं, कृषधातोरत्र संवेद्यम्। ततो 'विसट्टइ वम्फइ, पक्षे रूपं दलइ वलइ। असावक्खोडः।।१५८|| मंशे फिड-फिट्ट-फुम-फुट्ट-चुक्क-मुल्लाः // 177|| अक्खोडस्तु कृषः स्थाने-ऽर्थे कोशात् खङ्गकर्षणे। वा स्युर् भ्रंशेः चुक्क-भुल्लौ,फिट्ट फुटौ फिडः फुडः। 'अक्खोडेइ' असिं कोशात्, कर्षतीति प्रतीतिकृत्। फिट्टइ फुट्टइ चुक्कइ, फिडइ फुडइ भुल्लइ च भवति रूपम्। गवेषेर्दण्दुल्ल-ढण्ढोल-गमेस-घत्ताः / / 18 / / पक्षे भंसई' रूपं, वेधं भ्रंशः सुधीभिरिदम्। घत्तो गमेसो ढण्ढोलो, ढुण्दुल्लो वागवेषतेः। नशेणिरिणास-णिवहावसेह-पडिसा-सेहावहराः॥१७|| दुण्दुल्लइ ढण्ढोलइ, गमेसइ च धत्तइ। (गवेसइ।) Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |सिद्धहेम (121) अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०४] लिषेः सामग्गावयास-परिअन्ताः॥१६॥ अवयासः सामग्गः, परिअन्तश्च त्रयः श्लिषेर्वा स्युः। अवयासइ सामग्गइ, परिअन्तइ, वा सिलेसइच। म्रक्षेश्चोप्पडः॥१६१|| मक्षेस्तु चोप्पडो वा स्याद्, वा मक्खइ चोप्पमइ। काङ्केराहाहिलङ्काहिलङ्ग-वच्च-वम्फ-मह सिहविलुम्पाः // 19 // अहिलकोऽहिलको वम्फो विलुम्पो महः सिहः / आहो वचः काशतेर्वाऽष्टावादेशा अमी मताः / अहिलइ अहिलक, आहइवचइ महइ विलुम्पइ थ। वम्फइ सिहइ च, पक्षे- 'कन इ' इति सिद्धिमेति पदम्। प्रतीक्षेः समय-विहीर-विरमालाः॥१६३।। पदे प्रतीक्षेर्वा स्युः, विरमालः सामयो विहीरश्च / विरमालइ च विहीरइ, सामयइ तथा पडिक्खड़ वा। तक्षेस्तच्छ-चच्छ-रम्य-रम्फाः // 164|| तच्छश्चच्छो रम्पो, रम्फश्चैते तु तक्षतेर्वा स्युः। तच्छइ चच्छइ रम्पइ, रम्फइ, तक्खइ तु वैकल्प्यात्। विकसेः कोआस-वोसट्टौ // 16 // कोआसो वोसट्टो, विकसेरेतौ पदे तुवा भवतः। कोआसइ वोसट्टइ, तथा विकल्पेन विअसइच। हसेर्गुजः॥१६६|| हसेर्गुञ्जो विभाषा स्याद्, यथा हसइ गुञ्जइ। संसेर्व्हस-डिम्मौ // 167 / / ल्हसो डिम्भश्व वा स्याता, संसेर् धातोः पदे यथा। ल्हसइ मिम्भइ तथा, पक्षे- 'संसइ' सिध्यति। सेमर-दोज-वज्जाः॥१९८|| वोजो वज्जो मरश्चैते, वा भवन्तु त्रसेः पदे। सिद्धं वोजइडरइ, तथा तसइ वजइ। . न्यसो णिम–णुमौ // 16 // न्यस्यतेः स्तो णिम-गुमौ, 'णिमइणुमइयथा। पर्यसः पलोट्ट-पल्लट्ट-पल्हत्थाः // 20 // पर्यस्यतेः 'पलाट्टेः, पल्लट्टः पल्हत्थ इति सन्तु हि। पल्लट्टइ पल्हत्थइ,तथा पलोट्टइ भवति रूपम्। निश्वसेझङ्कः॥२०१॥ झाडो या निश्वसेर्, नीससइ झकर च द्वयम् / उल्लसेरूसलोसुम्म-णिल्लस-पुलआअ गुञ्जोल्लारोआः॥२०२।। ऊसुम्भऊसलो गुञ्जोल्लः पुलआअ-णिल्लसौ। आरोओ, वा षडादेशाः, उल्लसेस्तु पदे मताः। पुलआअइ गुजोल्लइ, 'गुञ्जुल्लइ हस्वतस्तु,' ऊसलइ। ऊसुम्भइ आरोअइ, तथा णिल्लसइ च उल्लसइ। मासेमिसः॥२०३|| भासेर् भिसौ वा 'भिसइ, पक्षे-'भासइ' इत्यपि। ग्रसेर्धिसः // 20 // ग्रसेर घिसो वा, घिसइ, पक्षे 'गसई' इत्यपि। __ अवाद् गाहेर्दाहः // 205 / / अवाद् गाहेस्तु वाहो वा, ओवाहइ ओगाहइ। आरुहेश्वड-वलग्गौ // 206 / / चडो वलग्गश्चाम् द्वौ, भवेताम् आरुहेः पदे। वा बलग्गइ चडइ, तथाऽऽरुहइ पाक्षिकम् / मुहेर्गुम्म मुम्ममौ / / 207 / / वा गुम्म-मुम्ममौ स्यातां, मुहेर्धातोः पदे, यथा। वा गुम्मइ गुम्ममइ, पक्षे 'मुज्झइ' सिध्यति। दहेरहिऊलालुङौ // 208|| आलुको वाऽहिऊलश्च, दहेः स्थाने विकल्पितौ। अहिऊलइ आलुइपक्षे-महइस्मृतम्। ग्रहो वल-गेण्ह-हर-पन-निरुवाराहिपच्चुआः॥२०६।। वल-गेह-हर-पङ्ग-निरुवाराहिपचुआ ग्रहेः स्युरमी। अहिपचुअइवलइ निरुवारइ गेण्हइ हरइ पङ्गइ। क्त्वा-तुम-तव्येषु वेत् // 210|| क्त्या-तुम्-तव्येषु परतो, 'घेद्'आदेशो ग्रहेमतः। [क्त्वा ] स्याद् घेत्तुआण घेत्तूण, कृचिन्नो-'गेण्हिअ' स्मृतम्। [तुम् ] घेत्तुं तव्य | घेत्तव्वम् इत्येतत्, त्रिविधं लक्ष्यमीरितम्। बचो वोत् / / 211 / / क्त्वा-तुम्-तव्येषु वक्तेर् 'वोत्', इत्यादेशो विधीयते। 'वोत्तूण वोत्तुंवोत्तव्यं', त्रयं चैतदुदाहृतम् / रुद-मुज-मुचां तोऽन्त्यस्य // 212 // तः स्याद् रुद-भुज-मुचां-क्त्वा-तुम्-तव्येषु, तद्यथा। भोत्तूण भोत्तुं भोत्तव्यं, ज्ञातव्यमनया दिशा। दृशस्तेनट्ठः॥२१३|| दृशोऽन्त्यस्य तकारेण, सहठ्ठः प्रभवेद्, यथा। दट्ठूणदटुंदडव्यं, संप्रयुक्तं बुधैरिदम्। आः कृगो भूत-भविष्यतोश्च // 21 // क्त्या-तुम्-तव्येषु च तथा, काले भूते भविष्यति। कृगोऽन्त्यस्य तु 'आ' इत्यादेशः स्यादिति कथ्यते। 'चकाराकार्षीदकरोत्,' एषु 'काहीअ' भाष्यते। 'कर्ता करिष्यतीत्यर्थे, पदं' काहिइ पठ्यते। क्त्वा-तुम्-तव्येषु काऊण, काउंकायव्य मिष्यते। गमिष्यमाऽऽसां छः॥२१॥ गमिष्यमाऽऽसामन्त्यस्य, छकारादेश इष्यते। गच्छइ इच्छइ तथा,सिद्धं जच्छइ अच्छद। छिदि-भिदोन्दः॥२१६|| न्दः स्यात् छिदि-भिदोर अन्ते, यथा-छिन्दइ भिन्दइ। युध-बुध-गृध-क्रुध-सिध-मुहां ज्झः // 217 / / स्यात् बुध-युध-बुध-गृध-सिध-मुहां दिरुक्तो ‘ज्झ'ईदृशादेशः। कुज्झइ जुज्झइ वुज्झइ, गिज्झइ सिज्झइच मुज्झइ च। रुधोन्ध-म्भौ च // 218|| रुधो न्ध-म्भौ तु चात् 'ज्झो' रुन्धइ रुम्भइ रुज्झइ। सद-पतोर्डः॥२१॥ अन्ते सद-पतोर्डः स्यात्, सडइ पडइ स्मृतम्। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सिद्धहेम.] (122) अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०४ क्वथवर्धा ढः॥२२०॥ क्यथेर् बधैर् अन्तिमस्य,ढः स्यात् कढइ वड्डइ। वृधेः कृतगुणस्येह,वर्धेश्च ग्रहणं समम्। वेष्टः॥२२१॥ 'वेष्ट वेष्टने' इत्यस्य, धातोः 'कगट'-[२/७७] सूत्रतः / वलोपेऽन्त्यस्य ढो, 'वेढिाइ, वेढइ' इत्यपि। समोल्लः // 222 // संवेष्टतेरन्तिमस्य, 'ल्लः' स्यात्, 'संवेल्लइ स्मृतम्। वोदः॥२२३॥ वा'ल्ल' उद्वेष्टतेर् 'उव्वेल्लइ, उव्वेढइ' स्मृतम्। स्विदां जः॥२२४॥ स्विदिप्रकाराणां 'जः स्याद्, अन्तिमस्य द्विरूपकः / सव्वङ्ग-सिज्जिरीए संपज्जइ खिज्जइस्मृतम्। बहुत्वं तु प्रयोगानुसरणार्थमिहेष्यते। व्रज-नृत-मदां चः॥२२५|| अन्तिमस्य व्रज-नुत-भदानां 'चो' भवेदिह। वचइ नचइ तथा, मचइ सिद्धिमाययुः। रुदनमोर्वः॥२२६|| रुद-नमोर्वो, रुवइ, रोवइ नवइ स्मृतम्। उद्विजः॥२२७|| उद्विजतेरन्त्यस्य यः उव्वेवो च उव्विवइ। स्वाद-धावोर्लुक्॥२२८|| खाद-धावोलुंग अन्ते स्यात्, खाइ खाअइ खाहिइ। स्याद्धाइ धाउ धाहिइ, क्वचिन्नो-- 'धावई' स्मृतम् / वर्तमाना-भविष्यद्-विध्याघेकवचनेषु हि। तेनेह नैव खादन्ति, धावन्ति' बहुलग्रहात्। सृजो रः // 226 // सृजो धातोरन्तिमस्य, रकारोऽत्र विधीयते। वोसिरामि वोसिरइ, तथा निसिरइ स्मृतम्। शकादीनां द्वित्वम्॥२३०॥ अन्तिमस्य शकादीनां, द्वित्वं भवति, तद्यथा। [शक्] सक्कइ [जिम्] जिम्मइ [लग्] लग्गइ, [मग्] मग्गइ[कुप्] कुप्पइ [लुट्] पलोट्टइच [तु] तुट्टइ। [नश्] नस्सइ [अट् परिअट्टइ [नट नट्टइ [सिव्] सिव्वइ, अन्यदपि चैवम्। स्फुटि-चलेः॥२३१।। स्फुटेश्वलेश्च वैकल्प्यं, द्वित्वमन्त्यस्य भाष्यते। फुडइ फुट्टइ तथा, रूपं चलइ चल्लई। प्रादेर्मीलेः॥२३२॥ प्रादेः परस्य मीलेर्वा, द्वित्वमन्त्यस्य बुध्यताम्। संमिल्लइ तथा संमीलइ, मीलइ तं विना। उवर्णस्यावः // 233 // अवादेशस्तुधातूनामन्त्योवर्णस्य बुध्यताम्। [हुङ्] निण्हवइ [हु] निहवइ, [कु] कवइ प्रभृति स्मृतम्। ऋवर्णस्यारः॥२३४॥ अरादेश ऋवर्णस्य, भवेद् धात्वन्तवर्तिनः। यथा करइ धरइ, हरइ प्रमुखं मतम् / वृषादीनामरिः॥२३॥ अरिर्वृषादिधातूनाम्, ऋवर्णस्यपदे भवेत्। वृषो 'यरिसइ' कृषो, तथा करिसइ' स्मृतम्। एवं मृषो 'मरिसई', हृषो 'हरिसइ स्मृतम्। अरिः संदृश्यते येषां, वेद्यास्ते हि वृषादयः। रुषादीनां दीर्घः // 236|| रुषप्रभृतिधातूना, स्वरस्य दीर्घो भवेद, यथा रूसइ। तूसइसूसइ दूसइ, पूसइ सीसइ, तथाऽन्यदपि। युवर्णस्य गुणः // 237 // इवर्णोवर्णयोर्धातोर्गुणः कित्यपि डित्यपि। यथा जेऊण नेऊण, नेइ उड्डेइ नेन्ति च। क्वचिन्नायं विधिर् नीओ, उड्डीओ सिध्यतो यतः। स्वराणां स्वराः // 238|| धातुषु स्वराणां स्थाने, भवन्ति बहुलं स्वराः। सद्दहणं सद्दहाणं, तथा धुवइ धावइ हवइ हिवइ।चिणइ चुणइ / रुवाइ रोवइ।] क्वचिन्नित्यं देह लेइ, आर्षे 'बेमि' प्रयुज्यते। व्यञ्जनाददन्ते // 23 // व्यञ्जनवर्णान्ताद्धातोरन्तेऽकार आगमो भवति। भमइ हसइ चुम्बइ उवसमइ कुणइ सिञ्चइच रुन्धइ। शवादीनां प्रयोगश्च, प्रायो नास्तीति बुध्यताम्। स्वरादनतो वा // 24 // अनदन्त-स्वरवर्णान्ताद्धातोर्वाऽस्त्वदागमस्त्वन्ते। पाअइपाइ च, धाअइ धाइ, मिलाअइ मिलाइ तथा। उव्वाअइ उव्वाइ च, होऊण च होइऊण इति भवति। 'अनत' इति च किमुक्तम्? यथा चिइच्छइ दुगुच्छइ च। चि-जि-श्रु-हु-स्तु-लू-पू-धूगां णो हस्वश्च // 24 // चिज्यादीनामन्ते भवति णागमः, स्वरस्य हस्यश्च / [चिचिणइ [जि] जिणइ [श्रुसुणइ [हु] हुणइ, [स्तु] थुणइ[लू] लुणइ [पू] पुणइधूिग] धुणइ तथा। बहुलात् वापि विकल्पो, जयइ जिणइ उचिणइ च उचेइ। जेऊणच जिणिऊण च, तथैव सोऊण सुणिऊण। नवा कर्म-मावे व्वः क्यस्य च लुक् // 242 // भाव-कर्मप्रवृत्तानां, चिज्यादीनां विभाषया। व्वोऽन्ते, तत्सन्नियोगेच, क्यस्य लुक स्यादितीर्यते। चिव्वइ चिणिजइ, जिव्वइ जिणिज्जइ, सुव्वइ सुणिज्जइ, हुव्वइ हुणिज्जइ। थुव्वइ थुणिज्जइ, लुब्वइ लुणिज्जइ, पुव्वइ पुणिज्जइ, धुव्वइ-धुणिज्जइ। एवं चिव्विहिईत्यादि, रूपं काले भविष्यति। म्मश्चेः॥२४३|| भाव-कर्मप्रवृत्तस्य, चिगो धातोर विभाषया। म्मोऽन्ते, तत्सन्नियोगे च क्यस्य लुक् स्यादितीर्यते। वर्तमाने 'चिणिज्जइ, तथा चिम्मइ चिव्वई। 'चिन्विहिइ चिणिहिइ, चिम्मिहिइ भविष्यति। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिद्धहेम०] (123) अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८ पा०४] हन्-खनोऽन्त्यस्य // 244|| धात्वोर् हन-खनोरत्र, भाव-कर्मप्रवृत्तयोः। अन्त्यस्य वा स्याद्म्मः, तत्सन्नियोगे क्यस्य चास्तु लुक्। [वर्तमाने यथा हम्मइ खम्मइ, हणिज्जइ खणिज्जइ / [भविष्यति हम्मिहिइ हणिहिइ, खम्मिहिइ खणिहिइ। कर्तर्यपि हनोऽयं स्याद्, हन्तीत्यर्थे तु 'हम्मइ'। कृचिन्न दृश्यते-'हन्तव्य' 'हन्तूण' 'हओ' यथा। भो दुह-लिह-वह-रुधामुच्चातः // 24 // दुह-लिह-वह-रुधधातूनां ब्भो वाऽन्त्यस्य भावकर्मजुषाम्। लुक् च तत्सन्नियोगे क्यस्य, भवेद् उद् वहेरस्य। स्याद् दुहिलइ दुब्भइ, वा लिब्भइ लिहिज्जइ। वुडभइ वहिजइ रुडभइरुन्धिज्जइ स्मृतम् / दुभिहिइ दुहिहिईत्यादि काले भविष्यति। दहो ज्झः॥२४६|| भाव-कर्मप्रवृत्तस्य, दहो धातोर् विभाषया। ज्झः स्याद्, अन्त्यस्य तत्सन्नियोगे क्यस्यापिलुग भवेत्। स्याद्वर्तमाने डज्झइ, तथा रूपं डहिजइ। 'डज्झिहिइ डहिहिइ' इति काले भविष्यति। बन्धो न्धः॥२४७|| भावकर्मप्रवृत्तस्य, बन्धधातोर्विभाषया। ज्झःस्याद् अन्त्ययोस् तत्सन्नियोगेक्यस्य चास्तु लुक्। स्याद् वर्तमाने वज्झइ, तथा बन्धिज्जइस्मृतम्। 'बज्झिहिइ बन्धिहिइ' इति काले भविष्यति। समनूपाढुंधेः // 24 // भावकर्मप्रवृत्तस्य, समनूपाद्धे स्तु वा। अन्त्यस्य वा ज्झः, तत्सन्नियोगे क्यस्यापिलुग भवेत्। संरुज्झइ अणुरुज्झइ, उवरुज्झइ भवति, पाक्षिकं तु यथा। संरुन्धिज्जइ अणुरुन्धिज्जइ उवरुन्धिज्जइ भवति। संरुज्झिहिइ संरुन्धिहिईत्यादि भविष्यति। गमादीनां द्वित्वम् / / 24 / / भावकर्मप्रवृत्ताना, गमादीनां विभाषया। स्याद् द्वित्वमन्त्यस्य तत्सन्नियोगे क्यस्य चास्तुलुक्। [गम् ] गम्मइ गमिजइ हस हस्सइ हसिञ्जइ। [भण्] भण्णइ भणिज्जइ [छुप्] छुप्पइ छुविजइ। (रुव रुव्वइ रुविज्जइ [लभ ] लब्भइ लहिज्जइ। [कथ्] कत्थइ कहिज्जइ [भुज् ] भुजइ भुंजिजइ ! गम्मिहिइ गमिहिईत्यादि रूपं भविष्यति। रुद-[४/२२६] सूत्रेण कृतवाऽऽदेशोऽत्र रुदिरिष्यते। ह-कृ-तृ-जामीरः / / 250 / / धातूनां ह-कृ-तृ-जां स्याद्, ईरादेशो विभाषया। क्यलुक् तत्सन्नियोगेच, भवेदित्युपदिश्यते। हीरइ हरिजइ, कीरइ करिज्जइ। तीरइ तरिजइ, जीरइ जरिजइ। अर्जेविढप्पः॥२५१॥ अर्जेर्विढप्पो वा तत्सन्नियोगे क्यस्य चास्तु लुक्। विढप्पइ, विढविज्ज, अज्जिज्जइ पाक्षिकम्। ज्ञो णव्व–णौ // 25 // भाव-कर्मप्रवृत्तस्य, जानातेर्भवतः पदे। णव्वो णज्जच वा, तत्सन्नियोगे क्यस्य चास्तु लुक्। णव्वइणज्जइ, पक्षे-जाणिज्जइ मुणिज्जइ। 'म्न-शेर्णः' (2/42) इति णादशे, णाइज्जइच सिध्यति। नज्पूर्वकस्य जानातेर् 'अणाइज्जइ' पठ्यते। व्याहगेाहिप्पः / / 253|| भावकर्मप्रवृत्तस्य, भवेद्व्याहरतेः पदे / याहिप्पो वाऽत्र तत्सन्नियोगे क्यस्यापि लुग् भवेत्। वाहिप्पइ तथा वाहरिज्जइ स्यान्निदर्शनम्। आरभेराढप्पः॥२५४|| आरभेः कर्मभावे स्याद, वाऽऽढप्पः क्यस्य चास्तु लुक् / आढप्पइभवेत, पक्षे-'आढवीअइ'सिध्यति। स्निह-सिचोः सिप्पः॥२५५|| स्निह-सिचोः कर्मभावे, सिप्प: स्यात् क्यस्य चास्तुलुक्। 'स्निह्यते,सिच्यते' इत्येतयोरर्थेऽत्र 'सिप्पइ'। ग्रहेर्धेप्पः // 256|| कर्मभावे ग्रहेर, घेप्पो, वा भवेत, क्यस्य चास्तु लुक्। यथा 'घेप्पइ' इत्येतत्, पक्षे गिणिहज्जइ स्मृतम्। स्पृशेश्छिप्पः॥२५७|| स्पृशतेः कर्मभावे स्याद्, वा छिप्पः, क्यस्य चास्तु लुक् / तेन 'छिप्पई' संसिद्धं, तथा रूपं 'ठिविज्जइ। तेनाप्फुण्णादयः॥२५८|| आक्रमिप्रभृतीनां तु, धातूनाम् अप्फुण्णाादयः। अप्फुण्णो आक्रान्तः, उक्कोसं उत्कृष्ट, लुग्गो रुग्णः। योलीणोऽतिक्रान्तः, पल्हत्थं पल्लोट्टं वा पर्यस्तम्। फुड स्पष्ट, विकसितो वोसट्टो, निमिअंत्विदम्। स्थापितं, चक्खि आस्यादितं, क्षिप्तं तु ज्झोसि। निपातितो निसुट्टो स्याद्, हीसमाणं तु हेषितम्। वा प्रमृष्टःप्रमुषितः, पम्हुट्टो परिपठ्यते। ल्हियको नष्टो, जढं त्यक्तं, विदत्तं अर्जितं तथा। छित्तं स्पृष्ट,लुअंलून, भवेद् निच्छूढम् उद्धृम्। इत्यादयो वेदितव्याः,शब्दालक्ष्यानुसारतः। धातवोऽर्थान्तरेऽपि / / 256 / / उक्तादर्थात् प्रवर्त्तन्तेऽर्थान्तरेऽपीह धातवः। उक्तो बलिःप्राणनेऽर्थे, खादनेऽपिस वर्तते। यथा 'वलइ' खादति, प्राणनं च करोति वा। एवं कलिश्च संख्याने, संज्ञानेऽपि सदृश्यते। यथा 'कलइ' जानाति, संख्यानं च करोति वा। रिगिर्गतौ प्रवेशेऽपि, 'रिगइ' विशत्येति च। काहातेः प्राकृते वम्फो, 'वम्फइ' खादतीच्छति। फक्कतेः स्थक्क आदेशस्ततः सिध्यति 'थक्कइ। नीचां गतिं करोतीति वा, विलम्बयतीति वा। धात्वोर्विलप्युपालम्भ्योर् झनादेशे तु 'झङ्गइ। तस्यार्थ उपालभते, वा विलपति भाषते। एवं हि 'पडिवालेइ', वा रक्षति प्रतीक्षते। केचित् कैश्चिदुपसगैर्नित्यमन्यार्थकामताः। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (124) [सिद्धहेम.] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०४] 'संहरइ' संवृणोति, स्यात् 'पहरई' युध्यते। पूर्वस्य पुरवः॥२७०।। 'अणुहरइ' तु सदृशीभवतीति 'नीहरइ' पुरीषमुत्सृजति। पूर्वशब्दस्य पुरव' इत्यादेशो विकल्प्यते। क्रीडति 'विहरइ.' 'आहरइ' च खादति, 'उग्रुपई' चटति। यथा-ऽपुरवं नाडयं, पक्षे 'ऽपुव्वं पदं' मतम्। पुनः पूरयति 'पडिहरइ,' स्यात् त्यजतीति 'परिहरइ' रूपम्। क्त्व इय-दूणौ // 271 / / 'उवहरई पूजयति, 'वाहरई तथा-ऽऽह्वयति इत्यर्थे / क्त्वाप्रत्ययस्य वा स्याताम्, 'इय-दूणौ' यथाक्रमम्। याति विदेशं पवसइ, निःसरतीत्यर्थ'उल्लुहइ' भवति। यथा 'भविय' 'भोदूण,' पक्षे 'भोत्ता' प्रयुज्यते। एवं बहूपसर्गात्, बह्वर्था धातवो वेद्याः। कृ-गमो ममुअः // 272 / / इति प्राकृतभाषा समाप्ता। कृ-गमिभ्यां परस्य क्त्वः,स्थाने वा 'अडुओ'ऽस्तु डित्। // अथ शौरसेनी भाषाऽऽरभ्यते / / सिद्ध कडुअगडुअ, पक्षे रूपं निशम्यताम्। कीरदूण गच्छिदूण, तथा करिय गच्छिय। तो दोऽनादौ शौरसेन्यामयुक्तस्य // 260|| दिरिचेचोः॥२७३॥ शौरसेन्यां तु भाषायामपदादौ प्रवर्तिनः। दिर् इचेचोः [3/136 भवेद, नेदि देदि भोदिच होदि च। तकारस्य दकारः स्याद्, न स युक्तो भवेद् यदि। अतो देश्च // 274|| तदो मारुदिना पूरिद-पदिशेन मन्तिदो। अनादाविति किम्? तस्स, तधा, नेहप्रवर्तताम् [तधा करेध जधा तस्स अतः परयोर् इचेचोः, स्थाने 'दे दि' इमौ क्रमात्। राइसिणो अणुकंपणीया होमि। अच्छदे अच्छदितथा, सिद्धं गच्छदि गच्छदे। अयुक्तस्येति किम्? मत्तो, अज्जउत्तो, सउन्तले !! अतः किम् स्याद् 'वसुआदि' 'नेदि, भोदि' यथाऽत्र न। अघः क्वचित्॥२६१|| भविष्यति स्सिः // 27 // शौरसेन्यां तु वर्णाधोवर्तमानस्य तस्यदः। भविष्यदर्थे विहिते, प्रत्यये स्सिः परे भवेत्। यथालक्ष्य, महन्दो निचिन्दो अन्देउरे यथा। हिस्साहामपवादोऽयं, तथा रूपं भविस्सिदि। वाऽऽदेस्तावति // 262|| अतो उसे दो-डाद्।।२७६|| तावच्छब्दे तकारस्य दो वा, दाव च ताव चं। अतः परस्य तुङसेः,'डादो' डादु इडौ डितौ। आ अमन्त्र्ये सौ वेनो नः॥२६३|| 'दूरादो य्येव' 'दूरादु' द्वयं संसिद्धिमृच्छति। इनो नकारस्याऽऽमन्त्र्ये, वाऽऽकारः सौ परे यथा। इदानीमो दाणिं // 277|| भो सुहिआ! कञ्चुइआ! भो तवस्सि! मणस्सि! या। [पक्षे। इदानीमः पदे 'दाणिं' इत्यादेशोऽभिधीयते। मो वा // 264 // 'अय्यो दाणिं आणवेदु,' व्यत्ययात् प्राकृतेऽपि च। आमन्त्र्ये सौ परे नस्य, मकारो वा विधीयते। अतस्तत्रापि 'अन्नं च दाणिं बोहिं प्रयुज्यते। भो रायं ! भो सुकर्म ! भो भयवं कुसुमाउह! तस्मात् ताः॥२७८|| पक्षेतु भयव! अन्तेआरि! चैवं प्रयुज्यते। तस्माच्छब्दस्य 'ता' इत्यादेशो भवति, तद्यथा। मवद्रगवतोः॥२६॥ 'माणेण एदिणाऽलं ता, ता जाव पविरामि च। भवद्-भगवतोर्नस्य, मकारः सौ परे भवेत्। मोऽन्त्याण्णो वेदेतोः // 27 // भवे ! चिन्तेदि किं एत्थ, भगवं! च हुदासणो / [समणे भगवं इदेतोः परयोर अन्त्याद्, मात् परो णागमोऽस्तु वा। महावीरे। क्वचिदन्यत्रापि यथा-मघवं पागसासणे। .. [ इकारे ] जुत्तं णिमं जुत्तमिणं, [ एकारे] किं णेदं वा किमेर्दै च। कयवं, संपाइअवं सीसो, काहं करेमि च। एवार्थे य्येव / / 20 / / नवार्यो य्यः॥२६६॥ एवार्थे 'य्येव' इति तु, निपातोऽत्रभिधीयते। वाय्यो र्यस्य भवेत् स्थाने, 'अय्यो सुय्यो' प्रपठ्यते। मम य्येव बम्भणस्स, एसो सो य्येव' पठ्यते। पक्षे कज्जपरवसो, अज्जो पज्जाउलो यथा। ___ हजे चेट्याहाने // 28 // थो धः॥२६७|| चेट्याहाने भवेद् 'हजे, 'हजे चदुरिके!' यथा। थस्य धो वा, यथा-णाधो णाहो वा स्यात् कधं कह। हीमाणहे विस्मय-निर्वेदे // 282 // अपदादावेव, 'थाम,थेओ' नेहधकारता। 'हीमाणहे निपातोऽयं, निर्वेदे विस्मये तथा। इह-हचोर्हस्य // 268|| विस्मये जीवन्त–वश्वा जणणी, मे च हीमाणहे, यथा। इहशब्दे, हचादेशे[३/१४३] च हकारस्य धोऽस्तु वा। [निदे] हीमाणहे पलिस्सन्ता, किं दुव्यवसिदेण वा। इध, होध, द्वयं पक्षे-इह, होह निगद्यते। णं नन्वर्थे // 28 // भुवो भः // 266 / / नन्वर्थे णमिमि बुधैर्नियातः संप्रयुज्यते। भवतेर्हस्य भो वा स्याद्, भोदि होदि यथा द्रयम्। 'अय्यमिस्सेहिं आणत्तं, पुढमय्येव णं' यथा। तथा भुवदि हुवदि, भवदि हवदि स्मृतम्। इदम् आर्षे पदं वाक्यालङ्कारे ऽपि च दृश्यते। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (125) सिद्धहेम०] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०४] नमोत्थु णं, जया णं च, तया णं, चैवमादयः / स्थर्थयोस्तः / / 261 / / अम्महे हर्षे / / 284|| 'स्थ-र्थ' इत्येतयोः स्थाने, साक्रान्तस्तो विधीयते। 'अम्महे' इति निपातो, हर्षेऽर्थे संप्रयुज्यते। [स्थ] उवस्तिदे शुस्तिदे [र्थ) शस्तवाहेऽस्तवदी यथा। 'भवं सुपलिगढिदो,सुम्मिलाए च अम्महे'। ज-द्य-यां यः // 26 // हीही विदूषकस्य // 25 // पदाऽवयवभूतानां, ज-द्य-यानां पदेऽस्तु यः। हर्षे विदूषकाणां तु, द्योत्ये हीही निपात्यते। 'हीही पियवयस्सस्स, भो संपन्ना मणोरधा। [ज] अय्युणं दुय्यणे [2] मय्यं, अय्ये विय्याहले [य] यदि। आदेर्यो ज [1/245] स्य बाधार्थ, यस्य यत्यं विधोयते। शेषं प्राकृतवत् // 286|| दीर्घ-[१/४] तो दो -[4/260] ऽनयोर्मध्ये, सूत्रयोर् यद् न्य–ण्य-ज्ञ-जांजः / / 293|| यदीरितम् / तत् सर्वं कार्य्यमत्रापि बोध्यं, भेदस्तु दर्शितः [शौरसेन्या 'न्य-ण्य--ज' अमीषां तु,द्विरुक्तो जो विधीयते। मिह प्रकरणे यत्कार्यमुक्तंततोऽन्यच्छौरसेन्यां प्राकृतवदेव भवति। दीर्घ-हस्वी [न्य] कञा [ण्य] पुरं च [ज्ञ] शव्वले, मिथो वृत्तौ' [1/4] इत्यारभ्य,'तो दोऽनादौ शौरसेन्यामयु-क्तस्य' [4/ [ञ] अञ्जली च धणञ्जए। 260] एतस्मात् सूत्रात् प्राग् यानि सूत्राणि एषु यान्यु-दाहरणानि तेषु मध्ये व्रजो जः॥२६४|| अमूनि तदवस्थान्येव शौरसेन्यां भवन्ति, अमूनि पुनरेवंविधानि भवन्तीति व्रजे जस्य द्विरुक्तो जो, यापवादोऽस्तु, 'वादि। विभागः प्रतिसूत्रं स्वयमभ्यूह्य दर्शनीयः / यथा अन्दावेदी। जुवदि-जणो। मणसिला इत्यादि। छस्य श्चोऽनादी॥२६|| इति शैरसेनी भाषा समाप्ता! अनादौ वर्तमानस्य,छस्य श्वः संविधीयते। 'पिश्चिले, उश्वलदि, पुश्वदि, गश्च' निदर्शनम्। // अथ मागधी भाषाऽऽरभ्यते // अयं लाक्षणिकस्यापि, यथा आपन्नवत्सलः। अत एत् सौ पुंसि मागध्याम् // 287|| 'आवन्नवच्छले' चैतद, भवेद् 'आवन्नवश्वले'। मागध्यां सौ परेऽकारस्यैकारः पुंसि जायते। अनादाविति किम्? 'छाले' नेह श्चत्वं भवेद् यथा। एशेमेशे एष मेषः, एशेच पुलिशे तथा। क्षस्य कः // 266|| 'भो भदन्त ! करोमीति भवेद् ' 'भन्ते ! करेमि भो'। अनादौ क्षस्य को जिह्वामूलीयो, 'लक शे' यथा। अतः किं नु? 'कली' रूपं, किं पुंसीति? 'जलं' यथा। स्कः प्रेक्षा-चक्षोः // 267|| [यदपि "पोराणमद्धमागह-भासा-निययं हवइ सुत्तं" इत्यादिनाऽऽर्षस्य प्रेक्षेर् धातोस्तथाऽऽचक्षे, क्षस्य स्कः कस्य बाधकः अर्द्धमागधभाषानियतत्वमाम्नायि वृद्धस्तदपि प्रायोऽस्यैव विधानान्न वक्ष्यमाणलक्षणस्या कयरेआगच्छदासे तारिसे दुक्खसहे जिइन्दिए इत्यादि।] आचस्कदिपेस्कदिच, द्वयं सिद्धिं समश्नुते। र-सोल-शौ // 28 // तिष्ठश्विष्ठः॥२६८|| ल-तालव्यशकारौ स्तो, रेफ-दन्त्यसकारयोः। स्थाधातोस् 'तिष्ठ' इत्यस्य, चिष्ठो' भवति, चिष्ठदि। [रनले कले [स] शुदं हंशे (उभयोः) 'शालशे पुलिशे' तथा। अवर्णाद्वा ङसो डाहः ||26|| "लहश-वश-नमिल-शुल-शिल-विअलिद-मन्दाल-लायिदंहि- अवर्णात् परस्य तु डसः, स्थाने डाहो विकल्प्यते। युगे। 'एलिशाह हगे कालीन कम्माह'प्रयुज्यते। वील-यिणे पक्खालदु, मम शयलमवय्य यम्बालं // 1 // भीमशेणस्स पश्चादो हिण्डीअदि' तु पाक्षिकम्। रमसवशनम्रसुरशिरोविगलितमन्दारराजितांह्रियुगः। आमो माहँ वा // 300 / / वीरजिनः प्रक्षालयतु,मम सकलमवद्यजम्बालम्॥१॥ अवर्णाद् उत्तरस्याऽऽमो, विभाषा 'डा], इष्यते। (जल्दी में होने के कारण नमन करने वालों द्वारा शिरोपुष्प-पूजा के समय प्रभु महावीर के बिम्ब-मस्तक से गिरे हुए मंदार फूलों से जिनके शयणाहँ सुहं,पक्षे 'नलिन्दाणं' इति स्मृतम्। चरण युगल सुशोभित हुए हैं, वे तीर्थंकर जिनवर मेरे सर्व पाप-जंबाल व्यत्ययात् प्राकृतेऽपिस्यात्, तदुदाहरणं यथा! का परिक्षालन करें।२५८.१) ताह तुम्हाहँ अम्हाहँ, कम्माहँ सरिआहँ च। स-षोः संयोगे सोऽग्रीष्मे // 28 // अहं-वयमोहगे // 301 // संयोगे स-षयोः सः स्याद्, न तुग्रीष्मे कदाचन। 'हगे' इत्यमादेशः, पदेऽहं-वयमोर् भवेत्। ऊर्ध्वलोपादिसूत्राणामपवादोऽयमीरितः। 'शक्कावदालतित्थ-णिवाशी च धीवले हगे। [स] हस्ती बुहस्पदी मस्कली पस्खलदि विस्मये। शेषं शौरसेनीवत् // 302 / / [ष] कस्टं, विस्नु, शुस्क–दाहुँ, धनुस्खण्डं च निस्फलं। मागध्यां यदनुक्तं तच्छौरसेनीवदिष्यते ['शेषं प्राकृतवत्' [5/286 ] 'अग्रीष्मे' इति किम्? 'गिम्ह-वाशले' नेह सो भवेत्। मागध्यामपि 'दीर्घहस्यौ मिथो वृत्तौ' [1/] इत्यारभ्य 'तो दोऽनादौ दृ ष्ठयोः स्टः॥२६०|| शौरसेन्यामयुक्तस्य' [4/260] इत्यस्मात् प्राग यानि सूत्राणि तेषु द्विरुक्त-टस्य, षाऽऽक्रान्त ठरय 'स्टो' भवति द्वयोः। यान्युदाहरणानि सन्ति तेषु मध्ये अभूनि तदव-स्थान्येव मागध्याम-मूनि [] पस्टे, भस्टालिका, [8] 'कोस्टागालं, शुसटु कदं' यथा पुनरेवंविधानि भवन्तीति विभागः स्वयमभ्यूह्य दर्शनीयः।] Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (126) अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [सिद्धहेम०] (अ०८पा०४] यथा 'हजे [4/281] चदुरिके, हङ्गे युदलिके, इह। इति मागधी भाषा समाप्ता। // अथ पैशाची भाषाऽऽरभ्यते // ज्ञोञजः पैशाच्याम्॥३०॥ पैशाच्या भाषायां, ज्ञस्य पदे सो विधीयते, सयथा। पा सजा सव्वञो विज्ञानं तथ जान। राज्ञो वा चिञ् // 304 // 'राज्ञ' इत्यत्र शब्दे यो, ज्ञकारस्तस्य वाऽस्तु चिञ्। राचित्रा लपितं, रञा लपितं राचिञो धनं। रञो धनं, ज्ञ इत्येव, 'राजा' नेह प्रवर्तते। न्य-ज्योजः॥३०॥ न्यण्योः स्थाने 'ब' आदेशः, "पुजाहं, कञका' यथा। णो नः // 306aa णस्यनः स्यात्, 'गुनगनयुत्तो' यद्द् 'गुनेन' च। तदोस्तः // 307|| त-दयोस्तो,[तस्य भगवती पव्यती च सतं यथा। [दस्य पतेसो सतनं तामोतरो रमतु होतु च। तकारस्यापितादेश आदेशान्तरबाधकः। 'पताका, वेतिसो' इत्याद्यपि सिद्धं ततः पदम्। लोळः॥३०॥ लस्य ळः स्यात्, कुळ सीळ कमळ सलिळ जळ। शषोः सः॥३०॥ श-षयोःसः, [शस्य ससी सक्को,[षस्य] किसानो विसमो यथा। 'न कगचेति' [4/324] सूत्रस्य, बाधकोऽयं विधिः स्मृतः। हृदये यस्य पः॥३१०।। हृदये यस्य पस्तेन, सिद्धं हितपकं पदम्। टोस्तुर्वा // 311 // टोः स्थाने तु तुरादेशो, विभाषा संप्रवर्तते। कुतुम्बकं ततः सिद्धं, तथा रूपं कुटुम्बकम् / क्त्वस्तूनः॥३१२|| तूनः क्त्वाप्रत्ययस्यास्तु, गन्तून हसितून च। खून-त्थूनौ ष्ट्रवः // 313 // 'ट्वा' इत्यस्य पदे 'टून-त्थूनौ' तूनस्य बाधकौ। नथून नत्थून तन तत्थून इति स्मृतम्। र्य-स्न-ष्टां रिय-सिन-सटाः क्वचित्॥३१॥ स्न-~-ष्टानां सिन-रिय-सटाःस्युःक्रमतःवचित्। भार्या तु भारिया वेद्या, सिनातं स्नातमुच्यते। कष्टं तु कसटं बोध्यं, त्रयमेतदुदाहृतम्। क्वचिदिति किं? सुनुसा, सुजो तिट्ठो यथा भवेत्॥ क्यस्येय्यः // 31 // क्यप्रत्ययस्य तु स्थाने, इय्यादेशोऽभिधीयते। रमिय्यते गिय्यते दिय्यते चैव पठिय्यते। गो डीरः॥३१६|| कृगः परस्य 'डीरः'तु, क्यस्य स्थाने, विधीयते। 'सम्मानं कीरते सव्वस्सय्येव' तु निदर्शनम्।। यादृशादेर्दुस्तिः // 317|| यादृशादिपदे यो 'दृः,' तस्य तिः क्रियते पदे। यातिसो तातिसो युम्हातिसो अम्हातिसो तथा / / केतिसो एतिसो अजातिसो चैव भवातिसो। इचेचः।।३१८|| 'इचे चोः' [3/136] तिः, नेति तेति, वसुआति च भोति च। आत्तेश्च // 316 / / अतः परयोर् इचेचोः,पदे 'ते ति' इमौ मतौ। गच्छते गच्छति यथा-ऽऽदिति किम्? नेति होति च।। भविष्यत्येय्य एव // 320 // एय्य एवन तुस्सिः [4/275] स्याद्, इचेचोस्तु, भविष्यति। तद्भून चिंतितं रञा, का एसा तं हुवेय्य च॥ अतो उसेतो -डात् // 321|| अतः परस्य तु ङसेः, 'डातोडातू' इमौ मतौ। यथा-तूरातु तूरातो, तुमातोच तुमातु च // तदिदमोष्टा नेन स्त्रियां तु नाए // 322 // सार्धं टा-प्रत्ययेन स्याद्,'नेनो' तदिदमोः पदे। स्त्रीलिङ्गे तु तयोरेव, 'नाए' इत्यभिधीयते // 'नेन कत-सिनानेन तत्थ' पुसि, स्त्रियां पुनः / पातग्ग-कुसुम-प्पतानेन नाए च पूजितो।। टेति किं? चिन्तयन्तो ताए समीपं गतो चसो। शेषं शौरसेनीवत् // 323 // पैशाच्या यदनुक्तं तच्छौरसेनीयदिष्यते॥ विशेषो दर्शितः सर्वः, तथापीषन्निशम्यताम् / [ अध ससरीरो भगव मकरधजो / एल्थ परिभमन्तो हूबेय्य / एवंविधाए भगवतीए कधं तापस-येसगहनं कतं / एतिसं अतिहपुरवं महाधनंतडून। भगवं यदि मं वरं पयच्छसि राज च दाव लोक / ताव च तीए दूरातो य्येव तिहो सो आगच्छमानो राजा।] नक-ग-च-जादि-षट्-शम्यन्त-सूत्रोक्तम् // 324|| क-ग-चः [1/177] षट्-शमी-[१/२६५] इत्येतयोर्मध्येऽपि सूत्रयोः। यत् कार्य्य दर्शितं सर्व, न तदत्र प्रवर्तते। मकरकेत् ,सगरपुत्त-वचनं,लपितं। विजयसेनेन, पापं,आयुधं चैवतेवरो अन्येषामपि सूत्राणामेवमूह्यं मनीषया ! इति पैशाची भाषा समाप्ता। // अथ चूलिकापैशाचिकभाषा प्रारभ्यते // चूलिका- पैशाचिके तृतीय-तुर्ययोराद्य-द्वितीयौ // 325 / / भाषयां चूलिका-पैशाचिकाख्यायां यथाक्रमम्। तृतीय-तुर्ययोर् आद्य-द्वितीयौ वर्गवर्णयोः। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सिद्धहेम०] (127) अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०४] नगर नकर तेन, मेघो मेखः प्रयुज्यते। एवं पञ्चसु वर्गेषु, लक्ष्यं बोध्यं मनीषिभिः / कचिल्लाक्षणिकस्यापि, पदे कार्यमिदं भवेत् / दाढा ताठ ततो बोध्या, पडिमा पटिमा तथा / रस्य लो वा // 326|| रस्य स्थाने लकारः स्यात्, गौरी 'गोली' हरो 'हलो' "पनमथ पनय-पकुप्पित-मोली-चलनम्ग-लग्ग-पतिबिम्बं। तससु नख-तप्पनेसुं, एकातस-तनुथलं लुई ||1|| प्रणमत प्रणयप्रकुपितगौरीचरणाग्रलग्नप्रतिविम्बम्। दशसु नखदर्पणेषु एकादशतनुधरं रुद्रम् / / 1 / / (प्रेमवश कोपायमान हुई पार्वती के चरणों की ओर नृत्य करते हुए शंकर के शरीर के झुकने के कारण पार्वती के दश नखों रुपी दर्पण में जिनके दश प्रतिबिम्ब पड़े हैं, (इस प्रकार) दश नखरूपी दर्पण में और स्वयम् का एक ऐसे ग्यारह रूपधारण करनेवाले महादेव शंकर को नमस्कार करो / / 326-1) नचन्तस्स य लीला-पातुक्खेवेन कम्पिता वसुथा / उच्छल्लन्ति समुद्दा, सइला निपतन्ति तं हलं नमथ"||२| नृत्यतश्व लीलापादोत्क्षेपेण कम्पिता वसुधा। उच्छलन्ति समुद्राः शैला निपतन्ति तं हरं नमत / / 2 / / (नृत्य करते हुए नटराज शंकर के पैरों में स्वाभाविक उच्छाल-प्रहार के आघात से पृथ्वी थर्रा उठी, समुद्र में उफान आ गया और पर्वत गिरने लगे / ऐसे महादेव शंकर को नमस्कार करो। 326-2) नादि-युज्योरन्येषाम् // 327 // अन्येषां तु मते, धातौ युजि चाऽऽदिमवर्णयोः / तृतीय-तुर्ययोराद्यद्वितीयौ भवतो न तौ। यथा 'नियोजितं' इत्येतद् अत्रापि 'नियोजितं' / गतिर् 'गती' तथा धर्मो , घम्मो' विद्वद्भिरुच्यते / शेषं प्राग्वत् // 32 // अत्रानुक्तं तु यत् कायँ , तत् पैशाचीवदिष्यते। यथह नस्य णत्व न, णस्य नत्वं तु सर्वतः / इति चूलिका-पैशचिकभाषा समाप्ता / ------ ------- // अथापभ्रंशभाषाऽऽरभ्यते / / स्वराणां स्वराः प्रायोऽपदंशे // 326 // अपभ्रंशे स्वराणां तु, स्थाने प्रायः स्वरा मताः / यथा-बाहा बाह बाहु, किन्नओं च किलिन्नओ। 'अत्रापभ्रंश-भाषायां, विशेषो यस्य वक्ष्यते। तस्यापि शौरसेनीवत्, कार्य प्राकृतवत् क्वचित् / इत्यर्थबोधकः 'प्रायःशब्दः' सूत्रे नियोजितः / स्यादौ दीर्घ-हस्वौ // 330|| प्रायः स्यादौ दीर्घ-हस्वौ, स्तो नाम्नोऽन्त्यस्वरस्य तु / [ सौ ] "ढोल्ला सामला धण चम्पा-वण्णी। णाइ सुवण्ण-रेह कस-वट्टइ दिण्णी // 1 // नायकः श्यामलःप्रिया चम्पावर्णा / ज्ञायते सुवर्णरखा कषपट्टके दत्ता ||1|| (प्रिय श्याम है। प्रिया चम्पक वर्णी-चम्पा के फूलों के समान है। दोनों का मिलन ऐसा लगता है मानो कसौटी के काले पत्थर पर सोने की रेखा खिंची गई हो। 330.1) [आमन्त्र्ये ] ढोल्ला ! मइँ तुहं वारिया, मा कुरु दीहा माणु / निद्दएँ गमिही रत्तमी, दडवड होई विहाणु // 2 // नायक ! मया त्वं वारितो मा कुरु दीर्घमानम्। निद्रया गमिष्यति रात्रिः शीघ्रं भवति विभातम् / / 2 / / (हे प्रिय, मैने तुझे कहा था कि दीर्घकाल तक मान न कर, कारण कि नींद ही में रात बीत जायेगी और शीघ्र ही प्रभात हो जायेगा। 330.2) [स्त्रियाम् ] बिट्टीए! मइ भणिय तुहुँ, मा कुरु वडी दिहि। पुत्ति ! सकण्णी मल्लि जिर्व, मारइ हिअइ पइहि / / 3 / / पुत्रिके ! मया त्वं भणिता मा कुरु वक्रां दृष्टिम्। पुत्रि ! सकी भल्लिर्यथा, मारयति हृदयं प्रविष्टा // 3 // (हे बेटी, मैने पहले ही तुझसे कहा था कि बाँकी दृष्टि न कर, हे बेटी, तेरी यह बाँकी दृष्टि नोकदार तीक्ष्ण भाले के समान दूसरों के हृदय में प्रविष्ट होकर उन्हें मार डालती है। 330.3) [जसि ] एइ ति घोडा एह थलि एइ ति निसिआ खग्ग / एत्थु मुणीसिम जाणिअइ, जो नवि वालइ वग्ग" ||4|| एते ते घोटका एषा स्थली एते ते निशिताः खगाः। अत्र मनुष्यत्वं ज्ञायते यो नापि वालयति वल्गाम् // 4 // (ये ही वे घोड़े हैं, यही वह युद्ध भूमि है ; ये ही वे तीक्ष्ण तलवारे हैं, यह वही जगह है, जहां पुरुष के पौरुष की सची परीक्षा होती है और योद्धा (रणक्षेत्र से हटने के लिए) अपने घोड़े की लगाम को कभी भी मुड़ने के लिए नहीं खींचता। // 330.4 // अन्यासां च विभक्तीनामेवगृह्यं निदर्शनम्। स्यमोरस्योत् // 331 // अत उत्त्वं स्यमोः, 'चउमुह छंमुहु' सिध्यतः। "दहमुह मुवण-मयंकरु तोसिय संकरु णिग्गउ रहवरि चडिअउ / चउमहु छंमुहु झाइवि एक्कहिं लाइविणावइ दइवें घडिअउ''|१|| दशमुखो भुवनभयङ्करस्तोषितशङ्करो निर्गतो रथवरे चटितः। चतुर्मुखं षड्मुखं च ध्यात्वैकस्मिल्लगित्वा ज्ञायते दैवेन धटितः।।१॥ (सारे जगत को भयभीत करने वाला दशमुखी रावण आशुतोष महादेव शंकर को संतुष्ट करके रथ पर चढ़कर निकला। मानो दैव ने चतुर्मुखी ब्रह्मा के (चार मुख) और (गणेश के अग्रज षण्मुख) कार्तिकेय के (छ मुख) कुल दश मुखों का ध्यान करके, इन दोनों के मुखों को एकत्र करके इस दश मुखवाले रावण को बनाया हो। 331.1) सौ पुंस्योद्दा // 332 // नाम्नोऽकारस्य सौ पुंस्योद् वा, 'जो' 'सो' यथा भवेत्। "अगलिअ-नेह-निचट्टाहं जोअणलक्खुवि जाउ / वरिस-सएण वि जो मिलइ सहि सोक्खहं सो गउ" ||1|| अगलितस्नेहनिवृत्तानां योजनलक्षमपि यातु। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (128) [सिद्धहेम०] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०४] वर्षशतेनापि यो मिलति सखि ! सौख्यानां स स्थाने ||1|| "वच्छहे गिण्हइ फलई जणु कडुपल्लव वज्जेइ। (जिनका स्नेह नष्ट नहीं हुआ है, अमर है, ऐसे स्नेह से परिपूर्ण तो वि महहुमु सुअणु जिवँ, ते उच्छङ्गि घरेइ"||१|| स्नेहियों के बीच लाख योजन का अंतर भी उनके स्नेह में विक्षेप नहीं वृक्षाद् गृह्णाति फलानि जनो कटुपल्लवान् वर्जयति। कर सकता है। सखि, ऐसे स्नेही यदि सौ साल बाद भी मिलते हैं ततोऽपि महाद्रुमः सुजनो यथा, तान् उत्सङ्गे धरति / / 1 / / तो वह क्षण सुख का अक्षय भंडार है // 332.1 / / (संसार के स्वार्थी मानव वृक्षों से फल प्राप्त करते हैं और पुंसीति किम् कटु अनुपयोगी समझकर पत्तों को छोड़ देते हैं। फिर भी परमकृपालु "अङ्गहिं अङ्गु न मिलिउ हलि ! अहरें अहरु न पत्तु / वृक्ष की महानता तो देखो उसी स्वार्थी मनुष्य को अपनी सुखद गोद पिय जोअन्तिहे मुह कमलु एम्बइ सुरउ समत्तु" रूपी शीतल छाया में बिठाता है। 336.1) [ अझैरङ्गं न मिलितं सखि ! अधरेऽधरो न प्राप्तः / म्यसो हुं // 337|| प्रियस्य पश्यन्त्या मुखकमलमेवमेव सुरतं समाप्तम् // ] || अतः परस्य तु पञ्चमी-बहुवचनस्य हुम् एति। एट्टि // 333 / / "दूरुड्डाणे पडिउ खलु, अप्पणु जणु मारेइ / टायाम् एत्त्वमकारस्य, वसन्तेण नहेण च / जिह गिरि-सिङ्गहुं पडिअ सिल अन्नु वि चूरु करेइ" ||1|| "जे महु दिण्णा दिअहडा, दइए पवसन्तेण / दूरोड्डानेन पतितः खल आत्मानं जनं मारयति / ताण गणंतिऍ अङ्गुलिउ जज्जरिआउ नहेण"||१|| ये मम दत्ता दिवसा दयितेन प्रवसता। यथा गिरिशृङ्गे पतिता शिला (स्वम्) अन्यमपि चूर्णीकरोति // 1 // तान् गणयन्त्या अडल्यो जर्जरिता नखेन / / 1 / / (दुर्जन ऊंची उड़ान भरने के बाद नीचे गिरकर स्वयं को मारता है (प्रवास पर जाते समय प्रियतम ने वापस आने की अवधि के रूप और स्वजनों को भी मारता है। (भारी नुकसान पहुंचाता है।) ठीक में जितने दिन कहे थे, उन्हें गिनते-गिनते नखों के साथ मेरी अंगुलियाँ इसी प्रकार जैसे किसी गिरि-शिखर से गिरी हुई शिला अपने स्वयं भी जर्जरित हो गई हैं // 333.11) के साथ अन्य को भी उखेड़ती, तोड़ती नीचे खींच लाती है-- पतन डिनेच // 33 // करती है-नष्ट करती है 337.1) इदेतौ स्तो डिना साकम्, अकारस्य पदे यथा / ङसः सु-हो-स्सवः // 33 // 'तले घल्लइ' इत्यत्र, 'तलि घल्लइ' वेष्यते। अतः परस्य डसः पदे 'स्सु सु हो' इमे भवन्ति / "सायरु उप्परि तणु धरइ तलि घल्लइ रयणाई। 'तसु सअणस्सु परस्सु वा, दुल्लहहो' निगदन्ति / सामि सुभिचु वि परिहरइ, संमाणेइ खलाई" ||1|| "जो गुण गोवइ अप्पणो, पयडा करइ परस्सु / सागर उपरि तृणं धरति तले क्षिपति रत्नानि। तसु हउं कलिजुगि दुल्लहहो बलि किञ्जउं सुअणस्सु // 1 // स्वामी सुभृत्यमपि परिहरति संमानयति खलान् / / 1 / / जो गुणान् गोपयति आत्मनः, प्रकटीकरोति परस्य / (सागर तृणों और तृण जैसी हलकी वस्तु को ऊपर उठाकर धरता तस्याहं कलियुगे दुर्लभस्य वलिं क्रिये सुजनस्य // 1 // है, मानो सिर पर उठाकर उनका सम्मान कर रहा हो और रत्नों को (इस स्वार्थी संसार में यदि कोई सज्जन अपने गुणों को प्रकट नहीं अपने तल में ढकेल देता है। ठीक इसी तरह कोई स्वामी अच्छे (सत्य करता-छिपाता है और दूसरों के गुणों को प्रकट ही नहीं बल्कि उनका वक्ता) सेवक को छोड़ देता है और दुष्ट सेवक का सम्मान करता है। गुणगान भी करता है तो आज के कलियुग में दुर्लभ दर्शनीय उस सज्जन यह दुःखद और मन दुभाने वाली बात है। 334.1) की मैं पूजा करता हूँ, नमन करता हूँ, बलिहारी जाता हूँ-हृदय के मिस्येदा // 33 // अन्तरतम से उसका सम्मान करता हूँ। 338.1) अत एत्वं या भिसि स्याद्, 'गुणेहिं गुणहिं' यथा / आमो हं // 336 / / "गुणहिं न संपइ कित्ति पर फल लिहिआ भुञ्जन्ति। अतः परस्य 'हं' आमः, पदे स्यात्, 'तणहं' यथा। केसरि न लहइ बोड्डिअवि गय लक्खेहिं घेप्पन्ति" ||1|| "तणहं तइजी भङ्गि नवि तें अवड-यडि वसन्ति / गुणैर्न संपदः कीर्तिः परं फलानि लिखितानि भुञ्जन्ति / अह जणु लग्गिवि उत्तरइ अह सह सई मज्जन्ति" केसरी न लभते कपर्दिकामपि गजा लक्षैर्गृह्यन्ते / / 1 / / तृणानां तृतीया भङ्गी नापि, ततो अवटतटे वसन्ति / (गुणों से कीर्ति प्राप्त होती है परन्तु सम्पत्ति-समृद्धि नहीं मिलती। अथ जनो लगित्वाऽपि उत्तरति अथ सह स्वयं मजन्ति"||१|| कहा जाता है कि संपत्ति दान से अवश्य मिलती है। देव लिखित (जो घास प्रवाहितजल या संग्रहित जल के किनारे तीन से साढ़े चार कर्मफल ही सबको भोगने पड़ते हैं। शक्तिशाली सिंह की एक कौड़ी फूट ऊंची उगी हुई होती है और उस जल में से दूसरी छोर जाने का मार्ग भी नहीं मिलती, जबकि हाथी के लाखों रूपये चुकाने पड़ते हैं-हाथी नहीं होता इसलिए वहां उगे हुए तृण को पकड़ते हुए लोग दूसरी ओर गंतव्य लाखों में खरीदें जाते हैं / 335.1) स्थान पर पहुँचते हैं। इन तृणों की दो ही अवस्था होती है। यह इन्हें पकड़ो ङसेर् हे-हू // 336|| वाले को सहारा देकर पार करता है या इन्हें पकड़कर जानेवाला जल प्रवाह अतः परस्य 'हे हु' इत्यादेशौ स्तो उसेः पदे। के कारण या अर्थात् जल के कारण फिसल कर डूब जाता है और यह वच्छहे वच्छहु यथा, रूपं वैभाषिक मतम् / तृण भी उसके साथ डूब जाता है। पार कर देना या डूब जाना यही Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सिद्धहेम०] (126) अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् / [अ०८पा०४] तृण की दो गति है। तीसरी कोई अवस्था नहीं। 336.1) हुं चेदुद्भ्याम् // 340 / / इदुद्भ्यां तु परस्याऽऽमो, भवेतां 'हुं हम्' इत्यम् / सिद्धं 'सउणिहं' तेन, 'तरुहुंच पदद्वयम्। प्रायोऽधिकाराद् हु क्वाऽपि, सुपोऽपि 'दुहुम्' इत्यपि / "दइव घडावइ वणि तरुहुँ सउणिहं पक्क फलाई / सो वरि सुक्खु पइट्ट णवि, कण्णहिं खल-वयणाइं / / 1 / / दैवो घटयति वने तरुणा शकुन्तानां पक्वफलानि / तद् वरं सुखं प्रविष्टानि नापि कर्णयोः खलवचनानि / / 1 / / (दैव ने वन में पक्षियों के लिए वृक्षों पर पक्के फल निर्माण किये यह अत्यंद सुखद और उत्तम कार्य किया,परन्तु दुर्जनों के वचनों का कान में प्रविष्ट करना यह दुःखद है। अच्छा नहीं है। 340.1) धवलु बिसूरइ सामिअहो गरुआ भरु पिक्खेवि / हउँ कि न जुत्तउ दुहुँ दिसेहिं खण्डइं दोण्णि करेवि ||2|| धवलः खिद्यति (विसूरइ) स्वामिनः गुरुं भारं प्रेक्ष्य / अहं कि न युक्तः द्वयोर्दिशोः खण्डे द्वे कृत्वा // 2 // (आज भी देश के कुछ भाग में खेत जोतने के कार्य में जिसके पास एक ही बैल होता है तो जुताई के समय धूरा के एक छोर पर बैल और दूसरी ओर बैल का स्वामी ही होता है। ऐसे जुताई के समय धवलबैल अपने स्वामी के अत्यंत गुरू भार को देखकर खिन्न दुःखी होता है और प्रभु से प्रार्थना करता हुआ कहता है कि मेरे दो दुकड़े क्यों न हो गये। दो दुकड़े होकर मैं ही दोनों ओर क्यों न जोता गया ? (मुझसे मेरे स्वामी का दुःख नहीं देखा जाता 340.2) ङसि-भ्यस्-डीनां हे-हुं हयः // 341 / / इदुद्भ्यां तु परेषां भ्यस्-डसि-डीनां 'हि-हुं-हयः'। [इसेहूँ | तरुहे [भ्यसो हुं] तरुहुं रूपं, तथा [ डेहि ] कलिहि सिध्यति // "गिरिहे सिलायलु तरुहे फलु घेप्पइ नीसावन्नु / घरु मेल्लेप्पिणु माणुसहं तो वि न रुचइ रन्नु ||1|| गिरेः शिलातलं तरोः फलं गृह्णाति निःसामान्यः / गृहं मुक्त्वा मनुष्येभ्यः ततोऽपि न रोचतेऽरण्यम् // 1 // (सर्वजन सामान्य किसी भी भेदभाव के बिना अरण्य के पर्वत से शिला आदि और वृक्षों से फल आदि प्राप्त करते हैं। फिर भी सांसारिक स्वार्थी जन को घर छोड़कर अरण्य प्रिय नहीं है। 341.1) तरुहुं वि वक्कलु फलु मुणि वि परिहणु असणु लहंति। सामिहुं एत्तिउ अग्गल आयरु मिच्चु गृहन्ति ||2|| तरुभ्योऽपि वल्कलं फलं मुनयोऽपि परिधानमशनं लभन्ते / स्वामिभ्य इयदर्गलमायं भृत्या गृह्णन्ति // 2 // (मुनिजन वृक्षों से वल्कल वस्त्र के रूप में और फल भोजन के रूप में प्राप्त कर लेते हैं। जबकि सेवकजन अपने स्वामियों से (वस्त्र और भोजन के उपरांत) मान-सम्मान भी (अधिक रूप में) प्राप्त करते हैं। 341.2) अह विरल-पहाउ जि कलिहि धम्मु ||3|| अथ विरलप्रभावः एव कलौ धर्मः // 3 // (अरर ! कलियुग में अब धर्म का प्रभाव भी कम हो गया है। 341.3) आट्टो णानुस्वारो // 342 // अतः परस्याष्टायास्तु, णानुस्वारौ मतौ, पदे / 'दइएं पवसन्तेण, द्वाविमौ सिद्धिमृच्छतः / एं चेदुतः // 343 // इदुद्भ्यां टा-पदे 'ए' चात् णानुस्वारौ, मतास्त्रयः / अतःसिध्यन्ति रूपाणि, 'अग्गिं अग्गिण अग्गिएं'। "अग्गिएँ उण्हउ होइ जगु, वाएं सीयल ते / जो पुण अग्गिं सीअला, तसु उण्हत्तणु केव॑ / / 1 / / अग्निनोष्णं भवति जगत् वातेन शीतलं तथा। यः पुनरग्निनाऽपि शीतलस्तस्योष्णत्वं कथम्?||१|| (सकल संसार के जन अग्नि से उष्णता तथा वायु से शीतलता प्राप्त करते हैं / परन्तु जो अग्नि से भी शीतलता प्राप्त करते हैं, उनकी उष्णता कैसी होगी? (अर्थात् वह व्यक्ति कृद्ध नहीं हो सकता। साधु संत-तपस्वी तप रूपी अग्नि से शीतलता प्राप्त करते हैं / 343.1) "विप्पिअ-आरउ जइवि पिउ, तोवि तं आणहि अज्जुय। अग्गिण दड्डा जइवि घरु तो ते अग्गिं कज्जु // 2 // विप्रियकारको यद्यपि प्रियस्तथाऽपि तमानयाद्य / अग्निना दग्धं यद्यपि गृहं ततोऽपि तेनाग्निना महत्कार्यम् / / 2 / / (हे सखि, जा। भले ही प्रियतम अप्रिय करने वाला है, फिर भी तू उसे आज लेकर आ / अग्नि कभी घर जला देती है, फिर भी अग्नि से उपयोगी कार्य तो होते ही हैं। 343.2) स्यम् जस्-शसां लुक् ||34|| स्यम्-जस्-शसा लुगत्रास्तु, स्यम्- जसां स्यम्- शसां यथा। "एइ ति घोडा एह थलि एइ ति निसिआ खग्ग / एत्थु मुणीसिम जाणिअइ जो नवि बालइ वग्ग"||१|| (देखो 330/4) [ अत्र स्यमजसा लुक्] "जिवे जिवे वंकिम लोअणहं णिरु सामलि सिक्खेइया तिवें ति वम्महु निअय-सरु खर-पत्थरि तिक्खेइ"|२|| अत्र स्यमशसा लुक् ] यथा यथा वक्रत्वं लोचनानां श्यामला शिक्षते। तथा तथा मन्मथो निजशरान् खरप्रस्तरे तीक्ष्णयति / / 2 / / (जैसे जैसे कोई श्यामा आँखों से कटाक्ष करना सीखती है, वैसे वैसे पुष्पधन्वा-कामदेव खुरदरे पत्थर पर अपने अस्त्र-काम-बाणों को ज्यादा धारदार करता है। 344.2) षष्ठ्याः // 345|| षष्ठ्याः प्रायो लुगत्रास्तु, तदुदाहरणं यथा / "संगर-सअएहिं जु वण्णिअइ देक्खु अम्हारा कन्तु / अइमत्तहं चत्तङ् कुसहं गय-कुम्भई दारन्तु" ||1|| Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (130) [सिद्धहेम.] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०४] संगरशतेषु यो वर्ण्यते पश्य मदीयं कान्तम्। पिय-वयणु अलहन्तिअहे तुच्छकाय-वम्मइ-निवासहे। अतिमत्तानां त्यक्ताकुशानां गजानां कुम्भान् दारयन्तम् / / 1 / / अन्नु जु तुच्छउँ तहे घणहे तं अक्खणह न जाइ / (सैकड़ो युद्धों में जिसका वर्णन किया गया है कि जो अत्यंत मत्त कटरि थणंतरु मुद्धडहे जे मणु विच्चि ण माइ ||1|| और अंकुश की भी प्रवाह न करनेवाले हाथियों के गण्ड-स्थल को तुच्छाच्छरोमावल्याः तुच्छारागायाः तुच्छतरहासायाः। चीरने वाला है, उस मेरे प्रियतम को हे सखि, जरा देख तो सही। प्रियवचनमलभमानायाः तुच्छकायमन्मथनिवासायाः / / कितना वीर है मेरा प्रियतम ! 345.1) अन्यद् यत्तुच्छं तस्याः धन्यायाः तदाख्यातुं न याति / पृथग्योगः कृतो लक्ष्यानुरोधार्थोऽत्र सूत्रयोः / आश्चर्य स्तनान्तरं मुग्धायाः येन मनो वर्त्मनि न याति / / 1 / / आमन्त्र्ये जसो होः // 346|| (पतले कटिभागवाली, कम बोलनेवाली,(शरीर पर) नहीं वत् आमन्त्र्येऽर्थे जसः स्थाने 'हो' स्याल्लोपस्य बाधकः / रोमवाली, कम प्रेम दर्शानवाली, कम हँसनेवाली, प्रियतम के समाचार न पाने से दुबले-पतले शरीरवाली, घर के अन्दर ही निवास स्याद् अप्पहो तरुणिहो, तथा तरुणहो यथा / करनेवाली, जिसके कृश शरीर में मदन का निवास है ऐसी उस मुग्धा तरुणहो तरुणिहो, मुणिउ मइँ करहु म अप्पहो घाउया।१।। सुंदरी का सब कुछ अल्प है, ऐसा नहीं कहा जा सकता, कारण कि हे तरुणाः हे तरुण्यः (च) ज्ञातं मया आत्मनः घातं मा कुरुत या।१।। आश्चर्य यह है कि उसके दोनों स्तनों का अन्तर इतना अत्यल्प है (हे तरुणो, हे तरुणियों, मैं समझ गया हूँ। अब आप आघात न करें। कि उनके बीच के मार्ग से किसी अन्य का मन प्रवेश ही नहीं कर 346.1) सकता। 350.1) मिस्सुपोर्हि // 347 // फोडेन्ति जे हियेडउँ अप्पणउँ ताहँ पराई कवण घृण। भिस्सुपोर् 'हिं' भवेत्, [ सुप् ] मग्गेहिं [ भिस् ] 'गुणेहिं प्रयुज्यते। रक्खेज्जहु लोअहो अप्पणा बालहे विसम थण // 2 // भाईरहि जि भारइ मग्गे हि तिहि वि पयट्टइ / / 1 / / स्फोटयतः यो हृदयं आत्मीयं तयोः परकीया (परविषये) का घृणा। भागीरथी यथा भारते त्रिषु मार्गेषु प्रवर्तते / / 1 / / रक्षत लोकाः आत्मानं बालायाः; जातौ विषमौ स्तनौ।।२।। (जिस तरह भागीरथी गंगा तीन ओर से (मार्ग से) भारत में प्रवेश (जो स्तन अपना हृदय फोड़कर विकसित होते हैं, उन्हें दूसरों पर क्या दया आयेगी? हे तरुण लोगों, उस तरुणी से अपनी रक्षा करो, करती है / 347.1) जिसके स्तन अभी पूर्ण विकसित हो गये हैं। 350.2) स्त्रियां जस्-शसोरुदोत् // 348|| भ्यसामोर्तुः // 351 // स्त्रियां लोपापवादौ द्वावुदोतौ जस्- शसोः पृथक् / स्त्रियां भ्यसामोः स्थाने हुः, 'वयंसिअहु'गद्यते। यथा- जज्जरियाओ अंगुलिउ स्याद् द्वयं जसः / भल्ला हुआ जु मारिआ बहिणि महारा कन्तु / "विलासिणीओ सुन्दर-सव्वङ्गाउ' शसःस्मृतम्। लज्जेज्जन्तु वयंसिअहु जइ भग्गा घरु एन्तु ||1|| यथासंख्यनिवृत्यर्थो, भेदोऽत्र वचनस्य तु / भव्यं (साधु) भूतं यन्मारितः भगिनि अस्मदीयः कान्तः। (जसः) अंगुलिउ जज्जरियाउ नहेण // अलजिष्यत् वयस्याभ्यः यदि भग्र गृह ऐष्यत् / / 1 / / (शसः) सुन्दरसव्वङ्गाउ विलालिणीओ पेच्छन्ताण ||1|| (हे बहिनि, अच्छा हुआ जो मेरा प्रियतम युद्ध में मारा गया। यदि सुन्दरसर्वाङ्गी: विलासिनीः प्रेक्षमाणानाम् / / 1 / / भागकर घर आता तो मैं अपनी सखियों के सामने कितनी लज्जित (सर्वांग सुंदर विलासिनियों के दर्शकों का टोटा नहीं है। 348.1) होती? 351.1) ट ए // 34 // डेहि // 35 // स्त्रियां टायाः पदे स्याद् 'ए' चन्दिमए च कन्तिए। स्त्रियां डेहि यथा 'मह्याम्' इत्येतत् 'महिहि स्मृतम्। "नियमुहकरहिं वि मुद्ध कर अन्धारइ पडिपेक्खइ॥ वायसु उड्डावन्तिअए पिउ दिट्ठउ सहस त्ति / ससिमण्डल चन्दिमए पुणु काई न दूरे देक्खइ?"||१|| अद्धा वलया महिहि गय अद्धा फुट्ट तड त्ति ||1|| वायसं उड्डापयन्त्याः प्रियो दृष्टः सहसेति। निजमुखकरैरपि मुग्धा करमन्धकारे प्रत्यवेक्षते। अर्धानि वलयानि मह्यां गतानि अर्धानि स्फुटितानि तटिति॥१॥ शशिमण्डलं चन्द्रिकया पुनः कथं न दूरे पश्यति? ||1|| (कौवा काँउ-काँउ करता है, लेकिन प्रियतम तो आता नहीं, यह (वह मुग्धा सुंदरी अन्धकार में भी अपने मुख के किरणों से अपना सोचकर कौए को उड़ाने लगी तो (कृश काय) उसके हाथ से आधीहाथ देखती है, तो क्या पूर्ण चन्द्र की चाँदनी में वह दूर की वस्तु नहीं चूड़ियाँ जमीन पर गिर पड़ी। इतने में ही उसने प्रियतम को आता देखती होगी? | 346.1 // ) हुआ देखा तो हर्षोल्लास से प्रफुल्लित उसके हाथ की बाकी रही आधी ङस्-ङस्योर्हे // 350 // चूड़ियाँ तड तड् करके टूट गई। 352.1) स्त्रियां 'हे' डस्ङस्योः स्याद्, धणहे बालहे यथा। क्लीबे जस्- शसोरिं ||353|| तुच्छमध्यायाः तुच्छलजल्पनशीलायाः। क्लीबे 'ई' जस्-शसाः स्थाने 'गण्डाई' 'कुलई यथा। तुच्छच्छ-रोमावलिहे तुच्छ-राय तुच्छयर-हासहे। / कमलई मेल्लवि अलि-उलई करि-गण्डाइँ महन्ति। . Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (131) [सिद्धहेम. अभियानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०४] असुलहमेच्छण जाहँ भलि ते ण वि दूर गणन्ति // 1 // अङ्गेषु ग्रीष्मः सुखासिकातिलवने मार्गशीर्षः / कमलानि मुक्त्वा अलिकुलानि करिगण्डान् कांक्षन्ति। तस्याः मुग्धायाः मुखपङ्कजे आवासित शिशिरः // 2 // असुलभं एष्टुं येषां निर्बन्धः (भलि) ते नापि (-नैव) दूर (प्रियतम के विरह में इस मुग्धा संदरी की, एक आंख से श्रावण मास गणयन्ति / / 1 / / और दूसरी आंख से भाद्रपद बरस रहा है ! जमीन पर स्थित बिस्तर (कमलों के पराग को छोड़कर भ्रमर-वृन्द हाथियों के गण्ड-स्थलों पर माघ है / गालों पर शरद ऋतु है,अंग पर ग्रीष्म है। तिल के खेत की इच्छा करते हैं। दुर्लभ वस्तु के आग्रही वे प्राप्ति के लिए कभी दूरी में बैठने के आसन (सुखासिका) पर मार्गशीर्ष है, एवं मुख-कमल पर का विचार नहीं करते। 353.1) शिशिर ऋतु है। 357.2) कान्तस्यात उं स्यमोः // 354|| हिअडा फुट्टि तड त्ति करि कालक्खवें काई / 'क्लीबे ककारान्तनाम्नोऽत 'उ' स्यात् परयोः स्यमोः। देक्खउँ हय-विहि कहि ठवइ पइँ विणु दुक्ख-सयाई॥३|| हृदय स्फुट तटिति (शब्द) कृत्वा कालक्षेपेण किम् / पसरिअसंतुच्छउं, भग्गउंचाऽभिधीयते। पश्यामि हतविधिः क स्थापयति त्वया विना दुःखशतानि ||3|| भग्गउँ देक्खिवि निअय-बलु बलु पसरिअउँ परस्सु / (हे मेरे दुःखी हृदय, तू तङ्-तड़ करके टुकड़े-टुकड़े हो जा-फट जा, उम्मिल्लइ ससि-रेह जिद करि करवालु पियस्सु // 1 // देरी करने से क्या फायदा? मैं भी देखती हूँ कि दैव तेरे सैकड़ों दुःखों भग्नकं दृष्ट्वा निजकं बलं बलं प्रसृतकं परस्य। को कहाँ रखता है ? 357.3) उन्मीलति शशिलेखायथा करे करवालः प्रियस्य।।१।। यत्तत्किभ्यो ङसो डासुर्नवा / / 358|| (युद्ध-भूमि में स्वयं की सेना भागती हुई देखकर तथा शत्रु-सेना यत्तकिंभ्यो ङसो डसुर, अदन्तेभ्यो विकल्प्यते। फैलती हुई देखकर मेरे प्रियतम के हाथ में तलवार चंद्रलेखा के समान जासु तासु तथा कासु, सद्भिरेवं निगद्यते। चमचमाने लगी। 354.1) कन्तु महारउ हलि सहिए निच्छई रूसइ जासु। सर्वादेर्डसेहाँ // 355 / / अस्थिहिं सस्थिहिं हस्थिहिँ विठाउ वि फेडइ तासु / / 1 / / सर्वादीनामकारान्ताद्,ङसेहाँ स्याद्, जहां तहां। कान्तः अस्मदीयः हला सखिके निश्चयेन रुष्यति यस्य (=यस्मै)। किमो डिहे वा // 356|| अस्त्रैःशस्त्रैः हस्तैरपि स्थानमपि स्फोटयति तस्य॥१॥ किमोऽदन्ताद् डसेर् वा स्याद्, 'डिहे,' रूपं 'किहे' यथा। (हे सखि, मेरा प्रियतम जिससे निश्चय रूप से रुष्ट होता है, उस जइ तहे तुट्टउ नेहडा म. सुहुँ न वि तिलतार। व्यक्ति का मान-सम्मान, स्थान सभी वह अपने अस्त्र से, शस्त्र से या तं किहे वते हि लोअणे हि जोइज्जउँ सयवार ||1|| स्वयं के हाथों से तहस-नहस करता हुआ फोड़ डालता है। 358.1) यदि तस्याःत्रुटयतु स्नेहः मया सह नापि तिलतारः। जीविउ कासु न वल्लहउँ धणु कासु न इट्ट / तद् कस्माद्द्वक्राभ्यां लोचनाभ्यां दृश्ये अहं शतवारम्॥१॥ दोणि वि अवस-निवडिअइं तिण-सम गणइ विसिट्ठ / / 2 / / (यदि मेरे ऊपर का अत्यंत दृढ़ स्नेह टूट ही गया हो और तिलांश जीवितं कस्य न वल्लभकं धनं पुनः कस्य नेष्टम् / भी नहीं रहा हो, तो मैं सैकड़ों बार बाँकी दृष्टि से भला क्यों देखा द्वे अपि अवसरनिपतिते तृणसमे गणयति विशिष्टः // 2 // जा रहा हूँ। 356.1) (प्रतिदिन लोगों को श्मसान में ले जाते हुए देखते हैं। फिर भी जीवन किसे प्रिय नहीं है ? धन की इच्छा किसे नहीं है? परंतु योग्य समय डेहि // 357|| आने पर विशिष्ट व्यक्ति इन दोनों का तृण के समान त्याग कर देते सर्वादीनामकारान्ताद्, डेः स्थाने 'हिं यथा 'जहिं'। हैं / 358.2) जहिँ कप्पिज्जइ सरिण सरु छिज्जइ खग्गिण खग्गु / स्त्रियां डहे // 356 // तहिँ तेहइ भड-घड-निवहि कन्तु पयासइ मग्गु / / 1 / / यत्तत्किभ्यो 'डहे' वाऽस्तु,डसः स्थाने स्त्रियां यथा। यत्र यस्मिन् कल्प्यते शरेण शरः छिद्यते खङ्गेन खङ्गः। जहे तहे कहे चैतत्, त्रयं सिद्धिं समश्नुते। तस्मिन् तादृशे भटघटानिवहे कान्तः प्रकाशयति मार्गम्।।१।। यत्तदः स्यमोधु त्रं // 360 // (युद्ध भूमि में जहां बाण से बाण टकराते हैं और तलवार से तलवार यत्तदोस्तुपदे 'g''त्रं,' वा स्यातां परयोः स्यमोः। कटती हो,ऐसे समय में योद्धाओं के समुदाय में मेरा प्रियतम अन्य नाहु प्रङ्गणि चिट्ठदि, धंत्रं रणि करदिन। योद्धाओं के लिए मार्ग प्रशस्त करता है / 357.1) प्राङ्गण तिष्ठति नाथः तद् रणे करोति न भ्रान्तिम् // 1 // एकहिं अक्खिहिं सावणु अन्नहिं भद्दवउ (मेरा नाथ (पति) प्रागंण में खड़ा है, इसीलिए वह निश्चय ही रणक्षेत्र माहउ महिअल-सत्थरि गण्ड-त्थले सरउ / में भ्रमण नहीं कर रहा है। 360.1) अङ्गि हिं गिम्ह सुहच्छी तिल-वणि मग्गसिरु इदम इमुः क्लीवे // 361 / / तहे मुद्धहे मुह-पकइ आवासिउ सिसिरु // 2 // इमुः स्यादिदमः क्लीबे, स्यमोर्, 'इमु कुलु' स्मृतम्। एकस्मिन् अक्षिण श्रावणः अन्यस्मिन् भाद्रपदः / एतदः स्त्री-पु-क्लीबे एह एहो एहु // 362 / / माधवः (माघः) महीतलस्रस्तरे गण्डस्थले शरत्। स्त्री-पुं-क्लीबे एह एहो, एहु' स्यादेतदः स्यमोः। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सिद्धहेम०] (132) अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०४] 'कुमारी एह' वा, 'एहु ठाणु' 'एहो नरु' स्मृतम्। एह कुमारी एहो नरु एहु मणोरह-ठाणु / एहउँ वढ चिन्तन्ताहं पच्छइ होइ विहाणुं ||1|| एषा कुमारी एष (अहं) नरः एतन्मनोरथस्थानम्। एतत् मूर्खाणां चिन्तमानानां पश्चाद् भवति विभातम्॥१।। (यह कुमारी है। यह मैं पुरुष हूँ। यह हमारे मनोरथों का महल है। केवल मूर्ख ही ऐसा विचार दीर्घकाल तक करते ही रहते हैं, तब तक तो रात बीत जाती है, और प्रभात हो चुका होता है। 362.1) एइर्जस्-शसोः // 363 / / एतदो जस्-शसोर् 'एइः,' एइ चिट्ठन्तिपेच्छ वा। अदस ओइ // 364|| अदसो जस्-शसोर् 'ओइ, ओइ चिट्ठन्ति पेच्छ वा।। जइ पुच्छह घर वड्डाइं तो वड्डा घर ओइ। विहलिअ-जण-अब्भुद्धरणु कन्तु कुडीरइ जोइ||१|| यदि पृच्छथ महान्ति गृहाणि तद् महान्ति गृहाणि अमूनि। विह्न लितजनेभ्युद्धरणं कान्तं कुटीरके तत्र पश्य!।१।। (यदि किसी बड़े घर के बारे में पूछना है तो वे देखो सामने बड़े घर हैं / परन्तु यदि दुःखी लोगों के उद्धार करनेवाले के विषय में पूछना है, तो देखो मेरा प्रियतम झोपड़ी में वो रहा / 364.1) इदम आयः // 365|| आयः स्याद्, इदमः स्यादौ, आयहो आयइं यथा। आयईं लोअहों लोअणइँ जाई सरई न भन्ति। अप्पिएँ दिट्ठइ मउलिअहिं पिऍ दिट्ठइ विहसन्ति / / 1 / / यदि पृच्छथलोकस्य लोचनानि जाति स्मरन्ति न भ्रान्तिः। अप्रिये दृष्ट मुकुलन्ति प्रिये दृष्ट विकसन्ति।।१।। (लोगों के इन नयनों (नयति पूर्विणिजन्मिनि) को पूर्व जन्म का स्मरण होता है, इसमें दो मत नहीं कोई शंका नहीं। इसीलिए ये अप्रिय वस्तु देखकर तुरंत संकुचित होते हैं और प्रिय वस्तु देखकर प्रफुल्लित होते हैं / 365.1) सोसउ म सोसउ चिअ उअही वडवानलस्स किं तेण। जं जलइ जले जलणो आएण वि किं न पञ्जत्तं // 2 // शुष्यतु मा शुष्यतु एव (-या) उदधिः वडवानलस्य किं तेन। यद् ज्वलति जले ज्वलनः एतेनापि किं न पर्याप्तम् // 2 // (समुद्र सूखे या न सूखे, इससे बड़वानल के सम्मान में क्या फर्क पड़ता है। अग्नि जल में जलता है। यही पराक्रम उसके लिए पर्याप्त है। 365.2) आयहोदड्ड-कलेवरहो जं वाहिउ तं सारु / जइ उट्ठभइ तो कुहइ अह डज्झई तो छारु // 3 // अस्य दग्धकलेवरस्य यद् वाहितं (-लब्धं) तत्सारम्। यदि आच्छाद्यते तत्कुथ्यति यदि दह्यते तत्क्षारः // 3 // (इस दग्ध-जलते हुए शरीर से जो कुछ भी उपलब्ध होता है, वही उत्तम है। यदि इसे ढंका जाये तो यह सड़ता है, और यदि इसे जलाया जाये तो इसकी राख ही हाथ लगती है / 365.3) सर्वस्य साहो वा // 366|| सर्वशब्दस्य साहो वा, सिद्ध 'साहु वि सव्यु वि'। साहु वि लोउ तडप्फडइ वड्डत्तणहों तणेण। वड्डप्पणु परि पाविअइ हत्थिं मोक्कलडेण ||1 // सर्वोऽपिलोकः प्रस्पन्दते (तडप्फडइ) महत्त्वस्य कृते / महत्त्वं पुनः प्राप्यते हस्तेन मुक्तेन // 1 // (इस नश्वर संसार में बड़प्पन पाने के लिए सब लोग तड़फड़ाते हैं। परन्तु बड़प्पन तो मुक्त मन से, मुक्त हस्त से दान देने पर ही प्राप्त होता है। 366.1) किमः काई-कवणौ वा // 367 / / वा किमः 'कवणो काई, काई दूरे न देक्खइ। 'भण कजें कवणेण, पक्षे 'गजहि किं खल'। जइ न सु आवइ दुइ घरु काइँ अहो मुहुँ तुज्झु / वयणु जु खण्डइ तउ सहिए सो पिउ होइन मज्झु / / 1 / / यदि न स आयाति दूति गृहं कि अधो मुखं तव। वचनं यः खण्डयति तव सखिके स प्रिय भवतिन मम॥१॥ (हे दूति, यदि वह प्रियतम तेरे कहने पर भी घर न आता है, तो तू नीचा मुंह किये हुए क्यों है? हे सखि, जो तेरा वचन नहीं मानता है, वह मुझे भी प्रिय नहीं है। इसलिए कि तू उसे प्रिय है और इसी कारण अधर और गाल पर पड़े निशान छुपाने लिए तू नीचा मुँह किये हुए है। 367.1) सुपुरिस कङ्गु हे अणुहरहिं भण कब्जें कवणेण / जिवँ जिवँ वडुत्तणु लहहिं तिव तिवँ नवहि सिरेण // 2 // सत्पुरुषाः कङ्गोः अनुसरन्ति भण कार्येण केन / यथा यथा महत्त्वं लभन्ते तथा तथा नमन्ति शिरसा // 2 // (बताइए कि किस कारण से सत्पुरुषजन कंगु नामक अन्न के पौधे का अनुकरण करते हैं ? इसलिए कि जैसे जैसे कंगु का भारबड़प्पन बढ़ता जाता है, वैसे वैसे उसका सिर नीचे की ओर झुकने लगता है। नम्र बनता जाता है। 367.2) जइ ससणेही तो मुइअ अह जीवइ निन्नेह / बिहि वि पयारे"हि गइअ घण किं गजहि खल मेह // 3 // यदि सोहा तन्मृता अथ जीवति निःरोहा। द्वाभ्यामपि प्रकाराम्भां गतिका(गता) धन्या, किं गर्जसि खल मेघ // 3 // (यदि प्रियतमा का मुझ पर स्नेह है, तब तो वह मर गई होगी। और यदि वह जीवित है तो उसका मुझ पर प्रेम नहीं है, दोनों ही तरह से प्रिया मेरे, लिए नष्ट हो गई है। इसलिए हे दुष्ट मेघ, तू व्यर्थ ही क्यों गरज रहा है? 367.3) युष्मदः सौ तुहुं // 368|| युष्मदः सौ 'तुहं' इत्यादेशः स्यात्,त्वं 'तुहं ततः। भमर म रुणझुणि रण्णडइ सा दिसि जोइ म रोइ। सा मालइ देसन्तरिअ जसु तुहुँ मरहि विओइ||१|| भ्रमर मा रुणझुणशब्दं कुरु तां दिशं विलोकय मा रुदिहि। सा मालती देशान्तरिता यस्याः त्वं म्रियसे वियोगे॥१॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सिद्धहेम.] 111) अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०४] (हे शठ भ्रमर, वन में तू व्यर्थ ही गुनगुन मत कर / उस दूसरी तम्हासमा दिशा की तरफ देख, रो रो मत कर / जिस मालती के वियोग में तू मर रहा है वह तो अन्य वन में हैं। 365.1) जस्-शसोस्तुम्हे तुम्हइं // 366 / / युष्मदो जस्-शसोस् 'तुम्हे, तुम्हई' च पृथक् पृथक् / जाणइ तुम्हइं तुम्हे, तुम्हे पेच्छइ तुम्हई। यथासंख्यनिवृत्त्यर्थो भेदोऽत्र वचनस्य तु॥ टा-ड्यमा पइंतई // 370 / / 'अम्टा डि' इत्येतैः सार्ध, युष्मदस्तु 'तई पई / 'त्वां त्वया त्वयि' इत्येषां, स्थाने वाच्यं 'तई 'पई। पइँ मुक्काह वि वर-तरु फिट्टइ पत्तत्तणं न पत्ताणं / तुह पुणु छाया जइ होज कह वि ता तेहिं पत्तेहिं ||1|| त्वया मुक्तानामपि वरतरो विनश्यति (फिट्टइ) न पत्रत्वं पत्राणाम्। तव पुनः छाया यदि भवेत् कथमपि तदा तैः पत्रैः (एव)॥१॥ (हे श्रेष्ठमहान वृक्ष, तुझसे मुक्त होकर भी पत्ते पत्ते ही रहते हैं कहलाते हैं, उनका पत्तापन नष्ट नहीं होता है। और तो और तेरी हर प्रकार की छाया पत्तों के कारण ही है। (आज तक किसी ने पत्तों को यश नहीं दिया कि 'पत्तों की छाँव में / संसार में केवल स्वामी ही टूटता है। सेवक यहां नहीं तो और कहीं फिर सेवक हो जाता है। 370.1) महु हिअउँ तई ताए तुहुँ स वि अन्ने विनडिजइ। पिअ काइँ करउँ हउँ काइँ तुहँ मच्छे मच्छु गिलिज्जइ / / 2 / / मम हृदयं त्वया, तया त्वं सापि अन्येन विनाट्येत। प्रिय किं करोम्यहं किं त्वं मत्स्येन मत्स्यः गिल्यते॥२॥ (मेरा हृदय तूने जीता है, उसने तुझे जीता है, और वह भी अन्य के द्वारा चाही जा रहा है। पीड़ी जा रही है। हे प्रियतम, मैं क्या करूँ? तुम भी क्या करो? वास्तव में एक मछली दूसरी मछली से निगली जा रही है। 370.2) पइँ मई बेहि वि रण-गयहिं को जयसिरि तक्केइ / केसहिं लेप्पिणु जम-धरिणि भण सुहु को थक्केइ // 3 // त्वयि मयि द्वयोरपि रणगतयोः को जयश्रियं तर्कयति। केशैर्गृहीता यमगृहिणी भण सुखं कस्तिष्ठति // 3 // (तेरे और मेरे दोनों के ही युद्धभूमि में पहुंचने पर अन्य कौन भला विजयश्री की कल्पना करेगा? यम की पत्नी को केशों से पकड़ने वाला, भला कैसे सुख से रह सकता है? 370.3) पइँ मेल्लन्तिहे महु मरणु मइँ मेल्लन्तहो तुज्झु / सारस जसु जो वेग्गला सो वि कृदन्तहो सज्झु / / 4|| त्वां मुञ्चन्त्याः मम मरणं मां मुञ्चतस्तव / सारसः (यथा) यस्य दूरे (वेग्गला) स कृतान्तस्य साध्यः।।४।। (तुम्हें छोड़ते ही मेरा मरण होगा, मुझे छोड़ते ही तुम्हारा मरण होगा। जो सारस (युगल में से) दूर होगा वह यमराज का शिकार होगा। / (हमारी सारससी बेलड़ी है। 370.4) मिसा तुम्हेहिं // 371 / / युष्मदस्तु भिसा साकं, 'तुम्हेहिं' इति पठ्यते। तुम्हें हि अम्हें हि जंकिअउं दिट्ठउँ बहुअ-जणेण। तं तेवडउ समर-भरु निजउ-एक-खणेण / / 1 / / युष्माभिः अस्माभिः यत्कृतं दृष्ट बहुकजनेन। तत् (तदा) तावन्मात्रः समरभरः निर्जितः एकक्षणेन।।१।। (तुमने और हमने रणांगण में जो युद्ध किया, उसे बहुत लोगों ने आश्चर्य चकित होकर अपनी आँखों से देखा / उस समय इतना बड़ा युद्ध हम लोगों ने क्षण मात्र में जीता था। 371.1) ङसिङस्भ्यां तउ तुज्झ तुध // 372 / / ङसि-डस्भ्यां सह 'तउ, तुज्झ, तुध्र युष्मदः। 'तव त्वत्' अनयोः स्थाने, 'तुज्झ' 'तुध्र' 'तउ' त्रयम्। तउ गुण-संपइ-तुज्झ मदि तुध्र अणुत्तर खन्ति। जइ उप्पत्तिं अन्न जण महि-मंडलि सिक्खन्ति / / 1 / तव गुणसंपदं तव मतिं तव अनुत्तरां क्षान्तिम्। यदि उत्पद्य अन्याजनाः महीमण्डले शिक्षन्ते॥१॥ (हे वीर, भूमण्डल पर जन्म लेकर, अन्य लोग तेरी गण सम्पदा, तेरी मति और तेरी अनुपम सर्वोतम क्षमा करने की रीत को सीखते है। 372.1) भ्यसाम्भ्यां तुम्हहं ||373|| युष्मदस्तु पदे, साकं भ्यसाम् भ्यां, तुम्हहं मतम्। युष्मभ्यं तुम्हहं वाच्यं, तथा युष्माकमित्यपि / तुम्हासु सुपा // 37 // युष्मदस्तुपदे, साकं सुपा'तुम्हासु' पठ्यते। सावस्मदो हउँ // 375|| अस्मदः सौ परे रूपं, 'हां' इत्यभिधीयते। 'दुल्लह अहो कलजुगि हउंतसु' निदर्शनम्। जस्-शसोरम्हे अम्हइं // 376 / / अस्मदो जस्-शसोर् 'अम्हे अम्हई' च पृथक् पृथक् / अम्हे थोवा रिउ बहुअकायर एम्व भणन्ति। मुद्धि निहालहि गयण-यलु कइ जण जोण्ह करन्ति ||1|| वयं स्तोकाः रिपवः बहवः कातराः एवं भणन्ति। मुग्धे निभालय गगनतलं कतिजनाः ज्योत्स्ना कुर्वन्ति // 1 // (हम थोड़े हैं, शत्रु बहुत है, ऐसा कायर जन कहते हैं। हे मुग्धे, रात्रि को आकाश की ओर देखना, कितने हैं, जो चांदनी प्रदान करते हैं। (तारों भरे आकाश में केवल चांद एक ही है, जो चांदनी फैलाता है, अन्य कोई भी नहीं / 376.1) अम्बणु लाइवि जे गया पहिअ पराया के वि / अवसन सुअहि सुहच्छिअहिं जिवे अम्हइँ तिवं ते वि॥२॥ अम्लत्वं लागयित्वा ये गताः पथिकाः परकीयाः केऽपि / अवश्यं न स्वपन्ति सुखासिकायां यथा वयं तथा तेऽपि // // (स्नेह लगाकर जो कोई प्रिय-पथिक परदेश गया है, वे अवश्य ही हमारी तरह की सुख से नहीं सो सकते होंगे। 376.2) टा-ड्यमा मइं // 377|| 'अम्टा डि' इत्येतैः सार्धम्, अस्मदस्तु भवेद् 'मई'। 'मां मया मयि' इत्येषां, स्थाने वाच्यं मई' सदा। मइँ जाणिउँ पिअ विरहिअहं क विधर होइ विआलि। णवर मिअङ्कु वि तिह तवइ जिह दिणयरु खयगालि / / 1 / / Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (134) [सिद्धहेम० अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०४] मया ज्ञातं प्रिय विरहितानां कापिधरा भवति विकाले। घुघराले बालों की लटें ऐसे शोभायमान हैं जैसे ये अंधकार में बच्चे मानो केवलं (-परं) मृगाङ्कोऽपि तथा तपति यथा दिनकरः क्षयकाले // 1 // एकत्रित होकर क्रीड़ा कर रहे हों। 382.1) (हे प्रियतम, मैंने अनेक बार कहा है कि संध्या के समय विरहीजनों मध्यत्रयस्याद्यस्य हिः // 383|| को कुछ आधार (चन्द्र से) मिल जाता है, परन्तु चन्द्र तो शीतलता त्यादीनां तु विभक्तीनां, यन्मध्यत्रिकमुच्यते। प्रदान करने के बदले ऐसा तप रहा है मानो प्रलयकाल का सूर्य तप तदाद्यवचनस्येह, हिरादेशो विकल्प्यते। रहा हो / 377.1) 'बप्पीहा ! पिउ पिउ भणवि, कित्तिउ' 'रुअहि' हयास ! अम्हेहिं भिसा // 378| तुह जलहें महु पुणु वल्लहें, बिहुं वि न पूरिअ आस / अस्मदस्तु भिसा साकम्, 'अम्हेहिं' इति पठ्यते। (बप्पीह ! प्रिय प्रिय भणित्वाऽपि कियत्रोदिषि हताश ! महु मज्झु ङसि-उस्भ्याम् // 376 / / तव जलधरेण मम पुनर्वल्लभेन द्वयोरपिन पूरिता आशा।।१।। ङसिङस्भ्यां सह 'महुमज्झु' स्तोऽत्राऽस्मदःपदे। (हे चातक, "पिउ-पिउ'-पीऊँगा-पीऊँगा ऐसा बोल बोल कर अरे 'मत् ममेत्यनयोः स्थाने, ' 'महु मज्झु' यथाक्रमम्। हताश मेरे भाई तू कब तक-कितना रोएगा? अरे, हम दोनों की ही महु कन्तहों वे दोसडा हेल्लि म झहि आलु / दशा-एक सी है। तेरी जल-विषयक और मेरी वल्लभ-विषयकदेन्तहों हउँ पर उव्वरिअ जुज्झन्तहों करवालु ||1|| आशा पूरी नहीं हुई है। 383.1) मम कान्तस्य द्वौ दोषौ सखि मा पिधेहि अलीकम्। (आत्मनेपदे) बप्पीहा ! कई बोल्लिएण, निग्धिण वारइ वार। ददतः परं अहं उर्वरिता युध्यमानस्य करवालः / / 1 / / सायरि भरिअइ विमलि-जलि, 'लहहि'न एकइ धार ||2|| (मेरे प्रियतम के दो दोष है? हे सखि, झूठ न मानना और इस बात बप्पीहक! किं कथनेन निघृण ! वारं वारम्। को छुपाना मत / एक यह कि दान देते समय मात्र मैं बचती हूँ और सागरे भृते विमलजलेन लभसे नैकामपिधाराम्॥२॥ जब वह युद्ध करता है तो हाथ में केवल तलवार बचती है। 376.1) (अरे, बेहया चातक, तुझे बार-बार कहने से क्या फायदा? कितनी जइ भग्गा पारक्कडा तो सहि मज्झु पिएण / ही बार मैंने तुझसे कहा कि सागर से तुझको निर्मल जल की एक बूंद अह भग्गा अम्हहं तणा तो ते मारिअडेण // 2 // भी नहीं मिलने वाली है। 383.2) आयहि जम्महि अन्नहि वि गोरि सु दिजहि कन्तु। यदि भग्नाः परकीयाः तत्सखि मम प्रियेण / गय मत्तहँ चत्तकुसहं जो अभिडइ हसन्तु // 3 // अथ भग्ना अस्मदीयाः तत्तेन मारितेन ! अस्मिन् जन्मनि अन्यस्मिन्नपि गौरि तं दद्याः कान्तम् / (से सखि, यदि शत्रुओं का पराभाव हो गया होगा, तो वह मेरे प्रियतम गजानां मत्तानां त्यक्तांकुशानां य संगच्छते हसन्॥३॥ से ही, और यदि हमारे पक्षवाले पराभूत हो गये होंगे, तो मेरे प्रियतम के मरने के बाद / 376.2) (हे वर दायिनी गौरि, इस जन्म में तथा अन्य जन्मों में भी मुझे ऐसा ही प्रियतम देना कि जो हँसते-हँसते मदमत्त तथा अंकुश-प्रहार की अम्हहं म्यसाम्भ्याम् // 380|| परवाह न करने वालो हथियों से भिड जाए और उनके गण्डस्थल को अस्मदस्तुपदे, साकं भ्यसाम्भ्याम्, 'अम्हह' मतम्। चीर डाले। 383.3) अस्मभ्यम् 'अम्हह' वाच्यं, तथा चास्माकमित्यपि। एवं 'दिजहि रूपं स्यात्,रुअसीत्यादि पाक्षिकम्। सुपा अम्हासु // 381|| बहुत्वे हुः ||384 // अस्मदस्तुपदे, साकं सुपा 'अम्हासु' पठ्यते। त्यादीनां तु विभक्तीना, यन्मध्यत्रिकमुच्यते। त्यादेराद्यत्रयस्य बहुत्वे हिं नवा // 32 // तद्रहुत्वस्य हुर्वा स्याद्, यथा-'इच्छहु इच्छह'। त्यादीनां तु विभक्तीनां, यदाद्यं त्रिकमुच्यते। बलि-अब्भत्थणि महु-महणु लहुईहूआ सोइ। तबहुत्वस्य 'हिं' वा स्याद्, धरन्ति-'धरहिं स्मृतम्। जइ इच्छहु वडुत्तणउंदेहु म मग्गहु कोइ।।१।। मुह-कबरि-बन्ध-तहें सोह धरहिं। बलेः अभ्यर्थने मधुमथनो लघुकीभूतः सोऽपि। नं मल्ल-जुज्झु ससि-राहु करहिं। यदिइच्छथमहत्त्वं (वडुत्तण) दत्त, मा मार्गयतकमपि॥१॥ तहें सहहिं कुरल भमर-उल-तुलिअ। (बलि से याचना करते समय विष्णु भी छोटे हो गए। इसलिए यदि नं तिमिर-डिम्भ खेल्लन्ति मिलअ॥१॥ बड़ा बनना चाहते हो, तो दान दो, किसी से माँगो मत / 384.1) मुखकबरीबन्धौ तस्याः शोभां धरतः अन्त्यत्रयस्याद्यस्य उं // 38 // ननुमल्लयुद्धं शशिराहू कुरुतः। त्यादीनां तु विभक्तीना, यदन्त्यं त्रिकमुच्यते।। तस्याः शोभन्ते कुरलाः भ्रमरकुलतुलिताः 'उ' तदाद्यस्य वाऽऽदेशो, यथा-'कड्ढामि कडउं'। ननु भ्रमरडिम्भाः क्रीडन्ति मिलिताः॥१॥ विहि विणडउ पीडन्तु गह मंधणि करहि विसाउ। (उस मुग्धा के मुख और केशकलाप ऐसी शोभा धारण करते हैं मानो संपइ कड्ड वेस जिवे छुड अग्धइ ववसाउ ||1|| चन्द्र और राहु मल्ल युद्ध कर रहे हैं। भ्रमरों के समूह के समान उसके विधिर्विनाटयतु ग्रहाः पीडयन्तु मा धन्ये कुरु विषादम्। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धहेम.] (135) अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०४] संपदं कर्षामि वेषमिव यदि अर्धति(-स्यात्) व्यवसायः॥१॥ (भले ही दैव विमख हो, ग्रह पीड़ा दे रहे हो, हे प्रिये दुःखी न हो।। यदि मैं व्यवसाय करूँगा तो सम्पदा वेश की तरह खींच लाऊँगा। 385.1) बहुत्वे हुं // 386|| त्यादीनां तु विभक्तीना, यदन्त्यं त्रिकमुच्यते। तद्बहुत्वस्य 'हु वा स्याद्, 'लहुहं लहिमु' स्मृतम्। खग्ग-विसाहिउ जहिँ लहहु पिय तर्हि देसहि जाहुँ। रण दुन्भिक्खें भग्गाइं विणु जुज्झें न वलाहुं |1|| खगविसाधितं यत्र लभामहे तत्र देशे यामः। रणदुर्भिक्षेण भग्नाः विना युद्धेन नवलामहे // 1 // (हे प्रिये, जहाँ हमें तलवार के लिए व्यवसाय मिलेगा उसी देश में हम जाएँगे। युद्ध के दुर्भिक्ष के कारण हम कुछ टूट गये हैं, बिना युद्ध के हम सुखी नहीं होंगे // 386.1) हि-स्वयोरिदुदेत् // 387 / / पञ्चम्या-हि-स्वयोवा स्युर्, 'इदुदेत' इमे त्रयः। [इत् ] 'कुञ्जर! सुमरिम सल्लइउ सरला सासम मेल्लि॥ कवल जि पाविय विहि-वसिण ते चरिमाणु म मेल्लि / / 1 / / कुञ्जर ! स्मरमा सल्लकान् सरलान् श्वासान्मा मुञ्च। कवला ये प्राप्ता विधिवशेन तान् चर मानं मा मुञ्च / / 1 / / (मेरे भाई हे हाथि, उस सल्लिकी नामक वृक्ष का स्मरण करके दुःखी न हो / लम्बी साँसे भरना छोड़ दे। दैव योग से जो कमल प्राप्त हो रहे हैं, उनका भोजन कर ! अपना स्वमान न गँवा / / 387.1) [उत् ] भमरा ! एत्थु वि लिम्बडइ केवि दियहडा विलम्बु।। घण-पत्तलु छाया-बहुलु फुल्लइ जावें कयम्बु // 2 // भ्रमर !अत्रापि निम्बे कियन्ति दिवसानि विलम्बस्व / घनपत्रवान् छायाबहुलः फुल्लति यावत् कदम्बः।। (हे मित्र भ्रमर, घने पत्ते और घनी छाया प्रदान कारनेवाले कदम्ब वृक्ष के फलने-फूलने तक इस नीम के वृक्ष पर कुछ दिन व्यतीत कर ले। 387.2) [एत्] प्रिय ! एम्बहिं करि सेल्लु करिछड्डहि तुहुं करवालु / / जंकावालिय बप्पुडा लेहिं अभग्गु कवालु'|३|| प्रिय ! इदानीं करे सेल्लं कुरु मुञ्च त्वं करवालम्। यत् कापालिका वराका लान्ति अभग्रं कपालम्॥३॥ (हे प्रिय, अब हाथ में भाला रख और तलवार छोड़ दे। इसलिए कि बेचारे का गरीब मालिक कम से कम बिनफूटे हुए कपाल का भिक्षापात्र बना लेंगे। 387.3) पक्षे सुमरहीत्यादि, रूपं बोध्यं मनीषिभिः॥ वय॑ति स्यस्य सः // 388|| भविष्यदर्थे त्यादीनां, स्यस्य सो वा विधीयते। यथा 'होसई' इत्येतत्, पक्षे होहिइ पठ्यते। दिअहा जन्ति झडप्पहिं पडहिं मनोरह पच्छि। जं अच्छइ वं माणिअइ होसइ करतु म अच्छि॥१॥ दिवसाःयान्ति वेगैः पतन्ति मनोरथाः पश्चात्। यदस्ति तन्मान्यते भविष्यति (इति) कुर्वन् मा आस्सव / / 1 / / (दिन शीघ्र बीत जाते हैं। मनोरथ अपूर्ण पीछे छूट जाते हैं / जो है वह स्वीकार करें। 'होगा-होगा ऐसा सोचते रहकर व्यर्थ ही मन को न मनाइए / बैठे नहीं। 388.1) क्रियेः कीसु // 386 / 'क्रिये' क्रियापदं त्वेतत्, वाऽत्र 'कीसु' निगद्यते। पक्षे तु 'किजउं बलि सुअणस्सु प्रयुज्यते॥ सन्ता भोग जु परिहरइ तसु कन्तहों बलि कीसु। तसु दइवेण वि मुण्डियउँ जसु खल्लिहडउँ सीसु / / 1 / / सतो भोगान्यः परिहरति तस्य कान्तस्य बलि क्रिये। तस्य दैवेनैव मुण्डितंयस्यखल्वाटं शीर्षम्।।१।। (प्रवर्तमान भोगों का जो त्याग करता है, उस प्रियतम की मैं पूजा करती हूँ | जिसका शिर गंजा है, उसका मुंडन तो दैव ने पहले ही कर रखा है। 386.1) ___ भुवः पर्याप्तौ हुचः // 360 // पर्याप्त्यर्थे भुवो धातोः, पदे 'हुच', 'पहुचइ / अइतुंगत्तणु जं थणहं सो छेयउ न हु लाहु / सहि जइ केवँइ तुडि-वसेणे अहरि पहुचइ नाहु। अतितुङ्गत्वं यत्स्तनयोः स च्छेदकः न खलुलाभः। सखि यदि कथमपि त्रुटिवशेन अधरे प्रभवति नाथः / / 1 / / ब्रूगो बुवो वा // 361 / / ब्रूगो धातोर् ब्रुवो वा स्याद्, 'बुवह ब्रोप्पिणु' स्मृतम्। इत्तउँ ब्रोप्पिणु सउणि ठिउ पुणु दूसासणु ब्रोप्पि। तो हउँ जाणउ एहो हरि जइ महु अग्गइ ब्रोप्पि // 1 // इयत् उक्त्वा शकुनिः स्थितःपुनर्दुःशासन उक्त्या। तदा अहं जानामि एष हरिः यदि ममाग्रतः उक्त्वा // 1 // (श्री कृष्ण की उपस्थिति से दुर्योधन की दयनीय मानसिक दुर्दशा का वर्णन) इतना कहकर शकुनि चुप हो गया। फिर वही बोलकर दुःशासन चुप हो गया। तब (दुर्योधन भौंचक्का होकर सोचने लगा) सोचा कि जो मैंने बोलना था वह श्रीकृष्ण बोलकर मेरे सामने खड़ा है। 361.1) व्रजेर्वाञः // 36 // व्रजतेस्तु वुञादेशो, वुप्पिणु वुप्पि च। दृशेःप्रस्सः // 363 / / दृशेर्धातोः पदे प्रस्साऽऽदेशः, 'प्रस्सदि' पश्यति। ग्रहेण्हः ||364 // गृण्हादेशो ग्रहेः स्थाने, 'पढ गृहेप्पिणुव्रतु' तक्ष्यादीनां छोल्लादयः // 365 / / तक्ष्यादीनां तु धातूनां, पदे छोल्लादयो मताः। ये क्रियावाचका देश्या आदिशब्दग्रहा हि ते॥ 'जिवँ तिर्दै तिक्खा लेवि सर जइ ससि छोल्लिज्जन्तु। तो जइ गोरिहे-मुह-कमलि सरिसिम कावि लहन्तु ||1|| यथा तथा तीक्ष्णान् लात्वा शरान् यदि शशी अतक्षिष्यत्। ततो जगति गौर्या मुखकमलेन सदृशतां कामपि अलप्स्यत॥१।। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (136) [सिद्धहेम०] अभिवानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०४] (कुछ भी करके थोड़ा चन्द्र को छीला होता (उसका कलंक दूर किया स्वरात परेऽसंयुक्ता अनादिभूतास्तु सन्ति ये, तेषाम्। होता)तो बेचारे को इस जग में गौरी (प्रियतमा) के मुख कमल से 'क-ग-त-थ-प--फ-वर्णानां स्थाने 'ग-घ-द-ध-ब-भाः प्रायः / / थोड़ा सा सादृश्य मिल गया होता / 365.1) [कस्य गः] 'जं दिट्ठउं सोम-ग्गहणु असइहिं हसिउ निसकु। चूडल्लउ चुण्णीहोइ सइ मुद्धि कवोलि निहित्तउ। पिय-माणुस-विच्छोह-गरु गिलि गिलि राहु भयङ् कु॥१॥ सासानल-जाल-झलक्किअउ वाह-सलिल-संसित्तउ'॥२॥ यदृष्टं सोमग्रहणमसतीभिर्हसितं निःशड्कम्। चूटकश्चूर्णीभविष्यति मुग्धे! कपोले निहितः। प्रियमानसविक्षोभकरं गिल गिल राहो ! मृगाङ्कम्।।१।। श्वासानलज्वालादग्धः वाष्पसलिलसंसिकः।।२।। (जब कुलटाओं ने चन्द्रग्रहण को देखा, तब वे जोर से हंस पड़ी और (हे सुन्दरि, गाल पर रखा हुआ यह कंगन साँस रूपी अग्नि की कहने लगी-- 'प्रिय जनों को दुःखी करनेवाले चन्द्र को, हे राह निगल ज्वालाओं से तप्त होकर तथा अश्रुजल से प्लावित होकर (यह जा निगल जा रे इसे / 366.1) कंगन) स्वयं ही बिचारा-चूर-चूर हो रहा है। 365.2) [ खस्य घः] अम्मीए सत्थावत्थेहिं सुधिं चिन्तिज्जइ माणु। 'अभडवंचिउबे पयई पेम्मु निअत्तइ जाँव। पिए दिट्टे हल्लोहलेण को चेअइ अप्पाणु ?|| सव्वासण-रिउ-संभवहो कर परिअत्ताताँव // 3 // अम्ब ! स्वस्थावस्थैः सुखेन चिन्त्यते मानः। अनुव्रज्य (मुत्कालाय्य) द्वौ पादौ प्रेम (प्रिया) निवर्तते यावत्। प्रिये दृष्ट औत्सुक्येन क आत्मानं चेतयते॥२॥ सर्वाशनरिपुसंभवस्य कराः परिवृत्तास्तावत् // 3 // (हे माँ, सुख में रहनेवाले मनुष्य से मान की अपेक्षा रखी जाती है। (जब प्रिया दो डग चलकर लौट आए, तब सर्व वस्तु का भक्षण परन्तु जब प्रियतम दृष्टिगोचर होता है, तब व्याकुलता के कारण सुधबुध करनेवाले अग्नि के शत्रु समुद्र और उससे उत्पन्न चन्द्र के किरण परावृत न रहने के कारण अपना विचार कौन करता है? 366.2) होने लगे-चंद्र मंद होने लगा। (सर्ववस्तु हाक भक्षक अग्नि तथा अग्नि तथपफानां दधबभाः यथाका शत्रु समुद्र से उत्पन्न होने वाला चन्द्र और चंद्र के किरण पराजित होने लगे प्रियतमा को देखकर) / 365.3) सवधु करेप्पिणु कधिदु मई तसु पर सभलउं जम्मु। हिअइ खुडुक्कइ गोरमी गयडि घुडुक्कइ मेहु / जासुन चाउन चारहडि न य पम्हट्ठउ धम्मु // 3 // वासा-रत्ति-पवासुअहं विसमा संकडु एहु॥४ शपथं कृत्वा कथितं मया तस्यपरं सफलं जन्म। हृदये शल्यायते गौरी गगनेगर्जति मेघः। यस्यनत्यागो न चारभटीनच प्रमृष्टोधर्मः।।३।। वर्षारात्रिप्रवासिकानां विषमं संकटमेतत्॥४|| (शपथ लेकर मैं कहता हूँ कि जिसका दान करना, पराक्रम और (प्रिया हृदय में शल्य के समान चुभने लगी। इसलिए कि गगन में धर्म नष्ट नहीं हुए हैं, उसका जन्म पूर्ण रूप से सफल हुआ है। 366.3) मेघ गरजने लगे। दुर्दिन वर्षा ऋतु की रात प्रवासियों के लिए अत्यंत जइ केवँइ पावीसु पिउ अकिआ कुड करीसु / संकट भरी दुःखद है। 365.4) पाणिउ नवइ सरावि जि सव्वङ्गे पइसीसु // 4 // अम्मि ! पओहर वज्ज मा निच्चु जे संमुह थन्ति। यदि कथंचित् प्राप्स्यामि प्रियं अकृतं कौतुकं करिष्यामि / महु कन्तहो समरङ्गणइ गय-घड भजिउ जन्ति // 5 // पानीयं नवके शरावे यथा सङ्गिण प्रवेक्ष्यामि // 4 // अम्ब ! पयोधरौ वर्जय मा नित्यं यौ संमुखो तिष्ठतः। (किसी भी तरह से येन-केन-प्रकारेण मैं प्रियतम को प्राप्त कर लें. ममकान्तस्यसमराङ्गणे गजघटाभ-क्त्वा यान्ति।।५।। तो पहले कभी भी न किया हुआ आश्चर्य मैंने कर डाला होगा। नये (हे मां, मेरे ये स्तन वजमय है। इसलिए कि ये नित्य ही प्रियतम सकोरे में जैसे पानी चारों ओर फैल जाता है, वैसे मैं प्रियतम में समा के सामने होते हैं, और समरांगण में गजसमूह नष्ट करने के लिए पहुँच जाऊँगी।३६६.४) जाते हैं 1 365.5) उअ कणिआरु पफुल्लिअउ कञ्चण-कन्ति-पयासु। पुत्ते जाएं कवणु, गुणु अवगुणु कवणु मुएण। गोरी-वयण विणिजिअउ नं सेवइ वण-वासु // 5 // जा वप्पीकी मुंहडी चम्पिज्जइ अवरेण / / 6 / / पश्य कर्णिकारः प्रफुल्लितकः काञ्चनकान्तिप्रकाशः / पुत्रेण जातेन को गुणः अपगुणः को मृतेन। गौरीवदनविनिर्जितकः ननु सेवते वनवासम् // 5 // या पैतृकी भमिराक्रम्यते अपरेण॥६॥ (मित्र देख, स्वर्ण कान्ति के समान चमकने वाला कर्णिकार वृक्ष इस (यदि आपकी पैतृक भूमि-संपत्ति दूसरों के द्वारा छीन ली जाए, तो वन में कितना प्रफुल्लित है? (जानते हो वन में क्यों है?) प्रियतमा तुम्हारे पुत्र जन्म से क्या लाभ ? और तुम्हारे न होने से क्या हानि। के मुख-कान्ति से जीत जाने के कारण बेचारा वनवास स्वीकार किए 365.6) हुए है। 366.5) तं तेत्तिउ जलु सायरहो सो तेवड वित्थारु। मोऽनुनासिको वो वा // 397|| तिसहे निवारणु पलुवि नवि पर धुठुअइ असारु'॥७॥ अनादौ वर्तमानस्यासंयुक्तस्य तुमस्य वा। तत्तावत्जलं सागरस्य सतावान् विस्तारः। स्याद्वोऽनुनासिकस्, तेन कवँ लु कमलु द्वयम्॥ तृषाया निवारणेपलमपि नापि, परं शब्दायतेऽसारः / / अयं लाक्षणिकस्यापि, जे तेवँ इति स्मृतम्। (सागर का जल कितना विशाल और गहरा है। उसका विस्तार भी वाऽधो रो लुक् // 368|| कितना विशाल है। परंतु किसी की थोड़ी सी भी तृषा शांत होती है ? संयोगाऽधःस्थितस्येह, वा रेफस्य लुगिष्यते। तो उसका गरजते रहना सार्थक है क्या? 365.7) 'जइ केवइ पावीसु पिउ' पक्षे 'प्रियेण' च। अनादौ स्वरादसंयुक्तानां क--त-थ-प-फां ग अभूतोऽपि क्वचित् // 366 घ-द-ध-ब-भाः॥३६६|| 'रेफोऽत्राविद्यमानोऽपि क्वचिद् भवति, दर्श्यते। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सिद्धहेम०] (137) अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०४] वासु महारिसि एउ भणइ जइ सुइ-सत्थु परमाणु / मायहं चलण नवन्ताहं दिविदिवि गङ्गा-हाणु ||1|| व्यासो महर्षिरतद्भणति यदि श्रुतिशास्त्र प्रमाणम्। मातृणां चरणौ नमतां दिवसे दिवसे गङ्गास्नानम् // 1 // (महर्षि व्यास कहते हैं -यदि वेद और शास्त्र प्रमाण रूप हैं तो माताओं के चरण में नमन करनेवालों को हर रोज गंगास्नान समान है। 366.1) कृचिदिति किम्? 'बद्ध वासेण वि भारह खम्भि' च / / आपतिपत्संपदां द इः // 400|| विपदापत्संपदा स्याद्, दस्येकारः क्वचिद्, यथा-1 रूपम् 'आवई' 'संपइ' तथा 'विवइ' इत्यपि // प्रायोऽधिकाराद् 'गुणहिं न कित्ति पर संपइ'। अणउ करन्तहो पुरिसहो आवइ आवइ / अनयं कुर्वतः पुरुषस्य आपद् आयाति। (बुरा कर्म करनेवाले पुरुष पर आपत्ति अवश्य आती है। 400.1) कथं यथा-तथां थादेरेमेमेहेधा डितः / / 401 / / 'कथं यथा तथा' एषां थादेवयवस्य तु। 'इह इध एम इम' इत्यादेशा डितः पृथक् / अतः 'कथ' 'किह किध' किम केम' निगद्यते। 'यथा' जिह जिधेत्यादि, तथा तिह तिधादि च / केम समप्पउ दुछ दिणु किध रयणी छुड होइ। नव-वहु-दसण-लालसउ वहइ मणोरह सोइ ||1|| कथं समाप्यतां दुष्ट दिन कथं रात्रिःशीघ्रं (छुडु) भवति / नववधूदर्शनलालसकः वहति मनोरथान् सोऽपि // 1 // (नव परिणीत पुरुष सोचता है-दीर्घ दुष्ट दिन कैसे जल्दी समाप्त हो? रात कैसे शीध्र आए ? अपनी नववधू को देखने को उत्सुक नायक ऐसे मनोरथ दौड़ता है। 401.1) औ गोरी-मुह-निजिअउ वद्दलि लुक्कु मियकु / अन्नु वि जो परिहविय-तणु सो किवँ भइ निसकु // 2 // ओ गौरीमुखनिर्जितकः वार्दले निलीनः मृगाङ्कः। अन्योऽपि यः परिभूततनुः स कथं भ्रमति निःशङ्कम / / (मुझे लगता है कि प्रिया के मुख से पराजित यह चंद्र बादलों के | पीछे छिपता है। जिसका शरीर-सौंदर्य पराभूत हुआ है ऐसा दूसरा कोई भी निःशंक भाव से कैसे घूमेगा? 401.2) बिम्बाहरि तणु रयण-वणु किह ठिउ सिरिआणन्द / निरुवम रसु पिएं पिआवे जणु सेसहो दिण्णी मुद्द / / 3 / / बिम्बाधरे तन्व्याः रदनव्रणः कथं स्थितः श्रीआनन्द / निरुपमरसं प्रियेण पीत्वेव शेषस्य दत्ता मुद्रा // 3 // ('हे, श्रीआनंद, प्रियतमा के बिम्बअधर पर दांत के निशान कैसे हैं?' 'ये तो मानो प्रियतम द्वारा अधर रसपान कर लेने पर शेष भाग पर मानों मुहर लगी दी हो। 401.3) भण सहि निहुअउँ तेवँ मई जइ पिउ दिछ सदोसु / जे न जाणइ मज्झु मणु पक्खावडिअं तासु ||4|| भण सखि निभृतकं तथा मयि यदि प्रियः दृष्टः सदोषः / यथा न जानाति मम मनःपक्षपातितं तस्य / / 4 / / (हे सखि, तू निश्चित होकर मुझे बता कि क्या मेरा पति मेरे साथ किसी दोष से युक्त है? इसलिए कि मेरा मन प्रियतम के प्रति पक्षपात युक्त होने से सच्चा कुछ भी निर्णय नहीं कर पाता है। 401.4) मइँ जाणिवे प्रिय विरहिअहं क वि धर होइ विआलि। नवर मिअकु वि तिह तवइ जिह दिणयरु खयगालि // 5 // देखो गाथा 377/1 यादृक्-तादृक्-कीदृगीदृशां दादेर्डेहः / / 402 / / 'याटतादृक्-कीदृगीदृग्' इत्येतेषां तु योऽस्ति दः। तदाद्यावयवस्येह, डेहादेशो विधीयते / मइं भणिअउ बलिराय ! तुहु केहउ मग्गण एहु / जेहु तेहु नवि होइ वढ ! सई नरायणु एहु // 1 // मया भणितो बलिराज ! त्व कीदृग मार्गण एषः / यादृक् तादृग नाऽपि भवति मूर्ख ! स्वयं नारायण ईदृक् / / 1 / / (शुक्राचार्य राजा बलि से कहते हैं- हे राजा बलि, मैने तुझे पहले ही कहा था कि यह याचक किस प्रकार का है। अरे मूर्ख यह जैसावैसा याचक नहीं है, यह तो स्वयं नारायण है। 402.1) अतां डइसः ||403|| ईदृश-कीदृश-यादृश-तादृशशब्देषु दादिवर्णस्य। डइसाऽऽदेशो, जइसो तइसो कइसोऽइसो च यथा। यत्र-तत्रयोस्त्रस्य डिदेत्य्वत्तु // 404|| 'एत्थु अत्तु' डितौ त्रस्य, शब्दयोर्यत्र-तत्रयोः / 'जत्तु तत्तु जत्थु तेत्थु' सिद्धं रूपचतुष्टयम् / जइ सो घडदि प्रयावदी केत्थु वि लेप्पिणु सिक्खु / जेत्थु वि तेत्थु वि एत्थु जगि भण तो तहि सदिक्खु // 1 // यदि स घटयति प्रजापतिःकुत्राति लात्वा शिक्षाम्। यत्रापि तत्रापि अत्र जगति भण तदा तस्याः सदृक्षीम् // 1 // (यदि जग-विधाता ने कहीं से प्रशिक्षण प्राप्त करके जगत का निर्माण किया है, तो जरा जगत में ढूंढकर बताओ तो सही कि प्रिया के समान दूसरी कोई है ? 404.1) एत्थु कुत्रात्रे 1405|| कुत्राऽत्रयोस् त्रशब्दस्य, पदे 'एत्थु' डिदिष्यते। केत्थु वि लेप्पिणु सिक्खु, एत्थु जेत्थु वि तेत्थु वि। यावत्तावतोर्वाऽऽदेर्म उं महिं // 406 / / यावत्तावदित्यनयोर्, वाऽऽदेवयवस्य तु। म, उं, महिं चेत्येते स्युर्, आदेशास्तु त्रयो यथा। जाउं ताउं, जाम ताम, जामहिं तामहिं तथा / जाम न निवडइ कुम्भ-यडि सीह-चवेड-चडक्क / ताम समत्तहँ मयगलहं पइ पइ वज्जइ ढक्क ||1|| Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सिद्धहेम.] (138) अभिवानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०४] यावत् न निपतति कुम्भतटे सिंहचपेटाचटात्कारः। तावत् समस्तानां मदकलानां (गजानां) पदे पदे वाद्यते ढक्का।।१॥ (हाथियों के गण्डस्थल पर जब तक सिंह के पंजों का प्रहार नहीं हुआ है, तभी तक सर्व मदोन्मत्त हाथियों के ढोल-नगारे बेंड बाजे, पग-पग पर बजते रहेंगे। 406.1) तिलहँ तिलत्तणु ताउँ पर जाउँ न नेह गलन्ति / नेहि पणट्ठइ ते जि तिल तिल फिट्टवि वल होन्ति // 2 // तिलानां तिलत्वं तावत् परं यावत् न स्नेहाः गलन्ति। स्नेहे प्रनष्ट ते एव तिलाः तिलाः भ्रष्ट्रा खलाः भवन्ति / / 2 / / (तिलों का तिलपना तभी तक है कि जब तक उनका तेल निकला नहीं है। तेल निकलते ही तिल तिल न रहकर खल (दुष्ट) बन जाती है। 406.2) जामहि *विसमी कज्ज- गइ जीवहँ मज्झे एइ / तामहि अच्छउ इयरु जणु सुअणु वि अन्तरु देइ // 3 // यावद् विषमा कार्यगतिः जीवानां मध्ये आयाति। तावद् आस्तमितरः जनः सुजनोऽप्यन्तां ददाति // 3 // (जब किसी भी जीव पर आपत्ति आती है, तब अन्य जन तो ठीक परन्तु स्वजन, सुजन, सर्वजन भी अन्तर रखकर व्यवहार करते हैं। 406.3) वा यत्तदोऽतो.वडः // 407 / / अत्वन्तयत्तदोर् यावत्तावतौ यौ, तयोः पुनः / वाऽऽदेरवयवस्येह, पदे वा 'डेवडो' ऽस्तु डित् / जेवडु अन्तरु रावण-रामहं तेवडु अन्तरु पट्टण-गामहं // 1 // यावद् अन्तरं रावणरामयोः तावद् अन्तरं पट्टणग्रामयोः / / 1 / / (जो अन्तर रावण और राम में है. वही अन्तर शहर और गाँव में है। 407.1) पक्षे रूपं भवति जेतुलो, तावच्छब्दस्येह तेत्तुलो। वेदं किमोर्यादेः // 408|| अत्वन्तेदं-किमोर् 'इयत्-कियतौ'यौ तयोः पुनः। याऽऽदेवयवस्येह, पदे या ‘डेवडो' ऽस्तु डित् / एत्तुलो केत्तुलो रूपं, तथा एवडु केवडु। परस्परस्यादिरः ||406 // परस्परस्य शब्दस्य, भवेद् आदावद् आगमः। 'अवरोप्परु' इत्येतत्, ततः सिद्धं परस्परे। ते मुग्गडा हराविआ जे परिविट्ठा ताहं / अवरोप्पर जोअन्ताहं सामिउ गजिउ जाहं // 1 // ते मुद्राः हारिताः ये परिविष्टाः तेषाम् / परस्परं युध्यमानानां स्वामी पीडितः येषाम् / / 1 / / (परस्पर युद्ध करने वालों में से जिसका स्वामी पीड़ित हुआ और उसे जो मूंग पिरोसे गये, वे व्यर्थ हो गये। 406.1) कादि-स्थैदोतोरुचार-लाघवम् / / 10 / / एदोतोर् लघुताऽस्तु, प्रायः स्थितयोः कादिषु हि / सुचें चिन्तिजइ माणु, तसु हउं कलि-जुगि दुल्लहहो। पदान्ते उं-हुं-हिं-हंकाराणाम् // 411 / / 'उ-हुं-हिं-हं' इत्यमीषां, पदान्तानां तु भाषणे / कर्तव्यं लाघवं प्रायो, यथा लहहुकिज्ज। अन्नु जु तुच्छउँ तहे धणहे / (350.1) बलि किज्जउँ सुअणस्सु / 338.1) दइउ घडावइ वणि तरुहुँ (340.1) तरुहुँ वि वक्कलु (341.2) खग्ग-विसाहिउ जहिं लहडं (386.6) तणहँ तइज्जी भङ्गि न वि / (336.1) म्हो म्भो वा // 41 // प्राकृते पक्ष्म-[२/७४ ] सूत्रेण, यो म्हाऽऽदेशो विधीयते। तस्य 'म्भो' वाऽत्र जायेत, 'गिम्भो सिम्भो' यथा पदम्। बम्भ ते बिरला के विनर जे सव्वङ्ग-छइल्ल / जे वङ्का ते वञ्चयर जे उज्जुअ ते बइल्ल ||1|| ब्रह्मन् ते विरलाः केऽपि नराःये सर्वाङ्गच्छेकाः। ये वक्राः ते वञ्च (क) तराः ये ऋजयः ते बलीवर्दाः / / 1 / / (हे भूदेव, जो सर्व अंगों में सर्व विद्या में निपुण हो, ऐसे नर दुर्लभ हैं, जो चतुर हैं, वे ठग हैं और जो सीधे-सादे हैं, वे वृषभ हैं। 412.1) अन्यादृशोऽन्नाइसावराइसौ // 413|| स्थाने त्वऽन्यादृशस्यात्राऽन्नाइसः स्तोऽवराइसः। प्रायसः प्राउ-प्राइव-प्राइम्ब-पग्गिम्बाः // 41 // 'पग्गिम्ब-प्राइव-प्राउ-प्राइम्बाः' प्रायसः पदे। अन्ने ते दीहर लोअण अन्नु तं मुअ-जुअलु / अन्नु सु घण-थण-हारु तं अन्नु जि मुह-कमलु / अन्नु जि केस-कलावु सु अन्नु जि प्राउ विहि जेण णिअम्बिणि घडिअ स गुण-लायण्ण-णिहि ||1|| अन्ये ते दीर्घ लोचने अन्यत् तद् भुजयुगलम्। अन्यः स घनस्तनभारः तदन्यदेव मुखकमलम्। अन्य एव केशकलापः सः अन्य एव प्रायो विधिः / येन नितन्बिनी घटिता सा गुणलावण्यनिधिः / / 1 / / (वे दीर्घ लोचन अन्य ही हैं, वह भुजयुगल अन्य ही हैं, धन-स्तनों का वह भार अन्य ही है, वह मुख-कमल भी अन्य ही है, वह केशकलाप भी अन्य ही है, गुण व लावण्य का भण्डार उस पतली कमरखाली को जिसने घड़ा है, वह घड़वैया विधाता भी कुछ अन्य ही है। 414.1) प्राइव मुणिहँ वि भन्तडी तें मणिअडा गणन्ति / अखइ निरामइ परम-पइ अज्ज वि लउ न लहन्ति // 2 // प्रायो मुनीनामपि भ्रान्तिः ते मणीन् गणयन्ति। अक्षये निरामये परमपदे अद्यापि लयं न लभन्ते // 2 // (लगभग मुनि-गण भी भ्रांतिमय है, वे माला के मणके गिनते हैं / वे आज भी अक्षर और निरामय ऐसे परमपद में तल्लीन नहीं हुए हैं। 414.2) Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (136) . [सिद्धहेम.] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०४] अंसु-जलें प्राइम्व गोरिअ हे सहि उव्वत्ता नयण-सर। एवं-परं-सम-ध्रुवं-मा-मनाक्- एम्ब पर समाणु ध्रुवु मं तें संमुह संपेसिआ देन्ति तिरिच्छी घत्त पर ||3|| मणाउं // 418|| अश्रुजलेन प्रायः गौर्याः सखि उद्धृते नयनसरसी। एवं 'एम्व' तथा मा 'मं,' ध्रुवं धुवु, परं पर / ते संमुखे संप्रेषिते दत्तः तिर्यग् घातं परम् // 3 // मनाक 'मणाउं' वक्तव्यं, समम अत्र 'सभाण' च। (हे सखि, मुझे लगता है कि मुग्धा के नयनरूपी सरोवर अश्रुजल पिय-संगमि कउ निद्दडी पिअहो परोक्खहो केम्व / से हमेशा परिपूरित रहते हैं। इसीलिए वे नेत्र जब किसी की तरह सामने म. बिनि वि विनासिआ निद्द न एम्ब न तेम्ब ||1|| देखने लगते हैं तब वे एकदम तिरछी सर्वोच्च चोट करते हैं। 414.3) प्रियसंगमे कथं निद्रा प्रियस्य परोक्षे कथम्। एसी पिउ रूसेसु हउँ रुट्ठी मइँ अणुणेइ / मया द्वे अपि विनाशिते निद्रा नैवं न तथा // 1 // पग्गिम्ब एइ मणोरहई दुक्करु दइउ करेइ ||4|| ('प्रिय-मिलन के समय निद्रा कहाँ आती है ? प्रिय का सहवास एष्यति प्रियः रोषिष्यामि अहं रुष्टां मामनुनयति। न होने पर भी निद्रा कहाँ आती है? मेरी दोनों ही तरह से निद्रा नष्ट प्रायः एतान् मनोरथान् दुष्करः दयितः कारयति / / 4 / / हो चुकी है ? मुझे ऐ भी नींद नहीं आती, वैसे भी नींद नहीं आती।' ('प्रियतम आयेगा, मैं रूठी रहूँगी, रूठी ऐसी मुझे वह मनाएगा। क्या 415.1) कहूँ, दुष्ट मेरा प्रियतम हमेशा ऐसे मनोरथकरवाता है।' 414.4) कन्तु जु सीहहो उवमिअइ तं महु खण्डित माणु / वाऽन्यथोऽनुः / / 415|| सीहु निरक्खय गय हणइ पिउ पय-रक्ख-समाणु ||2|| 'अनुः स्याद् वाऽन्यथेत्ययस्य, पक्षे स्याद् रूपम् 'अन्नह। कान्तः यत् सिंहेन उपमीयते तन्मम खण्डितः मानः। सिंहः नीरक्षकान् गजान् हन्ति प्रियः पदरक्षैः समम्॥२॥ विरहाणल-जाल-करालिअउ पहिउ को वि बुडिवि ठिअउ। ('मेरे प्रियतम की सिंह के साथ तुलना करना मेरा मान खण्डित अनु सिसिरकालि सीअल-जलहु धूमु कहन्तिहु करना है। सिंह तो रक्षकरहित हाथियों पर आघात करता है। जबकि उट्ठिअउ // 1 // मेरे पति रक्षा कवचवालों के साथ शत्रु को मारता है।' 418.2) विरहानलज्वालाकरालितः पथिकः कोऽपि मक्त्या स्थितः। चञ्चलु जीविउ धुवु मरणु पिअ रूसिज्जइ काई / अन्यथा शिशिरकाले शीतलजलात् धूमः कुतः उत्थितः।।१।। होसहि दिअहा रूसणा दिव्वई वरिस-सयाई // 3 // ('हे मित्र विरह रूपी अग्नि की ज्वाला के समूह से जला हुआ कोई चञ्चलं जीवितं ध्रुवं मरणं प्रिय रुष्यते कथम् / पथिक इस जल में डूब गया है, अन्यथा भले इस शीतल-काल में भविष्यन्ति दिवसा रोषयुक्ताः (रुसणा) दिव्यानि वर्षशतानि।३।। शिशिर ऋतु में इस ठंडे पानी में से भाप कहाँ से, कैसे उठ सकती ('हे मेरे जीवन साथी, जीवन चंचल है, मृत्यु निश्चित है, हे प्रियतम्, है।' 415.1) दीर्घकाल तक क्यों रूठे रहते हो। क्रोध के दिन सैंकड़ों वर्षों जैसे होते कुतसः कउ कहन्तिहु // 416|| हैं।' 418.3) 'कहन्तिहु कउ' स्यातामादेशौ कुतसः पदे / माणि पणट्ठई जइ न तणु तो देसडा चइज्ज / महु कन्तहो गुट्ठ-ट्ठिअहो कउ झुम्पडा वलन्ति / / मा दुज्जण-कर-पल्लवे हि दंसिज्जन्तु भमिज्ज ||4|| अह रिउ-रुहिरें उल्हवइ अह अप्पणे न भन्ति ll माने प्रनष्टे यदि न तनुः सत् देशं त्यजेः। मम कान्तस्य गोष्ठस्थितस्य कुतः कुटीराणि ज्वलन्ति। मा दुर्जनकरपल्लवैः दर्यमानः भ्रमेः // 4 // अथ रिपुरुधिरेण आर्द्रयति (विध्यापयति) अथ आत्मना, न (मान नष्ट होने पर, यदि शरीर नष्ट नहीं कर सकते, तो उस देश भ्रान्तिः // 1 // का त्याग अवश्य करो। दुर्जनों द्वारा अंगुलिनिर्देश से अच्छा होगा वहाँ (प्रियतमा को ठोस विश्वास है कि उसका प्रिय वीर है। वह उद्घोषणा भ्रमण न करो। 418.4) करती है-'यदि मेरा प्रियतम घर में स्थित हैं, तो झोपड़े कैसे जल लोणु विलिज्जइ पाणिएण अरि खल मेह म गज्जु / सकते हैं ? मेरा प्रियतम शत्रु के खून से या अपने खून से बुझायेगा, बालउ गइल सु झुम्पडा गोरी तिम्मइ अज्जु ||5|| इसमें कोई शंका नहीं है-दो मत नहीं है। कोई भ्रान्ति नहीं। 416.1) लवणं विलीयते पानीयेन अरे खल मेघ मा गर्जी ततस्तदोस्तोः / / 417|| ज्वालितं गलति तत्कुटीरकं गौरी तिम्यति अद्य / / 5 / / 'ततस् तदा' इत्यनयोस्, 'तो' इत्यादेश इष्यते। (नमक पानी में घुलता है, अरे दुष्ट मेघ, इतना न गरज / इसलिए "जइ भग्गा, पारकडा, तो सहि ! मज्झु पियेण / कि उस जलाई गई झोंपड़ी में पानी टपक रहा है और आज सन्नारी अह भग्गा अम्हहं तणा, तो तें मारिअडेण"||१|| भीगने वाली है / 418.5) यदि भग्नाः परकीयास्ततः सखि ! मम प्रियेण / विहवि पणट्ठइ वकुडउ रिद्धिहि जण-सामन्नु / अथ भग्ना आस्माकीनास्ततस्तेन मारितेन // 1 // किं पि मणाउ महु पिॲहो ससि अणुहरइ न अन्नु // 6 // (देखो गाथा नं०३७६/२) विभवे प्रनष्ट वक्रः ऋद्धौ जनसामान्यः। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (140) [सिद्धहेम०] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०४] किमपि मनाक् मम प्रियस्य शशी अनुहरति नान्यः / / 6 / / जाउ म जन्तउ पल्लवह देक्खउँ कइ पय देइ / (वैभव नष्ट होने पर भी चंद्र का बांकापन नहीं गया व जन सामान्य हिअइ तिरिच्छी हउँ जि पर पिउ डम्बरई करेइ / / 1 / / में जैसा का वैसा है। अरे मेरे प्रियतम का थोड़ा सा अनुकरण मात्र यातु मा यान्तं पल्लवत, द्रक्ष्यामि कति पदानि ददाति / है, व अन्यथा वह कुछ भी नहीं है। 418.6) हृदये तिरश्चीना अहमेव परं प्रियः आडम्बराणि करोति // 1 // किलाथवा-दिवा-सह-नहेः किराहवइ दिवे (जानेवाले को जाने दो, वापस लौटकर न बुलाओ। मैं भी देखती सहुं नाहिं // 416 // हूँ कि कितने डग भरता है। उसके हृदय में मैं टेढ़ी बैठी हूँ। मैं जानती किल किर, अथवा अहवइ, दिवा दिवे, नहि नाहिं। हूँ मेरा प्रियतम मात्र आडंबर कर रहा है / 420.1) सह सहुम्, इत्यभिधीयते, प्रायो, नैव सदा हि। हरि नच्चाविउ पङ्गणइ विम्हइ पाडिउ लोउ। किर खाइ न पिअइ न विद्दवइ धम्मि न वेच्चइ रूअडउ। एम्वहिं राह-पओहरहं जं भावइ तं होउ ||2|| इह किवणु न जाणइ जह जमहो खणेण पहुच्चइ दूअडउ॥१॥ हरिः नर्तितः प्राङ्गणे विस्यमे पातितः लोकः। किल न खादति न पिबति न विद्रवति धर्म न व्ययति रूपकम्। इदानीं राधापयोधरयोः यत् (प्रति) भाति तद् भवतु // 2 // इह कृपणो न जानन्ति यथा यमस्य क्षणेन प्रभवति दूतः / / 1 / / (कृष्ण को प्रागंण में खूब नचाया। उसने भी लोगों को खूब आश्चर्य (यह हकीकत है कि कंजूस मनुष्य न खाता है, न पीता है और किसी में डाल दिया। अब बेचारी राधा के स्तनों का जो होना हो वह हो। दुःखी को देखकर कुछ देने के लिए पिघलता है, इतना ही नहीं धर्म 420.2) हेतु एक रूपया भी खर्च नहीं करता। कंजूस यह भी नहीं जानता कि साव-सलोणी गोरडी नवखी क वि विस-गण्ठि / यमदूत सब छुड़वाकर क्षण मात्र में (उसे ले उड़ेगा) लेने के लिए पहुंच भडु पच्चलिओ सो मरइ जासु न लग्गइ कण्ठि // 3 // जाएगा। 416.1) सर्वसलावण्या गौरी नवा कापि विषग्रन्थिः। जाइज्जइ तहिं देसडइ लब्भइ पियहो” पमाणु / भटः प्रत्युत स मियते यस्य न लगति कण्ठे / / 3 / / जइ आवइ तो आणिअइ अहवा तं जि निवाणु // 2 // (सर्व अड्ग गौरी वह कोई अद्भूत नई विष-ग्रन्थि है। इसीलिए कि यायते (गम्यते) तस्मिन् देशे लभ्यते प्रियस्य प्रमाणम्। जो भी उसे गले नहीं लगता है, वह भी अवश्य मरता है। पीड़ित होता यदि आगच्छति तदा आनीयते अथवा तत्रैव निर्वाणम् // 2 // है। बचता नहीं। 420.3) (उस देश जाएँ , जहाँ प्रियतम मिले। यदि वह आएगा तो ले आएँगे।। विषण्णोक्त-वमनो वुन्न-वुत्त-विचं // 4211 // नहीं आया तो वहीं मरण के शरण होंगे। 416.2) उक्तं वुत्तं, वर्त्म विचं, विषण्णं वुन्नम् उच्यते / (सहस्य सहुं)"जउपवसन्तें सहुंन गयअन मुअविओएतस्सु। मई वुत्तउं तुहुँ धुरु धरहि कसरहिं विगुत्ताई। लज्जिज्जइ संदेसडा, दिन्तेहिं सुहय-जणस्सु // 3 // पइँ विणु धवल न चडइ भरु एम्बइ वुन्नउ काई ||1|| यत् प्रवसता सह न गता न मृता वियोगेन तस्य। मया उक्तं, त्वं धुरं धर, गलिवृषभैः (कसर) विनाटिताः। लज्ज्यते संदेशान् ददतीभिः सुभगजनस्य // 3 // त्वया विना धवल नारोहति भरः, इदानीं विषण्णः किम् // 11 // (प्रवासित पति के साथ मैं न गई और उसके जाने के बाद वियोग (हे धवल गुणियल उत्तम बैल, भाई तू धूरा को धारण कर / दूसरे में मरी भी नहीं। इसीलिए प्रियतम को संदेश भेजने में लज्जा आती मट्ठर, अधम बैलने हमें बहुत पीड़ित किया है। तेरे बिना यह बोझ है। 416.3) वहन न होगा। अब तू क्यों दुःखी है ? 421.1) एत्तहे मेह पिअन्ति जलु एत्तहे वडवानल आवट्टइ / शीघ्रादीनां वहिल्लादयः // 422 // पेक्खु गहीरिम सायरहो एक वि कणिअनाहिं ओहट्ठइ ||4|| शीघ्रादेस्तु वहिल्लादिरादेशोऽत्र निगद्यते / इतः मेघाः पिबन्तिः जलं इतः वडवानलः आवर्तते / शीघ्रं 'वहिल्ल' इत्युक्तं, झकटो घड्वलः स्मृतः। प्रेक्षस्व गभीरिमाणं सागरस्य एकापि कणिका न हि अपभ्रश्यते।।४|| एक्कु कइअह वि न आवही अन्नु बहिल्लउ जाहि / (ग्रीष्म की उष्णता से मेघ सागर से पानी पीते हैं, सागर में म. मित्तडा प्रमाणिअउ पइँ जेहउ खलु नाहिं // 11 // उधरबड़वानल उमड़-उमड़कर उफन रहा है। फिर भी सागर की एकं कदापि नागच्छसि अन्यत् शीघ्रं यासि। गहनगंभीरता देखने लायक है, उसकी एक बूंद भी कम न हुई। मया मित्र प्रमाणितः त्वया यादृशः (त्वं यथा) खलः न हि।।१।। 416.4)) (हे मेरे साथी, एक तो तू आता ही नहीं, आये भी तो तू जल्दी चला पश्चादेवमेवैदानी-प्रत्युतेतसः पच्छइ एम्वइ जि एम्वहिं जाता है। हे मित्र, तेरे जैसा कोई दुष्ट नहीं है। 422.1) एचलिउ एतहे॥४२॥ जि सुपुरिस ति घङ्घलई जिउँ नइति क्लणाई। पश्चात् पच्छइ, एव जि, इत एत्तहे, एवमेव एम्बइ च। जि डोगर तिर्दै कोट्टरइंहिआ विसूरहि काइं // 2 // भवतीदानीम् एम्वहिं, तथा प्रत्युतेति पञ्चलिउ / यथा सुपुरुषास्तथा झगटका यथा नद्यस्तथा वलनानि / Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (141) अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [सिद्धहेम०] [अ०८पा०४] यथा गिरयस्तथा कोटराणि हृदय ! खिद्यसे कथम् ?||2|| (हे मेरे मन, इस संसार में जैसे सज्जन हैं, वैसे ही क्लेश हैं, जैसी नदियाँ हैं, वैसे ही उसके मोड़ है, जैसे पर्वत हैं, वैसे ही उनके ढलान हैं। हे मन, तू क्यों खिन्न होता है ? जिसकी कोई दवाई नहीं, उसे सहन करना ही दवाई है। 422.2) जे छड्डेविणु रयणनिहि अप्पउँ तडि घल्लन्ति / तहं सनहं विट्टालु परु फुक्किज्जन्त भमन्ति ||3|| ये मुक्ताः रत्ननिधि आत्मनं तटे क्षिपन्ति। तेषां शंखानां संसर्ग केवलं फूत्क्रियमाणाः भ्रमन्ति / / 3 / / (जो शंख रत्ननिधि-सागर का त्याग करके किनारे पर फेंके जाते हैं, ये अश्पृश्य शंख लोगों द्वारा फूंके जाते हुए इधर-उधर भटकते रहते हैं। 422.3) दिवेहि विढत्तउँ खाहि वढ संचि म एक्कु वि द्रम्मु / को वि द्रवक्कउ सो पडइ जेण समप्पइ जम्मु ||4|| दिवसः अर्जितं खाद मूर्ख संचिनु मा एकमपि द्रम्ममू / किमपि भयं तत् पतति येन समाप्यते जन्म|४|| (हे मूर्ख बहुत लम्बे समय से जो धन अर्जित किया है, उसका उपयोग कर / अब और एक दाम भी एकत्र न कर / कौन जाने कोई संकट कब ऐसे आ जाये कि जन्म का ही अन्त हो जाए। 422.4) एकमेक्कउं जइ वि जोएदि हरि सुहु सव्वायरेण तो वि द्रोहि जहि कहिं वि राही। को सक्कइ संवरे वि दड-नयणा नेहिं पलृट्टा / / 5 / / एकैकं यद्यपि पश्यति हरिः सुष्टु सर्वादरेण। तथापि दृष्टिः यत्र कापि राधा। कः शक्नोति संवरीतु नयने स्नेहेन पर्यस्ते॥५॥ (श्री कृष्ण प्रत्येक गोपी पर अच्छी तरह नजर रखे हुए हैं, परन्तु जहाँ राधा है, वहाँ उसकी नजर थोड़ा ठहरती है। स्नेहिल-ज्वलित नयनों को रोकने में कौन समर्थ है ? 422.5) विहवे कस्सु थिरत्तणउं जोव्वणि कस्सु मरटू / सो लेखडउ पठाविअइ जो लग्गइ निचटू // 6 // विभवे कस्य स्थिरत्वं यौवने कस्य गर्वः। स लेखः प्रस्थाप्यते यः लगति गाढम् // 6 // (वैभव पर स्थिरता कैसी? (लक्ष्मी चंचल है।) यौवन जो अस्थिर है, उस पर गर्व कैसा? यही लेख भेजा जा रहा है, जो गाढ़-अटल है। 422.6) कहिं ससहरु कहिं मयरहरु कहिं बारीहिणु कहि मेहु। दूर-ठिअहिं वि सज्जणहं होइ असड्ढलु नेहु // 7 // कुत्र शशधरः कुत्र मकरधरः कुत्र बहीं कुत्र मेघः / / दूरस्थितानामपि सज्जानानां भवति असाधारणः स्नेहः // 7 // (कहाँ चंद्र और कहाँ सागर ? कितने दूर हैं। कहाँ वन में मोर और कहाँ आकाश में मेघ? अरे भाई, असाधारण सज्जनों का स्नेह भी असाधारण ही होता है। 422.7) कुञ्जरु अन्नहँ तरु-अरहं कडे ण घल्लइ हत्थु / मणु पुणु एक्कहि सल्लइहिं जइ पुच्छह परमत्थु // 8 // कुञ्जरः अन्येषु तरुवरेषु कौतुकेन घर्षति हस्तम्। मनः पुनः एकस्यां सल्लक्यां यदि पृच्छथ परमार्थम् / / 8 / / (हाथी अपनी सँड अन्य-अनेक वृक्षों पर यों ही स्पर्श करता है। सच पूछा जाय तो उसका मन तो केवल सल्लकी को ही ढूँढता रहता है। 422.8) खेड्डयं कयमम्हेहिं निच्छयं किं पयम्पह / अणुरत्ताउ भत्ताउ अम्हे मा चय सामिअ IIEI क्रीडा कृता अस्माभिः निश्चयं किं प्रजल्पत। अनुरक्ताः भक्ताः अस्मान् मा त्यज स्वामिन् // 6 // (हे स्वामि, आप ऐसा हृदय विदारक, कथन क्यों कहते हैं कि हमने खेल किया था-मात्र क्रीड़ा की थी? हे स्वामि, आपसे विनती है कि अनुरक्त भक्त जैसा हमारा त्याग न करें। 422.6) सरिहि न सरेहिंन सरवरे हिं न वि उजाण-वणेहिं। देस रवण्णा होन्ति वढ निवसन्तेहि सुअणेहिं // 10 // सरिद्भिः न सरोभिः न सरोवरैः नापि उद्यानवनैः / देशाः रम्याः भवन्ति मूर्ख निवसद्भिः सुजनैः // 10 // (हे मूर्ख, केवल तलावों से, नदियों से, तड़ागों से, उद्यानों से, विशाल वनों से किसी देश की शोभा नहीं होती है,परंतु शोभा बढ़ती है सज्जन लोगों के निवास करने से / समझे ? 422.10) हिअडा पई ऍहु बोल्लिअओ महु अग्गइ सयवार / / फुट्टिसु पिए पवसन्ति हउँ भण्डय ढक्करिसार ||11|| हृदया त्वया एतद् उक्तं मम अग्रतः शतवारम्। स्फुटिष्यामि प्रियेण प्रवसता (सह) अहं भण्ड अद्भुतसार॥११॥ (हे हृदय, तूने इस प्रकार मुझसे सैंकड़ों बार कहा है कि यदि प्रियतम परदेश जाएगा तो तू फटकर टूकड़े-टूकड़े हो जाएगा। 422.11) एक्क कुडुली पञ्चहि रुद्धी तहँ पञ्चहँ वि जुअंजुअ बुद्धी। बहिणुऐं तं घरु कहि किवँ नन्दउ जेत्थु कुअम्बउँ अप्पण-छन्दउँ। एका कुटी पञ्चभिः रुद्धा तेषां पञ्चानामपि पृथक्पृथक् बुद्धिः।।१२॥ भगिनि तद गृह कथय कथं नन्दतु यत्र कुटुम्बं आत्मच्छ-न्दकम् / / ('एक ही कुटिया है। उसमें पाँच रहते हैं। पांचों व्यक्ति अपनीअपनी स्वतंत्र बुद्धि से चलना चाहते हैं। हे मेरी बहन, अब तू ही सोचकर बता कि जहाँ सब आत्मस्वछंदी हों, वह परिवार कैसे सुखी रह सकता है?'४२२.१२) जो पुणु मणि जि खसफसिहूअउ चिन्तइ देइ न दम्मु न रूअउ / - रइ-वस-भमिरु करग्गुल्लालिउ घरहि जि कोन्तु गुणइ सो नालिउ ||13|| यः पुनः मनस्येव व्याकुलीभूतः चिन्तयति ददाति न द्रम्मं न रूपकम्। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सिद्धहेम०] (142) अभिवानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०४] रतिवशभ्रमणशीलः कराग्रोल्लालितं गृहे एव कुन्तं गणयति स मूढः // 13 // (जो केवल मन ही मन में व्याकुल होता है, चिंता करता है मगर किसी को आवश्यकता पड़ने पर एक दाम भी नहीं देता वह महामूर्ख है। रति-इच्छा से इधर-उधर भटकेन वाला और घर के अन्दर ही अँगुलियों के भाले नचानेवाला भी एक नंबर का मूर्ख है। 422.13) चले हि चलन्ते लोअणे हि जे तेइँ दिट्ठा बालि। तहि मयरद्धय-दडवडउ पडइ अपूरइ कालि // 14 // चलाभ्यां वलमानाभ्यां लोचनाभ्यां ये त्वया दृष्टाः बाले॥ तेषु मकरध्वजावस्कन्दः पतति अपूर्णे काले // 14 // (हे बाले, चलते-चलते तेरे चंचल नयनों से, जो कोई देखा गया है उस पर अपरिपक्व अवस्था में ही रति का शीघ्र प्रहार होने लगा है। (कामदेव सवार हो जाता है / 422.14) गयउ सु केसरि पिअहु जलु निचिन्तइँ हरिणाई / जसु केरएँ हुंकारडएं मुहुहुँ पडन्ति तृणाई // 15|| गतः स केसरी पिबत जलं निश्चितं हरिणाः। यस्य संबन्धिना हुंकारेण मुखेभ्यः पतन्ति तृणानि // 15 // (हे मित्र हरिणों , जिसकी गर्जना से, तुम्हारे मुख से तृण गिर पड़ता था, वह केसरी सिंह चला गया है। निश्चिंत होकर जल पान करो। 422.15) सत्थावत्थहँ आलवणु साहु वि लोउ करेइ / आदन्नहँ मम्मीसडी जो सज्जणु सो देइ // 16 // स्वस्थावस्थानामालपनं सर्वोऽपि लोकः करोति। आर्तानां मा भैषीः इति यः सुजनः स ददाति // 16 // (सुखी लोगों के साथ संसार के लोग बोलते चलते रहते हैं। परन्तु दुःखी लोगों से 'घबराव नहीं' ऐसा बोलनेवाले केवल सज्जन ही होते हैं। 422.16) जइ रच्चसि जाइट्ठिअए हिअडा मुद्ध-सहाव / लोहे फुट्टणएण जिवे घणा-सहेसइ ताव ||17|| यदि रज्यसे यद्यद् दृष्ट तस्मिन् हृदय मुग्धस्वभाव / लोहेन स्फुटता यथा धनः (तापः) सहिष्यते तावत्॥१७|| (अरे औ हृदय, जो भी मिलता है, उन सभी पर आसक्त हो जाते हो। इसका परिणाम यह होगा कि फटनेवाले ठंडे लोहे की तरह तुम्हें घन के प्रहार जैसे दुःख उठाने पड़ेंगे। [घडलः "जिद सुपुरिस तिवँ घसलई जित नइ तिवँ क्लणाई। जिवँ डोङ्गर तिर्वं कोट्टरई हिआ विसूरहि काई"। यथा सुपुरुषास्तथा झगटका यथा नद्यस्तथा वलनानि। यथा गिरयस्तथा कोटराणि हृदय ! खिद्यसे कथम् ? 'विट्टाओ' ऽस्पृश्यसंसर्गो, 'द्रवक्को' भयवाचकः / आत्मीयो 'ऽप्पण, इत्युक्तो - 'निचट्टो' गाढ ईरितः / द्रहिर् दृष्टी, रवण्णस्तु रम्ये, खेडुस्तु क्रीड़ने / स्यात् कोडः कौतुके सङ्कलस्त्वसाधारणे तथा / अनुले दारिः, हेल्लिः हेसखि, नवखो नवे। अवस्कन्दे दडवडः, पृथगर्थे जुअजुअः। सम्बन्ध्यर्थे केरतणौ, मूढेऽर्थे वढ-नालिऔ। मा भैषीरिति मम्भीसा, यद्यर्थे छुडुर् इष्यते / 'यद्यद् दृष्ट तत्तद्' इत्यर्थे जाइट्ठिआ स्मृता। हुहुरु-घुग्धादयः शब्द-चेष्टानुकरणयोः / / 423 / / स्युर् हुहुरु-प्रभृतयः, शब्दानुकरणे तथा। चेष्टाऽनुकरणे घुग्घादयः शब्दा व्यवस्थिताः। "मई जाणिउं बुड्डीस हउं पेम्म-द्रहि हुहुरु त्ति / नवरि अचिन्तिय संपडिअ विप्पिय नाव झडत्ति ||1|| मया ज्ञातं बुडिष्यामि अहं प्रेमहदे हुहुरुरिति। केवलमचिन्तित्वा संपतिता (संप्राप्ता) विप्रियनौः झटिति / / 1 / / (अरे, मैने तो सोचा था कि 'हुहरु' बोलते हुए प्रेमसागर में डुबकियाँ लगाने लगूंगी। परन्तु मैने कल्पना भी नहीं की थी कि मुझे अकस्मात् ही विरह-नौका मिल जाएगी। 432.1) अज्जवि नाहु महुज्जि घरि सिद्धत्था वन्देइ / ताउंजि विरहु गवक्खेहि मक्कड़-घुग्घिउ देइ" ||2|| अद्यापि नाथो ममैव गृहे सिद्धार्थान् वन्दते। तावदेव विरहो गवाक्षेषु मर्कटचेष्टाः ददाति / / 2 / / (मेरा स्वामी जिनवर-बिम्ब वंदन करके आज दिन में घर पर ही है। फिर भी उससे रहा नहीं जाता और विरह में गवाक्ष में बैठकर बंदर जैसी चेष्टाएँ कर रहा है। 423.2) खज्जइ नउ कसरक्के हिं पिज्जइ नउ घुण्डे हि / एम्वई होइ सुहच्छडी पिएँ दिढे नयणेहि // 3 // खाद्यतेन कसरत्कशब्दं कृत्वा, पीयते न छुट्शब्द कृत्वा। एवमपि भवति सुखसिका प्रिये दृष्टि नयनाभ्याम् / / 3 / / (प्रियतम के नयनपथ में आते ही न जमकर खाया जाता है और न ही ढंग से पानी पिया जाता है, लेकिन फिर भी प्रियतम के दर्शन लाभ से सुखद अनुभव होता है। 423.3) सिरि जर-खण्डी लोअडी गलि मणियडा न वीस / तो वि गोट्ठडा कराविआ मुद्धएँ उट्ठ-बईस // 4 // शिरसि जराखण्डितालोमपुटी (कम्बल) गले मणयः न विंशतिः। तथापि गोष्ठस्थाःकारिताः मुग्धया उत्थानोपवेशनम् // 4 // (उस महिला के शिर पर जीर्ण-शीर्ण कमली थी और उसके गले में मणकों की कोई माला भी नहीं थी, फिर भी उसने मंडली के सदस्यों से उठक-बैठक करवाई। 423.4) घइमादयोऽनर्थकाः // 424|| 'घइम्' इत्यादयः शब्दाः, निपाताः परिकीर्तिताः। वेद्या अनर्थकास्तेऽत्र, 'घई खाई' निदर्शनम् / अम्मडि पच्छायावडा पिउ कलहिअउ विआलि / घई विवरीरी बुद्धडी होइ विणासहो कालि / / 1 / अम्ब पश्चात्तापः प्रियः कलहायितः विकाले / नूनं विपरीताः बुद्धिः भवति विनाशस्य काले // 1 // Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धहेम.] (143) अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०४] (हे मां, क्या करूँ, मुझे खूब पछतावा हो रहा है। अभी सांयकाल को मुझसे प्रियतम के साथ कलह हो गया है। सच ही कहा है कि विनाश के समय बुद्धि विपरीत हो जाती है / 424.1) तादर्थ्य के हिं-तेहिं-रेसि-रेसिं-तणेणाः ||425 // 'केहि तेहि-रेसि-रेसिं-तणेणा' इति पञ्च तु / निपाताः संप्रयोक्तव्यास्तादर्थ्य यत्र गम्यते। "ढोल्ला एह परिहासडी अइभ न कवणहि देसि / हउं छिज्जउं तउ केहिं पिअ ! तुहं पुणु अन्नहि रेसि"||१|| नायक ! एषा रीतिः अत्यद्भुता न कुत्राति दृष्टा / अहं क्षीये तव कृते प्रिय ! त्वं पुनरन्यस्यार्थे / / 1 / / (हे मेरे प्रियतम, यह तो बताओ कि ऐसा उपहास किस देश में होता / है कि मैं तुम्हारे लिए झूर रही हूँ और तुम किसी दूसरी के लिए। 425.1) पुनर्विनः स्वार्थे डुः // 426|| 'पुनर् विना' इत्येताभ्यां, स्वार्थे हुः प्रत्ययो भवेत् / पुनरर्थे पुणु ततो, विनाऽर्थे 'विणु' सिध्यति / सुमरिज्जइ तं बल्लहउँ जं वीसरइ मणाउँ / / जहिं पुणु सुमरणु जाउं गउं तहों नेहहोकइँ नाउँ ||1|| स्मर्यते तद् वल्लभं यद् विस्मर्यते मनाक्। यस्य पुनः स्मरणं जातं गतं तस्य स्नेहस्य किं नाम !!1 // (स्मरण होता है और अल्पकाल में बिसर जाता है वह प्रिय स्नेह है। जो फिर स्मरण किया है और चला जाता है उस स्नेह का नाम क्या है? 426.1) अवश्यमो डें-डौ // 427|| अवश्यमः परौ 'डें-डौ,'स्वार्थिको प्रत्ययौ स्मृतौ / तस्माद् अवश्यम् 'अवसें अवस' स्मर्यते बुधैः / जिब्मिन्दिउ नायगु वसि करहु जसु अधिन्नई अन्नई / मूलि विणट्ठई तुंबिणिहे अवसे सुक्कहि पण्णइं // 1 // जिह्वेन्द्रियं नायकं वशे कुरुत यस्य अधीनानि अन्यानि। मूले विनष्ट तुम्बिन्याः अवश्यं शुष्यन्ति पर्णानि ||1|| (जीवन की मुख्य स्वादेन्द्री जीभ को वश में करने से अन्य इंद्रिया भी वशीभूत हो जाएगी। तुम्बड़ी (साधु-समाज का जल-पात्र) के मूल (जड़) के नष्ट होने पर पत्ते अपने आप सूख जाते हैं / 427.1) एकशसोऽडिः // 428|| स्वार्थे डिर् एकशस् शब्दाद्, रूपम् ‘एक्कसि' संस्मृतम् / एक्कसि सील-कलंकिअहं देज्जहिं पच्छित्ताई। जो पुणु खण्डइ अणुदिअहु तसु पच्छित्ते काई ||1|| एकशः शीलकलङ्कितानां दीयन्ते प्रायश्चित्तानि। यः पुनः खण्डयति अनुदिवसं तस्य प्रायश्चित्तेन किम् // 1 // (जिनका एक बार शील खंडित हुआ उसके लिए प्रायश्चित (आलोचना-क्रिया) का व्यवधान है। परन्तु जो अनुदिन-रोजरोज अपना चरित्र भ्रष्ट करते हैं, उनके प्रायश्चित से क्या लाभ? 428.1) अ-डड-डुल्लाः स्वार्थिक-क-लुक् च // 426 // नाम्नः परे- 'ऽडड हुल्ल' इत्यमी स्वार्थिकास्त्रयः / तत्सन्नियोगे स्वार्थे क-प्रत्ययश्वेह लुप्यते / "विरहानल-जाल-करालिअउ पहिउ पन्थि जं दिट्ठउ। तं मेलवि सव्वहिं पंथिअहिं सोजि किअउ अग्गिट्ठउ" ||1|| विरहानलज्वालाकरालितः पथिकः पथि यद् दृष्टः / तत् मिलित्वा सर्वैः पथिकैः स एव कृतोऽग्निष्टः / / 1 / / (विरह-अग्नि से जला हुआ कोई मृत पथिक दिखाई दिया तो अन्य पथिकों ने मिलकर उसे अग्नि पर रखा। 426.1) ममस्य 'दोसडा' डुल्लस्य कुडुल्ली निदश्यते। योगजाश्चेषाम् / / 430 // एषाम् अ डड-मुल्लाना, योगभेदेन निर्मिताः। जायन्ते प्रत्यया येऽत्र, तेऽपि स्वार्थे क्वचिन्मताः। [डडअ] 'फोडेन्ति जे हिअमउं' किसलेति [1/266 ] यलुक् मतः। [ मुल्लअ] 'चुन्नीहोइसई चुडुल्लउ' डुल्लडड श्रृणु-| (डुल्लडड) "सामिपसाउ सलअपिउ सीमा-संधिहिं वासु। पेक्खिवि बाहु-बलुल्लडा धण मेल्लइ नीसासु" ||1|| स्वामिप्रसादः सलज्जप्रियः सीमांसधौ वासः। प्रेक्ष्य बाहुबलं नायिका मुञ्चति निश्वासम्॥१॥ (प्रियतम का अपने प्रति अनुकम्पा भरा व्यवहार, उसका शर्मीला स्वभाव, प्रिय-योद्धा का सीमा पर वास तथा उसके बाहुबल का चिंतन मनन करते-करते प्रियतमा सुख की सांस भरने लगी। 430.1) आमि 'स्यादौ दीर्घ-हस्वौ'-[४/३३० इति दीर्घोऽत्र बुध्यताम्। 'बाहु बलुल्ल डउ' तु. प्रत्ययत्रयसंभवम्। स्त्रियां तदन्ताड्डीः // 431|| पूर्वसूत्रद्वयोक्तप्रत्ययान्ताद् डीः स्त्रियां भवेत्। "पहिआ दिट्ठी गोरडी दिट्ठी मगु निअन्त / अंसूसासेहिं कञ्चुआ तिंतुव्वाण करन्त" ||1|| पथिक ! दृष्टा गौरी, दृष्ट्या मागं पश्यन्ती। अश्रूच्छासाभ्यां कञ्चुकं तेमितोदातं कुर्वती / / 1 / / ('हे पथिक, क्या तुमने मेरी प्रियतमा को देखा है ? 'हां, तुम्हारी प्रतिक्षा करती हुई और अश्रुजल से अपनी कंचुकी को भिगोती हुई तथा उर्वश्वासों से सुकाती हुई देखी गई है।' 430.1) आन्तान्ताड्डाः / / 432 / स्त्रियाम् अप्रत्ययान्त-प्रत्ययान्ताद् 'डा'ऽस्तु नैव डीः / "पिउ आइउ सुअ वत्तडी झुणि कन्नडइ पइट्ठ / तहो विरहहो नासंतअहो धूलडिण्ण वि न दिट्ठ'||१|| Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (144) अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् / [सिद्धहेम० [अ०८पा०४] प्रिय आगतःश्रुता वार्ता ध्वनिः कर्णप्रविष्टः। तस्य 'विरहस्य नश्यतो' धूलिरपि न दृष्टा / / 1 / / (प्रियतम आया / इस समाचार की ध्वनि कान में प्रवेश करते ही अरे ! विरह ऐसा अन्तर ध्यान हो गया कि उसकी रजकण भी कहीं दिखाई नहीं देती है। 432.1) अस्येदे / / 433|| स्त्रियां नाम्नोऽत इत्त्वं स्याद् आकार प्रत्यये परे / 'धूलडिआ वि दिट्ठ न' इति वाक्ये विभाव्यताम् / युष्मदादेरीयस्य डारः // 434|| युष्मदादिभ्य ईय प्रत्ययस्य 'डार' इष्यते / "संदेसें काई तुहारेण जं सङ्गहो न मिलिज्जइ / सुइणन्तरि पिएं पाणिएण पिअ ! पिआस किं छिज्जइ''||१|| संदेशेन कियत् युष्मदीयेन यत् सङ्गाय न मिल्यते। स्वप्नान्तरे पीतेन पानीयेन प्रिय ! पिपासा कि छिद्यते / / 1 / / (हे प्रियतम, संदेशा भेजने से क्या लाभ है, जब तुम्हारा सहवास ही नहीं मिलता? सपने में पानी पीने से क्या प्यास बुझती है? बिलकुल नहीं, कभी नहीं। हे प्रिय संदेशा भेजने के बदले एक बार तुम अवश्य आकर मिल लो। 434.1) अम्हारा च महारा च, वेद्यं चैवं निदर्शनम्। अतात्तुलः // 435 // इदंकिंयत्तदेतद्भयोऽतोः स्थाने 'उत्तुलो' भवेत् / एत्तुलो केत्तुलो जेत्तुलो च तेत्तुलो एत्तलो। त्रस्य उत्तहे // 436|| सवदिस् त्र-प्रत्ययस्य, पदे स्यात् 'डेत्तहे यथा"एत्तहे तेत्तहे वीरघरि लच्छि विसण्ठल ठाइ। पिअ-पब्मट्टव गोरडी निचल कहिंवि न ठाइ"||१|| अत्र तत्र वीरगृहे लक्ष्मी विसंस्थुला तिष्ठति। प्रियप्रभ्रष्टा गौरी निश्चला क्वापि न तिष्ठति / / 1 / / (कभी यहाँ, कभी वहाँ, कभी दरवाजे पर, कभी घर में इधर-उधर विह्वल होकर लक्ष्मी घूमती है। प्रियतम से बिछड़ी हुई गौरी के समान वह स्थिर कहीं भी नहीं ठहरती / (हे प्रियतम तुम्हारे बिना उसका शांत रहना और कहीं भी टिकना मुश्किल है। हे प्रिय, अब तुम्हें जल्दी ही आना पड़ेगा।' 436.1) त्व-तलोः प्पणः // 437|| प्रत्यययोस् त्व-तलोः स्यात्, 'प्पणः', वडप्पणु' स्मृतम् / प्रायोऽधिकाराद् ‘वडुत्तणहो' इत्यपि सिध्यति / तव्यस्य इएव्वउं एव्वउं एवा // 438|| इएव्वउं एव्वउं एवा' तव्यस्य पदे त्रयः। "एउ गृण्हेप्पिणु धूं मई, जइ प्रिउ उव्वारिजइ / महु करिएव्वउं किं पि णवि, मरिएव्वउं पर देजइ ||1|| एतद् गृहीत्वा यन्मया यदि प्रिय ! उद्वार्यते। मम कर्तव्यं किमपि नापि, मर्तव्यं परं दीयते / / 1 / / (इस धन को लेकर यदि इसके बदले में मुझे प्रियतम को अवश्य | देना ही पड़े तो इससे अच्छा तो यह होगा कि प्रियतम को दूसरों को दने के बदले मुझे ही मर जाना चाहिए। 438.1) देसुबाडणु सिहिकढणु,घणकुट्टणु जं लोइ / मंजिट्ठए अइरत्तिए, सव्दु सहेव्वउं होइ / / 2 / / देशोच्चाटनं शिखिक्वथनं घनकुट्टनं यल्लोके। मञ्जिष्ट्या अतिरक्तया सर्व सोढव्यं भवति / / 2 / / (जगत में अत्यंत लाल रंग की स्नेहवर्णा-स्नेह-सूचिकास्नेहदर्शिता मजीठ नामक फलवती लता को किसी भाग से (खेत, वन, पर्वत, नदी-नाले के किनारे से) उखाड़ कर लाना, शिखरस्थ उबलते पानी में औटाना और घन से कूटा जाना, यह सब उस स्नेह संदेशिका को सहन करना ही पड़ेगा। 438.2) सोएवा पर वारिआ, पुष्फवईहिं समाणु / जग्गेवा पुणु को धरइ, जइ सो वेउ पमाणु?"||३|| स्वपितव्यं परवारिता पुष्पवतीभिः समम्। जागर्तव्यं पुनः को बिभर्ति यदि स वेदः प्रमाणम् // 3 // (यदि यह वेदों की आज्ञा है कि रजस्वला स्त्री के साथ सोना मना है, (वो ठीक है। वेदों की आज्ञा शिरोधार्य है।) परन्तु (रात-भर या जितना जी चाहे) जागते रहने के लिए किसने मना किया है।४३८.३) क्त्व इ-इउ-इवि-अवयः ||436 / / 'अवि इवि इउ इ' इतीमे, चत्वारः क्त्वः पदे भवन्ति, यथा / हिअडा जइ वेरिअ घणा तो किं अभि चडाहुं / अम्हाहिं बे हत्थडा जइ पुणु मारि मराहुं ||1|| हृदय यदि वैरिणो घनाः तत् किं अभ्रे (आकाशे) आरोहामः। अस्माकं द्वौ हस्तौ यदि पुनः मारयित्वा म्रियामहे ||1|| (हे हृदय, यद्यपि मेघ हमारे शत्रु हैं तो क्या हुआ हम आकाश पर आक्रमण नहीं करेंगे क्या? अवश्य करेंगे भले ही हमारे खाली दो हाथ हैं, यदि मरना ही है तो मरेंगे, लेकिन उन्हें मारने के बाद / (बकरी हैं तो क्या हुआ? सिंग छोटे हैं, तो क्या हुआ? सामने शेर है, तो क्या हुआ, फिर भी सामना करते हुए मरेंगे। शरण में जाकर नहीं। 436.1) रक्खइ सा विस-हारिणी बे कर चुम्बिवि जीउ / पडिबिम्बिअ-मुंजालु जलु जेहि अडोहिउ पीउ ||श रक्षति सा विषहारिणी द्वौ करौ चुम्बित्वा जीवम्। प्रतिबिम्बतमुजालं जलं याभ्यामनवगाहितं पीतम् / / 2 / / (मालवपति) मुंज का जिस जल में प्रतिबिम्ब पड़ा था और उस जल में प्रवेश किए बिना (जल में प्रवेश करने से मुंज का प्रतिबिम्ब नष्ट हो जाता ) जल पिया था, उस विरह-विष-हारिणी ने (मुंज के जल प्रतिबिम्ब का स्पर्श करनेवाले) उन दो हाथों का चुम्बन करके अपने प्राण की रक्षा की / 436.2) [इ] जइ / इवि] चुम्विवि च [ अवि विछोडवि, [इउ ) भजिउ रूपाणि सिध्यन्ति / बाह बिछोडवि जाहि तुहुँ, हउं तेवँइ को दोसु? हिअय-ट्ठिउ जइ नीसरहि, जाणउँ मुञ्ज / सरोसु // 3 // बाहू विच्छोट्य यासि त्वं भवतु तथा को दोषः? Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (145) सिद्धहेम० अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०४] हृदस्थितो यदि निःसरसि जाने मुञ्ज ! सरोषः // 3 // गत्वा वाराणस्यां नरा अथोज्जयिन्यां गत्वा। (हे मुंज, यदि तुम मेरे हाथ छुड़ाकर जाना चाहते हो, तो जाओ, मृताः (म्रियन्ते) प्राप्नुवन्ति परमपदं दिव्यान्तराणि मा जल्प // 1 // इससे कोई नुकसान नहीं है। लेकिन हृदय से छूटकर जाओ तो मैं (तीर्थराज वाराणसी जाकर अथवा उज्जयिनी जाकर जो नर मरण समयूँ कि मुंज सचमुच क्रुद्ध हुआ है / 436.3) प्राप्त करनेवाले हैं, वे दिव्य परम पद मोक्ष पाते हैं। अन्य किसी दूसरे ( अवि ] "बाह बिछोडवि जाहि तुहुं, हउं तेवइ को दीसु? तीर्थ की बात न करें। 442.1) हिअय-ट्टिउ जइ नीसरइ, जाणउं मुञ्ज ! सरोसु // " [पक्षे ] "गङ्ग गर्मप्पिणु जो मुअइ, जो सिव-तित्थ गमेप्पि। | बाहू विच्छोट्य यासि त्वं भवतु तथा को दोषः? कीलदि तिदसावास-गउ, सो जम-लोउ जिणेप्पि | // 2 // " हृदयस्थितो यदि निःसरसि जाने मुश्च ! सरोवः // ] गङ्गां गत्वा यो मृतः यः शिवतीर्थं गत्वा। एप्प्येप्पिएवेव्येविणवः ||440|| क्रीडति त्रिदशावासगतः स यमलोकं जित्वा / / 2 / / चत्वारःक्त्वः पदे 'एप्पि, एवि एप्पिणुए विणु' / (जो पावनकारिणी गंगा (के तीर्थ को) जाकर तथा काशी तीर्थ सूत्रयोर्यः पृथग्योग उत्तरार्थः स इष्यते। पहुँचकर मरण प्राप्त करता है, वह यमलोक-जीतकर देवलोक में "जेप्पि असेसु कसाय-बलु, देप्पिणु अभउ जयस्सु / आनंदपूर्वक रहता है। 442.2) लेवि महव्वय सिवु लहहिं, झाएविणु तत्तस्सु // 1 // " तृनोऽणअः // 443 / / जित्वाऽशेष कषायबलं दत्त्वाऽभयं जगतः। प्रत्ययस्य तृनः स्थानेऽणआऽऽदेशो विधीयते। लात्वा महाव्रतानि शिवं लभन्ते ध्यात्वा तत्त्वम् / / 1 / / बोल्लणउ बज्जणउ, तथा भसणउ स्मृतम् / (काम, क्रोध, मान,लोभ आदि सैन्य-शक्ति को नष्ट करके, संसार हत्थि मारणउं लोउ बोल्लणउ पऽहु वज्जणउ सुणउं भसणउ।।१।। को अपनी तरफ से अभय प्रदान करके, (सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह हस्ती मारयिता: लोकः कथयिता / आदि) महाव्रत ग्रहण करके साधु भगवंत कल्याण प्राप्त करते हुए, पटहः वादयि शुनकः भाषिता / / 1 / / जन्ममरण से मोक्ष तत्व का ही ध्यान धरते हैं / 440.1) (हाथी मारता है। (हमें बचकर चलना चाहिए)लोग बोलते ही रहते तुम एवमणाणहमणहिं च // 441|| हैं। (यदि हमें नहीं सुनना है तो उनको प्रेरित नहीं करना चाहिए।) 'अणहिं अणहं एवं, अण एप्पिणु एविणु / ढोल बजता है-बजाया जाता है। (यदि हमें न सुनना हो तो अपने एप्पि एवि' अमी अष्टौ, प्रत्ययस्य तुमः पदे / कार्य में मग्न रहना चाहिए।) और कुत्ता भोंकता है। (हमें सावधान "देवं दुक्कर निअय-धणु, करण न तउ पडिहाइ / रहना चाहिए।) इनके स्वाभाविक प्रकृति दत्त गुण है। यह जनमान्य है।४४३.१) एम्वइ सुहु भुजणहं मणु, पर भञ्जणहिं न जाइ // 1 // इवार्थे नं-नउ-नाइ-नावइ-जणि-जणवः // 444|| दातुं दुष्करं निजकधनं कर्तुं न तपः प्रतिभाति। अपभ्रंशे 'जणि जणु नाइ नावइ नं नउ'। एवमेव सुखं भोक्तुं मनः परं भोक्तुं न याति // 1 // इत्यमी षट् प्रयुज्यन्ते, इवार्थे कोविदैः सदा। (स्वयं का धनदान करना कठिन लगता है-दुष्कर लगता है। तप [नाइ] "वलयावलि-निवडण-भएण,धण उद्धन्भुअजाइ। करना भी अच्छा नहीं लगता। मन तो यही चाहता है कि यों ही बिना वल्लह-विरह-महादहहो, थाह गवेसइ नाइ // 1 // " किसी कष्ट के सुख भोगा जाता रहे, परन्तु न सुख भोगना आता है वलयावलिनिपतनभयेन नायिका ऊर्ध्वभुजा याति। और न ही भोगा जाता है / 441.1) जेप्पि चएप्पिणु सयल धर, लेविणु तदु पालेवि / वल्लभविरहमहाहृदस्य स्ताघं गवेषयति इव ||1|| (नायिका सुंदरी (प्रियतम के विरह में दुबले हुए हाथ से) कंगन समूह विणु सन्ते तित्थेसरेण, को सक्कइ भुवणे वि?"||२|| गिर पड़ेगा इस भय से हाथ ऊँचे किये हुए चलती है। मानो (लोगों जेतुं त्यक्तुं सकलां धरां लातुं तपः पालयितुम्। को लगता है बेचारी) प्रियतम के विरहरूपी महासरोवर की थाह जानने विना शान्तिना तीर्थेश्वरेण कः शक्नोति भुवनेऽपि?||२|| के लिए हाथ ऊँचे किए हुए चल रही है / 444.1) (सकल पृथ्वी को जीतना और जीतकर त्याग कर देना तथा तपव्रत रवि अत्थमणि समाउलेण कण्ठि विइण्णु न छिण् / धारण करना और उसका पालन करना / ऐसा सब करने में समर्थ चक्के खण्डु मुणालिअहे नउ जीवग्गलु दिण्णु |2|| भगवान तीर्थंकर शांतिनाथजी के सिवाय जगत में दूसरा कौन है? रव्यस्तमने समाकुलेन कण्ठे वितीर्णः न छिन्नः। 441.2) चक्रेण खण्डः मृणालिकायाः ननु जीवार्गलः दत्तः / / 2 / / गमेरेप्पिण्वेप्प्योरेलुंग वा // 442|| (सूर्यास्त होने पर (चक्रवाकी के विरह में) चक्रवाक पक्षी ने गम-धातोः परौ यो स्तः, 'एप्पि एप्पिणु' इत्यम्। मृणालिनी-कमल के डंढल का कंठ में डाला। उसे खाने के लिए चूरा तयोर् एतो लुग अत्रास्तु, विभाषेति विधीयते। भी नहीं किया और गले में कंठ से नीचे उतारा भी नहीं / मानो जीव "गम्प्पिणु वाणारसिहिं नर, अह उज्जेणिहिं गम्प्पि / शरीर से बाहर न निकले इसलिए डंढल का अवरोध लगा रखा है। मुआ परावहिं परम-पउ, दिव्वन्तरई म जम्पि"||१|| 444.2) Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (146) [सिद्धहेम०] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०४] पेक्खेविणु मुहु जिण-वरहो दीहर-नयण सलोणु / शौरसेनीवत् // 446|| नावइ गुरु-मच्छर-भरिउ जलणि पवीसइ लोणु ||3|| अपभ्रंशे शौरसेनीवत् कार्यं प्रायशः स्मृतम् / प्रेक्ष्य मुखं जीनवरस्य दीर्घनयनं सलावण्यम् / सीसि सेहरु खणु विणिम्मविदु ननु गुरुमत्सरभरित ज्वलने प्रविशति लवणम् // 3 // खणु कण्ठि पालंबु किदु रदिए / (जन्म-मरण से तारने का घाट-तीर्थ दर्शनावाले भगवान तीर्थंकर विहिदु खणु मुण्डमालिऐं जं पणएण जिनवर के मुख-मंडल और दीर्घ आयतलोचन का लावण्य माधुर्य तं नमहु कुसुम-दाम-कोदण्डु कामहो ||1|| युक्त सौन्दर्य देखकर अत्यंत ईर्षालु बने (लावण्य) ने आघात सहन शीर्षे शिखरः क्षणं विनिर्मापितम्। न करने के कारण जलनिधि-समुद्र में प्रवेश कर लिया-समा गया। तभी से समुद्र जल नमक के स्वाद से युक्त हो गया। 444.3) क्षणं कण्ठे प्रालम्बं कृत रत्याः। चम्पय-कुसुमहो” मज्झि सहि भसलु पइट्ठउ / विहितं क्षणं मुण्डमालिकायां / सोहइ इन्दनीलु जणि कणइ बइठ्ठउ // 4 // तन्नमत कुसुमदामकोदण्ड कामस्य / / 1 / / चम्पककुसुमस्य मध्ये सखि भ्रमरः प्रविष्टः / (कामदेव ने पुष्प-धनुष्य को आनंद में आकर क्षणभर के लिए शेखर शोभते इन्द्रनीलः ननु कनके उपवेशितः // 4 // के गजरा के स्वरूप में रखा, क्षणवार रति के कंठ पर लटकते हुए (हे सखि, देख तोसही, चम्पा के फूलों के बीच में भ्रमर ने प्रवेश किया | रखा, फिर क्षणभर अपने गले में डाला। कामदेव के उस पुष्पधनुष्य है। मानों सोने में जड़ा हुआ नीलमणि हो, ऐसा शोभायमान हो रहा है। को नमस्कार करो।४४८.१) 444.4) व्यत्ययश्च / / 447 // लिङ् गमतन्त्रम् // 445 / / भाषाणां प्राकृतादीनां, लक्षणानि तु यानि हि / अत्र लिङ्ग व्यभिचारि, प्रायो भवति तेन हि। तेषां च व्यत्ययः प्रायो, भवेदित्युपदिश्यते। स्त्रीपुंनपुंसकं लिङ्गं, यथेष्टं संप्रवर्तते। तिष्ठश्चिष्ठति [ 4268] मागध्यां, यथा कार्य प्रदर्शितम् / "अब्मा लग्गा डुङ्गरिहिं, पहिउ रउन्तउ जाइ। तत् पैशाची-शौरसेनी-प्राकृतेष्वपि जायते / जो एहा गिरि-गिलण-मणु, सो किं धणहे धणाइ॥१॥" अपभ्रंशे तु रेफस्याधो वा लुक् स्यादितीरितम्। अभ्राणि लग्नानि पर्वतेषु पथिको रटन् याति / मागध्यामपि तत् कार्य , भवतीति निदर्शनम् / य इच्छति गिरिगलनमनाः स किं नायिकायाः धृणानि?।।१।। न केवलं हि भाषालक्षणानां व्यत्ययः कृतः / (मेघ पर्वत को स्पर्श कर रहे हैं। पथिक आंसू बहाते हुए जा रहा त्याधादेशानामपि तु, व्यत्ययो दृश्यते यतः / है। वह देखता और सोचता है- पर्वतों को निगलने की इच्छा करने वर्तमाने प्रसिद्धा ये, ते भूतेऽपि भवन्ति तु। वाले ये मेघ क्या उसकी प्रियतमा के प्राणों पर दया करेंगे? (यह भूतकाले प्रसिद्धास्तु, वर्तमानेऽपि वीक्षिताः / सोचकर पथिक अत्यंत दुःखी है। 445.1) यथा 'पेच्छई' इत्येतत्, 'प्रेक्षाञ्चक्रे' क्वचिन्मतम् / पाइ विलग्गी अन्त्रडी सिरु ल्हसिउं खन्धस्सु / 'आभासई' 'आबभाषे,' इत्यर्थे क्वापि दृश्यते। तो वि कटारइ हत्थडउ बलि किज्जउँ कन्तस्सु // 2 // एवं 'सोहीअ' इति तु, शृणोतीत्यर्थक क्वचित् / पादे विलम्नं अन्नं शिरः स्रस्तं स्कन्धात्। शिष्टप्रयोगतः सर्व, बोद्धव्यं सूक्ष्मदर्शिभिः / तथापि कटारिकायां हस्तः बलिः क्रियते कान्तस्य / / 2 / / शेषं संस्कृतवत् सिद्धम् // 448|| (अंतड़ी पेट से निकलकर पैरों पर पड़ी है। शिर कंधे से अलग होकर गिर पड़ा है। फिर भी प्रियतम का हाथ कटारी पर है। ऐस प्रियतम प्राकृताहिषु भाषासु, यत् कार्य नेह दर्शितम् / की मैं पूजा करती हूँ। 445.2) सप्ताध्यायीनिबद्धेन, संस्कृतेन समं हि तत् / सिरि चडिआ खन्ति प्फलई पुणु डालई मोडन्ति / "हेट्ठ-ट्ठिय-सूर-निवारणाय, छत्तं अहो इव वहन्ती। तो वि महहुम सउणाहं अवराहिउ न करन्ति // 3 // जयइ ससेसा वराह-सास-दूरुक्खुया पुहवी"||१|| शिरसि आरूढाः खादन्ति फलानि पुनः शाखाः मोटयन्ति / अधःस्थितसूरनिवारणाय छत्रमध इव वहन्ती। तथापि महाद्रुमाः शकुनीनां अपराधितं न कुर्वन्ति / / जयति सशेषा वराहश्वासदूरोत्क्षिप्ता पृथिवी // 1 // (वृक्ष के सिर पर चढ़कर फल खाते हैं और डालियों को तोड़ते-- (नीचे स्थित सूर्य के ताप को दूर करने के लिए मानो छत्र नीचे धारण मरोड़ते हैं, फिर भी महान वृक्ष पक्षियों को किसी प्रकार की पीड़ा नहीं | करती हुई और वराह (विष्णु के अवतार) के श्वास से दूर फेंकी गई पहुँचाते हैं / वृक्ष महान सत्पुरुष-सूरि समान है। 445.3) ऐसी, शेष सहित पृथ्वी विजयी है। 448.1) अत्र अन्भेति पुंस्त्वं हि, क्लीबस्य प्रतिपादितम् / यद्यप्यत्र चतुस्तुि , नादेशो दर्शितः क्वचित् / एवमन्यासु गाथासु, स्वयं बुद्ध्या विचार्यताम् / तथाऽपि सोऽतिदेशेन, सिद्धः संस्कृतवत् खलु / Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (147) सेद्धहेम०] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०४) उक्तं चापि भवत्यत्र, कार्ये संस्कृतवत् क्वचित्! अथ सूत्रनिर्दिष्टानां गणानां नामानि / 'उरे उरम्मि' इत्येतो, प्रयोगौ प्राकृते मतौ। उरसीत्यपि तस्यार्थे , क्वापि संस्कृतवन्मतम्। पादे० सूत्रे पादे० सूत्रे सिरे सिरम्मि सिरसि, सरम्मि सरसि सरे। 2 / 17 अक्ष्यादिः 1 / 70 मांसादिः इत्याद्यपिबुधैरेवं, वेद्यं लक्ष्यानुसारतः। 1 / 35 अंजल्यादिः 1 / 107 मुकुलादिः सिद्धस्य ग्रहणं सूत्रे, मङ्गलार्थे प्रकीर्तितम्। 4 / 258 अप्फुण्णादिः 41317 यादृशादिः येन वाचकवृन्दस्य,नित्यमभ्युदयोऽस्त्विपि। 1 / 56 अभिज्ञादिः 4 / 434 युष्मदादिः 3 / 172 इजादिः या भाषा भगवद्वचोमिरगमत् ख्याति प्रतिष्ठां परां 4 / 236 रुषादिः 1 / 67 उत्खातादिः 1126 वक्रादिः यस्यां सन्त्यधुनाऽप्यमूनि निखिलान्येकादशाङ्गानि च। 1 / 131 ऋत्वादिः 1 / 33 वचनादिः तस्याः संप्रति दुःषमारवशतो जातोऽप्रचारः पुनः 11 128 कृपादिः 41422 वहिल्लादिः संचाराय मया कृते विवरणे पादश्चतुर्थो गतः।१। 2 / 6 श्वेटकादिः 4 / 235 वृषादिः इति श्रीबृहत्सौधर्मतपागच्छीय-कलिकालसर्व 4 / 246 गमादिः 1 / 152 वैरादिः श्रीमदट्टारक-श्रीविजयराजेन्द्रसूरिविरचि 134 गुणादिः 1 / 28 विंशत्यादिः तायां प्राकृतव्याकृतौ चतुर्थः पादः। 2 / 174 गोणादिः 4 / 230 शकादिः तत्समाप्तौ समाप्ता चेयं प्राकृतव्याकृतिः / 4 / 424 घइमादिः 1157 शय्यादिः अथ प्रशस्तिश्लोकाः 4 | 423 घुग्यादिः 1 / 18 शरदादिः श्री सौधर्मबृहत्तपेतिविदिते गच्छे पुरा धर्मराट् 4 / 365 छोल्लादिः 41422 शीघ्रादिः संजातः खलु रत्नसूरिरपरः सूरिः क्षमाऽऽख्यस्ततः। 5 / 365 तक्ष्यादिः 2 / 145 शीलादिः देवेन्द्रश्च ततो बभूव विबुधः, कल्याणसूरिर्महान् 2 / 18 तैलादिः 1 / 72 सदादिः 1 / 40 त्यदादिः आचार्यः सकलोपकारनिरतः सूरिः प्रमोदस्ततः||१|| 1144 समृद्ध्यादिः 2 / 172 त्वादिः तच्छिष्यो निजगच्छकृत्यविशदीकर्ता स भट्टारको 3 / 58 सर्वादिः 14151 दैत्यादिः 2166 सेवादिः राजेन्द्राभिधकोशसंप्रणयने संजातभूरिश्रमः। 2 / 30 धूर्तादिः 3 / 172 सोच्छादिः ग्रन्थानां सुविचारचारुचतुरो धर्मप्रचारोद्यतो 14101 पानीयादिः 1 / 160 सौन्दर्यादिः जैनाचार्यपदाङ्कितोऽहमधुना राजेन्द्रसूरिर्बुधः / / 2 / / 1 / 162 पौरादिः 1 / 46 स्वप्नादिः दीपविजयमुनिना वा यतीन्द्रविजयेन शिष्ययुग्मेन। 21218 प्यादिः 3 / 35 स्वस्रादिः विज्ञप्तः पद्यमयीं प्राकृतविवृतिं विधातुमहम् // 3 // 1 / 206 प्रत्यादिः 1 / 254 हरिद्रादिः मोहनविजयेन पुनः प्रधानशिष्येण भूरि विज्ञप्तः। 1126 मांसादिः 41423 हुहुर्वादिः सकलजनोपकृतिश्चेदेवं करणे महान् लाभः ||4|| अत एव विक्रमाब्दे, भूरसनवविधुमिते दशम्यां तु / अथ प्राकृतसूत्राणां सूत्रसङ्ख्या / विजयाख्यायां चातुर्मास्येऽहं कूकसीनगरे // 5 // पादे सूत्रसङ्ख्या हेमचन्द्रसंरचितप्राकृतसूत्रार्थबोधिनी विवृतिम्। पद्यमयीं सच्छन्दोवृन्दै रम्यामकार्षमिमाम्॥६॥ 2 218 3 182 श्रीवीरजिनप्रीत्य, प्रायो विवृतिः कृताऽवधानेन / 4 448 स्खलनं कापि यदि स्यान्मिथ्या मे दुष्कृतं भूयात् / / 7 / / 4 -1116 271 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्हम् ॥अभिवानराजेन्द्रपरिशिष्टम् // // अथ प्राकृतसूत्राणामकाराद्यनुक्रमणिका // पृष्ठ सूत्र पृष्ठ० सूत्र पृष्ठ० 28 अमेणम् 18|378 | आच्च गौरवे 18/1 / 1631 8 अइदैत्यादौ च 8/1/151 / 24 अमोऽस्य 18/325 | 27 आजस्य टाङ० 18 / 3 / 55 23 अइसंभावने |8 / 2 / 205 // 45 अम्महे हर्षे 84284| 48 आहो णानुस्वारौ। 84|34| 6 अउः पौरादौ च (8/1/162 23 अम्मो आश्चये 18/208 / 6 आत्कश्मीरे 1111100 / 25 अल्कीबे सौ 18 / 3 / 16 / 26 अम्ह अम्हे अम्हो० 8 / 3 / 106 / 7 आत्कृशा-मृदुक० 81 / 127 / 11 अङ्कोठेल्लः 18/1/200 30 अम्ह मममहम० 8 / 3 / 116| 46 आत्तेश्च [84316 16 अचलपुरे चलोः 10|2|118 46 अम्हहंभ्यस० 4380 / 27 आत्मनष्टो णि 8 / 357 25 अजातेःपुंसः / / 3 / 32 / 26 अम्हे अम्हो अम्ह० / / 3 / 108 36 आदृङःसन्नाम: 18/4/53 / 52 अ-मड-मुल्लाः० / / 4 / 426 1 26 अम्हेहि अम्हाहि० 3 / 110 // 8 आदृते दिः 18111143 22 अणणाई नञर्थे 182160 / 46 अम्हेहिं भिसा 1814 // 378 3 आदेः 18/1 / 36 / 33 अत इज्जस्विज० 8 / 3 / 175 / 6 अयौ वैत् 111 / 166 / 17 आदेः श्मश्रुश्म० 8 / 86 45 अत एत्सौ पुंसि० 4 / 287 / 8 अरिईत |8.1144| 13 आर्यो जः 1811245 // 31 अतएवैच्से 83 / 145 43 अर्जेविढप्पः 841251 / 22 आनन्तर्येणवरि 18/2 / 188 11 अतसीसातवाह० 81 / 2111 37 अर्जेविंढवः 18/4/108 52 आन्तान्ताड्डाः 18/4|432 / 51 अतांडइसः |8|4|403 35 अर्परल्लिव-चच्चु० 84:36 / 51 आपद्विपत्संपदा० 84|400 / 46 अतो डसेतो० 4 / 321 // | 22 अलाहि निवारणे / / 2 / 186 / 22 आम अभ्युपगमे / 8 / 177 44 अतोडसेडदिो० 8 / 4 / 276 37 अवतरेरोह-ओर० 84185 / 48 आमन्त्र्ये जसो० 1843346 // 3 अतो डो विसर्ग० 1137 / | 45 अवर्णाद्वाङसो० 8 / 4 / 266 45 आमो डाहँ वा |8|4|300 44 अतोदेश्च |84274 / 10 अवर्णो यश्रुतिः // 150 / 27 आमो डेसिं |8|361 16 अतो रिआररिज० 6267 / | 52 अवश्यमो डेंडौ 4427 / 48 आमोहं 18/4/336 / 52 अतोडैत्तुलः 84435 // 40 अवात्काशो वा० 4/176/ 2 आयुरप्सरसोर्वा 120 // 3 अतःसमृद्ध्यादौ० 1 / 44| 41 अवाद् गाहेहः 14/201 // 43 आरभेराढप्पः 1814 / 254 // 27 अतःसदि१र्ज० 3 / 58) 6 अवापोतेच |8/1 / 172 / 41 आरुहेश्वड-व० 114 / 206 / 24 अतःसे?: 8 / 3 / 2 / 36 अविति हुः |8|461 35 आरोपेर्वलः |84|47 / 31 अत्थि स्त्यादिना / / 3.148 36 अवेजृम्भोजम्मा 18/4/157 - 26 आरःस्यादौ |8|345 // 1 अथ प्राकृतम् / / 1 / 1 / 22 अव्ययम् |8/2 / 1751 | 5 आर्यायां र्यः० ||177 / 46 अदस ओइ 18/4364 23 अव्वो सूचनादुः० 822204 1 आर्षम् ||1|| 7 अदूतः सूक्ष्मे वा 18111118 40 असावक्खोड:० |8|4|188 16 आलाने लनोः 82 / 117| 32 अदेल्लुक्यादेरत० / 3 / 153 / 26 अस्मदो म्मिअ० [8 / 3 / 105 // 35 आलीडोऽल्ली |8|4|4| 20 अधसो हेटुं बा२।१४१॥ 52 अस्येदे ||4|4333 21- आल्विल्लोल्लाल० / 8 / 2 / 156 / 17 अधो मनयाम् चारा७८ | 45 अहंवयमोहंगे 84301 / 16 आश्चर्ये |82266 44 अधः क्वचित् 842611 आ 16 आश्लिष्टे लधौ [8 / 2 / 46 20 अनोठत्तैलस्य० 1821155 26 आ अरामातुः 83246 26 आ सौ नवा |8|34 18 अनादौ शेषादे० 8 / 2286 44 आ आमन्त्र्ये सौ० 4 / 263 / 50 अनादौ स्वराद० 1841366 41 आः कृगो भूत-भ० 8 / 4 / 214 // | 5 इ.सदादौ वा [8/172 / 6 अनुत्साहोत्सन्ने० 8 / 1 / 114 // 38 आक्रन्देीहरः / / 4 / 131 // 4 इः स्वप्नादौ |8/1146 // 37 अनुव्रजेःपडिअमः 184/107/ 36 आक्रमेरोहावो० 4160 46 इञ्चः 18 / 4 / 318) 46 अन्त्यत्रयस्या०८/४/३८५। 36 आक्षिपेीरवः / 4145 // 32 इच मो-मु-मे वा 8 / 3 / 155 1 अन्त्यव्यञ्जनस्य 181 / 11 / 34 आघेराइग्घः 18 / 4 / 13 / 24 इजेरा:पादपूरणे ||2 / 217 51 अन्यादृशोऽन्नाइ० / / 4 / 413 // 36 आङा अहिप० 184163 / 27 इणममामा 18 / 3153 / 15 अभिमन्यौ जजौ वा / 82 / 25 / 38 आङा ओअन्दो० |8 / 4 / 125 // इत एद्वा 50 अभूतोऽपिक्वचि० 84|366) | 36 आडोरभेः 20 / 8 / 4 / 15 / / 3 इतेः स्वरात्तश्च० 18/142 40 अभ्याडोम्मत्थः / / 4 / 165 // | 5 आचार्ये चोऽच [8/1731 6 इतौ तौ वाक्या० ||1| | Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (146) अभियानराजेन्द्रपरिशिष्टम् 2 / [प्राकृतसूत्राणाम् [अकारानुक्रमणिका पृष्ठ० पृष्ठ / 8 / 3 / 126 / 18111165 // 18/4/405 8111105/ |8|17| |8/178 184440 / 11384 18|4|418 184/280 8/1/148) 181167/ 18111156 18111124 181161 ||1|170 / 18111116 1983 8 / 2 / 203 / पृष्ठ० सूत्र 7 उदृत्वादौ 18 / 1 / 131 // 30 एत् 7 इत्कृपादौ 18111128 5 उदोद्वाऽऽर्द्र [81/820 6 एत् त्रयोदशादौ० 11 इत्वे वेतसे j8/1/207 / 34 उदो ध्मो धुमा 4i 51 एत्थकुत्रात्रे इत्सैन्धवशनैश्चरे 18111146 35 उद्घटेरुगः [814 // 33 // 6 एत्पीयूषापीड०. 46 इदम आय: 18 / 4 / 365 / 35 उद्धृलेगुण्ठः 18/4/26) 1 एदोतोः स्वरे 28 इदम इमः 18/372 / 34 उदवातेरोरुम्मा० 8/4/111 5 एग्राह्ये 46 इदम इमुः क्लीबे |84|361 42 उद्विजः ||4227 53 एप्प्येप्पिण्वे० 20 इदमर्थस्य केरः 8 / 2 / 147 35 उन्नेमरुत्थकोल्लाला / 41366 28 एरदीतौम्मौ वा 28 इदमेतत्किंयत्त० / / 3 / 66 / 21 उपरेः संव्याने 166 / 51 एवं-पर-समं० 44 इदानीमो दाणिं 84277 38 उपसरल्लिअः 44136 44 एवार्थेय्येव 34 इदितो वा 1814 // 1 // 36 उपालम्भेझव० 14/156 / 25 इदुतो दीर्घः |8|316 6 उमो निषण्णे / 8 / 1 / 174 / |8 6 इदुतौ वृष्टवृष्टिपृ० ऐतएत् ||1|137 / 7 उ<हनूमत्कण्डूय० 181121 / ओ इदेतौ नूपुरे वा 8.1 / 123 // 41 उल्लसेरूसलोसुम्भ०१८।४।२०२। इदेदोढन्ते 6 ओच द्विधा कृगः 18/1/136 42 उवर्णस्यावः . 84233! 20 इदं किमश्चत्ति० 18/2 / 157 ओतोऽद्धा ऽन्यो० 15 इन्धौ झा 182225 ओत्कूष्माण्डीतू० 8 ऊःस्तेने वा 81 / 147/ 27 इर्जस्य णोणाडौ |8|352 ओत्पद्ये 23 ऊगर्हाऽऽक्षेपवि० बा२।१६।। 6 इर्भुकुटौ 18/1/110 // ओत्पूतरबदर० 6 ऊच्चोपे 18111173 / 53 इवार्थे नं-नउ० ||4|444 // ओत्संयोगे 11 ऊत्वे दुर्भगसुभगे० 8 / 1 / 162 / 24 इहरा इतरथा |8/2 / 212 / 5 ओदाल्यां पक्तो 6 ऊत्सुभगमुसले वा / 8 / 1 / 1133 44 इह हचोर्हस्य ||4|268| 23 ओ सूचनापश्चा० 6 ऊत्सोच्छासे 1811 / 157 ई औ 32 ईअ-इजो क्य० 5 ऊद्वाऽऽसारे 18/176 |8|3 / 160 | औत ओत् 6 ऊर्लीनविहीने वा 1:103 / 18111112 क 5 ई.स्त्यानखल्वा० 1174) / 10 कगचजतद० 33 ईच स्त्रियाम् 183 / 182 15 ऋक्षे वा 8/2:16 / 17 कगटडतदप० 25 ईतः सेश्चाऽऽवा ||3 / 28 8 ऋणवृषभत्र्वृषौ० 11416 ईदूतोर्हस्वः 26 ऋतामुदस्यमौ० 12 ककुदे ह: |8 / 3 / 42 / 8 / 3 / 44 ईदधैर्ये 7 2 ऋतोऽत् 18/1/126 // ककुभो हः 18/1/155 / 34 कथेर्वजरपज्ज० 27 ईद्रिस्भ्य सांसु० / / 3154/ 26 ऋतोऽद्वा 183636 27 ईद्भ्यःस्सासे 42 ऋवर्णस्यारः 51 कर्थयथातथां० |364 / [84234 // 12 कदम्बेवा 20 ईयस्यात्मनो णयः / / 2 / 153 / 6 ईर्जिह्वासिंहत्रिंश० 8 12 कदर्थिते व 162 / लत इलिः क्लृप्त० / / 1 / 145/ 12 कदल्यामद्रुमे 7 ईर्वोद्व्यूढ़े 18/1120 // 4 ईहरे वा 811511 46 एइर्जस्शसोः 184363 / 16 कन्दरिकाभि० उ 48 एंचेदुतः / 8 / 4 / 343 / 13 कबन्धे मयौ 24 उअपश्याचारा२११॥ 52 एकशसोडिः 841428 35 कमेर्णिहवः 5 उःसास्नास्तावके ||17 16 एकस्वरेम्वः स्वे / 8 / 2 / 114 // 35 कम्पेर्विच्छोलः 16 उच्चार्हति 8 / 2 / 111 24 एक्कसरिअंझगि० चारा२१३ 13 करवीरे णः 4 उच्चैर्नीचैस्यः ||1154 32 एच क्त्वा तुम्त० 8 / 3 / 157 / 16 करेणूवाराण 40 उच्छल उत्थल्लः ||4|174 8 एच दैवे 1811 / 153 18 कर्णिकारे वा 6 उजीर्णे |8111102 / 4 एच्छय्यादौ 18/1957 16 कश्मीरे म्भो वा 6 उतो मुकुलादिष्वत् 1:107 47 एट्टि ||4|333 41 काझेराहाहिल० 36 उत्क्षिपेर्गुलगुऽछो० 14144 // 20 एम्हि एताहे इ० 18 / 2 / 134 // 36 काणेक्षिते णि० 6 उत्सौन्दर्यादौ (8/1 / 160 / 8 एत इद्धा वेदना० 18111146 51 कादिस्थैदोतोरु० 34 उदष्ठकुकुरौ |8|417| 16 एतः पर्यन्ते 18/2265 // | 46 कान्तस्यात उं० / 8 उदूदोन्मृषि 1811 / 136 / / 46 एतदः स्त्रीपुंक्ली० 84362 / / 17 कार्षापणे |8/115 16 181 / 177 / / 8 / 2 / 77/ 18/1/225 8.121 18/4 // 2 // 84401 // 18/1/222 // 18/1 / 224 18/1/220 18/2 / 38| |8/11236 |8|4|44 // 18/4/46 18/1253 / 18/2 / 116 // 8/265 18/2060 184162 / 66 / 18/41410 18/4/354 // 18/271 / Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राकृतसूत्राणाम्] (150) अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् / / [अकाराधनुक्रमणिका पृष्ठ० 5 घवृद्धा 35 घटेः परिवाडः 38 घटेर्गढः 38 घूर्णो घुल-घोल० सूत्र 8/168 18/4/50 // ||4|112 8 / 4 / 117 / पृष्ठ० सूत्र पृष्ठ० सूत्र 27 किंतढ्यांमासः 18 / 3 / 62 / 38 क्वथे रट्टः |8|4|116 // 26 किंयत्तदोऽस्य 18/3333 26 क्विपः 3 / 43 27 किंयत्तट्यो ड० |8|3263 / 14 क्षःखः कचित्तु० 18/2 / 3 / 5 किंशुके वा 1811186) 15 क्षण उत्सवे 18/2 // 20 // 24 किणो प्रने 18 / 2 / 216 // 15 क्षमायां को |8||18 // 28 किमो डिणोमी० ||36 / 40 क्षरः खिरझर० 184/173 / 46 किमो डिहे वा 4 // 356 42 क्षस्य कः 18/4/266 28 किमः कस्वतसो० 18371 / 36 क्षिपेर्गलत्थाड 184|143 / 46 किमःकाई कव० |8|4|367 2 क्षुधो हा 1811117 / 28 किमःकिं |8|380 36 क्षुभेःखउरप० 10 किराते चः 18/4/154 // |8/1/183 // 13 किरिमेरे रोडः 36 क्षुरे कम्मः ||472 / 18 / 1 / 251 // 22 किरेरहिरकिला०८/२१८६। 34 क्षेणिज्झरो वा 18 / 4 // 20 // 18 धमाश्लाघारत्नेऽ० 51 किलाथव दि० 1841416 8 / 2 / 101 / 14 किसलयकाला० 1811 / 266 14 श्वेटकादौ 8/2 / 6 / 51 कुतसःकउ० 4 416 कुतूहलेवा ह० 18111117 10 खघथधभास्। 18/1 / 187 10 कुब्जकपरकीले०. 8/1 / 181 / 11 खचितपिशाच० 18/1/163 17 कूष्माण्ड्या ष्मो० 82073 / 37 खचेर्वेअडः |1486 44 कृगमोडहुअः 84272 / 42 खादधावोर्लुक् 18/4/228 कृगः कुणः 4i 6 38 खिदेर्जूरविसूरी 184/132 // 46 कृगो डीरः |8|4 / 3166 14 कृत्तिचत्वरे चः 18/2 / 12 / 43 गमादीनां द्वित्वम् 184246 / 21 कृत्वसो हुत्तं |82 / 158) 41 गमिष्यमासांछः / 4 / 215! 32 कृदो हैं 18/3 / 170 / 36 गमेरईअइच्छाणुव० 4162 / कृपोऽवहो णिः |8|4|151 / 53 गमेरेप्पिण्वे० ||4|442 / कृषःकड्डसाअ० 1814/187 37 गर्जेर्बुक्कः ||4| | 16 कृष्णे वर्णे वा 18 / 2 / 110 / 15 गतेंडः पारा३५॥ 13 कैटभे भोवः 1811 / 240 / 16 गर्दभेवा 8 / 237 6 कौक्षेयके वा 18/11616 11 गर्भितातिमुक्तके० ||11208| 32 ते 18 / 3 / 156 4 गवयेवः 1811154 43 तेनाप्फुण्णादयः 18/4/258| 40 गवेषेर्द्वदल्लढंढो० 18/4/186 36 केहुः |8|4|64 6 गव्यउ आअ: / / 1 / 158 44 क्त्व इअ-दूणौ 84271 / 3 गुणाद्याः क्लीबे वा / / 1 / 34 // 53 क्त्व इ इउइवि० |4|436 36 गुप्यर्विरणडौ ||4|150 20 क्त्वस्तुमत्तूणतु० 8 / 2 / 146 / गुरौ के वा 46 क्त्वस्तुनः 18111106 / ||4|312 31 गुवदिरविर्वा 41 क्त्वा तुम्तव्येषु० 8/4/210 // 113 / 150 // 2 क्त्वास्यादेर्णस्वो बा१।२७। 20 गृहस्य घरोऽपतौ / 8 / 2 / 144 / 31 क्यङोर्यलुक् 183138 21 गोणादयः 8 / 2174 / 46 क्यस्येय्यः 16 गौणस्येषतः कूरः |8/2 / 126 18 / 4 / 315 35 क्रियःकिणो वे० [8/4/52 / 8 गौणान्त्यस्य 18/1/134 33 क्रियातिपत्तेः 18 / 3.176 16 ग्मो वा |8||62 50 क्रिये की |8|4|386 / 38 ग्रन्थोगण्ठः |8/4/120 // 38 धेर्जरः |8 / 4 / 135 // 41 ग्रसेर्घिसः 18/4/204| 48 क्लीबे जश्शसो०१८४१३५३ 50 ग्रहेण्हः 841364 / 28 क्लीबे स्यमेदमि० 8376 / / 43 ग्रहेप्पः 8 / 4 / 256 25 क्लीबेस्वरान्मसेः 8 / 3 / 25 // 41 ग्रहो वलगेण्हहरप० / / 4 / 206 / 30 वचिद् द्वितीयादेः / / 3 / 134 // घ 42 क्रथवर्धा ढः | 52 घइमादयोऽनर्यकाः / / 4 / 424 / 2 अणनो व्यञ्जने / / 1 / 25 // 48 ङसः सुहोस्सवः 8 / 4 / 338 / 24 उसःस्सः 18/3 / 10 / 25 डसिडसोःपुंक्लीबे० 8 / 3 / 23 / 46 ङसिङस्भ्यां० 18 / 4 / 372 / 48 डसिभ्यसूङीनां० 4 / 341 27 डसेम्हीं / 8 / 3 / 66 30 डसेर्लुक |8|3 / 126 47 उसे¥हू 12|4|336 24 ङसेस्तोदोदुहिक 18 // 3 // 48 डस्ङस्योहे 18/4/350 डिनेच |8|4|334 // 27 डेडहिडालाइआ० 18 / 365 30 डेः |8 / 3 / 128 // 28 उर्मेन हः ||375 // 46 डेहि 18/4352 / 46 डेहि ||4 // 357 27 डे:स्सिम्मित्थाः 356 36 4 चण्डखण्डितेणा० 30 चतुरश्चत्तारो चउ० 25 चतुरो वा 30 चतुर्थ्याः षष्ठी 10 चन्द्रिकायां मः 11 चपेटापाटौवा 36 चाटौ गुललः 42 चिजिश्रहस्तुल० 16 चिह्नन्धो वा 46 धूलिकापैशाचि० 1153 / 8 / 3 / 122! 183117 18 / 3 / 131 // |8/1/18 // 18111168 |8473 4241 / 18/2 / 50 // 4325 / 13 34 छदेणेणुमतनूमस० 45 छस्य श्वोऽतादौ 11 छागेलः छायायां होऽका० 26 छायाहरिद्रयोः 41 छिदिभिदोन्दः 38 छिदेर्दुहाव णि० 15 छोऽक्ष्यादौ ण 8 / 4 / 21 / 18 / 4 / 265 18111161 / 18/1246 |8||34| 184216 // ||4|124| |8/2017 11 जटिले जो झो० 45 जद्ययां यः |8111164| ||4262 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (151) अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् / / [प्राकृतसूत्राणाम्] [अकारानुक्रमणिका पृष्ठ पृष्ठ० पृठ० सत्र सूत्र 38 जनो जा जम्मा बा४।१३६ 26 जेणं मि अम्मि० 8 / 3 / 107 / 44 तो दोऽनादौ शौ० 8 / 4 / 260 25 जस्शस् इँइ० (8/326 26 णेणो मज्झ अम्ह० 8 / 3 / 114 / 4 तोऽन्तरि |8/1 // 6 // 46 जस्शसोरम्हे० 184376 / 31 णेरदेदावावे |8 / 3 / 146 / 26 ते तुंतुमंतुवंत० ||362 / 46 णोनः 18/322 25 जस्शसोर्णो वा ||4|306 / तेवाक्योपन्यासे |8/2 / 176 28 णोऽमशसटाभि० / / 377 / 24 जसशसोर्लुक् 29 तो दो तसो वा 18 / 3 / 4 / |8/2/160 // 44 णं नन्वर्थे 184283 46 जस्शसोस्तु० त्थे च तस्य लुक् 8 / 3 / 83 / 18/4 / 366 त्यदाद्यव्ययात्० 8140 24 जस्शस्ङसि० |8|3 / 12 / 26 तइतु ते तुम्हंतुह० 181366 / त्यादिशत्रोस्तूरः 814/171 / 26 जस्शस्डसि० ||350 // 26 तइ तुव तुम तुह० 8366/ 31 त्यादीनामाद्यत्र० / 8 / 3 / 136 36 जाग्रेर्जग्गः |8|4|80 41 तक्षेस्तच्छचचरम्प०१८४/१६४॥ 1 त्यादेः |8| 34 जुगुप्सेझुण० |8|4|4| 50 तक्ष्यादीनां छोल्ला० 184365 / त्यादेराद्यत्रय० ||4|382 22 जेण तेण ल० 18/211831 11 तगरत्रसरतूवरेट: 181 / 205! 14 त्योऽचैत्ये 18 / 2 / 13 / 32 जाजे |8|3656 35 तडेराहोडविहोडौ 18427) त्रपो हिहुत्थाः 18/2 / 161 32 जात् सप्तम्या० |8|3/165 51 ततस्तदोस्तोः ||4|417 / त्रसेडरवोजव० ||4|168 34 ज्ञो जाणमुणौ |8147 / 28 तदश्च तः सोऽक्लीबो 18 / 386 / 20 त्रस्तस्य हित्थत० 18/2 / 136 46 तदिदमोष्टा नेन स्त्रि०।४।३२२॥ 17 ज्ञोञः 8/2283 52 त्रस्य डेत्तहे |8|4|436 // 28 तदो डोः 18367) 46 ज्ञो नः पैशा० 84303 30 त्रस्तिण्णिः 18/3 / 121 28 तदो णः स्यादौ क्व० 8370) 4 ज्ञो णत्वेऽभिज्ञा० 1811156 30 वेस्ती तृतीयादौ 18 / 3 / 118 // 46 तदोस्तः 84|307 43 ज्ञोणव्वणज्जौ (84252 त्वतलोः प्पणः 1841437 / 38 तनेस्तडतडतडव० 8/4/137 / 16 ज्यायामीत् 18 / 2 / 115 // 15 त्वथ्वद्वध्वांचछ० पा२१५॥ 16 तन्वीतुल्येषु |8/2 / 113 // 40 त्वरस्तुवरजअडौ। 18/4/170 / 53 तव्यस्यइएव्व० ||4|438| 20 त्वस्य डिमात्त० 8 / 2 / 154| 48 टए 1841346 / 44 तस्मात्ताः 1841278| 21 त्वादेसः 18/2 / 172 / 24 टाआमोर्णः 18 / 36 / 30 तादर्थ्यडे, 1831321 25 टाडस्डेरदादि० 18 / 3 / 26 / 52 तादर्थे केहिं तेहिं० 4425 // 14 थठावस्पन्दे 46 टाड्यमा पइंतई ||26 16 ताम्रानेम्वः 18/4/370 182256 |8|200 23 थूकुत्सायाम् 46 टाड्यमा मई 18 / 4 / 377| 37 तिजेरोसुक्कः 18/4/104 6 तित्तिरौरः 8/190| 44 थोधः 18/4/267 / 25 टाणशस्येत् |8|314| 20 तिर्यचस्तिरिच्छिः 18 / 2 / 143 11 टोडः 18111165 45 तिष्ठश्चिष्ठः |8||268 4 दक्षिणे हे 8/1/45 25 टोणा 18 / 3 / 24 / 17 - तीक्ष्णः |8|| दग्धविदग्धवृद्धि 18/2040 / 27 टोणा 18 / 3251 6 तीर्थे हे |8/1/104| 24 दरार्धाल्पे 18/2 / 215 // 46 टोस्तुर्वा 18 / 4 / 311 // 11 तुच्छे तश्चछौ वा 8/1/204 / 40 दलिवत्योर्विसट्ट० 18/4/176! 45 दृष्ठयोः स्टः |84260 38 तुडेस्तोडतुट्टखु० 1814/116 12 दशनदष्टदग्धदो० / 18/11217 26 तु तुव तुम तुह० |8/31102 / 13 दशपाषाणे हः 811262 11 ठोढः |8111166 26 तुब्भ तुय्होय्हो० // 398 17 दशाहे 18/2 / 85 15 ठोऽस्थिविसंस्थुले / 2 / 32 // 53 तुम एवमणा० 18141441 // 41 दहेरहिऊलालु० 18/4/208 तुमे तुमए तु० 18 / 3 / 101 / 43 दहोज्झः 84246 13 डाहवौ कतिपये तुम्हासुसुपा 2 दिक्प्रावृषोःसः |811250 18 / 4374 / 18/116 // 21 डिल्लडुल्लौ भवे 26 तुय्ह तुब्भ तहिं० 44 दिरिचेचोः ||21633 18/4/273 / 18/3/67 / 40 तुरोऽत्यादौ (8/4/172 / 24 डेम्मि 13 दिवसेसः 8/11263 डे: 18 / 3 / 11) 34 तुलेरोहामः 184 // 25 // 12 दीपौ धो वा 18/11223 // 26 डो दी? वा 113 / 381 26 तुदोभे तुब्भ० 113.100 / 1 दीर्घ-हस्वौ मिथो० 8 / 2 / 4 / 11 डोलः 1811 / 2021 31 तृतीयस्य मिः 18|3141 / 18 दीर्घ वा 18/2262 / 16 ड्मक्मोः / 8 / 2252 / 31 तृतीयस्य मोमु० 1813 / 144) 17 दुःखदक्षिणतीर्थे० / 82272 / 53 तृनोऽणअः 1841443 34 दुःखे णिव्वर 84|| 22 गइचेअचिअच्च० / 8 / 2 / 184) 38 तृपस्थिप्पः 1841138 37 दुःखे णिव्वलः 184162 22 णवरं केवले 82 / 197 32 तेनास्तेरास्यहे० 83.164| दुकूले वालश्च द्विः 111116 / 22 णवि वैपरीत्ये / 8 / 2 / 178 | 18 तैलादौ 18268 / / 14 दुर्गादेव्युदुम्बर०८१२७०। 26 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (152) अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् 2 / [प्राकृतसूत्राणाम् अकारानुक्रमणिका पृष्ठ० पृष्ठ० सूत्र पृष्ठ० सूत्र 30 दुवे दोणि वेण्णि० 8 / 3.120 / 40 नशेर्णिरिणास०४१७८| 16 पद्मछद्ममूर्खद्वारे० 8 / 2 / 11 / 33 दु-सु-मु-विध्यादि०८।३.१७३। 35 नशेर्विउडनास० |814 // 31 // 20 परराजभ्यां क०२/१४८/ 16 दुहितृभगिन्योv० 8 / 2 / 126 / 1 न श्रदुदोः 1811 / 12 / 51 परस्परस्यादिरः ||4|406 / 34 दूडो दूमः 18423 / 25 नात आत् 113.30 | 41 पर्यसः पलोट्ट-प० 4200 / 18 दृसे |8|66 4 नात्पुनर्यादाइ वा 165 // 16 पर्यस्तपर्याण 8 / 2 / 68 दृशस्तेन ट्ठः |8|4213 47 नादियुज्योरन्ये० 4 / 327 / 16 पर्यस्तेथटौ |8||47 32 दृशिवचे सडुचं / 8 / 31611 26 नामन्त्र्यात्सौमः |8 / 3 / 37 / 13 पर्याणे डावा ||1252 / 35 दशेवदंशद० (8432 26 नाम्न्यरंवा 1834 / 12 पलिते वा 81212 / 40 दृशो निअच्छपे० 8 / 4 / 181 / | 26 नाम्न्यरः 1813 / 47 51 पश्चादेवमेवैवे० 1841420 दृशेः क्विप्टक्स० 8 / 1 / 142 / 10 नावात्पः 18111176 | 12 पाटिपरुषपरि० 1811 / 23 50 दृशेः प्रस्सः 1841363 / 6 नाव्यावः 18111164 // 6 पानीयादिष्वित् 8/1/101 / 23 देसंमुखीकरणेच 18/2 / 166 10 निकषस्फटिक० 18111186 12 पापौरः 18/1235 35 दोलेरोलः 184|4| | 34 निद्रातेरोहीरो० ||4|12 / 5 पारापते रोवा |8/1/80 11 पिठरे हो वा रश्च० /1/201 / 12 दशदहोः 12 निम्बनापिते ल०१।२३०॥ 1811 / 218 // 34 पिबेः पिज्जडल्ल०१८४/१०॥ दंष्ट्राया दाढा 18/2136 38 निरः पदेर्बलः |8|4|128 // 40 पिषेर्णिवहणि०८/४/१८५॥ 46 खूनत्थूनाष्ट्वः 18 / 4 / 313 / 1 निर्दुरो 1811 / 13 / 12 पीते वो लेवा 8/1 / 213 15 द्यय्यां जः 18 / 2 / 24 / 34 निर्मो निम्माण ||4|16 25 पुंसि जसो डउ० 183220 // 17 नेरोन वा | 35 निलीडेर्णिली०४॥५॥ 18/2180 28 स्त्रियोर्न वाऽय० 8 / 3 / 73 / 5 द्वारे वा 18/176 7 निवृत्तवृन्दारके० 1 / 132 27 पुंस्यन आणो रा० 356 18 द्वितीयतुर्ययोरुप० / / 2 / 601 34 निवृपत्योर्णिहो० 8 / 4 / 22 / 31 द्वितीयस्यसि से 13 / 140 / 37 पुजेरारोलवमालौ / 8 / 4 / 102 / 12 निशीथपृथिव्योर्वा 1/1216 / 22 पुणरुक्तं कृतकरणे 82 / 17 / / 31 द्वितीयातृतीययोः० / / 3 / 135 // 41 निश्वसेर्झङ्खः 184/201 / 52 पुनर्विनःस्वार्थे 0 4426 // 6 द्विन्योरुत् 181164 12 निषधे धो ढः 8 / 11226 / 11 पन्नागभागिन्योगो० 8/1160 30 द्विवचनस्य बहुव० ||3130 38 निषेधेर्हक्कः 18 / 4 / 134 // 6 पुरुषे रोः 18/1/111 30 द्वेर्दो वे / 1 / 3 / 116 / 36 निष्टम्भावष्टम्भे० चा४६७ 44 पूर्वस्य पुरवः 8/4/170) 36 निष्पाताच्छोटे० 18/471 / 20 पूर्वस्य पुरिमः 18 / 2 / 135 // 2 धनुषो वा 1811 / 22 / 3 निष्प्रती ओत्प० 18/1138 // 40 पुरेसघाडाग्य 18/4/166 34 धवलेर्दमः / 8 / 4 // 24 // 36 निस्सरेणीहर० 8476 10 प्रथिक धोवा 8/1/188 43 धातवोऽर्थान्तरेऽ० 8 / 4 / 256 / 6 नीडपीठे वा 1811 / 106 36 पृथक स्पष्ट णिव्व० 8/4/62 / 17 धात्र्याम् |8/2 / 1 / 12 नीपापीड़े मोवा 18/11234 // पृष्ठे वाऽनुत्तरपदे 18 / 1 / 126 36 धृगेधुवः 18/4 // 56 // 38 नेः सदो मजः / 184|123 // 12 पोवः 18/11231 // 16 धृतेर्दिहिः 14/2 / 131 // 12 नोणः 18/1228/ 24 प्यादयः 18 / 218 18 धृष्टद्युम्ने णः / 8 / 2 / 64 / 33 न्तमाणौ 8 / 3 / 10 / 35 प्रकाशेणुव्वः 18/4/45 / 16 धैर्ये वा 8 / 2 / 641 16 न्मो मः 8/261 37 प्रच्छ: पुच्छः 18467/ 34 ध्यागोझागौ |846 45 न्यण्यज्ञजांचः 84263 41 प्रतीक्षेः सामय० / 184163 / 15 ध्वजे वा / 8 / 27 / 46 न्यण्योजः 18/4 // 305 25 प्रत्यये ङीर्नवा 8.3 / 311 4 ध्वनिविष्वचोरुः 18/152 41 न्यसो णिम० 4166 40 प्रत्याडा पलोट्टः 4166 11 प्रत्यादौडः 8/1 / 206 // 46 न कगचजादि० 18/4324 // 4 पक्वाङ्गारललाटे० / / 1 / 47) 15 प्रत्युषेषश्च हो वा 8 / 2 / 14! 28 नत्थः 8376 / | 17 पक्ष्मश्मष्मस्म० 274 24 प्रत्येकमः पाडि० 8 / 2 / 210 // 18 नदीर्घानुस्वारात चाश६२। / 37 पचेःसोल्लपउल्लौ 41801 / 4 प्रथमे पथोर्वा / |8/1955 30 नदी? णो 18 / 3 / 125 / 31 पञ्चम्यास्तृतीया० 8 / 3 / 136 / / 12 प्रदीपि दोहदे लः 18/1 / 221/ 4 नमस्कारपरस्परे० /1162 16 पञ्चाशत्पञ्चद०८ / 43 36 प्रदीपेस्तेअवसं० 4/152 1 नयुवर्णस्यास्वे / / 16 / / 5 पथिपृथिवीप्रति० 81/88 12 प्रभूतेवः 181112331 42 नवाकर्मभावे वः० 8/4 / 242 / 20 पथो णस्येकट् 8/20152 / 36 प्रभौ हुप्पो वा 18/4/63 27 नवाऽनिदमेत०11३६०॥ 1 पदयोः सन्धिर्वा 18/1 // 5 / 6 प्रवासीक्षौ 18/16 6 नवा मयूखलव० 8 / 1 / 101 / | 3 पदादपेर्वा 18 / 1141 / 40 प्रविशेरिअः 18/4/183 44 नवा र्यो य्यः 18/4/266 / / 51 पदान्ते उहहिं० 4 4111 / 36 प्रसरेः पयल्लो०८४७७१ ध Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (153) अभिवानराजेन्द्रपरिशिष्टम् / / [प्राकृतसूत्राणाम्] [अकारानुक्रमणिका] पृष्ठ० 35 प्रस्थापेः पट्टवपे० 37 प्रहगेःसारः 42 प्रादेर्मीलेः 40 प्रान्मृशमुपोई० 51 प्रायसःप्राउ प्रा० है प्रावरणे अडग्वा० 2 प्रावृटशरत्तर० 18 प्लक्षे लात् 35 प्लावेरोम्बाल 8437 18/4/84 184232 / 184/184 |814/414 // 18111175 1811 / 31 // 182103 / 181441 37 फक्कस्थक्कः 12 फो भहौ |8|4|87 |8/1 / 236 पृष्ठ० सूत्र पृष्ठ० सूत्र 48 भिस्सुपोर्हि 18/4/347 / 5 मात्रटि वा 18/1/81 / 16 भीष्मे ष्मः |8 / 2 / 54| 23 मामि हला० 18 / 2 / 165 37 भूजो भुञ्जजिम० / / 4/110 // 16 मार्जारस्य मञ्ज० 8/2 / 132 36 भुवेर्होहुवहवाः |8|4|60 // मांसादिष्वनुस्वा० / / 1 / 70 / 44 भुवो भः |8|4266 / मांसादे |81 / 26 / 50 भुवः पर्याप्तौ हु० |8/4 // 36 // 30 मि मयि ममाइ० |8/31115 28 भे तुब्भे तुज्झ० |8|361 मि मे ममं मम० / 8 / 3 / 106 26 भेतुब्भेहिं उज्झे० ||3165 मि मो मु मे स्सा० 8 / 3 / 167 / 26 भेदि देते तइत० ||364/ 31 मिमोमैम्हि म्हो० 18 / 3 / 147 30 भ्यसश्च हिः ||3 / 127 5 मिरायाम् 18/1/87 / 24 भ्यसस्तोदो० ||36 मिव पिव विव० / / 2 / 182 48 भ्यसामोहः 1841351 / 21 मिथाद् डालिअः 18/2/170 46 भ्यसाम्भ्यां ||4|373 / 35 मिश्रेर्वीसालमे० [8428 // 25 भ्यसि वा 8 / 3 / 13 28 मास्यादौ 8.388! 47 भ्यसो हुँ 8 / 4 / 337) मुचेश्छड्डावहे० [8461 40 भ्रंशेः फिडफिट्ट० 18/4/177 मुहेर्गुम्मगुम्मडौ 18/4/207| 13 भ्रमरे सो वा 18/1244 मृजेरुघुसलुञ्छ० ||4|105 // 31 भ्रमेराडो वा ||3 / 151 // मृदो मलमढ० ||4|126 // 36 भ्रमेष्टिरिटिल्ल० 18/4/1611 मेःस्सं 8.3166 // 35 भ्रमेस्तालि० 18 / 4 / 30 / 12 मथिशिथिरशि० 18 / 121 // 21 भुवो मया डमया / 8 / 2 / 167! | 26 मे मइमम मह०८।३।११३॥ 50 मोऽनुनासिको०१८४३६७। 26 मइ मम मह म० 18 / 3 / 111 2 मोऽनुस्वारः |1||23 23 मणे विमर्श 18/2 / 207 / 44 मोऽन्त्याद्णो वे० / / 4 / 276 / 38 मण्डेश्चिञ्चचिं० 18/4/115 // 32 मोमुमानां हि० 18 / 3 / 168 / 7 मधूके वा ||1 / 122 24 मोरउल्ला मुधा चारा२१४| 46 मध्यत्रयस्याद्य० 18 / 4 / 383 44 मोवा 18 / 4 / 264 / 4 मध्यमकतमे० 18/1/48 / 32 मौवा |8|3 / 154 / 31 मध्यमस्येत्था० / / 3 / 1431 16 म्नज्ञोर्णः |8||42 / 17 मध्याह्नेहः 18/284 म्मश्चः 18 / 4 / 243 33 मध्ये चस्वरा० 18 / 3 / 178 28 म्माक्येऔवा ||3286) 21 मनाको नवा ड० 82 / 166 / 41 म्रक्षेश्वोप्पडः 18/4/161 // 38 मन्थेघुसलवि० 184121 // 34 म्लेवा पव्वायौ 18/4 / 18 / 13 मन्मथेवः 18/1242 / 51 म्होम्भो वा |8/4/412 // 36 मन्युनौष्ठमा० 18/4/66 / 16 मन्यौ न्तो वा 182 / 44 46 यत्तत्किंभ्यो० |841358 26 ममाम्हौ भ्यसि ||3 / 112 / 20 यत्तदेतदोतो० / 8 / 2 / 156 4 मयट्यइर्वा 1811110 // 46 यत्तदः स्यमोधू नं 84360 / 10 मरकतमदकले० 18111182 / यत्रतत्रयोस्त्रस्य० / / 4 / 404 / 20 मलिनोभयशु० 18/2 / 138 10 यमुनाचामुण्डा० 18111178 7 मसृणमृगाङ्कमृ० / |8|1 / 130 13 यष्ट्या लः |8/11247 37 मस्जेराउडुणिउ० |84|101 51 यादृकतादृक्० ||4|402 / 36 महमहो गन्धे 18/478 46 यादृशादेर्दुस्तिः 18/4/317 / 5 महाराष्ट्र 8 / 1 / 66 / 35 यापेर्जवः |8|4|40 / | 16 महाराष्ट्र हरोः ||2|116 // 14 यावत्तावजीवि० ||1/271 / 46 महमज्झडसि० 84376 यावत्तावतोर्वा० ||4|406 / 22 माई मार्थे |8/2 / 161 / 37 युजो जुञ्जजुज्ज० 8/4/106 8 मातुरिद्वा 8 / 1 / 135 / 41 युधबुधगृध० |84217 182 / 142 / / 6 युधिष्ठिरेवा 8/166 43 बन्धोन्धः ||4|247 22 बले निर्धारण / 8 / 2 / 155 20 बहिसो बाहिं० 18/2 / 140 / 50 बहुत्वे हुं ||4|386 46 बहुत्वेहुः / 8 / 4 / 384 / बहुलम् .||12 33 बहुषु न्तुहमो 18 / 3 / 176 31 बहुष्वाधस्य० |8|3 / 142 / 17 बाष्पे होऽश्रुव |8||701 3 बाहोरात् |8/1 / 36 12 बिसिन्यां भः 18/1238 / 34 बुभुक्षिवीज्यो९० / 4 / / 17 बृहस्पतिवन० ||श६६ 20 बृहस्पतौ वहो० / 8/2 / 137| 12 बोवः |8 / 1 / 237| 43 भो दुहलिह० 18/4/245 26 भो म्हज्झौ वा 8 / 3 / 104 / 16 ब्रह्मचर्यतूर्यसौ० पाश६३ 4 ब्रह्मचर्येचः 18/1 // 56 // 50 ब्रूगो ब्रुवो वा 18 / 4 / 361 / भ 37 भजेर्वेमय-मु० 18 / 41106 44 भवद्भगक्तोः 8.4 // 26 // 44 भविष्यति स्सिः 4275 / 32 भविष्यति हिरा०1८।३।१६६। 46 भविष्यत्येय्य एव 18/4/320 // 40 भषे(क्कः 4i /186 16 भस्मात्मनो:० 182251 / 36 भाराक्रान्ते नमे० 184158) 41 भासेर्भिसः 184203 / 35 भियो भाबीही 18/4 // 53 // 46 भिसा तुम्हेहिं 14/4/371 / 24 भिसो हि हिँ हिं / 8 / 37 / 25 भिस्भ्यस्सुपि 18 / 3 / 15 / 47 भिस्येद्वा 184335 // 42 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (154) अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् 2 / [प्राकृतसूत्राणाम्] [अकारानुक्रमणिका पृष्ठ० पृष्ठ 47 युवर्णस्य गुणः 42 युष्मदःसौतुहं 28 युष्मदस्तं तुंतुवं० 20 युष्मदस्मदोऽत्र० 52 युष्मदादेरी० 13 युष्मद्यर्थपरेतः 52 योगजाश्चैषाम् 14 रक्ते गोवा 37 रचेरुग्गहावह० 35 रजेः रावः 40 रमेःसंखुडखे० 45 रसोर्लशौ 47 रस्य लो वा 18 रहोः 37 राजे रघ छज्ज० 46 राज्ञो वा चित्र 26 राज्ञः 18 रात्री वा 8 रिकेवलस्य 36 रुते रुञ्जरुण्टौ 42 रुदनम्मोर्वः 41 रुदभुजमुचा० 11 रुदिते दिना ण्णः 38 रुधेरुत्थडः 41 रुधोन्धम्भौच 42 रुषादीनां दीर्घः 23 रेअरे संभाषण 21 रो दीर्घात् 35 रोमन्थे रोग्गा० 2 रोरा 15 तस्याधूर्तादौ 46 र्यस्नष्टा रिय० 7 टुंकि दुरो वा 6 लुकि निरः 18 शर्षतप्तवजे वा 18 हश्रीहीकृत्स्न० पृष्ठ 184237 / 36 लुभेःसंभावः |8 / 4 / 153 // 15 वृत्तप्रवृत्तमृत्ति० 18 / 4 / 368 / 46 लोलः 184308/ 15 वृन्तेण्टः / / 3 / 10 / 21 ल्लो नवैकादा |82 / 165 15 वृश्चिकेश्वच॑र्वा 18 / 2 / 146 8 वृषभेवा वा |8|4|434 // 2 वक्रादावन्तः |8/1 / 26 / 42 वृषादीनामरिः |8|1246 41 वचोवोत |84211 // 37 वषे ढिक्कः |8|4|430 // 37 वञ्चेर्वेहववेलव० |8|463 / वेणौ णो वा 23 वणे निश्चयवि० |82 / 206 / 6 वेतःकर्णिकारे 18/2 / 10 / 20 वतेवः 8 / 2 / 150 // / वेदंकिमोदिः 18/4/641 30 वधात् डाइश्च वा 8 / 3 / 133 28 वेदंतदेतदोड |8|4|46 16 वनिताया विल० |8 / 2 / 12 / 36 वेपेरायम्बाय० |8|4|168 / 2 दर्गेऽन्त्यो वा 1811130 / वेमाञ्जल्याद्या:० |84/288 32 वर्तमानापञ्च०८३१५८ 23 वेव्वच आमन्त्रणे 184 / 326 / 33 वर्तमानाभवि० 18/3 / 177 वेव्वे भयवारण |8|2263 50 वय॑ति स्यस्य० 84|388 वेष्टः 18/4/100 / 4 बल्युत्करपर्य० |158 35 वेष्टेः परिआल: 184|304 / 6 वा कदले 18/1167 / वैकादः सि सि० 18346 3 वाक्ष्यर्थवचना० 811 / 33 / 16 वैमूर्यस्य वेरुलियं बारा८८ 28 वाऽदसो दस्य० वैतत्तदः 11387 18/1140 44 वाऽऽदेस्तावति 1841262 / वैतदोडसेस्तो० |8|4|57) 12 वाऽऽदौ 18/1226 वैरादौ वा : वैसेणमिणमो० 50 वाऽधो रो लुक 18/4/226 // 184 / 368 84212 / | 6 वा निझर ना 18/198 26 वोतुज्झतुब्भे० 1811 / 206 / 51 वाऽन्यथोऽनुः 25 बोतोडवो ||4|415 // 13 वोत्तरीयातीय० / 8.431333 26 वाऽऽपए 18|341 16 वोत्साहेथो हश्व० |8/4/218 8 वा बृहस्पती 18111138 // 42 वोदः 184236 13 वाऽभिमन्यौ 1811 / 243 51 वायत्तदोऽतो.० 6 41407 182 / 201 // वोपरी 37 वोपेन कम्मवः 82 / 171 / 4 वाऽर्पो 18/1/63 16 वोचे ||4|43 / 4 वाऽलावरण्ये० 8.1 / 66 / 12 वौषधे 1811116 16 वा विहलेवौ० 8 / 58| 42 व्यञ्जनाददन्ते |8/2 / 30 / 4 वाऽव्ययोत्खाता० 8167 32 व्यञ्जनादीअः ||4|314 / 2 वा स्वरे मश्च 18154 / व्यत्ययश्च 1811 / 115 // 2 विंशत्यादेलक / 8 / 1 / 28 / व्याकरणप्राका० 181163 41 विकसेः कोआ० / / 4 / 165 // व्यापेरोअग्गः |82 / 105 35 विकोशेः पक्खो० 8 / 4 / 42 / व्याप्रेराअड्डः 181104| 40 विगलेः थिप्प० 184 // 17 // व्याहगेः कोक० 35 विज्ञपेर्वोक्का० 18|4|35| व्याहगे हिप्पः 82 / 12 / 12 वितस्तिवस० |8/1 // 214 // 42 व्रजनृतमदाचः 18/1/257 21 विद्युत्पत्रपीता० 18/2 / 173 व्रजेत्रः 18/2 / 123 // 35 विरिचेरोलुण्डो० 184 // 26 // 45 व्रजोजः 18/4/103 / 36 विलपेसवड० 18/4 / 148| |8/2 / 106 36 विलीडेर्विरा 18456 शकादीनां० 18/11256 38 विवृत्तेसः 18 / 4 / 115 शकेश्चयतरती० |8|41445 36 विश्रमर्णिव्वा ||4|156 / 14 शक्तमुक्तदष्टरुग्ण 8/4/146 51 विषण्णोक्तवर्त्म० 18!4 / 421 // शत्रानशः |8111101 13 विषमे मो ढो वा 18112413 38 शदो झडपक्खो० 8 / 3 / 152 / 38 विसंवदेर्विअट्ट० 1|4|126 / 21 शनैसोडिअम् 18 / 1 / 267 36 विस्मुः पम्हुस-० ||475/ | 13 शबरे बोमः |8/143 | 24 वीप्सात्स्यादेर्वी० / / 3 / 11 40 शमेः पडिसाप० 18 / 3 / 18 | 16 वृक्षक्षिप्तयो०रु० 2 / 127 / 2 शरदादेरत् 18/226/ 18 / 2 / 31 // 18 / 2 / 16) 18/1:133 / 18/4/235 / 1846 18/1:203 / 18/1168 1841408 / |8|3281 1841147 1811135 चा२।१६४| 18 / 2 / 163 18/4/221 // ||4|51 // 18/2 / 162 / / / 2 / 133 / 18 / 3 / 3 / 8 / 382 / 18111152 / 8.3185 [8/393 / 3 / 21 / 1811/248 8/2 / 48! |8/4/223 18111108) 18/4/111 // |82256 |8|1 / 227 / 18/4/236 // 1813 / 163 18|4|447 / |8/1 / 268 18|4141 // 18481 // 18476 18/4/253) 18/4/225 18/4262 / [84264 16 लघुके लहोः 13 ललाटेच 16 ललाटे लडोः 37 लस्जे हः 16 लात् 13 लाहललाङ्गल० 53 लिङ्गमतन्त्रम् 36 लिपो लिम्पः 1 लुक् 31 लुगावी क्तभाव० 14 लुग्भाजनदनुज 3 लुप्तयरवशष० 25 लुप्ते शसि 33 18 / 4 / 230 // 18/4/86 चा२।२।। 1813 / 181 // 8 / 4 / 130 / चारा१६८/ 18/1258 / / 4 / 167 / 1811/12/ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतसूत्राणाम्] (11) अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् 2 / [अकाराद्यनुक्रमणिका सूत्र पृष्ठ० सूत्र 13 शषोः सः 8 / 1 / 2601 46 शषोः सः ||4|306 / 18 शाङ्गंडात्पूर्वोऽत् (8 / 2 / 100 / शिथिलेडदे वा 1811186 14 शिरायां वा |8/1/266 10 शीकरे भहौ वा 18/1/184| 51 शीघ्रादीनां वहि०८/४४२२॥ 20 शीलाद्यर्थस्येरः 18/2 / 145 14 शुल्के गोवा |8/2 / 11 / 14 शुष्कस्कन्दे वा 18/25 / 10 श्रृङ्खलेखः कः 18111186 45 शेषं प्राकृतवत् 18 / 4 / 286) 47 शेषं प्राग्वत् |8|4|328 45 शेष शौरसेनीवत 846302 / 46 शेषे शौरसेनीवत् 184323 // 53 शेष संस्कृतव० |8|4|448] 30 शेषेऽदन्तवत् 18 / 3 / 124 / 36 शैथिल्यल० |8|4|70 / 53 शौरसेनीवत् 18/4/446 17 श्चो हरिचन्द्रे 18/287 5 श्यामाके मः 18/171 / 34 श्रदोधो दहः 1846 16 श्रद्धर्धिमूर्धाऽर्धे० |8||41 / 36 श्रमेवावम्फः 18/4/681 33 श्रुगमिरुदिविदि० / 18 / 3 / 171 / 36 श्रुटहणः ||4|58 / 34 श्लाघःसलहः 18/4/88| 41 श्लिषेः सामग्गाव० 18/4/16 // 16 श्लेष्मणि वा [8/2 / 55 पृष्ठ० पृष्ठ० 18 समासे वा 18/2267 / 11 स्फटिकेलः 18111167 38 समोगलः |8/4/113 42 स्फटिचले 18 / 4 / 231 // 42 समोल्लः 18/4/222 / 36 स्मरेझरझरभर० 11474 / 15 सम्मर्दवितर्दिक 8/2 / 36) 47 स्यमोरस्योत 841331 17 सर्वत्र लवराम० 9i76 स्यमजस्शसां० 841344| 46 सर्वस्य साहो वा 841366 स्यादौ दीर्घ 18/4/330 // 20 सर्वाङ्गादीनस्येकः / / 2 / 1511 स्याद्रव्यचैत्य० 18/2 / 107 / 46 सदिर्डसेहीं ||4|355| संसेईसडिम्भौ 18/4/167 45 सषोः संयोगे सो०४/२८६। स्वपावुच्च 18/164 15 साध्वसध्याह्यां झः / / 2 / 26 / स्वपेः कमवस० 18111146 15 सामोत्सुको० 2 / 22 / स्वप्ननीव्यो 8/16256 / 46 सावस्मदो हउ० 4 // 37 // स्वप्ने नात् 8/2 / 108/ 37 सिचे सिञ्चसि० 18466 स्वयमोऽर्थे अप्प० चारा२०६। 31 सिनास्तेः सिः 18 / 3.146 स्वरस्योत्ते 181|| 32 सी ही हीअभू० 18 / 3 / 162 स्वराणां स्वराः 181423 46 सुपा अम्हासु |8|4|381 47 स्वराणां स्वरा:० ||4|326 // 26 सुपि 18 / 3 / 103 42 स्वरादनतो वा 184240 30 सुपि |8|3/117 10 स्वरादसयुक्त० 18/1/176 17 सुक्ष्मश्नष्णस्न० 10|275 स्वरेऽन्तरश्च 1811114| 42 सूजोर 18/4/226 26 स्वस्रादेर्डा |8|3 / 35 // 18 सेवादौवा 21 स्वार्थे कश्च वा 8/2 / 1641 8 सैन्येवा |8/1 / 150 स्विदांजः 18/4/224 // 33 सोच्छादय इजा०। |8|3 / 172 / 28 स्सिस्सयोरत (8|374 33 सोर्हिर्वा 18 / 3 / 174 / ह 37 सौ पुंस्योद्वा 18413321 44 हजेचेट्याहाने 18/4/281 // 45 स्कःप्रेक्षाचक्षोः 84267 / 43 हन्खनोऽन्त्यस्य 16 स्तब्धेठढौ 8 / 4 / 244 // 18/2 / 364 22 हन्दच गृहाणार्थे 18 / 2 / 181 // स्तम्भेस्तो वा 18 / 2 / / 22 हन्दिविषादवि० 16 स्तवेवा 1812 / 180 // [8/2 / 46 16 स्तस्यथोऽसम० 23 हद्धी निर्वेद 18/2 / 16 / 8/2 / 45 16 हरिताले रलो० 16 स्तोकस्यथोक्क० [8 / 2 / 125 // |82 / 121 // 13 हरिद्रादौलः / 15 स्त्यानचतु० 8 / 2 / 33 / 18/1254 / 16 स्त्रिया इत्थी 18 / 2 / 130 // 6 हरीतक्यामी० 181166 45 स्त्रियां जसश० 23 हरेक्षेपेच 8/4/348 18 / 2 / 202 / 46 स्त्रियां डहे: 18/4/356 41 हसेर्गुञ्जः |841166 52 स्त्रियां तदन्ताड्डीः ||4|431 // 38 हासेन स्फुटेर्मुरः 184|114| 22 स्त्रियामादवि० 1811115 // 50 हिस्वयोरिदु 1841387) 25 स्त्रियामदोतौ वा / 18 / 3 / 27 44 हीमाणहे विस्म० 184 / 282 / 45 स्थर्थयोस्तः / |84/261 हीही विदूपकस्य |4285 6 स्थविरविचकि० |8|1166 / हुंचेदुद्भ्याम् [84340 34 स्थष्ठाथक्क० 8/4/16 23 हंदानपच्छानि० 18/2 / 167 14 स्थाणावहरे 18/27 23 हुखु निश्चयवि० 18/2 / 168 7 स्थूणातूणेवा |8/112 / हुहरुघुग्धादयः० 18|4423 13 स्थूलेलोरः। 18111255 43 हकृतजामीरः 18/4/250 // 2 स्नमदामशिरो० / 18/1132 / हृदयेयस्यपः 84310 // 34 स्नातेखभृत्तः 18/4/14| हो घोऽनुस्वारात् [81 / 264 / 16 स्निग्धे वाऽदितौ बा१०६। 16 ह्ये ह्याः 18 / 2 / 124 // 43 स्निहसिचोः सि० 84 // 25 // 16 हृदेहदोः 18/2 / 120 13 स्नुषायां ण्हो वा० 1261 / ह्रस्वात् थ्यश्च० 8/2 / 21 / 18 स्नेहाग्न्यो 18/2/102 / 26 हस्वोऽमि |8|336 38 स्पन्देश्चलचल: 84/127 5 ह्रस्व०संयोगे० 18/1184 // 43 स्पृशेश्छिप्पः 841257 / 38 हादेखअच्छ: |8|4|122 / 40 स्पृशः फासफ० 18|4|182 17 होल्हः 18/276 35 स्पृहः सिहः |8|4|34| 16 हो भो वा [8/2257 / 15 स्पृहायाम् / 8 / 2 / 23 / / ।इति प्राकृतसूत्राणामकाराद्यनुक्रमणिका। បុពុម្ពអក្សរក្រមុំ 14 षट्शमीशावसु० 48 षष्ठ्याः 14 ष्कस्कयोनाम्नि 15 टस्यानुष्ट्रेष्टासंदष्ट 16 व्यस्पयोःफः 1811 // 26 // |8|4|345 // 8/2 / 4 / ||2|34| |8/2 / 53 / 12 संख्यागद्गदे रः 30 संख्याया आमो० 38 संतपेटः 40 संदिशेरप्पाहः 35 संभावेरासङ्घः 14 संयुक्तस्य 36 संवृगेः साहर० 11 सटाशकटकैट० 41 सदपतोर्डः 11 सप्ततौरः 4 सप्तपणे वा 31 सप्तम्या द्वितीया 34 समः स्त्यः खाः 43 समनूपाद्धेः 36 समा अभिडः 36 समापेःसमाणः 37 समारचेरुवह० 18 / 1 / 216 // 8 / 3 / 123 // 18181140 / 18/4/180 |8|4 // 35 // 18 / 2 / 1 / 18/4/82 18111166) |8|4|216 1811 / 210 1811 / 46 / 18 / 3 / 137 / |8|4|15 84248) 84164 / / 8 / 4 / 142 |8|4|15| Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राकृत] अहम् ॥अभिवानराजेन्द्रपरिशिष्टम्॥ // संक्षिप्राकृतशब्दरूपावलिः।। अकारान्तः पुंल्लिङ्गो 'वृक्ष' शब्दः / [शब्दरूपावलिः विभक्ति प्रथमा द्वितीया तृतीया बहुवचन / वच्छा / वच्छे, वच्छा। वच्छेहि, वच्छेहिँ वच्छेहि। वच्छाणं, वच्छाण! चतुर्थी एकवचन। वच्छो। वच्छं। वच्छेणं, वच्छेण। वच्छाय, (तादर्थ्यड // 6 / 3 / 132|| तादर्थ्यविहितस्य डेश्चतुर्थ्य कवचनस्य षष्ठी वा भवति। देवस्स, देवाय, देवार्थमित्यर्थः।) वच्छस्स। वच्छत्तो, वच्छाओ, वच्छाउ) वच्छाहि, वच्छाहिन्तो, वच्छा। वच्छस्स। वच्छम्मि, वच्छे। हे वच्छ, हे वच्छो, हे वच्छा। पञ्चमी षष्ठी वच्छत्तो, वच्छाओ, वच्छाउ, वच्छाहि, वच्छेहि, (वच्छाहिन्तो, वच्छेहिन्तो, वच्छासुन्तो, वच्छेसुन्तो। वच्छाणं, वच्छाण। वच्छेसुं, वच्छेसु। हे वच्छा / सप्तमी संबोधनम् गोवा। चतुर्थी विभक्ति, एकवचन। प्रथमा गोदो। द्वितीया तृतीया गोवाणं, गोवाण। गोवे, गोवस्स। पञ्चमी गोवत्तो, गोवाओ, गोवाउ) गोवाहिन्तो। गोवस्स। सप्तमी गोवम्मि। संबोधनम् हे गौवो, हे गोवा / अकारान्तः पुंल्लिङ्गो 'गोपा' शब्दः / बहुवचन / गोवा। गोवा। गोवाहि गोवाहि , गोवाहि। गोवाणं, गोवाण। गोवत्तो, गोवाओ, गोवाउ, गोवाहिन्तो, (गोवासुन्तो। गोवाणं, गोवाण। गोवासु, गोवासु। हे गोवा। षष्ठी गिरि। इकारान्तः पुंल्लिङ्गो "गिरि' शब्दः / विभक्ति एकवचन। बहुवचन / प्रथमा गिरी। गिरिणो, गिरी, गिरउ, गिरओ। द्वितीया गिरिणो, गिरी। तृतीया गिरिणा। गिरीहिं, गिरीहि, गिरीहि। गिरिणो, गिरिस्स,गिरये। गिरीणं, गिरीण। पञ्चमी गिरिणो, गिरित्तो, गिरीओ, गिरीउ) गिरित्तो, गिरीओ, गिरीउ, गिरीहिन्तो, गिरीहिन्तो। (गिरीसुन्तो। षष्ठी गिरिणो,गिरिस्स। गिरीणं, गिरीण। सप्तमी गिरिम्मि। गिरीसुं. गिरीसु। संबोधनम् हे गिरि, हे गिरी। हे गिरिणो, हे गिरी, हे गिरउ, हे गिरओ। चतुर्थी Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (157) [प्राकृत] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् 3 / [शब्दरूपावलिः] ईकारान्तः पुंल्लिङ्गो 'गामणी' शब्दः / विभक्ति एकवचन। बहुवचन / प्रथमा गामणी। गामणिणो, गामणी, गामणउ, गामणओ। द्वितीया गामणिं। गामणिणो, गामणी। तृतीया गामणिणा। गामणीहि, गामणीहिँ गामणीहिं। चतुर्थी गामणये, गामणिणो, गामणिस्स। गामणीणं, गामणीण। पञ्चमी गामणिणो, गामणित्तो, गामणीओ) गामणित्तो, गामणीओ, गामणीउ, गामणीहिन्तो, गामणीउ, गामणीहिन्तो। (गामणीसुन्तो। गामणिणो, गामणिस्स। गामणीणं, मामणीण। सप्तमी गामणिम्मि।। गामणीसु, गामणीसु। संबोधनम् हे गामणि, हे गामणी। हे गामणिणो, हे गामणी, हे गामणउ, हे गामणओ। षष्ठी विभक्ति, प्रथमा एकवचन। गुरू। गुरूं। द्वितीया तृतीया चतुर्थी पञ्चमी गुरुणा। गुरवे, गुरुणो, गुरुस्स। गुरुणो, गुरुत्तो गुरूओ, गुरूउ) गुरूहिन्तो। गुरुणो, गुरुस्स। गुरुम्मि। हे गुरु, हे गुरू। षष्ठी सप्तमी संबोधनम् विभक्ति, प्रथमा द्वितीया तृतीया उकारान्तः पुँल्लिङ्गो 'गुरु' शब्दः / बहुवचन / गुरुणो, गुरू, गुरओ, गुरउ, गुरवो ('वोतो डवो // 8 / 3 / 21 / / उदन्तात् परस्य जसः पुंसि डित् अवो इत्यादेशो वा भवति। साहको।)। गुरुणो, गुरू। गुरूहि, गुरूहिँ , गुरूहि। गुरूणं, गुरूण। गुरुत्तो, गुरूओ, गुरूउ, गुरूहिन्तो, (गुरूसुन्तो। गुरूणं, गुरूण। गुरूसुं, गुरूसु। हे गुरुणो, हे गुरू, हे गुरउ, हे गुरओ, हे गुरवो। ऊकारान्तः पुंल्लिङ्गो 'खलपू' शब्दः। बहुवचन। खलपुणो, खलपू, खलपउ, खलपआ, खलपवा। खलपुणो, खलपू। खलपूर्हि, खलपूहिँ ,खलपूहि। खलपूर्ण, खलपूण। खलपुत्तो, खलपूओ, खलपूउ, (खलपूहिन्तो, खलपूसुन्तो। खलपूर्ण, खलपूण। खलपूसुं, खलपूसु। हे खलपुणो, हे खलपू, हे खलपउ, हे खलपओ, हे खलपवो। ऋकारान्तः पुंल्लिङ्गो "पितृ' शब्दः / बहुवचन। पिअरा, पिउणो, पिअउ, पिअओ, पिऊ। पिअरा, पिअरे, पिउणो, पिऊ। पिअरेहिं, पिअरेहिँ, पिअरेहि, पिऊहिँ , पिऊहिं। चतुर्थी एकवचन। खलपू। खलपुं। खलपुणा। खलपेव, खलपुणो, खलपुस्स। खलपुणो, खलपुत्तो, खलपूओ) खलपूउ, खलपूहिन्तो। खलपुणो, खलपुस्स। खलपुम्मि। हे खलपु, हे खलपू। पञ्चमी षष्ठी . सप्तमी संबोधनम् विभक्ति प्रथमा द्वितीया तृतीया एकवचन। पिआ, पिअरो। पिअरं। पिउणा, पिअरेणं, पिअरेण / Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (158) अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् / [प्राकृत [शब्दरूपावलिः] विभक्ति, एकवचन। चतुर्थी पिअस्स, पिउणो, पिउस्स। पञ्चमी पिउणो, पिउत्तो, पिऊओ, पिऊउ,पिऊहि-) न्तो, पिअरत्तो, पिअराओ, पिअराउ, पिअराहि.) पिअराहिन्तो, पिअरा। पिअरस्स, पिउणो, पिउस्स। सप्तमी पिअरम्मि, पिअरे, पिउम्मि। संबोधनम् हे पिअ, हे पिअरं। बहुवचन। पिअराणं, पिअराण, पिऊणं, पिऊण।। पिअरत्तो, तिअराओ, पिअराउ, पिअराहि, पिअरेहि, (पिअराहिन्तो, पिअरेहिन्तो, पिअरासुन्तो, पिअरेसुन्तो, (पिउत्तो, पिऊओ, पिऊउ, पिऊहिन्तो, पिऊसुन्तो। पिअराणं, पिअराण, पिऊणं पिऊण। पिअरेसुं, पिअरेसु, पिऊसु, पिऊसु! हे पिअरा, हे पिऊ, हे पिउणो। चतुर्थी 111.11 111111:1111111: 1. षष्ठी ऋकारान्तः पुंल्लिङ्गो "भर्तृ' शब्दः। विभक्ति, एकवचन। बहुवचन। प्रथमा भत्ता, भत्तारो। भत्तुणो, भत्तू, भत्तउ, भत्तओ, भत्तारा। द्वितीया भत्तारं। भत्तुणो, भत्तू, भत्तारे / तृतीया भत्तुणा, भत्तारेणं, भत्तारेण / भत्तारेहि, भत्तारेहि, भत्तारेहि, भत्तूहि, भत्तूहिँ, भत्तूहि / भत्तुणो, भत्तुस्स, भत्तारस्स। भत्तूणं, भत्तूण, भत्ताराणं, भत्ताराण / पञ्चमी भत्तुणो, भत्तुत्तो, भत्तूओ, भत्तूउ, भत्तूहिन्तो,) भत्तुत्तो, भत्तूओ, भत्तूउ, भत्तूहिन्तो, भत्तूसुन्तो, भत्तारत्तो, भत्तारत्तो, भत्ताराओ, भत्ताराउ, भत्ताराहि, भत्ताराओ, भत्ताराउ, भत्ताराहि, भत्तारेहि, भत्ताराहिन्तो, भत्ताराहिन्तो, भत्तारा। भत्तारेहिन्तो, भत्तारासुन्तो, भत्तारेसुन्तो। भत्तुणो, भत्तुस्स, भत्तारस्स। भत्तूणं, भत्तूण, भत्तारणं, भत्ताराण / सप्तमी भत्तुम्मि, भत्तारम्मि, भत्तारे। भत्तूसुं, भत्तूसु, भत्तारेसुं, भत्तारेसु / संबोधन हे भत्त, हे भत्तार। हे भत्तू, हे भत्तुणो, हे भत्तउ, हे भत्तओ, हे भत्तारा। नकारान्तस्यापि 'राजन्' शब्दस्य प्राकृतेऽकारान्तवद् रूपं ज्ञेयम् / विभक्ति, एकवचन। बहुवचन। प्रथमा राया, रायाणो। रायाणो, राइणो, राया, रायाणा। द्वितीया रायाणं, राय, राइणं। रायाणो, राइणो, रायाणे, राए। तृतीया रायाणेणं, रायाणेण, राइणा, रण्णा, राएणं, रायाणेहिं, रायाणेहि,रायाणेहि, राईहिं, राईहिं, राईहि, राएण, रायणा। राएहि, राएहिँ ,राएहि। रायाणस्स, रायाणो, रण्णो, राइणो, रायस्स। रायाणाणं, रायाणाण, राइणं, राइण, राईणं, राईण, रायाण, रायाण। पञ्चमी रायाणत्तो, रायाणाओ, रायाणाउ, रायाणाहि.) राइतो, राईओ, राईउ, राईहिन्तो, राईसुन्तो, रायाणत्ता, रायाणाहिन्तो, रायाणा, राइणो, रायाणो, रण्णो,) (रायाणाओ, रायाणाउ, रायाणाहि, रायाणेहि, रायत्तो, रायाओ, रायाउ, रायाहि, रायाहिन्तो,) (रायाणाहिन्तो, रायाणेहिन्तो, रायाणासुन्तो, रायाणेसुन्तो, राया। (रायत्तो, रायाओ, रायाउ, रायाहि, राएहि, रायाहिन्तो, राएहिन्तो, रायासुन्तो राएसुन्तो। षष्ठी रायाणस्स, राइणो, रण्णो, रायाणो, रायस्स। रायाणाणं, रायाणाण, राईणं, राईण, राइणं, राइण, रायाण,रायाणा सप्तमी रायाणम्मि, रायाणे, राइम्मि, रायम्मि, राए। रायाणेसुं, रायाणेसु, राईसुं, राईसु, राएसुं, राएसु। संबोधनम् हे रायाण, हे रायाणा, हे रायाणो, हे राअ, हे राआ। हे रायाणा, हे राइणो, हे रायाणो। नकारान्तः पुंल्लिङ्ग 'आत्मन्' शब्दः / विभक्ति एकवचन। बहुवचन। प्रथमा अप्पाणो, अप्पो, अप्पा / अप्पाणा, अप्पाणो, अप्पा। चतुर्थी Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (156) अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् 3 / [प्राकृत] [शब्दरूपावलिः] बहुवचन। तृतीया चतुर्थी पञ्चमी विभक्ति, एकवचन। द्वितीया अप्पाणं, अप्पं। अप्पणे,अप्पाणो, अप्पे। अप्पाणेणं, अप्पाणेण, अप्पेणं, अप्पेण, अप्पणा,) अप्पाणेहिं, अप्पाणेहिँ, अप्पाणेहि, अप्पेहि, अप्पेहिँ , (अप्पेहि। अप्पणइआ, अप्पणिआ। अप्पाणस्स, अप्पस्स, अप्पणो। अप्पाणाणं, अप्पाणाण, अप्पाणं, अप्पाण। पञ्चमी अप्पाणत्तो, अप्पाणाओ, अप्पाणाउ, अप्पाणाहि.) अप्पाणत्तो, अप्पाणाओ, अप्पाणाउ, अप्पाणाहि, अप्पाणेहि, अप्पाणाहिन्तो, अप्पाणा, अप्पणो, अप्पत्तो, अप्पाणेहिन्तो, अप्पाणाहिन्तो, अप्पाणेसुन्तो, अप्पाणासुन्तो, अप्पाओ, अप्पाउ, अप्पाहि, अप्पाहिन्तो, अप्पा। अप्पत्तो, अप्पाओ, अप्पाउ, अप्पाहि, अप्पेहि, अप्पाहिन्तो, अप्पेहिन्तो, अप्पासुन्तो, अप्पेसुन्तो। षष्ठी अप्पाणस्स, अप्पस्स, अप्पणो! अप्पाणाणं, अप्पाणाण, अप्पाणं, अप्पाण। सप्तमी अप्पाणम्मि, अप्पाणे, अप्पम्मि, अप्पे। अप्पाणेसुं, अप्पाणेसु, अप्पेसुं, अप्पेसु। संबोधनम् हे अप्पाणो, हे अप्पो, हे अप्प / हे अप्पाणो, हे अप्पाणा, हे अप्पा। // अथ सर्वादीनां पुँल्लिने रूपाणि तत्र सर्वशब्दः / / विभक्ति एकवचन। बहुवचन। प्रथमा सव्यो। सव्वे। द्वितीया सव्वं। सव्वे, सव्वा। तृतीया सयेणं, सव्वेण। सव्वेहि, सव्वेहिँ, सव्वेहि। चतुर्थी सव्वस्स। सव्वेसिं, सव्वाणं, सव्वाण। सव्वत्तो, सव्वाओ, सव्वाउ, सव्वाहिन्तो,सव्वाहि, सव्वत्तो, सव्वाओ सव्वाउ, सव्वाहि, सव्वेहि, सव्याहिन्तो, सव्वा / सव्वेहिन्तो, सव्वासुन्तो, सव्वेसुन्तो। षष्ठी सव्वस्स। सव्वेसिं, सव्वाणं, सव्वाण। सप्तमी सव्वस्सि, सव्वम्मि, सव्वत्थ, सव्वहिं। सव्वेसु, सव्वेसु। संबोधनम् हे सव्व, हे सव्वो, हे सव्वा। हे सव्वे। तथाऽकारान्तः पुंल्लिङ्गो 'विश्व' शब्दः। विभक्ति एकवचन। बहुवचन। प्रथमा विस्सो। विस्से। द्वितीया विस्सं। विस्से, विस्सा। तृतीया विस्सेणं, विस्सेण। विस्सेहि, विस्सेहि, विस्सेहि। विस्सस्स। विस्सेसिं, विस्साणं, विस्साण। पञ्चमी विस्सत्तो, विस्साओ, विस्साउ, विस्साहि, वि- विस्सत्तो, विस्साओ, विस्साउ, विस्साहि, विस्सेहि, विस्साहितो, स्साहिन्तो, विस्सा। विस्सेहितो, विस्तासुन्तो, विस्सेसुन्तो। षष्ठी विस्सस्स। विस्सेसिं, विस्साणं, विस्साण। सप्तमी विस्सस्सि, विस्सम्मि, विस्सत्थ, विस्सहिं। विस्सेसु, विस्सेसु। संबोधनम् हे विस्स, हे विस्सो, हे विस्सा। हे विस्से। अकारान्तः पुंल्लिङ्ग 'उभय' शब्दः / विभक्ति एकवचन। बहुवचन / प्रथमा उभयो। उभये। द्वितीया उभयं। उभये, उभया। चतुर्थी Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राकृत] (160) अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् 3 / [शब्दरूपावलिः विभक्ति, तृतीया चतुर्थी पञ्चमी एकवचन। उभयेणं, उभयेण। उभयस्स। उभयत्तो, उभयाओ, उभयाउ, उभयाहि, उ-) भयाहिन्तो, उभया। उभयस्स। उभयम्मि, उभयस्सि, उभयत्थ, उभयहिं। हे उभय, हे उभयो, हे उभया। बहुवचन / उभयेहि, उभयेहि , उभयेहि। उभयेसिं, उभयाणं, उभयाण। उभयत्तो, उभयाओ, उभयाउ, उभयाहि, उभयेहि, उभयाहिन्तो, उभयेहिन्तो,उभयेहिन्तो, उभयासुन्तो, उभयेसुन्तो। उभयेसिं, उभयाणं, उभयाण। उभयेसुं, उभयेसु। हे उभये। षष्ठी सप्तमी संबोधनम् तृतीया षष्ठी तत्राकारान्तः पुंल्लिङ्गो 'अन्य' शब्दः। विभक्ति, एकवचन। बहुवचन / प्रथमा अण्णो / अण्णे। द्वितीया अण्णं। अण्णे, अण्णा अण्णेणं, अण्णेण। अण्णेहि,अण्णेहि, अण्णेहि। चतुर्थी अण्णस्स। अण्णेसिं, अण्णाणं, अण्णाण। पञ्चमी अण्णत्तो, अण्णाओ, अण्णाउ, अण्णाहि, अण्णा-) अण्णत्तो, अण्णाओ, अण्णाउ, अण्णाहि, अण्णेहि, अण्णाहिन्तो, हिन्तो, अण्णा। अण्णेहिन्तो, अण्णासुन्तो, अण्णेसुन्तो। अण्णस्स। अण्णेसिं, अण्णाणं, अण्णाण। सप्तमी अण्णस्सि, अण्णम्मि, अण्णत्थ, अण्णहिं। अण्णेसु, अण्णेसु। संबोधनम् हे अण्ण, हे अण्णो, हे अण्णा। हे अण्णे। तत्राकारान्तः पुंल्लिङ्गः 'कतर' शब्दः। विभक्ति, एकवचन। बहुवचन / प्रथमा कयरो। कयरे। द्वितीया कयरं। कयरे, कयरा। कयरेणं, कयरेण। कयरेहिं, कयरेहिँ, कयरेहि। कयरस्स। कयरेसिं, कयराणं, कयराण। पञ्चमी कयरत्तो, कयराओ, कयराउ, कयराहि,) कयरत्तो, कयराओ, कयराउ, कयराहि, कयरेहि, कयराहिन्तो, कयराहिन्तो, कयरा। कयरेहिन्तो, कयरासुन्तो, कयरेसुन्तो। कयरस्स। कयरेसिं, कयराणं, कयराण। सप्तमी कयरस्सि,कयरम्मि, कयरत्थ, कयरहिं। कयरेसुं, कयरेसु। संबोधनम् हे कयर, हे कयरो,हे कयरा। हे कयरे। अकारान्तः पुंल्लिङ्गो 'अवर' शब्दः। विभक्ति, एकवचन। बहुवचन। प्रथमा अवरो। अवरे। द्वितीया अवरं। अवरे, अवरा। तृतीया अवरेणं, अवरेण! अवरेहि, अवरेहिँ , अवरेहि। चतुथीं अवरस्स। अवरेसिं, अवराणं, अवराण। पञ्चमी अवरत्तो, अवराओ, अवराउ, अवराहि, अव-) अवरत्तो, अवराओ, अवराउ, अवराहि, अवरेहि, अवराहिन्तो, राहिन्तो अवरा। अवरेहिन्तो, अवरासुन्तो, अवरेसुन्तो। तृतीया चतुर्थी षष्ठी Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (161) अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् 3 / [प्राकृत] [शब्दस्वपावलिः 1 विभक्ति, एकवचन। षष्ठी अवरस्स। सप्तमी अवरस्सि, अवरम्मि, अवरत्थ, अवरहिं। संबोधनम् हे अवर, हे अवरा, हे अवरो। बहुवचन / अवरेसिं,अवराण, अवराण। अवरेसुं, अवरेसु। हे अवरे। विभक्ति प्रथमा द्वितीया तृतीया चतुर्थी पञ्चमी षष्ठी सप्तमी संबोधनम् विभक्ति प्रथमा द्वितीया जे। तृतीया चतुर्थी अकारान्तः पुंल्लिङ्ग 'इतर' शब्दः / एकवचन। बहुवचन / इयरो। इयरे। इयर। इयरे, इयरा। इयरेणं, इयरेण। झ्यरेहि, इयरेहिँ , इयरेहि। इयरस्स। इयरेसिं, इयराणं, इयराण। इयरत्तो, इयराओ, इयराउ, इयराहि, इयराहिन्तो, इयरत्तो, इयराओ, इयराउ, इयराहि, इयरेहि, इयराहिन्तो, इयरा। इयरहिन्तो, इयरासुन्तो, इयरेसुन्तो। इयरस्सा इयरेसिं, इयराणं, इयराण। इयरस्सि, इयरम्भि, इयरत्थ, इयरहि। इयरेसुं, इयरेसु। हे इयर, हे इयरा, हे इयरो। हे इयरे। पुल्लिङ्गे यच्छब्दरूपाणि / एकवचन। बहुवचन / जो। जे,जा। जेणं, जेण, जिणा। जेहिं, जेहिं , जेहि। जस्स। जेसिं, जाणं, जाण। जत्तो, जाओ, जाउ, जाहि, जाहिन्तो, जा,) जत्तो, जाओ, जाउ, जाहि, जेहि, जाहिन्तो, जेहिन्तो, जासुन्तो, जम्हा। जेसुन्तो। जस्स। जेसिं, जाणं, जाण। जस्सि, जम्मि, जत्थ, जर्हि, जाहे, जाला.) जेसुं, जेसु। जइया। पुंल्लिने तच्छब्दरूपाणि / एकवचन। बहुवचन। सो,णो। ते,णे। तं, णं। ते, णे, ता, णा। तेणं, तेण, तिणा, णेणं, णेण / तेहि, तेहि, तेहि,णेहि, णेहि, णेहि। तास,तस्स, से, णस्स। तेसिं, ताणं, ताण, सिं,णेसिं, णाणं, णाण। तम्हा, तत्तो, ताओ, ताउ, ताहिन्तो, ताणम्हा,) तत्तो, ताओ, ताउ, ताहि, तेहि, ताहिन्तो, तेहिन्तो, तासुन्तो णत्तो, णाओ,णाउ, णाहि, णाहिन्तो,णा / (तेसुन्तो, णत्तो, णाओ, पाउ, णाहि, णेहि, णाहिन्तो, णेहिन्तो, णासुन्तो, णेसुन्तो। तास, तस्स, से, णस्स। तेसिं, ताणं, ताण, सिं, णेसिं, णाणं, णाण। तस्सि, तत्थ, तम्मि, तहि, णस्सि,णम्मि,णत्थ,) तेसु, तेसु, णेसुं, णेसू। गहि, ताहे, ताला, तइआ, णाहे, णाला, "इआ। पञ्चमी विभक्ति, प्रथमा द्वितीया तृतीया चतुर्थी पञ्चमी षष्ठी सप्तमी Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राकृत] (162) अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् / [शब्दरूपावलिः] एकशब्दस्य रूपाणि। विभक्ति, एकवचन। बहुवचन। प्रथमा एक्को। द्वितीया एकं। एक्के, एक्का। तृतीया एक्केणं, एकेण एक्केहिं, एक्केहि ,एकेहि। चतुर्थी एक्कस्सा एक्केसिं, एकाणं, एक्काण। पञ्चमी एक्कत्तो, एक्काओ, एकाउ, एक्काहि, एकाहिन्तो,) एकत्तो, एक्काओ, एक्काउ, एक्काहि,एक्केहि, एक्काहिन्तो, एक्का / (एक्केहिन्तो, एक्कासुन्तो, एक्केसुन्तो। षष्ठी एकेसि, एक्काणं, एकाण। सप्तमी एक्कस्सि, एक्कम्मि, एकत्थ, एक्कहि। एक्कसुं, एक्कसु। एगे। चतुर्थी प्रकृत्यन्तरेण एकशब्दस्यैवान्यानि रूपाणि / विभक्ति एकवचन। बहुवचन। प्रथमा एगो। एगे। द्वितीया एगे,एगा। तृतीया एगेणं, एगेण। एगेहि, एगेहिँ,एगेहि, एस्स। एगेसिं, एगाणं, एगाण। पञ्चमी एगत्तो, एगाओ, एगाउ, एगाहि, एगाहिंतो,) एगत्तो, एगाओ, एगाउ, एगाहि, एगेहि, एगाहिन्तो, एगा। (एगेहिन्तो, एगासुन्तो, एगेसुन्तो। षष्ठी एगस्स। एगेसिं, एगाणं, एगाण। सप्तमी एगस्सि, एगम्मि, एगत्थ, एगहिं। एगेसुं, एगेसु। प्रकृत्यन्तरेणैव पुनरेकशब्दस्य रूपाणि / विभक्ति एकवचन। बहुवचन। प्रथमा इक्को। इक्के। द्वितीया इक्क। इक्के, इक्का। तृतीया इक्केणं, ऽक्केण। इक्केहिं, इक्केहिँ , इक्केहि। चतुर्थी इक्कस्स। इक्केसि, इक्काणं, इक्काण। पञ्चमी इक्वत्तो, इक्काओ, इक्काउ, इक्काहि, इक्काहिन्तो,) इक्वत्तो, इक्काओ, इक्काउ, इक्काहि, इक्केहि, इक्वाहिन्तो, इक्का। (इक्केहिन्तो, इक्कसुन्तो, इक्केसुन्तो। इक्कस्सा इक्केसिं, इक्काणं, इकाण। सप्तमी इक्कस्सि, इक्कम्मि, इक्कत्य, इक्कहिं। इक्केसु, इक्केसु। किंशब्दस्य रूपाणि। विभक्ति, एकवचन। बहुवचन। प्रथमा को। द्वितीया के,का। तृतीया केणं, केण, किणा। केहिं, केहिँ, केहि। चतुर्थी कस्स, कास। केसिं, काणं, काण, कास। पञ्चमी कत्तो, काओ, काउ, काहि, काहिन्तो, कम्हा.) कत्तो, काओ, काउ, काहि, केहि, काहिन्तो, केहिन्तोकासुन्तो, किणो, कीस। केसुन्तो। षष्ठी के। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [शब्दरूपावलिः] (163) [प्राकृत] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् 3 / विभक्ति, एकवचन। बहुवचन / षष्ठी कस्स, कास। केसि,काणं, काणं, कास। सप्तमी कस्सि, काम्म, कत्थ, कहि, काहे, काला, कइआ। केसुं, केसु। विभक्ति प्रथमा द्वितीया तृतीया चतुर्थी पञ्चमी एतच्छब्दस्य रूपाणि। एकवचन। बहुवचन / एसो, एस, इणं, इणमो। ए। एए, एआ। एएणं, एएण, एइणा। एएहि, एएहि, एएहि। एअस्स,से। एएसिं, एआणं, एआण, सिं। एअत्तो, एआओ, एआउ, एआहि, एआहिन्तो.) एअत्तो, एआओ, एआउ, एआहि, एएहि, एआहिन्तो, एआ, एत्तो, एताहे। (एएहिन्तो, एआसुन्तो, एएसुन्तो। एअस्स,से। एएसिं एआणं, एआण, सिं। एअस्सि, एअम्मि, अयम्मि, ईयम्मि, एत्थ। एएसुं, एएसु। षष्ठी सप्तमी इमे। इदंशब्दस्य रूपाणि। विभक्ति, एकवचन। बहुवचन / प्रथमा अयं, इमो। द्वितीया इम, इणं, णं। इमे, इमा, णे, णा। तृतीया इमेणं, इमेण, णेणं, णेण, इमिणा। इमेहि, इमेहि", इमेहि,णेहिं, णेहिणेहि, एहिं एहिँ, एहि। चतुर्थी इमस्स, अस्स, से। इमेसिं, इमाणं, इमाण, सिं। पञ्चमी इमत्तो, इमाओ, इमाउ, इमाहि, इमाहिन्तो, इमा। इमत्तो, इमाओ, इमाउ, इमाहि, इमेहि, इमाहिन्तो, इमेहिन्तो, इमासुन्तो, इमेसुन्तो! इमस्स, अस्स, से। इमेसिं, इमाणं, इमाण, सिं। सप्तमी अस्सि, इमस्सि, इमम्मि, इह। इमेसुं, इमेसु। विभक्ति, प्रथमा द्वितीया तृतीया चतुर्थी पञ्चमी अदःशब्दस्य रूपाणि। एकवचन। बहुवचन / अह, अमू। अमुणो, अमआ, अमवो, अमउ, अमू। अमुं। अमुणो, अमू। अमुणा। अमूहि, अमूहि, अमूहि। अमुणो, अमुस्स। अमूणं, अमूण। अमुणो, अमुत्तो, अमूओ, अमूउ, अमूहिन्तो। अमुत्तो, अमूओ, अमूउ, अमूहिन्तो, अमूसुन्तो। अमुणो, अमुस्सा अमूणं, अमूण। अमुम्मि, अयम्मि, इअम्मि। अमूसुं, अमूसु। सप्तमी विभक्ति प्रथमा द्वितीया एकवचन। रमा। रम। अथ स्त्रीलिङ्गशब्दाः। आकारान्तः स्त्रीलिङ्गो रमाशब्दः। बहुवचन / रमाओ, रमाउ, रमा। रमाओ, रमाउ, रमा। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [शब्दरूपावलिः (164) [प्राकृत] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् 3 / इकारान्तः पुंल्लिङ्गो "गिरि' शब्दः / विभक्ति, एकवचन। बहुवचन / तृतीया रमाए, रमाअ, रमाइ ("टाङस्डेरदादिदेवा तु ङसेः" रमाहि, रमीहिँ , रमाहि। 1 / 8 / 3 / 26 / स्त्रियां वर्तमानान्नाम्नः परेषां टाडस ङीनां प्रत्येकम् अत्, आत्, इत्, एत् एते चत्वार आदेशाः सप्राग्दीर्घा भवन्ति, डसेस्तु पुनरेते वा भवन्ति। 'नात आत्॥८३॥३०॥ स्त्रियां वर्तमानादादन्तानाम्नः परेषां टाडस् डिडसीनाभादादेशो न भवति।) रमाए, रमाअ, रमाइ। रमाणं, रमाण। पञ्चमी रमाए, रमाअ, रमाइ, रमत्तो, रमाओ, रमाउ.) रमत्तो, रमाओ, रमाउ, रमाहिन्तो, रमासुन्तो। रमाहिन्तो। रमाए, रमाअ, रमाइ। रमाणं, रमाण। सप्तमी रमाए, रमाअ, रमाइ। स्मासु, रमासु। संबोधनम् हे रमे, हे रमा। हे रमाओ, हे रमाउ, हे रमा। चतुर्थी षष्ठी :::::61: 911 11:111:111:111: 51 षष्ठी इकान्तः स्त्रीलिङ्गो रुचिशब्दः / विभक्ति, एकवचन। बहुवचन / प्रथमा रुई ('अक्लीबे सौ // 13 // 16 // इदुतोऽक्लीबे नपुंसका- रुईओ, रुईउ, रुई। दन्यत्र सौ दीर्घा भवति / बुद्धी।)। द्वितीया रुईओ, रुईउ, रुई। तृतीया रुईअ, रुईआ, रुईई, रुईए। रुईहिं, रुईहि, रुईहि। चतुर्थी रुईअ, रुईआ, रुईइ, रुईए। रुईणं, रुईण। पञ्चमी रुईअ, रुईआ, रुईइ, रुईए, रुइत्तो, रुईओ, रुईउ.) रुइत्तो, रुईओ, रुईउ, रुईहिन्तो, रुईसुन्तो। रुईहिन्तो। रुईआ, रुईअ, रुईइ, रुईए। रुईणं, रुईण। सप्तमी रुईअ, रुईआ, रुईइ, रुईए। रुईसु, रुईसु। संबोधनम् हेरुई,हे रुइ। हे रुईओ, हेरुईउ, हे रुई। ईकारान्तः स्त्रीलिङ्गो नदीशब्दः / विभक्ति, एकवचन। बहुवचन / प्रथमा नई, नईआ ("ईतः सेश्वावा" || 28| स्त्रियां नई, नईआ, नईउ, नईओ। वर्तमानादीकारान्तात् सेर्जस्शसोश्च स्थाने आकारो वा भवति।) द्वितीया नई। नई, नईआ, नईउ, नईओ। तृतीया नईअ, नईआ, नईइ, नईए। नईहि, नईहि, नईहि। चतुर्थी नईअ, नईआ, नईइ, नईए। नईणं, नईण। पञ्चमी नईअ, नईआ, नईइ. नईए, नइत्तो, नईओ, नईउ,) नइत्तो, नईओ, नईउ, नईहिन्तो, नईसुन्तो। नईहिन्तो। नईअ, नईआ, नईइ, नईए / नईणं, नईण। सप्तमी नईअ, नईआ, नईइ, नईए। नईसं, नईसु। संबोधनम् हे नई, हे नइ। हे नईओ, हे नईउ, हे नई, हे नईआ। स्त्रीशब्दरूपाणि / विभक्ति, एकवचन। बहुवचन / प्रथमा इत्थी, इत्थीआ। इत्थी, इत्थीओ, इत्थीउ, इत्थीआ। द्वितीया इत्थिं / इत्थी, इत्थीओ, इत्थीउ, इत्थीआ। तृतीया इत्थीअ, इत्थीआ, इत्थीइ, इत्थीए। इत्थीहिं, इत्थीहि, इत्थीहि। षष्ठी Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राकृत विभक्ति, चतुर्थी पञ्चमी (165) अभिवानराजेन्द्रपरिशिष्टम् 3 / [शब्दरूपावलिः] एकवचन। बहुवचन / इत्थीअ,इत्थीआ, इत्थीइ, इत्थीए। इत्थीणं, इत्थीण। इत्थीअ, इत्थीआ, इत्थीइ, इत्थीए, इत्थित्तो,) इत्थित्तो, इत्थीओ, इत्थीउ, इत्थीहिन्तो इत्थीसुन्तो! इत्थीओ, इत्थीउ, इत्थीहिन्तो। इत्थीअ, इत्थीआ, इत्थीइ, इत्थीए। इत्थीणं, इत्थीण। इत्थीअ, इत्थीआ, इत्थीइ, इत्थीए। इत्थीसुं, इत्थीसु। हे इत्थी, हे इत्थि, हे इत्थीओ, हे इत्थीउ, हे इत्थी, हे इत्थीआ। षष्ठी सप्तमी संबोधनम् द्वितीया चतुर्थी प्रकृत्यन्तरेण स्त्रीशब्दरूपाणि। विभक्ति, एकवचन। बहुवचन / प्रथमा थी, थीआ! ("स्त्रिया इत्थी" // 2 / 130 // स्त्री- थी, थीओ, थीउ, थीआ। शब्दस्य इत्थी इत्यादेशो वा भवति / पक्षे 'सर्वत्र लवरामवन्द्रे' / / 2 / 76| इति रलोपे 'स्तस्य थोऽसमस्तस्तम्बे ||6 / 2245 / / 'स्तम्बं समस्त च त्यक्त्वा, स्तस्य थादेश इष्यते / इति 'थी' रूपं निष्पन्नम्।) थिं। थी, थीओ, थीउ, थीआ। तृतीया थीआ, थीअ, थीइ, थीए। थीहिं, थीहि, थीहि। थीआ,थीअ, थीइ, थीए। थीणं, थीण। पञ्चमी थीआ, थीअ, थीइ, थीए, थित्तो, थीओ, थीउ,) थित्तो, थीओ, थीउ, थीहिन्तो, थीसुन्तो। थीहिन्तो। षष्ठी थीआ, थीअ, थीइ, थीए। थीणं, थीण। सप्तमी थीआ, थीअ, थीइ, थीए। थीसु,थीसु। संबोधनम् हे थी, हे थि। हेथीओ, हेथीउ,हे थी, हेथीआ। उकारान्तः स्त्रीलिङ्गो धेणुशब्दः / विमक्ति, एकवचन। बहुवचन / प्रथमा धेणू। धेणूउ, धेधूओ, धेणू। द्वितीया धेणु! घेणूउ, घेणूओ, घेणू। घेणूअ, धेणूआ, घेणूइ, धेणुए। घेणुहि, धेणूहिँ, घेणूहि। ___घेणुअ, धेणुआ, घेणूइ, घेणुए। घेणूणं, धेणूण। घेणूअ, धेणूआ, घेणूइ, घेणूए, धेणुत्तो, धेणूओ,) धेणुत्तो, धेणूओ, धेणूउ, घेणूहिन्तो, घेणूसुन्तो। घेणुउ, धेणू हिन्तो। षष्ठी धेणूअ, घेणूआ, धेणूइ, धेणूए।। घेणुणं, धेणूण। सप्तमी घेणूअ, घेणूआ, घेणूइ, धेणुए। घेणूसु,धेणूसु। संबोधनम् हे धेणु, हे धेणु। हे घेणूओ, हे घेणूउ, हे धेणू। ऊकारान्तः स्त्रीलिङ्गो वधूशब्दः। विभक्ति एकवचन। बहुवचन / प्रथमा वहू। वहूउ, बहूओ, वहू। द्वितीया वहुं। वहूउ, वहूओ, वहू। तृतीया वहूआवहूअ, वहूइ, वहुए। वहूहिं, वहूहि, वहूहि। वहूआ, वहूअ, वहूइ, वहुए। वहूणं, वहूण। पञ्चमी बहूआ, वहूअ, वहूइ, वहूए. वहुत्तो, वहूओ, वहूउ.) वहुत्तो, वहूओ, वहूउ, वहूहिन्तो, वहूसुन्तो। वहहिन्तो। तृतीया पञ्चमी चतुर्थी Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राकृत] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् 3 / [शब्दरूपावलिः विभक्ति षष्ठी सप्तमी संबोधनम् एकवचन। वहूआ, वहू, वहूइ, वहुए। वहूआ, वहूअ, वहूइ, वहुए। हे वहु, हे वहू। बहुवचन / वहूणं, वहूण। वहूसुं, वहूसु। हे वहूउ, हे वहूओ, हे बहू चतुर्थी ऋकारान्तः स्त्रीलिङ्गो मातृशब्दः / विभक्ति एकवचन। बहुवचन / प्रथमा माआ, माअरा (बाहुलकाद् जनन्यर्थे आ, देवताऽर्थस्य माअरा, माअराउ, माअराओ, माआ, माआउ, माआओ, माऊ, तुअरा इत्यादेशः। माआए कुच्छीए नमो माअराण।) माऊउ, माऊओ। द्वितीया माअं, माअरं। माअरा, माअराउ, माअराओ, माआ, माआउ, माआओ, माऊ, माऊउ, माऊओ। तृतीया माअराइ, माअराए, माअराअ,माआए, माआइ.) माअराहिं, माअराहिँ, माअराहि, माआहि, माआहि, माआअ. माऊआ, माऊअ, माऊए, माऊई। (माआहि, माऊहिं, माऊहि, माऊहि। माअराइ, माअराए, माअराअ, माआए, माआइ.) माअराणं, माअराण, माआणं, माआण, माऊणं माऊण, माईणं, माआअ, माऊआ, माऊअ, माऊए, माऊइ। (माईण / 'मातुरिद् वा / 8 / 1 / 135 // मातृशब्दस्य गौणस्य ऋत इद् भवति वा। क्वचिदगौणस्यापि। माईणं।) पञ्चमी माअराइ, माअराए, माअराअ, माआए, माआइ.) माअरत्तो, माअराओ, माअराउ, माअराहिंतो, माअरासुन्तो, माआअ, माऊआ, माऊअ, माऊए, माऊइ.) माअत्तो, माआओ, माआउ, माआहितो, माआसुन्तो, माउत्तो, माअरत्तो, माअराओ, माअराउ, माअराहिन्तो.) माऊओ, माऊउ, माऊहिंतो, माऊसुन्तो। माअत्तो, माआओ, माआउ, माआर्हितो, माउत्तो, माऊओ, माऊउ, माऊहिंतो। षष्ठी माअराइ, माअराए, माअराअ, माआए, माआइ) माअराणं, माअराण, माआणं, माण, माऊणं, माऊण, माईणं, माआअ, माऊआ, माऊअ,माऊए, माऊइ। माईण। माअराइ, माअराए, माअराअ, माआए, माआइ.) माअरासुं, माअरासु, माआसुं, माआसु, माऊसुं, माऊसु। माआअ, माऊआ, माऊअ, माऊए, माऊइ। संबोधनम् हे माअ, हे माअरं। हे माआ, हे माआउ, हे माआओ, हे माअरा, हे माअराउ, हे माअराओ, हे माऊ हे माऊउ, हे माऊओ। ऋकारान्तः स्त्रीलिङ्गो दुहतृशब्दः / विभक्ति, एकवचन। बहुवचन / प्रथमा दुहिआ। दुहिआओ, दुहिआउ, दुहिआ। द्वितीया दुहि। दुहिआओ, दुहिआउ, दुहिआ। तृतीया दुहिआए, दुहिआअ, दुहिआइ। दुहिआहिं दुहिआहिँ दुहिआहि। दुहिआए, दुहिआअ, दुहिआइ। दुहिआणं, दुहिआण। पञ्चमी दुहिआए, दुहिआअ,दुहिआइ, दुहिअत्तो, दुहि-) दुहिअत्तो, दुहिआओ, दुहिआउ, दुहिआहिन्तो, दुहिआसुन्तो। आओ, दुहिआउ, दुहिआहिन्तो। षष्ठी दुहिआए, दुहिआअ, दुहिआइ। दुहिआणं, दुहिआण। सप्तमी दुहिआए, दुहिआअ, दुहिआइ। दुहिआसु, दुहिआसु। संबोधनम् हे दुहिअ, हे दुहिआ। हे दुहिआओ, हे दुहिआउ, हे दुहिआ। सप्तमी चतुर्थी Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [शब्दरूपावलिः] (167) [प्राकृत] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् 3 / उकारान्तः स्त्रीलिङ्गो घेणुशब्दः / विभक्ति, एकवचन। बहुवचन / प्रथमा जा। जाओ, जाउ,जा। द्वितीया जाओ, जाउ, जा। जाए, जाअ, जाइ। जाहिं, जाहि जाहि। जाए,जाअ,जाइ। जाणं,जाण। पञ्चमी जाए, जाअ, जाइ, जत्तो, जाओ, जाउ, जाहिन्तो, जत्तो, जाओ, जाउ, जाहिंन्तो, जासुन्तो। जम्हा / षष्ठी जाए, जाअ,जाइ। जाणं, जाण। सप्तमी जाए,जाअ,जाइ। जासु, जासु। ज। तृतीया तुर्थी विभक्ति, प्रथमा द्वितीया तृतीया चतुर्थी पञ्चमी प्रकृत्यन्तरेण यच्छब्दरूपाणि / एकवचन। बहुवचन / जा ('किंयत्तदोऽस्यमामि / / 8 / 3.33 // सि अम् आम् जीओ, जीउ, जीआ, जी। वर्जिते स्यादौ परे एभ्यः स्त्रियां डी / जीओ। . अस्यमामीति किम्। जा, जं, जाण।) जीओ, जीउ, जीआ, जी। जीअ, जीआ, जीइ, जीए। जीहिं, जीहि ,जीहि। जीअ, जीआ, जीइ, जीए, जिस्सा, जीसे। जाणं,जाण। जीअ, जीआ, जीइ, जीए, जित्तो, जीओ, जीउ.) जित्तो, जीओ, जीउ, जीहिन्तो, जीसुन्तो। जीहिन्तो। जीअ, जीआ,जीइ,जीए, जिस्सा,जीसे। जाणं, जाण। जीअ, जीआ, जीइ, जीए। जीसुं, जीसु। षष्ठी सप्तमी विभक्ति, प्रथमा द्वितीया तृतीया चतुर्थी तच्छब्दरूपाणि / एकवचन। बहुवचन। सा, ता, णा ('तदो णः स्यादौ क्रचित् / / 8 / 370 / / ताओ, ताउ, ता। तदः स्थाने स्यादौ परे ण आदेशो भवति क्वचिद् लक्ष्यानुसारेण / स्त्रियामपि / हत्थुन्नामिअमुही णं तियटा। तां त्रिजटेत्यर्थः / भणिअंच णाए, तयेत्यर्थः / णाहिं कयं, ताभिः कृतमित्यर्थः।) तं,णं। ताओ, ताउ, ता। णाए,ताए, ताअ, ताइ। तार्हि, ताहिँ, ताहि, णाहिं, णाहिँ,णाहि। ताए, ताअ, ताइ, तास(बहुलाधिकारात् किंतद्भ्यामा- ताणं, ताण, ताम। कारान्ताभ्यामपि डासादेशो वा ! तासधणं / पक्षे ताए।) ताए, ताअ, ताइ, तत्तो, ताओ, ताउ, ताहिन्तो, तत्तो, ताओ, ताउ, ताहिन्तो, तासुन्तो। तो, तम्हा / ताए, ताअ, ताइ, तास। ताणं, ताण, तास। ताए, ताअ, ताइ। तासुं, तासु। पञ्चमी षष्ठी सतभी प्रकृत्यन्तरेण तच्छब्दरूपाणि / विभक्ति, एकवचन। बहुवचन / प्रथमा सा,ता, णा। तीओ, तीउ, तीआ,ती। द्वितीया तं,णं। तीओ, तीउ, तीआ,ती। तृतीया तीअ, तीआ, तीइ, तीए। तीहिं, तीहिँ, तीहि। चतुर्थी तीअ, तीआ, तीइ, तीए, तिस्सा, तीसे। ताणं, ताण। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राकृत [शब्दरूपावलिः विभक्ति, पञ्चमी (168) अभियानराजेन्द्रपरिशिष्टम् 3 / उकारान्तः स्त्रीलिङ्गो घेणुशब्दः / / एकवचन। बहुवचन / तीअ, तीआ, तीइ, तीए, तित्तो, तीओ, तीउ, ती-) तित्तो, तीओ, तीउ, तीहिन्तो, तीसुन्तो। हिन्तो। तीअ, तीआ, तीइ, तीए, तिस्सा, तीसे। ताणं, ताण। तीअतीआ, तीइ, तीए। तीसु,तीसु। षष्ठी सप्तमी FREE: विभक्ति प्रथमा द्वितीया तृतीया चतुर्थी किंशब्दरूपाणि। एकवचन। बहुवचन / का। काओ, काउ,का। का काओ, काउ, का। काए, काअ,काइ। काहिं, काहि काहि। काए,काअ,काइ,कास। काणं, काण, कास, केसिं ("आमो डेसिं" ||361|| बहुलाधिकारात् स्त्रियामपि। सव्वेसिं, केसिं)। काए, काअ, काइ, कत्तो, काओ, काउ, काहिन्तो, कत्तो, काओ, काउ, काहिन्तो, कासुन्तो। कम्हा, कीस, किणो ("किमो डिणोडीसौ"८३६८॥)। काए, काअ, काइ, कास। काणं, काण, कास, केसिं। काए, काअ,काइ। कासु, कासु। पञ्चमी षष्ठी सप्तमी विभक्ति, प्रथमा द्वितीया तृतीया चतुर्थीपञ्चमी षष्ठी सप्तमी विभक्ति, प्रथमा प्रकृत्यन्तरेण किंशब्दरूपाणि / एकवचन। बहुवचन / का। कीओ, कीउ, कीआ, की। कं। कीओ, कीउ, कीआ, की। कीअ, कीआ, कीइ, कीए। कीहिं, कीहि, कीहि। कीअ, कीआ, कीइ, कीए, किस्सा, कीसे। काणं, काण, कास, केसिं। कीअ, कीआ, कीइ, कीए, कित्तो, कीओ, कीउ, कित्तो, कीओ, कीउ, कीहिन्तो, कीसुन्तो। कीहिन्तो। कीअ, कीआ, कीइ, कीए, किस्सा, कीसे। काणं, काण, कास, केसिं। कीअ, कीआ, कीइ, कीए। कीसुं, कीसु। एतच्छब्दरूपाणि / एकवचन। बहुवचन / एसा, एस, इणं, इणमो("वैसेणमिणमो सिना" एआओ, एआउ, एआ। 18385 / / एतदः सिना सह एस इणम् इणमो इत्यादेशा वा भवन्ति / एस गई।)। ए / एआओ, एआउ, एआ। एआअ. एआइ, एआए। एआर्हि, एआहिँ एआहि। एआअ, एआइ, एआए,से। एआणं, एआण, एएसिं, सिं। एआअ, एआइ, एआए, एत्तो ("त्थे च तस्यलुक्" एत्तो, एआओ, एआउ, एआहिन्तो, एआसुन्तो। // 83.83 // एतदः त्थे त्तो ताहे परे तस्य लुक् / एत्थ, एत्तो, एताहे।,एआओ,)एआउ, एताहिन्तो। एआअ, एआइ, एआए, से। एआणं, एआण, एएसिं सिं। एआअ, एआई, एआए। एआसुं, एआसु। प्रकृत्यन्तरेण एतच्छब्दरूपाणि / एकवचन। बहुवचन / एई, एस, इणं, इणमी। एईओ, एईउ, एईआ, एई। द्वितीया तृतीया चतुर्थी पञ्चमी षष्ठी सप्तमी विभक्ति, प्रथमा Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (166) अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् / [प्राकृत] [शब्दरूपावलिः] एकवचन। विभक्ति द्वितीया तृतीया चतुर्थी पञ्चमी एईअ, एईआ, एईइ, एईए। एईअ, एईआ, एईइ, एईए। एईअ, एईआ, एईइ, एईए एइत्तो, एईओ, एईउ,) एईहिन्तो। एईअ, एईआ, एईइ, एईए। एईअ, एईआ, एईई, एईए। बहुवचन / एईओ, एईउ,एईआ, एई। एईहिं, एईहिँ, एईहि। एईणं, एईण, एइत्तो, एईओ, एईउ, एईहिन्तो, एईसुन्तो। षष्ठी सप्तमी एईणं, एईण। एईसु, एईसु! प्रथमा . चतुर्थी सप्तमी इदंशब्दरूपाणि। विभक्ति, एकवचन। बहुवचन / इमिआ, इमा("पुंस्त्रियोर्न वाध्यमिमिआ सौ" इमाओ, इमाउ, इमा। ||8373 / / पक्षे 'इदम इमः // 8 // 3 // 72 // ) / द्वितीया इम, इणं,णं ('अमेणम् // 37 // 'णोऽनशस्टाभिसि / इमाओ, इमाउ, इमा, णाओ, णाउ, णा। // 8377 // ), तृतीया इमाए, इमाइ, इमाअ, णाए, णाई, णाअ। इमाहि, इमाहि", इमाहि, णाहि, णाहि ,णाहि, आहिं,आहिँ, आहि ("स्सि-स्सयोरत्" / / 8 / 374|| बहुलाधिकारात् अन्यत्रापि भवति / आहि।)। इमाए, इमाइ, इमाअ, से ("वेदंतदेतदो डसाम्भ्यांसे- इमाणं, इमाण, सिं। सिमौ" ||8|3|81 // ) / पञ्चमी इमाए, इमाइ, इमाअ, इमत्तो, इमाओ, इमाउ, इमत्तो, इमाओ, इमाउ, इमाहिन्तो, इमासुन्तो। इमाहिन्तो। षष्ठी इमाए, इमाइ, इमाअ, से। इमाणं, इमाण, सिं। इमाए, इमाइ, इमाअ, इह ("डेर्मेनः हः ||8|375|| इमासु, इमासु। इदमः कृतेमादेशात् परस्य डेः स्थाने मेन सह ह आदेशो वा भवति / इह।)। प्रकृत्यन्तरेण इदंशब्दरूपाणि / विभक्ति, एकवचन। बहुवचन / प्रथमा इमिआ, इमी। इमीओ, इमीउ, इमीआ, इमी! द्वितीया इमि। इमीओ, इमीउ, इमीआ, इमी। तृतीया इमीअ, इमीआ, इमीइ, इमीए। इमीहिं, इमीहिँ, इमीहि। चतुर्थी इमीअ, इमीआ, इमीइ, इमीए। इमीणं, इमीण! पञ्चमी इमीअ, इमीआ, इमीइ, इमीए, इमित्तो, इमीओ,) इमित्तो, इमीओ, इमीउ, इमीहिन्तो, इमीसुन्तो। इमीउ, इमीहिन्तो। षष्ठी इमीअ, इमीआ, इमीइ, इमीए। इमीणं, इमीण। सप्तमी इमीअ, इमीआ, इमीइ, इमीए। इमीसुं, इमीसु। अदःशब्दरूपाणि / विभक्ति एकवचन। बहुवचन / प्रथमा अह, अमू। अमूउ, अमूओ अमू। द्वितीया अमुं। अमूउ, अमूओ, अमू। तृतीया अमूअ, अमूआ, अमूइ, अमूए। अमूहि, अमूहि, अमूहि। चतुर्थी अमूअ, अमूआ, अमूइ, अमूए। अमूणं, अमूण। पञ्चमी अमूअ, अमूआ, अमूइ, अमूए, अमुत्तो, अमूओ,) अमुत्तो, अमूओ, अमूउ, अमूहिन्तो, अमूसुन्तो। अमूउ, अमूहिन्तो। षष्ठी अमूअ, अमूआ, अमूइ, अमूए। अमूणं, अमूण। सप्तमी अयम्मि, इअम्मि, अमूअ, अमूआ, अमूइ, अमूए। अमूसुं,अमूसु। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (170) [प्राकृत] अभियानराजेन्द्रपरिशिष्टम् / / [शब्दखपावलिः // अथ नपुंसकलिङ्गशब्दाः॥ अकारान्तो नपुंसकलिङ्गो मङ्गलशब्दः / विभक्ति एकवचन। बहुवचन / प्रथमा मंगल ( "क्लीबे स्वरान्म सेः"1८।३२५।।)। मंगलाणि, मंगलाई, मंगलाइँ ("जस्शस ई-ई-णयः सप्रागदीर्घाः" // 326 // ) / द्वितीया मंगलं। मंगलाणि, मंगलाई, मंगलाई। शेषं 'वच्छ' शब्दवत् ("नामन्त्र्यात्सौ मः" / / 8337 // ) / इकारान्तो नपुंसकलिङ्गो वारिशब्दः / विभक्ति, एकवचन। बहुवचन / प्रथमा दहि, दहि, दहिँ (दहि इति सिद्धापेक्षया। केचिदनु- दहीई, दही, दहीणि / नासिकमपीच्छन्ति दहि।)। दहीइं, दहीइँ दहीणि। शेष पुम्वत्। द्वितीया दहिं। विभक्ति, एकवचना प्रथमा महुं, महु, महुँ। द्वितीया महुं। उकारान्तो नपुंसकलिङ्गो मधुशब्दः / बहुवचन / महूई, महू', महूणि। महूई, महू', महूणि। शेष 'गुरु' शब्दवत्। विभक्ति, प्रथमा द्वितीया एकवचन। ज। यच्छब्दरूपाणि। बहुवचन। जाणि, जाई, जाइँ। जाणि, जाई,जाई। शेषं पुम्वत्। एवं तच्छब्दरूपाणि ज्ञेयानि। विभक्ति, एकवचन। प्रथमा एस, इणं, इणमो, एअं। द्वितीया एअं। एतच्छब्दरूपाणि। बहुवचन। एआणि, एआई, एआईं। एआणि, एआई, एआईं। शेष पुम्वत्। विभक्ति प्रथमा इदंशब्दरूपाणि / एकवचन। बहुवचन। इदं, इणं, इणमो ("क्लीबे स्यमेदमिणमोच" इमाणि, इमाइँ, इमाई। // 8 / 376 / / इति स्यम्भ्यां सहितस्य इदम् इणमो इणम् आदेशाः।)। इदं, इणं, इणमो। इमाणि, इमाइँ, इमाई। शेषं पुम्वत्। द्वितीया विभक्ति, प्रथमा अदः शब्दरूपाणि। एकवचन। बहुवचन। अह, अमुं("वाऽदसो दस्य हो नोदाम्" // 8387 / / अमूणि, अमूई, अमू.। "मुः स्यादौ" 58388 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राकृत] (171) अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् 3 / [शब्दरूपावलिः] विभक्ति, एकवचन। द्वितीया अमुं। बहुवचन / अमूणि, अमूई, अमू.। शेषं पुम्वत्। विभक्ति प्रथमा द्वितीया किंशब्दरूपाणि। एकवचन। बहुवचन / किं ("किमः किं'" / / 3 / 10 / / स्यमाम्भ्यां सह किं ) / काणि, काई, काइँ। किं। काणि, काई, काइँ। शेषं पुम्वत्। // इति नपुंसकलिङ्गशब्दाः॥ // अथ संख्यावाचकशब्दाः॥ पञ्चशब्दरूपाणि। बहुवचन / पंच। विभक्ति एकवचन। प्रथमा द्वितीया पंच। तृतीया चतुर्थी पञ्चमी पंचहि, पंचहिँ , पंचहि (तृ०भा० 546 पृष्ठ 17 पङ्क्तिः // ) / पंचण्ह, पंचण्ह (''संख्याया आमोण्ह ण्हं" / / 3 / 123 / / ) / पंचत्तो, पंचाओ, पंचाउ, पंचाहि, पंचेहि, पंचाहिन्तो, (पंचेहिन्तो, पंचासुन्तो,पंचेसुन्तो।" पंचण्ह, पंचण्ह। पंचेसुं, पंचेसु। एवं छ, सत्त, अट्ठ, नव, दहशब्दरूपाणि ज्ञेयानि। एकवचन। विभक्ति, प्रथमा द्वितीया तृतीया चतुर्थी ...... 00 0 0 0 0 द्विशब्दरूपाणि। बहुवचन / दुवे,दोषिण, दुण्णि, वेण्णि, विणि, दो, वे। दुवे, दोण्णि, दुण्णि, वेण्णि, विण्णि, दो, वे। दोहिं, दोहिं, दोहि, वेहिं, वेहि, वेहि। दोण्हं, दुण्हं, वेण्हं, विण्हं! दोहिन्तो, वेहिन्तो। दोण्हं, दुण्हं, वेण्हं, विण्हं। दोसुं, दोसु, वेसुं, वेसु पञ्चमी सप्तमी EEEEEEEEE एकवचन। विभक्ति प्रथमा द्वितीया तृतीया त्रिशब्दरूपाणि / बहुवचन / तिण्णि। तिण्णि। तीहि, तीहिँ, तीहि। तिह, तिण्ह। चतुर्थी Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (172) अभिवानराजेन्द्रपरिशिष्टम् 3 / [प्राकृत] शब्दरूपावलिः] एकवचन। विभक्ति, पञ्चमी षष्ठी सप्तमी बहुवचन / तित्तो, तीओ, तीउ, तीहिन्तो, तीसुन्तो। तिण्हं, तिण्ह। तीसु, तीसु ("क्त्वास्यादेर्णस्वोर्वा' // 61 / 27 / क्त्वायाः स्यादीनांच यौ णसु तयोरनुस्वारोऽन्तो वा भवति / वच्छेणं वच्छेण, वच्छेसुंवच्छेसु॥ एकवचन। 0 0 0 विभक्ति, प्रथमा द्वितीया तृतीया चतुर्थी पञ्चमी षष्ठी सप्तमी कतिशब्दरूपाणि। बहुवचन / कइ। कइ। कईहिं, कईहिँ , कईहि। कइण्ह, कइण्ह। कइत्तो, कईओ, कईउ, कईहिन्तो, कईसुन्तो। कइण्हं, कइण्ह। कईसुं, कईसु। 0 0 0 0 एकवचन। विभक्ति प्रथमा द्वितीया 0 0 0 तृतीया चतुर्थी चतुशब्दरूपाणि। बहुवचन / चत्तारो, चउरो, चत्तारि! चत्तारो, चउरो, चत्तारि चऊहिं, चऊहिँ , चऊहि। चउण्हं, चउण्ह। चउत्तो, चऊओ, चऊउ, चऊहिन्तो चऊसुन्तो। चउण्ह, चउण्ह। चऊसु.चऊसु। 0 पञ्चमी 0 0 षष्ठी सप्तमी 0 चतुर्थी युष्मच्छब्दरूपाणि / विभक्ति, एकवचन। बहुवचन / प्रथमा तंतुं, तुवं, तुह, तुम। भे, तुम्भे, तुम्हे, तुज्झे, तुज्झ, तुम्ह, तुय्हे, उरहे। द्वितीया तं, तुं, तुम, तुवं, तुह, तुमे, तुए। वो, तुज्झ, तुभे, तुम्हे, तुज्झे, तुम्हे, उय्हे, भे। तृतीया भे, दि, दे, ते. तइ, तए, तुम, तुमइ, तुमए, तुमे,) भे, तुब्भेहिं, तुज्झेहि, तुम्हेहि, उज्झेहि, उम्हेहिं, तुम्हेहिं, तुमाइ। (उरहेहिं। तइ, तु, ते, तुम्ह, तुह, तुहं, तुव, तुम, तुमे, तुमो.) तु, वो, भे, तुब्भ, तुज्झ, तुम्ह, तुब्भं, तुज्झं, तुम्हं, तुमाइ, दि, दे, इ, ए, तुब्भ, तुज्झ, तुम्ह, उब्भ,) (तुडभाणं, तुब्भाण, तुज्झाणं, तुज्झाण, तुम्हाणं, तुम्हाण,तुवाणं, उज्झ, उम्ह, उय्ह। (तुवाण, तुमाणं, तुमाण, तुहाणं, तुहाण, उम्हाणं, उम्हाण। पञ्चमी तइत्तो, तईओ, तईउ, तईहिन्तो, तुवत्तो, तुवा-) तुम्भत्तो, तुब्भाओ, तुभाउ, तुब्भाहि, तुब्भेहि,तुब्भाहिन्तो, ओ, तुवाउ, तुवाहि, तुवाहिन्तो, तुवा, तुमत्तो,) तुब्भेहिन्तो, तुब्भासुन्तो, तुडभेसुन्तो, तुम्हत्तो, तुम्हाओ, तुम्हाउ, तुमाओ, तुमाउ, तुमाहि, तुमाहिन्तो, तुमा,) तुम्हाहि, तुम्हेहि, तुम्हाहिन्तो, तुम्हेहिन्तो, तुम्हासुन्तो, तुहत्तो, तुहाओ, तुहाउ, तुहाहि, तुहाहितो.) तुम्हेसुन्तो, तुज्झतो, तुज्झाओ, तुज्झाउ, तुज्झाहि, तुज्झेहि, तुहा, तुब्भत्तो, तुब्भाओ, तुब्भाउ, तुब्भाहि, तु-) तुज्झाहिन्तो, तुज्झहिन्तो, तुज्झासुन्तो, तुज्झेसुन्तो, तुम्हत्तो, भाहिन्तो, तुब्भा, तुम्हत्तो, तुम्हाओ, तुम्हाउ,) तुम्हाओ, तुम्हाउ, तुम्हाहि, Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (प्राकृत विभक्ति, (173) अभिवानराजेन्द्रपरिशिष्टम् 3 / [शब्दरूपावलिः] एकवचन। बहुवचन / तुम्हाहि, तुम्हाहिन्तो, तम्हा, तुज्झत्तो, तुज्झा-) (तुम्हेहि, तुम्हाहिन्तो, तुम्हेन्तिो, तुरहासुन्तो, तुम्हेसुन्तो, ओ, तुज्झाउ, तुज्झाहि, तुज्झाहिन्तो, तुज्झा,) (उय्हत्तो, उरहाओ, उय्हाउ, उय्हाहि,उय्हेहि, उपहाहिन्तो, तुय्ह, तुब्भ, तुम्ह, तुज्झ, तहिन्तो। (उय्हेहिन्तो, उय्हासुन्तो, उरहेसुन्तो, उम्हत्तो, उम्हाओ, उम्हाउ, (उम्हाहि, उम्हेहि, उम्हाहिन्तो, उम्हेहिन्तो, उम्हासुन्तो, (उम्हेसुन्तो। तइ, तु, ते, तुम्हं, तुह, तुहं, तुव, तुम, तुमे,तुमो.) तु, वो, भे, तुब्भ, तुम्ह, तुज्झ, तुभं, तुम्ह, तुज्झं, तुब्भाणं, तुभाइ, दि, दे, इ, ए, तुब्भ, तुम्ह, तुज्झ, उन्भ,) (तुब्भाण, तुम्हाणं, तुम्हाण, तुज्झाणं, तुज्झाण,तुमाणं, तुमाण, उम्ह, उज्झ, उय्ह। (तुवाझा, तुवाण, तुहाणं, तुहाण, उम्हाणं, उम्हाण। तुमे, तुमए, तुमाइ, तइ, तए, तुम्मि, तुवम्मि,) तुसुं, तुसु, तुवेसुं, तुवेसु, तुमेसुं, तुमेसु, तुहेसुं, तुहेसु, तुब्भेसुं, तुवस्सि, तुवत्थ, तुमम्मि, तुमरिस, तुमत्थ, तुहम्मि,) (तुब्भेसु, तुम्हेसुं, तुम्हेसु, तुज्झेसुं, तुज्झेसु, तुवसुं. तुहस्सि, तुहत्थ, तुब्भम्मि, तुम्भस्सि, तुब्भत्थ,) (तुवसु, तुमसुं, तुमसु, तुहसु, तुहसु, तुडभसुं, तुब्भसु, तुज्झसुं, तुम्हम्मि, तुम्हरिस, तुम्हत्थ, तुज्झम्मि, तुज्झ-) (तुज्झसु, तुम्हसुं, तुम्हसु, तुब्भासुंतुब्भासु, तुम्हासुं. तुम्हासु, स्सि, तुज्झत्थ। तुज्झासु, तुज्झासु। तृतीया पञ्चमी अस्मच्छब्दरूपाणि। विभक्ति, एकवचन। बहुवचन / प्रथमा अहं, हं, अहयं, म्मि, अम्हि, अम्मि। अम्ह, अम्हे, अहो, मो, वयं, भे। द्वितीया णे, णं, मि, अम्मि, अम्ह, मम्ह, मं, मम, मिमं, अहं। अम्हे, अम्हो, अम्ह, णे। मि, मे, मम, ममए, ममाइ, मइ, मए, मयाइ, णे। अम्हेहि, अम्हाहि, अम्ह, अम्हे, णे। चतुर्थी मे, मइ, मम, मह, महं, मज्झ, मज्झं, अम्ह, अम्हं। णे,णो, मज्झ, अम्ह, अम्हं, अम्हे, अम्हो, अम्हाणं अम्हाण, (ममाणं, ममाण, महाणं, महाण, मज्झाणं, मज्झाण। मइत्तो, मईओ, मईउ, मईहिन्तो, ममत्तो, ममाओ.) ममत्तो, ममाओ, ममाउ, ममाहि, ममेहि, ममाहिन्तो, ममेहिन्तो, ममाउ, ममाहि, ममाहिन्तो, ममा, महत्तो, महा-) (ममेसुन्तो, ममासुन्तो, अम्हत्तो, अम्हाओ, अम्हाउ, अम्हाहि, ओ, महाउ, महाहि, महाहिन्तो, महा, मज्झत्तो,) (अम्हेहि, अम्हाहिन्तो, अम्हेहिन्तो, अम्हासुन्तो, अम्हेसुन्तो। मज्झाओ, मज्झाउ, मज्झाहि, मज्झाहिन्तो, मज्झा। " षष्ठी मे. मइ, मम, मह, महं, मज्झं, मज्झ, अम्हं, अम्ह। णे, णो, मज्झ, अम्ह, अम्हं, अम्हे, अम्हो, अम्हाणं, अम्हाण, (ममाणं, ममाण, महाणं, महाण, मज्झाणं, मज्झाण। सप्तमी मि, मइ, ममाइ, मए, मे, अम्हम्भि, अम्हरिंस,) अम्हेसुं, अम्हेसु, ममेसुं, ममेसु, महेसुं, महेसु, मज्झेसुं, मम्झेसु, अम्हत्थ, ममम्मि, ममस्सि, ममत्थ, महम्मि, महस्सिं(अम्हसुं, अम्हसु, ममसुं, ममसु, मज्झसुं, मज्झसु, महसुं, महत्थ, मज्झम्मि मज्झस्सि, मज्झत्थ। (महसु, अम्हासु, अम्हासु। // इति प्राकृतशब्दरूपावलिः समाप्ता / पठन्तु बालकाः सर्वे जैनानामितरे तथा। तस्मान्मयेयं प्राकृत- शब्दरूपावलिः कृता।।१।। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (174) अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् 3 / [प्राकृत] [शब्दरूपावलिः] Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अभिधानराजेन्द्रः प्रथमो भागः Page #184 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अहम् अभिधानराजेन्द्रः। (प्रथमो विभाग:) जयति सिरिवीरवाणी, बुहविबुहनमंसिया या सा। वत्तव्वयं से बेमि, समासओ अक्खरकमसो // 1 // अकार अ-पुं०(अ)स्वरसंज्ञके कण्ठस्थानीये स्वनामख्याते वर्णे, एका०। अर्हति, आद्याक्षरेण तस्य ग्रहणात् सिद्धेचा अशरीरेति सिद्धवाचकस्याद्याक्षरेण तबोधात् / गा०। अवति रक्षति अतति सातत्येन तिष्ठतीति वा अवअत-वा-ड। विष्णौ,अकारो विष्णुरुद्दिष्टः। वाचला शिवे, ब्रह्मणि, वायौ, चन्द्रे, अग्नौ, भानौ, कमठे, अन्तःपुरे, भूषणे, वरणे, कारणे, रणे, अजिने, गौरवे, एका *अ-अव्य०। अव प्रीणनादौ, ड / स्वरादित्वादव्ययत्वम्, अभावे, वाच० / प्रतिषेधे, अमानोनाः प्रतिषेधे / आ०म०द्वि०। सूत्र० / अत्रोदाहरणम्-निदरिसणं अघडो, अकारस्य तद्भावप्रतिषेधे, निदर्शनं यथा-अघटोऽयमिति नघटो घटव्यतिरिक्तः पटादिकः पदार्थ इत्यर्थः। बृ०१ उ०। अभावे नानोनः इत्यमरटीकायांनादेशोऽयमित्युक्तम्। स च आदेशः नखनमुच्यादिभिन्नशब्दघटके उत्तरपदस्थे हलादौ शब्दे परे भवति / स तु नञर्थे एव' स्थानितुल्यार्थत्वादादेशस्य। वाचास्वल्पेऽर्थे, अनुकम्पायां सम्बोधने, अ अनन्त ! / अधिक्षेपे, अ पचसि त्वं जाल्म ! उपसर्गस्वरविभक्तिप्रतिरूपकाश्चेति स्वरादिगणसूत्रे 'अ' इति सिद्धान्तकौमुद्यामुदाहृतं मनोरमायां च-अ संबोधने, अधिक्षेपे, निषेधे चेति व्याख्यातम् / वाच०। अपच्छिममारणतियसंलेहणाझोसणाहिं अत्र अपश्चिमाः पश्चात्कालभाविन्यः। अकारस्त्वमङ्ग लपरिहारार्थ इति / स० * च-अव्य०। कगचजतदपयवां प्रायो लुक् / / 1 / 177 / इति सूत्रेण चलोपः। न चाऽनादेरेव सः क्वचिदादेरपि विधानात् / सो अ, स च / प्रा०ा अर्थस्तु चशब्दे। अअ-पुं०(अज)न जायते, जन-ड। न० त०। ईश्वरे, जीवे, ब्रह्मणि, विष्णौ, हरे, छागे, मेषरूपे प्रथमे राशौ, माक्षिकधातौ च / जननशून्ये गगनादौ, त्रि०ा आत् विष्णोर्जायते इति / चन्द्रे, कामे, दशरथपितरि रघुनृपपुत्र रामचन्द्रस्य पितामहे सूर्यवंश्ये नृपभेदे, वाच०। प्राकृतेअजातेः पुंसः। / 3 / 32 // इति जातिपर्युदासात् न डीब्विकल्पः / प्रा० / मेषशृङ्ग्याम्। जै०गा० अअगर-पुं०(अजगर)अजं छागं गिरति गिलति ग-अच / बृहत्सर्प,। / अजगरमगस्त्यशापात् बृहत्सर्पभावापन्न नहुष-मधिकृत्य कृतो ग्रन्थः अण | आजगरम्। अजगरकथायाम्, न०। वाच०। अआवालग-पुं०(अजापालक)६ त०। छागरक्षके, अजारक्षण प्रवृत्ते भ्रष्टव्रते, वाचकभेदे च / बृ०३ उ०। (तद्वृत्तं कियकम्म शब्दे)। अइ-अव्य०(अयि) सम्भावने, अइसंभावने / / 2 / 205 / संभावने अइ इति प्रयोक्तव्यम् / अइ दिअर ! किं न पेच्छसि ? अयि देवर ! किं न प्रेक्षसे ? / प्रा० *गम्-धा० सक० पर० भ्वा० गतौ, गमेरई त्ति।४।१६। इति सूत्रेण गमेः अई आदेशः। अईइ - गच्छति। प्रा०) *अति-अव्या अति-पूजायाम्, उत्कर्षे, अतिक्रमणे , विक्रमे, अबुद्धौ, भृशे, विक्रमाऽतिक्रमाऽबुद्धिभृशार्थाऽतिशयेष्वतीति गणरत्नम् / तत्र विक्रमे अतिरथः / अतिक्रमे अतिमतिः / अबुद्धौ अतिगहनम् / बुद्धेरविषयः / भृशे अतितप्तम्। अतिशये अतिवेगः वाच०। अति सर्वत्र वर्जयेत् , यतः- अइरोसो अइतो सो, अइहासो दुञ्जणेहिं संवासो। अइउन्भडोय वेसो, पंच विगुरुअंपिलहुअंपि। ध०१ अधिन अ(दि)इ(ति)इ-स्त्री०(अदिति)न दीयते खण्ड्यते बृहत्वाद् - दो-क्तिच्। न० तादातुं छेत्तुमयोग्यायां पृथिव्याम्, दितिर्दनुज-माता। विरोधार्थे , न०त०। देवमातरि, सा च दक्षस्य सुता / वाच०॥ पुनर्वसुनक्षत्रस्याऽधिपतिर्देवता।ज्यो०६पाहु०पुणव्वसू अइइ देवयाए पण्णत्ते / सू०प्र० 10 पाहु० जं| दो अइइ / पुनर्वस्वोर्द्वित्वाददितिद्वित्वम् / स्था०२ ठा०। अइउक्कस-त्रि०(अत्युत्कर्ष)उत्कर्षमतिक्रान्तः। उत्कर्षरहिते, तवस्सी अइउक्कसो। तपस्वी साधुः अत्युत्कर्षः, 'अहं तपस्वी' इत्युत्कर्षरहितः। दश०५ अ० अइउडभड -त्रि०(अत्युद्भट )अतिशयितचे तश्चमत्कृतिकृति, अइउन्भडो अवेसो। ध०२ अधि। अइंत-त्रि०(अतियत्)प्रविशति, नि०चू० 16 उ०। पढ़मं उसमें मुहेणं अइंतं पासइ। कल्पना अइंदि(य)अ-त्रि०(अतीन्द्रिय)अतिक्रान्तमिन्द्रियं तदविषयत्वात् / अत्या० स०) वाचा इन्द्रियज्ञानाऽगम्ये, अष्ट०) अतीन्द्रिया अर्था आगमेन उपपत्त्या च ज्ञायन्ते,न केवलया युक्त्या / तदुक्तम्आगमश्वोपपत्तिश्च, संपूर्ण दृष्टि कारण / अतीन्द्रियाणामर्थानां, सद्भावप्रतिपत्तये ||1|| विशे० दर्श० कर्म०। अनु०। कथं न युक्क्या ? इति चेत् - Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अइंदिय 2- अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अइचरा ज्ञायेरन् हेतुवादेन, पदार्था यद्यतीन्द्रियाः। कालेनैतावता प्राज्ञः, कृतः स्यात्तेषु निश्चयः॥४॥ यदि यावता कालेनाऽतीन्द्रिया इन्द्रियाऽगोचराः पदार्था धर्माऽस्तिकायादयः हेतुवादेन युक्तिप्रमाणसमूहेन ज्ञायेरन् एतावता कालेन परमात्मभाव श्रवणचिन्तननिदिध्यासनादिना स्वात्म-स्वरूपे उपयोगोऽनुभवः कृतः स्यात् तदा तेषु धर्मास्तिकायादिषु शुद्धात्मनि च निश्चयः कृतः स्यात् प्राज्ञैः इत्यनेन परद्रव्यचिन्तनकालमात्रेणाऽऽत्मस्वरूपचिन्तने स्वपरावबोधो भवति तेन सद्भिः स्वस्वभावभावने मतिः कार्या येन निष्प्रयासतःस्वपरा "जे एणं जाणइ से सव्वं जाणति" इति वचनात् बोधपरित्यागपरिणतिर्भवति // 4 // अष्ट०। ननु अतीन्द्रिया अर्थान सन्त्येवेति चेत्,न मड्डुक श्रमणोपासकेनाऽन्ययूथिकान् प्रतिवातघ्राणसहगतपुद्गलरूपादेरतीन्द्रियार्थस्यसत्त्वप्रसाधनात्।(मला मंडा शब्दे तद्रष्टव्यम्)अतीन्द्रियाऽर्थज्ञानं वेद-वाक्येभ्य एवेति जैमिनीयाः / साक्षादतीन्द्रियाऽर्थदर्शिनः, तन्मतेऽभावात्, यदुक्तम्अतीन्द्रियाणामर्थानां,साक्षाद्रष्टा न विद्यते। नित्येभ्यो वेदवाक्येभ्यो, यथार्थत्वविनिश्चयः // 1 // जै०गान (सम्भव-त्यतीन्द्रियाऽर्थज्ञानं सर्वज्ञस्येति सव्वण्णुशब्दे उपपादयिष्यते) अइकं डु इय-न०(अतिकण्डू यित)अत्या० स०। अतिशयिते नखैर्विलेखने, सूत्र०१श्रु०३ अ०३उ०। अ(ति)इकंत-त्रि०(अतिकान्त)अत्या० स०। अतिकमनीये, प्रश्न० १अध०द्वा०४ अ० समुद्रभेदाधिपतौ च। पुं०। द्वी०। . अइकाय-पुं०(अतिकाय)अतिक्रान्तः कायात् / अत्या०स०। महोरगविशेषे, प्रज्ञा०१ पद / महोरगेन्द्रे च / स्था०२ ठा०। (अग्रमहिष्यादयःस्वस्वस्थाने)बृहच्छरीरे, त्रिका उम्गविसे चंडधोरविसे महाविसे अइकाये महाकाए,(सर्पवर्णकः) कायान् शरीराणि शेषाहीनामतिक्रान्तोऽतिकायः अत एव महाकायः / ज्ञा०६ अ०॥ अथवाऽतिकायानां मध्ये महा-कायोऽतिकायमहाकायः। भ०१५ श० 1 उ०। अत्युत्कटः कायोऽस्य। विकटदेहे, त्रि०। रावणपुत्रे राक्षसभेदे, पुंगवाचा अ(ति)इक्कंत-त्रि०(अतिक्रान्त)अति-क्रम-क्ति / अतीते, आचा०१ श्रु०४ अ०१ उ०।"जेयबुद्धा अतिकता'। सूत्र०१श्रु०११अतीर्णे, विशे० आ०म०प्र०। पर्यन्तवर्तिनि, जी०३ प्रति० औ०। त्यक्तवति, सव्वसिणेहाइक्कंता।औ० अ(ति)इक्कं तजोव्वण-त्रि०(अतिक्रान्तयौवन)अत्या०स०।। अतीततारुण्ये, अपत्तजोव्वणा अइकंतजोव्वणा। स्था० 5 ठान अ(ति)इक्कंतपचक्खाण-न०(अतिक्रान्तप्रत्याख्यान) अतिक्रान्ते पर्वणि यत् क्रियते तदतिक्रान्तं तच तत् प्रत्याख्यानम्। प्रत्याख्यानभेदे। ध०२ अधि०। आव०। एवमेवाऽतीते पर्युषणादौ करणादतिक्रान्तम् / आह च- पजोसवणाए तवं, जो खलुन करेइ कारणजाए। गुरुवेयावच्चेणं, तवस्सि-गेलण्णयाएव।।१।। सो दाइंतवोकम्मं, पडिवज्जइतं अइच्छिए काले। एवं पचक्खाणं, अइक्वंतं होइ नायव्वंति // 2 // स्था० 10 ठा०। अतिक्कं तं णाम पजोसवणाए तवं तेहिं कारणे हिं ण कीरति गुरुतवस्सिगिलाणकारणेहिं सो अतिक्कतं करेति तहेव विभासा। आoचू०आबन अइक्कम-पुं०(अतिक्रम) अति-क्रम्-घञ्। यतिचारे, पाणा-ऽइवायस्स | वेरमणे एस वुत्ते अइक्कमे।ध०३ अधि०। सूत्र०ा अतिलङ्घने, आचा०१ / श्रु०७अ०॥ उपा० विनाशे, आचा०१श्रु०२ अगसाधुक्रियोल्लङ्घने, आव०४ अ०। अतिक्रमव्यतिक्रमादयः साधुक्रियोल्लङ्घनरूपास्तत्राऽतिक्रमस्याऽऽधाकर्माश्रित्य स्वरूपमित्थम् - आहाकम्म निमंतण, पडिसुणमाणो अतिक्कमो होई। पयभेयाइवइक्कम-गहिए तइओ तरो गिलिए। कोऽपि श्राद्धो नालप्रतिबद्धो ज्ञातिप्रतिबद्धो गुणानुरक्तो वा आधाकर्म निष्पाद्य निमन्त्रयति / यथा भगवन् ! युष्मन्नि-मित्तमस्मद्गृहे सिद्धमन्नमास्ते इति समागत्य प्रतिगृह्यता- मित्यादि / तत्प्रतिशृण्वति अभ्युपगच्छति अतिक्रमो नाम दोषों भवति / स च तावद्यावदुपयोगपरिसमाप्तिः / किमुक्तं भवति ? यत् प्रतिशृणोति प्रतिश्रवणानन्तरंचोत्तिष्ठति पात्राण्युद्गृह्णाति उद्गृह्य च गुरोः समीपमागत्योपयोगं करोति / एष समस्तोऽपि व्यापारोऽतिक्रमः। उपयोगपरिसमाप्त्यनन्तरं च यदाधाकर्म-ग्रहणाय पदभेदं करोति आदिशब्दात् मार्गे गच्छति, गृहं प्रविशति, आधाकर्मग्रहणाय पात्रं प्रसारयति न चाऽद्यापि प्रतिगृह्णाति एव सर्वोऽपि व्यापारो व्यतिक्रमः। (गहिए तइओत्ति) आधाकर्मणि गृहीते उपलक्षणमेतत् / यावद् वसतौ समानीते गुरुसमक्षमालो चिते भोजनार्थमुपस्थापिते मुखे प्रक्षिप्यमाणेऽपि च यावत् नाऽद्यापि गिलति, तावत् तृतीयोऽतिचारलक्षणो दोषः। गिलिते त्वाधाकर्मण्यनाचारः / एवं सर्वेष्वप्यौद्देशिकादिषु भावनीयम्। पिं० धर्माच्या स्था०। ध००। आतुला एवं भावना मूलगुणेषु उत्तरगुणेषु च कार्या / अत्राऽयं विवेकः। मूलगुणेषु अतिक्रमादिभिस्त्रिभिश्चारित्रस्य मालिन्यं तस्य चाऽऽलोचनप्रतिक्रमणादिभिः शुद्धिः, चतुर्थे तुभङ्ग एव। तथा च सतिपुनरुपस्थापनैव युज्यते। उत्तरगुणेषु चतुर्भिरपि चारित्रस्य मालिन्यं न पुनर्भङ्ग इत्युक्त मूलोत्तरगुणाऽतिचाराः / ध० 3 अधि०। (ज्ञानदर्शनचारित्रभेदादतिक्रमादीनां त्रैविध्यमिति संकिलेस शब्दे) अइक्कमण-न०(अतिक्रमण)अति-क्रम्-ल्युट्।लड्नने, विराधने, ध० 2 अधिo आवन अइक्कमणिज्ज-त्रि०(अतिक्रमणीय) अतिलकनीये, सूत्र० 270 ७अ० अइक्कमित्तु-अव्य०(अतिक्रम्य)अतिक्रम-त्वा-ल्यप्। उल्लच्येत्यर्थे, तं अइक्कमित्तु न पविसे। दश०५ अ० अइगंभीर-त्रि०(अतिगम्भीर) अतीवातुच्छाशये, पंचा०२ विव०। अइगच्छमाण-त्रि०(अतिगच्छत)अति-गम+शत। प्रविशति, नि० चू० 6 उज्ञासा अइग(य)त-त्रि०(अतिगत)अति-गम्-क्त / प्रविष्ट, जे भिक्खू गाहावइकुलं अतिगते। नि०चू०३ उ०। प्राप्ते च / तं०। अइगम-पुं०(अतिगम) प्रवेशे, आ०म०प्र०। अइगमण-पुं०(अतिगमन) प्रवेशमार्गे, ज्ञा० 1 अ०। अइगुरु-पुं०(अतिगुरु)अतिशयितो गुरुः पूज्यतमत्वात्। प्रा० स०॥ त्रयः पुरुषस्याऽतिगुरवो भवन्ति पिता माताऽऽचार्यश्चेति। वाच०। अइचंद-पुं०(अतिचन्द्र)षष्ठे लोकोत्तरमुहूर्ते, कल्पा अइचरा-स्त्री०(अतिचरा)अतिक्रम्य स्वस्थानं सरोऽन्तरं चरति गच्छति / चर्+अच् / पद्मिन्याम्,तत्तुल्याकारवत्त्वात् स्थलपछि-न्यां पदाचारिण्या लतायां च / अतिक्रमणकारिणि, त्रि०ावाचा Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अइचिंत 3. अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अइधुत्त अइचिंत-त्रि०(अतिचिन्त)अतीव चिन्ता यस्मिन्, तदतिचिन्तम्। | इति। स्था०४ ठा०। राजकथाभेदे,(व्याख्या- रायकहा शब्दे)। अतिचिन्तासहिते, ज्ञा० 1 अ० अ(ति)इ(या)ताणगिह-न०(अतियानगृह) नगरादिप्रवेशे यानि गृहाणि अइच्च-अव्य०(अतीत्य)अति-इ-त्वा-ल्यप्। त्यक्त्वेत्यर्थे, "सव्वाई | तेषु, स्था०२ ठा० संगाइं अइच धीरे"। सूत्र०१ श्रु०७ अ०| अ(ति)इ(ता)याणिड्डि-स्त्री०(अतियानर्द्धि)राजादेः नगर-प्रवेशे अइच्छ-धा०(गम्)भ्वा०प०सक०। गमेरई अइच्छ०।८।४।१६२।इति सम्भवन्त्यां तोरणहट्टशोभाजनसम्मर्दादिलक्षणायामृद्धौ, स्था० 3 ठा०। सूत्रेण गमधातोरइच्छादेशः / गतौ, अइच्छइ, गच्छति, प्रा०। अ(ई)इ(ती)(या)ताणागयण्णाण-न० (अतीतानागतज्ञान) अइच्छंत-त्रि०(गच्छत) विचरति, अतिक्रामति, उत्त०१८ अ०। अतिक्रान्ताऽनुत्पन्नाऽर्थपरिच्छेदने, द्वा०२६ द्वा० / अइच्छत-पुं०(अतिच्छत्र)अतिक्रान्तश्छत्रम्। तुल्याकारेण अत्या०स०) | अइताल-न०(अतिताल)उत्ताले गेयदोषे, अनु०॥ (छातिया)इति प्रसिद्ध स्थलतृणविशेषे, (तालमखाना) इति प्रसिद्ध अइतिक्खरोस-त्रि०(अतितीक्ष्णरोष) 6 त० पुनः पुना रोषणशीले, जलतृणभेदे च / क्षीरस्वामिमते छत्रा इत्येव नाम। छत्रातिक्रमकारिणि, दीर्घरोषिणि, बृ०२ उ त्रि०। अतिक्रमेऽव्ययी०स०। छत्राऽतिक्रमे, अव्या वाचा अइतिव्व-त्रि०(अतितीव्र)अत्युत्कटे, पंचा०१ विव०॥ अइच्छपचक्खाण-न० पअदित्सा(अतिगच्छ)प्रत्याख्यानब अइतिव्वकम्मविगम-पुं०(अतितीव्रकर्मविगम)६ त०। अत्युत्कटस्य प्रत्याख्यानभेदे, भिक्खाईणमदाणा अइच्छं। भिक्षणं भिक्षा प्राभृतिका / कर्मणो ज्ञानावरणीयमिथ्यात्वादेः विनाशे, पंचा०१ विव०॥ आदिशब्दावस्वादिपरिग्रहस्तेषामदाने अतिगच्छेति अदित्सेति वा अइतुट्टण-न०(अतित्रुट्टण)अतिशयेनाफ्नयने,सूत्र०१ श्रु०१ अ०। वचनमतिगच्छप्रत्याख्यानमदित्साप्रत्याख्यानं वा / आ०म०प्र०। अइतेआ-स्त्री०(अतितेजा)चतुर्दश्यां रात्रौ,जं०७ वक्ष०ा कल्प०॥ अइ(च्छ)च्छा पच्चक्खाणं भणसमणाणं / अइदंपज्ज-न०(ऐदंपर्य)इदं परं प्रधानमस्मिन् वाक्ये इति- इदं परंतद्भाव अइच्छंति। अदित्साप्रत्याख्यानं-हे ब्राह्मण! हे श्रमण ! अदित्सेति नाम ऐदंपर्यम् / वाक्यस्य तात्पर्यशक्तौ, षो०१ विव०। पूर्वोक्ततात्पर्ये, षो० दातुमनिच्छा, नतुनाऽस्ति यद्भवतायाचितं, ततश्चाऽदित्सैव वस्तुनः 16 विव०। भावार्थगर्भे / प्रति०॥ तत्त्वे,पञ्चा० 14 विव०। प्रतिषेधात्मिकेति कृत्वा प्रत्याख्यात-मिति गाथार्थः / आव०६ अ०॥ अइदारुण-त्रि०(अतिदारुण)महाभयानके, अष्ट०। अइजाय-पुं०पअतिजा(या)तब पितुः संपदमतिलङ्ग्य जातः संवृत्तो अइदुक्ख-न०(अतिदुःख)अतिदुःसहे, आचा०१ श्रु०६ अ०॥ वाऽतिक्रम्य वा तां यातः प्राप्तो विशिष्टतरसंपदं समृद्धतर इत्यर्थः। अइदुक्खधम्म-त्रि०(अतिदुःखधर्म)अतीव दुःखमसातवेदनीयं धर्मः इत्यतिजातोऽतियातो वा ऋषभवत् / सुतभेदे, स्था० 4 ठा०। स्वभावो यस्य तत्तथा / अत्यन्तासातस्वभावे, ''गाढोवणीयं अइट्ठिय-त्रि०(अतिष्ठित)अतिक्रान्ते,उल्लचितवति,उत्त०७ अ०। अइदुक्खधम्म''। सूत्र० 1 श्रु० 5 अ०1 अतिदुःखरूपो धर्मः स्वभावो *अतिष्ठाय-अव्य०। अतिक्रम्योल्लङ्घयेत्यर्थे, उत्त०७ अ०। यस्मिन्निति / इदमुक्तं भवति- अक्षिनिमेषमात्रमपि कालं न दुःखस्य अइणिच्चल-त्रि०(अतिनिश्चल)अतीव निष्प्रकम्पे,पंचा० 15 विव०। विश्राम इति। सूत्र०१ श्रु०५ अ०। अइणिद्धमहुरत्त-न०(अतिस्निग्धमधु रत्व)घृतगुडादिवत् | अइदुद्दिण-न०(अतिदुर्दिन)अतिशयेन मेघतिमिरे, पिं०] सुखकारित्वरूपे एकोनविंशे वचनाऽतिशये, स०) अइदुल्लह-त्रि०(अतिदुर्लभ)अतिशयेन दुष्प्राप्ये, ग० 2 अधि०। अ(ई)(ती)इ(य)त-त्रि०(अतीत)अति-इ-ता अतिक्रान्ते, सूत्र०१ अइदुस्सह-त्रि०(अतिदुस्सह)अत्यन्तदुरध्यासे, उत्त० 16 अ० श्रु०१० अ०। आचा० आ० म०प्र०ादशल विवक्षित-समयमवधीकृत्य अइदूर-त्रि०(अतिदूर)अतिविप्रकृष्ट, रा०। औ०। भूतवति समयराशौ, ज्यो० 1 पाहु०। प्राक् - कृते, अइदूसमा-स्त्री०(अतिदुष्षमा)दुष्षमदुष्षमाऽऽख्ये अवसर्पिण्याः षष्ठे, अतिक्रान्तसमयभाविनि, विशे० आतु०(अतीतवस्तुनः सत्त्वविचारः उत्सर्पिण्याश्च प्रथमे अरके,एतद्वर्णनञ्च तत्रैव। तिनं०। ज्यो० सव्वण्णुशब्दे)दूरीभूते च। उत्त० 15 अ०। अइदेस-पुं०(अतिदेश)अतिक्रम्य स्वविषयमुल्लङ्ग्य अन्यत्र विषये देश अ(ई)(ती)इ(य)तद्धा-स्त्री०(अतीताऽद्धा)अतीतकाले, आचा०१ अतिदेशः। अतिदिश्यते वा करणे कर्मणि वा घञ्। अन्यत्रैव प्रणीतायाः, श्रु० 1 अ० 1 उ०। अतीतेषु अनन्तेषु पुद्गलपरावर्तेषु। अनु०। कृत्स्नाया धर्मसंहतेः / अन्यत्र कार्यतः प्राप्तिरतिदेशः स उच्यते / / 1 / / अ(ई)(ती)इ(य)तपचक्खाण-न०(अतीतप्रत्याख्यान) प्राकृतात् कर्मणो यस्मात् , तत्समानेषु कर्मसु / धर्मप्रवेशो येन पूर्वकालकरणीये प्रत्याख्यानभेदे, प्रव० 4 द्वा०ा ल० प्र० स्यादतिदेशः स उच्यते॥२॥ इत्यधिकरणमालाधृता-ऽभियुक्तवाक्योक्ते अ(ति)इ(या)ताण-न०(अतियान)नगरादौ राजादेः प्रवेशे, स्था० 4 अन्यत्र प्राप्तेऽन्यधर्मे ,तत्प्रापके शास्त्रभेदे च / वाच०। ठा। अइधमंत-त्रि०(अतिधमत्)अतिशयेन शब्दकारके, नि०चू०१ उ०। अ(ति)इ(या)ताणकहा-स्त्री०(अतियानकथा)राजादेः नगरादौ अइधाडिय-त्रि०(अतिधाडित)भ्रामिते, अतिवर्तिते च / प्रश्न०१ प्रवेशकथायाम्, यथा- सियसिंधुरखंधगओ, सियचमरो अध०द्वा०३ अ०। सेयपत्तछन्ननहो / जणनयणकिरणसेओ, एसो पविसइ पुरे राया // 1|| | अइधुत्त-त्रि०(अतिधूर्त)अतीव प्रभूतं धूर्तमष्टप्रकार कर्म Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अइधुत्त 4 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अइपरिणाम यस्य सोऽतिधूर्तः / बहुलकर्मणि, सूत्र०२ श्रु०२ अ० 1 उ०। अइपंडिय-त्रि०(अतिपण्डित)अतीव दुर्विदग्धे, बृ०१ उ०। अइपंडुकंबलसिला-स्त्री०(अतिपाण्डुकम्बलशिला) मन्दरपर्वतस्य दक्षिणदिग्गतायामभिषेकशिलायाम्, स्था० 2 ठा०1 दो अइपंडुकंबलसिलाओ। स्था० 4 ठा०। पाण्डुकम्बल-शिलेत्यस्या नामान्तरमिति तत्रैव वर्णको वक्ष्यते। ज०२ वक्ष०ा अइपडागा-स्त्री०(अतिपताका) एकां पताकामतिक्रम्य या पताका साऽतिपताका / ज्ञा० 1 अ०। पताकोपरिवर्तिन्यां पताकायाम् / दशा०) औला अइपरिणाम-पुं०(अतिपरिणाम)अतिव्याप्त्या परिणामो यदुक्तार्थपरिणमनं यस्य सतथा। व्य०१ उ०नि०चूला अपवादैकमतौ, वृ०१ उ०। तल्लक्षणम् / अतिपरिणामकमाह - जो दव्वखेत्तकाल-भावकयं जं जहिं जया काले। तल्लेसुस्सुत्तमई, अइपरिणामं वियाणाहि।। द्रव्यक्षेत्रकालभावकृतं यद्वस्तु यस्मिन् विकृष्टाऽध्वादौ यदा काले आत्यन्तिकदुर्भिक्षादौ भणितम् (तल्लेसुत्ति)तस्मिन् द्रव्यादिकृते अपवादिकवस्तुनि लेश्या यस्य स तल्लेश्यः पश्यामि। तावदत्र किमपि निश्रापद ततस्तदेवाऽवलम्बयि- ष्यामीत्यपवादैकमतिरित्यर्थः / तथा सूत्रादपवादश्रुतात्, उत्-प्राबल्येन मतिरस्येत्युत्सूत्रमतिः। श्रुतोक्ताऽपवादाद् अभ्यधिकाऽपवादबुद्धिरिति भावः, तमेवंविधं साधुमति-परिणामकं विजानीहीति, बृ० 1 उ०। अथ प्रसङ्गादत्रैव परिणामका-ऽपरिणामाऽतिपरिणामानां सदृष्टान्तं स्वरूपं दर्श्यते - परिणमइ जहत्थेणं, मई उ परिणामगस्स कन्जेसु / बिइए न तु परिणमइ, अहिगमइ परिणामे तइओ॥ परिणामकस्य मतिः कार्येषु याथार्थ्येन यथार्थग्राहकतया परि-णमति। अतएवासौ परिणामक उच्यते। द्वितीये द्वितीयस्यापरिणाम-कस्य मतिर्न तु नैव परिणमते / अत एवासावपरिणामस्तृतीयः पुनरधिकां मतिमधिगच्छतीति परिणामकोऽभिधीयते। एतदेव स्पष्टयतिदोसु विपरिणमइ मइ-मुस्सग्गववायओ उ पढमस्स। बिइतस्स उ उस्सग्गे, अइअववाए अतइयस्स। प्रथमस्य परिणामकस्य मतिरुत्सर्गापवादयोरपि परिणमति / किमुक्तं भवति ? यः परिणामको भवति तस्योत्सर्गे प्राप्ते उत्सर्ग एव मतिः परिणमते / अपवादे प्राप्तेऽपवाद एव मतिः परिणमते / यत्रोत्सर्गो बलीयान् तत्रोत्सर्गसमाचरति। यत्रापवादोबलवान्तत्रापवाद गृह्णाति। द्वितीयस्यापरिणामकस्य पुनरुत्सर्ग एव मतिः परिणमते / न पुनरपवादे। तृतीयस्यतु अति अत्यर्थम्। अपवादे मतिः परिणमते। सच द्रव्यादिकारणे प्रतिसेवनामनुज्ञातां ज्ञात्वा न किंचित् परिहरति / कारणमन्तरेणाऽपि प्रतिसेवते। अथ यदुक्तमासीत् (अंबाई दिटुंतोत्ति)तदिदानीं भाव्यते / एतेषा परिणामकादीनां त्रयाणामपि जिज्ञासया के चिदाचार्याः स्वशिष्यानित्थमभिदध्यु:- आर्या ! आमरस्माकं प्रयोजनमस्ति, इत्युक्ते यः परिणामकः शिष्यः, स ब्रूयात् - चेयणमचेअणं विय, केदहछिन्न ओकित्तिया वा वि। ल द्धा पुणो व वोच्छं, विण्णाणत्थं च वुत्तो सि॥ भगवन् ! यैरामैः प्रयोजनं, तानि कि चेतनानि ? किं भाषितानि लवणादिभिर्वासितानि ? उताऽभावितानि (केद्दहत्ति)किं प्रमाणानि किं महन्ति किं वा लघूनि (छिन्नत्ति)किं पूर्वच्छिन्नानि किं वा इदानीं छित्त्वा आनीतानि / अथवा (छिन्नत्ति)किं छिन्नानि खण्डीकृतानि किं वा सकलानि (कित्तित्ति)कियन्ति वा गणनाया द्विव्यादिसंख्याकान्यानेकानि वा अपिशब्दात् किं बद्धा-ऽस्थिकानि अबद्धास्थिकानि या तरुणानि जरठानि वेत्यत्राऽपि प्रष्टव्यम् / इत्थं शिष्येणाऽभिहिते आचार्येण वक्तव्यं-सौम्य ! लब्धानि सन्त्यग्रेऽपि मम पुनः पुरा विस्मृतान्यासन, इदानीं स्मृतिपथमवतीर्णानीति / यद्वा पर्याप्त तावदिदानी प्रयोजने समापतिते पुनर्भवन्तं वक्ष्यामि, भणिष्यामि। अथवा- वत्स! किं ममाऽऽमैः कार्य? विमर्शाऽर्थ-किमयं विनीतो? न वा, परिणामको वा? न वेति विज्ञानार्थ-मुक्तोऽसीति। यः पुनरपरिणामकः, सब्रूयात् - किं ते पित्तपलावो, मा वयं एरिसाई जंपाहि। मा णं परे वि सोइ, कहं पिनेच्छाम एयस्स / / भो आचार्य ! किं ते पित्तप्लावः समजनि? यदेवमुन्मत्तवद् असंबद्धं प्रलपसि ? यद्येकवारं ममाऽग्रे जल्पितं, बहिर्जल्पितं नाम मा पुनर्द्वितीयं वारमीदृशानि सावद्यानि वचनानि जल्पेति। यतो "माणं'' इत्येतत्त्वदीयं वचनं परोऽप्यन्योऽपि श्रोष्यति / वयं पुनः कथमपि नेच्छाम एतस्याऽर्थस्याऽऽमाऽऽनयनलक्षणस्य किं पुनः कर्तव्यतामित्यपिशब्दार्थः / यः पुनरतिपरिणामकः,सएवमभिदध्यात् - काले सिं अइवत्तइ, अम्ह वि इच्छा न भाणिउंतरिमो। किं एचिरस्स वुत्तं अन्नाणि वि किं च आणेमि॥ क्षमाश्रमणा ! यदि युष्माकमानैः प्रयोजन, तत इदानीमप्या-नयामि, यतः (सिं इति)एषामामाणां कालोऽतिवर्तते, अतिक्रा-मति। अद्यतावत् तानि तरुणानि वर्तन्ते, अत ऊर्ध्वं जरठी-भविष्यन्तीत्यर्थः / यदा अस्माकमप्यामाणां ग्रहणे महती इच्छा, परं किं कुर्मो ? न वयं यौष्माकीणभयभीता भणितुं किमपि (तरिमोत्ति)शक्नुमः / अथवा यद्यामाण्यपि ग्रहीतुं कल्पन्ते, ततः किमियतश्विरात्कालादुक्तं? वञ्चिताः स्मो वयमियन्तं काल-मिति भावः / किं वा अन्यान्यपि मातुर्लिङ्गादीन्यानयामीति / अनयोरपरिणामकाऽतिपरिणामकयोरेवं जल्पतोराचार्येणेदमुत्तरं दातव्यम् - नाभिप्पायं गिण्हसि, असमत्ते चेव भाससी वयणे। मुत्तंबिललोणकए, भिन्ने अहवा वि दोच्चंगे। भो मुग्ध ! त्वं न मदीयमभिप्रायं गृह्णासि, किन्तूत्सुकतया मदीये वचने असमाप्त एवे दृशं समयविरुद्धं निष्ठुरं वचनं भाषसे / मया पुनरेतेनाऽभिप्रायेणाभिहितम्- (मुत्तंबिल इत्यादि)मुक्तं काञ्जिकं तदेवाऽत्यम्लं मुक्ताऽम्लं तेन लवणेन वा कृतानि भावितानि मुक्ताऽम्ललवणकृतानि भिन्नानि च / किमुक्तं भवति ? न मया भवतः पादिपरिणतान्यामाण्यानायितानि किं तु चतुर्थ-रसिकभावितानि वा लवणभावितानि वा द्रव्यतो भावतश्च भिन्नानि परिणतानीति भावः। अथवा (दोचंगत्ति) सामयिकी-संज्ञा ओदनादिमूलाऽपेक्षया भोजनस्य द्वितीयाङ्गानि राद्धशाक-रूपाणि तानि मया आनायिता-नीति प्रक्रमः। "अंबाई' इत्यत्रादिशब्दसूचितौ वृक्षबीजदृष्टा-न्ताविमौ / आचार्या भणन्ति- आर्या ! रुक्खे हिं वा पओअणं ति / अत्राऽपि परिणामकादिजल्पस्तथैवाऽवसातव्यः / नवरं, अपरिणामकातिपरिणामको प्रति सूरिणा प्रतिवक्तव्यम् 1 / Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अइपरिणाम 5- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अइबेला निप्फावकोहवाईणि बेमि रुक्खाणि न हरिए रुक्खे। / मरुकदृष्टान्तः, सचपलबशब्दे कारणिकतद्ग्रहणाऽवसरे वक्ष्यते।) अंबिलविद्धत्थाणि अ, भणामि न विरोहणसमत्थे। अइपास-पुं०(अतिपार्थ)भरतक्षेत्रजाऽरजिनसमकालजाते ऐर-वतजे निष्पावा वल्लाः कोद्रवाः प्रतीतास्तदादीनि (रुक्खाणित्ति) रुक्षाणि | तीर्थकरे,अरजिणवरो य भरहे,अइपासजिणे यएरवए। ति०। द्रव्याणि तान्येवाऽहं ब्रवीमि, न हारितान्, न तु सचित्तान् वृक्षान् / तथा अइपासंत-त्रि०(अतिपश्यत् अतीव असाधारणं पश्यति। सूत्र०१ श्रु० बीजान्यपि यानि अम्लभावितानि विध्वस्तानि वा व्यवच्छिन्नानि, यानि 1 अ०३ उ०। कानि तान्यहं भणामि न विरोहण-समर्थानि अइप्पमान-न०(अतिप्रमाण)वारत्रयाऽतीते भोजने, पिं० (अइपुनरङ्कुरोद्भवनशक्तिकानीत्येष आमादिदृष्टान्तः। कथना बहुशब्देऽस्य स्वरूपम्)अतिक्रान्तः प्रमाणम् / अत्या० स०। चार्येणामीभिः स्थानैः "मुत्तंबिल" इत्यादिभिः प्रकारैः कृत्वा एवं परीक्ष्य प्रमाणाऽतिक्रान्ते, यस्य यत् प्रमाणमुचितं ततोऽधिकप्रमाण- वति, यः परिणामकः, तस्य दातव्यम्। पुनस्तेन श्रोतव्यमित्याह - प्रा०स०। अत्यन्तप्रमाणे, बृहत्प्रमाणे, न०। वाच०। निहाविगहापरिव-जिएणगुत्तिदिएण पंजलिणा। अइप्पसंग-पुं०(अतिप्रसङ्ग)अतिपरिचये, पञ्चा० 10 विव०। भत्ती बहुमाणेण य, उवउत्तेणं सुणेयव्वं / / अतिव्याप्तिलक्षणायामनिष्टाऽऽपत्तौ, पञ्चा० 6 विव०। अभिकखंतेण सुभा-सियाई वयणाई अत्थमहुराई। अइबल-त्रि०(अतिबल)पुरुषान्तरबलान्यतिक्रान्तोऽतिबलः / विम्हियमुहेण हरिसा-गएण हरिसं जणंतेण // प्रश्न०अध० 4 अ० अतिक्रान्ताऽशेषपुरुषाऽमरतिर्यग्बले / उपा० 2 निद्रायमाणः सन् न किंचिदप्यवधारयति / विकथायां क्रिय-माणायां अ० अतिशयबले, औ० राय० स०। भविष्यति पञ्चमे वासुदेव च। पुं०। व्याघातो भवतीत्यतो निद्राविकथापरिवर्जितेन श्रोतव्यम् / गुप्तानि ती० स० ति०। ऋषभदेवस्य चतुर्थभवे महाबलनाम्नो राज्ञः पितामहे स्वस्वविषयप्रवृत्तिनिरोधेन संवृत्तानीन्द्रियाणि येनाऽसौ गुप्तेन्द्रियस्तेन। शतबलस्य पितरि, गंधसमिद्धे विजाहरनगरे अइबलरण्णो णत्ता तथा- प्राञ्जलिना योजितकरयुगलेन भक्त्या बहुमानेन च श्रोतव्यम्। सयबलरायणो पुत्ते महाबलो नाम राया जातो। आ०म०प्र०। चूर्ध्या तुभक्तिनाम गुरूणामिति कर्तव्यतायां निषद्यारचनादिकायां बाह्या प्रवृत्तिः / गंधसमिद्धं णगरं राया रायी च विबुद्धणयणो जणवयहितो सतबलस्स बहुमानस्तु गुरूणामुपरि आन्तरः प्रतिबन्धः / अत्र चतुर्भङ्गी। रणो णगरं नत्तुतो अति-बलसुतोमहाबलो नाम। आ०म०द्वि। आ०चू०। भक्तिनामैकस्य न बहुमानः, बहुमानो नामैकस्य न भक्तिः, एकस्य भरतचक्रिणः प्रपौत्रेच। स्था०८ ठा०ा आ०चूला अतिशयितंबलंयस्याः। भक्तिरपि बहुमानोऽपि, एकस्य न भक्तिर्न वा बहुमान इति। अत्र च भक्ति 5 ब०। अत्यन्तबलाऽऽधायिकायां पीतवर्णायां (वेडियाला) इति बहुमानयोः विशेषज्ञापकं शिवाख्यवानमन्तरभक्तयोर्मरुकपुलिन्दयो- ख्यातायां लतायाम् , विश्वामित्रेण रामाय दत्ते अस्त्रविद्याभेदे च / स्त्री०। रुदाहरणं तच्च सुप्रसिद्धमिति कृत्वा न लिख्यते / यदि च भक्तिं बहुमानं अतिशयितं बलम् / प्रा०स०। अत्यन्ते बले, सामर्थ्य, सैन्ये च / नका वा न करोति, तदा चतुर्लघु / तथोपयुक्तेनाऽनन्यमनसा श्रोतव्यम्।" अतिरिक्तं बलमस्य अत्यन्तबल-युक्ते, त्रि०। जयत्यतिबलो रामो, अभिकंखंतेणं' इत्यादिवचनानि श्रुतव्याख्या- रूपाणि सुभाषितानि लक्ष्मणश्च महाबलः, इति / रामा०। अतिरथे च। वाच०। शोभनभणितानि अर्थमधुराणि भावार्थ- सुस्वादूनि अभिकाजता अइबहुय-न०(अतिबहुक)अतिशयेन बहुनिजप्रमाणाऽभ्यधिके भोजने, आभिमुख्येन वाञ्छता। तथा विस्मितमुखेनाऽपूर्वाऽपूर्व-श्रवणसमुद्भूत पिं०॥ तत्स्वरूपम्विस्मयस्मेरवदनेन हर्षगतेन अहो ! अमी भगवन्तः बहुयातीयमइबहुं, अइबहुसो तिन्नि तिन्नि य परेणं। स्वगलतालुशोषमवगणय्याऽस्मन्निमित्त-मेयंविधं सूत्रार्थव्याख्यानं तं वि य अइप्पमाणं, मुंजइ जंवा अतिप्पंतो॥ कुर्वन्ति नाऽनृणीभवेयममीषा परमोप-कारिणामहमित्येवंविधं हर्षमागतः बहुकातीतमतिशयेन बहु अतिशयेन निजप्रमाणाऽभ्यधिक- मित्यर्थः / प्राप्तो हर्षागतः, तेन / तथा गुरूणामपि स्ववदनप्रसन्नतया तथा दिवसमध्ये यस्त्रीन् वारान् भुङ्क्ते त्रिभ्यो वा वारेभ्यः उत्फुल्ललोचनतया च हर्षम्- अहो ! कथमयं संवेगरङ्गतरङ्गितमानसः परतस्तद्भोजनमतिबहुशः, तदेव चवारत्रयाऽतीतमति-प्रमाण मुच्यते, परमागमव्याख्यानं शृणोतीति लक्षणं प्रमोदं जनयता श्रोतव्यमिति। अइप्पमाण० इत्यवयवो व्याख्यातः / अस्यैव प्रकारान्तरेण अथ परिणामकद्वारमुपसंहरन्नाह - व्याख्यानमाह- भुङ्क्ते, यद्वा अतृप्यन् एषः,अइ- प्पमाण० इत्यस्य आधारियसुत्तत्थो, सविसेसो दिजए परिणयस्स / शब्दस्याऽर्थः / अइप्पमाण० इत्यत्र च शानच् प्रत्ययस्ताच्छील्यसुपरिच्छित्ताय सुनिच्छि-यस्स इच्छागए पच्छाय॥ विवक्षायां, यद्वा प्राकृतलक्षणवशादिति। पिं०। कल्पव्यवहारादेः सूत्राऽर्थः सविशेषः साऽपवादः स्वगुरु अइबहुसो-अव्य०(अतिबहुशस्)दिवसमध्ये त्रीन्वारान् त्रिभ्यो वापरतो सकाशादवधारित आगृहीतः स सर्वोऽपि दीयतेपरिणतस्यपरिणामकस्य भोजने, पिं०। (स्वरूपमनन्तरमुक्तम्) शिष्यस्य सुपरीक्ष्य पूर्वोक्तामादिदृष्टान्तैः सुष्ठ अविसंवादेन परीक्षां कृत्वाऽ अइबेल-अ०(अतिवेल)वेलामतिक्रम्याऽतिवेलम् / यो यस्य कर्तव्यस्य सुनिश्चितस्य प्रारब्धसूत्राऽर्थे ग्रहीतव्ये कृतनिश्चयस्य / यद्वा ज्ञानदर्शनचारित्राणां यावजीवमपि विराधना न कर्तव्येत्येवं सुष्ट निश्चितो कालोऽध्ययन वा तां वेलामतिलच्येत्यर्थे, सूत्र० 1 श्रु०१४ अ०। निश्चयवान् / यस्सुनिश्चितः, तस्य दीयते / (इच्छागए नाऽतिवेलं उवाचरे, न मर्यादोल्लङ्घनमित्यर्थः कुर्यादिति। आचा०१ पच्छत्ति)अपरिणामकाऽतिपरिणामकयोः पुनर्यदा सा आत्मीया यथाक्रम श्रु०८ अ० केवलोत्सर्गापवादरुचिर्लक्षणा इच्छा गता नष्टा भवति, तदा पश्चात्तयोः अइबेला-स्त्री०(अतिवेला)अन्यसमयाऽतिशायिन्यां मर्यादायाम्, छेदश्रुतानि दातव्यानीति। उक्तं परिणामकद्वारम् / 7010 / (अत्रैव / साधुमर्यादायाम्। उत्त०३ अ०॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अइभद्द 6. अभियानराजेन्द्रः- भाग 1 अइमुंत्तय अइभद्द-पुं०(अतिभद्र) कस्यचिच्छेष्ठिनः पुत्रे, येन स्त्रीकलहे सति भद्रनामभ्रातुः पृथग्भूय गृहाद्यर्द्धकरणं कृतम्।तं०। अइभद्दग-त्रि०(अतिभद्रक)भद्रदर्शने, प्रति०। अइभद्दा-स्त्री०(अतिभद्रा)प्रभासनामगणधरस्य मातरि, आ०म०द्वि०। आ० चू० अइभय-त्रि०(अतिभय)ऐहलौकिकादीनि भयान्यतिक्रान्ते, प्रश्न०अध०१ द्वारा अइभार-पुं०(अतिभार)अत्यन्तं भारः / गुरुत्वे, पिं०। वोढुमशक्ये भारे, प्रव० 4 द्वा०। अतीव भरणमतिभारः / प्रभूतस्य पूगफलादेः स्कन्धपृष्ठादिष्वारोपणरूपे, आव०६ अ० धर्म ध० र०। प्रव०। तथाविधशक्तिविकलानां महाभारारोपणस्वरूपे, उपा० 1 अ०॥ प्रथमाऽणुव्रतस्य चतुर्थेऽतिचारे, पंचा० 1 विव०। अतिभारो न आरोवेयव्वो, पुट्विं चेव जावाहणाए जीविगा सा मोत्तव्या, न होज्ज अन्ना जीविगा, ताहे दुपओजं सयं उक्खिवइ ओयारेइ वा भारं, एवं वहाविजइ बइल्लाणं, जहा साभावियाओ वि भाराओऊणो उकीरइ, हलसगडेसु वि वेलाए मुयइ आसहत्थीसु वि एसेव विही। आव० चू०६ अ०। अइभारग-पुं०(अतिभारग)अतिभारेण वेगेन गच्छति, गम-ड। ३त०। खरे, अश्वतरे, गर्दभाबडवायां जाते अश्वभेदे, वाचा अइभारारोवण-न०(अतिभारारोपण)अतिशयितो भारो- ऽतिभारो वोढुमशक्य इति यावत् तस्याऽऽरोपणं गो-करम- रासभ- मनुष्यादेः स्कन्धे पृष्ठे शिरसि वा स्थापनम् / प्रथमा-ऽणुव्रतस्य चतुर्थेऽतिचारे, ध० 2 अधि० प्रश्न अइभूमि-स्त्री०(अतिभूमि)एलुकात् परभागे, अननुज्ञाता गृहस्थैर्यत्राऽन्यभिक्षाचरा नाऽऽयान्तीत्यर्थः / दश०८ अ०। (तत्र गमनं निषिद्धमिति गोयरचरिया शब्दे)अतिशयिता भूमि-मर्यादा। प्रा० स० अतिक्रमेऽव्ययी०। मर्यादातिक्रमे, अव्य०। भूमिं मर्यादा वाऽतिक्रान्ते, त्रिका वाचन अइमंच-पुं०(अतिमश) मशोपरितने विशिष्ट मो,मश्चाइ मञ्चकलियं / औला दशा०। ज्ञा०। अइमट्टिया-स्त्री०(अतिमृत्तिका)कर्दमरूपायां मृत्तिकायाम्, जी०३ | प्रति अइमहल्ल-पुं०(अतिमहत्वयसाऽतिगरिष्ठे / व्य०३ उ०। अइमाण-पुं०(अतिमान)अतीव मानोऽतिमानः / सुभूमादीनामिव महामाने, सूत्र०१ श्रु० 8 अ०। चारित्रमतिक्रम्य वर्तमाने कषायभेदे, सूत्र०१ श्रु०११ अ० अइमाय-त्रि०(अतिमात्र)मात्रामतिक्रान्तः / मात्राऽधिके, उत्त० 16 अ०ा आ०चू० अइमाया-स्त्री०(अतिमात्रा)उचितमात्राया अधिकमात्राथाम्, अइमायाए पाणभोयणं आहारित्ता भवइ / उत्त०१६ अ० प्रश्न। अतिमाया- स्त्री०। अतीव माया अतिमाया / चारित्रमतिक्रम्य वर्तमाने कषायभेदे, सूत्र०१ श्रु०११अ० अइमुत्त(मुत्त)य- न०(अतिमुक्तक) मुचो भावे क्तः / अतिशयेन मुक्तं | बन्धहीनता यस्य कप्। वाचला वक्रादावन्तः। 8 / 1 / 26 / इति तृतीयस्य अनुस्वाराऽऽगमः आर्षे तु न / प्रा० तिन्दुकवृक्षे, तालवृक्षे, वाचा पुष्पप्रधाने वनष्पती, जं० 1 वक्ष०ा वल्लीभेदे, प्रज्ञा० १पद। अतिमुक्तमण्डपकाः। जी०३ प्रति०। विशे०। प्रज्ञा०ा लताभेदे, आचा०१ श्रु०१ अ० औ०। कंसभ्रातरि, पुं० येन बाल्ये देवकी स्वस्वसा प्रोक्ता- त्वमष्ट पुत्रान् सदृशान् जनयिष्यसि / आ०म०द्वि०। आ०चू०। पोलासपुरवास्तव्ये विजयराजस्य श्रीनाम्न्यां देव्यां जाते पुत्रे, स्था० १०ठा। तद्वक्तव्यता अन्तकृद्दशाऽङ्गे यथातेणं कालेणं तेणं समएणं पोलासपुरे णयरे सिरीवणे उजाणे तस्स णं पोलासपुरे णयरे विजये नामं राया होत्था। तस्सणं विजयस्स रन्नो सिरी नामं देवी होत्था वण्णओ तत्थ णं विजयस्स रण्णो पुत्ते सिरीए देवीए अत्तत्त अइमुत्ते नाम कुमारे होत्था सुमाल० तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे 3 जाव सिरीवणे उज्जाणे विह-रति / तेणं कालेणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेटे अंतेवासी इंदभूती जहा पण्णत्तीए जाव पोलासपुरे णयरे उच्च जाव अडति इमं च णं अतिमुत्ते कुमारे पहाए जाव विभूसिते बहूहिं दारएहि य डिभएहि य कुमारेहि य कुमारियाहि य सद्धिं संपरिखुडे साओ गिहातो पडिनिक्खमई पडि-निक्खमइत्ता जेणेव इंदट्ठाणे तेणेव उवागते तेहिं बहूहिं दारएहि य संपरिवुडे अमिरममाणे अमिरममाणे विहरति / तते णं भगवं गोयमे पोलासपुरे णयरे उच्चनीय जाव अडमाणे इंदट्ठाणस्स अदूरसामंतेण वीतिवयति / तते णं से अइमुत्ते कुमारे भगवं गोयमं अदूरसामंतेणं वीति- वयमाणं पासति पासतित्ता जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागते भगवं गोयम एवं क्यासी-के णं भंते ! तुज्झे किं वा अडह ? तते णं भगवं गोयमं अतिमुत्तं कुमारं एवं वयासी-अम्हे णं देवाणुप्पिया समणा निम्गंथा ईरियासमिया जाव बंभचारी उच्चनीय जाव अडमाणे। तते णं अतिमुत्ते कुमारे भगवं गोयमे एवं वयासी-अहं णं भंते ! तुझे जेणेव अहं तुझं भिक्खं दलावेमि त्ति कट्ट भगवं गोयमं अंगुलीते गेण्हति गेण्हतित्ता जेणेव सते गिहे तेणेव उवागए तते णं सा सिरि देवी भगवं गोयमं एन्जमाणं पासति पासतित्ता हद्वतुट्ठा० आसणाओ अब्भुट्टेति अब्भुट्ठितित्ता जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागच्छति उवागच्छतित्ता भगवं गोयमं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं वंदतिनमंसति विउलेणं असणं पाणं खाइम साइमं पतिलाभति पडिलाभतित्ता पडिविसजेति। तते णं से अइमुत्ते कुमारे एवं वयासी- कह णं भंते ! तुज्झे परिवसह। भगवं गोयमे अतिमुत्तं कुमारं एवं वयासी / एवं खलु देवाणुप्पिया ! मम धम्मायरियत्ते धम्मोवएसए धम्मे नेतारिए समणे 3 महावीरे आदिकरे जाव संपाविउकामे इहेव पोलासपुरस्स नगरस्स बहिया सिरिवणे उज्जाणे य उग्गह उग्गण्हेत्ता समणेणं जाव भावेमाणे विहरति / तत्थ णं अम्हे परिवसामो। तते णं से अतिमुत्ते कुमारे भगवं गोयमं Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अइमुंत्तय 7- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अअइमुच्छिय एवं वयासी गच्छामि णं भंते ! अहं तुज्झेहिं सद्धिं समणं 3 विहाराए। तए णं से अइमुत्ते कुमारसमणे वाहयं वाहयमाणं पायं वंदति अहासुहं तते णं से अइमुत्ते कुमारे भगवं गोयम पासइपासइत्ता मट्टियपालिं बंधइबंधइत्ताणावियामेव नाविओ सद्धिं जेणेव समणे 3 तेणेव उवागच्छति उवागच्छतित्ता समणं विव णावमयं पडिग्गहयं उदगंसि पवाहमाणे अमिरमइ / तं च ३तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेति जाव पजुवासति / तते थेरा अहक्खु जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति णं भगवं गोयमे जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागते जाव उवागच्छंतित्ता एवं वयासी। एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी पडिदंसेति पडिदंसेतित्ता संजमे तवसा आयाहिणं पयाहिणं अइमुत्ते णामं कुमारसमणे / से णं भंते ! अइमुत्ते कुमारसमणे विहरति। तेणं समणे 3 अतिमुत्तस्स कुमारस्सतीसे यधम्मकहा कईहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिहिति जाव अंतं करेहिति? अजोति कहेइ से अतिमुत्ते समणस्स भगवओ अंतिए धम्मं सोचा निसम्म समणे भयवं महावीरे ते थेरे एवं वयासी। एवं खलु अजो ! मम हहतुट्ठ जनवरं देवाणुप्पिया अम्मापितरो आपुच्छामि तते णं | अंतेवासी अइमुत्ते णामं कुमारसमणे पगइभद्दए जाव विणीए से अहं देवानुप्पिया अंतितेजाव पव्वयामि अहासुहं देवाणुप्पिया! | णं अइमुत्ते कुमारसमणे एगेणं चेव भवग्गहणेणं सिज्झिहिइ जाव मा पडिबंधं करेह / तते णं से अतिमुत्ते कुमारे जेणेव अंतं करेहिइ / तं मा णं अज्जा ! तुम्भे अइमुत्तं कुमारसमणं अम्मापियरो तेणेव उवागते जाव पव्वतिए ततेणं अतिमुत्तं कुमार हीलह निंदह खिंसह गरिहह अवमण्णह तुडभे णं देवाणुप्पिया अम्मापियरो एवं वयासी बालेसि ताव तुमपुत्ता! असंबद्धे किण्ह अइमुत्तं कुमारसमणं अगिलाए संगिण्हह अगिलाए उवगिण्हह तुमं जाणसि धम्म। तते णं से अइमुत्ते कुमारे अम्मापितरो एवं अगिलाएणं भत्तेणं पाणेणं विणएणं वेयावडियं करेह / अइमुत्ते खलु अहं अम्मयाओ जंचेव जाणामि तं चेवनजाणामि जंचेव णं कुमारसमणे अंतकरे चेव अंतिमसरीरिए चेव। तए णं ते ण जाणामितं चेव जाणामि। ततेणं अइमुत्तं कुमारं अम्मापियरो थेरा भगवंतो समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ता समाणा समणं एवं वयासी। कह णं तुमं पुत्ता ! जंचेव जाणामि जाव तं चेवन भगवं महावीरं वंदंति वंदंतित्ता अइमुत्तं कुमारसमणं अगिलाए जाणामि तेसिं अतिमुत्ते कुमारे अम्मापियरे एवं वयासी जाणामि संगिण्हंति जाव वेयावडियं करेंति। अहं अम्मयाओ जहाजातेण तहा अवस्सं मरियव्वं न जाणामि कुमारसमणेत्ति / षड्वर्षजातस्य तस्य प्रव्रजितत्वादाह च 'छव्वरिसो अहं अम्मयाओ काहे वा कहं वा कह केव चिरेणेव वा कालेण, पव्वइओ णिग्गंथं रोइऊण पावयणंति' एतदेव चाश्चर्यमिहाऽन्यथा न जाणामिणं अम्मयातो केहिं कम्मायाणेहिं वा जीवा नेरइय- वर्षाष्टकादारान्न प्रव्रज्या स्यादिति (कक्खपडिग्गहरयहरणतिरिक्खजोणियमणुस्सदेवेसुउववज्जंति।जाणामिणं अम्मयातो मायाएत्ति)कक्षायां प्रतिग्रहकं रजोहरणं चादायेत्यर्थः / (नाविया मेत्ति) जहा सत्तेहिं कम्मायाणेहिं जीवा नेरइय जाव उववजंति / एवं नौका द्रोणिका मे ममेयमिति विकल्पयन्निति गम्यते "नाविओ विव खलु अहं अम्मयातो जं चेव जाणामि तं चेवन जाणामि जं चेव / नावं ति'' नाविक इव नौवाहक इव नावं द्रोणी नजाणामि तं चेव जाणामि तं इच्छामि णं अम्मयातो तुज्झेहि (अयंति)असावतिमुक्तकमुनिः प्रतिग्रहकं प्रवाहयन्नभिरमते एवं च तस्य अब्भणुण्णाते समाणे जाव पव्वतिए। तते णं से अइमुत्ते कुमारे रमणक्रिया बालावस्थाबलादिति (अदक्खुत्ति)अद्राक्षुः दृष्टवन्तस्ते अम्मापियरो जाहे नो संचाएति बहूहिं आघवति 4 तं इच्छामो चैतदीयामत्यन्तानुचिताश्चेष्टां दृष्ट्वा तमुपहसन्त इव भगवन्तं पप्रच्छुः / ते जाया एगदिवसमवि रायसिरिंपासेति पासेतित्ता। तते णं से एतदेवाह एवं खलु' इत्यादि (हीलहत्ति) जात्याद्युद्धट्टनतः (निंदहत्ति) मनसा (खिंसहत्ति) जनसमक्षम् (गरिहहत्ति) तत्समक्षम् अवमन्नहत्ति अतिमुत्ते कुमारे अम्मापिउवयणमणुयत्तमाणे तुसिणीए संचि तदुचितप्रतिपत्त्यकरणेन (परिभवहत्ति) क्वचित्पाठः, तत्र परिभवः द्वति। अभिसेओ जहा महाबलस्स निक्खमणं जाव सामाइयाति समस्तपूर्वोक्तपद-करणेन (अगिलाएत्ति) अग्लान्या अखेदेन एक्कारस अंगाई अहिजति अहिज्जतित्ता बहू हिं वासाति (संगिण्हहत्ति) संगृहीत स्वीकुरुत (उवपिण्हहत्ति)उपगृह्णीत उपष्टम्भं सामण्णपरियागं पावणेति पावणित्ता गुणरयणेणं तवोकम्मेणं कुरुत एतदेवाह (वेयावडियंति)वैयावृत्त्यं कुरुतास्येति शेषः (अंतकरे जाव विपुले पव्वए सिद्धे / अन्त०५ वर्ग चेवत्ति)भवच्छेदकरः स च दूरतरभवेऽपि स्यादत आह (अंतिमसरीरिए अस्य सिद्धिविषयः स्थविराणां प्रश्नो, यथा चेवत्ति)चरमशरीर इत्यर्थः / भ० 5 श० 4 अ० / अनुत्तरोपपातिकेषु तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीर-स्स दशमाध्यनतयोक्ते च / स्था० 10 ठा० (तदपर एवाऽयं भविष्यतीति अंतेवासी अइमुत्ते णामं कुमारसमणे पगइभद्दए जाव विणीए तए संभाव्यते) णं से अइमुत्ते कुमारसमणे अण्णया कयाई मया दुट्टिकार्यसि अइमुच्छिय-त्रि०(अतिमूच्छित)विषयदोषदर्शनं प्रत्यभि-मूढतामुपगते, निवयमाणंसि कक्खपडिग्गह- रयहरणमायाए बहिया संपट्ठिए | प्रश्न०आश्र० 4 द्वा०। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अइमोह 8- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अइयार अइमोह-त्रि०(अतिमोह)अतीव मोहो यस्मिन्, तदतिमोहम् / अतिकामाऽऽसक्तौ, अतिशयितमोहयुते, ज्ञा० 1 अ०। अयंचिय- अव्य०(अत्यध्य)अतिक्रम्येत्यर्थे, स्था०५ ठा० / अइयच-अव्य०(अतिगत्य)अतिक्रम्येत्यर्थे। आचा०१ श्रु०६अ। अइयण-न०(अत्यदन)अतिभक्षणे, "अणुकंपा साणाइयण- दुगुंछा"। व्य०२ उ०। अइया-स्त्री०(अजिका)छगलिकायाम्, बृ० १उ० अइया(य)त-त्रि०(अतियात)गते, "अइयाओणराहिवो'। उत्त०२० अ० अइयायरक्ख-त्रि०(अत्यात्मरक्ष)अतीवाऽऽत्मनः परैः पाप-कर्मभिः रक्षा यस्यासावत्यात्मरक्षः। अतीवाऽऽत्मानं पापै रक्षति, अइयायरक्खे दाहिणगामिए नेरइए। सूत्र०२ श्रु०२ अ०॥ अ(ई)(ति)(ती)इयार-पुं० [अति(ती)चार] अतिचरणमतिचारः।लड्नने, सूत्र०२ श्रु०७अतृतीये अपराधे,षो०११ विव०। आ०चू० अतिक्रमे, अतिक्रम्य गमने, आव० 4 अ01 ग्रहणतो व्रतस्याऽतिक्रमणे, व्य०१ उ०॥ चारित्रस्खलन- विशेषे, आ०म० द्वि०) आ०चू०देशभङ्गहेतौ आत्मनोऽशुभे परिणामविशेषे, धर्म०२ अधिo देशभङ्गेऽतिचारता यथा ननु हिंसैव श्रावकेण प्रत्याख्याता ततो वधादिकरणेऽपि न दोषो हिंसाविरतेरखण्डितत्वात्। अथ वधादयोऽपि प्रत्याख्याताः,तदा तत्करणे व्रतभङ्ग एव विरतिखण्डनात् / किञ्च वधादीनां प्रत्याख्येयत्वे व्रतेयत्ता विशीर्येत प्रतिव्रतमतिचाराणामाधिक्यादिति एवं च न वधादीनामति-चारतेति ? उच्यते- सत्यं हि सैव प्रत्याख्याताः, न वधादयः केवलं तत्प्रत्याख्यानेऽर्थतः, तेऽपि प्रत्याख्याता दृष्टव्याः, हिंसोपायत्वात् / तेषामेव चेत्तर्हि वधादिकरणे व्रतभङ्ग एव, नाऽतिचारो, नियमस्याऽपालनात् मैवं, यतो द्विविधं व्रतमन्तवृत्त्या बहिर्वृत्या च। तत्र मारयामीति विकल्पाभावेन यदा कोपाद्यावेशान्निरपेक्षतया वधादौ प्रवर्तते,न च हिंसा भवति, तदा निर्दयतया विरत्यनपेक्षप्रवृत्तत्वेनाऽन्तर्वृत्त्या तस्य भङ्गः, हिंसाया अभावाच बहिर्वृत्त्या पालनमिति देशस्यैव भञ्जनाद् देशस्यैव पालनादतिचारव्यपदेशः प्रवर्तते। तदुक्तम्- न मारयामीति कृतव्रतस्य, विनैव मृत्यु क इहाऽतिचारः ? निगद्यते- यः कुपितो वधादीन् करोति, असौ स्यान्नियमाऽनपेक्षः / मृत्योरभावान्नियमोऽस्ति तस्य, कोपाद् दयाहीनतया तु भनः / देशस्य भङ्गादनुपालनाच, पूज्या अतीचारमुदाहरन्ति / यचोक्तं - व्रतेयत्ता विशीर्येत इति, तदप्ययुक्तं, विशुद्धाऽहिंसासद्भावे हि वधादीनामभाव एव, तत् स्थितमेतद्वधादयोऽतिचारा एवेति / यद्वा अनाभोगसहसाकारादिनाऽतिक्रमादिना वा सर्वत्राऽतिचारता ज्ञेया। ध०२ अधि०। (आधा-काश्रित्याऽतिचारता अइक्कम्म शब्दे दर्शिता) अयं चाऽतिचारः संक्षेपत एकविधः, संक्षेपविस्तरतस्तु द्विविधस्त्रिविधो यावदसंख्येयविधः, संक्षेपविस्तरतः पुनर्द्विविधः, त्रिविधं प्रति विस्तरः, इत्येवमन्यत्राऽपि योज्यं विस्तरतः त्वनन्त-विधः। आव०४ अ० स्था०1धा आतुला एतेषु अतिक्रमादिषु उत्तरोतरं दोषाऽधिक्यं प्रायश्चित्ताधिक्यात आधाकर्मणा निमन्त्रितः / सन् यः प्रतिशृणोति, सोऽतिक्रमे वर्तते, तद्ग्रहणनिमित्तं पदभेदं कुर्वन् व्यतिक्र मे, गृह्णानोऽतीचारे, भुञ्जानोऽनाचारे / एवमन्यदपि परिहारस्थानमधिकृत्याऽतिक्रमादयो ज्ञापनीयाः एतेषु च प्रायश्चित्तमिदम् / अतिक्रमे मासगुरु व्यतिक्रमेऽपि मासगुरु काललघु अतीचारे मासगुरु द्वाभ्यां विशेषितं तद्यथा तपोगुरु कालगुरु च। अनाचारे चतुर्गुरु यस्मात् गुरुकाऽतीचारः चशब्दोऽनुक्तसमुच्चयार्थः। सचैतत् समुचिनोति अतिक्रमात् व्यतिक्रमो गुरुकः, तस्मादपि गुरुकोऽतीचार इति। ततोऽप्यती-चारात गुरुतरकोऽनाचारः / तत इत्थं प्रायश्चित्तविशेषः - तत्थ भवे न उ सुत्ते, अतिक्कमादी उ वणिया केई। चोयग ! सुत्तेऽणुत्ते, अतिक्कमादी उजोएज्जा। तत्र एवमुक्तेन भवेत् मतिश्वोदकस्य, यथा- न तु, नैव सूत्रे निशीथाऽध्ययनलक्षणे केचिदतिक्रमादय उपवर्णिताः सन्ति, ततः कथं चत्वारोऽतिक्रमादयस्तत्रैवाऽध्ययने सिद्धा इति / सूरिराह- चोदक ! सर्वोऽप्येष प्रायश्चित्तगणोऽतिक्रमादिषु भवति, ततः साक्षादनुक्तानपि सूत्रे सूत्रितान् अतिक्रमादीन् योजयेत्, अर्थतः सूचितत्वात्। व्य०१ उ०। अत्रैव प्रायश्चित्तविधिमाह - तिन्निय गुरुगामासा,विसेसिया तिण्णि चउगुरू अंते। एए चेव य लहुया,विसोहिकोडीएपच्छित्ता।। त्रयाणामतिक्रमव्यतिक्रमाऽतीचाराणां त्रयो गुरुका मासाः। कथंभूताः ? इत्याह- विशेषितास्तपःकालविशेषिताः। किमुक्तं भवति ? अतिक्रमे मासगुरुर्व्यतिक्रमेऽपि मासगुरुरतीचारेऽपि मासगुरुरेतेच त्रयोऽपि यथोत्तरं तपःकालविशेषिताः। तथा अन्ते अनाचारलक्षणे दोषे चतुर्गुरु चतुर्मासगुरु प्रायश्चित्तम् / एते च मासगुर्वादयः प्रायश्चित्ता अतिक्रमादिष्वविशोधिकोठ्यां द्रष्टव्याः, विशोधिकोठ्यां त्वेत एव मासादयो लघुकाः प्रायश्चित्तानि / तद्यथा- अतिक्रमे मासलघु, व्यतिक्रमेऽपि मासलघु, अतीचारेऽपि मासलघु, नवरमेते यथोत्तरं तपःकालविशेषिताः / व्य०१ उ०॥ ज्ञानातिचारादयः, तेषु प्रायश्चित्तम् - उद्देसज्झयणसुय-खंधंगेसु कमसो पमाइस्स। कालाइक्कमणाइसु, नाणावरणाइयारेसु // 22 // निव्वीए पुरिमलेगभत्तमायंबिलं च णागाढे। पुरिमाई खमणं तं, आगाढे एवमत्थे वि॥२३॥ युगलमिह तपोऽहप्रायश्चित्ते ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारपञ्चकशताऽतीचारचक्रमालोच्यम् / तत्राऽऽद्यो ज्ञानाचारस्या-ऽतिचारे, ज्ञानाचाराऽतिचारः सोऽष्टविधः / तद्यथा- अकाले स्वाध्यायकरणं कालातिचारः 1, श्रुतमधिजिघांसोर्जाति-मदाऽवलेपेन गुरुष्वविनयो वन्दनादिरूपाचारः, तस्य प्रयोजनं हीनं वा विनयाऽतिचारः 2, श्रुते गुराँवा बहुमानो हार्दप्रति-बन्धविशेषस्तस्याऽकरणं बहुमानातिचारः 3, उपधानम् आचामाम्लादितपसा योगविधानं, तस्याऽकरणमुपधानाऽतिचारः 4, यत्पार्थे श्रुतमधीतं, तं निह्नतेऽपलपति, अन्यं वा युगप्रधानमात्मनोऽध्यापक इति निर्दिशति, स्वयं वाऽधीत-मित्याचष्टे। एवं निह्नवनाऽभिधानाऽतिचारः 5, व्यज्यते अर्थो -ऽनेनेति व्यञ्जनमागमसूत्रं, तन्मात्राऽक्षरबिन्दुभिरूनमति-रिक्तं वा करोति, संस्कृतं वा विधत्ते,पर्यायैर्वा विदधाति, यथा- धम्मो मंगलमुक्किदृ० इत्यादिस्थाने 'पुन्नं कल्लाणमुक्कोसं, दया संवरनिजरेति' व्यञ्जनातिचारः ६,आगमपदार्थस्य Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अइयार 9- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अइयार ma अन्यथा परिकल्पनमर्थाऽतिचारः / यथा आचारसूत्रे- आवन्ती० अध्ययनमध्ये आवन्तीके "आवंती लोगसि विप्परामुसंतीति'' यावत् केचित् लोकेऽस्मिन् पाण्डिलोके विपरामृशन्तीति प्रस्तुतेऽर्थ अन्योऽर्थः परिकल्प्यते, "आवंति होइ देसो, तत्थ उ अरहट्टकूवजा केया। घट्टी मासा पडिहियाहिं, हेउत्तं लोगो विपरामुसइ / / 1 / / 7, यत्र च सूत्राऽर्थों द्वावपि विनश्येते, स तदुभयाऽतिचारो यथा- धम्मो मंगलमुक्किट्ठो, अहिंसा गिरिमत्थए / देवा वितं नमसंति, जस्स धम्मे सया मई।।१।। अहागडेसुरंधति, कट्टेसुरहकारओ। रत्तो भत्तसि णो जत्थ,गद्दभो जत्थ दीसिइ / / 2 / / 8 1 अयं च महीयानतिचारो, यतः सूत्रार्थोभयनाशे मोक्षाभावस्तदभावे दीक्षावैयर्थ्यमिति / एष चाऽष्ट विधोऽपि / ज्ञानाचारातिचारो द्विधा- ओघतो, विभागतश्च / तत्र विभागतः - उदेशकाऽध्ययन-श्रुत-स्कन्धाऽङ्गेषु विषये प्रमादिनः प्रमादपरस्य कालातिक्रमणादिष्वष्टसु ज्ञानाचाराऽति- चारेषु जातेषु क्रमशः क्रमेण तपोनिर्विकृतिकं पुरिमार्द्धक भक्त आचाम्लं च / अनागाढे दशवै कालिकादिके श्रुते उद्देशकाऽतिचारे अकालपाठादिके निर्विकृतिकम् / अध्ययनाऽतिचारे पुरिमार्द्धम्, श्रुतस्कन्धाऽतिचारे एकभक्तमङ्गाऽतिचारे आचाम्लमित्यर्थः / आगाढे तूत्तराध्ययनभगवत्यादिके श्रुते, एतेष्वेवाऽतिचारस्थानेषु पुरिमार्दादिक्षपणान्तमेव तपो भवति / एतद्विभागतः प्रायश्चित्त-मुक्तम् / जीत०। स्था०। वससमारम्भप्रत्याख्याता पृथिवी- समारम्भेवर्तमानोव्रतंनाऽतिचरति - समणोवासगस्सणं भंते ! पुव्वामेव तसपाणसमारंभे पच्चक्खाए भवइ पुढवीसमारंभे अपञ्चक्खाए भवइ, से य पुढविं खणमाणे अण्णयरं तसपाणं विहिंसेजा से णं भंते ! तं वयं अइचरइ ? णो इणढे समढे नो खलु से तस्स अइवायाए आउट्टइ / समणोवासयस्स णं भंते ! पुवामेव वणप्फइ- समारंभे पञ्चक्खाए से य पुढविं खणमाणे अण्णयरस्स रुक्खस्स मूलं छिंदेज्जा से णं भंते ! वयं अतिचरति ? णो इणढे समढे नो खलु से तस्स अइवायाए आउट्टइ। त्रसवधः / (नो खलु से तस्स अइवायाए आउट्टइत्ति) न खलु असौ तस्य त्रसप्राणस्याऽतिपाताय वधायाऽऽवर्तते, प्रवर्तते इति, न सङ्कल्पवधोऽसौ, सङ्कल्पवधादेव च निवृत्तोऽसौ / न चैवं तस्य संपन्न इति, नाऽसावतिचरतिव्रतम्। भ०७ श०१ उ०। (दैवसिका अतिचाराः काउस्सग्गशब्दे) (मूलगुणातिचारा उत्तरगुणा-तिचाराश्च मूलाऽतिचारे प्रायश्चित्तमित्यवतरणमाश्रित्य पच्छित्त- शब्दे वक्ष्यन्ते) सर्वेऽप्यतीचाराः संज्वलनकषायोदये भवन्तीत्याहसव्वे वि य अइयारा, संजलणाणं तु उदयओ होंति।। मूलच्छेज्जं पुण होइ, बारसण्हं कसायाणं / / 250 / / सर्वेऽप्यालोचनाप्रतिक्रमणोभयादिच्छे दपर्यन्तं प्रायश्चित्तशोध्याः / अपिशब्दात् कियन्तोऽपि च अतिचरणानि अतिचाराः चारित्रविराधनाविशेषाः संज्वलनानामेवोदयतो भवन्ति ? द्वादशानां पुनः कषायाणमुदयतो मूलच्छेद्यं भवति / मूलेना-ऽष्टमस्थानवर्तिना प्रायश्चित्तेन छिद्यतेऽपनीयते यद् दोषजातं, तत् मूलच्छे द्यम् / अशेषचारित्रोच्छेदकारीत्यर्थः, तदेवंभूतं दोष- जातं द्वादशानामनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरण-लक्षणानां कषायाणामुदये संजायते। अथवा इदं मूलच्छेद्यं दोषजातं यथासंभवतो योज्यते, तद्यथा- प्रत्याख्यानावरण-कषायचतुष्कोदये सर्वविरतिरूपस्य चारित्रस्य मूलच्छे द्यं सर्वनाशरूपं भवति / अप्रत्याख्यानकषायचतुष्कोदये तु देशविरतिचारित्रस्य, अनन्तानुबन्धिकषायचतुष्कोदये पुनः सम्यक्त्वस्योते नियुक्तिगाथार्थः // 25 // भाष्यम्अइआरा छेदंता, सव्वे संजलणहेयवो होति। सेसकसाओदयओ मूलच्छेज्जं वयारुहणं // 251 / / सप्तमस्थानवर्ती प्रायश्चित्तविशेषच्छेदः, ततश्चालोचनादिना छेदाऽन्तेन सप्तविधप्रायश्चित्तेनाऽन्तो येषां ते एकस्याऽन्तशब्दस्य लोपाच्छेदान्ताः। सर्वे ऽप्यतिचाराः संज्वलनकषायोदयजन्या भवन्ति / शेषकषायाणां द्वादशानामुदये मूलच्छेद्य रामस्त-चारित्रोच्छेदकारकंदोषजातं भवति / तद्विशुद्धये च प्रायश्चित्तं न, पुनरपि व्रताऽऽरोपणमिति। अथवा यथासंभवं मूलच्छेद्यं योज्यते, इत्येतदेवाऽऽहअहवा संजममूल-च्छेज्जं तइयकलुसोदये निययं / सम्मत्ताई मूल-च्छेज्ज पुण बारसण्हं पि॥२५२।। तृतीयानां प्रत्याख्यानावरणकषायाणामुदये संयमस्य सर्वविरतिरूपस्य मूलच्छेद्यं नियत निश्चितं भवति सम्यक्त्वा-दिमूलच्छेद्या तुद्वादशानामप्युदये संपद्यत इति। अथ प्रेर्यमाशङ्कय परिहरन्नाह - मूलच्छिज्जे सिद्धे, पुव्वं मूलगुणधाइगहणेणं। इह कीस पुणो गहणं, अइआरविसेसणत्थं ति // 253 // पगयमहक्खायं ति य, अइआरे तम्मि चेव मा जोए। तो मूलच्छिज्जमिणं, सेसचरित्ते निओएइ॥२५४|| आह- नन्वनन्तरनिर्दिष्टनियुक्तिगाथायां "मूलगुणाणं लभ, न लहइ मूलगुणघायिणो उदये" इत्येतस्मिन् पूर्वार्द्ध मूलगुण-घातिग्रहणेन द्वादशकषायाणामुदये मूलच्छे द्यं सिद्धमेवेति कि मिह पुनस्तद्ग्रहणमत्रोत्तरमाह - अतिचारविशेषणार्थमिति / अतिचाराणां विशेषव्यवस्थापनार्थमित्यर्थः / इदमेव व्यक्ती-कुर्वन्नाह (पगयमित्यादि) इदमुक्तं भवति- संजलणाणं उदए न लहइ चरणं अहक्खायं,इत्यनन्तरनियुक्तिगाथोत्तरार्धादिह यथाख्यातचारित्रं प्रकृतमनुवर्तते। ततश्च "सव्वे विय अइआरा संजलणाणं उदयओहोति' इत्येतानतिचारान् अनन्तरानुवर्तमाने यथाख्यातचारित्र एव शिष्यो योजयेत्,एतद् मा भूत्, ततस्तेनेह पुनरपि मूलच्छेद्यमेतद्यथाख्यातवर्जित शेषचारित्रे सामायिकादिके नियोजयति / अस्या हि मूलगाथायां मूलच्छे द्यग्रहणात् पुनःशब्दविशेषणात् चाऽयमर्थः संपद्यतेसंज्वलनानामुदये शेषचारित्रस्य सर्वेऽप्यतिचारा भवन्ति, द्वादशकषायाणामुदये पुनर्मूलच्छेद्यं भवति / यस्यैवाऽस्यां गाथायां मूलच्छेद्यमुक्तं, तस्यैवाऽतिचारा अपि न तु यथा- ख्यातचारित्रस्य कषायोदयरहितत्वेन तस्य निरतिचारत्वादिति गाथाचतुष्टयार्थः। विशे० 300 पत्र। आ०म० आ०चूला दर्शक सातिचारस्य चरणस्य विपाककटुकताविचारः - सम्म विआरियव्वं, अत्थपदभावणापहाणेणं। विसए अठाविअव्वं बहुसुअगुरुसयासाओ।।६५।। सम्यक् सूक्ष्मेण न्यायेन विचारयितव्यमर्थपदभावनाप्रधानेन Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अइयार 10 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अइरत्त सता तस्या एवेह प्रधानत्वात्। तथा विषये चस्थापयितव्यं तदर्थपदं, श्रामण्यदुष्परामृष्टनरकानुपकर्षतीति, अस्मादनिष्टफलमप्येतत् धर्मचरणं कुतः? इत्याह- बहुश्रुतगुरुसकाशात्, न स्व-मनीषिकयेति गाथार्थः। द्रव्यरूपं भणितं मनीषिभिरिति गाथार्थः / एतदेवाऽऽह एतदेव सामान्येन द्रढयन्नाह - जह सुहुमइआराणं, बंभीपमुहाइफलनिआणाणं / खुड्डइआराणां वि अ, मणुआइसु असुह मो फलं ने। जं गुरुअं फलमुत्तं, एअंकह घडइ जुत्तीए॥६६॥ इअरेसु अनिरयाइसु, गुरुअंतं अन्नहा कत्तो // 73|| यथा सूक्ष्माऽतिचाराणां लघुचारित्राऽपराधानां किंभूतानाम् ? इत्याह- क्षुद्राऽतिचाराणामेवौधतो धर्मसंबन्धिनां मनुष्यादिष्वशुभ-फलं ज्ञेयं ब्राह्मीप्रमुखादिफलनिदानानां प्रमुखशब्दात् सुन्दरी-परिग्रहः, स्त्रीत्वदारिद्र्यादि आदि शब्दात् तथाविधतिर्यक - आदिशब्दात् तपःस्तेनप्रभृतीनां यद् गुरुफलमुक्तं सूत्रे स्त्रीत्वं, परिग्रहः / इतरेषां पुनर्महाऽतिचाराणां नरकादिषु गुरुकं तदशुभ-फलं किल्विषिकत्वादिति एतत् कथं घटते? युक्त्या कोऽस्य विषयः? इति / कालाघशुभपेक्षया आदिशब्दात् क्लिष्टतिर्यक्परिग्रहः। इत्थं गाथाऽर्थः / तथा - चैतदडीकर्तव्यं, तदन्यथा कुतः ? तस्य हेतुर्महाऽतिचारान् मुक्त्वेति सइ एअम्मि अ एवं, कहं पमत्ताण धम्मचरणं तु! गाथाऽर्थः। उपसंहरन्नाह - अइआरासयभूआण हंदि मोक्खस्स हेउत्ति // 67|| एवं विआरणाए, सइ संवेगाउचरणपरिवुड्ढी। सत्येतस्मिन् चैवं यथाऽर्थ एव, कथं प्रमत्तानामद्यतनसाधूनां | इहरा सम्मुच्छिमपाणितुल्लया दढं होइ दोसा य / / 74 / / धर्मचरणमेवं हन्दि ! मोक्षस्य हेतुरिति योगः / नैवेत्यभिप्रायः / एवमुक्तेन प्रकारेण विचारणायां सत्यां सदा संवेगाद् हेतोः किमित्याहकिंभूतानामित्याह- अतिचाराश्रयभूतानां प्रभूताऽतिचारवता- मिति (चरणपरिवुढित्ति) करणतया इतरथा खेचाराणा-मन्तरेण गाथार्थः / मार्गानुसारिणां विकल्पमाह - सम्मूर्च्छनजप्राणितुल्यता दृढतया करणेन असावत्यर्थ दोषाय भवति एवं च घडइ एवं, पवजिउं जो तिगिच्छमइआरं। ज्ञातव्या प्रव्रज्यायामपीति गाथार्थः / पं०व० 3 सुहुमं पि कुणइ सो खलु, तस्स विवागम्मि अइरोद्दो॥६८|| द्वा०(श्रावकवतानामतिचाराः सम्यक्त्वातिचाराश्च स्वस्वस्थाने) एवं च घटते- एतदनन्तरोदितं प्रपद्य यश्चिकित्सां कुष्ठादे- रतिचारं यस्याऽष्टावतीचारगाथा नाऽऽयान्ति तेनाऽष्टौ नमस्कारा गण्यन्ते, परं तद्विरोधिनं किम् ? इत्याह- सूक्ष्ममपि करोति स खलु, तस्याऽतिचारे गाथाया उच्छ्वासा द्वात्रिंश भवन्ति, नमस्कार चतुष्कस्या-ऽपि तथैव / विपाकेऽतिरौद्रो भवति, दृष्टमेतदेवं दान्तिके- ऽपि भविष्यतीति नमस्काराष्टकस्यतु चतुःषष्टिरुच्छवासा भवन्ति / तत्कथमिति प्रश्ने? गाथार्थः / अतिचारक्षपणहेतुमाह उत्तरं- यस्याऽष्टौ गाथा नाऽऽयान्ति तस्याऽष्टनमस्कारकायोत्सर्गः पडिवक्खज्झवसाणं, पाएणं तस्स खवणहेऊ वि। कार्यते, न तूच्छ्वासमानमिति / सेन०उल्ला०६ प्र०ा अतिक्रम्य णालोअणाइमित्तं, तेसिं ओहेण तब्भावा // 66 // स्वस्वभोगकालमुल्लङ्ग्य चारः राश्यन्तरगमनम् अतिचारः। ज्योतिषोक्तेः प्रतिपक्षाऽध्यवसानं क्लिष्टाच्छुद्धं तुल्यगुणमधिकगुणं वा प्रायेण भौमादिपञ्चकस्य स्वस्वाक्रान्तराशिषु भोगकालमुल्लङ्घ्य तस्याऽतिचारस्य क्षपणहेतुरपि यदृच्छयाऽपि हि उचितादिप्रायोग्रहणं राश्यन्तरगमने, अतिचारस्य "रविर्मासं निशानाथः सपाददिवसद्वयम्' नाऽऽलोचनामात्रम् / तथाविधभावशून्यं कुतः ? इत्याह - तेषामपि इत्या-दिनोक्तभोगकालभेदोल्लङ्घनेन ग्रहणमतिशीघ्रतया अल्पब्राह्मयादीनां प्राणिनामोधेन सामान्येन तद्भावादालोचनादिभात्र- कालनैव आक्रान्तराशिमुपभुज्य राश्यन्तरगमनम्। वाच०। भावादिति गाथाऽर्थः। अइरत्त-त्रि०(अतिरक्त)अत्यन्तो रक्तः रक्तवर्णः अनुरागयुक्तो वा एवमपत्ताणं पिहु, पइअइआरं विवक्खहेऊणं / अतिलोहितवणे, अत्यन्ताऽनुरक्ते च अत्यन्तरक्तवर्णे, पुं०ा वाचा आसेवणेण दोसो, त्ति धम्मचरणं जहाभिहिअं॥७॥ *अतिरात्र-पुं० अतिशयिता रात्रिस्ततोऽस्त्यर्थे अच,अधिकदिने एवं प्रमत्तानामपि साधूनां प्रत्यतिचारमतिचारं प्रति विपक्ष- हेतूनां दिनवृद्धौ,ते चषट्, तद्यथायथोक्ताऽध्यवसायानामासेवने सति न दोषोऽतिचार-क्षयात् इत्येवं छ अइरत्ता पण्णत्ता / तं जहा-चउत्थे पव्वे, अट्ठमे पव्वे, धर्मचरणं यथाऽभिहितं शुद्धत्वात् मोक्षस्य हेतुरिति गाथार्थः / अत्रैवेदं दुवालसमे पव्वे, सोलसमे पव्वे, वीसइमे पव्वे, चउवीसइमे तात्पर्यमाह पव्वे। सम्मकयपडिआरं, बहुअंपि विसं न मारए जह उ। (अइरत्तत्ति) अतिरात्रोऽधिकदिनं दिनवृद्धिरिति यावत् चतुर्थ पर्व थोवं पि अविवरीअं, मारइ एसोवमा एत्थ / / 71 / / आषाढ शुक्लपक्ष एवमिहैकान्तरितमासानां शुक्लपक्षाः सर्वत्र पर्वाणीति, सम्यक्-कृतप्रतीकारमगदमन्त्रादिना बह्न पि विषं न मारयति / यथा स्था० 6 ठा०। संप्रत्यतिरात्रप्रतिपादनार्थमाह-तत्थेत्यादि,तत्र एकस्मिन् भक्षितं सत् स्तोकमपि च विपरीतमकृतप्रतीकारं मारयति / संवत्सरे खल्विमेषट् अतिरात्रा प्रज्ञाः, तद्यथा- चउत्थे पव्वे० इत्यादि एषोपमाऽत्राऽतिचारविचारे इति गाथार्थः / विपक्षमाह - इह कर्ममासमपेक्ष्य सूर्यमासचिन्तायामेकै कसूर्यतुपरिसमाप्ताजे पडिआरविरहिआ, पमाइणो तेसि पुण तयं विति। वेकैकोऽधिको- ऽहोरात्रः प्राप्यते, तथाहि- त्रिंशता अहोरात्रैरेकः दुग्गहिअसरोहरणा, अणिट्ठफलयं पिमं भणिअं॥७२॥ कर्ममासः सार्द्धत्रिंशता अहोरात्रैरेकः सूर्यमासो, मासद्वयात्मकश्च ऋतुः, ये प्रतीकारविरहिताः अतिचारेषु प्रमादिनो द्रव्यसाधवः, तेषां ततः एकसूर्यर्तुपरि-समासौ कर्ममासद्वयमपेक्ष्य एकोऽधिकोहोरात्रः पुनस्तद्धर्मचरणं यथोदित चिन्त्यं न भवतीत्यर्थः / एतदेव स्पष्टयति प्राप्यते / सूर्यर्तुश्च आषाढादिकः, तत आषाढादारभ्य चतुर्थे पर्वणि दुर्गृहीतशरोदाहरणाच्छरो यथा दुर्गृहीतो हस्त-मेवाऽवकृन्तति एकोऽधिकोऽहोरात्रो भवति, अष्टमे पर्वणि गते द्वितीयः, Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अइरत्त 11- अभियानराजेन्द्रः - भाग 1 अइविसाया द्वारा तृतीयो द्वादशे पर्वणि, चतुर्थः षोडशे, पञ्चमो विंशतितमे, | अइरोस-पुं०(अतिरोष) अतिशयितक्रोधे, 'अइरोसो अइतोसो षष्ठश्चतुर्विशतितमे इति / अवमरात्रश्च कर्ममास द्वयमपेक्ष्य | अइहासो दुजणेहि संवासो। अइउडभडो य वेसो,पंच वि गुरुयं पि लहुयं चन्द्रमासचिन्तायां चन्द्रमासाश्च श्रावणाद्याः, ततो वर्षा- कालस्य पि" ||1|| ध०र०। श्रावणादिरित्युक्तं प्राक् / संप्रति यमपेक्ष्यात्रिरात्रायंचाऽपेक्ष्य अवमराठा अइ(चि)रोववण्णग-त्रि०(अचिरोपपन्नक) न०त०। अचिरजाते, भवन्ति, तदेतत् प्रतिपादयति - आव०५ अ०॥ छचे वय अइरत्ता, आइचाओ हवंति माणाहि। अइरोहिय-त्रि०(अतिरोहित) न०ता प्रकाशिते, स्फुटेऽर्थे, अव्यवहिते छचेव ओमरत्ता, चंदाहि हवंति माणाहि॥१॥ चावाचा अतिरात्रा भवन्ति आदित्यमपेक्ष्य किमुक्तं भवति आदित्यमासानपेक्ष्य अइ(ति)लोलुय-त्रि०(अतिलोलुप) अतीव रसलम्पटे, उत्त० 110 कर्ममासचिन्तायां प्रतिवर्ष षट्अतिरात्रा भवन्तीति (माणाहि)जानीहि / अइ(ति)वइत्ता-अव्य०[अति(व्रज्य)पत्य] अति-पत्-व्रज् वा तथा षट् अवमरात्रा भवन्ति, चन्द्रात् चन्द्रमपेक्ष्य चन्द्रमासमधिकृत्य क्त्वा ल्यप्। अतिक्रम्येत्यर्थे, ज्ञा०५अ० प्रविश्येत्यर्थेचा प्रश्न० आश्र०३ कर्भमासचिन्ताया प्रति संवत्सरं षट् अवमरात्रा भवन्तीत्यर्थ इति (माणाहि)जानीहि तदेवमुक्ता अवमरात्रा अतिरात्राश्च। चं० प्र०१२ पाहु०॥ अइवट्टण-न०(अतिवर्तन)उल्लङ्घने, आचा० १श्रु०५अ०६उ०। ज्यो। सू० प्र० अइ(ति)वाइ(ति)न-त्रि०(अतिपातिन्)अतीव पातयितुंशील-मस्य। अइ(ति)रत्तकंबलसिला-स्त्री०(अतिरक्तकम्बलशिला) मन्दरपर्वत स्योत्तरस्यां दिशि वर्तमानायामभिषेकशिलायाम्, 'दो अइरत्त हिंसके, सूत्र०१श्रु०५० कंबलसिलाओ" / स्था०२ ठा०। अइवाइत्ता-त्रि०(अतिपातयितृ) अति -पत्-णिच्-शीलाऽर्थे तृन्। अइरा-स्त्री०(अचिरा) विश्वसेनभार्यायां शान्तिजिनेन्द्रस्य मातरि, ती० प्राणिनां विनाशनशीले, “णो पाणे अइवाइत्ता भवइ / स्था०३ ठा० २उ०। क०। आव० स० प्रवा *अतिपात्य-अव्य०(अति-पत्-क्त्वा-ल्यप) प्राणिनो विनाश्येत्यर्थे, अइ(ए)रावण-पुं०(ऐरावण) इन्द्रगजे, को०] स्था०३ ठा०१ उ०। अइ(ति)रित्त-त्रि०(अतिरिक्त) अति-रिच-क्ता अतिशयिते, श्रेष्ठ, भिन्ने, अइवाइय-त्रि०(अतिपातिक) अतिपतनमतिपातः, स विद्यते यस्य शून्ये च / तत्र भेदे- अतिरिक्तमथाऽपि यद् भवेदिति / भाषा० यस्य सोऽतिपातिकः / प्राण्युपमर्दक, सूत्र०२ श्रु०१ अ०) यावत्प्रमाणं युक्तं ततोऽधिकत्वे, वाच०। आचा०। अधिके, स्था०२ ठा० 1 उ०। अतिप्रमाणे, स०। सूत्र० / अतिरेके, प्रश्र० सं०५ द्वा०। अइवाइया-स्त्री०(अतिपातिका) अतिक्रान्ता पातकमति-पातिका, भावे-क्त। अतिशये आधिक्ये च। न०1 वाच०। नि० चू० निर्दोषायाम, पापाद् दूरीभूतायाम, आचा०१ श्रु०६ अ०। अइ(ति)रित्तसिज्जासणिय-पुं०(अतिरिक्तशय्यासनिक) अतिरिक्ता अइ(ति)वाएमाण-त्रि०(अतिपातयत्) प्राणिन उपमर्दयति, सूत्र०१ अतिप्रमाणा शय्या वसतिरासनानि च पीठकादीनि यस्य सन्ति | श्रु०८ अ० सोऽतिरिक्तशय्यासनिकः / चतुर्थेऽसमाधिस्थाने,स चाऽतिरिक्तायां अइ(ति)वाय-पुं०(अतिपात)अतिपतनमतिपातः / प्राण्युप-मर्दने, शय्यायां घड्नशालादिरूपायामन्येऽपि कीटिकादयः (कार्पटिकादयः) सूत्र०२ श्रु०१अ०। विभ्रंशे, स्था०५ ठा०। विनाशे, सूत्र०१ श्रु०१० आवासयन्तीति तैः सहाऽधिकरणत्वाद् असमाधिस्थानमेव, अ० पा० सहाऽधिकरणसम्भवादात्मपरावसमाधौ योजयतीति / स० दशा० *अतिवाद-पुंग अत्यन्तकथने। वाच०। आ० चू! प्रश्न अइवास-पुं०(अतिवर्ष) अतिशयवर्षे,वेगवद् वर्षणे, भ० 3 श०६ उ०। अइरुग्गय-त्रि०(अतिरोद्गता) क्षणमात्रमुद्गते, रा०। प्रथमोदिते, अइ(ति)वाहड-त्रि०(अतिव्याघ्रात) अतीव घ्राते, दुर्गन्धा-दिविशिष्टे, अइरुग्गए वि सूरे / उत्त० 3 अ०। अइरुग्गयसमग्गसुणिद्ध बृ०४ उ01 चंदद्धसंठियणिडाला। तंग अइ(ति)विज-त्रि०(अतिविद्वस् )विदितागम सद्भावे, * अइव-पुं०(अतिरूप) अतिक्रान्तो रूपम् / रूपवर्जिते परमेश्वरे, तम्हाऽइ(ति)विज्जो णो पडिसंजलिज्जा / आचा०१ श्रु० 4 अ०। वाच०(एतन्निराकरणमन्यत्र) भूतभेदे च / प्रज्ञा०१पद। अइ(ति)विसय-पुं०(अतिविषय) प्रबलपञ्चेन्द्रिय लाम्पट्ये, तं०॥ अइ(ति)रेग-पुं०(अतिरेक) अति-रिच-घञ्। भेदे, प्राधान्ये, वाचा अइ(ति)विसाया-स्त्री० [अति (विस्वादा)(विषयगा) अतिशये, जी०३ प्रति०२ उ०। आधिक्ये, ज्ञा० 1 अ०। (वृषाका)(विषाचा)विषादा) अतिविषादाः दारुणविषाद"अइरेगरेहंतसरिसे" अतिरेकेण राजमानस्सन् सदृशः / कल्प०। हेतुत्वात् 1, यद्वा अतीत्यतिक्रान्तो गतोऽकार्यकरणे विषादः क्षोभो यासां कर्मणि-घञ्। अधिकतरे, कल्प! तास्तथा २,यद्वा अतीति भृशं विषमतिविषम् आ समन्ताद् ददति अइ(ति)रेगसंठिय-त्रि०(अतिरेकसंस्थित) अतिरेकेण संस्थितं यस्य | पुरुषाणां विरक्ताः सत्यः सूर्यकान्तावदिति अतिविषादाः 3, यद्वाऽतीति सः। अतिशायितया संस्थानवति, "कयलीखंभाइ-रेगसंठिए" जी०३ भृशं वीति नानाविधः स्वादो लाम्पट्यं यासांता अतिविस्वादाः 4, तथा प्रतिका अतिविषयगा अतिविषयात् प्रबललाम्पट्यात् षष्ठी नरकपृथिवीं अइ(चि)रेण-अव्य०(अचिरेण) चिरेणेत्यव्ययस्य / न० त०। स्तोके गच्छन्ति,चक्रवर्ति- स्त्रीरत्नवत्, सुसढमातृवद्वा, प्राकृतत्वात्तत्रयलोपे काले, "अचिरेण सिद्धिपासायं" / व्य०८ उ०। विशे०। सन्धिः 5, यद्वा अतिविषादा इष्टपुरुषाऽप्राप्तौ स्वेन्द्रियविषयाऽप्राप्तौ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अइविसाया 12- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अइसेस - - वाऽतिविषादो यासां ताः 6, अतिकोपादत्युग्रं विषमदन्ति, भक्षयन्ति इति अतिविषादाः 7, अतिवृषं महत्पुण्यं येषां तेऽतिवृषास्साधवः,तेषां कायन्ते यम इवाऽऽचरन्ति चारित्र-प्राणहरणेनेति 8, यद्वा अतिवृषाणां कायन्ति,अग्नीयन्ति संयमगृहज्वालनेने ति अतिवृषाकाः 6, यद्वा अतिवृषे लोकानां पुण्यरूपमहद्वने आ भृशं चायन्ते चौर इवाचरन्ति यास्ताः, तथोक्ताः 10 // एता दशव्यत्पत्तयः। दुष्टस्वभावासु स्त्रीषु, तं० / अइ(ति)विसाल-त्रि०(अतिविशाल)अत्यन्तविशाले, यमप्रभशैलस्य दक्षिणपार्वे वर्तमानायां राजधान्याम्, स्त्री० द्वी०। अइ(ति)वुट्ठि-स्त्री०(अतिवृष्टि)अति-वृष-क्तिन्। अधिक-वर्षे , स०) शस्योपघातकोपद्रवविशेषे, दर्श०। अइस-त्रि०(ईदृश) अयमिव पश्यति इदम् दृश्-कर्मकर्तरि क्यिन् इशाऽऽदेशो दीर्घः / अतां डइसः |8141403 / इति सूत्रेणाऽपभ्रंशे ईदृशशब्दस्य अइसाऽऽदेशः / एतत्-तुल्ये, प्रा०) अइसइय-त्रि०(अतिशयित) विशेषिते, को01 अइ(ति)संकिलेश-पुं०(अतिसंक्लेश)आत्यन्तिके चित्त-मालिन्ये, पंचा० 15 विवा अइ(ति)संधाण-न०(अतिसंधान) प्रख्यापने, आव०४ अ० अइ(ति)संधाणपर-त्रि०(अतिसंधानपर) असद्भूतगुणं गुणवन्तमात्मानं ख्यापयति, आव० 4 अ०॥ अइ(ति)संपओग-पुं०(अतिसंप्रयोग)गाध्ये, अतिशयेन द्रव्येण कस्तूरिकादिना परस्य द्रव्यस्य संप्रयोगः। अतिशयद्रव्येण द्रव्याऽन्तरस्य संप्रयोगे, सूत्र०२ श्रु०२ अ० अइ(ति)सक्कणा-स्त्री०(अतिष्वष्कणा) अनिवलत्विति इन्धनानां समीरणायाम्। नि००२ उ० अइ(ति)सय-पुं०(अतिशय) अति-शी अच् / आधिक्ये, अतिरेके, वाच०। प्रकर्षभावे, नं0। अतिक्रान्तः शयं हस्तम् / अत्या०स०। हस्तातिक्रमकारके, त्रि०ा अतिशयः अस्त्यर्थेऽच् / अतिशयवति, वाच०(आचार्योपाध्यायादीनां तीर्थकृतांचाऽतिशयाः अइसेस-शब्दे) अइ(ति)सयणाणि (न)-पुं०(अतिशयज्ञानिन )अवधि ज्ञानादिकलिते, व्य०१ उ०। अइ(ति)सयमईयकाल-पुं०(अतिशयातीतकाल) अतिशयेन योऽतीतः कालः समयः स तथा (मकरोऽलाक्षणिकः) अतिव्यवहिते काले, स०। अइसयसंदोह-त्रि०(अतिशयसंदोह)अतिशयान संदुग्धे प्रपूरयति यत्, तदतिशयसंदोहम्। अतिशयसंदोहबद्धे, अतिशयसमूहसंपन्ने, षो०१५ विवश अइसरिअ-न०(ऐश्वर्य) ईश्वरस्य भावः। अइदैत्यादौ च1८1१1१५१। इति सूत्रेणैतः अइ इत्यादेशः। अणिमाद्यष्टविध- भूतिभेदे, प्रा०। अइ(ति)साइ(न्)-त्रि०(अतिशायिन्)ऋद्धिमत्सु, केवलमनःपर्यायाऽवधिमच्चतुर्दशपूर्ववित्सु,आमर्पोषध्यादि- प्राप्तऋद्धिषु, आचा०२ श्रु०३चूल। अइसिरिहर-पुं०(अतिश्रीभर) अतिशयिते श्रीभरे, शोभासमूहे, "अइसिरिभरपिल्लणविसप्पंतकंतसोहंतचारु- ककुहं', कल्पा अइ(ति)सीय-त्रि०(अतिशीत) अतिशयिते शीते, स्था० 5 ठा० 1 उ० अतिशयितं शीतम् / प्रा० स०। अत्यन्तशीतलस्पर्श, तद्विशिष्ट, त्रि०ावाच०। अइ(ति)सुहुम-त्रि०(अतिसूक्ष्म) अतिशयसुक्ष्मबुद्धिगम्ये, षो०११ वि० अइ(ति)सेस-पुं०(अतिशेष) अतिशये, आचार्योपाध्यायगणे पञ्च अतिशयाः। यथा - आयरिय उवज्झायस्सणं गणंसिपंच अतिसेसा पण्णत्तातं जहा-आयरिय उवज्झाए अंतो उवस्सय-स्सपाये निगिज्झिय निगिज्झिय पप्फोडे माणे वा पमजेमाणे वा णाइक्कमइ। आयरियउवज्झाए अंतो उवस्सयस्स उच्चारपासवणं विगिंचमाणे वा विसोहे-माणे वाणाइक्कमइ आयरियउवज्झाए पमूइच्छावेयावडियं करेजा इच्छाणो करेजा। आयरियउव-ज्झाए अंतो उवस्सयस्स एगराई वा दुराई वा एगागी वसमाणे णाइक्कमइ। आयरियउवज्झाए बाहिं उव-स्सयस्स एगराई वा दुराई वा वसमाणे णाइक्कमइ। स्था०५ ठा०२ उ०) व्य०६ उ०। आचार्यश्वासावुपाध्याश्चेत्याचार्योपाध्यायः, स हि केषांचिद् आचार्यः केषांचिदुपाध्यायः, तत एवमुक्त- यावता पुनः स नियमादाचार्य एव तस्य गणे गणमध्ये पञ्च अतिशेषा अतिशयाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाआचार्योपाध्यायानामुपाश्रयस्यान्तर्मध्ये पादान् निगृह्य निगृह्य तथा पादा यतनया प्रस्फोटयितव्या, यथा-धूलिः कस्याऽपि क्षपकादेर्न लगति एवं शिक्षयित्वा शिक्षयित्या प्रस्फोटयतः प्रस्फोटको नातिक्रामति एष एकोऽतिशयः। यथा आचार्योपाध्यायान् उपाश्रयस्यान्तरुच्चारं प्रस्रवणं वा विगिञ्चयतो व्युत्सृजतो विशोधक उच्चारादिपरिष्ठापको नातिक्रामति एष द्वितीयः, तथा आचार्योपाध्यायः प्रचुरतो वैयावृत्त्यमिच्छया कारयेत्, न बलाभियोगतः, आणा बलाऽभियोगो निग्गंथाणं न कप्पए काउं, इतिवचनात् एष तृतीयः / तथा आचार्योपाध्याय उपाश्रयस्यान्तर्मध्ये एकरात्रं वा द्विरात्रं वा वसेत् नाऽतिक्रामति नाऽतीचारभाग भवति एष चतुर्थः। आचार्योपाध्याय उपाश्रयाद् बहिरेकरात्रं वा द्विरात्रं वा वसन् नाऽतिक्रामति, इत्येष सूत्रसंक्षेपाऽर्थः / व्य०६ उ०। आचार्योपाध्यायस्य वसतेरन्तः पादप्रस्फोटनप्रमार्जने इत्ययं प्रथमोऽतिशयस्तत्र भाष्यविस्तरः - बहिअंतो विवजासो, पणगं सागारिचिट्ठइ मुहुत्तं / बिइयपयं विच्छिण्णे, निरुद्धवसहीए जयणाए।। बहिरन्तश्च यदि विपर्यासो बहिरनास्फोट्यान्तः प्रस्फोटनरूपः, तदा पञ्चकं पञ्चरात्रिन्दिवं प्रायश्चित्तमथ बहिः सागारिको वर्तते ततस्तिष्ठति मुहूर्त व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिरन्त मुहूर्त्तमित्यर्थः / अथैतावता कालेन सागारिको नाऽपयाति तर्हि द्वितीयपदमपवाद-पदमाश्रीयते। बहिः पादा अप्रस्फोटताऽप्यन्तर्वसतेः प्रविश्यते, तत्र विस्तीर्ण उपाश्रये अपरिभोगे प्रदेशे आचार्यपादाः प्रस्फोटयितव्याः निरुद्धायां संकटाया वसतौ यत्राऽऽचार्यसत्कवण्टकाद्यवकाशस्तत्र यतनया यथा न कस्यापि धूलिलगतीत्येवंरूपया प्रस्फोटयितव्याः / एष द्वारगाथासंक्षेपाऽर्थः / सांप्रतमेनामेव विवरीषुरिदमाह - बाहिं अपमजंते, पणगं गणिणो उ सेसए मासो। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अइसेस 13- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अइसेस अप्पडिलेह दुपेहा, पुद्दुत्ता सत्ता भंगा उ|| आचार्यः कुलादिकार्येण निर्गतः प्रत्यागत उत्सर्गेण तावद् वसन् वसतेबहिरेव पादान् प्रस्फोटयति प्रत्युपेक्षते प्रमार्जयति चेत्यर्थः / यदि पुनर्निष्कारणं बहिः पादान्न स्फोटयति तदा बहिरप्रमार्जने गणिन आचार्यस्य प्रायश्चित्तं पञ्चकं शेषके साधौ बहिः पादान् अप्रमार्जयति लघुको मासः प्रायश्चित्तम्। तस्मात् बहिः पादान् प्रस्फोट्यान्तः प्रवेष्टव्यं तत्र प्रस्फोटनं विधिना कर्तव्यम् / स चायं विधिः प्रत्युपेक्षते ततः प्रमार्जयति। अविधिः पुनरयं न प्रत्युपेक्षतेन प्रमार्जयति १,न प्रत्युपेक्षते प्रमार्जयति 2, प्रत्युपेक्षते न प्रमार्जयति 3, प्रत्युपेक्षते प्रमार्जयति च 4 / अत्राऽऽद्येषु त्रिषु भङ्गेषु प्रत्येकं प्रायश्चित्तं मासिकं,चतुर्थे भने भङ्गाः चत्वारः, तद्यथा- दुष्प्रत्युपेक्षते दुष्प्रमार्जयति 1, दुष्प्रत्युपेक्षते सुप्रमार्जयति 2, सुप्रत्युपेक्षते दुष्प्रमार्जयति 3, सुप्रत्युपेक्षते सुप्रमार्जयति 4 / अत्र चतुर्थो भङ्गः शुद्धः,शेषेषु तु त्रिषु भङ्गेषु प्रत्येकं प्रायश्चित्तं पञ्चरात्रिन्दिवम्। एतदेवाह-अप्रत्युपेक्षणे उपलक्षणमेतत् अप्रमार्जने च / तथा दुष्प्रेक्षायामत्राऽप्युपलक्षणं ज्ञेयमिति दुष्प्रमार्जनतायां च पूर्वोक्ताः कल्पाऽध्ययनोक्ताः सप्त भङ्गाः। तत्र चोक्तः प्रायश्चित्तविधिः - बहि अंतो विवज्जासो, पणगं सागारिय असंतम्मि। सागारियम्मि उ चले, अत्थंति मुहुत्तगं थेरा॥ यदि सागारिके असति अविद्यमाने बहिरन्तर्विपर्यासो भवति बहिरनास्फोट्यान्तः प्रस्फोटयतीत्यर्थः,तदा गणिनः प्रायश्चित्तं पञ्चकम्। अथ सागारिको बहिस्तिष्ठति, सोऽपि च चलश्चलो नाम मुहूर्तमात्रेण गन्ता तस्मिन् सागारिके चले तिष्ठति मुहुर्तक- मल्पार्थे कप्रत्ययोऽल्पं मुहूर्त किमुक्तं भवति ? सप्ततालातिमात्रं सप्तपदातिक्रमणमात्रं वा कालं स्थविरास्तिष्ठन्ति। थिरविक्खत्ते सागा-रिय अणुवउत्ते पमजिउं पविसे। निविक्खित्तुवउत्ते, अंतो अपमज्जणा ताहे॥ स्थिरो नाम यत्राऽवस्थायां ध्रुवकर्मिको व्याक्षिप्तः कर्मणि कर्त्तव्ये व्याकुलस्तद्विपरीतोऽव्याक्षिप्तः / उपयुक्त आचार्यान् दृष्ट्वा निरीक्षमाणस्तद्विपरीतोऽनुपयुक्तः / तत्र स्थिरे व्याक्षिप्ते- ऽनुपयुक्ते 'सागारिके विद्यमाने' बहिः पादान् प्रमृज्य प्रविशेत, स्थिरे नियाक्षिप्ते उपयुक्ते बहिः सागारिके सति वसतेरन्तः प्रमार्जना पादानाम् / अथाचार्यस्य पादाः किं स्वयमेवाचार्येण प्रस्फोटयितव्याः उताऽन्येन साधुना ? तत आह - आभिग्गहियस्स असति, तस्सेव रओहरेण अण्णयरे / पाउंछणुण्णियणव, युस्संति य अणण्णभुत्तेणं / / केनाऽपि साधुना अभिग्रहो गृहीतो वर्तते, यथा- मया आचार्यस्य बहिर्निर्गतस्य प्रत्यागतस्य पादाः प्रस्फोटयितव्या इति, स यद्यस्ति तर्हि तेन प्रमार्जनायोपस्थातव्यं, तत्र चाऽऽचार्यस्या-त्मीयमन्यदौर्णिकं पादप्रोज्छनकमन्येन साधुना पादप्रमार्जनेना-ऽपरिभुक्तं तेनाचार्यस्य पादान प्रस्फोटयति / अथाऽभिग्रहिको न विद्यते तत आभिग्रहिकस्याऽसत्यभावे अन्यतरेण तस्यैवा-ऽऽचार्यस्य रजोहरणेन और्णिकेन वा पादप्रोञ्छनकेनाऽनन्य- भुक्तेन पादान् प्रोञ्छयति / यदि पुनरव्यापृतोऽपि निष्कारण-माचार्यस्य पादान्न प्रमार्जयति, तदा मासलघु / अथात्मीयेन रजोहरणेन पादप्रोञ्छनके न वाऽन्यपादप्रमार्जनतः परिभुक्तेन प्रमार्जयति, तदापि मासलघु / यदि बहिर्वसतेः सागारिकः तिष्ठतीत्याचार्यस्य पादा न प्रस्फोटिताः, तर्हि वसतेरन्तः प्रविष्टस्य प्रस्फोटनीयास्तत्राऽयं विधिः विपुलाए अपरिमोगे, अप्पणओवासए वविट्ठस्स। एमेव मिक्खुयस्स वि, नवरिं बाहिं चिरयरं तु // यदि विपुला वसतिस्तर्हि तस्यां विपुलायां वसतावपरिभोगे अवकाशे आचार्येण स्थित्वा पादाः प्रस्फोटयितव्याः। अथ संकटा वसतिस्तर्हि य आचार्यस्य आत्मीयो वण्ट काद्यवकाशः, तत्र ऐपिथिकी प्रतिक्रम्योपविष्टस्य पादाः प्रमार्जनीयास्ते च कुशलेन साधुना तथा प्रमार्जनीया यथा अन्ये साधवो धूल्या न वियन्ते / यथाआचार्य स्योक्तमेवं भिक्षोरपि दृष्टव्य, नवरं यदि बहिर्व सते: सागारिकस्तिष्ठति,ततश्विरतरमतिकालं प्रतीक्षेत यावचलसागारिको व्यतिक्रामति / यदि पुन-भिक्षुर्वसते बहिः सागारिकाभावेऽपि पादावप्रस्फोट्य वसतेरन्तः प्रविशति, तदा तस्य प्रायश्चित्तं मासलघु। निगिज्झियं पमनाहि, अभणं तस्से व मासियं गुरुणो / पायरयक्खमगादी, चोयग कजागते दोसा।। यदि बहिः सागारिक इति कृत्वा वसतेरन्तः पादाः / प्रस्फोटयितव्यास्ततः संकटायां वसतौ पादान प्रमार्जयितुमुपस्थितं साधु-माचार्यो ब्रूते आर्य ! निगृह्य पादान् प्रमार्जय। किमुक्तं भवति? तथा यतनया पादान प्रमार्जय, यथा पादधूल्या न कोऽपि साधु-म्रियते / अथैवं न ब्रूते, तत एवमभणतो गुरोः प्रायश्चित्तं मासलघु / तथा पादरजसा क्षपकादयः खरण्टन्ते, तथा सति वक्ष्यमाणाः दोषाः / अत्र चोदक आह-आचार्यः कस्माद् बहिर्गच्छति ? सूरिराह- कार्यागते कार्येषु समापतितेष्वगते दोषास्तस्माद् गच्छति / अधुना "पायरयक्खमगादी' इत्येतत् व्याख्यानयति - तवसोसितो व खमगो,इडिमवुड्डो व कोवितो वा दि। मा भंडणखमगादी, इति सुत्त निगिज्झिए जयणा / / तपसा शोषितस्तपःशोषितः क्षपकस्तस्य त्वल्पेऽप्यपराधे कोयो जायते, ततः स आचार्यपादप्रमार्जनधूल्या विकीर्णः कुपितो भवेत, कुपितश्च सन् भण्डनं कृत्वा अन्यत्र गच्छेत् प्रविशेत् प्रतिपद्येत वा। अथवा कोऽपि ऋद्धिमान् वृद्धो राजादिः प्रव्रजितः स पादधूल्याऽवकीर्णो रुष्टः सन् भण्डनादि कुर्यात् / कोपितो नाम शैक्षकः कोऽपि रुष्टः प्रतिपद्येत, तस्मात् क्षपकादिर्मा भण्डनं कार्षीदिति सूत्रे निगिज्झिय निगिज्झयेत्युक्तमस्थाऽप्ययमर्थो यतनयेति। संप्रति "चोयग कज्जागते दोसा'' इति व्याख्यानयतिथाणे कुप्पति खमगो, किं चेव गुरुस्स निग्गमो भणितो। भणइ कुलगणकज्जे, चेइयनमणं च पव्वेसु // स्थाने कुप्यति क्षपकः, तथाहि- स पादधूल्या अवकीर्यते, ततो मा कोपं कार्षीत् / किं चैवं गुरोराचार्यस्य निर्गमः केन कारणेन भणितस्तत्कारणमेव नास्ति, येन कारणेन वहिराचार्यस्य निर्गमनम् ? आचार्य आह- भण्यते,अत्रोत्तरं दीयते- कुलकार्ये उपलक्षणमेतत् सङ्ककार्ये च बहुविधे समापतिते, तथा पर्वसु पाक्षिकादिषु चैत्याना सर्वेषामपि नमनमवश्यं कर्तव्यमिति हेतोश्चाऽऽचार्यस्य वसते बहिर्निर्गमनम्। पुनश्चोदक आह - जति एवं निग्गमणे, भणाति तो बाहिं चिट्ठिए पुंछे / वुचति बहि अत्यंते, चोयग गुरुणो इमे दोसा / / चोदको भणति- यदिएवं कुलादिकार्यनिमित्तमाचार्यस्य निर्गमन, ततो निर्गमने सति प्रत्यागतो यदि वसतेबहिः सागारिकः, Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अइसेस 14- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अइसेस ततस्ताव बहिस्तिष्ठतु यावत् चलसागारिको व्युत्क्रान्तो भवति, ततो प्रतीक्षमाणस्तिष्ठति, न तु भुङ्क्ते / अद्याऽपि नाऽऽलोचितमाचार्येण च बहिरेव पादान प्रस्फोट्य वसतेरन्तः प्रविशतु, एवं च सतिक्षपकादिदोषाः न दृष्टमिति कृत्वा। परित्यक्ता भवन्ति / आचार्य आह- उच्यते, उत्तरं भण्यते- हे चोदक ! परितावअंतराया, दोसा होंति अभुंजणे। गुरोराचार्यस्य वसतेर्बहिः तिष्ठत इमे वक्ष्यमाणा बहवो दोषाः, मुंजणे अविणादीया, दोसा तत्थ भवंति य॥ तानेवाऽऽह - एवं क्षपकस्य विक्लिष्टतपसा क्लान्तस्य प्रतीक्षणेनाभोजने महान् तण्हुण्हादिअभाविय, वुड्डा वा अत्थमाणपुच्छादी। परितापो भवति अन्तरायं चोपजायते / अथ भुयते तर्हि भोजने विणए गिलाणमादी, साहू सन्नी पडिच्छंतो।। तत्राऽविनयादयो विनयः प्रतीतः, आदिशब्दाद् अदृष्टाकुलादिकार्येण निर्गत आचार्य उष्णेन भाविते तृष्णा जायते द्यनालोचितभोजने अदत्तादानदोषपरिग्रहो दोषा भवन्ति। ततस्तृष्णाभिभूतो वसतिमागतो यदि बहिर्वसतेः प्रतीक्षते ग्लानमधिकृत्याहयावत्सागारिकोऽपगच्छति ततस्तृष्णया उष्णेनादिशब्दा-दनागाढागाढ गिलाणस्सोसहादी उ, न देंति गुरुणा विणा। परितापनापरिग्रहः पीडिते मूच्छा जायते / आदिशब्दात् ऊणाहियं वदेज्जाहि, तस्स वेलातिगच्छति। वसतिप्रविष्टस्सन प्रचुर पानीयमापिबेत्। ततो भक्ताजीर्णतया ग्लानत्वं ग्लानस्यौषधादिकं साधवो गुरुणा विना न ददति / आदिशब्दात् भवेदित्यादिपरिग्रहस्तथा वृद्धा उपलक्षणमेतत् भोजनपरिग्रहः। यदि वा ऊनमधिकंवा दधुः,तस्य च ग्लान-स्याऽऽचार्य बालशैक्षासहायादयश्चाचार्ये तिष्ठति प्रतीक्षन्ते ते च प्रतीक्षमाणाः प्रतीक्षमाणस्य वेलाऽतिगच्छति। प्रथमद्वितीयपरिषहाभ्यां पीडिता मूर्छा-द्याप्नुवन्ति तथा ग्लान संप्रति "साहू सण्णी" इति व्याख्यानयतिआदिशब्दात् क्षपकादिपरिग्रहस्ते विनयेन प्रतीक्षमाणा भोजनमकुर्वन्त पाहुणगा गंतुमणा, वंदिय जो तेसि उण्हसंतावो। औषधादिकं च गुरुणा विना अलभमाना गाढतरंग्लानत्वाद्याप्नुवन्ति। पारणयपडिच्छंते,सद्धे वा अंतरायं तु॥ तथा साधवः केचित् प्राघूर्णका गन्तुमनसस्तथा संज्ञिनः श्रावका प्राघूर्णकाः केचित् साधव आगताः, ते गन्तुमनसस्ते यद्याअष्टम्यादिषु कृतभक्ताः पारणके भिक्षायामदत्तायामपारयन्त आचार्य चार्यभवन्दित्वा अनापृच्छ्य गच्छन्ति, ततोऽविनयादयो दोषाः, ततः प्रतीक्षमाणास्तिष्ठन्ति तत्र साधूनां दिवसो गरीयान् चढति तत्र प्रतीक्षमाणास्तिष्ठन्ति आचार्यश्विरेण वसतिं प्रविष्टः। तावद् दिवसः, आ चोष्णादिपरितापना दोषाः / संज्ञिनां चान्तरायमित्येष गाथासंक्षेपार्थः। समन्तात्, ततोऽभवत्। ततो गुरुं वन्दित्वा व्रजतां य उष्णसंतापस्तेषां स सांप्रतमेनामेव विवरीषुः प्रथमतः "तण्हुण्हादि-अभाविय" इत्येतद् आचार्यनिमित्तकः / तथा श्राद्धे अष्टम्यादिषु पर्वसु कृताऽभक्ते पारणके व्याख्यानयति आचार्य प्रतीक्षमाणे अन्तरायं कृतं भवति / उपसंहारमाहतण्हुण्हभावियस्स, पडिच्छमाणस्स मुच्छमादीय। जम्हा एते दोसा, तम्हा बाहिं चिरंतु वसहीए। खद्धादिए गिलाणे, सुत्तत्थविराहणाचेव।। गुरुणा न चिट्ठियव्वं, तस्स न किं दोसा होति य॥ आचार्यः स्वरूपत उष्णेन भाक्तिः क्वचित् कदाचित् प्रयोजनवशतो यस्मादेते दोषास्तस्मात् गुरुणा न वसतेर्बहिश्चिरं स्थातव्यं, भिक्षुणा बहिर्गमनात्ततः कुलादिकार्येषु निर्गतः, तृष्णाऽभिभूतो वसतिमागतोऽपि पुनश्चिरमपि स्थातव्यं, यावच्चलसागरिको न प्रयाति। ततो बहिः पादान यदि सागारिकमपगच्छन्तं यावत् प्रतीक्षते ततः प्रतीक्षमाणस्य तृष्णया / प्रमृज्याऽन्तर्वसतेः प्रवेष्टव्यम् / अत्र चोदक आह- तस्य भिक्षोः किमेते उष्णेन च तापितस्य मूच्छदियो भवन्ति , अन्तरोदिता दोषा न भवन्ति? आदिशब्दादागाढादिपरितापनापरिग्रहः / तथा वसतिप्रविष्टोऽतीव आचार्य आहतृष्णाभिभूतः खद्धस्य प्रचुरस्यपानीयस्यादानंग्रहणं कुर्यात् प्रचुरंपानीयं अणेगबहुणिग्गमणे, अब्भुट्टणभाविया य हिंडंता। पिबेदित्यर्थः / ततो भक्ताऽजीर्णतया ग्लानो भवेत्, तस्मिश्च ग्लाने दसविह वेयावचे, सग्गामे बहिं च वायामो / / सूत्राऽर्थपरि-हाणिर्विराधना च तस्याचार्यस्य स्यात् ग्लानत्वेनाचार्यों सीउण्हसहा भिक्खू, न य हाणी वायणादिया तेसिं / गुरुणो नियेतेति भावः / अथवा सूत्रार्थपरिहाण्या अजानतां साधूनां ज्ञानादि पुण ते नत्थी, तेण मज्झिंतो य खेयण्णे // विराधना स्यात् / सूत्रार्थाभावतो ऽजानन्तः साधवो ज्ञानादिविराधनां अनेकैः कारणैर्बहूनां निर्गमनमनेकबहुनिर्गमनं तस्मिन्, तथा कुर्युरिति भावः / अधुना "वुड्ढा वेति" व्याख्यानार्थमाह - गुर्वादीनामभ्युत्थाने आसनप्रदानादौ च तथा भिक्षार्थ हिण्ड- माना वुड्ढासहसेहादी, खमगो वा पारणे बुभुक्खत्तो। भाविता व्यायामितशरीराः। यदुक्तमनेकैः कारणैर्बहुवारं निर्गमनं, तत्र चिट्ठइ पडिच्छमाणो, न मुंजे ण लोइयमदिटुं / / कारणान्याह- दशविधवैयावृत्त्यनिमित्तं स्वग्रामे बहिः परनामे वृद्धा वयोवृद्धा असहाः प्रथमद्वितीयपरीषहान सोढुमसमर्थाः शैक्षका अनेकवारमनेकधा व्यायामोऽभवत्, तथा शीतोष्णसहा भिक्षवो न च आदिशब्दात् ग्लानाश्चायार्य प्रतीक्षमाणास्तिष्ठन्ति ते च तथा तेषां भिक्षणां वाचनादिका वाचनादिविषया हानिर्गुरोः पुनरनेके तिष्ठन्तस्तृष्णादिभिः पीडिता मूच्छद्यिाप्नुवन्ति ग्लानस्य च गाढतरं बहुनिर्गमनादयो न सन्ति, ततस्तृष्णाद्यध्यासितुमसहिष्णव आचार्या ग्लानत्वमुपजायते। यदिपुनरागतमात्र एव वसतौ प्रविशति ततो यथायोगं वसतेर्बहिः सागारिके तिष्ठति लघु वसतेरन्तः प्रविशन्ति ततः खेदज्ञेन वृद्धादीनामकालहीनं संपद्यते इति न कश्चिद्दोषः। अधुना ''विनए कुशलेन पादान प्रमार्जयन्ति / इदानी भिक्षोरपि द्वितीयपदापवादमाह - गिलाणादि" इत्येतद्व्याख्यानयति (खमगो वा इत्यादि) क्षपको वा / धुवकम्मियं व नाउं कज्जेणण्णेण वा अणतिपाति। अशाताजत नदिक्खातिवाहि भिक्खूवि Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अइसेस १५-अभिधानराजेन्द्रः- भाग 1 अइसेस वसतेबहिः सागारिकं ध्रुवकर्मिकं वा लोहकारादिकमन्येन वा कार्येणाऽन्यमपि सागारिकमनतिपातिनमिच्छन्तं तथा अव्याक्षिप्तमायुक्तं च ज्ञात्वा भिक्षुरपि बहिर्नोदीक्षेत न प्रतीक्षेत, किन्तु वसतिं प्रविश्यात्मीयावकाशे यतनयाऽऽत्मनः पादौ प्रमार्जयेत्। प्रथमोऽतिशयो गतः। आचार्योपाध्यायस्य अन्त-रुपाश्रयस्य उच्चारप्रस्रवणत्यजननामा द्वितीयाऽतिशयः। संप्रति द्वितीयं विभावयिषुरिदमाह - बहिगमणे चउगुरुगा, आणादी वाणिए य मिच्छत्त। पडियरणमणाभोगे,खरमुहीमरुए तिरिक्खादी॥ आचार्यो यदि विचारभूमि बहिर्गच्छति ततः प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः आज्ञादयश्च दोषाः। तथा- वाणिए य मिच्छत्तमिति, वणिजे अभ्युत्थानं पूर्वं कृतं भवति पश्चादकुर्वति केषाञ्चित् मिथ्यात्वमुपजायते / इयमत्र भावना - आचार्य संज्ञाभूमिं व्रजन्तंततःप्रत्यागच्छन्तं च दृष्ट्वा वणिजो निजनिजापणे स्थिता अभ्युत्थानं कृतवन्तस्तं च तथा वणिजां बहुमानेनाऽभ्युत्थानं दृष्ट्वा केचिदन्ये मन्यन्ते- गुणवानेष आचार्यों येन वणिज एवमेन-मभ्युपतिष्ठन्ति,तस्मादस्माकमपि पूज्य इति तेऽपि पूजयन्ति / यदा त्वाचार्यः कदाचित् द्वौवारौ संज्ञाभूमिं व्रजति,तदाचतुरो वारान् गमने प्रत्यागमने चोत्थातव्यं, ते चालस्यं मन्यमाना अभ्युत्थातव्यं भविष्यतीति कृत्वा आचार्यं दृष्ट्वाऽन्यतो मुखं कुर्वन्ति, तांश्च तथा कुर्वतो दृष्ट्वा अन्ये चिन्तयन्ति- नूनमेष प्रमादी जातो ज्ञातोऽपि गुणवानपि यदीदृशः पतति, तर्हि न किञ्चिदिति ते मिथ्यात्वं गच्छन्ति / तथा आचार्य लोकेन पूज्यमानं दृष्ट्वा मरुके ब्राह्मणस्य मारणबुद्ध्या प्रतिचरणं भवति। ततः संज्ञाभूमिं गतं विजने प्रदेशे मारयेत्, तथा खरमुखीं नपुंसकी दासी वा प्रापयित्वोमुहं कुर्यात्, अनाभोगेन वा वनगहने प्रविष्टे तिर्यगादौ च गर्दभ्यादौ कुलटादौ च प्रविष्टायामात्मपरोभयसमुत्था दोषाः / एष गाथासंक्षेपार्थः। ___ संप्रति "वाणिए य मिच्छत्तं'' इत्येतद् विभावयिषुराह - सुयवंतं पिपरिवारवं च वणियंतरभणुट्टाणे। दुवाण निग्गमम्मिय, हाणीय परमुहावण्णो / संज्ञाभूमिं व्रजति, ततः प्रत्यागच्छति वा तस्मिन्नाचार्ये, श्रुतवान्, एषः, परिवारवां चेति मन्यमाना अन्तरा निजनिजापणेषु स्थिता वणिजोऽभ्युत्थानं कृतवन्तः तेषां चोत्थानैः लोकस्य च भूयान् बहुमान आसीत्। कदाचिदाचार्यो द्वौ वारौ संज्ञाभूमिव्रजेत्, ततो द्विस्थाने निर्गमने चतुरो वारान् गच्छति प्रत्यागच्छति चोत्थातव्यं, ततस्ते आलस्यं मन्यमाना अभ्युत्थानस्य हानि कुर्वन्ति,ते च हानिमभ्युत्थानस्य चिकीर्षवोऽभ्युत्थातव्यं भविष्यतीति कृत्वा तमाचार्यं दृष्ट्वा परमुखा भवन्ति, अन्यतो मुखं कुर्वन्तीतिभावः। अथवा अवर्णः स्यात्,तथाहिद्वौ वारौ संज्ञाभूमिं व्रजन्तमाचार्यं दृष्ट्वा ते वदन्ति-नूनमेष आचार्यों द्वौ त्रीन् वारान् समुद्दिशति,तेन द्वौ वारौ संज्ञाभूमिं याति। गुणवं तु जओ वणिया, पूयंतण्णे वि सम्मुहा तम्मि। पडि यं ति अणुछणे, दुविह नियत्ती अभिमुहाणं / / वणिजां बहुमानेनाभ्युत्थानं दृष्ट्वा के चिदन्ये चिन्तयन्तिगुणवानाचार्यो, यतो वणिजः पूजयन्ति, एवं चिन्तयित्वा तेऽप्यन्ये तस्मिन्नाचार्ये सन्मुखा भवन्ति, वारद्वयसंज्ञाभूमिगमनेवणिजामनुत्थाने ते चिन्तयन्ति- नूनमेष आचार्यः पतितः, कथमन्यथा वणिजः पूर्वमभ्युत्थानं कृतवन्तो, नेदानीम् / तथा च सति तेषामभिमुखानां द्विविधा निवृत्तिः, तथा ये श्रावकत्वं ग्रहीतुकामा ये च तस्य समीपे प्रव्रजितुकामास्ते चिन्तयन्ति- यद्येषोऽपि प्रधानो ज्ञाता कुशीलत्वं प्रतिपद्यते, तर्हिनूनं सर्व जिनवचनमसारमिति मन्यमानाः श्रावकत्वाद् व्रतग्रहणाद् वा प्रतिनिवर्तन्ते, मिथ्यात्वं गच्छन्ति / संप्रति "पडियरणमणाभोगे" इत्यादि व्याख्यानयन्नाहआउट्टो त्ति व लोगे, पडियरिओ छन्नमारए मरुगो / खरियमुहसंगहं वा, लोभेउ तिरिक्खसंगहणं / / गुणावानाचार्य इति कृत्वा सर्वो लोक आचार्यस्याऽऽवृतोऽभवत् प्रणतोऽभूत् धिग्जातीयानां केषांचित् पापीयसां तथापूजामाचार्यस्य दृष्ट्वा महामत्सरो भवेत्, मात्सर्येण संज्ञाभूमिगतमाचार्य प्रतिवर्य छन्ने प्रदेशे मरुको ब्राह्मणः कोऽपि जीविताद् व्यपरोप्य गर्तादिषु प्रच्छन्ने प्रदेशे स्थगयेत् / तथा खरिकामुखी दासी नपुंसकं वा प्रलोभ्य तत्र प्रेष्य संग्रहं कुर्यात्, यथा- मैथुनमेष सेवमानो गृहीतस्तत उड्डहः स्यात्, तथा अनाभोगेनाचार्योवना-दिगुपिलमवकाश संज्ञाव्युत्सर्जनाय प्रविष्टः स्यात्, तत्र च (तिरिक्खत्ति) तिर्यग्योनिका गर्दभ्यादिका पूर्वगता पश्चाद्वा प्रविष्टा भवेत्, तां च केचित् प्रत्यनीका दृष्ट्वा उड्डाहं कुर्युः / मूलगाथायां यदुक्तं- (तिरिक्खादीति) तत्राऽऽदिशब्दव्याख्यानार्थमाह - आदिग्गहणा उग्गामिगाव तह अन्नतिथिगावावि। अहवा वि अण्णदोसा, हवंतिमे वादिमादीय॥ आदिग्रहणाद् उद्यामिका कुलटा, तथा अन्यतीर्थिका वा परिगृह्यते, सा तस्मिन् गहने पूर्वं गता, पश्चाद्वा प्रविष्टाऽभवत् / तत्र चाऽऽत्मपरोभयसमुत्था दोषाः संग्रहणादयश्च प्रागुक्ताः / अथवा इमे वक्ष्यमाणा अन्ये वाद्यादयो दोषा भवन्ति। तानेव संजिघृक्षुरिगाथामाह - वादीदंडियमादी, सुत्तत्थाणं च गच्छे परिहाणी। आवस्सगदिटुंतो, कुमार अकरंतकरते य / / वादिदण्डिकादयो वादिदण्डिकादिविषया बहवो दोषाः। तथा सूत्रार्थाना गच्छस्य परिहाणिः / अथवा सूत्रार्थानां परिहाणिर्गच्छे च ज्ञानादीनां परिहाणिः। तथा आवश्यक- मुच्चारावश्यकं कुर्वन् अकुर्वंश्च कुमारो दृष्टान्तः / एष द्वार-गाथासंक्षेपाऽर्थः / सांप्रतमेनामेव विवरीषुः प्रथमतो वादि-द्वारमाहसन्नागतो ति पिढे, भयातिसारो त्ति चेति परवादी। मा होही रिसिवज्झा, वचामि अलं विवाएण।। कोऽपि परप्रवादी बहुश्रुतमाचार्य लोकपूजितं श्रुत्वा तेन समं वादं करिष्यामीत्यागतो भवेत्, आचार्यश्च संज्ञाभूमि तदा गतस्तेन चाऽऽगतेन वसतौ पृष्ट क्व आचार्यः साधुभिः कथितमाचार्याः संज्ञाभूमिं गताः। एवं श्रुत्वा स परप्रवादी ब्रूयात्- स मम भयेन पलायितो, यदि वा मम भयेनाऽतीसारो जातः / अथवा- मा भवत्वेषां हत्येति व्रजामि, अलं पर्याप्तं विवादेन। अधुना "दण्डियमादीति'' व्याख्यानयतिचंदगवेज्झासरिसं, आगमणं एय इडिमंताणं / पव्वजसावगभद्दग-इन्चादिगुणाण परिहाणी॥ यथा- इन्द्रपुरे इन्द्रदत्तस्य राज्ञः सुतेन कथमपि पुत्तलिकाऽक्षिचन्द्रकस्य वेधः कृतः,तत्सदृशं"काकतालीयवत्" Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अइसेस १६-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अइसेस राज्ञः ऋद्धिमतांचाऽन्येषामाचार्यसमीपे आगमनं आचार्ये च संज्ञा भूमि गते दण्डिकादिरागतो भवेत्, ततः संज्ञाभूमिं गतश्चा-ऽऽचार्य इति श्रुत्वा प्रतिनिवर्तन्ते, यदि पुनः संज्ञाभूमिं न गता आचार्या भवेयुस्ततो धर्म श्रुत्वा कदाचित् ते प्रव्रज्यां गृह्णीयुः, प्रव्रजितेषु च राजादिषु महती प्रवचनप्रभावना / तथा श्रावकत्वं केचित् कदाचित् प्रतिपद्येरन्, यथाभद्रका वा भवेयुः,तथा च चैत्यसाधूनां महानुप-ग्रहः। संज्ञाभूमिगमने चैतेषां गुणानां हानिः / संप्रति ''सुत्तत्थाणं च गच्छे परिहाणी'' इत्येतद्व्याख्यानार्थमाह - सुत्तत्थे परिहाणी, वीयारं गंतु जा पुणो एति। तत्थेव य वीसरणे, सुत्तत्थेसुं न सीयंते॥ विचारं विचारभूमिं गत्वा यावत् पुनरेति तावत्सूत्रार्थपरिहाणिः। इयमत्र भावना- संज्ञाभूमिळूरे भवेत्,सूत्रपौरुष्यामर्थपौरुष्यां चाऽर्द्धकृतायामाचार्यः संज्ञावान ज्ञातस्ततो गतः संज्ञाभूमि, तत उद्घाटायां पौरुष्यामर्थपौरुष्यां कालवेलायां समागतः, ततः सूत्रार्थपरिहाणिः, तद्भावाच शिष्याः प्रातीच्छिकाश्चाऽन्यं गणं व्रजन्ति, ततो गच्छस्याऽपि परिहाणिः, तत्रैव पुनरुपाश्रये संज्ञाया व्युत्सृजने सूत्रार्थेषु साधवो न सीदन्ति / अत्र चाssवश्यकं कुर्वन् अकुर्वन् च कुमारो दृष्टान्तः। एवमेव भावयतितीरगए ववहारे, खीरगते होंति तदिह उहाणे। कोसस्स हाणि परचम्मु-पेल्लण रजस्स अपसत्थे। कुमारस्याऽऽस्थाने समुपविष्टस्यार्थिनः प्रत्यर्थिनश्व व्यवहारेणोपस्थिताः, तेषां चोत्तरोत्तरेण व्यवहरतां व्यवहारस्तीरं गतः, परं नाऽद्यापि समाप्तिमुपयाति, तस्मिश्चाऽसमाप्ते व्यवहारे सति राजकुमारः संज्ञावान् जातस्तत उत्थाय संज्ञाभूमिं गतः, सच यावन्नाऽऽयाति, तावदर्थिनः प्रत्यर्थिनश्च क्षीरोदकसंयोगादिवदेकीभूतास्ततो राजकुमारस्य प्रत्यागतस्य ते ब्रुवते - वयं परस्परं स्वस्थीभूताः / एवं सदा सर्वत्र समस्तादपि लक्षादिप्रमाणाद् दण्डाऽऽयपदात्परिभ्रष्टास्ततः कोशस्य हानिर्जाता, तांच ज्ञात्वा परचमूः परबलमागच्छेत्, तया च राज्यस्य प्रेरणमेषोऽप्रशस्ते दृष्टान्तः / प्रशस्ते पुनदृष्टान्तः स्वयं भावनीयः / स चाऽयं- प्रथमत एवाऽऽवश्यकमुच्चारादेः कृत्वा आस्थाने समुपविशति, उपविष्टो यदि संज्ञावान् भवति, ततः प्रच्छन्ने प्रदेशे व्युत्सृजति। एवं तस्य कुर्वतः प्रभूतं प्रभूततरं दण्डायपदं जातं, तथा च सति कोशस्य महती वृद्धिस्ततः परबलस्य प्रेरणं राज्यान्तरसंग्रहः। एष दृष्टान्तो-ऽयमर्थोपनयः / य आचार्यो बहिस्संज्ञाभूमि व्रजति, तस्य प्रागुक्तप्रकारेण सूत्राऽर्थपरिहाणिस्तत्परिहाण्या गच्छस्याऽपि परिहाणिः शिष्याणां प्रातीच्छिकाना चाऽन्यत्र गणान्तरे गमनात् / यस्तु तत्रैवोपाश्रये व्युत्सृजति, तस्य न किंचिदपि परिहीयते, इति सर्वं सुस्थम् / एतदेवाऽऽह - वेलं सुत्तत्थाणं, न मंजए दंडियादिकहणं वा। पच्छण्णअमयकोसे , पुच्छा पुण सोहणा विणए / यथा बहिनिर्गन्तव्यमेवं ग्रामादीनामन्तरपि सूत्रार्थानामपरिहाणिनिमित्तं दण्डिकादीनामागतानां धर्मकथाया अविघ्र- निमित्तं च संज्ञाव्युत्सृजनाय न गन्तव्यं, किन्तूपाश्रयस्या-ऽन्तर्युत्सर्जनीयं येन सूत्राऽर्थवेला न भनक्ति,नाऽपि दण्डिका-दीनामागतानां धर्मकथनं | विघ्नयति। पूर्वमेव चोपयोगः कर्तव्यः - किं मम संज्ञा भवेत्, न वा ? तत्र यदि शङ्का, तदा कृताऽऽवश्यकेन सूत्रपौरुष्यामर्थपौरुष्यां च सूत्राऽर्थप्रदानायोपवेष्टव्यं, तत्राऽपि न तावदासितव्यं यावदवश्यमुत्थेयं भवति, किन्त्वने, अत्राऽर्थे निदर्शनमेक आचार्य आवश्यकं शोधयित्वा तिष्ठति, दण्डिकश्च धर्मश्रवणार्थमागत आचार्येण धर्मकथा प्रारब्धा, स च धर्मकथाक्षिप्तो राजकुमारो धर्म शृण्वन् अभीक्ष्णमभीक्ष्ण कायिकीव्युत्सृजनायोत्तिष्ठति,आचार्यस्य प्रच्छन्नो मूत्रकोशः समय॑ते, प्रच्छन्नं कायिकीमात्रकं साधवः समर्पयन्ति, तत्र कायिकी व्युत्सृजति। ततो विनये लोकोत्तरिक चलवति राज्ञः पृच्छा आचार्यस्य कथनगतदे विभावयिषुरिदमाहनिद्धाहारो वि अहं, असई उडेमि नेस कहयंते। पासगतो तं (सण्ण) मत्तं, वत्थंतरियं पणामेइ। राजा चिन्तयति- मम स्निग्ध आहारः, तथाऽपि कायिकी-व्युत्सर्गाय पुनः पुनरुत्तिष्ठामि / आचार्यस्तु कथयन् रूक्षाहारो -ऽपि कायिकीव्युत्सर्गाय नोत्तिष्ठति, नूनं मध्ये य एष आचार्यस्य पार्श्वे स्थितः क्षुल्लकः, स तत्कायिकीमात्रं प्रच्छन्नं वस्त्रा-ऽन्तरितं प्रणमयति, समर्पयति, तत्र कायिकीमाचार्यो व्युत्सृजति / एतच्च यदि पृच्छयते, तीविनयः कृतो भवति, तस्मादुपायेन पृच्छामीति विचिन्त्येदं पृच्छति - विणओ लोइयलोउ-त्तरिओ त्तिय बली ततो गंगा। कतोमुही अचलंतो, भणिति निवं आगिति जतो।। राजा सूरिमापृच्छति- भगवन् ! किंलौकिको विनयो बलीयान्, अथवा लोकोत्तरिकः ? आचार्येणोक्तमयमर्थः परीक्षता परमेवं ज्ञायतेलोकोत्तरिको विनयो बलीयान्। तत्र परीक्षा कर्तुमारब्धा, आचार्येणोक्तंयस्तव दृष्टि प्रत्ययो, यं वा कृत्वा त्वं जानासि-न एष विनयभंसी, तं प्रेषय। यथा-कुतोमुखी गङ्गावहतीति ज्ञात्वा निवेदय। ततो राजा य आकृतिमान् यश्च दृष्टप्रत्ययः, तं प्रेषयति / यथा- व्रज, कुतोमुखी गङ्गा वहति ? सोऽचलन् तत्रैव स्थितो नृपं भणति, यथापूर्वमुखी गङ्गा वहति।लोकोऽप्यन्य एतत् जानाति। तत आचार्यो ब्रूतेमम शिष्याणांमध्ये यंत्वं विषमकरणनाशादिभिर्विषमंजानासि। उक्तञ्चविषमसम-विषमसमा,विषम-विषमाः समैः समाचाराः / करचरणवदननासा कर्णाष्ठनिरीक्षणैः पुरुषाः।।१।। विषमत्वाच विनयभंसं करिष्यतीति तं प्रेषय। रण्णा पयंसितो एस, वयओ अविणीयदंसणो समणो। पच्छागय उस्सगं, काउं आलोयए गुरुणो॥ एवमाचार्येणोक्ते राज्ञा यो विषमकरचरणादिना अविनीत- दर्शनः श्रमणः प्रदर्शितः / एष व्रजतु, कया दिशा गङ्गा वहतीति आचार्येण संप्रेषितः, स आचार्यानापृच्छ्य तत्र गत्वा, ततः प्रत्यागत्यैर्यापथिक्याः कायोत्सर्ग कृत्वा गुरोः पुरत आलोचयति / कथमित्याह - आदिबदिसा लोयण-तरंगतणमाइया य पुव्वमुही। मोहो य दिसाए मा होउ, पुट्ठो त्ति जणो तहेव अण्णो वि।। हे भगवन् ! युष्मत्पादानापृच्छ्याऽहं गङ्गातट गतः, तत्र च गत्वा सूर्य निातवान्, यत आदित्याद् दिग्विभागः सम्यक् ज्ञायते, एवमादित्यदिगालोचनं कृतं, तथा तरङ्गैस्तृणादीनि पूर्वाभिमुखान्यूह्यमानानि दृष्टानि, तत्र कदाचिद् दिग्मोहोऽपि Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अइसेस 17 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अइसेस स्यात्, ततोमा भूद् दिग्मोह इत्यन्योऽपिजनः त्रिसंख्याकः पृष्टः, सोऽपि तथैवाऽऽह, यथा- पूर्वाभिमुखी गङ्गा वहतीति / एतच्च राज्ञा प्रत्ययिकप्रच्छन्नपुरुषैः परि(भावितं) भावापितं तैरपि तथैव कथितम्, ततो राजा प्राहवहबंधछेयमारण -निव्विसयधणवहार लोगम्मि। भवदंडो उत्तरितो, उच्छहमाणस्स तो बलितो।। लोके योऽस्माकमाज्ञां भनक्ति, तस्य वधं / लकुटादिप्रहारैः ताडनं, बन्धं निगडादिभिश्छेदं कर्णच्छेदादिकं, केषाश्चित मारणं विनाशनमपरेषां निर्विषयकरणमन्येषां धनाऽपहारं कुर्मः,तथाऽपि केचिदस्माकमाज्ञां भञ्जन्ति।लोकोत्तरेषु पुनरेषां भञ्जतामेतानिन भयानि सन्ति, तथाऽपि परेण प्रयत्नेन लोकोत्तरिका आज्ञां कुर्वन्ति, तत्र किं कारणम् ? आचार्य | आह "भवदंडो' इत्यादि पश्चार्द्ध, यस्तीर्थकरगणधरादीनामाज्ञां भनक्ति, तस्य परभवे हस्तच्छेदनादीनि भवन्ति / एष लोकोत्तरे भवदण्डः / अस्माद् भीतस्य साधोरुत्सहमानस्य स्वशक्त्यनिगहनेनोद्यम कुर्वतो विनयो बलीयान् / एवं लोकोत्तरिको विनयो बलिकः। / अत्रैवाऽपवादमाहबितियपयं असतीए, अण्णाए उवस्सयवसागारो। न पवत्तति सन्ने वि,जे य समत्था समं तेहिं / / कुपहादीनिग्गमणे, नातिगभीरे अपचवायम्मि। वोसिरियम्मिय गुरुणा, निसिरंति महंतदंडधरा / / द्वितीयपदमपवादपदमधिकृत्य संज्ञाभूमिमाचार्यों व्रजेत् / तदेव द्वितीयपदमाह- उपाश्रये च पश्चात्कृते संज्ञाभूमिर्नाऽस्ति, ततस्तस्या असति, बहिजेत्। (अण्णाएत्ति) यत्र न ज्ञायते-एष आचार्यस्तत्राऽपि बहिर्ब्रजेत्। अथवा उपाश्रये सागारिको विद्यते ततो बहिर्याति कस्याऽपि पुनरुपाश्रयस्य पश्चात्कृते विद्यमाने- ऽपि संज्ञा न प्रवर्त्तते, सोऽपि बहिर्याति / एतैः कारणैर्बहिर्गमनम्। तत्र ये समर्थास्तरुणाः साधवस्तैः समंयाति। तत्र यानि कुपथादीनि कुरथ्यादीनि, तैर्गन्तव्यं, तैर्गच्छतोऽपि प्रायः पूर्वोक्ता दोषा न भवन्ति / तत्राऽपि यत् नाऽतिगम्भीर नाऽतिविषममप्रत्यवायं प्रत्यवायविरहितं, तत्राऽऽचार्यः संज्ञा व्युत्सृजति / येषां च सहायानां हस्ते महान्तो दण्ड कास्ते महादण्डधराश्चतसृष्वपि दिक्षु संरक्षण-परायणास्तिष्ठन्ति, व्युत्सृष्टे च गुरुणा पुरीषे ते महादण्डधरास्त-तस्तरन्ति / कस्मादेवं रक्षा क्रियते इति चेत् ? कुलस्य तदायत्त-त्वात्। उक्तञ्च "जम्मि कुलं आयत्तं, तं पुरिसं आयरेण रक्खाहि" इत्यादि। कथंपुनः स रक्षितव्य इत्यत आह - जह राया तोसलिओ, मणिपडिमा रक्खए पयत्तेण। तह होइ रक्खियव्वो, सिरिघरसरिसोय आयरितो।। यथा राजा तौसलिको मणिप्रतिमेच प्रयत्नेन रक्षति, तथा भवत्याचार्यो रक्षितव्यः। यतः श्रीगृहसदृश एष आचार्यः। __अथ के ते प्रतिमे इत्यत आहपडिमुप्पत्ती वाणिय, उदहिप्पातो उवायणं भीतो। रयणदुगे जिणपडिमे, करेमि जइ उत्तरे विग्धं // उप्पाउवसमउत्तर-मविग्घर एक्कपडिमं वा। देवयछंदेण ततो, जाया बितिए विपडिमा तो।। प्रतिमयोरुत्पत्तिर्वक्तव्या सा चैवमेकस्य वणिजः समुद्र प्रवहणेनाऽवगाढस्योत्पात उपस्थितः / ततः स औपयाचितिकं करोति / यथा- यदेतदौत्पातिकमुपशाम्यति, अविनेनोत्तरामि च ततोऽनयोयोमणिरत्नयोझै मणिमय्यौ जिनप्रतिमे कारयिष्यामि, एवमौपयाचितिके कृते देवताऽनुभावेनौत्पातिकमुपशान्त- मविधं समुद्रोत्तरणमभूत्, स चोत्तीर्णः सन् लोभेन एकस्मिन् मणिरत्ने एकां जिनप्रतिमां कारयति, ततो देवतया द्वितीये मणिरत्ने द्वितीया जिनप्रतिमा कारिता। तथा चाह-देवताच्छन्देन ततो जाता द्वितीयेऽपि मणिरत्ने प्रतिमा। तो भत्तीए वणितो, सुस्सूसइता परेण जत्तेणं / तादीवएण पडिमा, दीसंतिहरा उ रयणाई॥ ततः कारापणाऽनन्तरं ते प्रतिमे वणिको भक्त्या परेण यत्नेन शुश्रूषते / ततः तयोश्च प्रतिमयोरिद प्रातिहार्यतेप्रतिमेयावद्दीपकः पार्वे ध्रियते, तावद् दीपकेन हेतुना प्रतिमे दृश्येते, इतरथा दीपकाऽभावे सप्रकाशे अपि मणिरत्ने दृश्येते। सोऊण पाडिहेरं,राया घेत्तूण सिरिहरे छुहति। मंगलभत्तीए तो, पूएति परेण जत्तेण // इदमनन्तरोदित प्रातिहार्यं राजा तौसलिकः श्रुत्वा ते प्रतिमे स्वयमेवात्मीयश्रीगृहके भाण्डारे क्षिपति मुञ्चति, ततो मङ्गल-बुद्ध्या भक्त्या च परेण यत्नेन ते पूजयति / यस्मिश्च दिवसे ते प्रतिमे श्रीगृहमानीते, ततः प्रभृति राज्ञः कोशादिषु वृद्धिरुपजाता / ततः श्रीगृहसदृश आचार्य इत्युक्तं, तत एवं दृष्टान्तभावना कर्तव्या यथा राजा श्रीगृहं प्रयत्नेन रक्षयति, एवमाचार्योऽपि रक्षणीयः ततः कथमत्र मणिमयप्रतिमाभ्यां दृष्टान्तभावना कृता? उच्यते - मंगलमत्ती अहिया, उप्पज्जइ तारिसम्मिदव्वम्मि। रयणग्गहणं तेणं, रयणभूतो तहायरितो॥ श्रीगृहे द्रविणं रक्षणीयं मणिमयप्रतिमयोः पुनद्रविणमपि अतिप्रभूतमस्ति,मङ्गलबुद्धिश्च / तत्राऽपि परमतीर्थकरभक्तिश्च इति / प्रयत्नेन रक्षणे त्रीणि कारणानि तथा चाऽऽह- मङ्गलं मङ्गलबुद्धिर्भक्तिश्चाऽधिका तादृशे द्रव्ये समुत्पद्यते, ततो रत्नग्रहणम्। यथा- ते रत्नप्रतिमे कारणत्रयवशाद्विशिष्टेन प्रयत्नेन रक्ष्येते शुश्रूष्येते च, तथा शिष्यैराचार्यः प्रयत्नेन रक्षणीयः शुश्रूषणीयश्च / अथैवमाचार्ये रक्षिते शुश्रूषिते च को गुणः? इत्यत आहपूयंति य रक्खयंति य, सीसा सव्वे गणिं सया पयया। इह परलोए य गुणा, हवंति तप्पूयणे जम्हा॥ गणिनमाचार्य शिष्याः सर्वे सदा प्रयताः प्रयत्नपराः पूजयन्तिशुश्रूषन्ते च, यस्मात् तत्पूजने आचार्यपूजने इह लोके परलोके च गुणा भवन्ति। इह लोके सूत्राऽर्थं तदुभयमुपयाति, परलोके सूत्राभ्यामधीताभ्यां ज्ञानादिमोक्षमार्गप्रसाधनम् / अथवा पारलौकिका गुणाः "आयरिए वेयावचं करेमाणे महानिञ्जरे महापज्जवसाणे भवति" इत्येवमादयः। गतो द्वितीयोऽतिशयः। संप्रति तृतीयमाह- "इच्छाए पहू वेयावडियं करेजा" इत्येवं- रूपमतिशयमभिधित्सुराह - जेणाहारो उगणी, सबालवुड्ढस्स होइ गच्छस्स। तो अतिसेसपमुत्तं, इमेहिं दारेहिं तस्स भवे / / येन कारणेन गणी आचार्यः सबालवृद्धस्य गच्छस्याऽऽधारः, ततस्तस्य भवत्यतिशेषप्रभुत्वमतिशायिप्रभुत्वं, तचैभिः वक्ष्यमाणैः द्वारैरवगन्तव्यम्।तान्येवाऽऽहतित्थयरपवयणे निज्जरायसावेक्खभत्तिऽवोच्छेतो। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अइसेस 18 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अइसेस एएहिं कारणेहिं, अतिसेसा होंति आयरिए। प्राघूर्णकादीनां वात्सल्यकरणाभावः। तथा अकारकं चेत् द्रव्यं लभते. आचार्यस्तीर्थकरस्तीर्थकराऽनुकारी, तथा सूत्रतोऽर्थतश्चा-ऽधीती तस्य भोजने ग्लानत्वमभोजने परिष्ठापनिकादोषः / तथा भिक्षामटतो प्रवचने, तथा तस्य वैयावृत्त्यकरणे महती निर्जरा भवति / तथा शिष्याः व्यालःश्वादिरुपतिष्ठेत, तत्र चाऽऽत्मविराधनादोषस्ततो गणचिन्ता तथा प्रातीच्छिका आत्माऽनुग्रहबुद्ध्या सूरे(यावृत्त्यं कुर्वन्तः सापेक्षा भवन्ति, वादी कोऽपि समागतः, सच भिक्षागतमाचार्य श्रुत्वा हीलयेत्, उड्डाहं वा सापेक्षाणां च भूयान् ज्ञानादिलाभो महती निर्जरा, इतरे त्वकुर्वन्तो कुर्यात्। तथा ऋद्धिमान् समृद्धः आचार्यो भवतीतिनस हिण्डापयितव्यः / निरपेक्षास्तेषां महान संसारः / तथा भक्तावाचार्यस्य क्रियमाणायां इत्येष द्वारगाथासंक्षेपार्थः / सांप्रतमेना-मेव विवरीषुः प्रथमतो सकलस्याऽपि गच्छस्या-ऽनुग्रहकरणात्तीर्थस्याऽव्य-वच्छेदः कृतो वातद्वारमाहभवति / एतैः कारणै-राचार्यस्य सूत्रोक्ता अतिशेषा भवन्ति, अयन्ये च भारेण वेयणाए, हिंडते उच्चनीयसासो वा। वक्ष्यमाणा इति द्वारगाथासंक्षेपाऽर्थः। सांप्रतमेषा व्याख्या। तत्र प्रथम बाहुकडिवायगहणं, विसमाकारेण सूलं वा।। तीर्थकर-कल्पद्वारं व्याख्यानयति भारेण भक्तभृतभाजनभरेण वेदना भवति / तथा कोऽपि ग्रामो गिरौ देविंद चक्कवट्टी, मंडलिया ईसरा तलवरा य। निविष्टो भवेत्, तत्र च कानिचित् नीचस्थानानि, तानि भारेण वेदनायां अभिगच्छंति जिणिंदे, ते गोयरियं न हिंडंति / / सत्यां हिण्डमानस्य श्वासो भवति, तथा कटेश्च वात-ग्रहणं भवति। तथा जिनेन्द्रा भगवन्त उत्पन्ने ज्ञाने देवेन्द्राः शक्रप्रभृतयश्चक्र-वर्तिनः, ग्रामे विषमाऽऽकारेण व्यवस्थिते यत्रतत्र वा तिर्यकशरीरं कृत्वा गच्छतः उपलक्षणमेतत् यथायोगं च बलदेवाश्च तथा माण्ड-लिकाः शूलं वा भवेत्। कतिपयमण्डलप्रभव ईश्वरास्तलवराश्चाऽभिगच्छन्ति / ततोऽपि ते अचुण्हतावितो उ,खद्धदवाददीय छडुणाई य। गोचरचर्यां न हिण्डन्ते। अप्पियणे असमाही, गेलण्णे सुत्तभंगादी।। संखादीया कोडी, सुराण निचं जिणे उवासंति। तथा अत्युष्णेन परितापितः सन् खद्ध प्रचुरं द्रवं पानीयमति-तृषित संसयवागरणाणि य, मणसा वयसा व पुच्छते। आददीत / तथा परितापभावतः पुनः पुनः पानीयमापिबेत् तथा संख्याऽतीताः सुराणां कोटयो नित्यं सर्वकालं जिनान तीर्थकृत चाऽऽहारपानीयेन प्लावितः सन्न जीर्येत, अजरणाच छर्दनंबमनं भवेत्, उपासन्ते, तथा सततं मनसा वचसा च पृच्छति, सुरादिके मनसा वचसा आदिशब्दात् आहाररुचिर्नोपजायते / अथवा पानीयं प्रभूतं न पिबति, च संशयव्याकरणानि करोति। ततो भिक्षां न हिण्डन्ते। ततोऽसमाधिः आहाररुचौ च पुनर्भोजनेग्लानत्वं, ग्लानत्वे च सूत्रभङ्गः, उप्पण्णणाणा जह नो अडंति, सूत्रपौरुषीभङ्गः। आदिशब्दादर्थ-पौरुषीमङ्गश्च / गतं वातद्वारम्। चोत्तीसबुद्धातिसया जिणिंदा। अधुना पित्तद्वारमाह - एवं गणी अट्ठगुणोववेतो, बहिया य पित्तमुच्छा, पडणं उण्हेण वा वि वसहीए। सत्था व नो हिंडइ इड्डिमं तु // आदियणे छडुणादी, सो चेव य पोरसीभंगो॥ यथा उत्पन्ने ज्ञाने जिनेन्द्राश्चतुस्त्रिंशत् बुद्धाऽतिशयाः सर्वज्ञा-अतिशया उष्णेन परितापितस्य चित्तप्रकृतेर्बहिः पित्तमूविशतः पतन देहसौगन्धादयो येषां ते तथा भिक्षां न हिण्डन्ते। एवं तीर्थकरदृष्टान्तेन भवेत् / तथा च सति भक्तभृतभाजनसहितस्य उड्डाहः / वसतौ वा गणी आचार्योऽष्टगुणोपेतोऽष्टविधगणि-संपदुपेतः शास्ता इव तीर्थकर इव पित्तमूविशतः पतनं तत्र प्रभूतजलपानाऽनन्तरमपि प्रचुरजलादानं, ऋद्धिमान् न हिण्डते। तथा च सति त एव छर्दनादयः प्रागुक्ता दोषाः, स एव सूत्रपौरुष्या गुरुहिंडणम्मि गुरुगा, वसभे लहया न निवारयंतस्स / अर्थपौरुष्याश्च भङ्गः। गतं पित्तद्वारम्। गीतागीते गुरुलहु, आणादीया बहू दोसा।। अधुना गणाऽऽलोकद्वारमाह - आचार्य भिक्षामटामीति व्यवसितं यदि वृषभो न निवारयति, तदा आलोगो तिण्णि वारे, गोणीण जहा तहेव गच्छे वि। तस्याऽनिवारयतः प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः। अथ वृषभेण निवारितोऽपि नटुं न नाहिंति नियत्त-दीह-सोही निसिजं च / / न तिष्ठति, तर्हि वृषभः शुद्धः आचार्यस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः। तथा गीतार्थो भिक्षुश्चेत् न निवारयति, तदा तस्य मासगुरु अगीतार्थस्य यथा गोपालस्तिसृषु वेलासु गवामालोकं करोति / तद्यथा- प्राक् भिक्षोरनिवारयतो मासलघु / आचार्यस्य गीतार्थाऽगीताभ्यां प्रसरन्तीनां मध्याहे छायासु स्थितानां विकालवेलायां गृह वारितस्याऽपि गमने प्रत्येकं चतुर्गुरु / आज्ञादय इमे वक्ष्यमाणा बहवो प्रत्यागच्छन्तीनां यदि न करोति, तदा नजानाति-काचित् नष्टा, का वा दोषास्तानेवाऽऽह - गतेति एवमाचार्येणाऽपि तिसृषु वेलासु गच्छे- ऽप्यालोकः कर्त्तव्यः / तद्यथा- प्रातर्मध्याहे विकालवेलायां च, तत्र यदि प्रातरावश्यके कृते वाते पित्ते गणालोए, कायकिलेसे अचिंतया। गणाऽलोकं न करोति, तदा मासलघु भिक्षावेलायां द्वितीय वार मेढी अकारगे वाले, गणचिंता वादिइड्डियो / / गणाऽऽलोकमकुर्वतो मासलघु तृतीयं वारं विकालवेलायामप्यकुर्वतो भिक्षामटतो वातो वा प्रकुपितो भवति, तथा अत्युष्णपरितापेन मासलघु / तत्राऽऽचार्यो यदि भिक्षां नाटयति, तदा तिसृषु वेलासु पित्तमुद्रिक्तीभवति। तथा गणस्य गच्छस्य भिक्षाटनपरिश्रमत आलोकः गणाऽऽलोकं कर्तुं न शक्नोति, भिक्षामटन कथं कुर्यात् ? गणालोके कर्तव्यो न भवति / तथा भिक्षाटने कायक्लेशो भवति, तस्माच चाऽक्रियमाणे इमे दोषाः। कोऽपि साधुनष्टो भवेत, सच नष्ट इति ज्ञात्वा सूत्राऽर्थपरिहाणिस्तथा सूत्राऽर्थयोरचिन्ता भवति / तथा मेढीभूत प्रत्यानीयते, गणाऽऽलोके पुनरकते नष्ट इत्येव न ज्ञायते / तथा आचार्यः तस्मिन् भिक्षामटति शिष्याणा- मात्मद्वाराभावात् भिक्षाचर्यागमने कः सन् निवृत्तः, को वा नेति न ज्ञायते। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अइसेस 19 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अइसेस तथा गणाऽऽलोके अक्रियमाणे को दीर्घ कालं भिक्षाचर्या करोति, को वा नेति केन ज्ञायते ? तथा भिक्षा-मटत्याचार्य भिक्षाचर्यात आगतानामालोचनायां कः शोधिं करोति / तथा भिक्षां हिण्डमाने सूरौ कोऽपि गृहनिषद्यां वाहयति,एतत् न ज्ञायते। सो आवस्सयहाणिं, करेज मिक्खालसा व अत्थेजा। तेण तिसंझालोग सिस्साण करेइ अत्थंतो॥ भिक्षामटत्याचार्ये ये आवश्यककर्तव्या योगास्तेषां यः प्रमादतो हानि करोति, स न ज्ञायते / तथा आचार्य एवाऽस्माकं भिक्षामानेष्यतीति के चित् भिक्षाऽलसा वसतावेव तिष्ठेयुर्न भिक्षामटेयुर्यत एवं गणाऽऽलोकेऽक्रियमाणे इमे दोषाः, तस्मात् तिसृष्वपि संध्यासु शिष्याणामालोकं तिष्ठन् भिक्षाऽहिण्डमानः करोति / गतं गणाऽऽलोकद्वारम्। अधुना कायक्लेशद्वारमाह - हिंडंतो उव्वातो, सुत्तत्थाणं च गच्छपरिहाणी। नासेहिति हिंडतो, सुत्तं अत्थं च अप्पाणं // हिण्डमानः पुनर्भिक्षा महान कायक्लेश इति (उव्वातोत्ति) परिश्रान्तो भवति, परिश्रान्तत्वात् सूत्रमर्थ इति शिष्येषु प्राती-च्छिकेषुच सूत्राऽर्थानां परिहाणिस्ततो गच्छस्याऽपि परिहाणिः शिष्याणां प्रातीच्छिकानां चाऽन्यत्राऽन्यत्र गणाऽन्तरे संगमात् / तथा हिण्डमानः सूत्रमर्थ चाऽऽरेकेणाऽक्षेपेणाऽऽत्मनो नाशयिष्यति। गतं कायक्लेशद्वारम् / इदानीं चिन्ताद्वारमाह - जा आससिउं मुंजइ, भुत्तो खेयं च जाव परिणेइ। ताव गतो सो दिवसो, नसती दाहिती किं वा / / यावद् भिक्षामर्थयित्वा क्षणमात्रमाश्वस्य भुङ्क्ते, भुक्तोऽपि च स्वेद भिक्षाटनपरिश्रमं यावत् प्रतिनयति स्फोटयति, तावद् दिवसः सकलोऽपि गतस्ततो नाऽस्ति सा वेला यत्र सूत्रस्याऽर्थस्य वा चिन्तां करोति, / अचिन्तितं च विस्मृतिमुपयाति, ततो नष्ट-स्मृतिः किं दास्यति ? न किमपीति भावः / वाशब्दो दूषण-समुच्चये। एतदेव सुव्यक्तं भावयतिएगा नत्थि दिवसतो, रत्तिं पिन जग्गते समुग्घातो। न य अगुणेउं दिज्जइ, जइ दिज्जइ संकितो दुहतो / नाऽस्तिएको विविक्तोऽवसरो दिवसमध्ये,यत्रसूत्रमर्थ वा चिन्तयति, रात्रावपि समुद्घातः सम्यक् परिश्रान्तो न जागर्त्ति / न च सूत्रमर्थं वा अगुणयित्वादीयते।यदि पुनर्दीयते, तर्हि द्विधातः सूत्रतोऽर्थतश्च शङ्कितो भवति / गतं चिन्ताद्वारम्। अधुना मेढिद्वारमाह - मेढीभूते बाहिं, मुंजण आदेसमाइ आगमणं / विणए गिलाणमादि, अत्यंते मेढिसंदेसा॥ आचार्यः सर्वस्याऽपि गच्छस्य मेढीभूतः मेदिरिति वा आधार इति वा चक्षुरिति वा एकाऽर्थ, स चेद् भिक्षां गच्छति, ततः साधूनां वसतेर्बहिर्यदृच्छया भोजनं स्यादेतदनन्तरमेव भावयिष्यते। तत एवं ज्ञायते केचिदादेशाः प्राघूर्णका आगच्छेयुरादि-शब्दात्केचिदलब्धिका लब्धिपरिहीनाः ततस्तेषामादेशा-दीनामागमनं ज्ञात्वा कः प्राघूर्णकानां विश्रामणं संदेश वा कुर्यात् ? को वा लब्धिपरिहीनानां यत् नाऽस्ति, तस्य दानम् ? प्राघूर्णकानामितरेषां च वात्सल्याऽकरणे विनयो न कृतः स्यात् / तथा ग्लानस्याऽऽदिशब्दात् बालवृद्धाऽसहायानां च कः संदेशप्रदानेन चिन्तां कुर्यात् ? तिष्ठति भिक्षामनटति आचार्ये मेढेः संदेशादादेशात् सर्वमादेशादि सुस्थं भवति। संप्रति यदुक्तं "बाहिं भुंजणत्ति' तद् भावयति - आलोयदायणं वा, कस्स करेहामु कं च छंदेमो। आयरिए य अडते, को अत्थिउमुच्छहे अन्नो। शिष्याः प्रातीच्छिकाश्च भिक्षां प्रविष्टाश्चिन्तयन्ति,सूरिरपि भिक्षार्थ निर्गतो भविष्यति, ततो वयं संप्रति प्रतिश्रयं गत्वा कस्य पुरतः आलोचयिष्यामः? कस्य वा भक्तं पानं वा दर्शयिष्यामः ? कं चाऽन्यं साधुं तत्र गताश्छन्दयामो, निमन्त्रयामो ? यतो भिक्षामटत्याचार्ये कोऽन्यः साधुःस्थातुमुत्सहते? सर्वोऽपि भिक्षां यातीति भावः। तथाहिसर्वे साधवो भिक्षामटत्याचार्ये चिन्तयन्ति, यदि स्वयमाचार्यो भिक्षां हिण्डते, काऽस्माकं शक्तिः ? पश्चात् स्थातुं वयमपि यास्यामः। एवं सर्वस्याऽपिगमने निमन्त्रणाऽपि कस्य स्यादिति विचिन्त्य बहिरेव समुद्दिश्य वसतावागच्छेयुरिति / गतं मेढिद्वारम्। इदानीमकारकद्वारमाह - णिक्कासिते अकारगम्मि, दय्वे पडिसेहणा हवति दुक्खं / रायनिमंतणऽगहणे, खिंसणवावारणा दुक्खं / / भिक्षामटत आचार्यस्य यदकारकं, तस्य तत् भिक्षाऽर्थ निष्काशितं, तस्मिन् अकारके द्रव्ये भिक्षाऽर्थ निष्काशिते प्रतिषेधनं - ममैतदकारकमन्यद् देहीति वक्तुं लज्जितो भवति दुःखं, यदि पुनर्लजा मुक्त्वा भणति, तदाऽनन्तरं वक्ष्यमाणा गाथाद्वयोक्ता दोषाः / तथा भिक्षामटत्याचार्य राज्ञा मत्त-वारणकस्थितेन दृष्टस्तत आकारयित्वा भणितो- मम गृहे भिक्षां गृहीत, स प्राऽऽह-न कल्पते राजपिण्ड इति। एवं निमन्त्रणाऽनन्तरमग्रहणे राज्ञा भण्यते साधो ! किं तव पतद्ग्रहे समस्ति? ततो दर्शितेऽन्तप्रान्तादिके वासिकादौ च, राजा तत् दृष्ट्या खिंसनं कुर्यात्। तथा आचार्योऽलब्धिको भवेत्, स चेत् ग्लानादिनिमित्तं शिष्यान् प्रातीच्छिकांश्च व्यापारयेत, तथा ग्लानादीनां योग्यमानयेति। तेचाऽलब्धिकं ज्ञात्वा परिभव-मुत्पादयन्तीति तेषां व्यापारणे दुःखमेवेति द्वारगाथासमासार्थः / सांप्रतमेनामेव विवरीषुर्लज्जां मुक्त्वा अकारकद्रव्यप्रति-षेधने दोषाः। तानेवाऽऽह - जेणेव कारणेणं, सीसमिणं मुंडियं भदंतेण। वयणघरवासिणी विहु,न मुंडिया ते कहं जीहा।। येनैव कारणेन हेतुना भदन्तेन गुरुणा तव शीर्षमिदं मुण्डितं, तेनैव कारणेन तव जिह्वाऽपिवदनगृहनिवासिनी- ममैतदकारक-मन्यदेहीति बुवाणा कथं न मुण्डिता? येनैवं भाषते, यथागयमागमम्मि लोए, सीसा वि तहेव तस्स गच्छंति / सयमेव दुट्ठजिब्भा, सीसे विणइस्सती केण / / गताऽऽगतोऽयं स्वभावतो लोकः, पितृस्वभावं पुत्रोऽनुकरोतीति भावः / ततो गतागतेऽस्मिन् लोके यथाऽऽचार्यों गच्छति, चेष्टते, शिष्या अपि तस्य तथैव गच्छन्ति, वर्तन्ते। त्वं च स्वयमेवेत्थं दुष्टजिह्वः, ततः केन प्रकारेण शिष्यान् विनेष्यसि शिक्षयिष्यसि ? नैव कथञ्चनेति। ततस्तेऽपि त्वत्सदृशा भविष्यन्तीति। पडिसेहतमजोग, अण्णस्स वि दुल्लहं हवइ भिक्खं / सद्धाभंगचियत्तं, जिब्भादोसो अवण्णो य॥ अयोग्यमकारकं प्रतिषिध्यमानं महान्तमपगुणं करोति, Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अइसेस 20. अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अइसेस कं तमित्याह- कोऽसावपगुणः ? इत्याह-अन्यस्याऽपि साधो-दुल्लभं भवति भैक्षे, नैते यद्वा तद्वा गृह्णन्तीत्यदानात्।तथा अकारकस्य प्रतिषेधने कस्या अपि महत्या श्रद्धाया भङ्गः अपरस्या (अचियत्तं)अप्रीतिः,ततस्तवशादवर्णो जिहादोष उत्पद्यते / संप्रति यदुक्तं- राजनिमन्त्रणाऽग्रहणखिंसनमिति, तत्र तदेव खिंसनमाह - पुट्विं अदत्तदाणा, अकोविया इह उसंकिलिस्संति। काऊण अंतरायं, नेच्छंतिढेंवि दिज्जंते॥ आन्तप्रान्तादौ च दर्शिते राजा प्राऽऽह- पूर्वमदत्तदाना यूयं, तत इहाऽकोविदा अतत्त्वज्ञाः सन्तः क्लिश्यन्ते / तथाच राज-पिण्ड इत्यन्तरायं कृत्वा इष्टमपि दीयमानं भवन्तो नेच्छन्ति। गहणपडिसेहमुंजण, अमुंजणे चेव मासियं लहुयं / समणुण्ण अलंभे वा, खिंसेज्ज व सेहमादी य / / अकारकस्य ग्रहणे सति, यद्यन्यैः साधुभिः प्रतिषिध्यमानो- ऽपि भुङ्क्ते, तदाग्लानत्वमथ नभुङ्क्ते, तदा अभोजने पारि-ष्ठापनिकादोषः / तत्र च प्रायश्चित्तं मासिकं लघु / तथा यदि आचार्योऽलब्धिकः, तदा अमनोज्ञलाभे वा शैक्षकादयः खिंसेयुन किमपि क्वाऽपि गतो लभते, रिक्तमेतस्याऽऽचार्यत्वम्। वावारिया गिलाणा-दियाण(गेण्हह)जोगंति ते तओ बेति। तुम्मे कीस न गेण्हह, हिंडंताओ सयं चेव।। आचार्यो लब्धिहीनः सन् शिष्यान प्रातीच्छिकांश्च व्यापारयेत / यथा ग्लानादीनां ग्लानप्राघूर्णकप्रभृतीनां योग्यं गृह्णीत, त एवं व्यापारिताः सन्तो ब्रुवते- यूयं स्वयमेव हिण्डमांना ग्लानादिप्रायोग्यं कस्मात् न गृहीत? एवाणाए परिभवो, बेंति य दीसति य पाडिरूवं मे। आणेह जाणमाणा, खिंसंती एवमादीहिं।। एवमुपदर्शितेन प्रकारेण आज्ञायाः परिभव उत्पाद्यते, यथा- यदि यूयं प्रायोग्यं न लभध्वे, वयं कथं लप्स्यामहे ? एवमुक्ते यद्याचार्यो ब्रूतेआर्याः ! उद्यमेन किं न लभ्यते? तत एवमुक्ते रुष्टा ब्रुवते- दृश्यते खलु भे भवतां प्रातिहार्य साऽतिशयमाचार्यत्वं, स्वयमवजानतः कस्मात् नाऽऽनयत ? एवमादिभिरुच्चावचैर्वचनैः खिंसयन्ति, हीलयन्ति / गतमकारकद्वारम्ाव्यालद्वारमाहवालो य साणमादी, दिलुतो तत्थ होती छत्तेण। लोभे य आभिओगो, विसे य इत्थीकए वा वि॥ भिक्षामटतो व्यालः श्वप्रभृतिकः कदाचिल्लगति, तदा महत्यपभ्राजना। तत्र दृष्टान्तश्छत्रेण, यथा- छत्रमुपरि ध्रियमाणं शोभते, अधः पतितं तु न किमपि, एवमाचार्योऽपि बहुभिः परि-वारितो गच्छन् शोभते / तथा भिक्षाटनप्रवृत्तस्तु श्वादिपरिगृहीतो न किमपि / तथा प्रतिरूपवानाचार्यो भवतीति लोभेन गाथायां सप्तमी तृतीयार्थेऽभियोगो वशीकरणं स्त्रीकृतं स्यात् / विष वा केनचित् प्रद्विष्टेन दीयेत। एतदेवोत्तरार्धं व्याचिख्यासुराह - मोएउं असमत्था, बद्धं रुद्धं च नचणं कुसिया। जुवतिकमणिज्जरूवो, सो पुण सव्वे वि ते सत्तो।। युवतिकमनीयरूपतयाऽलीकदोषसंभावनया अन्यथा बद्धं रुद्ध नर्तकं नटानां नायकं कुसिता मोचयितुं न समर्थाः, तेषां तादृक्-स्वभावात् स / पुनर्युवतिकमनीयरूपस्तान् कुसितान् सर्वानपि केनाऽपि दोषेण बद्धान् रुद्धान् वा मोचयितुं शक्तः,ततो यथा स प्रयत्नेन रक्ष्यते, एवमाचार्योऽपि रक्षणीयो-ऽन्यथा दोषस्तथा चाऽऽह - एमेवायरियस्स वि, दोसा पडिरूववंच सो होइ। दिन वा स मिच्छुवासो, अभिजोगवसीकरणमादी। एवमेव नर्तकस्येवाऽऽचार्यस्याऽप्यरक्षितस्य दोषा भवन्ति / तथाहिसोऽपि प्रतिरूपवान् भवति, ततः कोऽपि भिक्षूपासको जिनप्रवचनप्रभावनामसहिष्णुर्विषं दद्यात् स्त्री वा काचिद् रूपलुब्धा अभियोगं कुर्यात् वशीकरणादि वा प्रयुञ्जीत, यस्मादेते दोषास्तस्मात् प्रयत्नेन रक्षणीयोऽन्यथा तदभावे गणस्याऽप्यभावाऽऽपत्तिस्तथा चाऽऽह - नचणहीणा व नडा, नायगहीणा च रूपिणी वा वि। वक्कं व तुंडहीणं, न हवति एवं गणो गणिणा / यथा नर्तनहीना नटा, यथा नायकहीना रूपवती स्त्री, यथा च वक्त्रं तुण्डहीनं न भवति, एवं गणिनाऽऽचार्येण विना गणोऽपि न भवति। तदेवं व्यालद्वारं गतम्। इदानीं गणचिन्ताद्वारमाह - लाभालाभद्धाणि, अकारके बालवुड्डमादेसे। सेहखमए न नाहिति, चिटुंतो नाहिति पुण सव्वे // केन पर्याप्त लब्धं ? केन वा न लब्धमिति न ज्ञास्यति, स्वयं भिक्षाटने परिश्रान्तत्वात्।तथा अध्वनिमार्गे ये परिश्रान्ताः समागमनप्राघूर्णकाः, तेषामिदं वाऽकारकं, तथा बालान् वृद्धान् पूर्वान् गतांश्चाऽऽदेशान् प्राघूर्णकान्, तथा शैक्षान् क्षपकांश्च करणीयसाराऽकरणतयानज्ञास्यति, स्वयं भिक्षापरिश्रमेण परिश्रान्तत्वात्। तिष्ठन् पुनः सर्वान् यथौचित्येन ज्ञास्यति, परिश्रमाऽभावात् / गतं गणचिन्ताद्वारम् / अधुना वादिद्वारमाह - सोऊण गतं खिंसति, पडिच्छिउच्चाय वादिपेल्लेइ। अत्थंति सत्थचित्ते, न होंति दोसा तवादी य॥ भिक्षामटितुं प्रवृत्ते आचार्ये वादी कोऽपि समागतः, तेन साधव उक्ताःक्व आचार्याः ? साधुभिरुक्तं- भिक्षाटनाय गतः। ततः स भिक्षाऽर्थ गतं श्रुत्वा खिंसति हीलयति, एतावत् तस्य पाण्डित्यं, यः स्वयं भिक्षामटति। ततः क्षणमात्रं प्रतीक्षितः स चाऽऽचार्य उद्भ्रान्तः समागतः, तं समागतं दृष्ट्वा वादी प्रेरयति / स च परिश्रान्तत्वादुत्तरं दातुमसमर्थस्तिष्ठति। पुनः स्वस्थचित्ते दोषास्तापादयः, आदिशब्दात् तृषितादिपरिग्रहो भवति / तथा च सति न वादिना तस्य प्रेरणं, किंतु जयति / वादी समागतो भिक्षार्थं गत इति श्रुत्वा यदि गच्छेत्, तदुपदर्शयतिपागडियं माहप्पं, विण्णाणं चेव सुतु ते गुरुणो। जइ सो वि जाणमाणे, न वि तुभमणाढितो हुँतो // भिक्षार्थंगत इति ब्रुवाणैर्भवद्भिः सुष्ठु अतिशयेन माहात्म्यंगरिमलक्षणं विज्ञानं च प्रकटितम्।यदि सोऽपिज्ञाता भवति, न चैष युष्माकमनादृतो भवेत्। अधुना "पडिच्छिउचाय वादि पिल्लेइ' इति व्याख्यानयति - न वि उत्तराणि पासइ, पासाणियाणं च होति परिभूतो। सेहादिभद्दगा वि य, दटुं अमुहं परिणमंति॥ स भिक्षाटनपरिश्रान्तः सन्, न च, नैव उत्तराणि पश्यति, परि-श्रमेण बुद्धेः सव्यापादनात् / तथा च सति स प्राधिकानामपि Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अइसेस 21 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अइसेस सभ्यानामपि परिभूतो भवति, ततो ये शैक्षकादयो ये च भद्रकादयस्ते तन्मुख निरुत्तरं दृष्ट्या परिणमन्ति, विपरिणाम भजन्ते। भिक्षार्थमनटने पुनरिमे गुणाः - सुत्तत्थाण गुणाणं, विजामंता निमित्तजोगाणं। वीसत्थे पइरिक्खे, परिजिणइ रहस्ससुत्ते य॥ सूत्रार्थानां तथा विद्यानां मन्त्राणां निमित्तशास्त्राणां योग-शास्त्राणांच गुणनं परावर्तनं भवति / तथा विश्वस्तः सन् प्रतिरिक्ते विविक्ते प्रदेशे रहस्यसूत्राणि परिजयति, अत्यन्तं स्वभ्यस्तानि करोति, तस्मान्न भिक्षार्थमटितव्यमाचार्येण / गतं वादिद्वारम्। इदानीमृद्धिमद्वारमाहरण्णा विदुवक्खरको, ठवितो सव्वस्स उत्तमो होति। गच्छम्मि वि आयरितो, सव्वस्स वि उत्तमो होई॥ राज्ञा व्यक्षरको दासो यद्यपि जात्या हीनस्तथाऽपि संस्थापितः सन् सर्वस्याप्युत्तमो भवति! उत्तमत्वाच यथा न कश्चन प्रेषणेन हिण्डाप्यते, सोऽप्येवं यथा तथा गच्छेऽप्याचार्यः सर्वस्याप्युत्तमो भवतीति स सुतरां भिक्षां न हिण्डापयितव्यः। रायामच्चपुरोहिय, सेट्ठी सेणावती तलवराय। अभिगच्छंतायरिए ,कहियं च इमं उदाहरणं / यथा तीर्थकरश्छास्थकाले हिण्डमानोऽप्युत्पन्ने ज्ञाने देवेन्द्राधभिगमात् न हिण्डते / एवमाचार्यानपि आचार्यपदस्थापितान् राजा | अमात्यः पुरोहितः श्रेष्ठी सेनापतिः तलवराश्चाभिगच्छन्ति, ततस्तेऽपि भिक्षां न हिण्डन्ते। अन्यथा दोषस्तत्रेदमुदाहरणं तदेवाहसोऊण य उवसंतोऽमचो रण्णो तगं निवेदेइ। राया बितिए दिवसे, तइएऽमची य देवीय॥ राज्ञोऽमात्य आचार्यसमीपे धर्मं श्रुत्वा उपशान्तः सचराज्ञः स्वकमाचार्य निवेदयति / यथा गुणवानतीवाचार्यो ऽमुकप्रदेशे तिष्ठति, ततो | द्वितीयदिवसे राजा अमात्येन सह गतः धर्म श्रुत्वा परितुष्ट आगतो निजाऽग्रमहिष्याः परिकथयति, अमात्येनाप्या-त्मीयभार्यायाः कथितं, ततोऽमात्यी देवी चतृतीयदिवसे धर्म-श्रवणाय समागते आचार्यो भिक्षार्थ गतस्ततः। सोउं पडिच्छिऊण, व गया अहवा पडिच्छणे खिंसा। हिंडंति हाँति दोसा, कारण पडिवत्तिकुसलेहिं। भिक्षार्थं गत इति श्रुत्वा ते हीलयित्वा गते / अथवा क्षणमात्र प्रतीक्ष्य हीलयन्त्यौ गते / यदि वा यावदाचार्य आगच्छति, तावत्प्रतीक्षमाणे हीलयतः। अथवा प्रस्विन्नशरीरंपरिगलत्-प्रस्वेदमागतं दृष्ट्वा खिंसतो, यदि वा क्लमेन सुष्टु कृतं वन्दनं वा सोमं कथयतो वा परिश्रमेण न सुष्ठ वचनविनिर्गमः, तत उत्थिते हीलयतः, यथा पिण्डोलक इवैष भिक्षामटति, किमाचार्यत्व-मेतस्य। एते भिक्षां हिण्डमाने दोषाः / यदि पुनः कारणे वक्ष्यमाणे भिक्षार्थं गतो भवेत्, राजादयश्च तत्र गतास्ते च पृच्छेयुः क्व गत आचार्यः ? तत्र ये प्रतिपत्तिकुशलास्तैर्नेदं प्रतिवक्तव्यं भिक्षार्थ गत इति, किंतु चैत्यवन्दननिमित्तं गत इति / यदि राजादय आचार्यमागच्छन्तं प्रतीक्षेरन्, तदा येऽतीव दक्षा गीतार्थास्ते सुन्दरंपानकं | प्रथमालिकां च सुन्दर कल्पं चोलपट्ट च गृहीत्वाऽऽचार्यस्य कथयन्ति। तत आचार्यो मुखहस्तपादादि प्रक्षाल्य प्रथमालिकां पानकं च कृत्वा / कल्पं प्रावृत्य पात्राणि अन्यस्य समर्प्य तादृशवेषो वसतावानीयते, यथाऽनाख्यातोऽपि राजादिभिर्जायते- एष आचार्य इति / ततो वसति प्राप्तस्यपाद-प्रोञ्छनं पादप्रमार्जनार्थमादाय साधव उपतिष्ठन्ति / पादप्रमार्जनान्तरं वसतेरन्तः प्रविश्य पूर्वरचितायां निषद्यायामुप-विशति, उपविष्टस्य चरणकल्पकरणाय कोऽपि साधुरुपढौ कते, चरणप्रक्षालनानन्तरं च सर्वे साधयः पुरतः पार्श्वतः पृष्ठतो वा किंकरभूतास्तिष्ठन्ति, यथा राजा चकितस्तिष्ठति। एतदेवाऽऽह - कारणमिक्खस्स गते, विकज्जमन्नं निवस्स साहित्ता। निजोगनयनपढमा, कमादिधुवणं मणुण्णाइ / कारणे वक्ष्यमाणलक्षणे समापतिते भैक्षस्य गतेऽप्याचार्य नृपस्याऽन्यत्कार्यं कथयित्वा प्रथमालिकादेर्नियोगस्य नयनं ततः क्रमादिप्रक्षालनं ततो मनोज्ञप्रथमालिकावितरणम्। / कयकुरुकुय आसत्थो, पविसई पुव्वरइयनिसेजाए। पयया य होंति सीसा, जह चकितो होइ राया वि॥ कृतकुरुकुचः कृतकुलकुल आस्वस्थः प्रविशति प्रविश्य पूर्वरचिंतायां निषद्यायामुपविशति, ततः पादप्रक्षालनसमीपोप-वेशनप्रयतास्तथा भवन्ति, यथा राजाऽपि चकितो जायते। अत्र परप्रश्रमाहसीसा य परिचत्ता, चोयगवयणं कुद्रं बिसामणिया / दिट्ठतो दंडिएण, सावेक्खे चेव निरवेक्खे। चोदकवचनमाचार्य रक्षयित्वा शिष्या भिक्षायां प्रेषितास्तर्हि ते त्यक्ताः / आचार्य आह। अत्र कुटुम्बिगृहप्रदीपनदृष्टान्तः,तथा दण्डिकेन दृष्टान्तः सापेक्षो निरपेक्षश्वाचार्य एष द्वारगाथाक्षरार्थः / संप्रत्येनामेव विवरीषुः प्रथमतः सीसा य परिचत्ता, इति भावयति - वायादीया दोसा, गुरुस्स इतरेसि किं न ते होंति ? रक्खयसिस्सचाए, हिंडणतुल्ले असमता य॥ वातादयो दोषा गुरोर्भवन्ति इतरेषां साधूनां किं ते न भवन्ति ? भवन्त्येवेति भावः। ततो हिण्डने हिण्डनदोषे तुल्ये आत्मनो रक्षा क्रियते, शिष्याणां च त्याग इत्यसमता, नेदं समञ्जसमित्यर्थः। अन्यच्चदसविहवेयावच्चे, निचं अब्भुट्टिया असढभावा। ते दाणिं परिभूआ-अणुज्जमंताण दंडो य॥ दशविधे आचार्यादिभेदतो दशप्रकारे वैयावृत्त्ये नित्यं सर्वकालमशठ भावाः सन्तोऽभ्युत्थितास्ते संप्रति वातादिदोषान् पश्यद्भिरपि भिक्षाटने प्रेष्यमाणाः परित्यक्ताः। तथा दशविधे वैयावृत्त्ये नोद्यच्छन्ति, ततस्तेषामनुद्यच्छतामाचार्यादिवैया-वृत्त्याऽकरणे यथाऽर्ह प्रायश्चित्तं दण्डो दीयते तदेवं "सीसा य परिचत्ता' इति भावितम्। इदानी कुटुम्बिसामणियेति दृष्टान्तं भावयति - वुड्डीधन्नसुभरियं, कोट्ठागारं डज्झति कुडुबिस्स। किं अम्ह मुहा देइ, केई तहियं न अल्लीणा / / एकः कौटम्बिकः स कर्षकाणां कारणे उत्पन्ने वृद्ध्या कलाऽन्तररूपया धान्यं ददाति तया च वृद्ध्या कौटुम्बिकस्य कोष्ठाऽगाराणि धान्यसुभृतानि जातानि / अन्यदा च तस्यैक कोष्ठागारं वृद्धिधान्यसुभृतं वह्निना प्रदीप्तेन दह्यते तत्र के चित्कर्षका विध्मापननिमित्तं तत्र प्रदह्यमाने कोष्ठागारे समागतास्तत्र केचित् Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अइसेस 22- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अइसेस कथयन्ति- किमेष कौटुम्बिकोऽस्माकं मुधा ददाति ? येन वयं विध्मापनार्थमभ्युद्यता भवामः। एयस्स पभावेणं, जीवा अम्हेति एवं नाऊण। अण्णे उसमल्लीणा, विज्झविए तेसि सो तुट्ठो। अन्ये कर्षका एतस्य कौटुम्बिकस्य प्रभावेण वयंजीवन्तः स्म जीव अप्रत्ययः जीविता इत्यर्थः / एवं ज्ञात्वा समालीनास्तत्र समागता विध्मापनाय च प्रवृत्तास्ततो विध्मापिते कोष्ठागारे स कौटुम्बिकस्तेषां तुष्टः / ततः किमकार्षीदित्यत आहजे उ सहायगत्तं, करेसु तेसिं अवढियं दिन। दइंति न दिण्णियरे, अकासगा दुक्खजीवीय॥ ये विध्मापने सहायकत्वमकार्षुस्तेषामवृद्धिकं कलान्तर- वृद्धिरहितं धान्यं दत्तमितरेषां तु सहायत्वमकृतवता दग्धम्, इत्युत्तरं विधाय न दत्तं, ततस्ते अकर्षकाः सन्तो दुःखजीविनो जाताः / एष दृष्टान्तः / सांप्रतमुपनयमभिधित्सुराह - आयरिय कुटुबी वा, सामाणियथाणिया भवे साहू। वाबाहअगणितुल्ला, सुत्तत्था जाण धन्नं तु / / आचार्यः कुटुम्बी इव कुटुम्बितुल्य इत्यर्थः। सामान्यकर्षक-स्थानीयाः साधव आचार्यस्य भिक्षाटने वातादिव्याबाधा अग्नितुल्या, सूत्राऽर्थान् जानीहि धान्यं धान्यतुल्यान्। एमेव विणीयाणं, करेंति सुत्तत्थसंगहं थेरा। हावेंति उदासीणे, किलेसमागीय संसारे।। एवमेव कौटुम्बिकदृष्टान्तप्रकारेण ये विनीतास्तेषां स्थविरा आचार्याः सूत्राऽर्थसंग्रहं कुर्वन्ति, सूत्राऽर्थान् प्रयच्छन्ति, यः तदुदासीनस्तत्र हापयन्तीति न प्रयच्छन्तीति भावः / स चोदासीनो वर्तमानः सूत्राऽर्थयोग्यो न भवति, क्लेशभागी च संसारे जायते। गतंध्मापनद्वारम्। संप्रति दण्डिकदृष्टान्तं विभावयिषुरिदमाह - उप्पण्णकारणे पुण, जइ सयमेव सहसा गुरू हिंडे / अप्पाणं गच्छमुभयं, परिचयती तत्थिमं नायं // उत्पन्ने कारणे वक्ष्यमाणलक्षणे यदि सहसा स्वयमेव गुरुरात्मानं / गच्छमुभयं च परित्यजति, तत्र चेदं वक्ष्यमाणं ज्ञातमुदाहरणम्। तदेवाऽऽह - सोउं परबलमागयं, सहसा एक्कागिओ उ जो राया। निग्गच्छति सो चयती, अप्पाणं रज्जमुभयं च / / यो निरपेक्ष राज्ये परबलमागतं श्रुत्वा बलवाहनान्यमेलयित्वा सहसा एकाकी परबलस्य संमुखो निर्गच्छति, स आत्मानं राज्य-मुमयं च त्यजति बलवाहनव्यतिरेके ण युद्धाऽऽरम्भे मरण- भावात्। एवमाचार्योऽपि निरपेक्षः समुत्पन्नेऽपि कारणे सहसा भिक्षामटन्नात्मानं गच्छमुभयं च परित्यजति। उक्ता निरपेक्षदण्डिक-दृष्टान्तभावना। संप्रति सापेक्षदण्डिकदृष्टान्तभावनामाहसावेक्खो पुण राया, कुमारमादीहि परबलं खवियं / अजिए सयं पि जुज्झइ, उवमा एसेव गच्छे वि।। सापेक्षः पुना राजा प्रथम कुमारादीन् युद्धाय प्रेषयति, ततः | कुमारादिभिः परबलं क्षपयति, यदा कुमारैर्न परबलं क्षपितं, तदा तस्मिन्नजिते स्वयमपि राजा युध्यते। एषैवोपमा गच्छेऽपि द्रष्टव्या। आचार्योऽपि पूर्व यतनां करोति तथाऽपि असंस्तरणे स्वयमपि हिण्डते, एवं चाऽऽत्मानं गच्छमुभयं निस्तारयतीति भावः / संप्रति यः कारणैराचार्येण भिक्षार्थमटितव्यं, तानि कारणान्याह - अद्धाणकक्खडासति, गेलण्णादेसमाइएसुंतु। संथरमाणे भइतो, हिंडेज्ज असंथरंतम्मि॥ अध्वानं प्रपन्नः सार्थेन सममाचार्यो गच्छंस्तत्रचासंस्तरणे यदि सार्थिका आचार्यस्य गौरवेण प्रयच्छन्ति ततः स्वयमेवाचार्यो हिण्डते एवं कर्कशेऽपि क्षेत्रे भाषणीयं,तथा असति सहायानामभावे को भिक्षामानीय ददातीति स्वयं हिण्डते / तथा ग्लाना बहवस्ततस्तेषां सर्वेषामपि गच्छसाधवः प्रायोग्यमुत्पादयितुमशक्ता अथवा ग्लानप्रायोग्यमन्यः कोऽपिन लभते, तत आचार्यों हिण्डते, एवमादेशाः प्राघूर्णका आदिशब्दात् बालवृद्धाऽसहपरिग्रहस्तेष्वपि भावनीयम् / एतेषु विषयेषु असंस्तरति गच्छेनियमादाचार्यो हिण्डते अन्यथा प्रायश्चित्तसंभवात्संस्तरति पुनर्भक्तो विकल्पितः हिण्डते, कदाचित्न, अभ्युद्यतविहारपरिकर्म कुर्वन् हिण्डते, शेषकालं नेत्यर्थः / एष द्वारगाथासंक्षेपार्थः। अत्र यदुक्तं संस्तरणे न हिण्डते इति, तत्र संस्तरणं त्रिविधं जघन्यं मध्यममुत्कृष्टं च / तत्र जघन्यमधिकृत्याह - पंच वि आयरियादी, अत्यंते जहन्नए वि संथरणे। एमेवऽसंथरंते, सयमेव गणी अडति गामे / / जघन्येऽपि वक्ष्यमाणस्वरूपे संस्तरणे पञ्चाप्याचार्योपाध्यायप्रवर्तिस्थविरगणावच्छेदिनस्तिष्ठन्ति, जघन्येऽपीत्यपिशब्दः संभावने स चैतत्संभावयति / यदि तावत् जघन्येऽपि संस्तरणे पञ्चाप्याचार्यादयस्तिष्ठन्ति, ततो मध्यमे उत्कृष्ट संस्तरणे नियमात् पञ्चभिरपि स्थातव्यम्। एवमपिजघन्येनापि संस्तरणेनासंस्तरतिगच्छे स्वयमेव गणी आचार्यों ग्रामे भिक्षामटति। स च प्रतिलोम-परिपाट्या पर्यन्ते, तथाहि-जघन्येनापि असंस्तरतिप्रथमंगणाव-च्छेदको हिण्डते, तथाऽप्यसंस्तरणे स्थविरोऽपि हिण्डते, एव-मप्यसंस्तरणे प्रवर्त्यपि, तथाऽप्यसंस्तरणे उपाध्यायोऽपि तथापि चेत् न संस्तरति गच्छस्तत आचार्योऽपि। तत्र प्रथमत उत्कृष्ट-संस्तरणमाह - मंडलगयम्मि सूरे, उत्तिण्णा जाव पट्ठवणवेला। ता एंति भुत्तासेस-गया च उक्कोससंथरणे / / नभोमण्डलस्य मध्यगते सूर्ये मध्याह्ने इत्यर्थः, भिक्षार्थमव-तीर्णस्ततः पर्याप्त हिण्डित्वा यावत् तृतीयपौरुष्या आदौ स्वाध्यायप्रस्थापनवेला तावत्स निवर्तते, एतदुत्कृष्ट संस्तरणम् / अथवा तृतीयपौरुष्या आदी स्वाध्यायप्रस्थापनवेलायां स निवर्त्तते, एतदुत्कृष्ट संस्तरणम्। मध्यम जघन्यं चाऽऽह - सण्णातो आगयाणं, चउपोरिसि मज्झिमं हवति एयं / विसुयाविय मत्तदिणे, समतिऽत्थंते जहण्णं तु॥ मध्याह्नादारभ्य भिक्षार्थमवतीर्णानां पर्याप्त हिण्डित्वा वसतावागताना भुक्तानां सज्ञातः सज्ञाभूमित आगतानां यदि चतुर्थी पौरुषी अवगाहते, एतत् मध्यमं संस्तरणं भवति / मध्याह्नादारभ्य भिक्षामटित्वा भुक्त्वा सज्ञाभूमितः प्रत्या-गतमात्रेषु 'विसुयावियसु' विशोधितेष्वस्तमये पुनर्दिने समति जघन्य संस्तरणमवसातव्यं तदेवमुक्तं जघन्यादिभेदभिन्न संस्तरणम् / इदानीं मध्यादिद्वारव्याख्यानार्थमाह - अद्धाणेऽसंथरणे, अकोवियाणं विकरण पलंबे। एमेव कक्खडम्मि वि, असति त्ति सहायगा नस्थि / / Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अइसेस 23 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अइसेस अध्वनि सार्थेन समं व्रजतामसंस्तरणे भिक्षार्थमाचार्यो हिण्डते / अथवा ते सहायाः अको विदाः सार्थे च प्रलम्बान्यविकरणीकृतान्यखण्डीकृतानि लभ्यन्ते, तत आचार्यः स्वयमेव हिण्डमानः, तानि विकरणानि कृत्वा सन्निवर्तते। अथवा ददतामुपदेशं ददाति-विकरणानि कृत्वा ददध्वमिति / एवमको विदानां सहायानां भावे प्रलम्बविकरणनिमित्तमाचार्यो गच्छति। एवमेव कर्कशेऽपि क्षेत्रे भिक्षार्थ गमनमाचार्यस्य भवति, तत्राऽन्यसंस्तरणे अकोविदाः सहायभावे प्रलम्बविकरणाय वा गच्छन्तीति तथा असतीति नाम सहायकान सन्ति, ततः स्वयमेव भिक्षामटति। बहुया तत्थऽतरंता, अह गिल्लाणस्स सो परं लहति। एमेव य आदेसे, सेसेसु विभासबुद्धीए॥ बहवस्तत्र गच्छे अतरन्तो ग्लानास्ततः सर्वेषां गच्छसाधवः | प्रायोग्यमुत्पादयितुमशक्ता अथवाग्लानस्य परं प्रायोग्यमन्या न लभन्ते, किंतु स एवाचार्यस्ततः स हिण्डत। एवमेवादेशेषु प्रग्लानकेषु शेषेषु च बालवृद्धासहेषु विभाषा विभाषणं तच बुद्ध्या कर्त्तव्यं तचैवं यद्यादेशादयो बहवः सर्वेषां साधवः कर्तुं न शक्नुवन्ति, यदि वा स एवादेशादिप्रायोग्य लभते,नाऽन्यः कोऽपि, ततः स हिण्डते। संप्रति "संथरमाणे भइओ इति" व्याख्यानयतिअन्मुजयपरिकम्म, कुणमाणो जा गणं न वोसिरिति। ताव सयं सो हिंडइ, इति भयणाऽसंथरंतम्मि / / अभ्युद्यतविहारपरिकर्म कुर्वन्यावत् गणं न व्युत्सृजति, तावत्स्वयं स | आचार्यो हिण्डते, इत्येषा भजनाऽसंस्तरति गच्छे। अद्धाणादिसुवेहं, सुहसीलत्तेण जो करेज्जाहि। गुरुगा य जंच जत्थ व, सव्वपयत्तेण कायव्वं / / अध्वादिषु अध्वकर्कशादिष्वसंस्तरति गच्छेत्, सुखशीलत्वेन सुखमाकाशमाण आचार्योऽहमित्यालम्बनमाधाय य उपेक्षामाचार्यः करोति, भिक्षां न हिण्डते, इत्यर्थस्तस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः / यच्च तत्र वा अनागाढपरितापनादि साधवः प्राप्नुवन्ति, तन्निष्पन्नमपि तस्य प्रायश्चित्तं, तस्मात् सर्व-प्रयत्नेनाऽध्वादिष्वसंस्तरणे भिक्षाटनं कर्तव्यम्। सांप्रतमसंस्तरणयतनामाह - असती पडिलोमंतु, सग्गामे गमणदाणसड्डेसु / पेसति बितिए दिवसे, आवज्जइ मासियं गुरुयं / / असति अवमौदर्यादिना गच्छसंस्तरणाभावे प्रतिलोमं गणा- | वच्छे दकादारभ्य प्रतिकूलगमनमवसातव्यं, तद्यथा- प्रतिवृषभादिनाऽसंस्तरणे गणावच्छेदकः प्रतिवृषभादिभिः सह हिण्डते, तथाऽप्यसंस्तरणे, स्थविरोऽपि / तथाऽप्यसंस्तरणे प्रवर्तकोऽपि, तथाऽप्यसंस्तरणे उपाध्यायोऽपि, तथा चेत् न संस्तरति, तर्हि स्वग्रामे दानश्राद्धेषु कुलेष्वाचार्यगमनं भवति, तथापि चेदसंस्तरणं, तत आचार्योऽन्यान्यपि गृहाणि / तथा केनाऽपि साधुना कस्मिंश्चित् कुले ग्लानप्रायोग्यं किमपि द्रव्यं याचितं, परं न लब्धम् / अथवा तद्रव्यं तस्मिन् गृहे प्रभूतमस्ति, अन्यत्र च न विद्यते, तत्र यदि द्वितीये दिवसे तस्मिन् कुले येन न लब्धं, तमेवाचार्यः प्रेषयति, ततो गुरुकं मासिक प्रायश्चित्तम् / तस्मिन् कुले प्रतिलोम प्रेषयति / तद्यथा- प्रथम गणावच्छेदकः प्रेष्यस्तेनाऽलब्धे स्थविरस्तेनाऽप्यलब्धे प्रवर्तकस्तेनाऽप्यलब्धे उपाध्यायस्तेना-ऽप्यलब्धे स्वयमाचार्यो व्रजति / यदि वा सगृहप्रभुर्यस्य गौरवं करोति,सप्रेषयितव्यः। सांप्रतमस्या एव गाथायाः पूर्वार्द्ध भावयति - गणावछेदओ पुव्वं, ठवणकुलेसुं व हिंडइ सगामे। एवं थेरपवित्ती, अभिसेयं गुरुयपडिलोमं॥ पूर्व गणावच्छे दकः स्वग्रामे स्थापनाकुलेषु हिण्डते, एवं गणावच्छेदकादारभ्य प्रतिलोम वक्तव्यं, तद्यथा-असंस्तरणे स्थविरोऽपि हिण्डते, तथाऽप्यसंस्तरणे अभिषेक उपाध्यायः, तथापि संस्तरणाऽभावे गुरुरपि / अधुना 'पेसति बितिए दिवसे'' इत्यादि भावयति ओभासिय पडिसिद्धं, तं चेव न तत्थ पट्ठवेज्जाउ। पडिलोमं गणिमादी, गारवं जत्थ वा कुणति / / केनापि साधुना ग्लानप्रायोग्यं किमपि द्रव्यं कस्मिंश्चित् कुले अवभाषितं याचितमित्यर्थः। तच्च गृहप्रभुणा प्रतिषिद्धमन्यत्र तत् द्रव्यं नास्ति, किंतु तस्मिन्नेव गृहे, ततो द्वितीयदिवसे तरकुलेन तमेव प्रेषयेत्, किंतु प्रतिलोमं गणाऽवच्छेदकप्रभृ-तिकं यथोक्तं प्राक्, यत्र वा गृहप्रभुर्गौरवं करोति,तं वा प्रेषयेत्। तित्थकर त्ति समत्तं, अहुणा पावयणनिज्जरा चेव / वचंति दो व समगं, दुवालसंग पवयणं तु / / तीर्थकर इति द्वार समाप्तम्। अधुना प्रवचनं निर्जरा चेति द्वे अपि द्वारे समकमेककाल व्रजतः, तत्र प्रवचन नाम द्वादशाङ्ग-गणिपिटकम् / तं तु अहिज्जंताणं, वेयावच्चे उ निजरा तेसिं। कस्स भवे केरिसिया, सुत्तत्थे जहोत्तरं बलिया।। ननु द्वादशाङ्गं गणिपिटकमधीयानानां वैयावृत्त्ये क्रियमाणे तेषां वैयावृत्त्यकराणां महती निर्जरा, तदावरणीयस्य कर्मणः क्षयकरणात महापर्यवसानः, पुनरन्यनवकर्मबन्धाभावात्। अत्र शिष्यः प्राह-कस्य कीदृशी निर्जरा भवति? आचार्यः प्राह-सूत्रे अर्थे च यथोत्तरं बलिका। एतदेव विभावयिषुराहसुत्तावस्सगरादी, चोहसपुव्वाण तह जिणाणं च। भावे सुद्धमसुद्धं सुत्तत्थे मंडली चेव // सूत्रमावश्यकादि यावच्चतुर्दशपूर्वाणि, एतद्द्वारा यथोत्तरं महती महत्तरा निर्जरा एवमर्थेऽपि भावनीयम्। तथा जिनाना-मप्येवंविधजिनप्रभृतीनां यथोत्तरं बलिका निर्जरा / इयमत्र भावना- एक आवश्यकसूत्रधरस्य वैयावृत्त्यं करोति, अपरो दशवैकालिकसूत्रधरवैयावृत्त्यकरः, तस्य आवश्यककरात् महती निर्जरा एवमधस्तनाऽधस्तनतरश्रुतधरवैयावृत्त्यकरादुपर्यु परितरश्रुतधरवैयावृत्त्यकरो यथोत्तरं महानिर्जरः, तावदवसेयो यावत् त्रयोदशपूर्वधरवैयावृत्त्यकराच्चतुर्दशपूर्वधरवैयावृत्त्यकरो महानिर्जरः / एवमर्थेऽपि भावनीयं तदुभयचिन्तायां ग्लानवैयावृत्त्य-करादर्थवैयावृत्त्यकरो महर्द्धि को, नवरं निशीथकल्पव्यवहा-रार्थधराणां वैयावृत्त्यकरो महानिर्जरः / तथा श्रुतज्ञानिवैयावृत्त्य-करः / तथा भावः परिणामः, तस्मिन् शुद्धे अशुद्धे च तदनुसारेण निर्जरा प्रवर्तते / तथा सूत्राऽर्थे युगपच्चिन्त्यमाने यथोत्तरं बलिका। तथा मण्डली-सूत्राऽर्थाऽवधिकृत्य विचारणीया। इहाऽऽचार्यः प्रस्तुतः, तमधिकृत्य वैयावृत्त्यकरणे महती निर्जरा। तामाह - Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अइसेस 24 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अइसेस पावयणी खलु जम्हा, आयरितो तेण तस्स कुणमाणो। महतीए निज्जराए, वहति साहू दसविहम्मि॥ पावयणी प्रावचनिकः खलु यस्मादाचार्यः, तेन तस्य वैयावृत्त्यं कुर्वन् साधुर्महत्यां निर्जरायां वर्तते एवं दशविधेऽपि वैयावृत्त्ये महानिर्जराकत्वं भावनीयम् / संप्रति यदुक्तं- भावे शुद्धे अशुद्धे च तदनुसारतो निर्जरा भवतीति / तत्र भावो व्यवहारतः शुद्धवस्तुप्रभावाद् भवतीति प्रतिपिपादयिषुराहजारिसगं जंवत्थु, सुयं च तिण्हं च ओहिमादीणं / तारिसतो च्चिय भावो, उप्पज्जति वत्थुतो जम्हा॥ यादृशं यद् वस्तु प्रतिमादिकं, यस्य यावच्च श्रुतं त्रयाणां चाऽवृद्ध्यादीनां स्वस्थाने ये विशेषाः,तस्माद् वस्तुनः श्रुताद् विशेषात् तादृशात् भावः परिणामो व्यवहारस्तादृश उत्पद्यते, तदनुसारेण च निर्जरा, ततः पूर्व श्रुतचिन्तायामर्थचिन्तायां तथा जिनानां च यथोत्तरं बलिका निर्जरोक्ता। तथा चैवमेव व्यवहार-नयं प्रतिपिपादयिषुराह - गुणभूइटे द्रव्व-म्मि जेण मत्ताहियत्तणं भावे। इति वत्थूतो इच्छति, ववहारो निज्टर विउलं॥ यत् यतो गुणभूयिष्ठं द्रव्यं, ततस्तस्मिन् येन कारणेन मात्रा-ऽधिकत्वं परिणाम इति अस्मात् कारणात् वस्तुनः प्रतिमा-श्रुतादेर्यथोत्तरं गुणभूयिष्ठात् विपुलां निर्जरामिच्छति व्यवहारो व्यवहारनयः / एतदेव स्पष्टतरं भावयतिलक्खणजुत्ता पडिमा, पासादीया समत्तलंकारा। पल्हायति जह व मणं,तह निज्टर मो वियाणाहि।। या प्रतिमा लक्षणयुक्ता प्रसादी मनःप्रसादकारणं समस्ता- ऽलंकारा, तां पश्यतो यथैव मनः प्रह्लादते, तथा निर्जरां विजानीहि / यद्यधिकं मनःप्रहत्तिस्ततो महती निर्जरा, मन्दमनःप्रहृत्तौ तु मन्देति भावः - सुयवं अतिसयजुत्तो, सुहोचितो तह वि तवगुणुज्जुत्तो। जो सो मणप्पसातो, जायइ सो निज्टर कुणति / / श्रुतवानेषः अत्राप्यने के भेदास्तथा अतिशययुक्तोऽवध्याधतिशयोपेतोऽत्राऽप्यवध्यादिविषये बहवस्तरतमविशेषाः सुखोचितोऽपि तपसि स बाह्याऽभ्यन्तरेगुणे ज्ञानादौ उद्युक्तः, तपोगुणोद्यत इत्येवं योऽसौ यादृशो मनःप्रसादो मनःप्रसत्ति-परिणामो जायते, स तादृशीं निर्जरां करोति / तस्माद् वस्तुनो निर्जरेति व्यवहारनयः / तदेवमुक्तं व्यवहारनयमतम्। अधुना निश्चयनयमतमाह - निच्छयतो पुण अप्पे,जस्स वत्थुम्मि जायते भावो। तत्तो सो निज्जरगो, जिणगोयम सीहआहरणं / / निश्चयतः पुनरल्पेऽपि महागुणाः, गुणाऽन्तराद् हीनगुणेऽपि वस्तुनि यस्य जायते तीव्रः शुभो भावः, तस्मात् महागुणतर-विषयभावयुक्तात् स हीनगुणविषयतीव्रशुभभावो निर्जरको महानिर्जरतरः सद्भावस्याऽतीव शुभत्वात्। अत्र जिनगौतम- सिंह उदाहरणम्। तचैवम् "तिविद्वत्तणे भयवया वद्धमाणसामिणा सीहो निहतो, अधिति करेइखुडलगेण निहतोऽहमिति परि-भवतो गोयमेणं सारहित्तणेणभणुसासितो- मा अधितिं करेह, तुमं पसुसीहो नरसीहेण मारियस्स तुब्भ को परिभवो? एवं सोअणुसासिज्जंतो मतो। ततो संसार भमिऊण भयवतो वद्धमाणसामिस्स चरमतित्थगरभावे रायगिहे नयरे कविलस्स बंभणस्स य बडगो जातो, सो अण्णया समोसरणे आगतो भयवंतं दद्रूण धमधम्मेइ / ततो भयवया गोयमसामी पेसितो, जहाउवसामेह / ततो गतो अणुसासितो य, जहा- एस महप्पा तित्थंकरो एयम्मि जो पडिनिवसति, सो दुग्गइं जाति / एवं सो उवसामितो तस्स दिक्खा गोयमसामीणा दिन्ना / एतदेवाऽऽह - सीहो तिविट्ठनिहतो, भमिउं रायगिहे कविलबडुग त्ति। जिणवरकहणमणुवसम, गोयमोवसमे दिक्खा य॥ सिंहस्त्रिपृष्टन निहतः संसारं भ्रमित्वा राजगृहे कपिलस्य ब्राह्मण-स्य बटुकोऽभूत, जिनस्य वीरस्य कथनं, तथाऽपि तस्याऽनुप- शमो गौतमेन चाऽनुशासने कृतेऽभूत् उपशमो दीक्षा च।अत्र भगवदपेक्षया हीनगुणेऽपि गौतमे तस्य गुरुपरिणामो जायते, इति महती निर्जराऽभवदिति। संप्रति 'सुत्तत्थे' इत्यस्य व्याख्यानमाह - सुत्ते अत्थे तदुभए, पुट्विं भणिया जहोत्तरं बलिया। मंडलिए पुण भयणा, जइ जाणइ तत्थ भूयत्थं // सूत्रे अर्थे तदुभयस्मिन् स्वस्थाननिर्जरा पूर्व यथोत्तरं बलिका बलवती भणिता। संप्रति पुनः सूत्राऽर्थतदुभयेषु युगपचिन्त्य-मानेषु यथोत्तरं निर्जरा बलवती। सांप्रतं 'मंडली चेवत्ति' व्याख्यानार्थमाह- (मंडलीए पुण इत्यादि) मण्डल्यां पुनर्भजना विकल्पना / यदि जानाति तत्र मण्डल्यां भूतार्थ सद्भूतमर्थं, तदा स महानिर्जरकः / इयमत्र भावनामण्डल्यां पठन्ति पाठयन्ति च तत्राऽऽवश्यकादि पठता यथोत्तरं पठन्तो बलिकाः / अथ जानाति वैयावृत्त्यकरो, यथाऽधस्तनसूत्रपाटकोज्ञानादिभिर्गुणैरधिकतरस्ततो-ऽधस्तनश्रुतपाठकस्य वैयावृत्त्यकरणे महती निर्जरा, ददतां मध्ये य उपरितनश्रुतवाचकः, स ज्ञानादिभिरधिकतर इति तद्वैयावृत्त्यकरणे महती निर्जरा / अथ जानाति वैयावृत्त्यकरो यथाऽधस्तनश्रुतवाचको ज्ञानादिभिरधिकतरस्ततोऽधस्तनश्रुतवाचकस्य वैयावृत्त्यकरणे बलवती निर्जरा। वाचक-प्रातीच्छिकानां मध्ये यो वाचक-स्तद्वैयावृत्त्यकरणे महती निर्जरा, अथ वैयावृत्त्यकरो जानात्येष प्रातीच्छिक आचार्यों वाच्यते, तत्प्रत्युज्ज्वालनमात्रं यावता सर्वमेतस्याऽऽयाति सूत्रतोऽर्थत- श्वाऽधिकरतर इति, तदा तस्य प्रातीच्छिकस्य वैयावृत्त्यकृते महती निर्जरा / इह सूत्रेऽर्थे तदुभये च यथोत्तरं बलवती निर्जरा, इत्युक्तम् / तत्र यथोत्तरं निर्जराया बलवत्तां भावयतिअत्थो उ महड्डित्तो, करणेणं घरस्स निप्पत्ती। अब्भुट्ठाणे गुरुगा, रण्णो याणे य देवी य॥ दृष्टान्तः - सूत्रात् केवलात् अर्थाद्वा स सूत्राऽर्थो महर्द्धिकः, किं कारणमिति चेत् ? उच्यते- अत्र कृतकरणेन गृहस्य निष्पत्तिः / इतश्च सूत्रादर्थः, ससूत्रो महर्द्धिकः / सूत्रमण्डल्यामाचार्यादयः प्राघूर्णकप्रभृतीनामभ्युत्थान कुर्वन्ति, अर्थमण्डल्या पुनर्यस्य समीपे अनुयोग श्रुतवान्, तमेकं मुक्त्वा अन्यस्य दीक्षा-गुरोरभ्युत्थानं चत्वारो गुरुकाः प्रायश्चित्तं, ततः सूत्रादर्थो बली-यान् / अत्राऽर्थे राज्ञः शातवाहनस्य याने निर्गमने देवी दृष्टान्तः / एष गाथाऽक्षरार्थः / सांप्रतमेनामेव विवरीषुः कृतकरणेन गहस्य निष्पत्तिरिति द्रष्टान्तं भावयति Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अइसेस 25 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अइसेस आराहितो नरवती, तिहि उ पुरिसेहिं तेसिं संदिसति। अमुयपुरे सयसहस्स, घरं व एएसिं दायव्वं / / पट्टगे घेत्तूण गतो, उंडियं बितियो उ तइओ उभयं / निप्फलगा दोण्णि तहिं, मुद्दापट्टे उ सफलो उ॥ एको नरपतिस्त्रिभिः पुरुषैराराधितस्ततः परितुष्टः स नरपतिः तेषां प्रत्येकं संदिशति / यथा अमुकपुरे सुन्दरं गृहं शतं सहस्रं च दीनाराणामित्येषां प्रत्येकं दातव्यमिति तत्रैकोऽमुं संदेशं पट्टके गृहीत्वा लेखयित्वा गतो, द्वितीयः(उण्डिका)मुद्रांगृहीत्वा गतस्तृतीय उभयंपट्टके लेखयित्वा गतः। तत्र येन पट्टकं तद्व्यतिरेकेण मुद्राप्रतिबिम्बमात्रं गृहीतं, तौ द्वावपि निष्फलौ जातौ / तथाहि- ते त्रयोऽपि तन्नगरं गतास्तत्र य आयुक्तः, तस्य समीपमुपागताः / पट्टकं मुद्रामुभयं च दर्शयन्ति, तत्राऽऽयुक्तेन प्रथमो भणितो- मुद्रां न पश्यामि, कथं ददामि ? द्वितीयो भणितो- जानामि राज्ञो मुद्रां, न पुनर्जानामि राज्ञः संदेशं, किं दातव्यमिति। एवं तौ निष्फलौ जातौ, यस्य तृतीयस्य मुद्रा पट्टकश्च, स सफलः, तस्याऽऽयुक्तेन यथाऽऽज्ञप्तदानात् / एष दृष्टान्तः / सांप्रतमुपनयमाहएवं पट्टगसरिसं, सुत्तं अत्थो य उंडियट्ठाणे। उस्सग्गववायत्थो, उभयसरिच्छे य तेण बली।। एवममुना प्रकारेण पट्टकसदृशं पट्टकस्थानीयं सूत्रम्, उण्डिका मुद्रा, तत्स्थानीयोऽर्थः / उत्सर्गाऽपवादस्थ उभयसदृक्षस्तेन बली, तस्यो भयस्य भावात् / संप्रति 'अब्भुट्टाणे गुरुगा' इत्यस्य व्याख्यानार्थमाह - सुत्तस्स मंडलीए नियमा उट्ठति आयरियमादी। मुत्तूण पवायंतं, न उ अत्थे दिक्खण गुरुं पि॥ सूत्रमण्डल्या वाचयन्त आचार्यादय आचार्यों पाध्यायप्रभृतयः प्राघूर्णकादीनामागच्छता सर्वेषामपि नियमादुत्तिष्ठन्ति अभ्युत्थानं कुर्वन्ति, अर्थमण्डल्यां पुनरुपविष्टः सन्यस्य समीपेऽनुयोगः श्रुतस्तमेकं प्रवाचयन्तं मुक्त्वा अन्यं दीक्षणगुरुमपि नाऽभ्युत्तिष्ठति / यद्यभ्युत्तिष्ठति, तदा तस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः / श्रोतारोऽपि यद्याचार्ये अनभ्युत्तिष्ठत्यभ्युत्तिष्ठन्ति, तदा तेषामपि प्रायश्चित्तं चतुर्गुरुकं / यदि पुनर्यस्य समीपेऽनुयोगं श्रुतवान्, तस्य नाऽभ्युत्तिष्ठिति, तर्हि तदाऽपि तस्य चतुर्गुरुकम् / अत्र दृष्टान्तो राज्ञो देवी। तं भावयतिपतिलीलं करेमाणी, नोट्ठिया सातवाहणं। पुढवी नाम सा देवी, सोय रुट्ठो तहिं निवो // राज्ञः शा(लि)तवाहनस्य पृथिवी नाम अग्रमहिषी, अन्यदा सा क्वापि निर्गते राज्ञि शेषाभिरन्तःपुरिकाभिर्देवीभिः संपरिवृता शातवाहनवेषमाधाय राज्ञ आस्थानिकायामुपपतिलीला विडम्बमानाऽवतिष्ठते / राजा प्रत्यागतः प्रविष्टस्तस्मिन् प्रदेशे सा च पतिलीला कुर्वन्ती पुथिवी नाम देवी शातवाहनं राजानमायान्तमपि दृष्ट्वा नोत्थिता, तस्या अनुत्थाने शेषा अपि देव्यो नाऽभ्युत्थितवत्यस्ततः स नृपो राजा तत्र रुष्टो, ब्रूते- त्वं तावत् महादेवी, ततो महादेवीत्वेन नाऽभ्युत्थिता, एताः किं त्वया वारिता ? यन्नाऽभ्युत्थानमकापुंस्ततो न सुन्दरमेतदिति। ततो णं आह सा देवी, अत्थाणीए तव णाहा। दासा वि सामियं एतं, नोह्रति अवि पत्थिवं / / ततो राजोक्त्यनन्तरं सा पृथिवी नाम देवी राजानमाह- तवाsऽस्थानिकायामुपविष्टा दासा अपि नाथाः संपूर्णगुणाः पार्थिवमपि स्वामिनमागच्छन्तंनाऽभ्युत्तिष्ठन्ति। तवाऽऽस्थानिकायाः प्रभाव एवैषः। तथाहितुं वावि गुरुणो मोत्तुं, न वि उट्टेसि कस्सइ। न ते लीला कया होंती, उट्टती हं स तोसितो।। त्वमप्यस्यामास्थानिकायामुपविष्टो गुरून् मुक्त्वा नाऽन्यस्य कस्याऽपि महीयसोऽप्युत्तिष्ठसि, अहमपि तवाऽऽस्थानिकायां त्वदीयां लीलां धरन्ती समुपविष्टा, ततो न सपरिवाराऽभ्युत्थिता यदि पुनस्ते तव लीलान कृतास्यात्, ततोऽहमभ्युत्तष्ठेयमित्येवं राजा देव्या तोषितः / एवमत्राऽपि तीर्थकरस्थानीय आचार्यो-ऽर्थमण्डल्यामुपविष्टः सन् न कस्याऽप्यभ्युत्तिष्ठति। अमुमेवाऽर्थ गौतमदृष्टान्तेन दृढयतिकहं ते गोयमो अत्थं, मोत्तुं तित्थगरं सयं / नवि उट्टेइ अन्नस्स, तग्गयं चेव गम्मति / / न खलु भगवान् गौतमोऽर्थ कथयन् स्वकमात्मीयं तीर्थकरं मुक्त्वा अन्यस्य कस्याऽपि उत्तिष्ठति, अभ्युत्थानं कृतवान् / तद्गतं चेदानीं सर्वैरपि गम्यते, तदनुष्ठितं सर्वमिदानीमनुष्ठीयते / ततोऽर्थ कथयन् न कस्याऽप्युत्तिष्ठेत्। संप्रति श्रवणविधिमाह - सोयव्वे उ विही पुण, अव्वक्खेवादि होइ नायवो / विक्खेवम्मि य दोसा, आणादीया मुणेयव्वा।। श्रोतव्ये पुनरयं विधिरव्याक्षेपादिर्भवति ज्ञातव्यः, आदिशब्दाद् विकथादिपरिग्रहस्तव्याक्षेपे पुनराज्ञादयः / आज्ञानवस्थामिथ्यात्वविराधनारूपदोषा ज्ञातव्याः। अत एवाऽभ्युत्थानमपिन क्रियते तस्मिन् सति व्याक्षेपादिसंभवात्। तथा चैतदर्थमेव द्वारगाथाद्वयेनाऽऽह - काउस्सग्गे विक्खे - वया य विकहा विसोतिया पयते। उवणय वाउलणा वि य, अक्खेवो चेव आहरणं // आरोवणा परूवण, उग्गह निज्जरा य वाउलणा। एएहि कारणेहिं, अब्भुट्ठाणं तु पडिकुटुं / / अनुयोगारम्भनिमित्तं कायोत्सर्गे कृते एतैः कारणैरभ्युत्थानं प्रतिकुष्टं निराकृतम् / कैः कारणैरत आह- "विक्खेवया य इति' व्याक्षेपस्य व्याक्षेपशब्दस्य भावः प्रवृत्तिनिमित्तं व्याक्षेपः / इत्यर्थः / अभ्युत्थाने क्रियमाणे व्याक्षेपो भवति, व्याक्षेपाच्च विकथा चतुर्विधा प्रवर्तते, तत्प्रवृत्तौ चेन्द्रियैर्मनसा विश्रोतसिका संयमस्थानप्लावनमिति भावः / तस्मादभ्युत्थानमकुर्वन् प्रयतः शृणुयात् / प्रयतो नाम कृताऽञ्जलिप्रग्रहो दृष्ट्या सूरि-मुखारविन्दमेवेक्षमाणो बुद्ध्यु-पयुक्तः / तथाऽभ्युत्थाने क्रियमाणे उपनयस्य विषये व्याकुलना उपनयः कस्याऽप्यर्थ न क्रियेत / उपनयग्रहणमुपलक्षणं, तेन यद् ग्रहणं जातं, तत् व्याकुलनात् भ्रश्यति, पृच्छा वा कर्तुमारब्धा विस्मृतिमुपयाति, कालो वा व्याख्यानस्य त्रुट्यतीति / तथा निरन्तरमविच्छे देन भाषमाणेऽस्य शृण्वतो महान् व्याक्षेपस्तीव्र-शुभपरिणामरूपो जायते, अभ्युत्थाने च तद्व्याघातस्तथा च सति शुभपरिणाम भावतो योऽवध्यादिलाभः संभाव्यते, तस्य विनाशो-ऽत्राऽर्थे चाऽऽहरणं ज्ञातं वक्तव्यम्। तथा आरोपणायाः प्रायश्चित्त-प्ररूपणे क्रियमाणे अभ्युत्थाने व्याघातो भवति, व्याघाताच सम्यगव- ग्रहो ग्रहणं न भवति / न खलु व्याक्षिप्तोऽवग्रहीतुं शक्नोति, Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अइसेस 26 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अइसेस किं त्वव्याक्षिप्त इति प्रतीतमेतत्। तथाऽप्युत्थाने क्रियमाणे व्याकुलना ततः सम्यक् श्रुतोपयोगो न भवति तदभावाच्च ज्ञानावरणीयस्य कर्मणो न निर्जरा / एतैः कारणैरभ्युत्थानं प्रतिकुष्टम। सांप्रतमेतदेव गाथाद्वयं विवरीषुः प्रथमतः "काउस्सग्गे विक्खेवयाय' इति भावयतिउचारियाए नंदीए, विक्खेवे गुरुतो भवे। अपसत्थे पसत्थे य, दिट्ठतो हत्थिलावका।। अनुयोगारम्भार्थ कायोत्सर्गे कृते नन्द्यां ज्ञानपञ्चकरूपायामुच्चारितायामभ्युत्थानेनान्येन वा प्रकारेण यो व्याक्षेपं करोति, तस्य प्रायश्चित्तं गुरुको मासस्तस्माद् व्याक्षेपो न कर्त्तव्यः / अत्राऽप्रशस्ते व्याक्षेपकरणे प्रशस्ते च व्याक्षेपकरणे दृष्टान्ताः हस्तिलावकाः, हस्तीच शालीनां लावकाश्च / तत्राऽप्रशस्ते प्रतिपादयति - जह सालिं लुणावेतो, कोइ अत्थारिएहि उ। सेयं हत्थिं तु दावेइ, धाविया ते य मग्गओ॥ न लूना अह सालीओ, वक्खेवेणेव तेण उ। वक्खेवावरयाणं तु, पोरिसीए व भज्जइ।। यथा कोऽपि कुटुम्बी निजे क्षेत्रे "अथारिएहि तु'' ये मूल्यप्रदानेन शालिलवनाय कर्मकराः क्षेत्रे क्षिप्यन्ते, ते आस्तारिकाः / तैलवियन् कथमपि सप्ताङ्गकप्रतिष्ठितं श्वेतमारण्यहस्तिनमागतं दृष्ट्वा दर्शयति, तद्दर्शिते च ते हस्तिनो मार्गतः पृष्ठतो धाविताः। आगतैरपि हस्तिनो रूपेण क्षिप्तैर्हस्तिरूपं वर्ण-यद्भिः, तेन व्याक्षेपेण ते शालयो न लूना एवमिहाऽपि अभ्युत्थानेन व्याक्षेपरताना पौरुषी भङ्गो भवति / व्याख्यानं पुनर्न किमपि याति, तस्माद्व्याक्षेपो न विधेयः। प्रशस्ते व्याक्षेपाऽकरणे दृष्टान्तः स्वयं भावनीयः / स चैवं एकः कौटम्बिकः शालिक्षेत्र लावयति तस्य सत्कया दास्या शालिं लूनन्त्या सप्ताङ्गप्रतिष्ठितः श्वेतो वनहस्ती चरन् दृष्टो, दास्या ज्ञातं- यदि शालिलावकानां कथयिष्यामि, ततो हस्तिनं दृष्ट्वा हस्तिनो रूपेणाक्षिप्ता हस्तिनो रूपं वर्णयन्त आसिष्यन्ते। एष च हस्ती दिनेऽस्मिन्नवकाशे दृश्यते, ततः शालिन भविष्यते, यदातु शालिः परिपूर्णो लूनोऽभवत्, तदा सा दासी स्वामिनः शालिलावकानां चाऽचकथत् / ततस्तैरुक्तं- किं तदा न ख्यातं ? तदा दासी प्राहशालिलवितव्यव्याघातो भविष्यतीति हेतोः। तत एषमुक्ते कौटुम्बिकः परितुष्टस्तेन च परितुष्टेन मस्तकप्रक्षालनतोऽदासी कृता / एवमिहाऽपि व्याक्षेपो न करणीयस्तथा च सति भग-वदाज्ञापरिपालनतः कर्मक्षयेण शिलामस्तकरथो भवति। संप्रति विकथादिपदव्याख्यानार्थमाह - विकहा चउव्विहा वुत्ता, इंदिएहिं विसोतिया। अंजलीपग्गहो चेव, दिट्ठी बुद्धवजुत्तया॥ विकथा स्त्रीकथादिभेदाच्चतुर्विधोक्ता विश्रोतसिका इन्द्रियैरुपलक्षणमेतत् मनसा वाचा प्रयता अञ्जलीप्रग्रहो गुरोर्मुखे दृष्टिर्बुद्ध्युपयुक्तता च। उपनयव्याकुलनेति व्याख्यानयति - नस्सते वाउलाना सो, अन्नहा वोवणिज्जइ। नायं वा करणे वा वि० पुच्छा अद्धा व भस्सइ॥ अभ्युत्थानेनाऽन्येन धा व्याकुलनायां स दर्शितः उपनयो नश्यति, विस्मृतियाति, यदि वा व्याकुलनया अन्यथोपनीयते, ज्ञातंया व्याकरणं वा पृच्छा या कर्तुमारब्धा अद्धा वा पौरुषीलक्षणा भ्रश्यति / आक्षेपव्याख्यानार्थमाह - भासतो भावतो वावि, तिव्वं से जायमाणसो। लभंतो ओहिलंभादी, जहा मुडिंवगो मुणी।। निरन्तरमतिच्छेदेन भाषकः श्रावको वा उत्तरविशिष्टावगाहनतस्तीवसंजातमानसो जातपरमोत्क्षेपो यद्यभ्युत्थाने व्याक्षेपो नाभविष्यत् ततोऽवधिलाभादिकमलप्स्यतयथा मुडिम्बको मुनिस्तथा मुडिम्बक आचार्यः परमकाष्ठीभूते शुभध्याने प्रवृत्तोऽवध्यादिलब्धिमलप्स्यत यदि तस्य पुष्पमित्रेण ध्यानविघ्नो नाऽकरिष्यत, परं सर्वसाधुसाध्वीप्रभृत्याकुलमभवदिति तेन ध्यानव्याघातः कृतः। अधुना "आरोवणा परूवणेति" व्याख्यानार्थमाह - आरोवणमक्खेवं, दाउं कामो तहिं तु आयरितो। वाउलणाए फिट्टइ, उत्थेत्तुमणे न ओगेण्हे॥ आरोपणां प्रायश्चित्तं तत्रार्थमण्डल्यामाचार्यो दातुकामः प्ररूपयतुकाम इति तात्पर्यार्थः / यद्यभ्युत्थानं करोति, ततो व्याकुलनया स्फिटति, व्याकुलनेन प्रायश्चित्तप्ररूपणा न तिष्ठतीति भावः / तथा अवग्रहीतुमना अभ्युत्थानेन व्याकुलनातो नाऽवगृह्णाति। एकग्गो ओगिण्हइ, विक्खिप्पंतस्स विस्सुतिं जाइ। इंदपुरे इंददत्तो, अजुणतेणो य दिटुंतो।। एकाऽग्रः सन् अवगृह्णाति, अभ्युत्थानेन पुनव्याक्षिप्यमाणस्याऽवगृहीतमपि विस्मतिं याति, कुतोऽनवगृहीतार्थावग्रहण-व्याक्षेपाश्च विस्मृतिगमने इन्द्रपुरपत्तने इन्द्रदत्तस्य राज्ञः सुताः दृष्टान्तस्तथा च तेषां कला अभ्यस्यतां प्रमादविकथादि- व्याक्षेपात् न किमप्यवगृहीतमभूत्, यदपि किंचिदवगृहीत, तदपि विस्मृतिमुपगतमत एव, तै राधावेधो न कर्तुं शकितः / तथा अर्जुनस्तेनश्च दृष्टान्तस्तथाहिसोऽर्जुनकस्तेनोऽगडदत्तेन सह युध्यमानो न कथमप्यगडदत्तेन पराजेतु शक्यते, ततो निजभार्याऽतीव रूपवती सर्वालंकारविभूषिता रथस्य तुण्डे निवेशिता ततः स्त्रीरूपदर्शनव्याक्षेपात्युद्धकरणं विस्मृति-मुपगतमिति सोऽगडदत्तेन विनाशितः। एवमिहाऽपि व्याक्षेपात् श्रुतोपयोगः प्राणविनाशमाप्नोति / एए चेव य दोसा, अब्भुट्ठाणे वि होंति नायव्वा। नवरं अब्भुट्ठाणं, इमेहिं तिहिं कारणेहिं तु / / यस्मात् श्रवणे कर्तव्ये व्याक्षेपादिषु क्रियमाणेष्वेते- ऽनन्तरोक्ता दोषास्तस्माद्व्याक्षेपादिरहितैः श्रोतव्यम्। एते एव च व्याक्षेपादयो दोषा अभ्युत्थानेऽपि क्रियमाणे भवन्ति, तस्मादभ्युत्थानमपि न कर्त्तव्यं, नवरमभ्युत्थानमेभिर्वक्ष्य-माणैस्त्रिभिः कारणैः कर्त्तव्यं, तान्येवाह - पगयसमत्ते काले, अज्झयणूद्देस अंगसुयग्वंधे। एएहिं कारणेहिं, अब्भुट्ठाणं तु अणुयोगो।। प्रकृते समाप्ते तथा काले समाते अध्ययनोद्देशाङ्ग श्रुतस्कन्धेषु वा समाप्तेषु यदि प्राघूर्णकाद्यागमनं भवति तदैतैः कारणैरभ्युत्थान-मनुयोगो भवति, तर कालोऽध्ययनादिकं च प्रतीतं न प्रकृतमिति / कल्पे व्यवहारे च प्रकृतप्रतिपादनार्थमाह - Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अइसेस 27 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अइसेस कप्पम्मि दोण्णि पगया, पलबसुत्तं च मासकप्पे य। दो चेव य ववहारे, पढमे दसमे य जे भणिया॥ कल्पे कल्पाध्ययने द्वे प्रकृते, तद्यथा- प्रलम्बसूत्रं मासकल्प-सूत्रं च। व्यवहारे द्वे प्रकृते, ये भणिते प्रथमे आरोपणासूत्र दशमे पञ्चविधव्यवहारसूत्रम्। न केवलमेतदेव प्रकृतं, किंत्वन्यदपि। तथा चाऽऽहपीढियातो य सव्वातो चूलियातो तहेव य। निप्पत्ती कप्पनामस्स, ववहारस्स तहेव य॥ सर्वाः प्रकल्पकल्पादिगताः पीठिकास्तथा सर्वाश्चूलिकाः,तथा कल्पनाम्नो व्यवहारस्य च तथा चैवेति वचनादन्येषां च दशवैकालिकप्रभृतीनां च निर्युक्तयः प्रकृताः। अत्रैवाऽऽदेशान्तरमाह - अण्णो वि य आएसो, जो रायणितो य तत्थ सोयव्वे। अणुओगधम्मयाए, किइकम्मं तस्स कायव्वं // अन्योऽपि चाऽऽदेशो मतान्तरं, तत्र श्रोतव्ये यो रात्निको रत्नाऽधिकोऽनुभाषक इत्यर्थः / तस्य नन्द्यामुच्चारितायामनुयोगधर्मतया कृतिकर्म वन्दन कर्तव्यम्।तथाकेवलिमादी चोद्दस, दसनवपुत्वीय उट्ठणिज्जो उ। जे तेहि ऊणतरगा, समाणे अगुरुं न उहृति।। अर्थमपि कथयता समागच्छन् केवली अभ्युत्थातव्यः। आदिशब्दात् मनःपर्यवज्ञानी अवधिज्ञानीच परिगृह्यते तथा येतेभ्यो नवपूर्वधरादिभ्य ऊनतरास्तैर्नवपूर्वधरादिरभ्युत्थानीयः / तथाहि- कथको यदि कालिकश्रुतधारी, तर्हि तेनार्थमपि कथयता नवपूर्वी दशपूर्वी चतुर्दशपूर्वी वाऽभ्युत्थातव्यो नवपूर्विणा दशपूर्वी दशपूर्विणा चतुर्दशपूर्वीति / तथा यदि समागच्छन् समानः समानश्रुतोऽगुरुश्च, तदा नेतरेऽभ्युत्तिष्ठन्ति। तदेवं प्रवचने निर्जरा चेति द्वारद्वयं गतम् / इदानीं सापेक्षद्वारमाह - सावेक्खे निरवेक्खे, गच्छे दिटुंतगामसगडेण। राउलकजनिउत्तं,जह गामेणं कयं सगडं / / अस्सामिबुद्धियाए, पडियं सडियं वन विय रक्खंति। रण्णाणत्ते दंडो, सयं न दीसंति कजेसु // आचार्यस्य शिष्यैः प्रातीच्छिकैश्च सर्वं कर्त्तव्यं, तेच तथा कुर्वन्तःसापेक्षा उच्यन्ते, ये तु न कुर्वन्ति, ते निरपेक्षाः। तत्र सापेक्षे निरपेक्षे च गच्छे दृष्टान्तो ग्रामशकटेन, तद्यथा- एकस्मिन् ग्रामे ग्रामेयकैः पुरुषः राजकुलकार्य नियुक्तं शकटमेकं कृतं, ततो यत् तेन राजकुलेनाऽऽज्ञाप्यते- धान्यं घृतघटादि वा नेतव्यमानेतव्यं वाऽस्मिन् शकटे आरोप्य आनयन्ति नयन्ति वा / तथा नाऽस्य कश्चित् स्वामीत्यस्यामिबुद्ध्याऽऽत्मनोऽपि कार्याणि तेन कुर्वन्ति, अस्वामिबुद्ध्यैव पतितं शटितं वा, तस्य शकटस्य नाऽपि रक्षन्ति, ततः कालेन गच्छता भग्रम् / अन्यदा राजकुलेन ते आज्ञप्ता धान्यमानय, तैः शकटाऽभावात् नाऽऽनीतं, तत आज्ञाभङ्गोऽकारीति तेषां दण्डः कृतः। कार्येषु वा समापतितेषु स्वयं तेन दृष्यन्ते। एष दृष्टान्तः। अयमर्थोपनयः - एवं न करेंति सीसा, काहिंति पडिच्छयत्ति काऊण। ते वि य सीसत्ति ततो, हिंडणपेहादिसुं भिगो॥ एवं ग्रामेयकदृष्टान्तप्रकारेण शिष्याः प्रातीच्छिकाः करिष्यन्तीतिमत्वा न कुर्वन्तीति, तेऽपि च प्रातीच्छिकाः शिष्याः करिष्यन्तीति बुद्ध्या न कुर्वते / ततः सीदन्नाचार्यः स्वयं भिक्षामटति, स्वयं चोपकरणप्रेक्षादिकं विधत्ते, इति हिण्डने प्रेक्षादौ च निरपेक्षाः शिष्याः प्रातीच्छिकाश्च शकटनियुक्तभृत्या इव दण्डनीयाः भवन्ति, विनाशं चोपयान्ति / अथ सापेक्षे दृष्टान्तमाह - सारावियं जेहिं सगडं रण्णा ते उक्करा य कया। इय जे करेंति गुरुणो, निजरलाभो य कित्ती य / / अपरस्मिन् ग्रामे द्वितीयके ग्रामे ग्रामेयकैः राजकुलकार्यनियुक्तं शकट कृतं, तेन राजकीय धान्यघृतघटाद्यानयन्ति नयन्ति च, तच शकटं तैः सम्यक् सारापितं, ततो न कदाचिदाज्ञाभङ्गः कृतइति परितुष्टेन राज्ञा ते उत्कराः करविहीनाः कृताः / एष दृष्टान्तो-ऽयमर्थोपनय इति / एवमुक्तेन प्रकारेण शिष्याः प्रातीच्छिका-श्वात्मानुग्रहबुद्ध्या ये गुरोः कृत्यं कुर्वन्ति, तेषां महान् भूयान् ज्ञानादिलाभः कीर्तिश्च गतं सापेक्षद्वारम्। संप्रति भक्तिव्यवच्छेदद्वारमाहदव्वे भावे भत्ती, दव्वे गणिगा उ दूति जाराणं / भावम्मि सीसवग्गो, करेति भत्तिं सुयधरस्स। आचार्यस्य भक्तो क्रियमाणायां तीर्थस्याऽव्यवच्छे दो, भक्तावक्रियमाणायां तु तीर्थव्यवच्छेदः / सा च भक्तिर्द्विधाद्रव्ये भावे च। तत्र यन्नाम गणिका भुजङ्गानां भक्ति कुर्वन्ति, दुतयो वा जाराणाम्। सा द्रव्ये द्रव्यभक्तिर्भाव भावविषया भक्तिः पुनरियम्- यत् शिष्यवर्गः श्रुतधरस्य भक्तिं करोति। यद्यपि चाऽन्योऽपि गुरोर्भक्तिं करोति, तथाऽपि ममाऽपि निर्जरा स्याद, इत्यात्मानुग्रह-बुद्ध्याऽन्येनाऽपि भक्तिः कर्तव्येति लोहार्यगौतमदृष्टान्तेन भावयतिजइवि य लोहसमाणो, गेण्हइ खीणंतराइणो उंछं। तह वि य गोयमसामी, पारणए गेहए गुरुणो / / यद्यपि च लोहसमानो लोहार्यः क्षीणान्तरायस्य भगवतो वर्द्धमानस्वामिनः सदैवोञ्छ मेषणीयभक्तादिकं गृह्णाति / तस्य भगवढयावृत्त्यकरत्वात् उक्तं च / 'धन्नो सो लोहजो खंतिखमो पवरलोहसरिवन्नो जस्स जिणो पत्ता तो इच्छइ पाणीहिं भुत्तुं जे " तथापि गोतमः स्वामी स्वपारणके गुरोर्वर्द्धमानस्वामिनो योग्यं गृह्णाति, एवमन्येनाऽपि वैयावृत्त्यकरभावे यथायोग्यं गुरोः कर्तव्यम् / तदेवं भक्तियाख्याताऽधुना तस्यां क्रियमाणायां यथा तीर्थस्या-ऽव्यवच्छेदो भवति! तथाऽऽह - गुरुअणुकंपाए पुण, गच्छो अणुकंपितो महाभागो। गच्छाणुकंपयाए, अव्वोच्छित्ती कया तित्थे। गुरोरनुकम्पया अनुग्रहेण गच्छो महाचिन्त्यशक्तिरनुकम्पितो गृहीतो भवति, गच्छानुकम्पया चाव्यवच्छित्तिस्तीर्थस्य कृता। कह तेण नु होइ कयं, वेयावचं दसविहं जेण। तस्स पउत्ता अणुकंपितो उ थेरो थिरसहावो / कथं तेन दशविधं वैयावृत्त्यं कृतं, येन स्थविर आचार्यः स्थविरस्वभावोऽनुत्सुकस्तस्य दशविधस्य वैयावत्त्यस्य प्रयोक्ताऽनुकम्पितोऽनुगृहीतस्तत्करणे कृतं तेन दशविधमपि वैयावृत्त्य तत्प्ररूपणायास्तदधीनत्वादिति भावः। तदेवमव्यवच्छेदोऽपि भावितः / 'अधुना अतिसेसा पंच आयरिए' इति व्याख्यानयति - Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अइसेस 28- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अइसेस अन्ने वि अत्थि भणिया, अतिसेसा पंच होंति आयरिए। जो अन्नस्सन कीरइ, न यातिचारो असति सेसे॥ अतिशेषाः पञ्च भवन्त्याचार्ये, इत्यनेन वचनेनाऽन्येऽप्यति-शयाः पञ्चार्थतो भणिताः सन्ति यः पञ्चानामन्यतरोऽप्यन्य-स्यानाचार्यस्य न क्रियतेनचशेषेऽनाचार्ये पञ्चानामेक तरस्मिन्नप्यक्रियमाणेऽतीचारः / तानेव पञ्चातिशयानाऽऽह - भत्ते पाणे धुव्वण, पसंसणा हत्थपायसोए य। आयरिए अतिसेसा, अणतिसेसा अणायरिए। उत्कृष्ट भक्तमुत्कृष्ट पानं मलिनोपधिधावनं प्रशंसनं हस्तपाद शौचंच।। एते पञ्चाऽतिशेषा अतिशया आचार्य, अनाचार्ये त्वनतिशयाः। अनाचार्ये एतेन कर्तव्या इति भावः। संप्रति रक्तादिव्याख्यानार्थमाह - कालसहावाणुमयं, भत्तं पाणं च अचितं खेत्ते। मलिणमलिणा य जाया, चोलादी तस्स धोवंति॥ यत् कालानुमतं स्वभावानुकूलं चेत्यर्थः भक्तमाचार्यस्य आदेय-मिति प्रथमोऽतिशयः 1, तथा यत् यत्र क्षेत्रे अर्चितं पानीयं, तत् संपाद्यमाचार्यस्येति द्वितीयोऽतिशयः 2, तथा चोलादीनि मलिनमलिनानि जातानि, तस्याऽऽचार्यस्य प्रक्षाल्यन्ते, किं कारणमिति चेद् ? अत आहपरवादीण अगम्मे, नेव अवण्णं करिति सुइमेहा। जह अकहितो वि नजइ, एस गणीऽणुज्जपरिहीणो / / यथापरवादिनामगम्यो भवति, यथा च शुचिशैक्षाश्चोक्षशिष्याः अवज्ञानं न कुर्वते, यथा चाऽकथितोऽपि ज्ञायते, एष गणी आचार्यः / तथाऽनुद्यमसौन्दर्य,तत्परिहीनः / मलिनमलिनवस्त्रप्रक्षालनं कर्तव्यं, नचएवं विभूषादोषप्रसक्तिर्यत आह - जह उवगरणं सुज्झइ, परिहरमाणो अमुच्छतो साहू। तह खलु विसुद्धभावो, विसुद्धवासाण परिभोगो॥ यथा साधुरुपकरणं धर्मोपकरणममूञ्छितः सन्परिहरन्परि-भोगयन् शुद्धयते, न परिग्रहदोषेण लिप्यते, अमूञ्छितत्वात् / तथाऽऽचार्योऽपि विशुद्धवाससां परिभोगेन विशुद्धभावः सन् शुद्ध्यतीति गतस्तृतीयोऽतिशयः३। संप्रति प्रशंसनमाह - गंभीरो मद्दवितो, अब्भुवगयवच्छलो सिवो सोमो। वित्थिण्णकुलुप्पन्नो, दाया य कयण्णुतो सुयवं॥ खंतादिगुणोवेओ, पहाणणाणतवसंजमावसतो। एमाइसत्तगुरुगुण, विकत्थणं संसणातिसये। गम्भीरोऽपरिश्रावी मार्दवितो मार्दवोपेतः, तथा अभ्युप- गतस्य शिष्यस्य प्रातीच्छिकस्य वत्सलो, यथोचित- वात्सल्यकारी। तथा शिवोऽनुपद्रवः, तथा सोमः शान्ताऽऽकृतिः, तथा विस्तीर्णकुलोत्पन्नो, दाता, कृतज्ञः, श्रुतवान् / तथा क्षान्त्यादिगुणोपेतः प्रधानज्ञानतपः ਸੰਸਾਰ ਵਾਰਸਾਵੀਰਾਂ ਰਾਂਝਾ ਜਰਿਵਾਜੇ ਗਏ चतुर्थः 4 / प्रशंसनातिशयः अथवा प्रशंसनस्य फलनात्। सगुणुकित्तणाए, अवण्णवादीण चेव पडिघातो। अवि होज्ज संसईणं, पुच्छाभिगमे दुविहलाभो / / सद्गुणोत्कीर्तनायां महती निर्जरा भवति, तथा सद्गुणकीर्तनया | अवर्णवादिनां प्रतिघातः कृतो भवति / अपि भवेदयं महान् गुणो, गुणवन्तमाचार्य श्रुत्वा बहूनां राजेश्वरतलवरप्रभृतीनां पृच्छर्थमभिगमो भवति / पृच्छानिमित्तमाचार्यसमीपमागच्छन्तः, आगताश्च धर्म श्रुत्वा अगारधर्ममनगारधर्म वा प्रतिपद्यन्ते, इति द्विविधलाभ / पञ्चमाऽतिशयप्रतिपादनार्थमाह - करचरणनयणदसणाईधावणंपंचमो उ अतिसेसो। आयरियस्स उसययं, कायव्वो होति नियमेण / / करचरणनयनदशनादिप्रक्षालनपञ्चमोऽतिशयः 5 / सततमा-चार्यस्य नियमेन भवति कर्तव्यः / अत्र पर आहमुहनयणदंतपाया-दिधोवणे को गुणो त्ति ते बुद्धी। अम्गिमतिवाणिपडुया, होइ अणोतप्पया चेव॥ मुखनयनपदादिधावने को गुणः? इति एषा ते बुद्धिः स्यात्, अत्रोच्यतेमुखदन्तादिप्रक्षालनेऽग्निपटुताजाठराऽग्नि- प्राबल्यं मतिपटुता वाक्पटुता च नयनपादादिप्रक्षालने “अणोत्तप्पया" अलज्जनीयशरीरता भवति / एष गुणो मुखा-ऽऽदिप्रक्षालने एते चातिशयाः पञ्च / उपलक्षणमन्यदपि यथायोगमाचार्यस्य कर्त्तव्यम्। तथा चाऽऽह - असढस्स जेण जोगा-ण संधाणं जह उ होइथेरस्स। तं तं करेंति तस्स उ, जह सेजोगा न हायति / / यथा स्थविरस्याऽशठस्य सतो येन येन क्रियमाणेन योगानां सन्धान भवति, तत्तत्तस्याऽऽचार्यस्य साधवः कुर्वन्ति / यथा (से) तस्याऽऽचार्यस्य योगा न हीयन्ते, न हानिमुपगच्छन्ति। एए पुण अतिसेसे, उवजीवे न यावि को वि दढदेहो। निदरिसणं एत्थ भवे, अन्जसमुदाय मंगू अ / / एतान् पुनरतिशयान कोऽप्याचार्यो दृढदेहः सन् नोपजीवति, यस्त्वदृढदेहः, सोऽशठो भूत्वा उपजीवति, न तु तैरतिशयैर्गर्वं करोति, हर्ष वा मनसि मन्यते / अत्र निदर्शनं भवत्यार्यसमुद्रो मङ्वाचार्यश्च / एतदेव निदर्शनद्वयं भावयतिअजसमुद्दा दुब्बल, कितिकम्मा तिण्णि तस्स कीरंति! सुत्तत्थपोरिसिसमु-ट्ठियाण तइयं तु चरमाए।। आर्य समुद्राः सूरयो दुर्बला दुर्बलशरीरास्ततस्तेऽतिशयाऽनुपजीवितवन्तोऽनुपजीवने योगसंधानकरणाशक्तेः,तथा च तस्य प्रतिदिवसं त्रीणि कृतकर्माणि विश्रामणारूपाणि क्रियन्ते। तद्यथा- 2 सूत्रार्थपौरुषीसमुपस्थितानां तृतीयं कृतकर्म चरमायां पौरुष्यामियमत्र भावना- सूत्रपौरुषीसमाप्त्यनन्तरं यावन्निषद्या क्रियते, तावत्प्रथम विश्रामणा 1, द्वितीया-ऽर्थपौरुषीसमाप्त्यनन्तरं 2, तृतीया चरमपौरुषी पर्यन्ते, काल-प्रतिक्रमणाऽनन्तरम् 3 / सड्ढकुलेसु य तेसिं, दो वंगादी उ वीसु घेप्पंति। मंगुस्स न किइकम्म, न य वीसुंघेप्पए किं वि।। श्राद्धकुलेषु भक्तेषु तेषामार्यसमुद्राणामाचार्याणां योग्यानि कूरादीनि द्वितीयाङ्गादौ मात्रकादौ विष्वक् गृह्यन्ते, आर्यमङ्गोः पुनराचार्यस्य न कृतिकर्म क्रियत, नाऽपि तद्योग्य पाँद्गलिकादिकिञ्चित् विष्वक् मात्रके गृह्यते, किन्तु यदापि श्राद्धकुलेष्वपि भक्तेषूत्कृष्ट लभ्यते, तदपि गृहीत्या ज्ञातोत्थपतद्गृहे क्षिप्यते। विष्वगानीतमपि न भुक्ते, तौ च द्वावण्याचार्य विहरन्तावन्यदा सौपारके गतौ, तत्र च द्वौ श्रावकावेकः शाकटिकोऽपरो वैकटिकः। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अइसेस 29 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अइसेस वैकटिको नाम सुरासन्धानकारी, तौ द्वावपि श्रावकावार्य-समुद्राणां योग्यमतिशायिपौद्गलिकप्रभृतिकविष्वक्मात्रके गृह्यमाण-मार्यमगूनां पुनर्यो ग्यमेकस्मिन्नेव पतद्गृहे गृह्यमाणं पश्यतो दृष्ट्वाऽऽचार्यमगुसमीपमागच्छताम्। बैंति ततो णं सड्ढा, तुब्मे वि वीसुं न घेप्पए कीस। तो बेंति अञ्जमंगू, तुम्भे चिय इत्थ दिटुंतो॥ ततः समीपागमनानन्तरं तौ श्रावको वाते- किं नाऽऽर्य-समुद्राणामिव युष्माकमपि विष्वक् प्रायोग्यं गृह्यते? ततो ब्रुवन्त्यार्यमङ्गवः आचार्याःअत्राऽर्थे यूयमेव दृष्टान्तः। कथमित्याह - जा भंडी दुब्बुला उ, तं तुब्भे बंधह प्पयत्तेण। न वि बंधह बलियाउ, दुब्बलबलिए व कुंडी वि॥ अहो शाकटिक!या तव भण्डी गन्त्री दुर्बला, तां यूयं प्रयत्नेन बनीथ / ततः सा वहति, यदि पुनरबद्धा वाह्यते, तदा विनश्यति।या पुनर्बलिका, तां नैव बनीथ। बन्धनव्यतिरेकेणाऽपि तस्या वहनात्। वैकटिकं प्रति ब्रुवते- भो वैकटिक ! या तव कण्डी दुर्बला, तां वंशदलैर्बद्ध्वा तत्र मद्यं संधत्था यातुबलिका कुण्डी, तस्या बन्धमकृत्वाऽपितत्र संधानं कुरुथ "दुब्बलबलिए व कुंडी वि" एवं कुण्ड्यपि दुर्बला बलिका च भण्डीवत् वक्तव्या। उक्तो दृष्यन्तः। सांप्रतमुपनयमाह - एवं अज्जसमुद्दा, दुब्बलभंडी व संठवयणाए। धारति सरीरंतु, बलिभंडीसरिसगावयं तु // एवमुक्तेन प्रकारेण दुर्बलभण्डी दुर्बला गन्त्री चात्मीयं शरीरं संस्थापनया धारयति, नेतरथा / ततस्तेषां योग्यं विष्वक् मात्रके गृह्यते, वयं तु बलिकभण्डीसदृशास्ततोन शरीरस्य संस्थापना-मपेक्षामहे / निप्पडि कम्मो वि अहं, जोगाण तरामि संधणं काऊं। नेच्छामि य बितियंगे, वीसुं इति बेंति ते मंगू॥ निष्प्रतिकर्माऽपि योगानां संधानं कर्तुं शक्नोति, ततो नेच्छामि। द्वितीये अङ्गे गात्रके विष्वक् गृह्यमाणमिति ते मङ्वाचार्या ब्रुवतेन तरंति य तेण विणा, अज्जसमुद्दा उ तेण वीसं तु। इय अतिसेसायरिए, सेसा पंतेण लाडेति॥ आर्यसमुद्राः पुनराचार्यास्तेन विष्वक् प्रायोग्यग्रहणेन विना योगानां सन्धानं कर्तुन शक्नुवन्ति, तेन तत्प्रायोग्यं विष्वक् गृह्यते। एवं शेषाणामपि इत्यस्मात् कारणात् अतिशेषा अतिशया आचार्ये भवन्ति / शेषाः पुनः साधवः प्रान्तेन लाढयन्ति, आत्मानं यापयन्ति, गतस्तृतीयोऽतिशयः 3 / आचार्योपाध्यास्य वसतेरन्तर्बहिर्वा एकाकित्वेन वास इति चतुर्थपञ्चमावतिशयौ 4-5 / संप्रति चतुर्थपञ्चमावतिशयावाह- "अंतो उवस्सयस्स एगरायं वा दुरायं वा" इत्यादिलक्षणं(पूर्वोक्तं)विभावयिषुरिदमाह - अंतो बहिं व वीसुं, वसमाणे मासियं तु भिक्खुस्स। संजमआयविराहण, सुण्णे असुभोदतो होइ।। यदि भिक्षुरुपाश्रयस्याऽन्तरपवरके विष्वक् वसति, यदि वा बहिरुपाश्रयात् शून्यगृहादिषु, तदातस्य प्रायश्चित्तं मासिकं, न केवलमिदं प्रायश्चित्तं, किन्तु दोषाश्च / तानेवाऽऽह- अन्तर्बहिर्वा शून्यस्थाने वसतोऽशुभोदयोऽशुभकर्मोदयो भवति,तद्भावात् चाऽऽत्मविराधना संयमविराधना च / एनामेव भावयति - तब्भावुवयोगेणं, रहिए कम्मादि संजमे भेदो। मेरावलंबिया मे, वेहाणसमादिनिव्वेदा।। तस्य भावस्तभावः पुंवेद इत्यर्थः / तस्मिन्नुपयोगः, तेन तभावोपयोगेन विजने स्थाने च वर्तमानः सहायरहितो हस्तकर्मादि कुर्यात्, एवं संयमे संयमस्य भेदो विराधना / तथा कोऽप्यतिप्रबलपुंवेदोदयपीडित एवं चिन्तयेत् , यथा- मया मर्यादा सकलजनसमक्ष गुरुपादसमीपेऽवलम्बिता, संप्रति चाऽहमतिपीडित आसितुं न शक्रोमि ततो निर्वेदात् वैहानसमुत्कलम्बन-मादिशब्दादन्यता आत्मघातादिकमाचरेत् एषा आत्मविराधना / तथा विहरता या एकाकिनान स्थातव्यम्। आह-यदि संयमात् निर्गत भावः, ततस्तस्य सहाया अपि किं करिष्यन्ति ? तत आहजइ विय निग्गयभावो, तह वि य रक्खिज्जए स अण्णेहिं। वंसकडिल्ले छिन्ने, वि वेणुतो पावए न महिं॥ यद्यपिचस संयमात् निर्गतभावस्तथापि सोऽन्यैर्हस्तकर्मादि वैहानसादि वा समाचरन् रक्ष्यते। अत्रैवाऽर्थे प्रतिवस्तूपमामाह-(वंसकडिल्लेत्ति) वेणुको वंशो महींन प्राप्नोति, अन्यैरन्यैर्व शैरपान्तराले स्खलितत्वात्, एवं संयमभावात् निर्गतोऽपि शेषसाधुभिः सर्वथा पतन् रक्ष्यते। तदेतद् भिक्षोरुक्तम्। इदानीं गणाऽवच्छेदकाऽऽचार्ययोराह - वीसु वसंते दप्पा, गणिआयरिए यति एमेव। सुत्तं पुण कारणियं, भिक्खुस्स वि कारणेऽणुन्ना / / विष्वक् दर्पात् कारणमन्तरेण गणिनि गणावच्छेदके आचार्ये च, एवमेव भिक्षोरिव प्रायश्चित्तं संयमात्मविराधने च भवतः / यद्येवं तर्हि सूत्रमनवकाशमत आह- सूत्रं पुनः कारणिकं कारणमधिकृत्य प्रवृत्तं, ततो नाऽनवकाशं न केवलं गणावच्छेदकाऽऽचार्ययोः कारणे वसतेरन्तर्बहिर्वा वसनमनुज्ञातं, किंतु भिक्षोरपि कारणे बहिरन्तर्वा वसनस्याऽनुज्ञा। अथ किं तत्कारणं, यदधिकृत्य सूत्रं प्रवृत्तम् ? अत आह - विजाणं परिवाडी, पव्वे एए य देंति आयरिया। मासद्धमासियाणं, पव्वं पुण होइ मज्झं तु॥ आचार्याः पर्वणि विद्यानां परिपाटीर्ददति, विद्याः परावर्तन्ते इति भावः / अथ पर्व किमुच्यते ? तत आह- मासार्द्ध मासयोर्मध्यं पुनः पर्व भवति। तदेवाऽऽहपक्खस्स अट्ठमी खलु, मासस्स य पक्खियं मुणेयव्वं / अण्णं पि होइ पव्वं, उवरागो चंदसूराणं // अर्द्धमासस्य पक्षात्मकस्य मध्यमाऽष्टमी सा खलु पर्व। मासस्य मध्यं पाक्षिकं पक्षण निर्वृत्तं ज्ञातव्यं, तच कृष्ण- चतुर्दशीरूपमवसातव्यम। तत्र प्रायो विद्यासाधनोपचारभावात् बहुलादिका मासा इति वचनाच, न केवलमेतदेव पर्व, किंत्वन्यदपि पर्व भवति / यत्रोपरागो ग्रहणं चन्द्रसूर्ययोरेतेषु पर्वसु विद्यासाधनप्रवृत्तिः। यद्येवं, तत एकरात्रग्रहणं / तत आहचउहसीगहो होइ, कोई अहवा वि सोलसिग्गहणं। वत्तं तु अणुजंतो, होइ दुरायं तिरायं वा / / कोऽपि विद्याया गृहश्वतुर्दश्यां भवति, अथवा षोडश्या शुक्लपक्षप्रतिपदि विद्याया ग्रहणम् / किमुक्तं भवति ? कोऽपि विद्याग्रहश्चतुर्दश्यां कृतः, कोऽपि प्रतिपदि क्रियते, इत्येवं त्रिरात्र Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अइसेस ३०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अइसेस वसनमथ च केन दिवसेन व्यक्तमनुज्ञायमानं विद्याया ग्रहणं भवति / निगज्झिय पप्फोडेमाणे वा पमज्जेमाणे वा नाइक्कमइ / एवं जहा द्विरात्रं त्रिरात्रं वा विष्वक् वसनमिति / यदुक्तं सूत्रे- तिरायं वेति, तत्र पंचठाणे जाव बाहिं उवस्सयस्स एगरायं वा दुरायं वा वसमाणे वाशब्दव्याख्यानार्थमाह - नाऽइक्कमइ। उवगरणाइ-सेसे भत्तपाणाइसेसे। वासद्धेण चिरं पि, महपाणादीसु सो उ अत्थेजा। एतद्व्याख्यातमेवेति इदमधिकमुपकरणाऽतिशेषः शेष- साधुभ्यः ओयविए भरहम्मि,जह राया चक्कवट्टादी॥ सकाशात् प्रधानोड्चलवस्त्राद्युपकरणतः, उक्तं च- आयरिय-गिलाणाणं, वाशब्देनेदं सूच्यते- चिरमपि कालं महा(पाना)प्राणादिषु ध्यानेषु स मइला मइला पुणो वि धोवंति। मा हु गुरूण अवण्णो, लोगम्मि अजिरणं तिष्ठेत्, स हि यावन्नाद्याऽपि विशिष्टलाभो भवति, तावत् न इयरेत्ति / / 1 / / ग्लाने इत्यर्थः / भक्तपानातिशेषः पूज्यतरभक्तपानतेति। निवर्त्तते ध्यानाद् / अत्रैव दृष्टान्तमाह- यथा राजा चक्रवादिः, उक्तञ्च- कलमोयणा उपयसा, परिहाणी जाव कोद्दवज्झज्जी। तत्थ उ आदिशब्दाद् वासुदेवपरिग्रहः (ओयविए) प्रसाधिते भरते मिउप्पतरं, जत्थ य ज अच्चियं दोसु / / 1 / / (कोद्दवज्झजित्ति अर्द्धभरते वा न निवर्त्तते, यावदवध्यादिलाभो न भवतीति / कोद्दवजाउलये दोसुत्ति) क्षेत्रकालयोरिति गुणाश्चैते "सुत्तत्थथिरीकरणं, अथ महाप्राणध्याने का कियन्तं कालमत्कर्षतस्तिष्ठतीति. विणओ गुरुपूय से य बहुभाणो। दाणवइसड्ढबुद्धी, बुद्धीबलवद्धणं चेव प्रतिपादनार्थमाह त्ति ||1|| स्था०७ ठा०ा गणावच्छेदकस्य गणेद्वौ अतिशयौबारसवासा भरहा-हिवस्स छचेव वासुदेवाणं। गणावच्छेयस्स गणंसिणं दो अइसेसा पण्णत्ता / तं जहातिण्णि य मंडलियस्स, छम्मासा पागयजणस्स।। गणावच्छेइए अंतो उवस्सयस्स एगरायं वा दुरायं वा वसमाणे महाप्राणध्यानमुत्कर्षतो भरताधिपस्य चक्रवर्त्तिनो द्वादश वर्षाणि णो अइक्कमइ १,गणावच्छेइए बाहिं उवस्सयस्स एगरायं वा यावत्षट् वर्षाणि वासुदेवानां बलदेवानामित्यर्थः / त्रीणि वर्षाणि दुरायं वा वसमाणे णो अतिक्कमइ / / माण्डलिकस्य षण्मासान् यावत् प्राकृतजनस्य। 'गणावच्छेयर-स गणसिणं' इत्यादि गणावच्छेदकस्य गणे गणमध्ये जे जत्थ अहिगया खलु, अस्सादद्धक्खमाइया रण्णा। द्वावतिशयौ भवतः / तद्यथा- गणावच्छेदक उपाश्रयस्याऽन्तः एकरात्रं वा तेसि भरणम्मि ऊणे, मुंजति भोए अदंडादी। द्विरात्रं वा वसन् नाऽतिक्रामति, नाऽतीचारभाग् भवति / तथा ये "अस्सादद्धक्खमाइया' महाश्वपत्यादयो यत्राऽश्वभरणादौ राज्ञा गणावच्छेदको बहिरुपाश्रयाद् एकरात्रं वा द्विरात्रं वा वसन्नाऽतिक्रामति / अधिकृता व्यापारितास्ते तेषामश्वादीनां भरणे ऊने सति भोगान् एतौ च द्वावप्यतिशयौ सूत्रोक्तौ गणावच्छेदकस्य द्रष्टव्यौ, यो अदण्डादीन दण्डादिरहितान् भुङ्क्ते, न तस्य तथा भोगान् भुञानस्य नियमादाचार्यों भविष्यति / य: पुनर्गणावच्छे दकत्वे वर्तमान दण्डोऽपराधो वा अद्याप्यश्वादिभरणभावात्। एष दृष्टान्त उक्तः। संप्रति आचार्यपदस्याऽनर्हस्तस्यैतौ द्वावप्यतिशयौन कल्पेते। भाष्यम् - दान्तिकयोजनामाह - पंचेते अतिसेसा, आयरिए हों ति दोपिण उगणिस्स। इय पुव्वगयाधीते, बाहुसनामेव तम्मि णे पच्छा। मिक्खुस्स कारणम्मि उ, अतिसेसा पंच वा भणिया। पियइत्ति व अत्थपए, मिणइत्ति व दो वि अविरुद्धा।। एते अनन्तरसूत्रोदिताः पञ्चाऽतिशया आयायें भवन्ति / द्वौ गणिनो इत्येवममुनादृष्टान्तप्रकारेण पूर्वगते अधीते 'बाहुसनामेव'' भद्रबाहुरिव गणाऽवच्छे दकस्य, भिक्षोः पुनः कारणेऽप्यतिशया भणिता। तत् पूर्वगतं पश्चात् महापानध्यानबलेन मिनोति, निःशेषमात्मेच्छया एतदेवाऽऽह - तावन्न निवर्तते, ततश्चिरकालमपि वसति, तस्य न कोऽप्यपराधः जे सुत्ते अतिसेसा, आयरिए अत्थतो व जे भणिया। प्रायश्चित्तं दण्डो वा / संप्रति महापान-शब्दस्य व्युत्पत्तिमाह- पिबतीति वा मिनोतीति वेति द्वावपिशब्दावेताव-विरुद्धौ, तत्त्वत एकार्थावित्यर्थः / ते कजे जयसेवी, भिक्खू विन बाउसीभवति / / तत एव व्युत्पत्तिः - पिबति अर्थपदानि यत्र स्थितस्तत् पानं, महन्च तत् येऽतिशेषा आचार्यसूत्रे साक्षादभिहिताः, ये चाऽन्ये पञ्चाऽर्थतो पानं च महापानमिति। भणितास्तान् दशाप्यतिशयान कार्ये कारणे समागते / "कजंति वा अंतो गणी वा गणो, विक्खेवो मा हु होज्ज अग्गहणं। कारणंति वा एगट्ठमिति" वचनात् (जयसेवीति) यतनया सेवमानो वसमेहिं परिक्खित्तो, उ अत्थते कारणे तेहिं / / भिक्षुरपि न बकुशत्वदोषेण गृह्यते इति भावः। किं तत्कार्यमत आह - अन्तर्गणी गणो वा, वाशब्दादेवं बहिरपि। इयमत्र भावना- यद्याचार्यो बालासहमतरंतं, सुइवादिं पप्प इड्डिवुड्ढे वा। वसतेरन्तस्ततो गणो बहिर्वसति, अथ गणोऽन्तस्तत आचार्यो दस वि भइयातिसेसा, भिक्खुस्स जहक्कम कजे // बहिः / किं कारणमाचार्यो गणश्च विष्वक् वसति? तत आह-(विक्खेवो) / बालमसहमतरन्तं ग्लानं शुचिवादिनं ऋद्धिवृद्ध वा प्राप्य दशाप्यतिशेषा इत्यादि, आचार्यस्य विद्यादिगुणादिषु व्याक्षेपो मा भूत, (अग्गहणमिति) / भिक्षोः कार्य समापतिते यथाक्रम भजिता विकल्पिता भवन्तीति भावः / अयोग्यानां कर्णपतनतो विद्यादीनामग्रहणं भूयात्। एताभ्यां कारणाभ्या तथा हि बालस्य हस्तपादादयः प्रक्षाल्यन्ते, अन्ये वाऽतिशया यथासंभव वृषभैः परिक्षिप्तोऽन्तर्बहिर्वा विष्वगाचार्यो वसति। व्य०१ उ०। क्रियन्ते / तथा असहो नामाऽसमर्थस्तस्याऽपि यथाप्रयोगमतिशयाः आचार्योपाध्यायस्य गणे सप्त अतिशयाः, यथा - क्रियन्ते / तथाऽतरन् ग्लानः शुचिवादी शौचप्रधानः शिष्य ऋद्धिवृद्धो आयरियउवज्झायस्स णं गणंसि सत्त अइसेसा पण्णत्ता / तं राजादिः प्रव्रजितः। इत्येषामपि दशाप्यतिशया यथायोग विधेयाः। व्य० जहा- आयरियउवज्झाए अंतो उवस्सयस्स पाए निगज्झिय | 6 उ०। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अइसेस 31 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अइसेस जिनकल्पिकस्यद्वौ अतिशयौ, "दुविहो तेसिं'' जिन-कल्पिकानाम् / अइसओ नाणाइसओ सरीराइसओ य / णाणाइसओ ओहि, मणपज्जवसुत्तत्थ तदुभयं च / तिवली अभिन्नवच्चा, सारीरा हो ति अइसे सा। पं० चू०। (तीर्थकृ तः चत्वारः मूलातिशयाः) "अपायापगमातिशयो ज्ञानातिशयः पूजातिशयो वागतिशयश्च "पं० / सू०। र०। स्था०। नं०। बुद्धस्य (तीर्थकृ तः) चतुस्त्रिशदतिशयाःचोत्तीसंबुद्धाइसेसा पण्णत्ता तंजहाअवट्ठिय-केसमंसुरोमनहे १,निरामया निरुवलेवा गायलट्ठी२,गोक्खीर पंडुरे मंससोणिए ३,पउमुप्पलगंधिए उस्सा-सनिस्सासे ४,पच्छन्ने आहारनीहारे अदिस्से मंसचक्खुणा ५,आगासगयं चकं 6, आगासगयं छत्तं ७,आगासगयाओ सेयवरचामराओ८, आगास- फालियामयं सपायपीढं सीहासणं 6, आगासगओ कुडभीसहस्स परिमंडियाभिरामो इंदज्झओ पुरओ गच्छइ १०,जत्थ जत्थ वि य णं अरहंता भगवंता चिट्ठति वा निसीयंति वा तत्थ तत्थ वियणं तक्खणादेव सच्छन्न-पत्तपुप्फपल्लवसमाउलो सच्छत्तो सज्झओ सघंटो सपडागो असोगवरपायवे अभिसंजायइ 11, ईसि पिट्ठओ मउडट्ठाणम्मि तेयमडलं अभिसंजायइ अंधकारे वि य णं दस दिसाओ पभासेइ 12, बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे 13, अहोसिरा कंटया जायंति 14, उऊ विवरीया सुहफासा भवंति 15, सीयलेणं सुहफासेणं सुरमिणा मारुएणं जोयणपरिमंडलं सव्वओ समंता संपमजिज्जइ १६,जुत्तफुसिएणं मेहेण य निहयरयरेणू पकिन्जइ 17, जलथलयभासुरपभूतेणं विंटट्ठाविय- दसद्धवन्नेणं कुसुमेणं जाणुस्सेहप्पमाणमित्ते पुष्फोवयारे किज्जइ 18, अमणुन्नाणं सद्दफरिसरसरूवगंधाणं अवकरिसो भवइ मणुन्नाणं सद्दफरिसरसरूवगंधाणं पाउन्भाओ भवइ 16, उमओ पासिंच णं अरहंताणं भगवंताणं दुवे जक्खा कडगतुडियथंभियभुया चामरुक्खेवणं करंति 20, पव्वाहरओ वि य णं हिययगमणीओ जोयणनीहारी सरो 21, भगवं च णं अद्धमागहीए भासाए धम्ममाइक्खइ 22, सा वियणं अद्धमागही भासा भासिज्जमाणी तेसिं सव्वे सिं आरियमणारियाणं दुपयचउप्पयमियंपसुपक्खि-सरीसिवाणं अप्पप्पणो हियसिवसुहदाए भासत्ताए परिणमई 23, पुव्वबद्धवेरा वियणं देवासुरनागसुवण्णजक्खरक्खसकिं नरकिं पुरिसगरुलगंधव्वमहोरगा अरहओ पायमूले पसंतचित्तमाणसा धम्म निसामंति 24, अन्नतित्थियपावयणिया वि य समागया वंदंति 25, आगया समाणा अरहओ पायमूले निप्पडिवयणा हवंति 26, जओ जओ वियणं अरहंतो भगवंतो तओ तओ वि यणं जोयणपणवीसाए णं ईती न भवइ 27, मारी न भवइ 28, सचक्कं न भवइ 26, परचक्कं न भवइ 30, अइबुट्ठी न भवइ 31, अणावुट्ठी न भवइ३२, दुब्मिक्खं न भवइ ३३,पुव्वुप्पन्ना विय | णं उप्पाइया वाही खिप्पामेव उवसमंति 34 / स०३५ सम०। अथ चतुस्त्रिंशत्तमस्थानकं किमपि लिख्यते (बुद्धाइ- सेसत्ति) बुद्धानां तीर्थकृतामप्यतिशेषाः अतिशयाः बुद्धातिशेषाः अवस्थितमवृद्धिस्वभावं केशाश्च शिरोजाः स्मश्रूणि च कूर्चरोमाणि च शेषशरीरलोमानि नखाश्च प्रतीता इति द्वन्द्वैकत्वमित्येकः 1, निरामया नीरोगा निरुपलेपा निर्मला गात्रयष्टिः तनुलतेति द्वितीयः 2, गोक्षीरपाण्डुरं मांसशोणितमिति तृतीयः 3, तथा पद्मं च कमलं गन्धद्रव्यविशेषो वा यत्पद्मकमिति रुढमुत्पलं च नीलोत्पलमुत्पल कुष्ट वा गन्धद्रव्यविशेषस्तयो- यो गन्धः स यत्रास्ति तत्तथोच्छवासनिःश्वासमिति चतुर्थः 4, प्रच्छन्नमाहारनिहरिम्, अभ्यवहरणमूत्रपुरीषोत्सर्गी प्रच्छन्नत्व-मेव स्फुटतरमाह- अदृश्यं मांसचक्षुषा न पुनरवध्यादिलोचनेन इति पञ्चमः 5, एतच्च द्वितीयादिकमतिशयचतुष्कं जन्मप्रत्ययम् / आकाशके चक्रं षष्ठ तथा आकाशगतं व्योमवर्ति आकाशकं वा प्रकाशमित्यर्थः चक्रं धर्मचक्रमिति षष्ठः 6, आकाशके छत्रमिति सप्तमः एवमाकाशगं छत्रं छत्रत्रयमित्यर्थः 7, आकाशके प्रकाशे श्वेतवरचामरे प्रकीर्णके इत्यष्टमः 8, (आगासफालियामयत्ति)आकाशमिव यदत्यन्तमच्छं स्फटिकं तन्मयं सिंहासनं सहपादपीठ मिति नवमः 6, (आगासगओत्ति ) आकासगतोऽत्यर्थ तुङ्गमित्यर्थः / कुड्डिभित्ति लघुपताकाः संभाव्यन्ते तत्सहस्त्रैः परिमण्डितश्वासावभिराश्वाति-रमणीय इति विग्रहः (इंदज्झओत्ति ) शेषध्वजापेक्षयाऽतिमहत्त्वा-दिन्द्रश्चाऽसौ ध्वजश्व इन्द्रध्वज इति (पुरओत्ति ) जिनस्याग्रतो गच्छतीति दशमः १०,"चिट्ठति वा निसीयंति वेत्ति'' तिष्ठन्ति गतिनिवृत्त्यानिषीदन्त्युपविशन्ति (लक्खणादेवत्ति)तत्क्षणमेगऽकाल हीनमित्यर्थः पत्रैः संछिन्न इति वक्तव्ये प्राकृतत्वात् संछन्नपत्र इत्युक्तं स चासौ पुष्पपल्लवसमाकुलश्चेति विग्रहः पल्लवा अकुराः सच्छत्रः सध्वजः सघण्टः सपताकोऽशोकवर पादप इत्येकादशः 11, (ईसित्ति) ईषदल्पं (पिट्ठओत्ति ) पृष्ठतः पश्चाद्भागे (मउडट्ठाण-मिति) मस्तकप्रदेशे तेजोमण्डलं प्रभापटलमिति द्वादशः 12, बहुसमरमणीयो भूमिभाग इति त्रयोदशः १३,(अहोसिरत्ति) अधोमुखाः कण्टका भवन्तीति चतुर्दशः 14, ऋतवोऽविपरीताः कथमित्याह-सुखस्पर्शा भवन्तीति पश्चदशः १५,योजनं यावत् क्षेत्रशुद्धिः संवर्तकवातेनेति षोडशः 16, (जुत्तफुसिएणत्ति) उचितबिन्दुपातेनेति (निहयरयरेणुयंति) वातोत्खातमाकाशवर्ति रजो भूवर्ती तु रेणुरिति गन्धोदकवर्षाऽभिधानः सप्तदशः 17, जलस्थलजयभास्वरं प्रभूतंच कुसुमं तेन वृन्तस्थापिता उर्ध्वमुखेन दशाऽर्द्धवर्णेन पञ्चवर्णन जानुनोरुत्सेधस्य उच्चत्वस्य यत्प्रमाणं यस्य स जानूत्सेध-प्रमाणमात्रः पुष्पोपचारः पुष्पप्रकर इत्यष्टादशः 18, तथा (कालागुरुपवरकुं दुरुक्क तुरुक्कधूवमघमघतगंधुद्धृयाभिरामे भवइत्ति)कालागुरुश्च गन्धद्रव्यविशेषः प्रवरकुन्दुरुक्कञ्च चीडाऽभिधानं गन्धद्रव्यं तुरुषं च शिलकाभिधानं गन्धद्रव्यमिति द्वन्द्वस्तत एतल्लक्षणो यो धूपस्तस्य मघमघायमानो बहुलसौरभ्यो यो गन्ध उद्भूत उद्भूतः तेनाऽभिराममभिरमणीयं यत्तत्तथा स्थानं निषीदनस्थानमिति / प्रक्रम इत्येकोनविंशतितमः १६,तथा उभयोः ''पासिंचणं अरहंताणं भगवंताणं दुवे जक्खा कडयतुडि-यथंभियभुया चामरुक्नेवणं करंतित्ति" कटकानि प्रकोष्ठाभरण-विशेषास्त्रुटितानि बाहाभरणविशेषाः तैरतिबहुत्वेन स्तम्भिताविव स्तम्भितौ भुजौ ययोस्तौ तथा यक्षौ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अइसेस 32 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अइसेस देवाविति विंशतितमः २०,बृहद्वाचनायामनन्तरोक्तमतिशय-द्वयं नाधीयते अतस्तस्यां पूर्वेऽष्टादशैव अमनोज्ञानां शब्दादीनामपकर्षोऽभाव इत्येकोनविंशतितमः 16, मनोज्ञानां प्रादुर्भाव इति विंशतितमः 20, (पव्वाहरओत्ति ) प्रव्याहरतो व्याकुर्वतो भगवतः (हिययगमणीउत्ति)हृदयङ्गमः(जोयणनीहारीत्ति)योजनाति-क्रमी स्वर इत्येकविंशः२१, (अद्धमागहीएत्ति) प्राकृतादीनां षण्णां भाषाविशेषाणां मध्ये या मागधी नाम भाषा) 'रसोलसौ' मागध्यामित्यादिलक्षणवती सा असमाश्रितस्वकीयसमग्र-लक्षण्यर्द्धमागधीत्युच्यते तया धर्ममाख्याति तस्या एवा-ऽतिकोमलत्वादिति द्वाविंशः२२,(भासिज्जमाणीत्ति) भगवता ऽभिधीयमाना (आरियमणारियाणंति)आर्याऽनार्य-देशोत्पन्नानां द्विपदा मनुष्याश्चतुष्पदा गवादयः मृगा आटव्याः पशवो ग्राम्याः पक्षिणः प्रतीताः सरीसृपा उरःपरिसप्पा भुजपरिसप्पश्चेिति तेषां किमात्मन आत्मतया आत्मीयया इत्यर्थः भाषा, तया भाषाऽभावेन परिणमतीति संबन्धः / किं भूताऽसौ भाषा ? इत्याह- हितमभ्युदयः शिवं मोक्षः सुखं श्रवणकालोद्भवमानन्दंददातीति हितशिवसुखदेति त्रयोविंशः 23, पूर्व भवान्तरेऽनादिकाले वा जातिप्रत्ययबद्ध निकाचितं वैरममित्रभावो येषां ते तथा तेऽपि च आसतां मध्ये देवा वैमानिका असुरा नागाश्च भवनपतिविशेषाः सुवर्णाः शोभनवर्णा एते च ज्योतिष्का यक्षराक्षसकिन्नराः किंपुरुषाः व्यन्तरभेदाः गरुडा गरुडलाञ्छनत्वात् सुपर्णकुमारा भवनपतिविशेषाः गन्धर्वा महोरगाश्वव्यन्तरविशेषा एवएतेषां द्वन्द्वः (पसंतचित्तमाणसत्ति ) प्रशान्तानि समङ्गतानि चित्राणि रागद्वेषाद्यनेकविधविकारयुक्ततया विविधानि मानसान्यन्तःकरणानि येषां ते प्रशान्तचित्रमानसा धर्म निशामयन्ति इति चतुर्विशः२४,वृद्धवादतया इदमन्यदतिशयद्वयमधीयते यदुत अन्यतीर्थिकप्रावचनिका अपि च णं वन्दन्तो भगवन्तमिति गम्यते इति पञ्चविंशः 25, आगताः सन्तोऽर्हतः पादमूले निष्प्रतिवचना भवन्ति इतिषविंशः २६.(जओ जओ वि यणंति)यत्र यत्राऽपि च देशे (तओ तओ त्ति) तत्र तत्राऽपि च पञ्चविंशतियोजनेषु न भवति ईतियाध्याद्युपद्रवकारी प्रचुरमेषकादिप्राणिगण इति सप्तविंशः 27, न भवति मारिर्जनमारक इत्यष्टाविंशः 28, स्वचक्रं स्वकीयराज-सैन्यं तदुपद्रवकारि न भवतीति एकोनत्रिंशः 26, एवं न भवति परचक्रं परराजसैन्यमिति त्रिंशः 30, न भवति अतिवृष्टिरधिक-वर्ष इत्येकत्रिंशः 31, न भवति अनावृष्टिवर्षणाभाव इति द्वात्रिंशः ३२,न भवति दुर्भिक्ष दुष्काल इति त्रयस्त्रिंशः३३,(उप्पाइया-वाहित्ति)उत्पाता अनिष्टसूचका रुधिरवृष्ट्यादयः,तद्धेतुका ये-उनास्ते औत्पातिकास्तथा व्याधयो ज्वराद्याः, तदुपशमोऽभाव इति चतुस्त्रिशत्ततमः 34 / अन्यच "पव्याहरओ' इत आरभ्य येऽभिहितास्ते प्रभामण्डलं च कर्मक्षयकृताः शेषा भवप्रत्ययेभ्योऽन्ये देवकृता इति एते च यदन्यथाऽपि दृश्यन्ते तन्मतान्तरमेव मन्तव्य-मिति। स०३४ सम०। इदमत्र निगमनं चत्वारो जन्मप्रभृतित एकोनविंशतिः देवकृताः एकादश घाति-कर्मणां क्षयाद् भवन्तीति चतुस्त्रिंशदतिशयाः उक्ताः। दर्शका सत्यवचनस्य पञ्चत्रिंशदतिशयाः,यथापणतीसं सचवयणाइसेसा पण्णत्ता। पञ्चत्रिंशत् स्थानकं सुगम, नवरं सत्यवचनाऽतिशया आगमे न दृष्टाः। एते तु ग्रन्थान्तरे दृष्टाः संभावितवचनं हि गुणवद् वक्तव्यं, तद्यथासंस्कारवत् 1, उदात्तं 2, उपचारोपेतं 3, गम्भीर-शब्दम् 4, अनुनादि | 5, दक्षिणम् 6, उपनीतराग७, महार्थं 8, अव्याहतपौर्वापर्यम्, शिष्टम् | 10, असंदिग्धम् ११,अप-हृताऽन्योत्तरम् 12, हृदयग्राहि 13, देशकालाव्यतीतम् 14, तत्त्वाऽनुरूपम् 15, अप्रकीर्णप्रसृतम् 16, अन्योऽन्यप्रगृहीतम् 17, अभिजातम् 18, अतिस्निग्धमधुरम् 16, अपरमर्मविद्धम् 20, अर्थधर्माऽभ्यासानपेतम् 21, उदारम् 22, परनिन्दाऽऽत्मो-त्कर्षविप्रयुक्तम् 23, उपगतश्लाघम् 24, अनपनीतम् 25, उत्पादिताच्छिन्नकौतूहलम् 26, अद्भुतम् 27, अनतिविलम्बितम् 28, विभ्रमविक्षेपकिलिकिञ्चितादिविमुक्तम् 26, अनेकजातिसंश्रया विचित्रम् 30, आहितविशेषम् 31, साकारम् 32, सत्त्वपरिग्रहम् 33, अपरिखेदितम् 34, अव्युच्छेदम् 35, चेतिवचनं महानुभावैर्वक्तव्यमिति। तत्र संस्कारवत्त्वं संस्कृताऽऽदिलक्षणयुक्तत्वम् 1, उदात्त-त्वमुचैर्वृत्तिता 2, उपचारोपेतत्वमग्राम्यता 3, गम्भीरशब्दं मेघस्येव 4, अनुनादित्वं प्रतिरवोपेतता 5, दक्षिणत्वं सरलत्वं 6, उपनीतरागत्यं मालकोशादिग्रामरागयुक्तता 7. एते सप्त शब्दाऽपेक्षा अतिशयाः। अन्ये त्वर्थाऽऽश्रयाः, तत्र महाऽर्थत्वं, बृहदभिधेयता 8, अव्याहतपौर्वापर्यत्वम्, पूर्वाऽपरवाक्याऽविरोधः 6, शिष्टत्वम् अभिमतसिद्धान्तोक्ताऽर्थता वक्तुः शिष्टतासूचकत्वंवा 10, असंदिग्धत्वम् असंशयकारिता 11, अपहृतान्योत्तरत्वम् परदूषणाविषयता 12, हृदयग्राहित्वम् श्रोतृमनोहरता १३.देश-कालाऽव्यतीतत्वं, प्रस्तावोचितता 14, तत्त्वाऽनुरूपत्वम् विवक्षितवस्तुस्वरूपानुसारिता 15, अप्रकीर्णप्रसृतत्वम् सुसंबन्धस्य सतःप्रसरणं, अथवाऽसंबद्धाऽधिकारित्वाऽतिविस्तरयोरभावः 16, अन्योऽन्यप्रगृहीतत्वं, परस्परेण पदानां वाक्यानां वा सापेक्षता 17, अभिजातत्वं चक्षुःप्रतिपाद्यस्येव भूमिकानुसारिता 18, अतिस्निग्ध-मधुरत्वम् घृतगुडादिवत् सुखकारित्वम् १६,अपरमर्मवेधित्यम् परमाऽनुद्धट्टनस्वरूपत्वम् 20, अर्थधर्माऽभ्यासाऽनपेतत्वम् अर्थधर्मप्रतिबद्धत्वम् 21, उदारत्वम्, अभिधेयाऽर्थस्यातुच्छत्वगुम्फ गुणविशेष वा 22, परनिन्दात्मोत्कर्षविप्रयुक्तत्वमिति प्रतीतमेव 23, उपगत-श्लाघत्वम् उक्तगुणयोगात् प्राप्तश्लाघता 24, अनपनीतत्यम् कारक कालवचनलिङ्गादिव्यत्ययरूपवचनदोषापेतता 25, उत्पादिताच्छिन्नकौतूहलत्वम्, स्वविषये श्रोतृणां जनितमवि-च्छिन्नं कौतुकं येन तत्तथा तद्भावस्तत्त्वम् 26, अद्रुत-त्वमनतिविलम्बितत्वं च प्रतीतम् 27-28, विभ्रमविक्षेप-किलिकिञ्चितादिविमुक्तत्वम्, विभ्रमो वकृमनसो भ्रान्तता विक्षेपस्तस्यैवाऽभिधेयाऽर्थ प्रत्यनासक्तता कि लिकिञ्चितं रोषभयाऽभिलाषादिभावानां युगपद् वाऽसकृत करणमादि-शब्दात् मनोदोषाऽन्तरपरिग्रहस्तैर्विमुक्तं यत्तत्तथा तद्भावः, तत्त्वम् 26, अनेकजातिसंश्रया विचित्रत्वम्, इह जातयो वर्णनीयवस्तुरूपवर्णनानि 30, आहितविशेषत्वम्, वचनाऽन्तरापेक्षया ढौकितविशेषता 31, साकारत्वम्, विच्छिन्नवर्णपदवाक्यत्वेनाऽऽकारप्राप्तत्वम् 32, सत्त्वपरिगृहीतत्वं साहसोपेतता 33, अपरिखे दितत्वम्, अनायाससंभवः३४, अव्युच्छे दित्वं विवक्षिताऽर्थसम्यसिद्धिं यावदनवच्छिन्नवचनप्रमेयतेति 35 / स० 35 सम०। सूत्राऽर्थाद्यतिशयाः - सुत्तत्थे अइसेसा, सामायारीय विजजोगाइ। विजाजोगाइ सुए, विसंति दुविहा अओ होति। इहाऽतिशयास्त्रिविधाः, तद्यथा- सूत्राऽर्थाऽतिशयाः, सामाचार्यतिशयाः, विद्या योगाः। आदिशब्दात् मन्त्राश्चेति त्रयोऽतिशयाः / तत्र विद्या स्त्रीदेवताऽधिष्ठिता पूर्वसेवादिप्रक्रिया Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अइसेस ३३-अभिधानराजेन्द्रः- भाग 1 अइहिसंविभाग साध्या वा योगाः, पादलेपप्रभृतयो गगनमनादिफलाः / मन्त्राः पुरुषदेवताः, पठितसिद्धा वा / यद्वा विद्या यागाश्चशब्दान्मन्त्राश्च श्रुते एव विशन्ति, अन्तर्भवन्ति / अतो द्विविधा अतिशयाः भवन्ति तत्र सूत्राऽातिशयाः,सामाचार्यतिशयाश्वेत्येतेषामतिशयाना-मुपलब्धिः प्रवाचनाचार्यपर्युपासनया भवति,बृ० 1 उाअवध्यादौ, औ०। कर्मणि प्रत्ययः अतिक्रान्ते, स्था 4 ठा० 1 उ०। अतिशिष्यते कर्मणि पत्र। स्वल्पाऽवशिष्टे, वाचा अइसेसइड्ढि-पुं०(अतिशेषर्द्धि) अतिशेषा अवधिमनःपर्यायज्ञानामर्षांषध्यादयोऽतिशयास्ते तैर्वा ऋद्धिर्यस्याऽसौ अतिशेषद्धिः। प्रथमे प्रवचनप्रभावके, प्रव०१४ द्वा० नि० चू० / दश० अइसे सपत्त-त्रि०(अतिशेषप्राप्त) आमषिध्यादिलब्धीः प्राप्ते, कल्प०) अइसेसपहुत्त-न०(अतिशेषप्रभुत्व)अतिशायिप्रभुत्वे, व्य०६७०। अइसेसि(न)-त्रि०(अतिशेषिन्) स्फीते, ओघo अइसेसिय-त्रि०(अतिशेषित) अतिशयिते, व्य०६ उ०) अइ(ति)हि-पुं०(अतिथि) न विद्यन्ते सततप्रवृत्त्या विशदैकाकाराऽनुष्ठानतया तिथयो दिनविभागा यस्य सोऽतिथिः / तिथिपर्वोत्सवाः सर्वे, त्यक्ता येन महात्मना। अतिथिं तं विजानीयाच्छेषमभ्यागतं विदुरित्युक्तलक्षणे / ध०२अधि०) तिथिपर्वा दिलौकिकव्यवहारपरिवर्जक भोजनकालोप-स्थायिनि भिक्षुविशेषे, ध०२अधि। आव० श्रा०। आतु०। प्रतिक आचा०। आगन्तुके,भ०१२ श०६ उ०। अइ(ति)हिपूआ-स्त्री०(अतिथिपूजा)६त० आहारादिदानेना-ऽतिथेः सत्कारलक्षणे लोकोपचारविनयभेदे, द०५अ० "बलिवइस्सदेवं करेइत्ता अतिहिपूयं करेइ, करेइत्ता तओ पच्छा अप्पणा आहारमाहारेइ" / भ०११ श०६ उ०। नि। अइ(ति)हिबल-न०(अतिथिबल) अतिथेः शक्त्युपचये, आचा०१ श्रु० २अ० प्रति०। अइ(ति)हिम-न०(अतिहिम) अतिशयितहिमे, पिं०। अइ(ति)हिवणीमग-पुं०(अतिथिवनीपक) अतिथिमाश्रित्य वनीपकः / अतिथिदानप्रशंसनेन तद्भक्तात् लिप्स्यमानेयाचकभेदे, स्था०५ ठा०। सांप्रतमतिथिभक्तानां पुरतोऽतिथि-प्रशंसारूपं वनीपकत्वं, यथा साधुर्विदधाति, तथा दर्शयतिपाएण देइ लोगो, उवगारिसुपरिचिएसु झुसिए वा। जो पुण अद्धाखिन्नं, अतिहिं पूएइ तं दाणं / / इह प्रायेण लोक उपकारिषु यद्वा परिचितेषु यदि वा अध्युषिते आश्रिते ददाति भक्तादि, यः पुनरध्वखिन्नमतिथिं पूजयति, तदेव जगति दानं प्रधानमिति शेषः। पिं०। नि०चू० अइ(ति)हिसंविभाग-पुं०(अतिथिसं विभाग) तिथिपर्वादिलौकिकव्यवहारत्यागाद् भोजनकालोपस्थायी श्रावकस्या-ऽतिथिः साधुरुच्यते, तस्य संगतो निर्दोषो न्यायागतानां कल्पनीयाऽन्नपानादीनां देशकाल श्रद्धासत्कारक्रमयुक्तः पश्चात् - कर्मादिदोषपरिहारेण विशिष्टो भाग आत्मानुग्रहबुद्ध्या दानमतिथिसंविभागः। यथा संविभागाऽपरनामके चतुर्थे शिक्षाव्रते, ध०३ अधि०ण तत्त्वं च - अतिहिसंविभागो नामनायाणयाणं कप्पणिजाणं अन्नं पाणाईणं दव्वाणं देसकालसद्धासकारकमजुत्तं पराए भत्तीए आयाणुग्गहबुद्धीए संजयाणं दाणं।। नामशब्दः पूर्ववत्, न्यायागतानामितिन्यायो द्विजक्षत्रियविट्-शूद्राणां स्ववृत्त्यनुष्ठानं स्ववृत्तिश्च प्रसिद्धैव प्रायो लोकव्यवहार्या, तेन तादृशा न्यायेनाऽऽगतानां प्राप्तानामनेनाऽन्यायेनाऽऽगतानां प्रतिषेधमाहकल्पनीयानामित्युद्गमादिदोषवर्जिताना-मनेनाऽकल्पनीयानां निषेधमाह- अन्नपानादीनां द्रव्याणामादि ग्रहणाद्वस्त्रपात्रौषधभेषजादिपरिग्रहः अनेनाऽपि हिरण्यादि-व्यवच्छेदमाहदेशकालश्रद्धासत्कारक्रमयुक्तं,तत्र नाना-व्रीहिकोद्रवकगुगोधूमादिनिष्पत्तिभाग्देशः, सुभिक्षदुर्भिक्षाऽऽदिः कालः, विशुद्धचित्तपरिणामः श्रद्धा, अभ्युत्थानाऽऽसन-दानवन्दनाऽनुव्रजनादिः सत्कारः, पाकस्य पेयादिपरिपाट्या प्रदान क्रमः, एभिर्देशादिभिः युक्तं,समन्वितमनेनाऽपि विपक्षव्यवच्छेदमाह- परया प्रधानया भक्त्योत्पन्नेन फलप्राप्तौ भक्तिकृत-मतिशयमाह- आत्मानुग्रहबुद्धयेति, न पुनर्यत्यनुग्रह बुद्ध्येति / तथा ह्यात्मपराऽनुग्रहपरा एव यतयः संयताः मूलगुणोत्तरगुणसंपन्नाः साधवः तेभ्यो दानमिति सूत्राक्षरार्थः / आव०६ अ०। अत्र वृद्धोक्ता सामाचारी- श्रावकेण पोषधं पारयता नियमात् साधुभ्यो दत्त्वा पारयितव्यमन्यदा पुनरनियमो, दत्त्वा वा पारयति, पारयित्वा वा ददाति / तस्मात् पूर्व साधुभ्यो दत्त्वा पश्चात् पारयित-व्यम् / कथं यदा देशकालो भवति, तदात्मनो विभूषां कृत्वा साधून तत्प्रश्रयं गत्वा निमन्त्रयते- भिक्षां गृह्णीतेति / साधूनांका प्रतिपत्तिरुच्यते- तदा एकः पटलकमन्यो मुखाऽनन्तकमपरो भाजनं प्रत्युपेक्षते, मा अन्तरायदोषाः स्थापनदोषा वा भवन्तु।सचयदि प्रथमायां पौरुष्यां निमन्त्रयते, अस्ति चनमस्कारसहित-प्रत्याख्यानीयस्ततस्तद्गृह्यते / अथवा नाऽस्त्यसौ, तदा न गृह्यते / यतस्तवोढव्यं भवति। यदि पुनर्घनं लगेत्, तदा गृह्येत संस्थाप्यते च / यो वोद्घाटपौरुष्यां पारयति,तरणकवानन्यो वा तस्मै तद् दीयते, पश्चात्तेन श्रावकेण सम संघाटको व्रजत्येको न व्रजेत्, प्रेषयितुं साधुपुरतः श्रावकस्तु मार्गतो गच्छति, ततोऽसौ गृहं नीत्वा तावासनेनोपनिमन्त्रयेत, यदि निविशेते, तदा भ्रष्टमथ न निविशेते, तथाऽपि विनयः प्रयुक्तो भवति। ततोऽसौ भक्तं पानं चस्वयमेव ददाति, अथवा भाजनं धारयत्यथवा स्थित एवाऽऽस्ते, यावद् दत्तं साधू अपि सावशेषं गृहीतः, पश्चात्कर्मपरिहरणार्थ ततो दत्त्वा वन्दित्वा च विसर्जयत्यनुगच्छति च कतिचित्पदानि, ततः स्वयं भुङ्क्ते। यच किल साधुभ्यो न दत्तं, तत् श्रावकेण न भोक्तव्यम् / यदि पुनस्तत्र ग्रामादौ साधवोन सन्ति, तदा भोजनवेलायां दिगवलोकनं करोति, विशुद्धभावेन च चिन्तयति-यदि साधवोऽभविष्यन्, तदा निस्तारितोऽहमभविष्यमिति विभाषेति गाथार्थः / पंचा०१ विव०।०र० धाश्रा०। "एसा विही णाणीसु बंभयारीसु भत्तीए गिही उग्गहं कुज्जा पारिउकामो य वरं इह परलोगे य दाण फलं"।आ० चू० 4 अ०। अस्य पञ्चाऽतिचाराःतयाणंतरं च णं अहासंविभागस्स पंच अइआरा जाणियव्वा, न समायरियव्वा / तं जहा- सचित्तनिक्खेवणया 1, सचित्तपेहणया 2, कालाऽइक्कमदाणे 3, परवपदेसे 4, मच्छरया 5 / Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अइहिसंविभाग 34 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अओ यथा सिद्धस्य स्वार्थ निर्वर्तितस्येत्यर्थोऽशनादेः समिति सङ्गतत्वेन बारसजोअणदीहाय जत्थचक्केसरी रयणमयायतणट्ठिअपडिमा संघविग्ध पश्चात्कर्मादिदोषपरिहारेण विभजनं, साधवे दान-द्वारेण विभागकरणं, हरेइ / गोमुहजक्खो अ जत्थ थब्भरदहो उ सरऊनईए समं मिलित्ता यथा संविभागः, तस्य। (सचित्त-निक्खेवणेत्यादि) सचित्तेषुव्रीह्यादिषु सग्गदुवारंति पसिद्धमावन्नो जीए उत्तरदिसाए बारसहिं जोयणेहि निक्षेपणमन्नादे- रदानबुद्ध्या मातृस्थानतः सचित्तनिक्षेपणम् 1, एवं अट्ठावयनगवरो जत्थ भगवं आइगरो सिद्धो जत्थ य भरहेसरेण सचित्तेन फलादिना स्थगनम् सचित्तपिधानम् 2, कालाऽतिक्रमः सीहनिसिजाययणं तिको सुचं कारियं नियनियवण्णप्पमाणकालस्य साधुभोजनकालस्याऽतिक्रम उल्लङ्घनं कालाऽतिक्रमः / संठाणजुत्ताणि अ चउवीसजिणाणं बिंबाई ठावियाई तत्थ पुवदारे अयमभिप्रायः- कालमूनमधिकं च ज्ञात्वा साधवो न ग्रहीष्यन्ति, उसभाऽजियाणं दाहिणदारे संभवाईणं चउण्हं पच्छिमदुवारे सुपासाईणं ज्ञास्यन्ति च- यथाऽयंददाति, एवं विकल्पतो दानार्थमभ्युत्थान-मतीचार अट्ठण्हं उत्तरदुवारेधम्माईणंदसण्हं थूभसयंच भाउआणं तेणं च कारि। इति 3, तथा परव्यपदेशः परकीयमेतत्, तेन साधुभ्यो न दीयते / इति जीए नयरीए वत्थव्वा जणा अट्ठावयउच्चव्वयासु किलिसु जओ अ साधुसमक्षं भणनं, जानन्तु साधवो यद्यस्यैतद् भक्तादिकं भवेत, तदा सेरीसयपुरे नवंगवित्तिकार-साहासमुब्भवेहि सिरिदेविंदसूरीहिं चत्तारि कथमस्मभ्यं न दद्यादिति साधुप्रत्ययार्थम्, अथवाऽस्माद् दानात् महाबिंबाइं दिव्वसत्तीए गयणमग्गेण आणीआईजत्थ अजविनाभिरायस्स ममाऽन्नादेः पुण्यमस्त्विति भणनमिति 4, मत्सरिता अपरेणेदं दत्तं, मंदिरं जत्थ पासनाहसामिअसीयाकुंड सहस्सधारं च पायारहिओ किमहम् ? तस्मादपि कृपणो हीनो वाऽतोऽहमपि ददामीत्येवंरूपो मत्तगयंद-जक्खो अलाविजस्स अण्णं करिणो न संचरंति, संचरंति वा दानप्रवर्तकविकल्पो मत्सरिता 5 / एते चाऽतिचारा एव, न भङ्गाः / तामरंति, गोपथराईणि य अणेगाणि य लोइअतिहाणि वखंति। एसा पुरी दानार्थमभ्युत्थानं दाना-ऽपरिणतेश्च दूषितत्वात् / भङ्ग स्वरूपस्य अउज्झा, सरउजलाभिसिचमाणगढभित्ती / जिणसमय-सत्तितित्थी, चेहैवमभिधानात्। यथा-"दाणंतराय दोसा,ण देइ दिजंतयं च वारेइ। जत्तपवित्तिअजणा जयइ // 1 // कह पुण देविंदसूरिहिं चत्तारि विबाणि दिन्ने वा परितप्पड़, इति किवणत्ता भवे भंगो''॥ 1 // उपा० 1 अ०। अउज्झापुरओ आणियाणित्ति ? भन्नइ- सेरीसेयनयरे विहरंता ध०। आराहिअपउमावइधरणिंदा छत्तावल्लीयसिरे देविंदसूरिणो उ कुरुडि अई(ति)व-अ०(अतीव) अति-इव, समासः / अतिशयाऽर्थे, पंचा० अप्पए ठाणे काउसग्गं एवं बहुवारं कारिते दह्ण सावरहिं पुच्छियं भयवं 16 विव०। 'अईव णिचंधयारकलिएसु" प्रश्न० आश्र०२ द्वा०। अईव को विसेसो इत्थ काउसगकरणे सूरिहिं भणिअं- इत्थ पहाणफलही सोमचारुरूवा, अतीव अतिशयेन सोमं दृष्टिसुभगं चारु रूपयेषां तेऽतीव चिट्ठइ, जीसे पासनाहपडिमा कीरइ, सा च सत्तिहिं अपाडिहेरा हवइ। सोमचारुरूपाः। जी०३ प्रति०२ उठा तओ सावयवयणेणं पउमावई आराहणत्थं उववासतिगं कयं गुरुणा, आगया भगवई। तीए आइ8- जहा सोपारए अंधो सुत्तहारो चिट्ठइ, सा अउअ(य)-न०(अयुत) चतुरशीत्या लक्षैर्गुणिते, अनु०। अयुताङ्गे, जइ इत्थ आगच्छइ, अट्ठमभत्तं च करेइ, सूरिए अत्थमिए फलहिअं स्था० 2 ठा०। अनु०। जी0 जं० दशसहस्रेषु, कल्प० / असंबद्धे, अंधाडउमाढवइ, अणुदिए पडिपुण्णं संपाडेइ, तओ निप्पजइ / तओ असंयुक्ते च वाचा सावरहिं तदाहवणत्थंसोपारएपुरिसापट्टविआ, सो आगओतहेव घडिउअउअंग-न०(अयुताङ्ग) चतुरशीत्या लक्षैर्गुणिते अर्थनिपूरे, जी०३ माढत्ता / धरणिंदधारिआ निप्पन्ना पडिमा, घडिंतस्स सुत्तहारस्स प्रति०। जं०। कल्प। स्था०। अनु०। पडिमाएहिं अपमासो पाउन्भूओ। तमुविक्खिउणा उत्तरकाउं घडिओ अउअसिद्ध-त्रि०(अयुतसिद्ध) कारणकपालादेरपृथग्भूततया सिद्ध पुणो समारितेण मसो दिट्ठो, दंकिआ वाहिआरुहिरं निस्सरिउमारलं, कायद्रव्ये घटादौ, तथाभूते वैशेषिकोक्ते द्रव्याश्रिते गुणे, कर्मणि च। वाच०। तओ सूरीहिं भणिअंकिमेयं तुमए कयं? एयम्मि मसे अत्थतं सा पडिमा आ० म०। सम्म० स्या० अईव अज्झुअ अह उसमप्पभवा हुंता / तओ अंगुट्टेणं चंपिउं थंभिउं अउज्झ-त्रि०(अयोध्य) पर्योद्धमशक्ये, जी०३ प्रति०। दुर्गत सरुहिरं / एवं तीसे पडिमाए निप्पन्नाए चउवीस अन्नाणि बिंबाणि खाणीहितो आणित्ता ठाविआणि, तओ दिव्वसत्तीए अउज्झापुरओ तिन्नि त्वात्परबलैः संग्रामयितुमशक्ये, स्था० 4 ठा०। महाबिंबाणि रत्तीए गयणमग्गेण आणियावि / चउत्थे वि आणिज्जमाणे अउज्झा-स्त्री०(अयोध्या) विनीताऽपरनामके पुरीभेदे। विहाया रयणी चउधारासेणेयग्गामे। खित्तमज्झे बिंब ठविअंरामासिरितन्माहात्म्यम् - कुमारपालेण चालुक्कचक्कवणा चउत्थं बिंब कारित्ता ठावि। एवं सेरीसे अउज्झाए एगट्ठियाइ जहा अउज्झा अवज्झा कोसला विणीया सा महप्पभावो पासनाहो अज्ज वि संघेण पूइज्जइ, मिच्छा वि उवद्दवं कारिलं केयं इक्खागुभूमी रायपुरी कोसलत्ति एसा सिरिउसभ न पारेति। कुसुअघडित्तेण न तहासलावण्णा अवयवादीसंति,तम्मि अ अजिअअभिनदंणसुमइअणंतजिणाणं तहा नवमस्स सिरिवीर-गण गामे तं बिंब अज्ज विचेईहरे पूइज्जइत्ति। इतिश्री अयोध्याकल्पः समाप्तः। हरस्स अयलभाउणो जन्मभूमी रहुवंसझवाणं दसरहराम-भरहाईणं च ती० 13 कल्प०। गन्धिलावतीविजये वर्तमाने पुरीयुगले च / दो रज्जट्ठाणं विमलवाहणाइ सत्त कुलगरा इत्थ उप्पन्ना उसभसामिणो अउज्झाओ। स्था०२ ठा०। रज्जाभिसेए मिहुणगेहिं भिसीणीपत्ते य उदयं धित्तुं पाएसुच्छूटं तओ साहु अउ(तु)ल-त्रि०(अतुल) अनन्यसदृशे, आव०६ अ० द० / निरुपमे, विणीया पुरिसत्ति भणिअंसक्केण तओ विणीयत्ति सा नयरी रूढा / जत्थ उत्त० 20 अ०। प्रधाने, श्रा० नाऽस्ति तुला शुभ्रताया यस्यामिति य महासईए सीयाए अप्पाणं साहतीए निअसीलबलेण अगी जलपूरो तिलकवृक्षे, पुंगा वाचन कओ, सोअजलपूरो नयरिंदोलतो निअमाहप्पेण तीए चेव रक्खिओ, | अओ-अ०(अतस्) इदम् - तसिल। एतद्धेतुकार्ये, वाच० "अओ सव्वे जा य अड्ढभरहवसुहागोलस्स मज्झभूआ सया नवजोअणवित्थिण्णा | अहिंसिया''। सूत्र० 1 श्रु०१ अ० 1 उ०। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अओघण 35 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंकोल्ल अओघण-पुं०(अयोधन) लोहघने, अयोमये घने, "सीसपि भिंदंति अओघणेहिं"। सूत्र०५ अ०२ उ०। अओभय-त्रि०(अयोमय) लोहमये विकारे, "अओमएणं संडासएण गहाय"। सूत्र०२ श्रु०२ अ० अओमुह-त्रि०(अयोमुख) अय इव मुखं यस्य लोहमुखे पक्ष्यादौ, "पक्खीहिं खज्जति अओमुहेहिं " / सूत्र०१ श्रु०५ अ 02 उ०) अयोमुखद्वीपनिवासिनि मनुष्ये, पुं० स्था०५ ठा०। अओमुहदीव-पुं०(अयोमुखद्वीप) गोकर्णनाम्नोऽन्तरद्वीपस्य परतो दक्षिणपश्चिमायां विदिशि पञ्चयोजनशतव्यति- क्रमेणस्थिते पञ्चयोजनशतायामविष्कम्भे एकाशीत्यधिक-पञ्चदशयोजनशतपरिक्षेपे पद्मवरवेदिकावनखण्डमण्डित- बाह्यप्रदेशेऽन्तरद्वीपविशेष; नं० प्रज्ञा०। स्था० अंक-पुं०(अङ्क) अङ्क-अच् / शुक्लमणि विशेषे, उत्त० 34 अ०। रत्नविशेषे, ज्ञा०१ अ० ज०। ज्ञा०। रा०। सूत्र०। उत्त० जी० भ०। आ० म० प्र०। प्रज्ञा० नि० चू० "पद्मासनोपविष्टस्योत्सङ्गरूपे आसनबन्धे, चन्द्र०५ पाहु०॥ चन्द्रबिम्बान्तर्वर्तिमृगावयवे च। यल्लोके मृगादिव्यपदेशं लभते / जं०२ वक्ष०ा सूर० / चिह्ने, चन्द्र०२० पाहु०। लाञ्छने, औ०। उत्सङ्गे, व्य०८ उ०। जंग। ज्ञा०। सूत्र० आचा०। दृश्यकाव्यभेदे च / पुं० न० वाच०। दृश्यकाव्यरूपकभेदे, एकत्वादिसंख्याबोधक-रेखासन्निवेशे नवसंख्यायां च।पुं०ावाच०। अंककंड-न०(अङ्ककाण्ड) अङ्करत्नमये योजनशतबाहल्ये रत्नप्रभायाः खरकाण्डस्य चतुर्दशे भागे, स्था० 10 ठा०। अंककरेल्लुअ-न०(अङ्ककरेलुक) वनस्पतिविशेषे, आचा० 1 श्रु० १अ०५ उ० अंकद्विइ-स्त्री०(अङ्कस्थिति) संख्यारेखाविचित्रस्थापना- रूपायां त्रयश्चत्वारिंशत्-कलायाम्, कल्प०। अंकण-न०(अङ्कन) अङ्क-ल्युट् / तप्तायःशलाकादिना गवाऽश्वानां चिह्नकरणे, प्र० आश्र० 1 द्वा०। ध०। श्वशृगालचरणादिभिलाञ्छनकरणे च / आव०४ अ० अङ्ककरणे ल्युट / अङ्कसाधनद्रव्ये "गदागामीति" प्रसिद्धे, वाचा अंकध(ह)र-पुं०(अङ्कधर) 6 त०। चन्द्रमसि, जी०३ प्रतिला तं०। जंग अंकधाइ-स्त्री०(अङ्कधात्री) उत्सङ्गस्थापिकायां धात्र्याम, ज्ञा० 1 अ०। नि० चू०। आचा० अंकबणिय-पुं० अङ्कवणिज(ज) अङ्करत्नवणिजि, रा०! अकं मुह-न०(अंकमुख) 6 त०। पद्मासनोपविष्टस्य उत्सङ्ग रूपासनबन्धाऽग्रभागे, सूर०५ पाहुणचं०। अंकमुहसंठिय-त्रि०(अङ्कमुखसंस्थित)पद्मासनोपविष्टस्यो-त्सङ्गरूप आसनबन्धस्तस्य मुखमग्रभागोऽर्द्धवलयाकारः, तस्येव संस्थितंयस्य। अर्द्धवलयाऽऽकारसंस्थानसंस्थिते, सूर्य०५पाहु०। चन्द्र०। अंकलिवि-स्त्री०(अङ्कलिपि) ब्राह्मया लिपेादशे लेख्यविधाने। प्रज्ञा० १पद० स०। अंकमय-त्रि०(अङ्कमय) अङ्करत्नमये, अङ्करत्नविकारे, अङ्क- रत्नप्रचुरे वा "अंकामया पक्खा पक्खवाहा"। ओ०रा०। प्रतिका अंकावई-स्त्री०(अङ्कावती) महाविदेहरम्यविजये वर्तमानायां राजधान्याम् / रम्मे विजये अंकावई रायहाणी अंजणे वक्खारपव्वए। जं०४ वक्ष०ा दो अंकावईओ। स्था०२ ठा० मन्दरस्य पूर्वे शीतोदाया महानद्या दक्षिणे वर्तमाने वक्षस्कारपर्वते च / स्था०५ ठा०। अंकि अ(य)-त्रि०(अङ्कित) लाञ्छिते, आव०४ अ०। औ०। अंकिइल्ल-(देशी) नटे, ज्ञा०१ अ०| अंकुडग-पुं०(अङ्कुटक) नागदन्तके; जं०१ वक्षन अंकुत्तरपास-त्रि०(अङ्कोत्तरपार्श्व) अङ्खा अङ्करत्नमया उत्तरपावा यस्य तत् अङ्कोत्तरपार्श्वम् / अङ्करत्नमयोत्तरपार्श्वयुक्ते द्वारे / रा०ा जी०। अंकुर-पुं०(अकुर) न० अङ्क-उरच् / प्ररोहे, बृ० 1 उ०। शाल्यादिबीजसूचौ, भ०७ उ०७ श०। कालकृतावस्थाविशेषभाजि प्रवाले, जी०३ प्रति०। स्था०। दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं प्रादुर्भवति नाऽड्कुरः / कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवाऽड्कुरः / / 1 / / ध०२ अधि० जले, शीघ्रोत्पत्तिसाधर्म्यात्।रुधिरे, लोम्नि, मुकुले च / वाच०। अंकुस-पुं० न०(अङ्कुश) अङ्क उशच् / शृणौ, प्रश्न० आश्र० 4 द्वा०। "अंकुसेण जहा णागो धम्मे संपडिवाइओ" / उत्त० 22 उ० / अकुशाकारे मुक्तादामावलम्बनाश्रयभूते चन्द्रोपके, जी० 3 प्रति०। स्था०। आ० म० द्वि०। विमानविशेषे, स०) देवार्चनार्थ वृक्षपल्लवाकर्षणार्थे परिव्राजकोपकरणविशेषे, औ०। षष्ठे वन्दनकदोषे,प्रव०२ द्वा०ा तत्स्वरूपंच - उवगरणे हत्थम्मि व, घित्तुं णिवेसेति अंकुसं बिति। यत्राऽङ्कुशेन गजमिव शिष्यः सूरि तूर्ध्वस्थितं शयितं प्रयोजनाऽन्तरव्यग्रं चोपकरणे चोलपट्टककल्पादौ हस्ते वाऽवज्ञया समावृष्य वन्दनकदानार्थमासने उपवेशयति, तदङ्कुश वन्दनकमुच्यते / नहि श्रीपूज्याः कदाचनाप्युपकरणाद्याकर्षणमर्हन्त्यविनयत्वात् किंतु प्रणाम कृत्वा कृताञ्जलिपुटैर्विनयपूर्वकमिदमभिधीयते- उपविशन्तु भगवन्तो ! येन वन्दनकं प्रयच्छामीत्यतो दोषदुष्टमिदमिति / आवश्यकवृत्तौ तु रजोहरणमङकुशवत् करद्वयेन गृहीत्वा यत्र वन्दते, तदकुशमिति व्याख्यातम् / अन्ये तु अङकुशाऽऽक्रान्तस्य हस्तिन इव शिरोऽवनमनोन्नमने कुर्वाणस्य यद्वन्दनं, तदकुशमित्याहुः / एतच्च द्वयमपि सूत्राऽनुयायि न भवति / तत्त्वं पुनर्बहुश्रुता जानन्ति / प्रव०२ द्वा०आव०॥धा 'अंकुसो दुविहो मूले गंडुस्स रय-हरणं गहाय भणतिनिवेस, जा ते वदामि। अहवा दोहि वि हत्थेहि अंकुसंजधा। आ० चू० 3 उा प्रतिबन्धे च / वाचा अंकुसा-स्त्री०(अंकुशा) अनन्तजिनस्य शासनदेवतायाम्, सा च देवी गौरवर्णा पद्मासना चतुर्भुजा खड्गपाशयुक्तदक्षिण-पाणिद्वया फलकाऽङ्कुशयुक्तवामकरद्वया च। प्रव०२८ द्वा०। अंकेल्लणपहार-पुं०(अंकेल्लणप्रहार) अश्वादीनांतर्जक- विशेषाघाते, अंकेल्लणपहारपरिवज्जियंगे अंकेल्लणप्रहार-परिवर्जिताऽङ्गः / अश्ववारमनोऽनुकूलत्वादलेल्लणप्रहार-रहितशरीरे अश्वादौ, त्रि०० 4 वक्ष अंकोल्ल-पुं०पअंकोट(ठ)(ल)ब अङ्कयते लक्ष्यते कीलाऽऽकारकण्टैः , अङ्क-ओट-ओठ-ओल वा। अंकोठेल्लः / 8 / 1 / 200 / इति सूत्रात्ठस्य द्विरुक्तोलः प्रा०ापीतवर्णसारेगन्धयुक्तपुष्पे दीर्घकण्टकयुक्ते रक्तवर्णफले वृक्षविशेषे, वाच०। एका- ऽस्थिकवृक्षभेदे, गुच्छभेदे च / प्रज्ञा०१ पदकल्पा Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंकोल्लतेल्ल 36 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंग अंकोल्लतेल्ल-न०पकोट(ठ)तेलब अङ्कोठ-तैलच् / अनोवत् "सयपुप्फाणंति' वचनव्यत्ययात् शतपुष्पाया भागो भागच तैलस्य डेल्लः / 8 / 2 / 155 // इत्यङ्कोठपर्युदासात्, न तैलप्रत्ययस्य तमालपत्रस्य भाग इह पलिका मात्रा / अस्य माहात्म्यमाह- एतत् डेल्लः / अङ्कोठस्नेहे। प्रा० स्नानमेतद्विलेपनमेष चैव पटवासःवासवदत्तया चण्डप्रद्योत-दुहित्रा कृतो अंग-अव्य०(अङ्ग) आमन्त्रणे / भ०६ श० 33 उ० दशा०। ज्ञा० विहित उदयनं वीणावत्सराजमभिधारयन्त्या चेतसि वहन्त्या अनेन औ०। अलंकारे च। "किमंग पुण अहं अज्झोवगमिओ"|स्था०४ ठा। परिचित्ताक्षेपकत्वमस्य माहात्म्यमुक्तमिति सूत्रार्थः / औषधाऽङ्गमाह - अञ्जू व्यक्तिभ्रक्षणगतिष्विति अञ्ज धातोरज्यन्ते गर्भोत्पत्तेरारभ्य दोण्णि य रयणी महिंद-फलं च तिण्णि य समूसणंगाई। व्यक्तीभवन्ति जन्मप्रभृतेमक्ष्यन्ते चेत्यङ्गानि।शिरउदरादिषु।ना कर्म सरसंब कणयमूलं, एसा उदगट्ठमा गुलिया। देहावयवेषु, प्रव० 8 द्वा०ा आ० चू० प्रज्ञा० निचू०। विशे०। उत्त०। एसा उ हणइ कंडं, तिमिरं अवहेडगं सिरोरोगं। अङ्गान्यष्टौ शिरःप्रभृतीनि, तदुक्तं-"सीसमुरोयरपिट्टी, दो बाहू ऊरुया तेइज्जगचाउत्थग- मूसगसप्पावरद्धं च।। य अटुंगा' / कर्म०। रा०ा "बाहूरुपिट्ठिसिरउरउयरंगा' बाहू भुजद्वयम् दे रजन्यौ पिण्डदारुहरिद्रे माहेन्द्रफलं चेन्द्रयवा त्रीणि च समूषणं ऊरू ऊरुद्वयं पृष्ठिः प्रतीता शिरो मस्तकमुरो वक्षः उदरं त्रिकटु कं तस्याऽङ्गानि सुण्ठीपिप्पलीमरिचद्रव्याणि सरसं पोट्टमित्यष्टावङ्गान्युच्यन्ते / इह विभक्तिलोपः प्राकृतत्वात् / कर्म०१ चाऽऽकनकमूलं बिल्वमूलमेषोदकाष्टमेत्युदकमष्टमं यस्यां सा च तथा कर्मा आ० म०। गात्रे, औ०। स्था०। उत्त। अवयवे, स्था०७ ठा०। गुटिका वटिका / अस्याः फलमाह / एषा तु हन्ति कण्डु तिमिर "अटुंगाई" ज्ञा०१ अ० स०स्था०ा लौकिकानि वेदस्य षडङ्गानि (अवहेडयति) अर्द्धशिरोरोगं समस्तशिरोव्यथां (तेइज्जगचाउत्थगत्ति) तद्यथा शिक्षा 1 कल्पो 2 व्याकरणं 3 छन्दो 4 निरुक्तं 5 ज्यौतिष 6 सुपो लोपे तार्तीयिकचातुर्थिकौ रूढ्या ज्वरौ मूषकसप्पपिराद्धचेति / आ० चू०२ अ०1 अनु०। आ० म०। आव०। लोकोत्तराणि मुन्दराहिदष्ट चः समुचय इति गाथाद्वयाऽर्थः / मद्याऽङ्गमाह - प्रवचनस्य द्वादश अङ्गान्याचाराङ्गादीनि ।(तानि अंगप्पविट्ठशब्दे सोलस दक्खाभागा, चउरो भागा य धावतीपुप्फे। व्याख्यास्यन्ते ) कारणे, प्रतिस्था०। अस्य निक्षेपमाह - आढगमो उच्छुरसे, मागहमाणेण मज्जंगं / / दारं / / णामंगं ठवणंगं, दव्वंग चेव होइ भावंग। (सोलसगाहा) षोडश द्राक्षाभागाश्चत्वारो भागाश्च धातकीपुष्पे एसो खलु अंगस्स, णिक्खेवो चउविहो होइ। उत्त०नि०। धातकीपुष्पविषयाः (आढगमोत्ति) आर्षत्वादाढक इक्षुरसविषयः आढक नामाऽङ्ग स्थापनाऽङ्ग द्रव्याऽङ्गं चैव भवति, भावाऽङ्गमेष खलु (अंगस्स इह केन मानेनेत्याह।मागधमानेन 'दो असइ'' इत्यादिरूपेण मद्याऽङ्गं इति)प्राकृतत्वादङ्गस्य निक्षेपश्चतुर्विधो भवतीति गाथासमासार्थः / अत्र मदिराकारणं भवतीति गाथार्थः / च नामस्थापने प्रसिद्धत्वादनादृत्य द्रव्याऽङ्गमभिधित्सुराह . आतोद्याऽङ्गमाह - गंधंगमोसहंगं, मज्जाउजं सरीरजुद्धगं / एगं मगुंदातूर-मेगं अहिमारुदारुअं अग्गी। एत्तो एक्केक्कं पिय, णेगविहं होइ णायव्वं // एगं सालियपॉड, बद्धो आमोलतो होइ॥ गन्धाऽङ्ग मौषधाऽङ्ग (मज्जाउज्जं सरीरजुद्धंग ) बिन्दो (एगं गाहा) एकं मकुन्दातूर्यमिति / एकैव मकुन्दा वादिनविशेषो रलाक्षणिकत्वादङ्गशब्दस्य च प्रत्येकमभिसंबन्धात् मद्याङ्ग-मातोद्याङ्गं गम्भीरस्वरत्वादिना तूर्यकार्यकारित्वात् तूर्यमनेनास्या विशिशरीराङ्ग युद्धाङ्गमिति षड्विधम् (एसोत्ति) सुब्यत्ययादेषु मध्ये ष्ट मातोद्याङ्गत्वमेवाह / किमेकैव मकुन्दातूर्य सोपस्कारएकैकमपि चानेकविधं भवति ज्ञातव्यमिति गाथाक्षरार्थः / भावार्थं तु त्वाद्यथैकमभिमारस्य वृक्षविशेषस्य दारुकं काष्ठमभिमारविवक्षराचार्यों "यथोद्देशं निर्देशमिति" न्यायमाश्रित्य गन्धाऽङ्ग दारुकमग्निर्विशेषतोऽग्निजनकत्वाद्यथा वा एकं शाल्मलीपोण्डं प्रतिपादयन्नाह - शाल्मलीपुष्पं बद्धमामोडको भवति / आमोडकं पुष्पोन्मिश्री जमदग्गिजडा हरेणु-या सबरणिवसणयं सपिणियं। वालबन्धविशेषः स्फारत्वादस्येत्थं दृष्टान्ताऽभिधायितयेदं व्याख्यायते रुक्खस्स बाहिरा तया,मल्लियवासियकोडिअग्घती।। प्रसङ्गतो वाऽन्यामोडकाऽङ्गयोरप्यभिधानमिति सूत्रार्थः / उसीरहिरिवेराणं पलं भद्ददारुणो करिसो। शरीराङ्गमाह - सयपुप्फाण भागो य, भागो य तमालपत्तस्स। सीसं उरो य उदरं, पिट्ठी बाहू य दोणि ऊरूय। एवं पण्हाणमयं, विलेवणं एस चेव पडवासो। एए हों ति अटुंगा खलु, अंगोवंगाई सेसाई॥ वासवदत्ताकत्तो, उदयणमभिधारयंतीए। होंति उवंगा कन्ना, णासच्छीहत्थपादजंघा य। तत्र जमदग्निजटा वालको हरेणुका प्रियङ्गुः सबरनिवसनकं तमालपत्रं णहकेसमंसअंगुलि, ओट्ठा खलु अंगुवंगाइं (दारम्) (सपिन्नियं) पिन्निका ध्यामकाख्यं गन्धद्रव्यं तया सह सपिन्निकं वृक्षस्य शिरश्व उरश्च प्राग्वद् उदरं "पिट्ठित्ति' प्राकृतत्वात् पृष्ठं बाहू द्वौ ऊरू च च बाह्या त्वक्चातुर्यातकाङ्गं प्रतीतमेव 'मल्लियवासियत्ति" मल्लिका एतान्यष्टाङ्गानि। प्राग्वत् लिङ्गव्यत्ययः खलुरवधारणे एतान्येवाऽङ्गानि, जातिस्तद्वासितमनन्तरोक्त-द्रव्यजातंचूर्णीकृतमिति गम्यते कोटि (अग्घ अङ्गोपाङ्गानि शेषाणि नखादीनि, उपलक्षण-त्यादुपाङ्गानि च कर्णादीनि। इति) अर्हति कोटिमूल्याहं भवति। महार्घतोपलक्षणं चैतत् तथा उशीर यत उक्तम्- हों ति उवंगा कण्णा नासच्छी जंघहत्थपाया य / प्रसिद्धं ह्रीवेरो बालकः पलं पलमनयोस्तथा भद्रदारोदेवदारोः कर्षः | नहकेसमंसअंगुलि ओट्टा खलु अंगुवंगाणि इति गाथार्थः / Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंग 37- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंगचूलिया सांप्रतं युद्धाऽङ्गमाह - जाणावरणपहरणे, जुद्धे कुसलत्तणं व णीती य। दक्खत्तं ववसातो, सरीरमारोगए चेव।। दारम्) (जाणावरणपहरणेत्ति) यानं च हस्त्यादि तत्र सत्यपि न शक्नोत्यभिभवितुंशत्रुमत आवरणंच कवचादि, सत्यप्यावरणे प्रहरणं विना किं करोतीति प्रहरणं च खड्गादि यानाऽऽवरण-प्रहरणानि। यदि युद्धे कुशलत्वं नाऽस्ति, किंयानादिनेतियुद्धे संग्रामे कुशलत्वं च प्रावीण्यरूपं सत्यप्यस्मिन्नीति विना न शत्रुजयनमतो नीतिश्चाऽपक्रमादिलक्षणासत्यामपि चाऽस्यांदक्षत्वाऽधीनोजयस्ततो दक्षत्वमाशुकारित्वं सत्यस्मिन् निर्व्यवसायस्य कुतो जयः ? इति व्यवसायो व्यापारस्तत्रापि यदिन शरीरमहीनाऽङ्ग ततो न जयः, इति शरीरमर्थात् परिपूर्णाऽङ्ग तत्राऽप्यारोग्यमेव जयायेति (आरोगयत्ति) आरोग्यता चः समुचये एवावधारणे ततः समुदितानामेवैषां युद्धाऽङ्गत्वमिति सूत्रार्थः / भावाऽङ्गमाहभावंगं पि य दुविहं, सुतमंग चेव णोसुतं अंगं / सुतमंगं बारसहा, चउव्विहं णोसुयमंगं / भावाऽङ्गमपि च द्विविधम्- (सुयमंग चेवत्ति) श्रुताऽङ्गं चैव नोश्रुतानं च। श्रुताङ्ग द्वादशधा आचारादि, भावाङ्गता चाऽस्य क्षायोपशमिकभावाऽन्तर्गतत्वात् / उक्तं च- भावे खओव- समिए दुवालसंग पि होति सुयणाणंति / चतुर्विधं चतुष्प्रकारं नोश्रुताङ्गं तु, नोशब्दस्य सर्वनिषेधार्थत्वादश्रुताङ्ग,पुनः मकारश्च सर्वत्राऽलाक्षणिक इति गाथार्थः / एतदेवाऽऽह - माणुस्सं धम्मसुत्ती, सद्धा तवसंजमम्मि विरयं च / एए भावंगा खलु, दुल्लभगा होंति संसारे // . मानुष्यं मनुजत्वमस्य चाऽऽदावुपन्यास एतद्भावे शेषा-ऽङ्गभावात् धर्मश्रुतिरहत्प्रणीतधर्माकर्णनं श्रद्धा धर्म-करणाऽभिलाषः / तपोऽनशनादिस्तत्प्रधानः संयमः पञ्चा-ऽऽश्रवविरमणादिस्तपःसंयमो मध्यमपदलोपी समासः / तपश्च संयमश्च तपःसंयममिति समाहारो वा तस्मिन् वीर्यच वीर्यान्तरायक्षयोपशमसमुत्था शक्तिः / अस्यथ द्विष्ठस्याऽप्येकत्वेन विवक्षितत्वात् नोक्तः, संख्याऽविरोधः। एतानि भावाऽङ्गानि खलु निश्चितं दुर्लभकानि भवन्ति संसारे लिङ्ग-व्यत्ययश्च प्राकृतत्वादेतचाऽनुक्तमपि सर्वत्र भावनीयमिति गाथार्थः / इह द्रव्याऽङ्गेषु शरीराऽङ्ग भावाऽङ्गेषु च संयमः प्रधान-मिति / तदेकाऽर्थिकान्याह - अंगं दसभागभेए, अवयव असगलचुण्णियाखंडे / देसे पदेसपव्वे, साहापडलपज्जवखिलं च। दया य संजमे लज्जा, दुगुंछा अच्छलणादिय। तितिक्खा य अहिंसा य,हिरी त्ति एगट्ठिया पदा।। अङ्गदशभागो भेदोऽवयवोऽसकलश्चूर्णः खण्डो देशः प्रदेशः पर्व शाखा | पाटलं पर्यवः खिलं चेति शरीराङ्ग पर्याया इति वृद्धाः / व्याख्यानिकस्त्वविशेषतोऽमी अङ्गपर्यायास्तथा (दस- भागत्ति) दशभाग इति च भिन्नावेव पर्यायावित्याह / चः समुच्चये, सूत्रत्वाच सुपः क्वचिदश्रवणमिति / संयमपर्यायानाह- दया च संयमो लज्जा जुगुप्सा अच्छलना / इतिशब्दः स्वरूपपरामर्शकः पर्यन्ते योक्ष्यते, तितिक्षा चाऽहिंसा च ह्रीश्चेत्येकाऽर्थिकानि अभिन्ना-ऽभिधेयानि पदानि सुबन्तशब्दरूपाणि, पर्यायाभिधानं च नानादेश-जविनेयाऽनुग्रहार्थमिति गाथाद्वयार्थः / उत्त०३ अ० स्था० / अज्यते व्यक्तीक्रियतेऽस्मिन्निति चतुर्विधं नाम-स्थापनाद्रव्यभावभेदात्। तत्र नामस्थापने क्षुण्णं, द्रव्याऽङ्गं ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं शिरो बाहादि / भावतोऽयमेवाचारः आचाराङ्गम्। आचा०१ श्रु०१ अ०१ उ०। चित्ते, अङ्गजे कामे उपाये, प्रधानोपयोगिनि उपकरणे, फलवत्सन्निधावफलं तदङ्गमिति मीमांसा जन्मादिलग्ने, यस्मात् प्रत्ययविधिस्तदादि प्रत्ययेऽङ्गमिति पाणिनिपरिभाषिते प्रत्ययावधिभूते शब्दभूते च / वाच०। ऋषभदेवस्य द्वादशे पुत्रे, कल्प०) तीला जनपदविशेषे, यत्र चम्पानगरी। ज्ञा०८अ० प्रव०। स्था०1 वृ०। कल्प०। सूत्र *आङ्ग-पु० अङ्गानां राजा आङ्गः। अङ्गदेशाधिपे, बह्वर्थेऽणो लुक् अङ्गा अङ्गदेशास्तद्राजानो वा भक्तिरस्य अण ,आङ्गः / अङ्गदेशभक्ते, अङ्गराजभक्ते वा / त्रि०। अङ्गादागतम् आङ्गम् / अङ्गनिमित्ते कार्ये, वार्णादाङ्गं वलीयः इति परिभाषा / वाच० अङ्गं शरीरावयवस्तद्विकार आङ्गम्। देहावयवविकारे, स्था०८ ठा० अङ्गे भवमाङ्गम्। शरीरोत्पन्ने, सूत्र०२ श्रु०२ अ० अङ्गविषयमाङ्गम्।आव०४अ०।शिरःस्फुरणादौ, स्था० 8 ठा०। शरीराऽवयव-प्रमाणस्पन्दितादिविकारफलोदभावके महानिमित्तभेदे, स०। अङ्गस्फुरणादिभिः शरीरावयवस्पन्दनप्रमाणादिभिर्यदिह वर्तमानमतीतमनागतं वा शुभं प्रशस्तमशुभं वाऽप्रशस्तमन्यस्मै कथ्यते तद्भण्यते आङ्गं निमित्तं यथा- मूर्नि स्फुरत्याशु पृथिव्यवाप्तिः, स्थानप्रवृद्धिश्च ललाटदेशे। भू-ध्राणमध्ये प्रियसंगमः स्यान्नासाऽक्षिमध्ये च महार्थलाभः, इत्यादि / प्रव०२५७ द्वा० दक्षिणपार्श्वे स्पन्दनमभिधास्ये,तत्फलं स्त्रिया वामे। पृथिवीलाभं शिरसि,स्थानविवृद्धिर्ललाटे स्यात्, इत्यादि।स्था०८ ठान आङ्गनाम्नो महानिमित्तस्य सूत्रादिमानम्। अंगस्स सयसहस्सं, सुत्तवित्ती य कोडि विन्नेया। वक्खाणं अपरिमियं इयमेव य वत्तियं जाण / आव०४ अ०। आ० चूला सन अंगअ-पुं०(अङ्गज) अङ्गाज्जायते, जन-ड-पुत्रे, को०। ज्ञा०। आ०चू०। दुहितरि, स्त्री०। देहजातमात्रे, त्रि०। रुधिरे, ना रोगे, पुं० लोम्नि, ना अङ्गं मनस्तस्माज्जायते कामे, पुं० वाचा *अङ्गद-ना अङ्गदायति शोधयति, दै-क, बाहुशीर्षाभरणे, प्रज्ञा०२ पदाजी।भा ज्ञा। स्था। रा०ा औ०। बालिवानरराजपुत्रे, वाच०। अंगइ-पुं०(अङ्गजित्) श्रावस्तीवास्तव्ये गृहपतिभेदे, नि० स्था०। (स च पार्श्वजिनाऽन्तिके प्रव्रज्यां गृहीत्वाऽनशनेन मृत्वा चन्द्रविमाने चन्द्रत्वेनोपपन्न इति चंदशब्दे वक्ष्यते। अंगइ(रि)सि-पुं०(अङ्गर्षि-अङ्गऋषि) चम्पावास्तव्ये कौशिकाऽऽर्यशिष्ये, तस्य भद्रत्वादङ्गर्षिरिति कौशिकार्येण नाम कृतम् / आ० म० द्वि०। आव०। आ० चूला आ० का तीर्थ०। (तेनोपशमे सति सामायिकमवाप्य केवलमधिगतमिति अजव-शब्दे वक्ष्यते।) / अंगचूलिया-स्त्री०(अङ्गचूलिका)अङ्गस्याऽऽचारादेः चूलिका यथाचाऽऽचारस्याऽनेकविधा इहाऽनुक्ताऽर्थसंग्राहिका चूलिका। कालिक श्रुतभेदे, पा० न०। स्थानाङ्ग सूत्रे तु संक्षेपिकादशायास्तृतीयाऽध्ययनत्वेनेयमुक्ता स्था० 10 ठा०। सम्प्रत्युपलभ्यमानाऽङ्गचूलिकाग्रन्थस्येत्थमारम्भादिः - नमो सु अदेवयाए भगवईए, नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं, नमो उवज्झायाणं, नमो Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगचूलिया 38 - अभिषानराजेन्द्रः - भाग 1 अंगप्पविट्ठ लोए सव्वसाहूणं / तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपाणामं णयरी | सअद्वितो सेसरक्खडा'' 1 पंचा० 16 विव०। होत्था / वण्णओ, पुण्णभद्दे चेत्तिए / तेणं कालेणं तेणं समएणं अंग(अन)ण-न०पअङ्गण(न)ब अगि-गतौ, अङ्गचते गृहात निःसृत्य समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अज्जसोहम्मे णाम गम्यते ल्युट् / पृषोदरादित्वाद्वा णत्वम् / वर्गेऽन्त्यो वा / 8/1 / 30 / अणगारे। जाइसंपन्ने जहा उववाइए जाव चउणाणसंपन्ने / पंचहिं इत्यनुस्वारस्य वा परसवर्णः। प्रा०। अजिरे, प्रश्न० संव०२द्वा० 4 अ०। अणगारसएहिं संपरिवुडे पुव्वाणुपुर्दिवं चरमाणे जाव जेणेव गृहाग्रभागे, कल्प०। "अंगणं मंडवट्ठाणं " / नि० चू० 3 उ०। पुण्णभद्दे चेइए अहापडिरूवं विहरइ / परिसा णिग्गया। धम्म अंगणा-स्त्री०(अङ्गना) अङ्गे स्वशरीरे पयोधरनितम्बजघनसोचा णिसम्म जामेव दिसिंपाउन्भूआ तामेव दिसिंपडिगया। स्मरकूपिकादिरूपे अनुरागो येषां ते अङ्गानुरागास्तान् अङ्गा-ऽनुरागान् तेणं कालेणं तेणं समएण अज्जसुहम्मस्स अंतेवासी अज्जजंबूणाम अणगारे। जायसड्ढे जाव जेणेव अज्जसोहम्मे सामी तेणेव कुर्वन्तीति अङ्गनाः। स्त्रीषु, / तं०। आचा०। नि० चू०। उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता तिखुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करइ, अंगदिया-स्त्री०(अङ्गदिका) तीर्थविशेषे, यत्र श्रीमदजित - करित्ता वंदति णमंसति वंदित्ता णमंसित्ता जाव पज्जुवासति, स्वामिशान्तिदेवताद्वयं श्रीब्रह्मेन्द्रदेवतावसरः। ती० 45 कल्प०। एवं वयासी- जइ णं भंते समणेणं भगवया महावीरेणं जाव अंगप्पभव-त्रि०(अङ्गप्रभव) अङ्गाद् दृष्टिवादादेः प्रभवः उत्पत्तिरस्येति संपत्तेणं इक्कारस अंगाणं अयमढे पन्नत्ते, इक्कारस्स अंगाणं ___ अङ्ग प्रभवः / दृष्टिवादादेरुत्पन्ने, यथोत्तराध्ययने परीषहाऽध्ययनम् अंगचूलियाए केअढे पन्नत्ते ? तते णं अज्जसुहम्मे अणगारे "कम्मप्पवायपुव्वे सत्तरसे पाहुडम्मिजं सुत्तं / सणयं सोदाहरणं तं चेव जंबूअणगारं एवं वयासी-एवं खलु जंबू! समणेणं जाव संपत्तेणं इह पिणायव्वं"। उत्त०१ अ०। अंगचूलियाए अयमढे पन्नत्ते / जंबू ! अंगचूलिया अंगप्पविट्ठ-न०(अङ्गप्रविष्ट) इह पुरुषस्य द्वादश अङ्गानि भवन्ति / अंगचूलियाभूया णायव्वा / जहा कणयगिरिचूलिया सिआ / तद्यथा- द्वौ पादौ द्वे जझे द्वे ऊरुणी द्वे गात्रार्द्ध द्वौ बाहू ग्रीवा शिरश्च, एवं चत्तालीसं जोअणुचा कणयगिरिम्मि रमणिज्जे दीसंति / जहा श्रुतरूपस्यापि परमपुरुषस्याचारादीनि द्वादशाङ्गानिक्रमेण वेदितव्यानि। पुरिसित्थी-णमच्छी।जहा य चूलियाए सिरं सोभति मणिरयण तथा चोक्तम्- पायदुर्ग जंघोरु गायदुगद्धं तु दो य बाहू य। गीवा सिंर च मंडियमउडेणं मउलियं दिप्पति, तिलयरयणेणं भालं दिप्पंति। पुरिसो, बारस अंगेसुय पविठो।। श्रुतपुरुषस्याऽङ्गषु प्रविष्टमङ्गप्रविष्टम्। विविहनाणा-मणिखचियकुंडलजुअलेणं कण्णे दिप्पंति। तेहिं अङ्ग भावेन व्यवस्थिते श्रुतभेदे, नं०। स्था०। अनु०। पा०। विलिहिज्जमाणेणं गंडे दिप्पंति। उन्नयनासाए विमलसमुत्ताहलं अङ्गप्रविष्टस्याऽनङ्ग प्रविष्टाद् भेद इह प्रदर्श्यते / अह भगवं तुल्ले चैव दिप्पति / कज्जलेणं विसाललोअणे दिप्पंति / पंचसुगंधिएणं सव्वण्णुनुमते को विसेसो? जहा इमं अंगप्पविट्ठ इमं अंगबाहिरंति / तंबोलेणं वयणकमलं दिप्पति / गीवाभरणेणं गीवा दिप्पति। आयरिओ आह- जे अरहंतेहिं भगवंतेहिं अतीताणागतवट्टमाणवरमुत्ताहलहारएणं वच्छत्थलं दिप्पति / वरकणग दव्वलिंगखेत्तकाल-भावजहावस्थितदंसीहिं अत्थपरूविता, तेगणहरेहि रयणखचियकडिसुत्तएणं कडी दिप्पति। नेउरेणं पाए दिप्पंति। परमबुद्धि- सन्निवादगुणसंपन्नेहिं सयं चेव तित्थगरसकासातो तहा अंगचूलिआए इक्कारसं अंगाणि दिप्पंति। सा अंगचूलिया उवलभिऊण सव्वसत्ताणं हियट्ठताए सुत्ता तेण उवणिबद्धा, तं अंगप्पविट्ठ निग्गंथाणं निग्गंथीणं सम्मं जाणियव्वा फासियव्वा तीरियव्वा आयारादि दुवालसविहं / जं पुण अन्नेहिं विसुद्धागमबुद्धिजुत्तेहिं थेरेहि किट्टियव्वा भुज्जो भुज्जो अट्ठा सहेउआ सवागरणा अप्पाउयाणं मणुयाणं अप्पबुद्धिसत्तीणं बहुग्गाहकति नाऊण तं चेव गुरुपरंपरागमेण गहियव्वा / तते णं अज्जसुहम्मसामिणा एवं आयारादि सुयणाणं परंपरागयं अत्थतो गंथंतो य अतिबहु ति काऊण वुत्ते समाणे हट्टतुट्ठ चित्तमाणंदिए जंबू एवं वयासी- कह णं भंते ! अणुकंपानिमित्तं दसवेयालिय-मादिपरूवितं अणेगभेदं अणंगप्पविट्ठ / गुरु-परंपरागमो भण्णइ / जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं आ० चू०१अातथाचतओ आगमा पण्णत्ता। तं जहा- अत्तागमे अणंतरागमे परंपरागमे। अत्तओ अरहंताणं भगवंताणं अत्तागमे / सुत्तओ गणहराणं गणधरथेरकयं वा, आएसा मुक्कदागरणओ वा। अत्तागमे / गणहरसीसाणं अणंतरागमे / तओ परं सव्वेसिं धुवचलविसेसओ वा, अंगाणंगेसु णाणत्तं / / परंपरागमे। अङ्गाऽनङ्गप्रविष्टश्रुतयोरिदं नानात्वमेतद्भेदकारणं, किम् ? इत्याह(अस्य ग्रन्थस्य श्लोकमानमष्टौ शतानीति, तत्रैव ग्रन्थसमाप्तौ गणधरा गौतमस्वाभ्यादयस्तत्कृतं श्रुतंद्वादशाङ्गरूप-मङ्गप्रविष्टमुच्यते / प्रतिपादितम् / ) विशे०। गणधरदेवा हि मूलभूतमाचारादिकं श्रुतमुपरचयन्ति, तेषामेव सर्वोत्कृष्ट श्रुतलब्धिसंपन्नतया तद् रचयितुमीशत्वात्, न शेषाणाम् / अंगच्छहिय-त्रि०(अङ्गच्छिन्न) अङ्गेषु छिन्नः / कृत्ताङ्गे, "इमं ततस्तत्कृतं सूत्रं मूलभूतमिति अङ्गप्रविष्टमुच्यते / नं०। यत्पुनः शेषैः नक ओहसीसमुहच्छिण्णयं करेह वेयगच्छहियं अंगच्छहियं इम श्रुतस्थविरैः तदेकदेशमुपजीव्य विरचितं तदनङ्ग प्रविष्टम् / नं०। पुक्खाफोडियं करेह' / सूत्र०२ श्रु०२ अ०) स्थविरास्तु भद्रबाहुस्वाम्यादयः, तदृष्टं श्रुतमावश्यकनियुक्त्यादिकअंगच्छे (य)द-पुं०(अङ्गच्छेद) दूषिताऽवयवकर्तने, "अंगच्छेदो मनङ्गप्रविष्टमङ्गबाह्यमुच्यते, अथवा वारत्रयं गणधरपृष्टस्य तीर्थकरस्य Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगप्पविट्ट 39 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंगसुहफरिस - संबन्धनीय आदेशः प्रतिवचनमुत्पादव्ययध्रौव्यवाचकंपद- त्रयमित्यर्थः | नं०। एतद्देदाः, यथा- अंगबाहिरे दुविहे पणते तं जहा आवस्सए चेव तस्माद्यन्निष्पन्नं तदङ्ग प्रविष्ट द्वादशाङ्गमेव / विपा०२ श्रु० 10 अ०॥ आवस्सयवइरित्ते चेव / स्था० 1 ठा० नं० अनु०। आ० चूला रा०) आदेशाः, यथा- आर्यमगुराचार्यस्त्रिविधं शङ्खमिच्छति एकभविकं कर्म०। (अङ्गप्रविष्टादस्य भेदोऽनन्तर मेव अङ्गप्पविट्ठ शब्दे उक्तः) बद्धायुष्कमभिमुखनामगोत्रं च / आर्य-समुद्रो द्विविध अंगबाहिरिया-स्त्री०(अङ्गबाह्या) अङ्गान्याचारादीनि तेभ्यो बाह्या बद्धायुष्कमभिमुखनामगोत्रं च / आर्यसुहस्ती एक अङ्गबाह्याः। अनङ्गप्रविष्टायाम् , चन्द्रसूरजम्बूद्वीपद्वीपसागरप्रज्ञप्तयः / मभिमुखनामगोत्रमिति / बृ० 1 उ०। मुक्तं मुत्कलमप्रश्रपूर्वकं यद् अङ्गबाह्याः।स्था 4 ठा०। व्याकरणमर्थप्रतिपादनम् / विपा०२श्रु०१०अ०। यथा वर्षदेव अंगभंजण-न०(अङ्ग भञ्जन) शरीराऽवयवप्रमोटने, प्रश्न० संव० कुणालायामित्यादि। तथा मरुदेवी भगवती अनादिवनस्पति-कायिका 5 द्वा० तद्भवेन सिद्धा इति। बृ०१उ०। तस्मात् निष्पन्न-मङ्गबाह्यमभिधीयते, अंगभूय--त्रि०(अङ्गभूत) कारणभूते, प्रव०१द्वा०॥ तयाऽऽवश्यकादिकं वाशब्दोऽङ्गाऽनङ्ग-प्रविष्टत्वे पूर्वोक्तभेदकारणा अंगमंग-न०(अङ्गाऽङ्ग)(प्राकृतेऽलाक्षणिको मकारः) अङ्ग-प्रत्यङ्गेषु, दन्यत्वसूचकः / तृतीयभेदकारण- माह-(धुवेत्ति)ध्रुवं सर्वेषु "रायलक्खणविराइयंगमंगा' / रा०ा सा शरीरा-ऽवयवेषु, ज्ञा०६ तीर्थकरतीर्थेषु निश्चयभावि। विपा०२श्रु०१०अ० सर्वेषु क्षेत्रेषु सर्वकालं चाऽर्थक्रमं चाऽधिकृत्य एवमेव व्यवस्थितं ततस्तदङ्गप्रविष्टमुच्यते। अग अङ्गप्रविष्टमङ्ग भूतं मूलभूतमित्यर्थः / नं०। द्वादशाङ्ग मिति अंगमंगिभावचार-पुं०(अङ्गाऽङ्गिभावचार) परिणामपरि-- यत्पुनश्चलमनियत-मनिश्चयभावि, तत् तण्डुलवैकालिक णामिभावगमने, द्वारा प्रकीर्णकादिश्रुतमङ्गबाह्यम्। वाशब्दोऽत्रापि भेदकारणाऽन्तरत्वसूचकः / अंगमंदिर-न०(अङ्गमन्दिर) चम्पानगर्या बहिर्विद्यमाने चैत्ये, इदमुक्तं भवति- गणधरकृतं पदत्रयलक्षणतीर्थकराऽऽदेशनिष्पन्नं, ध्रुवंच "अंगमंदिरंसि चेइयंसि मल्लरामस्स शरीरं विप्पजहामि"भ०१० यत् श्रुतं, तदङ्गप्रविष्टमुच्यते / तच्च द्वादशाङ्गीरूपमेव यत्पुनः स्थ- 10 / विरकृतमुत्कलार्थाभिधानं, चलं च तदावश्यकप्रकीर्णादि श्रुत- अंगमडिया-स्त्री०(अङ्गमर्दिका) शरीरमर्दनकारिण्यां दास्याम् "अट्ठ मङ्गबाह्यमिति। विशे० अङ्गप्रविष्टश्रुतभेदाः, यथा अंगमद्दियाओ अट्ठ उम्मदियाओ" इहाऽङ्गमर्दिकानामुन्मर्दिकानां से किं तं अंगपविट्ठ? अंगपविट्ठ दुवालसविहं पन्नत्तं,तं जहा- चाऽल्पबहुमर्दनकृतो विशेषः / भ०११श०११ उ०। आयारो १,सुयगडो 2, ठाणं 3, समवाओ४, विवाहपन्नत्ती 5, अंगरक्ख-न०(अङ्गरक्ष) अङ्गं रक्षयति। अङ्ग रक्ष-अच्ावर्मणि, ज्ञा०३ नायाधम्मकहाओ 6, उवासग-दसाओ७, अंतगडदसाओ, अ० अनुत्तरोववाइयदसाओ, पण्हावागरणाई 10, विवागसुयं 11, / अंगलूहण-न०(अङ्गरूक्षण) अंशुके नाऽङ्गस्य स्नानजदिहिवाओ य 12 क्लिन्नताऽपनयने, ध०२ अधि। अथ किं तदङ्ग प्रविष्ट ? सूरिराह-अङ्गप्रविष्ट द्वादशविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा- अंगविजा-स्त्री०(अङ्गविद्या) अङ्गरूपा व्याकरणादिशास्त्ररूपा विद्या आचार सूत्रकृतमित्यादि। नं०।आ०म० प्र०॥धा (आचारादीनामर्थः ज्ञानसाधनम् / ज्ञानसंपादके घ्याकरणादिशास्त्रे, वाच० / स्वस्वस्थाने) एतेषां मानं, तथाहि- अट्ठारसपयसहस्सा आयारे 1, शिरःप्रभृत्यङ्ग स्फुरणतः शुभाऽशुभसूचिकायां विद्यायाम्, अङ्गदुगुणदुगुणसेसेसु / सूयगड 2, ठाण 3, समवाय 4, भगवई 5, स्फुरणफलशास्त्रे,यथा "शिरसः स्फुरणे राज्यं, हृदयस्फुरणे सुखम् / नायधम्मकहा 6 / / 1 / / अंगं उवासगदसा 7, अंतगडं 8, बाहोश्च मित्रसंलापो जङ्घ योर्भो गसंगमः / / 1 / / उत्त० 8 अ०॥ अणुत्तरोववाइदसा ह / पण्हावागरणं तहा 10, विवागसुयमिगदसं 11 स्वनामख्यातेऽङ्गादिनिमित्तफलदेशके ग्रन्थविशेषे च। स च ग्रन्थः कुतो अंग॥२॥ दृष्टिवादे सर्वश्रुतसद्भावेऽपि शेषश्रुतरचने हेतुः। विशे० आह निढः ? कति तत्राऽध्यायाः? कियत्यो वा तत्र विद्याः? इति तत्रैवाऽऽदौ ननु प्रथमं पूर्वाण्येवोपनिबध्नाति गणधर इत्यागमे श्रूयते, पूर्वकरणादेव प्रदर्शितं / यथा अङ्गानि च विद्याश्च अङ्गविद्या। अङ्गविद्याव्यावर्णितेषु चैतानि पूर्वाण्यभिधीयन्ते, तेषु च निश्शेषमपि वाङ्मयमवतरति, भौमाऽन्तरिक्षादिषु हिलि हिलि मातङ्गिनि स्वाहा, इत्यादिषु अतश्चतुर्दशात्मकं द्वादशमेवाऽङ्गमस्तु किं शेषाणामङ्ग विरचनेन ? विद्याऽनुवादप्रसिद्धासु विद्यासुच। अङ्गबाह्यश्रुतरचनेन वा? इत्याशङ्कयाऽऽहजइ वि य भूतावाए, सव्वस्स वि वाङ्मयस्स ओयारो। "अंगविजं च जे पउंजंति न हु ते समणा' / उत्त० 8 अ०) निव्वूहणा तहा विहु, दुम्मेहे पप्प इत्थीया॥ अंगवियार-पुं०(अङ्गविकार) 6 त०। शिरःस्फुरणादौ, शरीरअशेषविशेषान्वितस्य समग्रवस्तुस्तोमस्य भूतस्य सद्भूतस्य वादो स्फुरणादितः शुभाशुभसूचके शास्त्रे, उत्त०१५ अ०॥ भणनं यत्राऽसौ भूतवादः / अथवाऽनुगतव्यावृत्ताऽपरिशेष *अङ्गविचार-पुं०।६ त०। शरीरस्पर्शनस्य नेत्रादीनां स्फूरणस्य वा धर्मकलापाऽन्वितानां सभेदप्रभेदानां भूतानां प्राणिनां वादो यत्राऽसौ विचारे। तद्विचारेण फलाऽऽदेशके शास्त्रे च। अंगवियारं सरस्स विजयं, भूतवादो दृष्टिवादः / दीर्घत्वं च तकारस्याऽऽर्षत्वात्तत्र यद्यपि दृष्टिवादे जो विजाहिं न जीवई स भिक्खू। उत्त०१५ अ०। सर्वस्याऽपि वाङ् यस्याऽवतारोऽस्ति, तथापि दुर्मे धसां अंगसंचाल-पुं०(अङ्गसंचार) रोमोद्गमादिषु गात्रविचलन प्रकारेषु, तदवधारणाद्ययोग्यानां मन्दमतीनां तथा स्त्रीणां चाऽनुग्रहार्थं नि!हणा | __"सुहुमेहिं अंगसंचालेहिं"। आव०५ अ० धाला विरचना शेषश्रुतस्येति। विशे०१८० पत्रा अंगसुहफरिस(फासिय)-त्रि०(अङ्गसुखस्पर्शक) अङ्गस्य सुखः अंगबाहिर-न०(अंगबाह्य) द्वादशाङ्गात्मकस्य श्रुतपुरुषस्य सुखकारी स्पर्शो यस्य तत् तथा। कला देहसुखहेतुस्पर्शयुक्ते / भ०११ बहिर्व्यतिरेकेण स्थितमङ्गबाह्यम्। अङ्गबाह्यत्वेन व्यवस्थिते श्रुतविशेष, श०११ उ०। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगादाण ४०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंगादाण अंगादाण-न०(आङ्गादान) अङ्ग शरीरं शिर आदीनि वा अङ्गानि तेषाभादानं प्रभवः प्रसूतिरङ्गादानम् / मेद्रे, अङ्गादानस्य संचालनादि निषेधस्तत्र प्रायश्चित्तम्। जे मिक्खू अंगादाणं कटेण वा कलिंचेण वा अंगुलियाए वा सिलागाए वा संचलेइ संचालतं वा साइजइ ||2|| अङ्गे शरीरं सिरमादीणि वा अंगाणि तेसिं आदाणं अंगादाणं प्रभवो प्रसूतिरित्यर्थः / तं पुण अंगादाणं मेद्र भण्णति, तं जो अण्णतरेण कट्ठण वा कलिंचो वंसकपट्टी अंगुली प्रसिद्धा वेत्रमादि सलागाए तेहिं जो संचालति साइजति वा, तस्स मासगुरुं पच्छित्तं / इदाणीं णिज्जुत्तीए भण्णति - अंगाण उवंगाणं, अंगोवंगाण एयमादीणं। एतेणंगा ताणं, अणंतणं वा भवे बितियं // 65|| अंगाणि अट्ठ सिरादीणि उवंगा कण्णादीणि। अंगोवंगा णक्ख-पव्वादी एतेसिं सयं आदाणं कारणमिति तेण एवं अंगादाणं भण्णति / अहवा अणायत्तणं वा भवे बितियं णाम अंगादाणं ति। अस्य व्याख्या - सीसं उरो य उदरं, पिट्ठी बाहू य दोण्णि ऊरूओ। एते अटुंगा खलु, अंगोवंगाणि सेसाणि ||6|| सिरः प्रसिद्ध, उरः स्तनप्रदेशः, उदरं पोट्ट पिट्ठीपसिद्धा, दोण्णि बाहू, दोण्णि ऊरूआणि / एताणि अटुंगाणि, खलु अवधारणे भणितं, अवसेसा जे, ते उवंगा अंगोवंगा य। ते इमे य - होंति उवंगा कण्णा, णासच्छी जंघहत्थपासाय। णह केसु मंसु अंगुलि, तलोवतल अंगुवंगा उ 197|| कण्णा नासिगा अच्छी जंघा हत्था पादायएवमादी सव्वे उवंगा भवंति। नहा वाला स्मश्रुअड्गुली हस्ततलं हत्थतलाओ समंतापासेसु अण्णाया उवतलं भण्णति। एते नखादि अंगोवंगादीत्यर्थः। तस्स संचालणसंभवो इमोसंचालणं तु तस्स, सणिमित्तं अणिमित्तए वा वि। आतपरतदुभए वा, अणंतरं परंपरा चेव // 18|| तेस्येति मेद्रस्य संचालणा सणिमित्ते उदयाहारे सरीरे य इदमपि प्रथमसूत्र एव व्याख्यातम्।(अणिमित्तएवावित्ति) सणिमित्ताणि मित्तवज्जा सामण्णेण सव्वा विचालणा त्रिविधा अप्पत्तेण परेण वा उभएण वा। एकेका दुविधा अणंतरा परंपरा वा अणंतरेण हत्थेण परंपरेण कट्ठादिणा अणिमित्तएवावित्ति / अस्य व्याख्याउट्ठाणिवेसुल्लंघण, उच्चत्तणगमणमादिएसितए। णय घट्टणवोसिरिलं,चिट्ठति ताणि पज्जलं जाव IIEI उहेंतस्स णिसीएतस्स वा लंघणीयं वा उल्लंघेतस्स सुत्तस्स वा उव्वत्तणादि करेंतस्स स गच्छंतस्स वा, आदिसद्दातो पडिलेहणादिकिरिया। एवमादि इतरा संचालणा सण्णं काइयं वा वोसिरिऊण संचालेति, काइयपरिसाडणणिमित्तं ताव चिट्ठइ, जाव सयं चेव णिप्पगलं / अणंतरं परंपरे संचालणेमाणस्स मासगुरुं आणादीणोय दोसा भवंति। जे भिक्खू अंगादाणं संवाहेज वा पलिमहेज्ज वा, संवाहतं पलिमदंतं वा सातिजति / / 3 / / जे भिक्खू पूर्ववत् संबाहति, एकसिं परिमद्दति, पुणो पुणो सा संबाहणा सणिमित्ता वा अणिमित्ता वा पूर्ववत् / आणादिविराहणा पूर्ववत् / जे भिक्खू अंगादाणं तेल्लेण वा घएण वा णवणीएण वा वसाए वा अन्मंगेज्ज वामंखेज वा, अभंगतं वामखंतं वा साइजइ // 4 // जे भिक्खू पूर्ववत् तेल्लघता पसिद्धा / वसा अयगरमच्छ- सूकराणं अभंगेत्ति एक्कसि, मखेति पुणो पुणो। अहवा थोवेण अब्भंगणं, बहुणा मंखणं / उव्वट्टणा सूत्रे- सणिमित्तअणिमित्ताया पूर्ववत् साइजणा तहेव आणातिविराहणा पूर्ववत्। जे मिक्खू अंगादाणं कक्केण वा लोहेण वा पउम-चुण्णेण वा पहाणेण वा चुण्णेहिं वा वण्णेहिं वा उव्वट्टेइ वा परिवट्टेइ वा उव्वदृतं वा परिवहृतं वा साइज्जइ / / 5 / / कक्कं उव्वलणयं द्रव्यसंयोगेन वा ककं क्रियते, किंचित् लोद्रं हट्टद्रव्यं तेण वा उव्वदृति, पद्मचूर्णेन वा पहाणं, हाणमेव / अहवा उवण्णाणयं भण्णति, तं पुण मासचूर्णादिसिणाणं गंधियावणे अंगाघसणयं वुचति / वण्णओ जो सुगंधो चंदनादि चूर्णानि, जहा- वट्टमाणचुण्णे पडवासादिवासनिमित्तानि निमित्ते, तहेव उव्वट्टेति एकस्सि, परिवटेति पुणो पुणो। जे मिक्खू अंगादाणं सीओदगवियडेण वा उसिणो-दगवियडेण वा, उच्छोलेज वा पधोएज्ज वा, उच्छोलतं वा पधोयंत वा सातिजइ॥६॥ शीतमुदकं शीतोदकं, वियड ववगयजीवियं उसिणमुदकं, उसिणोदकं उच्छोलेति सकृत्, पधोवणा पुणो पुणो। जे भिक्खू अंगादाणं णिच्छोल्लइ, णिच्छोलंतं वा साइजति // 7 // णिच्छल्लेति त्वचं अवणेति, महामणिं प्रकाशयतीत्यर्थः / जे भिक्खू अंगादाणं जिंघति, जिंघंतं वा साइज्जइ / / 6 / / जे भिक्खू पूर्ववत् जिघ्रति, नासिकया आघ्रातीत्यर्थः / हत्थेण वा मलिऊणं लवणं सिंघति / एतेसिं संचालणादीणं जिंधणा-वसाणाण सत्तण्ह वि सुत्ताणं इमा सुत्तफासाणि भासा सूत्राणि वक्तव्यानि। संबाहणमन्मंगण, उव्वट्टणधोवणे य एस कमो। णायव्वो णियमो उ, णिच्छल्लणजिंघणाए य।।१०।। संबाहणसूत्रे अब्भंगणासूत्रे उवट्टणासूत्रे धोवणासूत्रे एस गमोत्ति संचालणासूत्रे भणिओ, सो चेव य पगारा णायव्यो / णियमो अवस्सं णिच्छलणासूत्रे जिंघणासूत्रे च / एतेसु चेव सत्तसु वि सुत्तेसु इमो दिलुतो जहक्कमेणसीहासीविसअग्गी, मिल्ली वग्घे य अयगरणरिंदो। सत्तसु वि पदेसु ते, अहारणा होति णायव्वा / / 101 / / संचालणासुत्ते दिढतो / सीहो सुत्तो संचालितो जहा जीयंतगरो भवति, एवं अंगादाणं संचालियं मोहब्भवं जणयति / ततो चारित्र विराधना / इमा आयविराहणा- सुक्कक्खएण मरिज्जप्पेण वा कट्ठाइणा संचालेति, तंसविसंउसुत्तियल्लयवा खयं वा कट्ठण हवेज्जा। संबाहणासूत्रे इमो दिढतो- जो आसीविसं सुहसुत्तं संबोहेति, सो विबुद्धो तस्स जीवियंतकरो भवति। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगादाण 41 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंगादाण एवं अंगादाणं पिपरिमहमाणस्स मोहुभवो ततो चारित्र-जीवियविणासो भवति / अब्भंगणासूत्रे इमो दिलुतो इहरह वि ताव अग्गी ज्वलति, किं पुण घतादिणा सिंचमाणो ? एवं अंगादाणं वि परिमद्दिज्जमाणो सुटुत्तरं मोहब्भवो भवति / उव्वट्टणासूत्रे इमो दिलुतो- भल्ली शस्त्रविशेषः, सा सभावेण तिण्हा किमंग ! पुण णिसिया ? एवं अंगादाणसमुत्थो सभावेण मोहो दिप्पति, किमंग ! पुण उव्वट्टिते ? / उच्छोलणा सुत्ते इमो दिटुंतोएगो वग्यो, सो अच्छिरोगेण गहिओ, संबद्धा य अच्छी। तस्स य एगेण वेज्जेण वडियाए अक्खीणि अंजेऊण पउणीकताणि, तेण सोचेव यखद्धो। एवं अंगादाणं पि, सो इतरं चारित्रविनाशाय भवतीत्यर्थः। णिच्छोलणासूत्रे इमो दिलुतो- जहा अयगरस्स सुहप्पसुत्तस्स मुहं वियतेति, तं तस्स अप्पवहाय भवति।एवं अंगादाणं पि णिच्छलियंचारित्रविनाशाय भवति / जिंघणासूत्रे इमो दिवतो- णरिदेति एगो राया, तस्स वेजपडिसिद्धे अंबए जिंघमाणस्स अंबढ़ा वाही उट्ठाइ / तो गंधप्रियेण वा कुमारणं गंधमग्घायमाणेण अप्पा जीवियाउ भंसिओ, एवं अंगादाणं जिंघमाणो संजमजीवियाओ चुओ अणाइयं च संसारं भमिस्सति त्ति सत्तसु वि पदेसु एते आहरणा भवंतीर्थः / भणिओ उस्सग्गो / इदाणी अववातो भणतिबितियपदमणपभे, अपदंसे मुत्तसक्कएपमेहे। सत्तसु वि पदेसु ते, बितियपदा होंति णायव्वा / / 102 / / बितियपदं अववायपदं मणप्पभो अनात्मवशः ग्रहगृहीत इत्यर्थः / सो संचालणादी पदे सव्वे करेजा। अपदंसो पित्तारुअंमुत्तसुक्कए पाषाणकः पमेहो रोगो संसतं काइयं झरतं अच्छति, एतेसुपदेसु सत्तसु वि जहासंभवं भाणियव्वा भणियं संजयाणं। इदाणी संजतीणएसेव गमो णियमा, संचालणवज्जित्तो उ अज्जाणं। सवाहणमादीसुं, उवरिल्लेसुंछसु पदेसु // 103|| एसेव पगारो सव्वो णियमा संचालणासुत्तविवजिओ संबाहणादिसु उवरिल्लेसु छसुविसुत्तेसुइत्यर्थः। जे भिक्खू अंगादाणं अन्नयरंसि अचित्तंसि सोयगास अणुपब्वे सित्ता सुक्कपोग्गले णिग्घाएति, णिग्यायंतं वा साइजति | जे भिक्खू पूर्ववत् अण्णतरं णाम बहूणं परूवियाणं अण्णतरे अचित्तं णामजीवविरहियं श्रवतीति श्रोत्रंतत्र अंगादाणं पवि-सेऊण सुक्कपोग्गले णिग्घाएति गालयतीत्यर्थः साइजइवा। इदाणी णिज्जुत्ती - अञ्चित्तं सोत्तं पुण, देहे पडिमाजुतेतरं चेव / दुविधं तिविधमणेगे, एकेक्के तं पुणं कमसो ||10|| अचित्तं जीवरहितं सोत्तं छिदं पुणसद्दो भेदप्पदरिसणे तं अचित्तसोत्तं तिविह देहजुयं च पडिमजुयं चेयरं च / एक्कक्कस्स पुणो इमो भेदो कमसो दहव्वो। देहजुत्तं दुविहं,पडिमाजुत्तं तिविहं, इतरं अणेगहा। तत्थ देहे जुअंदेहजुयं दुविहं इमं - तिरियमणुस्सित्थीणं, जे खलु देहा भवंति जीवजढा। अपरिग्गहेतरा वि य, तं देहजुतं तु णातव्यं / / 10 / / तिरियमणुस्सित्थीणं जे तहा जीवजढा भवंति, खलु अवधारणे ते पुण सरीरा अपडिगहा इतरा सपरिगहा। सचेतणं सपरिग्गहं उपरिवक्खमाणं भविस्सति। एयं देहजुयं भवतीत्यर्थः / इदाणी पडिमाजुत्तं तिविहं परूविजति - तिरियमणुयदेवीण,जाय पडिमा असन्निहितिओ। अपरिग्गहेतरा वि य, तं पडिमजुत्तं ति णायव्वं / / 106 / / तिरियपडिमा मणुयपडिमा देवपडिमा या असंनिहियाओ संनिहियाओ अ। असंणिहिआओदुविहा अपरिगहा इतरा सपरिणहाया जएयविहाण ठियं तं पडिमाजुत्तति णायट्वं / / इदाणी इतरं अणेगविहं परूविजतिजुगछिद्दणालियाकर-गीदेमाति सोतगं जंतु। देहचा विवरीतं, तु इतरं तं मुणेयव्यं / / 107 / / जुगं बलिदाण खंघे आरोविजति लोगपसिद्धं तस्स छिड़ अण्णतरं वा। णालिआ वंसणलगादीणं छिदं करगीयाणीयभंडगंतस्स गीवा छिदं वा एवमादि सोतग देहं सरीरं अच्चयंति तामिति अचा प्रतिमा तेसिं विवरीतं अणंतवुत्त भवति / इह पुण असण्णिहिय-अपरिग्गहेसु अधिकारी जं एरिसं तं इतरं मुणेयव्वमित्यर्थः / एतेसि सीआणं अण्णतरे जो सुक्कपोग्गले णिग्धातेति तस्स पच्छित्तं भण्णतिमासगुरुगादि छल्लहु, जहण्णए मज्झिमे य उक्कोसे। अपरिग्गहित्तचित्ते, अदिदिट्टे य देहजुते / / 10 / / देहजुए अपरिग्गहिते अचित्ते जहण्णए अदितु मासगुरु, दिद्वेचउ-लहु। अड्ढोकं तीए वारियव्वं / मज्झिमे अदिढे चउलहु, दिट्टे चउगुरु। उक्कोसते अदिट्टे चउगुरु, दिटे छल्लहु। तिरियमणुसा-मण्णेण देहजुअं अपरिग्गहियं भणिय। इदाणी तिविहं परिग्गहियं भण्णति - चउलहुगादी मूलं, जहण्णगादिम्मि होति अचित्ते / तिविहेहिं पडिजुत्ते, अदिट्ठदिढे य देहजुते / / 10 / / इमा वि अड्ढोकंती वारणीया देहजुते अचित्ते यावच परिग्गहे जहण्णए अदिढे चउलहुअं,दिढे चउगुरुअं। कोडुबियपरिग्गहे जहण्णए अदिढे चउगुरु, दिडे लहुं / दंडियपरिगहे जहण्णए अदिटेलहुअं,दिवछग्गुरु। एतेण चेव कम्मेण तिपरिगहे मज्झिमए चउगुरुगादी छेदे ठाति,एतेण चेव कम्मेण तिपरिग्गहे उक्कोसए छल्लहुआदी मूले ठाति,भणियं देहजुअं। इदाणी पडिमाजुअं भण्णतिपडिमाजुअं वि एवं, अपरिग्गह-इतरे असंणिहिते। अचित्तसोयसुत्ते, एसा भणिता भवे सोधी / / 110 // पडिमाजुअंपि एवं चेव भाणियव्वं, जहा- देहजुअं अचित्तं अपरिग्गहं तहा पडिमाजु असण्णिहिअं अपरिग्गहियं / जहा देहजुअं अचित्तं सपरिग्गहं तहा पडिमाजुअं असण्णिहियं सपरिग्गहं भाणियव्वं / इतरेसु पुण जुगछिद्दणालियादिसु मासगुरु / एत्थ सुत्तणिवातो / एसा अच्चित्तसोयसुत्ते सोही भणिया। एतेसामण्णतरे, तु सोत्तए जे उदिण्णमोहाओ। सणिमित्तमणिमित्तं वा, कुज्जा णिग्यत्तणादीणि / / एतेसिं अचित्तसोआणादिविराहणं पावेइ / इमा संजमविराहणा। रागग्गिसंजमिंधण, डाहो अह संजमे विराहणया। सुक्कक्खए य मरणं, अकिच्चकारि त्ति उब्बंधे // 112|| राग एव अग्निः रागाऽग्निः संयम एव इन्धनं संयमेन्धनम् अतस्तेन रागाऽग्निना संयमेन्धनस्य दाघो भवति विनाश इत्यर्थः। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगादाण 42- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंगालडाह अह इति एषा संयमविराधना इमा आत्मविराधना पुणो पुणो णिग्घाएमाणस्स सुक्कक्खए मरणं भवति,ते वा सुक्कपोग्गले णिग्घाएत्ता अकिचकारित्ति काउं अप्पाणं उब्बंधेति / उक्क-लंबेतित्ति वुत्तं भवति / (अपवादमार्गस्तु ग्रन्थत एवाऽवसेयः), नि० चू०१ उ०) जीतकल्पे नवमपत्रे स्नेहादिना मूक्षणादिकं पञ्चकल्याण-कप्रायश्चित्तमुक्तम् / (मैथुनप्रतिज्ञया अङ्गादानसंचालनम् मेहुण शब्दे प्रदर्शयिष्यते अङ्गादानाकारां काटिकां दृष्ट्वा जातकौतुकायाः देव्या उदाहरणं पलंब शब्दे दर्शयिष्यते) अं(इं)गार(ल)- पुं० न०(अङ्गार)अङ्ग-आरन् / पक्वाऽङ्गार-ललाटे वा / / 1 / 47 / इति सूत्रेणादेरत इत्वं वा / प्रा० विगतधूमज्वालदह्यमानेन्धनादिके बादरतेजस्कायभेदे, उत्त०३६ अ०। आचा। पिं०। जीवाला जी०। प्रज्ञा० भ०। औ०। स्था०। ज्ञाo! चारित्रेन्धनस्य रागाग्निनाऽङ्गारस्येव करणे,ग० अधिगस्वाद्वन्नं तहातारं या प्रशंसयतो भोजने आपतति आहारदोषविशेषे, ध०३ अधिo पं० वाप्रव०ा उत्त०|| आचा० / तत्त्वं च जेणं णिग्गत्थे वा णिग्गंथी वा फासुयं एसणिज्जं असणं पाणं खाइमं साइमं पडिग्गहेत्ता सम्मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोववण्णए आहारमाहारेइ। एसणं गोयमा! सइंगाले पाणभोयणे। भ०७ श०१ उ० "रागेण सइंगाले"। महा०३ अ०। एतदेव सव्याख्यानमाहतं होइ सइंगालं,जं आहारेइ मुच्छिओ संतो। तं पुण होइ सधूम, जं आहारेइ निंदंतो // तद्भवति भोजनं साऽङ्गारं, यत्तद्गतविशिष्ट गन्धरसास्वादवशतो जाततद्विषयमूर्छः सन् अहो ! मिष्टमहो सुसंभृतमहो सस्निग्धं सुपक्वं सरसमित्येवं प्रशंसन्नाहारयति / तत्पुनर्भवति भोजनं सधूम, यत्तद्गतविरूपरसगन्धाऽऽस्वादतोजाततद्विषयव्यलीकचित्तः- सन्नहो! रूपम्, क्वथितमपक्वमसंस्कृतमलवणं चेति निन्दन् नाऽऽहारयति / अयं तत्र भावाऽर्थः / इह द्विविधा अङ्गाराः, तद्यथा- द्रव्यतो भावतश्च / तत्र द्रव्यतः कृशानुदग्धाः खदिरादि-वनस्पतिविशेषाः, भावतो रागाऽग्निना निर्दग्धं चरणेन्धनम् / धूमोऽपि द्विधा, तद्यथा- द्रव्यतो भावतश्च / तबद्रव्यतोयोऽर्द्धदग्धानां काष्ठानां संबन्धी, भावतो द्वेषाऽग्निना दह्यमानस्य संबन्धी कलुषभावो निन्दात्मकः ततःसहाऽङ्गारेण यद्वर्तते तत्साऽङ्गारं, धूमेन सह वर्तते यत्तत्सधूमम्। संप्रत्यङ्गारधूमयोर्लक्षणमाह - अंगारत्तमपत्तं, जलमाणं इन्धणं सधूमं तु / अंगारत्ति पवुचइ, तं वि य दलै गए धूमे / / अङ्गारत्वमप्राप्तं ज्वलदिन्धनं सधूममुच्यते, तदेवेन्धनं दग्धे धूमे गते सति अङ्गार इति / एवमिहाऽपि चरणेन्धनं रागाऽग्निना निर्दग्धं सत् अङ्गार इत्युच्यते / द्वेषाऽग्निना तु दह्यमानं चरणेन्धनं सधूमं निन्दात्मककलुषभावरूपधूमसन्मिश्रत्वात्। एतदेव भावयतिरागग्गिसंपलित्तो, भुजंतो फासुयं पि आहारं। निद्दद्धंगालनिभं, करेइ चरणिधणं खिप्पं / / प्रासुकमप्याहारं भुजानो रागाऽग्निना संप्रदीप्तश्चरणेन्धनं निर्दग्धाऽङ्गारनिभं क्षिप्रं करोति। दोसग्गी वि जलंतो, अप्पत्तियधूमधूवियं चरणं / अंगारमित्तसरिसं, जो न हवइ निद्दही ताव / / द्वेषाऽग्निरपिज्वलन् अप्रीतिरेव कलुषभाव एव धूमोऽप्रीति-धूमः, तेन धूमितं चरणेन्धनं यावदङ्गारमात्रसदृशं न भवति, तावत् निर्दहति / तत इदमागतम्रागेण सइंगालं, दोसेण सधूमगं मुणेयव्वं / छायालीसंदोसा, बोधव्वा भोयणविहीए। रागेण ध्मातस्य यद्भोजनं तत्साऽङ्गारं, चरणेन्धनस्याऽङ्गारभूतत्वात् / द्वेषेण ध्मातस्य तु यद् भोजनं तत् सधूमं निन्दाऽऽत्मककलुषभावरूपधूमसन्मित्वात् / पिं० 106 पत्र / पं० चू० भौमग्रहे, पुं०) रक्तवर्णे, न०॥ तद्वति, त्रि०ा वाचा *आङ्गार-त्रि०ा अङ्गाराणामयमाङ्गारः। अङ्गारसंबन्धिनि, "इंगालं छारियरासिं" / दश०५ अ०|| अं(इं)गार(ल)क ड्डिणी-स्त्री० (अङ्गारकर्षिणी) अङ्गारोत्थापिकायामीषद्वक्राऽग्रायां लोहमययष्टौ, भ०१६ श०१ उ०। अं(इ)गार(ल)कम्म-न०(अङ्गारकर्मन्) अङ्गारविषयं कर्माऽङ्गारकर्म। अङ्गाराणां करणविक्रयस्वरूपे कर्माऽऽदानत्वा-दकर्तव्ये कर्मणि, एवमग्निव्यापाररूपं यदन्यदपीष्ट कापाकादिकं कर्म तदङ्गारकर्मोच्येत। अङ्गारशब्दस्य तदन्योपलक्षणत्वात्। भ०८ श०५ उ०। समानस्वभावत्वात् / उपा० 1 अ०। यतो योगशास्त्रे - अङ्गारभ्राष्ट्रकरणं, कुम्भायःस्वर्णकारिता / ठठार-त्वेष्टकापाकाविति ह्यङ्गारजीविका / / ध०२ अधि०। प्रव०। आव०। इङ्गाले दहिऊण विक्किणे ति, तत्थ छक्कायपाणवधो / तन्न कप्पति, अहवा लोहकारादि। आ००६ अ० श्रा० ध०॥ पंचा०। अं(इं)गार(ल)कारिया-स्त्री०(अङ्गारकारिका)अङ्गारान् करोतीति अङ्गारकारिका / अग्निशकटिकायाम्। इंगालकारिए णं भंते ! अगणिकाए केवइयं कालं संचिट्ठइ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिण्णि राइंदियाइं / अण्णवेत्थ वाउकाए वक्कमइ,ण विणा वाउकाइएणं अगणिकाए उज्जलइ। अङ्गारान् करोतीति अङ्गारकारिका अग्निशकटिका / न केवलं तस्यामनिकायो भवति / (अण्ण वेत्थत्ति) अन्योऽप्यत्र वायु-कायो व्युत्क्रामति यत्राऽनिस्तत्र वायुरिति कृत्वा कस्मादेवम् ? इत्याह- "न विणेत्यादि / भ०१६ श० 1 उ०) अं(इं)गार(लग-पुं०(अङ्गारक) अङ्गार-स्वार्थे-कन्, अङ्गारे, वाच०| मङ्गलनामके तारग्रहभेदे, स्था० 6 ठा०। औ०। प्रश्न०। आद्ये महाग्रहे च / कल्पा सू० प्र०) चं० प्र० भ० "दो इंगालगा"। स्था०२ ठा०। अङ्गारमिव इवार्थे कन्, रक्तवर्णत्वात्। कुरुण्टकवृक्षे, भृङ्गराजवृक्षे च। पुं।अल्पार्थे कन्, रक्तवर्णत्वात् विस्फुलिङ्ग इति विख्याते अङ्गारक्षुद्रांशे, नावाच०। अं(इं)गार(ल)डा(दा)ह-पुं०(अङ्गारदाह) अङ्गारा दह्यन्ते यत्र / यत्राऽङ्गाराणां दाहो भवति, तादृशे स्थाने, नि० चू०३ उ०। आचा० अङ्गारान् दहतीति अङ्गारदाहः, अङ्गाराणां दाहके, त्रि०ा (अङ्गारदाहकेन तद्गुणमजानता चन्दनखोटी दग्धेति चन्दन-खोटीदृष्टान्तः स च आयरिय शब्दे) (मुक्तिसुखमसदृश-मित्यत्राऽङ्गारदाहदृष्टान्तः सिद्ध-शब्दे) Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगारपतावणा 43 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंगुल अं(इं)गार(ल)पतावणा-स्त्री०(अङ्गारप्रतापना) अङ्गारेषु प्रतापनाऽङ्गारप्रतापना। शरीरस्यशीतकालादौ अङ्गारेषु प्रतापनायाम्, प्रश्न० सं०५ द्वा०। अं(इं)गार(ल)मद्दग-पुं०(अङ्गारमर्दक)जीवा-ऽश्रद्धानतोऽङ्गाराणां मर्दनेनाऽङ्गारमर्दकेति प्रसिद्धिं गते रूद्रदेवा-ऽभिधे अभव्याऽऽचार्ये / तत्संविधानकं चैवं श्रूयते"सूरिर्विजयसेनाख्यो, मासकल्पविहारतः। समायातोमहाभागः, पुरेगर्जनकाभिधे।।१।। अथाऽत्र तिष्ठतस्तस्य, कदाचिन्मुनिपुङ्गवैः। गवां विसविलायां, स्वप्नोऽयं किल वीक्षितः॥२॥ कलभानां शतैः शूरैः, शूकरः परिवारितः। पञ्चभिर्भद्रजातीना-मस्मदाश्रयमागतः॥३॥ ततस्ते कथयामासुः, सूरेः स्वप्नंतमद्भुतम्। सूरिस्तूवाच तस्यार्थं, साधूनां पृच्छताममुम्॥४॥ सुसाधुपरिवारोऽद्य, सूरिरेष्यति कोऽपिवः। प्राघूर्णकः परं भव्यो, नासाविति विनिश्चयः॥५॥ यावज्जल्पत्यसौ तेषां, साधूनां सूरिरग्रतः। रुद्रदेवाभिधः सूरिः,तावत्तत्र समागतः / / 6 / / शनैश्वर इव स्फार - सौम्यग्रहगणान्वितः। एरण्डतरुवत्कान्त - कल्पवृक्षगणान्वितः // 7 // कृताच तस्य तैस्तूर्ण-मभ्युत्थानादिका क्रिया। आतिथ्यी यथायोग, सगच्छस्य यथागमम्॥८॥ ततो विकालवेलायां, कोलाकारस्य तस्यतैः। परीक्षणाय निक्षिप्ताः, अङ्गाराः कायिकीभुवि।।६।। स्वकीयाचार्यनिर्देशात्,प्रच्छन्नैश्च तकैः स्थितैः। वास्तव्यसाधुभिर्दृष्टा-स्ते प्राघूर्णकसाधवः॥१०॥ पादसंचूर्णिताङ्गार-कृशत्काररवस्तुतौ। मिथ्यादुष्कृतमित्येतद्,ब्रुवाणाः प्राणिशङ्कया।।११।। कृशत्काररवस्थाने, कृतचिहाइतीच्छया। दिने निभालयिष्यामः, कृशत्कारः किमुद्भवः / / 12 / / आचार्यो रुद्रदेवस्तु, प्रस्थितः कायिकी भुवम्। कृशत्काररवं कुर्वन,अङ्गारपरिमर्द्धनात्॥१३॥ जीवाश्रद्धानतो मूढो, वदंश्चैतजिनैः किल। जन्तवोऽमी विनिर्दिष्टाः, प्रमाणैर्व्यकृता अपि॥१४॥ वास्तव्यसाधुभिर्दृष्टो,यथादृष्टं च साधितम्। सूरिविजयसेनस्य, तेनापि गदितं ततः // 15|| स एष शूकरो भद्रा-स्त एतेवरहस्तिनः। स्वप्नेन सूचिता येवो, न विधेयोऽत्र संशयः॥१६|| तैः प्रभातेऽथतच्छिष्या, बाधितास्तूपपत्तिभिः। यथैवं चेष्टितेनाय-मभव्य इति बुध्यताम्॥१७॥ त्याज्यो वोऽयं यतोघोर-संसारतरुकारणम्। ततस्तैरप्युपायेन, क्रमेणासौ विवर्जितः॥१८| ते चाकलङ्कसाधुत्वं, विधायाथ दिवं गताः। ततोऽपि प्रच्युताःसन्तः, क्षेत्रेऽमुत्रैव भारते||१६|| श्रीवसन्तपुरे जाता, जितशत्रोर्महीपतेः। पुत्राः सर्वेऽपि कालेन, ते प्राप्ता यौवनश्रियम्॥२०॥ अन्यदातान् सुरूपत्वात्, कलाकौशलयोगतः। सर्वत्र ख्यातकीर्तित्वात्,सर्वानाशुन्यमन्त्रयत्॥२१।। हस्तिनागपुरे राजा, कनकध्वजसंज्ञितः। स्वकन्याया वरार्थाय, तान् स्वयंवरमण्डपे॥२२॥ तत्राऽऽयातैः स तैर्दृष्टो, गुरुरङ्गारमर्दकः। उष्ट्रत्वेन समुत्पन्नः, पृष्ठाऽऽरूढमहाभरः॥२३॥ गलावलम्बितस्थूल-कुतुपोऽपेसलं रटन्। पामनः सर्वजीर्णाङ्गो, गतत्राणोऽतिदुःखितः॥२४॥ तमुष्ट्रमीक्षमाणानां, तेषां कारुण्यतो भृशम्। जातिस्मरणमुत्पन्न, सर्वेषां शुभभावतः॥२५|| देवजन्मोद्भवज्ञान-ज्ञातत्वात्तैरसौ स्फुटम्। करभः प्रत्यभिज्ञातो, यथाऽयं चलनो गुरुः // 26|| ततस्ते चिन्तयामासुः, धिक् संसारविचेष्टितम्। येनैष तादृशज्ञान-मवाप्यापि कुभावतः।।२७।। अवस्थामीदृशीं प्राप्तः, संसारं च भ्रमिष्यति। ततोऽसौ मोचितस्तेभ्यः,तत्स्वामिभ्यः कृपापरैः // 28 // ततस्तदैवते प्राप्य, भवनिर्वेदकारणम्। कामभोगपरित्यागात्,ते प्रव्रज्यां प्रपेदिरे।।२६।। ततः सुगतिसंतानात्, निर्वास्यन्त्यचिरादमी। अन्यः पुनरभव्यत्वाद्, भवारण्ये भ्रमिष्यतीति॥३०॥ पंचा०२ विव० गाथा 12 / अं(इं)गार(ल)रासि-पुं०(अङ्गाररासि) खदिराऽङ्गारपुजे, सूत्र०१ श्रु०५ अ० 1 उ०अ०का आव०ा आ० चू० अं(इं)गारवई-स्त्री० (अङ्गारवती) धुन्धुमारनृपसुतायाम्, (तद् वक्तव्यता संवेग-शब्दे वक्ष्यते) अं(ई)गार(ल)सहस्स-न०(अङ्गारसहस्र) 6 त०। लघुतराणामग्निकणानां सहस्रे, स्था०८ ठा। अं(इं)गालसोल्लिय-त्रि० पअङ्गारशू(लोल्यब अङ्गारैरिव पक्वे,भ० ११श०६उन अं(इं)गारा(ला)यतण-न०(अङ्गाराऽऽयतन)यत्रा-ऽङ्गारपरिकर्म क्रियते, तस्मिन् गृहे, आचा०२ श्रु०२ अ०२ उ०। अं(इं)गारि(लि)य-त्रि०(अङ्गारित)विवर्णीभूते,आचा०२ श्रु०१ अ० 8 उ०॥ अंगिरस-पुं०(अङ्गिरस)गोतमगोत्रविशेषभूताऽङ्गिरःपुरुषा-ऽपत्ये, स्था०७ठा। अंगीकड-त्रि०(अङ्गीकृत) अङ्गीति च्च्यन्तं, तत्पूर्वकात् कृत्रः क्तः। स्वीकृते / स्था०५ ठा०। 'अङ्गीकृतं सुकृतिनः परिपालयन्तीति'। चौरपञ्चाशिका / वाचा अं(इं)गुअ-पुं०(इगुद) इगि-उः, इगुः रोगः, तं द्यति खण्डयति, दो-क। शिथिलेऽगुदे वा।।१।८६। इति सूत्रेण प्राकृते आदेर्वा अत्वम् / तापसतरौ, प्रा०। अंगुट्ठ-पुं०(अङ्गुष्ठ)- अङ्गौ पाणी प्राधान्येन तिष्ठति, स्था-क, षत्वम्। हस्ताऽवयवे, स्था०१० ठा०। अंगुट्टपसिण-न०(अङ्गुष्ठप्रश्न) विद्याविशेषे, यथाऽङ्गुष्ठे देवताऽवतारः क्रियते, तत्प्रतिपादके प्रश्नव्याकरणानां नवमे- ऽध्ययने च, परमिदानींतने प्रश्नव्याकरणपुस्तके नेदमुप- लभ्यते। स्था० 10 ठा० / अंगुम-धा०(पूरि) पूर-णिच् / पूरेरग्घाडाऽग्घवोद्भुमाऽङ गुमाऽहिरेमाः।८।४।१६। इति सूत्रेण पूरेरगुम इत्यादेशः।पूर्ती अगुमेइ, पूरयति / प्रा०। अंगुल-पुं०(अङ्गुल) अङ्ग उल / हस्तपादशाखायाम, वाच०। अष्टयवमध्यात्मके परिमाणभेदे, ना "अट्ठजवमज्झाओ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगुल 44 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अंगुल से एगे अंगुले''। भ०३श०७ उाज्योग स्था०। अगिरगि० इत्यादिदण्डकेपठितः अगिर्गत्यर्थो धातुर्गत्यर्था ज्ञानार्था अपि भवन्त्यतोऽङ्गयन्ते प्रमाणतोज्ञायन्ते पदार्था अनेनेत्यङ्गुलम्।मानविशेष, प्रव० 254 द्वा०। तद्भेदा यथा - से किं तं अंगुले ? अंगुले तिविहे पण्णत्ते / तंजहा - आयंगुले उस्सेहंगुले पमाणंगुले / अडलं त्रिविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा- आत्माऽङ्गुलमुत्सेधाऽङ्गुलं प्रमाणाऽङ्गुलम् / तत्र ये यस्मिन् काले भरतसगरादयो मनुष्याः प्रमाणयुक्ता भवन्ति,तेषां च संबन्धी अत्राऽऽत्मा गृह्यते / आत्मनामङ्गुलमात्माऽङ्गुलम्। अत एवाऽऽह आत्माङ्गुलम्। से किं तं आयंगुले ? आयंगुले जे णं जया मणुस्सा भवइ, तेसिंणं तया अप्पणो अंगुलेणं दुवालस अंगुलाई मुह, नवमुहा पुरिसे पमाणजुत्ते भवइ / दोण्णिए पुरिसे माणजुत्ते भवइ / अद्धभारं तुल्लमाणे पुरिसे उम्माणजुत्ते भवइ, माणुम्माणप्पमाणजुत्ता लक्खणवंजणगुणे हिं उववे आ उत्तमकुलप्पसूआ उत्तमपुरिसा मुणे अव्वा 1, हुंति पुण अहियपुस्मिा, अट्ठ सयं अंगुलाण उक्किट्ठा / छण्णउइ अहम्मपुरिसा, चउत्तरं मज्झिमिल्लाओ 2, हीणा वा अहिया वा जे खलु सरसत्तसारपरिहीणा / ते उत्तमपुरिसाणं, अवसा पेसत्तणमुपैति 3 / एएणं अंगुलपमाणेणं छ अंगुलाई पादो, दो पाया विहत्थी, दो विहत्थीओ रयणी, दो रयणीओ कुत्थी, दो कुत्थीओ दंडं, धणू जुगे नालिया अक्खमुसले / दो धनूसहस्साई गाउअं / चत्तारि गाउआई जोअणं / एएणं आयंगुल-प्पमाणेमं किं पओयणं ? एएणं आयंगुलेणं जे णं जया मनुस्सा हवंति तेसि णं तया णं आयंगुलेणं अगडतलागदहनदी वा वि पुक्खरिणी दोहि य गुंजालिआओ सरासरपंतिआओ सरासरपंतिआओ बिलपंतिआओ आरामुजाणकाणणवणवणसंडवणराइओ देउल सभापवाथूभखाइअपरिहाओ पागारअट्टायचरिअदारगोपुरपासायघरसरणलयण आवणसिंघाडगतिग चउक्कचउम्मुहमहापहपहासगड रहजाणजुग्गगिल्लिघिल्लिसिवे असंदमाणिआओ लोहीलोहकडाहकठिल्लयभडमत्तोवगरणमाईणि अज्जकलिआईच जोअणाई मविज्जति / से समासओ तिविहे पण्णत्ते / तंजहा- सूइअंगुले पयरंगुले घणंगुले अंगुलायया एग-पएसिया सेढी सूइअंगुले ,सूई सूइगुणिया पयरंगुले, पयरं सूइए गुणितं घणं गुले / एएसि णं सूइअंगुलपयरंगुल- घणंगुलाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? सव्वथोवे सुइअंगुले, पयरंगुले असंखेजगुणे,घणंगुणे असंखेज्जगुणे। सेतं आयंगुले। ये भरतादयः प्रमाणयुक्ता यदा भवन्ति, तेषां तदा स्वकीयमङ गुलमात्माङ्गुलमुच्यत इति शेषः / इदं च पुरुषाणां कालाऽऽदिभेदेनाऽनवस्थितमानत्वादनियतप्रमाणं दृष्टव्यम् / अनेनैवाऽऽत्माङ्गुलेन पुरुषाणां प्रमाणयुक्तादिनिर्णयं कुर्वन् आह(अप्पणो अंगुलेणं दुवालसेत्यादि) यद् यस्याऽऽत्मीय-मगुलं तेनाऽऽत्मनोऽड्गुलेन द्वादशाऽगुलानि मुखं प्रमाणयुक्तं भवत्यनेन च मुखप्रमाणेन नव मुखानि सर्वोऽपि पुरुषः प्रमाण-युक्तो भवति। प्रत्येक द्वादशाऽङ्गुलै नवभिमुखैरष्टोत्तरं शत-मङ् गुलानां संपद्यते / ततश्चैतावदुच्चयः पुरुषः प्रमाणयुक्तो भवतीति परमार्थः / अथ तस्यैव मानयुक्तताप्रतिपादनार्थमाह- द्रौणिकः पुरुषो मानयुक्तो भवति द्रोणी जलपरिपूर्णा महती कुण्डिका, तस्यां प्रवेशितो यः पुरुषो जलस्य द्रोणं पूर्वोक्तस्वरूपं निष्काशयति, द्रोणजलोनां वा तां पूरयति, स द्रोणिकः पुरुषो मानयुक्तो निगद्यते इति भावः। इदानीमेत-स्यैवोन्मानयुक्ततामाह - सारपुद्गलरचितत्वात् तुलारोपितः सन्नद्धभारं तुलयन् पुरुष उन्मानयुक्तो भवति। तत्रोत्तमपुरुषाः यथोक्तैः प्रमाणमानोन्मानैः अन्यैश्च सर्वैरेव गुणैः संपन्ना एव भवन्तीत्ये, तद् दर्शयन्नाह(माणुन्माणगाहा)अनन्तरोक्तस्वरूपैमानोन्मान-प्रमाणैर्युक्ता उत्तमपुरुषाश्चक्रवत्यार्यदयो ज्ञातव्या इति संबन्धः / तथा लक्षणान् शङ्कस्वस्तिकादीनि व्यञ्जनानि मषीतिलकादीनि गुणाः क्षान्त्यादयस्तैरुपेतास्तथोत्तमकुलान्युग्रादीनि तत्प्रसूता इति गाथार्थः। अथाऽऽत्मगुलेनैवोत्तममध्यमाऽधमपुरुषाणां प्रमाणमाह- (हुति पुणगाहा) भवन्ति पुनरधिकपुरुषा उत्तम पुरुषाश्चक्रवादयोऽष्टशतमगुला(उक्किट्ठा उ)उन्नमिता उच्चैस्त्वेन वा पुनःशब्दस्त्वेषामेवाऽधिक पुरुषादीनामने क-भेदतादर्शकः / आत्माङ्गुलेनैव षण्णवत्यङ् गुलान्यधमपुरुषा भवन्ति (चउरुत्तरमज्झिमिल्लाउत्ति) तेनैवाऽङ्गुलेन चतुरुत्तरमगुलशतं मध्यमानः तुशब्दो यथानुरूपशेष-लक्षणादिभावप्रतिपादनपर इति गाथार्थः / अष्टोत्तरशताऽङ्गुलमानाद् हीना अधिका वा ते किं भवन्तीत्याह- (हीणा वा गाहा) अष्टोत्तरशताऽगुलहीना वा अधिका वा, ये खलु स्वरः सकलजनादेयत्वप्रकृतिगम्भीरतादिगुणाऽलंकृतो ध्वनिः,सत्त्वं दैन्यविनिर्मुक्तो मानसोऽवष्टम्भः सारःशुभपुद्गलोपचयजः शरीरशक्तिविशेषस्तैः परिहीना सन्तस्ते उत्तम-पुरुषाणां उपचितपुण्यप्राग्भाराणाम् अवशा अनिच्छन्तोऽप्य-शुभकर्मवशतः प्रेष्यत्वमुपयान्ति, स्वरादिशेषलक्षणवैकल्य-साहाय्यात्, यथोक्त प्रमाणाद् हीनाऽधिक्यमनिष्टफलप्रदायि प्रतिपत्तव्यं, तत्के वलमिह लक्ष्यते / भरतचक्र वादीनां स्वाऽङ्गुलतो विंशत्यधिकाऽगुलशतप्रमाणानामपि निर्णीत-त्वात् / महावीरादीनां च केषांचित् मतेन चतुरशीत्याद्यड्गुल-प्रमाणत्वाद् भवन्ति विशिष्टाः स्वरादयः प्रधानफलदायिनः / यत उक्तम्- अस्थिष्वर्था सुखं मांसे, त्वचि भोगाः स्त्रियोऽक्षिषु / गतौ यानं स्वरे चाऽऽज्ञा, सर्वं सत्त्वे प्रतिष्ठितम् // 1 // इति गाथाऽर्थः / एतेनाऽगुलप्रमाणेन षडङ्गुलानि पादः, पादस्यमध्यत प्रदेशः षडङ्गुलविस्तीर्णः, पादैकदेशत्वात् पादाः। द्वौ च युग्मीकृतौ पादौ वितस्तिः, द्वे च वितस्ती रत्निर्हस्त इत्यर्थः / रत्निद्वयं कुक्षिः, प्रत्येकं कुक्षिद्वयनिष्पन्नास्तु षट् प्रमाणविशेषा दण्डधनुर्युग-नालिकाऽक्षमुसललक्षणा भवन्ति / अत्राऽक्षा धुरी, शेषो गतार्थः / द्वे धनुःसहस्रे गव्यूतं चत्वारि गव्यूतानि योजनम्। ''एतेणं आयंगुलप्पमाणेणं किं पओअणमिति" गताऽर्थ, नवरं ये यदा मनुष्या भवन्ति, तेषां तदा आत्मनामङ्गुलेन स्वकीयस्वकीय-कालसंभवीनि अवटहृदादीनि मीयन्त इति संटङ्कः। (अवटादीनां व्याख्या स्वस्वस्थाने) / अनु० / तदेवमात्मा Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगुल 45 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंगुल गुलेनाऽऽत्मीयाऽऽत्मीयकालसंभवीनि वस्तून्यद्यकालीनानि च | णं एगमेगा कोडी उस्सेहंगुले विक्खंभा,तं समणस्स भगवओ योजनानि मीयन्ते / ये यत्र काले पुरुषा भवन्ति, तदपेक्षयाऽद्य शब्दो महावीरस्स अद्धंगुलं, तं सहस्सगुणं पमाणंगुलं भवइ / एएणं द्रष्टव्यः। इदं चाऽऽत्माऽङ्गुलं सूच्यङ्गुलादिभेदाति त्रिविधं, तत्र अंगुलपमाणेणं छ अंगुलाइ पादो, दुवालसंगुलाई विहत्थी, दो दीर्घेणाऽगुलाऽऽयता बाहल्यस्त्वेकप्रदेशिकी नभःप्रदेशश्रेणिः विहत्थीओ रयणी, दो रयणीओ कुच्छी, दो कुच्छीओ धणु, सूच्यङ्गुलमुच्यते। एतच सद्भावतोऽसंख्येय-प्रदेशमप्यसत्-कल्पनया दो धणु- सहस्साइं गाउअं, चत्तारि गाउआई जोअणं / एएणं सूच्याकारव्यवस्थापितप्रदेशत्रय-निष्पन्नं द्रष्टव्यम्। तद्यथा-सूची सूच्यैव पमाणंगुलेणं किं पओअणं? एएणं पमाणंगुलेणं पुढवीणं कंडाणं गुणिता प्रतराऽङ्गुलम् / इदमपि परमार्थतोऽसंख्येयप्रदेशाऽऽत्मकम्। पातालाणं भवणाणं भवणपत्थडाणं निरयाणं निरयावलीणं असद्भावतः त्वेषैवा-ऽनन्तरदर्शिता त्रिप्रदेशात्मिका सूचिस्तयैव अतः निरयपत्थडाणं कप्पाणं विमाणाण विमाणपत्थडाणं टंकाण प्रत्येक प्रदेशनिष्पन्नं सूचीत्रयात्मकं नवप्रदेशसंख्य संपद्यते / स्थापना कूडाणं सेलाणं सिहरीणं पडभाराणं विजयाणं वक्खाराणं प्रतरश्व सूच्या गुणितो दैर्येण विष्कम्भतः पिण्डतश्च समसंख्यं धनाऽड्गुलं भवति, दैर्ध्यादिषु त्रिष्वपि स्थानेषु समतालक्षणस्यैव समयचर्यया वासहराणं पव्वयाणं वेलाणं वेइस्सणं वेइयाणं दाराणं तोरणाणं घनस्येह रूढत्वात् / प्रतराऽङ्गुलं तु दैय॑विष्कम्भा भ्यामेव समं, न दीवाणं समुद्दाण आयामविक्खंभोचतोव्वेहपरिक्खेवो मविञ्जति / पिण्डतस्तस्यैक प्रदेशमात्रत्वादिति भावः / इदमपि वस्तु- सहस्र गुणितादुत्सेधागुलप्रमाणाज्जातं प्रमाणड्गुलम् / अथवा वृत्त्याऽसंख्येयप्रदेशमानम्। असत्प्ररूपणया तु सप्तविंशति-प्रदेशात्मकं परमप्रकर्षरूपं प्रमाणं प्राप्तममुलं प्रमाणाङ्गुलं, नाऽतः परं पूर्वोक्तसूच्या अनन्तरोक्तनवप्रदेशात्मके प्रतरे गुणिते एतावतामेव बृहत्तरमगुलमस्तीति भावः / यद्वा समस्तलोकव्यवहारादिप्रदेशानां भावात् / एषा च स्थापना अनन्तरनिर्दिष्टा राज्यादिस्थितिप्रथमप्राणनाथेन प्रमाणभूतोऽस्मिन्नवसर्पिणी-काले नवप्रदेशात्मक प्रतरस्याऽध उपरि च नव नव प्रदेशान् दत्त्वा तावद् युगादिदेवो भरतो वा तस्याऽङ्गुलं प्रमाणाऽङ्गुलमेतच्च भावनीया / तथा दैर्ध्यविष्कम्भपिण्डैः तुल्य-मिदमापद्यते "एएसि णं काकणीरत्नस्वरूपपरिज्ञानेन शिष्यव्युत्पत्तिलक्षणं गुणाभंते !" इत्यादिना सूच्यङ्गुलादिप्रदेशाना-मल्पबहुत्वचिन्ता ऽधिक्यमपश्यंस्तद्द्वारेण निरूपयितुमाह- एगमेगस्सणं रण्णो इत्यादि, यथानिर्दिष्टन्यायानुसारतः सुखाव-सेयेति तदेतदात्माङ्गुलमिति। एकै कस्य राज्ञश्चतुरन्तचक्रवर्तिनोऽष्ट सौवर्णिकं काकणीरत्नं उत्सेधाङ्गुलनिर्णयार्थमाह षट्तलादिधर्मोपेतं प्रज्ञप्तं, तस्यैकैका कोटिरुत्सेधा-ऽड्गुलविष्कम्भा से किं तं उस्संहंगुले ? उस्सेहंगुले अणेगविहे पण्णत्ते / तत्प्रमाणस्य भगवतो महावीरस्याड्गुिल, तत्सहस्रगुणं प्रमाणाडगुलं तंजहा- "परमाणू तसरेणू ,रहरेणु अग्गयं च वालस्स। लिक्खा भवतीति समुदायार्थः / तत्राऽन्यान्य-कालोत्पन्नानामपि चक्रिणां काकणीरत्नतुल्यता-प्रतिपादनार्थमेकैकग्रहणं निरुपचरितराजजूआय जवो,अट्ठगुणविवड्ढिआ कमसो"|| शब्दविषयज्ञापनार्थ राजग्रहणं दिक्त्रयभेदभिन्न-समुद्रहिमवत्पर्वतउत्सेधः "अणंताणं सुहुमपरमाणुपोग्गलाणमित्यादि" क्रमेणोच्छ्रयो पर्यन्तसीमा- चतुष्टयलक्षणाश्चत्वारोऽन्तास्तान्चतुरोऽपि चक्रेण वर्त्तयति दृधिनयनं तस्माज्जातमङ्गुलमुत्सेधाङ्गुलम् / अथ वा उत्सेधो पालयतीतिचतुरन्तचक्रवर्ती। तस्य परिपूर्णषट्खण्ड भरतनारकादिशरीराणामुच्चैस्त्वं तत्स्वरूपनिर्णयार्थ-मगुलमुत्से भोक्तुरित्यर्थः / चत्वारि मधुरतृणफलान्येकसषषः, षोडश सर्षपा एक धाङ्गुलम् / तच कारणस्य परमाणुत्रसरेण्वादे- रनेकविधत्वादनेकविधं धान्यमाषफलं, द्वे धान्यमाषफले एका गुञ्जा, पञ्च गुञ्जाः एकः प्रज्ञप्तम्। (परमाण्वादीनां स्वरूपं स्वस्वस्थाने) कर्ममाषकः, षोडश कर्ममाषकाः सुवर्णः, एतैरष्टभिः काकणीरत्नं एएणं उस्सेहंगुलेणं किं पओअणं ? एएणं उस्से-हंगुलेणं निष्पद्यते / एतानि च मधुरतृणफलादीनि भरतचक्रवर्तिकालणेरइअतिरिक्खजोणिअमणुस्सदेवाणं सरीरोगाहणामविजंति। संभवान्यवगृह्यन्ते, अन्यथा कालभेदेन तद्वैषम्यसंभवं काकणीरत्नं (तदेवमेषा ओगाहणा शब्दे वक्ष्यमाणा अवगाहना सर्वा- सर्वचक्रिणां तुल्यं न स्यात तुल्यं चेष्यते, तदिति चत्वारि चतसृष्वपि ऽप्युत्सेधाङ्गुलेन मीयते। दिक्षु द्वे ऊर्वाऽधः, इत्येवं षट् तलानि यत्र, तत् षट्तलम् / अध से समासओ तिविहे पण्णत्ते / तंजहा- सूईअंगुले पयरंगुले उपरि पार्श्वतश्च प्रत्येकं चतसृणामम्रीणां भावात् / द्वादश अस्रयः घणंगुले। एअंगुलयया एगपएसिया सेढी सूई- अंगुले ,सूई सूईए कोटयो यत्र, तद् द्वादशाऽसिकं कर्णिकाः कोणास्तेषां च अध उपरि गुणिया पयरंगुले, पयरं सूइए गुणितं घणंगुले / एएसि णं च प्रत्येकं चतुणां सद्भावादष्ट -कर्णिकम् / अधः करणिः सूईअंगुलपयरंगुलघणंगुलाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पे वा बहुए सुवर्णकारोपकरणं तत्संस्थानेन सं-स्थितं तत्सदृशाकार वा तुल्ले वा विसेसाहिए वा? सव्वथोवे सूईअंगुले, पयरं समचतुरस्रमिति यावत् प्रज्ञप्तं प्ररूपितं, तस्य काकणीरत्नस्यैकैका गुले असंखेजगुणे, घणंगुले असंखेज्जगुणे / से तं उस्सेहंगुले। कोटिरुत्सेधाऽगुलप्रमाण-विष्कम्भा द्वादशाऽ प्यस्रय एकैकस्य उत्सेधाऽगुलप्रमाणा भवन्तीत्यर्थः / अस्य समचतुररनत्यादायामो एतच सूचीप्रतरघनभेदात् त्रिविधमात्माऽडगुलवद् भावनीयम् / विष्कम्भश्च प्रत्येकमुत्सेधागुलप्रमाण इत्युक्तं भवति / यैव च उक्तमुत्सेधाऽगुलम् / अथ प्रमाणाऽङ्गुलम् - कोटिरूर्वी-कृता आयामं प्रतिपद्यते, साऽधस्तिर्यग्व्यवस्थापिता से किं तं पमाणं गुले ? पमाणं गुले एगमे गस्स रन्नो विष्कम्भ-भागवतीत्यायामविष्कम्भ-योरेकतरनिर्णयेऽप्यपर निश्चयः चांउरंतचक्कवट्टिस्स अट्ठ सोवण्णिए कागणीरयणे, छत्तले स्यादेवेति सूत्रे विष्कम्भस्यैव ग्रहणं, तद्ग्रहणे चाऽऽयामाऽवगृहीत एव दुवालससिए अट्ठकण्णिए अहिगरणसंठाणसंठिए पण्णत्ते। तस्स समचतुरसत्वात् तस्येति / तदेवं भवेत् उत्सधागुल Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगुल 46 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंगुलिभमुहा प्रमाणमिदं सिद्धं तदाऽन्यत्र चतुरङ्गुलप्रमाणसुवर्णा वरकागणी नेयेति | प्रतिपादितानां नरकप्रस्तटानां शेष प्रतीतं नवरम् (टंकाणंति) श्रूयते तन्मतान्तरं संभाव्यते, निश्चयं तु सर्ववेदिनो विदन्तीति। छिन्नटङ्कानां (कुडाणंति) रत्नकूटादीनां (सेलाणंति) मुण्डपर्वतानां तदैकैककोटिगतमुत्सेधाङ्गुलं श्रमणस्य भगवतो महावीर-स्या गुलं (सिहरीणंति) पर्वतानामेव शिखरवतां (पडभा कथमिदमुच्यते-श्रीमहावीरस्य सप्तहस्त-प्रमाणत्वादेकैकस्य हस्तस्य राणंति)तेषामे वेषन्नतानां (वे लाणं ति)जलधिवे लाविषयचतुर्विशत्युत्सेधागुलमानत्वा-दष्टषष्ट्यधिकशताङ्गुलमानो भूमीनामूधिोभूमिमध्येऽवगाहः / तदेवम् "अंगुलविहत्थिरयणी" भगवानुत्सेधाङ्गुले न सिद्धो भवति, स एव चात्माङ्गुलेन त्यादिगाथोपन्यस्ताङ्गुलादीनि योजनावसानानि पदानि मतान्तरमाश्रित्य स्वहस्तेन सार्द्ध हस्तत्रयमानत्वाच्चतुरशीत्यङ्गुलमानो व्याख्यातानि / साम्प्रतं शेषाणि श्रेण्यादीनि व्याचिख्यासुराह - गीयतेऽतः सामर्थ्या-देकमुत्सेधाङ्गुलं श्रीमन्महावीरात्माङ्गुलापेक्षया से समासओ तिविहे पण्णत्ते / तं जहा-सेढी अंगुले पयरंगुले अर्धा-मुलमेव भवति। येषां च मतेन भगवानात्मागुलेनाष्टोत्तरशता घणंगुले / असंखेजाओ जोअण कोडाकोडीओ सेढी,सेढीए ऽङ्गुलमानः स्वहस्तेन सार्द्धहस्तचतुष्टयमानत्वात्तन्मतेन भगवत गुणियाणं पयरं,पयरं सेढीगुणियं लोगो,संखेज्जएणं लोगो एकस्मिन्ना-त्माङ्गुले एकमुत्सेधाडगुलं तस्य च पञ्च नव भागा भवन्ति, गुणिओ संखेज्जा लोगा, असंखेज्जएणं गुणिओ लोगो असंखेजा, अष्टषष्ट्यधिकशतस्य अष्टोत्तरशतेन भागापहारे एतावत एव भावात्। लोगा अणंतेणं लोगो गुणिओ अ(णंता)लोगा / एएसि णं यन्मतेन तु भगवान् विंशत्यधिकमगुलशतं स्वहस्तेन सेढिअंगुलपयरंगुलघणंगुलाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पे वा बहुए पञ्चहस्तमानत्वात्तन्मतेन भगवत एकस्मिन्नात्माङ्गुल एकमुत्सेधाडगुलं तस्य च द्वौ पञ्चभागौ भवत ।अष्टषष्ट्यधिक-शतस्य विंशताधिकशतेन वा तुल्ले वा विसेसाहिए वा? सव्वथोवे सेढिअंगुले,पयरंगुले भागे हृते इयत एव लाभात्तदेव- मिहाधमतमपेक्ष्यैकमुत्सेधाङ्गुलं असंखेज्जगुणे, घणंगुले असंखेज्ज-गुणे / से तं पमाणंगुले / भगवदात्मागुलस्यार्द्ध-रूपतया प्रोक्तमित्यवसेयमिति। तदुत्सेधाङ्गुलं अनन्तरनिर्णीतप्रमाणाड्गुलेन यद् योजनं, तेन योजनेनासंख्येया सहस्रगुणितं प्रमाणागुलं भवति / कथमिदमवसीयते ? उच्यते योजनकोटीकोट्यः संवर्तितसमचतुरस्रीकृतलोकस्यैका श्रेणि-र्भवति भरतश्चक्रवर्ती प्रमाणाङ्गुलेनात्माङ्गुलेन च किल विंशतिशतमङ्गलानां (सप्तरज्जुप्रमाणत्वं लोकस्य लोगशब्दे)। अनु०। तदिदं भवति, भरतात्माङ्गुलस्य प्रमाणाड्गुलस्य चैकरूपत्वात् सप्तरज्वायामत्वात्प्रमाणागुलतोऽसंख्येययोजना कोटि- कोट्यायता उत्सेधाङ्गुलेन तु पञ्चधनुःशतमानत्वात्प्रतिधनुश्च एकप्रदेशिकी श्रेणिः, सा च तयैव गुणिता प्रतरः, सोऽपि यथोक्तश्रेण्या षण्णवत्यङ्गुलसद्भावादष्ट-चत्यारिंशत्सहस्राण्यङ्गुलानां संपद्यन्तेऽतः गुणितो लोकः / अयमपि संख्येयेन राशिना गुणितः संख्येया सामर्थ्यादेकस्मिन् प्रमाणाड्गुले चत्वारि शतान्युत्सेधागुलानां लोकाः,असंख्येयेन तु राशिना समाहतो ऽसख्येया लोकाः, अनन्तैश्च भवन्ति / विंशत्यधिक-शतेन अष्टचत्वारिंशत् सहस्राणां भागापहारे लोकैरलोकः / अनु०। प्रव०। आ० म०प्र०ा विशे०। वात्स्यायनमुनौ, एतावतो लाभात् / यद्येवमुत्सेधागुलात् प्रमाणाडगुलं चतुःशतगुणमेव पुं०। अङ्गौ पाणौ लीयते वा ड!अगुष्ठे, नावाचा स्यात्ततः कथं सहस्रगुणमुक्तं ? सत्यं किंतु प्रमाणागुलस्यार्द्धतृतीयो- अंगुलपोहत्तिय-त्रि०(अङ्गलपृथक्त्विक) अड्गुलमुच्छ्रया-ऽडगुलं त्सेधाङ्गुलरूपं बाहल्यमस्ति, ततो यदा स्वकीयबाहल्येन पृथक्त्वं हि द्विप्रभृतिरानवभ्य इति परिभाषा अङ्गुलपृथक्त्वं युक्तं यथावस्थितमेवेदं चिन्त्यते तदोत्सेधाङ्गुलाचतुःशतगुणमेव भवति / शरीरावगाहनामानमेषामस्तीति अगुलपृथक्त्विकाः अतोऽनेकयदात्वर्द्धतृतीयो-त्सेधाङ्गुललक्षणेन बाहल्येन शतचतुष्टयलक्षणं दैर्घ्य स्वरादितीक् प्रत्ययः / जी० 1 प्रति०। अङ्गुलद्विकादिगण्यते, तदा अगुलविष्कम्भा सहस्राङ्गुलदीर्घा प्रमाणाड्गुलविषया | शरीरावगाहनामाने, प्रज्ञा०१ पद। सूचिर्जायते / इदमुक्तं भवति- अर्द्धतृतीयाङ्गुलविष्कम्भे प्रमाणाङ्गुले अंगुलि(ली)-स्त्री० [अगुलि(ली)] अङ्ग-उलि वा ङीष् / वाच० तिस्रः श्रेणयः कल्पन्ते, एकाऽगुलविष्कम्भा शतचतुष्टयदीर्घा द्वितीयाऽपि करपादशाखायाम, तं०। औ०। प्रव०) गजकर्णिकावृक्षे, गजशुण्डाग्रे च तावन्मानैव तृतीयाऽपि दैर्येण चतुःशतमानैव विष्कम्भतस्त्वर्हाडगुलं, पुंस्त्वमपि संवृताधरौष्ठमङ्गुलिनेति। वाचा ततोऽस्यापि दैर्घ्यद्वयं गृहीत्वा विष्कम्भोऽड्गुलप्रमाणः संपद्यते तथा च | अंगुलिकोश-पुं०(अङ्गुलिकोश) अङ्गुलीनां रक्षार्थ ध्रियमाणे सत्यगुलशतद्वयदीर्घा अगुलविष्कम्भा इयमपि सिद्धा। तदावरणे चर्मादौ, रा०। तद्धारणे।"अंगुलिकोसे पणगं' / नि० चू०२ ततस्तिसृणामप्येतासामुपर्युपरि व्यवस्थापने उत्सेधाङ्गुलतो उ० ऽगुलसहस्रदीर्घा अड्गुलविष्कम्भा प्रमाणाड्गुलस्य सूचिः सिद्धा भवति / ततस्तमधिकृत्योत्सेधाङ्गुलात्तत्सहस्रगुणमुक्तं वस्तुतः तु ) अंगुलि(ले)जग-न०(अड्गुलीयक) अङ्गुलौ भव-मङ्गुलीयं, ततः चतुःशतगुणमेव / अत एव पृथ्वीपर्वतविमानादिमाना अनेनैव कः / अड्गुल्याभरणविशेषे, औ० उपा०ा प्रवाआव० कल्पा आ०| चतुःशतगुणेन अर्द्धतृतीयाङ्गललक्षणस्वविष्कम्भान्वितेन मीयन्ते, न आ० म०प्र० तु सहस्रगुणया अड्गुलविष्कम्भया सूच्येति / शेषं भावितर्थ अंगुलिप्फोडण-न०(अङ्गुलिस्फोटन) अङ्गुलीनां परस्परं ताडने, यावत् (पुढवीणंति) रत्नप्रभादीनां(कंडाणंति)रत्नकाण्डादीनां कढिकाकरणे च। तं०। (पातालाणंति) पातालकलशानां (भवणाणंति) भवनपत्यावासा-दीनां | अंगुलिभमुहा-स्त्री०(अगुलिभू)अगुलीभुवौ वा चालयतः (भवणपत्थडाणंति) भवनप्रस्तटनरकप्रस्तटान्तरे तेषां (निरयाणंति) ____ कायोत्सर्गस्थितिरूपे उत्सर्गदोष, / तत्त्वं च- अंगुलिभमुहाओ नरकावासानां (निरयावलियाणंति) नरकावास-पड्क्तीनां वि य, चालतो तह य कुणइ उस्सग्गं / आलावगगणणट्ठा, (निरयपत्थडाणंति) तेरेकारसनवसत्तपंचतिन्नि य तहेव एकाइयादिना संठवणटुं च जोगाणं // 1 // आव०५ अ०। प्रव०। आलापक Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगुलिभमुहा 47 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अंजणग गणनार्थमगुलीचालयन् तथा योगो नाम स्थापनार्थं व्यापाराऽन्तरनिरूपणार्थ भुवौ चालयन् भूसंज्ञां कुर्वन् चकारादेवमेव वा भूनृत्यं कुर्वन्नुत्सर्गे तिष्ठतीति अगुलीभूदोषः / प्रव०५द्वा०। अंगुलि(ली)विज्जा-स्त्री० [अड्गुलि(ली)विद्या] श्रावस्त्यां नगा बुद्धप्रकाशिते महाप्रभावे विद्याभेदे, "अंगुलीविज्जा य इत्थेव बुद्धेण | संपयासिया महप्पभावा"।ती०३५ पत्र। अंगोवंग- नपुं०(अङ्गोपाङ्ग) अङ्गानि शिरःप्रभृतीन्यष्टौ ,उपाङ्गानि अङ्गावयवभूतान्यङ्गुल्यादीनि, शेषाणि तत्प्रत्यवयवभूतानि अगुलीपर्वरेखादीनि अङ्गोपाङ्गानि / अङ्गानि च उपाङ्गानि च अङ्गोपाङ्गानि। अड्गोपाङ्गस्यादावसंख्येय इत्येकशेषः / इतरेतर-योगः। शिरःप्रभृतिषु,अमुल्यादिषु, तत्पर्व रेखादिषु च / प्रज्ञा० 23 पद। कर्म० |नहकेसमंसुअंगुलिओट्ठाखलु अंगुवंगाणि'। उत्त०३ अ०॥ अंगोवंगणाम-न०(अङ्गोपाङ्गनामन्) अङ्गोपाङ्गनिबन्धनं नाम अङ्गोपाङ्गनाम / नामकर्मभेदे, यदुदयाच्छरीरतयोपात्ता अपि पुद्गला अङ्गोपाङ्गविभागेन परिणमन्ति तत्कर्माऽङ्गोपाङ्गनाम / कर्म०१कर्म०। अङ्गोपाङ्गनाम त्रिविधं मन्तव्यं तथाहि- औदारिकाङ्गोपांगनाम वैक्रियाङ्गोपाङ्गनाम, आहारकाङ्गोपाङ्गनाम / तैजसकार्मणयोस्तु जीवप्रदेशसंस्थानानरोधित्वात् नाऽस्ति अङ्गोपाङ्गसंभव इत्युक्तं त्रिविधमङ्गोपाङ्गनाम / कर्म०६ कर्म०। प्रज्ञा०। पं० सं०। प्रव०। श्रा०। आ० चूल। अंचि-पुं०(अञ्चि) गमने, भ० 15 श०१ उ०॥ *आञ्चि -पुं० आगमने, भ०१५ श०१उ०। अंचअ(त)-त्रि०(आञ्चित) पूज्ये राजमान्ये पितृव्यादौ, व्य० 4 उ०। सकृद्गमने, भ०१५ श० 1 उ०। पञ्चविंशतितमे नाट्यभेदे, रा०ा आ० म०प्र०ा जं० दात्रसन्धौ, नि० चू०२ उ०। अंचिअंचिय-पुं०(अञ्चिताञ्चिक) अञ्चिते सकृद्गते अञ्चितेन सकृद्गतेन वा देशेनाञ्चि पुनर्गमनमञ्चिताञ्चि / गतपूर्वदेशे तेन वा पुनर्गमने अञ्च्याञ्चि अञ्च्या गमनेन सह आञ्चिरागमनमञ्च्याञ्चि / गमागमे, "णो कमइ, णो पक्कमइ अंचियं चियं करेइ"। भ०१५ श०१उ०। स्था०। अंचिअ(य)रिभिय-न०(अञ्चितरिभित) नाट्यभेदे, रा० / आ० म० प्र० अंचेइत्ता-अव्य०(अंचयित्वा) उत्पाटयित्वेत्यर्थे, आ० म०। ज्ञा० अंछ-(देशी०) धा० आकर्षणे, 'अंछंति वासुदेवं अगडतडम्मि' / आ० म०प्र०विशे० भ० कल्प अंछण(देशी०)। आकर्षणे, ओ०। नि० चूल। अंजण-न०(अञ्जन)अञ्ज-ल्युट् / नयनयोः कज्जलापादने, सूत्र० 1 श्रु०६ अ० तं० तप्तायःशलाकया नेत्रयोः दुःखोत्पादने, क्षारतैलादिना देहस्यम्रक्षणे च। स०अज्यतेऽनेन अज-करणेल्युटावाचा कज्जले, ज्ञा०६ अगसौवीरादौ, सूत्र०२ श्रु०१अ० ज०ा आ० म०प्र०ाऔ०। जी०। प्रज्ञा आवारसाञ्जने, दश०३ अ० रत्नविशेषे, आ०म०प्र०) रत्नप्रभायाः खरकाण्डस्यदशमे भागेच। तद्दशयोजनशतानि बाहल्येन प्रज्ञाप्तम् / स्था०१०ठा०। वनस्पतिविशेषे,औ01 आ०म०प्र०। चन्दसूर्याणां लेश्यानुबन्ध-चारिणां पुद्गलानां पञ्चमे पुद्गले, चं०प्र०२०पाहु०। सू० प्र०। मन्दरस्य पूर्वेण शीतोदाया महानद्या दक्षिणेन स्थिते वक्षस्कार-पर्वतभेदे, स्था०५ठा० ज०ा दो अंजणा / स्था०२ ठा०ा द्वीप-कुमारेन्द्रस्य वेलम्बस्य तृतीये लोकपाले, भ०३ श०६उ० / उदधिकुमारेन्द्रस्य प्रभञ्जनस्य चतुर्थे लोक पाले, स्था० 4 ठा०। मन्दरस्य पुरतो रुचकवरपर्वत, सप्तमे कूटे च। पुं०ग स्था०८ ठा० अंजणई-स्त्री०(अञ्जनिका)वल्लीभेदे, प्रज्ञा०१ पद०) अंजणकेसिया-स्त्री०(अञ्जनकेशिका) वनस्पतिविशेषे, आ० / म० प्र० ज०। रा०। प्रज्ञा अंजणग-पुं०(अञ्जनक)अजनरत्नमयत्वादञ्जनास्ततः स्वार्थेकप्रत्ययः। कृष्णवर्णत्वेन अजनतुल्या अञ्जनकाः उपमाने कप्रत्ययः / जं०२वक्षा नन्दीश्वरद्वीपस्य चतुर्दिक्षु व्यवस्थितेषु पर्वतभेदेषु. स्था० 4 ठा०प्रव०॥ अथ नन्दीश्वरस्य चतुर्दिक्षु व्यवस्थिता अञ्जनकपर्वताः, उच्यन्तेगंदीसरवरस्स णं दीवस्स चक्क वालविक्खम्भस्स बहुमज्झदेसमाए चउद्दिसिं चत्तारि अंजणगपव्वया पण्णत्ता / तंजहा-पुरच्छिमल्ले अंजणगपव्वए पञ्चच्छमिल्ले अंजणगपव्वए उत्तरिल्ले अंजणगपव्वए दाहिणिल्ले अंजणगपव्वए / ते णं अंजणगपव्वयगा चतुरसीतिं जोयणसहस्साई उड्ढे उच्चत्तेणं, एगमेगं जोयणसहस्सं उव्वे हेणं मूले दसजोयणसहस्साई धरणियले दसजोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं ततो- णंतरं चऽणं माताए पदेसपरिहाणीए परिहीयमाणा उवरिं एगमेगं जोयणसहस्सं आयामविक्खं भेणं, मूले एक्क तीसं जोयणसहस्साई छच्च तेवीसजोयणसते किंचि विसेसाहिए परिक्खे वेणं,सिहरितले तिणि जोयणसहस्साई एगं च बावट्ठजोयणसतं किंचि-विसेसाहियं परिक्खेवेणं पण्णत्ता। मूले वित्थिणा,मज्झे संखित्ता, उप्पिं तणुया, गोपुछसंठाणसंठिया अच्छा जाव पत्तेयं पत्तेयं पउमवरवेतिया परिक्खेवेणं, पत्तेयं पत्तेयं वणसंड- परिक्खेत्ता वण्णओ गोयमा ! तेसिंणं अंजणपव्वयाणं उवरि पत्तेयं पत्तेयं बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा पण्णत्ता। से जहानामए आलिंग-पुक्खरेइ वा० जाव आसयंति। ते अञ्जनकपर्वताश्चतुरशीतिर्योजनसहस्राणि उर्ध्वमुच्चस्त्वेन एक योजनसहस्रमुद्वेधेनमध्ये सातिरेकाणि दशयोजनसहस्राणि विष्कम्भेन धरणितले दश योजनसहस्राणि / तदनन्तरं च मात्रया परिहीयमानाः परिहीयमाना उपरि एकैकं योजनसहस्रं विष्कम्भेन मूले एकत्रिंशत् योजनसहस्राणिषट्शतानि त्रयोविंशतियोजनानि किंचिद्विशेषाधिकानि (३१,६२३)परिक्षेपेण धरणितले एक-त्रिंशत्योजनसहस्राणिषट्शतानि त्रयोविंशतिर्यो जनानि देशोनानि (31,623) परिक्षेपेण उपरि त्रीणि योजनसहस्राणि एकं च द्वाषष्टियोजनशतं किं चिद्विशेषाधिक (3,162) परिक्षेपेण / ततो मूले विस्तीर्णो मध्ये संक्षिप्तानि उपरि तनुकाः / अत एव गोपुच्छसंस्थानसंस्थिताः सर्वात्मना अञ्जनमया अञ्जनरत्ना-ऽऽत्मकाः ‘अच्छा जाव पडिरूवा' इति प्राग्वत् प्रत्येक पद्मवर-वेदिकाः परिक्षिप्ताः प्रत्येकं वनखण्डपरिक्षिप्ताः पद्मवरवेदिका वनखण्डवर्णनं प्राग्वत् "तेसिंणं० इत्यादि तेषामञ्जन पर्वतानां प्रत्येकं प्रत्येकमुपरि बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः / तस्य 'से जहानामए आलिं गणपुक्खरेइ वा इत्यादि', वर्णनम् Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंजणग 48 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अंजणग जम्बूद्वीपजगत्या उपरितनभागस्येव तावद्वक्तव्यं यावत् तत्थ णं बहवे वाणमंतरा देवा देवीओ य आसयंति० जाव विहरंति। तेसिणं बहुसमरमणिज्जाणं भूमिभागाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं चत्तारि सिद्धायतणा / एगमेकं जोयणसयं आयामेणं, पण्णासं जोयणाई विक्खभेणं, बावत्तरि जायणाति उड्डू उच्चत्तेणं,अणेगखंभसयसन्निविट्ठा वण्णओ / गोयमा ! तेसि णं सिद्धायतणाणं पत्तेयं पत्तेय चउद्दिसिं चत्तारि दारा पण्णता / तंजहा- देवदारे असुरदारे नागद्दारे सुवण्णदारे। तत्थणं चत्तारि देवा महिड्डिया जाव पलिओवमट्ठितिया परिवसंति। तं देवे असुरे नागे सुवण्णे / ते णं दारा सोलसजोयणाई उड्डे उच्चत्तेणं, अट्ठ जोयणाई विक्खंभेणं, तावतियं पवेसेणं, सेतावरकण्णग वण्णओ जाव वणमालाओ। तेसिणं दाराणं चउद्दिसिं चत्तारि मुहमंडवा पण्णत्ता। तेणं मुहमंडवा एगमेगंजोयणसयं आयामेणं पण्णासं जोयणाई विक्खंभेणं सातिरेगाइं सोलसजोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं वण्णओ। तेसिणं मुहमंडवाणं चउद्दिसिं चत्तारि दारा पण्णता / ते णं दारा सोलस जोयणाई उड्डं उच्चत्तेणं, अट्ठजोयणाई विक्खंमेणं तावतियं चेव पवेसेणं, सेसं तं चेव जाव वण-मालाओ। एवं पिच्छाघरमंडवा वि तं चेव पमाणं जे मुहमंडवाण / दारा वि तहेव णवरिं बहु-मज्झदेसभाए पेच्छाघरमंडवाणं अक्खोडगा मणि-पेढियाओ अट्ठजोयणप्पमाणातो सीहासणासपरिवारा जावदामाथूभा वि चउद्दिसिं तहेव णवरिंसोलस जोयणप्पमाणा साइरेगाइंसोलस उच्चा सेसं तहेव / जिणपडिमाओ चेइयरुक्खा तहेव चउद्दिसिं तं चेव पमाणं जहा विजयाए रायहाणीए णवरि मणिपेढियाओ सोलस जोयणप्पमाणाओ। तेसि णं चेतियरुक्खाणं चउद्दिसिं चत्तारि मणिपे ढियाओ अट्ट जोयणविक्खं-भेणं चउजोयणबाहल्लाओ महिंदज्झयाणं चउसट्टि जोयणुचाजोयण उव्वेहा जोयणविक्खंभा सेसं तहेव / एवं चउद्दिसिं चत्तारि नंदापुक्खरिणीओ नवरिं खोयरसपडिपुन्नाओ जोयणसयं आयामेणं, पन्नासं जोयणाई विक्खंभेणं दस जोयणाई उव्वेहेणं, सेसं तहेव / मणोगुलिया गोमाणसिया अडयालीसं अडया-लीसं सहस्साओ पुरच्छिमेण वि सोलस सहस्सा पचच्छिमेण वि सोलस सहस्सा,दाहिणेण वि अट्ठ सहस्सा, उत्तरेण वि अट्ठ सहस्साओ / तहेव सेसं उल्लोया भूमिभागा जाव बहुमज्झदेसभूमिमागे मणिपेढिया सोलस जोयणाई आयामविक्खं भेणं अट्ठ जोयणाई बाहल्लेणं, तेसि णं मणिपढियाणं उप्पिं देवच्छंदगा सोलस जोयणाई आयामविक्खंभेणं, सातिरेगाइं सोलम जोयणाई उड्ढं उच्चत्तेणं सव्वरयणप्पभाओ अट्ठ सयं जिणपडिमाणं / सव्वो सो चेव गमो जहा वेमाणिया सिद्धाययणस्स। तेषां बहुसमरमणीयानां भूमिभागानां बहुमध्यदेशभागे प्रत्येकं प्रत्येकं | सिद्धायतनं प्रज्ञप्तं तानि च सिद्धायतनानि प्रत्येक प्रत्येक योजनशतमायामेन, पञ्चाशद्योजनानि विष्कम्भेन, द्विसप्ततियोजनानि ऊर्ध्वमुचैस्त्वेन अनेकस्तम्भशतसन्निविष्टानीत्यादि। तद्वर्णनं विजयदेवसुधर्मसभावद्वक्तव्यम् (तेसिंणमित्यादि) तेषां सिद्धायतनाना प्रत्येकं चतुर्दिशि चतसृषु दिक्षु एकैकस्यां दिशि एकैकभावेन चत्वारि द्वाराणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- पूर्वेण पूर्वस्यामेवं दक्षिणस्यां पश्चिमायामुत्तरस्याम् / तत्र पूर्वस्यां दिशि द्वारं देवद्वारं देवनामकस्य तदधिपतेस्तत्र भावादेवं दक्षिणस्यामसुरद्वारं पश्चिमायां नागद्वारम्, उत्तरस्यां सुवर्णद्वारम्। (तत्थेत्यादि) तत्र तेषु चतुर्यु द्वारेषु यथाक्रम चत्वारो देवा महर्द्धिका यावत्पल्यो-पमस्थितयः परिव-सन्ति। तद्यथा (देवेत्यादि) पूर्वद्वारे देवा देवनामा दक्षिणद्वारे असुरनामा पश्चिमद्वारे नागनामा उत्तरद्वारे सुवर्णनामा (ते णं दारा इत्यादि) तानि द्वाराणि षोडशयोजनानि प्रत्येकमूर्ध्वमुच्चैस्त्वेन अष्टौ योजनानि विष्कम्भतः (तावइयं चेवत्ति) तावन्त्येव अष्टावेव योजनानीति भावः, प्रवेशेन / (सेयावर-कणगथूमिया इत्यादिवर्णकः विजयद्वारस्येवेति विजयदारशब्दे भावयिष्यते) तत्थ णं जेसिं पुरच्छिमिल्लणं अंजणपव्वते तस्सणं चउद्दिसिं चत्तारि नंदापुक्खरिणीओ पन्नत्ताओ। तंजहाणंदोत्तरा य गंदा आणंदा णंदिवद्धणा / ताओ णंदापुक्खरिणीओ एगमेगं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं दसजोयणाई उव्वेहेणं अच्छाओ सहाओ पत्तेयं पत्तेयं पउमवरवेतिया पत्तेयं पत्तेयं वणसंडपरिक्खित्ता तत्थ तत्थ जाव तिसोपाणपडिरूवगा तोरणा तासिं गं पुक्खरिणीणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं दहिमुहपव्वए पण्णत्ते / ते णं दहिमुहपव्वया चउसर्टि जोयणसहस्साई उड्ढे उच्चत्तेणं एग जोयणसहस्सं उव्वेहेणं सव्वत्थ समा पल्लगसंठाणसंठिता दसजोयणसहस्साई विक्खम्भेणं एकतीसं जोयणसहस्साइं छच्च तेवीसजोयणसए परिक्खेवेणं पण्णत्ता / सव्वरययामता अच्छा जाव पडिरूवा, पत्तेयं पत्तेयं पउमवरवेतिया वणसंडवणेण उ बहुसमरमणीय० जाव आसयंति। सिद्धाययणं तं चेव पमाणं, तं अंजणपव्वएसु वत्तव्वया निरवसेसा भाणियव्वा जाव उप्पि अट्ठमंगलया। तत्र तेषु चतुर्षु अञ्जनपर्वतेषु मध्ये योऽसौ पूर्वदिग्भावी अञ्जनपर्वतस्तस्य चतुर्दिशि चतसृषु दिक्षु एकै कस्यां दिशि एकै कनन्दापुष्करिणीभावेन चतस्रो नन्दापुष्करिण्यः प्रज्ञप्तास्तद्यथापूर्वस्यां दिशि नन्दिषेणा दक्षिणस्याममोघा अपरस्यां गोस्तूपा उत्तरस्यां सुदर्शना / ताश्च पुष्करिण्य एकं योजनशतसहस्रमायामविष्कम्भाभ्यां त्रीणि योजनशतसहस्राणि षोडश सहस्राणि द्वे शते सप्तविंशत्यधिक योजनानि,त्रीणि गव्यूतानि,अष्टाविंशं धनुःशतं, त्रयोदश अगुलानि, अर्धांगुलं च किंचिद्विशेषाधिकं परिक्षेपेण प्रज्ञप्ताः / दश योजनानि उद्वेधेन "अच्छाओ सोहाओ रययमयकूलाओ इत्यादि" जगत्युपरि पुष्करिणीवन्निरवशेषं वक्तव्यं नवरं "वट्टाओ समतीराओ खोदोदगपडिपुण्णगाओ।" Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंजणग 49 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंजणग इति विशेषः। ताश्च प्रत्येक प्रत्येकं पद्मवरवेदिकया परिक्षिप्ताः प्रत्येक प्रत्येकं वनखण्डेन परिक्षिप्ताः। अत्रापीदमन्यदधिकं पुस्तकान्तरे दृश्यते "तासिणं पुक्खरिणीणं पत्तेयं पत्तेयं चउद्दिसिं चत्तारिवणसंडा पन्नत्तातं जहा पुरच्छिमेणं दाहिणेणं अवरेण उत्तरेणं पुव्वेणं असोगवणंजाव भूयवणं उत्तरे पासे " एवं शेषाञ्जन-पर्वतसंबन्धिनीनामपि नन्दापुष्करिणीनां वाच्यम्। (तासि णमित्यादि) तासांपुष्करिणीनां बहुमध्यदेशभागे प्रत्येक प्रत्येकं दधिमुखो दधिमुखनामा पर्वतः प्रज्ञप्तः (ते णमित्यादि) ते दधिमुखपर्वताश्चतुःषष्टियोजनसहस्राणि ऊर्ध्वमुचैस्त्वेन एकं योजनसहस्रमुद्वेधेन सर्वत्र समाः पल्यसंस्थानसंस्थिताः / दशयोजनसहस्राणि विष्कम्भेन, एकत्रिंशद्योजनसहस्राणि षत्रयोविंशानि / त्रयोविंशत्यधिकानि षट्योजनशतानि (31,623) परिक्षेपेण प्रज्ञप्ताः / सर्वात्मना स्फटिकमया अच्छा यावत्प्रतिरूपाः प्रत्येकं प्रत्येकं पावरवेदिकया परिक्षिप्ताः प्रत्येकं 2 वनखण्डेन परिक्षिप्ताः(तेसि णमित्यादि) तेषां दधिमुख- पर्वतानामुपरि प्रत्येक बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञाप्तः। तस्य च वर्णनं तावद्द्वक्तव्यं यावद्वहवो "वाणमन्तरा देवा देवीओ य आसयंति सयंति जाव विहरंति''(तेसि णमित्यादि)तेषां बहुसभरमणीयानां भूमिभागानां बहुमध्यदेशभागे प्रत्येकं प्रत्येकं सिद्धायतनं प्रज्ञप्तं सिद्धायतन-वक्तव्यता प्रमाणादिका अञ्जनकपर्वतोपरि सिद्धायतनवद्वक्तव्या यावदष्टशतं प्रत्येकं प्रत्येक धूपकडच्छुकानामिति। तत्थणंजे से दक्खिणिल्लेणं अंजणपव्वए, तस्स णंचउद्दिसिं चत्तारिणंदापुक्खरिणीओ पन्नत्ताओ। तंजहा- भद्दाय विसाला य, कुमुया य, पुंडरीगिणी य / तं चेव तहेव दहिमुहपव्वया। तं चेव पमाणं जाव सिद्धायतणे। (तत्थ णं जे से दाहिणिल्ले णं अंजणगपव्वए इत्यादि) दक्षिणाञ्जनकपर्वतकस्यापि पूर्वदिग्भाव्यञ्जनकपर्वतस्येव निरवशेष वक्तव्यं, नवरं नन्दापुष्करिणीनामिमानि नामानि / तद्यथा- पूर्वस्यां नन्दोत्तरा, दक्षिणस्यां नन्दा, अपरस्यामानन्दा, उत्तरस्यां नन्दिवर्द्धना। शेषं तथैव। तत्थ णं जे से पच्चच्छिमेणं अंजणपव्वए, तस्स णं चउद्दिसिं चत्तारि नंदापुक्खरिणीओ पण्णत्ताओ। तं जहा- णंदिसिणा य अमोहाय गोत्थुभाय सुदंसणा यातं चेव सव्वं भाणियव्वं जाव सिद्धाययणं / तत्थ जे से उत्तरिल्ले अंजणपव्वते, तस्स णं चउद्दिसिं चत्तारिनंदापुक्खरिणीओपण्णत्ताओ। तंजहा-विजया वेजयंती जयंती अपराजिता सेसंतहेव जाव सिद्धाययणा सव्वो चेति य वण्णणा णेयव्वा / तत्थ णं बहवे भवण वइवाणमंतरजोतिसवेमाणिया देवा चाउम्मासिय-पडिवएसु संवच्छरेसु य अण्णेसु बहुजिणजम्मण निक्खमणणाणुप्पातपरिणिव्वाणमादिएसु य देव-कन्जेसु य देवसमुदाएसु य देवसमितीसु य देवसम-वाएसु य देवपओयणेसु य एमंतओ संहिया समुवागया समाणा पमुदितपकीलिया अट्ठ हियाओ महामहिमाओ कारेमाणा पालेमाणा सुहं सुहेण विहरंति। कयस्सासहरिवाहणा य तत्थ दुवे देवा महिड्डिया जाव पलिओवमद्वितिया परिवसंति।से तेणटेणं गोयमा ! जाव निचे जोतिसं संखेनं। पूर्वदिग्भाव्यञ्जनकपर्वतस्येव पश्चिमदिग्भाव्यञ्जनकपर्वत-स्यापि वक्तव्यं यावत्प्रत्येक प्रत्येकमष्टशतं धूपकडुच्छुकानां नवरं नन्दापुष्करिणीनां नामनानात्वं, तद्यथा- पूर्वस्यां भद्रा दक्षिणस्यां विशाला अपरस्यां कुमुदा उत्तरस्यां पुण्डरीकिणी / शेषं तथैव / एवमुत्तरदिग्भाव्यञ्जनकपर्वतेऽपि वक्तव्यं नवरमत्राऽपि नन्दापुष्करिणीनां नामनानात्वं, तद्यथा- पूर्वस्यां दिशि विजया दक्षिणस्यां वेजयन्ती अपरस्यां जयन्ती उत्तरस्यामपराजिता शेषं तथैव यावत्प्रत्येक प्रत्येकमष्टशतं धूपकडुच्छुकानामिति / षोडशानामपि चामूषां वापीनामपान्तराले प्रत्येक प्रत्येकं रतिकरपर्वती जिनभवनमण्डितशिखरौ शास्त्रान्तरे अभिहिता-विति / सर्वसंख्यया नन्दीश्वरद्वीपे द्वापञ्चाशत्सिद्धायतनानि (तत्थ णमित्यादि) तत्र तेषु सिद्धायतनेषु णमिति पूर्ववत् बहवो भवनपतिवाणमन्तराज्योतिष्कवैमानिका देवाश्चातुर्मासिकेषु पर्युषणायामन्येषु च बहुषु जिनजन्मनिष्क्रमणज्ञानोत्पाद-परिनिर्वाणादिषु देवकार्येषु देवसमितिषु, एतदेव पर्यायद्वयेन व्याचष्टे- देवसमवायेषु देवसमुदायेष्वागताः प्रमुदितप्रक्रीडिता अष्टाहिकारूपा महामहिमाः कुर्वन्तः सुखं सुखेन विहरन्ति, आसते। (अङ्गुत्तरं चणं गोयमा ! इत्यादि) अथाऽन्यत् गौतम ! नन्दीश्वरवरद्वीपे चक्रवालविष्कम्भेन बहुमध्यदेशभागे चतसृषु दिक्षु एकैकस्यां विदिशि एकैकभावेन चत्वारो रतिकरपर्वताः प्रज्ञप्ताः। तद्यथाएक उत्तरपूर्वस्यां, द्वितीयो दक्षिणपूर्वस्या, तृतीयो दक्षिणा-ऽपरस्यां, चतुर्थ उत्तराऽपरस्याम् / ते णं इत्यादि, ते रतिकरपर्वता दशयोजनसहस्राणि ऊर्ध्वमुच्चैस्त्वेन एकयोजनसहस्रसमुद्वेधेन सर्वत्र समा झल्लरीसंस्थानसंस्थिता दशयोजनसहस्राणि विष्कम्भेन एकत्रिंशद्योजनसहस्राणि षट्त्रिंशानि योजनशतानि (31,630) परिक्षेपेण सर्वात्मना रत्नमया अच्छा यावत् प्रतिरूपाः / तत्र योऽसावुत्तरपूर्वो रतिकरपर्वतस्तस्य चतुर्दिशि चतसृषु दिक्षु एकैक राजधानीभावेन ईशानस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य चतसृणा-मग्रमहिषीणा जम्बूद्वीपप्रमाणाः चतस्रो राजधान्यः प्रज्ञप्तास्तद्यथा- पूर्वस्यां दिशि नन्दोत्तरा दक्षिणस्यां नन्दा पश्चिमायामुक्तरकुरा उत्तरस्यां देवकुरा / तत्र कृष्णायाः कृष्णनामिकाया अग्रमहिष्या नन्दोत्तरा, कृष्णराज्या नन्दा, रामाया उत्तरकुरा, रामरक्षिताया देवकुरा / तत्र योऽसौ दक्षिणपूर्वो रतिकरपर्वतस्तस्य चतुर्दिशि शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य चतसृणामग्रमहिषीणां जम्बूद्वीपप्रमाणा-श्वतस्रो राजधान्यः प्रज्ञप्तास्तद्यथा- पूर्वस्यां सुमनाः,दक्षिणस्यां सौमनसा,अपरस्यामर्चिमाली, उत्तरस्यां मनोरमा / तत्र पद्मायाः पद्मनामिकाया अग्रमहिष्याः सुमनाः, शिवायाः सौमनसा, सोमाया अर्चिमाली, अञ्जुकाया मनोरमा / तत्र योऽसौ दक्षिणपश्चिमो रतिकरपर्वतस्तस्य चतुर्दिशि शक स्य देवराजस्य / चतसृणा-मग्र महिषीणां जम्बूद्वीपप्रमाणमात्रा-श्वतस्रो राजधान्यः प्रज्ञप्ता-स्तद्यथा- पूर्वस्यां दिशि भूता, दक्षिणस्या भूतावतंसा, अपरस्यां गोस्तूपा, उत्तरस्यां सुदर्शना / तत्र अमलाया अमल-नामिकाया अगृमहिष्या भूता राजधानी, अप्सरसोभूता-वसन्तिका, नवमिकायार्गा स्तूपा, रोहिण्याः सुदर्शना। तत्र योऽसावुत्तरपश्चिमो रतिकरपर्वतस्तस्य चतुर्दिशि ईशानस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य चतसृणामग्रमहिषीणां जम्बूद्वीपप्रमाणाश्चतस्रो राजधान्यः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-पूर्वस्यां दिशि रत्ना, दक्षिणस्यां रत्नोचया, अपरस्यां सर्वरत्ना,उत्तरस्यां रत्नसञ्चया। तत्र Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंजणग 50 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 रत्नवसुनामिकाया अग्रमहिष्या रत्ना, वसुप्राप्ताया रत्नोच्चया, वसुमित्रायाः सर्वरत्ना, वसुन्धरायाः सर्वसञ्चया। इयं रतिकरपर्वतचतुष्टयवक्तव्यता / के षुचित् पुस्तकेषु सर्वथा न दृश्यते / कैलासहरिवाहननामानौ च द्वौ देवौ तत्र यथाक्रम पूर्वा - ऽर्धाऽपरार्धाऽधिपती महर्द्धिकौ यावत् पल्योपमस्थितिकौ परिवसतस्तत एवं नन्द्या समृद्ध्या / टुनदि समृद्धाविति वचनात्। ईश्वरः स्फातिमान्न तु नाम्ने ति नन्दीश्वरः / तथाचाह- से एएण-ऽढे णमित्यादि उपसंहारवाक्यं प्रतीतं चन्द्रादिसंख्यासूत्रं प्राग्वत्। जी०३ प्रति० स० वनस्पतिविशषे, रा०। दो अंजणा / स्था० 2 ठा०। वायुकुमारेन्द्राणां तृतीये लोकपाले, भ०३ श० 8 उ० अंजण(णा)गिरि-पुं०(अञ्जनगिरि) कृष्णवर्णपर्वतविशेषे, ज्ञा०८ अ०) मन्दरपर्वते भद्रशालवने व्यवस्थिते चतुर्थे दिग्घस्ति-कूटे, स्था० 8 ठा०। तदधिपे देवे च। जं० 4 वक्ष०। (वर्णनं दिसाहत्थि-शब्दे) अंजणजोग-पुं०(अञ्जनयोग) सप्तविंशकलाभेदे, कल्प० / अंजणपुलग-पुं०(अञ्जनपुलक) रत्नभेदे, रा०ा आ० म० प्र० रत्नप्रभायाः पृथिव्याः खरकाण्डस्य एकादशे भागे, स्था०१० ठा०। मन्दरस्य पूर्वे रुचकवरे पर्वते व्यवस्थितेऽष्टमे कूटे। स्था० 8 ठा० / अंजणमूल-पुं०(अञ्जनमूल) रुचकपर्वतस्याष्टमे कूटे, द्वी०। अंजणरिट्ठ-पुं०(अञ्जनरिष्ट) वायुकुमाराणां चतुर्थे इन्द्रे, भ०३ श०८ उ०। अंजणसमुग्गग-पुं०(अञ्जनसमुद्गक ) सुगन्ध्यञ्जनाधारे, जी०३ प्रति०। रा०। अंजण सलागा-स्त्री०(अञ्जनशलाका)अक्ष्णो रञ्जनाऽर्थ शलाकायाम् / सूत्र०१ श्रु०५ अ० अंजणसिद्ध-पुं०(अञ्जनसिद्ध)अक्ष्णोरञ्जनविशेष- मूक्षणेनाऽदृश्यता गते, पिं० नि० चू०। (यथा सुस्थिताभिधसूरिमुखाद्योनिप्राभृतोक्तमदृशीकरणमञ्जनं श्रुत्वा क्षुल्लकद्वयेना-ऽदृश्य भूत्वा चन्द्रगुप्ताऽऽहारो भुक्तः इत्यादि चुण्ण-शब्दे) अंजणा-स्त्री०(अञ्जना) तृतीयनरकपृथिव्याम्। जी०३ प्रतिस्था० / प्रव०। जम्ब्वाः सुदर्शनाया अपरदक्षिणस्यां व्यवस्थितायां पुष्करिण्याम्। जं०४ वक्ष०ा जी०। अंजणिया-स्त्री०(अञ्जनिका) कज्जलाधारभूतायां नलिकायाम्। सूत्र०१ श्रु०४ अ०। अंजलि(ली)-स्त्री०पुं०(अञ्जलि-पुं०) अञ्ज-अलि / वेमाञ्जल्याद्याः स्त्रियाम्। 8/1 // 35 // इति प्राकृतसूत्रेण वास्त्रीत्वम् / प्रा० ।मुकुलितकमलाकारकरद्वयरूपे। जं०३ वक्ष०ा हस्तन्यासविशेषे, रा०ा भला चं० प्र०ादो वि हत्था मउलकमल-संठिया अंजली भण्णति / नि० चू० 1 उ०। मुकुलितहस्त-योर्ललाटसंश्रये, "एगेण वा दोहिं वा मउलिएहिं हत्थेहिं णिडालसंसितेहिं अंजली भण्णति '' / नि० चू० 5 उ०ा द्वयो- हस्तयोरन्योन्यानन्तरिताडगुलिकयोः संपुटरूपतया एकत्र मीलने च / जी० 3 प्रति०1 आ० म०प्र०प्रश्नादौ क्रियमाणे कायिकविनयभेदे, अञ्जलिप्रणामादौ, यदि पुनः कथमप्येको हस्तः क्षणिको भवति, तदैकतरं हस्तमुत्पाट्य- नमः क्षमाश्रमणेभ्य इति / वक्तव्यम्। व्य० 1 उ० / द्वा०ा दश०। अंजलिपग्गह-पुं०(अञ्जलिप्रग्रह) हस्तजोडने, ज्ञा० 1 अ० / अञ्जलिकरणरूपे विनयविशेषे,भ०१४ श०३ उ० प्रवल सम्भोगभेदे च। स०। (संभोग-शब्दे निरूपणम्) अंजलिबंध-पुं०(अञ्जलिबन्ध) करकुड्मलस्य शिरसि विधाने, दर्श०। अंज(स् )-न०(अञ्जस्) अनक्ति गच्छति मिश्रयति वाऽनेन, 'अञ्जु गतौ मिश्रणेच असुन वेगे, बले, औचित्येच। अञ्जस उपसंख्यानमिति' वार्तिकात् तृतीयायाः अलुक् / अञ्जसाकृतम् / वाच०। प्रगुणे, न्याये, विशे। अंजिय-त्रि०(अजित) अजि-क्ता कज्जलेन मूक्षिते, "ते अंजियक्खा तिलए य ते कए "नि० चू०१ उ०॥ अंजु-त्रि०(ऋजु) प्रगुणे, अकुटिले, "अप्पणो य वियक्खाहिं अयमंजूहिं दुम्मई"। आचा०१ श्रु०५ अ० मायाप्रपञ्चरहित-त्वादवक्रे, "अंजुधमंजहा तच्चं जिणाणं तं सुणेह में'। सूत्र०१ श्रु० 6 अ०। संयमे प्रगुणे अव्यभिचारिणि। सूत्र०१ श्रु०१ अ०। आचा०। व्यक्ते, सूत्र०२ श्रु०१ अ० निर्दोषत्वात् प्रकटे, सूत्र०२ श्रु०७ अ०। अंजुआ-स्त्री०(अञ्जुका) अरनाथस्य प्रथमशिष्यायाम्। स०। अंजू-स्त्री०(अजू)धनदेवसार्थवाहदुहितरि,तद्वक्तव्यता विपाकश्रुते दुःखविपाकानां दशमेऽध्ययने श्रूयते। स्था०१०ठा०। जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं दसमस्स उक्खेवओ, एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं वद्धमाणपुरेणामे णयरे होत्था। विजयवद्धमाणे उजाणे मणिभद्दे जक्खे विजयमित्ते राया। तत्थ णं धणदेवणामे सत्थवाहे होत्था। अड्ढे पियंगुभारिया अंजूदारिया जाव सरीरा / समोसरणं परिसा णिग्गया जाव पडिगया। तेणं कालेणं तेणं समएणं जेटे० जाव अडमाणे जाव विजयमित्तस्स रण्णो गिहस्स असोगवणियाए अदूर-सामंतेणं वीईवयमाणे पासइ पासइत्ता एगं इत्थियं सुक्क भुक्खं णिम्मंसं कि डिकि डिभूयं अट्टिचम्मावणद्धं णीलसालगणियत्थं कट्ठई कलुणाई विस्सराई कूयमाणं पासइ पासइत्ता चिंता तहेव जाव एवं वयासी एस णं भंते। इत्थिया पुव्वभवे का आसी? वागरणं एवं खलु गोयमा ! अज्वाः पूर्वभवःतेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबूदीवेदीवे भारहे वासे इंदपुरे णाम णयरे तत्थ णं इंददत्ते राया पुढवि-सिरिणाम गणिया वण्णओ। तए णं सा पुढविसिरि-गणिया इंदपुरे णयरे बहवे राईसर० जाव प्पभिइओ बहुहिं चुण्णप्पयोगेहि य जाव अभिओ गित्ता उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ / तएणं सा पुढविसिरिगणिया एए कम्माए य सकम्मा 4 सुबहुं पावं समजिणित्ता पण्णत्तीसं वाससयाइं परमाउस पालित्ता कालमासे कालं किच्चा छट्ठीए पुढवीए उक्कोसे णे रइयत्ताए उववण्णा 1 सा णं तओ उध्वट्टित्ता, Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंजू 51 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंड अज्वा वर्तमानभवः। तद्वक्तव्यताप्रतिबद्धे कर्मविपाकानां दशमेऽध्ययने च। स्था० 10 ठा०। इहेव वद्धमाणे णयरे धणदेवस्स सत्थवाहस्स पियंगुभारियाए शक्रस्य चतुर्थ्यामग्रमहिष्यांचा स्था०८ ठा०। सा च पूर्वभये हस्तिनापुरे कुच्छिंसिदारियत्ताए उप्पण्णा। तएणं सा पियंगुभारिया णवण्हं पद्माद् विजयायामुत्पन्ना पाऽर्हतोऽन्तिके प्रव्रजिता शक्रस्याग्रमहिषी मासाणं दारियंधयाणं णामं अंजू सेसं, जहा- देवदत्ताए। तए / जाता। स्थितिः सप्तपल्योपमा महाविदेहेऽन्तं करिष्यति, तत्प्रतिपादके णं से विजये राया आसवाहणियाए णिज्जायमाणे जहा वेसमणदत्ते ज्ञाताधर्मकथायाः द्वितीयश्रुतस्कन्धस्य नवमवर्गस्य चतुर्थेऽध्ययने च। तहा अंजू पासइ णवरं अप्पणो अट्ठावए वरेइ, जहा- तेतली ज्ञा०२ श्रु जाव अंजए दारियाए सद्धिं उप्पिं जाव विहरइ / तए णं तीसे | अंड-न० अण्ड) अडन्ति सम्प्रयोगं यान्ति अनेनेति अम-ड. अंजूदेवीए अण्णया जोणीसूले पाउन्भूए यावि होत्था। तए णं टवर्गादित्वेऽपि डस्य नेत्त्वम् / पुंसोऽवयवभेदे मुष्के, वाच॥ से विजये राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ सद्दावेइत्ता एवं वयासी पिपीलिकादीनां डिम्बे, बृ० 4 उ०। आचा०। चतुरिन्द्रियकीटगच्छह णं देवा० वद्धमाणपुरे णयरे सिंघाडग जाव एवं वयह एवं विशेषनिवर्तितकोशाऽऽकारे, विशे। ज्ञाताधर्मकथायाः प्रथमखलु देवा० विजए अंजूए देवीए जोणीसूले पाउब्भूए जो णं श्रुतस्कन्धस्य मयूराऽण्डकवक्तव्यताप्रतिबद्धे तृतीयेऽध्ययने। ज्ञा०१ इच्छसि वा 6 जाव उग्घोसइ / तए णं से बहवे वेज्जा वा 6 इम अ०। आव०। प्रश्ना स01 आ० चू०। एयारूवं सोचा णिसम्म जेणेव विजए राया तेणेव उवागच्छइ तत्कथानकं चैवम्। उवा-गच्छइत्ता अंजूए देवीए बहवे उप्पत्तियाहिं 5 बुद्धिहिं परिणामेमाणा इच्छंति। अंजूए देवीए जोणीसूले उव-सामित्तए। जइणं भंते। समणेणं भगवया महावीरेणं जाव एवं खलु जंबू ! णो संचाएइ उवसामित्तए / तए णं ते बहवे विज्जा य जाहे णो तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नयरी होत्था वण्णओ। संचाएइ अंजूए देवीए जोणीसूले उवसामित्तए ताहे संता तंता | तीसे णं चंपाए नयरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए जामेव दिसं पाउन्भूए तामेव दिसं पडिगया। तए णं सा अंजू सुभूमिभागे णामं उज्जाणे सव्वओ य सुरम्मे णंदणवणे इव देवी ताए वेयणाए अभिभूया समाणी सुक्का मुक्खा णिम्मंसा / सुहसुरभिसीयलच्छायाए समणुबद्धे / तस्स णं सुभूमिभागस्स कट्ठाई कलुणाई वीसराइं विलवइ / एवं खलु गोयमा ! अंजू | उज्जाणस्स उत्तरे एगदेसम्मिमालूया कच्छए होत्था वण्णओ। देवी पुरा जाव विहरइ। अंजू णं भंते ! देवी कालमासे कालं तत्थणं एगा वणमयूरी दो पुढे परियागते पिट्ठउंडी पंडुरे णिव्वणे किचा कहिं गच्छिहिति कहिं उववज्जिहिति? गोयमा ! जहा | निरुवहए मिन्नमुट्ठिप्पमाणे मयूरी अंडए पसवइ / सएणं तेयलित्ति। पक्खवाएणं संरक्खमाणी संगोवेमाणी संचिढेमाणी विहरइ / ज्ञाताधर्म्मकथायां यथा तेतलिसुतनामा आमात्यः पोट्टिला-ऽभिधानां तत्थ णं चंपाए णयरीए दुवे सत्थवाहदारगा परिवसंति। तंजहा कलादस्तषिकादारश्रेष्ठि सुतामात्मार्थ याचयित्वा-ऽऽत्मनैव जिणदत्तपुत्ते य सागरदत्तपुत्ते य / सह जायया सह वढियया परिणीतवानेवमयमपीति दशमाध्ययनविवरणम् / सह पंसुकीलिया सह दारदरिसी अन्नमन्नमणु रत्तया अण्णमण्णमणुव्वयया अण्णमण्णच्छंदाणुवत्तया अण्णमण्णअज्वा भविष्यद्भवः। हिययइच्छियकारया अण्णमण्णेसु गिहेसु किच्चाई करणिज्जाइं अंजू णं देवीणउइवासाइं परमाउयं पालइत्ता कालमासे कालं पचणुब्मवमाणा विहरंति। तए णं तेसिं सत्थवाहदारगाणं किचा इमीसे रयणप्पभाए णेरइयत्ताए उववण्णे / एवं संसारो अण्णया कयाई एगओ सहियाणं समुवगयाणं सण्णिसण्णाणं जहा पढमो तहा णेयव्वं जाव वणस्सईसाणं / तओ अणंतरे सण्णि-चिट्ठाणं एमेयारूवे मिहोकहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था उव्वट्टित्ता सव्वओभद्दे णयरे मयूरत्ताए पञ्चायाहिति / से णं जेणं देवाणुप्पिया अम्हं सुहं वा दुहं वा पव्वज्जं वा विदेसगमणं तत्थ साउणिएहिं वहिए समाणे तत्थेव सव्वओभद्दे णयरे वा समुप्पज्जति तेणं अम्हे एगओ समेच णिच्छरियव्वं तिकट्ठ सेविकुलंसि पुत्तत्ताए पञ्चा-याहिति से णं तत्थ उम्मुक्क० अण्णमण्णं एयारूवं संकेयं सुणंति सकम्मसंपउत्ता जाया वि तहारूवाणं थेराणं अंतिए के वलिं बोहिं बुज्झिहिति होत्था / तत्थ णं चंपाए नयरीए देवदत्ता नामं गणिया बुज्झिहितित्ता पवज्ज सोहम्मे / से णं ताओ देवलोगाओ परिवसति, अड्ढा जाव भत्तपाणा चउसट्ठिकलापंडिया आउक्खएणं 3 कहिं गच्छि-हिंति कहिं उववज्जिहिति ? चउसहिगणिया-गुणोववेया अउणतीसं विसेसरममाणी गोयमा ! महाविदेहे वासे जहा पढमे जाव सिज्झिहिति जाव एक्कतीसरहगुणप्प-हाणा बत्तीसं पुरिसोवयारकु सला अंतं काहिति / एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं / णवंगसुत्तपडिबोहिया अट्ठारस देसीभासाविसारया दुहविवागाणं दसमस्स अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते / सेवं सिंगारागारचारुवेसा संगयगयहसिय भणियविहियविलासभंते ! भंते ! त्ति / विपा०१०अ०। ललियसंलावनिउणजुत्तोवयारकुसला ऊसियज्झयासहस्स Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंड 52 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंड लंभा विदिण्णछत्तचामरवालवीयाणिया कण्णीरहप्पयायी वि होत्था / बहूणं गणियासहस्साणं आहेवचं जाव विहरति / तए णं तेसिं सत्थवाहदारयाणं अण्णया कयाई पुव्वावरण्हकालसमयंसि जिमियभुत्तुत्तरागयाणं समाणाणं आयत्ताणं चोक्खाणं परमसूइभूयाणं सुहासणवरगयाणं इमे यारूवे मिहो कहासमुल्लावे समुप्पजित्था। से णं खलु देवाणुप्पिया कल्लं जाव जलंते विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उक्खडावेत्तातं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं धूवपुप्फगंधवत्थं गहाय देवदत्ताए गणियाए सद्धिं सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स उज्जाणसिरिं पञ्चणुब्भवमाणा णं विहरत्तए तिकट्टु अण्णमण्णस्स एयमढे पडिसुणेइ पडिसुणेइत्ता कल्लं पाउन्भूए कोडुंबियपुरिसे सद्दावेति सद्दावेइत्ता एवं वयासी- गच्छ णं तुब्भे देवाणुप्पिए विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडेह, उवक्खडावेत्ता तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं धूवपुप्फ गहाय जेणे व सुभूमिभागे जेणेव णंदापुक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता गंदाए पुक्खरिणीए अदूरसामंते थूणा मंडवं आहणह, आसियसमज्जिओवलित्तं सुगंधं जाव कलियं करेह, अम्हे पडिवालेमाणा चिट्ठह / तए णं से सत्थवाहदारणा दोचं पि कोडुंबियपुरिसे सहावेति, सद्दावेइत्ता एवं वयासी खिप्पामेव लहुकरणजुत्तजोइयं समरखुरवालिहाणं समलिहियतिक्खपसंगहिएहिं रययामयघंटसुत्तरज्जुयपवरकंचणखचियणत्थवग्गहोवग्गहिएहिं नीलोप्पलकयामेलएहिं पवरगोणजुवाणएहिं णाणामणिरयणकं चणघंटियाजालपरिक्खित्तं पवरलक्खणोवचियं जुत्तामेव पहाणं उवणेह / ते वि तहेव उवणे ति / तए णं से सत्थवाहदारगा व्हाया जाव सव्वसरीरपवहणं दुरुहंति जेणेव देवदत्ताए गणियाए गिहे तेणेव उवागच्छति / पवहणाओ पचोरुहंति देवदत्ताए गणियाए गेहूं अणुपविसंति / तए णं सा देवदत्ता गणिया ते सत्थवाहदारगा एज्जमाणे पासइ पासइत्ता हट्ठतुट्ठा आसणाओ अब्भुढेति, अब्भुद्वित्ता सत्तकृपयाइं अणुगच्छं ति अणुगच्छ इत्ता ते सत्थवाहदारए एवं वयासी- संदिसह णं तुमं देवाणुप्पिया किमागमणप्पओयणं? तएणं ते सत्थवाहदारगा देवदत्तं गणियं एवं वयासी- इच्छामो णं देवाणुप्पिए तुभे हिं सद्धिं सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स उज्जाणसिरिं पचणुब्भवमाणा विहरित्तए। तए णं सा देवदत्ता गणिया तेसिं सत्थवाहदारगाणं एयम४ पडिसुणेति, पडिसुणेतित्ता ण्हाया कयबलिकम्मा किं ते पवर० जाव सिरिसमाणवेसा जेणेव सत्थवाहदारए तेणेव उवागच्छति। तएणं से सत्थवाहदारगादेवदत्ताए गणियाए सद्धिं जाणं दुरुहंति, चंपाए नयरीए मज्झं मज्झेणं जेणेव सुभूमिभागे उज्जाणे जेणेव नंदापोक्खरिणी तेणेव उवागच्छति, उवागच्छं तित्ता पवहणतो पचोरुहंति, णंदापोक्खरिणी ओग्गहंति, जलमज्जणं करें ति, जलक्कीडं करें ति, ण्हाया देवदत्ताए सद्धिं पचोरुहंति, जेणेव थूणामंडवे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छ तित्ता अणुप्पविसंति / सव्वालंकारविभूसिया आसत्था वीसत्था सुहासण-वरगया देवदत्ताए गणियाए सद्धिं तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइम धूवपुप्फगंधवत्थं आसाएमाणा विसाएमाणा परिमुंजइ, एवं च णं विहरंति / जिमियमुत्तोत्तरागया देवदत्ताए गणियाए सद्धिं विपुलाइं माणुस्सगाई कामभोगाई मुंजमाणा विहरंति / तए णं से सत्थवाहदारया पुव्वावरण्हकालसमयंसि देवदत्ताए गणियाए सद्धिं थूणामंडवाओ पडिनिक्खमंति, हत्थसंगलिए सुभूमिभागे बहूसु आलियघरेसु य कयलीघरे सु य लयाघरे सु य अच्छणघरेसु य पेच्छणघरेसु य पासणघरेसु य मोहणघरेसु य सालघरेसु य जालघरेसु य कुसुमघरेसु उज्जाणसिरिं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति। तए णं ते सत्थवाहदारया जेणेव से मालुया कच्छे तेणेव पहारेत्थगमणाए। तए णं सा वणमयूरी ते सत्थवाहदारए एज्जमाणे पासति, पासतित्ता भीया तत्था महया महया सद्देणं के कारवं विणिमुयमाणा मालुया कच्छाओ पडिनिक्खमइ। एगंसि रुक्खडालियं ठिचा ते सत्थवाहदारए मालुयाकच्छे यं च पविसमाणा अणिमिसदिट्ठीए पेहमाणी चिट्ठइ। तएणं ते सत्थवाहदारए अण्णमण्णं सदावेइ, सद्दावेइत्ता एवं वयासी- जहा णं देवाणुप्पिया एसा वणमयूरी अम्हे एज्जमाणे पासित्ता भीया तत्था तसिया उद्विग्गा पलाया महया महया सद्धेणं जाव अम्हे मालुया कच्छगं च पेहमाणी पेहमाणी चिट्ठति। तं भवियव्व-मेत्थकारणेणं तिकटु मालुया कच्छगं अंतो अणुप्पविसंति / तत्थ णं दो पुढे परियागए जाव पासेत्ता अण्णमण्णं सद्दावेति, सद्दावेइत्ता एवं वयासी- तं सेयं खलु देवाणुप्पिया !अम्हे इमे वणमयूरी अंडए, सा णं जाइमंताणं कुक्कडियाणं अंडए सुपक्खि-वावेत्तए / तए णं ताओ जाइमंताओ कुक्कडियाओ एए अंडए य सएणं पक्खवाएणं सारक्खमाणीओ संगोवेमाणीओ विहरि-स्संति। तए णं अम्ह एत्थ दो कीलावणगा मयूरीपोयगा भविस्संति त्तिक अण्णमण्णस्स एयमद्वं पडिसुणइ पडिसुणेत्ता सए सए दासचेडए सद्दावेइ, सद्दावेइत्ता एवं वयासी- गच्छहणं तुन्भे देवाणुप्पिया! इमे अंडए गहाय सयाणं जाइमंताणं कुक्कडीए अंडएसु पक्खिवह, जाव ते वि पक्खिवंति / तए णं ते सत्थवाहदारगा देवदत्ताए गणियाए सद्धिं सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स उज्जाणसिरिं पचणुब्भवमाणा विहरेत्ता तमेव जाणं दुरूढा समाणा जेणेव चंपानयरी जेणेव देवदत्ताए गणियाए गिहे तेणेव Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंड 53 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंडकड उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता देवदत्ताए गिहे अणुप्पविसंति, | करेमाणे विहरति / तए णं ते मयूरपोसगा तं मयूरपोयगं देवदत्ताए गणियाए विपुलं जीवियारिहं पीतिदाणं दलयंति, उम्मुक्कबाल० जाव करेमाणे पासित्ता तं मयूरपोयगं गिण्हंति, सक्कारेंति, सम्माणे ति, देवदत्ताए गिहाउ पडिणिक्खमंति, गिण्हतित्ता जिणदत्तउत्ते उवणेति / तए णं से जिणदत्तउत्त पडिणिक्खमंतित्ता जेणेव सयाइं गिहाई तेणेव उवागच्छंति सत्थवाहदारए मयूर-पोयगं उम्मुक्क० जाव करेमाणं पासित्ता सकम्मसंपडित्ता जाया वि होत्था। तत्थ णं जे से सागरदत्तपुत्ते हट्ठतुढे तेसिं विउलं जीवियारिहपीयदानं दलइ पडिविसज्जेइ। सत्थवाहे से णं कल्लं जाव जलंते जेणेव से वणमयूरीअंडए तए णं से मयूरपोयए जिणदत्तपुत्तेणं एगाए चप्पुडियाए कयाए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता तंसि मयूरीअंडयंसि संकिए समाणीए णं गोला भंगसिरोधरे सेयावगे उत्तरीयपइण्णपक्खे कंखिए वितिगिच्छे समावण्णे भेयसमावण्णे कलुससमावण्णे उक्खित्तचंदगा-इयकलावे केकाइयसइयं विमुच्चमाणे नच्चइ / किं णं समं ममं एत्थ कीलावणमयूरीपोयए भविस्संति ? उदाहु तएणं से जिणदत्तपुत्ते तं मयूरपोयगं चंपाए णयरीए सिंघाडगे० नो भविस्संति त्तिकटु, तं मयूरीअंडयं अभिक्खणं अभिक्खणं जाव पहेसु सएहि य साहस्सिएहि य सयसाहस्सिएहि य उटवत्तेइ, परियत्तेति आसारेति संसारेति चालेति घट्टेइ पणियएहि जयं करेमाणे विहरति। एवामेव समणाउसो ! अम्हं खोभेति, अभिक्खणं अभिक्खणं कण्णमूलंसि टिट्टियावेति / पि णिग्गंथो वा णिग्गंथी वा पव्वइए समाणे पंचसु महव्वएसु तए णं से मयूरीअंडए अभिक्खणं अभिक्खणं उव्वत्तिज्जमाणे छसु जीवनिकाएसु निग्गंथे पावयणे निस्संकिए निक्कं खिए जाव टिट्टियविज्जमाणे पोचडे जाए यावि होत्था / तए णं से निव्वितिगिच्छे, से णं इह भवे बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं सागरदत्तपुत्ते सत्थवाहदारए अण्णया कयाई जेणेव से जाव वितिव्वइस्संति / एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया मयूरीअंडए तेणेव उवागच्छति, उवागच्छइत्ता तं मयूरीअंडयं महावीरेणं जाव संपत्तेणं तच्चस्स णायज्झयणस्स अयमढे पोच्चडमेव पासति, पासइत्ता अहो ! णं ममेस कीलावण पण्णत्ते त्ति बेमि / तचं णायज्झयणं सम्मत्तं / मयूरीपोच्चडए जाए त्तिक ओहयमण० जाव झियायति, एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गथे वा निग्गंथी वा आयरिय टीका सुगमत्वात् न गृहीता, नवरम् एवमेवेत्यादि उपनयनवचनउवज्झायाणं अंतिए पव्वइए समाणे पंचमहव्वएसु जाव मिति / भवन्ति चाऽत्र गाथाः - जिणवरभासियभावे, सुभाव-सव्वेसु छज्जीवनिकाएसु निग्गंथे पावयणे संकिए जाव कलुससमावण्णे, भावओ मइमं / नो कुज्जा संदेहं, संदेहोऽण्णस्थ हेओ ति // 1 // से णं इह भवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं निस्संदेहत्तं पुण, गुणहेऊ जं तओ तयं कज्जं / एत्थ दो सेट्ठिसुथा, बहूणं सावियाणं हीलणिज्जे निंदणिज्जे खिसणिज्जे अंडयगाही उदाहरणं / / 2 / / (तथा) कत्थइ मइ-दुब्बलेणं, गरहणिज्जे परिभवणिज्जे,परलोए विय णं आगच्छद, बहूणि तविहायरियविरहओ वावि। नेयग्गहणत्तणे ण, नाणावरणोदएणं दंडणाणि यजाव अणुपरियट्टति। तएणं से जिणदत्तउत्ते जेणेव च / / 3 / / हेऊदाहरणाणं, भवे य सइसुट्ठुजन बुज्झिज्जा / से मयूरीअंडए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता तसि सवण्णुमयमवितह, तह वि इति चिंतए मइमं॥ 4 // अणुवकयपराणुगह मयूरीअंडयंसि निस्संकिए सुक्त्तणं ममेत्थ कीलावेणमयूरीपोयए परायणा जं जिणा जुगप्पवरा / जिय-रागदोसमोहा, य नन्नहा वाइणो भविस्सति त्ति कटुतं मयूरी अंडयं अभिक्खणं नो उव्वट्टेइ, तेणं / / 5 / / तृतीयमध्ययनं विवरणतः समाप्तमिति / ज्ञा०३ अन जाव नो टिट्टियावेइ। तए णं से मयूरीअंडए अणुवत्तिज्जमाणे पुरिमतालनगरवास्तव्यस्य कुकुटाद्यनेकविधाऽण्डजभाण्ड्व्यवहारिणो जाव अटिट्टियाविज्जमाणे। तेणं कालेणं तेणं समएणं उज्जिपणे वाणिजकस्य निन्नकाऽभिधानस्य पापविपाक्प्रतिपादके कर्मविपाकानां मयूरीपोयए एत्थ जाए , तए णं से जिणदत्तउत्ते तं मयूरपोययं द्वितीयेऽध्यने च / स च निन्नको नरकं गतस्तत उद्धृत्याऽभग्नसेनपासइ, पासइत्ता हट्टतुट्ठयहियए मयूरीपोसए सद्दावेइ, नामा पल्लीपतिर्जातः / स च पुरिमतालनगरवास्तव्येन निरन्तरं सद्दावेइत्ता एवं वयासी-तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! इमं मयूरपोययं देशलूषणातिकोपितेन विश्वास्याऽऽनीय प्रत्येक नगरचत्वरेषु तदनतः बहूहिं मयूरपोसणपाउग्गेहिं दव्वेहि आणुपुटवेणं संरक्खेमाणे पितृव्यपितृव्यानीप्रभृतिकस्वजनवर्ग विनाश्य तिलशो मांसच्छेदनसंगोवेमाणे संवट्टेह, णट्टल्लगं च सिक्खावेह। तए णं से रुधिरमांसभोजनादिभिः कदर्थयित्वा निपातित इति विपाकश्रुते वा मयूरपोसगा जिणदत्तस्स एयमढें पडिसुणेति, पडिसुणेइत्ता तं भानसेनमितीदमध्ययनमुच्यते / स्था० 10 ठा०) मयूरपोयगं गिण्हेति, जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छद अंडउड-न०(अण्डपुट) कर्मधा० स०। स्वकीये अण्डके अण्डक-स्य उवागच्छइत्ता तं मयूरपोयगं जाव णट्टल्लगं सिक्खावेति / तए पुटम् / अण्डकस्य संबद्धदलद्वये, दशा०६ अ० स० णं से मयूरपोयए उम्मुक्कबालभावे विन्नाय जोव्वणलक्खणवंजणमाणुम्माणपमाणपड्पुिण्णपक्खपहुणकलावे विचित्ता अंडक-न०(अण्डक) जन्तुयोनिविशेषे, प्रश्न० आश्र०२ द्वा / पिच्छोसत्तचंदए नीलकंठए णचणसीलए एगाए चप्पुडियाए अंडकड-त्रि०(अण्डकृत) अण्डाज्जाते, सूत्र० 1 श्रु०१ अ०३ उ०। कयाए समाणीए अणेगाई णट्टल्लगसयाई केगाई सयाणि य अण्डकप्रभूतभुवनवा दिनां मतमित्थमाचक्षते ते / यथा Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंडकड 54 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंत तण "संभूओ अंडकाउ लोको" संभूतो जातोऽण्डकात् जन्तुयोनिविशेषात् लोकः। क्षिति-जलाऽनलाऽनिल-वन- नर-नारकि-तिर्यग-रूपः / प्रश्न० आश्र०२ द्वा० पुव्वं आसि जगमिणं, पंचमहाभूय वज्जियगभीरं / एगण्णवजलेणं, महप्पमाणं तहिं अंडं / / 1 / / वीई परंपरेणं, घोलंतं अत्थिउ सुइरकालं। पुढे दुभागजायं, अज्झंभूमी य संवुत्तं / / 2 / / तत्थ सुरासुरनारग-समणुय-सचउप्पयं जगं सव्वं / उप्पण्णं भणियमिणं, बंभंडपुराणसत्थम्मि // 4 // माहणा समणा एगे, आह अंडकडे जगे। असौ तत्तमकासी य, अयाणंता मुसंवदे // 1 // ब्राह्मणा द्विजातयः, श्रमणास्त्रिदण्डिप्रभृतयः, एके केचन पौराणिकाः, न सर्वे एवमाहुरुक्तवन्तो वदन्ति च / यथा- जगदेतचराऽचरमण्डेन कृतमण्डकृतम् / अण्डाज्जातमित्यर्थः / तथाहि ते वदन्ति- यदा न किं चिदपि वस्त्वासीत्, पदार्थशून्योऽयं संसारस्तदा ब्रह्माऽण्डमप्स्वसृजत्, तस्माच क्रमेण वृद्धात् पश्चाद् द्विधाभावमुपगतादूर्ध्वाऽधोविभागोऽभूत्, तन्मध्ये च सर्वाः प्रकृतयोऽभूवन् / एवं पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशसमुद्र-सरित्पर्वतमकराऽऽकरनिवेशादिसंस्थितिरभूदिति / तथा चोक्तं - आसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम् / अप्रतय॑मविज्ञेयं, प्रसुप्तमिव सर्वतः / / 1 / / एवंभूते चाऽस्मिन् जगत्यसौ ब्रह्मा तस्य भावस्तत्त्वं पदार्थजातं तदण्डादि प्रक्रमेणाऽकार्षीत्, कृतवानिति। ते च ब्राहाणादयः परमार्थमजानानाः सन्तो मृषा वदन्ति, अन्यथा च स्थितं तत्त्वमन्यथा प्रतिपादयन्तीत्यर्थः / सूत्र०। एतदसमीचिनम्। यतो यास्वप्सु तदण्ड निसृष्ट, ता यथाऽण्डमन्तरेणाऽभूवन,तथा लोकोऽपि भूत इत्यभ्युपगमे न काचिद् बाधा दृश्यते, तथाऽसौ ब्रह्मा यावदण्डं सृजति, तावल्लोकमेव कस्मात् नोत्पादयति? किमनया कष्टया युक्त्यसंगतया चाण्डपरिकल्पनया ? सूत्र० १श्रु०३ अ०नि० चू०। भरतस्य तिमिस्र गुहाप्रवेशे सप्तरात्रं वर्ष वर्षति नागकुमारे, भरहो विचम्मरयणे खंधावारं ठवेऊण उवरिं छत्तरयणं ठवेइ, मणिरयणं छत्तरयणे वत्थिभाएठवेइ, ततोपभिइ लोगेण अंडसंभवं जगं पणीयं ति / आ० म०प्र०) अंडप्पभव-त्रि०(अण्डप्रभव) अण्डः प्रभव उत्पत्तिर्यस्य स तथा।। अण्डादुत्पन्ने / जहा य अंडप्पभवा बलागा। उत्त० 3 अ०। अंडय-पुं०(अण्डज) अण्डाज्जायतेऽण्डजः / हंसादी, खचरपञ्चेन्द्रिययोनिसंग्रहभेदे, भ०७ श०७ उ०। आचा०। विशे०। ___ "अंडया तिविहा पण्णत्ता। तंजहा- इत्थी पुरिसा णपुंसका" अण्डजास्त्रिविधा प्रज्ञप्तास्तद्यथा-स्त्रियः पुरुषा नपुंसकाव। जीवा०३ प्रति०। शकुनिगृहकोकिलसरीसृपादिषु, सूत्र०१श्रु०६ अ०सभेदेषु, सूत्र 01 श्रु०७ अ०८ / आचा०ा दश० / मत्स्यभेदेषु च। स्था०३ ठा०। अण्डेभ्यो हंसाद्यण्डकेभ्यो यज्जायते, तदण्डजम्। सूत्रभेदे। न०। यथा क्वचित् पट्टसूत्रम् / उत्त०२६ अ० अंडयं हंसगब्भादि, अण्डाज्जातमण्डजं हंसपतङ्गश्चतुरिन्द्रियो जीवविशेषो, गर्भस्तु तन्निवर्तितः कोशाकारो हंसस्य गर्भो हंसगर्भः तदुत्पन्नं सूत्रमण्डजमुच्यते / तर्हि सूत्रे अण्डज हंसगर्भादीति सामानाधिकरण्यं विरुध्यते, हंसगर्भस्य प्रस्तुतसूत्रकारणत्वादिति चेत् ? सत्यं, कारणे कार्योपचारादविरोधः / कोशाकारभवं सूत्रं पट्टकसूत्रमिति लोके प्रतीतमण्डजमुच्यत इति हृदयम् / पञ्चेन्द्रियहंसगर्भसंभवम् / अनु०॥ विशे०। आ० म०प्र० / शणकादिवस्त्रे, सूत्र० 2 श्रु० 2 अ०॥ प्रतिबन्धभेदे च / अण्डजो हंसादिर्ममाऽयमित्युल्लेखेन वा प्रति-बन्धो भवति, अथवा अण्डकं मयूर्यादीनामिदं रमणकमयूरादि कारणमिति प्रतिबन्धः स्यादित्यथवा अण्डज पट्टसूत्रजमिति वा / स्था० 6 ठा०। सूत्र०) अंडसुहुम-न०(अण्डसूक्ष्म) अण्डमेव सूक्ष्मम् / मक्षिका- कीटिकागृहकोकिला-ब्राह्मणी-कृकलाशाद्यण्डकरूपे सूक्ष्मभेदे, सूत्र० 1 श्रु० 6 अकादश से किं ते अंडसुहमे ? अंडसहमे पंचविहे पण्णत्ते / तंजहाउहंसंडे 1, उक्कलिअंडे २,पिपीलिअंडे 3, हालिअंडे 5, हल्लोहलिअंडे 5 / जे निग्गंथेणं वा जाव पडिलेहियध्वे भवइ, से तं अंडसुहुमे / अण्डसुहुमे उद्दसंडे० इत्यादि, उदंशा मधुमक्षिका मकुणाद्याः तेषामण्ड उदंशाऽण्डम् 1, उत्कलिकाऽण्ड लूतापुटाऽण्डम् 2, पीपिलिकाऽण्ड कीटिकाऽण्डम् 3, हलिका गृहकोलिका ब्राह्मणी वा तस्या अण्डम् 4, हल्लोहलिआ अहि-लोडीसरडीकक्किण्डी इत्येकार्थाः। तस्या अण्डम् 5 / एतानि सूक्ष्माणि स्युः। कल्पा स्था०। अंडु-न० [अण्डु(ड)] काष्ठमयेषु लोहमयेषु वा हस्तयोः पादयो बन्धनविशेषेषु, औ०। अंत-पुं०(अन्त) अम् गच्छाइसु, तस्सेह अमणमंतोऽवसाणमेगत्या अम् धातुर्गत्यादिष्वर्थेषु पठ्यते। तस्येहाऽन्त इति रूपं भवति। अमनमन्तः / अवसाने, विशे०। स्था०। यस्मात् पूर्वमस्ति, न परं सोऽन्तः / अनु०॥ पर्यन्ते, आ० म०प्र०। सूत्र०ा निक्षेपोऽस्य षड्विधः। तद्यथा- नामाऽन्तः स्थापनाऽन्तो द्रव्याऽन्तः क्षेत्राऽन्तः कालाऽन्तो भावाऽन्तश्च / तत्र नामस्थापने प्रतीते,द्रव्याऽन्तो घटाद्यन्तः, क्षेत्राऽन्त ऊर्ध्वलोकादि, कालाऽन्तः समयाद्यन्तो, भावाऽन्त औदारिकादि। आ० प्र०ा आ० चूo! परमकाष्ठायाम, सूत्र०१श्रु०१५ अ०। परिसमाप्तौ, विशेला पारे, ज्ञा० 1 अ०। समीपे, व्य०१ उ० नं०। स्था०। अमनमधिगमनमन्तः। परिच्छेदे, निर्णये, स्था०३ठा०ा प्रज्ञापस त्रिविधः, यथातिविहे अंते पण्णत्ते / तंजहा- लोगते वेयंते समयंते / स्था० ३ठा०॥ अमइ वजंतेणंतो अमतीति वा यस्मात् तेनाऽन्त इति कर्तरि साध्यते। अवसानं गते, विशेला देशे, "एगंतमंत अवकमंति" एकान्तं विजनमन्तं देशमवक्रामन्ति / भ० 3 श०२ उ० "अम रोगे वा अंतो रोगो भंगो विणासपज्जाओ" अमरोगेरुजो भङ्गे। अम-तन्। रोगे, भड़े, विनाशे, / अन्तो रोगो भङ्गो विनाश इति पर्यायशब्दा एते / विशे०। स्था०ा धर्मा अन्त० स० नं०। अन्तहेतुत्वादन्ते रागद्वेषयोश्च / आचा० 1 श्रु०३ अ० "दोहिं अंतेहिं अदिस्समाणो"। आचा०१ श्रु०३ अ०। जीर्णे, अव्यवहरणीये, त्रिका नि० चू०१ उ०। क्षये, भेदे, व्यवच्छेदे, कल्पना *अन्त्य-न० दशभिर्गुणिते जलधिसंख्याभेदे, कल्पका *अन्त्र-न० अन्यते देहो बध्यतेऽनेनेति / अति- बन्धने, करणेष्ट्रन् / देहबन्धने, "उक्ताः सास्त्रियो व्यामाः, पुंसामन्त्राणि सूरिभिः / अर्द्धव्यामेन हीनानि, स्त्रीणामन्त्राणि निर्दिशेद् / / 1 / / इति वैद्यकोक्तपरिमाणवति नाडीभेदे, वाच०। सूत्र०ा उदरमध्याऽवयवविशेषे च / तं० Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंत 55 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंतकिरिया दो अंता, पंच पंच वायामा पण्णत्ता / तंजहा- थूलंते य, तणुयंते या तत्थ णं जे से थूलंते, ते णं उचारे परिणमइ। तत्थ | गंजे से तणुयंते, ते णं पासवणे परिणमइ। द्वे अन्त्रे, प्रत्येकं पञ्च पञ्च व्यायामप्रमाणे प्रज्ञप्ते जिनैः / तद्यथास्थूलाऽन्त्रं 1, तन्वन्त्रम् 21 तत्र यत्स्थूलाऽन्त्रं, तेनोचारः परिण-मति / तत्रच यत्तन्वन्त्रं, तेन प्रश्रवणं मूत्रं परिणमति। तथा प्रतिबोधार्थ भगवता वीरेण दृष्ट चतुर्थे स्वप्ने च / आ० म० द्वि० *आन्त-न०। अन्ते भवमान्तम् / मुक्तावशेष, पंचा० 16 विव०॥ अरसतया सर्वधान्यान्तवर्तिनि वल्लचणकादौ, भ०६ श० 33 उ०। स्था०। "णिप्पावमाइ अंतं' निष्पावा वल्लाश्चणकाः प्रतीता: आदिशब्दात् कुल्माषादिकं च आन्तमित्युच्यते। बृ०१ उ०। ज्ञा०। अंत(२)अव्य०(अन्तर्) / अम्-अरन्, तुडागमश्च / वाच॥ स्वरेऽन्तरश्च / 11 / 14 / इति अन्तःशब्दस्याऽन्त्यव्यञ्जनस्य स्वरे परे न लुक् अन्यत्र लुक् / प्रा० मध्ये। आ० म० द्वि० रा०। आचा०। विशे०। "अंतरप्पा' अत्र स्वरपरत्वात् न लुक् / क्वचिद् भवत्यपि "अंतोवरि" प्रा० अंतक (ग)-पुं०(अन्तक) अन्तयति अन्तं करोति, अन्त-णिचण्वुल्। वाचा मृत्यौ, "समागम कंखति अंतकस्स"। सूत्र०१श्रु०७ अ० पर्यन्ते, "जे एवं परिभासंति, अंतए ते समाहिए। सूत्र०१ श्रु० 2 अ० अन्तर्वर्तिनि च / सूत्र०१ श्रु०१५ अ०) अंतकम्म-न०(अन्तकर्मन्) अचलकर्मणि, औ०। अंतक (ग)र-त्रि०(अन्तकर) अन्तस्य करः। संसारस्य तत्कारणस्य वा क्षयकारिणि, "अंताणि धीरा सेवंति, तेणं अंतकरा इह"। सूत्र०१ श्रु० 15 अ०1 आ० म० द्वि० भ०। स्था०। अंतकर(गड)भूमि-स्त्री०[अन्तकर(कृद्)भूमि] अन्तं भवस्य कुर्वन्तीति अन्तकराः(अन्तकृतो वा), तेषां भूमिः कालः, कालस्य चाऽऽधारत्वेन कारणत्याद् भूमित्वेन व्यपदेशः / मुक्तिगामिनां काले, सा द्विधा युगान्तकरभूमिः पर्यायान्तकरभूमिश्च / जं० 2 वक्ष०। (यस्य तीर्थकृतो यावती अन्तकरभूमिः, सा तच्छब्दे वक्ष्यते) अंतकाल-पुं०(अन्तकाल) मरणकाले, सूत्र० 1 श्रु० 5 अ० / अंतकिरिया-स्त्री०(अन्तक्रिया) अन्तोऽवसानं, तच्च प्रस्तावा-दिह कर्मणामवसातव्यमन्यत्राऽऽगमे अन्तक्रियाशब्दस्य रूढत्यात्तस्य क्रिया करणमन्तक्रिया / कर्माऽन्तकरणे, मोक्षे, कृत्स्नकर्मक्षयात् मोक्ष इति वचनात् / प्रज्ञा० 15 पद। *अन्त्य(न्त)क्रिया-स्त्री० अन्त्याचसापर्यन्तवर्तिनी क्रिया अन्त्यस्य वा कर्माऽन्तस्य क्रियाऽन्त्यक्रिया। कृत्स्नकर्मक्षय-लक्षणायां मोक्षप्राप्ती, भ०१ श०२ उ०। आ० म०प्र० स० चत्तारि अंतकिरियाओ पण्णत्ता / तंजहा- तत्थ खलु इमा पढमा अंतकिरिया अप्पकम्मपचायाए यावि भवइ। से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए संजमबहुले संवरबहुले / समाहिबहुले लूहे तीरट्ठी उवहाणवं दुक्खक्खवे तवस्सी। तस्स णं णो तहप्पगारे तवे भवइ, णो तहप्पगारा वेयणा भवइ / तहप्पगारे पुरिसजाए दीहेणं परियाएणं सिज्झइ, बुज्झइ मुच्चइ परिणिज्जाइ सव्वदुक्खाणमंतं करेइ / जहा से भरहे राया चाउरंतचक्कवट्टी। पढमा अंतकिरिया। यस्य न तथाविधं तपो, नाऽपि परीषहादिजनिता तथाविधा वेदना, दीर्पण प्रव्रज्यापर्यायेण सिद्धिर्भवति, तस्यैका 1, यस्य तु तथाविधे तपोवेदने अल्पेनैव च प्रव्रज्यापर्यायण सिद्धिः स्यात्तस्य द्वितीया 2, यस्य च प्रकृष्ट तपोवेदने दीर्घेण च पर्यायण सिद्धिस्तस्य तृतीया 3. यस्य पुनरविद्यमानतथाविधतपोवेदनस्य हस्वपर्यायेण सिद्धिस्तस्य चतुर्थीति 4 / अन्तक्रियाया एकस्वरूपत्वेऽपि सामग्रीभेदात् चातुर्विध्यमिति समुदायार्थः / अवयवार्थस्त्वयम्- चतस्रोऽन्तक्रियाः प्रज्ञप्ताः भगवतेति गम्यते, तत्रेति सप्तमी निर्धारणे तासु चतसृषु मध्य इत्यर्थः खलु-वक्यिालङ्कारे इयमनन्तरवक्ष्यमाणत्वेन प्रत्यक्षासन्ना प्रथमा इतराऽपेक्षया आद्या अन्तक्रिया। इह कश्चित् पुरुषः देवलोकादौ गत्वा ततोऽल्पैः स्तोकैः कर्मभिः करणभूतैः प्रत्यायातः प्रत्यागतो मानुषत्वमिति अल्पकर्मप्रत्यायातोय इति गम्यते। अथवा एकत्र जनित्वा ततोऽल्पकर्मा सन् यः प्रत्यायातः स तथा लघुकर्मतयोत्पन्न इत्यर्थः / चकारो वक्ष्यमाणमहाकर्माऽपेक्षया समुच्चयार्थः / अपिः सम्भावने, सम्भाव्यतेऽयमपि पक्ष इत्यर्थः / भवति स्यात् स इति। असौ णमिति वाक्यालङ्कारे मुण्डो भूत्वा द्रव्यतः शिरोलोचेन, भावतो रागाद्यपनयनेनाऽगारात् द्रव्यतो गेहात् भावतः संसाराऽभिनन्दिना देहिनामावासभूतादविवेकगेहात् निष्क्रम्येति गम्यतेऽनगारिताम्, अगारी गृही असंयतः, तत्प्रतिषेधादनगारी संयतस्तभावस्तत्ता, तां साधुतामित्यर्थः / प्रव्रजितः प्रगतः प्राप्त इत्यर्थः / अथवा विभक्तिपरिणामादनगारितया निर्ग्रन्थतया प्रव्रजितः प्रव्रज्यां। प्रतिपन्नः किंभूतः ? इत्याह (संजमबहुलेत्ति) संयमेन पृथिव्यादिसंरक्षणलक्षणेन बहुलः प्रचुरो यः स तथा। संयमो वा बहुलः प्रचुरो यस्य स तथा! एवं संवरबहुलोऽपि नवरमाश्रवनिरोधः संवरः अथवा इन्द्रियकषायनिग्रहादि भेदः / एवं च संयमबहुलग्रहणं प्राणातिपातविरतेः प्राधान्यख्यापनार्थम् / यतः 'एक चिय एत्थ वयं, निद्दिढ़ जिणवरेहि सवे हिं / पाणाइवायविरमणमवसेसा तस्स रक्खट्टत्ति' // 11 // एतच्च द्वितयमपि रागाद्युपशमयुक्तचित्तवृत्तेर्भवति / यत आह-सामाधिबहुलः, समाधिस्तु प्रशमवाहिता ज्ञानादिर्वा समाधिः / पुनर्निःस्नेहस्यैव भवतीत्याह(लूहेत्ति) रूक्षः शरीरे मनसि च द्रव्यभावस्नेहवर्जितत्वेन रुषः लूषयति वा कर्ममलमपनयतीति लूषः कथमसावेवं संवृत्त इत्याहयतः(तीरडी)तीरं पारं भवा-वर्णवस्याऽर्थयत इत्येवंशीलस्तीराऽर्थी तीरस्थायी वा तीर-स्थितिरिति वा प्राकृतत्वात् 'तीरट्ठीति' अत एवाह(उवहाण-वंति) उपधीयते उपष्टभ्यते श्रुतमनेने ति उपधानं श्रुतविषयस्तप उपचार इत्यर्थस्तद्वान् अत एव च (दुक्खक्खवेत्ति) दुःखमसुखं तत्कारणत्वाद्वा कर्म, तत्क्षपयतीति दुःखक्षपः / कर्मक्षपणं च तपोहेतुकमित्यत आह-(तवस्सीति)तपोऽभ्यन्तरकर्मेन्धनदहनज्वलनकल्पमनवरतशुभध्यानलक्षणमस्ति यस्य स तपस्वी Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतकिरिया 56 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंतकिरिया (तस्स णंति यश्चैवंविधस्तस्य णं वाक्यालङ्कारे नो तथाप्रकारमत्यन्तघोरं वर्द्धमानजिनस्येव तपोऽनशनादिर्भवति / तथा नो तथाप्रकारा अतिघोरैर्वोपसर्गादिभिः सम्पाद्या वेदनादुःखासिका भवति, अल्पकर्मप्रत्यायातत्वादिति। ततश्च तत्तथाप्रकार मल्पकर्मप्रत्यायातादिविशेषणकलापोपेतं पुरुषजातं पुरुष-प्रकारो दीर्घेण बहुकालेन पर्यायण प्रव्रज्यालक्षणेन कर्मभूतेन सिध्यति / अणिमादियोगेन निष्ठितार्थो वा विशेषतः सिद्धिगमन-योग्यो वा भवति सकलकर्मनायकमोहनीयघातात, ततो घातिचतुष्टयघातेन बुध्यते केवलज्ञानभावात् समस्तवस्तूनि,ततो मुच्यन्ते भवोपग्राहिकर्मभिः, परिनिर्वाति सकलकर्मकृविकारव्यतिकरनिराकरणेन शीतीभवति / किमुक्तं भवतिय? इत्याहसर्वदुःखानामन्तं करोति, शारीरमानसानामित्यर्थः / अतथाविधतपोवेदनो दीर्घेणाऽपि पर्यायण किं कोऽपि सिद्धः? इति शङ्कापनोदार्थमाह। "जहा से इत्यादि" यथाऽसौ प्रथमजिनप्रथमनन्दनो नन्दनशतागजन्मा भरतो राजा चत्वारोऽन्ताः पर्यन्ताः पूर्वदक्षिणपश्चिमसमुद्रहिमवल्लक्षणा यस्याः पृथिव्याः सा चतुरन्तातस्या अयं स्वामित्वेनेति चातुरन्तः। स चाऽसौ चक्रवर्ती चेति स तथा। स हि प्राग्भवे लघुकृतकर्मा सर्वार्थसिद्धविमानात् च्युत्वा चक्रवर्तितयोत्पद्य राज्यावस्थ एव केवलमुत्पाद्य कृत-पूर्वलक्षप्रव्रज्यः अतथाविधतपोवेदन एव सिद्धिमुपगत इति प्रथमाऽन्तक्रियेति। अहावरे दोचा अंतकिरिया महाकम्मं पञ्चायाए यावि भवइ। से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए संजमबहुले संवरबहुले जाव उवहाणवं दुक्खक्खवे तवस्सी / तस्स णं तहप्पगारे तवे भवइ तहप्पगारा वेयणा भवइ / तहप्पगारे पुरिसजाए निरुद्धेणं परियाएणं सिज्झइ जाव अंतं करेइ। जहा से गजसुकुमाले अणगारे / दोचा अंतकिरिया। अथानन्तरमपरा पूर्वापेक्षया अन्या द्वितीयस्थानेऽभिधानात् द्वितीया महाकर्मभिर्गुरुकर्मभिः महाकर्मा वा सन् प्रत्यायातः प्रत्याजातो वा यः सतथा "तस्सणमित्यादि" तस्य महाकर्म प्रत्याजातत्वेन तत्क्षपणाय तथाप्रकारं घोरं तपो भवति / एवं वेदनाऽपि कर्मोदयसम्पाद्यत्वादुपसर्गादीनामिति निरुद्धेनेति अल्पेन यथाऽसौ गजसुकुमारो विष्णोर्लघुभ्राता स हि भगवतो-ऽरिष्टनेमिजिनना-थस्यान्तिके प्रव्रज्यां प्रतिपद्य स्मशाने कृत-कायोत्सर्गलक्षणमहातपाः शिरोनिहितजाज्वल्यमानाऽङ्गार-जनितात्यन्तवेदनोऽल्पेनैवपर्यायण सिद्धवानिति शेष कण्ठ्य म्। अहावरे तचा अंतकिरिया महाकम्मपचायाए यावि भवइ। से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ जाव पव्वइए। जहा दोचा, णवरं दीहेणं परियाएणं सिज्झइ जाव सव्वदुक्खाणमंतं करेइ। जहा से सणंकुमारे राया चाउरंतचक्कवट्टी। तचा अंतकिरिया 31 "अहावरेत्यादि"कण्ट्य, यथाऽसौ सनत्कुमार इति, चतुर्थचक्रवर्ती। स हि महातपाः महावेदनश्च सरोगत्वात् दीर्घतरपर्यायेण च सिद्धस्तद्भवे सिद्ध्यभावेन भवाऽन्तरे सेत्स्यमानत्वादिति। अहावरा चउत्था अंतकिरिया अप्पकम्मपञ्चायाए यावि भवइ / से णं मुंडे भवित्ता जाव पव्वइए संजमबहुले जाव तस्स णं णो तहप्पगारे तवे भवइ, नो तहप्पगारा वेयणा भवइ / तहप्पगारे पुरिसजाए निरुद्धेणं परियाएणं सिज्झइ जाव सव्वदुक्खाणमंतं करेइ / जहा सा मरुदेवी भगवई / चउत्था अंतकिरिया। "अहावरेत्यादि" कण्ठ्यं यथाऽसौ मरुदेवी प्रथमजिनजननी, सा हि स्थावरत्वेऽपि क्षीणप्रायकर्मत्वेनाऽल्पकर्मा अविद्यमानतपोवेदनाच सिद्ध गजवराऽऽरूढाया एवाऽऽयु:समाप्तौ सिद्धत्यादिति / एषाञ्च दृष्टान्तद्रान्तिकानामर्थानां न सर्वथा साधर्म्यमन्वेषणीयं देशदृष्टान्तत्वादेषां, यतो मरुदेव्याः "मुण्डे भवित्ता" इत्यादि विशेषणानि कानिचित् न घटन्ते / अथवा फलतः सर्वसाधर्म्यमपि मुण्डनादिकार्यस्य सिद्धत्वस्य सिद्धत्वादिति / स्था०४ ठा०१ उ०। अन्तक्रियायाः सकला वक्तव्यता प्रदर्श्यते, तत्रेयमादावधिकारगाथा - नेरइयअंतकिरिया, अणंतरं एगसमय उव्वट्टा। तित्थगरचकिबलदेव-वासुदेवमंडलियरयणा य / / 1 / / प्रथमतो नैरयिकोपलक्षितेषु चतुर्विशतिस्थानेष्वन्तक्रिया। चिन्तनीया, ततोऽनन्तरागताः किमन्तक्रियां कुर्वन्ति, परम्परागता वेत्येवमन्तरं चिन्तनीयम् / ततो नैरयिकादिभ्योऽनन्तरमागताः कियन्त एकसमये अन्तक्रियां कुर्वन्तीति चिन्त्यं, तत"उव्वट्टा० इति" उद्वृत्ताः सन्तः कस्यां योनावुत्पद्यन्ते ? इति वक्तव्यं, तथा यत उवृत्तास्तीर्थकराश्चक्रवर्तिनो बलदेवा वासुदेवा मण्डलिका-चक्रवर्तिनी रत्नानि च सेनापतिप्रमुखाणि भवन्ति, ततस्तानि क्रमेण वक्तव्यानीति द्वारगाथासंक्षेपार्थः / विस्तारार्थं तु सूत्रकृ देव वक्ष्यति / तत्र प्रथमतोऽन्तक्रियामभिधित्सुराह - जीवे णं भंते ! अंतकिरियं करेजा ? गोयमा ! अत्थे- गतिए करेजा, कत्थेगइए नो करेजा। एवं नेरइए जाव वेमाणिए। जीवेणमिति वाक्यालंकृतौ भदन्त ! अन्तक्रियामिति अन्तो-ऽवसानं, तच प्रस्तावादिह कर्मणामवसातव्यम्। अन्य-त्रागमेऽन्तकियाशब्दस्य रूढत्वात्, तस्य क्रिया करणमन्तक्रिया कर्माऽन्तकरणं मोक्ष इति भावार्थः / कृत्स्नकर्मक्षयात् मोक्ष इतिवचनात्। तां कुर्याद् / भगवानाहगौतम ! अस्त्येकको यः कुर्यात्, अस्त्येकको यो न कुर्यात् / इयभत्र भावना- यतः तथाविधभव्यत्वपरिपाकवशतो मनुष्यत्वादिकामविकलां सामग्रीमवाप्य तत्सामर्थ्यसमुद्भूताऽतिप्रबलवीर्योल्लास- वशतः क्षपकश्रेणिसमारोहणेन केवलज्ञानमासाद्य घातीन्यपि कर्माणि क्षपयेत्, स कुर्यात्, अन्यस्तु न कुर्याद् विपर्ययादिति / एवं नैरयिकादिचतुर्विशतिदण्डकक्रमेण तावद्भावनीया, यावद् वैमानिकाः / सूत्रतस्त्वेवम् "नेरइया णं भंते ! अंतओ किरियं करेजा गोयमा ! अत्थेगइए करेजा, अत्थेगइए नो करेजा इत्यादि / इदानी नैरयिकेषु मध्ये वर्तमानोऽन्तक्रियां करोति ? किंवा न करोतीति पिपृच्छिषुरिदमाह - नेरइएणं भंते ! असुरकुमारेसु अंतकिरियं करेज्जा ? गोयमा ! नो इणढे समढे / एवं जाव वेमाणिएसु, णवरं मणुस्सेसु अंतकिरियं करेज्जइ पुच्छा ! गोयमा ! अत्थेगतिए करेजा, अत्थेगतिए नो करेजा। एवं असुरकुमारे जाव वेमाणिए / एवमेवं चउवीसं चउवीसा दंडगा भवंति। नेरइए णमित्यादि, भगवानाह- गौतम! नाऽयमर्थः समर्थो युक्तयुपपन्न इत्यर्थः / कथमिति चेदुच्यते- इह कृत्स्नकर्मक्षयः प्रकर्षप्राप्तात् सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रसमुदायाद् भवति,न च नैरयिकावस्थायां चारित्रपरिणामस्तथास्वाभाव्यादिति। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतकिरिया 57 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंतकिरिया एवमसुरकुमारादिषु वैमानिकपर्यवसानेषु प्रतिषेधो वक्तव्यः / मनुष्येषु मध्ये समागतः सन् कश्चिदन्तक्रियां कुर्यात्, यस्य परिपूर्णा चारित्रादिसामग्री, कश्चित् न कुर्यात् / यस्तद्विकल इति / एव- / मसुरकुमारादयोऽपि वैमानिकपर्यवसानाः प्रत्येकं नैरयिकादिचतुर्विशतिदण्डका मेण वक्तव्यास्तत एवमेते चतुर्विंशतिदण्डकाश्चतुर्विंशतयो भवन्ति। अथ ते नैरयिकादयः स्वस्वनैरयिकादिभवेभ्योऽनन्तरं मनुष्य-भवे समागताः सन्तोऽन्तक्रियां कुर्वन्ति ? किं वा तिर्यगादि-संव्यवधानेन परम्परागताः? इति निरूपयितुकाम आह - नेरइया णं भंते ! किं अणंतरागया अंतकिरियं करंति ? परंपरागया अंतकिरियं करंति ? गोयमा ! अणंतरागया वि अंतकिरियं करेंति, परंपरागया वि अंतकिरियं करेंति / एवं रयणप्पभापुढविनेरइया वि जाव पंकप्पभापुढविणेरइया / धूमप्पभापुढविणेरइयाणं पुच्छा ? गोयमा ! नो अणंतरागया अंतकिरियं पकरंति, परंपरागया अंतकिरियं पकरंति, जाव अहेसत्तमा पुढविणेरइया / असुरकुमारा जाव थणियकुमारा। पुढविआउवणस्सइकाइया य अणंतरागया वि अंतकिरियं पकरंति, परंपरागया विअंतकिरियं पकरंति। तेउवाउबेइंदियतेइंदियचउरिंदिया नो अणंतरागया अंतकिरियं पकरेंति / परंपरागया अंतकिरियं पकरेंति / सेसा अनंतरागया वि अंतकिरियं पकरेंति, परंपरागया वि अंतकिरियं पकरेंति / प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह- गौतम ! अनन्तरागता अपि अन्तक्रियां कुर्वन्ति, परंपरागता अपि / तत्र रत्नशर्करावालुकापङ्कप्रभाभ्योऽनन्तरागता अपि,धूमप्रभापृथिव्यादिभ्यः पुनः परंपरागता एव, तथास्वाभाव्यादेनमेव विशेष प्रतिपादयिषुः सूत्रसप्तकमाह- "एवं रयणप्पभापुढविनेरइया वि इत्यादि' सुगमम् / असुरकुमारादयः स्तनितकुमारपर्यवसानाः पृथिव्यब्- वनस्पतयश्चाऽनन्तरागता अपि अन्तक्रियां कुर्वन्ति, परंपरागता अपि अन्तक्रियां कुर्वन्ति, उभयथा आगता अपि / उभयथाऽप्यागतानां तेषामन्तक्रियाकरणाऽविरोधात् / तथा केवलचक्षुरुपलब्धेः / तेजोवायुद्वित्रिचतुरिन्द्रियाः परम्परागता एव,न त्वनन्तरागतास्तत्र तेजोवायूनामानन्तर्येण मनुष्यत्वस्यैवाऽप्राप्तेः, द्वीन्द्रियादीनां तु तथा भवस्वाभाव्यादिति। शेषास्तु तिर्यक्पश्चेन्द्रियादयो वैमानिक-पर्यवसाना अनन्तरागता अपि, परम्पराऽऽगता अपि / नैरयिकादि-भवेभ्योऽनन्तरमागताः कियन्त एकसमये अन्तक्रिया कुर्वन्ति ? इत्येवंरूपं तृतीयं द्वारमभिधित्सुराह। अणंतरागया णं भंते ! णेरइया एगसमएणं केवतिया अंतकिरियं पकरंति? गोयमा ! जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं दस / रयणप्पभा पुढविणेरइया वि एवं चेव, जाव वालुयप्पभापुढविणेरइया / अंणतरागया णं भंते ! पंकप्पभापुढविणेरइया एगसमएणं केवतिया अंतं करंति? गोयमा ! जहन्नेणं एक्को वा / दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं चत्तारि। अणंतरागया णं भंते ! असुरकुमारा एगसमएणं केवइया अंतकिरियं पकरंति? जहन्नेणं एको वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं दस / अणंतरागयाओ णं भंते ! असुरकुमारीओ एगसमएणं केवतियाओ अंत-किरियं पकरेंति ? गोयमा! जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं पंच / एवं जहा असुरकुमारा सदेवीया तहा थणियकुमारा वि / अणंतरागया णं भंते ! पुढवि-काइया एगसमएणं केवइया अंतकिरियं पकरेंति? गोयमा ! जहन्नेणं एगो वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं चत्तारि, एवं आउकाइया वि चत्तारि वणस्सइकाइया छ, पंचिंदियतिरिक्खजोणिया दस, तिरिक्खजोणि-णीओ दस, मणुस्सा दस, मणुस्सीओ वीसं, वाणमंतरा दस, वाणमंतरीओ पंच, जोइसिया दस, जोइसिणीओ वीसं, वेमाणिया अट्ठसतं, वेमाणिणीओ वीसं / अणंतरागया णं भंते !0 इत्यादि, नैरयिकभवादनन्तरमव्यव-धानेन मनुष्यभवमागता अनन्तरागता नैरयिका इति प्राग्भव-पर्यायेण व्यपदेशः सुरादिप्राग्भवपर्यायप्रतिपत्तिव्युदासार्थः / एवमुत्तरत्रापि तत्तत्प्राग्भवपर्यायण व्यपदेशः प्रयोजनं चिन्तनीयं, शेषं कण्ठ्यम् / सम्प्रति तत उद्वृत्ताः कस्या योनावुत्पद्यन्ते ? इति चतुर्थद्वारमभिधित्सुराह। णेरइया णं भंते ! णेरइएहिंतो अणंतरं उव्वट्टित्ता नेरइएसु उववजेज्जा ? गोयमा ! णो इणढे समढे / णे रइए णं भंते ! णे रइएहिंतो अणंतरं उव्वट्टित्ता असुरकु मारेसु उववजेज्जा? गोयमा ! नो इणटे समढे / एवं निरंतरं जाव च उरिदिएसु पुच्छा० गोयमा ! नो इणढे समढे / नेरइए णं भंते ! नेरइएहिंतो अणंतरं उव्वट्टिता पंचिंदियतिरिक्खजोणिएस उववजेजा ? गोयमा ! अत्थेगइए उवव जा, अत्थेगइए नो उववज्जेज्जा। जे णं मंते ! नेरइएहिंतो अणंतरं पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु उववजेजा, से णं केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेजा सवणयाए ? गोयमा ! अत्थेगइए लभेज्जा, अत्थेगतिए नो लभेजा। जे णं भंते ! केवलिपन्नत्तं धम्म लमेज्जा सवणयाए, से णं केवलबोहिं बुज्झेजा ? गोयमा ! अत्थेगइए बुज्झेज्जा, अत्थेगइए नो बुज्झेज्जा / जे णं भंते ! बुज्झेजा, से णं सद्दहेजा पत्तिएज्जा रोएज्जा ? गोयमा ! सद्दहेज्जा पत्तिएज्जा रोएज्जा। जेणं मंते ! सद्दहेज्जा पत्तिएज्जा रोएज्जा,से णं भंते ! आमिणि-बोहियनाणसुयनाणाई उप्पाडे ज्जा ? गोयमा ! उप्पाडेजा। जे णं भंते ! आमिणिबोहियनाणसुयनाणाई उप्पा-डेजा, से णं संचाएजा सीलं वा वयं वा गुणं वा वेरमणं वा पचक्खाणं वा पोसहोववासं वा पडिवजित्तए? गोयमा! अत्थेगतिए संचाएज्जा, अत्थेगइए नो सं-चाएज्जा / जे णं भंते ! संचाएज्जा सीलं वा जाव पो सहोववासं वा पडिवजित्तए, से णं ओहिनाणं उप्पाडे जा? गोयमा! अत्थेगतिए उप्पाडेजा, अत्थेगतिए णो उप्पाडेजा। जे णं भंते ! ओहिनाणं उप्पाडेजा, सेणं संचाएज्जा मुंडे भवित्ता आगाराओ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतकिरिया 58 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 . अंतकिरिया अणगारियं पव्वइत्तए ? गोयमा ! णो इणढे समढे / रइए णं भंते ! णेरइएहिंतो अणंतरं उव्वट्टित्ता भणुस्सेसु उववजेज्जा ? गोयमा ! अत्थेगतिए उववज्जेज्जा, अत्थेगतिए नो उववज्जेज्जा। जे णं भंते ! उववज्जेज्जा, से णं केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेजा सवणयाए ? गोयमा ! जहा पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु जाव। जेणं भंते ! ओहिनाणं उप्पाडेज्जा, सेणं संचाएज्जा मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारिए पव्वइत्तए ? गोयमा ! अत्थेगतिए संचाएज्जा, अत्थेगतिए नो संचाएज्जा / जे णं भंते ! मुंडे भवित्ता, अगाराओ अणगारियं पब्वइत्तए, से णं मणपञ्जवनाणं उप्पाडेज्जा ? गोयमा ! अत्थेगतिए उप्पाडेजा, अत्थेगतिए नो उप्पाडेज्जा / जे णं मंते ! मणपज्जवनाणं उप्पाडेजा, से णं केवलनाणं उप्पाडेजा ? गोयमा ! अत्थेगतिए उप्पाडेजा, अत्थगतिए नो उप्पाडेजा। जेणं भंते ! केवलनाणं उप्पाडेजा, से णं सिज्झेज्जा बुज्झेजा मुत्तेज्जा सव्वदुक्खाणं अंतं करेज्जा ? गोयमा ! सिज्झेजा जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेजा। नेरइए णं भंते ! ने रइएहिं तो अणं तरं उव्वट्टित्ता वाणमंतरेसु जोइसियवेमाणिएसु उववज्जेज्जा ? गोयमा ! णो इणढे समढे / असुरकुमारा णं भंते ! असुरकुमारेहिंतो अणंतरं उव्वट्टित्ता नेरइएसु उववज्जेज्जा ? गोयमा! णो इणढे समटे / असुरकुमारा णं भंते ! अणंतरं उव्वट्टित्ता असुरकुमारेसु उववज्जेज्जा ? गोयमा! णो इणढे समढे / एवं जाव थणियकुमारेसु / असुरकुमारा णं भंते ! असुरकुमारेहिंतो अणंतरं उव्वट्टित्ता पुढविकाइएसु उववज्जेज्जा ? हंता गोयमा ! अत्थेगतिए उववजेज्जा, अत्थेगतिए नो उववजेज्जा / जे णं भंते ! उववजेजा, से णं केवलिपण्णत्तं धम्म लभेज्जा सवणयाए ? गोयमा ! णो इणद्वे समझे / एवं आउवणस्सईसु वि। असुरकुमारा णं भंते ! असुरकुमारेहिंतो अणंतरं उव्वट्टित्ता तेउ-वाउ-बेइंदियतेइंदियचउरिदिएसु उववजेजा ? गोयमा ! णो इणढे समढे / अवसेसेसु पंचसु पंचिंदियतिरिक्खजोणियादिसु असुरकुमारेसु जहा नेरइआ। एवं जाव थणियकुमारा। पुढविकाइए णं भंते ! पुढविकाइएहिंतो अणंतरं उव्वट्टित्ता जेरइएसु उववज्जेज्जा ? गोयमा ! णो इणद्वे समढे / एवं असुरकुमारेसु वि जाव थणियकु मारेसु / पुढविकाइएहिंतो अणंतरं उव्वट्टित्ता पुढविकाइएसु उववज्जेज्जा? गोयमा ! अत्थेगतिए उववजेज्जा, अत्थेगतिए नो उववज्जेज्जा / जे णं भंते ! उववजेजा, से णं केवलिपन्नत्तं धम्म लभेजा सवणयाए ? गोयमा ! नो इणढे समटे / एवं आउकाइयादिसु निरंतरं भाणियत्वं जाव चउरिदिएसु पंचिं दियतिरिक्खजोणियमणुस्से सु जहा णेरइयवाणमंतर-जोइसियवेमाणिएसु पडिसेहो / एवं जहा पुढविकाइओ भणिओ तहा आउकाइओ वि वणस्सइकाइओ | वि भाणियव्वो / तेउकाइए णं भंते ! तेउकाइएहिंतो अणंतरं उव्वट्टित्ता णेरइएसु उववजेजा? गोयमा ! नो इणढे समझे। एवं असुरकुमारेसु वि जाव थणियकुमारेसु वि। पुढविकाइयआउ-तेउ-वाउ-वणस्सइ-बेइंदिय-तेइंदिय-चउरिदिएसु अत्थेगतिए उववज्जेज्जा,से णं के वलिपन्नत्तं धम्मं लभेजा सवणयाए ? गोयमा ! णो इणढे समढे / तेउकाइए णं भंते ! तेउकाइएहिंतो अणंतरं उव्वट्टित्ता पंचिंदियतिरिक्ख-जोणिएसु उवव जा? गोयमा ! अत्थेगतिए उववज्जेज्जा अत्थेगतिए णो उवव० जे णं उवव० से णं के वलिपन्नत्तं धम्म लमिज्जा सवणयाए? गोयमा ! अत्थेगतिए लभेज्जा अत्थेगतिए नो लभेजा। जे णं भंते ! केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेजा सवणयाए , से णं केवलिबोहिं बुज्झेजा ? गोयमा ! णो इणढे समढे / मणुस्सवाणमंतरजोइसियवेमाणिएसु पुच्छा० गोयमा ! णो इणढे समटे / एवं जहेव तेउकाइए निरंतरं एवं वाउकाइए वि। बेइंदिए णं भंते ! बेइंदिएहिंतो अणंतरं उव्वट्टित्ता नेरइएसु उववजेज्जा ? गोयमा ! जहा पुढविकाइए, णवरं मणूसेसु जाव मणपजवनाणं उप्पाडेजा ? एवं तेइंदियचउरिदिया वि जाव मणपज्जवनाणं उप्पाडेज्जा / जे णं मणपज्जवनाणं उप्पाडेजा, से णं केवलनाणं उप्पाडेजा ? गोयमा ! णो इणद्वे समढे। पंचिंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! पंचिं दियतिरिक्खजोणिएहिंतो अणंतरं उव्वट्टित्ता नेरइएसु उववज्जेज्जा? गोयमा! अत्थेगइए उववजेज्जा, अत्थेगइए नो उव्व ज्जा / जे णं भंते ! उववज्जेज्जा से णं केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेज्जा सवणयाए ? गोयमा ! अत्थेगतिए लभेजा, अत्थेगतिए नो लभेज्जा / जे णं केवलिपन्नत्तं धम्म लभेजा सवणयाए,से णं के वलिबोहिं बुज्झेजा ? गोयमा ! अत्थेगतिए बुज्झेज्जा, अत्थेगतिए नो बुज्झेज्जा / जे णं केवलिबोहिं बुज्झेजा, से णं सद्दहेज्जा पत्तिएज्जा रोएज्जा ? हंता, गोयमा ! जाव रोएज्जा / जे णं भंते ! सद्दहेजा जाव रोएज्जा, से णं आमिणिबोहियनाणसुइनाणओहिनाणाई उप्पाडेजा ? गोयमा ! जाव उप्पाडेजा। जे णं भंते ! जाव उप्पाडेजा, से णं संचाएजा सीलं वा जाव पडिवजित्तए ? गोयमा ! णो इणढे समढे / एवं असुरकुमारेसु वि जाव थणियकु मारेसु / एगिं दियविगलिं दिएसु जहा पुढविकाइए , पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु मणुस्सेसु य जहा णेरइय-वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिएसु / जहा णेरइएसु उववजइ ? पुच्छा० भणिया, एवं मणुस्से सु वि / / वाणमंतरजोइसियवेमाणिय० जहा असुरकुमारेसु / (इतः पूर्व टीका सुगमेति न गृहीता) नवरं, जे णं भंते ! इत्यादि मुण्डीभूत्वा अनगारतां प्रव्रजितुं शक्नुयात् ? न वेति प्रश्ने - Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतकिरिया 59 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंतकिरिया भगवानाह- नाऽयमर्थः समर्थः / तिरिश्वां भवस्वभावतः तथारूपपरिणामासंभवात् अनगारताया अभावे मनःपर्यवज्ञानस्य चाऽभावः सिद्ध एव / यथा च तिर्यक्पञ्चेन्द्रियविषयं सूत्र-कदम्बकमुक्तं, तथा मनुष्यविषयमपि वक्त व्यं, नवरं मनुष्येषु सर्वभावसम्भवात् मनःपर्यवज्ञानकेवलज्ञानसूत्रे अधिके प्रति-पादयति / "जे णं भंते ! संचाएजा मुंडे भवित्ता० इत्यादि" सुगम, नवरं सिज्झेज्जा० इत्यादि सिद्धयेत् समस्ताऽणिमैश्वर्यादि-सिद्धिभाक् भवेत्, बुध्येत् लोकाऽलोकस्वरूपमशेषमवगच्छेत्, मुच्येत भवोपग्राहककर्मभिरपि / किमुक्तं भवति? सर्वदुःखानामन्तं कुर्यात् / वानमन्तर-ज्योतिष्कवैमानिके षु प्रतिषेधो वक्तव्यो, नैरयिकस्य भवस्वाभाव्यात् नैरयिकदेवभवयोग्याऽऽयुर्वन्धा-संभवात् / तदेवं नैरयिकादि चतर्विशतिदण्डकक्रमेण चिन्तितं / साम्प्रतमसुरकुमारान् नैरयिकादि चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण चिन्तयति- असुरकुमारा णं भंते !0 इत्यादि प्राग्वत्, नवरमेते पृथिव्यब्वनस्पतिष्वप्युत्पद्यन्ते, ईशानाऽन्तदेवानां तेषूत्पादा-ऽविरोधात् / तेषु चोत्पन्ना न केवलिप्रज्ञप्तं धर्म लभन्ते श्रवणतया, श्रवणेन्द्रियस्याऽभावात्। शेषं सर्वं नैरयिकवत्। "एवं जाव थणियकुमारा० इति'' एवमसुरकुमारोक्तेन प्रकारेण तावद्वक्तव्यं / यावत्स्तनितकुमाराः / पृथिवीकायिका नैरयिकेषु च प्रतिषिध्यन्ते, तेषां विशिष्टमनोद्रव्याऽसम्भवतस्तीव्रसंक्लेशविशुद्धाऽध्यवसायाऽभावात् / शेषेषु तु सर्वेष्वपि स्थानेषु उत्पद्यन्ते, तद्योग्याऽध्यवसायस्थानसम्भवात् / तत्राऽपि च तिर्यक् पञ्चेन्द्रियेषु च नैरयिकवद्वक्तव्यमेवमप्कायिक वनस्पतिकायिकाश्च वक्तव्याः तेजस्कायिका वायुकायिकाश्च मनुष्येषु अपि प्रतिषेधनीयास्तेषामानन्तर्येण मनुष्येषूत्पादाऽसंभवात् / असम्मवश्च क्लिष्टपरिणाम-तया मनुष्यगतिमनुष्यानुपूर्वीमनुष्यायुबन्धासम्भवात् / तिर्यक् - पञ्चेन्द्रियेषूत्पन्नाः केवलिप्रज्ञप्तं धर्म श्रवणतया लभ्येरन्, श्रवणेन्द्रियस्य भावात् / पुनस्तां कैवलिकी बोधिं नाऽवबुध्ये रन्, संक्लिष्टपरिणामत्वात् / द्वित्रिचतुरिन्द्रियाः पृथिवीकायिकवत् | देवनै रयिकवर्जेषु शेषेषु सर्वेषु अपि स्थानेषूत्पद्यन्ते, नवरं पृथिवीकायिका मनुष्येष्वागता अन्तक्रियामपि कुर्युः, ते पुनरन्तक्रियां न कुर्वन्ति, तथास्वभावत्वात् / मनःपर्यवज्ञानं पुनरुत्पादयेयुः / तिर्यक्पञ्चेन्द्रियमनुष्याश्च सर्वेष्वपि स्थानेषूत्पद्यन्ते तद्वक्तव्यता पाठसिद्धा। वानमन्तरज्योतिष्कवैमानिका असुरकुमारवद् भावनीयाः। गतं चतुर्थद्वारम्। (लेश्याविशेषणेनाऽन्तक्रियाविचारो माकंदिक शब्द)। / इदानीं पञ्चमं तीर्थकरत्ववक्तव्यतालक्षणद्वारमभिधित्सुराह - रयणप्पभापुढविनेरइएणं भंते ! रयणप्पभापुढवि-नेरइएहितो | अणंतरं उव्वट्टित्ता तित्थगरत्तं लभेज्जा? गोयमा ! अत्थेगतिए लभेजा, अत्थेगतिए नो लभेजा। से केपट्टेणं भंते ! एवं वुचइ? अत्थेगतिए लभेज्जा, अत्थेगतिए नो लभेज्जा ? गोयमा / जस्स णं। रयणप्पभापुढविनेरइयस्स तित्थगरनामगोयाई कम्माइंबद्धाई पुट्ठाई कडाई पट्टवियाई णिविट्ठाई अमिनिविट्ठाई अभिसमन्नागयाइं उदिन्नाइं नो उवसंताई हवंति, से णं रयणप्पभापुढविनेरइएहिंतो अणंतरं उव्वट्टित्ता णं तित्थगरत्तं लभेज्जा / जस्स णं रयणप्पभापुढविने रइयस्स तित्थगरनामगोयाइं णो बद्धाई, जाव नो उदिन्नाई, उवसंताई। भवंति, से णं रयणप्पभापुढविनेरइएहिंतो अणंतरं उव्वट्टित्ता तित्थगरत्तं नो लभेज्जा / से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुचइअत्थेगतिए लभेज्जा, अत्थेगतिए नो लभेज्जा / एवं जाव वालुयप्पभापुढ विनेरइएहिं तो तित्थगरत्तं लभेज्जा / पंकप्पभापुढविनेरइए णं भंते ! पंकप्पभानेरइएहिंतो अणंतरं उव्वट्टित्ता तित्थगरत्तं लभेज्जा ? गोयमा ! णो इणद्वे समढे, अंतकिरियं पुण करेज्जा / धुमप्पभापुढविनेरइए णं पुच्छा? गोयमा! णो इणढे समढे, विरतिं पुण लभेजा। तमाए पुच्छा? गोयमा ! णो इणढे समझे , विरयाविरतिं पुण लभेज्जा / अहेसत्तमाए पुच्छा ? गोयमा ! णो इणढे समढे, सम्मत्तं पुण लभेज्जा। असुरकुमारे णं पुच्छा? गोयमा ! णो इणढे समढे, अंतकिरियं पुण करेज्जा / एवं निरंतरं जाव आउकाइए। तेउकाइए णं भंते ! तेउकाइएहिंतो अणंतरं उटवट्टित्ता उववज्जेज्जा? गोयमा! णो इणढे समढे, केवलिपण्णत्तं धम्म लमेज्जा सवण-याए / एवं वाउकाइए वि। वणस्सइकाइए णं पुच्छा? गोयमा! णो इणढे समढे, अंतकिरियं पुण करेज्जा। बेइंदियतेइंदियचउ-रिंदिय० पुच्छा? गोयमा ! णो इणढे समढे, मणपज्जव-नाणं उप्पाडेज्जा / पंचिंदियतिरिक्खजोणियमणुस्स-वाणमंतरजोइसिए णं पुच्छा ? गोयमा ! णो इणढे समटे, अंतकिरियं पुण करेज्जा / सोहम्मदेवे णं भंते ! अणंतरं चइत्ता तित्थगरत्तं लभेज्जा ? गोयमा ! अत्थेगतिए लभेज्जा, अत्थेगतिए नो लभेज्जा / एवं जहा रयणप्पभापुढविणे रइए / एवं जाव सवट्ठसिद्धगदेवे / रयणप्पभापुढविणेरइए णं भंते ! अणंतरं उव्वट्टित्ता चक्कवट्टित्तं लभेज्जा? गोयमा ! अत्थेगतिए लभेज्जा, अत्थेगतिए नो लभेज्जा / से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ ? गोयमा ! जहा रयणप्पभापुढविणेरइयतित्थगरत्ते / सक्करप्पभापुढविणेरइएणं भंते ! अणंतरं उव्वट्टित्ता चक्कवट्टित्तं लभेज्जा ? गोयमा! णो इणटे समढे, एवं जाव अहे सत्तमाए पुढविणे रइए / तिरियमणुएहिंतो पुच्छा? गोयमा! नो इणढे समढे / भवणवइवाणमंतर-जोइसियवेमाणिएहिंतो पुच्छा? गोयमा ! अत्थेगइए लभेज्जा , अत्थेगइए नो लभेज्जा / एवं च बलदेवत्तं, णवरं सक्करापुढविणेरइए वि लभेज्जा, एवं वासुदेवत्तं दोहितो पुढविहिंतो वेमाणिएहिंतो य अणुत्तरोव-वातियवज्जेहिंतो सेसेसु णो इणटे समटे | मंडलियतं अहे सत्तमाए तेउवाउवज्जे हिं तो, सेणावइरयणत्तं गाहावइयणतं वड्डइरयणत्तं पुरोहियरयणत्तं इत्थियरणत्तं च, एवं चेव / नवरं, अणुत्तरोववाइयवज्जेहिंतो / आसरयणत्तं हस्थिरयणत्तं च, रयणप्पभाओ निरंतरं जाव सहस्सारो। अत्थेगतिए लभेज्जा, अत्थे गतिए नो लभेज्जा / चक्करयणतं, चम्मरयणतं, दंडरयणतं, छत्तरयणतं, मणिरयणतं, असिरयणत्तं, कागिणिरयणतं, एएसिं असुरकुमारेहिंतो आरद्धं निरंतरं जाव ईसाणाओ। सेसेहिंतो? नो इणटे समठे। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतकिरिया 60 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंतकिरिया एवं शर्करप्रभावालुकप्रभाविषये अपि सूत्रे वक्तव्ये पङ्कप्रभा- वुचइ? तं चेव जाव अंतं करिंसु ? गोयमा ! जे केइ अंतकरा पृथिवीनैरयिकस्ततोऽनन्तरमुवृत्तः संस्तीर्थकरत्वं न लभते, वा अंतिमसरीरिया वा सव्वदुक्खाणमंतं करिंसु वा, करिति अन्तक्रियां पुनः कुर्यात् / धूमप्रभापृथिवीनैरयिकोऽन्तक्रियामपि न वा, करिस्संति वा, सव्वे ते उप्पन्ननाणदंसणधरा अरहा जिणे करोति, सर्वविरतिं पुनर्लभते। तमःप्रभापृथिवीनैरयिकः सर्वविरतिमपि केवली भवित्ता, तओ पच्छा सिज्झंति, बुज्झंति मुचंति न लभते, विरत्यविरतिं देशविरतिं पुनर्लभते / परिनिव्वायंति, जाव सव्वदुक्खांणमंतं करिति, करिस्संति अधःसप्तमपृथिवीनैरयिकस्तामपि देशविरतिं न लभते, परं सम्य- वा / से तेणद्वेणं गोयमा ! जाव सव्वदुक्खाणमंतं करिसु, क्त्वमात्रं लभते / असुरादयो यावद्वनस्पतिकादयोऽनन्तर- पडुप्पण्णे वि। एवं चेव नवरं, सिज्झंतित्ति माणियव्वा, अणागए मुवृत्तास्तीर्थकरत्वं न लभन्ते, अन्तक्रियां पुनः कुर्युः / वसुदेव-चरिते विएवं चेव, नवरं सिज्झिस्संतित्ति भाणियव्वा। जहा छउमत्थो पुनः नागकुमारेभ्योऽप्युवृत्ता अनन्तरमैरवतक्षेत्रेऽस्या-मेवावसर्पिण्यां तहा आहोहिओ वि, तहा परमोहिओ वि। तिन्नि तिन्नि आलावगा चतुर्विशतितमस्तीर्थंकर उपदर्शितः,तदर्थतत्त्वं केवलिनो विदन्ति / भाणियव्वा। तेजोवायवोऽनन्तरमुवृत्ता अन्तक्रियामपि न कुर्वन्ति, मनुष्येषु इह छद्मस्थोऽवधिज्ञानरहितोऽवसे यो, न पुनरके वलिमात्रतेषामानन्तर्येणोत्पादाभावादपि च ते तिर्यसूत्पन्नाः केवलिप्रज्ञप्तं धर्म मुत्तरत्राऽवधिज्ञानिनो वक्ष्यमाणत्वादिति (केवलेणंति) असहायेन शुद्धेन श्रवणतया लभेरन्, न तु बोधि-मित्युक्त प्राग वनस्पतिकायिकाद्यनन्तरमुवृत्तास्तीर्थकरत्वं न लभन्ते, अन्तक्रियां वा परिपूर्णेन वा असाधारणेन वा / यदाह- "केवलमे गं सुद्धं पुनः कुर्युः / द्वित्रिचतुरिन्द्रिया अनन्तर-मुवृत्तास्तामपि न कुर्वन्ति, सगलमसाधारणमणंतं च " (संजमेणंति) पृथिव्यादि-रक्षणरूपेण मनःपर्यवज्ञानं पुनरुत्पादयेयुः / तिर्यक्पञ्चे न्द्रियमनुष्यव्यन्तर (संवरेणंति) इन्द्रियकषायनिरोधेन "सिज्झिंसु" इत्यादौ च बहुवचनं ज्योतिष्का अनन्तरमुवृत्ताः तीर्थंकरत्वं न लभन्ते, अन्तक्रियां पुनः प्राकृतत्वादिति, एतच्च गौतमेना-ऽनेनाऽभिप्रायेण पृष्टं, यदुतकुर्युः / सौधर्मादयः सर्वार्थ-सिद्धपर्यवसाना नैरयिकवद्वक्तव्याः / गतं उपशान्तमोहाद्यवस्थायां सर्व-विशुद्धाः संयमा यतयोऽपि भवन्ति, तीर्थंकरद्वारम्। संप्रति चक्रवर्तित्वादीनि द्वाराण्युच्यन्ते तत्र चक्रवर्त्तित्वं विशुद्धसंयमादिसाध्या च सिद्धिरिति सा छद्मस्थस्याऽपि स्यादिति (अंत रत्नप्रभानरयिक भवनपति-व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकेभ्यो,न शेषेभ्यः करेंति) भवाऽन्तकारणिस्ते च दीर्घतरकाला-पेक्षयाऽपि भवन्तीत्यत / बलदेववासुदेवत्वे शर्करातोऽपि नवरं वासुदेवत्वे वैमानिकेभ्यो- आह- (अंतिमसरीरिया वत्ति) अन्तिमं शरीरं येषामस्ति ऽनुत्तरोपपातवर्जेभ्यो, माण्डलिकत्वमधःसप्तमतेजोवायु- वर्जेभ्यः तेऽन्तिमशरीरिकाश्वरमदेहा इत्यर्थः। वाशब्दो समुचये शेषेभ्यः सर्वेभ्योऽपि स्थानेभ्यः सेनापतिरत्नत्वं वर्द्धिकिरत्नत्वं 'सव्वदुक्खाणमंतं करि सु'' इत्यादौ, "सिझिंसु सिझंति'' पुरोहितरत्नत्वं स्त्रीरत्नत्वमधःसप्तमपृथिवी-तेजोवाय्वनुत्तरोप- इत्याद्यपि द्रष्टव्यम् / सिद्धयाद्यविनाभूतत्वात् सर्वदुःखान्तकरणस्येति पन्नदेववर्जेभ्यः शेषेभ्यः स्थानेभ्यः / अश्वरत्नत्वं हस्तिरत्नत्वं (उप्पन्ननाणदंसणधरेति ) उत्पन्ने ज्ञानदर्शने धारयन्ति ये ते तथा रत्नप्रभाया आरभ्य निरन्तरं यावदासहस्रारात् चक्ररत्नत्वं छत्ररत्नत्वं त्वनादिसंसिद्धज्ञानाः, अत एव (अरहत्ति ) पूजाऽर्हाः (जिणत्ति) दण्ड रत्नत्वमसिरत्नत्वं मणिरत्नत्वं काकिणिरत्नत्वं रागादिजेतारस्ते छद्मस्था अपि भवन्तीत्यत आह- केवलीति सर्वज्ञाः चाऽसुरकुमारादारभ्य निरन्तरं यावदीशानात् / सर्वत्र विधिवाक्यम्। 'सिज्झंति' इत्यादिषु चतुषु पदेषु वर्तमाननिर्देशस्य शेषोपलक्षणत्वात् "अत्थेगइए लभेजा, अत्थेगइए नोलभेजा'' इति वक्तव्यं प्रतिषेधे "नो "सिज्झिंसु सिझंति सिज्झिस्संति' इत्येवमतीतादिनिर्देशो दृष्टव्यः / इणट्टे समढे" इति तदेव-मुक्तानि द्वाराणि। प्रज्ञा० 16 पद / (तीर्थकृ अत एव "सव्वदुक्खाणं' इत्यादौ पञ्चमपदेऽसौ विहित इति। "जहा तामन्तक्रिया तित्थयर शब्दे)। उग्रादयोऽस्मिन् धर्मेऽवगाहमाना छउमत्थो" इत्यादिरियं भावना- "आहोहिएणं भंते ! मणूसे तीतमणतं अन्तक्रियां कुर्वन्ति सासयमित्यादि " दण्डकत्रयं, तत्र अधः परमा-वधेरधस्ताद् योऽवधिः जे इमे भंते ! उग्गा भोगा राइण्णा इक्खागा णाया कोरव्वा, सोऽधोऽवधिः, तेन यो व्यवहरत्य-सावाधोवधिकः परिमितक्षेत्रविषयाएए णं अस्सिं धम्मे ओगाहइ ओगाहइत्ता अट्ठविहं कम्मरयमलं ऽवधिकः / (परमाहोहिओत्ति) परम आधोवधिकाद् यः, स पवाहिति, पवाहितित्ता तओ पच्छा सिज्झति, जाव अंतं परमाधोवधिकः प्राकृतत्वाच व्यत्ययनिर्देशः / (परमोहिओत्ति) क्वचित् करें ति? हंता, गोयमा ! जे इमे उग्गा भोगा तं चेव जाव अंतं पाठोव्यक्तश्च / स च समस्तरूपिद्रव्याऽसंख्यातलोकमात्राऽलोकखण्डा करेंति, अत्थेगइया अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो ऽसंख्याताऽवसर्पिणीविषयाऽवधिज्ञानः / (तिण्णि आलावत्ति) भवंति। कालत्रयवेदिनः केवलिनोऽप्येत एव त्रयो दण्डकाः, विशेषस्तु सूत्रोक्त (अस्सिं धम्मे त्ति) अस्मिन्नैर्ग्रन्थ्ये धर्मे इति / भ०२०श० 8 उ०। एवेति। (जीवः सदसदमितमेजनादिभावं परिणमन् नाऽन्तक्रियां करोतीति केवली णं भंते।मणूसे तीतमणतं सासयं समयं जाव अंतं करेंसु ? मंडगपुत्त शब्दे) हंता गोयमा ! सिज्झिंसु जाव अंतं करिंसु / एते तिन्नि आलावगा केवलिन एव अन्तक्रियां कुर्वन्तीति विवक्षुराह - भाणियव्वा / छउमत्थस्स जहा नवरं सिज्झिंसु सिज्झंति छउमत्थेणं भंते ! मणूसे तीतमणतं सासयं समयं केवलेणं सिज्झिस्संति / से णूणं भंते ! तीतमणतं सासयं समय पडुप्पन्नं वा संजमेणं केवलेणं संवरेणं केवलेणं बंभचेर- वासेणं केवलीहिं सासयं समयं अणा-गयमणतं वा सासयं समयं जे केइ अंतकरावा पवयणमायाहिं सिम्झिसु बुझिसु जाव सव्वदुक्खाणमंतं / अंतिम-सरीरिया वा सव्वदुक्खाणमंतं करिंसु वा, करिति वा, करिसु? गोयमा ! णो इणट्टे समझे / से केणद्वेण मंते ! एवं | करिस्संति वा, सव्वे ते उप्पण्णनाणदंसणधरा अरहा . Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतकिरिया 61 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंतगडदसा जिणे केवली भवित्ता तओ पच्छा सिझंति जाव अंतं करिस्संतिवा? हंता गोयमा ! तीतमणतं सासयंजाव अंतं करिस्संति वा / सेनूणं भंते! उप्पन्ननाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली अलमत्थु त्ति वत्तव्वं सिया ? हंता गोयमा ! उप्पन्ननाणदंसणधरे अरहा जिणे कवेली अलमत्थु त्ति वतव्वं सिया / सेवं भंते ! भंतेत्ति। "से नूण" मित्यादिषु कालत्रयनिर्देशो वाच्य एवेति (अलम-त्थुत्ति) अलमस्तु पर्याप्तं भवतु नातः परं किञ्चिज्ज्ञानान्तरं प्राग्व-क्तव्यमस्तीति एतद्वक्तव्यं स्याद् भवेत्सत्यत्वादस्येति / भ०१श०४ उ०। विनाशे, "दुक्खाणमंतं करिय काही अचिरेण कालेण'' ध०२ अधि०। अन्तो भवान्तस्तस्य क्रियाऽन्तक्रिया भवच्छेद इत्यर्थस्तद्धेतुर्याऽऽराधना शैलेशीरूपा सा अन्तक्रियेत्युपचारात् / केवल्याराधनाभेदे, एषा च | क्षायिकज्ञानिकेवलिनामेव भवति। स्था०२ ठा०। रागद्वेषक्षये एवान्तक्रिया भवितुं शक्नोतिसे नूणं भंते ! कंखापदोसे खीणे समणे णिग्गंथे अंतकरे भवइ अंतिमसरीरिए वा बहुमोहे विय णं पुट्विं विहरित्ता अह पच्छा, संवुडे कालं करेइ तओ पच्छा सिज्झइ बुज्झइ मुबइ जाव अंतं करेइ? हंता गोयमा ! कंखापदोसे खीणे जाव अंतं करेइ। भ०१श०६ उ०) (जीवो यावदेजते तावन्नो अन्तक्रियां कर्तुं शक्नोतीति ईरियाव-हिया शब्दे) (आचार्य उपाध्यायो वाऽग्लान्या गणसंग्रहं कुर्वन कतिभिर्भवैः सिद्ध्यति इति गणसंगहकर शब्दे) अंतकुल-न०(अन्त्यकुल) शूद्रकुले, कल्प०। आ० म० द्वि० / अंतक्खरिया-स्त्री०(अन्त्याक्षरिका) ब्राह्मया लिपेर्नवमे लेख्यविधाने, प्रज्ञा० 1 पद। त्रिषष्टितमकलायाञ्च०। कल्प०) अंतग-त्रि०(अन्तक) विनाशकारिणि, सूत्र०१ श्रु०६ अ०। अन्तग-त्रि०। अन्तं गच्छत्यन्तगः। दुष्परित्यजे,"चिच्चा णं अंतगं सो य णिरवेक्खो परिव्वए"। सूत्र०१ श्रु०६ अ० अन्तयति अन्तं करोति, अन्त णिच् ण्वुल्। मृत्यौ, वाचा अंतगड-पुं०पअन्तकृत(त)ब अन्तो विनाशः स च कर्मणः तत्फलस्य वा संसारस्य कृतो यैस्तेऽन्तकृताः। तीर्थकरादिषु, सका स्था०। पा०॥ अन्तला तं०। सूत्र०। अनु०। कल्प०। अंतगडदसा-स्त्री०पअन्तकृद(त) दशाब बहु० अन्तो भवान्तः कृतो विहितो यैस्तेऽन्तकृतास्तद्वक्तव्यता प्रतिबद्धा दशा दशाध्ययन-रूपा ग्रन्थपद्धतय इति अन्तकृद्(त)दशा / इह चाष्टौ वर्गा भवन्ति, तत्र प्रथमवर्गे दशाध्ययनानीति तानि शब्दव्युत्पत्ते निमित्तीकृत्यान्तकृद्(त) दशाः। अष्टमेऽङ्गे / अन्त० / स्था० स० पा०ानं० / अनु०। आसा वर्गाऽध्ययनानितेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी होत्था पुण्णभद्दे चेतिए वनसंडे वण्णओ। तेणं कालेणं तेणं समएणं अजसुहम्मे समोसरिते परिसा णिग्गया जाव पडिग्गता / तेणं कालेणं तेणं समएणं अजसुद्धम्मे अंतेवासी अजजंबू जाव पखुवासति एवं वयासी जति णं मंते ! समणेणं 3 जाव संपत्तेणं सत्तमस्स | अंगस्स उवासगसाणं अयमढे पन्नत्ते / अट्ठमस्स णं भंते ! अंगस्स अंतगडदसाणं समणेणं के अटे पण्णत्ते ? एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं अट्ठमस्स अंगस्स अंतगडदसाणं अट्ट वग्गा पण्णता / जति णं भंते ! समणेणं 3 जाव संपत्तेणं अट्ठमस्स अंगस्स अंतगडदसाणं अट्ठ वग्गा पण्णत्ता पढमस्स णं मंते ! वग्गस्स अंतगडदसाणं समणेण 3 जाव संपत्तेण कति अज्झयणा पण्णता? एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं अट्ठमस्स अंगस्स अंतगडदसाणं पढ मस्स वग्गस दस अज्झयणा पण्णत्ता। तं जहा (अन्त० 1 वर्ग०) नमी य मंगे सोमिल्ले, रामगुत्ते सुदंसणे / जमाली य भगाली य, किं कडे पल्लए इय / / 1 / / फाले अ अट्टपुत्ते य, एमेते दस आहिया। स्था०१०ठा। अन्तगडेत्यादि इह चाष्टौ वर्गास्तत्र प्रथमवर्गे दशाध्ययनानि तानि चामूनि (नमीत्यादि) सार्द्ध श्लोक मेतानि च नमीत्यादिकान्यन्तकृत्साधुनामानि अन्तकृद्दशाङ्गप्रथमवर्गे अध्ययनसंग्रहे नोपलभ्यन्ते यतस्तत्राभिधीयते 'गोयमा ! समुद्दसागर, गंभीरे चेव होइ थिमिए य / अयले कंपिल्ले खलु अक्खोभ पसेणई विण्हु त्ति / / 1 / / " ततो वाचनान्तरापेक्षाणीमानीति सम्भावयामो न च जन्मान्तरनामापेक्षयैतानि भविष्यन्तीति वाच्यं जन्मान्तराणां तत्रानभिधीयमानत्वादिति। द्वितीये वर्गे इमानिअक्खोमि 1 सागरे खलु २,समुद्द३ हिमवंत : अचलनामे य 5 / धरणे य 6 पूरणे य 7, अभिचंदे चेव अट्ठमए। तृतीये वर्गजति णं भंते ! तबस्स उक्खेवओ एवं खलु जंबू ! अट्ठमस्स अंगस्स तच्चस्स वग्गस्स तेरस अज्झयणा पन्नत्ता / तंजहा अणीयसेणे 1 अणंतसेणे 2 अजियसेणे 3 अणिहयरेसिओ 4 देवसेणे 5 सत्तुसेणे 6 सारणे 7 गए 8 सुमूहे . दुम्मुहे 10 कुवए 11 दारुए 12 अणाहिट्ठा 13 // चतुर्थे वर्गेजति णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं चउत्थस्स वग्गस्स अंतगडदसाणं जाव संपत्तेणं के अटे पण्णते? एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं चउत्थस्स वम्गस्स दस अज्झयणा पण्णत्ता। तंजहा-जाली 1 मयाली 2 उवयाली 3, पुरिससेणे यवारिसेणे य५ / पजुण्णे 6 संबे 7 अनिरुद्ध 8, सचणेमी य 6 दढनेमी य 10 // पञ्चमे वर्गे - जति णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं पंचमस्स वग्गस्स अंतगडदसाणं समणेणं जाव संपत्तेणं के अटे पण्णते एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं पंचमस्स वग्गस्स दस अज्झयणा पन्नत्ता पउमावतीए गोरीगंधारी लक्खमणासुसीमा य। जंबूवती सत्तभामा य रुप्पिणी मूलसिरी मूलदत्ता वि। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतगडदसा 62 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंतगत षष्ठे वर्गेजति णं भंते ! छट्ठस्स उक्खेवतो णवरं सोलस अज्झयणा पण्णत्ता। तं जहा "मकायी 1 किंकडेए चेव 2, मोग्गरपाणीय 3 कासवे / खेमती 5 द्वितवरे चेव 6, केलासे 7 हरिचंदण वारत 6 ||1|| सुदंसणे 10 पुण्णभद्दे 11 तह सुमणभद्दे 12 सुपइटे 13 / मोहति 14 मुत्ते 15 अलक्खे 16 अज्झयणेण तु सोलसयं // 2 // सप्तमे वर्गेजति णं भंते ! समणेणं सत्तमस्स वग्गस्स उक्खेवतो जाव तेरस अज्झयणापण्णत्तातंजहा"नंदा 1 तह नंदवती 2 नंदुत्तर 3 मंदिसेणिया / चेव / मरुता 5 सुमरुता 6 महामरुता 7 मरुदेवा 8 य / / 1 / / अट्ठमी भद्दा सुभद्दा य 10 सुजया 11 सुमणाझ्या 12 / भूयदिण्णा 13 य बोद्धव्वा, सेणियभजाण नामानि // 2 // अष्टमे वर्गेसमणेणं भगवया महावीरेणं जाव अट्ठमस्स वग्गस्स उक्खेवओ जाव नवरं दस अज्झयणा पण्णत्ता 1 तं जहा- "काली 1 सुकाली 2 महा-काली 3 कण्हा 4 सुकण्हा 6 य / वीरकण्हा य 7 बोद्धव्वा, रामकण्हा तहेव य॥१।पउमसेणकण्हानवमी दसमी महासेणकण्हाय। सर्वसंग्रहेणअंतगडदसाणं अट्ठमस्स अंगस्स एगो सुयक्खंधो अट्ठ वग्गा,अट्ठसु चेव दिवसेसु उद्दिसति / तत्थ पढमबिईय-वग्गे दस दस उद्देसगा, तइयवग्गे तेरस उद्देसगा, चउत्थ-पंचमवम्गे दस दस उद्देसगा, छट्ठवग्गे सोलस उद्देसगा, सत्तमवग्गे तेरस उद्देसगा, अट्ठमवग्गे दस उद्देसगा।सेसं जहानायधम्मकहाए। विषयोऽन्तकृद्दशानाम्से किं तं अंतगडदसाओ ? अंतगडदसासु णं अंत-गडाणं णगराई उजाणचेइयवणराया अम्मापियरो समो- सरणधम्मा | धम्मकहा इहलोइअपरलोइअ इडिविसेसा भोगपरिचाया पव्वजाओ सुयपरिग्गहा तवोवहाणाइं पडिमाओ बहुविहाओ खमा अज्जवं मद्दवं च सोअंच सबसहियं सत्तरसविहोय संजमो उत्तमं च बंभं आकिंचिणया तवो किरियाओ समिइगुत्तीओ चेव / तह अप्पमायजोगो सज्झायज्झाणेण य उत्तमाणं दोण्हं पि लक्खणाई पत्ताण य संजमुत्तमं जियपरीसहाणं चउव्विहकम्मक्खयम्मि जहा केवलस्स लंभो परियाउ जत्तिओ य जह पालिओ मुणीहिं पावोवगओय जहिं जत्तियाणि भत्ताणि छेअइत्ता अंतगडे मुणिवरो तमरयोधविमुक्को मोक्खसुहमणंतरं च पत्ता। एए अन्ने य एवमाइत्थ वित्थरेणं परूवेइ। सम०। अंतगडदसाणं परित्ता वायणा, संखिज्जा अगुओगदारा, संखिज्जा वेढा, संखिज्जा सिलोगा, संखिज्जाओ निजुत्तीओ, संखि-जाओ संगहणीओ, संखिज्जाओ पडिवत्तीओ, से णं अंगअट्ठयाए अट्ठमे अंगे, एगे ! सुयक्खंधे, अट्ठ उद्देसणकाला, अट्ठ समुद्देसणकाला, संखिज्जा पयसहस्सा, पयग्गेणं, संखिज्जा अक्खरा, अणंता गमा, अणंता पज्जवा, परित्ता तसा, अणंता थावरा, सासयकड निबद्धनिकाइया जिणपन्नत्ता भावा आघविजंत्ति पन्नविज्जति परूविजंतिदंसिर्जति निदंसिजंति उवदंसिजंति / से एवं आया एवं नाया एवं विन्नाया एवं चरणकरणपरूवणा आधविज्जइ। से तं अंतगडदसाओ ||8 तथा प्राप्तानाञ्च संयमोत्तमं सर्वविरतिजितपरीषहाणाञ्चतुविध कर्मक्षये सति यथा केवलस्य ज्ञानादेलाभः, पर्यायः प्रव्र-ज्यायाः लक्षणो यावाँश्च यावद्वर्षादिप्रमाणो, यथा येन तपो वि-शेषश्रवणादिना प्रकारेण पालितो मुनिभिः पादपोपगमश्च पाद-पोपगमाभिधानमनशनं प्रतिपन्नो यो मुनिर्यत्र शत्रुञ्जयपर्वतादौ यावन्ति च भक्तानि भोजनानि छेदयित्वा, अनशनिनां हि प्रतिदिनं भक्तद्वयच्छेदो भवति, अन्तकृतो मुनिवरो जात इति शेषः / तमोरज-ओधविप्रमुक्तः। एवं च सर्वेऽपि क्षेत्रकालादिविशेषिता मुनयो मोक्षसुखमनुत्तरञ्च प्राप्ता आख्यायन्त इति क्रियायोगः / एते अन्ये "चेत्यादि'' प्राग्वत् , नवरं (दस अज्झयणत्ति) प्रथमवर्गापक्षयैव घटन्ते नन्द्यां तथैव व्याख्यातत्वात् / यचेह पठ्यते "सत्त वग्गत्ति' तत्प्रथमवर्गादन्यवर्गापेक्षया यतोऽत्र सर्वेऽप्यष्टवर्गा नन्द्यामपि तथा पठित्वात्तवृत्तिश्चेयम् (अट्ठवग्गत्ति) अत्र वर्गः समूहः,स चान्त-कृतानामध्ययनानां वा सर्वाणि चैकवर्गगतानि युगपदुद्दिश्यन्ते, ततो भणितं "अट्ठ उद्देसणकाला" इत्यादि इह च दश उद्देशनकाला अधीयन्ते इति नास्याभिप्रायभवगच्छामः / तथा संख्यातानि पदशतसहस्राणि पदाणेति तानि च किल त्रयोविंशतिर्लक्षाणि चत्वारि च सहस्राणीति। (अट्ठवग्गत्ति) वर्गः समूहः, सचान्त-कृतामध्ययनानां वेदितव्यः। सर्वाणि चाध्ययनानि वर्गवर्गान्तर्ग-तानि युगपदुद्दिश्यन्ते, अत आह-अष्टौ उद्देशनकालाः, अष्टौ समुद्देशनकालाः, संख्येयानि पदसहस्राणि पदाग्रेण च / तानि च किल त्रयोविंशतिर्लक्षाः चत्वारः सहस्त्राः / शेष पाठसिद्धंयावन्निगमनन् ।नं।"दस उद्देसणकालादस समुद्देसणकाला''। स० अंतगत(य)-न०(अन्तगत) अन्तशब्दः पर्यन्तवाची, यथा बनान्ते। इत्यत्र ततश्चान्ते पर्यन्ते गतं व्यवस्थितमन्तगतम् / अनुगामिकाऽवधिभेदे, इहार्थत्रयव्याख्या अन्ते गतमात्मप्रदेशानां पर्यन्ते स्थितमन्तगतम् / इयमत्र भावना-इहाऽवचधिरुत्पद्यमानः कोऽपि स्पर्द्धकरूपतयोत्पद्यते स्पर्द्धकं नामावधिज्ञानप्रभाया गवाक्षजालादिद्वारविनिर्गतप्रदीपप्रभाया इव प्रतिनियतो विच्छेद-विशेषः / तथा चाह जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणः स्वोपज्ञभाष्यटी-कायां स्पर्द्धकोऽयमवधिविच्छेदविशेष इति 1 तानि चैकजीवस्य संख्येयान्यसंख्येयानि वा भवन्ति / यत उक्तं मूलावश्यक प्रथमपीठिकायाम् "फड्डा वि असंखेले, संखेज्जयावि एगजीवस्सेति'' तानि च विचित्ररूपाणि / तथाहि-कानिचित्यर्यन्तवर्तिष्वात्मप्रदेशेषुत्पद्यते, तत्रापि कानिचित् पुरतः कानि-चित्पृष्ठतः कानिचिदधोभागे कानिचिदुपरितनभागे कानिचित् मध्यवर्तिप्वात्मप्रदेशेष्ववधिज्ञानमुपजायते, तदात्मनोऽन्ते Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतगत 63. अभिधानराजेन्द्र भाग 1 अंतद्धाणपिंड उपर्यन्ते स्थितमिति कृत्वा अन्तगतमित्युच्यते तैरेव पर्यन्त- / प्रणुदन् प्रणुदन् हस्तस्थितं दण्डाग्राद्यवस्थितं वा क्रमेण स्वगत्यनुसारतः वर्तिभिरात्मप्रदेशैः साक्षादवधिरूपेण ज्ञानेन ज्ञानान्नाशेषैरिति / अथवा प्रेरयन् प्रेरयन् गच्छेत् यायात् एष दृष्टान्तः / उपनयस्तु स्वयमेव औदारिक शरीरस्य अन्ते गतं स्थितमन्तगतं कयाचिदे- भावनीयः / तत उपसंहरति (से तं पुरओ अंतगयं ) से शब्दः कदिशोपलम्भात् / इदमपि स्पर्द्धकरूपमवधिज्ञानम् / अथवा प्रतिवचनोपसंहारदर्शने तदेतत्, पुरतोऽन्तगतम्। इयमत्र भावना।यथा सर्वेषामप्यात्मप्रदेशानां क्षयोपशमभावेऽपि औदारिकशरीरान्ते कयाऽपि स पुरुषः उल्कादिभिः पुरत एव पश्यति, नान्यत्र / एवं येनावधिज्ञानेन दिशा यद्वशादुपलभते तदप्यन्तगतम् / आह यदि सर्वात्मप्रदेशानां तथाविधक्षयोपशमभावतः पुरतः एव पश्यति, नान्यत्र / तदवधिज्ञानं क्षयोपशमस्ततः सर्वतः किंन पश्यति? उच्यते एकदिशैव क्षयोपशमस्य पुरतोऽन्तगतमभिधीयते / एवं मार्गतोऽन्तगतं, पार्श्वतोऽन्तगतसूत्रं संभवात् विचित्रो हि क्षयोपशमस्ततः सर्वेषामप्यात्मप्रदेशानामित्थंभूत भावनीयं, नवरम् (अणुकड्डेमाणे अणुकड्ढे-माणेत्ति) हस्तगतं एव स्वसामग्रीवशात् क्षयो-पशमः संवृत्तो, यदौदारिकशरीरमपेक्ष्य दण्डाऽग्रादिस्थितं वा अनुपश्चात् कर्षन् अनुकर्षन् पृष्ठतः पश्वात् कृत्वा कयाचिद्विवक्षितया एकदिशा पश्यतीति / उक्तं च चूर्णी - समाकर्षन् समाकर्षन्नित्यर्थः / तथा (पासाओ काउं परिकड्डेमाणे "ओरालियसरीरंते हियं गयंति एगटुं तं परिकथेमाणेत्ति) पार्थतो दक्षिणपार्श्वतोऽथवा वामपावतो यदवा द्वयोरपि चायप्पएसफडगा वहिएगदिसोवलं भओ य अतंगडं ओहिनाणं पार्श्वयोः उल्कादिकं हस्तस्थितं वा दण्डाग्रादिस्थितं वा परिकर्षन् भण्णइ। अहवा सव्वायप्परासविसुद्धेसु वि ओरालियसरीरगते एगदिसि परिकर्षन् पार्श्वभागे कृत्वासमाकर्षन् समाकर्षन्नित्यर्थः। नं०१६ पत्र। पासणागयंति अंतगयं भण्णइ "|तृतीयोऽर्थः एकदिग्भाविनाऽवधिज्ञानेन (मध्यगतादस्य विशेषः, आणुगामिय शब्दे) यदुयोतितं क्षेत्रं, तस्यां वर्त्तते तदवधिज्ञानमवधिज्ञानवतस्तदन्ते *अन्त्रगत-त्रि० अन्त्रान्तर्वतिनि, सूत्र०२ श्रु०१ अ०॥ वर्तमानत्वात्ततोऽन्ते एकदिग-रूपस्यावधिज्ञानविषयस्य पर्यन्ते अंतम्गअ-त्रि०(अन्तर्गत) तोऽन्तरि। 8 / 1 / 60 / इति सूत्रस्य व्यवस्थितमन्तगतम्। क्वचित्कत्त्वान्नान्तःशब्दे, तस्यात एत्वम्। मध्यगते, प्रा०ा अभ्यन्तरे, तभेदा यथा अष्ट। से किं तं अंतगयं? अंतगयं तिविहं पण्णत्तं / तं जहा-पुरओ | तावह पण्णत्त / त जहा-पुरआ| अंतचरय-पुं०(आन्तचरक) पार्श्वचारिणि, अभिग्रहविशेषधारके अंतगयं, मग्गओ अंतगयं, पासओ अंतगयं / सं किं तं पुरओ भिक्षाके, स्था०५ ठा०ायो हि अभिग्रहविशेषात्क्षेत्रान्तरेषु चरति / स्था० अंगतयं ? पुरओ अंतगयं से जहानामए केइ पुरिसे उकं वा 4 ठा। चडुालय वा अलात वा माण वा पइव वा जाइ वा पुरआ काउ | अंतचारि(न)-पुं०(आन्तचारिन्) अन्तेन भुक्तावशेषेण वल्ला-दिप्रकृ पणोल्लेमाणा पणोल्लेमाणा गच्छिज्जा, से तं पुरओ अंतगयं। | टन चरन्तीति। अभिग्रहविशेषधारके भिक्षाके, स्था०१० ठा०। सूत्र से किं तं मग्गओ अंतगयं मग्गओ अंतगयं से जहा नामए केइ | अंतजीवि(न)-पुं०(आन्तजीविन्) आन्तेन जीवितुं शील-माजन्माऽपि पुरिसे उक्कं वा चडुलियं वा अलातं वा मणिं वा पईवं वा जोई यस्य स तथा / अभिग्रहविशेषधारके भिक्षौ, स्था० 5 ठा०। सूत्र०। वा मग्गओ काउं अणुकड्डेमाणे अणुकड्डेमाणे गच्छिज्जा, से तं अंतट्ठ-पुं०(अन्तःस्थ) अन्तः स्पर्शोष्मणोर्वर्णयोर्मभ्ये तिष्ठतीति स्थामग्गओ अंतगयं / से किं तं पासओ अंतगयं? पासओ अंतगयं क्विप् / यरलवाख्येषु वर्णेषु, ते हि कादिमावसानस्पर्शानां से जहानामए केइ पुरिसे उक्कं वा चडुलियं वा अलायं वा मणिं शषसहरूपोष्माणां च मध्यस्थाः / वा विसर्गलोपेऽन्तस्था अपि वा पईवं वा जोइं वा पासओ काउं परिकड्डेमाणे परिकड्डेमाणे मध्यस्थितमात्रे, त्रि०ावाचा गच्छिज्जा सेत्त पासओ अंतगयं / से तं अंतगयं। अंतद्धाण-न०(अन्तर्धान) अन्तर्-धा-ल्युट्। तिरोधाने, अथ किं तत् अन्तगतम् ?अन्तगतं त्रिविधं त्रिप्रकारं प्रज्ञप्त, तद्यथा शक्तिस्तम्भे तिरोधानं, कायरूपस्य संयमात् / पुरतोऽन्तगतमित्यादि। तत्र पुरतोऽवधिज्ञानिनः स्वव्यपेक्षया अग्रभागे कायः शरीरं तस्य रूपं चक्षुह्यिो गुणस्तस्य नास्त्यस्मिन् काये अन्तगतं पुरतोऽन्तगतम् / तथा मार्गतः पृष्ठतोऽन्तगतं मार्ग रूपमिति संयमाद्रूपस्य चक्षुर्गाह्यत्वरूपायाः शक्तेः स्तम्भे, भावनातोऽन्तगम् / तथा पार्श्वतो द्वयोः पार्श्वयोरेकतरपार्वतो वाऽन्तगतं पार्श्वतोऽन्तगतम्। अथ किं तत्पुरतोऽन्तगतम् (से जहा० इत्यादि) स वशात् प्रतिबन्धे सति तिरोधानं भवति / चक्षुषः प्रकाशरूपस्य विवक्षितो यथा नाम कश्चित्पुरुषः अत्र सर्वेष्वपि पदेषु एकारान्तत्वमतः, सात्त्विकस्य धर्मस्य तद्ग्रहणव्यापाराभावात्तथा संयमवान् योगी न सौ पुंसि / इमानि मागधिक भाषालक्षणात्सर्वम-धीहि केनचिद् दृश्यते, इत्यर्थः / एवं शब्दादितिरोधानमपि शेयम् / तदुक्तं प्रवचनमर्द्धमागधिकभाषात्मकम् / अर्धमागधिकभाषया तीर्थकृतां कायरूपसंयमात् ग्राह्यशक्तिस्तम्भे चक्षुषः प्रकाशसंयोगे-ऽन्तर्धानम्। देशनाप्रवृत्तेः। ततः प्रायः सर्वत्रापि मागधिकभाषा-लक्षणभनुसरणीयम्। एतेन शब्दाधन्तर्धानमुक्तमिति / द्वा० 26 द्वा०। अञ्ज(उक्क वेति) उल्का दीपिका, वा शब्दः सर्वोऽपि विकल्यार्थः / चटुलीं नविद्यादिनाऽदृश्यीभवने, नि० चू०१ उ०। व्यवधाने च / व्य० 2 उ०। वा, चटली पर्यन्तज्वलिततण पूलि-का, अलावा, अलातमुल्मुकं च | अंतद्धाणपिंड-पुं०(अन्तर्धानपिण्ड) आत्मानमन्तर्हितं कृत्वा गृह्यमाणे अग्रभागे ज्वलत्काष्ठमित्यर्थः / मणिं वा मणिः प्रतीतः, ज्योतिर्वा, I पिण्डे "अप्पाणं अंतरहितं करेत्ता जो पिंड गेण्हइ सो अंतद्धाणपिंडो ज्योतिः स एवाद्याधारो ज्वलदग्निः / आह च चूर्णिकृत् - "जोइ त्ति भण्णति जो अंतद्धाणपिंड भुंजइ, भुजंतं वा साइजइ'' आज्ञादयोऽत्र मल्लगाइठिओ अगणी जलंतो इति' प्रदीपं वा, प्रदीपः प्रतीतः / दोषाश्चतुर्लघु प्रायश्चित्तम् / नि० चू०२ उ०1 अशिवादिकारणेपुरतोऽग्रतो वा हस्ते दण्डादौ वा कृत्वा (पणोल्लेमाणे पणोल्लेमाणेत्ति) | ऽन्तर्धानपिण्डमुत्पादयेत्। (अत्रोदाहरणं चूण्ण शब्दे) Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतद्धाणी 64 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंतर न्तरमामा अंतद्धा(णिया)णी-स्त्री०(अन्तर्धानिका) अन्तर्धानकारिणी महाहिमवद्रुक्मिकस्यापीति इहैव महाहिमवत्सूत्रे प्रतिपादितम्। विद्याविशेषे, सूत्र०२ श्रु०२ अ०| (24) लवणसमुद्रचरमान्तयोरन्तरम्। अंताद्धि-पुं०(अन्तर्द्धि) व्यवधाने, हैम०। (25) लवणसमुद्रद्वाराणामन्तरम् / अंतद्धाभूय-त्रि०(अन्तर्धाभूत) नष्टे, "नट्टेत्ति वा विगएत्ति वा / (26) वडवामुखादीनामधस्तनाचरमान्ताद्रत्नप्रभाया अधअंतद्धाभूतेत्ति वा एगट्ठा' / आ० चू०१ अ०। स्तनचरमान्तस्यान्तरम् / अंतप्पाअ-पुं०(अन्तःपात) कगटडतदपशषसकपामूर्ध्वं लुका | (27) विमानकल्पानामन्तरम् / 877 / इति ककारादूर्ध्वस्थस्य जीह्नामूलीयस्य लुक् / मध्ये यतने, (28) आहारमाश्रित्य जीवानामन्तरं प्रतिपाद्य तस्मिन्नेव सूत्रे प्राण सयोगिभवस्थकेवल्यनाहारकस्य चान्तरम् / अंतब्माव-पुं०(अन्तर्भाव) प्रवेशे, विशे०। (26) एकेन्द्रियाद्याश्रित्य कालतोऽन्तरम् / अंतर-न०(अन्तर) मध्ये, आचा०१ श्रु०६अ। विशेषे, ध०१ अधि०। (30) कषायमाश्रित्यान्तरं प्रतिपाद्य कायमाश्रित्यान्तरं निरू-पितम्। अवधौ, परिधानांशुके, अन्तर्धान, भेदे परस्परवैलक्ष- ण्यरूपे विशेषे, (31) गतिमाश्रित्यान्तरं प्रतिपाद्य ज्ञानमाश्रित्य जीवानामतादर्थ्य, छिद्रे, आत्मीये, विनार्थे, बहिरर्थे सदृशे, वाच० / सूरविशेषे, न्तरमभिहितम्। पानीयान्तरमिति सूत्रधारैर्यव्यपदिश्यते। ज्ञा०१अ०व्यवधाने, जं. (32) त्रसस्थावर-नोत्रसस्थावराणामन्तरम् / 1 वक्ष०। स्था०। अन्तं राति ददाति राक। वि०॥ तं०। अवकाश, भ०७ (33) सम्यग्दृष्टिकमाश्रित्यान्तरम् / श०८ उ०। प्रव०। सूत्र०ा नि०। (34) पर्याप्तिमाश्रित्यान्तरमभिधाय कायादिपरीतानामन्तरम(१) अन्तरस्य भेदाः। भिहितम्। (2) द्वीपपर्वतानां परस्परं व्यवधाने वक्तव्ये ईषत्प्रारभारायाः (35) पुद्गलमाश्रित्यान्तरमुक्त्वा प्रथमसमयाऽप्रथमसमयअलोकस्यान्तरमुक्तम्। विशेषणेनैकेन्द्रियाणां नैरयिकादीनां चान्तरम्। (3) क्षुल्लहिमवत्कूटस्योपरितनाचरमान्ताद्वर्षधरपर्वतस्य (36) बादरसूक्ष्मनोसूक्ष्मनोबादराणामन्तरम्। समधरणितलस्यान्तरम्। (37) सूक्ष्मस्यान्तरं प्रतिपाद्य भाषामाश्रित्य जीवानामन्तरं निरूपितम्। गोस्तूभस्य पौरस्त्याच्चरमान्ताद् वडवामुखस्य पाश्चात्य (38) योगमाश्रित्यान्तरमुक्त्वा लेश्यामाश्रित्य जीवानामन्तरं चरमान्तस्यान्तरम्। निरूपितम्। (5) जम्बूद्वाराणां परस्परमन्तरम्। (36) वेदविशिष्ट जीवानामन्तरं प्रतिपाद्य मनुष्यादिभेदेन वेद(६) जम्बूद्वीपस्य पौरस्त्यचरमान्त द्गोस्तूभस्य पाश्चात्यचर विशेषविशिष्टानां स्त्रीपुन्नपुंसकानामन्तरं प्रतिपादितम् / मान्तस्यान्तरम्। (50) औदारिकादिशरीरविशिष्टानामन्तरमुक्त्वा संज्ञाविशेषणेन अन्तरं (7) जम्बूद्वीपस्य पौरस्त्याद्वेदिकान्ताद् धातकीखण्डस्य निरूपितम्। पाश्चात्यचरमान्तस्यान्तरम्। (41) संयमविशेषणेनान्तरमभिधाय सिद्धस्यासिद्धस्य चान्तरं (8) जिनान्तराणि। निरूपितम्। (8) ऋषभावीरस्यान्तरम् / (1) अन्तरस्य भेदाः(१०) ज्योतिष्काणां चन्द्रमण्डलस्य चान्तरम् / चउविहे अंतरे पण्णत्ते, तं जहा-कटुंतरे पम्हंतरे लोहंतरे (11) चन्द्रसूर्याणां परस्परमन्तरम् / पत्थंतरे / एवामेव इत्थिए वा पुरिसस्स वा चउविहे अंतरे (12) ताराणां परस्परमन्तरम् / पण्णत्ते, तं जहा-कटुंतरसमाणे पम्हंतरसमाणे लोहंत-रसमाणे (13) सूर्याणां परस्परमन्तरम् / पत्थंतरसमाणे। (14) धातकीखण्डस्य द्वाराणामन्तरम् / काष्ठस्य च काष्ठस्य चेति काष्ठयोरन्तरं विशेषो रूपनिर्माणा-दिभिः, (15) नन्दनवनस्याधस्तनाचरमान्तात्सौगन्धिकस्य काण्ड - एवमेव काष्ठाद्यन्तरमिव पक्ष्मकप्पासरूतादि पक्ष्मणोरन्तरं स्याधस्तनचरमान्तस्यान्तरम् / विशिष्टसौकुमार्यादिभिर्लोहान्तरमत्यन्ताच्छेकत्वादिभिः, प्रस्तरान्तरं (16) नरकपृथ्वीनां रत्नप्रभाकाण्डानामन्तरम् / पाषाणान्तरं चिन्तितार्थप्रापणादिभिरेवमेव काष्ठाद्यन्त-रवत् स्त्रिया वा (17) रत्नप्रभादिभ्यो घनवातादेरन्तरम्। स्यन्तरापेक्षया पुरुषस्य वा पुरुषान्तरापेक्षया वाशब्दो (18) रत्नप्रभादीनां परस्परमन्तरम् / स्त्रीपुंसयोश्चातुर्विध्यं प्रति निर्विशेषताख्यापनार्थी काष्ठान्तरेण समानं (16) निषधकूटस्योपरितनाच्छिखरतलात्समधरणितलस्यान्तरं तुल्यमन्तरं विशेषो विशिष्टपदवियोग्यत्वादिना, पक्ष्मान्तरसमानं निरूप्य निषधपर्वतस्य रत्नप्रभायाः बहुमध्यदेशभागो निरूपितः / वचनसुकुमारतयैव, लोहान्तरसमानं स्नेहच्छे देन परीषहादौ (20) पुष्करवरद्वाराणामन्तरम् / निर्भङ्ग त्यादिभिश्च, प्रस्तरान्तरसमानं चिन्तातिक्रान्त-मनोरथपूरकत्वेन (21) मन्दराज्जम्बूद्वीपाच गोस्तूभस्यान्तरम् / विशिष्टगुणवत् वन्द्यपदवीयोग्यत्वादिना चेति / स्था०४ / ग01 (22) मन्दराद्गौतमस्यान्तरम् / (२)द्वीपपर्वतादीनां परस्परं व्यवधानं (23) मन्दराहकभासस्यान्तरं निरूप्यमहाहिमवतोऽन्तरं प्रति-पादितम् / दयते तत्र ईषत्प्राग्भाराया अलोकस्य यथा Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतर 65 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंतर ईसिप्पन्भाराए णं भंते ! पुढवीए अलोगस्स य के वइए अबाहाए पुच्छा, गोयमा ! देसूणं जोअणए अबाहाए अंतरं पण्णत्ते। (देसूणं जोयणंति) इह सिद्ध्यलोकयोर्देशोनं योजनमन्तरमुक्तम्, आवश्यके तु योजनमेव / तत्र च किशन्न्यूनताया अविवक्षणान्न विरोधो मन्तव्य इति / भ०४ श०८ उ० (3) क्षुद्रहिमवत्कूटस्योपरितनाचरमान्ताद्वर्षधरपर्वतस्य समधरणितलेऽन्तरम्चुल्लहिमवंतकूण्डस्स णं उवरिल्लाओ चरमंताओ चुल्लहिमवंतस्स वासहरपब्वयस्म समधरणितले एस णं छ जोयणसयाई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / एवं सिहरिकूडस्स वि। इह भावार्थो हिमवान् योजनशतोच्छ्रितस्तत्कूट पञ्चशतो-च्छ्रितमिति सूत्रोक्तमन्तरम्भवतीति। स०। (4) गोस्तूभस्य पौरस्त्याच्चरमान्ताद् वडवामुखस्य पाश्चात्यचरमान्तेऽन्तरम्गोथूभस्सणं आवासपव्वयस्स पुरच्छिमिल्लाओ चरमंताओ वलयामुहस्स महापायालस्स पच्चच्छिमिल्ले चरमंते, एस णं बावन्नं जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। (गोथूभेत्यादि) गोस्तूभस्य प्राच्यां लवणसमुद्रमध्यवर्तिनो वेलन्धरनागराजनिवासभूतपर्वतस्य पौरस्त्याचरमान्तादपसृत्य वडवामुखस्य महापातालकलशस्य पश्चात्यश्चरमान्तो येन भवतीति गम्यते / (एस णं ति) एतदन्तरमध्ये ऽबाधया व्यवधानलक्षणमित्यर्थः / द्विपञ्चाशद्योजनसहस्राणि भवन्तीत्यक्षरघटना / भावार्थस्त्वयम् इह लवणसमुद्रं पञ्चनवतियोजनसहस्राण्यवगाह्य पूर्वादिषु दिक्षु चत्वारः क्रमेण वडवामुखकेतुकयूप केश्वराभिधाना महापातालकलशा भवन्ति / तथा जम्बूपर्यन्ताद्विचत्वारिंशधोजनसहस्राण्यवगाह्य सहस्रविष्कम्भाश्चत्वार एव वेलन्धरनागराजपर्वताः गोस्तूभादयो भवन्ति / ततश्च पञ्चनवत्यास्त्रिचत्वारिंशत्यपकर्षितायां द्विपञ्चाशत्सहस्राण्यन्तरं भवति / स०५१ समा (5) जम्बूद्वाराणं परस्परमन्तरम्जंबूदीवस्स णं भंते ! दीवस्स दारस्स य दारस्स य केव-इए अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ? गोयमा! अउणासीइंजोअणसहस्साई बावण्णं च जोअणाई देसूणं च अद्धजोअणं दारस्स य दारस्स य अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / जी०। जम्बूद्वीपस्य णमिति प्राग्वत् भदन्त ! द्वीपस्य संबन्धिनो द्वारस्य 2 च कियत् किं प्रमाणम् (अबाहाए अंतरेत्ति) बाधा परस्परं संश्लेषतः पीडनं, न बाधा अबाधा / तथा कियदन्तरं व्यव-धानमित्यर्थः प्रज्ञाप्तम् / इहान्तरशब्दो मध्यविशेषादिष्वर्थेषु वर्तमानो दृष्टस्ततस्तद्यवच्छेदेन व्यवधानार्थपरिग्रहार्थमबाधा ग्रहणम्। अत्र निर्वचनं भगवानाह गौतम ! एकोनाशीतिर्योजन-सहस्राणि द्विपञ्चाशद्योजनानि देशोनं चार्द्धयोजनं द्वारस्य द्वारस्य चाबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् / तथाहि जम्बूद्वीपपरिधिः प्राग-निर्दिष्टयोजनानि तिस्रो लक्षाः, षोडश सहस्राणि, द्वे शते सप्तविंशन्त्यधिके (316227) क्रोशत्रयम् (3) अष्ट- विंशधनुःशतं | (128) त्रयोदशाङ्गुलानि (13) एकमर्धाङ्गुलमिति / अस्माद् द्वारचतुष्कविस्तारोऽष्टादश योजनरूपोऽपनीयते यत एकैकस्य द्वारस्य विस्तारो योजनानि चत्वारि चत्वारि (4) प्रतिद्वारम् / द्वार - शाखाद्वयविस्तारश्च क्रोशद्वयं कोशद्वयम् / अस्मिंश्च द्वारस्य शाखयोश्च परिमाणे चतुर्गुणे जातान्यष्टादश योजनानि (18) ततस्तदपनयने शेषपरिधिसत्कस्यास्य योजनरूपस्य (316206) चतुर्भागलब्धानि योजनानि एकोनाशीतिः सहस्राणि द्विपञ्चाशदधिकानि (76052) क्रोशश्चैकः / तथा परिधिसत्कस्य क्रोशत्रयस्य धनुष्करणे जातानि धनुषां षट् सहास्राणि (6000) एष च परिधिसत्कः अष्टाविंशत्यधिक धनुःशतकस्य क्षेपे जातानि धनुषामेकषष्टिशतान्यष्टाविंशत्यधिकानि (६१२८)ततोऽस्य चतुभिर्भागे लब्धानि पञ्चदशशतानिद्वात्रिंशदधिकानि (1532) यानि च परिधिसत्कत्रयोदश अङ्गुलानि (13) तेषामपि चतुर्भिर्भागे लब्धानि त्रीण्यङ्गुलानि (3) शेषे चैकस्मिन्नङ्गुले यवाः अष्टौ (8) एषु परिधिसत्कयवपञ्चक (5) क्षेपे जातात्रयोदश यवाः (13) एषां च चतुर्भिागे लब्धास्त्रयो यवाः (3) शेषे चैकस्मिन्ये यूकाः अष्टौ (8) आसुपरिधि सत्कैकयूकाक्षेपे जाता नव () आसां चतुर्भिर्भागे लब्धे द्वे यूके (2) शेषस्याल्पत्वान्न विवक्षा। एतच्च सर्व देशोनमेकं गव्यूतमिति जातं पूर्वलब्धगव्यूतेन सह देशोनमर्द्धयोजनमिति। जं०१ वक्षा"इममेवा) द्विर्बद्धं सुबद्धमिति" अबद्धसूत्रतो बद्धसूत्रं लाघवरुचिसत्त्वानुग्राहकमिति वा गाध्याऽऽह / "कटुदुवारपमाणं, अट्ठारस जोयणाई परिहाए / सोहियचउहि विभत्ते, इणमो दारंतरंहोइ।।१।।अउणासीइसहस्सा, बावण्णा अद्ध जोयणं तूणं / दारस्य यदारस्स य, अंतरमेयं विणि-ट्ठि' // 2 // जी०३ प्रति० स०) (6) जम्बूद्वीपस्य पौरस्त्यचरमान्ताद् गोस्तूभस्य पाश्चात्यचरमान्ते अन्तरमाहजंबूदीवस्स णं दीवस्स पुरथिमिल्लाओ चरमंताओ, गोथूभस्स णं आवासपव्वयस्स पचच्छिमिल्ले चरमंते एस णं बायालीसं जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / एवं चउद्दिसिंपि दगमासे संखोदयसीमे य। (पुरथिमिल्लाओ चरिमंताओ त्ति) जगतीबाह्यपरिधेरपसृत्य गोस्तूभस्यावासपर्वतस्य वेलन्धरनागराजसंबन्धिनः पाश्चात्यसीमान्तश्वरमविभागो वा यावताऽन्तरेण भवति। (एस णंति) एतदन्तरं द्विचत्वारिंशत् योजनसहस्राणि प्रज्ञप्तमन्तरशब्देन विशेषो-ऽप्यभिधीयते इत्यत आह (अबाहाएत्ति) व्यवधानापेक्षया यदन्तरं तदित्यर्थः। (7) जम्बूद्वीपस्य पौरस्त्याद्वेदिकान्तात् धातकीखण्डस्य पाश्चात्यचरमान्ते अन्तरम् - जंबूदीवस्म णं दीवस्य पुरथिमिल्लाओ वे इयंताओ धायइखंडचक्कवालस्य पञ्चच्छिमिल्ले चरमंते सत्तजोयणसयसहस्साई अबाहाइ अंतरे पण्णत्ते। तत्र लक्षं जम्बूद्वीपस्य द्वे लवणस्य चत्वारि घातकीखण्डस्येति सप्त लक्षाण्यन्तरं सूत्रोक्तम्भवतीति (700000) (8) जिनान्तराणि - जम्मा जम्मो जम्मा, सिवं सिवा जम्म मुक्खओ मुक्खा इय चउजिणंतराइं, इत्थं चउत्थं तुनायव्वं // 26 // सत्त०१६५ द्वा०। सांप्रतं यश्चक्रवर्ती वासुदेवो वा यस्मिन् जिने जिनान्तरे वाऽऽसीत् तत् प्रतिपाद्यत इत्यनेन संबन्धेन जिनान्तरागमनं, तत्रापि तावत् प्रसंगत एव कालतो जिनान्तराणि निर्दिश्यन्ते Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतर 66 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अंतर "उसभाओ कोडिलक्खं ५०(अजिओ)। अजियाओ कोडि-लक्खं ३०,संभवो, संभवओ कोडिलक्खं 10, अभिनंदणो, अभिनंदणओ | कोडिलक्खं ६,सुमई,सुमईओ कोडीओ उ णउइसहस्सेहिं 60, पउमप्पभो, पउमप्पभओ कोडीणं नव सहस्सेहिं , सुपासो,कोडी नवसएहिं 600, चंदप्पभो, कोडीओ णउती 60, पुष्पदंतो, कोडीउ णवहिओ , सीयलो, कोडीऊणाऊणा 100 सा०(६६२६०००) वरिसाई / सेज्जंसो, सागरोपमाई 54 वासुपुज्जो, तीससागराई 30 विमलो, सागरो-वमाइं 4, धम्मो, सागरोवमाइं 3 ऊणाई 1 पलियचउब्भागेहिं 3 संति, पलियद्धं कंथु, पलियचउभाओ४ ऊणाओ वासकोडीसहस्सेण 1 अरो, वासकोडीसहस्सं 1 मल्ली, वरिसलक्खं चउप्पन्ना 54 मुणिसुव्वओ, वरिसलक्खं 6 नमी, वरिसलक्खं 5 अरिहनेमि, वरिससहस्सं 83750 पासो / (पासओ य)वाससयाई 250 वद्धमाणो, जिणंतराई" इह चासम्मोहार्थं सर्वेषामेव जिनचक्रवर्तिवासुदेवानां यो यस्मिन् कालेऽन्तरे वा चक्रवर्ती वासुदेवो वा भविष्यति बभूव वा तस्यानन्तरध्यावर्णित-प्रमाणायुःसमन्वितस्य सुखपरिज्ञानार्थमयं प्रतिपादनोपायः। "बत्तीसं घरयाई, काउं तिरिया य ताहिं रेहाहिं। उड्डाययाहिं काउं, पंच घराई तओ पढमो / / पन्नरस जिणनिरंतर-सुन्नदुग्गं तिजिण सुन्नतिगं च। दो जिणसुन्नजिणिदो, सुन्नजिणो सुन्न दोणि जिणा।। (बितीयपंतिट्ठवणा) दो चक्कि सुन्नतेरस, पण चक्की सुन्नचक्कि दो सुन्ना। चक्की सुन्नदुचक्की, सुन्नं चक्की दुसुन्नं च। (ततीयपंतिट्ठवणा) दस सुन्न पंच केसव, पण सुन्न केसि सुन्नकेसी य। दो सुन्नकेसवो विय, सुन्नदुर्ग केसव तिसुन्नं / / स्थापना चेयम्। (सा चेहैव सप्त षष्टितमे पत्रे विव्रियते) प्रसङ्गादायुः शरीरप्रमाणं च। (E) ऋषभाद् वीरस्य। उसभस्स भगवओ महावीरस्स य एगा सागरोवमकोडा-कोडी अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। प्राकृतत्वेन श्रीऋषभ इति वाच्ये व्यत्ययेन निर्देशः कृतः एकसागरोपमकोटाकोटी द्विचत्वारिंशता वर्षसहस्रैः किञ्चित्साधिकैरूनाऽप्यल्पत्वाद्विशेषस्याविशेषितोक्तेति / स०। कल्प० वीरमहापद्मयोः 'चुलसीइसहस्साई, वासा सत्तेव पंच मासाई / वीरमहापउमाणं, अंतरमेयं विणिद्धिट्ट"|| तिक (10) ज्योतिष्काणां चन्द्रमण्डलस्य चान्तरं यथा। चंदमंडलस्स णं भंते ! चंदमंडलस्स केवइआए अबा-हाए अंतरे पण्णत्ते ? गोयमा! पणतीसं पणतीसं जोअणाई तीसंच एगसट्ठिमाए जोअणस्स एगसट्ठिभागंच एगं सत्तहा छेत्ताचत्वारि चुण्णिअभाए चंदमंडलस्स 2 अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / चन्द्रमण्डलस्य भदन्त ! चन्द्रमण्डलस्य कियत्या अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तं ? गौतम ! पञ्चत्रिंशद्योजनानि त्रिंशच्चैकषप्टिभागान् योज-नस्य एकं च एकषष्टिभागं सप्तधा छित्वा चतुरश्चूर्णिकाभागान् एतच चन्द्रमण्डलस्य अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् / अत्र सप्त-चत्वारश्चूर्णिका यथा समायान्ति तथाऽनन्तरं व्याख्यातम् / जं०७ वक्ष) (11) चन्द्रसूर्याणां परस्परमन्तरमाह। चंदातो सूरस्स य, सूरा चंदस्स अंतरं होई। पण्णाससहस्साई, तु जोयणाणं अणूणाई // 27|| सूरस्स य सूरस्स य, ससिणो ससिणो य अंतरं होई। बहिं तु माणुसनगस्स, जोयणाणं सतसहस्सं // 28|| मानुषनगस्य मानुषोत्तरपर्वतस्य बहिः सूर्यस्य सूर्यस्य परस्परं चन्द्रस्य चन्द्रस्य परस्परमन्तरं भवति योजनानां शतसहस्रं लक्षम् / तथाहि चन्द्रान्तरिताः सूर्याः सूर्यान्तरिताश्चन्द्रा व्यवस्थिताः, चन्द्रसूर्याणां च परस्परमन्तरं पञ्चाशद् योजनसहस्राणि (50000) / ततश्चन्द्रस्य सूर्यस्य च परस्परमन्तरं योजनानां लक्षं भवतीति / सू० प्र० 16 पाहुाद०प०॥ बे जोयमाणि सूरस्स, मंडलाणं तु हवइ अंतरिया। चंदस्य वि पणतीसं, साहीया होइ नायव्वा / / सूर्यस्य सवितुः सत्कानां मण्डलानां परस्परमन्तरिका, अन्तरमेवान्तर्य भष्टजादित्वात् स्वार्थे यणप्रत्ययः / ततः स्त्रीत्वविवक्षायां डीप्प्रत्यये आन्तरी अन्तरमेव आन्तर्येव आन्तरिका भवति। द्वे योजने ,पुनश्चन्द्रस्य आन्तरिका भवति ज्ञातव्या पश्चत्रिंशद्योजनानि साधिकानि / पञ्चत्रिंशत् योजनानि पञ्चविंशतिरेकषष्टिभागा योजनस्य, एकस्य च एकषप्टिभागस्य सप्तधा छिन्नस्य सत्काश्चत्वारो भागा इत्यर्थः / ज्यो०१०पाहुन (12) ताराणां परस्परमन्तरम्जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे ताराए अताराए अ केवइए अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ? गोतमा! दुविहे अंतरे पण्णत्ते,तं जहा वाघाइए अ निव्वाग्घाइए अ / निव्वाघाइए जहण्णेणं पंचधणुसयाई, उक्कोसेणं दो गाउआइ / वाघाइए जहण्णेणं दोण्णि छावढे जोअणसए , उक्कोसेणं बारस जोअणसहस्साइं। दोषिण अ वायाले जोअणसए तारारूवस्स तारारूवस्स अबाहाए अतरे पण्णत्ते। जम्बूद्वीपे भदन्त ! द्वीपे तारायास्तारायाश्च कियदबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तं? भगवानाह-गौतम ! द्विविधं व्याघातिक निर्व्याघातिकं च। तत्र व्याघातः पर्वतादिस्खलनं, तत्र भवं व्याघातिकं / निर्व्या-घातिक व्याघातिकान्निर्गतं स्वाभाविकमित्यर्थस्तत्र यन्नियाघा-तिकं तज्जधन्यतः पञ्चधनुःशतानि, उत्कृष्टतो वे गव्य॒ते / एतच जगत्स्वभावादेवावगन्तव्यं / यच व्याघातिक तज्जघन्यतो द्वे योजनशते षट्षष्टयधिके, एतच निषधकूटादिकमपेक्ष्य वेदितव्यं / तथाहिनिषधपर्वतः स्वभावतोऽप्युच्चैश्चत्वारि योजनशतानि, तस्य चोपरि पशयोजनशतोचानि कूटानि, तानि च मूले पञ्चयोजनशतान्यायामविष्कम्भाभ्यां, मध्ये त्रीणि योजनशतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि, ऊपरि अर्द्धतृतीये द्वे योजनशते / तेषां चोपरितनभागसमश्रेणिप्रदेशे तथाजगत्स्वाभाव्यादष्टावष्टौ योजनान्यया-धया कृत्या ताराविमानानि परिभ्रमन्ति। ततो जघन्यतो व्या-घातिकमन्तरं द्वे योजनशते षट्षष्ट्यधिके भवतः, उत्कर्षतो द्वादशयोजनसहस्राणि द्वे योजनशते द्विचत्वारिंशदधिके / एतच्च मेरुमपेक्ष्य द्रष्टव्यम् / तथाहि मेरौ दशयोजनसहस्राणि, मेरो-श्वोभयतोऽबाधया एकादशयोजनशतान्येकविंशत्यधिकानि, ततः सर्वसंख्यामीलने भवन्ति द्वादश योजनसहस्राणि द्वे च योजनेशते द्विचत्वारिंशदधिके / एतत्तारारूपस्य अन्तरं प्रज्ञाप्तमिति / जं०७ वक्ष०। जी०। चं० प्र० Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मघवं उसभो | अजिओ | संभवो अभिनंदणो सुमती पठमप्पभो सुपासो चंदप्पहो| पुप्फदंतो सीथलो | सेजंसो वासुपुज्जो| विमलो अणंतो | धम्मो 0 भरहो सागरी . . . . . . . . . . . / . . . . . | तिवित | दुवित सयंभू | पुरिसो- पुरिस त्तमो सीहो 500 | 450 / 400 | 350 / 300 | 250 / 200 | 150 / 100 / 90 | 80 / 70 / 60 / 50 | 15 | धनूसतं | धनूसतं | धनूसतं | बनूसतं | धनूसतं धनूसतं धनूसतं | धनूसतं धनूसतं धनूसतं धनूसतं बनूसतं | बनूसतं | बनूसतं | धनूसतं | धनूसतं |84,00,000 /72,00,000 /60.00.000/40.00,00050,00,00050,00,000/20.000000.00.000/ 2,00,000 | 1,00,000 / 84,00,000/72,00,000/60,00,000 30.00.000 10.00,000 / 5.00.000 | पुष्य- पुष्य- | पुष्य- | पुष्य- पुष्व- | पुष्व- पुष्व- | वरिस | वरिसं | परिसं | वरिसं | वरिस | परिस (67) श्रीअभिधानराजेन्द्रः। (67) संती अरो णमी णेमी पासो वद्धमाणो सर्णकुमारो| संती कुंथू / अरो | . सभूमो . . | पठमो | 0 | हरिसेणो | जयनामा | बंभदत्तो . . . . . . पुंडरीओ . | दत्तो . . नारायणो . . कण्हो . . . . . . | मल्ली / मुणि सुव्वओ अनूसतं | धनूसतं | धनूसतं | धनूसतं | धनूसतं | बनूसतं | धनूसतं बनूसतं | धनूसतं | बनूसतं / बनूसतं | धनूसतं | धनूसतं हत्था हत्था 3,000 | 1,000 / 700 | 100 / 72 3,00,000 1,00,000 / 95,000 / 84.000 / 65.000 / 60.000 , 56,000 | 55,000 | 30.000 | 12.000 | 10,000 वरिसं | बरिसं / वरिसं वरिसं वरिसं | वरिसंवरिस | वरिसं | वरिस | परिसं | वरिसं वरिसं वरिससतं वरिससतं वरिसं Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतर अंतर 68 - अभियानराजेन्द्रः - भाग 1 (13) सूर्याणां परस्परमन्तरम् एगहिभागमुहुत्तेहिं अधिया / एवं खलु एते- णुवाएणं ता केवतियं एते दुवे सूरिया अण्णमण्णस्स अंतरं कट्ट चारं णिक्खममाणा एते दुवे सूरिया तताऽणंतरतो तदाणंतरं चरंति आहिताति वदेजा। तत्थ खलु इमातो छ पडिवत्तिओ मंडलातो मंडलं संकममाणा संकममाणा पंच पंच जोयणाई पण्णत्ताओ / तत्थ एगे एवमाहंसु ता एगं जोयणसहस्सं एगं च पणतीसं च एगट्ठिभागे जोयणस्स एगमेगे मंडले अण्णमण्णस्स तेतीसं च जोयणसतं अण्णमण्णस्स अंतरं कट्ट सूरिया चारं अंतरं अभिवट्टे माणा अभिवट्टे माणा सव्वबाहिरं मंडलं चरंति आहिताति वदेजा एगे एवमाहंसु / 1 / एगे पुण एवमाहंसु उवसंकमित्ता चारं चरंति / ता जया णं एते दुवे सूरिया ताएगं चउतीसंजोयणसयं अन्नमन्नस्स अंतरं कट्टसूरिया चारं सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति तता णं एगं जोयणसतसहस्सं छच सट्ठिजोय-णसते अण्णमण्णस्स अंतरं चरंति आहितेति वइजा एगे एवमाहंसु / / एगे पुण एवमाहंसु कट्ट चारं चरंति / तता णं उत्तमकट्ठ पत्ता उक्कोसिया ताएगे जोयणसहस्सं एगंच पणतीसंजोयणसयं अण्णमण्णस्स अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे अंतरं कट्ट सूरिया चारं चरंति आहिते ति वदेज्जा एगे भवति। एस णं पढमे छम्मासे / एस णं पढमस्स छम्मासस्स एवमाहंसु / 3 / एगं दीवं एग समुदं अण्णमण्णस्स अंतरं कट्टा। पज्जवसाणे / ते य विसमाणे दुवे सूरिया दोचे छम्मासे अयमीणे दो दीवे दो समुद्दे अण्णमण्णस्स अंतरं कट्ट सूरिया चारं पढमंसि अहोरत्तंसि बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरंति / / तिनि दीवे तिन्नि समुद्दे अन्नमन्नस्स अंतरं कट्ट चरंति। ता जया णं एते दुवे सूरिया बाहिराणंतरं मंडलं सूरिया चारं चरंति आहिएति वदेजाएगे एवमाहंसु / 6 / वयं पुण उवसंक-मित्ता चारंचरंति, तदाणं एग जोयणसयसहस्सं छच एवं वयासी ता पंच पंच जोयणाई पणतीसं च एगट्ठिभागे चउप्पण्णे जोयणसते छत्तीसं च एगट्ठिभागे जोयणस्स जोयणस्स एगमगे मंडले अण्णमण्णस्स अंतरं अभिवट्टेमाणे अण्णमण्णस्स अंतरं कटु चारं चरंति आहितेति वदेजा / तदा वा निवट्टेमाणे वा सूरिया चारं चरंति आहितेति वदेजा। तत्थ णं अट्ठारमुहुत्ता राई भवइ, दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं ऊणा णं को हेओ त्ति वदेजा ? ता अयं णं जंबूदीवे दीवे जाव दुवालसमुहुत्ते दविसे भवति।दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं आहिए। परिक्खेवेणं पण्णत्ते, ता जदा णं एते दुवे सूरिया सव्वन्मंतरं ते पविसमाणा सूरिया दोचंसि अहोरत्तंसि बाहिरं तचं मंडलं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति तदा णं णवणउतिजोयण उवसंकमित्ता चारं चरंति / ता जता णं एते दुवे सूरिया बाहिर सहस्साइं छच्च चत्ताले जोयणसते अण्णमण्णस्म अंतरं कट्ट तचं मण्डलं उवसंक मित्ता चारं चरंति / तता णं एगं चारं चरंति आहितेति वदेजा / तता णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए जोयणसयसहस्सं छच अडयाले जोयणसते बावण्णं च अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई एगढिमागे जोयणस्स अण्णमण्णस्स अंतरं कट्ट चारं चरंति। भवति / ते णिक्खममाणा सूरिया णवं संवच्छर अयमिणे तता णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ / चउहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं पढमंसि अहोरत्तंसि अमितराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं ऊणा दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति, चउहिं एगट्ठि-भागमुहत्तेहिं चरंति / ता जता णं एते दुवे सूरिया अमितराणंतरं मंडलं अहिए / एवं खलु एतेणुवाएणं पविसमाणा एते दुवे सूरिया उवसंकमित्ता चारं चरंति, तदा णं नवनउति जोयण-सहस्साई तताणंतरतो तदाणंतरं मंडलाओ मंडलं संकममाणा पंच पंच छच पणताले जोयणसते पणतीसं च एगट्ठिभागे जोयणस्स जोयणाइं पणतीसं च एगट्ठिभागे जोयणस्स एगमेगे मंडले अण्णमण्णस्स अंतरं कट्टचारं चरंति आहिताति वदेजा / तता अण्णमण्णस्स अंतरं णिवट्टेमाणे णिवट्टेमाणे सव्वन्भंतरं मंडलं णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं ऊणा उवसंकमित्ता चारं चरंति। ता जया णं एते दुवे सूरिया दुवालसमुहुत्ता राती भवति / दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अधिया सटवन्भतरं मंडलं उवसंक मित्ता चारं चरंति / तता णं ते णिक्खममाणे सूरिया दोचंसि अहोरत्तंसि अन्मितरं तचं णवणउतिजो-यणसहस्साई छच चत्ताले जोयणसते मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति / ता जता णं दुवे सूरिया अण्णमण्णस्स अंतरं कट्टचारं चरंति / तता णं उत्तम कट्ठ पत्ते अभिंतरं तचं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति, तयाणं नवनउई उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जहाणिया जोयणसहस्साई छच इक्कावणिजोयणसए णव य एगट्ठिभागे दुवालसमुहुत्ता राई भवति / एस णं दोचे छम्मासे, एस णं जोयणस्स अण्णमण्णस्स अंतरं कटु चार चरंति आहिएति दोबस्स छम्मासस्स पजवसाणे। एस णं आइये संवच्छरे, एस वइज्जा / तदा णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ चउहिं | णं आइबसंवच्छरस्स पज्जवसाणे। चउत्थं पाहुडपाहुडं समत्तं / एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं ऊणो दुवालस मुहुत्तागई भवइ, चउहिं (ता के वइयं एए दुवे सूरिया इत्यादि) ता इति प्राग्वत् Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतर 69 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अंतर एतौ द्वावपि सूर्यो जम्बूद्वीपगतौ कियत्प्रमाणं परस्परमन्तरं कृत्वा चारं जम्बूद्वीपविष्कम्भपरिमाणाल्लक्षरूपाद-पनीयन्ते, ततो यथोक्तचरतः? चरन्तावाख्यातविति भगवान् वदेत् एवं भगवता गौतमेन प्रश्ने मन्तरपरिमाणं भवति / (तया णमित्यादि) तदा सर्वाभ्यन्तरे द्वयोरपि कृते सति शेषकुमतविषयतत्त्वबुद्धिव्युदासाथ परमतरूपाः प्रति- सूर्ययोश्चरणकाले उत्तमकाष्ठां प्राप्तः परमप्रकर्ष प्राप्तः उत्कर्षक पत्तीर्दर्शयति / "तत्थ खलु इमाओ इत्यादि " तत्र परस्परमन्तर- उत्कृष्टोऽष्टादशमुहुर्तो दिवसो भवति, जघन्या सर्वजघन्या द्वादशमुहूर्ता चिन्तायां खलु निश्चितमिमा वक्ष्यमाणस्वरूपाः षट् प्रतिपत्तयो रात्रिः / (ते निक्खममाणा इत्यादि) ततस्तस्मात् यथास्वरुचिवस्त्वभ्युपगमलक्षणास्तैस्तैस्तीर्थान्तरीयैराश्रीय-माणाः सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात्तौ द्वावपि सूर्यो निष्कामन्तौ नवं प्रज्ञप्तास्ता एव दर्शयति "तत्थेगे इत्यादि " तेषां षण्णां सूर्यसंवत्सरमाददानौ नवस्य सूर्यसंवत्सरस्य प्रथमे अहोरात्रे (अमिततत्प्रतिपत्तिरूपकाणां तीर्थकानांमध्ये एके तीर्थान्तरीयाः प्रथम स्वशिष्यं राणंतरमिति) सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलादनन्तरं द्वितीयं मण्डल-मुपसंक्रम्य प्रत्येवमाहुः "ता एगमित्यादि" ता इति पूर्ववद्भावनीयम् एकं चारं चरतः / (ता जया णमित्यादि) ततो यदा एतौ द्वावपि सूर्या योजनसहस्रमेकं च त्रयस्त्रिंशदधिकं योजनशतं परस्परस्यान्तरं कृत्वा सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसंक्रम्य चारंचरतस्तदा नवनवतियोजनसहस्राणि जम्बूद्वीपेद्वौ सूर्यो चारं चरतश्चरन्तावाख्याताविति स्वशिष्येभ्यो वदेत् / षट् शतानि पञ्चचत्वारिंशदधिकानि योजनानां पञ्चत्रिंशतं अत्रैवोपसंहारमाह / "एके एवमाहुरिति / एवं सर्वत्राप्यक्षरयोजना चैकषष्टिभागान योजनस्येत्येतावत्प्रमाणं परस्परमन्तरं कृत्वा चार कर्तव्या। एके पुनर्द्वितीयास्तीर्थान्तरीया एवमाहुरेकं योजन सहस्रमेकं चरतश्वरन्तावाख्याताविति वदेत्तदा कथमेतावत्प्रमाणमन्तरमिति च चतुस्त्रिंशदधिकं योजनशतं परस्परमन्तरं कृत्वा चारं चरतः / एके चेदुच्यते / इहैकोऽपि सूर्यः सर्वाभ्य न्तरमण्डलगतानष्टातृतीयाः पुनरेवमाहुः एकं योजनसहस्रमेकं चपञ्चत्रिंशदश्रिकं योजनशतं चत्वारिंशदेकषष्टिभागान् योजनस्य अपरे च द्वे योजने विकम्भ्य परस्परमन्तरं कृत्वा चारं चरतः। एके पुनश्चतुर्था एवमाहुः एकं द्वीपमेकं सर्वाभ्यन्तरानन्तरे द्वितीये मण्डले चरति / एवं द्वितीयोऽपि, ततो द्वे च समुद्रं परस्परमन्तरं कृत्वा चारं चरतः। एके पुनः पञ्चमा एवमाहुः योजने अष्टाचत्वारिंशच्चैकषष्टिभागा योजन-स्येतिद्वाभ्यां गुणयते गुणिते द्वौ द्वीपौ द्वौ समुद्रौपरस्परमन्तरं कृत्वा चारंचरतः। एकेषष्ठाः पुनरेवमाहुः च सति पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशच्चै-कषष्टिभागा योजनस्येति भवति। त्रीन् द्वीपान् त्रीन् समुद्रान् परस्परमन्तरं कृत्वा चारं चरत इति। एते च एतावदधिकपूर्वमण्डलगतादन्त-रपरिमाणादत्र प्राप्यते, ततो सर्वे तीर्थान्तरीया मिथ्यावादिनोऽयथार्थवस्तुव्यवस्थापनात्। तथा चाह यथोक्तमन्तरपरिमाणं भवति / (तया णमित्यादि) तदा (वयं पुण इत्यादि) वयं पुनरासादित के वलज्ञानलाभाः सर्वाभ्यन्तरानन्तरद्वितीयमण्डलचारचरणकाले अष्टादशमुहूर्तो दिवसो परतीर्थिकस्थापितवस्तुव्यवस्थाव्युदासेन एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण भवति, द्वाभ्यां (एगद्विभागमुहत्तेहिं ति ) मुहूर्तकषष्टिभागाभ्यामूनः / केवलज्ञानेन यथावस्थितं वस्तुतत्त्वमुपलभ्य वदामः / कथं वदथ यूयं द्वादशमुहूर्ता रात्रिः द्वाभ्यां मुहूर्तक-षष्टिभागाभ्यामधिका / (ता भगवन्त ? इत्याह (ता पंचेत्यादि) 'ता इति' आस्तामन्यद्वक्तव्यमिदं तावत्कथ्यते द्वावपि सूर्यो सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलान्निष्क्रामन्तो निक्खममाणा इत्यादि) ततस्तस्मा-दपि द्वितीयान्मण्डलान्निष्क्रामन्तौ प्रतिमण्डलं पञ्चपञ्च योजनानिपञ्चत्रिंशतंचैकषष्टिभागान योजनस्य सूर्या नवस्य सूर्यसंवत्सरस्य द्वितीये अहोरात्रे अभ्यन्तरस्य पूर्वपूर्वमण्डलगतान्तरपरिमाणे अभिवर्द्धयन्तौ, वाशब्द सर्वाभ्यन्तरस्य मण्डलस्य तृतीय-मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरतः। (ता उत्तरविकल्पापेक्षया समुचये (निवुट्टेमाणा वा इति) सर्वबाह्या जया णमित्यादि) ततो यदाणमिति पूर्ववत् एतौ द्वौ सूर्यो अभ्यन्तरतृतीयं न्मण्डलादभ्यन्तरं प्रविशन्तौ प्रतिमण्डलं पञ्च पञ्च योजनानि सर्वाभ्यन्तरस्य मण्डलस्य तृतीयं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरतः, तदा पञ्चत्रिंशतं च एकषष्टिभागान् योजनस्य निर्वेष्टयन्तौ पूर्वपूर्वमण्डल तस्मिंस्तृ-तीयमण्डलचारचरणकाले नवनवतियोजनसहस्राणि षट्य गतान्तरपरिमाणात् हापयन्तौ, वा शब्दः पूर्वविकल्पापेक्षया समुचये, शतानिएकपञ्चाशदधिकानि योजनानां नव चैकषष्टिभागान योजनस्य सूर्यो चारं चरतः चरन्तावाख्याताविति स्वशिष्येभ्यो वदेत् / एवमुक्ते परस्परमन्तरं कृत्वा चारं चरतः चरन्तावाख्याताविति वदेत्, तदा भगवान् गौतमो निजशिष्यनिःशङ्कितत्वव्यवस्थापनार्थं भूयः प्रश्नयति। कथमेतावत्प्रमाणमन्तरकरणमिति चेदुच्यते इहाप्येकः सूर्यः सर्वा(तत्थ-मित्यादि) तत्र एवंविधाया वस्तुतत्त्वव्यवस्थाया अवगमे को भ्यन्तरद्वितीयमण्डलगतानष्टाचत्वारिंशदेकषष्टिभागान योजन-स्यापरे हेतुः? का उपपत्तिरिति प्रसादं कृत्वा वदेत् ? भगवानाह (ता अयन्न च द्वे योजने विकम्भ्य चारं चरति / द्वितीयोऽपि ततो द्वे मित्यादि) इदं जम्बूद्वीपस्वरूपप्रतिपादकं वाक्यं पूर्ववत्परिपूर्ण स्वयं योजनेऽष्टाचत्वारिंशचैकषष्टिभागान् योजनस्येति द्वाभ्यां गुण्यते द्विगुणमेव परिभावनीयम् / (ता जयाणमित्यादि) तत्रयदा, णमिति वाक्यालंकारे, पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशचैकषष्टिभागा योजनस्येति एतौ जम्बूद्वीपप्रसिद्धौ भारतैरावतौ द्वावपि सूर्यो सर्वाभ्यन्तरं भवति / एतावत्पूर्वमण्डलगतादन्तरपरिमाणादत्राधिकं प्राप्यते इति मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरतः, तदा नवनव-तियोजनसहस्राणि षट् भवति यथोक्तमत्रान्तरपरिमाणम् / (तया णमित्यादि) यदा सर्वायोजनशतानि चत्वारिंशदधिकानि परस्परमन्तरं कृत्वा चारं चरतः, भ्यन्तरान्मण्डलात्तृतीये मण्डले चारं चरतस्तदा अष्टादशमुहूर्तो दिवसो चरन्तावाख्याताविति वदेत् / कथं सर्वाभ्यन्तरे मण्डले द्वयोः सूर्ययोः भवति चतुर्भिः (एगट्ठिभागमुहूत्तेहिं ति) प्राकृतत्वापरस्परमेतावत्प्रमाण-मन्तरमिति चेदुच्यते / इह जम्बूद्वीपो त्पदव्यत्यासस्ततोऽयमर्थः मुहूर्तकषष्टिभागैरूनः, द्वादशमुहूर्ता योजनलक्षप्रमाण-विष्कम्भस्तत्रैकोऽपि सूर्यो जम्बूद्वीपस्य मध्ये रात्रिश्चतुर्भिर्मुहूर्त्तकषष्टिभागैरधिका / (एवमित्यादि) एवमुक्तेन प्रकारेण अशीत्यधिक योजनशतमवगाह्य सर्वाभ्यन्तरे मण्डले चारं चरति / खलु निश्चितमेतेनोपायेन प्रतिमण्डलमेकतोऽप्येकः सूर्यो द्वे योजने द्वितीयोऽप्यशीत्यधिकं योजनशतमवगाह्य अशीत्यधिकं च शतं द्वाभ्यां अष्टाचत्वारिंशतं चैकषष्टिभागान् विकम्भ्य चारं चरत्य गुणितं त्रीणि शतानि षष्ट्यधिकानि (360) भवन्ति / एतानि | परतोऽप्यपरः सूर्योऽपीत्येवं रूपेण निष्क्रामन्तौ एतौ जम्बूद्वी Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतर 70 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंतर पगतौ द्वौ सूर्यों पूर्वस्मात्पूर्वस्मात्तदनन्तरान्मण्डलात्तदनन्तरं मण्डलं संक्रामन्तौ एकै कस्मिन्मण्डले पूर्वपूर्वमण्डलगतान्तरपरिमाणापेक्षया पञ्च पश्श योजनानि पश्चत्रिंशतं चैकषष्टिभागान् योजनस्य परस्परमभिवर्द्धयन्तौ नवसूर्यसंवत्सरसत्के अशीत्यधिकशततमे अहोरात्रे प्रथमषण्मासपर्यवसानभूते सर्वबाह्यमण्डलमपसंक्रम्यचारचरतः।(ताजयाणमित्यादि)ततोयदा एतौ द्वौ सूर्यो सर्वबाह्य मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरतस्तदा तावेकं योजनशतसहस्रं षट् शतानिषष्टयधिकानि (100660) परस्परमन्तरं कृत्वा चारं चरतः / कथमेतदवसेयमिति चेत् उच्यते- इह प्रतिमण्डलं पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशच्चैकषष्टिभागा योजनस्येत्यन्तरपरिमाणचिन्तायामभिवर्द्वमानं प्रप्यते सर्वाभ्य न्तराच मण्डलात्सर्वबाह्य मण्डलंत्र्यशीत्यधिकशततमंततः पञ्चयोजनानि त्र्यशीत्यधिकेनशतेन गुण्यन्ते जातानि नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि योजनानामेकषष्टिभागाश्च पञ्चत्रिंशत्संख्या-स्त्र्यशीत्यधिकेन शतेन गुण्यन्ते जातानि तेषां चतुःषष्टिशतानि पञ्चोत्तराणि (6405) तेषामेकषष्टया भागे हृते लब्धं पञ्चोत्तरंयोजनशतम् (105) एतत्प्राक्तने योजनराशौ प्रक्षिप्यते जातानि दश शतानि विंशत्यधिकानि योजनानि (1020) एतत्सर्वाभ्यन्तरमण्डलगताऽन्तरपरिमाणे नवनवतियोजनसहस्राणि षट् शतानि चत्वारिंशदधिकानि (66640) इत्येवंरूपे प्रक्षिप्यते ततो यथोक्तं सर्वबाह्ये मण्डले अन्तरपरिमाणं भवति / (तया णमित्यादि) तदा सर्वबाह्यमण्डलचारचरणकाले उत्तमकाष्ठां प्राप्ता परमप्रकर्षप्राप्ता उत्कृष्टा अष्टादशमुहर्ता रात्रिर्भवति, जघन्यश्च द्वादशमहा दिवसः। "एस णं पढमे छम्मासे' इत्यादि प्राग्वत् (ते पविसमाणा इत्यादि) तौ ततः सर्वबाह्यान्मण्डलादभ्यन्तरं प्रविशन्तौ द्वौ सूर्यो द्वितीयषण्मासमाददानी द्वितीयस्य षण्मासस्य प्रथमे अहोरात्रे बाह्याऽनन्तरं सर्वबाह्यान्मण्डलादगिनन्तरं द्वितीयं मण्डल-मुपसंक्रम्य चारं चरतः (ता जया णमित्यादि) तत्र यदा एतौ द्वौ सूर्यो सर्वबाह्यानन्तरभक्तिनं द्वितीयं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरतस्तदा एकं योजनशतसहस्रं षट् शतानि चतुःपञ्चादशधिकानि (१००६५४)षड्विंशति(२६)चैकषष्टिभागान् योजनस्य परस्परमन्तरं कृत्वाचारंचरतःचरन्तावाख्याताविति वदेत। कथमतावत्तस्मिन्सर्वबाह्यान्मण्डलादाक्तने द्वितीये मण्डले परस्परमन्तरकरणमिति चेत् उच्यते इहैकोऽपि सूर्यः सर्वबाह्यमण्डलगतानष्टाचत्वारिंशदेकषष्टिभागान् योजनस्यापरे च द्वे योजनेअभ्यन्तरं प्रविशन्सर्वबाह्यान्मण्डलादक्तिने द्वितीये मण्डले चार चरति अपरोऽपि ततः सर्वबाह्यगतादन्तरपरिमाणा-दत्रान्तरपरिमाणं पञ्चभिर्योजनैः पञ्चत्रिंशता चैकषष्टिभागैर्योजन-स्योनं प्राप्यते इति भवति यथोक्तमत्रान्तरपरिमाणम् / (तया णमित्यादि) तदा सर्वबह्यानन्तरादक्तिनद्वितीयमण्डल-चारचरणकाले अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति द्वाभ्यां तु मुहूर्त कषष्टिभागाभ्यामूना, द्वादशमुहुर्तो दिवसो द्वाभ्यां मुहूर्तक-षष्टिभागाभ्यामधिकः / (ते पविसमाणा इत्यादि) ततस्तस्मादपि सर्वबाह्यमण्डलादक्तिनद्वितीयमण्डलादभ्यन्तरं प्रविशन्तौ तौ द्वौ सूर्या द्वितीयस्य षण्मासस्य द्वितीये अहोरात्रे (बाहिरतच्चंति) सर्वबाह्यात मण्डलादक्तिनं तृतीयं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरतः। (ता जया णमित्यादि) तत्र यदा एतौ द्वौ सूर्या सर्वबाह्यात् मण्डलादक्तिनं तृतीयं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरतः तदा एकं योजनशतसहससं षट् च योजनशतानि अष्टाचत्वारिंशदधिकानि (१००४८)द्विपञ्चाशतं (52) चैकषष्टिभागान् योजनस्य परस्परमन्तरं कृत्वा चारं चरतः। प्रागुक्तयुक्त्या पूर्वमण्डलगतादन्तरपरिमाणादत्रान्तर परिमाणमस्य पञ्चभिर्योजनैः (5) पश-त्रिंशता (35) चैकषष्टिभागैर्योजनस्य हीनतत्वात् / (तया णमित्यादि) तदा सर्वबाह्यान्मण्डलादाक्तनतृतीयमण्डलचार-चरणकाले अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति चतुर्भिर्मुहूर्तः एकषष्टि -भागैरूना / द्वादशमुहुर्ता दिवसश्चतुर्भिरेकषष्टिनागैर्मुहूर्तरधिकः / (एवं खलु इत्यादि) एवमुक्तप्रकारेण खलु निश्चितमेतेनोपायेन एकतोऽप्येकः सूर्योऽभ्यन्तरं प्रविशन् पूर्वपूर्यमण्डलगतादन्तरपरिमाणादनन्तरे विवक्षिते मण्डले अन्तरपरिमाणस्याष्टाचत्वारिंशतमेकषष्टिभागान् द्वे च योजने हापयत्यपरतोऽप्यपरः सूर्य इत्येवंरूपेण एतौ जम्बूद्वीपगतौ सूर्यो तदनन्तरान्मण्डलात्तदनन्तरमण्डलं संक्रामन्तौ एकैकस्मि-न्मण्डले पूर्वपूर्वमण्डलगतादन्तरपरिमाणात् अनन्तरे अनन्तरे विवक्षिते मण्डले पञ्च पश्श योजनानि पञ्चत्रिंशतं चैकषष्टिभागान् योजनस्य परस्परमन्तरपरिमाणं निर्वेष्टयन्तौ हापयन्तावित्यर्थः / द्वितीयस्य षणमासस्य त्र्यशीत्यधिकशततमे अहोरात्रे सूर्यसंवत्सरपर्यवसानभूते सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरतः। (ता जया णमित्यादि) तत्र यदा एतौ द्वौ सूर्यो सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरतः तदा नवनवतियोजनसहस्राणि षट योजनसतानि चत्वारिंशानि चत्वारिंशदधिकानि (96640) परस्परमन्तरं कृत्वा चारंचरतः / अत्र चैवंरूपान्तरपरिमाणे भावना प्रागेव कृता शेषं सुगमम्। सू०प्र०१पाहु०। चं० प्र०। ज्यो०। मं० 0 / (मन्दरात् कियत्याबाधया ज्योतिष्का इत्यादि अबाहा शब्दे) (14) धातकीखण्डस्य द्वाराणामन्तरं यथाधायइसंडस्स णं भंते ! दीवस्स दारस्स य दारस्स य एस णं के वतिय अबाहए अंतरे पण्णते ? गोयमा ! दस जोयणसतसहस्साई सत्तावीसं च जोयणसहस्साई सत्त य पणतीसे जोयणसते तिण्णि य कोसे दारस्स य दारस्सय अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। धातकीखण्डस्य भदन्त ! द्वीपस्य द्वारस्य च द्वारस्य च परस्परमेतत् अन्तरं कियत् किंप्रमाणमबाधया अन्तरितत्वाद् (व्याघातेन) व्यवधानेन प्रज्ञप्तं ? भगवानाह- गौतम ! दश योजनशतसहस्राणि सप्तविंशतिसहस्राणि सप्त शतानि पञ्चत्रिंशानि (1027735) द्वारस्य परस्परमन्तरमबाधया प्रज्ञप्तम् / तथाहि एकै कस्य द्वारस्य द्वारशाखाकस्य जम्बूद्वीपद्वारस्येव पृथुत्वं सार्द्धानि चत्वारि योजनानि / ततश्चतुण्णां द्वाराणामेकत्र पृथुत्वपरिमाणमीलने जातान्यष्टादश योजनानि तान्यनन्तरोक्तात्परिखापरिमाणात् (4110661) शोध्यन्ते, शोधितेषु च तेषु जातं शेषमिदमेकचत्वारिंशल्लक्षा दश सहस्राणि नव शतानि त्रिचत्वा-रिंशदधिकानि (4110643) एतेषां चतुर्भिागे हृते लब्धं यथोक्तं द्वाराणां परस्परमन्तरम् / उक्तं च "पणतीसा सत्त सया, सत्तावीसा सहस्स दस लक्खा धायइसंडे दारंतरंतु अवरंचकोसतियं // (1027735 यो०३ कोश)। जी०३ प्रति०। (15) नन्दनवनस्याऽधस्तनाचरमान्तात् सौगन्धिकस्य काण्डस्याऽधस्तनचरमाऽन्तस्याऽन्तरम्। नंदणवणस्सणं हेछिल्लाओ चरमंताओ सोगंधियस्स कंडस्स हेडिल्ले चरिमंते एसणं पंचासीइंजोयणसयाई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतर 71 - अभियानराजेन्द्रः - भाग 1 अंतर नन्दनवनस्य मेरोः पञ्चयोजनशतोच्छ्रितायां प्रथममेखलायां व्यवस्थितस्याधस्त्याचरमान्तात् सौगन्धिककाण्डस्य रत्नप्रभापृथिव्याः खरकाण्डाभिधानप्रथमकाण्डस्यावान्तरकाण्डभूतस्याष्टमस्य सौगन्धिकाभिधानरत्नमयस्य सौगन्धिककाण्डस्याधस्त्यश्वरमान्तः पञ्चाशीतिर्योजनशतान्यन्तरमाश्रित्य भवति / कथं ? पञ्च शतानि मेरोः सम्बन्धीनि प्रत्येकं सहस्रप्रमाणत्वादवान्तरकाण्डानामष्टमकाण्डमशीतिशतानीति / स०। (16) नरकपृथ्वीनां रत्नप्रभाकाण्डानामन्तरम् / इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए उवरिल्लातो चरिमंतातो हेट्ठिले चरिमंते एस णं केवतियं अबाधाए अंतरे पण्णते ? गोयमा! असी उत्तरं जोयणसतसहस्सं अबाधाए अंतरेपण्णत्ते। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए उवरिल्लातो चरिमंतातो खरकंडस्स हेडिल्ले चरिमंते एस णं केवतियं अबाधाए अंतरे पण्णत्ते ? गोयमा ! सोलस जोयणसहस्साइं अबाधाए अंतरे पण्णत्ते / इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए उवरिल्लातो चरिमंतातो रयणस्स कंडस्स हेडिल्ले चरिमंते एसणं केवतियं अबाधाए अंतरे पण्णत्ते? गोयमा ! एकंजोयणसहस्सं अबाधाए अंतरे पण्णत्ते। अस्या भदन्त / रत्नप्रभायाः पृथिव्या रत्नकाण्डस्य प्रथमस्य खरकाण्डविभागस्य (उवरिल्लाओ इति) उपरितनाघरमान्तात्परतो योऽधस्तनश्वरमान्तश्वरमपर्यन्तः (एस णमित्यादि) एतत्सूत्रे पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् अन्तरं कियद्योजनप्रमाणम् अबाधया अन्तरव्याधातरूपया प्रज्ञप्तं? भगवानाह-गौतम ! एकं योजनसहस्रमेकयोजनसहस्रप्रमाणमन्तरं प्रज्ञप्तम्। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए रयणकं डस्स उवरिल्लातो चरिमंतातो वइरस्स कंडस्स उवरिल्ले चरिमंते एस णं भंते ! केवतियं अबाधाए अंतरे पण्णत्ते ? गोयमा ! एकं जोयणसहस्सं अबाधाए अंतरे पण्णत्ते। (इमीसे णमित्यादि ) अस्या भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्याः रत्नकाण्डस्य उपरितनाच्चरमान्तात्परतो यो वज़ काण्डस्योपरितनश्चरमान्त एतत् अन्तरं कियत् किं प्रमाणमबाधया प्रज्ञप्तं ? भगवानाह-गौतम ! एकं योजनसहस्रमबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तं रत्नकाण्डाधस्तनचरमान्तस्य वज्रकाण्डोपरितनचरमान्तस्य च परस्परसंलग्नतया उभयत्रापि तुल्यप्रमाणभावात्। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए उवरिल्लातो चरिमंतातो वइरस्स कंडस्स हेट्ठिल्ले चरिमंते एस णं भंते ! केवतियं अबाधाए अंतरे पण्णत्ते ? गोयमा ! दो जोयणसहस्साई अबाधाए अंतरे पण्णत्ते / एवं जाव रिट्ठस्स उवरिल्ले पन्नरस जोयणसहस्साई, हेट्ठिल्ले चरिमंते सोलस जोयणसहस्साइं। अस्या भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्या रत्नकाण्डस्योपरितनात् चरमान्तात् वज्रकाण्डस्य योऽधस्तनश्वरमान्त एतत् अन्तरं कियत् अबाधया प्रज्ञातं ? भगवानाह- गौतम! द्वेयोजनसहस्रे अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् / एवं काण्डे काण्डे द्वौ द्वौ चालापको वक्तव्यौ काण्डस्य चाधनस्तने चरमान्ते चिन्त्यमाने योजनसहस्रपरिवृद्धिः कर्तव्या यावत् रिष्टस्य काण्डस्याधस्तने चरमान्ते चिन्त्यमाने षोडश योजनसहस्राणि अबाधया प्रज्ञप्तमिति वक्तव्यम् / जी०३ प्रति०। इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए वइरकंडस्स उवरिल्लाओ चरिमंताओ लोहियक्खकंडस्स हेहिले चरिमंते एस णं तिन्नि जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / (इमीसे णमित्यादि ) अयमिह भावार्थः रत्नप्रभापृथिव्याः प्रथमस्य षोडशविभागस्य खरकाण्डाभिधानकाण्डस्य वज्रकाण्ड नाम रत्नकाण्ड द्वितीयं, वैडूर्यकाण्ड तृतीयं,लोहिताक्षकाण्डं, चतुर्थं / सानि च प्रत्येक साहसिकाणीति त्रयाणां यथोक्तमन्तरं भवतीति स०। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए उवरिल्लाओ चरिमंताओ पंकबहुलस्स कंडस्स उवरिल्ले चरिमंते एस णं अबाधाए केवतियं अंतरे पण्णत्ते ? गोयमा ! सोलस जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते, हेट्ठिल्ले चरिमंते एक जोयणसयसहस्सं। अस्या भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्याः रत्नकाण्डस्योपरितनात् चरमान्तात् परतो यः पङ्कबहुलस्य काण्डस्योपरितनश्वरमान्तस्तत् कियत् किं प्रमाणमबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तं? भगवानाह-गौतम ! षोडश योजनसहस्राणि अबाधया अन्तरं प्रज्ञाप्तम्। (इमीसे णमित्यादि) अस्या भदन्त / रत्नप्रभायाः पृथिव्या रत्नकाण्ड- स्योपरितनात् चरमान्तात् परतो यः पङ्कबहुलस्योपरितनश्चरमान्त एतदन्तरं कियत् अबाधया प्रज्ञप्तं? भगवानाह- गौतम ! एकं योजनशतसहस्रमबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम्। पंकबहुलस्स णं कंडस्स उवरिल्लाओ चरमंताओ हेट्ठिल्ले चरमंते एस णं चोरासीइजोयणसयसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। पकबहुलं कण्डं द्वितीय, तस्य च बाहल्यं चतुरशीतिः सहस्राणीति यथोक्तसूत्रार्थ इति / स०। आयबहुलस्स उवरि एक जोयणसयसहस्सं, हेडिल्ले चरिमंते असीउत्तरं जोयणसयसहस्सं / घणोदधिस्स उवरिल्ले असी उत्तरं जोजणसयसहस्सं, हेडिल्ले चरिमंते दो जोयणसयसहस्साई। अस्या भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्या रत्नकाण्डस्योपरितनात् चरमान्तात् परतोऽब्बहुलस्य योऽधस्तनश्वरमान्त एतदन्तरं कियत् अबाधया प्रज्ञप्तं ? भगवानाह- गौतम ! अशीत्युत्तरं योजनशत- सहस्रं घनोदधेरुपरितने चरमान्ते पृष्ठे एतदेव निर्वचनमशीत्युत्तरयोजनशतसहस्रम् / अधस्तने पृष्ठे इदं निर्वचनं द्वे योजनशतसहस्रे अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम्। (17) रत्नप्रभादिभ्यो घनवातादेः / इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढदीए घणवातस्स उवरि-ल्ले चरिमंते दो जोयणसयसहस्साई, हेट्ठिल्ले चरिमंते असंखेज्जाइं जोयणसयसहस्साई / इमीसे णं मंते ! रयणप्पभाए / असतना Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतर 72 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंतर - पुढवीए.तणुवातस्स उवरिल्ले चरिमंते असंखे जाई जोयणसतसहस्साई अबाधाए अंतरे, हेडिल्ले वि संखेजाई जोयणसतसहस्साई / एवं उवासंतरे वि। घनवातस्योपरितने चरमान्ते पृष्ठे इदमेव निर्वचनं धनोदध्यधस्तनचरमान्तस्य घनवातोपरितनचरमान्तस्य च परस्परं संलग्रत्वात् घनवातस्याधस्तने चरमान्ते एतन्निर्वचनम् / असंख्येयानि योजनशतसहस्राण्यबाधया अन्तरं प्रज्ञतम् / एवं तनुवातस्योपरितने चरमान्ते अवकाशान्तरस्याप्युपरितने चरमान्ते इत्थमेव निर्वचनं वक्तव्यम् / असंख्येयानि योजनशतसहस्राण्यबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तमिति / सूत्रपाठस्तु प्रत्येकं सर्वत्रापि पूर्वोक्तानुसारेण स्वयं परिभावनीयः सुगमत्वात् / सकरप्पभाए णं भंते ! पुढवीए उवरिल्लातो चरिमंतातो हेट्ठिल्ले चरिमंते एस णं केवतियं अबाधाए अंतरे पण्णत्ते ? गोयमा! बत्तीसुत्तरं जोयणसतसहस्सं अबाधाए अंतरे पण्णत्ते / सक्करप्पभाए णं भंते ! पुढवीए उवरि घणोदधि-स्स हेट्ठिल्ले चरिमंते केवतियं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ? गोयमा ! बावण्णुत्तरं जोयणसयसहस्सं अब धाए घण-वातस्स असंखे जाई जोयणसहस्साई पण्णत्ताई, एवं जाव उवासंतरस्स वि जाव अहेसत्तमाए। णवरं जीसे जं बाहल्लं,तेण घणोदही संबंधेयय्दो बुद्धीए, सकरप्पभाए अणुसारेण घणोदधिसहिताणं इमं पमाणं। वालुयप्पभाए अडयालीसुत्तरं जोयणसतसहस्सं, पंकप्पमाए पुढवीए चत्तालीसुत्तरं जोयणसतसहस्सं, धूमप्पमाए पुढवीए अट्ठतीसुत्तरं जोयणसतसहस्सं, तमाए पुढवीए छत्तीसुत्तरं जोयणसतसहस्सं, अधस्सत्तमाए पुढवीए अट्ठावीसुत्तरं जोयणसतसहस्सं जाव अहसत्तमाए। एस णं भंते ! पुढवीए उवरिल्लातो चरिमंतातो उवासंतरस्स हेट्ठिल्ले चरिमंते केवतिय अबाधाए अंतरे पण्णत्ते ? गोयमा ! असंखेज्जाइं जोयणसयहस्साइं अबाधाए अंतरे पण्णत्ते। द्वितीयस्या भदन्त ! अस्याः पृथिव्या उपरितनाचरमान्तात् परतो योऽधस्तनश्चरमान्तएतत् किंप्रमाणमबाधया अन्तरं प्रज्ञाप्तं ? भगवानाहगौतम! द्वात्रिंशदुत्तरंद्वात्रिंशत्सहस्राधिकंयोजनशत-सहस्रम् अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तं / घनोदधेरुपरितने चरमान्ते पृष्ठे एतदेव निर्वचनं द्वात्रिंशदुत्तरं योजनशतसहस्रम् अधस्तने चरमान्ते पृष्ठे इदं निर्वचनं द्विपञ्चाशदुत्तरं योजनशतसहस्रम् / एतदेव धनवातस्योपरितनचरमान्त पृच्छायामपि घनवातस्याधस्तनचरमान्तपृच्छायां तनुवातावकाशान्तरयोरुपरितनाधस्तनचरमान्तपृच्छासु च यथा रत्नप्रभायां तथा वक्तव्यमसंख्येयानियोजनशतसहस्राण्य-बाधया अन्तरं प्रज्ञप्तमिति वक्तव्यमिति भावः / (तचाए णं भंते ! इत्यादि) तृतीयस्या भदन्त! पृथिव्या उपरितनाचरमान्तात् अध-स्तनश्वरमान्त एतदन्तरं कियत् अबाधया प्रज्ञप्तं ? भगवानाह- अष्टाविंशत्युत्तरम् अष्टाविंशतिसहस्राधिकं योजनशतसहस्रम-बाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्तम् / एतदेव घनोदधेरुपरितनचरमान्तपृच्छा-यामपि निर्वचनम् अधस्तनचरमान्तपृच्छायामष्टाचत्वारिंश- दुत्तरं योजनशतसहस्रम- | बाधया अन्तरं प्रज्ञप्तमिति वक्तव्यम् / एतदेव धनवातस्योपरितने | चरमान्तपृच्छायामपिअधस्तन-चरमान्तपृच्छायांतनुवातावकाशान्तरयोरुपरितनाधस्तनचरमा-न्तपृच्छासु च यथा रत्नप्रभायां तथा वक्तव्यम् / एवं चतुर्थ-पञ्चमषष्ठसप्तमपृथिवी विषयसूत्राण्यपि भावनीयानि। जी०३ प्रति०। छट्ठीए पुढवीए बहुमज्झदेसभायाओ छट्ठस्स घणोदहिस्स हेट्ठिल्ले चरमंते एस णं एगणासीतिजोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। अस्य भावार्थः-षष्ठपृथिवी हि बाहल्यतो योजनानां लक्षं षोडश सहस्राणि भवन्ति / घनोदधयस्तु यद्यपि सप्तापि प्रत्येक विंशतिसहस्राणि स्युस्तथाप्येतस्य ग्रन्थस्य मतेन षष्ठ्यामसावेकविंशतिः संभाव्यते, तदेवं षष्ठपृथिवीबाहल्यार्द्धमष्टपञ्चाशत् घनोदधिप्रमाणं चैक विंशतिरित्येवमेकोनाशीतिर्भवति / ग्रन्थान्तरमतेन तु सर्वघनोदधीनां विंशतियोजनसहस्रबाहल्यत्वात् पञ्चमीमाश्रित्येदं सूत्रमवसे यं यतस्तद्-बाहल्यमष्टादशोत्तरं लक्षमुक्तं यत आह / "पढमाऽसीइसहस्सा 1, बत्तीसा 2 अहवीस 3 वीसा य 4 / अट्ठार 5 सोल 6 अट्ट य 7. सहस्सलक्खोवरिं कुज्जत्ति" ||1|| अथवा षष्ठ्याः सहस्राधिकोऽपि मध्यभागो विवक्षित एवमर्थसूत्रकत्वाद् बहुशब्दस्येति। (18) रत्नप्रभादीनां परस्परमन्तरम् / इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए सक्करप्पभाए य पुढवीए केवइयं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ? गोयमा ! असंखेज्जाई जोअणसहस्साइं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / सक्करप्पभाएणं भंते ! पुढवीए वालुयप्पभाए य पुढवीए केवइयं०? एवं चेव एवं जाव तमाए अहेसत्तमाएय। अहेसत्तमाए णं भंते ! पुढवीए अलोगस्स य केवइयं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ? गोयमा ! असंखेज्जाई जोअण-सहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए जोइसियस्स केवइयं पुच्छा, गोयमा ! सत्तणउजोअणसए अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / "इमीसे णमित्यादि' (अबाहे अंतरेत्ति ) बाधा परस्परं संश्लेषतः णीडनं, न बाधा अबाधा, तया अबाधया, अबाधया यदन्तरं व्यवधानमित्यर्थः / इहान्तरशब्दो मध्यविशेषादिष्वर्थेषु वर्तमानो दृष्टस्ततस्तद् व्यवच्छेदेन व्यवधानार्थपरिग्रहार्थमबाधाग्रहणम् / (असंखेन्जाइंजोयणसहस्साइंति) इह योजनं प्रायः प्रमाणाङ्गुलनिष्पन्न ग्राहां "नगपुढविविमाणाई मिणसु पमाणंगुलेणं तु " इत्यत्र नगादिग्रहणस्योपलक्षणत्वादन्यथा आदित्य-प्रकाशादेरपि प्रमाणयोजनाप्रमेयता स्यात्तथा बाधा लोकग्रामेषु तत्प्रकाशाप्राप्तिः प्राप्नो त्यात्माङ्गलस्यानियतत्वे नाव्यवहारा- ग तया रविप्रकाशस्योच्छ्र ययोजनप्रमेयत्वात्तस्य चातिलघुत्वेन प्रमाणयोजनप्रमितक्षेत्राणामप्राप्तिरिति / यच्चेषत्प्रारभारायाः पृथिव्या लोकान्तस्य चान्तरं तदुच्छ्रयाङ्गुलनिष्पन्नयोजनप्रमेय-मित्यनुमीयते यतस्तस्य योजनस्योपरितनक्रोशस्य षड्भागे सिद्धा- वगाहना धनुस्त्रिभागयुक्तत्रयस्त्रिशदधिकधनु:शतत्रयमाना-ऽभिहिता भावोच्छ्रययोजनाश्रयणत एवं युज्यत इति उक्तं च "ईसिप्पन्भाराए, उवरिंखलु जोअणस्स जो कोसो। कोसस्स य छब्भाए, सिद्धाणोगाहणा भणिय ति"॥ भ०१४ श०७ उ०। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतर 73 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंतर (16) निषधकूटस्य उपरितनाच्छिखरतलात्सम सीमान्तरश्चरमविभागो वा यावताऽन्तरेण भवति (एस णंति) एतदन्तरं धरणितलस्यान्तरम्। द्विचत्वारिंशद्योजनसहस्राणि प्रज्ञप्तमन्तरशब्देन विशेषोऽप्यभिधीयते निसढकूडस्स णं उवरिल्लाओ सिहरतलाओ णिसढस्स इत्यत आह (अबाहाएत्ति) व्यवधानापेक्षया यदन्तरं तदित्यर्थः / स० वासहरपव्वयस्स समधरणितले एस णं नवजोयणसयाई 106 पत्र / अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / एवं नीलवंतकूडस्स वि।। मंदरस्सणं पव्वयस्स पचत्थिमिल्लाओ चरमंताओ गोथूभस्स (निसहकूडस्स णमित्यादि) इहाऽयभावः निषधकूटं पञ्च-शतोच्छ्रितं णं आवासपव्वयस्स पचत्थिमिल्ले चरमंते एस णं सत्ताणउई निषधश्च चतुःशतोच्छ्रित इति यथोक्तमन्तरंभवतीति / स०। जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / एवं चउदिसिं पि। निषधपर्वतस्य रत्नप्रभाया बहुमध्यदेशभागो यथा भावार्थोऽयं-मेरोः पश्चिमान्तात् जम्बूद्वीपस्यान्तः पञ्चपञ्चाशत् निसढस्सणं वासहरपव्वयस्स उवरिल्लाओ सिहरत-लाओ सहस्राणि, ततो द्विचत्वारिंशतो गोस्तूभइति यथोक्तमेवान्तरमिति। स० इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए पढमस्स कंडस्स 152 पत्र / बहुमज्झदेसभाए एस णं नवजोयणसयाई अबाहाए अंतरे मंदरस्स णं पव्वयस्स बहुमज्झदेसभागाओ गोथूभस्स पण्णत्ते, एवं नीलवंतस्स वि। आवासपव्वयस्स पच्चत्थिमिल्ले चरमंते एस णं बाणउई (टीका नास्तीति न गृहीता)। स०१६२ पत्र। जोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / एवं चउण्ह वि (20) पुष्करवरद्वाराणामन्तरम्। आवासपव्वयाणं॥ पुक्खरवरस्स णं भंते ! दीवस्स दारस्स य दारस्य य एस णं भावार्थो मेरुमध्यभागात् जम्बूद्वीपस्य पञ्चाशत् सहस्राणि ततो के वतियं अबाहाए अंतरे पण्णते ? गोयमा ! द्विचत्वारिंशत् सहस्राण्यतिक्रम्य गोस्तूभपर्वत इति सूत्रोक्त"अडयालसयसहस्सा, बावीसं खलु भवे सहस्साई / मन्तरंभवतीति। एवं शेषाणामपि। स०१४६ पत्र / अगुणुत्तराई चउरो, दारंतरं पुक्खरवरस्स" ||1|| (22) मन्दराद् गौतमस्यान्तरं यथाप्रश्नसूत्रं सुगर्म भगवानाह- गौतम ! अष्टचत्वारिंशत् योजन मंदरस्स णं पव्वयस्स पुरथिमिल्लाओ चरमंताओ शतसहस्राणि द्वाविंशतिसहस्राणि चत्वारि योजनशतानि गोयमदीवस्स पुरथिमिल्ले चरमंते एस णं सत्तसटुिं एकोनसप्ततिरस्य च परस्परमबाधयाऽन्तरपरिमाणम् / तथाहि जोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / चतुर्णामपि द्वाराणामेकत्र पृथुत्यमीलने अष्टादश योजनानि तानि पुष्करवरद्वीपपरिरयपरिमाणात् (19286864) इत्येवंरूपात् मेरोः पूर्वान्ताज्जम्बूद्वीपोऽपरस्यां दिशि जगतीबाह्याऽन्तपर्यवसानः शोध्यन्ते, शोधितेषु च तेषु जातमिदमेका योजनकोटी द्विन पञ्चपञ्चाशद्योजनसहस्राणि तावदस्ति, ततः परं द्वादशवतिशतसहस्राणि एकोननवतिसहस्राणि अष्टौ शतानि षट् - योजनसहस्राण्यतिक्रम्य लवणसमद्रमध्ये गौतमद्वीपाभिधानो द्वीपोऽस्ति सप्तत्यधिकानि (16286876) तेषां चतुर्भिांग हृते लब्धं यथोक्तं तमधिकृत्य सूत्रार्थः सम्भवति / पञ्चपञ्चाशतो द्वादशानां च द्वाराणां परस्परमन्तरपरिमाण (4822466) मिति। जी०३ प्रति। सप्तषष्टित्वभावात्। यद्यपि सूत्रपुस्तकेषु गौतमशब्दो न दृश्यते तथाप्यसो (21) मन्दराद् गोस्तूभादीनामन्तरम्। दृश्यः जीवाभिगमादिषु लवणसमुद्रे गौतम- चन्द्ररविद्वीपान् विना द्विपान्तरस्याश्रूयमाणत्वादिति। स० 125 पत्र / मंदरस्सणं पव्वयस्स पुरथिमिल्लाओ चरमंताओ गोथूभस्स आवासपव्वयस्स पुरथिमिल्ले चरमंते एस णं अट्ठासीई मंदरस्स पटवयस्स पञ्चत्थिमिल्लाओ चरमंताओ गोयमदीवस्स पचत्थिमिल्ले चरमंते एस णं एगणसत्तर जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते एवं चउसु वि दिसासु नेयव्वं / स० 146 पत्र। जोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / मेरोः पूर्वान्तात् जम्बूद्वीपस्य पञ्चचत्वारिंशद्योजनसहसमानत्वात् लवणसमुद्रपश्चिमायां दिशि द्वादशयोजनसहस्राण्यवगाह्य जम्बूद्वीपान्ताच द्विचत्वारिंशद्योजनसहस्रेषु गोस्तूभस्य व्यव द्वादशसहस्रमानः सुस्थिताभिधानस्य लवणसमुद्राधिपतेस्थितत्वात्तस्यच सहस्रविष्कम्भत्वाद्यथोक्तः सूत्रार्थो भवतीति। अनेनैव भवनेनालंकृतो गौतमद्वीपो नाम द्वीपोऽस्ति / तस्य च पश्चिमान्तो मेरोः क्रमेण दक्षिणादिदिग्व्यवस्थितान् दकावभासशङ्ख-दकसीमाख्यान् पश्चिमान्तादेकोनसप्ततिसहस्राणि भवन्ति / पञ्चचत्वारिंशतो वेलन्धरनागराजनिवासपर्वतानाश्रित्य वाच्यमत एवाह एवं चउसु वि जम्बूद्वीपसम्बन्धिनां द्वादशानामन्तरसम्बन्धिनां द्वादशानामेवं दिसासु नेयव्वमिति'। स०। द्वीपविष्कम्भसम्बन्धिनां च मीलनादिति। जंबूदीवस्स णं दीवस्स पुरथिमिल्लाओ चरमंताओ (23) मन्दरस्य दकभासस्यान्तरम्। गोथूभस्स णं आवासपव्वयस्स पचस्थिमिल्ले चरमंते एसणं मंदरस्सणं पव्वयस्सदक्खिणिल्लाओ चरमंताओदगभासस्स बायालीसं जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / एवं आवासपव्वयस्स उत्तरिल्ले चरमंते एस णं सत्तासीई चउद्दिसिं पि दगभासे संखोदयसीमे य। जोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / एवं मंदरस्स (पुरथिमिल्लाओत्ति) जगतीबाह्यपरिधेरपसृत्य गोस्तू- पञ्चस्थिमिल्लाओ चरमंताओ संखस्स वा पुरथिमिल्ले चरमंते भस्यावासपर्वतस्य वेलन्धरनागराजसंबन्धिनः पाश्चात्य- | एवं चेव मंदरस्स उत्तरिल्लाओ चरमंताओ दगसीमस्स आवास Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतर 74 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अंतर पव्वयस्स दाहिणिल्ले चरमंते / एस णं सत्तासीई जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / स०१६० पत्र। महाहिमवतोऽन्तरं यथामहाहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स समधरणितले एस णं सत्तजोयणसयाइं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते एवं रुप्पिकूडस्स वि। भावार्थोऽयं हिमवान् योजनशतद्वयोच्छ्रितस्तत्कूटं च पञ्चशतोच्छ्रितमिति सूत्रोक्तमन्तरंभवतीति। स०१४४ पत्र। महाहिमवंतकूडस्स णं उवरिमंताओ सोगंधियस्स कंडस्स हेट्ठिल्ले चरमंते एस णं सत्तासीइजोयणसयाइं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / एवं रुप्पिकूडस्स वि। महाहिमवति द्वितीयवर्षधरपर्वते अष्टौ सिद्धायतनकूट महाहिमवत्कूटादीनि कूटानि भवन्ति तानि पञ्चशतोच्छ्रितानि / तत्र महाहिमवत्कूटस्य पञ्च शतानि द्वे शते महाहिमवद्वर्षधरोच्छ्रयस्य अशीतिश्च शतानि प्रत्येकं सहस्रमानानामष्टानां सौगन्धिककाण्डावसानानां रत्नप्रभाखरकाण्डावान्तरकाण्डानामित्येवं मीलिते सप्ताशीतिरन्तरंभवतीति / (एवं रुप्पिकूडस्स वित्ति) रुक्मिणि पञ्चमवर्षधरे यद् द्वितीयं रुक्मिकृटाभिधानं कूट तस्या-प्यन्तरं महाहिमवत्कूटस्येव वाच्यं समानप्रमाणत्वाद् द्वयोरपीति / स० 138 पत्र। महाहिमवतो वर्षधरपर्वतस्यान्तरं यथामहाहिमवंतस्सणं वासहरपव्वयस्स उवरिल्लाओ चरमंताओ सोगंधियस्स कंडस्स हेट्ठिल्ले चरमंते एस णं बासीई जोयणसयाई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते।। महाहिमवतो द्वितीयवर्षधरपर्वतस्य योजनशतद्वयोच्छ्रितस्य (उवरिल्लाओत्ति) उपरितनाच्चरमान्तात् सौगन्धिककाण्डस्याऽधस्तनश्वरमान्तो ह्यशीतिर्यो जनशतानि। कथं ? रत्नप्रभापृथिव्यां हि त्रीणि काण्डानि खरकाण्डपङ्ककाण्डाऽब्बहुलकाण्डानि खरकाण्ड पङ्ककाण्डमबहुलकाण्डं चेति। तत्र प्रथम काण्डं षोडशविधं, तद्यथारत्नकाण्ड 1 वज्रकाण्डम् 2 एवं वैडूर्य 3 लोहिताक्ष 4 मसारगल्ल 5 हंसगर्भ६ पुलक 7 सौगन्धिक 8 ज्योतीरसाऽञ्जना १०ऽजनपुलक 11 रजत 12 जातरूप 13 पङ्क 14 स्फटिक 15 रिष्टकाण्डं चेति 16 एतानि च प्रत्येकं सहस्र प्रमाणानि ततश्च सौगन्धिककाण्डस्याष्टत्वादशीतिशतानि द्वे च शते महाहिमवदुच्छ्रय इत्येवं त्र्यशीतिशतानीति एवं रुक्मिणोऽपि पञ्चमवर्षधरस्य वाच्यं महाहिमवत्समानोच्छ्रयत्वात्तस्येति / स०१६५ पत्र / (24) लवणसमुद्रचरमान्तयोरन्तरं, यथालवणस्स णं समुद्दस्स पुरथिमिल्लाओ चरमंताओ पचत्थिमिल्ले चरमंते एसणं पंचजोयणसयसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। तत्र जम्बूद्वीपस्य लक्षं चत्वारि च लवणस्येति पञ्च / स० 165 पत्र / (25) लवणसमुद्रद्वाराणामन्तरं, यथालवणस्स णं समुहस्य दारस्य य दारस्स य केवइयं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ? गोयमा ! तिणि जोयणसयसहस्साई। पंचाणउइसहस्साइंदुण्णि य असीए जोयणसए कोसं च दारंतरे लवणे जाव अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। लवणस्य भदन्त ! समुद्रस्यद्वारस्यद्वारस्य (एस णमिति) एतत् अन्तरं कियत्या अबाधया अन्तरालत्वाव्याघातरूपया प्रज्ञप्तं ? भगवानाहगौतम ! त्रीणि योजनशतसहस्राणि पञ्चनवति-सहस्राणि अशीतिः द्वे योजनशते क्रोशश्चैको द्वारस्यद्वारस्याबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम्। तथाहिएकैकस्य द्वारस्य पृथुत्वं चत्वारि योजनानि एकैकस्मिश्च द्वारे एकैव द्वारशाखा क्रोशबाहल्याद द्वारे च द्वे द्वे शाखे ततः एकैकस्मिन् द्वारे सामस्त्येन चिन्त्यमाने सार्द्ध-योजनचतुष्टयप्रमाणं प्राप्यते, चतुर्णामपि च द्वारणामेकत्र पृथुत्व-मीलने जातान्यष्टादश योजनानि, तानि लवणसमुद्रपरिरयपरिमा- णात् पञ्चदशशतसहस्राणि एकाशीतिः सहस्राणि एकोनचत्वारिं-शद्योजनशतमित्येवं परिमाणादपनीय च यच्छे षं तस्य चतुर्मिर्भागे हृते यदागच्छति, तत् द्वाराणां परस्परमन्तरपरिमाण, तच यथोक्त- मेव / उक्तं च "असीया दोन्निसया, पणनउइसहस्स तिन्नि लक्खाय। कोसोय अंतरं सागरस्स दाराण विन्नेयं"||१|| जी०३ प्रति०। (26) वडवामुखादीनामधस्तनाचरमान्ताद् रत्नप्रभाया अधस्तनश्चरमान्तः। वलयामुहस्स णं पायालस्स हिडिल्लाओ चरमंताओ इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए हेट्ठिल्ले चरमंते एस णं एगणासिं जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / एवं केउस्स वि, जूयस्स वि, ईसरस्स वि। तत्र (वलयामुहस्सत्ति) वडवामुखाभिधानस्य पूर्वदिव्य-वस्थितस्य (पायालस्सत्ति) महापातालकलशस्याधस्तन- चरमान्ताद् रत्नप्रभापृथ्वीचरमान्त एकोनाशीत्या सहस्रेषु भवति। कथं ? रत्नप्रभा हि अशीतिसहस्राधिकं योजनानां,लक्षं बाह-ल्यतो भवति। तस्याश्चैकं समुद्रावगाहसहस्रं परिहृत्याऽधो लक्ष- प्रमाणावगाहो वलयामुखपातालकलशो भवति, ततस्तचर-मान्तात् पृथिवीचरमान्तो यथोक्तान्तरमेव भवति। एवमन्येऽपि त्रयो वाच्या इति। स०१३६ पत्र। (27) विमानकल्पानामन्तरम्। जोइसियस्स णं भंते ! सोहम्मीसाणाण य कप्पाणं केवइयं पुच्छा ? गोयमा ! असंखेज्जाई जोअणसहस्साइं जाव अंतरे पण्णत्ते। सोहम्मीसाणाणं भंते ! सणंकुमारमाहिंदाण य केवइयं एवं चेव सणंकुमारमाहिंदाणं भंते ! बंभलोगस्स कप्पस्स केवइयं एवं चेव बंभलोगस्सणं भंते !लंतगस्सय कप्पस्स केवइयं एवं चेव लंतगस्स णं भंते ! महासुक्कस्स य कप्पस्स केवइयं एवं चेव महासुक्कस्सय कप्पस्स सहस्सारस्स य एवं सहस्सारस्स आणयपाणयकप्पाणं एवं आणयपाणयाणं आरणऽचुयाण कप्पाणं एवं आरणऽचुयाणं गेविजगविमाणाण य एवं गेविजगविमाणाणं अणुत्तरविमाणाण य एवं अणुत्तरविमाणाणं भंते ! ईसिप्पन्भाराए पुढवीए केवइयं पुच्छा ? गोयमा ! दुवालस जोयणे अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / भ० 24 श० 8 उ०। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतर 75 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंतर (टीका सुगमत्वान्न गृहीता) (विवक्षितस्वभावपरित्यागे सति पुनस्तभावाप्राप्तिविरहे आनुपूर्वी द्रव्याणामन्तरम् आणुपुव्वी शब्दे) (28) आहारमाश्रित्य जीवानामन्तरम्। छउमत्थआहारगस्स णं भंते ! केवतियं कालं अंतरं होइ? गोयमा ! जहण्णे णं एक्कं समयं, उक्कोसेणं दो समया। केवलिआहारगस्स णं अंतरं अजहण्णमणुक्कोसेणं ति-ण्णि समया, छउमत्थ अणाहारगस्स अंतरं जहण्णेणं खुड्डगभवग्गहणं दुसमऊणं, उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं जाव अंगुलस्स असंखेजतिभागं / सिद्धके वलिअणाहारगस्स सातियस्स अपज्जवसियस्स णत्थिं अंतरं सजोगिभवत्थके वलिअणाहारगस्स जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वि अंतोमुहुत्तं / अजोगिभवत्थकेवलिअणाहारगस्स नत्थि अंतरं। प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह- गौतम ! जघन्येन क्षुल्लकभवग्रहणं द्विसमयोनमुत्कर्षतोऽसंख्येयं कालं यावदङ्गुलस्यासंख्येयो भागः यावानेव हि छद्मस्थस्याहारकस्य कालस्तदेव छद्मस्थानाहारकस्यान्तरं / छद्मस्थाहारकस्य च जघन्यतः कालोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतोऽसंख्येयाः उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः, कालतः क्षेत्रतोऽङ्गुलस्यासंख्येयो भागः एतावन्तंकालं सततमविग्रहेणोत्पादसंभवात् / ततः छद्मस्थानाहारकस्य च जघन्यत उत्कर्षतश्चैतावदन्तरं चेति / जी०३ प्रति० / (अधिकं खुड्डागभवग्गहणशब्दे, नवरम्) सयोगिभवस्थकेवल्यनाहारकस्यान्तरमभिधित्सुराह- "सजो-गिभवत्थकेवलिअणाहारगस्स णं भंते'' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमं भगवानाह- गौतम ! जघन्येनाप्यन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षेणा-प्यन्तर्मुहूर्त समुद्धातप्रतिपत्तेरनन्तरमेवान्तर्मुहूर्तेन शैलेशीप्रतिपत्तिभावात् नवरं जधन्यपदादुत्कृष्टपदं विशेषाधिकमवसातव्यमन्यथोभय-पदोपन्यासायोगात् / अयोगिभवस्थके वल्यनाहारक सूत्रे नास्त्य-न्तरमयोग्यावस्थायां सर्वस्याप्यनाहारकत्वात्। एवं सिद्धस्यापि साद्यपर्यवसितस्यानाहारकस्यान्तराभावो भावनीयः। जी०३ प्रति०। (26) इन्द्रियमाश्रित्यान्तरम्। एगिदियस्स णं भंते ! एगिदियस्स अंतरं कालतो केव चिरं होति ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, एकोसेणं दो सागरोवमसहस्साइं संखेज्जवासमभहियाइं / बेइंदियस्स णं मंते ! अंतरं कालतो केव चिरं होइ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वणप्फतिकालो। एवं तेइंदियस्स वि, चरिंदियस्स वि,णेरइयस्स वि,पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स वि, मणूसस्स वि, देवस्स वि, सव्वेसिं अंतर भाणियव्वं / अन्तरचिन्तायामे के न्द्रियस्य जघन्यमन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतो द्वे सागरोपमसहस्रे संख्येयवर्षाभ्यधिके द्वित्रिचतुरिन्द्रियनैरयिकतिर्यक्पञ्चेन्द्रियमनुष्यदेवानां जघन्यतः प्रत्येकमन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतो वनस्पतिकालः / सर्व० जी०८ प्रति। "एगिदियस्स णं भंते ! अंतरं कालतो केव चिरं होइ?" इति प्रश्नसूत्रं सुगमं भगवानाह- गौतम ! जधन्येनान्तर्मुहूर्त तच्चैकेन्द्रियादुवृत्त्य द्वीन्द्रियादावन्तर्मुहूर्त स्थित्वा भूय एके न्द्रियत्वेनोत्पद्यमानस्य वेदितव्यम् / उत्कर्षतो वे सागरोपमसहसे संख्येयवर्षाभ्यधिके यावानेव हि त्रसकायस्य कायस्थितिकालस्तावदेवैकेन्द्रियस्यान्तरं त्रसकायस्थितिकालश्च यथोक्तप्रमाण एव / तथा वक्ष्यति- "तसकाए णं भंते ! तसकायत्ति कालतो केव चिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं दो सागरोवमसहस्साई संरोजवासा अब्भहियाई " द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियसूत्रेषु जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तं तच पूर्वप्रकारेण भावनीयमुत्कर्षतः सर्वत्रापि वनस्पतिकालः / द्वीन्द्रियादिभ्यः उद्वृत्त्य वनस्पतिषु यथोक्तप्रमाणमनन्तरमपि कालमवस्थानात् यथैवामूनि पञ्चसूत्राण्यन्तरविषयाण्यौधिकान्युक्तानि। तथैव पर्याप्तविषयाणि अपर्याप्त विषयाण्यपि भावनीयानि। तानि चैवम्-“एगिंदिय-अपज्जत्ते'' इत्यादि एवं पञ्च पर्याप्तसूत्राण्यपि वक्तव्यानि | जी० 5 प्रति० / (उत्पादमधिकृत्यान्तरम् उववाय शब्दे) (30) कषायमाश्रित्यान्तरम्। कोहकसाई-माणकसाई -मायाकसाई णं भंते ! अंतरं? गोयमा ! जहण्णेणं एक समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं / लोभकसायियस्स अंतरं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / कसाई तहेव, जहा हेट्ठा। क्रोधकषायिणोऽन्तरं जघन्येनैकं समयं तदुपशमसमयानन्तरं मरणे भूयः कस्यापि तदुदयात् उत्कर्षतोऽन्तर्मुहूर्तमेवं मानकषायिमायाकषायिसूत्रे अपि वक्तव्ये "लोभकसायियस्स अंतरं जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / अकसाई तहेव, जहा हेट्ठा' / सर्व० जी०४ प्रति०। कायमाश्रित्यान्तरम्। पुढवीकाइयस्स णं भंते ! के वतियं कालं अंतरं होति ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वणस्सतिकालो। एवं आउतेउवाउकाइयतसकाइयाण वि / वणस्सइकायियस्स पुढ-विकालो एवं पञ्जत्तगाण वि वणस्सतिकालो / वणस्सइकाइयाणं पुढविकालो पज्जत्तगाण वि, एवं चेव वणस्सतिकालो पज्जत्ताणं वणस्सतीणं पुढविकालो। प्रश्नसूत्रं सुगमं भगवानाह- गौतम ! जघन्येनान्तर्मुहूर्त प्रथिवीकायादुवृत्त्याऽन्यत्रान्तर्मुहूर्त स्थित्वा भूयः पृथिवीकायिकत्वेन कस्याप्युत्पादात् उत्कर्षतोऽनन्तं कालं, स चानन्तकालः प्रागुक्तस्वरूपो वनस्पतिकालः प्रतिपत्तव्यः। पृथिवीकायादुवृत्त्यैतावन्तं कालं वनस्पतिष्ववस्थानसम्भवात् / एवमप्तेजोवायुत्रससूत्राण्यपि भावनीयानि / वनस्पति सूत्रे उत्कर्षतोऽसंख्येयं कालं,असंखे-जाओ उस्सप्पिणीओ कालतो, खेत्ततो असंखेज्जा लोगा" इति वक्तव्यं वनस्पतिकायादुवृत्य पृथिव्यादिष्ववस्थानात् / ते च सर्वेष्वप्युत्कर्षतोऽप्येतावत्कालभावात्। जी०६ प्रति०। (31) गतिमाश्रित्यान्तरं, यथानेरइयस्स अंतरं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं,उक्कोसेणं वणस्सतिकालो, एवं सव्वाणं तिरिक्खजोणियवञ्जाणं / तिरिक्खजोणियाणं जहण्णेणं अंतोमुहूत्तं, उक्कोसेणं सागरोवमसतपुहुत्तं सातिरेगं। नैरयिकस्य जघन्येनान्तरमन्तर्मुहूर्त तच नरकादुवृत्तस्य तिर्यगमनुष्यगर्भ एवाशुभाध्यवसायेन मरणतः परिभावनीयं सानुबन्धकर्मफलमेतदिति तात्पर्यार्थः / उत्कर्षतोऽनन्तं कालं, स चानन्तः Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतर 76 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अंतर कालो वनस्पतिकालो नरकादुद्वृत्तस्य पारम्पर्येणानन्तं कालं वनस्पतिष्ववस्थानात् तिर्यग्योनिकसूत्रे जघन्यतोऽन्तमुहूर्त तच्च तिर्यग्यो निकभवादुवृत्त्यान्यत्रान्तर्मुहूर्त स्थित्वा भूयः तिर्यग्योनिकत्वेनोत्पद्यमानस्य वेदितव्यमुत्कर्षतः सागरोपमशतपृथक्त्वं सातिरेकं तिर्यग्योनिकसूत्रे मनुष्यसूत्रे मानुषीसूत्रे देवसूत्रे च जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतो वनस्पतिकालः। जी०७ प्रति०। नैरयिकस्य, यथानेरइयमणुस्सदेवाण य अंतरं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं साइरेगं। नैरयिकस्य भदन्त ! अन्तरं नैरयिकत्वात्परिभ्रष्टस्य भूय आ नैरयिकत्वप्राप्तेरपान्तरालं कालतः कियचिरं भवति ? कियन्तं कालं यावद्भतीत्यर्थः / भगवानाह- जघन्येनान्तर्मुहूर्त, कथमिति चेत् ? उच्यते-नरकादुवृत्त्य मनुष्यभवे तिर्यग्भवे वा अन्तर्मुहूर्त स्थित्वा भूयो नरकेषूत्पादात् / तत्र मनुष्यभवे भावना इयंकश्चि- न्नरकादुवृत्त्य गर्भजमनुष्यत्वेनोत्पद्य सर्वाभिः पर्याप्तिभिः पर्याप्तो विशिष्टसंज्ञानोपेतो वैक्रि यलब्धिमान् राज्याद्याकाङ्की परचक्रा-धुपद्रवमार्य स्वशक्तिप्रभावतश्चतुरङ्गं सैन्यं विकु वित्या संग्राम- यित्वा महारौद्रध्यानोपगतो गर्भस्थ एव कालं करोति, कृत्वा च काल, भूयो नरके षूत्पद्यते / तत एवमन्तर्मुहूर्त तिर्यग्भवे नरकाद् उवृत्तो गर्भध्युत्क्रान्तिकतन्दुलमत्स्यत्वेनोत्पन्नश्च महारौद्रध्यानोपगतोऽन्तर्मुहूर्त जीवित्वा भूयो नरके जायते, इति उत्कर्षतोडजन्तं कालम्, परम्परया च वनस्पतिषूत्पादादवसातव्यस्तथाचाहवनस्पतिकालः, स च प्रागेवोक्तः / तिर्यग्योनिकविषयं प्रश्नसूत्र पूर्ववत् निर्वचनं जघन्येनान्तर्मुहूर्त, तच्च कस्यापि तिर्यक्त्वं मुक्त्वा मनुष्यभवे ऽन्तर्मुहूर्त स्थित्वा भूयः तिर्यक्त्वे नोत्पद्यमानस्य द्रष्टव्यम् / उत्कर्षतः सातिरेकं, सागरोपमशतपृथक्त्वं, तच नैरन्तर्येण देवनारकमनुष्यभवभ्रमणेनावसातव्यं मनुष्यविषयमपि प्रश्नसूत्रतथैव निर्वचनं जघन्येनान्तर्मुहूर्त, तच्च मनुष्यभवादुवृत्त्य तिर्य-ग्भवेऽन्तर्मुहूर्त स्थित्वा भूयो मनुष्यत्वेनोत्पद्यमानस्यावसातव्यम् / उत्कर्षतोऽनन्तं कालं, सचानन्तकालः प्रागुक्तो वनस्पति कालः। देवविषयमपि प्रश्नसूत्रं सुगम, निर्वचनं जघन्येनान्तर्मुहूर्त / कश्चित् देवभवाद् च्युत्वा गर्भजमनुष्यत्वेनोत्पद्य सर्वाभिः पर्याप्तिभिः पर्याप्तो विशिष्टसंज्ञानोपेतस्तथाविधस्य श्रमणोपासकस्य वा धर्मध्या-नोपगतो गर्भस्थ एव कालं करोति कालं च कृत्या देवेषूत्पद्यते / ततः, एवमन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतोऽनन्तं कालं, सचानन्तः कालो यथोक्तस्वरूपो वनस्पतिकालः प्रतिपत्तव्यः / जी० 4 प्रति०। (गुणस्थानकान्याश्रित्यान्तरं गुणट्ठाण शब्दे) चरिमाणं भंते ! चरिमएत्ति कालतो केव चिरं होति गोयमा! चरिमे अणादिए सवज्जवसिए अचरिमे दुविहे अणादिए वा अपज्जवसिए सातीए वा अपञ्जवसिए दोण्हं पिनत्थि अंतरं। प्रश्नसूत्रं सुगम भगवानाह- गौतम ! अनादिकस्य सपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरं, चरमत्वापगमे सति पुनश्वरमत्वायोगात् / अचरमस्थापि अनाद्यपर्यवसितस्य साद्यपर्यवसितस्य वा नास्त्यन्तरम् अविद्यमानचरमत्वात्। जी०४ प्रति०। ज्ञानमाश्रित्य जीवानामन्तरम् / णाणिम्म अंतरं जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणऽणतं कालं अवडं पोग्गलपरियटुंदेसूणं अन्नाणिस्स दोण्ह वि आदिल्लाणं त्थि अंतरं सातियस्स सपज्जवसियस्स जहण्णेणं अंतोमुहुर्त उक्कोसेणं छावट्टि सागरोदमाई सातिरेकाई। ज्ञानिनो भदन्त ! अन्तरं कालतः कियचिरं भवति ? भगवानाहगौतम ! सादिकस्य अपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरमपर्यवसितत्वेन सदा तभावापरित्यागात् सादिकस्य सपर्यवसितस्य जधन्येनान्तमुहूर्तमेतावता मिथ्यादर्शनकालेन व्यवधानेन भूयोऽपि ज्ञानभावात् उत्कर्षण अनन्तं कालमनन्ता उत्सपिण्यवसर्पिण्यः / कालतः क्षेत्रतोऽपार्द्ध पुद्गलपरावर्त देसोनं सम्यग्दृष्टेः, सम्यक्त्वात् प्रतिपतितस्य एतावन्तं कालं मिथ्यात्वमनुभूय तदनन्तरमवश्यं सम्यक्त्वासादनात् / “अण्णाणिस्स णं भन्ते !" इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह- गौतम ! अनाद्यपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरमपर्यवसितत्वादेवमनादि पर्यवसितस्यापि नास्त्यन्तरमवाप्तकेवलज्ञानस्य प्रतिपाताभावात्।सादिपर्यवसितस्यजधन्येनान्त-मुहूर्त जघन्यस्य सम्यग्दर्शनकालस्य एतावन्मात्रत्वात् , उत्कर्षतः षट्षष्टिसागरोपमाणि सातिरेकाणि / एतावतोऽपि कालादूर्व सम्यग्दर्शनप्रतिपाते सत्यज्ञानभावात्। जी० सर्वजी०१ प्रति०। आभिनिबोधिकादेरन्तरम् / आमिणिबोहियणाणिस्स णं मंते ! अंतरं कालओ केव चिरं होइ ? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं, जाव अवड्व पोग्गलपरियट्टे देसूणं / एवं सुयणाणिस्स वि, ओहिणाणिस्स वि, मणपज्जवणाणिस्स वि। केवलणाणिस्स णं भंते ! अंतरं सादियस्स अपञ्जवसियस्स णत्थिं अंतरं / मतिअण्णाणिस्सणं भंते ! अंतरं अणादियस्स अपञ्जवसियस्स णत्थि अंतरं / अणाइयस्स सपज्जवसियस्स णत्थि अंतरं / सादियस्स सपज्जवसियस्स जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं छावट्ठि सागरोवमाइं सातिरेगाई। एवं सुयणाणिस्स वि विभंगणाणिस्स णं मंते ! अंतरं जहण्णेणं अंतोमुहत्तं,उक्कोसेणं वणस्सइकालो। अन्तरचिन्तायामाभिनिबोधिकज्ञानिनोऽन्तरं जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतोऽनन्तं कालं यावदपार्द्धपुद्गलपरावर्त देशोनम् / एवं श्रुतज्ञानिनोऽवधिज्ञानिनो मनःपर्यवज्ञानिनश्चान्तरं वक्तव्यम् / केवलज्ञानिनः साद्यपर्यवसितस्य नास्त्यनतरं, मत्यज्ञानिनः श्रुत ज्ञानिनश्चानाद्यपर्यवसितस्याऽनादिसपर्यवसितस्य च नास्त्यन्तरं / सादिपर्यवसितस्य जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतः षट्षष्टिः सागरोपमाणि / विभङ्गज्ञानिनः जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतोऽनन्तं कालं, वनस्पतिकालः। जी० सर्वजी०७ प्रति०। आ० चू०। भ०। (32) सस्थावरनोत्रसस्थावराणामन्तरम् / तसस्स णं मंते ! केवतियं कालं अंतरं होति ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। थावरस्स णं भंते ! केवतियं कालं अंतरं होति ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं असंखेजाओ ओसप्पिणिउस्सप्पि णीओ। सुगमं नवरमसंख्येया उत्सर्पिण्यवसप्पिण्यः कालतः, क्षेत्रतोऽसंख्येया लोका इत्येतावत्प्रमाणमन्तरं तेजस्कायिकवायु Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतर 77 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंतर - कायिकमध्ये गमनेनावसातव्यमन्यत्र गतावतावत्प्रमाणस्या- दर्शनकाल एव हि मिथ्यादर्शनस्य प्रायोऽन्तरं, सम्यग्दर्शनकालच ऽन्तरस्याऽसंभवात् / "तस्स णं भंते ! अंतरमित्यादि" सुगम, नवरं जघन्यत उत्कर्षतश्चैतावानिति / सम्यग्मिथ्यादृष्टिसूत्रे जघन्यतो"उक्कोसेणं वणस्सइकालो'' इति उत्कर्षतो वनस्पतिकालो ऽन्तर्मुहूर्त सम्यग्मिथ्यादर्शनात् प्रतिपत्त्यान्तर्मुहूर्तेन भूयः कस्यापि वक्तव्यः। च चैवम्- "उकोसेणं अणंतं कालमणंताओ उस्सप्पिणीओ सम्यग्दर्शनभावात्। उत्कर्षतोऽनन्तं कालं यावदपार्ट्स पुद्गलपरावर्त कालतो, खेत्ततो अणंता लोगा असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा, ते णं देशोनं, यदि सम्यग्मिथ्यादर्शनात् प्रतिपतितस्य भूयः सम्यपोग्गलपरियट्टा आवलिया असंखेज्जइभागो" इति एतावत्प्रमाणं चान्तरं ग्मिथ्यादर्शनलाभस्तत एतावता कालेन नियमेनाऽन्यथा तुमुक्तिः। जी० वनस्पतिकायमध्यगमनेन प्रतिपत्तव्यमन्यत्र गतावतावतो- 2 प्रति०(निर्ग्रन्थानामन्तरं निग्गंथ शब्दे) ऽन्तरस्याऽलभ्यमानत्वात् / जी०१ प्रति०।। (34) पर्याप्तिमाश्रित्यान्तरम्। तसस्स णं अंतरं वणस्सतिकालो थावरस्स तसकालो, पज्जत्तगस्स अंतरं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोनोतसस्स नोथावरस्सणत्थि अंतरं। जी० सर्वजी०२ प्रति०। मुहुत्तं / अपज्जत्तगस्स जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्को- सेणं दर्शनमाश्रित्य जीवानाम्। सागरोवमसयपुहुत्तं सातिरेगं / तइयस्स णस्थि अंतरं चक्खुदंसणस्स अंतरं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अन्तरचिन्तायां पर्याप्तकस्य जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तर्मुहूर्त - वणस्सतिकालो / अचक्खुदंसणस्स दुविहस्स णत्थि अंतरं / मन्तरम्, अपर्याप्तकाल एव हि पर्याप्तकस्यान्तरम्।अपर्याप्तक-कालस्य ओहिदसणस्स जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वणस्सइ जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तर्मुहूर्तम् / अपर्याप्तकस्य जघन्यकालो। केवलदसणस्स णत्थि अंतरं।। तोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतः सागरोपमशतपृथक्त्वं सातिरेक, पर्याप्तकचक्षुर्दर्शनिनोऽन्तरं जघन्येनान्तर्मुहूर्त प्रमाणेन अचक्षुर्दर्शनभवेन कालस्य जघन्यत उत्कर्षतश्चैतावत्प्रमाणत्वात् नोपर्याप्तनो- अपर्याप्तस्य व्यवधानात्, उत्कर्षतो वनस्पतिकालः / स च प्रागुक्तस्वरूपः / नास्त्यन्तरमपर्यवसितत्वात्। अचक्षुर्दर्शनिनोऽनाद्यपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरमपर्यवसितत्वात् / परीतानामन्तरम्। अनादिपर्यवसितस्यापि नास्त्यन्तरम् अचक्षुर्दशनत्यापगमे कायपरित्तस्स अंतरं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं भूयोऽचक्षुर्दर्शनत्वायोगात् , क्षीणघातिकर्मणः प्रतिपातासंभवात् / वणस्सतिकालो / संसारपरित्तस्स णत्थि अंतरं / कायअअवधिदर्शनिनो जघन्येनैकं समयमन्तरं प्रतिपातसमयानन्तरसमय एव कस्यापि पुनस्तल्लाभभावात् / क्वचिदन्तर्मुहूर्तमिति पाठः, स च परित्तस्स जहणणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं असंखेज कालं / सुगमः, तावता व्यवधानेन पुनस्तल्लाभभावात्। न चायं निर्मूलः पाठो, / पुढविकालो। संसारअपरित्तस्स अणातियस्स अपजवसियस्स मूलटीकाकारेणापि मतान्तरेण समर्थितत्वात्, उत्कर्षतो वनस्पतिकालः णत्थि अंतरं / अणादियस्स सपज्जवसियस्स णत्थि अंतरं, तावतः कालादूर्ध्वमवश्यमवधिदर्शनसंभ वादनादिमिथ्यादृष्ट नोपरित्तणोअपरित्तस्स वि णत्थि अंतरं। रायविरोधात् / ज्ञानं हि सम्यक्त्वं, स चैव न दर्शनमपीति भावना। प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह- गौतम ! जघन्येनान्तर्मुहूर्त साधाकेवलदर्शनिनः साद्यपर्यवसितस्य नास्त्य-न्तरमपर्यवसितत्वात्।जी० रणेष्वन्तर्मुहूर्तं स्थित्वा भूयः प्रत्येकशरीरेष्वागमनात्, उत्कर्षतो- ऽनन्तं सर्वजी०३ प्रति०। कालं, सचानन्तः कालः प्रागुक्तस्वरूपो वनस्पति-कालस्तावन्तं कालं (33) दृष्टिमाश्रित्यान्तरम्। साधारणेष्ववस्थानात्। संसारपरीतविषयं प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाहसम्महिद्विस्स अंतरं सातियस्स अपज्जवसियस्सणस्थि अंतरं, गौतम ! नास्त्यन्तरं संसारपरीतत्वा-पगमे पुनः संसारपरीतत्वाभावात् सातियस्स सपञ्जवसियस्स जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं मुक्तस्य प्रतिपातासंभवात् / कायापरीतसूत्रे जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त अणंतं कालं, जाव अवडं पोग्गलपरियट्ट देसूणं / प्रत्येकशरीरेष्वन्तर्मुहूर्त स्थि-त्या भूयः कायापरीतेषु मिच्छादिहिस्स अणादियस्स अपज्जवसियस्स णत्थि अंतरं, कस्याप्यागमनसंभवात् , उत्कर्षतोऽसंख्येयं कालं यावत् असंख्येया अणादियस्स सपञ्जवसियस्स पत्थि अंतरं / साइयस्स उत्सप्पिण्यवसप्पिण्यः कालतः, क्षेत्रतोऽसंख्येया लोकाः सपज्जवसियस्स जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं छावडिं पृथिव्यादिप्रत्येकशरीरभवभ्रमण-कालस्योत्कर्षतोऽप्येतावन्मात्रत्यात्। सागरोवमाइं साति-रेगाइं / सम्मामिच्छादिहिस्स जहण्णेणं तथा चाह- पृथिवीकालः पृथिव्यादिप्रत्येकशरीरकाल इत्यर्थः। अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं,जाव अव पोग्गलपरियटें संसारापरीतसूत्रे अनाद्य-पर्यवसितस्य नास्त्यन्तरमपर्यवसितत्वा दनादिपर्यवसितस्यापि नास्त्यन्तरं संसारपरीतत्वापगमे पुनः "सम्मद्दिहिस्स णं भंते ! इत्यादि" प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह - संसारपरीतत्वस्यासंभवात् / नोपरीतनोअपरीतस्यापि साद्यपर्यवगौतम ! साद्यपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरमपर्यवसितत्वात् सादि सितस्य नास्त्यन्तरं, अपर्य-वसितत्वात्। जी०२ प्रति०। सपर्यवसितस्य जघन्येनान्तर्मुहूर्त, सम्यक्त्वात् प्रतिपत्त्यान्तर्मुहूर्तेन (35) पुद्गलमाश्रित्यान्तरम्। भूयः कस्यापि सम्यक्त्वप्रतिपत्तेः / उत्कर्षतोऽनन्तं कालं यावदप र्द्ध परमाणुपोग्गलस्स णं भंते ! सव्वे यस्स कालओ के व चिरं पुद्गलपरावर्तं / मिथ्यादृष्टिसूत्रेऽनाद्यपर्यवसितस्य नास्त्य- अंतरं होई ? गोयमा ! सट्ठाणं तरं पडुच्च जहण्णेणं एक न्तरमपरित्यागात्,अनादिसपर्यवसितस्यापि नास्त्यन्तरमनादि-त्वात् समयं, उक्कोसेणं असंखेचं कालं / परट्ठाणंतरं पडुच जहअन्यथाऽनादित्वायोगात् / सादिसपर्यवसितस्य जघन्येना- | ण्णेणं एक समयं, उक्कोसेणं एवं चेव / णिरेयस्स के वइ० न्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतः षट्षष्टिः सागरोपमाणि सातिरेकाणि, सम्यग्- | सहाणंतरं पडुच जहण्णेणं एक समयं, उक्कोसेणं आव देसूणं। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतर 78 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंतर लियाए असंखेज्जइमागं, परद्वाणंतरं पडुच जहण्णेणं एवं समयं, उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं / दुपदेसियस्स णं भंते ! खंधस्स देसेयस्स केवइयं कालं अंतरं होई? गोयमा! सट्ठाणंतरं पञ्च जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं असंखेनं कालं / परट्ठाणंतरं पडुच जहण्णेणं एक समयं, उक्कोसेणं अणंतं कालं। सव्वेयस्स केवइयं कालं ? एवं चेव जहा देसेयस्स / णिरेयस्स केवइयं कालं ? सट्ठाणंतरं पडुच जहण्णेणं एवं समयं, उक्कोसेणं आवलियाए असंखेज्जइभागं / परहाणंतरं पडुच जहण्णेणं एक समयं उक्कोसेणं अणंतं कालं एवं जाव अणंत- पदेसियस्स / परमाणुपोग्गलाण भंते ! सव्वेयाणं केवइयं कालं अंतरं हेइ? गोयमा ! णत्थि अंतरं / णिरेयाण केवइयं ? णत्थि अंतरं। दुपदेसियाणं भंते ! खंधाणं देसेयाण केवतिकालं ? णस्थि अंतरं / सव्वेयाणं केवइ०? णत्थि अंतरं। णिरेयाणं केवइ०? णत्थि अतरं एवं जाव अणंतपदेसियाणं / भ०२५ श०४ उ०। (टीका नास्तीति न व्याख्याता) परमाणुपोग्गलस्स णं भंते ! अंतरं कालओ केव चिरं होइ? गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं असंखेजं कालं / दुपएसियस्स णं भंते! खंधस्स अंतरं कालओ केव चिरं होइ? गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं उक्कोसेण अणंतं कालं, एवं जाव अणंतपएसिओ। एगपएसोगाढस्स णं मंते ! पोग्गलस्स सव्वेयस्स अंतरं कालओ केव चिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं असंखजं कालं, एवं जाव असंखेजपएसोगाढे। एगपएसोगाढस्सणं भंते ! निरेयस्स अंतरं कालओ को चिरं होइ? गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं उक्कोसेणं आवलयाए असंखेजइ भागं, एवं जाव असंखेजपएसोगाढे / वण्णगंधरसफास-सुहमपरिणयाणं एएसिंजं चेव अंतरं,तं पि भाणियव्वं / सद्दपरिणयस्सणं भंते! पोग्गलस्स अंतरं कालओ केव चिंर होइ? गोयमा ! जहण्णेणं एवं समयं, उक्कोसेणं | असंखेजं कालं / असहपरिणयस्स णं भंते ! पोग्गलस्स अंतरं कालओ केव चिंर होइ ? गोयमा ! जहणेणं एगं समयं, उक्कोसेणं आवलियाए असंखेज्जइभागं / म०५ श०७ उ०। (टीका सुगमत्वान्न गृहीता) प्रथमसमयाऽप्रथमसमयविशेषणेनैकेन्द्रियाणां नैरयिकादीनां चान्तरं यथा पढमसमयएगिदियाणं मंते ! केवतियं कालं अंतरं होति? गोयमा ! जहण्णेणं दो खुड्डाई भवग्गहणाई समयोणाई, उक्कोसेणं वणस्सतिकालो। अपढमसमयएगिदियस्स अंतरं०? जहण्णे णं खड्डागभवग्गहणं समयाहियं, उक्कोसेणं दो सागरोवनसहस्साइंसंखेजा वा समन्महियाइं। सेसाणं सव्वेसिं पढमसमइक्काणं जह-पणेणं दो खुड्डाई भवम्गहणाइं समयोणाइं, उक्कोसेणं वणस्सति-कालो। अपढमसमयियाणं सेसाणं जहण्णेणं खुड्डागभवग्गहणं समयाहियं, उक्कोसेणं वणस्सतिकालो। प्रथमसमयैकेन्द्रियस्य भदन्त ! अन्तरं कालतः कियचिरं भवति ? भगवानाह- गौतम ! जघन्यतो द्वे क्षुल्लकभवग्रहणे समयोने, ते च क्षुल्लकदीन्द्रियादिभवग्रहणव्यवधानतः पुनरे केन्द्रियेष्वेवोत्पद्यमानस्यावसातव्ये / तथा ह्येकं प्रथमसमयोनमेकेन्द्रियक्षुल्लकभवग्रहणमेव द्वितीयं सम्पूर्णमेव द्वीन्द्रियाद्यन्यतम क्षुल्लकभवग्रहणमिति, उत्कर्षतो वनस्पतिकालः, स चानन्ता उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः कालतः, क्षेत्रतोऽनन्ताः लोका असंख्येयाः पुद्गलपरावर्ता आवलिकाया असंख्येयो भाग इत्येवं स्वरूपं। तथाहिएतावन्तं हि कालं सोऽप्रथमसमयः, न तु प्रथमसमयस्ततो द्वीन्द्रियादिषु क्षुल्लकभवग्रहणमेवाऽवस्थाय पुनरेकेन्द्रिय-त्वेनोत्पद्यमानः प्रथमे समये प्रथमसमय इति भवत्युत्कर्षतो वनस्पतिकालोऽन्तरं प्रथमसमयैकेन्द्रियस्य जघन्यमन्तरं क्षुल्ल-कभवग्रहणं समयाधिकं, तचैकेन्द्रियभवगत चरमसमयस्या- प्यधिकप्रथमसमयत्वात् / तत्र मृतस्य द्वीन्द्रियादिक्षुल्लक- भवग्रहणेन व्यवधाने सति भूय एकेन्द्रियत्वेनोत्पन्नस्य प्रथम सम- यातिक्रमे वेदितव्यम् / एतावन्तं कालमप्रथमसमयान्तराभावात् उत्कर्षतो वे सागरोपमसहये संख्येयवर्षाभ्यधिके द्वीन्द्रियादि- भवग्रहणस्योत्कर्षतोऽपि सातत्येनैतावन्तं कालं संभवात् / प्रथ- मसमयद्वीन्द्रियस्य जघन्येनान्तरं द्वे क्षुल्लक भवग्रहणे समयोने, तद्यथा-एक द्वीन्द्रियक्षुल्लकभवग्रहणमेव प्रथमसमयोनं द्वितीयं सम्पूर्णमेकेन्द्रियत्रीन्द्रियाद्यन्यतमं क्षुल्लकभवग्रहणम् एवं प्रथमसमयं त्रीन्द्रियक्षुल्लकभवग्रहणमेव प्रथमसमयोनं द्वितीयं सम्पूर्णमेवै-केन्द्रियस्य जघन्यमन्तरं क्षुल्लक भवग्रहणं समयाधिकं तच द्वीन्द्रिय-भवादुवृत्त्यान्यत्र क्षुल्लकभवं स्थित्वा भूयो द्वीन्द्रियत्वेनोत्पन्नस्य प्रथमसमयातिक्रमे वेदितव्यम् / उत्कर्षतोऽनन्तं कालमनन्ता उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः कालतः, क्षेत्रतोऽनन्तालोका असंख्येयाः पुद्गलपरावर्ता आवलिकाया असंख्येयो भागः। एतावांश्च द्वीन्द्रियभवादुवृत्त्यैतावन्तं कालं वनस्पतिषु स्थित्वा भूयो द्वीन्द्रियत्वेनोत्पन्नस्य प्रथमसमयातिक्रमे भावनीयः। एवं प्रथमसमयत्रिचतुःपञ्चेन्द्रियाणामपि जघन्यमुत्कृष्ट चान्तरं वक्तव्यं, भावनाऽप्येतदनुसारेण स्वयं भावनीया। जी० 10 प्रति। पढमसमयणेरइयस्सणं भंते ! अंतरंकालतो केव चिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं दसवाससहस्साइं अंतोमुहुत्तमन्महियाई, उक्कोसेणं वणस्सतिकालो अपढमसमयणेरइयस्स णं भंते ! अंतरं कालतो केव चिरं होइ? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं वणप्फतिकालो / पढमसमयातिरिक्खजोणिए णं मंते ! अंतरं कालओ केव चिंर होति ? गोयमा ! जहण्णेणं दो खुड्डाई भवग्गहणाइं समओणाई उक्कोसेणं वणप्फतिकालो अपढमसमयतिरिक्खजोणियस्स णं भंते ! अंतरं कालओ केव चिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं दो खुड्डाइं भवग्गहणाई समयाहियं उकोसेणं सागरोवमसयपुहत्तं सातिरेगं / पढमसमयमणुस्सस्स णं मंते ! अंतरं कालओ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतर 79 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंतर केव चिरं होई? गोयमा ! जहण्णेणं दो खुड्डायं भवम्गहणं मेकैकप्रदेशापहारे यावतीभिरुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिर्निर्लेपा भवन्ति, समयूणाई, उक्कोसेणं वणप्फतिकालो / अपढम- तावत्य इति। "सुहुमपुढविकाइयस्सणंभंते!" इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम, समयमणुस्सस्स णं भंते ! अंतरं जहण्णेणं खुड्डायं भवग्गहणं भगवानाह- गौतम ! जधन्येनान्तर्मुहुर्त्त, तद्भावना प्राग्वत्, समयाहियं, उक्कोसेणं वणप्फतिकालो। देवस्सणं अंतरं, जहा उत्कर्षतोऽनन्तं कालं "जाव आवलियाए असंखेजइ भागा इति" रतियस्स। पढमसमयसिद्धस्स णं मंते ! अंतरं कालओ केव यावत्करणादेवं परिपूर्णः पाठः "अणंताओ उस्सप्पिणीओ-सप्पिणीओ चिरं होइ? नत्थि अंतरं। अपढमसमयसिद्धस्सणं भंते! अंतरं कालतो, खेत्ततो अणंता लोगा, असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा / ते णं कालओ केव चिरं होइ ? गोयमा! सादियस्स अपज्जवसियस्स पोग्गलपरियट्टा आवलियाए असंखे- जइभागो'' अस्य व्याख्या पूर्ववत्, णत्थि अंतरं। भावना त्वेवंसूक्ष्मपृथिवी- कायिको हि सूक्ष्मपृथिवीकायिकप्रथमसमयसिद्धस्य नास्त्यन्तरं भूयः प्रथमसमयसिद्धत्वाभावाद् भवादुवृत्यानन्तर्येण पारंपर्येण वा वनस्पतिष्वपि मध्ये गच्छति। तत्र अप्रथमसमयसिंद्धस्यापि नास्त्यन्तरमपर्यवसितत्वात् / जी० 10 चोत्कर्षतोऽप्येतावन्तं कालं तिष्ठतीति भवति यथोक्तप्रमाणमन्तरमेवं प्रति०। सूक्ष्माप्कायिकतेज-स्कायिकवायुकायिक सूत्राण्यपि वक्तव्यानि / (36) बादरसूक्ष्मनोसूक्ष्मनोबादराणामन्तरं यथा सूक्ष्मवनस्पति-कायिक सूत्रेज-घन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षअंतरं बायरस्स बायरवनस्पतिकातिस्स णिओयस्स तोऽसंख्येयकालः, पृथि-वीकालो वक्तव्यः। स चैवम् "असंखेज्जाओ बायरणिओयस्स एतेसिंचउण्ह विपुढविकालो जाव असंखेज्जा उस्सप्पिणीओ-सप्पिणीओकालतो,खेत्ततो असंखेज्जा लोगा'" इति। लोया, सेसाणं वणस्सतिकालो। एवं पज्जत्तगाणं अपजत्तगाण सूक्ष्म- वनस्पतिकायभवादुवृत्तो हि बादरवनस्पतिषु सूक्ष्मबादरवि अंतरं, ओहे य बायरतरू उस्सप्पिणी ओसप्पिणीओ एवं पृथिव्यादिषु चोत्पद्यते, तत्र च सर्वत्राप्युत्कर्षतोऽप्येतावन्तं बायरनिओए कालमसंखेज्जतरं, सेसाणं वणस्सतिकालो। कालमवस्थानमिति यथोक्तप्रमाणमे-वान्तरमेवं सूक्ष्मनिगोद प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह- गौतम ! जघन्येनान्तर्मुहूर्त- स्याप्यन्तरं वक्तव्यं / यथा चेयमौघिकी सप्तसूत्री उक्ता, तथा मुत्कर्षतोऽसंख्येयं कालं सममेव कालक्षेत्राभ्यां निरूपयति असंख्येया अपर्याप्तविषया च सप्तसूत्री वक्तव्या, नानात्वाभावात् / जी०६ प्रति०। उत्सपिण्यवसपिण्यः कालतः, क्षेत्रतोऽसंख्येया लोकाः, यदेव हि सुहमस्स अंतरं बायरकालो, बायरस्स अंतरं सुहुमकालो, सूक्ष्मस्य सत्ः कायस्थितिपरिमाणं तदेव बादरस्यान्तरपरिमाणं / ततियस्स णत्थि अंतरं। सूक्ष्मस्य च कायस्थितिपरिमाणमेतावति बादरपृथिवीकायिकसूत्रे सूक्ष्मस्यान्तरं जघन्तोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतोऽसंख्येयं कालम-संख्येया जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त मुत्कर्षतोऽनन्तं कालं, स चानन्तः कालो उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः कालतः, क्षेत्रतोऽङ्गुलस्य सं-ख्येयभागो / वनस्पतिकालः प्रागुक्तस्वरूपो वेदितव्यः / एवं बादराप्कायिकबादर बादरकालो जघन्यत उत्कर्षतश्च एतावत्प्रमाणत्वात् / बादरस्यान्तरं तेजस्कायिकबादरवायुकायिकसूत्राण्यपि वक्तव्यानि / सामान्यतो जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतोऽसंख्येयं कालमनन्ता उत्सर्पिण्यवबादरवनस्पतिकायिकसूत्रे जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतोऽसंख्येयं कालं, सर्पिण्यः कालतः, क्षेत्रतोऽसंख्येया लोकाः, सूक्ष्म- स्य जघन्यत स चासंख्येयः कालः पृथिवीकालो वेदितव्यः / स चैवम्-असंख्येया उत्कर्षतश्चैतावत्कालप्रमाणत्वात् / नोसूक्ष्मनो-बादरस्य उत्सर्पिण्यवसपिण्यः कालतः, क्षेत्रतोऽसंख्यया लोकाः / साद्यपर्यवसितस्य, हेतौ षष्ठी, निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां विभक्तीनां प्रत्येक बादरवनस्पतिकायिक सूत्रं बादरपृथिवीकायिक प्रायो दर्शनमिति न्यायात्। ततोऽयमर्थः-साद्यपर्यव-सितत्वान्नासूत्रवत्,सामान्यतो निगोदसूत्रं सामान्यतो बादरवनस्पति स्त्यन्तरमन्यथा अपर्यवसितत्वायोगात्। जी०३ प्रति०। कायिकसूत्रवत् , बादरत्रसकायिकसूत्रं बादरपृथिवीकायिकसूत्रवत् / भवसिद्ध्यभवसिद्धिनोभवसिद्ध्यभवसिद्धिकानामन्तरम्। एवमपर्याप्तविषया दशसूत्री, पर्याप्तविषया च दशसूत्री, यथोक्तक्रमेण भवसिद्धियस्स णत्थि अंतरं, एवं अभवसिद्धियस्स वि / वक्तव्या, नानात्वाभावात् / जी०६ प्रति०। ततियस्स णत्थि अंतरं। (37) सूक्ष्मस्यान्तरम्। भवसिद्धिकोऽनादिसपर्यवसितोऽन्यथा भवसिद्धिकत्वायोगात् / सुहुमस्सणं भंते ! केवतियं कालं अंतरं होति? गो-यमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं असंखेनं कालं / कालओ अभवसिद्धिकात् अभवसिद्धिकस्यानादिसपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरं, असंखेज्जातो उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ खेत्तओ अंगुलस्स भवसिद्धिकत्वापगमे पुनर्भवसिद्धिकत्वायोगात्। जी०३ प्रति०। असंखेजतिभागो / एवं सुहमवणस्सतिकाइयस्स वि, भाषामाश्रित्य जीव नामन्तरम्। सुहुमनिओयस्स वि, जाव असंखेजतिभागो। पुढविकाइयाणं भासगस्स णं भंते ! केवतियं कालं अंतरं होति ? गोयमा ! वणस्सतिकालो, एवं अपजत्तगाणं पञ्जत्तगाणं वि। जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं, वणस्सतिकालो। प्रश्नसूत्र सुगम, भगवानाह- गौतम! जघन्येनान्तर्मुहूर्त, सूक्ष्मा-दुद्वृत्य अभासगस्स सातियस्स अपज्जवसियस्स णत्थि अंतरं, बादरपृथिव्यादावन्तर्मुहूर्त स्थित्वा भूयः सूक्ष्मपृथिव्यादौ सातियस्स सपज्जवसियस्स जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं कस्याप्युत्पादात् , उत्कर्षतोऽसंख्येयं कालं / कालक्षेत्राभ्यां अंतोमुहुत्तं। निरूपयतिअसंख्येया उत्सपिण्यवसर्पिण्यः कालत एषा मार्गणा, प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह- गौतम ! जधन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कक्षेत्रतोऽङ्गुलस्यासंख्येयोभागः / किमुक्तं भवति ? अङ्गुलमात्र- र्षतो वनस्पतिकालः, अभाषककालस्य भाषकान्तरत्वात् / अभाक्षेत्रस्यासंख्येयतमे भागे ये आकाशप्रदेशास्ते प्रतिसमय- / षकसूत्रेसाद्यपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरम् ,अपर्यवसितत्वात् / Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतर 8. - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंतर सादिसपर्यवसितस्य जघन्येनैकं समयमुत्कर्षतोऽन्तर्मुहूर्त, भाषककालस्याभाषकान्तरत्वात् , तस्य च जघन्यत उत्कर्षतश्चैतावन्मात्रत्वात्। जी०२ प्रति०। (38) योगमाश्रित्यान्तरम्। मणजोगिस्स अंतरं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वणस्सतिकालो / तहेव वयजोगिस्स वि / कायजोगिस्स जहण्णेणं एक समयं, उक्कोसेण अंतोमुहुत्तं, अजोगिस्स णत्थि अंतरं। अन्तरमन्तर्मुहूर्त विग्रहसमयादारभ्य औदारिकशरीरपर्याप्तकश्च यावदेवमन्तर्मुहूतं द्रष्टव्यमिति। (अत्रत्या टीका उस्सुत्तपरूवणा शब्दे)। लेश्यामाश्रित्य जीवानाम्। कण्हलेसस्स णं भंते ! अंतरं कालओ केव चिरं होति ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तेत्तीससागरोवमाई अंतोमुत्तममहियाई / एवं नीलस्स वि, काऊलेसस्स वि / तेउलेसस्स णं भंते ! अंतरं कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! जहण्णे णं अंतोमुत्तं उक्कोसेणं वणप्फतिकालो / एवं पम्हलेसस्स वि, सुक्कलेसस्स वि / दोण्ह वि एवमंतरं / अलेसस्स णं भंते ! अंतरं कालतो केव चिरं होइ ? गोयमा ! सादियस्स अपज्जवसियस्स पत्थि अंतरं। कृष्णलेश्याकस्याऽन्तरं जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, तिर्यगमनुष्याणामन्तर्मुहूर्तेन लेश्यापरावर्त्तनात् , उत्कर्षतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यन्तर्मुहूर्ताऽभ्यधिकानि / शुक्ललेश्या कृष्णकालस्य कृष्णलेश्याऽन्तरोत्कृष्टकालत्वात्। एवं नीललेश्याकापोत-लेश्ययोरपि जघन्यत उत्कर्षतश्चाऽन्तरं वक्तव्यम् / तेजः पद्मशुक्लानामन्तरं जघन्तोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतो वनस्पतिकालः, स च प्रतीत एवेति / अलेश्यस्य साद्यपर्यवसितस्य नाऽस्त्यन्तरम-पर्यवसितत्वात्। (36) वेदविशिष्टजीवानामन्तरम्। सवेदयस्स णं भंते ! केवतियं कालं अंतरं होति? गोयमा! अणादियस्स अपञ्जवसियस्स णत्थि अंतरं, अणादियस्स सपज्जवसियस्स विणत्थि अंतरं। सादियस्स सपज्जवसियस्स जहण्णेणं एवं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहत्तं / अवेदगस्स णं भंते ! केवतियं कालं अंतरं होति ? गोयमा ! सातियस्स अपज्जवसियस्स णस्थि अंतरं, सातियस्स सपज्जवसियस्स जहण्णेणं अंतोमुहुर्त, उक्कोसेण अणंतं कालं, जाव अवडं पोग्ग-लपरियट्टे देसूणं। प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह- गौतम ! अनादिकस्यापर्यवसितस्य सवेदकस्य नास्त्यन्तरमपर्यवसिततया सदा तद्भावापरित्यागात् अनादिकस्य सपर्यवसितस्यापि नास्त्यन्तरम्, अनादिसपर्यवसितो ह्यपान्तराले उपशमश्रेणिं प्रतिपद्य भावी क्षीणवेदो, न च क्षीणवेदस्य पुनः सवेदकत्वं, प्रतिपाताभावात् / सादिकस्य सपर्यवसितस्य सवेदकस्य जघन्ये नै कं समयमन्तरं द्वितीयं वारमुपशमश्रेणिं प्रतिपन्नस्य वेदोपशमसमयानन्तरं कस्यापि मरणसंभवात् / उ-कर्षणान्तर्मुहूर्त द्वितीयं वारमुपशमश्रेणिप्रतिपन्नस्योपशान्त-वेदकस्य श्रेणिसमाप्रूज़ पुनः सवेदकत्वभावात्। अवेदकसूत्रे सादिकस्यापर्यवसितस्यावेदकस्य नाऽस्त्यन्तरं क्षीणवेदस्य पुनः सवेदकत्वाभावात् , वेदानां निर्मूलकाषंकषितत्वात् / सादिकस्य सपर्यवसितस्य जघन्ये नान्तमुहूर्तमुपशमश्रेणिसमाप्तौ सवेदकत्वे सति पुनरन्तर्मुहुर्तेनोपशमश्रेणिलाभतोऽवेदकत्वोपपत्तेः, उत्कर्षतोऽनन्तं कालम् अनन्ता उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः कालतः, क्षेत्रतोऽपार्द्ध पुद्गलपरावर्त देशोनमेकं वारमुपशमश्रेणिं प्रतिपद्य तत्रावेदको भूत्वा श्रेणिसमाप्तौ सेवदकत्वे सति पुनरेतावता कालेन श्रेणिप्रतिपत्ताववेदकत्वोपपत्तेः। जी० सर्वजी०२ प्रति०। वेदविशेषविशिष्टानां स्त्रीणां पुंसां नपुंसकानां चान्तरम्। इथिए णं भंते ! केवतियं कालं अंतरं होति ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अनंतं कालं, वणस्सतिकालो। एवं सव्वासिं तिरिक्खत्थीणं मणुसित्थीणं / मणुसित्थीए खेत्तं पडुच जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वणस्सतिकालो। धम्मचरणं पडुच जहण्णेणं समओ, उक्कोसेणं अणंतं कालं, जाव अवडपोग्गल- परियट्टं देसूणं, एवं जाव पुव्वविदेहं अवरविदेहियाओ। अकम्मभूमगमणुस्सीणं भंते! केवतियं कालं अंतरं होति ? गोयमा! जम्मणं पडु च जहण्णेणं दसवाससहस्साई अंतोमुहुत्त-ममहियाई, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। संहरणं पडुचजहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो / एवं जाव अंतरदी-वियाओ / देवित्थियाणं सव्वासिं जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वणस्सतिकालो। स्त्रिया भदन्त ! अन्तरं कालतः कियचिरं भवति? स्त्री भूत्वा स्त्रीत्वात् भ्रष्टा सती पुनः कियता कालेन स्त्री भवतीत्यर्थः। एवं गौतमेन प्रश्ने कृते सति भगवानाह- गौतम ! जघन्येनान्तर्मुहूर्त, कथमिति चेत् ? उच्यतेइह काचित् स्त्री स्त्रीत्वान्मरणेन च्युत्वा भवान्तरे नपुंसकवेदं पुरुषवेदं वाऽन्तर्मुहुर्तमनुभूय स्त्रीत्वेनोत्पद्यते, तत एवं जघन्यतोऽन्तर्मुहुर्त भवति, उत्कर्षतो वनस्पतिकालो- ऽसंख्येयपुद्गलपरावर्ताख्यो वक्तव्यस्तावता कालेनामुक्तौ सत्यां नियोगतः स्त्रीत्वयोगात्। स च वनस्पतिकालः, एवं वक्तव्यः- अणंताओ ओसप्पिणिउस्सप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अणंता लोगा असंखेजा पोग्गलपरियट्टा, ते णं पोग्गलपरियट्टा आवलियाए असंखेजइभागो इति / एषामौधिक तिर्यक स्त्रीणा जलचरस्थलचरख-चरस्त्रीणामौधिकमनुष्यस्त्रीणां च जघन्यतः उत्कर्षतशान्तरं वक्तव्यमभिलापोऽपि सुगमत्वात् स्वयं परिभावनीयः। कर्मभूमिक-मनुष्यस्त्रियाः क्षेत्रं कर्मभूमिक्षेत्रं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतोऽनन्तं कालं, वनस्पतिकालप्रमाणं यावत् / धर्मचरणं प्रतीत्य जघन्येनैकं समयं, सर्वजघन्यस्य समयत्वात् उत्कर्षणानन्तं कालं देशोनमपार्द्ध पुद्गलपरावर्ते यावत् नातो ह्यधिकतरश्चरणलब्धिपातकालासंपूर्णस्याप्यपार्द्धपुद्गलपरावर्त्तस्य दर्शनलब्धिपात-कालस्य तत्र प्रतिषेधात् / एवं भरतैरावतमनुष्यस्त्रियाः, पूर्व विदेहापरविदेहस्त्रियाश्च / क्षेत्रतो धर्मचरणं वा आश्रित्य वक्तव्यम् / अकर्मभूमकमनुष्यस्त्रिया जन्म प्रतीत्यान्तरंजधन्येन दशवर्ष-सहस्राणि अन्तर्मुहूत्तभ्यिधिकानि / कंथमिति चेदुच्यते- इह काचिदकर्मभूमिका स्त्री मृत्वा जघन्यस्थितिषु देवेषूत्पन्ना तत्र दशवर्षसहस्राण्यायुः परिपाल्य तत्क्षये च्युत्वा कर्मभूमिषु मनुष्यपुरुषत्वेन मनुष्यस्त्रीत्वेन योत्पद्यते, देवेभ्योऽनन्तरमकर्मभूमौ न जन्मेति कर्मभूमिषूत्पादिता Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतर 81 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंतर ततोऽन्तर्मुहूर्तेन मृत्वा भूयोऽप्यकर्मभूमिजस्त्रीत्वेन जायते, इति भवन्ति जघन्यतो दशवर्षसहस्राणि अन्तर्मुहूर्ताभ्यधिकानि, उत्कर्षतो वनस्पतिकालोऽन्तरं / संहरणं प्रतीत्य जघन्यतो- ऽन्तर्मुहूर्तम् / अकर्मभूभिजस्त्रियाः (कर्मभूमिजस्त्रियाः) कर्मभूमिषु संहृत्य तावता कालेन तथाविधबुद्धिपरावृत्त्या भूयस्तत्रैव नयनात्। उत्कर्षतो वनस्पतिकालोऽन्तरं, तावता कालेन कर्मभूम्युत्पत्तिवत्, संहरणमपि नियोगतो भवेत्। तथाहि- काचिदकर्मभूमिका कर्मभूमी संहता, सा च स्वायुःक्षयानन्तरमनन्तं कालं वनस्पत्यादिषु संसृत्य भूयोऽप्यकर्मभूमौ समुत्पन्ना / ततः केनापि संहृते ति यथोक्तं संहरणस्योत्कृष्टकालमानम् / एवं हैमवतहैरण्यवतहरिवर्षरम्यकवर्षदेवकुरूत्तरकुर्वन्तरभूमिकामपि जन्मतः संहरणतश्च प्रत्येक जघन्यमुत्कृष्टं चान्तरं वक्तव्यं, सूत्रपाठोऽपि सुगमत्वात् स्वयं परिभावनीयः / संप्रति देवस्त्रीणामन्तरप्रति- पादनार्थमाह(देवत्थियाणं भंते ! इत्यादि ) देवस्त्रिया भदन्त ! अन्तरं कालतः कियश्चिरं भवति ? भगवानाह- गौतम ! जघन्येनान्तर्मुहूर्त, कस्याश्वित् देवस्त्रिया देवीभवात् च्युताया गर्भव्युत्क्रान्तिक-मनुष्येषूत्पद्य पर्याप्तिपरिसमाप्तिसमनन्तरं तथाध्यवसायमरणेन पुनर्देवीत्वेनोत्पत्तिसंभवात् / उत्कर्षतो वनस्पतिकालः, स च सुप्रतीतः। एवमसुरकुमारदेव्या आरभ्य तावदीशानदेवस्त्रिया उत्कृष्टमन्तरं वक्तव्यं, पाठोऽपि सुगमत्वात् स्वयं परिभावनीयः। जी०२ प्रति०। पुरिसस्स णं भंते ! केवतियं कालं अंतरं होति? गोयमा! जहण्णे णं एगं समयं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो / तिरिक्खजोणियपुरिसाणं जहण्णेणं अंतोमुहतं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो / एवं जाव खहयरतिरिक्खजोणियपुरिसाणं।। पुरुषाणामिति पूर्ववत् , भदन्त ! अन्तरं कालतः कियचिरं | भवति ? पुरुषः पुरुषत्वात् परिभ्रष्टः सन् पुनः कियता कालेन तदवाप्नोतीत्यर्थः / तत्र भगवानाह- गौतम ! जघन्येनैकं समयं, समयादनन्तरं भूयोऽपि पुरुषत्वमवाप्नोतीति भावः / इयमत्र भावनायदा कश्चित् पुरुष उपशमश्रेणिं गतः, उपशान्ते पुरुषवेदे समयमेकं जीवित्वा तदनन्तरं म्रियते तदाऽसौ नियमाद्देवपुरुषेषूत्पद्यते इति समयमेकमन्तरं पुरुषत्वस्य। ननु स्त्रीनपुंसकयोरपि श्रेणिलाभो भवति, तत्कस्मादनयोरप्येवमेकः समयोऽन्तरं न भवति ? उच्यते-स्त्रिया नपुंसकस्य च श्रेण्यारूढाववेदकभावान्तरं मरणे तथाविधशुभाध्यवसायतो नियमेन देवपुरुषत्वेनोत्पादात् / उत्कर्षतो वनस्पतिकालः। स चैवमभिलपनीयः-अणंता उस्स- प्पिणिओसप्पिणीओ कालतो, खेत्ततो अणंता लोगा असंखेज्जा पुग्गलपरियट्टा, ते णं पुग्गलपरियट्टा आवलियाए असंखेज्जइभागो इति / तदेवं सामान्यतः पुरुषत्वस्यान्तरमभिधाय संप्रति तिर्यक्पु-रुषविषयमतिदेशमाह-(जं तिरिक्खजोणित्थीणमंतरमित्यादि) यत्तिर्यग्यो निस्त्रीणामन्तरं प्रागभिहितं, तदेव तिर्यग्योनिकपुरुषा-णामप्यविशेषितं वक्तव्यं। ततश्चैवं सामान्यतस्तिर्यक्पुरुषस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, तावत्कालस्थितिना मनुष्यादिभवेन व्यव- धानात् / उत्कर्षतो वनस्पतिकालोऽसंख्येयपुद्गलपरावर्ताख्यः / तावता कालेनामुक्तौ सत्यां नियोगतः पुरुषत्वयोगात्। एवं विशेषचिन्तायां जलचरपुरुषस्य स्थलचरपुरुषस्य खचरपुरुष- स्यापि प्रत्येकं जघन्यतः उत्कर्षतश्चान्तरं वक्तव्यम्।। सम्प्रति मनुष्यपुरुषत्वविषयान्तरप्रतिपादनार्थमाह - मणुस्सपुरिसाणं भंते ! केवतियं कालं अंतर होति? गोयमा! खेत्तं पडुच जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वणस्सतिकालो। धम्मचरणं पडुचजहण्णेणं एवं समयं, उक्कोसेणं अणंतं कालं। अणंता उस्सप्पिणीओ जाव अवडं पोग्गलपरियट्ट देसूणं / कम्मभूमकाणं जाव विदेहो जाव धम्मचरणे एक्को समओ, सेसं जहत्थीणं जाव अंतरदीवकाणं। यन्मनुष्यस्त्रीणामन्तरं प्रागभिहितं तदेव मनुष्यपुरुषाणामपि वक्तव्यं, तश्चैवं-सामान्यतो मनुष्यपुरुषस्य जघन्यतः क्षेत्रमधिकृत्यान्तरमन्तर्मुहूर्त, तच्च प्रागिव भावनीयम्।उत्कर्षतो वनस्पति-कालो, धर्मचरणमधिकृत्य जघन्यत एकं समयं चरणपरि-णामात्परिभ्रष्टस्य समयानन्तरं भूयोऽपि कस्यचित् चरणप्रतिपत्ति-संभवात् ,उत्कर्षतो देशोनोऽपार्द्धपुद्गलपरावर्त्तः। एवं भरतैराव-तकर्मभूमकमनुष्यपुरुषस्य पूर्व विदेहापरविदेहाकर्मभूमकमनुष्य- पुरुषस्य जन्म प्रतीत्य चरणमधिकृत्य च प्रत्येकं जघन्यत उत्क- र्षतश्चान्तरं वक्तव्यं / सामान्यतोऽकर्मभूमकमनुष्यपुरुषस्य जन्म प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तरं दश वर्षसहस्राणि अन्तर्मुहूर्ताभ्यधिकानि / अकर्मभूमकमनुष्यपुरुषत्वेन मृतस्य जघन्यस्थितिषु देवेषूत्पद्य ततोऽपि च्युत्वा कर्मभूमिषु स्त्रीत्वेन पुरुषत्वेन वोत्पद्य कस्या- प्यकर्मभूमकत्वेन भूयोऽप्युत्पादात् / देवभवात् च्युत्वा अनन्त- रमकर्मभूमिषु मनुष्यत्वेन तिर्यक्संज्ञिपञ्चेन्द्रियत्वेन उत्पादा- भावादपान्तराले कर्मभूमिधुत्पादाभिधानमुत्कर्षतो वनस्पति- कालोऽन्तरं / संहरणं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमकर्मभूमेः कर्मभूमिषु संहृत्यान्तर्मुहूतानन्तरं तथाविधबुद्धिपरावर्तादिभावतो भूयस्तत्रैव नयनसंभवात्, उत्कर्षतो वनस्पतिकालः / एतावतः कालादूर्ध्वमकर्मभूमिषूत्पत्तिवत् संहरणस्यापि नियोगतो भावात् / एवं हैमवतहरण्यवतादिष्वप्यकर्मभूमिषु जन्मतः संहरणतश्च जघन्यतः उत्कर्षतश्चान्तरं वक्तव्यं, यावदन्तरद्वीपकाकर्मभूमकम- नुष्यपुरुषत्यवक्तव्यता। ___संप्रति देवपुरुषाणामन्तरप्रतिपादनार्थमाह - देवपुरिसाणं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वणस्सतिकालो / भवणवासिदेवपुरिसाणं ताव जाव सहस्सारो / जहण्णेणं अंतोमुहुर्त, उक्कोसेणं वणस्सतिकालो। आनतदेवपुरिसाणं भंते! केवतियं कालं अंतरं होति? गोयमा! जहण्णेणं वासपुहुत्तं, उक्कोसेणं वणस्सतिकालो / एवं जाव गेवेज्जगदेवपुरिसाण वि। अनुत्तरोववातियदेवपुरिसाणं जहण्णेणं वासपुहुत्तं, उक्कोसेणं संखेज्जाइं सागरोवमाइं। अनुत्तराणं अंतरे एक्को आलावओ। देवपुरुषस्य भदन्त ! कालतः कियच्चिरमन्तरं भवति? भगवानाह- गौतम ! जघन्येनान्तर्मुहूर्त, देवभवात् च्युत्वा गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्येषूत्पद्यपर्याप्तिसमनन्तरंतथाविधाध्यवसायमरणेन भूयोऽपि कस्यापि देवत्वेनोत्पादसंभवात् ,उत्कर्षतो वनस्पति- कालः। एवमसुरकु मारादारभ्य निरन्तरं तावद्वक्तव्यं यावत् - सहस्रारकल्पदेवपुरुषस्यान्तरम् / आनतकल्पदेवस्यान्तरं जघन्येन वर्षपृथक्त्वं, कस्मादेतावदिहान्तरमिति चेत् उच्यते- इह यो गर्भस्थः सर्वाभिः पर्याप्तिभिः पर्याप्तः, स शुभाध्यवसायोपेतो Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतर 82 . अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंतर मृतः सन् आनतकल्पादारतो ये देवास्तेषूत्पद्यते, नाऽऽनतादिषु, तस्य | वस्थानमन्तरं चोत्कर्षतः सागरपृथक्त्वं, पदैकदेशैपदसमुदायोपचारात् तावन्मात्रकालस्य तद्योगाध्यवसायविशुझ्यभावात् / ततो य सागरोपमशत-पृथक्त्वं, तथा च प्रागभिहितं 'पुरिसेणं भंते ! पुरिसत्ति आनतादिभ्यश्च्युतः सन् भूयोऽप्यानतादिषूत्पद्यते, स नियमा- कालतो कियचिरं (केव चिरं ) होइ ? गोयमा ! जहणणेणं (जहन्नेणं) चारित्रमवाप्य, चारित्रं चाष्टमे वर्षे, तत उक्तं जघन्यतो वर्षपृथक्त्व- अंतोमुहुत्तं, उक्को से णं सागरोवमसयपुहुत्तं सातिरेग' मुत्कर्षतो वनस्पतिकालः / एवं प्राणतारणाच्युतकल्पग्रैवेयकदेव- नपुंसकान्तरोत्कर्षप्रतिपादकं चेदमेवाधिकृतं सूत्रमिति। तथा सामान्यतो पुरुषाणामपि प्रत्येकमन्तरं जघन्यतः उत्कर्षतश्च वक्तव्यम् / अन- नैरयिकनपुंसकस्यान्तरं जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त सप्तम-नरकपृथिव्या त्तरोपपातिककल्पातीतदेवपुरुषस्य जघन्यतोऽन्तरं वर्षपृथक्त्वम्, उदृत्य तन्दुलमत्स्यादिभवेष्वन्तर्महूर्त स्थित्वा भूयः सप्तमनरकउत्कर्षतः संख्येयानि सागरोपमाणि सातिरेकाणि / तत्र संख्येयानि पृथिवीगमनस्य च श्रवणात्। प्रतिपृथिव्यपि वक्तव्यम्। जी०२ प्रति०। सागरोपमाणि तदन्यवैमानिकेषु संख्येयवारोत्पत्त्या, सातिरेकाणि तिरश्चामन्तरम् / मनुष्यभवे / तत्र सामान्याभिधानेऽप्येतत् अपराजितान्तमव- एगिंदियतिरिक्खजोणियणपुंसकस्स जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, गन्तव्यं / सर्वार्थसिद्धे सकृदेवोत्पादतस्तत्रान्तरसंभवात् / अन्ये उक्कोसेणं दो सागरोवमसहस्साई संखेज्जवासमभहियाइं / त्वभिदधतिभवनवासिन आरभ्य आ ईशानादमरस्य जघन्यतो- पुढविआउतेउवाऊणं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं ऽन्तरमन्तर्मुहूर्त, सनत्कुमारादारभ्यासहस्रारात् नव दिनानि वणस्सतिकालो / वणस्सतिकाइयाणं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, आनतकल्पादारभ्याच्युतकल्पं यावत् नव मासा नवसु ग्रैवेयकेषु उक्कोसेणं असंखेचं कालं जाव असंखेज्जा लोया / सेसाणं सर्वार्थसिद्धमहाविमानवर्जेष्वनुत्तरविमानेषु च नव वर्षाणि ग्रैवेयकान् बेंदियादीणं जाव खहयराणं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं यावत् सर्वत्रापि उत्कर्षतो वनस्पतिकालः, विजयादिषु चतुर्षु वणस्सतिकालो। महाविमानेषु द्वे सागरोपमे। उक्तं च "आ ईसाणादमरस्स अंतरं हीणयं तथा सामान्यचिन्तायां तिर्यग्यो निकनपुंसकस्यान्तरं जघन्यमुहुत्तंतो, आ सहस्सारे अच्चुयणुत्तरदिणमासवासनयथावरकालुक्कोसो तोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतः सागरोपमशतपृथक्त्वं सातिरेकम् / अत्र भावना सव्वट्ठवीयओ नव उववाओ दो अपरा विजयादिसु इति / प्रागिव, विशेषचिन्तायां सामान्यत एके न्द्रियतिर्यग्यो निकनैरयिकनपुंसकानामन्तरम्। नपुंसकस्यान्तर्मुहूर्त, तावता द्वीन्द्रियादिकालेन व्यवधानात्। उत्कर्षतो अकम्मभूमकमणुस्सणपुंसएणं भंते? गोयमा! जम्मणं पडुच्च द्वे सागरोपमसहस्रे संख्येयवर्षाभ्यधिके, त्रसकायस्थि-तिकालस्य जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं (अंतोमुहत्तपुहुत्तं)। एकेन्द्रियत्वव्यवधायकस्योत्कर्षतोऽप्येतावत एव संभवात् / संहरणं पडुच जहण्णेणं अंतोमुहुरा, उक्कोसेणं देसूणा पृथिवीकायिकै केन्द्रियतिर्यग्यो निकनपुंसकस्य जघन्यपुव्वकोडी। सव्वेसिंजाव अंतरदीवगाणं / णपुंसगस्सणं भंते! तोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतो वनस्पतिकालः / एवमप्कायिकतेजस्काकेवतियं कालं अंतरं होति? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, यिकवायुकायिकै केन्द्रियतिर्यग्यो निकनपुंसकानामपि वक्तव्यं / वनस्पतिकायिकैचेन्द्रियतिर्यग्यो निकनपुंसकस्य जघन्यतोऽन्तउक्कोसेणं सागरोवमसतपुहुत्तं सातिरेगं / नेरइयणपुंसगस्स णं मुहूर्तमुत्कर्षतोऽसंख्येयं कालं यावत्। स चासंख्येयः कालोऽ- संख्येया भंते ! केवतियं कालं अंतरं होति ? जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः कालतः, क्षेत्रतोऽसंख्येया लोकाः / किमुक्तं उक्कोसेणं तरुकालो / रतणप्पभापुढविनेरइयणपुंसगस्स भवत्यसंख्येयलोकाकाशप्रदेशानां प्रतिसमयमेकैकाप-हारे यावत्य जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तरुकालो / एवं सव्वेसिं जाव उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यो भवन्ति, तावत्य इत्यर्थः / वनस्पतिभवात् अहेसत्तमा। तिरिक्खजोणियणपुंसकस्स जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, प्रच्युतस्यान्यत्रोत्कर्षत एतावन्तं कालमवस्थान- संभवात्,तदनन्तरं उक्कोसेणं सागरोवमसतपुहुत्तं सातिरेगे। संसारिणो नियमेन भूयोऽपि वनस्पतिकायिक-त्वेनोत्पादभावात्। णमिति वाक्यालङ्कारे, भदन्त ! अन्तरं कालतः कियश्चिरं भवति ? द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रियतिर्यग्यो-निकनपुंसकानां नपुंसको भूत्वा नपुंसकत्वाद् भ्रष्टः पुनः कियता कालेन नपुंसको जलचरस्थलचरखचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिक-नपुंसकानां सामान्यतो भवतीत्यर्थः / भगवानाह- गौतम ! जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमेतावता नपुंसकस्य च जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्ष-तोऽनन्तं कालं, स चानन्तः पुरुषादिकालेन व्यवधानात्, उत्कर्षतः सागरोपमशतपथकत्वं सातिरेक कालो वनस्पतिकालो यथोक्तस्वरूपः प्रतिपत्तव्यः। पुरुषादिकालस्य एतावदेव संभवात् / तथा चात्र संग्रहणीगाथा मनुष्यनपुंसकस्य। "इत्थिनपुंसा संचिट्ठणेसु पुरिसंतरे य समऊओ / पुरिसनपुंसा मणुस्सणपुंसकस्स खेत्तं पडुच जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, संचिट्ठणंतरे सागरपुहुत्तं / / 1 / / " अस्याक्षरगमनिका "संचिट्ठणा नाम" उक्कोसेणं वणस्सतिकालो | धम्मचरण पडुच्च जहण्णेणं एणं सातत्येनावस्थानं तत्र स्त्रिया नपुंसकस्य च सातत्येनावस्थाने समयं, उक्कोसेणं अणंतं कालं जाव अवर्ल्ड पोग्गल-परियट्ट पुरुषान्तरे चजघन्यत एकः समयस्तथा च प्रागभिहितम् "इत्थीणं भंते ! देसूणं / एवं कम्मभूमगस्स वि, भरहेरवयस्स इत्थीति कालतो केव चिरं होइ ? गोयमा ! एगेणं आदिसेणं जहन्नेणं एगं पुश्वविदेहअवरविदेहकस्स वि / अकम्मभूमकमणुस्ससमयं इत्यादि" तथा "नपुंसगेणं नपुंसगेत्ति कालतो केव चिरं होइ ? णपुंसकस्स णं भंते ! केवतियं कालं? जम्मणं पडुच जहण्णेणं गोयमा ! जहण्णेणं एक समयमित्यादि " तथा "पुरिसस्स णं भंते ! अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वणस्सतिकालो / संह- रणं पडुच अंतरं कालतो केव चिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं एक समयमित्यादि | जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वणस्सति-कालो। एवं जाव तथा पुरुषस्य च नपुंसकस्य यथाक्रमं (संचिट्ठणं) सातत्येना- | अंतरदीवगत्ति / Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतर 83 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंतरकप्प - कर्मभूमकमनुष्यनपुंसकस्यान्तरं क्षेत्रं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्त (41) संयमविशेषणेनान्तरम्। मुहूर्तमुत्कर्षतो वनस्पतिकालः। धर्मचरणं प्रतीत्य जघन्यत एक समयं संजयस्स संजयासंजयस्स दोण्ह वि अंतरं जहण्णेणं यावत् , चरणलब्धिपातस्य सर्वजघन्यस्य एकसामयिक - अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं जाव अवर्ल्ड पोग्गल-परियट्ट त्वात्। उत्कर्षतोऽनन्तं कालं, तमेवानन्तं कालं निर्धारयति- अणंताओ देसूणं / असंजयस्स आदि दुवे णत्थि अंतरं। साइयस्स उस्सप्पिणिओसप्पिणीओ कालतो, खेत्ततो अणंता लोगा अवर्ल्ड सपज्जवसियस्स जहण्णेणं एक समयं, उक्कोसेणं देसूणा पोग्गलपरियट्ट देसूणमिति / एवं भरतैरवतपूर्वविदेहा-परविदेहकर्म- पुव्वकोडी। चउत्थगस्स णत्थि अंतरं। भूमकमनुष्यनपुंसकानामपि क्षेत्रं धर्मचरणं च प्रतीत्य जघन्यत उत्कृष्ट संयतस्य जघन्येनान्तरमन्तर्मुहूर्त, तावता कालेन पुनः कस्यापि चान्तरं प्रत्येकं वक्तव्यम्।अकर्मभूमक-मनुष्यनपुंसकस्य जन्म प्रतीत्य संयतत्वभावात्, उत्कर्षतोऽनन्तं कालमनन्ता उत्सप्पिण्यवस-पिण्यः जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमेतावता गत्यन्तरादिकालेन व्यवधानभावात् , कालतः, क्षेत्रतोऽपार्द्ध पुद्गलपरावर्त्त देशोनम् , एतावतः कालादूज़ उत्कर्षतो वनस्पतिकालः / संहरणं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तम् / पूर्वमवाप्तसंयमस्य नियमतः संयमलाभात् / संयतस्य नास्त्यन्तरमतचैवंकोऽपि कर्मभूमक-मनुष्यनपुंसकेनाप्यकर्मभूमौ संहृतः / स च पर्यवसितत्वात् / अनादिसपर्यवसितस्यापि नास्त्यन्तरं, तस्य मागधपुरुष-दृष्टान्तबलादकर्मभूमक इति व्यपदिश्यते / ततः प्रतिपातासंभवात् / सादिसपर्यवसितस्य जघन्यत एकं समयं, स कियत्कालानन्तरं तथाविधबुद्धिपरावर्तनभावतो भूयोऽपि कर्मभूमौ चैकसमयः प्राग्व्यावर्णितः संयतसमय एवमुत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी, संहतस्तत्र चान्तर्मुहूर्त धृत्वा पुनरप्यकर्मभूमावानीतः, उत्कर्षतो असंयतत्वव्यवधायकस्य संयतकालस्य संयतासंयत-कालस्य वा वनस्पति-कालः / एवं विशेषचिन्तायां हैमवतहरण्यवतहरिवर्षरम्यक- उत्कर्षतोऽप्येतावत्प्रमाणत्वात् / संयतासंयतस्य जघन्यतोऽन्तमुहूर्त, वर्षदेवकुरूत्तरकुर्वकर्म-भूमकमनुष्यनपुंसकानामन्तरद्वीपक- तद्भावपाते एतावता कालेन तल्लाभसिद्धेः / उत्कर्षतः संयतवत्। मनुष्यनपुंसकस्य च जन्म संहरणं च प्रतीत्य जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तरं त्रितयप्रतिषेधवर्तिनः सिद्धस्य साद्यपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरमपर्यववक्तव्यं / तदेवमुक्तमन्तरम् / जी०२ प्रति०। पं० सं०। सिततया सदा तद्भाव-परित्यागात् / जी० सर्वजी०३ प्रति० / (40) औदारिकादिशरीरविशिष्टानामन्तरम् / (सामायिकादिसंयतानामन्तरं संजय शब्दे) ओरालियसरीरस्स अंतरं जहण्णेणं एवं समयं, उक्को सेणं सिद्धासिद्धयोः। तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुत्तममहियाई। वेउव्वियसरीरस्स सिद्धस्स णं भंते ! केवतियं कालं अंतरं होति ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं। वणस्सतिकालो। सातीयस्स अपञ्जवसियस्सणत्थि अंतरं। असिद्धस्सणं भंते ! आहारगसरीरस्स जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अणंतं के वतियं कालं अंतरं होति ? गोयमा! अणातीयस्स कालं,जाव अवर्ल्ड पोग्गलपरिय देसूणं / तेयगकम्मगसरीरस्स अपज्जवसियस्स, अणातीयस्स सपञ्जवसियस्स णत्थि अंतरं। य दुविहा णत्थि अंतरं। प्रश्नसूत्रं सुगमं भगवानाह- गौतम ! सिद्धस्य सादिकस्यापर्यऔदारिकशरीरिणोऽन्तरं जघन्यतः एकः समयः, स च द्विसामा वसितस्य नास्त्यन्तरम्। अत्र "निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां विभक्तीनां विक्यामपान्तरालगतौ भावनीयः / प्रथमे समये कार्मण प्रायो दर्शनमिति' न्यायात् हेतौ षष्ठी ततोऽयमों यस्मात्सिद्धः शरीरोपेतत्वात्,उत्कर्षतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि अन्तर्मुहूर्ता सादिरपर्यवसितस्तस्मान्नास्त्यन्तरमन्यथाऽपर्यव-सितत्वायोगात् / भ्यधिकानि। उत्कृष्टो वैक्रियकालं इति भावः। वैक्रियशरीरि- णोऽन्तरं असिद्धसूत्रे असिद्धस्यानादिकस्यापर्यवसितस्य नास्ति अन्तरमजधन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, सकृद्वैक्रियकरणे यावता कालेन पुनर्वैक्रियकरणात् पर्यवसितत्वादेवासिद्धत्वाप्रच्युतेः अनादिकस्य सपर्यवसि-तस्यापि मानवदेवेषु भावात् / उत्कर्षतो वनस्पतिकालः प्रकट / एव नास्त्यन्तरं भूयोऽसिद्धत्वायोगात्। जी० सर्वजी०१ प्रति०। आहारकशरीरिणो जघन्येनान्तर्मुहूर्त, सकृत्करणे एतावता कालेन पुनः अंतरंग-पुं०(अन्तरङ्ग) अन्तरं सदृशमङ्गं यस्य / अत्यन्तप्रिये, करणात् , उत्कर्षतोऽनन्तं कालं यावदपार्द्ध पुद्गलपरावर्त्तम् / जी० बहिरङ्गशास्त्रीयनिमित्तसमुदायमध्ये अन्तर्भूतानि अङ्गानि निमि-तानि सर्वजी० 5 प्रति०। (संघातपरिशाट- करणयोरन्तरं करण शब्दे) यस्य। व्याकरणोक्त परनित्यबहिरङ्गबाधके कार्यभेदे, तद्बोधके शास्त्रे संज्ञाविशेषणेनान्तरम्। च। वाच० / अन्तरङ्गबहिरङ्गयोरन्तरङ्ग एव विधि-बलवान्। आ० म० सण्णिस्स अंतरं जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं वण द्वि० / अभ्यन्तरे, त्रि०।०। विशे०। (काले शब्दे एतदुदाहरणम् ) स्सइकालो / असण्णिस्स अंतरं जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, अंतरंजिया-स्त्री०(अन्तरञ्जिका) नगरीभेदे, यत्र भूतगृहं चैत्यं बलश्री उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं सातिरेगं / ततियस्स णत्थि राजा, त्रैराशिकानामुत्पत्तिश्चाभूत्। उत्त०३ अ०। वि०।आ० म०वि०। अंतरं। कल्प०। स्था० आ० चू०। अन्तरचिन्तायां संज्ञिनोऽन्तरं जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतोऽनन्तं अंतरंडगगोलिया-स्त्री०(अन्तराण्डकगोलिका) अण्डकोशाकालम् / स चानन्तः कालो वनस्पतिकालः। असंज्ञिकालस्य जघन्यत __ भ्यन्तरस्य गोलिकायाम्। महा०४ अ०! उत्कर्षतश्चैतावत्प्रमाणत्वात् / असंज्ञिनोऽन्तरं जघन्यतो- अंतरकंद-पुं०(अन्तरकन्द ) अनन्तजीवात्मकवनस्पतिभेदे, प्रज्ञा० ऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतः सागरोपमशतपृथक्त्वं संज्ञिकालस्य जघन्यत १पद०। उत्कर्षतश्चैतावत्प्रमाणत्वात्।नोसंज्ञिनोअसंज्ञिनः साद्य-पर्यवसितस्य | अंतर(रा)कप्प-पुं० पअन्तर(रा)कल्पब चारित्राणामन्तरस्वरूपे नास्त्यन्तरमपर्यवसितत्वात्। जी० सर्वजी०२ प्रति०। कल्प-भेदे, / तद्वर्णनमित्थम्। त: सानोसजिना 02 प्रति Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतरकप्प 84 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंतरगिह णिव्विसकप्पो एसो, एतो वोच्छामि अंतराकप्पं। संखेवपिंडियत्थं, गुरूवएसं जहाकमसो / / दारं / / पंचट्ठाणमसंखा, बारसगं चेव तिहि बितियाणं / अज्झत्थकरणणाण-ट्ठया य एसोंतराकप्पो / / सामादिसंजतादी, पंचहचरणं तु तेसि एक्ककं / संजमठाणमसंखा, एक्के के तत्थ ठाणम्मि॥ होति अणंता चारित्तपञ्जवा ताण संखगुणियाणि / एकं संजमकंडग -कंडसंखा य छट्ठाणं / / छट्ठाणा संखेचा, संजमसेढी तु होति बोधव्वा। सामाइयछेदसंजम- ठाणागं तुं असंखेजा। परिहारसंजमट्ठाण, ताहे लग्गति ते असंखागा। गंतु ण होति छिण्णा, ताहे तत्तो पुणो परतो॥ वटुंति जे असंखा, सामाइयछेदसंजमट्ठाणा। सामाइयछेदठाणा, ताहे छिन्ना भवंती तु॥ तो सुहमएगठाणा, ते वि असंखेज्जगं तु वोच्छिन्ना। त सस अपच्छिमठाणा, अणंतगुणवड्डितं णियमा। एकं परमविसुद्धं, होति अहक्खाय संजमवाणं / पंचमसंखतिगं तं, बारसऽणयारपडिमाओ / दारं / / सुद्धपरिहारचउरो, अणुपरिहारी वि णवमकप्पठितो। एते तिहि तिया खलु, एतेसिं एक्कमेक्कस्स। अंतरसंजमठाणा, होति असंखातु तेसि सव्वेसिं। होति दुविहा तु सोही, करणे अब्भत्थतो चेव // तो दो वी कायव्वा, णाणवाए उवउत्तेणं। एसो अंतरकप्पो। पं० भा० / / इयाणिं अंतरकप्पो गाहा-(पंचट्ठाण) अंतरकप्पो नाम पंचविहं चारित्तं सामाइयमाइएकेकस्स असंखेज्जाई संजमट्ठाणाई अंतरं बारसत्ति बारस भिक्खुपडिमाओ तासिं पितहेव अंतरं, तिणि तिगतिसु च परिहारिणा णव, चत्तारि परिहारिया, अणुपरिहारिया वि चत्तारि, एसो कप्पट्टिओ। एएसिं असंखेल्जाइं अंतरा संजम-ट्ठाणाई तेसु पुण सव्येसु वि दुविहा सोही अब्भत्थसोही य करणसोही य। दो वि कायव्याओ नाणट्ठया एवं नाणनिमित्तं वा नाणोवउत्तो वा जं करेइ तत्थ वि अब्भत्थकरणं पञ्च निज-राविसेसो करणविसोहीए वि बाहिरए अब्भत्थओ चेव निजराविसेसो / एस अंतरकप्पो। पं० चू०।। अंतरकरण-न०(अन्तरकरण) यथाप्रवृत्तकरणापूर्वकरणानिवृत्तिकरणभेदभिन्ने सम्यक्त्वौपयिककरणे, पं० सं०१ द्वा०। (तद्वृत्तं यथाप्रवृत्तादिशब्देषु करणशब्दे च) अंतरगय-त्रि०(अन्तर्गत) मध्यगते, प्रश्न० सं० 3 द्वा। अंतरगिह-न०(अन्तरगृह-गृहान्तर) गृहस्य गृहयोर्वा अन्तरं / | राजदन्तादित्वात् अन्तरशब्दस्य पूर्वनिपातः / गृहस्य गृहयो अन्तराले, बृ०३ उ० / गृहयोरन्तराले स्थानादि न कर्तव्यम् "गिहतरणिसिज्जा य ति" अनाचारत्वेन तस्य कथनात्। नो कप्पति निग्गंथाणं वा निगंथीणं वा अंतरागिहम्मिचिद्वित्तए वा निसीयत्तए वा तुअट्टत्तए वा निदाइत्तए वा पयलाइत्तए वा, असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारं आहारितए, उच्चारं वा पासवणं वा खेलं वा सिंघाणं वा परिट्ठवित्तए, सज्झायं वा करित्तए, झाणं वा झाइत्तए, काउस्सगं वा ठाणं वा ठाइत्तए। अह पुण एवं जाणिज्जा वाहिए जराजुण्णो तवस्सी दुबले किलंते मुच्छिज्ज वा पवडिज्ज वा, एवं से कप्पइ अंतरगिहसि चिद्वित्तए वा, जाव ठाणं ठाइत्तए। नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा अन्तरं गृहे गृहस्य गृहयोर्दा अन्तरे मध्ये, राजदन्तादित्वादार्षत्याद्वा अन्तरशब्दस्य पूर्वनिपातः। स्थातुं वा निषत्तुं वा, यावत्करणात्त्वग्वर्तयितुं वा निद्रापयितुं वा प्रचलायितुंवा, असनं वा पानं वा खादिम वा स्वादिमं वा आहर्तुमुचार या प्रस्रवणं वा खेलं वा सिंघाणं वा परिष्ठापयितुं, स्वाध्यायं वा कर्तुं ,ध्यानं वाध्यातुं, (काउस्सगंति) कार्योत्सर्ग-लक्षणं वा स्थातुं स्थानं कर्तु, सूत्रेणैवापवादं दर्शयति-अथपुनरेवं जानीयात् (वाहिए इत्यादि) व्याधितो ग्लानो जराजीर्णः स्थविर- स्तपस्वी क्षपको दुर्बलो ग्लानत्वादधुनैवोत्थितोऽसमर्थशरीरः, एतेषां मध्यादन्यतमस्तपसा भिक्षापर्यटनेन वा क्लान्तः परिश्रान्तः सन् मूर्च्छद्रा प्रपतेद्वा, एवं कारणमुद्दिश्य कल्पते अन्तरगृहे स्थातुं वा, यावत् कायोत्सर्ग वा कर्तुमिति सूत्रार्थः। अथ भाष्यविस्तरः - सम्भावमसब्भावे, दुण्ह गिहाणंतरं तु समावे। पासपुरोहडअंगण, मज्झंति य होतसब्भावं / / गृहान्तरं द्विधा सद्भावतोऽसद्भावतश्च / शुद्धयोर्गृहयोर्यदन्तरं मध्यं तत्सद्भावो गृहान्तरम् / यत्तु गृहस्य पार्श्वतः पुरोहडे अङ्गणे गृहमध्ये वा तत्सद्भावगृहान्तरं भवति। एतस्मिन् द्विविधेऽपि भिक्षाद्यर्थं निर्गतस्य स्थानादि कर्तुंन कल्पते। कुडुंतर भित्तीए, णिवेसणे गिहे तहेव रत्थाए / वायंतगणे लहुगा, तत्थ वि आणाइणो दोसा / / द्वयोः कुड्ययोरन्तरे (भित्तीएत्ति) सटितपतितस्याभिनवक्रियमाणस्य वा गृहस्य भित्तौ निवेशितश्चारित्रप्रभृतीनां गृहाणामाभोगे, (गिहित्ति ) गृहपार्श्वे रथ्यायां प्रतीतायामेतेषु स्थानेषु तिष्ठतश्चतुर्लघुकाः तत्राप्याज्ञादयो दोषा मन्तव्यास्तन्निमित्तं प्रायश्चित्तं पृथग्भवतीति भावः। तथाखरिए खरिया सुण्हा, णट्टे वट्टे खरे व संकिज्जा। खिण्णे य अगणिकाए , दारे वित्तिं व केण तिरियक्खं / / खरको दासः, खरिका दासी, स्नुषा वधूः, वृत्तखरस्तुरङ्गमः, एतेषु नष्टषु साधुः शङ्कयेतायः श्रमणकः कल्ये अत्र गृहान्तरे उपविष्टः आसीत्, तेन हृतं भविष्यति।द्वारे या श्रमणेन उद्घाटिते स्तेनः प्रविश्य हृतवानिति / (वेत्तित्ति) वेत्रं केनचित् खातं दत्तमित्यर्थः / अग्निकायो वा केनापि दत्तो भवेत् , द्वारेण वा प्रविश्य वृत्तिं वा छित्त्वा केनापि सुवर्णादिकमपि हृतं स्यात्, तिर्यग्योनीयो वा गोमहिषी प्रभृतिको मृतो भवेत्। तत्रापि शङ्कायां ग्रहणा- कर्षणादयो दोषाः, यत एवमतो गृहान्तरे न स्थातव्यम्। Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतरगिह 85 - अभियानराजेन्द्रः - भाग 1 अंतरगिह अथ सूत्रोक्तं द्वितीयपदं भावयति - उच्छुद्धसरीरे वा, दुब्बलतपसोसिते व जे होज / थेरे जुण्णमहिल्ले, वीसंभणवेसहतसंके / / उच्छुद्धं रोगाघ्रातं शरीरं यस्स स उच्छुद्धशरीरो, वाशब्दः उत्तरापेक्षया विकल्पार्थे दुर्बलोऽधुनोत्थितग्लानः, तपःशोषितो वा विकृष्टतपोनिष्टप्तदेहो भवेत् , यो वा स्थविरो जीर्णः षष्टिवर्षातिक्रान्तजन्मपर्यायः, सोऽपि यदि महान् सर्वेभ्योऽपि वृद्धतरः / एते विश्रामग्रहणार्थं गृहान्तरे तिष्ठेयुः। इह चव्याधितोदये उत्सर्गतो भिक्षाटनं न कार्यते, परमात्मलब्धिकारणापेक्षया भिक्षामटतां प्राकृतस्तत्रावतारो मन्तव्यः / स च व्याधितादिर्विश्रम्भणवेषः संविग्नवेषधारी हतशङ्कश्व हास्यादिविकारविकलतया असंभा- वनीयव्यलीकशङ्कः सन् तत्र स्थानादीनि पदानि कुर्यात्। अहवा ओसहहेउं, संखडिसंघाडए व वासासु / वाघाए वा तत्थ उ, जयणाए कप्पती ठाउं॥ सूत्रोक्तस्तावदपवादोदर्शितः। अथार्थतः प्रकारान्तरेणाप्युच्यते इत्यत्र वाशब्दार्थः / औषधहेतोतारं गृहे अस्वाधीनं प्रतीक्षते संखण्ड्यां वा / यावद्वेला भवति, संघाटकसाधुर्वा यावद्भक्तपानभृतं भाजनं वसतौ विमोच्य समागच्छति, वर्षासु वा गृहं प्रविष्टानां वर्ष निपतेत्, वधूवराद्यागमनेनवा रथ्यायांव्याघातो भवेत्, तावत्तत्रैव गृहान्तरे यतनया वक्ष्यमाणया स्थातुं कल्पते / एष द्वारगाथा-समासार्थः / अथैनामेव विवरीषुरौषधिसंखडिद्वारे व्याख्यानयति - पासंसि ओसहाई, ओसहदाता व तत्थ असहीणो। संखडि असती कालो, उटुंते वा पडिच्छंति / / ग्लानस्यौषधानि पेष्टव्यानि, तत्र पेषणशिला प्रतिश्रये नेतुन कल्पते, अतस्तेषां चागारिणां गृहान्तरे स्थित्वा तानि पेषन्ति / ओषधमार्गणार्थं वा कस्यापि गृहं गताः, स चौषधदाता तदानीं तत्रास्वाधीनोऽतस्तं प्रतीक्षमाणः स्थातव्यम्। संखडीवा क्वापि वर्तते, तत्र वसेत्कालोऽद्यापि देशकालो न भवति, गृहस्वामिना चोक्तं- प्रतीक्षध्वं क्षणमेकं यावद्वेला भवति, ततस्तस्मिन्नन्यस्मिन् वा गृहे प्रतीक्षणीयम् / अगारिणो वा तदानीं गृहाङ्गणमापूर्य्य भोक्तुमुपविष्टाः सन्ति, ततस्तानुपतिष्ठतः प्रतीक्षते। संघाटकद्वारमाह - एगयर उभयओ वा, अलंभे अहच वा उभयलंभे। वसहिं जा णे एगो, ता इअरो चिट्ठई दूरे॥ एकतरस्य भक्तस्य वा पानस्य वा उभयो अलाभे दुर्लभतायामित्यर्थः / (आहच) कदाचिदुभयमपि प्रचुरतरं लब्धं, तेन च भाजनमापूरितं, ततः संघाटकस्य मध्याद्यावदेकस्तद्भाजनं वसतिं नयति, तावदितरः साधुरगारिणां दूरं भूत्वा तिष्ठति। एष चूर्ण्य-भिप्रायः / पुनरयं भक्तस्य पानकस्य उभयस्य दुर्लभस्यलाभः समुपस्थितो, मात्रकं च तस्मिन् दिने अनाभोगेन न गृहीतं, ततो यावदेको मात्रकं वसतेरानयति, तावदितरस्तत्र गृहिणां दूरे तिष्ठतीति। वर्षाद्वारमाह - वासासु च वासंते, अणुण्णचित्ताण तत्थऽणाबाहे। अंतरगिहे गिहे वा, जयणाए दो वि चिटुंति / / वर्षासु वा क्वापि गृहे गतानां वर्ष वर्षति गृहस्वामिनमनुज्ञाप्य तानाबाधे अवकाशे अन्तरगृहे वा गृहे वा द्वावपि संघाटक साधू यतनया विकथादिपरिहारेण तिष्ठतः। प्रत्यनीकद्वारमाह - पडिणीयनिवेयंते, तस्स अंतेउरे गतो फिडिए। बुग्गहनिव्वहभावे, वाघातो एवमादीसु // प्रत्यनीकं समागच्छन्तं दृष्ट्वा यावदसौ अतिव्रजति तावदेकान्ते निलीय तिष्ठन्ति / नृपो वा सम्मुखेनैति, तस्य वा नृपस्यान्तःपुरं, मजो वा, हस्ती निर्गच्छति, ततो यावदसौ स्फिटितो भवति, तावत्त- त्रैवासते। (वुग्गहत्ति) दण्डिकौ द्विजौ वा द्वौ परस्परं विग्रहं कुर्वन्तौ समागच्छतो निर्वहं वधूवरं ततो महता विच्छन समायाति, आदिशब्देन गौष्ठिका गीतं गायन्तः समायान्ति, एवमादिषु कारणेषु व्याघातस्तत्रैवं प्रतीक्षणलक्षणो भवति। तत्र च तिष्ठतामियं यतनाअयाणगुत्ता विकहाविहीणा, अच्छण्णछण्णे व ठिया पविट्ठा। अत्थंति ते संतमुहा णिविलु, भजंति वा सेसपदे जहुत्ते // आदानैरिन्द्रियैर्गुप्तास्तथा विकथया भक्तकथादिरूपया विशेषण हस्तसंज्ञादेरपि परिहारेण हीनास्त्यक्तास्तत्र गृहान्तरे अच्छन्ने छन्ने वा प्रदेशे ऊर्ध्वस्थिता उपविष्टा वा ते साधवः शान्तमुखा आसते। निवेश्य चोपविश्य शेषाण्यपि स्वाध्यायविधानादीनि यथोक्तानि पदानियथायोगं भजन्ते, न च दोषमापद्यन्ते। कथमिति चेदुच्यते - थाणं च कालं च तहेव वत्थु, आसज्ज जो दोसकरे तु ठाणे। तेणेव अन्नस्स अदोसवंते, भवंति रोगिस्स व ओसहाई। स्थानं च स्त्रीपशुपण्डकसंसक्तं भूभागादि, कालं च ऋतु- बद्धादिकं, तथैव वस्तु तरुणनीरोगादिकं पुरुषद्रव्यमासाद्य यान्येकस्य गृहान्तरे स्थाननिषदनादीनि स्थानानि दोषकारीणि भवन्ति, तान्येवान्यस्य पूर्वोक्तविपरीतस्थानकालपुरुषवस्तुसाचि- व्याददोषवन्ति, रोगिण इवौषधानि / यथा किल यान्यौषधान्ये- कस्य पित्तरोगिणो दोषाय भवन्ति, तान्येवापरस्य वातरोगिणो न कमपि दोषमुपजनयन्ति / एवमत्रापि भावनीयम्। अन्तरगृहे धर्मकथा न कथनीया। नो कप्पति निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अंतरगिहम्मि जाव चउगाहं वा पंचगाहं वा आइखित्तए वा विभावित्तए वा किट्टइत्तए वा पवेयइत्तएवा, नन्नत्थ एगनाएण वा एगवागरणेन वा एगगाहाए वा एगसिलोएण वा / से विय ठिच्चा, नो चेव णं अठिचा। नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा अन्तरगृहे यावचतुर्गाथं वा पञ्चगाथं वा विभावयितुं वा कीर्तयितुं वा प्रवेदयितुं वा / एतदेवापवदनाह- "नन्नत्थ" इत्यादि, नो कल्पते इति योऽयं निषेधः, स एकज्ञाताद्वा एकगाथाया वा एकश्लोकाद्वा अन्यत्र मन्तव्यः / सूत्रं च पञ्चम्यास्स्थाने तृतीयानिर्देशः प्राकृतत्वात् / अपि च एकगाथादिव्याख्यानं स्थित्वा कर्तव्यं, नैवास्थित्वा भिक्षां पर्यटता उपविष्टन वा इति सूत्रार्थः। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतरगिह 86 - अभियानराजेन्द्रः - भाग 1 अंतरगिह जिआ। अत्र विषमपदानि भाष्यकृद् विवृणोतिसंहियकडणमादि-क्खणं तु पदछेद मो विभागो उ। सुत्तत्थोक्किट्टणया, पवेतणं तत्फलं जाण // इह संहिताया अस्खंलितपदोचारणरूपाया यदाकर्षणं, तदाख्यानमुच्यते / तचेदं-व्रतसमितिकषायाणां धारणरक्षणवि- निग्रहाः, सम्यग्दण्डेभ्यश्चोपरमो धर्मः पञ्चेन्द्रियदमश्च / एवं भिक्षां गते गृहस्थानां धर्मकथनार्थ संहिताकर्षणं करोति। यस्तुपदच्छेदः, 'मो' इति पादपूरणे, स विभागो विभावना भण्यते। यथा-व्रतानां धारणं, समितीनां रक्षणं, कषायाणां निग्रह इत्यादि-यत्तु सूत्रार्थ कथनं, सा उत्कीर्तना। सा चेयव्रतानि प्राणातिपातादिविर-मणरूपाणि, तेषां सम्यगप्रमत्तेन धारणं कर्तव्यम् / समितय ईसिमित्यादयस्ता-सामेकाग्रचेतसा रक्षणं विधेयमित्यादिकस्य धर्मस्य यत्फलमैहिका-मुष्मिकलाभलक्षणं, तत्प्ररूपणं प्रवेदनं जानीयात् / यथा-भगवत्प्रणीतममुं धर्ममनुतिष्ठत, इहैव भुवनवन्दनीय-तायशःप्रवादादयो गुणा उपढौकन्ते, परत्र च स्वर्गापवर्गसौख्य-प्राप्तिर्भवतीति। एवं श्लोकादेराख्यानादिषु भिक्षां गतेन विधीयमानेषु दोषानाहएका वि ता महल्ला, किमंग ! पुण होति पंच गाहाओ। साहण लहूगा आणा-दिदोसा ते चेविमे अण्णे // एवं संहितादिविस्तारेण व्याख्यायमाना तावदेकाऽपि गाथा महती महाप्रभाणा भवति, किमङ्ग ! पुनः पञ्च गाथाः। अतो यद्येकामपि गाथां कथयति, तदा चतुर्लघुका आज्ञादयश्च दोषाः / तथा च तुरङ्गमादिहतनष्टशङ्कादयस्त एवान्तरगृहोक्ता दोषा भवन्ति / इमे च वक्ष्यमाणा अन्ये दोषास्तानेवाह - अद्धीकारगपोत्थग-खररडणमक्खरा चेव। साहारणपडिणत्ते, गिलाणलहुगाइ जा चरिमं / / भिक्षां पर्यटन कमप्यगारिणमशुद्धां गाथां पठन्तं श्रुत्वा ब्रवीति विनाशितेयं त्वया गाथा। तथा (अद्धीकारगत्ति) गाथाया अर्द्धमहं करोमि, अर्द्ध पुनस्त्वया कर्तव्यम्। (पुत्थगत्ति) पुस्तकादेव शास्त्रमधीतं भवता, न पुनर्गुरुमुखात् / (खररडणत्ति) किमेवं खर इवारटनं करोषि ? (अक्खरा चेवत्ति) अक्षराण्येव तावद्भवान्न जानीते, अतः पट्टिकामानयाऽहं भवन्तं तानि शिक्षयामि इत्यादि-ब्रुवाणो यावत्तत्र व्याक्षेपं करोति, तावत् इमे दोषाः। (साहारणंति) साधारणं सर्वेषु मिलितेषु यन्मण्डल्यां भोजनं, तन्निमित्तमितरे साधवः तं प्रतीक्षमाणास्तिष्ठन्ति / (पडिणित्तित्ति) तेन साधुना कश्चित् ग्लानः प्रतिज्ञप्तः-अद्याऽहं भवतः प्रायोग्यमानेष्यामीति ततस्तेन वेलाविलम्बन यदसौ ग्लानः परितापादि प्राप्रोति, तत्र चतुर्लघुकादि चरमं पाराञ्चिक यावत्प्रायश्चित्तमिति द्वारगाथा समासार्थः। सांप्रतमेनामेव व्याख्यानयतिभग्गविभग्गा गाहा, भणई हीणा च जा तुमे भणिता। अहं से करेमि अम्हं, तुम से अद्धं पसाहेहि॥ साधुर्भिक्षां गतः सुपाण्डित्यख्यापनार्थ गृहस्थं पठन्तं श्रुत्वा ब्रवीतियेयं त्वया गाथा भणिता, सा भग्नविभना इति भणति, हीना वा कृता / यद्वा अर्द्ध (से) तस्या गाथाया अहं करोमि, अर्द्ध पुनस्त्वं प्रसाधय इत्येवमभिनवा गाथा क्रियते। पोत्थगपञ्चगपडियं, किं रडसि रासहु व्व अभिलापं / अकयमुह ! फलयमाणय, जा ते लिक्खंतु पंचग्गं / / पुस्तकप्रत्ययादेव भवता पठितं, न गुरुमुखात्,अतः किमेतेन प्रयासेन? किंवा त्वमेव रासभ इव अभिलापं विस्तारमारटसि ? यद्वा अकृतमक्षरसंस्कारेणासंस्कृतं मुखं यस्यासावकृतमुखः, तस्यामन्त्रणहे अकृतमुख ! अपठिताशिक्षित ! एवं भवान्न किमपि ज्ञास्यति, अतः फलकं पट्टिकामानय येन तव योग्यानि पञ्चाग्राण्यक्षराणि लिख्यन्तामस्माभिः / एवं भिक्षां पर्यटन् यदि विकत्थते, तत इदं प्रायश्चित्तम् - लहुगादी छग्गुरुगा, तवकालविसेसिया चऊगुरुगा। अधिकरणमुत्तरुत्तर - एसणसंकाइ फिडियम्मि / गाथायामीकारके च चतुर्लघु, पुस्तके चतुर्गुरु, अक्षरशिक्षणे षड्लघु, खररटने षड्गुरु / अथवा तपःकालविशेषिता श्तुलघकाः। तद्यथा-गाथार्थीकारकयोस्तपःकालाभ्यां लघुकाः, पुस्तके कालेन गुरुकाः, अक्षरेषु तपसा गुरुकाः, खररटने तपसा कालेन च गुरुकाः / अधिकरणं च कलहस्तेनसमभवति। उत्तरोत्तरा उक्तिप्रत्युक्ती: कुर्वाणस्य च तस्य भिक्षायां देशकाल:- स्फिटति। तस्मिन स्फिटिते पर्यटनैषणयोः प्रेरणं कुर्यात् / अकाल- चारिणश्च शठकादयो दोषा भवन्ति। वागिण्हति इय सो जाव, तेण ता गहिय भायणा इयरे / अत्यंते अंतराय, एमेव य जो पडिण्णत्तो // यावदसौतेन सममुत्तरप्रत्युत्तरिकां कुर्वन् व्यागृह्णाति, व्याक्षेपेण वेला गमयति, तावदितरे साधवो गृहीतभाजनाः सन्तः आसते, ततोऽन्तरायदोषः / एवमेव यो ग्लानः प्रतिज्ञप्तस्त्वद्योग्यं प्रायोग्यमद्य मया आनेतव्यमित्यर्थः, ततस्तस्मिन्नपि तावन्तं कालं बुभुक्षिते तिष्ठति, तस्य साधोरन्तरायं भवति। कालाइक्कमदाणे, होइ गिलाणस्स रोगपरिवुड्डी। परितावणगाढाति, चउलहुगा जाव चरिमपदं / कालातिक्रमेण च ग्लानस्य भक्तपानदाने रोगपरिवृद्धिर्भवति, ततश्च यदसावनागाढपरितापादिकं प्राप्नोति,तत्र चतुर्लघुकादि- प्रायश्चित्तं यावत् कालगते चरमपदं पाराञ्चिकम्। द्वितीयपदे गोचरप्रविष्टोऽपि परेण पृष्टः सन् कथयेत्। किं कारणमिति चेदुच्यते - किं जाणंति य चरगा, हलं जहित्ताण जे उ पव्वइया / एवंविधो अवण्णो, मा होहिइ तेण कहयंति।। यदा परेण प्रश्निता अपि न कथयन्ति, तदास चिन्तयति-किमेते चरका जानन्ति ? ये हलं परित्यज्य प्रव्रजिताः / एवंविधोऽवर्णः- प्रवचनस्य मा भूत , तेन कारणेन कथयन्ति / अथ "एगनाएण वा" इत्यादिसूत्रपदव्याचिख्यासयाऽऽह - एग नायं उदगं, वागरणमहिंसलक्खणो धम्मो। गाहाहिं सिलोगेहि व, समासतो तं पि ठिच्चा णं / / परप्रश्नितेन विवक्षितार्थसमर्थनार्थमेकं ज्ञातमभिधातव्यं / तत्र चोदकदृष्टान्तो भवति / व्याकरणं निर्वचनं, यथा-केनचित् धर्मलक्षणं पृष्टस्ततः प्रतिब्रूयात्-अहिंसालक्षणो धर्मः / अथवा गाथाभिःश्लोकैर्या समासतो धर्मकथनं कर्तव्यं, तदपि च स्थित्वा, नोपविष्टन, न वा भिक्षां हिण्डमानेनेति नियुक्तिगाथासमासार्थः / अथैनामेव विवृणोति - नजइ अणेण अत्थे, णायं दिटुंत इति च एगटुं। Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतरगिह 87 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंतरगिह वागरणं पुण जा जस्स धम्मता होति अत्थस्स।। ज्ञायते अनेन दान्तिकोऽर्थ इति ज्ञातं दृष्टान्त इति चैकार्थ, व्याकरणं पुनर्या यस्य मोक्षादेरर्थस्य धर्मता स्वभावस्तस्य निर्वचनम् / अथोदकदृष्टान्तो भाव्यते-एगो साहू उन्भामग-भिक्खायरियाए अन्नं गार्म वच्चइ, तत्थ अंतरा गिहत्थो मिलितो, ते दो वि वचंता अंतरा पहे उदगं उत्तिण्णा, सो अगारो गाम पविट्ठो, तस्स य भगिणी अस्थि, तीए घरं पाहुणगो गतो। साहू वि भिक्खं हिंडतोतंघरंगतो, भगिणीए पुरेकम्म कयं, साहुणा पडिसिद्धं / भगिणीए कहियं-कीस न गिण्हसि ? साहू भणइ-उदगसमारंभो न वट्टइ। अगारा भणंति-जे मए समं पंथे उदगं उत्तिण्णो सि, तं किह कप्पइ ? अहो मायाविणो दुठ्ठिधम्माणो त्ति। साहू भणइ-न वयं मायाविणो, न वा दुट्टिधम्माणो, किंतु "पप्पं खु परिहरामो, अप्पप्पं विवजउंण विज्जति हु। पप्पं खलु सावज, वजंतो होइ अणवजो" प्राप्यमेव परिहर्तुं शक्यमेवं वयं परिहरामः, अप्राप्यस्य परिहर्तुमशक्यस्य मार्गक्रमायातोदकवाहकादेर्विवर्जकः परिहर्ता न विद्यते, अत एव प्राप्यं सावधं पुरःकर्मादिक वर्जयन् अनवद्यो निर्दोषो भवति / अपि च नाऽयमेकान्तो यदेकत्राऽनवद्यतया दृष्ट, तदन्यत्र प्राप्यमवद्यमेव भवति। तथाहिचिरपाहुणतो भगिणिं, अवयासिंतो अदोसवं होति। तुं चेव मज्झ सक्खी, गरहिज्जइ अण्णहिं काले / चिरकालादायातः प्राघूर्णको भगिनीमवकाशमानः सस्ने-हमालिङ्गन् अदोषवान् भवति / तथा चाऽत्र त्वमेव मम साक्षी प्रमाणं / सांप्रतमेव भवता चिरप्राघूर्णकतया भगिनीपरिष्वङ्ग स्य कृतत्वादिति भावः। तामेव च भगिनीमन्यस्मिन् काले परिष्वजन गर्दाते निन्द्यते, अत्रापि त्वमेव प्रमाणमिति। तथापादेहि अधोतेहि वि, आकमिय तम्मि कीरती अचा। सीसेण वि संकिञ्जति, सचेव चितीकया ठविओ।। अर्चा प्रतिमा, सा यावन्नाद्यापि प्रतिष्ठिता, तावदधौ तैरपि पादैराक्रम्योपरि चढित्वाऽपि क्रियते। सैव प्रतिमा चितीकृता चैत्यत्वेन व्यवस्थापिता शीर्षणापि स्प्रष्टुं शक्यते, शिरसा स्पृशद्भिरपि शङ्का विधीयत इति भावः। केइ सरीरावयवा, देहत्था पूइया न पुण विउता। सोहिजंति वणमुहा, मलम्मि बूढे ण सव्वे उ॥ केचित् शरीरावयवा दन्तकेशनखादयो देहस्थाः सन्तः पूजिताः प्रशस्ता भवन्ति, न पुनर्वियुताः शरीरात्पृथग्भृताः / तथा व्रणमुख्यान्यपि श्रोत्रचक्षुःपायुप्रभृतीनि मले व्यूढे सति न सर्वाण्यपि शोध्यन्ते, किंतु कानिचिदेवेति। जइ एगत्थुवलद्धं, सव्वत्थ वि एवमण्णसी मोहा। भूमीतो होति कणगं, किं ण सुवण्णा पुंणो भूमी। यदि नाम एकत्र यदुपलब्धं सर्वत्रापि तेन भवितव्यमित्येवं मोहादज्ञानात् मन्यसे, ततः कथय-भूमीतः कनकमुत्पद्यमानं दृश्यते, ततः सुवर्णात्पुनरपि किं न भूमिः सम्पद्यते। तम्हा उ अणेगंतो, ण दिट्ठमेगत्थ सव्वहिं होति। लोए भक्खमभक्खं, पिज्जमपिज्जं च दिट्ठाई। तस्मादनेकान्तोऽनियमो यः कीदृश इत्याह- नैकत्र दृष्टं सर्वत्रापि | भवतीति। तथाच लोके प्राण्यङ्गत्वे समानेऽप्योदनपक्वान्नादिकं भक्ष्यं, मांसवसादिकमभक्ष्यं, तक्रजलादिकं पेयं, मद्यरुधिरा दिकमपेयमित्यादीनि पृथक् व्यवस्थोत्तराणि दृष्टानि तथा अपि उदक-समारम्भादौ मन्तव्यानि गतमेकज्ञातम्। अथैकव्याकरणेन यथा धर्मोऽभिधीयते, तथा दर्शयतिजं इच्छसि अप्पणतो, जंच ण इच्छसि अप्पणतो। तं इच्छ परस्स वि य, इत्तियगं जिणसासणयं / / यदात्मनः स्वजीवस्य सुखादिकमिच्छसि, यच्च दुःखादिक-मात्मनो नेच्छसि, तत्परस्याप्यात्मव्यतिरिक्तस्य जन्तोरिच्छ आत्मवत्परमपि पश्येति भावः। एतावत् जिनशासनमियन्मात्रो जिनोपदेश इति।गाथया पुनरित्थं धर्म उपदिश्यते - सव्वारंभपरिग्गह-णिक्खेदो सव्वभूतसमया य। एक्कग्गमणसमाहाणया अह एत्तिओ मोक्खो। सर्वस्य सूक्ष्मबादराद्यशेषजीवविषयस्यारम्भस्य सर्वस्य च सचित्ताचित्तमिश्रभेदभिन्नस्य परिग्रहस्य यो निक्षेपः, स न्यासो यावत्सर्वभूतेषु समता, या च एकाग्रमनःसमाधानता, अथैष एतावान् मोक्ष उच्यते / कारणे कार्योपचारादेषो मोक्षोपाय इत्यर्थः / श्लोकेन यथासव्वभूतप्पभूतस्स, सम्म भूताइ पासउ। पिहियासवस्स दंडस्स, पावं कम्मं न बंधइ / / पाठसिद्धः। ये तुसंस्कृतरुचयस्तेषामित्थं गाथया श्लोकेन वाधर्मकथा क्रियते / व्रतसमितिकषायाणां, धारणरक्षणविनिग्रहाः सम्यक् / दण्डेभ्यश्चोपरमो, धर्मः पञ्चेन्द्रियदमश्च / / 1 / / यत्र प्राणिवधो नास्ति, यत्र सत्यमनिन्दितम्। तत्रात्मनिग्रहो दृष्टः स धर्ममपि रोचयेत् / / 2 / / अथ किं कारणं स्थित्वा धर्मः कथनीयः? इत्याशङ्कयाह - ईरियावहियाऽवण्णे, सिटुंण गिण्हए अतो ठिच्चा। भद्दिड्डी पडिणीए, अभिओगे चउण्ह वि परेण / / ईर्यापथिकी चंक्रमणक्रिया तां कुर्वन् यदि कथयति, तदालोके अवर्णो भवति दुदृष्टधर्माणोऽमी, यदेवं गच्छन्तोधर्म कथयन्तिाअपिच शिष्टमपि कथितमपि धर्ममेवं श्रोता न गृह्णाति / अतः स्थित्वा एकश्लोकादि कथनीयम्। अथापवाद उच्यते कश्चिद् भद्रको धर्मश्रद्धालुः ऋद्धिमान् धर्म पृच्छति, ततः सत्त्वानुकम्पया प्रवचनोपग्रहकरश्व भविष्यतीति कृत्वा तिस्रश्चतस्रः पञ्च वा बहुतरा वा गाथा उपविश्य कथयितव्याः। प्रत्यनीको वा कश्चिद् व्यतिव्रजति, तं प्रतीक्षमाणस्तावद्धर्म कथयेत् यावदसौ व्यतीतो भवति / यद्वा स प्रत्यनीकः सहसा दृष्टो भवेत् , ततो यः सलब्धिकः स उपशमेनानिमित्तं बहुविधमुपदेशं दद्यात्। दण्डिकस्य वा अभियोगो बलात्कारो भवेत्। किमुक्तं भवति। एकश्लोकेन धर्मे उपदिष्टे दण्डिको ब्रूयात्-कथय कथय मे संप्रति महती श्रद्धा वर्तते, ततश्चतुर्णा श्लोकानां परतोऽपि कथयेत्। आह- कीदृशी पुनः कथा कथयितव्या ? कीदृशी वा नेति - सिंगाररसुत्तिजिया, मोहमई फुफुका हसहसेति। जं पुण माणुस्सकहं, समणेण नु सा कहेयव्वा / / यां कथां शृण्वतः श्रोतुः स्त्रीसुवर्णकादिश्रवणजनितो रसः,सः शृङ्गारो नाम रसस्तेनोत्तेजिता सती मोहमयी फुफुका (हसहसत्ति) जाज्वल्यते, सा कथं श्रमणेन कथयितव्या ? / समणेण कहेयव्वा, तवनियमकहा विरागसंजुत्ता। Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतरगिह 88 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अंतरगिह जं सोऊण मणूसो, वचइ संवेगणिव्वेयं / / तपोऽनशनादि नियमाइन्द्रियनिग्रहास्तत्प्रधाना कथा तपो-नियमकथा विरागसंयुक्ता, न निदानादिना रागादिसंगता, श्रमणेन कथयितव्या। यां श्रुत्वा मनुष्यः श्रोता संवेगनिर्वेदं व्रजति। संवेगो मोक्षाभिलाषो, निर्वेदः संसारवैराग्यम्। __ महाव्रतानि न गृहान्तरे कथनीयानि। नो कप्पइ निग्गंथाणं वा निम्मंथीणं वा अंतरगिहम्मि इमाइं पंचमहत्वयाई सभावणाई आइखित्तए वा विभावित्तए वा किट्टित्तए वा पवेयत्तए वा, नन्नत्थ एगनाएण वा जाव सिलोएण वा, से विय ठिचा, नो चेव णं अद्विचा। अस्य व्याख्या प्राक्सूत्रवद् द्रष्टव्या / नवरम्- इमानि स्वयमनुभूयमानानि पञ्च महाव्रतानि सभावनानि, प्रतिव्रतं भावना पञ्चायुक्तानि आख्यातुं वा विभावयितुं वा कीर्तयितुं वा प्रवेदयितुं वा न कल्पते / आख्यानं नाम साधूनां पञ्च महाव्रतानि भावना-युक्तानि, ष्टकायरक्षणसाराणि भवन्ति / विभावनं तु प्राणाति-पाताद्विरमणं यावत्परिग्रहाद्विरमणमिति / भावनास्तु "ईरियासमिए सया जए इत्यादि" गाथोक्तस्वरूपाः षट्कायास्तु पृथिव्यादयः कीर्तनं नाम या प्रथमव्रतरूपा अहिंसा, सा भगवती सदेवमनुजासुरस्यलोकस्य पूज्या, त्राणं गतिः प्रतिष्ठेत्यादि / एवं सर्वेषामपि प्रश्न-व्याकरणाङ्गोक्तान गुणान्कीर्तयति / प्रवेदनं तु महाव्रतानुपालनात् स्वर्गोऽपवर्गो वा प्राप्यत इति सूत्रार्थः / परः प्राह- ननु पूर्वसूत्रेण गतार्थमिदमतः किमर्थमारभ्यते ? उच्यते - गहियागहियाविसेसा, गाथासुत्ता तु होति वयसुत्ते / णिइसकतो व भवे, परिमाणकतो व विण्णेयो॥ गाथासूत्राद् व्रतसूत्रे पठितो ग्रथितः विशेषो मन्तव्यः / किमुक्तं भवति? अनन्तरसूत्रे- चउगाहं वापंचगाहं वा इत्युक्तं ताश्च गाथा ग्रथिता भवन्ति, इमानितु महाव्रतानि ग्रथितानि अग्रथितानि वा भवेयुग्रंथितानि नाम पदपाठबन्धेन वा श्लोकबन्धेन वा बद्धानि कथयति, अग्रथितानि तु मुत्कलैरेव वचनैर्यान्यभिधीयन्ते, यद्वा निर्देशः कृतोऽत्र विशेषो भवति। अनन्तरसूत्रे चतुर्गाथं पञ्चगाथं वा कथयितुं न कल्पते इत्युद्देशमात्रमेव कृतम् , अत्र तु महाव्रतानि सभावनाकानीत्यनेन तस्यैव विशेष निर्देशः क्रियते / परिमाणकृतो वा विशेषो विज्ञेयः / यदधस्तनसूत्रे धर्मस्वरूपमुक्तं, तदेवात्र-- महाव्रतपञ्चक मिति संख्यया विशेषो निरूप्यते - अथात्रैव दोषानाहपंचमहव्वयतुंगं, जिणदयणं भावणापिणद्धंगं / साहणलहुगा आणाइ-दोसं जं वा णिसिजाए / इह जिनवचनं मेरुसदृशं पञ्चभिर्महाव्रतैस्तुङ्गमुच्छ्रितं पञ्चमहाव्रतमयोच्छ्रितमित्यर्थस्तस्यैव महाव्रतोच्छ्रितस्य रक्षणार्थ भावनाभिः पञ्चविंशतिसंख्याकाभिः पिनद्धं गाढतरं नियन्त्रितमीदृशं जिनवचनमन्तरगृहे उपविश्य कथयतश्चतुर्लघुकाः आज्ञादयो दोषाः / यद्वा गृहनिषद्यायां वाहितायां प्रायश्चित्तं यच्च दोषजालं तदापद्यते। तथा महाव्रतपञ्चकविषया दोषा भवन्ति / प्राणवधमापद्यते प्राणवधं वा शक्यते / एवं यावत्परिग्रहमापद्यते, परिग्रहे वा शक्यते। तथाहि पाणवहम्मि गुव्विणी, कप्पट्ठादाणए य संकाओ। भणिऊण दाइ कोइ, मोभमियं संकणा साणे / / गृहे उपविश्य साधुर्धर्मं कथयति, गुर्विणी च तस्यान्तिके उपविश्य शृणोति, यावचासौ तत्र तिष्ठति, तावत्तदीयगर्भस्याहारव्यवच्छेदेन विपत्तिर्भवति। एवं प्राणवधो लगति। तथा धर्मं कथयतः काचिदविरतिका शृण्वत्येवापान्तराले कायिकभूमिं गच्छेत्, सा च पुनस्तत्रैवास्ते, ततः सपत्नी छिद्रं लब्ध्वा तत्तनयं मिषेण साधोरगतो निपात्य द्रावयति, एवं प्राणातिपातविषया शङ्का भवेत्। तथा यत्तीर्थकरैः प्रतिषिद्धं तन्मयान कर्तव्यमिति प्रतिज्ञातैः प्रतिषिद्धा निषद्यां वाहयतो मृषावादो भवति / यद्वा स्वमुखेनैव गृहनिषद्यां निषिध्य पश्चादात्मनैव तां परिभुञ्जानो मृषावादमापद्यते / अथवा स दिने दिने तस्या अविरतिकाया अग्रे धर्म कथयति, ततो गृहस्वामिना भणितो- मे मम गृहं नाऽऽयासीरिति। साधुना भणितम् - आगमिष्यन्ति ते गृहं पाणशुनका एवमुक्त्वाऽपि जिह्वालोलतादि दोषेण तदेव गृहं व्रजन् भणितोऽपि तेन गृहस्थेन वारितोऽपि कश्चिदिति एवं मृषावादमाप्नोति / स च गृहस्थो ब्रूयात्- किं पाणशुनकः संवृत्तोऽस्तीति / यद् वा गृहस्थो भोजनं कुर्वन् धर्म शृण्वतीमगारी किमप्युत्कृष्टं द्वितीयानं याचेत् / सा ब्रूयात्- शुना भक्षितम् / अगारो ब्रूयात्- जानाम्यहं तं श्वानं, येन भक्षितमिति / एवं मृषावादविषया शङ्का भवेत्। अथास्या एव पूर्वार्द्ध व्याचष्टे - खुहिया पिपासिया वा, मंदक्खेणं न तस्स उठेइ / गब्मस्स अंतरायं, बाधिजइ संनिरोधेणं // गुर्विणी धर्मकथां शृण्वती क्षुधिता वा पिपासिता वा भवेत, सा च तस्य साधोः संबन्धिना मन्दाक्षेण लज्जमाना तिष्ठति, ततो गर्भस्यान्तरायं भवति। तेन चाहारव्यवच्छेदलक्षणेन संनिरोधेन सगर्भो बाध्यते। ततो व्यापत्तिमप्यसौ प्राप्नुयादिति प्राण-वधमापद्यते। ___ अथ प्राणवधविषयशङ्कां दर्शयति - उक्खिवितो सो हत्था, चुत्तो तस्सग्गतो णिवाडित्ता। सुणते य वियारगते, हाह त्ति सवित्तिणी कुणति / / अविरतिकाया अग्रे स धर्म कथयति, सा चापान्तराले कायि-काद्यर्थं निर्गता ततस्तस्यां शृण्वत्यां श्राविकायां विचारभूमौ गतायां सपत्नी तदीयं पुत्रं तस्य साधोरातः उत्क्षिप्य भूमौ सहसैव निपातयति, निपात्य च अहो! अनेन श्रमणेन अयं पुत्र उत्क्षिप्तः सन्नेतदीयहस्ताच्च्युतो विपन्न इति महता शब्देन हा ! हा ! इतिपूत्कारं करोति / ततो भूयान् लोको मिलितस्तं साधु तत्र स्थितं दृष्ट्वा शङ्कां कुर्यात् - किमेतत्सत्यमेवेदमिति / मृषावाददोष- प्रकाशः सप्रपञ्चमुक्त इति न भूयो भाव्यते। अथादत्तादानमैथुनयोर्दोषानाह - सयमेव कोइ लुद्धो, अपहरती तं पडुच कम्मकरी। वाणिगिणी मेहुणए, बहुसो य चिरं च संका य॥ कश्चिद् वती लुब्धः सन् विजनं मत्वा स्वयमेव सुवर्णकलिका मुद्रिकामपहरति, एवमदत्तादानमापद्यते / तं वा संयतं प्रतीत्य "साधुरत्रार्थे शङ्किष्यते नाऽहमिति" कृत्वा कर्मकारी का- चिदपहरेत् / वाणिजिका वा काचित्प्रोषितभर्तृका, तया समं मैथुनविषया आत्मपरोभयसमुत्था दोषा भवन्ति / अथवा यत्र प्रोषितपतिकास्तिष्ठन्ति,तत्रासौ बहुशो वारं व्रजति, चिरं च ताभिः सह कन्दर्पं कुर्वाणस्तिष्ठति, ततश्चतुर्थविषये शङ्कयेत। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतरगिह 89 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंतरगिह अथ परिग्रहदोषमाह - धम्मं कहेइ जस्स उ, तम्मि उ वीयारए गए संते। सारक्खणपरिग्गहो, परेण दिट्ठम्मि उड्डाहो / यस्य श्रावकादेरग्रे धर्म कथयति, सब्रूयात्-यावदह कायिकी व्युत्सृज्य अत्र समागच्छामि तावद्भवता गृहं रक्षणीयमेवमुक्त्वा तत्र विचारभूमौ गते स संयतो यावत्तद्गृहं संरक्षति, तावत्परिग्रह-दोषमापद्यते / तदेवं गृह रक्षन् परेण दृष्टः स शङ्कां कुर्यात् -नूनमेत- स्यापि हिरण्यं सुवर्ण वा विद्यते, उड्डाहं च स कुर्यात्-अहो ! अयं श्रमणकः सपरिग्रह इति / यत एते दोषा अतोनाऽन्तरगृहे धर्मकथा कत्ता / द्वितीयपदमाहएगं णायं उदकं, वागरणमहिंसलक्खणो धम्मो। गाहाहिं सिलोगेहि य, समासतो तं पि ठिचा णं / / गतार्थम् / बृ०३ उ०। अंतरजाय-न०(अन्तरजात) भाषाद्रव्यजातभेदे, यानि द्रव्याणि अन्तराले समश्रेण्यामेव निसृष्टानि तानि भाषापरिणामं भजन्ते / तान्यन्तरजातमुच्यते। आचा०२ श्रु०४ अ०। अंतरणई (दी)-स्त्री०(अन्तरनदी)क्षुद्रनदीषु / यत्र यावत्योऽन्तरनद्यस्तत्प्रतिपादयतिजंबूमंदरस्स पुरच्छिमेणं सीयाए महाणईए उत्तरेणं तओ अंतरणईओ पण्णत्ता / तंजहा-गाहावई दहवई पंकवई / जंबूमंदरपुरच्छिमेणं सीयाए महाणईए दाणिणेणं तओ अंतरणईओ पण्णत्ता / तं जहा-तत्तजला मत्तजला उम्मतजला / जंबूमंदरपञ्चच्छिमेणं सीओदाए महाणईए दाहिणेणं तओ अंतरणईओ पण्णत्ता। तं जहा-खीरोदा सीहसोया अंतोवाहिणी। जंबूमंदरपचच्छिमेणं सीओ-दाए महाणईए उत्तरेणं तओ अंतरणईओ पण्णत्ता / तं जहा-उम्मिमालिणी फेणमालिणी गंभीरमालिणी। एवं धायइखंडदीवपुरच्छिमद्धे वि। अकम्मभूमीओ आढवेत्ता जाव अंतरणदीओ ति णिरवसेसं माणियवं,जाव पुक्खरवरदीवड्वपञ्चच्छिमद्धे,तहेव णिरवसेसं भाणि-यव्यं / अन्तरनदीनां विष्कम्भः पञ्चविंशत्यधिकं योजनशतमिति / स्था०३ ठा०॥ जंबूमंदरपुरच्छिमेणं सीयाए महाणदीए उभयकू ले छ अंतरणईओ पण्णत्ताओ। तं जहा-गाहावई दहवई पंकवई, तत्तजला मत्तजला उम्मत्तजला / जंबूमंदरपचच्छिमेणं सीओयाए महाणईए उभयकूले छ अंतरणईओ पण्णत्ता / तं जहा- खीरोदा सीहसोया अंतोवाहिणी, उम्मिमालिणी फेनमालिणी गंभीरमालिणी। स्था०६ ठा०। संग्रहेणदो गाहावईओ, दो दहवईओ, दो पंकवईओ, दो तत्तजलाओ, दो मत्तजलाओ, दो उम्मत्तजलाओ, दो खीरोयाओ, दो सीहसोयाओ, दो अंतोवाहिणीओ, दो उम्भिमालिणीओ, दो फेणमालिणीओ, दो गंभीरमालिणीओ। चित्रकूटपद्मकूटवक्षस्कारपर्वतयोरन्तरे नीलवर्षधरपर्वत नितम्बव्यवस्थितत्वात् ग्राहवतीकुण्डाद् दक्षिणतोरणविनिगते अष्टाविंशति नदीसहस्रपरिवारा शीताधिगामिनी सुकच्छमहाकच्छविजयोविभागकारिणी ग्राहवती नदी। एवं यथायोगं द्वयोर्द्वयोर्वक्षस्कारपर्वतयोविजयोरन्तरं क्रमेण प्रदक्षिणया द्वादशाप्यन्तरनद्यो योज्यास्तद्वित्वं च पूर्ववदिति / स्था०२ ठा०। (पूर्व पश्चिमापेिक्षया द्विगुणत्वादिति) अंतरदीव-पुं०(अन्तरद्वीप) अन्तरशब्दो मध्यवाची अन्तरे लवणसमुद्रस्य मध्ये द्वीपा अन्तरद्वीपाः। प्रज्ञा०१ पद / अथवा अन्तरं परस्परं विभागस्तत्प्रधाना द्वीपा अन्तरद्वीपाः / एकोकादिषु अष्टाविंशतिविधद्वीपभेदेषु / स्था० 4 ठा०। से किं तं अंतरदीवया? अंतरदीवया अट्ठावीसविहा पण्णत्ता। एगोरुया अ हासिया वेसाणिया णंगोली 1, हयकन्ना गयकन्ना गोकन्ना सक्कुलिकन्ना 2, आयसमुहा मेंढमुहा अयमुहा गोमुहा 3, आसमुहा हत्थिमुहा सीहमुहा वग्धमुहा 4, आसकन्ना सीहकन्ना अकन्ना कण्णपाउरणा 5, उक्कामुहा मेहमुहा विज्जुमुहा विजुदंता 6, घणदंता लट्ठदंता गूढदंता सुद्धदंता / / से तं अंतरदीवगा। से किं तमित्यादि सुगम, नवरमष्टाविंशतिविधा इति यादृशा एवं यावत्प्रमाणा यावदपान्तराला यन्नामानो हिमवत्पर्वतपूर्वापरदिग्व्यवस्थिता अष्टाविंशतिविधा अन्तरद्वीपस्तादृसा एव तावत्प्रमाणस्तावदपान्तरालास्तन्नामान एवं शिखरिपर्वतपूर्वाऽपरदिग्व्यवस्थिता अपि / ततोऽत्यन्तसदृशतया व्यक्तिभेदमनपेक्ष्य अन्तरद्वीपा अष्टाविंशतिविधा एव विवक्षिता इति तज्जाता मनुष्या अपि अष्टाविंशतिविधा उक्तास्तानेव नाम-ग्राहमुपदर्शयति-तं जहा एगोरुया इत्यादि। एते सप्त चतुष्का अष्टाविंशतिसंख्यत्वात् एते च प्रत्येकं हिमवति शिखरिणि तत्र हिमवद्गततया तावद्भा-व्यन्ते। प्रज्ञा० 1 पद / इह एकोरुकादिनामानो द्वीपाः परं तात्स्थ्यात्तद्व्यपदेश इति न्यायान्मनुष्या अप्येकोरुकादय उक्ताः / यथा-पञ्चालदेशनिवासिनः पुरुषाः पञ्चाला इति / जीवा०३ प्रति० / एतेषु सप्तसु चतुष्केषु प्रथमश्चतुष्कः / तथा च एकोरुक-मनुष्याणामेकोरुकद्वीपं पिपृच्छिषुराह - कहिं णं मंते ! दाहिणिल्लाणं एगुरुयमणु स्साणं एगुरुयदीवे णामं दीवे पन्नते ? गोयमा! जंबूदीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणे णं चुल्लहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरपुरच्छिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुदं तिण्णि जोयणसयाई उग्गाहित्ता, एत्थ णं दाहिणिल्लाणं एगुरुयमणुस्साणं एगुरुयदीवे नाम दीवे पण्णत्ते / तिन्नि जोयणसयाई आयामविक्खं भेणं, णव एकू णपण्णे जोयणसए किंचि विसेसूणे परिक्खेवेणं / से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेणं वणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खेत्ता / से णं पउमवरवेइया अद्धजोयणं उद्धं उच्चत्तेणं, पंच धणूसयाई विक्खंभेणं एगोरुयदीवसमंता परिक्खेवेणं पन्नत्ता। तीसे णं पउमवरवेइयाए अयमेयारूवे वन्नावासे पन्नत्ते / तं जहा- वयरामया निम्मा एवं वेतिया वन्नओ। जहा रायपसेणीए,तहा भाणियव्वा / से णं पउ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतरदीव 90 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंतरदीव वरवेइया एगेणं वणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता / से णं वणसंडेणं देसूणाई दो जोयणाई चक्कवालविक्खं भेणं वेइया समए परिक्खेवेणं पन्नत्ते / से णं वणखंडे कण्हे किण्होवभासे एवं जहा रायपसेणइज्जे वणसंडवन्नओ तहेव निरवसेसं भाणियव्वं / तणाण य वन्नगंधफासो सद्दो तणाणं वा वी ओप्पायपव्वयगा पुढविसिला पट्टगा य भाणियव्वा, जाव तत्थ णं बहवे वाणमंतरा देवाय देवीओ य आसयंति, जाव विहरंति। एगुरुयदीवस्स णं दीवस्स अंतो बहुसमरमणिले भूमिभागे पन्नत्ते / से जहानामए आलिंगपुक्खरेइ वा, एवं सयणीए भाणियब्वे, जाव पुढविसिलापट्टगं ति / तत्थ णं बहवे एगोरुयदीवया मणुस्सा य मणुस्सीओ य आसयंति जाव विहरंति। एगुरुयदीवे णं दीवे तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं बहवे उद्दालका मोद्दालका कोद्दालगा कतमाला नत्तमाला णट्टमाला सिंगमाला संखमालादंतमाला सेलमालगा णाम दुमगणा पन्नत्ता समणाउसो! कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला मूलमंतो कंदमंतो जाव वीयमंतो पत्तेहि य पुप्फेहि य अच्छन्नपडिच्छन्ना सिरीए अईव 2 सोभेमाणा सोभेमाणा चिट्ठति / एगुरुयदीवेणंदीवे तत्थ तत्थ बहवे हेरुयालवणा भेरुयालवणा मेरुयालवणा सेरुयालवणा सालवणा सरलवणा सत्तपण्णवणा पूयफलिवणा खजूरीवणा नालिएरवणा कुसविकुस जाव चिट्ठति। एगुरुयदीवेणं दीवे तत्थ बहवे तिलयालउत्ता नग्गोहा जाव रायरुक्खा णंदिरुक्खा कुसविकुस जाव चिट्ठति / एगुरुयदीवे णं दीवे तत्थ बहुओ पउमलयाओ नागलयाओ जाव सोमलयाओ निचं कुसमियाओ। एवं लयावन्नओजहा उववाईए जाव पडिरूवाओ। एगुरुयदीवे णं दीवे तत्थ बहवे सिरियगुम्मा जाव महाजाइगुम्मा तणगुम्मा दस-द्धवन्नं कुसुमं कुसुमेति / जेणं वायविहुलग्गसाला / एगुरुयदीवस्स बहुसमरमणिज्जं भूमिभागं मुक्कपुप्फ-पुंजोवयारकलियं करेंति / एगुरुयदीवेणं दीवे तत्थ बहुओ वणराईओ पन्नत्ताओ। ताओ णं वनराईओ किण्हाओ किण्होवभासाओ जाव रम्माओ महामेहणिगुरुंबभूयाओ जाव महता गंधधणिं मुयंताओ पासाईयाओ। एगुरुयदीवे णं दीवे तत्थ बहवे मत्तंगा नाम दुमगणा पन्नत्ता समणाउसो! जहा से चंदप्पभमणिसिलागवरसीधुपवरवारुणिसुजायफलपुप्फचोणिज्जा संसारबहुदव्वजुत्तिसंसारकालसंधिय आसवमहुमेरगरिट्ठाभदुट्ठजाइपसन्नतेलगास ताओ खजूरमुदियासारका विसायणसुपक्कखोयरसवरसुरावण्णरसगंधफरिसजुत्तबलवीरियपरिणामा मजविधीय बहुप्पगारा तहेव ते मत्तंगया वि दुमगणा अणेगबहुविविहवीससा परिणयाए मजविहीए उववे या फलेहिं पुन्ना विव विसट्टति कुस- / विकुसविसुद्धरूक्खमूला जाव चिटुंति 1, एगुरुयदीवे णं दीवे तत्थ बहवे मिंगंगा णाम दुमगणा पन्नत्ता समणाउसो ! जहा से चारगघडक रगक लसक करिपायकं चणिउल्लू क वद्धणिसुपइट्टकविट्ठा पारावसगा भिंगारा कोरडिसरंगपरंगपत्तीथालणिल्लगचवलियअयपलगवालविचित्तवट्टक मणितट्टक - सिप्पिखारपिणद्धकंचणमणिरयण भत्तिविचित्तविभायणविहिबहुप्पगारा तहेव तेसिं भिंगंगेया वि दुमगणा अणेगबहुविविहवीससा परियणत्ताए भायणविहीए उववेया फलेहिं पुण्णा विव विसट्टति कुसविकुस जाव चिटुंति 2, एगुरुयदीवे णं दीवे तत्थ बहवे तुडियंगा नाम दुममणा पन्नता समणाउसो ! जहा से आलिंगपणवदद्दरपडहडिंडिमाभंभातहोरंभकिणियखरमुहिमुयंसंखियपरिल्लए पव्वगापरिवायणिव्वंसवेणुवीगोसुग्धोसगविपंचमहतिकच्छतिरिक्खसतकलाकंसालतालकसंपत्ताओ आतोद्यविधीए णिउणगंधव्वसमयकुसलेहिं फंदिया तिट्ठाणकरणसुद्धा तहेव ते तुडियंगा वि दुमगणा अणेगबहुविविहवीससा परिणताए ततविततबंधणसिराए चउव्विहाए आतोज्जविहीए उववे या फले हिं पुण्णा विव विसट्टे ति कुसविकुस-विसुद्धरुक्खमूलाओ जाव चिटुंति 3 / एगुरुयदीवे णं दीवे तत्थ बहवे दीवसिहाणाम दुमगणा पन्नत्ता समणाउसो ! जहा से संझविरागसमए नवनिसीहिपतिणो विदीविया चक्कबालचंदे पभूयवट्टिपलित्तज्झणेहिं विउज्जलिय तिमिरमद्दए कणगनिकरकुसुमियपारिजायघणप्पगासे कंचणमणिरयणविमलमहरिहतवणिज्जुज्जलविचित्तदंडाहिं दीवियाहिं सहसा पञ्जालिओ सवियणिद्धतेयदिप्पंतविमलगहगणसमयप्पदाहिं वि तिमिरकरकसूरपसरिउज्जोवविल्लियाहिं जालाउज्जलपहसियाभिरामाहिं सोभमाणाहिं सोभमाणा तहेव ते दीवसिहा वि दुमगणा अणेगबहुविविहवीससा परिणयाए उज्जोयविहीए उववेया फलेहिं कुसविकुस० जाव चिट्ठति / एगुरुयदीवे णं दीवे तत्थ बहवे जोइसिया नाम दुमगणा पन्नत्ता समणाउसो ! जहा से अचिरुग्गयसरयसूरमंडल पडं तउकासहस्सदिप्पंतविजुजललहुयबहुनिज्झूमजालिनिद्धंतधोयतत्ततवणिञ्जकिं सुयाऽसोगजासुयणकु सुमविमउलियजमणि रयणकि रणजचहिंगु लय तिरयरूवाइरेगरूवा तहे व ते जो तिसिहा वि दुमगणा अणे गबहुविविहवीससा परिणयाए उज्जोयविहीए उववे या सुहले सा मंदले सा मंदातवले सा कू डाठाणट्ठिया अन्नोन्नसमोगाहाहिं लेसाहिं साए पभाए तेयसा सव्वओ समंताओ भासंति उज्जोवंति पभासंति कुसविकु स वि जाव चिट्ठ ति 5, एगुरुयदीवे णं दीवे तत्थ बहवे Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतरदीव 91 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंतरदीव चित्तगा नाम दुमगणा पन्नत्ता समणाउसो ! जहा से पेच्छाघरे व्व चित्ते एमेव कुसुमदाममाला कुलुञ्जलेसा भासंतमुक्कपुप्फपुंजो-वयारकलिए विरल्लियविचित्त-मल्लसिरिसमुदप्पगारंभे गंथिमवेढिमपूरिमसंघयमेणं मल्लेणं छे यसिरियविभागरइएणं सव्वओ समंता चेव समणु बद्ध पविरललंबंतविप्पइटेहिं पंचवन्नेहिं कुसुमदामेहिं सोभमाणा वनमालकतग्गए चेव दिप्पमाणे तहेव ते चित्तंगया वि दुमगणा अणे गबहुविविहवीससा परिणयाए मल्लविहीए उववेया कुसविकुस वि जाव चिटुंति 6 / एगुरुयदीवे णं दीवे तत्थ बहवे चित्तरसा नाम दुमगणा पन्नत्ता समणाउसो ! जहा से सुगंधवरकलमसालितंदुलविसिट्ठणिरुवयदुद्धरद्धे सारयवयमंडखंडमहुमेलिए अइरसे परमन्ने देजउत्तमेगवनगंधमत्ते रणो जहा वावि चक्कवट्टिस्स होज निउणेहिं सूपपुरिसेहिं सजिए चाउरकप्पसेयसित्ते व ओदणे कलमसालिणिव्वतिए विवक्केसेवप्फमिउविसयसगलसित्थे अणेगसालणगसंजुत्ते अहवा पडिपुनदव्वुवक्खडे सुसक्कएवण्णगंधरसफरिसजुत्तबलवीरियपरिणामे इंदियवलबद्धणे खुप्पिवासासहणे पहाणगुलकटियखंडमच्छंडिउवणीय व्व मोयगे सहसमितिगब्भे हवेज्जा / परमइट्ठगसंजुत्ते तहेव ते चित्तरसा वि दुमगणा अणेगबहुविविहवीससा परिणयाए भोयणविहीए उववेया कुसविकुस जाव चिट्ठति 7, एगुरुयदीवे णं दीवे तत्थ बहवे मणियंगा नाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो ! जहा से हारद्धहारवें टणगमउड कुंड लवासु भूमहे मजालमणिजालकणगजालगसुत्तगउचितियकडगखडुयएगावलिकंठसुत्तमगरगउरत्थगे वे जसो णिसुत्तमच लामणिक णगतिलगफु ल्लगसिद्धत्थियक ण्णवालिससिसूरउसमचक्कगतलभंगेयतुडियहत्थमालगवलंखदीनारमालिया चंदसूरमालिया हरिसयके यूरवलियपालंब अंगुलिज्जगकं चीमे हलाक लावपयरक पायजालघंटियखं खिणिरयणोरुजालछडिवरने उरवलणमालिया कणगणिगमालिया कंचणमणिरयणभत्तिचित्तव्वभूसणविही बहुप्पगारा तहेव ते मणियंगा वि दुमगणा अणेगबहुविविहवीससा परिणयाए भूसणविहीए उववेया कुसविकुस वि जाव चिट्ठति / एगुरुयदीवे णं दीवे तत्थ बहवे गेहागारा नाम दुमगणा पन्नत्ता समणाउसो ! जहा से पागारट्टालगचरियागोपुरपासायागासतलगमंडवएगसालगचाउसालगगब्भघरमोहणधरवलमिघरचित्तसालगमालियभत्तिघरवहतंसंनंदियावत्तसंठियावत्तपंडुरतलपुडमालहम्मिय अहवणंधवलहरअद्धसागहविन्भतसेलद्धसेलसंठियकू डारगसुविहिकोट्ठगअणेगघरसरणलेणआवेणविडंगजालचंदनिव्वूह अपवरककरोत्तालिचंदसालिविभत्तिक लिता भवणविही बहुविगप्पा तहेव ते गेहागारा वि दुमगणा अणे गबहुविविहविस्ससा परिणयाए सुहा- | रुहणसुहोत्ताराए सुहनिक्खमणपवे साए दद्दरसोपाणपंतिकलियाए पइरित्ताए सुहविहाराए मणाणुकूलाए भवणविहीए उववेया कुसविकुस वि जाव चिट्ठति / एगुरुयदीवे णं दीवे तत्थ बहवे अणिगणा नाम दुमगणा पन्नत्ता समणाउसो ! जहा से अणेग आइगग्वोमतणुयकंबलदुगल्ल कोसेज कालमियपट्टचीण अंसूतवन्नावरणातवारवाणगपच्छन्ना भरणचित्तसहिणगकल्लाणगमिंगमेहलकजलबहुवन्नरत्तपीयसूकिल्लमरकयमिग लोमहेमप्फरल्लगअवरतगसिंधुउसभदामिलविंगक लिंगनलिणतंतुमयभत्तिचित्ता वत्थविही बहुप्पगारा हवेज वरपट्टणुग्गता वण्णरागकलिया तहेव ते अणियणा वि दुमगणा अणे गबहुविविहवीससा परिणयाए वत्थविहीए उववेया कुसविकुस वि जाव चिट्ठति 10 / एगुरुयदीवेणं भंते ! दीवे मणुयाणं केरिसए आगारभावपडोयारे पण्णत्ते ? गोयमा ! ते णं मणुया अणतिवरसोमचारुरूवा भोगुत्तमा भोगलक्खणधरा भोगसस्सिरीया सुजायसव्वंगसुंदरंगा सुपइट्ठियकुम्मचारुचलणा रत्तुप्पलपत्तमउयसुकुमालकोमलतला नगणगरमगरसागरचक्कं कहरंकलक्खणंकियचलणा अण-गुव्वसुसाहयंगुलिया उण्णयतणुयतंबणिद्धणखा संठि-यसूसलिट्टगूढगुप्फा एणीकुरुविंदावत्तवट्टाणुपुत्वजंघा सामुग्गनिमुग्गगूढ जा-णूगतससणसुजातसण्णिभोरु-वरवारणमत्ततु-ल्लविक्कमविलासितगती सुजातवरतुरग-गन्भदेसा आइन्नहतो व्व णिरुवलेवा पमुइयवरतु-रगसीहअइरेगवट्टियकडी साहयसोणिंदमुसलदप्पण-णिगरितवरकणगछ-रुसरिसवरवइरवलितमज्झा उजु अस-मसंहितसु जाय-जब तणु क सिण णि - द्ध आदेजालउहसु कु -माल मउयरमणिज-रो मराई गंगावत्तयपयाहिणावत्ततरंग-भंगुररविकिरणतरुणबोधियअकोसा तंतपउमगंभीर-विगडणाभा झसविहगसुजायपीणकुच्छी झसोदरा सुइ-करणी पम्हविगडणा भासन्नत्तपासा संगतपासा सुंदर-पासा सुजातपासा मितमाइतपीणरइतपासा अकरंडु य-कणगरुयगनिम्मलसुजायनिरुवहयदेहधारी पसत्थ-छत्तीसलक्खणधरा कणगसिलातलुज्जलपसत्थसमतल- उवचियविच्छिन्नपिहुलवच्छा सिरिवच्छंकि-यवच्छा पुरवफलिहवट्टियभुया भुयगीसरविपुलभोगआयाण-फलिहउच्छूढदीहवाहुजुगसन्निमपीणरइयपीवरपउ?- संठियउवचियघणाथिरसुबद्धसुसलिट्ठपव्वसंधी रत्ततलो-वइतमउयमंसलपसत्थलक्खणसुजायअच्छिद्दजालपाणी पीवरवट्टियसुजायकोमलवरंगुलीआ तंबतलिणसुतिरतिल (रुचिर) निद्धलुक्खा (नखा) चंदपाणिलेहा सूरपाणिलेहा संखपाणिलेहा चक्कपाणिलेहा दिसासोवत्थियपाणिलेहा चंदसूरसंखचक्क दिसासोवत्थिय Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतरदीव 92 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंतरदीव पाणिलेहा अणे गवरलक्खणुत्तमपसत्थसुविरइयपाणिलेहा वरमहिसवराहसीहसलउसभणागवरविउलउत्तमइंदखंधा चउरंगुलसुणप्पमाणकं बुवरसरि सगीवा अवट्ठितसुविमत्तसुजातचित्तमंसुमंसलसंठियपसत्थसहलविउलहणुया उतवितसिलप्पवालबिंबफलसनिभाधरोहा पंडुरससिसगलविमलनिम्मलसंखदधिधणगोखीर फेणदगरयमुणालिया धवलदंतसेढी अखंडदंता अफुडियदंता अविरलदंता सुसिणिद्धदंता सुजातदंता एगदंतासेढि व्व अणेगदंता हुतवहनिद्धंतधोततत्ततवणिज्जरत्ततलतालुजीहा गरुलायत उज्जुतुंगणासा अवदालियों डरीयणयणा कोकासितधवलपत्तलंछा आणामियचावरुइलकिण्हब्भराइयसंठियसंगतआयतसुजाततणुकसिणनिद्धमुमया अल्लीणपमाणजुत्तसवणा सुस्सवणा पीणमंसलकवोलदेसमागा अइरुग्गयबालचंदसंठियपसत्थविच्छिन्नसमणिडाला उडुवइपडिपुन्नसोमवयणा छत्तागरुत्तिमंगदेसा घणनिचियसुबद्धलक्खणुनयक डागारणिभपिडियसिरा हुतवहनिद्धं तधो यतत्ततवणिजरत्तके संतके सभू मिसामलि पौडघणणिचियछोडियमिउविसय पसत्थसुहमलक्खण सुगंधसुंदरभुयमोयगभिंगणीलकजलपहट्टमर गयणिद्धणिकुरुवणिचियकुंचियपयाहिणावत्त सुद्धसिरिया लक्खणवंजणगुणोववेया सुजायसुविभत्तसुरूवा पासाइया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा। ते णं मणुया ओहस्सरा हंसस्सरा काँचस्सरा गंदिघोसा सीहस्सरा सीहधोसा मंजुस्सरा मंजुघोसा सुस्सरा निग्धोसा छायाउज्जोइयंगमंगा वञ्जरिसहनारायसंघयणा समचउरंससंठाणसंठिया सिणिद्धछवी निरायंका उत्तमपसत्थ अइसेस निरुवमतणू जल्लमलकलंकसेयरयदोसविविजियसरीरा निरुवमलेवा अणुलोमवाउवेगा कंकग्गहणी कपोतपरिणामा सउनिपो सपिठं तरोरुपरिणया विग्गहियउन्नयकु च्छी पउमप्पलसरिसगंधनिस्साससुरहियवयणा अट्ठधणूसयऊसिया / तेसिं मणुयाणं चउसट्ठिपिडि करंडगा पन्नत्ता समणाउसो! ते णं मणुया पगइभद्दया पगइविणीया पगइउवसंता पगइपयणुकोहमाणमायालोमा मिउमद्दवसंपन्ना अलीणा भद्दगा विणीया अपिच्छा असण्णिहिसंचया अचंडा विडिमंतरपविसणा जहित्थियकामगामिणो य ते मणुयगणा पन्नत्ता समणाउसो ! तेसिणं भंते ! मणुयाणं केवति-कालस्स अहारट्टे समुप्पज्जइ ? गोयमा ! चउत्थभत्तस्स आहारट्टे समुप्पज्जइ, एगुरुयमणुईणं भंते ! के रिसए आगारभावपडोयारे पण्णत्ते ? गोयमा ! ताओ णं मणुईओ सुजायसव्वंगसुंदरीओ पहाणमहिलागुणे हिं जुत्ता अचंतविसप्पमाणपउमसूमालकुम्मसं ठियविसिट्ठचलणा उज्जुमउयपीवरनिरंतरसुसातचलणंगुलीओ अब्भुण्णयरतियतलिण तंबसुसिणिद्धणखा | रोमरहियवट्टलट्ठसंठियअजहन्नपसत्थलक्खणअकोप्पजंघजुयला सुणिमियसुगूढजाणू मंसलसुबद्ध संधा कयलिखं भातिरेगसंठिया णिवणसुमालमउयकोमल अविरलसमसंहतसुजातवट्टपीवरनिरंतरोरुअअट्ठावयदीविपट्टसंठिया पसत्थविच्छिण्णपिहुलसो णिवदणायामप्पमाणदुगुणियविसालमंसलसुबद्धजहण्णवरधारिणिउवजविराइयपसत्थलक्खणणिरोदरा तिवलियतणुणमियमज्झियाओ उज्जुयसमसहियजचतणुक सिणाणिद्ध आदेजलहड सुविभत्तकं तसुजायसो भतरुइलरमणिज्जरोमराईगंगावत्तकप्पयाहिणावत्ततरंगभंगुररविकिरणतरुण बोधिय अकोसायंतपउमगंभीरविगडणाभाअणुब्मडपसत्थपीणकुच्छी सन्नयपासा संगयपासा सुजायपासा मियमाईयपणिरइयपासा अकरंडयकणगरुयगनिम्मल सुजायणिरुवहयगायलट्ठी कंचण कलसपमाणसमसहियसुजाया लट्ठ चूचुय आमलजमल जुगलवट्ठिय अमुण्णयरतियसंठियपयोधराओ भुजंगअणुपुव्वतणुयगोपुच्छ वट्ट समसहियणमियआएजललियवाहाओ तंबणहा मंसलग्गहत्था पीवरकोमलवरंगुलीओ णिद्धपाणिलेहा रविससिसंखचक्क सोत्थिय विभत्तसुविरतियपाणिले हा पीणुण्णयक क्खवक्खवत्थिपदेसा पडिपुण्णगलकवोला चउरंगुलसुप्पमाणकंबुवरसरिसगीवा मंसलसंठियपसत्थहणुगा दालिमपुप्फपगासपीवरपलंबकुंचियवराधरा सुंदरोत्तरोट्ठा दधिदगरयचंदकुंदवासंतिमउलअच्छि दविमलदसणा रत्तुप्पलरत्तमउयसुमालतालुजीहा कणयरमउल अकुडिलअब्भुग्गयउज्जुतुंगणासा सारयनवकमलकुमुदकुवलयविमुक्कम उलदलनिगरसरिसलक्खणअंकियकंतनयणा पत्तलधवलायततंबलोयणाओ आणमितचावरुइलकिण्हभराइसंठियसंगयआययसुजायतणुकसिणनिद्धभुमया अल्लीणपमाण-जुत्तसवणा सुस्सवणा पीणमट्टरमणिञ्जगंडलेहा चउरंसपसत्थसमणिडाला को मुदीरयणीकर विमलपडि पुन्नसोमवयणा छत्तण्णयउत्तिमंगा कुडिलसुसिणिद्धदीहसिरया छत्तज्झयजूवथू भदामिणिक मंडलु कलसवाविसो स्थि यपडागजवमच्छ कुम्मरहवरमगरज्झयसुकथाल अंकुस अहावयवीईसु पइट्ठ क म्मऊ रसिरियाभिसे यतोरणमेइणीउदधिवरभवणगिरिवर आयंसलिलयगयउसमसीहचमर उत्तमपसत्थछत्तीसलक्खणधरीओ हंससरिसगईओ कोइलमहुरगिरसुस्सराओ कन्नाओ सव्वस्स अणुमयाओ ववगयवलिपलियावंगदुवन्नवाही दोभग्गसोगमुक्काओवत्तेणयनराणथोवूणमूसियाओ सब्मावसिंगा-रचारुवेसा संगतगतहसिय भणियचिट्ठीयविला-ससंलावनिउणजुत्तोवयारकुसला सुंदरघणजहणवयणकर चरणणयणलावन्नवन्नरूवजोव्वणविभासक लिया नंदणवणविवरचारिणीओ व्व अच्छराओ अच्छेरगपिच्छणिज्जा पासाइतातो दरिसणिज्जातो अभिरूवाओ पडिरूवाओ / तासि णं भंते ! मणुईणं Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतरदीव 93 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंतरदीव के वतिकालस्स आहारट्टे समुप्पज्जइ ? गोयमा ! चउत्थभत्तस्स आहारट्टे समुप्पज्जइ। ते णं भंते ! मणुया किमाहारंति ? गोयमा ! पुढवीपुप्फफलाहारा ते मणुयगणा पन्नत्ता समणाउसो ! तीसे णं भंते ! पुढवीए केरिसए अस्साए पन्नत्ते ? गोयमा ! से जहानामए गुलेइवाखंडेइ वा सक्कराइवा मच्छंडियाइ वा भिसकंदेइ वा पप्पडमोततेति वा पुप्पत्तराइ वा पउमुत्तराइ वा अकोसियाति वा विजतातिवा महाविजयाति वा पायसोवमाइ वा उवमाइ वा अण्णोवमाइ वा चउरक्के गोखीरे चउहाणे परिणए गुडखंडमच्छंडिउवणीए मंदग्गिकढिए वण्णेणं उववेए जाव फासेणं भवे एता- रूवे सिता? नो इणडे समटे / तीसे णं पुढवीए एत्तो इट्ठपराए चेव जाव मणामतराए चेव। आसाएणं। भंते! पुप्फफलाणं केरिसए आसाए पण्णते ? गोयमा ! से जहानामए रन्नो चाउरंतचक्क वहिस्स कल्लाणपवरभोयणे सयसहस्सनिप्फन्ने वन्नेणं उववेए गंधेणं उववेए रसेणं उवदेए फासेणं उवदेए आसायणिज्जे वीसायणिज्जे दीवणिजे दप्पणिज्जे वीहिणिजे मयणिजे सटिवदियगायपल्हायणिज्जे भवेतारूवे सिया? नो इणढे समटे / तेसि / णं पुप्फफलाणं इत्तो इतराणं चेव जाव अस्साएणं पन्नत्ते। तेणं भंते ! मणुया तमाहारेत्ता कहिं वसहिं उर्वे ति? गोयमा ! रुक्खगेहालयाणं ते मणुयगणा पन्नत्ता समणाउसो !! ते णं भंते ! रुक्खा किं संठिया पण्णत्ता? गोयमा! कूडागारसंठिया पच्छाधर संठिया छत्ता- गारसंठिया झयसंठिया थूभसंठिया तोरणसंठिया गोपुरसंठिया पालगसंठिया अट्टालगसंठिया पासायसंठिया हम्मितलसंठिया गवक्खसंठिया वालग्गपातियसंठिया वलभीसंठिया अण्णे तत्थ बहवे वरभवणसयणा-सणविसिट्ठसंठाणसंठिया सुभसीतलछाया णं ते दुमगणा पन्नत्ता समणाउसो ! अस्थि णं भंते ! एगुरुयदीवेणं दीवे गेहाणि वा गेहावयणाणि वा ? णो इणढे समटे / रुक्खगेहालया णं मणुयगणा पन्नत्ता समणाउसो ! / अत्थि णं भंते ! एगुरुयदीवेणं दीवे गामाइ वा नगराइ वा जाव सन्निवेसाइ वा ? णो इणढे समटे / जहत्थियकामगामिणो णं ते मणुयगणा पन्नत्ता समणाउसो! अत्थि णं भंते ! एगुरुयदीवे णं दीवे असीइ वा मसीइ वा किसीति वा विवणीइ वा पणीइवा वाणिज्जाइ वा ? नो इणढे समढे / ववगय असिमसि किसीविवणिपणियवाणिज्जवजा णं ते मणुयगणा पन्नत्ता समणाउसो ! अस्थि णं भंते ! एगुरुयदीवे णं दीवे हिरण्णेइ वा सुवन्नेइ वा कंसेइ वा दूसेइ वा मणीइ वा मुत्तिएइ वा विपुलधणकणगरयणमणिमोत्तिय संखसिलप्पवालसंतसारसावयजे वा? हंता ! अत्थि, णो चेवणं तेसिं मणुयाणं तिव्वे ममत्तिभावे समुप्पज्जइ। अत्थि णं भंते ! एगुरुयदीवेणं दीवे रायाइ वा जुवरायाइ वा ईसरेइ वा तलवरेइ वा माडंबिएइ वा कोडुबिएइ वा इन्भेइ वा सेट्ठिएइ वा सेणावई वा सत्थवाहेइ वा ? नो इणढे समढे ववगयइड्डिसकाराए णं ते मणुयगणा पन्नत्ता समणाउसो ? अत्थि णं भंते ! एगुरुयदीवे णं दीवे दासाइ वा पेसाइ वा सिस्साइ वा भयग ति वा भाइल्लगाइ वा कम्मगाराइ वा भोगपुरिसाइ वा ? नो इणट्टे समढे / ववगयआभोगिया णं ते मणुयगणा पन्नत्ता समणाउसो ? अत्थि णं भंते ! एगुरुयदीवेणं दीवे माताति वा पियाइ वा मायाइ वा भयणीइ वा भञ्जा वा पुत्ताइ वा धूयाइ वा सुण्हाइ वा ? हंता ! अत्थि,नो चेव णं तेसिणं मणुयाणं तिव्वे पेम्मबंधणे समुप्पज्जइ। पयणुपेम्मबंधणा णं ते मणुयगणा पन्नत्ता समणाउसो ! अत्थिणं भंते ! एगुरुयदीवे णं दीवे अरीइ वा वेरिइ वा घायगाइ वा वहगाइ वा पडणीयाइ वा पचामित्ताइ वा ? णो इणढे समढे ववगयवेराणुबंधा णं ते मणुयगणा पन्नत्ता समणाउसो ! अस्थि णं भंते ! एगुरुयदीवेणं दीवे मित्ताइ वा वयंसाइ वा घडियाति वा सुहीति वा सुहीयाइ वा महाभागाति वा संगतियाति वा ? नो इणढे समढे / ववगयपेमाणुरागा णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो ! अत्थि णं भंते ! एगुरुयदीवे णं दीवे आवाहाइ वा विवाहाइवा जन्नाइ वा सड्ढाइ वा थालिपागाइ वा चोलोवणतणाइ वा सीमंतोवणतणाइ वा पितिपिंडनिवेयणाइ वा ? नो इणढे समटे / ववगयआवाहविवाहजन्नसद्धथालिपागचोलोवणसीमंतोवणतणपितिपिंडनिवेदणा णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो ! अत्थि णं भंते ! एगुरुयदीवे णं दीवे इंदमहाइ वा रुद्दमहाइ वा खंदमहाइ वा सिवमहाति वा वेसमणमहाति वा मुगुंदमहाति वा नागमहाइ वा जक्खमहाइ वा भूतमहाइ वा कूवमहाइ वा तलागमहाइ वा नंदिमहाइ वा इंदमहाइ वा पव्वयमहाति वा रुक्खमहाइवा चेतियमहाइवाथूभमहाइवा ? णो इणढे समढे / ववगयमहातिया णं ते मणुयगणा पन्नत्ता समणाउसो ! अत्थि णं भंते ! एगुरुयदीवे णं दीवे नडपिच्छाइ वा णट्टपेच्छाति वा मल्लपेच्छाति वा मुट्ठियपेच्छाति वा विडम्बगपेच्छाति वा कहकपेच्छाति वा पवगपेच्छाति वा अक्खवाइगपेच्छाति वा लासगपेच्छाति वा लंखपेच्छाति वा मंखपेच्छाति वा तणइल्लपेच्छाति वा तुंबवीणपेच्छा ति वा कीवपेच्छाति वा मागहपेच्छाति वा जल्लपेच्छाइ वा कहयापेच्छाइ वा? णो इणटे समठेववगयकोऊहल्ला णं ते मणुयगणा पन्नत्ता समणाउसो! Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतरदीव 94 - अभिषानराजेन्द्रः - भाग 1 अंतरदीव अत्थिणं भंते ! एगुरुयदीवेणं दीवे सगडाइवा रहाइवा जाणाइ वा गिल्लीति वा पल्लीति वा थिल्लाइ वा पवहणाइवासीयाइवा संदमाणियाइ वा ? नो इणढे समढे। पादचारविहारिणो णं ते मणुयगणा पन्नत्ता समणाउसो ! अत्थि णं भंते ! एगुरुयदीवेणं / दीवे आसाइ वा हत्थीइ वा उट्ठाति वा गोणाइ वा महिसाइ वा खराइ वा अयाइ वा एलगाइवा? हंता अत्थि, नो चेव णं तेसिं मणुयाणं परिभोगत्ताए हव्वमागच्छति / अस्थि णं भंते ! एगुरुयदीवे णं दीवे गावीइ वा महिसीइ वा उट्ठीति वा अयाइवा एलगाइ वा ? हंता ! अत्थि, नो चेव णं तेसिं मणुयाणं परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति / अत्थि णं भंते ! एगुरुयदीवे णं दीवे सीहाइ वा वग्याइ वा दीवियाइ वा अत्थाइ वा परस्सराइ वा सियालाइ वा विडालाइ वा सुणगाइ वा कोलसुणगाति वा कोंकतियाइवा ससगाइ वा दित्तवित्तलाति वा चिलुलगाइ वा ? | हंता! अत्थि, नो चेव णं अन्नमन्नस्स तेसिं वा मणुयाणं किंचि आवाहं वा पवाहं वा उप्पायंति, छविच्छेयं वा करें ति / पगइभद्दगा णं ते सावयगणा पन्नत्ता समणाउसो! अत्थि णं भंते ! एगुरुयदीवे णं दीवे सालीइ वा वीहीइ वा गोहूमाइ वा इक्खूइ वा तिलाइ वा ? हंता ! अत्थि, नो चेवणं | तेसिं मणुयाणं परिभोगत्ताए हव्वमागच्छति / अस्थि णं भंते ! एगुरुयदीवे णं दीवे गत्ताइ वा दरीइ वा पाइ वा घंसीइ वा मिगूइ वा उवाएइ वा विसमेइ वा विजलेइ वा धूलीइ वा रेणुति वा पंकेइ वा वलणीइ वा ? णो इणढे समटे / एगुरुयदीवे णं दीवे बहुसमरमणिले भूमिभागे पन्नत्ते समणाउसो ! अस्थि णं भंते ! | एगुरुयदीवे णं दीवे खाणुइवा कंटाएइवा करीसहाइ वा सक्कराइ वा तणकयवराइ वा सत्तकयवराइ वा असुईइ वा पूईइ वा दुभिगंधाइ वा अचोक्खाइ वा ? णो इणद्वे समठे। ववगयखाणुकंटकरीसहसक्करतण कयवरअसुइपूईय- | दुब्भिगंधमचोक्खवजिए णं एगुरुयदीवे पन्नत्ते समणाउसो! अस्थि णं भंते ! एगुरुयदीवे णं दीवे दंसाइ वा मसगाति वा पिसुगाइ वा जूयाइ वा लिक्खाइ वा टिंकुणाइ वा ? नो इणद्वे समढे / ववगयदंसमसगपिसुगजूयालिक्खटिंकुण परिवञ्जिए णं एगुरुयदीवे पन्नत्ते समणाउसो ! अत्थि णं भंते ! एगुरुयदीवे णं दीवे अहीइ वा अयगराइ वा महोरगाति वा ? हंता अस्थि, नो चेव णं ते अन्न- मन्नस्स तेसिं वा मणुयाणं किंचि आवाहं वा पवाहं वा छविच्छेयं वा पकरेंति / पगइभद्दगा णं ते वालगणा पन्नत्ता समणाउसो! अस्थि णं भंते ! एगुरुयदीवेणं दीवे गहदंडाति वा गहमुसलाइ वा गहगजियाइ वा गहजुद्धाइ वा गहसंघाडाइ वा गहअवसव्वा अभाइ वा अब्भरुक्खाइ वा संझाइ वा गंधव्वणगराइ वा गजियाइ वा विजुयाइ वा उकापयाइ वा दिसादाहाइ वा णिग्धाइ वा पंसुविट्ठीइ वा जूयाइ वा जक्खालित्ताइ वा धूमियाइ वा महियाति वा रउग्घायाइ वा चंदोवरागाई वा सूरोवरागाइ वा चंदपरिवेसाइ वा सुरपरिवेसाइ वा पडिचंदाइ वा पडिसूराइ वा इंदधणुआइ वा उगमच्छाइ वा अमोहाइ वा कविहसीयाइ वा पाईणवायाइवा पडीणवायाइवा जाव सुद्धवायाइ वा गामदाहाइ वा नगरदाहाइवा जाव सन्निवेसदाहाइवा वाणक्खयजणक्खयकुलक्खय-धणक्खयवसणभूतमणारयाइ वा ? नो इणटे समढे। अत्थि णं भंते ! एगुरुयदीवे णं दीवे डिंबाइ वा डमराइ वा कलहाइ वा बोलाइ वा खाराइ वा वेराति वा विरुद्धरज्जाइ वा? नो इणद्वे समढे / ववगयडिंबडमर-कलहबोलखारवेरविरुद्धरजविवज्जिया णं ते मणुयगणा पन्नत्ता समणाउसो ! अस्थि णं मंते ! एगुरुयदीवे णं दीवे महाजुद्धाइ वा वा महासंगामाइ वा महासत्थपडणाइ वा महापुरिसपहाणाइ वा महारुधिरपडणाइ वा नागवाणाति वा खेलवाणाति वा तामसवाणाति वा दुन्भूइयाइ वा कुलरोगाइ वा गामरोगाइ वा नगररोगाइ वा मंडलरोगाइ वा सीसवेयणाइ वा अच्छिवेयणाइ वा कन्नवेयणाइ वा नक्कवेयणाइ वा दंतवेयणाइवा कासाइ वा सासाइ वा जराइ वा दाहाइ वा कच्छूइ वा खसराइ वा कोट्ठाइ वाकुडातिवादगोवराइ वा अरिसाइ वा अजिरगाइ वा भगंदलाइ वा इंदग्गहाइ वा खंदग्गहाइ वा कुमारग्गहाइ वा नागग्गहाइ वा जक्खग्गहाइ वा भूयग्गहाइ वा उव्वेवग्गहाइ वा धणुग्गहाइ वा एगाहियाइ वा बेयाहियाइ वा तेयाहियाइ वा चाउत्थगाहियाइ वा हिययसूलाइ वा मत्थगसूलाइ वा पाससूलाइ वा कुच्छिसूलाइ वा जोणिसूलाइ वा गाममारी वा जाव सन्निवे समारी वा पाणक्खय जाव वसणभूतमणायरियं वा ? नो इणढे समढे / ववगयरोगायंका णं ते मणुयगणा पन्नत्ता समणाउसो! अत्थि णं मंते ! एगुरुयदीवे णं दीवे अइवासाइ वा मंदवासाइ वा सुवुट्ठीइ वा मंदवुट्ठीइ वा उदवाहीइ वा पवाहाइ वा दगुन्भेयाइ वा दगुप्पीलाइ वा गामवहाइ वा जाव सन्निवेसवहाइ वा पाणक्खय जाव वसण- भूतमणारियाइ वा? नो इणढे समढे / ववगयवगोवद्दगा णं ते मणुयगणा पन्नत्ता समणाउसो ! अत्थि णं भंते ! एगुरुयदीवे णं दीवे अयागराइ वा तंबागराइ वा सीसा- गराइ वा सुवन्नागराइ वा रयणागराइ वा वइरागराइ वा वसुहाराइ वा हिरण्णवासाइ वा सुवन्नवा साइ वा रयणवासाइ वा वइरवासाइ वा आभरणवासाइ वा पत्तं वा पुप्फ वा फलं वा बीयं वा सगंधं वा समल्लं वा सवन्नं वा सचुन्नं वा सखीखुट्ठीइ वा रयणदुट्ठीइ वा Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतरदीव 95 अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अंतरदीव हिरण्णवुट्ठीइ वा सुवन्नं तहेव जाव चुन्नवुट्ठीइ वा सुकालाइ वा दुक्कालाइ वा सुभिक्खाइ वा दुन्भिक्खाइ वा अप्पग्घाइ वा महग्धाइ वा कयाइ वा विक्कयाइ वा संणिहीइ वा संचेयाइ वा निधीई वा निहाणाइ वा चिरपोराणाइ वा पहीणसामियाइ वा पहीणसउयाइ वा पहीणगोत्तागाइं जाइं इमाई गामागरनगरखेडकब्बङमंडबदोहमुहपट्टणासमसंबाहसन्निवेसेसु सिंघाडगतिगचउक्क चचरचउम्मुहमहापहमहेसु नगरनिद्धमणेसु सुसाणगिरिकंदरसंतिसेलोवट्ठाणभवणगिहेसु सन्निखित्ता चिटुंति? नो इणढे समढे। एगुरुयदीवे णं भंते ! दीवे मणुयाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहणणेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागं असंखेजतिभागेणं ऊणगं, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागं / ते णं भंते ! मणुया कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छंति ? कहिं उववजंति गोयमा ! ते णं मणुया छम्मासावसेसाउआ मिहुणाइं पसवंति अउणासीइं राइंदियाई मिहुणाईसारक्खंति, संगोवंति,सारखित्ता, संगोवित्ता, उस्ससित्ता णिस्ससित्ता कासित्ता छित्तित्ता अकिट्ठा अव्वहिया अपरियाविया सुहं सुहेणं कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति / देवलोगपरिग्गहिया णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो! एकोरुकमनुष्याणामेकोरुकद्वीपं पिपृच्छिषुराह - कहि णं भंते ! इत्यादि / क्व भदन्त ! दाक्षिणात्यानामिह एकोरुकादयो मनु-ष्याः, शिखरिण्यपि पर्वते विद्यन्ते, ते च मेरोरुत्तरदिग्वर्तिन इति तद्व्यवच्छेदार्थं दाक्षिणात्यानामित्युक्तम् / एकोरुकमनुष्याणामेकोरुकद्वीपः प्रज्ञप्तः ? भगवानाह- गौतम ! जम्बूद्वीपे मन्दरपर्वतस्यान्यत्रासंभवादस्मिन् जम्बूद्वीपद्वीपे इति प्रतिपत्तव्यं मन्दरपर्वतस्य मेरोदक्षिणस्यां दिशि क्षुल्लहिमवद्वर्षधरपर्वतस्य, क्षुल्लग्रहणं महाहिमवद्वर्षधरपर्वतव्यवच्छेदार्थ,पूर्वस्मात् पूर्वरूपाचरमान्तात् उत्तरपूर्वेण उत्तरपूर्वस्यां दिशि लवणसमुद्रं त्रीणि योजनशतान्यवगाह्याऽत्रान्तरे क्षुल्लहिमवद्-दष्ट्राया उपरि दाक्षिणात्यानामेकोरुकमनुष्याणामेकोरुकद्वीपो नाम द्वीप प्रज्ञप्तः / स च त्रीणि योजनशतान्यायामविष्कम्भेन, समाहारो द्वन्द्वः, आयामेन विष्कम्भेन चेत्यर्थः / नवैकोनपशाशतान्ये कोनपञ्चाशदधिकानिनवयोजनशतानि (६४६)परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः। परिक्षेपेण परिमाणगणितभावनाविष्कम्भवम्गदह गुणकरणीवट्टस्स परिरओ होई, इति करणवशात् स्वयं कर्त्तव्या, सुगमत्वात् / से णमित्यादि, स एकोरुकनामा द्वीप एकया पद्मवरवेदिकया एकेन वनखण्डेन सर्वतः सर्वासु दिक्षु समंततः सामस्त्येन परिक्षिप्तः। तत्र पद्मवरवेदिकावर्णको वनखण्डवर्णकश्च वक्ष्यमाणजम्बूद्वीप-जगत्युपरि पद्मवरवेदिकावनखण्डवर्णकवत् भावनीयः। स च तावत् यावच्चरममासयतीति पदम् / "एगोरुयदीवस्स णं भंते ! इत्यादि' एकोरुकद्वीपस्य णमिति पूर्ववत् भदन्त ! कीदृशः क इव दृश्यः आकारभवप्रत्यवतारः भूम्यादिस्वरूपसम्भवः प्रज्ञप्तः ? भगवानाह-गौतम ! एकोरुकद्वीपे बहुसमरमणीयः प्रभूतसमः सन्म्यो भूमिभागः प्रज्ञप्तः। “से जहाणामए | आलिंगपुक्खरेइ वा इत्यादि" उत्तरकुरुगमस्तावदनुसर्त्तव्यो यावदनुसज्जनासूत्रं, नवरमत्र नानात्वमिदंमनुष्या अष्टौ धनु:शतान्युच्छिता वक्तव्याश्चतुः षष्टिपृष्ठ करण्डकाः पृष्ठवंशा बृहत्प्रमाणानाहिते बहवो भवन्ति / एकोनाशीतिं च रात्रिन्दिवानि स्थापत्यान्युपपालयन्ति / स्थितिस्तेषां जघन्येन देशोनः पल्योपमासंख्येयभागः। एतदेव व्याचष्टे-पल्योपमासंख्येयभागन्यूनः, उत्कर्षतः परिपूर्णः पल्योप-मासंख्येयभागः। जी०३ प्रति०। कहिं णं भंते ! दाहिणिल्लाणं आभासियमणुयाणं आभासियदीवे नाम दीवे पण्णत्ते ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे तहेव चुल्लहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणपुव्वच्छिमिल्लातो चरिमंताओ लवणसमुहं तिन्नि जोयणः / सेसं जहा एगुरुयाणं निरवसेसं सव्वं / क्व भदन्त ! दाक्षिणात्यानां आभाषिकद्वीपानामन्तरद्वीपः प्रज्ञप्तो? भगवानाह- गौतम ! जम्बूद्वीपे मन्दरस्य दक्षिणेन दक्षिणस्यां दिशि क्षुल्लहिमवतो वर्षधरपर्वतस्य पूर्वस्माचरभान्तात् दक्षिणपूर्वेण दक्षिणपूर्वस्यां दिशि लवणसमुद्रं क्षुल्लहिमवदृष्ट्राया उपरि त्रीणि योजनशतान्यवगायात्रान्तरे दंष्ट्राया उपरि दाक्षिणात्यानामाभाषिकमनुष्याणामाभाषिकद्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः / शेषवक्तव्यता एकोरुकवद्वक्तव्या, यावत् स्थितिसूत्रम्। कहिं णं भंते ! दाहिल्लाणं वेसाणियमणुस्साणं पुच्छा? गोयमा ! जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पटवयस्स दाहिणेणं चुल्लहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिजेणं पञ्चच्छिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुई तिन्नि जोयण। सेसं जहा एगुरुयाणं / 'कहिं णं भंते इत्यादि'' क्व भदन्त ! दाक्षिणात्यानां वैशालिकमनुष्याणां वैशालिकद्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः ? भगवानाह - गौतम ! जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणस्यां दिशि क्षुल्लहिम-वतो वर्षधरपर्वतस्य पाश्चात्याच्चरमान्तात् दक्षिणपश्चिमायां दिशिलवणसमुद्रं त्रीणि योजनशतान्यवगाय अत्रान्तरेदाक्षिणात्यानां वैशालिकमनुष्याणां वैशालिकद्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः / शेष यथा एकोरुकाणां तथा वक्तव्यं, यावत् स्थितिसूत्रम्। कहिं णं भंते ! दाहिणिल्लाणं नंगोलियमणुस्साणं पुच्छा० गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं चुल्लहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरपञ्चच्छिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुई तिन्नि जोयणसयाइं, सेसं जहा एगुरुयमणुस्साणं। क्व भदन्त! नाङ्गोलिकमनुष्याणां नाङ्गोलिकद्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः ? भगवानाह- गौतम ! जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणस्यां दिशि क्षुल्लहिमवतो वर्षधरस्य पाश्चात्याचारमान्तात् उत्तरपश्चिमेन उत्तरपश्चिमायां दिशि लवणसमुद्रं त्रीणि योजनशतानि अवगाह्याऽत्रान्तरे दंष्ट्राया उपरि नाङ्गोलिकमनुष्याणां नाङ्गो- लिकद्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः / शेषमेकोरुकवत् वक्तव्यं, यावत् स्थितिसूत्रम्। जी०३ प्रति०। स्था०। नं०। कर्म०। द्वितीयश्चतुष्कः। काहिं णं भंते ! दाहिणिल्लाणं हयकण्णमणुस्साणं हयकन्नदीवे नाम दीवे पण्णत्ते ? गोयमा ! एगुरुयदीवस्स उत्तर Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतरदीव 96 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंतरदीव पुरच्छिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुदं चत्तारि जोयणसयाई एकाशीत्यधिकपञ्चदशयोजन-शतपरिक्षेपाः पूर्वोक्तप्रमाणपद्मउग्गाहित्ता एत्थणं दाहिणिल्लाणं हयकन्नमणुस्साणं हयकन्नदीवे वरवेदिकावनखण्डमण्डितबाह्य-प्रदेशाः जम्बूद्वीपवेदिकातः नाम दीवे पन्नत्ते / चत्तारि जोयणसयाई आयामविक्खंभेणं पञ्चयोजनशतप्रमाणान्तरा आदर्शमुख 1 मेण्ढमुख 2 अयोमुख 3 गोमुख बारससया पन्नछट्ठा किंचि विसेसूणाई परिक्खेवेणं, एगाए 4 नामानश्चत्वारो द्वीपास्तद्यथा-हयकर्णस्य परतः आदर्शमुखो, पउमवरवेइयाए अवसेसं जहा एगुरुयाणं / गजकर्णस्यपरतो मेण्ढमुखः, गोकर्णस्य परतोऽयोमुखः, शष्कुलीकर्णस्य क्व भदन्त ! हयकर्णमनुष्याणां हयकर्णद्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः ? परतो गोमुख इति एवमग्रेऽपि भावना कार्या / प्रज्ञा० 1 पद० / जी० / भगवानाह- गौतम ! एकोरुकद्वीपस्य पूर्वस्माचरमान्तात् उत्तरपूर्वस्या कर्म०। दिशि लवणसमुद्रं चत्वारि योजनशतान्यवगायाऽत्रान्तरे चतुर्थश्चतुष्कः - क्षुल्लहिमवद्दष्ट्रायाः उपरि जम्बूद्वीपवेदिकान्तादपि चतुर्योजनशतान्तरे तेसिं णं दीवाणं चउसु वि दिसासु लवणसमुदं छछ दाक्षिणात्यानां हयकर्णमनुष्याणां हयकर्णो नामद्वीपः प्रज्ञप्तः। स च जोयणसयाई ओगाहेत्ता एत्थणं चत्तारि अंतरदीवा पण्णत्ता।तं चत्वारियोजनशतान्यायामविष्कम्भेन, द्वादश पञ्चषष्ठानि योजनशतानि | जहा-आसमुहदीवे हत्थिमुहदीवे सीहमुह-दीवे वग्घमुहदीवे। किंचिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण, शेषं यथा एकोरुकमनुष्याणाम्। तेसु णं दीवेसु मणुस्सा भाणियव्वा। कहिं णं भंते ! दाहिणिल्लाणं गयकन्नमणुस्साणं पुच्छा? एतेषां मण्यादर्शमुखादीनां चतुर्णा द्वीपानां परतो भूयोऽपि यथाक्रम गोयमा ! आभासियदीवस्स दाहिणपुर-च्छिमिल्लाओ पूर्वोत्तरादिविदिक्षु प्रत्येकं लवणसमुद्रं षट् योजनशतान्यवगाह्य षट् चरिमंताओ लवणसमुहं चत्तारि जोयणसयाई, सेसं जहा योजनशतायामविष्कम्भाः सप्तनवत्यधिकाष्टादशयोजनपरिक्षेपाः हयकन्नाणं। पद्मवरवेदिकावनखण्डमण्डितपरिसरा जम्बूद्वीपवेदिकान्तात् एवमाभाषिकद्वीपस्य पूर्वस्माञ्चरमान्तात् दक्षिणपूर्वस्यां दिशि चत्वारि षड्योजनशतप्रमाणान्तरा अश्वमुखहस्तिमुखसिंहमुख-व्याघ्रमुयोजनशतानि लवणसमुद्रमवगायात्रान्तरे क्षुल्लहिम-वदंष्ट्राया उपरि खनामानश्चत्वारो द्वीपा वक्तव्यास्तद्यथा-आदर्शमुखस्य परतोऽश्वमुखः, जम्बूद्वीपवेदिकान्ताद् चतुर्योजनशतान्तरे गज-कर्णमनुष्याणां गजकर्णो मेण्ढमुखस्य परतो हस्तिमुखः, अयोमुखस्य परतः सिंहमुखः, नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः / आयामविष्क-म्भपरिधिपरिमाणं हयकर्णद्वीपवत्। गोमुखस्य परतो व्याघ्रमुखः। एवं गोकनमणुस्साणं पुच्छा ? वेसालियदीवस्स पञ्चमश्चतुष्कः - दाहिणपचच्छिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुहं चत्तारि तेसिं णं दीवाणं चउसु वि दिसासु लवणसमुहं सत्त सत्त जोयणसयाई, सेसं जहा हयकन्नाणं / जोयणसयाई ओगाहेत्ता एत्थ णं चत्तारि अंतरदीवा पण्णत्ता। नाङ्गोलिकद्वीपस्य पश्चिमान्ताच्चरमान्तात् दक्षिणपश्चिमेन चत्वारि तंजहा- आसकण्णदीवे हत्थिक ण्णदीवे अकण्णदीवे योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाह्यात्रान्तरे क्षुल्लहिमवदंष्ट्राया उपरि कण्णपाउरणदीवे / तेसु णं दीवेसु मणुया भाणियव्वा / जम्बूद्वीपवेदिकान्तात् चतुर्योजनशतान्तरे गोकर्णमनुष्याणां गोकर्णद्वीपो स्था०४ ठा०। नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः / आयामविष्कम्भपरिधिपरिमाणं हयकर्णद्वीपवत् / एतेषामप्यश्वमुखादीनां चतुर्णा द्वीपानां परतो यथाक्रमं पूर्वोसक्कुलिकण्णाणं पुच्छा? गोयमा ! नंगोलियदीवस्स त्तरादिविदिक्षु प्रत्येकं सप्त सप्त योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाह्य उत्तरपञ्चच्छिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुदं चत्तारि सप्तयोजनशतायामविष्कम्भास्त्रयोदशाधिक द्वाविंशतियोजनजोयणसयाई सेसं जहा हयकन्नाणं। शतपरिरयाः पद्मवरवेदिकावनखण्डसमवगाढा जम्बूद्वीप-वेदिकान्तात् नाङ्गोलिकद्वीपस्य पश्चिमाचरमान्तात् उत्तरपश्चिमायां दिशि सप्तयोजनशतप्रमाणान्तरा अश्वकर्णहस्तिकर्णाऽकर्ण-कर्णप्रावरणनालवणसमुद्रमवगाह्य चत्वारि योजनशतानि अत्रान्तरे क्षुल्ल मानश्चत्वारो द्वीपा वाच्यास्तद्यथा- अश्वमुखस्य परतोऽश्वकर्णः, हस्तिमुखस्य परतोहस्तिकर्णः, सिंहमुखस्य परतोऽकर्णः, व्याघ्रमुखस्य हिमवदंष्ट्राया उपरि जम्बूद्वीपवेदिकान्ताच्चतुर्यो जनशतान्तरे परतः कर्णप्रावरणः / जी० 3 प्रति०। प्रज्ञा० / कर्म०। दाक्षिणात्यानां शष्कुलीकर्णमनुष्याणां शष्कुलीकर्णद्वीपो नाम द्वीपः षष्ठश्चतुष्कः - प्रज्ञप्तः / आयामविष्कम्भपरिधिपरिमाणं हयकर्णद्वीपवत् / तेस णं दीवाणं चउसु वि दिसासु लवणसमुहं अट्ठ अट्ठ पद्मवरवेदिकावनखण्डमनुष्यादिस्वरूपं च समस्तमेकोरुकद्वीपवत् / जी० 3 प्रति०। स्था० / प्रज्ञा० / कर्म०। जोयणसयाई ओगाहित्ता एत्थ णं चत्तारि अंतरदीवा पण्णत्ता। तंजहा- उक्कामुहदीवे मेहमुहदीवे विझूमुहदीवे विजुदंतदीवे / तृतीयश्चतुष्कः। तेसि णं दीवाणं चउसु वि दिसासु लवणसमुई पंच पंच तेसु णं दीवेसु मणुस्सा भाणियव्वा / स्था० 4 ठा०। तत एतेषामश्वकर्णादीनां चतुर्णा द्वीपानां परतो यथाक्रमं पूर्वोजोयणसयाई ओगाहेत्ता एत्थ णं चत्तारि अंतरदीवा पण्णत्ता। त्तरादिविदिक्षु प्रत्येकमष्टौ अष्टौ योजनशतानि लवण समुद्रतं जहा-आयं समुहदीवे मेंढगमुहदीवे अओ-मुहदीवे मवगाह्याष्टयोजनशतायामविष्कम्भा एकोनत्रिंशदधिकपश्चगोमुहदीवे / तेसु णं दीवेसु चउव्विहा मणुस्सा माणियव्वा। विंशतियोजनशतपरिक्षेपाः पद्मवरवेदिकावनखण्डमण्डितएतेषामपि हयकर्णादीनां परतः पुनरपि यथाक्रमं पूर्वोत्तरादि-विदिक्षु परिसरा जम्बूद्वीपवेदिकान्तादष्टयोजनशतप्रमाणान्तरा उल्काप्रत्येकंपञ्चपञ्च योजनशतानि व्यतिक्रम्य पञ्च-योजनशतायामविष्कम्भा | मुखमेघमुखविद्युन्मुखविद्युदन्ताभिघानाश्चत्वारो द्वीपा वक्त Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतरदीव 97 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंतरदीव व्यास्तद्यथा-अश्वकर्णस्य परत उल्कामुखः हरिकर्णस्य परतो मेघमुखः, अकर्णस्य परतो विद्युन्मुखः, कर्णप्रावरणस्य परतो विद्युद्दन्तः। जी०३ प्रति / प्रज्ञा० / कर्म०। तेसु णं दीवाणं चउसु वि दिसासु लवणसमुदं णव णव जोयणसयाई ओगाहित्ता एत्थ णं चत्तारि अंतरदीवा पण्णत्ता। तंजहा-घणदंतदीवे लट्ठदंतदीवे गूढदंतदीवे सुद्धदंतदीवे। तेसु गं दीवेसु चउव्विहा मणुस्सा परिवसति / तंजहा- घणदंता लट्ठदंता गूढदंता सुद्धदंता। एतेषामप्युल्कामुखादीनां चतुर्णा द्वीपानां परतो यथाक्रमं पूर्वोतरादिविदिक्षु प्रत्येकं नव योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाह्य नवयोजनशतायामविष्कम्भाः पञ्चचत्वारिंशदधिकाष्टाविंशतियोजनशतपद्मवरवेदिकावनखण्डसमवगूढा जम्बूद्वीपवेदिकान्तात् नवयोजनशतप्रमाणान्तरा घनदन्तलष्ट दन्तगूढदन्तशुद्धदन्तनामानश्चत्वारो द्वीपास्तद्यथा-उल्कामुखस्य परतो घनदन्तः, मेघमुखस्य परतो लष्टदन्तः, विद्युन्मुखस्य परतो गूढदन्तः, विद्युइन्तस्य परतः शुद्धदन्तः। जी०३ प्रति०। अन्तरद्वीपप्रकरणार्थं संग्रहगाथाः। "चुल्लहिमवंतपुव्वा-वरेण विदिसासु सागरं तिसए। गंतूणंतरद्वीवा, तिण्णि सए होति वित्थिण्णा / / 1 / / अउणावण्णनवसए, किंचूणे परिहिएसिमे नामा। एगोरुय आभासिय, वेसाणी चेव लंगूली / / 2 / / एएसिं दीवाणं, परओ चत्तारि जोयणसयाई। ओगाहिऊण लवणं, स पडिदिसिंचउसयपमाणा।।३।। चत्तारंतरदीवा, हयगयगोकण्णसंकुलीकण्णा। एवं पंच सयाई,छ सत्त अढे व नव चेव // 4 // ओगाहिऊण लवणं, विक्खंभोगाहसरिसया भणिया। चउरो चउरो दीवा, इमेहिं नामेहिं नायव्वा / / 5 / / आयंसमेंढगमुहा, अओमुहा गोमुहा य चउरते। अस्समुहा हत्थिमुहा, सीहमुहा चेव वग्घमुहा॥६॥ तत्तो य अस्सकण्णा, हथिअकण्णा अकण्णपाउरणा। उक्कामुह मेहमुहा, विज्जुमुहा विज्जुदंताय / / 7 / / घणदंत लट्ठदंता, निगूढदंता य सुद्धदंता य। वासहरे सिहरिम्मि वि, एवं चिय अट्ठवीसावि।।८।। अंतरदीवेसु नरा, धणूसयअटूसिया सया मुइया। पालिंति मिहुण धम्म, पल्लस्स असंखभागाओ॥६॥ चउसद्धिं पिट्टिकरंडगाणि मणुयाण वचपालणया। अउणासीइंतु दिणा, चउत्थभत्तेण आहारो त्ति // 10 // स्था० 4 ठा० / एतेषामेव द्वीपानामवगाहनायामविष्कम्भपरिरयपरिमाणसंग्रहगाथाषट्कमाहपढमम्मि तिण्णि उ सया, सेसाण सतोत्तरा नवउज्जा च। ओगाहण विक्खंभ, दीवाणं परिरयं वोच्छं / / 1 / / पढमचउक्कपरिरया, बीयचउक्कस्स परिरओ अहिओ / सोलेहि तिहि उ जोयण-सएहि एमेव सेसाणं // 2 // एगोरुयपरिक्खेवो, नव चेव सयाई अउणपण्णाई / बारसपण्णट्ठाई, हयकण्णाणं परिक्खेवो // 3 // पण्णरस एक्कसीया, आयंसमुहाण परिरओ होइ / अट्ठारसनउयाओ, आसमूहाणं परिक्खेवो // 4 // बावीसं तेराई, परिक्खेवो होइ आसकण्णाण / पणवीस अउणतीसा, उक्कामुहपरिरओ होइ ||5|| दो चेव सहस्साइं, अद्वेव सया हवंति पणयाला / घणदंता दीवाणं, विसेसमहिओ परिक्खेवो // 6|| प्रथमद्वीपचतुष्के चिन्त्यमाने त्रीणि योजनशतानि अवगाहना लवणसमुद्रावगाहं विष्कम्भं च विष्कम्भग्रहणादायामोऽपि गृह्यते, तुल्यपरिमाणत्वात्।जानीहि इति क्रियाशेषः। शेषाणांद्वीप-चतुष्काणां शतोत्तराणि त्रीणि शतानि अवगाहनाविष्कम्भं तावज्जानीयात् यावन्नव शतानि। तद्यथा- द्वितीयचतुष्के चत्वारि-शतानि, तृतीये पञ्च शतानि, चतुर्थे षट् शतानि, पञ्चमे सप्त शतानि, षष्ठे अष्टौ शतानि, सप्तमे नव शतानि। अत ऊर्ध्य द्वीपा- नामेकोरुकप्रभृतीनां परिरयप्रमाणं वक्ष्ये। प्रतिज्ञातमेव निर्वाह-यति- "पढमचउक्केत्यादि" प्रथमचतुष्कपरिरयात् प्रथमदीपचतु-ष्कपरिरयपरिमाणात् द्वितीयचतुष्कस्य द्वितीयद्वीपचतुष्टयस्य परिरयः परिरयपरिमाणमधिकः षोडशैः षोडशोत्तरैस्त्रि-भिोजनशतैरेवमेवानेनैव प्रकारेण शेषाणां द्वीपानां द्वीपचतुष्काणां परिरयपरिमाणमधिकं पूर्वपूर्वचतुष्कपरिरयपरिमाणादवसात-व्यमेतदेव चैतेन दर्शयति-(एकोरुयेत्यादि) एकोरुकपरिक्षेप एकोरुकोपलक्षितप्रथमद्वीपचतुष्कपरिक्षेपो नव शतानि एकोनपञ्चाशदधिकानि / ततस्त्रिषु योजनशतेषु षोडशोत्तरेषु प्रक्षिप्तेषु "हयकण्णाणमिति'" बहुवचनात् हयकर्णप्रमुखाणां द्वितीयानां चतुर्णा द्वीपानां परिक्षेपो भवति / स चद्वादश योजनशतानि पञ्चषष्ट्यधिकानि। तत्रापि त्रिषु योजनशतेषु षोडशोत्तरेषु प्रक्षिप्तेषु (आयंसमुहाणति) आदर्शमुखप्रमुखाणां तृतीयानां चतुर्णा द्वीपानां परिरयपरिमाणं भवति। तच्च पञ्चदशयोजनशतान्येकाशीत्य-धिकानि / ततो भूयोऽपि त्रिषु योजनशतेषु षोडशोत्तरेषु प्रक्षिप्तेषु (आसमुहाणंति) अश्वमुखप्रभृतीनां चतुर्थानां चतुर्णा द्वीपानां परिक्षेपस्तद्यथा- अष्टादशयोजनशतानि सप्तनवत्यधिकानि / तेष्वपि त्रिषु योजनशतेषु षोडशोत्तरेषु प्रक्षिप्तेषु (आसकण्णाणंति) अश्वकर्णप्रमुखाणां पञ्चमानां चतुर्णा द्वीपानांपरिक्षेपो भवति / तद्यथा- द्वाविंशतिर्योजनशतानि त्रयोदशाधिकानि / ततो भूयोऽपि त्रिषु योजनशतेषु षोडशोत्तरेषु प्रक्षिप्तेषु उल्कामुखपरिरयः। उल्कामुखप्रमुखषष्ठद्वीपचतुष्कपरिरयपरिमाणं भवति / तद्यथापञ्चविंशति-र्योजनशतानि एकोनत्रिंशदधिकानि / ततः पुनरपि त्रिषु योजनशतेषु षोडशोत्तरेषु प्रक्षिप्तेषु घनदन्तद्वीपस्य धनदन्तप्रमुखसप्तमद्वीपचतुष्कस्य परिक्षेपस्तद्यथा-वे सहस्रे अष्टौविशतानि पञ्चचत्वारिंशदधिकानि (विसे समहिओइति) किं चिविशेषमधिकोऽधिकृतः परिक्षेपः पञ्चचत्वारिंशानि किंचिद्विशेषाधिकानीति भावार्थः / इदं पदमन्तेऽभिहितत्वात्सर्वत्राप्यभिसंबन्धनीयं, तेन सर्वत्रापि किंचिद्विशेषाधिकमुक्तरूपं परिरयपरिमाणमवसातव्यम् / तदेवमेते हिमवति पर्वते चतसृषु विदिक्षु व्यवस्थिताः सर्वसंख्यया अष्टाविंशतिः। एवं हिमवत्तुल्यवर्णप्रमाणे पाहदप्रमाणायाम- विष्कम्भावगाहपुण्डरीकहृदोपशोभितशिखरिण्यपि पर्वते लव- णोदादर्णवजलसंस्पर्शादारभ्य यथोक्तप्रमाणान्तराश्चतसृषु विदिक्षु एकोरुकादिनामानोऽक्षुण्णापान्तरालायामविष्कम्भा अष्टा-विंशतिसंख्या द्वीपा वेदितव्याः। कहि णं भंते ! उत्तरिल्लाणं एगुरुयमणुस्साणं Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतरदीव 98 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंतराय एगुरुवदीवे नाम दीवे पण्णत्ते ? गोयमा ! जम्बूदीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं सिहरिस्सवासहरपव्वयस्स उत्तरपुरच्छिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुहं तिन्निजो-यणसयाई ओगाहित्ता एवं जहा दाहिणिल्लाणं तहा उत्तरिल्लाणं भाणियव्वं, णवरं सिहरिस्स वासहरपव्वयस्स विदिसासु एवं जाव सुद्धदंतदीवेत्ति, जाव / से त अंतरदीवगा। "कहिं णभंते ! एगुरुयेत्यादि" सर्वं तदेव नवरमुत्तरेण विभाषा कर्तव्या सर्वसंख्यया षट्पञ्चाशदन्तरद्वीपाः। उपसंहारमाह- सेतं अन्तरदीवगा, ते एते अन्तरद्वीपका इति / जी०३ प्रति०॥ प्रज्ञा०। स्था० / भ०। कर्म०। एतद्गता मनुष्या अप्येतन्नामान उपचाराद्-भवन्ति। तात्स्थ्यात्तव्यपदेशो यथा पञ्चालदेशनिवासिनः पुरुषाः पञ्चाला इति / प्रज्ञा०१ पद०। जी०। स्था०। अंतरदीवग(य)-पुं० [अन्तरद्वीपग (ज)] अन्तरद्वीपेषु गता अन्तरद्वीपगाः / प्रज्ञा०१ पद०। तेषु जाता वा अन्तरद्वीपजाः। नं०। एकोरुकाद्यन्तरद्वीपवासिगर्भव्युत्क्रातिकमनुष्यभेदेषु, ते च एकोरुकादिनाभानोऽष्टाविंशतिर्दाक्षिणात्यौत्तराहभेदेन भिद्यमानाः षट्पञ्चाशत् / कर्म०१ क०। स्था० / आ० म० द्वि०। (तद्वर्णकोऽनन्तरमेव अंतरदीवशब्दे दर्शितः) अंतरदीववेदिया स्त्री०(अन्तरद्वीपवेदिका) द्वीपान्तरवेदिकायाम्।तथा अन्तरद्वीपवेदिकायां द्वाराणि सन्ति न वेति प्रश्ने जगत्यां द्वाराणि कथितानि सन्ति, अन्तरद्वीपे तु वेदिका जगत्याः स्थानेऽस्ति अतो वेदिकायामपि द्वाराणि संभाव्यन्ते / सेन० 4 उल्ला० 38 प्र०। अंतरदीविया-स्त्री०(आन्तरद्वीपिका) अन्तरे मध्ये समुद्रस्य द्वीपा ये ते / तथा तेषु जाता आन्तरद्वीपास्त एवान्तरद्वीपिकाः / अन्तरद्वीपवास्तव्यमनुष्यस्त्रीषु, स्था०३ ठा० / जी०। (वक्तव्यता चासामंतरदीवशब्दे दर्शिता)। अंतरद्धा-स्त्री०(अन्तरद्धा) अन्तरकाले, आचा० 1 श्रु०८ अ०। *अन्तर्धा- स्वी० / अन्तर्धाने, "सइ अन्तरद्धा' स्मृतेभ्रंशोऽन्तर्धानं, किं मया परिगृहीतं ? कया मर्यादया व्रतमित्येवमननुस्मरण मित्यर्थः / आव०६अ। अंतरपल्ली-स्त्री०(अन्तरपल्ली) मूलक्षेत्रात्सार्द्धद्विगव्यूतस्थे ग्रामविशेषे, प्रव०७ द्वा० / बृ०। अंतरप्पा-पुं०(अन्तरात्मन्) अन्तर्मध्यरूप आत्मा शरीररूप इत्यन्तरात्मेति / भ० 20 श०२ उ०। स्वरेऽन्तरश्च / 811 / 14 / इति सूत्रेणान्त्यव्यञ्जनस्य स्यरे परे लुक निषिद्धः। प्रा०ाजीवे, प्रश्न० संय०१द्वा० अष्ट०।आत्मभेदे, यो हिसकावस्थाया- मपिआत्मनि ज्ञानाद्युपयोगलक्षणे शुद्धचैतन्यलक्षणे महानन्द- स्वरूपे निर्विकारामृताव्याबाधरूपे समस्तपरभावमुक्ते आत्म- बुद्धिः, सः अन्तरात्मा सम्यग्दृष्टिगुणस्थानकतः क्षीणमोहं यावत् अन्तरात्मा उच्यते / अष्ट० 11 अष्ट। अंतरभाव-पुं०(आन्तरभाव) परमार्थे, पञ्चा० 18 विव०॥ अंतरभावविहूण त्रि०(आन्तरभावविहीन) परमार्थवियुक्ते, पञ्चा०१८ विव०। अंतरभासा-स्त्री०(अन्तरभाषा) गुरोर्भाषमाणस्य विचालभाषणे, अ० 2 अधि०। आव01 विहरन् साधुः चौरैः पृष्टः "आयरिए उवज्झाए वा संभासेज वा वियागरेज्ज वा आयरियउवज्झायस्स भासमाणस्स वा वियागरेमाणस्स वा णो अंतराभासं करेजा' / आचा०२ श्रु० 3 अ० अंतरहिय-त्रि०(अन्तर्हित) व्यवहिते, "अणंतरहियाए पुढवीए"। आचा०२ श्रु०१ अ०नि० चू०। अंतरा-अव्य०(अन्तरा) अन्तरेति इण्-डा। निकटे, वर्जने। मेदिनी० वाच० ! अन्तराले, सूत्र०१ श्रु०८ अ० / विशे०। आचा० / मध्ये, "इच्छाइयारमागंतुं अंतराय विसीयइ"। सूत्र० श्रु०३ अ० / अर्वागर्थे च। कल्प०। "अंतरा विय से कप्पइ नो से कप्पइ" अर्वागपि कल्पते परं न कल्पते / कर्म०५ क०। अंतरा(य)इय-न०पुं०(अन्तराय)अन्तरा दातृप्रतिग्राहकयोरन्तर्भाण्डागारिकवद् विघ्नहेतुतया अयते गच्छतीत्यन्तरायम् / उत्त० 33 अ०। अन्तरा अय-अच्। प्रव०१५ द्वा०ाजीवंदानादिकं वा अन्तरा व्यवधानापादनाय एति गच्छतीति अन्तरायम्। अन्तरा-इ-अच्। पं० सं०३ द्वा० / कर्म० / अन्तर्मध्ये दातृप्रतिग्राहकयोः विचाले आयातीत्यन्तरायः। जीवस्य दानादिविघ्नकारकेऽष्टमे कर्मभेदे, यथाराजा कस्मैचिदातुमुपदिशति, तत्र भाण्डागारिकोऽन्तराले विघ्नकृद् भवति, तदन्तरायकर्माऽष्टमम् भवति / उत्त० 33 अ०। "जह राया दाणाई, न कुणइ भंडारिए पडिकूलम्मि / एवं जेणं जीवो, कम्मत अंतरायंति" स्था। तभेदा यथाअंतराइए कम्मे दुविहे पण्णत्ते / तंजहा-पडुप्पण्ण-विणासिए चेव पिहति य आगामिपहं / स्था०२ ठा०। (पडुप्पन्नविणासिए चेवत्ति) प्रत्युत्पन्नं वर्तमानं लब्धं वस्तु इत्यर्थी विनाशितमुपहतं येन तत्तथा। पाठान्तरेण प्रत्युत्पन्नं विनाशयतीत्येवंशीलं प्रत्युत्पन्नविनाशि, चैव समुच्चये इत्येकमन्यच पिधत्ते च निरुणद्धि च आगामिनो लब्धव्यस्य वस्तुनः पन्थाः आगामिपथः तमिति / क्यचिद् आगामिपथानिति दृश्यते, क्वचिच आगमपहंति, तत्र च लाभमार्गमित्यर्थः / स्था०२ ठा०। अंतराइएणं मंते ! कम्मे कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते / तंजहा-दाणंतराइए जाव वीरियंतराइए / प्रज्ञा० 25 पद०। तत्र यदुदयवशात् सति विभवे समागते च गुणवति पात्रदत्तमस्मै महाफलमिति जानन्नपि दातुंनोत्सहते, तद्दानान्तरायं / तथा यदुदयवशाबानगुणेन प्रसिद्धादपि दातुहे विद्यमानमपि दीयमानमर्थजातं याञ्चाकु शलोऽपि गुणवानपि याचको न लभते, तल्लाभान्तरायं, तथा यदुदयवशात् सत्यपि विशिष्टाहारादिसंभवे असतिच प्रत्याख्यानपरिणामे वैराग्ये वा प्रबलकार्पण्यान्नोत्सहते भोक्तुं, तद्भोगान्तरायमेवमुपभोगान्तरायमपि भावनीयम् / नवरं भोगोपभोगयोरयं विशेषः। सकृत् भुज्यते इति भोगः। आहार-पुष्फमाई उ, उवभोगो उ पुणो पुणो / उवभुजइ वत्थविलयाई' / तथा यदुदयात्सत्यपि निरुजि शरीरे यौवनिकायामपि वर्तमानोऽल्पप्राणो भवति, यद्वलवत्यपि शरीरे साध्येऽपि प्रयोजनेऽपि हीनसत्त्वतया प्रवर्तते, तवीर्यान्तरायम् / प्रज्ञा०२३ पद०। दाणे लामे य भोगे य, उवभोगे वीरिए तहा। पंचविहमंतराय,समासेण वियाहियं / / उत्त० 33 अ०॥ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतराय 99 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंतरिक्खपासणाह एतच्च भाण्डागारिकसममिति दर्शयन्नाह - श०१ उ०। "अहिये गाम नीसाए पढमं अंतरावासं उवागए'। कल्प० / सिरिहरियसमं एयं,जह पडिकूलेण तेण रायाई। अंतरि(लि)क्ख-न० [अन्तरि(री)क्ष] अन्तः स्वर्गपृथिव्योर्मध्ये ईक्ष्यते, न कुणइ दाणाईयं, एवं विग्घेण जीवो वि॥ ईक्ष-कर्मणि धञ्। अन्तः ऋक्षाणि अस्य वा, पृषोदरा-दित्वात्पक्षे ह्रस्वः, श्रियो गृहं श्रीगृहं भाण्डागारं, तद्विद्यते यस्य स श्रीगृहको ऋकारस्य रित्वं वा। वाचकाअन्तर्मध्ये ईक्षा दर्शनं यस्य तदन्तरीक्षम्। भाण्डागारिकस्तेन समं तुल्यमेतदन्तरायकर्म / यथा तेन श्रीगृहकेण भ० 17 श० 10 उ०। आकाशे,विशे० 'अंतलिक्खत्ति णं बूया, प्रतिकूलेन राजादिः राजा नृपतिः, आदिशब्दात् श्रेष्ठीश्वरतलवरा- गुज्झाणुचरियत्ति या दश०७ अ०। दिपरिग्रहः, न करोति, कर्तुं न पारयति दानादि, आदिशब्दाच *आन्तरिक्ष-न० / अन्तरिक्षमाकाशं तत्र भवमान्तरिक्षम् / गन्धलाभभोगोपभोगादिग्रहणम् / एवममुना श्रीगृहक दृष्टान्तेन नगरादौ, स्था० 8 ठा० / उत्त० / मेधादिके, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। विघ्नेनान्तरायकर्मणा जीवोऽपि जन्तुरपि दानादि कर्तुं न पारयतीति ग्रहाणामुदयास्तादिपरिज्ञानात्मके, कल्प०। उल्कापातव्याख्यातं पञ्चविधमन्तरायं कर्म / कर्म० 1 कर्म० / पं० सं० / धूमके तुप्रमुखाणामुदयविचारविद्यालक्षणे, उत्त० 15 अ०। श्रा०1 (अनुभागादयोऽस्य अणुभागादिशब्देषु ) (बन्धोदय- आकाशप्रभवग्रहयुद्धभेदादिभावफलनिवेदिके वा चतुर्थे महासत्तास्थानान्यस्य कम्म शब्दे ) विघ्ने, सूत्र०१ श्रु०११ अ०। निमित्तशास्त्रे, स०। “गहवेहभूअअदृहासपमुहं जमंतरिक्खंतं''। प्रव० ___ योगस्यान्तरायाः। 257 द्वा० / ग्रहवेधभूताट्टहासप्रमुखमान्तरिक्षं निमित्तम् / तत्र ग्रहवेधो प्रत्यूहा व्याधयःस्त्यानं, प्रमादालस्यविभ्रमाः। ग्रहस्य ग्रहमध्येन निर्गमः / भूताट्टहासोऽतिमहानाकाशे संदेहाविरतीभूम्यलाभश्चाऽप्यनवस्थितिः ||6|| आकिलिकिलारावः / यथा-भिनत्ति सोममध्येन, ग्रहेष्वन्यतमो (प्रत्यूहा इति ) व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रा यदा / तदा राजभयं विद्यात्, प्रजाक्षोभं च दारुणम् / / 1 / / इत्यादि न्तिदर्शनालब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तराया इति प्रमुखग्रहणाद् गन्धर्वनगरादिपरिग्रहः / यथा- कपिलं शस्य- पाताय, सूत्रम् / द्वा० 16 द्वा० / विघ्नकरणे, स्था०४ ठा०। व्यवच्छेदे, "जे माञ्जिष्ठं हरणं गवाम् / अव्यक्तवर्णं कुरुते, बलक्षोभं न संशयः / / 1 / / अंतराअं चेएइ " / स०। शक्त्यभावे च / "नन्नत्थ अंतराएणं परगेहे गन्धर्वनगरं ज्ञेयं, सप्राकारं संतोरणम् / सोम्यां दिशं समाश्रित्य, णिसीयए'। सूत्र० 1 श्रु०६ अ०। राज्ञस्तद्विजयंकरम् // 2 // इत्यादि / प्रव०२५७ द्वा० / अस्य सूत्रं *आन्तरायिक-न० / विघ्ने, प्रश्न० संव०३ द्वा० / बहुप्रत्यवाये, सहस्रप्रमाणं, वृत्तिर्लक्षप्रमाणा, वार्तिकं कोटिप्रमाणम् / स०७६ आचा० 1 श्रु०६ अ०। पत्र। आव०। अंतरापह-पुं०(अन्तरापथ) विवक्षितस्थानयोरन्तरालमार्गे, भ० 2 अंतरि(लि)क्खजाय-त्रि०(अन्तरिक्षजात) स्कन्धमञ्चक-प्रासादादौ, श०१ उ०। भुव उपरिवर्तिपदार्थजाते, आचा०२ श्रु०५ अ०। अंतरायबहुल-त्रि०(अन्तरायबहुल) विघ्नप्रचुरे, तं०। अंतरि(लि)क्खपडिवण्ण-त्रि०(अन्तरिक्खप्रतिपन्न) आ-काशगते, अंतरायवग्ग-पुं०(अन्तरायवर्ग) अन्तरायप्रकृतिसमुदाये, क० प्र०।। उपा०२ अ० ज०। अंतराल-न०(अंतराल) अन्तरं सीमानमाराति गृह्णाति / आ-रा-क, अंतरि(लि)क्खपासणाह-पुं०(अन्तरिक्षपार्श्वनाथ) श्रीपुरेरस्य लत्वम् / वाच० / मध्ये, विशे० / संकीर्णवर्णे च / पुं० / ऽन्तरिक्षस्थपार्श्वनाथप्रतिमायाम्। तद्वर्तिनि। त्रि०ा वाच०। तत्कल्पः, इत्थम् - अंतरावण-पुं०(अंतरापण) अन्तरे ग्रामादीनामर्द्धपथे आपणाः पयडपहावनिवासं, पासं पणमित्तु सिरिपुर नगरं। कित्तेमि अन्तरापणाः। प्रश्न० आश्र०३दा०। राजमार्गप्रभृतिमध्यभाग- वर्तिषु अंतरिक्ख-ट्ठिअतप्पडिमाइ कप्पलवं ||1|| पुट्विं लंकापुरीए हट्टेषु, विपा० 1 श्रु० 3 अ० / वीथीषु हट्टमार्गेषु, बृ० 1 दसग्गीवेण अद्धचक्किणा माली सुमालिनामानो निअगाओ उ० ।'अंतरावणाओ घडपडए गिण्हति" परिखोदकमार्गान्त- / लग्गा केणावि पेसिया तेसिं छविमाणरूढाइंतह पहे वचंताणं रालवर्तिनो हट्टात् कुम्भकारसम्बन्धिन इत्यर्थः। ज्ञा०१२ अ०। समागया भोअ-णवेला / फल्लवडुएण चिंतियंमए ताव अज्ज अंतरावणगिह-न०(अन्तरापणगृह) गृहविशेषे, तद्यथा - जिण-पडिमाकरंडिया ओसरगत्तेण घरे विसारिआ, एएसिं अह अंतरावणो पुण, वीही सा एगओ व दुहओ वा। च दुण्ह वि पुन्नवंताणं देवपूयाए अकयाए न कत्थ वि भोयणं, तओ देवयावसरकरंडिअमदत ममोवरि पकुविस्संति त्ति / तत्थ गिहं अंतरावण-गिहं तु सयमावणो चेव / / तेण विज्जाबलेण पवित्तवालुआए अहिणवा भाविजिणपासनाहअथेत्यानन्तर्ये अन्तरापणो नाम वीथी हट्टमार्ग इत्यर्थः। सा एकतो वा पडिमा निम्मविआ। मालिसुमालिहिं तं पूइत्ता भोअणं कयं, एकपाद्येन (दुहओ वित्ति) द्वाभ्यां वा पार्श्वभ्यां भवेत् , तत्र यद्गृहं, तओ तेसु तह मग्गे पट्ठिएसु सा पडिमा आसन्नसरोवरमज्झे तदन्तरापणगृहमुच्यते / बृ०१ उ० / अखंडि-अरूवा चेव तत्थ ठिया। कालक्कमेण तस्स सरोवअन्तरावास-पुं०(अन्तरवर्ष) अन्तरमवसरो वर्षस्य वृष्टयंत्रासा- रस्स जलं अप्पिन्न जलभरिअं खडुगं व दीसइ / तओ वन्तरवर्षः। वर्षाकाले , भ०१५ श०१ उ०। कालंतरेण विंगउल्लीदेसे विंगल्लनयरं, तत्थ सिरपालो *अन्तरावास-पुं० अन्तरेऽपि जिगमिषतः क्षेत्रमप्राप्याऽपि यत्र सति नाम नरवई हुत्था / सो अगाढकोढविहुरिअसव्वं गो साधुभिरवश्यमावासो विधीयते, सोऽन्तरावासः। वर्षाकाले। भ० 15 / अन्नयरेहिं हेऊहिं बाहिं गओ, ते तत्थ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतरिक्खपासणाह 100 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंताहार पिवासाए लग्गाए तम्मि खड्डुक्कमेणं पत्तो तत्थ पाणि पीअं हेडिल्लं पोत्तं''। निचू०१५ उ०1 आचा०। भवाद्यर्थेवु आन्तरीयकः मुहं हत्था य पक्खालिया / तओ ते अंगावयवा जाया नीरोगा तद्भवे, त्रि० / वाच०। कणयकमलुअलच्छाया / तओ घरं गयस्स रन्नो महादेवी | अंतरिजिया-स्त्री०(अन्तरीया) स्थविरात्कामद्धेर्निर्गतस्य वेषपातित तमच्छरं दद्धं पुच्छित्था सामि ! कत्थ वितुम्हेहिं अज्ज ण्हाणाइ (वेसवाडिय) गणस्य तृतीयशाखायाम् , कल्प० 181 पत्र। कयं? राएण जहट्ठियं पण्णत्तं देवीए चिंतियं / अहो सामि ! सा अंतरिय-त्रि०(अन्तरित) अन्तर-इण कतरिक्तः / अन्तर्गत, अन्तरं दिव्वं ति बीयदिणे राया तत्थ नीओ, तीए सव्वंगं पक्खालियं व्यवधानं करोतीति णिचि-कर्मणि-क्तः / व्यवधापिते, तिरस्कृते, जाओ पुण णवसरीरावयवो राया, तओ देवीए बलिपूआइअं आच्छादिते, वाचकाव्यवहिते, विशे० आ०म० द्वि०। काऊण भणिअं-जो इत्थ देवया विसिसो चिट्ठइ, सो पयडेउ अप्पाणं / तओ घरं पत्ताए देवीए सुमिणंतरे देवयाए भणिअं अन्तरिया-स्त्री०(अन्तरिका) अन्तस्य विच्छेदस्य कारणमन्तरिका इत्थ भावितित्थयरपासनाहपडिमा चिट्ठइतस्स पभावेणं रन्नो स्त्रीलिङ्गशब्दः। विवक्षितवस्तुनः समाप्तौ,"झाणंतरियाए वट्टमाणस्स" आरुगं संजायं / एअंपडिमं सगडे आरोविउण सत्त दिण्णजाए आरब्धध्यानस्य समाप्तिरपूर्वस्यानारम्भणमित्यर्थः। जं०२ वक्षः / त्ति णित्रुत्तित्ता आमसुत्ततंतुमित्तरस्सीए रन्ना सयं सारहिहूएणं आन्तरिका-स्त्री० अन्तरमेवान्तर्य भेषजादित्वात्स्वार्थेषु अण ततः सट्ठाणं पइवाले अघाइमा। जत्थेव निवो पच्छा हुत्थं पलोइस्सइ स्वीत्वविवक्षायां डीप् प्रत्यये। आन्तरी आन्तर्येव आन्तरिका / अन्तरे, तत्थेव पडिमा ठाहिइ / तओ मरनाहेण तं खुडु- व्यवधाने, सू० प्र०१० पाहु०। लध्वन्तरे च / रा०। गजलमालोइऊण सा पडिमा लद्धा / तेण तहेव काउं पडिमा अंतरुच्छुय-पुं०(अन्तरिक्षुक) इक्षुपर्वमध्ये, आचा०२ श्रु० 1 अ० चालिआ कित्तिअंपि भूमिं गएण रन्ना किं पडिमा एइन वित्ति __ उभयोपेरुरहियं अंतरुच्छुअं होति' / नि० चू०१६ उ० / सिंहावलोइअंकयं पडिमा तत्थेव अंतरिक्खे ठिआ। सगडो अंतरेण-अव्य०(अन्तरेण) अन्तरेति इण ण टवर्गादित्येऽपि णस्य अग्गओ हुत्तं नीसरिओ रन्ना पडिमा अद्धणि अधिइए गया / नेत्संज्ञकत्वम् / मध्यार्थे , वाच० / विनार्थे च / उत्त० 1 अ०। तत्थेव य सिरिपुरं नामं नयरं निअनामोवलक्खियं निवेसि | ___ आहारमंतरेण नाम आहाराभावेन / नि० चू०१ उ०। चेइअंच तहिं कारियं / तत्थ पडिमा अणेगमहूसवपुव्वं ठाविआ अंतव(त)-त्रि०(अन्तवत्) अन्तोऽस्यास्तीति, अन्तवान् / परिमिते, पूयइ तं पुहविपई तिक्कालं अजवि सा पडिमा तहेव अंतरिक्खे "अंतवणिइए लोए इति धीरोति पासई'' अन्तवानलोकः सप्तद्वीपाः चिट्ठइ। पुट्विं किर सा वाहडिअं घडं सिरम्मि वहंती नारी वसुंधरेति परिमाणोक्तेस्तादृक्परिमाणेनेत्यर्थः / सूत्र० 1 श्रु० 1 अ०। पडिमाए सीहासणवलोसिं वरिसु कालेण भूमीवेग-चडणेण वा मिच्छाइदूसिअकालाणुभावेण वा अहो अहो दीसंतीजाव संपइ अंतवाल-पुं०(अन्तपाल) अन्तं तच्चक्रिण आदेश्यदेशसम्बन्धिनं नारी मित्तं पडिमाए हिटे संचरइ पईवपयाहायसीहासणभूमि पालयति उपद्रवादिभ्य इत्यन्तपालः / पूर्वदियादिदेशलोकानां देवादिकृतसमस्तोपद्रवनिवारके, 03 वक्ष०। आ० म०। अंतराले दीसइ। जयाय सा पडिमा सगडमारोविआ तया देवी खित्तवालो असहेव पडिमाओण सगत्तेण सिद्धबुद्धाणं अन्नयरो / अंतविक ट्ठियंतमाल-त्रि०(अन्तविकर्षितान्त्रमाल) शृगालापुत्तो अंबाए देवीए गहिओ अन्नो अए ठाविओतओ खित्तवालस्स दिभिरुत्पाटितोदरमध्यावयवे, तं०।। आणती दिन्ना जहा एस दारओ ताए आणे अव्वो तेणावि अंतसुह-न०(अन्तसुख) परिणामसुखे, "मासैरष्टभिरहा च पूर्वण अइउत्तालं वलं तेण नाणीओ तओ देवीए डुंबएण समत्थइ अह वयसाऽऽयुषा / तत्कर्तव्यं मनुष्येण, यस्यान्ते सुखमेधते' / सूत्र०१ सो अंतवालसीसे दीसइएवं अंबाए वि खित्तवालेहिं सेविजमाणे श्रु०४ अ०। धरणिंदपउमावईहिं च कयपडिहेरो सा पडिमा सव्वलोएहिं अंतसो-अव्य०(अन्तशस्) अन्त-शस निरवशेषत इत्यर्थे, "सल्लं पूइज्जइ अंतरिक्खट्टिअपासना-हकप्पे जहासुअं किं पि कंतति अतंसो''। सूत्र०१ श्रु०८ अ०। विपाककाले इत्यर्थः / सूत्र०१ सिरजिणप्पहसूरिहिं लिहिओ सपरोवयारकए अन्तरिक्ष श्रु० 8 अ० / यावज्जीवमित्यर्थे, "मणसा वयसा चेव कायसा चेव पार्श्वनाथकल्पः। ती० 52 क० अंतसो''। सूत्र०१ श्रु०११ अ०। कथञ्चित्कार्य-निस्तारे, "भत्तपाणे अंतरि(लि)क्खोदय-न०(अन्तरिक्षोदक) अन्तरिक्षे उदक अअन्तसो' भक्ते पाने चान्तशः सम्य-गुपयोगवता भाव्यमिति। सूत्र० मन्तरीक्षोदकम् / वर्षोदके, नि० चू०१ उ०। यजलमाकाशात्प-तदेव 1 श्रु०६अ। गृह्यते। उपा० 1 अ०। अंतावेइ(ई)-स्त्री०[अन्तर्वेदि(दी)] अन्तर्गता वेदिर्यत्र देशे। दीर्घहस्वी अंतरिज-न०(अन्तरीय) अन्तरे भवं गहादित्वाच्छः "नाभौ धृतं च / मिथो वृत्तौ / 8 / 114 / इति ह्रस्वस्य दीर्घः / ब्रह्मा-वर्त्तदेशे, प्रा० / यद्वस्त्रमाच्छादयति जानुनी। अन्तरीयं प्रशस्तं तदच्छिन्न वाच०। मुभयान्तयो" रित्येवलक्षणे परिधानवस्त्रे, वाच० शय्याया अधस्तने अंताहार-पुं०(अन्त्याहार) अन्त्ये भवमन्त्यं जघन्यधान्यं वल्लादि वस्त्रे च / "अंतरिज्जं णाम णियंसणं अहवा अंतरिनं णाम जं सेज्जाए | आहारो यस्य। कृप्तरसपरित्यागे, औ०। सूत्र० / स्था० / Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंति 101 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंतेवासि अंति(न)-त्रि०(अन्तिन्) अन्तो जात्यादिप्रकर्षपर्यन्तोऽस्या- 1 दंडगहियहत्थो सव्वतो अंतेपुरं रक्खइरण्णा वइण्णेण इत्थिं पुरिसंवा स्तीत्यन्ती। जात्यादिभिरुत्तमतया पर्य्यन्तवर्तिनि, स्था० 10 ठा०। अंतेपुरं णीणेति पवेसेति वा एस दंडरक्खितो। दोवारिया दारं चेव जं अंतिअ(य)-न०(अन्तिक) अन्त्यते संबध्यते सामीप्येन अन्त-घञ्। संमेलेंति हिक्केति तातप्पियारण्णो आणत्तीए अंतेपुरियसमीवं गच्छति। वाच०। समीपे, तं०। सूत्र०। उत्त० स्था०। विशे० उत्त० / "बुद्धाणं अंतेपुरिया णंतीए वा राण्णो समीवं गच्छति जे रण्णो समीवं अंतेपुरिया अंतीए सया। उत्त० 1 अ०। आ० म० द्वि० / नि० / भ० / रा० / णयंति आणेति चादिउण्हायं वा कहकहिते कुवियं वा पसाउँति कहेंतिय पर्यवसाने, "अह भिक्खू गिलाएजा, आहारस्सेव अंतिया'' आचा० रण्णो विदिते कारणे अणुण्णत्तो वि जे अग्गतो काउं वयंति ते महत्तरगा। 1 श्रु०८ अ०। पार्वे च "देवाणंदाए माहणीए अंतिए एयमझु सोचा''। अण्णे य इमे दोसा। कल्प० / अन्तोऽ-स्यास्तीति अन्तिकोऽन्ते वा चरतीत्यन्तिकः / अण्णे व होति दोसा, आइण्णो गुम्मरतणइत्थीओ। पर्यन्तवासिनि, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। तण्णीसाए पवेसो, तिरिक्खमणया मवे दुट्ठा / / 22 / / अंतिम-त्रि०(अन्तिम) अन्ते भवमन्तिमम् / चरमे, स्था०१ ठा०। यतः पूर्ववत्परं न किञ्चिदस्ति। विशे०। सद्दादिइंदियत्थो, पयोगदोसाण एस णं सीवे। अंतिमराइया-स्त्री०(अन्तिमरात्रिका) अन्तिमाऽन्तिमभागरू सिंगारकहाकहणे, एगतरुभए य बहु दोसा // 23 // पाअवयवे समुदायोपचारात् सा चासौ रात्रिका चान्तिमरात्रिका / रात्रेरवसाने, स्था०१०ठा० भ०। तत्थ गीयादिसरोवओगेण ईरियं एसणं वाण सोहेतितहिं वा पुच्छितो सिंगारकहं कहेछ / तत्थ य आयपरोभयसमुत्था दोसा एते सट्ठाणत्थे। अंतिमसंघयणतिग-न०(अन्तिमसंहननत्रिक) अर्द्धनाराचसं इमे परट्ठाणे। हननकीलिकासंहननसेवार्तसंहनरूपे संहननत्रिके, कल्प०। केहि ताव होंति दोसा,केरिसगा कधणगिण्हणादीया। अंतिमसारीरिय-त्रि०पअन्तिमश(शा) रीरिकब अन्ते भवमन्तिमं चरमं / तच तच्छरीरं चेत्यन्तिमशरीरं तत्र भवा अन्तिमशारीरिकी दीर्घत्वं च गव्वो पायसिउत्तं, सिंगाराणं व संभरणं // 24 // प्राकृतशैल्या। चरमदेहभवेषु क्रियादिषु, स्था० 1 ठा०। उजाणादिट्ठियासु कोइ साधू कोउगेण गच्छेजते चेव पुव्यवण्णिया दोसा अंतेआरि(न)-त्रि०(अन्तश्चारिन्) अन्तश्चरति अन्तर् चर णिनि।। सिंगारकहाकहणे वा गण्हणादिया दोसा अंतेपुरे धम्मकहा जाणगव्वं तोऽन्तरि। 811 / 60 // इति अत एत्वम्। मध्यगामिनि / प्रा०।। गच्छेज ओरालसरीरोवा गव्वं करेज अंतेउरपवेसे ओज्झातितो म्हिह, अत्थेपदादिकप्पं करेंते पाउसदोसा भवंति सिंगारे यसोउँपुव्वरयकीलिते अंतेउ(पु)र- न०(अन्तःपुर) अन्तरभ्यन्तरं पुरं गृहकर्म / वाचा सुमरेज अहवा पाउदटुअप्पणो पुव्वसिंगारे संभरेज पच्छा पडिगमणादी तोऽन्तरि ||1|60 / इत्यन्तःशब्दस्यात एत्वम् प्रा०। अवरोधे, दोसा हवेज। राजस्त्रीणां निवासगृहे, रा० / ज्ञा० / "चिय अंतेउर घरदारपवेसी"। औ०। तत्र गमनं निषिद्धम् / / बितियपदमणाभोगे, विसंधिपरिखेवसेजसंथारे। जे भिक्खू रायंतेपुरं पविसइ पविसंतं वा साइज्जइ ||3|| हयमादी दुट्ठाणे, संघकुलगणाण कज्जे व // 25 // इममेव सूत्रं गाथया व्याख्यानयति अणाभोगेण पविट्ठो अहवा अंतेपुरं परहाणत्थं साधुणा णातं एयाओ अंतेपुरिअत्ति पुव्वभासेण पविट्ठो अयाणतो अहवा साधूउजाणादिसु ठिता अन्तेउरं च तिविधं, जुण्णं णवं चेव कण्णगाणं च। रायंतेपुरं च सव्वओ समंता आगओ परिवेढिय ठियं अण्णवसहिअभावे य एक्ककं वि यदुविधं, सत्थाणत्थं च परत्थाणे // 15|| तं वसहिं अंतेपुरं मज्झेण अतिंति णिति वा / अहवा संथारगस्स रण्णो अंतेपुरं तिविधंण्हसियंजोव्वणाओ अपरिभुज्जमाणीओ अत्थति पचप्पणाणहे ओ पविट्ठो अहवा सीहवग्ध-महिसादियाण दुट्ठाण एयं जुण्णंतेपुरं / जोव्वणं पत्ताओ परिभुजमाणीओ जत्थ अत्थति तं पडणीयस्स वा भया रायंतेपुरं पविसेज्जा अण्णतो णस्थिणीसरणो वा तो णवतेपुरं। अपत्तजोव्वणाणं रायदुहियाणं संगओ कण्णंते-पुरं। तं खेत्तओ कति कुलगणसंघकज्जेसु वा पविसेज्जा तत्थदेवी दव्वसारायणं उपणेति एक्केवं दुविधं सहाणे परट्ठाणे य / सट्ठाणत्थं रायघरे चेव परहाणत्थं अंतेपुरपविठ्ठो राय-दहव्वो। नि० चू०६ उ० वसंतादिसु उज्जाणियागयं। अंतेउरपरिवारसंपरिखुड-त्रि०(अन्तःपुरपरिवारसंपरिवृत) अन्तःपुरं एतेसामण्णतरं, रण्णो अंतेउरं तु जो पविसे। च परिवारश्च अन्तःपुरलक्षणो वा परिवारो यः सः / ताभ्यां तेन वा सो आणाअणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं पावे ||16|| संपरिवृतः / अन्तःपुरलक्षणेन परिवारेण अन्तःपुरेण परिवारेण या इमे दोषाः संपरिवृते, ज्ञा० 8 अ०। दंडारक्खिगदोवा-रिएहिं वरिसवक्खं चुइजेहिं। अंतेउरिया-स्त्री०(आन्तःपुरिकी) अन्तःपुरे विद्या आन्तपुरिकी। जिंतेहिअनितेहि य,वाधातो होइ भिक्खुस्सा॥२०॥ रोगिप्रागुण्यकारके विद्याभेदे, यया आतुरस्य नाम गृहीत्वा आत्मनोऽङ्गमपमार्जयति आतुरश्च प्रगुणो जायते सा आन्तःपुरिकी। व्य० इमं वक्खाणं 5 उ०। दंडधरो दंडरक्खिओ, दोवारिजा तु दारिट्ठा। अंतेवासि(न)-पुं०(अन्तेवासिन्) अन्ते समीपे वस्तुंचारित्र-क्रियायां दरिसवरट्ठविप्पिति, कंचुमिपुरिसा महत्तरगा।।२१।। वस्तुं शीलं स्वभावो यस्येत्यन्तेवासी। दशा०४ अ०। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतेवासि 102 . अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंतेवासि अन्ते गुरोः समीपे वस्तुं शीलमस्येत्यन्तेवासी। शिष्ये, स्था० / चं० प्र०१०। सूर० / रा०। भ०। अन्तेवासिनां भेदप्रतिपादनार्थमाह - चत्तारि अंतेवासी पन्नत्ता तंजहा उद्देसणंतेवासी नाम एगे नोवायणंतेवासी, वायणंतेवासी नाम एग नो उद्देसणंतेवासी, एगे उद्देसणंतेवासी वि वायणंतेवासी वि, एगेनो उद्देसणंतेवासी वि नो वायणंतेवासी वि। अस्य सूत्रस्य संबन्धप्रतिपादनार्थमाहपडुच्चायरियं होइ, अंतेवासी उ मेलणा। अंतिगमब्भासमासन्नं, समीवं चेव आहियं / / अधस्तनानन्तरसूत्रे आचार्याः प्रोक्ताः आचार्यं च प्रतीत्यान्तेवासी भवति ततोऽन्तेवासिसूत्रमित्येषां मेलतः संबन्धः / अत्रान्तेवासी तत्र योऽन्तशब्दस्तव्याख्यानार्थमेकाथिकान्याह / अन्तं नाम अन्तिकमभ्यास आसन्नं समीपं चाख्यानं तत्र वसतीत्येवंशीलोऽन्तेवासी। संप्रति भङ्गभावनार्थमाहजह चेव उ आयरिया, अंतेवासीति होति एमेव। अंते य वसति जम्हा, अंतेवासी ततो होइ॥ यथा चैव आचार्या उद्देशनादिभेदतश्चतुर्द्धा भवन्ति एवमेव अन्तेवासिनोऽपि यस्मादाचार्यस्यान्ते वसति तस्माद्भवत्याचार्यवचतुर्दाऽन्तेवासी / इयमत्र भावना यो यस्यान्ते उद्देशनमेवाधिकृत्य वसति वर्तते स तं प्रत्युद्देशनान्तेवासी / यस्य त्वन्ते वाचनामेवाधिकृत्य वसति तस्य वाचनान्तेवासी। यश्चोद्देशनं वाचनांवाधिकृत्य यस्यान्ते वसति स तं प्रत्युभयान्तेवासी ! यस्य त्वन्ते नोद्देशनं नापि वाचनामधिकृत्यान्ते वसति किंतु धर्मश्रवणमधिकृत्य स तं प्रत्युभयविकलो धन्तेिवासी उद्देशनान्तेवासी वाचनान्तेवासीवा। तत्र कश्चित्रिभिरपिप्रकारैः समन्वितोभवति कश्चिद्वाभ्यां कश्चिदेकैकेन / व्य०१० उ०। चत्तारि अंतेवासी पण्णत्ता तंजहा पवावणंतेवासी णो उवठ्ठावणंतेवासी उवट्ठावणंतेवासी, णाममे गे णो पव्वावणंतेवासी, पव्वावणंतेवासी विउवट्ठावणंतेवासी वि, एगे णो पव्वावणंतेवासी णो उवट्ठावणंतेवासी। अन्ते गुरोःसमीपे वस्तुं शीलमस्येत्यन्तेवासी शिष्यः / प्रव्राजनया दीक्षया अन्तेवासी प्रव्राजनान्तेवासी दीक्षित इत्यर्थः / उपस्थापनान्तेवासी महाव्रतारोपणतः शिष्य इति चतुर्थभङ्गकस्थः क इत्याह धान्तेवासीति धर्मप्रतिबोधनतः शिष्यो धर्मार्थित-योपसम्पन्नो वेत्यर्थः / स्था० 4 ठा०। वीरान्तेवासिनां वर्णक:तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी बहवे समणा भगवंतो अप्पगेइया उग्गपव्वइआ भोगपव्वइया राइण्णणातकोरव्वखत्ति अपव्वइआ भडा जोहा सेणावइपसत्थारो सेट्ठी इन्भे अण्णे बहवे एवमाइणो उत्तमजातिकुलरू ण्णविणयविण्णाणववलावण्णविक्कमपहाणसोभग्गकं तियुत्ता बहुधणधणणिचयपरियालफिडिआ णरवइगुणाइइच्छिअभोगा सुहसंपलिआ किंपागफलोवमं च मुणिअ विसयसोक्खं जलबुब्बुअसमाणं कुसग्गजलबिंदुचंचलं जीवियं च / णाऊण अद्भुवमिणं रययमिव पडग्गलग्गं संविधुणित्ताणं चइत्ता हिरण्णं जाव पव्वइआ। अप्पेगइआ अद्धमासपरिआया अप्पेगइया मासपरिआया एवं दुमासा तिमासा जाव एक्कारस / अप्पेगइया वासपरिआया दुवासा तिवासा अप्पेगइया अणेगवासपरिआया संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी बहवे णिग्गंथा भगवंतो अप्पेगइया आमिणिबोहियणाणी जाव केवलणाप्पी / अप्पेगइआ मणबलिआ वयबलिआ कायबलिआ अप्पेगइआ मणेणं सावाणुग्गहसमत्था 3 अप्पेगइआ खेलोसहिपत्ता एवं जल्लोसहि विप्पोसहि आमोसहि सव्वोसह अप्पेगइआ कोहबुद्धी एवं बीअबुद्धी पडबुद्धी अप्पेगइया पयाणुसारी अप्पेगइआ संमिन्नसोआ अप्पेगइया खीरासवा अप्पेगइआ महुवासवा अप्पेगइआ सप्पिआसवा अप्पेगइआ अक्खीणमहाणसिआ एवं उजुमती अप्पेगइआ विउलमई विउव्विणि ड्डि पत्ता चारणा विज्जाहरा आगासातिवाइणो / अप्पेगइआ कणगावलिंतवोकम्म पडिवण्णा एवं एकावलिं खुड्डाकसीहनिक्कीलियं तवोकम्म पडिवण्णा अप्पेगइआ महालयं सीहनिक्की-लियं तवोकम्म पडिवण्णा भद्दपडिमं महाभदपडिमं सव्वतोभद्दपडिमं आयंबिलवद्धमाणं तवोकम्म पडिवण्णा मासिअंभिक्खुपडिमंएवं दोमासिअंपडिमं तिमासि पडिमं जाव सत्तमासिअंभिक्खुपडिम पडिवण्णा। पढमं राइंदियं भिक्खुपडिम पडिवण्णा जाव तचं सत्तराइंदियं भिक्खुपडिमं पडिवण्णा अहोराइंदियं भिक्खुपडिमं पडिवण्णा इकराइंदिअंभिक्खुपडिमं पडिवण्णा सत्तसत्तमिअंभिक्खुपडिम अट्ठमिमिक्खुपडिमंणवणवमिअंभिक्खुपडिमंदसदसमिअं भिक्खुपडिमं खुड्डियमोअपडिम पडिवण्णा महल्लियं मोअपडिमं पडिवण्णा जवमज्झं चंदपडिम पडिवण्णा वजमज्झं / चंदपडिम पडिवण्णा संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरति / औ०७२ पत्र। (मनोबलिकादीनामार्थः स्वस्वशब्दे) तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी बहवे थेरा भगवंतो जातिसंपण्णा कुलसंपण्णा बलसंपण्णा रूवसंपण्णा विणयसंपण्णाणाणसंपण्णादसणसंपण्णा चरित्तसंपण्णा लज्जासंपण्णालाघवसंपण्णा उअंसी तेअंसी वचंसी जसंसी जिअकोहा जियमाणा जिअमाया जिअलोमा जिअइंदिआ जिअणिहा जिअपरीसहा जीवि-आसमरणभयविप्पमुका वयप्पहाणा गुणप्पहाणा करणप्पहाणा चरणप्पहाणा Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतेवासि 103 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंतोजल णिग्गहप्पहाणा निच्छयप्पहाणा अजवप्पहाणा महवप्पहाणा प्रदर्शयिष्यते। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स लाघवप्पहाणा खंतिप्पहाणा मुत्तिप्पहाणा विजापहाणा बहवे अणगारा भगवंतो अप्पेगझ्या आयारधरा इत्याद्यणगारशब्दे ) / मंतप्पहाणा वेअप्पहाणा बंभप्पहाणा नयप्पहाणा नियमप्पहाणा वीरान्तेवासिनः कति सेत्स्यन्तीति पृच्छासबप्पहाणा सोअप्पहाणा चारुवण्णा लज्जातवस्सी जिइंदिआ तेणं कालेणं तेणं समएणं महासुक्काओ कप्पाओ महासग्गाओ सोही अणियाणा अप्पसुआ अवहिलेस्सा अप्पडिलेस्सा विमाणाओ दो देवा महड्डिया जाव महाणुभागा समणस्स भगवओ सुसामण्णरया दंता इणमेव णिग्गंथ पावयणं पुरओ काउं महावीरस्स अंतियं पाउन्भूया / तए णं ते देवा समणं भगवं विहरंति तेसिणं भगवंताणं आयवादी विदिता भवंति परवादी महावीरं मणसाचेव वंदंतिनमंसंति वंदंतित्तानमंसंतित्तामणसा विदिता भवंति आयावादं जमइत्ता लवणमिव मत्तमातंगा चेव इमं एयारूवं वागरणं पुच्छंति / कइ णं देवाणुप्पियाणं अच्छिद्दपसिण्णवागरणं रयणकरंडग-समाणा कुत्तिआवणभूआ अंतेवासिसयाई सिज्झिहिंति जाव अंतं करेहिंति ? तए णं परवादिपमहणा दुवालसंगिणो सम्मत्तगणिपिंडगधरा समणे भगवं महावीरे तेहिं देवेहिं मणसा पुढे तेसिंदेवाणं मणसा सव्वक्खरसण्णिवाइणो सव्वभासाणु -गामिणो अजिणा चेव इमं एयारूवं वागरणं वागरेइ एवं खलु देवाणुप्पिया ममं जिणसंकासा जिणा इव अवितहं वकरेमाणा संजमेणं तवसा सत्त अंतेवासिसयाई सिज्झिहिंति जाव अंतं करेहिंति तएणं ते अप्पाणं भावमाणा विहरति / तेणं कालेणं तेणं समएणं देवा समणेणं भगवया महावीरेणं मणसा पुढेणं मणसा चेव इम समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी बहवे अणगारा भगवंतो एयारूवं वागरणं वागरिया समाणा हट्टतुट्ठ जाव हियया समणं इरिआसमिआ भासासमिआ एसणासमिआ आदाण भगवं महावीरं वंदंति णमंसंति मणसा चेव सुस्सूसमाणा मंडमत्तनिक्खेवणासमिआ उच्चारपासवणखेलसिंघाणजल्ल णमंसमाणा अभिमुहा जाव पञ्जुवासंति। भ० 5 श० 5 उ० / पारिट्ठावणियासमिआ मणगुत्ता वयगुत्ता कायगुत्ता गुतिंदिया गुत्तबंभयारा अममा अकिंचणा छिण्णग्गन्था छिण्णमोआ इहापि टीका प्रसिद्धशब्दार्थमात्रविन्यसिनीति न गृहीता। निरुवलेवा कंसपातीव मुक्कतोआ संख इव निरंजणा जीवो विव | अन्तो-अव्य०(अन्तर्) मध्ये, दशा०२ अ०1"अंतो पडिग्ग-हगंसि। अप्पडिहयगती जच्चकणगं पिव जातरूवा आदरिसफलगा विव आचा०२ श्रु०६ अ०।स्था०। ज्ञा०। प्रश्न आव०। सूत्र० / “एवामेव पगडभावा कुम्मो इव गुत्तिंदिआ पुक्खरपत्तं व निरुव-लेवा | मायी मायं कटु अंतो अंतोज्झियाइ" अन्तरन्तःक्रियया ध्मायन्ति गगणमिव निरालंबणा अणिलो इव निरालया चंद इव सोमलेसा इन्धनैर्दीप्यन्ते। स्था० 8 ठा०। सूर इव तेअलेसा सागरोइव गंभीरा विहग इव सव्वओ विप्पमुक्का अंतोअंत-पुं०(अन्तोपान्त) सान्तमध्ये, "तुमं चेव णंसंतियं वत्थं मंदर इव अप्पकंपा सायरसलिलं व सुद्धहिअया खग्गविसाणं व | अंतोअंतेण पडिलेहिस्सामि" त्वदीयमेवाहं वस्त्रमन्तोपान्तेन प्रत्युपेक्षित एगजाया भारंडपक्खी व अप्पमत्ता कुंजरो इव सोंडीरा वसभो गृह्णीयाम्। अन्तःसहितमन्तोपान्तकर पडिलेह्यादि-ग्रहणकरे,आचा० इव जायत्थामा सीहो इव दुद्धरिसा वसुंधरा इव सव्वफासविसहा 2 श्रु०१ अ०। सुहुअहुआसणो इव तेअसा जलंतानस्थि णं तेसिणं भगवंताणं अंतोकरण-न०(अन्तःकरण) कृ-करणे-ल्युट् / अन्तरभ्यन्त-रस्थं कत्थय पडिबंधे। से अपडिबंधे चउव्विहे पण्णत्ते तंजहा दव्वओ करणं / कर्मधा०। तवृत्तिपदार्थानां सुखादीनां करणं ज्ञान-साधनम्। खित्तओ कालओ भावओ। दव्वओ णं सचित्ताचित्तमीसएस ज्ञानसुखादिसाधने, अभ्यन्तरे मनोबुद्धिचित्तादिप-दाभिलप्यमाने दव्वेसु, खेत्तओ गामे वा णगरे वा रणे वा खेत्ते वा खले वा धरे इन्द्रिये, वाच० / तच्चान्तःकरणं स्मृतिप्रमाणवृत्तिवा अंगणे वा, कालओ समए वा आवलिआए वा जाव अयणे वा संकल्पविकल्पाहवृत्त्याकारेण चित्तबुद्धिमनोऽहङ्कारशब्दैव्य॑वअण्णत्तरे वा दीहकालसंजोगे, भावओ कोहे वामाणे वा मायाए हियते। नं० वा लोहे वा भए वा हासे वा एवं तेसि ण भवइ ते णं भगवंतो वासावासवज्जं अट्ठ गिम्हहेमंतिआणि मासाणि गामे एगराइआ अंतोखरियत्ता-स्त्री०(अन्तःखरिका) नगराभ्यन्तरवेश्यात्षे, णगरे पंचराइआ वासी चंदसमाणकप्पा समलेठुकं चणा विशिष्ट वेश्यात्वे च / "दोचं पि रायगिहे णयरे अंतोखरियत्ताए समसुहदुक्खा इहलोगपरलोगअप्पडिबद्धा संसारपारगामी उववजिहित्ति" / भ०१५ श०१ उ०। कम्मणिग्घायणवाए अब्मुट्ठिआ विहरंति। औ०१०१ पत्र। | अंतोगिरिपरिरय-पुं०(अन्तर्गिरिपरिरय) गिरेरन्तः परिक्षेपे, जी०३ (पदार्थमात्रविन्यसिनी टीकेति न विन्यस्ता) (तेसि णं भगवंताणं | प्रति०। एतेणं विहारेणं विहारमाणाणं इमेयारूपे अभिंतरए बाहिरए तवोवहाणे अन्तोजल-न०(अन्तर्जल)जलाभ्यन्तरे, "अन्तोजले वि एवं गुज्झंगं होत्था तंजहाअभितरए छविहे बाहिरए छव्विहे इत्यादि तव आदिशब्देषु | फासइच्छणिच्छते"।बृ०६ उ०। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतोणाय 104 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अंदोलग अंतोणाय-त्रि०(अन्तर्नाद) हृदये सदुःखमारटति, "छाएउ मुहं हत्थेणं | अंतोसल्लमरण-न०(अन्तःशल्यमरण) अन्तःशल्यस्य द्रव्य - अंतोणायं गले वं" / आव०४ अ०। तोऽनुद्धृततोमरादेर्भावतः सातिचारस्य यन्मरणं तदन्तःशल्य-मरणम्। अंतोणियसणी-स्त्री०(अन्तर्निवसनी) आर्याणामौधिकोपधि-भेदे, बालमरणभेदे, भ०२ श०१ उ०। स०। तत्स्वरूपम् / / "अंतोणियंसणी पुण, लीणतरा जाव अद्ध तत्स्वरूपम्जंघातो" अन्तर्निवसनी पुनरुपरिकटिभागादारभ्याधोऽर्धजायावद् लज्जाए गारवेण च, बहुस्सुयमयेण वावि दुचरियं / भवति सा च परिधानकाले लीनतरा परिधीयते मा भूदनावृता जेण कहेंति गुरूणं, ण हु ते आराहगा होति॥ जनोपहास्येति" बृ०३ उ०। नि० चू०। पं० चू०। गारवपंकणिबूडा अइयारं जे परस्स ण कहेंति। अंतोदहणसील-त्रि०(अन्तर्दहनशील) हृदयस्य दुःखाग्निना दाहके, दसणणाणचरित्ते,ससल्लमरणंहवतितेसिं / / "फुफुया विय अंतोदहणसीलाओ' (नाय्यः) फुफकः करीषाग्निस्तद्वत् तत्र लज्जया अनुचितानुष्ठानसंवरणात्मिकया गौरवेण च सातर्द्धिरसगौरवात्मकेन मा भून्ममालोचनाहमाचार्यमुपसर्पतमुखों विधवा च कन्या, शठं च मित्रं चपलं कलत्रम्। विलासकालेऽपि स्तद्वन्दनादिना तदुक्ततपोनुष्ठानासेवनेन च ऋद्धिरससाताभावसंभव इति दरिद्रता च, विनाऽग्निना पञ्च दहन्ति कायम्"। तं०४६ पत्र / बहुश्रुतमदेन वा बहुश्रुतोऽहं तत्कथमल्पश्रुतोऽयं मम शल्य-मुद्धरिष्यति अंतोदुट्ठ-पु० न०(अन्तर्दुष्ट) लुतादिदोषतोनवहीराद्यभावेन सौम्यत्वात् कथं चाहमस्मै वन्दनादिकं दास्याम्यपभ्राजना हीयं ममेत्यभिमानेन, अभ्यन्तरदोषयुते व्रणभेदे, शठतया संवृताकारत्वाद् हृदयदुष्ट पुरुषभेदे अपिः पूरणे, ये गुरुकर्माणो न कथयन्ति नालो-चयन्ति केषां च / पुं०। स्था० 4 ठा०॥ गुरूणामालोचनाहाणामाचार्यादीनां, किं तत् दुश्चरितं दुरनुष्ठितमिति अंतोधूम-पुं०(अन्तधूम) अभ्यन्तरधूमे, गृहादिनिरुद्धधूमे, आव० 4 संबन्धः / न हु नैव तेऽनन्तरमुक्तरूपाः आराध-यन्त्यविकलतया अ०। निष्पादयन्ति सम्यग्दर्शनादीनीत्याराधका भवन्ति / ततः किमित्याह / अंतोमज्झोवसाणिय-पुं०(अन्तर्मध्यावसानिक) लोक- गौरवपङ्कइव कालुष्यहेतुतया तस्मि-निवूडा इति प्राकृतत्वान्निमना इव मध्यावसानिकाख्ये अभिनयभेदे, नाट्यकुशलेभ्योऽयं विशेषतो निमनास्तत्क्रोडीकृततया लज्जामदयोरपि प्रागुपादाने यदिह वेदितव्यः। रा०। गौरवस्यैवोपादानं तदस्यैवाति-दुष्टताख्यापनार्थम् / अतिचारमपराधं अंतोमुह-न०(अन्तर्मुख) अभ्यन्तरद्वारे, "अंतोमुहस्स असवी परस्याचार्यादेनं कथयन्ति किं विषयमित्याह / दर्शनज्ञानचारित्रे उभयमुहे तस्स बाहिरं पिहए"। बृ०१ उ०। दर्शनज्ञानचारित्रविषयं दर्शनविषयं शङ्कादि, ज्ञानविषयं कालातिक्रमादि, चारित्रविषयम् / समित्यननुपालनादि / शल्यमिव शल्यं अंतोमुहुत-न०(अन्तर्मुहूर्त) मुहूर्तस्य घटिकाद्वयलक्षणस्य कालान्तरेऽप्यनिष्टफल-विधानं प्रत्यवन्ध्यतया सह तेनेति सशल्यंतच कालविशेषस्यान्तर्मध्ये ऽन्तर्मुहूर्तम् / निपातनादेवात्र अन्तःशब्दस्य तन्मरणं च सशल्यमरणं तच्चान्तःशल्यमरणं भवति / तेषां पूर्वनिपातः।नं०। भिन्नमुहूर्ते, आव०५ अ०। गौरवपङ्कमनानामिति गाथाद्वयार्थः / उत्त० नि०। अंतोलित्त-त्रि०(अन्तर्लिप्त) अन्तर्मध्ये लिप्तमन्तर्लिप्तम् / मध्ये अस्यैवात्यन्तपरिहार्यता ख्यापयन्फलमाह - लेयेनोपदिग्धे, “घडिमंतोलित्तं" / बृ०१उ०। एतं ससल्लमरणं, मरिजण महाभए दुरंतम्मि। अंतोवट्ट-त्रि०(अन्तर्वृत्त) मध्ये वृत्तसंस्थानसंस्थिते, तेणंणरगा अंतोवट्टा सुचिरं ममंति जावा, दीहे संसारकंतारे॥ बहिं चउरंसा' बाहल्यमङ्गीकृत्यान्तर्मध्ये वृत्ता। सूत्र० एतदुक्तवस्वरूपं सशल्यमरणं यथा भवति तथेत्युपस्कारः / 2 श्रु०२ अ०। सुब्ब्यत्ययावा, एतेन सशल्यमरणेन मृत्वा त्यक्त्वा प्राणान् जीवा इति अंतोवत्ति-स्त्री०(अन्तव्याप्ति) पक्षीकृत एव विषये साधनस्य साध्येन संबन्धः / किं ? सुचिरं भ्रमन्ति बहुकालं पर्यटन्ति / क्व ? संसारः व्याप्ती, यथाऽनेकान्तात्मकं वस्तु सत्त्वस्य तथैवोपपत्तेः / 206 पत्र। कान्तारमिवातिगहनतया संसारकान्तारस्तस्मिन्निति संटङ्कः। कीदृशि अंतोवाहिणी-स्त्री०(अन्तर्वाहिनी) मन्दरस्य पश्चिमे शीतोदाया महद्भयं यस्मिस्तन्महाभयं तस्मिस्तथा दुःखेनान्तः पर्यन्तो यस्य तदुरन्त महानद्या दक्षिणे प्रवहन्त्यामन्तरनद्याम्,स्था०३ठा० / "कुमुए विजए तस्मिन् / तथा दीर्घ अनादौ केषांचिदपर्यवसिते चेति तत्सर्वथा अरजा रायहाणी अंतोवाहिणीणई"। जं० 4 वक्ष०। परिहर्त्तव्यमेवेति भाव इति गाथार्थः / उत्त०नि०। प्रव० 157 द्वा०। अंतोवीसंभ-पुं०(अन्तोविश्रम्भ) अन्तर्विश्रम्भः / त० स०।। अंबडी-नस्त्री०(अन्त्र) अपभ्रंशे स्वार्थिकप्रत्यये कृते / लिङ्गतोऽन्तरीत्यस्य क्वाचित्कत्वान्नान्तस्यैत्वम् / चित्तविश्वासे, मतन्त्रम्। 84445 | इति नपुंसकस्याऽपि स्त्रीत्वम्। उदरमध्या"अंतोवीसंभनिवेसिआणं" / प्रा०। ___ऽवयवभेदे, "पाइविलग्गी अंबडी" प्रा०। अंतोसल्ल-त्रि०(अन्तःशल्य) अन्तर्मध्ये शल्यं यस्य अदृश्य- | अंदू-स्त्री०(अन्दू) अन्द्यते बध्यतेऽनेनेति अदि-कू / वाच० / निगडे, मानमित्यर्थः तत्तथा / बहिरनुपलक्ष्यमाणे व्रणभेदे, स्था०४ ठा० / | "अंदू सुपक्खिप्पविहत्ते देहे"। सूत्र०१ श्रु०५ अ01 अनुद्धृततोमरादौ, भ०२श०५ उ० अन्तर्मध्ये मनसीत्यर्थः। शल्यमिव | अंदेउर-न०(अन्तःपुर)। अधःक्वचिद् / 4 / 261 / इति शौरसेन्यां शल्यमपराधपदं यस्य सोऽन्तःशल्यः / अभि-मानादिभिरना- | तकारस्य दकारः / राजस्त्रीणां गृहे, प्रा०| लोचितातिचारे, स०५१ पत्र। अंदोलग-पुं०(आन्दोलक) यत्रागत्य मनुष्या आत्मानमान्दो-लयन्ति अंतोसल्लमयग-त्रि०(अन्तःशल्यमृतक) अनुद्धृतभाव-शल्येषु | ते आन्दोलकाः। हिण्डोल इति लोकप्रसिद्धेषु, जी० 3 प्रति० / रा०) मध्यवर्तिभल्लादिशल्येषु वा सत्सु मृतेषु, औ० 256 पत्र। जं०।दोलनकर्त्तरि, त्रि०ा वाच! Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंदोलण 105 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंधकार अंदोल(ल्ल)ण-न०[अ(आ)न्दोलन] वृक्षशाखादौ खेलने, ध०२ अधि०। करणे-घञ् / हिण्होल इति प्रसिद्ध आन्दोलनयन्त्रे, सूत्र०१ श्रु०११ अ० / यत्रान्दोलनेन दुर्गमतिलच्यते, तस्मिन् मार्गविशेषे, सूत्र० 1 श्रु०११ अ०॥ अंध-त्रि०(अन्ध) अन्ध-अच् / नयनरहिते, द्वा० 12 द्वा० / षो०। पञ्चा० / सूत्र० / स चान्धो द्विधा जात्यन्धः पश्चाद्वा हीननेत्रोऽपगतचक्षुः / सूत्र०१ श्रु० 12 अ० / स चान्धो द्रव्यतो भावतश्च / तत्रैकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियाः द्रव्यभावान्धाः / चतुरिन्द्रियादयस्तु मिथ्यादृष्टयो भावान्धाः। उक्तञ्च "एकं हि चक्षुरमलं सहजो विवेकस्तद्वद्भिरेव सह संवसति, द्वितीयम् / एतद् द्वयं भुवि न यस्य स तत्त्वतोऽन्धस्तस्यापमार्गचलने खलु कोऽपराधः"? सम्यग्दृष्टयस्तूपहतनयना द्रव्यान्धास्त एव सचक्षुषो न द्रव्यतो नापि भावतस्तदेवमन्धत्वं द्रव्यभावभेदभिन्नमेकान्तेन दुःखजननमवाप्नोतीत्युक्तञ्च "जीवन्नेष मृतोऽन्धो, यस्मात्सर्वक्रि यासु परतन्त्रः / नित्यास्तमितदिनकरस्तमोन्धकारार्णवनिमग्नः" ||1|| "लोकद्वयव्यसनवह्निविदीपिताङ्गमन्धं समीक्ष्य कृपणं परयष्टिनेयम् / को नो द्विजेत भयकृजननादिवोग्रात्,? // 2 / / कृष्णाहिनैकनिचितादिव चान्धगर्त्तात्" आचा०१श्रु०२ अ०३ उ०। अन्ध इवान्धः। अज्ञाने, ज्ञानरहिते, “एए णं अंधा मूढा तमप्पविठ्ठा'। भ०७श०७ उ०। "तिष्ठतो व्रजतो वापि, यस्य चक्षुर्न दूरगम।चतुष्पदा भुवं मुक्त्वा , परिव्राडन्ध उच्यते''||१|| इत्युक्तलक्षणे परिवाड् भेदे, वाचा पु० / अन्धयतीत्यन्धम् / अन्ध-चु० प्रेरणे-णिच् अच् / अन्धकरणे, अचवा अन्धकारे, तमसि, अज्ञाने च / जले, न०। मेदि०। वाच०। *अन्ध्र-पुं०।अन्ध-रन् / देशभेदे, स च देशः जगन्नाथादूर्ध्वभा-गादर्वाक् श्रीभ्रमरात्मकात् तावदन्ध्राभिधो देशः / इत्युक्तः ।वाच० / तद्देशोत्पन्ने जने च / ध्य० 7 उ० / स च म्लेच्छत्वेनोक्तः / प्रज्ञा० 1 पद० / प्रश्न०। प्रव०। सूत्र०।वैर्दहन कारावरस्य स्त्रियामुत्पा-दिते अन्त्यजभेदे, व्याघ्रभेदे इति काश्यपः। वाच०। अंधकं टइज्ज-न०(अन्धकण्टकीय) अन्धस्यावितर्कितकण्ट कोपगमनरूपेऽतर्कितोपगमने, आचा०१ श्रु०१०। अंधकड-त्रि०(आन्ध्यकृत) स्वरूपावलोकनशक्तिविकले, अहं ममेति मन्त्रोऽयं, मोहस्य जगदान्ध्यकृत् " अष्ट०४ अष्ट। अंधका(या)र-पुं०न०(अन्धकार) अन्धं करोति कृ अण / उप० स०। वाच० / कृष्णभूतेष्वादिभवे, अरुणभवसमुद्रोद्-भवतमस्कार्य च / तं०४६पत्र / बहुलतमोनिकुरम्बे, अनु० / स्था० / ज्ञा० / तच्च तेजोद्रव्यसामान्याभावरूपमिति नैयारिकाः। वाच०। 'कालं मइलं तं पि य वियाण तं अंधयारं ति" इत्युक्त-लक्षणः पुद्गलपरिणाम इति समयविदः / सूत्र०१ श्रु०१ अ० / अन्यत्रापि "सबंधयारउद्घोओ, पहाछायातवेइया। वन्नगंधरसाफासा, पोग्ग-लाणं तु लक्खण''|| उत्त० 2 अ०। न च तमसः पोद्गलिकत्वम-सिद्धं चाक्षुषत्वान्यथानुपपत्तेः प्रदीपालोकवत्। अथ यचाक्षुषं तत् सर्वं प्रतिभासे आलोकमपेक्षते न चैवं तमस्तत्कथं चाक्षुषं ? मैवम् उलूकादीनामालोकमन्तरेणापि तत्प्रतिभासात् / यैस्त्व-स्मदादिभिरन्यच्चाक्षुषं घटादिकमालोकं विना नोपलभ्यते, तैरपि तिमिरमालोकयिष्यते विचित्रत्वाद्धावानां कथमन्यथा पीत-श्वेतादयोऽपि स्वर्णमुक्ताफलाद्या आलोकापेक्षदर्शनाः ? प्रदीपचन्द्रादयस्तु प्रकाशान्तरनिरपेक्षा इति सिद्धं तमश्चाक्षुषम् / रूपवत्त्वाच स्पर्शवत्त्वमपि प्रतीयते / शैत्यस्पर्शप्रत्ययजनक-त्वात् / यानि त्वनिविडावयवत्वमप्रतिघातित्वमनुद्भूतस्पर्श विशेषत्वमप्रतीयमानखण्डावयविद्रव्यप्रविभागत्वमित्यादीनि तमसः पोद्भलिकत्वनिषेधाय परैः साधनान्युपन्यस्तानि तानि प्रदीपप्रभादृष्टान्तेनैव प्रतिषेध्यानि / स्या०६ पत्र। सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमधिकृत्यान्धकारसंस्थितिं प्रति पिपादयिषुस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह - तता णं किं संठिता अंधकारसंठिती आहिताति वदेज्जा / ता उद्धीमुहकलंबुतापुप्फगठिता आहितेति वदेजा। अंतोसंकुडा बाहिं वित्थडा / तं चेव जाव ता से णं दुवे बाहातो अण-वहितातो भवंति / तं सव्वन्भंतरिता चेव बाहा, सव्वबाहिरिता चेव बाहा / तीसे णं सव्वन्भंतरिता बाहामंदरं पव्वयं / तेणं छ जोयणसहस्साई तिणि य चउव्वीसे जोयणसते छचदसभागे जोयणस्स परिक्खेवेणं / ता से णं परिक्खेवविसेसो कतो आहितेति वदेजा। ता जे णं मंदरस्स पव्वस्स परिक्खेवेणं तं परिक्खेवं दोहिं गुणिता दसहिं छत्ता दसहिं भागे हिरमाणे हिरमाणे एस णं परिक्खेवविसेसे आहिताति वदेज्जा / ता से णं सव्वबाहिरिता बाहा लवणसमुदं ते णं तेवटुिं जोयणसहस्साई दोण्णि य पणयाले जोयणसते छच्च दसभागे जोयणस्स परिक्खेवेणं / ता से णं परि-क्खेवविसेसो कतो आहितेति वदेजा। ता जे णं जंबुद्दीव-स्स दीवस्स परिक्खेवेण परिक्खेवं दोहिं गुणित्ता दसहिं छेत्ता दसहिं भागे हिरमाणे हिरमाणे एस णं परिक्खेवविसेसे आहिताति० ता से णं अंधकारे के वतितं आयामेणं आहिताति० ता अट्ठुत्तरं जोयणसहस्साइं तिण्णि य तेत्तीस जायणसत जोयण तिभागं च आयामेणं आहितेति वदेजा। तता णं उत्तमकडे उक्कोसे अट्ठारस मुहुत्ते दिवसे भवति, जह-णिया दुवालस मुहुत्ता राती भवति / ता जता णं सूरिए सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, ता उद्धीमुहकलंबुतापुप्फसंठिया तावक्खेत्तसंठिती अंतो संकुडा बाहिं वित्थडा जाव सव्वभंतरिया चेव बाहा सव्व-बाहिरिता चेव बाहा / ता से णं सध्वभंतरिया बाहा मंदर-पव्वतेणं छ जोयणसहस्साई तिण्णि य चउव्वीसे जोयण-सते छच्च दसभागे जोयणस्स एवं जंपमाणे अभंतरमंडले अंधकारसंठिते, तं इमाए वि तावखेत्ते संठिती तव्वा / बाहिरमंडले आयामो सव्वत्थ वि एको, तया णं किंसंठिता अंधकारसंठिती आहिताति वदेज्जा / ता उद्धीमुहकलंबुता पुप्फसंठिता अंधकारसंठिती आहिताति वदेजा। अंतो संकुडा बाहिं वित्थडा तं चेव जाव सव्वन्भंतरिता बाहा सव्वबाहिरिता आहिता चेव बाहा। ता से णं सव्वभंतरिता बाहा मंदरपव्वयं ते णं णव जोयणसहस्साइं चत्तारिय उलसीते जोयणसते णव दसभागे एवं जपमाणे अभं Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंधकार 106 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अंधकार तरमंडलठिए सूरिए तावखेत्तसंठितीए / तं चेव णेयव्वं जाव सर्व बाह्याया बाहाया आह / ''ता से णं इत्यादि' तस्या आतामो, ता जताणं उत्तमउक्कोसा अट्ठारसमुहुत्ताराती भवति, अन्धकारसंस्थितेः सर्वबाह्या बाहा लवणसमुद्रान्ते लवणसमुद्र-समीपे जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति। जम्बूद्वीपपर्यन्ते सा च परिक्षेपेण जम्बूद्वीपपरिरय-परिक्षेपेणाख्याता तदा सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारकाले (किं संठिअत्ति) किं संस्थितं संस्थानं त्रिषष्टिोजनसहस्राणि द्वे शते पञ्चचत्वारिंशद्योजनशते षड् दशभागा यस्याः / यद्वा कस्येव संस्थानं संस्थितिर्यस्याः सा किंसंस्थिता योजनस्य यावत् (63245)(6) एतदेव स्पष्ट स्वशिष्यानवबोधयितुं अन्धकारसस्थितिराख्यातेति वदेत् / भगवानाह "ता इत्यादि" ता भगवान गौतमः पृच्छति "ता से णं इत्यादि" ता इति पूर्ववत् तस्या इति पूर्ववत् उर्वीकृतकलम्बुका पुष्फसंस्थिता अन्धकारसंस्थितिरा- अन्धकारसंस्थितेः स एतावान् परिक्षेपविशेषो जम्बूद्वीपपरिरयपरिक्षेपेण ख्यातेति वदेत् / सा चान्तर्मेरुदिशि विष्कम्भमधिकृत्य (संकुडा) (10) विशेषः कृतः कस्मात्कारणादाख्यातो नोनाधिको वेति ? वदेत् संकुचिता बहिर्लवणदिशि विस्तृता / तथा अन्तर्मेरोर्दिशि वृत्ता ऊर्ध्व भगवान वर्द्धमानस्वामी आह "ता जे णं इत्यादि" ता इति पूर्ववत् यो वलयाकारा सर्वतो वृत्ता नेरुगतौ द्वौ देशभागी व्याप्य णमिति वाक्यालङ्कारे जम्बूद्वीपस्य परिक्षेपः प्रागुक्तप्रमाणस्तं परिक्षेप तस्यावस्थितत्वात् / बहिर्लवणदिशि पृथुला विस्तीर्णा एतदेव द्वाभ्यां गुणयित्वा दशभिश्छित्त्वा दशभिर्विभज्य अत्र च करणं प्रागेवोक्त संस्थानकथनेन स्पष्टयति "अंतो अंकमुहसंठिआ बाहिं दशभिर्भागे हियमाणे यथोक्तमन्धकारसंस्थितेर्जम्बूद्वीपपरिरयसत्थिमुहसंठि आ" अनयोः पदयोयाख्यानं प्राग्वत् परिक्षेपणमागच्छति। तथाहि जम्बूद्वीपस्य परिक्षेपपरिमाणं त्रीणि लक्षाणि वेदितव्यम् / "उभओपासे णमित्यादि' तस्या अन्धकार- षोडशसहस्रणि द्वेशते अष्टाविंशत्यधिके (316228) तद् द्वाभ्यां गुण्यते संस्थितेस्तापक्षेत्रसंस्थितेविध्यवशाद् द्विधा व्यवस्थिताया जातानि षड् लक्षाणि द्वात्रिंशत्सहस्राणि चत्वारि शतानि षट् पञ्चामेरुपर्वतस्योभयपाइँन उभयोः पार्श्वयोः प्रत्येकमेकैकभावेन ये शदधिकानि (632456) तेषां दशभिर्भागे हृते लब्धानि जम्बूद्वीपगते बाहे, ते आयामेन आयामप्रमाणमधिकृत्याऽवस्थिते त्रिषष्टिो जनसहस्राणि द्वे शते पञ्चचत्वारिंशदधिके षट् च दशभागा भवतस्तद्यथा पञ्चचत्वारिंशत् योजनसहस्राणि (45000) द्वे च बाहे योजनस्य (63245)(6) तत एव एतावाननन्तरोविष्कम्भमधिकृत्य एकैकस्या अन्धकारसंस्थितेर्भवतस्तद्यथा दितप्रमाणोऽन्धकारसंस्थितेः परिक्षेपविशेषो जम्बूद्वीपपरिरय-परिक्षेपेण सर्वाभ्यन्तरा सर्वबाह्या च, एतयोश्च व्याख्यानं प्रागिव द्रष्टव्यम् / ततः विशेष आख्यात इति वदेत् / तदेवमुक्तं सर्वबाह्याया अपि बाहाया सर्वाभ्यन्तराया बाहाया विष्कम्भमधिकृत्य प्रमाणमभिधित्सुराह (ता से विष्कम्भपरिमाणम् / सम्प्रति सामस्त्येनान्धकारणमित्यादि) तस्या अन्धकारसंस्थितेः सर्वाभ्यन्तारबाहा मन्दरपर्वतान्ते स्थितेरायामप्रमाणमाह''-"ता से णं इत्यादि" / इदंचायाम-परिमाणं मन्दरपर्वतसमीपे सा च षड्योजनसहस्राणि त्रीणि शतानि तापक्षेत्रसंस्थितिगतायामपरिमाणवद्भवनीयं समानभाव-निकत्वात्। चतुर्विंशत्याधिकानि (6324) षड् दश भागा योजनस्य (6) यावत् अत्रैव सर्वाभ्यन्तरे मण्डले वर्तमानयोः सूर्यपरिक्षेपणाख्याता इति वदेत् / अमुमेवाऽर्थं स्पष्टावबोधनार्थं पृच्छति योर्दिवसरात्रिमुहूर्तप्रमाणमाह। 'तया ण इत्यादि" सुगम सर्वाभ्यन्तरे (ता सेणं इत्यादि)ता इति पूर्ववत् तस्या अन्धकार-संस्थितेर्यथोक्तः मण्डले तापेक्षेत्रसंस्थितिमन्धकारसंस्थितिं चाभिधाय सम्प्रति परिमाणपरिक्षेपविशेषो मन्दरपरिरयपरिक्षेपेण विशेषः कृतः / सर्वबाह्यमण्डले तामभिधित्सुराह "ता जया णमित्यादि'' ता इति कस्मात्कारणादाख्यातो नोनाधिको वेति ? भगवान् वदेत् एवं प्रश्ने पूर्ववदेव यदा सूर्यः सर्वबाह्यमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति, तदा कृते भगवानाह- ता इति प्राग्वत्।योणमिति वाक्यालङ्कारेमन्दरपर्वतस्य किं संस्थिता तापक्षेत्रसंस्थितिराख्यातेति भगवान्वदेत् / परिक्षेपः प्रागुक्तप्रमाणः तं परिक्षेपं द्वाभ्यां गुणयित्वा कस्माद् द्वाभ्यां भगवानाह -"ता उद्धीमुहेत्यादि'' पूर्ववद्व्याख्येया। "ता से णं गुणनमिति चेदुच्यते इह सर्वाभ्यन्तरे मण्डले चारंचरतोः सूर्ययोरेकस्यापि इत्यादि'' तस्याश्च तापक्षेत्रसंस्थिते: सर्वाभ्यन्तरवाहासूर्यस्य जम्बूद्वीपगतस्य चक्र वालस्य यत्र तत्र प्रदेशे ऽभ्यन्तरमेरुसमीपे, सा च परिक्षेपेण मन्दरपरिरयपरिक्षेपणेन षड् तत्तचक्रवालक्षेत्रानुसारेण दशभागास्त्रयः प्रकाश्या भवन्ति / अपरस्यापि योजनसहस्राणि त्रीणि शतानि चतुर्विंशत्यधिकानि (6324) षट् च सूर्यस्य त्रयः प्रकाश्या दश भागास्तत उभयमीलनेषड्दश भागा भवन्ति / दशभागा योजनस्य (6) आख्यातानि मयेति वदेत् स्वशिष्ये-भ्यः / तेषां त्रयाणां दशानां भागानामपान्तराले द्वौ द्वौ दशभागौ रजनी। ततो "एवं इत्यादि" एवमुक्ते सति कारणे यदभ्यन्तरमण्डलगतद्वाभ्यां गुणनं तौ च दशभागाविति दशभिभगिहरणं दशभिर्भागहरणे सूर्येऽन्धकारसंस्थितेः प्रमाणमुक्तं तद् बाह्ये बाह्यमण्डलगते सूर्येऽस्या यथोक्तं मन्दरस्य समीपे अन्धकारसंस्थितिपरिमाणमागच्छति। तथाहि अपि तापक्षेत्रसंस्थितेः परिमाणं भणितव्यम्। तच्चैवम् "ता से णं मेरु-पर्वतपरिरयपरिमाणमेकत्रिंशद्योजनसहस्राणि षट् शतानि परिक्खेवविसेसकतो आहिअत्ति। जेणं मंदरस्स पव्वयस्स परिक्खेवे, त्रयोविंशत्यधिकानि (31623) एतानि द्वाभ्यां गुण्यन्ते जातानि तंदोहिं भागेहिं हिरमाणे एस णं परिक्खेवविसेसे आहिअत्ति वएज्जा। त्रिषष्टिसहस्त्राणि द्वे शते षट्चत्वारिंशदधिके (63246) एतेषां च ताजे णं जम्बुद्दीवस्स दीवस्स परिक्खेवं दोहिं गुणिता दसहिं छित्ता दशभिर्भागे हृते लब्धानि षड् योजनसहस्राणि त्रीणि शतानि दसहिं भागेहिं हिरमाणे एस णं परिक्खेवविसेसे आहिअ त्ति वएज्जा। चतुर्विशत्यधिकानि। षड्दश भागा योजनस्य (6325) (6) तत एष ता से णं तावक्खित्ते केवइयं आयामेणं आहिअत्ति वएज्जा। ता तेसीई एतावाननन्तरोदितप्रमाणोऽन्धकारसंस्थितेः परिक्षेपो जोअण-सहस्साई तिन्नि अतेतीसइजोअणतिभागं चायामेण आहिमन्दरपरिरयपरिक्षेपेण विशेष आख्यात इति वदेत् / तदेवमुक्त-मन्धकार अत्ति वएजा'। इदं सकलमपि सुगमं नवरं मन्दरपरिरयादेर्यद् द्वासंस्थितेः सर्वाभ्यन्तराया बाहाया विष्कम्भपरिमाणम् / अधुना / भ्यां गुणनं तत्रेदं कारणम् इह सर्वबाह्ये मण्डले चारं चरतोः सूर्ययो Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंधकार 107 . अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंधगवण्हि - -- - जम्बूद्वीपगतस्य चक्रवालस्य यत्रतत्र वा प्रदेशे तचक्रवाल-क्षेत्रानुसारेण पुद्गलानामशुभत्वाद् / इह चेयं भावनाएतत्क्षेत्रे सत्यपि रविकरादि द्वौ द्वौ दशभागौ तापक्षेत्रम् / एतच प्रागेव भावितं ततो मन्दरपरिरयादि संपर्के एषां चक्षुरिन्द्रियाभावेन दृश्यवस्तुनो दर्शनाभावात् / शुभद्वाभ्यां गुण्यते गुणयित्वा च दशभिर्भागहरणं तथा सर्वबाह्ये मण्डले पुद्गलकार्याकरणेनाशुभाः पुद्गला उच्यन्ते / ततश्चैषामन्धकार एवेति / सूर्यस्य चारंचरतोलवणसमुद्रमध्ये पञ्च-योजनसहस्राणि तापक्षेत्रं वद्धत (चउरिंदियाणं सुभासुभ-पोग्गलत्ति) एषां हि चक्षुःसद्भावेन ततः त्र्यशीतियोजनसहस्राणि इत्याद्युक्तम् / शेषाक्षरयोजना तु | रविकरादिसद्भावे दृश्या-र्थवबोधहेतुत्वात् शुभाः पुद्गला रविकराद्यभावे प्राग्वद्भावनीय तदेवं सर्वबाह्ये मण्डले वर्तमाने सूर्ये तापक्षेत्रसंस्थितं / त्वर्थावबोधाजनकत्वादशुभा इति। भ०५ श०६ उ०। परिमाणमभिधाय सम्प्रति तत्रैवान्धकारसस्थितिपरिमाणमाह-(तयाण अधोलोकेऽन्धकारः - किं संठिआ इत्यादि) तदा सर्वबाह्ये मण्डले चारचरणकाले णमिति अहोलोगे णं चत्तारि अंधकारं करेंति। तंजहा- णग्गा, णेरड्या, वाक्यालङ्कारे किं संस्थिताऽन्धकारसंस्थितिराख्यातेति वदेत् / पावाई कम्माइं, असुभा पोग्गला / / भगवानाह "ता उद्धीमुहेत्यादि" सुगम "ता से णं इत्यादि" तस्या "अहेत्यादि' सुगम किन्तु अधोलोके उक्तलक्षणे चत्वारि वस्तूनीति अन्धकार-संस्थितेः सर्वाभ्यन्तरबाहा मन्दरपर्वतान्ते मन्दरपर्वतसमीपे। गम्यते नरका नरकावासा नैरयिका नारका एते कृष्णरूपत्वादन्धकारं "ताव जाव परिक्खेवविसेसे आहिअत्ति वएजा। ता से णं अंधकारे कुर्वन्ति, पापानि कर्माणि ज्ञानावरणादीनि मिथ्यात्वाज्ञानलक्षणकेवइ आयामेण आहिअत्ति वएजा? ता तेसीइंजोअणसहस्साई तिन्नि भावान्धकारित्वादन्धकारं कुर्वन्तीत्युच्यते / अथवाऽन्धकारअ तेत्तीसए जोअणस्स जोअणतिभागं च आहिअत्ति वएजा'। इह स्वरूपेऽधोलोके प्राणिनामुत्पाकत्वेन पापानां कर्मणामन्धकारयन्मन्दरपरिरया -देस्त्रिभिर्गुणनं हरणं च / शेषाक्षरयोजना तु कर्तृत्वमिति। तथा अशुभाः पुद्गलास्तमिस्रभावेन परिणता इति। स्था० प्राग्वत्कर्तव्या। तदेवं सर्वबाह्येऽपि भण्डले तापक्षेत्रसंस्थितिः परिमाणं 4 ठा० / तथा स्थानाङ्गे चतुर्भिः कारणैर्लो के उद्द्योतो भवति। तथा चोक्तमधुना सर्वबाह्ये मण्डले वर्तमानयोः सूर्ययो अन्धकारमपि अर्हन्निर्वाणेऽर्हद्-श्रुत-धर्माभावे जाततेजस उच्छेदेऽपि। रात्रिन्दिवसमुहूर्तपरिमाणमाह - (ता जया णं इत्यादि) तदा सा तत्र यथाऽर्हतां निर्वाण लोके-ऽन्धकारं भवति, तथा त्रयाणां नाशे सर्वबाह्यमण्डलचारकाले उत्तमकाष्टां प्राप्ता उत्कृष्टाऽष्टादशमुहूर्ता समानमुत कश्चिद्विशेषो वेति ? प्रश्ने, लोकानुभाव दिवार्हदादीनां रात्रिर्भवति, जघन्तो द्वादशमुहूर्तो दिवसः / तदेवमुक्त चतुर्णामप्युच्छेदे द्रव्यान्धकारं समानम् , अग्निविनाशे त्रयोच्छेदे तापक्षेत्रसंस्थितिपरिमाणमन्धकारसंस्थितिपरिमाणं च / चं० प्र० 4 भावान्धकारमधिकं स्यादिति विशेषः स्थानाङ्ग वृत्त्यनुसारेण ज्ञायत पाहु० / सू० प्र०। इति / सेन० 2 उल्ला० 160 प्रश्न / (अर्हति निर्वाणं गच्छति धर्मे उद्योतान्धकारौ दण्डकक्रमेणाह व्युच्छिद्यमाने पूर्वगते वा व्युच्छिद्यमाने लोकान्धकार इत्यहच्छब्दे) से णूणं भंते ! दिवा उज्जोए, राइअंधयारे ? हंता गोयमा ! तमसि, स्था० 3 ठा० / अरुणवरसमुद्रोद्भूतमस्काये च / तं० / जाव अंधयारे / सेकेण?णं? गोयमा ! दिवा सुभा पोग्गला तमोरूपत्वात्तस्य। भ० स्था०। अर्शाद्यच् ,अन्धकारवति, त्रि०। ज्ञा० सुभे पोग्गलपरिणामे, रातिं असुभा पोग्गला असुभे 10 / औ०। पोग्गलपरिणामे / से तेण?णं / नेरइया णं भंते ! किं उज्जोए अंधका(या)रपक्ख-पुं०(अन्धकारपक्ष) कृष्णपक्षे, सूर० / अंधयारे ? गोयमा ! नेरइयाणं नो उज्जोए ,अंधयारे / से 13 पाहु०। के णटेणं? गोयमा ! नेरइयाणं असुमा पोग्गला असुभे अंधग-पुं०(अहिप) वृक्षे, भ०१८ श० 4 उ०। पोग्गलपरिणामे से तेणढेणं / असुरकुमाराणं भंते ! किं उज्जोए अंधयारे ? गोयमा ! असुरकुमाराणं उज्जोए नो अंधयारे / से अंधगवहि-पुं०(अंहिपवह्नि) अहिपा वृक्षास्तेषां वहयस्तदाकेणटेणं? गोयमा ! असुरकुमाराणं सुभा पोग्गला सुभे पोग्गल श्रयत्वेनेत्यहिपवह्रयः। बादरतेजस्कायेषु। भ०१८ श०४ उ०॥ परिणामे, से तेणटेणं जाव एवं वुबइ, जाव थणियाणं / *अन्धकवह्नि-अन्धका अप्रकाशकाः सूक्ष्मनामकर्मोदयाद्यं वयस्ते पुढवीकाइया जाव तेइंदिया जहा नेरइया। चउरिदियाणं भंते ! अन्धकवह्नयः। सुक्ष्मतेजस्कायेषु / किं उज्जोए अंधयारे ? गोयमा ! उज्जोए वि अंधयारे वि से जावइया णं भंते ! चरा अंधगवण्हिणो जीवा, तावइया परा केणटेणं? गोयमा! चरिंदियाणं सुभासुभा पोग्गला सुभासुभे अंधगवण्हिणो जीवा ? हंता ! गोयमा ! जावइया चरा पोग्गलपरिणामे / से तेणढे णं, एवं जाव मणुस्साणं / अंधगवण्हिणो जीवा, तावइया परा अंधगवण्हिणो जीवा / सेवं वाणमंतरजोइसवेमाणिया जहा असुरकुमारा / भंते ! भंतेत्ति। "से णूणमित्यादि" (दिवा सुहा पोग्गलत्ति) दिवा दिवसे शुभाः पुद्गला तत्परिमाणाः (परत्ति) पराः प्रकृष्टाः स्थितितो दीर्घायुष इत्यर्थः। इति भवन्ति / किमुक्तं भवति शुभपुद्गलपरिणामः स चार्ककर-संपर्कात् प्रश्नः हन्तेत्याधुत्तरमिति / भ०१८ श०४ उ० / यदुवंशजनृप-भेदे, (रतिंति) रात्रौ / (नेरइयाणं असुभा पोग्गलत्ति) तत्क्षेत्रस्य "वारवतीए णयरीए अंधगवण्हि णामं राया परिवसइ, महया हिमवतं पुद्गलशुभतानिमित्तभूतरविकरादिप्रकाशकवस्तुवर्जितत्वात् / वण्णओ / तस्स णं अंधगवहिस्स रण्णो धारणी णाम (असुरकुमाराणं सुहा पोग्गलत्ति ) तदा सूर्यादीनां भास्वरत्यात् देवी होत्था' / अन्त० / अन्धकवहेर्दश पुत्राः 'समुद्दे 1 सागरे (पुढविकाइयेत्यादि) पृथिवीकायिकादयस्त्रीन्द्रियान्ता यथा नैरयिका 2 गंभीरे 3 थिमिए 4 अयले 5 कंपिल्ले 6 अक्खोभे 7 पसेणई उक्तास्तथा वाच्या / एषां हि नास्त्युद्योतोऽन्धकारं चास्ति / पविण्हुई। एते नव एतेषां प्रथमो गौतम इति दश। अन्त०१ वर्ग01 Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंधगवहि 108 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंब अहं च भोगरायस्सतंच चि अंधगवण्हिणो। त्वं च भवसि अन्धकवृष्णेः समुद्रविजयस्य सुत इति गम्यते। दश०२ अ०। ग० / अंधतम-न०(अन्धतमस) अन्धकारे, तत्रान्धतमसस्तेजोरूपा-न्तरस्य संक्रमे, "असूरियं नाम महाभितावं अंधतमं दुप्पतरं महंते''। सूत्र०१ श्रु०५ अ०। (अत्र प्राकृतत्वादन्धतम इति) अंधतमस-न०(अन्धतमस) अन्धं करोतीत्यन्धयति / अन्धयतीत्यन्धं, तच तमश्चेति अन्धतमसमासमवान्धात्तमस इत्य-प्रत्ययः / निबिडान्धकारे, स्या०६८ पत्र / अंधतामिस्स-न०(अन्धतामिस्र) तमिस्रा तमस्सन्ततिः। तमिव तामिस्रम् / अन्धयतीत्यन्धम् कर्म / स० / निबिडान्धकारे, सायशास्त्रप्रसिद्धे भयविशेषविषयकेऽभिनिवेशे, पुं०। स्या० 36 पत्र / देहे नष्टे अहमेव नष्ट इत्यज्ञाने च / वाच०। अंधपुर-न०(अन्धपुर) नगरभेदे, यत्र अनन्धो राजाऽन्धभक्तः / बृ०४ उ०। अंधपुरिस-पुं०(अन्धपुरुष) जात्यन्धे, यथा मृगापुत्रः। वि०१ अ०। अंधल-पुं०(अन्ध) प्राकृते विद्युत्पत्रपीतान्धाल्लः।८।२।१७३। इति स्वार्थे लः / प्रा० / चक्षुद्रयहीने, बृ०४ उ०। नि० चू०। (अन्धदृष्टान्तो व्युद्ग्राहितशब्दे-सिक्खाशब्देऽप्यन्धदृष्टान्तः) अंधारूव-त्रि०(अन्धरूप) अन्धाकृतौ, "तएणं सामिया देवी तदा रूपं हुंड अंधारूवं पासई''। विपा०१०। अंधिया-स्त्री०(अन्धिका) चतुरिन्द्रियजीवविशेषे, उत्त० 36 अ०) प्रज्ञा० / जी। अंधि(धे)ल्लग-पुं०(अन्ध) अन्ध एवान्धिल्लकः / जात्यन्धे, प्रश्न० आश्र० 1 द्वा०। चक्षुर्विकले,पिं०। प्रश्न०। अंधी-स्त्री०(अन्ध्री) अन्ध्रदेशजस्त्रियाम्, "अन्ध्रीणां च ध्रुवं लीलाचलितं भूतले मुखे / आसज्य राज्यभारं स्वं, सुखं स्वपिति मन्मथः ||1|| आव०४ अ०। अंब-पुं०(अम्ब) पञ्चदशासुरनिकायान्तर्वर्तिपरमाधार्मिक-निकायानां प्रथमे परमाधार्मिके, यो देवो नारकानम्बरतले नीत्वा विमुञ्चत्यसावम्ब इत्युच्यते। भ०३ श०६ उ०। ते चाम्बाभिधाः परमाधार्मिका यादृक्षां वेदनां परस्परोदीणदुःखं चोत्पादयन्ति, तां दर्शयितुमाह। धाडेंति पहाडेंति य, हणंति विंधति तह णिसुंभंति। मुंचंति अंबरतले, अंबा खलु तत्थ णेरइया ||70|| 'धाडेतीत्यादि' तत्राम्बाभिधानाः परमाधार्मिकाः स्वभवनान्नरकावासं गत्वा क्रीडया नारकान् अत्राणान् सारमेयानिव शूलादिप्रहारैस्तुदन्तो (धातित्ति) प्रेरयन्ति / स्थानात् स्थानान्तरं प्रापयन्तीत्यर्थः / तथा (पहाडेंतित्ति) स्वेच्छयेतश्चेतश्चाऽनाथं भ्रमयन्ति। तथाऽम्बरतले प्रक्षिप्य पुनर्निपतन्तं मुद्रादिना प्रन्ति। तथा शूलादिना विध्यन्ति तथा (निसंभंतित्ति) कृकाटिकायां गृहीत्वा भूमौ पातयन्ति / अधोमुखमथोत्क्षिप्याम्बरतले मुञ्चन्तीत्येव-मादिकया विडम्बनया तत्र नरकपृथिवीषुनारकान् कदर्थयन्ति। सूत्र० 1 श्रु०५ अ०। आव01 आo चू०। (अंबरीस-शब्देऽपि) *अम्ल-न०। अम् -ल। तक्रे, रसभेदे, पुं०। तद्वति, त्रि०ा वाच०। *आम्ल-त्रिका तक्रादिसंस्कृते,जं०३ वक्ष०प्र०। *आमू-पुं०। अम् गत्यादिषु, रन् दीर्घश्च / ह्रस्वः संयोगे।८।१। 54 // इति सूत्रेण आदेहस्वत्वम् / प्रा० / चूतवृक्षे, स्था० / दर्श (पावस्थादिभिः संसर्ग क्षेत्रनाशे आमूकदृष्टान्तः खेतशब्दे) तस्य फलम् अण,तस्य लुक् / आमूफले / नपुं०। अनु०। अप्रासुकाऽऽमूग्रहणनिषेधो यथा - अह भिक्खू इच्छेज्जा अंबं भोत्तए वा, से जं पुण अंबं जाणेज्जा सअंडं जाव ससंताणं तहप्पगारं अंबं अफासुयं जाव णो पडिगाहेजा। से भिक्खू वा मिक्खुणीवा से जं पुण अंबं जाणेज्जा सअडं जाव संताणगं अतिरिच्छच्छिणं अवोच्छिण्णं अफासुयं जाव णो पडिगाहेजा। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेजं पुण अंबं जाणेज्जा अप्पंडं जाव संताणगं तिरिच्छच्छिण्णं वोच्छिण्णं फासुयं जाव पडि गाहेजा / से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंखेज्जा अंबभित्तगं वा अंबपेसियं वा अंबचोयगं वा अंबसालगं वा अंबडालगं वा भोत्तए वा पायए वा से जं पुण जाणेज्जा अंबभित्तगं जाव अंबडालगं वा सअंडं जाव संताणगं अफासुयं जाव णो पडिगाहेजा। से मिक्खू वा मिक्खुणी वा से जं पुण जाणेजा अंबभित्तगं वा अप्पंडं जाव संताणगं अतिरिच्छच्छिण्णं वा अफासुयं जाव णो पडिगाहिज्जा / से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण जाणेज्जा अंबभित्तगंवा अप्पंडं जाव संताणगं तिरिच्छच्छिण्णं वोच्छिण्णं फासुयं जाव पडिगाहेजा। से इत्यादिस भिक्षुःकदाचिदाभूवनेऽवग्रहमीश्वरादिकंयाचेततत्रस्थश्च सतिकारणेआमूंभोतुमिच्छेत्तच्चा साण्डं ससन्तान-कमप्रासुकमितिच मत्वा न प्रतिगृह्णयादिति। किंच'सेत्या दि' सभिक्षुर्यत्पुनरामूमल्पाण्डमल्पसन्ताकं वा जानीयात्किं त्वतिर चीनच्छिन्नं तिरश्चीनमपाटितं तथा, व्यवच्छिन्नं न खण्डित यावद-प्रासुकं न प्रतिगृह्णीयादिति।तथा 'सेइत्यादि"सभक्षुिरल्पा-ण्डमल्पसन्तानकं तिरश्चीनच्छिन्नं तथा व्यवच्छिन्नं यावत्प्रासुकंकारणे सतिगृह्णीयादिति। एवमामावयवसंबन्धिसूत्रत्रयमपिनेयमिति। नवरम् 'अंबभित्तयं" आमार्द्धम् "अंबपेसी''आम्फाली(अंबचोय-गति)आमच्छल्लीसालगं (अंब-डालगति)आमसूक्ष्मखण्डानीति।आचा०२श्रु०७अ०२उ०। जे भिक्खू सचित्तं अंबं भुजइ अंबं मुंजंतं वा साइज्जइ / / 5 / / जे भिक्खू सचित्तं अंबं विडसइ विडसंतं वा साइजइ॥६॥ एवं सचित्तपइडिते वि दो सुत्ता / एते चउरो सुत्ता एतेसिं इमो अत्थो / सचित्तं णाम सजीवं चतुर्थरसास्वादं गुणणिप्फण्णं णाम अंबं। भुजपालनाभ्यवहारयोः। इह भोयणे दडव्यो आणादी, चउलहुंच पच्छित्त। एवं बितियसुत्तं पि, णवरं विडसणं भिक्खणं विविहेहिं पगारेहि डसति विडसइ / एवंपइट्ठिए वि, णवरंचउभंगो। सचित्ते पइट्ठिइतेपइट्टितं सचित्तं, अचित्ते अचित्तं, सचित्तेसुआदिल्लेसुदोसुभंगेसुचउलहुँ। चरिमेसु दोसु मासलहुं। इमो सुत्तफासो। सचित्तं वा अंबं,सचित्तपडिट्ठियं च दुविहं तु / जो मुंजे विडसे सो,पुण अगाढं भोदि तो भण्णति ||3|| Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंब 109 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंबगपेसिया आगाढफरुसमीसग,दसमुद्देसम्मिवणियंपुव्वं। चेव भणियं / आचार्य आह- सच्चं, किंतु ततं पलंबत्तणेण पञ्जत्तंबंडियं तं चेव वजवत्यो,सो पावति आणमादीणि / / 4 / / गहियं, इमं तु पलं बत्तणं अपज्जत्तं अबद्धट्ठियं अविपकरं सचित्तं सचित्ते पइट्ठियं वा एयं चेव दुविहं,सेसं कंठं। सव्वादसकलमेवेत्यर्थः / पेसी दीहागारा, अद्धं भित्तं, बाहिरा छल्ली अमिलाताभिणवं वा,अपक्वं सचित्तं होति छिण्णं वा। सालं भण्णइ / अदीहं वि समचक्कलियागारेण जं खंड तं गलं भण्णति, तंचिय सयं मिलातं,रुक्खगयं सचेयणपतिद्वं|शा बहरुणिमागाराजे केसरातं चोयं भण्णति। जं अभिणवं छिvणं अमिलाणं तं सचित्तं भवति। जंच रुक्खे चेव द्वितं इमो सुत्तफासो। गाहाअच्छिण्णं बद्धट्टियं अबद्धट्ठियं वा अपक्कं वा तं पिसचित्तं / तं चिय तदेव एसेव गमओनिदा- डगले सालेयमिमपं चोए। अंबादियं पलंबरुक्खे चेव ट्ठियं दुव्वायमादिणा अप्पणा वा अप्पजति चउसु वि सुत्तेसु भवे, पुव्वे अवरम्मि य पदे उll भावं मिलणं ते सचेयणपतिट्ठियं भण्णति। अंबगं पेसिवज्जा चउसु सुत्तेसुत्ति, सेसं कंठं। अहग आदिल्लेसु चउसु अहवाजं बद्धठियं,बाहिरपक्वं तं चेयणपतिढें। सुत्तेसु जो गमो भणितो सो चेव गमो अंबगादिएसुछसु पदेसु सविडसणेसु विविह दसणे य जंवा,अक्खंदति विडसणे होति / / 6|| भाणियव्यो। चोदगाह-णणु पढमसुत्तेसु भणितो चेव अत्थो, किं पुणा जंवा पलंबं बाहिरं कडाहपक्कं अंतो सचेयण बीयं तंवा सचित्त-पतिट्ठियं अंबगादियाणं गहणं / आचार्य आह / गाहाभण्णति / अपतीतव्वं अनपतीयव्वं च गुडेन वा सह कप्पूरेण वा सह एवं ताव अभिण्णे, अस्सेव पुणो इमो भेदो। तथान्येन वालवणचातुर्जातकवासादिना सह एसा विविहदसणाअक्खंद डगलं तु होइ खंडं, सालं पुण बाहिरा छल्ली // 10 // इति चक्खिउं मुंचति अन्योन्यं णहेहि वा अक्खंदति नखपदा वि एवं ताव आदिल्लेसुचउसुसुत्तेसुअभिण्णाणग्गहणं। अहवा आदिसुत्तेसु ददातीत्यर्थः / एसा वा विडसणा भण्णति एवं परिते भणियं, अणते वि अविसिटुं गहणं, इह विसिटुं गहणं कयं / अहवा मा कोइ वितिहिति एवं च, नवरं चउगुरुपच्छित्तं। सचित्ते सचित्तं पतिहिते य दोसु वि सुत्तेसु अभिण्णभक्खणिज्ज, भिण्णं अभक्खणिज, भिण्णं पुण भक्खंतेण इमो अववातो गाहा। अंबगपेसिमादिगायिणि सिज्झंति। डगलं तुपच्छद्ध कंठं / गाहाबितियपदमणप्पन्मे, मुंजे अविकोविए य अप्पडमा। भित्तं तु होइ अद्ध, चोयं जे तस्स केसरा होति। जाणंते वावि पुणो गिलाण अद्धाणओमे वा / / 7 / / सुहपण्हकरं हारितेण तु अंबे कयं सुत्तं // 11|| खेत्तादिगो अणप्पभो वा भुजति सेहो वा अविकोवियतराओ अजाणतो पुव्वद्धं कंठं, चोदगाहा-किं अणेगाओ लंघादिया फला भक्खा जेण रोगोवसमणिमित्तं वेज़ वा दसतो गिलाणो वा भुंजे अद्धाणोमेसु वा अंबं चेव णिसिज्झति। आचार्य आह / एगगहणागहणं तज्जातीयाणंति असंथरता भुंजंता विसुद्धा। इमो दोसुवि विडसमाणसुत्ते अश्वातो गाहा। | सव्वे संगहिया। अंबं पुण सुहपण्ह पच्छद्धं अंबेण सुहं पल्हाति पस्पंदते बितियपदमणप्पन्भे, विडसे अवितेव अप्पन्भे। इत्यर्थः / किं च हारितं जिह्वेन्द्रियप्रीति-कारकमित्यर्थः / अनेन कारणेन जाणते यावि पुणो, गिलाण अद्धाणओमे वा ||8|| अंबे सूत्रप्रतिबन्धः कृतः। अन्याचार्याभिप्रायेण गाथाकंठं, णवरं चोदग आह-विडसणालीला तं अक्वातेमा करेउ। आचार्य अंबे भणति ऊणं,डगलद्धं भित्तगं चउब्भागो। आहाजरटबाहिरकडाहतं अयणेउं खायंतस्स अववादो, ण दोसो।जइ चोयणं तया उ भणति,सगलं पुण अक्खुयं जाणा // 12 // वा पलंबस्स जो उवकारी लवणादिके तेण सह तं भुजंतस्स ण दोसो। थोवेण ऊणं अंबं भण्णति, डगलं अद्धभण्णति, भिन्नं चउ-भागादि, कोमलं जरटं वा इमति परिणाहेउं णहमादीहि वि अखुद्देज्जा। तया चोयणं भण्णति, नरकादिभिक्खूण सालं भण्णति / अक्टुं (सूत्तम् ) जे भिक्खू सचित्तं अंबं वा अंबपेसियं वा अंबभित्तिं अंबसालमित्यर्थः,पेसी पूर्ववत्वा अंबसालगं वा अंबचोयगंवा भुंजइ भुंजंतं वा साइजइ / / 7 / / सच्चित्तं च फलेहिं,अग्गपलंबा तु सुत्तिता सव्वे। जे भिक्खू सचित्तं अंबंवा अंबपेसियं वा अंबभित्तिं वा अंबसालगं अग्गपलंबेहि पुणो, मूलं चेव कया सुया य॥१३॥ वा अंबडालगं दा अंब-चोयगं वा विडसइ विडसंतं वा नि० चू०१५ उ०। साइजइ // 6 // जे भिक्खू सचित्तपइट्ठियं अंबं मुंजइ भुजंतं वा साइजइ॥६॥ जे भिक्खू सचित्तपइट्ठियं अंबं विडसइ विडंसंतं अंबक-न०(अम्बक) अम्बति शीघ्रं नक्षत्रस्थानपर्यन्तं गच्छति। अम्ब वा साइज्जइ॥१०॥जे भिक्खू सचित्तपइट्टियं अंबंवा अंबपेसियं __ण्वुल / नेत्रे, अम्ब्यते स्नेहेनोपशब्द्यते घञ् स्वार्थे क / पितरि, वा अंबंसालगं वा अंबडालगं वा अंबचोयगं वा मुंजइ भुजंतं वा वाच! साइज्जइ / / 11 / / जे भिक्खू सचित्तपइट्ठियं अंबं वा अंबपेसियं *अम्लक-पुं० अल्पोऽम्लः, अल्पार्थे कन् / लकुचवृक्षे। वाच० / वा अंबभित्तिं वा अंबसालगं वा अंबडालगं वा अंबचोयगं वा / *आमूक-न० / चूतफले, पिं०। विडसेइ विडसंतं वा साइजइ।।१२।। अंबगट्ठिया-न०(आमूकास्थि) आमूकस्य फलविशेषस्या-स्थीनि, एते छ सुत्तपदा, विडसणाए विछचेवाएतेसिं इमो अत्थो अंबं सकलंण | आतपे दत्तेषु शुष्कामूफलास्थिषु, अनु०। केणई ऊणं / चोदग आह-आदिल्लेसु चउसु सुत्तेसुण पलंबणुसंकल्पं | अंबगपेसिया-स्त्री०(आमूकपेशिका) आम्फलखण्डे, अनु०। Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंबचोयग 110 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंब(म्म)म अंबचोयग-न० स्त्री०(आमूत्वच्) आमूच्छल्याम् , आचा०२ श्रु०७ अ०२ उ०। अंबट्ठ-पुं०(अम्बष्ठ) अम्बाय चिकित्सकल्याय तत्प्रख्यापनार्थं तिष्ठते अभिप्रैति / स्था-क , षत्वम् / चिकित्सके, वाच० / ब्राह्मणेन वैश्यायां जातेऽवान्तरजातीये, सूत्र०१ श्रु० 6 अ० / आचा० / अयं जात्याऽऽर्यत्वेनेभ्यजातित्वेन चोपदर्शितः / स्था० 6 ठा० / प्रज्ञा० / देशभेदे, हस्तिपके च / यूथिकायाम् / स्त्री०। स्वार्थे कन् , अत इत्वे / अम्बष्ठिकाऽप्यत्र 'वामनहाडी'' इति ख्यातायां लतायाम्, वाच०। अंब(म्म)म-पुं० [अम्ब(म्म) ड] ब्राह्मणपरिव्राजकभेदे / औ०। तद्वक्तव्यता चैवम्। अम्बडशिष्याणामनशनेन मृत्वा देवलोके उपपातःतेणं कालेणं तेणं समएणं अम्मडस्स परिव्वायगस्स सत्त अंतेवासिसयाइं गिम्हकालसमयंसि जेट्ठामूले मासंसि गंगाए महानईए उभउकूले कंपिल्लपुरातोणगराओ पुरिमतालं णगरं संपट्ठिआ विहाराए। तएणं तेसिं परिव्वायगाणं तीसे अगामियाए छिण्णोवायाए दीहमद्धाए अडवीए किंचि देसंतरमणुपत्ताणं से पुव्वगहिए उदए अणुपुव्वेणं परिभुजमाणे झीणे / तए णं ते परिव्वायगा झीणोदका समाणा तण्हाए परिभवमाणा परिपरिउदगदातारमपस्समाणा अण्णमण्णं सद्दावेति अण्णमण्णं सद्दावित्ता एवं वयासी- एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्ह इमीसे अगामिआए जाव अडवीए किंचि देसंतरमणुपत्ताणं से उदए जावज्झीणे, तं सेयं खलु, देवाणुप्पिया ! अम्ह इमीसे अगामियाए जाव अडवीए उदगदातारस्स सव्वओ समंता मग्गणं गवेसणं करित्तए त्ति कटु अण्णमण्णस्स अंतिए एअमटुं पडिसुणंति पडिसुणंतित्ता तीसे अगामियाए जाव अडवीए उदगदातारस्स सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करेइ करित्ता उदगदातारम-लभमाणा दोचं पि अण्णमण्णं सद्दावेइ सद्दावेइत्ता एवं वयासी-इहं णं देवाणुप्पिया उदगदातारो णत्थि / तं णो खलु कप्पइ अम्ह अदिण्णं गिण्हेत्तए, अदिण्णं सति जित्तए तं माणं अम्हे इदाणिं आवइ कालं पि अदिण्णं गिण्हामो, अदिण्णं आदिज्जामो, मा णं अम्हं तवलोवे भविस्सइ / तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया ! तिदंडयं कुंडियाओ य कंचणियाओ य करोडियाओ य मिसियाओ य छण्णालए य अकुंसए य केसरीयाओ य पवित्तएय गणेत्तियाओ यछत्तएयवीहणाओ अ पाउआओ अधाउरत्ताओय एगते पडित्ता गंगामहाणइं ओगाहित्ता वालु असंथारए संथरित्ता संले हणाज्झाओ सियाणं भत्तपाणयाइपञ्चक्खित्ताणं पादओवगयाणं कालं अणवकंखमाणाणं विहरित्तए त्ति कठ्ठ अण्णमण्स्स अंतिए एअमट्ठ पडिसुणंति अण्णमण्णस्स अंतिएपडिसुणित्ता तिदंडए यजाव एगते पडेइ पडेइत्ता गंगामहाणई ओगाहेइ ओगाहेइत्ता वालु आसंथारए संथरंति वालुया-संथारयं दुरुहिं ति वालुयासंथारए दुरुहिंतित्ता पुरत्थाभिमुहा संपलियंकनिसन्ना करयल० जाव कटु एवं वयासी-णमोत्थु णं अरहंताणं जाव संपत्ताणं, नमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव संपाविउकामस्स / नमोत्थु णं अंबडस्स परिव्वायगस्स अम्हं धम्मायरियस्स धम्मोवदेसगस्स, पुव्वे णं अम्हे अम्मडस्स परिव्वायमस्स अंतिएथूलगपाणाइवाए पच्चक्खाए जावजीवाए, मूसावाए पञ्चक्खाए जाव-ज्जीवाए , अदिण्णादाणे पच्चक्खाए जावजीवाए, सव्वे मेहुणे पचक्खाए जावज्जीवाए,थूलए परिगहे पच्चक्खाए जावजीवाए / इदाणिं अम्हे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं सव्वं पाणाइवायं पञ्चक्खामो जावजीवाए, एवं जाव सव्वं परिग्गहं पच्चक्खामो जावञ्जीवाए। सव्वं कोहं माणं मोयं लोहं पेजं दोसं कलहं अब्भक्खाणं पेसुण्णं परिपरिवायं अरइरइमा-यामोसं मिच्छादसणसल्लं, अकरणिचं जोगं पचक्खामो जोवज्जीवाए / सव्वं असणं पाणं खाइमं साइमं चउव्विहंपि आहारं पञ्चक्खामो जावञ्जीवाए / जंपिय इमं सरीरं इटुं कंतं पियं मणुण्णं मणाम थेचं वेसासियं संमतं बहुमतं अणुमतं भंडकरंडकसमाणं, मा णं सीयं, मा णं उण्हं, माणं खुहा, माणं पिवासा,माणं वाला,माणं चोरा, माणं दंसा, मा णं मसगा, माणं वातियं, पित्तियं, संनिवाइयं, विविहा रोगातका परीसहो वसग्गा फु संतु त्तिकट्टु एतं पि णं चरमे हिं ऊसासणीसासेहिं वोसिरामि त्तिकटु संलेहणा झूसणा झूसिया भत्तपाणा पडियाइक्खिया पाओवगया कालं अणवकंखमाणा विहरंति। तए णं ते परिव्वायगा बहुई भत्ताइं अणसणाए छेतिंति छेतित्ता आलोइयपडिक्ता समाहिपत्ता कालमासे कालंकिचा बंभलोए कप्पे देवत्ताए उववण्णा / तेहिं ते सिं गई, दससागरोवमाई ट्ठिई पन्नत्ता,परलोगस्स आराहगा / सेसं तं चेव 13 // औ०। एते च यद्यपि देशविरतिमन्तस्तथापि परिव्राजकक्रियया ब्रह्मलोकंगता इत्यवसे यमन्यथैतद् भणनं वृथैव स्यादेशविरतिफलं त्वेषां परलोकाराधकत्वमेवेति / न च ब्रह्मलोकगमनं परिव्राजकक्रियाफलमेषामेवोच्यते, अन्येषामपि मिथ्यादृशां कपिल प्रभृतीनां तस्योक्तत्वादिति। औ०। भ०। अम्बडस्य व्रतग्रहणम्। बहुजणे णं भंते ! अण्णमण्णस्स एवमाइक्खंति एवं भासइ एवं परूवेइएवं खलु अंबड़े परिव्वायए कंपिल्लपुरे णयरे घरसते आहारमाहारेति घरसते वसहि उवेइत्ति, ता से कहमेयं भंते ! एवं गोयमा ! जंगणं से बहु जणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ जाव एवं परूवेति एवं खलु अंबडे परिव्वायए कंपिल्लपुरे जाव घरसते वसहिं उवेइ / सच्चेणं ए समठे। अहं पि णं गोयमा ! एवमाइ-क्खामि जाव एवं परूवेमि एवं खलु अंबडे परिव्वायए जाव वसहिं उवेइ / के णढे णं मंते ! एवं दुचइ, Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंब(म्म)म 111 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंब(म्म)म - अंबडे परिव्वायए जाव वसहिं उवेइ गोयमा ! अम्मडस्स णं परिवायगस्स पगइभद्दयाए जाव विणीयाए छटुं छटेणं अतिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड्ढं बाहाओ पगिज्झिय 2 | सूराभिमुहस्स आतावणभूमीए आतावे माणस्स सुभेणं परिणामेणं पसत्थाहिं लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं अन्नया कयाइ तदावरणिज्जाणं कम्माणं जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहामग्गणगवेसणकरेमाणस्स वीरियलद्धीए वेउवियलद्धीए ओहिणाणलद्धी समुप्पण्णा। तए णं से अम्मडे परिव्वायए ताए वीरियलद्धीए वेउव्वियलद्धीए ओहिणाणलद्धीप समुप्पण्णाए जणविम्हावणहे उं कपिल्लपुरे घरसते जाव वसहिं उवेइ। से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चई अंबडे परिव्वायए कंपिल्लपुरे नगरे घरसए जाव वसहिं उवेइ। पभू णं भंते ! अंबडे परिवायए देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए ? णो तिणडे समढे / गोयमा ! अम्मडे णं परिव्वायए समणोवासए अभिगयजीवाजीवे जाव अप्पाणं भावेमाणे विहरति, णवरं ऊसियफलिहे अवंगुदुवारे चियत्तंते पुरघरदार-पवेसीणवं ण वुचति / अम्मडस्स णं परिव्वायगस्स थूलए पाणातिवाते पचक्खाते जावजीवाए जाव परिग्गहे, णवरं सव्वे मेहुणे पचक्खाते जावजीवाए | अम्मडस्स णं णो कप्पइ अक्खसोतप्पमाणमेत्तं पि जलं सग्रहं उत्तण्हं उत्तरित्तए। णण्णत्थ अद्धाणगमणेणं अम्मडस्स णं णो कप्पइ सगडं एवं चेव भाणियव्वं / जाव णण्णत्थ एगा एग गामट्टियाए। अंबडस्स णं परिव्वायगस्स णो कप्पइ आहाकम्मिए वा उद्देसिए वा सीसजाएति वा अज्झोअरएइ वा पूइकम्मेइ वा कीयगडेति वा पामिचेइ वा णिअणिसिद्धेइ वा अभिहडेइ वा द्वइत्तए वा रइत्तए वा, कंतारभत्तेइ वा दुढिमक्खभत्तेइ वा पाहुणकभत्तेइ वा गिलाणभत्तेइवा वदलियामत्तेइ वा भोत्तएवापाइत्तएवा। अंबडस्स णं परिव्वायगस्स णो कप्पइ मूलभोयणे वा जाव बीयभोयणे वा भोत्तए वा पाइत्तए वा / अंबडस्स णं परिव्वायगस्स चउविहे अणत्थदंडे पचक्खाए जावजीवाए, तंजहाअवज्झाणायरिए पमादायरिए हिंसप्पयाणे पावकम्मोवदेसे / अंबडस्स कप्पइ मागहए अ आढए जलस्स पडिग्गाहित्तए। से विय वहमाणए,नो चेवणं अवहमाणए / जाव से विपूए,नो चेवणं अपरिपूए। से वि य सावजेत्ति काऊ णो चेवणं अणवजे से विय जीवाई कट्ठ णो चेवणं अजीवा / से विय दिपणे, णो चेव णं अदिण्णे। से विय दंतहत्थपायचारुमसक्खालणट्ठताए पवित्तए वा, णो चेव णं सिणाइत्तए / अंबडस्सणं परिव्वायगस्स कप्पइमागहए य आढए जलसपडिग्गहित्तए से विय वयमाणे दिन्ने, नो चेवणं अदिण्णे। से वि य सिणाइत्तए णो चेव णं हत्थपादचारु वमसपक्खालयणट्ठयाए पिवित्तए वा अंबडस्स परिव्वायगस्सणो कप्पइ अन्नउत्थिया वा अण्णउत्थितदेवयाणि वा अण्णउत्थितपरिग्गहियाणि वा चेइयाई वंदित्तए वा णमंसित्तए वा, जाव पज्जुवासित्तए वा, अरिहंतेवा, अरिहंतचेइयाणि वा। (णणत्थ अरहंतेवत्ति ) न कल्पते इह योऽयं नेति प्रतिषेधः सोऽन्यत्रार्हद्भ्यः अर्हतो वर्जयित्वेत्यर्थः / स हि किल परिव्राजक वेषधारकोऽतोऽन्ययूथिकदेवतावन्दनादिनिषेधे अर्हतामपि वन्दनादिनिषेधो मा भूदिति कृत्वा णण्णत्थेत्याद्यधीतं, औ० / भ०। अम्बडस्य मृत्वोपपातःकालमासे कालं किया कहिं गच्छहिंति कहिं उवव-शिहिंति ? गोयमा! अंबडे णं परिव्वायए उच्चावएहिं सीलव्वयगुणवेरमणपचक्खाणपोसहोववासेहिं अप्पाणं भावेमाणे बहू. वासाई समाणोवासयपरियायं पाउणित्तए पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झूसित्ता सहिँ भत्ताई अणसणाई छे दित्ता आलोइयपडिक्कंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किया बंभलोए कप्पे देवत्ताए उववज्जेहिंति / तत्थ णं अप्पेगइयाणं देवाणं दससागरो-वमाइंठिती पण्णत्ता,तत्थणं अम्मडस्स वि देवस्स दस-सागरोवमाइं ठिती। से णं मंते ! अंबडे देवत्ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ट्ठिइक्खएणं अणंतरं चइ चइत्ता कहिं गच्छेहित्ति कहिं उववज्जइत्ति ? गोयमा! महाविदेहे वासे जाइं कु लाई भवंति अढाई दित्ताई वित्ताई विच्छिण्ण विउल-भवणसयणासण जाण वाहणाई बहुधणजायरूवरयत्ताई आओगपओगसंपउत्ताई विच्छडियपउरभत्तपाणाई बहुदासी-दासगोमहिसवेलगप्पभूयाई बहुजणस्स अपरिभूयाई तहप्पगारे सु कुलेसु पुमत्ता पव्वायाहिंति। तएणं तस्सदारगस्स गब्भत्थस्स चेव समाणस्स अम्मपितीणं धम्मे दढपतिण्णो भविस्सइ / से णं तत्थ णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अद्धट्ठमाणराइंदियाणं वीतिकंताणं सुकुमालपाणिपाए जाव ससिसोमाकारे कंतं पियदंसणे सुरूवे दारए पयाहिंति / तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो पढमे दिवसे द्वितीपडियं काहिंति, तइयदिवसे चंदसूरदंसणियं काहिंति, छठे दिवसे जागरियं काहिंति, एक्कारसमे दिवसे वीतिबंतिणिव्वत्ते असुइ जावइ कम्मं करणे, संपत्ते बारसमे दिवसे अम्मापियरो इमं एयारूवं गुणं गुणणि-प्पन्नं णामधेज काहिंति जम्हा णं अम्हं इमंसि दारगंसि गब्भत्थंसि चेव समाणं सि धम्मे दढपतिण्णा, तं होऊ णं अम्हं दारए दढपइण्णणामेणं। तते णं तस्सदारगस्स अम्मापिपरोणामधेनं करेहिंति "दढपइण्णेत्ति" तं दढपइण्णं दारगं अम्मापियरो सातिरेगट्ठवासजातगं जाणित्ता सोभणंसि तिहिकरणदिवस Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंब(म्म)म 112 - अभिधानराजेन्द्रः- भाग 1 अंबभित्तय णक्खत्तमुहुत्तं सि कलायरियस्स उवणे हिंति / तए णं से परिव्राजके विद्याधरश्रमणोपासके च अस्य वक्तव्यता। कलायरिए ते दढपइण्णं दारगं लेहातियाओ गणियप्पहाणाओ चम्पायां नगर्यामम्बडो विद्याधरश्रावको महावीरसमीपे धर्ममुपश्रुत्य सउणरुयपञ्जवसाणाओ बावत्तरिकलाओ सुत्ततो य अत्थतो य राजगृहं प्रस्थितः, स च गच्छन् भगवता बहुसत्त्वोपकाराय भणितो यथा करणतो य सेहाविहिति / औ०। (कलानामानि कलाशब्दे) सुलसाश्राविकायाः कुशलवार्ताकथय। स च चिन्तयामास पुण्यवतीय, सिक्खावेत्ता अम्मापितीणं उवणेहिंति। तएणं तस्सदढपइण्णस्स यस्यास्त्रिलोकनाथः स्वकीयकुशलवार्ता प्रेषयति, कः पुनस्तस्या गुण दारगस्स अम्मापियरो तं क लायरियं विपुलेणं इति तावत्सम्यक्त्वं परीक्षे, ततः परिव्राजकवेषधारिणा गत्वा तेन भणिता असणपाणखाइमेणं साइमेणं वत्थगंधमल्लालंकारेण य सा, आयुष्मति ! धर्मो भवत्या भविष्यतीत्यस्मभ्यं भक्त्या भोजनं सक्कारेहिंति सम्माणे हिंति, सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता विपुलं देहि / तया भणित- येभ्यो दत्तं भवत्यसौ ते विदिता एव, जीवियारिहं पीइदाणं दलइस्सं ति विपुलं दलइत्ता ततोऽसावकाशविरचिततामरसासनासीनो जनं विस्मापयति स्म, पडिविसज्जेहिंति। तएणं से दढपइण्णे दारए बावत्तरिकलापंडिए ततस्तं जनो भोजनेन निमन्त्रधामास, स तु नैच्छत्। लोकस्तं पप्रच्छ नवंगसुत्तपडिबोहिये अट्ठारसदेसी-भासाविसारए गीतरती कस्य भगवन् ! भोजनेन भागधेयवतां मासक्षपणकपर्यन्तं संवर्द्धयिगंधव्वणट्टकुसले हयजोही गय-जोही रहजोही बाहुजोही ष्यसि / स प्रतिभणति स्म-सुलसायाः / ततो लोकस्तस्या वर्द्धनकं बाहुप्पमद्दी वियालचारी साहसिए अलं भोगसमत्थे आवि न्यवेदयत्। यथा तव गेहे भिक्षुरयं बुभुक्षुः। तयाऽभ्यधायि-किं पाखण्डिभविस्सति / तते णं दढपइण्णं दारगं अम्मापियरो भिरस्माकमिति / लोक स्तस्मै न्यवेदयत् / तेनापि व्यज्ञापि बावत्तरिकलापंडिअंजाव अलं भोगसमत्थं वियाणित्ता विपुलेहिं परमसम्यक् दृष्टिरेषा या महातिशयदर्शनेनापि न दृष्टिव्यामोहअण्णभोगेहिं लेणभोगेहिं वत्थभोगेहिं सयणभोगेहिं कामभोगेहिं मगमदिति / ततो लोकेन सहासौ तद्-गेरे नैषेधिकी कुर्वन्पञ्चनमउवणिमंतेहिंति / तए णं से दढपइण्णे दारए तेहिं विउले हिं स्कारमुच्चारयन् प्रविवेश / साऽप्यभ्युत्थानादिकां प्रतिपत्तिमकरोत् अण्णभोगेहिं जाव सयणभोगेहिं णो सजिहिंति,णो रजिहिंति, तेनाप्यसावुपबृंहितेति। स्था०। ठा०। अयमागमिष्यन्त्यामुत्स-पिण्यां णो गिद्धिहिंति, णो अववजिहिंति / से जहा णामए उप्पलेइ वा देवो नाम विंशस्तीर्थकृद् भूत्वा धर्म प्रज्ञाप्य सेत्स्यति पउमेइ वा कुसुमेइ वा नमिणेइ वा सुभगेत्ति वा सुगंधेत्ति वा यावत्सर्वदुःखानामन्तं करष्यिति / स्था० 6 ठा० / ती० / आ० म० पोंडरीएत्ति वा महापोंडरीएत्ति वा सत्तपत्तेइ वा सहस्सपत्तेइ वा द्वि०। नि० चू०। ही० / अयं पूर्वोक्तादम्बडपरिव्राजकादन्य एव / सतसहस्सपत्तेइ वा, पंके जाते जले संवड्ढे णोवलिप्पइ तदुक्तम् / यश्चौपपातिकोपाङ्गे महाविदेहे सेत्स्यतीत्यभिधीयते, सोऽन्य पंकरएणं, णोवलिप्पइ जलरएणं / एवमेव दढपइण्णे वि दारए इति सम्भाव्यते, इति / स्था० 6 ठा० / नि० चू० कामे हिं जाते भोगे हिं संवुडे णोवलिप्पहिति, कामरएणं णो वलिप्पहिंति, भोगरएणं णोवलि-पहिं ति / अंबडा(दा)लग-न०(आमूडालक) आमूसूक्ष्मखण्डेषु, आचा० श्रु० मित्तणाइणियगसयणसंबंधिपरिजणेणं,से णं तहारूवाणं थेराणं 2 अ०७। अंतिए के वलं बोहिं बुज्झिहित्ति / के वलबोहिं बुज्झित्ता | अंबत्त-न० [अ(आ)म्लत्व](अम्लरसवत्त्वे) "अंबत्तणेण जीहाए, कूविया अगाराओ अणगारियं पव्वहित्ति / सेणं भविस्सइ अणगारे भगवंते होइ खीरमुदगंमि" / विशे०। ईरियासमिति जाव गुत्तबंभयारी / तस्स णं भगवंतस्स एतेणं अंबदेव-पुं०(आमूदेव) नेमिचन्द्रसूरिकृताऽऽख्यानकमणि-कोशस्योपरि विहारेणं विहरमाणस्स अणंते अणुत्तरे णिव्वाघाए निरावरणे | टीकाकारके स्वनाख्याते आचार्य, जै० इ०। कसिणे पडिपुण्णे केवलवरणाणदंसणे समुप्पजेहिंति / तते णं | अंबपलंबकोरव-न०(आमप्रलम्बकोरक) आमः चूतस्तस्य प्रलम्बः फलं से दढपइण्णे केवली बहूई वासाइं केवली परियागं पाउणिहित्ती तस्य कोरकं तन्निष्पादक मुकुलमामूफलकोरकम् / कोरकविशेषे। एवं पाउणिहित्ता मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झुसित्ता सर्टि भत्ताई यः पुरुषः सेव्यमान उचितकाले उचितमुपकारकफलं अणसणाणं छेएत्ता जस्सवाए कीरए णग्गभावे मुंडभावे अण्हाणए जनयत्यसावामप्रलम्बकोरकसमान उच्यते, स्था०४ ठा०। अदंतवणए के सलोए बंभचेरवासे अब्भुतकं अणोवाहणकं अंबपल्लवपविभत्ति-न०(आमपल्लवप्रविभक्ति) नाट्यविधिभेदे, रा० भूमिसेज्जा फलहसेज्जा कट्ठसेज्जा परघरपवेसो लद्धावलद्धं वित्तीए परेहिं हीलणाओ खिंसणाओ जिंदणाओ गरहणाओ तालणाओ अंबपेसिया-स्त्री०(आभूपेशी) आमूस्य पेशीव शुष्कामूकोशे, वाच०। तज्जणाओ परिभवणाओ पव्वहणाओ उच्चावया गामकंटका आमूपेशी-स्त्री० आम्फल्याम्। आचा०२ श्रु०७ अ०७ / बावीसं परीसहोवसग्गा अहियासज्झंति / तमट्ठमाराहित्ता अंबफल-न०(आम्फल) रसालफले, व्य०६ उ० / (सागारिकचरिमे हि उस्सासणिस्सासेहिं सिज्झिहिं-ति बुज्झिहिंति | स्याम्फलानि आमूवृक्षश्वारोपित इत्येतत्कल्पते न वेति सागारीमुचिहिंति परिणिवाहिति सव्वदुक्खा-णमंतं करेहिंति / यपिंडशब्दे ) / औ०। भ०। | अंबभित्तय-न०(आमूभित्तक) आमार्द्ध ।आचा०२ श्रु०७अ०२२० / Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंबर 113 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अंबिल ति०। अंबर-न०(अम्बर) अम्बेव मातेव जननसाधादम्बा जलं तस्य अंबहुंडि-स्त्री०(अम्बहुण्डि) देवीभेदे। महा०२ अ०। राणाद्दानान्निरुक्तितोऽम्बरम् , आकाशे। भ०२ श०२ उ०।द्वा०। वस्त्रे, अंबा-स्त्री०(अम्बा) अम्ब्यते स्नेहेनोपगम्यते अम्बा / कर्मणि घञ्। नि०चू०१ उ०ा आ०म०प्र०।सूत्र०ाआव०प्रश्नास्वनामख्याते वाच०। मातरि / उत्त०३ अ० / स्था०। श्रीने मिनाथस्य गन्धकद्रव्ये, अभ्रकधातौ च, वाच०। तीर्थाधिष्ठातृदेवतायां च।साच अम्बादेवी कनककान्तरुचिः सिंहवाहना अंबरतल-न०(अम्बरतल) आकाशतले, रा०। ज्ञा० / चतुर्भुजा आमूलुम्बिपाशयुतदक्षिणकरद्वयासिपुत्रां-कुशाधिष्ठितवामअंबरतिलय-पुं०(अम्बरतिलक) धातकीखण्डस्थे पर्वतभेदे, यत्र करद्वया च। प्रव०२७ द्वा०॥ तस्याः प्रतिमा यथा-अहिच्छत्राया अविदूरे मङ्गलावतीविजयवर्त्तिनन्दिग्रामसन्निवेशस्थदरिद्रकुलजात-निर्नामिका सिद्धक्षेत्रे पार्श्वस्वामिनश्चैत्यप्राकारसमीपे श्रीने मिमूर्तिसहिता नाम कन्या मातुः खाद्यमनवाप्यतद्वचनेनगत्वा पक्वफलानिगृहीतवती। सिद्धबुद्धकलिता आमूलुम्बिहस्ता सिंहवाहना अम्बादेवी तिष्ठति, ती०७ आ०म०प्र०ा आ० चू०। कल्प०। प्रतिष्ठानपुरपत्तने ऐरवत-मेखलायां कृष्णेन अम्बादेवीप्रतिमा अंबरतिलया-स्त्री०(अम्बरतिलका) नगरीभेदे, यत्र दृप्तारिदप कृता "तत्थ य अंबाए सेण उववासतिगेण'। ती०२ कल्प / विमर्दनो महाराजः। दर्श०। अम्बष्ठालतायां, काशीराज-कन्यायां च वाच०। अंबरवत्थ-न०(अम्बरवस्त्र) स्वच्छतया अम्बरतुल्यानि वस्त्राणि अंबाजक्ख-पुं०(अम्बायक्ष) यक्षभेदे, "गोवाडंमि णिरुद्धा, समणा अम्बरवस्त्राणि स्वच्छवस्त्रेषु। कल्प०। रोसेण मिसिमिसाएंता। अंबाजक्खोय भणति, एवमवा-हेहि संघंति'। अंबरस-न०(अम्बरस) अम्बा पूर्वाक्तयुक्त्या जलं तद्रूपो रसो यस्मानिरुक्तितोऽम्बरसम् , आकाशे, भ० 20202 उ०। अंबाडग-पुं०(आमातक) आम् इवातति आमात् किञ्चिअंबरि(री)स-पुं०न०पअम्बरि(री)षब अम्ब्यते पच्यतेऽत्र अम्ब द्धीनरसफलकत्वात्। अत्-ण्वुल। (आमडा)१वृक्षे, २तत्फले, न०। अरिष, नि० वा दीर्घः / भर्जनपात्रे, अम्बरीसमपि। वाच० भ्राष्ट्र, भ०३ आमूण तत्फलरसेन तकते प्रकाशते / आ+तक हासे, अच् / श०६ उ० / प्रव०। कोष्ठके, लोहकाराम्बरीषे वा, जी०३ प्रति। शुष्कामूरसनिर्मिते (आमट् ) द्रव्यभेदे, तत्करणप्रकारः, भाव प्रत्ययः अंबरि(री)स(सि)-पुं० [अम्बरिष(रीष)ऋषि(र्षि)] यस्तु नारकान् उक्तः / यथा “आमूस्य सहकारस्य, कटेर्विस्तरितो रसः। धर्मशुष्को कल्पनिकाभिः खण्डशः कृत्वा भ्राष्ट्रपाकयोग्यान् करोतीत्य- / मुहुर्दत्ते, आमातक इति स्मृतः"। वाच०। प्रज्ञा०। अनु० / आचा०। सावम्बरीषस्य भ्राष्ट्रस्य संबन्धादम्बरीष इति द्वितीयपरमाधार्मिकः, अंबाडिय-त्रि०(आम्लित) आम्ल इव कृतः खरण्टिते, आ०म० द्वि०॥ प्रव०१८ द्वा० भ०स०। 'चमढेति खरंटेति अंबाडेतित्ति वुत्तं भवति / नि० चू० 4 उ० / ओहयहये य तहियं, णिस्सन्ने कप्पणीहिं कप्पति। विदुलगचटुलगछिन्ने, अंबरिंसी तत्थ णेरइए॥७१।। अंबातव-न०(अम्बातपस्) अम्बोद्देशेन कृतं तपः अम्बातपः लौकिकफलप्रदे तपोभेदे,तच अम्बातपः पञ्चसुपञ्चमीष्वेका-शनादि (ओहएत्यादि) उप सामीप्येन मुद्रादिना हता उपहताः पुन-रप्युपहता विधेयं नेमिनाथाऽम्बिकापूजा वेति, पञ्चा० 16 विव०। एव खड्गादिना हता उपहतहतास्तान्नारकान् तस्यां नरकपृथिव्यां अंबावल्ली-स्त्री०(अम्लवल्ली) अम्लरसवती वल्ली / त्रि० / निःसंज्ञकान् नष्टसंज्ञकान मूञ्छितान्सतः कप्पणीभिः कल्पयन्ति छिन्दन्तीतश्चेतश्च पाटयन्ति / तथा द्विदलचटुलक-च्छिन्नानिति पर्णिकानामकन्दभेदे, वाच०। वल्लीभेदे, प्रज्ञा०१ पद०। मध्यपाटितान् खंड शश्छिन्नांश्च नारकांस्तत्र नरक अंबिआ(या)-स्त्री०(अम्बिका) अम्बैव कन्। मातरि, दुर्गायां, वाच० / पृथिव्यामम्बर्षिनामानोऽसुराः कुर्वन्तीति। सूत्र०५ श्रु०५ अ०। आव० नेमितीर्थाधिपदेवतायां, तस्याः प्रतिमा मथुरायाम् / 'इत्थं कुबेरो प्रव०। आ० चू०। प्रश्न०। नरवाहणो अंबिआ सीहवाहणा' / ती० 10 कल्प० / अंबरिसि-पुं० [अम्बऋषि(र्षि)] उज्जयिनीवास्तव्ये ब्राह्मणभेदे, यस्य उज्जयन्तशैलशिखरेऽवलोकनशिखरात्प्राक् "अंबियाए भवणं दीसइ / मालुक्या प्रिया, निम्बः सुतः / (इति विणओवगय शब्दे वक्ष्यते)। ती०५ कल्प०। टिपुभिम्बिकामूर्तिः "अनाम्बिका-द्वारसमीपवत्तिनौ, आ०क०।आव०। आ० चू०। श्रीक्षेत्रपालो भुजषट्कभास्वरः। सर्वज्ञपादा-म्बुजसेवनालिनौ, संघस्य अंबवण-न०(आमूवण) आमूस्य वनम् / नित्यं णत्वम् / आम् विघ्नौधमपोहतः क्षणात्॥१॥ ती०४४ कल्प०। पञ्चमवासुदेवमातरि वृक्षसमुदायात्मके वने, वाच०। आचाo! च। स०। आव०! अंबसमाण-पुं०(अम्लसमान) "अंबफरिसेहिं अंबो, न तेहिं सिद्धिं तु अंबियासमय-पुं०(अम्बिकासमय) उज्जयन्तशैले गिरिप्रद्यु-म्नावतारे ववहारो" येषु वचनेषूक्तेषु परस्य शरीरं बिड बिडायते तानि _स्वनामख्याते तीर्थभेदे।"गिरिपज्जुण्णऽवयारे, अंबिअसमए व नामेणं। अम्लानि / अम्लैः परुषैश्च वचनैर्व्यवहारं न सिद्धिं नयति / तत्थ विपीआपुढवी, हिमवाए होइ वरहेमं"॥१॥ ती०४ कल्प। सोऽम्लवचनयोगादम्ल इति इत्युक्तलक्षणे दुर्व्यवहारिणि / व्य० अंबिणी-स्त्री०(अम्बिनी) कोटीनारनगरवास्तव्यसोमब्राह्मण - १उ०। भार्यायाम्।ती०५६ कल्प। (कोहंडिदेवकल्पशब्दे) अंबसालवण-न०(आमूसालवन) आम्फले / आमै: शालै - अंबिल-पुं० [अम्बिल-अ(आ)म्ल] अम्-क्लः, प्राकृते श्वातिप्रचुरतयोपलक्षिते वने तद्योगादामलकल्पाया ईशानकोणस्थे "लात्" / 1 / 2 / 107 / इति सूत्रेण संयुक्तलकारात्पूर्वमिदागमः, प्रा०। चैत्ये च / (आमलकप्पाए णयरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए अग्निदीपनादिकृति अम्लिकाद्याश्रिते रसभेदे, अम्लोऽग्नि-दीप्तिकृत् अंबसालवणे णामं चेइए होत्था पोराणे जाव पडिरूवे" पूर्णभद्र- स्निग्धः, शोकपित्तकफावहः / क्लेदनः पाचनो रुच्यो, चैत्यवदस्य वर्णकः / रा०। उत्त०। ग०। आ० म०वि०। आव०। मूढवातानुलोमकः // 1 // कर्म०१ अनु० जं० / एगे अंबिलेज्ञा०। आ० चू० आश्रवणक्लेदनकृदम्लः / स्था०१ ठा० / अम्लरसवति, त्रि०। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंबिल 114 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अकंप तक्रादिसंस्कृते, ज्ञा०१७ अ०॥ तक्रारनालकादौ,ल०।"का-जिके, I *अश्नु-न०। अश्रुते व्याप्नोति नेत्रमदर्शनाय / अश-कुन् / प्राकृते। स्था०१० ठा०ा सौवीरे,स्था०१० ठा०। वाचा कल्लालघरेसु अंबिलं वक्रादावन्तः।८।१।२६। इति सूत्रेण अनुस्वारागमः, प्रा० / नेत्रजले, साउअं" कल्पपालगृहेषु किलाम्लशब्द- समुच्चारिते सुरा विनश्यति वाच० / "गुरुदुक्खभरकंतस्स अंसुणि वारण जं जलं गालियं, तं अनिष्टपरिहारार्थमम्लं स्वादूच्यते, अनु०।। अगडतलायणइसमुद्दमाईसु ण वि होजा"। महा०६ अ० / अंबिलणाम-न०(अम्बिलनामन्) रसनामकर्मभेदे, यदुदया- "अंसुपुण्णणयणे तित्थयरसरीरयं तिक्खुत्तो"। जं 2 वक्ष० / जीवशरीरमम्लीकादिवदम्लं भवति तदम्लनाम, कर्म०१ कर्म०। 'अंसुपंण्णेहिं णयणेहिं उरं मे परिसिंचई' / उत्त०२० अ०। अंबिलरस-पुं०(अम्लरस) क० स० / अम्ले रसे, तद्वति, त्रि० / अंसुय-न०(अंशुक) चीनविषये बहिस्तादुत्पन्ने सूत्रे, अनु० / वाच०। अम्लरसश्च तक्रवत् / प्रश्न० संव०५ द्वा०। आ०म०प्र०।"अभंतरहीरे जं उप्पज्जति तं अंसुयं'। नि०चू०७ उ०। अंबिलरासपरिणय-पुं०(अम्लरसपरिणत) अम्लवेतसादिव- आचा० अंशुकं श्लक्ष्णपट्टस्तन्निष्पन्नमंशुकम्, बृ०२ उ०। वस्त्र-विशेषे, दम्लरसपरिणामंगते पुद्गले, प्रज्ञा०१पद। ज्ञा०१ अ० ज०जी०। पत्रेच, अंशुस्वार्थे कन् / अंशुशब्दार्थे, पुं०। अंबिलिआ-स्त्री०(अम्लिका) अम्लैव स्वार्थे कन्। 1 तिन्तिडयाम्, वाच०। अत्राम्लीकेत्यपि ,सा च, 2 पलाशीलतायां, 3 श्वेताम्लिकायां, 4 अंसोवसत्त-त्रि०(अंसोपसक्त) 7 त० / अंश (स) योः स्कन्धक्षुद्राम्लिकायाञ्च, राजनि०। जं०३ वक्ष०। योरुपसक्तं लग्नं यत्, स्कन्धलग्ने, कल्प०। अंबिलोदग-न०(अम्लोदक) काजिकवत्स्वभावत एवा-म्लपरिणामे, | अकइ(ति)-त्रि०(अकति) न कति, न संख्याता इत्यकति / जले, जी०१ प्रति०। प्रज्ञा०। असंख्यातेषु, अनन्तेषु, स्था०३ ठा०। भ०। अंबुणाह-पुं०(अम्बुनाथ) समुद्रे, व्य०६उ०। अकइ(ति)संचिय-पुं०(अकतिसञ्चित) न कति, नसंख्याता इत्यकति। अंबुत्थंभ-पुं०(अम्बुस्तम्भ) जलनिरोधरूपे त्रयोदशेकलाभेदे। कल्प० / असंख्याता, अनन्तावा। तत्र ये अकत्यकति असं-ख्याता असंख्याता अंबुभक्खि (ण)-पुं०(अम्बुभक्षिन्) जलमात्रभक्षके वानप्रस्थभेदे, एकैक समये उत्पन्नाः सन्तस्तथैव संचितास्ते अकतिसञ्चिताः। स्था० औ० / नि०। 31 ठा० / एकसमयेऽसंख्यातोत्पा-देनानन्तोत्पादेन च पिण्डितेषु अंबुवासि(न)-पुं०(अम्बुवासिन्) अम्बुप्रधाने देशे वसति, वस-णिनि- नैरयिकादिषु / (अत्र दण्ड कक्रमेण नैरयिकादीनामकतिसंचिडीए / पाटलावृक्षे, जलवासिमात्रे, त्रि०ावाच० वानप्रस्थभेदेषु, पुं०। तत्वमुपपातशब्दे ) / भ०२ श०१० उ०। ये जलनिमग्रा एवासते। औ०। अकटंग-त्रि० न०ब०। (अकण्टक) कण्टकरहितेषु / न तेषु मध्ये अंभ-न०(अम्भस्) आप्यते। आप-असुन। उदके नुम्भौ चेति। उणा०। बब्बूलादिवृक्षाः सन्तीति, जी०३ प्रति। पाषाणादिद्रव्यकण्टक-विकलेषु, अम्भः शब्दे असुन्वा। वाच०। जले, प्रति०। अष्ट। आव०५अ० / प्रतिस्पर्द्धिगोत्रजे (राज्ये) "ओहयकंटयं मलियकंटयं अंस-पुं०पअंश(स)ब अंश(स) भावे अच् / विभागे, स्था०३ ठा०। अकंटयं'! ज्ञा०१ अ०। स्था० / सूत्र०। कर्मणि अच् / भागे, विशे०। आ० चू०। प्रति० / आचा० / करणे अकंड-न०(अकाण्ड) न०ता अप्रस्तावे, अनवसरे, आतु०। "एत्थ अच् / अवयवे, पञ्चा०७ विव०। भेदे, विशे०। भेदाः विकल्पा अंशा मया अकंडे वि णच्चियातं कारणं सुणह" आ०म०प्र०।अकाले, वृ०१ इत्यनर्थान्तरम् / आ० म०प्र० आव० पर्याय० विशे०/ स्कन्धे च, उ०। ज्ञा०१८ अ०। अकंडूयग-पुं०(अकण्डूयक) न कण्डूयते इत्यकण्डूयकः / स्था० अंस(सा)गय-त्रि० [अंश(श) गत] स्कन्धदेशमागते, विपा० 5 ठा० / अकण्डूयनकारके अभिग्रहविशेषवति, प्रश्न० संव०१ द्वा०। १श्रु०३ अ०। स्कन्धावस्थिते, ज्ञा०१८ अ०। अकंत-त्रि०(अकान्त) कान्तः कान्तियोगात्, स्था०८ठा०। न अंसलग-पुं०(अंश) स्कन्धे,तं०॥ कान्तोऽकान्तः / जी०१ प्रति०। स्वरूपेणाक्रमनीये, उपा० अ०। अंसि-स्त्री०(असि) अस-क्रिः। कोटौ, स्था०८ ठा०, भ० / प्रश्न०। अंसिया-स्त्री०(अंशिका) अंश एवांशिका / स्वार्थे कप्रत्ययः / भागे, | अकंततर-त्रि०(अकान्ततर) स्वरूपतोप्यकमनीयतरे, जी०३ प्रति०। "सागारियस्स अंसिया अविभत्ता' बृ०३ उ०। वि०। "अंसियाओ गामद्धमाईओ" अंशिका तु तत्र ग्रामस्यार्द्धम्। आदिशब्दात् अकंतता-स्त्री०(अकान्तता) असुन्दरतायाम्, भ०६ श०२उ० / त्रिभागंवा चतुर्भागंवा गत्वा स्थितः सग्रामस्यांश एवांशिका, नि० चू०३ उ०। अकं तदुक्ख-त्रि०(अकान्तदुःख) अकान्तमनभिमतं दुःखं *अर्शस्-न० बलिकाकारे रोगभेदे, "अंसिया अरिसा ता य अहिट्ठाणे येषां तेऽकान्तदुःक्खाः अनभिमताशातेषु / सूत्र०१ श्रु०१ अ०। णासाए वणेसु वा भवंति'। नि०चू०३ उ० / तस्स (आतापयतः) "अंकतदुक्खं तसथावरा दुही अलूसए" | आघा०२ श्रु०२ अ०। "अंसिया ओलंबइ तं चेव विजो अदक्खु ईसिं पाडेइ, पाडेइत्ता दुःखद्विट्सु, सूत्र०१ श्रु०११ अ०। अंसियाओ छिंदेज्जा" (अंसियाओत्ति) अर्शा सि तानि च अकंतस्सर-त्रि०(अकान्तस्वर) 6 ब० / अकान्तियुकस्वरे, स्था०५ नासिकासत्कानीति चूर्णिकारः, भ०१६ श०३ उ०। प्रति०। (शेष ___ठा०। अणगारशब्दे) अकंदप्पि(न)-त्रि०(अकन्दर्पिन) कन्दर्पोद्दीपनभाषिता-दिविकले, अंसु-पुं०(अंशु) अंश मृग-कु / किरणे, सूत्रे, सूक्ष्मांशे, प्रकाशे, प्रभायां, व्य०१ उ01 तेरो च, वाच०। | अकंप-त्रि०(अकम्प) स्वरूपनिष्ठे, अष्ट० / अक्षोभ्ये, 'नाणंमि Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकंप 115 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अकप्प दसणमिय, तवे चरिते य चउसु वि अकंपे' अकम्पोऽक्षोभ्यो देवैरप्यचाल्य अकडसामायारि-पुं०(अकृतसामाचारि) 3 ब० / अवितथा इत्यर्थे, आतु०। मण्डल्युपसंपत्सामाचारीमकुर्वति, बृ०३ उ० / एवंविधां (सामाअकं पिय-पुं०(अकम्पित) न०त०। श्रीमहावीरस्याष्टमे गणधरे, चारीशब्दे वक्ष्यमाणां उपसम्पन्नमण्डलीविषयां द्विविधामपि सामाचारी स०। (अस्यागारपर्यायादयो गणधरशब्दे) आ०चू० / आ०म० यो न करोति सोऽकृतसामाचारीक उच्यते, बृ०१ उ०। द्वि० / कल्प० / अयमकम्पितनामा द्विजोपाध्यायो वीरान्तिकं गतो अकढिण-त्रि०(अकठिन) कोमले, जी०३ प्रति। भगवता नामगोत्राभ्यामाभाष्य / "आइट्टो य जिणेणं, जाइ- अकण्ण-पुं०(अकर्ण) सिंहमुखद्वीपस्य नैर्ऋतकोणे अन्तर-द्वीपशब्दोक्त जरामरणविप्पमुक्केणं। नामेण य गुत्तेण य, सव्वन्नूसव्बदरिसीणं // 1 // __-प्रमाणे अन्तरद्वीपे, तद्वास्तव्ये मनुष्ये च, स्था० किं मन्ने नेरइया, अत्थि नस्थित्ति संसओ तुज्झ / वेदपयाणं अत्थं,न 4 टा० / प्रज्ञा० नं० / कर्णरहिते, वाच०। याणसी तेसिमो अत्थो"।। 2 // विशे० (इत्याद्युक्त इति नारयशब्दे अकण्णछिण्ण-त्रि०(अकर्णच्छिन्न-अच्छिन्नकर्ण) न छिन्नौ कर्णी यस्य प्रदर्शयिष्यते) सतथा। अकृतश्रवणे, नि०चू०१४ उ०। अकक्कसमासा- स्त्री०(अकर्कशभाषा) अतिशयोक्त्या ह्यमत्स-रपूर्वायां अकत्तण-त्रि०(अकर्तन) उच्चस्थं फलं कर्तितुं शीलमस्य। कृतयुच्। न० भाषायाम्, दश०७ अ०। त० / उचत्वविरोधिहस्वत्ववति खर्वे, कृत-भावे ल्युट् / न० अकक्कसवेयणिज-न०(अकर्कशवेदनीय) अकर्कशेन सुखेन बेद्यन्ते ब०। छेदनकर्तरि। त्रि०ा वाच०। यानि तानि अककेशवंदनीयानि भरतादीनामिव सुख-वेदनीयेषु कर्मसु। | अकत्तिम-त्रि०(अकृत्रिम)न कृत्रिमः।नता कृत्रिमभिन्ने, स्वभावसिद्धे, अत्रदण्डकः "अत्थिणंभंते जीवाणं अक-कसवेयणिज्जाकम्मा कजति ? वाच० / “अकत्तिमे हिं चेव कत्तिमे हिं चेव"। जं० हंता अस्थि / कहणं भंते ! जीवाणं अकक्कसवेयणिज्जा कम्मा कजंति? 2 वक्षः। गोयमा ! पाणाइ-वायवेरमणेणं जाव परिग्गहवेरमणेणं कोहविवेगेणं जाव अकप्प-पुं०(अकल्प) कल्पो न्याय्यो विधिराचारश्चरणकरण- व्यापार भिच्छादसणसल्लविवेगेणं, एवं खलु गोयमा! जीवाणं अकक्कसवेयणिज्जा इति यावत् / न कल्पोऽकल्पः / अतद्रूप इत्यर्थः / ध० कम्मा कजंति / अत्थि णं भंते ! नेरइयाणं अककसवेयणिज्जा कम्मा २अधि० अविधौ चरकादिदीक्षायाम्। अग्राह्ये, पंचा०१२ विवाआव०। कजंति ? णो इणढे समढे / एवं जाव वेमाणियाणं णवरं मणुस्साणं जं आ०चू० / अकृत्ये, अयोग्ये, "अकप्पं परियाणामि, कप्पं जीवाणं / भ०७श०६ उ०। उवसंपजामि''| आव०४ अकाददिौ, व्य०१उ० अभोज्ये, "जहकम्म अकञ्ज-न०(अकार्य्य) अप्रशस्तं कार्य्यम् अप्राशस्त्ये / न० त०। अकप्पं तत्थिकं"। पिं०। "अकप्पं पडिगाहेज, चउत्थाइ जहाजोगं कुत्सितकाये, निषिद्धकार्ये च / कर्त्तव्यभिन्ने, त्रि० / वाच०। कप्पं वा। पडिसेहेइ उवट्ठावणं गोयरपविट्ठो उ"। महा०७ अ०॥दूषणीये। आचा०। नि०चू०१५ उ० / अनाचारे, कल्प० अकल्पः अमर्यादा अनीतिः अकज्जमाण-त्रिवाना त०। (अक्रियमाण) वर्तमानकाले अनिवर्तमाने / अनुपदेश इत्यनर्थान्तरम्, पं० चू० / पिण्डशय्यावस्त्रपात्ररूपभ०१श०१० उ०। चतुष्टयेऽकल्पनीये,व्य०२ उ० / "वयछक्कं कायउकं, अकप्पो अकजमाणकड-त्रि०(अक्रियमाणकृत) क्रियमाणं वर्तमान-काले, कृतं गिहिभायणं"अकल्पः शिक्षकस्थापना-कल्पादिः / दश०६ अ०। चातीतकाले, तनिषेधादक्रियमाणकृतं (वर्तमाना तत्राऽकल्पो द्विविधः शिक्षकस्थापनाकल्पः अकल्पस्थापनाकल्पश्च तीतकालयोरनिर्वय॑मानानां निवृत्ते ) "अकिञ्चं दुक्खं अफुसं दुक्खं तत्रशिक्षकस्थापनाकल्पः अनधीत-पिण्डनियुक्त्यादिनानीतमाहारादि अकजमाणकडं दुक्खं"। भ०१श०१० उ०। न कल्पते इत्युक्तं च "अणहीया खल जेणं, पिंडेसणसेज्जवत्थपाएसा। अकट्ठ-त्रि०ा न०ब०। (अकाष्ठ) काष्ठरहिते अनिन्धने, "जंसी जलंतो तेणाणियाणि जतिणो, कप्पंतिन पिंडमाईणि || उउबद्धमिण अणला, अगणीअकट्ठो''। सूत्र०१ श्रु०५ अ०! वासावासे उ दो विणो सेहा / दिक्खिज्जंतो पायं, ठवणाकप्पो इमो अकड-त्रि०ा न०त०। (अकृत) अविहिते। "कडं कडित्ति भासिज्जा, होइ"19॥ अकल्प-स्थापनाकल्पं त्वाह - अकडं नो कडित्तिय"। उत्त०१अ०"अकडं करिस्सामित्ति मण्णमाणे" जाईचत्तारि भुजाइ, इसिणाहारमाइणि। यदपरेण न कृतम्। आचा०१श्रु०२अ०। ताई विहिणा वजंतो, संजमं अणुपालए॥४७॥ अकडजोगि(न्)-पुं०(अकृतयोगिन्) यतनया योगमकृतवति, व्य०३ सूत्रं व्याख्या-यानि चत्वार्यभोज्यानि संयमापकारित्वेनाउ० / अकृतयोगी अगीतार्थःत्रीन वारान कल्पमेषणीयं वा परिभाव्य कल्पनीयानि ऋषीणां साधूनामाहारादीन्याहारशय्यावस्त्रपात्राणि, प्रथमवेलायामपि, यतस्ततोऽकल्पमनेषणीयमपि ग्राही। व्य०१० उ०। तानि तु विधिना वर्जयन् संयम सप्तदशप्रकारमनुपालयेत् / तदत्यागे "अकडजोगत्ति दारं तिगुणं पच्छद्धति तिसंखा तिणि गुणीओ तिगुणो संयमाभावादिति सूत्रार्थः / एतदेव स्पष्टयति। असंथराणीसु तिन्नि वारा एसणीयं सण्णि-सिओजाता ततियवाराए वि पिंडं सेजं च वत्थं च, चउत्थं पायमेव य। ण लज्जति तदा चउत्थपरिवाडीए अणेसणीयं घेत्तव्यं / एवं तिगुणं जोगं अकप्पियं न इच्छिता, पडिगाहिज्ज कप्पियं // 48 // काऊण जोगो व्यापारः। बितियवाराएचेव अणेसणीयं गेण्हति जो, सो पिण्डं शय्यां च वस्त्रं चतुर्थं पात्रमेव च। एतत्स्वरूपं प्रगटार्थम-कल्पिक अकडजोगी भन्नति / अकडजोगित्ति गयं''। नि०चू०१ उ०। नेच्छेत् प्रतिगृह्णीयात् कल्पिकं यथोचितमिति सूत्रार्थः / अकल्पिके अकडपायच्छित्त-त्रि०(अकृतप्रायश्चित्त) न कृतं प्रायश्चित्तं येन दोषमाहअननुष्ठितविशोधः "जे भिक्खू साहिगरणं अविउसवियपाहुडं जे नियागं ममायंति, कियमुद्देसियाहडं। अकडषायच्छित्तं"। नि०चू०१० उ०। वहं ते अणुजाणंति, इई वुत्तं महेसिणा |4|| Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकप्य 116 - अभियानराजेन्द्रः - भाग 1 अकप्पट्टिय ये केचन द्रव्यसाध्वादयो द्रव्यलिङ्गधारिणः (नियागंति) नित्यमामन्त्रितं पिण्ड (ममायन्तीति)परिगृह्णन्ति / तथा क्रीत-मुद्देशिकाहृतम् / एतानि यथा क्षुल्लकाचारकथायां वधं त्रस-स्थावरादिधातं ते द्रव्यसाध्यादयोऽनुजानन्ति / दातृप्रवृत्त्य-नुमोदनेनेत्युक्तं च महर्षिणा वर्धमानेनेति सूत्रार्थः / यस्मादेवम् तम्हा असणपाणाइं, कियसुद्देसियाहडं। वजयंति ठियप्पाणो, निगंथा धम्मजीविणो // 50|| तस्मादशनपानादि चतुर्विधमपि यथोदितं क्रीतमौद्देशिकमाहृतं वर्जयति स्थितात्मानो महासत्त्वा निर्ग्रन्थाः साधवो धर्मजीविनः संयमैकजीविनः इति सूत्रार्थः। उक्तोऽकल्पः। दश०६अ।जीतापं० चू०।पं०भा०। "अपरिग्गहणा अकप्पंमि हारे पलंबादीसलोम मम जिणादि होंति उवहीए सेल्जाए दगसाला अकप्पसेहायजे अन्ने" पं०क०चूा पं०भा०।। एत्तो अकप्पं वोच्छामि णिकिव णिरणुकंपो पुप्फफलाणं च सारणं कुणति जंच इह एवमादी सव्वं तं जाणसु अकप्पं जो तु किवं ण करेती दुक्खमेसुं तु सव्वसत्तेसुं णिरवेक्खो रीयादिसु पवत्तइ णिकि वो सोतुं सहसा वयसाए ण व परितावणमादिबिंदियादीणं काऊण नाणुतप्पइणिरणुक्कंपो हवति एसो सत्तट्ठमठाणेसु सट्ठा-णासेवणाए सट्ठाणं गच्छागादमि तु कारणमि बितियं भवे ठाणं सत्तट्ठमट्ठाणाइ उ कप्पो चेव तह अकप्पो य ते निक्कारणसेवी यावति सट्ठाणं पच्छित्तं पत्तंमि कारणे पुण रायदुवादियंमि आगाढे जयणा य करेमाणो होठियकप्पो वि तिट्ठाणं दारं / पं०चू०। "इयाणिं अकप्पो गाहानामणिओ नामणीथंभणीओ विजाओपउंजइ अद्धवेयाली नाम जो उदुट्ठ नेऊण पडिपालेइ वेयाली उट्टवेइ गभादाणं परिसाडेइ संमुच्छियं पाडे इ जोणिपाहुडं वा करेइ अण्णेसु य एवमाइसु पावायपणेसु वड्ढइ गाहा तसएगिं दियतसपाणइमसगाइविच्छिए वा संसेइमे वा संमुच्छायेइ मुच्छाणमरणअभिओगाइहिं माहेसरि वा आहेव्वणं वा पउंजइ रुद्धा हिव्वणं बंभडंड वा अगणिकायं थंभेइगाहा निक्कियो नाम निग्घिणो निरणुकंपो पुप्फफलयाणिय विद्धंसेइ विजाओ परसुमादिपउंजइएवमाइकम्मकरो सो अकप्पो एयाणि पुण ओकप्पअकप्पाणि निक्कारणे करें तो अट्ठाणपच्छित्तमावजइ / एतदर्थ गाहा सत्तट्टमट्ठाणेसु गच्छमाइसु पुण कारणेसु य राय-दुट्ठमाइसु असिवाइसु य कारणेसु जयणाए करेंतस्स ओकप्प कप्पा बिइयं ठाणं भवति किं पुणतं बितियं ठाणं पकप्पो चेव सो भवइ एस अकप्पो"। पं०चू०। (अपरिणतादेरकल्पस्याग्राह्यताऽपरिणयादिशब्देषु वक्ष्यते) अस्थितकल्पे च, बृ०४ उ०। अकप्पट्टावणाकप्प-पुं०(अकल्पस्थापनाकल्प) अनेषणीयपिण्डशय्यावस्त्रपात्रलक्षणेऽकल्पभेदे, जीत०। अकप्पट्ठिय-पुं०(अकल्पस्थित) कल्पे दशविधे आचेलुक्यादौ संपूर्ण न स्थिताः अकल्पस्थिताः चतुर्णामधर्मप्रतिपत्तृषु, बृ०४ उ०। मध्ममद्वाविंशतिजिनसाधुषु महाविदेहजेषु च, जीत० / (कल्पस्थितानामर्थाय कृतं कल्यते कल्पस्थितानां तदर्थं कृतं कल्पते कल्पस्थितानां नेतरथा) जे कडे कप्पट्ठियाणं कप्पड़ से अकप्पटियाणं, नो कप्पइ कप्पट्ठियाणं / जे कडे अकप्पट्ठियाणं नो से कप्पइ कप्पट्ठियाणं, कप्पइ से अकप्पट्ठियाणं / कप्पे ट्ठिया कप्पट्ठिया, णो कप्पे हिया अकप्पट्ठिया। यदशनादिकं कृतं विहितं कल्पस्थितानामर्थाय कल्पते तदकल्पस्थितानां, न कल्पते कल्पस्थितानां / इहाचेलुक्यादौ दश-विधे कल्पेऽवस्थितास्ते कल्पस्थिता उच्यन्ते, पञ्चयामधर्मप्रति-पन्ना इति भावः / ये पुनरेतस्मिन् कल्पे संपूर्ण न स्थितास्ते अकल्पस्थिताश्चतुर्यामधर्मप्रतिपत्तार इत्यर्थः / ततः पाञ्चयामिकानुद्दिश्य कृतं चातुर्यामिकानां कल्पते इत्युक्तं भवति / तथा यदकल्पस्थितानां चातुर्या मिकानामर्थाय कृतं नो स कल्पते कल्पस्थितानां, पाञ्चयामिकानां किन्तु कल्पते तदकल्पस्थितानां चातुर्यामिकानामत्रैव व्युत्पत्तिमाह-कल्पे आचेलुक्यादौदशविधेस्थिताः कल्पस्थितान कल्पे स्थिता अकल्पस्थिताः। एष सूत्रार्थः / अथ नियुक्तिविस्तरःकप्पट्ठिपरुवणाता, पंचेव महव्वया चउज्जामा। कप्पट्ठियाण पणगं, अकप्पचउज्जाम सेहे वि॥ कल्पस्थितेः प्रथमतः प्ररूपणा कर्तव्या। तद्यथा-पूर्व पश्चिम-साधूनां कल्पस्थितिः पञ्चमहाव्रतरस्मा मध्यमसाधूनां महा-विदेहसाधूनां च कल्पस्थितिश्चतुर्यामलक्षणा / ततो ये कल्प-स्थितास्तेषां (पणगंति) पञ्चैव महाव्रतानि भवन्ति, अकल्प-स्थितानां तु चत्वारो यामाश्चत्वारि महाव्रतानि भवन्ति / नापरि-गृहीता स्त्री भुज्यत इति कृत्वा चतुर्थव्रतपरिग्रहवतामेव तेषां अन्तर्भवतीति भावः / यश्च पूर्वपश्चिमतीर्थकरसाधूनामपि सम्बन्धी सैक्षस्यापि सामायिकसयत इति कृत्वा चातुर्यामिकोऽकल्प-स्थितश्च मन्तव्यः। यदा पुनरुपस्थापितो भविष्यति तदा कल्पस्थित इति प्ररूपिता कल्पस्थितिः। इह "जे कडे कप्पट्टियाण" इत्या-दिना आधाकर्मसूचितमतस्तस्य उत्पत्तिमाहसालीघयगुलगोर-सावसु वल्लीफलेषु जातेसु / पुण्णट्ठकरणसड्ढा, आहाकम्मे णिमंतणता।। कस्यापि दानरुचेरभिगमश्राद्धस्य वा नवः शालिः भूयान गृहे समायातस्ततः स चिन्तयति पूर्व यतीनामदत्त्वा ममात्मना परिभोक्तुंन युक्त इति परिभाव्याधाकर्म कुर्यात् एवं घृते गुडे गोरसे नवे, यवतुम्ब्यादिवल्लीफलेषु जातेषु पुण्यार्थ दानरुचिः श्राद्धः (करणंति) आधाकर्म कृ त्वा साधूनां निमन्त्रणं कु र्यात् / तस्य चाधाकर्मणोऽमून्येकार्थकपदानिआहा आहयकम्मे, अत्ताहम्मे य अत्तकम्मे य। ते पुण आहाकम्म, णायव्वं कप्पते कस्स। आधाकर्म, अधःकर्म, आत्मघ्र, आत्मकर्म, चेति चत्वारि नामानि तत्र साधुनामधेयप्राणिघातेन यत्कर्म षड् कायविना-शेनाशनादिनिष्पादनं तदाधाकर्म / तथाविशुद्ध संय मस्थानेभ्यः प्रतिपत्त्यात्मानमविशुद्धसंयमस्थानेषु यदाधः करोति तदधःकर्म / आत्मानं ज्ञानदर्शनचारित्ररूपं विनाशयतीत्यात्मनः / यत्पाच-कादिसम्बन्धि कर्म पाकादिलक्षणं ज्ञानावरणीयादिलक्षणं वा तदात्मनः सम्बन्धि क्रियते, अनेनेत्यात्मकर्म / तत्पुनराधाकर्म कस्य पुरुषस्य कल्पते न वा यद्वा कस्य तीर्थे कथं कल्पते न कल्पते वेत्यमीभिः द्वारैतिव्यं, तान्येव दर्शयति। कम कृ त्वा सात पुण्यार्थ दानसात गुडे गोरसे नव Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भकप्पट्ठिय 117 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अकप्पट्टिय संघस्स पुरिममज्झिम-समणाणं चेव समणीणं / चउण्हं उवस्सयाण, कायव्वा मग्गणा होति।। आधाकर्मकारी सामान्येन विशेषेण वा संघस्योद्देशं कुर्यात् तत्र सामान्येनाविशेषितं संघमुद्दिशति विशेषेण तुपूर्व वा मध्यम वा पश्चिमेवा संघ चेतसि प्रणिधत्ते श्रमणानामप्योघतो विभागतश्च निर्देशं करोति, तत्रौघतो विशेषितश्रमणानां विभागतः पाञ्चया-मिक श्रमणानां चातुर्यामिक श्रमणानामेवं श्रमणीनामपि वक्तव्यं तथा चतुर्णामुपाश्रयाणामप्येवमेव सामान्येन विशेषेण च मार्गणा कर्तव्या भवति, तत्र चत्वार उपाश्रया इमे पाञ्चयामिकानां श्रमणानामुपाश्रयमुद्दिशतीत्येकः पाञ्चयामिकानामेव श्रमणीनां द्वितीयः, एवं चातुर्यामिक श्रमणश्रमणीनामप्येवं भावयति। संघसमुद्दिसित्ता, पढमो बितिओय समणसमणीओ। ततिओ उवस्सए खलु, चउत्थओ एगपुरिसस्स। आधाकर्मकारी प्रथमो दानश्राद्धादिः संघं सामान्येन विशेषेण वा समुद्दिश्याधाकर्म करोति / द्वितीयः श्रमणश्रमणीः प्रणिधाय करोति। तृतीय उपाश्रयानुद्दिश्य करोति। चतुर्थ एक पुरुषस्योद्देशं कृत्वा करोति। अत्र यथाक्रम कल्पाकल्पविधिमाहजदि सव्वं उद्दिसिउं, संघं करेति दोण्ह विण कप्पे। अहवा सव्वे समणा, समणी वा तत्थ वि तहेव।। यदीत्यभ्युपगमे यदि नाम ऋषभस्वामिनोऽजितस्वामिनश्च तीर्थमकत्र मिलितं भवति पार्श्वस्वामिवर्द्धमानस्वामिनोर्वा तीर्थ मिलितं यदा प्राप्यते तदा तत्कालमङ्गीकृत्यायं विधिरभिधीयते, सर्वमपि संघ सामान्येनो द्दिश्य यदाधाकर्म करोति ।यद्वा द्वयोरपि पाञ्चयामिकचातुर्यामिकसंघयोन कल्पते, अथ सर्वान् श्रमणान् सामान्येनोद्दिशति तत्रापि श्रमणानामपि सामान्येनोद्देशेन तथैव सर्वेषामपि पाञ्चयामिकानां चातुर्यामिकानांन कल्पते एवं श्रमणीनामपि सामान्येनोद्देशे सर्वासामकल्प्यम्। ___ अथ विभागोद्देशे विधिमाहजं पुण पुरिसं संघं, उद्विशती मज्झिमस्स तो कप्पो। मज्झिमउद्दिढे पुण, दोण्हं पि अकप्पितं होति / / यदि पुनः पूर्वऋषभस्वामिसत्कं संघमुद्दिशति ततो मध्यमस्याजितस्वामिसंघस्य कल्पते अथमध्यमं संधमुद्दिशति तदा द्वयोरपि पूर्वमध्यमसंघयोरकल्पं भवति,एवंपश्चिमतीर्थकर-सत्कसंघमुद्दिश्य कृतं मध्यमस्य कल्पते मध्यमस्य कृतं द्वयोरपिन कल्पतेएमेव समणदग्गे, समणीवग्गे य पुव्वमुद्दिढे / मज्झिमगाणं कप्पे, तेसि कडं दोण्हं विण कप्पं // एवमेव श्रमणवर्गे श्रमणीवर्गे पूर्वेषामृषभस्वामिसंबन्धिनां श्रमणानां श्रमणीनां वा यदुद्दिष्टमुद्दिश्य कृतं तन्माध्यमिकानां श्रमणश्रमणीनां कल्पते, तेषां मध्यमानामर्थाय कृतमुभयेषामपि पूर्वमध्यमानां साधुसाध्वीनांन कल्पते। एवं पश्चिममध्यमानामपि वक्तव्यम्। अथैकपुरुषोद्देशे विधिमाहपुरिमाणं एगस्स वि, कयं तु सव्वेसि पुरिमचरिमाणं। चरिमाणं ण वि कप्पे, ठवणामत्तगहणं तहिं नत्थि // पूर्वेषामृषभस्वामिसत्कानामेकस्यापि पुरुषस्यार्थाय कृतं सर्वेषामपि पूर्वपश्चिमानामकल्प्यं पश्चिमानामप्येकस्यार्थाय कृतं सर्वेषां पूर्वपश्चिमानामकल्प्यम्। एतच स्थापनामात्र प्ररूपणामात्रं संज्ञाविज्ञानार्थ क्रियते बहुकालान्तरत्वेन पूर्वपश्चिमसाधूनामेक-त्रासंभवात् तत्र परस्परं ग्रहणं नास्ति, न घटते। मध्यमानां तु यदि सामान्येनैकं साधुमुद्दिश्य कृतं, तत एकेन गृहीते शेषाणां कल्प्यते / अथ किमप्येकं विशेष्य कृतं ततस्तस्यैवाकल्प्यं शेषाणां सर्वेषामपि कल्पं, पूर्वपश्चिमानांतु सर्वेषामपि तन्न कल्पते। अथोपाश्रयोद्देशे विधिमाहएवमुपस्सय पुरिसे, उद्दिट्ठणं तं तु पच्छिमाऽमुजो। मज्झिगं तु वज्जाणं, कप्पे उहिट्ठसम पुव्वे // एवं यदि सामान्ये नोपाश्रयाणामुद्देशं करोति तदा सर्वेषामकल्प्यम् / अथ पूर्वेषामाद्यतीर्थकरसाधूनामुपाश्रयानुद्दिशति ततस्तदर्थमुद्दिष्टं पश्चिमानामुपलक्षणत्वात्पूर्वे वा साधवः सर्वेऽपि न भुञ्जते, मध्यमानां पुनः कल्पनीयम् / अथ मध्यमसाधू-नामुपाश्रयान् सर्वानुद्दिश्य करोति, ततो मध्यमानां पूर्वपश्चिमानां सर्वेषामकल्प्यम्। अथ क्रियत एव मध्यमोपाश्रयानुद्दिशति, ततस्तद्वानां तेषूपाश्रयेषु ये श्रमणास्तान वर्जयित्वा शेषाणां मध्यमश्रमणश्रमणीनां कल्पते / (उद्दिष्टसमपुटवेति) पूर्व साधवः ऋषभस्वामिसत्का भण्यन्ते ते उद्दिष्ट समये साधुमुद्दिश्य कृतं तत्तुल्याः / एक मुद्दिश्य कृतं सर्वेषामकल्पनीयमिति भावः। एवं तावत्पूर्वेषां मध्यमानां च भणितम्। अथ मध्यमानां पश्चिमानां वा अभिधीयतेसव्वे समणा समणी, मज्झिमगा चेव पच्छिमा चेव। मज्झिमगसमणसमणी, पच्छिमगा समणसमणीतो।। सर्वे श्रमणाः श्रमण्यो वा यदुद्दिश्यन्ते तदा सर्वेषामकल्प्यं (मज्झिमगा चेवत्ति) अथ मध्यमाः श्रमणाः श्रमण्यो वा उद्दिष्टास्ततो मध्यमानां पश्चिमानां च सर्वेषामकल्प्यम् (पच्छिमा चेवत्ति) पश्चिमानां श्रमणश्रमणीनामुद्दिष्टे तेषां सर्वेषामकल्प्ये मध्यमानां कल्प्यं मध्यमश्रमणानामुद्दिष्टं मध्यमसाध्वीनां कल्पते मध्यमश्रमणीनामुद्दिष्टमध्यमसधूनां कल्पते / पश्चिमश्रमणीनामुद्दिष्टे पश्चिमसाधुसाध्वीनां न कल्पते, मध्यमानामुभयेषामपि कल्पते / एवं पश्चिमश्रमणीनामप्युद्दिष्ट वक्तव्यम्। उवसयगणिय विभाइअ, उञ्जगजड्डा य वंकजड्डाय। मज्झिमगउज्जुपण्णा, पेच्छासण्णायगागमणं / / अथोपाश्रयेषु साधून गणितविभाजितान् करोति गणितानामियतां पञ्चादिसंख्याकानां दातव्यं विभाजिता अमुकस्यामुकस्येति नामोत्कीर्तनेन निर्धारिताः अत्र चतुर्भङ्गी यथा गणिता अपि विभाजिता अपि १,गणितान विभाजिता 2, विभाजिता नगणिता 3, न गणितान विभाजिता 4 / अत्र प्रथमभने मध्यमानां गणित-विभाजितानामेवाकल्प्यं शेषाणां कल्पते / द्वितीयभङ्गे यावत् प्रमाणैर्न गृहीतं तावत् सर्वेषामकल्प्यं गणितप्रमाणैर्गृहीते मध्य-मानां शेषाणां कल्प्यम् / तृतीयभङ्गे यावत् सदृशनामानस्तेषां सर्वेषां सममकल्प्यं शेषाणां कल्प्यम्। चतुर्थभङ्गे सर्वेषां कल्प्यं, पूर्वपश्चिमानां तु सर्वेष्वपि भङ्गेषु न कल्पते। (साधूनां कल्प-स्थितत्वात् कल्पस्थितत्वकारणं कप्पशब्दे)। बृ०॥ एतेन कारणेन चातुर्यामिकपाञ्चयामिका-नामाधाकर्मग्रहणे विशेषः कृत इति प्रक्रमः। Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकप्पट्टिय 118 - अभिधानराजेन्द्रः- भाग 1 अकप्पिय अथ द्वितीयपदमाहआयरिए अभिसेगे,मिक्खुम्मि गिलाणए य भयणाओ। मिखुस्सऽडविपवेसे,चउपरिवडे तओ गहणं // आचार्याभिषेकभिक्षूणामेकतमः सर्वे वा ग्लाना भवेयुः तत्र सर्वेषामपि योग्यमुद्रमादिदोषशुद्धंग्रहीतव्यम् अलभ्यमानेपञ्चकपरिहाण्या यतित्या चतुर्गुरुकं यदा प्राप्तं भवति तदा आधाकर्मणो भजना सेवना भवति अथवा भजना नाम आचार्यस्याभिषेकस्य गीतार्थभिक्षोश्व येन दोषेणाशुद्धमानीतं तत्परिस्फुटमेव कथ्यते / यः पुनरगीतार्थो ऽपरिणामको वा तस्य न निवेद्यते / अशिवादिभिर्वा कारणैरटवीमध्वानं प्रवेष्टमभिलषति तत्र प्रथममेव शुद्धोऽध्वकल्पस्त्रिकृत्वस्त्रीन्वारान् गवेष्यते / यदानलभ्यते, तदा चतुर्थे परिवर्ते पञ्चपरिहाण्याधाकर्मिकस्य ग्रहणं करोति। अध्वनिर्गतानां चायं विधिःचउरो चउत्थभत्ते, आयंबिलएगठाण पुरिमड्ढे। णिव्वीयगदायव्वं, सयं व पुव्वोग्गहं कुञ्जा। आचार्यः स्वयमेव चतुष्कल्याणकं प्रायश्चित्तं गृह्ण ति / तत्र चत्वारि चतुर्थभक्तानि,चत्वारि आचामाम्लानि चत्वार्ये कस्थानानि एकासनकानीत्यर्थः / चत्वारि पूर्वार्द्धानि, चत्वारि निर्वृत्तिकानि च भवन्ति / ततः शेषा अप्यपरिणामकप्रत्ययनिमित्तं चतुष्कल्याणकं प्रतिपद्यन्ते / योऽपरिणामिकस्तस्य पञ्चकल्याणकं दातव्यं / तत्र चतुर्थभक्तादीनि प्रत्येकं पञ्च पञ्च भवन्ति / स्वयं चाचार्यः पूर्वमेव प्रायश्चित्तस्यावग्रहणं कुर्यात् , येन शेषाः सुखेनैवं प्रतिपद्यन्ते / यत्पूर्व प्रतिसिद्ध वक्ति, एवं भूयोऽनुज्ञायते अनुज्ञातं चेति। अतः किमर्थं प्रायश्चित्तं दीयत इत्याहकालशरीरावेक्खं, जगस्स भावं जिणा वियाणित्ता। तह तह दिसंति धम्म, मिजति कम्मं जहा अखिलं / / कालशरीरापेक्षं कालस्य शरीरस्य च यादृशः परिणामो बलं वा तदनुरूपं जगतो मनुष्यलोकस्य स्वभावं विज्ञाय जिनास्तीर्थकराः तथा तथा विधिप्रतिषेधरूपेण प्रकारेण धर्ममुपदिशन्ति, यथा अखिलमपि कर्म क्षीयते। यचानुज्ञाते प्रायश्चित्तदानं, तदन-वस्थाप्रसंगवारणाय। बृ०४ सरिसवसागं मुग्गेण,मासायां अंबलेण जं रद्धं / एगंतेण अभक्खं,तहिं मंडुक्का भवे सुहमा ||10|| मासा मूलपसिद्धा,परिवुच्छा संजयाण पडिसिद्ध। मच्छा य संमुच्छंति,न सरण्णूसंठिआ वहे // 11 / / सोपचलजाया? अय-तोछगणियाहिंसिद्धाओ। परिमुच्छंसिय विविहा,सव्वे पंचिंदिया हंति॥१२। आमे तक्के सिद्धे, कुसुंभमुग्गं अकप्पियं निचं / वालसरिसा अणेगा, सप्पा समुच्छिमा तत्थ॥१३॥ जवसागरन्ननालं? परिवुच्छं नेव कप्पियं होइ। संमुच्छंति अणेगा, मच्छा जलुआ सहस्साई॥१४॥ एगंतेण अपेयं, खीरं दुरजाइयं तहिं देसे / संसेइमं तत्थ जिया, गंडुलया सप्पमंडुक्का / / 15|| दहियं तिरत्तिपुवं, अक्कप्पयंति जलूयसंघाया। गुलवाणिअं अपेयं, पहरंमि गए तहिं देसे॥१६|| गुलवाणियं अपेयं, अंडाओगजीवसंभवो तत्थ। जवपाणियं अपेयं, सेसाणय उण्हतोयाणि / / 17 / / एगतेण अभक्खा, परिवुच्छा मासपोलिआ तत्थ / सम्मुच्छंति निगोया, तेहि य जीवा बहुविहा य // 18 // अल्लगपिंडगगब्मा, मंडुक्काया परं नपरिवुड्डा / पुव्वण्हे सा कप्पइ, अवरण्हे तंतुआ जीवा / / 16 / / भक्खाय पंचरतं, तु मोयगा देसमंडले तम्मि। एगतेण न कप्पड़, सीयलकूरो अतुसिणो अ॥२०|| आयारो पडिसिद्धो, जीमेतासी? अलंजई भत्तं। आयारियपरिमट्ठा, पाणिवहकरा असाहूआ ||21|| मूलगलट्टा चंचु अ, तत्थ य संसज्जए मुहुत्तेणं / न हु मूलगसंसत्ता, कंदफलाई उ संसत्ते / / 2 / / सव्वं तिलगयआमं, गोरसमासं तु रत्तिपञ्जसियं / लट्ठासीईभूया, संसज्जए मुहुत्तेणं // 23 // उवरुक्खलगतिगेयं, पत्तेयं तन्निरत्तकालेयं / विजलयणट्ठभाइ ? सूहमुहाईसु संसत्ते / / 2 / / एवं भुजं मगहे, विसए तहेव समासओ भणियं / मगहा इव नायव्वं, जाव कलिंगाउ नेपालं // 25|| दविडं वा विमुवासो? एयंमि य देसमंडले पत्ता। पाणाणि य भक्खाणिय, नायव्वाइं पयत्तेणं // 26|| मिरियकु डंगकुसंमी, करमियअग्गे सलिद्धकामाया। एसा निगोयजोणी, परिवुच्छा होइ अन्मक्खा // 27 // कुडवतंदुलजाओ, दगकूलं पंचरत्तिपरिवुच्छं। एगतेण अपेयं, जलयरपरिनाण जायंति // 28 // पूरियमंडूकडिआ, मासा वथुला य देसला जाया। हुंति अभक्खा कुंथुअ-मक्खिअमसगाण सा जोणी ||2|| उ01 अकप्पिय-पुं०(अकल्पिक) अगीतार्थ,"किं वा अकप्पिएणं, गहियं फासुयं तु तं होई''। व्य०१ उ० अनेषणीये, त्रि०। "अकप्पियं ण इच्छिज्जा, पडिगाहेज कप्पियं" / दश०५ अ०॥ जं जम्मि देसभाए, अकप्पियं जेण जेण कालेण / दुच्छामि अन्नपाणे, वि कारणं सुत्तनिहिं / / 5 / / मगहाइ मगहसाली-णं ओयणमुण्हयं हवइ भुखं / सीयलगं तु अभुजं, कुंथुसमाणं रसजेणं / / 6 / / तेसिं तु तंदुलोदं, एगतेणं भवे अप्पिजं तु। पिंडालु य पल्लंकं, परिवुच्छा सा वि य अभुजा ||7|| बालग्गकोडिसरिसा, उरुपरिसप्पा तहिं सुहुमदेहा। संमुच्छिति अणेगा, दुप्पिक्खा मंसचक्खुणा / / तंमिय चेव पएसे, उण्हं सालुअंहवइ भक्खं / सीयलगंमिय जलजा, रसया समुच्छंति य अणेगा |l | Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकप्पिय 119 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अकम्म कुद्ध न तंदुलउदगं, कूरो जो होइ रत्तिपरिखुच्छो। एगंतेण अपेयं, बहुविहसत्ताण साजोणी / / 30 / / गुलपाणियं तु पेयं, मज्झण्हे विच्छुपाणियं चेव / सेसं कालं न पेयं, तेसु वि जीवा अणेगविहा॥३१॥ आभारसरट्ठीए, करंबगे छगलतकसिद्धो अ। एगतेण अभक्खो, सो ऊ उण्हो असलिलेणं // 3 // समुच्छंति निगोया, तसा पंचिंदिया अणेगविहा। सुहुमा जईहिं दिट्टा,तज्जोणीया बहू जीवा / / 33 / / सूरणकंदो मीसे-हिं सीतिओ? एगरत्तिपरिवुच्छो। एगंतेण अभक्खो, तेसि निगोया य मंडूका // 34|| छागलतक्के सिद्धो, छगणेहिं किण्हकंगुओ जीओ। घूलं करिहिं मासो, परिवुच्छो तत्थ बहुयरया / / 3 / / पंचलवमुहुत्तकंदा, अकप्पिया सिद्धयारिनिचं पी। पत्ता कसाणवचयं, सोरहा भारदेसंम्मि॥३६|| चउहिं पयारेहिं सया, न कप्पए कंगुओ तहिं देसे। जो अंबलंमि सद्धो, तत्थयमावन्निया जीवा // 37 / / उण्हे संमुच्छम्मिय, अणेगजीवा निगोयसंठाणा। सीयलयंमि य मच्छा, रहरेणू संठिया बहवे // 38|| छागलतके सिद्धो कंगुओ खायरे हि कठेहिं। उण्हे निगोयजीवा, सीयलए तंतुया हुंति // 36|| तकं बिलंमि सिद्धो, मासो लणएयरएलमासम्मि। उण्हमि तसा जीवा, सीयलए हुंति य निगोया Vol माहिसत्तक्के छगलेहिं, सिद्धओ जइति कंगुओ होइ। समुच्छंति अणेगा, सीयलए तंतुआजीवा / / 4 / / चल्लापत्तंतिल्लंमि सिद्धयं उण्हियं च अगिणीए। उप्पज्जति अणेगा, सीयलए किण्हया जीवा ||2|| अंबिलसिद्धविराली, एगंतेणं च सा विपडिसिद्धा। उण्हम्मितसा जीवा, निगोयजीवायसीयलए||३|| सालासरसाकंगुअ, एए तिन्नि च उण्हया कूरा। परिहरियव्वा निचं सीयलए तंतुआ जीवा ||4|| छागलतक्के सिद्धो, कंगुओ खायरेहिं कटेहिं। तिल्लयसलूणमिस्सो, निगोयपंचिंदिया हुंति ||4|| निग्गंथाण अभक्खं, मूलगसांग तिरत्ति परिच्छं। कुंथुतसाय निगोया, उप्पजंति य बहुय जीवा।।४६|| मासा विहु परिवुच्छा,एगतेण वि हुंति अभक्खा। हुति य निगोयजीवा, तंतुअ पंचिंदिया तत्थ / / 47 / / सतु अभक्खा भक्खा, मक्खा परितुच्छजेसुरहदेसम्मि। पेलामुहुकुक्कुडिया, पंचिंदियजीवजोणी सा ||4|| एगं जामं भक्खा, पूखरिया कुंथुआ भवे पच्छा। एगंतेण अभक्खा, परिवुच्छामासपोलीया।।४।। उप्पज्जति निगोया, जीवा पंचिंदिया बहुविहाय। दुविहेसु मोयगेसुं, परिवुच्छाइसु तहिं देसे // 50 // गोसत्तखाइयाणं, गोणीणं गोरसेण जं मिस्सं। संसप्पइरसएहिं,खणेण वालग्गसरिसेहिं॥५१॥ सव्वेसु विदेसेसुं,परिखुसियाई अकप्पणिजाई। असणंपाणमभक्खं,नाणाजीवाणसाजोणी।।१२।। जा परिवुच्छं मुंजइ, एगरसं चउविहं पि आहारं। सा बहुविहजीवाणं, करेइ अंतं अयाणंतो // 53 / / जो नाही पडिवत्तिं, णाणादेसेसु सत्तभणिएणं। सो संजमं अविकलं, करेइ साहु य परिहरंतो // 5 // अंकुल्लघाणियाए, बायालट्ठीइ जो य इक्खुरसो। मच्छासमुच्छति अ, तक्कालं सव्वदेसेसु // 55 // संसत्तयणिझुत्ती,एसा साहुहिं चेव पढिअव्वा / अत्थो पुण सव्वेहि वि,सोयव्वो साहु पासाओ।।।६।। सं०नि०। आचा०। *अकल्पित-त्रि०।अयोग्ये। ग०१ अधि०। अकबर-पुं०। पारसीकोऽयं शब्दः दिल्लीनगराधिपतौ, म्लेच्छराजे / स हीरविजयप्रतिबोधितः / 'यो जीवाभयदानडिंडिममिषात् स्वीयं यशोडिंडिमम,षण्मासान्प्रतिवर्षमुग्रमखिलेभूमण्डले-ऽवीवदत् / / 1 // भेजे धार्मिकतामधर्मरसिको म्लेच्छाग्रिमोऽकब्बरः / श्रुत्वा यद्वदनादनाविलमतिर्धर्मोपदेशं शुभम् / / 1 / / कल्प०। अकम्म-न० न०त०। (अकर्मन्) कर्मकरणाभावे,बृ० 1 उ० / आश्रवनिरोधे, सूत्र०१ श्रु०१२ अ० / न विद्यते कर्मास्येति / (क्षीणकर्मणि)। पुं०। आचा० १श्रु०५ अ०६ उ०। अकर्मणो गतिःअत्थिणं भंते ! अकम्मस्सगई पण्णायइ? हंता अस्थि कण्हं भंते ! अकम्मस्स गई पण्णायइ ? गोयमा ! निस्संगयाए निरंगणयाए गइपरिणामेणं बंधणछेयणयाए निरिंधणयाए पुय्वप्पओगेणं अकम्मस्स गई पण्णायइ / कहण्हं भंते ! निस्संगयाए निरंगणयाए गइपरिणामेणं अकम्मस्स गई पण्णायइ ? गोयमा ! से जहा नामए केइ पुरिसे सुक्कं तुंबं निच्छिदं निरुवहयं आणुपुवीए परिकम्ममाणे 2 दन्भेहि य कुसेहि य वेढेई अहहिं मट्टियालेवेहिं लिंपइ उण्हं दलयइ भूई भूइं सुकं समाणं अत्थाहमतारमपोरुसियंसि उदगंसि पक्खिवेज्जा से नूर्ण गोयमा! से तुंबे तेसिं अट्ठण्हं मट्टियालेवाणं गुरुयत्ताए भारियत्ताए गुरुयसंभारियत्ताएसलिलतलमइवइत्ता अहे धरणितलपइट्ठाणे भवइ? हंता! हवइ / अहे णं ते तुंबे तेसिं अट्ठण्हं मट्टियालेवाणं परिक्खएणं धरणि-तलमइवइत्ता उप्पिं सलिलपइट्ठाणे भवइ ? हंता ! भवइ एवं खलु गोयमा ! निस्संगयाए निरंगणयाए गति- परिणामेणं अकम्मस्स गईपण्णायइ / कण्हं भंते ! बंधनछेयणयाए अकम्मस्स गई पण्णत्ता? गोयमा! से जहा नामए कलसिंवलियाइ वा Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकम्म 120 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अकम्मभूमग मुग्गसिंवलियाइ वा माससिंवलियाइ वा सिंवलिसिंवलियाइवा एरंडमिंजियाइ वा उण्हे दिण्णा सुक्का समाणी फुडित्ताणं एगंतमंतं गच्छइ, एवं खलु गोयमा ! कहण्हं भंते ! निरिंधणयाए अकम्मस्स गई? गोयमा ! से जहा नामए धूमस्स इंधणविप्पमुक्कस्स उड्ढे वीससाए निव्वाघाएणं गई पवत्तइ, एवं खलु गोयमा ! कहण्हं भंते ! पुव्वप्पओगेणं अकम्मस्स गई पण्णत्ता? गोयमा! से जहानामए कंडस्स कोदंडविप्पमुक्कस्स लक्खा-भिमुहं निव्वाघाएणं गई पवत्तइ, एवं खलु गोयमा ! पुव्वप्पओगेणं अकम्मस्स गई पवत्तइ एवं खलु गोयमा ! नीसंगयाए निरंगणयाए जाव पुव्वप्पओगेणं अकम्मस्स गई पवत्तइ। (गई पण्णायइत्ति) गतिः प्रज्ञायतेऽभ्युपगम्यत इति यावत् (निस्संगयाएत्ति) निःसङ्गतया कर्ममलापगमेन (निरंगणयाएत्ति) नीरागतया मोहापगमेन (गइपरिणामेणं ति) गतिस्वभावतया अलाबुद्रव्यस्येव (बंधणछेयणयाएत्ति) कर्मबन्धनच्छेदनेन एरण्डफलस्येव (निरंधणयाएत्ति) कर्मेन्धनविमोचनेन धूमस्येव (पुव्वप्पओगेणंति) सकर्मतायां गतिपरिणामवत्त्वेन बाणस्येवेति / एतदेव विवृण्वन्नाह (कहण्हमित्यादि) (निरुवहयंति) वाताद्यनुपहतं (दब्भेहि यत्ति) दर्भः समूलैः (कुसेहि यत्ति) कुशैर्दभैरव छिन्नमूलैः (भूइंभूइत्ति) भूयो भूयः (अत्थाहेत्यादि) इह मकारौ प्राकृतप्रभवावतोऽस्ताघेऽत एवातारेऽत एवापौरुषेयेऽपुरुषप्रमाणे / (कलसिंबलियाइ वा) कलायाभिधानधान्यफलिका (सिंबलित्ति) वृक्षविशेषः (एरंडमिंजियाइ वा) एरण्डफलं (एगंतमंतं गच्छइत्ति) एक इत्येवमन्तो निश्चयो यत्रासावेकान्त एक इत्यर्थोऽतस्तमन्तं भूभागं गच्छति। इह च बीजस्य गमनेऽपि यत् कलाय सिम्बलिकादि। तदुक्तं "तत्तयोरभेदोपचारादिति" (उड्ढे वीससाएत्ति) ऊर्ध्वं विस्रसया स्वभावेन (निव्वघाएकति) कटाद्याच्छादनाभावात्, भ०७ श०१ उ०। (अकम्मस्स ववहारो ण विञ्जति)। आचा०१ श्रु०२ अ०१ उ०। न विद्यते कर्मास्येति अकर्मा कर्मरहिते, वीर्यान्त-रायक्षयजनिते जीवस्य सहजे वीर्ये, "किन्तु वीरस्स वीरतं, कहं चेयं पवुचई / कम्भमेगे पवेदेति, अकम्मं वा वि सुव्वया'। सूत्र०१ श्रु०७ अ०॥ अकम्मओ-अव्य०(अकर्मतस्) कर्माणि विनेत्यर्थे, "णो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ / भ०१२ श०५ उ०। अकम्मंस-पुं०(अकर्माश) न विद्यते कर्मांशो यस्य सोऽकर्मा -शः / कर्मलवविप्रमुक्ते "अप्पत्तियं अकम्मसे, एयमट्ठम्मिगे चुए"। सूत्र० 1 श्रु०१ अ०२ उ०। विगतघातिकर्मणि स्नातकभेदे, भ० 25 श० 6 उ०। अकम्मकारि(न्)-त्रि०(अकर्मकारिन्) स्वभूमिकानुचित कर्मकारिणि, प्रश्न०आश्र०२ द्वा०॥ अकम्मग-त्रि०(अकर्मक) नास्ति कर्म यस्य। बहु०। कप्। व्याकरणोक्ते कर्मशून्ये धातौ / "लः कर्माणि च भावे चाकर्म-केभ्यः'1३१४१६६। इति (पाणिनिः)"फलव्यापारयोरेक-निष्ठतायामकर्मकः" इति हरिः / स्त्रियां टापि कापि अत इत्वम् अकर्मिका। "प्रसिद्धेरविवक्षातः कर्मणोऽकर्मिका क्रिया" इति हरिः / वाच० / अविवक्षितकर्मका अकर्मका भवन्ति / यथा, पश्य ! मृगो धावति, आचा० 1 श्रु०१ अ०३ उ०। अकम्मभूमग-पुं०(अकर्मभूमक) कर्म कृषिवाणिज्यादि मोक्षानुष्ठान वा तद्विकला भूमिर्येषां ते अकर्मभूमास्ते एवाकर्मभूमका आर्षत्वात्समासान्तोऽप्रत्ययः / जीवा०१ प्रति / अकर्मभूमिजेषु गर्भव्युन्क्रान्तिकमनुष्येषु, प्रज्ञा०१ पद। ते च त्रिंशद्विधाः। से किं तं अकम्मभूमिगा ? अकम्मभूमिगा तीसतिविहा पण्णत्ता। तं जहा-पंचहिं हेमवएहिं पंचहिं हेरण्णवएहिं पंचहिं हरिवासेहिं पंचहिं रम्मगवासेहिं पंचहिं देवकुरुएहिं पंचहिं उत्तरकुरुएहिं / से तं अकम्मभूमिगा। अथ के ते अकर्मभूमिकाः? सूरिराह अकर्मभूमिकास्त्रिशद्विधाः प्रज्ञप्ताः। तच्च त्रिंशद्विधत्वं क्षेत्रभेदात् / तथा चाह / "तं जहा पंचहिं हेमवएहिं " इत्यादि। पञ्चभिर्हमवतैः पञ्चभिर्हरण्यवतैः पञ्चभिर्हरिवर्षः पञ्चभिः रम्यक वर्षेः पञ्चभिर्देवकु रुभिः पञ्चभिरुत्तरकु रुभिभिंद्यमानास्त्रिंशद्विधा भवन्ति / षण्णां पञ्चानां त्रिंशत्संख्यात्मकत्वात्। तत्र पञ्चसु हैमवतेषु मनुष्या गव्यू-तिप्रमाणशरीरोच्छ्रया पल्योपमायुषो वज्रर्षभनाराचसंहननिनः समचतुरस्रसंस्थानाः चतुष्षष्टिपृष्ठकरण्डकाश्चतुर्थातिक्रमभो-जिनः एकोनाशीतिदिनान्यपत्यपालकाः। उक्तं च " गाउयमुच्चा पलिओवमाउणो वज्जरिसहसंघयणा / हेमवएरन्नयए, अहमिंदनरा मिहुणवासी ||1|| चउसट्ठीपिट्ठकरंडयाण मणुयाण तेसिमाहारो / भत्तस्स चउत्थस्सेगुणसिइदिणऽवच्चपालणया" // 2 // पञ्चसु हरिवर्षेषु पञ्चसु रम्यकेषु द्विपल्योपमायुषो द्विगव्यूतिप्रमाणशरीरोच्छ्या वर्षभनाराचसंहननिनः समचतुरस्रसंस्थानाः षष्ठ भक्तातिक माहारग्राहिणोऽष्टाविंशत्यधिक शतसंख्यपृष्ठ - करण्डकाश्चतुष्पष्टिदिनान्यपत्यपालकाः। (आहच "हरिवास-रम्मएसु, आउपमाणं सरीरमुस्सेहो।पलिओवमाणि दोन्निय, दोन्नियकोसुस्सिया भणिया // 1 // छट्ठस्स य आहारो, चउसट्ठिदिणाणि पालणा तेसिं / पिट्ठकरंडाण सयं, अट्ठावीसं मुणेयव्वं // 2 // पंचसु देवकुरुषु पंचस्वुत्तरकुरुषु त्रिपल्योपमायुषो गव्यूतित्रय-प्रमाणशरीरोच्छ्रयाः समचतुरस्रसंस्थाना वज्रर्षभनाराचसंहननिनः षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयप्रमाणपृष्ठकरण्डका अष्टमभक्ता-तिक्रमाहारिण एकोनपञ्चाशदिनान्यपत्यपालकाः। तथोक्तंच"दोसु वि कुरूसु मणुया, तिपल्लपरमाउस। तिकोसुचा। पिट्टकरंड-सयाई . दोछप्पन्नाइ मणुयाणं / / 1 / / सुसमसुसमाणुभावं, अणुभवमाणाणऽवचगोवणया / अउणापन्नदिणाई, अट्ठमभत्तस्स आहारो" // 2 // एतेषु सर्वेष्वपि क्षेत्रेष्वन्तरद्वीपेष्विव मनुष्याणामुपयोगाः कल्पद्रुमसम्पादिताः नवरमन्तरद्वीपापेक्षया पञ्चसु हैमवतेषु पञ्चसु हैरण्यवतेषु मनुष्याणामुत्थानबलवीर्यादिकं कल्पपादपफलानामास्वादो भूमेर्माधुर्यमित्येवमादिका भावाः पर्यायानधिकृत्यानन्तगुणा द्रष्टव्यास्तेभ्योऽपि पञ्चसु हरिवर्षेषुपञ्चसु रम्यकवर्षेषु अनन्तगुणास्तेभ्योऽपि पञ्चसु देवकुरुषु पञ्चसूत्तरकुरुष्वनन्तगुणाः। प्रज्ञा०१पदाजी० आ०म०द्वि०॥ एषां कल्पवृक्षाः अकम्मभूमयाणं मणुआणं दसविहा रुक्खा उवभोगत्ताए उवत्थिया पण्णता। तंजहा- मत्तंगयाय भिंगा, तुडिअंगा दीवजोइचित्तंगा। चित्तरसा मणिअंगा, गेहागारा अणग्गिया य। तथा अकर्मभूमिकानां भोगभूमिजन्मनां मनुष्याणां दशविधा (रुक्खति) कल्पवृक्षाः (उवभोगत्ताएत्ति) उपभोग्यत्वाय Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकम्मभूमग 121 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अकम्मया (उवत्थियत्ति) उपस्थिता उपनीता इत्यर्थः / तत्र मत्ताङ्गकाः मद्यकारणभूताः (भिंगत्ति) भाजनदायिनः (तुडियंगत्ति) तुर्याङ्गसम्पादकाः (दीवत्ति) दीपशिखाः प्रदीपकार्यकारिणः (जोइत्ति) ज्योतिरग्निस्तत्कार्यकारिण इति (चित्तंगत्ति) चित्राङ्गाः पुष्पदायिनः चित्ररसाः भोजनदायिनः मण्यङ्गा आभरणदायिनः गेहाकाराः भवनत्वेनोपकारिणः अनग्नत्वं सवस्त्रत्वं तद्धेतुत्वादनग्ना इति, स०१० सम०। अकम्मभूमि-स्त्री०न०(अकर्मभूमि) कृष्यादिकर्मरहिताः / कल्पपादपफलोपभोगप्रधाना भूमयो हैमवतपञ्चकहरिवर्षपश्चाकदेवकुरुपञ्चकोत्तरकुरुपाकरम्यकपञ्चकै रण्यवतपञ्चकरूपास्त्रिंशदकर्मभूमयः / नं० / इत्येतासु भोगभूमिषु, प्रश्न० आश्र० 5 द्वा० स्था० प्रव०। जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं तओ अकम्मभूमीओ पण्णत्ताओ / तंजहा- हेमवए हरिवासे देवकुरा। जंबूदीवे दीवे मंदरस्स उत्तरेणं तओ अकम्मभूमिओ पणत्ताओ। तंजहा- उत्तरकुरा रम्मगवासे हेरन्नवए स्था०३ ठा०४ उ०। जम्बुद्दीवे दीवे देवकुरुउत्तरकुरुवजाओ चत्तारि अकम्मभूमीओ | पण्णत्ताओ / तंजहा-हेमवए हेरण्णवए हरिवासे रम्मगवासे, स्था०४ ठा०। सर्वसङ्ग्रहेजंबुद्दीवे दीवे छ अकम्मभूमीओ पण्णत्ताओ। तंजहा- हेमवए हे रणवए हरिवासे रम्मगवासे देवकुरा उत्तरकुरा / धायइखंडदीवपुरच्छिमद्धे णं छ अकम्मभूमीओ पण्णत्ताओ। तंजहा-हेमवए जहा जंबुद्दीवे तहा जाव अंतरणईओ जाव पुक्खरवरदीवड्डे पचत्थिमद्धे भाणियव्वं / स्था०६ ठा० / कइविहे णं भंते ! अकम्मभूमीओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! तीसं अकम्मभूमीओ पण्णत्ताओ / तं जहा-पंच हेमवयाइं, पंच हेरण्णवयाई, पंच हरिवासाई, पंच रम्मगवासाई, पंच देवकु राई, पंच उत्तरकुराई / एयासु णं मंते ! तीसासु अकम्मभूमीसु अत्थि उस्सप्पिणीति वा ओसप्पिणीति वा? णो इणढे समढे / म०२०श०८ उ०। अकम्मभूमिय-पुं०(अकर्मभूमिज) अकर्मभूमिषु जाता अकर्मभूमिजा / गर्भजमनुष्यभेदेषु, नं०। अकम्मभूमिआ-स्त्री०(अकर्मभूमिजा) अकर्मभूमि गभूमिस्तत्र जाता अकर्मभूमिजा भोगभूमिजगर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्यस्त्रीषु, स्था०३ ठा०१ उ०। से किं तं अकम्मभूमियाओ अकम्मभूमियाओ तीसतिविधाओ पण्णत्ताओ। तंजहा-पंचसु हेमवएसुपंचसु हेरण्णवएसु पंचसु हरिवासेसु पंचसु रम्मगवासेसु पंचसु देवकुरुसु पंचसु उत्तरकुरुषु / से तं अकम्मभूमगमणुस्सीओ। जी०१ प्रति०। अकम्मया-स्त्री०(अकर्मता) कर्मणामभावे, अस्याः फलं यथा अहाउयं पालइत्ता अंतोमुहुत्तावसेसाउए जोगनिरोहं करेमाणे सुहुमकिरियं अप्पडिवाइयं सुक्कज्झाणं झायमाणे तप्पढमयाए मणजोगं निरंभइ, मणजोगं निरंभइत्ता वइजोगं निरुंभइ, वइजोगं निरंभइत्ता कायजोगं निरंभइ, कायजोगं निरंभइत्ता आणापाणनिरोहं करेइ, आणापाणनिरोहं करेइत्ता ईसिं पंच हस्स-क्खरुच्चारधाए य णं अणगारे समुच्छिन्नकिरियं अणियट्टिइ सुक्कज्झाणं झियायमाणे वेयणिज्जं आउयं नामंगोयं च एए चत्तारि विकम्म से जुगवं खवेइ७शातओ ओरालियकम्माई च सव्वाहिं विप्पजहणाहिं विप्पजहित्ता उजुसेढी पत्ते अफु समाणगई उड्डं एगसमएणं अविग्गहेणं तत्थ गंता सागारोवउत्ते सिज्झइ बुज्झइ मुबह परिनिव्वाएइ सव्वदुक्खाणं अंतं करेइ / / 73|| शैलेस्यकर्मताद्वारमर्थतो व्याचिख्यासुराह-(अहेति) केवलाsवाप्त्यनन्तरमायुष्कं जीवितमन्तर्मुहूर्तादिपरिमाणं पालयित्वा अन्तर्मुहूर्तपरिमाणः अद्धा कालोऽन्तर्मुहूद्धिा तदशेषमुद्वरित यस्मिस्तदन्तर्मुहूर्ताद्धावशेषम् / तथाविधमायुरस्येति अन्तमुहूर्ताद्धावशेषायुष्कः सन्। पाठान्तरतश्चान्तर्मुहूर्तावशेषायुष्कः / पठन्ति च "अंतोमुत्तअद्धावसेसा" इति प्राकृतत्वादन्त-मुहूर्तावशेषाद्धायाम्। (जोगनिरोहं करेमाणित्ति) योगनिरोधं करिष्यमाण: सूक्ष्मक्रियमप्रतिपतनशीलमप्रतिपात्यधःपतना-भावात् शुक्लध्यानं 'समुदायेषु हि प्रवृत्ताः शब्दा अवयवेष्वपि वर्तन्ते" इति शुक्लध्यानतृतीयभेदं, ध्यायंस्तत्प्रथमतया तदाद्य-तया मनसो योगो मनोयोगः मनोद्रव्यसाचिव्यजनितो व्यापारस्तं निरुणद्धि / तत्र च पर्याप्तमात्रस्य संज्ञिनो जघन्ययोगिनो यावन्ति मनोद्रव्याणि तजनितश्च यावान् व्यापारस्तदसंख्यगुणविहीनानि मनोद्रव्याणि तद्व्यापार प्रतिसमयं निरुन्धन तदसंख्येय-समयैस्तत्सर्वनिरोधं करोति। यत उक्तम् "पज्जत्तमित्तसण्णि-स्सजत्तियाइं जहण्णजोगिस्स / होति मणोदव्वाई, तव्वाबारो य जम्मत्तो" / / तयसंखगुणविहीणे, समए समए निरंभमाणो सो। मणसो सव्वनिरोह, कुणइ असंखेज्जसमएहिं ' // तदनन्तरं च वाचो वाचि वा योगो वाग्योगो भाषाद्रव्यसाचिव्यजनितो जीवव्यापारस्तं निरुणद्धि / तत्र च पर्याप्तमात्रद्वीन्द्रियजघन्यवाग्योगपर्यायेभ्योऽसंख्यगुणविहीनांस्तत्पर्यायान्समये 2 निरुन्धनसंख्येय- समयैः सर्व वाग्योगं निरुणद्धि। यत उक्तम् 'पज्जत्तमेत्तवें दिय, जहण्णवइजोगपज्जवा जे उ।तदसंखगुणविहीणा, समए समए निरुभंतो। सव्ववइजोगरोह, संखादीएहिं कुणए समएहिं / आणापाणनिरोहं, पढमसमओयसुहुमपणगत्ति'।। आनापाना-वुच्छ्वासनिःश्वासौ, तन्निरोधं करोति सकलकाययोगनिरोधो- पलक्षणं चैतत्तं च कुर्वन् प्रथमसमयोत्पन्नसूक्ष्मपनकजघन्यकाय- योगतोऽसंख्येयगुणहीनं काययोगमेकैकसमये निरुन्धन् देहविभागंच मुञ्चन्नसंख्येयसमयैरेव सर्वं निरुणद्धि। उक्तं च / "जो किर जहन्नजोगो, संखेजगुणहीणम्मि इक्विके / समए निरुंभमाणो, देहतिभागंचमुचंतो।रुंभइस कायजोग, संखाइएहिं चेव समएहिं / तो काययोगनिरोहो, सेलेसीभावणामेति // इत्थं योगत्रयनिरोधं विधाय (ईसित्ति) ईषदिति स्वल्पप्रयत्नापेक्षया पञ्चानां ह्रस्वा-क्षराणां अइउज्ञलुइत्येवंरूपाणामुचारो भणनं तस्याद्धाकालो यावता उच्चार्यन्ते ईषत् पञ्चहूस्वाक्षरोचारणाद्वा, तस्यां च (णमिति) प्राग्वत् अनगारः समुच्छिन्नोपरता क्रिया मनोव्यापारा-दिरूपा यस्मिस्तत् समुच्छिन्नक्रि यं, न निवर्तते कर्मक्षयात् प्रागि Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकम्मया 122 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अकम्हादंडवत्तिय त्येवंशीलमनिवर्त्ति शुक्लध्यानं चतुर्थभेदरूपं ध्यायन शैलेस्य- | | अकम्हा(म्मा)किरिया-स्त्री०(अकस्म तक्रिया) अन्यस्मै निसृष्टेन वस्थामनुभवन इति भावः। ह्रस्वाक्षरोचारणंचन विलम्बितहतं वा किंतु शरादिनाऽन्यघातलक्षणे चतुर्थे क्रियास्थाने, ध०३ अधिo| मध्यममेव गृह्यते। यत आह- "हस्सक्खराइँ मज्झेण जेण कालेण पंच | अकम्हा(म्मा)दंड-पुं०(अकस्माद्दण्ड)अकस्मादनभिसन्धिभण्णंति। अच्छति सेलेसिगतो, तत्तियमित्तं ततो कालं''। एवंविधश्च यः नाऽन्यवधार्थप्रवृत्त्या दण्डोऽन्यस्य विनाशोऽक स्माद्दण्डः / स० कुरुते, तदाह-वेदनीय शातादि आयुष्यं मनुष्यायुन म मनुजगत्यादि 13 सम०।अन्यवधार्थप्रहारे मुक्तेऽन्यस्य वधलक्षणे चतुर्थे दण्डे, स्था० गोत्रं चोथैर्गोत्रम्। (एएत्ति) एतानि चत्वार्यपि (कम्म सेत्ति) सत्कर्माणि 5 ठा०२ उ० / प्रव०। प्रश्न० / आव०। युगपत् क्षपयति एतत्-क्षपणन्यायश्च भाष्यगाथाभ्योऽवसेयस्ताश्चैताः अकम्हा(म्मा)दंडवत्तिय-न०(अकस्माद्दण्डप्रत्ययिक) अकस्माद्दण्डः "तेसंखेज-गुणाए, सेढीएयरइयंपुरा कम्म। समए समए खवयं, कम्म प्रत्ययः कारणं यस्य। चतुर्थे दण्डसमादानेसेलेसिकालेण // सव्वं खवेइ तं पुण, निल्लेवं किंचिदुचरिमस-मए। अहावरे चउत्थे दंडसमादाणे अकम्मादंडवत्तिएत्ति आहिज्जइ। किंचिच होइ चरिमे, सेलेसीएत्तयं वोच्छं। मणुथग-इजाइ-तसबायरंच से जहाणामए केइ पुरिसे कच्छंसि वा जाव वणदुग्गंसि वा पजत्तसुभगमाएजं / अण्णयरवेयणिज्ज़, नराउमुच्चंजसोणाम॥संभवओ मियवत्तिए मियसंकप्पे मियपणिहाणे मियवहाए गंता। एए मियत्ति जिणणाम, नराणुपुटवीय चरिमसमयंमि / सेसा जिणसंताऊ, काउं अन्नयरस्स मियस्स वहाए इसुं आयामेत्ता णं णिसिरेजा। दुचरिमसमयंमि दिलृति"|| तत इति वेदनीया-दिक्षयानन्तरम् स मियं वहिस्सामित्तिकट्टु तित्तिरं वा वट्टगंवा चडगंवा लावगं (ओरालियकम्माई च त्ति) औदारिककार्मणे शरीरे उपलक्षणात्तैजसं च वा कवोयगं वा कविं वा कविंजलं वा विधिंता भवइ / इह खलु (सव्वाहिं विप्पजहणाहिति) सर्वाभिर-शेषाभिर्विशेषेण विविधं वा से अन्नस्स अट्ठाए अण्णं फुसति / अकम्मादंडे ||10|| से जहा प्रकर्षतोहानयस्त्यागो विप्रहाणयो, व्यक्त्यपेक्षं बहुवचनं, ताभिः किमुक्तं णामए केइ पुरिसे सालीणि वावीहीणि वा कोहवाणि वा कंगूणि भवति? सर्वथा परिशाटेनन तुयथापूर्वसंघातपरिशाटाभ्यां देशत्यागतः वा परगाणि वा रालाणि वा णिलिज्जमाणे अन्नयरस्स तणस्स (विप्पजहित्ता) विशेषेण प्रहाय परिशाठ्य / उक्तं हि- "ओरालियाहिं वहाए सत्थं णिसिरेजा। से सामगं तणगं कुमुदगं वीहीऊसियं सव्वा, चयइ विप्पजहण्णाहिं जंभणिय। नीसेसतयाण जहा, देसच्चारण कलेसुयं तणं छिंदिस्सामित्तिकट्ठ सालिं वा वीहिं वा कोहवं सो पुट्विं''। चशब्दोऽत्र औदयिकादिभाव-निवृत्तिमस्यामनुक्तामपि वा कंगुं वा परगं वा रालयं वा छिंदित्ता भवइ / इति खलु से समुचिनोति / यत उक्तम् "तस्सोदयिया-भावा, भव्वत्तं च विणियत्तए अन्नस्स अट्ठाए अन्नं फुसति अकम्मादंडे / एवं खलु तस्स जुगवं / सम्मत्तणाणदंसण, सुहसिद्धत्ताणि मोत्तूणं'।। ऋजुरवक्र तप्पत्तियं सावजं आहिजइ / चउत्थे दंडसमादाणे श्रेणिराकाशप्रदेशपङ्क्तिस्तां प्राप्त ऋजुश्रेणिगत इति यावत् अकम्मादंडवत्तिए आहिए|११|| (अफु समाणगइत्ति) अस्पृशद्ग तिरिति नायमर्थो यथा अथापरं चतुर्थं दण्डसमादानमकस्माद्दण्डप्रत्ययिकमाख्यायते। इह सर्वानाकाशप्रदेशान्न स्पृशत्यपि तु यावत्सु जीवोऽवगाढस्तावत एव चाक स्मादित्ययं शब्दो मगधदेशे सर्वेणाप्यागोपालाङ्गनास्पृशति, न तु ततोऽतिरिक्तिमेकमपि प्रदेशमूर्ध्वमुपर्येकसमयेन दिना संस्कृत एवोचार्यत इति / तदिहापि तथाभूत एवोचारित द्वितीयादिसमयान्तराऽस्पर्शनेनाविग्रहण वक्रगतिरूपविग्रहाभावेन इति। तद्यथानाम कश्वित्पुरुषोलुब्धकादिकः कच्छे वा यावद्द्वनदुर्गे वा अन्वयव्यतिरेकाभ्यामुक्तोऽर्थः स्पष्टतरो भवतीत्यनुश्रेणिप्राप्त इत्यनेन गत्वा मृगैर्हरिणैराटव्यपशुभिर्वृत्तिर्वर्तनं यस्य स मृगवृत्तिकः / स चैवंभूतो गतार्थत्वेऽपिपुनरभिधानं तत्रेति विवक्षिते मुक्तिपद इति यावत् (गंतेत्ति) मृगेषु संकल्पो यस्यासौ मृगसंकल्पः / एतदेव दर्शयति-मृगेषु गत्वा साकारोपयुक्तो ज्ञानोपयोगवान् सिध्यतीत्यादि यावदन्तं प्रणिधानमन्तःकरणवृत्तिर्यस्यासौ मृगप्रणिधानः / क्व करोतीत्यादि प्राग्वत् / उक्तं च "ऋजुसेटिं पडिवन्नो, समयपएसंतरं मृगान्द्रक्ष्यामीत्येतदध्यवसायी सन् मृगवधार्थ कच्छादिषु गन्ता अफुसमाणो / एगसमएण सिज्झइ, अहसागारोवउत्तो सो"।। इति भवति। तत्रचगतः सदृष्ट्वा मृगानेतेमृगा इत्येवं कृत्वा तेषांमध्येऽन्यतरस्य द्वासप्ततिसूत्रार्थः / इह चूर्णिकृतः "सेलेसीए णं भंते! जीवे कि जणयइ ? मृगस्य वधार्थमिधू शरम् (आयामेत्तात्ति) आयामेन समाकृष्य मृगमुद्दिश्य अकम्मं जणयइ, अकम्मयाओ जीवा सिझंति" इति पाठः पूर्वत्र च निसृजति / स चैवंसंकल्पो भवति-यथाऽहं मृगं हनिष्यामीति इषु वचित् किंचित् पाठभेदेनाल्पा एव प्रश्ना आश्रिताः / अस्माभिस्तु क्षिप्तवान् / स च तेनेषुणा तित्तिरादिकं पक्षिविशेष व्यापदयिता भवति, भूयसीषु प्रतिषु यथाव्याख्यातपाठदर्शनादित्थमुन्नीतमिति / / उत्त०२१ तदेवं खल्वसावन्यस्यार्थाय निक्षिप्तो दण्डो यदान्यं स्पृशति घातयति अग तदा "अकस्माद्दण्ड" इत्युच्यते // 10 // अधुना अकम्हा(म्मा)-अव्य०(अकस्मात्) न कस्मात् किञ्चि-त्कारणाधीनत्वं वनस्पतिमुद्दिश्याऽकस्माद्दण्ड उच्यते / (से जहेत्यादि) तद्यथानाम यत्र। अलुक्समासः। वाच०। पक्ष्मश्मष्मस्मा म्हः।८।२।७४ / इति कश्चित्पुरुषः कृषीवलादिः शाल्यादेर्धान्यजातस्य श्यामादिकं सूत्रेण स्मेति भागस्य मकाराक्रान्तो हकारः / प्रा० अथवा मगधदेशे तृणजातमपनयन धान्यशुद्धिं कुर्वाणः सन् अन्यतरस्य गोपालबालाबलादिप्रसिद्धोऽकस्मादिति शब्दः / स इह प्राकृतेऽपि तथैव तृणजातस्यापनयनार्थ शस्त्रं दात्रादिकं निसृजेत्। स च श्यामादिकं तृणं प्रयुक्तः / स्था० 5 ठा० / कारणानधीने, अतर्कितोपनते या, छेत्स्यामीति कृत्वाऽकस्मात्छालिं वा रालकं वा छिद्याद् बाह्यनिमित्तानपेक्षे, स्था०७ ठा०। अनभिसन्धे, प्रश्न० संव०५ द्वा०। रक्षणीयस्यैवासावकस्मातछेत्ता भवति। इत्येवमन्यस्यार्थाया-न्यकृतेऽन्यं आचा०। वा स्पृशति छिनत्ति। यदि वा स्पृशतीत्यनेनापि परितापं करोतीति Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकम्मादंडवत्तिय 123 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अकसाय दर्शयति / तदेवं खलु तस्य तत्कस्तित्प्रत्ययिकमकस्माद्दण्डनिमित्तं करण्डकं पृष्ठवंशास्थिकं यस्य देहस्यासौऽकरण्डकः / जी०३ प्रति०। सावधमिति पापमाधीयते संबद्ध्यते / तदेतचतुर्थदण्ड- मांसलतयाऽनुपलक्ष्यमाणपृष्ठवंशास्थिके, औ०। मांसोपचितत्वासमादानमकस्माद्दण्डप्रत्ययिकमाख्यातमिति / / 11 / / सूत्र०२ श्रु०२ दविद्यमानपृष्ठपाङस्थिके, तं० / प्रश्न० / अ०॥ "अकरंडुयकणगगरुयगणिम्मलसुजायणिरुवहयदेहधारी / जी०३ अकम्हा(म्मा)भय-न०(अकस्माद्भय) अकस्मादेव बाह्य निमित्तानपेक्षं प्रति०1 गृहादिष्वेव स्थितस्य रात्र्यादौ भयमकस्माद्भयम्, आव०४ अ०। स्था० / अकरण-न०(अकरण) कृ-भावे ल्युट्, अर्थाभावे, न०त०१अव्यापारे, बाह्यनिमित्तनिरपेक्षे स्वविकल्पाजाते भयभेदे, स०७ सम०। आ०चू०। आचा० 1 श्रु०६ अ० 1 उ० / अनासेवने, आव०६ नि०चू० / अकस्मात् सहसैव विश्रब्धस्यार्तध्वनि अ० पञ्चा० / परिहरणे, आ०चू०१ अ० / अकरणान्मन्दकरणं श्रवणाद्भयमकस्माद्भयम् ।यथा हस्त्या गच्छतीत्यादिश्रवणादुद्वसनम्, श्रेयः। अकरणंचन्यायादिमतेकरणाभावः,मीमांसकवेदान्तिमते निवृत्तिः दर्श०। अकरणीये मैथुने, "जइ सेवंतअकरणं, पंचण्हं वि बाहिरा हुंति'। अकय-त्रि०(अकृत) कृ कर्मणि क्तः। न०ता कृतभिन्ने, अन्यथाकृते, व्य०३ उ०। संस्कारहीनतारूपे,साधन (हेतु) दोषे, यथाऽनित्यः शब्दः बलपूर्वकृते, ऋणलेख्यपत्रादौ, साध्वर्थं दायकेन पाकतोऽविहिते, कृतकत्वस्मादिति / अत्र कृतकत्वादिति वक्तव्ये कृतकत्वस्मादिति प्रश्नसंव०१ द्वा०।अकयमकारियमसंक-प्पियमणाहूयं भ०७ श०१ संस्काररहितोऽशुद्ध उक्तः / रत्ना०८ परि०। उ०। (एकदेशग्रहणेन ग्रहणात्) अकृतकरणे,अगृहीतप्रायश्चित्ते, व्य०१ अकरणया-स्त्री०(अकरणता) करणनिषेधरूपतायाम् , भ० उ० / भावे क्तः / अभावार्थे, न०त० / करणाभावे, निवृत्ती, वाच०।। 15 श०१ उ०। "अकरणयाए अब्भुट्टित्तए' न पुनः करिष्याअकयक रण-पुं०(अकृतकरण) षष्ठाष्टमादिभिस्तपो विशेषै- मीत्यभ्युपस्थातुमभ्युपगन्तुमिति, स्था०रा०१उ०। अनासेव-नायाम्, रपरिकर्मितशरीरे, प्रायश्चित्तयोग्ये पुरुषभेदे, व्य०१ उ० / ध०३ अधि० / “सज्झायस्स अकरणयाए उभओ "अकयकरणा य दुविहा, अहिगया अणहिगया य बोधव्वा" व्य०१ कालं"। आव०४ अ०। उ० / अकृतकरणा द्विविधाः / अधिगता अनधिगताश्च / तत्र ये अकरणओ-अव्य०(अकरणतस्) अकरणमाश्रित्येत्यर्थः। अकुर्वत् इति अगृहीतसूत्रास्तेि अनधिगताः / गृहीतसूत्रार्थास्तु अधिगताः, व्य०१ यावत् , “अकरणओणं सादुक्खा"। भ०१श०१उ०। उ० अकरणणियम-पुं०(अकरणनियम) अनासेवननियमे, "असंअकयण्णु-त्रि०(अकृतज्ञ) कृतमुफ्कारं परसंबन्धिनं न जानाती- प्रज्ञातनामा तु समतो वृत्तिसंक्षयः / सर्वतोऽस्मादकरणो, नियमः त्यकृतज्ञः, स्था०४ ठा०४ उ०। ज्ञा०। क०। असमर्थे / स०। पापगोचरः" // द्वा०२० द्वा०। कृतोपकारास्मारके कृतघ्ने, वाच०। अकरणि-स्त्री०(अकरणि) न-क-आक्रोशे अनिः / करणं अकयणुया-स्त्री०(अकृतज्ञता) अकृतज्ञस्य भावस्तत्ता / कृत माभूदित्याक्रोशात्मके शापे, 'तस्याकरणिरेवास्तु' इति, वाचा प्रश्न०। घ्रतायाम्, 'चउहि ठाणेहिं संतेगुणे णासेजा। तंजहा-कोहेणं पडिणिवेसेणं अकरणिज्ज-स्त्री०(अकरणीय) न०त०। सामान्येनाकर्त्तव्ये, आव०४ अकयण्णुयाए मिच्छत्ताहिणिवेसेणं"। स्था०४ ठा० अ० आ० चू० / "इच्छामि पडिक्कमिउं, अकप्पो अवि-राहिओ 4 उ० अकरणिज्जो" | आव०४ अ० अकर्तव्ये, इहलोकपरअकयपुण्ण-त्रि०(अकृतपुण्य) अविहितपुण्ये, विश०१ श्रु०७ अ०) लोकविरुद्धत्वादकार्ये, आचा०१ श्रु०१अ०७ उ०1"अप्पाणेणं "अकयपुण्ण जणमणोरहा विव चिंतिजमाणी''। ज्ञा०६ अ०। अकरणिज्जं पावकम्मं तं णो अण्णेसी"। आचा०१ श्रु०५ अ०३ उ०। अकयप्प(ण)-त्रि०(अकृतात्मन्) अयतेन्द्रिये, "सुखमात्य-न्तिकं असत्ये, "मिच्छत्ति वा वितहत्ति वा असचंति वा असचयंति वा यत्तद्, बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् / तं हि मोक्षं विजानीयाद् अकरणीयंति वा एगट्ठा,"।आ०चू०१०। दुष्प्रापमकृतात्मभिः, स्था०।। अकरणोदय-त्रि०(अकरणोदय) भाविकालमाश्रित्याकरण-स्यैवोदयो अकयमुह-त्रि०(अकृतमुख) अकृतमक्षरसंस्कारेणासंस्कृतं मुखं यस्मिन्निति तत्तथा (अनागते कालेऽकरणत्वेनोदयं प्राप्स्यति) "उत्थाने यस्यासावकृतमुखः। अपठितशिक्षिते, ''पोत्थगपञ्चयपढियं, किं रमसे निर्वेदात् , करणमकरणोदयं सदैवास्याः "1षो०१५ विव०। एस हुव्व अहिलायं। अकयमुहफलगमाणयजाते लिक्खंतु पंचग्गा'। अकलंक-पुं०(अकलङ्क ) विद्वद्भदे, अकलङ्कोऽप्याहद्विविध बृ०३ उ०। प्रत्यक्षज्ञानम् / सांव्यवहारिकं मुख्यं च, इत्यादि। न०त०। कलङ्करहिते अकयसामायारीय-पुं०(अकृतसामाचारीक) उपसंपविषयाया च.त्रि० मण्डलीविषयायाश्च द्विविधाया अपि स माचार्या अकारके, बृ० 1 उ०। अकलुण-त्रि०(अकरुण) नास्ति करुणा यस्य यत्र वा, दैन्यशून्ये च, अकयसुय-पुं०(अकृतश्रुत) अगीतार्थे / व्य०६ उ० / अगृहीतो- वाच० / निर्दये, प्रश्न० आश्र०३ द्वा०। चितसूत्रार्थे, तदुभये, व्य०४ उ०। अकलुस-त्रि०(अकलुष) न०ब० क्रोधादिकालुष्यरहिते, अणुः / अकरंडग-त्रि०(अकरण्डक) करण्डको वंशग्रथितः समतल- द्वेषवर्जिते, अन्त०७ वर्गः। कस्तस्येवाकारो यस्य तत्करण्डकम् न करण्डकमकरण्डकम् | अकसाइ(न)-पं०(अकषायिन) कषाया विद्यन्ते यस्यासौ कषायी न औ० करण्डकाकाररहिते दीर्घ, समचतुरस्रे, वा "अकरंडयंमि भाणे, कषायी अकषायी, सूत्र०१ श्रु०६ अ० / आचा०। कषायोदयरहिते, हत्थो उद्धं जहा न घटेत्ति''। बृ०३ उ०। प्रज्ञा०३ पद। अकरंडुय-त्रि०(अकरण्डुक) अविद्यमानं मांसलतया अनुपल-क्ष्यमाणं | अकसाय-त्रि०(अकषाय) कषायरहिते, "अकषायं अहक्खायं, Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकसाय 124 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अकामणिगरण छउमत्थस्स जिणस्स वा" / उत्त०२८अ०। अकषायाः अशान्त | अकामकिच-त्रि०(अकामकृत्य) कमनं काम इच्छा, न कामोऽकामस्तेन मोहादयश्चत्वारः सिद्धाश्च / स्था०४ ठा०। कृत्यं कर्त्तव्यं यस्यासावकामकृत्यः। अनिच्छा-कारिणि, / सूत्र०२ श्रु० अकसिण-त्रि०(अकृत्स्न) अपरिपूर्णे, प्रति०। पञ्चा०। ६अ०। अकसिणपवत्तय-पुं०(अकृत्स्नप्रवर्तक) अकृत्स्नमपरिपूर्ण संयम अकामग-त्रि०(अकामक) कर्मणि प्रत्ययः / अनभिलषणीये, प्रश्न० प्रवर्तयन्ति विदधति येते तथा / देशविरते, "अकसिण-पवत्तयाणं, आश्र०१द्वा०। कर्तरि ण्वुल्। अनिच्छति, "अकामगंपरिकम्म, को उ विरयाविरयाण एस खलु जुत्तो। संसारपयणुकरणे, दव्यत्थए कूवदिहतो। ते वारेउ मरिहति"। सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ उ० / अनिच्छन्त पञ्चा०६विव०। गृहव्यापारेच्छारहितं पराक्रमन्तं स्वाभिप्रेतानुष्ठानं कुर्वाणं कस्त्वां भवन्तं अकसिणसंजम-पुं०(अकृत्स्नसंयम) देशविरतौ, प्रति०। वारयितुं निषेधयितुमर्हति योग्यो भवति ? यदि वा-(अकामगंति) वार्द्धक्यावस्थायां मदनेच्छाकामरहितं पराक्रमन्तं संयमानुष्ठानं प्रति अकसिणसंजमवंत-पुं०(अकृत्स्नसंयमवत्) देशविरतिमति श्राद्धे, किं कस्त्वामवसरप्राप्तः कर्मणि प्रवृत्तं वारयितुमर्ह-तीति / सूत्र०१ श्रु०३ योग्यत्वमकृत्स्नसंयमवता, पूजासुपूज्या जगुः, प्रति०। अ०२ उ०। ज्ञा० / विषयादि वाञ्छारहिते, तं०। प्रश्न०। अकसिणा-स्त्री०(अकृत्स्ना) चतुर्थे आरोपणाभेदे, स्था०५ठा०२ उ०। अकामछु हा-स्त्री०(अकामक्षुधा) निर्जराद्यनभिलाषिणां प्रथमयस्यां पाण्मासाधिकं झोष्यते, तस्यां हि तदतिरिक्तझाट परिषहसहने, भ०१श०१ उ०। नेनापरिपूर्णत्वादिति, स्था०५ ठा०२ उ० / व्या०। नि००। अकामणिगरण-त्रि०(अकामनिकरण) अनिच्छाप्रत्यये, तद्यथाअकहा-स्त्री०(अकथा) मिथ्यादृष्टिना अज्ञानिना लिङ्गस्थेन वा गृहिणा एएणं अंधा मूढा तमप्पविट्ठा तमपडलमोहजाल-पलिच्छण्णा कथ्यमानायां कथायाम् , तल्लक्षणम् / अकामनिगरणं वेयणं वेदंतीति वत्तट्वं सिया? हंता गोयमा ! मिच्छत्तं वेयंतो, जं अन्नाणी कहं परिकहेइ। जे इमे असण्णिणो पाणा पुढविकाइया जाव वणस्सइकाइया लिंगत्थो व गिहीवा,साअकहादेसियासमए॥२१|| छट्ठा जाव वेयणं वेदें तीति वत्तव्वं सिया। अत्थि णं भंते ! पभू मिथ्यात्वमिति। मिथ्यात्वमोहनीयं कर्म वेदयन् विपाकेन यां कांचित् वि अकामनिकरणं वेदणं वेदेइ? हंता ! अत्थि। कहण्हं भंते! अज्ञानी कथां कथयति।अज्ञानित्वं चाऽस्य मिथ्या-दृष्टित्वादेव। यद्येवं पभु वि अकाम-निकरण वेयणं वेदेइ? गोयमा! जेणं नो पभू नार्थोऽज्ञानिग्रहणेन, मिथ्यावेदकस्याज्ञा-नित्वाव्यभिचारादिति चेन्न विणा पदीवेणं अंधकारंसि रूवाइं,जे णं णो पभू पुरओ रूवाई प्रदेशानुभववेदकेन सम्यग्दृष्टिना व्यभिचारादिति / अणिज्झाइत्ताणं पासित्तए ,जे णं नो पभू मग्गाओ रू-वाई किंविशिष्टोऽसावित्याह-लिङ्गस्थो वा द्रव्य-प्रव्रजितोऽङ्गारमईकादिः गृही अणवयक्खित्ताणं पासित्तए ,जे णं नो पभू पासओ रूवाई वा, यः कश्विदितर एव / सा एवं प्ररूपक प्रयुक्तया श्रोतर्यपि अणुलोएत्ता णं पासित्तए ,एस णं अकामनिकरणं वेदणं वेदेइ। प्रज्ञापकतुल्यपरिणामनिबन्धना कथा देशिता समये / ततः अत्थि णं भंते ! पभूवि पकामनिकरणं वेयणं वेदेइ ? हंता प्रतिविशिष्टकथाफलाभावादिति गाथार्थः // 215|| दश० 3 अ०।। कहण्हं समुहस्स जाव वेदणं वेदेइ? जे शं नो पहू समुहस्स अकाइय-पुं०(अकायिक) नास्ति कायः (औदारिकादिः पृथि- पारंगमेत्तए जे णं नो पभू पारगयाइं रूवाई पासित्तए,जे णं नो व्यादिषट्कायस्तदन्यो वा) येषां ते अकायास्त एवाकायिकाः। सिद्धेषु, पभू देवलोगं गमित्तए , जेणं नो पभू देवलोगगयाई रूवाई भ०८ श०२ उ०। पासित्तए.एस णंगोयमा! पभू विपकामनिकरणं वेदणं वेदेइ। अकाम-पुं०(अकाम) कमनं काम इच्छा, न कामोऽकामः।अनिच्छायाम, (अंधत्ति) अन्धा इवान्धा अज्ञानाः (मूढत्ति) मूढास्तत्त्वश्रद्धानं सूत्र०२ श्रु०६ उ० / उपरोधशीलतायाम् "तंच हुज्ज अकामेणं, विमणेणं प्रति / एत एवोपमयोच्यन्ते (तमप्पविट्ठत्ति) तमःप्रविष्टा पडिच्छियं"। दश०५ अ०।६ ब०। इच्छामदनकामरहिते, आचा०। इव तमःप्रविष्टाः(तमपडलमोहजालपलिच्छाणत्ति) तमःपटल-मिव निर्जराद्यनभिलाषिणि, निर-भिप्राये, भ०१ श०१ उ०। मोक्षे च, तत्र तमःपटलं ज्ञानावरणं मोहो मोहनीयं तदेव जालं मोहजालं ताभ्यां सकलाभिलाषनिवृत्तेः / उत्त०१५अ०। प्रतिच्छन्ना आच्छादिता ये ते तथा (अकामनिगरणत्ति) अकामो अकामअण्हाणग-पुं०(अकामास्नानक) अकामस्नानरहिते, वेदनानुभवेऽनिच्छा अमनस्कत्वात्मक एव निकरणं कारणं यत्र "अकामअण्हाणग-सीयाऽऽयव-दंसमसग-सेयजल्लमल्ल- तदकामनिकरणमज्ञानप्रत्ययमिति भावः / तद्यथा भवतीत्येवं वेदनां पंकपरितावं" अकामानामस्नानादिभिर्यः परितापः परिदाहः स सुखदुःखरूपां, वेदनं वा संवेदनं वेदयन्त्यनुभवन्तीति / तथा / अकामा येऽस्नानकादयस्तेभ्यो यः परिदाहः, स तथा अथासंज्ञिविपक्षमाश्रित्याह (अत्थीत्यादि) अस्त्ययं पक्षो यदुत / (पभू निर्जराधनभिलाषिणामस्नानादिभिः परितापे, औ०।अस्नाना-दिभिः वित्ति) प्रभुरपि संज्ञित्वेन यथावद् रूपादिज्ञाने परिदाहे, निरभिप्राये वा, भ०१ श०१उ० / समर्थोऽप्यास्तामसंज्ञित्वेनाऽप्रभुरित्यपिशब्दार्थः / अकामअकामकाम-त्रि०(अकामकाम).कामानिच्छामदनकामभेदान कामयते निकरणमनिच्छाप्रत्ययमनाभोगात्। अन्ये त्वाहुः- अकामेना-ऽनिच्छ्या प्रार्थयते यः, स कामकामो, न तथा अकामकामः / न विद्यते कामस्य निकरणं क्रियाया इष्टार्थप्राप्तिलक्षणाया अभावो यत्र वेदने तत्तथा। यद्यथा कामोऽभिलाषो यस्य स अकामकामः कामाभिलाषरहिते, अकामो भवतीत्येवं वेदनां वेदयन्तीति प्रश्नः, उत्तरं तु (जे णंति) यः प्राणी मोक्षाभिलाषस्तत्र सकलाभिलाषनिवृत्तेः, तं कामयते यः स तथा संज्ञित्वेनोपायसद्भावेन च हेयादीनां हानादौ समर्थोऽपि (नो पहुत्ति) न (मोक्षार्थिनि) "संथवं जहेज्ज अकामकामे"। उत्त०१५ अ० समर्थः विना प्रदीपेनान्धकारे रूपाणि (पासित्तएत्ति) द्रष्टुमेषोऽकामप्रत्ययं Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकामनिगरण 125 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अकिंचणकर वेदयतीति संबन्धः। (पुरओत्ति) अग्रतः (अणिज्झाएताणंति) अनिाय "आरम्भनियत्ताणं, अकिणंताणं अकारविंताणं / धम्मट्टा चक्षुरव्यापार्य (मग्गाउत्ति) / पृष्ठतः (अणवयक्खि ताणंति) अनवेक्ष्य __ दायव्वं"। बृ०१उ०। पश्चाद्वागमनवलोक्येति अकामनिकरण-वेदनां वेदयन्तीत्युक्तमथ अकारिय-त्रि०(अकारित) अन्यैरकारिते, प्रश्न० संव०१द्वा० / तद्विपर्ययमाह-(अस्थिणमित्यादि) प्रभुरपि संज्ञित्वेन अकाल-पुं०(अकाल) अप्राशस्त्ये, न० त०। अप्रशस्तकाले, रूपदर्शनसमर्थोऽपि (पकामनिकरणंति) प्रकाम ईप्सितार्थाऽप्राप्तितः विहितकर्मसु पर्युदस्ततयाऽभिहिते, गुरुशुक्राधस्तकालादौ, अप्रस्तावे, प्रवर्द्धमानतया प्रकृष्टोऽभिलाषः / स एव निकरणमिष्टार्थसाधक उत्त० 1 अ० / कर्तव्याऽनवसरे, आचा० 1 श्रु० क्रियाणामभावो यत्र, तत्र प्रकामनिकरणम् / तद्यथा भवति एवं वेदनां 2 अ०१उ० / बृ० / अवर्षासु, "अकाले वरिसइ"। स्था० 7 ठा० / वेदयति प्रश्नः / उत्तरं तु (जे णमित्यादि) योन प्रभुः समुद्रस्य पारंगन्तुं अप्राप्तः कालो यस्य"प्रादिभ्यो धातुजस्यवाच्यो वा चोत्तर-पदलोपः" तद्गतद्रव्यप्राप्त्यर्थित्वे सत्यपि तथाविधशक्तिवैकल्यादतएव च, योन इति वा अन्त्यलोपश्च / अप्राप्तकाले, अनुचितकाले, पदार्थे / प्रभुः समुद्रस्य पारगतानि रूपाणि द्रष्टुं, स तद्गताऽभिलाषातिरेकात् अति(न)कालः कृष्णः, न० त० / कृष्णविरुद्धशुभ्रवर्णे, न० ब०। प्रकामनिकरणवेदनां वेदयतीति। भ०७ श०७ उ०। कृष्णत्वविरोधिशुभ्रत्ववति, त्रि० / वाच०। अकामणिज्जरा-स्त्री०(अकामनिर्जरा) अकामेन निर्जरां प्रत्यन अकालपडि बोहि(ण)-त्रि०(अकालप्रतिबोधिन)(असमये भिलाषेण निर्जरा कर्मनिर्जरणहेतुर्बुभुक्षादिसहनं यत्सा अका-मनिर्जरा। व्याप्रियमाणे) "मिलक्खूणि अणारियाणि दुस्सण्णप्पाणि निर्जरानभिलाषेणैव क्षुधादिसहने, स्था०४ ठा०४ उ०। औ०। कर्म० / दुष्पण्णवणिज्जाणि अकालपडिबोहीणि" अकालप्रतिबोधीनि। न तेषां (अकामनिर्जरया असंयता व्यन्तरेषूपपद्यन्ते इति 'वंतर' शब्दे कश्चित् पर्यटनकालोऽस्ति अर्द्धरात्रावपि मृगयादौ गमन-सम्भवात् / व्याख्यास्यामि) आचा०२ श्रु०३ अ०१ उ०नि० चू०। अकामतण्हा-स्त्री०(अकामतृष्णा) निर्जराधनभिलाषिणां सतां तृषि, अकालपढण-न०(अकालपठन) असमयवाचनायाम्, पञ्चा०। भ०१श०१०। औ०। 15 विव०। अकामबंभचेरवास-पुं०(अकामब्रह्मचर्यवास) अकामानां अकालपरिहीण-न०(अकालपरिहीण) परिहाणिः परिहीणं निर्जराधनभिलाषिणां सतामकामो वा निरभिप्रायो ब्रह्मचर्येण कालविलम्बः। न विद्यते परिहीणं यत्र प्रादुर्भवने तत् अकालपरिस्त्र्यादिपरिभोगाभावमात्रलक्षणेन वासो रात्रौ शयनमकाम हीणम् (शीघ्रप्रकटीभवने) "अकालपरिहीणं चेव सूरियाभस्स अंतियं ब्रह्मचर्य्यवासः। (फलानभिसन्धिनां ब्रह्मचर्य्यसेवने)। भ०१ श० पाउब्भवह'। रा०। 1 उ०। औ०। अकाममरण-न०(अकाममरण) अकामेन अनीप्सितत्वेन मियतेऽस्मिन् अकालपरिभोगि(ण)-त्रि०(अकालपरिभोगिन्) रात्रौ सर्वा-दरेण इति अकाममरणम् / बालमरणे, "बालाणं च अकामं तु, मरणं असई भुञ्जाने, "अकालपडिबोहीणि अकालपरिभोईणि''। नि० चू०१६ उ० / आचा०। भवे"। उत०५ अ०। ('बालभरण' शब्दे एतद्विवरिष्यते) अकामिय-त्रि०(अकामिक) न० ब०। निरभिलाषे, "तहेव संता तंता अकालमचु-पुं०(अकालमृत्यु) अकाल एव जीवितभ्रंशे, "पढमो परितंता अकामिया" विपा०१श्रु०१ अ०। अकालमचू, ताहिं तालफलेण दारको उवहतो" / आव० अकामिया-स्त्री०(अकामिका) अनिच्छायाम्। "अकामियाए चिणंति १अ०। दुक्खं"। प्रश्न० आश्र०३ द्वा०। अकालवासि(ण)-पुं०(अकालवर्षिन) अनवसरवर्षिणि मेघे, अकाय-पुं। न० ब०(अकाय) पृथिव्यादिषविधकायविरहिते, स्था० तद्वदनवसरे दानव्याख्यानादिपरोपकारार्थप्रवृत्ते पुरुषे च / स्था० २ठा०३ उ०/औदारिकादिकायपञ्चकविप्रमुक्ते (वा) सिद्धे, प्रव०१४६ 4 ठा०४ उ०। द्वा० / आव० / राहौ, तस्य शिरोमात्रत्वेन कायशून्यत्वात् देहशून्ये, अकालसज्झायकर(कारिन)-पु०(अकालस्वाध्यायकर) (कारिन्) त्रि०ावाच०। असमाधिस्थानविशेषे, "अकाले सज्झायकारी य कालियसुयं अकारग-पुं०(अकारक)(न करोति भोजने रुचिम्) भक्तद्वेषरूपे, उग्घाडपोरुसीए पढिजंतं देवया असमाहिए योजयति" रोगविशेषे, ज्ञा० 1 श्रु० 13 अ० / उपा० / अपथ्ये, औ० / इत्यसमाधिस्थानत्वं तस्य। आव० 4 अ०। स०। अकर्तरि। त्रि०। सूत्र०१ श्रु०१ अ०। अकासि-(देशी) पर्याप्ते, दे० ना! अकारगवाइ(ण)-पुं०(अकारकवादिन् )अकारकं वदन्ति तच्छीलाः, | अकाहल-त्रि०(अकाहल) अमन्मनाक्षरे, प्रश्न० संव०२द्वा०। आत्मनोऽमूर्तत्वनित्यत्वसर्वव्यापित्वेभ्यो हेतुभ्यः निष्क्रियत्व- अकिंचण-त्रि०(अकिञ्चन) नाऽस्य किञ्चन प्रतिबन्धास्पदं धनमेवाभ्युपपन्नेषु, सूत्र०१ श्रु०१ अ०१ उ०। ('णि- क्कियवाई' शब्दे कनकादि अस्तीति अकिञ्चनः / निष्परिग्रहे, उत्त० 3 अ० / चैतेषां मतं तत्खण्डनं च कारिष्यते) आव०।आ० चू०। स्था०।औ० प्रश्नः / आचा० / ज्ञा०। हिरण्यादिअकारण-त्रि०(अकारण) नास्ति करणं हेतुरुद्देश्यं वायस्या हेतुरहिते, मिथ्यात्वादिद्रव्यभावकिञ्चनविनिर्मुक्ते, दश० 6 अ०। उद्देश्यरहिते च / बृ० 1 उ० / कारणभिन्ने, न० / वाच० / यदा "समणाभविस्सामो अ, अणगारा अकिंचणा अजुत्ता य" सूत्र०२ श्रु० तपःस्वाध्यायवैयावृत्त्यादिकारणषट्कं विना बलवीर्य्याद्यर्थ सरसाहारं १०।दरिद्रे, वाच०। करोति, तदा पञ्चमोऽकारणदोष इत्येवंलक्षणे पञ्चमे परिभोगैषणाया दोषे, अकिंचणकर-त्रि०(अकिञ्चनकर) अकिञ्चत्संपादके, अकि-धनानां उत्त०२४ अ०। साधूनां प्रयोजनकरे, “ववहारइच्छिए वाए य अकिंचणकरे य" अकारविंत-त्रि०(अकारयत्) आरम्भत्र्यकारणे परं अव्यापारयति। / योऽपि कश्चित्स धूनां प्रत्यनीकः, सोऽपि तेषां राजादि Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकिंचणकर 126 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अकिरियावाइ शब्द) कुमार प्रव्रजितानां भयतो न किंचित् करोति। अथवाऽकिञ्चनानां साधूनां यदि कथमपि केनाप्यर्थजाते प्रयोजनमुपजायते, तर्हि तत् सर्व लोके प्रायोऽप्रार्थित एव करोति, व्य 2 उ०। अकिं चणया-स्त्री०(अकिञ्चनता) न विद्यते किञ्चनद्रव्यजातमस्येत्यकिञ्चनस्तद्भावोऽकिञ्चनता। निष्परिग्रहितायाम्, "चउव्विहा अकिंचणया पण्णत्ता / तंजहा- मणअकिंचणया वइअकिंचणया कायअकिंचणया उवकरणअकिंचणया' अकिञ्चनता च मनःप्रभृतिभिरुपकरणापेक्षया च भवतीति चातुर्विध्यम् / स्था० 4 ठा० 3 उ० / चतुर्थस्य द्वितीयोद्देशकः भोगसाधनानाम-स्वीकारलक्षणे यमभेदे, द्वा०द्वा०२१। अकिंचिकर-पुं०(अकिञ्चित्कर) हेत्वाभासभेदे, स च यथा प्रतीते प्रत्यक्षादिनिराकृते च, साध्ये हेतुरकिञ्चत्करः प्रतीयते / यथा- शब्दः श्रावणः शब्दत्वात्प्रत्यक्षादिनिराकृते। यथानुष्णः कृष्णवमा द्रव्यत्वात्। पत्या वनिता सेवनीया पुरुषत्वादित्यादि / रत्ना०६ परि०। (अस्य हेत्वाभासत्वमयुक्तमिति 'हेउआभास' शब्दे) अकिच-न०। न०त०(अकृत्य) कृ-क्यप् / अप्राशस्त्ये। अकरणीये, साधूनामविधेये, पक्षा०१५ विव०। स्था०। प्रश्न०। “अकिञ्चमप्पणा काउं कयमेएण भासइ। अकिच्चं पाणाइवायादि अप्पणा काउं कयमेतेण भासइ / अण्णस्स उच्छोहेइ" (स महामोहं प्रकरोति) आव०४ अ०। न कृत्यमस्य। न० ब०। कर्मरहिते, त्रि०ा वाच०। अकिचठाण-न०(अकृत्यस्थान) कृत्यस्य करणस्य स्थानमाश्रयः कृत्यस्थानं तनिषेधोऽकृत्यस्थानम् / मूलगुणादिप्रतिसेवारूपेऽकार्यविशेष, भ०८ श०६ उ०। अन्नयरं तु अकिचं, मूलगुणे चेव उत्तरगुणे य। मूलं व सव्वदेस, एमेव य उत्तरगुणेसु // अन्यतरदकृत्यं पुनः सूत्रोक्तं मूलगुणे मूलगुणविषयमुत्तरगुणे वा उत्तरगुणविषयं वा / तत्र मूलं मूलगुणविषयं सर्वदेशं वा सर्वथा मूलगुणस्योच्छेदे देशतो वेत्यर्थः / एवमेवानेनैव प्रकारेणोत्तरगुणेष्वपि द्वैविध्यं भावनीयम्। तद्यथा-उत्तरगुणस्यापिसर्वतोदेशतोवा उच्छेदेनेति तत्रैव व्याख्यानान्तरमाह अहवा पणगादीयं,मासादीयं विजाव छम्मासा। एवं तवोऽरिहं खलु, छेदादिचउण्हमेगयरं / / (अहवेत्ति) अकृत्यस्थानस्य प्रकारान्तरतोपदर्शने पञ्चकादिकं रात्रिंदिवपञ्चकप्रभृति, प्रायश्चित्तस्थानमकृत्यस्थानं यदि वा मासादिकं तच तावद्यावत्षण्मासाः एतत् खलु अकृत्यस्थानं तपोऽर्ह तपोरूपप्रायश्चित्ताह, यदि वा छेदादीनां चतुण्णां प्रायश्चित्तस्थानमकृत्यस्थानम्। व्य०१ उ०। अकिन्ज-त्रि०(अक्रेय) क्रेयानर्हे,"सुक्कियं वा सुविक्कीयं, अकि-जं किजमेव वा''। दश०७ अ०। अकिट्ठ-त्रि०(अकृष्ट) अविलिखिते, भ०३ श०२ उ०। अकिणंत-स्त्री०(अक्रीणत्) वस्त्रादिक्रयमकुर्वाणे, बृ०१ उ०। अकित्ति-स्त्री०(अकीर्ति) सर्वदिग्व्याप्याऽसाधुवादे, ग० 2 अधि०। दानपुण्यफलप्रवादे, दश०१ चूलिकादानकृताया एक-दिग्गामिन्या वा प्रसिद्धेरभावे, औ०। “अकित्ती मे वा सिया" / स्था०७ ठा०। अकिरिय-पुं०(अक्रिय) न० ब० / कायिक्याधिकरणिक्यादि क्रियावर्जिते, स्था०७ ठा० / कायिक्यादिक्रियाभिष्वङ्ग वर्जित, प्रशस्तमनोविनयभेदे, भ०२५ श०७ उ० / न विद्यन्तेऽनभ्यु - पगमात्परलोक विषयाः क्रिया येषां तेऽक्रियाः / नास्तिकेषु, "अकिरियराहुमुहदुद्धरिसं" नं० / नास्य क्रिया सावद्या विद्यते इत्यक्रियः। संवृत्तात्मकतया सांपरायिककर्माऽबन्धके, सूत्र०२ श्रु०१ अ०। अकिरिया-स्त्री०(अक्रिया) नञिह दुः शब्दार्थों यथा अशीला दुःशीलेत्यर्थः। ततश्चाक्रिया दुष्टक्रिया मिथ्यात्वाद्युपहत-स्यामोक्षसाधके अनुष्ठाने, यथा मिथ्यादृष्टानमप्यज्ञानमिति / एषा मिथ्यात्वभेदत्वेन दर्शिता, स्था०३ ठा०३ उ०।"अकिरिया तिविहा पण्णत्ता। तंजहापओगकिरिया समुदाणकिरिया अन्नाणकिरिया' अक्रिया हि अशोभना क्रियैवातोऽक्रिया / त्रिविधेत्यभिधायाऽपि प्रयोग इत्यादिना क्रियैवोक्तेति / स्था०३ ठा०३ उ० 1 सूत्र० / क्रियाऽस्तीति रूपा सकलपदार्थसार्थव्यापिनी सैवाऽयथा वस्तुविषयतया कुत्सिता अक्रिया। नञः कुत्सार्थत्वात् / नास्तिक्ये, स्था० 8 ठा० / नास्तिकवादे, "अकिरियं परिया-णामि, किरियं उवसंपज्जामि"। ध० 3 अधि०। योगनिरोधे, स्था० 8 ठा०। "एका अकिरिया" एका अक्रिया योगनिरोधलक्षणा, नास्तिकत्वं वा / स०१ सम०। अभावे, न० त०। अपरिस्पन्दे, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। सर्वक्रियाविगमे च। ध०२ अधि०। क्रियाया अभावे, भ०२६ श०२ उ०॥ अकिरियाआय-पुं०(अक्रियात्मन्) अक्रिय आत्मा येषामभ्युपगमे ते अक्रियात्मानः। सांख्येषु, सूत्र०१०१०अ०। जे केइ लोगंमि अकीरियाया,अन्नेण पुट्ठा धुयमादिसंति। आरंभसत्ता गढिता य लोए,धम्म ण जाणंति विमुक्खहे / / ये केचन अस्मिन् लोके अक्रिय आत्मा येषामभ्युपगमे तेऽक्रियात्मानः सांख्यास्तेषां हि सर्वव्यापित्वादात्मा निष्क्रियः पठ्यते। तथा चोक्तम्। "अकर्ता निर्गुणो भोक्ता, आत्मा कपिल-दर्शन" इति / तुशब्दो विशेषणे, स चैतद्विशिनष्टि / अमूर्तत्वव्यापित्वाभ्यामात्मनोऽक्रियत्वमेव बुध्यते, ते चाक्रियात्मवादिनोऽन्येनाक्रियत्वे सति बन्धमौक्षोन घटेते इत्यभिप्रायवता मोक्षस-दावं पृष्टाः सन्तोऽक्रियावाददर्शनेऽपि धूतं मोक्षं तदभावमादिशन्ति प्रतिपादयन्ति / ते तु पचनपाचनादिकं स्नानार्थं जलावगाहनरूपेवाऽरम्भे सावघे सक्ता अध्युपपन्ना लोके मोक्षकहेतुमूलं धर्म श्रुतचारित्राख्यं नजानन्ति कुमार्गग्राहिणोन सम्यगवगच्छन्तीति, सूत्र० १श्रु० १०अ०। अकिरिय(या)वाइ(न)-पुं०(अक्रियावादिन) क्रिया अस्तीतिरूपा सकलपदार्थसार्थव्यापिनी, सैवाऽयथावस्तुविषयतया कुत्सिता अक्रिया, नत्रः कुत्सार्थत्वात्, तामक्रियां वदन्तीत्येवंशीला अक्रियावादिनः / यथाऽवस्थितं हि वस्त्वनेकान्तात्मकं, तन्नास्त्येकान्तात्मकमेव वास्तीति प्रतिपत्तिमत्सु नास्तिकेषु, स्था० 8 ठा० / ते चाऽष्ट "अट्ट अकिरियावादी पण्णत्ता। तं जहा-एक्कवादी अणिक्कवाई मितवादी निमित्तवादी सायवादी समुच्छेदवादी णियावादी, ण संति परलोगवादी''। स्था० 4 ठा० 4 उ०। (ऐक्यवाधादिपदानामर्थो निजनिजस्थानेषु) अक्रियां क्रियाया अभावं वदन्ति तच्छीला अक्रियावादिनः। न कस्यचित्प्रतिक्षणमनवस्थितस्यपदार्थस्य क्रिया सम्भवति उत्पत्यन-न्तरमेव विनाशादित्येवं वदत्सु, नं०। भ० तथा चाहुरेके क्षणि- काः सर्वसंस्काराः, अस्थिराणां कुतः क्रिया ? "भूतिर्येषां क्रिया Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकिरियावाइ 127 - अभिवानराजेन्द्रः- भाग 1 अकिरियावाइ सैव, कारकं सैव चोच्यते"! नं0 / अक्रियां जीवादिपदार्थों तजनितोवा कर्मबन्ध इति। उपचारमात्रेण त्वस्ति बन्धः। तद्यथा ''बद्धा नास्तीत्यादिकां वदितुं शीलं येषां तेऽक्रियावादिनः / भ० 26 श०२ मुक्ताश्च कथ्यन्ते, मुष्टिग्रन्थिकपोतकाः / न चान्ये द्रव्यतः सन्ति, उ०। नास्त्येव जीवादिकः पदार्थ इत्येवं वादिषु, सूत्र०१ श्रु०१२ अ०) मुष्टिग्रन्थिकपोतकाः'। तथा बौद्धानामयमभ्युपगमो यथा क्षणिकाः नास्ति माता नास्ति पितेत्येवमादिवादिनि, नास्तिके, उत्त०३ अ० सर्वसंस्काराः० इत्यस्थितानां च कुतः क्रियेत्य-क्रियावादित्वम्। योऽपि आचा० / ते चतुरशीतिः(८४)। "अकिरियवाई ण होई चुलसीई'। स्कन्धपञ्चकाभ्युपगमस्तेषां सोऽपि संवृतमात्रेण, न परमार्थेन / सूत्र०१श्रु०१० अ०। यतस्तेषामयमभ्युपगमः / तद्यथा- विचार्यमाणाः पदार्था न इह जीवाइ पयाई,पुण्णं पावं विणा ठविखंति। कथंचिदप्यात्मानं विज्ञानेन सम-पयितुमलम् / तथाहि- अवयवी तेसिमहोभायम्मि, ठविञ्जए सपरसहदुगं / / 205 // तत्त्वातत्त्वाभ्यां विचार्यमाणो न घटां प्राञ्चति, नाप्यवयवाः / तस्सविअहोलिहिज्जइ,कालजदिच्छाइपयदुगसमेयं / परमाणुपर्यवसानतयाऽतिसूक्ष्मत्त्वा-ज्ज्ञानगोचरतां प्रतिपद्यन्ते / नियइस्सहावईसर, अप्पत्ति इमं पयचउक्कं / / 206 / / विज्ञानमपि ज्ञेयाभावेनामूर्तस्य निराकारतया न स्वरूपं बिभर्ति तथा इहाक्रियावादिभेदानां प्रकमे जीवादीनि पूर्वोक्तानि पुण्य-पापवर्जितानि चोक्तं "यथा यथार्था-श्चिन्त्यन्ते, विविच्यन्ते तथा तथा / यद्येतत् नवसप्तपदानि परिपाट्या पट्टिकादौ स्थाप्यन्ते, तेषां च स्वयमर्थेभ्यो, रोचते तत्र के वयम्"? / इति / प्रच्छन्नलोकायतिका हि जीवादिपदानामधोभागे प्रत्येक स्वपरशब्दद्विकं स्थाप्यते स्वतः परत बौद्धास्तत्राऽनागतैः क्षणैः चशब्दादतीतैश्च वर्तमानक्षणस्यासङ्गतेन क्रिया इति द्वेपदे न्यस्येते इत्यर्थः / असत्त्वादात्मनो नित्या-नित्यविकल्पौन नापिच तजनितः कर्मबन्ध इति। तदेवमक्रियावादिनो नास्तिकवादिनः, स्तस्तद्धर्मिसिद्धापत्तेः / तस्यापि च स्वपर-शब्दद्विकस्याधस्तात् सर्वापलापितया लवावशङ्किनः सन्तोन क्रियामाहुस्तथा अक्रिय आत्मा कालयदृच्छारूपपदद्वयसमेतमेतन्निय-तिस्वभावेश्वरात्मलक्षणं येषां सर्वव्यापितया तेऽप्यक्रियावादिनः सांख्यास्तदेवं लोकायतिका पदचतुष्कं लिख्यते, कालयदृच्छा-नियतिस्वभावेश्वरात्मरूपाणि षट् बौद्धाः सांख्या अनुपसंख्यया अपरिज्ञानेने त्येतत्पूर्वोक्तमुदापदानि स्थाप्यन्ते इत्यर्थः / इह यदृच्छावादिनः सर्वेऽप्यक्रियावादिन हृतवन्तस्तथैव तत्त्वाज्ञानेनैवोदाहृतवन्तः। तद्यथा-अस्माकमेवमभ्युपगएव न केचिदपि क्रिया-वादिनस्ततः प्राग्यदृच्छा नोपन्यस्ता / अथ मोऽर्थोऽवभासते युज्यमानको भव-तीति / तदेवं श्लोकपूर्वार्द्ध विकल्पाभिलापमाह। काकाक्षिगोलकन्यायेनाऽक्रियावादि-मतेऽप्यायोज्यमिति / पढमे भंगे जीवो, नत्थि सओ कालओ तयणु बीए / साम्प्रतमक्रियावादिनामज्ञानविजृम्भितं दर्शयितुमाहपरओ विनस्थि जीवो, कालाइ य भंगगा दोन्नि / / 210 / / सम्मिस्समावं व गिरा गहीए, से मुम्मई होइ अणाणुवाई। एव जइच्छाइहिं वि, पएहिं भंगदुगं दुगं पत्तं / इमं दुपक्खं इममेगपक्खं,आहंसु छल्लायतणं च कम्मं // 5 // मिलियाविते दुवालस-संपत्ता जीवतत्तेण // 211|| स्वकीयया गिरा वाचा स्वाभ्युगमेनैव गृहीतेतस्मिन्नर्थे- नान्तरीयकतया नास्ति जीवः स्वतः कालत इति प्रथमो भङ्गः। तदनु नास्ति जीवः / वा समागते सति तस्याऽऽयातस्यार्थस्य गिरा प्रति-षेधं कुर्वाणाः परतः कालत इति द्वितीयो भङ्गः। एतौ द्वौ च भङ्गौ कालेन लब्धौ, एवं संमिश्रीभावमस्तित्वं नास्तित्वापगमं ते लोकाय-तिकादयः कुर्वन्ति / यदृच्छादिभिरपि पञ्चभिः पदैः प्रत्येकं द्वौ द्वौ विकल्पौ जायेते / सर्वेऽपि चशब्दात् प्रतिषेधे प्रतिपाद्येऽस्तित्वमेव प्रतिपादयन्ति / तथाहिमिलिता द्वादश / अमीषां च विकल्पानामर्थः प्राग्वद्भाव- लोकायतिकास्तावत्स्वशिष्येभ्यो जीवाद्यभावप्रतिपादकं शास्त्रं नीयः / नवरं यदृच्छात इति यदृच्छावादिनां मते / अथ गाथा के ते प्रतिपादयन्तो नान्तरीयकतयात्मानं कर्तारं करणं च शास्त्रं कर्मतापन्नांश्च यदृच्छावादिनः, उच्यन्ते -इह ये भाव नां सत्तापेक्षया न प्रतिनियतं शिष्यानवश्यमभ्युपगच्छेयुः / सर्वशून्यत्वे त्वस्य तृतीयस्याभावान्मिकार्यकारणभावमिच्छन्ति किन्तु यदृच्छया ते यदृ-च्छावादिनस्तथा त श्रीभावोव्यत्ययोवा। बौद्धा अपि मिश्रीभावमेवमुपगताः। तद्यथा, ''गन्ता एवमाहुर्न खलु प्रतिनियतो वस्तूनां कार्यकारणभावस्तथा- च नास्ति कश्चिद् , गतयः षड् बौद्धशासने प्रोक्ताः / गम्यत इति च गतिः प्रमाणेनाग्रहणात्। तथाहि- शालूकादपिशालू- कोजायते गोमयादपि, स्याच्छुतिः कथं शोभना बौद्धी // 1 / / तथा कर्म च नास्ति फलं अग्नेरप्यग्निर्जायते अरणिकाष्ठादपि, धूमादपि जायते धूमः चास्तीत्यसति चात्मनि कारके कथं षड्गतयो ज्ञानसन्तानस्यापि अग्रीन्धनसंपर्कादपि। कन्दादपिजायते कदली, बीजादपि। वटादयोऽपि सन्तानव्यतिरेकेण संवृतिसत्त्वात् क्षणस्य चास्थितत्वेन क्रियाभावान्न बीजादुपजायन्ते, शाखैकदेशादपि, ततो न प्रतिनियतः क्वचिदपि नानागति-सम्भवः / सर्वाण्यपि कर्माण्यबन्धनानि प्ररूपयन्ति स्वागमे कार्यकारणभाव इति। यदृच्छातः क्वचित् किंचिद् भवतीति प्रतिपत्तव्यं, तथा पञ्चजातकशतानि च बुद्धस्योपदिशन्ति / तद्यथा 'मातापितरौ न खल्वन्यथा वस्तुसद्भावं पश्य-न्तोऽन्यथाऽऽत्मानं प्रेक्षावन्तः हत्वा, बुद्ध शरीरे च रुधिरमुत्पाद्य / अर्हद्वधं च कृत्वा, स्तूपं भित्त्वा च परिक्लेशयन्ति / एते च द्वादशा विकल्या जीवतत्त्वेन जीवपदेन संप्राप्ता पञ्चैते / / 1 / / निरन्तरमावीचिनरकं यान्ति एवमादिकस्यागमस्य लब्धाः / एवमजीवादि-भिरपि षड्भिः पदैः प्रत्येकं द्वादश विकल्पाः सर्वशून्यत्वे प्रणयनमयुक्तिसङ्गतं स्यात् / तथा जातिजरामरणरोगप्राप्ताः / ततो द्वादशभिः सप्त गुणिता जाता चतुरशीतिः(८४)। शोकोत्तम-मध्यमाधमत्वानि चनस्युः। एष एव च नानाविधकर्मविपाको सर्वसंख्यया चाक्रियावादिनामेते भेदा भवन्तीति / प्रव० 206 द्वा०। जीवास्तित्वं कर्तृत्वं कर्मवत्त्वं चावेदयति। तथा ''गन्धर्वनगरतुल्या, माया सूत्र० स्था० ध०। आव०॥ स्वप्नोपपातधनसदृशी। मृगतृष्णानीहारांबुचन्द्रिकालात-चक्रसमा''। साम्प्रतमक्रियावादिदर्शनं निराचिकीर्षुः गाथापश्चार्द्धमाह इति भाषणाच स्पष्टमेव मिश्रीभावोपगमनं बौद्धानामिति / यदि वा लवावसंकीय अणागएहिं,णो किरियमाहंसु अकिरियवादी। नानाविधकर्मविपाकाभ्युपगमात्तेषां व्यत्यय एवेति / तथा चोक्तं ''यदि लवं कर्म तस्मादपशंकितुमपसर्तुं शीलं येषां ते लवापशंकिनो शून्यस्तव पक्षो, मत्पक्षनिवारकः कथं भवति ? / अथ मन्यसे न लोकायतिकाः शाक्यादयश्च, तेषामात्मैव नास्ति, कुतस्तत क्रिया | शून्यस्तथापि मत्पक्ष एवासौ"। इत्यादि / तदेवं Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकिरियावाइ 128 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अकुकुय बौद्धाः पूर्वोक्तया नीत्या मिश्रीभावमुपगता नास्तित्वं प्रतिपा- वायुरित्येतान्येव चत्वारि भूतानि विद्यन्ते, नापरः कश्चित्सुखदुः दयन्तोऽस्तित्वमेव प्रतिपादयन्ति। तथा सांख्या अपि सर्वव्यापि- तया खभागात्मा विद्यते।यदिचैतान्यप्यविचारितरमणी-यानि, न परमार्थतः अक्रियमात्मानमभ्युपगम्य प्रकृतियोगान्मोक्षसद्भाव प्रतिपादयन्तस्तेऽ- सन्तीति स्वप्नेन्द्रजालमरुमरीचिकानिच यद्-द्विचन्द्रादिप्रतिभासरूपप्यात्मनो बन्धं मोक्षं च स्ववाचा प्रतिपादयन्ति। ततश्च बन्धमोक्षसद्भावे त्वात्सर्वस्येति / तथा सर्व क्षणिकं निरात्मकं मुक्तिस्तु शून्यता सति स्वकीयया गिरा सक्रियत्वे गृहीते सत्यात्मनः संमिश्रीभावं व्रजन्ति, दृष्टे स्तदर्थाः शेषभावना इत्यादीनि नानाविधानि शास्त्राणि यतो न क्रियामन्तरेण बन्धमो -क्षौ घटेते, वाशब्दादक्रियत्वे प्रतिपाद्ये व्युद्ग्राहयन्त्यक्रियात्मानोऽक्रियावादिन इति। ते च परमार्थमबुध्यमाना व्यत्यय एव सक्रियत्वं तेषां स्ववाचा प्रतिपाद्यते, तदेवं लोकायतिकाः यदर्शनमादाय गृहीत्वा बहवो मनुष्याः संसारमनवदग्रमपर्यवसानमसर्वे भावाभ्युपगमेन क्रियाभावं प्रतिपादयन्ति / बौद्धाश्च रहट्टघटीन्यायेन भ्रमन्ति पर्यटन्ति / तथाहि- लोकायतिकानां क्षणिक त्वात्सर्व शून्यत्वाचा-क्रि यामे वाभ्युपगमयन्तः सर्वशून्यत्वे प्रतिपाद्ये न प्रमाणमस्ति / तथा चोक्तम् - स्वकीयागमप्रणयनेन चोदिताः सन्तः संमिश्रीभावं स्ववाचैव प्रतिपद्यन्ते। "तत्वान्युपहृतानीति, युक्तयभावेन सिध्यति। नास्ति चेत्सैव नस्तत्त्वं तथा सांख्याश्चाऽक्रिय-मात्मानमभ्युपगच्छन्तो बन्धमोक्षसद्भावं च तत्सिद्धौ सर्वमस्तु सत्"।। न च तत्प्रत्यक्षमे वैकं प्रमाणम् / स्वाभ्युपगमेनैव संमिश्रीभावं व्रजन्ति। व्यत्ययं चैतत्प्रतिपादितम् / यदि अतीतानागतभावतया पितृनिबन्धनस्यापि व्यवहारस्यासिद्धेस्ततः सर्वसंव्यवहारोच्छेदः स्यादिति / बौद्धानामप्यत्यन्तक्षणिकत्वेन वा बौद्धादिः कश्चित्स्याद्वादिना सम्यग्घेतुदृष्टान्तैर्व्याकुलीक्रियमाणः सन् सम्यगुत्तरं दातुमसमर्थो यत्किञ्चनभाषितया (मुम्मुई होइत्ति) वस्तुत्वाभावः प्रसज्जति। तथाहि-यदेवार्थक्रियाकारि तदेव परमार्थतः गद्गदभाषित्वेनाऽव्यक्तभाषी भवति / यदि वा प्राकृतेशैल्या सत् / न क्षणः क्रमेणार्थक्रियां करोति / क्षणिकत्वहानेाऽपियोगपधेन छान्दसत्वाचायमर्थो द्रष्टव्यः / तद्यथा- मूकादपि मूको मूकमूको तत्कार्याणामेकस्मिन्नेव क्षणे सर्वकार्यापत्तेर्न चैतद् दृष्टमिष्टं वा / न च ज्ञानाधारमात्मानं गुणिनमन्तरेण गुणभूतस्य संकलना प्रत्ययस्य सद्भाव भवति / एतदेव दर्शयति-स्याद्वादिनोक्तं साधनमनुवदितुं शीलमस्येत्यनुवादी तत्प्रतिषेधादननुवादी सद्धेतुभिर्व्याकुलितमना मौनमेव इत्येतच प्रागुक्तप्रायम्ायचोक्तं 'दानेन महाभोगः' इत्यादि तदाहतैरपि कथंचिदिष्यत एवेति न चाभ्युपगमा एव बाधायै प्रकल्प्यन्त इति // 6 / / प्रतिपद्यत इति भावः / अनुभाष्य च प्रतिपक्षसाधनं तथाऽदूषयित्वा च सूत्र०१श्रु०१२ अ०।अक्रियैव परलोकसाधनायाऽलमित्येवं वदितुंशीलं स्वपक्ष प्रतिपादयन्ति / तद्यथा- इदमस्म-दभ्युपगतं दर्शनम् एकः येषां तेऽक्रियावादिनः। ज्ञानवादिषु अक्रियावादिनो ये अवते किं क्रियया पक्षोऽस्येति एकपक्षमप्रतिपक्ष-तयैकान्तिकमविरुद्धार्थाभिधायितया चित्तशुद्धिरेव कार्या ते च बौद्धा इति, भ० 30 श० निष्प्रतिबाधं पूर्वा-पराविरुद्धमित्यर्थः / इदं चैवंभूतमपि सदित्याह। द्वौ 1 उ०। तेषां हि यथाऽवस्थितवस्तुपरिज्ञानादेव मोक्षः / तथा चोक्तम् पक्षावस्येति द्विपक्षं सप्रतिपक्षमनैकान्तिकं पूर्वापरविरुद्धार्थाभिधा "पञ्चविंशतितत्त्वज्ञो, यत्र तत्राश्रमे रतः / शिखी मुण्डी जटी वापि, यितया विरोधिवचनमित्यर्थः / यथा च विरोधिवचनत्वं तेषां तथा सिद्ध्यते नात्र संशयः" ||1|| सूत्र० 1 श्रु० 6 अ० / प्राग्दर्शितमेव / यदि त्वेतदस्मीयं दर्शनं द्वौ पक्षावस्येति द्विपक्ष धर्मधर्मिणोरभेदोपचारात् समवसरणविशेषे च / भ० 26 श०२ कर्मबन्धनिर्जरणं प्रतिपक्षद्वयसमाश्रयणात्। तत्समाश्रयणं चेहामुत्रवेदना उ०(अक्रियावादिनः कीदृशाः? किं किंच प्रकुर्वन्तीति वादिसमवसरण' चौरपारदारिकादीनामिव / ते हि करचरण-नासिकादीनामिहैव शब्दे दृश्यं मिथ्यादृष्टिवर्णके) "अकिरियवादी वि भवति नो हियवादी, पुष्पकल्पां स्वकर्मणो विडंबनामनुभवन्त्य-मुत्र च नरकादौ वेदनां नो हियपण्णे, नो हियदिय, नो सम्मावादी, णो णितियावादी ण संति समनुभवन्तीति / एवमन्यदपि कर्मो-भयवेद्यमभ्युपगम्यते / तच्चेदम् परलोगवादी' / दशा०६ अ०। प्राणी प्राणिज्ञानमित्यादि पूर्ववत्।तथेदमेकः पक्षोऽस्येत्येकपक्षम्, इहैव अकील-त्रि०(अकील) न० ब०ाशकुरहिते, ध०२अधि०। पञ्चा० / जन्मनि तस्य वेद्यत्वात् / तचेदमविज्ञोपचितं परज्ञोपचितमीर्यापथं अकुओ(तो)भय-त्रि०(अकुतोभय) न विद्यते कुतः कस्माद् भयं यस्य स्वप्नादिकं चेति। तदेवं स्याद्वादिनाभियुक्ताः स्वदर्शनमेवमनन्तरोक्तया तत् कुतश्चिदपि भयशून्ये, “चित्ते परिणतं यस्य चारित्रमकुतोभयम् / नीत्या प्रतिपादयन्ति तथा स्याद्वादिसाधनोक्तौ छलायतनं छलं अखण्डज्ञानराज्यस्य, तस्य साधोः कुतो भयम् / अष्ट०१७। न विद्यते 'नवकम्बलो देवदत्त' इत्यादिकमाहुरुक्तवन्तः / चशब्दादन्यच कुतश्चिद्धेतोः केनापि प्रकारेण जन्तूनां भयं यस्मात् सोऽकुतोभयः / दूषणाभासादिकं तथा कर्म च एकपक्षद्विपक्षादिकं प्रतिपादितवन्त इति। संयमे, "आणाए अभिसमेचा अकुओभयं"। आचा० 1 श्रु० 1 अ०३ यदि वा षडायतनानि उपादानकारणानि आश्रवद्वाराणि श्रोत्रेन्द्रियादीनि उ०। यस्य कर्मणस्तत्षडायतनं कर्मेत्येवमाहुरिति / / 5 / / अकुंचियाग-त्रि०(अकुञ्चिकाक) कुश्चिकाविरहिते, पिं०। साम्प्रतमेव तद्दूषणायाह - अकुंठाइ-पुं०(अकुण्ठादि) सम्पूर्णपाण्यादौ, प्रव०६४ द्वा०। ते एवमक्खंति अबुज्झमाणा, विरूवरूवाणि अकिरियवाई।। अकक्कय-त्रि०(अकुक्रच) न० ब०ा हस्तपादमुखादिविरूप-चेष्टारहिते। जे मायइत्ता बहवे मणूसा,भमंति संसारमणोवदग्गं // 6 // व्य०३ उ०। ईषन्मुखविकाररहिते, आचा० 1 श्रु०१अ०३ उ०। (ते एवमक्खंति) ते चार्वाकबौद्धादयोऽक्रियावादिन एव-माचक्षते। सुसाणे सुण्णगारे वा, रुक्खमूले व एगओ। सद्भावमबुध्यमाना मिथ्यामलपटलभृतात्मानः परमात्मानं च अकुकुओ णिसीएज्जा, ण य वित्तासए परं / / व्युदग्राहयन्तो विरूपरूपाणि नानाप्रकाराणि शास्त्राणि प्ररूपयन्ति / अकुल्चोऽशिष्ट चेष्टारहितो निषीदेत् तिष्ठेत्, यद्वा, अकु क्रुचः तद्यथा- दानेन महाभोगो, देहिनां सुरगतिश्च शीलेन / भावनया व कुन्थ्वादिविराधनाभयात् कर्मबन्धहेतुत्वेन कुत्सितं हस्तविमुक्तिस्तपसा सर्वाणि सिध्यन्ति / / तथा पृथिव्यापस्तेजो- | पादादिभिरस्पन्दमानो निषीदेत् / उत्त०३ अ०। Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकुकूज 129 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अकू(क्कर अकुकूज-त्रि० आर्षत्वात्प्राकृते तथात्वम्, कुत्सितं कूजति पीडितः सन्नाक्रन्दति। कुकूजोन तथेत्यकुकूजः, कुत्सितकूजना कर्तरि, उत्त०२१ अ०॥ अकौकुच्य-त्रि० नास्ति कौकुच्यं भाण्डविटचेष्टा यस्य सोड कौकुच्यः / सम्यक्साधुमुद्रायुक्ते, उत्त०१६ अ०। अकुडिल-त्रि०(अकुटिल)अमायिनि,व्य०३ उ०। अवक्रे, जं०२वक्षः। ऋजौ, आचा०१ श्रु,१अ०३ उ०॥ अकुतूहल-त्रि०(अकुतूहल) न विद्यते कुतूहलं यस्य स अ-कुतूहलः कुहकेन्द्रजालभगलविद्यानाटकादीनामविलोकके / “नीयावित्ती अचवले, अताई अकुहले"। उत्त०१०अ०। अकुमारमूय-त्रि०(अकुमारभूत) अकुमारब्रह्मचारिणि, "अकु-मारभूए जे केइ कुमारभूए ति हं वए"।स०३० सम०। अकुय--त्रि०(अकुच) कुचस्पन्दने, नकुचतीत्यकुचः। इगुपा-त्यलक्षणः कप्रत्ययः व्य०८ उ०। निश्चले, निचू०१ उ०॥ अकुसल-त्रि०(अकुशल) अनभिज्ञे, पं०व०४ द्वा० वक्तव्यावक्तव्यविभागानिपुणे प्रश्न०आश्र०२ द्वा०। स्थूलमतौ, "तसथावरहिंसाए,जणा अकुसला उलप्पंति"। दश०१ अ०। अशोभने च / औ० / न कुशलं मङ्गलमस्य, मङ्ग लविरोध्यमङ्गलयुक्ते, न०त०। कुशलविरोधिनि अभद्रे, नावाच०। अकु सलकम्मोदय-पुं०(अकुशलकर्मोदय) अशुभकर्मोदये, अकर्मानुभावे च / ध० 2 अधि०। अकु सलचित्तणिरोह-पुं०(अकुशलचित्तनिरोध) आत ध्यानादिप्रतिषेधेनाऽकुशलमनोनिरोधे / दश० अ०। अकु सलजोगणिरोह-पुं०(अकुशलयोगनिरोध) अकुशलानां मनोवाकाययोगानां व्यापाराणां निरोधः अकुशलयोगनिरोधः / मनआदित्रिविधकरणैरायुक्ततायाम, ओघ०। अकु सलणिवित्तिरूव-त्रि०(अकुशलनिवृत्तिरूप) सपापारम्भोपरमणस्वभावे, पञ्चा०७ विव०॥ अकुसील-पुं०(अकुशील) नकुशीलोऽकुशीलः। कुशीलभिन्ने, सूत्र०१ श्रु०६अ। अकुहय-त्रि०(अकुहक) न०त०। इन्द्रजालादिकुहकरहिते, "अलोलुए अक्कु हए अमाई, अपीसुणे आवि अदीणवित्ती' 1 दश० अ०२ उ01 अकूकू)र-पुं०(अक्रूर) न०त० / अरौद्रकारे / दर्श०। अक्लिष्टाध्यवसाये, क्रूरो हि परच्छिद्रान्वेषणलम्पटः कलुषमनाः स्वानुष्ठानं कुर्वन्नपि फलभाग्न भवतीति। (अक्रूरत्वं पञ्चमः श्रावकगुणः) प्रव० 236 द्वा०11०। कुरो किलिट्ठभावो, सम्मं धम्मं न साहिलं तरह। इयसोनइत्थ जोगो,जोगो पुण होइ अकूरो।।१२।। क्रूरः क्लिष्टभावो मत्सरादिदूषितपरिणामः सम्यङ् निष्कलङ्घ धर्म न नैव साधयितुमाराधयितुं (तरइ त्ति) शक्रति, समर-विजयकुमारवत् / इत्यस्माद्धेतोरसौ नैवात्र शुद्धधर्मे योग्य उचितः / पुनरेवकरार्थः / ततो योग्योऽक्रूर एव, कीर्तिचन्द्रनृपवदिति / तयोः कथा चैवम् - बहुसाहारा पुन्नागसोहिया उचसालरेहिल्ला। आरामभूमिसरिसा, चंपा नामेण अत्थि पुरी॥१॥ तत्थरिथ कित्तिचंदो, नरनाहो सुयणकुमुयवणचंदो। तस्स कणिट्ठो माया, जुवराया समरविजउ त्ति / / 2 / / अहहणियरायपसरो,समियरओमलिणअंबरोसदओ। अंगीकयमद्दवओ,पत्तोसुमुणिव्वघणसमओ॥३॥ तंमि य समए नीरंधनीरपूरेण अइबहु वहंती। भवणोवरिट्ठिएणं, दिट्ठा सरिया नरिंदेणं // 4 // तो कोऊहलआउलहियओ बंधवजुओ तहिं गंतुं। चडइ निवो इक्काए, तरीइसेसासु सेसजणो // 5 // जा ते कोलंति तहिं, ता उवरि जलहरम्मि वुट्ठम्मि। सो कोवि नइपवाहो, पत्तो अइतिव्ववेगेण // 6|| निजंति कड्डियाओ, अन्नन्नदिसासु जेण वेडीओ। थोवो वि तत्थ न फुरइ, वावारो कन्नधाराणं / / 7 / / तो सरियामज्झगओ, तडडिओ पुक्करेइ पुरलोओ। अह पडुपवणहया निवदोणी उ अदंसणं पत्ता / / 8 / / लग्गा दीहतमालामिहाणअडवीए सा कहिं रुक्खे। तत्तो उत्तरइ निवो, कइवयपरिवारबंधुजुओ। जावीसमेइ संतो, तत्तीरे ताव पिच्छइ नरिंदो। नइपूरखणियदुत्तडिदरपयड सुमणिरयणनिहिं // 10 // गंतूण तत्थ सम्म, पासिय दंसेइ समरविजयस्स। चलियं च तस्स चित्तं, भासुररयणुचयं दट्टुं // 11 // चिंतइ सहावकूरो, मारित्तु निवं इमं पगिण्हामि। तं रज्जं सुहसज्ज, अणिट्ठियं रयणनिहिमेयं / / 12 / / रन्नो मुक्को घाओ,पुरीइ लोयम्मि पुक्करतम्मिा हाहा किमियं ति विचिंतिऊण वंचाविओ तेण||१३|| मणइ य अक्कूरमणो, निवई बाहाइ तं घरेऊण / नियकुलअणुचियमसमं, किं भाया तए इमं विहियं / 14 / जइ कज्जं रज्जेणं, निहिणा इमिणा व ता तुमं चेव। गिण्हाहि आहिमुक्को, समर धरेमो वयं तु वयं // 15 // तंसोनिसुणियअमुणिय,कोवविवागोविवेगिपरिमुक्को। विच्छोडिगवाहं,ओसरिओनिवसगासाओ।॥१६॥ जस्स निमित्तं अनिमित्तवइरिणो बंधुणो वि इय हुंति। अलमिमिणा निहिणा मे,तं मुत्तु निवो गओ सपुरं / / 17 / / समरो ममरालिसमाऽपुन्नवसाओ पुरट्ठियं पितयं / रयणनिहाणमदतुं, चिंतइ रन्ना धुवं नीयं // 18|| तो जाओ चारहडो, चरडो लुटेइ वंधुणो देसं। सामंतेहिं धरिलं, कयाविनीओ निवसमीवे // 16 // मुक्को अणेण रज्जे, निमंतिओ चिंतिउंगओ एवं। गहियव्वं रजमिणं, हठेण नहु दिजमेएणं // 20 // एवं कयाइदेहे, मंडारे जणवए य सो चुक्को। पत्तो निवेण मुक्को, रजेणऽभत्थिओ य दढं // 21 // तोजाओजणवाओ,नियह अहो सोयराण सविसेसं। एगस्सदुजणत्तं,असरिसमन्नस्ससुयण // 22 // गुरुवेरग्गो राया, अइविरसे वासरे खिवइ जाव। ता तत्थ समोसरिओ,पबाहनामा पवरनाणी।।२३।। चलिओ पमोयकलिओ, तन्नमणत्थं निवो सपरिवारो। निसुणिय धम्म पुच्छइ, समए नियबंधवचरित्तं // 25 // जंपइ गुरू विदेहेसु मंगले मंगलावई विजए। सोगंधिपुरे सागरकुरंगया मयणसिट्ठिसुया॥२५।। पढमवयसमुचियाहिं, कीलाहिं ते कयावि कीलंता। पिच्छंति बालगदुर्ग, तह एगं बालियं रम्मं // 26 // Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकू(क्कू)र 130 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अकोविय पुट्ठा य तेहि एए, के तुब्भे ता भणाइ ताणेगो। अस्थित्थ मोहनामा, निवई जगतीतलपसिद्धो॥२७॥ तस्सत्थि वइरिकरिकर-हकेसरी रायकेसरी तणओ। तप्पुत्तोऽहं सागर, महासओ सागराऽमिहाणो२८| ममतणओ फुडविणओ, एसो उपरिग्गहामिलासुत्ति। वइसानरस्सधूया, एसा किरकूरयानाम।।२।। इय सुणिय हरिसिया ते, कीलंति परुप्परं तओ मित्तिं / निम्मेइ सागरो सह, सिसूहि न उ कूरयाए वि॥३०|| कुणइ कुरंगो मित्तिं, तेहि समं कूरयाइ सविसेसं। भयाभिभूयत्तिकमा, पत्ता ते तारतारुनं // 31 // अह मित्तपेरियमणा, दविणोवञ्जणकए गहियभंडा। पियरेहि वारिया विहु, चलिया देसंतरम्मि इमे / / 3 / / मिल्लेहि अंतरा अंतरायवसओ य गहियभूरिधणा। उद्धरियथोवदव्वा, धवलपुरं पट्टणं पत्ता // 33 // दविएण तेण तहियं, गहिउँ हट्ट कुणंति ववसायं / दीणारसहस्सदुगं, दुक्खसहस्सेहिं अजंति॥३४॥ तो वढियबहुतण्हा, कप्पासतिलाइ भंडसालाओ। पकुणंतिकरिसणं पिहु, उच्छुक्खित्ताई कारंति॥३५|| तससंसत्ततिलाणं, निपीलणं गुलियमाइ ववहारं। कारंति एव जाया, ताणं दीणारपणसहसा // 36|| तो तहसगे इच्छा, कमेण लक्खे वि जाव तं मिलियं। अह कोडि पूरणिच्छा जाया मित्ताणुभावेण // 37 // तो गुरुगंतीनिवहा, पहिया देसंतरेसु विविहेसु। जलहिम्मि पोयसंघा-यवत्तियां करहमंडलिया // 38 / / गहियाइनिवकुलाओ,पट्टेणबहूणि सुक्कठाणाई। विहियाधणगणियाओ,बद्धाउहयाइहेडाओ॥३९।। इचाइ पावकोडिहिं,जा कोडि वि तेसि संमिलिया। तोपावमित्तवसओ, उववन्नारयणकोडिच्छा||४|| अह खिविऊण सव्वं, पोएते पत्थिया रयणभूमि। ता कूरया विलग्गा, गाढं कन्ने कुरंगस्स ||1|| जंपेइ हंत हंतुं,अंसहरमिमं करेसु अप्पवसं। सयलंदविणमिणं,णिणोसवेविइहसुयणा|४|| इय सा जंपइ निच्चं, तहेव तं परिणयं इमस्स तओ। पक्खिवइ सागरं सा-गरम्मि लहिऊण सो छिदं ||3|| असुहज्झणोवगओ, जलहिजलुप्पीलपीलियसरीरो। मरिऊण तइयनरगम्मिनारओ सागरो जाओ ||4|| काउं मयकिचं भाउगस्स हिट्ठो कुरंगओ हियए। जा जाइ किं पिदूरं, ता फुट्ट पवहणं झत्ति III बुड्डो लोओ गलियं, कयाणगं फलहयं लहिय एसो। कह कहवि तुरियदिवसे, पत्तो नीरनिहितीरम्मि॥४६|| अजिणियधणं भोए,मुंजिस्संइय विचिंतिरोधणिय। भमिरो वणम्मिहरिणा,हणिओधूमप्पहंपत्तो॥४७|| तो भमिय भवं ते दो,वि कहविअंजणनगे हरीजाया। इक्कगुहत्थं जुज्झिय,चउत्थनरए गया मरिउं॥४८|| तो अहिणो इगनिहिणो, कए कुणंता महत्तयं जुज्झं। विज्झायसुद्धझाणा, पत्ता धूमप्पहं पुढविं॥४६ अह बहुभवपज्जंते, एगस्स वणिस्स भविय भज्जाओ। तम्मि मए विहवकए, जुज्झिय मरिउं गया छर्हि // 50 // ममिय भवं पुण जाया, तणया निवइस्स उवरए तम्मि। कलहंता रजकए, मरि पत्ता तमतमाए॥५१॥ एवं दव्वनिमित्तं, सहियाओ तेहि वेयणा विविहा। नयतं कस्सइ दिन्नं, परिमुत्तं तं सयं नेव // 52|| अह पुव्वभवे काउं, अन्नाणतवं तहाविहं किंपि। जाओ सागरजीवो,तं निव इयरो उ तुहबंधू // 53 / / तुम्हाणवि पचक्खो, इओ परं समरविजयदुत्तंतो / सो काही उवसग्गं, इक्कसि तुह गहियचरणस्स॥५४|| तो कूरयाइ सहिओ, अहिओ तस्स थावराण जीवाणं। दुसहदुहदहियदेहो, भमिहीही भवमणंतमिमो ||5|| इअसुणिअगरुयवेरग्गपरिगओगिण्हएवयंराया। नियभाइणिज्जहरिकुमरवसहसंकमियरज्जधुरो॥५६|| कमसो अइतव सोसिय, देहो बहुपढिय सुद्ध सिद्धंतो। अब्भुज्जयं विहार, उज्जयचित्तो पवज्जेइ / / 7 / / कस्सवि नगरस्स बहि, पलंबबाहू ट्ठिओ य सो भयवं। दिट्ठो पाविट्ठणं, समरेणं कहिंवि गमिरेणं / / 5 / / वइरं सुमरंतेणं, हणिओ खग्गेण कंधराइ मुणी। गुरुवेयणाभिभूओ, पडिओ धरणीयले सहसा // 56 // चिंतइ रे जीव ! तए, अन्नाणवसा विवेगरहिएण। वियणाओ अयणाओ, नरएसु अणंतसो पत्ता // 60|| गुरुभरवहणंकणदो-हवाहसीउण्हखुहपिवासाइ। दुस्सहदुहदंदोली,तिरिएसुविविसहियाबहुसो॥६१।। ता धीर मा विसीयसु, इमासु अइअप्पवेयणासु तुम। को उत्तरि जलहिं, निव्वुडए मुप्पई नीरे // 6 // वजेसुकूरभावं, विसुद्धचित्तो जिएसुसव्वेसु। बहुकम्मखयसहाओ विसेसओसमरविजयम्मि॥६३।। तं लद्धो इह धम्मो,जंन कया कूरया पुरावि तए। इय चिंतंतो चत्तो, पावेण समं स पाणेहि // 6 // सुहसारे सहसारे, सो उववन्नो सुरो सुकयपुन्नो। तत्तो चविय विदेहे, लहिही मुत्तिं समुत्तीवि // 65 // श्रुत्वेत्यशुद्धपरिणामविरामहेतोः, श्रीकीर्तिचन्द्रनरचन्द्रचरित्रमुचैः। भव्या नरा जननमृत्युजरादिभीता, अक्रूरतागुणमगौणधिया दधध्वम् / / 66|| ध०र०। अकेवल-त्रि०(अकेवल) न विद्यते केवलमस्मिन्नित्यकेवलम्। अशुद्धे, सूत्र०२ श्रु०२ अ०॥ अकोऊहल्ल-त्रि०(अकौतूहल) नम्ब०स०॥ नटनर्तकादिषु, अकौतुके, "नो भावए नो वि य भाविअप्पा, अकोऊहल्ले य सया स पुज्जो'|| दश०६ अ०३ उ०॥ अर्काप्प-त्रि०(अकोप्य) अकोपनीये, अदूषणीये, बृ०१ उ० "अकोप्पजंघजुयला' अकोप्यमद्वेष्यं रम्यंजङ्घायुगलं यासांतास्तथा। प्रश्न० आश्र०३ द्वा०। अकोविय-त्रि०(अकोपित) अदूषणीये, "आरियं उवसंपज्जे, सव्वधम्ममकोवियं" सूत्र०१ श्रु०८ अ०॥ अकोविद-पुं० श्रुतेन वयसा चाऽप्राप्तयोग्यताके, व्य०१-उ०॥ अपण्डिते, सच्छास्त्रावबोधरहिते, सूत्र०१ श्रु०१ अ०२ उ० आरंभाई न संकंति, अवियत्ता अकोविया"। सूत्र०१ श्रु०१ अ०३ उ० / सम्यग्ज्ञाननिपुणे, वणे मूढे जहा जंतू, मूढे णेयाणुगामिए / दो वि एए अकोविया, तिव्वं सोयं तियच्छइ"। सूत्र०१श्रु०१ अ०३ उ० दश पिं० Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकोवियप्प 131 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अकोसपरिसह उ०। अकोवियप्प(ण)-पुं०(अकोविदात्मन्) सम्यक्परिज्ञानविकले, बृ०१ | अक्को-(देशी) दूते, दे०ना०। अक्कोडण-न०(आक्रोडन) संग्रहे, विशे०। श्रु० / अ०। अकोहण-त्रि०(अक्रोधन) क्रोधरहिते, "एसप्पमोक्खो अमुसे वरे वि, अक्कोडो-देशी०। छागे,देवना०। अकोहणे सचरतेतवस्सी'' सूत्र०१ श्रु०१० अ०। अक्कोस-न०(अक्रोश) वर्षायोग्यक्षेत्रविशेषे, यस्य मूलनिबन्धात्परतः अकंतं-(देशी) प्रवृद्धे, दे०ना०। षण्णां दिशामन्यतरस्यामेकस्यांद्वयोस्तिसृषु वा दिक्षु अटवीजलश्वापदः अकंत-त्रि०(आक्रान्त) आक्रम-क्तः। अवष्टब्धे, आचा०१ श्रु०६ अ५ | सन्ति,तेन पर्वतनदीव्याघातेन च गमनं भिक्षाचर्या च न सम्भवति, उ०।अभिभूते, स्वोपरिगत्या व्याप्ते, सूत्र०१ श्रु०१ अ०४ उ०। भावेक्तः तन्मूलनिबद्धमात्रमक्रोशम्। व्य०१० उ०। आक्रमणे, नं०। भ०१ श०३ उ० 1 आक्रान्ते, पादादिना भूतलादौ *आक्रोश-पुं० आक्रुश-घञ्।दुर्वचने, भ०८ श०८ उ०। निष्ठुरवचने, भवति / अचित्तवायुकायिकभेदे, पुं० स्था०५ ठा० 3 उ० आव०४ अ०। असभ्यभाषायाम्, उत्त०२ अ०।विरुद्धचिन्तने, शापे, अक्कं तदुक्ख-त्रि०(दुःखाक्रान्त) आक्रान्ता अभिभूता दुःखेन निन्दायां च / वाच०। शारीरमानसेनाऽसातोदयेन दुःखाक्रान्ताः। दुःखाभिभूतेषु। सूत्र०१ श्रु० अक्कोसग-त्रि०(आक्रोशक) दुर्वचनवादिनि। उत्त०२ अ०॥ १अ०४ उ०1"सवे अकंतदुक्खाय, अओसव्वे अर्हिसिया''सूत्र०९ अक्कोसणा-स्त्री०(आक्रोशना) मृतोऽसि त्वमित्यादिवचनेषु, ज्ञा०१६ श्रु०१अ०४ उ०। अ०1 अक्कंद-पुं०(आक्रन्द) आक्रन्द-घञ्। सारवे रोदने, वाच० तदात्मके अक्कोसपरि(री)सह -पुं० [आक्रोशपरि(री) षह] आक्रोशएकचत्वारिंशे उत्कृष्टाऽऽशातनाभेदे, आक्रंदं रुदित-विशेष नमाक्रोशोऽसभ्यभाषात्मकः, स एव परीषहः आक्रोशपरीषहः / द्वादशे पुत्रकलत्रादिवियोगे तं विधत्ते। प्रव०३८ द्वा० / आह्वाने, शब्दे च, कर्मणि परीषहे, उत्त०२ अ० आक्रोशोऽनिष्टवचनं, तत्छुत्वा सत्येतरालोचनया घञ्। मित्रे, भ्रातरि च, आधारे घञ्। दारुणे युद्धे, दुःखिना रोदनस्थाने न कुप्येत् ,किन्तु सहेत। आव० 4 अ०। च।आक्रन्दयति-अच् / पाणिग्राहपाश्चादवर्तिनि नृपभेदे, 'पाणिग्राहं च "आक्रुष्टोऽपि हि नाक्रोशेत, क्षमाश्रमणतां विदन् / प्रत्युताक्रोष्टरि संप्रेक्ष्य तथाऽऽक्रन्दञ्च मण्डले' / मनु०। यतिश्चिन्तयेदुपकारिताम्"। ध०३ अधि० / "नाऽऽकृष्टो मुनिराअक्कंदण-न०(आक्रन्दन) आ+क्रन्द-ल्युट् / महता शब्देन विरवणे, क्रोशेत, सम्यग्ज्ञानाद्यवर्जकः / अपेक्षेतोपकारित्वं, नतु द्वेष कदाचन // आव०४ अ०। आह्वाने च, वाच०। आव०१ अ०। आ० म०वि०। तद्यदि सत्यं, कः कोपः, शिक्षयति हि अक्तूवरी-स्त्री० [अर्कतु(तू)वरी] गुच्छभेदे, प्रज्ञा०१ पद। मामयमुपकारी,न पुनरेवं करिष्यामीति / अनृतं चेत् सुतरां कोपो न अक्कत्थल-न०(अर्कस्थल) मथुरास्थस्थलभेदे,ती०६ कल्प। कर्तव्यः। उक्तं च "आक्रुष्टन मतिमता, तत्त्वार्थविचारणे मतिः कार्या। अक्कम-पुं०(आक्रम) आक्रम-धञ्, अवृद्धिः। बलेनाऽतिक्रमणे, अभिभवे, यदि सत्यं कः कोपः?, स्यादनृतं किमिह कोपेन ?" इत्यादि परिभाव्य न कोपं कुर्यात् / प्रव०८६ द्वा० / "चाण्डालः किमयं द्विजातिरथवा व्याप्तौ, आग्रहे च / वाच० / प्राकृते "आक्र मे शूद्रोऽथवा तापसः, किंवा तत्त्वनिवेशपेशलमतिर्योगीश्वरः कोऽपि वा। रोहावोत्थारच्छन्दाः"|१४१६०। इति सूत्रेणाक्रमेस्त्रय आदेशाः वा इत्यस्वल्प-विकल्पजल्पमुखरैः संभाष्यमाणो जनै! रुष्टो न हि चैव ओहावइ उत्थारइछुदइ / अक्कमइ आक्रमते, प्रा० / आक्र-मणमाक्रमः। हृष्टहृदयो योगीश्वरो गच्छति // 1 // " पुनर्गालीं श्रुत्वेति विचिन्तयेत् / पराजये, उच्छेदे, आ०म०प्र० / बलात्कारे, आव०४ अ०। आक्रम्यते "ददतु ददतु गाली गालिमन्तो भवन्तः, वयमपि तदभावात् परलोकोऽनेन / करणे घञ् / परलोकप्राप्तिसाधने विद्याकर्मादौ, गालिदानेऽप्यशक्ताः / जगति विदितमेतद्दीयते विद्यमानं, ददतु कृताक्रमणे, अभिभूते, व्याप्ते, आग्रहे च / वाच०। शशविषाणं ये महात्यागिनोऽपि / / 1 / " इति विचार्य समत्वेन अक्कमण-न०(आक्रमण) अभिभवने, विशे०। पादेनाक्रीडने, आव०४ तिष्ठेत् / उत्त०२अ० / “अक्कोस गहणमारणं, धम्मभंसाण अ०। बालसुलभाणं / लाभं मन्नइ धीरो, जहुत्तराणं अभावम्मि''। सूत्र० अक्कमित्ता-अ०(आक्रम्य) आक्रमणं कृत्वेत्यर्थे / "भीमरूवेहिं १श्रु०८ अ० एतदेव सूत्रकृदाह - अक्कमित्ता दढदाढा गाढं" प्रश्न० आश्र०१द्वा०। अक्कोसेज परो भिक्खुं, अकशाला-देशी०। बलात्कारे, ईषन्मत्तायां स्त्रियाम, दे०ना०। न तेसिं पडिसंजले। अक्का-(देशी) भगिन्याम, देवनाof सरिसो होइबालाणं अक्कासीदेवी-स्त्री०। व्यन्तरदेवीविशेषे, ती०६ कल्प। तम्हा भिक्खू न संजले // 25 // अकिट्ठ-त्रि०(अक्लिष्ट) न०त० / अबाधिते, निवेदने, भ०३ श०२ आक्रोशेतिरस्कुर्यात् / परोऽन्यो धर्मापेक्षया धर्मबाह्य आत्मउ०। स्वशरीरोत्थल्केशरहिते, जी०३ प्रति / व्यतिरिक्तो वा भिक्षु यति, यथा- धिङ् मुण्ड ! किमिह त्वमागतो-ऽसीति अक्कुटुं-(देशी) अध्यासिते, देना। (न तेसिंति) सूक्तवचनस्य च व्यत्ययान्न तस्मै प्रतिसंज्वलेत् निर्यातनं प्रति / ततश्चाक्रोशदानतो न संज्वलेदेतन्निर्यातनार्थम्, अक्कु स-गम् -धा० गतौ, "गमेरइ-अइच्छाणुवजावजसो देहदाहलोहितपातप्रत्याक्रोशाभिघातादिभिरग्रिवन्न दीप्येत्, संकुसाकुस०" 814162 / इति सूत्रेण गमेरकुसाऽऽदेशः। अक्कुसइ, ज्वलनकोपमपि न कुर्यादिति। संज्वलेदित्युपादानं किमेवमुप-दिश्यत गच्छति, प्रा० व्या०। इत्याह सदृशः समानो भवति संज्वलनिति प्रक्रमः / केषां? अक्केज(य)-त्रि०(अक्रेय) अक्रयणीये, स्था, ठा० बालानामज्ञानां, तथाविधक्षपकवत् / यथा कश्चित् क्षपको देवतया Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्कोसपरिसह 132 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अक्ख गुणैरावर्जितया सततमभिवन्द्यते, उच्यते- च मम कार्यमावेद- जो सहइ हु गामकंटए, अक्कोसपहारतज्जणाओ अ। नीयम् / अन्यदैकेन धिग्जातिना सह योद्धमारब्धस्तेन च बलवता मयमेखसहसप्पहासे,समसुहदुक्खसहे य जे समिक्खू॥ क्षुत्क्षामशरीरो भुवि पातितस्ताडितश्च, रात्रौ देवता वन्दितुमायाता किंच (जो सहइत्ति) यः खलु महात्मा सहते सम्यग्ग्रामकण्टकान्ग्रामा क्षपकस्तूष्णीमास्ते / ततश्चासौ देवतयाऽभिहितो, भगवन् ! किं इन्द्रियाणि, तद्दुःखहेतवः कण्टकास्तान्, स्वरूपत एवाह, आक्रोशान् मयाऽपराद्धम् / स प्राह-न तस्य त्वया दुरात्मानो ममापकारिणः प्रहारान्तर्जनाश्चेति। तत्राक्रोशोजकारादिभिः, प्रहारः कशादिभिः तर्जना किंचित्कृतम् / सोऽवादीत् न मया विशेषः कोऽप्युपलब्धः,यथाऽयं असूयादिभिः, तथाभैरवभया अत्यन्त द्र-भयजनकाः शब्दाः सप्रहासा श्रमणोऽयं धिग्जातिरिति यतः कोपाविष्टौ द्वावपि समानौ संपन्ना-विति। यस्मिन् स्थान इतिगम्यते तत्तथा तस्मिन्, वेतालादिकृतार्तनादाट्टहास ततः सतीप्रेरणेनेति प्रतिपन्नं क्षपकेणेति / उक्तमेवार्थं निगमयितुमाह- इत्यर्थः / अत्रोपसर्गेषु सत्सु समसुखदुःखसहश्च योऽचलितभावः, स (तम्हत्ति) यस्मात्सदृशो भवति बालानां तस्माद् भिक्षुर्न संज्यलेदिति भिक्षुरिति सूत्रार्थः / द० 10 अ०1 सूत्रार्थः। अक्कोसपरि(री)सहविजय-पुं०पआक्रोशपरि(री)षहविजयब कृत्योपदेशमाह मिथ्यादर्शनोदृप्तोदीरितदुर्वचांसि ज्ञानिदावदाहीनि क्रोधहुतसोचा णं फरुसा भासा, दारुणा गामकंटया। वहोद्दीपनपटिष्ठानि शृण्वन्तोऽपि तत्प्रतीकारं कर्तुमपि शक्नुवन्तो तुसिणीओ उवेहिञ्जा,ण ताओ मणसी करे॥२५॥ 'दुरन्तः क्रोधादिकषायोदयनिमित्तपापकर्मविपाकः' इति चिन्त-यतः श्रुत्वाऽऽकर्ण्य णमिति वाक्यालंकारे परुषाः कर्कशा भाषा गिरः / कषायलवमात्रस्यापि स्वहृदयेऽनवकाशदाने, पंचा०१३ विव०।। दारयन्ति मन्दसत्त्वानां संयमविषयां धृतिमिति दारुणास्ताः ग्राम | अक्कोह-त्रि०(अक्रोध) न०बक्रोधोदयविरहिते, विफली-कृतक्रोधे, इन्द्रियग्रामस्तस्य कण्टका इव ग्रामकण्टकाः प्रति-कूलशब्दादयः औ० नत्रः स्वल्पार्थत्वात् स्वल्पक्रोधे, जं०२ वक्ष०ा क्रोधमकुर्वाणे, कण्टकत्वं चैषां दुःखोत्पादकत्वेन मुक्तिमार्ग प्रवृत्तिविघहेतुतया च उत्त०२ अ०। "से गूणं भंते ! अकोहत्तं अमाणत्तं अमायत्तं अलोभत्तं तदेकदेशत्वेन च परुषभाषा अपि तथोक्ताः / भाषाविशेषणत्वेऽपि समणाणं निग्गंथाणं पसत्थं? हंता गोयमा ! अकोहत्तं जाव पसत्थं"। चात्राविष्टलिङ्गत्वात्पुल्लिङ्गता, तूष्णींशीलेन कोपात्प्रति परुषभाषी भ०१ श०६ उ०। एवंविधश्च / "जो सहइ उ गामकंटए, उक्कोसपहारतज्जणाओयत्ति" अखडम्मिअं-(देशी) तथेत्यर्थे, देखना इत्यागमं परिभावयन्नुपेक्षेतावधीरयेत् / प्रक्रमात्परुषभाषा एव / अक्ख-पुं०(अक्ष) जीवे, आ०म०प्र० / स्था०। उभयत्रापि "मा-वाकथमित्याह न ता मनसि कुर्याद्, भाषिणि द्वेषाकरणेनेति सूत्रार्थः / विद्यमि कमिहनि कप्यणी" इत्यादिना औणादिकः सप्रत्ययः / उत्त०२ अ०॥ आ०म०प्र०। कम्मत्ता दुन्मगा चेव, इच्चा ऽऽहंसु पुोजणा // 6 // जीवो अक्खो अत्थ-व्वावणमोयणगुणाणिओएण। पृथक्जनाः प्राकृतपुरुषा अनार्य कल्पा इत्येवमाहुरित्ये- अक्षस्तावञ्जीव उच्यते, केन हेतुनेत्याह (अत्थवावणेत्यादि) वमुक्तवन्तः / तद्यथा- य एते यतयः जलाविलदेहा लुञ्चितशिरसः अर्थव्यापनभोजनगुणान्वितो येन तेनाक्षो जीवः / इदमुक्तं भवतिक्षुधादिवेदनाग्रस्तास्ते एतैः पूर्वाचरितैः कर्मभिरार्ताः पूर्वस्व-कृतकर्मणः "अशू व्याप्तौ" अश्नुते ज्ञानात्मना सर्वार्थान् व्याप्नोतीफलमनुभवन्ति / यदि वा कर्मभिः कृष्यादि-भिरास्तित्कर्तुमसमर्था त्यौणादिकनिपातनादक्षो जीवः / अथवा "अश भोजने "अश्नाति उद्विग्रा सन्तो यतयः संवृत्ता इति, तथैते दुर्भगाः सर्वेणैव पुत्रदारादिना समस्तत्रिभुवनान्तर्वतिनो देवलोकसमृद्ध्यादीनान् पालयति परित्यक्ता निर्गतिकाःसन्तः प्रव्रज्यामभ्युपगता इति। भुङ्क्ते वेति निपातनादक्षो जीवः / अनाते जनार्थत्वाद, भुजेश्व एते सद्दे अचायंता, गामेसु णगरेसु वा। पालनाभ्यवहारार्थत्त्वादिति भावः / इत्येवमर्थ व्यापनभोजनतत्थ मंदा विसीयंति, संगामंमिव भीरुया।।७।। गुणयुक्तत्त्वेन जीवस्याक्षत्वं सिद्धं भवति / विशे० / इन्द्रिये, न०। "खमक्षमिन्द्रियं प्रोक्तं, हृषिकं करणं स्मृतम्" इति वचनात् / एतान् पूर्वोक्तानाक्रोशरूपान् तथा चौरचारकादिरूपान् शब्दान् "अक्खस्स पोग्गलमया, जं दव्वें दियदमणपरा होति"। आ० म० सोढुमशक्नुवन्तो ग्रामनगरादौ तदन्तराले व व्यवस्थिताः, तत्र तस्मिन् प्र०। प्रज्ञा०! ज्ञा०। विशे०नि०चू दश01 अश्राति आक्रोशे सति मन्दा अज्ञानलघुप्रकृतयो विषीदन्ति विमनस्का भवन्ति नवनीतादिक मित्यक्षः / धुरि, (चक्र नाभौ)। उत्त०१ अ० / संयमाद् भृश्यन्ति / तथा भीरवः संग्रामे रणशिरसि "अक्खभंगम्मि सोयइ" / उत्त०५ अ०। अनु०। औ०। जं० भ०) चक्र कुन्तासिशक्तिनाराचाकुले रटत्पटहशङ्क-झल्लरीनादगम्भीरे चतुर्भिर्हस्तैर्निष्पन्नेऽवमानविशेषे, अनु० ज्योग व्यावहारिकोऽक्षः समाकुलाः सन्तः पौरुषं परित्यज्याऽयशः पटहमङ्गीकृत्य भज्यन्ते, षण्णवत्यङ्गुलमानेन भवति / स०६६ सम०। अक्ष एवमाक्रोशादिशब्दाकर्णनादसत्त्वाः संयमे विषीदन्ति / सूत्र०१ श्रु० इत्यक्षोपाङ्गदानवच्चेति द्रुमपुष्पिकाऽध्ययने, दश०१ अ०१चन्दनके, 3 अ०१उ01 अस्मिन् हि अनाकारवती साध्वादेःस्थापनां कृत्वाऽऽवश्यकक्रियां अत्रार्जुनमालाकारर्षिकथा - कुर्वतः स्थापनाऽऽवश्यकं भवति / अनु० आव० तद्पे रायगिहे मालारो, अजुणओ तस्स मज्जा खंदसिरी। उत्कृष्टौपग्रहिकोपधिविशेषे, "अक्खासंथारो वा, एगमणेगंगिओ अउक्कोसो / पोत्थगपणगं फलगं, उक्कोसोवग्गहो सव्वो"|| ध०३ मोमगरपाणीगोट्ठी,सुदंसणो वंदओणीति ॥उत्त०नि०। अधि० ग० पिं० पं०व०॥ रुद्राक्षफलविशेषे,अणु०३वर्गः। पाशके, राजगृहेमालाकारोऽर्जुनकस्तस्य भार्या स्कंदश्रीः मुद्गरपा-णिर्यक्षो कपर्दके, "कुजए अपराजिए जहो, अक्खेहिं कुसलेहिं दीवयं"। गोष्ठीसुदर्शनो (वंदओणीति) वंदनार्थ निर्गच्छतीति गाथाक्षरार्थः, / सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ उ०। बिभीतके, रावणसुतभेदे, सर्प, भावार्थस्तुसंप्रदायगम्यः। उत्त०३अ०(सच'अजुणग' शब्द) जातान्धे, गरुडे चतुर्थ, सौवर्चले, कर्षपरिमाणे Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्खइय 133 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अक्खयतइया च,न०ावाच०। अक्खझ्य-त्रि०(अक्षतिक) अक्षये, "अक्खइयबीएणं अप्पाणं कम्मबंधणेणं मुहरि" अक्षतिकबीजेन अक्षयेणदुःखहेतुनेत्यर्थः / प्रश्न० आश्र०२ द्वा०। अक्खओदय-त्रि०(अक्षयोदक)अक्षयंशाश्वतमविनाश्युदकं जलं यस्य सोऽक्षयोदकः / नित्यसलिलभृते, "जहा से सयंभूरमणे उदही अक्खओदए" / उत्त०११ अ०। अक्खचम्म-न०(अक्षचर्मन्) जलापकर्षणकोशे, "अक्खचम्म उद्यगंडदेसं"।ज्ञा०६ अ०1 अक्खणवेलं-(देशी) सुरते, प्रदोषे च / दे०मा०। अक्खणिबद्धा-स्त्री०(अक्षनिबद्धा) गन्त्र्याम्, पिं० अक्खपाय-पुं०(अक्षपाद) अक्षं नेत्रं दर्शनसाधनतया जातं पादेऽस्य न्यायसूत्रकारके गौतममुनौ, स हि स्वमतदूषकस्य व्यासस्य मुखदर्शनं चक्षुषा न करणीयमिति प्रतिज्ञाय पश्चाद् व्यासेन प्रसादितः पादे नेत्रं प्रकाश्य तं दृष्टवानिति पौराणिकी कथा / वाच०1 अक्षपादमते किल षोडश पदार्थाः / प्रमाणप्रमेयसंशय-प्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्तावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवितण्डाहेत्वाभासच्छलजातिनिग्रह-स्थानानां तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसाऽधिगमः, इति वचनात्। इत्याद्यन्यत्र प्ररूपयिष्यते। स्या०। “अक्षपादेनोक्ते ग्रन्थे च"। विशे० आ०म०प्र० / अक्खम-त्रि०(अक्षम) क्षमते क्षम अच् / न०ता असमर्थे, क्षम-भावे अङ्,अभावार्थे, नत०। क्षमाऽभावे, ईर्ष्यायाम, स्त्री०। वाच० / अयुक्तत्वे, स्था०३ ठा०३ उ० / अनुचितत्वे असमर्थत्वे, स्था०५ ठा०१ उ०1 अक्खयणीवि-स्त्री०(अक्षयनीवि) अक्षया चासौ नीविश्व अक्षय-नीविः / षो०६ विव० / अव्यये मूलधने, येन जीर्णीभूतस्य देवकुलस्योद्धारः करिष्यते / ज्ञा०१ श्रु२ अ०।। अक्खयतइया-स्त्री०(अक्षयतृतीया) क० स० / वैशाखशुक्लतृतीयायाम् , "वैशाखमासि राजेन्द्र !, शुक्लपक्षे तृतीयका / अक्षया सा तिथिः प्रोक्ता, कृतिका-रोहिणीयुता / तस्यां दानादिकं सर्वमक्षयं समुदाहातमिति, वाच० 1 तन्मादात्म्यकथा चैवम् प्रणिपत्य प्रभु पार्श्व श्रीचिन्तामविसंज्ञकम् ? अधाऽक्षयतृतीयाया व्याख्यानं लिख्यते मया।।१।। एतदेवाह श्रुतकेवलीभगवान् भद्रबाहुः।"उसभस्स हु पारणए, इक्सुरसो आसि लोग नाहस्स / सेसाणं परमन्नं, अमियरसस्सोवमं आसी॥१।। घुटुं च अहो दाणं, दिव्याणि आहियाणि तूराणि / देवा वि सन्निवडिआ, यसुहारा चेव वुट्ठीय ॥शा भवणं धणेण भुवणं,जसेण भयवं रसेण पडिहत्थो। अप्पा निरुवमसुक्खं, सुपत्तदाणं महग्यविअं॥३॥ रिसहेण समंपत्तं निरवजंइक्खुरससमंदाणं। सेयंससमो भावो, हविज्ज जइमंगियं हुन्जा // 4 // " इति। एतासां गाथानां भावार्थः कथयाऽवगन्तव्यः / तथाहि- श्रीऋषभदेवस्वामिनो जीवः सर्वार्थसिद्धविमानात् च्युत्वाऽऽषाढकृष्णचतुर्थ्या तिथौ नाभि-नाम्नः कुलकरस्य भार्याया भरुदेव्याः कुक्षाववतीर्णः / नव मासान् चत्वारि दिनानिच तत्रोषित्वा चैत्रकृष्णाष्टम्यां निशीथसमये जन्म जगृहे। तदानीं विष्टपत्रयं विदिद्युते / क्षणं नारकैरपि जीवैः शमध्य-गामि / तदनु षट्पञ्चाशद्धिकुमारिकाणामासनानि चकम्पिरे / ताश्चावधिज्ञानेन भगवतो जनिमवगम्य जन्मस्थान- मासाद्य च स्वस्वकार्य संपाद्य निजनिकेतनानि प्रत्यगमन् / ततश्चतुष्षष्टि-संख्यकानामिन्द्राणामपि विष्ट राचेलुः / तेऽप्यवधिज्ञानेनैव भगवतो जनुग्रहणं विदित्वा सौधर्मेन्द्रव्यतिरिक्ता अन्ये त्रिषष्टिरिन्द्रा हेमाद्रिं प्रति जग्मुः / ततः सौधर्मेन्द्रोऽपि जन्मस्थानं समागत्य तत्रस्थेभ्यो मातृप्रमुखेभ्यो जनेभ्योऽवस्वापिनी निद्रां दत्त्वा मातृसन्निधौ स्वशक्त्या रचितं भगवत्प्रतिबिम्ब निधाय भगवन्तमुभाभ्यां पाणिभ्यां गृहीत्वा कनकाद्रिं समाययौ / तत्र च चतुष्षष्टिसंख्यकैरिन्द्रैः संभूय स्नात्रमहोत्सवं कृत्वा ततः सौधर्मविरहितैरन्यैरिन्द्ररष्टमोनन्दीश्वरद्वीपो जग्मे। सौधर्मेन्द्रस्तु भगवज्जनन्याः सन्निकृष्ट बालकं पूर्ववत् संस्थाप्य अवस्वापिनीं निद्रां पूर्वनिहितं भगवत्प्रतिबिम्बं चापहृत्य "नमो रत्नकुक्षि-धारिण्यै" इत्युक्त्वा मातरं प्रणिपत्य ततो भगवन्तं च नमस्कृत्य नन्दीश्वरद्वीपमबाजीत् / तत्र सर्व इन्द्रा अष्टाह्निकमहोत्सवं विधाय निजनिजसुरालयं समासदन्। अथ स भगवान् सौधर्मेन्द्रसंचारितामृतवन्तं निजाङ्गुष्ठमेव चुचूष। मातृस्तन्यपानंन चकार आऽन्नाशनात्, तीर्थबुराणां तादृशाचरितत्वात्। ततःक्रमेण पिता 'ऋषभ' इति भगवतो नाम विदधे / इन्द्रस्तु तदानी-मिक्ष्वाकुवंशमतिष्ठिपत् / विंशतिलक्षपूर्वपर्यन्तं भगवान् कुमारावस्थायामेवातिष्ठत् / वासवो विनीताख्या नगरी कारयित्वा भगवते प्रायच्छत् राज्याभिषेकं चाकरोत् / आत्रिषष्टिलक्षपूर्ववर्ष महाराजपदवीमनुबभूव / सुनन्दा सुमङ्गलाचेतिद्वे पल्यौ भगवतो बभूवतुः / तयोर्भरतबाहुबलीप्रमुखं सूनुशतमजनिष्ट / तथा आदित्ययशः- सोमयशः- प्रभृतयो बहवः पौत्रा अभूवन्। ततो भगवान् अयोध्याराज्यं ज्येष्ठपुत्राय भरताय ददौ, बाहुबलिने च तक्षशिलाराज्यमदात् / अन्येभ्योऽपि तनुजेभ्यो यथार्ह देशनगरादिराज्यं प्रदाय स्वयं चैत्रकृष्णाष्टभ्यां दीक्षा जगृहे, अक्खय-न०(अक्षज) अक्षाद् इन्द्रियसन्निकर्षाज्जातः / जन डः। इन्द्रियविषयसन्निकर्षोत्पन्ने प्रत्यक्षज्ञाने, वाच० 1 "अक्षव्यापारमाश्रित्य, भवदक्षजमिष्यते / तद् व्यापारो न तोति, कथमक्षभवं भवेत् ?"| आ०म०वि०। *अक्षत-पुं०। ब० व० / नक्षताः / अखण्डतण्डुले, दर्श० / प्रव०। पञ्चा० / सस्यमात्रे / न०1 क्षययुक्तभिन्ने, उत्कर्षान्विते, अविदारिते, यवेच, त्रि०क्षणभावे, वाच०।परिपूर्णे,स०१ सम०। प्रश्नान०त०। क्षयाभावे, न०। वाच०। *अक्षय-त्रि० नाऽस्य क्षयोऽस्तीत्यक्षयः। नं०।अपर्यवसाने, आव०४ अ० / अप्रणाशिनि, पञ्चा०४ विव० / स० 1 "सिवमयलमरुअमणंतमक्खयमव्वाबाहमपुणरावत्तियं सिद्धिगइ-नामधेयं ठाणं संपाविउकामे" अक्षयं क्षयरहितं साद्यनन्तवत्त्वात् / कल्प० / अनाशंसाद्यपर्यवस्थितिकत्वात् / म०१ श० 1 उ० / विनाशकरणाभावात् / जी०३ प्रति०। रा० ध० "स पन्नया अक्खयसागरे वा, महोदही वा वि अणंतपारे" स भगवान् प्रज्ञयाऽक्षयोऽक्षीणज्ञान इत्यर्थः। सूत्र०१ श्रु०६अ०। अक्खयणिहि-पुं०(अक्षयनिधि) देवभाण्डागारे, अक्खयणिहिं च अणुवट्टेस्सामि''। विपा०१ श्रु०७ अ०। अव्यये भण्डागारे।ज्ञा०१ श्रु०२ अ०। अक्खयणिहितव-न०(अक्षयनिधितपस्) लौकिकफलप्रदे तपोभेदे, यत्र जिनबिम्बस्य पुरतः स्थापितकलशः प्रतिदिन प्रक्षिप्यमाणतण्डुलमुष्ट्या यावद्भिर्दिनैः पूर्यते तावन्ति दिनान्येकाशनेनाऽकारि तपोऽक्षयनिधितपः। पञ्चा०६ विव०। Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्खयतइया 134 - अभिधानराजेन्द्रः-भाग 1 अक्खयतइया आहारार्थं प्रतिग्रामं विजहार च, भद्रपुरुषास्तु साधूनामाहारदानं न विदुरतो भिक्षां याचमानाय भगवते मणिमाणिक्यादीन्युत्तमवस्तून्येवोपाजहुः। भगवता त्यक्तपरिग्रहत्वात् दीयमानमपि तत्सर्वनजगृहे, अतः सर्वतः पर्यटन् चतुर्विधाहाररहित एव किश्चिदधिकमेकं वर्षमतिष्ठत् / अस्मिन्नेवावसरे गजपुरनगरे बाहुबलिनः प्रपौत्रः सोमयशःपुत्रः श्रेयांसकुमारोऽभूत ,तत्र भगवान् ऋषभदेव आहारार्थ विहरन्नाजगाम। तदा नक्तं श्रेयांसकुमारः "मेरुपर्वतः कृष्णीबभूब, मया चामृतकलशैः क्षालयित्वा स शुक्लीकृतः" इतीदृशं स्वप्नमपश्यत् / तस्यामेव निशि तस्मिन्नेव पत्तने सुबुद्धिनामा श्रेष्ठ्यपि "सूर्य्यस्य किरणसहस्रं भूमौ निपपात श्रेयांस-कुमारस्तु तदुत्थाप्य पुनः सूर्यबिम्बे संयुयोज" इति स्वप्नमद्राक्षीत्।पुनः सोमयशाभूपतिरपि"प्रचुररिपुसमवरुद्धो व्याकुलः कश्चन सुभटो यदा तान् स्वरिपून् जेतुं नाशकत्, तदा श्रेयांसकुमारेण तस्य साहाय्यमकारि, येन स तत्क्षणमेव सर्वान् विजिग्ये" इति स्वप्नं निरीक्षाञ्चक्रे / एवं स्वप्नत्रयं त्रयः पुरुषा अद्राक्षुः / ततः प्रभाते सर्वे राजसभामुपसंगम्य यथास्वं स्वप्नं प्रत्यूचुः / तदवधार्य "अद्य श्रेयांसकुमारस्यापूर्वलाभो भविष्यति' इति सर्व सभ्या व्याजहुः / एतस्मिन्नन्तरे सदाऽप्रतिबद्धविहार्यप्रमत्तो भगवान् भिक्षार्थं प्रतिगृह परिभ्रमन् तत्र श्रेयांसकुमारनिकेतनमुपतस्थे / तमागच्छन्तं भगवन्तं समवलोक्य कुमारोऽतीव जहर्ष / अन्ये च जना अदृष्टचरसाधुमुद्राः पादाभ्यामेव पर्यटन्तं तमवलोक्य हस्त्यश्वप्रभृतीनि विविधवस्तूनि समुपाहरन् / भगवाँस्तु किमपि नोपाददे। तेन तेलोकाः कोलाहलं कृत्वा विषण्णमानसा चिन्तयन्ति स्म, यतो भगवान् अस्मद्धस्तदत्तं किमपि नोपादत्ते, जातु अस्मासु क्रुद्ध इवोपलक्ष्यत इति / ते तु युगलत्वावस्थामचिरेणैवाहासिषुरतः साधुभिक्षादानविधिं न विदन्ति / अथ श्रेयांसकुमारो भगवतः साधुमुद्रां समवलोक्य 'ईदृशी मुद्रा मया पूर्वं कुत्रापि निरीक्षिता' इत्येवमूहापोहौ कुर्वन् तदानीं तस्य मतिज्ञानभेदभूतं जाति-स्मरणज्ञानं समजनि / तेन ज्ञानेन ‘भगवता साकं नव भवा मे व्यतीताः' इत्यादि सर्वं सोऽबुध्यता तत्र 'धण१ मिहुण 2 सुर 3 महब्बल ४,ललियंग 5 वयरजंघ 6 मिहुणो य 7 / सोहम्म 8 विजह अचुत 10, चक्की 11 सव्वट्ठ 12 उसभो य 13" // इति गाथोक्तानां त्रयोदशभवानां मध्ये प्रथमे भवे भगवान् सार्थवाहो-ऽभूत, द्वितीये युगलिकः, तृतीये देवता, चतुर्थे महाबलनामा राजा, पञ्चमे ललिताङ्गनामको देवोऽभवत्। श्रेयांसकुमारस्तु प्रथमे भवे स्त्रीत्वजाती धम्भिणी नामिका स्त्री समजनि / एवं क्रमेण ललिताङ्गदेवावतारस्य भगवतः स्वयंप्रभाख्या देवी बभूव। ततश्च्युत्वा ललिताङ्गदेवजीवः षष्ठे भवे वज्रन्धराख्यो राजा-ऽभवत्, स्वयंप्रभा च तस्य श्रीमतीत्याख्या राजपत्नी बभूव / एवं सप्तमे भवे चोभौ युगलिको बभूवतुः / अष्टमे सौधर्मदेवलोक उभौ देवौ समजनिषाताम् / नवमे भगवान् जीवानन्दाभिधो वैद्यः, श्रेयांसजीवस्तु केशवाख्यः श्रेष्ठिपुत्रः संजातः। तत्रापि द्वयोरतीव मित्रता बभूव / ततो दशमे भवेऽच्युतदेवलोक उभौ मित्रदेवौ संजातौ, एकादशे भगवान् चक्रवर्ती, श्रेयांसश्च सारथिः। द्वादशे चोभौ सर्वार्थसिद्धविमाने देवौ / तत आयुषि क्षीणे सति त्रयोदशे भवे भगवतो जीवोऽयमृषभदेवोऽहञ्च श्रेयांसकुमारोऽस्मि / एवं स श्रेयांसो जातिस्मरणज्ञानेन प्राक्तनानां नवभवानां स्वरूपमवेदीत्। तेषु भवेषु पूर्व साधुक्रियामद्राक्षीत् , अत एव श्रेयांसकुमारो व्यचिन्तयत्यत् | संसारिजीवानां कीदृशमज्ञानित्वं भवति, येन त्रिलोकीप्रभुं राज्यपदवीं तृणवत् विसृज्य विषयभोगरूपं सांसारिकसुखं किंपाकफलमिव विदित्वा साधुत्वं गृहीत्वा च कर्मबन्धनविमोचनाय प्रयतमानं रागद्वेषाद्यनेकानर्थकारणीभूतं परिग्रहं परमाणुमात्र-मप्यस्वीकुर्वाणं भगवन्तं नावेदिषुः / यः सर्वथा निर्ग्रन्थो निष्परिग्रहः स कथं पुनर्हस्त्यश्वकन्यास्वर्णमणिमाणिक्यमुक्ताफलादीन् परिग्रहान् ग्रहीष्यति? एवं बुद्ध्वा स श्रेयांसकुमारो निज-प्रासादगवाक्षात् तूर्णमधः समवतीर्य भगवतश्चरणोपकण्ठं समाययौ भगवन्तं त्रिः परिक्रम्य परमानन्दसिन्धुनिमग्नो ववन्दे च। पुनरञ्जलिं बद्ध्वा भगवन्तं तुष्टाव व्यजि-ज्ञपच्च-हे स्वामिन् ! मयि कृपा विधीयतामहं संसारतापतप्तोऽस्मि / अतो मे संसारान्निस्तारः क्रियताम् / अष्टादशकोटाकोटिसागरोपमपर्यन्तविच्छिन्नो मुनिजनानां प्रासुकाहारदानविधिः प्रकाश्यताम् / मम गृहे उपहाररूपेण समागतान् इक्षुरसपूर्णान् शुद्धाहारभूतान् अष्टोत्तरशतघटान् भवान् समाददातु। इति वचो निशम्य ज्ञानचतुष्टयसम्पन्नो भगवान् तमिक्षुरसं द्रव्यक्षेत्रकाल-भावानुकूलं निरवद्याहारं समवगम्य श्रेयांसनिकेतनमुपेत्य निजहस्ताञ्जली सर्व युगपज्जग्राह / यतो भगवता पाणिपात्रल-ब्धिमता भूयते, तेनैव स निखिलोऽष्टोत्तरशतघटरसोऽञ्जलिं प्रविवेश / रसग्रहणसमये चैकबिन्दुरपि भूमौ न निपपात / यद्यप्ययमष्टोत्तरशतघटपरिच्छिन्न एव रसोऽभूत, यदि च शत-सहस्रलक्षपरिमितः समुद्रपरिमितो वा स्यात् तथापि प्रविशेत् / एवं भगवते विशुद्धाहारदानस्य महानानन्दः श्रेयांसस्य तनौ न ममौ / पुनर्व्यचिन्तयत् त्रिलोकीपूज्यो-ऽनन्तगुणनिधिभगवान् ऋषभदेवो यन्मे हस्तेनाहारमाददे, तन्मयि परमप्रसादं व्यधत्त / भगवते निर्दोषाहारं ददतो मे सर्वः पापसन्तापः क्षीणः / यावत् स एवं विचिन्तयति, तावद्धर्षनिर्भरा देवाः पञ्च दिव्यानि प्रकटीचाः, 'अहो! दानमहो ! दानम्' एवं प्रजल्पन्तो देवदुन्दुभीन् च वाद- यांचक्रिरे। तिर्यग्जृम्भकाख्यास्त्रिदशाः सार्धद्वादशकोटिसुवर्णदीनाराणां रत्नानां च वृष्टिमकार्षः। तदा श्रेयांसगृह सुवर्णदीनारै रत्नैः समृद्ध्यादिभिश्च परिपूर्ण समजनि / विष्टपत्रयं धनधान्यादिभिः परिपूर्णम् / श्रेयांसस्यात्मा निरुपमसुखभाजनं संजातम् / तदारभ्य लोके सर्वे साधूनां भिक्षादानविधिं विदाञ्चक्रुः। भगवान् यस्मिन् यस्मिन् देशे विहरति, तस्मिन् तस्मिन् देशे कदापीतयो न भवन्ति स्म, सकलगृहाण्यपि परमोत्तमाहारपूर्णानि बभवुः, येन अकिञ्चना अपि भगवते परमानं प्रयच्छन्ति स्म, तस्यातिशयविशिष्टत्वात् / अस्मिन् वैशाखशुक्लतृतीयादिने भगवतः श्रीऋषभदेवस्य पारणा श्रेयांसगृहे इक्षुरसेन निर्वृत्ता / इदं च दानं श्रेयांसस्याक्षयसुखकारणीभूतं संजातमतोऽस्यास्तृतीयायाः 'अक्षय-तृतीया' 'इक्षुतृतीया' वा संज्ञा लोके प्रावर्तिष्ट / अत्र कश्चित् प्रश्नं करोति, त्रैलोक्यनाथस्य भगवतो वर्षमेकं भोजनान्तरायः कथम् ? अत्रोच्यते- कल्पविवरणे प्रदर्श्यमानमन्तरायनिदानं कर्म / तथाहि- पूर्वभवे भगवान् मार्गे गच्छन् खले धान्यानि खादतो वृषभान् कृषीवलै स्ताड्यमानानवलोक्य संजातकरुणस्तान् प्रावोचत्, अरे रे मूर्खाः! कृषाणाः! एतान् बुभुक्षून यूयं मा ताडयत किन्तु मुखबन्धनी निर्मायैतेषां मुखानि बध्नीत / तदा नैते किमपि भोक्तुं शक्ष्यन्ति। तदा ते प्रत्यूचुः- वयं न तां निर्मातुं जानीमः / ततो भगवान् तत्रोपविश्य स्वहस्तेन तां निर्माय तया च Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्खयतइया 135 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अक्खयपूया वृषभमुखं बद्ध्वा तान् प्रादर्शयत् / तया बद्धमुखो वृषभो महता कष्टेन षष्ट्युत्तरशतत्रयकृत्वः श्वासानमुञ्चत्, अतस्तत्रोपार्जितमन्तरायकर्म दीक्षाग्रहणसमये प्रादुर्भूयैकवर्षानन्तरमद्योपशमतामवापेति / अथास्य दानस्य प्रभावेण श्रेयांसो मोक्षपदवीमवाप्स्यति।भगवांश्चैकसहसं वर्षाणि छदास्थावस्थायामतिष्ठत् / एक सहस्रवर्षोनलक्षपूर्ववर्षावधिकेवलित्वावस्थायां स्थित्वाऽनेकान् भव्यजीवान् प्रतिबोधयन् विचचार / ततोऽष्टापदपर्वतोपरि नश्वरमिमं लोकमपास्य मोक्षमवाप। अतोऽक्षयतृतीयादिने भव्यजीवानां सुपात्रे दानं, शीलपालनं, तपस्याऽऽचरणं, भावनाभावनं, देवपूजनं, स्नात्रमहोत्सवादिकं च कर्म विधीयत इति। गद्यपद्यमयं ह्येतत् पूर्वाचाय्यैर्विनिर्मितम्। माहात्म्यं लिखितं सारं मया राजेन्द्रसूरिणा।१।। युगे प्रथमायामक्षयतृतीयायां केनापि पुष्टम् / के ऋतवः पूर्वमतिक्रान्ताः ? को वा सम्प्रति वर्त्तते? तत्र प्रथमाया अक्षयतृतीयायाः प्राक् युगस्यादित आरभ्य पर्वाण्यतिक्रान्तानि एकोनविंशतिः। तत एकोनविंशतिर्धियते धृत्वा च पञ्चदशभिर्गुण्यते जाते द्वे शते पञ्चाशीत्यधिके (285) / अक्षयतृतीयायां किल पृष्ट-मिति पर्वणामुपरि तिस्रस्तिथयः प्रक्षिप्यन्ते जाते द्वे शते अष्टा-शीत्यधिके (२८८)।तावति च कालेऽवमरात्राः पञ्च भवन्ति, ततः पञ्च पात्यन्ते, जाते द्वे शते त्र्यशीत्यधिके (283) / ते द्वाभ्यां गुण्यन्ते जातानि पञ्च शतानि षट्षष्ट्यधिकानि (566) / तान्ये कषष्टि सहितानि क्रियन्ते,जातानि षट् शतानि सप्तविंशत्य- धिकानि (627) तेषां द्वाविंशतिशतेन भागहरणं,लब्धाः पञ्च,तेचषभिर्भागं न सहन्त इति न तेषां षड्भिर्भागहारः, शेषास्त्वंशा उदरन्ति सप्तदश, तेषामड़जाताः साष्टिी, आगतं, पञ्च ऋतवोऽतिक्रान्ताः षष्ठस्य च ऋतो: प्रवर्त्तमानस्याष्टौ दिवसा गताः, नवमो वर्तते इति। सू० प्र०१२ पाहु०। अक्खयपूया-स्त्री०(अक्षतपूजा) जिनप्रतिमानां पुरतोऽखण्डतण्डुलसमर्पणे, तन्माहात्म्यविषये शुककथानकं विजयचन्द्रचरित्राल्लिख्यते। तद्यथाअखंडफुडियचुक्ख-क्खएहिं पुंजत्तयं जिणिंदस्स। पुरओ नरा कुणंतो, पार्वति अखंडियसुहाई॥१॥ जह जिणपुरओ चुक्ख-क्खएहिं पुंजत्तयं कुणतेणं। कीरमिहुणेण पत्तं, अखंडियं सासयं सुक्खं // 2 // अत्थित्थ भरहवासे, सिरिपुरनयरस्स बाहिउजाणे। रिसहजिणेसरभुवणं, देवविमाणं व रमणीयं // 3 / / भवणस्स तस्स पुरओ, सहयारमहादुमुत्ति सच्छाओ। अन्नुन्ननेहरतं, सुअमिहुणं तम्मि परिवसइ // 4|| अह अन्नया कयाई, भणिओ सोतीइ अत्तणो भत्ता! आणेह डोहलो मे,सीसं इह सालिखित्ताओ॥५॥ भणिया सो तेण पिए, एयं सिरीकंतराइणो खित्तं / जो एयम्मि वि सीस, गिण्हइ सीसं निवो तस्स // 6|| भणिओ तीए सामिय! तुह सरिसो नत्थि इत्थ कापुरिसो। जो भज्जं पिय मरणं, इच्छसि नियजीवलोहेण / / 7 / / इय भणिओ सो तीए, भजाए जीवियस्स निरुविक्खो। गंतूण सालिखित्ते, आणइ सो सालिसीसाणि ||8|| एवं सो पइदियह, रक्खंताणं पिरायपुरिसाणं / आणेइ मंजीरओ, भज्जाएसेण सो निच्च / / 6 / / अह अन्नया नरिंदो,समागओ तम्मि सालिखित्तम्मि। पिच्छइ सउणविलुतं, तं खित्तं एगदेसम्मि॥१०॥ पुट्ठो य आयरेणं, पुहवीपालेण सालि वालुत्ति। किं इत्थ इमं दीसइ, सउणेहिं विणासियं खित्तं // 11 // सामिय! इक्को कीरो, गच्छइ सो सालिमंजरी धित्तं / रक्खिजंतो विदढं,चोरुव्व झत्ति नासेइ॥१२॥ भणिओ सो नरवइणा, मंडियपासेहिं तं गहेऊणं। आणेह मज्झपासे, हणेह चोरुव्व तं दुट्ठ॥१३|| (आणेयव्वो पासे, मह सो चोरुव्व अइदुट्ठो। इति पाठान्तरम् ) अह अन्नदिणे कीरो, रायाएसेण तेण पुरिसेणं। पासनिबद्धो निजइ, सुईए पिच्छमाणीए।॥१४॥ पुट्ठविलग्गा धावइ, अंसुजला पुनलोयणा सुई। पत्ता दइएण सम, सुदुक्खिया रायभवणम्मि / / 15 / / अट्ठाणढिओ राया, विन्नतो तेण सालिपुरिसेणं / देवेसो सो सूओ,बद्धोचोरुव आणीओ||१६|| तंदळूणं राया, खग्गं गहिऊण जाव पहणेइ। ता सहसच्चिय सुई, नियपइणो अंतरे पडिया॥१७॥ पभणइ सूई पहणसु, निस्संको अज्ज मज्झ देहम्मि। मुंचसु सामिय ! एयं महजीवियदायगंजीवं / / 18 // तुह सालीए उवरिं,संजाओ देव ! डोहलो मज्झ। सो तणसरिसं काउं, नियजीवियं महविओयम्मि||१६|| हसिऊण भणइ राया, कीर! तुमपंडिओत्ति विक्खाओ। महिलाकजे जीवियं, जो चयसि वियक्खणोकहणु? // 20 // पभणइ सूई सामिय, ! अच्छउता जणणिजणयवित्ताई। नियजीवियं पिछड्डइ, पुरिसो महिलाणुराएण / / 21 / / तं नत्थि जं न कीरइ, वसणासत्तेहिं कामलुद्धेहिं। ता अच्छइ इयरजणो, हरेण देहट्ठयं दिन्नं / / 2 / / जह सिरिदेवीइकए, देव ! तुमंजीवियं पि छड्डेह। तह अन्नो विहुछड्डइ,को दोसो इत्थ कीरस्स // 23 // तीइ वयणेण राया, चिंतइ हियएण विम्हियं इंतो। कह एसा पक्खिणिया, वियाणए मज्झ वुत्तंतं // 24 // पभणइराया भद्दे! दिट्टतो कह कओ अहं तुमए। साहसुसव्वं एयं, अइगरुयं कोउयं मज्झ॥२५॥ पभणइ कीरी निसुणसु, दिद्रुतो इत्थ जह तुम जाओ। आसि पुरा तुह रखे, सामिय ! परिवाइगा एगा।॥२६॥ बहकूडकवडभरिया, भत्ता जा रुद्दखंददेवाणं। सा तुह भनाइ चिरं, सिरिया देविए उवयरिया // 27 // नरवइणो हं भज्जा, बहुभज्जो एस मज्झभत्तारो। कम्मवसेणं जाया,सब्वेसिंदुहवा अहयं / / 28|| ता तह कुणसु पसायं, भयवइ ! जह होमि वल्लहा पइणो। मह जीविएण जीवइ, मरइ मरतीइ किं बहुणा? ||26|| भणिया एसा वच्छे !, गिण्हहइ तुम ओसहीवलयं। तं देसु तस्स पाणे,जेण वसे होइ तुह भत्ता॥३०॥ भयवइ! भवणपवेसो, विनस्थि कह दंसणं समतेणं। कह ओसहीयवलयं, देमि अहं तस्स पाणम्मि!॥३१॥ जइ एवं ता भद्दे! गहिऊणं अज्ज मह सयासाओ। साहुसु एगग्गमणा, मंतंसोहग्गसंजणणं // 32 // भणिऊणसुहमुहुत्ते, दिन्नोपव्वाइयाइसोमंतो। पूअंकाऊण पुणो, तीए विपडिच्छिओ विहिणा॥३३॥ जा झायइ सा देवी, तं मंतं पइदिणं पयत्तेण / ता सहसा नरवइणा, पडिहारी पेसिया भणइ ||34|| आणवइ देवि! देवो,जह तुमए अज्ज वासभवणम्मि। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्खयपूया 136 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अक्खयपूया आगंतव्यमवस्स, कुवियप्पो नेव कायव्वो॥३५॥ रयणी-कयसिंगारा, समंतओ रायलोयपरियरिया। करिणीखंधारूढा, समागया रायभवणम्मि // 36|| नरवरकयसम्माणा,दोहग्गं देविसेसमहिलाणं। सोहागं गहिऊणं,संजाया सा महादेवी॥३७॥ भुंजइइच्छियसुक्खं, संतुट्टा देइ इच्छियंदाणं। रुट्ठा पुण सा जेसिं, ताणं च विणिग्गहं कुणइ // 38 // अह अन्नदिणे पुट्ठा, तीए परिवाइया इमा देवी। वच्छे ! तुह संपन्ना, मणोरहा इच्छिया जे उ॥३६॥ भयवइ ! तं नत्थि जए, तुह पयभत्ताण जं न संभवई। तह विहु भयवइ ! अज्ज वि, हिययं दोलायए मज्झ॥४०॥ जह जीवइ महजीवंतियाइ अहमरइ महमरंतीए। जा जाणिज्जइ नेहो, महउवरि नरवरिदस्स // 41 // जइ एवं ता मिण्हसु, नासं मह मूलियाय एयाए। जेण तुमं मयजीवा, लक्खीयसि जीवमाणा वि॥४२॥ बीयाइ मूलियाए, नासं दाऊण तुह करिस्सामि। देहं पुणन्नवं चिय, मा भीयसुमापासत्था॥४३॥ एवंति पणिऊणं, गहिउ देवीए मूलियावलयं ! सा वि असमप्पिऊणं, संपत्ता निययठाणम्मि॥४४॥ अहसा नरवइ पासे, सुत्ता गहिऊण ओसहीनासं। ता दिट्ठा निचिट्ठा, नरवइणा विगयजीवव्व / / 4 / / एत्तो आकंदरओ, उच्छलिओ ज्झत्ति राइणो भवणे। देवी मया मयत्ति य, धाहावइ नरवई लोओ॥४६॥ नरवइआएसेणं, मिलिया बहुमंतविजकुसला य। तह विय सा परिचत्ता, मइत्ति दळूण निचिट्ठा / / 47 / / भणिओ मंतीहिं निवो, किज्जउ एयाइ अग्गिसक्कारो। भणिया ते नरवडणा, मज्झवि किज्जउ सह इमाए॥४८|| चलणविलग्गो लोओ, पभणइ नहुदेव ! एरिसं जुत्तं / भणइ सुदुक्खं राओ, नेहस्सन दुन्नि मग्गाओ।।४६|| तामा कुणह विलंब, कलह लहु चंदणिंधणं पउरं। इय भणिऊणं राया, संचलिओ पिअयमासहिओ॥५०॥ वजिर तूररवेणं, रोविर नरनारिपउरनिवहेण। पूरितो गयणयलं, संपत्तो पेयठाणम्मि // 51 // जा विरइऊण चिअयं, राया आरुहइ पिअयमासहिओ। ता दूराउ रुयंति, पत्ता परिवाइया तत्थ ॥५२सा भणिओ तीए तुमयं, मा एवं देव! साहसं कुणसु। भणियं तुमए भयवइ !, महजीयं पिअयमासहियं // 53 // जइ एवं ता विसहसु, खणमेगं मा हु कायरो होसु। जीवावेमि अवस्सं,तुह दइअंलोअपचक्खं // 54|| तं वयणं सोऊणं, ऊससियं तस्स राइणो चित्तं / नहुजीवियस्स लाहे जह लाहे तीइ भजाए।५५|| भयवइ! कुणसु पसायं, जीवावसु मज्झ वल्लहंदइ। तीए विहु देवीए, दिन्नो संजीवणी नासो।।५६|| तस्स पभावेणं चिय, सा देवी सयललोयपचक्खं। उज्जीविया य समयं, नरवइणो जीवियासाए // 57 / / तं जीवियंति नाऊं, आणंदजलुल्ललोयणो लोओ। नच्चइ उब्भियबाहो, वञ्जिरबहुतूलनिवहेण / / 58|| सव्वंगाभरणेहिं, पाए परिवाइआइ पूएणं। पभणइ अज्जे ! अर्ज,जं मग्गसितं पणामेमि // 56 मणिओ तीए राया, सुपुरिस! मह नस्थि किं पि करणिझं। भिक्खागहणेण अहं, संतुट्ठा नयरमज्झम्मि॥६०॥ गयवरखंधारूढं, काऊणं निययपिययमा राया। संपत्तो नियभवणे, आणंदमहूसवं कुणइ // 61 / / फलिहमयभित्तघडिआ, कंचणसोवाणथंभनिम्मविया। काराविया निवेणं, मढिया अज्जाइ तुडेणं // 62 // पव्वइया सा नरवर !, मरिऊणं अट्टाझाण दोसेणं। संजाया सुहसूई, साहं पत्ता तुह सयासे॥६३|| दठूणं देव ! तुम,तुह पासपरिट्ठियं महादेविं। जायं जाईसरणं, संभरिअंतुह मए चरिअं॥६४|| सोऊण तीइ वयणं, रोवंती भणइ सा महादेवी। भयवइ ! कह मरिऊणं, संजाया पक्खिणी तुमयं // 65 / / मा झूएसि किसोयरि!, दुक्खित्ता अज्जमज्झजम्मेण / कम्मवसेणं जीवो, तं नत्थिह जंन पावेइ // 66 / / तेण तुमं दिलुतो, दिन्नो नरनाह! महिलिया विसए। सोऊण इमं राया, संतुट्ठो सूइगं भणए // 67 / / सच्चो दिद्रुतो हं, दिन्नो तुम एत्थ महिलिया विसए। ता तुट्ठो हं पभणसु, जं इ8 तं पणामेमि॥६८|| पभणइ सुई निसुणसु, महइट्ठो नाह! अत्तणो भत्ता। ता तस्स देसु जीवियं, नहु कनं किं पि अन्नेण // 66 // हसिऊण भणइ देवी, देव! तुम कुणसु मज्झवयणेण। एयाए पीईदाणं, भोयणदाणं च निचंपि॥७०।। भणिया सा नरवइणा, वचसु भद्दे !जहिच्छियं ठाणं / मुक्को य एस भत्ता, तुडेणं तुज्झ वयणेण // 7 // भणिओ य सालिवालो, एयाणं, तंदुलाण दाणं च / पइदियहं दायव्वं, रासिं काऊण खित्तंते // 72 / / जं आणवेइ देवो, इय भणिए भणइ कीरमिहुणं पि। एस पसाओ सामिय!, इय भणिउं झत्ति उड्डीणं // 73|| पुव्युत्ते चूअदुमे, गंतूणं पुन्नडोहलासूई।। नियनियडम्मि पसूया, निप्पन्न अंडयदुगंति // 74|| अह तम्मि चेव समये, तीए सवक्की वि निययनीडम्मि। तम्मिदुमम्मि पसूया, संपुन्नं अंडग एणं // 75 / / जा सा चूणि निमित्तं, विणिग्गया तं दुमं पमुत्तूणं। ता मच्छरेण पढमा, आणइ तं अंडगं तीए॥७६|| जा पच्छिमा न पिच्छइ, समागया तत्थ अत्तणो अंड। ता सफरिव्य विलोडइ,धरणियले दुक्खसंतत्ता // 77|| तं विलवंति य दलुं पच्छावायेण तवियहिययाए। पढमाए नेऊणं, पुणो वितत्थेव तं मुकं // 78|| धरणियले लुलिऊणं, अंबं आरुहइ जाव नीडम्मि। ता पिच्छइ तं इंड,सा कीरि य अमयसित्तव्य ||7|| बद्धं च तं निमित्तं, कम्मं पढमाएदारुणविवागं। पच्छायावेण हयं,धरिय चिय एगभवदुक्खं / / 80| तम्मिय अंडयजुयले, संजाया सूइगाय सुअगो अ। कीलंति वणनिगुंजे, समयंचिअजणणिजणगेहिं / / 81 // रइए तंदुलकूडे, नरवइवयणाउ सालिखित्तम्मि। चंचुपुडे गहिऊणं, बच्चइ तं कीरमिहणं ति॥५२॥ अह अन्नया कयाई, चारणसमणो समागओ नाणी। रिसहजिणेसरभवणे, वंदणहेउं जिणिंदस्स॥३॥ पुरनरनारिनरिंदो, देवं पुष्फक्खएहिं पूएउ। पुच्छइ नमिऊण मुणिं, अक्खयपूयाफलं राया // 4 // अखंडफुडियचोक्ख-क्खएहिं पुंजत्तयं जिणिंदस्स। Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्खयपूया 137 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अक्खयपूया पुरओ नरा कुणतो, पावंति अखंडियसुहाई।।८५!। इय गुरुवयणं सोउं, अक्खयपूआ समुच्छलं लोओ। दठूणं सा सूई,पभणइ निअअत्तणो कंत।।८६|| अम्हे विनाह! एवं, अक्खयपुंजत्तएण जिणनाह। पूएमो अचिरेणं, सिद्धिसुहं जेण पावेमो॥८७॥ एवं तीए भणिऊण चंचुपुडे खिविय चोक्खक्खएहिं। रइअंजिणिंदपुरओ, पुंजतिअंकीरमिहुणेण ||8|| भणिअं अवच्चजुअलं, जणणीजणएहिं जिणवरिंदस्स। पुरओ मुंचह अक्खे, पावह जेणक्खयं सुक्खं / / 6 / / इय पइदियह काउं, अक्खयपूअंजिणिंदभत्तीए। आउक्खए गयाई, चत्तारि वि देवलोगम्भि ||6|| भुत्तूण देवसुक्खं, सो सुअजीवो पुणो विचविऊण। संजाओ हेमपूरे,राया हेमप्पहो नाम ||1|| सो विय सूईजीवो, तत्तो चविऊण देवलोगाओ। हेमप्पहस्स भज्जा, जाया जयसुंदरी नाम // 12 // सा पच्छिमा वि सूई,संसारे हिंडिऊण सा जाया। हेमप्पहस्स रन्नो, रइनामा भारिया दुइया / / 63| अन्नाओ वि कमेणं, पंचसया जाव भारिया तस्स। जायाओ पुण इहा, पढमा ते भारिया दो वि // 14 // (संजाया पुण इट्ठा, पढमाओ भारिया दुन्नि) इति पाठान्तरम्। अह अन्नया नरिंदो, दूसहजरतावतावियसरीरो। चंदणजलुल्लिओ विहु, लोलइ भूमीइ अप्पाणं / / 65|| एवं असणविहूणो, चिट्ठइ जा तिन्नि सत्तए राया। ता मंततंतकुसला, विज्जा वि परं मुहा जाया // 66|| उग्धोसयई सत्ती, दिजंति य बहुविहाइँ दाणा'। जिणभवणेसु य पूआ, देवयआराहणाओ य॥६७।। रयणी य पच्छिमद्धे, पयडी होऊण रक्खसो भणइ। किं सुत्तो सि नरेसर, ! भणइ निवो कहं णु मह निद्दा / / 68|| ओआरणं करेउं,अप्पाणं जइ नरिंद! तुहभज्जा। पक्खिवइ अग्गिकुंडे, तो जीविअं अन्नहा नत्थि |6|| इअ भणिऊण नरिंद, विणिग्गओ रक्खसो नियट्ठाणं / राया विम्हियहियओ, चिंतइ किं इंदजालु त्ति / / 100 / / किं वा दुक्खत्तेणं, अज्ज मए एस सुविणगो दिहो। अहवा न होइ सुविणो, पचक्खो रक्खसो एसो॥१०१।। इत्तो विनयपसहिया, योलीणा जामिणी नरिंदस्स। उदयाचलम्मि चढिओ, सूरो विहुकमलिणीनाहो // 102 / / रयणीए वुत्तंतो, नरवइणा साहिओ सुमंतिस्स। तेण वि भणिउं किज्जउ, देव ! इमं जीवियकज्जम्मि // 103 / / परजीविएणं नियजीवियरक्खणं न हुकुणंति सप्पुरिसा। ता होउं मज्झ विहियं, इय भणिओ राइणा मंती // 104|| सदाविऊण सव्याउ,मंतिणा नरवइस्स भजाओ। कहिओ रक्खसभणिओ, वुत्तंतो ताण नीसेसो॥१०५|| सोऊण मंतिवयणं, सव्वाओ नियजीवियस्स लोहेण / ठाउं अहोमुहीओ, न दिति मंतिस्स पडिवयणं / / 106 / / पप्फुल्लवयणकमला, उद्देउ भणइरई महादेवी। मह जीविएण देवो, जइ जीवइ किं न पज्जत्तं / / 107 / / इय भणिए सो मंती, भवणगवक्खस्स हिट्ठभूमीए। काराविऊण कुंडं, आरोहइ अगरुकठेहिं / / 108 / / सा वि य कयसिंगारा, नमिऊणं भणइ अत्तणो कंत। सामिय ! मह जीविएणं, जीवसु निवडामि कुंडम्मि // 10 // भणइ सक्ख राया मज्झकएदेवि! चयसमा जीयं / अणुहवियव्यं च मए,सयमेवपुराकयं कम्म।।११। पभणइ चलणविलग्गा, सामिय ! मा भणसु एरिसं वयणं / जंजाइ तुज्झ कज्जे, तं सुलह जीवियं मज्झ॥१११।। ओआरणं करेउं, अप्पोणं साडबला विनरवइणो। भवणगवक्खे ठाउंजलिए कुंडम्मि पक्खिवई // 112|| अह सो रक्खसनाहो, तीसे सत्तेण तोसिओ सहसा। अप्पत्तं विय कुंडे, हुयासदूरं समुक्खिवई / / 113 / / भणिया रक्खसवइणा, तुह्रो हं अज्ज तुज्झ सत्तेण / मग्गसु जं हियइट्ठ, देमि वरं तुज्झ किं बहुणा ? ||114 // जणणिजणएहि दिन्नो, हेमपहो महवरो किमन्नेण? | मग्गसु तह विहुभद्दे !, देवाण न दंसणं विहलं // 11 // जइ एवं ता एसो, मह भत्ता देव ! तुह पसाएण। जीवउ वाहिविहीणो, चिरकालं होउ एस घरो।।११६।। एवं तिपभणिऊणं, दिव्वालंकारभूसियं काउं। कंचणपउमे मूत्तु, देवो हुअदंसणीहूओ।।११७।। जीव तुम भणइ जणो, सीसे पुप्फक्खए खिवेऊण। नियजीवियदाणेणं, जीए जीवाविओ भत्ता // 118|| तुट्ठो तुह सत्तेणं, वरसुवरं जंपिए पियं तुज्झ। भणिया पइणा पभणइ, देव ! वरो मह तुमं चेय॥११॥ जीवियमुल्लेण तुए, वसीकओ हंसया वि कमलच्छि!। ता अन्नं करणीयं, भणसु तुम भणइ सा हसिउं / / 120 // जइ एवं ता चिट्ठउ, एस वरो सामि! तुह सयासम्मि। अवसरवडियं एयं, पच्छिस्सं तुह सयासाओ।।१२१। अह अन्नया रईए, भणिया पुत्तस्थितीइ कुलदेवी। जयसुंदरिपुत्तेणं, देमि बलिं होउ मह पुत्तो।।१२२। भवियव्वयावसेणं, जाया दुण्हं पि ताण वरपुत्ता। बहुलक्खणसंपुन्ना, सुहजणया जणणिजणयाणं / / 123 / / तुट्ठा रई वि चिंतइ, दिन्नो कुलदेवयाइ मह पुत्तो। जयसुंदरिपुतेणं, कह कायव्या मए पूआ।।१२४॥ एवं चिंततीए, लद्धो पूयाइ साहुणो वाओ। नरवइवरेण रज्ज़, काऊण वसे करिस्सामि / / 125 / / इय चिंतिऊण तीए, अवसरपत्ताइ पभणिओ राया। जो पुट्विं पडिवन्नो, सो दिजउ मह वरो सामि!॥१२६।। मग्गसु जं हियइट्ठ, देमि वइंजीवियं पि किं बहुणा?| जइ एवं ता दिज्जह,मह रज पंचदियहाई॥१२७|| एवं त्ति पणिऊणं, दिन्नं तुह पिये! मए रज्ज। पडिवन्नं तं तीए, महापसाउत्ति काऊणं / / 128| पालइ सा तं रजं. पत्तो रयणीए पच्छिमे जामे / जयसुंदरीइ पुत्तं, आणावइ रोयमाणीए / / 126 / / तंण्हाविऊण बालं, चंदणपुप्फक्खएहिं पूएउं। पडलयउवरि काउं, ठावइ दासीइसीसम्मि।।१३०|| वचइ परियणसहिया, उजाणे देवयाइ भवणम्मि। वजिरतूर-रवेणं, नच्चिर नरनारिलोएण // 131 / / अह विजाहरवइणा, कंचणपुरसामिएण सूरेण। वचंतेण नहेणं, दिट्ठो सो दारगो तेण / / 132 / उज्जोयंतो गयणं, दिणयरतेउव्व निययतेएण। गहिऊण तेण अलक्खं, अन्नं मयबालगं मुत्तुं // 133|| भणिया सुता भञ्जा, जंघोवरिबालगं ठवेऊण। उहह लहुं किसोयरि!, पिच्छसु नियदारगं जायं / / 134 // Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्खयपूया 138 - अभिषानराजेन्द्रः - भाग 1 अक्खयपूया किं हससि तुमं सामिय! हसिया ह निग्धिणेण देवेण! किं कइया वि सुवल्लह ! वंझा पुत्तं चपसवेइ // 135|| पभणइ पहसियवयणो,जह मह वयणेण नत्थि सद्दहणं। ता पिच्छेहि सयं चिय, नियपुत्तं रयणरासिं व // 136 / / इय संसयहिययाए, परमत्थं साहिऊण सा भणिया। नियपुत्तविरहियाणं, अम्हाणं एस पुत्तो ति॥१३७|| पडिवजिऊण एयं, नीओ नयरम्मि सो य पइदियह। परिवड्डेइ कलाहिं, सियपक्खगओ मियंकु व्व / / 138|| सा वियरई मयबालं, सीसोवरि नामिऊण देवीए। आफालइ तं पुरओ, वत्थं वसियायले तुट्ठा॥१३६॥ गंतूणतओ भवणे, संपुन्नमणोरहा सुहं वसइ। जयसुंदरी वि दियहा, सुयविरहे दुक्खिया गमइ // 140 / / कयविजाहरनामो, मयणकुमारुत्ति गहियवरविज्जो। वचंतो गयणयले, पिच्छइ तं अत्तणो जणणिं / / 141 / / भवणगवक्खारूढा, सुयसोयझरंतनयणसलिलेहि। अइनेहनिब्भरेणं, उक्खित्ता मयणकुमरेण // 142 // तंदळूण कुमार, हरिसवसद्धं च नयणसलिलेन। सिंचंती अवलोयइ, पुणो पुणो निद्धदिट्ठीए॥१४३।। उज्झियबाहो लोओ, धाहावइ पुरवइए मज्झम्मि। एसा हरिजइ घरिणी, नरवइणो उच्चकंठेणं // 144|| अइसूरो विहुराया, पयचारी किं करेइ गयणत्थे। खुजउ किं कुणइफले, तरुसिहरपइट्ठिए दिट्ठ।।१४५।। चिंतइ मणम्मि राया, दुक्खं खयखारसन्निह जायं। एगं सुअस्स मरणं, बीअंपुण भारियाहरणं / / 146 / / एवं दुक्खियहियओ, चिट्ठइ राया नियम्मि नयरम्भि। अहवा घरिणीहरणे, भण कस्स न जायए दुक्खं ? // 147|| अवहिविसएण नाउं, पुत्तं तं सूइगाइ देवीए। मह भाया नियजणणी, घरिणीबुद्धिइ अवहरए // 148|| नियपुरपचासन्ने, सरवरपालीइचूयछायाए। जणणीसहिओकुमरो,जा चिट्ठइताव सादेवी।।१४६।। वानररूवं तह वानरीइ काऊण चूयसाहाए। पभणइ वानररूवी, कामुयतित्थं इमं भले ! // 15 // तिरिओ वि एत्थ पडिओ, तित्थपभावेण लहइ मणुअत्तं / मणुओ विहु देवत्तं, पावइ नत्थित्थ संदेहो।।१५१।। ता खुपेच्छसु दोन्नि विमणुसाइँ पचक्खदेवभूआईं। एआइँ मणे काउं, निवडामो इत्थ तित्थम्मि॥१५२।। जेण तुमं माणुसिआ, अम्हं पुण एरिसो मणुस्सुत्ति। होहामि त्ति पणिअं, को नाम गिण्हइ इमस्स // 153 / / जो निअजणणिं पि इहं, घरिणीबुद्धीइ नेइ हरिऊण। तस्स वि पावस्स तुम, सामियरूवम्मि अहिलासो।।१५४।। सोऊण वानरीए, तं वयणं दो वि विम्हअमणाई। चिंतंति कहं एसा, मह जणणी सा वि कह पुत्तो॥१५५।। नेहेणं हरिए विहु, एसा मह जणइजणणिबुद्धित्ति। सा वियचिंतइएसो,महपुत्तोउअरजाओ त्ति॥१५६।। पुच्छइ संसयहियओ, कुमरो तं वानरं पयत्तेणं। भद्दे ! किं सच्चमिणं, जं तुमए भासियं वयणं॥१५७।। तीए भणियं सचं, जइ अन्ज वि तुज्झ अत्थि संदेहो। ताएयम्मि निगुंजे, पुच्छसुवरनाणिणं साहुं॥१५८|| इय भणिऊणं सहसा, वानरजुअलं अदस्सणीहू। सो वि य विम्हयहियओ, पुच्छइ तं मुणिवरं गंतुं // 156 / / भयवं ! किं तं सचं, जं भणियं वानरीइ मह पुरओ। मुणिवइणा विहुभणिओ, सच्चंत होइन हुअलि॥१६०।। निचं चिट्ठामि ठिओ, कम्मक्खयकारणम्मि झायंतो। हेमपुरे सविसेसं, साहिस्सइ केवली तुज्झ।।१६१।। इय भणिओतं नमिउं, सहिओजणणीइ सो गओ गेहं। जणणिजणएहिं दिट्ठो, हरिसियहियएहि सो विमणो // 16 // एगते ठविऊणं,चलणवलग्गेण पुच्छिया जणणी। अम्मो ! साहेसु फुड, कह जणणी मज्झ को जणओ।।१६३॥ चिंतइ सासविइक्का, किं एसोअज्ज पुच्छए एयं। पभणइ पुत्तय ! अहय, तुह जणणी एस जणओ त्ति॥१६४॥ सचं अम्मो ! एयं, तह विहुपच्छामि जम्मदायारे। तं परमत्थं पुत्तय !, तुह जाणइ एस जणउ त्ति // 165 / / तेण विपरितुट्ठणं, कहिउंपडलाइवइयरो तस्स। तह पुण जणओ पुत्तयं, विन्नाओ किंचि नहु सम्म॥१६६॥ भणिओ कुमरेण पुणो, एसा जा ताय ! आणिया नारी। सा वानरीइ सिट्ठा, एसा तुह जम्मजणंणि ति॥१६७।। मुणिणा विहु पुट्ठणं, एयं चिय साहिऊण भणिओ हं। हेमपुरे गंतूणं, पुच्छसुतं केवलिं एयं॥१६८|| तोताय! तत्थ गंतं,पच्छामो केवलिं निरवसेसं। जेणेसो संदेहो, तुट्टइ मह जुन्नतंतुव्व // 166 / / इय भणिऊणं कुमरो, चलिओ सह निययजणणिजणएहिं। (इय भणिऊणं चलिओ, सहिओ सह जणणिजणयलोएहिं / इतिपाठान्तरम्) संपत्तो हेमपुरे, केवलिणो पायमूलम्मि॥१७०।। भत्तिभरनिन्भरंगो, केवलिणो पायपंकयं नमिउं। उवविट्ठोधरणियले, सपरियणो सुरकुमारु व्य॥१७१।। जयसुंदरी वि देवी, बहुनारिसहस्समज्झयारम्मि। नियपुत्तेण समेया, निसुणइ गुरुभासियं वयणं / / 172 / / हेभपभो वि य राया, नियपुरनरनारिलोयपरियरिओ। उवविट्ठो गुरुमूले, निसुणइ गुरुभासियं वयणं / / 173 / / पत्थावं लहिऊणं, नरनाहो भणइ केवलि नमिउं। भयवं ! सा मह भज्जा, जयसुंदरि केण अवहरिया॥१७४।। भणिओ सो केवलिणा, हरिया नरनाह ! निययपुत्तेण। विम्हियहियओ पभणइ, भयवं! कह तीइ पुत्तुत्ति // 175 / / जो आसि तीइ पुत्तो, सो बालो चेव हयकयंतेण। कवलीकओ महायस!, बीओ पुत्तो वि से नत्थि।।१७६|| अलियं न तुम्ह वयणं, बीओ पुत्तो वितिय से नत्थि। इय विहडियकजं पिव, संतावं संसओ कुणइ / / 177 / / भणइ मुणिंदो नरवर ! सचं मा कुणसु संसयं एत्थ। भयवं! कहसु कह चिय, अइगरुअंकोउअंमज्झ॥१७८।। कुलदेवयपूयाए, वुत्तंतो ताव तस्स परिकहिओ। जा वेयड्डपुराओ, समागओ तम्मि उज्जाणे // 176 / / विप्फारियनयणजुओ, जोयइ नरवई तमुज्जाणं। तो विहडियसंदेहो, कुमरो वि हुनमइ तं जणयं / / 180 // आलिंगिऊण पुत्तं, अंसुजलभरियलोयणो राया। रोयंतो बहुदुक्खं, दुक्खेण य बोहिओ गुरुणा॥१८१॥ (रोयंतो वि हुदुक्खं दुक्खेण विबोहिओ गुरुणा॥१८१|| इति पाठान्तरम्) Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्खयपूया 139 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अक्खर जयसुंदरी विपइणो, चलणे गहिऊण तीइ तह रुन्न। जह देवाण वि परिसा, बहुदुक्खसमाउला जाया // 182|| (जह देवाण वि दुक्खं, परिसा मज्झे समावन्नं ।।१८शा इत्यपि) पुट्ठो य रुयंतीए, भयवं ! मह केण? कम्मणा एसो। जाओ पुत्तविओगो, सोलसवरिसाण अइदुसहो॥१८३॥ सोलसमुहत्तगाइंसुइभवे जं सूइदुहे ठविया। अंडहरिऊण तए, सुअविरहो तेण तुह जाओ।।१८४।। जो दुक्खं व सुहं वा तिलतुसमित्तं पि देह अन्नस्स। सो बीअंव सुखित्ते, परलोए बहुफलं लहए॥१८५।। सोउं गुरुणो वयणं, गुरुपच्छायावतावियमणाए। जम्मंतरदुचरियं, खमाविया सा रई तीए॥१८६।। तीए वि उद्विऊणं, भणिया जयसुंदरी विनमिऊणं। खमसु तुम पि महासइ!,जंजणियं तुज्झ सुयदुक्खं / / 187 / / भणिया गुरुणा दुन्न वि, जं बद्धं मच्छरेण गुरु कम्म। तं अज्ज खामणाए, खवियं तुम्हेहिं नीसेसं // 18 // भणइ नरिदो भयवं, ! अन्नभवे किं कयं पुव्यं / जेण सह सुंदरीए, कुमरेण य पावियं रऊं।।१८६।। जह सुगजम्मम्मि तए, जिणपुरओ अक्खएहिं खिविऊण। संपत्त देवत्तं, रजंतह साहियं गुरुणा // 160|| जंजम्मंतरविहियं, अक्खयपुंजत्तयं जिणिंदस्स। तस्स फलं तुह अज्ज वि, तइयभवे सासयं ठाणं / / 161 / / इय भणिए सो राया, रज्जं दाऊण रइयपुत्तस्स। जयसुंदरिकुमरजुओ, पव्वइउंगुरुसमीवम्मि।।१९।। पव्वज पालेउ, सहिओ दइआइ तह य पुत्तेण। मरिऊण समुप्पन्नो, सत्तमकप्पम्मि सुरनाहो / / 163 / / तत्तो चुओ समाणो, लण स माणुसत्तणं परमं। पाविहिसि कम्ममुक्को, अक्खयसुक्खं गओ मुक्खं // 164 // जह राया तह जाया, कुमरो देवत्तणम्मि जा देवी। चत्तारि वि पत्ताई, अक्खयसुक्खम्मि मुक्खम्मि / / 165|| (इयं च कथा विजयचन्द्रचरित्राऽन्तर्गताऽस्ति) अक्खयायार-पुं०(अक्षताचार) 620 / स्थापितादिपरिहारिणि आचारवति साधौ, "आहाकम्मुद्देसिय, ठवियरइयकीयकारियं छेनं / उभिण्णाहडमाले, वणीमगाजीवणणिकाए / परिहरतिऽसणं, पाणं, सेजोवहिपूतिसंकियं मीसं।अक्खयमभिण्णममए, संकिलिट्ठ वासए जुत्तो"। एतानि (आधाकर्मादीनि) योऽशन-पानादिशय्योपधींश्च परिहरति / तथा पूर्ति सशंकितं मिश्रम् उप-लक्षणमेतत् अध्ययपूरकादिकं चयश्चावश्यके युक्तः सोऽक्षता-चारः / व्य०३ उ०। अक्खयायारया-स्त्री०(अक्षताचारता) परिपूर्णाऽऽचारतायाम् / व्य० ३उ०। अक्खयायारसंपण्ण-त्रि०(अक्षताचारसंपन्न) अक्षतेनाचारेण संपन्नः। अक्षताचारसंपन्ने। व्य०३ उ०! अक्खर-न०(अक्षर) न क्षरतीत्यक्षरं स्वभावात्कदाचिन्न प्र-च्यवत इतिकृत्वाऽक्षरम् परे तत्त्वे, "ज्योतिः परं परस्तात् तमसो यद्गीयते महामुनिभिः / आदित्यवर्णममलं, ब्रह्माद्यैरक्षरं परं ब्रह्म'। षो०१५ विव०ान क्षरति न विनश्यतीत्यक्षरम्। केवलज्ञाने, “सव्वजीवाणं पिय णं अक्खरस्स अणंतभागो णिच्चुग्घाडिओ" विशे०। क्षर संचलने, न क्षरतीति अक्षरम् / ज्ञाने, चेतनायाम्। नखल्विदमनुपयोगेऽपि प्रच्यवते ततोऽक्षरमिति, आ० म०प्र०। नक्खरइ अणुवओगे,वि अक्खरं सोयचेयणाभावो। अविसुद्धनयाणमयं,सुद्धनयाणऽक्खरंचेव। 'क्षर संचलने न क्षरति नचलत्यनुपयोगेऽपि न प्रच्यवत इत्य-क्षरः। स च चेतनाभावो जीवस्य ज्ञानपरिणाम इत्यर्थः / तथा च तन्मतानुसारिणो मीमांसका नित्यं शब्दमातिष्ठमानाः प्रतीता एव / बृ०१ उ०। एतच नैगमादीनामविशुद्धनयानां मतं, शुद्धानां तु ऋजुसूत्रादीनां ज्ञानं क्षरमेव, न त्वक्षरमिति। कुतः? इत्याहउवओगो चिय नाणं,सुद्धा इच्छंति जंन तद्विरहे। उप्पायभंगुरावा, जंतेसिं सव्वपज्जाया। यस्माच्छुद्धनया उपयोगएव सति ज्ञानमिच्छन्ति नानुपयोगे, घटादेरपि ज्ञानवत्त्वप्रसङ्गात्। अथवा यस्मात्तेषां शुद्धनयानां सर्वेऽपि मृदादिपर्याया घटादयो भावा उत्पादभमुरा उत्पत्तिमन्तो विनश्वराश्चेत्यर्थः / न पुनः केचिन्नित्यत्वादक्षरा इति भावः / अतो ज्ञानमप्युत्पादभगुरत्वेन क्षरमेवेति प्रकृतम् / अशुद्धनयानां तु सर्वभावानामप्यवस्थितत्याज्ज्ञानमप्यक्षरमिति। एवं तावदभिलापहेतोर्विज्ञानस्याक्षरतानक्षरता चोक्ता / / इदानीं साभिलापविज्ञानविषयभूतानामभिलाप्यार्थाना मप्यक्षराऽनक्षरते नयविभागेनाहअमिलप्पा विय अत्था, सव्वे दव्वट्ठयाए जं निचा। पज्जाएणानिचा, तेण खरा अक्खरा चेव।। अभिलप्या अप्य घटव्योमादयः सर्वेऽपि द्रव्यास्तिकन-याभिप्रायेण नित्यत्वादक्षराः, पर्यायास्तिकनयाभिप्रायेण त्व-नित्यत्वात् क्षरा एवेति (क्षरा घटादयोऽक्षरा धर्मास्तिकायादयः / बृ०१ उ०।) अथ परोऽतिव्याप्तिमुद्भावयन्नाहएवं सव्वं चिय नाणमक्खरं जमविसेसियं सुत्ते। अविसुद्धनयमएणं, को सुयनाणे मइविसेसो॥ यदि न क्षरतीत्यक्षरमुच्यते एवं सति सर्व पञ्चप्रकारमपि ज्ञानमविशुद्धनयमतेनाक्षरमेव / सर्वस्यापि ज्ञानस्य स्वरूपाविचलनाद्यतश्चाविशेषितं सूत्रेऽप्यभिहितमित्युपस्कारः। तद्यथा "सव्यजीवाणं पियणं अक्खरस्स अणंतभागो निघुग्घाडिओत्ति' तत्र ह्यक्षरशब्देनाविशेषितमेव ज्ञानमभिप्रेतं, न पुनः श्रुतज्ञानमेव अपरं च सर्वेऽपि भावा अविशुद्धनयाभिप्रायेणाक्षरा एव ततोऽत्र श्रुतज्ञाने को मतिविशेषो येनोच्यते 'अक्षरश्रुतमनक्षरश्रुतम्' इति। अत्रोत्तरमाहजइवि हु सव्वं चिय नाणमक्खरं तह वि रूढिओ वन्नो। भण्णइ अक्खरमिहरा, नखरइ सव्वं सभावाओ / / यद्यप्यविशुद्धनयाभिप्रायेण सर्वमपि ज्ञानमक्षरं तथा सर्वेऽपिभावा अक्षरास्तथापि रूदिवशाद्वर्णा एवेहाक्षरं भण्यते, इतरथा तु यथा त्वं भणसि तथैवाशुद्धनयमतेन सर्वमपि वस्तुस्वभावात् न क्षरत्येवेति / इदमुक्तं भवति- यथा गच्छतीति गौः, पङ्के जातं पङ्कजम्, इत्याद्यविशिष्टार्थप्रतिपादका अपि शब्दा रूदिवशाद्विशेषा एव वर्तन्ते, तथाऽत्राप्यक्षरशब्दो वर्ण एव वर्त्तते / वर्ण च श्रुतमे वेत्यतस्तदेवाक्षरानक्षररूपमुच्यत इति। विशे० नं०। Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्खर 140 - अभिधानराजेन्द्रः-भाग 1 अक्खर अत्थे य खरइ न य जेणऽक्खरं तेणं / अर्थानभिधेयान् क्षरति संशब्दयतीति निरुक्तिविधिनार्थकारलोपादक्षरम् / अथवा क्षीयत इति क्षरम् / अन्योन्यवर्णसंयोगे अनन्तानर्थान् प्रतिपादयति, न च स्वयं क्षीयते तेनाक्षरमिति भावः / वर्णे, स च स्वरव्यञ्जनभेदेन द्विधा भवति / विशे० / तत्र रूढिवशादक्षरं वर्ण इत्युक्तम् / __ तच त्रिविधं भवतीति दर्शयतिसे किं तं अक्खरसुयं 2 तिविहं पन्नत्तं / तं जहा सन्नक्खरं वंजणक्खरं लद्धिक्खरं / से किं तं सन्नक्खरं ? सन्नक्खरं अक्खरस्स संठाणागिई। से तं सन्नक्खरं / से किं तं वंजणक्खरं ? वंजणक्खरं अक्खरस्स वंजणाऽभिलावो से तं वंजणक्खरं / से किं तं लद्धिअक्खरं ? लद्धिअक्खरं अक्खरलद्धियस्स लद्धिअक्खरं समुप्पजइ / तं जहा सोइंदियलद्धिक्खरं चक्खिं दियलद्धिक्खरं घाणिं दियलद्धिक्खरं रसणिं दियलद्धिक्खरं फासिंदियलद्धिक्खरं नोइंदियलद्धिक्खरं / से तं लद्धिअक्खरं / से तं अक्खरसुयं / (से किं तमित्यादि) अथ किं तदक्षरश्रुतं ? सूरिराह-अक्षरश्रुतं त्रिविधं प्रज्ञाप्तं तद्यथा संज्ञाक्षरं व्यञ्जनाक्षरं लब्ध्यक्षरम्। तत्र "क्षर संचलने'न क्षरति न चलतीत्यक्षरं ज्ञानम् / तद्धि जीवस्वा-भाव्यादनुपयोगेऽपि तत्त्वतो न प्रच्यवते / यद्यपि च सर्व-ज्ञानामेवमविशेषेणाक्षरं प्राप्नोति तथापीह श्रुतज्ञानस्य प्रस्ता-वादक्षरं श्रुतज्ञानमेव द्रष्टव्यं न शेषमित्थंभूतभावाक्षरकारणंचाकारादिवर्णजातम्, ततस्तदप्युपचारादक्षरमुच्यते, ततश्चाऽक्षरं च तच्छुतं च श्रुतज्ञानं चाक्षरश्रुतं भावश्रुतमित्यर्थः। तच लब्ध्यक्षरश्रुतं वेदितव्यम् / तथा अक्षरात्मकमकारादिवर्णात्मकं श्रुतमक्षरश्रुतं द्रव्यश्रुतमित्यर्थः / तच्च संज्ञाक्षरं व्यञ्जनाक्षरं च द्रष्टव्यम् / अथ किं तत् संज्ञाक्षरम् ? अक्षरस्याकारादेः संस्थानाकृतिः संस्थानाकारः / तथाहिसंज्ञायतेऽनयेति संज्ञा नाम तन्निबन्धनं तत्कारणमक्षरं संज्ञाक्षरम्। संज्ञा च निबन्धनमाकृतिविशेषः / आकृतिविशेष एव नाम्नः करणात् व्यवहरणाय / ततोऽक्षरस्य पट्टिकादौ संस्थापितस्य संस्थानाकृतिः संज्ञाक्षरमुच्यते / तब ब्राम्या दिलिपिभेदतो-ऽनेकप्रकारम् / तत्र नागरीलिपिमधिकृत्य प्रदर्श्यते, मध्यस्था-पितचुल्ली सन्निवेशसदृशो रेखासन्निवेशविशेषेणेकारः / वक्रीभूतश्च सारमेयपुच्छसन्निवेशसदृशो ढकार इत्यादि तदेतत्संज्ञाक्षरम् / अथ किं तद् व्यञ्जनाक्षरम्। आचार्य आहव्यञ्जनाक्षरमक्षरस्य व्यञ्जनाभिलापः। तथाहि- व्यज्यतेऽनेनार्थः प्रदीपेन घट इव व्यञ्जनभाव्यकारमकारादिकवर्णजातं तस्य विवक्षितार्थाभिव्यञ्ज-कत्वात्। व्यञ्जनं च तदक्षरं च व्यञ्जनाक्षरं ततो युक्तमुक्तंव्यञ्जनाक्षरमक्षरस्य व्यञ्जनाभिलापः। अक्षरस्याकारादेवर्णजातस्य व्यञ्जने / अत्र भावे अनद / व्यञ्जकत्वेनाभिलाप उधारणमर्थव्यञ्जकत्वेनोचार्यमाणमकारादिवर्णजातमित्यर्थः। (से किं तमित्यादि) अथकिं तत् लब्ध्यक्षरम् ? लब्धिरुपयोगः, सचेह प्रस्तावात् शब्दार्थपर्यालोचनानुसारी गृह्यते, लब्धिरूपमक्षरं लब्ध्यक्षरं भावश्रुतमित्यर्थः / (अक्खरलद्धियस्सेत्यादि) अक्षरेऽक्षरस्योचारणेऽवगमे वा लब्धिर्यस्य सोऽक्षरलब्धिक-स्तस्याकाराद्यक्षरानुविद्धश्रुतलब्धिसमन्वितस्येत्यर्थः / लब्ध्यक्षरं भाव श्रुतं समुत्पद्यते, शब्दादिग्रहणसमनन्तरमिन्द्रियमनोनिमित्तं शब्दार्थ-पर्यालोचनानुसारि 'शङ्कोऽयम्' इत्याद्यक्षरानुविद्धं विज्ञानमुप-जायत इत्यर्थः / नन्विदं लब्ध्यक्षरं संज्ञिनामेव पुरुषादीनामुपपद्यते नासंशिनामे के न्द्रियादीनां तेषामकारादिवर्णानामवगमे उच्चारणे वा लव्ध्यसंभवात् / न हि तेषां परोपदेशे श्रवणं संभवति येनाकारादिवर्णानामवगमादि भवेत् / अथ चैकेन्द्रियादीनामपि भावश्रुतमिष्यते / तथाहि-पार्थिवादीनामपि भावश्रुतमुपवर्ण्यते 'दव्वसुयाभावम्मि वि, भावसुयं पत्थिवाईणं" इति वचनप्रामाण्यात् / भावश्रुतं च शब्दार्थपर्यालोचनानुसारिविज्ञानं शब्दार्थपर्यालोचनं चाक्षरमन्तरेण न भवतीति सत्यमेतत् / किं यद्यपि तेषामे के न्द्रियादीनां परोपदेशश्रवणासंभवस्तथापि तेषां तथाविधक्षयोपशमाभावतः कश्चिदव्यक्तोऽक्षरलाभो भवति यद्वशादक्षरानुषक्तं श्रुतज्ञानमुपजायते। इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यम्। तथाहितेषामप्याहाराघभिलाष उपजायते, अभिलाषश्च प्रार्थना, सा च यदीदमहं प्राप्नोमि, ततो भव्यं भवतीत्याद्यक्षरानुविद्धव, ततस्तेषामपि काचिदव्यक्ताक्षरलब्धिरवश्यं प्रतिपत्तव्या तत-स्तेषामपि लब्ध्यक्षरं भवतीति न कश्चिद्दोषः / तच लब्ध्यक्षरं षोढा / तद्यथा (श्रोत्रेन्द्रियलब्ध्यक्षरमित्यादि,) इह यत् श्रोत्रे-न्द्रियेण शब्दश्रवणे सतिशमोऽयमित्याद्यक्षरानुविद्धं शब्दार्थपर्यालोचनानुसारि विज्ञानं, तत् श्रोत्रेन्द्रियलब्ध्यक्षरं, तस्य श्रोत्रेन्द्रियनिमित्तत्यात् / यत्पुनश्चक्षुषा आम्फलाद्युपलभ्याम् -फलमित्याद्यक्षरानुविद्धं शब्दार्थपर्यालोचनात्मक विज्ञानं त-चक्षुरिन्द्रियलब्ध्यक्षरमेव / एवमेव शेषेन्द्रियलब्ध्यक्षरमपि भावनीयम् (से तमित्यादि) तदेतत् लब्ध्यक्षरं तदेतदक्षरश्रुतम्। नं०। बृ० कल्प०। आ० चू० / विशे०। अत्थाभिवंजगं वंजणक्खरं इच्छितेतरं वदतो। रूवं च पगासेणं, विज्जति अत्थो जओ तेणं / / इहयद्विवक्षितं तदेव यदि वदति यथा अश्वंभणिष्यामीति तदेवं ब्रूते तदा तदीप्सितमन्यद्विवक्षिताऽन्यचेदुच्चरति, तदा तदितरादनीप्सितमीप्सितमितरं वा वदतो यदर्थाभिव्यञ्जकमभिधानं तद् व्यञ्जनाक्षरम् / अथ कस्मायञ्जनाक्षरमुच्यतेनाभिधानाक्षरमत आहरूपमिव घटादिकमिव प्रकाशेन दीपादिना तमसि वर्तमानम् अर्थो घटादिर्यतो यस्माद्यज्यते प्रकटीक्रियते तेन कारणेन व्यञ्जनाक्षरमित्युच्यते। तं पुण जहत्थनियतं, अजहत्थं वा वि वंजणं दुविहं। एगमणेगपरिययं, एमेव य अक्खरेसुं पि॥ तत् पुनर्व्यञ्जनं द्विविधम् यथार्थनियतमयथार्थ च / यथार्थनियतं नामान्वर्थयुक्तंयथा क्षपयतीति क्षपणः, तपतीतितपन इत्यादि। अयथार्थ यथा-नेन्द्रं गोपयति तथापीन्द्रगोपकः।नपलमश्नाति तथापि पलाश इत्यादि / अथवा तद् व्यञ्जनं द्विधा एक-पर्यायमनेकपर्यायं च / एकः पर्यायोऽभिधेयो यस्य तदेकपर्यायम् / यथा अलोकःस्थण्डिलमित्यादि। अलोक शब्देन ह्यलोकत्वलक्षण एक एव पर्यायोऽभिधीयते / स्थण्डिलशब्देन स्थण्डिलत्यमेकमिति। अनेके पर्याया अभिधेया यस्य तदनेकपर्यायम्।यथा जीव इतिजीवशब्देन हिजीवोऽप्युच्यते सत्त्वोऽपि प्राण्यपि भूतोऽपि च / जीवादयश्च प्रतिनियतविशेषाः / तथा चोक्तम् / "प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ता, भूताश्च तरवः स्मृताः। जीवाः पञ्चेन्द्रिया ज्ञेयाः, शेषाः सत्त्वा उदीरिताः"||१|| Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्खर 141 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अक्खर ततो भवति सामान्येन जीवशब्दस्यानेकपर्यायाभिधायकत्व- ये अकारस्य पर्यायाः स्वपर्यायास्ते तत्रास्तित्वेन संबद्धा भवन्ति, मिति / एवमेव एकानेकभेदेनाक्षरेष्वपि द्रष्टव्यम् / तद्यथा- द्विविधं नास्तित्वेन पुनस्त एव सर्वेऽप्यसंबद्धाः, तत्र तेषां नास्ति-त्वाभावात् / व्यञ्जनमेकाक्षरमनेकाक्षरं च / एकाक्षरं धीः श्रीरित्यादि / अनेकाक्षर एमेव असंता विउ, नत्थित्तेणं तु होंति संबद्धा। वीणा लता माला इत्यादि। ते चेव असंबद्धा, अत्थित्तेणं अभावत्ता।। सक्कयपाययभासा-विणिजुत्तं देसतो अणेगविहं। एवमेव अनेनैव प्रकारेणासन्तः परपर्याया, अपि नास्तित्वेन भवन्ति अभिहाणं अमिधेया-तो होइ मिन्नं अमिन्नं च // संबद्धाः / ते चैवं परपर्याया अस्तित्वेनासंबद्धाः, तेषामस्तित्वस्य अथवा द्विप्रकार संस्कृतं प्राकृतभाषाविनियुक्तंच, यथा-वृक्षः रुक्खो तत्राभावत्वात्। इति / देशतो नानादेशानाश्रित्य अनेकविधम् , यथा मागधानामोदनो अत्रैव निदर्शनमाह - लाटानां कूरो द्रमिलानां चौरोऽन्ध्राणामिडा-कुरिति, तथा तदभिधानं घडसद्दे घडकारा, हवंति संबद्धपज्जया एते। व्यञ्जनाक्षरमभिधेयात् भिन्नमभिन्नं च / तत्र भिन्नं प्रतीतं ते चेव असंबद्धा, हवंति रहसद्दमाईसु // तादात्म्याभावात्। घटशब्दे ये घकारटकाराकारास्तेषां ये पर्यायास्ते एते भवन्ति / तमेव तादात्म्याभावमाह - तत्रास्तित्वेन संबद्धास्तेषां तत्र विद्यमानत्वात्, त एव धकारखुरअग्गिमोयगुचा-रणम्मि जम्हा उवयणसवणाणं। टकाराकारपर्यायाः रथशब्दादिषु भवन्ति अस्तित्वेनासंबद्धाः, तेषां न वि छेओ न वि दाहो, न वि पूरणं तेण मिन्नं तु // तत्राभावात् / तदेवमस्तित्वेन स्वपर्यायास्तत्र संबद्धा अयस्मात् क्षुरशब्दोचारणे अग्निशब्दोचारणे मोदकशब्दोचारणेच यथाक्रम न्यत्र चासंबद्धा उपदर्शिताः / एतदुपदर्शनेनैतदर्थादापन्नम् / ते वदतो वदनस्य शृण्वतः श्रवणस्य न छेदो नापि दाहो स्वपर्यायास्तत्रनास्तित्वेनासंबद्धा अन्यत्रतुसंबद्धाः। तथा ये रथशब्दस्य नापि पूरणमतो ज्ञायतेऽभिधेयादभिधानं भिन्नम्, अन्यथा स्वपर्यायास्ते तत्रास्तित्वेन संबद्धास्तेषां तत्र विद्यमानत्वात् , घटशब्दे तादात्म्यबन्धनात् क्षुरादयोऽपि तत्र सन्तीति वदनस्य श्रवणस्य च न संबद्धास्तेषां तत्रासत्त्वात्। त एव च रथशब्दे नास्तित्वेनासंबद्धाः, छेदादिप्रसङ्गः। अभिन्नत्वं नाम संबद्धत्वम्। तथा चलोकेऽप्य-भिन्नशब्दः घटशब्दे तु संबद्धा इति। तदेवं स्वपर्यायाः परपर्यायाश्च प्रत्येकं संबद्धा संबद्धवाची व्यवहियते यथाऽयमस्माकं खादन-पानेनाभिन्नः संबद्ध असंबद्धाश्च निदर्शिताः। इत्यर्थः। अधुना स्वपर्यायान् दर्शयतिततस्तदेव संबद्धत्वं भावयति संजुत्तासंजुत्तं, इय लभते जेसु जेसु अत्थेसु / जम्हा उ मोयगे अभि-हियम्मि तत्थेव पचओ होई। विणिओगमक्खरं तेसिं होंति समावपजाया / / नय होइ सो अण्णत्ते, तेण अभिन्नं तदत्थातो।। इत्येवं घटशब्दरथशब्दादिगतेन प्रकारेण संयुक्तमसंयुक्तं वायस्मान्मोदके अभिहिते तत्रैव मोदके प्रत्ययो भवति नान्यत्र, न च स / ऽक्षरमकारादिकं येषु येष्वर्थेषु विनियोगलभते ते तेषां स्व-भावपर्यायाः नियमेन तत्र प्रत्ययोऽन्यत्वेऽसंबद्धत्वे सति भवति, संब-द्धाभावतो स्वपर्याया भवन्ति / अर्थादिदमायातम्-अपरे परपर्याया इति / नियामकाभावेनान्यत्रापि तत्प्रत्ययप्रसक्तेः, तेन कारणेन ज्ञायते तदेवमभिहितं व्यञ्जनाक्षरम्। तदभिधानाचाऽभिहितं त्रिविधमप्यक्षरम् / तदभिधानमर्थादभिन्नमर्थेन सह वाच्यवाचकभावसंबद्धम्। बृ०१०। एकेक्कमक्खरस्स उ, सप्पजाया हवंति इयरे य। लब्ध्यक्षरमाहसंबद्धमसंबद्धा, एक्केक्का ते मवे दुविहा॥ जो अक्खरोवलंमो, सा लद्धी तं च होइ विण्णाणं। व्यञ्जनस्य यान्यक्षराणि तस्याक्षरस्यैकैकस्य द्विविधाः पर्यायाः इंदियमणोनिमित्तं, जो आवरणक्खओवसमो॥ स्वपर्याया इतरे च परपर्यायाश्च / तत्र वर्णस्त्रिधाहस्वो दीर्घः प्लुतश्च / पुनरे कै कस्त्रिधा-उदात्तोऽनुदात्तः स्वरितश्च / पुनरे कै कोद्विधा योऽक्षरस्योपलम्भो लाभः, सा लम्भनं लब्धिः तल्लब्ध्यसानुनासिको निरनुनासिकश्च / एवमष्टादशप्रकारोऽवर्णः / उक्तं च क्षरमित्यर्थः / तच किमित्याह-इन्द्रियमनोनिमित्तं श्रुतग्रन्थानुसारि "हस्वदीर्घप्लुतत्वाच, त्रैस्वोपनयेन च / अनुनासिकभेदाच, विज्ञानं श्रुतज्ञानोपयोग इत्यर्थः / यश्च तज्ज्ञानोपयोगो यश्च संख्यातोऽष्टादशात्मकः"||१|| एते अवर्णस्य त्रयः पर्यायाः, तथा ये तदावरणकर्मक्षयोपशमः, एतौ द्वावपि लब्ध्यक्षरमिति भावार्थः / उक्तं एकैकाक्षरसंयोगतोऽक्षरसंयोगत एवं यावन्तो घटन्ते संयोगास्ता त्रिविधमक्षरम् / वत्संयोगवशतो येऽवस्थाविशेषा ये च तत्तदर्थाभिधायकत्व अथात्र किं द्रव्यश्रुतं किं वा भावश्रुतमित्याहस्वभावास्तेऽपि तस्य स्वपर्यायाः, इतरे तत्रासन्तः परपर्यायाः। दव्वसुयं सण्णावंजणक्खरं भावसुत्तमियरं तु / एवमिवर्णादीनामपि स्वपर्यायाः परपर्याश्च वक्तव्याः / येऽपि मइसुयविसेसणम्मि वि, मोत्तूणं दव्वसुत्तं ति।। परपर्यायास्तेऽपि तस्येति व्यपदिश्यन्ते / व्यवच्छे द्यतया तेषां संज्ञाक्षरं व्यञ्जनाक्षरं चैते द्वे अपि भावश्रुतकारणत्वात् द्रव्यश्रुतम्, तद्विशेषकत्वात्, यथाऽयं मे पर इति / ते च स्वपर्यायाः, परपर्यायाश्च इतरत्तु लब्ध्यक्षरं भावश्रुतम् / अत्र विनेयः प्राह- ननु पूर्व एकैके द्विविधा भवन्ति / तद्यथा-संबद्धा असंबद्धाश्च / मतिश्रुतभेदविचारे येयं गाथा प्रोक्ता "सोइंदिओवलद्धी, एतदेव भावयति होइ सुयं, सेसयं तु मइनाणं / मोत्तूणं दव्वसुयं, अक्खरलंभो अत्थित्ते संबद्धा, हुंति अकारस्स पञ्जया जे उ। य सेसेसु त्ति'। अस्यां किमस्य त्रिविधस्याक्षरस्य संग्रहोऽस्ति? ते चेव असंबद्धा, नत्थित्तेणं तु सव्वे वि॥ श्रुतविचारस्य तत्रापि प्रस्तुतत्वात् , यद्यस्ति तर्हि दर्शातां कथ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्खर 142 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अक्खर मसौ ? अथ नास्ति तमुत्रापि किमनेनाप्रस्तुतेन इति / सूरिः पूर्वापरग्रन्थसंवादं दिदर्शयिषुस्तत्राप्यस्याक्षरत्रयस्य संग्रह-मुपदर्शयति(मइसुयेत्यादि) मतिश्रुतविशेषणेऽपि मतिश्रुत-भेदविचारेऽपि "सोइंदिओवलद्धी' इत्यादिगाथायां "मोत्तूणं दव्वसुयं'' इत्यनेन गाथावयवेन किमित्याहदव्वसुयं सण्णक्खर-मक्खरलंभोत्ति भावसुयसुत्तं / सोओवलद्धिवयणे, ण वंजणं भावसुत्तं च // संज्ञाक्षरमुक्तम् , कथंभूतमित्याह- द्रव्यश्रुतं भावकारणत्वात् द्रव्यश्रुतरूपम् "अक्खरलंभो य सेसेसु त्ति" अनेन त्ववयवेन लब्ध्यक्षरमुक्तमिति शेषः / कथंभूतमित्याह- भावश्रुतं विज्ञानात्मकत्वात् भावश्रुतरूपं "सोइंदिओवलद्धी होइ सुयं" इत्यनेन त्ववयवेन श्रोत्रेन्द्रियेणोपलब्धिर्यस्य शब्दस्येति बहुब्रीहिसमासाश्रयणात् , व्यञ्जनं व्यञ्जनाक्षरमुक्तम् / श्रोत्रेन्द्रियस्योपलब्धिर्विज्ञानमिति षष्ठीसमासाङ्गीकरणेन तु पुनरपि लब्ध्यक्षरं भावश्रुतरूपमभिहितमित्येवं न पूर्वापरविसंवादः। ननु लब्ध्यक्षरं कथं प्रमाता लभत इत्याहपचक्खमिंदियमणेहि लब्भइ लिंगेण वक्खरं कोई। लिंगमणुमाणमण्णे, सारिक्खाई पभासंति॥ तच्चाक्षरंलब्ध्यक्षरं कश्चित्प्रत्यक्षलभते प्रत्यक्षरूपतयैव कस्यचिदुत्पद्यत इत्यर्थः। काभ्यां कृत्वा इत्याह-इन्द्रियमनो-भ्याम्, इन्द्रियमनोनिमित्तं यद् व्यवहारप्रत्यक्षं तत्र कस्यचित् लब्ध्यक्षरं श्रुतज्ञानरूपमुपजायत इत्यर्थः / अन्यत्तु लिङ्गेन धूमा-दिना तदुत्पद्यते, धूमादिलिङ्गं दृष्ट्वा अग्न्यादिज्ञानरूपं तत्क-स्यचिदुपजायत इत्यर्थः / लिङ्ग किमुच्यते इत्याह-अनुमानमिति / ननु लिङ्ग ग्रहणं संबन्धस्मरणाभ्यामनु पश्चान्मानमनुमानं लिङ्गजंज्ञानमुच्यते। कथं लिङ्गमेवानुमानमिति चेत् ? सत्यम्, किंतु कारणे कार्योपचारादप्यनुमानम्, यथा प्रत्यक्षज्ञानजनको घटोऽपि प्रत्यक्ष इति / तदिह तात्पर्य्यम् लब्ध्यक्षरं श्रुतज्ञानमुच्यते। तयेन्द्रियमनोनिमित्तं प्रत्यक्ष वा स्यादनुमानं वा स्यादन्यत् , शेषस्यात्मप्रत्यक्षस्यावध्यादिरूपत्वादिति भावः / सादृश्यादिभ्यो जायमानत्वात्तदनुमान पञ्चविधमिति केचित्प्रभाषन्ते / विशे०। सामनविसेसेण य, दुविहा लद्धी पढमा अभेया य। तिविहाय अणुवलद्धी, उवलद्धी पंचहा बिइया।। लब्धिलब्ध्यक्षरं द्विविधं द्विप्रकारम्। तद्यथा-सामान्येन विशेषण च। सामान्यलब्ध्यक्षरं विशेषलब्ध्यक्षरं चेति भावः / तत्र प्राथमिकी सामान्योपलब्धिः / सामान्योपलब्ध्यक्षरमभेदसामान्ये भेदाभावात्। इहोपलब्धिरनुपलब्ध्यपेक्षातस्तस्या अपि प्ररूपणा कर्त्तव्येत्यत आह-त्रिविधा त्रिप्रकारा अनुपलब्धिर्या पुनर्द्वितीया विशेषोपलब्धिर्विशेषोपलब्ध्यक्षरं, सा पञ्चधा पञ्चप्रकारा / बृ१उ०। सांप्रतमक्षरश्रुताधिकारादेव, यदुक्तं सूत्रे "अक्खरलद्धिअस्स लद्धिअक्खरं समुपज्जइ" इति तत्र प्रेर्यमुत्थापयन्नाह - अक्खरलंभो सण्णीण होज पुरिसाइवण्णविण्णाणं / / कत्तो उ असण्णीणं, भणियं च सुयम्मि तेसिं पि // पुरुषस्त्रीनपुंसकघटपटादिवर्णविज्ञानरूपोऽक्षरलाभः संज्ञिनां समनस्कजीवानां भवेत् श्रधामहे / एतदसंज्ञिनां चामनस्कानां कुत एतद्वर्णविज्ञानं भवति ? न कुतश्चिदित्यर्थः / अक्षरलाभस्य परोप- | देशजत्वान्मनोविकलानां तु तदसंभवात् , माभूत् तेषां तर्हि तदित्याहभणितं च वर्णविज्ञानं श्रुतं तेषामप्येकेन्द्रियाद्यसंज्ञिनाम् "एगिदिया णं मइअन्नाणी सुयअन्नाणी य" इत्यादि वचनात्, न हि श्रुतज्ञानमक्षरमन्तरेण संभवति, तदेतत्कथं श्रद्धातव्यमिति ? अत्रोत्तरमाह - जह चेयणमकित्तिम-मसण्णीण तह होहि नाणं पि। थोव त्ति नोवलब्मइ, जीवत्तमिव इंदियाईणं // यथा चैतन्यं जीवत्वमकृत्रिमस्वभावमाहारादिसंज्ञाद्वारेणाऽसंज्ञिनामवगम्यते, तथा लब्ध्यक्षरात्मकसमूहज्ञानमपि तेषामवगन्तव्यम् , स्तोकत्वात् स्थूलदर्शिभिस्तन्नोपलक्ष्यते, जीव-त्वमिव पृथिव्याये के न्द्रियाणाम् / एकशब्दस्य चेह लोप: भामा सत्यभामेत्यादिदर्शनादिति।यदपिपरोपदेशजत्वमक्षर-स्योच्यते तदपि संज्ञाव्यञ्जनाक्षरयोरेवावसेयम् / लब्ध्यक्षरं तु क्षयोपशमेन्द्रियादिनिमित्तमसंज्ञिनां न विरुध्यते, तदेव च मुख्य-तयेह प्रस्तुतम् / तत्तु संज्ञाव्यञ्जनाक्षरे श्रुतज्ञानाधिकारादिति / दृष्टन्तान्तरमाह - जह वा सण्णीणमणक्खराणं असइ नरवण्णविण्णाणे। लद्धक्खरं ति भण्णइ, किमपि त्ति तहा असण्णीणं / / यथा संझिनामपि परोपदेशाभावे नवाक्षराणां केषांचिदतीव मुग्धप्रकृतीनां पुलिन्दबालगोपालगवादीनामसत्यपि नकारादिवर्णविशेषविज्ञाने लब्ध्यक्षरं किमपीक्ष्यते नरादिवर्णोचारणे तच्छ्रवणादभिमुखनिरीक्षणदर्शनाच / गौरपि हि सबलाबहुलादिशब्देनाकारिता सती स्वनाम जानीते प्रवृत्तिनिवृत्त्यादि च कुर्वती दृश्यते, न चैषां गवादीनां तथाविधपरोपदेशः समस्ति / अथवास्ति लब्ध्यक्षरं नरादिविज्ञानसद्भावात् / एवमसंज्ञिनामपि किमपि तदेष्टव्यमिति। तदेवं साधितमेकेन्द्रियादीनामपि यत्र यावच्च लब्ध्य क्षरम् / अथैकैकस्याकारद्यक्षरस्य यावन्तःपर्याया भवन्ति तदेतद्विशेषतो दर्शयतिएक्कक्कमक्खरं पुण, सपरपज्जायभेयओ भिन्नं / तं सव्वदव्वपजायरासिमाणं मुणेयव्वं / / इह भिन्नं पृथगेकैकमपि तदकाराद्यक्षरं पुनः स्वपर्यायभेदतः सर्वाणि यानि द्रव्याणि तत्पर्यायराशिमानं ज्ञातव्यम् / इदमुक्तं भवति- इह समस्तत्रिभुवनवर्तीनियानि परमाणुव्यणुकादीन्येकाकाशप्रदेशा-दीनि च यानि द्रव्याणि ये च सर्वेऽपि वर्णास्तदभिधेयाश्चास्तेिषां सर्वेषामपि पिण्डतो यः पर्यायराशिर्भवति, स एकै कस्याप्यकाराधक्षरस्य भवति,तन्मध्ये ह्यकारस्य केचित्स्तोकाः स्वपर्यायास्ते चानन्ताः, शेषास्त्वनन्तगुणाः पर्याया इत्येवं सर्वसंग्रहः / अयं च सर्वोऽपि सर्वद्रव्यपर्यायराशिः सद्भावतो-ऽनन्तानन्तस्वरूपोऽप्यसत्कल्पनया किल लक्षं पदार्था-श्वाऽकारेकारादयो धर्मास्तिकायादयः सर्वाकाशप्रदेशसहिताः सर्वेऽपि किल सहस्रं तत्रैकस्याकारपदार्थस्य सर्वद्रव्यगत-लक्षपर्यायराशिमध्यादस्तित्वेन संबद्धाः किल शतप्रमाणाः स्वपर्यायाः, शेषास्तु नास्तित्वेन संबद्धाः सर्वेऽपि परपर्यायाः / एवमिकारादेः परमाणुद्वयणुकादेश्चैकैकस्य द्रव्यस्य वाच्यमिति / आह-के पुनः स्वपर्यायाः के च परपर्याया इत्याहजे लब्भइ केवलोऽण्ण-वण्णसहिओ व पञ्जवायारो। ते तस्स सपजाया, सेसा गरपज्जया सवे / / यानुदात्तानुदात्तसानुनासिक निरनुनासिकादीनात्मसङ्गतान Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्खर 143 - अभिधानराजेन्द्रः-भाग 1 अक्खर पर्यायान् के वलोऽन्यवर्णेन संयुक्तोऽन्यवर्णसंयुक्तो वाऽकारो लभतेऽनुभवति, तस्य स्वपर्यायाः प्रोच्यन्तेऽस्तित्वेन संबद्धत्वात् / ते चाऽनन्तास्तद्वाच्यस्य विष्णुपरमाण्वादिद्रव्यस्यानन्तत्वात् तद्द्रव्यप्रतिपादनशक्तेश्चास्य मिन्नत्वात्, अन्यथा तत्प्रतिपाद्यस्य सर्वस्याप्येकत्वप्रसङ्गादेकरूपवर्णवाच्यत्वात् / शेषास्त्विकारादिसंबन्धिनो घटादिगताश्चास्य परपर्यायास्तेभ्यो व्यावृत्तित्वेन नास्तित्वेन संबन्धात् , एवमिकारादीनामपि भावनीयम् / अक्षरविचारस्य चेह प्रक्रान्तत्वादेकैकमक्षरं सर्वद्रव्यपर्यायराशिमान-मुच्यते, अन्यथाऽन्येषामपि परमाणुढ्यणुकघटादिद्रव्याणामिदमेव पर्यायमानं द्रष्टव्यमिति। एवमुक्ते सति परः प्राहजइ ते परपजाया, न तस्स अह तस्सन परपजाया। जं तम्मि असंबद्धा, तो परपजायववएसो // इह स्वपर्यायाणामेव तत्पर्यायता युक्ता। ये त्वमी परपर्यायास्ते यदि घटादीनां तर्हि नाक्षरस्य, अक्षरस्य ते तर्हि न घटादीनाम्। ततश्च यदि पर्यायास्तर्हि तस्य कथं, तस्य चेत्परस्य कथमिति विरोधः / तदयुक्तमभिप्रायापरिज्ञानात् / यस्मात्कारणात्तस्मिन् अनकारेऽकाराद्यक्षरे घटादिपर्याया अस्तित्वेनासंबद्धाः, ततस्तेषां परपर्यायव्यपदेशोऽन्यथा व्यावृत्तेन रूपेण तेऽपि संबद्धा एवेत्यतस्तेषामपि व्यावृत्तरूपतया पारमार्थिक स्वपर्यायत्वं न विरुध्यते / अस्तित्वेन तु घटादिपर्याया घटादिष्वेव संबद्धा इत्यक्षरस्य ते परपर्याया व्यपदिश्यन्त इति भावः। द्विविधं हि वस्तुनः स्वरूपमस्तित्वं नास्तित्वंचाततोयेयवास्तित्वेन प्रतिबद्धास्तेतस्य स्वपर्याया उच्यन्ते, ये तु यत्र नास्तित्वेन संबद्धास्ते तस्य परपर्यायाः प्रतिपाद्यन्ते, इति निमित्तभेदख्यापनपरावेव स्व-परशब्दौ, न त्वेकेषां तत्र सर्वथा संबन्धनिराकरणपरौ, अतो-ऽक्षरघटादिपर्यायाः अस्तित्वेनासंबद्धाइति परपर्याया उच्यन्ते, न पुनः सर्वथा, ते तत्र संबद्धा नास्तित्वेन तत्रापि संबद्धाः। न चैकस्योभयत्र संबन्धोन युक्त एकस्यापि हिमवदादेरंशद्वयेन पूर्वापरसमुद्रादिसंबन्धात्। यदि ह्येकेनैव रूपेणैकस्योभयत्र संबन्ध इष्येत तदा स्याद्विरोधः, एतच नास्ति, रूपद्येन घटादिपर्यायाणां तत्रान्यत्रच संबन्धात् / सत्त्वेन तत्र संबन्धादसत्त्वेन त्वक्षरादिषु / असत्त्वमभावत्वाद्वस्तुनो रूपमेव न भवति, खरविषाणवदिति चेदयुक्तम् खरविषाणकल्पत्वस्य वस्त्वभावेऽसिद्धत्वात् न हि प्रागभावप्रध्वंसाभावघटाभावपटाभावादिवस्त्वभावविशेषण- वत्खरविषाणादिष्वपि विशेषणं संभवति, तेषां सर्वोऽप्या-ख्याविरहलक्षणे निरभिलप्ये षष्ठभूतवन्नीरूपेऽत्यन्ताभावमात्र एव व्यवहारिभिः संकेतितत्वात्। नच षष्ठभूतवद्वस्त्वभावोऽप्य-स्माभिर्नीरूपोऽभ्युपगम्यते, नीरूपस्य निरभिलप्यत्वेन प्राग्भा-वादिविशेषणानुपपत्तेः, किंतु यथैव मृत्पिण्डादिपर्यायो भाव एव सन् घटाकारादिव्यावृत्तिमात्रात् प्राग्भाव इति व्यपदिश्यते, यथा वा कपालादिपर्यायो भाव एव सन् घटाकारः परममात्रात् प्रध्वंसाभावोऽभिधीयते, तद्वत्पर्यायान्तरापन्नोऽक्षरादिभाव एव घटादिवस्त्वभावः प्रतिपाद्यते,न तु सर्वथैवाभावस्तथा सर्वथा न किञ्चिद्रूपस्यानभिलप्यत्वात् / न च वक्तव्यं खरविषाणा- दिशब्देन सोऽप्यभिलप्यत एवेति निरभिलप्यताख्यापनार्थमेव संकेत- | मात्रभाविनां खरविषाणादिशब्दानांव्यवहारिभिस्तत्र निवेशात् / किंचयदि घटादिपर्यायाणामक्षरे नास्तित्वेन संबन्धो नेष्यते तहस्तित्वनास्तित्वयोरन्योन्यव्यवच्छेदरूपत्वादस्तित्वेन तेषां तत्र | संबन्धः स्यात्तथा च सत्यक्षरस्यापि घटादिरूपतैव स्यात्, एवं च सति सर्वविश्वमेकरूपतामेवासादयेत् , ततश्च सहोत्पत्यादिप्रसङ्गः / न च वक्तव्यं घटादिपर्यायाणां घटादौ व्यवस्थितानां नास्तित्वलक्षणं रूपं कथमक्षरे प्राप्त, रूपिणामन्तरेण रूपायोगात्। अथ तेऽपि तत्र सन्ति, तर्हि विश्वकत्वमिति घटादिपर्यायाणां घटादीन् विहायान्यत्र नास्तित्वेन व्याप्ते रिष्टत्वात्, अन्यथा स्वपरभावायोगादत एव कथंचिद्विश्वकताऽप्यबाधिकैव / द्रव्यादिरूपतया तदेकत्वस्याप्यभ्युपगमादतो गम्भीरमिदं स्थिरबुद्धिभिः परिभावनीयम्, तस्मात् घटादिपर्याया नास्तित्वेनाक्षरेऽपि संबद्धा इति तत्पर्याया अप्येते अस्तित्वेन घटादावेव संबद्धान त्वक्षरे इति परपर्यायताव्यपदेश इति स्थितमिति / यदिघटादिपर्यायास्तत्राक्षरे असंबद्धत्वेन परपर्याया व्यपदिश्यन्ते तर्हि तेतस्य कथमुच्यन्ते? इत्याहचायसपञ्जाया वि-सेसाइणा तस्स जमुवउज्जति। सधणमिवासंबद्धं, भवंति तो पज्जया तस्स। ततस्तस्मात् घटादिपर्याथा अपि तस्याक्षरस्य पर्याया भवन्ति यतोऽक्षरस्यापि ते उपयुज्यन्ते, उपयोगं यान्ति / केनेत्याह- त्यागस्वपर्यायविशेषणादिना त्यागेन स्वपर्यायविशेषणेन चोपयोगा-दित्यर्थः / इदमुक्तं भवति-घटादिपर्यायाः सत्त्वेनाक्षरे असंबद्धा अपि ते स्वपर्याया भवन्ति, त्यागेनाभावेनोपयुज्यमानत्वात् / यदि हि तत्र तेषामभावो न भवेत्तर्हि तदक्षरं घटादिभ्यो व्यावृत्तं न सिध्येत्तत्रापि घटादिपर्यायाणा भावादिति। ततोऽक्षरस्य त्यागेनाभावेनोपयोगात् घटादिपर्यायास्तस्य भवन्तिा तथा स्वपर्यायाणां विशेषणेन विशेषव्यवस्थापकत्वेन परपर्याया अपि तस्य भवन्ति, न हि परपर्यायेष्वसत्सु स्वपर्यायाः केचि देन सिध्यन्ति, स्वपरशब्दयोरा-पेक्षिकत्वात्प्रयोगः। इत्थं यद्य-स्योपयुज्यते तद्भेदवत्यपि तस्येति व्यपदिश्यते, यथा- देवदत्तादेः स्वधनम्। उपयुज्यते च त्यागस्वपर्यायविशेषणादिभावेन घटा-दिपर्याया अप्यक्षरस्यातस्ते तस्यापि भवन्तीति। एवमक्षरपर्याया अपिघटादेवाच्या इति / एतदेव भावयतिसधणमसंबद्धं पिहु, चेयणं पि व नरे जहा तस्स। उवउज्जइत्ति सधणं, भण्णइ तह तस्स पज्जाया / / इह देवदत्तादिके नरे चैतन्यं यथाऽऽत्मनि संबद्धं तथा स्वधनम्, असंबद्धमपि स्वधनं तस्य लोके भण्यते / कुत उपयुज्यत इति कृत्वा तथाऽक्षरे असंबद्धा अपि घटादिपर्यायास्तस्याऽक्षरस्य पर्याया भवन्ति। अमुमेवार्थ दृष्टान्तान्तरेण साधयतिजह दंसणनाणचरि-त्तगोयरा सव्वदव्वपज्जाया। सद्धेयनेयकिरिया-फलोवओगि त्ति भिन्ना वि॥ जइणोसपज्जयाइव, सकज्जनिप्फाइगत्तिसधणंच। आणायचायफला,तहसव्वे सव्ववन्नाणं॥ इह यथा सर्वद्रव्यपर्याया भिन्ना अपि संयतेरेव भवन्ति यतेः संबन्धिनो व्यपदिश्यन्ते / कुत इत्याह- स्वकार्यनिष्पादका इति हेतोरेतदपि कुत इत्याह- श्रद्धेयज्ञेयक्रियाफलोपयोगिनो यतेरिति कृत्वा श्रद्धेयत्वेनोपयोगात्, ज्ञेयत्वेनोपयोगात् , त्यागादानादिक्रियारूपं यच्छ्रद्धानज्ञानफलं तदुपयोगित्वाचेति / कथंभूतास्ते सर्वद्रव्यपर्याया इत्याह- दर्शन ज्ञानचारित्रगोचराः सम्यग् दर्शनज्ञानचारित्र-विषयभूताः, ते हि सम्यग्दर्शनेन श्रद्धीयन्ते ज्ञानेन तु ज्ञायन्ते चारित्र-स्याप्याहारवस्त्रपात्राद्युपकरणभेषजशिष्यादिद्वारेणोपष्टम्भहेतवो बहवो भवन्ति अव्यवहारी उनेरइया' इति वचनात् / अथवा "पढ मम्मि सव्वजीवा,बीए चरिमे Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्खर 144 - अभिधानराजेन्द्रः-भाग 1 अक्खर य सव्वदव्वाई / सेसा महव्वया खलु, तदिक्कदेसेण दव्वाणं'। इति वचनादेते सर्वेऽपि ज्ञानदर्शनचारित्रगोचराः व्रतानां चारित्रात्मकत्वाचारित्रस्य च शानदर्शनाभ्यां विनाभावाभावात् / च्युत एवैते श्रद्धेयत्वाधुपयोगिनमन्तरेण श्रद्धानाद्ययोगाद्विषयमन्तेरण विषयिणोऽनुपपत्तेः / के यथा स्वकार्यनिष्पादकाः सन्तो यतेर्भवन्तीत्याह- यथा ज्ञानदर्शनादिरूपाः स्वपर्यायाः स्वधनं वा यथा मिन्नमपि देवदत्तादेर्भवति तथा सर्वेऽपि द्रव्यपर्यायास्त्यागादानफलत्वात्प्रत्येकं सर्वेषामप्यकारादिवर्णानामुप-लक्षणत्यात् घटादीनां भिन्ना अपि भवन्तीति। नचैतदुत्सूत्रमितिदर्शयति - एग जाणं सव्वं, जाणं सव्वं च जाणमेग त्ति। इय सव्वमजाणतो, नागारं सव्वहा मुणइ॥ इह सूत्रेऽप्युक्तं "जे एगंजाणइ, से सव्वं जाणइ। जेसव्वं जाणइ, से एगं जाणइ त्ति"। किमुक्तं भवति, एकं किमपि वस्तु सर्वैः स्व-परपर्यायर्युक्तं जानन्नवबुद्ध्यमानः सर्वलोकालोकगतं वस्तु सर्वैः स्वपरपर्यायैर्युक्तं जानाति सर्ववस्तुपरिज्ञाने नान्तरीयत्वादेव वस्तुज्ञानस्य / सर्व सर्वपर्यायोपेतं वस्तु जानाति स एकमपि सर्वपर्यायोपेतं जानात्येकपरिज्ञानस्य नान्तरियकत्यात् एतच प्रागपि भावितमेवेत्यतः सर्व सर्वपर्यायोपेतं यस्त्वजानानो नाकाररूपमक्षरं सर्वप्रकारैः सर्वपर्यायोपेतं जानाति वस्तु, तस्माच्छे षसमस्त-वस्तुपर्यायैः परिज्ञातैरेव एकमक्षरं क्षरं ज्ञायते नान्यथेति भावः / यदि नामैवं तथापि प्रस्तुते घटादिपर्यायाणामक्षरपर्यायत्वे किमायातमित्याहजेसु अनाएसु तओ, न नज्जए नज्जए य नाएसु। किह तस्स ते न धम्मा, घमस्स रूवाइधम्म व्व / / तत्तस्माद्येषु घटादिपर्यायेष्वज्ञातेषुयदेकं प्रस्तुतमक्षरं न ज्ञायते, ज्ञातेषु च ज्ञायते ते घटादिपरपर्यायाः कथं न तस्य धर्मा अपितु धर्मा एव, यथा घटस्य रूपादयः, प्रयोगः-येषामनुपलब्धौ यन्नोप-लभ्यते उपलब्धौ चोपलभ्यते तस्य ते धर्मा एव यथा घटस्य रूपादयः नोपलभ्यते च प्रस्तुतमेकमक्षरं समस्तघटादिपर-पर्यायाणामनुप-लब्धौ, उपलभ्यते च तदुपलब्धाविति ते तस्य धर्मा इति / इह चाक्षरं विचारयितव्यं प्रस्तुतमित्येतावन्मात्रेणैव तत्सर्वपर्यायराशिप्रमाणं साधितं,न चैतदेव केवलमित्थंभूतं द्रष्टव्यं किंत्वस्ति यत्किमपि वस्तु तत्सर्वमित्थंभूतमेव, सर्वस्यापि व्यावृत्तिरूपतया परपर्यायासद्धा-वादिति। नहि नवरमक्खरं पि, सव्वपज्जायमण्णमण्णं पि। जं वत्थुमत्थि लोए,तं सव्वं सव्वपञ्जायं // गतार्थव। यद्येवं किमक्षरमेवाङ्गीकृत्येदंपर्यायमानमुक्तमिति भाष्यकार एवोत्तरमाह - इहअक्खराहिगारो, पनवणिजायजेणतव्विसओ। तेचिंतिज्जंतेवं,कइमागोसव्वभावाणं॥ इहाक्षराधिकारो यस्मात्प्रस्तुतोऽतस्तस्यैवेदंपर्यायमानमुक्तं द्रष्टव्यम् / उपलभ्यते च सर्वं वस्त्वित्थेमेव, भवत्येवं किं तु प्रस्तुतस्याक्षरस्य के स्वपर्यायाः के च परपर्याया इत्यादि निवेद्य-तामित्याह (पन्नवणिज्जेत्यादि) तस्य सामान्येनाकाराधक्षरस्य स्वपर्यायो विषयस्तद्विषयो येन यतः। के इत्याह-प्नज्ञापनीया अभिलाप्याः पर्याया न पुनरनमिलाप्याः अतस्ते एवं चिन्त्यन्ते विचार्यन्ते / कथमित्याह कतिथो भागस्तेषां भवति, केषां सर्वभावानां सर्वेषामभिलाप्यानभिलाप्यपर्यायाणां समुदिता-नामित्यर्थः / इदमुक्तं भवति-अभिलाप्यं वस्तु सर्वमक्षरेणो-च्यतेऽतस्तदभिधानशक्तिरूपाः सर्वेऽपि तस्यामिलाप्याः प्रज्ञापनीयाः स्वपर्याया उच्यन्ते, शेषास्त्वनमिलाप्याः परपर्यायाः / अतस्तेऽभिलाप्याः स्वपरपर्यायाः सर्वपर्यायाणां कतिथो भागो भवतीत्येवं विचिन्त्यत इति / कथमित्याह - पण्णवण्णिज्जा मावा, वण्णाण सपज्जया तयाथोवा। सेसा परपज्जाया, तो णंतगुणा निरमिलप्पा // यतः प्रज्ञापनीया अभिलाप्या भावाः सामान्येन वर्णा-नामकारादीनां स्वपर्यायास्ततः स्तोका अनन्ततमभागवर्तिनः शेषास्तु निरभिलाप्याः प्रज्ञापयितुमशक्याः सर्वेऽपि परपर्याया इत्यतःस्वपर्यायेभ्योऽनन्तगुणाः सर्वस्यापि हि वस्तुनो लोका-लोकाकाशं विहाय स्तोकाः स्वपर्यायाः परपर्यायास्त्वनन्तगुणाः, लोकालोकाकाशस्य तु केवलस्याप्यनन्तगुणत्यात्। शेष-पदार्थानांतु समुदितानामपि तदनन्तभागवर्तित्वाद्विपरीतं द्रष्टव्यम् / स्तोकाः परपर्यायाः स्वपर्यायास्त्यनन्तगुणाः / अत्र विनेयानुग्राहार्थं स्थापना काचिन्निदर्श्यते-तद्यथा-सर्वाकाशप्रदेशराशेरन्ये सर्वेऽपिधर्मास्तिकायप्रदेशपरमाणुढ्यणुकादयः पदार्थाः सद्-भावतोऽनन्ता अपि कल्पनीयाः किल, देशसर्वाकाशप्रदेशपदार्थास्तु केवलाअपि किल शतं प्रतिपदार्थं च पञ्च स्वपर्यायाः। एवं च सति धर्मास्तिकायप्रदेशादीनां सर्वेषामपि पदार्थानां पञ्चाशदेव स्वपर्यायाः, ते च नभसः परपर्यायाः स्तोकाश्च स्वपर्यायाणां तु पञ्चशतानि, बहवश्वामी परपर्यायभ्यस्तस्माच्छेषपदार्थानां सर्वेषामपि नभसोऽनन्तभागवर्तित्वान्नभसस्तु केवलस्यापि तेभ्योऽनन्तगुणत्वात् स्वपरपर्यायाल्पबहुत्ववैपरीत्यं द्रष्टव्यमिति। नभसोऽन्यपदार्थानां च तेनैव निदर्शनेनस्वपर्यायाणां स्तोकत्वं परपर्यायाणां तुबहुत्वं परिभावनीयम् / तथाहि-किलै कस्मिन् धर्मास्तिकायप्रदेशे पञ्च स्वपर्यायाः, परपर्यायाणां तु पञ्चचत्वारिंशदधिकानि पञ्च शतानि / एवमक्षरपरमाण्यादावपि वाच्यमित्यलं विस्तरेणेति। अथ परो भाष्यस्यागमेन सह विरोधमुद्भावयतिनणु सव्वागासपए-सपज्जया वण्णमाणमाइडं। इह सव्वदव्वपज्जायमाणगहणं किमत्थं ति॥ नन्वित्यसूयायाम, सर्वस्यलोकालोकवर्तिन आकाशस्य प्रदेशास्तेषां मिलिता ये सर्वेऽपि पर्यायास्ते वर्णस्य पर्यायाणां सूत्रे मानं परिमाणमादिष्टम्। सर्वाकाशप्रदेशानां यावन्तः सर्वेऽपि पर्यायास्तावन्त एकस्याक्षरस्य पर्याया भवन्ति इत्येतावदेवागमे प्रोक्तमित्यर्थः / इह तु "तं सव्वदव्वपज्जायरासिमाणं मुणेयवं" इत्यत्र किमिति सर्वद्रव्यपर्यायमानग्रहणं कृतम् / इदमुक्तं भवति-"सव्वागासपएसगं सव्वागासपएसेहि अणंतगुणियं पञ्जव-क्खरं निप्पज्जइत्ति" नन्दिसूत्रे प्रोक्तम् / एतच्च वृत्तौ तत्र व्या-ख्यातम् / तद्यथा- सर्वं च तदाकाशं च सर्याकाशं लोका-लोकाकाशमित्यर्थः। तस्य च प्रदेशा निर्विभागास्तेषामग्र परि-माणं सर्वाकाशप्रदेशाग्रम, सर्याकाशप्रदेशः किमनन्तगुणितम् / एकैकस्मिन्नाकाशप्रदेशेऽनन्तानामगुरुलघुपर्यायाणां सद्भा-वात्पर्यायाक्षरं पर्यायपरिमाणाक्षरं निष्पद्यत इति / तदेवमागमे के वलसा काशप्रदे शपर्यायराशिप्रमाणमक्षरपर्यायमानमुक्तम् / अत्र तु धर्माधर्माकाशपुद्रलजीवास्तिकायकाललक्ष Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्खर 145 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अक्खर णसर्वद्रव्यपर्यायराशिप्रमाणं तदुच्यत इति कथं न विरोध ? इति / अत्रोत्तरमाहथोव तिन निहिठ्ठा, इहरा धम्मत्थियाइपज्जाया। के सपरपज्जयाणं, हवंतु किं होतु वाऽमावो ? / स्तोका आकाशपर्यायेभ्योऽनन्तभागवर्तिन इति कृत्वा नन्दि-सूत्रे धर्मास्तिकायादीनांपञ्चद्रव्याणांपर्यायान निर्दिष्टा नाऽ-भिहिताः साक्षात् किन्तु य एवं तेभ्योऽतिबहवोऽनन्तगुणास्त एव सर्वाकाशपर्यायाः साक्षादुक्ताः। अर्थतस्तु धर्मास्तिकाया-दिपर्याया अपिनन्दिसूत्रे प्रोक्ता द्रष्टव्याः। इतरथा यद्येतन्ना-भ्युपगम्यते तदा ते धर्मास्तिकायादिपर्याया अक्षरस्वपरपर्यायाणां मध्यात्के भवन्तु ?, किं स्वपर्याया भवन्तु परपर्यायावा?, किं वाऽभावः खरविषाणरूपो भवतु ? इति त्रयी गतिः / त्रिभुवने हि ये पर्यायास्तैः सर्वैरप्यक्षरा-देर्वस्तुनः स्वपर्यायैर्वा भवितव्यं, परपर्यायैर्वा, अन्यथाऽभाव-प्रसङ्गात् / तथाहि-ये केचन क्वचित्पर्यायाः सन्ति तेऽक्षरादिवस्तुनः स्वपरपर्यायाऽन्तररूपा भवन्त्येव, यथा रूपादयः ।ये त्वक्षरादेः स्वपर्यायाः परपर्याया वा न भवन्ति ते नसन्त्येव, यथा खरविषाण-तैक्षणादयः / तस्माद्धर्मास्तिकायादिपर्यायाः सूत्रे स्तोकत्वेनानुक्ता अपि 'जे एग जाणई' इत्यादि सूत्रप्रामाण्यादर्थतोऽक्षरस्य परपर्यायत्वेनोक्ताद्रष्टव्या इति। अथान्यत् प्रेरयतिकिमणंतगुणा मणिया,जमगुरुलहुपज या पएसम्मि / एक्केक्कम्मि अणंता, पण्णता वीयरागेहिं // ननु"सव्यागासपएसेहि अणंतगुणियं' इत्यत्र किमित्या-काशप्रदेशाः सूत्रे अनन्तगुणा भणिताः / अत्रोत्तरमाह- (जमि-त्यादि) यद्यस्मात्कारणात् एकै कस्मिन्नाकाशप्रदेशे, अगुरु-लघुपर्याया वीतरागैस्तीर्थकरगणधरैरनन्ताः प्रज्ञप्ताः प्ररूपिताः / ततश्चायमभिप्रायः- इह निश्चयमतेन बादरं वस्तु सर्वमपि गुरु लघु सूक्ष्म चाऽगुरुलघु, तत्राऽगुरुलघुवस्तुसंबन्धिनः पर्याया अप्य-गुरुलघवः समयेऽभिधीयन्ते / आकाशप्रदेशाश्चागुरुलघवोऽ-तस्ते च, तत्पर्याया अप्यगुरुलघवो भण्यन्ते। तेषु प्रत्येकमनन्ताः सन्त्यतः सकाशप्रदेशाग्रं सर्वाकाशप्रदेशैरनन्तगुणमुक्त-मिति भाव इति / न केवलमप्यक्षरं संज्ञाक्षराधुच्यते किन्तु ज्ञान-मपि। तत्र शिष्यः प्रश्नयति-कियत्प्रमाणं तदक्षरमुच्यते, सर्वाकाशप्रदेशेभ्योऽनन्तगुणं कथमेतावत्प्रमाणमुच्यते ? / इहैकक आकाशप्रदेशः खल्वनन्तरगुरुलधुपर्यायैः संयुक्तः / ते च सर्वेऽप्यगुरुलघुपर्याया ज्ञाने ज्ञायन्ते / न च येन स्वभावेनैको ज्ञायते तेनापरोऽपि, तयोरेकत्वग्रसङ्गात्, किन्त्वन्येन स्वभावेन। ततो यावन्तो गुरुलघुपर्यायास्तावन्तो ज्ञानस्वभावाः / उक्तं च - "जावइय पञ्जवा ते, तावइया तेसु नाणभेया वि / " इति भवति सर्वाकाशप्रदेशेभ्योऽनन्तगुणः / आह च बृहद्भाष्ये -"अक्खर- मुच्चइ नाणं, पुण होनाहि किं पमाणं तु | भण्णइ अणंतगुणियं, सव्वागासप्पएसे हिं / किह होइ अणंतगुणं, सव्वागासप्पएसरासीतो। भण्णइज एक्केको, आगासस्सप्पदेसो उ। संजुत्तोणं तेहिं, अगुरुलहुपज्जवेहिं नियमेण। तेण उ अणंतगुणियं, सव्वागासप्पएसेहिं।" पुनरपि शिष्यः प्राहकथमेतदवसीयत एकैक आकाशप्रदेशोऽनन्तैरगुरुलघुपर्यायैरुपेतः ? उच्यते-इह द्विविधं वस्तु-रूपिद्रव्यमरूपिद्रव्यं च। तत्र रूपिद्रव्यं चतुर्दा / तद्यथा- गुरु,लघु, गुरुलघु,अगुरुलघु च। एतदप्युच्यतेव्यवहारतो निश्चयतःपुनर्द्विविधमेवगुरुलघुअगुरुलघुच। बृ०। संप्रति यथाज्ञानं सर्वाकाशप्रदेशेभ्योऽनन्तगुणं भवति तथा दर्शयति - उवलद्धी अगुरुलहु-संयोगसरादिणो य पञ्जाया। एतेण हुंतणंता, सव्वागा सप्पएसेहिं॥ चतुर्णामप्यस्तिकायानांपुद्रलास्तिकायस्य चये अगुरुलघवः पर्यायाः, उपलक्षणमेतत् बादरस्कन्धानाम् / अगुरुलघुपर्यायाश्च यावन्तश्चाक्षरेषु स्वरूपतोऽभिलापभेदतो वा संयोगा यैश्चोदात्तादिभिः स्वरैरभिलप्यन्ते भावाः, आदिशब्दाद् ये चान्ये शकुनरुतादिगताः स्वरविशेषा ये च जीवपुद्र लगताश्चेष्टाविशेषास्ते सर्वे ऽपि गृह्यन्ते / एतेषां सर्वेषामप्युपलब्धिर्मवति।नचयेन स्वभावेनैकस्य तेनैवान्यस्य, किन्तु भिन्नेन / तदेतेन प्रकारेण ज्ञानस्य स्वभावाः सकाशप्रदेशेभ्योऽनन्तगुणाः। बृ०१ उ०1 प्रकारान्तरेण प्रेरयन्नाह - तत्थाविसेसयं ना-णमक्खरं इह सुयक्खरं पगयं / तं किह केवलपज्जा-यमाणतुल्लं हविज्जाहि॥ (तत्थेति) 'सव्यागासपएसग्गं सव्वागासपएसेहिं अणंतगुणियं पञ्जवक्खरं निप्पज्जई" इत्यत्र सूत्रे नन्द्यध्ययने अविशेषितं सामान्येनैव (नाणमक्खरं ति) ज्ञानमक्षरं प्रतिपादितम् अवि-शेषाऽभिधाने च के वलज्ञानस्य महत्त्वात्तदेव तत्राक्षरं गम्यते / इह तु श्रुतज्ञानविचाराधिकारात् श्रुताक्षरमकाराद्येवाक्षरशब्द-वाच्यत्वेन प्रकृतं प्रस्तुतम् / ततः को दोष इत्याह-तचाकारा-दिश्रुताक्षरं कथं केवलपर्यायमानतुल्यं भवेन्न कथंचिदित्यर्थः / अयमभिप्रायः-केवलस्य सर्वद्रव्यपर्यायवेत्तृत्वाद्भवतु सर्व-द्रव्यपर्यायमानता, श्रुतस्य तु तदनन्तमागविषयत्वात्कथं तत्पर्यायमानतुल्यतेति ? / अत्रोच्यते ननु तत्रापि "अक्ख-रसण्णीसम्म साइयं खलु" इत्यादिप्रकमेऽपर्यवसितश्रुते वि-चार्यमाणे "सव्यागासपएसग्गं" इत्यादि सूत्रं पठ्यते, अतो यथेह तथा तत्रापि श्रुताधिकारादक्षरमकाराद्येव गम्यते, न तु केवला-क्षरम् / अथ ब्रूषे-तत्र द्वितीयमनन्तरं सूत्रं यत्पठ्यते "सव्यजीवाणं अक्खरस्स अणंतभागो निचुग्घाडियओत्ति' एतस्मात् केवलाक्षरं तत्र गम्यते न तु श्रुताक्षरं सकलद्वादशाङ्ग विदां संपूर्णस्यापि श्रुताक्षरस्य सद्भावात्सर्वजीवानामक्षरस्याऽनन्तभागो नित्योद्घाट इत्यस्यार्थस्यानुपपत्तेः / अहो ! असमीक्षिताभिधानं, यत एवं सति केवलिनां संपूर्णस्यापि के बलाक्षरसद्भावात्सर्वजीवानामक्षरस्याऽनन्तभागो नित्योद्घाट इत्यस्याऽर्थस्याऽनुपपत्तिरेव / अथ मनुष्ये तत्राऽविशेषेण सर्वजीवग्रहणे सत्यपि प्रकरणादपिशब्दाद्वा केवलिनो विहायाऽन्येषामेवाऽक्षरस्याऽनन्तभागो नित्योद्घाट इति के वलाक्षरग्रहणेऽविरोधः / हन्त ! तदेतच्छुताक्षरग्रहणेऽपिसमानम्, यत-स्तत्राविशेषेण सर्वजीवग्रहणे सत्यपि प्रकरणादपिशब्दादा समस्तद्वादशाङ्गाविदो विहायाऽन्येषामेवास्मदादीनामक्षरस्यान-न्तभागो नित्योद्घाट इतीहापि शक्यत एव वक्तुम्। तस्मात्तत्रेहच श्रुताक्षरमकाराद्येवगम्यते। यदि वाऽत्र श्रुताक्षरं, तत्र केवलाक्षरमपि भवतु, न च श्रुताक्षरस्य केवलपर्यायतुल्यमानता विरुद्धयते। कथमित्याहसयपज्जवेहि तं के-वलेण तुल्लं न होजन परेहिं। सयपरपज्जाएहिं, तुल्लं तं केवलेणेव // स्वकाःस्वकीया अकारेकारोकारादयोऽनुगताः पर्यायाःश्रुतज्ञान Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्खर 146 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अक्खर स्य स्वपर्याया इत्यर्थः / तैरनुगतैः स्वपर्यायैः, तच्छुताक्षरं केवलेन केवलाक्षरेण तुल्यं न भवेत्, सर्वपर्यायानन्तभागवर्तित्वात् / तच्छुतज्ञानं स्वपर्यायाणां, केवलज्ञानं तु सर्वद्रव्यपर्यायराशि-प्रमाणं, सर्वेष्वपि तेषु व्यापारात् / तथाहि-लोके समस्तद्रव्याणां पिण्डितः पर्यायराशिरनन्तानन्तस्वरूपोऽप्यसत्कल्पनया किल लक्षम्, एतन्मध्याच्छुतज्ञानस्य स्वपर्यायाणां किलशतं,तनलक्षतुपरपर्यायाः, केवलज्ञानत्वे तल्लक्षमपि पर्यायाणामुपलभ्यते, सर्वोपलब्धिस्वभावत्वात्तस्य।ते चोपलब्धिविशेषाः सर्वेऽपि केवलस्य पर्यायाः स्वभावाः, ज्ञेयोपलब्धिस्वभावत्वात् ज्ञानस्य / एवं चसति लक्षपर्याय केवलं, श्रुतस्य तु शतं स्वपर्यायाणाम्, अतस्तैस्तत्केवलपर्यायराशितुल्यं न भवेदिति स्थितम् / तर्हि परपर्यायैस्तत्तस्य तुल्यं भविष्यतीत्याह-न परैर्नापि परपर्यायैस्तत् केवलेन तुल्यं भवेत् / तथाहि-घटादिव्यावृत्तिरूपाः परपर्यायास्तस्य विद्यन्तेऽनन्तानन्ताः, कल्पनया तु शतोनलक्षमानास्तथापि सर्वद्रव्यपर्यायराशितुल्यानभवन्ति, सर्वपर्यायानन्तभागेन कल्पनया शतरूपेण सद्भावतस्त्वनन्तात्मकेन स्वपर्यायराशिना न्यूनत्वात् के वलस्य तु संपूर्णसर्वपर्यायराशिमानत्वादिति / स्वपरपर्यायैस्तु तत्के वलपर्यायतुल्यमेव / के वलवत्तस्यापि सर्वद्रव्यपर्यायप्रमाण-त्वादिति / आहयद्यैवं केवलेन सहाऽस्य को विशेषः ? उच्यते, अस्ति विशेषः / यतः अविसेसकेवलं पुण, सयपज्जाएहि चेव तत्तुल्लं। जण्णेयं पइ तं स-व्वभाववावार विणिजुत्तं / / उभयत्र सर्वद्रव्यपर्यायराशिप्रमाणत्वे तुल्येऽपि श्रुतकेवलयोरस्ति विशेष इत्येवं पुनःशब्दोऽत्र विशेषद्योतनार्थः / कः पुनरसौ विशेष इत्याहअविशेषेण पर्यायसामान्येन युक्तं केवलमविशेषकेवलं स्वपरविशेषरहितैः सामान्यत एवाऽनन्तपर्याययुक्तं केवलज्ञानम-विशेषकेवलमित्यर्थः / तदेवंभूतं केवलं स्वपर्यायैरेव तत्तुल्यं, तेन प्रक्रमानुवर्तमानसर्वद्रव्यपर्यायराशिना तुल्यं तत्तुल्यं, श्रुतज्ञानं तु समुदितैरेव स्वपरपर्यायैस्तत्तुल्यमिति विशेष इति भावः / कथं पुनः केवलज्ञानस्य तावन्तः स्वपर्याया इत्याह- (जण्णेयमित्यादि) यद्यस्मात्तत्केवलज्ञानं सर्वद्रव्यपर्यायलक्षणं शेयं प्रति सर्वभावेषु निःशेषज्ञातव्यपदार्थेषु योऽसौ परिच्छेदलक्षणो व्यापारस्तत्र विनिर्युक्तं प्रतिसमयं प्रवृत्तिमदित्यर्थः / इदमुक्तं भवति / केवलज्ञानं सर्वानपि सर्वद्रव्यपर्यायान् जानाति / ते च तेन ज्ञायमाना ज्ञानवादिनयमतेन तद्वपतया परिणताः, ततो ज्ञानमयत्वात्ते केवलस्य स्वपर्याया एव भवन्ति, अतः केवलज्ञानं तैरेव सर्वद्रव्यपर्यायराशितुल्यं भवति / श्रुतादिज्ञानानि तु सर्वद्रव्यपर्यायराशेरनन्ततममेव भागंजान-न्त्यतस्तेषां स्वपर्याया एतावन्तएव भवन्त्यतो न श्रुतज्ञानं स्वपर्यायैस्तत्तुल्यं, तदनन्तभागवर्तिस्वपर्यायमानत्वादिति श्रुतके वलयोर्विशेषः। अत्र पक्षे के वलस्य परपर्यायविवक्षान कृता। ये हि केवलस्य निःशेषज्ञेयगता विषयभूताः। पर्यायास्ते ज्ञानाद्वैतवादिनयमतेन ज्ञानरूपत्त्यादर्थापत्त्यैव स्व-पर्यायाः प्रोक्तानतु पर्यायाभावः प्रोक्तः / वस्तुस्थित्या पुनरि-दमपि स्वपरपर्यायान्वितमेव दर्शयतिवत्थुसहावं पइ तं, पिसपरपज्जायभेयओ मिन्नं / तं जेण जीवभावो, मिन्ना य तओ घडाईयं // वस्तुस्वभावं प्रति यथावस्थितं वस्तुस्वरूपमाश्रित्य तदपि केवलं ज्ञानमकाराद्यक्षरवत्स्वपरपर्यायभेदतो भिन्नमेवनतुयथोक्तनीत्या स्वपर्यायान्वितमेवेति भावः। कुत इत्याह- येन कारणेन तत्केवलज्ञानं जीवभावः प्रतिनियतो जीवपर्यायो न घटादिस्वरूपं तन्नापि घटादयस्तत्स्वभावाः किन्तु ततो भिन्ना इति, तेन ज्ञायमाना अपि ते कथं तस्य स्वपर्याया भवेयुः, सर्वसंकरैकत्वादिप्रसङ्गात् / तस्मादमूर्तत्वाचेतनत्वसर्ववेत्तृत्वाप्रतिपातित्वनिरावरणत्वादयः केवलज्ञानस्य स्वपर्यायाः / घटादिपर्यायास्तु व्यावृत्तिमाश्रित्य परपर्यायाः / अन्ये तु व्याचक्षते- सर्वद्रव्यगतान्सर्यानपि पर्यायान् केवलज्ञानं जानाति, येन चस्वभावेनैकं पर्यायं जानातिन तेनैवापरमपि, किन्तु स्वभावभेदेन, अन्यथा सर्वद्रव्यपर्याय -कत्वप्रसङ्गात्, तस्मात्सर्वद्रव्यपर्यायराशितुल्याः स्वभावभेदलक्षणाः केवलज्ञानस्य स्वपर्यायाः, सर्वद्रव्यपर्यायास्तु परपर्याया इत्येवं स्वपर्यायपरपर्यायाश्चोभयेऽपि परस्परं तुल्याः केवलस्येति / एवं च सति किं स्थितमित्याह अविसेसयं पि सुत्ते, अक्खरपज्जायमाणमाइटुं। सुयकेवलक्खराणं, एवं दोण्हं पिन विरुद्धं / / एवं सत्यविशिष्टमपि नन्दिसूत्रे यत्सर्वा काशप्रदेशाग्र मनन्तगुणितमक्षरपर्यायप्रमाणमादिष्टं ततः श्रुतस्य केवलस्य वा न विरुद्धं, श्रुताक्षरस्य केवलस्य चोक्तन्यायेनार्थतो द्वयोरपि समानपर्यायत्वात्, तथापि श्रुतस्य केवलस्य च स्वपर-पर्यायास्तावन्निर्विवादं तुल्या एव। स्वपर्यायास्तु 'यद्यप्यन्ये तु व्याचक्षते' इत्यादिनाऽऽगमेनानन्तरमेव केवलस्य भूयांसः प्रोक्तास्तथापितेभ्यो व्यावृत्तत्ववन्तः श्रुतस्य परपर्याया वर्द्धन्त इति तदेवं द्वयोरपि सामान्यतः पर्यायसमानत्वमित्युभयोरपि ग्रहणे सूत्रे न किमपि श्रूयत इति / नन्वेतत्सर्वपर्यायपरिमाणमक्षरं किं सर्वमपिज्ञानावरणकर्मणाऽऽव्रियते न येत्याहतस्स उ अणंतमागो, निच्चुग्घाडो य सव्वजीवाणं। मणिओ सुयम्मि केवलि-वजाणं तिविहमेओ वि / / तस्य च सामान्यै नैव सर्वपर्यायपरिमाणाक्षरस्यानन्तभागो नित्योद्घाटितः सर्वदैवानावृतः / के वलिवर्जानां सर्वजीवानां जघन्यमध्यमोत्कृष्टत्रिविधभेदोऽपि श्रुते भणितः प्रतिपादित इति। तत्र सर्वजधन्यस्याऽक्षराऽनन्तभागस्य स्वरूपमाहसो पुण सव्वजहन्नो, चेयण्णं नावरिजइ कयाइ। उक्कोसावरणम्मि वि, जलयच्छन्नक्कमासोव्व।। सपुनःसर्वजघन्योऽक्षरानन्तभाग आत्मनोजीवत्वनिबन्धनं चैतन्यमात्र तच तावन्मात्रमुत्कृष्टावरणेऽपि सति जीवस्य कदा- चिदपि नावियते न तिरस्क्रियते, अजीवत्वप्रसङ्गात् / यथा- सुष्ठ वपि जलदच्छन्नस्यार्कस्याऽऽदित्यस्य भासः प्रकाशो दिन रात्रिविभागनिबन्धनं किश्चित्प्रभामात्र कदापि नाऽऽवियते, एवं जीवस्यापि चैतन्यमानं कदाचिन्नाऽऽवियत इति भाव इति / केषां पुनरसौ सर्वजधन्योऽक्षराऽनन्तभागः प्राप्यत इत्याह - थीणद्धिसहियनाणा-वरणोदयओ स पत्थिवाईणं। बेइंदियाइयाणं, परिवट्टए कमविसोहीए। स्त्यानर्द्धि महानिद्रोदयसहितोत्कृष्टज्ञानावरणो दयादसौ सर्वजघन्योऽक्षरानन्तभागः पृथिव्यायेकेन्द्रियाणां प्राप्यते, ततः क्रमविशुद्ध्या द्वीन्द्रियादीनामसौ क्रमेण वर्द्धत इति। तत्कृिष्टो मध्यमश्चैव केषां मन्तव्य इत्याह Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्खर 147 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अक्खर उक्कोसो उक्कोसय-सुयणाणविओ तओऽवसेसाणं। होइ विमज्झो मज्झे छट्ठाणगयाण पाएण / / 7 / / स एवाक्षराऽनन्तभाग उत्कृष्टो भवत्युत्कृष्ट श्रुतज्ञानविदः संपूर्णश्रुतज्ञानस्येत्यर्थः। अत्राह-नन्वस्यकथमक्षराऽनन्तभागो यावता श्रुतज्ञानाऽक्षरं संपूर्णमप्यस्य प्राप्यत एव ? सत्यम् / किन्तु संलुलितसामान्य श्रुतके वलाक्षराऽपेक्षयै वास्याऽक्षरानन्तभागो विवक्षितः, "केवलिवजाणं तिविहभेओवि" इत्य-नन्तरवचनात् / अन्यथा हि यथा केवलिनः संपूर्णकवला ऽक्षरयुक्तत्वेनाक्षराऽनन्तभागस्त्रिविधोऽपि न संभवतीति तद्वर्जनं कृतम् / एवं संपूर्णश्रुतज्ञानिनोऽपि समस्तश्रुताऽक्षरयुक्त त्वेनाक्षराऽनन्तभागस्त्रिविधोऽपि न संभवतीति, तद्वर्जनमपि कृतं स्यात्, तस्मान्न संमिलितसामान्याक्षरापेक्षयैवास्याक्षरानन्त-भागः प्रोक्तः, सामान्ये वाऽक्षरे विवक्षिते के वलाक्षरापेक्षया श्रुतज्ञानाक्षरस्य संपूर्णस्याप्यनन्तभागवर्तित्वं युक्तमेव, केवल-ज्ञानस्वपर्यायेभ्यः श्रुतज्ञानस्वपर्यायाणामनन्तभागवर्तित्वात् तस्यपरोक्षविषयत्वेनास्पष्टत्वाचेति। यच समुदितस्वपर-पर्यायाऽपेक्षया श्रुतकेवलाक्षरयोस्तुल्यत्वं तदिह न विवक्षितमे-वेति / अन्ये तु "सो उण सव्वजहन्नो चेयण्णं" इत्यादिगाथायां स पुनरक्षरलाभ इति व्याचक्षते, इदं चाऽनेकदोषाऽन्वितत्वाजिन-भद्रगणिक्षमाश्रमणपूज्यटीकायां चाऽदर्शनादसङ्गतमेव लक्षयामः / तथाहि- "तस्स उ अणंतभागो निघुग्घाडो" इत्याद्यनन्तर-गाथायामक्षराऽनन्तभाग एव प्रकृतः, अक्षरलाभस्त्वनन्तर-परामर्शिना तच्छब्देन कुतो लब्धः? किमाकाशात् पतितः? किंच, यद्यऽक्षरलाभ इतीह व्याख्यायते तर्हि "केवलि-वजाणं तिविहभेओ वि" इत्यत्र किमिति केवलिनो वर्जनं कृतं ? यथा हि श्रुताक्षरमाश्रित्योत्कृष्टोऽक्षरलाभः संपूर्णश्रुतज्ञानवतो लभ्यते तथा केवलाक्षरमङ्गीकृत्योत्कृष्टोऽसौ केवलिनोऽपिलभ्यत एव,किं तद्वर्जनस्य फलम् ? क्षमाश्रमणपूज्यैश्च "थीणद्धि' इत्यादिगाथाया-मित्थं व्याख्यातम् सच किल जघन्योऽनन्तभाग इत्यादि। अथ सामान्यमक्षरं नेह प्रक्र मे गृह्यते किन्तु श्रुताक्षरमे वेति। तदयुक्तम्, चिरन्तनटीकाद्वयेऽप्यक्षरस्य सामान्यस्यैव व्याख्यानात् / किंचविशेषतोऽत्र श्रुताक्षरे गृह्यमाणे तस्य श्रुताक्षरस्याऽनन्तभागः सर्वजीवानां नित्योद्घाट इति व्याख्यानमापद्यते। एतचाऽयुक्तम्, संपूर्णश्रुतज्ञानिनां ततोऽनन्तभागादिहीनश्रुतज्ञानवतां च श्रुताक्षरा-नन्तभागवत्त्वानुपपत्तेः / किं च, "सो उण के वलिवज्जाणं तिविहभेओ वि" इत्येतदसंबद्धमेव स्यात्, के वलिनः सर्वथैव श्रुताक्षरस्यासंभवेन तद्वर्जनस्याऽऽनर्थक्यप्रसङ्गाचेति, परमार्थं चेह केवलिनो बहुश्रुता वा विदन्तीत्यलं प्रसङ्गेन / विमध्यममक्षरानन्तभागमाहततस्तस्मादुत्कृष्टश्रुतज्ञानविदोऽवशेषाणामेकेन्द्रियसंपूर्ण-श्रुतज्ञानिनो मध्ये वर्तमानानां षट्स्थानपतितानामनन्तभागा-दिगतानां प्रायेण विमध्यो मध्यमाक्षरानन्तभागो भवति, एकस्मादुत्कृष्ट श्रुतज्ञानिनोऽवशेषाः के चित् श्रुतमाश्रित्य तुल्या अपि भवन्त्यत उक्तप्रायेणावशेषाणां विमध्यम इति 1 अ यमर्थ विवक्षितादेकस्मादुत्कृष्टश्रुतज्ञानिनोऽविशेषाणामपि केषांचिदुत्कृष्टश्रुतज्ञानयतां तत्तुल्य एवाऽक्षरानन्तभागो भवति न तु विमध्यम उत्कृष्ट इत्यर्थः / इति सप्तचत्वारिंशदाथार्थः / इत्यक्षरश्रुतं समाप्तम्। विशे०। पत्तेयमक्खराइं, अक्खरसंजोय जत्तिया लोए। एवझ्या सुयनाणे, पयडीओ होंति नायव्वा // एकमेकं प्रति प्रत्येकमक्षराण्यकारादीन्यनेकभेदानि / यथा अकारः सानुनासिको निरनुनासिकश्च / पुनरे कै कस्विधाहस्वोदीर्घः प्लुतश्चेति / पुनरे कै कस्विविधः- उदात्तोऽनुदात्तः स्वरितश्च / इत्येवमकारोऽष्टादशभेदः / एवमिकारादिष्वपि यथासंभव भेदजालमभिधानीयमिति। तथाऽक्षराणां संयोगा अक्षरसंयोगा व्यादयो यावन्तो लोके, यथा- घटः पट इत्यादि, व्याघ्रः स्त्रीत्यादि / एवमेतेऽनन्ताः संयोगाः, तत्राप्येकैकः स्वपरपर्यायापेक्षयाऽनन्तपर्यायः, अत एतावत्यः श्रुतज्ञाने प्रकृतयो भेदा ज्ञातव्या इति नियुक्तिगाथार्थः। अथ भाष्यम् - संजुत्तासंजुत्ता-ण ताणमेकक्खराइसंजोगा। होंति अणंता तत्थ वि, एकेको णंतपज्जाओ। एकमक्षरमादिर्येषां व्यादीनां तान्येकाक्षरादीनि, तेषां संयोगा एकाक्षरादिसंयोगाः, ते अनन्ता भवन्ति / केषां ये एकाक्षरादिसंयोगा इत्याह-तेषामकारककाराद्यक्षराणाम् / कथं- भूतानामित्याहसंयुक्तासंयुक्तानाम् / तत्र संयुक्तैकाक्षरसंयोगो यथा-अब्धिः प्राप्त इत्यादिः / असंयुक्तैकाक्षरसंयोगो यथा- घटः पट इत्यादिः / एते चाक्षरसंयोगा अनन्ताः / एकैकश्च संयोगः स्वपरपर्यायैः पूर्वाभिहितन्यायेनाऽनन्तपर्याय इति // अथ परमतमाशङ्क्योत्तरमाहसंखिज्जक्खरजोगा, होति अणंता कहं जमभिधेयं / पंचत्थिकायगोयर-मन्नोन्नविलक्खणमणंतं / / संख्येयानि च तान्यकाराद्यक्षराणि, तेषां योगाः संयोगाः कथमनन्ता भवन्ति न घटन्त एवेति भावः / अत्रोत्तरमाह- यद्यस्मात्संख्येयानामप्यक्षराणामभिधेयमनन्तम् / कथं- भूतमित्याह अन्योन्यविलक्षणं परस्परविसदृशम् / किं विषय-मित्याहपञ्चास्तिकायगोचरं पञ्चास्तिकायगतस्कन्धदेशप्रदेशपरमाणुकादिकम्, अभिधेयानन्त्याचाभिधानस्याप्यानन्त्यमवसेयमिति / एतदेव भावयतिअणुओ पएसवुड्डी-ए मिन्नरूवाइ धुवमणताइ। जंकमसो दव्वाई,हवंति मिन्नामिहाणाई।। इहास्मादणुतः परमाणुतः प्रारम्भ क्रमशः प्रदेशवृद्ध्या पुद्रलास्तिकायेऽपि ध्रुवं सर्वदैवानन्तानि भिन्नरूपाणि द्रव्याणि प्राप्यन्ते भिन्नाभिन्नानि चैतानि, यथा- परमाणुस्यणुकस्यणुकश्चतुरणुको यावदनन्तप्रदेशिक इति, प्रत्येकंचानेकाभिधानान्येतानि, तद्यथा-अणुः परमाणुर्निरंशो निरवयवो निःप्रदेश अप्रदेश इति, तथा व्यणुको द्विप्रदेशिको द्विभेदोद्यवयवः / इत्यादि सर्वद्रव्यसर्वपर्यायेष्वायोजनीयम् / यस्माचैवमभिधेयमनन्तं विसदृशरूपं भिन्नाभिधानं च तस्मात्किमित्याहतेणामिहाणमाणं, अमिधेयाणंतपञ्जवसमाणं / जं च सुयम्मि वि मणियं, अणंतगमपञ्जयं सुत्तं / / यतोऽभिधेयमनन्तं भिन्नरूपं भिन्नाभिधानं तेन कारणे नाक्षरसंयोगरूपाणामभिधानानां यत्संख्यारूपं मानं परिमाणं तदपि भव-ति। कियदित्याह- अभिधेयभेदेनाऽभिधानस्यापि भेदात् न हि येनैव रूपेण घटादिशब्दे अकारादिवर्णाः संयुक्तास्तेनैवस्वरूपेण पटा-दिशब्देऽपि, अभिधेयैकत्वप्रसङ्गात् , करूपशब्दाभिधेयत्वात्घ-टतत्स्वरूपवदिति, अतोऽभिधेयानन्त्यादभिधानानन्त्यमिति यत्त-तः सूत्रेऽप्यभिहितम् / "अणंतागमा अणंतापजवा" इत्यतः स्थि-तमेतत् "संजुत्तासंजुत्ताणं" इत्यादीति गाथाचतुष्टयार्थः। विशे० Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्खर 148 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अक्खाडग उभयं भावक्खरओ, अणक्खरं होज्ज वंजणक्खरओ। अक्खलियचरित्त-पुं०(अस्खलितचारित्र) अस्खलितमति-चाररहितं मइनाणं सुत्तं पुण, उमयं पि अणक्खरं करउ / चारित्रं मूलगुणरूपं यस्यासौ अस्खलितचारित्रः / निरतिचारचारित्रे, इहाक्षरं तावद् द्विविधम् -द्रव्याक्षरं भावाक्षरं च / तत्र द्रव्याक्षरं ईदृशेन साकं केवल्यपि विहरेत् // गीयत्थे जे सुसंविगे, अणालस्सी पुस्तकादिन्यस्ताकारादिरूपं, ताल्वादिकारणजन्यः शब्दो वा / एतच दढव्वए। अक्खलियचरिते य, राग-दोसविवज्जए। ग०१अधि०। व्यज्यतेऽर्थोऽनेनेति व्यञ्जनाक्षरमप्युच्यते, भावाक्षरं त्वतः अक्खलियाइगुणजुत--त्रि०(अक्खलितादिगुणयुत) अस्खस्फुरदकारादिवर्णज्ञानरूपम् / एवं च सति (भावक्खरओ त्ति) लितममिलितमव्यत्यामंडितमित्यदिगुणयुक्ते, 'अस्खलितादि- गुणयुतैः भावाक्षरमाश्रित्य मतिज्ञानं भवेत् / कथंभूतमित्याह (उभयं ति) स्तोत्रैश्व महामतिग्रथितैः "1 षो०६ विव०। उभयरूपमक्षरवदनक्षरं चेत्यर्थः / मतिज्ञानभेदे ह्यवग्रहे भावाक्षरं अक्खवाङग-पुं०(अक्षपाटक) अक्षेव्यवहारेपाटयति दीप्यते। पटदीप्तौनास्तीति तदनक्षरमुच्यते / ईहादिषु तु तद्भेदेषु तदस्तीति मति वुल। व्यवहारनिर्णेतरि धर्माध्यक्षे, वाच० चतुरस्राकारे (आसने, ज्ञानमक्षरवत् प्रतिपादितमिति भावः। (अनक्खरं होज्जत्ति) व्यञ्जनाक्षर "तेसिणंबहुमज्झदेसभाए पत्तेयं 2 वइरामया अक्खवाडगा पण्णत्ता"। विद्यते, तस्य द्रव्यश्रुतत्वेन रूढत्वात् द्रव्यमति-त्वेनाप्रसिद्धत्यादिति जी०३ प्रति०। (सुत्तं पुणो त्ति) सूत्रं श्रुतज्ञानं पुनरुभयमपिद्रव्यश्रुतं भावश्रुतं चेत्यर्थः। विशे०। अकारादिलब्ध्यक्षरा-णामन्यतरस्मिन् / कर्म०१ कर्म०। अक्खसुत्तमाला-स्त्री०(अक्षसूत्रमाला) अक्षा रुद्राक्षाः फलविशेषास्तेषां क्षरणशून्ये, त्रि० उज्ज्व ले, मोक्षे च। न०।वाच०। सम्बन्धिनीसूत्रप्रतिबद्धामाला आवली यासा तथा सैव गण्यमानैर्निम सितयाऽतिव्यक्तत्वात् / रुद्राक्षमालायाम्, "अक्खसुत्तमाला विव अक्खरगुण-पुं०(अक्षरगुण) 6 त० स०। अकारादीनामक्षराणां गणिज्जमाणेहिं"। अणु०३ वर्ग। गुणोऽनन्तागमपर्यायवत्वमुचारणं च, अन्यथाऽर्थस्य प्रतिपादयितुमशक्यत्वात्। सूत्र० 1 श्रु०१अ०१ उ०। अक्खसोय-न०(अक्षस्रोतस्) चक्रधूःप्रवेशरन्ध्रे, भ०७ श०६३० / अक्खरगुणमइसंघडणा-स्त्री०(अक्षरगुणमतिसंघटना) अक्षरगुणेन मतेः अक्खसोयप्पमाण--त्रि०(अक्षस्रोतःप्रमाण) अक्षस्रोतश्च(मतिज्ञानस्य) संघटना, भावश्रुतस्य द्रव्यश्रुतेन प्रकाशनेऽक्षरगुणस्य क्रधूःप्रवेशरन्ध्र, तदेव प्रमाणमक्षस्रोतःप्रमाणम् / भ०७ श०६ उ०1 मत्या संघटनायां बुद्ध्या रचनायांचा सूत्र०१ श्रु०१अ०१ उ०। चक्रनाभिछिद्रप्रमाणे, औ०। अक्खरपुट्ठिया-स्त्री०(अक्षरपृष्ठिका) ब्रह्मया लिपेर्नवमे लेख अक्खसोयप्पमाणमेत्त-त्रि०(अक्षस्रोतःप्रमाणमात्र) अक्षस्रोतः विधाने / प्रज्ञा० 1 पद। प्रमाणे न मात्रा परिमाणमवगाहतो यस्य स तथा (चक्र नाअक्खरलंभ-पुं०(अक्षरलाभ) पुरुषस्त्रीनपुंसकघटपटादिवर्ण-विज्ञाने, मिच्छिद्रप्रमिताऽवगाहे) "तेणं कालेणं तेणं समएणं गंगासिंधूओ "अक्खरलंभो सण्णी-ण होज्ज पुरिसाइवण्णविण्णाणं / कत्तो महाणइत्तो रहपहवित्थराओ अक्खसोयप्पमाणमेत्तं जलं असण्णीणं, भणियं च सुयम्मि तेसिं पि'। विशे०। सूत्र०। योज्झिहिति " / भ०७ श० 6 उ०। अक्खरविसुद्ध-त्रि०(अक्षरविशुद्ध) पदैरक्षरैऽलङ्कृते, पं० अक्खा-स्त्री०(आख्या) आ-ख्यायते ऽनया / आ-ख्या-अङ् / चू० वाच०। अभिधाने, "कालो उलंदक्खा," लन्दाख्या इत्यभि-धानम् / अक्खरसंबद्ध-पुं०(अक्षरसंबद्ध) वर्णव्यक्तिमति, स्था०२ ठा० सकालः प्रतिपत्तव्यः / बृ०३ उ०। 3 उ०। (अस्य व्याख्या 'भासा' शब्दे) अक्खाइय-न०(आख्यातिक) पठति भुङ्क्ते इत्यादि (आअक्खरसण्णिवाय-पुं०(अक्षरसन्निपात) अक्षराणां सन्निपाताः ख्यातनिष्पन्ने) यवभेदे, आ० म० द्वि० / विशे० / धावतीसंयोगाः / राय०। अकारादि (वर्ण)संयोगेषु, "अजिणाणं जिणसंकासाणं त्याख्यातिकम्, क्रियाप्रधानत्वात् / अनु०। साध्यक्रियापदे, सव्वक्खरसण्णिवायाणं" स्था०३ ठा०४ उ०। "यथाऽकरोत् करोति करिष्यति' प्रश्न० संव०२ द्वा०। अक्खरसम-न०(अक्षरसम)(अक्षरैः समो यत्र) गेयस्वरभेदे, यत्र अक्षरे अक्खाइयट्ठाण-न०(आख्यायिकास्थान) कथानकस्थाने, आचा० दीर्घ दीर्घस्वरः क्रियते , हस्व हस्वः, प्लुते प्लुतः, सानुनासिके | २श्रु०११अ01 सानुनासिकस्तदक्षरसममिति, स्था०७ ठा०। अक्खाइयणिस्सिय-न०(आख्यायिकानिश्रित) आख्यायिका अक्खरसमास-पुं०(अक्षरसमास) अकारादिलब्ध्यक्षराणां __ प्रतिबद्धेऽसत्प्रलापे, एष नवमो मृषाभेदः। स्था० 10 ठा०॥ द्वयादिसमुदाये, कर्म०१ कर्म०। अक्खाइया-स्त्री०(आख्यायिका) आ-ख्या-ण्वुल। कल्पित-कथायाम् अक्खवाया-देशी-दिगेत्यर्थे , दे० ना०१ वर्ग। , संथा०। यथा तरङ्गवतीमलयवतीप्रभृतयः / बृ० 130 / अक्खल-देशी-पुं०(अखरोट) इति प्रसिद्धे, वृक्ष, तत्फले च, न० / प्रज्ञा० अक्खाउं-अव्य०(आख्यातुम्) आख्यानं कर्तुमित्यर्थे , "नय दिgसुयं १६पद। सव्वं भिक्खू अक्खाउमरिहइ" / दश०८ अ०। अक्खलिअं-देशी-प्रतिफलिते, दे० ना० 1 वर्ग। अक्खाग-पुं०(आख्याक) म्लेच्छविशेषे, सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ अक्खलिय-त्रि०(अस्खलित) न० त०। अप्रच्युते, स्वकर्तव्ये, अप्रमत्ते, अक्खाडग-पुं०(आखाटक) प्रेक्षाकारिजनासनभूते / स्था०४ ठा०२ वाच० / उपलशकलाद्याकुलभूभागे, लाङ्ग लमिव स्खलति / उ०। चतुरने लोकप्रतीतेऽर्थे, स्था०३ ठा०३ उ० "तेसि णं यत्तत्स्खलितं,न तथाऽस्खलितम्। सूत्रगुणभेदे, अनु०1०1 आ०म० बहुसमरमणिज्जाणं भूमिभागाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं 2 धइरामए प्र०1 अक्खाडए"। राय०। Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्खाण 149 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अक्खुआआरचरित्त अक्खाण-न०(आख्यान) आ-ख्या, चक्षिङ् वा, ल्युट् / / विजं परियाणिया" ||15|| सूत्र०१श्रु०६अ01 आभिमुख्येनादरेण वा ख्यापनं प्रकथनमभिधानं वा / “अक्खाणं | अक्खिवण-न०(आक्षेपण) चित्तव्यग्रतापादने, प्रश्न० आश्र०३ अ०| खावणाभिहाणं वा" आभिमुख्येनाऽऽदरेण वा प्रकथनेऽभिधाने च, अक्खिविउं-अव्य०(आक्षेतुम्) आ-क्षिप्-तुमुन् / स्वीकर्तुमित्यर्थे, विशे० / निवेदने, ध० 1 अधि० / अभिधाने, पञ्चा०२ विव०। नि०। आख्यानकानि धूर्ताऽऽख्यानकादीनि / बृ०२ उ०नि० चू० // अक्खिविउकाम-त्रि०(आक्षेप्तुकाम) स्वीकर्तुकामे, नि० चू०१ उ०। अक्खाय-त्रि०(आख्यात) आ-ख्या-क्तः। पूर्वतीर्थकर-गणधरादिभिः अक्खिवेयणा-स्त्री०(अक्षिवेदना) नेत्रपीडात्मके रोगभेदे, विपा० प्रतिपादिते, सूत्र०१ श्रु०३ अ01 आव०ा "सं तिमे य दुवे ठाणा, अक्खाया मारणंति य" || उत्त०६ अ०। समन्तात्कथिते, उत्त०२ १श्रु० 4 अ० अ०। "सुयं मे आउसं तेणं भगवया एवमक्खायं" आ मर्यादया अक्खीण-त्रि०(अक्षीण) नतका अत्रुटिते, औ०। क्षयमनुपगते, प्रज्ञा० जीवाऽजीवलक्षणासंकीर्ण- तारूपतयाऽभिविधिना वा 26 पद। "अक्षीणा विरतज्वरा हि गृहिणः" प्रति०। "नाम-गोयस्स समस्तवस्तुविस्तारव्यापनलक्षणेन ख्यातं कथितमाख्यातमात्मादि वा कम्मस्स अक्खीणस्स अवेइयस्स'' अक्षीणस्य स्थितेरक्षयेण / वस्तुजातमिति गम्यते। स्था० 1 ठा०। सूत्र०॥ द०। भणिते, संथा०। / कल्प० / "अक्खीणदव्वसारा"! प्रश्न० आश्र० 3 द्वा०। तिङ्पे प्रत्यये, भाव एव साध्यतया लिङादिरभिधीयते न कर्ता | अक्खीणपडिभोइ(ण)-पुं०(अक्षीणपरिभोगिन्) अक्षीण - "पूर्वापरीभूतं भावमाख्यातमाचष्टे" इतिवचनात्। सम्म०। मक्षीणायुष्कमप्रासुकं परिभुञ्जते इत्येवंशीला अक्षीणपरिअक्खायपव्वज्जा-स्त्री०(आख्यातप्रव्रज्या) आख्यातेन धर्म-दर्शनेन भोगिनः / अप्रासुकपरिभो गिषु, इन्प्रत्ययस्य स्वार्थिकत्वाद्, आख्यातस्य वा प्रव्रज्येत्यभिहितस्य गुरुभिर्या साऽख्यातप्रव्रज्या। अनपगताहारशक्तिषु, "आजीवियसमयस्स णं अयमढे पण्णत्ते प्रव्रज्याभेदे, स्था० 3 ठा०२ उ०1"अक्खा- याए जंबू धम्भ अक्खीपडिभोइणो सव्यसत्ता'। भ०८ श०५ उ०।। अक्खादिपभवस्स"। पं० भा०।"अक्खायाए सुदंसणो सेट्ठी सामिणा अक्खीणमहाणसिय-पुं०(अक्षीणमहानसिक) महानसमन्न-पाकस्थानं संबोहिओ'। पं० चू० तदाश्रितत्वाद्वाऽन्नमपि महानसमुच्यते, ततश्चाक्षीणं पुरुषशतअक्खि-न०(अक्षि) अश्नुते विषयान, अश्-क्सिा नेत्रे, वाच०। सहस्रेभ्योऽपि दीयमानं स्वयमभुक्तं सत् तथाविधल ब्धिविशेषादत्रुटितं, "अक्खिहि य णासाहि य जिब्भाहि य ओडेहि य"। विपा०१ श्रु० तच तन्महानसं च भिक्षालब्धं भोजन-मक्षीणमहानसं तदस्ति येषां ते २अ०। "ते अंजिअक्खितिलए" / नि० चू०१ उ०। तथा / औ०। अक्षीणमहानसी नामलब्धिमुपपन्नेषु, येषामसाअक्खिंतर-न०(अक्ष्यन्तर) ६त० नेत्ररन्ध्रे, विपा०। "अक्खि-तरेसु धारणान्तरायक्षयोपशमाद-ल्पमात्रमपिपात्रपतितमन्नं गौतमादीनामिव दुबे (नाड्यौ)। विपा०१श्रु०१ अ०। पुरुषशतसहस्रेभ्योऽपि दीयमानं स्वयमेवाभुक्तं न क्षीयते ते अक्षीणमहानसाः। उक्तंच-"अक्खीणमहाणसिओ, भिक्खंजेणाणीयं अक्खित्त-त्रि०(आक्षिप्त) आ-क्षिप्-क्त / कृताक्षेपे, यस्याक्षेपः पुणो तेण। परिभुत्तं चिय खिज्जइ, बहुएहिं विनपुण अन्नेहि" ||१||ग०२ कृतस्तस्मिन्। वाच० आकृष्टे, ज्ञा०१श्रु०१६अ०। उपलोभिते, ज्ञा० अधि०। अक्खीणमहाणसियस्स भिक्खं ण अन्नेण णिट्ठविजइ, तम्मि 1 श्रु०२ अ०। आवर्जित, दश,०३ अ०। उपन्यस्ते च, पंचा० 12 जिमिते णिहाति। आ० चू० 1 अ०। आ० म०प्र०। विव०॥ अक्खि(क्खे)त्त-न०। न० त०। (अक्षेत्र) क्षेत्राभाये, "मग्गणा खेत्त अक्खीणमहाणसी-स्त्री०(अक्षीणमहानसी) लब्धिभेदे, येनानीतं भैक्षं अक्खेत्ते" एकक्षेत्रस्थितानां मार्गणा कर्तव्या, कस्य क्षेत्रं भवति कस्य बहुभिरपि लक्षसंख्यैरप्यन्यैस्तृप्तितोऽपि भुक्तं न क्षीयते यावदात्मनान वानभवति क्षेत्रमित्यर्थः। व्य०४ उ०। क्षेत्रभिन्ने बहिरथे "अक्खेत्तुवस्सए भुङ्क्ते किन्तु तेनैव भुक्तं निष्ठां याति, तस्याक्षीणमहानसी लब्धिः / प्रव० 270 द्वा० / विशे० पुच्छमाणे दूरावलिय मासो" अक्षेत्रे स्थितानामुपाश्रये उपाश्रयविषया मार्गणा कर्तव्या / अक्षेत्रे उपा-श्रयस्य मार्गणा कर्तव्येत्युक्तं तत्र अक्खीणमहालय-पुं०(अक्षीणमहालय) लब्धिविशेषम-वाप्तेषु, ते च तावदक्षेत्रमाह "पहाणाणुजाण अद्धाणसीसए कुलगणे चउक्के य / यत्र परिमितभूप्रदेशेऽवतिष्ठन्तेतत्रासंख्याता अपि देवास्तिर्यञ्चो मनुष्याश्च गामाइयाणमंतरमहे य उज्जाणमादीसु / इंदक्कीलमणोग्गाहो जत्थ राया सपरिवाराः परस्परबाधारहितास्तीर्थकरपर्षदीव सुखमासते इति। ग० जेहिं वपंच इमे। अमच्चपुरोहिया सेट्ठी, सेणावति सत्थवाहो य" / व्य० २अधि०। 4 उ०। जं दिसं वाघातो तं दिसं अक्खुजाणं जाव खेत्तं भवति परओ अक्खीरमधु(हु) सप्पिय-पुं०(अक्षीरमधुसर्पिष्क) न० ब० / अक्खेत्त' / नि० चू०१ उ०। दुग्धक्षौद्रघृतवर्जके अभिग्रहविशेषधारके, प्रश्न० संव०१ द्वा०। अक्खित्तणियं सण-त्रि०(आक्षिप्तनिवसन) 3 ब०। आकृष्ट- अक्खुअ-त्रि०(अक्षत) आर्षत्वादुकारः। अप्रतिहते, ध०३ अधि०। परिधानवस्त्रे, "अक्खित्तणियंसणा मलिणडंडिखंडवसणा"। प्रश्न० अक्खुआआरचरित्त - पुं०(अक्षताकारचरित्त) अक्षत आकारः स्वरूप आश्र०३ द्वा०। यस्य अक्षताकारमतीचारैरप्रतिहतस्वरूपं चरित्रं येषां ते तथा / अक्खिराग-पुं०(अक्षिराग) अक्षणां रागो रञ्जनम्। सौवीरादि-केऽञ्जने, निरतिचारचरित्रेषु, "अट्ठारससहस्स सीलंगधरा अक्खुआ आरचरित्ता "आसूणिमक्खिरागं च, गिद्धवधायकम्मगं / उच्छलणं च कक्कं च, तं ते सव्ये सिरसा मणसामत्थएण वंदामि" ध०३ अधि०। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्खुण्ण 150 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अक्खुद्द अक्खुण्ण-त्रि०(अक्षुण्ण) न० त० / अमर्दिते, नि० चू० 10 उ०। "अक्खुण्णेसु पहेसुपुढवी उदगंमि होइ पुहओ वि" / बृ०१ उ०। अक्खुद्द-पुं०(अक्षुद्र) न० त०।अनुत्तानमतौ, ध०१अधि० ध०र०। अकृपणे, कृपणो ह्यौचित्येन द्रव्यव्ययकरणाशक्तत्वान्न तत्साधनाय शासनप्रभावनाय चालमिति तद्भिन्नस्य प्रथम-श्रावकगुणवत्त्वम्। पंचा० 7 विव० / अक्रूरे, क्रूरेण हि परोप-तापितत्याज्जनद्वेषेण कृतं तदायतनं तन्मत्सरेण जनद्वेष्यं स्यादिति (तद्भिन्नस्य प्रथमश्रावकगुणवत्त्वम्)। पंचा०२ विव०॥ तेन निष्पादितं सर्वानन्ददायितया हितं भवति। दर्श०। अस्य विस्तरेण प्रतिपादनम्खुद्दो ति अगंभीरो, उत्ताणमईन साहए धम्म। सपरोवयारसत्तो, अक्खुद्दो तेण इह जुम्गो ||8|| यद्यपि क्षुद्रशब्दस्तुच्छङ्करदरिद्रलघुप्रभृतिष्वर्थेषु वर्तते तथापीह क्षुद्र इत्यगम्भीर उच्यते, तुच्छ इति कृत्या स पुनरुत्तानमति-रनिपुणधिषण इति हेतोर्न साधयति नाराधयति धर्म, भीमवत्, तस्य सूक्ष्ममतिसाध्यत्वात् / उक्तं च-"सूक्ष्मबुद्ध्या स विज्ञेयो, धर्मो धर्मार्थिभिनरैः / अन्यथा धर्मबुद्ध्यैव, तद्विघातः प्रसज्यते / / 1 / / गृहीत्वा ग्लानभैषज्य-प्रदानाभिग्रहं यथा / तदप्राप्तौ तदन्तेऽस्य, शोकं समुपगच्छतः // 2 // गृहीतोऽभिग्रहश्रेष्ठो, ग्लानो जातो न च क्वचित् / अहो ! मेऽधन्यता कष्ट, न सिद्धमभिवाच्छितम्॥३।। एवमेतत्समादानं, ग्लानभावाभिसन्धिमत् / साधूनां तत्त्वतो यत्तद् दुष्टं ज्ञेयं महात्मभिः" || इति, एतद्विपरीतः पुनः स्वपरोप-कारकरणे शक्तः समर्थो भवतीति शेषः / अक्षुद्रः सूक्ष्मदर्शी सुपर्यालोचितकारी तेन कारणेनेहधर्मग्रहणे योग्योऽधिकारीस्यात्, सोमवत्। तयोः कथा चैवम् - नरगणकलियं सुजइच्छंदं पिवकणयकूडपुरमत्थि। तत्थासि वासवो वासउ व्व विबुहप्पिओ राया।।१।। कमला य कमलसेणा, सुलोयणा नाम तिन्नि तरुणीओ। भूमीवइदुहिआओ, दुस्सहपियविरहदुहियाओ // 2 // अन्नायसरूवाओ, अन्नुन्नं पिहु तर्हि रुयंतीओ। समदुहदुहिय त्ति ठिया, एगत्थ गमंति दिवसाई॥३॥ तत्थेगो सुगुणेहि, अवामणो वामणो उ रूवेण। सम्मं निययकलाहिं, रंजइ निवपभिइसयलपुरं // 4 // कइया चि निवेणुत्तो, सो जह इह विरहदुहियतरूणीओ। जइ रंजिहिही नूणं, तो तुह नज्जइ कलुक्करिसो॥५॥ थोवमिणं ति स भणिरो, रन्नोऽणुनाइ बहुवयंसजुओ। पत्तो ताणं भवणे, कहेइ विविहे कहालावे / / 6 / / एगेणवयंसेणं, वुत्तं किमिमाहि मित्त! वत्ताहिं। किंपिसुइसुहयचरियं, कहसुतओकहइ इयरो वि॥७॥ महिमहिलाभालत्थल-तिलयं व पुरं इहत्थि तिलयपुरं। तत्थ य पूरियमग्गण-मणोरहो मणिरहो राया |8|| सुइसुरहिसीलजियविम-लमालई मालइ त्ति से दइया। पुत्तोय भुवणअक्कमणविक्कमो विक्कमो नाम / नियमंदिरसंनिहिए, गिहम्मिकम्मि विकया वि संजाए। सोसुणइसवणसुहयं, केण विएवं पढिज्जत।।१०|| नियपुन्नपमाणं गुणवियड्डिमा सुजणदुञ्जणविसेसो। नजइ नेगत्थठिए-हिं तेण निउणा नियंति महिं।।११।। तं मुणिय सुणियमवगणियपरियणं देसदसणसतहो। कुमरोरयणीइ पुराउनिग्गओखग्गवग्गकरो।।१२।। सो वचंतो संतो, अग्गे मग्गे निएइ कंपि नरं। निठुरपहारविहुरं, पिवासियं महियले पडियं // 13 // तो सरवराउ सलिलं, गहित्तु उप्पन्नपुन्नकारुनो। तं पाइत्ता पवण-प्पयाणओ कुणइ पउणतणुं // 14 // पुच्छइ य भो महायस ! कोऽसि तुमं किं इमा अवत्था ते? सो भणइ सुयणसिररयण ! सुणसु सिद्ध त्ति हं जोई।।१५।। विजाबलिएण विप-क्खजोइणा छलपहारिणा अहयं / एयमवत्थं नीओ, तए पुणो पगुणिओ सगुणो॥१६॥ तो सो तोसेणं गुरुडमंतमप्पित्तु नरवरसुयस्स। सवाणं संपत्तो, कुमरो पुण इत्थ नयरम्मि||१७|| निसि मयणगिहे वुत्थो, चिट्ठइजासुठु जग्गिरो कुमरो। तातत्थेगा तरुणी,समागया पूइउंमयणं॥१८|| बहिनीहरिउंजपइ, अम्मोवणदेवयासुणहसम्म। इहवासवनरवइणों , सुहिया कमलत्तिहंदुहिया।।१९।। मणिरहसुयस्स विक्कम-कुमरस्सुज्जलगुणाणुराएण। दिन्ना पिउणा सो पुण,इण्हिं न नजइ कहिं पि गओ // 20 // जह मह इह न उजाओ, सो भत्ता तो परत्थ विहविज्जा। इयपभणिअउल्लंबइ,वडविडविणिजावसाअप्पं॥२१॥ मा कुणसु साहसं इय, भणिरो छुरियाइ छिंदिउंपासं। कमलं कमलसुकोमल-वयणेहिं संठवइ कुमरो॥२२॥ इत्तो तस्सुद्धिकए, भडचडगरपरिवुडो तहिं पत्तो। वासवनिवो वि कुमरंदलु हट्ठो भणइ एवं // 23 // तिलयपुरे अम्मेहिं, गएहि मणिरहसमित्तमिलणत्य। तं बालत्ते दिट्ठो, दक्खिन्नसुपुन्नवर ! कुमर ! / / 24 / / निचऽणुरत्ता एसा, पइ कमला कमलिणि व्व दिणनाहे। तुह दाहिणकरमेलणवसा सुहं लहउ मह दुहिया।।२५।। इय महुरगहिरभणिई-पत्थिओवासवेण नरवइणा। विक्कमकुमरो कमलं, परिणेइ तिविक्कमुव्व तओ॥२६|| गोसे तोसेणपुरे, पवेसिओ निवइणा सभञ्जो सो। तीइ समं कीलंतो, चिट्ठइ निवदिन्नपासाए // 27 // तो किं अग्गे कमला-इ जंपिए भणिय रायसे वाए। समओ त्ति गओ खुजो, बीयदिणे कहइ पुण एवं // 28 // कइया वि सुणिय रयणीइ, कलुणसदं रुयंतरमणीए। तस्सद्दऽणुसारेण य, स गओ कुमरो मसाणम्मि // 26 // दिवा बाहजलाविल-विलोललोयणजुया तहिं जुवई / तीए पुरओ जोई, तह कुंडं जलिरजलणजुयं // 30 // होउं लयंतरे पउरपउरिसो जाव चिट्ठए कुमरो। विसमसरपसरविहुरो, तो जोई भणइ तं बालं // 31 // पसिय च्छिय सियसयवत्त-पत्तनयणे ममं करिय दइयं। चूलामणि व्य तं होसु सयलरमणीयरमणीणं // 32 // सारुयमाणीपभणइ, किं अप्पमणत्थयं कयत्थेसि। जइ सि हरी मयणो या, तहा वि तुमए न मे कजं // 33 // अहरुट्ठो सो जोई, बला विजा गिहिही करेण तयं। ता पुक्करियं तीए, हहा ! अणाहा इमा पुहवी // 34 // जंसिरिपुरपहुजयसेणनिवइदुहिया अहं कमलसेणा। दिण्णा पिउणा मणिरह-निवसुयविक्कमकुमारस्स // 35 / / संपइ विजाबलिओ, अहह ! अखत्तं करेइ को वि इमो। इय निसुणिय पयडियकोवविन्भमो भणइ कुमरो तं // 36|| पुरिसो हवेसुसत्थं, करेसुसमरेसुदेवयं इट्ठ। परमहिलमहिलसंतो, रे रे पाविट्ठ ! नट्ठो सि॥३७॥ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्खुद्द 151 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अक्खुद्द तो खलभलिओ जोई, भणइ परित्थीपसंगवारणओ। निवडतो हं नरए, साहु तए रक्खिओ कुमर ! ||38|| उवयारओ त्ति दाउं, रूवपरावित्तिकारिणिं विझं / पभणइ जोगी मन्ने, गुरुविक्षमसाहसगुणेहिं / / 3 / / तुम पइ इमीइ दिट्ठी,वलणेणं तंयि विक्कमकुमारो। इयरो वि साहइ अहो, तुहिंगियागारकुसलत्तं // 40|| तो जोगि पत्थिओ तं, बालं परिणित्तु तं विसज्जेउं / तीए जुओ कुमारो, नियमवणुजाणमणुपत्तो॥४१।। ता किं जायं तस्सग्गओ त्ति पुट्ठम्मि कमलसेणाए। ओलग्गाए वेल त्ति, जंपिउं निग्गओ खुओ॥४२॥ अथ तइयवासरम्मि,आगंतुं कहइ तत्थ पुण एवं / कुमरो जावुजाणे, कीलइ सह कमलसेणाए // 43 // परकजसज्ज ! मह कज्ज-मज कुणसुति ताव तं कोइ। आह कुमारो वि भणइ, करेमि जीवियफलं एअं॥४४॥ तयणु विमाणारूढो, कुमरो वेयड्डिकणयपुरपहुणो। विजयनिवस्स समीवे, नीओ सो तेण इय भणिओ॥४५॥ कुमर ! मह अस्थि सत्तु, भघिलपुरसामिधूमकेउनिवो। तं अक्षमिउं आरा-हियाइ कुलदेवयाइमए // 46 // तविजयक्खमो तं, कुमर ! पमणिओ गिण्ह ता इमा विज्जा / आगासगामिणीमाइयाउ तह चेव सो कुणइ // 47|| अह साहियबहुविजं, हयगयघडसुहडकोडिसंघडियं / कुमरं इंतं निसुणिय, संखुद्दो धूमकेउनियो॥४८॥ अतुच्छलच्छिविच्छदु-मंडियं छंडिउंगओरज्ज। तं गहिय महियसत्तु, पत्तो कुमरो वि सट्ठाणं // 46 / / हरिसुक्करिसपरेणं, रन्ना विसुलोयणं निययधूयं / परिणाविओ कुमारो, चिट्ठइ तत्थेव कइ वि दिणे // 50 // दट्टुं पुण्यपियाओ, कया वि कुमरो सुलोयणासहिओ / इत्येव पुणो नयरे, नियभवणुजाणमोइन्नो // 51 // सो कत्थ गओ त्ति सुलो-यणाई पुट्टम्मि वामणो हसिरो / नो तुम्हे विव अम्हे, खणिया इय वुत्तु नीहरिओ // 52 / / नियनियचरियसवणओ, नियनियतणुनिउणफुरणओ ताहिं। कयरूवपरायत्तो, नियभत्ता तक्किओ खुजो // 53 // अह रायपहे खुजो, गच्छंतो सुणिय कम्मि विगिहम्मि। करुणसरं तो कंपि हु, पुच्छइ रोइज्जए किमिह ? // 54|| सो भणइ तिलयमंति-स्स पुत्तिया सरसइ ति नामेण। भवणोवरि कीलंती, डक्का कसिणेण उरगेण // 55 // चत्ता नरिंदविंदा-रएहिं तो तीइ मायपियसयणा। उम्मुझकंठमुझं-ठवजिया इय रुयंति बहुं!।५६।। तं सोउ भणइ खुजो, गच्छामो भद्द मंतिगेहम्मि। पिच्छामि तयं बालं, अहमवि उंजेमि तह किंपि।।५७।। इय वुत्तु मंतिभवण-म्मि वामणो तयणु तेण सह पत्तो। पउणेइ पोढमंत-प्पभावओ झत्ति तं बालं / / 58|| नियविनाणं व तुम, सरूवमवि दंससु तिसचिवेण। सो पत्थिओखणेणं, नडुव्व जाओ सहावत्थो।५६|| तस्स पहाणं रूवं,दर्छ अइविम्हिओ तिलयमंती। जा चिट्ठइ ता पढियं, मागहविंदेण पयडमिमं // 60 / / मणिरहनिवकुलससहर!, हरहारकरेणुधवलजसप्पसर!। पसरियतिहुयणविक्कम !, विक्कमवर ! कुमर ! जय सुचिरं // 61 / / तो मंती वरकुलरू-वविक्कम विक्कम निएऊण। कुमरीइ पाणिगहणं, कारावइ हट्टतुट्ठमणो // 62 / / तं सुणिय जाणिउं निय-सुयाइ कमलाइ पिययम हिट्ठो। वासवराया कारइ, महुसवं सव्वनयरम्मि // 63 / / तत्तो मंतिगिहाओ, नीओ नियमंदिरे विभूईए। सो सव्यपियाहि जुओ, सुहेण चिट्ठइ सुरु व्य तहिं॥६४।। कइया विजणयलेहेण पेरिओ पुच्छिउं ससुररायं। चउहि वि भजाहि समं, कुमरो पत्तो तिलयनयरे // 65 / / पणओ य जणणिजणए, इत्तो उजाणपालएण निवो। विन्नत्तो सिरिअकलं-कसुरिआगमणकहणेण // 66|| तो भासुरभूइजुओ, सकुमारो मारसासणु व्व निवो। चलिओ गुरुनमणत्थं, रायपहे नियइ नरमेगं / / 67 / / अइसलवलंतकिमिबहुलजालमच्छिन्नमच्छ्यिाच्छन्नं / निक्किलकुट्ठसल्लिर-सिरहरमइदीणहीणसरं // 68|| तंदठुमणिट्टमरिठ्ठ-मंडलम्मि व विसायमलिणमुहो। पत्तो गुरूवपासे, नमिउं निसुणेइ धम्मकहं॥६६॥ जीवो अणाइतणुकम्मबंधसंजोगओसया दुहिओ। भभइ अणाइवणस्सइ-मज्झगओऽणंतपरियट्टे७॥ तो बायरेसु तत्तो, तसत्तणं कह वि पावए जीवो। लहुकम्मो य तओ जइ, पावइ पंचिंदियत्तं च / / 71 / / पुन्नविहूणो य तओ, न अञ्जखित्ते लहेइ मणुयत्तं / लद्धे वि अज्जखित्ते, न कुलं जाइं बलं रूवं // 72 / / एयं पिकहवि पावइ, अप्पाऊ या हविज्ज वाहिल्लो। दीहाउओ निरोगो हविज जइ पुन्नजोएण // 73|| पत्ते नीरोगत्ते, दंसणनाणस्स आवरणओय। नय पावइ जिणधम्म, विवेयपरिवजिओ जीवो // 74|| लखूण वि जिणधम्म, दंसणमोहणियकम्मउदएणं। संकाइकलुसियमणो, गुरुवयणं नेव सद्दहइ // 7 // अह निम्मलसंमत्तो,जहट्टियं सहेइगुरुवयणं / नाणावरणस्सुदए, संसिज्जं तं न बुज्झेइ // 76 / / कह संसियं पिबुज्झइ, सयं पि सद्दहइ बोहए अन्नं। चारित्तमोहदोसेण, संजमं न य सयं कुणइ / / 77|| खीणे चरित्तमोहे, विमलतवं संजमं च जो कुणइ। सो पावइ मुत्तिसुहं इय भणियं खीणरागेहिं // 78|| चुल्लगपासगधन्ने, जुए रयणे य सुमिणचक्के य। चम्मजुगे परमाणू, दस दिढता सुयपसिद्धा 76 एएहिं इमं सव्वं, मणुयत्ताई कमेण दुल्लब्भ। लढुं करेह सहलं, काऊण जिणिंदवरधम्म ||8|| अह समए भणइ निवो, भयवं! किं दुक्कयं कयं तेण? उक्किट्ठकुटिएणं, तो इह जंपेइ मुनिनाहो / / 81|| मणिसुंदरमंदिररेहिरम्मि मणिमंदिरम्मि नयरम्मि। दो सोमभीमनामा, कुलपुत्ता नियमविउत्ता // 2 // पढमोऽणुत्ताणमई, अक्खुद्दो भद्दओ विणीओ य। तविवरीओ बीओ, परपेसणजीविणो दो वि।।३।। अन्नदिणे दिनमणिकिरणभासुरं सुरगिरि व उत्तुंगं। कत्थ वि वचंतेहि, तेहिं जिणमंदिरं दिल॥४॥ सुहममई सोमो भणइ, भीम ! सुकयं कयं न किं पिपुरा। अम्हेहि तेण नूणं, परपेसत्तणमिणं पत्तं / / 8 / / जंतुल्ले विनरत्ते, एगे पहुणोपयाइणो अन्ने। तं सुकयदुक्कयफलं, अकारणं हवइ किं कज्जं / / 86|| Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्खुद्द 152 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अक्खोवंजण तो पणमामो देवं, देमो य जलंजलिं दुहसयाणं। निक्षेपे, अर्थालङ्कारभेदे, निवेशने, उपस्थाने, अनुमाने, यथा उत्ताणमई वायालभावओ भणइ अह भीमो॥८७।। जातिशक्तिवादिनामाक्षेपात् व्यक्तेर्बोधः। सतिरस्कारवचने च, वाचा नय अस्थि भूयपंचगपवंचअहिओ जिउ चियजयम्मि। अक्खेवणी-स्त्री०(आक्षेपणी) आक्षिप्यते मोहात्तत्त्वं प्रत्याकृष्यते हे सोम ! वोमकुसुमं, व तयणु देवाइणो कि हणु॥१८|| श्रोताऽनयेत्याक्षेपणी, कथाभेदे, सा चतुर्विधा-"अक्खेवणी कहा पासंडितुंडअइचंड-तंडवाडंबरेहि किं मुद्ध!। चउव्यिहा पण्णत्ता, तं जहा- आयारक्खेवणी ववहारक्खेवणी देवो देवु त्ति मुहा-कयत्थसे अप्पमप्पमई||८| पण्णत्तिक्खेवणी दिट्ठिवायक्खेवणी" स्था०४ ठा०। इय वारिओ वि तेणं, सोमो सोमु व्व सुद्धमइजुण्हो। आयारे ववहारे, पन्नत्ती चेव दिट्ठिवाएय। गंतुं जिणभवणे भुवण बंधवं नमइ समियतमो||६|| एसा चउव्विहा खलु, कहा उ अक्खेवणी होइ॥२००।। गहिउं रूवगकुसुमे, पुएइ जिणं पराइ भत्तीए। आचारो लोचास्नानादिः, व्यवहारः कथंचिदापन्नदोषव्यपोहाय तप्पुण्णवसा अजइ, सबोहिबीयं नराउजुयं // 11 // प्रायश्चित्तलक्षणः प्रज्ञप्तिश्चैव संशयापन्नस्य मधुरवचनैः प्रज्ञापना, मरिउंस एस सोभो, जाओ मणिरहनरिंद ! तुह पुत्तो। दृष्टिवादश्च श्रोत्रापेक्षया सूक्ष्मजीवादिभावकथनम् ।अन्ये त्व-भिदधतिपडिपुनपुन्नसारो, मारो इव विक्कमकुमारो॥२॥ आचारादयो ग्रन्था एव परिगृह्यन्ते, आचाराद्यभि-धानादिति / भीमो उण खुद्दमई, जिणाइनिंदणपरायणो मरिउं। एषाऽनन्तरोदिता चतुर्विधा / खलुशब्दो विशेषणार्थः / जाओ एसो कुट्ठी, पुरओ भमिहि भवमणंतं च // 13 // श्रोत्रापेक्षयाऽऽचारादिभेदानाश्रित्यानेकप्रकारेति कथा त्वाक्षेपणी अह जायजाइसरणो, कुमरो हरिसुल्लसंतरोमंचो। भवति / तुरेवकारार्थः। कथैव प्रज्ञापकेनोच्यमाना नान्येन। आक्षिप्यन्ते नमिउं गुरुपयकमलं, गिण्हइ गिहिधम्ममइरम्मं ||14|| मोहात्तत्त्वं प्रत्यनया भव्यप्राणीत्याक्षेपणी भवतीति गाथार्थः / इदानीमस्या मणिरहनिवो वि विक्कम-कुमरे संकमियरजपन्भारो। रसमाहगहियवओ उप्पाडिय, केवलनाणो गओ सिद्धिं // 15 // विजा चरणं च तवो, य पुरिसकारो य समिइगुत्तीओ। जिणमंदिरजिणपडिमा-जिणरहजत्ताकरावणुचुत्तो। उवइस्सइ खलु जहियं, कहाइ अक्खेवणीइ रसो // 201 / / मुणिजणसेवणसत्तो, दढसंमत्तो विमलचित्तो // 66|| विद्या ज्ञानमत्यन्तोपकारि भावतमोभेदकं, चरणं चारित्रं संपुन्नकलो पडिपुन्नमंडलो हणियदुरियतमपसरो। समग्रविरतिरूपम् , तपोऽनशनादि, पुरुषकारश्च कर्मशत्रून् प्रति विक्कमराया राउ-व्व कुवलयं कुणइ सुहकलियं / / 67|| स्ववीर्योत्कर्षलक्षणः, समितिगुप्तयः पूर्वोक्ता एव / एतदुपदिश्यते खलु अन्नम्मि दिणे निवई, नियपुत्तनिहित्तगरुयरज्जधुरो। श्रोतृभावापेक्षया सामीप्येन कथ्यते। एवं यत्रक्वचिद-सावुपदेशः कथाया अकलंकसूरिपासे, पव्वजं संपवज्जे // 98|| आक्षेपण्या रसो निष्यन्दः सार इति गाथार्थः / दश०नि० अक्खुद्दो गंभीरो, सुहुममई सुयमहिजिउंबहुयं / 3 अ० धागा औ०। द्वा०। (इयं कस्मै कथयितव्येति 'धम्मकहा' विहिणा मरिउं पत्तो, दिवम्मि लहिही कमेण सिवं III शब्दे) श्रुत्वेति मंभीरगुणस्य वैभवं, अक्खेवि(ण)-त्रि०(आक्षेपिन्) आक्षिपन्ति वशीकरणादिना येते ततो महान्तमुत्तानमतेश्च वैभव। मुष्णन्तितेआक्षेपिणः (वशीकरणादिना परद्रव्यमुषु) प्रश्न० आश्र०३ श्रद्धाधनाः श्राद्धजनाः समाहिताः, अक्षुद्रतां धत्त सदा समाहिताः // 100 / / ध०र०। अक्खोड-धा०(कृ ष) असेः कोशात्कर्षणे, "असावअक्खुपुरि-स्त्री०-(अक्षपुरि) नगरीभेदे, यत्र सूर्यप्रभो ग्रहपतिः, सूरश्रीस्तस्य भार्या, तस्याः सूरप्रभाद्या दारिकाः सूर्य्यस्य क्खोडः" / / 18 / इति सूत्रेण असिविषयस्य कृषेरक्खोडादेशः। अक्खोडइ। असिंकोशात्कर्षतीत्यर्थः। प्रा० / अग्रमहिषीत्वेन जाताः। ज्ञा०२ श्रु०।। अक्खेव-पुं०(आक्षेप) आक्षेपणमाक्षेपः, आशङ्कायाम्, आ०म० *अक्षोट(ड)-पुं०। आ+अक्ष-ओट-ओडा शैलपीलुवृक्षे,'अखरोट्' द्वि०। पूर्वपक्षे, विशे० आ-क्षिप, क्षिपप्रेरणे, मर्यादोप-दिष्टमर्थमाक्षिपति | इति लोके प्रसिद्धः / वाच० ! तत्फले, न० / प्रज्ञा०१७ पद / न सम्यगेतदिति। किमाक्षिपति? आह-द्विविधमेव सूत्रम्। यत्संक्षेपकं, अक्खोडमंग-पुं०(अक्षोटभङ्ग) खोटभङ्गशब्दार्थे, "खोटभंगो त्ति वा यद्वा विस्तारकं / संक्षेपकं सामायिकम्, विस्तारकं चतुर्दशपूर्वाणि / उक्कोडभंगो त्ति या अक्खोडभंगो त्ति वा एगटुं"। व्य०१ उ० / नि०५०। एवमेष नमस्कारः। नापि संक्षेपेणोपदिष्टः, नापि विस्तरतः। एतावती व अक्खोम-त्रि०(अक्षोभ) न०बला क्षोभवर्जिते, "अक्खोभे सागरो व्य परिकल्पना तृतीया नास्ति। "नमो सिद्धाणं ति णिव्वुया गहिया णमो थिमिए" / प्रश्न० संव० 5 द्वा० / अचलितस्वरूपे, "एत्थुस्सग्गो साहूणं ति संसारत्था गहिया एवं संखेवो वित्थरो, णमो अरहताणं, णमो अक्खोभो होइ जिणाचिण्णो"। पंचा०४ विव०॥"अक्खोहस्सभगवओ सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो चोद्दसपुथ्वीणं 2 जाव णमो संघसमुदस्स" अक्षोभ्यस्य परीषहोपसर्गसंभवेऽपि निष्प्रकम्पस्य, नं० / आयतरगाणं, णमो आमोसहिपत्ताणं, एवमादि एत्थंतरे ण कायव्यो जेण अन्धकवृष्णेरिण्यां जाते पुत्रे, स च द्वारावत्यां नगर्यामन्धकवृष्णे. ण कीरति तेण दुटु ति अक्खेवदारं"। आ०चू०१ अ०1"अक्खेवो धरिण्यां देव्या- मुत्पन्नोऽरिष्टनेमेरन्तिके प्रव्रजितः शत्रुञ्जये संलेखनां सुत्तदोसापुच्छा वा" आक्षेपो नाम यत्सूत्रदोषाउघ्यन्ते पृच्छा वा क्रियते, कृत्वा सिद्ध इत्यन्तकृद्दशासु सूचितम्।तद्वक्तव्यताप्रतिबद्धेऽन्तकृद्दशाना बृ०१ उ० / परद्रव्याक्षेपस्वरूपे एकोनविंशतितमे गौणचौर्ये, प्रथमवर्गस्य सप्तमेऽध्ययते च। अन्त०१ वर्गा स्था०। प्रश्न०आश्र०३ द्वा० / भर्त्सने, अपवादे, आकर्षणे, धनादिन्यासरूप | अक्खोवंजण-न०(अक्षोपाञ्जन) शक टधूम क्षणे,"अक्खो द्वा०। Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्खोवंजण 153 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अगडदत्त वंजणवणाणुलेवणभूयं" अक्षोपाञ्जन-व्रणानुलेपनभूतम् (आहारम्) | चलस्थिरत्वापेक्षया ते ज्ञेया इति। स्था०२ ठा०२ उ०। अक्षोपाञ्जनंच शकटधूर्मक्षणं, व्रणानुलेपनं च क्षतस्यौषधेन विलेपनम्, | अगंठिम-न०(अग्रन्थिम) कदलीफलेषु, खण्डाखण्डीकृतेषु वा फलेषु, अक्षोपाञ्जनवणानुलेपने, ते इव विवक्षितार्थसिद्धिरसादिनिर- बृ१ उ० 1 अध्वकल्पे, "सक्करधययगुलमीसा खजूरगंठिमा वत्तंम्मि" मिष्वङ्गतासाधाद्यः सोऽक्षोपा- ऽञ्जनवणानुलेपनभूतस्तम्, अगंठिमा णाम कयलया अण्णे भण्णं ति मरहट्ठविसए फलाण क्रियाविशेषणं वा / भ०७ श०१ उ०। कयलंकप्पमाणाओ पिंडीओ एक्कम्मिडाले बहुकिओभवंताणि फलाणि अखंड-त्रि०(अखण्ड)न०बापौर्णमासीचन्द्रबिम्बवत्।स्था०५ ठा०१ खंडाखंडाणि कयाणि घेप्पंति। नि०चू०१६ उ०। उ०।संपूर्णावयवे, आ०म०द्विातं०। ज्ञा०ासर्वधर्मास्तिकायादिकं संपूर्ण अगंडिगेहो-(देशी०)। यौवनोन्मत्ते, दे०ना०१ वर्ग। देशदैशिककल्पनारहितमखण्डं वस्तु / विशे०। 'सुहगुरुजोगो अगंडूयग-पुं०(अकण्डूयक) कण्डूयनाकारकेऽभिग्रहविशेष-धारके, तव्वयणसेवणा आभवमखंडा' आभवमखण्डा आजन्माऽऽसंसारं वा। ल०। पञ्चा०। संघनगर- भद्रं ते अक्खंडचरित्तपागारा / सूत्र०२ श्रु०२ अ०। अखण्डमविराधितं चारित्रमेव प्राकारो यस्य तत्तथा। नं०1 अगंथ-पुं०(अग्रन्थः) न विद्यते ग्रन्थः सबाह्याभ्यन्तरोऽस्येत्य-ग्रन्थः / निर्गन्थे, "पावं कम अकु व्यमाणे एस महं अगंथे अखंडणाणरज्ज-त्रि०(अखण्डज्ञानराज्य) अचूर्णितज्ञानराज्ये, चित्ते परिणतं यस्य, चारित्रमकुतोभयम्। अखण्डज्ञानराज्यस्य, तस्य साधोः वियाहिए"। आचा०१श्रु०८ अ०३ उ०। कुतो भयम् // अष्ट०१७ अष्ट। अगंध-त्रि०(अगन्ध) नञः कुत्सार्थत्वाद् -अतीव दुर्गन्धे, बृ० अखंडदंत-त्रि०(अखण्डदन्त) अखण्डाः सकला दन्ता येषां ते 10 / अखण्डदन्ताः। जी०३ प्रतिक्षा परिपूर्णदशनेषु, जं०२ वक्षा औ०। अगंधण-पुं०(अगन्धन) नागजातिभेदे, नागानां भेदद्वयम् - अखंडिय-त्रि०(अखण्डित)परिपूर्ण / पंचा०१८ विव०॥ गन्धनोऽगन्धनश्च / तत्र अगन्धना नागा मन्त्रैराकृष्टाः "अवि मरणमज्झवस्संति ण य वंतमापिबंति" / "नेच्छंति वंतयं भोत्तुं कुले अखंडियसील-त्रि०(अखण्डितशील) अभप्रचारित्रे,पं० चू०। जाया अगंधणे" दश०२ अ०। अखिल-त्रि०(अखिल) न खिल्यते न कणश आदीयते, अगच्छमान-त्रि०(अगच्छत्) न गच्छत् , न० त० पैशाच्यां न णत्वम् / खिल-कान०ता वाच०। समस्ते, अष्ट०८ अष्टा "अखिले अगिद्धे अणिएयचारी" अखिलोज्ञानदर्शनचारित्रैः संपूर्णः। सूत्र०१ श्रु०७ अ०| अचलति, प्रा०1 "अखिलगुणाधिकसद्योगसारसद्ब्रह्मयागपरः" षो०६ विव०।। अगड-पुं०(अकृत) अकृते, "सग्गामे मावीसुं, वसेज अगडे असुले से"। अखिलसंपया-स्त्री०(अखिलसंपद्) सर्वसंपत्तो, "आधीनां व्या०६ उ० / गर्ते, बृ०३ उ०। परमौषधमव्याहतमखिलसंपदा बीजम् "\षो०१५ विव०। अगडतड-पुं०(अवटतट) कूपतटे, विशे०। अखेद-पुं०(अखेद) अव्याकुलतायाम्, "अखेदो देवकार्यादा अगडदत्त-पुं०(अगडदत्त) शपुरे सुन्दरनृपस्य सुलसायां जातेऽगडदत्ते वन्यत्राऽद्वेष एव च" द्वा०२० द्वा०। पुत्रे, अथ तत्कथा लिख्यते-शनपुरे सुन्दरनृपः। तस्य सुलसा प्रिया। अखेम-त्रि०(अक्षेम) सोपद्रवे मार्गे, तद्वत् क्रोधाद्युपद्रवसहिते पुरुषजाते तत्सुतोऽगडदत्तः। सचसप्तव्यसनानि सेवतेस्मालोकानां गृहेष्वप्यन्यायं च। स्था०४ ठा०२ उ०। करोति स्म / लोकैस्तदुपलम्भा राज्ञे दत्ताः / राज्ञा स निर्वासितो गतो वाराणस्यां पवनचण्डोपाध्यायगृहे स्थितः / द्विसप्ततिकलावान् जातः। अखेमरूव-पुं०(अक्षेमरूप) आकारेण सोपद्रवे मार्गे, तद्वत् द्रव्यलिङ्गवर्जिते, स्था०४ ठा०२ उ०। गृहोद्याने कलाभ्यासंकुर्वन् प्रत्यासन्न-गृहगवाक्षस्थया प्रधानश्रेष्ठिसुतया मदनमञ्जा तद्रूपमोहितया च तया प्रक्षिप्तः पुष्पस्तबकः / अखेयण्ण-त्रि०(अखेदज्ञ) अनिपुणे, सूत्र०१ श्रु०१० अ०। अकुशले, सञ्जातप्रीतिस्तन्मय एव जातः। अन्यदा तुरगारूढः स नगरमध्ये आचा० 1 श्रु०२ अ०३ उ01 गच्छन्नस्ति स्म / तावता ईदृशो लोके कोलाहलः श्रुतः, यथा-"किं अग-पुं०(अग) न गच्छतीत्यगः। वृक्षे, आ०म०द्वि निचू०। विशे० / चलिउ व्व समुद्दो, किं वा जलिओ हुआसणो धीरो / किं पत्ता पर्वते, कल्प० / गमनाकर्तरि शूद्रादौ, त्रि० / न गच्छति वक्रगत्या रिउसेणा, तडिदंडो निवडिओ किं वा ? ||1 // मंठेण विपरिचत्तो, पश्चिममित्यगः। सूर्ये, तस्य हि वक्रगत्यभावः ज्योतिषप्रसिद्धः। वाच०। मारंतो सुंडिगोयरं पत्तो / सवडं मुहं चलंतं कालु व्व अकारणे अगअ-पुं०(असुर) "गौणादयः" / 8 / 2 / 174 / इति सूत्रेण कुद्धो" |२तावता तेन कु मारेण अश्वं मुक्त्वा स हस्ती असुरशब्दस्य 'अगअ'इति निपातः। दैत्ये, प्रा०। गजमदनविद्यया दान्तः / पश्चात्तमारुह्य राजकुलासन्नमायातो राज्ञा अगइसमावण्ण-पुं०(अगतिसमापन्न) अगतिं नरकादिं गच्छति / दृष्ट आकारितो मानपूर्वम् / कुमारेणं तं गजमालानस्तम्भे बद्ध्वा राज्ञः नैरयिकादौ, प्रणामः कृतः / राज्ञा चिन्तितम् कश्चिन्महापुरुषोऽयम्, यतोऽत्यन्तविनीतो दुविहाणेरइया पण्णत्ता / तं जहा-गइसमावन्नगा चेव दृश्यते / यतः-"साली भरेण तोयेण जलहरा फलभरेण तरुसिहरा। अगइसमावन्नगा चेव / जाव वेमाणिया। विणएणय सप्पुरिसा, नमंति नहु कस्सइ भएण" || ततो विनयरजितेन गतिदण्डके गतिसमापन्नका नरकं गच्छन्तः, इतरे तु तत्र ये गताः / राज्ञा तस्य कुलादिकं पृष्टम्, कियान् कलाभ्यासः कृतः? इत्यपि पृष्टम् / अथवा गतिसमापन्ना नारकत्वं प्राप्ताः, इतरे तु द्रव्यनारकाः, अथवा कुमारस्तु लज्जालुत्वेन न किञ्चिज्जगौ / उपाध्यायेन तस्य Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगडदत्त 154 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अगडदत्त कुलादिकं सर्वविद्यानैपुण्यं च कथितम् / कुमारवृत्तान्तं श्रुत्वा चमत्कृतो भूपतिः / अथ तस्मिन्नेवावसरे राज्ञः पुरो नगरलोकः प्राभृतं मुक्त्या एवमूचिवान् - हेदेव! त्वन्नगरं कुबेरसदृशं कियदिनानियावदासीत् साम्प्रतं घोरपुरतुल्यमस्ति / केनापि तस्करेण निरन्तरं मुष्यते, अतस्त्वं रक्षा कुरु / राज्ञा तलारक्षा आकारिता भृशं वचोभिस्त-र्जिताः / तैरुक्तम्महाराज ! किं क्रियते, कोऽपि प्रचण्डस्त-स्करोऽस्ति, बहूपक्रमेऽपि न दृश्यते। ततः कुमारेणोक्तम् ाजन् ! अहंसप्तदिनमध्ये तस्करकर्षणं चेन्न करोमि ततोऽग्नि प्रवेशं करिष्यामीति प्रतिज्ञा कृता। राज्ञा तु पुरलोकप्राभृतं कुमाराय दत्तम् / कुमारस्तत उत्थाय चौरस्थानानि विचारयति स्म / "वेसाणं मंदिरेसु, पाणागारेसु जूयठाणेसु / कुल्लूरियठाणेसु अ, उज्जाण-निवाणसालासु॥१॥ मठसुन्नदेवलेसु य, चच्चरचउहवसुन्नसालासु। एएसु ठाणेसु जओपाएणं तक्करो होइ'' ||2|| एवं चौरस्थानानि पश्यतः कुमारस्य षड् दिनानि गतानि। पश्चात्सप्तमदिने नगराद् बहिर्गत्वाऽधः स्थितः चिन्तयति स्म- "छिज्जउ सीसं अह होउ बंधणं चयउ सव्वहा लच्छी। पडिव-त्रपालणेसु पुरिसाणं जं होइ तं होउ" ||1|| एवं चिन्तयन्नसौ कुमार इतस्ततो दिगवलोकनं करोति स्म। तस्मिन्नवसरे एकः परि-हितधातुवस्त्रो मुण्डितशिरःकूर्चस्त्रिदण्डधारी चामरहस्तः किमपि बुड् बुड् इति शब्दं मुखने कुर्वाणः परिव्राजकस्तत्रायातः / कुमारेण दृष्टश्चिन्तितञ्च-अयमवश्यं चौरः, यतोऽस्य लक्षणानी-दृशानि सन्ति- "करिसुण्डाभुयदण्डो, विसालवच्छत्थलो पुरुस-वेसो। नवजुव्वणो रउद्दो, रत्तच्छो दीहजंघो य" ||1|| एवं चिन्तयतः कुमारस्य तेन कथितम् अहो सत्पुरुष ! कस्त्वमायातः कुतः?, केन कारणेन पृथिव्यां भ्रमसि ? | कुमारेण भणितम्- उज्जयनीतो-ऽहमत्रायातः दारिद्रयभग्नो भ्रमामि / परिव्राजक उवाच- पुत्र ! त्वं मा खेदं कुरु, अद्य तव दारिद्रयं छिनधि, समीहितमर्थ ददामि / ततो दिवसं यावत् तत्र स्थितौ / रात्री कुमारसहितश्चौरः / कस्य-चिदिभ्यस्य गृहे गतः / तत्र खात्रं दत्तवान् / तत्र स्वयं प्रविष्टः / कुमारस्तु बहिः स्थितः / परिव्राजकेन द्रव्यभृताः पेटिकास्ततो बहिष्कर्षिताः / ताः खात्रमुखे कुमारसमीपे मुक्त्वा स्वयमन्यत्र क्वचिद् गत्वा दारिद्रयभग्नाः पुरुषा अनेके आनीताः / तेषां शिरसि ताः पेटिका दत्त्वा कुमारेण समं स्वयं बहिर्गतः। सतापसः कुमारं प्रत्येवमुवाच-कुमार! क्षणमात्रंबहिस्तिष्ठामः, निद्रासुख-मनुभवामः / परिव्राजकेनेत्युक्ते सर्वेऽपिपुरुषास्तत्रसुप्ताः, कपटनिद्रया परिव्राजकोऽपि सुप्तः। कुमारोऽपिनो तादृशानां विश्वासः कार्य इति कपटनिद्रयैव सुप्तः / तावता स परिव्राजक उत्थाय तान् सर्वान् कङ्कपत्र्या मारयामास / यावत् कुमारसमीपे समायाति स्म तावत् कुमार उत्थाय तं खड्गेन जङ्घाद्वये जघान। छिन्ने जङ्घाद्वये सतत्रैव पतितः कुमारं प्रत्येवमुवाचवत्स ! अहं भुजङ्गनामा चौरः। ममेह श्मशाने पातालगृहमस्ति / तत्र वीरपत्नीनाम्नी मम भगिन्यस्ति। अत्र वटपादपस्य मूले गत्वा तस्याः समीपे शब्दं कुरु।यथा सा भूमिगृहद्वारमुद्घाटयति त्याञ्च स्वस्वामिनं करोति। सङ्केतदानार्थ मत् खड्गं गृहाणेत्युक्ते कुमारस्तत् खड्गं गृहीत्वा तत्र गतः / स तु तत्रैव मृतः / कु मारेण सा शब्दिताऽऽगता द्वारमुद्घाटयामास / कुमारेण भ्रातुः खड्गं दर्शयित्वा स्वरूपमुक्तम् / तस्या अन्तः खेदो जातः परं न मुखे खेदं दर्शयामास / मध्ये आकारितः कुमारः पल्यङ्के शायितः / उक्तञ्च तव विलेपनाद्यर्थ चन्दनादिकमहमानयामीति ततो निर्गता। कुमारेण चिन्तितम्- प्रायः स्त्रीणां विश्वासो न कार्यः / यतःशास्त्रे इमे दोषाः प्रायो निरुपिताः"माया अलियं सोमो, मूढत्तं साहसं असोयत्तं / निसत्तिया तह चिय, महिलाण सहावया दोसा'' एतस्यास्तु तथाविधचौरभगिन्या विश्वासो नैव कार्य इति विचिन्त्य कुमारः शय्यां मुक्त्याऽन्यत्र गृहकोणे स्थितः। साबहिर्गत्वा यन्त्रप्रयोगेण शय्योपरि शिला मुमोच। तया शय्या चूर्णिता। ततः कुमारेण सा सद्यः साक्रोशं केशेषु धृता राज्ञः समीपमानीता। प्रोक्तः सर्योऽपि वृत्तान्तः। राज्ञा तद्भूमिगृहात् समस्तं वित्तमानाय्य लोकेभ्यो दत्तम्। कुमारेण साजीवन्ती मोचिता पश्चान्नृपाग्रहात् कुमारेण नृपसुता कमलसेनानाम्नी परिणीता 1 नृपेण कुमाराय सहसं ग्रामा दत्ताः, शतं गजा दत्ताः, दश सहस्राण्यश्वा दत्ताः, लक्षं पदातयो दत्ताः / ततः सुखेन कुमारस्तत्र तिष्ठति स्म / अन्यदा कलाभ्यास. समये यया श्रेष्ठिसुतया सह प्रीतितिाऽऽसीत्तया मदनमञ्जा कुमारसमीपे दूती प्रेषिता। तया उक्तम् तव गुणानुरक्ता तवैवेयं पत्नी भवितुं वाञ्छति। कुमारेणाप्युक्तम् यदाऽहं शङ्खपुरं यास्यामि तदा त्यां गृहीत्वा यास्यामीति तस्यै त्वया वक्तव्यम् / अथान्यदा तत्र पित्रा प्रेषिता नराः कुमाराकारणाय समेताः / कुमारस्तु तेषां वचनमाकर्ण्य पितुर्मिलनाय भृशमुत्कण्ठितः श्वशुरं पृष्ट्वा कमलसेनया समं चलितः / चलनसमये च मदनमञ्जरी आकारिता। साऽपि कुमारेण समं चलिता। ताभ्यां प्रियाभ्यां सह सैन्यवृतः कुमारः पथि चलन् बहून् भिल्लान् संमुखमाफ्ततो ददर्श / तदा कुमारसैन्येन तैः समं युद्धं कृतम् / भग्नं कुमारसैन्यं भिल्लैलुण्ठितमितस्ततो गतम् / भिल्लपतिस्तु कुमाररथे समायातः / उत्पन्नबुद्धिना कुमारेण स्वपत्नी स्थानभागे निवेशिता / तस्या रूपेण मोहङ्गतो भिल्लपतिः कुमारेण हतः। पतिते च तस्मिन् सर्वेऽपि भिल्ला नष्टाः / कुमारस्तु तेनैव एकेन रथेन गच्छन् अग्रे महतः सार्थस्य मिलितः / सार्थोऽपि सनाथ इव मार्गे चलति स्म / कियन्मार्ग गत्वासार्थकैः कुमाराय एवमुक्तम्-कुमार! इतः प्रध्वरमार्गे भयं वर्तते, ततः प्रध्वरमार्ग विहाय अपरेण मार्गेण गम्यते।कुमारेणोक्तम्-किं भयम् ? ते कथयन्तिस्म-अस्मिन् प्रध्वरमार्गे महत्यटवी समेष्यति, तस्या मध्ये महानेकश्चौरो दुर्योधननामा वर्तते, द्वितीयस्तुगरिवं कुर्वन् विषमो गजो वर्तते / तृतीयो दृष्टिविषसो वर्तते / चतुर्थो दारुणो व्याघ्रो वर्तते / एवं चत्वारि भयानि तत्र वर्तन्ते / कुमारः प्राह- एतेषां मध्ये नैकस्यापि भयं कुरुत।चलत सत्वरं मार्गे ।कुशलेनैव शङ्कपुरे यास्यामः। ततः सर्वेऽपि तस्मिन्नेवाध्वनि चलिताः। अग्रे गच्छतां तेषां दुर्योधनश्चौरस्त्रिदण्डभाग् मिलितः / सोऽपि पान्थोऽहं शङ्कपुरे समेष्यामीति वदन् सार्थेन सार्द्ध चलति स्म। मार्गे चैकः सन्निवेशः समायातः। तदा त्रिदण्डिना उक्तम्मम उपलक्षितोऽयं सन्निवेशो वर्तते। तेनात्र गत्या भयादध्यादि आनीयते, यदि भवद्भ्यो रुचिः स्यात् / सार्थिकरुक्तम् आनीयताम् / ततस्तेन तदन्तर्गत्वा आनीतं दध्यादि विषमिश्रितं कृत्वा सर्वे पायिताः / ततो मृताः सर्वे सार्थिकाः / अगडदत्तेन भार्याद्वययुतेन न पीतमिति न मृतः सः / त्रिदण्डी पुनः सन्निवेशमध्ये गत्वा कियत्परि-वारयुतो गृहीतशस्त्रः कुमारमारणायाऽऽयातः / कुमारेण खड्गं गृहीत्वा संमुखं गत्वा घोरसंग्रामकरणेन स हतः / परि-वारस्तु नष्टः / भूमौ पतता तेन चौरेणैवमुक्तम्-अहंदुर्योधनश्चौरः प्रसिद्धः, त्वयाऽहं हतो नजीविष्यागि, परं मम बहु द्रव्यं वर्तते, मम भगिनी जयश्रीनाम्नी चैतद्वनमध्येऽस्ति, तत् त्वया गृहीतव्यं सा च पत्नी कार्या। कुमारस्तत्र गतः। साऽऽहूता सामाया भावा / Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगडदत्त 155 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अगणिकाय ता। दृष्टः कुमारः। ज्ञातस्तया भ्रातृवृत्तान्तः। तया कुमारोऽपि गुहामध्ये गुरुः प्राह सर्व तदीयं वृत्तान्तम्। कुमारस्तचरित्रं श्रुत्वा युवतीस्वरूपमेवं आकारितः। तत्र गच्छन्मदनमञ्जर्या वारितस्तांतत्रैव मुक्त्वा कुमारोऽग्रे विचिन्तयति स्म "अणुरज्जति खणेणं, जुवइओ खणेण पुणो विरजति। चलितः। कियन्मार्ग यावद् गतेन कुमारेण प्रचण्डशुण्डादण्डप्रभग्नत- अनुन्नरागनिरया, हलिद्दरागु व्य चलपेमा'' ||1|| इति विचिन्त्य रुकोटिनिघृष्टगिरितटः सवेगं संमुख-मागच्छन् यम इव रौद्ररूपो गजो कुमारोऽपि वैराग्यात्प्रव्रजितः / यथाऽसौ अगडदत्तः प्रतिबुद्धजीवी पूर्व दृष्टः / ततः कुमारो रथादुत्तीर्य गजाभिमुखं प्रचलितः / उत्तरीयवस्त्रयेष्टिका द्रव्यासुप्तः पश्चाद्भावासुप्तोऽपिइह लोके परलोके च सुखी जातः। उत्त०४ कृत्या गजाग्रे मुमोच / गजस्तत्प्रहारार्थ शुण्डादण्डमधः क्षिपन् अ०। इयं कथोत्तराध्ययनस्य बृहद्वृत्तावपि दृश्यते / तत्रायं विशेषः यावदीषन्नत-स्तावत् कुमारस्तद्दन्तद्वये पादौ कृत्वा तस्य (जितशत्रुनामा राजा। तस्य सारथिरमोघरथनामा। अमोघरथस्य स्त्री स्कन्धेऽधिरूढः वज्रकठिनाभ्यां स्यमुष्टिभ्यां तत्कुम्भस्थलद्वयं जघान। यशोमतिः पुत्रश्चा-गडदत्तः / तस्य पितरि मृते माता भृशं रुरोद / कुमारेण प्रकाममितस्ततो भ्रामयित्वा स गजो वशीकृतः। पश्चात् सगजो तदाऽगडदत्तो मातरं नितान्तरोदनहेतुं पप्रच्छ। तदा माता प्रत्युवाचगौरिव शान्तीकृतो मुक्तश्च / तत्रैव पुनः कुमारो रथे निविष्टोऽग्रे चलितः। पुत्र ! अयममोघप्रहारी सारथिस्त्वदीयपितृपदमनुभवति, यदि त्वं कियन्मार्ग यावद्गच्छतिकुमारस्तावत् कुण्डलीकृतला-फूलः स्वरवेण कलावित् स्यास्तदा कथमेवं भवेत् ? पुत्रोऽन्वयुक्त को मां कलागिरिप्रतिशब्दान् विस्तारयन् विद्युचञ्चललोचनः सोपमा रसना मध्यापयिष्यतीति ? माता प्रत्यगादीत् कौशाम्बीनगर्यां दृढस्यमुखकुहरान्निष्कासयन् सिंहः सामायातः / तेनापि समं कुमारो युद्धं प्रहारीत्याख्यः कलाचार्यो विद्यते, तं त्वमुपतिष्ठस्वेति / स कृतवान् / कुमारेण कर्कशप्रहारैर्जर्जरितः / सिंहस्तत्रैव पतितः / मातृवचनमभ्युपगम्य तत्र गत्वा कलामध्यगीष्टाततो राजसभा प्रविवेश / कुमारस्ततोऽग्रे चलितः / सर्वो-ऽप्युपद्रवो मार्गे विद्ययैव निवारितः / तं दृष्ट्वा सर्व प्रसेदुः / राजा तु प्रसन्नताविरहित एव केवलमुचिताचार कुशलेन कुमारः स्त्रीद्वयसंयुतः शप्तपुरे प्राप्तः / प्रवेशमहोत्सवः प्रकामं परिपालयन् तस्मै किमपि दातुमियेष। स तु राज्ञस्तदनादरदानमवगत्य पितृभ्यां कृतः / सर्वेषां पौराणां परमानन्दः सम्पन्नः / तत्र सुखेन नाहमीदृशं दानं जिघृक्षामि इत्यभिधाय न जग्राह / तदानीमने के कुमारस्तिष्ठति स्म। अन्यदा वसन्ते मदनमञ्जर्या सहकुमार एकाक्येव नागरिकाः 'चौरोऽस्मान् बाधते' इति राज्ञः पुरो व्यजिज्ञपन् / राजा क्रीडावने गतः / तत्र रात्रौ मदनमञ्जरी सर्पण दष्टा मृतेव सञ्जाता। तलारक्षम् (कोट्टपालम्) आहूय न्यगादीत् -भोस्तलारक्ष ! भवता कुमारस्तु तन्मोहादग्नौ प्रविशन् गगनमार्गेण गच्छता विद्याधरेण वारितः। सप्तमिरहोरात्रैश्चौरो निग्रहीतव्यः / इत्याका गडदत्तो राजानं विद्याबलेन सा जीविता। विद्याधरस्तु स्वस्थानं गतः / कुमारस्तया समं प्रार्थयाञ्चक्रे महाराज! अहं सप्तभिर्दिनस्तं चौरं निग्रहीतुं प्रभवामीति) रात्रिवासार्थ करिमश्चिदेवकुले गतः। तत्र तां मुक्त्वा उद्योतकरणाय अन्यत्सर्व समानम्। उत्त०। अग्निमानेतुं कुमारो बहिर्गतः / तदानीं तत्र पञ्च पुरुषाः पूर्व अगडदडुर-पुं०(अवटदर्दुर) कूपमण्डूके, ज्ञा०८ अ01 कुमारहतदुर्योधनचौरभ्रातरः कुमारवधाय पृष्ठ आगताः / इतस्ततो अगडमह-पुं०(अवटमह) कूपप्रतिष्ठोत्सवे, आचा०२ श्रु१ अ० भ्रान्ताः कुमारस्थलम-लभमानास्समागताः सन्ति स्म / तैस्तु तत्र 2 उ०। दीपको विहितः। मदनमञ्जर्या तेषां मध्ये लघुभ्रातू रूपं विलोकि-तम्। अगढिय-त्रि०(अग्रथित) अप्रतिबद्धे, आहारे वाऽगृद्धे, "अण्णाए रूपाक्षिप्ततया तस्यैव प्रार्थना विहिता। त्वं मम भर्ता भव, अहं तव पत्नी अगड्डीए अदुढे अदीणे अतिमणे' प्रश्न०१ संव० द्वा० / मुत्कलैरेव भवामि / तेनोक्तम्- तव भर्तरि जीवति सति कथमेवं भवति? सा वचनैरभिधीयमाने, बृ०३ उ०। प्राह- तमहं मारयिष्यामि / तदानीमग्निं गृहीत्वा कुमारस्तत्र प्राप्तः / आगच्छन्तं कुमारं दृष्ट्वा तया तत्रस्थो दीपो विध्यापितः / तत्रायातेन अगणि-पुं०(अग्नि) अङ्गति ऊर्ध्वं गच्छति। अगि-नि, नलोपः। वाच०। कुमारेण पृष्टम् - अत्रोद्योतः कथमभूत् ? तया उक्तम्-तव वह्नौ, प्रश्न०५ संव०द्वा० उत्त०।"चत्तारि अगणिआसमारभित्ताजेहिं हस्तस्थस्यागेरेवोद्योतः। सरलेनतेन तथैवाङ्गीकृतम्। मदनमञ्जा कु रकम्मामि तवेंति बालं"। सूत्र० 1 श्रु०१ अ० हस्ते खड्ग गृहीतम् / कुमारोऽग्निप्रज्वालनार्थं ग्रीवामधश्चकार। तावता 1 उ०1"अंगारं अगणिं अचिं, अलायं वा सजोइयं / ण उजिज्जा ण तया कुमारवधार्थ खड्गः प्रति-कोशान्निष्कासितः। तस्याश्चरित्रं दृष्ट्या घट्टिला, नो णं णिव्वावए मुणी" / दश०८ अ०। प्रदीपनके, व्य० चौरलघुभ्रातुर्वराग्य-मुत्पन्नम् / पश्चादस्या हस्तात्तेन खड्गोऽन्यत्र 1 उ०। (अग्रेः सर्वो विषयः 'तेउकाइय' शब्द) पातितः / पञ्चापि भ्रातरस्ततः कुमाराऽलक्षिताः शनैः शनैर्निर्गताः | अगणिआहिय-पुं०(अग्न्याहित) अग्निराहितो यैः / "वाऽऽकस्मिंश्चिद्वने गताः / तत्र चैत्यमेकमुत्तुङ्गं दृष्टम् / तत्र सातिशयज्ञानी हिताग्न्यादिषु / 2 / 2 / 37 / इति वाऽऽहितशब्दस्य पूर्वनिपातः / साधुर्दृष्टः / तत्समीपे तैः पञ्चभिरपि दीक्षा गृहीता / तदाज्ञां पालयन्तः अग्न्याहिता आहिताग्नयः / कृतवह्नयाधानेषु, श्रीऋषभसंयमे रतास्तत्रैव तिष्ठन्ति स्म / कुमारेण नैतत्किमपि ज्ञातम् / अथ जिनेशचितायामग्निं स्थापितवन्तस्तेन कारणेनाहिताग्नय इति तत एव च कुमारस्तत्रमदनमञ्जा रात्रिमेकामुषित्वा प्रभातेस्वगृहे समा-यातः / प्रसिद्धः / आ०म०प्र०। कियदिनानन्तरमश्वापहृत एक एवागडदत्तकुमारस्तस्मिन्नेव वने तत्रैव | अगणिकं डयट्ठाण-न०(अग्निकण्डकस्थान) अग्रिप्रवेशस्थाने, चैत्ये गतः / तत्र देवान्नमस्कृत्वा साधवो वन्दिताः। गुरुणा देशना कृता। __ "अगणिकंडयट्ठाणेसु अण्णयरंसि वा तहप्पगारंसि णो उच्चारं पासवणं कुमारेण पृष्टम् भगवन् ! क एते पञ्चापि भ्रातर इव साधवः? कथमेषां | वोसिरेजा'। आचा०२ श्रु०१० अ०। वैराग्यमुत्पन्नम् ? कथमेभिर्यावनभरेऽपिव्रतं गृहीतम् ? एवं कुमारेण पृष्ट | अगणिकाय-पुं०(अग्निकाय) तेजस्काये, भ०७ श० 10 उ० / Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगणिकाय 156 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अगणिपरिणमिय अनु०॥ (अस्य विषयः सर्व एव तेउअकाइअ' शब्दे) नवरम्। अगणिकाए णं मंते ! अहुणोजालिए समाणे महाकम्मतराए चेव महाकिरियतराए चेव महस्सवतराएचेवमहावेयणतराए चेव मवइ, अह णं समए 2 वोक्कसिज्जमाणे वोच्छिन्नमाणे चरिमकालसमयंसिइंगालमूए मुम्मुरमूएछारियभूएतओ पच्छा अप्पकम्मतराए चेव किरिया आसव अप्पवेयणतराए चेव भवइ ? हंता गोयमा ! अगणिकाएणं अहुणोजालिए समाणे तं चेव। (अगणीत्यादि अहुणोज्जालए त्ति ) अधुनोज्ज्वलितः सद्यः प्रदीप्तः (महाकम्मतराए त्ति) विध्याप्यमानानलापेक्षयाऽतिशयेन महान्ति ज्ञानावरणादीनि बन्धमाश्रित्ययस्यासौ महाकर्मतरः। एवमन्या-न्यपि / नवरं, क्रिया दाहरूपा। आश्रवो नवकर्मोपादान-हेतुः / वेदना पीडा। भावना तत्कर्मजन्या परस्परशरीरसम्बन्धजन्या या (वोक्कसिज्जमाणे त्ति) व्यपकृ ष्यमाणोऽपकर्ष गच्छन् (अप्पकम्मतराए त्ति) अङ्गाराद्यवस्थामाश्रित्याल्पशब्दः स्तोकार्थः / क्षारावस्थायां त्वभावार्थः / भ०५ श,६ उ०। कालोदायिप्रश्नेन अग्न्युञ्चालकविध्यापकयोः कतरो महाकर्मेति विचारितम् / भ०७ श०१० उ०। अगणिजीव-पुं०(अग्रिजीव) अग्रयश्व ते जीवाश्च अग्निजीवाः तेजस्कायिकेषु, विशे०(अग्निजीवानां परिमाणमवधिः 'ओहि' शब्द उक्तम्) अगणिजीवसरीर-न०(अग्निजीवशरीर) तेजस्कायजीयबद्धशरीरे, जीवान्तरशरीराणामग्निजीवशरीरत्वम् / अह मंते ! उदण्णे कुम्मासे सुराए एए णं किंसरीराइ वत्तव्वं सिया? गोयमा ! उदण्णे कुम्मासे सुराए जे घणे दव्वे एए णं पुव्वभावपण्णवणं पडुच वणस्सइजीवसरीरा तओ पच्छा सत्थातीया सत्थपरिणामिया अगणिज्झामिया अगणिज्झुसिया अगणिसेविया अगणिपरिणामिया अगणिजीवसरीराइ वा वत्तव्वंसिया सुराए य जे दव्वे, एए णं पुष्वभावपण्णवणं पडुच आउजीवसरीरा तओ पच्छा सत्थातीया जाव अगणिसरीराइ वत्तव्वं सिया / अह णं भंते ! अये तंबे तउए सीसए उवले कसपट्टिया एए णं किंसरीराइ वत्तव्वं सिया ? गोयमा ! अये तंबे तउए सीसए उवले कसपट्टिया एएणं पुव्व-भावपण्णवणं पडुच पुढवीजीवसरीरा तओ पच्छा सत्थाइया जाव अगणिसरीराइवत्तव्वं सिया। अह भंते ! अट्ठी अद्विज्झामे चम्मे चम्मज्झामे रोमे 2 सिंगे 2 खुरे२ नहे 2 किए णं किंसरीराइ वत्तव्वं सिया?,गोयमा ! अट्ठी चम्मे रोमे सिंगे खुरे नहे एए णं तसपाणजीवसरीरा अद्विज्झामे चम्मज्झामे रोमज्झामे सिंगखुरणहज्झामे एए णं पुस्वभावपण्णवणं पडुच तसपाणजीवसरीरातओ पच्छा सत्थाईया जाव अगणित्ति वत्तव्वं सिया। अह भंते ! इंगाले छारिए बुसे गोमए एएणं किं सरीराइ वत्तव्वं सिया ? गोयमा ! इंगाले छारिए बुसे गोमए एए णं पव्वमावपण्णवणं एए एगिदियजीव-सरीरप्पओगपरिणामिया वि जाव पंचिंदियजीवसरीरप्पयोग-परिणामिया वि, तओ पच्छा सत्थाइया जाव अगणिजीव दि वत्तव्वं सिया। (अहेत्यादि एएणं ति) एतानि णमित्यलङ्कारे (किंसरीरत्ति) केषां शरीराणि किंशरीराणि (सुराए य जे घणे त्ति) सुरायां द्वे द्रव्ये स्याताम् घनद्रव्यं द्रवद्रव्यं च / तत्र यद् घनद्रव्यम् , (पुव्व-भावपन्नवणं पडुन त्ति) अतीतपर्यायप्ररूपणामङ्गीकृत्य वनस्पतिशरीराणि, पूर्व हि ओदनादयो वनस्पतयः (तओ पच्छत्ति) वनस्पतिजीवशरीरवाच्यत्वानन्तरमग्निजीवशरीराणीति, वक्तव्यं स्यादिति सम्बन्धः / किंभूतानि सन्तीत्याह (सत्थातीय त्ति) शस्त्रेणोदूखलमुशलयन्त्रकादिना, कारणभूतेन अतीतानि अतिक्रान्तानि पूर्वपर्यायमिति शस्त्रातीतानि (सत्थ परिणामिय त्ति) शस्त्रेण परिणामितानि कृताभिनवपर्यायाणि शस्त्र-परिणामितानि / ततश्च (अगणिज्झामिय त्ति) वह्निना ध्यामितानि ध्यामीकृतानि स्वकीयवर्णत्याजनात् तथा (अगणिज्झुसिय त्ति) अग्निना झोषितानि पूर्वस्वभावक्षपणात् अग्रिसेवितानि वा / जुषी प्रीतिसेवनयोः, इत्यस्य धातोः प्रयोगात् (अगणिपरिणामियाइ त्ति) संजाताग्निपरिणामानि, औष्ण्ययोगा-दिति। अथवा 'सत्थातीता' इत्यादौ शस्त्रमनिरेव, 'अगणिज्झामिया इत्यादि तु तद्-व्याख्यानमेवेति। (उवले त्ति) इहदग्धपाषाणः (कसपट्टियत्ति) कषपट्टः (अद्विज्झामेति) अस्थिध्यामं चाग्निना श्यामलीकृतमापादितपर्यायान्तरमित्यर्थः / (इंगालेत्यादि) अङ्गारो निललितेन्धनम् (छारिए त्ति) क्षारिकं भस्म (बुसे त्ति) बुसम् (गोमय त्ति) छगणम् / इह बुसगोमयो भूतपर्यायानुवृत्त्या दग्धावस्थौ ग्राह्यौ, अन्यथा अग्निध्यामितादिवक्ष्यमाणविशेषणानामनुपपत्तिः स्या-दिति / एते पूर्वभावप्रज्ञापनां प्रतीत्य एकेन्द्रिय-जीवैः शरीरतया प्रयोगेण स्वव्यापारेण परिणामिता येते तथा : एकेन्द्रियशरीराणी-त्यर्थः / अपिः समुचये / यावत्करणाद् द्वीन्द्रियजीवशरीरप्रयोग-परिणामिता अपीत्यादि दृश्यम्। द्वीन्द्रियादिजीवशरीरपरिणतत्वं च यथासम्भवमेव नतु सर्वपदेष्विति। तत्रपूर्वमङ्गारोभस्म चैकेन्द्रिया-दिशरीररूपं भवति, एकेन्द्रियादिशरीराणामिन्धनत्वात् / बुसं तु यवगोधूमहरितावस्थायामेकेन्द्रियशरीरम् / गोमयस्तु तृणाधव-स्थायामेकेन्द्रियशरीरम् / द्वीन्द्रियादीनां तुगवादिभिर्भक्षणे द्वीन्द्रियादिशरीरमपि। भ०५ श०२ उ०! अगणिज्झामिय-त्रि०(अग्निध्मात) 30 / अग्निना दग्धे, (भ०) *अग्निध्यामित-त्रि० अग्निनेषद्दग्धे, अग्निना स्वकीयवर्णत्या जनाद् ध्यामीकृते, भ०५ श०२ उ०। अगणिज्झुसिय-त्रि०(अग्निजोषित) अग्निसेविते, जुषी प्रीति-सेवनयोः, इत्यस्य धातोः प्रयोगात् / भ०५ श०२ उ०। *अग्निझोषित-त्रि० / पूर्वस्वभावक्षपणात् / भ०५ श०२ उ०। अग्निना क्षपिते, भ०१५ श,१ उ०। अगणिणिक्खित्त-त्रि०(अग्निनिक्षिप्त) अग्नावुपरि निक्षिप्ते, "अगणिणिक्खित्तं अफासुर्य अणेसणिजं लाभे संते णो पडिगाहेज्जा" आचा०१ श्रु०११०४ उ० अगणिपरिणमिय-त्रि०(अग्निपरिणमित) 3 त०। औष्ण्य Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगणिपरिणमिय 157 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अगरुलहुय दगुरुलघुकम्, परिणामोपेतमूर्तद्रव्यत्वादगुरुलघुकम्। परतत्त्वे, "नित्यं प्रकृ तिवियुक्तं , लोकालोकावलोकनाभोगम् / स्तिमिततरङ्गोदधिसममवर्णमस्पर्शमगुरुलघु" || षो०१५ विव० / न गुरुकमधोगमनस्वाभावं न लघुकमूर्ध्वगमनस्वभावं यद् द्रव्यं तदगुरुलघुकम् / अत्यन्तसूक्ष्मे भाषामनःकर्मद्रव्यादौ, स्था० १०ठा०१ उ०॥ योगाद् सञ्जाताग्निपरिणामे, भ०५ श०२ उ०। पूर्वस्वभावत्याजनेनाऽऽत्मभावं नीते, भ०१५ श०१ उ०। अगणिमुह-पुं०(अग्निमुख) अग्निर्मुखमिव यस्य / देवे, हुतद्रव्यं हि देवैरग्निरुपमुखद्वारेणैवाश्यते "हव्यं वहति देवानाम्" इति श्रुतेस्तत्रैव तात्पर्यात्। "अग्निमुखा वैदेवाः" इति च श्रुतिः, इति वेदविदः / वाच० / ऋषभदेवचितायामग्निकुमारा वदनैः खल्वग्निं प्रक्षिप्तवन्तः, तत एव निबन्धनाल्लोके 'अग्निमुखा वैदेवाः" इति प्रसिद्धम्, इति समयविदः / आ०म०प्र०ा आ०चू / अग्निर्मुखं प्रधानमुपास्यो यस्य / अग्निहोत्रिणि द्विजे, वाच०। अगत(द)-पुं०(अगद) नास्ति गदो रोगो यस्मात् / 5 ब० औ-षधे, नि०चू०११ उ०। परमौषधे, पं०व०३ द्वा०ा नकुलाद्यौषधे, नि०चू०१ उ०। 6 ब० / रोगशून्ये, त्रि० | "गद भाषणे" अच्, न०त०अकथके, त्रि० / वाच०! अगस्थि-पुं०(अगस्ति) अगं विन्ध्याचलमस्यति / अस् क्तिच् / शकन्ध्वादिः / अगस्त्यनामके मुनौ, "अगस्त्यस्यापत्यानि, बहुषु यत्रो लुक् , तद् गोत्रापत्येषु / ब०वा तत्सम्बन्धित्वात् दक्षिणस्यां दिशि, बृहत्संहितायामस्य गगनमण्डले दक्षिणस्यां तारारूपेण स्थितिरुक्ता। वकवृक्षे, वाच० / अष्टाशीतिमहागृहाणां पञ्चचत्वारिंशे महाग्रहे, "दो अगत्थी" स्था०२ ठा०३ उ० चं०प्र० सू० प्र०। ज०। कल्प०! अगम-पुं०(अगम) न गच्छतीति। गम-अच्। न००1वृक्षे, अगन्तरि, त्रिका वाच० आकाशे, ना तद्धि गमनक्रियारहितत्वेनागमम् / भ०२० श०२ उ०। अगमिय-न०(अगमिक) न गमिक मगमिकम् / प्रायो गाथाश्लोकवेष्टकाद्यसदृशपाठात्मके श्रुतभेदे, / तथैवंविधं प्रायः (विशे०) आचारादिकालिकश्रुतम् , असदृशपाठात्मकत्वात्। तथाचाह"अगमियं कालियसुयं नं० आ०म०प्र० कर्म०।६०। अगम्म-त्रि०(अगम्य) न गन्तुमर्हति / गम-यत्। न०त० गमनानर्हासु स्नुषादिषु, चाण्डाल्यादिकायां च, "फासेऊण अगम्म, भणाइ सुमिणे गओ अगम्मं ति" स्पृष्ट्वा कायेने ति गम्यते / अगम्यां स्नुषां चाण्डाल्यादिकां वा स्त्रियमिति शेषः। व्य०१ उ०।। अगम्मगामि(ण)-त्रि०(अगम्यगामिन् ) भगिन्याद्यभिगन्तरि, प्रश्न०२ आश्र० द्वा०। अगरमा-स्त्री०(अगर्भा) न० ब० / सुविभक्ताक्षरतया अरहस्यायां वाण्याम् , औ०1"अगरभाए अम्ममण ए सव्वक्खरसण्णि-वायाए" (जिनवाण्या) तत्र, अगर्भया व्यक्तवर्णघोषयेत्यर्थः / उपा०२ अ० / अगरहिय-त्रि०(अगर्हित)(आहार विषये) अकृतगर्ने, प्रश्न०१ संव० द्वा०। *अगह-त्रि० अनिन्द्ये। "से अगरहिए अचेले जे समाहिए" आचा० १श्रु०८ 0 अ०८ उ०। अगरु -न०(अगरु) अगरुचन्दनाख्ये गन्धिकद्रव्ये "कुटुं तगरं अगरुं संपिट्ठ सम्ममुसिरेणं''। सूत्र०१ श्रु०४ अ०२ उ० / प्रश्न०। नि० चू० / उपा० आचा०। "संखतिणिसागुलुचंदणाई" नि०चू०२ उ०। अगरुगंघिय -त्रि०(अगुरुगन्धित) अगुरुगन्धो धूपनादिप्रकारेण जातोऽस्येति अगुरुगन्धितम्। अगुरुचन्दनेन धूपिते, तं०। अगरुपुड-पुं०(अगरुपुट) 6 त०। अगरुनामकगन्धद्रव्यस्य पुटे, "अगरुपुडाण वा लवंगपुडाण या वासपुडाण वा" | जं०१ वक्ष०।। अगरुलहुय-न०(अगुरुलघुक) न विद्येते गुरुलघुनी यस्मिस्त अथ 'किं गुरुलघु किं वा अगुरुलघु' इति शङ्कायां तत्स्वरूपप्रतिपादनार्थमाह - ओरालियवेउव्विय - आहारगतेय गुरुलहू दव्वा। कम्मणमणमासाई, एयाइं अगरुलहुयाई॥ इह द्वौ नयौ, व्यवहारनयो निश्चयनयश्च / तत्र व्यवहारनयः प्राह-चतुर्की द्रव्यं, तद्यथा- किं चिद् गुरु, किं चिल्लघु, किं चिद् गुरुलघु, किंचिदगुरुलघु / तत्र यदूर्ध्वं तिर्यग्वा प्रक्षिप्तमपि पुनर्निसर्गा-दधो निपतति द्रव्यं तद् गुरु / तद्यथा- लेष्ट्वादि / यत्तु द्रव्यं निसर्गत एवोर्ध्वगतिस्वभावं तल्लघु / यथा- दीपक लिकादि / यत्पुन!गतिस्वभावं नाप्यधोगतिस्वभावं किन्तुस्वभावेनैव तिर्यग्गतिधर्मक तद् गुरुलघु, यथा- वायुः / यत्तूधिस्तिर्य ग्गतिस्वभावानामेकतरस्वभावमपि न भवति, सर्वत्र वा गच्छति, तदगुरुलघु। यथा- व्योम परमाण्वादि। उक्तंचगुरुअलहुयं उमयं वि, नोभयमिति वावहारियनयस्स। दव्वं लेतुं दीवो, वाऊ वोमं जहासंखं // निश्चयनयः पुनरेवमाह-नसर्वगुर्वेकान्तेन किमपि वस्त्वस्ति, गुरोरपि लेष्ट्वादेः प्रयोगादू दिगमनदर्शनात्। नाप्येकान्तेन सर्वलघ्वप्यस्ति, अतिलघोरपि वाय्वादेः करताडनादिनाऽ-धोगमनादिदर्शनात्। तस्माद् द्विविधमेव वस्तु / तद्यथा गुरुलघु, अगुरुलघु च / तत्र यद् बादरं भूभूधरादिकं तत्सर्वं गुरुलघु, शेषं तु भाषाप्राणापानमनोवर्गणादिकं परमाणुढ्यणुकव्योमादिकं च सर्वमगुरुलघु। उक्तंचनिच्छयतो सव्वगुरुं, सव्वलहुं वा न विज्जए दव्वं / बायरमिह गुरुलहुयं, अगुरुलहुँ सेसयं दव्वं / / तत्रेयं गाथा निश्चयनयमतेन / पदार्थव्याख्या चैवम् -औदारिकवैक्रियाहारकतैजसद्रध्याणि अपराण्यपि तैजसद्रव्य प्रत्यास-नानि तदाभासानि बादररूपत्वाद् गुरुलघूनि गुरुलघुस्वभावानि / कार्मणमनोभाषाद्रध्याणि तु आदिशब्दत्प्राणापानद्रव्याणि भाषाद्रव्यार्वाग्वर्तीनि भाषाभासानि / अपराण्यपि च परमाणु व्यणुकादीनि, व्योमादीनि चैतानि अगुरुलघुस्वभावानि / वक्ष्यमाणगाथाद्वयसंबन्धः / एवं पूर्व किल क्षेत्रकाल संबन्धिनोः केवलयोरगुलावलिकासंख्येयादिविभागकल्पनया परस्प-रोपनिबन्ध उक्तः। आ०म०प्र०। इदमेव व्यक्तीकुर्वन्नाह - जा तेयगं सरीरं, गुरुलहुदव्वाणि कायजोगो य। मणसा अगुरुलहूणि अरूविदव्वा य सव्वे वि।। औदारिकशरीरादारभ्य तैजसशरीरं यावत्यानि द्रव्याणि यश्च तेषामेव संबन्धी काययोगः शरीरव्यापारः, एतत्सर्व गुरुलघुकमिति निर्देशः। यानि तु मनोभाषाप्रयोगाण्युपलक्षणत्वादान-पानकार्मणप्रयोगाणि तदपान्तरालवर्तीनि च द्रव्याणि यानि च सर्वाण्यपि धर्माधर्माकाशजीथास्तिकायलक्षणान्यरूपिद्रव्याणि, तदेतत्सर्वमगुरुलघुकम् / अहवा बायरबोंदी-कलेवरा गुरुलहू मवे सव्वो। Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगरुलहुय 158 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अगरुलहुय सुहमाणंतपदेसो, अगुरुलहू जाव परमाणु // अथवेति प्रकारान्तरद्योतने।बादरा बोन्दिः शरीरं येषां ते बादर- बोन्दयो बादरनामकर्मोदयवर्त्तिनो जीवा इत्यर्थः, तेषां संबन्धीनि यानि कलेवराणि यानि वाऽपराण्यपि बादरपरिणतानि तत्त-दधरादीनि शक्रचापगन्धर्वपुरप्रभृतीनि वा वस्तूनितानि सर्वाण्यपि गुरुलघून्युच्यन्ते। यानि तु सूक्ष्मनामकर्मोदयवर्त्तिनां जन्तूनां शरी-राणि यानि च सूक्ष्मपरिणामपरिणतानि अनन्तप्रादेशिकादीनि परमाणुपुद्गलं यावत् द्रव्याणि तानि सर्वाण्यगुरुलघूनि। अथव्यवहारनयमतमाह - ववहारनयं पप्प उ,गुरुया लहुया य मीसगा चेवं / लेतुपदीवगमारुय, एवं जीवाण कम्माई।। व्यवहारनयं प्राप्याङ्गीकृत्य त्रिविधानि द्रव्याणि भवन्ति / तद्यथागुरुकानि लघुकानि मिश्रकाणि च, गुरुलघुमिश्राणीत्यर्थः / तत्र यानि तिर्यगूज़ वा प्रक्षिप्ताण्यपि स्वभावादेवाधो निपतन्ते तानि गुरुकाणि, यथा-लेष्टुप्रभृतीनि / यानि तूर्ध्वगति-स्वभावानि तानि लधुकानि, यथा-प्रदीपकादीनि / यानि तु नाधो गतिस्वभावानि न वा ऊर्ध्वगतिस्वभावानि किं तर्हि तिर्यग्गतिधर्मकाणि तानि गुरुलघूनि, यथा-मारुतो वायु-स्तत्प्रभृतीनि। एवं जीवानां कर्माण्यपि त्रिविधानि भवन्ति-गुरूणि लघूनिगुरुलघूनि वा। तत्रयैरमी जीवा अधोगतिं नीयन्ते तानि गुरुकाणि, यैस्तु त एवोर्ध्वगतिं प्राप्यन्ते तानि लघुकानि, यैः पुनस्तिर्यग्योनिकेषु वा मनुष्येषुवागतिं कार्यन्तेतानि गुरु-लघुकानीति / तदेवं व्यवहारनयाभिप्रायेण समर्थितः कर्मणां गुरुत्वलघुत्वपरिणामः / बृ०१ उ०। एतदेव सर्वमभिप्रेत्य सूत्रकृदाहसत्तमे णं भंते ! उवासंतरे किं गुरुए लहुए गुरुयलहुए अगुरुयलहुए ? गोयमा ! नो गुरुए नो लहुए नो गुरुयलहुए अगुरुयलहुए। सत्तमे णं मंते ! तणुवाए य लहुए ? गोयमा ! नो गुरुए नो लहुए गुरुयलहुए। एवं नो अगुरुयलहुए / सत्तमे घणवाए सत्तमे घणोदही सत्तमा पुढवी उवासंतराइं सव्वाई जहा सत्तमे उवासंतरे जहा तणुवाए, एवं गुरुयलहुए। घणवायघणउदहिपुढवीदीवाय सागरावासा / नेरइया णं मंते ! किं गुरुया जाव अगुरुलहुया ? गोयमा ! नो गुरुया नो लहुया गुरु-यलहुया वि अगुरुलहुया वि। से केणद्वेणं ? गोयमा ! वेउव्वियतेयाइं पडुच नो गुरुया नो लहुया गुरुयलहुया नो अगुरुयलहुया। जीवं च कम्मंच पडुच्च नो गुरुया नो लहुया नो गुरुयलहुया, अगुरुयलया। से तेणटेणं, एवं जाववेमाणिया, नवरं णाणत्तं जाणियव्वं सरीरेहिं धम्मत्थिकाए जाव जीवत्थिकाए चउत्थपएणं / पोग्गलत्थिकाए णं मंते ! किं गुरुए लहुए गुरुयलहुए अगुरुयलहुए ? गोयमा! नो गुरुए नो लहुए गुरुयलहुए वि अगुरुयलहुए वि।सेकेणतुणं ? गोयमा ! गुरुयलहुयदव्वाइं पडुच्च णो गुरुए णो लहुए गुरुयलहुए नो अगुरुयलहुए, अगुरुयलहुयदव्वाइं पडुचनो गुरुएनो लहुए नो गुरुयलहुए अगुरुयलहुए। समया कम्माणि य चउत्थपएणं / कण्हलेस्साणं मंते ! किं गुरुया जाव अगुरुयलहुया ? गोयमा ! नो गुरुया नो लहुया गुरु-यलहुया वि अगुरुयलहुया वि / से केणटेणं? गोयमा ! दव्वलेस्सं पडुच्च तझ्यपएणं, मावलेस्सं पडुच्च चउ-त्थपएणं, एवं जाव सुक्कलेस्सा / दिट्ठीदसणनाणअन्नाणसण्णाओ चउत्थपएणं णेयव्वाइं, हेहिल्ला चत्तारि सरीरा नायव्वा, तइएणं कम्मयं, चउत्थएणं पएणं मणजोगे वइजोगे, चउत्थएणं पदेणं कायजोगो, तइय- एणं पएणं सागारोवओगो अणागारोवओगो चउत्थपएणं सव्वदवाओ सव्वपदेसा सव्वपञ्जवा जहा पोग्गलत्थिकाओ / अतीतद्धा अणागयद्धा सव्वद्धा चउत्थएणं पएणं। (सत्तमे णमित्यादि) इह चेयं गुरुलघुव्यवस्थानिच्छयओ सव्वगुरुं, सव्वलहुं वा न विज्जए दव्वं / ववहारओ उ जुञ्जइ, बायरखंघेसु णाणेसु // 1 // अगुरुलहुं चउफासा, अरूविदव्वा य हों ति नायव्वा। सेसा उ अट्ट फासा, गुरुलहुया निच्छयणयस्स" // 2 // (चउफासत्ति) सूक्ष्मपरिणामानि (अट्ठफासत्ति) बादराणि गुरुलघुद्रव्यं रूपिअगुरुलघुद्रव्यं त्वरूपिरूपिवेति। व्यवहारतस्तु गुर्वादीनिचत्वार्यपि सन्ति। तत्र निदर्शनानि-गुरुर्लोष्ठोऽ-धोगमनात, लघुघूम ऊर्ध्वगमनात्, गुरुलधुर्वायुस्तिर्यग्गमनात् , अगुरुलध्वा-काशं तत्स्वभावत्वादिति / एतानि चावकाशान्तरादिसूत्राण्येतद्गाथानुसारेणावगन्तव्यानि / तद्यथा"उवासवाय-घणउदहि-पुढवीदीवाय सागरावासा।नेरयाइ अत्थिय, सम-याकम्माई लेसाओ / / 1 / / दिट्ठी दंसणणाणे, सन्नसरीरा य जोगउवओगे / दव्वपएसा पज्जव, तीया आगामिसंबद्ध त्ति" ॥२॥(वेउब्धियतेयाई पडुच्चत्ति) नारका वैक्रियतैजसशरीरे प्रतीत्य गुरुकलघुका एव। यतो वैक्रियतैजसवर्गणात्मके ते, एताश्च गुरुकलघुका एव / यदाह-"ओरालियवेउव्विय-आहारगतेय गुरुलहूदव्व त्ति"। (जीवं च कम्मं च पडुच त्ति) जीवापेक्षया कार्मणशरीरापेक्षया च नारका अगुरुलघुका एव, जीवस्यारूपित्वेन गुरुलघुत्वात्। कार्मणशरीरस्य च कार्मणवर्गणात्म-कत्वात्कार्मणवर्गणायां चागुरुलघुत्वात् / आह च "कम्मण-मणभासाई, एयाई अगुरुलहुयाई ति" (नाणत्तं जाणियव्यं सरीरेहिं ति) यस्य यानिशरीराणि भवन्ति तस्य तानि ज्ञात्वा असुरादिसूत्राण्यध्ये यानीति हृदयम् / तत्रासुरादिदेवा नारकवद्वाच्याः / पृथिव्यादयस्तु औदारिकतैजसे प्रतीत्य गुरुलघवः, / जीवं कार्मणं च प्रतीत्यागुरुलघवः / वायवस्तु औदारिकदै क्रि यतैजसानि प्रतीत्य गुरुलघवः। एवं पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चोऽपि मनुष्या स्त्वौदारिकवैक्रियतैजसाहारकाणि प्रतीत्येति (धम्मत्थि-काये त्ति) इहयावत्करणात्, "अहम्मत्थिकाए आगासत्थिकाए" इति दृष्यम् (चउत्थपएणं ति) एते अगुरुलघु इत्यनेन पदेन वाच्याः / शेषाणां तु निषेधः कार्यः, धर्मास्तिकायादीनामरूपितया अगुरुलघुत्वादिति / पुद्गलास्तिकायसूत्रे उत्तरं निश्चयनयाश्रितम् , एकान्तगुरुलघु-नोस्तन्मतेनाभावात् (गरुयलहुयदव्वाइं ति) औदारिकादीनि 4 (अगुरुलहुयदव्याई ति ) Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगरुलहुय अगरुलहुणाम 159 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 कार्मणादीनि (समया कम्माणि य चउत्थपएणं ति) समया अमूर्ताः कर्माणि च कार्मणवर्गणात्मकानीत्यगुरुलघुत्वमेषाम् / (दव्वलेसं पडुच तइयपएणं ति) द्रव्यतः कृष्णलेश्या औदारिकादिशरीरवर्णः, औदारिकादिकञ्च गुरुलध्विति कृत्वा गुरुलघ्वित्यनेन तृतीयविकल्पेन व्यपदेश्यः। भावलेश्या तु जीवपरिणतिः, तस्याश्चामूर्त्तत्वादगुरुलध्यित्यनेन व्यपदेश इत्यत आह (भावलेसं पडुच चउत्थपएणं ति) (दिट्ठीदसणेत्यादि) दृष्ट्यादीनि जीव पर्यायत्वेनागुरुलघुत्वादगुरु लघुलक्षणेन चतुर्थपदेन वाच्यानि। अज्ञानपदं विह ज्ञानविपक्षत्वादधीतम् , अन्यथा द्वारेषु ज्ञानपदमेव दृश्यते (हेडिल्ले त्ति) औदारिकादीनि / (तइयपएणं ति) गुरु-लघुपदेन गुरुलघुवर्गणात्मकत्वात् / (कम्मणा चउत्थपएणं ति) अगुरुलघुद्रव्यात्मकत्वात् कार्मणशरीराणां मनोयोगवाग्योगौ चतुर्थपदेन वाच्यौ, तद्द्रव्याणामगुरुलघुत्वात् , काययोगः कार्मणवर्जस्तृतीयेन गुरुलधुत्वात्तद् द्रव्याणामिति / (सव्व- दव्वेत्योदि) सर्व्वद्रव्याणि धर्मास्तिकायादीनि सर्वप्रदेशास्तेषामेव निर्विभागा अंशाः सर्वपर्यवा वर्णोपयोगादयो द्रव्यधर्माः, एते पुद्गलास्तिकायवद्व्यपदेश्याः गुरुलघुत्वेनागुरुलघुत्वेन वेत्यर्थः / यतः सूक्ष्माण्यमूर्तानि च द्रव्याण्यगुरुलघूनि, इतराणि तु गुरुलधूनि / प्रदेशपर्यवास्तु तत्तद्र्व्यसम्बन्धत्वेन तत्तत्स्वभाव इति / भ०१।०६ उ०। संप्रतिगुरुलघुद्रव्याणामगुरुलघुद्रव्याणां चाल्पबहुत्वेन वर्गणाश्चिन्त्यन्ते तत्र बादरस्कन्धेषु जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदभिन्नेष्वेकोत्तरवृद्ध्या प्रवर्द्धमाना वर्गणा अनन्ता भवन्ति / ताश्व तावद्दष्टच्या यावत्सर्वोत्कृष्टो बादरस्कन्धः। ततो य वग्गणाओ, सुहमाण भवंत णतगुणियाओ। परमाणूण य एक्का, संखेयपदेससंखाता। ताभ्यः समस्तबादरस्कनधगताभ्यो वर्गणाभ्यः सूक्ष्माणां सूक्ष्मानन्तप्रदेशकस्कन्धानामनन्तगुणिता वर्गणास्तथा परमाणूनां समस्तानामेकावर्गणा। (संखेय त्ति) संख्येयप्रदेशेषु व्यादि-प्रभृत्युत्कृष्ट संख्यातं यावत् संख्याताः संख्यातस्य संख्यात-भेदभावात् / इतरस्मिन्नसंख्येयप्रदेशे असंख्ये या वर्गणाः, असंख्यातस्य असंख्यातभेदभिन्नत्वात्। इय पोग्गलकायम्मि य, सव्वत्थोवा उगुरुलहू दव्वा। उमयपडिसेहिया पुण, अणंतकप्पा बहुविकप्पा / / इति एवमुपदर्शितेन प्रकारेण पुगलकाये पुद्गलास्तिकाये गुरुलघुद्रव्याणि सर्वस्तोकानि उभयप्रतिषेधितानि संज्ञातगुरु-लघुप्रतिषेधानि अगुरुलघूनीत्यर्थः / पुनर्द्रव्याणि अनन्तकल्पानि अनन्तभेदानि / तत्रानन्तभेदत्वं गुरुलघुद्रव्येष्वप्यस्ति, तत आह-बहुविकल्पानि विकल्पातिशयेन बहुभेदानि / संप्रति पर्याय-परिमाणमल्पबहुत्वेन चिन्त्यते- इह पञ्चराशयः क्रमेण स्थाप्यन्ते। तद्यथा-परमाणुराशिः, संख्यातप्रदेशकस्कन्धराशिः, असंख्यात-प्रदेशकस्कन्धराशिः, सूक्ष्मानन्तप्रदेशकस्कन्धराशिः, बादरानन्त-प्रदेशकस्कन्धराशिश्च। तत्र बादरानन्तप्रदेशकस्कन्धराशौ योऽन्तिषदः सर्वोत्कृष्टो बादरस्कन्धस्तत्र बहवो गुरुलघुपर्यायाः, सर्वस्तोका अगुरुलघुपर्यायाः, इह बादरस्कन्धेष्वप्यगुरुलघवः पर्यायाः सन्ति परमुत्कलिता गुरुलघुपर्याया इति / त एव तत्र शेषकालं गण्यन्ते, संप्रति तु वस्तुस्थिश्चिन्त्यते / इत्यल्पबहुत्वचिन्तायां ते चिन्तिताः तत्सर्वोत्कृष्टाद् बादरस्कन्धाद् / येऽधस्तना बादरस्कन्धास्तेषु गुरुलघुपर्यायाः क्रमेणानन्तगुणहान्या द्रष्टव्याः। अगुरुलघुपर्यायाः पुनरनन्तगुणवृद्ध्या। एवं च तावद् ज्ञातव्यं यावत्सर्वजघन्यो बादरस्कन्धः। उक्त च-"परमाणु-संखसंखा, सुहुमाण ताण बायराणं च / एएसिं रासीतो, कमेण सव्वे ठयेऊणं / / 1 / / तेसिं जो अंतिसओ, सव्वुक्कोसो य बायरोखंधो।तस्स बहू गुरुलहुया, अगुरुलहू पज्जवा थोवा // 2 // तत्तो हिट्ठा हुता, अणंतहाणिए गुरुलहू वुड्डी / एवं ताजाव जहन्नो त्ति' / एतदेवाहते गुरुलहुपज्जाया, पण्णाच्छेदेण बोगसित्ताणं / जा बायरो जहण्णो, अणंतहाणिए हायंता / / ते गुरुलघुपर्यायाः प्रज्ञाछेदनके नागुरुलघुपर्यायेभ्यो व्युत्कृष्य पृथक्कृत्या सर्वोत्कृष्टाद् बादरस्कन्धादधस्तनेषु बादरस्कन्धेष्वनन्तगुणहान्या हीयमानास्ताक्द्रष्टव्या यावद् जघन्यो बादरस्कन्धः / अगुरुलघुपर्यायास्तु क्रमेणानन्तगुणवृद्ध्या प्रवर्द्धमानाः, ततः परं सूक्ष्मानन्तप्रदेशादिषु स्कन्धेषु के वला अगुरुलघुपर्याया एव क्रमेणानन्तगुणवृद्ध्या प्रवर्द्धमाना द्रष्टव्याः / ते च तावत् यावत्परमाणवः / उक्तं च-"तेण परं सुहुमाओ, अणंतबुड्डिए नवर वटुंता / अगुरुलहुचिय केवल, जा परमाणू य तो नेया'||१|| तदेवं पर्यायपरिमाणमप्यल्पबहुत्वेन चिन्तितम्।सांप्रतमरूपिद्रव्यं चिन्त्यते-तचतुर्द्धा, तद्यथाधर्मास्तिकायः, अधर्मास्तिकायः, आकाशास्तिकायः, जीवास्तिकायश्च / तेषां किमगुरुलधुपर्यायपरिमाणमत आह - केण हविज विरोहो, अगुरुलहुपजवाण उ अमुत्ते। अचंतमसंजोगो, जहियं पुण तव्विवक्खस्स // यत्राभूर्ते धर्मास्तिकायादौ तद्विपक्षस्य गुरुलघुपर्यायजातस्यात्यन्तमेकान्तेनासंयोगोऽघटना तत्रागुरुलघुपर्यायाणां केन विरोधो विनाशनं भवेत् ?, नैव केनचित् / ततः केनापि विनाशाभावात्सदैव प्रतिप्रदेशमनन्ता अगुरुलघुपर्यायाः। तथाचाहएवं तु अणंतेहिं, अगुरुलघुपज्जवेहिं संजुत्तं / होइ अमुत्तं दव्वं, अरूविकायाण चाउण्हं।। एवं तु सति चतुर्णामप्यरूपिकायानामरूपिणामस्तिकायानां धर्मास्तिकायप्रभृतीनामे कै काख्यं यदमूर्त द्रव्यं तद् भवति प्रत्येकमनन्तै रगुरुलघुपर्यायैः संयुक्तम् / तदेवंभावित एकै क आकाशप्रदेशोऽनन्तैरगुरुलघुपर्यवैरुपेतः। बृ०१ उ०। अगरुलहुचउक्क न०(अगुरुलघुचतुष्क) अगुरुलघूपघातपरा घातोच्छ्वासलक्षणनामकर्मप्रकृतिचतुष्टये, कर्म०१ कर्म / अगरुलहुणाम-न०(अगुरुलघुनामन्) नामकर्मभेदे, यदुदयाद-गुरुलघु स्वयं शरीरं जीवानां भवति। स०। अंगं न गुरु न लहुयं, जायइ जीवस्स अगरुलहुउदया। अगुरुलघूदयाद गुरुलघुनामोदयेन जीवस्य अङ्गं शरीरं न गुरुन लघु जायते भवति, किन्तु अगुरुलघु, यत एकान्ते गुरुत्वे हि वोढुमशक्यं स्यात्, एकान्तलघुत्वे तु वायुनाऽपहियमाणं धारयितुं न पार्येत, यदुदयाञ्जन्तुशरीरं न गुरु न लघु नापि गुरुलघु किन्तु अगुरुलधुपरिणामपरिणतं भवति, तदगुरुलघुनामेत्यर्थः / कर्म०१ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगरुलहुयपरिणाम 160 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अ(आ) गारधम्म अगरुलहुयपरिणाम-पुं०(अगुरुलघुकपरिणाम) अगुरुलघुकमेव अवरे अप्पतुल्लायारे रायाणं ठवाविस्सामो। मंतीऊण तेसिं मंतं नाऊण परिणामः, परिणामपरिणामवतोरभेदादगुरुलधुकपरिणामः | राइणो विनवेइ / रण्णा वुत्तं-कहं में एहुंतो अप्पा रविखयव्वो अजीवपरिणामभेदे, स्था०१० ठा० / अगुरुलघुपरिणामस्तु विदेहनरिंदतुल्लं हवइ / मंतिणा भणियं- महाराय ! अगहिल्लिएहिं पि परमाणोरारभ्य यावदनन्तानन्तप्रदेशिकाः स्कन्धाः सूक्ष्माः। सूत्र०१ अम्हे हिं गहिल्लीहोऊण ठायव्यं / न अन्नहा मुक्खो / तओ श्रु०१अ०१ उ०। कित्तिमगहिल्लीहोउं ते रायमचा तेसिंमज्झे निअसंपयं रक्खंता चिट्ठति। अगरुलपरिणामे णं मंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! तओ ते सामंताइ तुट्ठा, अहो ! रायमचा वि अम्हसरिसा संजाय त्ति। एगागारे पण्णत्ते। उवाएण तेण तेहिं अप्पा रक्खिओ। तओ कालंतरेण सुहबुट्टी जाया। अगुरुलघुपरिणामो भावादिपुद्रलानां 'कम्भणमणभासाई एयाई नवोदगे पीए सव्वे लोगा पगइमावण्णा सुत्था संवुत्ता / एवं दूसमकाले गीयत्थकुलिंगीहिं सह सरिसो होऊण वट्टता अप्पणो समयं भाविणं अगुरुलहुयाई" इतिवचनात्। तथा अमूर्तद्रव्याणां चाका-शादीनाम् / पडिवालिंतो अप्पाणं निव्वाहइस्संति। ती०२१ कल्प०। अगुरुलघुपरिणामग्रहणमुपलक्षणम्, तेन गुरुलघु-परिणामोऽपि द्रष्टव्यः / स चौदारिकादिद्रव्याणां तैजसद्रव्य-पर्यन्तानामवसेयः / अगाढ-त्रि०(अगाढ) अवगाढे, सूत्र०१ श्रु०१३ अ०॥ "ओरालियवेउव्वियआहारगतेय गुरुलहू दव्वा / " इति वचनात् / अगाढपण्ण-त्रि०(अगाढप्रज्ञ) अगाढा तत्त्वनिष्ठा प्रज्ञा बुद्धिर्यस्य प्रज्ञा०१३ पद। सोऽगाढप्रज्ञः परमार्थपर्यवसितबुद्धौ, "अगाङ्मण्णेसु विभावि-यप्पा, अगरुवर-पुं०(अगुरुवर) कृष्णागरौ, ज्ञा० 17 अ०। अन्नं जणं सपन्नं परिहवेजा।" सूत्र०१श्रु०१३ अ०। अगलत-त्रि०(अगलत्) अस्राविणि, "असती मोयमहीए कयकप्प अ(आ)गार-न०(अगार) गृहे, दश०१ अ० / अगैर्दुमदृषदादिअगलंत सत्तए णिसिरे" व्य०७ उ०) भिनिवृत्तमगारम् / दशा०१० अ०। विशे० स्था० / / अनु०॥ सूत्र०। आचा०ा प्रव०। पञ्चा०नि०चूल आ०म०,द्वि०। (अगारनिक्षेपः) अगार अगलिय-त्रि०(अगलित) अपतिते, "अगलिअणेहणिवट्टाई जोअण द्विविधं द्रव्यभावभेदात् / तत्र द्रव्यागारमगैर्दुमदृषदादि-भिर्निर्वृत्तम् / लक्खु विजाउ। वरिससएण विजो मिलइ स हि सोक्खहं सो हाउय"। भावागारं पुनरगैर्विपाककालेऽपि जीवविपाकितया शरीरपुद्लादिषु प्रा०१ पाद। बहिःप्रवृत्तिरहितैरनन्तानुबन्धादिभिर्निर्वृत्तं कषायमोहनीयम्। "समरेसु अगविट्ठ-त्रि०(अगवेषित) गवेषणया अपरिभाविते, "अगविठ्ठस्स उ य अगारेसु, संधीसु य महापहे" अगारेषु शून्यगृहेषु / उत्त०१ अ०। गहणं, न होइन य अगहियस्स परिभोगो।" पिं०।"अगविट्ठाय गविट्ठा, "अगार-मावसंतस्स, सव्वो संविजए तहा" सूत्र०१ श्रु०३ अ०२ उ०। णिप्पण्णा धारणदिसासु" व्य०४ उ०। विशे० / अगारं द्विविधम्- खातमुच्छ्रितं च / तत्र खातं भूमिगृहादि, अगहणवग्गणा- स्त्री०(अग्रहणवर्गणा) अल्पपरमाणुरूपत्वेन उच्छ्रितमुच्छ्रयेण कृतम्, उभयं भूमिगृहस्योपरि प्रासादः / पञ्चा०१ स्थूलपरिणामतया च स्वभावान्जीवानां ग्रहेऽसमागच्छन्तीषु वर्गणासु, विव० स्थानेच। "सिंगारागारचारुवेसा" औ०। अगारं गृहं तद्योगाद् / कर्म०५ कर्म०। पं०सं०(आसांस्पष्टं स्वरूपं 'वग्गणा' शब्दे दर्शयिष्यते) विशे०। अगारं गृहं तदेषां (वा) विद्यते इत्यर्शा-दिगणत्वादच् प्रत्ययः। अगहिय-त्रि०(अग्रहीत) न०ता अस्वीकृते, पञ्चा०१७ विव० / गृहस्थे, पुं०। दश०१ अ०। अगहियगहण-न०(अगृहीतग्रहण) साधुभिरस्वीकृतभक्ता- अगारत्थ-पुं०(अगारस्थ) अगारं गृहं, तत्र तिष्ठन्तीति अगारस्थाः। दिदातव्यद्रव्ये, “पडिबंधणिरागरणं, केइ अण्णे अग्गहियगह-णस्स"। _गृहस्थेषु, आचा०१ श्रु०६ अ०१उ०। पञ्चा०१७ विव०। अ(आ) गारधम्म-पुं०(अगारधर्म) न गच्छन्तीत्यगा वृक्षास्तैः कृतम् अगहिल्लगराय-पुं०(अग्रहिलकराज) राजभेदे,(ती०) तत्कथा चैवम् आ समन्ताद् राजत इत्यगारं गृहम् / तत्र स्थितानां धर्मोऽगारधर्मः। केइ पुण अगहिल्लगरायअक्खाणगविहीए कालाइदोसो वि अप्पाणं ___ शाकपार्थिवादित्वान्मध्यमपदलोपीसमासः।देशविरतौ, आ०म०द्वि० / निव्वाहइस्संति, तंच अक्खाणयमेवं पन्नवंति पुव्यायरिया। पुव्यिं किर पंच य अणुव्वयाई, गुणव्वयाइंच हॉति तिन्नेव / / पुहवीपुरीए पुण्णो नाम राया। तस्समंती सुबुड्डी नाम / अन्नया लोगदेवो सिक्खावयाइ चउरो, गिहिधम्मो बारसविहो य॥१३॥ नाम नेमित्तिओ आगओ। सो य सुबुड्डिमंतिणा आगमेसिं कालं पुट्ठो! पञ्चाणुव्रतानि स्थूलप्राणातिपातविरत्यादीनि गुणद्रतानि च भवन्ति, तेण भणियम्-मासाणंतरे इत्थ जलहरो वरिसिस्सइ / तस्स जलं जो त्रीण्येव दिगवतादीनि शिक्षापदानि चत्वारि सामायि-कादीनि, गृहिधर्मा पाहिइ सो सव्यो वि गहलीभूओ भविस्सइ। कित्तिए वि काले गए सुवुट्ठी द्वादशविधस्तु एष एवाणुव्रतादिः / अणुव्रता-दिस्वरूपं चावश्यके भयस्सइ / तज्जलपाणेण पुणोजणा सुत्थीभविस्संति। तओ मंतिणातं चर्चितत्वानोक्तमिति गाथार्थः। दश०नि०६ अाधा तत्र सामान्यतो राइणो विन्नत्तं / रण्णा वि पडहग्घोसेण वारिसंगहत्थो जणो आइट्ठो। 'नाम सर्वविशिष्टजनसाधारणानुष्ठानरूपः, विशेषात् सम्यग्दर्शनाणुव्रताजणेण वि तस्संगहो कओ।मासेण वुट्टो मेहो। तंच संगहियं नीरं कालेण दिप्रतिपत्तिरूपः, चकार उक्तसमुच्चय इति / तत्राद्यं भेदं दशभिः निट्ठविअंलोएहिं नवोदगंचेव पाउमाढत्तं। तओ गहिलीभूआ सव्वलोआ श्लोकैदर्शयतिसामंताइ गायंति नचंति सिज्जाए वि चिट्ठतो / केवलं राया अमनो अ "तत्र सामान्यतो गृहि-धर्मो न्यायार्जितं धनम् / संगहिअंजलं न निष्वियं ति। तंचेव दो विसुत्था चिट्ठति। तओ सामंताईहिं वैवाह्यमन्यगोत्रीयैः, कुलशीलसमैः समम् / / विसरिसंचिढे रायअमचेहिं निरिक्खिऊणपरप्परं मंतिजहा गहिल्लो शिष्टाचारप्रशंसाऽरि -षड् वर्गत्यजनं तथा / राया मंतीय। एए अम्हाहिंतो वि विसारिसायारा। तओ एए अवसारिऊण इन्द्रियाणां जय उपप्लुतस्थानविवर्जितम् // 6 // रापात Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगारधम्म 161 - अभिधानराजेन्द्रः- भाग 1 अगिलाय अगारमपि गृहमप्यावसन् गृहवासमपि कुर्वन्नरो मनुष्यः (अणुपुत्वं ति ) आनुपूर्व्या श्रवणधर्मप्रतिपत्त्यादिलक्षणया प्राणिषु यथाशक्त्या सम्यग्यतः संयतस्तदुपमर्दान्निवृत्तः, किमिति? यतः समता समभावः आत्मपरतुल्यता, सर्वत्र यतौ गृहस्थेच यदि चैकेन्द्रियादौ श्रूयतेऽभिधीयते आर्हते प्रवचनेतांचकुर्वन् सगृहस्थोऽपिसुव्रतःसन् देवानांपुरन्दरादीनां लोकं स्थानं गच्छेत्, किं पुनर्यो महासत्त्वतया पञ्चमहाव्रतधारी यतिरिति / "सेओ अगारवासो त्ति, इई भिक्खू न चिंतए"। उत्त०२ अ०॥ सुप्रातिवेश्मिके स्थाने, नातिप्रकटगुप्तके / अनेकनिर्गम द्वार-गृहस्य विनिवेशनम् // 7 // पापभीरुकताख्याता, देशाचारप्रपालनम् / सर्वेष्वनपवादित्वं, नृपादिषु विशेषतः।।१।। आयोचितव्ययो वेषो, विभवाद्यनुसारतः। मातृपित्रर्चनं सङ्गः, सदाचारैः कृतज्ञता। अजीर्णेऽभोजनं काले, भुक्तिः सम्पदलोलता। वृत्तस्थज्ञानवृद्धार्हा, गर्हितेष्वप्रवर्तनम् // 10 // भर्तव्यभरणं दीर्घ-दृष्टिधर्मश्रुतिर्दया। अष्टबुद्धिगुणैर्योगः, पक्षपातो गुणेषु च // 11 // सदाऽनभिनिवेशश्च, विशेषज्ञानमन्थहम् / यथार्हमतिथौ साधौ, दीने च प्रतिपन्नता // 12 // अन्योन्यानुपघातेन, त्रिवर्गस्यापि साधनम् / अदेशकालाचरणं, बलाबलविचारणम् / / 13 / / यथार्थलोकयात्रा च, परोपकृतिपाटवम्। हीः सौम्यता चेति जिनैः, प्रज्ञप्तो हितकारिभिः" ||14|| (दशभिः कुलकम्) तत्र तयोः सामान्यविशेषरूपयोगृहस्थ धर्मयोर्वतु मुक्रान्तयो मध्ये समान्यतो गृहिधर्म इति अमुना प्रकारेण हितकारिभिः परोपकरणशीलैर्जिनरर्हद्भिः प्रज्ञप्तः प्ररूपित इत्यनेन संबन्धः / ध० १अधि०। (न्यायार्जितधनादिपदानामर्थः 'णायज्जिय' शब्दे) अगारबंधण-न०(अगारबन्धन) क०स०। पुत्रकलार्धानधान्या-दिरूपे गृहपाशे, आचा०१ श्रु०५ अ०४ उ०॥ "एवं समुद्विए भिक्खू, वोसिज्जा गारबंधणं'। सूत्र०१ श्रु०३ अ०३ उ०। अगारव-त्रि०(अगौरव) न०ब० ऋद्ध्यादिगौरववर्जिते. प्रश्न०५ संव० द्रा०॥ अगारवास-पुं०(अगारवास) गृहवासे, "अगारवासमज्झे वसित्ता"। म० 15 श०१ उ०॥ इहलोग दुहावहं विऊ, परलोगे य दुहं दुहावहं। विद्धंसणधम्मेव तं, इति विजं कोऽगारमावसे? // 10 // (इहलोग इत्यादि) इहाऽस्मिन्नेव लोके हिरण्यस्वजनादिकं दुःखमावहति, (विऊ ति) विद्याः जानीहि / तथाहि "अर्थानामर्जने दुःखमर्जितानां च रक्षणे / आये दुःखं व्यये दुःखं, धिगर्थ दुःखभाजनम्" ||1|| तथाहि-"रेवापयः किसलयानिच सल्ल-कीनां विन्ध्योपकण्ठविपिनं स्वकुलं च हित्वा / किं ताम्यसि द्विप ! गतोऽसि वशं करिण्याः स्नेहो निबन्धनमनर्थपरम्परायाः" ||1 // परलोके च हिरण्यस्वजनादिममत्वापादितकर्मजं दुःखं भवति, तदप्यपरं दुःखमावहति, तदुपादानकर्मोपादानादिति भावः / तथैत दुपार्जितमपि विध्वंसनधर्म विशरारुस्वभावं गत्वरमित्यर्थः, इत्येवं विद्वान्जानन् कः सकर्णोऽगारवासं गृहवासमावसेत्, गृहवासं वाऽनुबध्नीयादिति? उक्तं च "दाराः परिभवकाराः, बन्धुजनो बन्धनं विषं विषयाः। कोऽयं जनस्य | मोहो ? ये रिपवस्तेषु सुहृदाशा" ||1|| सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ उ०। गारं पि अ आवसे नरे, अणुपुव्वं पाणेहि संजए। समता सव्वत्थ सुव्वते, देवाणं गच्छे स लोगयं // 13 // अगारि(ण)-पुं०(अगारिन्) गृहस्थे, सूत्र०१श्रु०१४ अ०। आचा०। का"अगारिणो विसमणा भवंतु, सेवंति उते वितहप्पगारं'। सूत्र०२ श्रु०६ अ०। अगारिकम्म-न०(अगारिकर्मन्) अगारिणां कर्माऽनुष्ठानम्। गृहस्थानां सावध आरम्भे, जातिमदादिकेच! "णिक्खम्म से सेवइ गारिकम्म,ण पारए होइ विमोयणाए" सूत्र०१ श्रु०१३ अ०। अगारियंग- न०(अगार्यङ्ग) अगारिणां गृहस्थानामङ्ग कारणम् / जात्यादिके मदस्थाने, सूत्र०१ श्रु०१३ अ०। अगारी- स्त्री०(अगारी) गृहस्थस्त्रियाम् , व्य०१ उ०। अगारीपडि बंधं- पुं०(अगारीप्रतिबन्ध) अगार्याः प्रतिबन्धोऽगारिप्रतिबन्धः। यत्रागार्या विषये आत्मपरोभयसमुत्था दोषाइत्वेवंरूपे गृहियोषित्प्रतिबन्धे, व्य०४ उ०। अगाह-त्रि०(अगाध) गम्भीरे, स्था०४ ठा०४ उ०। अगिज्झ-त्रि०(अग्राह्य) हस्तादिना ग्रहीतुमशक्ये "तओ अगिज्झा पण्णत्ता, तं जहा-समए पएसे परमाणू"। स्था०३ ठा०२ उ०। अनाश्लेष्ये,"अणेगणरभुयाऽगिज्झे"। औ०। अप्रमेये, रा०! अगण्हियव्व-त्रि०(अग्रहीतव्य) न ग्रहीतव्योऽग्रहीतव्यः। हेये, उपेक्षणीये च / उभयोरपि कार्यासाधकत्वात् / 'गज्झो जो कज्जसाहगो होइ" इति कार्यसाधकस्यैव ग्राह्यत्वोक्तेः "णायम्मि गेण्हियव्वम्मि, अगेण्हियव्वम्मि चेव अत्थम्मि" उत्त०१ अ०। आव०। अगिद्ध-त्रि०(अगृद्ध) न०त० / अनध्युपपन्ने अमूर्छिते, "अगिद्धे सद्दफासेसु, आरंभेसु अणिस्सिए'। सूत्र०१ श्रु० अ० "उवहिम्मि अमुच्छिए अगिद्धे अण्णायउंछं पुलणिप्पुलाए" अगृद्धः प्रतिबन्धाभावेन / दश०१० अ०। अगिलाइ-स्त्री०(अग्लानि) अखेदे, स्था०८ ठा०। भला "अगिलाइ अणाजीवी, णायव्वो वीरियायारो'! पंचा०१५ विव० / अगिलाणाम णो मनोवाक्काएहिं अजज्जरमाणेत्यर्थः / नि०चू०१ उ०॥ अगिला-स्त्री०(अग्लानि) निर्जरार्थमात्मोत्साहे, व्या०४ उ० / गिलाव्याख्यानार्थमाह-"निववेटिव कुणंतो, जो कुणई एरिसा गिलाहोइ / पडिलेहुट्ठवणाई,वेयावडियं तुपुव्युत्तं " // 1 // यो नाम नृपवेष्टि राजवेष्टिमिव कुर्वन् वैयावृत्त्यं करोति एतादृशी भवति गिलाग्लानिस्तस्याः प्रतिषेधोऽगिला / तया करणीयं वैयावृत्त्यम् किं तदित्यत आहप्रतिलेखोत्थापनादिकं भाण्डस्य प्रत्युपेक्षणमु-पविष्टस्योत्थापनमादिशब्दात् भिक्षानयनादिपरिग्रहः, एतत्पूर्वोक्तं वैयावृत्त्यम् / व्य०१ उ०। "अगिलाएणं भत्तेणं पाणेणं विणएणं वेयावडियं करेइ" भ०५ श०४ उ०। अगिलाय-पुं०(अग्लान) अग्लाने "कुज्जा भिक्खू गिलाणस्स, अगिलाए समाहिए'' भिक्षुः साधुग्लानस्य वैयावृत्त्यमग्लानोऽपरिश्रान्तः कुर्यात्, सम्यक् समाधिना ग्लानस्य Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगिलाय 162 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अगुणपेहि - या समाधिमुत्पादयेदिति। सूत्र०१ श्रु०११ अ०। लक्खणजाए पत्ता दुक्खपरंपरा // 2 // तम्हा तंणाउ बुद्धीहिं, सव्व-भावेण अगीय-पुं०(अगीत) अगीतार्थे, व्य०१ उ०। सव्वहा / गीयत्थेहिं भवित्ताणं, कायव्यं निकलुसं मणं"।।३।। महा०६ अगीयत्थ-पुं०(अगीतार्थ) न०ब० / अनधिगताचारप्रकल्पादि अ०।"शाल्यादिबीज- युतोपाश्रये न स्थेयमिति निषेध्य द्वितीयपदे निशीथान्तश्रुतार्थे, जी०१ प्रति०।अगीतार्थो येन छेदश्रुतार्थो न गृहीतो, 'बिइयपथकारणम्मि पुट्विं वसभा पमज्ज जतणाए' इत्याधुक्त्वा, गृहीतो वा परं विस्मारितः। बृ०१ उ०! "अगीयत्थस्सन कप्पइ तिविहं जयणं तु सो न जाणाइ / अणुन्नवणाए जयणाए, जयणं सपक्खपरपक्खजयणं च'। बृ०२ उ० / इति / अथागीतार्थोपदेशः सर्वोऽपि दुःखावहो भवतीत्याह (अगीतार्थ-स्य त्रिविधयंतनाज्ञानप्रदर्शनं 'वसई' शब्दे / अगीतार्थेन अगीअत्थस्स वयणेण, अमिअंपिन घुटए। सार्कन विहरेत्। 'गीयत्थो य विहारो, बीओ गीयत्थणिस्सिओ होइ" जेण नो तं भवे अमयं,जं अगीयत्थदेसि // 46 // इत्यनेन 'विहार' शब्दे दर्शयिष्यमाणेन निषेत्स्यभानत्यात्।) परमत्थओ न तं अमयं, विसं हालाहलं खुतं / अणहीयपरमत्था वि, गोयमा ! संजए मवे। न तेण अजरामरो हुत्था, तक्खणा निहणं वए।॥७॥ तम्हा ते वि विवजिजा, दुग्गईपंथदायगे / / 3 / / अनयोाख्या-अगीतार्थस्य (संविग्गए नाम एगे नो गीयत्था 1, नो हे गौतम ! ये संयता अपि संयमवन्तोऽपि (अणहीयपरमत्थे त्ति) संविग्गा नाम एगे गीयत्था२, संविग्गा नाम एगे गीयत्था वि३,नो संविग्गा अनधीता अनभ्यस्ताः परमार्था आगमरहस्यानि यैस्ते अनधीतनाम एगे नो गीयत्था वि 4) पूर्वोक्तप्रथमचतुर्थभङ्गतुल्यस्य वचनेन परमार्थाः, अगीतार्था इत्यर्थः / ते यस्मात् अज्ञातद्रव्यअमृतमपि (नपुंटए त्ति) न पिबेत्। अगीतार्थोपदेशेनामृतवद् दृश्यमानं क्षेत्रकालभावौचित्या भवन्तीति शेषः / तस्मात्तानगीतार्थान सुन्दरमप्यनुष्ठानं न कुर्यादिति परमार्थः / येन कारणेन न तदमृतं भवेत् विवर्जयेत् / विहारे एकत्र निवासे वा दूरतस्त्यजेत् / अपिशब्दोऽत्र यदगीतार्थदेशितमगीतार्थोपदिष्टम् / एतदेव विशेषेणाह-परमार्थतः भिन्नक्रमः, सच यथास्थानं योजित एव। किंभूतान् दुर्गतिपथदाय-कान् तत्त्वतस्तदमृतनगुणकारीत्यर्थः। तद् विषं हालाहलं (खु त्ति) निश्चितं, तिर्य प्रारक कु मानुषकु देवरू पदुर्गतिमार्ग प्रापकानित्यर्थः। न तेन अजरामरो मोक्षसुखभाग भवेत् / तत्क्षणादेव निधनं ग०२ अधि०। अगीतार्थेन सह सङ्गो न करणीयः / "अगीयत्थस्स विनाशमनन्तजन्ममरणलक्षणं व्रजेत् प्राप्नुयात्, अगीतार्थोपदेशेना- कुसीलेहि, संगं तिविहेण यजई। मोक्खमगंसिमे विग्धे, पहम्मी तेणगे मृतपानस्यापि अनन्तसंसारहेतुत्वात् / उक्तं च-"जंजयइ अगीयत्थो, जहा // पञ्जलियं हुयवहं दर्छ, णीसंको तत्थ पविसिओ। अत्ताणं पि जं च अगीयत्थनिस्सिओ होइ / वढायेइ य गच्छं, अणंतसंसारिओ डहिज्जासि, नो कुसील समल्लिए / वासलक्खं पि सूलिए, संभिन्नो होइ // 1 // कह उ जयंतो साहू, वट्टावेई य जो उ गच्छंतु। संजमजुत्तो अच्छिया सुहं / अगीयत्थेण समं एवं खणद्धं पिन से वसे // विणा वि होउं, अणंतसंसारिओ भणिओ // 2 // दव्वं खित्तं कालं, भावं तंतमंतेहिंघोरदिविविसं अर्हि। डसंतंपिसमल्लीया, णागीयत्थं कुसीलगं।। पुरिसपडिसेवणाओयान विजाणई अगीओ, उस्सग्गाववाइयं चेव // 3 // विसंखाएज हालाहलं तं, किर मारेइ भक्खणं / ण करे गीयत्थसंसगि, जहडियदव्यं ण जाणइ, सचित्ताचित्तमीसिअंचेव / कप्पाकप्पं च तहा, विढवे लक्खं जइ तहिं / / सीहं वग्धं पिसायं व, घोररूपं भयंकरं। जोगं वा जस्स जं होइ" ||4|| इत्यादि उपदेशमालायामिति ओगिलमालं पिलीएज्जा, ण कुसीलमग्गं गीयत्थे। सत्तजम्मंतरं सत्तुं, विषमाक्षरेति गाथाच्छन्दसी / ग०२ अधि० / महा०। "अबहुस्सुए अवमन्निज्जा सहोयरं। वयनियमं जो विराहेजा, जणथं पिक्खेतयं तिओ / / अगीयत्थे, णिसिरए वा धारए व गणं / तद्देवसियं तस्स, मासा चत्तारि महा०६ अ०। अगीतार्थस्य स्वातन्त्र्येण विहारेऽनन्तसंसारितैभारिया होति।बृ०१उ०। (इत्यगीतार्थस्य गच्छधारणनिषेधो 'गणहर' कान्तिक्यनाथा वेति प्रश्नः 14 / अत्रोत्तरम् - अगीतार्थस्य शब्दे) "अगीयत्थो दायव्वस्स धारेयव्वस्स वा अकप्पिओ" उच्यते स्वातन्त्र्यविहारेऽनन्तसंसारिता प्रायिकीति ज्ञायते, कर्मपरिणनर्तकीदृष्टान्तेन गाहा-"जह नट्टे जह नटिया, अयाणं तिया तेवैचित्र्यादिति। सेन०१ उल्ला०। विवज्जासं / करेइ गिज्झमाणे, नट्टे णट्टिया य गरहिया य" ||1|| भवइ अगुण-पुं०(अगुण) दोषे, नं० / गुणविरोधिनि दोष, गुणरहिते, त्रि०। एवमगीवत्थो अगीयत्थी यनसक्केइ समायरिउं पडिलेहणाइ उददिसिउं वाच०॥ वापरेसुं॥१॥ पंचू०।बृला नि००। (अगीतार्थो गच्छसारणां कर्तुंन | अगुणगुण-पुं०(अगुणगुण) अगुणे एव कस्यचिद्गुणत्वेन विपरिणममाणे, शक्नोतीति 'गच्छसारणा' शब्दे) अगीतार्थो दुस्त्याज्यस्तत्सङ्गेन स वक्रविषयः यथा गौर्गलिरसञ्जातकिणस्कन्धो गोगणस्य मध्ये दुःखप्राप्तिः "अगीयत्थत्तदोसेणं, गोयमा ! ईसरेण उ / जंपतं तं / सुखेनैवात्ति / तथा च "गुणानामेव दौर्जन्याझुरि धुर्यो नियुज्यते। निसामेत्ता, लहुगीयत्थो मुणी भवे"|१|| महा०६ अ०। ('इसर' शब्दे असंजातकिणस्कन्धः, सुखं जीवति गौर्गलिः" ||1|| आचा०१ श्रु०२ अभि० राजेन्द्र-द्वि०मा०पृ०६४५ तत्कथानकम्) "सारासारमयाणित्ता, अ०१उ०॥ अगीयत्थत्तदोसओ। चिंतियमेतेणा-विरज्जाए, पावगं जं समजियं / / 1 / / अगुणत्त-न०(अगुणत्व) अविद्यमानगुणोऽगुणस्तद्भावः, तत्त्वम् / . तेणं तीए अहं ताए, जा जा होहि नियंतणा / नारयतिरियकुमाणुसत्तं गुणाभावे, "अज्झयणगुणी भिक्खू, न सेस इइ णो पइन्न को हेऊ। सोचा को धिई लभे?"||शा (रज्जदिया" शब्दे कथानकम्)"अगीय- अगुणत्ता इइ हेऊ को दिलुतो सुवण्णमिव''दश०१० अ०। त्थत्तदोसेणं,- भावसुद्धिं ण पावए / विणा भावसुद्धीए, सकलुसमाणसो अगुणपेहि(ण )-त्रि(अगुणप्रेक्षिन) अगुणान् प्रेक्षते तच्छीलश्च यः / मुणी भवे / / 2 / / अणुथोवकलुसहिययत्तं अगीय-त्थत्तदोसओ।काऊणं ___ अगुणदर्शनशीले, दश०५ अ०। Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगुणवज 163 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अग्ग अगुणवज–त्रि०(अगुणवर्ज) अगुणान् दोषान्वर्जयति सतोऽपिन गृह्णाति अचित्तं / पच्छदेणं जहासंखं उदाहरणा-सचित्ते वृक्षाग्रं / इत्यगुणवर्जकः। सतामप्यगुणानामग्राहेक, नं0) सेमीसे देसो। उवचियं णाम देसो सचित्तो, अवचियं णाम देसो अचित्तो, अगुत्त-त्रि०(अगुप्त) गुप्तिरहिते, "के बलमेव अगुत्तो, सहसा जहा सीयगी, ईसिं दवमित्तं रुक्खागं च / अचित्तं कुंतगं गतं / / 1 / / णाभोगपव्ययप्पेहिं / व्य०१ उ०। "असमित्तो मित्ती कीस सहसा अगुत्तो इदाणिं ओगाहणगं - वा' अगुप्तो गुप्तिप्रमत्तः। पञ्चा०१६ विव०। ओगाहणग्गं सासत्त-णगाण उस्सुअचउत्थमागो णं / अगुत्ति-स्त्री०(अगुप्ति) मनःप्रभृतीनां कुशलानां निवर्त्तनेऽकुशलानां मंदरविवजिताणं,जं चोगाढं तु जावतियं // 51 // प्रवर्त्तने, स्था०३ ठा०१ उ० अंजणग-दहिमुखाणं, कुंडलरुयगवरमंदराणं च / तओ अगुत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा- मणअगुत्ती वयअगुत्ती ओगाहो उसहस्सं,सेसा पादं समोगाढा ||2|| कायअगुत्ती / एवं णेरइयाणं जाव थणियकुमाराणं पंचिंदिय- अवगाहनमवगाहः, अधस्तात्प्रवेश इत्यर्थः / तस्सग्गं अवगाहतिरिक्खजोणियाणं असंजयमणुस्साणं वाणमंतराणं णग्गं / शश्वद्भवन्तीति शाश्वताः, णगा पव्वता। ते यजे जंबुद्दीवे वेयड जोइसियाणं वेमाणियाणं। इणो ते घेप्पंतिण सेसदीवेसु, तेसिंउस्सुअचउत्थभागो अवगाहो भवति। तओ इत्यादि कण्ठ्यम् / विशेषतश्चतुर्विंशतिदण्डके एता अति- जहा वेयड्डे पणुवीसं जोयणाणुस्सुओ तेसिं चउत्थभागेण छज्जोयणाणि दिशन्नाह- एवमित्यादि (एवमिति) सामान्यसूत्रवन्नारकादीनां तिस्रो सकोसाणि। तस्सचेवावगाहो भवति, सो अवगाहो वेयडस्स भवति। एवं गुप्तयो वाच्याः, शेषं कण्ठ्यम्, नवरम्, इहैकेन्द्रिय-विकलेन्द्रिया नोक्ताः सेसाण विणेयं / मंदरो मेरू, तं वजेऊण / एवं चउभागावगाहलक्खणं वाङ्मनसोस्तेषां यथायोगमसम्भवात्। संयतमनुष्या अपि नोक्तास्तेषां भणितं, तस्स उसहस्समेवावगाहो। जंवाअणदिट्ठस्सवत्थुणोजावतियं गुप्तिप्रतिपादनादिति / स्था०३ ठा०१ उ० / इच्छाया अगोपनरूपे ओगाढं तस्स अग्गं ओगाहणग्गं / गयं ओगाहणग्गं // 2 // त्रयोविंशे गौणपरिग्रहे, प्रश्न०५ आश्र०द्वा०ा नि०यू०॥ इदानीं आएसगं - अगुरुलहुचउक्क-न०(अगुरुलघुचतुष्क) नामकर्मप्रकृति-चतुष्टये, आदेसगं पंच-गुलादि जं पच्छिमं तु आदिस्सं। कर्म०१ क०। (व्याख्या चास्य 'कम्म' शब्दे) तं पुरिसाण व भोजय, मोयणकम्मादिकज्जेसु // 53 // अगुरुलहुणाम-न०(अगुरुलहुनामन्) नामकर्मभेदे, कर्म०१ क०। (आदेसगंति) आदेशो निर्देश इत्यर्थः / तेण आदेसेण अग्गं (निरूपणमस्य 'अगुरुलहुणाम' शब्दे)। आदेशगं। तत्थुदाहरणं-पंचंगुलादिपंचण्हं अंगुलिदव्वाणं कम्मट्टिताणं अगुरुलहुय-न०(अगुरुलघुक) अत्यन्तसूक्ष्मे भाषामनःकर्म-द्रव्यादौ, जदि पच्छिमं आदिस्सति तं आदेसग्गं भवति / आदेसकारणं इभस्था०१० ठा०(स्पष्टमेतद् 'अगरुलहुय' शब्दे)। भोयणकाले जहा सत्तठाणे बहुआण कम्मठित्ताण इमं बहुयं भोजयसु त्ति अगुरुलहुयपरिणाम-पुं०(अगुरुलघुकपरिणाम) अजीवपरि-णामभेदे, आदिसति। एवं कम्माइ कजेसु विनेयं गयं आदेसग्गं / / 3 / / स्था०१० ठा०। (प्ररूपणा चास्य 'अगरुलहुयपरिणाम' शब्दे) ___ कालग्ग-कमग्गे एगा गाहा। ते भण्णति - अगुरुवर-पुं०(अगुरुवर) कृष्णागरौ, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। कालग्गं सव्वद्धा, कमग्गचतुधा तु दव्वमादीयं / अगोविय-त्रि०(अगोपित) प्रकटे, सूत्र०१ श्रू०८ अ01 खंधोगाहठितीसु य, भावेसु य अंतिमा जे ते // 54 // अगोरसव्वय-पुं०(अगोरसव्रत) गोरसमात्राऽभक्षके, 'पयोव्रतो न कलनं कालः तस्स अग्गं कालग्गं, सव्वद्धा, कहं ? समयो दध्यत्ति, न पयोऽत्ति दधिव्रतः / अगोरसवतो नोभे, तस्मात्तत्त्वं आवलिया लवो मुहुत्तो पहरो दिवसो अहोरत्तं पक्खो मासो उऊ त्रयात्मकम्" ||1|| आव०४ अ०। अयणं संवच्छरो जुग-पलिओवम सागरोवमं ओसप्पिणी उस्सप्पिणी अग्ग-न०(अग्र-अङ्ग-रक्) नलोपः। उपरिभागे, शेषभागे, आलम्बने, पुग्गलपरियट्टोऽतीतद्धमणागतद्धा सव्वद्धा एवं सव्वेसिं अग्गं भवति / पूर्वभागे, वाच०। बृहत्त्वात् कालग्गं गयं // 4 // इदाणिं कमगं कमो परिवाडी, परिवाडीए इदाणिं अग्गे त्ति दारं दसभेदं भण्णति अग्गं कमग्गं, तं चउव्विहं दव्वकमग्गं आदिसद्दातो खेत्तकमग्गं दव्वो 1 गाहण 2 आए कालकमग्गं भावकमग्गं चेति / पच्छद्धेण जहासंखेण उदाहरणाखंध स३ काल कम 5 गणण 6 संचए७ भावे 8 // इति दव्वग्गं / ओगाह इति खित्तग्गं / ठितीसु यत्ति कालग्गं / भावेसु अग्गं मावो तु पहा यत्ति भावगं / एतेसिंचउण्ह वि अंतिमाजे ते अग्गं भवति। उदाहरणं णबहुय उपचारतो तिविहं 10 // 46 || जहादुपएसिओ चउपंचछ- सत्तट्टणव दसपएसिओ असंखे, एवं जावऽणताणतपएसितोखंधो। ततो परं अण्णो बृहत्तरो न भवति, सो खंधो णामठवणाओ गताओ / दव्वग्गं दुविहं-आगमओ णोआगमओ य। दव्यगा एवं एगपएसोगाढादिजावअसंखेयपदेसावगाढोसुहमखंधोसव्व-लोगे, आगमओ जाणए अणुवउत्ते, णोआगमओ जाणगसरीरं भव्वसरीरं ततोपरंअण्णोउकोसादगाहणंतरोनभवति।सएवखेत-गाएवरगसमयहितिय जाणगभव्वसरीरवइरित्तं तिविहं तं दिसंति। दव्यं दुसमयट्ठितियं जाव असंखेज्ज-समयट्ठितियं जं तो परं अण्णं तिविहं पुण दव्वग्गं, सञ्चित्तं मीसगं च अचित्तं / उक्कोसतरहितिजुतं णभवति, तं कालग। चसद्दोजातिभेयमवेक्खउदाहरणं, रुक्खग्गं दस उवचित-अवचित तस्सेव कुंतम्गं // 50 // जहा-पुढविकाइयस्सअंतोमुहत्तादारब्मजावबावीसवरिससहस्स-द्वितिओ (तिविहं ति) तिभेयं, पुणसद्दो दव्यग्गावधारणत्थं / सचित्तं मीसगं च / कालजुत्तो भवति, एवं सेसेसु वि णेयं / चित्तसु परमा Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्ग 164 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 णुसु एगसमयादारब्भ जाव असंखकालहिती जाता। परमाणु-हितीतो पंचमचूलग्गं उवयारग्गं अग्गं भवति, तेण भण्णति पंचमं अग्गं / शिष्य परं अण्णे परमाणू उक्कोसतरद्वितीओ ण भवति, तं परमाणु जानीत आह-कथम् ? आचार्य आह-(जमिति)जयस्मात् कारणात् (उवचरितु कालग्गं / एवं जीवाजीवेसु उवउज्जं णेयं, एवं चसद्दो अवक्खेति, भावग्गं | त्ति) उवचरित्तु गृहीत्वा (ताई ति) चउरो अग्गाई (तस्से ति) एगगुणकालग्ग त्ति जाव अणंतगुणकालग्ग त्ति भावजुतं तं भावग्गं आचारप्रकल्पस्य उपचारो ग्रहणं / ण इति प्रतिषेधे (इहरहा तु) भवति।ततोपरं अण्णो उक्कोसतरोण भवति, एवं भावगं ।गतं कमगं // 5 // तेष्वगृहीतेषु सीसो पुच्छति- एत्थ दसविहवक्खाणे कयमेण इदाणिं गणणग्गं-एगादी जाव सीसपहेलिया ततो परं गणणा ण पयट्टति, अग्गेणाहिकारो भण्णति? तेण गणणा ते सीसपहेलिया अग्गं / गतं गणणग्गं / / 6 / / उपचारणे तु पगतं, उवचरिताधीतगमितमेगट्ठा / ___ संचय-भावग्गा, दो वि भण्णंति - उवचारमेत्तमेयं, केसिंचि ण तं कमो जम्हा // 58|| तणसंचयमादीणं, उवरि पहाण खाइगो भावो। उवचारो वक्खातो / पगतं अहिगारः, प्रयोजनेनेत्यर्थः / तुशब्दो जीवादिछक्कए पुण, बहुयगं पज्जवा हों ति॥५५॥ अवधारणे पादपूरणे वा, उवयारसद्दसंपचयत्थं एगडिया भण्णंति / तणाणि दब्भादीणि तेसिं चउपिंडनेत्यर्थः / तस्स वयस्स उवरिं जा उवचारो त्ति वा अधीतंति वा आगमियं ति वा गृहीतं ति वा एगहुँ पूली तं तणग्गं भण्णति, आदिसद्दातो कट्ठपलालाती दडव्यो / गर्य (उवचारमेत्तमेयं ति) जमेयं पंचमं अग्गं अग्गत्तेणोवचरिजत्ति, एतं संचयग्गं / / 7 / इदाणिं भावग्गं मूलदारगाहाए भणियं / / 8 / / (अग्गंभावोतु उपचारमात्र। उवचारमेत्तं नाम कल्पनामात्रं / कहं? जेणपढमचूलाएवि त्ति) तं एवं वत्तव्वं भावो अग्गं / किमुक्तं भवति-भाव एव अग्गं भावग्गं अग्गसद्दो पवत्तइ, एवं बितियततियचउसु वि अग्गसद्दो पक्त्ते त्ति, तम्हा बन्धानुलोम्यात् / (अग्गं भावो उ) तं भावग्गं दुविहं-आगमओ सव्वाणि अग्गाणि। सव्यग्गापसंगे य एगगा कप्पणा जा सा उपचारमात्रं णोआगमओ या आगमओ जाणए उवउत्ते, णोआगमओ। इमं तिविहं भवति। केषांचिदाचार्याणामेवमाद्यगुरुप्रणीतार्थानुसारी गुरुराह-(णतं पहाणभावग्गं बहुयभावग्गं उवचारभावग्गं, एवं तिविहं / कमो जम्हा इति) ण त्ति पडिसेहे (तं ति) केइ मयकप्पणा ण घडतीति तुशब्दोऽर्थज्ञापनार्थः / ज्ञापयति- जहा एतेण तिविहभावग्गेण सहितो वक्कसेसं। कमो त्ति नाम परिवाडी, अनुक्रम इत्यर्थः (जम्हेत्ति) चउसु वि दशविहग्गणिक्खेवो भवति, तत्थ पहाणभावग्गं उदइयादीण भावाण चूला-सहितासु परीक्ष्य पंचमी चूडा दिजति, तम्हा कमोवचारा पंचमी समीवओ पहाणे खातिगो भावो पहाणो त्ति गयं / / 8 / इदाणिं बहुयग्गं चूडा अग्गं भवति / उवचारेण अग्गाण वि अग्गं वक्कसेसं दहव्वमिति गतं भण्णति - मूलग्गदारं / / 6 // 10 // नि०चू०१ उ०। जीवा पोग्गलसमया, दव्वपदेसाय पन्जवा चेव। अग्गं च मूलं च विगिंच धीरे। थोवाऽणंताणंता, विसेसमहिया दुवेऽणंता॥५६॥ अग्रं भवोपग्राहिकर्मचतुष्टयम्। मूलं धातिकर्मचतुष्टयं, यदि वा मोहनीयं जीवो आदी जस्स छक्कगस्स तं जीवाइछक्कगं, तं चिमं पोग्गला जीवा मूलम् / शेषाणि त्वग्रं,यदि वा मिथ्यात्वं मूलं, शेषं त्वग्रम् / तदेवं सर्वमग्रं समया दव्या पदेसा पज्जया चेति / एयंमि छक्कगे सव्वत्थोया जीवा, मूलं च (विगिंच इति) त्यजापनय पृथक्कुरु / तदनेनेदमुक्तं भवति। न जीवेहितोपोग्गला अणंतगुणा, पोग्गलेहितो समया अनंतगुणा, समएहितो कर्मणः पौगलिकस्यात्यन्तिकक्षयोऽपि त्वात्मनः पृथक्करणम्, कथं मोहनीयस्य मिथ्यात्वस्य च मूलत्वमिति चेत्तद्वशाच्छेषप्रकृतिबन्धः / दव्या विसेसाहिता, दव्वेहिंतो पदेसा अणंतगुणा / जहासंखेण तेण भण्णति- बहुयग्गं पजवा होति बहुत्तेण अगं बहुयगं, बहुत्वेनाग्रं पर्याया यत उक्तम् - "न मोहयति वृत्त्यबन्ध उदितस्त्वया कर्मणां, न भवन्तीतिवाक्यशेषः। पुणसद्दो बहुत्तावधारणत्थो दट्ठव्यो। गतं बहुयग्गं / चैकविधबन्धनं प्रकृतिबन्धतो यो महान् / अनादिभवहेतुरेष नच बध्यते नासकृत, त्ययाऽति-कुटिला गतिः कुशलकर्मणां दर्शिता" // 1 // तथा इयाणिं उवचारग्गंउवचरणं उवचारोनामग्रहणम्, अधिगममित्यर्थः स चागमः-"कहं भंते ! जीवा अट्ठकम्पपगडीओ बंधंति ? गोयमा ! च जीवाजीवभावेषु संभवति। जीवाजीवेषु औदयिकादिषु अजीवभावेषु णाणावर-णिज्जस्स कम्मस्स उदएणं दरिसणावरणिनं कम्मं नियच्छन। वर्णादिषु। तत्थजीवाजीवभावाणं पिट्टिमोजोघेप्पइ सोउवचारगं भावग्गं दरिसणावरणिज्जकम्मस्स उदएणं दंसणमोहणिज्जं कम्मं नियच्छइ। भवति / इह तु जीवसुत्तभावोवचारग्गं दुविहं-सगलसुत्तभावोवचारगं दसणमोहणिजस्स कम्मस्स उदएणं मिच्छत्तं नियच्छइ / मिच्छतेणं देससुत्त-भावोवचारग्गं च / तत्थ सगलसुयभावोवचारगं दिह्रिवातो उदिण्णेणं एवं खलु जीवे अट्ठकम्मपगडीओ बंधइ "क्षयोऽपि दिट्ठिवातचूला वा देससुत्त-भावोवचारगं पडुच्च भण्णति / तं चिमं चैव मोहनीयक्षयाविनाभावी / उक्तञ्च-"णायग-म्मि हए सत्ते, जहा सेणा पकप्पज्झयणं / कहं ?,जओ भण्णति विणस्सति। एवं कम्मा विणस्सन्ति, मोहणिज्जे खयं गए" // 1 // इत्यादि। पंचण्ह वि अम्गाणं, उवयारेणिदं पंचमं अम्गं। अथवा मूलमसंयमः कर्म वा, अग्रं संयमतपसी मोक्षो वा, ते मूलाग्रे जं उवचरित्तु ताई, तस्सुवयारो ण इहरा तु // 17 // धीरोऽक्षोभ्योधीविराजितो वा विवेकेन दुःखसुखकारणतयाऽय-धारय। (पंचण्हवि इति)पंच संखा (अग्गाणं ति) आयरगाणं तेयपंच चूलाओ। आचा० 1 श्रु०३ अ०२ उ० / परिमाणे, नं० / विशेष अवि-सद्दो पंचग्गावहारणत्थं भण्णति / णगारो देसिवयणेण पायपूरणे / सू० प्र०। स्था०) "अगं ति वा परिमाणं ति वा एगट्ठा" / आ०५०१ जहा-समणे णं रुक्खाणं गुच्छाणं ति। उपचरणं उपचारः, तेण उपचारेण अ०। उत्तवा "अन्ते जेणेव देसग्गे तेणेव उवागए। देसगं देशान्तम्। करणभूतेण (इदमिति) अयमाचारप्रकल्पः। (पंचम अग्गं ति) पंचमं अग्गं ज्ञा०१५ अ०। उत्कर्षे, समूहे, प्रधाने, अधिके, प्रथमे च। त्रि० ऋषिभेदे, उपचारेण अग्गं न भवति / एवं बितिय-ततियचउरग्गा वि भवन्ति। / पुं०ावाच०। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्ग 165 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अग्गपिंड *अग्रय-त्रि०(अग्रे भवमग्रयम्) प्रधाने, अन्त०७ वर्ग०। षो०ा नि० चू० भ०। ज्ञा०। सूत्र०ा अत्यन्तोत्कृष्ट च। सूत्र०१ श्रु०२ अ०३ उ० / जं० / अग्रे जातो यः / ज्येष्ठे भ्रातरि, त्रि०ा वाच०। अगओ-अव्य०(अग्रतस्) अग्रे अग्राद्वा / अग्र-तसिल्। प्राकृते- अतो डो विसर्गस्य / 8 / 1 / 37 / इति सूत्रेण अतः स्थाने डो इत्यादेशः, ड इत् / प्रा० / पूर्ववृत्तौ, पूर्वभागावधिके च / वाचा अमांथ-पुं०(अग्रन्थ) निर्ग्रन्थे, आचा०१ श्रु०८ अ०३ उ०। अम्गकेस-पुं०(अग्रकेश) अग्रभूतेषु केशेषु, भ०६ श०३३ उ०। अम्गक्खंधो- (देशी०)। रणमुखे, दे० ना०१ वर्ग। अग्गजाय-- न०(अग्रजात) वनस्पतीनामग्रभागे जाते, "अग्ग-जायाणि मूलजायाणि वा खंधजायाणि वा''। आचा०२ श्रु०१ अ०८ उ०। अम्पजिब्भा-स्त्री०(अग्रजिह्वा) अग्रभूता जिह्वा अग्रजिह्वा / जिह्वाग्रे, "सज्जं च अग्गजिब्भाए, उरेण रिसह सरं" (सनमित्यादि) चकारोऽत्रावधारणे / षड्जमेव प्रथमस्वरलक्षणं ब्रूयात् / कयेत्याहअग्रभूता जिला अग्रजिह्वा, जिह्वाग्रमित्यर्थस्तया / इह यद्यपिषड्जभणने स्थानान्तराण्यपि कण्ठादीनि व्याप्रियन्ते, अग्रजिह्वा च स्वरान्तरेषु व्याप्रियते, तथापि सा तत्र बहुव्यापारवतीति कृत्वा तया तमेव बूयादित्युक्तम् / इदमत्र हृदयम्-षड्जस्वरोऽने जिहां प्राप्य विशिष्टां व्यक्तिमासादयति, तदपेक्षयासास्वरस्थानमुच्यते। एवमन्यत्रापिभावना कार्या। अनु०। अम्गतावसग-पुं०(अग्रतापसक) ऋषिभेदे, यद्गोत्रे धनिष्ठानक्षत्रम् / ' 'धणिवाणक्खत्ते किं गोते पण्णत्ते ? अग्गतावसगोत्ते पण्णत्ते"। सू० प्र०१० पाहु०।०। जं०। अम्गदारणिज्जामग-पुं०(अग्रदारनियामक) अग्रद्वारमूलाव स्थापके, ग्लानप्रतिचारिणि च / प्रव०७२ द्वा०। अगद्ध-न०(अग्रार्ध) पूर्वार्द्ध, नि०चू०१ उ०। अम्गपलब-पुं० न०(अग्रप्रलम्ब) प्रलम्बानामग्रभागे, इमे अग्गपलंबा"तलणालिपरिलओए, कविट्ठ अंबाड अंबए चेव। एयं अम्गपलंब, णेयव्यं आणुपुव्वीए" ||14|| जणपदसिद्धा एते / (आणुपुव्यि ति) एसे च तलादिगा / नि०यू०१५ उ०। अग्गबीय-पुं०(अग्रबीज) अग्रे बीजं येषामुत्पद्यते ते तथा / तलतालीसहकारादिषु शाल्यादिषु च अन्याण्येवोत्पत्तौ कारणतां प्रतिपद्यन्ते येषां कोरण्टकादीनां ते अग्रबीजाः 1 कोरण्टकादिषु बीजप्रकारेषु वनस्पतिषु, सूत्र०२ सू०६ अ०।स्थाका विशे० आ०म०वि०।अग्गबीया 1 मूलबीया 2 पोरबीया 3 खंधबीया 4 इत्यादयो वनस्पतिभेदाः / आचा०१ श्रु०१ अ०५ उ०। अग्गपिंड-पुं० [अग्र(ग्रय)(पिण्ड)] तत्क्षणोत्तीर्णोदनादिस्थाल्या अव्यापारितायाः शिखायाम्, (उपरितने भागे)। प्रव०२ द्वा० / शाल्योदनादेः प्रथममुद्धृत्य भिक्षार्थ व्यवस्थाप्यमाने पिण्डे, आचा०२ श्रु०१अ०१ उ01 से भिक्खू वा 2 जाव पवितु समाणे से जं पुण जाणेजा, अम्गपिंडं उक्खिप्पमाणं पेहाए,अम्गपिंड णिक्खिप्पमाणं पेहाए, अग्गपिंडं हीरमाणं पेहाए, अग्गपिंडं परिभाइजमाणं पेहाए, अग्गपिंडं परिमुज्जमाणं पेहाए, अग्गपिंडं परिटेवजमाणं पेहाए, पुरा असिणाइ वा अवहाराति वा पुरा जत्थपणे समणमाहणअतिहिकिवणवणिमगा खद्धं 2 उवसंकमंति, से हंता अहमवि खद्धं उवसंकमामि, माइहाणं संफासे, णो एवं करेजा। (से भिक्खूि वेत्यादि) स भिक्षुर्गृहपतिकुलं प्रविष्टः सन् यत्पुनरेवं जानीयात् / तद्यथा- अग्रपिण्डो निष्पन्नस्य शाल्योदनादेराहारस्य देवताद्यर्थ स्तोकस्तोकोद्धारस्तमुक्षिप्यमाणं दृष्ट्वा तथाऽन्यत्र निक्षिप्यमाणं तथा हियमाणं नीयमानं देवतायतनादौ तथा परिभज्यमानं विभज्यमानं स्तोकस्तोकमन्येभ्यो दीयमानं तथा परिभुज्यमानं तथा त्यज्यमानं देवतायतनाचतुर्दिक्षु क्षिप्यमाणं तथा (पुरा असिणाइ वेति) पुरा पूर्वमन्ये श्रमणादयो येषु अग्रपिण्डमशितवन्तस्तथा पूर्वमपहृतवन्तो व्यवस्थयाऽव्यवस्थया वा गृहीतवन्तः / तदभिप्रायेण पुनरपि पूर्वमिव वयमत्र लप्स्यामह इति / यत्राग्रपिण्डादौ श्रमणादयः (खद्धं खद्धं ति) त्वरितमुपक्रामन्ति स भिक्षुरेतदपेक्षया कश्चिदेवं कुर्यादालो-चयेद्यथाहंतेति वाक्योपन्या-सार्थः / अहमपि त्वरितमुपसंक्रमामि। एवं च कुर्वन् भिक्षुर्मातृस्थानं संस्पृशेदिन्यतो नैवं कुर्यादिति। आचा०२ श्रु०१ अ०५ उ० काकपिण्ड्याम् "अग्गपिंडम्मि वा वायसा संथडा सण्णिवइया" अग्रपिण्डे काक पिण्ड्यां वा बहिःक्षिप्तायां वायसाः सन्निपतिता भेक्युः / आचा०२ श्रु०१ अ०५ उ०। जे भिक्खू णितियं अम्गपिंडं मुंजइ,मुंजंतं वा साइजइ // 31 // णितियं धुवं सासतमित्यर्थः। अग्रं वरं प्रधानं अहवा जं पढमं दिजति सो पुण भत्तट्ठो भिक्खामेत्तं वा होला / एस सुत्तत्थो / अधुना नियुक्तिविस्तरःणितिए तु अग्गपिंडे, णिमंतणो वीलना य परिमाणे। सामाविए गिही दो, तिण्णि य कप्पंति तु कमेण / / 213 / / णितियग्गा सुत्ते वक्खाया। गिहत्थो णिमतेत्ति, साहू उ वीलणं करेति, साहू चेव परिमाणं करेति, साभावियं गिहत्थो दो तिण्णि आइलाण कप्पंति, साभावियं कप्पति / णिमंतणो वीलणपरिमाणाणं / इमाओ तिण्णि वक्खाणगाहातो - भगवं ! अणुग्गहं ता, करेहि मज्झत्ति भणति आमंति। किं दाहिसि जेणिट्ठो, गयस्स तं दाहिसि ण व ति॥२१४|| दाहामि त्तिय भणिते, तं केवतियं व केचिरं वा वि? दाहिसि तुमंण दाहिसि,दिण्णेऽदिणे व किं तेण? ||21|| जावतिएणिट्ठो ते, जचिरकालं च रोयए तुब्मा। तं तावतियं तचिरं, दाहामि अहं अपरिहीणं // 216|| गिही णिमंतेति- भगवं ! अणुग्गहं करेह मज्झ, घरे भत्तं गेण्हह / साहू भणति-करेम अणुग्गह, किं दाहिसि ? गिही भणतिजे ण भे इट्ठो / साहू उ वीलणं करेति, माहणो भणति-धरं गयस्स तं दाहिसि वाण वा? गिहिणो दाहामि त्ति य भणिते, साहू परिमाणं कारवें तो भणति- तं परिमाणओ के वतियं के व चिरं वा कालं दाहिसि ? प्रथमपादोत्तरं साहू आह- दाहिसि तुम / Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्गपिंड 166 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अगमहिला ण दाहिसि / दत्तमपि तत् अदत्तवद् द्रष्टव्यम्, स्वल्पत्याद् / गृहस्थो द्वितीयपादोत्तरमाह-जावतिएण भत्तेण इट्टो भे जावतियं वा कालं तुभिट्ठो,गिही पुणो भणति-किं बहुणा भणिएण? जं तुन्भं रोयते दव्यं जावतियं जत्तियं वा कालं, तमहं अपरिहीणं अपरिसंतो दाहामि त्ति। णिमंतणो पीलणपरिमाणेसु वि मासलहुपच्छित्तं / चोदग आहसामावितं च उचियं, चोदगपुच्छाण पेच्छिमो को वि। दोसो चतुव्विधम्मि, णितियम्मि य अग्गपिंडम्मि।।२१७।। सामावि णितिय कप्पति, अणिमंतणा बील अपरिमाणे या जं वा विय समुदाणी, संभिक्खं दिज्ज साधूणं // 21 // साभावियं जं अप्पणो इद्वारद्धं उचियं दिणे दिणे जतियं रद्ध तं चोक्खो भणति / परिसेसा भाविए णिमंतणापीलणादिहिं भिक्खामेति एमवि अकप्प। अण्णहा साहूण कप्पोसाभाविय उचिए विणिमंतण दिएहिंइमे दोसानिप्पण्णे विसअट्ठा, उग्गमदोसा उ उचितगादीया। उप्पं जंबे जम्हा, तम्हा सा य वज्जणिज्जा उ॥२१॥ अप्पणवा वि निप्पण्णे उग्गमादिदोसा भवन्ति / निकाचितो-ऽहमिति / अवश्यं दातव्यम् / कुंडगादिसु स्थापयति तस्मान्निमं- तणादिपिण्डो वर्यः। उक्कोसण अहिसक्कण, अज्झोयरए तहेव णेकंती। अण्णत्थ भोयणम्मिय, कीते पामिच कम्मे य॥२२०।। अवस्सदायव्वे अतिप्पए साहुणो आगच्छंति ठवियपुवस्स उसक्कण करेज्जा, उस्सूरे आगच्छंति अतिहिसक्कणं करेज, अज्झोयरयं वा करेज / णिकातिओ त्ति काउंजतिते अण्णत्थ णिमंतिया तहा वि तदवाए किणेज वा पामिचेज वा आहाकम्मं वा करेन्छ / कारणे पुण णिकायणा पिंड गेण्हेज / इमे कारणाअसिवे ओमोयरिए, रायडुट्टे भए व गेलण्णे। अद्धाणरोहए वा, जयणा गहणंतु गीतत्थे।।२२१॥ असिवग्गहितो ण लब्भति णिमंतणाइएसु वि गेण्हेज / अधवा असिवे कारणद्वितो असिवगहियकुलाणि य परिहरंतो अगहिय-कुलेसु अपावंतो णिमंतणो वीलणादिसु वि गेण्हेज, ओमे वि अप्पवंतो। एवं रायडुढे भएसु विअत्यंतो गच्छंतो वा गिलाणपाउणं वाणिमंतणातिएसुगेण्हेजा। अद्धाणे रोहए वा अप्पुपाव्वंतो गीतत्थो पणगपरिहाणीए जयणाए जाहे मासलहुं पत्ते ताहे णीयगा पिंडे गेण्हति। निचू०१ उ०। अग्गपूया-स्त्री०(अग्रपूजा) "गंधव्वणट्ठवाइय-लवणजला-रत्तियाइ दीवाइ / जं किचंतं सव्वं, पि ओअरइ अग्गपूयाए" इत्येवं लक्षणे जिनप्रतिमापुरतः पूजाभेदे, ध०१ अधि०। अम्गप्पहारि(ण)-पुं०(अग्रप्रहारिन्) पुरः प्रहरणशीले, "चोर-पल्लिंगतो तत्थ अग्गप्पहारि णिसंसो च चोरसेणावतिमतो" आव०१ अ०। आ०म०द्वि०। अग्गमहिसी-स्त्री०(अग्रमहिषी) अग्रभूता प्रधाना महिषी, राज- | भाायाम् , स्था०४ ठा०२ उ० / प्रधानभाव्याम् / उपा०२ अ०॥ पट्टराइयाम्, जी०३ प्रति० / स्था० / अथ देवेन्द्राणामग्रमहिष्यः प्रदर्श्यन्ते तत्र भुवनपतीन्द्राणामग्रमहिष्यःचमरस्स णं भंते ! असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो कई अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ ? अञ्जो ! पंच अग्गमहिसीओ। पण्णत्ताओ, तं जहा-काली रायी रयणी विजू मेहा / तत्थ पं एगमेगाए देवीए अट्ठदेवीसहस्सपरिवारोपण्णत्तो, पमूणं ताओ. एगमेगाएदेवीए अण्णाईअट्ठदेवीसहस्साई परिवारं विउवित्तए, एवामेव सपुव्वावरेणं चत्तालीसं देवीसहस्सा।से तंतुडिए। पम् णं मंते ! चमरे असुरिंदे असुरकुमारराया चमरचंचाए रायहाणीए समाए सुहम्माए चमरंसि सीहासणंसि तुडिएणं सद्धिं दिव्वाई भोगमोगाईमुंजमाणे विहरित्तए? णो इणढे समढे,से केण्डेणं मंते ! एवं वुचइ, णो पमू चमरे असुरिंदे असुरराया चमरचंचाए रायहाणीए जाव विहरित्तए / अञ्जो ! चमरस्स णं असुरिंदस्स असुर-कुमाररण्णो चमरचंचाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए माणवए चेइए खंभे वइरामएस गोलवट्टसमुग्गएसु बहूओ जिणसकहाओ सण्णिखित्ताओ चिट्ठति, जाओ णं चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो अण्णेसिंच बहूणं असुरकुमारावं देवाण य देवीण य अचणिज्जाओ वंदणिज्जाओ णमंसणिज्जाओ पूयणिज्जाओ सकार-णिज्जाओ सम्माणणिज्जाओ कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पञ्जुवासणिज्जाओ भवंति / तेसिं पणिहाणे णो पमू से तेणद्वेणं अजो! एवं वुच्चइ-णोपमू चमरे असुरिंदे असुरराया चमरचंचाए रायहाणीए जाव विहरित्तए। पमू णं अज्जो ! चमरे असुरिंदे असुरराया चमरचंचाए रायहाणीए समाए सुहम्माए चमरंसिसीहासणंसि चउसट्ठी सामाणियसाहस्सीहिंतायत्तीसाए जाव अण्णेहिं च बहूहिं असुरकुमारेहिं देवेहिय देवीहि य सद्धिं संपरिवुडे महयाहय जाव मुंजमाणे विहरित्तए के वलं परियारिड्डीए, णो चेव णं मेहुणवत्तियं // म०१० श० 5 उ०॥ आसांपूर्वभवःतेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णामं नयरी होत्था। वण्णओ। तस्सणं रायगिहस्सनगरस्सबहिआ उत्तर-पुरच्छिमे दिसिमागे तत्थ णं गुणसिले चेइए नामं चेइए होत्था।वण्णओ। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अजसुहम्मे नामंथेरा भगवंतोजाइसंपन्ना कुलसंपन्ना जाव चउद्दस पुव्वी चउन्नाणोवगया पंचहिं अणगारसएहिं सद्धिं संपरिवुडा पुव्वाणुपुर्दिवं चरमाणा गामाणुगामं दूइज्जमाणा सुहं सुहेणं जेणेव रायगिहे नयरे गुणसिलए चेइए जाव संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति / परिसा निग्गया। धम्मो कहिओ, परिसा जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया। Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्गमहिसी 167 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अग्गमहिसी तेणं कालेणं तेणं समएणं अजसुहम्मस्स अणगारस्स अंतेवासी / अज्जजंबू नामं अणगारे जाव पञ्जुवासमाणे एवं वयासी-जइणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं छट्ठस्स अंगस्स पढमस्स सुयक्खन्घस्स नायज्झयणस्स अयमढे पण्णते, दोचस्स णं मंते ! सुयक्खन्धस्स धम्मकहाणं समणेणं जाव संपत्तेणं के अद्वे पण्णत्ते? एवं खलु जंबू ! धम्मकहाणं दसवग्गा पण्णत्ता। तं जहा- चरमस्स अम्गमहिसीणं पढमवग्गे 1, बलियस्स वइरोयणिदस्स वइरोयरन्नो अग्गमहिसीणं बीए वग्गे 2, असुरिंदवजि-याणं दाहिणिल्लाणं इंदाणं तइए वग्गे // 3 // उत्तरिल्लाणं असुरिंदवजियाणं मवणवासिइंदाणं अम्गमहिसीणं चउत्थे वग्गे, दाहिणिल्लाणं वाणमंतराणं इंदाणं अम्गमहिसीणं पंचमे वग्गे 5, उत्तरिलाणं वाणमंतराणं इंदाणं अम्गमहिसीणं छ8 वग्गे 6, चंदस्स अग्गमहिसीणं सत्तमे वम्गे 7, सूरस्स अग्गमहिसीणं अट्टमे वग्गे, सक्कस्स अग्गमहिसीणं नवमे वग्गे 6, ईसाणस्स अग्ग- महिसीणं दसमे दग्गे 10, जइ णं मंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं दसवग्गा पन्नता / पढमस्स णं मंते ! वग्गस्स समणेणं जाव संपत्तेणं के अटे पण्णत्ते? एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं पढमस्स वग्गस्स पंच अज्झयणा पन्नत्ता। तं जहा-काली १,राई 2, रयणी 3, विजा 5, महाविजा 5 जइणं मंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं पढमस्स वग्गस्स पंच अज्झयणा पन्नत्ता / पढमस्स णं मंते ! अज्झयणस्स समणेणं जाव संपत्तेणं के अढे पन्नत्ते ? एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नगरे गुणसिलए चेइए, सेणिए राया, चिल्लणाए देवीए, सामी समोसरिए, परिसा निग्गया। जाव परिसा पजुवासति / तेणं कालेणं तेणं समएणं काली देवी चमरचंचाए रायहाणीए कालवडिंसगभवणे कालंसि सीहासणंसि चउहिं सामाणियसाहसीहिं चउहिं महयरियाहिं सपरिवाराहिं तिहिं परिसाहिं सत्तहिं अणिएहिं सत्तहिं अणीयाहिवतीहिं सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं अन्नेहिय बहुएहिं कालवडिं-सयमवणवासीहिं असुरकुमारेहिं देवेहि य देवीहि य सद्धिं संपरिखुडा महयाहय जाव विहरइ, इमं च णं केवलकप्पं जंबूद्दीवे दीवे णं विउलेणं ओहिणा आभोएमाणी पासइ / जत्थ समणं मगवं महावीरं जंबद्दीवे दीवे मारहे वासे रायगिहे नगरे गुणसिले चेइए अहापडिरूवं ओगाहइ, ओगाहइत्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणं पासइ, पासइत्ता हहतुद्वचित्तमाणं दिया पीइमण जाव हियया सीहासणाओ उन्मुढेइ, उन्मुढेइत्ता पायपीढाओ पञ्चोरुहइ, पचोरुहइत्ता करयल जाव कटु एवं वयासी- नमोऽत्थु णं अरिहंताणं जाव संपत्ताणं, नमोऽत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव संपाविउकामस्स / वंदामि णं भगवं! ते तत्थ गयं इह गया तिकटु वंइइ णमंसइ सीहासणवरगंसि पुरत्थाभिमुहे सुहनिसन्ने / तए णं तीसे कालीए देवीए इमेयारूवे जाव समुप्पजित्था / सेयं खलु समणं मगवं महावीरं वंदित्ता जाव पजुवासित्तए तिकटु एवं संपेहइ, संपेहइत्ता आमिओगिअदेवं सद्दावेइ, सद्दावेइत्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया समणे भगवं महावीरे एवं जहा सूरियामे तहेव आणतियं देइजाव दिव्वं सुखराभिरामगमणं जोगं करेइ, करेइत्ता जाव पचुप्पिणह। ते वि तहेव करेत्ता जाव पचुप्पिणंति, नवरं, जोयणसहस्सवित्थिन्नं जाणं, सेसं तहेव नाम गोयं साहेइ, तहेव नट्टविहि उवदंसेइ, उवदंसेइताजाव पडिगया। (भंतेत्ति) भगवं गोयमे ! समणं भगवं महावीरंवंदइनमसइ,एवं वयासी-कालीए णं मंते ! देवी सा दिव्वा देवड् ढीओ कहिं गया कूडागारसालादिद्रुतो ? अहो णं मंते ! कालीदेवी महड्डिया कालीएणं भंते ! देवीए सा दिव्वा देवड्डीए किण्णा लद्धा किण्णा पन्नत्ता अभिसमन्नागया ? एवं जहा सूरियामस्स जाव एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबूहीवे मारहे वासे आमल-कप्पा नामंनयरी होत्था।वण्णओ। अंबसालवणे चेइए जियसत्तुराया। तत्थ णं आमलकप्पाए नयरीए काले नाम गाहावती होत्था / अड्डे जाव अपरिभूए तस्स णं कालस्स गाहावइस्स कालसिरीए नाम मारिया होत्था सुकुमाला जाव सुरूवा / तस्स णं कालस्स गाहावतिस्स धूया कालसिरीए मारियाए अत्तया काली णामंदारिया होत्था / वडकुमारी जुण्णा जुण्णाकुमारी पडियपूयत्थणी। निव्विन्नवरा वरगपरिवज्जिया वि होत्था / तेणं कालेणं तेणं समएणं पासे अरहा पुरिसादाणिए आइगरे जहा वद्धमाणसामी, णवरं, णवुस्सेहे सोलसहिं समणसाहस्सिहिं अट्ठत्तीसाए अजिआसाहस्सिहिंसद्धि संपरिखुडे जाव अंबसालवणे समोसड्डे, परिसा णिग्गया जाव पछुवासति / तते णं सा कालीदारिया इमीसे कहाए लट्ठा समाणी हट्ट तुट्ठ जाव हियया जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता करयल जाव एवं वयासी-एवं खलु अम्मयाओ पासे अरहा पुरिसादाणीए आइगरे जाव विहरइ। तं इच्छामि णं अमयाओ तुन्मेहिं अब्मणुन्नाया समाणी पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स पायवंदणगमित्तए / अहासुहं देवाणु-प्पिया ! मा पडिबंधं करेहा तस्स णं सा कालीदारिआ अम्मापिइर्हि अन्मणुन्नाया समाणी हद्वतुट्ठ जाव हियया ण्हाया कयबलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ता Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्गमहिसी 168 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अग्गमहिसी सुद्धप्पावे साति मंगलातिं वत्थातिं पवरपरिहिया अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीराचेडिआ चक्कवालपरिकिनासाओ गिहातो पडिनिक्खमइ, पडिणिक्खमइत्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव धम्मियजाणपवरे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता घम्मियजाणपवरं दुरूढा। तएणं सा कालीदारिया | घम्मियं जाणपवरं एवं जहा देवाणंदाए जहापज्जुवासइ। तए णं पासे अरहा पुरीसादाणीए कालीए दारियाए तीसे महइ, महइत्ता महालियाए परिसाए धम्मकहाए / तए णं सा काली दारिया पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणियस्स अंतिए धम्मं सोचा णिसम्म हट्ठ तुट्ठ जाव हियया पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स तिक्खुत्तो वंदइनमंसइ,एवं वयासी-सद्दहामि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं जाव से जहेयं तुम्मे वयह जं नवरं देवाणु प्पिया अम्मापियरो आपुच्छामि, तए णं अहं देवाणुप्पियाणं अंतिए जाव पव्वयामि / अहासुहं देवाणुप्पिया मा पडिबंधं करेह / तए णं सा कालिदारिया पासेणं अरहा पुरिसादाणीएणं एवं वुत्ता समाणी हट्टतुट्ठ जाव हियया पासं अरह वंदइ नमसइ, नमसइत्ता तमेव धम्मियं जाणपवरं दुरूहइ, दुरूहइत्ता पासस्स णं अरहो पुरसादाणीए अंतियाओ अंबसालवणचेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमइत्वा जेणेव आमलकप्पा नयरी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता आमलकप्पं नयरिं मज्झं मज्झेणं जेणेव बाहिरिआ उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता धम्मियं जाणपवरंठावइ, ठावइत्ता घम्मियाओ जावपवराओ पचोरुहइ, पचोरुहइत्ता जेणेव अम्मा-पियरो तेणेव उवागच्छति, उवागच्छइत्ता करयलपरिग्गहिअं एवं वयासी-एवं खलु अम्मयाओ मए पासस्स णं अरहाओ अंतिए धम्मं निसंते से वियधम्मे इच्छिए पडिच्छिए अमिरुइए। तएणं अहं अम्मयाओ संसारभउव्विग्गा भीया जम्ममरणाणं, इच्छामि णं तब्भेहिं अब्भणुनाया समाणी पासस्स णं अरहओ अंतिए मुंडा मवित्ता आगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए / अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह। तए णं काले गाहावई विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेति, उवक्खडावेतित्ता मित्तनातिनियगसयणसंबंधीपरियणं आमंतेइ।आमंतइत्ता ततो पच्छा बहाए जाव विपुलेणं पुप्फवत्थगंधमल्लालंकारेणं सक्कारित्ता संमाणित्ता तस्सेव मित्तणातिणियगसयणसंबंधिपरियणस्स पुरओ कालीदारियं सेयापीएहिं कलसेहिं ण्हवेइ, ण्हवेइत्ता सव्वालंकारविभूसियं करेइ, करेइत्ता पुरिससहस्सवाहिणीयं सीयं दुरुहइ, दुरुहइत्ता मित्तनाति जाव परियणसद्धिं संपरिखुडे सव्वड्डीए जाव रवेणं आमलकप्पानयरिंमज्झमज्झेणं निगच्छइ, निगच्छइत्ता जेणेव अंबसालवणे चेइए तेणेव उवागच्छति, उवागच्छइत्ता छताइए तित्थयराइं पासइ 2 सीयं ठवेइ, ठवेइत्ता कालियादारिया सीयातो पचोरुहति, पचोरुहइत्ता तते णं तं कालीयं दारियं अम्मापियरो पुरओ काउं जेणेव पासे अरहा पुरिसादाणीए तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता वंदंति, एवं वयासी- एवं खलु देवाणुप्पिया कालियदारिया अम्हं धूया इट्ठा कंता जाव किमंग ! पुण पासणयाए। एस णं देवाणुप्पिया संसारमिउव्विग्गा इच्छइ देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता, जावपव्वइत्तएतं एयन्नं देवाणुप्पियाणं सिसिणिं मिक्खं दलयामो पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया सिसिणि मिक्खं / अहासुहं देवाणुप्पिया!मा पडिबंघं करेह। तएणं सा काली देवी कुमारी पासं अरिहं वंदइ, वंदइत्ता उत्तरपुरच्छिमं दिसिमागं अवक्कमति, अवक्कमइत्ता सयमेव आमरणमल्लालंकारा मुयति, मुयतित्ता सयमेव लोयं करेति, जेणेव पासे अरहा पुरिसादाणिए तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता पास अरहं तिक्खुत्तो वंदति नमसंति, एवं वयासी- आलित्ते णं भंते ! लोए एवं जहा देवाणंदा जाव सयमेव पव्वाविओ / तए पं पासे अरिहा पुरिसादाणीए कालीएसयमेवपुप्फचूलाए अजाए सिसिणियत्ताए दलयइ / तए णं सा पुप्फचूला अज्जा कालिं कुमारिं सयमेव पव्वावेइ,जाव उवसंपञ्जित्ताणं विहरति,ततेणं सा काली अज्जया ईरिया समिता जाव गुत्तबंभचारिणी / तए णं सा काली अञ्जा पुप्फचूलाए अजाए अंतिए सामाइयमाइयाइं एगारस अंगाई अहिजइ, अहिजइत्ता बहूर्हि चउत्थं जाव विहरति / तए णं सा काली अजा अन्नया कयाइंसरीरपासिओसिआ जाया वि होत्था। अमिक्खणं अमिक्खणं हत्थं धोवइ, पाए धोवेइ, सीसं धोवेइ, मुहं धोवेइ, थणंतराय धोवेइ, कक्खंतरा य धोवेइ, गुज्झंतरा यधोवेइ, जत्थ जत्थ वियट्ठाणं वा सेज्जं वा निसीहियं वा चेएइ, तं पुव्वामेव अब्मुक्खित्ता तओ पच्छा आसइ वा, सयइ वा। तएणं सा पुप्फचूला अज्जा कालिं अर्जि एवं वयासी-नो खलु कप्पइ देवाणुप्पिया समणीणं निग्गंथीणं सरीरपाउसीयाण होतए, तुमं च णं देवाणुप्पिया ! सरीरपाउसिया जाया वि होत्था ।अभिक्खणं अमिक्खणं हत्था धोवसि ,जाव आसयाहि वा सयाहि वा, तं तुमं देवाणुप्पिआ एयस्स हाणस्स आलोएहि जाव पायच्छित्तं पडिवजाहि / तए णं सा काली अज्जा पुप्फचूलाअजाए एयमटुं नो आढाइ जाव तुसिणीया संचिट्ठइ, तएणं ताओ पुप्फचूलाओ अजाओ कालिं अजं अमिक्खणं 2 हीलेंति, निंदंति, खिसंति,गरहंति, अवमाणंति, अमिक्खणं 2 एयमद्वं निवारेति, तए णं तीसे कालीए अजाए Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्गमहिसी 169 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अग्गमहिसी समणीहिं निग्गंथीहिं अभिक्खणं 2 हीलिज्जमाणीए जाव विहरिजमाणीए इमेयारूवे अब्मत्थिए जाव समुप्पज्जित्था, जया णं अहं अगारवासमज्झे वसित्ता तयाणं अहंसयंवसा, जप्पमिति चणं अहं मुंडा मवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइया, तप्पमिति चणं अहं परवसा जाया / तं सेयं खलु मम कल्लं पाउप्पमायाए रयणीए जाव जलंते पाडिक्कयं उवसंपञ्जित्ता णं विहरित्तए तिकटु एवं संपेहेइ, संपेहेइत्ता कल्लं जाव जलते पाडिक्कयं उवस्सयं गेण्हइ,गेण्हइत्ता तत्थ णं अणावारिआ अणोहडिआ सच्छंदमती अभिक्खणं 2 हत्थे धोवेइ, जाव आसयइवा सयइ वा। तए णं सा काली अज्जा पासत्था पासत्थविहारी कुसीला कुसीलविहारी अहाछंदा अहाछंदविहारी संसत्ता संसत्तविहारी बहूणि वासाणि सामन्नपरियागं पाउणित्ता अद्धमासीयाए संलेहणाए अत्ताणं झुसेइ, झुसेइत्ता तीसं भत्ताई अणसणाई छेदित्ता तस्स ठाणस्स अणालोइय अपडिक्कंता काले मासे कालं किचा चमरचंचाए रायहाणीएकालिंवडिसए भवणे उववायसमाए देवसयणिजंसि देवदूसंतरिआ अंगुलस्स असंखेजइ भागमेत्ताए ओगाहणाए काली देवी देवित्ताए उववन्ना / तए णं सा काली देवी अहुणोववन्ना समाणी पचविहाएपज्जत्तीए जहा सूरियामेजाव मासा-मणपज्जत्तीए / तए णं सा काली देवी चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं जाव अन्नेसिं च बहूणं कालीवडिंसगभवणवासीणं असुरकुमाराणं देवाण य देवीण य आहेवचं जाव विहरइ, एवं खलु गोयमा ! कालीए देवीए सा दिव्वा देवढी लद्धा पन्नत्ता अमिसमण्णागया।कालीएणं भंते ! देवीए केवतियं कालं ठित्ती पण्णत्ता? गोयमा ! अड्डाइजा तिपलिओवमाइं ठिती पन्नत्ता / कालीए णं भंते ! देवी ताओ देवलोगाओ अणंतरं उव्वट्टित्ता कहिं गच्छहिंति कहिं उववजिहिंति ? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ / एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं पढमस्स वग्गस्स पढम-ज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते ति बेमि (पढमं अज्झयनं सम्मत्तं) ||1|| जति णं मंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं पढमस्स वग्गस्स पढमज्झयणस्स अयमढे पण्णते, बितियस्स णं मंते ! अज्झयणस्स समणेणं जाव संपत्तेणं के अटे पण्णत्ते ? एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नगरे गुणसिलए चेइए सामी समो-सढे परिसा निम्गया जाव पज्जुवासइ / तेणं कालेणं तेणं समएणं राई देवी चमरचंचाए रायहाणीए, एवं जहा काली तहेव आगया नट्टविहिं उवदंसेत्ता जाव पडिगया (मंते ति) भगवं गोयमे ! पुव्वमवपुच्छा / एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं आमलकप्पा नयरी अंबसालवणे चेइए जियसत्तू राया, राई / गाहावई रायसिरी मारिया राईदारिया पासस्स समोसरणं, राई दारिया जहेव काली तहेव णिक्खिता तहेव सरीरपाउसिया, तं चेव सव्वं जाव अंतं काहिति / एवं खलु जंबू ! बीयज्झयणस्स निक्खेवओ || जति णं मंते ! तइयस्स अज्झयणस्स उक्खेवओ, एवं खलु जंबू ! रायगिहे नयरे गुणसिले चेइए० एवं जहेव राई तहेव रयणी वि, नवरं, आमलकप्पा नयरी, रयणी गाहावती रयणसिरी मारिया, रयणीदारिया, सेसं तहेव, जाव अंतं काहिति॥३॥ एवं विजू वि,आमलकप्पा नयरी, विजू गाहावती विजुसिरी मारिआ विजूदारिया, सेसं तहेव // 4 // एवं मेहा वि, आमलकप्पा नयरी मेहा गाहावती मेहसिरी मारिआ मेहा दारिआ, सेसं तहेव / एवं खलु जंबू! समणेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं पढमस्स वम्गस्स अयमढे पण्णत्ते / ज्ञा०२ श्रु०१ वर्ग / चमरस्सं णं मंते ! असुरिंदस्स असुर-- कुमाररण्णो सोमस्स महारण्णो कई अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ ? अजो! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ। तं जहा-कणया कणगलया चित्तगुत्ता वसुंधरा। तत्थ णं एगमेगाए देवीए एगमेगं देवीसहस्सं परिवारो पण्णत्तो / पभू ! णं ताओ एगमेगा देवी अण्णं एगमेगं देवीसहस्सपरिवारं विउव्वित्तए ? एवामेव सपुव्वावरेणं चत्तारि देवीसहस्सा से तं तुडिए। पमूणं भंते ! चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररणो सोमे महाराया सोमाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए सोमंसि सीहासणंसि तुडिएणं अवसेसं जहा चमरस्स, णवरं, परिवारो जहा सूरियाभस्स, सेसं तं चेव, जाव णो चेव णं मेहुणवत्तियं / चमरस्स णं भंते ! जाव रणो जमस्स महारण्णो कई अग्गमहिसीओ ? एवं चेव, णवरं, जमाए रायहाणीए०, सेसं जहा सोमस्स / एवं वरुणस्स वि, णवरं, वरुणाए रायहाणीए, एवं वेसमणस्स वि, वरं, वेसमणाए रायहाणीए, सेसं तं चेव जाव मेहुणवत्तियं / बलिस्स णं मंते ! वइरोयणिंदस्स पुच्छा / अज्जो ! पंच अग्गमहि- सीओ पण्णत्ताओ / तं जहा-सुंभा णिसुंभारंमा निरंमा मदणा / तत्थ णं एगमेगाए देवीए अट्ठद्व०, सेसं जहा चमरस्स, णवरं, बलिचंचाए रायहाणीए परिवारो जहा मोओद्देसए, सेसं तं चैव जाव मेहुणवत्तियं / बलिस्स णं भंते ! वइरोयणिदस्स वइरोयणरण्णो सोमस्स महारणो कई अम्गमहिसीओ पण्णत्ताओ? अञ्जो ! चत्तारि अम्गमदिसीओ पण्णत्ताओ। तं जहा-मीणगासुमद्दा विजुआ असणी। तत्थणं एगमेगाएदेवीए०, सेसं जहा चमरस्सा एवं जाव वेसमणस्स। भ०१० श०५ उ०। आसां पूर्वभवः - Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्गमहिसी 170 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अग्गमहिसी जइणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं दोच्चस्स वग्गस्स उक्खेवओ। एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं दोबस्स वग्गस्स पंच अज्झयणा / पण्णत्ता। तं जहा- सुंभा 1, निसुंभा २,रंभा 3, निरंमा 4, मदणा 5 / जइ णं मंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं. धम्मकहाणं दोचस्स वग्गस्स पंच अज्झयणा पन्नत्ता। दोच्चस्स णं भंते ! वग्गस्स पढ मज्झयणस्स के अटे पन्नते? एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे गुणसिले चेइए, सामी समोसढे, परिसा० जाव पजुवासति, तेणं कालेणं तेणं समएणं सुमा देवी बलिचंचाए रायहाणीए सुंभवडिसए भवणे सुंमंसि सिंहासणंसि कालिगमएणं जाव णट्टविहिं उवदंसेत्ता जाव पडिगया / पुव्वभवपुच्छा। सावत्थी नयरी, कोट्ठए चेइए, जियसत्तू राया, सुंभे गाहावई,सुंमसिरी मारिआ, सुंमा दारिया, सेसं जहा कालीए, नवरं अद्भुट्ठाति पलिओवमाई ठिती, एवं खलु जंबू ! उक्खेवगो पढमस्स अज्झयणस्स, एवं सेसा वि चत्तारि अज्झयणा सावत्थीए / नवरं, माया पिया धूयसिरित्तिनामया / एवं खलु जंबू ! निक्खेवओ बीयस्स वग्गस्सा ज्ञा०२ श्रु०१अ०। धरणस्य - धरणस्स णं मंते ! णागकुमारिंदस्स णागकुमाररण्णो कई अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ? अजो!छ पण्णत्ताओ / तं जहाअला सक्का सतेरा सोदामिणी इंदाघणविजुया। तत्थणं एगमेगाए देवीए छछदेवी सहस्सपरिवारो पण्णत्तो। पमू! णं ताओ एगमेगा देवी अण्णाइंछ छ देवीसहस्साइं परिवार विउव्वित्तए, एमामेव सपुव्वावरेणं छत्तीसं देविसहस्साई, से तं तुडिए / पमू णं भंते ! धरणे, सेसं तं चेव, णवरं, धरणाए रायहाणीए धरणंसि सीहासणंसि सओ परिवारो, सेसं तं चेव / धरणस्स णं मंते ! णागकुमारिंदस्स कालवालस्स लोगवालस्स महारण्णो कई अग्गमहिसीओ पण्ण-त्ताओ? अञ्जो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ। तं जहा-असोगा विमला सुप्पमा सुदंसणा / तत्थ णं एगमेगाए देवीए०, अवसेसं जहा चमरलोगपालाणं, सेसाणं तिण्हि वि। भूतानन्दस्यभूयाणंदस्स णं मंते ! पुच्छा / अञ्जो ! छ अग्ग-महिसीओ पण्णत्ताओ। तं जहा-रूया रूयंसा सुरूवा रूयगावई रूयकंता रूयप्पमा / तत्थ णं एगमेगाए देवी- ए०, अवसेसं जहा धरणस्सा मूयाणंदस्स णं भंते ! णागकुमारस्स चित्तस्स पुच्छा। अज्जो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णताओ / तं जहा- सुनंदा सुभद्दा सुजाया सुमणा / तत्थ णं एगमेगाए देवीए०, अवसेसं जहा चमरलोगपालाणं / एवं सेसाण वि तिण्हि वि लोगपालाणं तहा, दाहिणिल्ला इंदा, तेसिं जहा धरणस्स / लोगपालाण वि, तेसिं जहा धरणलोगपालाणं / उत्तरिंदाणं जहा भूयाणंदस्स। लोगपालाणं वि, तेसिं जहा भूयाणंदस्स लोगपालाणं, णवरं, इंदाणं सव्वेसिं रायहाणीओ सीहासणाणि य सरिसणामगाणि, परिवारो जहा मोओसिए, लोगवालाणं सव्वेसिं रायहाणीओ सीहासणाणि य सरिसणामगाणि परिवारो जहा चमरलोगपालाणं / भ०१०श०५ उ०/ भूतानन्दसूत्रे- (एवमिति) यथा कालपालस्य तथाऽन्येषामपि, नवरं, तृतीयस्थाने चतुर्थो वाच्यः ! धरणस्य दक्षिणनागकुमार-निकायेन्द्रस्य लोकपालानामग्रमहिष्यो यथा 2 यन्नामिकास्तथा 2 तन्नामिका एव सर्वेषां दाक्षिणात्यानां शेषाणामष्टानां वेणुदेव-हरिकान्ताग्निशिखपूर्णजलकान्ताऽमितगतिवेलम्बघोषाख्याना-मिन्द्राणां ये लोकपालाः सूत्रे दर्शितास्तेषां सर्वेषामिति। यथा च भूतानन्दस्यौदीच्यनागराजस्य तथा शेषाणामष्टानामौदीच्येन्द्राणां वेणुदालिहरिसहाग्निमाणयवसिष्ठजलप्रभामितवाहनप्रभञ्जन-महाघोषाख्यानां ये लोकपालास्तेषामपीति। एतदेवाह-जहा धरणस्सेत्यादि। ___ आसां पूर्वमवःउक्खेवओ तइयवग्गस्स / एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं तझ्यस्सवम्गस्स चउप्पन्ना अज्झयणा पन्नत्ता। तंजहापढमे अज्झयणे जाव चउप्पन्नत्तिमे अज्झयणे / जइ णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं तइयस्सवमास्स चउप्पण्णा अज्झयणा पन्नत्ता / पढमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स समणेणं जाव संपत्तेणं के अढे पन्नत्ते? एवं खलू जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नगरे गुणसिले चेइए सामी समोसढे, परिसा निग्गया जाव पजुवासति / तेणं कालेणं तेणं समएणं अला देवी धरणा रायहाणीए अलावडिंसए मवणे अलंसि सिंहासणं सि, एवं काली गमएणं जाव नट्टविहे उवदंसेत्ता पडिगया / पुव्वमव-पुच्छा / वाणारसीएकाममहावणे चेइए अले गाहावती अलमसिरी मारिआ अलादारिया,सेसं जहा कालिए, नवरं, धरणस्स अग्गमहिसित्ताए उववाओ साइरेगं अद्धपलियोवमं ठिती, सेसं तहेव / एवं खलु निक्खेवओ पढमज्झयणस्स / एवं कमा सक्का सतेरा सोदामिणी इंदा घणविजुया वि, सव्वाओ एयाओधरणस्स अग्गमहिसीओ। एते छ अज्झयणा वेणुदेवस्स अवसेसा माणियव्वा, एवं जाव घोसस्स वि एते चेव अज्झयणा / एए चेव दाहिणिल्लाणं इंदाणं चउप्पन्नं अज्झयणा भवंति, सव्वाओ विवाणारसीएकाममहावणे चेइए तइयवम्गस्स निक्खेवओ। चउत्थस्सवमास्स उक्खेवओ। एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं चउत्थस्स वग्गस्सचउप्पन्ना अज्झयणा पन्नत्ता। तं जहा- पढमे अज्झयणे जाव चउप्पन्नइमे अज्झयणे, पढमस्स अज्झयणस्स उक्खेवओ / एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं जाव परिसा पजुवासइ। तेणं कालेणं तेणं समएणं रूया देवी रूयाणंदारायहाणीए रुयगवडिंसए भवणे रुयगंसि Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अम्गमहिसी 171 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अग्गमहिसी सीहासणंसि जहा कालिए तहा, नवरं पुव्वमवे चंपाए पुन्नमद्दे चेइए रूए गाहावती रूयगसिरी मारिआ रूया दारिया, सेसं तहेव, नवरं, भूयाणंदा अग्गमहिसित्ताए उववाओ देसूर्ण पलिओवमहिती निक्खेवओ। एवं खलु जंबू ! सुरूवा वि, रूयंसा वि, रूअगावई वि, रूअकंता वि, रूयप्पमा वि / एयाए चेव उत्तरिल्लाणं इंदाणं माणि-यव्वाओ जाव महाघोसस्स / निक्खेवओ चउत्थस्स वम्गस्सा ज्ञा०२ श्रु०१ वर्ग। व्यन्तरेन्द्राणां कालस्यकालस्स णं मंते ! पिसायइंदस्स पिसायरण्णो कइ अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ? अञ्जो ! चत्तारि अग्ग-महिसीओ पण्णत्ताओ।तं जहा-कमला कमलप्पमा उप्पला सुदंसा। तत्थ णं एगमेगाए देवीए एगमेगं देवी-सहस्सं, सेसं जहा चमरलोगपालाणं, परिवारो तहेव, णवरं, कालाए रायहाणीए कालंसि सीहासणंसि, सेसं तं चेव, एवं महाकालस्स वि। सुरूपस्यसुरूवस्सणं भंते ! भूइंदस्स भूयरण्णो पुच्छा। अञ्जो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ / तं जहा-रूयवई बहुरूवा सुरूवा सुभगा / तत्थ णं एगमेगा, सेसं जहा कालस्स, एवं पडिरूवस्स वि। पूर्णभद्रस्य - पुण्णमहस्स णं भंते ! जक्खिदस्स पुच्छा / अञ्जो ! चत्तारि अम्गमहिसीओ पण्णत्ताओ। तं जहा-पुण्णा बहुपुत्तिया उत्तमा तारया / तत्थ णं एगमेगाए , सेसं जहा कालस्स, एवं माणिमद्दस्स वि। भीममहाभीमयोःभीमस्स णं मंते ! रक्खसिंदस्स पुच्छा / अजो ! चत्तारि अगमहिसीओ पण्णत्ताओ। तं जहा-पउमा पउमावई कणगा रयणप्पमा / तत्थ णं एगमेगा देवी, सेसं जहा कालस्स, एवं महाभीमस्स वि। किन्नरस्यकिण्णरस्स णं मंते ! पुच्छा ! अञ्जो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ ! तं जहा-वडिंसा केतुमई रइसेणा रइप्यिा। तत्थ णं, सेसं तं चेव / एवं किंपुरिसस्स वि। सुपुरुषस्यसुपुरिसस्स णं पुच्छा / अज्जो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ। तं जहा-रोहिणी नवमिया हिरी पुप्फवई। तत्थ णं एगमेगा देवी, सेसं तं चेव / एवं महापुरिसस्स वि। __ अतिकायस्यअइकायस्स णं पुच्छा / अञ्जो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ। तं जहा-मुयगा भुयगवई महाकच्छा फुडा। तत्थ पं० सेसं तं चेव / एवं महाकालस्स वि। गीतरते:गीयरइस्स णं मंते ! पुच्छा। अजो ! चत्तारि अम्गमहिसीओ पण्णत्ताओ। तं जहा-सुघोसा विमला सुस्सरा सरस्सई। तत्थं णं० सेसं तं चेव / एवं गीयजसस्स वि / सव्वेसिं एएसिं जहा कालस्स,णवरं, सरिसनामगाओ रायहाणीओ सीहासणाणिय, सेसं तं चेव / म०१० श०५ उ०। आसां पूर्वभवःपंचमवग्गस्स उक्खेवओ। एवं खलु जंबू ! जाव बत्तीसं अज्झयणा पन्नत्ता। तं जहाकमला कमलप्पमा, उप्पला य सुदंसणा / रूववई बहुरूवा, सुरूवा सुभगा वि य॥१॥ पुन्ना बहुपुत्तिया च, उत्तमा तारया वि य। पउमावती सुमई, कणगा कणगप्पमा / / 2 / / वडेंसा केउमई च, रइसेणा रइप्पिया। रोहिणी नवमिआ वि, हिरी पुप्फवई इय // 3 // भयगा मुयगावती, महाकच्छा फुडाइया। सुघोसा विमला चेव, सुस्सराइसरस्सई॥४॥ उक्खेवओ पढमज्झयणस्स / एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णयरे समोसरणं जाव पञ्जुवासइ / तेणं कालेणं तेणं समएणं कमला देवी कमलाए रायहाणीए कमलवडिंसए मवणे कमलसिसीहासणंसि०,सेसं जहा कालीए तहेव, नवरं, पुव्वभवे नागपुरे णगरे सहस्संबवणे उजाणे कमलस्स गाहावइस्स कमलसिरी भारिया कमला दारिया पासस्स णं अंतिए निक्खंता, कालस्स पिसायकुमारिंदस्स अग्गमहिसीओ अद्धपलि-ओवमद्विती,एवं सेसावि अज्झयणा / दाहिणिलाणं वाणमंतरिंदाणं भाणियव्वाओ सव्वाओ, नागपुरे सहस्संबवणे उज्जाणे मायापियरोधूयासिरिसनामया ठिती अद्धपलितोवमं / पंचमो वग्गो सम्भत्तो ||5|| छटो वि वग्गो पंचमसरिसो, नवरं, महाकालिं-दाणं उत्तरिल्लाणं इंदाणं अग्गमहिसीओ पुव्वमवे साएएणयरे उत्तरकुरुउजाणे मायापियरो घूयसिरिणामया सेसं तं चेव / छट्ठो वग्गो सम्मतो। ज्ञा०२ श्रु० 6 व०॥ ज्योतिष्केन्द्राणाम् - चंदस्स णं मंते ! जोतिसिंदस्स जोतिसरन्नो कति अग्गमहिसीओ पण्णताओ? चत्तारि अम्गमहिसीओ पण्णत्ताओ।तं जहा-चंदप्पमा जोसिणाभा अचिमाली पभंकरा / तत्थ णं एगमेगाए देवीए चत्तारि चत्तारि देवीसाहस्सीओ परिवारो पण्णत्तो / पभू ! णं ततो एगमेगा देवी अन्नाइं चत्तारि चत्तारि देवीसाहस्साई परिवारं विउव्वित्तए, एवामेव सपुव्वावरेणं सोलसदेवीसाहस्सीओ पण्णताओ, से तंतुडिए। (चंदस्स णं भंते ! इत्यादि) चन्द्रस्य भदन्त ! ज्योतिषेन्द्रस्य ज्योतिषराजस्य कति कियत्संख्याका अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः? भगवानाह- गौतम ! चतस्रोग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः / तद्यथा- चन्द्रप्रभा (जोसिणाभेत्ति) ज्योत्स्नाभा, अर्चिमाली, प्रभङ्करा / Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्गमहिसी 172 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अग्गमहिसी (तत्थ णमित्यादि) तत्र तासु चतसृष्वग्रमहिषीषु मध्ये एकैकस्या देव्याश्चत्वारि 2 देवीसहस्राणि परिवारः प्रज्ञप्तः। किमुक्तं भवति। एकैका अग्रमहिषी चतुण्ाँ चतुर्णा देवीसहस्राणां पट्टरा-ज्ञीनामेकैका च सा इत्थंभूताऽग्रमहिषी, परिचारणावसरे तथाविधां ज्योतिष्कराजस्य चन्द्रदेवेच्छामुपलभ्य प्रभुरन्यानि आत्मसमान-रूपाणि चत्वारि देवीसहस्राणि विकुर्वितुं स्वाभाविकानि, पुनरेवमेव उक्तप्रकारेणैव पूर्वापरभीलनेनषोडशदेवीसहस्राणिचन्द्रदेवस्य भवन्ति। "सेतं तुडिए'तदेवतावत् त्रुटिकमन्तःपुरं व्यपदिश्यते। सभायामभोगःपभू!णं मंते! चंदे जोतिसिंदे जोतिसराया चंदवडिसए विमाणे समाए सुधम्माए चंदंसि सीहासणंसि तुडिएण सद्धिं दिव्वाई भोगमोगाइं मुंजमाणे विहरित्तए ? गोयमा ! नो इणढे समढे। से केणढे णं भंते ! एवं वुबइ ? नो पभू ! चंदे जोइसराया चंदवडिंसए विमाणे समाए सुधम्माए चंदंसि सीहासणंसि तुडिएणं सद्धिं विपुलं भोगभोगाइं मुंजमाणे विहरित्तए ? गोयमा ! चंदस्स णं जोतिसिंदस्स जोइसरण्णो चंदवडिंसए विमाणे सभाए सुधम्माए माणवगंसि चेतियखमंसि वइरामयेसु गोलवट्टसमुग्गएसु बहुयाओ जिणसकहाओ चिटुंति, जाओ णं चंदस्स जोतिसिंदस्स जोतिसरण्णो अण्णे सिं च बहूर्ण जो तिसयाणं देवाण य देवीण य अचणिज्जाओ जाव पञ्जुवासणिज्जाओ। तासि णं पणिहाएनो पमू! चंदे जोइसराया चंदवडिंसएजाव चंदंसि सीहासणंसि भुज-माणे विहरित्तए। से तेणटेणं गोयमा ! नो पमू! चंदजोतिसराया चंदवडिंसए विमाणे सभाए सुधम्माए चंदसि सीहासणंसि तुडिएण सद्धिं दिव्वाई मोगभोगाइंभुंजमाणे विहरित्तए अदुत्तरं चणं गोयमा! नो पमू ! चंदजोतिसिंदे जोतिसराया चंदवडिसए विमाणे समाए सुहम्माए चंदसिसीहासणंसि चउहिंसामाणियसाहस्सीहिं जावसोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं अन्नेहि य बहूहिं जोतिसिएहिं देवेहि य देवीहि य सद्धिं संपरिवुडे महयाहयणट्टगीयवाइयतंतीतलतालतुडियघणमुइंग-पडुप्पवाइयरवेणं दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणा विह-रित्तए। केवलपरियारतूडिएण सर्द्धि मोगमोगाई चोसड्ढिए बुद्धिए,नो चेव णं मेहुणवत्तियं / (पभू णं भंते ! इत्यादि) प्रभुर्भदन्त ! चन्द्रो ज्योतिषेन्द्रो ज्योतिपराज्ञश्चन्द्रावतंसके विमाने सभायां सुधर्मायां चन्द्रे सिंहासने त्रुटिकेनान्तःपुरेण सार्द्ध दिव्यान् भोगभोगान् भुञ्जमानो विहर्तुमासितुं ? भगवानाह- गौतम ! नायमर्थः समर्थः। अत्रैव कारणं पृच्छति(सेकेणवणमित्यादि) तदेव भगवानाह-गौतम!चन्द्रस्य ज्योतिषेन्द्रस्य ज्योतिषराजस्य चन्द्रावतंसके विमाने सभायां सुधर्मायां माणवकचैत्यस्तम्भे वज्रमयेषु गोलवृत्तसमुद्केषु, ते च यथा तिष्ठन्ति तथा विजयराजधानीगतसुधर्मासभायामिव द्रष्टव्यम् / बहूनि जिनसक्थीनि सन्निक्षिप्तानि तिष्ठन्ति यानि। सूत्रे स्त्रीत्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् / चन्द्रस्य ज्योतिषेन्द्रस्यज्योतिषराजस्यतानिअर्चनीयानि पुष्पादिभिर्वन्दनीयानि प्रणतिभिः, विशिष्टः स्तोत्रैः, स्तोतव्यानि पूजनीयानि वस्त्रादिभिः, सत्कारणीयानि आदरप्रतिपत्त्या सम्माननीयानि जिनोचितप्रतिपत्त्या, कल्याणं मंगलं चैत्यमिति पर्युपासनीयानि। (तासिं पणिहाए त्ति) तेषां प्रतिभयातानि आश्रित्य नो प्रभुश्चन्द्रोज्योतिषराज्ञश्चन्द्रावतंसके विमाने यावद्विहर्त्तव्यमिति / (पभू णं गोयमा ! इत्यादि) प्रभुर्गातम ! चन्द्रो ज्योतिषेन्द्रोज्योति-षराज्ञश्चन्द्रावतंसके विमाने सभायां सुधर्मायां चन्द्रे सिंहासने चतुर्भिः सामानिकसहनै श्चतसृभिरग्रमहिषीभिः सपरिवाराभिस्तिसृभिः पर्षद्विः सप्तभिरनीकाधिपतिभिः षोडशभिरात्मरक्षकदेवसहस्रैरन्यैश्च बहुभिर्योतिषैर्देवैर्देवीभिश्च सार्द्ध संपरिवृतो महयाहयेत्यादि पूर्ववद् दिव्यान् भोगभोगान् भुजानो विहर्तुमिति, न पुनमैथुनप्रत्ययं मैथुननिमित्तं दिव्यान्स्प र्शादीन् भोगान् भुजानो विहर्तु प्रभुरिति। सूर्यस्याग्रमहिष्यः - सूरस्स णं मंते ! जोतिसिंदस्स जोतिसरन्नो कति अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ? गोयमा! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ।तं जहा-सूरप्पमा आतपामा अचिमाली पमंकरा। एवं अवसेसं जहा चंदस्स, णवरिं सूरवडिंसके विमाणे सूरंसि सीहासणंसितहेव। (सूरस्स णं भंते ! इत्यादि) सूरस्स भदन्त ! ज्योतिषेन्द्रस्य ज्योतिषराजस्य कति अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः ? भगवानाह- गौतम ! चतस्रोऽग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः / तद्यथा- सूरप्रभा आतपाभा अर्चिमाली प्रभंकरा। 'तत्थ णं एगमेगाए देवीए' इत्यादि चन्द्रवत् तावद् वक्तव्यं, यावद् नो चेवणं मेहुणवत्तियं, नवरं सूर्यावतंसके विमाने सूर्यसिंहासने इति वक्तव्यम् , शेषं तथैव / जी०४ प्रति०। स्था०। अङ्गारकादीनाम्इंगालस्सणं मंते! महागहस्स कति अम्गमहिसीओ? पुच्छा। अञ्जो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ। तं जहा- विजया वेजयंती जयंती अपराजिता / तत्थणं एगमेगाए देवीए० सेसं तं चेव, जहा चंदस्स, णवरं इंगालवडिंसए विमाणे इंगालगंसि सीहासणंसि, सेसं तं चेव, एवं वियालस्स वि। एवं अट्ठासीए वि महागहाणं वत्तव्वया णिरवसेसा माणियव्वा जाव मावकेउस्स, णवरं वडिंसगा सीहासणाणिय सरिसणामगाणि, सेसंतंचेव। भ०१० श०५ उ०/जीवा०। स्था०। आसां पूर्वमवः - सत्तमवग्गस्स उक्खेवो / एवं खलु जंबू ! जाव चत्तारि अज्झयणा पन्नत्ता / तं जहा- सूरप्पमा आयवा अचिमाली पभंकरा / पढमस्स अज्झयणस्स उक्खेवओ / एवं खलु जंबू / तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं जाव परिसा पञ्जुवासति / तेणं कालेणं तेणं समएणं सूरप्पमा देवी सूरंसि विमाणंसि सूरप्पमंसि सीहासणंसि सेसं जहा कालिए तहा नवरं पुव्वमवो अक्खुपुरीएनयरे सूरप्पमस्स Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्गमहिसी 173 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अग्गमहिसी गाहावइस्स सूरसिरिए मारियाए सूरप्पमा दारिया सूरस्स अग्गमहिसी ठिती अद्धपलिओवम पंचर्हि वाससएहिं अब्महियं, सेसं जहा कालिए। एवं सेसाओ वि सव्वाओ अक्खुपुरीए नयरीए / सत्तमवग्गो सम्मत्तो ||7|| अट्ठमस्स वग्गस्स उक्खेवो / एवं खलु जंबू ! जाव चत्तारि अज्झयणा पन्नत्ता / तं जहा-चंदप्पमा दीतिप्पमा अचिमाली पहंकरा / पढमस्स अज्झयणस्स उक्खेवओ / एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं जाव परिसा पञ्जुवासइ। तेणं कालेणं तेणं समएणं चंदप्पमा देवी चदप्पमंसिसीहासणंसि,सेसं जहा कालिए, नवरं पुव्वभवे महुराए नयरीए भंडीवडिंसए उज्जाणे चंदप्पभे गाहावई चंदसिरी भारिया चंदप्पभा दारिआ चंदस्स अम्गमहिसी ठिती अद्धपलिओवमं पन्नास वाससहस्से हिं अब्महियं, सेसं जहा कालीए, एवं सेसाओ वि महुराए नयरीए मायापियरो धुयसिरीनामया / अट्ठमो वम्गो सम्मतो / ज्ञा० 2 श्रु०॥ वैमानिकानां शक्रस्यसक्कस्स णं भंते ! देविंदस्स देवरण्णो पुच्छा० / अज्जो ! अट्ठ अम्गमहिसीओ पण्णत्ताओ / तं जहा-पउमा सिवा सेवा अंजू अमला अच्छरा नवमिया रोहिणी। तत्थ णं एगमेगाए देवीए सोलस 2 देवीसहस्सपरिवारो पण्णत्तो / पमू! णं ताओ एगमेगा देवी अन्नाई सोलस 2 देवि-सहस्साई परिवार विउव्वित्तए। एवामेव सपुव्वावरेणं अट्ठावीसुत्तरं देवीसयसहस्सं परिवारो विउवित्तए। से तं तुडिए। म०१० श०५ उ०। उपासकदशाङ्ग टीकायां कामदेववक्तव्यतायामभयदेवसूरिणा अग्रमहिषी परिवारः प्रत्येकं पञ्चसहस्राणि, सर्वमीलने चत्वारिंशत्सहस्राणीति लिखितम् , तचिन्त्यम् / जं०। स्था०। मोगः - पभू ! णं भंते ! सक्के देविंदे देवराया सोहम्मे कप्पे सोहम्मवडिंसए विमाणे समाए सुहम्माए सरंसि सीहासणंसि तुडिए णं सद्धि, सेसं जहा चमरस्स, णवरं, परिवारो जहा मोओसिए। शक्रलोकपालानाम् - सक्कस्सणं भंते ! देविंदस्स देवरण्णो सोमस्स महारण्णो कति अग्गमहिसीओ ? पुच्छा / अञ्जो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ / तं जहा-रोहिणी मदणा चित्ता सोमा / तत्थ णं एग०, सेसंजहा चमरलोगपालाणं,णवरं,सयंपमे विमाणे समाए सुहम्माए सोमंसि सीहासणंसि, सेसं तं चेव, एवं जाव वेसमणस्स, णवरं, विमाणाई जहा तइयसए / म०१० श० 5 उ01 सकस्स णं देविंदस्स देवरन्नो वरुणस्स महारन्नो सत्त अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ। स्था०७ ठा०। ईशानस्यईसाणस्स णं भंते ! पुच्छा० / अज्जो ! अट्ठ अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ। तं जहा- कण्हा कण्हराती रामा रामरक्खिया वसू वसुगुत्ता वसुमित्ता वसुंधरा / तत्थ णं एगमेगाए०, सेसं जहा सक्कस्स / म०१०श०५ उ० स्था०। ईशानलोकपालानाम् - ईसाणस्स णं मंते ! देविंदस्स देवरण्णो सोमस्स महारण्णो कति अग्गमहिसीओ? पुच्छा०।अज्जो! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ। तं जहा- पुढवी राई रयणी विज्जू। तत्थ णं०, सेसं जहा सक्कस्स लोगपालाणं / एवं जाव वरुणस्स, णवर, विमाणा जहा चउत्थसए, सेसं तं चेव जाव णो चेव णं मेहुणवत्तियं / म०१० श०५ उ० / सक्कस्स णं देविंदस्स देवरन्नो सोमस्स महारण्णो छ अग्गमहिसीओ पण्णचाओ।सकस्स णं देविंदस्स देवस्नो जमस्समहारन्नो छ अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ / स्था० 6 ठा०। ईसाणस्सणं देविंदस्स देवरण्णो सोमस्स महारण्णो सत्त अग्गमसीओ पण्णत्ताओ। ईसाणस्सणं देविंदस्स देवरण्णो जमस्स महारण्णो सत्त अम्गमहिसीओ पण्णत्ताओ। स्था० 7 ठा०। ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरण्णो वरुणस्स महारन्नो नव अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ। स्था०६ ठा०। आसां पूर्वभवःनवमस्स उक्खेवो / एवं खलु जंबू ! जाव अट्ठ अज्झ-यणा पन्नत्ता / तं जहा-पउमा सिवा सुई अंजू रोहिणी नवमिया / इय अचला अपच्छरा, पढमज्झयणस्स उक्खेवओ।। एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं परिसा जाव पञ्जुवासइ / तेणं कालेणं तेणं समएणं पउमावई देवी सोहम्मे कप्पे पउमवडिंसए विमाणे समाए सुहम्माए पउमंसि सीहासणं सि, जहा कालीए, एवं अट्ठ वि अज्झयणे कालीगमएणं नेयव्वा, नवरं, सावत्थिएदो जणीओ हस्थिणाउरे दो जणीओ कंपिल्लपुरे दो जणीओ सासए दोजणीओ। पउमे पियरो विजया मायरो सदाओवि पासस्स अंतिए पव्वइया सक्कस्स अग्गमहिसीओ ठिई सत्तपलिओवमाइं महाविदेहे अंतं काहिति / नवमो वग्गो सम्मत्तो // 6 / / दसमस्स उक्खेवओ। एवं खलु जंबू ! जाव अट्ठ अज्झयणा पन्नत्ता / तं जहा- कण्हा य कण्हराईरामा तहा रामरक्खिया। वसुया वसुगुत्ता वसुमित्ता वसुंधरा चेव / / 1 / / ईसाणे पढमज्झयणस्स उक्खेवओ / एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं परिसा पज्जुवासइ। तेणं कालेणं तेणं समएणं कण्हा देवी ईसाणे कप्पे कण्हवडिसए विमाणे समाए सुहम्माए कण्हसि सीहासणं सि०, सेसं जहा कालीए / एवं अट्ठ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्गमहिसी अम्गि 174 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 वि अज्झयणाकालीगमएणं नेयव्वा, नवरं, पुव्वमवेवाणारसीए गौरादित्वाद् ङीष् , स्वार्थे कन् अर्गलिकाऽप्यत्रार्थे, विष्कम्भमात्रे, नयरीए दो जणीओ, रायगिहे नगरे दो जणीओ, सावत्थीए दो रोधकमात्रे, स्त्री०म० / वाच० / "अग्गला अग्ग-लपासाया य जणीओ, कोसंबीए दो जणीओ / रामे पिया, धम्मा माया, वइरामईतो"रा०1 सव्वावि पासस्स अरहओ अंतिए पव्वइयाओ पुप्फचूलाए अजाए अग्गबीय-न०(अग्रबीज) अग्रे बीजं येषां ते तथा, कोरण्टकादयः / अग्रे सिसिणीयत्ताईसाणस्स अग्गमहिसीओ ठितीनवपलिओवमाई वा बीजं येषां ते अग्रबीजाः। ब्रीह्यादिषु, स्था०४ ठा०१ उ०। महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ,जाव सव्वदुक्खाणं अंतं काहिइ। अग्गवेओ-देशी-नदीपूरे, दे० ना०१ वर्ग। एवं खलु जंबू ! निक्खेवगो / दसमो वग्गो सम्मत्तो / ज्ञा०२ अग्गसिर-न०(अग्रशिरस) शिरोऽग्रे, "घणनिचियसुबद्धलक्खश्रु०॥ णुन्नयकूडागारणिभणिरूवमपिडियम्गसिरा"। तं०। कृष्णस्याग्रमहिष्यः अग्गसिहर-न०(अग्रशिखर) वनस्पत्यादीनां शिखराग्रे, "सो-हियवरं कण्हस्स णं वासुदेवस्स अट्ठ अम्गमहिसीओ०,अरहओ णं | कुरग्गसिहरा" औ०। रा०। अरिट्टनेमिस्स अंतियं मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारियं अग्गसुयक्खन्ध-पुं०(अग्रश्रुतस्कन्ध) आचाराङ्गस्य द्वितीये पव्वइत्ता सिद्धाओ, जाव सव्वदुक्खप्पहीणाओ / तं जहा- | श्रुतस्कन्धे, आचा०२ श्रु०१अ०१ उ०। पउमावई यगोरी, गंधारी लक्खणासुसीमाय / जंबूवइ सचपमा अम्गसोण्डा-स्त्री०(अग्रशुण्डा) शुण्डाग्रे, उपा०२ अ०। रुप्पिणी अग्गमहिसीओ||१||स्था० 8 0 / अग्गह-पुं०(आग्रह) आ-ग्रह-अच् ममताऽभिनिवेशे, प्रति०। अन्यत्रासां कथानकम् (आसां राजधान्यो 'रइकरपव्वय' शब्दे मिथ्याभिनिवेशे, षो०१२ विव० आवेशे, आसक्ती, आक्रमे, अनुग्रहे, दर्शिताः) ग्रहणे च। वाच०। अग्गरस-पुं०(अग्र्यरस) अग्रयः प्रधानो रसो येभ्यस्ते अग्रयरसाः। अग्गहच्छेयकारि(ण)-त्रि०(आग्रहच्छेदकारिन्) मू विच्छेदके, शृङ्गाररसोत्पादकेषु रत्यादिषु, शृङ्गाररसे च / उत्त०१४ अ० / "समाधिराज एतच, ददे तत्तत्त्वदर्शनम् / आग्रहच्छेद-कार्येतत् , रसाग्राना रसानां सुखानामग्रम्। प्राकृतत्वादनशब्दस्य पूर्व-निपातः / तदेतदमृतं परम्" ||1|| द्वा०२५ द्वा०। सुखप्रधाने, उत्त०१४ अ०। अग्गहण-न०(अग्रहण - अनादरे) "भद्दा पुण अग्गहणं, जाणतो या सुसंमिया कामगुणा इमे ते, संर्पिडिया अग्गरसप्पभूआ विपरिणमे ज्जा सो"। बृ०३ उ० / अनुपादाने, उत्त०२ अ०। कीदृशाः कामगुणाः? अग्रयरसप्रभूताः ।अग्रयः प्रधानो रसो येभ्यस्ते "एसणमणेसणिजं, तिण्हं अग्गहणभोयणणयाणं" / उत्त० नि० १खं०। अग्रयरसाः, शृङ्गाररसोत्पादका इत्यर्थः। यदुक्तम् - "रतिमाल्यालङ्कारः, प्रियजनगन्धर्वकामसेवाभिः / उपवन-गमनविहारैः, शृङ्गाररसः अग्गहणवग्गणा-स्त्री०(अग्रहणवर्गणा) वर्गणाभेदे, कर्म०६ कर्म / समुद्भवति'' ||१|अग्रयरसश्चि ते प्रभूताश्च अग्रयरसप्रभूताः, प्रचुरा अग्गहत्थ-पुं०(अग्रहस्त) अग्रश्चासौ हस्तश्चेति गुणगुणिनोरभेदात्। इत्यर्थः। अथवाऽग्रयरसेन शृङ्गाररसेन प्रचुरास्तान् कामगुणान् (अग्गरस क०स०। हस्तस्याग्रभागे, वाच०। हस्ताग्रे, अनु०।। त्ति) चशब्दस्य गम्यमानत्वात् अग्र्या रसाश्च प्रधाना मधुरादयश्च प्रभूताः अम्गहि(ण)-त्रि०(आग्रहिन्) अभिनिवेशिनि, "आग्रही वत ! निनीषति प्रचुराः कामगुणान्तर्गतत्वेऽपि रसानां पृथगुपादानमतिगृद्धिहेतुत्वा युक्तिं, तत्र यत्र मतिरस्य निविष्टा / पक्षपातरहितस्य तु युक्तिर्यत्र तत्र च्छब्दादिष्वपि चैषामेव प्रवर्तकत्वात् / कामगुणविशेषणं वा / अग्र्या मतिरेति निवेशम्" ||1|| सूत्र०१ श्रु०१ अ०३ उ०| रसास्तएव शृङ्गारादयो वायेषु तेतथा। वृद्धास्त्वाहुः-रसानां सुखानामग्रं अग्गाणीअ-न० [अग्राणी(नी) क] अग्रञ्च तदनीकं चेति गुणरसागं ये कामगुणाः / सूत्रे च प्राकृतत्वादग्र्यशब्दस्य पूर्वनिपातः / गुणिनोरभेदात्। क०स० णत्वम् / वाच०सैन्याग्रभागे, 'जेणेव भरहस्य उत्त०१४ अ०। रण्णो अग्गाणि तेणेव उवागच्छंति' जं०३ वक्ष० / / अम्गल-न.(अर्गल) षडशीतितमे महाग्रहे, सू०प्र०२०पाहु०॥ अग्गा(ग्गे)णीअ-न०(अग्रायणीय) अग्रं परिमाणं,तस्यायनं गमनं *अर्ज-(कलच्) न्यङ्घादित्वात् कुत्वम् / कपाटमध्यस्थे रोधके, परिच्छेद इत्यर्थः, तस्मै हितमग्रायणीयम् / सर्वद्रव्यादिपरि माणपरिच्छेदकारिणि द्वितीयपूर्वे, तत्र हि द्वितीयमग्रायणीयम् / अग्रं कल्लोले, कपाटे च। वाच०॥"अग्गलं फलिहंदारं,कवाडं वा वि संजए। अवलं विया ण चिट्ठिञ्जा, गोअरग्गगओ मुणी" ||1|| अर्गलं परिमाणं तस्यअयनं गमनं, परिच्छेद इत्यर्थः, तस्मै हित-मग्रायणीयम् / सर्वद्रव्यादि परिमाण पदिच्छेद कारीति भावार्थः / तथाहि-तत्र गोपादिसंबन्धिनम्। दश०५ अ०२ उ०॥ सर्वद्रव्याणां सर्वपर्यायाणां सर्वजीवविशेषाणां च परिमाणमुपवर्ण्यते। यत्र अग्गलपासग-पुं०(अर्गलपाशक) यत्रार्गला निक्षिप्यन्ते तेषु, आचा०२ उक्तं चूर्णिकृता-"बीइयं अग्गेणीयं तत्थ सव्वदव्याण पज्जवाण य श्रु०१ अ०५ उ०। सव्वजीवाणयअगंपरिमाणं वन्निजइत्ति" / अग्गेणीयं तस्य पदपरिमाणं अग्गलपासाय-पुं० स्त्री०(अर्गलाप्रासाद) यत्रार्गला निक्षिप्यन्ते तेषु, षण्णवतिपदशतसहस्राणि / नं० / संथा०।"अग्गेणीयपुध्वस्स णं जी०३ प्रतिकाजा आहच जीवाभिगममूलटीकाकार:- अर्गला प्रासादो चोद्दसवत्थुदुवालसचूलिया वत्थूपण्णत्ता" नं0। यत्रार्गला नियम्यन्ते / रा०। अग्गि-पुं०(अग्नि)-अङ्गत्यूचं गच्छति, अगि-नि, नलोपः / अम्गला- स्त्री०(अर्गला) अर्ज-कलच्।न्यछादित्वात् कुश्चम् / क्षुद्रार्गले, ] "स्नेहाऽग्न्यो"||२१०२ / इति प्राकृतसूत्रेण वाऽनयो Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अम्गि 175 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अग्गिच्च मध्येऽकारः / अगणि, अग्गी। प्रा० / वैश्वानरे / पिं० / निर्ग्रन्थानां वेदः स्त्रीवेदादिरुदयं प्राप्तः सन् , तस्य स्त्रीवेदादिसंबन्धी य उपयोगः निर्ग्रन्थीनां चोभयेषामपि परस्परदर्शनेन बहवो दोषा भवन्तीति पुरुषाभिलाषादिलक्षणस्तेन हेतुभूतेन भावाग्निर्भवति / कुत इत्याहदर्शनायाग्निदृष्टान्तप्ररूपणे अग्निनिक्षेप उक्तः / यथा भावश्चारित्रादिकपरिणामस्तं भावं येन कारणेन दहति, तेन दुविहो य होइ अग्गी, दव्वग्गी चेव तह य भावग्गी। भावाग्निरुच्यते / भावस्य दाहकोऽग्निर्भावाऽग्निरितिव्युत्पत्तेः / कथं दव्वग्गिम्मि अगारी, पुरिसो व घरं पलीवेंतो॥ पुनर्दहतीति चेदुच्यते - द्विविधश्च भवत्यग्निः, तद्यथा- द्रव्याग्निश्चैवभावाग्निश्च / द्रव्याग्नौ चित्यमाने जह व साहीणरयणे, मवणे कस्सइ पमायदप्पेणं / अगारी अविरतिकापुरुषोवा गृहप्रदीपयन् यथा सर्वस्वं दहति, एवं साध्वी डज्झंति समादित्ते, अनिच्छमाणस्स वि वसूणि / / वा साधुर्वा सजीवगृहं सदनं सत्त्वाग्निना प्रदीपयन चारित्रसर्वस्वं दहतीति इय संदसणसंमा-सणेहि संदीविओ मयणवण्ही। नियुक्तिगाथासंक्षेपार्थः / अथ विस्तरार्थमभिधित्सुव्याग्निं विवृणोति बम्मादीगुणरयणे, डहइ अनिच्छस्स वि पमाया / / तत्थ पुण होइ दव्वे, दहणादिणेगलक्खणा अग्गी। यथा वा स्वाधीनरत्ने पद्मरागादिबहुरत्नकलिते भवने प्रमादेन दर्पण नामोदयपचइयं, दिप्पइ देहं समासज्ज। वा समादीप्ते प्रज्वालिते सति कस्यचिदिभ्यादेरनिच्छतोऽपि वसूनि रत्नानि दह्यन्ते (इय त्ति) एवं संदर्शनमवलोकनं, संभाषणं मिथःकथा, तत्र तयोर्द्रव्याग्निभावाग्न्योर्मध्ये द्रव्याग्निः पुनरयं भवति- यः खलु ताभ्यां संदीपितः प्रज्वलितो मदनवह्निरनिच्छतोऽपि साधुसाध्वीजनस्य दहनाद्यनेकलक्षणोऽग्निः, दहनं भस्मीकरणं तल्लक्षणः / आदिशब्दात् ब्रह्मादिगुणरत्नानि ब्रह्मचर्यतपःसंयमप्रभृतयो ये गुणास्त एव पचनप्रकाशनलक्षणश्च / देहमिन्धनकाष्ठादिकं समासाद्य प्राप्य दौर्गत्यदुःखापहारितया रत्नानि प्रमादाद् दहति भस्मसात्करोति। नामोदयप्रत्ययमुष्णस्पर्शादिनामकर्मोदयाद्दीप्यते, सद्रव्याग्निरुच्यते। अमुमेवार्थ द्रढयतिकिमर्थं पुनरयं द्रव्यानिरिति चेदत आह - सुक्खिघणवाउबला-मिदीवितो दिप्पतेऽहियं वही। दव्वाइसन्निकरिसा, उम्पन्नो ताणि चेव डहमाणो। दिहिंघणरागानिल-समीरितो वि इय भावग्गी॥ दव्वग्गि त्ति उ वुचइ, आदिममावाइजुत्तो वि॥ शुष्कन्धनेन वायुबलेन वाऽभिदीपितो यथा वह्निरधिकं दीप्यते (इय द्रव्यमूर्ध्वाधो व्यवस्थितमरणिकाष्ठं, तस्य, आदिशब्दात् पुरुष- त्ति) एवं दृष्टिरूपं यदिन्धनं यश्च रागरूपोऽनिलो वायुस्ताभ्यां समीरित प्रयत्नादेश्च यः सन्निकर्षः समायोगस्तस्मादुत्पन्नः, तान्येव काष्ठा-दीनि उद्दीपितो भृशं भावाग्निरपि दीप्यते / बृ०१ उ०। कल्प० / (अग्नेर्वर्णको द्रव्याणि दहन् यद्यप्यादिमे नौदयिकलक्षणेन भावेन युक्तो- 'वीर' शब्दे) (अग्नेः प्रथमोत्पादादयः 'उसह'शब्दे) वह्निनामके ऽग्निनामकर्मोदयेनेत्यर्थः, आदिशब्दात्पारिणामिकादिभावेन च युक्तो लोकान्तिकदेवे, आ०म०प्र० / कृत्तिकानक्षत्रस्य देवतायाम् / स्था०४ वर्त्तते, तथापिद्रव्याग्निः प्रोच्यते, द्रव्यादुत्पन्नो द्रव्याणांवा दाहकोऽग्निरिति ठा०२ उ० / “कत्तिया अग्गिदेवयाए" ज्यो०६ पाहु० / सू०प्र० / ''दो व्युत्पत्तिसमाश्रयणात् / अग्गीओ"। स्था० 2 ठा०३ उ० | "चत्तारि अग्गी जाव सपुनः कथं दीप्यत इत्याह - जमा" / अग्निरिति कृत्तिकानक्षत्रस्य देवता यावद्यम इति / स्था० सो पुणिंघणमासज्ज, दिप्पति सीदती य तदभावा। ४ठा 2 उ०। नाणत्तं पि य लमए, इंधणपरिमाणतो चेव // अग्गि(अ)य-पुं०(अग्निक) यमशिष्ये यमदग्निनामके तापसे, "यमाख्यस्तापसस्तत्र, स तत्पार्वेऽग्निकोऽगमत् / प्रपन्नस्तस्य स पुनर्द्रव्याग्निरिन्धनं तृणकाष्ठादिकमासाद्य दीप्यते, सीदती च शिष्यत्वं, सघोरं तप्यते तपः॥१॥ यमशिष्योऽग्निक इति, यम-दग्निरिति विनश्यति, तदभावादिन्धनाभावात्। नानात्वं विशेषस्तदपि च लभते, इन्धनतः परिमाणतश्च / तत्रेन्धनतो यथा- तृणाग्निः काष्ठाग्निरित्यादि। श्रुतः'। आ०का आव० / आ०म०द्वि० / आ०चू०। (अस्य कथानक 'कोह' शब्दे) परिमाणतो यथा- महति तृणादाविन्धने महान् भवति, अल्पे चेन्धने स्वल्प इत्युक्तो द्रव्याग्निः। अग्गिओ-(देशी) इन्द्रगोपकीटविशेषे, मन्दे च।देना०१ वर्ग / अग्गिकज-न०(अग्निकार्य) यागादिविधौ, स्या०। अथ भावाग्निं नियुक्तिगाथापर्यन्तं व्याचष्टे - अग्गिकारिया-स्त्री०(अग्निकारिका) अग्निकर्मणि, साधूनां भावम्मि होइवेदो, इत्तो तिविहो नपुंसगादी उ। द्रव्याग्निकारिकाव्युदासेन भावाग्निकारिकै वानुज्ञाता / प्रति० / जइ तासि तयं अत्थि, किं पुण तासिं तयं नत्थि // ('अग्निहोत्त' शब्दे चैतदृश्यम्) भावे भावाग्निर्वेदाख्य इत ऊर्ध्व वक्तव्यो भवति / स च वेदस्त्रि-विधो / अम्गिकमार-पुं०(अग्निकुमार) अग्निश्चासौ कुमारश्च / कुमारवच्चेष्टमान नपुंसकादिको ज्ञातव्यः / अत्र परः प्राह- यदि तासां संयतीनां तकं इति भुवनपतिदेवभेदे, प्रज्ञा०१ पद। (अन्तराग्रमहिष्या-दयस्तत्तच्छब्द मोहनीयं स्यात् तर्हि युष्मदुक्तोऽग्निदृष्टान्तोऽपि सफलः स्यात् , किं पुनः एव दृश्याः) ('भुवणवई' शब्दे चाऽस्य वर्णादिकम् ) परं तासां तकं मोहनीयं नास्ति, अतः कुतस्तासां भावाग्नेः संभवो अम्गिकु माराहवण-न०(अग्निकुमाराह्वान) तैजसदेवसंकीर्तने, भवेदितिभावः। एतत्तूत्तरत्र भावयिष्यते। अथानन्त-रोक्तभावाग्निस्वरूपं | "अग्गिकुमाराहवणे धूवं एगे इहं बेति'। पञ्चा०२ विव०। स्पष्टयति अग्गिच्च-पुं०(आग्नेय) उत्तरयोः कृष्णराज्ययोर्मध्ये आग्नेयाउदयं पत्तो वेदो, भावगी होइ तदुवओगेणं / भविमानवास्तव्येऽष्टमे लोकान्तिकदेवे, स्था०५ ठा०३ उ०। प्रव० भ०। भावो चरित्तमादी,तं डहई तेण भावग्गी॥ झा०('लोगंतिग' शब्देऽस्य सर्व वृत्तम् ) Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्गिच्चाम 176 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अग्गिइ अग्गिचाभ-न०(आग्नेयाभ) उत्तरयोः कृष्णराज्ययोर्मध्ये वर्त्तमाने आभासियो जिणेणं, जाइजरामरणविप्पमुक्केणं। आग्नेयनामलोकान्तिकदेवविमाने, स्था०५ ठा०३ उ० भ० स० नामेण य गोत्तेण य, सव्वण्णू सव्वदरिसीणं / / अग्गिजस- पुं०(अग्नियशस्) द्वीपसमुद्रविशेषाधिपतौ, दी। आभाषितश्च संलपितश्च जातिजरामरणविप्रमुक्तेन सर्वज्ञेन सर्वदर्शिना अग्गिजोय-पुं०(अग्निद्योत) श्रीवीरस्थाष्टमे भवे विप्रभेदे, श्रीवीरस्थाष्टमे च जिनेन / कथं?, नाम्ना च हे अग्निभूते ! गोत्रेण च हे गौतमसगोत्र ! भवे, चैत्यसन्निवेशे च / पष्टिलक्षपूर्वायुष्कोऽनिधोतो नाम इति / इत्थं च नामगोत्राभ्यां संलपितस्य तस्य चिन्ताऽभूत् / अहो ! विप्रस्त्रिदण्डीभूत्वा मृतः। कल्प०। आ०चू०। नामापि मम विजानाति, अथवा जग-प्रसिद्धोऽहं, कः किल मां न अग्गिदत्त-पुं०(अग्निदत्त) भरतक्षेत्रजपार्श्वजिनसमकालजाते वेत्ति ? यदि हि मे हृद्गतं संशयं ज्ञास्यत्यपनेष्यति वा तदा भवेन्मम ऐरवतक्षेत्रजे तीर्थकरे, ति० भद्रबाहोर्द्वितीये शिष्ये, कल्प०। विस्मय इति चिन्तयति तस्मिन् भगवानाहअग्गिदहण-न०(अग्निदहन) वह्नौ शरीरभस्मीकरणलक्षणे किं मन्ने अत्थि कम्म, उयाहु नत्थि ति संसओ तुज्झ / शारीरदण्डे, प्रश्न०१आश्र० द्वा०। वेयपयाण य अत्थं,न याणियो तेसि मो अत्थो / हे अग्निभूते गौतम ! त्वमेतन्मन्यसे चिन्तयसि-यदुत क्रियते अग्गिदेव-पुं०(अग्निदेव) द्वीपसमुद्रविशेषाधिपतौ, द्वी01 मिथ्यात्वादिहेतुसमन्वितेनजीवेनेति कर्म ज्ञानावरणादिकं तत्किमस्ति अग्गिभीरु-पुं०(अग्निभीरु) चण्डप्रद्योतनृपतेः रथरत्ने, आ०क०। न येति ? नत्वयमनुचितस्तव संशयः / अहं हि भवतो अग्गिभूइ-पुं०(अग्निभूति) मन्दरसन्निवेशजाते ब्राह्मणभेदे, श्रीवीरस्य विरुद्धवेदपदनिबन्धनो वर्तते, तेषां च वेदपदानां त्वमर्थं न जानासि, दशमभवे, मन्दरसन्निवेशे षट्पञ्चाशल्लक्षपूर्वायुष्कोऽग्निभूतिनामा तेन संशयं करोषि / तेषां च वेदपदानामयं वक्ष्यमाणलक्षणोऽर्थ इति। ब्राह्मणस्त्रिदण्डीभूत्वा मृतः। कल्प०। आ० चूल आ०म०प्र०। श्रीमतो विशे० / (इति विरुद्धवेदपदानामर्थव्याख्यापुरस्सरमसौ यथा महावीरस्य द्वितीये गणधरे, (अस्याऽऽयुरादिः 'गणहर' शब्दे' ज्ञानावरणादिकं कर्म ग्राहितस्तथा चास्मिन्नेव अभिधानराजेन्द्रः ग्रन्थे नवरमिन्द्रभूतौ प्रव्रजिते) 'कम्म' शब्दे तृतीये भागे 246 पृष्ठे वक्ष्यते) तं पव्वइअंसोउं, बीओ आगच्छई अमरिसेणं। तं च प्रव्रजितं श्रुत्वा, दध्यौ तद्वान्धवोऽपरः। वचामिणं आणेमि, पराजिणित्ता ण तं समणं / / अपि जातु द्रवेदद्रि-हिमानी प्रज्वलेदपि।।१।। तमिन्द्रभूतिं प्रव्रजितं श्रुत्वा द्वितीयोऽग्निभूतिनामा तत्सोदर्य - वह्निः शीतः स्थिरो वायुः, संभवेन्न तु बान्धवः। बन्धुरत्रान्तरेऽमर्षेणाकुलितचेताः समागच्छति भगवत्समीपम् / हारयेदिति पप्रच्छ, लोकानश्रद्दधभृशम् // 2 // केनाभिप्रायेणेत्याह-(वचामिणमिति) व्रजतिणमिति वाक्या-लकारे / ततश्च निश्चये जाते,चिन्तयामास चेतसि। आनयामि निजभ्रातरमिन्द्रभूतिम् / तत इति गम्यते, णेत्ययमपि गत्वा जित्वा च तं धूर्त,वालयामि सहोदरम् / / 3 / / वाक्यालङ्कारे / तं श्रमणमिन्द्रजालिकं कमपि पराजित्येति। सोऽप्येवमागतःशीघ्रं, प्रभुणा भाषितस्तथा। पुनरपि किं चिन्तयन्नसावागत इत्याह - संदेहं तस्य चित्तस्य, व्यक्तीकृत्यावदद्विमुः॥४॥ छलिओ छलाइणा सो, मन्ने माएंदजालिओ वा वि। हे गौतमाग्रिमूते ! कः, संदेहस्तव कर्मणः ? | को जाणइ कह वत्तं, ताहे वट्टमा णी से॥ कथं वा वेदतत्त्वार्थ, विभावयसि न स्फुटम् ? ||5|| दुर्जयस्त्रिभुवनस्यापि मद्भातेन्द्रभूतिः, केवलमहमिदं मन्ये छला-दिना स चायं "पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम्" इत्यादि / तत्र छलितोऽसौ तेन धूर्तेन छलजातिनिग्रहस्थानग्रहणनिपुणेन, येन केनापि इति वाक्यालङ्कारे, यद् भूतमतीतकाले, यच्च भाव्यं भाविकाले, दुष्टेन भ्रामितो मगन्धुरित्यर्थः / अथवा मायेन्द्रजालिकः कोऽपि तत्सर्वमिदं पुरुष एव आत्मैव / एवकारः कर्मेश्वरादिनिषेधार्थः / निश्चितमसौ, येन तस्यापि जगद्गुरोर्मद्भातुर्कीमितं चेतः / तस्मारिक अनेन च वचनेन यन्नरामरतिर्यक् पर्वतपृथिव्यादिकं वस्तु दृश्यते बहुना ? को जानाति तद्वादस्थानकं तयोस्तत्र कथं वृत्तं, मत्परोक्षत्वात्। तत्सर्वमात्मैव। ततः कर्मनिषेधः स्फुट एव। किंच। अमूर्तस्यात्मनो इत ऊर्ध्वं पुनर्मयि तत्र गते (से) तस्य तदिन्द्र मूर्तेन कर्मणाऽनुग्रह उपघातश्च कथं भवति? यथा आकाशस्य जालव्यतिकरभ्रमितमानसस्य खचरनरामरवातवन्दनमात्र-बृहितचेतसः चन्दनादिना मण्डनं, खड्गादिना खण्डनं च न संभवति, तस्मात् श्रमणकस्य (वट्टमाणि त्ति) या काचिद्वार्ता वर्तनी वा भविष्यति, तां कर्म नास्ति इति तव चेतसि वर्तते / परं हे अग्निभूते ! नायमर्थः द्रक्ष्यत्ययं समग्रोऽपिलोक इति। किंच तेन तत्र गच्छता प्रोक्तमित्याह - समर्थः / यत इमानि पदानि पुरुषस्तुतिपराणि / यथा-त्रिविधानि सो पक्खंतरमेगं, पिजाइ जइ मे तओ मि तस्सेव। वेदपदानि कानिचिद्विधिप्रतिपादकानि। यथा-"वंगकामोऽग्निहोत्रं सीसत्तं होज्ज गओ, तत्तो पत्तो जिणसगासे // जुहुयात्" इत्यादीनि / कानिचिदनुवादपराणि / यथा-"द्वादश मासाः संवत्सरः" इत्यादीनि / कानिचित् स्तुतिपराणि / यथाको जानातितावदिन्द्रभूतिस्तेन कथमपि तत्र निर्जितोन। किंतु एकमपि "इदं पुरुष एव" इत्यादीनि / ततोऽनेन पुरुषस्य महिमा प्रतीयते, पक्षान्तरं पक्षविशेष मेसयदियात्यवबुध्यते, मद्विहितस्य सहेतूदाहरणस्य न तु कर्माद्यभावः / यथा 'जले विष्णुः स्थले विष्णुर्विष्णुः पक्षविशेषस्य स यद्युत्तरप्रदानेन कथमपि पारं गच्छतीति हृदयम्। ततः, पर्वतमस्तके / सर्वभूतमयो विष्णुस्तस्माद्विष्णुमयं जगत् // 1|| मीति वाक्यालङ्कारे / तस्यैव श्रमणस्य शिष्यत्वेन गतोऽहं भवेयमिति अनेन हि वाक्येन विष्णोर्महिमा प्रतीयते, न त्वन्यवस्तूनामभावः। निश्चयः। तत इत्यादिवाग्गर्जितं कृत्वा जिनस्य श्रीमन्महावीरस्यान्तिकं किं च, अमूर्तस्यात्मनो मूर्तेन कर्मणा कथमनुग्रहोपधातौ ? प्राप्त इति / ततः किमित्याह तदप्ययुक्तम्, यदमूर्तस्यापि ज्ञानस्य मद्यादिनोपघातो ब्राह्मया Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्गिभूइ 177 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अग्निहोत्त द्यौषधेन चानुग्रहो दृष्ट एव। किंच -कर्म विना एकः सुखी, अन्यो दुःखी, एकः प्रभुः, अन्यः किडर इत्यादि प्रत्यक्षं जगद्वैचित्र्यं कथं नाम संभवतीति श्रुत्वा गतसंशयः प्रव्रजितः। इति द्वितीयो गणधरः / कल्प० / आ०म०प्र०ा (अन्यद् ‘गणहर' शब्दे द्रष्टव्यम्) पावकविभूत्यां, वीर्ये च / स्त्री०।६ब०। वह्निसम्भवे, त्रि०ा वाचन अग्गिमाणव-पुं०(अग्निमानव) दाक्षिणात्यानामग्निकुमाराणामिन्द्रे, स्था०२ ठा०३ उ० / भ० / (अग्रमहिषीलोकपालादयश्चास्य 'अग्गमहिसीलोगपालादि' शब्देषु निरूपिताः) अग्गिमाली-स्त्री०(अग्निमाली) रतिकरपर्वतस्योत्तरेण स्थितायां शक्राग्रमहिष्याम् / द्वी०। अग्गिमित्ता-स्त्री०(अग्निमित्रा) पोलासनगरवास्तव्यस्याजीविकमतोपासकस्येभ्यकुम्भकारस्य सद्दालपुत्रस्य भार्यायाम् , उपा०७ अग('सद्दालपुत्त' शब्देऽस्या वक्तव्यता) अग्गिमेह-पुं०(अग्निमेघ) अग्रिवद्दाहकारिजले मेघे, भ०७ श० ६उ०। अग्गिय-पुं०(अग्निक) भस्मकाभिधाने वायुविकारे, विपा०१ श्रु० 1 अ०। इन्द्रदत्तेन राज्ञा स्वमन्त्रिसुतायामुत्पादितस्य सुरेन्द्रदत्तस्य दास्यां जाते पुत्रे, ('मणुस्स' शब्दे चैतविवृतिः) आ०चू०१ अ०) आक०। वत्सगोत्रावान्तर्गतगोत्रे, स्था०७ ठा०। अम्मिलिय-पुं०(अग्रिम) अग्रे भवः / अग्र-डिमच् / ज्येष्ठभ्रात्तरि, श्रेष्ठ, वाच०। "अग्गिलिया पच्छिलिया सेसं साहूण पाउग्गं" / प०व० २द्वा०॥ अग्गिल्लय-पुं०(अग्नि) पञ्चपञ्चाशत्तमे महाग हे, सू० प्र० 20 पाहु०। चं०प्र०।"दो अगिल्ला'| स्था०२ ठा०। उ०। अम्गिवेस-पुं०(अग्निवेश) लोकप्रसिद्ध ऋषिभेदे, नं०1 *अग्निवेश्म-पुं० पक्षस्य चतुर्दशे दिने, जं०१ वक्ष कल्प०। जो०) दिवसस्य द्वाविंशतितमे मुहूर्ते, चं०प्र०१०पाहु०। अम्गिवेसायण-पुं०(अग्निवेश्यायन) अग्निवेशस्यापत्यमग्निवेश्यः / गर्गादेर्यमिति यप्रत्ययः / तस्याऽपत्यमग्निवेश्यायनः / अग्निवेशर्षिषौत्रे,नं० / तद् गोत्रजाते च / यथा- सुधर्मा गणधरः / आ०म०द्वि० कल्पा गोशालस्य मालिपुत्रस्य पञ्चमे दिक्चरे, भ० 15 श०१ उ० / द्वाविंशे दिवसमुहूर्ते, स०३० सम०॥ अग्गिसक्कार-पुं०(अग्निसंस्कार) अग्निना संस्कारो मन्त्रपूर्वकदाहः / विधानेन अग्निकृतदाहे, वाच० "झावणया अग्गिसक्कारो" ध्यापना नामाग्निसंस्कारः, स च भगवत ऋषभस्य निर्वाणप्राप्तस्याऽन्येषां च साधूनामिक्ष्वाकूनामितरेषां च प्रथमं त्रिदशैः कृतः पश्चाल्लोकेऽपि संजातः। आ०म०द्वि०॥ अमिसप्पमा-स्त्री०(अग्निसप्रभा) अवसर्पिण्यां द्वादशतीर्थ-करस्य वासुपूज्यस्य दीक्षासमय उपयुक्तशिविकायाम्, स०। अग्गिसम्म(ण)-पुं०(अग्निशर्मन्) तीव्र को पान्विते ऋषिभेदे, वाच०। यमुपहसता गुणसेनेन नवभवानुषति वैरं वर्द्धितम् / स्वनामख्याते ब्राह्मणभेदे, आचा० 1 श्रु०३ अ०२ उ०। (अस्य कथानकं 'सीओसणिज्ज' शब्दे द्रष्टव्यम्) अम्गिसाहिय-त्रि०(अग्निसाधिक) अग्नेयभाक्त्वेन साधारणे, यथाहिरण्णेय सुवण्णेय जावसावइज्जे अम्गिसाहिए चोरसा-हिए रायसाहिए मचुसाहिए, इत्यादि / भ०६ श०३३ उ०। ज्ञा०॥ अग्गिसिह-पुं०(अग्निशिख) अग्रेरिव अग्निरिव वा शिखा यस्य / ककु मवृक्षे, कुसुम्भवृक्षे च / वाच01 अवसर्पिण्याः सप्तमदत्तनामकवासुदेवनन्दननामकबलदेवयोः पित्तरि, ति० स०ा आव०॥ औत्तराणामग्निकुमाराणामिन्द्रे, स्था०२ ठा०।ज्वलनशिखनाम्नो राज्ञो मित्रे च / उत्त०१३ अ० / अग्नितुल्यजटावति, त्रि० / अग्निशिखेव शिखाग्रमस्य लाङ्गलिकावृक्षे, स्त्री० / अग्नि-तुल्याग्रभागे, त्रिका स्वर्णे, कुसुम्भपुष्पे च / न०।६त०। अग्निज्वालायाम्, स्त्री०ावाचा स्था०| अग्गिसिहाचारण-पुं०(अग्निशिखाचारण) अग्निशिखामुपादाय तेजस्कायिकानविराधयत्सु स्वयमदह्यमानेषु पादत्रिहारनिपुणेषु चारणभेदेषु, प्रव०६८ द्वा०। अग्गिसेण-पुं०(अग्निषेण) वर्तमानायामवसर्पिण्यां भरतक्षेत्रजसम्भवजिनसमकालिकैरवतजे तीर्थकरे। भरहे यसंभवजिणो, ऐरवए अग्गिसेणजिनचंदो / ति० / भारतजारिष्टनेमिसम-कालिकैरवतजे तीर्थकरे च / भरहे अरिट्ठणेमिं, ऐरवए अग्गि- सेणजिण चंदो। ति०। प्रव०। अग्गिहोत्त-न०(अग्निहोत्र) अग्नये हूयतेऽत्र / हु-त्र / 4 त० / मन्त्रकरणवह्निस्थापनानन्तरं तदुद्देश्यकहोमे, वाचवा तत्स्वरूपं चसमये वर्णिताद् लौकिकप्रतिदिनकृत्यादयगन्तव्यम् / यथा- सिव शब्दे शिवराजर्षिचरित्रौपाख्याने वर्णितम् / तच नित्यं काम्यं च यावज्जीवमग्निहोत्रं जुहोति / वाच०। जरामर्थ्य वा एतत्सर्वं यदग्निहोत्रं, तज्जरामर्य्यमेव, यावज्जीवं कर्त्तव्यमिति।आ०म०द्विका विशे० श्रुत्याम्। 'नित्यस्य उपसद्भिश्चरित्या मासमेकमग्निहोत्रं जुहोतीति' श्रुत्यां च, काम्यस्य विधानमुक्तम् / वाच०। एतचाकिञ्चित्करमिति सिद्धान्ते दर्शितम् - हुएण एगे पवयंति मोक्खं / / 12 / / एके तापसब्राह्मणादयो हुतेन मोक्ष प्रतिपादयन्ति / ये किल स्वर्गादिफलमनाशस्य समिधा घृतादिभिर्हव्यविशेषैर्हताशनं तर्पयन्ति, ते मोक्षायाग्निहोत्रं जुह्वति, शेषास्त्वभ्युदयायेति! युक्तिं चात्र त आहुःयथा ह्यग्निः सुवर्णादीनां मलं दहत्येवं दहनसामर्थ्यदर्शनादात्मनोऽप्यान्तरं पापमिति। इतिपूर्वपक्षमुद्भाव्य - हुतेण जे सिद्धिमुदाहरंति सायं च पायं अगणिं फुसंता। एवं सिया सिद्धि हवेज तम्हा अगिं फुसंताण कुकम्मिषं पि॥१८॥ "अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः' इत्यस्माद्वाक्याद् ये केचन मूढा हुतेनाऽनौ हव्यप्रक्षेपेण सिद्धिं सुगतिगमनादिकां स्वर्गायाप्तिलक्षणामुदाहरन्ति प्रतिपादयन्ति / कथभूताः, सायमपराण्हे विकाले वा, प्रातः प्रत्यूषे वाऽग्निं स्पृशन्तो यथेष्टैर्ह - व्यैरग्निं तर्पयन्तस्तत एव यथेष्टगतिमभिलषन्ति / आहुश्चैवं ते, यथा- अग्निकार्यात्स्यादेव सिद्धिरिति / तत्र च यद्येवमग्निस्पर्शेन सिद्धिर्भवेत्, ततस्तस्मादग्निं स्पृशतां कुकर्मिणामनारदाहककुम्भकारायस्कारादीनां सिद्धिः स्यात् / यदपि च मन्त्रपूतादिकं तैरुदाहियते, तदपिच निरन्तराःसुहृदः प्रत्येष्यन्ति, यतः कुकर्मिणामप्यग्निकार्ये भस्मापादनमग्निहोत्रिकादीनामपि भस्मसात्करणमिति नातिरिच्यते कुकर्मिभ्योऽग्निहोत्रादिकं कर्मेति / यदप्युच्यते-अग्निमुखा वै देवाः, एतदपि आहो जुहुयात् सिविं सून कथभूतान यथई - Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्निहोत्त 178 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अग्निहोत्त युक्तिविक लत्वाद् वाङ्मात्रमेव ! विष्ठादिभक्षणेन चाग्नेस्तेषां ___ सद्भावनाऽऽहुतिः। धर्मध्यानाग्निना कार्या, दीक्षितेनाग्निकारिका' // 1 // बहुतरदोषोत्पत्ते रिति / सूत्र०१ श्रु०७ अ०। यदप्यभिहितम् - इत्यादिरूपा परिगृह्यते / तदेव मुखं प्रधानं येषां तेऽग्निहोत्रमुखा वेदाः। देवताऽतिथिपितृप्रीतिसंपादकत्वाद् वेदविहिता हिंसा न दोषाय वेदानां हि दध्यादेरिव नवनीतादि आरण्यकमेव प्रधानम् / उक्तं हिइति / तदपि वितथम् / यतो देवानां संकल्पमात्रोपनतामिमता- "नवनीतं यथा दध्र-श्चन्दनं मलयादिव / औषधेभ्योऽमृतं यद द् हारपुद्गलरसास्वादसुहितानां वैक्रियशरीरत्वाद् युष्मदावर्जित- वेदेष्यारण्यक तथा" ||1|| तत्र च दशप्रकार एव धर्म उक्तः। तथा च जुगुप्सितपशुमांसाद्याहुतिप्रतिगृहीताविच्छैव दुःसंभवा, औदा- तद्वचः-"सत्यं तपः संतोषः संयमश्चारित्रमार्जवं क्षमा धृतिः श्रद्धा रिकशरीरिणामेव तदुपादानयोग्यत्वात् / प्रक्षेपाहारस्वीकारे च देवानां अहिंसेत्ये- तद्दशविधमिह धामेति' / तत्र च धामशब्देन धर्म एव मन्त्रमयदेहत्वाभ्युपगमबाधः / न च तेषां मन्त्रमयदेहत्यं भवत्पक्षे न विवक्षितः। एतदनुसारि चोक्तरूपमेवाग्निहोत्रमिति। उत्त०२५ अ०। सिद्धम्।"चतुर्थ्यन्तं पदमेव देवता'' इति जैमिनिवचन-प्रामाण्यात् / एतदेव प्रपञ्चितं हारिभद्राष्टके - तथा च मृगेन्द्रः - "शब्देतरत्वे युगपद्भिन्नदेशेषु-यष्टषु / न सा प्रयाति कर्मेन्धनं समाश्रित्य, दृढा सद्भावनाऽऽहुतिः। सान्निध्यं, मूर्त्तत्वादस्मदादिवत्"||१|| इति / सेति देवता / हूयमानस्य धर्मध्यानाग्निना कार्या, दीक्षितेनाग्निकारिका ||1|| च वस्तुनो भस्मीभावमात्रोपलम्भात् तदुपभोगजनिता देवतानां प्रीतिः कर्म ज्ञानावरणादिकं मूलप्रकृत्यपेक्षयाऽष्टप्रकार, तदेव दाह्यप्रलापमात्रम् / अपिचा योऽयं त्रेताऽग्निः स त्रय-स्त्रिंशत्कोटिदेवतानां त्यादपनेयत्वादिन्धनमिवेन्धनं कर्मन्धनं तत्समाश्रित्याङ्गीकृमुखम्, "अग्निमुखा वै देवाः" इति श्रुतेः। ततश्चोत्तममध्यमाध त्याग्निकारिका कार्येति योगः / किंविधा ?. दृढा कर्मेन्धनदाह प्रति मदेवानामेकेनैवमुखेन भुञ्जानानाम-न्योन्योच्छिष्टभुक्तिप्रसङ्गः। तथाच प्रत्यला / तथा सद्भावना शुभरूपा या जीवस्य वासना सेवाते तुरुष्केभ्योऽप्यतिरिच्यन्ते / तेऽपि तावदेकत्रैवामत्रे भुञ्जते, न हुतिघृतादिप्रक्षेपलक्षणा यस्यां सा तथा / केन करणभूतेनेत्याहपुनरेकेनैव वदनेन / किंच / एकस्मिन् वपुषि वदनबाहुल्यं क्वचन श्रूयते, धर्मध्यानाग्निना धर्मध्यानमुपलक्षणत्याच्छु क्लध्यानं तचाग्नियत् पुनरने कशरीरेष्वेकं मुखमिति महदाश्चर्यम् / सर्वेषां च रिवाग्निधर्मध्यानं च तदग्निश्च धर्मध्यानाग्निस्तेन कार्या विधेया। केनेत्याहदेवानामे कस्मिन्नेव मुखेऽङ्गीकृते यदा के नचिदेको देवः दीक्षितेन प्रव्रजितेन / काऽसौ ? अनिकारिका अग्निकर्मेति / इत्थं पूजादिनाऽऽराद्धोऽन्यश्च निन्दादिना विराद्धस्ततश्चैके नैव मुखेन चैतदङ्गीकर्त्तव्यम् - दीक्षितस्य द्रव्याग्निकारिका अनुचिता, तस्या युगपदनुग्रहनिग्रहवाक्योचारणसंकरः प्रसज्यते। अन्यच। मुखं देहस्य भूतोपमर्दरूपत्वात्, तस्य च तन्निवृत्तत्वेन तत्रानधिकारित्वात्। नवमो भागस्तदपि येषां दाहात्मकं तेषामे कैकशः सकलदेहस्य अधिकारिवशाच धर्मसाधनसंस्थितिरिति प्रागुक्तम्। गृहस्थस्य तु सर्वथा दाहात्मकत्वं त्रिभुवनभवनभस्मीकरण-पर्यवसितमेव संभाव्यते, भूतोपमर्दानिवृत्तत्वेनाधिकारित्वात् तांकरोत्यपि / अत एव इत्यलमतिचर्चया / यश्च कारीरीयज्ञादौ वृष्ट्यादिफलाव्यभिचा धूपदहनदीपप्रबोधादिना प्रकारेण द्रव्या-निकारिकामपि रस्तत्प्रीणितदेवताऽनुग्रहहेतुक उक्तः / सोऽप्यनैकान्तिकः / क्वचिद् कुर्वन्त्यार्हतगृहस्था इति / अनेन श्लोके नेदमुक्तं भवति- यदि हे व्यभिचारस्यापि दर्शनात् / यत्रापि न व्यभिचारस्तत्रापि न कुतीर्थिकाः ! यूयं दीक्षितास्तदा कर्मलक्षणाः समिधः कृत्वा तदाहिताहुतिभोजनजन्मा तदनुग्रहः, किंतुस देवताविशेषोऽतिशयज्ञानी धर्मध्यानलक्षणमग्निं प्रज्वाल्य सद्भावनाहुतिप्रक्षेपतो-ऽग्निकारिका स्वोद्देशनिवर्तितं पूजोपचारं यदा स्वस्थानावस्थितः सन् जानीते, तदा कार्या, न त्वन्या / तस्या दीक्षितानामनुचितत्वात् / यदि तु हन्त ! तत्करिं प्रति प्रसन्नचेतोवृत्तिस्तत्तत्कार्याणीच्छावशात्साधयति / अनुपयोगादिनापुनरजानानो जानानोऽपिवा पूजाकर्तुरभाग्यसहकृतः गृहस्थास्तत्तुल्या वा, ततः कुरुध्वं द्रव्याग्निकारिका-मिति / / 1 / / सन्न साधयति, द्रव्यक्षेत्रकालभावादिसहकारिसाचिव्यापेक्षस्यैव अथ ध्यानाग्निकारिकैव कार्या दीक्षितेनेति परसिकार्योत्पादस्योपलम्भात् / स च पूजोपचारः पशुविशसनव्यतिरिक्तैः द्धान्तेनैव प्रसाधयन्नाहप्रकारान्तरैरपि सुकरः, तत्किमनया पापैकफलया शौनिकवृत्त्या ? यच दीक्षा मोक्षार्थमाख्याता, ज्ञानध्यानफलं स च / छाल-जाङ्गलहोमात् परराष्ट्रवशीकृतिसिद्ध्या देव्याः परितोषानुमानम् / शास्त्र उक्तो यतः सूत्रं, शिवधर्मोत्तरे ह्यदः // 2 // तत्र कः किमाह ? कासांचित् क्षुद्रदेवतानां तथैव प्रत्यङ्गीकारात्। केवलं दीक्षा प्रव्रज्या, मोक्षार्थ सकलकर्मनिमुक्ति निमित्तमाख्याता तत्रापि तद्वस्तुदर्शनज्ञानादिनैव परितोषो, न पुनस्तद्भुक्त्या / तत्स्वरूपहर्निगदिता / यत एवं ततस्तां प्रतिपन्नेन मोक्षसाधनिम्बपत्रकटुतै लाऽऽरनालधूमादीनां हूयमानद्रव्याणामपि तद्- कमेवानुष्ठानमाश्रयणीयं, न पुनद्रव्याग्निकारिकेति हृदयम् / द्रव्याभोज्यत्वप्रसङ्गात् / परमार्थतस्तु तत्तत्सहकारिसमवधान- निकारिकै व साधनं मोक्षस्येत्याशङ्कय निराकरणायाहसचिवाराधकानां भक्तिरेव तत्तत्फलं जनयति, अचेतने चिन्तामण्यादौ (ज्ञानध्यानफलं सचेति) स पुनर्मोक्षो विज्ञप्तिशुभैकाग्रत्वयोः साध्यो तथा दर्शनात् / स्या०११ श्लो०। ननु "न वि जाणसि वेयमुहं न वि वर्तते, न पुनर्द्रव्याग्निकारिकाया इति भावना / कथमिदमवसितं जन्नाण जं मुहं ति" जयघोषेण पृष्टो विजयघोषोऽशक्त उत्तरदाने "वेयाणं प्रत्यक्षाद्यगोचरत्वात्तस्येति चेदत आह- शास्त्र उक्तः आगमे च मुहं बूहि, बूहि, जण्णाण जं मुहं ति" जयघोषमेवं जिज्ञासमानः ज्ञानध्यानफलतयाऽभिहित इत्यर्थः / यद्यपि हि प्रत्य "अग्निहोत्तमुहा वेया जण्णट्ठी वेयसां मुहं' / इति तथ्य-मुत्तरमवाप्तो क्षानुमानयोरसावतीन्द्रियत्वेनागोचरस्तथाऽप्यागमाभिहितत्यात विजयघोषः प्रवद्राज / उत्त० 25 अ० / इत्यग्निहोत्रस्य सिद्धान्तेऽपि ज्ञानफलतयाऽसौ प्रतिपत्तव्यः ! आगमश्च प्रमाणतया सर्वमोक्षकर्तव्यत्वमभ्युपगतं कथं दूष्यते ? सत्यम् / न तत्र प्राणिवधप्रधानं वादिभिरभ्युपगत एव / यद्यपि च बौद्धैः स तथा नेष्यते, तथापि द्रव्याग्निहोत्रं गृह्यते, किं तर्हि ध्यानाग्निहोत्रम् / तथाच तट्टीका- संशयविशेषनिबन्धनतया प्रवृत्तिनिवृत्तिहेतुत्वात् तैः कथंचिअग्निहोत्रमग्निकारिका, सा चेह 'कर्मेन्धनं समाश्रित्य, दृढ! दभ्युपगत एवेति / अथ कथमवसितमिदं यदुत शास्त्रे ऽसौ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्निहोत्त 179 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अग्निहोत्त तत्फलतयाऽभिहित इत्याशच्याह-यतो यस्मात्कारणात् सूत्रमर्थसूचकं वाक्यं शिवधर्मोत्तरे शिवधर्माभिधाने पराभिमते शैवागमविशेषे, हिरिति वाक्यालंकारे / अद एतद्वक्ष्यमाणमिति / अतो भवदभ्युपगतशास्त्र मोक्षस्य ज्ञानादिफलतयोक्तत्वान्न मोक्षार्थिना दीक्षितेनानधिकृता द्रव्याग्निकारिका कार्येति भावार्थ इति // 2 // तदेव सूत्रं दर्शयन्नाहपूजया विपुलं राज्यमग्निकार्येण संपदः / तपः पापविशुद्ध्यर्थं ज्ञानं ध्यानं च मुक्तिदम्॥३॥ पूजया देवतायाः पुष्पाद्यर्चनलक्षणया, न तु तदन्यया, तदन्यस्यास्तपोज्ञानरूपत्वेन पापविशुद्धिमोक्षयोरेव संपादकत्वाद् / विपुलं विस्तीर्ण राज्यं राजभावो भवति, तत्कारकस्येति गम्यते / तथा अग्निकार्येण अग्नावग्निना वा कार्य कृत्यमग्निकार्यम्, तेन द्रव्याऽग्निकारिकयेत्यर्थः, न भावाग्निकारिकया, तस्या ध्यानरूपत्वेन मुक्तिसाधकत्वात् / संपदः समृद्धयो भवन्तीति गम्यम् / तथा तपोऽनशनादि, पापविशुद्ध्यर्थमशुभकर्मक्षयाय भवति / तथा ज्ञानमयबोधविशेषः, ध्यानं च शुभचित्तैकाग्रतालक्षणम् , च शब्दः समुचये, मुक्तिदं मोक्षप्रदं भवतीति शिवधर्मोत्तरग्रन्थसूत्रार्थ इति // 3 // एवं तावत् पराभ्युपगमेनैव द्रव्याग्निकारिकाकरणं दीक्षितस्य दूषितम्, अथतस्यैव पूजा पुनरग्निकारिकां च प्रकारान्तरेण दूषयन्नाहपापं च राज्यसंपत्सु, संभवत्यनघं ततः। नतद्धत्वोरुपादान-मिति सम्यग् विचिन्त्यताम्॥४॥ न केवलं मुमुक्षोरग्निकारिकाकरणमपार्थकम् , पापं चाशुभं कर्म च, राज्यसंपत्सुनरपतित्वसमृद्धिषु पूजाग्निकारिकाकरणानन्तरं फलभूतासु सतीषु, संभवति संजायते / यत एवं ततस्तस्मादनघं निरवद्यं ते नैव भवति, तद्धत्वोः राज्यसंपत्कारणयोः पूजाग्नि-कारिकारूपयोरुपादानमाश्रयणमिति / एतदनन्तरं पूजाग्निका-रिकयोरुपादानस्य सपापत्वं सम्यक् स्वसिद्धान्ताविरोधेन विचिन्त्यतां पर्यालोच्यतामिति / सुपर्यालोचितकारिणो हि भवन्ति मुमुक्षव इति // 4|| राज्य संपत्सु पापं भवतीत्युक्तं तदेवाश्रित्याक्षेपः क्रियते, ननु राज्य संपदावे भवतु नाम पापम् , दानादिना तु तस्य शुद्धिर्भविष्यतीत्याशङ्कयाहविशुद्धिश्चास्य तपसा, न तु दानादिनैव यत्। तदियं नान्यथा युक्ता, तथा चोक्तं महात्मना / / 5 / / विशोधनं विशुद्धिः, सा पुनरस्य राज्यादिजन्यपापस्य तपसा, अवधारणस्येह संबन्धात्तपसैव अनशनादिनैव, तपः पापविशुद्ध्यर्थमिति वचनात्, न तु दानादिना, नपुन नहोमादिना, दानेन भोगानाप्नोतीतिवचनात्।तत् कथं दीक्षितस्य पूजाग्निका-रिके युक्ते? इति / इह च द्रव्याग्निकारिकाया एव मुख्यं दूषणं, पूजायास्तु प्रासनिकमित्यग्निकारिकाया एव निगमनमाह-(तदियं नान्यथा युक्तेति) यस्मात् मुमुक्षोर्व्यर्थयं पापसाधनसंपद्धे तुभूता च, तत्तस्मादियमग्निकारिका, नैव, अन्यथा धर्मध्यानाग्निकारिकायाः प्रकारान्तरापन्ना, द्रव्याग्निकारिकेत्यर्थः, युक्ता संगतेति / विशोधनार्हपापसंपादकसंपन्निमित्तत्वेनद्रव्याग्निकारिकाया अकरणीयत्वं व्यासस्यापिन्यायतः संमतमिति दर्शयन्नाह- तथा चोक्तं महात्मनेति। तथा च यथाऽस्मदुक्तार्थसंवादो भवति, तथैव उक्तमभिहितं, महात्मना परमस्वभावेन, व्यासेनेति शेषः / इह च यन्मिथ्यादृष्टरपि व्यासस्य महात्मत्वाभिधानमाचार्येण कृतं, तत्परसंमतानुकरणमात्रमात्मनो माध्यस्थ्याविष्करणार्थमिति न दुष्टम् / संमतश्च परस्य माहात्म्यतया व्यासः। अत एव च तद्वचनं स्वपक्षेपरप्रीतिजननायोपन्यस्तमिति / / 5 / / तदेवाहधर्मार्थ यस्य वित्तेहा, तस्यानीहा गरीयसी। प्रक्षालनाद्धि पङ्कस्य, दूरादस्पर्शनं वरम्॥६॥ धर्मार्थ धर्मनिमित्तं, यस्य पुंसः, वित्तेहा द्रव्योपार्जनचेष्टा कृषिवाणिज्यादिका, तस्यपुरुषस्य, अनीहाअचेष्टा वित्तानु-पार्जनमेव, गरीयसी श्रेयसितरा, सङ्गततरेत्यर्थः / अयमभिप्रायः-वित्तार्थ चेष्टायामवश्यं पापं भवति, तचोपार्जितवित्तवितरणेनाऽवश्यं शोधनीयं भवति। एवं च वित्तार्थमचेष्टेच वरतरा, वित्तवितरणविशोध्यपापाभावात्, परिग्रहारम्भवर्जनात्मकत्वेन चेष्टाया एव च धर्मत्वादिति / अत्रार्थे दृष्टान्तमाह- प्रक्षालनाद् धावनात् सकाशाद् हिर्यस्मात् , पतस्याशुचिरूपकर्दमस्य दूराद् विप्रकर्षादस्पर्शनमश्लेषणमेव, वरं प्रधानमिति / इदमुक्तं भवति-यदि पड़े करचरणादिरवयवः क्षिप्त्वाऽपि प्रक्षालनीयस्तदा वरमक्षिप्त एव, एवं यद्यग्निकारिकां विधाय संपद उपार्जनीयाः तज्जन्यपातकं च पुनर्दानेन शोधनीयं, तदा सैवाग्निकारिका वरमकृतेति / प्रयोगश्चेह-न विधेया मुमुक्षुणा द्रव्याग्निकारिका, तत्संपाद्यस्य कर्मपङ्कस्य पुनःशोधनीयत्वात्, पादादेः पङ्कक्षेपवदिति। एवं तर्हि गृहस्थेनापि पूजादि न कार्य स्यात्, नैवम्,यतो जैनगृहस्था न राज्यादिनिमित्तं पूजां कुर्वन्ति / न च राज्याद्यावर्जित-मवद्यं दानेन शोधयिष्याम इति मन्यन्ते, मोक्षार्थमेव तेषां पूजादौ प्रवृत्तेः। मोक्षार्थितया च विहितस्यागमानुसारिणो वीतरागपूजा-देर्मोक्ष एव मुख्यं फलम् , राज्यादि तु प्रासङ्गिकम् / ततो गृहिणः पूजादिकं नाविधेयम् , दीक्षितेतरयोश्च अनुष्ठानस्यानन्तर्यपारंपर्यकृत एव फले विशेष इति // 6 // दीक्षितस्यापि संपदर्थित्वे सति युक्ता द्रव्याग्निका रिकेत्याशङ्कानिराकरणायाह - मोक्षाध्वसेवया चैताः, प्रायः शुभतरा भुवि / जायन्ते ह्यनपायिन्यः,इयं सच्छास्त्रसंस्थितिः // 7 // मोक्षो निर्वाणम्, तस्याध्वा मार्गः सम्यग्दर्शनज्ञानचरणलक्षण-स्तस्य से याऽनुष्ठानं मोक्षाध्वसेवा, तया, चशब्दः पुनःशब्दार्थः / ततश्चाग्निकारिकायाः कार्यभूताः संपदः पापहेतुतया अशुभाः, मोक्षाध्यसेवया पुनः शुभतरा भवन्तीत्यर्थो लभ्यते / अवधारणार्थो वा चशब्दः / तेन मोक्षाध्वसेवयैव, नाग्निकारिकाकरणत एता अनन्तरोदिता अग्निकारिकाफलभूताः संपदः, प्रायो बाहुल्येन। प्रायोग्रहणं च कस्यापि मोक्षाध्वसेवाभव एव निर्वाणभावान्नजायन्त एवेतिज्ञापनार्थम्। शुभतरा अग्निकारिकाकरणेभ्यः सकाशात्प्रशस्ततराः। भुवि पृथिव्यां, जायन्ते भवन्ति / हिशब्दो यस्मादर्थः, अनपायिन्यः पापवर्जिताः / यस्मान्मोक्षाध्वसेवया प्रशस्ततराः, अनपायिन्यश्च संपदो जायन्ते, तस्मादियमग्निक्रिया नान्यथा युक्तेति प्रक्रमः / मोक्षाध्वसेवया शुभतरा एता भवन्तीति कथमिदमवसितमित्याशङ्कायामाह-इहेयमनन्तरोदिता सच्छा. वसं स्थितिरविसंवादकागमव्यवस्था, यदाहमोक्षमार्गप्रवृत्तस्य, महाभ्युदयलब्धयः / संजायन्तेऽनुषङ्गेण, पलालं सत्कृषाविव ||1|| मुमुक्षूणां च शास्त्रं प्रमाणमेव / यदाऽऽह- न मानमागमादन्यद, मुमुक्षूणां हि विद्यते। मोक्षामार्गे ततस्तत्र, यतितव्यं मनीषिभिः।।२।। इति // 7 // Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्गिहोत्त 180 - अभिघानराजेन्द्रः - भाग 1 अघाइस अथ परसमयसमाश्रयणेनैव द्रव्याग्निकारिकाकरणं अग्घसिंहा विज्जाइ वा" अर्घादयो मत्स्यकच्छपविशेषाः / जी० निराकुर्वन्नाह 3 प्रति०। इष्टापूर्त न मोक्षाङ्गं, सकामस्योपवर्णितम्। *अर्ह -करणे घञ्, न्यकादित्वात् कुत्वम्। पूजोपचारे दूर्वाक्ष-तादी, अकामस्य पुनर्यो क्ता, सैव न्याय्याऽग्निकारिका ||8|| वाच०। पुष्पादिषु पूजाद्रव्येषु, / ज्ञा०१६ अ०। इज्यते दीयते स्मेतीष्टम्, पूर्यते स्मेति पूर्तम् , इष्टं च पूर्त चेतीष्टा- I *अर्घ्य - त्रि० अर्घाय देयं यत्तदध्यम्। पूजार्थे देयेजलादौ, अर्घद्रव्याणि पूर्तमिति समाहारद्वन्द्रः। छान्दसत्वाचेष्टापूर्तम् / तत् स्वरूपं चेदम् - | च"आपः क्षीरं कुशाग्रं च, दधि सर्पिः सतण्डुलम् / यवः सिद्धार्थकश्चैव गंतु यद्दत्तं, ब्राह्मणानां समक्षतः। ऋत्विग्भिमन्त्र-संस्कारैरिष्टं | अष्टाङ्गोऽर्घः प्रकीर्तितः" ||1|| वाचा तदभिधीयते ||1|| वापीकूपतडागानि, देवतायतनानि च / अग्घाड-(धा०) पूर- पूर्ती , प्रीणने च / दिवा०, आत्म०, सक०, अन्नप्रदानमारामाः, पूर्त तदभिधीयते // 2 // " तदेवमुक्त सेट् / चुरा०, उभ०, सक०, सेट् / वाच० / प्राकृते- पूरेरग्घाडा स्वरूपमिष्टापूर्त्तम् , न नैव, मोक्षाङ्गं मुक्तिकारणम् / इहायमभिप्रायः ऽग्घवोद्धमांगुमाहिरेमाः।। 4 / 166 / इति पूरेरग्धाडादेशः / अग्निकारिका न मोक्षाङ्गमिष्टकर्मरूपत्वात् / तस्या अग्घाडइ, पूर्यते, पूरयति वा। प्रा०। यतोऽन्तर्वद्यामाहुतिप्राधान्येन कर्माणीष्यन्त इति / कुतस्तन्न अग्घाडग-पुं०(आघ्रातक) गुच्छवनस्पतिकायभेदे, प्रज्ञा०१ पद / मोक्षाङ्ग मित्याह- सकामस्याभ्युदयाभिलाषिणः, यस्मात्तदित्येष वाक्यशेषो दृश्यः। उपवर्णितमुपदिष्टम् भवदीयसिद्धान्त एव यतः श्रूयते अग्घाडो- देशी०। अपामार्गे, दे० ना० 1 वर्ग०। "स्वर्गकामो यजेत" इत्यादि श्रुतिवचनम् / तथा इष्टापूर्त मन्यमाना | अग्घाण-(देशी०) / तृप्त्यर्थे, दे० ना०१ वर्ग०। वरिष्ठं, नान्यच्छ्रेयो येऽभिनन्दन्ति मूढाः। नाकस्य पृष्ठे सुकृतेन भूत्वा, अग्घाय-(आघ्राय) अव्य० / नासिकया गन्धं गृहीत्वेत्यर्थः / इमं लोकं हीनतरं वा विशन्ति // 1 // इति / अथा- कामस्य का "सुरभिगंधाणि वा अग्घाय से तत्थ आसाय वडियाए मुच्छिए"। वार्तेत्याशक्याह-अकामस्य स्वर्गपुत्राद्यनाशंसावतोमुमुक्षोः, पुनःशब्दः आचा०२ श्रु०१ अ०८ उ० / आ०म०प्र०॥ पूर्ववाक्यार्थस्य विशेषाभिधायकः / योक्ता कर्मेन्धन-मित्यादिना अग्धायमाण-त्रि०(आजिघ्रत्) उत्सिङ्घति गन्धं नासिकया गृह्णाति, प्रतिपादिता, सैव, नान्या पराभ्युपगता, न्याय्यान्यायादनपेतान्यायश्च ___ "महया गंधद्धणिं मुयंतं अग्घायमाणीओ दोहलं विणिंति"। ज्ञा दर्शित एव। अग्निकारिका- ऽग्निक्रियेति॥८॥ इति चतुर्थाष्टकविवरणम् // __8 अ० आ०म०वि०॥ हा०४ अष्ट०। अग्निहोत्रसम्बन्धित्वाद् हविषि, वहौ च। पुं०। वाच०।। अग्धिय-त्रि०(अर्पित) अर्घ-क्त, अर्घः संजातोऽस्य इतच्वा। बहुमूल्ये, अग्गिहोत्तवाइ(ण)-पुं०(अग्निहोत्रवादिन) अग्निहोत्रादेव "अग्धियं नाम बहुमोल्लं" / नि०यू०२ उ०। स्वर्गगमनमिच्छति, तत्सिद्धये युक्तिवादिनि, "जे अग्निहोत्तवादी अघ-न०(अघ) अघ-भावेऽच्। पापे, याच०। "ब्राह्मणो लिप्यते नाऽधैजलसोयंजे यइच्छंति" इत्यग्निहोत्रवादिनांकुशीलत्वं दर्शितम्। सूत्र०१ र्नियागप्रतिपत्तिमान्"।अष्ट०२८ अष्ट०। कर्तरि अच् / पापकारके, त्रिका श्रु०७ अ01 व्यसने, दुःखे च / न० पूतनाबकाऽका-सुरयोतिरि असुरभेदे, पुं०। अग्गुजाण-न०(अग्रयोद्यान)नगरादेर्बहिः प्रधानोद्याने, "हत्थिसीसे वाचा जस्स णयरस्स बहिया अग्गुज्जाणे सत्थसण्णिवेसं अधण-त्रि०(अघन) न०त० / अदृढे, ओ०। विरले, पिं०। करेति" | ज्ञा०१७ अ०। आ०म०द्विा आ००। अघाइणी-स्त्री०(अघातिनी) ज्ञानदर्शनादिगुणानांमध्ये न किश्चिद्गुणं अग्गेअ-त्रि०(आग्नेय) अप्रेरिदम्, अग्निर्देवताऽस्य वा ढकाअग्निदेवताके हविरादौ, याचा शास्त्रभेदे च। न०। सूत्र०१श्रु०८ अ०॥ घन्तीत्येवंशिला अधातिन्यः। ज्ञानादिगुणानाम-घातनामकरणशीलासु अग्गेई(णी)-स्त्री०(आग्नेयी) अग्निदेवता यस्याः सा आग्नेयी। कर्मप्रकृतिषु, अघातिन्यः प्रकृतयो ज्ञानादिगुणं न घन्ति, केवलं यथा दक्षिणपूर्वस्यां विदिशि, ('दिसा' शब्दे वक्तव्यता)। भ०१ श० स्वयमतस्करस्वभावोऽपि तस्करैः सह वर्तमानस्तस्कर इव दृश्यते, १उ० स्था०। आ०म०द्वि०॥ एवमेता अपि घातिनीभिः सह विद्यमानास्तदोषा इव भवन्ति / यदाहुः अम्गेणीय-न०(अग्रायणीय) चतुर्दशपूर्वाणां मध्ये द्वितीयपूर्वे, (अस्य श्रीशिवशर्मसूरिप्रवराः-"अवसेसा पयडीओ, अघाइयाहिंपलियभागो" विस्तरस्तु 'अग्गाणीय' शब्दे) नं०। स्था०। पलियभागु त्ति / सादृश्यं धातित्वं च प्रकृतीनां रसविशेषाद् विज्ञेयम्। अग्गेत(य)ण-त्रि०(अग्रेतन) अग्रे भवति, अग्रे-टपू / पौरस्त्ये, (ताश्च पञ्चसप्ततिसंख्याका अभिधीयन्ते, इत्यादि 'कम्म' शब्दे तृतीय भागे 265 पृष्ठे प्रतिपादितम्) आ०म०प्र०। अग्गोदय-न०(अग्रोदक) उपरितन उदके, "लवणस्सणं समुद्दस्स सर्टि अघाइरस-पुं०(अघातिरस) ज्ञानादिगुणस्य स्वकार्यसाधनं णागसाहस्सीओ अग्गोदयं धारेंति"अम्गोदयंतिषोडश-सहस्रोच्छ्रिताया प्रत्यसामर्थ्याकारके रसस्पर्द्धकसङ्घाते, पं०सं०३ द्वा०। वेलाया यदुपरि गव्यूतिद्वयमानं वृद्धिहानिस्वभावं, तदग्रोदकम्। जीवा०३ अघातिरसस्वरूपमाहप्रति०। जाण न विसओ धाइ-त्तणम्मि ताणं पिसव्वघाइरसो। अग्ध-राज- धा० दीप्तौ, भ्वादि०,उभ०, अक०, सेट,फणादिः। वाच०। जायइ घाइसगासे-ण चोरया वेव चोरणं // 36 // राजे रग्घ-छ अ-सह-रीर-रेहाः / 8 / 4 / 100 / इति यासां प्रकृतीनां घातित्वमधिकृत्य न कोऽपि विषयो, न किमपि राजेरग्घः / अग्घइ, राजति, राजते / प्रा०। ज्ञानादिगुणं घातयतीत्यर्थः, तासामपि घातिसकाशेन सर्वघाति* अघ-पुं० अर्ह-घञ् / रजतादिद्रव्यरूपे मूल्ये, वाच०। संथा०। प्रकृतिसंपर्कतो जायते सर्वघातिरसः / अत्रैव निदर्शनमाह- यथा आय० / मत्स्यभेदे, "लवणसमुद्दे अस्थि वेलं धरंति वा णागराया स्वयमचौराणां सतां चौरसंपर्कतश्चौरता। पं०स०३ द्वा०। Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधुणित 181 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अचरम अधुणित(य)-त्रि०(अधुणित) धुणैरविद्धे / वृ०१उ०। प्रबलकोपरहिते, प्रश्न०४ आश्र० द्वा०ासासौम्ये, "मा-अचंडालियं अचं(चं) कारियभट्टा-स्त्री०(अचङ्कारितभट्टा) धन्यश्रेष्ठिनो भट्टायां कासी"। उत्त०१ अ०। भार्यायामुत्पादितायामुपायलब्धत्वादतिस्नेहन न के नचिदेषा अचकिरण )-पुं०(अचक्रिन) न चक्री / नञः पर्युदासवाच-कत्वेन चङ्कारयितव्येति स्वनामख्यातायां सुतायाम् / ग०२ __सदृशग्राहकत्वात् सामान्यपार्थिवे, बृ०१ उ०। अधि०। अमानफले अचंकारितभट्टोदाहरणम् / यथा-खिति-पतिट्टियं अचक्किय-त्रि०(अचकित) अत्रासिते, "समुद्दगंभीरसमा दुरा-सया, नगरं। जियसत्तू राया धारिणी देवी। सुबुद्धी सचियो / तत्थय नगरे धणो अचक्किया केणइ दुप्पहंसया"। उत्त०११अ०। नाम सेट्ठी / तस्स भट्टाणाम भारिया। तस्स य घूया भट्टा / सा य अचवक्ख-धा०( दृश्) चाक्षुषज्ञाने, भ्वादि०पर० सक० अनिट् / वाच० / माउपियभाउयाण य उवायलद्धा। मायपितादिय सव्वपरिजणं भणति दृशो निअच्छ-पेच्छाऽवयच्छाऽवयज्झ-वज्ज-सव्वव देक्खोएसा ण य केण वि किंचि चंकारेयव्व त्ति / ताहे लोगेण से कयं णामं अक्खाऽवक्खाऽवअक्ख-पुलोए-पुलए-निआऽवआस-पासाः / अचंकारियभट्टत्ति।साय अतीव रूववती बहुसु वणियकुलेसु वरिज्जति। 8 / 4 / 181 // इत्यादिना सूत्रेणा चक्खादेशः। अवक्खइ, पश्यति / धणो य सेट्ठी भणइ-जो एयं ण चंकारेहिति तस्सेसा दिज्जहिति त्ति, एवं प्रा०। वरगे परिसेहति / अण्णयाए सचिवेण वरिया / धणेण भणियं-जइ ण अचक्खु-न०(अचक्षुष) न० त०। चक्षुर्वर्जशेषेन्द्रियचतुष्टये, मनसि च। किंचि वि अवराह चंकारेहिसि तो तेपयच्छामो। तेणयपडिसुयं / तस्स कर्म०१ कर्म०। जी०।उत्त०। नब्ब०) चक्षुर्दर्शनवर्जिते, कर्म०४ कर्म० / दिण्णा भारिया / सो तं न चंकारेति / सो य अमचे रातीए जामे गए अचक्खुदंसण-न०(अचक्षुर्दर्शन) अचक्षुषा चक्षुर्वर्जेन्द्रिय-चतुष्टयेन रायकजाणि समाणेउं आगच्छति / सा तं दिणे खिंसति-सवेलाए मनसा वा दर्शनं यत्तदचक्षुर्दर्शनम् / स्था०६ ठा० / नागच्छसि त्ति / ततो सवेलाए एतुमण्णत्तो।अण्णयारण्णा चिंताजायाकिमेसो मती सवेलाए गच्छति? रण्णो अण्णेहिं कहियं-एस भारियाए चक्षुर्वर्जशेषेन्द्रियमनोभिः स्वस्वविषयस्यसामान्यग्रहणस्वरूपेदर्शनभेदे, आणाभंग ण करेति त्ति / अण्णया रण्णा भणियं-इमं एरिसं तारिसं च पं०सं०१ द्वा० / कर्म०। स्था०। ("दसण" शब्दे वक्ष्यते सर्वम्) कर्ज सवेलाए तुमे ण गंतव्वं / सो उस्सुयभूतो विरायाणुवत्तीए ठितो। सा अचक्खुदंसणावरण-न०(अचक्षुर्दर्शनावरण) अचक्षुर्दर्शनय रुट्ठा दारं बन्धेउं ठिआ। अमचओ आगओ। उस्सूरोदारमुग्घाडेहि त्ति स्यावरणम् / दर्शनावरणकर्मभेदे, स्था०६ ठा० / बहुभणिये विजाहेण उग्घाडेति, ताहे तेण चिरं अत्थिऊण भणिया-तुमं अचक्खुफास-पुं०(अचक्षुःस्पर्श) अन्धकारे, "पुरओ पवाए पिट्टओ ण चेव सामिणी होज्जासि त्ति / अहो ! मे आलो अंगीकओ, ताहे सा __हथिभयदुहओ अचक्खुफासो मज्झे सरा णिवयंति' / ज्ञा०१ श्रु०१४ अहमालोहि ति भणिया दारमुग्धाडिउं पिउघरं गया, अ०1 सव्वालंकारविभूसिआ अंतरा चोरेहिं गहिया। तीसे सव्वालंकारे घेत्तु | अचक्खुय-त्रि०(अचक्षुष्क) अन्धे,"अचक्खुओवनेयारं, बुद्धिं अण्णेसए चोरेहिं सेणावतिस्स उवणीया। तेण सा भणिया-मम महिला होहि त्ति। | गिरा''। व्य०१ उ०। सोतंबलेण ण जति।सा वितंणेच्छति। ताहे तेण विसा जलूगवेजस्स अचक्खुविसय-पुं०(अचक्षुर्विषय) 6 त०। चक्षुरगोचरे, "अच-क्खू हत्थे विक्किया। तेण विसाभणिया-मम भज्जा भवाहित्ति। तं पिअणिच्छंती विसओ जत्थ, पाणा दुप्पडिलेहया' अचक्षुर्विषयो यत्र, न चक्षुषो तेणावि रूसिएण भणिया-पाणीयातो जलूगा गेण्हहि त्ति। सा अप्पाणं व्यापारो यत्रेत्यर्थः। दश०५ अ०४ उ०। णवणीएण मंखिउंजलमवगाहइ। एवं जलूगाओ गिण्हति / सातं अणणुरूवं अचक्खुस-त्रि०(अचाक्षुष) चक्षुषाऽदृश्ये, प्रश्न०१आश्र० द्वा० / कम्मं करेति, णय सीलभंगइच्छति। सातेण रुहिरसावेण विरूवलावण्णा जाया। इतो य तस्स भाया दूयकिचेण तत्थागओ। तेण सा अणुसरिसि अचक्खुस्स-त्रि०(अचक्षुष्य) द्रष्टुमनिष्ट, बृ०३ उ०। त्ति काउं पुच्छिया। तीए कहियं / तेण दव्वेण मोयाविया। आणिया य अचयंत-त्रि०(अशकुवत्) असमर्थे, "चोइया भिक्खचरिया अचयंता वमणविरेयणेहिं पुण णवसरीराजाया। अमच्चेण पच्छा णियघरमाणिया, जवित्तए"। सूत्र०१ श्रु०३ अ०२ उ०। सव्यसामिणी ठविया / ताहे कोहपुरस्सरस्स माणस्स दोसं दट् ठु अचर-पुं०(अचर) न०तापृथिव्यादिषु स्थावरेषु, दर्श०। चलन-शून्ये, अभिग्गहो गहियो / ण मए कोहो माणो वा कायव्यो / तस्स घरे त्रि०ा ज्योतिषोक्तवृषसिंहवृश्चिककुम्भराशिसंज्ञेषु स्थिर-राशिषु, वाच० / सयसहस्सपागं तेल्लमत्थिातंचसाहुणा वणसरोहणत्थं ओसहमग्गियं। / अचरग-त्रि०(अचरक) अनुपभोक्तरि, "चारिचरकसंजीविन्यतीये दासचेडीआणत्ता-आणेहि त्ति। तीए आणंतीए सहतेल्लणगं भायणं चरकचारणविधानतश्वरमे"। षो०११ विव०। भिण्णं / एवं तिण्णि भायणाणि भिण्णाणि, ण य सा रुट्ठा / तिसु अचर(रि)म-त्रि०(अचरम) न०त० / प्रान्तिममध्यवर्तिनि, सयसहस्सेसु विणढेसु चउत्थवाराए अप्पणा उठेऊण दिण्ण / जइ तीए तचापेक्षिक, तस्य चरमापेक्षाभावात्। यथातथाविधान्यशरीरा-पेक्षया कोहपुरस्सरो मेरुसरिसोभाणो निजिओ। साहूणीहिंसुळुतरं णिहंतव्यो मध्यशरीरमचरमशरीरम् / प्रज्ञा०६ पद०(सर्वेषांचरमाचरमत्वं 'चरम' त्ति / ग०२ अधि०। शब्दे दर्शयिष्यते) घरमभिन्नेषुनारका-दिषु वैमानिकपर्यन्तेषु जीवेषु, ते अचंचल-त्रि०(अचञ्चल) वशीकृतेन्द्रिये, प्रव० 64 द्वा०। 'चंचल' शब्दे हि अचरमाः येषां भव्यत्वे सत्यपि चरमो भवो न भविष्यति, न प्रतिपादयिष्यमाणे चञ्चलविपरीते अनुयोग-श्रवणार्हे, बृ० 130 / / निर्वास्यन्तीत्यर्थः। स्था०२ ठा०२ उ०।"दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ताअचंड-त्रि०(अचण्ड) न०त० / अतीव्रकोपे, तं० / निष्कारण- चरमा चेव अचरमा चेव"। स्था०२ ठा 4 उ०। Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचरम 182 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अचरल अचरिमे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-अणादिए वा अपज्जवसिए, सादिएवा अपज्जवसिए। अचरमो द्विविधः-अनाद्यपर्यवसितः साद्यपर्यवसितश्च / तत्राऽनाद्यपर्यवसितोऽभव्यः, साद्यपर्यवसितः सिद्धः। प्रज्ञा० 19 पद। अचर(रि)मंतपएस-पुं०(अचरमान्तप्रदेश) अचरम एव कस्याप्यपेक्षयाऽनन्तवर्तित्वादन्ते, प्रज्ञा०६ पद / ('चरम' शब्देऽचरमान्तप्रदेशत्वपृच्छा कारिष्यते)। अचर(रि)मसमय-पुं०(अचरमसमय) चरमसमयादन्यस्मिन् यावच्छलेश्यवस्थाचरमसमये, नं०। अचर(रि) मावट्ट-अचरमावर्त्त-चरमपुद्गलपरावर्तादर्वाक् समये, अष्ट०१८ | अष्टा अच(य)ल-त्रि०(अचल) न० त० निष्प्रकम्पे, "अयले भवभेरवाणं' कल्प०1"अणिहे अचले चले अबहिल्लेस्से परिव्यए" नचलतीत्यचलः परीषहोपसर्गवातेरितोऽपि। आचा०१ श्रु०६अ०५ उ०। "अचले जे समाहिए" यद्यप्य- साविङ्गितप्रदेशे स्वतः शरीरमात्रेण चलति, तथाप्यभ्युद्यतमरणात् न चलतीत्यचलः / आचा०१ श्रु०८ अ०८ उ०। "अचले भगवं ! रीइज्जा'' आचा०१श्रुअ०३ उ०। 'अचले जहमंदरे गिरिवरे' अचलो निश्चलः परीषहादिभिः। प्रश्न०५ संव० द्वा०।"सिवनयलमरुयमणंतमक्खयमव्याबाहमपुणरावित्ति सिद्धगइणामधेयं ठाणं संपत्ताणं" अचलम् स्वाभाविकप्रायोगिकचलनक्रियाव्यपोहात्। जी०३ प्रति० / स०ा ल० / भ०ा औ०। स्पन्दनादिवर्जितत्वात् / प्रश्र०४ संव० द्वा०। रा०। ध०। दशार्हाणां षष्ठे दशाहपुरुष, अन्त०१ वर्ग / पूर्वभवे मल्लिनाथजीवस्य महाबलनाम्नो बालवयस्ये, स च तेन सह प्रव्रजितो विपुलं तपः कृत्वाऽनशनेन मृत्वा जयन्तविमाने उपपन्नो देशोनानि 20 सागरोपमाणि स्थितिं परिपाल्यच्युतः प्रतिबुद्धो नामेक्ष्याकुराजो जातः। मल्लिनाथेन च सहप्रव्रज्यां गृहीत्वा सिद्धः / ज्ञा०१श्रु०८ अ०। ('मल्ली' शब्दे चैतद् विस्तरेण) अवसर्पिण्यां प्रथमे बलदेवे, प्रव०२०६ द्वा०। आव० / स०। (स च प्रजापतेर्भद्रानाम्न्यां भार्यायां जातः, तस्य भगिनी मृगावती / तां तस्य पिता प्रजापतिश्चकमे, इति जायात्वेन कल्पयित्वा तस्यां त्रिविष्टपनामानंदशमं वासुदेवं जनयामास। अचलश्व माहिष्मती नाम पुरीं सह मद्राऽऽख्यया मात्रा गतः। इति 'वीर' शब्दे न्यक्षेण दर्शयिष्यते) गृहे, दे० ना०१ वर्ग। तद्वक्तव्यता समासेनपुत्तो पयावतिस्स, मद्दा अयलो वि कुच्छिसंमूओ। गेरुयपडिक्खमहणे, तिविठु अयलो ति दो वि जणा // 72 / / अयलं तिविट्ठ दोन्न वि, संगामे आसि दो वि रायाणं / हंतूण सव्वदाहिण, दाहिणभरहं अइजणं ति // 73 / / उप्पण्णरयण विहवा, कोडिसिलाए बलं तुलेऊणं। अद्धमरहाहिसेयं, अह अयल तिविट्ठुणो पत्ता // 7 // चक्कं सुदरिसणं से, संखो विय एव पंचजण्णनामो त्ति। नंदयनामो आसी, रितुसोणियमंडितो आसी॥७५।। मालाय वेजयंती, विचित्तरयणोवसोहियारंभा। सारिक्खा जा मणियं, घणसमए इंदरायस्स // 76|| सत्तुजणस्स मयकर, मावं दवियारिजीवउच्छावं। जीवानिग्घोसेणं, सत्तू सहसा पडइजस्स।।७७॥ कोस्तुभमणीय दिव्वो, वच्छत्थलभूसणो तिविट्ठस्स। लच्छीए परिगहिओ, रयणुत्तमसारसंगहिओ७८॥ अमरपरिग्गहियाई, सत्त वि रयणाइ अह तिविट्ठस्स। अमरेसु मूसणेसु य, एयाई अजिअपुव्वाइं॥७६ / / वहइ हली वि हलं जो, पणयजिब्भ व तिक्खवइरवउं। पवरं समरमहामड-विठत्तकित्तीण जीवहरं॥५०॥ साणंदं वा णंदिय, आसं पिय सत्तुमुक्कसययदलं। मुसलं से भे महपुर-मंजणकुसलं वइरसारं // 1 // सव्वो उ पंचमालं, कुसमासवलोलछप्पयं विउलं। मणिकुंडलं च वामं, कुबेरघरआमरारामं // 52 // अचलस्स वि अमरपरिग्गहाई एयाइँ पवररयणाई। सत्तूणं अजियाई, समरगुणपहाणगेयाई॥३॥ बद्धमउडाण निचं, रजधुरवहणधोरवसमाणं / मोइनरिंदाभाणं,सोलसरातीसहस्साइं॥४॥ बायालीसं लक्खा, हयाण रहगयवराण पडिपुण्ण / अट्ठयदेवसहस्सा, अमिउग्गा सव्वकज्जेसु॥५॥ अडयालाकोडीओ, पाइक्कमयाण रणसमत्थाणं / सोलसहस्सा उतहा, सजणवयाणं पुरवराणं // 86 // पण्णासं विजाहर-नगराण सजणवयाई रम्माणं। पव्वंतरालवासी, नेगो य फणम्गधरमउडो॥७॥ नेगाई सहस्साई, गामागरनगरपट्टणादीणं / वेयड्डदाहिणेण उ, पुव्वावरअंतरठियाणं // 5 // दुरियानुमाणमहणं, अवसे वसमाणइतु नरवइणो। दाहिणमरहं सयलं, मुंजति तिलाण पडिवक्खा ||86 // सोलससाहस्सीतो नरवइतणयाण रूवकलियाणं / तवेइय चिय जणवइकल्लाणीतो तिविट्ठस्स ||10|| इय बत्तीससहस्सा, चारुपत्तीण ता तिविट्ठस्स। धारिणिपामोक्खाण य, अट्ठसहस्साइअयलस्स ||1|| ऊसियमगरवयाणं, विदिण्णवरछत्तबालवियणाणं। सोलसगणियसहस्सा, वसंतसेणापहाणाणं // 12 // एवं तु मए भणियं,अयलतिविट्ठाण दोण्हवि जणाणं / ति०। अयले बलदेवे, असीई धणूई उड् उच्चत्तेणं होत्था / स० 8 सम०। मनोहरीपुत्रे, (स चापरविदेहे सलिलावती विजये वीतशोकायां नगर्यां जितशत्रोः राज्ञो मनोहरी भार्याया-मुत्पन्नो बलदेवो जातः / पितर्यु परते मातरि प्रव्रज्यां गृहीत्वा मृतायां लान्तके कल्पे देवत्वेनोपपन्नायामटवीं गत्वा साश्वे विभीषणनाम्नि भ्रातरि मृते तत्रैवागत्य तद्रूपं विकुळ देवरूपया मात्रा मिलित उक्तश्चानित्यां मनुजर्द्धि ज्ञात्वा परलोकहितं कुर्यिति / ततः प्रव्रजितो मृत्वा ललिताङ्गको देवो जात इति, एतत् सर्व व्यासेनाऽऽत्मनोऽष्टभवसम्बन्धं प्रारूपयत् श्रेयांसः,इति 'उसभ' Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचल 183 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अचल शब्दे द्वि०भा० 1133 पृष्ठे वक्ष्यति) आ०चू० 1 अ० आ०म० प्र०। निर्भयपुराधीश्वरस्य रामचन्द्रस्य सामन्ते, स च स्वगवेषितकपटयोगिनो वधं दृष्ट्वा संवेगमापद्य प्रव्रजितो मुनीश्वरोजातः। तचरितं चैवम् - भयरहिए निब्भयपुरम्मि पुन्नजणविहियगरुयहरिसो वि। रायासि रामचंदो, सलक्खणो रामचंदु व्व // 11 // तस्स गुरुगउरवपयं, अयलोनामेण अस्थि सामंतो। नयसचसोयसोंडीरयाइगणरयणरयणनिही / / 2 / / कइया वि सो नरिंदो, सभागओ भूरिसारपरिवारों / दुक्खभरसूइगाए, गिराइ पउरेहि इय भणिओ!|३|| देव ! नदीसइ चोरो, न य खत्तो न वि य चरणसंचारो। केण वि तह ति मुसिज्जइ, अदिट्ठरूवेण पुरमेयं // 4|| तं सोउं कुविएणं, भणियं रन्ना अहो सुहडसंघा!। किं को वि तक्करं तं, निग्गहिउं भेसमत्थु त्ति? ||5|| जा किंपिन बिंति भडा, ता अयलो आह देव ! मह देसु / आएसं नणु कित्तिय-मित्तं एसो वराओ त्ति॥६॥ रना सहत्थतंबोलदाणपुव्वं पयंपिओस इमं / तह कुणसुभद्द ! सिग्धं, जहलब्भइ तक्करो एसो।।७।। जइ पक्खंतो चोरं, न लहेमि अहं विसामि तो जलणं। इय काउ पइन्नं सो, विजिग्गओ रायभवणाओ।।८।। परिभमिओपुरमज्झे, सिंघाडगतिगचउक्कमाईसु / लद्धो न को विचोरो, नीहरिओ तयणु नयराओ 18/ करकलियखग्गदंडो, निविडीकयपरियरो दढपइनो। सो रयणिपढमपहरे, पत्तो कुंडाभिहमसाणे / / 10 / / तत्थ अइकडुयकक्खडरडतघूयडकुडुंबदुप्पिच्छे। भल्लुक्कचक्कपरिक्क-पिक्चपिक्कारयेवरुद्दे // 11 // एगत्थ कालवेयालजालसंजणियकिलकिलारावे / अन्नत्थमुक्कपुट्ट-ट्टहासपरिभमियभूयउले॥१२॥ जा अखुहिओ अयलो, अयलो इव जाइ किं पि भूभागं / ता साहगगहणपरं, पिसायमेगं स पिच्छेइ / / 13 / / तं पइ भणइ महायस! साहगपुरिसंहणेसि किं एयं?। आह पिसाओ इमिणा,पसाइओह दिणे सत्त // 14 // संपइ अइछुहिएणं, मए इमो मग्गिओमहामंसं। न तरइ दाउं खुद्दो, ता एवं लहु हणिस्सामि // 15 // पर उवयारपहाणो, अयलो पच्चाह मुंच नरमेयं / तुह देमि महामंसं, अहडियं मन्नइ पिसाओ वि॥१६|| तो छुरियाए छित्तुं, नियमसंस तस्स वियरेइ। असइ पिसाओ वि अहो!, अभुत्तपुव्वं ति जंपंतो॥१७|| उक्कित्तिऊणजह जह, अयलो से देइ मसखंडाई। तह तह दिव्योसहिविहि-कय व्व वुड्डि छुहा जाइ / / 18|| नीसेसमंसवियलं, निए विसयलं कलेवरं अयलो। अह जीवियनिरविक्खो, सीसं पिहु छित्तुमारो / / 16 / / धरिऊण पिसाएणं, दाहिणहत्थेण सत्ततुटेण। भणिओ सो अलमेएणं साहसेणं वरेसुवरं / / 20 / / अयलो भणेइ साहग-इ8 पकरेसुजइ सि तुझे मे। एवं कयं चिय मए, मग्गसु अन्नं पि आह सुरो।।२१।। अयलो जंपइ तुज्झ वि, किं सीसइ अमरमुणियकजस्स। नाउं ओहिबलेणं, तं कज्ज आह इय अमरो॥२२॥ तं अयल ! गच्छ सगिहे, वीसत्थो होसु मुंचसु विसायं। एसो चोरपबंधो, गोसे सयलो फुडो होही।।२३।। इय भणिय गओ अमरो, अयलो वि विसिट्ठदेहलावन्नो। निययावासे पत्तो, निश्चिंतो लहइ निदं च // 24 // ववगयनिहो अयलो,पए पिसाएणपभणिओ भद्द! तं तकरवुत्तंतं, निसुणसुसो आह कहसु फुडं॥२५॥ एयस्सपुरस्स बहिंपुव्वदिसाआसमे वसइजोगी। पव्ययओ से सिद्धो, कविलक्खो चेडओ अत्थि।।२६।। तेणं हरेइ नयरे, सो सारं रमइ निसि जहिच्छाए। काऊण जोगिरूवं, दिवसे पुण कहइ धम्मकहं / / 27 / / तस्सासमभूमिहरे, चिट्ठइ अवहारियेदव्यसव्वास। मा काहिसि इह संसय-मिय भणिय तिरोहिओ देवो // 28 // अह काउ गोसकिचं, अयलो कइवयजणाणुगो पत्तो। सुरकहियआसमे तत्थ तेण दिडो कवडजोगी॥२६॥ ठाऊण य तत्थ खणं, अयलो पत्तो नरिंदपयमूले। निवपुट्ठो एगंते, कहेइ तं चोरवुत्ततं॥३०॥ को इत्थ पचओ इय, नरवरपुट्ठो पयंपए अयलो। तस्सासमभूमिगिहम्मि मोसजायं सयलमस्थि॥३१॥ तो सिरवियणामिसयस-विसज्जियासेसपरियणो राया। सुत्तो तयणु जणेणं, पारद्धा विविहउवयारा ||32|| जाओ न य को विगुणो, आहूया मंतवाइपमुहजणा। ते वि अकयपडियारा, गया विलक्खा सठाणेसु // 33 // तो सुविसन्नमणेण व, सो जोगी वाहराविओ रना। संभासिउमारखो, सायरदिन्नासणो य तयं // 34 // पुरिसे यपेसिऊणं, खणाविओतस्स आसमो झत्ति। निग्गयमसेसमोसं, आणीयं रायभवणम्मि / / 3 / / आहूओ तव्वेलं, महायणो दंसियं तय मोसं। उवलक्खिऊण जं जस्स आसितं तस्स उवणीयं // 36 / / अह वुत्तो सो जोगी, रे रे पासंडियाहड! अणज्ज ! / को एसो वुत्तत्तो, सो भीओ जंपइन किं पि॥३७॥ चेडो दूरीहूओ, सिद्धवजम्मि दुजणु व्य लहुँ। सुबहु विडविउं सो, जोगी माराविओ रन्ना // 38|| इय दतु तस्स मरणं, अयलो चिंतेइ फुरिययेरग्गो। हा ! कह जीवा धणलव-विमोहिया जंति इह निहणं // 36 // धणलोभेणं जीवो, हणेइ जीवे सया मुसं वहइ। पियपुत्तमित्तसुकलत्तपमुहलोयं पिवंचेइ / / 4 / / इह लोइयतुच्छपओयणत्थमित्थं अकिञ्चलक्खं पि। काउं कंखइ जीवो, न य पिच्छइ तकडं दुक्खं // 41 / / अइगरुयलोहमुग्गर-पहारभरगाढविहुरियसरीरा। हा ! किह णु दुग्गदुग्गइ अवडे निवडतिमे जीवा? ||42|| ता सयललोहसंखोह-निविडसरधोरणीखलणदक्खं / कवयं पिव पव्वलं, संपइ गिण्हामि दढसत्तो // 43 // इय जा अचलो अचलिय-संवेगभरो विचिंतए चित्ते। तातत्थ समोसरिओ, सूरी गुणसुंदरो नाम // 44|| सुच्चा गुरुणो तक्खण, सआगमो आगओ गुरुसगासे। पणमियतप्पयपउम, आसीणो उचियदेसम्मि॥४५।। तयणु भवपरमनिव्येय-कारिणी लोहमोह निम्महिणी। विसयाणुरागपायव-करिणी संवेयसंजणणी॥४६।। संसारसमुत्थसमत्थ-वत्थुविगुणत्तपयडणपहाणा। सुइसुहकरेहि वयणेहिं देसणा सूरिणा विहिया / / 47 / / तं सोउंपडिबुद्धो, अयलोपुच्छे वि कह वि नरनाई। गुरुणो तस्स समीवे, संविग्गो गिण्हए दिक्खं // 48|| Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचल 184 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 चलिय पडिवन्नदुविहसिक्खो, गुरुणा सह विहरए महीवलए। अरहते अरिहंते आराहइ सम्ममरुहंते॥४६॥ पवयणवच्छल्लपरो, झायइ सिद्धे सया सुहसमिद्धे। सिवफलतरुणो गुरुणो, सेवइ दंसणविणयजुत्तो / / 5 / / सुयश्यपञ्जायधरे,थेरे सुबहुस्सुए तक्स्सीय। जह उचियं आराहइ, अभिक्खनाणोवओगपरो।। 51 // सीलव्यएसु आव-स्सएसुपरिहरइ दूरमइयारे। अपुव्वनाणग्गहणं, सुयभत्तिपरायणो कुणइ // 52 / / तवसा निकाइयाणं, कम्माण खउ त्ति कुणइ गरुयतवं / खणलवझाणुवउत्तो, मुणीण भत्ताइ वियरेइ // 53 // पडिभग्गस्स मयस्सव, नासइचरणं सुयं अगुणणाए। नहुवेयायचचियं, सुहोदयं नासए कम्मं // 54 // इय चिंतंतो वेया-वचं पकुणइ अतिप्पमाणमणो। पवयणपभावणपरो, कुणइ समाहिंचसंघस्स / / 5 / / एवमणुत्तरदसण-नाणचरिते अतिप्पमाणस्स। उग्गतवकारिणो सुज्झमाणसुपसत्थलेसस्स।।५६।। अज्जियतित्थंकरना-मकम्मणो तस्स अचलसाहुस्स। सव्वोसहिपमुहाओ, जायाओ विविहलद्धीओ // 57 / / इत्तो निभयपुरे रामचंदरन्नो विसिट्टविहिं। पयडिज्जंतेसु विसबहुमेसज्जोसहपओगेसु॥५८|| बहुमंततंतवाई-हिंकारमाणासु अवि सुकिरियासु। रोगेण मरंति करीतो आदन्नो नियो जाओ॥५६॥ अह गुरुणाऽणुनाओ, अचलमुणी तत्थ आगओ तइया। पत्तो निवो मुणिं तं, नमिय निसन्नो उचियदेसे॥६०॥ मुणिणा वि निवइजुग्गो, सहसणथूलमूलपरिकलिओ। पंचाणुव्ययलंधो, तिगुणव्ययगरुयसाहीयो॥६१।। सिक्खावयपडिसाहो, निम्मलबहुनियमकुसुमसंकिन्नो। सुरमणुयसमिद्धिफलो, कहिओ गिहिधम्मकप्पतरू // 62|| इय सोउ निवो जंपइ, पहु! धम्ममिमं समीहिमो काउं। किंतु अकाले सिंधुर-संदोहं दट्ठ मरमाणं // 63|| न गिहे न बहिन जणे, न काणणे न य दिणे न रयणीए। मह संपइ संपज्जइ, रई मणागं पि मुणिपवरा !||6|| तो कहसु किं पिजेणं, सुत्थमणो हं करेमि धम्ममिमं / इय रन्ना पुणरुतं, वुत्तो वि हु सुमुणिसठूलो // 65 / / सावञ्जकज्जवजी,सन्नाणो वि हुन किं पिजा भणइ। ता मुणिसमीवठियखे-यरेण एवं निवो युत्तो // 66 // बहुलद्विसमिद्धिसमन्नियस्स एयस्स समणसीहस्स। पयरेणूहिं संफुसिय कुणसुसज्ज करिसमूह॥६७|| तं सुणिय नियो तुट्ठो, मुणिपयसंफुसियरेणुनियरेण। करिनियरं सव्वं पिहु, आमरिसावेइ तिक्खुत्तो॥६८|| विसमिव पीऊसहयं, तमं व दिवसयरकिरणपडिरुद्धं / वेगेण रोगजाय, तं नट्ठ कुंजरकुलाओ॥६६॥ तं पिच्छि वि अच्छरियं, अणंतहरिसोइम भणइ राया। भयवं ! यारणवाही, केण निमित्तेण संजाओ ? ||70 // मुणिणा भणियं नरवर ! जो जोई घाइओ तया तुमए। मरिउ अकामनिज्जर-वसेण सो रक्खसो जाओ।।७१।। सरिऊण पुव्यवइरं, सतुह सरीरम्मि अप्पमयमाणो। एयं पि होउ दुक्खं, ति कासि दंतीण रोगभरं / / 72|| मह चरणरेणुपुडा, संपइते वाहिणो समुवसंता। सो रक्खसो पणट्ठो, सजं जायं करिकुडंबं // 73 // मुणिमाहप्पमणप्पं, दळूणं गहियसुद्धगिहिधम्मो। तुद्दो राया पवयण-पभावगो सावओ जाओ।।७४।। अयलो विअतिप्पंतो, चरणाइसु काउ अणसणं सुमणो। सोहम्मे उववन्नो, तत्तोय चुओ विदेहम्मि / / 7 / / कच्छाविजए, सिरिजय-पुरीइरन्नो पुरंदरजसस्स। देवी सुदंसणाए, चउदसवरसुमिणकयसूओ॥७६|| गब्भे पाउन्भूओ, समुचियसमएयजम्ममणुपत्तो। अहिसित्तोस सुरासुर-वग्गेण सुमेरुसिहरम्मि॥७७|| कयजयमित्तभिहाणो, उचिए समयम्मि पव्वइउकामो। लोगंतियतियसेहि, सविसेसवुडिउच्छाहो // 78|| लोगाणं संवच्छर-मच्छिन्नविदिन्नविहवसंभारो। चउसद्विसुरेसरविहिय- गरुयनिक्खमणवरमहिमा 176 / / तिजयं एगजयं पिव, एगत्थागयसुरासुरनरेहि। कुणमाणो पडिवन्नो, निस्सामन्नं ससामन्नं / / 8 / / तो सुक्कज्झाणानल-समूलनिद्दद्धघाइकम्मदुमो। उप्पन्नकेवलालोय-लोइयासेसतइलुको // 81! सीहासणोवविठो, सिरउवरिं धरिय सेयछत्ततिगो। नियदेहदुवालसगुण- महल्लकंकिल्लिकयसोहो || चालियसियवरचमरो, पुरओपक्खित्त कुसुमवरपयरो। निज्जियदिणयरमंडल-भामंडलखंडियतमोहो // 83|| सुरपहयदुंदुहिस्सर-पयडियदुजेयभावरिउविजओ। सव्वसभासाणुगदि- व्ववाणिहयतिजयसंदेहो।।८४|| पायडियसुगइमग्गो, पडिबोहियभूरिभावभवियजणो। विहरित्ता चिरकालं, अणंतसुहसंपयं पत्तो / / 8 / / श्रीजैनशासनवनीनवनीरदस्य, श्रुत्येति वृत्तमचलस्य मुनीश्वरस्य। सज्ज्ञानदर्शनतपश्चरणादिकेषु, श्रद्धामतृप्तमनसो मुनयो विधत्त॥६६|| ध०२०॥ अच(य)लट्ठाण-न०(अचलस्थान) अचलो निष्प्रकम्पः परमाण्वादिर्भवति, तस्य स्थानमचलस्थानम् / निरेजःकाले, अचलं च तत्स्थानं चावस्थानमचलस्थानमिति व्युत्पत्तेर्वा / निरेजः काला परमाण्वादीनामयम् -"परमाणुपोग्गले णभंते ! णिरेएकालओ केव चिरं होइ? गोयमा ! जहण्णेणं एवं समयं, उक्कोसेणं असंखेनं कालं, असंखेजाओ उसप्पिण्णी ओस्सप्पिणीतो''। व्य०१ उ० / नि०यू० / अचलस्थानं तु चतुर्धा, सादिसपर्यवसान भेदात् / तद्यथासादिसपर्यवसानं परमाण्वादेर्द्रव्यस्यैकप्रदेशादाववस्थानं,जघन्यत एक समयमुत्कृष्टतश्चासंख्येयकालमिति साद्यपर्यवसानं सिद्धानां भविष्यदद्धारूपम्, अनादिसपर्यवसानमतीताद्धारूपस्य शैलेश्यवस्थान्त्यसमये कार्मणतैजसशरीरभव्यत्वानां चेति, अनाद्यपर्यवसानं धर्माधर्माकाशानामिति। आचा०१ श्रु०२ अ०१ उ०/ अच(य)लपुर-न०(अचलपुर) आभीरदेशान्तर्गते ब्रह्मद्वीपासन्ने पुरभेदे, कल्प०। ('बभदीविया' शब्दे कथा चास्य)"अयलपुरा णिक्खंते, कालियसुयआणुओगिए धीरे" नं०।। अच(य)लभाया-पुं०(अचलभ्राता) श्रीमहावीरस्य नवमे गणधरे, विशे० आ०म०वि०। कल्प०(तस्य पुरादिकं गणहर' शब्दे वक्ष्यते) अच(य)ला-स्त्री०(अचला) शक्रस्य देवेन्द्रस्य सप्तम्यामग्रहि-ष्याम् ज्ञा०२ श्रु०॥ (तत्कथा प्र०भा०१७३ पृष्ठे 'अग्गमहिसी' शब्दे) अच(य)लिय-न०(अचलित) वस्त्रं शरीरं वा न चलितं Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलिय 185 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अचित्त कृतं यत्र तदचलितम् / अप्रमादप्रत्युपेक्षणभेदे, स्था०६ ठा० / ध०। ओधला अत्र चतुर्भङ्गी यथा-"वत्थं अचलियं अप्पाणं अचलियं, तथा वत्थं चलियं अप्पाणं अचलियं, तथा वत्थं चलिअं अप्पाणं चलिअं, तथा वत्थं अचलिअप्पाणं चलि। एत्थपढ़मो भंगो सुद्धो"।६ त०। अनारब्धचलनक्रिये, त्रि०। "अचलियभावो पवत्तो य"। १०व०४ द्वा० / नि००। अचवचव-त्रि०(अचवचव) चवचवेति शब्दरहिते, प्रश्न० 1 संव० द्वा०।"असुरसुरं अचवचवं आहारमाहारेइ" भ०७ श०१ उ०। अचवल-त्रि०(अचपल) न०त / स्थिरस्वभावे, व्य०३ उ० / "गतिठाणभासभावा-दिएहि ण वि कुणति चंचलत्तं तु / गाणं गणिताण भवे, अचवलो सो उमुणेयव्वो"पिं०भा०ा पं०चू०। अचपलत्वं चतुर्धा भवति-गत्याऽचपलः 1, स्थित्याऽचपलः 2, भाषयाऽचपलः 3, भावेनाऽचपलः 4, / गत्याऽचपलः शीघ्रचारी न भवति 1 / स्थित्याऽचपलस्तिष्ठन्नपि शरीरहस्तपादा-दिकमचालयन् स्थिरस्तिष्ठति 2 / भाषयाऽचपलोऽसत्यादिभाषी न स्यात् 3 / भावेनाऽचपलःसूत्रेऽर्थेऽनागतेऽसमाप्ते सत्येवाऽग्रेतनं गृह्णाति 4 / (एवंभूतः शिष्यः)। "णीयावित्ती अचवले, अमाई अकुतूहले"। उत्त०१० अ०। कायिकादिचापल्यरहिते, प्रश्न०४ आश्र0 द्वा०1"अतुरियमचवलमसंभंते मुहपोत्तियं पडिलेहेइ" अचवलं मानसचापल्यरहितम् / भ०२ श०५ उ०।"अतितिणे अचवले, अप्पभासी मियासणे" अचपलोभवेत् सर्वत्र स्थिर इत्यर्थः / दशः 8 अ०। विशे० / रा० / 'अचवलाए' गत्या कायचापल्यवर्जितया / कल्प० / "अचवला" अचपला मनोवाक्कायस्थैर्यात्। स०। अचाइय-त्रि०(अशक्त) असमर्थे, सूत्र०१ श्रु०१३ अ०।"जहा दिया पोतमपत्तजातं, सावासगा पविउँ मण्णमाणं / तमचाइयं तरुणमपत्तजातं, ढंकाइ अव्वत्तगर्म हरेजा" ||14|| सूत्र०१ श्रु० 14 अ०। अचाएंत-त्रि०(अशक्नुवत) असमर्थे, "अव्वाबाध अचाएंतो नेच्छड् अप्पचेतएएए"|व्य०३ उ०। सूत्र०। अचाग-पुं०(अत्याग) त्यागपरिहारे,ध०२ अधि०। अचारुया-स्त्री०(अचारुता) असुन्दरत्वे,"बुधविज्ञेयं त्यचारु-तया'। षो०१ विव०। अचालणिज्ज-त्रि०(अचालनीय) स्थै र्यादभ्रंशनीये, "अभिगयजीवाजीवा, अचालणिज्जा उ पक्यणाओ'। दर्श०। अचिंत-त्रि०(अचिन्त्य) चिन्तयितुमनुमापक हेत्वभावेन तर्क यितुमशक्ये, शक्याथे कर्मणि ण्यत् / न०त० / वाच०। अनिर्वचनीये, द्वा०१६ द्वा०। अचिंतगुणसमुदय-न०(अचिन्त्यगुणसमुदय) अचिन्त्यो गुणसमुदयो ज्ञानादिसमुदयो यस्य तदचिन्त्यगुणसमुदयम् / परतत्त्वे, "तनुकरणादिविरहितं, तचाचिन्त्यगुणसमुदयं सूक्ष्मम्"। षो०१५ विव०। अचिंतचिंतामणि-पुं०(अचिन्त्यचिन्तामणि) चिन्ताऽतिक्रान्ताऽपवर्गविधायकत्वेन चिन्तामणिरत्नकल्पे तीर्थकरे, पं०सू० ३सू०। अचिंतण-न०(अचिन्तन) न०ता चिन्तनाभावे, यत्कदाचिद् रूपादिकं दृष्ट, तस्य चेतसि न स्मरणमपरिभावनमित्यर्थः / "अचिंतणं चेव अकित्तणं च'। उत्त०३२ अ०। अचिंतसत्ति-स्त्री०(अचिन्त्यशक्ति) अनिर्वचनीयस्ववीर्यो-ल्लासे, "अचिन्त्यशक्तियोगेन, चतुर्थो यम उच्यते"। द्वा०१६ द्वा०। अचिट्ठ-त्रि०(अचेष्ट) अविद्यमानचेष्ट, आव०३ अ०। अचित्त-त्रि०(अचित्त) न विद्यते चित्तमस्मिन्नित्यचित्तमचेतनम् / जीवरहिते, आचा०१ श्रु०१ अ०८ उ० / आव०। अनु०। नि०चू०। सूत्र०। सचित्ताचित्त मिश्रध्यक्ति:-प्रायः सर्वाणि धान्यानि / धानकजीराऽजमकविरहालीसूआराईखसखसप्रभृतिसर्वकणाः, सर्वाणि फलपत्राणि, लवणखारीक्षारकः, रक्तसैन्धवसञ्चला-दिरकृत्रिमः क्षारो मृत् खटीवर्णिकादि आर्द्रदन्तकाष्ठादि च व्यवहारे सचित्तानि / जले निक्ष्वेदिताश्चणकगोधूमादिकणाचणकमुद्रा-दिदालयश्च क्लिन्ना अपि क्वचिन्नखिकासंभवान्मिश्राः। तथा पूर्व लवणादिप्रदानं बाष्पादिप्रदानं वालुकादिक्षेपं वा विना सेकि-ताश्चणका गोधूमयुगंधादिधानाः क्षारादिप्रदानं विना लोलित-तिला ओलकउंबिकाः पृथुकसेकितफलिकाः पर्पटकादयो मरिचजीरकावधारादिमात्रसंस्कृतचिटिकादीनि सचित्तान्ती-जानि सर्वपक्वफलानि च मिश्राणि। ___ यद्दिने तिलकुट्टिः कृता तहिने मिश्रा, मध्येऽन्नसेटिकादिक्षेपे तु मुहुर्तादनुप्रासुका, दक्षिणमालवादौ प्रभूततरगुडक्षेपेण तद्दिनेऽपि तस्याः प्रासुकत्वव्यवहारः / वृक्षात्तत्कालगृहीतं गुंदलाक्षा- छाल्यादि, तात्कालिको नालिकेरनिम्बूकनिम्बाग्रेक्ष्वादीनां रसस्तात्कालिकं तिलादितैलं, तत्कालभग्नं निर्बीजीकृतं नालिकेरशृङ्गाटकपूगीफलादि, निर्बीजीकृतानि परफलानि, गाढमर्दितं निष्कणं जी रकाजमकादि च मुहूर्त यावन्मिश्राणि, मुहूर्तादूर्ध्वं तु प्रासुकानीति व्यवहृतेः / अन्यदपि प्रबलानियोग विना यत्प्रासुकीकृतं स्यात्तन्मुहूर्तावधि मिश्र, तदनु प्रासुकं व्यवहियते / यथा प्रासुकं नीरादि, तथा कच्चफलानि, कच्चधान्यानि, गाढं मर्दितमपिलवणादि च प्रायोऽग्न्यादिप्रबलशस्त्रं विना न प्रासुकानि / योजनशतात्परत आगतानि हरीतकीखारिकीकिसिमिसिद्राक्षाखर्जूरमरीचपिप्पलीजातिफलबदामवायमाक्षोटकनमिजापिस्ताचिणीकबावस्फटिकानुकारिसैन्धवादिनिसर्जिकाविड्लवणादिः कृत्रिमः क्षारः कुम्भकारादिपरिकर्मि तमृदादिकम्, एलालवङ्ग जावित्रीशुष्कमुस्ताको ऋणादिपक्षकदलीफलान्युत्कलितशृङ्गाटक - पूगादीनि च प्रासुकानीति व्यवहारो दृश्यते / उक्तमपि श्रीकल्पे - जोअणसयं तु गंतुं, अणहारेणं तु मंडसंकंती। वायागणिधूमेण य, विद्धत्थं होइ लोणाई // 1 // लवणादिकं तु स्वस्थानाद् गच्छत् प्रत्यहं बहुबहुतरादिक्रमेण विध्वस्यमानं योजनशतात्परतो गत्वा सर्वथैव विध्वस्तमचित्तं भवति / शस्वाभावे योजनशतगमनमात्रेणैव कथमचित्ती भवतीत्याहअनाहारेण यदुत्पत्तिदेशादिकं साधारणं तत् ततो व्यवस्थित सोपष्टम्भकाहारविच्छेदा विध्वस्यते। तच्च लवणादिकं भाण्ड-संक्रान्त्या पूर्वस्मात् 2 भाजनादपरभाजनेषु / यद्वा / पूर्वस्या भाण्ड-शालाया अपरस्यांभाण्डशालायां संक्रम्यमाणं विध्वस्यते। तथा चातेनवा अग्निना वा महानसादौ धूमेन वा लवणादिकं विध्वस्तं भवति 'लोणाई' इति / अत्रादिशब्दादमी द्रष्टव्या: Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचित्त 186 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अचित्त हरियालमणोसिलपिप्पली अखजूर मुद्दिआ अमया। आइन्नमणाइन्ना, ते विहु एमेव नायव्वा // 2 // हरितालं मनःशिला पिप्पली च ख—र एते प्रसिद्धाः, मृद्रीका द्राक्षा, अभया हरीतकी, एतेऽप्येवमेव लवणमिव योजनशतगमनादिभिः कारणैरचित्तीभवन्तो ज्ञातव्याः। परमेकेऽत्राचीर्णा अपरेऽनाचीर्णाः। तत्र पिप्पलीहरीतकीप्रभृतय आचीर्णा इति गृह्यन्ते / खजूरमृद्वीकादयः पुनरनाचीर्णा इति न गृह्यन्ते // 2 // अथ सर्वेषां सामान्येन परिणमनकारणमाहआरुहणो ओरुहणे, णिसिअण गोणाइणं च गाउम्हा / भोमाहारच्छेए, उवक्कमेणं च परिणामो // 3 // शकटादिषु लवणादीनां यदि भूयो भूय आरोहणमवरोहणं च तथा यत् तस्मिन् शकटादौ लवणादिभारोपरि मनुष्या निषीदन्ति तेषां गवादीनां च यः कोऽपि विष्टादिगात्रोष्मा, तेन वा परिणामो भवति। तथा यो यस्य भौमादिकः पृथिव्यादिक आहारस्तव्यवच्छेदे तस्य परिणामः, उपक्रमःशस्त्रम्, तच त्रिधास्वकायपरकायतदुभय-रूपम् / तत्र स्वकायशस्त्रं यथा-लवणोदकं मधुरोदकस्य, कृष्णभूमं पाण्डुभूमस्य। परकायशस्वं यथा अनिरुदकस्य,उदकं चाग्नेरिति / तदुभयशस्वं यथाउदकं (कर्दम) शुद्धोदकस्येत्यादि / एवमादीनि सचित्तवस्तूनां परिणमनकारणानि मन्तव्यानि // 3 // उप्पलपउमाई पुण, उण्हे दिण्हाइं जाम न धरिति। मोग्गरगजूहिआओ, उण्हे छूढा चिरं हुंति // 5 // मगदंतिअपुप्फाइं, उदकच्छूढाइं जाम न धरिंति। उप्पलपउमाई पुण,उदए छुढा चिरं हुंति // 5 // उत्पलानि पद्मानिच उदकयोनिकत्वादुष्णे आतपेदत्तानियाम प्रहरमात्र कालं न घ्रियन्ते नावतिष्ठन्ते, किन्तु प्रहरादर्वागेवाचित्ती- भवन्ति / मुद्गरकानि मगदन्तिकापुष्पाणि यूथिकापुष्पाणि च उष्णयोनिकत्वादुष्णे क्षिप्तानि चिरमपि कालं भवन्ति, सचित्तान्येव तिष्ठन्तीति भावः / मगदन्तिकापुष्पाणि उदके क्षिप्तानि याममपि न ध्रियन्ते, उत्पलपद्मानि पुनरुदके क्षिप्तानि चिरमपि भवन्ति // 4 // 5 // पत्ताणं पुप्फाणं, सरडुफलाणं तहेव हरिआणं / विटमि मिलाणम्मि य, णायव्वं जीवविप्पजदं / / 6 / / पत्राणां पुष्पाणां शरडुफलानामबद्धास्थिकफलानां वास्तुलादीनां सामान्यतस्तरुणवनस्पतीनां वृन्ते मूलनाले म्लाने सति ज्ञातव्यं जीवविप्रयुक्तमेतत्पत्रादिकमिति श्रीकल्पवृत्तौ, शाल्यादिधान्यानां तु श्रीपञ्चमाङ्गे षष्ठशतकसप्तमोद्देशके सचित्ताचित्तत्वविभाग एवमुक्तः, स च 'जोणि' शब्दे दर्शयिष्यते कसिस्याचित्तता त्रिवर्षानन्तरं स्यात्। यदुक्तं श्रीकल्पबृहद् भाष्ये सेडुगं तिवरिसाइ गिण्हति। सेडुकं त्रिवर्षातीतं विध्वस्तयोनिकमेव कल्पते। सेडुकः कर्पास इति। तवृत्तौ पिष्टस्य तु मिश्रताद्येवमुक्तं पूर्वसूरिभिः "पण-दिनमीसो लुट्टो, अचालिओ सावणे अभद्दवए। चउआसोएकत्तिअमगसिरपोसेसु तिन्नि दिणा ||1|| पणपहरमाह फग्गुण, पहरा चत्तारि चेत्तवेसाहे। जिहासाढे तिपहर, तेण परं होइ अचित्तो" ॥२चालितस्तु मुहूर्तादूर्ध्वमचित्तः, तस्य चाचित्तीभूतानन्तरं विनशनकालमानं तु शास्त्रे न दृश्यते, परं / द्रव्यादिविशेषेण वर्णा-दिविपरिणामभवनं यावत् कल्पते / उष्णनीरंतु त्रिदण्डोत्कलि-तावधि मिश्रम् / यदुक्तं पिण्डनियुक्तौ - उसिणोदगमणुवत्ते, तिदंडे वासे य पडिअमित्तम्मि। मोत्तूणादेसतिगं, चाउलउदगं बहुपसन्नं // अनुवृत्तेषु त्रिदण्डेषूत्कालेषु जलमुष्णं मिश्र, ततः परमचित्तम् / तथा वर्षे वृष्टौ पतितमात्रायांग्राभादिषु प्रभूतमनुष्यप्रचारभूमौ यज्जलं तद्द्यावन्न परिणमति तावन्मिश्रम्, अरण्यभूमौ तु यत् प्रथमं पतति तत्पतितमात्र मिश्र, पश्चानिपतत्सचित्तम्। आदेशत्रिकं मुक्त्वा तन्दुलोदकमबहुप्रसन्न मिश्रम्, अतिस्वच्छीभूतं त्वचित्तम् / अत्र त्रय आदेशाः / यथा केचिद्वदन्तितण्डुलोद के तण्डुलप्रक्षालन-भाण्डादन्यत्र भाण्डे क्षिप्यमाणे त्रुटित्वा भाण्डपाचे लग्ना बिन्दवो यावन्न शाम्यन्ति तावन्मिश्रम्। अपरेतथैव याता यावद् बुद्रुदान शाम्यन्ति तावत् / अन्ये तु यावत् तण्डुला न सिद्ध्यन्ति तावत् / एते त्रयोऽप्यादेशा रूक्षेतरभाण्डपचनाग्निसम्भवादिभिः, एषु कालनियमस्याभावात्, ततोऽतिस्वच्छीभूतमेवाचित्तम् / तिव्वोदगस्स गहणं, केइ भाणेसु असूह पडिसेहो। गिहिमायणेसु गहणं, ठिअवासे मीसग छारो // 2 // तीव्रोदकं हि धूमधूमीकृतदिनकरकरसम्पर्क सोष्मतीव्र सम्पदिचित्तम्, अतस्तद्ग्रहणे न काचिद्विराधना / केचिदाहुः-स्वभाजनेषु तद्ग्राह्यम् / अत्राचार्यः प्राह-अशुचित्वात्स्वपात्रेषु ग्रहणप्रतिषेधः, ततो गृहिभाजने कुण्डिकादौ ग्राह्यम् / वर्षति मेघे च तन्मिश्रम् , ततः स्थिते वर्षेऽन्तर्मुहूर्तादूर्ध्व ग्राह्यम्। जलं हि केवलं प्रासुकीभूतमपि प्रहरत्रयादूज़ भूयः सचित्तं स्यादतस्तन्मध्ये क्षार क्षेप्यः / एवं स्वच्छताऽपि स्यादिति। पिण्डनियुक्तिवृत्तौ तन्दुलधावनोदकानि प्रथमद्वितीयतृतीयान्यचिरकृतानि मिश्राणि, चिरं तिष्ठन्ति त्वचित्तानि, चतुर्थादिधावनानि तु चिरं स्थितान्यपि सचित्तानि / प्रासुकजलादिकालमानमेयमुक्तं प्रवचनसारोद्धारादौ-"उसिणोदगं तिदंडु क्वालिअं फासुअं जलं जइ कप्पं / नवरि गिलाणाइकए, पहरतिगोवरि वि धरिअव्वं / / 1 / / जायइ सचित्तपासे, गिम्हासुउपहरपंचगस्सुवरि।चउपहरुवरि सिसिरे, वासासु जलं तिपहरुवरि // 2 // तथाऽचेतनस्यापि कङ्कडुकमु द्रहरीतकीकुलिकादेरविनष्टयोनिरक्षणार्थं निःशूकतादि परिहारार्थ च न दन्तादिभिर्भज्यते / यदुक्तं श्रीओधनियुक्तिपञ्चसप्ततितम-गाथावृतौअचित्तानामपि केषाञ्चिन्स्पतीनामविनष्टा योनिः स्याद् गुडूचीमुद्रादीनाम् / तथाहि- गुडुची-शुष्काऽपि जलसेकात्तादात्म्यं भजतीति दृश्यते, एवं ककडुकमुगादिरपि, अतो योनिरक्षणार्थमचेतनयतना न्यायवत्येवेति। ध०२ अधि० बृ०। नि००। पिं०। एतदेवाऽन्यच सङ्ग्रहेणअह एयाणं जं जं, कालपमाणं भणामि सव्वेसिं। भत्तं सिद्धं वियलं, कट्ठदलं हिंगुसहियं जं // 2 // पुष्फफलपत्तसायं,बीयच्छाली विणा य आमफलं / मंडपूवाइयं जललप्पसीवडीयपप्पडया // 63|| चउपहरमाणमेसिं, ओयणमंडवारजामजगराए। तह तक्करवलछुभिए, अहियं परिमाणमवि वुत्तं / / 64|| दहितक्करराईणं, कयसागाण सोलजामंच। वासासु पक्ख हेमंत मासुसिण्णु वीसदिणमाणं // 65 / / पक्कन्नयकालो विउ, विण्णेओ कुलिकोए पक्कन्नो। Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचित्त 187 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अचित्तदव्वचूला यासासु एगदिणं वा, चलियरसं जत्थ जंजाइ॥६६।। निव्विगयं पक्कन्नं, असणजुयं तस्सिमेव परिमाणं। उच्छुवियारगयाणं, चलियरसं तं तहा जाण // 67 / / घयतिल्लगुडाईणं, वण्णरसगंधपमुहपञ्जासे। कालपरिमाणमुत्तं, जाणिज्जा नो तहा पायं // 68|| इत्थ य चलियरसम्मि, जीवा बेइंदिया समुच्छंति। पुप्फिए एगिदिया, वट्टति दुवे वि समगंवा // 66 // अचित्तजले सचित्ती-भवणे एगेंदिया समुच्छंति। अरणं सुज्झियमिलिए, पणिंदी समुच्छिमा हुंति / / 7 / / तिलमुग्गमसूरचवलय-मासकुलत्थयकलायतुवरीणं। यल्लाण वट्टचणयाण, पंचगवरिसप्पमाणं च // 71 / / सालिविहिजवजुगंधरि-गोहुमतिणधण्णतिलकपासाणं / वासतियं परिमाणं, तत्तो विद्धंसए जोणी // 72 // लुट्टा कंगूअयसी, सणकोडुसगवरट्टसिद्धत्था। एलयकुद्दवमेही, मूलगवीया चवड्डा य॥७३॥ पहियाणं लत्ताणं, उक्कोसट्ठिई सत्तवासाइं। होइ जहण्णेण पुणो, अंतमुहत्तं समग्गाणं // 74|| पिप्परिखजूर मिरी-मुद्दिय अभया बदाम खारिक्का। एला जाइफलं पुण, कंकोलं चारु कुलिया य / / 7 / / विखंसिज्जइ जोणी, एएसिं जलथलोवभोगेहिं। संघाडयजलफलाइ, घाणं जोणी तहा चित्ता // 76 / / जोयणसयं जलम्मि, थलम्मि सड्डीइ भंडसंकती। वायागणिधूमेहि, पविद्धजोणी हवइ तेसिं // 77 / / हरियाललवणमण सिल-पूगसेवालनालिकेरा य। एमेव अणाइण्णा, विद्धत्था अवि मुणेयव्वा / / 7 / / सीयासिंधवपासकरणीकयहिंगुलजाइवडिंगनागाई। अचित्तजोणिया कंदासणोहयमिढलमजिट्ठा // 76|| पिट्ठ मिस्समसुद्धं,पणचउतियदिणपमाणमापक्खं। सावणासोयपोसेसुजुयलम्मि वए अणुओगो||८|| पण्णचउतियजामाण, मासदुगे चित्तजुयलजिट्ठदुगे। तह भजियधण्णाणं, दालीण विपज्जए पायं / / 81 // चालियछड़ियतुसरहिय, सुक्कंजा ताव मिस्सियं नेयं / लोणजुयं जं साग, भजियतलिएण तं सुद्धं // 52 // अण्णे भणंति भजिय-धण्णाणं पक्कतलियमिव कालो। सत्त-पणदस-दसदिणं, वासाइसु मिस्सलोणस्स।।३।। अंतमुहुत्तं मोद-स्स चोवीसजाम धाउपत्तगयं। गोमुत्तं जइ केवल-महिसाइमं रसविवज्जासे // 54|| खइमितले विचासे, तिचउपण्णजामसुसिणनीरस्स। वासाइसुप्पमाणं, फासुजलस्सावि एमेव / / 5 / / उस्सेइम१ संसेइभ 2, तंदुलनीरं 3 तिलादगं 4 वा वि। तुस 5 जव६ आयामं 7, वा सोवीरं 8 सुद्धवियडं च 6 // 66 // अंब 10 कविठ्ठा 11 मनगं 12, अंबाडग 13 माउलिंग 14 खजूरं 15 / दक्खा 16 दाडिम 17 कैरं 18, चिंचा 16 नारिअर 20 कोलजलं 21 // 87| पुवतियं भत्तट्टे, छठे तिलतुसजवादेगंभणियं। आजामं सोवीरं, असे उसिणं नीरं च // 18 // मत्थमसित्थं गलियं, तियदंडुक्कलियपरिमियमलेवं। परकडजई ण कप्पइ, न कप्पई अण्णमरुदेसे।।६।। उस्सेइम संसेइम, तंदुलतिलतुसजवाण नीरंच। आ जामं सोवीरं, सुद्ध वियर्ड जलं भवहा / / 60|| तिहला तमालपत्तं, मुत्थयकुटुं च खयरमाईहिं। फासुकयं खज्जाइहि, कारणओ कप्पणिज्जं तु ||1|| जिट्ट तवे भत्तट्टे, पडिमुवहासु अभिग्गहायामे। सट्ठाणं जियकप्पइ, उण्हजले अणसणे वि तहा / / 2 / / फलचिंचोदगमिगजाममाजामं धण्णनीर मुहुत्ततिग। उच्छुरसे सोवीरे जामदुर्ग घोयणं तिमुहू६३॥ वण्णरसगंधपञ्जव-भेयविमिस्संखु हवइ फासुजलं। सक्करगुडखंडाई, वत्थुविभेएहि परिणमियं / / 64|| गोएलगमहिसीणं, खीरं पण अट्ठदसदिणाणुवरि सुद्धं / तिदिणाणुवरि वलद्धी, नवप्पसूयाण एमेव / / 65|| चउपहरोवरि जायं, दहि सुद्धं हवइ कप्पणिज्जंच। तक्करजुयखीरेयी, बीयदिणे होइया कप्पा 196|| निण्णीरं तिलमिस्सं, संधाणं तह वियारियफलाणं / अचित्तभोइणो पुण, कप्पइ तक्करमणुग्गलियं / / 67|| निव्यल्लिनिच्छियफलं, जामगमामुत्तमुवरि कयं / वियलं तक्करमिस्सं, न कप्पमुसिणीकएण विणा / / 68|| मोयाफलं पडोली, धोसामोलं च रुक्खगुंदाई। तणडित्तद्धं जं नो, हवइ तं देवडीचिट्ठी // 66 // उकिट्ठजहण्णमज्झिम-भेएहिं होइ तिविहमभत्तट्ठ। चउहा सचित्तपरि-याएणुकिट्ट भेएण।।१००|| तिविहम्मि अभिगहे खलु, न कप्पइ सचित्तवावारो। तत्थाणाहारयत्थू, कप्पइ सव्वावि रयणीए / / 101 / / आयंबिलमवि तिविहं, उक्किट्ठजहण्णमज्झिमवएहिं। तिविहं जं वियलं पूयाई पकप्पए वितत्थ / / 10 / / सियसिंधवसुंठिमिरी, मेही सोवचलं च विडलवणं / हिंगुसुगंधिसुयाइय, पकप्पए साइमं वत्थु // 103 // कारणजाएण जइण, असणे सिद्ध हविज ठिमियं वा। पिटुंजलेण रद्धं, घुग्घेरिट्ठाइ सिद्धेणं / / 104!! पप्पडवडया रुक्खा, सिद्धा तिगपीकया हवइ कप्पा। भञ्जियधणं तिणधण्ण, कट्टदलं सिणेहवियलं जं / / 10 / / सव्वाणं धण्णाणं, पिहु या दुद्धेण सिद्धिसाइमयं। वेसण्णत्थाए इह, लिट्टया तीइ अकप्पं च // 106aa ल०प्र० *अचित्र-त्रि०अकबुरे, बृ०५ उ०।। अचित्तदवियकप्प-पुं०(अचित्तद्रव्यकल्प) अचित्तद्रव्याणामाहारादीनामुपयोगविधिविशेषे, "अचित्तदवियकप्पं, एत्तो वोच्छं समासेणं / आहारे उवहिम्मिय, ओवसणे तहयपस्सवणे॥१॥ पयसं निसजठाणे, दंडे वंडे चिलमिलिणी। अवलेहणिया वन्नाणं, सोचणे दंतसोहणे चेव / / 2 / / पिप्पलगसूतिणक्खाणछेदणे व सोलसं मज्झा। हारो खलु द्विविहो लोइयलोउत्तरेणायव्यो॥३॥ तिविहोतु लोइओखलु, तत्थ इमो होति णायव्वो" पिं०भा०ा पं०चू०('आहार' प्रभृतिशब्देषु विवृतिः) अचित्तदव्वखंध-पुं०(अचित्तद्रव्यस्कन्ध) अविद्यमानचित्तो-ऽचित्तः, स चाऽसौ द्रव्यस्कन्धः / द्विप्रदेशिकादिपुद्गलस्कन्धरूपे अचेतने द्रव्यस्कन्धभेदे, अनु०॥ अचित्तदव्वचूला-स्त्री०(अचित्तद्रव्यचूला) चूडामणिकुन्ताग्रसिंहकर्णप्रासादपादपाद्यग्रे, नि०चू०१ उ०। Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचित्तमंत 188 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अचेल अचित्तमंत-त्रि०(अचित्तवत्) न विद्यते चित्तमुपयोगो ज्ञानं यस्य / कनकरजतादावचेतने, सूत्र०१ श्रु०१ अ०१ उ०। 'चित्तमंतमचित्तं वा णेव सयं अदिन्नं गिण्हेज्जा' / दश०४ अ०। पा०ा आचा०। अचित्तमहाखंघ-पुं०(अचित्तमहास्कन्ध) उत्कृष्टावगाहने - ऽनन्तप्रदेशिके स्कन्धे, (तत्स्वरूपं 'खंध' शब्दे वक्ष्यते) विशे०। अचित्तसोय(ग)-न० पअचित्तस्रोतस् (क)ब जीवरहितछिद्रे, (अचित्तस्रोतसो भेदास्तत्र शिकं प्रवेश्य शुक्रपुगलनिष्कासनं च 'अंगादाण' शब्देऽदर्शि)। नि०चू०१ उ०। अचियत-त्रि० / देशी०। अप्रीतिकरे / 'अचियतंति वा अणियतंति या एगट्ठ' इति वचनात्। व्य०२ उ०। पिं० अप्रीतौ च। व्य०१ उ०। सूत्र देशीपदमेतत् / बृ०१ उ० / स्त्री० / अप्रीतिमत्याम् , व्य० ७उ०। अचियंतेउरपरधरप्पवेस-पुं०(अचियतान्तःपुरपरगृहप्रवेश) अचियतोऽनभिमतोऽन्तःपुरप्रवेशवत् परगृहप्रवेशोऽन्यतीर्थि-कप्रवेशो येषां ते तथा। अनभिमतपरमतप्रवेशेषुसम्यक्त्यिषु, यथा राज्ञामन्तःपुरे गन्तुं नेष्यते, एवं परतीर्थिकष्वपि यैः प्रवेशो नेष्यते, ते श्रावकाः। सूत्र०२ श्रु०२ अ०।"ऊसियफलिहा अवंगुयदुवारा अचियंतेउरपरघरप्पवेसा चाउद्दसट्ठमुद्दिमुण्ण- मासिणेसुपडिपुण्णं पोसह सम्म अणुपालेमाणा विहरं ति"। २श्रु०२ अ०। अचु(चो)क्ख-त्रि०(अचोक्ष) न०त० / अशुद्धे, तं०। जी०। अचिट्ठण--न०(अचेष्टन) न००। चेष्टाभावे, सर्वथा चेष्टानिरोधे, ध० ३अधि०। अचेयकड-त्रि०(अचेतस्कृत) अचैतन्यकृते, भ०१६ श० २उ०(जीवानामचेतस्कृतकर्मकत्वं 'चेयकड' शब्दे) अचेयण-त्रि०(अचेतन) न०त० / चेतनाविकले, आव०४ अ०। 'अचेयणा' नराधमाः विशिष्टचैतन्याभावात् / प्रश्न०२ आश्र०द्वा०। अचेयण-न०(अचैतन्य) न०त० / चेतनावैकल्ये, "अचैतन्य मजीवता" / द्रव्या०११ अध्या०। अचेल-न०(अचेल) अव्य०। चेलस्याभावोऽचेलम् / जिनकल्पिकादीनामन्येषां सुयतीनां भिन्ने स्फुटितेऽल्पमूल्ये चचेले, प्रव०११३ द्वा० / वस्त्राणां वासगन्धनवीनावदातसुप्रमाणानां सर्वेषां वाऽभावे, स०२२ सम० अचेल(ग)-पुं० [अचेल (क] न विद्यन्ते चेलानि वासांसि यस्याऽसावचेलकः / स्था०५ ठा०३ उ० / नञ् कुत्सार्थे, कुत्सितं वा चेलं यस्यासायचेलकः / प्रव०७८ द्वा० / अल्पकुत्सितचेले, जिनकल्पिके च / आचा०१ श्रु०६ अ०२ उ०। सदसचेलत्वेन तस्य द्वैविध्वम् - दुविहो होति अचेलो,संताचेलो असंताचेलोय। तित्थगर असंत चेला, संताचेला भवे सेसा॥ द्विविधो भवत्यचेलः-सदचेलो असदचेलश्च / तत्र तीर्थकरा असदचेला देवदूष्यपतनानन्तरं सर्वदैव तेषां वस्त्राभायात् / शेषाः सर्वेऽपि जिनकल्पिकादिसाधवः सदचेलाः, जघन्यतोऽपि रजोहरणमुखवस्त्रिकासम्भवात् / बृ०१ उ० / आह- यद्येवं ततः कथममी अचेला भण्यन्ते?, सत्यम् / सति च चेलेऽचेलकत्वस्यागमे लोके च रूढत्वात्। एतदेवाहसदसंतचेलगोऽचेलगो य जं लोगसमयसंसिद्धो। तेणाऽचेला मुणिओ, संतेहि जिणा असंतेहिं / / सचासच सदसती चेले यस्यासौ सदसचेलो यद्यस्माल्लोके समये चाऽचेलकः संसिद्धः प्रसिद्धः। चशब्दः प्रस्तावनायाम, साच कृतैय। तेन तस्मादिह मुनयः सामान्यसाधवः सद्भिरेव चेलैरुपचारतोऽचेला भण्यन्ते। जिनास्तु तीर्थकरा असद्भिश्वे-लैमुख्यवृत्त्या अचेला व्यपदिश्यन्ते। इदमुक्तं भवति- इहाचेलत्वं द्विविधम्- मुख्यमुपचरितं च / तत्रेदानी मुख्यमचेलत्वं संयमोपकारिन भवत्यत औपचारिकं गृह्यते, मुख्यं तु जिनानामेवासीदिति। इदमेवौपचारिकमचेलत्वं भावयतिपरिसुद्ध जुन्नकुत्थीयं थोवाऽनिययमोगमोगेहिं। मुणिओ मुच्छारहिया, संतेहिं अचेलया होति / / मुनयः साधवो मूच्र्छारहिताः सद्भिरपिचेलैरुपचारतोऽचेलका भवन्ति। कथम्भूतै चेलै रित्याह-परिसुद्धेति, लुप्तविभक्तिकदर्श-नात्, परिशुद्ध रेषणीयः, तथा जीर्णबहुदिवसः, कुत्सितै रसारैः स्तोकैर्गणनाप्रमाणतो हीनैस्तुच्छैा (अनियतभोगभोगेहिं ति) अनियतभोगेन कादाचित्कसेवनेन भोगः परिभोगो येषां तानि तथा तैरेवं भूतैश्वेलैः सद्विरप्युपचारतोऽचेलका मुनयो भण्यन्ते / तथा 'अन्नभोगभोगेहिं ति' इत्येवमपि योज्यते, ततश्च लोकरूढप्रकारादन्यप्रकारेण भोगः आसे वनं, प्रकारलक्षणस्य मध्यमपदस्य लोपादन्यभोगः तेनान्यभोगेन भोगः परिभोगो येषां तानि तथा तैरप्येवंभूतैश्च लैरचेलकत्वं लोके प्रसिद्धमेव, यथा-कटीवाससा वेष्टितशिरसो जलावगाढ पुरुषस्य साधोरपि कच्छाबन्धाभावात् कूर्पराभ्यामग्रभागः, एवं चोलपट्टकस्य धारणात् मस्तकस्योपरि प्रावरणाद्यभावाच लोकरूढप्रकारादन्यप्रकारेण चेलभोगो द्रष्टव्यः। तदेवं 'परिशुद्धजुन्नकुत्थिय' इत्यादिविशेषणविशिष्टः सद्भिरपि चेलैस्तथाविधवस्त्रकार्याकरणात्तेषु मूर्जाभावाच मुनयोऽचेलकाव्यपदिश्यन्त इतीह तात्पर्यम्। आह-ननुचेलस्यान्यथापरिभोगेण किमचेलत्वव्यपदेशः ___ वापि दृष्टः? इत्याशय तदुपदर्शनार्थमाह - जह जलमवगाहंतो, बहुचेलो वि सिरवेढियकडिल्लो / मण्णइ नरो अचेलो, तह मुणिओ संतचेला वि || जीर्णादिभिरपि वस्त्रैरचेलकत्वं लोके रूढमेवेति भावयतितह थोव जुन्नकुत्थिय-चेलेहिं वि भन्नए अचेलो त्ति / जह तुर सैलिय ! अप्पय, मे पोत्तिं नग्गिया वत्ते // इयमपि सुगमा, नवरं, जह-तुरेत्यादिदृष्टान्तः। यथेह क्यापि योषित् कटीवेष्टितजीर्णबहुछिदैकशाटिका कञ्चित्कोलिकं वदति- त्वरस्व भोः शैल्पिक ! शीघ्रो भूत्वा मदीयपोत्तां शाटिकां निर्माय्य ददस्व समर्पय, नग्निका वर्तेऽहम्, तदिह सवस्त्रायामपि योषिति नाग्न्यवाचकशब्दप्रवृत्तिः / विशे०। अथ तत्रैवोपनयमाहजुण्णेहि खंडिएहि य, असव्वतणुपाउतेहि ण य णिचं / संतेहि विणिग्गंथा, अचेलगा होंति चेलेहिं / / Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचेल 189 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अचेलगधम्म एवं जीणः पुराणैः, खण्डितैश्छिन्नः, असर्वतनुप्रावृतैः स्वल्पप्रमाणतया सर्वस्मिन् शरीरे अपावृतैः, प्रमाणैः हीनरित्यर्थः / न च नित्यं सदैव प्रावृतैः किन्तु शीतादिकारणसद्भावे एवं विधैश्चेलैः, सद्भिरपि विद्यमानैरपि, निर्ग्रन्था अचेला भवन्ति। अत्र पराभिप्रायमाशय परिहरति - एवं दुग्गतपहिया, अचेलगा होंति ते भवे बुद्धी। ते खलु असंततीए, धारंति ण धम्मबुद्धीए॥ यदिजीर्णखण्डितादिभिर्वस्त्रैः प्रावृतैः साधवोऽचेलकास्तत एवं दुर्गताश्च दरिद्राः पथिकाश्च पान्था दुर्गतपथिकास्तेऽप्यचेलका भवन्तीतिते भवेद् बुद्धिः स्यात् / तत्रोच्यते - ते खलु दुर्गतपथिका असत्तया नवव्यूतसदशकादीनां वस्त्राणामसम्पत्त्या परिजीर्णादीनि वासांसि धारयन्ति, न पुनर्धर्मबुद्ध्या / अतो भावतस्तद्विष यमूपिरिणामस्यानिवृत्तत्वान्तेऽचेलकाः।साधवस्तु सतिलाभेमहाधनादीनि परिहत्य जीर्णखण्डितादीनि धर्मबुद्ध्या धारयन्तीत्यचेला उच्यन्ते। यद्येवमचेलास्ततः किमित्याह - आचेलको धम्मो, पुरिमस्सय पच्छिमस्स य जिणस्स। मज्झिमगाण जिणाणं, होति अचेलो सचेलो वा // अचेलकस्य भाव आचेलक्यम् , तदस्यास्तीत्याचेलक्यः / अभ्रादेराकृतिगणत्वादप्रत्ययः / एवंविधो धर्मः पूर्वस्य च पश्चिमस्य च जिनस्यतीर्थे भवति। मध्यमकानांतु जिनानामचेलः सचेलोवा भवति / इदमेव भावयतिपडिमाए पाउत्ता, णातिकमंते उ मज्झिमा समणा। पुरिमचरिमाण अमह-द्धणाइ भिण्णाइ वामोत्तुं / मध्यमा मध्यतीर्थकरसत्काः साधवः प्रतिमया वा लग्नतया प्रावृता वा प्रमाणातिरिक्तमहामूल्यादिभिर्वासोभिराच्छादितवपुषो नातिक्रामन्ति, भागवतीमाज्ञामिति गम्यते / पूर्वचरमाणां तु प्रथमपश्चिमतीर्थकरसाधूनाममहाधनानि स्वल्पमूल्यानि, भिन्नानि वा कृत्स्नानि वा प्रमाणोपेतान्यदशकानि चेत्यर्थः / परमिमानि कारणानि मुक्त्वा तान्येवाहआसज्ज खेत्तकप्पं, वासावासे अमावितो असहू। काले अद्धाणम्मिय, सागरि तेणो व पाउरणं // क्षेत्रकल्पं देशविशेषाचारमासाद्याभिन्नान्यपि प्राब्रियन्ते, यथासिन्धुविषये तादृशानि प्रावृत्य हिण्डन्ते।वर्षावासे वावर्षाकल्पं प्रावृत्य हिण्डन्ते ।अभावितः शैक्षः कृत्स्नानि प्रावृत्य हिण्डते, यावद्भावितो भवति / असहिष्णुः शीतमुष्णं वा नाधिसोढुं शक्नोति ततः कृत्स्नं प्रावृणुयात्। कालेवा प्रत्यूषे भिक्षार्थ प्रविशन् प्रावृत्य निर्गच्छेत्। अध्वनि वा प्रावृता गच्छन्ति / यत्सागारिकप्रति-बद्धप्रतिश्रये स्थितास्ततः प्रावृताः सन्तः कायिकादिभुवं गच्छन्ति, स्तेना वा पथि वर्तन्ते, तत उत्कृष्टोपधिं स्कन्धे कक्षायां वा विण्टिकां कृत्वोपरि सर्वाङ्गीणप्रावृता गच्छन्ति / एतेषु कारणेषु कृत्स्नस्योपधेः प्रावरणं कर्त्तव्यम्। तथा - निरुवहयलिंगमेदे, गुरुगा कप्पंति कारणज्जाए। गेलण्ण-लोय-रोगे, सरीरवेतावडियमादी / / निरुपहतो नाम नीरोगस्तस्य लिङ्गभेदं कुर्वतश्चतुर्गुरुकाः / अथवा निरुपहतं नाम यथाजातलिङ्ग, तस्यभेदे चतुर्गुरु। तस्य च लिङ्गभेदस्येमे भेदाः खंधे दुवार संजति,गरुलद्धंसे य पट्टलिंगदुवे। लहुगो लहुगो यतिसु वि, चउगुरुओ दोसु मूलं तु // स्कन्धे कल्पशीर्षद्वारिकां वा करोति, मासलधुसंयती प्रावरणं करोति, चतुर्लघु / गरुडपक्षिकं प्रावृणोति, अर्धाशकृतं करोति, कटीपट्टकं बध्नाति, एतेषु त्रिष्वपि चतुर्गुरु / गृहस्थलिङ्गं परलिङ्ग वा करोति, द्वयोरपि मूलम्। द्वितीयपदे तु कारणजाते लिङ्गभेदोऽपि कर्तु कल्पते। कुत्रेत्याह-ग्लानत्वं कस्यापि विद्यते। तस्योद्वर्तन-मुपदेशनमुत्थापनं वा कुर्वन् कटीपट्टकं बध्नीयात् / लोचं वा अन्यस्य साधोः कुर्याणः पट्टकं बध्नाति ।(रोगित्ति) कस्यापि रोगिणोऽर्शासि लम्बन्ते, द्वौ वृषणौ वा शूनौ, स कटीपट्टकं बनीयात् / गृहलिङ्गान्यलिङ्गयोरयमपवादः - असिवे ओमोयरिए, रायदुढे व वादिदुद्वे वा। आगाढ अन्नलिंग, कालक्खेवो व गमषं वा / / स्पपक्षप्रान्ते आगाढे अशिवे अन्यलिङ्गं कृत्वा तत्रैवकालक्षेपं कुर्वन्ति, अन्यत्र वा गच्छन्ति। एवं राजद्विष्ट राज्ञि साधूनामुपरि द्वेषमापन्ने, वादिद्विष्ट वा वादपराजितेक्वापिवादिनि व्यपरोपणा-दिकं कर्तुकामे एवंविधे कारणे आगाढे अन्यलिङ्गमुपलक्षणत्वाद् गृहिलिङ्गं कृत्वा कालक्षेपो वा गमनं वा विधेयम् ।बृ०६ उ० / पं०भा०। पं०चू०। पंचा०। पं०सं०। आव०। कल्प० / जीत० / प्रव०। स्था० / (तिन्दुकोद्याने के शीकुमारेण चातुर्यामपञ्चया-मधर्मभेदहेतुप्रश्नकारकेण "अचेलगो य जो धम्मो, जो इमो संतरुत्तरो। देसिओ वद्धमाणेणं, पासेण य महायसा // 1|| उत्त०२३ अ० इत्याचे लक्यधर्मस्य कथं वीरतीर्थे सत्त्वं पार्श्वतीर्थेऽसत्त्वमिति पृष्टो गौतमो विभेदकारणं 'गोयमकेसिज' शब्दे वक्ष्यते) महापद्मस्य भविष्यत्प्रथमतीर्थकरस्य समयेऽप्यचेलकधर्मो भविष्यति / स्था०६ ठा। पञ्चभिः प्रकारैरचेलकः प्रशस्तो भवतिपंचहिं ठाणे हिं अचेलए पसत्थे भवइ / तं जहा- अप्पा पडिलेहा,लाघविए पसत्थे, रूवे वेसासिए, तवे अणुण्णाए, विउले इंदियनिम्गहे। (पञ्चहिं इत्यादि) प्रतीतम् , नवरं, न विद्यन्ते चेलानि वासांसि यस्यासावचेलकः, स च जिनकल्पिकविशेषः, तदभावादेव / तथा स्थविरकल्पिकचाल्पाल्पमूल्यसप्रमाणजीर्णमलिनवसनत्वादिति प्रशस्तः, प्रशंसितस्तीर्थकरादिभिरिति गम्यते / अल्पा प्रत्युपेक्षा अचेलकस्य स्यादिति गम्यं प्रत्युपेक्षणीयं, तथाविधोपधेरभावात् / एवं च न स्वाध्यायादिपरिमन्थ इति 1, तथा लघोर्भायो लाघवं तदेव लाघविकं, द्रव्यतो भावतोऽपि रागविषयाभावात् प्रशस्तमनिन्द्यं स्यात् 2, तथा रूपं नेपथ्यं वैश्वासिकं विश्वास-प्रयोजनमलिप्सुतासूचकत्वात् स्यादिति 3, तथा तप उपकरण-संलीनतारूपमनुज्ञातं जिनानुमतं स्यात् 4, तथा विपुलो महा-निन्द्रियनिग्रहः स्यात् , उपकरणं विना स्पर्शनप्रतिकूल-शीतवातातपादि सहनादिति 5 / स्था०५ ठा०३ उ०। प्रतिमा प्रतिपन्नो वस्त्रत्रयवान् चतुर्थं वस्त्रमन्वेषयन्लब्ध्या च तद् हेमन्ते तस्मिन् जीणे, "अदुवा एगसाडे,अदुवा अचेले लाघवियं आगममाणे तवे से अभिसमण्णागते भवति ति"। 'मरण' शब्दे दर्शयिष्यते / (अचलेस्य निर्ग्रन्थस्य सचेलिकाभिर्निर्ग्रन्थीभिः संवासः 'संयास' शब्दे द्रष्टव्यम्) अचेलगधम्म-पुं०(अचेलकधर्म) अविद्यमानानि जिनकल्पिक Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचेलगधम्म 190 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अचेलपरिसह विशेषापेक्षया असत्त्वादेव, स्थविरकल्पिकापेक्षया तु जीर्ण- इत्येवंबोधत्वान्न परिदेवयेत्। किमुक्तं भवति-अचेलः सन् किमिदानी मलिनखण्डितश्वेताल्पत्वादिना चेलानि वस्त्राणि यस्मिन् स तथा, शीतादिपीडितस्य मम शरदणमिति न दैन्यमालम्बेत इति सूत्रार्थः / धर्मश्चारित्रम् , स चासौ धर्मश्चालेकधर्मः / आचेलक्याख्ये द्वा- उत्त०२ अ०। विंशतितीर्थकराप्रज्ञप्ते ऋषभवीरतीर्थसम्मते साध्याचारे, स्था० अत्र एवं धम्महियं णश्चेति' सूत्रसूचितं दृष्टान्तमाहठा०। (यथा चैष धर्मस्तथाऽनन्तरम् 'अचेलग' शब्दे दर्शितः) वीतमये देवदत्ता, गंधारं सावगं पडियरिता। अचेलपरि(री)सह-पुं० [अचेलपरि(री)षह] अचेलं चेलाभावो लमइ सयं गुलियाणं, पोतेणाणि उल्लेणिं / / जिनकल्पिकादीनाम् , अन्येषां तु भिन्नमल्पमूल्यं च चेलमप्यचेलम्, दठूण चेडिमरणं,पमावई पव्वइतु कालगया। अवस्वशीलवत् , तदेवपरीषहोऽचेलपरीषहः। उत्त०२ अ०।अचेलतायां पुक्खरकरणं गहणं, दसपुरपज्जोयमुयणं च // जीर्णापूर्ण मलिनादिचेलत्वे लज्जादैन्याऽऽकाङ्क्षाद्य-करणेन माया य रुहसोमा, पिया य णामेण सोमदेवो त्ति। परिषह्यमाणत्वादिति। भ०८ श०८ उ०। षष्ठे परीषहे। प्रश्न०५ संव० माया य फग्गुरक्खिय, तोसलिपुत्ता य आयरिया // द्वा०। स०। अमहामूल्यानि खण्डितानि जीर्णानि च वासांसि धारयेत्। सीहगिरिमगुत्ते, वइरक्खमणा पढित्तु पुव्वगयं / आव०४ अन च तथाविधवस्त्रः सन्मम प्राक्परिगृहीतं वस्त्रं नास्ति, पव्वावितो य माया, रक्खियक्खमणेहि जणओ य॥ नापि तथाविधो दाते ति दैन्यं गच्छेत् , अन्यलाभसम्भावनया प्रमुदितमानसश्च नभवेदिति। प्रव०५६ द्वा० / यथा-नाऽस्ति वासोऽशुभं गाथाचतुष्टयम् / वीतभये देवदत्ता गन्धारं श्रावकं प्रतिजागर्या लभते चैतत् , तन्नेच्छेत्साध्व- साधु वा / नाग्न्येन विप्लुतो जानन् , शतंगुलिकानां, प्रद्योतेनानीतो उज्जयिनी,दृष्ट वा चेटीमरणं प्रभावती लाभाऽलाभौ विचिन्त्यताम्" ||1|| ध०३ अधि०।"शीताभितापेऽपि प्रव्रज्य कालं गता, पुष्करकरणं, ग्रहणं, दशपुरप्रद्योतमोचनं च, माताच यतिस्त्वग्वस्त्रत्राणवर्जितः / वासोऽकल्पं न गृह्णीयादग्निं रुद्रसोमा, पिता च नाम्ना सोमदेव इति, भ्राता च फल्गुरक्षितः, नोज्ज्यालयेदपि" ||1|| आव० 1 अ०। तोसलिपुत्राश्चाचार्याः / सिंहगिरिभद्रगुप्ताभ्यां वजक्षमणः पठित्या पूर्वगतं एतदेव सूत्रकार आह - प्रवाजितश्च भ्राता रक्षितक्षमणैर्जनकश्चेति गाथाचतुष्टया-क्षरार्थः। परिजुण्णेहिं वत्थेहि, होक्खामिति अचेलए। भावार्थस्तु वृद्धसंप्रदायादवसे यः / स चाऽयं -(जीवित स्वामिप्रतिमावक्तव्यता आर्य रक्षितसूरिणां दशपुरमागमनावधि किंवा सचेलए होक्खं, इह मिक्खू ण चिंतए।। 'अञ्जरक्खिय' शब्दे वक्ष्यते) उत्त०नि०३ अ० अथार्यरक्षितसूरिणा तत्र परिजीर्णः समन्ताद् हानिमुपगतैर्वस्वैः शाटकादिभिः (होक्खा-मिति) स्वमातृभागिनीप्रमुखः सर्वसांसारिकवर्गो दीक्षां ग्राहितः / पिता तु इतिर्भिन्नक्रमः, ततो भविष्याम्यचेलक श्वेलकविकलो प्रतिबोधितोऽपिसाधुलिनं न गृह्णाति। स्वज्ञातीयजनानां लांच वहति / ऽल्पदिनभावित्वादेषामिति भिक्षुर्न चिन्तयेत् / अथवा सचेलक - श्वेलान्वितो भविष्यामि, परिजीर्णवस्त्रं हि मां दृष्ट्वा कश्चित् श्राद्धः आचार्या दीक्षाग्र हणाय तस्य बहु कथयन्ति / ततः स - सुन्दरतराणि वस्त्राणि दास्यतीति भिक्षुर्न चिन्तयेत् / इदमुक्तं भवति कथयतिपृथुलवस्त्रयुगलयज्ञोपवीतकमण्डलुच्छत्रिकोपानद्भिः समं चेद् जीर्णवस्त्रः सन्नसमः प्राक्परिगृहीतं, न परं वस्त्रमस्ति, नच तथा-विधो दीक्षां ददासि, तदा लामि / ततो लाभं दृष्ट्या तादृशमेव तं गुरुः दातेति न दैन्यं गच्छेद् नचान्यलाभसंभावनया प्रमुदितमान-सो भवेदिति प्रवाजितवान्। ग्राहित-श्वरणकरणस्वाध्यायम्। अन्यदा चैत्यवन्दनार्थ सूत्रार्थः / इत्थं जीर्णा दिवस्त्रतयाऽचेलं स्थविरकल्पि गता आचार्यास्तत्र साधुशिक्षिता गृहस्थडिम्भका वदन्ति- एनं छत्रिणं कमाश्रित्याचेलपरीषह उक्तः। संप्रति तमेव सामान्येनाह मुक्त्वा सर्वान् साधून वन्दामहे। ततः स वृद्धो वक्तिमम पुत्रनप्वादय एते एगयाऽचेलए होई,सचेले वा वि एगया। वन्दिताः, अहं कस्मान्न वन्दितः?, किंमयादीक्षा नगृहीता? तआहुःएयं धम्महियं णचा, णाणी णो परिदेवए॥१३॥ किं दीक्षितस्य छत्रकमण्डल्यादीनि स्युः / ततो गुरुष्वागतेषु स वृद्धो एकदैकस्मिन्काले जिनकल्पप्रतिपत्तौ, स्थविरकल्पेऽपि दुर्लभ वक्ति-पुत्र! मम डिम्भका अपिहसन्ति, ततोन कार्य छत्रेण / एवं प्रयोगेण वस्त्राप्तौ वा सर्वथा चेलाभावेन, सति वा चेले विना वर्षादीनि क्रमतो धौतिकवस्त्रं मुक्त्या सर्व त्याजितः।बहुशस्तथा प्रयोगकरणेऽपि तमप्रावरणेन, जीर्णादिवस्वतया वा अचेलक इत्यवस्त्रो भवति। पठ्यते धौतिकं न मुञ्चति स्म / अन्यदा एकः साधुर्गृहीतानशनः स्वर्ग गतः। च-'अचेलएसयं होति' तत्र स्वयमेवात्मनैव न परामि-योगतः सचेलः तत आचार्यद्धस्य धौतिकत्याजनाय साधून प्रत्येवमुक्तम्-य एनं सवस्त्रश्वाप्येकदा स्थविरकल्पिकत्वे तथा- विधालम्बनेनावरणे मृतसाधुं व्युत्सृष्टं स्कन्धेन वहति, तस्य महत् पुण्यम्। ततः सस्थविरो सति। यद्येवं ततः किमित्याह- एतदित्य-वस्थौचित्येन सचेलत्वमचेलत्वं वक्ति-पुत्राऽत्र किं बहुनिर्जरा ? आचार्या आहुः-बाढम्।ततः सवक्तिच धर्मो यतिधर्मस्तस्मै हि तमुपकारकं धर्महितं, ज्ञात्वाऽववुध्य, अहं वहामि / आचार्या वदन्ति अत्रोपसर्गा जायन्ते, चेटकरूपाणि तत्राचेलकत्वस्य धर्महितत्यमल्पप्रत्युपेक्षादिभिः। यथोक्तम् - "पंचहिं लग्यन्ते, यदि शक्यतेऽधिसोढुं तदा वरं, यदि क्षोभो भविष्यति ठाणेहिं पुरिमपच्छिमाणं अरहंताणं भगवंताणं अचेलएपसत्थे भवति।तं तदाऽशुभमस्माकं भविष्यति, एवं स्थिरीकृत्य स तत्र नियोजितः जहा-अप्पापडिलेहा वेसासिएरुवे 1 तवे 2 अणुमए ३लाघवपसत्थे 4 साधुसाध्वीसमुदायः पृष्ठे स्थितः। यावत्तेन साधुशवं स्कन्धे समारोप्य विउले इंदियणिग्गहे 5 ति" / सचेलत्वस्य तु धर्मोपकारित्वमग्न्या- वोढुमारब्धं, तावत्तस्य धौतिकं गुरुशिक्षितडिम्भकैराकर्षितम् / स द्यारम्भनिवारकत्वेन संयमफलत्वात् / ज्ञानी नग्ना एव लज्जया यावत् तत्त्साधुशवं स्कन्धान्मुञ्चति तावदन्यैरुक्तम्-मा मुञ्च प्रायस्तिर्यग्नारकास्तद्भवभयादेव च मया सन्त्यपि वासांस्यपास्यन्त | 2, एकेन चोलपट्टको दवरकेन कृत्वा कटौ बद्धः / स तु लज्जया Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचेलपरिसह 191 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अचेलपरिसह तत्साधुशवं द्वारभूमिं यावदुदूह्य तत्र व्युत्सृज्य पश्चादागतो वक्ति-पुत्र ! अद्य महानुपसर्गो जातः / आहुराचार्याः- आनीयतां धौतिकं, परिधाप्यताम् / ततः स वक्ति-अथाऽलं धौतिकेन, यद् दृष्टव्यं तद् दृष्टमेव / अथचोलपट्ट एवाऽस्तु। पूर्व तेनाऽचेलपरीषहो नसोढः, पश्चात् सोढः / उत्त०२ अ०। एतदेवाऽचेलतासहनं प्रत्यपादि, यथाएयं खु मुणी आयाणं सया सुअक्खायधम्मे विधूतकप्पे णिज्झोसइत्ता, जे अचेले परिसिते तस्स णं भिक्खुस्स णो एवं भवति, परिजुण्णे मे वत्थे वत्थं जाइस्सामि सुतंजाइस्सामि सइं जाइस्सामि संधिस्सामि सीविस्सामि उक्कसिस्सामि वोक्कसिसामि परिहिस्सामि पाउणिस्सामि, अदुवा तत्थ परिक्कमंतं मुजो अचेलं तणफासा फुसंति सीयफासा फुसंति तेउफासा फुसंति दंसमसगफासा फुसंति एगयरे अण्णयरे विरूवरूवे फासे अहियासेत्ति अचेले लाघवं आगममाणा, तवे से अभिसमण्णागए भवति, जहेयं भगवता पवेदितं, तमेव अभिसमेचा सव्वतो, सव्वत्ताएसम्मत्तमेव समभिजाणिया, एवं तेसिं महावीराणं चिरराइंपुव्वाइंवासाणि रीयमाणाणं दवियाणं पास अहियासियं आगयपण्णाणाणं किसाबाहा भवंति। पयणुए मंससोणिए विस्सेणिं कट्ट परिणाए एस तिण्णे मुत्ते विरए वियाहिए त्ति बेमि। एतद्यत् पूर्वोक्तं वक्ष्यमाणं वा, खुक्यिालङ्कारे, आदीयत इत्यादानं कर्म, आदीयत इति वाऽनेन कर्मोत्पादनं कर्मोपादानम् / तच धर्मोपकरणातिरिक्तं वक्ष्यमाणं वस्त्रादि तन्मु निर्दोषयितेति संबन्धः / किंभूतः ? सदा सर्वकालं सुष्ठवाख्यातो धर्मो ऽस्येति स्वाख्यातधर्मा संसारभीरुत्वाद्यथारोपितभारवाहीत्यर्थः, तथा विधूतः क्षुण्णः सम्यक्स्पृष्टः कल्पआचारोयेन स तथा, स एवंभूतो मुनिरादानं झोषयित्वा आदानमपनेष्यति ! कथं पुनस्तदादानं वस्त्रादि स्याद् येन तद् झोषयितव्यं भवेदित्याह-(जे अचेले इत्यादि) अल्पार्थेन, यथाअयं पुमानज्ञः स्वल्पज्ञान इत्यर्थः / यः साधु स्य चेलं वस्त्रमस्तीत्यतोऽचेलोऽल्पचेल इत्यर्थः। संयमे पर्युषितो व्यवस्थित इति तस्य भिक्षो तद्भवति नैतत्कल्पते / यथा परिजीर्णं में वस्त्रमचेलकोऽहं भविष्यामि, न मेऽत्र त्वक्त्राणं भविष्यति, ततश्च शीताद्यर्दितस्य किं शरणं मे स्याद्वस्त्रं विनेत्यतोऽहं कश्चन श्रावकादिक प्रत्येत्य वस्त्र याचिष्ये, तस्यवाजीर्णस्य वस्त्रस्य संधानाय सूत्रं याचिष्ये, सूची याचिष्ये वा, आप्ताभ्यां सूचीसूत्राभ्यां जीर्णवस्त्ररन्ध्र संधास्यामि, पाटितं सीविष्यामि, लघु वा सदपरशकललगनत उत्कर्षयिष्यामि, दीर्घ वासत् खण्डापनयनतो व्युत्कर्षयिष्यामि। एवं च कृतं सत्परिधास्यामि, तथा प्रावरिस्यामीत्याद्यार्तध्यानोपहतः सत्यपि-जीर्णादिवस्त्रसद्भावे यद्भविष्यत्ताध्यवसायिनो धर्मकप्रवणस्य तु भवत्यन्तःकरणवृत्ति-रिति / यदि वा जिनकल्पिकाभिः प्रायेणैवेतत् सूत्रं व्याख्येयम् / तद्यथा-(जे अचेले इत्यादि) नाऽस्यचेलं वस्त्रमस्तीत्यचेलः छिद्रपाणित्वात्पाणिपात्रः / पाणिपात्रत्वात्पात्रादिसप्तविधतन्निर्योगरहितोऽभिग्रहविशेषात् त्यक्तकल्पत्रयः / केवलं रजोहरणमुखवस्त्रिकासमन्वितस्तस्याचेलस्य भिक्षो तद् भवति, यथा परिजीर्ण मे वस्त्रं सच्छिद्रं पाटितं चेत्येवमादिवस्त्रगतमपध्यानं न भवति, धर्मिणोऽभावा-धर्माभावः / सति च धर्मिणि धर्मान्वेषणं न्याय्यमिति सत्यं वचस्तथेदमपि तस्य न भवत्येव। यथापरं वस्त्रमहंयाधिष्य इत्यादि पूर्ववन्ने यम् / योऽपि छिद्रपाणित्वात्पात्रनिर्योगसमन्वितः कल्पत्रयान्यतरयुक्तोऽसावपि परिजीर्णादिसद्भावे तद्गतम- पध्यानं न विधत्ते, यथाकृतस्याल्पपरिकर्मणो ग्रहणात् सूचि-सूत्रान्वेषणं न करोति / तस्य चाचेलस्याल्पचेलस्य वा तृणादिस्पर्शसद्भावे यद्विधेयं तदाह(अदुवा इत्यादि) तस्य ह्यचेलतया परिवसतो जीर्णवस्त्रादिकृतमपध्यानं न भवति, अथवैतत् स्यात्तत्राचेलत्वे पराक्रममाण (भुजो) पुनस्तं साधुमचेलं क्वचिद् ग्रामादौ त्वक्त्राणाभावात् तृणशय्याशायिनं तृणानां स्पर्शाः परुषास्तृणैर्वा जनिताः स्पर्शा दुःखविशेषास्तृणस्पर्शास्ते कदाचित् स्पृशन्ति, तांश्च सम्यगदीनमनसाऽतिसहत इति संबन्धः। तथा शीतस्पर्शाः स्पृशन्त्युपतापयन्ति, तेजउष्णस्पर्शाः स्पृशन्ति, तथा दंशमशकस्पर्शाः स्पृशन्ति / तेषां तु परीषहाणामे कतरेऽविरुद्धा दंशमशकतृणस्पर्शादयः प्रादुर्भवेयुः, शीतोष्णादिपरीषहाणां या परस्परविरुद्धानामन्यतरे प्रादुःष्युः / प्रत्येकं बहुवचननिर्देशश्च तीव्रमन्दमध्यमावस्थासंसूचक इति / एतदेव दर्शयति-विरूपं बीभत्सं मनोनयनानालादि विविधं वा मन्दादिभेदादूपं येषां ते विरूपरूपाः / के ते ? स्पर्शा दुःखविशेषास्तदापादकास्तृणादिस्पर्शा वा, तान् सम्यक्करणेनापध्यानरहितोऽधिसहते, कोऽसौ ? अचेलोऽपगतचेलोऽल्पचेलो वाऽचेलस्वरूपो वा सम्यक् तितिक्षते / किमभिसन्ध्य परिषहानधिसहत इत्यत आह-(लाघवमित्यादि) लघो यो लाघयं, द्रव्यतो भावतश्च, द्रव्यतो हापकरणलाघवं, भावतः कर्मलाघवम् / आगमयन्नवगमयन्नवबुध्यमान इति यावदधिसहते परीपहोपसर्गानिति / नागाजुर्नीयास्तु पठन्ति- "एवं खलु से उवगरणलाघवियं तवं कम्मक्खयकारणं करेति" एवमुक्तक्रमेण भावलाघवार्थमुपकरणलाघवं तपश्च करोतीति भावार्थः। किञ्च (तवे इत्यादि) (से) तस्योपकरणलाघवेन कर्मलाघवमागमयन्तं कर्मलाघवेन चोपकरणलाघवमागमयतस्तृणादिस्पर्शानधिसहमानस्य तपः कायक्लेशरूपतया बाह्यमभिसमन्वागतं भवति / सम्यगाभिमुख्येन सोढुं भवति / एतचनमयोच्यत इत्येतद्दर्शयितुमाह-(जहेयं इत्यादि) यथा येन प्रकारेणे दमिति यदुक्तं वक्ष्यमाणं चैतद, भगवता वीरवर्धमानस्वामिना, प्रकर्षणाऽऽदौ वा वेदितं प्रवेदितमिति / यदि नाम भगवता प्रवेदितं ततः किमित्याह-(तमेव इत्यादि) तदुपकरणलाघवमाहारलाघवं वाऽभिसमेत्य ज्ञात्वा, एवकारोऽवधारणे, तदेवं लाघवं ज्ञात्वेत्यर्थः / कथमिति चेदुच्यते- सर्वत इति द्रव्यतः क्षेत्रतःकालतो भावतश्च / तत्र द्रव्यत आहारोपकरणादौ, क्षेत्रतः सर्वत्र ग्रामादौ, कालतोऽहनि रात्रो वा, दुर्भिक्षादौ वा / सर्वात्मनेति। भावतः कृत्रिमकल्काद्यभावेन, तथा सम्यक्त्वमिति / प्रशस्तं शोभनमेकं सङ्गतं वा तत्त्वं सम्यक्त्वम् / तदुक्तम् - "प्रशस्तः शोभनश्चैव, एकः संगत एव च / इत्येतैरुपसृष्टस्तु, भावः सम्यक्त्वमुच्यते" / / 1 / / तदेवंभूतं सम्यक्त्वमेव वा समभिजानीयात् सम्यगाभिमुख्येन जानीयात् परिच्छिन्द्यात् तथा ह्यचेलोऽप्येकचेलादिकं नावमन्येत, यत उक्तम्-"जो विदुवत्थ तिवत्थो, एगेण अचेलगो व संथरइ। ण हु ते हीलेंति परं, सव्ये विहु ते जिणा णाए।।१।। तथा- "जे खलु विसरिसकप्पा, संघयणधियादिकारणं भणियं / पप्पणवमणयहीणं, अप्पाणं मण्णई तेहिं / / 1 / / सव्वे वि जिणा जाए, Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचेलपरिसह 192 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अचेलिया जहाविहिं कम्मखवणमट्ठाए। विहरति उज्जुया खलु, सम्म अभिजाणई एवं" // 2 // इति / यदि वा तदेव लाघवमभिसमेत्य सर्वतो द्रव्यादिना सर्वात्मनादिना सम्यक्त्वमेव सम्यगभिजानी-यात् तीर्थकरगणधरोपदेशात् सम्यक् कुर्यादिति तात्पर्यार्थः / एतच नाशक्यानुष्ठानम् / ज्वरहरतक्षकचूडालङ्काररत्नोपदेशवद् भवतः केवलमुपन्स्यते, अपि त्वन्यैर्बहुभिश्चिरकालमासे वितमित्येतदर्शयितुमाह-(एवमित्यादि) एवमित्यचेलतया पर्दूषितानां तृणादिस्पर्शानधिसहमानानां तेषां महावीराणां सकललोकचमत्कृतिकारिणां चिररात्रं दीर्घकालं यावजीवमित्यर्थः। तदेव विशेषतो दर्शयति-पूर्वाणि प्रभूतानि रीयमाणानां संयमानुष्ठाने गच्छता, पूर्वस्य तुपरिमाणं वर्षाणां सप्ततिः कोटिलक्षाः षट्पंचा-शत्कोटिसहस्रास्तथा प्रभूतानि वर्षाणि रीयमाणानां तत्र नाभेया-दारभ्य शीतलंदशमतीर्थङ्करं यावत्पूर्वसंख्यासद्भावात् पूर्वा-णीत्युक्तम्। ततआरभ्य श्रेयांसादारभ्य वर्षसंख्याप्रवृत्तेर्वर्षा-णीत्युक्तमिति / तथा द्रव्याणां भव्यानां मुक्तिगमनयोग्यानां पश्यावधारय, यत्तृणस्पर्शादिकं पूर्वमभिहितं, तदभिषोढव्यमिति सम्यक् करणेन स्पर्शातिसहनं कृतमेतदवगच्छति। एतचापि सहमानानां यत्स्यात्तदाह-(आगय इत्यादि) आगतं प्रज्ञानं पदार्थाविर्भावकं येषां ते तथा, तेषामागतप्रज्ञानानां तपसा परीषहातिसहनेन च कृशा बाहयो भुजा भवन्ति / यदि वा सत्यपि महोपसर्गपरीषहादाववगतप्रज्ञानत्वाद् बाधाः पीडाः कृशा भवन्ति, कर्मक्षपणायोस्थितस्य शरीरमात्रपीडाकारिणः परीषहोपसर्गान् सहायानिति मन्यमानस्य न मनःपीडोत्पद्यत इति / तदुक्तम् - "निम्माणेइ परोव्विय, अपाणओ न विय णं सरीराणं / अप्पणोचिय हियस्स, न उण दुक्खं परो वेत्ति" ||1 // इत्यादि / शरीरस्य तु पीडा भवत्येवेति दर्शयितुमाह-(पयणुए इत्यादि) प्रतनुके च, मांसंच शोणितं चमांसशोणिते, द्वे अपि। तस्य हिरूक्षाहारत्या-दल्पाहारत्वाच प्रायशः खलत्वेनैवाहारः परिणमति,न रसत्वेन कारणाभावाच प्रतनुकंच शोणितं तत्तनुत्वात् मांसमपीति, ततो मेदाऽस्थ्यादीन्यपि। यदि वा प्रायशो रूक्षं वातलं भवति वातप्रधानस्य च प्रतनुतैव मांसशोणितयोरचेलतया च तृणस्पर्शादिप्रादुर्भावन शरीरोपतापात्प्रतनुके मांसशोणिते भवत इति संबन्धः / तथा संसारश्रेणी संसारावतरणी रागद्वेषकाषायसंततिस्तां क्षान्त्यादिना विश्रेणिं कृत्वा तथा परिज्ञात्वा च समत्वभावनया। तद्यथाजिनकल्पिकः कश्चिदेककल्पधारी द्वौत्रीन् वा बिभर्ति, स्थविर-कल्पिको वा मासार्द्धमासक्षपकस्तथा विकृष्टाविकृष्टतपश्चारी प्रत्यहं भोजी कूरगडुको वा / एते सर्वेऽपि तीर्थकृद्वचनानुसारतः परस्परानिन्दया संस्तृणन्ति सम्यक्त्वदर्शन इति / उक्तं च-"जो वि दुवत्थतिवत्थो, एगेण अचेलगो व संथरइ / न हु ते हीलेंति परं, सव्ये वि हु ते जिणा णाए" ||1|| तथा जिनकल्पिकः प्रतिमाप्रतिपन्नो वा कश्चित्कदाचित्षडपि मासानात्मकल्पेन भिक्षां न लभेत तथाऽप्यसौ कूरगडुकमपि यथोदनमुण्डस्त्वमित्येवं न हीलयति / तदेवं समत्वदृष्टिप्रज्ञया विश्रेणीकृत्यैष उक्तलक्षणो मुनिस्तीर्णः संसार-- सागरम् , एष एव मुक्तः सर्वसङ्गेभ्यो विरतः सर्वसावधानुष्ठानेभ्यो व्याख्यातोनाऽपर इतिब्रवीमि / इतिशब्दः पूर्ववत्। आचा०१ श्रु०६अ०२ उ०। अचेलपरि(री)सहविजय-पुं०पअचेलपरि(री) षहविजयब उत्तम धृतिसंहननादिविकलानामिदानीन्तनसाधूनां तृणग्रहणाऽनलसेवापरिहारतः संयमस्फीतिनिमित्तं खण्डिताल्पमूल्यपरिजीर्णा सर्वजीर्णानि वस्त्राणि धारयतामाचेलक्यपरीषहसहने, पं०सं०। संजमजोगनिमित्तं, परिजुन्नादीणि धारयंतस्स। कह न परीसहसहणं, जइ णो सइ निम्ममत्तस्स // आचेलक्यमुक्तप्रकारेण तावदौपचारिकं ततस्तथारूपाचेल-क्यासेवनं परीषहसहनमप्यौपचारिकमेव स्यात् / तथा च सति कुतो मोक्षावाप्तिरुपचरितस्य निरुपचरितार्थक्रियाकारित्वायोगात् , न हि माणवको दहनोपचारादाधीयते पाके इति यद्येवं तर्हि कल्पनीयमाहारमपि भुजानस्य न सम्यक् क्षुत्परीषहसहनं भवेत् भवदुक्तन्यायेन सर्वथा आहारपरित्यागत एव तत्सहनोपपत्तेः / एवं च सति भगवानप्यर्हन् क्षुत्परीषहजेता न भवेत् / सोऽपि हि भगवान् छद्मस्थावस्थायां भवन्मतेनापि कल्पनीयमाहारमुपभुङ्क्ते / न च स तथा कल्पनीयमाहारमुपभुजानोऽपि क्षुत्परीषहजेता नेष्टः, ततो यथाऽनेषणीयाकल्पनीयभोजनपरित्यागतः क्षुत्परीषहसहनमिष्ट, तथा महामूल्यानेषणीयाकल्पनीयवस्त्रपरित्यागत आचेलक्य परीषहसहनमेष्टव्यम् / न च वाच्यम् - एवं तर्हि कमनीयकामिनीजनपरिभोगपरिहारतः काणेक्षणविरूपवामनेत्रापरिभोगमपि कुर्वतः स्त्रीपरीषहसहनप्रसङ्ग इति, स्त्रीपरिभोगस्यान्यत्र सर्वात्मना सूत्रान्तरेण प्रतिषिद्धत्वात् / न चैवं परिजीर्णाल्पमूल्यवस्त्रपरिभोगः सूत्रान्तरेण प्रतिषिद्धः, ततो नातिप्रसङ्गावाप्तिः / कृतं प्रसङ्गेन / विस्तरेण तु धर्मसंग्रहणीटीकायामपवादः प्रपञ्चित इति तत एवावधार्यः। पं०सं०४ द्वा०। अचेलिआ-स्त्री०(अचेलिका) वस्त्ररहितायां स्त्रियाम्, निर्ग्रन्थ्याऽचेलिकया न भवितव्यम् / बृ०५ उ० / नो कप्पइ निगंथीए अचेलियाए हुतए। नो कल्प्यते निर्गन्थ्या अचेलिकया वस्त्ररहितया भवितुमेषसूत्रार्थः। अथभाष्यम् - वुत्तो अचेलधम्मो, इति काइ अचेलगत्तणं ववण्णा। जिनकप्पो वजाणं, निवारिओ होइ एवं तु॥ अचेलको धर्मो भगवता प्रोक्त इति परिभाव्य काचिदचेलकत्वं व्यवस्थेत कर्तुमभिलषेत्, अतस्तन्निषेधार्थमिदं सूत्रं कृतम् , अचेलकत्वप्रतिषेधेन आचार्याणां जिनकल्पोऽप्येवमनेनैव सूत्रेणैव निवारितो मन्तव्यः। कुत इत्याहअजिअम्मि साहसम्मि, इत्थी ण वए अचेलिआ होउं। साहसमन्नं पि करे, तेणेव अइप्पसंगेणं / कुलडावितावणेच्छति, अचेलयं किमु सई कुले जाया ?|| धिक्कारदुकिआणं, तित्थुच्छेओ दुलमवित्ती॥ साध्यसे भये तरुणादिकृतोपसर्गसमुत्थे अजिते सति अचेलिका भयितुं स्त्री निर्गन्थी न शक्नुयात् / अथ भवति ततस्तेनैवातिप्रसङ्गेनाचेलतालक्षणेनान्यदपि चतुर्थसेवादिकं साहसं कुर्यात, तथा कुलटाऽपि तावद् नेच्छत्यचेलता किं पुनः कुले जाता सती साध्वी। अचेलतां प्रतिपन्नानां चार्यिकाणां (धिक्कारदुक्कि आणं ति) लोकापवादजुगुप्सितानां तीर्थोच्छेदः, दुर्लभा च वृत्तिर्भवति, न कोऽपि प्रव्रजति, न वा भक्तपानादिकं ददातीत्यर्थः / गुरुगा अचेलिगाणं, समलं व दुगंछियं गरहियं च। Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचेलिया 193 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अच्चणा होइ परपत्थणिज्जा, बिइयं अद्धाणमाईसु॥ अत एव यथाऽऽर्यिका अचेलिका न भवन्ति, यतस्तासां चतुर्गुरुका आज्ञादयश्च दोषाः। तथा चेलरहितां संयतीं समलां मलदिग्धदेहां दृष्ट्वा लोको जुगुप्सितं जुगुप्सा कुर्यात् / आः कष्टमिहलोक एतादृष्यवस्था, परलोके तुपापतरा भविष्यति।गर्हितंच गहाँ प्रवचनस्य कुर्यात्-असारं सर्वमेतद्दर्शनमिति / अचेलिका च परस्य प्रार्थनीया भवति / अत्र द्वितीयपदमध्वादिषु विविक्ताना मन्तव्यम् / अपि चपुणरावित्तिनिवारण-उदिण्णमोहो व दवपेलेज्जा। पडिबंधो समणाई, डिंडियदोसा य नगिणाए। अचेलामायाँ दृष्ट्वा प्रव्रज्याभिमुखानामपि कुलखीणां पुन- / रावृत्तिर्भवति, प्रव्रज्यांन ग्रहीयुरित्यर्थः। अन्यो वा कश्चिन्निवारणं कुर्यात्, किमेतासां कापालिनीनां समीपे प्रव्रजितेनेति / यद्वा कश्चिदुदीर्णमोहस्तामप्रावृतां दृष्ट्वा कर्मगुरुकतया प्रेरयेत साऽपि तत्रैव प्रतिबन्धं कुर्यात्, प्रतिगमनादीनि वा विदध्यात्। डिण्डिमदोषाश्च भवेयुः, यत एते नग्नाया दोषा अतोऽचेलया न भवितव्यम्। द्वितीयपदे संयत्या अध्वनि स्तेनैर्विविक्तायास्ततो न किमपि वस्त्रं भवेत् / आदिशब्दात् क्षिप्तचित्ता यक्षाविष्टा वा वस्त्राणि परित्यजेत् , एवमचेलाऽपि भवतीति। बृ 5 उ०। निचून अचोइय-त्रि०(अचोदित) अप्रेरिते, "वित्तो अचोइओ णिचं, खिप्पं हवइ सुचोइए'' उत्त०१ अ०। अचोप्पडा-स्त्री०(अचोपडा) निस्तुपाख्ये अलेपकृते पेयद्रव्ये, ध० 3 अधि०। अचोरिय-न०(अचौर्य) अव्य०।चोरताभावे,"अचोरियं करेंतं'' अचौर्य कुर्वन्तं, चौरतामकुर्वाणमित्यर्थः / प्रश्न०२ आश्रद्वा०। अच-धा०1 अर्च पूजायाम, उभ०, भ्वादि०, सेट् / अर्चति, अर्चते, आनर्च,आनर्चे, आर्चीत्, आर्चिष्टाचुरा०,उभ०, सक०, सेट्ाअर्चयति, अर्चयते।वाच०।"अच्चे मुत्ते महाभागा, एति किंचण अच्चिमो"। उत्त०१२ अ०। *अर्च-त्रि०ाअर्चति यः सः अर्च-अच्। कगचजतदपयवां प्रायो लुक् / 8.11 177 / इत्यसंयुक्तस्यैव लुम्विधायकत्वेन न लुक् / पूजके, प्रा० / कालविशेषात्मकलवभेदेच, यस्मिन् हि श्रमणो भगवान् महावीरो निर्वृतः / कल्प। *अय॑-त्रि०। पूज्ये, स्था०३ ठा०१ उ०। अचंग-न०(अत्यङ्ग) अतिशायिषु कारणेषु, "वजणमणंतगुंवरि, अचंगाणं च भोगओ माणं' / अत्यङ्गानीत्यतिशायीनि भोगस्य कारणान्यवयवा मधुमद्यमांसादीनि रात्रिभोजनसक्-चन्दनाङ्गनादीनि च / पञ्चा०१ विव०। अचंतकाल-त्रि०(अत्यन्तकाल) अन्तमतिक्रान्तोऽत्यन्तः, अत्यन्तः कालो यत्र सोऽत्यन्तकालः / असीमकालिके, "अचंतकालस्स समूलयस्स, सव्वस्स दुक्खस्स उ जो पमो-क्खो" / उत्त० * 32 अ०। अचंतथावर-पुं० स्त्री०(अत्यन्तस्थावर) अनादिस्थावरे, "मरुदेवा अचंतथावरा सिद्धा'' मरुदेवा अत्यन्तस्थावरा अनादिवनस्पतिराशेरुद्धृत्य सिद्धाः। आ०म०द्वि०। अचंतपरम-त्रि०(अत्यन्तपरम) अधिकोत्कृष्ट, "अचंतपरमो आसी, अउलो रूवविम्हिओ'। उत्त०२० अ०॥ अञ्चतभावसार-त्रि०(अत्यन्तभावसार) अतीव प्रशस्ताध्यवसायप्रधाने, पञ्चा०१४ विव०। अचंतविसुद्ध-त्रि०(अत्यन्तविशुद्ध) सर्वथा निर्दोषे, स्था० 6 ठा० / "अचंतविसुद्धदीहरायकुलवंसप्पसूय' अत्यन्तं विशुद्धः सर्वथा निर्दोषो दीर्घश्च पुरुषपरम्परापेक्षया यो राज्ञां भूपालानां कुललक्षणो वशः सन्तानस्तत्र प्रसूतो जातो यः स तथा। स्था०६ ठा०। अचंतसंकिलेस-पुं०(अत्यन्तसंक्लेश) अतिनिविडतया राग द्वेषपरिणामे,ध०१ अधि०। अचंतसुपरिसुद्ध-त्रि०(अत्यन्तसुपरिशुद्ध) अतिनिर्मलतरे, पञ्चा०१४ विव०। अचंतसुहि(ण)-त्रि०(अत्यन्तसुखिन्) निरतिशयसुखाऽऽप्लुते, "तो होइ अचंतसुही कयत्थो"। उत्त०३२ अ०। अचंताभाव-पुं०(अत्यन्ताभाव) अत्यन्तोऽन्तमतिक्रान्तो नित्योऽभावः / क०सं० / नास्तीति वाक्याभिलप्यमाने नाशप्रागभावभिन्ने संसर्गाभावे, वाच० / अत्यन्ताभावमुपदिशन्तिकालत्रयापेक्षिणी तादात्म्यपरिणामनिवृत्तिरत्यन्ताभाव इति / अतीतानागतवर्तमानरूपकालत्रयेऽपि याऽसौ तादात्म्यपरिणामनिवृत्तिरेकत्वपरिणतिव्यावृत्तिः सोऽत्यन्ताभावोऽभिधीयते / निदर्शयन्ति-यथा चेतनाचेतनयो रिति, न खलु चेतनमात्मतत्त्वमचेतनपुद्गलात्मकतामचकलत्कलयति कलयिष्यति वा, तचैतन्यविरोधात् / नाप्यचेतनं पुद्रलतत्त्वं, चेतनस्वरूपमचेतनत्वविरोधात् / रत्ना०३ परि०।। अचंतिय-त्रि०(आत्यन्तिक) अत्यन्त-भवार्थे ठञ् ।अतिशयेन जाते, वाच० / सर्वकालभाविनि, "णेगंतणचंतिय ऊदए वं, वयंति ते दोवि गुणोदयम्मि'' सूत्र०२ श्रु०६अ। सोऽत्यन्तिको दुःखविगमः सोऽपवर्गः / अत्यन्तं सकलदुःखशक्तिनिर्मूलनेन भवतीत्यात्यन्तिको दुःखविगमः। ध०१ अधि०। अचंतोसण्ण-पुं०(अत्यन्तावसन्न) अवसन्नेप्वेव प्रवाजितेषु, संविग्रैः प्रद्राजिलमात्रेष्वेवाबसन्नतया विहतेषु च। "अच्चंतोसण्णेसु य, परलिंगदुगे य मूलकम्मे य / भिक्खुम्मि य विहियतवोऽणवठ्ठपारंचितं पत्तं // " जीत०। अचक्खर-त्रि०(अत्यक्षर) एकादिभिरक्षरैरधिके, "अनत्यक्षरत्वं हि सूत्रगुणः' इत्ययं दोषः / अनु० / विशे० / आव० / आ०म०प्र० आ०चू० / ध०। अबण-न०(अर्चन) पुष्पादिभिः सत्करणे, "अच्चणं सेवणं चेव, मणसा विण पत्थए"। उत्त०३५ अ०। अचणा-स्त्री०(अर्चना ) अर्च-युच् , पूजायाम् , वाच० : "गन्धैमौल्यैर्विनिर्यद्रहलपरिमलैरक्षतेधूपदीपैः, सान्नाय्यैः प्राज्यभेदैश्वरुभिरुपहृतैः पाकभूतैः फलैश्च / अम्भः सम्पूर्णपात्रैरिति हि जिनपतेरर्चनामष्टभेदां, कुर्वाणा वेश्मभाजः परमपदसुखस्तोममाराल्लभन्ते" / / 1 / / ध०३ अधि०। Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अच्चणिज 194 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अचिय अबणिज्ज-त्रि०(अर्चनीय ) अर्च-अनीयर् / चन्दनगन्धादिभिः सुस्सूसमाणे" भ०१श०१ उ०।रा०॥ सू० प्र०। सत्करणीये, "अचणिज्जे वंदणिजे कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं / " ओ० | अचासाइत्तए-अव्य०(अत्याशातयितुम्) छायाया भ्रंशयितुउपा०जी०। भ०। ज्ञा०। मित्यर्थे, "तं इच्छामिणं देवाणुप्पिया सक्कं देविंदं सयमेव अचासाइतए। अचणिआ-स्त्री०(अर्चनिका) सिद्धायतने जिनप्रतिमाद्यर्चने, भ० भ०३ श०२ उ०। 4 श०१ उ०। अचासाइय-त्रि०(अत्याशातित) उपसर्गिते, "से य अच्चासाइए समाणे अचत्थ-न०(अत्यर्थ) अतिक्रान्तमर्थमनुरूपत्वरूपम्। अतिशये, तद्वति परिकुविए" स्था०१० ठा०। च / त्रि०ा अत्यये, अव्य०स० / अर्थाभावे, अव्य०स०। वाच०। | अघासाएमाण-त्रि० (अत्याशातयत्) उपसर्गं कुर्वति, स्था० "अंगारपलित्तककप्पअचत्थसीयवेयणा"। प्रश्न०२ आश्र० द्वा०।। १०ठा०। अचत्थत-न०(अत्यर्थत्व) महार्थत्वाऽपरपर्याये परिपुष्टार्था- अचासायणा-स्त्री०(अत्याशातना) साध्वादीनां जात्याद्युद्भिधायितारूपेऽष्टमे सत्यवचनातिशये, रा०। घाट नादिहीलारूपायाम् , कर्म०१ कर्म० / आत्यन्तिक्याअच्चय-पुं०(अत्यय) अति-इण-अच्। अतिक्रमे, अभावे, विनाशे, दोषे, माशातनायाम्, स्था०१० ठा०। कृच्छ्रे, अतिक्रम्य गमने, कार्यस्याऽवश्यंभावाभावे, वाच०। प्रत्यवाये, जे भिक्खू भदंत ! अण्णयरीए अचासायणाए अचासाइए वृ०३ उ०। आत्यन्तिके विनाशे च / बृ०४ उ० / अचासाएंतं वा साइजइति। नि०चू०१०उ०। अचल्लीण-त्रि०(अत्यालीन) अतीवात्यर्थमालीने आसन्ने, प्रा० / (अ०रा०२ भा०४७८ पृष्ठे आसायणा' शब्दे वक्ष्यते) अच्चसण-न०(अत्यशन) अतिशयितमशनम् / अतिभोजने, वाच०।। अचाहार-पुं०(अत्याहार) प्रभूताऽऽहारे, "अचाहारेण सहइ अइणिद्धेण प्रतिपदादीनां पञ्चदशदिवसानां (तिथीनां) लोको-त्तरसंज्ञया द्वादशे विसया उइज्जति" आव०४ अ०। दिवसे, पुं०। चं० प्र०१०पाहु०। अचि-स्त्री०(अर्चि) अर्च-इन् अर्चिष् / नं० / अर्च-इसि। वाच० / अचा-स्त्री०(अर्चा) अर्च्यतेऽसावाहारालङ्कारादिभिरित्यर्चा / देहे, किरणे, रा०।ज्ञा०1शरीरस्थरत्नादितेजोज्वालायाम्, "अच्चीए तेएण आचा,१ श्रु०१ अ०६ उ० / सूत्र० / स्था० / 'दुविहचा पडिमेयर लेसाए दसदिसाए उज्जोएमाणे" भ०२ श०५ उ०। प्रज्ञा०। जी०। उपा० सण्णिहितेतर अचित्तसच्चित्ते" अर्चा द्विविधा। तद्यथा- सचित्ता अचित्ता औ० शरीरनिर्गततेजोज्वालायाम्, स्था०८ ठा०ालेश्यायाम्। सूत्र०१ च / तत्राचित्ता द्विविधा-प्रतिमा इतराचा इतरा नाम स्त्रीशरीरं निर्जीवम्। श्रु०१० अ०। दाह्यप्रतिबद्धे ज्वालाविशेषे, आचा०१ श्रु०१ अ०४ उ०। एकैकं पुनर्दिधा-सन्निहिता, असन्निहिताचाव्य०६ उ०। 'एगचाए पुण ज्ञा० / स्था० / अनलविच्छिन्नायां ज्वालायाम् , जी०३ प्रति०। "एष एगे भयंतारो भवंति" एके पुनरेकयाऽर्चयैकेन शरीरेणैकस्माद् भवात् बादरतेजसो भेदः" प्रज्ञा० 1 पद / दश० / दीपशिखायाम, उत्त०३ सिद्धिगतिं गन्तारो भवन्ति / सूत्र०२ श्रु०२ अ० / अ०। प्रथमकृष्ण-राजेरभ्यन्तर पूर्वयोरवकाशान्तरे स्थिते क्रोधाध्यवसायात्मिकायां ज्वालायाम्। आचा०१ श्रु०८ अ०६ उ०। लोकान्तिक विमाने, भ० स्था० / लेश्यायाम्, "इओ विद्धंसमाणस्स, पुणो संबोहिदुलहा / 6 श०५ उ०॥ दुल्लभाओ तहचाओ, जे धम्मटुं वियागरे'' अर्चा लेश्याऽन्तःपरिणतिः, अचिमालि(ण)-त्रि०(अर्चिालिन्) अर्चीषि किरणास्तेषां माला, सा अर्चा मनुष्य-शरीरम्। सूत्र०१ श्रु०१५ अ०। पूजायां च, 'मध्याह्नेऽर्चा अस्यातीति अर्चिली / सर्वतः किरणमालापरिवृते, सत्पात्रदानपूर्यन्तु भोजनम्' ध०३ अधि०। "अचिमालिभासरासिवन्नाभे" (सौधर्मकल्पः) जी०४ प्रति० / रा० अचाइण्ण-त्रि०(अत्याकीर्ण)जनसंकुलत्वादतीयाकीर्णे, "अचाइण्णा प्रज्ञा० / आदित्ये, पुं०1 सूत्र०१श्रु०६ अ० / स०। पूर्वयोः वित्तो णो परस्स णिक्खमणपवेसाए" आचा०२ श्रु० / कृष्णराज्योरवकाशान्तरे (स्थिते) लोकान्तिकविमानभेदे, भ० 3 अ०१ उ०। ६श०५ उ०। अचाउर-त्रि०(अत्यातुर) भृशंग्लाने, "अचाउरंवा वि समिक्खिऊणं, | अचिमालिप्पभ-त्रि०(अर्चिालिप्रभ) अर्चिाली आदित्यखिप्प तओ घेत्तु दलितु तस्स" बृ०१ उ०।। स्तद्वत्प्रभान्ति शोभन्ते यानि तानि अर्चिालिप्रभाणि सूर्यवत् किरणैः अचागाढ-न०(अत्यागाद) अत्यन्तम्लेच्छादिभये, "अचागाढे वसिया, शोभमानेषु, स०। णिक्खित्तो जइ व होञ्ज जयणाए" बृ०२ उ०। अचिमालिणी-स्त्री०(अर्चिर्मालिनी) सूर्याचन्द्रमसोस्तृतीयाअच्चावेढण-न०(अत्यावेष्टन) अतीवाऽऽवेष्टनेन परितापने, नि० चू०१२ यामग्रमहिष्याम् , भ०१० श०५ उ० / सू०प्र० / जं० / जी०। स्था०। (अनयोर्भवत्रयकथाऽत्रैव 172 पृष्ठे 'अग्गमहिसी' शब्दे प्रोक्ता) उ०। दक्षिणपौरस्त्यरतिकरपर्वतस्य पश्चिमदिशि, शक्र स्य सेवानाअचासणया-स्त्री०(अत्यासनता) अत्यन्तं सततमासनमुपवेशनं यस्य म्न्यास्तृतीयाया अग्रमहिष्या लक्षयोजनप्रमाणायां राजधान्यां च / सोऽत्यासनस्तद्भावस्तत्ता। सततमुपवेशने, स्था०६ ठा० / स्था०४ ठा०१ उ०। अत्यशनता-स्त्री०- अतिमात्रमशनमत्यशनं तदेवाऽत्यशनता। अचिय-त्रि०(अर्चित) चन्दनादिना चर्चिते, ज्ञा०१ श्रु० दीर्घत्वं च प्राकृतत्वात्। प्रमाणाधिकभोजने, स्था०६ ठा०। १अ०। महाये, बृ०३ उ०। प्रमाणीकृते, नि०चू०२ उ०। मान्ये, अच्चासण्ण-त्रि०(अत्यासन्न) अतिनिकटे, "णचासण्णे णाइदूरे / 'जं जस्स अच्चियं तस्स पूणिचं तमस्सिया लिंगं" / Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अच्चिय 195 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अच्छ भावे क्तप्रत्यय इति चिन्त्यम् , भावप्रत्यये लिङ्ग विशेषणानुपपत्तेः / व्य०१ उ० / “अर्चितं यत् तत् पूर्व निपतति / यथा- मातापितरौ, वासुदेवार्जुनाविति"। नि०चू०१ उ०। अचिसहस्समालणिज्ज-त्रि०(अर्चिःसहस्रमालनीय) अर्चिषां किरणानां सहलिनीयं परिवारणीयम् / ज्ञा०१ अ० / रा० / मणिरत्नप्रभाज्वालानां सहस्रैः परिवारणीये, किमुक्तं भवति ? एवं नाम अत्यद्भुतैर्मणिरत्नप्रभाजालैराकलितमवभाति, यथा-नूनमिदं न स्वाभाविकं, किन्तु विशिष्टविद्याशक्तिमत्पुरुषप्रपञ्च-प्रभावितमिति / "अत्रिसहस्समालणिजं रूवगसहस्सकलियं भिसमाणं भिभिंसमाणं चक्षुल्लोयणलेस्सं''। आ०म०प्र०। रा०ा जी०। अचिसहस्समाला-स्त्री०(अर्चिःसहस्रमाला) दीप्तिसहस्राणामावलीषु, भ०१० श०५ उ०। अचिसहस्समालिणीया- स्त्री०(अर्चि:सहस्रमालिनिका) | अर्चिःसहस्रमाला दीप्तिसहस्राणामावल्यः सन्ति यस्यां सा तथा। स्वार्थिककप्रत्यये च अर्चिःसहस्रमालिनिका। दीप्तिसहस्त्र-परिवृतायाम् , भ०१० श०५ उ० अचीकरण-न०(अर्चीकरण) अकर्तव्या अर्चा अनर्चा, अनर्चायाः याअर्चाकरणमर्चीकरणम् / अभूततद्भावे च्विः / राजादीनां गुणवर्णने, नि०यू०४ उ०। जे मिक्खू रायरक्खियं अधीकरेइ अचीकरतं वा साइजइ॥३॥ जे भिक्खूणगररक्खियं अच्चीकरेइ अच्चीकरतं वा साइजइ / / 4 / / जे भिक्खू णिगमरक्खियं अचीक रेइ अचीकरंतं वा साइजइ / / 5 / / जे भिक्खू सव्वरक्खियं अचीकरेइ अधीकरतं वा साइजइ // 6 // जे मिक्खू गामरक्खियं अच्चीकरेइ अचीकरतं वा साइजइ / जे भिक्खू देसरक्खियं अचीकरेइ अचीकरतं वा साइज्जइ / जे भिक्खू सीमरक्खियं अचीकरेइ अचीकरतं वा साइजइ / जे भिक्खू रण्णो रक्खियं अचीकरेइ अचीकरतं वा साइजइ / जे भिक्खू रनो रक्खियं अत्थीकरेइ अत्थीकरतं वा साइज्जइ / नि०चू०५ उ०। अचीकरणं रण्णो, गुणवयणं तं समासओ दुविधं / संतमसंतं च तहा, पञ्चक्खपरोक्खमेक्केकं ||15| रण्णो अधीकरणं किं गुणवक्खणं सौन्दर्यादि, तंदुविधं-संतं असंतंच, एकेक पचक्खं परोक्खं। एत्तो एगतरेणं, अचीकरणेण जो तु रायाणं। अच्चीकरेति मिक्खू, सो पावति आणमादीणि||१६|| इमं गुणवयणं - एक्कत्तो हिमवंतो, अण्णतमो सालवाहणो राया। समभारतरोक्कंता, तेण ण वल्हत्थए पुहई ||17|| राया रायसुही वा, रायामित्ता अमित्तसुहिणो वा। मिक्खुस्स वा संबंधी, सबंधे सुही तवं सोचा।॥१८|| संजमविग्घकरे वा, सरीरबाधाकरे व मिक्खुस्स। अणुलोमे पडिलोमे, कुज्जा दुविधे व उवसग्गो ||16|| गेलण्णरायदुट्ठो, वेरज्जविरुद्धरोहमद्धाणे। उवमुज्झावणणिक्खम-णुवएसकजसत्थेसु विय॥२०|| एतेहिं कारणेहिं, अचीकरणं तु होति कातव्वं / रायारक्खियणागर-णेगमसव्वे विएस गमा||२१|| नि,चू०५ उ०। अचुक्कड-त्रि०(अत्युत्कट)अत्यन्त उत्कटः / अत्यन्तोगे, वाचा अभ्युन्नते, आ०म०प्र०। अचुग्गकम्म-न०(अत्युग्रकर्मन्) कर्कशवेदनीये कर्मणि, प्रव० 224 द्वा०। अचुग्गकम्मडहण-त्रि०(अत्युग्रकर्मदहन) अत्युग्रं कर्कश-वेदनीयं यत्कर्म तस्य दहनोऽपनायकः / कर्कशवेदनीयस्य कर्मणोऽपनायके, "संक्षेपानिरपेक्षाणां, यतीनां धर्म ईरितः / अत्युग्रकर्मदहनो, गहनोग्रविहारतः" ||1|| ध०४ अधि०। अचुचिय-त्रि०(अत्युचित) लोकानामतिश्लाघनीये, "गर्भयोगेऽपि मातृणां, श्रूयतेऽत्युचिता क्रिया"। द्वा०१४ द्वा०। अचुट्टिय-त्रि०(अत्युत्थित) अतीवाकार्यकरणं प्रत्युत्थिते, "दासीत्वेनाऽत्यन्तमुत्थिता" इति / दास्या अपि दास्याम् / स्त्री० / "अचुट्टियाए घडदासिए वा अगारिणं वा समयाणुसिग्गि" / सूत्र० १श्रु०१४ अ०। अचुण्ह-त्रि०(अत्युष्ण) अतीवोष्ण उष्णधर्मो यत्र सोऽत्युष्णः / अतिशयितोष्णस्वभावे, स्था०५ ठा०३ उ०। अचुदय-न०(अत्युदक) महामहति वर्षे / सभए वा सत्ताणं, अचुदये सुक्खतरुण वाणेइ। ओ० प्रभूतजले, जी०३ प्रति०। अबुय-पुं०(अच्युत) सौधर्मावतंसकादिसकलविमानप्रधानाच्युतावतंसकाभिधानविमानविशेषोपलक्षितेद्वादशे देवलोके, अनु०॥ दर्श०नि००। प्रव० स०। आरणाच्युतयोरेकादश-द्वादशयोः कल्पयोरिन्द्रेच। स्था०२ ठा०३ उ०। अचुया-स्त्री०(अच्युता) श्रीपद्मप्रभस्य शासनदेव्याम,सा चमतान्तरेण श्यामा (नाम्नी) देवी श्यामवर्णा नरवाहना चतुर्भुजा वरदबाणान्वितदक्षिणकरद्वया कार्मुकाभययुतवामपाणिद्वया च / श्रीकुन्थोः शासनदेव्यां च, सा च मतान्तरेण बलाभिधाना कनकच्छविर्मयूरवाहना चतुर्भुजा बीजपूरकशूलान्वितदक्षिण-पाणिद्वया भुशुण्डिपद्यान्वितवामपाणिद्वया च। प्रव०२७ द्वा०। अचुव्वाय-त्रि०(अत्युद्वात) अतीवोद्वातः परिश्रान्तः / भृशं श्रान्ते, "अचुव्वाया वसुर्वेत्ति''! बृ०३ उ०। नि०चू०।। अचुसिण-त्रि०(अत्युष्ण) अतीव तप्ते ओदनादिके। अचुसिणं सुप्पेण वा जाव फुमाहि वा / आचा०२ श्रु०१ अ०७ उ० ! अच्छ-धा०(आस्) उपवेशने / अदादि०, आ०, अक०, सेट् / प्राकृतेगमिष्यमासां छः।८।४।२१५ / इति प्राकृतसूत्रेण अन्त्यस्य छः अच्छइ, आस्ते। प्रा०,"अच्छति अवलोएतिय लहुगा"। (अच्छति त्ति) प्रतीक्षते / व्य०१ उ०1"अच्छेज्ज वा चिट्टेज वा " / आसीत सामान्यतः / तं० / भ०। अधिपूर्वः अधिरोहणे, सक०। गगनमध्यमध्यास्ते, वाच०॥ *अच्छ-अव्य०ान छयति दृष्टिं, सम्मुखत्वात्। छो-क। न० त०। अभिमुखे। अच्छ गत्यर्थवदेषु / 1 / 4 / 66 / इति पाणिनिसूत्रे Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अच्छ 196 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अच्छा अच्छगत्य, अच्छोद्य इत्युदाहत्य, अभिमुखं गत्वा अभिमुख-मुक्त्वेति व्याकृतम्। सि० कौ० त० स०। अच्छ-त्रि० / न छयति दृष्टिम् / छो-क / न० त० / आकाशस्फटिकरत्नवदतिस्वच्छे, प्रज्ञा०२ पद० जी०। आ०म०प्र० / भ०ा औ०। स्था०रा०। जं०। निर्मले, ज्ञा०१ श्रु०१२ अ० पञ्चा०। भ०। अनाविले, जी०३ प्रति०। स्फटिकवद् बहिर्निर्मलप्रदेशे, जी०३ प्रति०।"अच्छा सण्हा लट्ठा णीरया णिप्पंका" मेरौ, पुं० / सुनिर्मलजाम्बूनदरत्नबहुलत्वात्तस्य "ता अच्छंसि णं पव्वयंसि" | च०प्र०५ पाहु०। सू०प्र० / जी० / आर्यदेशभेदे, स्फटिके च। पुं०-1.. प्रव०२७५ द्वा०/नच्छति भक्षयति नाशित-सत्त्वम्। छा-भक्षणे-क। नन्तावाच०। ऋक्षे, आचा०२ श्रु०१ अ०५ उ०। प्रति०जी०। प्रज्ञा०भ०एष सनखपदभेदः। प्रज्ञा०१ पद। अप्स-त्रि० / अपः सनोति / सन-डा। प्राकृते-हस्वात् थ्यश्चत्सप्सामनिश्चले / 8 / 2 / 21 / इति प्सभागस्य च्छः। प्रा० / अपां विशेषगुणीभूते रसे, वाच०। अच्छं-(देशी०)। अत्यर्थे , शीघ्र च। दे० ना०१ वर्ग। अच्छंद-त्रि०(अच्छन्द) नास्ति छन्दो यस्याः। अस्यवशे। "अच्छंदा जे ण भुंजंति ण से चाइत्ति वुचई / दश०२ अ०। अभिप्रायशून्ये च / वाच०। अच्छंदग-पुं०(अच्छन्दक) मोरांकग्रामसन्निवेशस्थे पाख-ण्डिनि, 'मोराए सकारं सक्को अच्छिदए कुविओ" आ०क०। (स मोराके वसन्मंत्रतन्त्रज्ञो लोकपूजितस्तत्र समागतस्तत्र समागतस्य श्रीवीरस्य पुरतः सिद्धार्थव्यन्तरेणाऽच्छेद्यमिदमिति प्रतिज्ञाय गृहीतं तृणं छिन्दन् शक्रेण वजं प्रक्षिप्य छिन्नदशाङ्गुली-कृतो जनैरुपहसित इति 'वीर' शब्दे वक्ष्यते) आ० चू०।आ०म०द्वि०। अच्छण-न०(आसन) अवस्थाने, ग०२ अधि०ा ज्ञा०ा पर्युपासने, बृ०३ उ० प्रतिश्रवणे, "अच्छण अवलोगणे वा व्य०१ उ०। *अक्षण-पुं०। अहिंसायाम् , दश०८ अ०। अच्छणघरग-न०(आसनगृहक) अवस्थानगृहकेषु, येषु यदा तदा / वाऽऽगत्य बहवः सुखासिकयाऽवतिष्ठन्ते। जी०३ प्रति०। जं० / अच्छणजोय-पुं०(अक्षणयोग) अहिंसाव्यापारे, "तेसिं अच्छणजोएणं णिचं होयव्यं'' तेषां पृथिव्यादीनामक्षणयोगेन अहिंसाव्यापारेण नित्यं भवितव्यम्।दश०८ अ०। अच्छण्णत्थ-त्रि०(अच्छन्नस्थ) अच्छन्नप्रदेशे स्थिते, वृ०३ उ०। अच्छंति(दि)त-त्रि०(आच्छादित) निरुद्धे, "संणद्धवद्धातित व्व'। प्रश्न०४ संव० द्वा०। अच्छत्तय-त्रि०(अच्छत्रक) न०।बाछत्ररहिते, वीरमहापद्म-योरछत्रको धर्मो मतः।"अदंतवणे अच्छत्तवए अणुवाणहए"। स्था०६ठा०। अच्छदव-पुं०(अच्छद्रव) स्वच्छेदके , पं०व०२ द्वा०। अच्छधी-त्रि०(अच्छधी) 6 ब०। विमलबुद्धौ, "विष्णुः प्रातः प्रभुंनत्वा, साधूश्वापृच्छदच्छधीः'। आ०क०। अच्छभल्ल-पुं०(अच्छभल्ल) ऋक्षे, व्य०१० उ०।व्याघ्रविशेषेचा प्रश्न०१ / आश्र० द्वा०। अच्छमाण-त्रि०(आसीन) तिष्ठति, "सुचिरमपिअच्छमाणो''। पं०व०३ द्वा०। ज्ञा०। अच्छरगणसंघसंविइण्ण -त्रि०(अप्सरोगणसंघसंविकीर्ण) अप्सरोगणानां संघः समुदायस्तेन सम्यक्रमणीयतया विकीर्णा व्याप्ता अप्सरोगणसंघसंविकीर्णा / अप्सरोयूथसंपरिवृते, "अच्छरगणसंघ संविकिण्ण दिव्वतुडियमधुरसद्दसंपइया' / जी० 3 प्रति० / प्रज्ञा० / रा०। अच्छरस-त्रि०(अच्छरस) अच्छे रसो येषां ते अच्छरसाः / प्रत्या सन्नवस्तुप्रतिबिम्बाधारभूतेष्विवाऽतिनिर्मलेषु, जी०३ प्रति०।। अच्छरसा-स्त्री०(अप्सरस्) ब०व०।अद्भ्यः सरन्ति उद्गच्छन्ति। सृअसन्। अप्सरसः हस्वात् थ्यश्चत्सप्सामनिश्चले।८।२।२१। इति सूत्रेण प्राकृते 'प्स' भागस्य'च्छ' आदेशः। प्रा० आयुरप्सरसोर्वाः / 811 / 20 / इति सूत्रेण च अन्त्यव्यञ्जनस्य वा सः। प्रा०। देवीमात्रे, रूपेण देवीकल्पायां स्त्रियांचा "णंदण-वणविवरचारिणीओ अच्छराओ उत्तरकुरुमाणसच्छराओ अच्छेरगपेच्छिणियाओ तिणि पलिओवमाई परमाउं पालयित्ता ताओ वि उवणमंति मरणधम्म"। प्रश्न०४ आश्र० द्वा०। औ०। (आसां वर्णकम् 'उत्तरकुरु' शब्दे वक्ष्यामः) अच्छरसातंडुल-न०(अच्छरसतण्डुल) अच्छो रसो येषु तेऽच्छरसाः प्रत्यासन्नवस्तुप्रतिबिम्बाधारभूता इवातिनिर्मला इत्यर्थः। अच्छरसाश्च ते तण्डुला अच्छरसतण्डुलाः / पूर्वपदस्य दीर्घत्वं प्राकृतत्वात्। श्वेतेषु दिव्यतण्डुलेषु, रा०। 'अच्छेहिं सेएहिं रयणामएहि अच्छरसतंदुलेहिं अट्ठमंगले आलिहइ''। रा०जी०। आ०म०प्र०। अच्छरा-स्त्री०(अप्सरा) शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य षष्ठ्यामग्रमहिष्याम् , स्था०८ ठा०। भ०। ती०। (तस्याः पूर्वाऽपर- भवकथा एतस्मिन्नेव भागे 173 पृष्ठे 'अग्गमहिसी' शब्देऽदर्शि) अच्छराणिवाय-पुं०(अप्सरोनिपात) चप्युटिकायां, तत्करणकाले च। यावता कालेन चप्युटिका क्रियते तावान् कालोऽप्यप्सरोनिपातशब्देनाभिधीयते "अच्छरानिवातेहिं तिसत्तक्खुत्तो अणुपरियत्ताणं हव्वमागच्छेज्जा''। जी०३ प्रति। सूत्र० / भ०। अच्छवि-पुं०(अच्छवि) न०ब० / योगनिरोधेनाविद्यमानशरीरे स्नातकाख्यनिर्ग्रन्थभेदे, अत्रचत्वारोऽनुवादार्थाः- 'अव्यथक' इत्येके। छवियोगाच्छविः शरीरं तद्योगनिरोधेन यस्य नास्त्यसौ 'अच्छविक' इत्यन्ये / क्षपा सच्छेदो व्यापारस्तस्या अस्तित्वात् क्षपी, तन्निषेधात् 'अक्षपी' इत्यन्ये / धातिकर्मचतुष्ट यक्षपणानन्तरं वा तत्क्षपणाभावादक्षपीत्युच्यते। भ०२५ श०६ उ०। अच्छविकर-पुं०(अक्षपिकर) न क्षपिः स्वपरयोरायासो यः सः, तत्करणशीलो न भवति सोऽक्षपिकरः / भ०२५ श०७ उ०। व्यथाविशेषस्याऽकारके प्रशस्तमनोविनयभेदे, स्था०८ ठा०। अच्छविमलसलिलपुण्ण-त्रि०(अच्छविमलसलिलपूर्ण) अच्छेन स्वरूपतः स्फटिकवच्छुद्देन विमलेनाऽऽगन्तुकमलरहितेन सलिलेन पूर्णः / स्फटिककल्पस्वच्छनिर्मलजलभृते, रा०ाजी०। अच्छा-स्त्री०(अच्छा) वरुणदेशप्रतिबद्ध पुरीभेदे, आर्यदेश-गणनायां वरुणा अच्छा। वरुणा नगरी, अच्छा देशः / अन्ये तुवरुणादेशः, अच्छा पुरीत्याहुः। प्रव 275 द्वा०। सूत्र०। *अप्सा-वि०।अपोजलानि सनति ददाति। सन्-विच् / जल दातरि, वाचन Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अच्छादणा 197 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अच्छिज अच्छादणा-स्त्री०(आच्छादना) स्थगने, "संतस्स अच्छायणाए मग्गस्स" / व्या०३ उ०। अच्छि-न०(अक्षि) अश्नुते विषयान्। अश-क्सि। छोऽक्ष्यादौ / 8 / 2 / 17 / इति सूत्रेण संयुक्तस्य क्षभागस्य छः / प्रा०) द्वितीयतुर्ययोरुपरिपूर्वः / 8 / 2 / 10 / इति द्वितीयस्योपरि प्रथमः। प्रा०ालोचने, तं०।दशा० / वाऽक्ष्यर्थवचनाद्याः।।१।३३। इति वा पुंस्त्वम् / "अज्ज वि सासइ ते अच्छी नचा वि आइ तेणम्ह अच्छीई" अञ्जल्यादिपाठादक्षिशब्दः स्त्रीलिङ्गेऽपि / प्रा०। "एसा अच्छी"उपा०२ अ०। (अक्ष्णोऽप्राप्यकारित्वम् 'इंदिय' शब्दे द्वि० भा०५५७ पृष्ठे द्रष्टव्यम्) अच्छायणा-स्त्री०(आच्छादना) स्थगने, ('अच्छादणा' शब्दसमानार्थः) अ(आ)च्छिदण-न०(आच्छेदन) एकवारमीषद् वा छेदने, “एक्कसि ईषद् वा आच्छिदणं'। नि०चू०३ उ० / "पायपुंछणमाञ्छिदइ वा" आच्छिनत्ति बलादुद्दालयतीति / स्था०५ ठा०१ उ०। "आच्छिदिहि त्ति-ईषच्छेत्स्यतीति। भ०१५ श०१ उ०। अ(आ)ञ्छिदित्ता(य)-अव्य०(आच्छिद्य) आछिदल्यप् / हस्तादुद्दालनेनापहृत्येत्यर्थे, उपा०७ अ० / 'अच्छिदिय जं भिचसामिमादीणं"। पञ्चा०१३ विव०। आचा०। अ(आ)च्छिदमाण-त्रि०(आच्छिन्दत्) ईषत्सकृद् वा छिन्दति ("सत्थजाए णं आच्छिदमाणे'। भ०५ श०३ उ०। अच्छिक -देशी-अस्पृष्ट, "अच्छिकोवहिपेहे" ध्य०१ उ० / अच्छिचमढण-न०(अक्षिचमढन) चक्षुषोर्मलने, बृ०२ उ०। अच्छिज्ज-न०(अच्छेद्य) न०त०। छेत्तुमशक्ये। स्था०। तओ अच्छेजा पण्णत्ता / तं जहा-समए पएसे परमाणु। एवमभेजा अडज्झा अगिज्झा अणद्धा अमज्झा अपएसा तओ अविभाइमा। छेत्तुमशक्या बुद्ध्या क्षुरिकादिशस्त्रेण देत्यच्छेद्या, अच्छेद्यत्वे समयादित्वायोगादिति / समयः कालविशेषः, प्रदेशो धर्माधर्माकाशजीवपुद्गलानां निरवयवोंऽशः परमाणुरस्कन्धः पुगल इति / उक्तं च - "सत्थेण सुतिक्खेण वि, छत्तुं भेत्तुं च जं किरन सकं / तं परमाणु सिद्धा, वयंति आईपमाणाणं" ||1|| एवमिति। पूर्वसूत्राभिलापसूचनार्थ इति / अभेद्याः सूच्यादिना, अदाह्या अग्रिक्षारादिना, अग्राह्या हस्तादिना, न विद्यते अर्द्ध येषा-मित्यनर्धाः, विभागद्वयाभावात् अमध्या विभागत्रयाभावात्। अत्र एवाह-अप्रदेशा निरवयवाः, अत एवाविभाज्या विभक्तु मशक्याः। अथवा विभागेन निर्वृत्ता विभागिमास्तनिषेधादविभागिमाः / स्था० 3 ठा०२ उ०। "लोगे अच्छिजभेजो" छेद्यः शस्त्रादिना, तन्निषेधादच्छेद्यः। द्रव्यपरमाणौ, भ०२० श०६ उ०। *आच्छेद्य-न०। आच्छिद्यते अनिच्छतोऽपि भृतकपुत्रादेः सकाशात् साधुदानाय परिगृह्यते यत्तदाच्छेद्यम्। पिं० / “अच्छेज्जं वा छिंदिय, जं सामी भिचमाईणं' / आच्छेद्यं चाऽऽच्छे द्याख्यः पुनर्दोषः / आच्छिद्यापहृत्य यद् भक्तादिकं स्वामी प्रभुः भृत्यादीनां कर्मकरादीनां सत्कं ददाति, तदिति / पञ्चा०१४ विव० / चतुर्दशोद्गमदोषदुष्टे, तदभेदोपचारात् चतुर्दशे उद्गमदोषे च। ग०१ अधि०। तभेदाःअच्छेजं पिय तिविहं,पभूय सामी य तेणए चेव / अच्छेज्जं परिकुटुं, समणाण न कप्पए घेत्तुं / / आच्छेद्यमपि प्रागुक्तशब्दार्थ त्रिविधं त्रिप्रकारम्। तद्यथा- प्रभौ प्रभुविषयं प्रभुरूपकाश्रितमित्यर्थः / एवं स्वामिनि स्वामिविषयं, स्तेनकविषय च। एतच त्रिविधमप्याच्छेद्यं तीर्थकरगणधरैः प्रतिकुष्ट निराकृतमतः श्रमणानां तत्तद् गृहीतुं न कल्पते। तत्र प्रथमतः प्रभुविषयं भावयतिगोवालए य भयए-ऽखरए पुत्ते य धूय सुण्हाए। अचियत्तसंखडाई, केइ पउस्सं जहा गोवो // प्रभुकर्तृकमाच्छेद्यं गोपालके गोपालविषयं, तथा भृतकः कर्मकरस्तद्विषयम्। अक्षरको यक्षरको व्यक्षरकाभिधानोदास इत्यर्थः, तद्विषयम् / पुत्रविषयं, दुहितृविषयं, स्नुषाविषयम् / उपलक्षणमेतद् भार्यादिविषयं च। अत्रैव दोषमाह -(अचियक्षे-त्यादि) अचियत्तमप्रीतिः, संखड कलहः, आदिशब्दादात्मपोतादि-परिग्रहः / केचित् पुनः प्रद्वेषमपि साधौ गच्छन्ति / यथा- गोपो गोपालकः। एतमेव दृष्टान्तंगाथाद्वयेनाहगोवपयं अच्छेत्तुं, दिन्नं तु जइस्स भइ दिणे पहुणा। पयभाणूणं दवं, खिसइ भोई रुवे चेडा॥ पडियरण पओसेणं, भावं नाउंजइस्स आलावो। तन्निब्बंधा गहियं, हंदि उ मुक्कोसि मा बीयं // वसन्तपुरं नगरम्। तत्र जिनदासोनाम श्रावकः। तस्य भार्या रुक्मिणी / जिनदासस्य गृहे वत्सराजो नाम गोपालः। स चाष्टमेऽष्टमे दिने सर्वासामपि गोमहिषीणां दुग्धमादत्ते, तथैव तस्य प्रथमतो धृतत्वात् / अन्यदा च साधुसंघाटको भिक्षायै तत्रागमत् / इतश्च तस्मिन् दिने गोपालस्य सर्वदुग्धादानवारकः, ततस्तेन सर्वा अपि गोमहिष्यो दुग्ध्वा महती पारिर्दुग्धेनाऽऽपूर्णा / जिनदासश्च जिनवचनभावितान्तःकरणतया साधुसंघाटकं परमपात्रभूतमाया-तमवलोक्य भक्तितो यथेच्छं भक्तपानादिकं तस्मै दत्तवान्। ततो दुग्धान्तानि भोजनानीति परिभाव्य भक्तितरलितमनस्कतया गोपालस्य दुग्धं बलेनाच्छिद्य कतिपयं ददौ / ततः स गोपालो मनसि साधोरुपरि मनाक् प्रद्वेषं ययौ, परं प्रभुभयात्न किमपि वक्तुं शक्तः / ततस्तत्पयोभाजनं कतिपयन्यून स्वगृहे नीतवान् / तच तथाभूतं न्यूनमवलोक्य भार्या सरोषं पृष्टवती-किमिति न्यूनमिदं पयोभा-जनमिति? ततो गोपेन यथावस्थिते कथितेसाऽपि साधूनाक्रोष्टुं प्रावर्तत। चेटरूपाणि च दुग्धं स्तोकमवलोक्य किमस्माकं भविष्यतीति रोदितुं प्रवृत्तानि / तत इत्थं सकलमपि स्व-कुटुम्बमाकुलमवेत्य स गोपः संजातसाधुविषयमहाकोपः साधून् व्यापादयितुं चलितवान्। दृष्टश्च भिक्षार्थं परिभ्रमन् क्वापि प्रदेशे साधुः। ततः प्रधावितो लकुटमुत्पाट्य साधोः पृष्ठतः / साधु-रपि कथमपि पश्चादवलोकेन तं गोपं तथाभूतं कोपारुणनय-नमालोक्य परिभावयामास-नूनमेतस्य दुग्धं बलादाच्छिद्य जिनदासेन मह्यं ददे, तेन मारणार्थमेव कुपित एष समागच्छन्नु-पलक्ष्यते / ततः साधुर्विशेषतः प्रसन्नवदनो भूत्वा तस्यैव संमुखं प्रत्यागन्तुंप्रवर्ततेस्म। बभाण च यथा भो भोः क्षीरगृह-नियुक्तक ! तव प्रभुनिर्बन्धेन मया तदानीं दुग्धमात्रं गृहीतम्, संप्रति तु गृहाण त्वमात्मीयं दुग्धमिति / एवं चोक्ते सत्युपशान्तकोपः साधुं प्रति स्वस्वभावं प्रकटितवान्- यथा भोः साधो ! Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अच्छिज्ज 198 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अच्छिज सुविहित ! तव मारणार्थमहमिदानीमागतः, परं संप्रति त्वद्वचनामृतपरिषेकत उपशशाम मे सर्वोऽपि कोपानलः। ततो गृहाण त्वमेवेदं दुग्धम्, मुक्तश्चाकृतप्रापणो मया, परं भूयोऽप्येवमाच्छेद्यं न ग्रहीतव्यमिति निवृत्तो गोपः / स्वस्थानं च गतः साधुरिति। सूत्रं सुगम, नवरं (पयभाणूणं ति) विभक्तिलोपात् पयोभाजनं न्यूनं दृष्ट्वा (भोई इति) भोग्या भार्या इत्यर्थः (रुवे त्ति) रुदन्ति / हंदीत्यामन्त्रणे / तन्निर्बन्धात् तदीयजिनदासाख्यप्रभुनिर्बन्धाद् गृहीतम् / ततः प्रत्याह- मुक्तोऽसि संप्रति, मा द्वितीयं वारमेवं गृह्णीथाः। संप्रति गोपालविषय एव 'अचियत्तसंखडाइ' इत्येतद् व्याचिख्यासुराह - नानिट्विटुं लब्भइ, दासी विन मुज्जए रिते भत्ता। दोन्नेगयर पओसं, काही अंतरायं च // प्रभुणा बलादाच्छिद्यमाने दुग्धे कोऽपि गोपो रुष्टः प्रभोः संमु-खमेवमपि ब्रुवाणः संभाव्यते / यथा-किमिति मदीयं दुग्धं बलादागृह्णासि ? न खल्वनिर्विष्ट मनुपार्जितमिह किमपि लभ्यते, ततो मया स्वशरीरायासबलेनेदं दुग्धमुपार्जितम् , अतः कथमत्र प्रभवसि ? न हि दास्यपि, आस्तामुत्तमवेश्यादिक मित्यपि-शब्दार्थः / भक्तमृते भक्तदानमृते भरणपोषणमृत इत्यर्थः / भुज्यते भोक्तुं लभ्यते। ततो मदीयं भोजनमिदमतोन ते तत्र प्रभुत्वावकाशः। एवं चोक्ते सति कदाचित् द्वयोरपि प्रभुगोपालकयोः परस्परमेकस्य द्वितीयस्योपरि प्रद्वेषो वर्तते। प्रद्वेषे प्रवर्धमाने यत् करिष्यति धनहरणमारणादिकं तत्स्वयमेव आच्छेद्यादाने दोषत्वेन विज्ञेयम् / तथा यच्चान्तरायं गोपालकस्य तत्कुटुम्बस्यच, तदपिदोषत्वेन विज्ञेयमिति। तदेवं 'गोवालए' इत्यादि व्याख्यातम् / एतदनुसारेण च भृतकादावपि यथायोगमप्रीत्यादिकं संभाव-नीयमिति / संप्रति स्वामिविषयमाच्छेद्यं विभावयिषुराहसामी चारभडावा, संजयं दळूण तेसि अट्ठाए। कलुणाणं अच्छेज्जं, साहूण न कप्पए घेत्तुं / इह स्वगृहमात्रनायकः प्रभुः, ग्रामादिनायकः स्वामी। चारभटा वा स्वामिभटा वा, तेऽपि स्वामिग्रहणेन गृह्यन्ते / संयतान दृष्ट्वा तेषां संयतानामर्थाय करुणानां कृपास्थानानां दरिद्रकौटुम्बिकादीनां संबद्ध्याच्छिद्य यद्ददाति तत्साधूनां न कल्पते / एतदेव व्यक्त भावयतिआहारोवहिमाई, जइ अट्ठाए उ केइ अच्छिज्जे / संखडिअसंखडीए, तंगेण्हते इमे दोसा / / यदि कोऽपि स्वामी भटो वा यतीनामर्थाय केषां चित्संबन्धि आहारोपध्यादिकं संखड्या कलहकरणेन, असंखड्या अकलह-भावेन / कोऽपि हि तत्संबन्धिनि बलादाछिद्यमाने कलहं करोति, कोऽपि स्वामिभयादिनान किमपि वक्ति। तत उक्तं संखड्या असंखड्या वेति। बलादाच्छिद्य यतिभ्यो यद् ददाति तद्यतीनां न कल्पते / यतस्तद्गृह्णतामिमे दोषाः। तानेवाहअचियत्तमंतरायं, तेनाहडं एगणेगवोच्छेओ। निच्छरणाई दोसा, तस्स अलंभे य जं पावे // येषां सत्कमाच्छिद्य बलात् स्वामिना दीयते तेषामचियत्तम-प्रीतिरूपं जायते / तथा तेषाम् (अंतरायं) दीयमानवस्तु- परिभोगहानिः कृता भवति / तथा इत्थं साधूनाभाददानानां स्तेनाहृतं भवति, दीयमानवस्तुनायकेनाननुज्ञातत्वात् / तथा येषां संबन्धि स्वामिना बलादाच्छिद्य, दीयते ते कदाचित् प्रद्विष्टाः सन्तोऽपि तस्यैकस्य साधोभक्तपानव्यवच्छेदं कुर्वन्ति, यथा- अनेन संप्रति बलादस्माकं भक्तादि गृहीतं, ततः कालान्तरेऽप्यस्मैन किमपि दातव्यमस्माभिरिति / अथवा सामान्यतः प्रद्वेषमुपयान्ति, यथा-अनेन संयतेन बलादस्माकं भक्तादि गृह्यते तस्मान् कालान्तरे न कस्मायपि संयताय दातव्यमित्यनेकसाधूनां भक्तादिव्यवच्छेदः / तथा ते रुष्टाः सन्तो यः पूर्वमुपाश्रयो दत्तः तस्मान्निष्काशयन्ति / आदिशब्दात् खरपरुषाणि भाषन्ते इति परिगृह्यते / तथा तस्योपाश्रयस्याऽलाभे यत्किमपि कष्ट प्राप्नुवन्ति, तदप्याच्छे-द्यादाननिमित्तमिति दोषः / संप्रति स्तेनाच्छेद्य भावयति - तेणा व संजयट्ठा, कलुणाणं अप्पणो व अट्ठाए / ते य पओसं जं वा, न कप्पई कप्प णुन्नायं / / इह स्तेना अपि केचित् संयतान् प्रति भद्रका भवन्ति / संयता अपि क्वापि दरिद्रसार्थेन सह व्रजन्ति / ततस्तान् भिक्षावेलायां भिक्षामप्राप्नुवतो दृष्ट्वा संयतार्थाय संयतानामर्थाय, यद्वास्वस्यात्मनोऽर्थाय तेषां करुणानां कृपणस्थानानां दरिद्रसार्थमा-नुषाणां सकाशादाच्छिद्य यद्ददति स्तेनास्ततस्तेनाच्छेद्यं द्रष्टव्यम्। तच्च साधूनां न कल्पते, यतस्तस्मिन् गृह्यमाणे येषां संबन्धितद्रव्यं ते पूर्वोक्तप्रकारेण एकानेकसाधूनां भक्तव्यवच्छेदं कुर्वन्ति।यद्वा-प्रद्वेषं रोषमुपयान्ति। तथा च सति सार्था निष्काशनम् , कालान्तरेऽपि तेषां पार्वे उपाश्रयाप्रतिलम्भ इत्यादयो दोषाः / यदि पुनस्तेऽपि सार्थिका वक्ष्यमाणप्रकारेणानुजानते तर्हि कल्पते।। एतदेव गाथाद्वयेन स्पष्ट भावयतिसंजयभद्दा तेणा, आयंते वा असंथरे जइणं / जइ देंति न घेत्तव्यं, निच्छुभ वोच्छेउ मा होज्जा / / घयसत्तुयदिटुंतो, समणुन्नायाव घेत्तुणं पच्छा देंति जइ गतेसि वि य, समणुन्नाया य मुंजंति // इह स्तेना अपि केचित् संयतभद्रका भवन्ति, साधवश्व कदाचित् दरिद्रसार्थेन सह क्वापि व्रजन्ति / ततस्तेषां साधूनां भिक्षावेलायामसंस्तरे अनिवहि तेस्तेनाः स्वग्रामाभिमुखं प्रत्यागच्छन्तः, वाशब्दात् स्वग्रामादन्यत्र गच्छन्तोवा, यदि तेषां दरिद्रसार्थमानु-षाणांबलादाच्छिद्य भक्तादि प्रयच्छन्ति, तर्हि न ग्राह्य, यद् मा भूत् निक्षोभः सार्थानाम् एकानेकसाधूनां तेभ्यो भक्तादिव्यवच्छेदो वा / यदि पुनस्तेऽपि सार्थिकाः स्तेनैर्बलाद् बाध्यमाना एवं ब्रुवते-यथाऽस्माकमिह घृतशक्तु दृष्टान्त उपातिष्ठत / घृतं हि सक्तुमध्ये प्रक्षिप्तं विशिष्टसंयोगाय जायते, एवमस्माकमप्यवश्यं चौरही-तव्यम् , ततो यदि चौरा अपि युष्मभ्यं दापयन्ति ततो महानस्माकं समाधिरिति / तत एवं सार्थिकैरनुज्ञाताः साधवो दीयमानं गृह्णन्ति। पश्चाचौरेष्वपगतेषु भूयोऽपि तद्रव्यं गृहीतं ते समर्पयन्ति / तदानीं चौरप्रतिभयादस्माभिहीतुं संप्रति ते गतास्तत एतदात्मीयं द्रव्यं यूयं गृह्णीथ इति। एवंचोक्ते सति यदि तेऽपि समनुजानते। यथा युष्मभ्यमेतदस्माभिर्दत्तमिति तर्हि भुञ्जते, कल्पनीयत्वादिति। अनेन कप्प णुन्नायमित्यवयवो व्याख्यातः / पिं० नि० चू०। Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अच्छिज 199 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अच्छेर आच्छेद्ये प्रायश्चित्तम् 'अच्छिज्जे अणिसिट्टे य चउलहुँ'1 पं० चू० / सर्वस्मिन्नच्छेद्ये आचामाम्लम् / जीत०। दशा०। ध०। प्रश्न०। दर्श० / 0 / पं० वा व्य०। पंचा। स्था०। सूत्र०। उत्त० आचा० (आच्छेद्याहारग्रहणनिषेधः 'एसणा' शब्दे आच्छेद्यपात्रग्रहण-निषेधः 'पत्त' शब्दे,आच्छेद्यवसतौ स्थाननिषेधो 'वसई' शब्दे द्रष्टव्यः) अच्छिज्जंती-स्त्री०(आच्छिद्यमाना) तुम्बवीणादिवादनप्रकारेण वाद्यमानायाम् , "तुन्नकाणं तुंबवीणाणं वाइज्जंताणं" आव०१ अ०/ अच्छि णिमीलिय-न०(अक्षिनिमीलित) अक्षिनिकोचे,जी० 3 प्रतिः / अच्छि णिमीलियमेत्त-न०(अक्षिनिमीलितमात्र) अक्षिनिकोचकालमात्रे, "अच्छिणिमीलियमेत्तं, णत्थि सुहे दुक्खमेव अणुबद्धं / णरए णेरइयाणं, अहोणिसं पचमाणाणं" ||1|| जी० 3 प्रति०। अच्छिण्ण-त्रि०(अच्छिन्न) छिद-कर्मणि क्त / अपृथग्भूते, स्था० 10 ठा० / अस्खलिते, अनवरते च / पं०व०१ द्वा०। (छिन्नमच्छिन्नं चेत्यौद्देशिकस्य भेदद्वयं कृत्वाऽच्छिन्नस्य व्याख्यानम् 'उद्देसिअ' शब्दे द्वि०भा०८१६ पृष्ठे द्रष्टव्यम्) *अच्छिन्न-त्रि० आ-छिद्-क्ता बलेन गृहीते, सम्यछिन्ने च / वाच०। प्रतिनियतकालविवक्षारहिते, बृ०१ उ०। अच्छिण्णछेदणय-पुं०(अच्छिन्नच्छेदनय) सूत्रमच्छिन्नं छेदेनेच्छति / नयभेदे, यथा 'धम्मो मंगलमुक्किट्ठ' इति श्लोकोऽर्थतो द्वितीयादिश्लोकमपेक्षमाणः। स०२२ सम०।। अच्छिण्णच्छे दणइय-न०(अच्छिन्नच्छेदनयिक) अच्छिन्नच्छेदनयवति सूत्रे, 'अच्छिण्णच्छे यणइयाई आजीवियसुत्तपरिवाडीए"। स०२२ सम०। अच्छित्तिणय-पुं०(अच्छित्तिनय) नित्यवादिनि द्रव्यास्तिके, विशे०। प्रव०। अच्छिह-त्रि०(अच्छिद्र) न छिद्रं तत्तत्कार्येषु प्रमादादिना स्खलनं रन्ध्र वा यत्र / प्रमादादिना स्खलनरहिते, "अच्छिद्रं च भवत्वेतत्, सर्वेषां च शिवाय नः" रन्ध्ररहिते, वाच०। अविरले,०२ वक्ष०"गोशालस्य मङ्खलिपुत्रस्य षण्णां दिक्चरणां चतुर्थ - दिक्चरे, पुं०। भ० 15 श०१ उ०। अच्छिद्दजाल-न०(अच्छिद्रजाल) अविवरे, यत्किञ्चिद् वस्तु-समूह, प्रश्न०४ आश्र० द्वा०। अच्छिद्दजालपाणि-पुं०(अच्छिद्रजालपाणि) अच्छिद्रजालौ विवक्षिताङ्गुल्यन्तरालसमूहरहितौ पाणी हस्तौ यस्य स तथा / अविवराङ्गुलिसमुदयवद्हस्तके, "अच्छिद्दजालपाणी पीवरकोमलवरांगुली" इति करयोः सुलक्षणम् / औ०। प्रश्न०। अच्छिद्दपत्त-त्रि०(अच्छिद्रपत्र) अच्छिद्राणि पत्राणि यस्य सः। नीरन्ध्रपणे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। औ०। "अच्छिद्दपत्ता अविरलपत्ता अवाईणपत्ता अणईइपत्ता णिद्धयजरदपंडुपत्ता'' (इति पत्रवर्णनाद् वृक्षवर्णकः) अच्छिद्राणि पत्राणि येषां ते अच्छिद्रपत्राः / किमुक्तं भवति / न तेषां पत्रेषु वातदोषतः कालदोषतो वा गडुरिकादिरीतिरुपजायते,येन तेषुपत्रेषु छिद्राण्यभविष्यन् इत्यच्छिद्रपत्रः / अथवा एवं नामान्योन्यशाखाप्रशाखानुप्रवेशात्पत्राणि पत्राणामुपरिजातानि येन मनागप्यपान्तरालरूपं छिद्रं नोपलक्ष्यत इति / तथा चाह"अविरलपत्ताई ति"। रा० जी०। जं०। अच्छिद्दपसिणवागरण-पुं०(अच्छिद्रप्रश्नव्याकरण) अच्छिद्राण्यविरलानि निर्दूषणानि वा प्रश्नव्याकरणानि येषां ते तथा / अविरलप्रश्नोत्तरेषु, निर्दुष्टप्रश्नोत्तरेषु च / भ०२ श०५ उ०। औ०। अच्छिद्दविमलदसण-पुं०-स्त्री०(अच्छिद्रविमलदशन) अच्छिद्रा विमला दशना यासां तास्तथा / अविरलस्वच्छरदनायाम, जं० २वक्ष। अच्छिपत्त-न०(अक्षिपत्र) अक्षिपक्ष्मणि, भ०१४ श०८ उ०। अच्छि वेहग-पुं०(अक्षिवेधक) चतुरिन्द्रियजीवभेदे, उत्त० 36 अ०। जीवा०। अच्छिमल-पुं०(अक्षिमल) दूषिकादौ, तं० / नेत्रमले, "अच्छिमलो दूसिकादि"।नि०चू०३ उ०। अच्छिरोडय-पुं०(अक्षिरोडक) चतुरिन्द्रियजीवभेदे, उत्त० 36 अ०।जी०। अच्छिल-पुं०(अक्षिल) चतुरिन्द्रियजीवभेदे, उत्त०३६ अ०। अच्छिवडणं-(देशी०) / निमीलने, दे० ना०१ वर्ग। अच्छिविअच्छि-(देशी०)। परस्परमाकर्षणे, दे० ना०१ वर्ग। अच्छिवेयणा-स्त्री०(अक्षिवेदना) 7 त० / लोचनयोर्दुःखानुभवने, उत्त०२ अ०।"षोडशानां रोगानां द्वादशोऽयम्" उपा० 4 अ०।ज्ञा०। अच्छिहरुलो- देशी० / द्वेष्ये, वेषे च। देवना०१ वर्ग। अच्छी-स्त्री०(आच्छी) अच्छनामकदेशोद्भवायां स्त्रियाम, प्रज्ञा० 11 पद। अच्छुय-त्रि०(अप्सुज) अप्सु जले तद्हेतौ अन्तरिक्षे वा जायते। जन ड, अलुक् स०। जलजाते, वाच०। *आस्तृत-त्रि०-आच्छादिते, ज्ञा०१ श्रु०८ अ०! अच्छु रण-न०(आस्तरण) प्रस्तरणे, नि० चू० 15 उ० / दावानलादिभये, यद् भूमावास्तीर्यते प्रलम्बादिवितरणाय वा यत्तदास्तरणम् / एतत्प्रायश्चर्ममयं भवति / साधूनामौपग्रहिकोषधावन्तर्भवति / बृ०३ उ०। अच्छुरिय-न०(आच्छुरित) आ-छुर-क्त / सशब्दहासे, नखाघाते, नखवाद्ये च आस्तीर्णे, वृ०१ उ०। अच्छुल्लूढ-त्रि०(अच्छोल्लूढ) स्वस्थानं त्याजिते, बृ०१ उ०। अच्छेज्ज-न०(अच्छेद्य) छेत्तुमशक्ये, स्था०३ ठा०२ उ०। अच्छेद-नं०(अच्छेद)"जम्हा तु अव्वोच्छित्ती, सो कुणती णाणचरणमादीणं / तम्हा खलु अच्छेदं, गुणप्पसिद्ध हवति णाम" ||17|| गौणानुज्ञायाम् , पं० भा०। अच्छे र (ग)-न०(आश्चर्य) आ विस्मयतश्चर्यन्तेऽवगम्यन्ते इत्याश्चर्याणि / आ. चर-यत्, सकारः कारस्करादित्वात् / स्था० 6 ठा० / प्राकृते- ह्रस्वात् थ्यश्चत्सप्सामनिश्चले / 8 / 2 / 21 / इति श्वभागस्य छः, तुक् च / प्रा० / छोत्तरयाऽकारस्य वा एत्वम्। ततः- आश्चर्ये / 812 // 66 // इति एतः परस्यर्यस्य रः, अच्छेर / एत्वाभावे- अतो रिआऽर-रिज्ज-रीअं / / 2167 / इति अकारात् परस्य र्यस्य रिअ अर रिजरीअ इत्येत ओदशाः / अच्छरिअं, अच्छअरं, अच्छरिजं, अच्छरीअं / प्रा० / अद्भुतेषु, "रिद्धथमियसमिद्धं, भारदवासं जिणिंदकालम्मि / बहुअच्छेरय पुण्णं, उसभाओ जाव वीरजिणो" ||1|| दससु वि वासेसेवं, दस Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अच्छेर 200 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अन दस अच्छेरगाइ जायाई / उस्सप्पिणिए एवं, तित्थुगालीइ भणि-- | याई' ||2|| ति०॥ दस अच्छेरगा पण्णत्ता। तं जहा-"उवसग्ग गब्भहरणं, इत्थी तित्थं अभाविया परिसा / कण्हस्स अवरकं का, उत्तरणं चंदसूराणं ||1|| हरिवंसकुलुप्पत्ती, चमरुप्पाओ य अट्ठसय सिद्धा / अस्संजएसु पूया, दस वि अणतेण कालेणं" ||2|| उपसृज्यते क्षिप्यते च्याव्यते प्राणी धर्मादेरित्युपसर्गाः, देवादिकृतोपद्रवाः। ते च भगवतो महावीरस्य छद्मस्थकाले केवलिकालेच नरामरतिर्यकृता अभूवन् / इदंच किलन कदाचिद् भूतपूर्वम्।तीर्थकरा हि अनुत्तरपुण्यसंभारतया नोपसर्गभाजनम्, अपितु सकलनरामरतिरश्वां सत्कारादिस्थानमेवेत्यनन्तकालभाव्ययमर्थो लोकेऽद्भुतोऽभूद् इति 1, तथा गर्भस्य उदरसत्त्वस्य हरण-मुदरान्तरसंक्रामणं गर्भहरणम्। एतदपि तीर्थकरापेक्षयाऽभूत पूर्व सद्भगवतो महावीरस्य जातम्। पुरन्दरादिष्टन हरिनैगमेषिदेवेन देवानन्दाभिधानब्राह्मण्युदरात् त्रिशलाऽभिधानाया राजपल्या उदरसंक्रामणात्। एतदप्यनन्तकालभावित्वादाश्चर्यमेवेति 2, तथा स्त्री योषित् , तस्यास्तीर्थकरत्वेनोत्पन्नायास्तीर्थ द्वादशाङ्गं, सङ्घो वा, स्त्रीतीर्थ हि पुरुषसिंहाः पुरुषवरगन्धहस्तिनस्त्रिभुवनेऽप्यव्याहतप्रभुभावाः प्रवर्त्तयन्ति / इह त्ववसर्पिण्यां मिथिलानगरीपतेः कुम्भक महाराजस्य दुहिता मल्लयभिधाना एकोनविंशतितमतीर्थकरस्थानोत्पन्ना तीर्थ प्रवर्तितवतीत्यनन्तकालजातत्व दस्य भावस्याश्चर्यतेति 3, तथा अभव्या अयोग्या चारित्रधर्मस्य, पर्षत् तीर्थङ्करसमवसरणश्रोतृलोकः / श्रूयते हि भगवतो वर्द्धमानस्य जृम्भिकग्रामनगराद् बहिरुत्पन्नके वलस्य तदनन्तरमिलितचतुर्विधदेवनिकायविरचितसमवसरणस्य भक्तिकुतूहलाकृष्टसमायातानेकनरामरविशिष्टतिरश्चां स्वस्व-भाषानुसारिणाऽतिमनोहारिणा महाध्वनिना कल्पपरिपालनयैव धर्मकथा बभूव, यतो न केनापि तत्र विरतिः प्रतिपन्ना, न चैतत् तीर्थकृतः कस्यापि भूतपूर्वमितीदमाश्चर्यमिति 4, तथा कृष्णस्य नवमवासुदेवस्य 'अपरकङ्का' राजधानी गतिविषया जाते-त्यप्यजातपूर्वत्वादाश्चर्यम् / श्रूयते हि- पाण्डवभार्या द्रौपदी धातकीखण्डभरतक्षेत्रापरकङ्काराजधानीनिवासिना पद्मराजेन दैवसामर्थ्य नापहृता / द्वारावतीवास्तव्यश्च कृष्णो वासुदेवो नारदादुपलब्धतद्व्यतिकरः समाराधितसुस्थिताभिधानलवणसमुद्राधिपतिदेवः पञ्चभिः पाण्डवैः सह द्वियोजनलक्षप्रमाणं जलधिमतिक्रम्य पद्मराज रणविमर्देन विजित्य द्रौपदीमानीतवान्। तत्र च कपिलवासुदेवो मुनिसुव्रतजिनात् कृष्णवासुदेवागमन-वार्तामुपलभ्य सबहुमानं कृष्णदर्शनार्थमागतः / कृष्णश्च तदा समुद्रमुल्लङ्घयति स्म। ततस्तेन पाञ्चजन्यः पूरितः / कृष्णेनापि तथैव / ततः परस्परं शम शब्दश्रवणमजायतेति 5, तथा भगवतो महावीरस्य वन्दनार्थमवतरणमाकाशात्समवसरणभूम्यां चन्द्रसूर्ययोः शाश्वतविमानोपेतयोर्बभूव / इदमप्याश्चर्यमेवेति 6, तथा हरेः पुरुषविशेषस्य वंशः पुत्र-पौत्रादिपरम्परा हरिवंशस्तल्लक्षणं यत् कुलम् / तस्योत्पत्तिकुलं ह्यनके धा, ततो हरिवंशेन विशेष्यते / एतदप्याश्चर्यमेवेति। श्रूयते हि- भरतक्षेत्रापेक्षया यत् तृतीयं हरिवर्षाख्यं | मिथुनकक्षेत्रं, ततः केनापि पूर्वविरोधिना व्यन्तरसुरेण मिथुनकमेका भरतक्षेत्रे क्षिप्तम्, तच पुण्यानुभावाद्राज्यं प्राप्तम्, ततो हरिवर्षजातहरिनाम्नः पुरुषाद् यो वंशः स तथेति 7, तथा चमरस्यासुरकुमारराजस्योत्प- तनमूर्ध्वगमनं चमरोत्पातः, सोऽप्याकस्मिकत्वात् आश्चर्यमिति / श्रूयते हि चमरचञ्चाराजधानीनिवासी | चमरेन्द्रोऽभिनवोत्पन्नः सन्नूर्ध्वमवधिनाऽऽलोकयामास / ततः स्वशीर्षोपरि सौधर्मव्यवस्थितशक्रं ददर्श / ततो मत्सराध्मातः / शक्रतिरस्काराहितमतिरिहागत्य भगवन्तं महावीरं छद्मस्थावस्थमेकरात्रिकी प्रतिमा प्रतिपन्नं सुसुमारनगरोद्यानवर्त्तिनं सबहुमानं प्रणम्य भगवंस्त्वत्पादपङ्कजवनं मे शरणमरिपराजितस्येति | विकल्पविरचितघोररूपो लक्षयोजनमानशरीरः परिघरत्नप्रहरणं परितो / भ्रामयन गर्जन्नास्फाटयन् देवांस्त्रासयन्नुत्पपात। सौधर्मावतंसकविमानवेदिकायां पादन्यासं कृत्वा शक्रमाक्रोशया-मास / शक्रोऽपि / कोपाजाज्वल्यमानस्फारस्फुलिङ्गशतसमाकुलं कुलिशं तं प्रति मुमोच।। स च भयात् प्रतिनिवर्त्य भगवत्पादौ शरणं प्रपेदे। शक्रोऽप्यवधिज्ञानावगततद्व्यतिकरस्तीर्थकराशातना भयाच्छी- ध्रमागत्य वज्रमुपसंजहार / बभाणच-मुक्तोऽस्यहो! भगवतः प्रसादान्नास्तिमत्तस्ते ] भयमिति 8, तथाष्टाभिरधिकं शतमष्टशतम्, अष्टशतंचते सिद्धा निर्वृत्ता | अष्टशतसिद्धाः / इदमप्यन-न्तकालजातमित्याश्चर्यमिति 6, तथा असंयता असंयमवन्त आरम्भपरिग्रहप्रसक्ता अब्रह्मचारिणस्तेषु पूजा सत्कारोऽ-संयतपूजा। सर्वदा हि किल संयता एव पूजार्हाः, अस्यां त्ववसर्पिण्यां विपरीतं जातमित्याश्चर्यम् 10, अत एवाह दशाप्येतानि | अनन्तेनं कालेनानन्तकालात् संवृत्तान्यस्यामव- सर्पिण्यामिति। स्था० : 10 ठा०। से भयवं ! अत्थि केई जेणमिणमो परमगुरूणं पि अलंघणिज परमसरणफुडं पयड पयड पयर्ड परमक लाणं कसिण कीम्मट्ठदुक्खनिट्ठवणं पदयणं अइक्कमेज्ज वा पइक्कमेज वा खंडेज वा विराहिज्ज वा आसाइज वा से मणसा वा वयसा वा कायसावा जावणं वयसि ? गोयमा ! णं तेणं कालेणं पखित्तमाणेणं सयं दस अच्छेरगे भविंसु / तत्थ णं असंखेज्जे अभव्वे असंखेजे मिच्छादितु असंखेजेसासायणदव्वलिंगं मासीय सत्ताए डंभेणं सक्कारिज ते एत्थए धम्मे गत्ति काऊणं बहवे अदिट्ठकल्लाणे जइ णं पवयणमन्भुवगर्मति / तत्थुवगमियं रसलोलुत्ताए विसयलोलुत्ताए दुईतियदोसेणं अणुदियेहिं जहट्ठियं मग्गं निट्ठवंति / उम्मग्गं च ऊसप्पियंति सव्वे तेणं कालेणं इस परमगुरूणं पि अलंघणिजं पवयणं जाव णं आसायंति / से भयवं! कयरेणं तेणं कालेणं दस अच्छेरगे भविंसु / गोयमा ! णं इमे तेणं काले णं दस अच्छेरगे भवंति। तं जहा-तित्थयराणं उवसम्गा, गढमसंकमणे, वाम्मा तित्थयरे, तित्थयरस्सणं देसणाए अभव्वसमुदाए णं परिसा, वंदियसविमाणाणं चंदाइचाणं तित्थयरसमवसरणे आगमणं, वासुदेवाणं संखेज्जणीए अन्नयरेणं वारासकण्हेणं परोप्पमेलावगो। इह इंतु भारहे खेत्ते हरिवंसकुलुप्पत्तीए, चमरुप्पाए एगसमए णं अट्ठसयसिद्धिगमणं, असंजयाणं Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अच्छेर 201 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अजससयविसप्पमाणहियय पूया कारगे त्ति / महा० ५अ०। कल्प० प्रव०॥ पं० व०। धण्णो | अजयणकारि(ण)-पुं०(अयतनकारिन) अयतनया कार्यकारिणि, णाम सत्थवाहो, तस्स य दुवे अच्छेरगाणि चउसमुद्दसारभूया "अजयणकारिस्सेवं, कजे परदव्वलिंगकारिस्स' अजयणं जो करेति मुत्तावली, धूया। आ०म० द्वि०॥ सो भणति अजयणकारी। "णिक्कारणपडिसेवी, अजयणकारी व कारणे अच्छेरपेच्छणिज्ज-त्रि०(आश्चर्यप्रेयक्षणीय) अहो ! किमिदमिति / साहू'। नि०चू०१ उ०। कौतुकेन सौष्ठवाद्दर्शनीये, जी० २प्रति०। अजयणा-स्त्री०(अयतना)यतनाऽभावे ईर्याद्यशोधने, "अज- यणाए अच्छेरवंत-त्रि०(आश्चर्यवत्) चमत्कारवति "वक्तुमाश्चर्यवान् भवेत्''। पकुव्यंति, पाहुणगाणं अवच्छला''। ग० 3 अधि०। अष्ट०४ अष्ट। अजेयदेव-पुं०(अजयदेव) दाउलताबादनामकाद् म्लेच्छअच्छोडण-न०(आस्फोटन) आ-स्फुट्-ल्युट्-पृ०। अड्गुलि-मोटने, / नगरादागच्छतां जिनप्रभसूरीणां भट्टारके राज इति प्रतिष्ठित-नामदातरि वाचा वस्त्राणां रजकैरिव शिलायामास्फलाने, पिं० त्रयोदशशतनवाशीतितमवर्षकालिके नरेश्वरभेदे। ती०४६ कल्पा अच्छोडणं- (देशी) मृगयायाम, देवना० 1 वर्ग। अजयभाव-त्रि०(अयतभाव)६बा असंयताध्यवसाये, "परस्सतं देइ अच्छोदग -न०(अच्छोदक) स्वच्छपानीये, रा०) सवग्गे होइ अहिगरणमजयभावस्स" अयतभावस्य अयतोऽशुद्धाअच्छोदगपडिहत्थ-त्रि०(अच्छोदकप्रतिहस्त) स्वच्छपानीय- | ऽऽहारापरिहारकत्वेन जीवरक्षणरहितो भावोऽध्यव-सायो यस्य स परिपूर्णे, "ताउणं पाइओ अच्छोदगपडिहत्थाओ'| रा०] तथा। पिं० अजंगम-त्रि०(अजङ्गम) गमनशक्तिविकले, व्य० १उ०। जङ्घा- / अजयसेवि(ण)-त्रि०(अयतसेविन)अयतनया प्रतिसेवके, "वोयं बलपरिहीने, "बुद्धो खलु समधिगतो, अजंगमो सोयजंगम-विसेसो''। गमियमिय अजयसेविम्मि' व्य०१ उ० व्य० 8 उ०। अजर-पुं०(अजर) नास्ति जरा यस्य / देवे,जराशून्ये,त्रि०) वाचा अजज्जर-त्रि०(अजर्जर) जरारहिते, जी०३ प्रति०। "उम्मुक्ककम्मकवया अजरा अमरा असंगया' सिद्धा अजराः, अजणियकण्णिया-त्रि०(अजनितकन्यिका) केनचिद- जनितस्य वयसोऽभावात् / औ०। नास्ति जराऽस्याः,घृतकुमारीवृक्षे तस्य प्रव्रज्यायाम, "उद्यायणसंबोही, पउमावती देवसण्हत्ति। वच्छ अणुबंधी जराऽभावात्तत्त्वम्। वाचावृद्धदारकवृक्षे, पुं०। गृहगोधिकायाम्। स्त्री०। मणको, कन्नाए अंजणिओ तु केणइ वि पुत्तो जाय त्ति, जो तूसो होति न विद्यते जरा यस्य, तदजरम् / आ०म०प्र०। अजणियकन्नी तु णिवतिसुतात्ति दोन्नि वि निक्खंताई तु भातुभंडाई। अजरामर-न०(अजरामर)जरा वयोहानिः,मरणं मरः स्वराअन्नदा रायसुओ तु णिसाए लोयप्पणो कुणति छड्डुहामिपभाते चलणाहो न्तत्वादच्प्रत्ययः। न विद्यते जरामरौ यत्र तदजरामरम्। मोक्षे, विशे०। कातुं कालपडियरत्ती पोग्गलभेदागमण 1 अह णिवतिएसु बालेसु जंगतं०।६०। वार्धक्यमृत्युरहिते, त्रि०ा "अहोयराओपरितप्पमाणे, वीसरिया, ते तस्सय सिरोरुहा तंमिचेव ठाणंमि। तत्थ य पवत्तिणीएय अढेसुमूढे अजरामरेव्व'' अजरामरवद्बालः, क्लिश्यते धनकाम्यया। अहागता गामं गंतुमणा। अह तीए रायदुहिया न वंदितुं संपदेसे / अह सूत्र०१ श्रु० १०अ० "णत्थि कोइ जगम्मि अजरामरो' / महा०७ तम्मि उवचिट्ठणवरितीए पमोत्तुगं सह समोगाढं तज्जाए सह स घेत्तुं तेसिं अ० मम्मणाख्ये वणिग्भेदे, पुंगा (तत्कथा मम्मण' शब्दे द्रष्टव्या) रज्जे सुक्कपोग्गलाइण्हे तुम्झम्मि सन्निवेसे। अह सुक्कंजोणिमोगाढंतो गडभो अजस-न०(अयशस्)विरोधे, न०त० अश्लाघायाम्, असद्-वृत्ततया आभूतो। अह पोट्ट वढिउं पयत्तं च सुणिया य सुविहिया हि पुट्ठा वेतीतु निन्दायाम्, सूत्र०२ श्रु०२ अ० ग०। सर्वदिग्गामिन्याः प्रसिद्धेरभावे, न वि जाणे अतिसयणाणी थेरा पुच्छित्ता तेहिं सिट्ठा जहावुत्तं होही भ०६ श०३३ उ०। अपराक्रमकृते, न्यूनत्वे च / इहेव ऽधम्मो अजसो जुगप्पहाणो रक्खह णं अप्पमादेणं जं में सडकुलेसु संवडितो अकित्ती / दश० 1 चूलिका अवर्णवादभाषायाम्। नि०चू०११3०1 गोत्तणामकत-केसीए। सा तु अजणकण्णी पव्वज्जा होति णायव्वा''। अजसकारग-त्रि०(अयशःकारक)सर्वदिम्गामिन्याः प्रसिद्ध प्रतिषेधके, पं०भा०ा पं०चू भ०६श०३३उ० अजमेरु-पुं०(अजमेरु) प्रियग्रन्थसूरिप्रतिष्ठाधिष्ठानसुभटपाल- ! अजसकित्तिणाम-न०(अयशःकीर्तिनामन्) नामकर्मभदे, यदुदयाद्यशःभूपालपालितहर्षपुरनिकटस्थे 'अजमेर' इतीदानी प्रसिद्ध नगर-भेदे, कीर्ती न भवतस्तदयशःकीर्तिनाम / कर्म० १कर्मा यदुदयवशात् कल्प। मध्यस्थजनस्याप्यप्रशस्यो भवति, तदयश-कीर्तिनामाकर्म०। प्रव०॥ अजय-पुं०(अयत) न विद्यते यतं यतिर्यस्येति सर्वसावद्यविरतिहीने, श्रा०। कर्म०४कर्म०। गृहस्थकल्पे साधौ,ग० १अधि०। अविरतसम्यग्दृष्टौ, / अजसजणग-त्रि०(अयशोजनक)निन्दनीयतादिकारके, ग०२ अधि०। कल्प०। कर्म०।द। अयत्नवति च / ओ० यतनाऽभावे, नं० "अजयं अजसबहुल-त्रि०(अयशोबहुल) अयशोऽश्लाघाऽसवृत्ततया निन्दा चरमाणो य प्राणभूयाइ हिंसई" अयतमनुपदेशं न सूत्राशयेति तबहुलः / यानि यानि परापकार भूतानि कर्मानुष्ठानानि विधत्ते, तेषु क्रियाविशेषणमेतत्, चरन् गच्छन्। दश०४अ०। तेषु कर्मसु करचरणच्छेदनादिषु अयशोभाजि। णियडिबहुले साइबहुले अजयचउ-पुं०(अयत चतुर) अविरतसम्यग्दृष्टि नोपलक्षितेषु / अजसबहुले, उस्सण्णतसपाणघाती। सूत्र०२ श्रु०२ अ०। अविरतसम्यग्दृष्टिदेशविरतप्रमत्ताप्रमत्तलक्षणेषु चतुर्पु तृतीयादि | अजससयविसप्पमाणहियय-त्रि०(अयशःशतविसर्पहृदय) गुणस्थानवर्त्तिषु, "मिच्छ अजयचउआऊ''। कर्म०५ कर्म०। न यशःशतानि अयशःशतानि, तेषु विसर्पद् विस्तारं गच्छद् Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजसमयविसप्पमाणाहिय्य 202 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अजिअसेण हृदयं मानसं यस्य स तथा, प्रभूताश्लाघाविस्तृमनस्के, "अ जससयविसप्पमाणहिययाणं कश्यवपण्णत्तीणं' (स्त्रीणां)। तं० अजस्स-न०(अजस्र) न०त०। जस्-र / अनवरते, "आमरणंतमजस्सं, संजमपरिपालणं विहिणा"। पशा० 8 विव० त्रिकालावस्थायिनि वस्तुमात्रे,त्रि०ा वाच०। अजहण्णुकोस-त्रि०(अजघन्योत्कृष्ट) नजधन्योत्कृष्टा स्थि-तिर्यस्य सः, एवं स्थितिशब्दलोपात् तथा / मध्यमायां स्थितौ वर्तमाने, आ०म०द्वि० अजहण्णुकोसपएसिय-पुं०(अजघन्योत्कर्षप्रदेशिक) जघन्या श्वोत्कर्षाश्च जघन्योत्कर्षाः,न तथा येतेऽजघन्योत्कर्षाः, मध्यमाइत्यर्थः, ते प्रदेशाः सन्तियेषां ते अजघन्योत्कर्षप्रदेशिकाः।मध्यमप्रदेशनिष्पन्नेषु, स्था०१ ठा०१उ01 अजहत्थ-न०(अयथार्थ)पलाशादावयथावदर्थके नामभेदे, स्था०१ ठा० 1 उ०। अजाइय-त्रि०(अयाचित)अयाच्या लब्धे, अदत्तादाने च / 'मुसावायं बहिट्ठ च, उग्गहं च अजाइयं / सत्था दाणाइ लोगंसि, तं विज्जं परिजाणिया'' ||1|| अयाचितमित्यनेनादत्तादानं गृहीतम्। सूत्र०१ श्रु०६ अ० अजाणंत-त्रि०(अजानत्-अजानान) अनवबुध्यमाने, "अ-जाणंता मुसं वदे"। सूत्र०१ श्रु०१ अ०३ उ०। कल्पाऽ- कल्पमजानति अगीतार्थे ,पुं०। बृ०३ उ० अजाणय-त्रि०(अज्ञ) न जानाति / ज्ञा-क / न० त०। स्वल्पज्ञाने, आचा० 1 श्रु०६ अ०२ उ०। "एवं विप्पडिवन्नेगे, अप्पणा उ अजाणया"। सूत्र० 1 श्रु० 3 अ०। ज्ञानशून्ये, मूर्ख, वेदान्तिमतसिद्धाज्ञानरूपपदार्थवति च। वाचा अजाणिय-अव्य०(अज्ञात्वा) अविज्ञायेत्यर्थे, नि००६ उ०| अजाणिया-स्वी०(अज्ञिका) नज्ञिका, ज्ञिकाविलक्षणायां सम्यक् परिज्ञानरहितायां पर्षदि, "अजाणिया जहा जा होइ पगइमहुरा मियछावयसीहकुकुडभूया रयणमिव असंठविया अजाणिया सा भवे परिसा" या ताम्रचूडकण्ठी रवकुरङ्गपोतवत्प्रकृत्या मुग्धस्वभावा असंस्थापितजात्यरत्नमिवान्तर्गुणविशिष्टगुणाऽसमृद्धा सुखप्रज्ञापनीया पर्षत् सा अज्ञिका / उक्तं च-"पगई सुद्धअयाणिय, मिगछा वगसीहकु कु ड गभूया। रयणमिव असंठ विया, सुहसप्रणप्पागुणसमिद्वा" ||1|| नं0 अजाणू-स्त्री०(अज्ञा) अज्ञस्य हिंसादेहेतुस्वरूपफलाविदुषोज्ञानाद् व्यावृत्तौ, स्था०२ ठा०४ उ० अजाय-त्रि०(अजात) न००। अनिष्पन्ने, श्रुतसम्पदनुपेततयाऽलब्धात्मलाभे साधौ, तदव्यतिरेकात्कल्पभेदे च / पुं० "गीयत्थ जायकप्पो, अगिओ खलु भवे अजाओ अ'' अगीतः खल्वगीतार्थयुक्ते विहारः पुनर्भवेदजातोऽजातकल्पः, अव्यक्तत्वेन जातत्वात् / ध०३ अधि०। पञ्चा अजायकप्पिय-पुं०(अजातकल्पित) अगीतार्थे, ''एगविहारो अजायकप्पिओ जो भवे ठवणकप्पे' ग०१ अधिo अजिअ-त्रि०(अजित) न०ता अपराजिते, "अजियं महत्थं (जिनाज्ञाम)अजितामशेषपरप्रवचनाज्ञाभिरपराजिताम् / दर्श०। आव०। जिधातोर्द्विकर्मकत्वादनिर्जितशत्रौ, अपराजि-तदेशादौ चास्य / प्रवृत्तिः, एकस्य कर्मणोऽविवक्षायामन्यस्य विवक्षायां, तत्रैव कर्मणि क्तः। भुरिप्रयोगस्तु- अनिर्जितशत्रावेव / तथा च 'गौणे कर्मणि दुह्यादेः' इत्युक्तेः, गौणकर्मण एवाभिधाननियमात् तस्यैव जयकर्मताया तेनाऽभिधातुं योग्यत्वम् / न च नास्त्येषामजितो देश इत्यादौ, गौणकर्मणोऽविवक्षयैव जयप्राप्तदेशादौ जितशब्दप्रयोगात्, ततो नसमास इति भेदः। रागादिभिर्जितत्वाभावात् शिवे, विष्णौ, बुद्धे च। वाचा परिषहादिभिरनिर्जितो गर्भस्थे भगवति जननीद्यूते राज्ञा न जित इत्यजितः / ध०२ अधि०। अवसर्पिण्या द्वितीये तीर्थकरे, "अक्खेसु जेण अजिया, जणणी अजितो जिणे तम्हा" अक्षेषु अक्षविषयेण कारणेन भगवतो जननी अजिता गर्भस्थे भगवत्यभूत्तस्मादजितो जिनः / अत्र वृद्धसंप्रदायः-"भगवतो अम्मापियरोजूयं रमंति, पढम राया जिणिया। इतो जाहे भयवं आयाओ, ताहे देवी जिणाइन्नो राया ततो अक्खेसु कुमार प्रभावात् देवी अजिय त्ति, अजिओ से नाम कयं" आ०म०वि०। आ० चूलाधा स०। कल्प (अन्तरायुरादिकमस्य 'तित्थयर' शब्द वक्ष्यते) भाविनि द्वितीये बलदेवे, ती०२१ कल्प०॥ श्रीसुविधिजिनस्य यक्षे च / स च श्वेतवर्णः कूर्मवाहनश्चतुर्भुजो मातुलिङ्गाक्षसूत्रयुक्तदक्षिणपाणिद्वयो नकुलकुन्तकलितवामपाणिद्वयश्च / प्रव०२७ द्वारा अजिअदेव-पुं०(अजितदेव)मुनिचन्द्रसुरेः शिष्ये, विजय-सिंहस्यगुरौ, "जातौ तस्य (गुरुचन्द्रस्य) विनयौ, सूरियशोभद्र-नेमिचन्द्राह्रौ।ताभ्यां मुनीन्द्रचन्द्रः श्रीमुनिचन्द्रो गुरुः समभूत् / / 1 / / श्रीअजितदेवसूरिः प्राच्यस्तस्माद् बभूव शिष्यवरः / वादीति देवसूरिद्वितीयशिष्यस्तदीयोऽभूत् / / 2 / / तत्राऽऽदिमाद् बभासे गुरुर्विजयसिंह इति मुनिपसिंहः" / ग०३ अधि०। अन्योऽप्येत-न्नामा (वि०सं०१२७३ वर्षे) आसीत् / स च भानुप्रभसूरेः शिष्यः, योगविधिनाम्नो ग्रन्थस्य कर्ता / जै००। अजिअप्पभ-पुं०(अजितप्रभ)स्वनामख्याते गणिनि / स च (वि०सं०१२८२वर्षे) गुर्जरधरित्र्यां विद्यापुर (बीजापुर) प्रान्ते व्यहार्षीत् धर्मरत्नश्रावकाचारनामानं ग्रन्थं च व्यरीरचत्। जै०इ०। अजिअबला-स्त्री०(अजितबला)श्री अजितस्य शासनदेव्याम्। साच गौरवर्णा लोहासनाधिरूढा चतुर्भुजा वरदपाशका-धिष्ठितदक्षिणकरद्वया बीजपुरकाकुशालङ्कृतवामपाणिद्वया च / प्रव० 27 द्वा०। अजिअसीह-पुं०(अजितसिंह)स्वनामख्यातेऽञ्चलगच्छीये सूरौ, सच (वि०सं०१२८३ वर्षे) जिनदेवेन पित्रा जिनदेव्यां नाम मातरि जन्म लब्ध्वा सिंहप्रभसूरिपादमूले प्रवव्राज, देवेन्द्रसिंहनामानं च शिष्य प्रावाजयत्। जै०इ०। अजिअसेण-पुं०(अजितसेन)जम्बूद्वीपे भारतवर्षेऽतीताया-मुत्सर्पिण्यां जाते चतुर्थे कुलकरे, स्था० 10 ठा०। कौशाम्ब्या अधिपतौ धारणीवल्लभे नृपतिभेदे, "कौशाम्बीत्यस्ति पूस्त-त्राजितसेनो महीपति / धारणीत्यभिधा देवी, तत्र धर्मवसुर्गुरुः" / / 11 / / आ०का आव०। आ०चू०। (तत्कथा 'अण्णाय' शब्दे वक्ष्यते) श्रावस्तीनगरी समवसृते यशोभद्रायाः कीर्तिमत्या महत्तरिकायाः प्रव्राजके आचार्यभेदे, ('अलोह' शब्दे कथा दृष्टव्या)। आ०चू०। आव०) दर्श०। अजितसेनो नाम अभयदेवसूरिशिष्यः राजगच्छी यवादमहार्णवनाम्नो ग्रन्थस्य कर्ता, यत्समये (वि०सं० 1213 वर्षे) अञ्चलगच्छः समजनि / जै००। आ०का भद्दिलपुरनगरे नागस्य गृहपतेः सुलसानाम्यां भार्यायामुत्पन्ने पुत्रे, सचाऽरिष्टनेमेरन्तिके प्रव्रज्य शत्रुञ्जये सिद्धः। अन्त० 4 वर्ग। Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजिआ 203 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अजीव अजिआ-स्त्री०(अजिता) अवसर्पिण्याश्चतुर्थस्याभिनन्दनजिनस्य | अजियसेण-पुं०(अजितसेन) जम्बूद्वीपस्थचतुर्थे कुलकरे, (स्पष्टोऽयं प्रवर्तिन्याम्, "अभिणंदणस्स अजिआ, कासवी सुमती जिणिंदस्स'।। 'अजिअसेण' शब्दे) ति। अजिया-स्त्री०(अजिता) अवसर्पिण्याश्चतुर्थस्याभिनन्दनजिनस्य अजिइंदिय-त्रि०(अजितेन्द्रिय) न जितानि श्रोत्रादीनीन्द्रियाणि येन | प्रवर्तिन्याम्, (अस्मिन् विषये 'अजिआ' शब्दो द्रष्टव्यः) स तथा / इन्द्रियावशे, "अजिइंदियसोवहिया, वहगा जइ ते णाम | अजीर-न०(अजीर्ण) आहारस्याऽजरणे, तद्भावे च रोगोत्पत्तिः। व्य०१ पुजंति'। दश०नि० 1 अ० असर्वज्ञत्वे, स्था० 5 ठा०। उ०। जंग ज्ञा० वि० उपा०। अजिण-न०(अजिन) अजति क्षिपति रज आदि आवरणेन। अजीव-पुं०(अजीव) न जीवा अजीवाः / जीवविपरीतस्वरूपेषु *अज-इनच, नव्यादेशः।वाचा मृगादिचर्मणि, उत्त०५ अ आचाo धर्माधर्माकाशपुद्गलास्तिकायाऽद्धासमयेषु, प्रज्ञा०१पदा ते च चतुद्धा, सूत्र०। चर्मधारित्वे, "चीराजिणं नगिणिणं, जडी- संघडिमुंडिणं'। उत्त० नामस्थापनाद्रव्यभावभेदात्। द्रव्याजीवाः / यदा पुद्गलद्रव्यमजीवरूपं 5 अन जिनोऽजिनः। नत०। अवी-तरागे, भ० 15 श० 1 उ०। सकलगुणपर्यायविकलतया कल्प्यते, तदा तद्व्यतिरिक्तो द्रव्याजीवः, भावे चाजीवद्रव्यस्य पुद्गलस्वरूपस्य दशविधपरिणामोऽजीव इति असर्वज्ञे, पुं०।"अजिणा जिणसंकासा जिणाइवाऽवितहं वागरेमाणा" / प्रक्रमः / ततः शब्दादयः पञ्च शुभाशुभतया भेदेन विवक्षिताः। तथाच औ०। कल्प०। स्था। संप्रदायःशब्दस्पर्श- रसरूपगन्धाः शुभाश्चाशुभाश्चेति। उत्त०३५ अ०। अजिण्ण-न०(अजीर्ण)अजरणे परिपाकमनागते,त्रि०। अजीर्णे एतेषां द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च व्याख्याऽभोजनम् / एतदपि गृहिभिर्धर्मोऽयमस्माकमिति बुद्ध्या कार्यम्। रूविणो य अरूवी य, अजीवा दुविहा भवे / तथाऽजीर्णेऽजरणे पूर्वभोजने, अथवाऽजीर्णे परिपाकमनागते पूर्व अरूवी दसहा वुत्ता,रूविणो विचउव्विहा॥४॥ भोजनेऽर्धजीणे इत्यर्थः। अभोजनं भोजनत्यागः / अजीर्णभोजने हि सर्वरोगमूलस्य वृद्धिरेव कृता भवति / यदाह- "अजीर्णप्रभवा रोगाः" अजीवा द्विविधा भवेयुः। एके अजीवा रूपिणो रूपवन्तः, च पुनरन्ये इति। तत्राजीर्णं चतुर्विधम्- "आमं विदग्धं विष्टब्धं, रसशेषं तथा परम्। अजीवा अरूपिणोऽरूपवन्तः। तत्र रूपं स्पर्शाद्याश्रयभूतं मूर्त, तदस्ति येषु ते रूपिणः, तद्-व्यतिरिक्ता अरूपिण इत्यर्थः। तत्रारूपिणो-ऽजीवा आमे तु द्रवगन्धित्वं, विदग्धे धूमगन्धिता / / 1 / / विष्टब्धे गात्रभङ्गोऽत्र, दशधा उक्ताः, रूपिणोऽजीवाश्चतुर्विधाः प्रोक्ताः / / 4 / / रसशेषेतु जाम्बता" द्रवगन्धित्वमिति। द्रवस्य गूथस्य कुथिततक्रादेरिव गन्धो यस्यास्ति तत्तथा, तद्भावस्तत्त्व मिति / 'मलवातयोर्विगन्धो, पूर्व दशविधत्वमाहविड्भेदो गात्रगौरवमरौच्यम् / अविशुद्धश्वोद्गारः, षडजीर्णव्यक्ति धम्मत्थिकाएतद्देसे,तप्पएसे य आहिए। लिङ्गानि ||1|| "मूप्रिलापो वमथुः प्रसेकः सदनं भ्रमः। उपद्रवा अहम्मे तस्स देसे य, तप्पएसेय आहिए।५।। भवन्त्येते, मरणं वाऽप्यजीर्णतः" ||1|| प्रसेक इत्यधिकनिष्ठी आगासे तस्स देसे य, तप्पएसेय आहिए। वनप्रवृत्तिः, सदनमित्यङ्गग्लानिरिति / ध०१ अधिo| "जिन्नाजिण्णे अद्धा-समयए चेव, अरूवी दसहा भवे // 6 // अभोयणं बहुसो" जीर्णाजीणे च भोजने बहुशः, एष आयुष उपक्रमः। अरूपी अजीव एवं दशधा भवेदिति द्वितीयगाथायामन्वयः। प्रथम अस्माद् म्रियन्ते प्राणिन इत्यर्थः / आव० अ० जी०। एतत्प्रतीकारो धर्मास्तिकाय:धरति जीवपुद्गलौ प्रति गमनोपकारिणे ति यथा- भवेदजीर्ण प्रति यस्य शङ्का, स्निग्धस्य जन्तोर्बलिनोऽन्नकाले। धर्मस्तस्याऽस्तयः प्रदेशसद्भावास्तेषां कायः समूहो धर्मास्तिकायः, पूर्व स शुण्ठीमभयामशङ्कः, संप्राश्य भुञ्जीत हितं हि पथ्यम्॥१॥ इति सर्वदेशानुगतसमानपरिणतिमद् द्रव्यमिति भावः 1, पुनस्तद्देशस्य चक्रः।"अजीर्णे भोजने वारि, जीर्णे वारि बलप्रदम्' इति वैद्यके / धर्मास्तिकायस्य कतमो विभागो देशस्तृतीयचतुर्थादिभागस्तद्देशो कत्तरिक्तः / जीर्णो वृद्धः तदभिन्ने, त्रि०। वाचा धर्मास्तिकायदेशः 2, तथा पुनस्तत्प्रदेशस्तस्य धर्मास्तिकायअजिम्मकंतणयणा-स्त्री०(अजिह्मकान्तनयना) अजिोऽमन्दे विभागस्य अतिसूक्ष्मो निरंशोऽशः प्रदेशो धर्मास्तिकायप्रदेशभद्रभावतया निर्विकारचपल इत्यर्थः, कान्ते नयने यासां तास्तथा / स्तीर्थकरैराख्यातः कथितः 3, एवमधर्मो जीवपुद्गलयोः स्थिरकारी धर्मास्तिकायाद् विरुद्धोऽधर्मास्तिकायः 4, पुनस्तस्य अधर्मास्तिसुभगत्वयतत्वसहजचपलत्वभाजनलोचनासु, अजिम्हकंतणयणा कायस्यापि देशस्तद्देश एकः कश्चिद्भागोऽधर्मास्तिकायदेशः 5, पत्तलधवलायतआयतंबलोअणाओ। जं०२ वक्षः। एवं पुनस्तस्याधर्मास्तिकायस्य प्रदेशोंऽशस्तत्प्रदेश आख्यातोअजित-त्रि०(अजित) अपराजिते. ('अजिअ' शब्देऽस्य विस्तरः) ऽधर्मास्तिकायप्रदेश इत्यर्थः 6, इत्यनेन षड्भेदा अरूपिणोअजियदेव-पुं०(अजितदेव ) मुनिचन्द्रसुरेः शिष्ये, (निरूपणमस्य ऽजीवद्रव्यस्य // 5 // 'अजिअदेव' शब्दे) अथ शेषाश्चत्वार उच्यन्ते- आकाश इति सप्तमो भेदः / आकाशअजियप्पभ-पुं०(अजितप्रभ) स्वनामख्याते गणिनि, (विशेषोऽस्य माकाशास्तिकायः, जीवपुद्गलयोरवकाशदायि आकाशम् 7, 'अजिअप्पम' शब्दे) तस्याऽऽकाशस्य देशः कतमो विभाग आकाशाऽस्तिकायदेशः 8, तस्य अजियबला-स्त्री०(अजितबला) श्री अजितस्य शासनदेव्याम् आकाशास्तिकायस्य निरंशो देशः, तत्प्रदेश आकाशस्तिकायप्रदेश: ('अजिअबला' शब्देऽस्य विस्तरः) 6, दशमो भेदश्वाऽद्धासमयः, अद्धा कालो वर्तमानलक्षणस्तद्रूपः अजियसीह-पुं०(अजितसिंह) स्वनामख्यातेऽञ्चलगच्छीये सूरौ, समयोऽद्धासमयः / अस्यैक एव भेदो निर्विभागत्वात् / देशप्रदेशावपि ('अजिअसीह' शब्दोऽत्र द्रष्टव्यः) कालस्य न सम्भवतः 10, एवं दशभेदा अरूपिणो ज्ञेयाः॥६॥ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजीव 204- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अजीव __एतान् अरूपिणः क्षेत्रत आहधम्माधम्मे य दो एए, लोगमित्ता वियाहिया। लोगालोगे य आगासे, समए समयखित्तिए॥७॥ धर्माधर्मी धर्मास्तिकायाधर्मास्तिकायौ, एतौ द्वावपि लोक मात्रौ व्याख्यातौ / यावत्परिमाणा लोकास्तावत्परिणामौ धर्मास्तिकायाधर्मास्तिकायौ। चतुर्दशरज्ज्वात्मकलोकं व्याप्तावित्य-नेनालोके धर्माधर्मो न स्तः / आकाशं लोकालोके वर्त्तते इत्यनेनाऽऽकाशास्तिकायः चतुर्दशरज्ज्वात्मकलोकं व्याप्य स्थितः, ततो बहिर्लोकमपि व्याप्याऽऽकाशास्तिकायः स्थित इत्यर्थः / समयः समयादिकः कालः समयक्षेत्रिको व्याख्यातः / समयोपलक्षितं क्षेत्रं सार्द्धद्वयद्वीपसमुद्रात्मकं समयक्षेत्रं, तत्र भवः समयक्षेत्रिकः। सार्द्धद्वयद्वीपेभ्यो बहिस्तु समय आवलिका दिवसमासादिकालभेदो मनुष्यलोकाभावान्न विवक्षितः // 7 // पुनरेतानेव कालत आहधम्माधम्मागासा तिन्नि वि एए अणाइया। अपज्जवसिया चेव, सव्वद्धं तु वियाहिया।। धर्माधर्माकाशानि एतानि त्रीण्यपि सर्वार्द्ध इति सर्वकालं सर्वदा स्वरूपापरित्यागेन नित्यानि अनादीनि च पुनरपर्यवसितानि अन्तर्हितानि व्याख्यातानि / / 6 / / अथ कालस्वरूपमाहसमए विसंतई पप्प, एवमेव वियाहिया। आएसं पप्प साईए, सपज्जवसिए विय।। समयोऽपि कालोऽपि, एवमेव, यथा धर्माधर्माकाशानि अनाधनन्तानि, तथा कालोऽपि अनाद्यनन्त इत्यर्थः / किंकृत्वा ? सन्ततिं प्राप्य, अपरापरोत्पत्तिरूपप्रवाहात्मिकामाश्रित्य, कोऽर्थः? यदा हि कालस्योत्पत्तिर्विलोक्यते तदा कालस्याऽऽदिरपि नास्ति, अन्तोऽपि नास्तीत्यर्थः / पुनरादेशं प्राप्य कार्यारम्भमाश्रित्य कालः सादिक आदिसहितः, तथा सपर्यवसितोऽवसानसहितो व्याख्यातः। यदाच यत् किञ्चित् कार्य यस्मिन् काल आरभ्यते तदा तत्कार्यारम्भवशात् कालस्याप्युपाधिवशादादिः,एवं कार्यारम्भ-समाप्तौ कालस्याऽप्यन्तो व्याख्यात इत्यर्थः // 6 // अथरूपिणोऽजीवाश्चतुर्विधाश्चतुर्भेदा उच्यन्तेखंधा य खंधदेसा य, तप्पएसा तहेव य। परमाणवो य बोधव्वा,रूविणो विचउव्विहा / / 10 / / रूपिणोऽप्यजीवाश्चतुर्विधाश्चतुःप्रकाराः / के ते भेदाः ? तानाहस्कन्धाः, यत्र पुजे परमाणवो विचटनाद् मिलनाचन्यूना अधिका अपि भवन्ति, एतादृशाः परमाणुपुञ्जाः स्कन्धाः 1, स्कन्धदेशाः 2, तथा तत्प्रदेशाः, तेषांस्कन्धानां निर्विभागा अंशाः स्कन्धप्रदेशाः 3, तथैवेति पूर्ववत्, च पुनः परमाणवो बौद्धव्याः, परमाणव एव परस्परममिलिता इत्यर्थः 4 / एवं चत्वारो रूपिणश्चतुर्विधा बोद्धव्या इति भावः / अत्र च मुख्यवृत्त्या परमाणुद्रव्यस्य द्वौ भेदौ परमाणवः स्कन्धाश्च देशप्रदेशयोः स्कन्धेष्वेवान्तर्भावः।।१०।। अथ स्कन्धानां परमाणूनां लक्षणमाह- .. एगत्तेण पहुत्तेण, खंधा य परमाणुओ। लोएगदेशो लोए य, भइव्वा ते उ खित्तओ॥ इत्तो कालविभागं तु, तेसिं वोच्छं चउव्विहं / / 11 / / एते स्कन्धाश्च पुनः परमाणवः, एकत्वेन पुनः पृथक्त्वेन लोकैकदेशे च पुनर्लोके क्षेत्रतो भक्तव्याः। तत्र केचित् स्कन्धाः परमाणवश्च एकत्वेन समानपरिणतिरूपेण लक्ष्यन्ते। अथ चस्कन्धाः परमाणवश्व पृथक्त्वेन परमाण्वन्तरैरसनातरूपेण लक्ष्यन्त इत्यध्याहारः / इत द्रव्यतो लक्षणमुक्तम् / अथ च क्षेत्रत आह- ते स्कन्धाः परमाणवश्चेति तत्स्कन्धपरमाणूनां ग्रहणेऽपि परमाणूनामेवैकप्रदेशावस्थानत्वात् ते परमाणवः स्कन्धेषु लोकैकदेशे लोके सर्वत्र भक्तव्या भजनीया दर्शनीया इति यावत् / ते हि विचित्रत्वात्परिणतेर्बहुप्रदेशे तिष्ठन्ति / इतः क्षेत्रप्ररूपणातोऽनन्तरंतेषांस्कन्धानांपरमाणूनां चतुर्विधं कालभेदं वक्ष्ये, साद्यनादिसपर्यवसितापर्यवसितभेदेन कथयिष्यामि। इदं च सूत्रं षट्पादं गाथेत्युच्यते॥११॥ संतई पप्प तेऽणाई, अपज्जवसिया विय। ठिइं पडुच साईया, सपञ्जवसिया वि य॥१२॥ तेस्कन्धाः परमाणवश्च सन्ततिमपरापरोत्पत्तिप्रवाहरूपां प्राप्याऽनादय आदिरहितास्तथाऽपर्यवसिता अन्तरहिताः स्थितिं प्रतीत्य क्षेत्रावस्थानरूपां स्थितिमङ्गीकृत्य सादिकाः, सपर्यवसिताश्च वर्तन्ते // 12 // सादिसपर्यवसितत्वेऽपि कियत्कालमेषां स्थितिरित्याहअसंखकालमुक्कोसं, इक्कं समयं जहन्नयं / अजीवाण य रूवीणं, ठिई एसा वियाहिया / / 13 / / स्कन्धानां परमाणूनां चोत्कृष्टाऽसंख्यकालं स्थितिः जघन्यिका एकसमया स्थितिः / एषाऽजीवानां रूपिणां पुद्गलानां स्थितिः व्याख्याता // 13 // अथ कालतः स्थितिमुक्त्वा तदन्तर्गतमन्तरमाहअणंतकालमुक्कोसं, इक्वं समयं जहन्नयं / अजीवाण य रूवीणं, अंतरे य वियाहिया|१४|| अजीवानां रूपिणां पुद्गलानां स्कन्धदेशप्रदेशपरमाणुनामन्तरं विवक्षितक्षेत्रावस्थितेः प्रच्युतानां पुनस्तत्क्षेत्रप्राप्तेर्व्यवधानमन्तरमुत्कृष्टमनन्तकालं भवति / जघन्यकमेकसमयं यावद्भवति / इदमन्तरं तीर्थकरैयाख्यातम्- पुद्गलानां हि विवक्षितक्षेत्राऽवस्थितितः प्रच्युतानां कदाचित्समयावलिकादि संख्यातकालतो वा पल्योपमादेर्यावदनन्तकालादपि तत्क्षेत्रत्वावस्थितिः सम्भवतीति भावः // 14 // अथ भावतः पुद्गलानाहवनओ गंधओ चेव, रसओ फासओ तहा। संवणओय विन्नेओ, परिणामो तेसि पंचहा।।१।। तेषां पुद्गलानां परिणामो वर्णतो गन्धतो रसतः स्पर्शतः, तथा संस्थानतश्च पञ्चधा प्राप्रकारो ज्ञेयः / यतो हि पूरणगलनधर्माणः पुद्गलास्तेषामेव परिणतिः सम्भवति / परिणमनं स्वस्वरूपावस्थितानां पुद्गलानां वर्णगन्धरसस्पर्शसंस्थानादेरन्यथाभवनं परिणामः / स पुद्गलानां पञ्चप्रकार इत्यर्थः। उत्त०। Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजीब 205 - अभिषानराजेन्द्रः-भाग 1 अजीवपण्णवणा पुद्गलानां वर्णगन्धरसस्पर्शसंस्थानानां भेदान् वक्ष्ये / अथ तेषां | अजीवकायअसंजम-पुं०(अजीवकायासंयम) पुस्तकाक्रमेण प्रत्येकं संख्या वदति / तद्यथा- एकस्मिन्नेकस्मिन् पुद्- दीनामजीवकायानां ग्रहणपरिभोगानुपरमेण तत्समाश्रित-जीयविधाते, गलाश्रितवर्णे गन्धौ द्वौ, रसाः पञ्च,स्पर्शा अष्टौ, संस्थानानि पञ्च, एवं स्था०७ ठा०। सर्वेऽपि विंशतिर्विशतिर्भदा भवन्ति। कृष्णनीललोहितपीत- शुक्लानां अजीवकायअसमारंभ-पुं०(अजीवकायासमारम्भ) पुस्तकादीनां पञ्चवर्णानां प्रत्येकं प्रत्येकं विंशतिभेदमीलनात् 2+5+5+5= __ ग्रहणपरिभोगतस्तदाश्रितजीवानां परितापकरणे, स्था०७ ठा० 2045=100, शतं भेदा वर्णपुद्गलस्य / अथ गन्धयोर्द्वयोः अजीवकायआरंभ-पुं०(अजीवकायारम्भ) पुस्तकादीनां ग्रहणषट्चत्वाशिद्भेदाः भवन्ति। तद्यथा-वर्णाः पञ्च, रसाः पञ्च, स्पर्शा अष्टौ, परिभोगतस्तदाश्रितजीवानामुपद्रवणे, स्था०७ ठाण संस्थानानि पञ्च / एवं सर्वे त्रयोविंशति-संख्याकाः / ते च अजीवकायसंजम-पुं०(अजीवकायसंयम)पुस्तकादीनामसुगन्धदुर्गन्धतः त्रयोविंशतित्रयो विंशतिप्रमिताः / उभयमीलने 5+5+8+5-2342-46, षट्चत्वाशिंभवन्ति।अथरसपुद्गलानां जीवकायानां ग्रहणपरिभोगोपरमे ,स्था०७ ठा०। आव०। प्रश्न शतं भेदा भवन्ति। तद्यथा-वर्णाः पञ्च, गन्धौ द्वौ, स्पर्शा अष्टौ, संस्थानानि अजीवकिरिया -स्त्री०(अजीवक्रिया) जीवस्य पुद्गलसमुपञ्च / एवं विंशतिर्भे दाः / प्रत्येकं प्रत्येकं तिक्त कटुकषा दायस्य यत्कर्मेर्यापथ्यं तया परिणमनं साऽजीवक्रि या / याऽम्लमधुरादिपञ्चभिर्भक्ताः सन्तः५+२+५+५=२०४५=१००,शतं "अजीवकिरियादुविहा पण्णत्ता।तं जहा- ईरियावहिया चेव, संपराइया भेदा भवन्ति / अथ स्पर्शभेदाः षत्रिंशदधिकशतम् / तद्यथा- वर्णाः चेव"। स्था०२ ठा०२ उ०। पञ्च, गन्धौ द्वौ, रसाः पञ्च, संस्थानानिपञ्च / एवं सप्तदश भेदाः तेच | अजीवणिस्सिय-त्रि०(अजीवनिःश्रित) अजीवा खरमृदुगुरुलधुरूक्षस्निग्धशीतोष्णपुद्गलैः अष्टाभिर्गुणिताः ७ठा। 5+2+5+5=1748-136, षट्त्रिंशदधिकं शतं भेदा भवन्ति / *अजीवनिःसृत-त्रि० अजीवेभ्यो निर्गते, स्था०७ ठा०। प्रज्ञापनायां स्पर्शपुद्गलानां चतुरशीत्यधिकशतं भेदा उक्ताः सन्ति। अजीवदव्वविभत्ति-स्त्री०(अजीवद्रव्यविभक्ति) अजीवद्रव्याणां तद्यथा-वर्णाः पञ्च,रसाः पञ्च,गन्धौ द्वौ, स्पर्शाः षट् ,एवं गृह्यन्ते। यतो विभागरूपे विभक्तिभेदे, अजीवद्रव्यविभक्तिस्तु रूप्यरूपिद्रव्यभेदाद् हि यत्र खरस्पर्शः पुद्गलो गण्यते, तत्र तदा मुदुः पुद्गलो न द्विधा / तत्र रूपिद्रव्यविभक्तिश्चतुर्धा / तद्यथा स्कन्धाः, स्कन्धदेशाः, गण्यते। यत्र स्निग्धो गण्यते, तदा तत्र रूक्षोन गण्यते। परस्परविरोधिनौ स्कन्धप्रदेशाः, परमाणुपुद्गलाश्च। अरूपिद्रव्यविभक्तिर्दशधा / तद्यथाहि एकत्र न तिष्ठतः, तस्मात् स्पर्शाः षट्, संस्थानानि पञ्च, एवं सर्वे धर्मास्तिकायो धर्मास्तिकायस्य देशो धर्मास्तिकायस्य प्रदेशः / मिलितास्त्रयोविंशतिर्भवन्ति / ते त्रयोविंशतिभेदाः प्रत्येक एवमधर्माकाशयोरपि प्रत्येकं त्रिभेदता द्रष्टव्या। अद्धासमयश्च दशम इति / खरमृदुगुरुलघु स्निग्धरुक्षशीतोष्णा-द्यष्टाभिः पुद्गलैगुणिताः सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ०। 5+2+5+5+6%2348-184, चतुरशीत्यधिकशतं भेदा भवन्ति। अजीवदिट्ठिया-स्त्री०[अजीवदृष्टिका (जा)] अजीवानां चित्र कर्मादीनां वीतरागोक्तं वचः प्रमाणम्, येन यादृशं ज्ञातं तेन तादृशं व्याख्यातम् , तत्त्वं केवली वेद। दर्शनार्थं गच्छतो गतिक्रियारूपे दृष्टिकायाः क्रियाया भेदे, स्था०२ठा० १उ०। अथोपसंहारेणोत्तरग्रन्थसम्बन्धमाहएसा अजीवविभत्ती, समासेण वियाहिया। अजीवदेस- पुं०(अजीवदेश) धर्माधर्मास्तिकायादिदेशेषु, भ० एषाऽजीवविभक्तिः समासेन संक्षेपेण व्याख्याता।उत्त०३६ अादश01 16 श० 8 उ०। भला प्रज्ञा०ाजी०। श्रा० आ०चूकानं० सूत्रादर्शास्था०।"णत्थि अजीवधम्म -पुं०(अजीवधर्म) अचेतनानां मूर्तिमतां द्रव्याणां जीवा अजीवा वा, णेवं सण्णं णिवेसए"। सूत्र०ा ('अस्थिवाय' शब्दे वर्णगन्धरसस्पर्शेषु, अमूर्तिमतांद्रव्याणां धर्माधर्माकाशानां गत्यादिकेषु व्याख्यास्यामः) धर्मेषु, सुत्र०२ श्रु० 1 अ०॥ अजीवआणवणिया-स्त्री०(अजीवाज्ञापनिका) आज्ञापनि-काजन्यः अजीवपञ्जव-पुं०(अजीवपर्याय) अजीवानां पर्यायेषु, प्रज्ञा०। पर्याया कर्मबन्धोऽप्याज्ञापनिका / अजीवविषयाऽऽज्ञापनिका अजीवा गुणा विशेषा धर्मा इत्यनान्तरम् / प्रज्ञा०५ पद / ज्ञापनिका / 'अजीवमाज्ञापयतः' इत्यादेशनरूपाया आज्ञापनिक्याः अजीवपज्जवा णं भंते ! कइविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! क्रियाया भेदे, स्था०२ ठा० 1 उ०) दुविहा पण्णत्ता / तं जहा- रूविअजीवपज्जवा य अरूवि*अजीवानायनी-स्त्री०। अजीवविषया आनायनी, अजीवमाना अजीवपञ्जवा य / अरूविअजीवपज्जवा णं भंते ! कतिविहा यनम्। आनायनरूपायाः क्रियाया भेदे, स्था० 2 ठा०१ उ०। पण्णत्ता? गोयमा! दसविहा पण्णत्ता? तं जहा-धम्मत्थिकाए, अजीवआरंभिया-स्त्री०(अजीवारम्भिका) या चाजीवान् धम्मत्थिकायस्स देसे, धम्मत्थिकायस्स पदेसा। अधम्मत्थिजीवकलेवराणि पिष्टादिमयाऽजी वाकृतींश्च वस्त्रादीन्वाऽऽर-भमाणस्य काए, अधम्मत्थिकायस्स देसे, अधम्मत्थिकायस्स पदेसा। सा अजीवारम्भिका / आरम्भिक्याः क्रियाया भेदे, स्था० 2 ठा० 1 आगासस्थिकाए, आगासत्थिकायस्स देसे, आगासस्थि-कायस्स पदेसा। अद्धासमए / रूविअजीवपजवा णं भंते ! कतिविहा अजीवकाय-पुं०(अजीवकाय) अजीवाश्च तेऽचेतनाः कायाश्च पण्णत्ता ? गोयमा! चउविहा पण्णत्ता।तंजहा-खंधा, खंधदेसा, राशयोऽजीवकायाः। जीवविपरीतेषु धर्माधर्माकाशपुद्गलेषु, भ०७ श० खंधपदेसा, परमाणुपोमगला / तेणं भंते ! किं संखेज्जा, असंखेजा, १०उ01 अणता? गोयमा! नोसंखिज्जा, नो असंखिज्जा,अणंता।सेकेणट्टेणं उग Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजीवपज्जवा 206 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अजीवमिस्सिया भंते ! एवं वुचइ, नो संखिज्जा, नो असंखिज्जा, अणंता ? गोयमा ! अणंता परमाणुपोग्गला, अणंता दुपएसिया खंधा, जाव अनंता दसपएसिया खंधा, अणंता संखिज्जपदेसिया खंधा, अनंता असंखिजपदेसिया खंधा, अणंता अणंतपदेसिया खंधा, से तेणढणं गोयमा! एवं वुचइ, ते णं नो संखेज्जा, नो असंखिज्जा, अणंता। प्रज्ञा०५ पद। अजीवपण्णवणा -स्त्री०(अजीवप्रज्ञापना) अजीवानां प्रज्ञापनाऽजीवप्रज्ञापना / प्रज्ञापनाभेदे, प्रज्ञा०॥ से किं तं अजीवपण्णवणा? अजीवपण्णवणा दुविहा पण्णत्ता। तं जहा- रूविअजीवपण्णवणा, अरूविअजीवपण्णवणा य। से किं तं अरूविअजीवपण्णवणा? अरूविअजीवपण्णवणा दसविहा पण्णत्ता / तं जहा-धम्मत्थिकाए, धम्मत्थिकायस्स देसे, धम्मत्थिकायस्स पएसा / अधम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकायस्स देसे, अधम्मत्थिकायस्स पएसा / आगासस्थिकाए, आगा-सत्थिकायस्स देसे, आगासस्थिकायस्स पदेसा, अद्धासमए। से तं अरूविअजीवपण्णवणा। से किंतं रूविअ-जीवपण्णवणा? रूविअजीवपण्णवणा चउविहा पण्णत्ता / तं जहा-खंधा, खंधदेसा, खंधप्पएसा, परमाणुपोग्गला। ते समासओ पंचविहा पण्णत्ता / तं जहा वण्णपरिणया, गंधपरिणया, रसपरिणया फास-परिणया, संठाणपरिणया / जे वण्णपरिणया ते समासओ पंचविहा पण्णत्ता। तं जहा कालवण्णपरिणया, नीलवण्णपरिणया, लोहियवण्णपरिणया, हालिद्दवण्ण-परिणया, सुकिल्लवण्णपरिणया। अमीषामित्थंक्रमोपन्यासे किं प्रयोजनम् ? उच्यते- इह धर्मा-स्तिकाय इति पदं मङ्गलभूतम् , आदौ धर्मशब्दान्वितत्वात् / पदार्थप्ररूपणा च सम्प्रति प्रथमत उतिक्षप्ता वर्तते, ततो मङ्गला-र्थमादौ धर्मास्तिकायस्योपादानम् / धर्मास्तिकायप्रतिपक्ष भूतश्चाधर्मास्तिकायस्ततस्तदनन्तरमधर्मास्तिकायस्य। द्वयोरपिचानयोराधारभूतमाकाशमिति तदनन्तरमाकाशास्तिकायस्य / ततः पुनरजीवसाधादद्धासमयस्य / अथवा इह धर्माधर्मास्तिकायौ विभू न भवतस्तद्विभुत्वे तत्सामर्थ्यतो जीवपुद्गलानामस्खलित- प्रचारप्रवृत्तौ लोकालोकव्यवस्थाऽनुपपत्तेः। अस्ति च लोका-ऽलोकव्यवस्था, तत्र तत्र प्रदेशे सूत्रे साक्षाद्दर्शनात्। ततो यावति क्षेत्रेऽवगाढौ (धर्माधर्मी) तावत्प्रमाणो लोकः, शेषस्त्वलोक इति सिद्धम्। उक्तं चधर्माधर्मविभुत्वात्, सर्वत्र च जीवपुद्गलविचारात्। नालोकः कश्चित्स्यात्, न च सम्मतमेतदार्याणाम्।।१।। तस्माद्धर्माधर्माववगाढौ व्याप्य लौककं सर्वम्। एवं हि परिच्छिन्नः,सिद्ध्यति लोकस्तदविभुत्वात् / / 2 / / तत एव लोकालोकव्यवस्थाहेतू धर्माधर्मास्तिकायावित्यनयोरादावुपादानम् / तत्रापि माङ्गलिकत्वात् प्रथमतो धर्मास्तिकायस्य, तत्प्रतिपक्षत्वात्ततोऽधर्मास्तिकायस्य, ततो लोकालोकव्यापित्वादाकाशास्तिकायस्य, तदनन्तरं लोके समयासमय क्षेत्रव्यस्थाकारित्वादद्धासमयस्य / एवमागमानुसारेणान्यदपि युक्त्यनुपाति वक्तव्यमित्यलं प्रसङ्गेन / प्रकृतोपसंहारमाह- (से तं अरूविअजीवपन्नवणा) सैषा अरूप्यजीवप्रज्ञापना। पुनराह विनेयः (से किं तमित्यादि) अथ का सा रूप्यजीवप्रज्ञापना? सूरिराहरूप्यजीवप्रज्ञापना चतुर्विधा प्रज्ञप्ता / तद्यथा- स्कन्धाः स्कन्दन्ति शुष्यन्ति,धीयन्ते चपुष्यन्तेपुद्गलानां विचटनेन चटनेन वेति स्कन्धाः। पृषोदरादित्वाद् रूपनिष्पत्तिः / अत्र बहुधा वचनं पुद्गलस्कन्धानामानन्त्यख्यापनार्थम्। न चानन्त्यमनुपपन्नम्, आगमेऽभिधानात्। तथा चाजीवशब्दे उक्तम्- दव्यतो णं पुग्गलत्थिकाए णंता दव्वा, इत्यादि। स्कन्धदेशाः स्कन्धानामेव स्कन्धत्वपरिणाममजहन्तो बुद्धिपरिकल्पिता व्यादिप्रदेशात्मका विभागाः / अत्रापि बहुवचनमनन्तप्रादेशिकेषु तथाविधेषु स्कन्धेषु प्रदेशानन्तत्वसम्भावनार्थम् / स्कन्धानां स्कन्धत्वपरिणाम-परिणतानां बुद्धिपरिकल्पिताः प्रकृष्टा देशा निर्विभागा भागाः, परमाणव इत्यर्थः, स्कन्धप्रदेशाः। अत्रापि बहुवचनं प्रदेशा- नन्तत्वसम्भावनार्थम् / (परमाणुपुद्गला इति) परमाश्च ते अणवश्व परमाणको निर्विभागद्रव्यरूपाः, ते च ते पुद्गलाश्व परमाणुपुद्गलाः स्कन्धत्वपरिणामरहिताः केवलाः परमाणव इत्यर्थः। (ते समासओ इत्यादि) ते स्कन्धादयो यथासम्भव समासतः सङ्केपेण पञ्चविधाः प्रज्ञप्ताः। तद्यथा-वर्णपरिणता वर्णतः परिणताः, वर्णभाज इत्यर्थः / एवं गन्धपरिणताः, रसपरिणताः, स्पर्शपरिणताः, संस्थानपरिणताः / परिणता इत्यतीतकालनिर्देशो वर्तमानानागतकालोपलक्षणम्। वर्तमानानागतत्वमन्तरेणाती तत्वस्या-सम्भवात्। तथाहि- यो वर्तमानत्वमतिक्रान्तः सोऽतीतो भवति। वर्तमानत्वं च सोऽनुभवति योऽनागतत्वमतिक्रान्तवान् / उक्तञ्च- भवति स नामातीतो,यः प्राप्तो नाम वर्तमानत्वम् / एष्यंश्च नाम स भवति, यः प्राप्स्यति वर्तमानत्वम् / / 1 / / ततो वर्णपरिणता इति वर्णरूपतया परिणताः परिणमन्तीति परिणमिष्यन्तीति वा द्रष्टव्यम् / एवं गन्धरसपरिणता इत्याद्यपि परिभावनीयम्। प्रज्ञा० 1 पदों अजीवपरिणाम-पुं०(अजीवपरिणाम)६त०। पुद्गलानां परिणामे, "दसविहे अजीवपरिणामे पण्णत्ते / तं जहा- बंधणपरिणामे,गइयपरिणामे ठाणपरिणामे, भेदवन्नरसपरिणामे, गंधपरिणामे, फासपरिणामे, अगरुयलहुयसद्दपरिणामे" / (बन्धनपरिणामादीनां व्याख्याऽन्यत्र) स्था० 10 ठा० अजीवपाउसिया-स्त्री०(अजीवप्राद्वेषिकी) अजीये पाषाणादौ स्खलितस्य प्रद्वेषादजीवप्राद्वेषिकी / स्था० 2 ठा० 1 उ०। अजीवस्योपरि प्रद्वेषाद्याः क्रियाः, प्रद्वेषकरणमेव वा / प्रादेषिक्याः क्रियाया भेदे, भ०३ श० 3 उ०) अजीवपाडुचिया -स्त्री०(अजीवप्रातीतिकी) अजीवं प्रतीत्य यो रागद्वेषोद्भवस्तज्जो यो बन्धः सा अजीवप्रातीतिकी / प्रातीतिक्याः क्रियाया भेदे, स्था० 2 ठा०१ उ०। अजीवपुट्ठिया -स्त्री० [अजीवपृष्टिका (जा)(स्पृष्टिका)] अजीव रागद्वेषाभ्यां पृच्छतः स्पृशतो वा क्रियात्मके, पृष्टिका(जा)(स्पृष्टिका)याः क्रियाया भेदे, स्था०२ ठा० 1 उ०।। अजीवमिस्सिया-स्त्री०(अजीवमिश्रिता) सत्यमृषाभेदे, यदा यदा प्रभूतेषु मृतेषु स्तोकेषु जीवत्सु एकत्र राशीकृतेषु शङ्कादिषु एवं वदति- अहो ! महानयं मृताऽजीवराशिरिति तदा सा अजीवमिश्रिता, अस्या अपि सत्यमृषात्वम् / मृतेषु सत्यत्वात् , जीवत्सु मृषात्वात्। प्रज्ञा०११पद। Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजीवरासि २०७-अभियानराजेन्द्रः - भाग 1 अजोगि स० अजीवरासि-पुं०(अजीवराशि) राशिभेदे, स०। अजुगलिअ-त्रि०(अयुगलित) असमश्रेणिस्थे, अजुगलिआ, अतुरंता, अजीवरासी दुविहा पन्नत्ता। तंजहा-रूवी अजीवरासी, अरूवी विगहरहिआ वयंति पढमं तु ध०५ अधि०। पं०व० ओ०। अजीवरासी य / से किं तं अरूवी अजीवरासी? अरूवी | अजुण्णदेव-पुं०(अजीर्णदेव)अलावुद्दीनाऽऽगमनसमया-त्प्राग्भाविनि अजीवरासीदसविहा पन्नत्ता। धम्मत्थिकाए० जाव अद्धासमए। जैननरेन्द्रभेदे, ती०२७ कल्पा रूवी अजीवरासी अणेगविहा। अजुत्त-त्रि०(अयुक्त) युज-क्त / न००। विषयान्तरासक्ततया तत्राऽजीवराशिर्द्विविधः, रूप्यरूपिभेदात् / तत्राऽरूप्यजीव- कर्तव्येष्वनवहिते, अनुचिते, आपद्गते, असंयुक्ते. "अयुक्तः प्राकृतः राशिर्दशधा, धर्मास्तिकायस्तद्देशस्तत्प्रदेशश्चेति / एवमधर्मा- स्तब्धः "अयुक्तोऽनवहितः। अयोग्ये, बहिर्मुखे युक्तिशून्ये, अनियोजिते स्तिकायाकाशास्तिकायावपि वाच्यौ। एवं नव / दशमोऽद्धासमय इति। च। वाच०। बुद्ध्या चिन्त्यमाने अनुप-पत्तिक्षमे सूत्रदोषविशेषदुष्ट, न०॥ रूप्यजीवराशिश्चतुर्दा- स्कन्धाः,देशाः,प्रदेशाः, परमाण-वश्चेति। तेच यथा- तेषां कटतटभ्रष्टैगजानां मदबिन्दुभिः / प्रावर्त्तत नदी घोरा, वर्णगन्धरसस्पर्शसंस्थानभेदतः पञ्चविधाः संयोगतोऽनेकविधा इति। हस्त्यश्वरथवाहिनी॥११॥ इत्यादि। विशे०आ०म०द्वि०। अनु०। बृ०। अजुत्तरूव-त्रि०(अयुक्तरूप) न० ब०।असंगतरूपे, अनुचित वेषे, स्था० अजीवविजय-पुं०न०(अजीवविचय) धर्माऽधर्माकाश कालपुद्गला 4 ठा०३ उ०। नामनन्तपर्यायात्मकानामजीवानामनुचिन्तने, सम्म० 4 काण्ड। अजूरणया-स्त्री०(अजीर्णता-(अजरणता) शरीरजीर्णत्वा-ऽविधाने, अजीववेयारणिया-स्त्री०(अजीववैदारणिका-अजीववैक्र य पा०। ध०। शरीरापचयकारिशोकानुत्पादने, "वहूण पाणाणं जाव सत्ताणं णिका)(अजीववैचारणिका-अजीववैतारणिका) अजीवं विदारयति अदुक्खणयाए असोयणयाए अजूरण-याए" / भ०७ श० 6 उ०। स्फोटयति, अजीवमसमानभागेषु विक्रीणाति, द्वैभाषिको विचारयति, पुरुषादिविप्रतारणबुद्ध्याऽजीवं भणत्येतादृशमेतदिति यत्सा तथा। अजोग-पुं०(अयोग)न० ताशैलेशीकरणे, सकलयोगचाप-ल्यरहिते अजीववैदा-(वैक्रय-)(वैचा-)(वैता-) रणिक्याः क्रियाया भेदे, स्था० योगे च / 'प्रीतिभक्ति वचो सङ्गैः, स्थानाद्यपि चतुर्विधम् / २ठा०१ उ०। तस्मादयोगयोगाप्तेर्मोक्षयोगः क्रमाद् भवेत् // 1 / / अष्ट०२८ अष्ट। "तत्रायोगाद्योगमुख्याद्,भवोपग्राहिकर्मणाम् / क्षयं कृत्वा प्रयात्युच्चैः, अजीवसामंतोवणिवाइया-स्त्री०(अजीवसामन्तोपनि-पातिकी) कस्यापि रथो रूपवानस्ति,तं च जनो यथा यथा प्रलोकयति प्रशंसति परमानन्दमन्दिरम्" // 1 // द्वा०२५ द्वा०। अतस्त्वयोगो योगानां, योगः पर उदाहृतः / मोक्षयोजनभावेन, कर्मसंन्यासलक्षणः |1|| ल०। च, तथा तथा तत्स्वामी हृष्यतीति / रथादौ हृष्यतः क्रियात्मके सामन्तोपनिपातिक्याः क्रियाया भेदे, स्था०२ ठा०१ उ०। अव्यापारे, द्वा०२५ द्वा०। असम्भवे च / द्वा० 10 द्वा०। अप्राशस्त्ये, न०ता ज्योतिषोक्त तिथिवारादीनां दुष्ट योगे, "अयोगः सिद्धियोगश्च, अजीवसाहत्थिया-स्त्री०(अजीवस्वाहस्तिका) * स्वहस्त द्वावेतौ भवतो यदि / अयोगो हन्यते तत्र, सिद्धियोगः प्रवर्तते" ||1|| गृहीतेनैवाजीवेन खड्गादिनाऽजीवं मारयति सा अजीव-स्वाहस्तिकी, स्वहस्तेनाजीवं ताडयतोऽजीवस्वाहस्तिका / स्वाहस्तिक्याः क्रियाया राजमार्तण्डः / नम्ब०। विधुरे, कूटे कठिनोदये, सुश्रुतोक्ते वमनापशमनीये रोगभेदे च / यत्राध्मानं हृदयग्रहस्तृष्णा मूर्छा दाहश्च भेदे, स्था०२ ठा०१ उ०। भवति तमयोगमित्याचक्षते, तमाशु वमयेदिति / वाच०। अजीवापञ्चक्खाणकिरिया-स्त्री०(अजीवाप्रत्याख्यान-क्रिया) अजोगया-स्त्री०(अयोगता) योगनिरोधोत्तरं शैलेशीकरअजीवेषु मद्यादिषु अप्रत्याख्यानात्कर्मबन्धनरूपे ऽप्रत्याख्यान णात्प्राग्वर्तमानायामवस्थायाम्, औ०। 'योगणिरोहं करेइ, करेइत्ता क्रिया दे, स्था०२ ठा० 1 उ01 अजोगत्तं पाउणइ, अजोगत्तं पाउणित्ता इसिं रहस्स०"। औ०। अजीवाभिगम-पुं०(अजीवाभिगम)६त०।गुणप्रत्यया वध्यादिप्रत्यक्षतः अजोगरूव-त्रि०(अयोगरूप) 6 ब०। अघटमानके, "अजोरूवं इह पुद्गलास्तिकायाद्यभिगमे, स्था० 3 ठा०२ उ01 "से किं तं अजीवाभिगमे ? अजीवाभिगमे दुविहे पन्नत्ते / तं जहा रूविअजीवाभिगमे संजयाणं, पावं तु पाणाण य संझकाउं'। सूत्र०२ श्रु०६ अ०| य, अरूविअजीवाभिगमे य / से किं तं अरूवि-अजीवाभिगमे ? अजोगि(ण)-पुं०(अयोगिन्) न सन्ति योगा यस्य / स्था० २ठा० 1 अरूविअजीवाभिगमे दसविहे पन्नत्ते / तं जहा-धम्मत्थिकाए एवं जहा | उ०। बहुव्रीहेमत्वर्थी य इति / यथा-सर्वधनी / सर्वधनापन्नवणाए जाव। से तं अरूवि-अजीवाभिगमे०"। जी०१ प्रतिक देराकृतिगणत्वात् / दर्शान योगीति वा योऽसावयोगी। स्था०२ ठा० अजीवुभव -त्रि०(अजीवोद्भव) अजीवप्रभवे, दश०१अ० 1 उ० निरुद्धयोगे, स्था० 4 ठा०४ उ०। अजु-त्रि०(अयु) युक् मिश्रणे इत्ययं परैरमिश्रणे चेत्यर्थेऽभिधीयते। शैलेश्यवस्थायाम, सूत्र०२ श्रु०३ अ01 आव०। कर्म०। अतोयौतिपृथग्भवति इति, यु-विचि, छान्दसत्वाद् गुणाभावः। न युरयुः / कथमयोगित्वमसावुपगच्छतीति चेत् ? उच्यते - स भगवान् सयोगिके वली जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुकृष्टतो देशानां पूर्वकोटिं अपृथग्भूते,"धियोऽयो नः प्रचोदयात्"। जैगा०। विहृत्य कश्चित्कर्मणां समीकरणार्थ समुद्घातं करोति, यस्य अजुअलवण्णा-(देशी) अम्लिकावृक्षे / दे० ना० 1 वर्ग। वेदनीयादिकमायुषः सकाशादधिकतरं भवति, अन्यस्तु न अजुअलवण्णो-(देशी) सप्तच्छदनामके वृक्षविशेषे। दे० ना० 1 वर्ग। करोति / (के वलिसमुग्घाय शब्दे चैतद् वक्ष्यामः) भवोपग्राहिअजुलो-(देशी) सप्तच्छदवृक्षविशेषे, दे०ना० 1 वर्ग। कर्मक्षपणाय लेश्यातीतमत्यन्ताप्रकम्पं परमनिर्जराकारणं ध्यानं Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजोगि 208- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 . प्रतिपित्सुर्योगनिरोधार्थमुपक्र मते / तत्र पूर्व बादरकाययोगेन गतिमनुष्याऽनुपूर्वीमनुष्यायुः पञ्चेन्द्रियजातित्रससुभगा-देययशःकीर्ति बादरमनोयोग निरुणद्धि, ततो वाग्योगम् / ततः सूक्ष्मकाययोगेन पर्याप्तबादरतीर्थकरोचैर्गोत्ररूपाणां त्रयोदशप्रकृतीनां सत्ताव्यवच्छेदः। बादरकाययोगं, तेनैव सूक्ष्ममनोयोग सूक्ष्मवाग्योगं च / सूक्ष्मकाययोग अन्ये पुनराहुः - मनुष्यानुपूर्व्या द्विचरमसमये व्यवच्छेदः, उदयाभावात्। तु सूक्ष्मक्रियमनिवर्ति शुक्लध्यानं ध्यायन् स्वावष्टम्भेनैव निरुणद्धि, उदयवतीनां हि स्तिबुकसंक्रमाभावात् स्वस्वरूपेण चरमसमये दलिक अन्यस्यावष्टम्भनीयस्य योगान्तरस्य तदाऽसत्त्वात् / तद्ध्यान- दृश्यत एवेति युक्तस्तासां चरमसमये सत्ताव्यवच्छेदः। आनुपूर्वीनाम्नांदु, सामर्थ्याच वदनोदरादिविवरपूरणेन संकुचितदेहत्रिभागवर्तिप्रदेशो चतुर्णामपि क्षेत्रविपाकतया भवापान्तरालगतावेवोदयः, तेन भवस्थस्य भवति / तदनन्तरं समुत्सन्नक्रियमप्रतिपाति शुक्लध्यानं ध्यायन् तदुदयसंभवः, तदसंभवाच्चायोग्यावस्था द्विचरमसमये एव, मध्यमप्रतिपत्त्या ह्रस्वपञ्चाक्षरोदिगरणमात्रकालं शैलेशीकरणं मनुष्यानुयाः सत्ताव्यवच्छेद इति तन्मतेन द्विचरमसमये प्रविशति / कर्म०२ कर्म त्रिसप्ततिप्रकृतीनां सत्ताव्यवच्छेदः, चरमसमये द्वादशानामिति / अजोगिकेवलि(ण)-पुं०(अयोगिकेवलिन्) अयोगी चाऽसौ केवलीच ततोऽनन्तरसमये कोशबन्धमोक्षलक्षणसहकारिसमुत्थस्वभावविशेषाद् अयोगिकेवली / निरुद्धमनःप्रभृतियोगे शैलेशीगते, स०१४ सम०॥ एरण्डफलमिव भगवानपिकर्मसंबन्धनि-मोक्षलक्षणसहकारिविगतक्रियानिवर्ति शुक्लध्यानं ध्यातवांश्चायोगिकेवली समुत्थस्वभावा-विशेषादूध्वं लोकान्ते गच्छति / स चोर्ध्वं गच्छन् निःशेषितमलकलङ्कोऽवाप्तशुद्धनिजस्वभाव ऊर्ध्वगतिपरिणामः ऋजुश्रेण्या यावत्स्वाकाशप्रदेशेष्विहावगाढस्तावदेव प्रदेशानूर्ध्वमप्यस्वाभाव्यान्निवातप्रदेशप्रदीप्तशिखावदूर्ध्वं गच्छत्येकसमयेना- वगाहमानो विवक्षितसमयात् चाऽन्यत् समयान्तरमस्पृशन्गच्छति। उक्तं ऽऽलोकान्तात् / सम्म० 5 काण्ड / कर्म०। अयं च शैलेशीकरणं चाऽऽवश्यकचूर्णी- जत्तिए जीवो अवगाये तावइयाए ओगाहणाए 7 चरमसमयानन्तरमुच्छिन्नचतुर्विधकर्मबन्धनत्यादष्ट मृत्तिकालेपि उज्जुगं गच्छइ, न वंकं बीयं च समयं न फुसइत्ति। तत्र च गतः सन् भगवान् लिप्ताधोनिमग्र क्र मापनीतमृत्तिकालेपजलतलमर्यादोर्ध्वगामि शाश्वतं कालमवतिष्ठते। पं०स०१द्वा०। तथाविधाऽलाबुवदूर्ध्वलोकान्ते गच्छति, नापरतोऽपि, मत्स्यस्य अजोगिभवत्थ-पुं०(अयोगिभवस्थ) अयोगी चासौ भवस्थजलकल्पं गत्युपष्टम्भकधर्मास्तिकायाभावात् / स चोर्ध्वं गच्छन् __ श्चायोगिभवस्थः / शैलेश्यवस्थामुपगते, नं०। ऋजुश्रेण्या यावत् स्वाकाशप्रदेशेष्ववगाढस्तावदेव प्रदेशादूर्ध्वमवगाह अजोगिभवत्थकेवलणाण-न०(अयोगिभवस्थकेवलज्ञान) 6 तवा मानो विवक्षितसमयाच समयान्तरमसंस्पृशन् गच्छति / शैलेशीकरणव्यवस्थितस्य केवलज्ञाने / नं०। ('केवल-नाण' शब्दे तदुक्तमावश्यकचूर्णीजत्तिए जीवो अवगाढो तावइयाए ओगाहणाए उड्डे व्याख्याऽस्य द्रष्टव्या) उज्जुगं गच्छइ, न वंकं बीयं च समयं न फुसइ त्ति / दुःषमाऽन्धकारनिमनजिनप्रवचनप्रदीपप्रतिमाः श्रीजिनभद्रगणि-पूज्या अप्याहुः - अजोगिसंतिगा-स्त्री०(अयोगिसत्ताका) अयोगिकेवलिनि सत्ता यासा उजुसेढीपडिवण्णो, समये समयंतरं अफुसमाणो। एगसमयेण सिज्झइ, ता अयोगिसत्ताकाः / चतुर्दशगुणस्थानिनि लब्धसत्ताकासु प्रकृतिषु, अह सागारोवउत्तो सो // 1|| कर्म०२ कर्म० / प्रव०। पं०सं०१ द्वारा अजोगिकेवलिगुणठाण -न०(अयोगिकेवलिगुणस्थान) 6 त०। अजोग्ग-त्रि०(अयोग्य) अनुचिते, पञ्चा० 10 विव०। चतुर्दशे गुणस्थाने, कर्म० 1 कर्म०। न योगी अयोगी, अयोगी चासौ अजोणिभूय-न०(अयोनिभूत) विध्वस्तयोनौ प्ररोहासमर्थ, केवली च अयोगिकेवली। तस्य गुणस्थानमयोगि-केवलिगुणस्थानम्, दश। तस्मिश्च वर्तमानः कर्मक्षपणाय व्युपरतक्रिय-मनिवृत्ति ध्यानमारोहति। अजोणिय-पुं०(अयोनिक) न०ब०। सिद्धे, स्था०२ ठा० 1 उ०। आह च- स ततो देहत्रयमोक्षार्थम-निवृत्तसर्ववस्तुगतम् / उपयाति अजोसिय-त्रि०(अजुष्ट) असेविते, "जे विण्णवणा अ- जोसिया"। समुच्छिन्नक्रियमतमस्कं परं ध्यानम् // 1 // एवमसावयोगिकेवली सूत्र०१ श्रु०२ अ०१ उ०। स्थितिघातादिरहितोयान्युदयवन्ति कर्माणि तानि स्थितिक्षयेणानुभवन् अज्ज-धा०(अज) प्रतियत्ने, भवादि०, पर०, सक०, सेट्। अर्जेविटवः। क्षपयति / यानि पुनरुदयवन्ति तदानीं न संभवन्ति तानि वेद्यमानासु ___8 / 4 / 108 / इति प्राकृतसूत्रेण विढवादेशाभावे, अजइ, अर्जति। प्रकृतिषु स्तिबुकसंक्रमेण संक्रमयन् वेद्यमानप्रकृतिरूपतया वा आनर्ज / आर्जीत् / प्रा० अजिजइ, अय॑ते / प्रा०। अर्ज संस्कारे, वेदयमानस्तावद् याति यावदयोग्यवस्थाद्विकचरमसमयः, तस्मिश्च चुरा०, उभ०, सक०, सेट्। अर्जयति-ते। आर्जिजत्-त। "अनुपधन् द्विचरमसमये देवगतिदेवानुपूर्वीशरीरपञ्चबन्धनञ्चकसंघातपञ्चक पितृद्रव्यं, श्रमेण यदुपार्जयेत् 'स्मृतिः / वाच०। संस्थानषट् काङ्गोपाङ्गत्रयसंहननषट्क्वर्णादिविंशतिपराघातो *अज्ञ-त्रि०ानताज्ञो ञः।८।२।३। इति जलोपे द्वित्वं जस्य। पघातागुरुलघूच्छ्वासप्रशस्ताऽप्रशस्तविहायोगतिस्थिराऽस्थिर ज्ञानरहिते मूर्खे, प्रा० शुभाशुभसुस्वरदुःस्वरदुभंगप्रत्येकानादेयायशः कीर्तिनिर्माणापर्याप्तकनीचैर्गोत्रसाताऽसाताऽन्यतराऽनुदितवेदनस्वरूपाणि *अद्य-(अव्य०) अस्मिन्नहनि इदं शब्दस्य निपातः सप्तम्यर्थे / उत्त०३ द्विसप्ततिसंख्यानि स्वरूपसत्तामधिकृत्य क्षयमुपगच्छन्ति। चरमसमये अ०। सूत्र०। वर्तमानदिने, नि०चू०६ उ० "अञ्जो ! अज्जम्ह सफलं स्तिबुकसंक्रमेणोदयवर्तीषु प्रकृतिषु मध्ये संक्रम्यमाणत्वात् / संक्रमश्व जीअं"। प्रा०॥ अद्यतया वाऽधुनातनतया वर्तमानकाल सर्वाऽप्युक्तस्वरूपो मूलप्रकृत्यभिन्नासु परप्रकृतिषु द्रष्टव्यः / इत्यर्थः / भ०१४ श०६ उ०।वैभारपर्वतस्याऽधः स्थे हृदे, पुं०भ०२ मूलप्रकृत्यभिन्नाः, संक्रमयति गुणत उत्तराः प्रकृतीः, इति श०५ उ०। वचनात् / चरमसमये च साताऽसाताऽन्यतरवेदनीयमनुष्य- | *अब्ज-न० अप्सु जायते / जन-ड। 7 त०। पञ, शङ्ख , पुं०न०॥ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ज 209- अभिधानराजेन्द्रः-भाग 1 अजचंदणा निचुलवृक्षे, तस्य जलप्रायभवत्वात् तथात्वम् / चन्द्रे, धन्वन्तरौ च / पुं०। तयोः समुद्रजातत्वात् तथात्वम् / चन्द्रनामके कर्पूरे, पुंol जलजातमात्रे, त्रि०ा वाच०। दशार्बुदसंख्यायां, शतकोटिसंख्यायां, तत्संख्येये च / न० कल्प। अर्य-त्रि०। ऋ-यत् / अर्यः स्वामिवैश्ययोः। 3 / 1 / 103 / इति पाणिनिसूत्रात् स्वामिनि वैश्ये च वाच्ये, ण्यतोऽपवादो यत्। स्वामिनि, भ०३श०२ उम आर्य-त्रि०ा आरात् सर्वहेयधर्मेभ्यो यातः प्राप्तो गुणैरित्याऽऽर्यः। प्रज्ञा० 1 पद / नं०। आव०॥ पापकर्मबहिर्भूतत्वेनापापे, स्था०४ ठा०२ उ०॥ भ०। साधौ, कल्प०। बृ० "अणायरियमज्जाणं, आसइत्तु सइत्तु वा''। दश०६ अ०। चारित्रार्हे, आचा०१श्रु०५ अ०२ उगा आर्यकर्मकारिणि अजुगुप्सितकारिणि, व्य०१ उ० सुजने, बृ०१उ०। आमन्त्रणे आर्यशब्दप्रयोगः "अजो ! सामाइयं जाणामो'' हे आर्य! ओकारान्तता सम्बोधने प्राकृतत्वात् / भ०१ श०६ उ01 "एस णं अजो ! कण्हे वासुदेवे" अज्जो ति आमन्त्रणवचनम् / भगवान् महावीरः किल साधूनामन्त्रयति- हे आर्याः!। स्था०६ ठा0| "अज्जो ति समणे भगवं महावीरे गोयमाइसमणे णिगथे आमंतित्ता एवं वयासी" स्था०३ठा० 2 उ०। मातामहे, नि०। पितामहे, ज्ञा०८ अ० गोत्रप्रवर्तके ऋषिभेदे, पुंग यद्गोत्रे जीतधरः, "वंदे संडिल्लं अज्जजीयधर'' शाण्डिल्यस्यापि शिष्य आर्यगोत्रो जीतधरनामा सूरिरासीत्। नं०। अञ्जइसिवालिय-पुं०स्त्री०(आर्यर्षिपालित) आर्यशान्ति-श्रेणिकस्य माठरसगोत्रस्य चतुर्थे यथापत्ये अन्तेवासिनि, कल्प०। आर्यर्षिपालितान्निःसृतायां शाखायाम् , स्त्री०। "थेरेहिंतो अजइसिवालिएहिंतो इत्थ णं अज्जइसिवालिया साहा णिग्गया। कल्पी अजउत्त-पुं०(आर्यपुत्र) 6 त०। अपापकर्मवतोर्मातापित्रोः पुत्रे, स्था० 8 ठा०॥ अजओ-(देशी) सुरसगुरेटयोस्तृणभेदयोः, दे०ना०१ वर्ग। अज्जकण्ह- पुं०(आर्यकृष्ण) दिगम्बरमतप्रवर्तकस्य शिवभूतेर्गुरौ, आ०म०द्विका उत्त०। विशे० आ०चूला('बोडिय' शब्दे किञ्चित् विशेष वक्ष्यामः) अज्जकम्म-न०(आर्यकर्मन्) आर्य हेयधर्मेभ्यो नृशंसतादिभ्यो दूरयातं कर्म। शिष्टजनोचिते अनुष्ठाने, "जइ तंसि भोए चइउं असतो अज्जाई कम्माई करेह रायं"। उत्त०१३ अ०॥ अजकालग-पुं०(आर्यकालक) स्वातिशिष्ये हारीतगोत्रे श्यामार्यापरनामके आचार्ये, नं०('सम्मवाय' शब्देऽस्य तत्कारित्वं द्रष्टव्यम् ) आ०म०द्वि०। आ००। अज्जखउड-पुं०(आर्यखपुट) विद्यासिद्धे आचार्यभेदे, आ०म० द्वि०ा आ०चूला ('विज्जासिद्ध' शब्देऽस्य वक्तव्यता) अज्जग-पुं०(आर्यक) पितामहे, व्य०१ उ०। ज्ञा०ा आ०म०प्र०ा "अज्जए पजए वा वि बप्पचुल्ल पिउ ति य / माउलो भाइणिज्जे त्ति पुत्तो नत्त पइत्तिय" ||१||दश०७ अ०"अजयपज्जयपिउपज्जयागए य बहुहिरणे यसुवण्णे य"। भ०६ श०३३ उ०॥ *आद्यक-पुं०। भूतृणे, नि०चू० 11 उ०। अजगंग-पुं०(आर्यगङ्ग) द्वैक्रियनिह्नवमतप्रवर्तके निहवा ऽऽचार्यभेदे, "उल्लुकातीरक्षेत्रे महागिरिशिष्यो धनगुप्तो नाम / अस्यापि शिष्य | आर्यगङ्गो नामाऽऽचार्यः / अयं च नद्याः पूर्वतटे, तदाऽऽचार्यास्त्वपरतटे। ततोऽन्यदा शरत्समये सूरिवन्दनार्थं गच्छन् गङ्गानदीमुत्तरतिस्मा सच खल्वाटः / ततस्तस्योपरिष्टाद् उष्णेन दह्यते स्म खल्ली, अधस्तात्तु नद्याः शीतलजलेन शैत्यमुत्पद्यते स्म / ततोऽत्राऽन्तरे कथमपि मिथ्यात्वमोहनीयोदयादसौ चिन्तितवान्- अहो ! सिद्धान्ते युगपत् क्रियाद्यानुभवः किल निषिद्धः। अहं त्वेकस्मिन्नेव समये शैत्यमौष्ण्यं च वेनि / अतोऽनुभवविरुद्धत्वान्नेदमागमोक्तं शोभनमाभातीति विचिन्त्य गुरुभ्यो निवेदयामास / ततः तैर्वक्ष्यमाणयुक्तिभिः प्रज्ञापितोऽसौ यदा स्वाग्रहग्रस्तबुद्धित्वात् न किंचित्प्रतिपद्यते स्म, तदा उद्घाट्य बाह्यः कृतः। स विहरन् राजगृहनगरमागतः / तत्र च महातपस्तीरप्रभवनाम्नि प्रस्रवणे मणिनागनाम्नो नागस्य चैत्यमस्ति। तत्समीपेच स्थितोगङ्गः पर्षत्पुरःसरंयुगपत् क्रियाद्वयवेदनं प्ररूपयति स्म / तच श्रुत्वा प्रकुपितो मणिनागस्तमवादीत्- अरे दुष्ट शिष्यक ! किमेवं प्रज्ञापयसि,? यतोऽत्रैव प्रदेशे समवसृतेन श्रीमद्वर्धमानस्वामिना एकस्मिन् समये एकस्या एव क्रियाया वेदनं प्ररूपितम्, तचेह स्थितेन मयाऽपि श्रुतम् / तत्किं ततोऽपि लष्टतरः प्ररूपको भवान् येनैवं युगपत्क्रियाद्वयवेदनं प्ररूपयति?, तत्परित्यजैनां कूटप्ररूपणाम् , अन्यथा नाशयिष्यामीत्यादि / तद्गतभयवाक्यैयुक्तिवचनैश्च प्रबुद्बोऽसौ मिथ्यादुष्कृतं दत्त्वा गुरुमूलं गत्वा प्रतिक्रान्त इति / अत्र भाष्यम्- नइमुल्लगमुत्तरओ, सपरसीय जलमज्जगंगस्स। सूराभितत्तसिरसो, उसिणवेयणोभयउ लग्गो // 1 // (अ) यमसग्गाहो जुगवं, उभयकि रियाय उवओगो त्ति / जं दो वि समयमेव य, सीओसिणवेयणाओ मे // 2 // गताथैव विशे०। ('दोकिरिय' शब्दे एतन्मतम्) अजघोस-पुं०(आर्यघोष) पार्श्वनाथस्य द्वितीये गणधरे, स्था० 8 ठा०। कल्प अञ्जचंदणा-स्त्री०(आर्यचन्दना) भगवतो महावीरस्य प्रथमशिष्यायाम, कल्प०। आ००। आ०म०प्र०। अन्त०। तद्वक्तव्यता चैवम् - इतश्च नगरी चम्पा नरेन्द्रो दधिवाहनः। तामादातुं शतानीको, नौसैन्येन स्म गच्छति॥२४॥ निशैकया गतश्चम्पामवेष्टयदचिन्तिताम्। चम्पापतिः पलायिष्ट, तदानीं दधिवाहनः / / 25 / / यद्ग्राहो घोषितस्तत्र, शतानीकमहीभुजा। तदनीकभटाश्चम्पा, स्वेच्छया मुमुचुस्ततः / / 26 / / औष्टिकः कोऽपि जग्राह, दधिवाहनवल्लभाम्। वसुमत्या समं पुत्र्या, नश्यन्तीं धारिणीं तदा // 27 // कृतकृत्यः शतानीको, निजं नगरमागमत्। औष्टिकोऽप्याह लोकानां, पल्ल्येषा मे भविष्यति // 28 // विक्रेष्ये कन्यकां चैतां, राज्ञी श्रुत्वेति दुःखिता। मृता हृदयसंघट्टात्, स्वशीलभंशशङ्कया।।२६।। दध्यिवानौष्टिकोऽथान्तर्युक्तं नोक्तमिदं मया। सुताऽथ रुदती तेन, नीता संबोध्य चाटुभिः // 30|| चतुष्पथेऽथ विक्रेतु, दत्त्वा मूनि तृणं धृताम्। कन्यामनन्यसामान्यां, दृष्ट्वा श्रेष्टी धनावहः / / 31 / / दध्यौ राज्ञः सुता कस्यापीश्वरस्याथवा भवेत्। Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजचंदणा २१०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अजण तन्माऽऽपदापदमसौ, क्वापि हीनकुलंगता // 32 // बालेयं स्वजनैर्जातु, मिलेदस्मद्गृहे स्थिता। पत्त्यर्थितमथ द्रव्यं, दत्त्वा तामग्रहीद्धनः // 33 // नीत्वा सा स्वगृहं पृष्टा, कन्ये ! काऽसीति नावदत्। सुतेत्यथ प्रपन्ना सा, श्रेष्ठिना मूलयाऽपि च // 34 // चिखेल स्वेछया श्रेष्ठिगेहे स्वे वेश्मनीव सा! सुवागविनयशीलाधैर्गृहलोको वशीकृतः॥३५|| सलोकस्तां ततोऽवादीत् , तैर्गुणैश्चन्दनेत्यसौ। ततो द्वितीयमेवैतन्नामाऽभूद्विश्वविश्रुतम् // 36 // ग्रीष्मेऽन्यदा मध्यमाहे, श्रेष्ठी मन्दिरमागमत्। कोऽप्यतिक्षालको नासीत्, तदाऽढौकिष्ट चन्दना / / 37 / / श्रेष्ठिना वार्यमाणाऽपि, बलादक्षालयत् पदौ। क्षालयन्त्यास्तदा तस्याः, छुटिता केशवल्लरी॥३८|| पतन्ती पाणियष्ट्यैव, धृत्वा श्रेष्ठी बबन्ध ताम्। सायां मा पतेद् भूमौ, मूलैक्षत गवाक्षगा ||36 / / अचिन्तयत्ततो मूला, मया कार्य विनाशितम्। यद्येतामुद्हेत् श्रेष्ठी, तदाऽहं पतिता बहिः॥४०|| व्याधिर्यावत्सुकुमारस्तावदेतं छिनदृश्यहम्। गते श्रेष्ठिन्यथाऽऽहूय, नापितं ताममुण्डयत्॥४१।। निगमैर्यन्त्रयित्वाऽङ्ग्री, क्षिप्ता क्यापि गृहान्तरे। श्रेष्ठिनोऽवारि कथयन्, सर्वः परिजनोऽनया।।४२।। मूला मूलगृहेऽयासीद्, भोकुं श्रेष्ठी गृहाऽऽगतः। क्व चन्दनेति पप्रच्छ, मूलाभीतो न कोऽप्यवक् // 43 // सोऽज्ञासीद्रममाणा सा, भविष्यत्यथवोपरि। पृष्टा निश्यपि नाऽऽख्याता, ज्ञातं सुप्ता भविष्यति / / 44 // द्वितीयेऽप्यहि नादर्शि, तृतीयेऽप्यनवेक्ष्यताम्। ऊचे श्रेष्ठी न यो जाननाख्याता स हनिष्यते॥४५॥ ततः स्थविरया दास्यैकया मजीवितेन सा। जीवत्वित्याचचक्षेऽस्य, चन्दनाचारकक्रियाम्॥४६॥ दृषदातालकं भत्वा, तद्द्वारमुदघाटयत्। क्षुत्तृषार्ता निरीक्ष्यैतामाश्वास्याथ धनावहः // 47|| पश्यन् , भोज्यं कृते तस्याः, नापश्यत् किंचनापि सः। कुल्माषान् वीक्ष्य दत्त्वाऽऽस्यै, सूर्पकोणे निधाय तान्॥४८|| निगडानां भञ्जनायाऽगात्कारगृहे स्वयम्। तदा सा कुलमस्मार्षीद्, दुःखपूरेण दुःखिता॥४६|| क्व मे राजकुलं तादृग, दुर्दशा क्वेयमीदृशी? किं मया प्राक् कृतं कर्म, विपाकोऽयं यतोऽभवत् ? / / 50 / / स्वौकसि व्यासनस्यापि, तपसः पारणादिने। साधर्मिकाणां वात्सल्यं, कृत्वा पारणकं व्यधाम्॥५१।। कस्याप्यदत्त्वा किमपि, षष्ठं पारणके कथम्? अश्नामीत्यतिथेगिं , पश्यन्त्याऽऽस्तेऽत्ति सा न तु // 52 // मध्येऽह्निमेकं देहल्याः, बहिष्कृत्वा द्वितीयकम्। द्वारशाखाविलग्नाऽऽस्ते, रुदती मन्दमुन्मनाः॥५३॥ तदाऽगाद्भगवान् वीरो, भिक्षार्थ तमवेक्ष्य सा। अहो ! पात्रं मया प्राप्तं, किञ्चित्पुण्यं ममास्त्यपि / / 54 / / नोचितं वः प्रभो ! देयं, परं कृत्वा कृपां मयि। कल्पते चेदाददीध्वं, ज्ञात्वाऽथावधिना प्रभुः // 55 / / पूर्णोऽद्याभिग्रह इति, पाणिपात्रमधारयत्। कुल्माषांस्तान् ददौ सर्वान्,धन्यं मत्वाऽतिभक्तितः // 56|| सार्द्धद्वादशकोट्यस्तु, पतन्स्वर्णस्य तद्-गृहे। चेलोत्क्षेपः पुष्पगन्धवृष्टयो दुन्दुभिध्वनिः॥५७।। केशपाशस्तथैवाभून्निगडानि च पादयोः। स्वर्णनूपुरतां भेजुर्वपुःकान्तिनवाऽभवत्॥५८|| तत्क्षणाचन्दना चक्रे, सुरैः सर्वाङ्गभूषिता। आययौ देवराट् शक्रः, प्रमोदभरनिर्भरः / / 56|| दुन्दुभिध्वनिमाकर्ण्य, ज्ञात्वा पारणकं प्रभोः। शतानीकः सपत्नीकोऽप्यागमद्धनवेश्मनि // 60 // धात्र्यानीतः संपुलोऽभूद् , दधिवाहनकञ्चुकी। सोऽप्यागात् तत्र तां वीक्ष्य, तदङ्घयोः प्रणिपत्य च / / 61 / / मुक्तकण्ठं रुदन् सोऽथ, कैषेत्यप्रच्छि भूभुजा? सोऽवक् चम्पेशपुत्रीय, वसुमत्यभिधानतः॥६२।। तादृश्यपि कथं प्रेष्यभावं प्राप्तेति रोदिमि। मृगावती तदाकावीचन्मेऽसौ स्वसुः सुता॥६३॥ अमात्योऽपि सपत्नीकस्तत्रैत्यावन्दत प्रभुम्। पञ्चाहन्यूनषण्मास्याः, कृत्वा पारणकं प्रभुः // 64 // निर्ययौ कनकं गृह्णन् , भूपः शक्रेण वारितः। यस्मै दास्यत्यसौ स्वर्णमेतत्तस्य भविष्यति // 65|| सा पृष्टा मत्पितुःस्वर्ण,ततः श्रेष्ठीतदाददे। शक्रेणाऽभाणि राजाऽथ, संगोप्या चन्दना त्वया // 66|| आस्वामिज्ञानमेषा यत् , शिष्याऽऽद्या भाविनी प्रभोः। चन्दनाऽस्थाद्गृहे राज्ञः, शक्राद्याः स्वालयं ययुः।।६७।। लोकनिन्द्याऽभवन्मूला, स्तुता चन्दनया पुनः। दुर्दशैवं न चेन्मे स्यात् , कथं स्यात्पारणा प्रभोः? // 6 // धन्याऽहं कृतपुण्याऽहं, पारणाकारणात् प्रभोः। बभूव दुर्दशाऽपीयं, मम सर्वोत्तमा दशा // 66 // आ०का स्थाका अनयैव काली। अन्त०८ वर्ग। देवानन्दाप्रभृतयः प्रव्राजिताः / भ०६श०३३ उ०। उपालम्भे, दश०१अ० अजजंबु-पुं०(आर्यजम्बू) सुधर्मस्वामिनः शिष्ये, "अजसुहम्मं अंतेवासी अज्जजंबू जाव पञ्जुवासति ।अन्त० 1 वर्ग। अज्जजक्खिणी-स्त्री०(आर्ययक्षिणी) अरिष्टनेमेः प्रथम-शिष्यायाम् , कल्प अज्जजयंत-पुं०(आर्यजयन्त) आर्यवज्रसेनस्य तृतीये शिष्ये, कल्प०। अज्जजयंती-स्त्री०(आर्यजयन्ती) स्थविरादार्यरथानिर्गतायां शाखायाम, "थेरेहितो णं अज्जरहेहिंतो णं इत्थ णं अज्जजयंती साहा णिग्गया। कल्प० आर्यजयन्तान्निर्गतायां शाखायां च / 'थेराओ अज्जजयंताओ अज्जजयंती साहा णिग्गया' / कल्प०/ अज्जजीयध(ह)र-पुं०(आर्यजीतधर)आरात् सर्वहेय-धर्मेभ्योऽर्वाग यातमार्यम्, जीतमिति सूत्रमुच्यते / जीतं, स्थितिः, कल्पः, मर्यादा, व्यवस्था, इति हि पर्यायाः / मर्यादाकरणं च सूत्रमुच्यते। धृञ् धारणे' घ्रियते, धारयतीति वा धरः / लिहादिभ्य इत्यचप्रत्ययः / आर्यजीतस्य धर आर्यजीतधरः / सूत्रसम्पन्ने, आर्यश्चासौ जीतधरः / आर्यगोत्रे शाण्डिल्यशिष्ये जीतधरनामके सूरौ, "वंदे कोसियगुत्तं, संडिल्लं अज्जजीयधरं" इत्यत्राऽऽर्यजीतधरशब्दस्य प्रद-र्शितार्थद्वयपरतया व्याख्यानात् / नंग अक्षण-न०(अर्जन) अर्ज-ल्युट् / ग्रहणे, विशे०। आव०। Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजण 211 - अभिषानराजेन्द्रः - भाग 1 अजमंग सम्पादने, स्वामित्वसंपादके व्यापारभेदे च। वाच०। अजपउमा-स्त्री०(आर्यपद्मा)आर्यपद्माद् विनिःसृतायां शाखाअज्जणक्खत्त-पुं०(आर्यनक्षत्र) आर्यभद्रस्य शिष्ये, कल्प०। याम् , "थेरेहितो अजपउमेहंतो इत्थ णं अजपउमा साहा णिगया"। अज्जणंदिल-पुं०(आर्यनन्दिल)आर्यभङ्गोः शिष्ये आर्य-नागहस्तिगुरौ। / कल्प यथा अञ्जपुंगल-पुं०(आर्यपुङ्गल) बौद्धपरिभाषितेषु बाह्यार्थाभावात् नाणम्मि दंसणम्मिय, तवविणयणिचकालमुजुत्तं / केवलबुद्ध्यात्मसु अर्थेषु, अने० 4 अधिo अजानंदिलखमणं, सिरसावंदे य संतमणं // अजपूसगिरि-पुं०(आर्यपुष्पगिरि) आर्यरथस्य शिष्ये, कल्प० / आर्यमङ्गोरपि शिष्यमार्यनन्दिलक्षपणं प्रसन्नमनसं शमरिक्त- | अञ्जपाामल-पु०(आयपाामल) आयवज्रसेनर अज्जपोमिल-पुं०(आर्यपोमिल) आर्यवज्रसेनस्य द्वितीये शिष्ये, कल्प० द्विष्टान्तःकरणं शिरसा वन्दे / कथंभूतमित्याह-ज्ञाने श्रुतज्ञाने, दर्शने अज्जपोमिला-स्त्री०(आर्यपोमिला) आर्यपोमिलान्निर्गताया शाखायाम, सम्यक्त्वे, च शब्दाचारित्रे च, तथा तपसि यथायोगमनशनादि-रूपे, __ "थेराओ अज्जपोमिलाओ अज्जपोमिला साहा णिग्गया। कल्प० विनये ज्ञानविनयादिरूपे, नित्यकालमुद्युक्तमप्रमादिनम् / अज्जप्पभव-पुं०(आर्यप्रभव) आर्यजम्बूनाम्नः काश्यपगोत्रस्य शिष्ये, नं०। अनेनैवार्यनन्दिलेन धरणेन्द्रपल्या नागेन्द्राया 'नमिऊण त्ति' कल्प०। ('पभव' शब्दे वक्तव्यता चास्य) शब्दादि स्तोत्रं कृतम्। जै००। अज्ञप्पमिइ-अव्य०(अद्यप्रभृति) इतो वर्तमानदिनादारभ्येत्यर्थे , “णो अजणाइल-पुं०(आर्यनागिल) आर्यवज्रसेनस्य प्रथमेऽन्ते खलु भंते ! कप्पइ, अज्जप्पभिइ अण्णउत्थियं वा"। उपा० वासिनि / कल्प 1 अ०। प्रति अज्जणाइला-स्त्री०(आर्यनागिला) स्थविरादार्यनागिलात् निर्गतायां अञ्जफग्गु मित्त-पुं०(आर्यफल्गुमित्र) आर्यपुष्पगिरेः शिष्ये शाखायाम्, 'थेराओ अज्जणाइलाओ अज्जणाइला साहा णिग्गया| आर्यधनगिरेगुरौ, कल्प। अज्जम(ण)-पुं०(अर्यमन्) अर्यं श्रेष्ठं मिमीते / मा-कनिन् / सूर्ये, कल्प। आदित्यभेदे, पितृणां राजनि, वाच०। अर्यमनामके देवविशेषे, जं०७ अज्जणाइली-स्वी०(आर्यनागिली) आर्यवज्रसेनान्निर्गतायां शाखायाम, वक्ष०ा अनु० उत्तरफाल्गुनीनक्षत्रस्यार्यमा देवतेति / ज्यो०६ पाहु०॥ "थेरेहिंतो अज्जवइरसेणिएहिंतो इत्थ णं अजणाइली साहा णिग्गया"। अर्यमदेवोपलक्षिते उत्तरफाल्गुनीनक्षत्रे, ज्यो० १५पाहु०। चं०प्र०। कल्प०॥ सू०प्र०। ग0) "दो अज्जमा'। स्था०२ ठा० 3 उ०। अञ्जणित्ता-अव्य०(अर्जयित्वा) उपादायेत्यर्थे, ''एगंतदुक्खं अज्जमंगु-पुं०(आर्यममु) आर्यसमुद्रस्य शिष्ये। यथा - भवमञ्जणित्ता, वेदंति दुक्खी तमणंतदुक्खं''। सूत्र० 1 श्रु० 5 अ० भणगं करगं झणगं, पभावगं णाणदंसणगुणाणं / 2 उ०॥ वंदामि अज्जमगुं, सुयसागरपारगं धीरं // 30 // अज्जतावस-पुं०(आर्यतापस) आर्यवज्रसेनस्य चतुर्थेऽन्तेवासिनि, भणगमित्यादि / आर्यसमुद्रस्यापि शिष्यमार्यमङ्गुं वन्दे / कल्प किंभूतमित्याह-भणकं कालिकादिसूत्रार्थमनवरतं भणति अञ्जतावसी-स्त्री०(आर्यतापसी) आर्यतापसान्निःसृतायां शाखायाम् प्रतिपादयतीति भणः, भणएव भणकः।"कश्च" इति प्राकृतलक्षणसूत्रात् "थेराओ अज्जतावसाओ अज्जतावसी साहा णिग्गया"। कल्प०) स्वार्थे कप्रत्ययः, तम् / तथा कारकं कालिकादिसूत्रोक्तमेवोपअज्जत्ता-स्त्री०(अद्यता) वर्तमानकालतायाम् ' "अजकालिना अज्जत्तया धिप्रत्युपेक्षणादिरूपक्रियाकलापं करोति कारयतीति वा कारकः, तम्। वा''। कल्प। तथा धर्मध्यानं ध्यायतीतिध्याता, तंध्यातारम्। इह यद्यपि सामान्यतः *आर्यता-स्त्री० पापकर्मबहिर्भूततायाम्' "जे इमे अज्जताए समणा कारकमितिवचनेन ध्यातारमिति विशेषणं गतार्थम्, तथापि तस्य णिग्गथा विहरंति'! अष्ट० 2 अष्टछ। कल्प०। भ०॥ विशेषतोऽभिधानं ध्यानस्य प्रधानपरलोकाङ्गताख्यापनार्थमिति। यत अजथूलभद्द-पुं०(आर्यस्थूलभद्र) आर्यसंभूतविजयस्य शिष्ये एव भणकं कारकं ध्यातारंवा, अत एव प्रभावकम्। ज्ञानदर्शनगुणानाम्, महागिरिसुहस्तिनोर्गुरौ, कल्प। आव० एकग्रहणे तज्जातीयग्रहणमिति न्यायात् चरणगुणानामपि परिग्रहः / तथा अजदिण्ण-पुं०(आर्यदत्त) पार्श्वनाथस्य प्रथमगणधरे, स० "पासस्स धिया राजते इति धीरः, तम् / तथा श्रुतसागरपारगम् / नं० / तेन अज्जदिण्णो पढमो अद्वेय गणहरा''। ति०। इन्द्रदत्तस्य काश्यपगोत्रस्य प्रमादेनातिलोभतो यक्षत्वं नावाप्तम् / ध०र०॥ इह अज्जमंगुसूरी, ससमयपरसमयकणयकसवट्टो। शिष्ये च। तस्य शान्तिश्रेणिकः सिंहगिरिश्च / कल्पका बहुभत्तिजुत्तसुस्सूससिस्ससुत्तत्थदाणपरो॥१॥ अजद्दय-पुं०(आर्द्रक) आर्याकनाम्नि वीरशिष्ये,('अद्दय' शब्दे सद्धम्मदेसणाए, पडिबोहियभवियलोयसंदोहो। कथा चास्य)। सूत्र०२ श्रु०६अ। कइया वि विहारेणं, पत्तो महुराइ नयरीए // 2 // अजधम्म-पुं०(आर्यधर्म) आर्यमङ्गोः शिष्ये भद्रगुप्तगुरौ, "वंदामि सो गाढपमायपिसाय-गहियहिययो विमुकतवचरणो। अजधम्म, तत्तो वंदेय भद्दगुत्ते य" / नं0। आर्यसिंहस्य शिष्ये गारवतिगपडिबद्धो, सङ्केसु ममत्तसंजुत्तो // 3 // आर्यशाण्डिल्यस्य गुरौ,कल्प। अणवस्यभत्तजणदिज्जमाणरुइरन्नवत्थलोभेण / अज्जपउम-पुं०(आर्यपद्म) आर्यवज्रस्य शिष्ये द्वितीये,कल्प०। वुत्थो तहिं चिय चिरं, दूरुज्झियउज्जुयविहारो॥४॥ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजमंगु 212 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अजरक्खिय दढसिढिलयसामन्नो, निस्सामन्नं पमायमचइत्ता। कालेण मरिय जाओ, जक्खो तत्थेव निद्धमणे // 5 // . मुणिउं नियनाणेणं, पुव्वभवं तो विचिंतए एवं। हा हा पावेण मए, पमायमयमत्तचित्तेण // 6 / / पडिपुनपुन्नलब्भं, दोगच्चहरं महानिहाणं व। लद्धं पि जिणमयमिणं, कहं नु विहलत्तमुपणीयं ? ||7|| माणुस्सखित्तजाई-पमुहं लद्धं पि धम्मसामगि। हा हा पमायभट्ट, इत्तो कत्तो लहिस्सामि ? ||8|| हा जीव! पाव तइया, इड्डीरसगारवाण विरसत्तं / सुत्तत्थजाणगेण वि, हयास न हु लक्खियं तइया ||6|| चउदसपुव्वधरा वि हु, पमायओजंतिणंतकाएसु। एवं पिह हा हा पावं जीव न तए तया सरियं / / 10 / / धिद्धी मइसुहमत्त, धिंद्धी गारवपमायपडियम्म। धिद्धी परोवएसप्पहाणपंडिच्चमचंतं // 11 // एवं पमायदुव्विल-सियं नियं जायपरमनिव्वेओ। निदंतो दिवसाई, गमेइ सो गुत्तिखित्तु व्य / / 12 / / अह तेण पएसेणं, क्यिारभूमीइ गच्छमाणा ते।। दठूण नियविणेए , तेसिं पडिबोहणनिमित्तं / / 13 // जक्खपडिमामुहाओ, दीहं निस्सारिउं ठिओ जीहं। तं च पलोइय मुणिणो, आसन्नीहोउ इय बिंति॥१४|| जो कोइ इत्थ देवो, जक्खो रक्खो व किंनरो वा वि। सो पयर्ड चिय पभणउ, न किंपि एयं वयं मुणिमो॥१५।। तो सविसायं जक्खो, जंपइ भो भो तवस्सिणो ! सोऽहं। तुम्ह गुरू किरियाए, सुपमत्तो अज्जमंगु त्ति // 16 // साहूहि विपडिभणियं, विसन्नहियएहि हा सुयनिहाण ! किह देव ! दुग्गइमिमं, पत्तोसि अहो ! महच्छरियं / / 17 / / जक्खो वि आह न इम, बुद्धं इह साहुणो महाभागा !! एस चिय होइ गई,पमायवससिदिलचरणाणं / / 18 / / ओसन्नविहारीणं, इड्डीरससायगारवगुरुणं / उम्मुक्कसाहुकिरिया -भराण अम्हारिसाण फुडं।।१६।। इय मज्झ कुदेवत्तं, भो भो मुणिणो ! वियाणिउं सम्म। जइ सुगईए कजं, जइ भीया कुगइगमणाओ॥२०|| . ता गयसयलपमाया, विहारकरणुजुया चरणजुत्ता। गारवरहिया अममा, होह सया तिव्वतवकलिया // 21 // .. भो भो देवाणुप्पिय!, सम्म पडिबोहिया तए अम्हे। इय जंपिय ते मुणिणो, पडिवन्ना संजमुजोयं / / 22 / / इति सूरिसर्यमगुर्मड्गुलफलमलभत प्रमादवशात्। तद्यतयः शुभमतयः!, सदोद्यता भवत चरणभरे।।२३।। (इत्यार्यमङ्गुकथा)। दर्श०। ती०। आ०चूल। नि०चूल। अज्जमणग-पुं०(आर्यमणक) श्रीशय्यम्भवसूरिपुत्रे। छहि मासेहिं अहिअं, अज्झयणमिणं तु अजमणगेणं / छम्मासा परियाओ, अह कालगओ समाहीए॥३६॥ षड्भिर्मासैरधीतं पठितमध्ययनमिदंतु अधीयत इत्यध्ययनम्, इदमेव दशवैकालिकाख्यं शास्त्रम् / के नाधीतमित्याह-आर्यमणके न भावाराधनयोगात् , आराद्यातः सर्वहेयधर्मेभ्य इत्यार्यः। आर्यश्वासौ मणकश्चेति विग्रहः / तेन षण्मासाः पर्याय इति, तस्यार्यमणकस्य षण्मासा एव प्रव्रज्याकालः, अल्पजीवितत्वात् / अत एवाह-अथ कालगतः समाधिनेति यथोक्तशास्त्राध्ययन-पर्यायानन्तरं कालगतः / आगमोक्तेन विधिना मृतः, समाधिना शुभलेश्याध्यानयोगेनेति गाथार्थः। अत्र चैवं वृद्धवादः- यथा तेनैतावता श्रुतेनाराधितम् एवमन्येऽप्येतदाराधनानुष्ठानत आराधका भवन्त्विति। आणंदअंसुपायं, कासी सिजंभवा तहिं थेरा। जसभहस्सय पुच्छा, कहणा अविआलणासंघे // 40 // आनन्दाश्रुपातमहो! आराधितमनेनेतिहर्षाश्रुमोक्षणमकार्षः कृतवन्तः, शय्यम्भवाः प्राग् व्यावर्णितस्वरूपाः / तत्र तस्मिन् कालगते स्थविराः श्रुतपर्यायवृद्धाः प्रवचनगुरवः / पूजार्थं बहुवचनमिति / यशोभद्रस्य च शय्यम्भवप्रधानशिष्यस्य गुर्वश्रुपातदर्शनेन किमेतदाश्चर्यमिति विस्मितस्य सतः पृच्छा-भगवन् ! किमेत-दकृतपूर्वमित्येवंभूता। कथना च भगवतः-संसारस्नेह ईदृशः स्वतो ममायमित्येवंरूपा / चशब्दादनुतापश्च यशोभद्रादीनाम् -अहो ! गुराविव गुरुपुत्रके वर्तितव्यमिति, न तत् कृतमिदमस्माभिरित्युद्धतप्रतिबन्धदोषपरिहारार्थ मया न कथितं, नात्र भवतां दोषो गुरुपरिसंस्थापनं च विचारणासवइति शय्यम्भवेनाल्पायुषमेनमवेत्य मयेदं शास्त्र नियूंढ किमत्र युक्तमिति निवेदिते विचारणासङ्घ कालह्रासदोषात् प्रभूतसत्त्वानामिदमेवोपकारकमतस्तिष्ठत्वेतदित्येवंभूता स्थापना वेति गाथार्थः।। अजमहागिरि-पुं०(आर्यमहागिरि) आर्यस्थूलभद्रस्यऐ-लापत्यसगोत्रे शिष्ये, नं०। अयञ्च जिनकल्पिकवदुग्रविहारः राजपिण्डोपभोजिन आर्यसुहस्तिनःस्वगुरुशिष्यादपि सतः विसंभोगमुत्पाद्य पृथग्गच्छं कृत्वा विजहार / तदा प्रभृत्येव गच्छपृथक्त्वमासीत् / ('संभोग' शब्दे चैतद् वक्ष्यामि) अज्जरक्ख-पुं०(आर्य रक्ष) आर्यनक्षत्रस्य शिष्ये, 'थेरस्स णं अज्जणक्खत्तस्स कासवगुत्तस्स अजरक्खे थेरे अंतेवासी कासवगोत्ते" अयं रक्षितार्याद भिन्नोऽभिन्नो वेत्यत्र कल्पसूत्रसुबोधिकाटीकाकृतां विप्रतिपत्तयः -'थेरे अज्ञरक्ख त्ति'अहो ! बत किरणावलीकारस्य बहुश्रुतप्रसिद्धिभाजोऽप्यनाभोग-विलसितम्, यतो येन श्रीतोसलिपुत्राचार्यशिष्याः श्रीवजस्वामिपार्श्वेऽधीतसाधिकनवपूर्वा नाम्ना च श्रीआर्यरक्षितास्ते भिन्नाः, एते च श्रीवजस्वामिभ्यः शिष्यप्रशिष्यादिगणनया नवम-स्थानभाविनो नाम्ना चार्यरक्षा इत्येवमनयोरार्यरक्षितार्यरक्षयोः स्फुटं भेदं विस्मृत्याऽऽर्यरक्षस्थाने आर्यरक्षितव्यकिरं लिखितवान् / कल्प०) अजरक्खिय-पुं०(आर्यरक्षित) सोमदेवद्विजेन रुद्रसोमायां भार्यायामुत्पादिते तोसलिपुत्राचार्यशिष्ये वज्रस्वामिसमीपेऽधीतसाधिकनवपूर्वे स्थविरभेदे, "वंदामि अज्जरक्खिय, खमणे रक्खियचरित्तसव्वग्गे / रयणक रंडगभूओ, अणुओओ रक्खिओ जेहिं" ||1|| नं०तदुत्पत्तिस्त्वेवम् - माया य रुतसोमा, पिआ य नामेण सोमदेवु त्ति। भाया य फग्गुरक्खिय, तोसलिपुत्रा य आयरिया // 24 // निजमणभद्दगुत्ते, वीसुं पढणं च तस्स पुव्वगयं। पव्वाविओ अभाया, रक्खिअखमणेहि जणओ त्ति // 25 // आस्ते पुरं दशपुरं, सार दशदिशामिव। सोमदेवो द्विजस्तत्र, रुद्रसोमा च तत्प्रिया / / 1 / / तस्यार्थरक्षितः सूनुरनुजः फल्गुरक्षितः। (दशपुरोत्पत्तिः 'दसउर' शब्दे द्रष्टव्या) आ००। उत्पन्नो रक्षितस्तत्र, शास्त्रं यावदभूत्पितुः। तत्रैवाधीतांस्तावदथागात् पाटलीपुरम् // 76 / / Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजरक्खिय 213 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अजरक्खिय चतुर्दशाऽपि तत्राऽसौ, विद्यास्थानान्यधीतवान्। अथाऽगच्छदशपुरं, राजाऽगात् तस्य संमुखम्॥७७।। उत्तम्भितपताकेऽत्र, ब्रह्मेति ब्राह्मणैः स्तुतः। अधिरूढः करिस्कन्धे, प्रविवेशोत्सर्वन सः॥७८|| स्वगृहे बाह्यशालायां, स्थितो लोकार्थमग्रहीत्। पुरोधसः सूनुरिति, न वा कैः कैरपूज्यत ? ||76 / / सुवर्णरत्नवस्त्राद्यैस्तद्गृहं प्राभृतैर्भूतम्। अथान्तर्भवनं गत्वा, जननीमभ्यवादयत्।।८।। वत्स! स्वागतमित्युक्त्वा, मध्यस्थेव स्थिता प्रसूः। सोऽवदत् किं न ते मातस्तुष्टिमद्विद्ययाऽभवत् ? ||81 / / सत्त्वानां वधकृद्वत्साऽधीतं बह पि पाप्मने! तुष्याम्यहं दृष्टिवाद, पठित्वा चेत् त्वमागमः।।२।। सदध्यौ तमधीत्याऽम्बां, तोषये किं ममाऽपरैः? दृष्टिवादस्य नामाऽपि, तावदाह्रादयत्यलम्।।८३॥ अस्य क्वाऽध्यापका मातः!, साऽऽख्यदिक्षुगृहे निजे। सन्ति तोसलिपुत्राख्याः, आचार्याः श्वेतवाससः॥८४|| तं प्रगेऽध्येतुमारप्स्ये, मातर्मवाऽधृतिं कृथाः। अथोत्थाय प्रभातेऽपि, नत्वाऽम्बां प्रस्थितः सुधीः // 85|| रक्षितं द्रष्टुमागच्छत् , ग्रामात् प्रियसुहृत् पितुः। नवेक्षुयष्टिकाः सार्धा, बिभ्रत्प्राभृतहेतवे // 86 // पुरस्तं प्रेक्ष्य सोऽप्राक्षीत्, कस्त्वं भोः ! रक्षितोऽस्म्यहम्। तमथालिङ्गय सस्नेहमूचे त्वां द्रष्टुमागमम्॥८७|| सोऽवदद्याम्यहं कार्याद्यायास्त्वं मद्गृहे पुनः। रक्षितः प्रेक्षतादौ मामिति मातुर्निवेदयेः / / 8 / / तेन तत्कथितं गत्वा, मातादध्याविदं ततः। नवपूर्वाणि सार्द्धानि, मत्पुत्रोऽध्येष्यते स्फुटम्॥८६॥ सोऽपि दध्यौ नवाऽध्यायान्, शकलं दशमस्य तु। अध्येष्ये दृष्टिवादस्य,ज्ञायते शकुनादतः / / 60|| ततः सेक्षुगृहे यातो, दध्यौ यामि किमज्ञवत्? एतद्भक्तेन केनापि, समं गत्वा नमामि तान् // 11 // इति यावद् बहिः सोऽस्थात्, तावदागादुपाश्रयम्। ढडुरश्रावको गाढं, व्यधात् नैषेधिकीत्रयम्।।२।। ईर्यादिवंदनं सर्वं, सचकार खरस्वरम्। अनुगस्तस्य तत्सर्वं, मेधावी सोऽपि निर्ममे // 63| श्राद्धेनावन्दितेनेति, ज्ञातो नव्यः स सूरिभिः। पृष्टोऽथ भोः ! कुतो धर्माऽऽप्तिस्ते सोऽप्यब्रवीदिति // 64|| साधुभिः कथितं पूज्याः!, रक्षितः श्राविकासुतः। ह्यः प्रवेशोऽभवद्यस्य, विमर्दैन महीयसा ||5|| आचार्याः स्माहुरस्माकं, दीक्षयाऽधीयते हि सः। परिपाट्या च सोऽवादीद् , अस्त्वेवं नाऽहमुत्सुकः॥६६|| किं त्वत्र स्यात् न मे पूज्याः!, प्रव्रज्या यन्नृपादयः। बलात् मा मोचयेयुस्ता, यामो देशाऽन्तरं ततः / / 67|| अथाऽऽख्यद् रक्षितस्तेषां, जनन्या प्रेषितः प्रभो !! युष्माकं संनिधौ दृष्टिवादमध्येतुमागमम् / / 68!! सोऽदीक्ष्यत तथा कृत्वा, पाठ्याऽसौ शिष्यचौरिका / तेनाऽथैकादशाङ्गानि, पठितान्यचिरादपि // 16 // दृष्टिवादो गुरोः पार्श्वे, योऽभूत् तमपि सोऽपठत्। सोऽथाऽध्येतुं दशपूर्वी, वज्रस्वाम्यन्तिकेऽचलत्।।१००।। याते तेनाऽन्तराले च, श्रीभद्रगुप्तसूरयः। अवन्त्यां वन्दितास्तैः स, धन्य इत्युपबृंहितः।।१०१।। तैरुक्तं मम निर्यामो, नाऽस्त्यन्यस्त्वं ततो भव। स तत् प्रतिशृणोति स्म, नोल्लङ्घ्यं गुरुशासनम्॥१०२॥ कालं कुर्वद्भिरूचे तैर्मा वात्सीर्वजसंनिधौ। वसेद्यस्तैः सहैकामप्युषां तैः सह तन्मृतिः।।१०३।। पठेर्भिन्नाऽऽश्रयस्थस्तत्, तथेति स्वीचकार सः। तेषां स्वर्गमने सोऽगात्, श्रीवज्रस्वामिसंनिधौ / / 104|| दृष्टश्व तैरपि स्वप्नः, किंचित् किन्तूद्धृतं पयः। सावशेषश्रुतग्राही, तत्प्रतीच्छ समेष्यति।।१०।। इति यावद् विमृष्ट तैः रक्षितस्तावदागतः। पृष्टस्तोसलिपुत्राणां, किं शिष्योऽस्म्यार्यरक्षितः / / 106 / / एवमुक्तेऽवदद्वजः,स्वागतं तव वत्स! किम् ? / क्व स्थितोऽसि बहिःस्वामिन् !,बहिःस्थोऽध्येष्यसे कथम्?||१०७|| सऊचे भगवन् ! भद्रगुप्ताऽऽदेशाबहिः स्थितः। वज्रस्वाम्युपयुज्योचे, गुरूक्तं युक्तमाचर / / 108 / / ततोऽध्येतुं प्रवृत्तो द्राक्, नव पूर्वाण्यधीतवान्। प्रारेभे दशमं पूर्वमार्यवजस्ततोऽभणत्॥१०६।। यविकानि त्रिशत्युक्तपरिकर्मसमान्यहो / पठाऽऽदौ जिनसंख्यानि, कष्टात्तान्यथ सोऽपठत्॥११०।। इतस्तन्मातापितरौ, शोकार्त्ताविति दध्यतुः। उद्द्योते कर्तुमिष्ट चेदन्धकारान्तरं ह्यद // 111 / / यन्नैत्यद्यापिनः पुत्रोऽथाहूतोऽप्यागमेत्तु सः। अथानुजं तमाहातुं, प्राहेष्टां फल्गुरक्षितम्॥११॥ सोऽभ्यधाद् भातरागच्छ, व्रतार्थी ते जनोऽखिलः। स ऊचे सत्यमेतचे-तत्त्वमादौ परिव्रज // 113 // लग्नः प्रव्रज्य सोऽध्येतुमधीयन रक्षितोऽग्रतः। यविकधूर्णिणतोऽप्राक्षीत, शेषमस्य कियत्प्रभो ! // 114 // स्वाम्यूचे सर्वपं मेरोबिन्दुमब्धेस्त्वमग्रहीः। ततो दध्यौ विषण्णात्मा, दुष्प्रापं पारमस्य मे / / 115 // अथापृच्छत्प्रभो ! यामि, भ्राता मामाहृयत्यलम्। आहुस्तेऽधीष्व तस्याथ, पौनःपुन्येन पृच्छतः।।११६|| उपयुज्य गुरुजी, पूर्व स्थास्यत्यदो मयि। व्यसृजत्तं दशपुरं, सानुजः सोऽथ जग्मिवान् // 117|| वज्रस्वामी तु याति स्म, विहरन् दक्षिणापथम्। श्लेष्मााऽऽनायितां शुण्ठीमेकदा श्रवणे न्यधात्॥११८|| मुखे क्षेप्स्यामि भुक्त्वेति, भोजनान्ते स्मृतान सा। विकाले च प्रतिक्रान्तौ, मुखपोतीहताऽपतत्॥११६॥ उपयोगादथ ज्ञातमाः ! प्रमादोऽन्तिके मृतिः। प्रमादे संयमो नास्ति, युज्यतेऽनशनं ततः॥१२०।। द्वादशाब्दं च दुर्भिक्षं, तदा सन्नवहाः पथाः। विद्यापिण्डं तदानीय, वज्रः साधूनभोजयत्॥१२१।। अथोचे तान्न भिक्षाऽस्ति, विद्यापिण्डेन वर्त्तनम्। ऊचुस्ते व्रतहान्या किं, क्रियतेऽनशनं न भोः!।।१२२।। वज्रसेनोऽन्तिषद् ज्ञात्या, प्राक् प्रैषीत्यनुशिष्य तु। यत्र त्वं लभसे भिक्षा, लक्षजान्नात्तदा मुने! / / 123|| गतंदुर्भिक्षमित्येतद् , विज्ञाय स्थानमाचरेः। वज्रस्वामी पुनर्भक्त, विमोक्तुं सपरिच्छदः / / 124 // लघुः क्षुलक एकस्तु, तिष्ठत्युक्तोऽपि साधुभिः। नास्थादाख्याय भव्याना-मथ व्यामोह्य तं गतः॥१२५।। शैलमेकमथारुक्षत्, क्षुल्लकोऽप्यनु तत्पदैः। नितम्बे तद्गिरेः स्थित्वा, पादपोपगमं व्यधात्॥१२६।। तापेन तु क्षणमिव, विलीय द्यां स जग्मिवान्। Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजरक्खिय 214- अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अजरक्खिय सुरैस्तन्महिमा चक्रे, किमिदं मुनयोऽवदन् ? // 127 / / आचख्युर्गुरवस्तेषां, क्षुल्लः स्वार्थमसाधयत्। ऊचुस्ते दुष्करं तर्हि, नाऽस्माकं स्वार्थसाधनम् // 128|| प्रत्यनीकाऽमरी तत्र, श्राविका रूपभाग मुनीन्। न्यमन्त्रयद् भक्तपानैः, पारणं क्रियतामिति // 126 // प्रत्यनीकेति तां ज्ञात्वा, गुरवोऽन्यं गिरिं ययुः। कायोत्सर्गमधिष्ठात्र्यै, चक्रुः साऽऽगत्य तानवक् / / 130 // पूज्याः सन्तु सुखेनाऽत्र, ततस्तत्र समाधिना। चक्रुः कालं रथेनैत्य, शक्रस्ताननमत्ततः॥१३१॥ . प्रदक्षिणां रथस्थोऽदाद् , वृक्षादीनप्यनामयत्। ते तथैवाऽस्थुरद्रिः स, तद्-रथावत इत्यभूत्॥१३२॥ (तम्मि भगवंते अद्धनारायंदसपुव्वा वुच्छिन्ना। आ०म०द्वि०) वज्रसेनस्तुयः प्रैषि, स सोपारं पुरंगतः। धान्यमादाय लक्षणाऽपाक्षीत् तत्रेश्वरी तदा / / 133 / / दध्यौ चाऽत्र विषं क्षिप्त्या, स्मृत्वा पञ्चनमस्कृतम्। कुर्मः समाधिना कालमिति तत्प्रगुणीकृतम् // 134|| स चाऽऽगात् तद्गृहे साधुस्तेन तं प्रतिलाभ्य सा। स्वमाख्याचिन्तितं तस्य, सोऽब्रवीत् मा कृथा इदम् // 135 / / यत्र लक्षाऽन्नभिक्षाऽऽप्तिः, स्यात्तत्राऽऽशु सुभिक्षता। वजस्वामीदमूचे मां, नाऽन्यथा भावि तद्वचः / / 136|| तण्डुलानां तदैवाप्त-पोतास्तत्र समागमन्। सुभिक्षं सहसा जातं, कुटुम्बं प्रत्यबोधि तत्॥१३७।। चन्द्रनागेन्द्रविद्याभृद्, असुरैः सममीश्वरीम्। अदीक्षयद्वज्रसेनः, तेभ्योऽभूद् वज्रसन्ततिः॥१३८|| इतश्च रक्षिताचार्यः, गतैर्दशपुरं तदा। प्रव्राज्य स्वजनान् सर्वान्, सौजन्यं प्रकटीकृतम्॥१३६॥ स्नेहात् पिताऽपि तैः सार्द्ध-मास्ते गृह्णाति तद्वतम्। ब्रूते सुतास्नुषादीनां, पुरो नाऽवसरस्त्रपे।।१४०॥ उक्तः पुत्रेण सोऽवादीत्, प्रव्रजिष्याम्यहं परम्। उपानत्कुण्डिकाच्छत्रवस्त्रयुग्मोपवीतभृत्॥१४१।। ददिरे पितुराचार्याः, प्रपद्येदमपिव्रतम्। सच तत्पालयामास, ब्रह्मवेषं तु नाऽमुचत्॥१४२।। अथोचुः शिक्षिता डिम्भाः, सर्वान् वन्दामहे मुनीन्। मुक्त्वा छत्रिणमेकं तु, तत्पराभवतोऽथ सः॥१४३|| ऊचे पुत्रेण पुत्राऽलं, गुरुरप्याह साम्प्रतम्। तापे दद्याः पटीं मौलावेवं सर्वाण्यमोच्यत॥१४४|| अन्यदोपगते साधौ, साधवः पूर्वसंज्ञिताः। अहंपूर्विकया वोढुं, गुरुमूलमुपस्थिताः॥१४५॥ स्थविरोऽप्यचिवान पुत्र!, श्रेयश्चेत्तद् वहाम्यहम्। गुरुः स्माऽहोपसर्गः स्यात् , स सह्यो मेऽन्यथा क्षितिः॥१४६|| तत्रोत्क्षिप्ते स संघानां, गच्छतां पथि डिम्भकैः। कठ्यंशुके हृतेऽप्यस्थात् , तूष्णीं माऽभूद् गुरोः क्षितिः // 147 / / साधुभिश्च तदैवास्य, बद्धश्चोलपटः पुरः। अथाऽऽगतानां गुरवः, शाटकानायनेऽवदन्॥१४८il द्रष्टव्यं दृष्टमेवेदं, स्याचोलपट एव तत्। पितुर्भिक्षाटनार्थ च, गुरुः साधून रहोऽभ्यधात्॥१४६।। भिक्षामानीय भुञ्जीध्वं, मा स्म दत्त पितुर्मम / भक्तिः कार्या पितुर्मद्वत् , साक्षादुक्त्वा मुनीनिति / / 150|| आपछ्यार्यमगाद् ग्राममागन्तास्मि पितः ! प्रगे! सर्वेऽप्यादुर्न तस्याऽदुः, विहृत्यैकैकशोऽथ ते॥१५१।। दध्यौ रुष्टोऽथ संप्राप्ते, सूनावाख्यास्यतेऽखिलम्। आचार्याः प्रातरायाताः, पृष्टस्तातोऽखिलं जगौ // 152 / / किं च त्वं नाऽभविष्यश्चेत् , नाइजीविष्यमहोऽप्यहम्। ततः सर्वेऽपि गुरुभिर्निरभत्स्य॑न्त साधवः / / 153 / / पात्रमानय तातान्नमानेष्यामि स्वयं तव। अहमप्येतदानीतं, भोक्ष्ये नैवाऽद्य हे पितः!||१५४॥ सोऽथदध्यौ लोकपूज्यो, भिक्षां यास्यत्यसौ कथम् ? ततोऽहमेव यास्यामीत्युक्त्वा भैक्ष्याय सोऽगमत् / / 155 / / सोऽथैकत्र गृहेऽविक्षदपद्वारेऽवदद् गृही। साधो ! द्वारेण किं नैषि, सोऽवदद् मूर्ख ! वेत्सि नो॥१५६॥ किं द्वारं किमपद्वार, प्रविशन्त्या गृहे श्रियः। तं गृही शकुनं मत्वा, ददौ स्थालेन मोदकान्॥१५७|| आगत्यालोचयत्तान्स, तत्संख्यान्वीक्ष्य सूरयः। ऊचुः शिष्या भविष्यति, द्वात्रिंशन्निजसन्ततौ // 158|| कुटुम्ब मिति साधूनां, लाभं स प्रथमं ददौ। आनीयादात्स्वयं पश्वात् , सखण्डाज्यं सपायसम्॥१५६।। स एवं लब्धिसम्पन्नोऽभूद् बालाद्युपकारकः / तदा दुर्बलिकापुष्पः, पुष्पौ च घृतवस्त्रयोः।।१६०।। गुर्विण्या धिग् यया षभिर्मासैर्यन्मीलितं घृतम्। घृतपुष्पस्य तद्दद्यात्, साऽपि तलब्धिरीदृशी।।१६१॥ निर्वीरा काऽपि कष्टेन, कर्तनात् शाटकं व्यधात्। वस्त्रपुष्पस्य तद्दद्यात्, साऽप्यन्येषां किमुच्यते ? // 162 // तत्र दुर्बलिकापुष्पोऽधिगतां नवपूर्विकाम्। दुर्बलोऽभूत्स्मरन्नित्यं, विस्मारयति चास्मरन् / / 163 / / सौगतै वितास्तस्य, स्वजना गुरुमूचिरे। अस्माकं भिक्षवो ध्यानपरा न ध्यानमस्ति वः / / 164 / / ध्यानाद्दुर्बलिकापुष्पो, दुर्बलोऽयं गुरुर्जगौ। तान्याहुहवासेऽभूत् , स्निग्धाहारादसौ बली।।१६५।। न सवोऽस्ति गुरुः स्माह, घृतपुष्पा बहुः सनः। प्रत्ययश्चेन्न वो नीत्वा, स्वगृहे पोष्यतामयम् // 166 / / ततस्तैः पोषितोऽत्यन्तं, पूर्वध्यानात्तथैव सः। अथाध्यानः कृतः पूज्यैः, प्रान्तभोज्योऽप्यभूद् बली।।१६७।। ततस्तानि प्रबुद्धानि, श्रावकत्वं प्रपेदिरे। तत्र गच्छे चचत्वारो, मुख्यास्तिष्ठन्ति साधवः॥१६८|| आद्यो दुर्बलिकापुष्पो, द्वितीयः फल्गुरक्षितः। विन्ध्यस्तृतीयको गोष्ठामाहिलश्च चतुर्थकः / / 166 / / विन्ध्यस्तेष्वपि मेधावी, सूत्रग्रहणधारणे। गुरूनुवाच मण्डल्यामालापाऽऽप्तिश्चिरान्मम // 17 // गुरुर्दुबलिकापुष्पं, ततोऽस्यालापकं ददौ। दिनानि कतिचिहत्त्वा, वाचनां तस्य सोऽभ्यधात् / / 171 // वाचनां ददतोऽमुष्य, पूर्व मे नवमं प्रभो ! | विस्मरिष्यत्यतः पूज्यादेशोऽस्तु मम कीदृशः ? ||172 / / अथैवं दध्युराचार्याः, यद्यमुष्यापि विस्मृतिः। भविष्यति ध्रुवं प्रज्ञादीनां हानिरतः परम्।।१७३।। चतुर्चकैकसूत्रार्थाख्याने स्यात्कोऽपिन क्षमः। ततोऽनुयोगांश्चतुरः, पार्थक्येन व्यधात् प्रभुः / / 174|| चातुर्विध्यमाह"कालिअसुअंच इसिभासिआइँ तइओ असूरपन्नती। सव्वो उ दिट्ठिवाओ, चउत्थओ होइ अणुओगो" || Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजरक्खिय 215 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अज्जव कालिकश्रुतमेकादशाङ्गरूपं करणचरणाऽनुयोगः, ऋषि-भाषितानि उत्तराध्ययनानि धर्मकथानुयोगः, सूर्यप्रज्ञप्त्यादीनि गणिताऽनुयोगः, दृष्टिवादश्च, सर्वोऽपि द्रव्यानुयोगः, दृष्टि वादा- दुद्धृत्य ऋषिभिर्भाषितत्वात् / कल्पादीनामपि तर्हि धर्मकथा-ऽनुयोगत्वम् / तन्नेत्याह"जं च महाकप्पसुअं,जाणि असेसाणि छेअसुत्ताणि। चरणकरणाणुओगोत्ति कालिअत्थे उवगयाणि" ||1|| यच महाकल्पश्रुतमेकादशाङ्गरूपम्,यानि च शेषाणि निशीथादीनि छेदसूत्राणि, चरणकरणानुयोग इति चरणकरणाऽनुयोगलक्षणे कालिकाऽर्थे कालिकश्रुतसक्तेऽर्थे उपगतानि सम्बद्धानीत्यर्थः / अथार्यरक्षिताचार्याः, मथुरां नगरीं गताः।। तत्र यक्षगुहायां च, व्यन्तरायतने स्थिताः / / 17 / / ततः शक्रो विदेहान्तः,श्रीसीमन्धरसन्निधौ। निगोदजीवानप्राक्षीद्भगवान् व्याचकार तान् // 176 / / अथोचे भरतेऽप्येवं, निगोदान् वक्ति कश्चन ? / भगवानूचिवानार्यरक्षिताः सन्ति सूरयः // 177|| भिक्षागे साधुवृन्दे च, वृद्धब्राह्मणरूपभाक् / शक्रोऽभ्यागत्य पप्रच्छ, कियदायुः प्रभो ! मम / / 178|| भणितं यवकेष्वायुज्याथ प्राप्तेषु तेषु ते। यावत्तदायुरीक्षन्ते, तावद् द्वे सागरे गते॥१७६। अथोत्पाट्य भुवावूचे, शक्रस्त्वं सोऽब्रवीत्ततः। हेतुं स्वागमने तेऽथ, निगोदान् स्वामिवज्जगुः // 180|| ततस्तुष्टः प्रणम्योचे, शक्रो यामीति तेऽभ्यधुः। तावदागमयस्व त्वं, यावदायान्ति साधवः // 181 // येचला निश्चलास्ते स्युर्येन त्वां वीक्ष्य दीक्षिताः। स ऊचेऽल्पाः करिष्यन्ति, निदानं वीक्ष्य माममी // 182|| तेऽभ्यधुः कुरु तचिह्नमथ यक्षगुहामुखम्। शक्रोऽन्यथा विधायागादाजग्मुश्च तपोधनाः // 183 // ते च द्वारं नवीक्षन्ते, गुरवस्तानथाभ्यधुः। शक्रो द्वारं व्यधादित्थमित एव ततोऽधुना।।१८४॥ ऊचुस्ते किं मुहूर्त न, धृतोऽस्माकं निरीक्षितुम् ? / शक्रोक्तमथ ते तेषामाख्यन् दुःखमथ स्थिताः / / 18 / / अथान्यदा दशपुरं, यान्ति स्म गुरवः क्रमात्। मथुरां नास्तिकस्त्वागात् , सर्व नास्तीति सब्रुवन् / / 186|| सङ्घः सङ्घाटकं प्रैषीद् गुरुं ज्ञापयितुंततः। तैर्गोष्ठामाहिलः प्रेषि, न्यग्रहीतं स वादिनम्॥१८७॥ श्रावकैरथ तत्रैव, चतुर्मासींस कारितः। इतश्चायुर्निजं ज्ञात्वा, गुरवो गच्छमूचिरे॥१८८॥ आचार्यः कोऽस्तुवः स्माहुः, स्वजनाः फल्गुरक्षिताः! स्ब्द् गोष्ठामाहिलो वाऽपि, पुष्पस्त्वभिमतो गुरोः // 186 / / शब्दयित्वा च निःशेषान्, गुरुर्दृष्टान्तमूचिवान्। निष्पावतैलहव्यानां, क्रियन्तेऽधोमुखाः कुटाः // 160|| सर्वे नियन्ति निष्पावास्तैलांशाः सन्ति केचन। तिष्ठत्याज्यं पुनः प्राज्यमेवमेतेष्वहं त्रिषु / / 161|| पुष्पं प्रति श्रुतेनाह, निष्पावकुटसन्निभः। घृतकुम्भः पुनर्गोष्ठामाहिलं मातुलं प्रति!|१६२।। फल्गुरक्षितमाश्रित्य, तैलकुम्भसमस्तथा। तदाचार्योऽस्तुवः पुष्पस्तैरपि प्रत्यपद्यत / / 193 // नवाऽऽचार्य तथा साधूननुशिष्य यथोचितम्। विधायानशनं शुद्धं, स्वर्गलोकमगाद् गुरुः॥१६४|| तद् गोष्ठामाहिलेनापि, श्रुतंय यामगाद् गुरुः। निष्पावकुटदृष्टान्तात् , पुष्पश्च स्वपदे कृतः।।१६५।। सगोष्ठामाहिलोऽथैत्य, पृथक् तस्थौ तदाश्रयात्। कर्मबन्धविचारेऽभून्निवः सोऽन्यथोक्तितः।।१६६|| आ०क०। देविंदवंदिएहिं, महाणुभावेहि रक्खियजेहिं / जुगमासजविभत्तो, अणुओगो तो कओ चउहा।। देवेन्द्रवन्दितैर्महानुभावैरार्यरक्षितैर्दुईलिकापुष्पमित्रप्राज्ञमप्यतिगुपिलतयाऽनुयोगस्य विस्मृतसूत्रार्थमवलोक्य युगमासाद्य प्रवचनहिताय विभक्तः पृथग व्यवस्थापितोऽनुयोगः, ततः कृतश्चतुर्धा, चतुर्तास्थानेषु नियुक्तः चरणकरणानुयोगादिरिति। आ०म०द्विका उत्त०। आचूला धर०। दर्श०। ती विशेष स्था०। अञ्चलगच्छस्थापके आचार्ये च।अयंच (विक्रमसं०११३६ वर्षे) दन्ताणीनामग्रामेद्रोणश्रेष्ठिनो देदीनाम्या भार्यायाः जातः, (विक्रमसं०११४२ वर्षे) प्रव्रजितः, (विक्रमसं०११६६ वर्षे) विधिपक्ष-(अञ्चल-) गच्छमस्थापयत् , (विक्रमसं०१२२६ वर्षे) 61 वर्षजन्मपर्यायो मृत्वा देवलोकं गतः / जै०३० अजरक्खियमीस-पुं०(आर्यरक्षितमिश्र) अनुयोगचातुर्विध्य-कारके रक्षिताचार्ये, सूत्र०१ अ०१ उ० अजरह-पुं०(आर्यरथ) आर्यवज्रस्वामिनस्तृतीये शिष्ये, कल्प० / अज्जल-पुं०(आद्यल) म्लेच्छभेदे, प्रज्ञा० 1 पद। अज्जव-न०(आर्जव) ऋजोः रागद्वेषवत्त्ववर्जितस्य सामायिकवतः कर्म भावो वा आर्जवम् / संवरे, स्था० 5 ठा०१ उ० ऋजुभाव आर्जवम् / आव०मनोवाकायविक्रियाविरहे मायाराहित्ये, ध०८ अधि०। प्रव०। व्य०। पंचा0। आचा०। कल्प०। आव०। ज्ञा०। परस्मिन्निकृतिपरेऽपि मायापरित्यागे, दश० 10 अ०। एतच वीरेणाभ्यनुज्ञातम्। स्था० 5 ठा० 1 उ०। एतत्तृतीयश्रमणधर्मः / स्था० 2 ठा०१ उ०१ दशमो योगसंग्रहः / स०३१ सम०। आव०"पाए कोसिअज्जो, अंगरिसी रुद्दए अ आणत्ती / पंथगजोइजसा वि अ, अब्भक्खाणे असंबोही' ||1|| चम्पायां कौशिकार्योऽभूदुपाध्यायो महामतिः। तस्याद्योऽङ्गऋषिः शिष्यो, ग्रन्थिच्छिद्द्रकोऽपरः / / 1 / / उपाध्यायेन दार्वर्थ, द्वावपि प्रेषितौ वने। दारुभारं गृहीत्वैति, सायमङ्गऋषिर्वनात्।।२।। रुद्रो रन्त्वा दिवा सायं, स्मृत्वा बहिरधावत। दध्यौ वीक्ष्य तमायान्तं, गुरुर्निःसारयाम्यमुम्॥३॥ इतो ज्योतिर्यशा वत्सपाली नीत्वाऽन्नमात्मनः। पुत्रस्य पञ्चकस्यार्थे, वलन्तीदारुकाष्ठभृत्॥४|| दृष्टा तेनाथ तां हत्वाऽऽदाय तद्दारुभारकम्। शीघ्रं मार्गान्तरेणैत्य, गुरोरणे करौ धुनन् / / 5 / / आख्यद् वः प्रियशिष्येण, ज्योतिर्यशा व्यनाश्यत। आगतः सोऽथ गुरुणा, ययौ निस्सारितोऽटवीम् // 6 / / तत्र शुद्या मनोध्यानात् , जातजातिस्मृतिव्रतम् / सोऽवाप केवलं चाथ, महिमानं व्यधुः सुराः / / 7 / / देवैः कथितमेतस्याऽभ्याख्यानं प्रददेऽमुना। रुद्रको हीलितो लोके, दध्यौ सत्यं मया ददे |8|| अभ्याख्यानमिति ध्यायन् , सोऽगात्प्रत्येकबुद्धताम्। उपाध्यायः सपत्नीकः, प्रव्रज्य प्राप केवलम्॥६॥ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजव 216 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अजवइर चत्वारोऽपि ययुः सिद्धिमेवं कर्तव्यमार्जवम् / आ०क०। आ०चूल। आवन अञ्जवइर-पुं०पआर्यवज्र (वैर)ब आरात्सर्वहेयधर्मेभ्यो यातः। प्राप्तः सर्वैरुपादेयगुणैरित्यर्थः, स चासौ वज्रश्च / आ०म०वि०। धनगिरेः सुनन्दायां भार्यायामुत्पादिते पुत्रे आर्यसिंहगिरेः शिष्ये / के ते आर्यवैरा इति स्तवद्वारेण तदुत्पत्तिमाहतुंबवणसंनिवेसाउनिग्गय पिउसगासमलीणं / छम्मासिअंछसु जुधे, माऊ असमन्निअं वंदे / / 1 / / तुम्बवनसन्निवेशान्निर्गतं पितृसकाशमालीनं पाण्मासिकं षट् सु जीवनिकायेषु युतं प्रयत्नवन्तं मात्रा च समन्वितं वन्दे / एषगाथाऽक्षरार्थः / भावार्थस्तु कथातोऽवगन्तव्यः। कथा चेयम् - शक्रस्य लोकपः श्रीदस्तस्य सामन्तिकः पुनः। अभूद् वज्रविभोर्जीवः, प्राग्भवे जृम्भकामरः / / 2 / / इतश्च पृष्ठचम्पायां० श्रीवीरः समवासरत्। सुभूमिभाग उद्याने, शालस्तत्र नृपः पुरि // 3 // युवराजो महाशालस्तयोर्यामिर्यशोमती। पिठरो रमणस्तस्याः, गागलिस्तनयः पुनः॥४॥ शालः श्रुत्वा प्रभोधर्म, व्रतायानुजमूचियान्। राज्ये त्वं विश सोऽवादीद् , न व्रतेऽप्यस्मि ते नु किम् ? ||5|| समानीयाथ काम्पिल्या, गागलिं स्वस्वसुः सुतम्। राज्येऽभिषिच्यतं तौ द्वौ, पार्वे प्राबजतां प्रभोः।।६।। साऽपि तद्भगिनी जाता, श्रमणोपासिका ततः। तावप्येकादशाङ्गान्यध्यगीषातां महाऋषी / / 7 / / विहरन्नन्यदा स्वामी, ययौ राजगृहे पुरे। ततोऽपि चम्पां नगरी, प्रति प्रातिष्ठत प्रभुः / / 8 / / मुनी शालमहाशालौ, प्रभुं पप्रच्छतुस्तदा। आवां यावः पृष्ठचम्पां, कोऽपि स्यात्तत्र धर्मवान् // 6 // ज्ञात्वाऽवबोधं तौ तत्र प्रेषयद् गौतमान्वितौ। ततः स्वामी ययौ चम्पा, पृष्ठचम्पांच गौतमः॥१०॥ समातापितृकस्तत्र, गागलिगाँतमान्तिके। श्रुत्वा धर्म सुतं राज्ये, निवेश्य व्रतमग्रहीत्॥११॥ यातां मार्गेऽथ चम्पायां, स्वजनव्रतहर्षतः। प्राप्तौ शालमहाशालौ, निधानमिव केवलम् / / 12 / / समातापितृकस्याथ, गागलेरपि केवलम्। अत्रामुत्रार्थदावेतौ, ममेति ध्यायतोऽभवत्।।१३।। अथ चम्पां ययौ स्वामी, गौतमस्तत्परिच्छदः / प्रभुं प्रदक्षिणीकृत्य, प्रणिनंसुः पुरोऽभवत्॥१४|| इत एव प्रभुंनन्तुं, तानित्याचष्ट गौतमः। प्रभुगौतममूचे मा, केवल्याशातनां कृथाः // 15|| गौतमोऽथ प्रभुं नत्वा, क्षमयामास तान् क्षमी। गौतमं केवलाऽऽनाप्तिखिन्नं मत्वाऽदिशत्प्रभुः // 16 // अष्टापदं तपोलब्ध्याऽऽरोहेद्यः स्यात्स केवली। उद्गच्छदार्त्तयद्देवमुखात् श्रुत्वाऽथ तां गिरम्॥१७॥ अष्टापदोपकण्ठस्थास्तापसास्तपसा कृशाः। कौण्डिन्यदत्तशैवाला, एकद्वित्र्यन्तरेऽहनि॥१८|| आर्द्रकन्दशुष्ककन्दशुष्कशैवालभोजनाः। आरुक्षन् पदिका एकद्वित्रास्तेऽपि तपःक्रमात् / / 16 / / गौतमोऽपि प्रभु पृष्ट्वा ऽष्टापदाद्रिमुपेयिवान्। दृष्ट्वा ते तं मिथः प्राहुः, स्थूलोऽप्येषोऽधिरोक्ष्यति॥२०॥ तपःकृशा अपि क्यं, शक्नुम इतः परम्। गौतमस्तावदांशूनिश्रां कृत्वाऽऽरुहोह तम्॥२१।। तवृत्तविस्मितास्तेऽथ, दध्युर्यद्येवमेष्यति। ततोऽमुष्य वयं शिष्याः, भविष्यामो महाऋषेः / / 22 / / नत्वाऽर्हतः प्रभुश्चैश्यां, दिश्यशोकतरोस्तले। तत्र पृथ्वीशिलापट्टे, तामवात्सीद्विभावरीम्॥२३|| आगादष्टापदं नन्तुं, तत्र वैश्रवणस्तदा। जृम्भकेण समं सख्या, नत्वा सर्वान् जिनानथ // 24|| स्वाध्यायध्वनिना ज्ञात्वाऽभ्येत्य गौतममानमत्। कुर्वाणः स्वाम्यपि व्याख्या, सुधामधुरगीय॑धात् / / 25 / / अन्ताहारपन्ताहारेत्यादिकं साधुवर्णनम्। तच्छुत्वा मुखमालोक्य, मिथस्तौ हसितौ सुरौ॥२६॥ एवं साधुगुणानाह, स्वयमीदृक् पुनः प्रभुः। ज्ञात्वाऽऽर्यस्तन्मनः पुण्डरीकाध्ययनमूचिवान्।।२७।। न दौर्बल्यं बलित्वं वा, सद्गत्य किं तु भावना। श्रीदोऽथ ध्यानविज्ञानात् , प्रीतो नत्वा प्रतीयवान्॥२८|| जृम्भकस्तु प्रतिबुद्धः, शुद्धं सम्यक्त्वमाददे। सर्वं च प्रज्ञया पुण्डरीकाध्ययनमग्रहीत्॥२६। गौतमस्तु द्वितीयेऽयष्टापदादेरवातरत्। भीतास्ते प्रभुमाहुर्नः, शिष्यं कुरु गुरुर्भव // 30 // स्वाम्यथादाद्व्रतं तेषां, वेशात् शासनदेवताः। पारणे वोऽस्तु किं वस्तु, पृष्टास्ते प्रभुमभ्यधुः / / 31 / / इष्टाप्तिश्चेत्तदस्त्वद्य, पायसंघृतखण्डयुक् / तदैवानीय तत्स्वामी, तानूचे भोक्तुमास्यत / / 3 / / दध्युस्ते नो भविष्यन्ति, नेयतां तिलकान्यपि। परं गुरुवचः कार्य, न विचार्य नृपोक्तवत्॥३३॥ आसीनास्तेऽथ सर्वेऽपि,स्वाम्यक्षीणमहानसः। आतृप्ति भोजयित्वा तानश्नाति स्म स्वयं ततः / / 34 / / शतानां तेषु पञ्चाना, भुजानानां महाशिनाम्। ध्यायतां गौतमी लब्धि, जज्ञे केवलमुज्ज्वलम्॥३५|| गच्छतां च प्रभूपान्ते, विलोक्य प्राभवीं श्रियम्। पञ्चशत्या व्यहभुजां, समजायत केवलम्॥३६।। एकान्तरभुजां चासीत् , श्रीवीरजिनदर्शने। गौतमस्तैः समं भतुर्ददौ तिनः प्रदक्षिणाः / / 37 / / नवीनाः साधवस्तेऽथ, जग्मुः केवलिपर्षदम्। गौतमः स्माऽऽह तानेवं, नमत त्रिजगत्पतिम्॥३८।। स्वाम्याहाशातनामिन्द्रभूते ! केवलिनां व्यधाः। नत्या प्रभुं ददौ मिथ्यादुष्कृतं तेषु गौतमः // 36 // गौतमेऽथाधृतिं सुष्टु, प्रपन्ने स्वाम्यवोचत। अन्ते तुल्या भविष्यामो, मा कार्षी\तमाऽधृतिम् / 4 / / तृणद्विदलचर्मोर्णाकटवत्कस्यचित्पुनः। कोऽपि क्वापि भवेत्स्नेहो, मेषोर्णाकटवत्तु ते // 41 // तत्र स्नेहे चिरभवे, प्रावृषीव व्यपेयुषि। केवलज्ञानहंसस्ते, हृत्सरस्यां स रंस्यते।।४२।। उद्दिश्य गौतमं लोकप्रतिबोधकृते तथा। आदिशद् द्रुमपत्रीयाध्ययनं भगवांस्तदा।।४३।। इतश्चावन्तिदेशोर्वीहदिहारतटोपमः। सन्निवेशस्तुम्बवननामा धामाद्भुतश्रियाम्॥४४॥ तत्रेभ्यसूर्धनगिरिर्वतार्थी पितरौ पुनः। __ तत्कृते वृणुतः कन्या, यस्य तं संन्यषेधयत्॥४५॥ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजवडर 217- अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अजवइर स्वयम्बराऽथतस्याभूत, सुनन्दा धनपालसूः। विवाहिताऽथ सा तेन, तया रुद्धोऽथ स व्रतात्॥४६॥ अथान्यदा स्वतः स्थानात,सच्युत्वा ज़म्भकामरः। सुनन्दाकुक्षिकासारेऽवातरत्कलहंसवत्॥४७॥ तवाधारोऽभवद्भावीत्युक्त्वा धनगिरिः प्रियाम्। अभूत् सिंहगिरेः शिष्यः, शालकात्संमितादनु॥४८|| जाते च तनये जन्मोत्सवे स्फूर्जति काऽप्यवक्। पिता चेत् प्रावजिष्यन्नास्याभविष्यद्वरं तदा // 46 // स संज्ञी तद्वचः श्रुत्वाऽज्ञासीन्मे व्रत्यभूत्पिता। एवं चिन्तयतस्तस्य, जाता जातिस्मृतिः शिशोः / / 50|| अहर्निशं ततोऽरोदीत्, माता निर्विद्यते यथा। प्रव्रज्याभिमुखं पश्चादेवं षण्मासिकाऽगमत् // 51 / / अन्यदा समवासार्षीत्, तत्र सिंहगिरिगुरुः / समितौ धनगिरिश्च, पश्यावः स्वजनानिति / / 2 / / यावद्यातो गुरुं पृष्ट्वा, शकुनस्तावदूचिवान्। ततस्तौ सूरयोऽवोचन , भावी लाभोऽद्य वां महान्॥५३|| सचित्तं वाप्यचित्तं वा, ग्राह्य तत तौ ततो गतौ। सुनन्दा ससखीवृन्दा, दृष्ट्वा तावित्यवोचत / / 54|| कान्तेयन्ति दिनान्यर्भः,पाल्यते स्म मया तव। त्वमेनं गोपयेदानी, रुदतोच्चाटिताऽमुना // 55 // तेनोचे माऽस्तु ते पश्चात्तापः सोचेऽत्र निःस्पृहा। कृत्वाऽथ साक्षिणोऽग्राहि, सोऽब्दार्द्धः पात्रबन्धने / / 56 / / व्रतप्राप्तं च तत्कालं, रोदनाद्विरराम सः। अथायातो मुनेर्दोष्णाऽदान्नीतोऽधः करं गुरुः // 57 / / अतिभारात्तथाऽऽहैवं, साधो ! वजं किमानयः? आकृष्यालोक्य तं बालं, बाल्यमाप्तमिव स्मरम् // 58|| भाव्येष शासनाधारो, वज्रस्वामी गुरुस्ततः। साध्वीशय्यातरीणां तं, नीविवत्त्रातुमार्पयत् // 56 // प्रहृष्यन्प्रासुकाहारस्नानमण्डनखेलनैः। तत्रावर्द्धिष्ट वजःस, सार्द्ध गुरुमनोरथैः।।६०|| बहिर्व्याहार्दुराचार्याः, सुनन्दाऽमार्गयत्सुतम्। उचुस्ता एष निक्षेपो, गुरूणां नार्थ्यते परैः।।६१।। आगमन् गुरवस्तत्र, वज्रे जाते त्रिवार्षिके। सुनन्दायाचते सूनुं, गुरवस्त्वर्पयन्ति न॥६२।। विवादोऽथाभवद्राजकुले जातश्च निर्णयः। यदग्रतः सुतस्तस्याऽऽहूतो याति यदन्तिके॥६३|| ससंघो गुरुरेकत्र, नन्दाऽन्यत्र सनागरा। अविक्षदभितो भूपं, वज्रस्तु नृपतेः पुरः॥६४॥ राजोचे शब्दयत्वादौ, पिता स्त्रीपाक्षिका जगुः। स्वामिन्नम्बाऽऽह्वयत्वादौ, दयास्थानमियं यतः // 65 // प्राग् राज्ञोक्ताऽऽह्वयन्माता, खाद्यखेलनचाटुभिः / वीक्ष्याप्यम्बां परं सोऽस्थात्, नाचालीकिन्त्वचिन्तयत्॥६६॥ पालनस्थोऽप्युपश्रुत्या, योऽधीतैकादशाङ्गकः। सोऽहं मोहं जनन्याः किं,यामि सङ्घ विलध्य तत् ? // 67 // व्रतस्थे मयि माताऽपि, व्रतमङ्गीकरिष्यति। राज्ञा प्रोक्तः पिताऽवोचत् , वचस्तं प्रति तद्यथा // 6 // "जइसि कयज्झवसाओ, धम्मज्झयमूसिअंइमं वइरं। गिण्ह लहं रयहरणं, कम्मरयप्पमज्जणं धीर!" ||66| तच्छुत्वा तत्क्षणादेत्य,सरजोहृतिमाददे। तदैवादीक्षि गुरुणा, सपौरोऽप्यबुधन्नृपः // 7 // दध्यावथ सुनन्दाऽपि, भ्राता भर्ता सुतश्च मे। प्राव्रजन् किं ममाऽन्येन, साऽपि प्रव्रजिता ततः // 71 / / वज्र तत्रैव संस्थाप्य, साधुभिः पञ्चषैर्वृतम्। व्यहार्षुर्गुरवोऽन्यत्र, यन्नैकत्र यतिस्थितिः 72|| अथाऽष्टवर्षो वज्रर्षिय॑हरद् गुरुभिः समम्। जग्मुश्च गुरवोऽवन्त्यां, वृष्टिश्च प्रावृतत्तदा // 73 // तस्य प्राग्भ्रवमित्राणि, व्रजन्तो जृम्भकामराः। दृष्ट्वा तं तत्र तैः सार्द्ध, कृत्वा तस्थुः परीक्षितुम्॥७४।। राद्धवान्यमन्त्रयद्वजं, विपुषो वीक्ष्य संस्थिताः। पुनराह्नन् स्थिते वर्षे, गतस्तत्रोपयुक्तवान् // 75 / / द्रव्यतः पक्वकूष्माण्डं, क्षेत्रतस्तूजयन्यसौ। कालतः प्रथम वर्षा, भावतो दायकाः पुनः॥७६|| अभूस्पृशो निर्निमेषा, देवा इत्याददे न तत्। तेऽथ तुष्टा निवेद्य स्वं, विद्यां वैकुर्विकी ददुः॥७७।। भूयोऽवन्त्यां पुरिज्येष्ठे, वजे बाह्यभुवं गते। प्राग्वद्विधाय सार्द्ध ते,घृतपूर्णय॑मन्त्रयन्॥७८|| द्रव्यादिकोपयोगेन, ज्ञात्वा नात्तेषु तेष्वपि। तस्याकाशगमां विद्यां, दत्त्वाऽगुः स्वं निरूप्यते // 76 / / नियुक्तिकारोऽप्येतदेवाहजो गुज्झरोहिं बालो, निमंतिओ भोअणेण वासंते। नेच्छा विणीअविणओ, तं वयररिसिं नमसामि।१।। गुह्यकैर्देवैः वासंते वर्षति नेच्छति विनीतविनयोऽभ्यस्तविनयः / तथाउज्जेणीए जो जंभगेहिं आणक्खिऊण थुअमहि। अक्खीणमहानसि, सीहगिरिपसंसिअंवंदे॥१६॥ आणक्खिऊण परीक्ष्य, स्तुतो वचनैः, महितो विद्यादानेन। तच्छिष्यान् पठतः श्रुत्वैकादशाङ्गी स्थिराऽभवत्। श्रुतं पूर्वगमप्यात्तं, यत्किञ्चित्पठता श्रुतम्।।८०|| पठेत्युक्तोऽपठन् नित्यं, तमेवालापकं मुहुः। अपरान्पठतः शृण्वन्,गृहानश्वततः श्रुतम्॥१॥ भिक्षार्थमन्यदा साधु-वाते याते हि मध्यमे। बहिर्भूमौ गुरौ प्राप्ते, तस्थौ वजः प्रतिश्रये // 2 // अथान्यस्यस मण्डल्या, मध्ये त्रियतिवेष्टिकाः। मध्ये स्थितः स्वयमदात्, क्रमेणाङ्गादिवाचनाम्॥८३|| आयाताः सूरयो दध्युर्मुनयो द्राक् किमाययुः? स्वरमाकर्ण्य गम्भीरं, ज्ञातं वज्रविजृम्भितम्॥४|| अपसृत्य क्षणं स्थित्वा, व्यधुनॆषेधिकी ध्वनिम्। यथास्थानेऽपि मुक्त्वा ताः, प्रामाक्षीत्स गुरोः पदौ // 85 / / ज्ञातं त्वमुंश्रुतधरं, माऽवजानन्तु साधवः। इत्याचार्या विहारार्थ, चलिताः पञ्चषान् दिनान्॥८६॥ योगिनः स्माऽऽहुरस्माकं, भावी को वाचनागुरुः ?) गुरवो वज्रमादिक्षस्ते तथेति प्रपेदिरे ||87 / / साधवोऽपि गुरुं वज्रमासयित्वाऽऽसने प्रगे। योगाऽनुष्ठानमाधाय, वाचनार्थमुपाविशन्॥८८|| वाचनां स तथाऽदत्त, मन्दा अप्यपठन् यथा। अधीतमपितैः स्पष्टी-कर्तुं पृष्टं स शिष्टवान् / / 8 / / अथले साधवो दध्युगुरूणां बहवो दिनाः। चेल्लगन्ति तदाऽस्माकं, श्रुतस्कन्धः समाप्यते॥६011 गुरोरधीयतेऽहाय, तत्पौरुष्याऽपि वज्रतः। इत्येवं सर्वसाधूनां, वज्रो बहुमतोऽभवत् / / 1 / / Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्जवडर 218 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अजवइर ज्ञापितास्ते वज्रगुणानित्याचार्याः समाययुः। आप्राक्षुर्यतिनो जज्ञे, स्वाध्यायो वस्त ऊचिरे।।६२॥ जज्ञे किं त्वेष एवास्तु, स्वामिन् ! नो वाचनागुरुः / गुरुरूचेऽमुनोपात्तं, कर्णाघातात् श्रुतं ततः // 63|| युज्यते वाचनां दातुं, नास्य स्वयमतद्ग्रहे। ज्ञातुं वो वज्रमाहात्म्यं, वाचनाऽदाप्यपीयती / / 64|| यत्स्वस्याऽऽसीद् गुरुः सर्वं, श्रुतं वज्रस्य तद्ददौ। विहरन्नन्यदाऽऽयासीत् , पुरं दशपुराह्वयम्॥६५|| वृद्धावासे सन्त्यवन्त्यां, श्रीभद्रगुप्तसूरयः। तेभ्योऽन्यश्रुतमादातुं, वज्रः प्रैषि द्विसाधुयुक् / / 6 / / तदा च भद्रगुप्तार्याः, स्वप्नेऽपश्यन् यथा मम। पतद्ग्रहं क्षीरभृतं, पीत्वाऽऽगन्तुः समाश्वसीत्॥१७॥ साधूनां प्रातराचख्युस्तेऽन्योन्यफलमूचिरे। गुरुरुचे प्रतीच्छो मे, लास्यत्येत्याखिलं श्रुतम्।।६८|| वनोऽप्यस्थाद् बहिर्नक्तमदायात एव हि। ज्ञात्वोद्देशाद् गुरुर्वजं, माहात्म्ये तव गूढवान् Ill तेषां पार्श्वेऽथ वर्षिर्दशपूर्वीमधीतवान्। यत्रोद्देशस्तत्रानुज्ञेत्यागाद्दशपुरेऽनु सः॥१०॥ तत्रानुयोगानुज्ञायां, वयस्यैस्तस्य जम्भकैः / इन्द्राद्यैर्गीतमादीनामिव चक्रे महान्महः / / 101 / / अमुमेवार्थ ग्रन्थकृदाह"जस्स अणुनाए वायगत्तणे दसपुरम्मि नयरम्मि। देवेहि कया महिमा, पयाणुसारिं नमसामि" ||1|| यस्याऽनुज्ञाते वाचकत्वे आचार्यत्वे, शेष स्पष्टम्। अथान्यदा सिंहगिरिदत्त्वा वनमुनेर्गणम्। विधायानशनं धीमान् , ययौ स्वर्ग समाधिना।।१०२।। वज्रस्वाम्यथ संयुक्तः, साधूनां पञ्चभिः शतैः। सर्वतः प्रसरत्कीर्तिर्व्यहरद्बोधयन्जनम्॥१०३।। इतश्च पाटलीपुत्रे, श्रेष्ठः श्रेष्ठीधनीधनः। तत्पुत्री रुक्मिणी नाम्नी, रूपापास्तपुलोमजा // 10 // साध्व्यस्तद्यानशालास्थाश्चक्रुर्वगुणस्तुतिम्। वज्रमेव पतीयन्ती, श्रुत्वा तं रुक्मिणी स्थिता / / 10 / / आगच्छतोऽप्यनेकान्सा, वरकान् प्रत्यषेधयत्। साध्व्योऽभ्यधुन हे भद्रे!, व्रती परिणयत्यसौ // 106 / / साऽवदत् मान वज्रर्षिः, परिणेष्यति चेत्ततः। प्रव्रजिष्याम्यहमपि, स्त्रियो हि पतिवम॑गाः // 107 / / विहरन् पाटलीपुत्रे, वज्रोऽप्यन्येधुरागमत्। निर्ययौ संमुखस्तस्य, नगरेशः सनागरः // 108|| दृष्ट्वाऽऽयातो वृन्दवृन्दैर्दिव्यरूपान् बहून्मुनीन्। राजोचे सैष वज्रस्तेऽभ्यधुस्तस्यैकशिष्यकः / / 10 / / मा भूत्पौरजनक्षोभः, इति वज्रगुरुस्तदा। कृत्वा वपुःपरावृत्तिमागच्छन्नस्ति शस्तधीः // 110 / / पश्चिमस्यार्धक दृष्टो, वज्रः स्वल्पपरिच्छदः। सानन्दं वन्दितो राज्ञा, तत उद्यानवेश्मनि / / 111 // धर्ममाख्यत्प्रभुः क्षीराश्रवलब्धिर्जिनोदितम् / तेनाक्षिप्तमनाःक्ष्माभृत् , नाऽविदत् क्षुत्तृषं तथा // 12 // अन्तःपुरे तदाचख्यौ, वन्दितुं तं तदप्यगात्। श्रुत्वा श्रेष्ठिसुता लोकात, रुक्मिणी जनकं ययौ // 113|| आयातोऽस्त्यत्र वजः सः,तात! तस्मै प्रदेहि माम्। सोऽथ शृङ्गारयित्वा तां, निन्ये सार्द्ध स्वकोटिभिः // 11 // भगवान् धर्ममाचख्यौ, लोकः सर्वोऽपि रञ्जितः। दध्यौ चास्य यथाऽनेके,गुणा रूपंन तादृशम्॥११५|| ज्ञात्वा तदाशयं स्वामी, सहस्रदलमम्बुजम्। कृत्वाऽन्येद्युः स्वरूपस्थः, केवलीवोपविष्टवान॥११६।। तं वीक्ष्योवाच लोकोऽस्य, सहज रूपमीदृशम्। प्राोऽङ्गनानां मा भूवमित्यास्ते मध्यरूपभाक् // 117|| नृपोऽपि विस्मितः स्माह, शक्तिरेषाऽपि वोऽस्ति किम् ? लब्धीरनेकाः साधूनां, तदाख्यन्नृपतेर्गुरुः / / 118|| श्रेष्ठिना मन्त्रिपुत्र्यायैस्तानुपास्थजगौच सः। मद्रक्ता चेद्वतिन्यस्तु, जगृहे साऽपि तद् व्रतम्॥११६॥ अमुमेवार्थमाह"जो कन्नाइ धणेण य, निमंतिओ जुव्वणम्मि गिहवइणा। नयरम्मि कुसुमनामे, तं वयररिसिं नमसामि" // 120|| पदानुसारिणा तेन, स्वामिना प्रस्मृता सती। महापरिज्ञाध्ययनाद्विद्योद्धे नभोगमा // 121 / / "जेणुद्धरिआ विजा, आगासगमा महापरिन्नाओ। वंदामि अजवइरं, अपच्छिमो जो सुअहराणं // 122|| भणइ अ आहिंडिजा, जंबुद्दीवं इमाइ विजाए। गंतूण माणुसनगं, विजाए एस मे विसओ।।१२३|| भणइ अधारेअव्वा, न हुदायव्वा मए इभा विज्जा। अप्पड्डिआ य मणुआ, होहिंति अओ परं अन्ने" // 124 // वज्रोऽथाऽगात् पूर्वदेशाद्विहरनुत्तरापथम्। अभूच तत्र दुर्भिक्षं, पन्थानोऽपथिकाः स्थिताः॥१२५॥ ततः सङ्घ उपागत्याऽवादीन्निस्तारयेति तम्। पटेऽथ विद्यया सङ्घमारोप्य प्रस्थितः प्रभुः।।१२६।। शय्यातरस्तु चार्य थै, गतोऽभ्यायाद्विलोक्य तान्। शिखां छित्वाऽवदद्वजं, प्रभो ! साधर्मिकोऽस्मि वः / / 127 / / अथेदं स्मरता सूत्रं, सोऽप्यध्यारोपितः पटे। ("साहम्मिअवच्छल्लम्मि उज्जुयाय सज्झाए। चरणकरणम्मि अतहा, तित्थस्स पभावणाए य"||१॥) पश्चादुत्पतितः स्वामी, प्राप्तो नाम्ना पुरीं पुरीम्॥१२८।। सुभिक्षं वर्तते तत्र, श्रावकास्तत्र भूरयः। तत्र ताथागतः श्राद्धो, राजा तेऽहंयवस्ततः / / 126 / / आर्हतानां च तेषांच, चैत्येषु स्पर्धया पुनः। कुर्वतां स्नात्रपूजादि, जैनेभ्यस्तत्पराभवः / / 130 / / न्यवार्यन्ताथ तैः पुष्पाण्यर्हता राजवचसा। श्राद्धाः पर्युषणायां च, पुष्पाभावं गुरुं जगुः / / 131 / / प्रभो ! जैत्रेषु युष्मासु, शासनं वोऽभिभूयते। अथोत्पत्य ययौ वज्रः, क्षणान्माहेश्वरी पुरीम्॥१३२।। हुताशनवने तत्र, पुष्पकुम्भः प्रजायते। भगवत्पितृमित्रं च, तद्धितस्तस्य चिन्तकः / / 133 / / प्रभुं दृष्ट्वाऽवदत्तोषात्किं वोऽत्रागमकारणम् ? स्वाम्यूचे पुष्पसम्प्राप्तिः, स स्माहानुग्रहो मम॥१३४|| स्वाम्यूचे सुमनसोऽभिमेलयेर्यावदेम्यहम्। क्षुद्रे हिमवति स्वामी, ययौ श्रीसन्निधौ ततः॥१३५ // देवार्चार्थोपात्तपद्मा, पद्मा पद्महदात्तदा। प्रेक्ष्य प्रभुं प्रमोदेन, प्रणुन्ना प्राणमत्प्रधीः // 136|| ऊचेऽथादिश्यतां स्वामी, सोऽवदत्पद्ममर्पय। साऽर्पयत्तं गृहीत्वा स, हुताशनगृहेऽगमत्॥१३७॥ विमानं तत्र निर्माय, पुष्पकुम्भ निधाय च / Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजवइर 219 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अजसेणिय जृम्भकैः कृतसंगीतः, पद्ममूले स्वयं स्थितः।।१३८।। व्योम्ना पुर्या उपर्यागादूचिरे सौगतास्ततः। अहो ! अस्मत्प्रातिहार्य, देवा अप्याययुर्दिवः।।१३६।। तद्विहारमथोल्लङ्घ्य, गतास्ते चैत्यमर्हतः। तन्माहात्म्यं नृपः प्रेक्ष्य, सपौरोऽप्याहतोऽभवत्॥१४०।। उक्तमेवार्थमाहमाहेसरीउ सेसा, पुरिअंनीआ हुआसणगिहाओ। गयणतलमइवइत्ता, वइरेण महाणुभावेण // 1 // माहेश्वर्या नगर्याः सकाशात् सस्वामिकात्नत्वरण्यादेर-स्वामिकात् प्रस्तावात्पुष्पसंपदिति ज्ञेयम्। वज्रेण महानुभावेन हुताशनव्यन्तरगृहभूताऽऽरामात् गगनतलमतिव्यतीत्य अतिशयेन उल्लङ्घय पुरिकां पुरीनाम्नी नगरी नीता, एवं विहरन् वज्रस्वामी श्रीमालपुरं गतः। इयन्तं कालं यावदनुयोगस्यापृथक्त्वमासीत् ततः पृथक्त्वमभूदित्याह"अपुहत्ते अनुओगो, चत्तारि दुवारभासए एगो। पुहत्ताणुओगकरणे, ते अत्थ तओ अवुच्छिन्ना" ||1|| आ०का आ०म०|आ०चू०। विशे० पंचा०।ओघा ध०र०। कल्प० / तं०।(अस्य वज्रस्वामिनोऽनशनं कृत्वा देवलोकगमनं 'अज्जरक्खिय' शब्देऽत्रैवभागे 212 पृष्ठे उक्तम्) अस्य वज्रस्वामिनो जन्म (वि०सं०२६) (सर्वायु:५८) (वि०सं०११४वर्षे) स्वर्गं गतः। जै०इ० // अत्र काव्यानि"मोहाब्धिश्चुलुकीचक्रे, येन बालेन लीलया। स्त्रीनदीस्नेहपूरस्तं वर्षि प्लावयेत्कथम् ?" ||1|| आ०का 'वंदामि अजधम्म, तत्तो वंदे य भद्दगुत्तं च। तत्तोय अजवइरं, तवनियमगुणेहिं वयरसमं''। नं० समजनि यजस्वामी, जृम्भकदेवार्पितस्फुर-द्विद्यः / बाल्येऽपि जातजातिस्मृतिः प्रभुश्चरमदशपूर्वी / / 1 / / ग० 4 अधि०। अस्याचार्यस्य शिष्यसम्पद्थेरस्सणं अज्ज- वइरस्स गोयमसगोत्तस्स अंतेवासी थेरे अज्जवइरसेणे उको-सियगोत्ते। थेरे अजपउमे थेरे अज्जरहे। कल्प० (तीर्थोद्गालिकमत एतन्मरणे स्थानाङ्गव्युच्छेदः) तेरसवरिससएहिं पण्णासासमहिएहि वोच्छेदो। अज्जवइरस्स मरणे,ठाणस्स जिणेहिं निहिहो // 1 // ति० अज्जवइरसेण-पुं०(आर्यवज्रसेन) आर्यवज्रस्य शिष्ये, कल्प०। अज्जवइरी-स्त्री०(आर्यवजी) आर्यवज्रान्निःसृतायां शाखायाम, "थेरेहिंतो णं अज्जवइरेहिंतो णं गोयमसगोत्तेहिंतो इत्थ णं अज्ज-वइरी साहा णिग्गया" / कल्प। अज्जवट्ठाण-न०(आर्जवस्थान) आर्जवं संवरस्तस्य स्थानानि भेदा | आर्जवस्थानानि। साध्वार्जवादिषु संवरभेदेषु, पंच अज्जवट्ठाणा पण्णत्ता / तं जहा-साहुअज्जवं साहुमहवं साहुलाघवं साहुखंती साहुमोत्ती। साधुसम्यग्दर्शनपूर्वकत्वेन शोभनमार्जवं मायानिग्रहस्ततः कर्मधारयः, साधोर्वा यतेरार्जवं साध्वार्जवम्। एवं शेषाण्यपि। स्था०५ ठा०१ उ०। अज्जवप्पहाण-त्रि०(आर्जवप्रधान) मायोदयनिग्रहप्रधाने। औ०। अजवभाव-पुं०(आर्जवभाव) अशठतायाम्, "मायंचज्जवभावेणं''। द० 8 अ०) अजवया-स्त्री०(आर्जवता) मायावर्जनात्मके श्रमणभेदे,पा०। अस्याः फलम् , यथा चोत्तराध्ययने - अजवयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ? अकिंचणाएणं काउज्जुययं भासुजुययं अविसंवायणं जणयइ / अविसंवायणसंपण्णयाए जीवे धम्मस्स आराहए भवइ॥४२॥ लोभाविनाभाविनी च मायेति तदभावेऽवश्यं भावार्जवमतः तदाह(अजवयाए त्ति) सूत्रत्वाद् ऋजुरवक्र स्तद्भाव आर्जवम्, तेन मायापरिहाररूपेण कायेन, ऋजुरेव ऋजुकः कायऋजुकः, तद्भावस्तत्ता, कुब्जादिवेषभूविकाराधकरणतः प्राञ्जलिता, ताम् तथा भावोऽभिप्रायस्तस्मिस्तेन वा ऋजुकता भावऋजुकता, यदन्यदविचिन्तयन् लोके भक्त्यादिनिमित्तमन्यद्वाचा कायेन वा समाचरति तत्परिहाररूपा, एवं भाषायामृजुकता भाषर्जुकता, यदुपहासादिहेतोरन्यदेशभाषया भाषणं तत्परित्यागात्मिका, तथाऽविसंवादनं पराविप्रतारणं जनयति, तथा विधिश्चाविसं-वादनसम्पन्नतयोपलक्षणत्वात् कायर्जुकतादिसम्पन्नतया चजीवो धर्मस्याऽऽराधको भवति, विशुद्धाऽध्यवसायत्वेनाऽन्य-जन्मन्यपि तदवातेः। उत्त० 26 अ०| अजविय-न०(आर्जव)मायावक्रतापरित्यागात् / आचा०। अमायित्वे, सूत्र०२ श्रु०१ अग अजवेडय-न०(आर्यवटक) श्रीगुप्ताद् हारीतसगोत्रात् निःसृतस्य चारणगणस्य षष्ठे कुले, कल्प अजसमिय-पुं०(आर्यसमित) आर्यवज्रस्वामिमातुः सुनन्दाया भ्रातरि आर्यसिंहगिरिशिष्ये, कल्प०। आ०म०द्वि०। आ०चू०। येन योगप्रभावादचलपुरा-सन्नब्रह्मद्वीपे पादलेपेन जलोपरि गच्छन्तं तापसं जित्वा तं सानुगं प्रव्राज्य ब्रह्मद्वीपिका शाखा निर्गमिता / कल्प०('बंभदीविया' शब्दे वक्ष्यामि) अज्जसमुद्द-पुं०(आर्यसमुद्र) उदधिनामनि आचार्यभेदे, जनाबल परिक्षीणानामुदधिनाम्नामार्यसमुद्राणाम पराक्रमं मरणमभूदिति वृद्धप्रसिद्धिः / आचा०१ श्रु०८ अ० 1 उ०। अज्जसाम-पुं०(आर्यश्याम) आरात् सर्वहेयधर्मेभ्यो यातः प्राप्तो गुणैरित्यार्यः, स चासौ श्यामश्च आर्यश्यामः / प्रज्ञापनाकृतिकालकाचार्यनामके आचार्य, प्रज्ञापनासूत्रकरणप्रयोज- नादि तदुपक्रम एवोक्तम्- "वायगवरवंसाओ, तेवीसइमेण धीरपुरिसेण / दुद्धररयेण मुणिणा पुव्वसुयसमिद्धबुद्धीणं'' ||3|| "सुयसागरा विएऊण जेण सुयरयणमुत्तमं दिण्णं / सीसगणस्स भगवओ, तस्स णमो अज्जसामस्स" // 42 // ('पण्णवणा' शब्दे चैतद्व्याख्यास्यते) अज्जसुहत्थि(ण)-पुं०(आर्यसुहस्तिन्) आर्यस्थूलभद्रस्य शिष्ये स्थविरे, आव० 4 अ०। यैरार्यसुहस्तिभिर्दीक्षितो द्रमको मृत्वा सम्प्रति नामा राजाऽभूत्। कल्प०)('संपइ' शब्देऽस्य कथानकम्) अन्जसुहम्म(ण)-पुं०(आर्यसुधर्मन्) श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य पञ्चमे गणधरे, तत्स्वरूपं चेदम्- कुल्लागसन्निवेशे धम्मिल्लविप्रस्य भार्या भदिला, तयोः सुतश्चतुर्दशविद्यापात्रम्। पञ्चाशद्वर्षान्ते प्रव्रजितः। त्रिंशद्वर्षाणि वीरसेवा कृता वीर-निर्वाणाद् द्वादशवर्षान्ते जन्मतो द्विनवतिवर्षान्ते च केवलम् / ततोऽष्टौ वर्षाणि केवलित्वं परिपाल्य शतवर्षायुषं जम्बूस्वामिनं स्वपदे संस्थाप्य शिवं गतः। अन्त० 1 वर्ग। अणु०। सा अजसेणिय-पुं०(आर्यसैनिक) आर्यशान्तिसैनिकस्य द्वितीये शिष्ये, कल्प। Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजसेणिया 220 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अजा अज्जासेणिया-स्त्री०(आर्य सैनिकी)आर्य सैनिकान्निर्गतायां शाखायाम् , "थेरेहिंतो णं अजसेणिएहिंतो इत्थ णं अज्जसेणिया साहा णिग्गया"। कल्प। अज्जा-स्त्री०(आद्या) आदौ भवा, दिगादित्वात् यत्। वाच० 'गवि' इति केचित् / अम्बिकायाम् , देवना० 1 वर्ग०। आर्या-स्त्री०। ऋ ण्यत्। प्रशान्तरूपायां दुर्गायाम् , ज्ञा० 8 अ० ग०। सप्तचतुष्कलगणादिव्यवस्थानिबद्ध मात्राछन्दसि,जं०२ वक्षIआर्यव संस्कृतेतरभाषासु गाथासंज्ञा / ग०१ अधि०। आर्यारचनं हि एकविंशतिरूपायां कलायां गण्यते (तच'कला' शब्दे तृ०भा०पृष्ठे 377 द्रष्टव्यम् ) ज्ञा० 1 अ०। साध्व्याम्, ग०३ अधि०| आर्यासामाचार्याः सूचनिकामात्रमत्र दर्श्यते विस्तरस्तु यथास्थानम् ('एकागि' शब्दे एकाकित्वनिषेधो वक्ष्यते) आर्याया गृहिसमक्षं दुष्टभाषणे दोषमाहजत्थ जयारमयारं, समणी जंपइ गिहत्थपञ्चक्खं / पचक्खं संसारे, अज्जा पक्खिवइ अप्पाणं॥११०॥ यत्र गच्छे (जयारमयारमिति) अवाच्यदुष्टगालिरूपं जकारमकारसहितं वचनं या श्रमणी गृहस्थप्रत्यक्षं गृहिसमक्षं जल्पति / हे गौतम ! तत्र गच्छे सा आर्या आत्मानं संसारे प्रत्यक्षं साक्षात् प्रक्षिपतीति // 110 // ('गारत्थियवयण' शब्दे दोषं प्रायश्चित्तं च वक्ष्यामः) अथाऽऽर्याया विचित्रवस्त्रपरिधाने दोषमाहगणि ! गोअम ! जा उचिअं, से अवत्थं विवजिउं / सेवए चित्तरूवाणि, नसा अज्जा विआहिआ।।११।। हे गणिन् गौतम ! याऽऽा उचितं श्वेतवस्त्रं विवर्त्य चित्ररूपाणि विविधवर्णानि विविधानि चित्राणि वा वस्त्राणि सेवते, उपलक्षणात्पात्रदण्डाद्यपि चित्ररूपं सेवते, सा आर्या न कथितेति / विषमाक्षरेति गाथाछन्दः / / 112 // अथाऽऽाया गृहस्थादीनां सीवनादिकरणे दोषमाहसीवणं तुन्नणं भरणं, गिहत्थाणं तु जा करे। तिल्लमुव्वट्टणं चावि, अप्पणो य परस्स य॥११३|| या आर्या गृहस्थानां तुशब्दादन्यतीर्थिकादीनां च वस्त्रकम्बलचीनांशुकादिसंबन्धि सीवनं, तुन्ननं,(भरणमिति) भरणं करोति, तथा या आत्मनश्चस्वस्य परस्य च गृहस्थडिम्भादेः (तिल्लंति) तैलाभ्यङ्गम् (उव्वट्टणंति) सुरभिचूर्णादिनोद्वर्तनं च अपीति-शब्दान्नयनाञ्जनमुखप्रक्षालनमण्डनादिकं च करोति, नसा आर्या व्याहृतेति पूर्वगाथात आकर्षणीयम्। तस्याः पार्श्व-स्थादित्वसमासादनात्। ग०३ अधिo (अत्र सुभद्रा काली चेत्युदाहरणे 'बहुपुत्तिआ' काली' शब्दयोः गच्छप्रत्यनीकाऽऽा) अथ गाथात्रयेण गच्छप्रत्यनीकाऽऽर्याः दर्शयतिगच्छइ सविलासगई, सयणीयं तूलिअंसविव्वो। उव्वट्टेइ सरीरं, सिणाणमाईणि जा कुणइ // 114 // गेहेसु गिहत्थाणं, गंतूण कहा कहेइ काही आ। तरुणाइ अहिवडते, अणुजाणे साइपडिणीया।।११।। याऽऽा सविव्वोकं यथा स्यात्तथा सविलासा गतिर्यस्याः सा सविलासगतिर्गच्छति, तथा शयनीयं पल्यकादि वा तूलिकां च संस्कृतरुतादिभृतामर्कतूलादिभृतां वा, तथा या शरीरमुद्वर्तयति, तथा या स्नानादीनि च करोति / अथवा सविलासगतिर्गच्छति तथा शयनीयं तूलिकां च (सविव्वोअंति) उच्छीर्षकसहितां सेवते / शेषं तथैव / / 114 / / तथा गृहस्थानां गृहेषु गत्या उपलक्षणत्यात् उपाश्रयेऽपि स्थिता संयमयोगान् मुक्त्वा या काथिका कथिकलक्षणोपेता आर्या कथा धर्मविषयाः संसारव्यापारविषया वा कथयति, तथा या तरुणादीन पुरुषान् अभिपतत अभिमुख-मागच्छतोऽनुजानाति सुन्दरमागमनं भवतां पुनरागमनं विधेयम् , कार्यं ज्ञाप्यमित्यादिप्रकारेण, इ जे राः पादपूरणे।।२।२१७। इति प्राकृतसूत्रोक्त-इकारः पादपूरणार्थः। गच्छस्य प्रत्यनीका शत्रुतुल्या स्यात् भगवदाज्ञाविराधकत्वादिति // 115|| वुड्डाणं तरुणाणं, रत्ति अजा कहेइ जा धम्म। सा गणिणी गुणसायर ! पडिणीया होइ गच्छस्स // 116|| वृद्धानां स्थविराणां तरुणानां यूनां, पुरुषाणां (रत्तिं ति) सप्तम्या द्वितीया / 8 / 3 / 137 / इति प्राकृतसूत्रेण सप्तमीस्थाने द्वितीयाविधानात्। रात्रौ या आर्या गणिनी (धम्मं ति) धर्मकथां कथयति, उपलक्षणाद् दिवसेऽपि या केवल पुरुषाणां धर्मकथां कथयति, हे गुणसागर ! हे इन्द्रभूते ! सा गणिनी गच्छस्य प्रत्यनीका भवति। अत्र च गणिनीग्रहणेन शेषसाध्वीनामपि तथाविधाने प्रत्यनीकत्वमवसेयमिति॥११६|| __अथ यथा श्रमणीभिर्गच्छस्य प्रधानत्वं - स्यात्, तथा दर्शयतिजत्थ य समणीणमसंखडाइँ गच्छम्मि नेव जायंति। तं गच्छं गच्छवरं, गिहत्थमासाउ नो जत्थ // 117 // यत्र च गणे श्रमणीनां परस्परम् (असंखडानि) कलहा नैव जायन्ते नैवोत्पद्यन्ते, तथा यत्र गणे गृहस्थानां भाषाः 'मामा आई बाप भाई' इत्यादिका अथवा गृहस्थैः सह सावद्यभाषा गृहस्थभाषास्ता नोच्यन्ते, सगच्छः गच्छवरः सकलगच्छप्रधानः स्यादिति।।११७।। अथ स्वच्छन्दाः श्रमण्यो यत् प्रकुर्वन्ति, तद् गाथापञ्चकेन प्रकटयतिजो जत्तो वा जाओ, नाऽऽलोअइ दिवसपक्खिअंवा वि। सच्छन्दा समणीओ, मयहरिआएन ठायंति॥११८|| यो यावान् वा अतिचार इति शेषः / जातः उत्पन्नः, तं तथा दैवसिकं पाक्षिकं वा अपिशब्दाच्चतुर्मासिकं सांवत्सरिकं वाऽतीचारं नाऽऽलोचयन्ति। अत्र वचनव्यत्ययः प्राकृतत्वात् / स्वेच्छाचारिण्यः श्रमण्यः,तथा महत्तरिकाया साध्व्या आज्ञायामिति शेषः / न तिष्ठन्ति इति !,118|| बिंटलियाणि पउंजति, गिलाणसेहीण मेव तप्पंति। अणगाढे आगाढं, करंति आगाढि अणगाढं॥११६॥ बिण्टलिकानि निमित्तादीनि / बिण्टलं निमित्तादीत्योपनियुक्ति वृत्त्यादौ व्याख्यानात् / तानि प्रयुञ्जते / अत्रापि वचनव्यत्ययः प्राकृतत्वादेव / तथा ग्लानाश्च रोगिण्यः शैक्ष्यश्च नवदीक्षिता इति द्वन्द्वः। अतस्ता नैव तर्पयन्ति औषधभेषजवस्त्रपात्रज्ञानदानादिना नैव प्रीणयन्तीत्यर्थः। अत्र सूत्रे क्वचिद् द्वितीयादेः।८।३।१३४। इति प्राकृतसूत्रेण द्वितीयास्थाने षष्ठी। यथा- ''सीमाधरस्स वंदेत्ति' तथा आगाढमवश्यकर्त्तव्यं ग्लानप्रतिजागरणादिकं, न आगाढं. अनागाढं तस्मिन् अनागाढे, कार्य इति शेषः / आगाढमवश्यकर्त्तव्यमिति कृत्वा कुर्वन्तीत्यर्थः / तथा आगाढे ऽवश्यकर्त्तव्ये कार्ये ऽनागाद कार्य , येन कृतेन विनाऽपि सरति तत्कायं कुर्वन्ती Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजा 221 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अजा त्यर्थः / अथवाअनागाढयोगानुष्ठाने वर्तमाने आगाढयोगानुष्ठानं कुर्वन्ति, तथा आगाढयोगानुष्ठानेऽनागाढयोगानुष्ठानं कुर्वन्ति, स्वच्छन्दाः श्रमण्य इति कर्तृपदं पूर्वगाथात आकर्षणीयम् / एवमग्रे तनगाथात्रिकेऽपीति // 11 // अजयाए पकुवंति, पाहुणगाण अवच्छला। चित्तलयाणि असेवंत्ति, चित्ता रयहरणे तहा॥१२०।। अयतनया ईयद्यिशोधनेन प्रकुर्वन्ति गमनादिकमिति शेषः / तथा प्राघूर्णकानां ग्रामान्तराद्यागतसाध्वीनामवत्सला निर्दोषिशुभान्नपानादिना भक्तिं न कुर्वन्तीत्यर्थः / तथा चित्रलानि, सूत्रे च कप्रत्ययः स्वार्थिकः, प्राकृतलक्षणवशात् / चकारः समुच्चये। विचित्राणि वस्त्राणि इति शेषः / सेवन्ते परिदधति, तथा चित्राणि पञ्चवर्णगुल्लादिरचनोपेतानिरजोहरणानि सेवन्तेधारयन्ति। स्वच्छन्दाः श्रमण्य इति, विषमाक्षरेति गाथाच्छन्दः॥१२०|| गइविन्भमाइएहिं अगार-विगार तह पयासंति। जह वुड्डगाण मोहो, समुईरइ किं तु तरुणाणं? // 121 // स्वच्छन्दाः श्रमण्यो गति विभ्रमादि (अगारविगार त्ति) अत्र विभक्तिलोपः प्राकृतत्वात्। तत आकारं मुखनयनस्तनाद्याकृति, विकारं च मुखनयनादिविकृति, यद्वा- आकारस्य स्वाभावि-काकृतेर्विकारो विकृतिस्तं तथा प्रकाशयन्ति प्रकटयन्ति यथा वृद्धानाम्, अपेर्गम्यमानत्वात् स्थविराणामपि, मोहः कामानुरागः, समुदीर्यते समुत्पद्यते, किं पुनस्तरुणानाम् ? तेषां सुतरां समुत्पद्यत एवेत्यर्थः / तुः पुनरर्थे / / 121 // बहुसो उच्छालंती, मुहनयणे हत्थपायकक्खाओ। गिण्हेइ रागमंडल, सोइंदिअ तह य कव्वढे॥१२२।। मुखनयनानि हस्तपादकक्षाश्च बहुशो वारंवारं उच्छालयन्तिस्वछन्दाः श्रमण्यः, तथा रागमण्डलं वसन्तादिरागसमूह अग्रेतनं 'तह यत्ति' पदस्य 'गिण्हेइ' इतिपदेन सह संबन्धात् (तह य गिण्हेइ त्ति) तथैव गृह्णन्ति तथैव कुर्वन्तीत्यर्थः / यथा (कवढे त्ति) कल्पस्थाः समयपरिभाषया बालकास्तेषामपि श्रोत्रेन्द्रियं श्रवणेन्द्रियम्, "गिण्हेइ' इति क्रियाया अत्रापि संबन्धाद् गृह्णन्ति हरन्तीत्यर्थः / अथवा कारणे कार्योपचारात् रागो रागोत्पत्तिहेतुर्वस्तु,यथा- मुखे शृङ्गारगीतादि, नयनेऽञ्जनादि, मस्तके सीमन्तादि, ललाटे तिलकादि, कण्ठे कुसुममालादि, अधरे ताम्बूलरागादि, शरीरे चन्दनलेपादि, तस्य मण्डलं समूह तथा गृह्णन्ति यथा बालानामपि श्रोत्रेन्द्रियमुपलक्षणत्वादन्यदिन्द्रियचतुष्कं मनश्च गृह्णन्ति हरन्ति / अत्रोत्तराद्धे पाठान्तरम्। यथा- गेण्हण रामण मंडण, भोयंति व ताउ कव्वट्ठे / अस्याऽर्थः- गृहस्थबालकानां ग्रहणं कुर्वन्ति, रामणं मञ्चाक्रीडनं, मण्डनं वा प्रसाधनम्, यदि वा ताः कल्पस्थान गृहस्थबालकान् भोजयन्ति। अत्रापिगाथायां विभक्तिलोपविभक्तिव्यत्यवचनव्यत्ययाः प्राकृतत्वादेवेति॥१२२।। अथ साध्वीनांशयनविधिं दर्शयन्नाहजत्थ य थेरी तरुणी, थेरी तरुणी य अंतरे सुयई। गोअम ! तं गच्छवरं, वरनाणचरित्तआहारं / / 123 / / यत्र च गणे स्थविरा, ततस्तरुणी, पुनः स्थविरा, ततस्तरुणीत्येवमन्तरिताः साध्व्यः स्वपन्तीतिभावार्थः। तरुणीनां निरन्तर-शयने हि परस्परजाकरस्तनादिस्पर्शनेन पूर्वक्रीडितस्मरणा - दिदोषः स्यादतःस्थविरान्तरिताएव ताःशेरते। हे गौतम! वरज्ञानचारित्राऽऽधारं | तं गच्छवरं जानीहीति // 123 // अथ या आर्या न भवन्ति, ता गाथात्रयेण दर्शयतिधोअंतिकंठिआओ,पोअंतीतहयदितिपोत्ताणि। गिहिकञ्जचिंतगाओ,नहुअञ्जागोअमा!ताओ॥१२४|| कण्ठिका गलप्रदेशान् धावन्ति नीरेण क्षालयन्ति, तथा (पोअंतित्ति) मुक्ताफलविद्रुमादीनि प्रोतयन्ति, गृहस्थानामिति गम्यते / तथा च (पोत्ताणि त्ति) बालकाद्यर्थं वस्त्राणि ददति, चकारादीषद् धजटिकादिकमपि ददति। अथवा 'पोत्ताणि त्ति' जलाद्रीकृत-वस्त्राणि ददति, मलस्फोटनाय शरीरे घर्षयन्तीत्यर्थः। तथा गृहिकार्यचिन्तिका अगारकृत्यकारणतत्पराः, हे इन्द्रभूते ! ता आर्या 'नहु' नैव भवन्तीति गाथार्थः / / 124|| खरघोडाइट्ठाणे, वयंति ते वा वि तत्थ वचंति। वेसत्थीसंसग्गी, उवस्सयाओ समीवम्मि॥१२५|| खरा गर्दभाः, घोटकास्तुरङ्गमाः, आदिशब्दाद्, हस्त्यादयः, तेषा स्थाने या व्रजन्ति / उक्तं च व्यवहारभाष्यसप्तमोद्देशके "तह चेव हत्थिसाला, घोडगसालानचेव आसन्ना।जंतितहजंतसाला, कोहीयत्त चकुव्वन्ति" ||1|| अथवा (खर ति) खरका दासाः,घोटा भट्टाः, अयं चानयो: शब्दयोरर्थः, आदिशब्दात्द्यूतकारादयः, तेषां स्थानेव्रजन्ति, ते वा गर्दभाश्चादयो दास-भट्टादयो वा, तत्राऽऽर्यिकोपाश्रये व्रजन्ति समायान्तीत्यर्थः / श्री- व्यवहारभाष्यसप्तमोद्देशके त्विदं प्रथमपदस्य पाठान्तरम्-'थलिघोडाइट्ठाणे त्ति' तत्र स्थाल्या देवद्रोण्यः, तत्र घोटा डिङ्गराः, अत्रादिशब्दस्तेषामेव देवडिङ्गराणामनेकभेदख्यापनार्थः तेषां स्थाने व्रजन्ति। तथा स्थलीघोटादेवडिङ्गरापरपर्यायास्त-त्रार्यिकोपाश्रये व्रजन्ति / तथा वेश्यास्त्रीसंसर्गी पुमान् सदैव यासां समीपे वसति, यदि वा वेश्यागृहसमीपे यासामुपाश्रयः, ता आर्यिका न भवन्तीति शेषः॥१२५॥ सज्झायमुक्कजोगा, धम्मकहाविकहपेसण गिहीणं। गिहिनिस्सिजं वाहिंति संथवं तह करतीओ।।१२६|| स्वाध्यायेन मुक्तो योगो व्यापारो यासां ताः स्वाध्यायमुक्त-योगाः / 'छक्कायजोग त्ति' पाठे तु षट्कायेषु मुक्तो योगो यतनालक्षणो व्यापारो याभिस्ताः षट्कायमुक्तयोगास्तथाभूताः सत्योगृहिणा धर्मकथानामाख्याने, विकथानां च स्त्रीकथादीनां करणे, प्रेषणे प्रेरणेचनानारूपे गृहिणामुक्ताः। तथा या गृहिनिषद्यां वाधन्ते गृहे निषद्यामुपविशन्तीत्यर्थः / तथा याः संस्तवं परिचयं गृहस्थैः सह कुर्वन्त्यो वर्तन्ते, ताः साध्व्यो न भवन्तीति / / 126 / / ग०३ अधिo/ अथ गाथात्रयेण वचनगुप्तिमाश्रित्य साध्व्याचारं दर्शयतिजत्थुत्तरपडिउत्तर, वुड्ढिआ अजा उ साहुणा सद्धिं / पलवंति सुरुट्ठा वा, गोयम! किं तेण गच्छेण ? ||126|| यत्र गणे आर्या साधुना सार्द्धमुत्तरं प्रत्युत्तरं वा (बुड्ढिअत्ति) वृद्धा अपि ताः, अप्यर्थस्यात्र योजनात्, तथा सुरुष्टा अपि भृशंसरोषा अपिप्रलपन्ति प्रकर्षण वदन्ति। हे गौतम! तेन गच्छेन किम् ?,न किमपीत्यर्थः / / 126 / / जत्थ य गच्छे गोयम! उप्पण्णे कारणम्मि अजाओ। गणिणीपिद्विठिआओ, मासंती मउअसद्देण॥१३०॥ हे गौतम ! यत्र च गच्छे ज्ञानादिकारणे उत्पन्ने (अज्जाओ त्ति) आर्याः साध्व्यो गणिनीपृष्टिस्थिता मृदुकशब्देन भाषन्ते, स गच्छः स्यादिति शेषः॥१३०॥ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्या 222 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 आर्या माए दुहियाए, सुण्हाए अहव भइणिमाईणं। जत्थ न अज्जा अक्खइ, गुत्तिविभेयं तयं गच्छं / / 131 / / यत्र गच्छे आर्या मातुः दुहितुः स्नुषाया अथवा भगिन्यादीनां संबन्धि ) (गुत्ति विभेयं ति) गुप्तेर्वचनगुप्ते दो भङ्गो यस्मात्तद् गुप्तिविभेदम्, नात्रकोद्घाटकमित्यर्थः। वचनमिति शेषः / नाख्याति। इदमुक्तं भवति - हे मातः ! हे स्नुषे ! हे भगिनि ! इत्यदिनात्रकोद्घाटकवचनेन मात्रादीनालापयति। यदुक्तं श्रीदशवैकालिके सप्तमाऽध्ययने - "अज्जिए पजिए वा वि, अम्मो माउसिय त्ति अ। पिउस्सिए भायणिज्जत्ति, धूए नत्तुणियत्तिय" / / 15 / / तथा - "अज्जए पज्जए वा वि, बप्पचुल्ल पिउत्ति अ। माउला भायणिज्ज त्ति, पुत्ते नत्तुणियत्ति य॥१८॥ अथवा ममेयं माता ममेयं दुहितेत्यादि, अहमस्या वा माता अहमस्या वा दुहिता अहमस्या वा वधूटीत्यादि वा नात्रकोद्घाटनवचनं कारणं विना न जल्पति / अथवा मात्रादीनामपि 'गुत्तिविभेयं ति' गोपनीयमर्थं न कथयति, स गच्छः स्यादिति॥१३१|| अथ गाथात्रयेण साध्वीस्वरूपवक्तव्यताशेषमाहदंसणियारं कुणई, चरित्तनासं जणेइ मिच्छत्तं / दुण्ण वि वग्गाणऽज्जा, विहारभेयं करेमाणा ||132 // दर्शनातिचारं करोति, चारित्रनाशं, मिथ्यात्वं च जनयति, द्वयोरपि वर्गयोः साधुसाध्वीरूपयोः, आर्याः किं कुर्वाणाः?, विहारं, आगमोक्तविधिना विचरणम्, तस्य भेदो मर्यादोल्लङ्घनम्, तं कुर्वाणाः / / 13 / / ग० 3 अधि० आर्याणां भाषणप्रकार: - तम्मूलं संसार, जणेइ अजा वि गोयमा ! नूणं। तम्हा धम्मुवएस, मुत्तुं अन्नं न भासिज्जा / / 133|| तद्धर्मोपदेशव्यतिरिक्तं वाक्यं, मूलं कारणं यत्र संसारजनने तत्तन्मूलं, तद्यथा स्यात्तथा हे गौतम ! आर्याऽपि साध्व्यपि नूनं निश्चितं संसार जनयति विवर्द्धयति, यस्मात् इति शेषः / तस्माद्धर्मोपदेशं मुक्त्वा अन्यदर्थमार्या न भाषेत॥१३३।। मासे मासे ऊ जा, अजा एगसित्थेण पारए कलहे। गिहत्थभासाहिं, सव्वं तीइ निरत्थयं // 13 // "मासे मासे ऊ' इत्यत्र "क्रियामध्येऽध्वकाले पञ्चमीच" इति सूत्रेण सप्तमी। वीप्सायां द्विवचनम् / तुश्चैवकारार्थः / ततश्च मासे मासे एव न त्वर्द्धमासादौ या आर्या साध्वी एकसिक्थेन एककणेन पारयेत पारणकं कुर्यात्। (कलहेत्ति) कलहयेच कलहं कुर्यात् गृहस्थभाषाभिर्मर्मोद्घाटनशापप्रदानजकारमकारादिवचनै रित्यर्थः / अथवा कलहे राटौ गृहस्थभाषाभिः क्रियमाणे सतीति शेषः। सर्वं तपः प्रभृति धर्मानुष्ठानं तस्याः निरर्थक निष्फलमिति / विषमाक्षरेतिगाथाच्छन्दः।।१३४॥ ग० 3 अधिo अन्यच्च साध्वीनामनाचरितम् - जत्थ य तेरसहत्थे, अजाओ परिहरंति नाणधरे। मणसा सुयदेवमिव, सव्वमवित्थी परिहरंति॥ इतिहासखेड्डुकंदप्पणाहवादणं कीरए जत्थ। धावणदूवणलंघणमयारजयारउचरणं // . जत्थित्थीकरफरिसं, अंतरियं कारणे वि उप्पन्ने / दिट्ठीविसदित्तग्गी, विसं व वज्जिज्जइस गच्छे॥ जत्थित्थीकरफरिसं, लिंगी अरहा विसयमवि करेजा। तं निच्छयओ गोयम ! जाणिज्जा मूलगुणवाहा // मूलगुणेहि उ खलियं, बहुगुणकलियं पि लद्धिसंपन्नं / उत्तमकुले वि जायं, निद्धामिन्जइ जहि तहिं गच्छं / / जत्थ हिरण्णसुवण्णे, जणधन्ने कंसदोसफलिहाणं / सयणाण आसणाण य, नयपरिभोगो तयं गच्छं। जत्थ हिरण्णसुवण्णं, हत्थेण परागयं पिनोच्छिप्पे / कारणसमप्पियं पिहु, खणानिमिसद्धं पितं गच्छं / / दुद्धरबंभवयपालण? अजाण चवलचित्ताणं। सतसहस्सं परिहरेज ण वी जत्थत्थि तं गच्छं / / जत्थुत्तरचडपडिउत्तरेहि अजाउसाहुणा सद्धिं / पलवंति सकुद्धा वि य, गोयम ! किं तेण गच्छेण? || जत्थ य गोयम ! बहुविप्पकल्लोलचंचलमणाणं / अज्जाणमणुट्ठिजइ, भणियं तं के रिसं गच्छं? / / जत्थ क्खंगसरीरो, साहू अणसाहु णिच्च हत्थसया। उर्ल्ड गच्छेज्ज बहि, गोयम ! गच्छम्मि का मेरा? || जत्थ य अजाहि समं, संलावुल्लावमाइ ववहारं। मोत्तुं धम्मुवएस, गोयम ! तं के रिसं गच्छं ? | भवमणियत्थ विहार, णिययविहारं ण ताव साहूणं / कारणनीयावासं, जो सेवे तस्स का बत्ता? || निम्मम निरहंकारे, उज्जुत्ते नाणदंसणचरित्ते। सयलारंभविमुक्के, अप्पडिबद्धे सदेहे वि।। आयारमायरंते, एगखेत्ते वि गोयमा ! मुणिणो। वाससयं पि वसंते, गीयत्थाराहगे भणिए। जत्थ समुद्देसकाले, साहूणं मंडलीए अजाओ। गोयम! उति पादे, इत्थीरजंन तं गच्छं / / जत्थ य हत्थसए वि य, रयणीवारं चउण्हमूणाओ। उड्ढ दसण्हमसइं, करेत्ति अज्जाउ णो तयं गच्छं / अववाएण विकारणवसेण अज्जा चउण्हमूणाओ। गोयम ! वीपरिसक्कंति जत्थ तं केरिसं गच्छं ? | जत्थ य गोयम ! साहू, अजाहि समं पहम्मि अठूण। अववाएण वि गच्छेज्ज तत्थ गच्छम्मि का मेरा ? || जत्थ य तिसट्ठिभेयं, चक्खूरागग्गुदीरणिं साहू। अजाओ निरिक्खेज्जा, तं गोयम ! केरिसं गच्छं? // जत्थ य अन्जालद्धं, पडिग्गहमादि विविह उवगरणं / परिभुजइ साहूहि, तं गोयम ! केरिसं गच्छं? / / अइ दुलहं भेसज्जं, बलबुद्धिविवड्डणं वि पुहिकरं / अज्जालद्धं भुंजइ का मेरा तत्थ गच्छम्मि? || साऊण गइ सुकुमालियाए तह ससगभसगभइणीए। ताव न वीससियव्द,सेयट्ठी धम्मिओ जाय।। दढचारित्तं मोत्तुं, आयरियं मयहरं च गुणरासिं। अजा वजावेई,तं अणगारं न तं गच्छं। घणगजिय कुहुकुहुय, बिजुदुगेज मूढहिययाओ। होज वावारियाओ, इत्थीरजं न तं गच्छं। Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्जा अजालद्ध २२३-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 पञ्चक्खा सुयदेवी, ते च लद्धीइ सुराहि अणुया वि। जत्थ एरिसए कुज्जा, इत्थीरजंन तं गच्छं॥ गोयम! पंचमहय्वय-गुत्तीणं दसविहस्स धम्मस्स। एक कह वि खलिज्जइ, इत्थी रख्खं न तं गच्छं। दिणदिक्खियस्स दमगस्स अभिमुहा अजवंदणा अज्जा। निच्छद आसणगहणं, सो विणओ सव्वअजाणं / / वाससयदिक्खियाए, अजाए अजदिक्खिओ साहू। भत्तिभरनिब्भराए, वंदणविणएण सो पुज्जो / महा०५ अ०। (उपध्यादिकम् 'उवहि' आदिशब्देषु द्वि०भा०१०६०पृष्ठे द्रष्टव्यम्) नि०चू०। ग01 अज्जाकप्प-पुं०(आर्याकल्प) आर्याणामेव साध्वीनामेव कल्पते इत्यार्याकल्पः / साध्व्यानीताऽऽहारे, ग01 अथाऽऽर्याव्यतिकरण गच्छस्वरूपमेव गाथादशकेनाहजत्थ य अजाकप्पो, पाणच्चाए वि रोरदुभिक्खे। न य परिभुजइ सहसा, गोयम ! गच्छं तयं भणियं // 61 / / यत्र च गणे आर्याणामेव साध्वीनामेव कल्पते इत्यार्याकल्पः, साध्व्यानीताहार इत्यर्थः / प्राणत्यागेऽपि मरणागमनेऽपि, रोरदुर्भिक्ष दारुणदुष्काले,न च नैव, परिभुज्यते साधुभिरिति शेषः / कथम् ?, सहसेति। अविमृश्य संयमस्य विराधनाविराधने, यतः सर्वत्र संयममेव रक्षेत्, संयमे च तिष्ठति आत्मानमेव रक्षेत्, आत्मानं च रक्षन् हिंसादिदोषाद मुच्यते। मुक्तस्य च प्रायश्चितप्रतिपत्त्या विशुद्धिः स्यात्। तेन च हिंसादिदोषप्रतिसेवनकालेऽप्यविरतिः, तस्याशये विशुद्धतया विशुद्धपरिणामत्वात् / उक्तं चौघनियुक्तौ गाथायाम्-'सव्वत्थ संजमं संजमाउ अप्पाणमेव रक्खंता / मुच्चइ वायाओ पुणो विसोही न याविरई" // 1 // ततो विमृश्य परिभुज्यतेऽपि अन्निकापुत्राचार्य रिव / यदाह-'अन्नियपुत्तायरिओ, भत्तं पाणंच पुप्फचूलाए। उवणीयं भुंजंतो, बंभवयेण सो अलंगज्जा' // 1 // हे गौतम! स गच्छो भणितः। सूत्रेनपुंसकत्वं प्राकृतत्वादिति // 61 / / ग०२ अधि०। (अन्निकापुत्राचार्य- संबन्धश्च 'अण्णिआउत्त' शब्दे वक्ष्यते) अजाणंदिल-पुं०(आर्यनन्दिल) आर्यमङ्गोः शिष्ये आर्य-नागहस्तिगुरौ, नं०। (व्याख्याऽस्य 'अज्जणंदिल' शब्दे द्रष्टव्या) अज्जालद्ध-त्रि०(आर्यालब्ध) साध्वी प्राप्ते, ग०२ अधि० जत्थ य अज्जालद्धं, पडिाहमाई वि विविहउवगरणं / परिभुजइ साहूहि, तं गोयम ! केरिसं गच्छं? ||1|| यत्रच गणे आर्यालब्धं साध्वीप्राप्तं पतद्ग्रहादिकं विविध-मुपकरणमपि किं पुनराहारादिकमित्यपिशब्दार्थः / कारणं विना साधुभिः परिभुज्यते, हे गौतम ! स कीदृशो गच्छः ?, न कीदृशोऽपि / नन्यत्राऽऽर्यालब्धत्वं पतद्ग्रहाद्युपकरणस्य कथं संभवति?, आर्याणां गृहस्थसकाशात् स्वयं वस्त्रपात्रस्यैव ग्रहणनिषेधात्, ग्रहणे च प्रायश्चित्तम्, अनेके दोषाश्च / उक्तं च यतिजीतकल्पप्रकरणे - 'गुरुउवहिअ पडिलेहे, छप्पइयअसोहिकडितताहणे। लहुगा गुरुगजाणं, सयमेव वत्थपायगिहे'' // 1 // अस्याः किं चिदून-पश्चार्द्धवृत्तिलेशो यथा- आर्याणां संयतीनां गृहस्थसकाशात् स्वयमेव वस्त्रपात्रग्रहणे चतुर्गुरुकाः / यतः संयतीनां गृहस्थेभ्यः स्वयमेव वस्त्रादिग्रहणेऽनेकेदोषाः संभवन्ति / तथाहि-संयतीं गृहस्थाद्वस्त्राणि गृह्णन्तीं दृष्ट्वा कोऽप्यभि-नवश्राद्धो मिथ्यात्वं गच्छेत्, निर्ग्रन्थोऽपि भाटीं गृह्णातीति शङ्कते वा / गृहस्थो वा वस्त्राणि दत्त्वा मैथुनमवभाषेत, प्रतिषिद्धे चैषामेव वस्त्राणि गृहीत्वोक्तं न करोतीत्युड्डाहि कुर्यात्। स्त्रीचस्वभावेनाऽल्पसत्त्वा, ततोयेनतेन वा वस्त्रादिनाऽल्पेनापि लोभेन लाभिता चाऽकार्यमपि करोति, बहुमोहाच स्त्री, ततः पुरुषः सह संलापं कुर्वन्त्या वस्त्राणि गृहन्त्याश्च तस्याः पुरुषसंपर्कतो मोहोदीप्यते, उदाररूपां वा संयतीं दृष्ट्वा कार्मणादिना कश्चिद्वशीकुर्यात् / वशीकृताच चारित्रविराधनां करोति, तस्मात् निर्ग्रन्थीभिर्गृहस्थेभ्यः स्वयं वस्त्राणि न ग्राह्याणि, किन्तु तानि गणधरेण दातव्यानि / तत्राऽयं विधिःसंयतीप्रायोग्यमुपधि-मुत्पाद्य सप्तदिनानि स्थापयति, ततः कल्पं कृत्वा स्थविरं स्थविरांवा परिधापयति, यदि नाऽस्ति विकारस्ततः सुन्दरम् / एवं परीक्षामकृत्वा यदि ददाति, तदा चतुर्गुरुकम् / तं च परीक्षितमुपधिमाचार्यो गणिन्याः प्रयच्छति, गणिनी च संयतीनां विधिना ददाति / अथाऽऽचार्यः स्वयं न तासां ददाति तदा चतुर्गुरुकम्, यतः काचित् मन्दधर्मा भणेदस्याश्चोत्तरं दत्तं तेनैषाऽस्येष्टा यौवनस्था च एवमस्थाने स्थापयति / तस्मादाचार्येण प्रवर्त्तिन्या एव हस्ते दातव्यमित्यादि / एतच निशीथपञ्चदशोद्देशकचूर्णावपि सविस्तरमस्तीति / अत्रोच्यते- यदुक्तं भवता,तत् सत्यं, परं संभत्येव, श्रमणाभावादी आर्यालब्धत्वमुपकरणस्य श्रमणासभावादी निन्थीनामपि स्थविरादिक्रमेण स्वयमेव वस्त्रग्रहणस्यानुज्ञानात्। उक्तंच निशीथपञ्चदशोद्देशकचूविव- यथा चोयग आह- यद्येवं, सूत्रस्य नैरर्थक्यं प्रसज्यते। आयरिओ आहअसइ समणाण चोअग!, जायंते निमंतणे तह चेव। जायंति थेरिय सती, व मीसगा मोत्तुमे ठाणे / / 1 / / हे चोदग ! समणाणं असतिथेरियाओ वत्थे जायंते, निमंतणे वत्थं वा गेहंति, जहा साहू तहा ताओ वि, थेरीणं असति तरुणी व त्ति मिस्साउ जायंति इमे ठाणे मोत्तुमित्यादि। अत्र वस्त्रग्रहणवत् पात्रग्रहणमनुक्तमपि श्रमणाभावादावनुज्ञातं संभाव्यते // 1 // अइदुल्लह-भेसजं, बलबुद्धिविवडणं पिपुष्टिकर। अज्जालद्धं मुंजइ, का मेरा तत्थ गच्छम्मि? ||2|| यत्र गणे, अपिशब्दस्य प्रतिविशेषणं संबन्धात् अतिदुर्लभमपि अतिशयेन दुष्प्राप्यमपि। अत्र विभक्तिलोपः प्राकृतत्वात्। समासो वा भैषज्यशब्देन सह। तथा बलबुद्धिविवर्धनमपि, तत्र बलं शरीरसामर्थ्य, बुद्धिर्मेधा, तथा पुष्टिकरमपि शरीरोपचयकार्यपि, भैषज्यमौषधमार्यालब्धं साध्व्यानीतं भुज्यते, साधुभिरिति शेषः / हे गौतम ! (का मेरा) का मर्यादा तत्र गच्छे? न काचिदपीत्यर्थः। मेरेति मर्यादावाची देशीशब्दः // 6 // एगो एगिथिए सद्धिं,जत्थ चिट्ठिल गोअमा!। संजईए विसेसेण, निमेरं तं तु भासिमो // 13 // एक एकाकी साधुरेकाकिन्या स्त्रिया सार्ध हे गौतम ! यत्र तिष्ठेत, तं गच्छं निर्मेरं निर्मर्यादं भाषामहे वयम् / संयत्या च एकाकिन्या एकाकी यत्र साधुस्तिष्ठेत्, तं तु गच्छं विशेषेण निर्भर भाषामहे इति। अत्र एकाकिन्या स्त्रिया साध्व्या च सार्धमेकाकिनः साधोर्यदेकर स्थानवर्जनं तत्, तेषामे कान्ते परस्परमङ्गप्रत्यङ्गादिदर्शनाऽऽलापादिकरणतो दोषोत्पत्तेः संभवात् / Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजालद्ध 224 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अजुणग किंच- प्रतीतमेकान्तेऽपि श्रेणिकचेल्लणयोः रूपादिदर्शनेन श्रीमन्महावीरसाधुसाध्वीनां निदानकरणादिदोषोत्पत्तिः संजातेति श्रीदशाश्रुतस्कन्धे तथोपलम्भादिति / अनुष्टुप्छन्दः / / 63 / / ग०२ अधि०। महाला आव०। ('अण्णिआउत्त' शब्दे तत्कथा वक्ष्यते) अज्जावेयव्व-त्रि०(आज्ञापयितव्य) आज्ञाप्ये, समाज्ञापयि-तव्ये, "अहं णं अजावेयव्यो अण्णे अजावेयव्या''। सूत्र०२ श्रु०२ अ०। अज्जासंसग्गी-स्त्री०(आर्यासंसर्गी) साध्वीपरिचये, ग01 आर्यासंसर्गवर्जने कारणमाह - वजेह अप्पमत्ता, अज्जासंसम्गि अग्गिविससरिसी। अजाणुचरो साहू, लहइ अकित्ति खु अचिरेण / / 63|| वर्जयत मुञ्चत, अप्रमत्ताः प्रमादवर्जिताः सन्तो भोः साधवः ! यूयम्, काः? आसिंसर्गीः साध्वीपरिचयान्। अत्र शसो लोपः प्राकृ-तत्वात्। उपसर्गेऽनिविषसदृशीरूपलक्षणत्वात् व्याघ्र-विषधरादिसदृशीश्च, खुर्यस्मादर्थे / ततोऽयमर्थः- यस्मात् कारणात् आर्यानुचरः साधुर्मुनिर्लभते प्राप्नोति अकीर्तिमसाधु-वादमचिरेण स्तोककालेनेति // 63 / / थेरस्स तवस्सिस्स, बहुस्सुअस्स व पमाणभूयस्स। अज्जासंसग्गीए, जणजपणयं हविजाहि॥६॥ स्थविरस्य वृद्धस्य तपस्विनो वा तपोयुक्तस्य बहुश्रुतस्य वाऽधीतबहागमस्य प्रमाणभूतस्य वा सर्वजनमान्यस्य एवंविध-स्याऽपि साधोः आर्यासंसर्या साध्वीपरिचयेन (जणजपणयंति) जनवचनीयता जनापवाद इत्यर्थः, भवेदिति // 64 // अथ यद्येवंविधस्याऽऽर्यासंसर्या जनापवादः स्यात्तर्हि एतद्द्वीपरीतस्य का कथेत्याहकिं पुण तरुणो अबहुस्सुअ न य विगिट्ठतवचरणो। अज्जासंसग्गीए, जणवंचणयं न पाविजा?||६|| तरुणो युवा अबहुश्रुतश्चागमपरिज्ञानरहितः, न चापि बहुविकृष्टतपश्चरणो न दशमादितपःकर्ता, एवंविधो मुनिरासिंसा जनवचनीयतां किं पुनर्न प्राप्नुयात् ?, अपितु प्राप्नुयादेवेत्यर्थः॥६५॥ ग०२ अधि०। अज्ञासाढ-पुं०(आषाढ) श्रीवीरसिद्ध चतुर्दशाधिक वर्ष - शतद्वयेऽतिक्रान्ते उत्पन्नाव्यक्तदृष्टीनां गुरौ, ते चाऽऽर्याषाढाभिधा आचार्याः श्वेताम्ब्यां नगर्या समवसृत्य तत्रैव हृदयशूलरोगतो मृत्वा सौधर्मे उपपद्य पुनः शरीरमधिष्ठाय कञ्चित्स्वशिष्यमाचार्य कृत्वा दिवंगता इति / तच्छिष्याश्चाव्यक्तदृष्टयोऽभवन् / आ० क० / उत्त०। आ०म०। ('अव्वत्तिय' शब्देऽस्य विस्तरः) अजिअ-त्रि०(अर्जित) उत्पादिते, उत्त०१ अ०। उपार्जिते, "धम्मजियं च ववहारं, बुद्धेहायरियं सया''। उत्त० 1 अ० सञ्चिते, "अट्ठविहं कम्ममूलं, बहुएहि भवेहि अज्जियं पावं''। संथा०। नि० चू०। उत्त०। अजिअलाभ-पुं०(आर्यिकालाभ) आर्यिकाभ्यो लाभ-आर्यिकालाभः / साध्व्यानीतवस्त्रपात्रादौ, आव०। अजिअलामे गिद्धा, सएण लाभेण जे असंतुट्ठा। भिक्खायरियाभग्गा, अण्णियपुत्तं ववइसंति।।११७॥ आर्यिकाभ्यो लाभः तस्मिन् गृद्धा आसक्ताः, स्वकीयेनात्मीयेन लाभेन ये असन्तुष्टा मन्दधर्मा भिक्षाचर्यया भग्नाः भिक्षाऽटनेन निर्विण्णा इत्यर्थः / ते हि सुसाधुना चोदिताः सन्तः अभक्ष्योऽयं तपस्विनामिति अन्निकापुत्रमाचार्या व्यपदिशन्त्यालम्बनत्वेन इति गाथार्थः / / 117 / / कथम् ?अन्नियपुत्तायरिओ, भत्तं पाणं च पुप्फचूलाए। उवणीयं भुजंतो, तेणेव भवे य अंतगडो॥११८|| अक्षरार्थों निगदसिद्धः / भावार्थस्तु कथानकादवसे यः (तच 'अन्नियाउत्त' शब्दे वक्ष्यते) तेन मन्दमतय इदमालम्बनं कुर्वन्तः सन्तः, इदमपरं नेक्षन्ते। किमत आह - गयसीसगणा ओमे, भिक्खायरिआ अपचलं थेरं। निगडंति सहो विसढो, अजिअलाभ गवसंता।।११।। गतः शिष्यगणोऽस्येति समासस्तम्, (ओमे) दुर्भिक्षे भिक्षा-चर्यायाम, (अपचलो) असमर्थः, भिक्षाचर्यायामपञ्चल असमर्थस्तं स्थविरं वृद्धमेवंगुणयुक्तं न गणयन्ति नालोचयन्ति, सहा विसढाः समर्थाः, अपिशब्दात् सहायादिगुणयुक्तत्वेऽपि शठमायाविन आर्यिकालाभं वेष गवेषयन्ति अन्वेषन्त इति गाथार्थः / / 116 // आव०३ अ०। अजिआ-स्त्री०(आर्यिका) मातुर्मातरि, दश० 7 अ०। पिता-मह्याम्, बृ० 1 उ०। ग० साध्व्यां च / "जानीते जिनवचनं, श्रद्धत्ते चार्यिकासकलम् / नास्यास्त्यसम्भवोऽस्या नादृष्ट विरोधगतिरस्ति" ||1|| ध०२ अधिo अजु-अव्य०(अद्य)अपभ्रंशे उकारान्तत्वम् / अस्मिन्नहनि, "विप्पिययारउ जइवि, पिउतो वि तं आणही अज्जु"। प्रा० अञ्जुण-पुं०(अर्जुन)अर्ज-उनन् / ककुभपर्याये, औ०। बहुबीजकवृक्षभेदे, प्रज्ञा०१ पदका ज्ञाता राणतत्पुष्पे, तच सुरभि भवति / ज्ञा०१ श्रु०६ अ० तृणविशेषे, प्रज्ञा०१पद०। आचा०ा स्वनामख्याते पाण्डुरस्वर्णे, जं० 3 वक्ष०। गोशालस्य मङ्कलिपुत्रस्य षष्ठे गौतमपुत्रे दिक्चरे, भ० 15 श० 1 उ०। अजुणस्स गोयमपुत्तस्स सरीरगं विप्पजहामि / भ०१४ श०१ उ०। हैहयवंश्ये कृतवीर्याऽपत्ये नृपभेदे, भूतावमानी हैहयचा ऽर्जुनः / ध० 1 अधि०। पाण्डुराजस्य तृतीये आत्मजे,ज्ञा०१श्रु०१६ अ० (विवाहादि चास्य दोवइ' शब्दे द्रष्टव्यम) "अजुणगुटुं व तस्स जाणइ"1 उपा० 2 अ०। अङ्गुणग-पुं०(अर्जुनक) मालाकारभेदे, अन्त०। तत्कथा चैवम् तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णयरे गुणसिलए चेइए, सेणिए राया, चेल्लणा देवी, तत्थ णं रायगिहे णयरे अजुणए नामा मालागारे परिवसति / अड्डे जाव अपरिभूते। तस्स णं अज्जुणयस्स मालागारस्स बंधुमतीनामं मारिया होत्था / सुमालस्स तस्स णं अज्जुणयस्स मालागारस्स रायगिहस्स नगरस्स बहिया / एत्थ णं महं एगे पुप्फारामे होत्था, किण्हे जाव निकुरुंबभूते दसद्धवण्णकुसुमेइ पासा ते तस्स णं पुप्फारामस्स अदूरसामंते एत्थ णं अञ्जुणयस्स मालागारस्स अज्जयपज्जयपिइपञ्जयागते अणेगकुलपरीसं परंपरागते मोगरपाणिस्स जक्खाययणे होत्था, पोराणे दिव्वे सच्चे सच्चवातिए जहा पुण्णभद्दे / तत्थ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजुणग 225 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अज्जुणग णं मोग्गरपाणिस्स एगं महं पलसहस्सनिप्पण्णअओमयमोग्गरं गहाय चिट्ठति, तस्सेव अजुणए मालागारे बालप्पमिति चेव मोग्गरपाणिजक्खस्स भत्तेयावि होत्था, कल्लाकल्लिं पच्छियपडिया ति गेण्हावेति, गेण्हावेतित्ता रायगिहातो जगराओ पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमइत्ता जेणेव पुप्फारामे उज्जाणे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छतित्ता पुप्फचयं करेति, करेतित्ता अग्गाइं वराइं पुप्फाइ गहाय जेणेव मोग्गरपाणिस्स जक्खस्स जक्खायतणे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छतित्ता मोग्गरपाणिजक्खस्स महरिह पुप्फऽचणं करेति, करेतित्ता जाणुपाते पडिते पणामं करेति, करेतित्ता ततो पच्छा रायमगंसि वित्तिं कप्पेमाणे विहरति, तत्थ णं रायगिहे नगरे ललितनाम गोट्ठी परिवसति, अड्डा जाव अपरिभुया जकयसुकया या वि होत्था / तं रायगिहे णयरे अण्णया कयाई पमोये घुट्टे यावि होत्था, तस्सेव अजुणए मालागारे कल्ल-पभुयतराएहिं पुप्फेहिं कन्जंमि त्ति कटु पघूसकालसमयंसि बंधुमतीए भारियाए सद्धिं पच्छिय पडियाई गेण्हति, गेण्हतित्ता सयाउ गिहातो पडि निक्खमति, पडिनिक्खमतित्ता रायगिहं णयरं मज्झं मज्झेणं निगच्छइ, निगच्छइत्ता जेणेव पुप्फारामे उज्जाणे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छतित्ता बंधुमतीए भारियाए सद्धिं पुप्फचयं करेति / तीसे ललियाए गोट्ठी, तत्थ गोहिल्ला पुरिसा जेणेव मोग्गरपणिस्स जक्खायतणे तेणेव उवागया अभिरममाणा चिट्ठति, तस्सेव अजुणए मालागारे बंधुमतीए भारियाए सद्धिं पुप्फचयं करेति, करेतित्ता पच्छीयं भरेति अग्गाई पुप्फाई मिहाइं जेणेव मोग्गरपाणिस्स जक्खस्स जक्खायअणे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छतित्ता ते छ गोट्ठील्ला पुरिसा अजुणए मालागारे बंधुमतीमारियाए सद्धिं एज्जमाणं पासंति, पासंतित्ता अण्णमण्णं एवं वयासी- एसणं देवाणुप्पिया ! अझुणमालागारे बंधुमतीए भारियाए सद्धिं हव्वमागच्छति। हव्वमागच्छतित्ता तं से यं खलु देवाणु प्पिय ! अहं अञ्जुणयं मालागारं अउडयबंधणयं करेति, करेतित्ता बंधुमतीए भारियाए सद्धिं विपुलाई भोगभोगाई मुंजमाणाणं विहरित्तए तिकट्ठ एयमद्वं अण्णमण्णस्स पडिसुणति, पडिसुणतित्ता कवाडंतरेसु निलुकंति, निचला निप्फंदा तुसिणिं एया पछन्ना चिटुंति, तस्से अजुणए मालागारे बंधुमतीए भारियाए सद्धिं जेणे व मोग्गरजक्खायतणे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छतित्ता आलोए पणामं करेति, करेतित्ता महरिहं पुप्फचणं करेति, जाणुपायं पणामं करेति, तते णं ते छ गोहिल्ला पुरिसा दवदव्वस्स कवाडंतरेहिंतो निग्गच्छंति, निग्गच्छंतित्ता अजुणयं मालागारं गेण्हंति, गेहतित्ता अवडगं बंधणं करेति, बंधुमतीमालागाराए सद्धिं विउलाई भोगभोगाइं मुंजमाणा विहरति, तस्स अजुणयस्स मालागारस्स अयं अप्पसत्थीए - एवं खलु अहं बालप्पमिति चेव मोग्गरपाणिस्स भगवतो कल्लाकल्लिं जाव कप्पेमाणे विहरामि, तं जयणं इह सण्णिहिते सुव्वत्तेणं एस कट्टे तते णं से मोग्गरपाणिजक्खे अजुणयस्स मालागारस्स अयमेयारूवं अवत्थियं जाव वियाणित्ता अजुणयस्स मालागारस्स सरीरयं अणुपविसति, अणुपविसतित्ता तडतडतडसंबद्धाइं छिंदति, छिंदतित्ता तं पलसहस्सनिप्फण्णं अउमयं मोग्गरं गेण्हति, ते इत्थी सत्तमे छ पुरिसे घाएइ / तस्से अजुणए मालागारे मोग्गरपाणिणा जक्खेण अणाइडे समाणे रायगिहस्स णगरस्स परिपेरंतेणं कल्लाकल्लिं छ इत्थिसत्तमे पुरिसे घायमाणे विहरति / तए णं रायगिहे णयरे सिंघाडग जाव महापहेसु बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खति०४। एवं खलु देवाणुप्पिय ! अङ्गुणए मालागारे मोग्गरपाणिणा अणाइटे समाणे रायगिहे णयरे बहिया छ इत्थिसत्तमे पुरिसे घायमाणे 2 विहरति / तते णं से सेणिए राया इमीसे कहाए लद्धटे समाणे कोडुबिए सद्दावेति, सद्दावेतित्ता एवं वयासी- एवं खलु देवाणुप्पिया! णं अजुणमालागारे जाव घाएमाणे विहरति, तंमा णं तुज्झे केइ कट्ठस्स वा तणस्स वा पाणियस्स वा पुप्फफलाणं वा अद्वाए संतिरं निग्गच्छमाणं तस्स सरीरयस्स वावत्ती भविस्सति, त्तिकट्टु दोचं पि तचं पि घोसणं घोसे-हत्ति, घोसणं घोसेहतित्ता खिप्पा मम एवं माणत्तियं पञ्चप्पिणहत्ति, तए णं कोडुंबिय जाव पञ्चपिणंति। तत्थ णं रायगिहे णगरे सुदंसणे नामे सेट्ठी परिवसति, अड्डे तस्से सुदंसणे समणोवासए यावि होत्था, अभिगयजीवाजीवे जाव विहरति / तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जाव समोसड्डेजाव विहरति,तं रायगिहे णयरे सिंघाडग०बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खति जाव किमंग ! पुण विपुलस्स अट्ठस्स गहणताए? ते तस्स सुदंसणस्स बहुजणस्स अंतिए एयम8 सुच्चा निसम्म अब्मत्थिते / एवं खलु समणे णं जाव विहरति, तं गच्छामि, णं वंदामि, एवं संपेहेति, संपेहेतित्ता जेणेव अम्मापियरोतेणेव उवागच्छति, उवागच्छतित्ता करयल० एवं वयासी- एवं खलु अम्मयाओ समणे जाव विहरति, तं गच्छामि णं समणं भगवं महावीरं वदामि, जाव पञ्जुवासामि। तते णं ते सुदंसणं सेट्ठी अम्मापियरो एव वयासी- एवं खलुपुत्ता अजुणए मालागारे जाव घाएमाणे विहरति, तं मा णं तुमं पुत्ता समणं भगवं महावीरं वंदंति, पजुवासंति, निग्गछाहि / मा णं तवसरीरस्स वावित्ति भविस्सति, तुमं णं इह गए चेव समणं भगवं महावीरं वंदाहि। तए णं से सुदंसणे सेट्ठी अम्मापियरो Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजुणग 226 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अजुणग एवं वयासी-किं णं अम्मयातो समणं भगवं महावीरं इहमागते इह पत्तं इह समोसढं इह गते चेव वंदिस्सामि? तं गच्छामि णं अहं अम्मयाउ तुज्झेहिं अब्भणुन्नाते समाणे समणं भगवं महावीरं वंदामि, तं सुदंसणं सेट्ठी अम्मापियरो जा से नो संचाएति, बहुहिं आघवणेहि य 4 जाव परूवेहिं संता तंता परितंता तीहे एवं वयासी- अहासुहं / तते णं से सुंदसणे अम्मापितीहिं अब्मणुण्णाते समाणे ण्हाति, सुद्धपा वेसाईजाव सरीरे सयातो गिहातो पडिनिक्खमति, पडिणिक्खमतित्ता पायविहारचारेणं रायगिहं जयरं मज्झं मज्झेणं निग्गच्छति, निगच्छतित्ता मोग्गरपाणिस्स जक्खस्स जक्खायतणे अदूरसामंते णं जेणेव गुणसीलए चेतिए जेणेव समणे भगवं तेणेव पाहिरेत्थ गमणाएतते णं से मोग्गरपाणी जक्खे सुदंसणं समणोवासयं अदूरसामंतेणं वीयीवयमाणे पासति, पासतित्ता आसुरुते 5 ते पलसहस्स निप्फण्णं अओ-मयमोग्गरं उल्लालेमाणे जेणेव सुदंसणे समणोवासए तेणेव पहारेत्थ गमणाए। तते णं से सुदंसणे समणोवासए मोग्गरपाणिं जक्खं एजमाणं पासति, पासतित्ता अभीते अतत्थे अणुव्विग्गे अक्खुमिते अचलिए असंभंते वत्थं तेणं भूमी पमञ्जति, पमजतित्ता करयल० एवं वयासी- णमोत्थु णं अरहंताणं जाव संपत्ताणं, नमोत्थुणं समणस्स भगवओजाव संपाविउकामस्स पुव्वं पिणं मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए थूलए पाणातिवातं पचक्खाए जावज्जीवाए थूलए मूसावाए, थूलए अदिण्णादाणे, सदारसंतोसे थूलए परिग्गहे जाव-ज्जीवाए, तं इदाणिं पिणं तस्सेव अंतिअंसव्वं पाणातिवायं पचक्खामि जावज्जीवाए, मूसावायं अदत्तादाणं मेहुणपरिग्गहं पञ्चक्खामि जावज्जीवाए, सव्वं कोहं जाव मिच्छादंसणसल्लं पञ्चक्खामि जावज्जीवाए। सव्वं असणं पाणं खाइमं साइमं चउव्विहं पि आहारं पञ्चक्खामि जावजीवाए, जति णं एतो उवसयातो मुचिस्सामि, तो मे कप्पई पारेतत्ते / अहणं एत्तो उवसम्गातो न मुच्चिस्सामि, तो मे तहा पचक्खाए वि त्तिकटु सागारं पडिमं पडिवजति / से मोग्गरपाणी जक्खे तं पलसहस्सनिप्फ ण्णं अओमयं मोग्गरं उल्लालेमाणे उल्लालेमाणे जेणेव सुदंसणे समणोवासए तेणेव उवागते, नो चेवणं संचाएति सुदंसणं समणोवासयं तेयसा समभिपडिताते। तते णं से मोग्गरपाणी जक्खे सुदसणं समणोवासयं सव्वओ समंताओ परिघोलमाणे परिघोलमाणे जाहे नो संचाएति सुदंसणं समणोवासयं तेयसा समभिपडितते,ताहे सुदंसणस्स समणोवासयस्स पुरतो सपक्खिं सपडिदिसिं ठिचा सुदंसणं समणोवासयं अणिमिसाए दिट्ठीए सुचिरं निरिक्खति, निरिक्खितित्ता अजुणयस्स मालागारस्स सरीरं विप्पजहति।। तं पलसहस्सनिष्फण्णं अओमयं मोग्गरं गहाय जामेव दिसिं पाउन्भूते तामेव दिसिं पडिगते / तए णं अज्जुणए मालागारे मोग्गरपाणिणा जक्खेणं विप्पमुक्किस्समाणे धसत्ति धरणीयतलंसि, सवंगेहिं निवडिए. ते सुदंसणे समणोवासए निरुवसग्गम्मि त्ति कटु पडिमं पारेति, तते णं से अञ्जुणए मालागारे ततो मुहुत्तंतरेण आसत्थे समाणे उठेति, उट्टेतित्ता सुदंसणं समणो वासयं एवं वयासी- तुज्झे णं देवाणुप्पिया! कहिं वासं पथिया ? तते णं से सुदंसणे समणोवासए अजुणयं मालागारं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! अहं सुदंसणे नाम समणोवासए अभिगयजीवाजीवे गुणसिले चेइए समणं भगवं महावीरस्स वंदते, सपथिए। तस्से अजुणए मालागारे सुदंसणं समणो वासयं एवं वयासी- तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया! अहमवि तुमए सद्धिं समणं भगवं महावीरस्स वंदिए जाव पजुवासिए / अहासुहं देवाणुप्पिया ! तते णं से सुदंसणे समणोवासए अजुणएणं मालागारेणं सद्धिं जेणेव गुणसिलए चेतिए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणे व उवागच्छति, उवागच्छितित्ता अजुणएणं मालागारेणं सद्धिं समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव पञ्जुवासति / तते णं से समणे भगवं महावीरे सुदंसणं समणो वासए अजुणयस्स मालागारस्स तिसयद्धम्मकहा। सुदंसणे समणोवासए पडिगते। तस्से अजुणए मालागारे समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतिए धम्मं सोचा हट्ठतुट्ठा० सद्दहामि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं, जाव अब्भुट्टेमि, अहासुहं / तस्से अज्जुणए उत्तरपुरच्छिमे य सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेति, करेतित्ता जाव अणगारे जाते जाव विहरति / तते णं से अञ्जुणए अणगारे जं चेव दिवसं मुंडे० जाव पव्वइए, तं चेव दिवसं समणं भगवं महावीरं महावीरस्स वंदति, वंदतित्ता इमं एयारूवं उग्गहं उग्गिण्हेतिकप्पति मंजावज्जीवाए छटुंछट्टेण अनिक्खित्तेण तवोकम्मेणं अप्पाणं भावमाणस्स विहरित्तए तिकट्ट अयमेयारूवं उग्गह उगिण्हेति, जावज्जीवाए विहरति / तते णं अजुणए अणगारे छट्टक्खमणपारणयंसि पढमपोरसीए सज्झायं करेति, जहा गोयमसामी जाव अडति। तते णं से अजुणयं अणगारं रायगिहे णयरे उच्चनीचं च जाव अडमाणं बहवे इत्थीउ य पुरिसा य डहरा य महल्ला य जुवाणा य एवं वयासी- इमे णं मे पितामातरो मारिया, इमे णं मे भायभगिणी-भज्जा पुत्ते धूया सुण्हा मारिया, इमे णं मे अण्णे य सयणसंबंधे परियणं मारेति, त्तिकटु अप्पेगइया अक्कोसंति, अप्पेगइया हीलंति, अप्पे० निदंति, अप्पेगइया० खिंसति, अप्पेगइया गरहंति, अप्पेगइया० तज्जेति। तते णं से अजुणए अणगारे तेहिं बहूहिं पुरिसेहिं महल्लेहि य जाव अक्कोसिज मा जाव Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजुणग 227 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अज्झत्तवत्तिय तालेणेते / सौमणसा वि अपउसस्समाणे समं सहति, समं औचित्याद्वृत्तयुक्तस्य, वचनात् तत्त्वचिन्तनम्। क्खमति, तितिक्खइ, अहिज्जमाणे अहियासेइ, समं सहमाणे मैत्र्यादिभावसंयुक्तमध्यात्मं तद्विदो विदुः / / 2 / / क्खमतो तितिक्खति, अहियासेति / रायगिहे णयरे (औचित्यादिति) औचित्यादुचितप्रवृत्तिलक्षणाद् वृत्तयुक्तउचनीचमज्झिमकुलाई अडमाणे जइ भत्तं लभति, तो पाणं स्याऽणुव्रतमहाव्रतसमन्वितस्य वचनाजिनागमात्तत्त्वचिन्तनं न लभति, जइ पाणं लभइ, तो मत्तं न लभइ / तते णं ते जीवादिपदार्थसार्थपर्यालोचनं मैत्र्यादिभावमैत्रीकरुणा मुदितोपेक्षालअजुणए अणगारे अदीणे अविमणे अकलुसे अणाइले अवीसादी क्षणैः समन्वितं सहितमध्यात्म तद्विदोऽध्यात्म-ज्ञातारो विदुजानते। अपरितत्तजोगी अडति, अडतित्ता रायगिहातो नगरातो द्वा०१८ द्वा० "अज्झत्तओगे गयमाणसस्स" आचा०१ श्रु०॥ पडिनिक्खमति, पडिनिक्खम तित्ता, जेणेव गुणसिलए चेइए अज्झत्तओगसाहणजुत्त-पुं०(अध्यात्मयोगसाधनयुक्त) अध्यात्म जेणेव समणे भगवं महावीरे जहेव गोतमसामीजाव पडिदंसेते मनस्तस्य योगा व्यापारा धर्मध्यानादयस्तेषां साधनान्ये-काग्रतादीनि पडिदंसेते / समणं भगवं महावीरे अब्भणुण्णाते समाणे तैर्युक्तोऽध्यात्मयोगसाधनयुक्तः / चित्तैकाग्रताऽऽ-दिभाजि, उत्त० 26 अभुद्विते 4 बिलमिव पणगभूतेण अप्पाणेण तमाहारं आहारेति, अ० "निस्विकारे णं जीवे वइगुत्ते अज्झत्त-ओगसाहणजुत्ते यावि आहारेतित्ता तते णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाति, भवई"।उत्त०२६ अ०॥ कयातित्ता रायगिहाओ पडिणिक्खमति, पडिणिक्खमतित्ता अज्झत्तओगसुद्धादाण-त्रि०(अध्यात्मयोगशुद्धादान) अध्यात्मयोगेन बहिया जणवयं विहारं विहरति / तते णं से अज्जुणए अणगारे सुप्रणिहितान्तःकरणतया धर्मध्यानेन शुद्ध-मवदातमादानं चरित्रं यस्य तेणं उरालेणं विपुलेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं महाणुभागेणं स तथा / शुभचेतसा विशुद्धचारित्रे, "अज्झत्तओगसुद्धादाणे उवहिए तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे बहुपडिपुण्णे छम्मासे सामण्ण ठिअप्पा संखाए परदत्तभोई भिक्खूति वच्चे''। सूत्र० 1 श्रु०१६ अ०॥ परियागं पाउणति, अद्धमासियाए संलेहणाए अप्पाणं झुसेति, अज्झत्तकिरिया-स्त्री०(अध्यात्मक्रिया) केनापि कथञ्चनातीसं भत्ताइं अणसणाए छेदेति, छेदेतित्ता जसट्ठाते कीरति, प्यपरिभूतस्य दौर्मनस्यकरणरूपेऽष्टमे क्रियास्थाने, स्था० 5 ठा०२ कीरतित्ता जाव सिद्धे / अंत०६वर्ग०३ अ०॥ उका कोङ्कणसाधोरिव यदि सुताः सम्प्रति क्षेत्रवल्लराणि संज्वलयन्ति स्वनामख्याते तस्करभेदे,आचा० 1 श्रु०३ अ० 1 उ०(तस्य तदा भव्यमित्यादि चिन्तनमध्यात्मक्रिया। ध०३ अधिo शब्दासक्तत्वात् 'सह' शब्दे कथा वक्ष्यते) अज्झत्तज्झाणजुत्त-त्रि०(अध्यात्मध्यानयुक्त) अध्यात्मना शुभमनसा अजुणसुवण्ण-न०(अर्जुनसुवर्ण) श्वेतकाञ्चने, औ०। ध्यानं यत्तेन युक्तो यः स तथा। प्रशस्तध्यानोपयुक्ते, प्रश्न० 5 संव० अञ्जोग-पुं०(अयोग) सेवादौ वा।८।२।६। इति प्राकृत-लक्षणाजस्य द्वा०॥ वा द्वित्वम्। योगवर्जिते, पं०सं०१ द्वा० अज्झत्तदंड-पुं०(अध्यात्मदण्ड) शोकाद्यभिभवेऽष्टमक्रिया-स्थाने, अञ्जोगि(ण)-पुं०(अयोगिन्) सेवादित्वाद्जद्वित्वम्। अयोगिकेवलिनि, प्रश्न०५ संवद्वा०) "अजोगो अज्जोगी, संमत्तसजोगमि होति जोगाउ"| पं०सं०१ द्वा०। अज्झत्तदोस-पुं०(अध्यात्मदोष) कषाये, सूत्रा अज्झओ - (देशी) प्रातिवेश्मिके, देवना० 1 वर्ग०। कोहं च माणं च तहेव मायं, अज्झत्त-न०(अध्यात्म) अधि आत्मनि वर्त्तते इत्यध्यात्मम् / चेतसि, दश० 1 अ०आचा०। प्रव०। स्था०। ध्याने, आव०५ अ01 लोभ चउत्थं अज्झत्थदोसा। सम्यग्धर्मध्यानादिभावनायाम, सूत्र०१श्रु०८ अ०ा आत्मानमधिकृत्य एआणि वंता अरहा महेसी, यद्वर्त्तते तदध्यात्मम्। सुखदुःखादौ, "जे अज्झ(तं)त्थंजाणइसे बहिया ण कुव्वई पाव ण कारवेई॥२६|| जाणइ, जे बहिया जाणइसे अज्झत्थं जाणइ" आचा०१ श्रु०१० (कोहं चेत्यादि) निदानोच्छेदेन हि निदानिन उच्छेदो भवतीति न्यायात् 7 उ०। (आत्मनि इति अध्यात्मम्, "अव्ययं विभ०' / / 1 / 6 / इति संसारस्थितेश्च क्रोधादयः कारणमत एतानध्यात्म-दोषांश्चतुरोऽपि पाणिनिसूत्रेण समासः) आत्मनीत्यर्थे, उत्त० 1 अ०॥ क्रोधादीन् कषायान् वान्त्वा परित्यज्याऽसौ भग-वानर्हस्तीर्थकृद् *अध्यात्मस्थ-न०। अध्यात्म मनस्तस्मिन् तिष्ठत्यध्यात्मस्थम्, जातः / तथा महर्षिश्च / एवं परमार्थतो महर्षित्वं भवति, यद्यध्यात्मदोषा प्राकृतत्वाद्वर्णलोपः, इष्टसंयोगानिष्टसंयोगादिहेतुभ्यो जाते सुखदुःखादी, न भवन्ति, नान्यथेति / तथा न स्वतः पापं सावधमनुष्ठानं करोति, उत्त०ा "अज्झत्तं सव्वओ सव्वं, दिस्समाणे पियायए''। उत्त०६अ। | नाऽप्यन्यैः कारयतीति। सूत्र० १श्रु०६०। अज्झत्तओग-पुं०(अध्यात्मयोग) सुप्रणिहितान्तःकरणतायाम्, अज्झत्तमयपरिक्खा-स्त्री०(अध्यात्ममतपरीक्षा) नामानुरूपाधर्मध्याने च / सूत्र० 1 0 16 अ०। योगभेदे च, तल्लक्षणम् भिधेये, शतग्रन्थीकृता नयविजयशिष्येण यशो विजयवाचके न तत्राऽनादिपरभाव औदयिकभावरमणीयतां धर्मत्वेन निर्धार्य तत्पुष्टिहेतुं कृते ग्रन्थविशेषे, प्रतिकाद्वा०। क्रियां कुर्वन् अधर्मे धर्मवृत्त्या इच्छन् प्रवृत्तः स एव निरामयनिः- अज्झत्तरय-त्रि०(अध्यात्मरत) प्रशस्तध्यानासक्ते, दश०१० अ०। संगशुद्धात्मभावनाभावितान्तःकरणस्य स्वभाव एव धर्म इति | अज्झत्तवत्तिय-पुं०(अध्यात्मप्रत्ययिक) (आध्यात्मिकप्रत्ययि-क) योगवृत्त्याऽध्यात्मयोगः / अष्ट० 8 अष्टा न०। आत्मनि अधि अध्यात्मम् / तत्र भव आध्यात्मिको Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्झत्तवत्तिय 228 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अज्झत्तविसीयण दण्डस्तत्प्रत्ययिकम्। अष्टमे क्रियास्थाने, तद्यथा- निर्निमित्तमेव दुर्मना उपहतमनःसंकल्पो हृदयेन ह्रियमाणश्चिन्तासागरावगाढः संतिष्ठते। सूत्र० 2 श्रु०१२ अ० एतदेव सूत्रकारोव्यस्यन्नाहअहावरे अट्ठमे किरियाठाणे अज्झत्तवत्तिए त्ति आहिज्जइ। से जहाणामए केइ पुरिसे णत्थि णं केइ किं विसवादेति, सयमेव हीणे दीणे दुढे दुम्मणे ओहय-मणसंकप्पे चिंतासोगसागरसंपविढे करतलपल्हत्थमुहे अट्टज्झाणोवगए भूमिगय-दिहिए झियाइ, तस्स णं अज्झत्थया आसंसइया चत्तारि ठाणा एवमाहिजइ, तं कोहे माणे माया लोहे अज्झत्थमेव कोहमाणमायालोहे एवं खलु तस्सतप्पत्तियं सावजंति आहिज्जइ अट्टमे किरियाठाणे अज्झत्थवत्तिए त्ति आहिए॥१६॥ अथापरमष्टमं क्रियास्थानमाध्यात्मिक मित्यन्तःकरणोद्भवमाख्यायते / तद्यथा नाम किश्चत्पुरुषचित्तोपेक्षाप्रधानस्तस्य च नास्ति कश्चिद्विसंवादयिता न तस्य किश्वद्विसंवादेन परिभावेन वा सद्भूतोद्भावनेन वा चित्तदुःखमुत्पादयति, तथाप्यसौ स्वयमेव वर्णापसदवद् हीनो दुर्गतवद्दीनो दुश्चित्ततया दुष्टो दुर्मनास्तथो-पहतोऽस्वच्छतया मनःसंकल्पो यस्य स तथा। चिन्तैव शोक इति सागरश्चिन्ताप्रधानो वा शोकश्चिन्ताशोकः सागर इव चिन्ता-शोकसागरः / तथाभूतश्च यदवस्थो भवति, तद्दर्शयति-करतले पर्यस्तं मुखं यस्य स तथा अहर्निशं भवति, तथाऽऽर्तध्यानोप-गतोऽपगतसद्विवेकतया धर्मध्यानदूरवर्ती निर्निमित्तमेव द्वन्द्वोप- हतवद् ध्यायति / तस्यैवं चिन्ताशोकसागराव गाढस्य सत आध्यात्मिकान्यन्तःकरणोद्भवानि मनःसंसृतान्यसंशयितानि वा निःसंशयितानि वा चत्वारि वक्ष्यमाणानि स्थानानि भवन्ति, तानि चैवं समाख्यायन्ते। तद्यथा-क्रोधस्थानम्, मानस्थानम्, मायास्थानम्, लोभस्थानमिति / ते चाऽवश्यं क्रोधमानमायालोमा आत्मनोऽधि भवन्त्याध्यात्मिकाः, एभिरेव सद्भिर्दुष्ट मनो भवति। तदेव तस्य दुर्मनसः क्रोधमानमायालोभवत एवमेवोपहत- मनःसङ्कल्पस्य तत्प्रत्ययिकमध्यात्मनिमित्तं सावधं कर्मा-ऽऽधीयते संबध्यते / तदेवमेतत्क्रियास्थानमाध्यात्मिकाख्य- माख्यातमिति / / 16 / / सूत्र० 2 श्रु०२ अ० अज्झत्तवयण-न०(अध्यात्मवचन) आत्मन्यधि अध्यात्मम्, तच तद्वचनम्। हृदयगते वचनभेदे, षोडशवचनानां सप्तममिदम्। आचा०२ श्रु० 4 अ०१ उ०। आत्मन्यधि अध्यात्म हृदयं तं तत्परिहारेणान्यद् भणिष्यतस्तदेव। सहसा पतिते वचने, विशे० आचा। अज्झत्तबिंदु-पुं०(अध्यात्मबिन्दु) यथार्थनामधेये ग्रन्थभेदे, "ये यावन्तोऽध्वस्तबन्धा अभूवन, भेदज्ञानाभ्यास एवात्र मूलम्।ये यावन्तो ध्वस्तबन्धा भवन्ति, भेदज्ञानाभाव एवात्र बीजम् ||1|| इतितद्वचनम्। अष्ट०१४ अष्ट। अज्झत्तविसीयण-नं०(अध्यात्मविषीदन) संयमकष्टमनुभूय मनसि विषण्णीभवने, सूत्र जहा संगामकालम्मि, पिट्ठतो भीरू वेहइ। वलयं गहणं णूम, को जाणइ पराजयं ? ||1|| (जहेत्यादि) दृष्टान्तेन हि मन्दमतीनां सुखेनैवार्थावगतिर्भवति, अत | आदावेव दृष्टान्तमाह- यथा कश्चिद् भीरुरकृतकरणः संग्रामकाले परानीकयुद्धाऽवसरे समुपस्थितः पृष्ठतः प्रेक्षते आदावेवाऽऽपत्प्रतीकारहेतुभूतं दुर्गादिकं स्थानवमलोकयति। तदेव दर्शयति (वलयमिति) यत्रोदकं वलयाकारेण व्यवस्थित-मुदकरहिता वा गर्ता दुःखनिर्गमप्रवेशास्तथा गहनं धवादिवृक्षैः कटिसंस्थानीयम् (णूमं ति) प्रच्छन्नं गिरिगुहादिकम् / किमि-त्यसावेवमवलोकयति ? यत एवं मन्यते-तत्रैवंभूते तुमुले संग्रामे सुभटसकुले को जानाति ? कस्याऽत्र पराजयो भविष्यतीति? यतो दैवायत्ताः कार्यसिद्धयः, स्तोकैरपि बहवो जीयन्त इति // 1 // किञ्चमुहुत्ताणं मुहुत्तस्स, मुहुत्तो होइ तारिसो। पराजिया वसप्पामो, इति भीरू अवेहई ||2|| मुहूर्तानामेकस्य वा मुहूर्तस्यापरो मुहूर्तः कालविशेषलक्षणोऽवसरस्तादृग भवति यत्र जयः पराजयो वा संभाव्यते, तत्रैवं व्यवस्थिते पराजिता वयमपसामो नश्याम इत्येतदपि संभाव्यते, अस्मद्विधानामिति भीरुः पृष्ठत आपत्प्रतीकारार्थ शरणमपेक्षते / / 2 / / श्लोकद्वयेन दृष्टान्तं प्रदर्शदार्शन्तिकमाहएवं तु समणा एगे, अबलं नच्चा णं अप्पगं। अणागयं भयं दिस्स, अविकप्पंतिमं सुयं // 3 // यथा संग्रामं प्रवेष्टमिच्छुः पृष्ठतोऽवलोकयति किमत्र मम पराभग्नस्य वलयादिकं शरणं त्राणाय स्यादिति, एवमेव श्रमणाः प्रव्रजिता एके केचनाऽदृढमतयोऽल्पसत्त्वा आत्मानमबलं यावज्जीवं संयमभारवहनाक्षम ज्ञात्वा अनागतमेव भयं दृष्ट्वा- उत्प्रेक्ष्य / तद्यथा- निष्किञ्चनोऽहं किं मम वृद्धावस्थायां ग्लानावस्थायां दुर्भिक्षे वा त्राणाय स्यादित्येवमाजीविकाभयमुत्प्रेक्ष्य विकल्पयन्ति परिकलयन्ति मन्यन्ते, इदं व्याकरणं, गणितं, ज्यौतिष्कं, वैद्यकं, होराशास्त्रं, मन्त्रादिकं वा श्रुतमधीतं ममाऽयमादौ त्राणाय स्यादिति // 3 // एतच्चैते विकल्पयन्तीत्याहको जाणइ विउवातं, इत्थीओ उदगाउ वा। चोइजंता पवक्खामो, ण णो अत्थि पकप्पियं // 4|| अल्पसत्त्वाः प्राणिनः, विचित्राच कर्मणां गतिः, बहूनि प्रमादस्थानानि विद्यन्ते, अतः को जानाति कः परिच्छिनत्ति व्यापातं संयमजीविताद् भ्रश्यन्तम् / केन पराजितस्य मम संयमाद् भ्रंशः स्यादिति। किं स्त्रीतः स्त्रीपरीषहाद् उतोदकात् स्नाना-द्यर्थमुदकासेवनाभिलाषादित्येवं ते वराकाः प्रकल्पयन्ति, न नोऽस्माकं किंचन प्रकल्पितं पूर्वोपार्जितद्रव्यजातमस्ति, यत्तस्यामवस्थायामुपयोगे समेत्ययास्यति, अतश्चोद्यमानाः परेणापृछ्यमानाः हस्तिशिक्षाधनुर्वेदादिकं कुटिलविण्टलादिकं वा प्रवक्ष्यामः कथयिष्यामः प्रयोक्ष्याम इत्येवं ते हीनसत्त्वाः संप्रधार्य व्याकरणादौ श्रुते प्रयतन्त इति / न च तथापि मन्दभाग्या-नामभिप्रेतार्थावाप्तिर्भवतीति / तथा चोक्तम्- (हरिणीवृत्तम) उपशमफलाद् विद्याबीजात्फलंधनमिच्छताम्, भवति विफलो यद्यायासस्तदत्र किमद्भुतम् ? / न नियतफलाः कर्तुर्भावाः फलान्तरमीशते, जनयति खलु व्रीहेर्बीजं न जातु यवाऽङ्कुरम् / / 1 / / उपसंहारार्थमाह - इचेवं पडिलेहंति, वलया पडिलेहिणो। Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्झत्तविसीयण 229 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अज्झत्थज्झाणजुत्त वितिगिच्छ समावन्ना, पंथाणं च अकोविया // 5 // स्वीभोगादत्तमनसि, सूत्रार्थोपयुक्तनिरुद्धमनोयोगे च / ''वइगुत्ते इत्येवमिति पूर्वप्रक्रान्तपरामर्शार्थः / यथा भीरवः संग्रामे प्रविविक्षवो अज्झत्तसंवुडे परिवजए सया पावं'। आचा०१ श्रु०५ अ० 4 उ०। वलयादिकं प्रत्यपेक्षिणो भवन्तीत्वेवं तेऽपि प्रव्रजिता मन्दभाग्यतया सूत्र अल्पसत्त्वा आजीविकाभयाद् व्याकरणादिकं जीवनोपायत्वेन अज्झत्तसम-त्रि०(अध्यात्मसम) अध्यात्मानुरूपे परिणामा-नुसारिणि, प्रत्यपेक्षन्ते परिकल्पयन्ति ! किंभूताः? विचिकित्सा चित्तविप्लुतिः, व्य०२ उ०। किमेनं संयमभार-मुत्क्षिप्तमन्तं नेतुं वयं समर्थाः, उत नेतीत्येवं-भूताः। अज्झत्तसुइ-स्त्री०(अध्यात्मश्रुति) चित्तजयोपायप्रतिपादनशास्त्रे, तथा चोक्तम् "लुक्खमणुण्हमणिययं, कालाइकंतं भोयणं विरसं / प्रश्न०१ संव० द्वा०। भूमीसयणं लोओ, असिणाणं बंभचेरंच" ॥१॥तां समापन्नाः समागताः / अज्झत्तसुद्धि-स्त्री०(अध्यात्मशुद्धि) चेतःशुद्धौ, अध्यात्म-शुद्धिरेव यथा पन्थानं प्रत्यकोविदा अनिपुणाः - किमयं पन्था विवक्षितं भूभागं / फलदा, न बाह्यशुद्धिः, भरतचक्रवर्तिनः बाह्यकरणस्य यास्यत्युत नेति ? इत्येवं कृतचित्तविप्लुतयो भवन्ति, तथा तेऽपि रजोहरणादेरभावेऽपि अध्यात्मशुद्ध्यैव केवलोत्पत्तेः / प्रसन्नचन्द्रस्य च संयमभारवहनं प्रति विचिकित्सां समापन्ना निमित्तगणितादिकं बाह्यकरणवतोऽपि आभ्यन्तरकरणविकलस्य सप्तमपृथिवीजीविकाऽर्थ प्रत्यपेक्षन्त इति / / 5 / / प्रायोग्यकर्मबन्धात् पश्चाद्वर्तिन्या अध्यात्मशुद्ध्यैव मोक्षगमनात् / आ० साम्प्रतं महापुरुषचेष्टिते दृष्टान्तमाह चू०१ अ०। जे उ संगामकालम्मि, नाया सूरपुरंगमा। अज्झत्तसोहि-त्रि०(अध्यात्मशोधि) चेतःशुद्धौ, आ० चू० 1 अ०1 णो ते पिट्ठमुवेहिंति, किं परं मरणं सिया? // 6 // (वर्णनमस्य 'अज्झत्तसुद्धि' शब्दे कृतम्) ये पुनर्महासत्त्वाः, तुशब्दो विशेषणार्थः, संग्रामकाले परा- | अज्झत्तिय-त्रि०(आध्यात्मिक) आत्मनि अधिअध्यात्मम्, तत्र भव नीकयुद्धावसरे ज्ञातारो लोकविदिताः, कथम् ?, शूराणामग्र-गामिनो आध्यात्मिकः / आत्मविषये, आ०म०प्र० भ०। वि०॥ युद्धावसरे सैन्याग्रस्कन्धवर्तिन इति, एवंभूताः संग्रामं प्रविशन्तो न ज्ञा०। निक। "अज्झत्तिए चिंतिए" आत्मनि क्रियमाणे, "परकिरियं पृष्ठमुत्प्रेक्षन्ते न दुर्गादिक मापत्त्राणाय पर्यालोचयन्ति, ते अज्झत्तिय संसे इयं णो तं सातिए"। आचा०२ श्रु० 13 अ०। चाभङ्ग कृतबुद्धयोऽपि त्वेवं मन्यन्ते-किमपरमत्रास्माकं भविष्यति, यदि आन्तरोपायसाध्ये सुखदुःखादौ, आध्यात्मिकं दुःखं द्विविधम्-शारीरं परं मरणं स्यात्, तच्च शाश्वतम्, यशःप्रवाह-मिच्छतामस्माकं स्तोकं मानसं च / शारीरं वातपित्तश्लेष्मणां वैषम्यनिमित्तम्, मानसं वर्तत इति। तथा चोक्तम् - विशरा-रुभिरविनश्वर-मतिचपलैः स्थास्नु कामक्रोधलोभमोहेष्याविषयादर्शननिबन्धनम् / सर्व चैतवाञ्छता विशदम्। प्राणैर्यदि च शूराणां, भवति यशः किं न पर्याप्तम् ?|| दान्तरोपायसाध्यत्वादाध्यात्मिकं दुःखमिति साडयाः / स्या०। आर्यावृत्तम् // 6 // अध्यात्मनि मनसि भव आध्यात्मिकः / बाह्यनिमित्तानपेक्षे शोकाभिभवे, तदेवं सुभटदृष्टान्तं प्रदर्श्य दार्टान्तिकमाह "अष्टमं क्रियास्थानमेतत्स एवं समुट्ठिए भिक्खू, वोसिज्जाऽगारबंधणं। अज्झत्तियवीरिय-न०(आध्यात्मिकवीर्य) आत्मन्यधि इति आरंभ तिरिय कटु, आतत्ताएपरिव्वए / |7|| अध्यात्मम्, तत्र भवमाध्यात्मिकम् / आन्तरशक्तिजनितं सात्त्विएवमित्यादि। यथा- सुभटा ज्ञातारो नामतः कुलतः शौर्यतः शिक्षातश्च, कमित्यर्थः / तच वीर्य चेति। "उञ्जमधितिधीरत्तं, सोंडीरत्तं खमा य तथा सन्निबद्धपरिकराः करगृहीतहेतयः प्रतिभट-समितिभेदिनो न गंभीरं / उवओगयोगतव संजमादि य होइ अज्झप्पो'||१|| इत्युक्तेः पृष्ठतोऽवलोकयन्ति / एवं भिक्षुरपि साधुरपि महासत्त्वः उद्यमधृत्यादौ, सूत्र०१ श्रु०८ अ०। परलोकप्रतिस्पर्द्धिनमिन्द्रियकषायादिकमरिवर्ग जेतुं सम्यक् अज्झत्थ-न०(अध्यात्म)अधि आत्मनि वर्तत इत्यध्यात्मम् / संयमोत्थानेनोत्थितः समुत्थितः। तथा चोक्तम् - कोहं माणं च मायं च, सम्यग्धर्मध्यानादिभावनायाम्, सूत्र०१ श्रु०८ अ०॥ लोह पंचेंदियाणि या दुजयं चेवमप्पाणं, सव्वमप्पे जिए जियं / / 1 / / किं अज्झत्थओग-पुं०(अध्यात्मयोग) सुप्रणिहितान्तःकरण-तायाम्। कृत्वा समुत्थितः ? इति दर्शयति, व्युत्सृज्य त्यक्त्वा, अगारबन्धन धर्मध्याने च / सूत्र०१ श्रु०१६ अ०। (निरूपणमस्य 'अज्झत्तओग' गृहपाशम्, तथा आरम्भं सावधानुष्ठानरूपं तिर्यक् शब्दे कृतम्) कृत्वाऽपहस्तयित्वाऽऽत्मनो भाव आत्मत्वमशेषकर्म-कलङ्करहितत्वं अझत्थओगसाहणजुत्त-पुं०(अध्यात्मयोगसाधनयुक्त) चितस्मै आत्मत्वाय / यदि वा आत्मा मोक्षः, संयमो वा, तद्धावस्तस्मै तैकाग्रतादिभाजि, उत्त० 26 अ० तदर्थ , परि समंताद् व्रजेत् संयमानुष्ठानक्रियायां दत्तावधानो अज्झत्थओगसुद्धादाण-त्रि०(अध्यात्मयोगशुद्धादान) शुभचेतसा भवेदित्यर्थः / / 7 / / सूत्र० 1 श्रु०३ अ० 3 उ०। विशुद्धचारित्रे, सूत्र०१ श्रु०१६ अ०। अज्झत्तविसुद्ध-त्रि०(अध्यात्मविशुद्ध) सुविशुद्धान्तःकरणे, सूत्र०१ / अज्झत्थजोग-पुं०(अध्यात्मयोग) योगभेदे, अष्ट० 6 अष्ट। श्रु०४ अ०२ उ० (वक्तव्यताऽस्य अज्झत्तओग' शब्दे) अज्झत्तविसोहिजुत्त-त्रि०(अध्यात्मविशोधियुक्त)३ त०। अज्झत्थजोगसाहणजुत्त-पुं०(अध्यात्मयोगसाधनयुक्त) विशुद्धभावे,जाजयमाणस्स भवे, विराहणा सुत्तविहिसमग्गस्स / सा होइ चित्तैकाग्रतादिभाजि, उत्त० 26 अ० णिज्जरफला, अज्झत्तविसोहिजुत्तस्स / / 1 / / ओ०। अज्झत्थजोगसुद्धादाण-त्रि०(अध्यात्मयोगशुद्धादान) शुभचेतसा अज्झत्तवेइ(ण)-त्रि०(अध्यात्मवेदिन)सुखदुःखादेः स्वरूप- विशुद्धचारित्रे, सूत्र० 1 श्रु०१६ अ०| तोऽवगन्तरि, आचा० १श्रु०१ अ०७ उ०। अज्झत्थज्झाणजुत्त-त्रि०(अध्यात्मध्यानयुक्त) प्रशस्तघ्यानो-पयुक्ते, अज्झत्तसंवुड-त्रि०(अध्यात्मसंवृत) अध्यात्म मनस्तेन संवृतः।। प्रश्न०५ संव० द्वा Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्झत्थदंड 230- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अज्झप्पिय द्वान अज्झत्थदंड-पुं०(अध्यात्मदण्ड) अष्ठमे क्रियास्थाने, प्रश्न०५ संव० अज्झप्पओगसुद्धादाण-त्रि०(अध्यात्मयोगशुद्धादान) शुद्ध-चेतसा विशुद्धान्तःकरणे. सूत्र० 1 श्रु०१६ अ०) अज्झत्थदोस-पुं०(अध्यात्मदोष) कषाये, सूत्र० 1 श्रु०६ अ०। अज्झप्पकिरिया-स्त्री०(अध्यात्मक्रिया) अष्टमे क्रियास्थाने, स्था० अज्झत्थबिंदु-पुं०(अध्यात्मबिन्दु) स्वनामख्याते ग्रन्थभेदे, अष्ट०१४ | 5 ठा०२ उ०। अष्ट। अज्झप्पजोग-पुं०(अध्यात्मयोग) सुप्रणिहितान्तःकरणतायां अज्झत्थमयपरिक्खा-स्त्री०(अध्यात्ममतपरीक्षा) यशो वि धर्मध्याने, सूत्र० 1 श्रु०१६ अ०) जयवाचकेन कृते ग्रन्थविशेषे, प्रति०। अज्झप्पजोगसाहणजुत्त-पुं०(अध्यात्मयोगसाधनयुक्त) अज्झत्थरय-त्रि०(अध्यात्मरत) प्रशस्तध्यानासक्ते, दश०१० अ०) चितैकाग्रतादि भाजि, उत्त० 26 अग अज्झत्थवत्तिय-पुं०(अध्यात्मप्रत्ययिक) अष्टमे क्रियास्थाने, सूत्र०२ अज्झप्पजोगसुद्धादाण-त्रि०(अध्यात्मयोगशुद्धादान) शुभभावेन श्रु०१२ अ०। विशुद्धचारित्रे, सूत्र०१ श्रु०१६ अ०) अज्झत्थवयण-न०(अध्यात्मवचन) षोडशवचनानां सप्तमे वचने, अज्झप्पझाणजुत्त-त्रि०(अध्यात्मध्यानयुक्त) प्रशस्तध्यानो-पयुक्ते, आचा०२ श्रु०४ अ०१ उ०। प्रश्न०५ संव० द्वारा अज्झत्थविसीयण-न०(अध्यात्मविषीदन) संयमकष्टमनुभूय मनसि अज्झप्पदंड-पुं०(अध्यात्मदण्ड) शोकाभिभवरूपे अष्ट मे विषण्णीभवने, सूत्र० 1 श्रु० 3 अ० 3 उ० (विवृतिरस्य क्रियास्थाने, प्रश्न० 5 संव० द्वान 'अज्झतविसीयणं' शब्दे निरूपिता) अज्झत्थविसुद्ध-त्रि०(अध्यात्मविशुद्ध) सुविशुद्धान्तःकरणे, सूत्र०१ अज्झप्पदोस-पुं०(अध्यात्मदोष) कषाये, सूत्र०१ श्रु०६ अ०। श्रु० 4 अ०२ उ०। अज्झप्पबिंदु-पुं०(अध्यात्मबिन्दु) यथार्थनामाभिधेये स्वनाम-ख्याते अज्झत्थविसोहिजुत्त-त्रि०(अध्यात्मविशोधियुक्त) विशुद्ध भावे, ग्रन्थे, अष्ट० 14 अष्टा ओ। अज्झप्पमयपरिक्खा-स्त्री०(अध्यात्ममतपरीक्षा) यशोविजयकृते अज्झत्थवे इ(ण) -त्रि०(अध्यात्मवेदिन्) सुखदुःखादेः ग्रन्थविशेषे, प्रतिम स्वरूपतोऽवगन्तरि, आचा०१ श्रु०१ अ०७ उ०) अज्झप्परय-त्रि०(अध्यात्मरत) प्रशस्तध्यानासक्ते, दश०१० अ०॥ अज्झत्थसंवुड-त्रि०(अध्यात्मसंवृत) स्त्रीभोगाऽदत्तमनसि, अज्झप्पवत्तिय-पुं०(अध्यात्मप्रत्ययिक) अष्टमे क्रियास्थाने सूत्र०२ सूत्रार्थोपयुक्तनिरुद्धमनोयोगे च। आचा० 1 श्रु०५ अ० 4 उ०) श्रु०२० अज्झत्थसम-त्रि०(अध्यात्मसम) अध्यात्मानुरूपे परिणा- अज्झप्पवयण-न०(अध्यात्मवचन) हृदयगते वचनभेदे, षोडशवचनानां मानुसारिणि, व्य०२ उ० सप्तममिदम्। आचा०२ श्रु०४ अ०१ उ०॥ अज्झत्थसुइ-स्त्री०(अध्यात्मश्रुति) चित्तजयोपायप्रतिपादन-शास्त्रे, | अज्झप्पविसीयण-न०(अध्यात्मविषीदन) संयभकष्टमनुभूय मनसि प्रश्न०१ संव०द्वा० विषण्णीभवने, सूत्र०१ श्रु०३ अ०३ उ०। अज्झत्थसुद्धि-स्त्री०(अध्यात्मशुद्धि) चेतःशुद्धौ, आ०चू०१ अ०) अज्झप्पविसुद्ध-त्रि०(अध्यात्मविशुद्ध) सुविशुद्धान्तःकरणे, सूत्र०१ अज्झत्थसोहि-स्त्री०(अध्यात्मशोधिन्) चेतःशुद्धौ, आ०चू० श्रु०५ अ०१ उ०। १अ० अज्झप्पविसोहिजुत्त-त्रि०(अध्यात्मविशोधियुक्त) विशुद्धभावे, अज्झत्थिय-त्रि०(आध्यात्मिक) आत्मविषये, आ०म०प्र०। ओघo आन्तरोपायसाध्ये सुखदुःखादौ, स्या०। अज्झप्पवेइ(ण)-त्रि०(अध्यात्मवेदिन) सुखदुःखादेः स्वअज्झत्थियवीरिय-न०(आध्यात्मिकवीर्य) उद्यमधृत्यादौ, सूत्र० रूपतोऽवगन्तरि, आचा० १श्रु०१अ०७ उ०। १श्रु०८ अग अज्झप्पसंवुड -त्रि०(अध्यात्मसंवृत्त)स्त्रीभो गादत्तमनसि, अज्झत्थोवाहिसंबन्ध-पुं०(अध्यस्तोपाधिसम्बन्ध) आत्मनि सूत्रार्थोपयुक्तनिरुद्धमनोयोगे च। आचा०१ श्रु०५ अ० 4 उ०। प्राप्तपुद्गलसंसर्गजकर्मोपाधिसम्बन्धे, "निर्मलं स्फटिकस्येव, सदृशं रूपमात्मनः। अध्यस्तोपाधिसम्बन्धो, जडस्तत्र विमुह्यति'' ||1|| अष्ट० अज्झप्पसम-त्रि०(अध्यात्मसम) अध्यात्मानुरूपे परिणामा४ अष्टा नुसारिणि, व्य०२ उ०॥ अज्झप्प-न०(अध्यात्म) चेतसि, दश० 1 अ० ध्याने, आव० / अज्झप्पसुइ-त्रि०(अध्यात्मश्रुति) चित्तजयोपायप्रतिपादनशास्त्रे, ५अ० प्रश्न०१ संव० द्वा०॥ अज्झप्पओग-पुं०(अध्यात्मयोग) अन्तःकरणशुद्ध धर्मध्याने, सूत्र० अज्झप्पसुद्धि-स्त्री०(अध्यात्मशुद्धि) चेतःशुद्धौ, आ०चू० 1 अ०। १श्रु०१६अ। अज्झप्पसोहि-त्रि०(अध्यात्मशोधि) भावशुद्धौ, आ०चू० 1 अ०। अन्झापओगसाहणजुल-पुं०/अध्यात्मयोगसाधनयुक्त) शुभचेतसा ) अज्झप्पिय-त्रि०/आध्यात्मिक) आत्मनि क्रियमाणे आन्तरीविशुद्धचारित्रे, सूत्र० 1 श्रु०१६ अ० पायसाध्ये सुखदुःखादौ, आचा०२ श्रु०१३ अ०। Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्झप्पियवीरिय 231 - अभिधानराजेन्द्रः- भाग 1 अज्झयणकप्प अज्झप्पियवीरिय-न०(आध्यात्मिकवीर्य) उद्यमधृत्यादौ, सूत्र० १श्रु०८ अ०। अज्झयण-न०(अध्ययन) अधीयते ज्ञायन्ते एमिरित्यध्ययनानि / नामसु(वाचकशब्देषु), "ता कधं देवताणं अज्झयणं आहिताति वएजा''। चं०प्र०१ पाहुका सू०प्र०। अधीयते विनेयादिक्रमेण गुरुसमीप इत्यध्ययनम् / विशिष्टार्थध्वनिसंदर्भरूपे श्रुतभेदे, जी० 1 प्रतिक "अज्झयणं पिय तिविहं, सुत्ते अत्थे यतदुभए चेव'' विशे। तन्निक्षेपो यथा से किं तं अज्झयणे? अज्झयणे चउव्विहे पण्णत्ते / तं जहाणामज्झयणे, ठवणज्झयणे, दव्वज्झयणे, भावज्झयणे / णामट्ठवणाओ पुव्ववण्णिआओ / से किं तं दव्वज्झयणे ? दव्वज्झयणे दुविहे पण्णत्ते। तं जहा-आगमओ अ, णोआगमओ अ। से किं तं आगमओ दव्वज्झयणे ? आगमओ दव्वज्झयणे जस्सणं अज्झयण त्ति पदं सिक्खितं ठितं जितं मितं परिजितं जाव एवं जावइआ अणुवउत्ता आगमओ तावइआइंदव्वज्झयणाई। एवमेव ववहारस्स वि। संगहस्सणं एगो वा अणेगो वा जाव से तं आगमओ दव्वज्झयणे / से कि तं णो आगमओ दव्वज्झयणे ? णो आगमओ दव्वज्झयणे तिविहे पण्णत्ते / तं जहा- जाणगसरीरदव्वज्झयणे, भविअसरीरदव्वज्झयणे, जाणगसरीरभविअसरीरवइरित्ते दव्वज्झयणे / से किं तं जाणगसरीरदव्वज्झयणे ? जाणगसरीरदव्वज्झयणे अज्झयणपदत्थाहिगारजाणयस्स जं सरीरं ववगयचुअचावि-अचत्तदेहं जीवविप्पजढं जाव अहो! णं इमेणं सरीरसमुस्सएणं जिणदिटेणं भावेणं अज्झयणेत्ति पदं आघवितं जाव उवदंसितं, जहा-को दिलुतो ? अयं घयकुंभे आसी, अयं महुकुंभे आसी, से तं जाणगसरीरदव्यज्झयणे / से किं तं भवियसरीर-दव्वज्झयणे ? भवियसरीरदव्वज्झयणे जे जीवे जोणिजम्मण-निक्खंते इमेणं चेव आदत्तएणं सरीरसमुस्सएणं जिणदिटेणं भावेणं अज्झयणेत्ति पदं सेअकाले सिक्खिस्सति, न ताव सिक्खति, जहा- को दिटुंतो? अयं महुकुंभे भविस्सइ, अयं घयकुंभे भवि-स्सइ, से तं भविअसरीदव्वज्झयणे / से किं तं जाणगसरीर-भविअसरीरवइरित्ते दव्वज्झयणे ? जाणगसरीरभवियसरीर-वइरित्ते दव्वज्झयणे पत्तयपोत्थयलिखितं, से तं जाणगसरीर-भविअसरीरवइरित्ते दव्वज्झयणे। से तं णोआगमओ दव्व-ज्झयणे / से किं तं भावज्झयणे ? भावज्झयणे दुविहे पन्नत्ते / तं जहा- आगमओ अणोआगमओ ।से किं तं नोआगमओ भावज्झयणे? अज्झप्पस्साणयणं, कम्माणं अवचओ उवचि-आणं 1 अणुवचउन वियाणं, तम्हा, अज्झयणमिच्छइ॥१॥ से तं णोआगमओ भावज्झयणे, से तं भावज्झयणे, से तं अज्झयणे। (से किं तं अज्झयणे इत्यादि) नामस्थापना- द्रव्यभावभेदात् / चतुर्विधोऽप्यध्ययनशब्दस्य निक्षेपः। तत्र नामादिविचारः सर्वोऽपि पूर्वोक्तद्रव्यावश्यकानुसारेण वाच्यः, यावन्नोआगमतो भावाध्ययने / अज्झप्पस्सायणमित्यादिगाथाव्याख्या-अस्य सचित्तस्य आणयणं, इह निरुक्तविधिना प्राकृतस्वाभाव्याच्च पकारसकाराऽऽकारण कारलक्षणमध्यगतवर्णचतुष्टयलोपे अज्झयणमिति भवति, अध्यात्म चेतस्तस्यायनमध्ययनमुच्यत इति भावः / आनीयते च सामायिकाद्यध्ययने शोभनं चेतोऽस्मिन् सत्यशुभकर्मप्रबन्धनात्। अत एवाह- कर्मणामुपचितानां प्रागुपनिबद्धानां यतोऽपचयो हासोऽस्मिन् सति विद्यते नवानां चाऽनुपचयो बन्धो यः, तस्माद् हि इदं यथोक्तशब्दार्थप्रतिपत्तेः 'अज्झयणं' प्राकृतभाषायामिच्छन्ति सूरयः, संस्कृते त्विदमध्ययनमुच्यत इति / सामायिकादिकं चाऽध्ययनं ज्ञानक्रियासमुदयात्मकम् / ततश्चाऽऽगमस्यैकदेश-वृत्तित्वात् नो आगमतोऽध्ययनमिदमुक्तमिति गाथार्थः / अनु०। 'जेण सुहप्पज्झयणं, अज्झप्पाणयण महियणयणं वा। बोहस्स संजमस्सव, मोक्खस्स व जं तमज्झयण" ||1 / / इह नैरुक्तेन विधिना प्रावृत्तस्वाभाव्याच सिद्धम्। विशे०। आ०म०द्वि० __निरुक्त्यन्तरेणैतदेव व्याख्यातुमाह - अधिगम्मति वा अत्था, अणेण अधिगं व णयणमिच्छंति। अधिगं व साहु गच्छति, तम्हा अज्झयणमिच्छंति। उत्त०नि०। अधिगम्यन्ते वा परिच्छिद्यन्ते वाऽर्था जीवादयोऽनेनाधिकं वा नयनं प्रापणं मर्यादात्मनि ज्ञानादीनामनेनेतीच्छन्ति, विद्वांस इति शेषः / अधिकमनर्गलं शीघ्रतरमिति यावत, वा सर्वत्र विकल्पार्थः / (साहु त्ति) साधयति पौरुषेयीभिर्विशिष्टक्रियाभिरपवर्गमिति साधुर्गच्छति यानर्थान् मुक्तिम् , अनेनेत्यत्रापि योज्यते, यस्मादेवमेवं च ततः किमित्याहतस्मादध्ययनमिच्छन्ति, निरुक्तिविधिनाऽर्थनिर्देश-परत्वाद् वा / अस्यायतेरेतेर्वा अधिपूर्वस्याध्ययनमिच्छन्तीति वाऽभिधानम् / सर्वत्र सूत्रार्थाऽबाधया व्याख्याविकल्पानां पूर्वाचार्यसंमतत्वेनादुष्टत्वख्यापनार्थमिति गाथार्थः / उत्त० 1 अ०। अनु०। आ०म० दश०स्था०। सूत्र०ा अधीयत इत्यध्ययनम्। कर्मणि ल्युट्। पठ्यमाने, आव० 4 अ०। धर्मप्रज्ञप्तौ, दश० 4 अ० अध्ययनानिधुलोकच्युतानि। यथा - चोयालीसं अज्झयणा इसिमासियादिया लोगच्चुया भासिया। सं०४४ सम०। चतुश्चत्वारिंशतं (इसिभासिय त्ति) ऋषिभाषिताध्ययनानि कालिकश्रुतविशेषभूतानि (दियालोयच्चुयाभासिय त्ति) देवलोकच्युतैः ऋषीभूतैराभाषितानि देवलोकच्युताभाषितानि / क्वचित्पाठस्तु - देवलोयचुयाणं चोयालीसं इसिभासिय- उज्झयणा पन्नत्ता। सम०४४ समा अधि-इङ्-भावे ल्युट्।पुनः पुनर्ग्रन्थाभ्यासे, विशेष स्वाध्याये, षो०१३ विव०। पठने, गुरुमुखोचारणानुसारिणि उच्चारणे च / वाचा(पठन-वक्तव्यताऽखिला 'उद्देस' 'वायणा' 'उवसंपया' इत्यादिशब्देषु द्रष्टव्या) अज्झयणकप्प-पुं०(अध्ययनकल्प) योग्यताऽनुसारेण वाचनादानसामाचार्याम्, पं० भाग वक्खातो सुतकप्पो, एतो वोच्छमि अज्झयणकप्पं / दायव्वं जेण विहिणा, जगुणजुत्तस्स वा तं तु // जोए परियाए अणरिहे अरहे य विणयपडिवन्ने। सुत्तत्थ तदुभएसुं, जे अज्झयणेसु अणुभागा / / जस्सागाढो जोगो,तं आगाढे ण चेव दायव्वं / अणगाढे अणगाढं, एतो वोच्छामि परियागं / जं संखपरीमाणं, भणितं सुत्तम्मि तिवरिसादीयं / सुतत्थ तो जोगी, तलावाच्छामि रिसादीय Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्झयणकप्य 232- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अज्झासणा तं तेणं माणेणं, उदिसियव्वं भवे सुत्तं / / खुद्दियविसाणयविभत्तिमादिदीहे च भूयमायाए। णवि दिजंति अणरिहे, अणरिहत्ते तु इमो होति। तितिणिए चलचित्ते, गाणं गाणिए च दुब्बलचरित्ते। आयरिय पारिभावी, वामायट्टे य पिसुणे य / / आदी अदिट्ठभावे, अकडसमायारिए तरुणधम्मे। गव्वितपइण्हणिण्हइ, छेदसुत्ते वञ्जितो अछंडहरो॥ अकुलीणो ति य दुम्मेहो दमगे मंदबुद्धि त्ति। अवियप्पलाभलद्धी, सीसो परिभवइ आयरिए। सो विय सीसो दुविहो, पव्वावियतोय सिक्खवउ चेव / सो सिक्खितो वि तिविहो, सुत्ते अत्थे य तदुभयणं / एतेसिं अणरिहाणं,जे पडिवक्खाउ होंति सव्वेसिं। परिणामगा य जे तु, ते अरिहा होंति णायव्वा / / एतारिसे विणीतो, सुत्ते अत्थे य जत्तिया भेदा। अज्झयणा वेसजुया, सेणा असेसए देजा।। पं०भा०) ('सुय' शब्देऽस्य विस्तरो द्रष्टव्यः) अज्झयणगुणणिउत्त-त्रि०(अध्ययनगुणनियुक्त) प्रक्रान्त शास्त्रनिष्यन्दभूते प्रक्रान्ताध्ययनाभिहितगुणसमन्विते,दश०६ अ०४ उ० अज्झयण गुणि (ण)-त्रि०(अध्ययन गुणिन् ) प्रक्रान्ता ऽध्ययनोक्तगुणवति, दश० 10 अ०। अज्झयणछक्क-न०(अध्ययनषट्क) आवश्यकनामश्रुते, तस्य सामायिकादिषडध्ययनकलापात्मकत्वात्। विशेष अज्झयणछक्कवग्ग-पुं०(अध्ययनषट्कवर्ग) आवश्यके, षडध्ययनकलापात्मकत्वात्तस्य। विशे०। अनु०।। अज्झवसाण-न०(अध्यवसान)अतिहर्षविषादाभ्या-मधिकमवसानं चिन्तनमध्यवसानम् / विशे०। रागस्नेह-भयात्मकेऽध्यवसाये, स्था० 7 ठा०। रागभयस्नेहभेदात् त्रिविध-मध्यवसानम् / (तन्निमित्तक आयुर्भेदो द्वि०भा०१०पृष्ठे आउ' शब्देवक्ष्यते) अन्तःकरणप्रवृत्तौ, सूत्र० 2 श्रु०२ अ०। मानस्या-ऽपरिणतौ, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०॥ उत्त०। मणसंकप्पेत्ति वा अज्झव-साणंति वा एगट्ठा। निचू०१3०। प्रकर्षतोऽपि प्रयत्नभेदे। अनु०। विशे०। औ०। णेरइयाणं भंते ! केवतिया अज्झवसाणा पण्णता? गोयमा ! असंखिज्जा अज्झवसाणा पण्णत्ता / ते णं भंते ! किं पसत्था, अपसत्था ? गोयमा ! पसत्था वि अपसत्था वि। एवं जाव वेमाणियाणं। अध्यवसायचिन्तायां प्रत्येकनैरयिकादीनामसंख्येयाऽध्य-वसानानि प्रत्येकं प्रायोऽन्यान्याध्यवसायभावात्। प्रज्ञा०३४ पद / अन्तःकरणे, आ०म०द्वि०ा उपा०। प्रज्ञा०। आव०। अज्झवसाणजोगणिव्वत्तिय-त्रि०(अध्यवसानयोग- निर्वर्तित) अध्यवसानं जीवपरिणामः, योगश्च मनःप्रभृति-व्यापारस्ताभ्यां निर्वर्तितो यः स तथा / परिणामेन मनोयोगादिना चासाधिते, भ०२५ श०८ उन अज्झवसाणणिव्वत्तिय-त्रि०(अध्यवसाननिर्वर्तित) मनःपरिणतिसाध्ये, "अज्झवसाणणिव्वतिएणं करणोवाएणं सेयकाले तं ठाणं विप्पजहित्ता'' अध्यवसाननिर्वर्तितेन उत्प्लोतव्यं मयेत्येवंरूपाध्यवसायनिर्वर्तितेन। भ० 25 श०८ उ०। अज्झवसाणावरणिज-न०(अध्यवसानावरणीय) अध्यव सानस्याऽऽवरणरूपे कर्मभेदे, भ०६ श०३१ उ०। अज्झवसाय-पुं०(अध्यवसाय) अधि-अव-षो-घञ् / इदमेवेति विषयपरिच्छेदे निश्चये, स चात्मधर्म इति नैयायिकाः / बुद्धिधर्म इति वेदान्तिनः / उपात्तविषयाणामिन्द्रियाणां वृत्तौ सत्यां बुद्धेः रजस्तमोऽभिभवे सति यः सत्त्वसमुद्रेकः सोऽयमध्यवसाय इति वृत्तिरिति ज्ञानमिति चाऽऽख्यायत इति साङ्ख्याः / उत्साहे, वाचा संकल्पे, आव० 3 अ०। सूक्ष्मेषु आत्मनः परिणामविशेषेषु, आचा० 1 श्रु० 1 अ० 2 उ०। अनुभागबन्धस्थाने, "अनुभागबंधठाणं, अज्झवसाया व एगट्ठा'। पं०सं०२ द्वारा पं० चू। अज्झवसायट्ठाण-न०(अध्यवसायस्थान) परिणामस्थाने, तानि करणत्रयेऽसंख्यानि / अष्ट 5 अष्ट०।('करण' शब्दे तृ०भा० 361 पृष्ठे दृश्यानि चैतानि) अज्झवसिअं-निवापिते, मुख्येचा देखना० 1 वर्ग। अज्झवसिय-न०(अध्यवसित) अध्यवसाये, अनु०॥ अज्झस्सं-(देशी) आक्रुष्ट, दे०ना० 1 वर्ग। अज्झहिय-न०(आत्महित) आत्मनां हितमात्महितम्। स्वहिते, प्रश्न० १संव०द्वारा अज्झा-(देशी) असत्याम्, शुभायाम् , नववध्वाम् , तरुण्याम्, एतस्यां च / देवना० 1 वर्ग। अज्झाय-पुं०(अध्याय) आ मर्यादया प्रवचनोक्तेन प्रकारेण पठनमध्यायः / स्वाध्यायकरणे, प्रव०अध्ययने, आव० 4 अास्था०। कर्मणि घञ्। वेदादिशास्वस्यैकार्थविषयसमाप्तिद्योतके विश्रामस्थानरूपे अंशविशेषे, याचा अज्झारुह-पुं०(अध्यारुह) उपर्युपर्यध्यारोहन्तीति अध्यारुहाः। वृक्षोपरिजातेषु वृक्षाभिधानेषु कामवृक्षाभिधानेषु वा वनस्पतिषु, सूत्र०। ते च वल्लीवृक्षाभिधाना इति वृक्षाणां शाखाप्ररोहे च / सूत्र०२ श्रु०३ अ०। प्रज्ञा०आचा०(अध्यारुहतयोत्पन्नानां जीवानामाहारशरीरवर्णादिव्यवस्था 'वणस्सइ' शब्दे वक्ष्यते) अज्झारोव-पुं०(अध्यारोप) अधि-आ-रुह-णिच्, पान्तादेशः, घञ् / अतस्मिन् तबुद्धौ, यथा-रजौ सर्पधीः / वाच०। भ्रान्तौ, षो० 4 विवा अज्झारोवण-न०(अध्यारोपण) अधि-रुह-णिच् / पान्तादेशः, ल्युट्।अतिशयेनाऽऽरोपणे धान्यादेपने, वाच०। पर्यनुयोजने, विशे० अज्झारोवमंडल-न०(अध्यारोपमण्डल) अध्यारोपो भ्रान्तिस्तया मण्डलं मण्डलाकारम् / मिथ्याज्ञानेन वृत्ताऽऽकाराऽऽरोपणे, "आगमदीपेऽध्यारोपमण्डलं तत्वतोऽसदेव''। षो० 4 विव०। अज्झारोह-पुं०(अध्यारोह) वृक्षाणां शाखाप्ररोहे, सूत्र०२ श्रु०३ अ०। अज्झावय-पुं०(अध्यापक) अध्यापयति / अधि-इङ्-णिच. Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्झावय 233 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अज्झोयरय ण्वुल / अध्ययनकारयितरि, वाच०उपाध्याये च, "अज्झावयाणं अत्राऽपि तथैव विचारः, या तु (सव्वागाससेढी ति) सर्वाकाश पडिकूलभासी''। उत्त०१२ अ०ा आ०म०। आ०चू०। . लोकालोकनभःस्वरूपम् , अस्य संबन्धश्रेणिः प्रदेशापहारअज्झावसत-त्रि०(अध्यावसत्) मध्ये वर्तमाने, 'गिह- तोऽपहियमाणाऽपि न कदाचित् क्षीयते, अतो ज्ञशरीरभव्यमज्झावसंतस्स'गृहमध्यावसतः-गृहे वर्तमानस्य। उपा० 1 अ01 शरीरव्यतिरिक्तद्रव्याक्षीणतया प्रोच्यते, द्रव्यता चाऽस्याअज्झावसित्ता-अव्य०(अध्युष्य) मध्ये वर्तयित्वेत्यर्थे, "पंचतित्थगरा ऽऽकाशद्रव्यान्तर्गतत्वादिति / अत्र वृद्धा व्याचक्षते- यस्मात् कुमारवासमज्झावसित्ता'। स्था०५ ठा०३ उ०। अधिष्ठायेत्यर्थे च। चतुर्दशपूर्वविद आगमोपयुक्तस्याऽन्तमुहूर्त्तमात्रोपयोगकाले वाचन येऽर्थोपलम्भोपयोगपर्यायास्ते प्रतिसमयमे कै कापहारेणा ऽनन्ताभिरप्युत्सर्पिणीभि पहियन्ते, अतो भावाक्षीणतेहावअज्झासणा-स्त्री०(अध्यासना) सहने, उत्त० 2 अ०॥ सेया / नोआगमतस्तु भावाक्षीणता- शिष्येभ्यः सामायिकादि(परीषहाणामध्यासहना परीसह' शब्दे द्रष्टव्या) श्रुतप्रदानेऽपि स्वात्मन्यनाशादित्येतदेवाह-(जह दीवा) तथा अज्झाहार-पुं०(अध्याहार) अध्यारुह्यते ज्ञानायाऽनुसन्धीयते। अधि दीपादवधिभूताद्दीपशतं प्रदीप्यते प्रवर्तते, स च मूलभूतो दीपस्तथापि आ-ह-घञ्। आकाङ्क्षाविषयपदानुसन्धाने, ऊहे, तर्के, अपूर्वोत्प्रेक्षणे तेनैव रूपेण प्रवर्तते, न तु स्वयं क्षयमुपयाति। प्रकृते संबन्धयन्नाह-एवं च / वाच०। व्याख्याऽङ्गमे षः / आचा० 1 श्रु० 1 अ० दीपसमा आचार्या दीप्यन्ते स्वयं विवक्षित-श्रुतत्वेन तथैवावतिष्ठन्ते, 4 उ०॥ परं च शिष्यवर्ग दीपयन्ति, श्रुतसम्पदं लम्भयन्ति / अत्र नोआगमतो अज्झीण-न०(अक्षीण) अर्थिभ्योऽनवरतं दीयमानमपि वर्द्धत एव, नतु भावाक्षीणता श्रुतदायकाs5-चार्योपयोगस्यागमत्वाद् / क्षीयत इत्यक्षीणम् / अथवा व्यवच्छित्तिनयमतेन सर्वदैव वाक्काययोगयोश्चागमत्वादावनीयेति वृद्धा व्याचक्षते इतिगाथार्थः। अनु०॥ व्यवच्छे दादलीकवदक्षीणम् / विशे०) आ०म०। सामायिक - यथा दीपाद् दीपशतं प्रदीप्यते ज्वलति, सोऽपि च दीष्यते दीपः, न चतुर्विशतिस्तवाऽऽत्मक अध्ययने, अनु०। पुनरन्यान्यदीपोत्पत्तायपि क्षीयते। तथा किमित्याह-दीपसमा आचार्या अस्य निक्षेपः दीप्यन्ते समस्त-शास्त्रार्थविनिश्चयेन स्वयं प्रकाशन्ते, परञ्च शिष्यं से किं तं अज्झीणे? अज्झीणे चउविहे पण्णत्ते / तं जहा- दीपयन्ति, शास्त्राऽर्थप्रकाशनशक्तियुक्तं कुर्वन्ति / इह च तात्स्थ्यात् णामज्झीणे, ठवणज्झीणे, दव्वज्झीणे, भावज्झीणे / तद्व्यपदेश इत्याचार्यशब्देन श्रुतज्ञानमेव चोक्तम् , भावाक्षीणस्य नामठवणाओ पुव्वं वण्णिआओ / से किं तं दव्वज्झीणे ? प्रस्तुतत्वात, तस्यैव चाक्षयत्वसंभवादिति गाथार्थः / उत्त० 1 अ०। दव्वज्झीणे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-आगमओ अ,णोआगमओ | अज्झीणज्झंझय-त्रि०(अक्षीणझझाक) अक्षीणकलहे, आव० अ। से किं तं आगमओ दव्वज्झीणे? दव्वज्झीणे जस्स णं 4 अ० अज्झीणे त्ति पदं सिक्खित्तं जितं मितं परिजितं जाव से तं अज्झुववण्ण-त्रि०(अध्युपपन्न) अधिकमित्यर्थमुपपन्नः, आगमओ दव्वज्झीणे / से किं तं नो आगमओ दव्वज्झीणे? तच्चित्तस्तदात्मकः / विषयपरिभोगायतजीविते, आचा०१ श्रु०१अ० नोआगमओ दव्वज्झीणे तिविहे पण्णत्ते / तं जहा- 7 उ०। स्था०। भ०। अधिकं तदेकाग्रतां गते, ज्ञा०२ अ० वि० भ०| जाणगसरीरदव्वज्झीणे, भविअसरीरदव्वज्झीणे, जाणगसरीर- जातानुरागे, व्य०२ उ०। मूच्छिते, आचा०२ श्रु०१ अ०८ उ० गृद्धे, भविअसरीरवइरित्ते दव्वज्झीणे 1 से किं तं जाणगसरीर- सूत्र० 2 श्रु०६ अ० 'मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झुववण्णे य' इति दव्वज्झीणे? जाणगसरीरदव्वज्झीणे अज्झीण-पयत्थाहिगा- एकार्थाः। वि० "अज्झोववण्णा कामेहि, चोइज्जंता गया गिह। रजाणयस्स जं सरीरयं ववगयचुअचाविअचत्तदेहं जहा अध्युपपन्नाः कामगतिचित्ताः। सूत्र०१श्रु०३ अ०२ उ०। अज्झोववण्णा दव्वज्झयणे तहा भाणिअव्वं जाव से तं जाणगसरीरदव्वज्झीणे / कामेहिं मुच्छिया"। अध्युपपन्ना गृद्धाः। सूत्र०१ श्रु०२ अ०३ उ०। से किं तं भविअसरीरदव्वज्झीणे ? भविअसरीरदव्वज्झीणे जे पौनः पुन्येनाभिलषमाणे, सूत्र०१ श्रु० 10 अ० आधिक्येन भोगेषु जीवे जोणिजम्मणि निक्खंति, जहा दव्वज्झीणे जाव से तं लब्धे, सूत्र०२ श्रु०१ अ०। स्था०। भविअसरीरदवज्झीणे / से किं तं जाणगसरीरभवि- अज्झुसिर-त्रि०(अशुषिर) न०ब०। श्लक्ष्णशुषिररहिते, रा० असरीरवइरित्ते दध्वज्झीणे ? दव्वज्झीणे सव्वागाससेढी से तं "अज्झुसिरंजत्थ कोट्टर नत्थि"। नि० चू०२ उ०ातृणाधन-वच्छिन्ने, जाणगसरीरभविअसरीरवइरित्तेदव्वज्झीणे। सेतं नोआगमओ ध०३ अधिo| कुशवनतृणादौ, संस्तारकभेदे च। नि० चू०२ उ०। दव्वज्झीणे,से तं दव्वज्झीणे। अज्झुसिरतण-न०(अशुषिरतृण) दर्भादौ, शुषिररहिते तृणे च। जीता से किं तं भावज्झीणे? भावज्झीणे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा- | अज्झे सणा-स्त्री०(अध्येषणा)अधि-इष्-युच-टाप् / आगमओ अ, नोआगमओआसे किंतं आगमतो भावज्झीणे? सत्कारपूर्वकनियोगे, सम्म०। अधिका एषणा प्रार्थना / अधिकमर्थन, भावज्झीणे जाणए उवइत्ते / सेतं आगमओ भावज्झीणे / से किं स्वी वाचा तं नोआगमओ भावज्झीणे ?- जह दीवा दीवसतं, पइप्पए अज्झोयरय-पुं०(अध्यवपूरक) अधि आधिक्येनाध्यवपूरणं, दीप्पए अ सो दीवो। दीवसमा आयरिआ, दिप्पंति परं च स्वार्थदत्ताधिश्रयणादेः साध्वागमनमवगम्य तद्योग्यभक्तसिद्ध्यर्थं दीवंति // 1 // से तं नोआगमओ भावज्झीणे, सेतं भावज्झीणे, प्राचुर्येण भरणमध्यवपूरः / स एव स्वार्थिकक प्रत्ययविधानासे तं अज्झीणे। दध्यवपूरकः तद्योगाद्भक्ताद्यप्यध्यवपूरकः। Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्झोयरय 234 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अट्ट प्रव०६७ द्वा०। स्वार्थमूला ग्रहणे कृते साध्वाद्यर्थमधिक- किमुक्तं भवति ? गृहीतं तत्तावन्मात्रं स्थाल्याः पृथकृतं दत्तं वा तरकणप्रक्षेपणेन भक्तादौ संपादिते सति, तत्र सम्भवति षोडशे उद्गमदोषे, पाषण्ड्यादिभ्यस्तथापि यत् शेष, तन्न कल्पत इति। भ०६ श०३३ उ०। सवारण मूलग्गहणे, अज्झोयर होइ पक्खेवो। ___ 'जावंतिए विसोही' इत्यवयवं विशेषतो व्याख्यानयति - स्था०६ ठा०ाद०॥धा आचा०ा पं०व०॥ पंचा०) छिन्नम्मि तओ उक्कड्डियम्मि पुहक्कए कप्पइ सेसं। अधुनाऽध्यवपूरकद्वारमाह आहवणाए दिन्नं, व तत्तियं कप्पए सेसं / / अज्झोयरओ तिविहो, जावत्तिय सघरमीस पासंडे। विशोधिकोटिरूपे यावदर्थिकऽध्यवपूरके यावदर्थिकं पश्चात् प्रक्षिप्त मूलम्मि य पुव्वकए, ओयरई तिण्ह अट्ठाए। तावन्मात्रे छिन्ने पृथकृते, तत्र छेदो रेखयाऽपि भवति, तत आह-(तओ अध्यवपूरकस्त्रिप्रकारः / तद्यथा-(जावत्तिय इति) स्वगृहमिश्रयोः उक्कड्डियम्मि) तत्स्वस्थादुत्कर्षित उत्पाटिते, इहोत्कर्षित शब्दयोरत्रापि संबन्धनात् स्वगृहयावदर्थिकमिश्रः (सघरमीस त्ति) अत्र स्वस्थानादुत्पाट्य शेषभक्तस्योपरि निक्षिप्तमपि भण्यते, ततो साधुशब्दोऽध्याहियते, स्वगृहसाधुमिश्रः। (पासंडे इति) अत्रापि यथायोग विशेषणान्तरमाह- पृथकृते स्थाल्या बहिर्नि-काशिते, शेषं यद्भक्तं स्वगृहमिश्रशब्दसंबन्धः / स्वगृहपाषण्डमिश्रः / स्वगृहश्रमणमिश्रः तत्साधूनां कल्पते / अथवा आभवनया उद्देशेन, न तु स्वगृहपाषण्डमिश्रेऽन्तर्भावितः पृथग् नोक्तः। त्रिविधस्यापि सामान्यतो शिक्थादिपरिगणनेन यदि तावन्मात्रं कार्पटिकादिभ्यो दत्तं स्यात्ततः लक्षणमाह-(मूलम्मीत्यादि) मूले आरम्भेऽग्निसंधुक्षणस्थालीजल शेषं कल्पते / पिं०। तत्र प्रायश्चित्तं प्रत्येकं मासगुरु / बृ०१ उ०। प्रक्षेपादिरूपे,पूर्व यावदर्थिकाद्या-गमनात् प्रथममेव स्वार्थं निष्पादिते यावतियअज्झोयरए मासलहु.सघरपासंड-अज्झोयरए मासगुरु / पश्चात् यथासंभवं त्रयाणां यावदर्थिकादीना मायाऽवतारयति, पं०चूला अध्यवपूरकान्तर्भेदद्वये एकाशनकम्।जीतापंचा०। अधिकतरान् तण्डुलादीन् प्रक्षिपति, एषोऽध्यवपूरकः / अत एव चास्य अज्झोल्लिआ -(देशी) क्रोडाभरणे, दे० ना० 1 वर्ग०। मिश्रजाताद्भेदः / यतो मिश्रजातं तदुच्यते- यत् प्रथमत एव अज्झोववजणा-स्त्री०(अध्युपपादना) क्वचिदिन्द्रियार्थेयावदर्थिकाद्यर्थमात्मार्थ च मिश्र निष्पाद्यते, यत् पुनरारभ्यते स्वार्थ, ऽध्युपपत्तौ, अभिष्वङ्गे च / “तिविहा अज्झोववजणा-जाणू अजाणू पश्चात्प्रभूतानर्थिनः पाषण्डिनः साधून वा समागतानवगम्य वितिगिच्छा''। तत्र जानतो विषयजन्यमर्थ या तत्राध्युपपत्तिः, साजाएँ। तेषामर्थायाधिकतरजल-तण्डुलादि प्रक्षिप्यते, सोऽध्यवपूरकः, इति या त्वजानतः, सा अजाणू। या तु संशयवतः, सा विचिकित्सा। स्था० मिश्रजातादस्य भेदः। 3 ठा० 4 उ० अमुमेव भेदं दर्शयति - अज्झोववण्ण-त्रि०(अध्युपपन्न) विषयपरिभोगायतजीविते, आचा०। तंदुल जल आयाणे, पुष्फफले सागवेसणे लोणे। अज्झोववाय-पुं०(अध्युपपात) ग्रहणैकाग्रचित्ततायाम्, "परस्स परिमाणे नाणत्तं, अज्झोयर मीसजाए य॥ अज्झोववायलोभजणणाई' पात्राणि परस्यान्यस्य अध्युपपातं च इह 'व्यत्ययोऽप्यासाम्' इति वचनात् सप्तमी यथायोगंषष्ठ्यर्थे तृतीयार्थे ग्रहण काग्रचित्ततां लोभं मूच्छा जनयन्ति यानि तानि वेदितव्या। ततोऽयमर्थः अध्यवपूरकस्य मिश्रजातस्य च परस्परं नानात्वं अध्युपपातलोभजननानि / प्रश्न० 5 संव० द्वा०। हि तण्डुलपुष्पफलशाकवेशनलवणादानकाले यद् विचित्रं परिमाणं तेन अञ्च-धा०(कृष) आकर्षणे, विलेखने च / तुदा०, आत्म०, सक०, द्रष्टव्यम्। तथाहि- मिश्रजाते प्रथमत एवस्थाल्यां प्रभूतं जलमारोप्यते, | अनिदा कृषः कङ्क-साअड्डाऽज्याऽणच्छाऽयञ्छाऽऽइञ्छाः1८।४।१८७। राश्व तण्डुलाः कण्ड-नादिभिरुपक्रम्यन्ते, फलादिकमपि च | इति कृषेरञ्चादेशः। अञ्चइ, कृषते। प्रा०। प्रथमत एव प्रभूततरं संरभ्यते / अध्यवपूरकेतुप्रथमतः स्वार्थं स्तोकतरं ] अञ्चिअ-त्रि०(अञ्चित) अञ्च-त / वर्गेऽन्त्यो वा 1811 / 30 // तण्डुलादि गृह्यते, पश्चाद् यावदर्थिकादिनिमित्तमधिकतरं तण्डुलादि ___ इत्यनुस्वारस्य वा परसवर्णः। पूजिते, आकुञ्चिते च / प्रा०। प्रक्षिप्यते, तस्मा-त्तण्डुलादीनामादानकाले यद् विचित्रं परिमाणं अञ-त्रि०(अज्ञ) न्य-ण्य-ज्ञ-जां ञः 84263 / इति सूत्रे तन्मिश्राऽध्यवपूरके विशोधिकादौ नानात्वमवसेयम्। मागध्या ज्ञस्य ञः, द्विरुक्तो आकार इत्यर्थः / मूर्खे, प्रा०) संप्रत्यध्यवपूरकस्य कल्पविधिमाह *अन्य-त्रि०। न्यस्य स्थाने द्विरुक्तो कारः / भिन्ने, सदृशे च / जावंतिए विसोही, सघरपासंडिमीसए पूई। एवमेतद्घटिता अप्युदाहार्याः। प्रा० छिन्ने विसोहि दिन्न-म्मि कप्पइन कप्पई सेसं / / अञ्जलि-पुं०(अञ्जलि) अ- अलि, न्यण्यज्ञजां यावदर्थिकस्वगृहयावदर्थिकमिश्रेऽध्यवपूरके शुद्धभक्त-मध्यपतितेयदि | 14293 / इति मागध्यां ज इतिभागस्य ञः। संयुतकरपुटे, तावन्मात्रमपनीयन्ते ततो विशोधिर्भवति / अत एव प्रा०॥ स्वगृहयावदर्थिक मिश्रोऽध्यवपूरको विशोधिकोटौ वक्ष्यते / अट्ट-धा०(अट) गतौ / भ्वा०, सक०, पर०, सेट्०ा शकादीनां स्वगृहपाषण्डिमिश्रे, उपलक्षणत्वात् स्वगृहसाधुमिश्रे च शुद्ध- | द्वित्वम् / 8 / 4 / 230 / इति टद्वित्वम्। परिअट्टइ, पर्यटति। प्रा०) भक्तमध्यपतिते पूतिर्भवति, नकल्पते तद्भक्तम्,पूतिदोषदुष्ट भवतीत्यर्थः / अट्ट-धा०(क्वथ ) निष्पाके / भ्वा०, पर०, सक०, से ट् / तथा विशोधौ विशोधिकोटिरूपे यावदर्थिका-ऽध्यवपूरके छिन्ने यावन्तः / क्वथेरट्टः / 8 / 4 / 116 // इति क्वथैरट्ट इत्यादेशः अट्टइ, क्वथति। प्रा०) कणाः कार्पटिकाद्यर्थ पश्चात् क्षिप्ताः, तावन्मात्रे स्थाल्याः पृथकृते, | अट्ट- पुं०(अट्ट) अट्टयति नाऽऽद्रियतेऽन्यद् यत्र / अट्ट-आधारे कार्पटिकादिभ्यो वा दत्ते सति, शेषमुद्वरितं यद्भक्तं तत्साधूनां कल्पते। घञ् / प्रासादस्योपरि गृहे, प्राकारोपरिस्थसैन्यगृहे च / यत्र शेष पुनः स्वगृह-पाखण्डिमिश्रस्वगृहसाधुमिश्राध्यवपूरकं न कल्पते। स्थिता हि नरा अन्यान् हीनतया नाद्रियन्ते / यस्मिन् वसतश्चा Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ट 235 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अट्टज्झाण ऽन्योत्कर्षेऽनादरः / वाचा अट्टाणि वा अट्टालयाणि वा / आचा० 2 श्रु० 11 अ०। अट्यतेऽतिक्रम्यतेऽनेनेत्यट्टः / आकाशे, भ० २०श०२ उ० आर्त-त्रि०ा अर्तिः शारीरमानसी पीडा, तत्र भव आतः / आचा० 1 श्रु०२ अ०५ उ०ा पीडिते, सूत्र०१श्रु०१० अ० दुःखिते, आचा०१ श्रु०४ अ०२ उ०। मोहोदयेन आर्ते, आचा०१ श्रु०६ अ०१ उ० शरीरतो दुःखिते, औ०। मोहोदयादगणितकार्याऽकार्यविवेके च। आचा० 1 श्रु०६ अ० 1 उ०। अस्य निक्षेपः - अट्टे लोए परिजुण्णे दुस्संबोहे अविजाणए / आचा० 1 श्रु० 1 अ० 1 उ०।('पुढविकाय' शब्दे एतत्सूत्रव्याख्यानं वक्ष्यते) अट्टे चउविहे खलु, दव्वे नदिमादि जत्थ तणकट्ठा। आवत्तंते पडिया,से वसुवण्णादि आवट्टे / / आतः खलु चतुर्विधः / तद्यथा-नामातः, स्थापनार्तः, द्रव्यातः, भावार्तश्च / तत्र नामस्थापने सुप्रतीते / द्रव्यार्तोऽपि नोआगमतो ज्ञशरीरव्यतिरिक्तो यत्र नद्यादेः प्रदेशे तृणकाष्ठानिपतितानि आवर्तन्ते, यश्च वा सुवर्णाद्यावर्त्तते, स द्रष्टव्यः / आ सर्वतः परिभ्रमणेन ऋतानि गतानि यत्र यो वा स आर्त इति व्युत्पत्तेः। अहवा अत्तीभूतो, सचित्तादिहि होइ दव्वम्मि। भावे कोहादीहि, उ अभिभूतो होति अट्टो उ॥ अथवा सचित्तादिभिर्द्रव्यैरसंप्राप्तैः प्राप्तवियुक्तैर्वा य आर्तः स द्रव्यातः, द्रव्यैरातॊ द्रव्यात इति व्युत्पत्तेः / क्रोधादिभिरभिभूतो नोआगमतो भावार्तः। तदेवमाशब्दार्थ उक्तः / व्य०४ उ०। आचा० ऋतस्य पीडितस्येदं वचनमिति कृत्वा षोडशे गौणालीके, प्रश्न०२ आश्र०द्वा०। ऋतं दुक्खं, तत्र भवमार्तम् / यदि वा अर्तिः पीडा, पातनं च, तत्र भवमातम्"। ध० 2 अधि०। प्रव० क्लिष्टे, आव०४ अ०। विषयानुरञ्चिते, ध०३ अधि० इष्टविषयसंयोगाभिलाषे, प्रश्न०४ संवद्वा०। एतदात्मके शोकाक्रन्दविलेपनादिलक्षणे वाध्यानभेदे, आव० 4 अ० ज्ञा० अढें-(देशी) कृशे, दुर्बले, गुरौ, महति, शुकपक्षिणि, सुखे, सौख्ये, धृष्ट, विपाते, अलसे, शीतके, शब्दे, ध्वनौ, असत्येच / दे०ना०१ वर्ग। अट्टइ-(देशी) क्वथने, दे०ना० 1 वर्ग। अट्टक-पुं०पअट्टक (आटमो)ब कुट्टितलेपरूतरूपे पात्रछिद्रपूरके द्रव्ये, बृ०१ उ० अट्टज्झाण-न०(आर्तध्यान) ऋतं दुःखम् / उक्तं हि-ऋतशब्दो दुःखपर्यायवाच्याश्रीयते। ऋते भवमार्तम्, उत्त०३० अ०। ऋतं दुःखं, तस्य निमित्तं, तत्र वा भवम् / ऋते वा पीडिते भवमार्तम् / स्था० 4 ठा०१ उ०। आव० तच तद्ध्यानं च। आर्तभावंगत आतः, आर्त्तस्य वा ध्यानमार्तध्यानम् / आ०० 4 अ०) मनोज्ञा मनोज्ञवस्तुवियोगसंयोगादि निबन्धनचित्तविप्लवलक्षणेध्यान-भेदे, स० 1 सम०। राज्योपभोगशयनासनवाहनेषु, स्त्रीगन्ध माल्यमणिरत्नविभूषणेषु / इच्छाभिलाषमतिमात्रमुपैति मोहाद् ध्यानं तदातमिति संप्रवदन्ति तज्ज्ञाः ।।१।दश०१अ०भव-कारणमट्टरुद्दाइ।आर्तध्यानं स्वविषयलक्षणभेदतश्चतुर्धा / उक्तं च भगवता वाचकमुख्येनआर्तममनोज्ञानां संप्रयोगे, तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहारः। वेदनायाश्व / विपरीतम् मनोज्ञानाम्। निदानं च। इत्यादि। आव० 4 अ० "अहज्झाणे चउव्विहे पण्णत्ते" चतस्रो विधा भेदा यस्य तत्तथा। अमणुन्नसंपओगसंपउत्ते तस्स विप्पओगसतिसमण्णागए यावि भवइ। अमनोज्ञस्याऽनिष्टस्य 'असमणुण्णस्स त्ति' पाठान्तरे- अस्वमनोज्ञस्याऽनात्मप्रियस्य शब्दादिविषयस्य, तत्साधनवस्तुनो वा संप्रयोगः संबन्धस्तेन संप्रयुक्तः संबद्धोऽमनोज्ञसंप्रयोगसप्रयुक्तोऽस्वमनोज्ञसंप्रयोगसंप्रयुक्तो वा, य इति गम्यते / तस्येति, अमनोज्ञस्य शब्दादेविप्रयोगाय वियोगार्थ स्मृतिश्चिन्ता, तां समन्वागतः समनुप्राप्तो भवति यः प्राणी, सोऽभेदोपचारादारीमिति / वाऽपीतिशब्दः विकल्पापेक्षया समुच्चयार्थः / अथवा मनोज्ञसंप्रयोगसंप्रयुक्तो यः प्राणी, तस्य प्राणिनः विप्रयोगेप्रक्रमादमनोज्ञशब्दादिवस्तूनां वियोजने, स्मृतिश्चिन्तनम् , तस्याः समन्वागतः समागमनं समन्वाहारो विप्रयोगस्मृतिसमन्वागतं वाऽपीति तथैव भवति, आर्त्तध्यानमिति प्रक्रमः। अथवाऽमनोज्ञ-संप्रयोगसंप्रयुक्ते प्राणिनि, तस्येति अमनोज्ञशब्दादेविप्रयोग स्मृतिसमन्वागतमात ध्यानमिति। स्था० 4 ठा०१ उ०। अमणुन्नाणं सहाइविसयवत्थूण दोसमइलस्स। धणि विओगचिंतण-मसंपओगाणुसरणं च / / 6 / / अमनोज्ञानामिति / मनसोऽनुकूलानि मनोज्ञानि, इष्टानीत्यर्थः / न मनोज्ञानि अमनोज्ञानि, तेषाम्, केषामित्यत आह- शब्दादिविषयवस्तूनामिति / शब्दादयश्चैते विषयाश्च, आदिशब्दाद्वर्णादिपरिग्रहः / विषीदन्त्येतेषु सक्ताः प्राणिन इति विषयाः इन्द्रियगोचराः, वस्तूनि तु तदाधारभूतानि रासभादीनि / ततश्च शब्दादिविषयाश्च, वस्तूनि चेति विग्रहः। तेषाम्, किं? संप्राप्तानां सताम्, धणियमत्यर्थम् , वियोगचिन्तनं विप्रयोगचिन्तेति योगः / कथं नु नामभिर्वियोगः स्यादिति भावः / अनेन वर्तमानकाल ग्रहः / तथा सति च वियोगेऽसंप्रयोगानुस्मरणं, कथमेभिः सहैव संप्रयोगाभाव इत्यनेन वाऽनागतकालग्रहः / चशब्दात्पूर्वमपि वियुक्तासंप्रयुक्तयोर्बहुमतत्वेनातीतकालग्रह इति। किंविशिष्टस्य सत इदं वियोगचिन्तनादि ? अत आह- द्वेषमलिनस्य, जन्तोरिति गम्यते / तत्राप्रीतिलक्षणो द्वेषः, तेन मलिनस्य, तदाक्रान्तमूर्तिरिति गाथार्थः / इति प्रथमो भेदः। साम्प्रतं द्वितीयमभिधित्सुराहतह सूलसीसरोगाइवेअणाए विओगपणिहाणं। तयसंपओगचिंता, तप्पडिआराउलमणस्स |7|| तथेति धणियमत्यर्थमेव / शूलशिरोरोगादिवेदनाया इत्यत्र शूलशिरोरोगौ प्रसिद्धौ / आदिशब्दाच्छे षरोगातङ्कपरिग्रहः / ततश्च शूलशिरोरोगादिभ्यो वेदना / वेद्यत इति वेदना / तस्याः किम् ? वियोगप्रणिधानम्, वियोगे दृढाध्यवसाय इत्यर्थः / अनेन वर्तमानकालग्रहः / अनागतमधिकृत्याहतदसंप्रयोगचिन्ते ति, तस्या वेदनायाः कथंचिदभावे सति असंप्रयोगचिन्ता, कथं पुनर्ममानयाऽऽयत्या संप्रयोगो न स्यादिति चिन्ता चार्तध्यानमेव गृह्यते / अनेन वर्तमानानागतकाल ग्रहणेनातीतकालग्रहोऽपि कृत एव वेदितव्यः / तत्र भावनाऽनन्तरगाथायां कृतैव / किं विशिष्टस्य सत इदं वियोगप्रणिधानादि ? अत आह- तत्प्रतीकारे वेदनाप्रतीकारे चिकित्सायामाकुलं व्यग्रं मनोऽन्तःकरणं यस्य स तथाविधस्त-स्यावियोगप्रणिधानाधार्तध्यानमिति गाथार्थः। उक्तो द्वितीयो भेदः / आव०४ अ०। Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठज्झाण 236 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अट्ठज्झाण अधुना तृतीयमुपदर्शयन्नाहआतंकसंपओगसंपउत्ते तस्स विप्पओगसतिसमण्णागए यावि भवइ। आतङ्को रोगः इति। स्था० 4 ठा० 1 उ०। इट्ठाणं विसयाईण वेअणाइ अरागरत्तस्स। अविओगज्झवसाणं,तह संजोगामिलासो ||8|| इष्टानां मनोज्ञानां विषयादीनामिति / विषयाः पूर्वोक्ताः / आदि शब्दावस्तुपरिग्रहः / तथा वेदनायाश्च इष्टाया इति वर्तते / किम् ? अवियोगाध्यवसानमिति योगः / अविप्रयोगदृढाध्यवसाय इति भावः / अनेन च वर्तमानकालग्रहः, तथा संयोगाभिलाषश्चेति, तत्र तथेति / धणियत्तमित्यनेनात्यर्थप्रकारोपदर्शनार्थः / संयोगाऽभिलाषः- कथं ममैभिर्विषयादिभिरायत्यां संबन्धः? इतीच्छ, अनेन च अनागतकालग्रह इति वृद्धा व्याचक्षते / चशब्दात् पूर्ववदतीतकालग्रह इति / किंविशिष्टस्य सत इदमवियोगाऽध्यवसानादि? अत आह- रागरक्तस्य, जन्तोरिति गम्यते / तत्राऽभिष्वङ्गलक्षणो रागः, तेन रक्तस्य तद्भावित- मूर्तरिति गाथार्थः। उक्तस्तृतीयो भेदः। आव० 4 अ०। साम्प्रतं चतुर्थमभिधित्सुराहपरिझुसिय कामभोगसंपओगसंपउत्ते तस्स अविप्पओगसितिसमण्णागए यावि भवइ।। (परिझुसिय त्ति) निषेविता ये कामाः कमनीया भोगाः शब्दादयः / अथवा कामौ शब्दरूपे, भोगा गन्धरसस्पर्शाः / कामभोगाः कामानां वा शब्दादीनां यो भोगस्तैस्तेन वा संप्रयुक्तः / पाठान्तरे तु तेषां तस्य वा संप्रयोगस्तेन संप्रयुक्तो यः स तथा। अथवा (परिझुसिय त्ति) परिक्षीणो जरादिना, स चाऽसौ कामभोगसम्प्रयुक्तश्च यस्तस्य, तेषामेवाविप्रयोगस्मृतेः समन्वागतं समन्वाहारस्तदपि भवत्यार्त्तध्यानमिति। स्था० 4 ठा। देविंदचकवट्टित्तणाइ गुणरिद्धिपत्थणामइयं। अहम निआणचिंतणमन्नाणाणुगयमचंतं / / / / दीव्यन्तीति देवा भवनवास्यादयस्तेषामिन्द्राः प्रभवो देवेन्द्राश्वमरादयः / तथा चक्रं प्रहरणं, तेन विजयाधिपत्ये वर्तितुं शीलमेषामिति चक्रवर्तिन्मे भरतादयः। आदिशब्दाद् बलदेवा-दिपरिग्रहः / अमीषां गुणद्धयो देवेन्द्रचक्रवादिगुणर्द्धयः / तत्र गुणास्तु रूपादयः, ऋद्धिस्तु विभूतिः, तत्प्रार्थनात्मकं तद्याच्यामयमित्यर्थः / किं तद् ? अधर्म जघन्यं, निदानचिन्तनं निदानाऽध्यवसायः, अहमनेन तपस्त्यागादिना देवेन्द्रः स्याम्, इत्यादिरूपः। आह- किमिति तदधममुच्यते ? तस्मादज्ञानानुगतम्, अत्यन्तम् , तथा च नाज्ञानिनो विहाय सांसारिक सुखेऽन्येषा-मभिलाष उपजायते / उक्तं चअज्ञानान्धाश्चटुलवनितापा-विक्षेपितास्ते. कामे सक्तिं दधति विभवाभोगतुङ्गार्जने वा / विद्वच्चित्तं भवति हि महन्मोक्षकाझै कतानं, नाल्पस्कन्धे विटपिनि कषत्यसभित्तिं गजेन्द्रः।।१।। मन्दाक्रान्तावृत्तम्। इति गाथार्थः / उक्तश्चतुर्थो भेदः / आव० 4 अ०। द्वितीयं वल्लभधनादिविषयं, चतुर्थं तत्संपाद्यशब्दादिभोगविषयमिति भेदोऽनयोर्भावनीयः। शास्त्रान्तरे (आवश्यके) तुद्वितीयचतुर्थयोरेकत्वेन तृतीयत्वम् , चतुर्थं तत्र निदानमुक्तम्। उक्तंच- "अमणुण्णाणं सद्दाणं" इत्यादि। स्था०४ ठा०१ उ०। साम्प्रतमिदं यथाभूतस्य भवति यद्वर्धनं चेदमिति तदेतदभिधातुकाम आहएयं चउव्विहं रागदोसमोहंकिअस्स जीवस्स। अट्टज्झाणं संसारवडणं तिरिअगइमूलं / / 10 / / एतदनन्तरोदितं चतुर्विधं चतुःप्रकारं रागद्वेषमोहम् / किं तस्य ? रागादिलाञ्छितस्येत्यर्थः / कस्य ?, जीवस्य आत्मनः / किम् ? आर्तध्यानमिति / तथा चतुष्टयमपि किं विशिष्टम् ? इत्यत आहसंसारवर्द्धनम्, ओघतस्तिर्यगतिमूलं विशेष इति गाथार्थः / आहसाधोरपि शूलवेदनाभिभूतस्यासमाधानादात ध्यानप्राप्तिरित्यत्रोच्यते-रागादिवशवर्त्तिनो भवत्येव, न पुनरन्यस्येति / आह च ग्रन्थकार:मज्झत्थस्स उ मुणिणो, सकम्मपरिणामजणिअमेअंति। वत्थुस्सहावचिंतणपरस्स सम्मंसहंतस्स // 11 // मध्ये तिष्ठतीति मध्यस्थः, रागद्वेषयोरिति गम्यते। तस्य मध्यस्थस्य, तुशब्द एवकारार्थः, स चाऽवधारणे / मध्यस्थस्यैव नेतरस्य / मनुते जगतस्त्रिकालावस्थामिति मुनिः, तस्य मुनेः, साधोरित्यर्थः / स्वकर्मपरिणामजनितमेतत् छलादि, यच्च प्राक्कर्मविपरिणामिदैवादशुभमापतति,न तत्र परिताप्या भवन्ति सन्तः। उक्तं च परममुनिभिः - पुट्विंचखलु भो ! कडाणं कम्माणं दुचिन्नाणं दुप्पचिक्वंताणं वेइत्ता मोक्खो, नस्थि, अवे इत्ता, तवसा वा झोसइता, इत्यादि / इत्येवं वस्तुस्वभावचिन्तनपरस्य सम्यक् शोभनाध्यवसायेन सहमानस्य सतः कुतोऽसमाधानम् ? अपितुधर्ममनिदानमिति वक्ष्यतीति गाथार्थः / / 11 / / परिहताऽऽशङ्का, गतः प्रथमपक्षः। द्वितीयतृतीयावधिकृत्याहकुणओ व पसत्थालंबणस्स पडिआरमप्पसावज्जं / तवसंजमपडिआरं, च सेवओ धम्ममणिआणं / / 12 / / कुर्वतो वा, कस्य ? प्रशस्तं ज्ञानाद्युपकारकम्, आलम्ब्यत इत्याम्बनं प्रवृत्तिनिमित्तं शुभमध्यवसानमित्यर्थः / उक्तं च-"कोहं अच्छित्तिमित्यादि प्रशस्तमालम्बनं वृत्तं यस्याऽसौ प्रशस्ता-लम्बनः, तस्य / किं कुर्वतः ? इत्यत आह- प्रतीकारं चिकित्सा-लक्षणम् , किंविशिष्टम् ? अल्पसावद्यम्, अवधं पापं, सहाऽवद्येन सावद्यम्। अल्पशब्दोऽभाववाचकः स्तोकवचनो वा / अल्पं सावा यस्मिन्नसावल्पसावधस्तं धर्ममनिदानमेवे ति योगः / कुतः? निर्दोषत्वात् / निर्दोषत्वं च वचनप्रामाण्यात्। उक्तंच -"गीयत्थो जयणाए कडजोगी कारणम्मि निद्दोसो' इत्याद्या-गमस्योत्सर्गापवादरूपत्वात् / अन्यथा परलोकस्य साधयितु- मशक्यत्वात्, साधु चैतदिति / तथा तपःसंयमप्रतीकारं च सेव-मानस्येति / तपःसंयमावेव प्रतीकारः, सांसारिकदुःखानामिति गम्यते / तं च सेवमानस्य, चशब्दात् पूर्वोक्तप्रतीकारं च / किम् ? धर्म धर्मध्यानमेव भवति, कथम् ? सेवमानस्यानिदानमिति क्रिया विशेषणम्, देवेन्द्रादिनिदानरहितमित्यर्थः / आह- कृत्स्न-कर्मक्षयात मोक्षो भवत्वितीदमपि निदानमेव उच्यते, सत्यम् / तदपि निश्चयतः प्रतिषिद्धमेव / कथम् ? - मोक्षे भवे च सर्वत्र, निस्पृहो मुनिसत्तमः / प्रकृत्यभ्यासयोगेन, यत उक्तो जिनागमे / / 1 / / इति / तथापि तु भावनायामपरिणतं सत्त्वमङ्गीकृत्य व्यवहारत इदमदुष्टमेव / अनेनैव प्रकारेण तस्य चित्तशुद्धः, क्रियाप्रवृत्तियोगाचेत्यत्र बहु वक्तव्यम्, तत्तु नोच्यते ग्रन्थ-विस्तरभयादिति गाथार्थः / / 12 / / अन्ये पुनरिदं गाथाद्वयं चतुर्भेदमप्यातध्यानमधिकृत्य साधोः प्रतिषेधरूपतया व्याचक्षते, न च तदत्यन्तसुन्दरम् , प्रथमतृतीयपक्षद्वये सम्यग Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठज्झाण २३७-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अट्ठज्झाणवेरग्ग आशङ्काया एवाऽनुपपत्ते रिति / आह- उक्तं भवता आर्तध्यानं संसारवर्द्धनमिति, तत्कथमुच्यते? बीजत्वात्। बीजत्वमेव दर्शयन्नाहरागो दोसो मोहो, जेणं संसारहेअवो भणिआ। अट्टमि अ ते तिन्नि वि, तो तं संसारतरुबीअं॥१३॥ रागो द्वेषो मोहश्च येन कारणेन संसारहेतवः संसारकारणानि भणिता उक्ताः, परममुनिभिरिति गम्यते।आर्ते चार्तध्यानेच त्रयोऽपि ते रागादयः संभवन्ति / यत एवं, ततस्तत्संसारतरुबीजं भववृक्षकारणमित्यर्थः / आह- यद्येवमोघत एव संसारतरुबीजं ततश्च तिर्यग्गतिमूलमिति किमर्थमभिधीयते ? उच्यते-तिर्यग्गतिगमन-निबन्धनत्वेनैव संसारतरुबीजमिति। अन्ये तुव्याचक्षते-तिर्यग्गतावेव प्रभूतसत्त्वसंभवास्थितिबहुत्वाच्च संसारोपचार इति गाथार्थः // 13 // इदानीमार्तध्यायिनो लेश्याः प्रतिपाद्यन्ते - कावोअनीलकाला, लेसाओ णाइसंकिलिट्ठाओ। अट्टज्झाणोवगय-स्स कम्मपरिणामजणिआओ ||14|| कापोतनीलकृष्णाः लेश्याः / किं भूताः ?, नातिसं क्लिष्टा रौद्रध्यानलेश्यापेक्षया नातीवाशुभानुभावाः, भवन्तीति क्रिया / कस्येत्यत आह-आर्तध्यानोपगतस्य, जन्तोरितिगम्यते। किं निबन्धना एताः? इत्यत आह-कर्मपरिणामजनिताः / तत्र-"कृष्णादिद्रव्य साचिव्यात्, परिणामो य आत्मनः। स्फटिकस्येव तत्रायं, लेश्याशब्दः प्रयुज्यते" ||१|एताश्च कर्मोदयायत्ता इति गाथार्थः / / 14 / / आव०४ अ01 आह- कथं पुनरोधत एवाऽऽर्त ध्यायन् ज्ञायत इत्युच्यते, लिङ्गेभ्यः, तान्येवोपदर्शयन्नाह - अट्टस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पन्नता / तं जहाकंदणया, सोयणया, तिप्पणया, परिदेवणया। लक्ष्यते निर्णीयतेपरोक्षमपि चित्तवृत्तिरूपत्वात् आर्तध्यान-मेभिरिति लक्षणानि। तत्र क्रन्दनता- महता शब्देन विरवणम् ,शोचनता- दीनता, तेपनता- तिपेः क्षरणार्थत्वादश्रुविमोचनम् , परिदेवनता-पुनः पुनः पक्लिष्टभाषणमिति / एतानि चेष्टवियोगा निष्टसंयोगरोगवेदनाजनितशोकरूपस्यैवार्तस्य लक्षणानि। स्था० 4 ठा० 1 उ०। यत आहतस्सऽकंदणसोअणपरिदेवणताडणाई लिंगाई। इट्ठाणिट्ठविओगा-विओगविअणानिमित्ताई।।१५।। तस्यार्तध्यायिनः, आक्रन्दनादीनि लिङ्गानि। तत्राक्रन्दनं महताशब्देन विरवणम्, शोचनं त्वश्रुपरिपूर्णनयनस्य दैन्यम् , परिदेवनं पुनः पुनः क्लिष्टभाषणम्, ताडनमुरःशिरःकुट्टनकेशलुञ्चनादि, एतानि लिङ्गानि चिह्नानि, अमूनि च इष्टानिष्टवियोगाऽवियोगवेदना-निमित्तानि / तत्रेष्टवियोगनिमित्तानि, तथाऽनिष्टावियोगनिमित्तानि, वेदनानिमित्तानि चेति गाथार्थः // 15 // किंचाऽन्यत् - निंदइ निअयकयाई, पसंसई विम्हिओ विभूईओ। पत्थेइ तासु रजइ, तयज्जणपरायणो होई॥१६|| निन्दति च कुत्सति च निजकृतानि आत्मकृतानि अल्पफलविफलानि, कर्मशिल्पकलावाणिज्यादीन्येतद् गम्यते। तथा प्रशंसति स्तौति बहु मन्यते सविस्मयः साश्चर्यः विभूतीः परसंपद इत्यर्थः / तथा प्रार्थयते अभिलषति, परविभूतीरिति / तथा तासु रज्यते, तास्विति प्राप्तासु विभूतीषु रागं गच्छति, तथा तदर्जन-परायणो भवति / तासां विभूतीनामर्जन उपादाने परायण उद्युक्तस्तदर्जनपरायण इति / ततो यश्चैवंभूतो भवत्यसावप्यात ध्यायतीति गाथार्थः // 16 // किञ्चसद्दाइविसयगिद्धो, सद्धम्मपरम्मूहो पमायपरो। जिणमयमणविक्खंतो, वट्टइ अट्टम्मि झाणम्मि ||17|| शब्दादयश्च ते विषयाश्च शब्दादिविषयास्तेषु गृद्धो मूञ्छितः, काक्षावानित्यर्थः / तथा सद्धर्मपराङ्मुखः प्रमादपरः / तत्र दुर्गतौ प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः, संश्चासौ धर्मश्च सद्धर्मः, क्षान्त्यादिकश्चरणकरणधर्मो गृह्यते, तत्पराङ्मुखः / प्रभादपरो मद्यादिप्रमादासकः, जिनमतमनपेक्षमाणो वर्तते आर्ते ध्यान इति / तत्र जिनास्तीर्थकरास्तेषां मतमागमरूपम्, प्रवचनमित्यर्थः / तदनपेक्षमाणस्तन्निरपेक्ष इत्यर्थः / किम् ? वर्तते, आर्तध्याने। इति गाथार्थः / / 17 // साम्प्रतमिदमार्तध्यानसंभवमधिकृत्य यदनुगतं यदर्ह च वर्तते, तदेतदभिधित्सुराहतयविरयदेसविरय-प्पमायपरसंजयाणुगच्छाणं। सव्वं पमायमूलं, वज्जे अव्वं जइजणेणं // 18 // तदातध्यानमिति योगः / अविरतदेशविरतप्रमादपरसंयतानुगतमिति / तत्राविरता मिथ्यादृष्टयः सम्यग्दृष्टयश्च, देशविरता * एकद्व्याघणुव्रतधरभेदाः श्रावकाः, प्रमादपराः प्रमादनिष्ठाश्च, ते संयताच, ताननुगच्छतीति विग्रहः / नैवाप्रमत्तः संयतानामिति भावः / इदं च स्वरूपतः सर्वं प्रमादमूलं वर्तते, यतश्चैवमतो वर्जयितव्यं परित्यजनीयम्, केन ? यतिजनेन साधुलोकेन, उपलक्षणत्वात् श्रावकजनेन च / परित्यागार्हत्यादेवास्येति गाथार्थः ||18|| आव०४ अ०। ध०। प्रव०। 이 이 अट्टज्झाणवियप्प-पुं०(आर्त्तध्यानविकल्प) अशुभध्यान भेदे, "जो एत्थ अभिरसंगो, संतासंतेसु पावहेउ त्ति। अट्टज्झाण-वियप्पो, स इमीए संगओ रूवं" ||1|| पं०१ द्वा०। अट्टज्झाणवे रग्ग-न०(आर्तध्यानवैराग्य) आर्तध्यानं च तद् वैराग्यम्। वैराग्यभेदे, हा०ा तल्लक्षणम् - इष्टेतरवियोगादि-निमित्तं प्रायशो हि यत्। यथाशक्त्यपि हेयादा-वप्रवृत्त्यादिवर्जितम्।॥२॥ उद्वेगकृद्विषादाढ्य-मात्मघातादिकारणम्। आर्त्तध्यानं ह्यदो मुख्यं, वैराग्यं लोकतो मतम् // 3 // इष्टश्च प्रियः, इतरश्चानिष्टः, इष्टे तरौ विषयाविति गम्यते / तयोयथासङ्कचेन यो वियोगादिविरहसंप्रयोगौ, स निमित्तं कारणं यस्य तदिष्टेतरवियोगादिनिमित्तम्, प्रायशो बाहुल्येन न पुनरिष्टेतरवियोगादिनिमित्तमेव, स्वविकल्पनिमितस्यापि तस्य संभवात्। हि शब्दो यस्मादर्थे / तत्प्रयोगं च दर्शियिष्यामः / यदिति वैराग्यमद एतदार्तध्यानमेवेति सम्बन्धः / कुतः? तदाऽऽर्तध्यानमेव,न पुनर्यथावद्वैराग्यमित्याह- यस्माद् यथाशक्त्यपि सामर्थ्याऽनुरूपम-प्यास्तां श्रद्धाऽतिशयाच्छवत्यतिक्रमतः हेयादौ हेयोपादेयवस्तुविषये क्रमेणाप्रवृत्त्यादिवर्जितं निवर्तनविरहितं यत्किल यथावद्वैराग्यं भवति, तद्धीन्द्रियार्थेषूपादे येषु च Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्टज्झाणवेरग्ग २३८-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अट्टदुहट्टवसट्ट तपोध्यानाऽऽदिषु यथाशक्ति निवृत्तिप्रवृत्तियुक्तं भवति, तत्स्वरूपत्वात्। खिन्नोऽट्टनमल्लो गत उज्जयिनीम्। तत्र विमुक्तयुद्धव्यापारः स्वगृहे तिष्ठति इदं तु तद्वर्जित यस्मात् तस्मादार्तध्यानमेवेति भावः / तथा उद्वेगं स्म। पर जराक्रान्त इति न कस्मैचित्कार्यायक्षम इति स्वजनैः पराभूयते मनःस्वास्थ्यचलनं करोतीति उद्वेगकृत्, तथा विषादो दैन्यं, तेनाऽऽढ्य स्म। अन्यदा स्वजनापमानं दृष्ट्वा ताननापृच्छ्यैव कौशाम्बी नगरी गतः / परिपूर्ण विषादाऽऽढ्यम्, अनेन मनो-दुःखहेतुताऽस्योक्ता / अथ तत्र वर्षमेकं यावद् रसायनं भक्षितवान् / ततोऽत्यन्तबलवान् जातः / शारीरदुःखहेतुतामस्यैवाह-आत्मेह रूढितः स्वशरीरम्, तस्य घातादि उजयिन्यां राजपर्षदि मल्लमहे प्रवर्त्तमाने पुनर्नवागतयौवनेन हिंसनताडनादि, तस्य कारणं हेतुरात्मघातादिकारणम् , आर्तध्यानम्। अट्टनमल्लेन समागत्य राज्ञो नीरङ्गणनामा महामल्लो जितः / राज्ञा तु हिशब्दस्यैवकारा-5र्थत्वादार्तध्यानमेव अद इति संबन्धितमेव / मदीयोऽयं आगन्तुकेनानेन जित इतिकृत्वा न प्रशंसितः / लोकोऽपि किंभूतमित्याह-मुखे भवं मुख्यं प्रधानम् , निरुपचरितमित्यर्थः / ननु राजप्रशंसामन्तरेण मौनभाक् जातः / अट्टनस्तु स्वस्वरूपज्ञापनाय यद्यार्तध्यानमेतत् तदा कस्माद् वैराग्यतयोक्तमित्याह-वैराग्यमुक्त- सभापक्षिणः प्रत्याह- भो भोः पक्षिणः ! ब्रूत- अट्टनेन नीरङ्गणो जितः / निर्वचनं लोकलो, लोकं पृथग्जनमाश्रित्य तद् ढयेत्यर्थो नपुनस्तत्त्वतो ततो राज्ञा उपलक्षितः। मदीय एवाऽयमट्टनमल्ल इतिकृत्वा सत्कृतः / बहु मतं संमतं तत्त्वविदुषामिति / हा०१० अटका द्रव्यं चाऽस्मै राज्ञादत्तम् / स्वजनस्तं तथाभूतं श्रुत्वा सम्मुखमागत्य अट्टज्झाणोवगय-त्रि०(आर्तध्यानोपगत) अपगतसद्विवेकतया मिलितः / सत्कारादि चकार / अट्टनेन चिन्तितम्- द्रव्यलोभादेते मम धर्मध्यानदुर्वर्तिनि आर्तध्यानध्यायिनि, ''अट्टज्झाणो वगए, साम्प्रतं सत्कारं कुर्वन्ति, पश्चान्निद्रव्यं मामपमानयिष्यन्ति, भूमिगयदिहिए ज्झियाइ"। सूत्र०२ श्रु०२ अ०। जरापरिगतस्य मे न कश्चित् त्राणाय भविष्यति, यावदहं अट्टहास-पुं०(अट्टहास) उच्चैर्हसनरूपे हासविशेषे, उपा०२ अ०) सावधानबलोऽस्मि तावत्प्रव्रजामीति विचार्य गुरोःसमीपेऽट्टनेन दीक्षा भीमं अट्टहासं मुयंतो बीहावेइ। आ०म०द्वि०ा आव०॥ गृहीतेति। "जरोवणीअस्स हु नत्थि ताणं'। उत्त० 4 अ० आ००। अट्टो-(देशी) याते, देखना०१ वर्ग। आव०॥ अट्टण-न०(अट्टन) अट्यते परिभूयते रिपुरनेन / अट्ट-करणे-ल्युट्।। अटन-न०ा गमने, घ०३ अधि० व्यायाम, औ०। चक्राकारफलकास्त्रे, भावे ल्युट् / अनादरे, ना वाच। स्वनामख्याते अट्टणसाला-स्त्री०(अट्टनशाला) व्यायामशालायाम् , ज्ञा०। मल्ले, पुं० उत्त० 4 अ०ा तत्कथा चैवम्- उज्जयिन्यां जितशत्रुनृपस्य तद्-वर्णकःअट्टनमल्लो वर्तते स्म। स च प्रतिवर्ष सोपारके गत्वा सिंहगिरे राज्ञः जेणेव अट्टणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता अट्टणसभायां मल्लान् विजित्य जयपताका लाति स्म / अन्यदा राज्ञा एवं सालं अणुप्पविसति,अणेगवायामजोगवग्गणवामद्दणचिन्तितम्- परदेशीयोऽयमट्टनम ल्लो मत्सभायां जित्वा बहु द्रव्यं मल्लयुद्धकरणेहिं संते परिसंते सयपागसहस्सपागे हिं प्राप्नोति, मदीयः कोऽपि मल्लो न जयति, नैतद्वरम्, एवं हि ममैव सुगंधवरतेल्लमाईएहिं पीयणिज्जेहिं दीवणिज्जेहिं दुप्पणिज्जेहिं महत्त्वक्षतिर्जायते, इति मत्वा कञ्चिबलवन्तं मस्यीनरं दृष्ट्वा स्वमल्लं महणिजेहिं बिंहणिज्जेहिं सबिदियगायपल्हायणिज्जेहिं अभिगेहिं चकार / तस्य त्वरितमेव मल्लविद्या समायाता। 'मत्स्यी मल्ल' इति अभिगिए समाणे तेलचम्मंसि पडिपुण्णपाणिपायसुकुमालनाम तस्य कृतम्। अन्यदा अट्टनमल्लः सोपारके समायातस्तेन समं कोमलतलेहिं पुरिसेहिं छएहिं दक्खेहिं पठेहिं य कुसलेहिं राज्ञा मत्स्यीमल्लस्य युद्धं कारितम्, जितो मत्स्यीमल्लः / अहनः मेहावीहिं निउणेहिं निउणसिप्पोवगते हिं जियपरिस्समे हिं पराजितः स्वनगरे गत एवं चिन्तयति स्म। मत्स्यीमल्लस्य तारुण्येन अभिगणपरिमद्दणुचलहुकरणगुण-निम्माएहिं अट्ठिसु हाए बलवृद्धिः, मम तु वार्द्धक्येन बलहानिः, ततोऽन्यं स्वपक्षपातिनं मल्लं मंससुहाए तयासुहाए रोमसुहाए चउव्विहाए संबाहणाए संबाहिए करोमि / ततोऽसौ बलवन्तं पुरुषं विलोकयन् भृगुकच्छदेशे समाणे अवगयपरिस्समे नरिंदे अट्टणसालातो पडिनिक्खमेति / समागतः। तत्र हरिणीग्रामे एकः कर्षक एकेन करेण हलं वाहयन् द्वितीयेन ज्ञा०१ अ० आ०चू०। औ०। फलहीमुत्पाटयन् दृष्टः। स भोजनाय स्वस्थानके सार्द्ध नीतः। तस्य बहु अट्टणियट्टियचित्त-त्रि०(आर्तनिवर्तितचित्त) आर्त निवर्तितं चित्तं यैस्त भोजन दृष्टम् / उत्सर्गसमये च सुदृढमल्पं पुरीष दृष्ट्वा मल्लविद्या आर्त्तनिवर्तितचित्ताः आर्ताद्वा निवर्तितं चित्तं यैस्ते आर्त्तनिवर्तितचित्ताः। ग्राहिता / फलहीमल्ल' इति तस्य नाम कृतम् / अट्टनः सोपारके क्लिष्टाध्यवसायिषु औ०। "अट्टणिय-ट्टियचित्ता, जह जीवा फलहीमल्लं गृहीत्वा गतः। राज्ञा मत्स्यीमल्लेन समं फलहीमल्लस्य दुक्खसागरमुवें ति"। भ०२ श०१ उ०। युद्धं कारितम् / प्रथमे दिवसे द्वयोः समतैव जाता / अट्टनेन सोपारके *आनिरर्दितचित्त-त्रि० क्लिष्ट परिणामे, आञ्जन नितराफलहीमल्लः पृष्टः- पुत्र ! तवाऽङ्गे व प्रहारा लग्नाः ? तेन स्वाङ्ग प्रहारस्थानानि दर्शितानि / अट्टनेनौषधिरसेन तानि स्थानानि मर्दितमनुगतं चित्तं येषां ते तथा / औ०। तथा मर्दितानि यथाऽसौ पुनर्नवीभूतः। मत्स्यीमल्लस्यापि राज्ञा पृष्टम् अट्टतर-न०(आर्ततर) अतिशयिते आर्तध्याने, 'पजिज-माणाऽट्टतरं व तवाऽले प्रहारा लग्रास्तथा तान् दर्शय? फलहीमल्लः पुनर्नवीभूतः रसंति" सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ०। श्रूयते / मत्स्यीमल्लोऽभिमानात् स्वस्थानं न दर्शयति स्म, वक्ति स्म अदृदुहट्ट-त्रि०(आर्त्तदुर्घट) ६ता आर्तनाम्नोध्यानविशेषस्य दुस्थगे, च-अहं पुनर्नवीभूतः फलहीपितरं जयामि। द्वितीयदिवसे पुनर्युद्धाऽवसरे उपा०२ अग द्वयोरपि साम्यमेव जातम् / तृतीयदिवसे मत्स्यीमल्लो जितः | *आतंदुःखात-त्रि० 3 त०। आर्तेन दुःखपीडिते, उपा०२ अ०। फलहीमल्लेन / अट्टनेन स्वपराभवः स्मारितः / ततो | आर्तश्चाऽसौ दुःखार्तः। मनसा देहेन च दुःखिते, विशे०। मत्स्यीमल्लेनाऽन्याययुद्धाचरणेन फलहीमल्लस्य मस्तकं छिन्नम्। अट्टहट्ट वसट्ट-त्रि० (आर्तदुर्घटवशात) आर्तस्य ध्यान Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठदुहट्ठवसट्ट 239 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अटुंगणिमित्त विशेषस्य यो दुर्घटो दुःस्थगो दुनिरोधो वशः पारतन्त्र्यं, तेनातः पीडित अट्टावयं न सिक्खिज्जा, वेहाइयं च णो वए, इत्यत्र अर्थ्यत इत्यर्थी आर्तदुर्घटवशातः / असमाधिप्राप्ते, ज्ञा०८ अ०। धनधान्यहिरण्यादिक इति व्याख्यानात् / सूत्र० 1 श्रु० *आर्तदुःखार्तवशात-त्रि०ा आर्तेन दुःखार्त आर्त्तदुःखाऽऽतः, तथा 3 अ०२ उ० भाविप्रयोजने, "अट्ट वा हेउं वा समणस्स उ विरहिए वशेन च विषयपारतन्त्र्येण ऋतः परिगतो वशातः / ततः कर्मधारयः। कहेमो'। व्य०२ उ०। धर्मविषयेऽर्थित्वे, उत्त०३ अ० कार्ये०, स्था०५ क्लिष्टाध्यवसायेन विषययन्त्रणया च दुःखिते, उपा० 2 अ० आत्रों ठा०२ उ०। मोक्षे, तत्कारणभूते संयमेच। अद्वैपरिहायती बहु, अहिगरणं मनसा दुःखितः, दुःखातॊ देहेन, वशार्तस्तु इन्द्रियवशेन पीडितः। ततः न करेज पंडिए / सूत्र० 1 श्रु०२ अ० 1 उ०। निवृत्तौ, ज्ञा० 1 अ० कर्मधारयः। विपा०१ श्रु०१ अ०। मनसा, देहेनेन्द्रियवशेन च पीडिते, सूत्राभिधेये, प्राकृतत्वाद् नपुंसकत्वमप्यर्थशब्दस्य / पा०। अभिधेये "जहा णं तुणं अट्टदुहट्टवसट्टे अकाले चेव जीवियाओ ववरोविइज्जई''। (वाच्ये), सूत्र०१श्रु०६ अगस्था०वस्तुनि, “से नूणं कामदेवा! अडे उपा०२ अ० समढे? हंता ! अहि" अस्त्येषोऽर्थ इत्यर्थः / अथवा मयोदितं वस्तु समर्थः संगतः। उपा०२ अ० "छविहे अट्टेपन्नत्ते। तंजहा-संसयअट्टे, अट्टदुहट्टियचित्त-त्रि०(आर्त्तदुःखार्दितचित्त) आर्तेन दुःखार्दितं चित्तं वुम्गहअहे, अणुजोगी, अणुसोमे, तहणाणे, अतहणाणे" स्था०६ ठा०। येषां ते तथा। क्लिष्टाध्यवसायतो दुःखितमनस्केषु, औ०। (टीकाऽस्य 'पट्ट' शब्दे द्रष्टव्या) अर्थ्यते गम्यत इत्यर्थः / अर्तेरौणादिकः अट्टदुहट्टोवगय-त्रि०(आर्तदुर्घटोपगत) आर्तमार्तध्यानं, दुर्घट थन् / हेये उपादेये वा वस्तुनि, उभयस्याप्यर्थ्य-मानत्वात् / उत्त०१ दुःस्थगनीयं दुर्यमित्यर्थः, उपगतः प्राप्तो यः स तथा / अ० आ०चूला निका विषयभोगादिके। आचा०१ श्रु०३ अ०३ उ०। दुर्निवार्याऽऽर्तध्यानवति, विपा० 1 श्रु०२ अ०। सूत्रका (अट्ठस्वरूपतामप्राप्तस्यार्थशब्दस्य अर्था 'अत्थ' शब्दे वक्ष्यन्ते) अट्टमइय-पुं०(आर्तमतिक) आर्त आर्तध्याने मतिर्येषां ते आत- | *अष्टन-त्रि० ब०व० अश्-व्याप्तौ कनिन् , तुट् च / सङ्ख्याभेदे, मतिकाः / आर्तध्यानोपयुक्ते, आतु०॥ तत्संख्यान्वितेच। वाचला प्रज्ञा अट्टवस-पुं०(आर्तवश) आर्तध्यानवश्यतायाम् , ज्ञा०१ श्रु०१ अ०) अटुंग-त्रि०(अष्टाङ्ग) अष्टावङ्गानि यस्य तदष्टाङ्गम् / यमनियमाअट्टवसट्टदुहट्ट-त्रि०(आर्त्तवशातदुःखात) आर्तवशमार्त- __ दावष्टाऽङ्गयोगे, वाच०) ध्यानवश्यतामृतो गलो, दुःखार्तश्च यः स तथा / आर्तध्यान- | अटुंगणिमित्त-न०(अष्टाङ्ग निमित्त) भौमम् 1, उत्पातम् 2, स्वप्नः३, विवशीभूतदुःखिते, "अट्टक्सट्टदुहट्टेकाले मासे कालं किचा''। ज्ञा०१ आन्तरिक्षम् 4, आङ्गं 5, स्वरं 6, लक्षणं 7, व्यञ्जनम् 8, इत्येवं श्रु०१ अ० नवमपूर्वतृतीयाचारवस्तुनिर्गते सुखदुःखादिसूचके निमित्ते, सूत्र०। अट्टवसट्टोवगय-त्रि०(आर्तवशालॊपगत) आर्तवशातश्च स उपगतश्चेति संवच्छरं सुविणं लक्खणं च, समासः। आर्तध्यानसामर्थ्यनाऽऽर्ते, श्रा०। निमित्त देहं च उपाइयं च / अट्टस्सर-त्रि०(आर्तस्वर) दुःखेन शब्दायमाने, "अट्टस्सरे ते कलुणं अटुंगमेयं बहवे अहित्ता, रसंते''। सूत्र० 1 श्रु०५ अ० 1 उ० लोगंसि जाणंति अणागताई 18l अट्टहास-पुं०(अट्टहास) अट्टेनातिशयेन हासः। 3 त०। हस घञ्। सांवत्सरमिति ज्यौतिषम्, स्वप्नप्रतिपादको ग्रन्थः स्वप्नः, तमधीत्य। उच्चहासे, वाचा "अट्टहासभीसणो"|आव० 4 अ०॥ लक्षणं श्रीवत्सादिकम् / चशब्दादान्तरबाह्यभेदभिन्नम् / निमित्तं अट्टालग-पुं०न०(अट्टालक)अट्ट इव प्रासादगृहमिव अलति पर्याप्तो वाक्प्रशस्तशकुनादिकम् / देहे भवं देहम्, मषकतिलकादि / उत्पाते भवति / अल-अच् / वाच०। प्राकारोपरिवाश्रय विशेषे, प्रश्न० भवमौत्पातिकमुल्कापातदिग्दाहनिर्घातभूमिकम्पादिकम् / तथाऽष्टाङ्गं 1 आश्रद्वाला जा सका जी०। ज्ञा०नि०। चू०। भ०। प्रज्ञा०। आचा०। च निमित्तमधीत्य / तद्यथा- भौममुत्पातमान्तरिक्षमाङ्गं स्वरं लक्षणं रा०ा अनु०। प्राकारकोष्ठकोपरिवर्तिनि मन्दिरे,"पागारं कारवित्ता णं, व्यञ्जनमित्येवंरूपम्। नवमपूर्वतृतीयाचारवस्तुविनिर्गतं सुखदुःखजी वितभरण-लाभाऽलाभादिसंसूचकं निमित्तमधीत्य लोकेस्मिन्नतीतानि गोपुरट्टालगाणि य"। उत्त०६ अ० वस्तूनि अनागतानिचजानन्ति परिच्छिदन्ति / नच शून्यादिवादेष्वेतद् अट्टि-स्त्री०(आर्ति) शरीरमानस्यां पीडायाम् आचा०१ श्रु०२ अ०५ घटते, तस्मादप्रमाणिकमेव तैरभिधीयत इति। एवं व्याख्याते सति आह उ० यातनायाम् , ध०२ अधि०। परः - ननु व्यभिचार्यपि श्रुतमुप-लभ्यते। तथाहि-चतुर्दशपूर्वविदामपि अट्टियचित्त-त्रि०(आर्तितचित्त) आतिना आर्ताद् वा ध्यान षट्स्थानपतितत्वमागमे उद्देष्यते, किं पुनरष्टाङ्ग निमित्तशास्त्रविदाम्। विशेषादाकुलं चित्तं येषां ते आतितचित्ताः / शोकादिपीडिते, "अट्टा अत्र चाऽङ्ग- वर्जितानां निमित्तशास्त्राणामानुष्टुभेन छन्दसा अट्टियचित्ता''। उपा०२ अ० प्रयोदशशतानि सूत्रम्, तावन्त्येव सहस्राणि वृत्तिः, तावत्-प्रमाणलक्षणा अट्ठ-पुं०(अर्थ) भावकर्मादौ यथायथमच / "स्त्यानचतुर्थाऽर्थे परिभाषेति। अङ्गस्य त्रयोदशसहस्राणि सूत्रम् तत्परिमाणलक्षणा वृतिः, वा" / / 2 / 23 / इति संयुक्तस्य वाठः।प्रा०ा प्रयोजने, नि०चू०१ उ०। अपरिमितं वार्तिकमिति / तदेवमष्टाऽङ्गनिमित्तवेदिनामपि परस्परतः कल्प०। सूत्र। उत्त०। आचा०। स्था०। ज्ञा० आव०"अम्हं अप्पणो षट्स्थानपतितत्वेन व्यभिचारित्वमत इदमाह - अट्ठाइंचेइयाई भवंति" आचा०२ श्रु०२अ०२ उ० प्रयोजन एव ठः, केई निमित्ता तहिया भवंति, यदा तु धनमुच्यते तदा वे न स्यात् / अत्थो धनम् / आर्षे तु भवति- केसिं च तं विप्पडिएति णाणं! Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अटुंगणिमित्त 240- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अट्ठगुणोववेय ते विजमावं अणहिज्जमाणा, अटुंगिया-स्त्री०(अष्टाङ्गिकी) अष्टभिरङ्गनिर्वृत्तायाम्, 'प्रवृत्तिरष्टाङ्गिकी आहंसु विजापरिमोक्खमेव॥१०॥ तत्त्वे"। षो०१६ विव० छान्दसत्वात्प्राकृतशैल्या वा लिङ्गव्यत्ययः / कानिचिन्निमित्तानि | अट्ठकपिणय-त्रि०(अष्टकर्णिक) ब०स०। अष्टकोणविभागे, स्था० तथ्यानि सत्यानि भवन्ति / केषांचित्तु निमित्तानां निमित्तवेदिनां वा / ८ठा। बुद्धिवैकल्यात्तथाविधक्षयोपशमाभावेन तन्निमित्तज्ञानं विपर्यासं अट्ठकम्मगंठीविमोयग-त्रि०(अष्टकर्मग्रन्थिविमोचक) अष्टकर्मरूपो यो व्यत्ययमेति / आर्हतानामपि निमित्तव्यभिचारः समुपलभ्यते, किं ग्रन्थिस्तस्य विमोचकः / ज्ञानावरणीयादिकर्मणां क्षपके, प्रश्न०५ पुनस्तीथिकानाम् ? तदेवं निमित्तशास्त्रस्य व्यभिचारमुपलभ्यते / संवद्वान अक्रियावादिनो विद्यासद्भावमनधीयानाः सन्तो निमित्तं तथा चान्यथा अट्ठकम्मतंतुघणबंधण-न०(अष्टकर्मतन्तुघनबन्धन) 3 त०। च भवतीति मत्वा, ते (आहंसु विज्जापरिमोक्खमेव) विद्यायाः श्रुतस्य . अष्टकर्मलक्षणैस्तन्तुभिर्धन बन्धने, 'वेढंता कोसिकारकीडो व्व अप्पगं व्यभिचारेण तस्य परिमोक्षं परित्यागमाहु-रुक्तवन्तः / यदि वा क्रियाया अट्ठकम्मतंतुबंधणेण'' प्रश्न०३ आश्र० द्वा० अभावाद् विद्यया ज्ञानेनैव मोक्षं सर्वकर्मच्युति-लक्षणमाहुरिति / अट्ठकम्मसूडणतव-न०(अष्टकर्मसूदनतपस्) अष्टानां कर्मणां क्वचिचरमपादस्यैवं पाठः-"जाणासु लोग सि वयंति मंदंत्ति" ज्ञानावरणादीनां सूदनं विनाशनं यस्मात्तदष्टकर्मसूदनं तपः / तपोभेदे, विद्यामनधीत्यैव स्वयमेव लोकमस्मिन् वा लोके भावान् स्वयं जानीमः, प्रव०२७१ द्वारा पंचा एवं मन्दा जडा वदन्ति। न च निमित्तस्य तथ्यता, तथाहि- कस्यचित् क्वचित्क्षुतेऽपिगच्छतः कार्यसिद्धिदर्शनात्, क्वचित् शकुनसद्भावेऽपि अट्ठकर-पुं०(अर्थकर) अर्थान् हिताहितप्राप्तिपरिहारादीन् राजादीनां कार्यविघात-दर्शनात् , अतो निमित्तबलेनादेशविधायिनां मृषावाद एव दिग्यात्रादौ तथोपदेशतः करोतीति अर्थकरः / मन्त्रिणि, नैमित्तिके केवलमिति। नैतदस्ति।नहि सम्यगधीतस्य श्रुतस्यार्थे विसंवादोऽस्ति। च। स्था० 4 ठा०३ उ० यदपिषट्स्थानपतितत्वमुद्धोष्यते,तदपि पुरुषा-श्रितक्षयोपशमवशेन / अट्ठग-न०(अष्टक) अष्टौ परिमाणमस्य प्रत्येकमष्टाऽध्यायात्मके नच प्रमाणाभासव्यभिचारे सम्यक् प्रमाणव्यभिचाराशङ्कां कर्तुं युज्यते। ऋग्वेदांशभेदे, पाणिनेरष्टाध्यायीसूत्रे च।वाचा अष्टपद्यात्मके प्रकरणे, तथाहि- मरुमरीचिकानिचये जलग्राहि प्रत्यक्षं व्यभिचरतीति कृत्वा किं तादृशैात्रिंशता घटिते ग्रन्थे च। यथा हरिभद्रसूरि- विरचितमष्टकम्, सत्यजलग्राहिणोऽपि प्रत्यक्षस्य व्यभिचारो युक्तिसंगतो भवति? न हि तस्य जिनेश्वराचार्यकृता तच्छिष्यश्रीमदभय-देवसूरिप्रतिसंस्कृता च मशकवर्त्ति- रग्निसिद्धावुपदिश्यमाना व्यभिचारिणीति सत्यधूमस्याऽपि वृत्तिः / द्वात्रिंशदष्टकानि, तेषु- प्रथमं महादेवाऽष्टकम् , द्वितीय व्यभिचारः / न हि सुविवेचितं कार्यकारणं व्यभिचरतीति / ततश्च स्नानाष्टकम्, तृतीयं पूजाष्टकम् , चतुर्थ-मग्निकारिकाष्टकम् , पञ्चम प्रमातुरयमपराधो न प्रमाणस्यैव / सुविवेचितं निमित्तं क्षुतमपि न भिक्षाऽष्टकम्, षष्ठं पिण्डविशुद्ध्यष्टकम्, सप्तमं भोजनाष्टकम्, अष्टम व्यभिचरतीति / यश्च क्षुतेऽपि कार्यसिद्धिदर्शनेन व्यभिचारः शङ्कयते, प्रत्याख्यानाष्टकम्, नवमं ज्ञानाऽष्टकम् , दशमं वैराग्याष्टकम् , एकादश सोऽनुपपन्नः / तथाहि- कार्याकूतात् क्षुतेऽपि गच्छतः कार्यसिद्धिः तपोऽष्टकम् , द्वादशं वादाष्टकम् , त्रयोदशं धर्माऽष्टकम् , चतुर्दशं साऽपान्तरालेऽन्तरशोभननिमित्तबलात्संजातेत्येवमवगन्तव्यम् / द्रव्यास्तिकाष्टकम्, पञ्चदशं पर्यायाष्टकम् , षोडशमनेकान्तवादाऽष्टकम्, शोभननिमित्तप्रस्थितस्यापीतरनिमित्तबलात् कार्यव्याघात इति। तथा सप्तदशं मांसभक्षणाष्टकम्, अष्टादशं मांसभक्षणदूषणाष्टकम्, एकोनविंश च श्रुतिः - किल बुद्धः स्वशिष्यान आहूयोक्तवान् / यथा मद्याष्टकम्,विंशतितमंमैथुनाऽष्टकम्, एकविंशंसूक्ष्मबुढ्यष्टकम्, द्वाविंश द्वादशवार्षिकमत्र दुर्भिक्ष भविष्यतीत्यतो देशान्तराणि गच्छत यूयम्। ते भाव-शुद्ध्यष्टकम्,त्रयोविंशं शासनमालिन्याष्टकम्, चतुर्विशं तद्वचनाद् गच्छन्तस्तेनैव प्रतिषिद्धाः / यथा- मा गच्छत यूयमिहाद्यैव पुण्यापुण्यविचाराऽष्टकम् , पञ्चविंशमौचित्यप्रवृत्त्यष्टकम्, षड्विंश तीर्थकरदानाष्टकम्, सप्तविंशं तीर्थकृतां महादानयुक्तत्वाष्टकम्, अष्टाविंश पुण्यवान् महासत्वः संजातः,तत्प्रभावात्सुभिक्षं भविष्यति / न तदेवमन्तरापरनिमित्तसद्भावात् तद्द्वयभिचाराशङ्केति स्थितम् // 10 // तीर्थकृतां राज्याऽष्टकम्, एकोनत्रिंशं सामायिकाष्टकम्, त्रिंशत्तम केवलाष्टकम्, एकत्रिंशं तीर्थकृतां धर्मदेशनाष्टकम, द्वात्रिंशं सिद्धाऽष्टकम् / सूत्र०१ श्रु० 12 अ०। अट्ठनिमित्तंगाई, दिव्वुप्पातंतलिक्ख भोमं च / अन्तेच- अष्टकाख्यं प्रकरणं, कृत्वा यत्पुण्यमर्जितम्। विरहात्तेन पापस्य, अंगं सरलक्खण वंजणं च तिविहं पुणेक्ककं / / 1 / / भ०११ श० 11 उ०। भवन्तु सुखिनो जनाः // 1 // हा०ा यथा वा श्रीमद्यशोविजयोपाध्यायेन अटुंगतिलय-पुं०(अष्टाङ्गतिलक) अष्टस्वङ्गेषु पुण्ड्रेषु, भ०११श०११ ज्ञानसाराख्यो द्वात्रिंश-दष्टकप्रमाणो ग्रन्थो विरचितः, तस्य देवचन्द्रगणिना ज्ञानमञ्जरी नाम टीका कृता, तस्य च द्वात्रिंशतोअटुंगमहाणिमित्त-न०(अष्टाङ्गमहानिमित्त) अष्टाङ्गानि यत्र, एवंविधं यद् ऽष्टकानां नामाभिधेयौ तत्रैवाऽन्ते दर्शितौ। पूर्णो मनः स्थिरो मोहो, ज्ञानी महानिमित्तं शास्त्रम् / आङ्गस्वप्नेत्याद्यष्टावयवे भाविपदार्थसूचके शान्तो जितेन्द्रियः। त्यागी क्रियापरस्तृप्तो, निर्लेपो निस्पृहो मुनिः / / 1 / / स्वप्नादिफलव्युत्पादके ग्रन्थे, कल्प० विद्याविवेकसंपन्नो, मध्यस्थो भयवर्जितः। अनात्मशंसकस्तत्त्वदृष्टिः अटुं गमहाणिमित्तसुत्तत्थधारय-त्रि०(अष्टाङ्गमहानिमित्त- सर्वसमृद्धिमान् ॥२।ध्याता कर्मविपाकानामुद्विग्नो भववारिधेः / सूत्रार्थधारक) अष्टाङ्गमष्टाऽवयवं यत् महानिमित्तं परोक्षार्थ- | लोकसंज्ञा-विनिर्मुक्तः, शास्त्रदृगु निष्परिग्रहः / / 3 / / अष्ट०३२ अष्ट०। प्रतिपत्तिकारणव्युत्पादक महाशास्त्रम् , तस्य यौ सूत्रार्थों तौ धारयन्ति | अट्ठगुणोववेय-न०(अष्टगुणोपपेत) अष्टभिर्गुणैरुपपेतमष्ट गुणोपये ते तथा / अधीताऽष्टभेदमहानिमित्तशास्त्रसूत्रा-ऽभिधेयेषु, ज्ञा० 1 पेतम् / पूर्णादिगुणाष्टकयुते ज्ञेये / ते चाऽष्टावमी गुणाः - पूर्ण अ०भ० रक्तमलं कृतं व्यक्त मविपुष्टं मधुरं समं सललित च / तथा उन Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठगुणोववेय 241 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अट्ठजाय चोक्तम् - "पुण्णं रतं च अलंकियं च वत्तं तहेव अविपुढे / महुरं समं सललियं, अट्टगुणा होति गेयस्स" // 1 // जी०३ प्रतिका अट्ठचक्कवालपइहाण-त्रि०(अष्टचक्रवालप्रतिष्ठान) अष्टचक्र-प्रतिष्ठिते, "एगमेगेणं महाणिही अट्टचक्कवालपइहाणे अट्ठ अट्ठ-जोअणाई उड्ड उच्चत्तेणं"। जी०३ प्रति०।। अट्ठजाय-न०(अष्टजात) जातशब्दो भेदवाचकः / अर्थभेदे, नि० चू०१ उ० धनार्थिनि, व्य०२ उ०। सूत्रम् - अट्ठजायं भिक्खुं गिलायमाणं नो कप्पइ / तस्स गणावच्छेदयस्स निहित्तए अगिलाए करणिज्जं वेयावडियं जाव रोगातंकातो विप्पमुक्के, ततो पच्छा अहा लहुस्सगे नामं ववहारे पट्टवियव्वे सिया। साम्प्रतमर्थजातं भिक्षु ग्लायन्तमित्यत्र योऽर्थजातशब्दः, तदुत्पत्तिप्रतिपादनार्थमाह - अत्थेण जस्स कर्ज,संजातं अट्ठजातोय। सो पुण संजमभावा, चालिजंतो परिगिलाई। अर्थेनार्थितया जातं कार्य यस्यासंबन्धविवक्षायामत्र षष्ठी, येनेत्यर्थः। सोऽर्थजातः गमकत्वादेवमपि समासः ! उपलक्षणमेतत् / तेनैवमपि | व्युत्पत्तिरवसातव्या।अर्थः प्रयोजनं जातोऽस्येत्यर्थजातः। पक्षद्वयेऽपि / तान्तस्य परनिपातः, सुखा-दिगणे दर्शनात्। स पुनः कथं ग्लायतीति चेदत आह- स पुनः प्रथमतः प्रथमव्युत्पत्तिसूचितः संयमभावाद् चाल्यमानःनिष्कास्यमानः परिग्लायति / द्वितीयव्युत्पत्तिपक्षे प्रयोजनानिष्पत्त्या ग्लायति, तस्योभयस्यापिअगिलया प्रागुक्तस्वरूपया वक्ष्यमाणं वैयावृत्त्यं करणीयम्, यावद् रोगातङ्कादिव रोगातकात् संयमभावचलनात् प्रयोजनानिष्पादनाच विप्रमुक्तः स्यात्। ततः पश्चाद् यत्किमप्या-चरितं भीषणादि, तद्विषये यथा लघुस्वको व्यवहारः प्रस्थापितः स्यादिति। सम्प्रति नियुक्तिकृत् येषु संयमस्थितस्याप्यर्थजातमुत्पाद्यते, तान्यभिधित्सुराहसेवगपुरिसो ओमे, आवन्न अणत्त बोहिगे तेणे। एएहि अट्ठजातं, उप्पज्जइ संजमठियस्स।। सेवकपुरुषे सेवकपुरुषविषये, एवमवमे दुर्भिक्षे, तथाऽऽपन्ने दासत्वं समापन्ने, तथा विदेशान्तरगमने उत्तमर्णनानाप्ते, तथा बोधिकैरपहरणे, स्तेनैरपहरणे च / बोधिकाः अनार्यम्लेच्छाः, स्तेना आर्यजनपदजाता अपि शरीरापहारिणः / एतैः कारणैरर्थजातं प्रयोजनजातमुत्पद्यते, संयमस्थितस्यापीति। एष नियुक्ति-गाथासंक्षेपार्थः। साम्प्रतमेनामेव विवरीतुकामः प्रथममाहअपरिग्गहगणियाए, सेवगपुरिसो उ कोइ आलत्तो। सा तं अतिरागेणं, पणयए हु अट्ठजाया य॥ सा रूविणि त्ति काउं, रण्णाऽऽणीया उ खंधवारेण / इयरो तीए विउतो, दुक्खत्तो चेय निक्खंतो।। पचागय तं सोउं, निक्खंतं बेइ गंतु णं तहियं / बहुयं मे उवउत्तं, जइ दिजइ तो विसज्जामि॥ न विद्यते परिग्रहः कस्याऽपि यस्याः साऽपरिग्रहा, सा चाऽसौ गणिका च अपरिग्रहगणिका, तया कोऽपि राजादीनां सेवकः पुरुष आलपितः संभाषितः / आलप्य च स्वगृहमानीतः / सा अर्थजाता सती तं पुरुषमतिरागेणाऽतिरागवशात् प्रणयते प्रसादयति / अन्यदा सा गणिका रूपिणी अतिशयेन रूपवतीति कृत्वा राज्ञा स्कन्धावारेण कटकेन गच्छता आत्मना सहानीता। इतरोऽपि च सेवकपुरुषस्तया गणिकया वियुक्तो दुःखातः / प्रियाविप्रयोगपीडितो निष्क्रान्तस्तथा-रूपाणामन्तिके प्रव्रज्यां प्रतिपन्नः / सा च वेश्या राज्ञा सह प्रत्यागता तं पुरुषं न पश्यति स्म, गवेषयितुमारब्धः / ततः कस्यापि पार्श्वे निष्क्रान्तं श्रुत्वा यत्र स तिष्ठति स्म, तस्यां वसतौ गत्वा तान् स्थविरान् ब्रूते- बहुकं प्रभूतं ममतु द्रव्यमनेनोपयुक्तमात्मोपयोग नीतम्, भुक्तमित्यर्थः , तद्यदि दीयते ततो विसृजामि। एवमुक्ते यत् कर्तव्यं स्थविरैस्तदाहसरमेयवण्णभेयं, अंतद्धाणं विरेयणं वा वि। वरधणुमयवेस पुस्स-भूती कुसलो सुहुमे य झाणम्मि।। गुटिकाप्रयोगतस्तस्य स्वरभेदं वर्णभेदं वा स्थविराः कुर्वन्ति, यथा सा तं न प्रत्यभिजानाति, यदि वा ग्रामान्तरादिप्रेषणेनाऽन्तद्धनिं व्यवधानं क्रियते। अथवा तथाविधौषधप्रयोगतो विरेचन कार्यते येन सग्लान इव लक्ष्यते, कृच्छ्रेणैष जीवतीति ज्ञात्वा सातं मुञ्चति / अथवा शक्तौ सत्यां यथा ब्रह्मदत्तहिण्ड्यां धनुःपुत्रेण वरधनुना मृतकवेषः कृतस्तथैव निश्चलो निरुच्छ्वासः सूक्ष्ममुच्छ्वसन् तिष्ठति, येन मृत इति ज्ञात्वा तया विसृज्यते। यदि वा पुष्पभूतिराचार्यः सूक्ष्मेध्याने कुशलः सन्ध्यानवशाद् निश्चलो निरुच्छ्वासोऽप्यतिष्ठत् तथा तेनापि सूक्ष्मध्यानकुशलेन तथा स्थातव्यं येन सा मृत इत्यवगम्य विमुञ्चति। एषां प्रयोगाणामभावेअणुसिट्टि उच्चरती, गर्मेति णं मित्तणायगादीहिं। एवं पि अट्ठजायं, करेंति सुत्तम्मि जं वुत्तं // तस्या गणिकाया यानि मित्राणि, ये च ज्ञातयः आदिशब्दात् तदन्यतथाविधपरिग्रहः / तैः स्थविरास्तां गमयन्ति बोधयन्ति, येनाऽनुशिष्टिमुच्चरति, मुत्कलनं करोतीति भावः / एवमपि अतिष्ठन्त्यां तस्यां यदुक्तं सूत्रे तत्कुर्वन्ति, "स मोचयितव्यः" इति सूत्रे मोचनस्याभिधानात् / तथा चोक्तम् - "ताहे सो मोक्खेयव्यो एवं सुत्ते भणियं" इति। गतं सेवकपुरुषद्वारम्। अधुनाऽवमद्वारमाहसुकुटुंबो निक्खंतो,अव्वत्तं दारगं तु निक्खिविओ। मित्तस्स घरे सो विय, कालगतो तोऽवमं जयं / / तत्थ अणादिजंतो, तस्स उ पुत्तेहि सो तओ चेडो। घोलतो आवण्णो, दासत्तं तस्स आगमणं // मथुरायां किल नगर्या कोऽपि वणिक् अव्यक्तं बालं, दारकं पुत्रं, मित्रस्य गृहे निक्षिप्य सकुटुम्यो निष्क्रान्तः, सोऽपि च मित्रभूतः पुरुषः कालं गतः। (तो त्ति) तस्मात्तस्य कालगमनादनन्तरमवमं दुर्भिक्षं जातम् / तत्र च दुर्भिक्षे तस्य मित्रस्य पुत्रैः स चेडो-ऽनाद्रियमाणोऽन्यत्रान्यत्र धोलति परिभ्रमति, स च तथा परिभ्रमन् कस्याऽपि गृहे दासत्वमापन्नः। तस्य च पितुर्यथाविहारक्रमं विहरतस्तस्यामेव मथुरायामागमनं जातम्। तेन च सर्वं तज्ज्ञातम्। सम्प्रति तन्मोचने विधिमभिधित्सुराहअणुणास कहण ठवियं, भीसण ववहार लिंग जं जत्थ। Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठजाय 242 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अट्टजाय दूराभोग गवेसण, पंथे जयणा य जा जत्थ॥ पूर्वमनुशासनं तस्य कर्तव्यम्, ततो धर्मकथाप्रसङ्गेन कथनं स्थापत्यापुत्रादेः करणीयम्। एवमप्यतिष्ठति यन्निष्क्रामता स्थापितं द्रव्यं तद् गृहीत्वा समर्पणीयम्, तस्याऽभावे निजकानां तस्य वा भीषणमुत्पादनीयम्, यदि वा राजकुले गत्वा व्यवहारः कार्यः / एवमप्यतिष्ठति यतो यत्र लिङ्गं पूज्यते, ततस्तत्र परिगृह्य समोचनीयः / एतस्याऽपि प्रयोगस्याभावे दूरेणोच्छिन्नस्वामिकतया, दूरदेशव्यवधानेन वा यन्निधानंतस्याऽऽभोगः कर्तव्यः,तदनन्तरं तस्य गवेषणया च गमने पथि मार्गे यतना यथौघनिर्युक्तावुक्ता तथा कर्तव्या। या च यत्र यतना साऽपि तत्र विधेया यथासूत्रमिति द्वारगाथासंक्षेपाऽर्थः। साम्प्रतमेनामेव विवरीषुः प्रथमतोऽनु-शासनकथनद्वारं प्राह - नित्थिण्णो तुज्झघरे, रिसिपुत्तो मुंच होहिई धम्मो। धम्मकहापसंगेण, कहणं थावचपुत्तस्स॥ एष ऋषिपुत्रस्तव गृहेऽवमादिकं समस्तमपि निस्तीर्णोऽधुना व्रतग्रहणार्थमुद्यत इत्यमुंमुञ्च, तवापि प्रभूतो धर्मो भविष्यतीति। एतावता गतमनुशासनद्वारम् / तदनन्तरं धर्मकथाप्रसङ्गेन च कथनं स्थापत्यापुत्रस्य करणीयम्, यथास स्थापत्यापुत्रो व्रतं जिघृक्षुर्वासुदेवेन महता निष्क्रमणमहिम्ना निष्काश्य पार्श्व-स्थितेन व्रतग्रहणं कारितः, एवं युष्माभिरपि कर्तव्यम्। तह वि य अठंते ठवियं, भीसण ववहार निक्खमंतेण / तं घेत्तूणं देजइ, तस्सासइए इमं कुज्जा। तथापिच, अनुशासने कथने च कृते इत्यर्थः / अतिष्ठति स्थापितं देयम्, भीषणं वा करणीयम्, व्यवहारे वा समाकर्षणीयः / तत्र स्थापितं भावयति / तेन पित्रा निष्कामता यत्किमपि स्थापितं द्रव्यमस्ति तद् गृहीत्वा तस्मै दातव्यम्। उपलक्षणमेतत्। तेनैतदपिद्रष्टव्यम् - अभिनवः कोऽपि शिष्यक उपस्थितस्तस्य यत्कि मप्यर्थजातं स्थापितमस्ति, यदि वा गच्छान्तरे यः कोऽपि शैक्षक उपस्थितस्तस्य हस्ते यद् द्रव्यमवतिष्ठते, तद् गृहीत्वा तस्मै दीयते, तस्य द्रव्यस्यासत्यभावे इदं वक्ष्यमाणं कुर्यात् / तदेवाऽऽहनीयल्लगाण तस्स व, भीसणं रायउले सयं वावि। अविरिक्कामो अम्हे, कहं व लज्जा न तुज्झ ति॥ ववहारेणं अहयं, भागं पेच्छामि बहुतरागं भे। अचियलिंगं च करे, पण्णवणा दावणट्ठाए। निजकानामात्मीयानां स्वजनानां, तस्य वा भीषणं कर्तव्यम् / यथा वयमविरिक्ता अविभक्तरिक्था व महे, ततो मोचयत मदीयं पुत्रं, कथं वा केन युष्माकं न लज्जाऽभूद् यदेवं मदीयपुत्रो दासत्व-मापन्नोऽद्यापि धृतो वर्तत इह। अथैवमुक्ते ते द्रव्यं न प्रयच्छन्ति, तत इदमपि वक्तव्यम् - राजकुलं गत्वा व्यवहारेणाऽप्यहं भागं बहुतरकं प्रभूततरकंग्रहीप्यामि(भे) भवतां पार्थे, तद्वरमिदानी स्तोकं प्रयच्छथा एवं तेषां भीषणं कर्तव्यम्। यदि वा येन गृहीतो वर्तते तस्य भीषणं विधेयम्, यथा यदि मोचनीयं तर्हि मोचय, अन्यथा भवतस्तं शापं दास्यामि येन न त्वम्, नेदं वा तव कुटम्बकमिति। एवं भीषणेऽपि कृते यदिन मुञ्चति, यदि वाते स्वजनान किमपि प्रयच्छन्ति, तदा स्वयं राजकुले गत्वा निजकैः सह व्यवहारः करणीयः, व्यवहारं च कृत्वा भाग आत्मीयो गृहीत्वा तस्मै दातव्यः / यद्वा- स एव राजकुले व्यवहारेणाकृष्यते, तत्र च गत्वा वक्तव्यम्यथाऽयमृषिपुत्रो व्रतं जिघृक्षुः केनापि कपटेन धृतस्तं न वर्तते, यूयं च धर्मव्यापारनिषण्णास्ततो यथाऽयं धर्ममाचरति, यथा चाऽमीषामृषीणां समाधिरुपजायते तथा यतध्वमिति। अस्याऽपि प्रकारस्याऽभावे यद्यत्र लिङ्गमर्चितं तत्परिगृह्यं दापनार्थम्, विवक्षितबालकमोचनार्थमित्यर्थः। तल्लिङ्गधारिणां मध्ये ये महान्तस्तेषां प्रज्ञापना कर्तव्या, येन ते मोचयन्ति। सम्प्रति दूराभोगेत्यादि व्याख्यानार्थमाहपुट्ठा व अपुट्ठा वा, चुयसामिभिहिं कहिंति ओहाई। घेत्तूण जावदट्ठा, पुणरवि सा रक्खणा जयणा / / यदि वा अवध्यादयोऽवधिज्ञानिनः / आदिशब्दाद्विशिष्ट श्रुतज्ञानिपरिग्रहः / पृष्टा वा अपृष्टा वा तथाविधं तस्य प्रयोजनं ज्ञात्वा च्युतस्वामिकं निधिमुत्सन्नस्वामिकं निधिं कथयन्ति, तदानीं तस्य तेषां तत्कथनकस्योचितत्वात्। ततो यावदर्थः, यावता प्रयोजनं तद् गृहीत्वा पुनरपि तस्य निधिसंरक्षणं कर्तव्यम् / प्रत्यागच्छता च यतनाविधिर्या, सा चाऽग्रे स्वयमेव वक्ष्यते। सोऊण अट्ठजायं, अटुं पडिजग्गए य आयरिओ। संघाडयं विदेंति य, पडिजग्गइणं गिलाणं पि॥ निधिग्रहणाऽर्थं मार्गे गच्छन्तमर्थजातं साधुं श्रुत्वा सांभोगिको वाऽऽचार्योऽर्थं प्रतिजागर्ति उत्पादयति। यदि पुनस्तस्य द्वितीयः संघाटको न विद्यते, ततः संघाटकमपि ददाति। अथ कथमपिग्लानो जायते ततो ग्लानमपि जागर्ति, नतूपेक्षते, जिनाज्ञाविराधनप्रसक्तेः / यदुक्तमनन्तरं यतना प्रत्यागच्छता कर्तव्या, तामाह - काउंनिसीहियं जा-ट्ठजायमावेयणं च गुरुहत्थे। दाऊण पडिक्कमणं,मा पेहंता मिगा पेसो।। यत्रान्यगणे स प्राघूर्णक आयाति, तत्र नैषेधिकीं कृत्वा, 'नमः क्षमाश्रमणेभ्यः' इत्युदित्वा च मध्ये प्रविशति / प्रविश्य च यदर्थजातं तद्गुरुभ्य आवेदयति कथयति / आवेद्य च तदर्थजातं गुरुहस्ते दत्त्वा प्रतिक्रामति। न स्वपार्श्व एव स्थित इति वेदयत आह-मा प्रेक्षमाणा मृगा इव मृगा अगीतार्थाः क्षुल्लकादयः पश्येयुर्गुरुहस्तेऽवस्थितंतनिरीक्षन्ते, अस्मद्गुरूणां समर्पित-मिति विरूपसंकल्पेऽप्रवृत्तेः। सम्प्रति 'जयणाय जा जत्थेति' तद्व्याख्यानार्थमाहसन्नी व सावको वा, निरूविए देज अट्ठजातस्स। पचुप्पण्णनिहाणे, कारणजाएगहणसोही। यत्र संज्ञी सिद्धपुत्रः श्रावको वावर्त्तते तत्र गत्वा तस्मै स्वरूपं निवेदनीय, प्रज्ञापना च कर्त्तव्या। ततो यत्तत्र तेन प्रत्युत्पन्नं तव निधानं गृहीतं वर्तते तस्यार्थजातस्य मध्यात्कतिपयान् भागान् दद्यात् / स्वयं तदानीं प्रज्ञापनातो वा गीतार्थत्वात्। अस्य प्रकारस्याऽभावे यन्निधानं दूरमवगाढं वर्तते, ततस्तेन उत्खन्य दीयमानमधिकृते कारणजाते गृह्णानोऽपिशुद्धः, भगवदाज्ञावत-नात् / गतमवमद्वारम्। इदानीमापन्नद्वारमाहथोवं पिधरेमाणो, कप्पइ दासत्तमेव अदलते। परदेसम्मि विलब्मति, वाणियधम्मो ममेस त्ति। Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अटुजाय 243- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अट्ठजाय स्तोकमपि ऋणं शेष धारयन्क्वचिद्देशे कोऽपि पुरुषः, ततः (अदलते त्ति) अददानः कालक्रमेण प्रवृद्धया, दासत्वमेव प्रति पद्यते / तस्यैव दासत्वमापन्नस्य, स्वदेशे दीक्षा न दातव्या / अथ कदाचित्परदेशे गतः सन्नविदितस्वरूपोऽशिवादिकारणतो वा दीक्षितो भवेत् / तत्र च वणिजा वाणिज्यार्थ गतेन दृष्टो भवेत् / तत्राऽयं किल न्यायः - परदेशमपि गता वणिज आत्मीयं लभन्ते, तत एवं वणिग्धर्मे व्यवस्थिते स एवं ब्रूयात् 'मम एष दासः' इति न मुञ्चिष्येऽमुमिति। तत्र यत्कर्तव्यं तत्प्रतिपादनार्थं द्वारगाथामाहनाहं विदेसआहर-णमाइ विजाय मंत जोगा य। नेमित्त राय धम्मे पासंड गणे धणे चेव / / परदेशे दासत्वमापन्नो वर्तते, नसोऽहं, किंत्वहमन्यस्मिन् विदेशेजातः, त्वं तु सदृक्षतया विप्रलब्धोऽसि, अथ सम्भूत-जनविदितो वर्ततेतत एवं न वक्तव्यं, किंतु स्थापत्यापुत्राद्याहरणं कथनीयम्, यद्यपि कदाचित् तच्छ्रवणतः प्रतिबुद्धो मुत्कलयति / आदिशब्दात् गुटिकाप्रयोगतः स्वरभेदादि कर्त्तव्यमिति ग्रहः / एतेषां प्रयोगाणामभावे विद्या मन्त्रो योगो वा, ते प्रयोक्तव्याः, यैः परिगृहीतः सन् मुत्कलयति / तेषामप्यभावे निमित्तेनाऽतीतानागतविषयेण राजा, उपलक्षणमेतत्, तदन्यो वा नगरप्रधान आवर्जनीयः, येन तत्प्रभावात्स प्रेर्यते, धर्मो वा कथनीयो राजादीनाम् येन त आवृताः सन्तस्तं प्रेरयन्ति / एतस्याऽपि प्रयोगस्याऽभावे पाषण्डान् सहायान् कुर्यात् / यद्वा यो गणः सारस्वतादिको बलीयान्, तं सहायं कुर्यात् / तदभावे दूरा-भोगादिना प्रकारेण धनमुत्पाद्य तेन मोचयेत् / एष द्वारगाथा-संक्षेपार्थः / साम्प्रतमेनामेव गाथां विवरीषुराहसारक्खएण जंपसि, जातो अन्नत्थ ते वि आमंति। बहुजणविण्णायम्मि उ, थावचसुयादिआहरणं॥ यदि प्रभूतजनविदितो न भवति, यथा-अयं तद्देशे जात इति, ततएवं ब्रूयात्। अहमन्यत्र विदेशे जातस्त्वंतुसादृश्येण विप्रलब्ध एवमसमञ्जसं जल्पसि / एवमुक्ते तेऽपि तत्रत्या आमेवमेतद्यथाऽयं वदतीति साक्षिणो जायन्ते, अथ तद्देशजाततया प्रभूतजनविदितो वर्त्तते, ततस्तस्मिन्बहुजनविज्ञाते पूर्वोक्तं न वक्तव्यम्, किन्तु प्रबोधनाय स्थापत्यापुत्राद्याहरणं कथनीयम्। विजा मंता जोगा, अंतद्धाणं विरेयणं वा वि। वरधणु व पुस्सभूती, गुलिया सुहुमे य झाणम्मि॥ विद्यादयो विद्यामन्त्रयोगाः प्रयोक्तव्याः, येन तैरभियोजितः सन् मुत्क्लयति। आहरणमादीत्यत्रादिशब्दव्याख्यानार्थमाह गुटिकाप्रयोगतः स्वरभेदेन / उपलक्षणमेतत् / वर्णभेदं कारयेत्, यदि वा अन्तर्धानं ग्रामान्तरप्रेषणेन व्यवधानम्, विरेचनं वा ग्लानतोपदर्शनाय कारयितव्यो यत्कृच्छ्रेणैष जीवतीति ज्ञात्वा विसृज्यते / यदि वा वरधनुरिव गुटिकाप्रयोगतः, पुष्पभूतिराचार्य इव सूक्ष्मध्यानवशतो निश्चलो निरुच्छ्वासः तथा स्याद् येन मृत इति ज्ञात्वा परित्यज्यते। असतीए विण्णवेती, रायाणं सो व होजउ अमिन्नो। तो से कहिज धम्मो, अणिच्छमाणा इमं कुज्जा। एतेषां प्रयोगाणामसति अभावे राजानं विज्ञापयन्ति। यथा तपस्विनमिह परलोकनिःस्पृहमेनं व्रताधापयतीति, अथासौ राजा तेन भिन्नो व्युग्राहितो वर्तते। ततःस तस्य राज्ञःप्रतिबोधनाय धर्मः कथ्यते, अथ सधर्म नेच्छति, ततस्तस्मिन् धर्ममनिच्छति, उपलक्षणमेतत्, निमित्तेन वाऽतीतानागतरूपेणावार्यमाणे इदं वक्ष्यमाणं कुर्यात्। तदेवाऽऽह - पासंडे व सहाए, गेण्हइ तुज्झं पि एरिसं हुज्जा। होहामोह सहाया, तुज्झ वि जो वा गणो बलिओ॥ पाषण्डान् वा सहायान् गृह्णाति / अथ ते सहाया न भवन्ति, तत इदं तान् प्रति वक्तव्यम्- युष्माकमपीदृशं प्रयोजनं भवेद् भविष्यति, तदा युष्माकमपि वयं सहाया भविष्यामः। एवं तान् सहायान् कृत्वा तद्बलतः स प्रेरणीयः, यदि वा यो गणो बलीयान्, तं सहायं परिगृह्णीते। एएसिं असतीए, संता विजया न हाँति उसहाया। ठवणा दूराभोगे, लिंगेण व एसिउंदेंति॥ एतेषांपाषण्डानांगणानांवा असति अभावे,ये सन्तः शिष्टाः, ले सहायाः कर्तव्याः / यदा तु सन्तो वा सहाया न भवन्ति, तदा (ठवण त्ति) निष्क्रामता या द्रव्यस्य स्थापना कृता, तहानतः स मोचयितव्यः / यदि वा दूराभोगेन प्रागुक्तप्रकारेण, अथवा यद्यत्र लिङ्गमर्चितं, तेन धनमेषित्वा उत्पाद्य ददति, तस्मै वरवृषभाः / गतमापन्नद्वारम् / इदानीमनाप्तद्वारमाह - एमेव अणत्तस्स वि, तवतुलणा नवरि एत्थ नाणत्तं / जं जस्स होइ भंडं, सो देति ममंतिगे धम्मो // एवमेव अनेनैव दासत्वापन्नगतेन प्रकारेण अनाप्तस्याऽपि प्रागुक्तशब्दाथस्य मोक्षणे यतना द्रष्टव्या, नवरम्, अत्र धनदानचिन्तायां नानात्वम् / किं तदित्याह- तपस्तुलना कर्त्तव्या / सा चैवं भण्यतेसाधवस्तपोधना अहिरण्यसुवर्णाः, लोकेऽपि यद् यस्य भाण्डं भवति, सतत् तस्मै उत्तमयि ददाति। अस्माकं च पार्श्वे धर्मस्ततस्त्वमपि धर्म गृहाण। एवमुक्तेस प्राहजोऽणेण कतो धम्मो, तं देउ न एत्तियं समं तुलइ। हीणं जावेताहिं, तावइयं विजथंभणया॥ योऽनेन कृतो धर्मःसर्वं मह्यं ददातु, एवमुक्ते साधुभिर्वक्तव्यम्, नैतावद् दद्मः, यतो नैतावत्समंतुलति। स प्राह- एकेन संवत्सरेण हीनं प्रयच्छत, तदपि प्रतिषेधनीयंचेद्वाभ्यां संवत्सराभ्यां हीनंदत्त। एवं तावत् विभाषा कर्तव्या,यावदेकेन दिवसेन कृतो योऽनेन धर्मस्तं प्रयच्छत / ततो वक्तव्यम्-नाऽभ्यधिकं दद्यः,किन्तुयावत्तद्गृहीतं मुहूर्तादिकृतेन धर्मेण तोल्यमानं समंतुलति,तावत्प्रयच्छामः। एवमुक्तेयदितोलनाय ढौकते, तदा विद्यादिभिस्तुला स्तम्भनीया, येन क्षणमात्रकृतेनाऽपि धर्मेण न समं तोलयतीति / धर्मतोलनं च धर्माधिकरणिकनीतिशास्त्र - प्रसिद्धमस्ति,ततोऽवसातव्यम्। जइ पुण नेच्छेज्ज तवं, वाणियधम्मेण ताहे सुद्धो उ / को पुण वाणियधम्मो, सामुद्दे संभमे इणमो॥ वत्थाणाभरणाणि य, सव्वं छड्डित्तु एगविंदेण। पोयम्मि विवण्णम्मि उ, वाणियधम्मे हवइ सुद्धो॥ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठजाय 244 - अभिषानराजेन्द्रः - भाग 1 अदुपएसिय एयं इमो वि साहू, तुज्झं नियगं च सारमुत्तूणं / कथं पुनरस्या अवलम्बनं क्रियतइत्याह-तांपुनःप्रथमव्युत्पत्तिसूचितां, निक्खंतो तुज्झ घरे, करेइ इम्हि तु वाणिजं // संयमभावात् चाल्यमानाम्। द्वितीयतृतीयव्युत्पत्तिपक्षे तु द्रव्याभावेन यदिपुनरुक्तप्रकारेण क्षणमात्रकृतस्यापि धर्मस्याऽलाभेन नेच्छेत्तपो प्रयोजनानिष्पत्त्या वा सीदन्ती समवलम्बेत,साहाय्यकरणेन ग्रहीतुम्। ततो वक्तव्यम्- वणिग्धर्मेण वणिग्न्यायेन एष शुद्धः / स प्राह- सम्यग्धारयेत्, उपलक्षणत्वाद् गृह्णीयादपि। बृ०६ उ०। (संयमस्थिताया कः पुनर्वणिग्धर्मो येनैष शुद्धः क्रियते? साधवो वदन्ति- समुद्रे संभ्रमे | निर्ग्रन्थ्या अर्थज्ञातवक्तव्यता निरवशेषा निर्ग्रन्थस्येव भावनीया, केवलं गमनेऽयं वक्ष्यमाणः / तमेवाह (वत्थाणाभरणेत्यादि) यथा वणिक् ऋणं स्त्र्यभिलापः कार्यो भवतीति बृहत्कल्पोक्ता साऽत्र नोपन्यस्ता)। कृत्वा प्रवहणेन समुद्रमवगाढः, तत्र पोते प्रवहणे विपन्ने आत्मीयानि अट्ठजुत्त-त्रि०(अर्थयुक्त) अर्थेन हेयोपादेयात्मकेन युक्तानि अन्वितानि परकीयानि च प्रभूतानि वस्त्राण्याभरणानि, चशब्दाच्छेषमपि च अर्थयुक्तानि। हेयोपादेयाभिधायकेषु आगमवचनादिषु, अर्थो मोक्षस्तत्र नानाविधं क्रयाणकं सर्वं छर्दयित्वा परित्यज्य, एकवृन्देन, भावप्रधान युक्तान्यन्वितानि अर्थयुक्तानि। मोक्षे उपादेयतया सङ्गतेषु वचनादिषु / एकशब्दःएकतैव वृन्दं तेनैकाकी उत्तीर्णो, वणिग्धर्मे वणिग्न्याये शुद्धो "अट्ठजुत्ताणि सिक्खेज्जा णिरट्ठाणि उ वज्जए"। उत्त०१० भवति, न ऋणं दाप्यते। एवमयमपिसाधुस्तव सत्कमात्मीयं च सारंसर्व अहमिका-स्त्री०(अष्टाष्टमिका) अष्टावष्टमानि दिनानि यस्यां तव गृहे मुक्त्वा निष्क्रान्तः संसारसमुद्रादुत्तीर्ण इति शुद्धः, न धनिका साऽष्टाऽष्टमिका / यस्यां हिं अष्टौ दिनाष्टकानि भवन्ति तस्यामष्टौ अष्टमानि ऋणमात्मीयं याचितुं लभन्ते, तस्मान्न किञ्चिदत्र तवाऽऽदेयम- भवन्त्येवेति / चतुष्षष्टिदिननिष्पन्नायां भिक्षुप्रतिमायाम्, स०। स्तीति / करोत्विदानीमेष स्वेच्छया तपोवाणिज्यस्, पोतभ्रष्टवणिगिव अट्ठमियाणं भिक्खूपडिमा चउसट्ठीए राइंदिएहिं दोहि य निर्ऋणो वाणिज्यमिति / गतमनाप्तद्वारम्। अट्ठासीएहिं, भिक्खासएहिं अहासुत्तंजाव भवइ। अधुना बोधिकस्तेनद्वारप्रतिपादनार्थमाह भिक्षुप्रतिमाऽभिग्रहविशेषः / अष्टावष्टकानि यतोऽरौ भवन्ति, बोहियतेणेहि हिए, विमग्गणा साहुणो नियमसोय। यतश्चतुष्षष्ट्या रात्रिंदिवैः सा पालिता भवति, तथा प्रथमेऽष्ट के अणुसासणमादीतो, एसेव कमो निरवसेसो।। प्रतिदिनमे कै का भिक्षा, एका दत्तिर्भोजनस्य पानकस्य च, एवं बोधिकाः स्तेनाश्च प्रागुक्तस्वरूपाः, तैर्हते साधौ नियमशो नियमेन द्वितीये द्वे द्वे यावदष्ट मे अष्टावष्टाविति संकलनया द्वे शते साधो विमार्गणं कर्त्तव्यम्, तस्मिंश्च विमार्गणे कर्त्तव्येऽनु- भिक्षाणामष्टाशीत्यधिके भवतः। अत उक्तंद्वाभ्यां चेत्यादियावत्करणात्। शासनादिकोऽनुशिष्टिप्रदानादिको धनप्रदानपर्यन्त एष एवा- अहाकम्प्पं अहामग्गं फासिया पालिया सोहिया तीरिया कित्तिया सम्म ऽनन्तरोदितः क्रमो निरवशेषो वेदितव्यः। आणाए आराहिया वि भवइ, इति दृश्यम्। स०६४ सम०। स्था०| संप्रत्युपसंहारव्याजेन शिक्षामपवादं चाऽऽह अष्टाऽष्टमिकायामष्टक आदिरष्टक उत्तरमष्टको गच्छः / तत्राऽष्टलक्षणो तम्हा अपरायत्ते, दिक्खिजाऽणारिएण वजेजा। गच्छ उत्तरेणाऽष्टकेन युतः क्रियते, जाता चतुष्षष्टिः, सा उत्तरहीना अद्धाण अणाभोगा, विदेस असिवादिसुंदो वि॥ आदियुता क्रियते, तथापि सैव चतुष्षष्टिः। एतदष्टमेऽष्टके भिक्षापरिमाणम्, यस्मात्परायत्तदीक्षणेऽनार्यदेशगमने चैते दोषास्तस्मादपरायत् , तान् / एतदादिना-ऽष्टकेन युतं क्रियते, जाता द्वासप्ततिः 72 / सा गच्छाऽर्द्धन दीक्षयेत, अनार्यांश्च देशान् वर्जयेत् / अत्रैवापवादमाह (अद्धाण त्ति) चतुष्केण गुण्यते, जाते द्वेशते अष्टाशीत्यधिके / व्य०६ उ० प्रव० / अध्वानं प्रतिपन्नस्य ममोपग्रहमेते करिष्यन्तीति हेतोः परायत्तानपि | अन्ता दीक्षयेत। यदिवाऽनाभोगतः प्रव्राजयेत्। विदेशस्थान् वा स्वरूपमजानतो अट्ठाण-न०(अष्टस्थानक) प्रज्ञापनाया अष्टमे स्थाने, “एवं जहा दीक्षयेत / पुनरशिवादिषु कारणेषु (दो वि त्ति) द्वे अपि अट्ठट्ठाणे"। स्था० १०ठा। परायत्तदीक्षणानार्यदेशगमनेऽपि कुर्यात्। किमुक्तं भवति ? अशिवादिषु अट्ठणाम-न०(अष्टनामन्) अष्ट विधपदार्थनामनि, "से किं तं कारणेषु समुपस्थितेषु परायत्तानपि गच्छोपग्रहनिमित्तं दीक्षयेत, अठ्ठणामे ? अट्ठणामे अट्टविहा वयणविभत्ती' अनु०॥('वयण- विभत्ति' अनार्यानपि देशान् विहरेदिति / व्य०२ उ०। एतत्पुरुषस्याऽर्थजात- शब्दे निरूपितमेतत्) त्वमुपदर्शितम्। अट्ठदं सिण-त्रि० (अर्थदर्शिन) यथावस्थितमर्थ यथा गुरुअथ संपत्त्याऽर्थजातत्वमुच्यते * सकाशादवधारितमर्थं प्रतिपाद्यं द्रष्टुं शीलमस्य स भवत्यर्थअट्ठजायं णिग्गंथे णिग्गंथिं गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा / दर्शी। सत्पदार्थवेत्तरि, "समालवेजापडिपुन्नभासी, निसामिया सामिय णाऽइक्कमइ। अट्ठदंसी''। सूत्र०१ श्रु०१४ अ०। अर्थः कार्यमुत्प्रव्राजनतः स्वकीयपरिणेत्रादेतं यया साऽर्थजाता | अट्ठदुग्ग-त्रि०(अर्थदुर्ग) अर्थतः परमार्थतो दुर्गं विषमम् / सूत्र० पतिचौरादिना संयमाचाल्यमानेत्यर्थः / स्था०५ ठा०२ उ०। इह गाथा - 1 श्रु०१० अ० परमार्थतो विचार्यमाणे गहने दुर्विज्ञेये, सूत्र०१ श्रु०५ अद्वेण जायकलं,संजायं एस अट्ठजाया उ। अ०१ उ०ा परमार्थती दुरुत्तरे, "इओ चुतेसुदुहमट्ठदुग्गं'' सूत्र० 1 श्रु० तं पुण संयमभावा, चालिजंती समवलंबे ||1|| १०अ०६उ०) अर्थेनाऽर्थितया संजातं कार्यं यया। यद्वा- अर्थेन द्रव्येण जातमुत्पन्नं | अट्ठपएसिय-त्रि० (अष्टप्रदेशिक) अष्टौ प्रदेशा यस्मिन् इति कार्य यस्याः सा अर्थजाता। गमकत्वादेवमपि समासः। उपलक्षणमेतत्, अष्टप्रदेशिकः / स्वार्थिककप्रत्ययविधानादिति / प्रदेशा-ऽष्टकनिष्पन्ने, तेनैवमपि व्युत्पत्तिः कर्तव्या। अर्थः प्रयोजनं जातमस्या इत्यर्थजाता। | "एत्थणं अट्ठपएसिए रुयगे"। स्था० 10 ठा। Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदुपदचिंतण 245 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अट्ठपुप्फी अट्ठपद(य)चिंतण-न०(अर्थपदचिन्तन)अर्यमाणं विचार्यमाणं यत्पदं वाक्यादि, पद्यते गम्यतेऽर्थोऽनेनेति व्युत्पत्तेः / तस्य चिन्तनं भावनं विचारणं, स्वविषये स्थापनमिति यावत् / विचारणीयस्य वाक्यादेरर्थपर्यालोचने, धा अयं भावः- सूक्ष्मेक्षिकया भावनाप्रधानेन सताऽर्थपदं विचारणीयं, विचार्य च बहुश्रुतसकाशात् स्वविषये स्थापयितव्यम् / अर्थपदचिन्तनं विना सम्यग्धर्मश्रद्धानमेव न घटते। तथा च परमार्षे "सुच्चा य धम्म अरहंतभासिअसमाहिअंअट्ठपओवसुद्धं" इत्यादि।तस्मादर्थपदं विचार्य स्वविषये स्थापयितव्यम् / तद्यथा- यदि सूक्ष्मोऽप्यतिचारो ब्राह्मीसुन्दर्यादीना मिव स्त्रीभावहेतुस्तदा प्रमत्तानां साधूना कथं चारित्रं मोक्षहेतुत्वेन घटते ? प्रभूतातिचारवत्त्वात्। अत्रेयं समाधानभावना यः प्रव्रजितः सूक्ष्ममप्यतिचारं करोति, तस्य विपाकोऽतिरौद्र एव, परं प्रतिपक्षाध्यवसायः प्रायस्तस्य क्षपणहेतु लोचनादिमात्रम्, ब्राह्मयादीनामपितद्भावात्। प्रतिपक्षा-ऽध्यवसायश्च-क्रोधादिषु क्षमादिः संवरभावेनोक्तः / एवं च प्रमत्तानामपि प्रत्यतिचारं तुल्यगुणाधिकगुणप्रतिपक्षाध्यवसायवतां धर्मचरणमविरुद्धम् सम्यकृतप्रतीकारस्य विषस्येवातिचारस्य स्वकार्याक्षमत्वात्। नन्वेवं प्रतिपक्षाध्यवसायस्यैवातिचारप्रतीकारत्वे प्रायश्चित्तादिव्यवहार उच्छिद्येतेति चेत्, न, प्रायश्चित्तादियतना-व्यवहारे तुल्यतामप्राप्नुवति प्रतिपक्षाऽध्यवसायस्य विशेषणस्य ध्रौव्यात्। तदुत्कर्षकेणैव च विशेष्यस्य साफल्यात्। विशेष्य विशेषण-भावे विनिगमनाविरहस्तु नयभेदाऽऽयत्तो दुष्परिहर एव / तथाऽ- प्यसकृत् प्रमादाचरणकृतमतिक्रमजातं प्रतिपक्षाध्यवसायेन कथं परिहियेत? असकृत्कृतस्य मिथ्यादुष्कृतस्याऽप्यविषयत्वा-दिति चेत् मैवम् / अत एव तुल्यगुणाधिकगुणाध्यवसायस्यैव ग्रहणात्। एकेनापि बलवता प्रतिपक्षेण परिभूयते बहुलमप्य-नर्थजातं,कर्मजनितात् चाऽतिचारादेरात्मस्वभावसमुत्थस्य स्तोकस्याऽपि प्रतिपक्षाध्यवसायस्य बलवत्त्वमुपदेशपदादि-प्रसिद्धमेव / स्यादेतत्। मनसो विकाराः प्रतिपक्षाऽध्यवसायनिवां भवन्तु, कायिकप्रतिसेवनारूपा अतिचारास्तु कथं तेन निवर्तेरन् ? इति चेत् मैवम्, संज्वलनोदयजनितत्वेनाऽतिचाराणामपि मानसविकारत्वात् , द्रव्यरूपकायिकप्रतिसेवनादीनां तु अदूरवि-प्रकर्षेणैव निवृत्तिरिति दिक् / ध०३ अधि। अट्ठपद(य)परू वणया-स्त्री०(अर्थपदप्ररूपणता) अर्थः, त्र्यणुकस्कन्धादि, तद्युक्तं तद्विषयं वा पदमानुपूर्व्यादिकं, तस्य प्ररूपणं कथनं, तद्भावोऽर्थपदप्ररूपणता / इयमानुपादिका संज्ञा, अयं च तदभिधेयस्यणुकादिरर्थः संज्ञी, इत्येवं संज्ञा-संज्ञिसंबन्धकथने, से कि तं गमववहाराणं अणोवणिहिया दव्वाणुपुव्वी? पंचविहा पण्णत्ता। तं जहा- अट्ठपद परूवणया / (इत्यादि सर्वं द्वितीयभागे 131 पृष्ठे 'आणुपुची' शब्दे वक्ष्यामः) अनु०॥ अट्ठपदोवसुद्ध-त्रि०(अर्थपदोपशुद्ध) अर्थपदानि युक्तयो हेतवो वा तैरुपशुद्धमवदातम् / सयुक्तिके, सद्धेतुके च / अर्थरभिधेयैः पदैश्व वाचकैरुप सामीप्येन शुद्धं निर्दोषम् / निर्दोषवाच्यवाचके, “सोचा य धम्मं अरहंतभासिअं, समाहितं अट्ठपदोवसुद्धं''। सूत्र० 1 श्रु० ६अ। अट्ठपिट्ठणिट्ठिया-स्त्री०(अष्टपिष्टनिष्ठिता) अष्टभिः शास्त्रप्रसिद्धः पिष्टैर्निष्ठिताऽष्टपिष्टनिष्ठता। प्रज्ञा०१७ पद०) अष्टवार-पिष्टप्रदाननिष्पन्ने सुराभेदे, जी० 3 प्रति अट्ठपुप्फी-स्त्री०(अष्टपुष्पी) अष्टौ पुष्पाणि पूजात्वेन समाहृतानि अष्टपुष्पी। पूजाऽर्थक पुष्पाऽष्टके, पुष्पाऽष्टक-निष्पाद्यायां पूजायां च / हा। अष्टपुष्पी समाख्याता, स्वर्गमोक्षप्रसाधनी। अशुद्धतरभेदेन, द्विधा तत्त्वार्थदर्शिभिः।।१।। अष्टौ पुष्पाणि कुसुमानि यस्यां पूजायां साऽष्टपुष्पी। नदादि-दर्शनाच्च ईप्रत्ययः / इयं च जघन्यपदमाश्रित्योच्यते, न द्वित्रिचतुःपुष्पाण्यारोपणीयानि / यद्वक्ष्यति-"स्तोकैर्वा बहुभिर्वाऽपि'' इति। अष्टपुष्प्याश्च देवपूजने कारणत्वं वक्ष्यति। द्विधेत्यस्येह संबन्धात् द्वाभ्यां प्रकाराभ्यां द्विधा द्विप्रकारा समाख्याता सम्यगभिहिता, तत्त्वार्थदर्शिभिरितीह संबध्यते। तत्त्वभूता अर्थाजीवादयस्तान्, तत्त्वेन वापरमार्थवृत्त्याऽर्थान्। पश्यन्तीत्येवं-शीलास्तत्त्वार्थदर्शिनस्तैः / कथं द्विधेत्याह- अशुद्धतरभेदेन, अशुद्धा च सावद्यतया, इतरा च निरवद्यतया, अशुद्धतरे, ताभ्यां कृत्वा तयोर्वा भेदो विलक्षणता अशुद्धतरभेदस्तेन, इह चेत-राशब्दस्य पुंवद्भावः, "वृत्तिमात्रे सर्वादीनां पुंवद्भावः" इति वचनात्। फलतस्तां निरूपयन्नाह - स्वर्गमोक्षप्रसाधनी, आधा देवलोकसाधनी, द्वितीया तु निर्वाणसाधनीत्यर्थः। पाठान्तरे तुस्वर्गमोक्षप्रसाधनाद् हेतोर्द्विधा / एतदेव कथम् ? अशुद्धतरभेदेन इत्येवं पदयोजना कार्येति // 1 // अशुद्धां श्लोकद्वयेन तावदाहशुद्धागमैर्यथालाभं, प्रत्यग्रैः शुचिभाजनैः। स्तोकैर्वा बहुमिर्वाऽपि, पुष्पैर्जात्यादिसंभवैः / / 2 / / अष्टापायविनिर्मुक्त-तदुत्थगुणभूतये / दीयते देवदेवाय, या सा शुद्धत्युदाहृता / / 3 / / शुद्धो निर्दोष आगमः प्राप्त्युपायो येषां तानि शुद्धागमानि, न्यायोपात्तवित्तेनाचौर्येण वा गृहीतानीत्यर्थः / पुष्पैर्दीयते देवदेवाय या साशुद्धत्युदाहृतेतिसंबन्धः / कथं दीयत इत्याह- लाभस्याऽ- नतिक्रमेण यथालाभ, प्रवचनप्रभावनार्थमुदारभावेन मालिकाद् यथालाभगृहीतैर्देशकालापेक्षया चोत्तममध्यमजघन्येषु यानि लब्धानि तैःपुष्पैरिति भावना / प्रत्यगुरपरिम्लानः, शुचिभाजनैः पवित्रपटलकाद्याधारैः, इतरथा स्नानादिशौचमपि न मनोनिवृत्तिमापादयेदिति, स्तौकैरल्पैः, प्रत्यपायापगमं पुष्पदाना दष्टमिरित्यर्थः / बहुभिर्भूरिभिस्तदुद्देशेनादानात् / वाशब्दौ स्तोकबहुपुष्पपूजयोर्बहुमानप्रधानस्य फलं प्रत्यविशेषप्रति-पादनार्थों / अपिशब्दस्तु समुच्चयार्थ इति / पुष्पैः कुसुमैः जात्यादिसंभवैर्मालतीप्रभृतिप्रभवैः, आदिशब्दाद् विचकिला दिपरिग्रहः / इह कश्चिदाहजात्यादिग्रहणं सुवर्णादिसुमनसा निषेधार्थम् / जात्यादिकुसुमानि हि सकृदारोपितानि निर्माल्यमिति कृत्वा न पुनः पुनरारोप्यन्ते, सौवर्णादीनि तु पुनः पुनरारोपणीयानि भवन्ति, निर्माल्यारोपणदोषश्चैवं प्रसज्यत इति / एतचाऽयुक्तम्-"कंचणमोत्तियरयणाइदामएहिं च विविहेहिं' इत्यनेन तेषा- मनुज्ञातत्वात् / पुनरारोपणनिषेधे तु कः किमाह ? किन्तु यदा नोत्तार्यन्ते तदा निर्माल्यारोपणदोषोऽपि न स्यात् / जात्या-दिकुसुमानि हि कालातिक्र मेण विगन्धानि भवन्तीत्यवश्य-मुत्तारणीयानि स्युः / सौवर्णादीनि तु न तथेति नाऽवश्य-मुत्तारणीयानि, तथाविधविगन्धत्वाभावादेव। तेषां पुनरारोपणेऽपि न तथाविधो दोष इति मन्यते / यदपि कैश्चिदुच्यते - अलङ्कारारोपणमयुक्तं, वीतरागाकारस्याभावप्राप्तेः। तदपिन युक्तम्। पुष्पारोपणेऽपि तथाप्रसङ्गात् / यथा हि आभरणानि Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठपुष्फी 246 - अभिषानराजेन्द्रः - भाग 1 अट्ठपुप्पी वीतरागस्य नोपपद्यन्ते एवं पुष्पाण्यपि, उभयेषामपि सरागै- 1 राचरितत्वादिति / अष्टपुष्पीविधाने कारणमाह- अपायोऽनर्थस्तद्धेतुत्वादपाया ज्ञानावरणादयः, अष्टावपायाः समाहृताः अष्टापायम्, तस्माद्विशेषेण प्रकारान्तरेणैव, दग्धरज्जुकल्प-करणतः भवोपग्राहिभ्यश्चतुर्य इत्यर्थः / नितरां निःसत्ताकतया चतुर्म्य एव घातिकर्मभ्यो मुक्तः अपेतः / धात्वर्थमात्रवृत्ती वा विशब्दनिः शब्दाविति / विनिर्मुक्त इव विनिर्मुक्तः, अष्टाऽपायविनिर्मुक्तस्तथा, तस्मादष्टाऽपायविनिर्मोक्षणादुत्था उत्थानं यस्याः सा तदुत्था, गुणा अनन्तज्ञानदर्शनादयस्तेषां भूतिः प्रादुर्भावः, त एव वा भूतिर्लक्ष्मीगुणभूतिः, तदुत्था गुणभूतिर्यस्य स तथा / अष्टापायविनिमुक्तस्तदुत्थगुणभूतिश्च यः स तथा, तस्मै / यद्यपीह गुणीभूतं विनिर्मोचनं, क्तप्रत्ययार्थस्यैव प्रधानत्वात्तथापि तच्छब्देन तदेव परामृश्यते, वक्त्रा तथैव विवक्षितत्वात् / दृष्टश्चाऽयं न्यायः / यथा- सम्यग्ज्ञानपूर्विका सर्वपुरुषार्थसिद्धिरिति तद्-व्युत्पाद्यत इत्यादाविति। दीयते वितीर्यते, देवदेवाय स्तुत्यस्तुत्याय, याऽष्टपुष्पी सा शुद्धाऽसावद्या, उदाहृता सर्वज्ञैरभिहितेति / नन्वष्टा-ऽपायविनिर्मुक्तोत्था एतद्विनिर्मोक्षणोत्था गुणभूतिर्यस्येत्यनेनैवा-ऽष्टपुष्पीनिबन्धनस्यावसीयमानत्वात्, किं तच्छब्दोपादानेनेति / नैवम् , अष्टाऽपायविनिर्मुक्ताय दीयते, इत्यनेनाऽष्टपुष्पीनिबन्धन-माह / तदुत्थगुणभूतये इत्यनेन चतुःपुष्पिकाया अनन्तज्ञानदर्शन सुखवीर्यचतुष्टयरूपत्वादष्टकर्मविनिर्मुक्तिप्रभवगुणानाम्, अष्टाऽपाय-विनिर्मुक्ताय इत्यनेनैवाऽवसितमिदमिति चेन्न, सिद्धानां हि कैश्चित् प्रकृतिवियोगाद् ज्ञानाऽभावः, शरीरमनसोरभावाद्वीयर्याभावः, विषयाभावाच्च सुखाऽभावो भाष्यते, तन्मतव्युदासार्थत्वादित्थ-मुपन्यासः, तदाऽऽवारकक्षये हि तेषां न्यायप्राप्तत्वात् / यद्येवं ज्ञानावरण-पञ्चकक्षये केवलिनो ज्ञानपञ्चक प्रसङ्गः, न चेष्यते, नट्ठम्मि छाउमथिए नाणे, इतिवचनादिति / नैवम्। केवलज्ञानेनैव शेषज्ञानज्ञेयस्य प्रकाशितत्वेन तेषामनर्थकत्वान्नष्टत्वमुपदिश्यत इति / एतेन तु पूर्वाऽर्धन ये मन्यन्ते जिनबिम्बप्रतिष्ठायामवस्था-त्रयम् , कल्प्यते तेन बालाऽवस्थाश्रयं स्नानम्, निष्क्रमणाऽव-स्थोचितं रथारोपणपुष्पपूजादिकम् , केवल्यवस्थाश्रयं च वन्दनं प्रवर्तत इति, तन्मतमपाकरोति / न ह्यष्टापायविनिर्मुक्तिद्वारेण पूजा क्रियमाणा गृहस्थावस्थां विषयीकरोति, किन्तु केवल्यवस्थामेव / न तु चिन्तनीयमिदं यदष्टापायविनिमुक्तिमालम्ब्य केवल्यवस्थायां पूजा कार्येति, यतो न चारित्रिणः स्नानादयो घटन्ते। तद्वत्साधूनामपि तत्प्रसक्तेः।नचतचरितं सताऽऽलम्बनीयम्, अन्यथा परि-णताप्कायादिपरिहार आचरणनिषेधार्थः कथं स्यात् ? श्रूयते हि-एकदा स्वभावतः परिणतं तडागोदरस्थाप्कायं तिलराशिं स्थण्डिलदेशं च दृष्ट्वाऽपि भगवान् महावीरस्तत्प्रयोजनवतोऽपि साधून तत्सेवनार्थं न प्रवर्तितवान् / मा एतदेवास्मचरितमालम्ध्य सूरयोऽन्यांस्तेषु प्रवर्तयन्तु, साधवश्व मा तथैव प्रवर्त्तन्तामिति / सत्यम् , किन्तु बिम्बकल्पोऽन्य इति मन्यते, यथैव भावार्हति च वर्तितव्यं, न तथैव स्थापनार्हत्यपीति भावः / अत एव भगवत्समीपे गौतमादयः साधयस्तिष्ठन्ति स्म / तबिम्बसमीपावस्थाने तु तेषां निषेध उक्तः / यदाह-जइ विन आहाकम्म,भविककयं तह वि वज्जयंतेहि। भत्ती खल होइ कया, इहरा आसायणा परमा॥१॥ तथा- दुन्भिगंधमलस्सावि, तणुरपि सण्हाणि य / उभओ उ वहो चेव, ते णट्ठति न चेइए // 1 // | तेनैवार्यिका दण्डकं स्थापनाचार्य स्थापयन्ति / अन्यथा यथा भावाचार्यसमीपे नावश्यकं कुर्वन्ति, तथा स्थापनाचार्यसमीपेऽपि न कुर्युः, न च ताः प्रवर्तिनी स्थापयन्तीति वाच्यम्। प्रतिक्रमणकाल एव चैत्यवन्दनाऽवसरे महावीरादेरवश्यं कल्पनीयत्वेन तद्दोषस्य समानत्वात्, नह्याचार्य एव पुरुषो, न भगवान्।नच वीतरागत्वेऽपि भगवत्समीपे, आर्यचन्दनाद्यार्यिका रात्रौ तस्थुः / ननु प्रतिक्रमणादिकालेऽर्हत्स्थापनां कृत्वा चैत्यवन्दने क्रियमाण आशातना-दोषप्रसङ्ग इति। नैवम्, जिनायतनेऽपि चैत्यवन्दनस्यानुज्ञातत्वात् / यदाहनिसकडमनिसकडे वा, विचेइए सव्यहिं थुई तिन्नि। वेलंबचेझ्याणिव, नाउं एक्कक्किया वा वि ||1|| इत्यलं प्रसनेनेति // 3 // अशुद्धाऽष्टपुष्पी स्वरूपत उक्ता, सैव स्वर्गप्रसाधनीति यदुक्तं, तदधुना प्रदर्शयन्नाह - संकीर्णषा स्वरूपेण, द्रव्याद्भावप्रसत्तितः।। पुण्यबन्धनिमित्तत्वाद्, विज्ञेया स्वर्गसाधनी॥४|| संकीर्णा- अवद्येन व्यामिश्रा, एषाऽनन्तरोक्ताऽष्टपुष्पी, स्वरूपेण स्वभावेन / कथमित्याह- द्रव्यात् पुष्पादेः सकाशाद् भाव-प्रसूतितो भगवति चित्तप्रसादोत्पत्तेः। इदमुक्तं भवति-पुष्पादिद्रव्यो-पयोगादवद्यु, शुभभावश्च स्यातामिति संकीर्णत्वम्। इदं च न कर्मक्षपणनिमित्तमपितु पुण्यबन्धनिमित्तमेवेत्यत आह-पुण्यस्य शुभकर्मणो बन्धो बन्धनं तस्य निमित्तं कारणं पुण्यबन्धनिमित्तं तद्भावस्तत्त्वं, तस्मात् पुण्यबन्धनिमित्तत्वात् हेतोविज्ञेयाऽवसेया, स्वर्गसाधनी देवलोकप्राप्तिहेतुः / उपलक्षणत्वात् सुमानुषत्वसाधनी, पारंपर्येण भावपूजानिबन्धनतां प्रतिपद्य मोक्षसाधनी चेति द्रष्टव्यमिति / / 4 / / अथ शुद्धामष्टपुष्पीमभिधातुमाहया पुनर्भावजैः पुष्पैः, शास्वोक्तिगुणसङ्गतैः। परिपूर्णत्वतोऽम्लानै रत एव सुगन्धिभिः॥५॥ याऽष्टपुष्पी, पुनःशब्द उक्तवक्ष्यमाणार्थयो विशेषद्योतनार्थः / भावजैरात्मपरिणतिसंभवः, पुष्पैरिव पुष्पैर्वक्ष्यमाणलक्षण - रात्मधर्मविशेषः, किं भूतैः ?, शास्त्रोक्तिगुणसंगतैः, शास्त्रमागमस्तस्योक्तिर्भणितिराज्ञेत्यर्थः / अथवा शास्त्रोक्तिरेव गुणो दवरकस्तत्संगतैः। एतेनैषां मालारूपतोक्ता, तथा च द्रव्यपुष्पाणि अपि यदा मालां कृत्वाऽऽरोप्यन्ते, तदाऽष्टावपायापगमान् स्मृत्वा रोपणीयानीति दर्शितम्। पाठान्तरे तु- शास्त्रोक्तगुणसंगतैरिति, तथा शास्त्रीयसमित्यादिगुणोपेतैरित्यर्थः / पुनः किंभूतैस्तैः? इत्याहपरिपूर्णत्वतोऽम्लानैः परिपूर्णतया सकलजीवमृषावादादिविषयत्वेन निरतिचारतया वाऽम्लानैम्लानिमनुपगतः। अत एव च परिपूर्णत्वादेव,सुगन्धिभिः सद्गन्धोपेतैः, परिपूर्णताधर्म एवैषामम्लानिसुगन्धितालक्षणौ पुष्पधमौ द्रष्टव्यावित्यर्थः / विधीयते सा शुद्धत्येवं रूपः श्लोकावसाने वाक्यशेषो द्रष्टव्य इति ॥५||नामतस्तान्येवाऽऽहअहिंसा सत्यमस्तेयं, ब्रह्मचर्यमसङ्गता। गुरुभक्तिस्तपो ज्ञानं,सत्पुष्पाणि प्रचक्षते // 6 // प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा, तद्भावोऽहिंसा,सै कं पुष्पम् 1, तथा सद्भ्यो हितं सत्यम्, अनृताभावो द्वितीयम् 2, तथा स्तेनस्य चौरस्य कर्म भावो वा स्तेयं चौर्यं तदभावोऽस्तेयमिति तृतीयम् 3, तथा ब्रह्म कुशलं कर्म, तदेव चर्यते सेव्यत इति चर्यम्, ब्रह्मचर्य / मनोवाक्कायैः कामसेवनवर्जनमित्यर्थः, तत् चतुर्थम् 4, तथा नाऽस्ति सङ्गोऽभिष्वङ्गो यस्य सोऽसङ्गः, Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठपुप्फी 247 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अट्ठमी तद्भावोऽसङ्गता, धर्मोपकरणातिरिक्तपरिग्रहपरिवर्जनम्, धर्मोपकरण- उपहितप्रकर्षः पुमान् न कदाचिदकल्याण-माप्नोति, एते च बुद्धिगुणा स्थाऽपरिग्रहत्वात्। यदाह-जं पिवत्थं व पायं वा, कंबलं पायपुंछणं।तं यथासम्भवं ग्राह्याः। ध०१ अधिका पि संजमलजट्ठा, धारंतिपरिहरंतिय।।१||नसोपरिगहोवुत्तो, नायपुत्तेण अट्ठभाइया-स्त्री०(अष्टभागिका) अष्टमे भागे वर्त्तत इत्यष्ट- भागिका। ताइणा / मुच्छा परिग्गहो वुत्ती, इइ वुत्तं महेसिणा // 2 // इतरथा षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयपलमानायां माणिकायाम् माणिकाया शरीराहाराद्यपि परिग्रहः स्यादिति पञ्चमम् 5, तथा गृणाति (घटकपर्यायायाः) अष्टमभागवर्तित्वात् , द्वात्रिंशत्- पलप्रमाणे शास्त्रार्थमिति गुरुः। आह च-"धर्मज्ञो धर्मकर्ता च, सदाधर्मपरायणः / रसमानविशेषे, अनु०। भा सत्त्वेभ्यो धर्मशास्त्रार्थदेशको गुरुच्यते" ||1|| तस्य भक्तिः सेवा, अट्ठमइय-त्रि०(अष्टमदिक)अष्टौ मदस्थानानि येषां तेऽष्ट-मदिकाः / बहुमानश्च, गुरुभक्तिरिति षष्ठम् 6, तथा तापयतीति तपोऽनशनादि। अष्टसुमदस्थानेषु प्रमत्तेषु, "जेपुण अट्ठमईओ, पलिय-पसण्णाऽपसण्णा आह च-रसरुधिरमांसमेदो-ऽस्थिमज्जशुक्राण्यनेन तप्यन्ते / कर्माणि य"। आतु०॥ वाऽशुभानीत्यतस्तपो नाम नैरुक्तम् / / 1 / / इति सप्तमम् 7, तथा अट्ठमंगल-न०(अष्टमङ्गल) अष्टगुणितानि अष्ट वा मङ्गलानि / ज्ञायन्तेऽर्था अनेनेति ज्ञानम्, सम्यक्प्रवृत्तिनिवृत्तिहेतुभूतो बोध स्वनामख्यातेषु श्रीवत्सादिषु, "तस्सणं असोगवरपायवस्स उवरिं बहवे इत्यष्टमम् 8 / इह समुच्चयाऽभिधायी चशब्दो द्रष्टव्यः / सत्- पुष्पाणि अट्ठमंगलगा पण्णत्ता। तंजहा- सोवत्थिय 1, सिरिवत्था २,णंदियावत्त अत्यन्तमेकान्तेन च विवक्षितार्थसाधकतया द्रव्यपुष्पाऽपेक्षया सन्ति 3, वद्धमाणग 4, भद्दासण 5, कलस 6, मच्छ 7, दप्पण 8 / " तत्र शोभनानि पुष्पाणीव पुष्पाणि,भावपुष्पाणीत्यर्थः / प्रचक्षते अष्टावष्टाविति वीप्साकरणात् प्रत्येकं तेऽष्टाविति वृद्धाः। अन्ये त्वष्टाविति शुद्धाऽष्टपुष्पी-स्वरूपज्ञाः प्रतिपादयन्ति इति॥६॥ उक्तमेवार्थ वाक्या संख्या, अष्टमङ्गलानीति च संज्ञा औ०। ज्ञा०ा आ०चूला आ०म०प्र०) ऽन्तरेणाऽऽह भ० ज० रा० लोकेऽपि च-"मृगराजो वृषो नागः, कलशो व्यजनं एभिर्देवाधिदेवाय, बहुमानपुरस्सरा। तथा / वैजयन्ती तथा भेरी, दीप इत्यष्ट मङ्गलम् // 1 // लोकेऽस्मिन् दीयते पालनाद्या तु, सा वै शुद्धत्युदाहृता ||7|| मङ्गलान्यष्टौ, बाह्मणो गौ ताशनः / हिरण्यं सर्पिरादित्य आपो राजा एभिरनन्तरोदितैर्भावपुष्पैः, देवानां पुरन्दरादीनामधिको देवः पूज्यत्वाद् तथाऽष्टमः" ||2|| वाचा देवाधिदेवः प्रागुक्तो महादेवस्तस्मै, बहुमानः प्रीतियोगः पुरस्सरः प्रधानो अट्ठमभत्त-न०(अष्टमभक्त) एकैकस्मिन् दिने द्विवारं भोजनौचित्येन यत्र सा बहुमानपुरस्सरा, दीयते वितीर्यते / कथमित्याह दिनत्रयस्य षण्णां भक्तानामुत्तरपारणकदिनयोरेकैकस्य भक्तस्य च पालनादहिंसादि पुष्पाणां परिरक्षणद्वारेण, तत्पालने हि देवाधिदेवाज्ञा त्यागेनाऽष्टमभक्तं त्याज्यं यत्र तत्तथा, इति व्युत्पत्या समयपरिभाषया कृता भवति।आज्ञाकरणमेव च सर्वथा कृत-कृत्यस्यतस्यपूजाकरणम्, वा उपवासत्रये, "तए णं से भरहे रायाअट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि न ह्याज्ञां विराधयता शेषपूजो-द्यतेनाऽप्यसावाराधितो भवति, पोसहसालाओपडिणिक्खमइ"। जं० 3 वक्ष०ा पंचा। आज्ञेश्वरमहाराजवदितिाया तुयैवाऽष्टपुष्पी, सावै सैव, शुद्धा निरवद्या, अट्ठमभत्तिय-त्रि०(अष्टमभक्तिक) दिनत्रयमनाहारिणि, जं०३वक्ष०। इतिरेवंप्रकाराऽर्थः, उदाहता तत्त्ववेदिभिरभिहितेति ॥७॥अथ शुद्धाया एव मोक्षसाधनीयत्वं दर्शयन् विशेषेण सत्संमतत्वं प्रतिपादयन्नाह - अट्ठमयमहण-त्रि०(अष्टमदमथन) अष्टमदस्थाननाशके, प्रश्न० प्रशस्तो ह्यनया भावस्ततः कर्मक्षयो ध्रुवः। 5 संव० द्वा०। कर्मक्षयाच निर्वाण-मत एषा सतां मता // 8 // अट्ठमहापाडिहेर-प०(अष्टमहाप्रातिहार्य) अर्हतां पूजीपयिकेषु प्रशस्तः प्रशस्यः शुद्धः, हि शब्दो यस्मादर्थे , ततश्च यस्मात् अशोकवृक्षादिषु,''अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टि- दिव्यध्वनिश्वामर-मासनं प्रशस्तोऽनयाऽनन्तरोदितत्वेन प्रत्यक्षाऽऽसन्नया शुद्धाऽष्टपुष्प्या, भाव च। भामण्डलंदुन्दुभिरातपत्रं, सत्प्रातिहार्याणि जिने-श्वराणाम् // 1 // नं। आत्मपरिणामो भवतीति गम्यते, न पुनद्रव्याऽष्टपुष्प्या जीवोपमर्दाश्रितत्वात् तस्याः, ततः प्रशस्तभावात् , कर्मक्षयो ज्ञाना अट्ठमिपोसहिय-त्रि०(अष्टमीपौषधिक) अष्टम्याः पौषध वरणादिकर्मविलयो भवति, धुवोऽवश्यंभावी, कर्मक्षयाचोक्त उपवासादिकोऽष्टमीपौषधः, स विद्यते येषां तेऽष्टमीपौषधिकाः। अष्टम्याः स्वरूपात् / च शब्दः पुनरर्थः / निर्वाणं मोक्षो भवतीति मोक्ष- पौषधव्रते क्रियमाणेषूत्सवेषु,आचा०२ श्रु०१अ०२उ०) साधनीयमतः प्रशस्तभावजन्यकर्मक्षयसाध्यनिर्वाणसाधन-त्वाद् एषा अट्ठमी-स्त्री०(अष्टमी) अष्टानां पूरणी षोडशकलात्मक चन्द्रशुद्धाऽष्टपुष्पी, सतां विदुषां, यतीनामित्यर्थः, मता विधेयत्वेनेष्टा, न स्याष्टमकला / क्रियारूपायां स्वनामख्यातायां तिथौ, वाचा चाउद्दसि पुनद्रव्याऽष्टपुष्पी। ततो हे कुतीर्थिकाः ! यदि यूयं यतयः, तदा पन्नरसिं, वज्जेज्जा अट्ठमिं चणवमिंच। छढिंच चउत्थि बारसिंच सेसासु भावपूजामेव कुरुतेत्युक्तं भवति। अथवा यतो अनया निर्वाणमतः सतां देखाहि॥१॥ विशेला वृद्धवैयाकरणसंमते विभक्तिभेदे, "अट्ठमी आमंतणी विदुषामेषा संमतेति॥८॥ इति तृतीयाऽष्टकविवरणम्। हा० 3 अष्टा भवे' अष्टमी संबुद्धिरामन्त्रणी भवेत्, आमन्त्रणार्थे विधीयत इत्यर्थः। अट्ठबुद्धिगुण-पुं०(अष्टबुद्धिगुण) क०साशुश्रूषादिषु अष्टसु बुद्धिगुणेषु, अनु०। अष्टम्यामन्त्रणी भवेत् इति / सु औ जसिति प्रथमाऽपीयं तैरष्टबुद्धिगुणैर्योगः समागमः कर्तव्यः। (एष सामान्यगृहिधर्मः ) बुद्धिगुणाः विभक्तिरामन्त्रणलक्षण-स्यार्थस्य कर्मकरणादिवत् लिङ्गार्थमात्रातिशुश्रूषादयः, ते त्वमी-"शुश्रूषा श्रवणं चैव, ग्रहणं धारणं तथा / रिक्तस्य प्रतिपाद-कत्वेनाष्टम्युक्ता / स्था०८ ठा०। आमंतणे भावे अट्ठमी उहोऽपोहोऽर्थविज्ञानं, तत्त्वज्ञानं च धीगुणाः" ||1|| शुश्रूषादिभिर्हि | उ, जहा- हे जुवाण! त्ति, आमन्त्रणे भावे अष्टमीतु, यथा- हे युवन् ! इति, Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमी 248 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अट्ठादंडवत्तिय वृद्धवैयाकरणदर्शनन चेयमष्टमी गण्यते, ऐदंयुगानां त्वसौ प्रथमैवेति | अट्ठहत्तरि-त्रि०[अष्ट(टा)सप्तति] अष्टाधिकायां सप्ततिसंख्यामन्तव्यमिति। अनु०। अष्टसंख्यापूरण्यांच,अश् - क्त। अष्ट संघातं व्याप्ति __याम्, "अट्ठहत्तरीए सुवण्णकुमारदीवकुमारावाससयसहस्साणं''। स० वा, माति, मा-क्त, गौरा० ङीष् / कोटालतायाम्, वाच० अट्ठा-स्वी०(अष्टा)प्रवद्रजिषोः स्तोककेशग्रहणे, "गिण्हइ गुरूवउत्तो, अट्ठा अट्ठमुत्ति-पुं०(अष्टमूर्ति)अष्टौ भूम्यादयो मूर्तयोऽस्य / शिवे, से तिन्नि अच्छिन्ना"पिं०व०१ द्वा० मुष्टौ, "चउहिं अट्ठाहिलोयं करेइ"। "क्षितिजलपवनहुताशनयजमानाऽऽकाशचन्द्रसूर्याख्याः। इति मूर्तयो जं०२ वक्षण महेश्वरसम्बधिन्यो भवन्त्यष्टौ' / / 1 // स्था०६ ठा०। *आस्था-स्वी० आस्थानमास्था। प्रतिष्ठायाम्, सूत्र०२ श्रु०१अ०॥ अठ्ठरससंपउउत्त-त्रि०(अष्टरससंप्रयुक्त) 3 त०। अष्टभिःशृङ्गारादिभी आ-स्था-अङ्। आलम्बने, अपेक्षायां, श्रद्धायां, स्थितौ, यत्ने, आदरे, रसैः सम्यक् प्रकर्षण युक्ते, जी०३ प्रति०। सभायाम् , आस्थाने च। वाच०॥ अट्ठविह-त्रि०(अष्टविध) अष्ट विधाः प्रकारा यस्य। अष्ट प्रकारे, भ०१५ | अट्ठाण-न०(अस्थान) अनुचिते स्थाने, स्था०६ठा०। वेश्या-पाटकादौ श० 1 उ०। धा पञ्चा०। "अट्ठविहकम्मतमपडलपडिच्छण्णे" कुस्थाने, व्य०२ उ० प्र०। अयुक्ते, "अट्ठाणमेयं कुसला वयंति, दगेण अष्टविधकर्मव तमःपटलमन्धकारसमूहस्तेन प्रत्यवच्छिन्नानि तथा"| जे सिद्धिमुदाहरंति'। सूत्र०१ श्रु०७०। विशेष अट्ठाणट्ठवणा-स्त्री०(अस्थानस्थापना) गुर्ववग्रहादिके अस्थाने अट्ठसइया-त्रि०(अर्थशतिका)अर्थशतानि यासु सन्ति, ता प्रत्युपेक्षितोपधेः स्थापनं निक्षेपोऽस्थानस्थापना / प्रमादअर्थशतिकाः / अथवा- अर्थानामिष्टकार्याणां शतानि याभ्यःता प्रत्युपेक्षणाभेदे, स्था०७ ठा०। अर्थशतास्ता एवाऽर्थशतिकाः / स्वार्थेकप्रत्ययः। अर्थ-शतोत्पादिकासु वागादिषु, "अपुणरुत्ताहिं अट्ठसइयाहिं वग्गूहि अणवरयं अभिणदंताय'। अट्ठाणमंडव-पुं०(आस्थानमण्डप) उपस्थानगृहे, स्था० 5 ठा० जं०२ वक्ष० भ०। १उ। अट्ठसंघाड-पुं०(अष्टसङ्घाट)क०सा अष्टसु प्रायश्चित्तलतासु, "संघाडो / अट्ठाणिय-न०[अस्थान(नि) क]अभाजने, अनाधारे, "अट्ठा-णिए होइ त्ति वा लयति वा पगारो त्ति वा एगटुं" इति वचनात् / बृ०१ उ०। बहू गुणाणं, जेण्णाण संकाइ मुसंवएज्जा'। सूत्र०१ श्रु०१३ अ०) अट्ठसय-न०(अष्टशत)अष्टाभिरधिकं शतम् / अष्टोत्तरशते, स्था० 10 अट्ठादंड-पुं०(अर्थदण्ड) अर्थेन स्वपरोपकारलक्षणेन प्रयोजनेन दण्डो ठान हिंसा अर्थदण्डः / स०६ सम०। सानां स्थावराणां वाऽऽत्मनः परस्य अट्ठसयसिद्ध-पुं०(अष्टशतसिद्ध) अष्टशतं च ते सिद्धाश्च निवृत्ता वोपकाराय हिंसायाम्। स्था०५ ठा०२ उ०। अष्टशतसिद्धाः / एकस्मिन् समये ऋषभस्वामिना सह निर्वृत्ति अट्ठादंड वत्तिय-पुं०न०(अर्थदण्डप्रत्यय) आत्मार्थाय स्वगतेष्वष्टोत्तरशतेषु सिद्धेषु / इदञ्चाऽनन्तकालजातमिति प्रयोजनकृते दण्डोऽर्थदण्डः पापोपादानम् , तत्प्रत्ययः / प्रथमे नवममाश्चर्यमुच्यत इति। स्था० 10 ठा०। कल्प०ा अत्र गुण विजयगणिना क्रियास्थाने, सूत्रातत्स्वरूपंचकृतस्य प्रश्नस्य हीरविजयसूरिदत्तमुरत्तम् / ऋषभस्वामी पढमे दंडसमादाणे अट्ठादंडवत्तिए त्ति आहिज्जइ, से जहा णामए अष्टाग्रशतेनैकस्मिन्नेव समये सिद्धः / इदं चाश्चर्यम् - तत्र केइ पुरिसे आयहेउ वा णाइहेउं वा अगारहेउं वा परिवारहेउं बाहुबल्याद्यायुराश्रिता का गतिः ? इदं च तत्प्रतिपादक- वा मित्तहेउं वा णागहेउं वा भूतहेउं वा जक्खहेउं वा तं दंड ग्रन्थानामप्रसाधनपूर्व निर्णयकारि प्रसादमिति // 5|| उत्तरम्- अत्र तसथावरेहिं पाणे हिं सयमेव णिसिरिंति, अण्णे ण वि 'अट्ठसयसिद्धा' अस्मिन्नेवाश्चर्ये बाहुबलेरायुषोऽपवर्त्तन-मन्तर्भवति। णिसिरावेंति, अण्णेण वि णिसितिसमणुजाणइ, एवं खलु तस्स यथा-हरिवंस कुलुप्पत्ति'' त्ति, आश्चर्य हरिवर्षक्षेत्रा-नीतस्य तप्पत्तियं सावजंति, आहिज्जइ, पढमे दंडसमादाणे अट्ठा युगलस्यायुरपवर्तनं शरीरलघुकरणं नरकगमनादिचाऽन्तर्भवतीति॥१॥ अट्ठादंडवत्तिएति आहिज्जइ॥५॥ ही। यत्प्रथममुपात्तं दण्डसमादानमर्थाय दण्डमित्येवमाख्यायते, अट्ठसहस्स-न०(अष्टसहस्र)अष्टोत्तरसहस्रसङ्घयेषु, "वइरामय तस्याऽयमर्थः - तद्यथा नाम कश्चित्पुरुषः,पुरुषग्रहणमनुतोवत्थणिउणजोइयअट्ठसहस्संवरकंचणं सलणिम्मिएण' औलन पलक्षणार्थम् / सर्वोऽपि चातुर्गतिकः प्राण्यात्मनिमित्तमात्मार्थं अट्ठसामइय-त्रि०(अष्टसामयिक)अष्टौ समया यस्मिन् सोऽष्टसमयः, स तथाऽभिज्ञातिनिमित्तं स्वजनाद्यर्थं तथाऽगारं गृहं तन्निमित्तं,तथा एवाऽष्टसामयिकः। समयाष्टकोद्भवे, स्था०८ ठा०। "केवलिसमुग्घाए परिवारो दासकर्मकरादिकः परिकरो वा गृहादे त्यादिकस्तन्नि- मित्तं, अट्ठसामइये पण्णते"। औ०।। तथा मित्रनागभूतयक्षाद्यर्थ,तथाभूतं स्वपरोपघातरूपंदण्ड उसस्थावरेषु अट्ठसेण-पुं०(अष्टसेन) वत्सगोत्रजे पुरुषभेदे, तदपत्येषु च। स्था०७ स्वयमेव निसृजति निक्षिपति, दण्डमिव दण्डमुपरि पातयति, ठा०॥ प्राण्युपमर्दकारिणी क्रियां करोतीत्यर्थः / तथाऽन्येनापि कारयत्यपरं *अर्धसेन-पुं०। पुरुषविशेष, स्था०७ ठा०॥ दण्डं निसृजति, निसृजन्तं समनुजानीते / एवं कृतकारितानुमतिभिरेव अट्ठसोवणिय-त्रि०(अष्ट सौवर्णिक) षोडशकर्षमाषा- तस्याऽनात्मज्ञस्य तत्प्रत्ययिकं सावधक्रियोपात्तं कर्माधीयते संबध्यत ऽऽत्मकसुवर्णमानाष्टकमिते, "एगमेगस्स णं रन्नो चाउरंतचक्कयट्टिस्स इति / एतत्प्रथम-दण्डसमादानमर्थदण्डप्रत्ययिकमित्याख्यातअट्ठसोवन्निए काकिणिरयणे'। स्था०८ ठा। मिति / / 5 / / सूत्र०२ श्रु०२ अ०। आoचूला आव०॥ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठायमाण 249 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अट्ठारसट्ठाण अट्ठायमाण-त्रि०(अतिष्ठत्)स्थितिमकुर्वति, "तह वि य अट्ठायमाणं | गोणं"। पञ्चा० 16 विव० अट्ठार-त्रि०(अष्टादशन्) प्राकृतत्वादन्त्यलोपः / अष्टाऽधिकेषु दशसु, "एएसव्ये वि अट्ठारा"। पञ्चा०३ विव०। अट्ठारस-त्रि०(अष्टादशन) अष्टौ च दशच, अष्टाधिका वा दशअष्टादशन्। (अट्ठारह) सङ्ख्यायां, तत्सङ्खचेये च / वाचला "पढमे छम्मासे अस्थि अट्ठारसमुहुत्ताराती''। सू०प्र०१पाहु०। अट्ठारसकम्मकारण-न०(अष्टादशकर्गकारण) अष्टादश चौरप्रसूतिहेतौ, प्रश्न०३ आश्र0 द्वा० अट्ठारसट्ठाण-न०(अष्टादशस्थान) क०स०। प्रतिसेवनीयेषु अष्टादशसु स्थानेषु, दशा इह खलु भो पव्वइएणं उप्पण्णदुक्खेणं संजमे अरइसमावण्णचित्तेणं ओहाणुप्पे हिणा अणोहाइएणं चेव हयरस्सिगयंकुसपोयपडागाभूआईइमाइं अट्ठारसठाणाई सम्म संपडिलेहिअव्वाई हवंति / तं जहा- हं भो ! दुस्समाए दुप्पजीवी // 1 // इह खलु भोः! प्रद्रजितेन, इहेति जिनप्रवचने, खलुशब्दोऽवधार-णे। सच भिन्नक्रम इति दर्शयिष्यामः / भो इत्यामन्त्रणे / प्रव्रजितेन साधुना, किंविशिष्ट ने त्याह- उत्पन्नदुःखेन संजातशीतादिशारीर स्त्रीनिष-- द्यादिमानसदुःखेन, संयमे व्यावर्णितस्वरूपे, अरतिसमापन्नचित्तेनोद्वेगगताभिप्रायेण, संयमेनिर्विण्णभावेनेत्यर्थः / स एव विशेष्यतेअवधावनोत्प्रेक्षिणा,अवधावनमपसरणं, संयमादुत्प्राबल्येन प्रेक्षितुं शीलं यस्य स तथाविधस्तेन, उत्प्रव्रजितुकामे नेति भावः / अनवधावितेनैवानुत्प्रव्रजितेनैव, अमूनि वक्ष्यमाणलक्षणान्यष्टादशस्थानानि, सम्यग्भावसारं संप्रत्युपेक्षितव्यानि सुष्ठवालोचनी-यानि, भवन्तीति योगः / अवधावितस्य तु प्रत्युपेक्षणं प्रायो-ऽनर्थकमिति / तान्येव विशेष्यन्ते - हयरश्मिगजा कुशपोत-पताकाभूतानि अश्वखलीनगजाऽड्युश-बोहित्थसितपटतुल्यानि / एतदुक्तं भवतियथा हयादीनामुन्मार्ग-प्रवृत्तिकामानां रश्म्यादयो नियमनहेतवः / तथैतान्यपि संयमादुन्मार्गप्रवृत्तिकामानां भावसत्त्वानामिति। यतश्चैवमतः सम्यक् सम्प्रत्युपेक्षितव्यानि भवन्ति / खलु-शब्दावधारणयोगात् सम्यगेव सम्प्रत्युपेक्षित-व्यान्ये वेत्यर्थः / (तं जहेत्यादि) तद्यथेत्युपन्यासाऽर्थः / हं भो ! दुःषमायां दुष्प्रजीविन इति, 'हं भो!' शिष्याऽऽमन्त्रणे / दुःषमायामधम-कालाख्यायां कालदोषादेव दुःखेन कृच्छेण प्रकर्षणोदार-भोगापेक्षया जीवितुं शीलं येषां ते, दुष्प्रजीविनः प्राणिन इति गम्यते, नरेन्द्रादीनामप्यनेकदुःखप्रयोगदर्शनात् / उदारभोग-रहितेन च विडम्बनाप्रायेण कुगतिहेतुना किं गृहाश्रमेण ? इति सम्प्रत्युपेक्षितव्यमिति प्रथम स्थानम्॥१|| लहुसगा इत्तरिआ गिहीणं कामभोगा 2, भुञ्जो असायबहुला मणुस्सा 3, इमे अमे दुक्खे न चिरकालोवट्ठाई भविस्सइ 4, ओमजणपुरकारे 5, वंतस्स य पडियायणं 6, अहरगइवासोवसंपया७, दुल्लहे खलु भो! गिहीणं धम्मे गिहिपासमझे वसंताणं , आयंके से वहाय होइ,संकप्पे से वहाय होइ 10, सोवक्केसे गिहवासे 11, निरुवक्केसे परिआए 12(11), बंधे | गिहवासे १३,मुक्के परिआए 14(12), सावजे गिहवासे 15, अणवज्जे परिआए 16(13), बहुसाहारणा गिहीणं कामभोगा १७(१४),पत्तेअंपुनपावं 18(15), अणिचे खलु भो ! मणुस्साणं जीविए कुसग्गजलबिंदुचंचले (16), बहुंच खलु भो ! पावं कम्म पगडं (17), पावाणं च खलु भो ! कडाणं कम्माणं पुट्विं दुचिन्नाणं दुप्पडिकंताणं वेइत्ता मुक्खो, नत्थि अवेइत्ता, तवसा वा झोसइत्ता,अद्वरसमं पयं भवइ (18)| भवइ अइत्थ सिलोगो। तथा- लघव इत्वरा गृहिणां कामभोगाः, दुःषमायामिति वर्तते / सन्तोऽपिलवस्तुच्छाः। प्रकृत्यैव तुषमुष्टिवदसाराः, इत्वरा अल्पकालाः गृहिणां गृहास्थानां कामभोगा मदनकामप्रधानाः शब्दादयो विषयाः विपाककटवश्व, देवानामिव विपरीताः अतः किं गृहाश्रमेणेति सम्प्रत्युपेक्षितव्यमिति द्वितीयं स्थानम् 2, तथा-भूयश्च स्वातिबहुला मनुष्याः, दुःषमायामिति वर्तत एव / पुनश्च स्वातिबहुला मायाप्रचुराः, मनुष्या इति प्राणिनः, न कदाचिद् विश्रम्भहेतवोऽमी, तद्रहितानां च कीदृशं सुखम् ? तथा मायाबन्ध-हेतुत्वेन च दारुणतरो बन्ध इति किं गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेक्षितव्य-मिति तृतीय स्थानम् 3, तथा- इदं च मे दुःखं न चिरकालोपस्थायि भविष्यति, इदं चाऽनुभूयमानं, मम श्रामण्यमनुपालयतो, दुःखं शारीरमानसं कर्मफलं परीषहजनितं, न चिरकालमुपस्थातुंशील भविष्यति, श्रामण्यपालनेनपरीषहनिराकृतेः, कर्मनिर्जरणात् संयमराज्यप्राप्तेः,इतरथा महानरकादौ विपर्ययः, अतः किं गृहाश्रमेणेति ? संप्रत्युपेक्षितव्यमिति चतुर्थ स्थानम् 4, तथा ओमजण त्ति, न्यूनजनपूजा, प्रव्रजितो हि धर्मप्रभावाद् राजाऽमात्यादिभिरभ्युत्थानासनाञ्जलिप्रग्रहादिभिः पूज्यते / उत्प्रव्रजितेन तुन्यूनजनस्याऽपि स्वव्यसनगुप्तयेऽभ्युत्थानादि कार्यम् / अधार्मिकराजविषये वा वेष्टिप्रयोक्तुः खरकर्मणो नियम्यत एव, इहैवेदमधर्मफलमतः किं गृहाश्रमेणेति सम्प्रत्युपेक्षितव्यमिति पञ्चम स्थानम् 5, एवं सर्वत्र किया योजनीया। तथा वान्तस्य प्रत्यापानम्, भुक्तोज्झितपरिभोग इत्यर्थः / अयं च श्वशृगालादिक्षुद्रसत्त्वाचरितः सतां निन्द्यो व्याधिदुःखजनकः / वान्ताश्च भोगाः, प्रव्रज्याङ्गीकरणे नैतत् प्रत्यापानमप्येवं चिन्तनीयमिति षष्ठ स्थानम् 6, तथाऽधरगतिवासोपसंपत्, अधोगतिर्नरकतिर्यग्गतिस्तस्यां वसनमधोगतिवासः, एतन्निमित्तभूतं कर्म गृह्यते, तस्योपसंपत्सामीप्येनाङ्गीकरणं यदेतदुत्प्रव्रजनमेवं चिन्तनीयमिति सप्तमं स्थानम् 7, तथा दुर्लभः खलु भोः ! गृहिणां धर्म इति प्रमादबहुलत्वाद् दुर्लभ एव, 'भो' इत्यामन्त्रणे / गृहस्थानां परमनिर्वृतिजनको धर्मः / किंवि-शिष्टानामित्याह- गृहपाशमध्ये वसतामित्यत्र गृहपाशशब्देन पाशकल्पाः पुत्रकलत्रादयो गृह्यन्ते, तन्मध्ये वसतामनादिभवाभ्यासादकारणं स्नेहबन्धनमेतच्चिन्तनीयमित्यष्टमं स्थानम् 8, तथाऽऽतङ्कस्तस्य वधाय भवति, आतङ्क: सद्योघाती विसूचिकादिरोगः, तस्य गृहिणो धर्मबन्धु-रहितस्य, वधाय विनाशाय भवति / तथा वधश्चाऽनेकवधहेतुरेवं चिन्तनीयमिति नवम स्थानम् 6, तथा संकल्पस्तस्य वधाय भवति, संकल्प इष्टाऽनिष्टवियोगप्राप्तिजो मानस आतङ्कः,तस्य गृहिणः, तथाचेष्टायोगाद् मिथ्याविकल्पाभ्यासेन ग्रहादिप्राप्तेर्वधाय Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठारसट्ठाण 250- अभिधानराजेन्द्रः-भाग 1 अट्ठारसपावट्ठाण भवत्येतचिन्तनीयमिति दशमं स्थानम् 10(10), तथा- सोपक्लेशो गृहवास इति, सहोपक्लेशैः सोपक्लेशो गृहवासो गृहाश्रमः / उपक्लेशाः - कृषिपाशुपाल्यवाणिज्याद्यनुष्ठानानुगताः पण्डितजनगर्हिताः शीतोष्णश्रमादयो घृतलवणचिन्तादयश्चेत्येवं चिन्तनीयमित्येकादशं स्थानम् 11, तथा- निरुपक्लेशः पर्याय इति, एभिरेवोपक्लेशैः रहितःप्रव्रज्यापर्यायोऽनारम्भी कुचिन्ता-परिवर्जितः श्लाघनीयो विदुषामित्येवं चिन्तनीयमिति द्वादशं स्थानम् 12 (11), तथा- बन्धो गृहवासः, सदा तद्धत्वनुष्ठानात् कोशकारकीटवदित्येतचिन्तनीयमिति त्रयोदशं स्थानम् 13, तथा- मोक्षः पर्यायोऽनवरतकर्मनिगडविगमनाद् मुक्तवदित्येवं चिन्तनीयमिति चतुर्दश स्थानम् 14(12), अत एव सावद्यो-गृहवास इति, सावधः सपापः, प्रणातिपातमृषावादादिप्रवृत्ते- रेतचिन्तनीयमिति पञ्चदशंस्थानम् 15, एवमनवद्यः पर्याय इति,अपाप इत्यर्थः, अहिंसादिपालनात्मकत्वादेतचिन्तनीय-मिति षोडशंस्थानम् 16(13), तथा-बहुसाधरणा गृहिणां कामभोगा इति, बहुसाधरणाश्चौरजारराजकुलादिसामान्याः, गृहिणां गृहस्थानां, कामभोगाः पूर्ववदित्येतचिन्तनीयमिति सप्तदशं स्थानम् 17(14), तथा प्रत्येकं पुण्यपापमिति, मातापितृकलत्रादिनिमित्तमप्यनुष्ठितं पुण्यपापं प्रत्येकं पृथग्-पृथग् येनानुष्ठितं तस्य करिव तदिति भावार्थः / एवमष्टादशं स्थानम् 18(15), एतदन्तर्गतो वृद्धाभिप्रायेण शेषग्रन्थः समस्तोऽत्रैव। अन्ये तु व्याचक्षते- सोपक्लेशो गृहवास इत्यादिषु षट्सु स्थानेषु सप्रतिपक्षेषु स्थानत्रयं गृह्यते। एवं च बहुसाधारणा गृहिणां कामभोगा इति चतुर्दशं स्थानम् / प्रत्येक पुण्यपापमिति पञ्चदर्श स्थानम् / शेषाण्यभिधीयन्ते- तथाऽनित्यं खल्वनित्यमेव नियमतः, 'भो' इत्यामन्त्रणे, मनुष्याणां पुंसां,जीवितमायुः / एतदेव विशेष्यते- कुशाग्रजलबिन्दुचञ्चलं सोपक्रमत्वादनेकोपद्रवविषयत्वादत्यन्तासारम् , तदलं गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपे-क्षितव्यमितिषोडशंस्थानम् (16) तथा-बहु चखलु भोःपापं कर्म प्रकृतं, बहु चेत्यत्र चशब्दात् क्लिष्ट, 'खलु' शब्दोऽवधारणे बढेव, पापं कर्म चारित्रमोहनीयादि, प्रकृतं निर्वर्तितं, मयेति गम्यते / श्रामण्यप्राप्तायप्येवं क्षुद्रबुद्धिप्रवृत्तेः, नहि प्रभूतक्लिष्टकर्मरहितानामेवमकुशला बुद्धिर्भवति, अतो न किंचिद् गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेक्षितव्यमिति सप्तदशं स्थानम् (17) / तथा- पापानां चेत्यादि, पापानां चापुण्यरूपाणां च शब्दात्पुण्यरूपाणां च, खलु भोः! कृतानां कर्मणाम्, खलुशब्दः कारितानुमतविशेषणार्थः, 'भो' इति शिष्यामन्त्रणे, कृतानां मनोवाकाययोगैरोघतो निर्वर्तितानां कर्मणां ज्ञानावरणीयाद्यसातवेदनीयादीनां, प्राक् पूर्वम्, अन्यजन्मसुदुश्चरितानां प्रमादकषायज-दुश्चरितजनितानि दुश्चरितानि, कारणे कार्योपचारात्। दुश्चरितहेतूनि वा दुश्चरितानि, कार्ये कारणोप-चारात् / एवं दुष्पराक्रान्तानां मिथ्यादर्शनाविरतिजदुष्पराक्रान्त-जनितानि दुष्पराक्रान्तानि, हेतौ फलोपचारात् / दुष्पराक्रान्तहेतूनि वा दुष्पराक्रान्तानि, फले हेतूपचारात् / इह च दुश्चरितानि मद्यपानाऽश्लीलाऽनृतभाषणादीनि, दुष्पराक्रान्तानि वधबन्धनादीनि / तदमीषामेवंभूतानां कर्मणां वेदयित्वाऽनुभूय, फलमिति वाक्यशेषः / किं ? मोक्षो भवति, प्रधानपुरुषार्थो भवति ? नाऽस्त्यवेदयित्वा, न भवत्यननुभूय, अनेन सकर्मकमोक्षव्यवच्छेदमाह / इष्यते च स्वल्पकर्मोपेतानां कैश्चित् सहकारिनिरोधः, | तत्फलादानवादिभिः, तत्तदपि नाऽस्त्यवेदयित्वा मोक्षः, तथारूपत्वात् कर्मणः स्वफलादाने कर्मत्वायोगात् , तपसा वा क्षपयित्या, अनशनप्रायश्चित्तादिना वा विशिष्टक्षायोपशमिक-शुभभावरूपेण तपसा प्रलयं नीत्वा, इह च वेदनमुदयप्राप्तस्य व्याधेरिवानारब्धोपक्रमस्य क्रमशोऽनन्यनिबन्धनपरिक्लेशेन, तपःक्षपणं तु सम्यगुपक्रमेणानुदीर्णो दीरणदोषक्षपणवदन्य-निमित्तम्, अक्र मेणाऽपरिक्लेशमित्यतस्तपोऽनुष्ठानमेव श्रेय इति, न किंचिद् गहाश्रमेणे ति संप्रत्युपेक्षितव्यमित्यष्टादशं पदं भवति / अष्टादशं स्थानं भवति (18) / भवति चाऽत्र श्लोकः, अत्रेत्यष्टा-दशस्थानाऽर्थव्यतिकर उक्ताऽनुक्ताऽर्थसंग्रहपर इत्यर्थः। श्लोक इतिचजातिपरो निर्देशः। ततः श्लोकजातिरनेकभेदा भवतीति प्रभूतश्लोकोपन्यासेऽपि न विरोधः। जया यचयइ धम्म, अणजो भोगकरणा। से तत्थ मुच्छिए बाले, आयइं नावबुज्झइ ||1|| यदा चैवमप्यष्टादशसुव्यावर्तनकारणेषु सत्स्वपित्यजति जहाति,धर्म चारित्रलक्षणम् ,अनार्य इत्यनार्य इवानार्या म्लेच्छ-चेष्टितः / किमर्थमित्याह- भोगकारणात् शब्दादिभोगनिमित्तं सद्धर्मत्यागी,तत्र तेषु भोगेषु,मूञ्छितो गृद्धो, बालोऽज्ञः,आयति-मागामिकालं, नाऽवबुद्ध्यते न सम्यगवगच्छतीति सूत्रार्थः // 11 // एतदेव दर्शयतिजया ओहाविओ होई, इंदो वा पडिओ छमं / सव्वधम्मपरिभट्ठो,स पच्छा परितप्पइ / / 2 / / यदा चाऽवधावितोऽपसृतो भवति संयमसुखविभूतेः, उत्प्रव्रजित इत्यर्थः / इन्द्रो वेति देवराज इव, पतितःक्ष्मां गतः, स्वविभवभ्रंशेन भूमौ पतित इति भावः।क्ष्मा भूमिः। सर्वधर्मपरिभ्रष्टः सर्वधर्मेभ्यः क्षान्त्यादिभ्यः आसेवितेभ्योऽपि यावत् प्रतिज्ञामननुपालनात् , लौकिकेभ्योऽपि वा गौरवादिभ्यः, परिभ्रष्टः सर्वतः च्युतः, स पतितो भूत्वा पश्चान्मनाम् मोहावसाने, परितप्यते, किमिदमकार्य मयाऽनुष्ठितमित्यनुताप करोतीति सूत्रार्थः / दश०१ चूलिका (अग्रेतनगाथा तृ०भा०१३५ पृष्ठे 'ओहावण' शब्दे विन्यस्ता) समणेणं भगवया महावीरेणं समणाणं निम्गंथाणं सक्खुडुय वियत्ताणं अट्ठारसट्ठाणा पण्णत्ता। तं जहा- वयछक्कं कायछक्कं, अकप्पो गिहिभायणं / पलियंक निसेजा य, सिणाणं सोभवज्जणं ||1|| स०१८ सम०। (व्रतषट्कादीनि विस्तरतोऽन्यत्र स्वस्वस्थाने लिखितानि) एषु व्रतषट्कं, शोभावर्जन चेति विधेयं, शेष प्रतिषेधनीयम्।व्य०१० उ०। अट्ठारसहिं ठाणेहिं जो होति अपतिद्वितो नाऽलमत्थो तारिसो होइ ववहारं ववहरित्तए। अट्ठारसहिं ठाणेहिं जो होति पतिहितो अलमत्थो तारिसो होइ ववहारं ववहरित्तए। व्य० 10 उ०। (इति व्यवहारिलक्षणं 'ववहार' शब्दे वक्ष्यते) अट्ठारसपावट्ठाण-न०[अष्टादशपापस्थान(क)] पापहेतूनि स्थानकानि पापस्थानकानि, अष्टादश च तानि स्थानकानि / प्राणातिपातादिषु अष्टादशसु पापोपादानहेतुषु स्थानेषु, प्रव०॥ सव्वं पाणाइवायं, अलियमदत्तं च मेहुणं सव्वं / सव्वं परिग्गहं तह, राईभत्तं च वोसिरिमो / / 1 / / सव्वं कोहं माणं, मायं लोभं च रागदोसे य। Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठारसपावट्ठाण 251- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अट्ठारससीलंगसहस्स कलहं अन्मक्खाणं पेसुन्नं परपरिवायं // 2 // मायामोसं मिच्छा-दसणसल्लं तहेव वोसिरिमो। अंतिमऊसासम्मि य, देहं पि जिणाइपचक्खं // 3 // सर्व सप्रभेदं प्राणातिपातं, तथा- सर्वमलकिं मृषावादं, तथासर्वमदत्तमदत्तादानं, तथा- सर्व मैथुनं, तथा सर्व परिग्रह, तथासर्व रात्रिभक्तं रजनिभोजनं, व्युत्सृजामः परिहरामः। तथा-सर्व क्रोधं, मानं, माया, लोभं च, रागद्वेषौ च,तथा-कलह, अभ्याख्यानं, पैशुन्यं, परपरिवाद, मायामृषा, मिथ्यादर्शनशल्यं च, तथैव सप्रतिज्ञ व्युत्सृजामः / एतान्यष्टादशपापहेतूनि स्थानकानि पापस्थानकानि, न केवलमेतान्येव किन्तु अन्तिमे उच्छ्वासे, परलोकगमनसमयइत्यर्थः, देहमपि निजशरीरमपि, व्युत्सृजामः, तत्रापि, ममत्वमोचनाद् जिनादिप्रत्यक्षं तीर्थकरसिद्धानां समक्षमिति / प्रव० 237 द्वा०। अट्ठारसवंजणाउल-त्रि०(अष्टादशव्यञ्जनाकुल) अष्टादशभिर्लोकप्रतीतैर्व्यञ्जनैः शालनतक्रादिभिराकुलं सङ्कीर्णं यत् तत्तथा। अथवा अष्टादशभेदं च तद् व्यञ्जनाकुलम्, शाकपार्थिवादिदर्शनाद् भेदशब्दलोपः। सूपाद्यष्टादशव्यञ्जनसङ्कीर्णे, चं० प्र०ा अष्टादशच भेदा इमे - सूओ 1 दणो 2 जवणं 3, तिण्णि यमसाइ 6 गोरसो 7 जूसो 8 / भक्खा गुललावणिया 10, मूलफला 11 हरियगं 12 डागो 13 / / 1 / / होइ रसालूय 14 तहा, पाणं 15 पाणीय 16 पाणगं चेव 17 / अट्ठारसमो सागो 18, णिरुवहओ लोइओ पिंडो॥२।। चं० प्र०२० पाहु०। स्था०। भ०। अट्ठारसविहिप्पयारदेसीभासाविसारय-पुं०,स्त्री०(अष्टादशविधिप्रकारदेशीभाषाविशारद)अष्टादशविधिप्रकाराः, अष्टादशभिर्वा विधिभिर्भेदैः प्रचारः प्रवृतिर्यस्याः सा तथा, तस्यां देशीभाषायां देशभेदेन वर्णावलीरूपायां विशारदः पण्डितो यः स तथा / अष्टादशधाभिन्नदेशीभाषापण्डिते, "अट्ठारसविहिप्पयार-देसीभासाविसारए गीयरगंधव्वणट्ट-कुसले हयजोही'। ज्ञा०१श्रु०१अ०) अट्ठारससीलंगसहस्स-न०(अष्टादशशीलाङ्ग सहस्र) शीलभेदानामष्टादशसहस्रेषु, पञ्चा०ा तानि चैवम् - नमिऊण वद्धमाणं, सीलंगाइं समासओ वोच्छं। समणाण सुविहियाणं, गुरूवएसाणुसारेण // 1 // नत्वा प्रणम्य, वर्द्धमानं महावीरं, शीलाङ्गानि चारित्रांशरूपाणि, तत्कारणानि वा, समासतः संक्षेपेण, वक्ष्ये भणिष्यामि। केषांसंबन्धीनि ? इत्याह-श्रमणानां यतीनां, सुविहितानां सदनुष्ठानानां, गुरुपदेशानुसारेण जिनादिवचनानुवृत्त्येति गाथाऽर्थः / / 1 / / शीलाङ्गानां तावत्परिमाणमाहसीलंगाण सहस्सा, अट्ठारस एत्थ हों ति णियमेणं। भावेणं समणाणं, अखंडचारित्तजुत्ताणं / / 2 / / शीलाङ्गानां चारित्रांशानां, सहस्राण्यष्टादश, अत्र- श्रमणधर्मे, प्रवचने वा, भवन्ति स्युः / नियमेनावश्यतया, न न्यूनान्यधिकानि वेति भावः। कथमित्याह- भावेन परिणामेन, बहिर्वृत्त्या तु कल्पप्रतिसे वया न्यूनान्यपि स्युरिति भावः / केषामित्याह-श्रमणानां यतीनां न तु श्रावकाणां सर्वविरतानां चैव तेषामुक्तसंख्यावतां संभवात्। अथवा भावेन श्रमणानां, न तु द्रव्य-श्रमणानाम्, तेषामपि किंविधानामित्याह अखण्डचारित्रयुक्तानां सकलचरणोपेतानां, न तु दर्पप्रतिसेवया खण्डितचरणांशानाम् / नन्वखण्डचरणा एव सर्वविरता भवन्ति, तत्खण्डनेऽसर्वविरतत्वप्रसंगात्, तथा "पडिवजइ अइक्कमइ पंच' इत्यागम-प्रामाण्यात् सर्वविरतः पञ्चापि महाव्रतानि प्रतिपद्यतेऽतिक्रामति च पशाप्येव, नैककादिकमिति / कथं सर्वविरतर्देशखण्डनमिति? अत्रोच्यते- सत्यमेतत्, किंतु प्रतिपत्त्यपेक्ष सर्वविरतत्व, परिपालनापेक्षया त्वन्यथापि संज्वलन-कषायोदयात् स्यात्। अत एवोक्तम् "सव्वे विय अइयारा, संजलणाणं उदयओ होति" इति / अतिचारा हि चरणदेशखण्डनरूपा एवेति / तथैकव्रतातिक्रमे सर्वातिक्रम इति यदुक्तं, तदपि वैवक्षिकम् / विवक्षा चेयम् - 'छेयस्स जाव दाणं, ताव अइक्कमइ चेव एग पि / एग अइक्कमंतो, अइक्क मे पंचमूलेणं // 1 // एवमेव हि दशविधप्रायश्चित्त-विधानं सफलं स्यात् / अन्यथा मूलायेव, तस्माद्व्यवहार-नयतश्चातिचारसंभवः, निश्चयतस्तु सर्वविरतितया भङ्ग एवेत्यलं प्रसंगेनेति गाथाऽर्थः / / 2 / / कथं पुनरेकविधस्य शीलस्याङ्गाना-मष्टादशसहस्राणि भवन्ति? इत्याह - जोए करणे सण्णा-इंदियभूमादि समणधम्मे य। सीलंगसहस्साणं, अट्ठारसगस्स णिप्पत्ती॥३॥ योगे व्यापारे विषयभूते, करणे योगस्यैव साधकतमे, संज्ञादीनि चत्वारि पदानि द्वन्द्वैकत्ववन्ति। तत्र संज्ञासु चेतनाविशेषभूतासु, इन्द्रियेष्वक्षेषु, भूम्यादिषु पृथिव्यादिजीवकायेष्वजीवकाये च, श्रमणधर्मे च क्षान्त्यादौ, शीलाङ्ग सहस्राणां प्रस्तुतानाम्, अष्टादशपरिमाणमस्य वृन्दस्येत्यष्टादशकं, तस्य, निष्पत्तिः सिद्धिर्भवतीति गाथार्थः / / 3 / / योगादीनेव व्याख्यातुमाह - करणादि तिण्णि जोगा, मणमादीणि उ हवंति करणाई। आहारादी सण्णा, चउसण्णा इंदिया पंच ||4|| भोमादी णव जीवा, अजीवकाओ य समणधम्मो उ। खंतादिदसपगारो, एवं ठिए भावणा एसा॥५॥ (करणाइ त्ति) सूत्रत्वात् करणादयः, करणकारणानुमतयः, त्रयो योगा भवन्ति / तथा मन आदीनि तु मनोवचनकायरूपाणि, पुनर्भवन्ति स्युः, करणानि त्रीण्येवः, तथा आहारादयः आहारभयमैथुनपरिग्रहविषयाः वेदनीयभयमोहवेदमोहलोभकषायोदयसंपाद्याध्यवसायविशेषरूपाः संज्ञाः,( चउ त्ति) चतस्रः संज्ञा भवन्ति / तथा- श्रोत्रादीनि श्रोत्रचक्षुर्घाणरसनस्पर्शनानीन्द्रियाणि पञ्च भवन्तीति / तथा- भूम्यादयः पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रिया नव जीवाजीवकायाः, अजीवकायस्तु अजीवराशिः पुनर्दशमो यः परिहार्यतयोक्तः / स च महाधनानि वस्त्रपात्राणि विकट हिरण्यादीनि च, तथा- पुस्तकानि तूलाद्यप्रत्युपेक्षितानि प्रावारादिदुष्प्रत्युपेक्षितानि, कोद्रवादितृणान्यजादिचर्माणि चागमप्रसिद्धानीति / तथा-श्रमणधर्मस्तु यतिधर्मः / पुनः क्षान्त्यादिः क्षान्तिमार्दवाऽऽर्जव- मुक्तितपः संयमसत्यशौचाड किञ्चन्यब्रह्मचर्य रूपो दश प्रकारो दशविध इति / एवंति, एवमुकन्यायेन,स्थिते औत्तराऽर्येण पट्टकादौ व्य-वस्थिते, द्वित्रिचतुष्पञ्चदशसंख्येयमूलपदकलापभावना भङ्गक-प्रकाशना, एषा अनन्तरवक्ष्यमाणलक्षणेति गाथाद्वयाऽर्थः // 5 // Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठारससीलंगसहस्स २५२-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अद्वारससीलंगसहस्स तामेवाऽऽहण करति मणेण आहा-रसण्णविप्पजढगो उ णियमेण। सोइंदियसंवुडो पुढविकायारंभं खंतिजुओ॥६|| न करोतीति करणलक्षणः प्रथमयोग उपात्तः।मनसेति प्रथम-करणम्। (आहारसण्णविप्पजदगो उ त्ति) आहारसंज्ञाविप्रहीणः। अनेन च प्रथमसंज्ञा / तथा- नियमेनाऽवश्यंतया श्रोत्रेन्द्रियसंवृतो निरुद्धरागादिमत्श्रोत्रेन्द्रियप्रवृत्तिः, अनेन च प्रथमेन्द्रिय। एवंविधः सन् किं करोतीत्याह- पृथिवीकायारम्भं पृथ्वीजीवहिंसाम्, अनेन च प्रथमजीवस्थानम्। शान्तियुतः क्षान्तिसंपन्नः अनेन प्रथमश्रमणधर्मभेद इति। तदेवमेकं शीलाङ्गमाविर्भावितमिति गाथाऽर्थः // 6 // अथ शेषाणि तान्यतिदेशतो दर्शयन्नाह - इय मद्दवादिजोगा, पुढवीकाए भवंति दस भेया। आउक्कायादीसु वि, इय एते पिंडियं तु सयं // 7 // सोइंदिएण एयं, सेसेहिं वि जे इमं तओ पंच। आहारसण्णजोगा, इय सेसाहिं सहस्सदुगं / / 8 / / एयं मणेण वइमादिएसु एयं ति छस्सहस्साई। ण करइ सेसेहिं पिय, एए सव्वे वि अद्वारा III इत्यनेनैव च पूर्वोक्ताऽभिलापेन, मार्दवादियोगान् मार्दवाऽऽर्जवादिपदसंयोगेन, पृथिवीकाये पृथिवीकायमाश्रित्य, पृथिवीकायसमारम्भमित्यभिलापेनेत्यर्थः। भवन्ति स्युः, दशभेदा दश शीलविकल्पाः, अप्कायादिष्यपि नवसुस्थानेषु, अपिशब्दो दशेत्यस्येह संबन्धनार्थ इति / अनेन क्रमेण एते सर्वेऽपि भेदाः / (पिंडियं तु त्ति) प्राकृतत्वात्पिण्डिताः पुनः सन्तः, अथवा पिण्डितं पिण्डिमाश्रित्य, शतं शतसंख्याः स्युरिति, श्रोत्रेन्द्रियेणैतच्छतं लब्धम्, शेषैरपि चक्षुरिन्द्रियादिभिः, यद्यस्मादिदं शतं प्रत्येकलभ्यते, ततो मीलितानि पञ्चशतानि स्युः / एतानि चाऽऽहारसंज्ञायोगाल्लब्धानि इति / एवं शेषाभिस्तिसृभिः पञ्च पञ्चशतानि स्युः, एवं च सर्वमीलने सहस्रद्यं स्यादिति। एतत् सहस्रद्वितीयं मनसा लब्धं (वइमाइएसुत्ति) वागाद्योः वचनकाययोः प्रत्येकमेतत् सहस्रद्वयम्, इति एवं, षट्सहस्राणि न करोतीति, अत्र करणपदे स्युः / शेषयोरपिच कारणाऽनु-मत्योरित्यर्थः / षट्षट् सहस्राणि स्युः। एते अनन्तरोक्ताः, सर्वेऽपिशीलभेदाः पिण्डिताः सन्तः, 10x1045444343-18,000 (अट्ठारत्ति) प्राकृतत्वात् अष्टादशसहस्राणि भवन्तीति गाथा-त्रयाऽर्थः ||6|| नन्वेकयोग एवाऽष्टादशसहस्राणि स्युर्यदा तु व्यादिसंयोगजन्या इह क्षिप्यन्ते, तदा बहुतराः स्युः / तथाहि-एकद्व्यादिसंयोगेन योगेषु सप्त विकल्पाः, एवं करणेषु सप्त, संज्ञाषु पञ्चदश, इन्द्रियेष्वेकत्रिंशद्, भौम्यादिषु त्रयोविंशत्यधिकं सहस्रम्, एवं क्षमादिष्वपि / इत्येषां च राशीनां परस्पराभ्यासे द्वे कोटिसहस्रे, त्रीणि कोटीशतानि, चतुरशीति कोटीनामेक-पञ्चाशल्लक्षाणि, त्रिषष्टिसहस्राणि, द्वेशते,पञ्चषष्टिश्चेति। 7474154314 102341023 % 2,384,51,63,265 / ततः किमष्टादशैव सहस्राण्युक्तानि ? उच्यते- यदि श्रावकधर्मवदन्यतरभङ्गकेन सर्वविरतिप्रतिपत्तिः स्यात्, तदा युज्येत, तद्भङ्गेन तत्रैवमेकतरस्यापि शीलाङ्गकल्पस्य शेषसद्भाव एव भावात् / अन्यथा सर्वविरतिरेव न स्यादिति। तदेवाऽऽह -- एत्थ इमं विण्णेयं, अइदंपज्जं तु बुद्धिमंतेहिं। एकंपि सुपरिसुद्धं, सीलंग सेससब्मावे / / 10 / / अत्र एषु शीलाङ्गेषु, इदं वक्ष्यमाणं, विज्ञेयं ज्ञातव्यम्। (अइदं-पचंति) इदं परं प्रधानमत्रेतीदंपरं, तद्भाव ऐदंपर्य तत्त्वम्। तुशब्दः पुनःशब्दार्थः। तद्भावना चैवम्- शीलागसहस्राण्यष्टादश भवन्ति ।ऐदंपर्यंपुनरेष्यिदं ज्ञेयं, बुद्धिमद्भिर्बुधैः। किंतदित्याह- एकमपि, अपिशब्दाबहून्यपि, सुपरिशुद्ध निरतिचारं, शीलाङ्गं चरणांशः, शेषसद्भावे तदन्यशीलाङ्गसत्तायामेव, तदेवं समुदितान्येवैतानि भवन्तीति न व्यादिसंयोगभङ्गकोपादानमपितु सर्व-पदान्त्यभङ्गस्येयमष्टादशसहस्रांशतोक्ता / यथा त्रिविधं त्रिविधेनेत्यस्य नवांशतेति / इह च सुपरिशुद्धमिति। विशेषणाद् व्यवहारनयमतेनाऽपरिशुद्धानि पालनायामन्यतरस्याभावेऽपि स्युरिति दर्शितम् / एवं हि संज्वलनोदयश्चरितार्थो भवेदिति, चरणैकदेशभङ्गहेतुत्वात् तस्याअत एव यो मन्यते लवणं भक्षयामीतितेन (मुनिना) मनसा न करोत्याहरसंज्ञाविहीनो रसनेन्द्रियसंवृतः पृथिवीकायसमारम्भमुक्तिसंपन्न इत्येतदेकं तद्वङ्गम्। तद्भङ्गे च प्रतिक्रमणादिप्रायश्चित्तेन शुद्धिः स्यात् , अन्यथा मूलेनैव स्यादिति गाथाऽर्थः / / 10 / / अनन्तरगाथार्थं समर्थयन्नाहएक्को वाऽऽयपएसोऽसंखेयपएससंगओ जहतु। एतं पि तहाणेयं, सतत्तचाओ इहरहा उ।।११।। एकोऽपि, आस्तामनेकः / आत्मप्रदेशो जीवांशः, असंख्येयप्रदेशसंगत एव संख्यातीतांशसमन्वित एव भवति, तस्य तथास्वभावत्वात्। यथा यद्वत्, तु शब्द एवकारार्थः / तत्प्रयोगश्च दर्शित एव / एतदपिशीलाङ्गमपि,तथा तद्वच्छेषशीलाङ्गसमन्वितमेव, शेयं ज्ञातव्यम, शेषानपेक्षत्वे तस्य को दोषः? इत्याह-स्वतत्त्वत्यागः सर्वविरतिलक्षणशीलाङ्गहानिः स्यात्। इतरथातुएकतायांपुनरित्यर्थः / समुदितान्येतानि सर्वविरतिशीलाङ्गतामापद्यन्ते / अन्यथा पुनः सर्वविरतिशीलाङ्गता त्यजन्तीति भावनेति गाथाऽर्थः / / 11 / / इदमेव समर्थयन्नाह - जम्हा समम्गमेयं, पिसव्वसावज्जजोगविरई उ। तत्तेणेगसरूवं, ण खंडरूपत्तणमुवेइ // 12 // यस्मात् कारणात् समग्रं परिपूर्णमेव, सदा दैशिकमित्यर्थः / एतदपि शीलं, न केवलमात्मा समग्रः सन्नात्मा स्यात् / सर्वसावद्ययोगविरतिः समस्तपापव्यापारनिवृत्तिर्भवति, तत्स्वभावमित्यर्थः / तु शब्द एवकारार्थः / योजितश्च / तथाच- तत्त्वेन सर्वनिवृत्तिरूपत्वेन हेतुना एकस्वरूपमष्टादशसहस्रांशमेव / अन्यथा सर्वविरतित्वाऽयोगाद्, न खण्डरूपत्वमेकाद्यंशवैकल्यम्, उपैति, उपयातीति / प्रयोगोऽत्रयद्यदपेक्षया स्वतत्त्वं लभते, तत्तत्न्यूनतायां तत् न भवति / यथा- प्रदेशहीन आत्मा, यथा वा शतमेकाद्यभावे, लभते च सर्वस्वाऽपेक्षया सर्वविरतिः स्वतत्त्वम्, अत एकादिशीलाङ्ग विकलोऽसौ न भवतीति गाथार्थः // 12 // उक्ताऽर्थ एव विशेषाऽभिधानायाऽऽहएयं च एत्थ एवं, विरतीभावं पडुच दट्ठव्वं / न उ बज्झं पि पवित्तिं, जंसा भावं विणावि भवे // 13 // एतच्च एतत्पुनः शीलम्, अत्र शीलाङ्गप्रक्रमे, एवमखण्डरूपं, विरतिभावं सावद्ययोगविरमणपरिणाम, प्रतीत्याश्रित्य, द्रष्टव्यं ज्ञेयम्। नतु, न पुनः, बाह्यमपि कायवाक्संबन्धिनीमपि, अपिशब्दः समुच्चये, प्रवृत्तिं चेष्टाम्, कुत एतदेवमित्याऽऽह-यद् यस्मात्, सा बाह्या प्रतिपत्तिः, भावमध्यवसायं, विनाऽपि अन्तरेणाऽपि। अपिशब्दाद् भावेन सहाऽपि, भवेत् स्यादिति गाथाऽर्थः / / 13 / / पंचा०१४ विव०। आवाधा पं० वाद। Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठारससेणि 253 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अट्ठावय अट्ठारससेणि-स्त्री०(अष्टादशश्रेणि) कुम्भकारादिषु अष्टादश-सुराज्ञः प्रजासु, जं०अष्टादशश्रेणयश्चमाः- कुंभार 1 पट्टइल्ला २,सुवण्णकारा य 3 सूचकारा य 4 / गंधव्वा 5 कासवगा 6, मालाकारा य 7 कज्जकरा 8||1|| तंबोलिआ हय एए, नवप्पयारा य णारुआ भणिआ। अहणं णवप्पयारे, कारुअवण्णे पवक्खामि / / 2 / / चम्मयर 1 जंतपीलग 3, गंछिअ 3 छिपय 4 कंसकारा य 5 / सीवग 6 गुआर७भिल्ला 8, धीवण 6 वण्णाइ अट्ठदस।।३।। चित्रकारादयस्तु एतेष्वेवाऽन्तर्भवन्ति / तए णं ताओ अट्ठारससेणिप्पसेणीओ भरहेणं रन्ना एवं वुत्ता समाणीओ हट्ठाओ। जं०३ वक्ष अट्ठारसय-त्रि०(अष्टादशक) अष्टादशवर्षप्रमाणे, "तेवरिसा होइणवा, अट्ठारसिया उ हरिया होइ"। अष्टादशिका अष्टादशवर्षप्रमाणा। व्य०४ उ०। अट्ठालोमि (ण)-त्रि०(अर्थालोभिन्) अर्थोऽत्र कुप्यादिस्तत्र आ समन्ताल्लोभः अर्थलोभः, य विद्यते यस्येति समन्ततो धनलुब्ध, "अहोयराओ परियप्पमाणे कालाकालसमुट्ठाई संजोगट्ठी अट्ठालोभी''। आचा०१श्रु०२ अ०३उ०। अट्ठावण्ण-स्त्री० [अष्ट(टा)(पञ्चाशत)] अष्टाधिका पञ्चाशत् अष्टपञ्चाशत्, अष्ट च पञ्चाशच अष्टपञ्चाशदिति वा / 'अट्ठावन' इति प्रसिद्धायां संख्यायां, तत्संख्येये च। "पढमदोच्चपंचमासु तिसुपुढवीसु अट्ठावण्णं णिरयावाससयसहस्सा''। स०५८ सम०। अट्ठावय-न०(अर्थपद) अर्यत इत्यर्थो धनधान्यहिरण्यादिकः, पद्यते गम्यते येनार्थस्तत्पदं शास्त्रम्, अर्थाऽथ पदमर्थपदम् / चाणक्यादिकेऽर्थशास्त्र, सूत्र०१श्रु०६अ। *अष्टापद-ना द्यूतक्रीडाविशेषे, सूत्र०१ श्रु०६ अा द्यूतफलके,जं० 2 वक्ष०ा प्रश्न०। द्वासप्ततिकलासु चेयं त्रयोदशी कला / ज्ञा० 1 श्रु०१ अ० साद्यूतसामान्ये, जं०२ वक्ष०ा नि०यू०। "अट्ठाक्यं ण सिक्खिज्जा''। सूत्र०१ श्रु०६ अ०अथवा- अष्टौ अष्टौ पदानिपङ्कावस्य / वृत्तौ संख्याशब्दस्य वीप्सार्थत्वाङ्गीकारः, आत्वम्, अर्द्धर्चादिः / शारीफलके, अष्टसु धातुषु पदं प्रतिष्ठा यस्य, स्वर्णे उपचारात्, स्वर्णमयेऽपि, शरभे, लूतायां च / पुं०। तयोरष्ट पदत्वात्। अष्टं यथा स्यात्तथा पद्यते, कृमौः अष्टसु दिक्षु आपद्यते, कीलके, अष्टाभिः सिद्धिभिरापद्यते / आ-पद-यप् / 3 त०। अणिमाद्यष्टसिद्धियुक्तत्वे, कैलासे च / पुं० वाचा स्वनामख्याते पर्वतविशेषे, यत्र ऋषभदेवः सिद्धः / पञ्चा० 16 विव०। आ० म०प्र०) कल्या अट्ठावयम्मि सेले, चउदसभत्तेण सो महरिसीणं। दसहि सहसेहि सम, णिव्वाण-मणुत्तरं पत्तो॥१॥ आ० का जंगासंथा०ा नं०। (गौतमस्याऽष्टापदगमनं तत्र तापसप्रव्राजनम्, 'अज्जवइर' शब्देऽत्रैव भागे 216 पृष्ठे द्रष्टव्यम्) आ० क०। भ०। आ० म० द्वि०। एतस्मादेव चाऽस्य तीर्थत्वम् / तन्माहात्म्यं यथा - वरधर्मकीर्तिऋषभो, विद्यानन्दाश्रितः पवित्रयुतः। देवेन्द्रवन्दितो यः, स जयत्यष्टापदगिरीशः।।१।। ऋषभसुता नवनवतिर्बाहुबलिप्रभृतयः प्रवरयतयः। यस्मिन्नभजन्नमृतं, स जयत्यष्टापदगिरीशः // 2 // अयुजन्निवृत्तियोग, वियोगभीरव इव प्रभोः समकम्। यत्रर्षिदशसहस्राः स जयत्यष्टापदगिरीशः // 3 // यत्राष्ट पुत्रपुत्राः, युगपद् वृषभेण नवनवतिपुत्राः। समयैकेन शिवमगुः, स जयत्यष्टापदगिरीशः॥४|| रत्नत्रयमिव मूर्त, स्तूपत्रितयं चितित्रयस्थाने। यत्राऽस्थापयदिन्द्रः, सजयत्यष्टापदगिरीशः।।५।। सिद्धायतनप्रतिम, सिंहनिषद्येति यत्र सुचतुर्दा / भरतोऽरचयच्चैत्यं, स जयत्यष्टापदगिरीशः।।६।। यत्र विराजति चैत्यं, योजनदीर्घ तदर्द्धपृथुमानम्। कोशत्रयोचमुच्चैः, स जयत्यष्टापदगिरीशः // 7 // यत्र भ्रातृप्रतिमाः, व्यधाचतुर्विंशतिर्जिनप्रतिमाः / भरतः सात्मप्रतिमाः, स जयत्यष्टापदगिरीशः / / 8 / / स्वस्वाकृतिमिति वर्णाङ्कवर्णितान् वर्तमानजिनबिम्बान्। भरतो वर्णितवानिह, स जयत्यष्टापदगिरीशः // 6 // सप्रतिमा नवनवति, बन्धुस्तूपांस्तथाऽहंतस्तूपम्। यत्रारचयचक्री, स जयत्यष्टापदगिरीशः॥१०॥ ('उसभ' शब्दे द्वि०भा० 1151 पृष्ठे वक्तव्यताऽस्य वक्ष्यते)भरते न मोहसिंह, हन्तुमिवाऽष्टापदः कृताष्टपदः। शुशुभेऽष्टयोजनो यः, स जयत्यष्टापदगिरीशः।।११।। यस्मिन्ननेककोठ्यो, महर्षयो भरतचक्रवाधाः। सिद्धिं साधितवन्तः, स जयत्यष्टापदगिरीशः॥१२॥ ('भरह' शब्देऽस्य वक्तव्यता यक्ष्यते) सगरसुताऽग्रे सर्वार्थशिवगतीन भरतराजवंशींन्। यत्र सुबुद्धिरकथयत्, सजयत्यष्टापदगिरीशः॥१३।। परिखासागरमकरन्त सागराः सागराऽऽशया यत्र। परितो रक्षतिकृतये, स जयत्यष्टापदगिरीशः // 14 // क्षालयितुमिव स्वेनो, जैनो यो गङ्गया श्रितः परितः। संततमुल्लोलकरैः, स जयत्यष्टापदगिरीशः।।१५।। ('गंगा' शब्दे कथाऽस्य द्रष्टव्या) यत्र जिनतिलकदानाद, दमयन्त्याऽऽपे कृतानुरूपफलम्। भालस्वभावतिलकं, स जयत्यष्टापदगिरीशः / / 16|| ('दमयंती' शब्दे कथैषा निरूपयिष्यते) यमकूपारे कोपात, क्षिपन्नलं वालिनाऽघ्रिणाऽऽक्रम्य। आरावि रावणोऽरं, स जयत्यष्टापदगिरीशः // 17 // भुजतन्त्र्या जिनमहकृल्लङ्केन्द्रोऽवाप यत्र धरणेन्द्रात् / विजयाऽमोघां शक्तिं, स जयत्यष्टापदगिरीशः // 18 // ('रावण' शब्दे कथेयं प्ररूपयिष्यते) चतुरश्चतुरोऽष्टादश, द्वौ प्राच्यादिदिक्षु जिनबिम्बान्। यत्रावन्दतगणभृत्, स जयत्यष्टापदगिरीशः।।१६।। अचलेऽत्रोदयमचलं, स्वशक्तिवन्दितजिनो जनो लभते। वीरोऽवर्णयदिति यं, स जयत्यष्टापदगिरीशः / / 20 / / प्रभुभणितपुण्डरीकाध्ययनाध्ययनात् सुरोऽत्र दशमोऽभूत्। दशपूर्विपुण्डरीकः, स जयत्यष्टापदगिरीशः।।२१।। यत्र स्तुतजिननाथोऽदीक्षत तापसशतानि पंचदश। श्रीगौतमगणनाथः, स जयत्यष्टापदगिरीशः।।२२।। ('अज्जवइर' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 216 पृष्ठे कथेयं निरूपिता) इत्यष्टापदपर्वत इव योऽष्टापदमपि चिरस्थायी। व्यावर्णि महातीर्थ,स जयत्यष्टापदगिरीशः।।२३।। ती०१८ कल्पा भरतचक्रवर्तिकारितचैत्यानामिदानीं सत्त्वे प्रश्नोत्तरे- ननु अष्टापदपर्वते भरतचक्रवर्तिकारिताः सिंहनिषद्याप्रमुखप्रासादाः, तद्गतबिम्बानि चाऽद्ययावत् कथं स्थितानि सन्ति ? तथा श्रीशत्रुजयपर्वतेऽपि भरतकारितानि तान्येव प्रासादबिम्बानि कथं Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठावय 254 - अभिधानराजेन्द्रः-भाग 1 अट्ठिग न स्थितानि? यतस्तत्राऽसंख्याता उद्धारा जाताः श्रूयन्ते, तेना-ऽष्टापदे कस्य सांनिध्यं, शत्रुञ्जये च कस्य न ? यदेतावान् भेद इति व्यक्त्या प्रसाद्यामिति। उत्तरम्- अष्टापदपर्वते भरत-चक्रवर्तिकारितप्रासादादीनां स्थानस्य निरपायत्वाद, देवादि-सान्निध्यात् च "केवइयं पुण कालं आययणं अवसिज्झिस्सइ? ततो तेण अमच्चेण भणिअं-जाव इमाओ ओसप्पिणि त्ति मे के वलिजिणाण अंतिए सुयं'' इत्यादि वसुदेवहिण्ड्यक्षर-सद्भावाच्चाद्ययावदवस्थानं युक्तिमदेव। शत्रुञ्जये तु स्थानस्य सापायत्वात्, तथाविधदेवादिसान्निध्याऽभावाच, भरतकारितप्रासादादीनामद्ययावदवस्थानाऽभाव इति संभाव्यते / तत्त्वं तु तत्त्वविद्वेद्यमिति / ही०४ प्रका० किञ्च- अष्टापदपर्वते प्रतिमाप्रतिष्ठा केन कृता ? कुत्र वा सा कथिताऽस्तीति? विष्णु-ऋषिगणिप्रश्नः / तदुत्तरम्- अत्र अष्टापदपर्वते प्रतिमाप्रतिष्ठा श्रीऋषभदेवशिष्येण कृतेति श्रीशत्रुञ्जयमाहात्म्यमध्ये कथित-मस्तीति / ही०। अष्टापदगिरौ स्वकीयलब्ध्या ये जिनप्रतिमां वन्दन्ते, ते तद्भवसिद्धिगामिन इत्यक्षराणि सन्ति, तथा च सन्ति ये विद्याधरयमिनस्तथा राक्षसवानरचारणभेदभिन्ना अनेके ये तपस्विनस्तत्र गन्तुं शक्तास्तेषां सर्वेषामपि तद्भवसिद्धि-गामित्वमापद्यते, ततः सा का लब्धि ? यया तत्र गम्यते, तथा गौतमादिवत्तद्भवसिद्धिगामिनो भवन्तीति / तथाऽष्टापदगिरौ ये तपःसंयमोत्थलब्ध्या यात्रां कुर्वन्तितेतद्भवसिद्धिगामिन इति संभाव्यते, व्यक्ताऽक्षराऽनुपलम्भात्। ही०१ प्रका०। अट्ठावयवाइ(ण)-पुं०(अष्टापदवादिन्) इन्द्रभूतिना सह वीर जिनसमीपं समागते विप्रभेदे, कल्प०/ अट्ठावीस-स्त्री०(अष्टाविंशति) अष्टाऽधिका विंशतिः / अष्ट च विंशतिश्चाऽष्टाविंशतिः / 'अट्ठावीस' अष्टाधिकविंशतिसंख्यायाम, "तिणि य कोसे अट्ठावीसं धणु सयं'। जं०१ वक्षः। अट्ठाह-न०(अष्टाह) अष्टानामहां समाहारे, ज्ञा०६ श्रु०५अ०) अट्ठाहिया-स्त्री०(अष्टाहिका) अष्टानामहां समाहारोऽष्टाहम, तदस्ति यस्यां महिमायां साऽष्टाहिका। महिमामात्रे, व्युत्पत्तेः प्रदर्शनमात्रफलत्वेन महिमामात्रस्यैव प्रवृत्तिनिमित्तत्वात्। ज्ञा०१श्रु०८अ० अष्टदेवसिक्यां च। 'अट्ठाहियाय महिमा, सम्म अणुबंधसाहिगा केइ"पश्चा०८ विव०। आ०म०प्र०1 (अष्टाहिकाया रथयात्रायाः स्वरूपम् 'अणुजाण" शब्दे वक्ष्यते) अट्ठि-न०(अस्थि) अस्यते। अस-क्थिन्। 'ठोऽस्थिविसंस्थुले"।८1 2132 / इति संयुक्तस्य थस्य ठः / प्रा०। कीकशे, प्रश्न०१आश्र० द्वा०ा औ०। कुलके, आचा०२ श्रु०१अ०८ अ०। कुल्ये पञ्चमे धातौ, तं०। स्था०। साऽस्थिके सरजस्के कापालिके, ''अट्ठी विज्जा कुच्छितभिक्खू"। बृ०१ उ०। अट्ठि(ण)-त्रि०(अर्थिन) अर्थोऽस्याऽस्तीत्यर्थी प्रयोजनवति, आचा० १श्रु०६ अ०४ उ०) अट्ठिअगाम-पुं०(अस्थिकग्राम) स्वनामख्याते ग्रामभेदे, तत्र वीरजिनः समवासरत्। तदेतत्सर्वमुक्तम् - 'अस्थिकग्राम' इत्याख्या, कथं जातेति कथ्यते। ग्रामोऽयं वर्धमानोऽन्ते, वेगवत्यस्य नद्यभूत् / / 12 / / मण्यादिपण्यपूर्णानामनसां पञ्चभिः शतैः। धनदेवो वणिक् तत्रायातः प्रेक्ष्य महानदीम्॥१३|| महोक्षमेकं सर्वेषु, शकटेषु नियोज्य सः। वामतो दक्षिणेनाऽन्यान् तां नदीमुदतारयत्॥१४॥ अतिभाराऽऽकर्षणेन, सोऽथाऽन्तस्युटितो वृषः। तस्य छायां विधायाऽथ, ग्राम्यानाकार्य तत्पुरः / / 15 / / चारिवारिकृते तस्य, तेषां द्रविणमार्पयत्। पाल्योऽयमिति चोक्त्वा तान्, साऽश्रुदृक् स वणिग् ययौ॥१६॥ ग्राम्या विभज्य तद् द्रव्यं, सर्वे जगृहिरे स्वयम्। तस्याऽसौ निर्दयो ग्रामः, चारिं वारिन कोऽप्यदात् / / 17 / / आस्तां किंचित् करिष्यन्ति, दयया मे प्रतिक्रियाम्। मत्स्वामिदत्तद्रव्येणाऽप्येते किंचित् न कुर्वते // 18|| ततः प्रद्वेषमापन्नः, तद्ग्रामोपरि सत्वरः। सोऽकामनिर्जरायोगात्, क्षुत्तषाबाधितो मृतः // 16 // यक्षोऽभूत शूलपाण्याख्यो, ग्रामेऽत्रैव पुरो वने। उपयुक्तोऽथ सोऽज्ञासीत्, तद्वपुः स्वं ददर्श च॥२०॥ मातिद्ग्रामलोकस्य, स विचक्रे ततः क्रुधा। तल्लोको मुर्तुमारेभेऽभूवंस्तैरस्थिसंचयाः / / 21 / / कारितैरपि रक्षाद्यैर्मारि!पशशाम सा। ग्रामान्तरेष्वगुर्लोकाः, सतास्तत्राप्यमारयत्॥२२।। अचिन्तयंस्ते तत्रस्थैः, कोऽप्यस्माभिर्विराधितः। यामस्तत्रैव तद्ग्रामे, तत्प्रसादनहेतवे।।२३।। अथागतास्तदर्थं ते, प्रचक्रुर्विपुलां बलिम्। समन्ततः क्षिपन्तोऽथ, ग्रामस्याऽभ्यधुरुन्मुखाः॥२४॥ देवो वा दानवो वाऽपि, यः कश्चित्कुपितोऽस्ति नः। शरणं नः स एवास्तु, क्षाम्यत्वागः प्रसीदतु॥२५।। यक्षोऽन्तरिक्षे सोऽवादीत्, क्षामणां कुरुताऽधुना। वणिग्दत्तधनेनाऽपि, तदा गोर्न तृणाद्यदुः // 26 // बलीवर्दः स मृत्वाऽहं, शूलपाणिः सुरोऽभवम्। तेन वैरेण वः सर्वान, मारयामि ततोऽधुना // 27 // तेऽथ तं भक्तिनमाङ्गाः, दैन्यात् प्रज्ञपयन्नदः / कृतोऽस्माभिरयं मन्तुः, शान्त्यै कर्त्तव्यमादिश // 28 // तदैन्यात् सोऽपि शान्तस्तानूचे मन्मारिताऽस्थिभिः / कृत्वा कूटं तदुपरि, कुरुताऽऽयतनं मम // 26 / / मध्ये विधाय मे मूर्ति, बलीवर्दस्य चैकतः। पूजयेयुर्नमस्येयुस्ततो मारिः शमिष्यति // 30 // तथैव विदधुस्ते च, मारिश्चाऽपि न्यवर्तत। इन्द्रशर्मा भृतिं दत्त्वा, ग्राम्यैस्तस्याऽर्चकः कृतः // 31 // वीक्ष्याऽस्थिकूट पथिकैरस्थिग्राम इतीरितः। 'अस्थिकग्राम' इत्याख्या ग्रामस्याऽस्य तदाद्यभूत् / / 3 / / आ० क०। कल्प०ा आ० चूoा आ०म० द्वि० स्था। अट्ठिकच्छभ-पुं०(अस्थिकच्छप) अस्थिबहुले कच्छपभेदे, प्रज्ञा०१ पद। अविकढिण-त्रि०(अस्थिकठिन) अस्थिभिः कठिनम्। कीकशैरमृदुनि, तंग *कठिनास्थिक-त्रि०। कठिनानि अस्थिकानि यत्र तत्राथा / अमृदुकीकशके, "अट्ठियकढिणे सिरण्हारुबंधणे'।तं०। अद्विग-न०(अस्थिक)हडके, प्रश्न०३ आश्र० द्वा०। कापालिके, पुं०। व्य०२ उ०। अबद्धबीजे अनिष्पन्ने फले,न०। बृ० 1 उ०। *आ(अ)र्थिक-न० अर्यत इत्यर्थो मोक्षः, स प्रयोजनमस्य इत्यार्थिकम्, "तदस्य प्रयोजनम्" इति ठक् / अथवाऽर्थः, स एव प्रयोजनरूपोऽस्यास्तीति अर्थिकम्, "अत इनि-ठनौ'। 5 / 2 / 115 / इति ठन् / उत्त०१अ०। मोक्षोत्पादके, "पसन्ना Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठिग 255 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अट्ठियकप्प लाभइस्संति, विउलं अद्वियं सुयं''। उत्त०१०। अभिलाषिणि, सूत्र० / मध्यमजिनानां, तत्साधूना मित्यर्थः, विज्ञेयो ज्ञातव्यः / 1 श्रु०२ अ०३ उ०। कुतोऽस्थितोऽयमित्याह- नो नैव, सततसेवनीयः सदाविधेयो, अद्विग(य)कठुट्ठिय-त्रि०(अस्थिककाष्ठोस्थित) अस्थिकान्येव दशस्थानकापेक्षया / एतदपि कुत इत्याह- अनित्यमर्यादाकाष्ठानि, काठिन्यसाधात्, तेभ्यो यदुत्थितं तत्तथा / कठिन- स्वरूपोऽनियतव्यवस्थास्वभाव इति कृत्वा / ते हि दशानां स्थानानां कीकशेभ्यः समुत्थिते देहे, भ०६ श०३३ उ०। मध्यात् कानिचित् स्थानानि कदाचिदेव पालयन्तीति भाव इति अद्विचम्मसिरत्ता-स्त्री०(अस्थिचर्मशिरावत्ता) अस्थीनि च चर्म च गाथार्थः // 7 // शिराश्च स्नायवो विद्यन्ते यस्य स तथा तद्भावः, तत्ता / षट्स्वनवस्थितः कल्प इत्युक्तमथ तानि दर्शयन्नाहअस्थिचर्मशिरामात्रशालित्वे,(धनाऽनगारस्य) अट्ठिचम्मसिरत्ताए आचेलकुद्देसियपडिक्कमणरायपिंडमासेसु। पण्णायंतिणोचेवणं मंससोणियत्ताए धणं अणगारं, अस्थिचर्मशिरावत्तया पजुसणाकप्पम्मि य, अट्ठियकप्पो मुणेयव्यो॥८॥ प्रज्ञायते तदुत्पादावेताविति, न पुनः मांसशोणितवत्तया, तयोः आचेलक्योद्देशिकप्रतिक्रमणराजपिण्डमासेषु प्रतीतेषु विषयभूतेषु, क्षीणत्वादिति। अणु०२ वर्ग०| पर्युषणाकल्पे च वर्षाकालसमाचारे, चः समुचये / अविचम्मावणद्ध-त्रि०(अस्थिचविनद्ध)अस्थीनि चर्माऽवनद्धानि अस्थितकल्पोऽभिहिताऽर्थो (मुणेयव्यो ति) ज्ञातव्य इतिगाथार्थः / / 8 / / यस्य सोऽस्थिचविनद्धः / कृशत्वात् चर्मलग्नकीक शके, एषामपि शेषपदाऽपेक्षया स्थितकल्प एवेति दर्शयन्नाहअविचम्माऽवणद्धे किडिकिडिभूए किसे धम्मणिसंतएयाविहोत्था। भ० सेसेसु ट्ठियकप्पो, मज्झिमगाणं पि होइ विण्णेओ। २श०१ उ० चउसु ठिता छसु अठिता, एत्तो चिय भणियमेयं तु || अट्ठिजुद्ध-न०(अस्थियुद्ध) योधप्रतियोधयोरस्थिभिः संप्रहारे, ज्ञा० शेषेषु तु प्रागुक्तेभ्यः, षड्भ्योऽन्येषु पुनः शय्यातरपिण्डादिषु स्थितकल्प 1 श्रु०१० उक्तार्थः, मध्यमकानामपि द्वाविंशतिजिनसाधूना- मपि न अविज्झाम-न०(अस्थिध्याम) अस्थि च तद् ध्यामं चाऽनिना केवलमाद्यचरमाणां, भवति स्याद्, विज्ञेयो ज्ञातव्यः। उक्तमेवार्थमागमेन श्यामलीकृतम्। आपादितपर्यायान्तरेऽस्थिनि, भ०५ श०२ उ०) समर्थयन्नाह- चतुषु स्थानकेषु शय्यातर- पिंडे षु, स्थिताः अट्ठिदामसय-न०(अस्थिदामशत) हड्डमालाशते, तं०। परिहारादितोऽवस्थिताः, षट्सु आचेलक्यादिषु अस्थिता अनवस्थिताः अद्विधमणिसंताणसंतय-त्रि०(अस्थिधमनिसन्तानसन्तत) कादाचित्कपरिहारादितो मध्यम-जिनसाधवः, अत एव अस्थिधमन्यः सन्तानेन परम्परया सन्ततं व्याप्तं यत्तदस्थि- | पूर्वोक्तार्थवशादेव, भणितमुक्तमागमे, एतत् इदम् अनन्तरोक्तम् / तुशब्दः धमनिसन्ततम्। अस्थधमनिपरम्परया व्याप्ते, "अट्ठि-धमणिसंतासंतयं पूरणे, इति गाथार्थः / / 6 / सव्वओ समंता परिसमंतं च"।तं०। शेषेषु स्थितः कल्प इत्युक्तमथैतदेव स्पष्टयन्नाहअट्ठिभंजण-न०(अस्थिभजन) कीकशभजनरूपेशरीरंदण्डे, प्रश्न० सिजायरपिंडम्मिय, चाउजामे य पुरिसजेटे य। १आश्र०द्वा०। कितिकम्मस्सय करणे, ठियकप्पो मज्झिमाणं पि॥१०॥ अद्विमिंजा-स्त्री०(अस्थिमिजा) अस्थिमध्यरसे, स्था० 3 ठा० शय्यातरपिण्डे च प्रसिद्धे, तथा चतुर्णा परिग्रहविरत्यन्तर्भूत४ उ०॥ तंग ब्रह्मचर्यत्वेन चतुःसंख्यानां यामानां व्रतानां समाहारः, चतुर्यामम्। तत्र अट्ठिमिजाणुसारि(ण)-त्रि०(अस्थिमिञ्जानुसारिन्) अस्थि- चपुरुष एवज्येष्ठःपुरुषज्येष्ठस्तत्रच, कृतिकर्मणश्च वन्दनकस्य, चशब्दाः मिजाऽन्तधातुव्यापके, स्था०६ ठा०। समुच्चयार्थाः / करणे विधाने, स्थितकल्पः प्रतीतः, मध्यमानामपि •अद्विमिंजापेमाणुरागरत्त-त्रि०(अस्थिमिजाप्रेमानुरागरक्त) अस्थीनि द्वाविंशतिजिनसाधूनामपि, न केवलमाद्यचरमाणा-मिति चकीकशानि मिजा चतन्मध्यवर्तिधातुरस्थि-मिजास्ताःप्रेमानुरागेण गाथार्थः // 10 // पंचा०१७ विव०। पं० भा०ा पं० चू०। ('अचेल' सार्वज्ञप्रवचनप्रीतिरूपकुसुम्भादि- रागेण रक्ता इव रक्ता येषां ते तथा। शब्देऽस्मिन्नेव भागे 188 पृष्ठे अस्थितकल्पो व्यक्तिविस्तरः)। अथवाऽस्थिमिञासु जिनशासनगतप्रेमानुरागेण रक्ताये ते तथा। भ० तथाच२ श० 5 उ०। सम्यक्त्ववासिताऽन्तश्चेतःसु, सूत्र० 2 श्रु०७ अ०| ___अहगावोच्छमिअद्वितंकप्पा "अयमाउसो ! णिग्गंथे पावयणे अढे अयं परमटे सेसे अणटे"। संखेवपिंडियत्थं,जह मणियमणंतणाणीहिं।। इत्येवमुल्लेखेन सम्यक्त्विषु, ज्ञा०५ अादशाला दर्शारा०| वत्थे पाए गहणे, उक्कोसजहण्णगम्मि अठिओ तु। अट्ठिय-त्रि०(अर्थित) वाञ्छिते, उत्त०१अ०। ठियमद्विते विसेसो, परूविता सत्त कम्पम्मि॥ *अस्थित-त्रि०ा अव्यवस्थिते, प्रश्न०३ आश्र०द्वा० . वत्थाणि य पाताणि य, मज्झिमतित्थंकराण कप्पम्मि / अट्ठियकप्प-पुं०(अस्थितकल्प) क० स०। अनवस्थित- समाचारे, वत्थप्पमाण देगे, अट्ठियकप्पो समक्खाओ। पञ्चा०। अस्थितकल्पाभिधानायाऽऽह मोल्लगरूयं पि वत्थं, अट्ठारसपन्नतं रूवगजहण्णं / छसु छडिओ उ कप्पो, एत्तो मज्झिमजिणाण विण्णेओ। एत्तो य सतसहस्सं, उक्कोसमोल्लं तुणायव्वं / / णो सययसेवणिजो, अणिचमेरासरूवो त्ति // 7 // जहणग अट्ठारसगं, वत्थं पुण साहुणो अणुण्णातं / षट्सुदर्शयिष्यमाणरूपेषुपदेषु, अस्थितस्तु अनवस्थितः, पुनः कल्पः / एत्तो अतिरित्तं पुण, णाणुण्णातं भवे वत्थं / / समाचारः, (एत्तोति) एतेभ्य एव दशभ्यः पदेभ्यो, मध्यानां | जिणथेराणं कप्पं, अहुणा वोच्छामि आणुपुव्वीए। Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठियकप्प 256 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अडडंग जं जत्थ जहा णिवयति, समासतो तं जहा सुणसु।। कंदमूलरहिए गेण्हइ, अतरंतो पुण तसपाणसहिए वा बीयकंदमूलसहिए जिणथेराणं कप्पं, जम्हा उट्टितम्मि अहिए चेव। था गेण्हइ, किं कारणं? तेण विणा आसुं पाणक्खओ होज्जा, तरमाणो ठितअद्वितकप्पाणं, तम्हा अंतग्गता एते॥ सुद्धं गेण्हेजा, अतरंतो पेल्लेजा। गाहा 'सत्त दुय तिण्णि जो तु विसेसो एत्थं, तं तु समासेण णवरि वक्खामि। पिंडेसणपाणेसणाओ दसए' त्ति / दस एसणादोसा। 'अणेगट्ठाणे त्ति' जिणथेराणं कप्पे, जिणकप्पे ता इमं वोच्छं। उग्गमाइअं न दस सोलस / 'एत्तो त्ति' गादिरित्तं नाम दुयसत्तगे तियचउक्ककेगस्स अद्धद्धएगछेदेणं। उग्गमउप्पायणएसणासुद्ध, तविवरीयं जं एतेहिं चेव उग्गमाईहिं असुद्ध, अवि होज कालकरणं,पुणरावत्तीण वि य तेसिं / तं गेण्हेजा गच्छसारक्खणहेउं,गच्छवासीहिंभणियं नाम कारणे कप्पइ. पिंडेसणा उसत्त उ, हवंति पणिसणा उसत्तेव। इयरहा न कप्पइ / एस थेरकप्पो / पं० चूलन (अस्थितकल्पप्रसङ्गाद् चउ सेज वत्थ पाते, तिण्णे ते चउक्कगा हॉति॥ जिनस्थविरकल्पावप्युक्तौ) दोल्लादिमाउ सत्तसु, अवणेउं सेसमायं च। अट्ठियप्प(ण)-त्रि०(अस्थितात्मन्) चञ्चलचित्ततयाऽस्थिर-स्वभावे, अद्धद्ध होति छेदो, दो दो अवणे चउक्केसु॥ "अट्ठियप्पा भविस्ससि"। उत्त० 23 अ०॥ गेण्हंति उवरिमासु,तत्थ अवि घेत्तु अण्णतरियाए। अट्ठिसरक्ख-पुं०(अस्थिसरजस्क) कापालिके, व्य०७ उ०। हेट्ठिला पुण गेण्हति, जदि विकरे कालकिरियं तु // अद्विसुहा-स्त्री०(अस्थिसुखा) अस्थ्नांसुखहेतुत्वादस्थिसुखा / औला अणभिग्गहेण णविता, गिणहंति विही तु एस जिणकप्पे। अस्थ्नां सुखकारिण्यां संबाधनायाम, कल्पका अहुणा उ थेरकप्पो, वोच्छामि विहिं समासेणं / / अठुत्तर-त्रि०(अष्टोत्तर)६वा अष्टाऽभिरधिके, "अट्टत्तर-सयसहस्सं गहणे चउव्विहम्मि, बितिए गहणं तु परमजत्तेणं / पीइदाणं दलयंति'' अष्टोत्तरं शतसहस्रं लक्ष रजतस्य तुष्टिदानं ददाति जं पाणबीयरहियं, हवेज तरमाणए सोही। स्मेति। औ०। गहणं चउव्विहंती, वत्थं पातं च सेज आहारो। एतेसिं असतीए, गहणं पढमं तु बीयस्स। अट्ठत्तरसयकूड-पुं०(अष्टोतरशतकूट) शत्रुञ्जयपर्वते, तस्य बितियं पातं भण्णति, किं कारणं तस्स गहण पढमं तु। तावत्प्रमाणकूटत्वात् / ती०१कल्प०) तेण विण बोडिपडिमागिहिमायणभोगहाणी य॥ अट्टप्पत्ति-स्त्री०(अर्थोत्पत्ति) अर्थस्योत्पत्तिर्यस्मात् / व्यवहारे। अर्थो अहवा चउव्विहं तू, असणादी तत्थ मोजगहणं तु। व्यवहारादुत्पद्यते इति तस्य तथात्वम्। व्य०२ उ०॥ तत्थ तु बितियं पाणं, तस्स तु गहणं पढमताए / अट्ठस्सास-पुं०(अष्टोच्छ्वास) पञ्चनमस्कारे, "अगुस्सासे अहवा असतीए फासुयस्स, वसहिए एकं ठविय सहिए वा। अणुग्गहाई उडाएजा"।पं०व०२ द्वा०।। किं कारण तेण विणा, आसुं पाणक्खओ होजा।। अदुस्सेह-त्रि०(अष्टोत्सेध) अष्टौ योजनान्युत्सेध उच्छ्यो येषां ते तथा। तरमाणे गेण्हती, सुद्धं अतरो पेल्लेय संथरे। अष्टयोजनोचे,चक्कट्ठपइट्ठाणा अदुस्सेहाय।स्था०६ ठा०। संथरंतो तु गेण्हति, पावति सहाणपच्छित्तं / / अड-धा०(अट) गतौ। भ्वादि०सक० पर० सेट् वाचला अडति संसारे / सेत्तं दुए दसए व, अण्णेण ठाणेण वा भवग्गहणं। प्रश्न 1 आश्र० घा० एत्तोत्ति गादिरित्तं, उग्गमउप्पायणेसणासुद्धं / *अट-पुं०।लोभपक्षिभेदे, जीव०१ प्रति०। प्रज्ञा०। भणियं ति कप्पति त्ती, तस्स असतीए असुद्धं पि। *अवट-पुं०(अव-अटन्) "यावत्तावज्जीवितावर्त्तमानाऽवटएसो तु थेरकप्पो / पं० भा०। ___प्रावारकदेवकुलैवमेवे वः"।८।१।२७१। इति सूत्रेण अन्तर्वर्त्तमानस्य इयाणिं अट्ठियकप्पो / तत्थ गाहा - 'वत्थे पाए' त्ति / वत्थाणि वस्य लोपः। कूपे, प्रा० सयसहस्समोल्लाणि वि घेप्पंति, मज्झिमाणं तित्थगराणं, सेसं पुण जं अडउज्टि -(देशी) पुरुषायिते, विपरीतरते च। दे० ना० 1 वर्ग। ठियकप्पियाणं भणियंतं भाणियव्वं / जहा- सत्त-विहकप्पे ताओ चेव, गओ एस ठियकप्पो। इयाणिं जिणकप्पो। तत्थ गाहा- 'दुयसत्तगे' ति।। अडज्झ-त्रि०(अदाह्य) अग्रिक्षारादिना भश्मवदकरणीये, "तओ सत्त पिंडेसणाओ, सत्त पाणेसणाओ अहवा पिंडचउम्गहपडिमाओ य, अच्छेज्जा पण्णत्ता / तं जहा- समए पएसे परमाणू'' स्था० 2 ठा० तियचउक्के सेज्जपडिमाओ य 4, वत्थपडिमाओ 4, पायपडिमाओ 4, 4 उ०। "अडज्झकुच्छे अट्ठसुवण्णे य गुणा भणिया'। दश०१० अ० / एयासिं अद्धद्धछेओ दो आइ उवणेऊणं सेसाहिए संति आहाराइ एयासु अडड-न०(अटट) चतुरशीतिलक्षैर्गुणितेऽटटाङ्गे / स्था० 2 ठा० एसमाणा जइ न लभंति तो अविकालकिरिया होज्जा, न य हेड्डिल्लासु 4 उ०।"चउरासीइंअडडंगसयसहस्साइंसेएगेअडडे' अनु०जी०। गेण्हंति, एस जिणकप्पो / इयाणि थेरकप्पो।गाहा- 'गहणे चउव्विहम्मि' भ० ज० कर्म ति / वत्थं पायं आहारो सेजा चउण्हवि असइ, पढम पायं घेप्पइ, किं अडडंग-नं०(अटटाङ्ग) चतुरशीत्या लक्षैर्गुणिते त्रुटिते, "चउकारणं? तेण वि पडिमा चेव, अहवा असणाई पढम, तत्थ बिइयं रासीइंतुडियसयसहस्साइंसे एगे अडडंगे" अनु०॥ वाचना-ऽन्तरमतेन पाणग्गहणं परमपयत्तेणं मयमाणो, पढमं संथरमाणो तसपाणबीयरहिया चतुरसीतिलक्षगुणिते महात्रुटिते, ज्यो०२पाहु० भ०। Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अडण 257 - अभियानराजेन्द्रः - भाग 1 अडविजम्मण अडण-न०(अटन) चरणे,गमने च। स्था०६ठा० आ०म०। धा अडणी-(देशी)मार्गे, दे० ना०१वर्ग। अडपल्लाण-नं०(देशी)लाटेषु स्वनामप्रसिद्धेऽन्यत्र थिल्लिरिति ख्याते वाहनभेदे, जी०३ प्रतिक अडमाण-त्रि०(अटत्) गच्छति, "अणाउलो संयच्छरखमणंसि अडमाणे"। आ०म०प्र० अडया-(देशी) असत्याम्, दे०ना०१ वर्ग। अडयणा-(देशी)असत्याम्, दे० ना०१ वर्ग। अडयाल-त्रि० [अष्ट (ष्टा) चत्वारिंशत्] अष्ट चचत्वारिंशच, अष्टाधिका या चत्वारिंशत्। (अडतालिस) ट्यूनपञ्चाशति, आव० अडयाल-(देशी) प्रशंसायाम्, प्रज्ञा०२पद। जं०। स० जी०। प्रव०। अडयालकयवणमाल-त्रि०[अष्ट(ष्टा)चत्वारि शत्कृतवनमाल ] अष्टचत्वारिंशद्भेदभिन्ना विच्छित्तयः कृता वनमाला येषु तानि अष्टचत्वारिंशत्-कृतवनमालानि। अष्टचत्वारिंशद्विध-विच्छेदवद्वनमालायुतेषु, जी०३ प्रति अडयालकृतवनमाल-(देशी) अडयाल' शब्दो देशीवचनत्वात् प्रशंसावाचीत्यनुपदमेव निरूपितम् / तेन कृता वनमाला येषु तानि / प्रशस्तकृतवनमालेषु, जी०३ प्रति०। प्रज्ञा०। अडयालकोटगरइय-त्रि०(अष्ट चत्वारिंशत्कोष्ठक रचित) अष्टचत्वारिंशभेदभिन्नविच्छित्तिकलिताः कोष्ठका अपवरका रचिताः स्वयमेव रचना प्राप्ता येषु तानि अष्टचत्वारिंशत्- कोष्ठकरचितानि / सुखादिगणे दर्शनात् पाक्षिको निष्ठान्तस्य परनिपातः / "अडयाल" शब्दो देशीवचनत्वात्प्रशंसावाचीवा। प्रज्ञा०२पदा अष्टचत्वारिंश - दभिन्नविचित्रच्छन्दोगोपुर-रचितेषु, अडयाल कोहरइ या अडयालकयवणमाला। स० ज० जी०॥ अडवि-स्त्री०[अटवि(वी)] अटन्ति मृगयाद्यर्थिनो यत्र / अट्-अवि, वा डीप्। कान्तारे, स्था०५ ठा०२ उ० अरण्ये, तं०॥ तद्भेदाः सव्याख्याकाः"अडविंसपव्यवायं, वोलेउदेसिओवएसेणं। पाविति जहिष्ठपुरं, भवाडविं पी तहा जीवा / / 1 / / पाविति निव्बुइपुरं, जिणोवइट्वेण चेव मग्गेणं / अडवीई दिसिअतं, एवं नेअंजिणिंदाणं' ||2| इहाटवी द्विधाद्रव्याटवी, भावाटवी च। तयोः कथाइहास्ति हास्तिकावीय रथपादातिसंकुलम्। वसन्तपुरमुर्वीस्थमप्यधःकारियहिवः / / 1 / / सार्थवाहो धनस्तत्र, गन्तुं देशान्तरं प्रति। प्रस्थितः कारयामास, घोषणां पुरि सर्वतः / / 2 / / यः कोऽप्यस्ति यियासुःस, सर्वोऽप्येतु मया सह। मिलितानां च सर्वेषामाख्यन्मार्गगुणागुणान् // 3 // तत्रैकः सरलोऽध्वाऽन्यो, वक्रश्चेत्तेन गम्यते। मनाक् सुखेन किं त्विष्टपुरावाप्तिश्चिराद्धयेत्॥४॥ सःपुनः सरलः पन्था, अन्ते मिलति सोऽपिच। गम्यते सत्वरं तेन, कष्टेन महता परम् // 5 // तत्रादितोऽपि मार्गे स्तः, सिंहव्याघ्रौ विभीषणौ। भीतानां त्यक्तमार्गाणां, तावनाय नान्यथा / / 6 / / इष्टपूर्दर्शनं यावत्, तावत्तौ चानुधावतः। तत्रैके तरवः सन्ति, पत्रपुष्पफलाद्भुताः॥७॥ तच्छायास्वपि विश्रान्ति कार्या मृत्यवे हिताः। ये जीर्णशीर्णपर्णाढ्याः , स्थेयमीषत्तदाश्रये // 8|| मनोज्ञरूपलावण्या, मनोहरगिरो नराः। भूयांसो मार्गपार्श्वस्थास्तत्राऽऽहयन्ति वत्सलाः || श्रव्यं न तद्वचो मोच्या, न मच्छिक्षा कदाचन। दावाग्निः प्रज्वलन् मार्ग, विध्याप्यः सततोद्यतैः॥१०॥ अविध्यातःपुनः सर्वे, नियमान्निर्दहत्यसौ। अग्रेऽतिदुर्गःशैलोऽस्ति, सोपयोगैः स लध्यते॥११॥ अन्यथा लङ्घनेतु स्यात्, स्खलनाद्यैर्मतिः क्वचित्। पुरस्तादस्ति गुपिलगहरा वंशजालिका // 12 // सा विलच्या झगित्येव, तत्रस्थानां महापदः / अल्पीयानस्ति गतॊ ऽग्रे, सर्वदा तत्समीपगः // 13 // द्विजो मनोरथाभिख्यो, वक्त्येनं पूरयेति सः। वचस्तस्यावमन्तव्यं, पूर्यः स्तोकोऽपिनैव सः॥१४॥ वर्द्धत पूर्यमाणःस, खनित्रैः खन्यमानवत्। तथा पञ्चप्रकाराणि, स्निग्धमुग्धानि वर्णतः / / 15 / / न प्रेक्ष्याणि न भक्ष्याणि, किंपाकानां फलानि च / द्वाविंशतिः करालास्तु, वेताला विद्रवन्ति च // 16 / / नगण्यास्ते तथासारा, आहारास्तत्र दुर्लभाः। द्रौ यामौ निश्यपि स्वापः, सर्वदाऽपि प्रयाणकम् // 17 // गच्छद्भिरेवमश्रान्तमटवीलच्यते लघु। प्राप्यते पुरमिष्टं च, तत्र चाऽऽसाद्यते सुखम् // 18|| तत्र केचित् समं तेन, प्रवृत्ताः सरलाध्वना। इतरेण पुनः केचित्, स प्रशस्तेऽह्नि निर्ययौ !|16|| पृष्ठानुगामिलोकानां, शिलादौ वर्ल्स वेदितुम्। गतागताध्वमानं च, लिखन् वर्णान् जगाम सः / / 20 / / तन्निर्देशकृतो येऽत्र, लिखितानुसृताश्च ये। ते सर्वेऽपि सनं तेन, संप्राप्ताः पुरमीप्सितम्॥२१॥ निषिद्धकारिणो ये च, याता यास्यन्ति या न ते। जिनेन्द्रः सार्थवाहोऽत्र, घोषणा धर्मदेशना // 22 // पान्थाः संसारिणो जीवा, भवो भावाटवी पुनः। ऋजुमार्गः साधुधर्मो, गृहिधर्मस्ततोऽपरः। सिंहव्याघ्रौ रागद्वेषौ, वासनार्थानुगामिनौ / / 23 / / वसत्यः स्त्र्यादिसंसक्ताः , सद्वृक्षच्छायया समाः। जरवृक्षोपमानास्तु, निरवद्याः प्रतिश्रयाः॥२४|| पार्श्वस्थाद्याः पुनः पार्श्वस्थाहातृपुरुषोपमाः। ज्वलद्दावानलः क्रोधो, मानो दुर्गमहीधरः ||25|| वंशजालिः पुनर्माया, लोभो गर्तस्तु दुर्भरः। फलप्रायाश्च विषया, वेतालास्तु परीषहाः॥२६।। दुर्लभं चैषणीयाऽन्नं, ध्यानं द्वौ प्रहरौ निशि। प्रयाणे तूद्यमो नित्यं, मोक्षश्चेप्सितपत्तनम् // 27|| शिलादौ वर्णलिखनं, सिद्धान्तग्रन्थनिर्मितिः। पश्चादाविमुनीन्द्राणां, गतगम्याध्वसंविदे॥२८॥ इष्टपूःप्राप्तिसाहाय्यान्नम्यते सार्थपो यथा। एवं मोक्षपुरावाप्त्युपकारी नम्यते जिनः ||26|| आ० का अडविजम्मण-न०(अटविजन्मन्) कान्तारजन्मलक्षणे दुःखे, प्रश्न० १आश्र० द्वा० Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अडविदेसदुग्गवासि २५८-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणइवरसोमचारुरूव अडविदेसदुग्गवासि(ण)-पुं०(अटविदेशदुर्गवासिन्) अटवीदेशे जलस्थलदुर्गरूपेषु दुर्गेषु वसति चौरादौ, प्रश्न०३ आश्र० द्वा०) अडवि(वी)वास-पुं० [अटवि(वी)वास]अरण्यवसने, "उव्विग्ग अप्पया असरणा अडवीवासं उति'। प्रश्न०३ आश्र० द्वा० अडसहि-स्त्री० [अष्ट(ष्टा)षष्टि] अष्ट च षष्टिश्च, अष्टाऽधिका वा षष्टिः। (अडसठ) अष्टाऽधिकषष्टिसंख्यायाम,"विमलस्सणं अरहओ अडसट्टि समणसामस्सीओ"।स०६६ समा अडाडो- (देशी )तथेत्यर्थे , दे० ना० १वर्ग। अडिल्ल-पुं०(अटिल) चर्मपक्षिभेदे, प्रज्ञा०१पदाजी०। अडो-(देशी)कूपे, दे० ना० 1 वर्ग। अडोलिका-स्त्री०(अटोलिका) यवनाम्नो राज्ञः पुत्र्यां गर्दभराजस्य भगिन्याम् ,बृ०१ उ०। अड्डक्ख-धा०(क्षिप) प्रेरणे, तुदा०, उभ०, स०, अनिट् / क्षिपेः गलत्थाऽजुक्ख०।८।४।१४३। इति सूत्रेण अजुक्खाऽऽदेशः अडक्खइ, क्षिपति / प्रा० अड्डिया-स्त्री०(अड्डिका) उपदेशमात्ररूपे शास्त्राऽनिबद्धे मल्लानां करणविशेषे, विशे० आ० म०। अड्ड-न०(अर्ध) ऋध-धञ्। श्रद्धर्द्धि-मूर्धाऽर्धे ऽन्ते वा।८।२१४१॥ इति सूत्रेण संयुक्तस्य वा ढः / प्रा०। *आढ्य-त्रि०ा आ-ध्यै-क, पृषोपयुक्ते, विशिष्ट चा वाचा ऋद्ध्या परिपूर्णे, नि० औ०। धनधान्यादिभिः परिपूर्णे, म०२ श०५ उ०॥ समृद्धे, भ०६ श०३२ उ०ा स्था०धनवति, स्था०६ ठा०। महति च। संथा० अड्डअक्कली-(देशी)कठ्यां हस्त (पाणि) निवेशे,दे० ना०१वर्ग। अबृक्खेत्त-न०(अर्धक्षेत्र) अहोरात्रप्रमितस्य क्षेत्रस्य चन्द्रेण सह योगमश्नुवत्सु नक्षत्रेषु, चं० प्र०ा अर्द्धक्षेत्राणि नक्षत्राणि षट्तद्यथाउत्तराभाद्रपदा, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराऽऽषाढा, रोहिणी, पुनर्वसु, विशाखा चेति / चं० प्र०१० पाहु० अवग-त्रि०(आय) युक्ते, परिपूर्णे च / पंचा० 12 विव०॥ "संजमतवडगस्स उ, अविगप्पेणं तहक्कारो" आ० म० द्वि० अड्डरत्त-पुं०(अर्धरात्र) अर्द्ध रात्रेः, अच्, समा०| निशीथे, "अडरत्ते आगतो दारं मग्गइ'| आ० म० द्वि०) अड्डाइज्ज-त्रि०(अर्द्धतृतीय) ब०१० अर्द्ध तृतीयं येषां ते- ऽर्द्धतृतीयाः। अवयवेन विग्रहः, समुदायः समासार्थः / (अढाई) सार्द्धद्वयोः, जी०१ प्रति०। प्रज्ञा "अड्डाइजंगुलग्गहण-मुस्सेहं'।नं० रा०ा आ० म० अड्डाइजदीव-पुं०(अर्द्धतृतीयद्वीप) अर्द्ध तृतीयं येषां तेऽर्द्धतृतीयाः,ते च ते द्वीपाश्चेति समासः / अर्द्धतृतीयद्वीपाः / जम्बूद्वीपधातकीखण्डपुष्करार्द्धलक्षणे साऽर्द्धद्वीपद्ये, भ०६ श०३ उ०। अड्डाइजदीवसमुद्दतदेकदेसभाग-पुं०(अर्द्धतृतीयद्वीपसमुद्रतदेकदेशभाग) जम्बूद्वीपधातकीखण्डपुष्कराऽर्द्धद्वीप- लवणसमुद्रकालोदधिसमुद्राणां विवक्षिते भागे, साहरणं पडुच अड्डाइजदीवसमुद्दतदेकदेसभाए होज्जा / भ०६ श०३ उ०। अढापक्कंति-स्त्री०(अर्धाऽपक्रान्ति) अर्द्धस्याऽसमप्रविभागरूपस्य एकदेशस्य वा एकादिपदात्मकस्यापक्रमणमवस्थानं, शेषस्य तु / व्यादिपदसतातरूपस्यैकदेशस्योर्ध्वं गमनं यस्यां रचनायां, सा समयपरिभाषयाऽपिक्रान्तिरुच्यते। इत्युक्तनिरुक्तिमत्यां तपोरचनायाम्, विशेष अड्डेज-न०(आढ्यत्व) धनपतित्वे, तस्य सुखकारणत्वात् सुखभेदे च / स्था० 10 ठा० आत्येज्या-स्त्री०। आदयैः क्रियमाणा इज्या पूजा आदयेज्या, प्राकृतत्वात् 'अड्डेज' ति। धनिकृतसत्कारे, स्था० 10 ठा०। अड्डोरुग-पुं०(अद्धौरुक) अर्ध ऊरुकाद् विभजतीति निरुक्तादारुकः / साध्वीनामौपग्रहिकोपधिविशेषे, ध०३ अधि०ा अड्डोरुगो उ दोण्हि वि गिहिउ छादए कडीभागं, अझैरूकोऽपि तौ द्वावपि अवग्रहाऽनन्तकपट्टावुपरिष्टाद् गृहीत्वा सर्व कटीभागमासादयति। सच मल्लचलनाऽऽकृतिः केवलमुपरि ऊरूद्वये च कशाबद्धः / बृ० 3 उ०ा नि० चूा पं०व० अण-अव्या नञर्थे, "अण णाई नञर्थे"।८।२।१९०। एतौ नञर्थे प्रयोक्तव्यौ। “अण चिंतिअमणुमंति'! प्रा०। अण-न०(अण) कुत्सिते, कुत्सितत्यादणन्ति कुत्सितानि करणानि शब्दयन्ति, अणन्त्यनेनेति व्युत्पत्तेर्वा / पापे, विशे०। आ० म० अण वणे ति दण्डकधातुः / अणति गच्छति तासु तासु योनिषु जीवोऽनेनेति / पापे, आ० म० द्वि० भ० शब्दकरणगाल्यादिप्रदाने, तं० अणत्यनेन जन्तुश्चतुर्गतिकं संसारमिति अणम्। कर्मणि, आधा०१ श्रु०२ अ०१ उ०। शब्दे, गतौ च।विशे०। अण रणेत्यादिदण्डकधातुः। अणन्तीवाऽविकलहेतुत्वेनाऽसातवेद्यं नरकाद्यायुष्कं शब्दयन्तीत्यणाः / क्रोधादिषु चतुर्यु कषायेषु, विशेगा *अन-न०। एकदेशेन समुदायस्य गम्यमानत्वादनन्तानुबन्धिषु क्रोधादिषु चतुर्षु कषायेषु / विशे० "अण दस नपुंसित्थीवेयं छकं च पुरिसवेयंच"। विशे० आ० म०प्र०) *अनस्-न०। शकटे, अन इव अनःशरीरे, तस्याऽन्तरात्मसारथिना प्रवर्तनीयत्वात् / जै० गा०। *ऋण-न०ा व्यवहारकदेयद्रव्ये, ज्ञा० 1 श्रु०१८ अ० अष्टप्रकारे कर्मणि, उत्त० 1 अ० आव०॥ अणइ-अव्य०(अनति) अतीति अव्ययमतिक्रमार्थे, न अति अनति। अनतिक्रान्ते, तंभ अणइक्कमणिज-त्रि०(अनतिक्रमणीय) व्यभिचारयितुमशक्ये "अणइक्कमणिज्जाई वागरणाई"। भ० 15 श०१ उ० अणइप्पगड-त्रि०(अनतिप्रकट) अनतिप्रकाशे, ध०१अधिo अणइवत्तिय-अव्य०(अनतिपत्य) अनतिक्रम्येत्यर्थे, "अणइ-वत्तिय सव्वेसिं पाणाणं"। आचा०१ श्रु०६अ०५ उ०| अणइवर-न०(अनतिवर) प्रधाने, न विद्यते ऽतिवरं यस्मात् तदनतिवरम् / सर्वश्रेष्ठे, औ०। अणइवरसोमचारुरूव-त्रि०(अनतिवरसोमचारुरूप) अतीव अतिशयेन सोमं दृष्टिसुभगं चारु रूपं येषां ते तथा / यद्वा अतीति अव्ययमतिक्र मार्थे, न अति अनति, सौम्यं च तचारु च सौम्यचारु, सौम्यचारू च तद्रूपं च सौम्यचारुरूपम्, वरं च Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणइवरसोमचारुरूप 259 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणंतकित्ति तत् सौम्यचारुरूपं च वरसौम्यचारुरूपम् / अनतीति अनति-क्रान्तं | अणंगप्पविट्ठ-न०(अनङ्ग प्रविष्ट) न० त० स० स्थविरैर्भद्रवरसौम्यचारुरूपं येषां ते अनतिवरसौम्यचारुरूपाः। देवमनुष्यादिभिः बाहुस्वामिप्रभृतिभिराचार्यैरुपानिबद्धे आवश्यकनियुक्त्यादौ श्रुतविशेषे, स्वलावण्यगुणादिभिरजितरूपेषु, तं०।"तेणं मणुया अणइवरसोमचारु- आ०म०प्र०ानाला विशे०। ('अंगप्पविठ्ठ' शब्देऽत्रैव भागे 38 पृष्ठेऽस्य रूवा भोगुत्तमा"। तंoा औ० विशेषस्वरूपमुक्तम्) अणइवाएमाण-त्रि०(अनतिपातयत्) प्राणाद्यतिपातमकुर्वति, | अणंगमंजरी-स्त्री०(अनङ्गमञ्जरी) पृथिवीचूडनरनाथस्य रेखायां अणवकखमाणा अणइवाएमाणा! आचा०१श्रु०८ अ०३ उ० सुतायाम्। दर्शक अणइविलंबियत्त-न०(अनतिविलम्बितत्व) अष्टाविंशे सत्यवचना- अपंगसेण-पुं०(अनङ्गसेन) सुवर्णकारभेदे, 'कुमारनन्दी' इति तस्य ऽतिशये, रा० नामाऽन्तरम्। बृ०४ उ०। (तत्कथा 'दसउर' शब्दे दर्शयिष्यते) ठा०२ अणइसंधाण-न०(अनतिसन्धान) न अतिसन्धानमनतिसन्धा- अधि०ा नि०। त नम्। दर्श०। अवञ्चने, "भियगाऽणइसंधाणं सासयवुढी य जयणा य"। | अणंगसेणा-स्त्री०(अननसेना) कृष्णवासुदेवसमये द्वारवती-जातायां पञ्चा०७ विवा प्रधानगणिकायाम्, आ० चू०। नि० अन्तला आ० म०। अणं-(देशी) ऋणे, दे० ना० 1 वर्ग। अणंत-त्रि०(अनन्त) नाऽस्यान्तोऽस्तीत्यनन्तः / निरन्वयअणंग-न०(अनङ्ग )नास्ति अङ्गमाकारो यस्य!आकाशे, चित्तेच / वाचा नाशेनाऽनश्यमाने, अपरिमिते, निरवधिके च : "अणते णिइए लोए अङ्गानि मैथुनाऽपेक्षया योनिर्मेहनं च, तद्व्यति- रिक्तान्यनङ्गानि / सासए ण विणस्सति" नाऽस्याऽन्तोऽस्तीत्यनन्तः। न निरन्वयनाशेन कुचकक्षोरुवदनादिषु, पञ्चा०१ विव० आहार्ये लिङ्गादौ, स्था०५ ठा० नश्यतीत्युक्तं भवतीति। सूत्र०१श्रु०१अ०४ उ० नं०। अक्षये, प्रश्न० 2 उ०ा मोहोदयोद्भूततीव्रमैथुना-ऽध्यवसायाख्ये कामे, आव०६अ०। 3 आश्र०द्वा०। अपर्यवसाने, दर्श० सूत्रका नाऽस्यान्तो विद्यत स च पुंसःस्त्रीपुंनपुंसक-सेवनेच्छा, हस्तकर्मादीच्छा वा, वेदोदयात्। इत्यनन्तम् / के वलात्मनोऽनन्तत्वात् / ला रा० / प्रश्न०। तथा स्त्रियोऽपि पुरुषनपुंसकस्त्रीसेवनेच्छा, हस्तकर्मादीच्छा वा / अनन्तार्थविषयत्वाद् वाऽनन्तमन्तरहितम्, अपर्यवसितत्वात् / नपुंसकस्याऽपि नपुंसकपुरुषस्त्रीसेवनेच्छा, हस्तकर्मादीच्छा या। प्रव० दशा०१०अ०स्था०। अनन्तार्थविषय-ज्ञानस्वरूपत्वात्। स०१समा 6 द्वा०) ध० / कामदेवे, पुं० एका० आनन्दपुरे नगरे जितारिराजस्य अविनाशित्वात्। जं०२ वक्ष०ा केवलज्ञाने, ज्ञा०१श्रु०८अ आकाशे विश्वस्तायां भार्यायां जाते पुत्रे, ग० 2 अधि० च। नं। तस्या- इन्तवर्जितत्वात्। भ०१२ श०१० उ०ा भरतक्षेत्रजे अणंगकिड्डा (कीडा)-स्त्री०(अनङ्गक्रीडा) अनानि कुच- अवसर्पिण्या-श्चतुर्दशे तीर्थकरे, अनन्तकाशजयादनन्तः / अनन्तानि कक्षोरुवदनादीनि तेषु क्रीडनमनङ्गक्रीडा। योनिमेहनयो- रन्यत्र रमणे, वाज्ञानादीनि अस्येति। "सव्वेहिं वि अणंताकम्मंसा जिया, सव्येसिंच पञ्चा० 3 विव01 आव०। अनङ्गो मोहोदयोद्भूतः, तीव्रो अणंताणि णाणादीणि वि, रयणविचित्तमणंतं दामं सुमिणे ततो अणंतो" मैथुनाऽध्यवसायाऽऽख्यः कामो भण्यते, तेन तस्मिन् वा क्रीडा रत्नविचित्रं रत्नखचितमनन्तमतिमहाप्रमाणंदाम स्वप्नेजनन्या दृष्टमतो अनङ्गक्रीडा / समाप्तप्रयोजनस्यापि स्वलिङ्गे नाऽऽहार्य : मतोऽनन्त इति। आ०म० द्विाअनन्तान् कर्माशान् जयति, अनन्तैर्वा काष्ठपुस्तफलमृत्तिकाचर्मादिघटितप्रयोजनोषिदवाच्य- प्रदेशासेवने, ज्ञानादिभिर्जयति, अनन्तजित्। तथा गर्भस्थेजनन्याऽनन्तरत्नदाम्नि आव०६अ। पञ्चा०ास्वलिनेन कृतकृत्योऽपियोषितामवाच्यदेशं भूयो दृष्टे जयति च त्रिभुवनेऽप्यनन्तजित्। भीमो भीमसेन इतिवदनन्त इति। भूयः कुथ्नाति / केशाकर्षणप्रहार- दानदन्तनखकदर्थनादिप्रकारेश्व ध०२ अधि०। (अनन्तक्रियाऽन्तरादि 'तित्थयर' शब्दे वक्ष्यते) मोहनीयकर्मवशात् तथा क्रीडति, यथा प्रबलो रागः समुज्जृम्भते इति साधारणजीवे, प्रश्न०१ आश्र० द्वा० तत्त्वम् / प्रव०६ द्वा० ध०। अनङ्गः कामः, तत्प्रधाना क्रीडा, परदारेषु अपंतइ-पुं०(अनन्तजित्) अवसर्पिण्याश्चतुर्दशे तीर्थकरे, ध०२अधिo अधरदशना-ऽलिङ्गनादिकरणे, वात्स्यायनाद्युक्तचतुरशीतिकरणासेवने | अणंतंस-पुं०(अनन्तांश) अनन्ततमोऽशो भागोऽनन्तांशः।अनन्ततमे च। ध०२ अधिक अनजक्रीडनमप्यत्र / पञ्चा०१विवाअयंच स्वदार | भागे, विशे० संतुष्टेः, तृतीयश्चतुर्थो वाऽतिचारः श्रावकेण न समाचरितव्यः / अणं तकर-त्रि०(अनन्तकर) संसारपारगमनाऽसमर्थे, "तेणाति अतिचाराताऽस्य स्वदारेभ्योऽन्यत्र मैथुनपरिहारेणाऽनुरागादालिङ्गनादि व्रतमालिन्यादिति / उपा० 1 अ० ध० 20 श्रा० संजोगमविप्पहाय, कायोवगा गंतकरा भयंति" / कायोपगाः, अस्यादावर्थक्रियालक्षणे सम्प्राप्तकामभेदे, प्रव०१६६ द्वा० अष्टावर्द्ध तदुपमर्दारम्भप्रवृत्ताः संसारस्यानन्तकराः स्युः, संसारस्याऽन्तकरान भवन्तीत्यर्थः / सूत्र०२श्रु०७ अ०। गाद्यभ्यस्ता यस्याः,साऽनङ्गक्रीडा' इत्युक्तलक्षणे मात्रावृत्तभेदे, वाचा अणंगपडिसेविणी-स्त्री०(अनङ्गप्रतिसेविनी) मैथुने प्रधानमऊं मेहनं अणंतकाइय-पुं०(अनन्तकायिक) अनन्ताः कायिका जीवा यत्र भगश्च, तत्प्रतिषेधोऽनङ्गम्, तेनाऽनङ्गेनाऽऽहार्य- लिङ्गादिना, अनने तदनन्तकायिकम्। अनन्तजीवे वनस्पतिभेदे, ध०२ अधिपं०व०। या मुखादौ, प्रतिसेवाऽस्ति यस्याः / अननं वा (लक्षणादि चास्य 'अणंतजीव' शब्दे वक्ष्यते)। काममपरापरपुरुषसंपर्क तोऽतिशयेन प्रतिसेवत इत्येवंशीला / अणंतकाय-पुं०(अनन्तकाय) अनन्तजीवे वनस्पती, पं०व० 4 द्वारा। अनङ्ग प्रतिसेविनी तथाविधवेश्यावत् आहार्यलिङ्गादिना, मुखादी वा, अणंतकाल-पुं०(अनन्तकाल)अपर्यवसितकाले। प्रश्न०३ आश्रद्वा०। बहुपुरुषैर्वा मैथुनप्रतिसेवमानायाम्, एतादृशी स्त्री गर्भ न धारयति / अणंतकित्ति-पुं०(अनन्तकीर्ति) धर्मदासगण्यपरनामके उपदेशमालास्था०५ ठा०२ उ० कृति आचार्ये, जै० इ०॥ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणंतखुत्तो 260 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणंतग अणंतखुत्तो-अव्य०(अनन्तकृत्त्वस्) अनन्तवारानित्यर्थः / "अह णं भंते ! जीवे णेरइयत्ताए उववण्णपुव्वे ? हंता गोयमा ! असतिं अदुवा अणंतक्खुत्तो''। भ०१२श०६ उ०॥ अणंतग(य)-न०(अनन्तक) गणनासंख्याभेदे, स्थाo! तच पञ्चधा - पंचविहे अणंतए पण्णत्ते / तं जहा- णामाणंतए, ठवण्णाणतए, दव्वाणंतए, गणणाणंतए, पएसाणंतए / अहवा पंचविहे अणंतए पण्णत्ते। तं जहा- एगओणंतए, दुहओणंतए, देसवित्थाराणंतए, सव्ववित्थाराणंतए, सासयाणंतए। पंचविहेत्यादिसूत्रद्वयं प्रतीतार्थम्, नवरं नाम्नाअनन्तकं नामानन्तकम्, अनन्तकमिति यस्य नाम यथासमयभाषया-ऽवस्थमिति / स्थापनैव स्थापनया वा अनन्तकं स्थापनाऽनन्तकम्, अनन्तक मिति कल्पनयाऽकादिन्यासः।ज्ञशरीरादिव्यतिरिक्तम्, द्रव्याणामण्वादीनां गणनीयानामनन्तकं द्रव्याऽनन्तकं, गणना संख्यानं तल्लक्षणमनन्तकमविवक्षिताऽण्वादिसंख्येयविषयः संख्याविशेषो गणनाऽनन्तकम्, प्रदेशानां संख्येयानामनन्तकं प्रदेशाऽनन्तकमिति। एकतएकेनांशेनाऽऽयामलक्षणेनाऽनन्त-कमेकतोऽनन्तकम्-एकश्रेणीकं क्षेत्रम, द्विधाआयामविस्तारा-भ्यामनन्तकं द्विधाऽनन्तकं प्रतरक्षेत्रम् क्षेत्रस्य यो रुचकापेक्षया पूर्वाद्यन्यतरदिग्लक्षणो देशस्तस्य विस्तारो विष्कम्भस्तस्य प्रदेशाऽपेक्षयाऽनन्तकं देशविस्ताराऽनन्तकम्, सर्वाकाशस्यतुचतुर्थम, शाश्वतंचतदनन्तकं च शाश्वतानन्तकमनाद्यपर्यवसितंयतीवादिद्रव्यम्, अनन्तसमय-स्थितिकत्यादिति।स्था०५ ठा०३ उ दसविहे अणंतए पण्णत्ते / तं जहा- णामाणंतए, ठवणाणंतए, दव्वाणंतए, गणणाणतए, पएसाणंतए, एमओणंतए दुहओणंतए, देसवित्थाराणंतए, सव्व-वित्थाराणंतए, सासयाणंतए। नामाऽनन्तकम् - अनन्तकमित्येषां नामभूता वर्णानुपूर्वी यस्य, या सचेतनादेर्वस्तु नोऽनन्तकमिति नाम तन्नामाऽनन्तकम् / स्थापनाऽनन्तकं- यदक्षादावनन्तकमिति स्थाप्यते / द्रव्या- ऽनन्तकं जीवद्रव्याणां पुद्गलद्रव्याणां वा यदनन्तकम्, गणनाऽनन्तकं- यदेको द्वौ त्रय इत्येवं संख्याता असंख्याता अनन्ता इति संख्यामानव्यपेक्षं संख्यामात्रतया संख्यातमात्रं व्यपदिश्यत इति / प्रदेशाऽनन्तकम् - आकाशप्रदेशानां यदानन्त्यमिति / एकतोऽनन्तकम्, अतीताऽद्धा अनागताऽद्धा वा द्विधाऽनन्तकम्, सर्वाद्धा देशविस्तारानन्तकम्- एक आकाशप्रतरः / सर्वविस्ताराऽनन्तकं सर्वाऽऽकाशाऽस्तिकाय इति / शाश्वताऽनन्तकमक्षयं जीवादि द्रव्यमिति / स्था० 10 ठा०।। से किं तं अणंतए ? अणंतए तिविहे पण्णत्ते / तं जहापरित्ताणतए, जुत्ताणतए, अणंताणतए / से किं तं परित्ताणतए ? परित्ताणतए तिविहे पण्णत्ते / तं जहा-जहण्णए, उक्कोसए, अजहण्णमणुक्कोसए। से किं तं जुत्ताणतए ? जुत्ताणंतए तिविहे पण्णत्ते। तं जहा-जहण्णए, उक्कोसए, अजहण्णमणुक्कोसए। से किं तं अणंताणतए ? अणंताणतए दुविहे पण्णत्ते / तं जहाजहण्णए, अजहण्णमणुक्कोसए। अनन्तकमपि- परीत्तानन्तकं, युक्तानन्तकम्, अनन्तानन्तकम्। अत्राऽऽद्याऽनन्तभेदद्वये जघन्यादिभेदात् प्रत्येकं त्रैविध्यम् / अनन्ताऽनन्तकं तु- जघन्यमजघन्योत्कृष्टमेव भवतीति / उत्कृष्टाऽनन्ताऽनन्तकस्य क्वाऽप्यसंभवादिति सर्वमपीदमष्टविधम्। अनु०॥ जहण्णयं परित्ताणतयं के वइअं होई? जहण्णय असंखेज्जासंखेज्जयमेत्ताणं रासीणं अण्णमण्णब्मासो पडिपुण्णो जहण्णयं परित्ताणतयं होइ, अहवा उक्कोसए असंखेनासंखेज्जए रूवं पक्खित्तं जहण्णयं परित्ताणं तयं होइ, तेण परं अजहण्णमणुक्कोसयाई ठाणाई जाव उक्कोसयं परित्ताणतयं ण पावइ / उक्कोसयं परित्ताणतयं के वइयं होइ ? जहण्णय परित्ताणंतयमेत्ताणं रासीणं अण्णमण्णमासो रूवूणो उक्कोसयं परित्ताणतयं होइ, अहवा जहण्णयं जुत्ताणतयं रूवूणं उक्कोसयं परित्ताणतयं होइ। जहण्णयं जुत्ताणतयं केवइयं होइ? जहण्णयं परित्ताणं तयमेत्ताणं रासीणं अण्णमण्णमासो पडिपुण्णो जहण्णयं जुत्ताणतयं होइ, अहवा उक्कोसए परित्ताणतए रूवं पक्खित्तं जहण्णयं जुत्ताणंतयं होइ, अभवसिद्धिआ वितत्तिआ होइ, तेण परं अजहण्णमणुक्कोसयाइंजाव उक्कोसयं जुत्ताणतयं ण पावइ / उक्कोसयं जुत्ताणतयं केवइ होइ? जहण्णएणं जुत्ताणतएणं अमवसिद्धिआ गुणिता अण्णमणब्मासो रूवूणो उक्कोसयं जुत्ताणतयं होइ,अहवा जहण्णयं अणंताणतयं रूवूर्ण उक्कोसयं जुत्ताऽणंतयं होइ। जहण्णयं अणंताऽणतयं केवइअं होइ ? जहण्णएणं जुत्ताणंतएणं अभवसिद्धिआगुणिआअण्णमण्णमासो पडिपुण्णो जहण्णयं अणंताणतयं होइ, अहवा उक्कोसएजुत्ताणतएवं पक्खित्तं जहण्णयं अणंताऽणंतयं होइ, तेण परं अजहण्णमणुक्कोसयाई ठाणाइं। जघन्यपरीत्तानन्तके यावन्ति रूपाणि भवन्ति, तावत्संख्येयानां राशीनां प्रत्येकं जघन्यपरीत्तानन्तक प्रमाणानां पूर्ववदन्योऽन्याऽभ्यासरूपोनमुत्कृष्ट परीत्ताऽनन्तकं भवति / 'अहवा जहण्णयं जुत्ताणतयमित्यादि स्पष्टम्। 'जहण्णयं जुत्ताऽणतयं केत्तिय-मित्यादि' व्याख्यातार्थमेव। 'अहवा उक्कोसयं परित्ताऽणतयं' इत्यादि सुबोधम्। जधन्येचयुक्तानन्तके यावन्तिरूपाणि भवन्त्यभवसिद्धिका अपिजीवाः, केवलिना तावन्त एव दृष्टाः / तेण परमित्यादि' कण्ठ्यम् / 'उक्कोसयं जुत्ताणतयं केत्तियमित्यादि, जघन्येन युक्तानन्तकेनाऽभव्यराशिर्गुणितो रूपोनं सन्नुत्कृष्टं युक्ताऽनन्तकं भवति, तेन तु रूपेण सह जघन्यमनन्ताऽनन्तकं सम्पद्यते / अत एवाऽऽह- 'अहया जहण्णयं अणंताणं तयमित्यादि' गतार्थम् / 'जहण्णय अणंताणतयं केत्तियमित्यादि' भावितार्थमेव / अहवा उक्कोसए जुत्ताणंतए इत्यादि' प्रतीतमेव / 'तेण परं अजहण्णमणुक्कोसयाई इत्यादि' जघन्यादनन्तानन्तकात् परतः सर्वाण्यपि अजघन्योत्कृष्टानि एवाऽनन्ताऽनन्तकस्य स्थानानि भवन्ति, उत्कृष्टमनन्ताऽनन्तकं नाऽस्त्येवेत्यभिप्रायः / अन्ये त्वाचार्याः प्रतिपादयन्तिअजघन्यमनन्ताऽनन्तकं धारत्रयं पूर्व वयेते, ततश्चैते षड्अनन्तकाः प्रक्षेपाः प्रक्षिष्यन्ते। तद्यथा Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणंतग २६१-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणंतग सिद्धा निगोयजीवा, वणस्सई काल पुग्गला चेव। सवमलोगागासं, छप्पेतेऽणंत पक्खेवा / / 1 / / अयमर्थः-सर्वे सूक्ष्मबादरनिगोदजीवाः प्रत्येकानन्ताः, सर्वे वनस्पतिजन्तवः सर्वोऽप्यतीतानागतवर्तमानकालसमयराशिः, सर्वपुद्गलद्रव्यसमूहः, सर्वालोकाकाशप्रदेशराशिः / एते च प्रत्येकमनन्तस्वरूपाः षट् प्रक्षेप्याः, एतैश्च प्रक्षिप्तर्यो राशिर्जायते, स पुनरपिवारत्रयंपूर्ववर्यत, तथाऽप्युत्कृष्टमनन्तानन्तकं न भवति, ततश्च केवलज्ञानकेवलदर्शनपर्यायाः प्रक्षिप्यन्ते / एवं च सत्युत्कृष्टमनन्ताऽनन्तकं सम्पद्यते, सर्वस्यैव वस्तुजातस्य संगृहीतत्वात् / अतः परं वस्तु सर्वस्यैव संख्याविषयस्याऽभावाद् इति भावः / सूत्राऽभिप्रायस्तुइत्थमप्यनन्ताऽनन्तकमुत्कृष्ट न प्राप्यते, अजघन्योत्कृष्टस्थानानामेव तत्र प्रतिपादितत्वात् इति। तत्त्वं तु केवलिनो विदन्तीति भावः। सूत्रेच यत्र कुत्राऽपिअनन्ताऽनन्तकं गृह्यते, तत्र सर्वत्राऽजधन्योत्कृष्टं द्रष्टव्यम्, तदेवं प्ररूपितमनन्तकम् / अनु० इदानीं नवविधमसंख्येयकं नवविधमेव चाऽनन्तकं __ निरूपयितुमिच्छुर्गाथायुगमाहरूवजुयं तु परित्ता - संखं लहु अस्स रासि अब्मासे। जुत्तासंखिजं लहु, आवलियासमयपरिमाणं // 78|| पूर्वोक्तमेवोत्कृष्ट संख्येयकं, रूपयुतंतुरूपेणैकेन सर्षपेण पुनर्युक्तंसल्लधु जघन्यं परीत्तासंख्यं परीत्तासंख्येयकं भवति। इदमत्र हृदयम्-इहयेनैकेन सर्षपरूपेण रहितोऽनन्तरोद्दिष्टो राशिरुत्कृष्ट-संख्यातकमुक्तं, तत्र राशी तस्यैव रूपस्य निक्षेपो यदा क्रियते, तदा तदेवोत्कृष्ट संख्यातकं जघन्य परीताऽसंरख्यातकं भवतीति / इह च जघन्यपरीत्ताऽसंख्येयकेऽभिहिते यद्यपि तस्यैव मध्यमोत्कृष्ट-भेदप्ररूपणाऽवसरस्तथापि परीत्तयुक्तनिजपदभेदतस्त्रिभेदाना-मप्यसंख्येयकानां मध्यमोत्कृष्टभेदौ पश्चादल्पवक्तव्यत्वात् प्ररूपयिष्येते। अतोऽधुना जघन्ययुक्तासंख्यातकं तावदाह-(अस्स रासि अब्भासे इत्यादि) अस्य राशेजघन्यपरीत्ताऽसंख्येयक-गतराशेः, अभ्यासे परस्परगुणने सति, लघु जघन्यं, युक्ताऽसंख्येयकं भवति, तच्चावलिकासमयपरिमाणम् / आवलिका"असं खिजाणं समयाणं समुदयसमिइसमागमेणं" इत्यादिसिद्धान्तप्रसिद्धा, तस्याः समया निर्विभागाः कालविभागाः, तत्परिमाणमावलिकासमय-परिमाणम्, जघन्ययुक्ताऽसंख्येयकतुल्यसमयराशिप्रमाणा आवलिका इत्यर्थः / एतदुक्तं भवतिजघन्यपरीत्तासंख्येयक-संबन्धीनि यावन्ति सर्षपलक्षणानि रूपाणि तान्येकै कशः पृथक् पृथक् संस्थाप्य तत एकैकस्मिन् रूपे जघन्यपरीत्ताऽसंख्यातकप्रमाणो राशिः व्यवस्थाप्यते। तेषां च राशीनां परस्परमभ्यासो विधीयते / इहैवं भावना- असत्कल्पनया किल जघन्यपरीत्तासंख्येयक-राशिस्थाने पञ्च रूपाणि कल्प्यन्ते, तानि विवियन्ते, जाताः पञ्चैककाः 11111 एककानामधः प्रत्येकं पञ्चैव वाराः पञ्च व्यवस्थाप्यन्ते। तद्यथा-१११११/५५५५५, अत्र पञ्चभिः पञ्च गुणिता जाता पञ्चविंशतिः। साऽपिपञ्चभिरभ्यासेजातं पञ्चविंश शतम् / इत्यादिक्रमेणामीषां राशीनां परस्पराऽभ्यासे जातानि पञ्चविंशत्यधिकान्येकत्रिंशच्छतानि 545454545-3125 / एवं कल्पनया तावदेतावन्मात्रो राशिर्भवति, सद्भावतस्त्वसंख्येयरूपो जघन्ययुक्ताऽसंख्यातकतया मन्तव्य इति / / 7 / / सम्प्रति शेषजघन्याऽसंख्याताऽसंख्यातकभेदस्य जघन्यपरीत्ताऽनन्तकादिस्वरूपाणां त्रयाणां जघन्याऽनन्तकभेदानां च स्वरूपमतिदेशतः प्रतिपिपादयिषुराह - बि ति चउ पंचम गुणणे, कमा सगासंख पढमचउसत्ता। ऽणंता ते रूवजुया, मज्झा रूवूण गुरु पच्छा / / 7 / / इह 'संखिजेगमसंखमित्यादि' गाथोपन्यस्तमुत्कृष्ट संख्यातकम् 1, उत्कृष्टसंख्यातकादिमौलसप्तपदापेक्षया संख्यातकाद्यभेद-विकलानि यानि परीत्तासंख्यातकादीनि षट्पदानि, तानि परीत्ताऽसंख्यातकाऽनन्ताऽनन्तक भेदद्वयविकलानि द्वित्रिचतुःपञ्चसंख्यात्वेन प्रोक्तानि। यथा- परीत्ताऽसंख्यात 2, युक्ताऽसं०३, असंख्याऽसं०४, परीत्ताऽनन्त०५, युक्ताऽनन्त०६, अनन्ताऽनन्त०७। ततो द्वित्रिचतुःपञ्चमगुणने द्वितीयतृतीयचतुर्थपञ्चमपदवाच्यराशेरन्योऽन्याऽभ्यासे सति, क्रमात् क्रमेण, (सगाऽसंख त्ति) प्राकृतत्यात् सप्तमाऽसंख्यातम्। स्थापनाऽपेक्षयाजधन्याऽसंख्याताऽसंख्यातकम्। (पढमचउसत्ताऽणत त्ति) प्राकृतत्वात् प्रथमचतुर्थसप्तमान्यनन्तकानि, तत्र प्रथमाऽनन्तकं जघन्य-परीत्ताऽनन्तकं चतुर्थाऽनन्तकं जघन्ययुक्ताऽनन्तकं सप्तमाऽनन्तकं जघन्याऽनन्ताऽनन्तकं भवतीति। इह जघन्य मध्यमोत्कृष्टभेदतो-ऽसंख्येयाऽनन्तकयोः प्रत्येक नवविधत्वात् प्रदर्शितभेदानां सप्तम-प्रथमाऽऽदिसंख्यानं संगच्छत एव। यथा- जघन्यसंख्यात 1, मध्यमसं०२, उत्कृष्ट सं०३ / ज० परीत्त असं०१, म०परीतअसं०२, उ०परीत्तअसं०३, ज०युक्तअसं०४, मयुक्तअसं०५, उ०युक्तअसं०६, ज०असं०असं०७, म०असं० असं०८, उ०असं०असं०६ ज०परीत्तअनन्त 1, म०परीत्तअनन्त 2, उ०परीत्तअनन्त 3, जव्युक्त अनन्त 4, मयुक्त अनन्त 5, उन्युक्त अनन्त 6, जघन्यअनन्ताऽन्त 7, मध्यमअनन्ताऽन्त 8, उत्कृष्ट अनन्ताऽन्त / / 3+6+6-21 इदमत्रैदंपर्यम्-द्वितीये युक्ताऽसंख्यातकपदवाच्ये जघन्ययुक्ताऽसंख्यातकलक्षणे राशौ विवृते सति यावन्ति रूपाणि, तावत्सु प्रत्येकं जघन्ययुक्ताऽसंख्यातकमाना राशयोऽभ्यसनीयाः,ततः तेषां राशीनां परस्परताडने यो राशिर्भवति, तत् सप्तमाऽसंख्येयकं मन्तव्यम् / तृतीये त्यसंख्येयकाऽसंख्येयकपदवाच्ये जघन्याइसंख्येयकासंख्येयकरूपे राशौ यावन्ति रूपाणि, तावतामेव जघन्याऽसंख्येयकाऽसंख्येयक राशीनामन्योन्यगुणने सति यो राशिः संपद्यते, तत्प्रथमाऽनन्तकं जघन्यपरीत्ताऽनन्तकमवसेयम् / चतुर्थे तु परीत्ताऽनन्तकपदवाच्ये जघन्यपरीत्ताऽनन्तकरूपे राशी यावन्ति रूपाणि, तावत्संख्यानां जघन्यपरीत्ताऽनन्तकराशीनां परस्परमभ्यासे यावान् राशिर्भवति, तचतुर्थमनन्तकं जधन्ययुक्ताऽनन्तकं भवति / पञ्चमे यक्ताऽनन्तकपदवाच्ये जघन्ययुक्ताऽनन्तक रूपे राशौ यावन्ति रूपाणि, तत्प्रमाणानामे व जघन्ययुक्ताऽनन्तकराशीनां परस्परगुणने यावान राशिः संपद्यते, तत् सप्तमाऽनन्तकं जघन्याऽनन्ताऽनन्तकं भवति / आहपरीत्तासंख्यातक 1, युक्तासंख्यातक 2, असंख्यातासंख्यातक 3, परीत्तानन्तक 4, युक्तानन्तक 5, अनन्तानन्तक 6, लक्षणाः षडपि राशयो जघन्यास्तावन्निर्दिष्टाः, मध्यमा उत्कृष्टाश्चै ते कथं मन्तव्याः? इत्याह-(ते रूवजुया इत्यादि) ते अनन्तरोद्दिष्टा जघन्याः षडपि राशयो रूपेणैककलक्षणेन युताः समन्विताः / रूपयुताः सन्तः किं भवन्तीत्याह- मध्या मध्यमाः, जघन्योत्कृष्टा इति यावत् / तत्र यः प्राग्निर्दिष्टो जघन्यपरीत्तासंख्यातकराशिः, स एक स्मिन् रूपे प्रक्षिप्ते मध्यमो भवति / उपलक्षणं चैतत्नैकरूपप्रक्षेप एव मध्यमभणनं, किन्त्वेकै करूपनिक्षेपेऽयं तावत् मध्यमो मन्तव्यो यावदुत्कृष्टपरीत्तासंख्येयक राशिन भवतीत्येवमनया दिशा जघन्ययुक्तासंख्यातकादयोऽपि राशय Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणंतग 262 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणंतजीव एकैकस्मिन् रूपे निक्षिप्ते मध्यमा संपद्यन्ते, तदनु चैकैक- रूपवृद्ध्या तावन्मध्यमा अवसेया यावत्स्वस्थमुत्कृष्टपदं नाऽऽसादयन्तीति। तहह्येते षडपि किंस्वरूपाः सन्त उत्कृष्टा भवन्तीत्याह-(रूवेण गुरुपच्छ त्ति) रूपेणैककलक्षणेनोना न्यूना रूपोनाः सन्तस्ते एव प्रागभिहिताजघन्या राशयः, ते-शब्द आवृत्त्येहाऽपि संबन्धनीयः / किं भवतीत्याह- गुरव उत्कृष्टाः पाश्चात्याः पश्चिमराशय इत्यर्थः / इयमत्र भावनाजघन्ययुक्तासंख्यातकराशिरेकेन रूपेण न्यूनः, स एव पाश्चात्य उत्कृष्टपरीत्तासंख्येयकस्वरूपो भवति / जघन्यसंख्यातासंख्यातकराशिस्तुएकेन रूपेण न्यूनःसन् पाश्चात्य उत्कृष्टयुक्तासंख्यातकस्वरूपो भवति / जघन्यपरीत्तानन्तकराशिः पुनरेकेन रूपेण न्यूनः पाश्चात्य उत्कृष्टसंख्यातकस्वरूपो भवति। जघन्ययुक्तानन्तकराशिस्त्वेकरूपोनः पाश्चात्य उत्कृष्टपरीत्तानन्तक-स्वरूपो भवति / जघन्यानन्तानन्तकराशिरेकरूपरहितः पाश्चात्य उत्कृष्टयुक्ताऽनन्तकस्वरूपो भवतीति |7| इदं च संख्येयकानन्तकभेदानामित्थंप्ररूपणमागमभिप्रायत उक्तम् / कैश्चिदन्यथाऽपिचोच्यते, अत एवाह. इय सुत्तुत्तं अन्ने, वग्गियमिकसि चउत्थयमसंखं। होइ असंखासखं, लहु रूवजुयं तु तं मज्झं // 8oll इति पूर्वोक्तप्रकारेण यदसंख्यातकानन्तकस्वरूपं प्रतिपादितं, तत्सूत्रेऽनुयोगद्वारलक्षणे सिद्धान्ते उक्तं निगदितम् / कर्म० 4 कर्म०(अत्र मतान्तरम् 'असंखिज्ज' शब्दे व्याख्यास्यते) मृताच्छादनसमर्थे वस्त्रे, आव०४अ01 नवप्रवचनप्रसिद्धे अनन्तकाये, पंचा०४ विव०॥ *अनन्तग-त्रि०ा अन्तं गच्छतीत्यन्तगः, नाऽन्तगः अनन्तगः / अविनाशिनि, "चिचा अणं तगं सोयं, निरवेक्खो परिव्यए'। सूत्र०१श्रु०६अ0 अणंतगुणिय-त्रि०(अनन्तगुणित) अनन्तगुणिते, विशे० अणंतधाइ (ण)-पुं०(अनन्तघातिन्) अनन्तविषयतया अनन्ते ज्ञानदर्शने हन्तुं विनाशयितुं शीलं येषां तेऽनन्तघातिनः / ज्ञानदर्शनविनाशनशीलेषु ज्ञानावरणीयादि कर्मपर्यवेषु, पसत्थजोगपडिवन्ने यणं अणगारे अणंतघाइपज्जवेखवेइ। उत्त०२६अ० अणंतचक्खु-पुं०(अनन्तचक्षुष) अनन्तं ज्ञेयानन्ततया नित्यतया वा चक्षुरिव चक्षुः के वलं ज्ञानं यस्य, अनन्तस्य वा लोकस्य पदार्थप्रकाशकतया वा चक्षुर्भूतो यः स भवत्यनन्तचक्षुः / सूत्र० १श्रु०६अ०। अनन्तमपर्यवसानं नित्यं ज्ञेयानन्तत्वाद्वाऽनन्तं चक्षुरिव केवलज्ञानं यस्य सतथा। केवलज्ञानिनि,"तरिउंसमुदं च महाभवोधं, अभयंकरे धीर अणंतचक्खू'' सूत्र०१श्रु०६अ। अणंतजिण-पुं०(अनन्तजिन) अनन्तश्चासौ ज्ञानात्मतया नित्य-तया वा जिनश्च रागद्वेषजयनादनन्तजिनः। अवसर्पिण्याश्चतुर्दशे तीर्थकरे. आचा० कल्प० प्रवा अणंतजीव-पुं०(अनन्तजीव) अनन्तकायिके वनस्पतिभेदे, स्था०३ ठा०१० अनन्तजीवस्थ भेदास्तल्लक्षणं चेत्थम् - तणमूलकंदमूलो, वंसीमूलि त्ति याऽवरे उ। संखेजमसंखिज्जा, बोधव्वा णंतजीवा य॥१॥ सिंघाडगस्स गुच्छो, अणेगजीवो उ होति णायव्दो। पत्ता पत्तेय जीवा, दोण्णि य जीवा फले भणिया / / 2 / / जस्स मूलस्स भग्गस्स, समो भंगो य दीसए। अणंतजीवे उसे मूले,जे यावण्णे तहाविहा / / 3 / / जस्स कंदस्स भग्गस्स, समो मंगो य दीसई। अणंतजीवे उसे कंदे, जे यावन्ने तहाविहा |||| जस्स खंदस्स मग्गस्स, समो मंगो यदीसई। अणंतजीवे उसे खंधे,जे यावन्ने तहाविहा ||5|| जस्स तयाए मग्गाए, समो भंगो य दीसई। अणंतजीवा तया सा उ,जे यावन्ना तहाविहा॥६॥ जस्स सालस्स मग्गस्स, समो मंगो य दीसई। अणंतजीवे उसे साले,जे यावन्ने तहाविहा // 7 // जस्स पवालस्स भग्गस्स, समो मंगो य दीसई। अणंतजीवे पवाले से, जे यावन्ने तहाविहा / / जस्स पत्तस्स भग्गस्स, समो भंगो य दीसई। अणंतजीवे उसे पत्ते,जे यावन्ने तहाविहा || जस्स पुप्फस्स मग्गस्स, समो भंगो य दीसई। अणंतजीवे उसे पुप्फे,जे यावन्ने तहाविहा ||10|| जस्स फलस्स भग्गस्स, समो मंगो यदीसई। अणंतजीवे फले से उ, जे यावन्ने तहाविहा / / 11 / / जस्स बीयस्स मम्गस्स, समो मंगो यदीसई। अणंतजीवे उसे बीए, जे यावन्ने तहाविहा // 12 // तृणमूलं कन्दमूलं यचाऽपरं वंशीमूलम् , एतेषां मध्ये क्वचिद् जातिभेदतो देशभेदतो वा सङ्ग्याता जीवाः, क्वचिदसंख्याताः, क्वचिदनन्ताश्व ज्ञातव्याः। (सिंघाडगस्सेत्यादि) शृङ्गाटकस्ययो गुच्छः सोऽनेकजीवो भवतीति ज्ञातव्यः, त्वक् शाखादीनामनेकजीवात्मकत्वात् / केवलं तत्रापि यानि पत्राणि तानि प्रत्येक-जीवानि, फले पुनः प्रत्येकमे कै कस्मिन् द्वौ द्वौ जीवौ भणितौ / (जस्स मूलस्सेत्यादि) यस्य मूलस्य भग्रस्य सतः सम एकान्तरूप-श्वक्राकारो भङ्गः प्रकर्षेण दृश्यते, तन्मूलमनन्तजीवमवसेयम् / (जे यावन्ने तहा० इति) यान्यपि चाऽन्यानि अभग्नानि तथाप्रकाराणि अधिकृतमूलभनसमप्रकाराणि तान्यप्यनन्तजीवानि ज्ञातव्यानि / एवं कन्दस्कन्धत्वक् शाखाप्रवालपत्रपुष्पफलबीजविषया अपि नव व्याख्येयाः / / 10 / / प्रज्ञा०१ पद। अधुना मूलादिगतानां वल्कलरूपाणां छल्लीनामनन्त जीवत्वपरिज्ञानार्थ लक्षणमाहजस्स मूलस्स कट्ठाओ, छल्ली बहलतरी भवे। अणंतजीवा उसा छल्ली, जा याऽवण्णा तहाविहा ||1|| जस्स कंदस्स कट्ठाओ,छल्ली बहलतरी भवे। अणंतजीवा उसा छल्ली,जा याऽवण्णा तहाविहा॥२॥ जस्स खंधस्स कट्ठाओ, छल्ली बहलतरी मवे। अणंतजीवा उसा छल्ली,जायाऽवण्णा तहाविहा॥३॥ जस्स सालाइ कट्ठाओ, छल्ली बहलतरी भवे। अणंतजीवा उसा छल्ली,जायाऽवण्णा तहाविहा ||4|| यस्य मूलस्य काष्ठाद् मध्यसारात् छल्ली वल्कलरूपा बहलतरा Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणंतजीव 263 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणंतजीव भवति, सा अनन्तजीवा ज्ञातव्या ।(जा याऽवण्णा तहा० इति) याऽपि चाऽन्या, अधिकृतया अनन्तजीवत्वेन निश्चितया समानरूपा छल्ली, साऽपि तथाविधा अनन्तजीवात्मका, ज्ञातव्या / एवं कन्दस्कन्धशाखाविषया अपि तिस्रो गाथाः परिभावनीयाः। प्रज्ञा०१ पद / यदुक्तं 'जस्स भूलस्स भग्गस्स समो भंगोयदीसई' इत्यादि तदेव लक्षणं स्पष्ट प्रतिपिपादयिषुरिदमाहचक्कागं मञ्जमाणस्स, गंठी चुण्णघणो भवे / पुढवीसरिसमेदेण, अणंतजीवं वियाणाहि||१|| चक्रकं चक्राकारमेकान्तेन समं भङ्गस्थानं यस्य भज्यमानस्य मूलकन्दस्कन्धत्वक्शाखापत्रपुष्पादेर्भवति, तन्मूलादिकम-नन्तजीवं. विजानीहि इति सम्बन्धः / तथा 'गंठीचुण्णघणो भवे' इति। ग्रन्थिः पर्व सामान्यतो भङ्गस्थान वा स यस्यभज्यमानस्य चूर्णेन रजसा धनो व्याप्तो भवति, अथवा यस्य पत्रादेर्भज्यमानस्य चक्राकार भङ्गरजसा ग्रन्थिस्थाने व्याप्तिं च विना पृथिवीसदृशेन भेदेन भङ्गस्थानं भवति, सूर्यकरनिकरप्रतप्तकेदारतरिका-प्रतरखण्डस्येव समो भङ्गो भवतीति भावः, तमनन्तकायं विजानीहि // 1 // पुनरपिलक्षणान्तरमाहगूढसिरागं पत्तं, सच्छीरं जं च होइ निच्छीरं। जंपिय पणट्ठसंधिं, अणंतजीवं वियाणाहि ||2|| यत्पत्रं सक्षीरं निःक्षीरं वा गूढसिराकमलक्ष्यमाणशिराविशेष,यदपिच प्रणष्टसन्धिः सर्वथाऽनुपलक्ष्यमाणपत्रार्द्धद्वयसन्धिः, तदनन्तजीवं विजानीहि // 2 // सम्प्रति पुष्पादिगतं विशेषमभिधित्सुराहपुप्फा जलया थलया, विंटबद्धाय णालिबद्धाय। संखिज्जमसंखेज्जा, बोधव्वा णंतजीवा य॥३॥ पुष्पाणि चतुर्विधानि, तद्यथा-जलजानिसहस्रपत्रादीनि, स्थलजानि / कोरण्टकादीनि, एतान्यपि च प्रत्येकं द्विधा / तद्यथा-कानिचिद् वृन्तबद्धानि-अतिमुक्तकप्रभृतीनि, कानिचिन्नाल-बद्धानि जातिपुष्पप्रभूतीनि, अत्रैतेषां मध्ये कानिचित्पत्रादिगत-जीवापेक्षया सङ्ग्येयजीवानि, कतिचिदसञ्येयजीवानि, कानिचिदनन्तजीवानि यथागमं बोधव्यानि // 3 // अत्रैवकिञ्चिद्विशेषमाह - जे केइ नालिया बद्धा, पुप्फा संखेज्जजीविया। णिहुया अणंतजीवा, जे याऽवण्णे तहाविहा॥४॥ पउमुप्पलिणी कंदे, अंतरकंदे तहेव झिल्ली य। एते अणंतजीवा,एगो जीवो मिस मुणाले // 5 // यानि कानिचिद् नालिकाबद्धानि पुष्पाणि जात्यादिगतानि तानि सर्वाण्यपि सङ्ख्यातजीवकानि भणितानि तीर्थंकरगणधरैः / स्निहू स्निहूपुष्पं पुनरनन्तजीवम्, यान्यपि चाऽन्यानि स्निहूपुष्पकल्पानि तान्यपि तथाविधानि अनन्तजीवात्मकानि ज्ञातव्यानि / (पउमुप्पलिनी कंदेत्यादि) पद्मिनीकन्द, उत्पलिनीकन्दः, अन्तरकन्दो जलजवनस्पतिविशेषः कन्दः, झिल्लिका वनस्पतिविशेषरूपा, एते सर्वेऽप्यनन्तजीवाः, नवरं पद्मिन्यादीनां विशे, मृणाले च, एकजीवात्मके विशमृणाले इति भावः / / 5 / / प्रज्ञा०१ पद। सप्फाए सज्झाए, उव्वेहलिया य कुहणकुंदुक्के / एए अणंतजीवा, कुंदुक्के होइ भयणाओ॥१३॥ एते कु हनादिवनस्पतिविशेषा लोकतः प्रत्येतव्याः / एते च अनन्तजीवात्मकाः,नवरं कन्दुक्के भजना,स हि कोऽपि देशविशेषादनन्तोऽनन्तजीवो भवति, कोऽप्यसंख्येयजीवात्मक इति // 13 // किं बीजजीव एव मूलादिजीवो भवति, उतान्यस्तस्मिन्नपक्रान्ते उत्पद्यते इति परप्रश्नमाशयाहजोणिभूए बीए, जीवो वक्कमइ सो व अण्णो वा। जो वि अमूले जीवो, सो विहुपत्ते पढमयाए॥१४॥ बीजे योनिभूते योन्यवस्था प्राप्ते, योनिपरिणाममुज्जहतीति भावः / बीजस्य हि द्विविधाऽवस्था / तद्यथा-योन्यवस्था, अयोन्यवस्था च। तत्र यदा बीजं योन्यवस्थानं जहाति, अथ चोज्झितं जन्तुना, तदा तत् योनिभूतमित्यभिधीयते। उज्झितं च जन्तुना निश्चयतो नाऽवगन्तुं शक्यते, ततोऽनतिशायिनासम्प्रति सचेतनमचेतनंवा अविध्वस्तयोनि योनिभूतमिति व्यवह्रियते / विध्वस्तयोनि तु नियमादचेतनत्यादयोनिभूतमिति / अथ यो निरिति किमभिधीयते ? उच्यते जन्तोरुत्पत्तिस्थानमविध्वस्तशक्तिकं तत्रस्थजीवपरिणमनशक्तिसम्पन्नमिति भावः। तस्मिन्बीजे योनिभूते जीवो व्युत्क्रामति उत्पद्यते, स एव पूर्वको बीजजीवोऽन्यो वा आगत्य तत्रोत्पद्यते। किमुक्तं भवति? तदा बीजनिवर्त्तकेनजीवेन स्वायुषः क्षयाद्बीजपरित्यागः कृतो भवति / तस्य च बीजस्य पुनरम्बुकालाऽवनिसंयोगरूपसामग्रीसम्भवस्तदा कदाचित् स एव प्राक्तनो बीजजीवो मूलादिनामगोत्रं निबद्ध्य तत्रागत्य परिणमति, कदाचिदन्यः पृथिवीकायिकादिजीवः। 'योऽपि च मूले जीव इति' य एव मूलतया परिणमते जीवः, सोऽपि पत्रे प्रथमतयेति' स एव प्रथमपत्रतयाऽपि च परिणमते, इत्येकजीवकर्तृके मूलप्रथमपत्रे इति। आह-यद्येवं "सव्यो वि किसलओखलु, उगममाणो अणंतओ भणिओ" इत्यादि वक्ष्यमाणं कथं न विरुध्यते? उच्यते- इह बीजजीवोऽन्यो वा बीजमूलत्येनोत्पद्य तदुच्छूनावस्थां करोति, ततस्तदनन्तरं भाविनी किसलयावस्थां नियमतोऽनन्ता जीवाः कुर्वन्ति / पुनश्च तेषु स्थितिक्षयात्परिणतेषु असावेव मूलजीवोऽनन्तजीवतर्नु स्वशरीरतया परिणमय्य तावद्वर्द्धते यावत् प्रथमपत्रमिति न विरोधः / अन्ये तु व्याचक्षते-प्रथमपत्रमिह याऽसौ बीजस्य संमूर्च्छ-नावस्था, तेन एकजीवकर्तृक मूलप्रथमपत्रे इति। किमुक्तं भवति? मूलसमुच्छूनावस्थे एकजीवकर्तृके,एतच्च नियमप्रदर्शनार्थ- मुक्तम् / मूलसमुच्छूनावस्थे एकजीवपरिणमिते एव / शेषं तु किसलयादिनाऽवश्यं मूलजीवपरिणामाविर्भावितमिति / ततः 'सव्यो वि किसलओ खलु, उग्गममाणो अणंतओ भणिओ' इत्यादि वक्ष्यमाणमविरुद्धम् / मूलसमुच्छूनावस्थानिर्वर्तना-ऽरम्भकाले किसलयत्वाभावादिति। आह-प्रत्येकशरीरे वनस्पतिकायिकानां सर्वकालशरीरावस्थामधिकृत्य किं प्रत्येक शरीरत्वमुत कस्मिश्चिदवस्थाविशेषेऽनन्तजीवत्वमपि सम्भवति? तथा साधारणवनस्पतिकायिकानामपि किं सर्वकालमनन्तजीवत्वमुत कदाचित्प्रत्येकशरीरत्वमपि भवति? ततआहसव्वो विकिसलओ खलु, उम्गममाणो अणंतओ मणिओ। सो चेव विवळतो, होइपरीतो अणंतो वा // 15 // इह सर्वशब्दः परिशेषवाची। सर्वोऽपि वनस्पतिकायः प्रत्येकशरीरः साधारण एव किसलयावस्थामुपगतः सन् अनन्त Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणंतजीव 264- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणंतजीव कायस्तीर्थकरगणधरैर्भणितः / स एव किसलयरूपः अनन्त-कायिकः प्रवृद्धि गच्छन् अनन्तो वा भवति परीत्तो था / कथम् ? उच्यते-यदि साधारणं शरीरं निर्वर्त्यते तदसाधारण एव भवति, अथ प्रत्येकशरीर ततः प्रत्येक इति / कियत् कालादूचं प्रत्येको भवति इति चेदुच्यतेअन्तर्मुहूर्ताः / तथाहि- निगोदानामुत्कर्षतोऽप्यन्तर्मुहूर्त कालं यावत् स्थितिरुक्ता, ततोऽन्तर्मुहूर्तात्परतो विवर्त्तमानः प्रत्येको भवतीति / प्रज्ञा०१पद। निगोदादिशब्दैः सहाऽस्य सविषयत्वादनन्तजीवस्य च अनन्तजन्तुसन्ताननिपातननिमित्तत्वाद्भक्षणं वर्ण्यम्। यतः - नृभ्यो नैरयिकाः सुराश्च निखिलाः पञ्चाक्षतिर्यग्गणो, व्यक्षाद्या ज्वलनो यथोत्तरममी संख्यातिगा भाषिताः / तेभ्यो भूजलवायवः समधिकाः प्रोक्ता यथाऽनुक्रम,सर्वेभ्यः शिवगा अनन्तगुणितास्तेभ्योऽप्यनन्ता नगाः / / 1 / / शादूलविक्रीडितम् / तानि आर्यदेशप्रसिद्धानि द्वात्रिंशत् / तदाहुःसव्वा य कंदजाई, सूरणकंदो अवजकंदो अ। अल्ल हलिद्दा य तहा, अल्लं तह अल्लकचूरो॥१॥ सत्तावरी विराली, कुँआरितह थोहरी गलोई अ। लसुणं वंसकरिल्ला, गजर लूणो अतह लोढा / / 2 / / गिरिकण्णि किसलिपत्ता, खरिंसुआ थेग अल्ल मुत्था य। तह लूणरुक्खछल्ली, खिल्लहडो अमयवल्ली य // 3 // मूला तह भूमिरुहा, विरुहा तह ढकवत्थुलो पढमो। सूअरवल्लो अतहा, पल्लंको कोमलंबिलिआ॥४॥ आलू तह पिंडालू, हवंति एए अणंतनामेणं। अन्नमणतं नेअं, लक्खणजुत्तीइ समयाओ ||5|| सर्वैव कन्दजातिरनन्तकायिका इति सम्बन्धः। कन्दो नाम भूमध्यगो वृक्षावयवः / ते चाऽत्र कन्दा अशुष्का एव ग्राह्याः, शुष्काणां तु निर्जीवत्वादनन्तकायिकत्वं न सम्भवति। श्रीहेमसूरिरप्येवमेव 'आर्द्रः कन्दः समग्रोऽपि, आद्रोऽशुष्कः कन्दः / शुष्कस्य तु निर्जीवत्वादनन्तकायित्वंन सम्भवति' इति योग-शास्त्रसूत्र-वृत्त्योराह / अथ तानेव कांश्चित्कन्दान् व्याप्रियमाण-त्वान्नामत आहसूरणकन्दोऽर्शीघ्रः कन्दविशेषः 1, वज्रकन्दोऽपिकन्दविशेष एव२,आर्द्रा अशुष्का, हरिद्रा प्रतीतैव 3, आर्द्रकं शृङ्गबेरम् 4, आर्द्रकचूरस्तिक्तद्रव्यविशेषः प्रतीत एव 5, शतावरी 6, वरालिके 7, वल्लीभेदौ / कुमारी मांसलप्रणालाकारपत्रा प्रती तैव 6, थोहरी स्नुहीतरुः 6, गुडूची वल्लीविशेषः प्रतीत एव 10, लशुनं कन्दविशेषः 11, वंशकरिल्लानि कोमलातिनववंशा-वयवविशेषाः प्रसिद्धा एव 12, गर्जरकाणि सर्वजनविदितान्येव 13, लवणको वनस्पतिविशेषः, येन दग्धेन सर्जिका निष्पद्यते 14, लोढकः पद्मिनीकन्दः 15, गिरिकर्णिका वल्लीविशेषः १६,किशलयरूपाणि पत्राणि प्रौढपत्रादकि बीजस्योच्छूनावस्थालक्षणानि सर्वाण्यप्यनन्तकायिकानि, न तु कानिचिदेव 17, खरिंशुकाः कन्दभेदाः 18, थेगोऽपि कन्दविशेष एव 16, आर्द्रा मुस्ता प्रतीता 20, लवणापरपर्यायस्य भ्रमरनाम्नो वृक्षस्य छल्लिस्त्वक, न त्वन्येऽवयवाः 21, खिल्लहडोलोकप्रसिद्धः कन्दः२२, अमृतवल्ली वल्लीविशेषः 23, मूलको लोकप्रतीतः 24, भूमीरुहाणि छत्राकाराणि वर्षाकालभवानि भूमीस्फोटकानीति प्रसिद्धानि 25, 1 विरूढान्यकुरितानि द्विदलधान्यानि 26, ढङ्कवास्तुलः शाकविशेषः, सच प्रथमोद्गत एवानन्तकायिको, नतु छिन्नप्ररूढः 27, शूकरसंज्ञको वल्लः, स एवानन्तकायिको न तु धान्यवल्लः 28, पल्ल्यङ्कः शाकभेदः 26, कोमलाम्लिका अबद्धास्थिका चिञ्चिणिका 30, आलुक 31, पिण्डालुकौ 32, कन्दभेदौ / एते पूर्वोक्ताः पदार्था द्वात्रिंशत्संख्याका अनन्तकायनामभिर्भवन्तीत्यर्थः / न चैतावन्त्येवानन्तकायिकानि किन्त्वन्येऽपि। तथाऽऽह-'अन्यदपि' पूर्वोक्तातिरिक्तमनन्तकायिकम् , लक्षणयुक्त्या वक्ष्यमाणलक्षणविचारणया, समयात् सिद्धान्ततः ज्ञेयम्। तान्येवाऽनन्तकायानि यथाघोसकरीरंकुर तिंडुयं अइकोमलंबगाईणि / वरुणवडनिंबयाईण अंकुराइं अणंताई॥१॥ घोषातकीकरीरयोरङ्कुराः,तथाऽतिकोमलान्यबद्धास्थिकानि तिन्दुकामफ्लादीनि, तथा वरुणवटनिम्बादीनामकुरा अनन्तकायिकाः / अनन्तकायलक्षणं चेदम् - "गूढसिरसंधिपव्वं, समभंगमहिरुहं च छिन्नरुहं / साहारणं सरीरं, तव्विवरीअंच पत्तेअं" ||1|| एवं लक्षणयुक्ता अन्येऽपि अनन्तकायाः स्युः,ते हेयाः / यतश्च- चत्वारो नरकद्वाराः, प्रथमं रात्रिभोजनम् / परस्त्रीसंगमश्चैव, संधानानन्तकायिके / / 1 / / उक्तमनन्तकायिकम् / ध०२ अधिक। (अनन्तकायिकस्यादाने प्रायश्चित्तं 'पलंब' शब्दे प्रदर्शयिष्यते)। अह भंते ! आलुए मूलए सिंगबेरे हरिली सिरिली सिसिरली किट्टिया निरिया छीरविरालिया कण्हकंदे वज्जकंदे सूरणकंदे खेल्लूडे अद्दमुत्था पिंडहलिद्दा लोहाणि हूथिहूविभागा अस्सकण्णी सीहकण्णी सादंडी मुसुंडी जे याऽवण्णे तहप्पगारा सव्वे ते अणंतजीवा विविहसत्ता ? हता गोयमा ! आलुए मूलए० जाव अणंतजीया विविहसत्ता / भ० ७श०२ उ०प्रज्ञा०। जे भिक्खु अणंतकायसंमिस्सं जुत्तं आहारं आहारेइ,आहारतं वा साइजई॥५॥ जे भिक्खू अणंतिकातो मूलकंदो अल्लगफडादि वा एवमादि संमिस्सं जो जति, तस्स चउगुरु। जे भिक्खू असणादी, मुंजेज्ज अणंतकायसंजुत्तं / सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं पावे // 53|| आणादिया दोसा हवंति, इमे दोसातं कायपरिव्वयओ, तेण य वत्तेण समं वयति। अतिखद्धं अणुचित्ते,ण य विसूतिकादीणि आयाए॥५४|| इमा आयविराहणा- ते ण रसालेण अतिखखेण अणुत्तेण य विसूतिकादी भवे मरेज वा अजीरंतो वा अण्णतरो रोगातंको भवेज, एवं आयविराहणा, जम्हा एते दोसा, तम्हा ण भोतव्यं, कारणे तु भुंजेजा। असिवे ओमोयरिए, रायडुढे भए च गेलण्णे। अद्धाण रोहए वा, जयणा इमा तत्थ कायव्वा / / 5 / / पूर्ववत् इमे वक्खमाणजयणाओमं तिमागमड्डे,तिभाग आयंबिले चउत्थादी। निम्मिस्से मिस्सेया, परित्तणं ते य जा जतणा // 56 // जह णव सुत्ते वक्खमाणो, जहा वा पेढे भणिया तहा वत्तव्वा / Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणंतजीव 265 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणंतरपज्जत्त इमो से अक्खरत्थो- ओम एसणिज भुंजति, तिभागेण वाऊणं एसणिज्ज | वर्तमानसमये, स्था० 10 ठा० / भुंजति, अद्धं वा एसणिज्जे, तिभागं वा एसणिणं, आयंबिलेण वा अत्थति। | अणंतरखेत्तोगाढ-त्रि०(अनन्तरक्षेत्रावगाढ) आत्मशरीरावचउत्थं वा करेति, ण य अणंतकायं तम्मिस्सं भुंजति जाहे णिम्मिसं गाढक्षेत्रापेक्षया यदनन्तरं क्षेत्रं तत्राऽवगाढे, 'नो अणंतरखेत्तोगाढे पोग्गले लब्भति,जाहे णिम्मिस्संणलब्भति ताहेपरीत्तकायमिस्संगेण्हति,जाहे अत्तमायाए आहारेति / भ०६श०१० उ० तंपिनलब्भति, ताहे अणंत-कायमिस्संगेण्हति, जाय पणगादिजयणा, अणं तरखेदोववण्णग-त्रि०(अनन्तरखे दोपपन्नक) अनन्तरं सा दट्टव्वा। नि० चू०१० उ०) समयाद्यव्यवहितं खेदेन दुःखेनोपपन्नमुत्पादक्षेत्रप्राप्तिलक्षणं येषां अणंतजीविअ-पुं०(अनन्तजीविक) अनन्तकायिकवनस्पती, भ०८ तेऽनन्तरखेदोपपन्नकाः / खेदप्रधानोत्पत्तिप्रथमसमययर्तिषुश०३ उ०। नैरयिकादिषु, भ०१४ श०१उ०। (अत्रदण्डकस्तेषामायुर्बन्धश्च 'आउ' अणतणाण-न०(अनन्तज्ञान) अनन्तं स्वपरपर्यायापेक्षया वस्तुज्ञायते शब्दे द्वि०भा०१४ पृष्ठे वक्ष्यते) येन, तदनन्तज्ञानम्। केवलज्ञाने, दश०२अ०॥ अणंतरगंठिय-त्रि०(अनन्तरग्रन्थित) 3 त०। प्रथमग्रन्थीनाअणतणाणदंसि(ण)-पुं०(अनन्तज्ञानदर्शिन) अनन्तं ज्ञानं दर्शनं च __ मनन्तरव्यवस्थितैर्ग्रन्थिभिः सह ग्रथिते, भ०५ श०३ उ०। यस्यासावनन्तज्ञानदर्शी / केवलज्ञानिनि, सूत्र०१श्रु०६ अ०) अणंतरच्छेय-पुं०(अनन्तरच्छेद) स्वाले नैव द्वैधीकरणे, "णह-दंताहि अणं तणाणि(ण)-पुं०(अनन्तज्ञानिन्) अनन्तमविनाश्य- | अणंतरंणहेहिं दंतेहिं वाजं छिंदति, तंअणंतरच्छेयो भण्णति" नि०चू० नन्तपदार्थपरिच्छेदकं वा ज्ञानं विशेषग्राहकं यस्याऽसावनन्तज्ञानी / 1 ਚl सूत्र०१श्रु०६अ० उत्पन्नकेवलज्ञाने तीर्थकरे, ज्यो०६पाहु० स०। अणंतरणिग्गय-त्रि०(अनन्तरनिर्गत) निश्चितं स्थानान्तरप्राप्त्या गतं अणं तदंसि(ण)-पुं०(अनन्तदर्शिन) अनन्तमविनाश्यनन्त- गमनं निर्गतम् / अनन्तरं समयादिना निर्व्यवधानं निर्गतं येषां पदार्थपरिच्छेदकं दर्शनं सामान्यार्थपरिच्छेदकं यस्य स अनन्त- तेऽनन्तरनिर्गताः। प्रथमसमये नगरादेरुच्छितेषु स्थानान्तरप्राप्तेषु, भ० दर्शी / उत्पन्नकेवलदर्शने, सूत्र०१श्रु०६अ। 14 श०१ उ०(अत्रदण्डकस्तेषामायुर्बन्धश्च 'आउ' शब्दे द्वि०भा०१४ अणंतपएसिय-पुं०(अनन्तप्रदेशिक) अनन्तपरमाण्वात्मके स्कन्धे, भ० पृष्ठे वक्ष्यते) ८श०२ उ० अणंतरदिटुंतय-पुं०(अनन्तरदृष्टान्तक) यः खल्वनन्तरप्रयुक्तोऽपि अणंतपार-स्त्री०(अनन्तपार) अनन्तः पारः पर्यन्तो यस्य कालस्य स परोक्षत्वादागमगम्यत्वाद्दार्शन्तिकार्थसाधनायाऽलं न भवति, तस्मिन् अनन्तपारः / अन्तविरहितपर्यन्ते, "केण अणंतं पारं संसारं हिंडई दृष्टान्तभेदे, दश०१अ01 जीवो?"। आतु० "से पन्नया अक्खयसागरे वा, महोदही वा वि | अणंतरपज्जत्त-पुं०(अनन्तरपर्याप्त) न विद्यते पर्याप्तत्वेऽन्तरं येषां अणंतपारे"। सूत्र०१श्रु०६अ। तेऽनन्तराः, तेच ते पर्याप्तकाश्चेत्यनन्तरपर्याप्तकाः। प्रथमसमयपर्याप्तकेषु अणंतपासि(ण)-पुं०(अनन्तदर्शिन) ऐरवते भविष्यति विंशतितमे नैरयिकादिषु, स्था०१० ठा०। तीर्थकृति, ति अणंतरपच्छाकड-त्रि०(अनन्तरपश्चात्कृत) अनन्तरं व्यवधानेन अणंतमिस्सिया-स्त्री०(अनन्तमिश्रिता) मूलकादिकमनन्तकायं, पश्चात्कृतो, चं० प्र०८ पाहु तस्यैव सत्कैः परिपाण्डुपत्रैरन्येन वा केनचित् प्रत्येकवनस्पतिना अणंतरपरंपरअणिग्गय-पुं०(अनन्तरपरम्परा निर्गत) प्रथममिश्रमवलोक्य सर्वोऽप्येषोऽनन्तकायिक इति वदतः सत्यमृषा- समयान्निर्गतेषु, ये हि नरकादुद्वृत्ताः सन्तो विग्रहगतौ वर्तन्ते, न भाषाभेदे, प्रज्ञा०११पद। ध० तावदुत्पादक्षेत्रमासादयन्ति, तेषामनन्तरभावेन परस्परभावेन अणं तमीसय-न०(अनन्तमिश्रक) अनन्तविषयकं मिश्रक - चोत्पादक्षेत्रप्राप्तत्वेन निश्चयेनाऽनिर्गतत्वात्। भ०१४ श०१उ०। (अत्र मनन्तमिश्रकम् / सत्यमृषाभेदे, यथा-मूलकन्दादौ परीत्तपत्रादि- दण्डकस्तेषामायुर्बन्धश्च 'आउ' शब्दे द्वि०भा०१५ पृष्ठे वक्ष्यते) अमतिनन्तकायोऽयमित्यभिदधतः। स्था०१० ठा०) अणंतरपरंपरअणुववण्णग-पुं०(अनन्तरपरम्परानुपपन्नक) अणंतमोह-त्रि०(अनन्तमोह) अनन्तोऽपर्यवसितस्तदभावा-पेक्षया अनन्तरमव्यवधानं परम्परं च द्विवादिसमयरूपम विद्यमानप्रायस्तस्याऽनपगमाद् मुह्यते येनाऽसौ मोहो ज्ञान वरण- मुपपन्नमुत्पादो येषां ते तथा / विग्रहगतिकेषु, विग्रहगतौ हि दर्शनमोहनीयात्मकः / ततश्चाऽनन्तो मोहोऽस्येत्यनन्तमोहः / उत्त० द्विविधस्याप्युत्पादस्याविद्यमानत्यादिति। भ० 14 श० 1 उ०। ४अ० अविनाशिदर्शनावरणमोहनीयकर्मणि, 'दीवप्पणद्वे व अणंतमोहे, अणंतरपरंपरखेदाणुववण्णग-पुं०(अनन्तरपरम्परखेदानु-पपन्नक) नेयाउयं दठुमदठुमेव'। उत्त०४ अ० अनन्तरं परम्परं खेदेन नास्ति उपपन्नकं येषां ते तथा। विग्रहगतिवर्तिषु, अणंतर-त्रि०(अनन्तर) न विद्यतेऽन्तरं व्यवधानं यस्य / 6 ब०। भ०१४ श०१उन अव्यवहिते, नं० पञ्चा० निर्व्यवधाने, "अणंतरं देवलोए अणंतरं | अणंतरपुरक्खड-त्रि०(अनन्तरपुरस्कृत) स्वाव्यवहितोत्तर-यर्तिनि, मणुस्सए भवे किं परं" / भ० 14 श०७ उ०। कल्पका "अणंतरं चयं "अणंतरपुरक्खड़े कालसमयंसि"अनन्तरमव्यवधानेन पुरस्कृतोऽग्रे चइत्ता" अव्यवहितं च्यवनं कृत्वेत्यर्थः / ज्ञा०८अ० देवभवसम्बन्धिनं कृतो यः सोऽनन्तरपुरस्कृतः। अनन्तरं द्वितीय इत्यर्थः / सू०प्र०८ देहं त्यक्त्वेत्यर्थः / अथवाऽनन्तरम्, आयु:-क्षयाद्यनन्तरं (चयं ति) पाहु०। चं० प्र० च्यवनं (चइत्त त्ति) च्युत्या, महाविदेहे अनन्तरं शरीरं त्यक्त्वा, च्यवनं | अणंतरसमुदाणकिरिया- स्त्री०(अनन्तरसमुदानक्रिया) नावा कृत्वा। विपा० १श्रु०१अगन विद्यतेऽन्तरं व्यवधानमस्येत्यनन्तरः / ऽस्त्यन्तरं व्यवधानं यस्याः सा अनन्तरा, अव्यवहिता / सा च Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणंतरसमुदाणकिरिया 266 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणंताणुबंधि समुदानक्रिया च / क०स०। प्रथमसमयवर्तिसमुदानक्रियायाम, स्था० | अणंतविजय-पुं०(अनन्तविजय) भरतक्षेत्रे भविष्यति चतुर्विशे तीर्थकरे, ३ठा०२ उता सातिका युधिष्ठिरशळे, वाचा अणंतरसिद्ध-पुं०(अनन्तरसिद्ध) न विद्यतेऽन्तरं व्यवधानमर्थात् समयेन अणंतविण्णाण-पुं०(अनन्तविज्ञान) अनन्तमप्रतिपाति, विशिष्टं येषां तेऽनन्तराः, ते च सिद्धाश्चानन्तरसिद्धाः / सिद्धत्व-प्रथमसमये सर्वद्रव्यपर्यायविषयत्वेनोत्कृष्टं, केवलाख्यविज्ञानं ततोऽनन्तं विज्ञानं वर्तमानेषु सिद्धेषु, प्रज्ञा०१ पद। स्था०। यस्य सोऽनन्तः। केवलिनि, स्या० १श्लो०। अणंतरहिय-त्रि०(अनन्तरहित) अव्यवहिते। आचा०१ श्रु०१अ०३ अणंतवीरिय-पुं०(अनन्तवीर्य) जमदग्निभायारेणुकायाः स्वसुःपत्यौ उ०। सचित्ते, आव०३ अ० "जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए / कार्तवीर्यपितरि, आ०चू०१अ० आ०म०ा आ०का दर्शा भरतक्षेत्रे अणंतरहियाए पुढदीए णिसियावेज वा' अनन्तरहितया, अनंतरहिया भविष्यति त्रयोविंशे तीर्थकरे, ती० 21 कल्प०। णाम सचित्ता / नि०चू०७ उ०) अणंतसंसारिय-पुं०(अनन्तसंसारिक) अनन्तश्वाऽसौ संसारअणंतरागम-पुं०(अनन्तरागम) आगमभेदे, अर्थापेक्षया गण- श्वाऽनन्तसंसारः, सोऽस्याऽस्तीत्यनन्तसंसारिकः। अतोऽनेक-स्वरात्' धराणामनन्तरागमः। सूत्रापेक्षया गणधरशिष्याणामनन्तरागमः / सूत्र० इतीक प्रत्ययः / अपरिमितसंसारे, रा०। प्रति०। नैरयिका१श्रु०१ अ०१० दिवैमानिकपर्यन्तेषु, स्था०२ ठा०२ उ०। अणंतराहारग-पुं०(अनन्तराहारक) अनन्तरानव्यवहितान् अथ केनार्जितमनन्तसंसारित्वम् ? इति प्रश्ने उत्तरमाहजीवप्रदेशैराक्रान्ततया स्पृष्टतया वा पुद्गलानाहारयन्तीत्य- जे पुण गुरुपडिणीया, बहुमोहा ससबला कुसीला य। न्तराहारकाः जीवप्रदेशैः स्पृष्टानांपुद्गलानामाहारकेषु नैरयि-कादिषु, असमाहिणा मरंति उ,ते हुंति अणंतसंसारी // 56|| स्था० 10 ठा०। अनन्तरमुपपातक्षेत्रप्राप्तिसमयमेव आहारयन्ति (जे पुण) ये पुनः, गृणात्यभिधत्ते तत्त्वमिति गुरुः, तं प्रति, इत्यनन्तराहाराः / प्रज्ञा० 34 पद | प्रथमसमयाहारकेषु, ज्ञानाद्यवर्णवादभाषणादिना प्रत्यनीकाः प्रतिकूलाः, तथा स्था० १०ठान ('आहार' शब्दे अनन्तराहारग्रहणं शरीरस्य बहुमोहास्त्रिंशन्मोहनीयस्थानवर्तिनः, सह शबलै रेकविंशत्या निष्पत्तिरित्येवमादिक्रमो द्वि० भागे वक्ष्यते) शबलस्थानैर्वर्तन्ते ये ते सशबलाः, कुत्सितं शीलमाचारो येषां ते अणंतरिय-त्रि०(अनन्तरित) न०ता अव्यवहिते / विशे०। कुशीलाः / चः समुच्चये / एवंविधा येऽसमाधिनाऽऽतरौद्रभावे वर्तमाना अणंतरोगाढग-पुं०(अनन्तरावगाढक) अनन्तरं संप्रत्येव समये नियन्ते, तेऽनन्तसंसारिणो भवन्तीति। आतु० क्वचिदाकाशदेशेऽवगाढा आश्रितास्त एवानन्तरावगाढकाः / अणंतसमयसिद्ध-पु०(अनन्तसमयसिद्ध) अनन्तेषु समयेषु प्रथमसमयावगाढकेषु वियक्षितं क्षेत्रं द्रव्यं वाऽपेक्ष्याव्यव-धानेनाऽवगाढेषु एकैकसिद्धे, स्था० 1 ठा०१उ०। नैरयिकादिजीवेषु, स्था०२ ठा० 1 उ०। अणंतसेण-पुं०(अनन्तसेन) तृतीयायामवसर्पिण्यां जाते चतुर्थअणंतरोवणिहा- स्त्री०(अनन्तरोपनिधा) उपनिधानमुपनिधा, कुलकरे, स०। भद्रिलपुरवास्तव्यस्य नागगृहपतेः सुलसानाम्न्यां धातूनामनेकार्थत्वान्मार्गणमित्यर्थः / अनन्तरेणोपनिधाऽनन्तरो- भार्यायांजाते पुत्रे, तत्कथा अन्तकृद्दशायास्तृतीये वर्ग द्विती-याध्ययने पनिधा / अनन्तरयोगस्थानमधिकृत्य उत्तरस्य योगस्थानस्य मार्गणे, सूचिता, तत्रैव प्रथमाध्ययनोक्ताऽणीयस्येव भावनीया। अन्त। अस्य पं०सं०५ द्वा०। क०प्र० द्वात्रिंशद्भार्याः, द्वात्रिंशत्क एव दानम्, विंशतिवर्षाणि पर्यायः, अणं तरोववण्णग-पुं०(अनन्तरोपपन्नक) न विद्यतेऽन्तरं व्यव- चतुर्दशपूर्वाणि श्रुतम्, शत्रुञ्जये सिद्धिः। वस्तुतस्तु अयं धानमस्येत्यनन्तरः वर्तमानः समयः। तत्रोपपन्नकाः, स्था० 10 ठा०। वसुदेवदेवकीसुतः अन्त०४ वर्ग। न विद्यतेऽन्तरं समयादिव्यवधानमुपपन्ने उपपाते येषां ते | अणं तसो-अव्य०(अनन्तशस्) बहुवारमित्यर्थे, निरवधिकअनन्तरोपफ्नकाः / प्रथमसमयोत्पन्नेषु, भ०१३ श०१ उ०॥ येषा- कालमित्यर्थे च। सूत्र०१ श्रु०१ अ०३ उ०। "गढभमेस्संति ऽणंतसो" मुत्पन्नानामे कोऽपि समयो नाऽतिक्रान्तस्ते एते / स्था० 10 ठा०। इति / अनन्तशो निर्विच्छेदमिति वृत्तिकारः / सूत्र० 1 श्रु० १अ० एकस्मादनन्तरमुत्पन्नेषु नैरयिकादिषु वैमानिकपर्यन्तेषु, स्था०२ ठा० 2 उ०॥ 2 उ01 अणंतहियकामुय-त्रि०(अनन्तहितकामुक) मोक्षकामुके, दश० अणं तवग्गभइय-त्रि०(अनन्तवर्गभक्त) अनन्तवर्गापवर्तिते, अ०२ उ० "सोऽणंतवग्गभइओ सव्वागासेण मीएज्जा'। औला अणंताणत-त्रि०(अनन्तानन्त) अनन्तेन गुणिता अनन्ताः / अणंतवत्तियाणुप्पेहा-स्त्री०(अनन्तवृत्तितानुप्रेक्षा) अनन्ता अत्यन्तं अनन्तगुणितेषु अनन्तेषु, भ०१४ श०२ उ01 प्रभूता वृत्तिर्वर्तनं यस्यासावनन्तवृत्तिः, तस्या अनुप्रेक्षा अणंताणुबंधि(ण)-पुं०(अनन्तानुबन्धिन्) अनन्तं संसारं भवअनन्तवृत्तिताऽनुप्रेक्षा। भवसन्तानस्याऽनन्तवृत्तिताऽनुचिन्तन-रूपायां मनुबध्नाति अविच्छिन्नं करोतीत्येवंशीलोऽनन्तानुबन्धी / अनन्तो शुक्लध्यानस्य प्रथमानुप्रेक्षायाम् , यथा-'एस अणाई जीवो, थाऽनुबन्धो यस्येत्यनन्तानुबन्धी / सम्यग्दर्शनसहभाविक्षमासंसारसागरो व्य दुत्तारो / नारयतिरियनरामरभवेसु परिहिंडए स्वरूपोपशमादिचरणलवनिबन्धिनि क्रोधादिकषाये, स्था० 4 ठा० जीवो' ||1|| स्था० 4 ठा० 1 उ०। औ०। भ०। 1 उ०। यदवाचि-"यस्मादनन्तं संसारमनुबध्नन्ति देहिनः / अनन्तवर्तितानुप्रेक्षा-स्त्री० अनन्ततया वर्तते इति अनन्तवर्ती, ततोऽनन्तानुबन्धीति, संज्ञा तेषु निवेशिता" ||1|| ते च चत्वारः तद्भावस्तत्ता, भवसन्तानस्येति, गम्यते, तस्या अनुप्रेक्षा / | क्रोधमानमायालोभाः / यद्यपि चैतेषां शेषकषायोदयरहिताशुक्लध्यानभेदे, स्था० 4 ठा० 1 उ०) नामुदयो नास्ति, तथाऽप्यवश्यमनन्तसंसारमूलकारणमिथ्यात्वो Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणंताणुबंधि 267 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणगार दयाऽऽक्षेपकत्वादेषामेवानन्तानुबन्धित्वव्यपदेशः। शेषकषाया ह्यवश्यं चशब्दः समुचयार्थः / छिक्का क्षुतम् , एषोऽपि / चशब्दः समुच्चयार्थः, मिथ्यात्वोदयमाक्षिपन्त्यतस्तेषामुदययोगपद्ये सत्यपि नायं व्यपदेश परमस्य व्यवहितः प्रयोगः / सेटिकादिकं चेत्येवं द्रष्टव्यम् / तथा इत्यसाधारणमेवैतन्नामेति / कर्म०१कर्म०। ('कसाय' शब्देऽपि निःसिज्जितम् / अनुस्वारवत्-अनुस्वारमित्यर्थः / तथा सेटितादिकं तृ०भा०३६७ पृष्ठे भावितमेतद् विस्तरतः)। चानक्षरं श्रुतम्।नंग अणंताणुबंधिविसंजोयणा-स्त्री०(अनन्तानुबन्धिविसंयोजना) अथ भाष्यम्अनन्तानुबन्धिनां कषायाणां विषमयोजनायाम्, (विनाशे)। ऊससियाई दव्वसुयमेत्तमहवा सुओवउत्तस्स। अनन्तानुबन्धिनां कषायाणामुपशमनास्थाने विसं योजना सव्वो विय वावारो, सुयमिह तो किं न चेट्ठा वि? || भवति। क० प्र० (तत्प्रकार 'उवसम' शब्दे द्वि०भा०१०२८ पृष्ठे वक्ष्यते) इहोच्छ्वसितादि अनक्षरश्रुतं, द्रव्यश्रुतमात्रमेवावगन्तव्यम् , अणंतिय-न०(अनन्तिक) अन्तिकमासन्नं तनिषेधादनन्तिकम्, शब्दमात्रत्वात् / शब्दश्च भावश्रुतस्य कारणमेव, यच कारणं तद्रव्यमेव नोऽल्पार्थत्वात्। अनासन्ने, भ०५ श० 4 उ०। भवतीति भावः / भवति च तथाविधोच्छ्वसि-तनिःश्वसितादिश्रवणे अणंदमाण-त्रि०(अनन्दमत्) सौख्यमभुजति, तं० शशकोऽयमित्यादि ज्ञानम् / एवं विशिष्टा भिसन्धिपूर्वकनिष्ठयूतकाअणंदिय-त्रि०(अनन्दित) अधोलोकवासिन्यामष्टम्यां दिक्कु मार्याम्, शितक्षुतादिश्रवणेऽप्यात्मज्ञानादि ज्ञानं वाच्यमिति / अथवा आ०का श्रुतज्ञानोपयुक्तस्याऽऽत्मनः सर्वात्मनैवोप योगात्सर्वोऽप्युच्छ्वसिअणंध-पुं०(अनन्ध) अन्धपुरनगरेश्वरे राज्ञि, "अंधपुरं नगरं तत्थ तादिको व्यापारः श्रुतमेवेह प्रति-पत्तव्यमित्युच्छ्वसितादयः श्रुतं अणंधो राया। बृ० 4 उ०। निचू० भवन्त्येवेति / आह- यद्येवं ततो गमनागमनचलनस्पन्दनादिरूपाऽपि अणंबिल-त्रि०(अनाम्ल)नता स्वस्वादादचलिते, आचा०२ श्रु०१ चेष्टाव्यापार एव,ततः श्रुतोपयुक्तसंबन्धिनी एषाऽपि कि श्रुतं न भवति? अ०७ उ०। अनाम्लीभूते जीवितविप्रमुक्तेपानकादौ, नि०चू० 16 उ०। उच्यते-कः किमाह ? प्राप्नोत्यनेन न्यायेन साऽपि श्रुतं, किन्तु - अणंसुवाइ(ण)-पु०(अनश्रुपातिन्) न अश्रु पातयतीति मार्गा रूढी य तं सुयं सुचइ त्ति चेट्ठा न सुच्चइ कयाइ। दिखेदेष्वपि अनश्रुपातनशीले शुभाश्वादौ, "जं अचंडपाडि अदंडपाडि अहिगमया वण्णा इव, जमणुस्सारादओ तेणं / / अणंसुवाइ"!जं०३ वक्षा अणकम्म-न०(अनःकर्मन्) अनः शकटम् , तत्कर्म अनःकर्म / उक्तन्यायेन श्रुतत्यप्राप्तौ समानायामपि तदेवोच्छ्वसितादि श्रुतं, न शकटशकटाङ्ग घटनखेटनविक्र यादौ, ध०। एतच पापप्रकृतीनां शिरोधूननकरचलनादिचेष्टा, यतः शास्त्रलोकप्रसिद्धा रूढिरियं तत कारणमिति कृत्वा श्रावकेण त्यक्तव्यम् / यदाह-"शकटानां तदङ्गाना, उच्छ्वसिताद्येव श्रुतं रूढं, न चेष्टेत्यर्थः / श्रूयते इति श्रुतमिति घटनं खेटनं तथा। विक्रयश्चेति शकटाजीविका परिकीर्तिता" ||1|| तत्र चान्वर्थवशात् / तदेवोच्छ्वसितादि श्रुतम् , न चेष्टेत्येवं चशब्दः शकटानामिति चतुष्पदयाह्यानां वाहनानां, तदङ्गानां चक्रादीनां घटनं पक्षान्तरसूचको भिन्नक्रमश्च / करादिचेष्टा तु दृश्यत्वात्कदापि न श्रूयत स्वयं परेण वा निष्पादनं, खेटनं वाहनं च शकटानामेव सम्भवति, स्वयं इति कथमसौ श्रुतं स्यात् ? इत्यर्थः। अनुस्वारादय-स्त्वकारादिवर्णा परेण वा विक्रयश्च / शकटादीनां तदङ्गानां चेदं कर्मापि इवार्थस्याधिगमका, एवेति तेन कारणेन ते निर्विवादमेव श्रुतमिति सकलभूतोपमर्दजननं गवादीनां च वधबन्धादि हेतुः / ध०२ अधिका गाथार्थः / इत्यनक्षरश्रुतमिति / विशेष अणकर-पुं०(ऋणकर) ऋणं पापं करोतीति ऋणकरः / चतुर्विशे टिट्टि त्ति नंदगोवस्स बालि वत्थे निवारेइ। गौणप्राणातिपाते, प्रश्न०१आश्र० द्वारा टिट्टि त्तिय मुद्धडए, सेसा लट्ठीनिवाएण॥ अणक(क्ख)-पुं०(अनक्ष) म्लेच्छभेदे, प्रश्न०१आश्र०द्वा० / नन्दगोपस्य बालिका क्षेत्रादिकं रक्षन्ती वत्सकान् बालगोरूपान् टिट्टि अणकभिण्ण-त्रि०(अनासाभिन्न) अनस्तिते बलीवादी, इत्यनुकरणानुरूपमनुकार्यमुचरन्ती निवारयति / तथा ये मुग्धा "अणिल्लंछिएहिं अणक्कभिण्णेहिं गोणेहिं तसपाणविवजिएहिं वित्तेहि हरिणादयस्तानपि टिट्टि इत्येवं निवारयति / शेषास्तु सण्डप्रभृतीन वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति"। भ०८ श०५ उ०) यष्टिनिपातेन निवारयति / अत्र टिट्टि इत्येतदनक्षरमपि वत्सादीनां अणक्खरसुय-न०(अनक्षरश्रुत) वेडितशिर:कम्पनादिनिमित्ते प्रतिषेधलक्षणार्थप्रतिपत्तिहेतुरूपं जायते, इत्यन-क्षरश्रुतम् / बृ० मामा यति वारयति वेत्यादिरूपे अभिप्रायपरिज्ञानस्वरूपे- 1 उ० कर्म०। विशे ऽक्षरश्रुतविपक्षभूतेश्रुतभेदे, कर्म०१ कर्म०।। अणगरहिय-त्रि०(अगर्हित) परममुनिभिरपि महापुरुषैः सेवितत्वात् से किं तं अणक्खरसुयं ? अणक्खरसुयं अणेगविहं पण्णत्तं। | सामायिके, आ०म०वि०। तं जहा- ऊससियं नीससियं, निच्छूढं खासियं च छीयं च / अणगार-पुं०(अनगार) अनगारशब्दो व्युत्पन्नोऽव्युत्पन्नश्च / अव्युत्पन्नः निस्सिघिय मणुसारं, अणक्खरं छेलियाईयं // 1 // से तं साधौ, "अनगारो मुनिर्मोनी, साधुः प्रव्रजितो प्रती। श्रमणः क्षपणश्चैव, अणक्खरसुयं। यतिश्चैकार्थवाचकाः" ||1|| इति / उत्तका व्युत्पन्नो- ऽगारशब्दो अथ किं तदनक्षरश्रुतम् - अनक्षरात्मकं श्रुतमनक्षरश्रुतम् / आचार्य द्विधाद्रव्यभावभेदात्। तत्र द्रव्यागारमगैर्दुमदृषदादिभिर्निवृत्तम्, भावागारं आह-अनक्षरश्रुतमनेकविधम् अनेक प्रकारं प्रज्ञप्तम् / तद्यथा- पुनरगैर्विपाककालेऽपि जीवविपाकितया शरीरपुद्गलादिषु बहिःप्रवृत्ति(ऊससियमित्यादि) उच्छ्वसनमुच्छ्वसितम्, भावे निष्ठाप्रत्ययः / तथा रहितैरनन्तानुबन्ध्यादिभिर्निर्वृत्तं कषायमोहनीयम् / तत्र द्रव्यागारपक्षे निःश्वसनं निःश्वसितम् , निष्ठीवनं निष्ठ्यूतम्, काशनं काशितम्। नञ्-तु निषेधे / अविद्यमानगृहे, भावागारपक्षे त्वल्पकषाय मोहनीये, Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणगार 268- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणगार कषायमोहनीयं हि कर्म। नच कर्मणः स्थित्यादिभूयस्त्वे विरतिसम्भवः / यत आगमः - सत्तण्हं पयडीयं, अभितरओ य कोडकोडीए / काऊण सागराणं, जइ लहइ चउणहमण्णयरं / / 1 / / इत्यादि। उत्त०१अ० (1) एतन्निक्षेपः - अणगारे निक्खेवो, चउव्विहो दुविहो होइदव्वम्मि। आगम नोआगमतो, आगमतो होइसो तिविहो / जाणगसरीरभविए, तव्वइरित्ते य णिण्हवाईसु / भावे सम्मदिट्ठी, अगारवासा विणिम्मुक्को। उत्त०नि०। स्पष्टमिदं गाथाद्वयम् , नवरं तद्व्यतिरिक्तश्च निवादिषु, आदिशब्दादन्येष्वपि चारित्रपरिणामं विना गृहाभाववत् / निर्धारणे सप्तमी। ततश्च यस्तेषु मध्ये अनगारत्वेन लोके रूढ इत्युपस्कारः स तद्व्यतिरिक्तो द्रव्यानगारो, भावे सम्यग्दृष्टिः सम्यग्दर्शनवान्, निश्चयतो यत्सम्यक्त्वं तन्मौनमिति / चारित्री च अगार-वासेनानगारवासेन या, प्राकृतत्वात् तृतीयार्थे पञ्चमी। विशेषेण तत्प्रतिबन्धपरित्यागरूपेण निर्मुक्तस्त्यक्तः, विनिर्मुक्तोऽनगार इति प्रक्रमः / उत्त०३४ अ०भ०। प्रज्ञा० स०। सूत्र। नि० चू०। द्वा०ा सू०प्र०ा रा०ा जंगआचा०ा परित्यक्तद्रव्य- भावगृहे, नं० / सामान्यसाधौ, भ०१५ श०१ उ०। गृहरहिते, सूत्र०२ श्रु०१० त्यक्तगृहव्यापारे, आचा०२ श्रु०६अ०२ उ०॥ द्वा०ा पुत्रदुहितृस्नुषाज्ञातिधात्र्यादिरहिते, आचा०१ श्रु०२ अ०५ उ०। भिक्षौ, स्था० ६ठा० 10 उ०। (2) अनगारत्वं वीरान्तेवासिनां वर्णकः - तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स मगवओ महावीरस्स बहवे अणगारा भगवंतो अप्पेगइआ आयारघरा जाव विवागसुअधरा(तत्थ तत्थ) तहिं तहिं देसे देसे गच्छागच्छं गुम्मागुम्म फुड्डाफुडं अप्पेगइआ वायंति, अप्पेगइया पडिपुच्छंति, अप्पेगइया परियटुंति, अप्पेगइया अणुप्पेहति, अप्पेगइआ अक्खेवणीओ विक्खेवणीओ संवेअणीओ णिव्वेअणीओ चउव्विहाओ कहाओ कहति / अप्पेगइआ उड्डं जाणू अहो सिरा झाणकोट्ठोवगया संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति संसारभउविग्गा मीआजम्मणजरमरणकरणं गंभीरदुक्खपक्खुमिअपउरसलिलं संजोगविओगवीचीचिंतापसंगपसरिअवहबंधमहल्लविउलकल्लोलकलुणाविलविअलोमकलकलंतबोलबहुलं अवमाणणफेणतिव्वक्खिसणपुलंपुलप्पभूअरोग वेअणपरिभवविणिवायफरुसधरिसणासमावडिअक ढिणकम्मपसत्थतरतरंगरंगतनिचमचुमयतो अपटुं कसायपायालसंकुलं मवसयसहस्सकलुसजलसंचयं पतिभयं अपरिमिअमहित्थकलुसमतिवाउवेगे उद्धम्ममाणदगरयरयंधआरवरफेणपउरआसापिवासघवलं मोहमहावत्तभोगभममाणगुप्पमाणु च्छ लंतपचोणिपत्तपाणियपमायचंड बहुदुहसावयसमाहयुद्धायमाणपव्मारघोरकंदियमहारवरवंतभेरवरवं अण्णाणममंतमच्छपरिहत्थअणिहुतिदितमहामगरतु रिअचरियखो खु ब्ममाणनचंतचवलचंचलचलंतघुम्मंतजलसमूह अरतिभयविसाय सोगमिच्छत्तसेलसंकडं अणाइसंताणकम्मबंधणकिलेसचिक्खिल्लदुत्तारं अमराऽसुरनरतिरियनिरयगइगमणकुडिलपरिवत्तविउलवेलं चाउरंतमहंतमणवदमरुद्द-संसारसागरं भीमदरिसणिलं तरंति, धीईधणिअनिप्पकंपेण तुरियं चवलं संवरवेरग्गतुरंगकू वयसुसंपउत्तेणं णाणसित-विगलमूसिएणं सम्मत्तविसुद्धलद्धणिज्जामएणं धीरा संजमपोएणं सीलकलिआ पसत्थज्झाणतववायपणोल्लिअपहाविएण उज्जमववसायम्गहियणिज्जरणजयणउवओगणाणदंसण- विसुद्धवयमंडमरिअसारा जिणवरवयणोवदिट्ठमग्गेण अकुडिलेण सिद्धमहापट्टणाभिमुहा समणवरसत्थवाहा सुसुइसुसंभास-सुपण्हसासा गामे गामे एगरायणगरेणगरेपंचरायं दूइज्जया जिइंदिया णिन्मया गयभया सचित्ताचित्तमीसिएसु दव्वेसु विरागइंगया संजया विरया मुत्ता लहुआ णिरवकंखा साहू णिहुआ चरंति धम्म। 'अप्पेगइया आयारधरेत्यादि' प्रतीतम् / क्यचित् दृश्यते (तत्थ तत्थं ति)उद्यानादौ(तहिं तहिं ति)तदेशोतमेवाह- देशे देशे अवग्रहभागी वीप्साकरणं वाऽऽधारबाहुल्येन साधुबाहुल्यप्रतिपादनार्थम् (गच्छागच्छं ति) एकाचार्यपरिवारो गच्छः, गच्छे गच्छे गत्वा गच्छागच्छि, वाचयन्तीति योगः / दण्डादण्ड्यादिवच्छब्दसिद्धिः। एवं गुम्मागुम्मिं फुड्डाफुडिंच, नवरं, गुल्मं गच्छैकदेशः उपाध्यायाधिष्ठितः, फुडकं लघुतरो गच्छदेशएव गणावच्छेदिकाधिष्ठित इति। अथ प्राकृतवाचना-(वायंति) सूत्रवाचनां ददति (पडिपुच्छतित्ति) सूत्रार्थं पृच्छन्ति (परियट्टति) परिवर्त्तयन्ति तावेव (अणुप्पेहति त्ति) अनुप्रेक्षन्ते, तावे व चिन्तयन्ति,(अक्खेवणीओ त्ति)आक्षिप्यते मोहात् तत्त्वं प्रत्याकृष्यते श्रोता यकाभिरित्याक्षेपण्यः, (विक्खेवणीओ ति) विक्षिप्यते कुमार्गविमुखो विधीयते श्रोता यकामिस्ता विक्षेपण्यः, (संवेयणीओ त्ति) संवेद्यतेमोक्षसुखाभिलाषी विधीयते श्रोता यकाभिस्ता संवेदन्यः,(निव्वेयणीओति)निर्वेद्यते संसार-निविण्णो विधीयते श्रोता यकाभिस्ता निर्वदन्यः / तथा (उड्ढं जाणू अहो सिर त्ति) शुद्धपृथिव्यासनवर्जनादौपग्रहिकनिषद्याया अभावाचोकुटुकासनाः सन्तोऽपदिश्यन्ते ऊर्ध्वं जानूनी येषां ते ऊर्ध्वजानवः, अधः शिरसोऽधोमुखाः, नोय तिर्यग् वा विक्षिप्तदृष्टय इत्यर्थः। (झाणकोट्ठोवगय त्ति) ध्यानरूपो यः कोष्ठः, तमुपगता ये ते तथा, ध्यानकोष्ठप्रवेशनेन संवृतेन्द्रियमनोवृत्तिध्याना इत्यर्थः, संयमेन तपसाऽऽत्मानं भावयन्तो विहरन्तीति। प्रकारान्तरेण स एवोच्यते-(संसारभउव्यिग्ग ति) प्रतीतम्। (जम्मणजरमरणेत्यादि) जन्मजरा-मरणान्येव करणानि साधनानि यस्य तत्तथा, तच तद्गम्भीरदुःखं च तदेव प्रक्षुभितं प्रचुर सलिलं यत्र स तथा, तं संसारसागरं तरन्तीति योगः। (संजोगविओगेत्यादि) संजोगवियोगा एव वीचयस्तरङ्गा यत्र स तथा, चिन्ताप्रसङ्गश्चिन्तासातत्यमित्यर्थः, स एव प्रसृतं प्रसरो यस्य स तथा। वधाः हननानि, बन्धाः संयमनानि, तान्येव महान्तो दीर्घा विपुलाश्च विस्तीर्णाः कल्लोला महोर्मयो यत्र स तथा, करुणानि विलपितानियत्र स तथा, सचासौ लोभश्च, स एव कलकलायमानो यो बोलो ध्वनिः, सबहुलो यत्र स तथा,ततः संयोगादिपदानां कर्मधारयः / अतस्तम् , (अवमाणणेत्यादि) अपमानमेवाऽपूजनमेव,फे नो यत्र स तथा / तीव्रखिसनं Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणगार 269- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणगार चाऽत्यर्थनिन्दा, पुलुम्पुलप्रभूता अनवरतोद्भूता या रोगवेदना। / पाठान्तरेतीव्रखिंसनप्रलुम्पितानि च, प्रभूतरोगवेदनाश्च, परि- | भवविनिपातश्च पराभिभवसम्पर्कः / परुषधर्षणाश्व निष्ठुरवचनानि र्भत्सनानि, समापतितानि समापन्नानि बद्धानि यानि कठिनानि कर्कशोदयानि, कर्माणि ज्ञानावरणादीनि, तानि चेति द्वन्द्वः, ततः एतान्येव ये प्रस्तराः पाषाणाः, तैः कृत्वा तरङ्गः रिङ्गद्वीचिभिश्चलद्, नित्यं ध्रुवं, मृत्युभयमेव मरणभीतिरेव, तोयपृष्ठ जलोपरितनभागो यत्र स तथा ततः कर्मधारयः / अथवा अपमानफेनमिति तोयपृष्ठस्य विशेषणमतो बहुव्रीहिरेवास्तु, तम्।(कसायेत्यादि)कषाय एव पातालाः पातालकषायास्तैः संकुलो यः स तथा तम्, (भवसयसहस्सेत्यादि) भवशतसहस्राण्येव कलुषो जलानां संचयो यत्र स तथा तम्, पूर्व जननादिजन्यदुःखस्य सलिलतोक्ता, इह तु भवानां जननादिधर्मवतां जनिविशेषसमुदायतोक्तेति नपुनरुक्तत्वमिति। (पइभयं ति) व्यक्तम्, (अपरिमियेत्यादि) अपरिमिता अपरिमाणा या महेच्छा बृहदभिलाषा सा येषां ते लोकास्तेषां कलुषा मलिना या मतिः सैव वायुवेगस्तेन 'उधुम्ममाणं उधुव्वमाणवा' उत्पाट्यमानं यदुदकरज उदकरेणुसमूहः, तस्य रयो वेगस्तेनान्धकारोयः स तथा, वरफेनेनेव प्रचुराशापिपासाभिः, तत्र प्रचुरा बयः आशाः अप्राप्तार्थानां प्राप्तिसम्भावनाः, पिपासास्तु तेषामेवाकासाः, अतस्ताभिर्धवल इव धवलो यः स तथा, ततः कर्मधारयः, अतः तम्। (मोहमहावत्तेत्यादि) मोहरूपे महावर्ते भोगरूपं भ्राम्यत् मण्डलेन भ्रमद् गुप्यव्याकुलीभवत्, उच्छलत् उत्पतत्, प्रत्यवनिपतचाऽधःपततपानीयं जलं यत्र स तथा, प्रमादा मद्यादयस्त एव चण्डबहुदुष्टस्वापदाः रौद्रभूरिक्षुद्रव्या-लास्तैर्ये समाहताः प्रहता उद्धावन्तश्च उत्तिष्ठन्तो वा विविधं चेष्टमानाः, समुद्रपक्षे मत्स्यादयः, संसारपक्षे पुरुषादयः, तेषां प्राग्भारः पूरो वा समूहो यत्र स तथा, तथा घोरो यः क्रन्दितमहारवः स एव रवन् प्रतिशब्दकरणतः शब्दायमानो भैरवरवो भीमघोषो यत्र स तथा, तत्पदत्रयस्य कर्मधारयः, ततस्तम्, (अण्णाणभमंतेत्यादि)अज्ञानान्येवभ्रमन्तो मत्स्याः (परिहत्थं ति) दक्षा यत्र स तथा, अनिभृतान्यनुपशान्तानि यानीन्द्रियाणि तान्येय महामकारास्तेषां यानि त्वरितानि शीघ्राणि चरितानि चेष्टितानि तैः (खोखुब्भमाणे ति) भृशं क्षुभ्यमाणो, नृत्यन्निव नृत्यंश्च चपलानां मध्ये चञ्चलश्चा-स्थिरत्वेन, चलंश्च स्थानान्तरगमनेन, घूर्णश्च भ्राम्यन् जलसमूहो जलसंघातः, अन्यत्र जडसमूहो यत्र स तथा, ततः कर्मधारयः, ततस्तम् ।(अरति-भयेत्यादि) अरतिभयविषादशोकमिथ्यात्वानि प्रतीतानि, तान्येव शैलास्तैः संकटो यः स तथा, तम् / (अणाइसंताणेत्यादि) अनादिसन्तानमनादिप्रयाहं यत्कर्मबन्धनं तय, क्लेशाश्च रागादयस्तल्लक्षणं यचिक्खिल्लं कर्दमस्तेन सुष्ठ दुस्तारो यः स तथा, तम्। (अमरासुरेत्यादि) अमरासुरतिर्यड्निरय-गतिषु यद्गमनं तदेव कुटिलपरिवर्तावर्तपरिवर्तना विपुला च विस्तीर्णा वेला जलवृद्धिलक्षणा यत्र स तथा, तम् , (चउरंतमहंत त्ति) चतुर्विभागं दिग्भेदगतिभेदाभ्यां महान्तं च महायामम्, (अणवदग्गं ति) अनवदग्रमनन्तमित्यर्थः, विस्तीर्ण संसारसागरमिति व्यक्तम् / (भीमदरिसणिज्जं ति) भीमो दृश्यत इति भीमदर्शनीयस्तं, तरन्ति लद्धयन्ति संयमपोतेनेति योगः। किम्भूतेन (धीईधणिअणिप्पकंपेण त्ति) धृतिरज्जुबन्धनेन, धनिकमत्यर्थ , निष्प्रकम्पोऽविचलो यः सः, मध्यमपदलोपाद् धृतिधनिकनिष्प्रकम्पस्तेन, त्वरितं, चपल मतित्वरितं यथा भवतीत्येवं तरन्ति / (संवरवरग्गेत्यादि) संवरः प्राणातिपातादिविरतिरूपः, वैराग्यं कषायनिग्रहः, एतल्लक्षणो यस्तुङ्ग उच्चः कूपकस्तम्भविशेषस्तेन, सुष्ठु संप्रयुक्तो यः स तथा, तेन (णाणेत्यादि) ज्ञानमेव सितः सितपटः स विमल उच्छितो यत्र स तथा तेन, णकार श्वेह प्राकृतशैलीप्रभवः। (सम्मत्तेत्यादि) सम्यक्त्यरूपो विशुद्धो निर्दोषो लब्धोऽवाप्तो निर्यामकः कर्णधारो यत्र स तथा, तेन, धीराः अक्षोभाः, संयमपोतेन शीलकलिता इति च प्रतीतम् / (पसत्थेत्यादि) प्रशस्तं ध्यानं धर्मादितद्रूपं यत्तपः स एव यातो वायुस्तेन यत् प्रणोदितं प्रेरणं तेन प्रधावितो वेगेन चलितो यः स तथा, तेन, संयमपोतेनेति प्रकृतम् / (उज्जमववसाये-त्यादि)उद्यम अनालस्यं, व्यवसायो वस्तुनिर्णयः,सद्व्यापारोवा, ताभ्यां भूलकल्पाभ्यां यद् गृहीतं क्रीतं निर्जरणयतनोपयोगज्ञान-दर्शनविशुद्धव्रतरूपं भाण्डक्रयाणकं तस्य भरितः संयमपोतभरणेन पिण्डितः सारो यैस्ते तथा, श्रमणवरसार्थवाहा इति योगः / तत्र निर्जरणं तपः, यतना बहुदोषत्यागेनाल्पदोषाश्रयणम् , उपयोगः सावधानता, ज्ञानदर्शनाभ्यां विशुद्धानि व्रतानि, अथवा ज्ञानदर्शने च विशुद्धव्रतानि चेति समासः। व्रतानि च महाव्रतानि / पाठान्तरे (णाणदंसणेत्यादि)तत्र ज्ञानदर्शनचारित्राण्येव विशुद्ध-वरभाण्ड, तेन भरितः सारो यैस्ते तथा। (जिणवरेत्यादि) व्यक्तम्।(सुसुइ इत्यादि) सुश्रुतयः सम्यक्श्रुतग्रन्थाः, सत्सिद्धान्ता या, सुशुचयोवा,सुखः सम्भाषो येषां, सुखेनवा सम्भाष्यन्त इति सुसम्भाषाः, शोभनाः प्रश्नाः, सुखेन वा प्रश्नयन्ते ये ते सुप्रथाः, शोभनाआशाः वाञ्छा येषां तेस्वाशाः। अथवा सुखेन प्रश्नयन्ते शास्यन्ते च शिक्ष्यन्ते ये ते सुप्रश्नशास्याः, शोभनानि वा प्रश्नशस्यानि पृच्छाधान्यानि येषां ते तथा, अथवा सुप्रश्नाः शस्याश्च प्रशंसनीयाः, ततः कर्मधारय इति / (दूइञ्जय ति) द्रवन्तो वसन्तः, अनेकार्थत्वाद्धातूनाम् / (णिब्भय त्ति) भयमोहनी- योदयनिषेधात् / (गयभय त्ति) उदयविफलताकारणात् / (संजय त्ति) संयमवन्तः। कुत्त इत्याह-(विरय ति) यतो निवृत्ताः हिंसादिभ्यः, तपसि वा विशेषेण रता विरताः 'विरया' वा निरौत्सुक्याः विरजसोवा अपापाः / 'संचयाओ विरय त्ति' क्वचिद् दृश्यते, तत्रसन्निधेर्निवृत्ता इत्यर्थः। (मुत्त त्ति) मुक्ताः ग्रन्थेन, (लहुअत्ति) लघुका अल्पोपधित्वात् , (णिरवकंखं ति) अप्राप्तार्थाकासावियुक्ताः (साहू) मोक्षसाधनात् , (णिहुआ) निभृताः प्रशान्तवृत्तयः, चरन्ति / (धम्मं ति) व्यक्तम् / अत्र साधुवर्णक जितेन्द्रियत्वादीनि विशेषणानि बहुशोऽधीतानि, तानि च गमान्तरतया निरवद्यानि, यत्पुनरत्रैव गमे पुनरुक्तमवभासते, तत् स्तवत्वान्न दुष्टम्। यदाह-सज्झायज्झाणतवओसहेसु उवएसथुइपणामेसु / संतगुणकित्तणासुंय, न हुंति पुनरुत्तदोसाओ।॥१॥औला "तिहिं ठाणेहिं संपन्ने अणगारे अणाईयं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंतसंसारकंतारं विईवएला / तं जहा-अणिदाणयाए दिद्विसंपन्नयाए जोगवाहियाए"। स्था०३ ठा०। (सर्वेषां पदानां व्याख्या स्वस्वस्थाने द्रष्टव्या) (3) पृथिवीकायिकादिहिंसकानामनगारत्वं न भवतिपवयंति य अणगारा, ण य तेसिं गुणेहि जेहि अणगारा। पुढविं विहिंसमाणा, न होंति वायाइ अणगारा // // अणगारवाइणो पुढविहिंसगा निग्गुणा अगारिसमा। निहोस त्तिय मइला, विरइ दुगुंछाइ मइलतरा / / 10 / / आचा०नि०। Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणगार 270 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणगार इह होके कुतीर्थिका यतिवेषमास्थाय एवञ्च प्रवदन्तिवयमनगाराः प्रव्रजिताः / न च तेषु गुणेषु निरवद्यानुष्ठानरूपेषु वर्तन्ते येष्वनगाराः। यथा चानगारगुणेषु न वर्तन्ते तदर्शयति- यतस्ते ऽहर्निश पृथिवीजन्तु विपत्तिकारिणो दृश्यन्ते गुदपाणिपादप्रक्षालनार्थम्, अन्यथाऽपि निर्लेपनिर्गन्धत्वं कर्तुं शक्यम्।अतश्च ते गुणकलापशून्याः, न वाड्मात्रेण युक्तिनिरपेक्षेणानगारता भवतीत्यनेन प्रयोगः सूचितः। तत्र गाथापूर्वार्धन प्रतिज्ञा, पश्चार्धन हेतुः, उत्तरगाथाऽर्धन साधर्म्यदृष्टान्तः / स चायं प्रयोगः- तीर्थका यत्यभिधानवादिनोऽपि यतिगुणेषु न वर्तन्ते, पृथिवी-हिंसाप्रवृत्तत्वात्, इह ये ये पृथिवीहिंसाप्रवृत्तास्ते ते यतिगुणेषु न वर्तन्ते, गृहस्थवत् / साम्प्रतं दृष्टान्तगर्भनिगमनमाह-(अणे- त्यादि) अनगारवादिनः, वयं यतय इति वदनशीलाः पृथिवीकाय-विहिंसकाः सन्तो निर्गुणाः, यतोऽगारिसमा गृहस्थतुल्या भवन्ति / अभ्युचयमाह-'सचेतना पृथिवी' इत्येवं ज्ञानरहितत्वेन तत्स-मारम्भवर्तिनः सदोषा अपि सन्तो वयं निर्दोषा इत्येवं मन्यमानाः स्वदोषप्रेक्षाविमुखत्यान्मलिनाः कलुषितहृदयाः, पुनश्वातिप्रगल्भतया साधुजनाश्रिताया निरवद्यानुष्ठानात्मिकाया विरतेः जुगुप्सया निन्दया मलिनतरा भवन्ति। अनया च साधुनिन्दयाऽनन्त संसारित्वं प्रदर्शितं भवतीति / आचा० नि०१ श्रु०१ अ० 2 उ० "अणगारे पासंडी, चरगेतह बंभणे चेव" इति। दश०१०अ०) "बुद्धः प्रव्रजितो मुक्तोऽनगारश्वरकस्तथा''। द्वा० 27 द्वा०। (4) क्रियाऽसंवृतोऽनगारो न सिध्यति, किन्तु संवृत इति सावतारमाहननु सत्यपि ज्ञानादेर्मोक्षहेतुत्वे दर्शन एव यति- तव्यम्, तस्यैव मोक्षहेतुत्वात् / यदाह-"भट्टेण चरित्ताओ, सुठुयरं दंसणं गहेयव्यं / सिज्झंति चरणरहिया, दंसणरहिया ण सिज्झति' |1|| इति यो मन्येत तं शिक्षयितुं प्रश्नयन्नाहअसंवुडे णं मंते ! अणगारे सिज्झति बुज्झति मुचति परिणिव्वाति सव्वदुक्खाणमंतं करेति ? गोयमा ! णो इणढे समटे / से केपट्टे णं भंते ! जाव अंतं न करेति ? गोयमा ! असंवुडे अणगारे आउयवज्जाओ सत्तकम्मपगडीओ सिढिलबंधणबद्धाओ धणियबंधणबद्धाओ पकरेइ, हस्सकालद्वितीयाओ दीहकालद्वितीयाओ पकरेइ, मंदाणुभावाओ तिव्वाणु-मावाओ पकरेइ, अप्पपदेसगाओ बहुपदेसगाओ पकरेइ। आउयं च णं कम्म सिय बंधइ, सिय नो बंधइ, असायवेयणिज्जं च णं कम्मं मुज्जो मुज्जो उवचिणइ, अणाइयं च णं अणवयग्गं दीहमद्धं चाउरंतसंसारकं तारं अणुपरियट्टति, से तेणढे णं गोयमा ! असंबुडे अणगारे णो सिज्झइ। प्रश्नसूत्रं सुगमम् / उत्तरमाहएतदपि कण्ठ्य म् / नवरं (नो इणढे समढे त्ति) नो नैव, अयमनन्तरोक्तत्वेन प्रत्यक्षोऽर्थो भावः, समर्थो बलवान्, वक्ष्यमाणदूषणमुद्गरप्रहारजर्जरितत्वात् / (आउयवजाओ ति) यस्मादेकत्र भवग्रहणे सकृदेव अन्तर्मुहूर्त्तमात्रकाल एव, आयुषो बन्धः, तत उक्तम् -आयुर्वर्जा इति। (सिढिलबंधणबद्धाओ ति) श्लथबन्धनं स्पृष्टता वा, बद्धता वा, निधत्तता वा, तेन बद्धा आत्मप्रदेशेषु सम्बन्धिताः, पूर्वावस्थायामशुभतरपरिणामस्य कथञ्चिदभा-वादिति शिथिलबन्धनबद्धाः। एताश्वाशुभाएव द्रष्टव्याः, असंवृतभावस्य निन्दाप्रस्तावात्। / ताः किमित्याह- (धणिय-बंधणबद्धाओ पकरेइ ति) गाढतरबन्धनबद्धावस्था वा, निधत्ता-वस्था वा,निकाचितावस्था वा प्रकरोति / प्रशब्दस्यादि कर्मार्थत्वात्कर्तुमारभ्यते, असंवृतत्यस्य शुभयोगरूपत्वेन गाढतरप्रकृतिबन्धहेतुत्वात् / आह च-'जोगा य पयडिपएसं ति पौनःपुन्यभावे त्वसंवृतत्वस्यताः करोतीत्येवेति। तथाहस्वकालस्थितिका दीर्घकालस्थितिकाः प्रकरोति, तत्र स्थितिरुपात्तस्य कर्मणोऽवस्थानं, तामल्पकालां महतीं करोतीत्यर्थः, असंवृतत्वस्य कषायरूपत्वेन स्थितिबन्धहेतुत्वात् / आह चठिइमणुभाग कसायओ कुणइ त्ति' / तथा (मंदाणु-भावेत्यादि) इहानुभावो विपाकः, रसविशेष इत्यर्थः, ततश्च मन्दानुभावाः परिपेलवरसाः सतीढरसाः प्रकरोति / असं वृत-त्वस्य कषायरूपत्वादेवानुभागबन्धस्य च कषायप्रत्ययत्वादिति / (अप्पपएसेत्यादि) अल्पं स्तोकं प्रदेशाग्रं कर्मदलिकपरिमाणं यासा तास्तथा, ताः बहुप्रदेशाग्राः प्रकरोति प्रदेशबन्धस्यापि योगप्रत्ययत्वादसंवृतत्वस्य च योगरूपत्वादिति / (आउयं चेत्यादि) आयुः, पुनः कर्म, स्यात् कदाचिद् बध्नाति, स्यान्न बध्नाति / यस्मात्त्रिभागाद्यवशेषायुषः परभवायुः प्रकुर्वन्ति, तेन यदा त्रिभागादिस्तदा बध्नाति, अन्यथा न बध्नातीति तथा / (असाए इत्यादि) असातवेदनीयं च दुःखवेदनीयं कर्म पुनर्भूयो-भूयः पुनरुपचिनोति उपचितं करोति / ननु कर्म सप्तकान्तर्वर्तित्वाद सातवेदनीयस्य पूर्वोक्तविशेषणेभ्य एव तदुपचयप्रतिपत्तेः किमेतद् ग्रहणेन ? इत्यत्रोच्यते - असंवृतोऽत्यन्तदुःखितो भवतीति प्रतिपादनेन भयजननादसंवृतत्वपरिहारार्थमिदमित्यदुष्टमिति / (अणाइयं ति) अनादिकं अविद्यमानादिकम् , अज्ञातिकं या अविद्यमानस्वजनम्, ऋणं वा अतीतम् , ऋणजन्यदुःस्थताऽतिक्रान्तदुःस्थतानिमित्ततयेति ऋणातीतम् / अणं वा अणकं पापमतिशयेनेतं गतम्-अणातीतम् (अणवयग्गं ति) 'अवयग्गं ति' देशीवचनोऽन्तवाचकस्ततस्तन्निषेधात् 'अणवयग्गं' अनन्तमित्यर्थः / अथवा अवनतमासन्नमग्रमन्तो यस्य तत्तथा, तन्निषेधादनवनताग्रमेतदेवर्णनाशादनवताग्रमिति / अथवा अनवगतमपरिच्छिन्नमग्रं परिमाणं यस्य तत्तथा। अत एव (दीहमद्धं ति) दीर्घाऽद्धं दीर्घकालं, दीर्घाध्वं वा दीर्घमार्गम् / (चाउरंत त्ति) चतुरन्तदेवादिगतिभेदात्पूर्वादिदिग्भेदाच चतुर्विभागंतदेव स्वार्थिकाणप्रत्ययोपादानाचातुरन्तम्।(संसारकंतारं ति) भवारण्यम् (अणुपरियट्टइ त्ति) पुनःपुनर्भमतीति। असंवृतस्य तावदिदं फलं, संवृतस्यतु यत्स्यात्तदाहसंवुडे णं मंते ! अणगारे सिज्झइ ? हंता सिज्झइ जाव अंतं करेइ / से केणढे णं मंते ! एवं वुचइ ? गोयमा ! संवुडे ण अणगारे आउयवज्जाओ सत्तकम्मपगडीओ धणियबंधणबद्धाओ सिदिलबंधणबद्धाओ पकरेइ, दीहकालद्वितियाओ हस्सकालद्वितियाओ पकरेइ, तिव्वाणुभावाओ मंदाणुमावाओ पकरेइ, बहुपदेसगाओ अप्पपदेसगाओ पकरेइ, आउयं च णं कम्मं न बंधइ, असायावेयणिज्नं च णं कम्मं णो मुजो मुजो उवचिणइ, अणादीयं च णं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरतसंसारकंतारं वीईवयइ। से तेणटेणं गोयमा ! एवं संदुडे अणगारे सिज्झइ जाव अंतं करेइ। Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणगार 271 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणगार (संवुडे णमित्यादि) व्यक्तम्, नवरं, संवृतोऽनगारः प्रमत्त-संयतादिः, सच चरमशरीरः स्यादचरमशरीरो वा, तत्र यश्च-रमशरीरस्तदपेक्षयेदं सूत्रम्, यस्त्वचरमशरीरस्तदपेक्षया पर-म्परयासूत्रार्थोऽवसेयः / ननु पारम्पर्येणासंवृतस्यापि सूत्रो-तार्थस्यावश्यंभावः, यतः शुक्लपाक्षिकस्यापि मोक्षोऽवश्यंभावी, तदेवं संवृतासंवृतयोः फलतो भेदाभाव एवेति / अत्रोच्यते-सत्यम्, किन्तु यत्संवृतस्य पारम्पर्य तदुत्कर्षतः सप्ताष्टभवप्रमाणम् / यतो वक्ष्यति- "जहन्नियं चारित्ताराहणं आराहिता सत्तट्ठ-भवग्गहणेहि सिज्झइत्ति"। यच्चाऽसंवृतस्य पारम्पर्य तदुत्कर्षतो-ऽपार्द्धपुद्गलपरावर्तमानमपि स्यात्, विराधनाफलत्वात् तस्येति / (पीईवयइ त्ति) व्यतिव्रजति, व्यति-क्रामतीत्यर्थः / भ०१ श०१० (5) अनगारस्य भावितात्मनोऽसिधारादिष्यवगाहना - रायगिहे जाव एवं वयासी-अणगारे णं मंते ! मावियप्पा असिधारंवा खुरघारंवा ओगाहेज्जा ? हंता ओगा-हेजा। सेणं तत्थ छिज्जेज वा मिज्जेज वा ? णो इणहे समटे, णो खलु तत्थ सत्थं कमइ।एवं जहा पंचमसए परमाणुपोग्गले वत्तव्वयाजाव / अणगारे णं भंते ! मावियप्पा उदावत्तं वा जाव। णो खलु तत्थ सत्थं कमइ। (रायगिहे इत्यादि) इह चाऽनगारस्य क्षुरधारादिषु प्रवेशो वैक्रियलब्धिसामर्थ्यादवसेयः। (एवं जहा पंचमसए इत्यादि) अनेन च यत्सूचितं तदिदम्-अणगारेणं भंते ! भावियप्पा अगणिकायस्स मज्झं मज्झेणं वीईवइजा ? हंता ! वीईवइज्जा, से णं तत्थ ज्झियाएज्जा ? नो इणडे समढे, नो खलु तत्थ सत्थं कमइ, इत्यादि। भ०१८ श०१०3०। (6) अनगारस्य भक्तप्रत्याख्यातुराहारः - मत्तपचक्खायएणं भंते ! अणगारे मुच्छिए अज्झोव-वण्णे आहारमाहारेइ,अहे णं वीससाए कालं करेइ, तओ पच्छा अमुच्छिए अगिद्धे जाव अणजोववण्णे आहार-माहारेति? हंता गोयमा ! भत्तपचक्खायए णं अणगारं तं चेव / से केणटे णं मंते ! एवं वुचइ भत्तपच्चक्खायए णं तं चेव ? गोयमा ! भत्तपञ्चक्खायएणं अणगारे मुच्छिएजाव अज्झोववण्णे आहारे मवई, अहे णं वीससाए कालं करेइ, तओ पच्छा अमुच्छिए जाव आहारे भवइ, से तेणटेणं जाव आहारमाहारेइ। (भत्तेत्यादि) तत्र (भत्तपञ्चक्खाए णं ति) अनशनी मूञ्छितः संजातमूर्छः जाताहारसंरक्षणानुबन्धस्तदोषविषये वा मूढः ' मुर्छा मोहसमुच्छ्राययोः' इति वचनात्, यावत्करणादिदं दृश्यम्-(गढिए) ग्रथित आहारविषयस्नेहतन्तुभिः सन्दर्भितः, 'ग्रन्थ श्रन्थ सन्दर्भ' इति वचनात् / (गिद्ध) गृद्धः प्राप्ताहारे आसक्तः, अतृप्तत्वेन वा तदाकाजावान, 'गृधु' अभिकाङ्कायाम्' इति वचनात् / (अज्झोव-वण्णे ति) अध्युपपन्नोऽप्राप्ताहार-चिन्तायामाधिक्येनोपपन्नः / आहार वायुतैलाभ्यनादिकम्, ओदनादिकं वाऽभ्यवहार्य तीव्रक्षुद्वेदनीयकर्मोदयादसमाधौ सति तदुपशमनाय प्रयुक्तमाहारयत्युपभुते। (अहेणं ति) अथाहारानन्तरं विससया स्वभावत एव, (कालं ति) कालो मरणं, काल इव कालो मारणान्तिकसमुद्घातः, तं करोति याति / (तओ पच्छत्ति) ततो मारणान्तिकसमुद्घातात्पश्चात् तस्मान्निवृत्त इत्यर्थः / अमूर्छि तादिविशेषणविशेषित आहारमाहारयति, प्रशान्तपरिणामसद्भावादिति प्रश्नः / अत्रोत्तरम् (हंता ! गोयमेत्यादि) अनेन तु प्रश्नार्थ एवाभ्युपगतः, कस्यापि भक्तप्रत्याख्यातुरेवंभूतभावस्य सद्भावादिति।भ०१४ श०७ उ० (7) शैलेशीप्रतिपन्नस्यानगारस्य एजनासेलेसिपडिवण्णएणं मंते ! अणगारे सया समियं एयति वेयति जाव तं तं भावं परिणमइ ? णो इण8 समढे, णण्णत्थेगेणं परप्पओगेणं। (नो इणटे समढे ति) योऽयं निषेधः सोऽन्यत्रै कस्मात्परप्रयोगादेजनादिकारणेषु मध्ये परप्रयोगेणैवैकेन शैलेश्यामेजनादि भवति, न करणान्तरेणेति भावः / भ० 17 श०३ उ०। (8) अनगारो भावितात्माऽऽत्मनः कर्मलेश्याशरीरं जानातिअणगारे णं भंते ! मावियप्पा अप्पणो कम्मलेस्संण जाणइ, ण पासइ, तं पुण जीवं सरूविंसकम्मलेस्सं जाणइ, पासइ ? हंता गोयमा ! अणगारे णं भावियप्पा अप्पणो जाव पासइ। (अणगारे णमित्यादि) अनगारो भावितात्मा संयमभावनया वासितान्तःकरणः, आत्मनःसंबन्धिनी कर्मणो योग्या लेश्या कृष्णादिका, कर्मणो वा लेश्या, "लिश श्लेषणे" इति वचनात्। संबन्धः कर्मलेश्या, तां न जानाति विशेषतो, न पश्यति च सामान्यतः, कृष्णादिलेश्यायाः कर्मद्रव्यश्लेषणस्य चातिसूक्ष्म-त्वेन छ्यस्थज्ञानागोचरत्वात्। (तं पुण जीवं ति)। यो जीवः कर्मलेश्यावांस्तं पुनर्जीवमात्मानं (सरूविं ति) सह रूपेण रूप- रूपवतोरभेदोपचाराच्छरीरेण वर्तते योऽसौ (समासान्तविधिः) सरूपी, तं सरूपिणम्- सशरीरमित्यर्थः / अत एव सकर्मलेश्यं कर्मलेश्यया सह वर्तमानं जानाति शरीरस्य चक्षुर्ग्राह्यत्याद् जीवस्य च कथंचिच्छरीराव्यतिरेकादिति "सरूविं सकम्मलेसं ति"। भ०१४ श०९ उ०। (अनगारस्य अनायुक्तं गच्छतः क्रियाः 'किरिया' शब्दे तृतीयभागे वक्ष्यते) (E) अनगारस्य भावितात्मनः क्रियारायगिहे जाव एवं वयासी-अणगारस्स णं भंते ! मावियप्पणो पुरओ दुहओ जुगमायाए पेहाए रीयं रीयमाणस्स पायस्स अहे कुक्कुडपोते वा वट्टापोते वा कुलिंगच्छाए वा परियावज्जेज्जा, तस्स णं भंते ! किं ईरियावहिया किरिया कज्जइ, संपराइया किरिया कज्जइ ? गोयमा ! अणगारस्स णं मावियप्पणो जाव तस्स णं ईरियावहिया किरिया कज्जइ, णो संपराइया किरिया कन्जइ / से केणढे णं भंते ! एवं वुचइ ? जहा सत्तमसए संवुडुद्देसए जाव अट्ठो णिक्खित्तो / सेवं भंते ! भंतेत्ति जाव विहरइ / तए णं समणे भगवं महावीरे जाव विहरइ। (पुरओत्ति) अग्रतः (दुहओत्ति) द्विधाऽन्तराऽन्तरापार्श्वतः पृष्ठतश्चेत्यर्थः (जुगमायाए त्ति) यूपमात्रया दृष्ट्या (पेहाए त्ति) प्रेक्ष्य (रीयं ति) गतं गमनं, (रीयमाणस्सत्ति) कुर्वत इत्यर्थः। (कुकुडपोएत्ति) कुक्कुटडिम्भः (वट्टापोए त्ति) इह वर्तका पक्षि-विशेषः। (कुलिंगच्छाए व त्ति) पिपीलिकादिसदृशः (परियावज्जेज त्ति) पर्यापद्येत मियेत, (एवं जहा सत्तमसए Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणगार २७२-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणगार इत्यादि) अनेन च यत्सूचितं तस्यार्थलेश एवम्- अथ केनाऽर्थेन से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ-संवुड० जाव संपराइया किरिया भदन्तैवमुच्यते ? गौतम ! यस्य क्रोधादयो व्यवच्छिन्ना भवन्ति कन्जइ ? गोयमा ! जस्सणं कोहमाणमाया-लोमा एवं जहा तस्येर्यापथिक्येव क्रिया भवतीत्यादि। (जाव अट्ठो निक्खित्तो ति) "से सत्तमसए पढमुद्देसए जाव से णं उस्सुत्तमेव रीयइ। से तेणटेणं केणढे णं भंते !" इत्यादिवाक्यस्य निगमनं यावदित्यर्थः / जाव संपराइया किरिया कज्जइ। संवुडस्सणं मंते ! अणगारस्स तच (से तेणटेणं गोयमेत्यादि) इति प्राग्गमनमाश्रित्य विचारः अवीइपंथे ठिचा पुरओ रूवाइं निज्झायमाणस्स जाव तस्सणं कृतः / अथ तदेवाश्रित्यान्ययूथिकमतनिषेधतः स एवोच्यते - (तए मंते ! किं ईरियावहिया किरिया कञ्जइ, पुच्छा / गोयमा ! गमित्यादि) भ०१८ श०८ उ०॥ संवुड० जाव तस्स णं ईरियावहिया किरिया कन्जइ, णो अणगारस्स णं भंते ! भावियप्पणो छटुं छठेणं अणिक्खित्तेणं संपराइया किरिया कजइ / से केणढे णं मंते ! जहा सत्तमसए जाव आयावेमाणस्स तस्स णं पुरच्छिमेणं अवडं दिवसं णो सत्तमुद्देसए जाव से णं अहासुत्तमेव रीयइ, से तेणटेणं जावणो कप्पड़, हत्थं वा पादंवा जावऊरं वा आऊट्टावेत्तए वा पसारेत्तए संपराइया किरिया कजइ। वा पञ्चच्छिमेणं अवड्ढ दिवसं कप्पइ, हत्थं वा पादं वा जाव (रायगिहे इत्यादि) तत्र (संवुडस्स ति) संवृतस्य सामान्येन ऊरुं वा आऊंद्यावेत्तए वा पसारेत्तए वा तस्स य अंसिओलंबइ, प्राणातिपाताद्यास्रवद्वारसंवरोपेतस्य (वीइपंथे ठिच्च त्ति) वीचिशब्दः तं चेव विज्जे अदक्खु, ईसिं पाडेइ,पाडेइत्ताअंसियाओ छिंदेज्जा, सम्प्रयोगे। स च सम्प्रयोगो द्वयोर्भवति। ततश्चेह कषायाणां जीवस्य च से णूणं मंते ! जे छिंदेजा, तस्स कई किरिया कन्जइ?, जस्स सम्बन्धो वीचिशब्दवाच्यः ततश्च वीचिमतः कषायवतः, मतुप्प्रत्ययस्य छिज्जइ, णो तस्स किरिया कज्जइ ?, णण्णत्थे गेणं षष्ठ्याश्च लोपस्य दर्शनात् / अथवा "विचिर् पृथग्भावे' इति वचनाद् धम्मंतराइएणं? हंता गोयमा! जे छिंदइ जाव धम्मंतराइएणं विविच्य पृथग्भूय यथाख्यात-संयमात्कषायोदयमनपवार्येत्यर्थः। अथवा से णं मंते ! मंते त्ति। विचिन्त्य राग-विकल्पावित्यर्थः। अथवा विरूपा कृतिः क्रिया सरागत्वाद् (पुरच्छिमेणं ति) पूर्वभागे पूर्वाह्न इत्यर्थः / (अवटुं ति) यस्मिन् अवस्थाने तद्विकृति यथा भवतीत्येवं स्थित्वा (पंथे त्ति) मार्गे अपगतार्द्धमर्द्धदिवसं यावद् न कल्पते हस्ताद्याकुण्टयितुं, (अवयक्खमाणस्स त्ति) अवकासातोऽपेक्षमाणस्य वा, पथिग्रहणस्य कायोत्सर्गव्यवस्थितत्वात्। (पच्चच्छिमेणं ति) पश्चिमभागे (अव© चोपलक्षणत्वादन्यत्राप्याधारे स्थित्वेति द्रष्टव्यम् / (नो ईरियावहिया दिवसं ति) दिनार्द्ध यावत् कल्पते हस्ताद्याकुण्टयितुं. किरिया कज्जइ त्ति) न केवलयोगप्रत्यया कर्मबन्धक्रिया भवति, कायोत्सर्गाभावात्। तदेतच चूर्ण्यनुसारितया व्याख्यातम्। (तस्सय सकषायत्वात्तस्येति (जस्स णं को हमाण-मायालोभा) इह एवं त्ति) तस्य पुनः साधोरेवं कायोत्सर्गाभिग्रहवतः (अंसियाओ त्ति) जहेत्याद्यतिशयादिदं दृश्यम्- (वोच्छिन्ना भवन्ति तस्सणं ईरियायहिया अर्शासि, तानि च नासिकासत्कानीति चूर्णिकारः। (तं च त्ति) तं किरिया कजइ, जस्स णं कोहमाणमायालोभा अवोच्छिण्णा भवंति, चानगारं कृतकायोत्सर्ग लम्बमानार्शसम, (अदक्खु त्ति) अद्राक्षीत्। तस्स णं संपराइया किरिया कज्जइ,अहासुत्तं रियंरीयमाणस्स ततश्चार्शसां छेदार्थम् (ईसिं पाडेइ त्ति) मनागनगारं भूम्यां पातयति, ईरियावहिया किरिया कज्जइ, उस्सुत्तं रीयं रीयमाणस्स संपराइया नाऽपातितस्याऽर्शच्छेदः कर्तुं शक्यत इति। (तस्स त्ति) वैद्यस्य, क्रिया किरिया कज्जइ त्ति) व्याख्या चास्य प्राग्व-दिति। (सेणं उस्सुत्तमेव त्ति) व्यापाररूपा, सा च शुभा धर्मबुद्ध्या छिन्दानस्य लोभादिना क्रियेत स पुनरुत्सूत्रमेवागमातिक्रमणत एव (रीयइ ति) गच्छति त्वशुभा भवति / जस्स छिज्जइत्ति) यस्य साधोरासि छिद्यन्ते, नो 'संवुडस्सेत्यादि' इत्युक्तविपर्ययसूत्रम्, तत्र च (अवीइ ति) तस्य क्रिया भवति, निर्व्यापारत्वात्। किं सर्वथा क्रियाया अभावः? अवीचिमतोऽकषायसम्बन्धवतोऽविविच्य वा अपृथग्भूय यथाऽऽख्यातमैवम् / अत आह-(नन्नत्थेत्यादि) न इति योऽयं निषेधः, संयमात् अविचिन्त्य वा रागविकल्पाभावेनेत्यर्थः / अविकृतिर्वा यथा सोऽन्यत्रकस्माद्धर्मान्तरायाधर्मान्तरायलक्षणा क्रिया, तस्यापि भवतीति। भ०१० श०२ उ०/ भवतीति भावः। धर्मान्तरायश्वशुभध्यानविच्छेदादर्शश्छेदानुमोदनाद् संवुडस्स णं भत्ते ! अणगारस्स आउत्तं गच्छमाणस्स जाव वेति। भ०१६ श० 3 उ०। आउत्तं वत्थपडिग्गहं कं बलं पायपुच्छणं गेण्हमाणस्स वा (10) संवृतस्यानगारस्य क्रिया - निक्खिवमाणस्स वा तस्स णं मंते ! किं ईरियावहिया किरिया रायगिहे जाव एवं वयासी-संवुडस्स णं मंते ! अणगारस्स कजइ, संपराइया किरिया कज्जइ ? संवुडस्स णं अणगारस्स वीइपंथेठिचा पुरओ रूवाइं निज्झायमाणस्स मम्गओ रूवाइं जाव तस्स णं ईरियावहिया किरिया कन्जइ, नो संपराइया अवयक्खमाणस्स पासओ रूवाई अवलोएमाणस्स उठें रूवाई किरिया कजइ। से केणटेणं भंते ! एवं वुचइ संवुडस्सणं जाव उलोएमाणस्स अहे रूवाइं आलोएमाणस्स तस्स णं मंते ! किं नो संपराइया किरिया कञ्जइ ? गोयमा ! जस्स णं ईरियावहिया किरिया कज्जइ, संपराइया किरिया कज्जइ ? कोहमाणमायालोमावोच्छिण्णा भवंति,तस्सणं ईरिया वहिया गोयमा ! संवुडस्स अणगारस्स वीइपंथे ठिचा जाव तस्स णं किरिया कजइ, तहेव जाव उस्सत्तं रीयमाणस्स णो ईरियावहिया किरिया कन्जइ, संपराइया किरिया कञ्जइ।। संपराइया किरिया कज्जइ, सं ण अहासुत्तमव रायइ, स Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणगार 273 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 तेणद्वेणं गोयमा ! जाव नो संपराइया किरिया कज्जइ। म०७ श०७ उ०॥ (11) अनगारस्यगत्युपपादौ - रायगिहे जाव एवं वयासी-अणगारेणं मंते ! भावियप्पा चरम देवावासं वीइकते परमं देवावासं असंपत्ते एत्थ णं अंतरालं कालं करेजा, तस्स णं भंते ! कहिं गई कहिं उववाए पन्नत्ते ? गोयमा! जे से तत्थ परिस्सओतल्लेस्सादेवावासातहिं तस्स गई, तहिं तस्स उववाए पण्णते / से य तत्थ गए विराहेजा, कम्मलेस्सामेव पडिवडइ, से यतत्थ गए नो विराहेजा, तामेव लेस्सं उवसंपजित्ताणं विहरइ। (चरमं देवावासं वीइक्कं ते परमं देवावासं असंपत्ते ति) चरममर्वाग्भागवर्तिनं स्थित्यादिभिर्देवावासं सौधर्मादिदेवलोकं व्यतिक्रान्तो लड्वितस्तदुपपातहेतुभूतलेश्यापरिणामापेक्षया परमं परभागवर्तिनं स्थित्यादिभिरेव देवावासं सनत्कुमारादिदेवलोकमसंप्राप्तोऽप्राप्तस्तदुपपातहेतुभूतलेश्यापरिणामापेक्षयैव / इदमुक्तं भवति प्रशस्तेष्वध्यवसायस्थानेषूत्तरोत्तरेषु वर्तमान आराद् भागस्थितसौधर्मादिगतदेवस्थित्यादिबन्धयोग्यतामतिक्रान्तः परभागवर्तिसनत्कुमारादिगतदेवस्थित्यादिबन्धयोग्यतां चाप्राप्तः (एत्थ णं अंतर त्ति) इहावसरे (कालं करेजत्ति) मियते यस्तस्य क्वोत्पाद इति प्रश्नः ? उत्तरं तु- (जे से तत्थ ति) अथ ये तत्रेति तयोश्चरमदेवावासपरमदेवावासयोः परि पार्वतः समीपे सौधर्मादरासन्नाः सनत्कुमारादे आसन्नास्तयोर्मध्यभागे ईशानादौ इत्यर्थः / (तल्लेस्सा देवावास त्ति) यस्यां लेश्यायां वर्तमानः साधुर्मृतः सालेश्या येषु ते तल्लेश्या देवावासाः (तहिं ति) तेषु देवावासेषु तस्यानगारस्य गतिर्भवतीति, यत उच्यते'जल्लेस्से मरइ जिए, तल्लेस्से चेव उववजे' इति / (से य त्ति) स पुनरनगारस्तत्र मध्यभागवर्तिनि देवावासे गतः (विराहेजत्ति) येन लेश्यापरिणामेन तत्रोत्पन्नस्तं परिणामं यदि विराधयेत् तदा (कम्मलेस्सामेव त्ति) कर्मणः सकाशाद्या लेश्या जीवपरिणतिः सा कर्मलेश्या, भावलेश्येत्यर्थः / तामेव प्रतिपतति,तस्या एव प्रतिपतति अशुभतरतां याति, नतुद्रव्यलेश्यायाः प्रतिपतति। सा हि प्राक्तन्येवास्ते द्रव्यतोऽवस्थितलेश्यात्वाद् देवानामिति पक्षान्तरमाह (से य | तत्थेत्यादि) सोऽनगारस्तत्र मध्यमदेवावासे गतः सन् यदिन विराधयेत् | तं परिणाम, तदा तामेव लेश्यां ययोत्पन्न उपसंपद्याश्रित्य विहरत्यास्त इति / इदं सामान्यं देवावासमाश्रित्योक्तम्। अथ विशेषितं तमेवाश्रित्याहअणगारेण भंते! भावियप्पा चरमं असुरकुमारावासं वीइकते, परमं असुर० एवं चेव० एवं जाव थणियकु मारावास जोइसियावासं एवं वेमाणियावासं जाव विहरति। ननु यो भावितात्माऽनगारः स कथमसुरकु मारेषूत्पत्स्यते, विराधितसंयमानां तत्रोत्पादादिति ? उच्यते- पूर्वकालापेक्षया भावितात्मत्वमन्तकाले च संयमविराधनासद्भावादसुरकुमारा दितयोपपाद इति न दोष : बालतपस्वी वाऽयं भावितात्माद्रष्टव्य इति / भ०१४श०१उन (12) असंवृतस्यानगारस्य विकुवर्णा - असंवुडे णं मंते ! अणगारे बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पम् एगवण्णं एगरूवं विउव्वित्तए ? गोयमा ! णो इणढे समहे / असंवुडे णं मंते ! अणगारे बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पमू! . एगवण्णं एगरूवंजाव ।हंता! पा से मंते ! किं इह गए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वइ, तत्थ गए पोम्गले परियाइत्ता विउव्वइ, अण्णत्थ गए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वइ ? गोयमा ! इह गए पोग्गले परि-याइत्ता विउव्वइ, नो तत्थ गए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वइ, नो अण्णत्थ गए पोग्गले जाव विउव्वइ, एवं एगवण्णं अणेगरूवं चउमंगो, जहा-छट्ठसए नवमे उद्देसए तहा इहावि भाणियव्वं,नवरं अणगारे इहगएयपोग्गले परियाइत्ता विउव्वइ, सेसंतं चेव जाव लुक्खपोग्गलं णिद्धपोगलत्ताए परिणामेत्ताए ? हंता ! पभू / से भंते ! किं इह गए पोग्गले परियाइत्ता जाव नो अण्णत्थ गए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वइ। असंवृतः प्रमत्तः (इह गए त्ति) इह पृच्छको गौतमः, तदेपक्षया इहशब्दवाच्यो मनुष्यलोकस्ततश्च इहगतान् नरलोकव्यव- स्थितान् (तत्थ गए त्ति) वैक्रियं कृत्वा तत्र यास्यति तत्र व्यव-स्थितानित्यर्थः। (अन्नत्थगए त्ति) उक्तस्थानद्वयव्यति-रिक्तस्थानाश्रितानित्यर्थः। (नवरं ति) अयं विशेषः - (इह इति) इह शते, अनगार इति, इहगतान् पुद्गलानिति च वाच्यम्, तत्र तु देव इति, तत्र गतानिति चोक्तमिति। भ० ७श०६उन (13) केयाघटिकालक्षणकृत्यादिविकुर्वणारायगिहे जाव एवं वयासी-से जहाणामए केइ पुरिसे केयाघडियं गहाय गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे वि भावियप्पा केयाघडिया किचहत्थगएणं अप्पाणेणं उल्लु वेहासं उप्पएज्जा? हंतागोयमा ! जाव समुप्पएज्जा / अणगारे णं मंते ! मावियप्पा केवइयाई पभू ! केयाघडियं किचहत्थगयाइं रूवाइं विउव्वित्तए ? गोयमा ! से जहाणामए जुवतिं जुवाणे हत्थेणं हत्थं एवं जहा तइयसए पंचमोद्देसए जाव णो चेव णं संपत्तीए विउव्विसु वा विउव्विंति वा विउव्विस्संति वा से जहाणामए केइ पुरिसे हिरण्णपेडिं गहाय गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे वि भावियप्पा हिरण्णपेडिं हत्थकिचगएणं अप्पाणेणं सेसं तं चेव / एवं सुवण्णपेडिं एवं रयणपेडिं वयरपेडिं वत्थपेडिं आमरणपेडिं, एवं वियलकिडं सुंवकिडं चम्मकिडं कंबलक्डिं, एवं अयभारं तंबमारं तउयभारंसीसगमारं हिरण्णमारं सुवण्णमारं वइरमारं, से जहाणामए वग्गुली सिया दोवि पाए उलंबिय उलंबिय उड्ढ पाया अहो सिरा चिद्वेजा, एवामेव अणगारे विभावियप्पा वगुली किच्चगएणं अप्पाणेणं उर्ल्ड वेहासं / एवं जण्णोवइयवत्तव्वया माणियव्वा जाव विउव्विस्संतिवा।से जहाणामए जलोयासिया Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणगार 274 - अमिषानराजेन्द्रः - भाग 1 अणगार उदगंसि कायं वि उविहिय उव्विहिय गच्छेज्जा, एवामेव सेसं जहा वग्गुलीए से जहाणामए वीयं वियगसउणे सिया दोवि पाए समतुरंगेमाणे समतुंरगेमाणे गच्छेजा, एवामेव अणगारे, सेसं तं चेव। से जहाणामए पक्खिविरालए सिया रुक्खाओ रुक्खं डेवेमाणे गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे, सेसंतं चेव। से जहाणामए जीवं जीवगसउणे सिया, दो विपाए समतुरंगेमाणे समतुरंगेमाणे गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे, सेसं तं चेव / से जहाणामए हंसे सिया तीराओ तीरं अमिरममाणे अभिरममाणे गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे हंसकिन्चगएणं अप्पाणेणं, सेसं तं चेव। से जहाणामए समुद्दवायसए सिया वीईओ वीई डेवेमाणे गच्छेज्जा, एवामेव तहेव / से जहाणामए केइ पुरिसे चक्कं गहाय गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे भावियप्पा चक्ककिचहत्थगएणं अप्पाणेणं, सेसं जहा केयाघडियाए, एवं छत्तं, एवं चम्म, से जहा केइ पुरिसे रयणं गहाय गच्छेन्जा एवं चेव / एवं वइए वेरुलियं जाव रिटुं एवं उप्पलहत्थगं पउमहत्थगं कुमुदहत्थगं एवं जाव / से जहाणामए केइ पुरिसे सहस्सपत्तगं गहाय गच्छेज्जा, एवं चेव। से जहाणामए के इ पुरिसे भिसं अवदालिय अवदालिय गच्छेजा, एवामेव अणगारे वि भिसं किचगएणं अप्पाणेणं तं चेव, से जहाणामए मुणालिया सिया उदगंसि कायं उम्मजिअ उम्मज्जिअ चिट्ठज्जा, एवामेव सेसं जहा वग्गुलीए, से जहाणामए वणखंडे सिया किण्हे किण्होभासे जाव निकुरुंबभूए पासादीए 4, एवामेव अणगारे भावियप्पा वणखंडकिच गएणं अप्पाणेणं उल्लु वेहासं उप्पएज्जा, सेसं तं चेव / से जहाणामए पुक्खरिणी सिया चउक्कोणा समतीरा अणुपुव्वसुजाय जाव सदुण्णइय महुर सरणादिया पासादीया 4 एवामेव अणगारे वि भावियप्पा पोक्खरिणी किचगएणं अप्पाणेणं उर्ल्ड वेहासं उप्पएज्जा ? हंता! उप्पएजा अणगारेणं भंते ! भावियप्पा केवयाइंपभू पोक्खरिणी किच्चगयाइं रूवाई विउव्वित्तए? सेसंतंचेव जाव विउव्विस्संति / वा। से भंते ! किं मायी विउव्वइ, अमायी विउव्वइ ? गोयमा! मायी विउव्वइ, णो अमायी विउव्वइ, मायीणं तस्स ठाणस्स अणालोइय एवं जहा तइयसए चउत्थुद्देसए जाव अस्थि तस्स | आराहणा। (रायगिहेत्यादि) केयाघडियं ति) रज्जुप्रान्तबद्धधटिका केया-घडिया (किच्चहत्थगएणं ति) केयाघटिकालक्षणं यत्कृत्यं कार्यं तद्धस्ते गतं यस्य स तथा, तेनात्मना (वेहासं ति) विभक्ति विपरिणामाद्विहायस्याकाशे केयाघडिया (किन्च हत्थ गयाइं ति) केयाघटिकालक्षणं कृत्यं हस्ते गतं येषां तानि तथा (हिरण्णपेडं ति) हिरण्यमञ्जूषां (वियडकिलं ति) विदलानां वंशार्धानां यः कटः स तथा तं (संबुकिडं ति) वीरणकट (चम्मकिडं ति) चर्मव्यूतं खट्वादिकं (कंबलकिडं ति) और्णामयं कंबलं जीनादि (वगुली ति) चर्मपक्षः पक्षिविशेषः / (वगुलिकिचगए ति) वग्गुलीलक्षणं कृत्यं कार्यं गतं प्राप्तं येन स तथा, तद्रूपतां गत इत्यर्थः / (एवं जण्णोवइयवत्तव्वया भाणियव्या) इत्यनेनेदं सूचितम् / "हंता, उप्पएजा / अणगारे णं भंते ! भावियप्पा केवइयाइ पभू ! वग्गुलिरूवाई विउवित्तए ? गोयमा ! से जहानामए जुवतिं जुवाणे हत्थेणं हत्थं गिण्हेजेत्यादि'' (जलोय त्ति) जलौका जलजो द्वीन्द्रियजीव विशेषः / (उविहिय ति) उद्व्यूह्य 2 उत्प्रेर्य 2 इत्यर्थः / (वयं वीयगसउणे त्ति) वीज वीजकाभिधानः शकुनिः स्यात् (दोवि पाए त्ति) द्वावपि पादौ / (समतुरंगेमाणे त्ति) समौ तुल्यौ तुरङ्गस्याश्वस्य समुत्क्षेपणं कुर्वन् समतुरङ्गायमाणः समकमुत्पाटयन्नित्यर्थः / (पक्खिविरालए त्ति) जीवविशेष (डेवेमाणे त्ति) अतिक्रामन्नित्यर्थः (वीईओ वीइं ति) कल्लोलात् कल्लोलम्-वेरुलियम् / इह यावत्करणादिदं दृश्यम्लोहियक्खं मसारगल्लं हंसगन्भं पुलगं सोगंधियं जोईरसं अंकं अंजणं रयणं जायरूवं अंजणपुलगं फलिहं ति। 'कुमुदहत्थगं' इत्यत्र तु एवं यावत्करणादिदं दृश्यम्- नलिणहत्थगं सुभगहत्थगं सोगंधिय-हत्थगं पुंडरीयहत्थगं महापुंडरीयहत्थगं सयवत्तहत्थगं ति। (भिसं ति) बिशं मृणालं (अवदालिय त्ति) अवदार्य दारयित्वा (मुणालिय त्ति) नलिनीकायं (उम्मज्जिय त्ति)कायमुन्मज्य उन्मग्नं कृत्वा (किण्हे किण्होभासे त्ति) कृष्णः कृष्णवर्णोऽजनवत् स्वरूपेण कृष्ण एवावभासते द्रष्टुणां प्रतिभातीति कृष्णावभासः। इह यावत्करणादिदं दृश्यम्- नीले नीलोभासे, हरिए हरिओ-भासे, सीए सीओभासे, निद्धे निद्धोभासे, तिव्वे तस्विोभासे, किण्हे किण्हच्छाए, नीले नीलच्छाए, हरिए हरियच्छाए, सीये सीयच्छाए, तिव्वे तिव्वच्छाए, घणकडिच्छाए रम्मे महामेह- निउरंबभूए त्ति / तत्र च (नीले नीलोभासे ति) प्रदेशान्तरे, (हरिए हरिओभासे त्ति) प्रदेशान्तर एव। नीलश्च मयूरगलवत्, हरितस्तु शुकपिच्छवत, हरितालाभ इति च वृद्धाः। (सीए सीओभासे त्ति) शीतः स्पर्शापेक्षया, वल्ल्याद्याक्रान्तत्वादिति च वृद्धाः। (निद्धे निद्धोभासे त्ति) स्निग्धो रुक्षत्ववर्जितः (तिव्वे तिव्वोभासे त्ति) तीव्रो वर्णादिगुणप्रकर्षवान् (किण्हे किण्हच्छाए त्ति) इह कृष्णशब्दः कृष्णच्छाय इत्यस्य विशेषणमिति न पुनरुक्तता। तथाहि- कृष्णः सन् कृष्णच्छायः, छाया चादित्यावरणजन्यो वस्तुविशेषः / एवमुत्तरपदेष्वपि (घणकडियच्छाए त्ति) अन्योन्यं शाखानुप्रवेशाद्बहलनिरन्तरच्छाय इत्यर्थः। अणुपुव्वसुजाय' इत्यत्र यावत्करणादेवं दृश्यम्- अणुपुव्यसुजायवप्पगंभीरसीयलजला, आनुपूर्येण सुजाता वप्रा यत्र, गम्भीरं शीतलं च जलं यत्र सा तथा इत्यादि। (सढुण्णझ्य महुरसरणादिय त्ति) इदमेवं दृश्यम्सुयवरहिणमयणसालू को इलकोरुक भिंगारक कोड लक - जीवजीवकनंदीमुहकविलपिंगलक्खयकारंडचक्कवायकलहससारसअणेगसउणगणमिहुणविरइयसमुण्णइयमहुरसरणाइयत्ति। तत्र शुकादीनां सारसान्तानामनेकेषां शकुनगणानां मिथुनर्विरचितं शब्दोन्नतिकं चोन्नतशब्दकं मधुरस्वरं च नादितं लपितं यस्याः सा तथेति / भ० 13 श०६ उ०) (14) अनगारस्य भावितात्मनो विकुर्वणा बाह्यं पुद्गलापर्यादानपूर्वकं स्त्रीरूपस्यअणगारे णं भंते ! भावियप्पा बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता प्रभू ! एगं महं इत्थिरू वं वा जाव संदमाणियरू वं Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणगार 275 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणगार वा विकुवित्तए? गोयमा! णो इणढे समढे। अणगारेणं भंते! भावियप्पा बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता प्रभू ! एगं महं इत्थिरूवं / वा जाव संदमाणियस्वं वा विकु-वित्तए ? हंता! पभू। अणगारे णं भंते ! भावियप्पा केवइयाइंपभू ! इस्थिरूवाइं विउव्वित्तए? गोयमा ! से जहानामए जुवई जुवाणे हत्थेण हत्थे गेण्हेजा, चक्क-स्स वा नाभी अरगा उत्ता सिया, एवामेव अणगारे वि भावियप्पा वेउव्वियसमुग्धाएणं समोहणइ जाव पभू णं ? गोयमा ! अणगारेणं भावियप्पा केवलकप्पं जुबुद्दीवं दीवं बहूहिं इत्थिरूवेहिं आयन्नं वितिकिण्णं जाव एस णं गोयमा ! अणगारस्स भावियप्पाणे अय-मेयारूवं विसए विसयमेत्ते वुइए, नो चेवणं संपत्तीए विकुव्विंसु वा 3 एवं परिवाडिए नेयव्वं जाव संमाणिया / से जहानामाए केइ पुरिसे असिचम्मपायं गहाय गच्छेजा, एवामेव अणगारे वि भावियप्पा असिचम्मपायं हत्थकिचगएणं अप्पाणेणं उड्वं वेहासं उप्पएज्जा ? हंता ! उप्पइजा। अणगारेणं भंते ! भावियप्पा केवइयाइंपभू ! असिचम्महत्थकिचगयाइं रूवाइं विउव्वित्तए? गोयमा! से जहानामए जुवई जुवाणे हत्थेण हत्थे गेण्हेज्जा तं चेव जाव विउव्विंसु वा 3, से जहानामए केइ पुरिसे एगओ पडागं काउं गच्छेजा, एवामेव अणगारे भाविअप्पा एगओ पडागा हत्थकिचगएणं अप्पाणेणं उड्ढे वेहासं उप्पएज्जा ? हंता गोयमा ! अणगारे णं मंते ! भावियप्पा केवइयाणं पभू ! एगओ पडागा हत्थकिचगयाई रूवाइं विउवित्तए, एवं जाव विकुट्विंसु वा ३,एवं दुहओ पडागं पि, से जहानामए केइ पुरिसे एगओ जण्णोवइतं काउं गच्छेज्जा / एवामेव अणगारे वि भावियप्पा एगओ जण्णोवइय किचगएणं अप्पाणेणं उड्ड वेहासं उप्पाएज्जा ? हंता! उप्पाएजा। अणगारे णं भंते ! भावियप्पा केवइयाइं पभू ! एगओ जण्णोवइयं किचगयाइं रूवाई विउव्वित्तए, तं चेव जाव विकुर्दिवसु वा 3 / एवं दुहओ जण्णोवइयं पि। से जहानामए केइ पुरिसे एगओ पल्हत्थियं काउं चिट्ठेजा, एवामेव अणगारे भावियप्पा तं चेव जाव विउव्विसु वा 3 / एवं दुहओ पल्हत्थियं पि, से जहानामए केइ पुरिसे एगओ पलियंकं काउं चिढेज्जा, तं चेव विकुर्दिवसु वा३ / एवं दुहओ पलियंकं पि। अणगारे णं भंते ! भावियप्पा बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू ! एगं महं आसरूवं वा हत्थिरूवं वासीहरूवं वावग्घवग्गदीविय अच्छतरच्छपरासररूवं वा अभिजुंजित्तए ? णो इणढे समढे / अणगारे णं एवं बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू ! अणगारे णं भंते ! भावियप्पा एगं महं आसरूवं वा अमिउंजित्ता अणेगाइंजोयणाई गमित्तए? हंता! पभू। से भंते ! किं आइड्डीए गच्छइ, परिडीए गच्छइ ? गोयमा ! आयडीए गच्छइ, नो परिड्डीए / एवं आयकम्मुणा परकम्मुणा आयप्पओगेणं परप्पयोगेणं उस्सिओदयं वा गच्छइ, पयोदयं वा गच्छद। से णं भंते ! किं अणगारे आसे? गोयमा! अणगारे णं से नो खलु से आसे, एवं जाव परासररूवं वा। से भंते ! किं मायी विकुव्वइ, अमायी विकुव्वइ ? गोयमा ! मायी विकुव्वइ, नो अमायी विकु ध्वइ / मायीणं भंते ! तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिकते कालं करेइ कहिं उववजइ ? गोयमा ! अण्णयरेसु आभियोगेसुदेवलोगेसुदेवत्ताए उववजइ। अमायीणं तस्स ठाणस्स आलोइय पडिकंते कालं करेइ, कहिं उववज्जइ ? गोयमा! अण्णयरेसु अणा-भियोगिएसु देवलोएसु देवत्ताए उववज्जइ, सेवं भंते ! भंतेत्ति / गाहा - "इत्थी असीपडागा, जण्णोवइए य होइ बोधव्वो। पल्हत्थिय पलियंके, अभियोगविकुव्वणामायी // 1 // " तइयसए पंचमोइसो सम्मत्तो। अणगारे णं भंते ! भावियप्पा मायी मिच्छदिट्ठी वीरियलद्धीए वेउव्वियलद्धीए विभंगनाणलद्धीए वाणारसिं नगरि समोहए समोहणित्ता रायगिहे नगरे रूवाइंजाणइ पासइ? हंता! जाणइ पासइ / से भंते ! किं तहाभावं जाणइ पासइ ? अण्णहाभावं जाणइ पासइ ? गोयमा ! णो तहाभावं जाणइ पासइ, अण्णहाभावं जाणइ पासइ / से केणढे णं भंते ! एवं दुचइनो तहाभावं जाणइ पासइ, अण्णहाभावं जाणइ पासइ? गोयमा ! तस्स णं एवं भवइ, एवं खलु अहं रायगिहे नगरे समोहए समोहणित्ता वाणारसीए नयरीए रूवाइं जाणामि पासामि, सेसे दंसणे विवचासे भवइ, ते तेणटेणं जाव पासइ / अणगारे णं भंते ! मायी मिच्छदिट्ठीजाव रायगिहे नगरे समोहए समोहणित्ता वाणारसीए नयरीए रूवाईजाणइपासइ ? हंता! जाणइपासइ, तंचेव जाव तस्सणं एवं होइ, एवं खलु अहं वाणारसीए नयरीए समोहए समोहणित्ता रायगिहे नगरे रूवाइं जाणामि पासामि, सेसे दंसणे विवचासे भवइ,सेतेणटेणंजाव अण्णहाभावं जाणइ पासइ। अणगारे णं भंते ! भावियप्पा मायी मिच्छदिट्ठी वीरियलद्धीए वेउव्वियलद्धीए विभंगलद्धीए वाणारसिं नगरि रायगिहं च नगरं अंतराए एगं महं जणवयवग्गं समोहए समोहएत्ता वाणारसिं नगरि रायगिहं तं च अंतरा एगमहं जणवयवग्गं जाणइ पासइ? हंता! जाणइ पासइ / से भंते ! किं तहाभावं जाणइ पासइ, अण्णहाभाव जाणइ पासइ ? गोयमा ! णो तहाभावं जाणइपासइ,अण्णहाभावं जाणइपासइ। सेकेणटेणं जाव पासइ ? गोयमा ! तस्स खलु एवं भवइ, एसखलु वाणारसीए नयरीए एस खलु रायगिहे नगरे एस खलु अंतरा एगं महं Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणगार 276 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणगार जणवयवग्गं, नो खलु एस महं वीरियलद्धी वेउब्वियलद्धी विमंगनाणलद्धी इड्डी जुत्ती जसे बले वीरिए पुरिसक्कारपरक्कमे लद्धे पत्ते अभिसमण्णागए, सेसे दंसणे विवच्चासे भवइ,से तेणद्वे णं जाव पासइ। अणगारेणं मंते ! भावियप्पा अमायी सम्मदिट्ठी वीरियलद्धीए देउव्वियलद्धीए ओहिनाणलद्धीए रायगिहे नगरे समोहए समोहणित्ता वाणारसीए नयरीए रूवाइं जाणइ पासइ ? हंता! जाणइपासइ। सेमंते ! किंतहाभावं जाणइ पासइ, अण्णहामावं जाणइपासइ? गोयमा! तहामावं जाणइ पासइ, नो अण्णहामावं जाणइ पासइ।से केणटेणं मंते ! एवं वुच्चइ? गोयमा ! तस्स णं एवं भवइ, एवं खलु अहं रायगिहे नगरे समोहए समोहणित्ता वाणारसीए नगरीए रूवाइं जाणामि पासामि / सेसे दंसणे अविपञ्चासे मवइ, से तेणद्वे णं गोयमा ! एवं वुच्चइ / बीओ वि आलावगो एवं चेव, णवरं वाणारसीए नयरीए समोहणा णेयव्वो। रायगिहे नयरे रूवाइं जाणइ पासइ। अणगारेणं मंते ! भावियप्पा अमायी सम्मदिट्ठी वीरियलद्धीए वेउव्वियलद्धीए ओहिनाणलद्धीए रायगिहे वाणारसिं नगरिं च अंतरा एगं महं जणवयवग्गं समोहए समोहएत्ता रायगिह नगरं वाणारसिंचनगरि तं च अंतरा एणं महंजणवयवम्गं जाणइ पासइ ? हंता ! जाणइ पासइ / से मंते ! किं तहामावं जाणइ पासइ, अण्णहामावं जाणइपासइ? गोयमा! तहामावं जाणइपासइ, नो अण्णहामावं जाणइ पासइ से केणटेणं? गोयमा ! तस्स णं एवं भवइ, नो खलु एस रायगिहे णो खलु एस वाणारसी नगरी नो खलु एस अंतरा एगे जणवयवग्गे एस खलु ममं वीरियलद्धी वेउब्वियलद्धी ओहिणाणलद्धी इवी जुत्ती जसे बले वीरिए पुरिसक्कारपरक्कमे लद्धे पत्ते अभिसमण्णागए सेसे दंसणे अविवच्चासे भवइ, से तेणडे णं गोयमा! एवं वुचइ, तहामावं जाणइ पासइ, नो अण्णहाभावं जाणइपासइ। अणगारे णं मंते ! भावियप्पा बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पमू ! एणं महंगामरूवं वा नगररूवं वा जाव सन्निवेसरूवं वा विकुवित्तए ? गोयमा ! णो इणढे समढे / एवं बितिओ वि आलावओ, नवरं बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता। पमू ! अणगारे णं भंते ! केवइयाइं पमू ! गामरूवाइं विकुवित्तए ? गोयमा ! से जहानामए जुवई जुवाणे हत्थेण हत्थे गेण्हेज्जा, तं चेव जाव विकुट्विति वा 3 / एवं जाव सण्णिवेसरूवं वा 3 / (असिचम्मपायं गहाए त्ति) असिचर्मपात्रं स्फुरकः। अथवा असिश्च खड्गः, चर्मपात्रं च स्फुरकः, खड्गकोशको वा, असिचर्मपात्रं तद् गृहीत्वा। (असिचम्मपायहत्थकिचगएणं अप्पाणेणं ति) असिचर्मपात्र हस्ते यस्य स तथा कृत्यं संघादिप्रयोजनं गत आश्रितः कृत्यगतः, ततः कर्मधारयः। अतस्तेन आत्मना। अथवा असिचर्मपात्रं कृत्यं हस्ते कृतं येनासौ असिचर्मपात्रहस्तकृत्यकृतः, तेन, प्राकृतत्वाच्चैवं समासः / अथवा असिचर्मपात्रस्य हस्तकृत्य हस्तकरणं गतः प्राप्तोः यः स तथा, तेन। (पलियंक ति) आसनविशेषः प्रतीतश्च (विग त्ति) वृकः / (दीविय त्ति) चतुष्पद विशेषः। (अच्छत्ति) ऋक्षः। (तरच्छत्ति)व्याघ्रविशेषः। (परासर त्ति) शरभः / तथाऽन्यान्यपि शृगाला-दिपदानि वाचनान्तरे दृश्यन्ते / (अभिजुंजित्ताए त्ति) अभियोक्तुं विद्याऽऽदिसामर्थ्यतस्तदनुप्रवेशेन व्यापारयितुं यच्च स्वस्या-नुप्रवेशनेनाभियोजनं तद्विद्यादिसामोपात्तबाह्यपुद्गलान् विना न स्यादिति कृत्वोच्यते (नो बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्तए त्ति) (अणगारे णं से ति) अनगार एवासौ तत्त्वतोऽनगारस्यैवा-ऽश्वाद्यनुप्रवेशेन व्याप्रियमाणत्वात् (मायी अभिजुंजइ त्ति) कषायवानभियुक्त इत्यर्थः / अधिकृतवाचनायां 'मायी विउव्वइत्ति' दृश्यते। तत्रचाभियोगोऽपि विकुर्वणेतिमन्तव्यम्, विक्रियारूपत्वात्तस्येति / (अन्नयरेसु ति) आभियोगिकदेवा अच्युतान्ता भवन्तीति कृत्वा अन्यतरेष्वित्युक्तम्, केषुचिदित्यर्थः। व्युत्पद्यते चाभियोगभावनायुक्तः साधुराभियोगिक देवेषु, करोति च विद्यादिलब्ध्युपजीवकोऽभियोगभावनाम् / यदाह - 'मंता जोगं काउं, भूईकम्मं तुजे पउंजंति। साइरसइड्डिहेउं, अभिओगंभावणं कुणइ॥१॥" इत्थीत्यादिसङ् गृहगाथा गतार्था (इति तृतीयशतके पञ्चमः) विकुर्वणाधिकारसम्बद्ध एव षष्ठ उद्देशकः, तस्य चायसूत्रम्। (अणगारे णमित्यादि) अनगारो गृहवासत्या-गाद्भावितात्मा। स्वसमयानुसारिप्रशमादिभिर्मायीत्युपलक्षणत्वात् कषायवान् / सम्यग्दृष्टिरप्येवं स्यादित्याह-मिथ्यादृष्टिरन्यतीर्थिक इत्यर्थः / वीर्यलब्ध्यादिभिः / करणभूताभिर्वाराणसी नगरी (संमोहए त्ति) विकुर्वितवान् राजगृहे नगरे रूपाणि पशुपुरुषप्रासादप्रभृतीनि जानाति पश्यति विभङ्ग ज्ञानलब्ध्या (नो तहाभावं त्ति) यथा वस्तु तथा भावोऽभिसंधिर्यत्र ज्ञाने तत्तथाभावम् / अथवा यथैव संवेद्यते तथैव भावो बाह्य वस्तु यत्र तत्तथाभावम्, अन्यथा भावो यत्र तदन्यथा-भावम्। क्रियाविशेषणे चेमे। स हिमन्यतेऽहं राजगृहं नगरं समवहतो वाराणस्या रूपाणि जानामि पश्यामीत्येवम् / (से त्ति) तस्याऽनगारस्य (से ति) असौ दर्शने विपर्यासो विपर्ययो भवति, अन्यदीयरूपाणा-मन्यदीयतया विकल्पितत्वात् / दिङ मोहादिव पूर्वामपि पश्चिमा मन्यमानस्येति क्वचित् (सेसे दंसणे वियरीए विवचासे त्ति) दृश्यते तत्रच तस्य तद्दर्शनं विपरीतं क्षेत्रव्यत्ययेनेति कृत्वा विपर्यासो मिथ्येत्यर्थः। एवं द्वितीयसूत्रमपि। तृतीये तु (वाणारसी नगरी रायगिहं नयरं अंतराए एगं महंजणवयग्गं समोहएत्ति) वाराणसी राजगृहं तयोरेव चान्तरालवर्त्तिनं जनपदवर्ग देशसमूहंसमवहतो विकुर्वितवान्, तथैव च तानि विभङ्ग तो जानाति पश्यति केवलं नो तथाभावम्, यतोऽसौ वैक्रियाण्यपि तानि मन्यते स्वाभाविकानीति (जस्से ति) यशोहेतुत्वाद्यशः (नगररूवं वा) इह यावत्करणादिदं दृश्यम् -निगमरूवं वा, रायहाणिरुवं वा, खेडरूवं वा, कवडरूवं वा, मडंबरूवं वा, दोणमुहरूवं वा, पट्टणरूवं वा आगररूवंवा,आसमरूवं वा, संवाहरूवंव त्ति / भ०३ श०६ उ०। Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणगार 277 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणगार (15) अनगारस्य भावितात्मनो वृक्षमूलस्कन्धादिदर्शनम् - अणगारेणं भंते ! भावियप्पा रुक्खस्स किं अंतो पासइ, बाहिं | पासइ चउमंगो / एवं किं मूलं पासइ, कंदं पासइ? चउमंगो। मूलं पासइ, खंधं पासइ ? चउमंगो / एवं मूलेणं बीजं संजोएयव्वं / एवं कंदेण वि समं जोएयव्वं जाव बीयं / एवं जाव पुप्फेण समं बीयं संजोएयव्वं / अणगारे णं मंते ! भावियप्पा रुक्खस्स किं फलं पासइ, बीयं पासइ? चउमंगो। (अंतो त्ति) मध्यं काष्ठसारादि, (बाहिं ति) बहिर्वर्तित्वक् - पत्रसञ्चयादि / (एवं मूलेणमित्यादि) एवमिति मूलकन्द-सूत्राभिलापेन मूलेन सह कन्दादिपदानि वाच्यानि, यावद् बीजपदम् / तत्र च मूलं 1, कन्दः२, स्कन्धः३, त्वक् 4, शाखा 5, प्रवालं 6, पत्र७, पुष्पं 8, फलं 6, बीजं 10 चेति दश पदानि / एषां च पञ्चचत्वारिंशद्विक-संयोगाः।। एतावन्त्येवेह चतुर्भङ्गीसूत्राण्यध्येयानीति। एतदेव दर्शयितुमाह - (एवं कंदेण वीत्यादि) भ०३ श०४ उ०। (16) अनगारस्सभावितात्मनो बाह्यपुद्गलादानपूर्वक उल्लङ्घनप्रलङ्घने - अणगारे णं भंते ! भावियप्पा बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू ! वेमारपव्वयं उल्लंघेत्तए वा पलंघेत्तए वा ? गोयमा ! णो इणढे समढे / अणगारे णं मंते ! मावियप्पा बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पमू ! वेभारपव्वयं उल्लंघेत्तए वा पलंघेत्तए वा ? हंता ! पमू / अणगारे णं भंते ! मावियप्पा बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता जावइयाइं रायगिहे नगरे रूवाइं एवइयाई विउव्वित्ता वेभारपव्वयं अंतो अणुप्पविसित्ता पमू! समंवा विसमं करेत्तए, विसमं वा समं करेत्तए ? | गोयमा ! नो इणढे समढे, एवं चेव बितिओ वि अलावगो,णवरं परियाइत्ता पभू ! से भंते ! किं मायी विकुव्वइ, अमायी विकुव्वइ ? गोयमा ! मायी विकुव्वइ, णो अमायी विकुव्वइ / से केणद्वेणं भंते ! एवं वुचइ, जाव नो अमायी विकुव्वइ? गोयमा! मायीणं पणीयं पाणभोयणं भोचा भोचा वामेइ, तस्स णं तेणं पणीएणं पाणभोयणेणं अद्वि अद्विमिंजा बहलीभवंति,पयणुए मंससोणिए भवइ, जे विय से अहाबायरा पोग्गला, ते वियसे परिणमंति। सोइंदियत्ताए जाव फासिंदियत्ताए अद्वि अद्विमिंजकेसमंसूरोमनहताए सुक्कत्ताए सोणियत्ताए अमायीणं लूहं पाणमोयणं मोचा भोचा णो वामेइ, तस्स णं तेणं लूहेणं पाणभोयणेणं अहि-अद्विमिंजापयणुभवंति बहले मंससोणिए जे विय से अहाबादरा पोग्गला ते वि य से परिणमंति। तं जहा- उच्चारत्ताए जाव सोणियत्ताए, से तेणद्वेणं जाव नो अमायी विकुव्वइ / मायीणं तस्स ठाणस्स अणालोइय पडिकते कालं करेइ, नत्थि तस्स आराहणा, अमायीणं तस्स ठाणस्स आलोइय पडिक ते कालं करेइ, अत्थि तस्स आराहणा / सेवं मंते ! भंते ति। (बाहिरए त्ति) औदारिकशरीरव्यतिरिक्तान वैक्रियानित्यर्थः। (वेभारं ति) वैभाराऽभिधानं राजगृहक्रीडापर्वतं (उल्लं चित्तए वेत्यादि) तत्रोल्लज्जनं सकृत्, प्रलङ्घनं पुनःपुनरिति (नो इणढे समढे त्ति) वैक्रियपुद्गलपर्यादानं विना वैक्रियकरणस्यैवाभावात् / बाह्यपुद्गलपर्यादाने तु सति पर्वतस्योल्लङ्घनादौ प्रभुः स्यात्, महतः पर्वतातिक्रामिणः शरीरस्य सम्मवादिति। (जावइयाइं इत्यादि) यावन्ति रूपाणि पशुपुरुषादिरूपाणि (एवइयाई ति) एतावन्ति (विउव्वित्त त्ति) वैक्रियाणि कृत्वा वैभारं पर्वतं समं सन्तं विषमं, विषमं तु सम, कर्तुमिति सम्बन्धः। किं कृत्वेत्याह-अन्तर्मध्ये वैभारस्यैवानुप्रविश्य (मायी ति) मायावानुप- लक्षणत्वादस्य सकषायप्रमत्त इति यावत् / प्रमत्तो हि न वैक्रियं कुरुत इति / (पणीयं ति) प्रणीतं गलत्स्नेहबिन्दुकम् (भोचा भोचा वामेइ ति) वमनं करोति, विरेचनं वा करोति, वर्णबलाद्यर्थ यथाप्रणीतभोजनं तद्वमनं च विक्रियास्वभावं मायित्वाद् भवति, एवं वैक्रियकरणमपीति तात्पर्यम् / (बहुलीभवंति त्ति) घनी-भवन्ति, प्रणीतसामर्थ्यात् (पयणुए त्ति) अधनम् (अहाबायर त्ति) यथोचितबादरा आहारपुद्गला इत्यर्थः / 'परिणमंति' श्रोत्रेन्द्रिया- दित्वेन, अन्यथा शरीरदाया॑ऽसंभवात् / (लूहं ति) रूक्षमप्रणीतम् (णो वामेइ त्ति) अकषायितया विक्रियायामनर्थित्वात् 'पास-वणत्ताए' इह यावत्करणादिदं दृश्यम् - खेलत्ताए सिंघाणत्ताए वंतत्ताए पित्तत्ताए पूयत्ताए त्ति, रूक्षभोजिन उचारादितयैवाऽऽहारादिपुद्गलाः परिणमन्ति, अन्यथा शरीरस्यासारताऽनापत्तेरिति / माय्यमायिनोः फलमाह (मायीणमित्यादि) (तस्स द्वाण त्ति) तस्मात् स्थानात् विकुर्वणाकरणात्, प्रणीतभोजनलक्षणात् वा (अमायीणमित्यादि) परममायित्वाद् वैक्रियं प्रणीतभोजनं वा कृतवान्, पश्चाद् जातानुतापोऽमायी सन् तस्मात् स्थानात् आलोचितप्रतिक्रान्तः सन् कालं करोति, यस्तस्याऽस्त्याराधनेति / भ०३ श० 4 उ० (17) वैक्रियसमुद्घातेन कृतरूपमनगारो जानाति? न वेतिअणगारेणं भंते ! भावियप्पादेवं वेउव्विय समुग्घाएणं समोहय जाणरूवेणं जायमाणं जाणइ पासइ ? गोयमा ! अत्थेगइए देवं पासइ, नो जाणं पासइ? अत्थेगइए णं जाणं पासइ, नो देवं पासइ / अत्थेगइए देवं पिजाणं पिपासइ 3 अत्थेगइए नो देवं पासइ नो जाणं पासइ / अणगारे णं भंते ! भावियप्पा देविं विउव्विय समुग्धाए णं समोहय जाणरूवे णं जायमाणिं जाणइपासइ? गोयमा ! एवं चेव। अणगारे णं भंते ! भावियप्पा देवं सदेवियं वेउव्विय समुग्धाएणं समोहयजाणरूवेणं जायमाणं जाणइ पासइ ? गोयमा ! अत्थेगइए देवं सदेवियं पासइ, नो जाणं पासइ। एएणं अमिलावेणं चत्वारि मंगा। तत्र भावितात्मा संयमतपोभ्यामेवं विधानामनगाराणां हि प्रायोऽवधिज्ञानादिलब्धयो भवन्तीति कृत्वा भावितात्मेत्युक्तम्, विहितोत्तरवैकि यशरीरमित्यर्थः / येन प्रकारेण शिविकाद्या Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणगार २७८-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणगारगुण कारवता, वैक्रियविमानेनेत्यर्थः / यान्तं गच्छन्तं, ज्ञानेन दर्शनेन / उत्तरमिह चतुर्भङ्गीविचित्रत्वादवधिज्ञानस्येति / भ०३ श०३ उ०। (अगारस्य भावितात्मनः केवलीसमुद्घातसमवहतस्य, मारणान्तिकसमुद्घातसमवहतस्य वा चरमपुद्गलाः सर्वलोकं स्पृष्ट्वा तिष्ठन्ति इति 'केवलिसमुग्घाय' शब्दे तृतीयभागे वक्ष्यते) (1) अनगारस्य निक्षेपः। (2) अनगारत्वं वीरान्तेवासिनां वर्णकः। पृथ्वीकायिकादिहिसकानामनगारत्वं न भवति। (4) क्रियाऽसंवृतोऽनगारो न सिद्ध्यति। (5) अनगारस्य भावितात्मनोऽसिधारादिष्ववगाहना। अनगारस्य भक्तप्रत्याख्यातुराहारः। (7) शैलेशीप्रतिपन्नस्यानगारस्य एजना। (8) अनगारो भावितात्माऽऽत्मनः कर्मलेश्याशरीरे जानाति / (8) अनमारस्य भावितात्मनः क्रिया। (10) संवृतस्यानगारस्य क्रिया। (11) अनगारस्य गत्युपपादौ। (12) असंवृतस्यानगारस्य विकुर्वणा। (13) केयाघटिकालक्षणकृत्यादिविकुर्वणा। (14) अनगारस्य भावितात्मनः स्त्रीरूपस्य बाह्यपुद्गलादानपूर्वकं विकुर्वणा। (15) अनगारस्य भावितात्मनो वृक्षमूलस्कन्धादिदर्शनम्। (16) अनगारस्य भावितात्मनो बाह्यपुद्गलादानपूर्वकमुल्लङ्घन प्रलङ्घने। (17) वैक्रियसमुद्घातेन कृतरूपमनगारो जानाति? न वेति। *ऋणकार-पुं० ऋणमिव कलान्तरक्लेशानुभवहेतुतया ऋण मष्टप्रकारं कर्म, तत्करोतीति कोऽर्थः तथा तथा गुरुवचनविपरीतप्रवृत्तिभिरुपचिनोतीति ऋणकारः / दुःशिष्ये, उत्त० 10 // अणगारगुण-पुं०(अनगारगुण) 6 तासाधोः व्रतषकेन्द्रिया-भिग्रहादिषु सप्तविंशतिगुणेषु, उत्त०३१ अ०॥ सत्तावीसं अणगारगुणा पण्णत्ता / तं जहा- पाणाइवायाओ वेरमणं, मुसावायाओ वेरमणं, अदिन्नादाणाओ वेरमणं, मेहुणाओ देरमणं, परिग्गहाओ वेरमणं, सोइंदियनिग्गहे चक्खिंदियनिग्गहे, घाणिं-दियनिग्गहे, जिभिदियनिग्गहे, फासिंदियनिग्गहे, कोहविवेगे, माणविवेगे, मायाविवेगे, लोभविवेगे, भावसचे, करणसचे, जोगसचे, खमाविरागया मणसमाहरणया, वयसमाहरणया कायसमाहरणया णाणसपन्नया दसणसंपन्नया, चरित्तसंपन्नया, वयणआहयासणया, मारणंतियअहियासणया। अनगाराणां साधूनां, गुणाश्चारित्रविशेषाः अनगारगुणाः। तत्र महाव्रतानि पञ्च 5, पञ्चेन्द्रियनिग्रहाश्च पञ्च 10, क्रोधादि- विवेकाश्चत्वारः 14, सत्यानि त्रीणि / तत्र भावसत्यं शुद्धा-ऽन्तरात्मना 15, करणसत्यंयतिप्रतिलेखनादिक्रियाः, तां यथोक्तं सम्यगुपयुक्तः कुरुते 16, योगसत्यं-योगानां मनःप्रभृतीनामवितथत्वम् 17, क्षमाऽनभिव्यक्त क्रोधमानस्वरूपस्य द्वेषसंज्ञितस्याऽप्रीतिमात्र स्याऽभावः / अथवा क्रोधमानयोरुदयनिरोधः, क्रोधमानविवेकशब्दाभ्यां तदुदयप्राप्तयोनिरोधः, प्रागेवाभिहित इति न पुनरुक्तताऽपीति 18, विरागताअभिष्वङ्गमात्रस्य भावः / अथवा मायालोभयोः अनुदयो मायालोभविवेकशब्दाभ्यां तूदयप्राप्तयोस्तयो निरोधः प्रागभिहित इतीहापि न पुनरुक्ततेति 16, मनोवाकायानां समाहरणता, पाठान्तरतः 'समत्वाहरणता' अकुशलानां निरोधाः त्रयः 22, ज्ञानादिसंपन्नतास्तिस्रः 25, वेदनाऽतिसहनताशीताद्यतिसहनम् २६,मारणान्तिकाऽतिसहनता कल्याणमित्रबुद्ध्या मारणान्ति-कोपसर्गसहनमिति २७।स०२७ सम०। उत्त०। प्रश्न०। जीता आ० चूला संथा०॥ पुनरन्येन प्रकारेण साधुगुणान् दर्शयितुमाहसे जहाणामए अणगारा भगवंतो ईरियासमिया भासासमिया एसणासमिया आयाणभंडमत्तणिक्खेवणासमिया उच्चारपासवणखेलसिंघाणजल्लपरिट्ठावणियासमिया, मणसमिया वयसमिया कायसमिया, मणगुत्ता वयगुत्ता कायगुत्ता, गुत्ता गुत्तिं दिया गुत्तबंभचारी, अकोहा अमाणा अमाया अलोभा, संता पसंता उवसंता परिणिव्वुडा, अणासवा अग्गंथा, छिन्नसोया निरुवलेवा, कंसपाय व्द मुक्कतोया, संख इव णिरंजणा, जीव इव अपडिहयगती, गगणतलं पि व निरालंबणा, वाउरिव अपडिबंधा, सारदसलिल इव सुद्धहियया, पुक्खरपत्त इद निरुवलेवा, कुम्मो इव गुत्तिं दिया, विहग इव विप्पमुक्का, खम्गिविसाणं व एगजाया, भारंडपक्खी व अप्पमत्ता, कुंजरो इव सोंडीरा, वसभो इव जातत्थामा, सीहो इव दुद्धरसा, मंदरो इव अप्पकंपा, सागरो इव गंभीरा, चंदो इव सोमलेसा, सूरो इव दित्ततेया, जचकंचणगं च इव जातरूवा, वसुंधरा इव सव्वफासविसहा, सुहुयहुयासणो विव तेयसा जलंता ||7|| णत्थि णं तेसिं भगवंताणं कत्थवि पडिबंधे भवइ, से पडिबंधे चउविहे पण्णत्ते / तं जहा-अंडएइ वा (वोडजेइ वा) पोयएइ वा उग्गहेइ वा पग्गहेइ वा, जन्नं जनं दिसं इच्छंति तन्नं तन्नं दिसं अपडिबद्धा सुइभूया अप्पलहूभूया अप्परगंथा संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरंति।।७१|| तेसिं णं भगवंताणं इमा एतारूवा जाया माया वित्ती होत्था / तं जहा- चउत्थे भत्ते, छटे भत्ते, अट्ठमे भत्ते, दसमे भत्ते, दुवालसमे भत्ते, चउदसमे भत्ते, अद्धमासिए भत्ते, मासिए भत्ते, दोमासिए तिमासिए चाउम्मासिए पंचमासिए छम्मासिए / अदुत्तरं च णं उक्खित्तचरया णिक्खित्तचरया उक्खित्तणिक्खित्तचरगा, अंतचरगा पंतचरगा लूहचरगा समुदाणचरगा, संसठ्चरगा असंसठ्ठचरगा तज्जातसंसहचरगा, दिवलामिया अदिहलामिघाट, पुष्टुलानिया अपुहलाभिया, भिक्खुलाभिया अभिक्खुलामिया, अन्नायचरगा अन्नायलोगचरगा, उवनिहिया संखादत्तिया, परिमितपिंडवाइया सुद्धेसणिया, अंताहारा पंताहारा, अरसाहारा विरसाहारा, लूहाहारा तुच्छाहारा, अंतजीवी पंतजीवी, आयंबिलिया पुरिमड्डिया, विगइया, अमञ्जमंसासणिणो, णो णियागरसभोइट्ठाणाइया, पडिमाहाणाइया, उक्कडु आसणिया, पापा Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणगारगुण 279 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणगारमग्गगइ णेसज्जिया, वीरासणिया, दंडायतिया,लगंडसाइणो, अप्पाउडा, अगत्तया, अकंड्या, अणिहा,धूतकेस मंसरोमनहा, सव्वंगा य पडिक्कमविप्पमुक्का चिटुंति॥७२॥ ते णं एतेणं विहारेणं विहरमाणा बहूई वासाइं सामन्नपरियागं पाउणंति, बहु बहु आबाहंसि उप्पन्नंसि वा अणुप्पन्नंसि वा बहूई भत्ताई पथक्खाइ, पचक्खा-इत्ता बहूई वासाइं अणसणाई छेदिति, अणसणाई छेदित्ताजस्सट्ठाए कीरति नग्गभावे मुंडभावे अण्हाण-भावे, अदंतवणगे अछत्तए अणोवाहणए, भूमिसेज्जा फलगसेज्जा कट्ठसेजा, केसलोएबंभचेरवासे परघरपवेसे लद्धा अलद्धमाणा अमाणणाओ हीलणाओ निंदणाओ खिसणाओ गरहणाओ तज्जणाओ तालणाओ उच्चावया गामकंटगा बावीसं परीसहोवसग्गं अहियासचिंति, तमढें आराहंति, तमटुं आराहित्ता चरमेहिं उस्सासनिस्सासेहिं अणंतं अणुत्तरं निव्वाघातं निरावरणं कसिणं पडिपुण्णं केवलवरणाणदंसणसमुप्पाडेंति, समुप्पाडें तित्ता ततो पच्छा सिज्झंति बुज्झंति मुचंति परिणिव्वायंति सव्वायंति सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति // 73 // तद्यथा नाम केचनोत्तमसंहननधृतिबलोपेता अनगारा भगवन्तो भवन्तीति / ते पञ्चभिः समितिभिः समिताः, एवमित्युपदर्शने / औपपातिकमाचाराङ्ग संबन्धिप्रथममुपाङ्ग, तत्र साधुगुणाः प्रबन्धेन व्यावर्ण्यन्ते, तदिहापि तेनैव क्रमेण द्रष्टव्यमित्यतिदेशः / यावद्भूतमपनीतं केशश्मश्रुलोमनखादिकं यैस्ते, तथा सर्वगात्र-परिकर्मविप्रमुक्ता निष्प्रतिकर्मशरीरास्तिष्ठन्तीति !70-72 / / तेचोगविहारिणः प्रव्रज्यामनुपाल्य बाधारूपे रोगातः समुत्पन्नेऽनुत्पन्ने वा भक्तप्रत्याख्यानं विदधति / किं बहुनोक्तेन ? यत्कृतेऽयमयोगोलकवन्निरास्वादः, करवालधारामार्गवद् दुरध्यवसायः, श्रमणभावोऽनुपाल्यते, तमर्थं सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्राख्यमाराध्य अव्याहतमनन्तं मोक्षकारणं केवलज्ञान-माप्नुवन्ति, केवलज्ञानाऽवाप्रूज़ सर्वदुःखविमोक्षलक्षणं मोक्षमवाप्नु-वन्तीति // 73 // सूत्र०२ श्रु०२अ०) अणगारचरित्तधम्म-पुं०(अनगारचरित्रधर्म) अगारं नास्ति येषां तेऽनगाराः साधवः, तेषां चारित्रधर्मः ! महाव्रतादिपालनरूपे चारित्रधर्मभदे, "अणगारचरितधम्मेदुविहे पण्णत्ते। तंजहा सरागसंजमे, वीयरागसंजमे" स्था०२ ठा०१ उ०॥ (व्याख्या चाऽस्य स्वस्वस्थाने द्रष्टव्या) अणगारधम्म-पुं०(अनगारधर्म) ६ता सर्वविरतिचारित्रे यतिधर्म, औ० अणगारधम्मो ताव इह खलु सव्वओ सव्वयाए मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पव्वइस्सं, सव्वाओ पाणाइवायाओ देरमणं,मुसावाय-अदिन्नादाण-मेहुण-परिग्गह-राईभोअणाओ वेरमणं, अयमाउसो! अणगार-सामइए धम्मे पण्णत्ते। एअस्स धम्मस्स सिक्खाए उवट्ठिए निग्गंथे वा निग्गंथी वा विहरमाणे आणाए आराहए भवति। अथाऽधिकृतवाचना- इह खलु इहैव मर्त्यलोके, (सव्वओ सव्वयाए ति) सर्वतः द्रव्यतो भावतश्चेत्यर्थः / सर्वात्मना सर्वान् / क्रोधादीनात्मपरिणामानाश्रित्येत्यर्थः। एते चमुण्डीभूत्वेत्यस्य विशेषणे, अनगारिता प्रव्रजितस्येत्यन्तस्य वा (अयमाउसो त्ति) अयमायुष्मन् ! (अणगारसामइए त्ति) अनगाराणां समये सामाचारे, सिद्धान्ते वा भवोऽनगारसामयिको, अनगारसामयिकं वा (सिक्खाए त्ति) शिक्षायामभ्यासे (आणाए त्ति) आज्ञाया विहरन् आराधको भवति ज्ञानादीनाम् / अथवा आज्ञाया जिनोपदेशस्याऽऽराधको भवतीति / औ० . साधुधर्ममाहखंतीय मद्दवऽज्जव, मुत्ती तवसंजमे अबोधव्वे। सचं सोयं आकिंचणं च बंभं च जइधम्मो // 14 // क्षान्तिश्च, मार्दवम्, आर्जवम्, मुक्तिः तपःसंयमौ च बोद्धव्यौ, सत्यं, शौचम्, आकिञ्चन्यं, ब्रह्मचर्यं च यतिधर्म इति गाथाक्षरार्थः // 14 // दश० नि०६अ० सापेक्षो निरपेक्षश्च, यतिधर्मो विधा मतः। सापेक्षस्तत्र शिक्षायै.गुर्वन्तेवासिताऽन्वहम्।। यतिधर्म उक्तलक्षणः मुनिसंबन्ध्यनुष्ठानविशेषः, द्विधा द्वाभ्यां प्रकाराभ्यां, मतः प्ररूपितः, जिनैरिति शेषः / द्वैविध्यमेवाह- सापेक्षो निरपेक्षश्चेति / तत्र गुरुगच्छादिसाहाय्यमपेक्षमाणो यः प्रव्रज्यां परिपालयति, स सापेक्षः। इतरस्तु निरपेक्षो यतिः, गच्छाद्यपेक्षारहित इत्यर्थः / तयोर्धर्मोऽपि क्रमेण गच्छवासलक्षणो जिनकल्पादिलक्षणश्च सापेक्षो निरपेक्षश्वोच्यते, धर्मधर्मिणोरभेदोपचारात् / तत्र तयोः सापेक्षनिरपेक्षयति-धर्मयोर्मध्यात् अयं सापेक्षयतिधर्मो भवतीति क्रियासंबन्धः / एवमग्रेऽपि योज्यम् / स च यथा शिक्षाया इत्यादि / तत्र शिक्षा अभ्यासः / सा च द्विधा - ग्रहणशिक्षाऽऽसेवनाशिक्षा चेति / तत्र ग्रहणशिक्षाप्रतिदिनसूत्रार्थग्रहणाऽभ्यासः। आसेवनाशिक्षा प्रतिदिनक्रियाऽभ्यासः। तस्यैतदर्थं, न तूदरपूाद्यर्थमिति भावः। ध० 2 अधि। अणगारमग्गगइ-स्त्री०(अनगारमार्गगति) 6 त० सम्यग्दृष्टे : तत्प्रतिबन्धपरित्यागरूपेण निर्मुक्तस्य सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेषु सिद्धिगतौ च। उत्ता एषां चोत्तराध्ययनानां पञ्चत्रिंशेऽध्ययने दर्शितानि सूत्राणि सुणेह मेगम्गमणे, मग्गं बुद्धेहि देसियं / जमायरंतो भिक्खू य, दुक्खाणंतकरो भवे ||1|| शृणुत आकर्णयत, मे मम, कथयत इति शेषः। एकाग्रमनसः कोऽर्थः? अनन्यगतचित्ताः सन्तः, शिष्या इति शेषः। किं तदित्याह- मार्गमुक्तरूपं प्रक्रमान्मुक्तैर्बुद्धैरवगतयथास्थितवस्तु-तत्त्वैरुत्पन्नके वलैरहद्भिः श्रुतकेवलिभिर्गणधरादिभिर्वेत्युक्तंभवति। देशितं प्रतिपादितम्। अर्थतः सूत्रतश्च / तमेव विशेषयितुमाह (जमिति) मार्गमाचरन् आसेवमानो, भिक्षुरनगारो, दुःखानां शारीरमानसानामन्तः पर्यन्तः तत्करणशीलोऽन्तकरो, भवेत् स्यात्, सकलकर्मनिर्मूलनत इति भावः / तदनेनासेव्यासेवक- संबन्धेनाऽनगारसंबन्धिमार्ग , तत्फलं च मुक्तिगतिरिति दर्शितम् / ततश्चानगारमार्ग , तद्गतिं च शृणुत इत्यर्थः, उक्तं भवतीति सूत्रार्थः / / 1 / / यथाप्रतिज्ञातमाहगिहवासं परिचज, पव्वजामस्सिओ मुणी। Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणगारमग्गगइ २८०-अभिधानराजेन्द्रः-भाग 1 अणगारमग्गगइ इमे संगे वियाणिज्जा, जेहिं सजंति माणवा // 2 // एकको रागद्वेषवियुक्तोऽसहायो वा, तथा विधयोग्यतायां, पारक्ये वा गृहवासं गृहावस्थानं, यदि वा गृहमेव पारवश्यहेतुतया पाशो गृहपाशस्तं, परसम्बन्धिनि तथाविधप्रतिबन्धेना-ऽस्वीकृते / पाठान्तरतः - परित्यज्य परिहत्य, प्रव्रज्यां सर्वसनपरित्यागलक्षणां भागवतीं दीक्षाम, "पतिरिक्के "देशीभाषयकान्तेस्त्र्याद्यसंकुले, परकृते परैरन्यैर्निष्पादिते, आश्रितः प्रतिपन्नः, मुनिः, इमान् प्रतिप्राणि-प्रतीततया प्रत्यक्षान्, स्वार्थमिति गम्यते / वा समुच्चये / वासमवस्थानं, तत्र श्मशानादौ, सङ्गान् पुत्रकलत्रादींस्तत्प्रतिबन्धान् वा, विजानीयाद्भवहेतवोऽमीति अभिरोचयेत् प्रतिभासयेत् / अर्थादात्मनो भिक्षुरित्युत्तरेण योगः // 6 // विशेषेणावबुध्येत, निश्चयतो निष्फलस्याऽसत्त्वात् ज्ञानस्य च फासुयम्मि अणाबाहे, इत्थीहिं अणमिदुए। विरतिफलत्यात् प्रत्याचक्षीतेत्युक्तं भवति। संगशब्दव्युत्पत्तिमाह ( जेहिं तत्थ संकप्पए वासं,भिक्खू परमसंजए |7|| ति) सुब्व्यत्ययाद् येषु, सअन्ते प्रतिबध्यन्ते, अथवा ये संगैः सज्जन्ते प्रासुके अचित्तीभूतभूभागरूपे, तथा अविद्यमाना बाधा, आत्मनः परेषां संबध्यन्ते, ज्ञानावरणादिकर्मणेति गम्यते ! के ते? मानवा मनुष्याः वाऽऽगन्तूकसत्वानां गृहस्थानां च यस्मिन्, तत्तथा तस्मिन, तथाउपलक्षणत्वादन्येऽपिजन्तवः / / 2 / / स्त्रीभिरङ्ग नाभिः, उपलक्षणत्वात् पण्डकादिभिश्चानभिद्रुते, तहेव हिंसं अलियं, चोज्जं अबंमसेवणं / तदुपद्रवरहित इत्यर्थः / एतानि हि मुक्तिपथप्रतिपन्थित्वेन तत्प्रवृत्ताइच्छाकामं च लोहं च, संजओ परिवज्जए॥३॥ नामुपद्रवहेतुभूतानीत्येवमभिधानम् / तत्रेति प्रागुक्त-विशेषणविशिष्टे तथेति समुचये / एवेति पूरणे / हिंसा प्राणव्यपरोपणम्, श्मशानादौ सम्यक्कल्पयेत् कुर्यात्। किम् ? वासम्, भिक्षणशीलो भिक्षुः / अलीकमनृतभाषणम्, चौर्यमदत्तादानम्, अब्रह्मसेवनं मैथुना-चरणम्, स च शाक्यादिरपि स्यादत आह-परमः प्रधानः, स चेह मोक्षस्तदर्थ इच्छारूपः काम इच्छाकामस्तं चाप्राप्तवस्तुकाक्षारूपं, लोभं च सम्यक् यतते परमसंयतः, जिनमार्गप्रतिपन्न इत्युक्तं भवति / तस्यैय लब्धवस्तुविषयगृझ्यात्मकम्, अनेनोभयेनापिपरिग्रह उक्तः। परिग्रहंच मुक्तिमार्ग प्रति वस्तुतः सम्यग्यत्नसंभवात्। प्राग्वासं तत्राऽभिरोचयेत् संयतो यतिः, परिवर्जयेत् परिहरेत् / अनेन मूलगुणा उक्ताः / इत्युक्ते, रुचिमात्रेणैव कश्चित् तुष्ये दिति / तत्र संकल्पयेद् एतदवस्थितस्यापिच शरीरिणोऽवश्यमा-श्रयाहाराभ्यां प्रयोजनं, तयोश्च वासमित्यभिधानम् // 7 // तदतिचारहेतुत्वमपि कयोश्चित् स्यादिति मन्वानस्तत्परिहाराय ननु किमिह परकृत इति विशेषणमुक्तमित्याशङ्कयाहसूत्रषट्केन तावदाश्रयचिन्तां प्रति यतते // 3 // न सयं गिहाइ कुव्वेजा, नेव अन्नेहि कारए। मणोहरं चित्तधरं, मल्लधूवेण वासियं। गिहकम्मसमारम्भे, भूयाणं दिस्सए वहो |8| सकवार्ड पंडुरुल्लोयं, मणसा वि न पत्थए। न स्वयमात्मना, गृहाणि उपाश्रयरूपाणि, कुर्वीत विदधीत, (मनोहरं ति) चित्ताक्षेपकं, किं तत् ? चित्रप्रधानं गृहम् / तदपि नैवाऽन्यैर्गृहस्थादिभिः, कारयेद् विधापयेत्, उपलक्षणत्वान्नापि कीदृशम् ? माल्यै ग्रंथितपुष्पै पनैश्च कालागुरुतुरुष्का- कुर्वन्तमनुमन्येत / किमिति ? यतो गृहनिष्पत्त्यर्थं कर्म गृहकर्म, दिसम्बन्धिभिर्वासितं सुरभीकृतं,माल्यधूपनवासितं, सह कपाटेनवर्तत इष्टकामृदानयनादि, तदेव समारम्भः, प्राणिनां परितापकरत्वात्। उक्तं इति सकपाटम्, तदपि पाण्डुरोल्लोचं श्वेतवस्त्रविभूषितं, मनसापि, हि- 'परितावकरो भवे समारंभो त्ति' / यद्वा-तस्य समारम्भः प्रवर्तन आस्तां वचसा, न प्रार्थयेत् नामिलषेत्, किं पुनस्तत्र तिष्ठेदिति गृहकर्मसमारम्भः, तस्मिन्, भूतानामेकेन्द्रियादिप्राणिनां, दृश्यते भावः ||4|| प्रत्यक्षत एवोपलभ्यते, कोऽसौ ? वधो विनाशः ||6|| किं पुनरेवमुपदिश्यत इत्याह भूतानां वध इत्युक्तं, तत्र मा भूत् केषांचिद् इंदियाणि उ मिक्खुस्स, तारिसम्मि उवस्सए। एवाऽसावित्याशङ्कयाहदुक्कराइ निवारे, कामरागविवडणे // 1 // तसाणं थावराणं च, सुहुमाणं बायराण य / इन्द्रियाणि चक्षुरादीनि, तुरिति यस्माद, भिक्षोरनगारस्य तादृशे तम्हा गिहसमारंभ, संजओ परिवज्जए।।६।। तथाभूते उपाश्रये, दुःखेन क्रियन्ते-करोतेः सर्वधात्यर्थत्वाच्छ-क्यन्ते सानां द्वीन्द्रियादीनां, स्थावराणां पृथिव्यायेकेन्द्रियाणाम्, चः दुष्कराणि, दुःशकानीत्यर्थः / तुरेवकारार्थः / दुष्कराण्येव समुचये। तेषामपि सूक्ष्माणामतिश्लक्ष्णानां शरीरापेक्षया, धारयितुमुन्मार्गप्रवृत्तिनिषेधतो मार्ग एव व्यवस्थापयितुम्। पठ्यते च - जीवप्रदेशापेक्षया तस्यामूर्ततयैवं प्रायो व्यवहारायोगाद्, बादराणां दुक्कराणि निवारिउंति। तत्रापि निवारयितुमिति नियन्त्रितुं, स्वस्थविषये चैवमेव, स्थूलानाम् / यद्वा- सूक्ष्मनामकर्मोदयात्सूक्ष्माणां, तेषामपि प्रवृत्तेरिति गम्यते / कीदृशीम् ? काम्यमानत्वात् कामममनोज्ञा प्रमादतो भावहिंसासंभवात् / बादरनामकर्मोदयाच बादराणाम् / इन्द्रियविषयास्तेषु रागोऽभि- ष्वङ्गस्तस्य विवर्द्धने विशेषेण वृद्धिहेतौ उपसंहर्तुमाह (तम्ह त्ति) यस्मादेवंभूतवधस्तस्माद, गृहसमारम्भं संयतः कामरागविवर्धने, तथाविधचित्तव्याक्षेपसंभवात्। कस्यचित् मूलगुणस्य सम्यग् हिंसादिभ्य उपरतः,अनगार इत्यर्थः। परिवर्जयेत् परिहरेत्।।६।। कथंचित् अतिचारसंभवे दोष इत्येवमुपदिश्यत इति भावः / / 5 / / इत्थमाश्रयचिन्तां विधायाहारचिन्तामाहएवं तर्हि क्व कीदृशंस्थातव्यम् ? - तहेव भत्तपाणेसु, पयणे फ्यावणेसुय। सुसाणे सुन्नगारे वा, रुक्खमूले व एगए। पाणमूयदयट्ठाए,न पएन पयावए।।१०।। पइरिके परकडे वा, वासं तत्थाभिरोयए।।६।। तथैव तनैव प्रकारेण, भक्तानि च शाल्योदनादीनि, पीयन्त इति श्मशाने प्रेतभूमौ, शून्यागारे उद्भसितगृहे वा विकल्पे, वृक्षमूले वा | पानानि च पयःप्रभृतीनि, भक्तपानानि, तेषु पचनानि च स्वयं पादपसमीपे, एकदेत्येकस्मिंस्तथाविधकाले पठ्यते चैवमपि एगगोत्ति' / विक्लेदापादनक्वथनानि, पाचनानि च तान्ये वाऽन्यैः पचन Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणगारमग्गगइ 281- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणगारमग्गगइ पाचनानि, तेषु च भूतवधो दृश्यत इति प्रक्रमः। ततः किमित्याह-प्राणा द्वीन्द्रियादयः, भूतानि पृथिव्यादीनि, तेषां दयारक्षणम, प्राणभूतदया। तदर्थम्-तद्धेतोः / किमुक्तं भवति? पचन-पाचनप्रवृत्तानां यः संभवी जीवोपधातः स मा भूदिति न पचेत्, स्वतो भक्तादीनिति प्रक्रमः। नापि पाचयेत्, तदेवान्यैरिति॥१०॥ अमुमेवार्थं स्पष्टतरमाहजलधन्ननिस्सिया जीवा, पुढवीकट्ठनिस्सिया। हण्णंति भत्तपाणेसु, तम्हा भिक्खू न पयावए / / 11 / / जलं च पानीयं, धान्यं च शाल्यादि, तन्निःश्रितास्तत्राऽन्यत्र च उत्पद्य ये तन्निःश्रया स्थिताः पूतरकभुजगेलिकापिपीलिकाप्रभृतयः / उपलक्षणत्वात् तद्रूपाश्च जीवाः प्राणिनः / एवं पृथ्वी-कायनिःश्रिता एकेन्द्रियादयो हन्यन्ते, भक्तपानेषु प्रक्रमात् पच्यमानादिषु / यत एवं तस्माद् भिक्षुर्न पाचयेत्। अत्र अपेर्ग-म्यमानत्वात् पाचयेदपि न, किं पुनः स्वयं पचेत्। अनुमति-निषेधोपलक्षणं चैतत्।११।। अपरंचविसप्पे सव्वओ धारे, बहुपाणिविणासणे। नत्थि जोइसमे सत्थे, तम्हा जोइं न दीवए॥१२॥ विसर्पतीति विसर्पम्, स्वल्पमपि बहु भवति / यत उक्तम् "अणथोवं वणथोवं, अग्गीथोवं" इत्यादि / सर्वतः सर्वासु दिक्षु, धारेव धारा जीवविनाशिका शक्तिरस्येति सर्वतो धारम्, सर्वदिगवस्थितजन्तूपघातकत्वात्। उक्तं च -"पाईणं पडणं वा वि'' इत्यादि। अत एव बहुधा प्राणविनाशनमनेकजीवजीवितं व्यपरोपकं, नास्ति न विद्यते, ज्योतिःसमम्-अग्नितुल्यम्, शस्यन्ते हिंस्यन्तेऽनेन प्राणिन इति शस्त्र प्रहरणम्, अन्यदिति गम्यते / तस्याविसर्पित्वाद सर्वतोधारत्वादल्पजन्तूपघातत्वाश्चेति भावः / सर्वत्र लिङ्गव्यत्ययः प्राग्वत् / यस्मादेवं तस्माद्, ज्योतिर्वैश्वानरम्, न दीपयेत् न ज्वालयेत् / अनेन च पचनस्याग्निज्वलनाऽविनाभावित्वात् तत्परिहार एव समर्थितः / इत्थं च विशेष प्रक्रमेऽपि सामान्याभिधानं प्रसङ्गतःशीतापनोदादिप्रयोजनेनापि तदारम्भनिषेधार्थम् , आधाकर्मादिका विशुद्धकोटिरनेनैवार्थतः परिहार्यो क्ता, तदपरिहारे ह्यवश्यंभावि-पचनानुमत्यादि प्रसङ्ग इति / / 12 / / नन्वेवं जीववधनिमित्तत्वमेव पचनादेर्निषेधे निबन्धनम् , तच नास्ति क्रयविक्र ययो रिति, युक्त-मेवाभ्यां निर्वहणमिति कस्यचिदाशङ्का स्यात् अतस्तदपनोदनाय हिरण्यादिपरिग्रहपूर्वकत्वात्तयोस्तन्निषेधपूर्वकत्वे सूत्रत्रयेण तत्परिहारमाहहिरन्नं जायरूवं च, मणसा विन पत्थए। समलेकंचणे मिक्खू, विरए कयविक्कए॥१३॥ हिरण्यं कनकम्, जातरूपं रूप्यम् / चकारोऽनुक्ताशेषधनधान्यादिसमुच्चये। मनसाऽपि चित्तेनापि, आस्तां वाचा, न प्रार्थयेद् -ममामुकं स्यादिति / अपेर्गम्यमानत्वात्प्रार्थयेदपि न, किं पुनः परिगृह्णीयात् / कीदृशः सन् ? समे, कोऽर्थः - प्रतिबन्धाभाव-तस्तुल्ये, लेष्टुकाञ्चने मृत्पिण्डखण्डकनकेऽस्येति समलेष्टु- काञ्चनः, एवंविधश्च सन् भिक्षुर्विरतो निवृत्तः, स्यादितिशेषः / कुतः? क्रयो मूल्येनाऽन्यसंबन्धेन तथाविधवस्तुनः स्वीकारः, विक्रयश्च तस्यैवात्मीयस्य तथाविधवस्तुजातेनाऽन्यस्यदानम् ,क्रयश्च विक्रयश्च क्रयविक्रयमिति समाहारः, तस्मात्। पञ्चम्यर्थे सप्तमी, विषये सप्तमी वा। तत्र च क्रयविक्रयविषये विरत इति-विरतिमानित्यर्थः // 13 // किमित्येवमत आहकिणतो कइओ होइ, विक्कणंतो य वाणिओ। कयविक्कयम्मि वस॒तो, मिक्खू न हवइ तारिसो // 14|| क्रीणन् परकीयं वस्तु मूल्येनाददानः, क्रयोऽस्याऽस्तीति क्रयिको भवति, तथाविधेतरलोकसदृश एव भवति / विक्रीणानश्च स्वकीय वस्तु तथैव परस्य ददद् वणिग् भवति, वाणिज्य-प्रवृत्तत्वादिति भावः, अत एव क्रयविक्रये उक्तरूपे, वर्तमानः प्रवर्त्तमानो, भिक्षुर्न तादृशो भवति, गम्यमानत्वाद् यादृशः सूत्राभिहितो भावभिक्षुरिति // 14 // किमित्याहमिक्खियव्वं न केयव्वं, मिक्खुणा मिक्खुवित्तिणा। कयविक्कओ महादोसो, मिक्खावित्ती सुहावहा / / 15|| मिक्षितव्यं याचितव्यम् , तथाविधं वस्त्विति गम्यते। न नैव, क्रेतव्यं मूल्येन ग्रहीतव्यम् , केन? भिक्षुणा / कीदृशः ? भिक्षयैव वृत्तिर्वर्तन निर्वहणं यस्याऽसौ भिक्षावृतिस्तेन / उक्तं हि -- 'सव्वं से जाइयं होइ, नत्थि किंचि अजाइयं''। क्रयविक्रयवद् भिक्षाऽपि सदोषैव भविष्यतीति मन्दधीर्मन्येत, तत आह- क्रयश्च विक्र यश्च क्रयविक्रयम्, व्यवच्छेदफलत्वादस्य, तदेव महादोषः उक्तन्यायतः, लिङ्गव्यत्ययश्च प्राग्वत् इति। भिक्षाया वृत्तिः शुभमिहलोकपरलोकयोः कल्याणं, सुखं वा तदावहति समन्तात् प्रापयतीति शुभावहा, सुखावहा वा / एतेन क्रीतदोषपरिहार उक्तः, स चाशेषविशुद्धकोटीगतदोष-परिहारोपलक्षणम् // 15|| मिक्षितव्यमित्युक्तं, तच्च दानश्रद्धादिवेश्मनि क्वचिदेकत्रैवस्यादतआहसमुयाणं उंछमेसेज्जा, जहासुत्तमणिंदियं / लाभालामम्मि संतुढे, पिंडवायं चरे मुणी॥१६|| समुदानं भक्ष्यम्, न त्वेकभिक्षामेव, तचोञ्छमियोञ्छम् - अन्यान्यवेश्मनः स्वल्पस्वल्पमात्राणां मीलनात्मधुकरवृत्त्या हि भ्रमत इदृगेव भवतीत्येवमुक्तम्, एषयेद् गवेषयेत् / एतच्चोत्सूत्र-मपि स्यात् / अत आह-सूत्रमागमस्तदनतिक्रमेण यथासूत्र मागमाऽभिहितोदगमैषणाद्यबाधात्,इत्युक्तं भवति / तत एवाऽनिन्दितं शिष्टाऽनिन्द्येन स्वपरप्रशंसादिहेतुनोत्पादितं जात्या-दिजुगुप्सितजनसंबन्धिवान् भवति। तथा लाभश्च अलाभश्च लाभाऽलाभ, तस्मिन् संतुष्टः, ओदनादेः प्राप्ताऽप्राप्तौ च संतोष-वान्, न तु वाञ्छाविधुरितचित्त इति भावः। इह चलाभेऽपि वाञ्छा-उत्तरोत्तरवस्तुविषयत्वेन भावनीया। पिण्ड्यत इति पिण्डो भिक्षा, तस्य पातः पतनम्, प्रक्रमात् पात्रेऽस्मिन्निति पिण्डपातं भिक्षाटनम, तद् चरेदासेवेत, मुनिरिति तपस्वी। पाठान्तरतः - पिण्डस्य पातः पिण्डपातस्तं गवेषयेदन्वेषयेत्। उभयत्र च वाक्यान्तरविषयत्वादपौनरुक्त्यम् // 16 // __ इत्थं च पिण्डमवाप्य यथा भुञ्जीत तथाऽऽहअलोले न रसे गिद्धे, जिब्भादंते अमुच्छिए। न रसवाए भुजेज्जा, जवणट्ठाए महामुणी॥१७॥ अलोलः सरसान्ने प्रासे लाम्पट्यवान् न, रसे स्निग्धमधुरादौ गृद्धोऽप्राप्तावभिकाङ्क्षावान् / कथं चैवंविधः ? यतो (जिब्भादंते त्ति) प्राकृ तत्वाद्दान्ता वशीकृ ता जिला रसना ये नासौ दान्तजिह्वः, अतएवामूञ्छितः सन्निधेरकरणेन तत्काले चाभिष्वङ्गा Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणगारमग्गगह 282- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणचउक्क - - भावेन / उक्त हि- णो वामातो हणूयाओ दाहिणं, दाहिणाउ वा वामं उक्तरूपम् / शाश्वतम्, कदाचिदव्यवच्छेदात् / परिनिर्वृतोऽस्वास्थ्यसंचालए, एवं विधश्च सन् नैव (रसहाए त्ति) रसार्थ सरस- हेतुकर्माभावतः सर्वथा स्वस्थीभूतः, इत्येकविंशतिसूत्रभावार्थः / / 21 / / मिदमहमास्वादयामीति, धातुविशेषो वा रसः। सच शेषधातू-पलक्षण, उत्त०३५ अ० स० ततस्तदुपचयः स्यादित्येतदर्थन भुञ्जीत नाऽभ्यवहरेत्। किमर्थतर्हि ? अणगारमहेसि-पुं०(अनगारमहर्षि) अनगाराश्च ते महर्षयश्चेति / यापना-निर्वाहः, स चाऽर्थात् संयमस्य, तदर्थं महामुनिः प्रधानतपस्वी। अनगारगुणविशिष्टेषु महर्षिषु, स० अनेन पिण्डविशुद्धिरुक्ता / तदेवमादौ मूलगुणान् विधेयतयाऽभिधाय अणगारवाइ(ण)-पुं०(अनगारवादिन्) यतिवेषमास्थितेषु अनगारतत्प्रतिपालनार्थमाश्रयाहार-चिन्ताद्वारेण उत्तरगुणाश्च उक्ताः / / 17 / / गुणरहितेषु अनगारंमन्येषु शाक्यादिषु, आचा० 1 श्रु० 1 अ०२ उ०। संप्रति तदवस्थितस्तत एवात्मन्युत्पन्नबहुमानः कश्चिदर्चनादि ('अनगार' शब्देऽत्रैव भागे 270 पृष्ठे भावितं चैतद् यत् शाक्यादयो प्रार्थयेदिति तन्निषेधार्थमाह नाऽनगाराः) अचणं सेवणं चेव, वंदणं पूयणं तहा। अणगारसामाइय-त्रि०(अनगारसामायिक) अनगाराणां समये भव इड्डीसक्कारसम्माणं, मणसा विन पत्थए।१८|| इति / अनगाराणां सामाचारे सिद्धान्ते वा भवे, औ०। स्थान अर्चनां पुष्पादिभिः पूजाम्, सेवनां निषद्यादिविषयां, स्व- | अनगारसीह-पुं०(अनगारसिंह) मुनिसिंहे, "एवं थुणित्ताण स रायसीह स्तिकादिन्यासात्मिकां वा / चः समुच्चये, एवोऽवधारणे, नेत्यनेन परमाइ भत्तीए"। उत्त०२० अ०। संभन्त्स्य ते / वन्दनं नमस्तुभ्यमित्यादि वाचाऽभीष्टवचनम्, पूजन अनगारसुय-न०(अनगारश्रुत) आचारश्रुतापरनामके सूत्रकृता-ङ्गस्य विशिष्ट वस्त्रादिभिः प्रतिलाभनम् / तथेति समुच्चये / ऋद्धिश्च द्वितीयश्रुतस्कन्धे पञ्चमाऽध्ययने, सूत्र०। ('आयारसुय' शब्दे द्वि० श्रावकोपकरणादि संपदाऽमर्पोषध्यादिरूपा वा, सत्कारश्चार्थ- भा०३६१ पृष्ठेऽस्य प्रवृत्तिनिमित्तम् ) / प्रदानादि. संमानश्च अभ्यत्थानादि, ऋद्धिसत्कारसंमानम्, अणगारि(ण)-पुं०(अनगारिन्) अगारी गृही असंयतस्तत्प्रततो मनसाऽपि, आस्तां वाचा, नैव प्रार्थयेत्, ममैवं स्यादित्य तिषेधादनगारी / संयते, प्रश्न०। भिलषेत्॥१८॥ अणगारिय-त्रि०(अनगारिक) न विद्यते अगारं यस्येत्यनगारः किं पुनः कुर्यादित्याह साधुस्तस्येदमिति / अनगारसम्बन्धिनि सर्वविरतिसामायिकादौ, सुक्कज्झाणं झियाएज्जा, अनियाणे अकिंचणे। विशेष वोसट्ठकाए विहरेजा, जाव कालस्स पजओ॥१६॥ अणगारिया-स्त्री०(अनगारिता) अगारी गृही असंयतः, तत्प्रशुक्लध्यानमुक्तरूपं यथा भवत्येवं ध्यायेचिन्तयेत् / अनिदानो तिषेधादनगारी संयतः, तद्भावस्तत्ता। साधुतायाम् , स्था०४ ठा० ऽविद्यमाननिदानः, अकिञ्चनः प्राग्वत्, व्युत्सृष्ट इव व्युत्सृष्टः कायः शरीरं 1 उ०) येन स तथा, विहरेत्, अप्रतिबद्धविहारतयेति गम्यते / यावदिति अणगाल-पुं०(अनगाल) दुष्काले, बृ०३ उ०) मर्यादायाम, कालस्येति मृत्योः, (पजओ त्ति) पर्यायः परिपाटी, प्रस्ताव अणगिण-पुं०(अनग्न) सुषमसुषमायां भरतवर्षे कर्मभूमिषुचसदा भवति / इति यावत्। यावन्मरणसमयः क्रमप्राप्तो भवतीति भावः // 16 / / कल्पवृक्षभेदे, ति०। अनग्नेषु कल्पपादपेषु अत्यर्थ बहुप्रकाराणि वस्त्राणि एवंविधाऽनगारगुणस्थश्च यावदायुर्विहृत्य मृत्युसमये विश्रसात एवाऽतिसूक्ष्मसुकुमारदेव- द्रुमाऽनुकाराणि मनोहराणि यत्कृत्वा यत्फलमवाप्नोति, तदाह निर्मलानि उपजायन्ते / तं० जी०। अदिगम्बरे, आच्छादनविशिष्ट च। निजूहिऊण आहारं, कालधम्मे उवहिए। वाच०। चइऊण माणुसं बोंदि, पहू दुक्खे विमुचइ // 20 // अणग्घ-स्त्री०(अनर्घ्य) सर्वोत्तमत्वादविद्यमानमूल्ये, आव० 4 अ० (निहिऊण त्ति) परित्यज्य, आहारमशनादि, तत्परित्यागश्च अर्घगोचरातीते, संथा०। "सव्वे वि य सिद्धता, सादव्वरयणामया संलेखनाक्रमेणैव, झगिति तत्करणे बहुतरदोषसंभवात्। तथा चागमः - सतेलोक्का / जिणवयणस्स भगवओ, न तुल्लमियतं अणग्घेय" ||1|| "देहम्मि असंलिहिए, सहसा धातूहि खिज्जमाणेहिं / जायइ अट्टज्झाणं, यथाऽवस्थितार्थप्रकाशकत्वेन सकलपर प्रणेतृशास्त्रार्थादविद्यमानसरीरिणो चरिमकालम्मि" ||1|| कदा ? कालधर्मे आयुःक्षयलक्षणे मूल्यमनर्घ्यम् / अथवा ऋणग्घमिति, तत्र ऋणं पूर्वभवपरम्परोपात्तमृत्युस्वभावे, उपस्थिते प्रत्यासन्नीभूते, त्यक्त्याऽपहाय, (माणुसं ति) मष्टप्रकारं कर्म, तद् हन्ति यत्तत् ऋणघम् / दर्श०। मानुषीं मनुष्यसम्बन्धिनीम्, बोंदि शरीरम्, प्रभुः वीर्यान्तरायक्षयतो अणग्घरयणचूल-पुं०(अनर्घरत्नचूड) भृगुपत्तने श्रीमुनिसुव्रते देवे, विशिष्टसामर्थ्यवान्, (दुक्खे त्ति) दुःखैः शारीरमानसः, विमुच्यतेविशेषेण भृगुपत्तने अनर्घ्यरत्नचूडः श्रीमुनिसुव्रतः। ती० 44 कल्प०। मुच्यते, तन्निबन्धन-कर्मापगत इति भावः // 20 // अणघ-त्रि०(अनघ) नास्ति अघं पापं दुःखं व्यसनं कालुष्यं वा कीदृशः सन्नित्याह - यस्य / पापशून्ये, मलशून्ये, स्वच्छे, वाच०। शोभने, पं०व० निम्ममो निरहंकारो, वीयरागो अणासवो। 1 द्वा० / दर्श०। व्यावृत्ततत्त्वप्रतिपत्तिबाधकमिथ्यात्वमालिन्ये, संपत्तो केवलं नाणं, सासए परिनिव्वुडे // 21 // त्ति बेमि। / "संविग्रस्तच्छुतेरेवं, ज्ञाततत्त्वो नरानघः'।ध०१ अधि०। निर्ममोऽपगतममकारः, निरहंकारोऽहममुकजातीय इत्याद्यहं- अणघमय-त्रि०(अनघमत)६ता अवदातबुद्धौ, पं०५०४ द्वा०। काररहितः, ईदृग कुतः? वीतरागः प्राग्वद्विगतरागद्वेषः, तथा-ऽनाश्रवः अणचउक-न०(अनन्तानुबन्धिचतुष्क) अनन्तानुबन्धिक्रोधकर्माश्रवरहितः, मिथ्यात्वादितद्धेत्वभावात् / संप्राप्तः, केवलज्ञानम् , मानमायालोभाख्ये कषाये, कर्म०२ कर्म। माऽनुका प्रकाराणिव 'जीला Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणचंतिय 283- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणट्ठग अणचंतिय-पुं०(अनात्यन्तिक) सहायिनं मुक्त्वाऽप्रति-निवर्तिष्यति ऋणमुच्छेद्यम्, अन्यथा भवान्तरे तद्गृहे कर्मकरमहिषवृषभ-करभसहायभेदे, बृ०४ उ०) रासभादित्वस्याऽपि संभवात् / उत्तमर्णेनाऽपि सर्वथा ऋणदानाऽशक्तो अणचक्खर-न०(अनत्यक्षर) एकादिभिरक्षरैरधिकमत्यक्षरं, न तथा नयाच्यः, मुधाऽऽर्तध्यानक्लेशपापवृद्ध्यादि-प्रादुर्भावात् , किन्तु यदा अनत्यक्षरम् / अनु०। एकेनाप्यक्षरेणानधिके, आ०म०प्र०। शक्नोषि, तदा दद्याः,नो चेदिदं मे धर्मपदे भूयादिति वाच्यः, न तु ऋणअणचाविय-न०(अनर्तित) वस्त्रमात्मानं वान नर्तितं, न नृत्यवदिव कृतं संबन्धश्चिरं स्थाप्यः, तथा सत्यायुःसमाप्तौ भवान्तरे द्वयोमिथः यत्र तदनर्तितं प्रत्युपेक्षणम् / अप्रमादप्रत्यु-पेक्षणाभेदे, स्था०। वस्त्र संबन्धवैरवृद्ध्याद्यापत्तेः। ध०२ अधि०। नर्तयत्यात्मानं चेत्येवमिह चत्वारो भङ्गाः, वत्थे अप्पाणम्मि य चउहं अणज-पुं०(अनार्य)आराद् यातं सर्वहे यधर्म भ्य इत्यार्यम्,न अणचावियं स्था०६ठा०१ उ०। पं०व०ा औ०। णचणं सरीरे वत्थेवा, आर्यमनार्यम् / आव०४ अ०। आर्येतरे, क्रूरे च / प्रश्न०४ आश्र०द्वा० सरीरे उक्क पणं, वत्थे वि विकारा करेंति, ण णच्चावियं अणचावियं / पापकर्मणि, प्रश्न०२ आश्र० द्वा०। अनार्य इवाऽनार्यः। म्लेच्छचेष्टिते, नि०चू०८ उ०। दश०१चू०। अनार्यलोककरणात् , प्रश्न०१ आश्रद्धा अनार्यप्रयुक्ते, अणचासायणासील-पुं०(अनत्याशातनाशील) अतीवायं सम्यक्त्वा- प्रश्न०२ संवन्द्वा० दिलाभं शातयति विनाशयति इत्याशातना, तस्याः शीलं *अन्याय्य-त्रिका अन्यायोपेते, प्रश्न०१ आश्र० द्वा०) तत्करणस्वभावात्मक मस्येत्याशातनाशीलः, न तथाऽनत्या अणजधम्म-पुं०(आनार्यधर्म) अनार्याणामिवधर्मः स्वभावो येषां ते तथा, शातनाशीलः गुरुपरिवारादिकृतिः / आचार्यादीनामभक्तिनिन्दा- अनार्यकर्मकारित्वात् / सूत्र० 2 श्रु० 6 अ०। क्रूरकर्मकारिषु, हीलाऽवर्णवादाद्याशातनानिवारके, उत्त०२६ अ०| "इचेवमाहंसु अणज्जधम्म, अणारिया बालरसेसु गिद्धा'। सूत्र० अणचासायणाविणय-पुं०(अनत्याशातनाविनय) अत्याशातनं २श्रु०६अ। शातना, तनिषेधरूपो विनयोऽनत्याशातनाविनयः / भ० 25 श० अणज्जभाव-पुं०(अनार्यभाव) क्रोधादिमति पुरुषजाते , स्था० 7 उ०। दर्शनविनयभेदे, औ०। 4 ठा०२ उ०॥ से किं तं अणचासायणाविणए ? अणच्चा-सायणाविणए अणज्झवसाय-पुं०(अनध्यवसाय) आलोचनामात्रे अध्य-वसायाभावे, पणयालीसविहे पण्णत्ते / तं जहा- अरहंताणं अणचासायणया, रत्ना अरहंतपण्णत्तस्स धम्मस्स अणचासायणया, आयरियाणं अथानध्यवसायस्वरूपं प्ररूपयन्तिअणचासायणया, उवज्झायाणं अणचासायणया, थेराणं किमित्यालोचनमात्रमनध्यवसायः॥१३|| अणचासायणया, कुलस्स अणचासायणया, गणस्स अस्पृष्ट विशिष्ट विशेषं कि मित्युल्ले खेनोत्पद्यमानं ज्ञानमात्रअणचासायणया, संघस्स अणचासायणया, किरियाए मनध्यवसायः / प्रोच्यते-समारोपरूपत्वं चास्यौपचारिकम्, अणचासायणया, संभोगस्स अणचासायणया, आभिणि अतस्मिंस्तदध्यवसायस्य तल्लक्षणस्याभावात् / समारोपनिमित्तं तु बोहियणाणस्स अणचासायणया, जाव के वलणाणस्स यथार्थापरिच्छेदकत्वम्। उदाहरन्तिअणचासायणया / एएसिं चेव भत्तिबहुमाणेणं, एएसिं चेव यथा-गच्छतस्तृणस्पर्शज्ञानम्॥१४॥ वण्णसंजलणया, से तं अणचासायणया विणए / से तं गच्छतः प्रमातुस्तृणस्पर्शविषयं ज्ञानमन्यत्रासक्तचित्तत्वादेवंदंसणविणए। जातीयकमेवनामकमिदं वस्त्वित्यादिविशेषानुल्लेखि किमपि मया (किरियाए अणचासायणय त्ति) इह क्रिया - अस्ति परलोको- स्पृष्टमित्यालोचनमात्रमित्यर्थः / प्रत्यक्षयोग्यविषयश्चायमनध्य-वसायः / ऽस्त्यात्माऽस्ति च सकलक्लेशाकलङ्कितं मुक्तिपदमित्यादि एतदुदाहरणदिशा च परोक्षयोग्यविषयोऽप्यनध्यवसायो-ऽवसेयः। यथाप्ररूपणात्मिका गृह्यते / (संभोगस्स अणचासायणय त्ति) सम्भोगस्य कस्यचिदपरिज्ञातगोजातीयस्य पुंसः क्वचन वननिकु जे समानधार्मिकाणां परस्परेण भक्त्यादिदानग्रहण-रूपस्यानत्या- सास्नामात्रदर्शनात् पिण्डमात्रमनुमाय को नु खलु अत्र प्रदेशे प्राणी शातनाविपर्यासवत्करणपरिवर्जनम् (भत्ति-बहुमाणे णं ति) इह णंकारो स्यादित्यादि। रत्ना०१ परि०। वाक्यालङ्कारे, भक्त्या सह बहुमानो भक्तिबहुमानः / भक्तिश्वेह बाह्या अणज्झोवण्ण-त्रि०(अनध्युपपन्न)अमूच्छिते, आचा०२ श्रु०१०१ परिजुष्टिः, बहुमानश्चान्तरः प्रीतियोगः / (वण्णसंजलणय त्ति) सद्भूतगुणवर्णनेन यशोदीपनम्। भ०२५ श०७ उ०। अणट्ठाकित्ति-त्रि०(अनार्तकीर्ति) अनार्ता कीर्तिर्यस्य / सकलअणच्छ-धा०(कृष्)। आकर्षणे, विलेखने च। तुदा०, आत्म०, सक०, दोषविगमतोऽबाधितकीर्तिके, "तहेव विजओ राया अणट्ठाअनिट् / भ्वादि०, पर०, सक०, अनिट् / "कृषे: कड- कित्तिपव्वए'' आर्षत्वादनात आर्तध्यानविकलः / कीर्यादिनासाअड्डाऽञ्चाऽणच्छाऽयञ्छाऽऽइञ्छाः " ||187 / इति ऽनाथादिदानोच्छ्रया प्रसिद्धयोपलक्षितः। उत्त०१८ अ०। कृषेरणच्छाऽऽदेशः / अणच्छइ-कृषते, कर्षति वा / प्रा०। अणट्ठ-पुं०(अनर्थ) अनर्थोऽप्रयोजनमनुपयोगो निष्कारणतेतिपर्यायाः। अणच्छिआरं-(देशी)अच्छिन्ने, दे०ना० 1 वर्ग। अर्थस्याऽभावोऽनर्थः / अ० अप्रयोजने, आव०६ अ० निष्प्रयोजने, अणच्छेय-पुं०(ऋणच्छेद) उत्तमर्णाद् गृहीतद्रव्यस्योच्छेदे, ध०। / नि०चू०१ उ०। सूत्र०ा गुणहानौ, ज्ञा०६अ। उपघाते, प्रश्न०२ आश्र० ऋणच्छेदे च न विलम्बनीयम्। तदुक्तम्-धर्मारम्भे ऋणच्छेदे, कन्यादाने द्वा० स्था। धनागमे / शत्रुधातेऽग्निरोगे च, कालक्षेपं न कारयेत् / / 1 / / अणट्ठग-पुं०(अनर्थक) अष्टाविंशे गौणपरिग्रहे, तस्य परमार्थस्वनिर्वाहाऽक्षमतया ऋणदानाऽशक्तेन तूत्तमर्णगृहे कर्मकरणादिना-ऽपि / वृत्त्या निरर्थकत्वात्। प्रश्न०१ संव० द्वा०। उ०) Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणट्ठकारग 284 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणट्ठादंडवेरमण अणद्वकारग-त्रि०(अनर्थकारक) पुरुषार्थों पघातके, प्रश्न 2 आश्र०द्वा०ा अनार्ते , पुंगा आर्तध्यानरहिते, उत्त०२ अ०। अणट्ठपगड-त्रि०(अन्यार्थप्रकृत) साधुनिमित्ते निवर्तिते, "अनट्ठ पगडं लेणं, भइज्ज सयणासणं"। दश०८ अ01 अणद्वादंड-पुं०(अनर्थदण्ड) अर्थः प्रयोजनं गृहस्थस्य क्षेत्रवास्तुधनधान्यं शरीरपरिपालनादिविषयं, तदर्थ आरम्भो भूतोपभर्दोऽर्थदण्डः / दण्डो निग्रहो यातना विनाश इतिपर्याया। अर्थेन प्रयोजनेन दण्डोऽर्थदण्डः, स चैवंभूत उपमर्दनलक्षणो दण्डः क्षेत्रादिप्रयोजनमपेक्षमाणोऽर्थदण्ड उच्यते, तद्विपरीतोऽनर्थदण्डः / आव० 4 अ० निष्प्रयोजनं हिंसादिकरणे, आतु०। इहलोकप्रयोजनमङ्गीकृत्य निष्प्रयोजनभूतोपमर्दैनात्मनो निग्रहे, पंचा० 1 विव० स च द्रव्यतः - यदकारणे राजकुले दण्ड्यते / भावतस्तु - निष्कारणं ज्ञानादीनां हानिः।बृ०१ उ०ा आव० "जो पुण सरडाईणं, थावर कायं च वणलयाईअं / मारे तु छिंदिऊण व, छं डे एसो अणट्टाए" ||1|| प्रव०२५४ द्वारा अहावरे दोचे दंडसमादाणे अणट्ठादंडवत्तिए त्ति आहिज्जइ, से जहाणामए के इ पुरिसे जे इमे तसा पाणा भवंति, ते णो अचाए,णो अजिणाए,णो मंसाए, णो सोणियाए, एवं हिययाए पित्ताए वसाए पिच्छाए पुच्छाए वालाए सिंगाए विसाणाए दंताए दाढाए णहाए ण्हारुणिए अट्ठीए अट्ठिमंजाए, णो हिंसंसु मेत्ति, णो हिंसिंति मेत्ति, णो हिंसिस्संति मेत्ति / णो पुत्तपोसणाए,णो पसुपोसणयाए णो, अगारपरिहण-ताए, णो समणमाहणवत्तणाहेउं, णो तस्स सरीरगस्स किंचिविष्परियादित्ता भवंति, से हताछेत्ता मेत्ता लुंपइत्ता विलुंपइत्ता उद्दवइत्ता उज्झिउं बाले वेरस्स आभागी भवंति / अणट्ठादंडे ||6|| से जहा- णामए केइ पुरिसे जे इमे थावरा पाणा मवंति, तं जहा- इक्कडाइ वा कडिणाइवाजंतुगाइवा परगाइवा मोक्खाइ वा तणाइवा कुसाइ वा कुच्छगाइ वा पप्पगाइ वा पलालाइवा, ते णो पुत्तपोसणाए, णो पसुपोसणाए,णो आगारपडिबूंहणयाए, णो समण-माहणपोसणयाए, णो तस्स सरीरगस्स किंचि वि परियाइत्ता भवंति, से हंता छेत्ता मेत्ता लुंपइत्वा विलुंपइत्ता उद्दविइत्ता उज्झिउं बाले वेरस्स आभागी। अणट्ठादंडे ||7|| से जहाणामए केइ पुरिसे कच्छंसि वा दहंसि वा उदगंसि वा दवियंसि वा बलयंसि वा णूमंसि वा, गहणंसि वा गहणविदुग्गंसि वा, वर्णसि वा वणविदुग्गंसि वा, पव्वयंसि वा पव्वयविदुग्गंसि वा, तणाई ऊसविय सयमेव अगणिकायं णिसिरिति, अण्णेण वि अगणिकायं णिसिरावेंति, अण्णं पि अगणिकायं णिसिरितं समणुजाणइ / अणहादंडे। एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावजंति आहिज्जइ। दोचे दंडसमादाणे अणट्ठादंडवत्तिएत्ति आहिए।।८।। अथापरं द्वितीयं दण्डसमादानमर्थदण्डप्रत्ययिकमित्यभिधीयते / तदधुना व्याख्यायते / तद्यथा नाम-कश्चित्पुरुषो निर्निमित्तमेव निर्विवेकतया प्राणिनो हिनस्ति। तदेव दर्शयितुमाह-(जे इमे इत्यादि) ये केचनाऽमी संसारान्तर्वर्तिनः प्रत्यक्षा अम्बष्ठादयः प्राणिनस्तांश्वाऽसौ हिंसन् अर्चा शरीरं, नो नैव, अर्चाय हिनस्ति, तथाऽजिनं चर्म, नापि | तदर्थमेव, नैव मांसशोणितहृदयपित्तवसा पिच्छपुच्छयालशृङ्गविषाणदन्तदंष्ट्रानखस्नाय्वस्थिमज्जा इत्येव-मादिकं कारणमुद्दिश्य, नैव हिंसिषुर्नाऽपि हिंसयिष्यति, मां मदीयं चेति कारणमुद्दिश्य, तथा नो पुत्रपोषणायेति,पुत्रादिकं पोषयिष्यामीत्येतदपि कारणमुद्दिश्य न व्यापादयति, तथा नाऽपि पशूनां पोषणाय, तथाऽगारं गृहं तस्य परिबृंहणमुपचयस्तदर्थं वा न हिनस्ति, तथा न श्रमणब्राह्मणवर्तनाहेतु, तथा यत्नेन पालयितुमारब्धं, नो तस्य शरीरस्य किमपि परित्राणाय तत्प्राण-व्यपरोपर्ण भवति, इत्येवमादिकं कारणमनपेक्ष्यैवाऽसौ क्रीडया तच्छीलतया, व्यसनेन वा प्राणिनां हन्ता भवति दण्डादिभिः / तथा छेत्ता भवति कर्णनासिकाविकर्तनतः, तथा भेत्ता शूलादिना, तथा लुम्पयिताऽन्यतरानावयवविकर्तनतः, तथा विलुम्पयिता अझ्युत्पाटनचर्मविकर्तनकरपादादिच्छे दनतः, परमाधार्मिक-वत्प्राणिनां निर्निमितमेव नानाविधोपायैः पीडोत्पादको भवति, तथा जीवितादप्यपद्रावयिता भवति / स च सद्विवेकमुज्झित्वा, आत्मानं वा परित्यज्य, बालवद् बालोऽज्ञोऽसमीक्षितकारितया जन्मान्त-रानुबन्धिनो वैरस्य भागी भवति / / 6 / / तदेवं निर्निमित्तमेवं पञ्चेन्द्रियप्राणिपीडनतो यथाऽनर्थदण्डो भवति, तथा प्रतिपादितम् / अधुना स्थावरानधिकृत्योच्यते -(से जहेत्यादि) यथा कश्चित्पुरुषो निर्विवेकः पथि गच्छन् वृक्षादेः पल्लवादिकं दण्डादिना प्रध्वंसयन् फलनिरपेक्षस्तच्छीलतया व्रजति। एतमेव दर्शयति (जे इमे इत्यादि) ये केचनाऽमी प्रत्यक्षाः स्थावरा वनस्पतिकायाः प्राणिनो भवन्ति / तद्यथा- इकडादयो वनस्पतिविशेषा उत्तानार्थाः, तदिहेक्कडा ममाऽनया प्रयोजन-मित्येवमभिसंधायन छिनत्ति, केवलं तत्पत्रपुष्पादिनिरपेक्षस्तच्छीलतया छिनत्तीत्येतत्सर्वत्र योजनीयमिति / तथा न पुत्रपोषणाय, नो पशुपोषणाय, नागारप्रति हणाय, न श्रमण ब्राह्मणप्रवृत्तये, नापि शरीरस्य किंचित् त्राणं भविष्यतीति केवलमेवासी वनस्पतिहन्ता छेत्तेत्यादि यावद् जन्मान्तरानु-बन्धिनो वैरस्य भागी भवति / अयं वनस्पत्याश्रयोऽनर्थदण्डो-ऽभिहितः // 7 // सांप्रतमग्न्याश्रितमाह- (से जहेत्यादि) तद्यथानाम कश्चित् पुरुषः सदसद्विवेकविकलतया कच्छादिकेषुदशसु स्थानेषु वनदुर्गपर्वतेषु तृणानि कुशेषीकादीनि पौनःपुन्येनोर्ध्वाधः- स्थाने कृत्वाऽग्निकार्य हुतभुजं निसृजति प्रक्षेपयति, अन्येन वाऽग्निकार्य बहुसत्त्वापकारी दवार्थ निसर्जयति प्रक्षेपयति, अन्यं च निसृजन्तं समनुजानीते, तदेवं योगत्रिकेण कृतकारिताऽनुमतिभिस्तस्य यत्किचनकारिणस्तत्प्रत्ययिकं दवदाननिमित्तं सावधं कर्म महापातकमाख्यातं, द्वितीयमनर्थदण्डसमादानमाख्यातमिति ||8|| सूत्र०२ श्रु०२ अ०। आ०चून अणट्ठादंडवेरमण-न०(अनर्थदण्डविरमण) अर्थः प्रयोजनम्, तत्प्रतिषेधोऽनर्थः, दण्ड्यते आत्माऽनेनेति दण्डो निग्रहः, अनर्थेन दण्डोऽनर्थदण्डः / इह लोक प्रयोजनमङ्गीकृत निष्प्रयोजन भूतोपमर्दैनात्मनो निग्रहः इत्यर्थः / तस्मात्तस्य वा विरमणं विरतिः / तृतीये गुणवते, पंचा० 1 विव० उपा०। "तयाणंतरं च णं अणत्थदंडे चउविहे पण्णत्ते / तं जहा- अवज्झाणायरिए पमायायरिए हिंसप्पयाणे पावकम्मोवएसे / तस्स णं अणट्ठा Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणट्ठादंडवेरमण 285 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणणुओग दंडवे रमणस्स समणोवासगस्स पंच अइयारा जाणियच्या, न समायरियव्वा / तं जहा- शहाणुव्वट्टणयन्नगविलेवणे सद्दरूवरसगंधे / वत्थासणआभरणे, पडिक्कमणे देवस्सियं सव्वं / / 1 / / कंदप्पे 1, कुक्कुइए 2, मोहरिए 3, असंजुताहिकरणे 4 य / उवभोगपरिभोगातिरित्ते 5 / उपा० 1 अ० अस्याऽनर्थदण्ड-विरमणस्य श्रमणोपासकेन अमी पञ्चाऽतीचारा ज्ञातव्या, न समाचरितव्याः / आव० 6 अ०(व्याख्या 'कंदप्प' आदिशब्देषुद्रष्टव्या) अणट्ठाबंधि-पुं०(अनर्थबन्धिन) पक्षमध्ये अनर्थकं निष्प्रयोजनमेकवारोपरि द्वौ त्रीन् चतुरो वा वारान् कम्बासु बन्धान् ददाति, चतुरुपरि बहूनि अट्टकानि वा बध्नाति, तथा च स्वाध्यायविघ्नपलिमन्थादयो दोषाः, यदि चैकाऽङ्गिकं चम्पकादि पदे लभ्यते, तदा तदेव ग्राह्यम्, बन्धनादि-पलिमन्थपरिहारात् / कल्प०। अणडण-न०(अनटन) अभ्रमणे, पंचा० 13 विव०॥ अणडो-(देशी) जारे, दे०ना०१ वर्ग। अणणिप्पित्तु-अव्य०(अनर्ण्य ) प्रतीपमनयेत्यर्थे, अपडिहट्ठुमणणिप्पित्तु संपव्यए, अणणिप्पित्तु, न प्रतीपं अर्पयतीत्यर्थः / निचू० २उ०॥ अणणुओग-पुं०(अननुयोग) अनुयोगविपर्यस्ते अननुरूपे योगे, विशेषण नामादिभेदात्सप्तविधमनुयोगं व्याख्याय तद्विपक्षभूतमननुयोगं बिभणिषुरुक्तोपसंहारं प्रस्तावनां चाहएसोऽणुरूवजोगो, गओऽणुओगो इओ विवज्जत्थं / जो सो अणणुओगो, तत्थेमे हो ति दिटुंता ||1|| तदेवं गतो भणित एषोऽनुरूपयोगोऽनुयोगः सप्तविधोऽपि / अथ | विपर्यस्तमेतद्विपर्ययेण योऽयमननुयोगः, स उच्यते, तत्र चैते वक्ष्यमाणदृष्टान्ता भवन्तीति / / 1 / / के पुनस्तेऽननुयोगदृष्टान्ताः? इत्याहवच्छगगोणी खुज्जा, सज्झाए चेव बाहिरुल्लावे। गामल्लए य वयणे, सत्ते यं होति भावम्मि॥२॥ सावगमज्जा सत्तवइए य कोंकणगदारए नउले। कमलामेला संबस्स साहसं सेणिए कोवा ||3|| यथाऽनुयोगो नामादिभेदात्सप्तविधस्तथाऽननुयोगो यथासंभवं वक्तव्यः / तत्र नामस्थापने सुगमे, द्रव्यानुयोगस्तत्प्रसंगतः। द्रव्यानुयोगे च वत्सगौरुदाहरणम् / क्षेत्रे त्वननुयोगानुयोगयोः कुब्ज उदाहरणम् / काले स्वाध्यायः / वचने पुनरुदाहरणद्वयम्, तद्यथा- बधिरोल्लापः, ग्रामेयकश्च / भावे तु सप्तोदाहरणानि भवन्ति, तद्यथा- श्रावकभार्या 1, साप्तपदिकः पुरुषः 2, कोङ्कणकदारकः 3, नकुलः 4, कमलामेला 5, शम्बस्य साहसम् 6, श्रेणिककोप७ श्चेति नियुक्तिगाथासंक्षेपार्थः / / 3 / / अथ विस्तरतो वत्सगोण्युदाहरणं भाष्यकारः प्राहखीरं न देह सम्मं, परवच्छनिओयओ जहा गावी। छड्डेज व परदुद्धं, करेज देहोवरोहं वा / / यथा काचिच्छबलादिका गौरन्यस्या बहुलादिकायाः संबन्धिनि गोदोहकेन वत्से नियुक्ते सत्यननुयोगोऽयमिति कृत्वा तन्नियोगतः क्षीरं दुग्धं सम्यग् न ददाति / अथवा न तावता तिष्ठेत्, किन्तु परदुग्धम्अन्यस्या अपि गोः सत्कं दुग्धमग्रेऽपि गोदोहनिकायां व्यवस्थितमुल्ललन्ती छर्दयेत् त्याजयेत्, यदि वा देहोपरोधं लत्ता प्रहारादिभिर्जानुभङ्गादिना देह बाधामपि कु र्यादित्यर्थः / तथा किमित्याशक्य प्रस्तुते योजयन्नाहतह न चरणं पसूते, परपज्जायविणिओगओ दव्वं / पुव्वचरणोवधायं, करेइ देहोवरोहं वा // जिणवयणसायणाओ, उम्मायातंकमरणवसणाई। पावेज सव्वलोवं, स बोहिलाभोवघायं वा / / दव्वविवजासाओ, साहणमेओ तओ चरणभेओ। तत्तो मोक्खामावो, मोक्खाभावेऽफला दिक्खा॥ तथाऽत्रापि व्याख्या- यदा जीवादिद्रव्यमजीवादिधर्मः प्ररूपयति, अजीवादिद्रव्यं वा जीवादिधर्मः प्ररूपयति, तदित्थं प्ररूप्यमाणं तद् द्रव्यमनुयोगतो दुग्धस्थानीयं चरणं चारित्रंन प्रसूते। परपर्यायविनियोगतो विपर्यासात्तद्धेतुः, तत्र भवतीत्यर्थः / न चैतावता तिष्ठति, किन्त्वित्थमननुयोगं कुर्वतः पूर्वप्राप्तचरणोपघातं च करोति, तथेत्थमवधिप्ररूपणप्रवृतस्य रोगाद्युत्पत्तेर्देहस्याप्युपरोधं बाधां विदधाति / किञ्चेत्थं जिनवचनाशातनोत्पत्तेरुन्मादातङ्कमरणव्यसनान्यपि प्राप्नुयात्, तथा सर्वव्रतलोपं, बोधिलाभोपघातं च प्राप्नुयादिति / ननु कथंचित्पर्यायप्ररूपणामात्रादेवैतावन्तो दोषा स्युरित्याह-(दव्वविवज्जासेत्यादि) विपरीतप्ररूपणे हिद्रव्यस्य विपर्यासो भवति, तथा च सति साधनस्यसम्यग्ज्ञानादेर्भेदो-ऽन्यथाभावो जायते, ततःसाधनभेदाचरणभेदस्तद्भेदात् तत्साध्यस्य मोक्षस्याऽभावप्रसङ्गः, उपायाभावे उपेयासिद्धेः। ततो मोक्षाभावे निष्फलैय दीक्षा, मोक्षार्थमेव तत्प्रतिपत्तिस्ततस्तदभावे निरर्थकैव सेति। तदेवं द्रव्याननुयोगे निर्दिष्टा दोषाः। अथ द्रव्यस्य सम्यगनुयोगे गुणानाहसम्म पयं पयच्छइ, सवच्छविणिओगओ जहा घेणू। तह सयपञ्जवजोया, दव्वं चरणं तओ मोक्खो।। यथा परवत्सपरिहारेण स्ववत्सविनियोगतो गौः सम्यक् पयः प्रयच्छति तथा स्वकपर्याययोगाद् द्रव्यं, ततश्चरणं, ततो मोक्षः प्राप्यत इति। तदेवं द्रव्याननुयोगेच दोषगुणयोर्वत्सगोदृष्टान्त उक्तः।। अथ क्षेत्राद्यननुयोगे दोषांस्तदनुयोगे तुगुणान् सोदाहरणानतिदिशन्नाह एवं खेत्ताईसु वि, सधम्मविणिओगओऽणुओग त्ति। विवरीए विवरीओ, सोदाहरणोऽणुगंतव्वो। एवमुक्तानुसारेण, क्षेत्रकालवचनभावेष्वपि स्वधर्मविनियोगतः आत्मोचितधर्मयोजनात्,अनुयोगः। विपरीते तु- विपरीतधर्मयोजनेतु, विपरीतोऽननुयोगः सोदाहरणः स्वबुद्ध्या, ग्रन्था-न्तराद्वाऽनुगन्तव्यो ज्ञातव्यः। तोत्थमतिदिष्टेऽपि मुग्धविनेयानुग्रहार्थ किञ्चिदुच्यते तत्र क्षेत्रतोऽननुयोगेऽनुयोगे च कुब्जोदाहरणमभिधीयते-प्रतिष्ठाननगरे शालिवाहनो नाम राजा। स च प्रतिवर्ष समागत्य भृगुकच्छे नभोवाहननृपं रुणद्धि स्म / ऋतुबद्धे च काले तत्र स्थित्वा वर्षासु स्वनगरं गच्छति स्म / अन्यदा च रोहक समागते तेन राज्ञा स्वनगरं जिगमिषुणा आस्थानसभामण्डपिकायां पतद्ग्रहकमन्तरेणापि भूमौ निष्ठयूतम् / तस्य च राज्ञः पतद्- गृहधारिणी कुठजा समस्ति स्म / तया चाऽतीवभावशतया लक्षितम्- नूनं परिजिहासरिदंस्थानं नरपतिर्यास्यति प्रभाते स्वनगरं, तेनेत्थमिह निष्ठीवतीति संचिन्त्य निगदितं कथ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणणुओग २८६-अभिधानराजेन्द्रः-भाग 1 अणणुओग मप्यात्मपरिचितस्य यानशालिकस्य / ततस्तेन प्रगुणीकृत्य यानान्यगच्छत एव राज्ञः पुरतोऽपि प्रवर्तितानि, तत्पृष्ठतश्च सर्योऽपि स्कन्धावारः प्रवृत्तो गन्तुम्।व्याप्तं च नभोमण्डलं कटक-धूलिनिकरणे। ततश्चिन्तितं विस्मितमनसा नराधिपेन- ननु कस्यापि प्रयाणकंन कथित धूलीभयात्किलाहं स्वल्पपरिच्छदो भूत्या सैन्यस्यपुरतएव यास्याम्येतच विपरीतमापन्नम्, तत्कथ-मिदं कटकलोकेन विज्ञातमिति / परम्परया शोधयता विज्ञाता कुब्जा / पृष्टया च तया कथितं सर्वमपि यथावृत्तम् / तदत्र सभामण्डपिकादिक्षेत्रेण निष्ठीवनस्य अननुयोगः, निष्ठीवना दिरक्षणप्रमार्जनोपलेपनादिकस्त्वनुयोगः / एवमेकान्त नित्यमेकमप्रदेश चाकाशं प्ररूपयतोऽननुयोगः, स्याद्वादलाञ्छितं तु तदेव प्ररूपयतोऽनुयोग इति। कालाननुयोगानुयोगयोः स्वाध्यायदृष्टान्तः- तद्यथा-एकः साधुः प्रादोषिककालग्रहणानन्तरं कालिक श्रुतमतीतामपि तद्गुणनवेलामजानानः परावर्तयते स्माततः सम्यग्दृष्टिदेवतया चिन्तितम्बोधयाम्यमुं, मा भून्मिथ्यादृष्टिदेवताछलमस्य, ततो मथितकारूपेण मथितभृतमेव घटं मस्तके निधाय तस्यैव साधोरन्तिके गतागतानि कुर्वती 'मथितं लभ्यते' इति महता शब्देन पुनः पुनर्घोषयन्ती परिभ्रमति स्म। ततोऽत्युद्वेजितेन साधुना प्रोक्तम्- अहो ! भवत्यास्तक्रविक्रयवेला ? ततो मथित-कारिकयाऽप्यवोचि-अहो ! तवापि स्वाध्यायवेला? ततो विस्मतः साधुरुपयुज्य मिथ्यादुष्कृतं ददाति स्म / ततोऽकालस्वाध्यायविधानेन मिथ्यादृष्टिदेवताविहितच्छलानि भवन्त्यतः पुनरप्येवं मा कार्षीस्त्वमित्यादि साधुर्देवतयाऽनुशासितः / इत्येष स्वाध्यायस्य कालाननुयोगः, कालेऽनुपठतस्तदनुयोगः। प्रस्तुते-ऽपि कालधर्माणां वैपरीत्यावैपरीत्यप्ररूपणे अननुयोगाऽनुयोगौ वाच्याविति / अथ वचनविषयमनुयोगाननुयोगयोरुदाहरणद्वयमुच्यते-तत्र प्रथम बधिरोल्लापः। तत्र चैकस्मिन्ग्रामेबधिरकुटुम्ब परिवसतिस्मा स्थविरः, स्थविरा, पुत्रो, वधूश्च / अन्यदाचपुत्रः क्षेत्रे हलं वाहयन् पथिकैर्मार्ग पृष्टो बधिरतया ब्रवीति-गृहजातौ मम बलीवाविमौ, न पुनरन्यस्य सत्कौ। ततो बधिरोऽयमिति विज्ञाय गताः पथिकाः / ततो भक्तं गृहीत्वा वधूः समायाता।शृङ्गितौ पथिकैर्बलीववित्यादि निवेदितं तेन तस्याः।तया च प्रोक्तम्-क्षारमलवणं वेति न जानाम्यहम्, एतत्त्वदीयजनन्यैव हि संस्कृतम् / ततो गृहं गतया तयाऽपि क्षारादिभणनव्यतिकरो निवेदितः। स्थविरया च कर्तयन्त्या प्रोक्तम्-स्थूलं सूक्ष्म वा भवत्विदं, स्थविरस्य परिधानं भविष्यतीति / निवेदितं चैतत्सानुशयचित्तया स्थविरया गृहमागतस्य स्थविरस्य। तेनाऽपि बिभ्यताप्रोक्तम्-तवजीवितं पिबामि, यद्येकमपि तिलमहं भक्षयामीति / एवमेक-वचनादिकमप्युक्तम्। द्विवचनादितया यः शृणोति तथैव चान्यस्य प्ररूपयति, तस्याननुयोगः, यथावच्छ वणनिरूपणे त्वनुयोग इति / वचनानुयोगस्यै वेह प्राधान्यख्यापनार्थं वचनविषयमेव द्वितीयं ग्रामेयकोदाहरणमुच्यते-तत्र चैकस्मिन्नगरे कस्या-चिन्महिलाया भर्ता मृतः, तन्धनजलादिकष्टेन बाधिता निर्वहन्तीलधुना निजतनयेन सह ग्रामंगताऽसौ। ततो वृद्धिंगतेन पुत्रेण सा पृष्टा-मदीयपितुः का जीविका आसीत् ? तया प्रोक्तम्राजसेवा / तेनोक्तम्- अहमपि तां करोमि ? तया प्रोक्तम्- पुत्र ! | दुष्कराऽसौ, महता विनयेन क्रियते। कीदृशः पुनरसी विनयः? तया ) प्रोक्तम्-सर्वस्यापि दृष्टस्य प्रणामः कार्यः, नीचैर्वृत्त्या सर्वस्यापि प्रवर्तित व्यम्, परच्छन्दानुवृत्तिपरैश्च सर्वत्र भवितव्यम् / एवं करिष्यामीत्यभ्युपगम्य चलितोऽयं राजधानीम्। सम्मुखे मार्गे च हरिणेष्वागच्छत्सु वृक्षमूलेष्वाकृष्टधनुर्यष्टयो निलीना व्याधा दृष्टाः। तेषां च तेन महता शब्देन योत्कारः कृतः, ततस्त्रस्ताः प्रपलाय्य गता हरिणाः / ततो व्याधैः कुट्टयित्वा बद्धोऽसौ / ततस्तेनोक्तम्- जनन्याऽहं शिक्षितःदृष्टस्य सर्वस्यापि योत्कारः कर्तव्य इत्यादि / ततश्च ऋजुरयमिति ज्ञात्वा मुक्तस्तैः, शिक्षितश्च यथा- ईदृशे दृष्ट निलीनैरवनतैः शब्दमकुर्वद्भिः शनैर्वा जल्पद्भिर्निभृतमागम्यते / तदभ्युपगम्य पुरतो गन्तुं प्रवृत्तोऽसौ / दृष्टाश्च वस्त्राणि क्षालयन्तो रजकास्तेषांचवस्त्राणि तस्करैर्नित्यमपहियन्ते स्म, ततस्तत्र दिने लगुडादिव्यग्रपाणयो रजकाः प्रच्छन्नोपविष्टा हेरयन्तस्तिष्ठन्ति स्म। आगतश्वाजल्पन्नवनतगात्रो निलीयमानः शनैः सः तत्र ग्रामेयकः। स एष चौर इति कृत्वा कुट्टयित्वा बद्धोऽसौ रजकैः / सद्भावे च कथिते मुक्तस्तैः शिक्षितश्च-यथेदृशे कस्मिंश्चिदृष्टएवमुच्यते, यथा-ऊषक्षारोऽत्र पततु, शुद्धं च भवत्विति / इदं चाभ्युपगम्य प्रवृत्तः पुरतो गन्तुम्। ततो दृष्ट क्वचिद् ग्रामे बहुभिर्मङ्गलैः प्रथमं हलवाहनस्य दिवसकरणं क्रियमाणम्। तत उक्तम्-ऊषेत्यादि।ततस्तैरपि कृषीवलैः पिट्टितो बद्धश्च, सद्भाये ज्ञाते मुक्तः, शिक्षितश्च-यथेदृशे क्वापि दृष्ट प्रोच्यते, यथा-गन्त्र्योऽत्र वियन्ता, बह्वत्र भवतु, सदैव चेदमस्त्विति। अभ्युपगतं च तेनेदम्। अन्यत्र च मृतके बहिर्नीयमाने प्रोक्तमिदम्। तत्रापि कुट्टितो बद्धश्च, सद्भावकथने च मुक्तः, शिक्षितश्च-यथेदृशं मा भूद्भवतां कदाचिदपि वियोगश्चेदृशो नास्त्विति / एतचान्यत्र विवाहे प्रोक्तम् तत्रापि तथैव बद्धः, सद्भावे परिज्ञाते मुक्तः, शिक्षितश्च-यथेदृशे प्रोच्यते-सदैवं पश्यन्त्वीदृशानि भवन्तः,शाश्वतश्च भव-त्वेतत्संबन्धः, मा भूदिह वियोग इति / इदं चाऽन्यत्र क्वचिन्निगड-बद्धं राजानमवलोक्य ब्रुवाणस्तथैव कदर्थयित्वा मुक्तः, शिक्षितश्च यथेदृशो वियोगः शीघ्रं भवत्वनेन, एवं च मा भूत्कदाचिद-पीत्यभिधीयते / एतच्चान्यत्र क्वचिद् राज्ञां संधी जल्प्यमाने प्रोक्तं, ततस्तत्रापि तथैव कदर्थितः / एवं स्थाने स्थाने कदर्थ्यमानोऽन्यदा कस्यापि विभवतः प्रमुक्तस्य ठक्कुरस्य सेवां विधातुमारब्धः, तत्र चान्यदा गृहे आम्ल-खलिकायां सिद्धायां ग्रामसभाजनसमूहमध्ये उपविष्टस्य ठक्कुरस्य शीतलीभूता एषा भोक्तुमयोग्या भविष्यतीति भार्यया तदाकारणाय प्रेषितो ग्रामेयकः। तेनापि तस्य जनसमूहस्यशृण्वतोमहताशब्देन प्रोक्तम्-आगच्छ ठकुर ! शीघ्रमेव गृहं, भुझ्व, आम्लखलिका शीतलीभवति स्थिताऽसौ, ततो लज्जित ठक्कुरो गृहं गतस्ततो बाढं ताडयित्वा शिक्षितोऽसौ, यथा नेत्थं कुणिर्गृहप्रयोजनानि भण्यन्ते, किंतुवस्वेण मुखं स्थगयित्वा कर्णाभ्यणे च स्थित्वा शनैः कथ्यन्ते। ततोऽन्यदा वह्निदीप्ते गृहे गतो ग्रामसभायां, शनैरग्रतः स्थित्वा वस्त्रं च मुखद्वारे दत्त्वा कथितं तत्तस्य कर्णे। ततः संभ्रमाद्धावितो गृहाभिमुखः ठकुरो, दग्धं च सर्वस्वं, सर्वमपि गृहं, ततः कुपितेन बाढं ताडितोऽसौ ठकुरेण, भणितश्च निर्लक्षण ! प्रथममेव धूमे निर्गते जलाचाम्लधूलिभस्मादिकं किमिति त्वया न निक्षित, महता च शब्देन कि मिति त्वया न पूत्कृतम् ? तेनोक्तम्- अन्यदा इत्थं करिष्यामीति / ततः कदाचिद्वि-हितस्नानो धूपनायोपविष्टः ठकुरः, निर्गतां च प्रच्छादनपटस्योपरि अगरुधूमशिखां दृष्ट्वा च ग्रामेयकेन क्षिप्ता चोत्पाट्य तदुपर्याचाम्लभृतमहास्थाली, जलधूलीभस्मादिक , rar च पूत्कृतं महद्भिः शब्दैरिति। ततोऽयोग्योऽयमिति निष्कासितो गृहात्। Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणणुओग 287 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणणुओग एवं शिष्योऽपि यावन्मात्रं वचनं गुरुः कथयति, तावन्मात्रमेव स्वयं द्रव्यक्षेत्रकालपराभिप्रायौ चित्यपरिज्ञानशून्यो यो वक्ति, तस्य वचनाननुयोगः। यस्तु द्रव्यक्षेत्राद्यौचित्येन वक्ति, तस्य तदनुयोग इति / भावाऽननुयोगाऽनुयोगयोः सप्तोदाहरणानि - तत्र श्रावकभार्योदाहरणमाह-एकेन गृहीताणुव्रतेन तरुण- श्रावकेण श्रावकभार्याऽतीवरूपवती कृतोद्भटरूपशृङ्गारा निजपत्न्या एव सखी कदाचिद् दृष्टा / गाढमध्युपपन्नश्च तस्यां, पर लज्जादिना किमपि वकुमशक्नुवंस्तत्प्राप्तिचिन्तया च प्रतिदिनमतीव दुर्बलो भवन्निर्बन्धेन पृष्ट कारणं स्वभार्यया, कथित चकथं कथमपि तेन। तया चाऽतीवदक्षतया प्रोक्तम्- एतावन्मात्रेऽप्यर्थे किं खिद्यसे? प्रथममेव ममैतत्किन कथितम, स्वाधीना हि मम सा, आनयामि सत्वर-मेवेति / ततोऽन्यदिने भणितो भतिया अभ्युपगतं सहर्षया तया युष्मत्समीहितं, प्रदोष एवागमिष्यति, परं लज्जालुतया वासभवन-प्रविष्टमात्राऽपि प्रदीपं विध्यापयिष्यति। तेनोक्तम्- एवं भवतु, किमित्थं विनश्यति, ततो वयस्यायाः सकाशामिक चिन्निमित्तमुद्भाव्य याचितानि, तया तदीयानि स्वभर्तृदृष्टपूर्वाणि प्रधानवस्त्राण्या-भरणानि च, ततो गुटिकादिप्रयोगतो विहितसखीसदृशस्वरादि-स्वरूपा तथैव कृतशृङ्गारा तत्सदृशललितेन विलासैश्वान्विता तस्यैव श्राद्धस्य भार्या सन्निहितवरकुसुमताम्बूलश्रीखण्डागुरुकर्पूरकस्तू रिकादिसमस्तभोगाङ्गे विहितामलप्रदीपालोके रमणीये वासभवने सविलासमन्वविशत् / ततो दृष्टा सोत्कण्ठविस्फारितदृशा त्रिदशकल्लोलिनीपुलिनप्रतिस्पर्धिपल्यड्कोपविष्टन झगित्येव नयनमनसोऽमृतवृष्टिमियादधाना तेनैषा / तया च दृष्टमात्रया विध्यापितः प्रदीपः। क्रीडितं विविधगोष्ठी प्रबन्धपूर्वक तया सह निर्भरं तेन। ___ गतायां च तस्यां प्रत्युषसि चिन्तितमनेनसयलसुरासुरपणमियचलणेहिं जिणेहि जं हियं भणियं / तं परभवसंचलयं, अहह ! मए हारियं सीलं // 1|| इत्यादिसंवेगवशोत्पन्नपश्चात्तापमहानलप्लुष्यमानान्तःकरणः प्रतिदिनमधिकतरं दुर्बलीभवत्यसौ / ततो निर्बन्धेन भार्यया पृष्टो निःश्वस्य सखेदं ब्रवीति स्मप्रिये ! यतश्चिरकालानुपार्जितस्वर्गाऽपवर्गनिबन्धनव्रतखण्डनेनाऽमुना कृतं मया तदकर्तव्यं यद् बालिशानामप्यविधेयम्। ततः कशीभवाम्यहमनया चिन्तया। ततो भार्यया संवेगवशीभूतंव्यावृत्तं च तचेतो विज्ञाय कथितः सर्वोऽपि यथावृत्तः / सद्भाव-साभिज्ञानकथनादिभिश्च समुत्पादिता प्रतीतिस्तस्य, ततः स्वस्थीभूतोऽयमिति / तदेवं स्वकलत्रमपि परकलत्राभिप्रायेण भुञानस्य तस्य भावाऽननुयोगः, यथाऽवस्थितावगमे भावानुयोगः एवमौदयिकादिभावान् स्वरूपवैरीत्येन प्ररूपयतो भावाऽननुयोगः, यथाव-स्थिततत्प्ररूपणे तु भावाऽनुयोग इति। सप्तभिः पदैर्व्यवहरतीति साप्तपदिकस्तदुदाहरणमुच्यते- एकस्मिन् प्रत्यन्तग्रामे कोऽपि सेवकपुरुषो वसति स्म / स च साध्वादिदर्शनिनां संबन्धिनं धर्म कदाचिदपिन शृणोति स्म।नच तदन्तिके कदाचिदपि व्रजति स्म, न च कस्याप्युपाश्रयं ददाति स्म / यतो दयालुतां परधनपरकलत्रनिवृत्त्यादिगुणप्रतिपत्तिं चैते उपदेक्ष्यन्ति, न च पालयितुमहं शक्नोमीति। अन्यदा च वर्षासन्नसमायातास्तत्र कथमपि साधवः, तेषां च तत्र वसति- मन्वेषयतां कौतुक दिदृक्षुभिः सेवकनरमित्रामीणैरुक्तम्- अत्रेत्थंभूतो भवतामतीव भक्तोऽमुकगृहे श्रावकस्तिष्ठति, वसत्यादिनान किञ्चित् क्षुण्णं करिष्यति, तद् गच्छत तत्रेति, कृतं तत् तथैव तैः। स च तेषां पुरतोऽपि स्थितानां संमुखमपि नाऽवलोकयति स्म / तत एकेन साधुना शेषसाधूनामभि-मुखमुक्तम् स एष न भवति, प्रवञ्चिता वा तैमियकैर्वयम् / ततस्तेन संभ्रान्तेनोक्तम् -- किं किं भणथ यूयम् ? ततस्तैः कथितं सर्वमपि भाषितम्, ततस्तेन चिन्तितम्- अहो ! मत्तोऽपि ते निकृष्टाः, यैरतेऽपि प्रवञ्चिताः, तस्माद मा भूवन् अमी, अहं च तदुपहासपात्रम् / अतोऽनिष्टमपि करोम्येतदिति विचिन्त्योक्तम्- तिष्ठत मम निराकुलशालायामेतस्याम्, परं मम धर्माऽक्षरं न कथनीयम् / प्रतिपन्नमेतत्तैः / स्थिताश्च सुखेन तत्र चतुर्मासकाऽत्ययं यावत् / ततो विजिहीर्षुभिस्तैरनुव्रजनार्थमागतस्य शय्यातरस्यकल्पोऽयमिति दत्ताऽनुशास्तिः। ततो मद्यमांसजीवघातादि विरतिं कर्तुमशक्नुवत-स्तस्याऽतिशयज्ञानितयाऽग्रे प्रतिबोधगुणं पश्यद्भिर्गुरुभिः साप्तपदिकं व्रतं दत्तम्। किंचित्पञ्चेन्द्रियप्राणिनं जिघांसुनायावता कालेन सप्तपदान्यवष्वष्क्यन्ते, तावन्तं कालं प्रतीक्ष्य हन्तव्योऽसाविति / प्रतिपन्नमेतत्तेन / गताश्व साधवोऽन्यत्र / अन्यदा चाऽसौ सेवकनरैश्चौर्याऽर्थं गतः क्वापि, ततोऽपशकुनादिकारणेन स्वल्पेनैव कालेन प्रतिनिवृत्तः, कीदृशो मत्परोक्षेमदीयगृहे समाचार इति जिज्ञासुर्निशीथे प्रच्छन्न एवं प्रविष्टो निजगृहे। तस्मिश्च दिने तदीयभगिनी ग्रामान्तरादागता, तया च केनचिद् हेतुना विहितपुरुषनेपथ्यया नटा नृत्यन्तो निरीक्षिताः / ततोऽसौ प्रचलनिद्रावशीकृतपुरुषवेषैव भ्रातृजायायाः समीपे प्रदीपालोकादिरम्यवासभवनगतपल्यङ्क एव निर्भरं प्रसुप्ता / तेनाऽपि च तद्वन्धुना अकस्मादेव गृहप्रविष्टन दृष्ट तत्तादृशम्। ततश्चिन्तितमनेन- अहो ! विनष्ट मद्गृहम् / विटः कोऽप्ययं मद्भार्या समीपे प्रसुप्तस्तिष्ठतीति कोपावेशादात्तकृपाणः, ततः स्मृतं व्रतं, विलम्बितं च सप्तपदापसरणकालम् / अत्रान्तरे तद्भगिनीबाहुलतिका निद्रावशेन तद्भार्यया मस्तकेनाक्रान्ता, ततः पीड्यमानया तद्भगिन्या प्रोक्तम्- हले ! मुञ्च मम बाहुं, दूयेऽत्यर्थमहम् / ततः स्वरविशेषेण ज्ञाताऽनेन स्वभगिनी / अहो ! निकृष्टोऽहं, मनागेव मयान कृतमिदमकार्यम्। तत उत्थिते ससंभ्रम भगिनीभार्ये / कथितश्च सर्वः स्वव्यतिकरः परस्परम् / ततो यथोक्ताभिग्रहमा-त्रस्याप्येवं भूतं फलमद्वीक्ष्य संविग्नः प्रवजितोऽसाविति / तदत्र स्वभगिनीमपि परपुरुषाभिप्रायेण जिघांसोस्तस्य भावाननुयोगः, यथाऽवस्थितावगमे तु भावानुयोगः / प्रस्तुतयोजना तु श्रावकभार्योदाहरणवदिति। कोङ्कणकदारकोदाहरणम् - यथा कोङ्कणकविषये एकस्य पुरुषस्य लघुदारकोऽस्ति स्म। भार्या तु मृता, अन्यां च परिणेतुमिच्छतोऽपि सपत्नी-पुत्रोऽस्याऽस्तीतिन कोऽपि ददाति स्म।अन्यदाच सहैव तेन दारकेणाऽसावरण्ये काष्ठानां गतः, तत्र च कस्यापि पित्रा काण्ड मुक्तं, तदानयनाय च दारकः प्रेषितः, गतश्वाऽयम. अत्रान्तरे दृष्पितस्तस्य चलितं चित्तं. यदस्य दारकस्य सत्ककारणेनाऽन्यां भार्यां मम न कोऽपि ददाति / ततोऽन्यत्काण्ड क्षिप्त्वा विद्धोऽसौ दारकः, ततो महता स्वरेणोक्तं बालकेन- तात ! किमेतत्काण्ड त्वया मुक्तम् ? विद्धो ह्यनेनाऽहम्। ततो निघृणेनं पित्राऽन्यत् काण्ड मुक्तम् / ततो ज्ञातं दारकेण-हन्त ! चुक्को मारयत्येष मामिति विस्वरं रट निकृष्टेन तेन मारितोऽसाविति / पूर्वमन्यस्य बाण मुञ्चताऽपिऽनाभोगत एवाऽहं विद्ध इत्येवमवबुध्यमानस्य भावाऽननुयोगः, पश्चाद् यथावस्थितावगमेतस्य भावाऽनुयोगः। अथवा संरक्षणाऽहमपि तं बालकं मारयामीत्यध्यवस्यतः पितुर्भावाऽननुयोगः, तद्-रक्षणाऽध्यवसाये तु भावानुयोगः / एवं विपरीतभावप्ररूपणे भावाननुयोगः, अविपरीतभावप्ररूपणे तु भावाऽनुयोग इति। अथ नकुलोदाहरणम् - यथा पदातेः कस्यचिद् भार्या गुर्विणी जाता, नकुलिका च Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणणुओग 288- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणणुओग काचिद् गृहवृत्त्याद्याश्रिता गुर्विणी, पदातिभायर्या सह एकस्यां रजन्यां प्रसूता। तस्या नकुलो जातः, इतरस्यास्तुपुत्रः, ततोऽस्य समीपे नकुलः सदैव तिष्ठति स्म / अन्यदा च पदातिभार्यया द्वारे कण्डयन्त्या मध्ये मञ्चिकायां स्थापितो बालकःसर्पण दष्टो मृतश्च / ततो मञ्चिकाया उत्तरं नकुलेन दृष्टो विषधरः खण्डशः कृत्वा मारितश्च, ततोद्वारे पदातिभार्यायाः समीपे गत्वा शोणितोपलिप्तवक्त्राद्य-वयवोऽसौ चाटूनि कर्तुमारब्धः, दृष्टश्च तया, ततो नूनं मदीयपुत्रं मारयित्वा भक्षितोऽनेनेति विचिन्त्य कोपावेशात् मुशलेन हत्वा मारितो नकुलः / गता च पुत्रसमीपे / दृष्टश्व पुत्रेण सह विनष्टः सर्पः, ज्ञातं च यथा सो निहतस्ततो हन्तेत्थं निरपराधोऽप्युपकार्यपि मया निकृष्टया हतो वराको नकुलः, इति विचिन्त्य द्विगुणतरं शोकमापन्ना / पूर्वमपराधिनं विज्ञाय नकुलं प्रत्यास्तस्या भावाननुयोग इति, यथावस्थितावगमे त्वनुयोगः / प्रस्तुतयोजना त्वनन्तरोक्तवदिति।। अथ कमलामेलोदाहरणम् - तत्र द्वारावत्यां नगर्यां बलदेवपुत्रो निषधः, तस्यापि सूनुः सागरचन्द्रः, सच रूपेणाऽतीवोत्कृष्टः, शम्बादीनां च कुमाराणां सर्वेषामप्यतिप्रियः, तस्यामेव च द्वारावत्यां नगर्यामन्यस्य राज्ञो दुहिता कमलानाम समस्ति स्म / सा चोग्रसेनतनयस्य नभः- सेनकुमारस्य दत्ता वृता च तिष्ठति स्म / अन्यदाच तत्र नारदः सागरचन्द्रस्य समीपं गतः / तेनाऽप्युत्थाय उपवेश्य प्रणम्य च पृष्टः- दृष्टं भगवन् ! आश्चर्यं किमपि क्वापि ? नारदेनोक्तम्- दृष्टं कमलामेलाभिधानराजपुत्रिकायाः, न खलु ममैव किन्तु भुवन-त्रयस्याऽप्याश्चर्यकारिरूपम्। सागरचन्द्रेणोक्तम्-किं दत्ता कस्यचित्सा? नारदेनोक्तम्- दत्ता,परं नाऽद्यापिपरिणीता। कथं पुनर्मम सा संपत्स्यते? इति सागरचन्द्रेणोक्ते, न जानाम्येतत् अहमित्यभिधाय गतो नारदः / सागरचन्द्रस्तुतदिनादारभ्य न शयानो नाऽप्यासीनः क्यापि रतिं लभते, तामेव कन्यकां फलका-दिष्वालिखन् / तन्नाममात्रजापं चाऽनवरतं कुर्वन्नास्ते स्म। नारदोऽपिकमलामेलाऽन्तिकं गतः। तयाऽपि तथैवाऽऽश्वर्यं किमपि दृष्टम् ? इति पृष्टः / कलहदर्शनप्रियतया स प्राहदृष्टमाश्चर्यद्वयं मया- सागरचन्द्रे सुरूपत्वं, नभःसेने तु कुरूपत्वम्। ततो झगित्येव सा विरक्ता नभःसेने, अनुरक्ता च सागरचन्द्रे / तत्प्राप्तिचिन्ताऽऽतुरा च समाश्वासिता नारदेन सा- वत्से ! स्थिरीभव संपत्स्यते अचिरादेव तवाऽयमित्युक्त्या गतः सागरचन्द्रसमीपे। इच्छति त्वां सेत्यभिधाय गतः। ततो विरहावस्थाव्यथिते प्रलपतिच सागरचन्द्रे, आर्तः सर्वोऽपि मात्रादिस्वजनवर्गः, खिद्यन्ते यादवाः, तदत्रान्तरे समायातः कथमपि सागरचन्द्रसमीपे शम्बकुमारः, दृष्टश्च तेनासौ तदवस्थः, ततः पृष्ठतस्तस्य स्थित्वा हस्त-द्वयेनाऽऽच्छादिते तदक्षिणी शम्बेन / सागरचन्द्रेणोक्तम् किं कमलामेला ? शम्बेनोक्तम्- नाऽहं कमलामेला, किन्तु कमलामेलोऽहम्। ततः सागरचन्द्रेण शम्बो-ऽयमिति ज्ञात्वा प्रोक्तम् - सत्यमेव कमलसमदीर्घलोचनां कमलामेला मेलयिष्यसि, कोऽत्राऽर्थेऽन्यः समर्थ इति। ततोऽन्यैर्यदुकुमारैः पीतमद्यः परवशीभूतः शम्बो ग्राहितस्तद्यापनप्रतिज्ञाम् / उत्तीर्णे च मदभावे विचिन्तितं शम्बेन- अहो ! अलं मयाऽभ्युपगतम्, अशक्यं ह्येतद्वस्तु, कथमियं प्रतिज्ञा निर्वाहयिष्यते ? ततः प्रद्युम्नपात् प्रज्ञप्तिविद्या याचिता शम्बेन। विवाहदिवसेच बहुभिर्यादवकुमारैः परिवृतेन तेन सुरङ्गा पातयित्या पितृगृहादाकृष्य नीता बहिरुद्याने कमलामेला / नारदं च साक्षिणं कृत्वा कारितस्तत्पाणिग्रहणसंबन्धः सागरचन्द्रस्य। ततः सर्वेऽपि कृतविद्याधररूपाः क्रीडन्तस्तिष्ठन्तिस्मा उद्याने पितृश्वसुरपाक्षिकैश्चाऽन्वेषयद्भिदृष्टा कृतविद्याधररूपा नवपरिणीतवेषधारिणी च क्रीडन्ती कमलामेला / विद्याधरैरपहत्य परिणीता कमलामेले ति कथितं तैर्वासुदेवस्येति। निर्गतश्च विद्याधरोपरि कुपितः सबलवाहनोऽसौ, लग्नं च महदायोधनं तावद् यावत् पश्चाच्छम्बः परिहतवैक्रियरूपः पतितो जनकस्याऽङ्घ्रियुग्मे / ततश्चोपसंहृतः सङ्ग्रामः, दत्ता च कृष्णेन कमलामेला सागर-चन्द्रस्यैव / गताश्च सर्वे स्वस्वस्थानम् / तत्र सागरचन्द्रस्य शम्बं कमलामेला मन्यमानस्य भावाननुयोगः, यथावस्थितावगमे तु भावानुयोगः / विपरीतादिप्ररूपण-योजना तु प्रस्तुता पूर्ववदिति। शम्बसाहसोदाहरणमिति। वाचनान्तरे शम्बस्योदाहरणम्- वासुदेवाच्छेषजाय सदैव शृणोति जाम्बवती- समस्तानामप्यालीनां मन्दिरं त्वत्पुत्रः शम्ब एति / ततो जाम्बवत्या विष्णुरभिहितः - मया पुत्रसत्का एकाऽप्यालिर्न दृष्टा। विष्णुना प्रोक्तम्- आगच्छ येनाऽद्य दर्शयामि / ततो जाम्बवती उत्कृष्टलावण्यमाभीरीरूपं कारिता, स्वयं पुनराभीररूपं कृत्वा दण्डहस्तःस्वयं पृष्ठे व्यवस्थितः।अग्रतस्तुमस्तकन्यस्तदधि-हण्डिका जाम्बवती कृता,प्रविष्टोऽथ दधि-विक्रयाऽर्थ नगरीमध्ये। दृष्टा च शम्बेन माता। तदुत्कृष्टरूपाआभीरीति विज्ञाय प्रोक्ता शम्बेनैषा-आगच्छ मद्गृहं सर्वस्यापि त्वदीयदध्नो यावन्मात्रं मूल्यं याचसे,तदहं दास्यामीत्यग्रतः स्वयं पृष्ठतस्त्वामीरी पश्चात्त्वाभीरः। स्वतः शून्यदेवकुलिकायामेकस्यां गत्वा प्रोक्ता शम्बेनाऽऽभीरी- प्रविश एतन्मध्ये, मुञ्च दधि / तया च विरूपाऽभिप्रायं तं विज्ञाय प्रोक्तम्- नाऽहमत्र प्रविशामि, द्वारस्थिताया एव गृहाण दधि, प्रयच्छ मूल्यम् / बलादपि प्रवेशयिष्यामीत्यभिधाय गृहीता शम्बेन सा बाहौ, ततो धावित्वा द्वितीयबाहौ लग्न आभीरः / द्वयोरपि चाऽऽकर्षणं विकर्षणं कुर्वतोभनं भाण्डम् / ततः कृतं सहजरूपमात्मनो, जाम्बवत्याश्च विष्णुना / तच्च दृष्ट्वा लज्जितो नष्टः शम्बः, नाऽऽगच्छति चाऽवसरेऽपि लज्जया राजकुले / ततोऽन्यदिने विष्णुनियुक्त-बृहत्पुरुषैः कष्टनाऽऽनीयमानः क्षुरिकयावंशकीलकं घट्यन् आगच्छत्यसौ। प्रणामे च कृते पृष्टो वासुदेवेन शम्बः - किमेतत् क्षुरिकया घट्यते / तेनोक्तम्- कीलकोऽयम् / किमर्थं पूनरसौ ? यः पर्युषितानतीतजल्पान् वदिष्यति, तन्मुखे आहननार्थमिति / तदत्र शम्बस्य मातरमप्याभीरी मन्यमानस्य भावाऽननुयोगः, पश्चाद् यथावदवगमे तुभावानुयोगः। प्रस्तुतयोजना तु पूर्ववदिति। अथ श्रेणिककोपोदाहरणम् - राजगृहे नगरे समवसृतस्य भगवतः श्रीमन्महावीरस्य श्रेणिकनराधिपो राज्ञया चेल्लणया सह माघमासे हिमकणप्रवर्षिणि महाशीते पतति वन्दनार्थं गतः। ततो निवर्तमानस्य च तस्य, राज्ञया चेल्लणया मार्गासन्नः तपःकर्षितशरीरः सर्वथा- ऽप्यनावरणो मेरुशिखरमिव निष्प्रकम्पः प्रतिमाप्रतिपन्नो- ऽभिनयकायोत्सर्गे स्थितः संध्यायां दृष्टः कोऽपि तपस्वी। गताऽसौ तद्गुणानेव मनसि ध्यायन्ती गृहम्, सुप्ता च रजन्यामनेक-शीतापहर्तृप्रावरणप्रावृता पल्यङ्के, निर्गतश्व प्रावरणेभ्यो बहिस्तात् कथमप्येकः करः, शीताभिभूतश्वायमतीव स्तब्धीभूतः, तदनुसारेण च समस्तमपि शरीरं तथा व्याप्तं शीतेन यथा निद्राभरे-ऽपि जागीरतं तया। ततः क्षिप्तो हस्तः प्रावरणमध्ये, स्थितश्च हृदये स तथा कायोत्सर्गस्थायी महामुनिः, तद्गुणोत्पन्नाऽतुच्छबहुमानया विस्मितयाच प्रोक्तं तया- सतपस्वी किं Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणणुओग 289 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणत्त करिष्यतीति, योकेनाऽप्यावरणबहिर्निर्गतेन हस्तेनाऽहमेता- वतीं / वि' आचा०१ श्रु०३ अ०३ उ०। शीतबाधा प्राप्ता, तारण्ये निरावरणे रूक्षतपःकर्षितश्चैवं - अणण्णमण-त्रि०(अनन्यमनस्) न विद्यते अन्यधर्मध्यान- लक्षणात् विधमहाशीतबाधितः सतपस्वी किं करिष्यतीति तस्या-श्चित्ताभिप्रायः, __मनो यस्य सोऽनन्यमनाः / एकाग्रचित्ते, संथा०। भगवन्मनसि, औ०। अयं चालुतया श्रेणिकनृपस्यान्यथापरिणतः, नूनमनया कस्याऽपि अणण्णहावाइ(ण)-पुं०(अनन्यथावादिन्) सत्यवक्तरि, सङ्केतो दत्तः, तदन्तिके च मयि सन्निहिते गन्तुमशक्ता, ततस्तचित्तखेदं "अणुवकयपराणुग्गह-परायणा जं जिणा जगप्पवरा। जिअचेतसि निधाय एतदुक्तम् / ततो महता खेदेन तस्य विभाता रजनी। रागदोसमोहा, अनन्नहावाइणो तेण" ||1|| आव०४ अ०॥ चलितः श्रीमन्महावीरस्याऽन्तिकम् / गच्छता चातिकोपावेशान्नि अणण्णाराम-त्रि०(अनन्याराम) मोक्षमार्गादन्यत्रारममाणं, आचा०१ रूपितो-ऽभयकुमारः - सर्वाभिरेवान्तःपुरिकाभिः सह प्रदीपय सर्वा श्रु०२ अ०१ उ०। ण्यन्तःपुरगृहाणि / ततोऽभयकुमारेण चिन्तितम्-केनाऽप्यभि अणण्हय-पुं०(अनाश्रव) न०तानवकर्माऽनादाने, प्रश्न०१आश्र० नवोत्पन्नकोपावेशेनैवमसौ वक्ति, प्रथमकोपे च यदुच्यते, तत्क्रियमाणं द्वा० स्थान न खलु परिणतौ सुखयति / अथवाऽनुवर्तनीयं गुरूणां वचनमतः शून्यां अणण्हरकर-पुं०(अनाश्रवकर)प्राणातिपाताद्याश्रवकरणरहिते पञ्चमे हस्तिशालामेकां प्रदीप्य प्रस्थितः सोऽपि भगवद्वन्दना-ऽर्थम्। प्रशस्तभनोविनयभेदे, भ० 25 श०७ उ० स्था०। इतश्च भगवान् पृष्टः श्रेणिकराजेन- भगवन् ! चेल्लणा किमेकपत्नी, अणण्हयत्त-न०(अनंहस्कत्व) न विद्यते अंहः पापं यस्मिन् तत् अनेकपत्नीवा? भगवता प्रोक्तम्- एकपत्नीति। ततो निवृत्तः सत्वरमेव अनंहस्कम्, तस्य भावोऽनंहस्कत्वम् / अविद्यमानकर्मत्वे, "संजमेणं गृहाभिमुखमभयकुमारनिवारणाय।मार्गेचाऽऽगच्छन्वीक्षितोऽसौ पृष्टश्च - अणण्हयत्तं जणयइ"। उत्त०१ अ०। किं दग्धमन्तःपुरम् ? तेनोक्तम् - दग्धम् / राज्ञा प्रकुपितेनाऽभ्यधायि अणतिक्कमणिज्ज-त्रि०(अनतिक्रमणीय) न०तका अचालनीये, भ०२ त्वमपि तत्रैव प्रविश्य किं न दग्धोऽसि ? कुमारेणोक्तम्- किं ममाऽग्निप्रवेशेन ? व्रतमेव ग्रहीष्याम्यहम् , ततोमा भूदस्य महान् खेद श०५ उ० दशा इति कथितं यथावदेवेति / तदत्र सुशीलामपि चेल्लणां कुशीला अणतिक्कमणिज्जवयण-त्रि०(अनतिक्रमणीयवचन) अन-तिक्रमणीयं मन्यमानस्य राज्ञो भावाऽननुयोगः,यथावदवगमने च तदनुयोगः। वचनं येषां ते / वचनानतिक्रामकेषु, "अम्मापिऊ णं एवमौदयिकादिभावान् विपरीतस्वरूपान् प्ररूपयतो भावाऽननुयोगः, अणइक्कमणिज्जवयणा" अम्बापित्रोः सत्कमनतिक्रमणीयं वचनं येषां ते यथाऽवस्थितस्वरूपांस्तु तान् प्ररूपयतो भावाऽनुयोग इति / विशे० तथा / औ०। विपा० अणतियार-त्रि०(अनतिचार) न विद्यन्ते अतिचारा यस्मिन् / अणणुचीइय-त्रि०(अननुचित) शास्त्रानुज्ञाते,जो तु अकारणसेवा, सा अतिचाररहिते, ध०३ अधिo सव्वा अणणुचीयातो होंति, जा अकारणतो पडिसेवा गुणदोसे अचिंतिऊ अणतिवाइ(ण)-पुं०(अनतिपातिन्) अतिपतनमतिपातः ण सा अणणुचीति। नि०चू०१ उ०॥ प्राप्त्युपमर्दनं, तद्विद्यते यस्यासावतिपातिकस्तत्प्रतिषेधादनअणणुपालण-न०(अननुपालन) न०त०। अनासेवने, आव०६अ०। तिपातिकः। अहिंसके, सूत्र०२ श्रु०१ अ०॥ पंचा०। "पोसहोववासस्स सम्ममणणुपालणया" पोष-धोपवासा अणतिविलंबियत्त-न०(अनतिविलम्बितत्व) अतिविलम्ब-राहित्यरूपे तिचारः। उपा०१अन वचनातिशये, औ०। अणणुवाइ(ण)-त्रि०(अननुपातिन्) सिद्धान्तेन सहाऽघटमानके, व्य० अणत्त-पुं०-स्त्री०(ऋणात) राजादीनां हिरण्यादिकधारके, ग० 10 1 अधि० / ऋणपीडिते, स्था०३ठा०४ उ०। सनदीक्षणीयः / ध०३ अणणुवाय-पुं०(अननुपात) अनागमने, पंचा०७ विव०। अधि। पं० भा०। पं०चू०। अणणु सासणा-स्त्री०(अननुशासना) शिक्षाया अभावे, ज्ञा० / *अनात्त-अपरिगृहीते, ध०२ अधि० स्था०| १श्रु०१३अ01 इयाणिं अणत्ते - अणण्ण-त्रि०(अनन्य) अभिन्ने, विशे० "अणण्णं अभिण्णं" सचित्तं अचित्तं, वा मीसगजोयणं तु धारेंति। अपृथगित्यर्थः / नि०चू० 1 उ०) मोक्षमार्गादन्योऽसंयमः, समणाण व समणीण व, न कप्पती तारिसं दिक्खा॥४११|| नाऽन्योऽनन्यः। ज्ञानादौ, "अणण्णं चरमाणे सेणछोणे, ण छणावए"। कंठा। इसे दोसा - आचा०१श्रु०३ अ०२ उ०) अथ सोय अकित्ती या, तम्मूला गंतहिं पवयणस्स। अणण्णणेय-त्रि०(अनन्यनेय) अन्येन नेत्राऽनेतव्ये, "णेतारो अन्नेसि अणपोव्वडझंझडिया, सव्वे एयारिसा मण्णा // 412 / / अणन्नणेया बुद्धाहु ते अंतकडा हवंति" नचस्वयंबुद्धत्वादन्येन नीयन्ते अणं रिणं पोव्वड मइलं, चक्कवरायपरिभवे अण्णाणुपोव्वडो, (झंझडिए तत्त्वावबोधं कार्यन्ते इत्यनन्यनेयाः, हिताहितप्राप्तिपरिहारं प्रति त्ति) झंझडिया रिणे अदिजंति वश्रिएहिं अणेगप्पगारे रोउ दुव्वयणेहि नान्यस्तेषां नेता विद्यत इति भावः। सूत्र०१श्रु०१२ अ० झडियाझंझडियालत्तकसादिएहिं वा झडित्ता सव्वे एआरिसा / एते अणण्णदं सि(ण)-पुं०(अनन्यदर्शिन्) अन्यद् द्रष्टुं शील- गेण्हणकढणादिया दोसा। मस्येत्यन्यदर्शी यस्तथा० नासावनन्यदर्शी। यथावस्थित-पदार्थद्रष्टरि, इमं बितियपदं गाहाआचा०१ श्रु०२ अ०१ उ० दाणेण से तोसितो,अहवा वीसज्जितो पहुणं। अणण्णपरम-पुं०(अनन्यपरम) न विद्यतेऽन्यः परमः प्रधानो अट्ठाणपरविदेसे, दिक्खासे उत्तमाऽ8वदो।।४१३|| यस्मादित्यनन्यपरमः। संयमे, "अणण्णपरमं णाणी, णो पमाए कयाइ अट्ठपदत्ते दाणे ण तोसिएण धणिएण विसञ्जितो (पभु ति) Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणत्त 290 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अणभिक्कंतसंजोग धणितो सव्वम्मि अदिन्ने तेण विसज्जितो पव्वाविजति, सेसं कंठं / अणत्ते अणप(प्प)ज्ज-त्रि०(अनात्मज्ञ) अनात्मवशे ग्रहगृहीते, क्षिप्त-चित्तादौ गतमिति। निचू०११ उ०! | च। निचू०१ उ अणत्तं-(देशी) निर्माल्ये, देना० 1 वर्ग। अणधिकारि(ण)-पुं०(अनधिकारिन्) अधिकारिविरुद्धे, अणत्तट्ठिय-त्रि०(अनात्मार्थिक) नात्मार्थ एव यस्यास्त्य- ल०। सावनात्मार्थिकः। परमार्थकारिणि / प्रश्न०१ संव० द्वा०) अणद्ध-त्रि०(अनर्द्ध) न विद्यतेऽर्द्ध येषामित्यनर्धाः / निर्विअणत्तपण्ण-त्रि०(अनात्मप्रज्ञ) नात्मने हिताय प्रज्ञा येषां ते भागेषु, "समयः प्रदेशः परमाणव एते अनर्धाः"। स्था० 3 ठा० अनात्मप्रज्ञाः / व्यर्थबुद्धिषु, “एगे विसीयमाणे अणत्तपण्णे'। आचा० 2 उ०। १श्रु०५ अ०६उ०॥ अणपन्निय-पुं०(अप्रज्ञप्तिक) व्यन्तरनिकायोपरिवर्तिनि व्यन्तर-भेदे, अणत्तव-त्रि०(अनात्मवत्) अकषायो ह्यात्मा भवति, स्व- प्रश्न० 1 आश्र०द्वा० स्था०। औ० ते च रत्नप्रभाया उपरितने स्वरूपावस्थितत्वात् , तद्वान्न भवति यः सोऽनात्मवान्। सकषाये, स्था० रत्नकाण्डरूपे योजनसहने अध उपरि च दशयोजनशतरहिते ६ठान वसन्ति / प्रव०१६४ द्वा० अणत्तागमण-न०(अनात्तागमन) अनात्ता अपरिगृहीतावेश्या, स्वैरिणी, अणप्पग्गंथ-त्रि०(अनर्घ्यग्रन्थ) अनोऽनर्पणीयोऽढौकनीयः प्रोषितभर्तृका, कुलाङ्गना वाऽनाथा, तस्यां गमनम् / अपरिगृहीतागमने परेषामाध्यात्मिकत्वाद् ग्रन्थवद् द्रव्यवत् ग्रन्थो ज्ञानादिर्यस्य स्वदारसन्तोषाविचारे, ध०२ अधिक सोऽनर्म्यग्रन्थ इति। परेभ्योऽदातव्यज्ञानादिके, स्था०६ ठा। अणत्थ-पुं०(अनर्थ) अनर्थहेतुत्वाद् गौणे एकविंशे परिग्रहे, प्रश्न० *अनल्पग्रन्थ-त्रिगनबा बलागमे, औ०। 5 आश्र० द्वा० *अनात्मग्रन्थ-त्रि०। अविद्यमानो वा आत्मनः सम्बन्धी ग्रन्थो अणत्थक-पुं०(अनर्थक) परमार्थवृत्त्या निरर्थक अष्टाविंशे गौणपरिग्रहे, हिरण्यादिर्यस्य। अपरिग्रहे, औ०। सूत्रा प्रश्न०५ आश्र० द्वा० निष्प्रयोजने, पंचा०६ विव०। अणप्पिय-न०(अनर्पित) अविशेषिते, यथा जीवद्रव्यं संसारी, संसार्यपि अणत्थकारग-त्रि०(अनर्थकारक) पुरुषार्थोपघातकारके, प्रश्न० वसरूपं, त्रसरूपमपि पञ्चेन्द्रियं, तदपि नररूपमित्यादि तु अर्पित 3 आश्र० द्वा०) विशेषितं विशेषः / स्था० 10 ठान अणत्यंतर-न०(अनर्थान्तर) अन्योऽर्थोऽर्थान्तरम्, न विद्यते-ऽन्तिरं ] अणप्पियणय-पुं०(अनर्पितनय) अनर्पितमविशेषितं सामा-न्यमुच्यते, यस्य पर्याय। एकार्थे शब्दे,"योग्यमहमित्यनर्थान्तरम्" आ०म०द्वि० तद्वादी नयोऽनर्पितनयः / सामान्यमेवास्ति न विशेष इत्येवं वादिनि अणत्थगंथ-पुं०(अनर्थग्रन्थ) न०त०। भावधनयुक्ते, औष आगमप्रसिद्ध नयभेदे, विशे०।आ०चूo! अणत्थचूल-पुं०(अनर्थचूड) निजगुणोपार्जितनामके रत्नवत्याः | अणबल-पुं०(ऋणबल) ऋणे ग्रहीतव्ये बलं यस्येति / बलवत्युत्तमणे, सुते,दर्शन प्रश्न०२ आश्रद्वारा अणत्थदंडज्झाण-न०(अनर्थदण्डध्यान) अनर्थदण्डो निष्प्र-योजनं | अणबलमणिय-पुं०(ऋणबलभणित) उत्तमणे नाऽस्मद् द्रव्यं हिंसादिकस्यां तस्य ध्यानम् / दुर्दान्तमत्ततया द्वीपायनं रुष्टीकुर्वतां देहीत्येवमभिहिते अधमर्णे, प्रश्न०२ आश्र०द्वा०। . शाम्बादीनामिव, वक्रमण्डलीं सर्पविशेषरूपां घ्नतो गङ्गदत्तस्येव, अणब्म-त्रि०(अनभ्र) अभ्ररहिते, द्वा०२४ द्वा० विष्णुश्रीदेवीस्वर्गसंदेशकथननिपुणस्य वा बालस्येव, ध्याने, आतु०॥ अणब्मय-त्रि०(अनभ्रक) अभ्रकरहिते, तंग अणत्थफलद-त्रि०(अनर्थफलद) स्वपरयोरपकाररूपफलदायके, अणन्मुवगय -त्रि०(अनभ्युपगत) श्रुतसंपदानुपसंपन्ने अनिपञ्चा०३ विवन वेदितात्मनि, आ०म०प्र० अणत्थमियसंकप्प-पुं०(अनस्तमितसंकल्प) अनस्तमिते सूर्ये अणमंजग-पुं०(ऋणभञ्जक) ऋणं देयं द्रव्यं भञ्जन्ति, न ददति येते। संकल्पो भोजनाभिलाषो यस्य। अनिष्टरात्रिभोजने दिवाभोजिनि, बृ० उत्तमणेभ्य ऋणं गृहीत्वाऽदायकेषु, प्रश्न०३ आश्र०द्वा०ा 10 // अणमिओग-पुं०(अनभियोग) नअभियोगोऽनभियोगः। अनभियोक्तव्ये, अणत्थवाय-पुं०(अनर्थवाद) निष्प्रयोजने जल्पे, प्रश्न०२ संव० द्वा० और अणत्थादंड-पुं०(अनर्थदण्ड) निष्प्रयोजनहिंसाकरणे, आतु०।। अणमिक्वंत-त्रि०(अनभिक्रान्त) न अभिक्रान्तो जीवितादन-भिक्रान्त ('अणट्ठाडंड' शब्देऽत्रैव भागे 284 पृष्ट चास्य विवृतिः) इति। सचेतने, आचा०२श्रु०१ अ०१ उ०ा अनति-लहिते,आचा०१ अणत्थादंडवेरमण-न०(अनर्थदण्डविरमण) तृतीये गुणव्रते, पंचा०१ श्रु०४ अ०४ उ०ा अन्य रनभिक्रान्ताया-मपरिभुक्तायां विव०।('अणट्ठदंडवेरमण' शब्देऽत्रैव भागे 285 पृष्ठेऽस्य विस्तरः) दोषविशेषविशिष्टायां वसतौ, स्त्री०। ग०१ अधिo आचाo! अणधारग-पुं०(ऋणधारक) ऋणं व्यवहारकदेयं द्रव्यं, तद् यो अणमिक्कं तकिरिया-स्त्री०(अनभिक्रान्तक्रिया) चरकादिभिधारयति / अधमणे, ज्ञा० 17 अ०॥ रनवसेवितपूर्वायां वसतौ, सा चानमिक्रान्तत्वादेवाऽकल्पनीया / अणप्पचोद-पुं०(अनःप्रचोद) अनः शकट ,प्रचोदयति प्रेरयति / विष्णौ, / आचा०२ श्रु०२ अ०२ उ०) शैशवे हि विष्णुना चरणेन शकटं पर्यस्तमिति श्रुतेः।"धियो योऽनः अणभिकं तसंजोग-पुं०(अनभिक्रान्तसंयोग) अनभिक्रान्तो प्रचोदयात्। जैगाम नतिलतितः संयोगो धनधान्यहिरण्यपुत्र कलत्रादिकृतो Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणभिक्कंतसंजोग 291 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणवकंखवत्तिया इसंयमसंयोगो वा येनाऽसावनभिक्रान्तसंयोगः / परिग्रह-ग्रस्तेऽसंयते, 1 उ०। स्वसिद्धान्तानुपदिष्टरूपे सूत्रदोषभेदे, यथा सप्तमः पदार्थो आचा०१ श्रु०१ अ०४ उ०। वैशेषिकस्य, प्रकृतिपुरुषाऽभ्यधिकं वा साङ्ख्यस्य, दुःख अणमिगम-पुं०(अनभिगम) न०त०। विस्तरबोधाभावे, भ०२ श०१ समुदायमार्गनिरोधलक्षणं, चतुरार्यसत्या-दानातिरिक्तं वा उ०। सम्यगप्रतिपत्तौ, ध०३ अधि०। पा०] बौद्धस्येत्यादि / अनु०। आ०म०द्विo! विशे०। अणमिम्गहिय-न०(अनभिग्रहिक) अभिग्रहः कुमतपरिग्रहः, सयत्रास्ति अणराय-न०(अराजक) राज्ञोऽभावे, प्राक्तनस्य राज्ञो मरणे संजाते सति तदभिग्रहिकं, तद्विपरीतमनभिग्रहिकम्। मिथ्यात्वभेदे, स्था०२ ठा०१ यावदद्याऽपि राजा युवराजश्वैतौ द्वावपि नाऽभिषिक्तौ तावदराजकं उ०। तच प्राकृतजनानां सर्वे देवा वन्द्यान निन्दनीयाः, एवं सर्वे गुरवः, भण्यते, बृ०१ उ01 ('विहार' शब्दे व्याख्या) सर्वे धर्मा इत्याद्यनेकविधम्।ध०२अधिo"अणभिग्गहियमिच्छादसणे | अणरिक्क-न० (देशी) दधिक्षीरादौ, नि०चू०१६ उ० दुविहेपण्णते।तंजहा-सपज्जवसिएचेव, अपज्जवसिएचेव" अनभिग्रहिकं / अणल-पुं०(अनल)नाऽस्ति अलः पर्याप्तिर्यस्य, बहुदाह्य- दहनेऽपि भव्यस्य सपर्यवसितमितरस्यापर्यवसितमिति। स्था०२ ठा०१ उ०॥ तृप्तेरभावात्।नबा वह्नौ, अनलदैवतत्वात् कृत्तिकानक्षत्रे, चित्रकवृक्षे, *अनभिग्रहित-पुं० अभिग्रहिकमिथ्यात्वरहिते, बृ०१ उ०) पुं०। तस्य सर्वतः पर्याप्तत्वेऽपि पर्याप्तः सीमाभावात्तत्त्वम् / भल्लातके अणभिग्गहियकु दिट्टि-पुं०(अनभिगृहीतकु दृष्टि) अनभिगृहीता वृक्षेचा वाचा प्रश्नास्था आवान अलोऽनलः।अप्रत्यले अपर्याप्त अयोग्ये, नि०चू०११ उ०। असमर्थे, आ०म०द्वि० अनलमित्यस्यअनङ्गीकृता कुदृष्टिबौद्धमतादिरूपा येन सोऽनभिगृहीतकुदृष्टिः / संक्षेपरुचौ, येन मिथ्यात्विनां कुमतमङ्गीकृतं नाऽस्तीत्यर्थः / उत्त०२८ कामं खलु अलसद्दो, तिविहो पञ्जत्तहिं पगतं / अणलो अपचलो त्तिय, हॉति अजोगो व एगवा // 221 // अ०) अणमिग्गहियसिज्जासणिय-पुं०(अनभिगृहीतशय्या- ऽऽसनिक) न चोदक आह-ननु अलशब्दः त्रिष्वर्थेषु दृष्टः, तद्यथा- पर्याप्त, भूषणे, वारणे च आचार्य आह- यद्यपि त्रिष्वप्यर्थेषु दृष्टः तथापि अर्थवशादत्र अभिगृहीते शय्यासने येन सोऽनभिगृहीत-शय्यासनिकः / स्वार्थ पर्याप्त द्रष्टव्यः,न अलोऽनलः, अपश्चलः,अयोग्यश्च एते एकार्थाः / नि०चू० इकप्रत्ययः। शय्यासनविषयका-ऽभिग्रहरहिते, "नो कप्पइ निग्गंथाण 11 उ०॥ वा निग्गंथीण वा अणभि-गहियसिज्जासणिएणं हुत्तए'" / कल्प०) अणलंकिय-त्रि०(अनलकृत)न०ता मुकुटादिमिरधिभूषिते, भ०२ अणभिग्गहीयपुण्णपाव-त्रि०(अनमिगृहीतपुण्यपाप) अनधिगत श०१उन पुण्यपापे, अविदितपुण्यपापकर्महेतौ च। प्रश्न०२ आश्र०द्वा०। अणलंकियतिभूसिय-त्रि०(अनलड्कृतविभूषित) न०ता अलङ्कृतं अणमिग्गहिया-स्वी०(अनभिगृहीता) अर्थाऽनभिग्रहेण डित्था मुकुटादिभिः, विभूषितं वस्त्रादिभिः, तन्निषेधा-दनलकृतं अविभूषितम् / दिवदुच्यमानायां भाषायाम, "अणभिम्गहिया भासा,भासाय अभिग्गह मुकुटादिभिर्वस्त्रादिभिर्वा शोभामप्रापिते, भ०२ श०१ उ०। निबोधव्वा" / भ० 10 श०३ उ०। अणलगिरि-पुं०(अनलगिरि) चण्डप्रद्योतभूपतेर्हस्तिरत्ने, उत्त०६ अ० अणभिणिवेस-पुं०(अनभिनिवेश) अतत्त्वेऽभिनिवेशाभावे, अनाभोगे "स्त्रीरत्नं च शिया देवी, गजोऽनलगिरिः पुनः" | आ०क०| च / पंचा० 11 विव०। अभिनिवेशराहित्ये, अभिनिवेशश्च अणलस-त्रि०(अनलस) उत्साहवति, दश०१० नीतिपथमनागतस्यापि पराभिभवपरिणामेन कार्यस्याऽऽरम्भः। ध०१ अणलाणिलतणवणस्सइगणणिस्सिय-त्रि०(अनलानिलतृणअधि। वनस्पतिगणनिःश्रित)अनलस्तेजस्कायोऽनिलो वायुअणभिप्पेय-पुं०(अनभिप्रेत) अनभिप्रेताऽर्थविषये संयोगे, उत्त० कायस्तृणवनस्पतिगणो बादरवनस्पतीनां समुदायः, एतन्निः१अपं०सं० श्रिताः। तेजस्कायाद्युपजीवकेषु त्रसेषु, प्रश्न०१आश्र० द्वा०। अणभिभूय-त्रि०(अनभिभूत) नाभिभूतोऽनभिभूतः / अनुकूल अणलिय-न०(अनलीक) सत्ये, बृ०१ उ०। प्रतिकूलोपसर्गःपरतीथिकैर्वाऽजाताऽभिभवे,आचा०१श्रु०२ अ० अणल्लियणिज्ज-त्रि०(देशी) अनाश्रयणीये अयोग्ये, "विसअणमिय-पुं०(अनभीत) अण वणेति दण्डकधातुः, अणति गच्छति तासु वल्लीअणल्लियणिज्जाओ" / स्त्रियः विषवल्लीवद् हालाहल तासु योनिषु जीवोऽनेनेत्यणं पापं, तस्माद् भीतः / असावद्ययोगे, विषलतावत् अनाश्रयणीयाः सर्वथा सङ्गादिकर्तुमयोग्याः, आ०म०द्वि तत्कालप्राणप्रयाणहतुत्वात्। पर्वतकस्य राझोनन्दपुत्री-विषकन्यावत् / अणमिलप्प-त्रि०(अनभिलाप्य) प्रज्ञापनायोगे, आ०म०प्र० तंग "पण्णवणिज्जा भाया, अणंतभागो उ अणभिलप्पाण'। सूत्र०१ श्रु०१ अणव-पुं०(ऋणवत्) दिवसस्य षड्विंशे लोकोत्तरमुहूत्ते, कल्प० / अ० 1 उा आ००। चं० प्र० अणमिस्संग-पुं०(अनभिष्वङ्ग) निष्प्रतिबन्धे, पंचा०१४ वि० अणवक्खमाण-त्रि०(अनवकाङ्क्षत्)विहर्तुमिच्छति, कल्पा स्थाo! अणमिस्संगओ-अव्य०(अनभिष्वङ्गतस्) अभिष्वङ्गाऽभावा-दित्यर्थे, अणवकं खवत्तिया-स्त्री०(अनवकाङ्क्षप्रत्यया) अनवकासमा पंचा०४ विव०। स्वशरीराधनपेक्षत्वं सैव प्रत्ययो यस्याः साऽनयकासप्रत्यया अणमिहिय-न०(अनभिहित) आत्मन् एवेच्छयाऽमणित-लक्षणे,० / इहलोकपरलोकाऽपायाऽनपेक्षस्य क्रियाभेदे, स्था०२ ठा०१ उन Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणवखवत्तिया 292 - अभिषानराजेन्द्रः - भाग 1 अणवठ्ठप्प अणवकंखवत्तिया किरिया दुदिहा पण्णता / आयशरीरअणवकंखवत्तिया चेव, परसरीरअणवकंखवत्तिया चेव। तत्रात्मशरीरानवकाशप्रत्यया सा स्वशरीरक्षतिकारिकर्माणि कुर्वतः, तथा परशरीरक्षतिकराणि तु कुर्वतो द्वितीयेति / स्था० 2 ठा० 1 उof 'अणवकंखवत्तिया इहलोगे परलोगे य / इहलोगे अणवकंखवत्तिया लोगविरुद्धाणि वि चोरिक्कादीणि करेति, जेण वहबंधादीणि इहेव पावति, परलोगे अणवकंखवत्तिया अट्टरुद्दज्झाती इंदियपराभूतो हिंसादिकम्माणि करेमाणो परलोग नाऽवकंखति"। आ०यू०४ अ०) अणवकंखा-स्त्री०(अनवकासा) अनाकाङ्क्षायां स्वशरीराधन-पेक्षत्वे, स्था० 1 ठा० 1 उ० अणवगय-त्रि०(अनवगत) अपरिज्ञाते, स्था० 4 ठा० 4 उ०। अणवगल्ल-पुं०(अनवकल्प) जरसा पीडिते, अनु०। अत्यन्तवृद्धे, पं०व०१ द्वारा ध० अणवजुय-त्रि०(अनवयुत) न०त०। अपृयाभूते, व्य०७ उ०। अणवज-न०पअनवद्य(अणक्य॑)बअवयं पापं, नाऽस्मिन् अवद्यमस्तीत्यनवद्यम् / सामायिके, विशे०। आ०० सावधयोगप्रत्याख्यानात्मकत्वात्तस्य / आ०म०वि० पावमवजं सामाइयं अपावं ति तो तदणवज्ज। पावमणंति व जम्हा, वज्जिजइ तेण तदसेसं। अणशब्दस्य कुत्सितार्थत्वादणन्ति कुत्सितानि करणानि शब्दयन्ति, अणन्त्यनेनेति व्युत्पत्तेर्वा, अणं पापमुच्यते / तदशेष सर्वमपि वय॑ते परिहियते यस्मात्तेन सामायिकेन अणं वर्जयतीति वा, ततः सामायिकमणवयंमुच्यते इति शेषः। विशे०। इदानीमनवद्यद्वारम्। तत्र कथानकम्- वसन्तपुरे नगरे जियसत्तू राया। धारिणी देवी। तीसे पुत्तो धम्मरुई। सो य राया थेरो। अन्नया तावसो पव्वइउकामा धम्मरुइस्स रख्खं दाउमिच्छइ / सो मायरं पुच्छइ-कीस तातो रजं परिव्वयइ ? सो भणइ- रज्जं संसारवड्डणं / सो भणइ-मम वि न कजं / ततो सो वि सह पियरेण तावसो जाओ / तत्थ अमावसा होति त्ति गडओ घोसेइ आसमेसु- कल्लं अमावसा होहि इतो पुप्फफलाणं संगहं करेह। कल्लं नऽदृइ छिंदिउं। धम्मरुई चिंतेइ- जइ सव्वकालं न छिदिजातोसुंदरहोजा। अण्णया साहू अमावसाएतावसासमस्स अदूरेण वोलंति। ते धम्मरुई पेच्छिऊण भणति- भयवं ! किं तुब्भे अणाकुट्टी नत्थि ? तो अडविं जाह। ते भणंति अम्हं जावजीवं अणाकुट्टी / सो संभंतो चिंतिउमारद्धो, साहू वि गया, जाईसंभरिया पत्तेयबुद्धो जातो। अमुमेवाऽर्थमभिधित्सुराहसोऊण अणाउट्टि, अणमित्तो वञ्जियाण अणगंतुं। अणवजयं उवगतो, धम्मरुई नाम अणगारो // श्रुत्वा आकर्ण्य, आकुट्टनमाकुट्टिः छेदनं हिंसेत्यर्थः / न आकुट्टिरनाकुट्टिः, तां सर्वकालिकीमाकर्ण्य अणभीतः अणवणेति दण्डकधातुः, अणति गच्छति तासुतासुयोनिषु जीवो अनेनेति अणं पापं, परित्यज्य सावधयोगमित्यर्थः / अणस्य वयंः अण वय॑स्तद्भावस्तामणवय॑तामुपगतः प्राप्तः साधुः संवृत इति भावः। धर्मरुचिर्नाम अनगारः। गतमनवद्यद्वारम् / आ०म०द्विका निर्दोषे, भ०५ श०६०। उत्ता / पापाभावे कर्मोपचयाभावे, "अणवज्जमतहं तेसिं'' कुतोऽपि हेतोः केवलमनसः प्रद्वेषेऽपि अनवद्यं पापाभावः, कर्मोपचयाभावो वा भवतीति। सूत्र० 1 श्रु० 1 अ०२ उ०ा कामादिपापव्यापाराप्ररूपके, विशे० गुणविशेषविशिष्टे सूत्रे, अनवद्यमग महिंसाप्रतिपादकम्। यतः 'षट्शतानि नियुज्यन्ते, पशूनां मध्यमेऽहनि / अश्वमेधस्य वचनान्यूनानि पशु-भिस्त्रिभिः ॥११॥इत्यादिवचनमिवन हिंसाप्रतिपादकम्।आ० म०वि० अनु०1 पीडानुत्पादके, अपापे वाक्ये "सचेसु वा अणवज्जं वयंति'। सूत्र०१श्रु०६ अ० ('सच्च' शब्देऽस्य विवृतिः) अणवजंगी-स्त्री०(अनवद्यागी) सुदर्शनापरनामिकायां भगवतो __ महावीरस्य दुहितरि जमालिगृहिण्याम् , विशे०। उत्ता अणवज्जजोग-पुं०(अनवद्ययोग) कुशलानुष्ठाने, "अणवज-जोगमेगं' अनवद्यं योगं कुशलाऽनुष्ठानमेकं सकलकुशला नुष्ठानानामनवद्ययोगत्वाऽव्यभिचारात्। पा०। अणवजया-स्त्री०(अणवर्यता) अणस्य पापस्य वॉँ- ऽणवज्यः, तद्भावोऽणवय॑ता। संवरे, आ०म०वि०। अणवट्ठ-पुं०(अनवस्थ) अनवस्थाप्ये, व्य० 1 उ०1 अणवठ्ठप्प-न०(अनवस्थाप्य) अवस्थाप्यत इत्यवस्थाप्यम्, तनिषेधादनवस्थाप्यम् / दुष्टतापरिणामस्याऽकृततपोविशेषस्य व्रतानामनारोपणे, ध०३ अधि०। गण औ०। यो हि आसेविताऽतिचारविशेषः सन्ननाचरिततपोविशेषः, तद्दोषोपरतो महाव्रतेषु नाऽवस्थाप्यते नाऽधिक्रियते इति, तदतिचारजाते तच्छुद्धिरूपे, नवमे प्रायश्चिते च / स्था० 3 ठा० 4 उ०। यत्र प्रतिसेवते उत्थापनायामप्ययोग्यत्वेन यावदनाचीर्णतपाः पश्चाचीर्णतपाः पुनर्महाव्रतेषु स्थाप्यते तत्, जीत० व्या अनवस्थापनीयाः - तओ अणवठ्ठप्पा पन्नता तंजहा-साहम्मियाणं तेण्णं करेमाणे, अन्नधम्मियाणं तेण्णं करेमाणे, हत्थादालं दलेमाणे॥ त्रयोऽनवस्थाप्यास्तत्क्षणादेव व्रतेष्वनवस्थापनीयाः प्रज्ञाप्ताः / तद्यथा-साधर्मिकाःसाधवस्तेषां सत्कस्योत्कृष्टोपधेः शिष्यादेर्वा स्तैन्य चौर्यं कुर्वाणः / अन्यधार्मिकाः शाक्यादयो गृहस्था वा, तेषां सत्कस्योपध्यादेःस्तैन्यं कुर्वन्।तथा हस्तेन ताडनंहस्तातालं, सूत्रेच तकारस्य दकारश्रुतिः, आर्षत्वात्, तं दलमाणो वदन् यष्टिमुष्टिलगुडादिभिरात्मनः परस्य वा प्रहरन्निति भावः / अथवा हस्तालम्बेति पाठः। हस्तालम्ब इव हस्तालम्बो ऽशिवादिप्रशमनार्थमभिचारकमन्त्रादिप्रयोगस्तं दलमाणः कुर्वन् ! यद्वा 'हत्थादाणं दलमाणे त्ति पाठः। सूत्रार्थादानमर्थो-पादानकारणमष्टाङ्गनिमित्तं ददत् प्रयुञ्जानः / एष सूत्रसंक्षेपार्थः / बृ० 4 उ०। जीत०। अथ विस्तराऽर्थ बिभाणिषुराह आसायणपडिसेवी, अणवठ्ठप्पो वि होति दुविहो तु। एकेको विय दुविहो, सचरित्तो चेव अचरित्तो॥ आशातनाऽनवस्थाप्यः, प्रतिसेवनाऽनवस्थाप्यश्चेत्यनव-स्थाप्यो द्विविधो भवति। न केवलं पाराञ्चिक इत्यपिशब्दार्थः / पुनरेकैकोऽपि द्विविधः - संचारित्रोऽचारित्रश्चेति। एतौ द्वावपि भेदौ पाराञ्चिकवद्वक्तव्यौ / अथाऽऽशातनाऽनवस्थाप्यमाहतित्थयरपवयणसुत्ते, आयरिये गणहरे महिड्डीए। Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणवठ्ठप्प 293- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणट्ठप्प एते आसादेंते, पाच्छित्ते मग्गणा होई॥ तीर्थकरप्रवचनं श्रुतम्, आचार्यः, गणधरः, महर्द्धिकश्चेति / एतान् आशातयतः प्रायश्चित्तमार्गणा भवति / अमीषां चाशातनाः पाराञ्चिकवद्भावनीयाः / प्रायश्चित्तमार्गणा पुनरियम् - पढमबितिएसुनवमं, सेसे एक्कक्के चउगुरू होति। सव्वे आसादेतो, अणवट्ठप्पो उ सो होइ॥ प्रथमद्वितीयायास्तीर्थक रसङ्घाऽऽशातनायारुपाध्यायस्य नवममनवस्थाप्यं भवति, शेषेषु श्रुतादिषु प्रत्येकमेकै कस्मिन् | आशात्यमाने चतुर्गुरवो भवन्ति / अथ सर्वाणि चतुर्थेष्वपि श्रुतादीनि आशातयति, ततोऽसावनवस्थाप्यो भवति / उक्त आशातना- / नवस्थाप्यः। अथ प्रतिसेवनाऽनवस्थाप्यमाह - पडिसेवणअणवट्ठो, तिविहो सो होइ आणुपुव्दीए। साहम्मियऽण्णधम्मिय, हत्थादालंद दलमाण / / यः प्रतिसेवनाऽनवस्थाप्यः सूत्रे साक्षादुक्तः स आनुपूर्व्या त्रिविधो भवति- साधर्मिकस्तैन्यकारी, अन्यधार्मिकस्तैन्यकारी, हस्तातालं ददत्। तत्र साधर्मिकस्तैन्यं तावदाह - साहम्मि तेण्ण उवधि-वावारणझामणा य पट्ठवणा। सेहे आहारविही, जा जहि आरोवणा भणिता॥ साधर्मिकाणामुपधेर्वस्त्रपात्रादिलक्षणस्य स्तैन्यं करोति (वावारण त्ति) गुरुभिरुपधेरुत्पादनाय व्यापारणा प्रेषणा कृता, अतस्तमुत्पाद्य गुरूणामनिवेद्यान्तराले स्वयमेवाधितिष्ठति (झामणा य त्ति) उपकरणं सद्भावेनाऽसद्भावेन वाध्यामितं दग्धं भवेत्, तद्व्याजेन श्रावकमभ्यर्थ्य वस्वादिकं गृहीत्वा स्वयमेव भुक्त(पट्ठवण त्ति) केनाप्याचार्येण कस्यापि संयतस्य हस्ते ऽपराचार्यस्य ढौकनाय प्रतिग्रहः प्रेषितस्तमसावन्तरा स्वयमेव स्वीकरोति (सेह त्ति) शैक्षविषयं स्तैन्यं करोति (आहारविहि त्ति) दानश्रद्धादिषु स्थापनाकुलेषु गुरुभिरननुज्ञात आहारविधिमशनादिकमाहारप्रकरं गृह्णाति / एतेषु स्थानेषु साधर्मिकस्तैन्यं भवति। अत्र च या यत्र स्थाने आरोपणा प्रायश्चित्तापरपर्याया भणिता, सा तत्र वक्तव्या / एष नियुक्तिगाथा संक्षेपाऽर्थः / साम्प्रतमेनामेव विवरीषुराहउवहिस्स आसियावण सेहमसेहे य दिट्ठदिवे य। सेहे मूलं भणितं, अणवठ्ठप्पा य पारंची। इहोपधेः, 'आसियावणं' स्तन्यमित्येकार्थः। तच्च शैक्षो वा कुर्यादशैक्षौ / वा / उभावपि-दृष्टं वा स्तैन्यं कुर्यात् , अदृष्ट वा / तत्र शैक्षे मूलं यावत्प्रायश्चित्तं भणितम्, उपाध्यायस्याऽनवस्थाप्यपर्यन्तम्, आचार्यस्य पाराञ्चिकान्तम्। एतदेव भावयतिसेहो त्ति अगीयत्थो, जो वा गीतो अणिविसंपन्नो। उवही पुणवत्थादी, सपरिम्गह एतरो तिविहो। शैक्ष इतिपदेनागीतार्थो भण्यते / यो वा गीतार्थोऽपि अनृद्धि-संपन्न आचार्यपदादिसमृद्धिमप्राप्तः, सोऽपि शैक्ष इहोच्यते / उपधिः पुनर्वस्त्रादिकः, आदिशब्दात् पात्रपरिग्रहस्तत् परिगृहीतः स्यात्, इतरो वाऽपरिगृहीतः स्यात्। पुनरेकैकस्त्रिविधः - जघन्यो मध्यम उत्कृष्टश्च / अथ 'सेहे मूलं' इत्यादि पश्चाऽधं व्याख्यानयतिअंतो बहिं निवेसण-वाडगमुजाणसीमतिकते। मास चउ च्छ लहु गुरू, छेदो मूलं तह दुगं वा। अन्तः प्रतिश्रयाभ्यन्तरे साधर्मिकाणामुपधिमदृष्ट शैक्षःस्तेनयति, तदा मासलघु / वसतेर्बहिरदृष्टमेव स्तेनयति, तदा मासगुरु / निवेशनस्यान्तसिगुरुकं, बहिश्चतुर्लघुकं, वाटकस्यान्तश्चतुर्लघुकम् . बहिश्चतुर्गुरुकम्, उद्यानस्याऽन्तः षट् लघु, बहिः षड्गुरु, सीमाया अन्तः षट्गुरु, अतिक्रान्तायां तु तस्यां बहिः छेदः। (मूलं तह दुर्ग व त्ति) मूलं, तथा द्विकं वा, अनवस्थाप्य-पाराञ्चिकयुगम् / एतदेव भावयति - एवं ताव अदिद्वे, दिढे पढमं पदं परिहवेत्ता। तं चेव असेहे वी, अदिट्ट दिढे पुणो एवं // एवं तावददृष्ट स्तैन्ये क्रियमाणे शैक्षस्य प्रायश्चित्तमुक्तम् / दृष्ट तु प्रथम मासलघुलक्षणं पदं परिहाप्य परिहृत्य मासगुरुकादारब्धं मूलं यावद्वक्तव्यम्। अशैक्ष उपाध्यायस्तस्यापि अदृष्ट तान्येवमासगुरुकादीनि मूलान्तानि प्रायश्चितस्थानानि भवन्ति। दृष्ट पुनरेकं मासगुरुलक्षणं पदं हसति, चतुर्लघुकादारब्धमनवस्थाप्ये निष्ठां यातीत्यर्थः / आचार्यस्याऽप्यदृष्टे ऽनवस्थाप्यान्तमेव / दृष्ट तु चतुर्गुरुकादारब्धं पाराञ्चिके तिष्ठति / गतं साधर्मिकोपधिस्तैन्य-द्वारम् / अथ व्यापारणाद्वारमाहवावारिय अणेहा, बाहिं घेदूण उवहि गिण्हंति। लहुणा आदात लहुगा, अणवट्ठप्पो य आदेसा।। व्यापारिता नाम गुरुभिः प्रेषिताः, यथा-(आणेह त्ति) उपधिमुत्पाद्यानयत / ते चैवमुक्ता अनेकविधमुपधि गृहिभ्यो गृहीत्वोत्पाद्य बहिरेवाऽऽचार्यसमीपमप्राप्ता उपधिं गृह्णन्ति- इदं तव, इदं ममेति विभज्य स्वयमेव स्वीकुर्वन्तीत्यर्थः। एवं गृह्णतां मासलघु, आगता आचार्यस्य न ददति, तदा चतुर्लघवः। प्रस्तुतसूत्रादेशाद्वा स स्वच्छन्दवस्तुग्राहकः साधुवर्गोऽनवस्थाप्यो भवति। गतंव्यापारणाद्वारम्। अथध्यामनाद्वारम्साचध्यामना द्विविधा- सती, असती च। तत्र सती तावदाह - दुट्तु निमंतण लुद्धो-ऽणापुच्छा तत्थ गंतु तं भणति। झोमिय उवधी अहमउ, तेहिं पेसितो गहित णातो य॥ आचार्याः केनापि विरूपरूपैर्वस्वैर्निमन्त्रितास्तैश्च तानि प्रतिषिद्धानि, एकश्च साधुस्तां निमन्त्रणां श्रुत्वा तानि च सुन्दराणि वस्त्राणि दृष्ट्वा लुब्धो लोभंगतः। तत आचार्यमनापृच्छ्य (तमिति) तं श्रावकंतत्र गत्वा भणतिअस्माकमुपधिः ध्यामितो दग्धः, ततो-ऽहं तैराचार्यैर्युष्माकं सकाशे वस्त्रार्थ प्रेषितः, एवमुक्ते दत्तस्तेनोपधिः, स च गृहीत्वा गतः, अन्ये च साधव आगताः / श्राद्धेन भणितम्- युष्माकमुपधिर्दग्ध इति कृत्वा यो भवद्भिः साधुः प्रेषितस्तस्य नूतनोपधिर्दत्तो विद्यते, यदि न पर्याप्तं ततो भूयोऽपि ददामीति / साधवो ब्रुवते- नाऽस्माकमुपधिर्दग्धः, न वा वयं कमपि प्रेषयामः, एवं स लोभाभिभूतः साधुस्तेन श्रावकेण ज्ञातः यथागुरूणां पृच्छामन्तरेणाऽयं गृहीतवान्। ततश्च किं भवतीत्याह - लहुगा अणुग्गहम्मी, गुरुगा अप्पित्तियम्मि कायव्वा। Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणवठ्ठप्प २९४-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणवट्ठप्प मूलं वा जणमज्झे, वोच्छेद पसज्जणा सेसे॥ क्व गतः ? शैक्षो भणति- स मम कार्ये बुभुक्षितस्य पिपासितस्य वा एवं तेन साधुनास्तैन्येन वस्त्रेषु गृहीतेषु यद्यप्यसौ श्राद्धोऽनुग्रहं मन्यते- भक्तपानाऽर्थं पर्यटति। यथापि तथापि ददामीति साधव इति, तथापि चतुर्लघवः / मज्झमिणमण्णपाणं, उवजीवऽणुकंपणा य सुद्धो उ। अथवाऽप्रीतिकं करोति, ततश्चतुर्गुरवः प्रायश्चित्तं कर्तव्याः / अथासौ पुट्ठमपुढे कहणा, एमेव य इहरहा दोसो।। स्तेनोऽयमिति शब्दं जनमध्ये विस्तारयति, तदा मूलम्।यच्च शेषद्रव्याणां ततः स साधुर्मदीयमिदमन्नपानमुपजीव भुक्ष्वेति कुर्वाणो यदि शेषसाधूनां वा व्यवच्छेदं (पसज्जण त्ति) प्रसंगतः करोति, तन्निष्पन्नं साधर्मिकोऽयमित्यनुकम्पया ददाति, तदाशुद्धः। शैक्षण पृष्टो अपृष्टो वा प्रायश्चित्तम्। यद्ययमेवानुकम्पया धर्मकथां करोति, तदाशुद्धः। इतरथा अपहरणार्थ अथ सतीं ध्यामनां दर्शयति भक्तपानं ददतो, धर्म च कथयतो दोषः। चतुर्गुरुकं प्रायश्चित्तम् / अपहरणप्रयोगानेवदर्शयतिसुव्वत्तझामिओऽवधिपेसण गहिते य अंतरा लुद्धो। भत्ते पण्णवण निगूहणा य वावार झंपणा चेव। लहुगो अत गुरुगा, अणवट्ठप्पो य आदेसे॥ पत्थावण सयंहरणा, सेहे अव्वत्त वत्ते य॥ अथसुव्यक्तं सत्यमेवध्यामितोपधिर्गुरुभिस्तथैव प्रेषणं कृतम्, प्रेषितश्च अपहरणार्थ भक्तपानं ददाति, धर्म वा तस्य पुरतः प्रज्ञापयति / तत्र स सन् येनाचार्या निमन्त्रितास्तस्मादन्यस्माद्वा श्रावकाद्वस्त्रादिकमुपधिं शैक्ष आदृतः सन् भणति- भवत एव सकाशेऽहं प्रव्रजामीति किन्तु न गृहीत्वा अन्तरा लुब्धो लोभाऽभिभूतो यदि गृह्णाति, तदालघुको मासः। शक्नोमि येनानीतस्तत्पुरतः स्थातुं ततो मां गुपिले प्रदेशे आगते यदि गुरूणां न प्रयच्छति, तदा चतुर्गुरवः / तेऽत्राऽऽदेशा निगूहतु / ततोऽसौ तं व्यापारयति- अमुकत्र निलीय तिष्ठति / ततस्तं अनवस्थाप्या भवन्ति / गतं ध्यामना-द्वारम्, अथ प्रस्थापनाद्वारमाह तत्र निलीनं साधुः पलालादिना झम्पयति, स्थगयतीत्यर्थः / अन्यैः उक्कोस सनिजोगो, पडिग्गहो अंतरा गहण लुद्धो। सार्धमन्यं ग्राम प्रस्थापयति, एकाकिनं वा प्रेषयति, अमुकत्र ग्रामादौ लहुगा अति गुरुगा, अणवठ्ठप्पो व आदेसा / / व्रज, अहमग्रेऽमुष्मिन् दिवसे तत्राऽऽगमिष्यामि। अथवा स्वयमेव गृहीत्वा केनाप्याचार्येण कस्यापि संयतस्य हस्ते अपराऽऽचार्यस्य ढौकनहेतोः तमपहरति, एतानिषट्पदानि भवन्ति। तद्यथा- भक्तप्रदानं 1, धर्मकथा प्रतिग्रहः प्रेषितः / स चोत्कृष्ट उत्कृष्टोपधिरूपः, यद्वावृत्तसमचतुर- 2, निगूहना वचनं 3, व्यापारणं 4, झम्पनं 5, प्रस्थानं स्वयं हरणं 6 त्रवर्णाव्यतादिगुणोपेतः, तथा सह निर्योगेन पात्रकबन्धादिना यः स येति। एतेषु षट्सु शैक्षे व्यक्तेऽव्यक्ते च प्राचश्चित्तमिदं भवति - सनिर्योगः / एवंविधस्य प्रतिग्रहस्याऽन्तराल एवाऽसौ लुब्धो ग्रहणं गुरु चउलहु चउगुरु छलहु छगुरुगमेव छेदा य। स्वीकरणं करोति, तत्र चतुर्लघु / तत्र मतस्तेषां सूरीणां तं प्रतिग्रहं न मिक्खुगणायरियाणं, मूलं अणवट्ठ पारंची / / प्रयच्छति, तदाचतुर्गुरवः। तत्रादेशेन वा अनवस्थाप्योऽसौ द्रष्टव्यः / गतं भिक्षुर्यद्यव्यक्तशैक्षस्याऽपहरणार्थ भक्तं ददाति, तदा मासगुरु, प्रस्थापनाद्वारम्। धर्मप्रज्ञापनायां चतुर्लघु, निगृहनवचने चतुर्गुरु, व्यापारणेषड्लघु, झम्पने अथ शैक्षद्वारमाह षड्गुरु, प्रस्थापने स्वयं हरणे वा छेदः / एवमव्यक्त शैक्षे पव्वावणिज बार्हि,ठवेत्तु भिक्खुस्स अतिगते संते। भणितम् / अव्यक्तो नाम- यस्याद्यापि श्मश्रु न संजातम् / यस्तु व्यक्तः सेहस्स आसियावण, अभिधारेंते य पावयणी॥ संजातश्मश्रुः, तस्य चतुर्लघुकादारब्धं मूलं यावत् भिक्षोः प्रायश्चित्तम् , कोऽपि साधुः प्रव्राजनीयं सशिखाकं शैक्षं गृहीत्या प्रस्थितः, तं गणिन उपाध्यायस्य चतुर्लघुकादारब्धमनवस्थाप्यं तिष्ठति। आचार्यस्य भिक्षाकाले क्वापिग्रामे बहिःस्थापयित्वा भैक्षार्थमतिगतः प्रविष्टः, प्रविष्ट चतुर्गुरुकादारब्धं पाराञ्चिकं पर्यवस्यति। एवं ससहाये शैक्षे भणितम्। यः पुनरसहायोऽभिधारयन् व्रजति, तत्र विधिमाहचसति तस्मिन्परः साधुस्तं शैक्षं दृष्ट्वा विप्रतार्य च तस्य 'आसियावणं' अपहरणं करोति, साधुविरहितो वा एकाकी कमपि साधुमभिधारयन् अभिधारं पवयंतो, पुच्छो पव्वामहं अमुगकुलं / पण्णवणभत्तदाणे, तहेव सेसा पदाणत्थी॥ शैक्षो व्रजेत् , तमपरः साधुर्विप्रतार्य प्रव्राजयेत् , एतौ द्वावपि यदा प्रावचनिको जातौ,तदाद्वावपि शैक्षौस्वयमेवात्मनो दिक्परिच्छेदं कुरुत कोऽपि शैक्ष एकाकी कमप्याचार्यमभिधारयन् प्रव्रज्याभिमुखो व्रजति, तेन क्वचिद्ग्रामे पथिवा साधुं दृष्ट्वा वन्दनकं कृतम्। साधुना पृष्टः - क्व इति संग्रहगाथासमासाऽर्थः। गच्छसि? सप्राह-अमुकस्याऽऽचार्यस्य पादमूले प्रव्रजनाऽथ व्रजामि। अथैनामेव विवृणोति एवमुक्ते यदि भिक्षुरव्यक्त-शैक्षकस्य भक्तदानं करोति, तदा मासगुरु, सण्णादिगओ अद्धाणिओ व वणदणग पुच्छ से होमि। धर्मप्रज्ञापनायां चतुर्लघु, व्यक्तशैक्षस्य भक्तदाने चतुर्लधु, धर्मकथायां सो कत्थ मज्झ कजे,छातपिवासिस्स वा अडति / / चतुर्गुरु, उपाध्यायाऽऽचार्ययोर्यथाक्रमं षट् गुरुकं च भवति / संज्ञाभूमिगत आदिशब्दाद्भक्तादिपरिष्ठापनिकार्थ निर्गतः कोऽपि साधुः अधस्तनमेकैकं पदं हसतीति भावः / शेषाणां तु निगूहनव्यापारणशैक्षं दृष्टवान्, अथवा अध्वनिकः पथिकोऽसौ साधुः, ततः पथि गच्छन् झम्पनादीनि पदानि न सन्ति, असहायत्वात्। तदभावात् प्रायश्चितमपि शैक्षं दृष्टवान्। तेन च वन्दनके कृते सति, साधुः पृच्छति-कोऽसि त्वं, नाऽस्तीति। एते चाऽपरे दोषाः - कुत आगतः, क्व वा प्रस्थितः ? शैक्षः प्राह- अमुकेन साधुना सार्द्ध आणादणंतसंसारियत्तं बोहियदुल्लमत्तं वा। प्रस्थितःप्रव्रजितुकामः, शैक्षोऽस्म्यहम्। साधुः पृच्छति-ससाधुः संप्रति / साहम्मियतेपणम्मी, पमत्त छलणाऽधिकरणं च / / Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणवठ्ठप्प २९५-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणवठ्ठप्प शैक्षमपहरत आज्ञाभङ्गादयो दोषा भवन्ति, अनन्तसंसारिकत्वं च भगवतामाज्ञाभङ्गाद्भवति। बोधेश्च दुर्लभत्वं जायते, साधर्मिकस्तैन्यं च कुर्वाणः प्रमत्तो भवति, प्रमत्तस्य च प्रान्ते देवतया छलना भवति / यस्य च सबन्धी सोऽपहियते, तेन सममधिकरणं कलह उपजायते / एवं तावत्पुरुषविषयादयो दोषा उक्ताः / अथ स्त्रीविषयान् तानेवाऽतिदिशति - एमेव य इत्थीए, अभिघारेतिए तह वयंतीए। वत्तव्वत्ताए गम, जहेव पुरिसस्स नायव्वा / / एवमेव स्त्रिया अपि शैक्षकाया अभिधारन्त्याः , तथा (वयंतीए त्ति) ससहायायाः प्रव्रजितुं व्रजन्त्याः , व्यक्ताया अव्यक्तायाश्च गमः स एव ज्ञातव्यो यथापुरुषस्योक्तः। अथ प्रावचनिकपदं व्याचष्टे - एवं तु सो अवहिओ, जाहे जाओ सयं तु पावयणी। निक्कारणे य गहिओ, पवयति ताहे पुरिल्लाणं // एवमनन्तरोक्तैः प्रकारैः स शैक्षोऽपहृतःसन्यदा स्वयमेव प्रावचनिको जातः, अन्योवा निष्कारणेयः केनापि गृहीतः,सआत्मनो दिक्परिच्छेदं कृत्वा भूयोऽपि बोधिलाभाभावात् पूर्वेषामेवाचार्याणामन्तिके प्रव्रजति। अन्नस्स व असतीए, गुरुम्मि अब्मुज्जएगतरजुत्तो। धारेंति तमेव गणं, जाव हडो कारणज्जाते / / येन स शैक्षो निष्कारणमपहृतस्तस्यार्थे अपरः कोऽप्याचार्यः पदयोग्यो न विद्यते, ततोऽन्यस्याभावे, यद्वा- गुरावाचार्ये- ऽभ्युद्यतस्यैकतरेण युक्तं अभ्युद्यतमरणमभ्युद्यतविहारं वा प्रतिपन्न इत्यर्थः / ततो यदि कोऽपि शिष्यस्तेषां निष्पन्नो नाऽस्ति, तदा तमेव गणमसौधारयति, यावत्कोऽपि तत्र निष्पन्न इति। यश्च कारणजाते केनाप्याचार्येण हृतः, सोऽपि तमेव गणं धारयति। किं पुनस्तत्कारणमित्याहनाऊण य वोच्छेदं, पुव्वगते कालियाणुओगे थे। अज्जा कारणजाते, कप्पति सेहाऽवहारो उ॥ कोऽप्याचार्यों बहुश्रुतः, तस्य पूर्वगते किंचिद्वस्तु प्राभृतं वा, कालिकानुयोगेऽपि श्रुतस्कन्धोऽध्ययनं वा, विद्यते, तच्चाऽन्यस्य नास्ति, ततो यद्यन्यस्य न संक्राम्यते, तदा तद् व्यवच्छिद्येत / एवं पूर्वगते कालिकानुयोगेच व्यवच्छेदं ज्ञात्वातंचसंप्रस्थितं शैक्षं ग्रहणधारणसमर्थं विज्ञाय भक्तदानधर्मकथादिभिर्विपरि-णामझम्पनादीन्यपि कुर्वाणः शुद्धः। यद्वा- तस्याचार्यस्य नास्ति कोऽप्याचार्याणां प्रवर्तकस्ततस्तासामपि कारणजाते शैक्ष-मपहरेत, एवं कल्प्यते शैक्षापहारः कर्तुम्। तस्य च कारणेऽपहतस्य को विधिरित्याहकारणजाए अवहिअ,गण धारेंति तु अवहरंतस्सा जा एगो निप्फण्णो, पच्छा से अप्पणो इच्छा।। यः कारणजातेऽपहृतः स तदीये गणे धारयन् अपहरत एव विनेयो भवति / अथयेन कारणेनाऽपहृतस्तत्कारणं न पूरयति तदा पूर्वेषा-मेव भवति, नाऽपहरतः / स च कारणाऽपहृतस्तस्मिन् गणे तावदास्ते यावदेको गीतार्थो निष्पन्नः,पश्चात् तस्याऽऽत्मीया इच्छा- तत्र वा तिष्ठति, पूर्वेषां वा सकाशे गच्छति। यस्तु निष्कारणे अपहृतः, स एकस्मिन्निष्पन्ने नियमात् पूर्वेषामन्तिके गच्छति / स तस्या-ऽऽत्मीयेच्छेति भावः / गतं शैक्षद्वारम्। अथाऽऽहारविधिद्वारमाहठवणाघरम्मि लहुगो, मायी गुरुगो अणुग्गहे लहुगा। अप्पित्तियम्मिगुरुगा, वोच्छेद पसज्जणा सेसे॥ दानश्रद्धादिकुलं स्थापनागृहं भण्यते, तस्मिन् य आचार्य:असंदिष्टोऽननुज्ञातो वा प्रविशति, तस्य मासलघु / अथवा प्राघूर्णकग्लानाऽर्थमहमिहाऽऽयात इति तेषां श्राद्धानां पुरतो मायां करोति, ततो मायिनो मासगुरुकम्, एवमुक्ते यदि ते श्राद्धा अनुग्रहोऽयमिति मन्यन्ते, तदा चतुर्लघु / अथाप्रीतिकं कुर्वन्ति, ततश्चतुर्गुरवः, यच तद्र्व्यव्यवच्छेदादिशेषदोषाणां प्र-सज्जनाप्रसङ्गात् तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम्। इदमेव व्याचष्टे - अज्ज अहं निद्दिट्ठो,पुट्ठोऽपुट्ठो वसाहई एवं। पाहुणगगिलाणवा, तं च पलोभेति तो बितियं / / कश्चिदाचार्यरसंदिष्टःस्थापनाकुलेषु प्रविश्य पृष्टोऽपृष्टो वा इदं भणतिअद्याऽहं गुरुभिः संदिष्टः प्रेषित इति, ततो मासलधु / यदि च पूर्व संदिष्टसंघाटकप्रविष्ट आसीत्, श्राद्धैश्चतस्याऽसंदिष्टस्याऽग्रे इदं भणितं भवेत् - संदिष्टसंघाटकस्य दत्तमिति / ततो यदि ब्रूयात्- प्राघूर्णकार्थ ग्लानार्थ या साम्प्रतमह- मागत इति, एवं तं श्राद्धजनं मायया यदि प्रलोभयति, ततो द्वितीयं मासगुरु / ते च श्राद्धा विपरिणमेयुः, विपरिणताश्चाऽऽचार्यादीनां प्रायोग्यं नदधुः, ततः शुद्धं, शुद्धेनाऽप्येतत् प्रायश्चित्तं भाव्यम्। आयरिगिलाण गुरुणा, लहुगा य हवंति खमणपाहुणए। गुरुगो य बालवुड्ढे, सेसे सव्वेसु मासलहु॥ आचार्यस्य ग्लानस्य च प्रायोग्यमददानेषु श्राद्धेषु चतुर्गुरवः। क्षपणकस्य प्राघूर्णकस्य च प्रायोग्यमददानेषु चतुर्लधयः / बालवृद्धानां प्रायोग्ये अलभ्यमाने गुरुमासः। शेषाणामेतद् व्यतिरिक्तानां सर्वेषामपि प्रायोग्ये अलभ्यमाने मासलघु / गतं साधर्मिकस्तैन्यम् / अथान्यधार्मिकस्तैन्यमाहपरघम्मिया विदुविहा, लिंगपविट्ठ तहा निहत्था य। तेसिं तेण्णं तिविहं, आहारे उपधि सविते // परधार्मिका अन्यधार्मिका इत्येकोऽर्थः। तेच द्विविधा-लिङ्गप्रविष्टाः, गृहस्थाश्च / लिङ्ग प्रविष्टाः शाक्यादयः, गृहस्थाः प्रतीताः, तेषामुभयेषामपि स्तैन्यं त्रिविधम् - आहारविषय-मुपधिविषयं सचित्तीविषयं चेति। तत्राऽऽहारविषयं तावदाहभिक्खूण संखडीए, विकरणरूवेण मुंजई लुद्धे / आमोगणमुद्धसण-पवयणहीला दुरप्पाओ। भिक्षवो बौद्धाः तेषां संखड्यां कश्चिल्लुब्धो विकरणरूपेण लिङ्ग विवेकेन भुङ्क्ते, तदीयं लिङ्गं कृत्वेति भावः / एवं भुजानं यदि कोऽप्याभोगयति उपलक्षयति, तदा चतुर्लधवः / एवमुपलक्ष्य यद्यसावुद्धर्षणं कोऽर्थः निर्भर्त्सनं करोति, ततश्चतुर्गुरुकाः। प्रवचनहीला वा ते कुर्युः - यथा दुरात्मानोऽमी भोजननिमित्तमेव प्रव्रजिता इति। Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणवटुप्प 296 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणवठ्ठप्प अपिचगिहवासे वि वरागा, धुवं क्खु एते अदिट्ठकल्लाणा। गलए णवरिण वलितो, एएसिं सत्थुणा चेव।। गृहवासेऽप्येते वराका धुवं निश्चितमेवादृष्टकल्याणाः, एतेषां च यां | तीर्थकृता दुश्चरितामाहारशुध्यादिचर्यामुपदिशता गलक एव नवरं न वलितः, शेषं तु सर्वमपि कृतमिति भावः / गतमाहारविषयं स्तैन्यम्। अथोपधिविषयमाहउवस्सए उवहि ठवेतुंगतभिक्खुम्मि गिण्हती लहुगा। गेण्हणकडणववहारपच्छकटुडहणणिव्विसए॥ उपाश्रये नवे, उपधिमुपकरणं, स्थापयित्वा कश्चिद्भिक्षुको बौद्धो भिक्षां गतस्तस्मिन् गते यदि तदीयमुपधिं गृह्णाति, तदा चतुर्लघवः / स भिक्षुकः समायातःस्वकीयमुपकरणंस्तेनितं मत्वातस्य संयतस्य ग्रहणं करोति, तदा चतुर्गुरवः / राजकुलाभिमुखमाकर्षणे षड् गुरवः / व्यवहारं कारयितुमारब्धे छेदः / पश्चात्कृते सतिमूलम् / उड्डहने-ऽनवस्थाप्यम्। निर्विषयाज्ञापने पाराञ्चिकम्। अथ सचित्तविषयं स्तैन्यमाहसचित्ते खुड्डादी, चउरो गुरुगा यदोस अण्णादी। गेण्हणकडणववहारपच्छकट्टड्डाहणणिव्विसए। सचित्ते स्तैन्ये चिन्त्यमाने भिक्षुकादेः सम्बन्धिनं क्षुल्लकम् , आदिशब्दादक्षुल्लकं वा यद्यपहरति, तदा चत्वारो गुरुकाः, आज्ञादयश्च दोषाः / ग्रहणकर्षणव्यवहारपश्चात् कृतोड्डाह-निर्विषयाज्ञापनादयश्च दोषाः प्राग्वत् मन्तव्याः। अथ तेष्वेव प्रायश्चित्तमाहगहणे गुरुगा छमास, कड्डणे छेओ होइ ववहारे। पच्छा कडम्मि मूलं, उड्डहणविरंगणे नवमं // 1 // उद्दावणनिव्विसए, एगमणेगे य दोस पारंची। अणवट्ठप्पा दोसु य, दोसु उपारंचिओ होइ॥२॥ गाथाद्वयं गताऽर्थम् - खुडं व खुड्डियं वा, णेति अवत्तं अपुच्छियं तेण्णं। वत्तम्मि णत्थि पुच्छा, खेत्तट्ठाणंच नाऊणं॥ क्षुल्लको वा क्षुल्लिका वा योऽव्यक्तः, स यस्य शाक्यादेः सम्बन्धी, तमपृष्ट्वा यदि तं क्षुल्लकं क्षुल्लिका वा नयति, ततः स्तेनः अन्यधार्मिकस्तैन्यकारी स मन्तव्यः, चतुर्गुरुकं च तस्य प्रायश्चित्तम् / यस्तु व्यक्तस्तत्र नास्ति पृच्छा / तामन्तरेणापि स प्रव्रजनीयः, किं सर्वथैवानेनेत्याशब्याह-क्षेत्रस्थानंच ज्ञात्वा। किमुक्तं भवति? यदि विवक्षितं क्षेत्रं शाक्यादिभावितं राजवल्लभतादिकं वा तेषां तत्र बलं, तदा पृच्छामन्तरेण व्यक्तोऽपि प्रव्राजयितुंन कल्पते, अन्यथा तु कल्पते इति / एवं तत्र लिङ्गप्रविष्टानांस्तैन्यमुक्तम्। अथ गृहस्थानांतदेवाऽऽहएमेव होति तेण्णं, तिविहं गारत्थियाण जं वुत्तं / गहणादिगा य दोसा, सविसेसतरा भवे तेसु॥ एवमेवागारस्थानामपि त्रिविधम् आहारादिभेदात् त्रिप्रकार, स्तैन्यं / भवति, यदनन्तरमेव परतीथिकानामुक्तम् तेषु च गृहस्थेषु आहारदिकं स्तनयता ग्रहणादयो दोषाः सविशेषतरा भवेयुः। तेहि राजकुले करादिक प्रयच्छन्ति, ततस्तबलेन समधिकतरान् ग्रहणाऽऽकर्षणादीन् कास्येयुः। - कथं पुनरमीषामाहारादिकं स्तेनयतीत्युच्यतेआहारं पिट्ठादी, तंतुण खुड्डादियं भणितपुव्वं / पिट्ठम्मि य कप्पट्टी, संछुभण पडिग्गहे कुसला // आहारे-पिष्टादिक बहिर्विरल्लितं दृष्ट्वा क्षुल्लकः स्तेनयति, उपधौ(तंतु त्ति) सूत्राष्टिकाम् , उपलक्षणत्वाद्वस्त्रादिकंवा, अपहरति। सचित्तेक्षुल्लकं वा स्तेनयति। एवं यदेव पूर्वं परतीर्थकानां भणितं, तदेवात्रापि मन्तव्यम्। कथंपुनः पिष्टां स्तेनयति-(पिट्ठामीत्यादि) काश्चित्क्षुल्लिका भिक्षामटन्त्यः किंचिद् गृहं प्रविष्टास्तत्र च बहिः पिष्ट विसारितमास्ते, तच्च दृष्ट्वा तासांमध्यादेका कल्पस्थिका पिष्टपिण्डिकां गृहीत्वा पतद्ग्रहे प्रक्षिप्तवती / सा चाविरतिकया दृष्टा / ततो भणितम्- एनां पिष्टपिण्डिकामत्रैव स्थापय, ततस्तया क्षुल्लिकया कुशल त्वेनाऽन्यस्याः संघटिकाया अन्तरे प्रक्षिप्ता। एवं सूत्राष्टिकामपि दक्षत्वेनाऽपहरेत्। अथ सचित्तविषयं विधिमाहनीएहिं अविदिन्नं, अप्पत्तवयं पुमं ण दिक्खित्ती। अपरिग्गहो उ कप्पति, विजढो जो सेसदोसेहिं / / निजकैर्मातृपितृप्रभृतिभिः स्वजनैरवितीर्णमथ तमप्राप्तवयस-मव्यक्तं पुमांसं न दीक्षयति / यदि पुनरपरिगृहीतोऽव्यक्तः स शेष दोषैलिजडव्याधितादिभिर्विमुक्तस्तर्हि प्रव्राजयितुं कल्प्यते। अपरग्गिहा उनारी, ण भवति तो सा ण कप्पति अदिण्णा। सा वि य हु काचि कप्पति, जह पउमा खुडमाता य॥ नारी स्त्री सा प्रायेणाऽपरिग्रहा न भवति, पितृपतिप्रभृतीना- मन्यतरेण परिगृहीता भवतीति भावः / ततो नाऽसावदत्ता सती कल्पते प्रव्राजयितुम् / साऽपि च काचिददत्ताऽपि कल्पते। यथा पद्मावतीदेवीकरकण्डु माता प्रवाजिता, यथा वा क्षुल्लक-कुमारमाता योगसंग्रहाऽभिहिता यशोभद्रा नाम्नी प्रव्राजिता। अथ द्वितीयपदमाहबिइयपयं आहारे, अद्धाणे हंसमादिणे उवही। उवउजिऊण पुट्विं, होहिंति जुगप्पहाण त्ति। द्वितीयपदमाहारादिषु त्रिष्वप्यभिधीयते / तत्राऽऽहारेऽ- ध्वानं प्रवेष्टुकामास्ततो वा उत्तीर्णा उपलक्षणत्वादशिवादौ वर्तमाना असंस्तरणे अदत्तमपि भक्तपानं गृह्णीयुः / आगाढे कारणे उपधिमपि हंसादेः सम्बन्धिना प्रयोगेणोत्पादयेत् / सचित्तविषयेऽपि भविष्यन्त्यमी युगप्रधाना इत्यादिकं दृढाऽऽलम्बनं पूर्व प्रथम-मेवोपयुज्य परिभाव्य गृहस्थक्षुल्लकान् अन्यतीर्थकक्षुल्लकान् वा हरेत। इदमेव भावयति - असिवं ओम विहं वा, पविसिउकामो ततो व उतिण्णा। नियलिंगिअण्णतित्थिग, जायइ अदिण्णे तु गेण्हंति॥ अशिवगृहीते विषये स्वयं वा साधवोऽशिवगृहीता भक्त पानलाभाभावान्न संस्तरेयुः। अवमं दुर्मिक्षं तत्र वा भक्तपानं न लभेरन् / विहमध्वानं वा प्रवेष्टु कामाः, ततो वा उत्तीर्णा न संस्तरेयुः। ततः स्वलिङ्गिनो या स्थलिकादे वद्रोणिः, तस्या याचन्ते / यदि ते न प्रयच्छन्ति, तदा बलादपि गृहन्ति / अथ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणवठ्ठप्प 297 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणवठ्ठप्प बलवन्तस्ते, दारुणप्रकृ तयो वा, ततोऽन्यतीर्थिकानामपि स्थलीषु याच्यते, यदि न प्रयच्छन्ति, ततः स्वयमेव प्रकटं, प्रच्छन्नं वा गृह्णीयुः। एवं गृहस्थेष्वपि याचितमलभमानाः स्वयमपि गृह्णन्ति / असंस्तरणे उपधिरप्येवमेव स्तैन्यप्रयोगेण ग्रहीतव्यः। नाऊण य वोच्छेदं, पुव्वगए कालियाणुओगे य। गिहि अण्णतित्थियं वा, हरेज एतेहिं हेतूहिं॥ पूर्वगते कालिकानुयोगे वा व्यवच्छेदं ज्ञात्वा यो गृहस्थक्षुल्लकोऽन्यतीर्थिकक्षुल्लको वा ग्रहणधारणमेधावी, स याचितो यदा न लभ्यते, तदा स्वयमपि गृह्णीयात् / एतैरेव-मादिभिर्हे तुभिः कारणैर्गृहस्थमन्यतीर्थिकं वा हरेत् / गत-मन्यधार्मिकस्तैन्यम् / अथ 'हत्थादालं दलमाणे' इत्यादि- पदत्रयं विवरीषुराह - हत्थाताले हत्थालंबेऽत्थादाणे य बोधव्दो उ। एतेसिंणाणत्तं, वोच्छामी आणुपुवीए॥ हस्तातालो हस्तालम्बोऽर्थादानं चेति त्रिधा पाठोऽत्र बोद्धव्यः। एतेषा त्रयाणामपि नानात्वं वक्ष्यामि यथानुपूर्व्याऽहम्। तत्र हस्तातालं तावद् विवृणोतिउक्किण्णम्मि य गुरुगो, दंडो पडियम्मि होइ भयणा उ। एवं खु लोइयाणं, लोउत्तरियाण वोच्छामि।। इह हस्तेन, उपलक्षणत्वात्खड्गादिभिश्च यदा ताडनं, सहस्तातालः / स च द्विधा- लौकिको लोकोत्तरिकश्च / तत्र लौकिके हस्ताताले पुरुषवधायखड्गादावुत्कीर्णेगुरुको रूपकाणामशीतिसहस्रलक्षणो दण्डो भवति / पतिते तु प्रहारे यदि कथमपि न मृतस्तदा भजना, देशे देशे अपराऽपरदण्डलक्षणा भवति। अथ मृतस्तदेवाऽशीतिसहसंदण्डः / एवं खुरव-धारणे,लौकिकानां दण्डो भवति। लोकोत्तरिकानां तु दण्डमतः परं वक्ष्यामि। हत्थेण व पादेण व, अणवट्ठप्पो उ होति उग्गिण्णे। पडियम्मि होति भयणा, उद्दवणे होति चरिमपदं / / हस्तेन वा पादेन वा उपलक्षणत्वाद् यष्टिमुष्ट्यादिभिर्वा यः साधुः स्वपक्षस्य परपक्षस्य च प्रहारमुद्गिरति सोऽनवस्थाप्यो भवति, पतिते तु प्रहारे भजना, यदि न मृतस्ततोऽनवस्थाप्य एव / अथाऽपद्रावणे मृतस्तदा चरमपदं पाराञ्चिकं भवति। अत्रेदं द्वितीयपदम्आयरिय विणयगाहण, कारणजाते व बोधिकादीसु। करणं वा पडिमाए, तत्थ तु भेदोपसमणं वा // आचार्यः क्षुल्लकस्य विनयग्राहणं कुर्वन् हस्तातालमपि दद्यात्। कारणजाते वा गुरुगच्छ प्रभृतीनामात्यन्तिके विनाशे प्राप्ते, बोधिकस्तेनादिष्वपि हस्तातालं प्रयुञ्जीतापश्चार्द्धन हस्ताऽऽलम्बमाह(करणं वा इत्यादि) अशिवपुराऽवरोधादौ तत्प्रशमनाऽथ प्रतिमा पुत्तलिकां करोति, तत्र अभिचारिकमन्त्रं परिजपन् तत्रैव प्रतिमाया भेदं करोति, ततस्तस्योपद्रवस्य प्रशमनं भवति / एषा नियुक्तिगाथा / अत | एनां विवृणोतिविणयस्स उगाहणया, कण्णामोडणखड्डुगचवेडाहिं। सावेक्ख हत्थतालं, दलाति मम्माणि फेडतो।। इह विनयशब्द शिक्षायामपि वर्तते / यत उक्तम् - 'विनयः / शिक्षाप्रणत्यो रिति' / ततोऽयमर्थः - वियनस्य ग्रहणशिक्षायां आसेवनाशिक्षां वा कर्णामोटकेन खड्डुकाभिश्चपेटाभिर्वा सापेक्षो जीवनापेक्षां कुर्वन्, अत एव मर्माणि स्फेटयन्,येषु प्रदेशेष्वाहताः सन्तो नियन्ते, तानि परिहरन् आचार्यः क्षुल्लकस्य हस्तातालं ददाति / अत्र परः प्राह- ननुपरस्य परितापे क्रियमाणे अशातवेदनीयकर्मबन्धो भवति, तत्कथमसावनुज्ञायते ? उच्यतेकामं परपरितावो, असायहेतू जिणेहिं पण्णत्तो। आत-परहितकरो पुण, इच्छिज्जइ दुस्सले खलु उ॥ काममनुमतमस्माकं परपरितापो जिनैरशातहेतुः प्रज्ञप्तः, परं परपरितापो दुःशले माडवके शिक्षया दुहे दुर्विनीते शिष्ये खलु निश्चितमिष्यत एव / कुत इत्याह- (आतपरहिकरो त्ति) हेतौ प्रथमा, भावप्रधानश्च निर्देशः। ततोऽयमर्थः - आत्मनः परस्य च हित-करत्वात्, तत्रात्मनः शिष्यशिक्षां ग्राहयतः कर्मनिर्जरा लाभः / परस्य तु सम्यग्गृहीतशिक्षस्य यथावचरणकरणानुपालनादयो भूयांसो गुणाः। पुनःशब्दो विशेषणम्। स चैतद्विशिनष्टियो दुष्टाध्यवसायतया परपरितापः क्रियते, स एवाऽशातहेतुः प्रज्ञप्तः, यस्तु शुद्धा-ऽध्यवसायेन आत्मपरहितकरः क्रियते, सनैवाऽशातहेतुरिति / अमुमेवाऽर्थं दृष्टन्तेन द्रढयतिसिप्पं उणियट्ठा, घाते विसहंति लोइया गुरुणो। ण य मधुरणिच्छया ते, ण होंति ण्सेविहं उवमा। शिल्पानि रथकारकर्मप्रभृतीनि, नैपुण्यानि च लिपिगणितादिकलाकौशलानि, तदर्थं लौकिकाः शिक्षका गुरोराचार्यस्य घातान् परिसहन्ते, न चतथा ते, तदानीं दारुणा अपि मधुरनिश्चयाः, तैः सुन्दराः क्रियन्ते, तेनैवाऽपरिणामा न भवन्ति, किन्तु शिल्पादि- परिज्ञाने वृत्तिलाभजनपूजनीयतादिना परिणामस्तेषां सुन्दरो भवतीति भावः / एषैवोपमा इह प्रस्तुतार्थे मन्तव्या, यथा तेषां ते धाता हितास्तथा प्रस्तुतस्याऽपि दुर्विनीतस्य शिष्यस्येति भावः। अत्राऽयं बृहद्भाष्ये उक्तः सोपमेयोऽपरो दृष्टान्तः - अहवा वि रोगियस्सा, ओसह विजेहिं दिज्जए पुटिव। पच्छा तालेतुमवी, देहहियट्ठा पडिज्जइ से। इय नवरोगिणस्स वि, अणुकूलं ण तु सारणा पुदि। पच्छा पडिकूलेण वि, परलोगहियह कायव्वा।। (ओसह त्ति) विभक्तिलोपादोषधमितिमन्तव्यम्। अत एव साधुरेवंविधो भवेत् - संविग्गो मद्दविओ, अमुई अणुवत्तओ विसेसन्नू / उजुत्त अवहितंतो, इच्छियमत्थं लहइ साहू || संविग्रो मोक्षामिलाषी, मार्दविकः स्वभावकोमलः, अमोची गुरूणाममोचनशीलः, अनुवर्तकस्तेषामेव छन्दोऽनुवर्ती, विशेषज्ञो वस्त्ववस्तुविभागवेदी, उद्युक्तः स्वाध्यायादौ, अपहृताऽन्तो वैयावृत्त्यादौ, एवंविधः साधुरीप्सितमर्थमिह परत्र च लभते। अथ कारणजाते 'बोहिगाइमुत्ति' पदं व्याचष्टेबोहिकतेणभयादिसु, गणस्स गणिणो व अनए पत्ते। इच्छंति हत्थतालं,कालातिचरं च सखं वा।। बोधिक स्तेनभये, आदिशब्दात् श्वापदादिभयेषु वा यदि Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणवट्ठप्प 298 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणवठ्ठप्प गणस्य गच्छस्य गणिनो वा आचार्यस्य अत्यय आत्यन्तिको विनाशः प्राप्तः, तदा कालातिचारं वा कालातिक्रमेण, सद्यो वा तत्कालमेव, हस्ततालमिच्छन्ति, गीतार्था इति गम्यते। अथ हस्ताऽऽलम्बं व्याख्यानयतिअसिवे पुरोवरोधे, एमादी वइससेसु अभिभूता। संजायपचया खलु, अण्णेसु य एवमादीसु / / मरणभयेणऽभिभूते, ते णातुं देवतं वुवासंते। पडिमं काउं मज्झे, विंधति मंते परिजवंतो / अशिवेन लोको भूयान् मियते, परबलेन वा पुरं समन्तादुप-रुद्धं, तत्र बहिः कटकयौधेराभ्यन्तराणां कटकमदः क्रियते, अन्न-क्षयाद्वा क्षुधा मियते, आदिशब्दाद् गलगण्डादिभिर्वा रोगार्दितः प्रभूतो जनो मरणमश्नुते / एवमादिभिर्वशसैर्दुःखैरभिभूताः, ते पौरजनाः संजातप्रत्ययाः, योऽत्र पुरे आचार्यों बहुश्रुतो गुणयांस्तपस्वी स शक्ती वैशसमिदं निरोद्धं नाऽन्यः कश्चिदिति। (समिति) सम्यग्जातः प्रत्ययो येषां ते तथा, न केवलमत्रैव किन्तु अन्येष्यप्येवमादिषु संजातप्रत्ययाः, ते संभूय तमाचार्यमुपासतेशरणमुपगताः प्राञ्जलिपुष्टाः पादपतितास्तिष्ठन्ति / ततः स एवाऽऽचार्यस्तान् पौरजनान् मरणभयेनाभिभूतान् देवतामिवाऽऽत्मानं पर्युपासीनान् ज्ञात्वा तदनुकम्पापरीतचित्तः प्रतिमा कृत्वा, तत अभिचारिकमन्त्रान्परिजपन्तां प्रतिमांमध्यभागे विध्यति, ततो नष्टा सा कुलदेवता, प्रशमितः सर्वोऽप्युपद्रवः / एवं विधहस्तालम्बदायी यदा अभ्युत्तिष्ठति तदा तत्कालमेव नोपस्थाप्यते,किन्तु कियन्तमपिकालं गच्छ एव वसन्व्यामर्दनं कार्यते / अथाऽर्थाऽऽदानमाह - अणुकंपणा निमित्तं,जायण पडिसेहणा सउणि मे वा। वणिय पुच्छा य तहा, सारण उन्मावणविणासे / कस्याप्याचार्यस्य भागिनेयो व्रतं परित्यज्य मुत्कलापयति / तत्र आचार्यस्य अनुकम्पा- कथमयं द्रव्यमन्तरेण गृह-वासमध्यासिष्यते इत्येवंलक्षणा बभूव / स च निमित्तेऽतीव- कुशल इति तेनैवाऽऽवर्जितयोर्द्वयोर्वणिजोरन्तिके भागिनेयं रूपकयाचनाय प्रेषितवान्, स च तत्रैकेन वणिजा- किं मम शकुनिका रूपकान् हदते, एवमुक्त्वा निषिद्धः, द्वितीयेन तुरूपकनवलकानां दर्शना कृता। द्वितीये चवर्षे द्वाभ्यामपि वणिग्भ्यां पृच्छा कृता, तत आचार्येण सारणा क्रयाणकग्रहणविषया शिक्षा दत्ता, ततो येन रूपकानदत्ताः, तस्य सर्वस्वविनाशः समजनि, येन तु दत्ताः, तस्योद्भावनं महर्धिकतासंपादनं कृतवान् / एष नियुक्तिगाथाऽक्षरार्थः / बृ०४ उ०। भावार्थस्तु कथानकादवसेयः / तच्चेदम् - "वणिजावुज्जयिन्यां द्रौ, प्रायः पृष्ट्वा गुरुं सदा। पणायमानौ पण्यौघैः, परमामृद्धिमीयतुः / / 1 / / औज्झद् गुरूणां जामेयो, भोगार्थी व्रतमन्यदा। ततस्तैः कृपयोचे स, विनाऽर्थः किं करिष्यसि ?||2|| तथाहि वणिजौ तौ त्वं, भणाऽर्थ मे प्रयच्छतम्। गुर्वादशात् ततः सोऽपि, गत्वा तौ भणति स्म तत्॥३॥ अथैकः स्माऽऽह भोः ! कस्मादस्माकं द्रव्यसंचयः। शकुनी रूपकान् भद्र !, कुत्रापि हदतेऽत्र किम् ?||4|| अढौकयद् द्वितीयस्तु, तस्याग्रे द्रविणं बहु। ऊचे देव ! गृहाण त्वं, यथेच्छं सोऽपि चाग्रहीत्।।५।। द्वितीयेऽब्दे स तैर्द्रव्य-प्रदः पृच्छन्नभण्यत। क्रीणीहि तृणकाष्ठानि, स्थापयेश्च पुराद् बहिः॥६|| द्वितीयकस्तु तैरुक्तः क्रीत्वा स्नेहं गुर्ड कणान्। वस्त्रकासकाष्ठादीन, पुरमध्ये निधेहि भोः!||७|| वर्षारम्भे समस्तेषु, च्छादितेष्यथ वेश्मसु। दग्धं सर्वं पुरं जज्ञे, तृणकाष्ठमहर्घता ||6|| प्राज्यं तदाऽर्जयद्वित्तं, गुरुजामेयवित्तदः। दग्धं सर्व द्वितीयस्य, सोऽथाभ्येत्यावदद्गुरुम्॥६॥ किं न ज्ञातमिदं पूज्याः, गाढं प्लुष्टोऽहमैषमः। निमित्त्यूचे निमित्तं नः, शकुनी हदतेऽत्र किम् ?||10|| तथाऽन्यथाऽपि वा किंचित्, स्यात्कथंचन मे धनम्। ततो रुष्ट गुरुं ज्ञात्वाऽत्यर्थं क्षमयति स्म सः॥११|| जीता उजेणीओसण्णं, दो वणिया पुच्छियं ववहरंति। मोगामिलास तव्वय, मुंचंति ण रूवए सउणी // 1 // एगो व णउलदायण, बितिएणं जत्तिए तहिं एको। अण्णम्मि हायणम्मि य, गेण्हामो किंति पुच्छंति ?|2|| तणकट्ठनेहधण्णे, गिण्हह कप्पासदूसगुलमादी। अंतो बहिं च ठवणा, हऽग्गी सउणीण य निमित्तं // 3 // इति तिस्रोऽपि व्याख्याताऽर्थाः, नवरं, मित्रकेण वणिजा भागिनेय उच्यते- (जत्तिए तहिं एको त्ति) यावन्तो युष्मभ्यं रोचन्ते तावतो नवलकान् गृह्णीत, एवं द्वितीयेन वणिजा भणितम्, तत्र तेषां मध्ये एको नवलको गृहीतः / अन्यस्मिन् हायने वर्षे इत्यर्थः / दूष्यं वस्त्रमुच्यते, (सउणी न य निमित्तं ति) न च नैव मम शकुनिका निमित्तं हदते। एयारिसोय पुरिसो, अणवट्ठप्पो उसो सुदेसम्मि। नेत्तूण अण्णदेसं, चिट्ठ उवट्ठावणा तस्स। एतादृशोऽर्थो दानकारी यः पुरुषोऽभ्युत्तिष्ठते, सस्वदेशेऽनव-स्थाप्यो, न महाव्रतेषु स्थाप्यते, किंतु तमन्यदेशं नीत्वा तस्य च तत्र तिष्ठत उपस्थापना कर्तव्या। कुत इति चेद् ? उच्यते - पुव्वन्मासा मासेज किंचि गोरवसिणेहनयतो वा। न सहइ परीसह पिय, णाणं कंडुव्व कच्छुल्लो // तं नैमित्तिक लोकः पूर्वाभ्यासान्निमित्तं पृच्छेत, सोऽपि ऋद्धिगौरवतः स्नेहादा नयाद् वा किंचिल्लाभादिकं तत्र स्थितो भाषते / अपि च स ज्ञानविषयं परीषहं तत्र न सहते, सोढुं न शक्नोतीत्यर्थः / यथा कच्छू: पामा, तद्वान् पुरुषः, कण्डू खर्जितं विनाशितुं न शक्नोति, एवमेषोऽपि तत्र निमित्तकथनमन्तरेण न स्थातुं शक्त इति भावः। अथ पूर्वोक्तमप्यर्थ विशेषज्ञापनार्थं भूयोऽप्याहतइयस्स दोण्णि मोत्तुं, दव्वे मावे य सेस मयणा उ। पडिसिद्धलिगकरणं, करणा अण्णत्थ तत्थेव।। इह 'साधम्मियतेणियं करेमाणे' इत्यादिसूत्रक्रमप्रामाण्येन हत्थातालतस्तृतीय उच्यते / स च त्रिधा- हस्तातालो हस्ताऽऽलम्बोऽर्थाऽऽदानं चेति / तत्राऽऽद्ये द्वे पदे मुक्त्वा यच्छेषमा दानाऽऽख्यं तृतीयं पदं, तत्र द्रव्यतो भावतश्च लिङ्गप्रदाने भजना भवति / कथमित्याह-(पडिसिद्ध इत्यादि) उत्तरत्र कारणे इति अभिधास्यमानत्वादिह निष्कारणमिति मस्यते / ततो निष्कारणे प्रतिषिद्धमर्थाऽऽदानकारिणो लिङ्गकरणं द्रव्यलिङ्गस्य Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणवट्ठप्प 299 - अभिधानराजेन्द्रः- भाग 1 अणवठ्ठप्प भावलिङ्गस्य वा तत्र क्षेत्रे प्रदानम्, कारणं तु भक्तप्रत्याख्यानप्रतिपत्तिलक्षणे अन्यत्र वा तत्र वा अनुज्ञातमेव / एषा पुरातनी गाथा। अत एनां विवरीषुराहहत्थातालो मणिओ, तस्स उदो आइमे पदे मोत्तुं। अत्थायाणे लिंग,न दिति तत्थेव विसयम्मि। हत्थातालसूत्रक्रमप्रामाण्यात् तृतीयम्, अर्थात् तस्य द्वे आदिमे हस्तातालहस्तालम्बलक्षणे पदे मुक्त्वा यदर्थाऽऽदाना-ऽऽख्यं पदं,तत्र वर्तमानस्य तत्रैव विषये देशे लिङ्ग नददति। स च अर्थाऽऽदानकारी गृही लिङ्गी वा / तत्र - गिहिलिंगस्स उदोण्ण वि, आसन्ने न दिति भावलिंगं तु। दिजंति दोवि लिंगा, ओवत्थि य उत्तमट्ठस्स। यो गृहिलिङ्गी प्रव्रज्यार्थमभ्युत्तिष्ठति, तस्य द्वे अपि द्रव्यभाव-लिड़े तस्मिन् देशे न दीयेते। यः पुनरवसन्नस्तस्य द्रव्यलिङ्गं विद्यत एव, परं भावलिङ्ग तत्र तस्यैव ददति / यदा पुनरसावुत्तमार्थस्य प्रतिपत्त्यर्थमुपतिष्ठते, तदा तस्मिन्नपिदेशेद्वयोरपि गृहस्था-ऽवसन्नयोर्दै अपि लिङ्गे दीयेते।अथवेदं करणम् ओमासिवमाईहिव, सप्पिस्सति तेण तस्स तत्थेव। न य असहाओ मुच्चइ, पुट्ठो य भणिज्ज वीसरियं / / अवमाशिवराजद्विष्टादिषु वा समुपस्थितेषु गच्छस्य प्रति-सर्पिष्यति उपग्रहं करिष्यति, तेन कारणेन तत्रैव क्षेत्रे तस्य लिङ्ग प्रयच्छन्ति। तत्र चेयं यतना- (न य असहाओ इत्यादि) स तत्राऽऽरोपितमहाव्रतः सन्नसहाय एकाकी न मुच्यते, लोकेन च निमित्तं पृष्टो भणति- विस्मृतं मम सांप्रतं तन्निमित्तमिति। अथ साधर्मिकादिस्तैन्येषु प्रायश्चित्तमुपदर्शयतिसाहम्मिय अण्णधम्मिय तेणेसु उ तत्थ होति, इमा भयणा / चउलहुगा चउ गुरुगा, अणवट्ठप्पो य आएसा / / साधर्मिकस्तैन्याऽन्यधार्मिकस्तैन्ययोस्तावदियं भजना प्रायश्चित्तरचना भवति-आहारं स्तेनयतश्चतुर्लघु, सचित्तं स्तेनयतश्चतुर्गुरवः, आदेशेन वाअनवस्थाप्यम्। अहवा अणुवज्झाओ, एएसु पएसु पावती तिविहं। तेसुं चेव पएसुं, गणिआयरियाण णवमं तु // अथवा अनुपाध्यायो य उपाध्यायो न भवति, किंतु सामान्य-भिक्षुः। स एतेषु आहारोपधिसचित्तरूपेषु यथाक्रमं त्रिविधं लघुमासं चतुर्लघु चतुर्गुरु वक्ष्यमाणं प्रायश्चित्तं प्राप्नोति। तेष्वेव चाहारादिषु पदेषु गणिन उपाध्यायस्याऽऽचार्यस्य च नवममनवस्थाप्यं भवति / अत्र परः प्राहननु सूत्रे सामान्येनाऽनवस्थाप्य एव भणितो, नपुनर्लघुमासादिकं त्रिविधं प्रायश्चित्तं, तत्कथमिदमर्थेनाऽभिधीयते ? उच्यतेआर्हतानामेकान्तवादः क्वापि न भवति। तथा हितुल्लम्मि वि अवराहे, तुल्लमतुल्लं व दिज्जए दोण्हं। पारंचिके पिनवम,गणिस्स गुरुगो उ तं चेव॥ तुल्यः सदृशोऽपराधो द्वाभ्यामपि आचार्योपाध्यायाभ्यां सेवितः, तत्र द्वयोरपि तुल्यमतुल्यं वा प्रायश्चित्तं दीयते, तत्र तुल्यदानं प्रतीतमेव / अतुल्यदानं पुनरिदम् - पाराञ्चिके पाराञ्चिकाऽऽपत्तियोग्येऽप्यपराधपदे सेविते गणिन उपाध्यायस्य नवरमनव स्थाप्यमेव दीयते, नपाराञ्चिकम्, गुरोराचार्यस्य पुनस्तदेव पाराञ्चिकं दीयते, ततो यद्यपि सूत्रे सामान्येनानवस्थाप्यमुक्तं तथापि तत् पुरुषविशेषापेक्ष प्रतिपत्तव्यम्, यद्वा- अभीक्ष्णसेवानिष्पन्नम् / तथा चाऽऽहअहवा अमिक्खसेवी, अणुवरयं पावई गणी नवमं / पावंति मूलमेव उ, अमिक्खपडिसेविणो सेसा / / अथवा साधर्मिकस्तैन्यादेरभीक्ष्णसेवी पुनः पुनः प्रतिसेवा यः करोति, स ततः स्थानादनुपरमन् अनिवर्तमानोगणी उपाध्यायो नवमं प्राप्नोति / शेषास्तु ये उपाध्यायत्वमाचार्यत्वं वा न प्राप्ताः, ते अभीक्ष्णप्रतिसेविनोऽपि मूलमेव प्राप्नुवन्ति, नाऽनवस्थाप्यम्। अत्थादाणो ततिओ, अणवठ्ठो खेत्तओ समक्खाओ। गच्छे चेव वसंतो, निजूहन्जंति सेसाओ। अष्टाङ्गनिमित्तप्रयोगेणाऽर्थ द्रव्यमादत्ते इति अर्थाऽऽदाना-ऽऽख्यो यस्तृतीयोऽनवस्थाप्यः, स क्षेत्रतः समाख्यातः, तत्र क्षेत्रे नोपस्थाप्यत इत्यर्थः। शेषास्तु हस्तातालकारिप्रभृतयो गच्छ एव वसन्तो निर्गृह्यन्ते आलोचनादिभिः पदैर्बहिः क्रियन्ते इत्यर्थः। बृ०४ उ०। उक्कोसं बहुसो वा, पउट्ठचित्तो वा तेणियं कुणइ। पहरइ जो य सपक्खे, निरवेक्खो घोरपरिणामो॥ अभिसेओ सव्वेसु वि, बहुसो पारंचियाऽवराहेसु / अणवठ्ठप्पावत्तिसु, पसज्जमाणो अणेगासु॥ उत्कृष्ट वस्तुविषयं बहुशोवा पौनःपुन्येन प्रदुष्टचित्तो वा संक्लिष्टमनाः क्रोधलोभादिकलुषितमनसो यत् स्तैन्यं साधर्मिकस्तैन्यमन्यधार्मिकस्तैन्यं वा करोति / जीता एवंविधार्थोपादानकारी आचार्यः स्वस्य महाव्रतान्यारोपयितुमभ्यर्थयमानो तद्दोषकरणनिवृत्तोऽपितत्र क्षेत्रे नमहाव्रतेषु स्थाप्यते, तथा हस्तालम्बइव हस्तालम्बस्तंददानः, अशिवे पुररोधादौ तत्प्रशमनार्थमभिचारमन्त्रादीन् प्रयुञ्जान इत्यर्थः / तथा हस्तेन ताडनं हस्ततालस्तं ददानः यष्टिमुष्टिल-गुडादिमिरात्मनः परस्य च मरणभयनिरपेक्षः, स्वपक्षे, चशब्दात् परपक्षेच, घोरपरिणामो निर्दयो यः प्रहरति / एते त्रयोऽप्यनवस्थाप्याः क्रियन्ते / यदि वाऽऽचार्थादीन् कोऽपि हिनस्ति, ततस्तन्मारणेनाऽपि तान् क्षेत्। यदाह-"आयरियस्स विणासे, गच्छे अहवा विकुलगणे संघे। पंचिंदियवेरमणं, काउं नित्थारणं कुज्जा // 1 // एवं तु करितेणं, अव्वुच्छित्ती कया उ तित्थम्मि / जइ वि सरीराघाओ, तहवियआराहओसो उ॥२॥" यस्तु समर्थोऽप्यागाढेऽपि प्रयोजने न प्रगल्भते, स विराधकः / इहाऽभिषेक उपाध्यायः स येषु येष्वपराधेषुपाराञ्चिकमापद्यते, तेषु बहुशः पाराञ्चिकापराधेषु सर्वेष्वपि शुद्धिनिमित्तमनवस्थाप्यः क्रियते / यथा भिक्षोरनवस्थाप्यपाराञ्चिके ऽपि प्राप्तस्य मूलमेव चरमं प्रायश्चित्तं भवति, एवमुपाध्यायस्याप्यनवस्थाप्यमेव परमं, तथा अनवस्थाप्या-ऽऽपत्तिषु उपचारादनवस्थाप्याऽऽख्य प्रायश्चित्तापत्तिकारिणीष्वतिचारप्रतिसे वाष्वने कासु प्रसञ्जनं प्रसक्तिं कुर्वाणोऽनवस्थाप्यः क्रियते। स चाऽनवस्थाप्यः क्रियमाणः कस्मिन् कस्मिन् विषये क्रियते ? इत्याहकीरइ अणवट्ठप्पो, सो लिंगखित्तकालओ तवतो। लिंगेण दव्वभावो, मणिओ पव्वावणाऽणरिहो। Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणवद्रप्प 300- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणवठ्ठप्प क्रियते तथाविधाऽपराधकारित्वात् महाव्रतेषु लिङ्गे वा नाऽव-स्थाप्य इत्यनवस्थाप्यः / स चतुर्धा- लिङ्गतः, क्षेत्रतः, कालतः, तपोविशेषतश्चेति। लिङ्गं द्विधा- द्रव्ये च भावे च / तत्र द्रव्यलिङ्गं रजोहरणादि, भावलिङ्गं महाव्रतादि / अत्र चतुर्भङ्गी- द्रव्य- लिङ्गेन भावलिङ्गेन चाऽनवस्थाप्य इत्येको भङ्गः 1, द्रव्य-लिङ्गेनाऽनवस्थाप्यो, न भावलिङ्गेनेति द्वितीयः 2, भाव-लिङ्गेनाऽनवस्थाप्यो, न द्रव्यलिनेनेति तृतीयः३, उभा-भ्यामप्यनवस्थाप्य इति चतुर्थः 4 / इह द्रव्यलिङ्गेन भाव-लिङ्गेन चाऽनवस्थाप्यःप्रथमभङ्गस्थः प्रव्राजनाऽनहीं भणितः। लिङ्गाऽनवस्थाप्यादिचातुर्विध्यमेव वितन्वन्नाहअप्पडिविरतोसन्नो, न भावलिंगारिहोऽणवठ्ठप्पो। जो जत्थ जेण दूसइ, पडिसिद्धो तत्थ सो खित्तो। अप्रतिविरतः साधर्मिकान्यधार्मिकस्तैन्यात् प्रदुष्टचित्त- त्वेनाऽनिवृत्तः स्वपक्षपरपक्षप्रहरणोद्यतश्च निरपेक्षानुपशान्तवैरो यः स द्रव्यभावलिङ्गाभ्यामनवस्थाप्योऽनवस्थाप्यप्रथमभङ्गवर्ती क्रियते / हस्ताऽऽलम्बदायी अर्थाऽऽदानकरो वाऽवसन्नादिकश्च तत्तदोषाऽनिवृत्तो न भावलिङ्गार्हः / अयं भावः - स द्रव्यलिङ्गी भवतिन भावलिङ्गमर्हति, भावलिङ्गमपेक्षानवस्थाप्यतृतीयभङ्ग वर्ती भवतीत्यर्थः / द्वितीयचतुर्थभनौ पुनर्न संभवतः, क्षेत्रतोऽनवस्थाप्यो यो यत्र क्षेत्रे येन कर्मणा दूष्यते, स तदोषकरणाऽनिवृत्तोऽपि क्षेत्रे प्रतिषिद्धो महाव्रतेषु स्थापने निराकृतो यथार्थादानकारी तत्रैव क्षेत्रे न महाव्रतेषु स्थाप्यते, यतः पूर्वाऽभ्यासात् तं लोको निमित्तं पृच्छेत्, स च तं निमितज्ञानजमृद्धिगौरवं सोढुमक्षमः कदाचित् कथयेत्, ततो- ऽन्यत्र नीत्वोपस्थाप्य उत्तमार्थप्रतिपन्नस्य पुनस्तत्राऽपि स्व-स्थानेऽपि स्थितस्य महाव्रतारोपः कार्य एव / उक्तौ लिङ्ग-क्षेत्राऽनवस्थाप्यौ / जीत जत्तियमित्तं कालं,तवसा उ जहन्नएण छम्मासा। संवच्छरमुक्कोस, आसायइ जो जिणाईणं / / 61|| यो यावन्तं कालं दोषात् नोपरमते तावन्तं कालमनवस्थाप्यः क्रियते। तपसा त्वनवस्थाप्यो द्विधा- आशातनाऽनवस्थाप्यः, प्रतिसेवनाऽनवस्थाप्यश्च। तत्र जिनादीनां तीर्थकरसश्रुता-ऽऽचार्यमहर्द्धिकगणधराणामाशातनां यः कुर्यात् / यथा-तीर्थकरैः सर्वोपायकुशलैरपि गृहवासत्यागादिकाऽतिकर्कशा देशना कृता, यदि च गृहवासो न श्रेयान्, ततः किमिति स्वयं गृहवासे वसन्ति स्म ? भोगांश्च भुक्तवन्त इत्येवं कृ तोऽधिक्षेपः। सङ्घ च दृष्ट्वा ऽवज्ञया वदेत्-हुहुंदृष्टा मयाऽरण्येऽपि सङ्घाः शृगालश्वानवृक-चित्रकादीनामिति / श्रुतं चैवमधिक्षिपति यथा"कायाववाय तिचिय, पुणो वि तिचियपमायपया। मुक्खस्स देसणाए, जोइसजोणीहिं किं कर्ज // 1 // " आचार्यं च जात्यादिभिरधिक्षि-पति। महार्द्धिकाश्च गणभृतो गौतमादयः, ये वा यस्मिन् युगे प्रधानमूताः, तान् ऋद्धिरसा गौरवप्रसक्ताः कथका इव लोकावर्जनोद्यता इत्यादिवाक्यैराधिक्षिपति / स आशातना-कारित्वादाशातनतपोऽनवस्थाप्यः। स जघन्येन षण्मासान, उत्कर्षतः संवत्सरं यावत् तपः कुर्वन् कर्तव्यः, तावता च तपसा क्षपिताऽऽशातनाजनितकर्मत्वादू_ महाव्रतेषु स्थाप्यते, प्रतिसेवनाऽनवस्थाप्यश्चोत्तरगाथायां वक्ष्यते। सा चेयम्वासं बारसवासा, पडिसेवी कारणाउ सव्वो वि। थोवं थोवतरं वा, वहिज्ज मुचिज वा सव्वं ||2|| प्रतिसेवी प्रतिसेवनाऽनवस्थाप्यः साधर्मिकाऽन्यधार्मिक-स्तेनाभ्यां हस्ततालादिभिश्च भवति, स च जघन्यतोवर्षम्, उत्कृष्टतोद्वादशवर्षाणि, तदनन्तरं व्रतेषु स्थाप्यते। स चा-ऽनवस्थाप्यः संहननादिगुणयुक्त एव क्रियते, अन्यस्य तुमूलमेव दीयते। अथ कीदृशगुणयुक्तस्याऽनवस्थाप्यं दीयत इत्याहसंहणणविरियआगम-सुत्तत्थविहीइ जो समग्गोय। तवसी निम्गहजुत्तो, पक्यणसारे य गहियत्थो / / 1 / / तिलतुसमतिभागमित्तं, विजस्स असुमो न विज्जई भावो / निजूहरणारिहो सो, सेसे निज़हणा नत्थि ||2| एयगुणसंपउत्तो, पावइ अणवठ्ठमुत्तमगुणोहो। एइयगुणविप्पहुणे, तारिसगम्मी भवे मूलं // 3 // " (तपसी) तपश्चरणवान् (निग्गहजुत्तो) जितेन्द्रियः (निजूहणा-रिहो) गच्छात् पृथक् करणार्हः अपवादतस्त्वनन्यसाध्यकुल गणसङ्घकार्यकारी, बहुजनसाध्यं च कार्य शृङ्गवादितमुच्यते, तत्साधकश्वायमित्यतः कारणात्सर्वोऽपि द्विप्रकारोऽपि आशातनेनावस्थाप्यते / प्रतिसेवनाऽनवस्थाप्यश्च गुरुमुखात् सङ्कादेशात् स्तोकं स्तोकतरं वा, मासद्वयं मासैकमात्रं वा अनवस्थाप्यतपो वहेत् / सङ्घो वा सार्थापष्टम्भादिके नै वायमनवस्थाप्यशोध्यमतीचारमलं क्षालयिष्यतीति सर्व मुञ्चेत्, अनवस्थाप्यतपो न कारयेदित्यर्थः / जीता बृक्षण यस्त्वनवस्थाप्यतपः प्रतिपद्यते तद्विधिमाहआसायणा जहण्णे, छम्मासुकोस बारस उमासा। वासं वारसमासे, पडिसेवओ कारणे मणिओ।। इत्तिरियं निक्खेवं, काउं वन्नं गणं गमित्ताणं। दव्वाइ सुहे वियडण, निरुवस्सग्गह उवस्सग्गो।। अप्पचय निन्मयया,आणाभंगो य जंतणा सगणे। परगणे न होति एए, आणा थिरया भयं चेव / / गाथाषट्कं, यथा पाराञ्चिके व्याख्यातं तथैवाऽत्र मन्तव्यम् , नवरं दव्वाइसुहे वियडण त्ति द्रव्यक्षेत्रकालभायेषु शुभेषु प्रशस्तेषु, द्रव्यतो वटवृक्षादौ क्षीरवृक्षे, क्षेत्रत इक्षुक्षेत्रादौ, कालतः पूर्वाह, भावतः प्रशस्तेषु चन्द्रतारादिबलेषु, गुरूणां विकटनामालोचनां ददाति / तत आचार्या भणन्ति - ''एय साहुस्स अणवठ्ठप्पतवस्स निरुवसग्गनिमित्तं ठामि काउसगं ति। अन्नत्थूससिएणं' इत्यादि वोसिरामीति यावत्। ततश्चतुविंशतिसूत्रमुच्चार्याऽऽचार्या भणन्ति- एष तपः प्रतिपद्यते, ततो न भवद्भिः सार्धमालापादिकं विधास्यति, स्वयमप्येतेन सार्धमालापादिकं परिहरध्वमिति। बृ०४ उ० वंदइ नइ वंदिज्जइ, परिहारतवं सुदुचरं चरइ। संवासो से कप्पइ, नालवणाईणि सेसाणि ||6|| अनवस्थाप्यतपश्चरणकरणकालं यावत् स्वगणं गीतार्थे निक्षिप्याऽऽचार्य उपाध्यायो वा प्रशस्तेषु द्रव्यक्षेत्रकालभावेषु, तत्र द्रव्यतो वटादौ क्षीरवृक्षे , क्षेत्रतः इक्षुशालिक्षेत्रकु सुमित वनखण्ड प्रदक्षिणाऽऽवर्तजलपद्मसरश्चैत्यगृहादिषु,कालत:पूर्वाह्ने, भावतः प्रशस्तेषु चन्द्रताराबलेषु, संध्यागतादिनक्षत्रवर्जमालोचनां प्रयुङ्क्ते स्वातिचार प्रकाशयति / आलोचनाऽनन्तरं जघन्येन मासमूत्कर्षतः षण्मासादिकमनवस्थाप्यतपःप्रपद्यगाने आलोचनादायकः कायोत्सर्ग करोति / एयस्स आयरियस्स अणवठ्ठप्पतवस्स निरुवसग्गनिमित्तं ठामि Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणट्ठप्पया 301- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणवट्टिय काउस्सगं अन्नत्थ उस्ससिएणं, इत्यादि 'योसिरामि' इति यावत् यावन्न कृतं, तावन्न व्रतेषु लिङ्गे वाऽवस्थाप्यत इत्यनवस्थाप्यस्तस्य चतुर्विंशतिस्तवमनुचिन्त्य पारयित्वा चतुर्विशतिस्तवमुच्चार्या-ऽऽचार्यो भावोऽनवस्थाप्यता। नवमप्रायश्चित्ते, प्रव०६८ द्वा०ा आव०॥ पंचा०। वक्ति-"एस तवं पडिवज्जइ, न किंचि आलवइ माइ अणवठ्ठप्पारिह-न०(अनवस्थाप्याह) नवमप्रायश्चित्ते, स्था०। आलवह / अत्तट्टचिंतगस्स उ, वायाओ भे न कायव्वो।" एष यस्मिन्नासे विते कञ्चन कालं व्रतेष्वनवस्थाप्यं कृत्वा पश्चात् युष्मान्नालपिष्यति, युष्माभिरपि नालाप्यः, एष सूत्रार्थे शरीरवार्ता वान चीर्णतया तद्दोषोपरतो व्रतेषु स्थाप्यते तदनवस्थाप्याऽर्हम्। स्था० 10 प्रक्ष्यति, युष्माभिरपि न पृच्छयः / खेलमल्लकमात्रादिकं वा नास्य ठा। ग्राह्यमर्पणीयं वा, उपकरणं परस्परं न प्रतिलेख्यं, भक्तपानं परस्परं न ग्राह्यम्। संघाटकोऽस्यन मेलनीयः। अनेन सहैकमण्डल्यां न भोक्तव्यम्, अणवठ्ठप्पावत्ति-स्त्री०(अनवस्थाप्यावर्ति)उपचारात, अनवकिमप्यनेन सार्ध न कार्य कार्यमिति / अधुना गाथाऽक्षरार्थः स्थाप्याख्यप्रायश्चित्तापत्तिकारिणीषु प्रतिसेवासु, जीता प्रतिपन्नाऽनवस्थाप्यतपः शैक्षादीनपि वन्दते, न चासौ वन्द्यते / अणवट्ठाण-न०(अनवस्थान)न०ता सामायिककालाऽवधेरपूरणे यथा परिहारतपश्च पारिहारिकसाधूनां तपः ग्रीष्मे चतुर्थषष्ठाष्टमानि, शिशिरे कथञ्चिद् वाऽनादृतस्य करणे, एष सामायिकस्य पञ्चमोऽतिचारः / षष्ठाष्टमदशमानि, वर्षास्वष्टम-दशमद्वादशानि जघन्यमध्यमोत्कृष्टानि, उपा०१ अ०धर्म पारणके च निर्लेपः, भक्तमित्येवं रूपं सुदुश्वरं चरति। संवासः सहवासो अणवट्ठिय-त्रि०(अनवस्थित)अनियतप्रमाणे, "अणवद्वित्ताणं तत्थ गच्छेनास्यएकक्षेत्रे एकोपाश्रये एकस्मिन् पार्वे शेषसाधुपरिभोग्यप्रदेशे खलु राइंदिया पण्णत्ता'। चं०प्र०८ पाहु०। अस्थिरे कल्पाकल्पते, नालपनादीनि शेषाणि, इत्येष संक्षेपतोऽनवस्थाप्यविधिः। ऽनुयोगाश्रवणाऽनर्ह भेदे, बृ० तत्राऽनवस्थितं तावदाह - उक्तमनवस्थाप्याऽहम् / जीता दुविहो लिंगविहारो, एक्कक्को चेव होइ दुविहो उ। एवंविधं तपः प्रतिपद्य यदसौ विदधाति तदुपदर्शयति चउरो य अणुग्घाया, तत्थ वि आणाइणो दोसा। सेहाई वंदंतो, पग्गहियमहातवो जिणो चेव। अनयस्थितो द्विविधः / तद्यथा- लिङ्गानवस्थितो विहाराविहरइ बारसवासे, अणवठ्ठप्पो गणे चेव॥ ऽनवस्थितश्च / एकै कः पुनरपि द्विविधो भवति / तदुभयमपि शैक्षादीनपि वन्दमानो जिनकल्पिक इव प्रग्रहीतमहातपाः पारणके द्वैविध्यमनन्तरगाथायां वक्ष्यते / चत्वारश्च मासा अनुद्धाता गुरवः, निर्लेप भक्तपानं ग्रहीतव्यमित्याद्यनेकाभिग्रहयुक्तं चतुर्थषष्ठादिकं विपुलं उपलक्षणत्वाल्लघुमासादिकं, वा अत्र यत् प्रायश्चित्तं भवति, तत्तु परिहारतपः कुर्वन्निति भावः / एवंविधो ऽनवस्थाप्यो गण एव गच्छान्तर्गत यथास्थानमेव भावयिष्यते / तत्राऽपि लिङ्गाऽनव-स्थितविहाराऽएवोत्कर्षतो द्वादश वर्षाणि विहरति। इदमेव भावयति नवस्थितयोरप्याज्ञादयो दोषा द्रष्टव्याः। अणवढे वहमाणो, वंदइ सो सेहमायिणो सव्वे। संवासो से कप्पड़, सेसा उपया न कप्पंति।। अथैनामेव गाथां व्याख्यानयतिपरगणेऽनवस्थाप्यं वहमानः स उपाध्यायादिः शैक्षादीनपि सर्वान् साधून गिहिलिंग अन्नलिंगं, जो उ करेइ स लिंगओ दुविहो। वन्दते, तस्य च गच्छेन सार्धमे कत्रोपाश्रये एकस्मिन् पार्वे चरणे गणे अ अथिरो, विहार अणवडिओ एसो॥ शेषसाधुजनापरिभोग्ये प्रदेशे संवासं कर्तुं कल्पते। शेषाणि तुपदानि न गृहिलिङ्गं गृहस्थानां वेषम्, अन्यलिङ्गमतीथिकानां नेपथ्यम् / यः कल्पन्ते / कानि पुनस्तानीत्याह - साधुः, तुशब्दो विशेषणे। किं विशिनष्टि? दर्पण यो लिङ्गद्वयं करोति, स आलावणपडिपुच्छण-परियट्वट्ठाणवंदणग मत्ते। एष लिङ्गतो द्विविधोऽनवस्थितः / अस्य च द्विविधस्यापि मूलं, यथापडिलेहणसंघाडग-मत्तदाणसं जणाचेव॥१०२|| चोलपट्टकं बध्नत एकत उभयतो वा स्कन्धोपरि कल्पाञ्चलानाआलापनं स साधुभिः सहन कार्यते, सर्वेषामपि स करोति, तस्य पुनः मारोपणरूपंगरुडपाक्षिकं प्रावृण्वत उत्तरा-सङ्गरूपम॰सन्यासं कुर्वतः साधवो न कुर्वन्ति, (मत्ते त्ति) खेलमात्रादिप्रत्यर्पणं तस्य न क्रियते, प्रत्येकं चत्वारो गुरुमासाः, द्वायपि बाहू छादयित्वा संयती सोऽपि तेषां न करोति / उपकरणं परस्परं न प्रत्यपेक्षन्ते, संघाटकेन प्रावरणमातन्वानस्य चत्वारो लघवः, कल्पेन शिरस्थगनरूपां परस्परं न भवन्ति / भक्तदानमन्योन्यं न कुर्वन्ति / एकत्र मण्डल्यां न शीर्षद्वारिकां कुर्वतो मासलघु, चतुष्कलं मुत्कलं वा कल्पं स्कन्धोपरि संभुञ्जते। यचान्यत् किंचित्करणीयम्, तत्तेन सार्धं न कुर्वन्ति। 'संघो कृत्वा गोपुच्छवदधोलम्बमानं कुर्वतो मासलघु / एतेऽपि न लभइ कन्ज' इत्यादि- गाथाः पाराञ्चिकवद् लिङ्गाऽनवस्थितेऽन्तर्भवन्ति / तथा चरणे चारित्रे अस्थिरो यः पुनः द्रष्टव्याः / बृ०४ उ०। (अनवस्थाप्यस्य गृहिभूतस्याऽगृहिभूतस्य पुनश्चारित्रात् प्रतिपतति, तस्य यदि सूत्रं ददाति, तदा चतुर्लधु / अर्थ चोपस्थापना 'उवट्ठावणा' शब्दे द्वि०भा० 860 पृष्ठे वक्ष्यते) ददाति, तदा चतुर्गुरु / गणे गच्छे अस्थिरः पुनर्गणाद् गणं संक्रामति / एष तपोऽनवस्थाप्यश्च चतुर्दशपूर्वधरे श्रीभद्रबाहुस्वामिनि व्युच्छिन्नः / द्विविधोऽपि विहारा--ऽनवस्थितः / एतद्विपरीतस्य स्थलिङ्गावस्थितस्य "अणवठ्ठप्पो तवसा, तव पारंचिय दोविच्छिन्ना। चउदसपुव्वधरम्म, संविग्न-विहारावस्थितस्यचदातव्यं, यदिनददाति, तदातथैव सूत्रेचतुर्लधु, धरति सेसाउ जा तित्थं" ||1|| जीता अर्थे चतुर्गुरु। गतमनवस्थित-द्वारम्बृ०१उ० स्था०(आचेलक्यादयः अणवट्ठप्पया-स्त्री०(अनवस्थाप्यता) येन पुनः प्रतिसे वितेन षडनवस्थितकल्पाः 'कम्प' शब्देतृ०भा०२२६ पृष्ठेवक्ष्यन्ते) "अणवष्टियस्स उत्थापनाया अप्ययोग्यः सन् कञ्चित्कालं न व्रतेषु स्थाप्यते करणया'' अनवस्थित स्याऽल्पकालीनस्याऽ-नियतस्यसामायि- कस्य तदनवस्थाप्यताऽर्हत्वादनवस्थाप्यता प्रायश्चित्तम् / यद्वा- यथोक्तं तपो | करणमनवस्थित करणमल्पकालकरणानन्तरमेव त्यजति, Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणवट्ठिय 302 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणसण यथाकथञ्चिद्वाकरोतीति भावः / उपा० 10 // पंचाला श्रा० आव० | अणवरय-त्रि०(अनवरत) अव-रम्-भावेक्तः।अवरतं विरामस्तन्नाऽस्ति अणवट्ठियचित्त-त्रि०(अनवस्थितचित्त) एकत्र स्थापिता- यस्य। बा निरन्तरे, विश्रामशून्ये च / वाच०। निरन्तरे, कल्प०। सतते, ऽन्तःकरणत्वरहिते, नि०चू०१ उ०। भ०६ श०३३ उ०। पंचा० आचा०ा जं०। सकलकाले, आ०म०वि०। अणवद्धि(त)यसंठाण- न०(अनवस्थितसंस्थान) सतत चारप्रवृत्त्या अणववाइत्त-- न०(अनपवादित्व) सर्वेषुजघन्योत्तममध्यमभेदेषु जन्तुषु सम्यगवस्थाने, जी०३ प्रतिका अपवादमश्लाघां करोतीत्येवं शीलोऽपवादी, नाऽपवादी अनपवादीति। अणवणीयत्त- न०(अनपनीतत्व) कारककालवचनलिङ्गा- न०तका तस्य भावस्तत्त्वम् / अपवादभाषणे, परापवादे हि बहुदोषः / दिव्यत्ययरूपवचनदोषापेततारूपे पञ्चविंशे सत्यवचना-ऽतिशये, स० यदाह वाचकचक्र-वर्ती -"परपरिभवपरिवादा-दात्मोत्कर्षाच बध्यते 35 सम०। रा० औ० कर्म / नीचैर्गोत्रं प्रतिभवमनेकभवकोटि-दुर्मोचम्" // 1 // इति / तदेवं अणवतप्पया-स्त्री०(अनवत्राप्यता) अपतापयितुंलयितु- मर्हः शक्यो सकलजनगोचरोऽप्यवर्णवादोन श्रेयान्, किं पुनर्नृपामात्यपुरोहितादिषु वा अपत्राप्यो लङ्घनीयः, न तथाऽनवत्राप्यस्तद्-भावोऽनवत्राप्यता। बहुजनमान्येषु / नृपाद्यवर्णवादात् तु प्राणनाशादिदोषादिति / ध०१ हीनसर्वाऽङ्गत्वे, उत्त०१ अ०। अलज्जनी-याऽङ्गतायाम्, स्था०८ ठा०॥ अधिo अणवतारण-न०(अनवतारण) न०ता अनुपस्थापने, ध०२ अधिका अणवाय-त्रि०(अनपाय) अपायरहिते निर्दोषे, "आगमवचनअणवत्था-स्त्री०(अनवस्था) अव-स्था-अङ्! अवस्थितिः। न०ता | परिणतिर्भवरोगसदौषधं यदनपायम्'। षो०५ विव०। अवस्थाभावे, तर्कदोषविशेषे च / उपपाद्यस्य समर्थनाय | अणविक्खिया-स्त्री०(अनपेक्षता)शिक्षारहितत्वे,ग०१अधि| उपपादकस्यानुसरणं तर्कः, यत्र तर्के उपपाधोपपादकयो- | अणवेक्खमाण-त्रि०(अनपेक्षमाण) शरीरनिरपेक्षे, "धुणे उरालं विश्रान्तिर्नास्ति तादृशतर्क स्यानवस्थादोषः / तत्र स तर्को न | अणुवेहमाणे, चिचाण सोयं अणवेक्खमाणे"। सूत्र० १श्रु०१० अ०। ग्राह्यः। वाचला अनवस्था तुपुनःपुनः पदद्वयावर्तनरूपा प्रसिद्धैव, इह तु अणवे (वि)क्खा-स्त्री०(अनपेक्षा)स्वपरविशेषाऽकरणे, व्य० 3 उ०। अनवस्थाचक्रयो मकृत एव विशेषो लभ्यते, न पुनरर्थकृतः / कश्चिद् अणसण- न०(अनशन) अश्यते, भुज्यते इत्यनशनम् / अशेषायद्वक्ष्यति- सामान्यविशेषवादे चक्रकमनवस्थानिवृत्तेरिति / अत्र हि ऽऽहारप्रत्याख्याने,उत्त०। एकस्मादुपवासादारभ्य षाण्मासिक-पर्यन्ते, चक्र के साध्ये अनवस्थानिवृत्तिलक्षणो हेतुरुपन्यस्तः / अतो उत्त०३० अ० पा०ा आहारत्यागरूपे बाह्यतपोभेदे,स्था०६ठा०ा ग०| ज्ञायतेऽनवस्थैव चक्रवत्पुनःपुनर्भमणा च चक्रकमित्युच्यते इति। अने० से किं तं अणसणे? अणसणे दुविहे पण्णत्ते। तं जहा- इत्तरिए 1 अधि० क्वचिदप्यवस्थानाऽप्राप्तौ, विशे०। अनाश्वासे, दर्श०। य, आवकहिए य / से किं तं इत्तरिए ? इत्तरिए अणेगविहे किञ्चिदकार्य कुर्वन्तं दृष्ट्वाऽन्येषामपि तथाकरणे, व्य० पण्णत्ते / तं जहा- चउत्थे भत्ते, छटे भत्ते, अट्ठमे मत्ते, दसमे 7 उ०यथा किमयमेवंविधं करोति ? किमहमेतन्न करिष्यामीत्येवं मत्ते, दुवालसमे भत्ते, चउद्दसमे भत्ते, अद्धमासिए मत्ते, मासिए रूपा। (तत्स्वरूपंच 'पलंब' शब्दे वक्ष्यते) भत्ते,दोमासिए भत्ते, तिमासिए मत्ते, जाव छम्मासिए भत्ते / से अणवदग्ग-त्रि०(अनवताग्र) अवनतमासन्नमग्रमन्तो यस्य तं इत्तरिए। से किं तं आवकहिए ? आवकहिए दुविहे पण्णत्ते। तत्तथा। तनिषेधादनवनताग्रम्, तदेव वर्णनाशादनवताग्रमिति। आसन्नाग्रे तं जहा-पाओवगमेण य, भत्तपच्चक्खाणेण य / म० 25 श०७ अनवगतमपरिछिन्नमग्रं परिमाणं यस्य तत्तथा। अपरिछिन्नाऽन्ते, भ०१ उ०। श०१उ०) अनशनं द्विधा- इत्वरं, यावत्कथिकं च / तत्रेत्वरं चतुर्थादि *अनवदन-त्रि० न विद्यतेऽवदग्रं पर्यन्तो यस्य सोऽयमनवदन इति / षण्मासान्तमिदं तीर्थमाश्रित्येति, यावत् कथिकंत्वाजन्मभावि त्रिधाअपर्यन्ते अनन्ते, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। सम०। ज्ञा० भ०। प्रश्न०। पादपोपगमनेङ्गितमरण-भक्तपरिज्ञाभेदात्। एतच्च प्रायो व्याख्यातमिति / अपर्यवसाने, सूत्र० 2 श्रु० 5 अ०। अपरिमिते, नि०चू० स्था०६ ठा०। तत्रेत्वरं परिमितकालम्, तत् पुनः श्रीमहावीरतीर्थेनम२ उ० सूत्रा प्रश्न स्कारसहितादिषण्मासान्तं, श्रीनाभेय-तीर्थङ्करतीर्थे संवत्सरपर्यन्तं, अणवयक्खित्ता-अव्य०(अनवेक्ष्य) पश्चाद्भागमनवलोक्येत्यर्थे, "जे मध्यमतीर्थकरतीर्थे अष्टौ मासान्, यावत्कथिकं पुनराजन्मभावि / णं नो पभू मग्गओ रूवाई अणवयक्खित्ताणं पासित्ताए'। भ० तत्पुनश्चेष्टाभेदोपधिविशेषतस्त्रिधा। यथा- पादपोपगमनम्, ७श०७ उ०। इङ्गितमरणम्, भक्तपरिज्ञा चेति। प्रव०६ द्वा० अणवयग्गं-(देशी)अवयगंइति देशीवचनोऽन्तवाचकः, ततस्तनिषेधाद- इत्तरिय मरणकाला य, अणसणा दुविहा भवे। णवयग्ग। अनन्ते, भ०१श०१ उ०। इत्तरिया सावकंखा, निरवकंख उ बेइजिया / / / अणवयमाण-त्रि०(अनपवदत्) अपवदन् अन्यथैव व्यवस्थित (इत्तरिय त्ति) इत्वरमेव इत्वरकं स्वल्पकालं नियतकालावस्त्वन्यथावदन्नपवदन्। नअपवदन् अनपवदत्। प्राकृतत्वा-दार्षत्वाद् ऽवधिक मित्यर्थः, मरणावसानः कालो यस्य तन्मरणकालम् / था पकारलोपः। मृषावादमकुर्वति, व्य०३ उ०। प्राग्वत् मध्यमपदलो पी समासः | यावज्जीव मित्यर्थः / Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणसण 303- अभिधानराजेन्द्रः-भाग 1 अणसण यद्वा-मरणं कालोऽवसरो यस्य तन्मरणकालम् ।चः समुचये। अश्यते भुज्यत इत्यशनम्, अशेषाहाराऽभिधानमेतत्। उक्तं हि-"सव्वो विय आहारो, असणं सव्वो विवुचइ पाणं / सव्वो विखाइमं चिय, सव्यो विय साइमं होइ" ||1|| ततश्चाऽविद्यमानं देशतः सर्वतो वाऽशनमस्मिन्नित्यनशनं, द्विविधं द्विः प्रकारं भवेत, तत्र (इत्तरिय त्ति) इत्यरकं सहाऽवकासया घटिकाद्वयाधुत्तर-कालं भोजनाभिलाषरूपया वर्तत इति सावकाशम्, निष्क्रान्त-माकाङ्क्षातो, निराकासम्, तज्जन्मनि भोजनाशंसाभावात्, तुशब्दस्यभिन्नक्रमत्वात्। द्वितीयं पुनर्मरणकालम्। पाठा-ऽन्तरतश्च निरवकाझं द्वितीयम्। जो सो इत्तरियतवो, सो समासेण छव्विहो। सेढितवो पयरतवो, घणो य तह होइ वग्गे य // 10 // तत्तो य वग्गवग्गो, पंचम छट्टओ पइन्नतवो। मणइच्छियचित्तत्थो, नायव्वो होइइत्तरिओ // 11 // यथोद्देशं निर्देश इति न्यायतः इत्यरकानशनस्य भेदानाह-यत्तदित्वरकं | तपः इत्वरकानशनरूपमनन्तरमुक्तं तत्समासेन संक्षेपेण षड्विधं, विस्तरेण तु बहुतरभेदमितिभावः। षड्विधत्वमेवाह-(सेढितवो इत्यादि) अत्र च श्रेणिः पङ्क्तिः , तदुपलक्षितं तपः श्रेणितपस्तचतुर्थादिक्रमेण क्रियमाणमिह षण्मासान्तं परिगृह्यते, तथा श्रेणिरेव श्रेण्या गुणिता प्रतर उच्यते, तदुपलक्षितं तपः प्रतरतपः, इह चाऽव्यामोहाथ चतुर्थषष्ठऽष्टमदशमाख्य-पदचतुष्टयात्मिका श्रेणिर्विवक्ष्यते / सा च चतुर्मिगुणिता षोडशपदात्मकः प्रतरो भवति / अयं च आयामतो विस्तरतश्च तुल्य इति। अस्य स्थापनोपाय उच्यतेएकाद्याद्या व्यवस्थाप्याः, पङ्क्तयोऽत्र यथाक्रमम्। एकादींश्च निवेश्यान्ते, क्रमात् पङ्क्तिं प्रपूरयेत्।।१।। अस्याऽर्थः- एकः आदिर्येषां ते एकादयः एककद्विकत्रिक-चतुष्कास्ते आधायासुता एकाद्याद्याः, व्यवस्थाप्यान्यसनीयाः, पङ्क्तयः श्रेणयो, यथाक्रम क्रमानतिक्रमेण, कोऽर्थः ? प्रथमा एकाद्या एककादारभ्य संस्थाप्यते, द्वितीया द्विकाद्या द्विका-दारभ्य, तृतीया त्रिकाद्या, त्रिकादारभ्य, चतुर्थी चतुष्काद्या चतुष्कादारभ्य / आह- एवं सति प्रथमपङ्क्तिरेव परिपूर्णा भवति, द्वितीयाद्यास्तु न पूर्यन्त एव / तत्कथं पूरणीयाः ? उच्यते-एकादींश्च निवेश्य व्यवस्थाप्य, अन्त इत्यग्रे, क्रमादिति क्रम-माश्रित्य, पङ्क्तिमपूर्यमाणां श्रेणी, पूरयेत् परिपूर्णा कुर्यात् / तत्र च द्वितीयपङ्क्तौ द्विकत्रिक-चतुष्कानामग्रे एककः, तृतीयपङ्क्तौ त्रिकचतुष्कयोः पर्यन्ते एकको द्विकश्च, चतुर्थपङ्क्तौ चतुष्काऽवसाने एकद्वित्रिकाःस्थाप्यन्ते। स्थापना चेयम् चतुर्थ षष्ठ० अष्टमादशम० ततश्चतुष्षष्टिश्चतुष्षष्ट्ये व गुणिता 64 4 64 = 4066 जातानि षण्णवत्यधिकानिचत्वारि सहस्राणि, एतदुपलक्षितं तपो वर्गतपः, ततश्च वर्गतपसाऽनन्तरं वर्ग 2 इति वर्ग 2 तपः, तुः समुच्चये / पञ्चमं पञ्चसंख्यापूरणम्, अत्र वर्ग एव यदा वर्गेण गुण्यते तदा व वर्गो भवति, तथाच चत्वारि सहस्राणि षण्णवत्यधिकानि तावतैव गुणितानि जातकको टिः, सप्तषष्टिलक्षाः, सप्तसप्तति-सहस्राणि, द्वे शते षोडशाधिके / अङ्कतोऽपि, 4066 x 4066 - 1,67,77,216 / एतदुपलक्षितं तपो वर्गवर्गतप इत्युच्यते / एवं पदचतुष्टयमाश्रित्य श्रेण्यादितपो दर्शितम्। एतदनुसारेण पञ्चादिपदेष्यप्येतत्परिभावना कार्या / षष्ठकं प्रकीर्णकतपो यत् श्रेण्यादिनियतरचनादिरहितं स्वशक्त्यपेक्षं यथा कथंचिद् विधीयते, तच्च नमस्कारसहितादि पूर्वपुरुषचरितं यवमध्यवज प्रतिमादि च / इत्थं भेदानभिधाय उपसंहारमाह-(मणइच्छियचित्तत्थोत्ति) मनसश्चित्तस्य ईप्सितं इष्टचित्रोऽनेक प्रकारोऽर्थः स्वर्गापवर्गादिस्तेजोलेश्यादि यस्मात् तन्मनईप्सितचित्तार्थं ज्ञातव्यं भवतीत्यरकं प्रक्रमादनशना- ऽऽख्यं तपः / उत्त०३ अ० (कियत्कालिकेनाऽनशनेन कियती निर्जरा भवतीति 'अण्णइलाय' शब्दे वक्ष्यते) संप्रति मरणकालमनशनं वक्तुमाहजा सा अणसणा मरणे, दुविहा सा वियाहिया। सवियारमवीयारा, कायचेटुं पई भवे // 12 // (जा सा अणसणाइ त्ति) प्राकृतत्वादत्र स्त्रीत्वम्, यदनशनं मरणे मरणाऽवसरे द्विविधं, तद्विशेषेणाऽऽख्यातं कथितं व्याख्यातं, तीर्थकृदादिभिरिति गम्यते / द्वैविध्यमेवाह- सह विचारेण चेष्टात्मकेन वर्तते यत्, तत् सविचारं, तद्विपरीतमविचारम् / विचारश्च कायवाड्मनोभेदात् त्रिविधमिति। तद्विशेषपरिज्ञानार्थमाह-कायचेष्टाम्, उद्वर्तनपरिवर्तनादिकं कायप्रविचारं प्रतीतिमाश्रित्य, भवेत् स्यात्। तत्र सविचारं भक्त-प्रत्याख्यानमिङ्गिनीमरणं च। तथाहि- भक्तप्रत्याख्याने गच्छमध्यवर्ती गुरुदत्तालोचनो मरणायोद्यतो विधिना संलेखनां विधाय ततस्त्रिविधं चतुर्विधं चाऽऽहारं प्रत्याचष्टे, सच समास्तृतमृदुसंस्तारकं समुत्सृज्य शरीराधुपकरणम-मत्वः स्वयमेवोद्ग्राहितनमस्कारः समीपवर्तिसाधुदत्तनमस्कारो वा सत्यां शक्तौ स्वयमुद्वर्तते, परिवर्तते च, शक्तिविकलतायां चाऽपरैरपि किंचित् कारयति। यत उक्तम्-वियडणमब्भुट्ठाणं, उचियं संलेहणं चकाऊणं। पञ्चक्खति आहार, तिविहं च चउव्विहं वा वि||१|| उव्वत्तइ परियत्तइ,सयमण्णेणावि कारए किंचि / जत्थ समत्थो नवरं, समाहिजणयं अपडिबद्धो // 2 // इङिनीमरणमप्युक्तन्यायतः प्रतिपद्य शद्धस्थण्डिलस्थानामेकाक्येव कृतचतुर्विधाऽऽहारप्रत्याख्यान-स्तत्स्थण्डिलस्थानच्छायात उष्णमुष्णावस्थायां स्वयं संक्रामति / तथा चाह-इंगियभरणविहाणं, आपव्वजंतु वियडणं दाउं। संलेहणंच काउं,जहासमाही महाकालं / / 1 / / पचक्खति आहारं, चउव्यिहं नियमओ गुरुसगासे। इंगियदेसम्मितहा, चिट्ठपि हु इंगियं कुणइ / / 2 / / उव्यत्तइ परियत्तइ, काइयमाईसु होइ उ विलासो / किचं पि अप्पणचिय, हुंजइ नियमेण धीबलिओ / / 3 / / अविचारं तु पादपोपगमनं, तत्र हि स-व्याघाताऽव्याघातभेदतो विभेदेऽपि पादपवन्निश्चेष्टतयैव स्थीयते / तथा च तद्विधिः- अभिवंदिऊण देवे,जहाविहिं से सए य गुरुमाइ / पचक्खाइत्तु तओ, तयं तिए सव्यसमाहारं ||1| सब्भावम्मि ठियप्पा, सम्म सिद्धंतभणियमग्गेणं / गिरिकंदरं तु गंतु, पायवगमणं अह करेति // सव्वत्थाऽपडिबद्धो, दंडो य पमायठाण प्रक्रमाद्द्घन इति धनतपः, चः पूरणे, तथेति समुचये, भवतीति क्रिया प्रतितपोभेदं योजनीया / अत्र च षोडशपदात्मकः प्रतरः पदचतुष्टयात्मिकया श्रेण्या गुणितो घनो भवति, आगतं चतुःषष्टि 64, स्थापना तु पूर्विकैव, नवरं, बाहुल्यतोऽपि पदचतुष्टयात्मकत्वं विशेष एतदुपलक्षितंतपोधनतपउच्यते।चः समुच्चये। तथा भवति वर्गश्चतीहाऽपि प्रक्रमाद् वर्ग इति वर्गतपः, तत्र च घन एव घनेन गुणितो वर्गो भवति, Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणसण 304 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणहीयपरमत्थ मिह नाउं / जावजीवं चिट्ठइ, निचिट्ठो पायवसमाणो // 3 // पुनरपि द्वैविद्ध्यं प्रकाराऽन्तरेणाऽऽहअहवा सपडिक्कम्मा, अपरिक्कम्मा य आहिया। नीहारिमनीहारी, आहारच्छेओ य दोसु वि।।१३।। अथवेति प्रकारान्तरसूचने, सह परिकर्मणा स्थाननिषदनत्वग्वर्तनादिना विश्रामणादिना चवर्तते यत्, तत् सपरिकर्म, अपरिकर्म च तद्विपरीतमाख्यातं कथितम् / तत्र सपरिकर्म भक्तप्रत्याख्यानमिङ्गिनीमरणं चैकत्र स्वयमनेन वा कृतस्य अन्यत्र तु स्वयं विहितस्य, उद्वर्तनादिचेष्टात्मकपरिकर्मणोऽनुज्ञानात् / तथा चाह-'आय परपरिक्कम्म, भत्तपरिन्नाइ दो अणुण्णाया। परवज्जिया य इंगिणि, चउविहाहारविरती य / / 1 / / ठाणनिसीय तुयट्टइ, तिरियाहिं जहा समाहीए। सयमेव यसो कुणइ, उवसग्ग परीसहहियासे' ||2|| अपरिकर्म च पादपोपगमनम्, निष्प्रतिकर्मताया एव तत्राऽभिधानात् / तथा चाऽऽगमः - "समविसमम्मि य पडिओ, अच्छइ जह पायवो य निकंपो। निचलनिप्पडिकम्मो, निक्खिवइ जं जहिं अंग / / 1 // तं चिय होइ तहचिय, णवरं चलणं परप्पओगाओ। वायाईहिं तरुस्सव, पडिणीयाइहिं तहिं तस्स' // 2 // यद्वा परिकर्म संलेखना, सा यत्राऽस्ति तत् सपरिकर्म, तद्विपरीतमपरिकर्म / तत्र च व्याघाते त्रयमप्येतत्सूत्रार्थोभयनिष्ठितो निष्पादितशिष्यः संलेखना-पूर्वकमेव विधत्ते, अन्यथा आर्तध्यानसंभवात् / उक्तं च- "देहम्मि असंलिहिए, सहसा धातूहि खिजमाणेहिं / जायति अज्झाणं, सरीरिणो चरिमकालम्मि" ||1|| इति सपरिकर्मोच्यते / यत्पुनाघाते गिरिभित्तिपतनाऽभिघातादिरूपे संलेखनामविधायैव भक्तप्रत्या-ख्यानादि क्रियते, तदपरिकर्म / उक्तं चाऽऽगमे-"अभिघाउ वा विजुगिरिभित्तिकोणगा य वा होजा। संबद्धहत्थपाया, दायावाएण होनाहि / / 1 / / एएहि कारणे हिं, वाघातिममरण होइ नायव्वं / परिकम्ममकाऊणं, पचक्खाती तओ भत्तं" / / 2 / / तथा निर्हरणं निहारो गिरिकन्दरादिगमनेन / ग्रामादे बहिर्निर्गमनं, तद्विद्यते यत्र तन्निर्हारि, तदन्यदनिर्हारि, यदुत्थातुकामेन वृजिकादौ विधीयते, एतच प्रकारद्वयमपि पादपोपगमनविषयम्, तत्प्रस्ताव एवागमेऽस्याभिधानात्। तेषां चाऽऽगमः - पञ्चक्खाती काउं, णेयव्वं जाव होइ वोच्छित्ती। पंचतले ऊणय सो, पाओवगर्मपरिणओय // 1 // तंदुविहं नायव्वं, नीहारिचेवतह अणीहारिं। बहिया गामादीणं, गिरिकंदरमाइनीहारि।।२।। वइयाइसुजं अंतो, उद्देओ मणाणठाइ अणहारिं। तम्हा पायवगमगं, जं उवमा पायवेणेत्थं // 3 // आहारोऽशनादिस्तच्छेदस्तन्निराकरणमाहारच्छेदः / शुद्धयो- रपि सपरिकर्माऽपरिकर्मणोर्निर्हार्यनिर्हारिणोश्च सम इति शेषः / उभयत्र तद्व्यवच्छेदस्य तुल्यत्वादिति सूत्रपञ्चकाऽर्थः / उक्तमनशनम्। उत्त०३० अ०। स्था०। औ०। (अनशनविधानं, येन येनाऽनशनं कृतं, तत्तच्छब्देऽपि दृश्यम्, यथा-'खंदग' शब्दे, मेधकुमार' शब्दे, 'मरण' शब्दे च विशिष्टो विधिः) अपरिभोगे, सूत्र० 1 श्रु०७ अा तथा दाघज्वरी कश्चिदनशनं कृत्वा रजन्यामपि जलपानं विधत्ते / यद्वा हियाऽनशनमेव न करोतीत्यत्र रात्रौ सर्वथा जलत्यागाऽशक्तेन तेनाऽऽहारत्यागरूपमनशनं तु विधेयमेवेति ज्ञातमस्ति। तथाऽनशनिना श्राद्धेनाऽचित्तमेव जलं पेयं, तदप्युष्णमेवेति। ही०१ प्रकाo"नंदे भद्दे सुभद्दे य, वे पुन्नेऽणसणं करे" (इति तन्मुहर्तुम् गणि००। अणसिय-त्रि०(अनशित) न अशितोऽनशितः / अभुक्ते, ''भयवं पदीणमणसो, संवच्छरमणसिओ विहरमाणो' आ०म०प्र० अणसूआ-(देशी ) आसन्नप्रसवे, देना० 1 वर्ग। अणह-त्रि०(अनघ) नाऽघमस्याऽस्तीति अनघः। निरवद्या-ऽनुष्ठायिनि, सूत्र०१ 02 अ०२ उ०। अपापे,आव०४ अ० निर्दोषे, औ०। प्रश्न०। अक्षते,सू०प्र०२० पाहुणच० प्र०। अणहप्पणयं-(देशी)अनष्टे, देना०१ वर्ग। अणहबीय-पुं०(अनघबीज) अविनष्टबीजे, बृ० 4 उ०नि०चू०। अणहसमग्ग-त्रि०(अनघसमग्र) अनधमक्षतं, न पुनरपाऽन्तराले केनाऽपि चोरादिना विलुप्तं समग्रं द्रव्यं भाण्डोपकरणादि यस्य स तथा। तस्करादिनाऽलुण्ठितसर्वस्वे, चं०प्र० 20 पाहुन निर्दूषणे, अहीनपरिवारे, "लद्धट्टे कयकज्जे अणहसमग्गे णियगं घरं हव्वमागए" अनघत्वं निर्दूषणतया समग्रत्वमहीनधनपरिवारतया / ज्ञा० 1 श्रु०८ अग अणहारओ-(देशी) खल्ले , दे०ना० 1 वर्ग। अणहिक्खट्ट-पुं०(अनधिखादनार्थ)अविषमसमुद्देशनार्थे, "तासिं पचयहेउं अणिहिक्खट्ठा अकलहो अबृ०१ उ०॥ अणहिगय-त्रि०(अनधिगत) अगीतार्थे, व्य०१उ०।अनन्तर-भाविनि, विशे० अविज्ञाते, व्य०१ उ०। अणहिगयपुण्णपाव-त्रि०(अनधिगतपुण्यपाप) सूत्राऽर्थकथनेऽप्यविज्ञातपुण्यपापे,"अणहिगयपुण्णपावं उवट्ठा-वंतस्सचउगुरू होति'। व्य०४ उ० अणहिज्जमाण-त्रि०(अनधीयमान) अपठति, "ते विज्जमाणा अणहिज्जमाणा, आहंसु विज्जा परिमोक्खमेव''। सूत्र०१ श्रु०१२ अ०॥ अणहिणिविट्ठ-त्रि०(अनभिनिविष्ट) अतत्त्वाऽभिनिवेशवर्जिते, पंचा० 3. विवश अणहियास-पुं०(अनधिसह) असहिष्णौ, बृ० 130) अणहिलपा(वा)डगणयर-न०(अनहिलपाटकनगर) गुर्जरधरित्र्यां सरस्वतीनदीतीरे 'पाटण' इतीदानी ख्याते नगरे, यत्राऽरिष्टनेमिः पूज्यते। "पणमिअ अरिट्ठनेमी,अणहिलपुर-पट्टणावयंसस्स। वभाण गच्छणिस्सिय, अरिष्टनेमिस्स कित्तिमो कप्पं"||१|| ती०२६ कल्प ।('अरिट्ठणे मि' शब्दे दर्शयिष्यतेऽयं कल्पः) यत्र अभयदेवसूरिभिन्था विरचिताः / यथोक्तं पञ्चाशके - "चतुरधिकविंशतियुते, वर्षसहस्रे शतेच सिद्धेयम्। धवलकपुरे वसत्या, धनपत्योर्बकुलचन्द्रिकयोः / अणहिलपाटकनगरे, सङ्घवरैर्वर्तमानबुधमुख्यैः / श्रीद्रोणाचार्यायै-विद्वद्भिः शोधिता चेति"। पञ्चा०१६ विव०। भगवतीवृत्त्यन्ते-"अष्टाविंश तियुक्ते, वर्षसहस्रे शतेन चाभ्यधिके / अणहिलपाटकनगरे, कृतेय-मच्छुप्तधनिवसतौ''| भ० 42 श०१उ०) अणही-स्त्री०(अनधी) पालित्तानकनगरे कपर्दिनामधेयस्य ग्राममहत्तरस्य भार्यायाम्, ती०३३ कल्प। अणहीय-त्रि०(अनधीत) अनभ्यस्ते, ग०१ अधि०। अणहीयपरमत्थ-पुं०(अनधीतपरमार्थ) अनधीता अनभ्यस्ताः Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणहीयपरमत्थ 305 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणाइय परमार्था आगमरहस्यानि यैस्तेऽनधीतपरमार्थाः / अगीतार्थे, "जे अणहीयपरमत्थे गोयमा ! संजए भवे''ग०१ अधि०। अणाइ-त्रि०(अनादि) न विद्यते आदिः प्राथम्यमस्येत्यनादिः / उत्त०१ अ० अप्राथम्ये, हा० 30 अष्ट०। पं०सं० आदिविकले, उत्त० 1 अ०। द्रव्या०। आ०म०। नाऽस्याऽऽदिरस्त्यनादिः। संसारे, सूत्र०२ श्रु०२ अ० आदिरहिते, स्था० 3 ठा०१ उ०। अणाइजणाम(ण)-न०(अनादेयनामन्) नामकर्मभेदे,कर्म० 1 कर्म०। प्रव० श्रा०। यदुदयवशादुपपन्नमपि ब्रुवाणो नोपादेय-वचनो भवति, नाऽप्युपक्रियमाणोऽपि जनः, तस्याऽभ्युत्थानादि समाचरति। पं०सं०३ द्वा० अणाइ(ए)अवयणपञ्चायाय-त्रि०(अनादेयवचनप्रत्या-जात) अनादेये वचनप्रत्याजाते येषां ते तथा / अनुपादेयवचनजन्मसु, भ०७ श०६ उ०॥ अणाइणिहण-त्रि०(अनादिनिधन) आदिः प्रथमं निधनं पर्यन्तः, ततश्च ते आदिनिधने, न विद्यते आदिनिधने यस्य स अनादिनिधनः / दर्श०। सम्म०। अनाद्यपर्यवसिते, अनुत्पन्नशाश्वते च। आव० 4 अ०। अणाइण्ण-त्रि०(अनाचीर्ण) अनासेविते, महापुरुषैरनाचीर्णम् (नाऽऽचरणीयम्)। बृ० 1 उ०। तदेवाशङ्कय परः प्राह- यदि यद्यत्प्राचीनगुरुभिराचीर्ण तत्पाश्चात्यैरप्याचरितव्यं, तर्हि तीर्थकरैः प्राकारत्रयछत्रत्रयप्रभृतिकाप्राभृतिका तेषामेवाऽर्थाय सुरैर्विर-चिता यथा समुपजीविता, तद् वयमपि अस्मन्निमित्तकृतं किं नोपजीवामः ? सूरिराहकामं खलु अणुगुरुणो, धम्मा तह विहुन सव्वसाहम्मा। गुरुणो जं तु अइसए, पाहुडियाई समुपजीवे / / काममनुमतं खल्वस्माकं यदनुगुरवो धर्माः,तथापि न सर्वथा साधाचिन्त्यन्ते, किन्तु देशसाधादेव। तथाहि- गुरवः तीर्थकराः, यत्तु यत् पुनरतिशयान् प्राभृतिकादीन्, कोऽर्थः ? प्राभृतिका सुरेन्द्रादिकृता समवसरणरचना, आदिशब्दा-दवस्थितनखरोमाऽधोमुखकण्टकाऽऽदिसुरकृताऽतिशय-परिग्रहः, तान् समुपजीवति, स तीर्थकरो जीतकल्प इति कृत्वा न तत्राऽनुधर्मता चिन्तनीया, यत्र पुनस्तीर्थकृतामितरेषां च साधूनां सामान्यधर्मत्वं तत्रैवानुधर्मता चिन्त्यते, सा चेयमनाचीर्णेति दृश्यते। सगडबहसमभोमे, अवि अविसेसेण विरहियतरं से। तह वि खलु अणाइन्नं, एसऽणुधम्मो पवयणस्स। यदा स भगवान् श्रीमन्महावीरस्वामी राजगृहनगरादुदायननरेन्द्रप्रव्राजनाथ सिन्धुसौवीरदेशाऽवतंसं वीतभयं नगरं प्रस्थितः, तदा किलाऽपान्तराले बहवः साधवः क्षुधाऽऽस्तृिषाऽर्दिताः संज्ञाबाधिताश्च बभूवुः, यत्र च भगवानावासितस्तत्र तिल- भृतानि शकटानि, पानीयपूर्णश्च हृदः, समभौमं च गर्ता-बिलादिवर्जितं स्थण्डिलमभवत्। अपि च - विशेषेण तत् तिलोदकस्थण्डिलजातं विरहिततरम्, अतिशयेनाऽऽगन्तुकैश्च जीवैर्वर्जितमित्यर्थः / तथापि खलु भगवताऽनाचीर्ण, नाऽनुज्ञातं च, एषोऽनुधर्मः प्रवचस्य तीर्थस्य, सर्वैरपि वचनमध्यमध्यासीनैः शस्त्रोपहतपरिहारलक्षण एष चधर्मोऽनुगन्तव्य इति भावः। अथैतदेव विवृणोति - वकंतजोणि थंडिल-अतसा दिन्ना ठिई अवि छुहाई। तह वि न गेण्हंसु जिणो, मा हु पसंगो असत्थहए / यत्र भगवानावासितस्तत्र बहूनि तिलशकटान्यावासितानि आसन, तेषु च तिला व्युक्रान्तयो निका अशस्त्रोपहता अप्यायुःसंक्षयेणाऽचित्तीभूताः। ते च यद्यस्थण्डिले स्थिता भवेयुः, ततो न कल्पेरन्नित्यत आह- स्थण्डिले स्थिताः। एवंविधा अपि त्रसैः संसक्ता भविष्यन्तीत्याह- अत्रसाः, तद्भवाऽऽगन्तुकत्रसविरहिताः, तिलशकटस्वामिभिश्च गृहस्थैर्दत्ताः / एतेन चाऽदत्तादानदोषोऽपि तेषु नाऽस्तीत्युक्तं भवति / अपि च- ते साधवः क्षुधापीडिता आयुषः स्थितिक्षयमकार्षुः तथापि जिनो वर्द्धमानस्वामी नाऽग्रहीत्, मा भूद् अशस्त्रहते प्रसङ्गः। तीर्थकरेणाऽपि गृहीतमिति मदीयमालम्बनं कृत्वा मत्सन्तानवर्तिनः शिष्या अशस्त्रोपहतमग्रहीषुरितिभावः। युक्तियुक्तं चैतत् प्रमाणस्थपुरुषाणाम्। यत उक्तम् - "प्रमाणानि प्रमाणस्थैः, रक्षणीयानि यत्नतः। विषीदन्ति प्रमाणानि, प्रमाणस्थैर्विसंस्थुलैः" ||1|| एमेव य निजीवे, दहम्मि तसवजिए दए दिन्ने। समभोमे अ अवि ठिती, जिमिताऽऽसन्नान याऽणुन्ना / / एवमेव च हृदे निर्जीवे यथाऽऽयुष्कक्षयादिचित्तीभूते अचित्तपृथिव्यां च स्थिते त्रसवर्जिते च उदके पानीये हृद- स्वामिना च दत्ते तृषार्दितानां स्थितिक्षयकारणेऽपि भगवान् नाऽनुजानीते स्म, मा भूत् प्रसंग इति, तथा स्वामी तृतीयपौरुष्यां जिमितमात्रैः साधुभिः सार्द्धमेकामटवीं प्रपन्नः सन् अतिसंज्ञाया आबाधा, यद्वा(आसन्न त्ति) भावासन्नता साधूनां समजनि / तत्र समभौमं गर्तगोष्पदबिलादिवर्जितं यथा स्थितिक्षयं व्युत्क्रान्तयोनिकपृथिवीकं त्रसप्राणविरहितं स्थण्डिलं वर्तते, अपरं च शस्त्रोपहतं स्थण्डिलं नाऽस्ति न प्राप्यते, अपिचतेसाधवः संज्ञाबाधिताः स्थितिक्षयं कुर्वन्ति, तथापि भगवान् नाऽनुज्ञां करोति, यथाऽत्र व्युत्सृजतेति, मा भूदशस्त्रहते प्रसङ्गः, इत्येषोऽनुधर्मः प्रवचनस्येति सर्वत्र योज्यम् / बृ०१ उ०। नि०चूला (फलविषयाऽऽचीर्णताऽनाचीर्णता च 'पलम्ब' शब्दे वक्ष्यते) अणाइबन्ध-पुं०(अनादिबन्ध) यस्त्वनादिकालात् सन्तान-भावेन प्रवृत्तो, न कदाचिद्व्यवच्छिन्नः, सोऽनादिबन्धः / कर्मबन्धभेदे, कर्म० 5 कर्म अणाइभव-पुं०(अनादिभव) निष्प्राथम्यसंसारे, पंचा०३ विव० / अणाइभवदव्वलिंग-न०(अनादिभवद्रव्यलिङ्ग) अनादिभवे निष्प्राथम्यसंसारे यानि द्रव्यलिङ्गानि भावविकलत्वेनाऽप्रधानप्रव्रजितादिनेपथ्यचरणलक्षणानि तानि तथा / संसारे परतीर्थिकप्रव्रजितेषु, 'एतो उ विभागओ अणाइ- भवदव्वलिंगओ चेव'। पंचा० 3 विव०॥ अणाइय-त्रि०(अज्ञातिक) अविद्यमानस्वजने, भ०१श०१ उ०। *अणातीत-त्रि०ा अणमणकं पापमतिशयेन इतं गतम् अणातीतम्। पापं प्राप्ते,भ०१श०१ उ०। *अनादिक-त्रि०ा अविद्यमानादिके,भ० 1 श०१ उ० स्था०॥ नाऽस्याऽऽदिः प्रथमोत्पत्तिर्विद्यते इत्यनादिकः / चतुर्दश- रज्वात्मके लोके,धर्माऽधर्मादिके वा द्रव्ये, सूत्र०२ श्रु०५० *ऋणातीत-त्रि०ा ऋणमतीतम्, ऋणजन्यदुःस्थतानिमित्त- तया संसारे, भ०१श०१३० Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणाइल 306 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणागतकालग्गहण अणाइल-त्रि०(अनाविल) अकलुषे, "अणाइलेया अकसाइ मुक्के, सक्केव देवाहिवई जुईमं" यथा चाऽसौ सागरोऽनाविलोऽकलुषजल एवं भगवानपि तथाविधकर्मलेशाभावादकलुषज्ञान इति / सूत्र० 1 श्रु०६ अ०॥ "णीवारो वणलोएज्जा, छिन्नसोए अणाविले / अणाइले सया दंते, संधि पत्ते अणे लिसं"||१|| यथाऽनाविलोऽकलुषो रागद्वेषाऽसंपृक्ततया मलरहितोऽनाकुलो वा, विषयाप्रवृत्तेः / सूत्र० 1 श्रु०१५ अ० लाभादिनिरपेक्षे, 'णो तुच्छए णो य विकंपइज्जा, अणाइलेया अकसाइ भिक्खू" अनाविलो लोभादिनिरपेक्षः। सूत्र०१ श्रु०१४ अ०। अणाइसंजुत्तय-पुं०(अनादिसंयुक्तक) न विद्यते आदिः प्राथम्यमस्येत्यनादिः / स चेह प्रक्रमात् संयोगस्तेन संमिते, ''अण्णोण्णाणुगयाणं, इमं च तं च तिविभयणमजुत्तं'' इत्यागमाद्विभागाभावेन युक्तः श्लिष्टोऽनादिसंयुक्तः स एवानादिसंयुक्तकः / यद्वा- संयोगः संयुक्तस्ततोऽनादिसंयुक्तमस्येत्यनादिसंयुक्तकम्। कर्मणाऽनादिसंयोगसंयुक्ते जीवे, उत्त०१ अ०॥ अणाइसंताण-पुं०(अनादिसन्तान) अनादिप्रवाहंके, औ०। "अणाइसंताणकम्मबंधणकिले सचिक्खिल्लसुहुत्तारं' अनादिः सन्तानो यस्य कर्मबन्धनस्य तत्तथा। प्रश्न०३ आश्र०द्वा०। अणाइसिद्धत-पुं०(अनादिसिद्धान्त) अमनमन्तो वाच्यवाचकरूपतया परिच्छे दोऽनादिसिद्धश्वासावन्तश्चाऽनादिसिद्धान्तः / अनादिकालादारभ्येदं वाचकमिदं तु वाच्यमित्येवं सिद्धे प्रतिष्ठिते परिच्छेदे, अनु०॥ अणाउ-पुं०(अनायुष) न विद्यते चतुर्विधमप्यायुर्यस्य स भवत्या-नायुः / दग्धकर्मबीजत्वेन पुनरुत्पत्तिविरहे जिने, "अणुत्तरे सव्वजगंसि विजं, गंथा अतीते अभए अणाऊ"। सूत्र०१ श्रु०६ अ० / अपगतायुः कर्मणि सिद्धे, "तं सद्दहाणा य जणा अणाऊ, इंदा वा देवाहिव आगमिस्सं''। सूत्र०१ श्रु०६अ। जीवभेदे, स्था०२ ठा० 1 उ०। अणाउट्टी-पुं०(अनाकुट्टी) 'कुट्ट च्छेदने' आकुट्टनमाकुट्टः, स विद्यते यस्यासावाकुट्टी, नाऽऽकुट्टी अनाकुट्टी / अहिंसायाम, आचा०१ श्रु अ०१ उ०ा आ०म०द्विधा''जाणं काएणणाउट्टी, अबुहो जंच हिंसति। पुट्ठो संवेदइ परं, अवियत्तं क्खु सावज्ज'' ||1|| सूत्र० 1 श्रु० 1 अ०२ उ०। ('कम्म' शब्दे चैतद् तृतीयभागे 330 पृष्ठे स्पष्टीभविष्यति)। अणाउट्टिया-स्त्री०(अनाकुट्टिका)अनुपेत्य करणे,पंचा०१६ विव०। अणाउत्त-त्रि०(अनायुक्त) न०तका अनाभोगवति अनुपयुक्ते, स्था०२ ठा०१ उ०। उत्त। असावधाने, औ०। आलस्यभाजि प्रत्युपेक्षाऽनुपयुक्ते, उत्त०१७ अ० अणाउत्तआइणया-स्त्री०(अनायुक्तादानता)अनायुक्तोऽनाभोगवाननुपयुक्त इत्यर्थः / तस्याऽऽदानता अनायुक्तादानता / अनायुक्तस्य वस्त्रादिविषये ग्रहणतायाम्, अनाभोगप्रत्यय- क्रियाभेदे, स्था०२ ठा०१ उ० अणाउत्तपमजणया-स्त्री०(अनायुक्तप्रमार्जनता)६त०। अनायुक्तस्य पात्रादिविषयप्रमार्जनतारूपे अनाभोगप्रत्यय- क्रिया भेदे, इह द्वयोः शब्दयोः ताप्रत्ययः स्वार्थिकः / प्राकृतत्वेन अनादीनां भावविवक्षयैवेति / स्था०२ ठा०१ उ० अणाउल-त्रि०(अनाकुल) समुद्रवन्नक्रादिभिः परीषहोपसर्ग- रक्षुभ्यति, जत्थत्थमिए अणाउले, समविसमाइं मुणी हियासए। सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ उ०। सूत्रार्थादनुत्तरति, "सव्वे अणट्टे परिवज्जयंते,अणाउलेया अकसाइ भिक्खू"। सूत्र० 1 श्रु०१३ अ०। 'गवंपि अणाउलो संवच्छरखमणंसि" आ०म०प्र०ा अन्त० क्रोधादिरहिते, दश०१ अ०। औत्सुक्यरहिते, बृ०१ उ०। अणाउलया-स्त्री०(अनाकुलता) निराकुलतायाम्, 'सर्वथा ऽनाकुलताऽऽयतिभावाऽव्ययपरसमासेन''। षो० 13 विव० / अणाएस-पुं०(अनादेश) आङिति मर्यादया विशेषरूपाऽनतिक्रमात्मिकया दिश्यते कथ्यते इत्यादेशो विशेषः, न आदेशोऽनादेशः / सामान्ये, उत्त० 1 अ01 (सोदाहरणोऽयं 'संजोग' शब्दे एव प्रदर्शयिष्यते) अणागइ-स्त्री०(अनागति) न०ता अनागमने, अशेषकर्म- च्युतिरूपायां लोकाग्राऽऽकाशदेशस्थानरूपायां वा सिद्धौ,"गई च जो जाणइ णागई च'। सूत्र०१ श्रु०१२ अ०॥ अणागंता-अव्य०(अनागत्य) आगमनमकृत्वेत्यर्थे, स्था० 3 ठा० 2 उ० अणागत(य)-त्रि०(अनागत) न आगतोऽनागतः / वर्तमानत्वमप्राप्ते भविष्यति, स्था०३ ठा०४ उ०। समयादौ पुद्गलपरावर्तान्ते काले भविष्यत्कालसम्बन्धिनि, सम्म०। सूत्र०ा 'अणागयमपस्संत्ता, पचुप्पन्नगवेसगा। ते पच्छा परितप्पंति, खीणे आउम्मि जोव्वणे"||१|| अनागतमेष्यत्कामानिवृत्तानां नरकादियातनास्थानेषु महादुःखमपश्यन्तोऽपर्यालोचयन्तः / सूत्र० 1 श्रु०३ अ० 4 उ०। "तेतिय उप्पन्नमणागयाई, लोगस्स जाणंति तहागयाई" अनागतानि च भवान्तरभावीनि सुखदुःखादीनि। सूत्र०१ श्रु०१२ अ० "जे य बुद्धा अतिकता, जे य बुद्धा अणागया" अनागता भविष्यदनन्तकालभाविनः / सूत्र०१ श्रु०११ अ०। अणागत(य)काल-पुं०(अनागतकाल) विवक्षितं वर्तमानं समयमवधीकृत्य भाविनि समयराशौ, ज्यो०१ पाहु०॥ अणागतद्धा-स्त्री०(अनागताद्धा) आगामिषूत्पन्नपुद्गलपरावर्तेषु, कर्म० 5 कर्मा अणागत(य)कालग्गहण- न०(अनागतकालग्रहण) भविष्यत्कालग्राह्यस्य वस्तुनः परिच्छेदात्मके विशेषदृष्टाऽनुमानभेदे, अनु०। से किं तं अणागयकालग्गहणं? अणगयकालग्गहणं, जहाअंभस्स निम्मलत्तं, कसिणायगिरी सविजुआ मेहा / थणियं वाउब्भामो, सज्झारत्तापणछाय।।१।। वारुणं वा महिंदं वा अण्णयरं वा उप्पायं पसत्थं पासित्ता तेण साहिजइ / जहा-सुवुट्ठी भविस्सइ। से तं अणागयकालग्गहणं। गाथा सुगमा, नवर, स्तनितं मेघगर्जितं (वाउभामो त्ति) तथा-विधो दृष्ट्यव्यभिचारी प्रदक्षिणं दिक्षु भ्रमन् प्रशस्तो वातः(वारुणं ति) आर्द्रामूलादिनक्षत्रप्रभवं, माहेन्द्ररोहिणीज्येष्ठादिनक्षत्रसंभवम्, अन्यतरमुत्पातमुल्कापातदिग्दाहादिकं, प्रशस्तं वृट्यव्यभिचारिणं दृष्ट्वाऽनुमीयते, यथासुवृष्टिस्त्र भविष्यति, तदव्यभिचारिणाम-भ्रनिर्मलत्वादीनां समुदितानामन्यतरस्य वा दर्शनाद्, यथा-ऽन्यवदिति / विशिष्टा हात्र Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणागतकालग्गहण 307 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणागार निर्मलत्वादयो वृष्टिं न व्यभिचरन्ति, अतः प्रतिपत्रैव तत्र निपुणेन | अनागलियचंडतिव्वरोसं समुहत्तुरियं च वलं धम्मं तं दिद्धिविसं सप्पं भाव्यमिति। अनुग संघर्टेति। भ०१५श०१उ०। उपा०। ज्ञा०॥ अणागम-पुं०(अनागम) अनागमने, आचा० 1 श्रु०२ अ०३ उ० ] अणागाढ- त्रि०(अनागाढ) अनभिगृहीतदर्शनविशेषे, बृ० 1 उ०। अपौरुषेयाऽऽदी आगमे, आगमलक्षणविहीनत्यात तस्य / स्था०१० आगाढभिन्न कारणे, व्य०३ उ०। ('आगाढ' शब्दे द्वितीयभागे 86 पृष्ठे ठा व्याख्यास्यते) अथ किमिदमागाढं किं वा अनागाढम् ? उच्यतेअणागमणधम्म-त्रि०(अनागमनधर्मन) अनागमनं धर्मो येषां ते, "अहिदट्ठविसविसूइय-सज्जक्खयसूलमागाढं / ' अहिना सर्पण दष्टः यथाऽऽरोपितप्रतिज्ञाभारवाहित्वात् / न पुनर्गृह- प्रत्यागमनेप्सुषु, कश्चित्, विषं वा केनचिद्भक्तादिमिश्रंदत्तं, विसूचिका वा कस्यापि जाता, आचा०१ श्रु०६अ०२ उ०) सद्यः क्षयकारि वा कस्यापि शूलमुत्पन्नम्, एवमादिक-माशुघाति अणागयपचक्खाण-न०(अनागतप्रत्याख्यान) प्रत्याख्यानभेदे सर्वमप्यागाढम् / एतद्-विपरीतं तु चिरघाति कुब्जादिरोगात्मभविष्यति प्रत्याख्याने, आव०। अनागतकरणादनागत-पर्युषणादावा- कमनागाढम् ।बृ०१ उ०। नि०चूला अनागाढेयोगे भवे उत्तराध्ययनादौ चार्यादिवैयावृत्त्यकरणान्तरायसद्भावाहारत एव तत् तत् तपःकरणे, श्रुते, नि०चू०४ उ०। स्था०। उक्तंच अणागार-न०(अनाकार) अविद्यमाना आकारा महत्तराकारा-ऽऽदयो होही पञ्जोसवणा, ममय तया अंतराइयं होज्जा। विच्छिन्नप्रयोजनत्वात् प्रतिपत्तुर्यस्मिस्तदनाकारम् / स्था० 10 ठा०। गुरुवेयावच्चेणं, तवस्सिगेलण्णया एव / / 5 // अविद्यमानमहत्तराद्याकारे, प्रव० 23 द्वा०। अविद्यमानाकारे सो दाइ तवोकम्म, पडिवजइ तं अणागए काले। प्रत्याख्यानभेदे, यद्विशिष्टप्रयोजनसम्भवा-ऽभावे कान्तारदुर्भिक्षादौ एवं पञ्चक्खाणं, अणागय होइ नायव्वं // 6 // महत्तराद्याकारमनुद्यारयद्भिर्विधीयते तदनाकारमिति केवलमना कारेऽपि अनाभोगसहसाऽऽकारा-वुच्चारयितव्यावेव काष्ठाऽङ्गुल्यादेर्मुखे भविष्यति पर्युषणा मम च तदाऽन्तरायं भवेत्। केन हेतुनेत्यत आह प्रक्षेपणतो भङ्गो मा भूदिति / अतोऽनाभोगसहसाकारापेक्षया सर्वदा गुरुवैयावृत्त्येन तपस्विग्लानतया वेत्युपलक्षणमिति गाथासमासार्थः। (सो साकारमेव / भ०७ श०२ उ०। ल०प्र०) अनाकारं नाम तत् किन्तु दाइ ति) स इदानीं तपःकर्म प्रतिपद्यते तदनागते काले केवलमिहानाकारेऽपि अनाभोगः सहसाकारश्च द्वावाकारौ भणितव्यौ, एतत्प्रत्याख्यानमेवंभूतमनागतकरणादनागतं ज्ञातव्यं भवतीति गाथासमासार्थः // 6 // येन कदाचिदनाभोगतोऽज्ञानतः सहसा वा रभसेन तृणादि मुखे क्षिपेन्निपतेद्वा कुतोऽपि इति कृताकारद्विकमपि शेरैमहत्तरा"इमो पुण एत्थभावत्थो- अणागयं पचक्खाणं, जहा- अणागयं तवं कारादिभिराकारैः रहितमनाकारमभिधीयते / इदं चानाकारं कदा करेजा पज्जोसवणा गहणेण एत्थ विगिढ़ कीरइ, सव्वजहन्नो अट्टमं, जहा विधीयते ? अत्राह-"दुभिक्खवित्तिकंतारगाढरोगाइए कुजा" दुर्भिक्षे पजोसवणाए। तहा चाउम्मासिए छटुं, पक्खिए अब्भत्तटुं, अण्णेसु य वृष्ट्यभावे हिण्डमानैरपि भिक्षा न लभ्यते, तत इदं प्रत्याख्यानं कृत्वा पहाणाणुजाणादिसुतहिंममं अंतराइयं होजा, गुरुआयरिया तेसिंकायव्वं, मियते / वृत्तिकान्तारे वा, वर्तते शरीरं यया सा वृत्तिर्भिक्षादिका तद्विषये ते किं ण करेति, असहू होज्जा अहवा अन्ना काइ आणत्तिया होज्जा कान्तारमिव कान्तारं, तत्र / यथाऽटव्यां भिक्षा न लभ्यते, तथा कायचिया गामंतरादिसेहस्स वा आणेयव्वं सरीरवेयावडिया वाताहे सो सिणवल्ल्यादिषु स्वभावाऽदातृद्विजाकीर्णेषु शासनद्विष्टा -ऽधिष्ठितेषु उववासं करेइ, गुरुवेयावचं न सक्केइ, जो अन्नो दोण्हवि समत्थो सो भिक्षादि नाऽऽसाद्यते, तदेदं प्रत्याख्यानम् / तथा वैद्याधप्रतिविधेये करेउ, जो वा अन्नो समत्थो उववासस्स सो करेउ, नत्थिन वालभेजा णयणि जाव विधि ताहे सो चेव पुवं उववासं काऊणं पच्छा तद्विवसं गाढतररोगे सति गृह्यते।आदिशब्दात् कान्तारे केशरिकिशोरादिजन्यभुंजेज्जा तवस्सीनामखामओतस्स कायव्वं होज्जा,तो किंतदान करेइ? मानायामापदि कुर्यादिति / प्रव०४ द्वा०। अविद्यमान आकारो भेदो सो तीरंपत्तो पजोसवणा ऊसारिया (असहुत्ति) वा सयं पाराविओ ताहे ग्राह्यस्यास्येत्यनाकारम् / सम्म०। अतिक्रान्तविशेषे सामान्यालम्बिनि य सयं हिंडिउमसमत्थो जाणि अब्भासे ताणि वचओ नत्थिलभइ सेसं दर्शने, साकारे से णाणे अणागारे सणे / सम्म०। मइसुयाऽवहिमण जहा गुरुम्मि विभासा गेलन्नं जाणइ जहा तहिं दिवसे असहू होइ विजेण केवलविहंगमइ-सुयणाणसागारा, सह आकारेण जातिवस्तुप्रतिनियतवा भणियं अमुगं दिवसं कारहत्ति, अहवा सयं चेव जाणाति सगंडरोगादिहिं ग्रहण-परिणामरूपेण"आगारोउविसेसो" इति वचनाद विशेषेण वर्तन्त तेहिं दिवसेहिं असहू होइ / सामित्ति, सेसे विभासा जहा- गुरुम्मि इति साकाराणि / अयमर्थः - वक्ष्यमाणानि चत्वारि दर्शनानि अनाकाराणि, अमूनि च पञ्च ज्ञानानि साकाराणि / तथाहिकारणकुलगणसंघआयरियगच्छे वा तहेव विभासा पच्छा सो अणागते काले काऊण पच्छाभुंजेज्जा पञ्जोसवणादिसु तस्स जा किर निजरा सामान्यविशेषात्मकं हि सकलं ज्ञेयं वस्तु / कथमिति चेद् ? उच्यतेपञ्जोसवणादिहिं तहेव सा अणागते काले भवति / गतमनागतद्वारम् / दूरादेव हि शालतमाल बकुलाशोकचम्पककदम्बजम्बूनिम्बादिविशिष्टआव० 6 अ०। आतु०। ध० ल०प्र०॥ व्यक्तिरूपतया-ऽवधारितं तरुनिकरमवलोकयतः सामान्येन वृक्षमात्रप्रतीति-जनकं,यदपरिस्फुटं किमपि रूपं चकास्ति, अणागलिय-त्रि०(अनर्गलित) अनिवारिते, भ०१५ श०१ उ०) तत्सामान्यरूपमनाकारं दर्शनमुच्यते, 'निर्विशेष विशेषाणामग्रहो *अनाकलित-त्रि०। अप्रमेये, भ० 15 श० 1 उठा उपा०। दर्शनमुच्यते' इति वचनप्रामाण्यात् / यत्पुनस्तस्यैव निकटीभूतस्य *अणागलियचंडतिव्वरोस-त्रि०(अनर्गलितचण्डतीव्र- रोष) तालतमालशाला-दिव्यक्ति-रूपतयाऽवधारितं, तमेव महीरुहमुअनिवारितचण्डतीव्रक्रोधे, भ० 15 श०१ उ०। त्पश्यतो विशिष्टव्यक्ति-प्रतीतिजनकंपरिस्फुट रूपमामावि, तद्विशेषरूपं अनाकलितचण्डतीव्ररोष- त्रि०। अनाकलिताप्रमेयचण्ड-तीवक्रोधे, साकारं ज्ञानमप्रमेयम् / प्रमा च पारमेश्वरप्रवचनप्रवीणचेतेसः प्रति Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणागार 308 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणाणुगामिय पादयन्ति,सह विशिष्टाऽऽकारेण वर्तत इति कृत्वा / तदेवं प्रतिप्राणिप्रसिद्धप्रमाणाऽबाधितप्रतीतिवशात् सर्वमपि वस्तु-जातं सामान्यविशेष रूपद्वयात्मकं भावनीयमिति। कर्म०४ कर्म०। 'चक्खु अचक्खू ओही के वलदंसणअणागारा' दर्शनशब्दस्य प्रत्येक संबन्धाचक्षुर्दर्शनाऽचक्षुर्दर्शनाऽवधिदर्शनकेवलदर्शनरूपाणि चत्वारि दर्शनानि / तत्र चक्षुषा वस्तुसामान्यांशात्मकं ग्रहणं चक्षुर्दर्शनम् 1, अचक्षुषा चक्षुर्वय॑शेषेन्द्रियचतुष्टयेन मनसा च यद् दर्शनं सामान्यांऽशात्मकंग्रहणं तदचक्षुर्दर्शनम् 2, अवधिनारूपिद्रव्य-मर्यादया दर्शनं सामान्यांशात्मकमवधिदर्शनम् 3, के वलेन संपूर्णवस्तुतत्त्वग्राहकबोधविशेषरूपेण यद् दर्शनं सामान्यांशग्रहणं,तत् केवलदर्शनमिति। किंरूपाण्येतानिदर्शनानि? अत आह-अनाकाराणि सामान्याकारयुक्तत्वे सत्यपि न विद्यते विशिष्टव्यक्त आकारो येषु तान्यनाकाराणि इति / कर्म०४ कर्म०। अणाजीव-पुं०(अनाजीविक) निःस्पृहे / दश०३अ०॥"अगिलाइ अणाजीवे नायव्वो सो तवायारो"। ग०१ अधिका अणाजीवि(ण)-त्रि०(अनाजीविन) न आजीवी अनाजीवी। अनाशंसिनि, नि०चू०१ उ०।। अणाडो-(देशी)जारे, देना०१ वर्ग। अणाढापमाण-त्रि०(अनाद्रियमाण) अनादरयति,आचा०२ श्रु०१० 2 उ01 अणाढिय-न०(अनादृत)न००।-दृ-भावे -क्त / अनादरे संभ्रमरहिते, आव० 3 अ० "आयरकरणं आढा, तव्विवरीयं अणाढियं होइ" | आदरः संभ्रमस्तत्करणमादृतता, सा यत्र न भवति, तदनादृतमुच्यते / इत्येवंरूपे दन्दनदोषाणां प्रथमे दोषे, बृ०३ उ०। आवाआ०चूलाधा आदरः संभ्रमः,तत्करणमादृतम्। आर्षत्वादाढियं द्विपरीतं तद्रहितमनादृतं भवति। प्रव०२ द्वा०ा अनादरेण वन्दने, एष वन्दनकस्य प्रथमदोषः / आ०चू० 3 अ०। तिरस्कृते, त्रि०। काकन्दीनगरीवास्तव्ये गृहपतिभेदे, पुंगा तत्कथा निरयावल्याः 3 वर्गे 10 अध्ययने सूचिताऽस्ति / तत्रैव पञ्चमाऽध्ययनोक्तपूर्णभद्रस्येव भावनीया। सारार्थस्तु-अणाढियगृहपतिः काकन्द्यां नगर्यां समवसृतानां स्थविराणामन्तिके प्रव्रज्यां गृहीत्वा श्रुतमधीत्य तपः कृत्वा श्रामण्यमनुपाल्य अनशनेन कालं कृत्वा सौधर्मे कल्पे अणाढियविमाने द्विसागरोपमायुष्कतया देवत्वेनोपपन्नः, ततश्चयुत्त्वा महाविदेहे सेत्स्यति। नि०। आदृता आदरक्रियाविषयीकृताः, शेषा जम्बूद्वीपगता देवा येनाऽऽत्मना, इति अद्भुतं महर्द्धिकत्वमीक्षमाणेन सोऽनादृतः। जी०३ प्रति *अनर्द्धिक-पुं०जम्बूद्वीपाधिष्ठातृदेवे, उत्त०११अ० "जम्बू-दीवाहिवई अणाढिओ'। द्वी०जी०। स्था०। ('जंबूसुदंसण' शब्देऽस्य वक्तव्यता) अणाढिया-स्त्री०(अनादृता) अनादृतादनादराद् या, सा अनादृता / नन्दिषेणस्येव अनादृतस्य वा शिथिलस्य या सातथा। स्था०१० ठा०। ''रोगनियए सदिक्खा अणाढिया रामकण्हपुव्वभवे''| पं०भा० / पं०चू०। अनादृतस्य जम्बू-द्वीपाऽधिपतेः राजधान्याम्, जी०३ प्रति०। अणाणा-स्त्री०(अनाज्ञा) आज्ञाप्यते इत्याज्ञा, हिताऽहितप्राप्तिपरिहारतया सर्वज्ञोपदेशस्तद्विपर्ययोऽनाज्ञा / तीर्थकरा-ऽनुपदिष्टे स्वमनीषिकया आचरितेऽनाचारे, आचा०। अणाणाए एगे सोवट्ठाणा, आणाणाए एगे निरुवट्ठाणा, एवं ते मा होउ, एयं कुसलस्स दंसणं। इह तीर्थङ्करगणधरादिनोपदेशगोचरीभूतो विनेयोऽभिधीयते, यदि वा सर्वभावसंभवित्वाद् भावस्य सामान्यतोऽभिधानम्, अनाज्ञाऽनुपदेशः स्वमनीषिकाचरितोऽनाचारस्तयाऽनाज्ञया तस्यां वा एकेन्द्रियवशगा दुर्गतिं जिगमिषवः स्वाऽभिमानग्रहस्ताः / सह उपस्थानेन धर्मचरणाभासोद्यमेन वर्तत इति सोपस्थानाः, किल वयमपि प्रव्रजिताः सदसद्धर्मविशेषविवेक-विकलाः सावद्याऽऽरम्भतया वर्तन्ते। एके तुन कुमार्गवासिता-ऽन्तःकरणाः, किन्तु आलस्याऽवर्णस्तम्भाधुपबृंहितबुद्धय आज्ञायांतीर्थकरोपदेशप्रणीते सदाचारे निर्गतमुपस्थानमुद्यमो येषां ते निरुपस्थानाः, सर्वज्ञप्रणीतसदाचारानुष्ठानविकलाः / एतत् कुमार्गाऽनुष्ठानं सन्मार्गाऽवसीदनं च द्वयमपि ते तव गुरु-विनेयोपगतस्य दुर्गतिहेतुत्वात् मा भूदिति सुधर्मस्वामी स्व-मनीषिकापरिहारार्थमाह(एवमित्यादि)। एतद्यत्पूर्वोक्तं यदि वा अनाज्ञायां निरुपस्थानत्वमाज्ञायां च सोपस्थानत्वमित्येतत्कुशल-स्य तीर्थकृतो दर्शनमभिप्रायः, यदि वैतद् वक्ष्यमाणं कुशलस्य दर्शनम् / आचा०१ श्रु०५ अ० 6 उ०। अणाणत्त-न०(अनानात्व) भेदवर्जिते, स्था०१ ठा० अणाणय- (अनाज्ञक) तीर्थकरोपदेशशून्ये स्वैरिणि, आचा० १श्रु०२ अ०६ उ० अणाणुगामिय-त्रि०(अनानुगामिक) न अनुगच्छति इति कालाऽन्तरमुपकारित्वेनाऽननुयातरि, स्था०५ ठा०१ उ०। अशुभाऽनुबन्धे, स्था०६ ठा० न आनुगामिकमनानुगामिकम् / शृङ्खलाप्रतिबद्धप्रदीपसदृशे गच्छन्तमननुगच्छति अवधिज्ञान-विशेषे, नंगातच - से किं तं अणाणुगामियं ओहिनाणं ? अणाणुगामियं ओहिनाणं, से जहानामए केइ पुरिसे एग महंतं जोइट्ठाणं काउं, तस्सेव जोइट्ठाणस्स परिपेरंतेहिं परिपेरंतेहिं परिघोलेमाणे परिघोलेमाणे तमेव जोइट्ठाणं पासइ, अण्णत्थगए नो पासइ, एवामेव अणाणुगामियं ओहिनाणं जत्थेव सुप्पज्जइ, तत्थेव संखिज्जाणि वा असंखिज्जाणि वा संबद्धाणि वा असंबद्धाणि वा जोयणाईजाणइपासइ अणत्थगए न पासइ। सेतं अणाणुगामियं ओहिनाणं। अथ किं तत् अनानुगामिकमवधिज्ञानम् ? सूरिराह- अनानुगामिकमवधिज्ञानं स विवक्षितः, यथा नाम- कश्चित् पुरुषः पूर्णः सुखदुःखानामिति / पुरुषः पुरि शयनाद्वा पुरुषः / एकं महज्ज्योतिःस्थानमग्निस्थानं कुर्यात् कस्मिंश्चित् स्थाने, अनेकज्वालाशतसंकुलमग्निप्रदीपं वा स्थूलवर्तिज्वाला-ऽनुरूपमुत्पादयेदित्यर्थः / ततस्तत्कृत्वा तस्यैव ज्योतिः- स्थापनस्य परि पर्यन्तेषु पर्यन्तेषु परितः सर्वासु दिक्षु पर्यन्तेषु परिपूर्णान् परिभ्रमन् इत्यर्थः / तदेव ज्योतिःस्थानं ज्योतिः-स्थानप्रकाशितक्षेत्रं पश्यति, अन्यत्र गतो न पश्यति / एष दृष्टान्तः / उपनयमाह- एवमेव अनेनैव प्रकारेणाऽनानुगामिकमवधिज्ञानंयत्रैव क्षेत्रव्यवस्थितस्यसतः समुत्पद्यते, तत्रैव व्यवस्थितः सन् सङ्ख्येयानि असङ्ख्येयानि वा योजनानि स्वावगाढक्षेत्रेण सह संबद्धानि असंबद्धानि वा अवधिऋद्धिकोऽपि जायमानः स्वावगाढदेशादारभ्य निरन्तरं प्रकाशयति, कोऽपि पुनरपान्तराले अन्तरं कृत्वा परतः प्रकाशयति, तत उच्यते- सम्बद्धानि Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणाणुगामिय 309 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणाभोगकिरिया असंबद्धानि वेति जानाति विशेषाकारेण परिच्छिनत्ति, पश्यति सामान्याकारणावबुध्यते, अन्यत्र देशान्तरगतो नैव पश्यति, अवधिज्ञानावरणक्षयोपशमस्य तत्क्षेत्रसापेक्षत्वात् / तदेवमुक्तमनानुगामिकम् / नं०। कर्म अणाणु गिद्ध-त्रि०(अनानुगृद्ध) अनाशक्ते, से एसणं जाणमणेसणं च,अन्नस्स पाणस्स अणाणुगिद्धे। सूत्र०१श्रु०१३ अ०। अणाणुतावि(ण)-पुं०(अनानुतापिन्) अपवादपदेन कायानामुपद्रवेऽपि कृते पश्चादनुतापरहिते, व्य०२ उ०। हा ! दुष्ठु कृतमित्यादि पश्चात्तापमकुर्वति निःशङ्के, निर्दयेच प्रवर्तमाने,बृ०३ उ०। अणाणुतावित्ति दारम् - बितियपदे जो तु परं, तावेत्ता णाणुतप्पते पच्छा। सो होति अणणुतावी,किं पुण दप्पेण सेवित्ता? ||472 // बितियं अववातपदं, तेण अववातपदेण जो साहू परा पुढविकाया तेजोसंघट्टणपरितावणउद्दवणेण वा तावणं करेत्ता, पच्छा णाणुतप्पति, जहा-हा ! दुटु कय, सो होति अणणुतावी-अपच्छत्तावीत्यर्थः / कारणबितियपदेण जयणाए पडिसेविऊण अपच्छत्तावियाणो अणणुतावी पडिसेवा भवति, किं पुण जो दप्पेण पडिसेवित्ता नानुतप्यते इत्यर्थः। अणाणुतावि त्ति गतम् / नि०चू०१ उ० अणाणु पुवी-स्त्री०(अनानुपूर्वी) न आनुपूर्वी अनानुपूर्वी, आनुपूर्वीपश्चानुपूर्वीरूपप्रकारद्वयाऽतिरिक्तस्वरूपायामपरि- पाटी, अनु०। (अनानुपूर्व्या आनुपूर्व्या सह सम्मिलितो विषयः 'आणुपुव्वी, शब्दे द्वितीयभागे 131 पृष्ठे वक्ष्यते, लोकाऽलोकादीनां पूर्वपश्चाद्भावोऽनानुपूर्वीत्यादि च 'रोहा' शब्दे वक्ष्यते) अणाणुबंधि(ण)- न०(अननुबन्धिन) नाऽनुबन्धोऽननुबन्धः / सोऽस्त्यस्मिन्निति / न विद्यतेऽनुबन्धः सातत्यं प्रस्फोटकादीनां यत्र तदनुबन्धि, इन् समासान्तोऽत्र दृश्यः। नाऽनुबन्धि अननुबन्धि स्था० ६ठा०। अप्रमादप्रत्युपेक्षणविधिभेदे, प्रत्युपेक्षणंचन निरन्तरमाखोटादि, किं तर्हि ? साऽन्तरं सविच्छेदमिति तत्त्वम् / धर्म०३ अधि०। औ०। नि०चून। उत्त० अणाणुवत्ति(ण)-त्रि०(अननुवर्तिन) प्रकृत्यैव निष्ठुरे, बृ०१ उ०। अणाणुवाइ(ण)-पुं०(अननुवादिन) वादिनोक्त साधनभनुवदितुं शीलमस्येत्यनुवादी, तत्प्रतिषेधादननुवादी। व्याकुलमनस्त्वेनानुवादमपि कर्तुमशक्ते, “से मुम्मुई होइ अणाणुवाई' / सूत्र० 1 श्रु०१२ अ०। अणाणुवीइत्तु-अव्य०(अननुविचिन्त्य) पश्चादविचार्येत्यर्थे, सूत्र०१ श्रु०१२ अ० अणातावय-त्रि०(अनातापक) संस्तारकपात्रादीनामातपेऽदातरि, (साधौ)। कल्प। अणातीय- पुं०(अनातीत) आ समन्तादतीव इतोगतोऽनाद्यनन्त-संसारे आतीतः,न आतीतोऽनातीतः। संसारार्णवपारगामिनि, आचा० 1 श्रु० 8 अ०६ उ० अणादि-त्रि०(अनादि) प्रवाहापेक्षयाऽऽदिरहिते, उत्त० 4 अ०। | आ०म०द्वि० भ०। अणादिय- पुं०(अनादृत) जम्बूद्वीपाधिपतौ व्यन्तरसुरे, उत्त० 10 अ० | *अनादिक-पुं० नास्यादिः प्रथमोत्पत्तिर्विद्यते इत्यनादिकः / चतुर्दशरज्चात्मके धर्माऽधर्माऽऽदिके वा द्रव्ये, सूत्र०२श्रु०५ अ०। दोषविशेषे, बृ०३ उ०(व्युत्पत्तिस्तु 'अणाढिय' शब्दे निरूपिता) प्रवाहाऽपेक्षयाऽऽदिरहिते, त्रि० न०ब०। प्रश्न० 1 आश्र० द्वा० *अणादिक- त्रि०ा अणं पापकर्म, आदिकारणं यस्य सोऽणादिकः / पापकार्ये, प्रश्न०१ आश्र०द्वा०। *अणातीत-त्रि०। अधमणेन देयद्रव्यमतिक्रान्ते, "पंचविहो पन्नतो जिणेहि इह अण्हवो अणादियो"। प्रश्न०१ आश्र० द्वा०) अणापुच्छियचारि(ण)-पुं०(अनापृच्छ्यचारिन्) गणमनापृच्छ्य चरति क्षेत्रान्तरसंक्रमादि करोतीत्येवंशीलोऽनापृच्छ्यचारी। नो आपृच्छय चारिणि, पञ्चमं विग्रहस्थान प्राप्ते, स्था०१ ठा० 1 उ०। अणाबाह-पुं०(अनावाध) अवकाशे,बृ०३ उ०। बाधावर्जिते, दश०६ अ०। न विद्यते आबाधा जन्मजरामरणक्षुत्पिपासादिका यत्र तदनाबाधम् / स्वाभाविकबाधापगमतो मोक्षसुखे, स्था० 10 ठा०। स्वाध्यायाद्यन्तरायकारणरहिते, उत्त०३५ अ० "होइ अणावाहणिमित्तमचेयणमणाउलो निहओ' अनाबाधानिमित्तमनाबाधा-कार्यम्, निमित्तशब्दः कार्यवाचकः। तथा लोके वक्तारो भवन्ति- अनेन निमित्तेन, अनेन कारणेन मयेदं कार्यमारब्धमनेन कार्येणे-त्यर्थः / आ०म०वि०। अणाबाहसुहाभिकं खि(ण)-पुं०(अनाबाधसुखाऽभिकासिन् ) मोक्षसुखाऽभिलाषिणि, दश० 1 अ०॥ अणामिग्गह-न०(अनभिग्रह) न विद्यते अभिग्रह इदमेव दर्शनं शोभनं नाऽन्यदित्येवंरूपो यत्र तदनभिग्रहम्। मिथ्यात्वभेदे, यद्वशात् सर्वाण्यपि दर्शनानि शोभनानीत्येवमीषत्साधर्म्यमवलम्बते। पं०सं०१ द्वा०। अणामोग-पुं०(अनाभोग) आभोगनमाभोगः, न आभोगोऽना भोगः / पं०व०२ द्वा०। अत्यन्तविस्मृतौ, आतु०पंचा०। जीता नि०चू०। व्य०। एकान्तविस्मृतौ आ०चू०६अ। अज्ञाने, नि०चू० 2 अाआभोगनमाभोगः,उपयोगविशेष इत्यर्थः / अनुपयोगे, आव०४ अ० असावधानतायाम्,ध०२ अधि०। न विद्यते आभोगः, परिभावनं यत्र तदनाभोगम् / तचै के न्द्रियादीनामिति / पं० सं०३ द्वा०॥ विचारशून्यस्यैकेन्द्रियादेर्वा विशेषज्ञानविकलस्य भवति / इदं सर्वाशविषयाऽव्यक्तबोधस्वरूपं विवक्षितं, किश्चिदंशाऽव्यक्तबोधस्वरूपं चेत्यनेकविधम्।ध०२ अधि०ा दर्श० कर्म०। अणाभोगझाण-न०(अनाभोगध्यान) अनाभोगोऽत्यन्तविस्मृतिः तस्य ध्यानम्। विस्मृतव्रतप्रसन्नचन्द्रस्येव ध्याने, आतु०। ('पसण्णचंद' शब्दे चैतत् कथानकम्) अणाभोगकय-न०(अनाभोगकृत)अनाभोगेन कृतं जनितम् / अज्ञानकृते, कर्म०५कर्मा अणाभोगकिरिया-स्त्री०(अनाभोगक्रिया) अनाभोगप्रत्यये क्रियाभेदे, अनाभोगक्रिया द्विविधा- आदाननिक्षेपणाऽना-भोगक्रिया, उत्क्रमणाऽनाभोगक्रिया च। तत्राऽऽदानं रजोहरणपात्रचीवरादिकानामप्रत्युपेक्षिता, अप्रमार्जितानामनाभोगेना-ऽऽदाननिक्षेपः / उत्क्रमणाऽनाभोगक्रियालङ्घनप्लवनधावना ऽसमीक्षागमनाऽऽगमनादि / आ०चू०४ अ०॥ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणाभोगणिव्यत्तिय 310. अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणाययण अणाभोगणिव्वत्तिय-पुं०(अनाभोगनिर्वर्तित) अज्ञान- निर्वर्तिते, स्था। अणाभोगपडि सेवणा-स्त्री०(अनाभोगप्रतिसेवना)अनाभोगो विस्मृतिस्तत्र प्रतिसेवना / प्रतिसेवनाभेदे, स्था०१०ठा०। (अनाभोगप्रतिसेवनायाः स्वरूपं पडिसेवणा' शब्दे दर्शयिष्यते) अणाभोगभव- पुं०(अनाभोगभव) विस्मरणसद्भावे, "इय चरणम्मि ठियाणं, होइ अणाभोगभावओ खलणो''। पंचा०१७ विव०। अणामोगया-स्त्री०(अनाभोगता) आभोगरहिततायाम, कर्म० 5 कर्म अणाभोगव-त्रि०(अनाभोगवत्) अनाभोगोऽपरिज्ञानमात्रमेव केवलं ग्रन्थार्थादिषु सूक्ष्मबुद्धिगम्येषु, स विद्यते यस्य, स तथा / श्रुताऽर्थाऽपरिज्ञातरि, "यो निरनुबन्धदोषात् श्राद्धोऽनाभोगवान् वृजिनभीरुः"। षो०१२ विव० संमूर्च्छनजप्राये अज्ञानिनि, द्वा० 10 द्वा०। अणाभोगवत्तिया-स्त्री०(अनाभोगप्रत्यया) अनाभोगोऽज्ञानादि। अज्ञानं प्रत्ययो निमित्तं यस्याः सा तथा / स्था०२ ठा०१ उ०। पात्राद्याददतो निक्षिपतो वा सम्भवति क्रियाभेदे, स्था० 5 ठा० 2 उ०। "अणाभोगवत्तिया किरिया दुविहा पण्णत्ता / तं जहाअणाउत्तआयणया चेव, अणाउत्तपमजणया चेव"। स्था० 5 ठा० 2 उ०ा आ०५०। आव० अणामंतिय- अव्य०(अनामन्त्र्य) अनापृच्छयेत्यर्थे, आचा०२ श्रु०१ अ०६ उ० अणामियावाही-पुं०(अनामिकव्याधि) नामरहिते व्याधौ, अनामिको नामरहितो व्याधिरसाध्यरोगः / तं० अणायंबिल-त्रि०(अनाचामाम्ल) आचामाम्लविरहिते, आव० ६अ। अणायग-पुं०(अनायक) न विद्यतेऽन्यो नायकोऽस्येत्यनायकः / स्वयंप्रभे चक्रवादौ, सूत्र०१ श्रु०२अ०२ उ०। अज्ञातक-त्रि०ा अस्वजने, नि००८ उ01 अप्रज्ञापने, नि०चू० 11 उ० अणाययण- न०(अनायतन) न आयतनमनायतनम् / अस्थाने, वेश्यासामन्तादिरूपे / दश०१ अ०। साधूनामनाश्रये, प्रश्न०४ संव० द्वा०। नाट्यशालायाम्, अश्वपतितजन्तुगुणशालायाम्, पं०चू०॥ पार्श्वस्थाद्यायतने, आव०३ अ०! पशुपण्डकसंसक्ते वा स्थाने। ओ०| इदानीमनायतनस्यैव पर्यायशब्दान् प्रतिपादयन्नाहसावज्जमणाययणं, असोहिठाणं कुसीलसंसग्गिं / एगट्ठा होंति पया, एए विवरीय आययणा / / 1086|| सावद्यमनायतनमशोधिस्थानं कुशीलसंसर्गि एतान्येकाऽर्थिकानि पदानि भवन्ति / एतान्येव च विपरीतानि आयतनं भवन्ति / कथम् ? असावद्यमायतनं शोधिस्थानं सुशीलसंसर्गीति / अत्र चाऽनायतनं वर्जयित्वा आयतनं गवेषणीयम् / एतदेवाऽऽह - वञ्जित्तु अणाययणं, आययणगवेसणं सदा कुन्जा। तं तु पुण अणाययणं, नायव्वं दव्वभावेण // 1087 // वर्जयित्वा अनायतनमायतनस्य गवेषणं सदा सर्वकालं कुर्यात्। तत् पुनरनायतनं द्रव्यतो भावतश्च विज्ञेयम्। तत्र द्रव्याऽनायतनं प्रतिपादयन्नाहदव्वे रुद्दाइघरा, अणाययणं भावओ दुविहमेव। लोइय लोउत्तरियं, तत्थ पुण लोइयं इणमो / / 1058|| द्रव्ये द्रव्यविषयमनायतनं रुद्राऽऽदिगृहम् / इदानीं भावतोइनायतनमुच्यते / तत्र भावतो द्विविधमेव- लौकिक, लोकोत्तरं च / तत्रापि लौकिकमनायतनमिदं वर्तते - खरिया तिरिक्खजोणी, तालायर समण माहण मुसाणे / वागुरिय वाह गुम्मियहरिएसपुलिंदमच्छिबंधा य // 1086| खरिकेतिद्ध्यक्षरिका यत्राऽऽस्ते तदनायतनम्, तथा तिर्यग्- योनयश्च यत्र, तदप्यनायतनम् / तालाचराश्चारणास्ते यत्र, तद् अनायतनम, श्रमणाः शाक्यादयस्ते यत्र,तथा ब्राह्मणा यत्र, तदनायतनम् / श्मशानं चाऽनायतनम्, तथा वागुरिका व्याधा गुल्मिका व्युत्पत्तिबालाः हरिएसा पुलिन्दा मत्स्यबन्धाश्च यत्र, तदनायतनमिति। एतेष्वनायतनेषु क्षणमपि नगन्तव्यम्, तथाचाऽऽहखणमवि न खमं गंतुं, अणाययणसेवणा सुविहियाणं / जं गंधं होइ वणं, तं गंधं मारुओ वाइ॥१०६०।। क्षणमपि न क्षम, न योग्यमनायतनं गन्तुं, तथा सेवना च अनायतनस्य सुविहितानां कर्तुं न क्षमा, न युक्ता / यतोऽयं दोषो भवति-"जं गंधं होइ वणं तं गंधं मारुओ वाई"। सुगमम्। जे अन्न एवमाई, लोगम्मि दुगंछिया गरहिया य। समणाण व समणीण व, न कप्पई तारिसो वासो।।१०६१।। येऽन्ये एवमादयः लोके जुगुप्सिता गर्हिताश्च व्यक्षरिकाधनायतनविशेषाः, तत्र श्रमणानां श्रमणीनां वा न कल्पते तादृशो वास इति / उक्तं लौकिकं भावाऽनायतनम्, इदानीं लोकोत्तरं भावाऽनायतनं प्रतिपादयन्नाहअह लोगुत्तरियं पुण, अणाययण भावओ मुणेयव्वं / जे संजमलोगाणं, करिति हाणिं समत्था वि॥१०६२|| अथ लोकोत्तरं पुनरनायतनं भावत इदं ज्ञातव्यम् / ये प्रव्रजिताः संयमयोगानां कुर्वन्ति हानि समर्था अपि सन्तः, तल्लोको - त्तरमनायतनम्। तैश्च एवंविधः संसर्गोन कर्तव्यः। (कुशीलसंसर्गे दोषाः 'किइकम्म' शब्दे तृतीयभागे वक्ष्यन्ते) नाणस्स दंसणस्स य, चरणस्स य जत्थ होइ उवघाओ। वजिज्जऽवजभीरू,अणाययणवज्जओ खिप्पं // 1100 / / ज्ञानस्य दर्शनस्य चारित्रस्य च यत्राऽऽयतने भवति उपघातः, तं वर्जयेदवद्यभीरुः साधुः / किं विशिष्टः?, अनायतनं वर्जयतीति अनायतनवर्जकः। स एवं विधः क्षिप्रं अनायतनमुपघातरूपं वर्जयेदिति / इदानीं विशेषतोऽनायतनप्रदर्शनायाऽऽहजत्थ साहम्मिया बहवे, भिन्नचित्ता अणारिया। मूलगुणप्पडिसेवी, अणाययणं तं वियाणाहि।।११०१।। सुगमा, नवरं, मूलगुणाः प्राणातिपातादयस्तान् प्रतिसेवन्त इति मूलगुणप्रतिसेविनस्ते यत्र निवसन्ति, तदनायतनमिति। जत्थ साहम्मिया बहवे, भिन्नचित्ता अणारिया। उत्तरगुणपडिसेवी, अणाययणं तं वियाणाहि॥११०२|| Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणाययण 311 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणायार सुगमा, नवरं, उत्तरगुणाः "पिंडस्स जा विसोही' इत्यादि, | तत्प्रतिसेविनोये। जत्थ साधम्मिया बहवे, भिन्नचित्ता अणारिया। लिंगवेसपडिच्छन्ना, अणाययणं तं वियाणाहि॥११०३।। सुगमा, नवरं, लिङ्गवेषमात्रेण प्रतिच्छन्ना बाह्यतः, आभ्यन्तरतः पुनर्मूलगुणसेविन उत्तरगुणसेविनश्च, ते यत्र तदनायतनमिति / उक्तं लोकोत्तरं भावानायतनं तत्प्रतिपादनायोक्तमनायतन- स्वरूपम्। ओ०। अणाययणे चरंतस्स, संसग्गीए अभिक्खणं। होज्ज वयाणं पीला, सामन्नम्मिय संसओ॥१०॥ अनायतने अस्थाने वेश्यासामन्तादौ, चरतो गच्छतः, संसर्गण सम्बन्धेन, अभीक्ष्णं पुनः पुनः / किमित्याह - भवेद् व्रतानां प्राणातिपातविरत्यादीनां पीडा, तदा क्षिप्तचेतसो भावविराधना, श्रामण्ये च श्रमणभावे चद्रव्यतो रजोहरणादिधारणरूपे भूयो भावव्रतप्रधानहेतौ संशयः, कदाचिदुन्निष्क्रामत्येव इत्यर्थः / तथा च वृद्धव्याख्या"वेसादिगयभावस्स, मेहुणं पीडिजइ, अणुवओगेणं एसणाकरणे हिंसा, पडुप्पायणे अन्नपुच्छणअवलवणाऽसच्चवयणं, अणणुण्णायवेसाइदंसणे अदत्तादाणं, ममत्तकरणे परिग्गहो, एवं सव्ववयपीडा / दव्वसामन्ने पुण संसओ उण्णिक्खमणेण त्ति'। सूत्रार्थः / दश०५ अ०१ उ०। अणाययणपरिहार-पुं०(अनायतनपरिहार) आयतनं पार्श्व स्थादिकुतीर्थिवेश्याविट्खड्गादिकुस्थानवर्जने, दर्शका अणाययणसेवण-न०(अनायतनसेवन) पावस्थाद्यायतन-भजने, आ०३अ०। अणायर-पुं०(अनादर) तिरस्कारे, को०। अनुत्साहाऽऽत्मिके सामायिकव्रततिचारभेदे, स च प्रतिनियतवेलायां सामायिकस्याऽकरणं, यथाकथंचिद्वा करणाऽनन्तरमेव पारणं च / यदाहुः"काऊण तक्खणं चिय, पारेइ करेइ वा जहिच्छाए / अणवहिअसामाइअअणायराओ न तंसुद्ध" // 1 // धर्म०५ अधि०। प्रव०॥ अणायरंत-त्रि०(अनाचरत्) विवर्जयति, "पावमणायरंते" पापमागमनिषिद्धं कर्म, अनाचरन् विवर्जयन्। पंचा०११ विव०। अणायरणजोग्ग-त्रि०(अनाचरणयोग्य) आसेवनाऽनर्हे, "सिक्खावेउ अणायरणजोग्गो''। पञ्चा०१० विवा अणायरणया-स्त्री०(अनाचरणता) गौणमोहनीयकर्मणि, सम्मका अणायरिय-पुं०(अनार्य) आराद् याताः सर्वहयधर्मेभ्य इत्यार्याः, तद्विपर्ययादनार्याः / क्रूरकर्मसु, आचा० 1 श्रु० 4 अ० 2 उ०। शकयवनादिदेशोद्भवेषु, सूत्र०२ श्रु०१ अ०॥ अणायस-त्रि०(अनायस) अलोहमये, नि०चू० 130 / / अणाया-पुं०(अनात्मन्) न आत्मा अनात्मा / घटादिपदार्थे, 'एगे अणाया' प्रदेशाऽर्थतयाऽसंख्येयाऽनन्तप्रदेशोऽपि तथाविधैकपरिणामरूपद्रव्यापेक्षया एक एव, सन्तानापेक्षयाऽपि, तुल्यरूपापेक्षया तु अनुपयोगलक्षणैकस्वभावयुक्तत्वात् कथञ्चि-भिन्नस्वरूपाणामपि धर्माऽस्तिकायादीनामनात्मनामेकत्व-मवसेयमिति / स०१ सम०। परस्मिश्च "अणायाए अवक्कमई"। भ०१श०४ उ० अणायाण- न०(अनादान) अकारणे, "अणायाणमेयं अभिग्गहियसिञ्जासणियस्स"।कल्पा अणायार-पुं०(अनाचार) आचरणमाचारः, आधाकर्मादिपरिहरणपरिष्ठापनरूपोऽनाचारोऽनाचारः। आधाकर्मादिग्रहणे, आतु साध्वाचारस्य परिभोगतो ध्वंसे, व्य०१ उ०। आव०। धo (अनाचारव्याख्याऽऽधाकर्माऽऽश्रित्य 'अइक्कम' शब्दे अत्रैव भागे 2 पृष्ठे कृता) आचरणीयः श्रावकाणामाचारः, न आचारो-5नाचारः / अनाचरणीये "अणायारे अणिच्छियदे"। ध०२ अधिक। शास्त्रविहितस्य व्यवहारस्याऽभावे, ग०२ अधि०। अथ साधूनां यद्यदनाचरितं तत् तत् समासेन व्यासेन च प्रदर्शयामः। तत्र दशवैकालिके द्वितीयाध्ययनेसंजमे सुट्टिअप्पाणं, विप्पमुक्काण ताइणं। तेसिमेयमणाइण्णं, निग्गंथाण महेसिणं // 1 // इह संहिताऽऽदिक्रमः क्षुण्णः / भावार्थस्त्वयम्- संयमे द्रुमपुष्पिकाव्यावर्णितस्वरूपे शोभनेन प्रकारेणाऽऽगमनीत्या स्थित आत्मा येषां ते सुस्थितात्मानः, तेषाम्।तएव विशेष्यन्ते -विविधमनेकैः प्रकारैः प्रकर्षण भावसारेण मुक्ताः परित्यक्ता बाह्याऽभ्यन्तरेण ग्रन्थेनेति विप्रमुक्ताः, तेषाम् / त एव विशेष्यन्ते-त्रायन्ते आत्मानं परमुभयं चेति त्रातारः, आत्मानं प्रत्येकबुद्धाः, परं तीर्थकराः, स्वतस्तीर्णत्वादुभयं स्थविरा इति / तेषा मिदं वक्ष्यमाण-लक्षणमनाचरितमकल्पम् / केषामित्याह-निर्ग्रन्थानांसाधूनाम-भिधानमेतत्। महान्तश्च ते ऋषयश्च महर्षयो यतय इत्यर्थः / अथवा महान्तमेषितुं शीलं येषां ते महेषिणस्तेषाम् / इह च पूर्वपूर्वभाव एवोत्तरोत्तरभावो नियतो हेतुहेतुमद्भावेन वेदितव्यः। यत एव संयमे सुस्थितात्मानः,अत एव विप्रमुक्ताः / संयमसुस्थिता-ऽऽत्मनिबन्धनत्वाद्विप्रमुक्ते। एवं शेषेष्वपि भावनीयम् / अन्ये तु पश्चानुपूर्व्या हेतुहेतुमद्भावमित्थं वर्णयन्ति- यत एव महर्षयः अत एव निर्ग्रन्थाः। एवं शेषेष्वपि द्रष्टव्यमिति सूत्रार्थः। साम्प्रतं यदनाचरितं तदाहउद्देसियं कीयगडं, नियागमभिहडाणि य। राइभत्ते सिणाणे य, गंधमल्ले य वीयणे / / 2 / / (उदेसियं ति) उद्देशनं साध्वाद्याश्रित्य दानारम्भस्येत्युद्देशः, तत्र भवमौद्देशिकम् 1, क्रयणं क्रीतं, भावे निष्ठाप्रत्ययः / साध्वादिनिमित्तमिति गम्यते / तेन कृतं निर्वर्तितं क्रीतकृतम् 2, नियागमित्यामन्त्रितस्य पिण्डस्य ग्रहणं नित्यं, तत् तु अनामन्त्रितस्य 3, (अभिहडाणि य त्ति) स्वग्रामादेः साधु निमित्तमभिमुखमानीतमभ्याहृतम्, बहुवचनं स्वग्राम परग्रामनिशीथादिभेदख्यापनार्थम् 4, तथा रात्रिभक्तरात्रि- भोजनं दिवसगृहीतदिवसभुक्तादिचतुर्भङ्गलक्षणम् 5, स्नानं च देशसर्वभेदभिन्नं देशस्नानमधिष्ठानशौचातिरेकेणाऽक्षिपक्ष्मप्रक्षालनमपि / सर्वस्नानं तु प्रतीतम् 6, तथा गन्धं माल्यं च, गन्धग्रहणात् कोष्ठपुटादि परिग्रहः, माल्यग्रहणाच ग्रथितवेष्टितादेर्माल्यस्य 7, वीजनं व्यजनं तालवृन्तादिना घर्म एव, इदमनाचरितम् 8 / दोषाश्वौद्देशिकादिष्वारम्भप्रवर्तनादयः स्वधियाऽवगन्तव्या इति सूत्रार्थः // 2 // संनिही गिहिमत्ते य, रायपिंडे किमिच्छए। संवाहणं दंतपहावणं य, संपुच्छणे देहपलोयणा य॥३॥ Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणायार 312 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणायार जानबुडा इदं चाऽनाचरितमित्याह- (संनिहि त्ति) संनिधीयतेऽनेना- ऽऽत्मा दुर्गताविति संनिधिः। घृतगुडादीनां संचयक्रिया 6, गृह्यमत्रं गृहस्थभाजनं च 10, तथा राजपिण्डो नृपाहारः 11, किमिच्छतीत्येवं यो दीयते, स किमिच्छकः / राजपिण्डो- ऽन्यो वा सामान्येन 12, तथा संबाधनमस्थिमांसत्वग्रोम-सुखतया चतुर्विधमर्दनम् 13, दन्तप्रधावनं चाऽङ्गुल्यादिना क्षालनम् 14, तथा संप्रश्नः सावधो गृहस्थविषयः, राढाऽर्थं कीदृशो वाऽहमित्यादिरूपः 15, देहप्रलोकनं चादर्शादौ 16, अनाचरितम् / दोषाश्च सन्निधिप्रभृतिषु परिग्रहप्राणातिपाताऽऽदयः स्वधियैव वाच्या इति सूत्रार्थः / / 3 / / अट्ठावए य नालीए, छत्तस्स य धारण द्वाए। तेगिच्छं पाहणा पाए, समारंभं च जोइणो // 4 // अष्टापदं द्यूतम्, अर्थपदं वा, गृहस्थमधिकृत्य निमित्तादिविषयम् 17, अनाचरितम् / तथा नालिका चेति द्यूतविशेषलक्षणा, यत्र माऽभूत् कलयाऽन्यथापाशकपातनमिति नालिकया पात्यन्त इति / इयं चानाचरिता अष्टापदेन सामान्यतो द्यूतग्रहणे सत्यभिनिवेशनिबन्धनत्वेन नालिकायाः प्राधान्यख्यापनार्थ भेदत उपादानम्, अर्थपदमेवोक्ताऽर्थ तदित्यन्ये अभिदधते / अस्मिन् पक्षे सकलद्यूतोपलक्षणाऽर्थं नालिकाग्रहणमष्टापदद्यूतविशेषपक्षे चोभयोरिति 18, तथा छत्रस्य च लोक प्रसिद्धस्य धारणमात्मानं परं प्रति वाऽनयेत्यागाढग्लानाद्यालम्बनं मुक्त्वाऽनाचरितम् / प्राकृतशैल्या चाऽत्राऽनुस्वारलोपोऽकारनकारलोपौ च द्रष्टव्यौ, तथा श्रुतिप्रामाण्यादिति 16, तथा (तेगिच्छंति) चिकित्साया भावश्चकित्स्य व्याधिप्रतिक्रियारूपम् 20, तथोपानही पादयोरना-चरिते।पादयोरिति साभिप्रायकम् / न त्वापत्कल्पपरिहाराऽर्थमुप-ग्रहधारणेन 21, तथा समारम्भश्च समारम्भणं च ज्योतिषो- ऽग्नेः 22, तदनाचरितम् / दोषा अष्टापदादीनां क्षुण्णा एवेति सूत्रार्थः / / 4 / / सिञ्जायर पिंडंच, आसंदी पलिअंकए। गिहतरनिसिज्जाय, गायस्सुव्वट्टणाणि य॥५॥ किञ्च- शय्यातरपिण्डोऽप्यनाचरितः / शय्या वसतिस्तया तरति संसारमिति शय्यातरः साधुवसतिदाता, तत्पिण्डः 23. तथा आसंदकपर्यौ अनाचरितौ / एतौ च लोकप्रसिद्धावेव 24, तथा गृहाऽन्तरनिषद्याऽनाचरिता / गृहमेव गृहान्तरं गृहयोर्वा अपान्तरालं, तत्रोपवेशनं, चशब्दात्पाटकादिपरिग्रहः 25, तथा गात्रस्य कायस्योद्वर्तनानि चाऽनाचरितानि / उद्वर्तनानि पङ्काऽपनयनलक्षणानि / चशब्दादन्यसंस्कारपरिग्रहः 26 / इति सूत्राऽर्थः / / 5 / / गिहिणो वेआवडिअं,जाय आजीववत्तिया। तत्तानिवुडभोइत्तं, आउरस्सरणाणिय॥६॥ तथा (गिहिणो त्ति) गृहिणो गृहस्थस्य वैयावृत्त्यं व्यावृत्तस्य भावो वैयावृत्त्यं, गृहस्थं प्रत्यन्नादिसंपादनमित्यर्थः 27, एतदनाचरित-मिति। तथा चाऽऽजीववृत्तिता जातिकुलगणकर्मशिल्पा-नामाजीवनमाजीवन्, तेन वृत्तिः, तद्भाव आजीववृत्तिता। जात्या-द्याजीवनेनात्मपालनेत्यर्थः 28, इयं चाऽनाचारता / तथा तप्तानिवृतभोजित्वंतप्तं च तदनिर्वृतं च अत्रिदण्डोद्धृतं चेति विग्रहः / उदकमिति विशेषणमन्यथाऽनुपपत्त्या गम्यते / तद्भोजित्व मिश्रसचित्तोदक-भोजित्वमित्यर्थः 26, इदं चाऽनाचरितम् / तथाऽऽतुरस्मरणानि च क्षुधाद्यातुराणां पूर्वो पभुक्तस्मरणानि च अनाचरितानि / आतुरशरणानि वा दोषाऽऽतुराश्रयदानानि 30 / इति सूत्रार्थः / / 6 / / मूलए सिंगबेरे य, उच्छुखंडे अनिव्वुडे / कंदे मूले य सचित्ते, फले बीए य आमए // 7 // किञ्च (मूलए त्ति) मूलको लोकप्रतीतः 31, शृङ्गबेरं चा-5ऽर्द्रकम् 32, तथेक्षुखण्डं च लोकप्रतीतम् 33, अनिर्वृत्तग्रहणं सर्वत्राऽभिसंबध्यते। अनिवृत्तमपरिणतमनाचरितमिति, इक्षुखण्ड चाऽपरिणतं द्विपर्वाऽन्तं यद्वर्त्तते / तथा कन्दो वज्र-कन्दादिः 34, मूलं च सट्टामूलाऽऽदि सचित्तमनाचरितम् 35, तथा फलं पुष्यादि 36, बीजं च तिलादि 37, आमकं सचित्तमनाचरितमिति सूत्रार्थः // 7 // सोवचले सिंधवे लोणे, रोमालोणे य आमए। सामुद्दे पंसुखारे य, कालालोणे य आमए // 8|| किञ्च (सोवचले त्ति) सौवर्चलम् 38, सैन्धवम् 36, लवणं च साँभरलवणम् 40, रुमालवणं च (खानिलवणम्) 41, आमकमिति सचित्तमनाचरितम्। सामुद्र लवणमेव 42, पांसुक्षारश्चोषरलवणम् 43, कृष्णलवणं च 44, सैन्धवलवणं पर्वतैकदेशजम्, आमकमनाचरितमिति सूत्रार्थः ||8|| धूवणे त्ति वमणे य, बत्थीकम्म विरेयणे। अंजणे दंतवण्णे य, गायाभंग विभूसणे ||6|| किञ्च(धूवणे त्ति) धूपनमित्यात्मवस्त्रादेरनाचरितम् / प्राकृतशैल्या अनागतव्याधिनिवृत्तये धूमपानमित्यन्ये व्याचक्षते 45, वमनं मदनफलादिना 46, बस्तिकर्म पुटकेनाऽधिष्ठाने स्नेहदानम् 47, विरेचन दन्त्यादिना 48, तथाऽञ्जनं रसाञ्जनादिना 46, दन्तकाष्ठं च प्रतीतम् 50, तथा गात्राऽभ्यङ्गस्तैलादिना 51, विभूषणं गात्राणामेवेति 52 सूत्राऽर्थः / / 6 / / क्रियासूत्रमाहसव्वमेयमणाइन्नं, निग्गंथाण महेसिणं / संजमम्मि अजुत्ताणं, लहुभूयविहारिणं // 10 // (सव्वमेयं ति) सर्वमेतदौद्देशिकादि यदनन्तरमुक्तं तदनाचरितम्। केषामित्याह-निर्ग्रन्थानां महर्षीणां साधूनामित्याह। त एव विशेष्यन्तेसंयमे चशब्दात्तपसि युक्तानामभियुक्ताना, लघुभूत-विहारिणां लघुभूतो वायुः, ततश्च वायुभूतोऽप्रतिबद्धतया विहारो येषां ते लघुभूतविहारिणस्तेषाम्। निगमनक्रियापदमेतदिति सूत्राऽर्थः / / 10 / / किमित्यनाचरितं ? यतस्त एवंभूता भवन्तीत्याह - पंचासव परिणाया, तिगुत्ता छसु संजया। पंचनिग्गहणा धीरा, निग्गंथा उज्जुदंसिणो॥११॥ (पंचासव ति) पञ्चाश्रवा हिंसादयः, परिज्ञाता द्विविधया परिज्ञयाज्ञपरिज्ञथा, प्रत्याख्यानपरिज्ञया च / परि समन्ताद् ज्ञाता यैस्ते पञ्चाश्रवपरिज्ञाताः।आहिताऽग्नयादेराकृतिगणत्वात्, न निष्ठायाः पूर्वनिपात इति समासोयुक्तएवापरिज्ञात-पञ्चाश्रवाइतिवाायतएव चैवंभूताअत एव त्रिगुप्ता मनोवाकाय-गुप्तिभिः / षट्संयताः षट्सु जीवनिकायेषु पृथिव्यादिषु Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणायार 313 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणायार सामस्त्येन यताः (पंच निग्गहणा इति) निगृह्णन्तीति निग्रहणाः, कर्तरि ल्युट् / पञ्चानां निग्रहणाः,पञ्चानामितीन्द्रियाणाम् / धीराः बुद्धिमन्तः स्थिरावा। निर्ग्रन्थाः साधवः / ऋजुदर्शिन इति। ऋजुर्मोक्ष प्रति ऋजुत्वाद् संयमः, तं पश्यन्त्युपादेयतयेति ऋजुदर्शिनः संयमप्रतिबद्धा इति सूत्रार्थः // 11 // तेच ऋजुदर्शिनः कालमधिकृत्य यथाशक्त्येतत् कुर्वन्तिआयावयंति गिम्हेसु, हेमंतेसु अवाउडा। वासासु पडिसंलीणा, संजया सुसमाहिया।।१२।। (आयावयंति त्ति) आतापयन्त्यूलस्थानादिना आतापनां कुर्वन्ति, ग्रीष्मेषूष्णकालेषु, तथा हेमन्तेषु शीतकालेष्वप्रावृता इति प्रावरणरहितास्तिष्ठन्ति / तथा वर्षासु वर्षाकालेषु प्रतिसंलीना इत्येकाश्रयस्था भवन्ति / संयताः साधवः, सुसमाहिता ज्ञानादिषु यत्नपराः / ग्रीष्मादिषु बहुवचनं प्रतिवर्षकरणज्ञापनार्थमिति सूत्रार्थः // 12 // परीसहरिऊ दंता, धूअमोहा जिइंदिया। सव्वदुक्खपहीणट्ठा, पक्कमति महेसिणो ||13|| (परीसह त्ति) मार्गाच्यवननिर्जराऽर्थ परिषोढव्याः क्षत-पिपासादयः, तएव रिपवस्तत्तुल्यधर्मत्वात् परीषहरिपवःतेदान्ताः उपशमं नीता यैस्ते परीषहरिपुदान्ताः / समासः पूर्ववत्। तथा धूतमोहा विक्षिप्तमोहा इत्यर्थः, मोहोऽज्ञानम्। तथा जितेन्द्रियाः शब्दादिषु रागद्वेषरहिता इत्यर्थः / त एवंभूताः सर्वदुःखप्रक्षयार्थं शारीरमानसाशेषदुःखप्रक्षयनिमित्तं, प्रक्रामन्ति प्रवर्तन्ते। किं-भूताः ? महर्षयः साधव इति सूत्रार्थः।।१३।। इदानीमेतेषां फलमाहदुक्कराइं करित्ताणं, दुस्सहाई सहित्तु य / केइत्थ देवलोएसु, केइ सिज्झंति नीरया|१४|| (दुक्कराई ति) एवं दुष्कराणि कृत्वौद्देशिकादित्यागादीनि, तथा दुःसहानि सहित्वाऽऽतापनादीनि, केचन तत्र देवलोकेषु सौधर्मादिषु गच्छन्तीति वाक्यशेषः / तथा केचन सिद्धयन्ति, तेनैव भवेन सिद्धिं प्राप्नुवन्ति / वर्तमाननिर्देशः सूत्रस्य त्रिकालविषयत्वज्ञापनार्थः / नीरजस्का इत्यष्टविधकर्मविप्रमुक्ताः, न त्वेकेन्द्रिया इव कर्मयुक्ता एवेति सूत्रार्थः // 14 // येऽपि चैवंविधाऽनुष्ठानतो देवलोकेषु गच्छन्ति, तेऽपि ततश्च्युता। आर्यदेशेषु सुकुले जन्माऽवाप्य शीघ्रं सिद्ध्यन्त्येवेत्याह - खवित्ता पुव्वकम्माई, संजमेण तवेण य / सिद्धिमग्गमणुप्पत्ता, ताइणो परिणिव्वुडे |15|| त्ति बेमि। (खवित्त त्ति) ते देवलोकच्युताः, क्षपयित्वा पूर्वकर्माणि सावशेषाणि। केनेत्याह- संयमेनोक्तलक्षणेन, तपसा च, एवं प्रवाहेण सिद्धिमार्ग सम्यग्दर्शनादिलक्षणमनुप्राप्ताः सन्तस्त्रातारः आत्मादीनां परिनिर्वान्ति, सर्वथा सिद्धिं प्राप्नुवन्ति / अन्ये तु पठन्ति- (परिनिव्वुड त्ति) तत्राऽपि प्राकृतशैल्या छान्दसत्वाच्चाऽयमेव पाठो ज्यायानिति / ब्रवीमीति पूर्ववदिति सूत्रार्थः // 15 // दश० 3 अ०। उक्तं समासतोऽनाचरितम् / अथ विशेषतस्तदुच्यते "आसूणी मक्खिरागं च, गिद्धुपग्घायकम्मगं / उच्छोलणं च कथं च, तं विजं परिजाणिआ" ||15|| सूत्र०१ श्रु०६ अ०। (अस्या व्याख्या 'धम्म' शब्दे द्रष्टव्या) आदर्शादौ मुखदर्शनादि करोतिजे भिक्खू मत्तए अप्पाणं देहइ, देहतं वा साइजइ / / 26 / / जे भिक्खू अदाए अप्पाणं देहइ, देहतं वा साइजइ // 30 // जे भिक्खू असाए अप्पाणं देहइ, देहंतं वा साइजइ / / 31 / / जे भिक्खू मणीए अप्पाणं देहइ, देहंतं वा साइजइ॥३२॥ जे भिक्खू उड्डुयाणाए अप्पाणं देहइ,देहंतं वा साइज्ज।।३३।। जे भिक्खू तेल्ले अप्पाणं देहइ, देहतं वा साइजइ॥३४|| जे भिक्खू फाणिए अप्पाणं देहइ, देहतं वा साइजइ / / 3 / / जे भिक्खू वसाए अप्पाणं देहइ, देहतं वा साइज्जइ / / 36 / / मत्तगो दप्पणस्स भरितो, तत्थ अप्पणो मुहं पलोयति जो, एतस्स आणादिया दोसा। चउलहुंवा से पच्छित्त। एवं पडिग्गहादिसु विसेसपदाण इमा संगहणी गाहादप्पण मणि आभरणे, सत्थु दए भायणऽन्नतरए य। तेल्ल महु सप्पि फाणित-मज्ज वसा सुत्तमादीसु // 56 // दपर्णमादर्शः, स्फटिकादि मणिः, स्थानकादि आभरणं, खड्गादि शस्त्र, दकं पानीयम्, तच अन्यतरे कुण्डादिभाजने स्थितं, तिलादिजं तैलं, मधु प्रसिद्धं, सर्पिघृत, फाणितं छिडगुडो, मज्ज मच्छादीणं / वसा, सुत्तं, मजे कजति / इक्खुरसे वा गुडिया सुत्तं / सव्वे सुत्तेसु जहासंभवं अप्पणो अचक्खुविसयत्था णयणादिया देहावयवा पलोएइ। कोऽर्थः ? तत्थ स्वरूपं पश्यति / चोदक आह- किं तत् पश्यति ? आचार्य आहआत्मच्छायां पश्यति / पुनरप्याह चोदकः कथमादित्यादिभास्वरद्रव्यजनितच्छायादिभोग प्रमुक्त्वा अन्यतोऽपि दृश्यते ? आचार्य आह-अत्रोच्यते यथा- पद्मरागेन्द्रनील प्रदीपशिखानामात्मस्वरूपानुरूपा प्रभा छाया स्वत एव सर्वतो भवति, तथा सर्वपुद्गलद्रव्याणामात्मप्रभाऽनुरूपा छाया सर्वतो भवत्यनुपलक्षा या इत्यतोऽन्यतोऽपि दृश्यते। पुनरपि चोदक आह-जति अप्पणो च्छायं देहति, तो कहं अप्पणो सरीरसरिसं वण्णरूपं पिच्छति? अत्रोच्यते - भासा तु दिवा छाया, अभासरगता णिसिंतु कालाभा। से सव्वे भासरगत, सदेहवण्णा मुणेयव्वा / / 6 / / आदित्येनावभासितो दिवा अभास्वरे अदीप्तिमति भूम्यादिके द्रव्ये वृक्षादीनां निपतिता छाया छायैव दृश्यते / अनिय॑ञ्जिताऽवयवा वर्णतः श्यामाऽऽभा तस्मिन्नेवाऽभास्वरे द्रव्ये भूम्यादिके रात्रौ निपतिता छाया वर्णतः कृष्णा भवति। जया पुण सव्ये व छाया दीप्तिमति दर्पणादिके द्रव्ये निपतिता दिवा रात्रौ वा तदा वर्णतः शरीरवर्णतः शरीरवर्णव्यञ्जितावयवा च दृश्यते। सा च छाया सदृशी न भवति। चोदक आह- यदिछाया सदृशी न भवति, सा कथं न भवति, किंवा तत्पश्यन्ति ? अत्रोच्यतेउज्जोयफुडम्मि तु दप्पणम्मि संजुञ्जते जया देहो। होति तया पडिबिंबं, छाया जइ भाससंजोगो // 61|| उज्जोयफुडो दर्पणः निर्मलः श्यामादिविरहितः तम्मि जदा सरीरं अण्णं वा किं चि घडादि संयुज्यते, तदा स्पष्ट प्रतिबिम्बं प्रतिनिभं भवति घटादीनाम्, यदा पुण सदर्पणो सामए आवरितो, गगणं वा अन्भगादिहिं आवरितं तदा, तम्मि चेव आयरिसे एगासहिते देहा-दिसंजुत्ते छायामात्रं दिस्सइ।इदाणी सीसो पुच्छति-तंपडिबिंबंछायंवा को पासति? तत्थ भण्णति- ससमयपरसमयवत्तव्ययाए। Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणायार 314 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणायार आदरिसपडिहया ओवलभंति रस्सी सरूवमन्नेसिं। तं तुम जुञ्जति जम्हा, पस्सति अत्ता ण रस्सीओ॥६२॥ / आत्मनः शरीरस्य या रश्मयः षड्दिशं विनिर्गताः तासां या आदर्श अधःकृता प्रतिहता रश्मयः, ता रश्मयो बिम्बादिस्वरूपमुपलभन्ते। एषोऽभिप्रायोऽन्येषां परतन्त्राणाम्। जैनतन्त्रव्यवस्थिता आहुःन युज्यते एतत्, यस्मात् सर्वप्रमाणानि आत्माधीनानि / तस्मादात्मा पश्यति, न रश्मयः / इदानीं पराभिप्राये तिरस्कृते स्वपक्षः स्थाप्यते'उज्जोयफुडम्मि त्ति' गाहा। एषोऽर्थस्तस्याऽर्थस्य स्थिरीकरणार्थं पुनरप्याहजुञ्जति हु पगासफुडे, पडिबिंबं दप्पणम्मि पस्संतो। जस्सेव जया चरणं, सो छाया होति बिंबं वा // 63 / / जुजते घटते फुडप्पगासे दप्पणे अप्पाणं पलोएतो पडिबिंब प्रतिरूपं णिव्वंजितावयवंपस्सतितिंच पस्संतस्स जया अब्भादीहिं अप्पगासीभूतं भवति, तदा तमेव बिंब च्छाया दीसति (बिंब ति) यं वा पेक्खंतस्स अब्भादी आवरणावगमे तमेव छायं बिंब पस्सति णिव्वंजितावयवं प्रतिरूपमित्यर्थः / सीसो पुच्छति- कम्हा सव्वे देहावयया आदरिसे ण पेच्छति ? अतो भन्नतिजे आदरिसंवत्ता, देहावयवा हवंतिणयणादी। तेसिं तत्थुवलद्धी, पगासजोगा ण इतरेसिं॥६४|| छद्दिसि सरीरतेयरस्सिसु पधावितासु जं दिसि आदरिसो ठितो ततो जे णयणहत्थादी सरीरावयवादी। जे य आदरिसे ण वडिया तेसिं तम्मि आदरिसे ण उवलद्धी भवति। जदिय आदरिसो अब्भावगो सव्यागासेण संजुतो, न अंधकारव्यवस्थित इत्यर्थः / (इतरेसिं ति) जे आदरिसेण सहन संजुत्ता, तेन तत्रोपलभ्यन्ते। एमेव य परबिंब, जं आदरिसे ण होइ संजुत्तं / तत्थ विहो उवलद्धी, पगासजोगा अदिढे वि॥६५॥ एवमित्यवधारणे / किम्हं अवधारयितव्यम् ?, यदेतदुपलब्धिकारणमुक्तम् / अनेन उपलब्धिकारणेन यद् व्यज्यते घटादिरूपप्रतिबिम्बमादर्श संयुज्यते।तत्राऽनुपलब्धि-भवत्यात्मनोऽपश्यतोऽपि घटादिकम् / एवं मणिमादिसु विभावेयव्वं, णवरं, तेल्लजलादिसु जारिसं बिंबं आगासमंतरेति तारिसमेव दीसते। एएसामण्णतरे, अप्पाणं जे उ देहते भिक्खू। सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं पावे // 66|| दप्पणमणिमादीयाणं अण्णयरे जो अप्पाणं जोएति, तस्स आणादिया य दोसा, चउलहुं वा से पच्छित्तं / आयसंजमं विराहणा य भवति, इमे य अण्णे य दोसा। गमणादीया रूवमरूवं तु कुजा णिदाणमादीणि। वाउस-गारवकरणं, खित्तादि निरत्थगुड्डाहो॥६७।। आदरिसादिसुअप्पाणंरूववतंदळुविसए मुंजामि त्ति पडिगमणं करेति, अण्णतित्थिएसु वा पविसति।, सिद्धपुत्तो भवति, सिद्धपुत्तिं वा सेवति, सलिंगेण वा संजतिं पडिसेवति। विरूवं वा अप्पाणंदटुंणियाणं करेजा। आदिसहातो देवतारोहणादि वसीकरण जोगादि वा अधिज्जेज, सरीरपाउसत्तं वा करेजा। आदरिसे वा अप्पणो रूवं दट्टुं सोभामि त्ति गारवं करेज्जा रूवेण हरिसिउं, विरूवो वा विसादेण खित्तादिचित्तो भवेज, ] तं कम्मखवणवेजियं निरत्थकं सागारियं दिटे उड्डाहो,ण एस तवस्सी, कामी एस अजिइंदिउत्ति उड्डाहं करेजा। बितीयगाहाबितियपदमणप्पज्झो, सेहो अवि कोवितो च अप्पज्झो। विस आयंका मजण-मोहतिगिच्छाए नाणमवि॥६८|| अणपज्झो पराधीणत्तणं ते, सेहो अवि कोवितो अजाणतणतो जो पुण अप्पज्झो जाणगो, से इमेहिं कारणेहिं अप्पाणं आदरिसे देहति, सप्पादिविसेण अभिभूतेजालागद्दभलूतातके वा उवहिते आदरिसविजाए मज्झियव्यं, तत्थ आदरिसे अप्पणो पडिबिंब गिलाणस्स चाउ मज्जति, ततो पण्णप्पति मोहतिगिच्छाए वा देहति / अहवा इमे कारणापुप्फग गलगंडं वा, मंडल दंतरोय जीह उट्टे य। अचक्खुट्विसयट्ठिय वुड्डिहाणि जाणट्ट वा पेहो॥६६॥ अक्खिम्मि फुल्लग, गले वा गंडं पसुत्ति मंडलं वा दंते वा कोतिधुणदंतगादिरोगो, अहवा जिब्भाए उढेवा किंचि उट्ठियं पिलगादि। एवमादि अचक्खुविसयट्टियं अपिक्खंतो तिगिच्छाणिमित्तं वुड्डिहाणि, जाणनिमित्तं वा अद्याए देहति अप्पसागारिए, ण दोसो। नि०चू०१३ उ०। उपानहादिधारणम् - पाणहाओ य छत्तं च, णालीअंबालवीअणं / परकिरियं अन्नमन्नं च, तं विजं परिजाणिआ |11|| सूत्र०१ श्रु०६ अ०॥('धम्म शब्देऽस्या व्याख्या') कपाटोद्धाटनादिकरणम् - णोप्पिहे ण याऽवपंगुणे, दारं सुण्णघरस्स संजए। पुढेण उदाहरे वयं,ण समुत्थे णो संथरे तणं // 13 // सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ उ०। ('ठाणट्ठिय' शब्दे व्याख्याऽस्या वक्ष्यते) (अचित्तप्रतिष्ठतं सचित्तप्रतिष्ठितं वा गंधं जिघ्रति इति 'गंध' शब्दे वक्ष्यते)। যানুসনানি जे भिक्खू लहुसयं सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा हत्थाणि वा पायाणिवा कण्णाणि वा अच्छीणि दंताणिनहाणि मुहाणि वा, उच्छोलेज वा पटोलेज वा, उच्छोलंतं वा पधोलंतं वा साइजइ // 20 // लहुसं स्तोकं याव तिन्नि य सती सीतोदकं सीतलं उसिणोदगं उण्ह, वियड पयगतजीवं। एत्थ सीतोदगवियडेहिं सपडिवक्खेहिं चउभंगेसु, ते य पढमततिया भंगा गहिया, दो हत्था, हत्थाणि वा / दो पादा, पादाणि वा / बत्तीसं दंता, दंताणि वा / आसए पोसए य अण्णे य इंदियमुहा, मुहाणि वा / उच्छोलणं, धोवणं / तं पुण दोसे सव्वे य णिज्जुत्तिवित्थारो इमो तिण्णि य सतीय लहुसं, वियड पुण होति विगतजीवं तु / उच्छोलणा तु तेणं, देसे सव्वे य णायव्वा ||8|| गतार्था। आइण्णमणाइण्णा, दुविधा देसम्मि होति णायव्दा। आयण्णं विय दुविहा, णिक्कारणया य कारणया।॥८१| देसे उच्छोलणा दुविहा-आइण्णा अणाइण्णा य। साधुभिराचर्यते यां सा आचीर्णा, इतरा तद्विपरीता ! अणाइण्णा दुविहा- कारणे णिक्कारणे य।जा कारणे, सा दुविधा Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणायार 315 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणायार भत्ता मासे लेवे, कारण णिक्कारणे य विवरीयं / मणिबंधादि करेसु, जत्तियमित्तं ति लेवेणं / / 2 / / तत्थ भत्ता मासे मणिबंधाओ करेसु ति असणाइणा लेवाडेण हत्था लेवाडिया, ते मणिबंधातो जाव धोवति, एसा भत्ता / मासे इमा, लेवेजत्तियमेत्तं तु लेवेणं तिअसज्झा तिय मुत्तपुरीसा- दिणा जति सरीराऽवलेवणादि गातं लेवाडितं, तस्सतत्तियमेत्तं धोवे, एसा कारणओ भणिता। णिक्कारणे तविवरीय त्ति। एतं खलु आइन्नं, तव्विवरीतं भवे अणाइण्णं / चलणादी जाव सिरं, सव्वं चिय धोतिऽणाइण्णं // 3 // भत्ता मासे लेवे यइमं आइण्णं,तव्विवरीयं देसे सव्ये वा सव्वं अणाइण्णं / मुहणयणचलणदंता-णक्कसिरा बाहुवत्थिदेसोय। परियट्ठाह दुगुंछो, पत्तय उच्छोलणा देसे ||8|| मुहणयणादिया ण केसिं वि दुगुंछप्रत्ययं वा देसे सव्वे वा उच्छोलणं / करोतीत्यर्थः / वक्ष्यमाणषोडशभङ्गमध्यादमी अष्टौ घटमानाः, शेषा अघटमानाः। आइण्ण लहुसएणं, कारण णिक्कारणे वऽणाइण्णो। देसे सव्वे यतहा, बहुएणेमेव अट्ठ पदा ||8|| आइण्णलहुसएणं देसे एष प्रथमः / एष एव णिक्कारणसहितो द्वितीयः,अणाचीर्णग्रहणात् तृतीयचतुर्थी गृहीतौ, लहुसणिक्कारणदेसेत्यनुवर्तते। चतुर्थे विशेषः सर्वमिति वक्तव्यम् , जहा लहुस पदे चतुरो भंगा, तहा बहुएण वि चउरो, सव्वे अट्ठ / एवशब्दग्रहणात् तृतीयचतुर्थपञ्चमषष्ठभङ्गविपर्यासः प्रदर्शितः / वक्ष्यमाणषोडशभङ्ग क्रमेण घटमाना-ऽघटमानभङ्ग प्रदर्शनार्थ लक्षणम्। जत्थाऽऽइण्णं सव्वं,जत्थ व करणे अणाइण्णं / मंगाण सोलसण्हं, ते वजा सेसगा गेज्झा // 86|| यस्मिन् भने आचीर्णग्रहणं दृश्यते, तत्रैव यदि सर्वत्र ग्रहणं दृश्यते ततः पूर्वापरविरोधात् न दृश्यते घटते असौ भङ्गः। यत्र वा कारणग्रहणे दृष्ट अनाचीर्ण दृश्यते, असावपिन घटते / एतान् वर्जयित्वा शेषा ग्राह्याः। सोलसभंगरयण गाहा इमाआइण्ण लहुस कारण, देसेतरे भंग सोलस हवंति। एत्थं पुण जे गेज्झा, ते पुण वोच्छं समासेणं // 87|| इतरग्रहणात् आइण्णबहुसणिक्कारणसव्वमिति- एते पदादट्ठव्या, अमी ग्राह्याः। पढमे ततिएक्कारो, बारो तह पंचमो य सत्तमओ। पन्नर सोलसमो वि य, परिवाडी होति अट्ठण्हं // 88|| पढमो ततिओ एक्कारसो बारसो पंचमो सत्तमो य दो चरिमा य यथोद्दिष्टक्रमेण स्थापयित्वा इमं ग्रन्थमनुसरेजा। आइण्णलहुसएणं, कारण णिक्कारणे व तत्थेव। आइण्ण देससव्वे, लहुसे तहिं कारणं णत्थि / / 89ll आइण्णलहुसएण कारणे इति प्रथमः। निक्कारणे तत्थेवेति आइण्णलहुसे अनुवर्तमाने निक्कारणं द्रष्टव्यं द्वितीयो भङ्गः। पढमबितीएसुदेसम्मि अर्थो द्रष्टव्यः / पश्चार्धेन तृतीयचतुर्थभङ्गो गृहीतौ / अणाइण्णं तृतीये देसे, चतुर्थे सर्व लहुसमित्यनुवर्तते, ततियचउत्थेसुकारणं णत्थिा इदाणी पञ्चमादिभङ्गप्रदर्शनार्थं गाथा - आइण्णं बहुएणं, कारण णिक्कारणे वि तत्थेव। अणाइण्ण देससव्वे, बहुणा तहिं कारणं णत्थि / / 8011 पंचमे बहुएणं आइण्णं कारणं तत्थेव त्तिआइण्ण बहुएस अणुयट्टमाणेसु छडे निकारणं द्रष्टव्यमिति। पंचमछडेसु देसमिति अर्थाद् द्रष्टव्यमिति / सप्तमाऽष्टमेषु अणाइण्णं सप्तमे देशम, अष्टमे सर्वबहुसमित्यनुवर्तते, कारणं नाऽस्त्येवेत्यर्थः। प्रथमभङ्गानुज्ञानार्थ शेषभङ्गप्रतिषेधार्थ चेदमाहआइण्ण लहुसएणं, कारणतो देसतं अणुण्णातं / सेसाणाणुण्णाया, उवरिल्ला सत्त वि अदातुं // 11 // आइण्णलहुसएणं कारणे देसे एस भङ्गो अणुण्णातो उवरिमा सत्त वि पडिसिद्धा भंगा। द्वितीयादिभङ्ग प्रदर्शनाऽर्थमिदमाह - आइण्णलहुसएणं, णिक्कारणदेसओ भवे बितिउं। णाइण्णलहुसएणं, णिक्कारणदेसओ तइओ // 12 // णाइण्णलहुसएणं, णिक्कारणसव्वतो चउत्थो उ। एवं बहुणा वि अण्णे, मंगा चत्तारिणायव्वा ||3|| पढमं सुद्धो लहुगा, तिसु लहु उवलहू य अट्ठमए। णत्थित्ते परिवाडी, अट्ठसु मंगेसु एएसु ||4|| दुगं आइण्णलहुसे णिक्कारणे सव्वतो चउत्थभंगो, एवं बहुणा वि अण्णे चउरो भंगा णायव्वा। पढमभंगो सुद्धो, सेसेसु इमं पच्छित - सुत्तणिवातो बितिए, ततियपदम्मि पंचमे चेव। छढे य सत्तमे विय, तं सेवंताणमादीणि // बितियततियपंचमछट्ठसत्तमेसुभगेसुसुत्तणिवातोमासलहु, चउत्थट्टमेसु चउलहुँ, तमिति। निचू०२ उ०ा "परमत्ते अन्नपाणं, ण भुंजिज्ज कयाइ वि। परवत्थमयेलो वि, तं विजं परिजाणिआ" // 20 // सूत्र०१श्रु०६ अ०। (अस्या व्याख्या 'धम्म' शब्दे द्रष्टव्या)। अमद्यमांसादिसेवनम् - अमज्जमंसासि अमच्छरीय, अभिक्खणं निव्दिगयं गया य। अभिक्खणं काउस्सम्गकारी, सिज्झायजोगे पयओ हविजा // 7 // अमद्यमांसाशी भवेदिति योगः, अमद्यपोऽमांसाशी च स्यात् / एते च मद्यमांसे लोकागमप्रतीते एव / ततश्च यत् के चनाऽभिदधत्यारनालाऽरिष्टाद्यपि संधानादोदनाद्यपि प्राण्यङ्गत्वात् त्याज्यमिति / तदसत् / अमीषां मद्यमांसत्वायोगात् / लोकशास्त्रयोरप्रसिद्धत्वात् , संधानप्राण्यङ्ग तुल्यत्वचोदना त्वसाध्वी, अतिप्रसङ्गदोषात्, द्रवत्वस्त्रीत्वतुल्यतया मूत्रपानमातृगमनादिप्रसङ्गात्, इत्यलं प्रसङ्गेन / अक्षरगमनिकामात्रप्रक्रमात् / तथा अमत्सरी च, न परसंपदद्वेषी च स्यात् / तथा अभीक्ष्णं पुनः पुनः पुष्ट कारणाभावे, निर्विकृतिकश्च निर्गतविकृतिपरिभो गश्च भवेत् / अनेन परिभोगोचितविकृतीनामप्यकारणे प्रतिषेधमाह / तथा अभीक्ष्णं गमनागमनादिषु विकृतिपरिभोगेऽपि चाऽन्ये / किमित्याह- कायोत्सर्गकारी भवेत् / ईर्यापथं Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणायार 316 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणायार प्रतिक्रमणमकृत्वा न किञ्चिदन्यत् कुर्यात्, तदशुद्धतापत्ते- रिति। तथा पर्यायकेवलस्वरूपं पञ्चधा। चारित्रं सामायिकं छेदोपस्थापनीयपरिहारस्वाध्याययोगे वाचनाद्युपचारख्यापारे आचामाम्लाऽऽदौ प्रयतोऽतिशय- विशुद्धीयसूक्ष्मसंपराययथाऽऽख्यातरूपंपञ्चधैव। मूलोत्तरगुण-भेदतो प्रयत्नपरो भवेत्, तथैव तस्य फलवत्त्वात्, विपर्यये उन्मादादिदोष- वाऽनेकधेत्येवं व्यवस्थिते मौनीन्द्रप्रवचने न कदाचिदनीदृशं जगदिति प्रसङ्गादिति सूत्रार्थः / / 7 / / किञ्च कृत्वाऽनाद्यपर्यवसाने लोके सति दर्शनाचारप्रतिपक्ष-भूतमनाचार ण पडिन्नविजा, सयणासणाई, दर्शयितुकाम आचार्यो यथावस्थितलोकस्व-रूपोद्घाटनपूर्वकमाह - सिजं निसिखं तह भत्तपाणं / अणादियं परिन्नाय, अणवदग्गेति वा पुणो। गामे कुले वा नगरे व देसे, सासयमसासते वा, इति दिद्धिं न धारए।।२।। ममत्तभावं न कहिं वि कुजा // 8 // (अणादियमित्यादि) नास्य चतुर्दशरज्वात्मकस्य लोकस्य (णपडिण्णविजे त्ति) न प्रतिज्ञापयेत् मासादिकल्पपरिसमाप्तौ गच्छन धर्माधर्मादिकस्य वा द्रव्यस्यादिः प्रथमोत्पत्तिर्विद्यते / इत्यनाभूयोऽप्यागतस्य ममैवैतानि दातव्यानीति न प्रतिज्ञां कारयेद् गृहस्थम्। दिकस्तमेवंभूतं परिज्ञाय प्रमाणतः परिच्छिद्य, तथाऽनवदन-मपर्यवसानं किमाश्रित्येत्याह- शयनाऽऽशने, शय्यां निषद्यां तथा भक्तपानमिति। च परिज्ञायोभयात्मक व्युदासे नैक नयदृष्टयाऽव-धारणात्मक तत्र शयनं संस्तारकादि, आसनं पीठकादि, शय्या वसतिः, निषद्या प्रत्ययमनाचारं दर्शयति- शश्वत् भवतीति शाश्वतं नित्यम्, स्वाध्यायादिभूमिः, तथा तेन प्रकारेण तत् कालाऽवस्थौचित्येन सांख्याऽभिप्रायेणाऽप्रच्युताऽनुत्पन्नस्थिरैकस्वभावम् / स्वदर्शने भक्तपानं खण्डखाद्यकद्राक्षापानकादि न प्रतिज्ञापयेत् / ममत्वदोषात् चाऽनुयायिनं सामान्यांशमवलम्ब्य धर्माऽधर्मा-ऽऽकाशादिष्वनासर्वत्रैतन्निषेधमाह / ग्रामे शालिग्रामादौ, कुले वा श्रावककुलादौ, नगरे दित्वमपर्यवसानत्वं चोपलभ्य, सर्वमिदं शाश्वतमित्येवंभूतां दृष्टि साकेतादौ, देशे वा मध्यदेशादौ, ममत्वभावं ममेदमिति स्नेहं मोहं न नावधारयेदिति, एवं पक्षं न समाश्रयेत् / तथा विशेषपक्षमाश्रित्य क्वचिदुपकरणादिष्वपि कुर्यात्, तन्मूलत्वाद् दुःखादीनामिति वर्तमाननारकाः समुत्सेत्स्यन्तीति एतच्च सूत्रमङ्गीकृत्य यत्, तत् सूत्रार्थः // 8 // दश०२ चूलिका (रोमकृन्तनम् 'रोम' शब्दे निषेत्स्यते) सर्वमनित्यमित्येवंभूतबौद्धदर्शनाऽभिप्रायेण च सर्वमशाश्वतमनित्य"सीसे परो दीहाइ बालाई, दीहाइ रोमाई, दीहाइ भमुहाई, दीहाइ / मित्येवंभूतां च दृष्टिं न धारयेदिति / किमित्येकान्तेन शाश्वतमशाश्वतं कक्खरोमाई, दीहाइ वत्थिरोमाई कप्पेज वा संठवेज वा, णो तं साइए वाऽस्तीत्येवंभूतां दृष्टिं न धारयेदित्याहणोतं नियमे' आचा०(वमनविरेचनादिकरणं 'वमन' शब्दे वक्ष्यते)। एएहिं दोहिं ठाणेहिं, ववहारो ण विजति। वस्त्र-धावनादिकरणम्"धोअणं रयणं चेव, वत्थीकम्म विरेयणं / एएहिं दोहिं ठाणेहि, अणायारं तु जाणए ||3|| वमणं जणपलीमंथं, तं विजं परिजाणिआ॥१२॥ (एतेहिं दोहिमित्यादि) सर्वं नित्यमेवाऽनित्यमेव चैताभ्यां द्वाभ्यां गन्धमल्लसिणाणंच, दंतपक्खालणं तहा। स्थानाभ्यामभ्युपगम्यमानाभ्यामनयोर्वा पक्षयोर्व्यव- हरणं व्यवहारो परिग्गहित्थिकम्मच, तं विजं परिजाणिआ" ||13|| लौकस्यैहिकाऽऽमुष्मिकयोः कार्ययोः प्रवृत्ति-निवृत्तिलक्षणो न विद्यते। सूत्र०१ श्रु० अ० (अनयोर्व्याख्या धम्म' शब्दे) तथाहि- अप्रच्युताऽनुत्पन्नस्थिरैक-स्वभावं सर्वं नित्यमित्येवं न व्यवहियते। प्रत्यक्षेणैव नव-पुराणादिभावेन प्रध्वंसाऽभावेन वा दर्शनात् विपर्ययदर्शन तथैव च लोकस्य प्रवृत्तेरामुष्मिकेऽपि नित्यत्वात्मनोबन्धमोक्षाद्यभावेन आदाय बंभचेरं च, आसुपन्ने इमं वयं / दीक्षा-यमनियमादिकमनर्थकमिति न व्यवह्रियते, तथैकान्ताऽनित्यअस्सिं धम्मे अणायारं, नायरेज्ज कयाइ वि||१|| त्वेनाऽपिनलोको धनधान्यघटपटाऽऽदिकमनागतभोगाऽर्थं संगृहीयात् / आदाय गृहीत्वा, किं तद् ? ब्रह्मचर्यं सत्यतपोभूतदये तथाऽऽमुष्मिकेऽपि क्षणिकत्वादात्मनः प्रवृत्तिर्न स्यात् / तथा च न्द्रियनिरोधलक्षणम्। तच्चर्यते अनुष्ठीयते यस्मिन्, तन्मौनीन्द्र-प्रवचनं दीक्षाविहारादिकमनर्थकम् तस्मान्नित्या-ऽनित्यात्मकस्याद्वादे ब्रह्मचर्यमित्युच्यते / तदादायाऽऽशुप्रज्ञः पटुप्रज्ञः, सदसद्विवेकज्ञश्च / सर्वव्यवहारप्रवृतिः, अत एव तयोर्नित्या-ऽनित्ययोरेकान्तत्वेन क्त्वाप्रत्ययस्योत्तरक्रियासव्यपेक्षित्वात् / तामाह- इमां समस्ताऽ समाश्रियमाणयोरैहिकाऽऽमुष्मिक कार्य विध्वंसरूपमनाचारमौ - ध्ययनेनाऽभिधीयमानां प्रत्यक्षाऽऽसन्न- भूतां वाचमिदं शाश्वतमेवेत्या नीन्द्राऽऽगमबाह्यरूपं विजानीयात् / तुशब्दो विशेषणार्थः / दिकां कदाचिदपि नाऽऽचरेद्, नाऽभिदध्यात् / तथाऽस्मिन् धर्मे कथञ्चिन्नित्याऽनित्ये वस्तुनि सति व्यव-हारो युज्यत इत्येतद्विशिनष्टि। सर्वज्ञप्रणीते व्यवस्थितः सन् अनाचारं सावद्याऽनुष्ठानरूपंन समाचरेत्, तथाहि- सामान्यमन्वयिन-मंशमाश्रित्य 'स्यान्नित्यम्' इति भवति / न विदध्यादिति संबन्धः / यदि वाऽऽशुप्रज्ञः सर्वज्ञः प्रतिसमयं तथा विशेषांशं प्रतिक्षणमन्यथा च नवपुराणादिदर्शनतः 'स्यादनित्यम्' केवलज्ञानदर्शनोपयोगित्वात् तत्सम्बन्धिनि धर्मे व्यवस्थित इमां इति भवति / तथोत्पादव्ययध्रौव्याणि चाऽर्हद्-दर्शनाश्रितानि वक्ष्यमाणां वाचमनाचारं च कदाचिदपि नाऽऽचरेत् / इति श्लोकार्थः / व्यवहाराणि भवन्ति / तथा चोक्तम्- घटमौलिंसुवर्णार्थी, तत्राऽनाचारं नाऽऽचरे-दित्युक्तम् / अनाचारश्च मौनीन्द्रप्रवचनात् अपरोऽभिधीयते / मौनीन्द्रप्रवचनं तु मोक्षमार्गहेतुतया नाशोत्पादस्थितिः स्वयम् / शोकप्रमोदमाध्यस्थ्य, जनो याति सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रा-ऽऽत्मकम्, सम्यग्दर्शनं तु तत्त्वाऽर्थश्रद्धा सहेतुकम्।।१।। इत्यादि / तदेवं नित्याऽनित्यपक्षयोर्व्यवहारो न विद्यते, नुरूपं,तत्त्वं तु जीवाऽजीवपुण्यपापाऽऽश्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षा तथाऽनयोरेवाऽनाचारं विजानीयादिति स्थितमिति / ऽऽत्मकम् ।तथा धर्माधर्माकाशपुद्गलजीवकालात्मकं द्रध्यं तथाऽन्यमप्यनाचारं प्रतिषेधकाम आहनित्याऽनित्यस्वभावं, सामान्यविशेषाऽऽत्मकोऽनाद्यपर्यवसानश्चतुर्द समुच्छिहिंति सत्थारो, सव्वे पाणा अणेलिसा। शरज्वात्मको लोकस्तत्त्वमिति / ज्ञानं तु मतिश्रुताऽवधिमनः ___ गंठिगा वा भविस्संति, सासयं ति य णो वदे / / 4 / / Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणायार 317 - अभियानराजेन्द्रः - भाग 1 अणायार (समुच्छिहितीत्यादि) सम्यग् निरवशेषतयोच्छेत्स्यन्त्युच्छेदंयास्यन्ति क्षयं प्राप्स्यन्ति, सामस्त्येनोत्प्राबल्येन सेत्स्यन्ति वा सिद्धिंयास्यन्ति। के ते ?, शास्तारस्तीर्थकृतः सर्वज्ञाः, तच्छासनप्रतिपन्ना वा, सर्व निरवशेषाः सिद्धिगमनयोग्याः, ततश्चोत्सन्नभव्यं जगत्स्यादिति शुष्कतकाभिमानग्रहगृहीतां युक्तिं चाऽभिदधति / जीवसभावे सत्यप्यपूर्वोत्पादाभावादभव्यस्य च सिद्धिगमनसंभवात्, कालस्य चाऽऽनन्त्यादनाचारतासिद्धिगमनसंभवेन तद्यथोपपत्तेरपूर्वाभावादभव्योच्छेद इत्येवं नो वदेत्। तथा सर्वेऽपि प्राणिनो जन्तवोऽनीदृशा विसदृशाः सदा परस्परविलक्षणा एव, न कथञ्चित्तेषां सादृश्यमस्तीत्येवमप्येकान्तेन नो वदेत् / यदि वा सर्वेषां भव्यानां सिद्धिसद्भावे विशिष्टाः संचारेऽनीदृशा अभव्या एव भवेयुरित्येवं च नो वदेत् / युक्तिं चोत्तस्त्र वक्ष्यति। तथा कर्मात्मको ग्रन्थो येषां विद्यते ते ग्रन्थिका इति, ग्रन्थिकाः सर्वे प्राणिनः कर्मग्रन्थोपेता एव भविष्यन्तीत्येवमपि नोवदेत्। इदमुक्तं भवति- सर्वेऽपि प्राणिनः सेत्स्यन्त्येव, कर्मावृता वा सर्वे भविष्यन्तीत्येवमेकमपि पक्ष-मेकान्तिकं नो वदेत् / यदि वा ग्रन्थिका इति। ग्रन्थिकसत्त्वा भविष्यन्तीति ग्रन्थिभेदं कर्तुमसमर्था भविष्यन्तीत्येवं च नो वदेत् / तथा शाश्वता इति। शास्तारः सदा सर्वकालं स्थायिनः तीर्थकरा भविष्यन्ति, न समुच्छेत्स्यन्ति, नोच्छेदं यास्यन्तीत्येवं नो वदेदिति। तदेवं दर्शनाचारवादनिषेधं वाङ्मात्रेण प्रदा - ऽधुना युक्तिं दर्शयितुकाम आहएएहिं दोहिं ठाणेहिं, ववहारो ण विञ्जति। एएहिं दोहिं ठाणेहिं, अणायारं तु जाणए||५|| (एएहिं इत्यादि) एतयोरनन्तरोक्तयोर्द्वयोः स्थानयोः,तद्यथा- शास्तारः क्षयं यास्यन्तीति शाश्वता वा भविष्यन्तीति / यदि वा सर्वे शास्तारस्तदर्शनप्रतिपन्ना वा सेत्स्यन्ति शाश्वता वा भविष्यन्ति / यदि या सर्व प्राणिनो ह्यनीदृशाः विसदृशाः सदृशा वा, तथा ग्रन्थिकसत्त्वास्तद्रहिता वा भविष्यन्तीत्येवमनयोः स्थानयोर्व्यवहरणं व्यवहारस्तदस्तित्वे युक्तेरभावान्न विद्यते / तथाहि- यत्तावदुक्तं, सर्वे शास्तारः क्षयं यास्यन्त्येव इति / एतद-युक्तम् / क्षयनिबन्धनस्य कर्मणो भावात् सिद्धाना क्षयाभावो न, भवस्थके वल्यपेक्षयेदमभिधीयते / तदप्यनुपपन्नम् / यतोऽनानन्तानां केवलिनां सद्भावात् प्रवाहापेक्षया तदभावाभावः / यदप्युक्तम्- अपूर्वाया भावे सिद्धिगमनसद्भावेन च व्ययसद्-भावाद्भव्यशून्यं जगत् स्यात्, इत्येतदपि सिद्धान्तपरमार्थावदिनो वचनम् / यतो भव्यराशे राधान्ते भविष्यत्कालस्य वाऽऽनन्त्यमुक्तम्, तचैवमुपपद्यते- यदि क्षयो न भवति, सति च तस्मिन्नानन्त्यं न स्यात्, नापि चावश्यं सर्वस्यापि भव्यस्य सिद्धिगमनेन भाव्यमित्यानन्त्याद् भव्यानां तत्सामग्रय-भावाद् योग्यदलिकप्रतिमावत्तदनुपपत्तिरिति / तथा नाऽपि शाश्वता एव, भवस्थकेवलिनां शास्तृणां सिद्धिगमनसभावात्, प्रवाहापेक्षया शाश्वतत्वमेव। अतः कथञ्चित् शाश्वताः कथञ्चिदशाश्वता इति। तथा सर्वेऽपि प्राणिनो विचित्रकर्मसभावान्नानागतिजातिशरीराङ्गोपाङ्गादिसमन्वितत्वादनीदृशा विसदृशाः, तथोपयोगासंख्येयप्रदेशत्वामूर्तत्वादिभिर्धर्मः कथञ्चित्सदृशा इति / तथोल्लसितसद्वीर्यतया के चिदिभन्नग्रन्थयोऽपरे च तथाविधपरिणामाभावाद् ग्रन्थिकसत्त्वा एव भवन्तीत्येवं व्यवस्थिते नैकान्तेनैकान्तपक्षो भवतीति प्रतिषिद्धः / तदेवमेतयोरेव द्वयोः स्थानयोरुक्तनीत्या नानाऽऽचार विजानीयादिति स्थितम् / अपि च आगमेऽनन्ताऽनन्तास्वप्युत्सपण्यवसर्पिणीषु भव्यानामनन्तभाग एव सिध्यतीत्ययमर्थः प्रतिपाद्यते। यदा चैवंभूतं तदाऽऽनन्त्य, तत्कथं तेषां क्षयः ? युक्तिरप्यत्र संबन्धिशब्दावेतौ मुक्तिः संसारं विना न भवति, संसारोऽपि न मुक्तिमन्तरेण, ततश्च भव्योच्छेदे संसार-स्याऽप्यभावः स्यादतोऽभिधीयतेनाऽनयोर्व्यवहारो युज्यत इति / अधुना चारित्राचारमङ्गीकृत्याहजे केइ खुद्दगा पाणा, अदुवा संति महालया। सरिसं तेहिं ति वेरंति, असरिसं ती य णो वदे ||6|| (जे केइ इत्यादि) ये केचन क्षुद्रकाः सत्त्वाः प्राणिन एकेन्द्रियद्वीन्द्रियादयोऽल्पकाया वा पञ्चेन्द्रियाः। अथवा महालया महा-कायाः सन्ति विद्यन्ते, तेषां क्षुद्रकाणामल्पकायानां कुन्थ्वादीनां, महानालयः शरीरं येषां ते महालयाः हस्त्यादयः तेषां च, व्यापादने सदृशं वैरमिति वजं कर्म, विरोधलक्षणं वा वैरं, सदृशं समानं तुल्यप्रदेशत्वात्सर्वजन्तूनामित्येवमेकान्तेन नो वदेत्। तथा विसदृशमसदृशं तद् व्यापत्ती वैरं कर्मबन्धो वा इन्द्रियविज्ञानकायानां विसदृशत्वात् सत्यपि प्रदेशतुल्यत्वे न सदृशं वैरमित्येवमपि नो वदेत् / यदिह वध्यापेक्ष एव कर्मबन्धः स्यात्ततः तत्तद्वशात् कर्मणोऽपि सादृश्यमसादृश्यं वा वक्तुं युज्यते, न च तद्वशादेव बधः, अपि त्वध्यवसायवशादपि / ततश्च तीव्राऽध्यवसायिनोऽल्पकायसत्त्व-व्यापादनेऽपि महद्वैरम्, अकामस्य तु महाकायसत्त्वव्यापादनेऽपि स्वल्पमिति। एतदेव सूत्रेण दर्शयतिएएहिं दोहिं ठाणेहिं, ववहारो ण विजइ। एएहिं दोहिं ठाणेहिं, अणायारं तु जाणए।।७।। (एएहि इत्यादि) आभ्यामनन्तरोक्ताभ्यां स्थानाभ्यामनयो स्थानयोरल्पकायमहाकायसत्त्वव्यापादनापादितकर्मबन्धसदृशत्वासदृशत्वयोर्व्यवहरणं व्यवहारो नियुक्तिकत्वान्न युज्यते / तथाहि-न वध्यस्य सदृशत्वमसदृशत्वं चैकमेव कर्मबन्धस्य कारणम्, अपि तु वधकस्य तीव्रभावो मन्दभावो ज्ञानभावोऽज्ञानभावो महावीर्यत्व-मल्पवीर्यत्वं चेत्येतदपि। तदेवं वध्यवधकयोर्विशेषात् कर्मबन्धविशेष इत्येवं व्यवस्थिते वध्यमेवाश्रित्य सदृशत्वासदृशत्वव्यवहारो न विद्यते इति / तथा तयोरेव स्थानयोः प्रवृत्तस्यानाचारं जानीयादिति / तथाहि- यजीव-साम्यात्कर्मबन्धसदृशत्वमुच्यते। तदयुक्तम् / यतो नहि जीवव्यापत्त्या हिंसोच्यते, तस्य शाश्वत-त्वेन व्यापादयितुमशक्य-त्वात्, अपि त्विन्द्रियादिव्यापत्त्या / तथा चोक्तम्-पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च, उच्छवासनिःश्वासमथान्यदायुः / प्राणा दशैते भगवद्भिरुक्तास्तेषां वियोगीकरणं तु हिंसा / / 1 / / इत्यादि / अपि च- भावसव्यपेक्षस्यैव कर्मबन्धोऽभ्युपेतुं युक्तः / तथाहिवैद्यस्याऽऽगमसव्य-पेक्षस्य क्रियां कुर्वतो यद्यप्यातुरविपत्तिर्भवति, तथापि न वैरानुषङ्गो भवेद्,दोषाभावात् / अपरस्य तु सर्पबुद्ध्या रज्जुमपि नतो भावदोषात् कर्मबन्धः, तद्रहितस्य तु न बन्ध इति। उक्तं चाऽऽगमे-"उच्चालियम्मियाए'' इत्यादि। तन्दुलमत्स्याख्यानकं तु सुप्रसिद्धमेव / तदेवंविधवध्यवधकभावाऽपेक्षया स्यात् सदृशत्वं, स्यादसदृशत्वमिति, अन्यथाऽनाचार इति / Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणायार 318- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणायावाइण पुनरपि चारित्रमङ्गीकृत्याऽऽहारविषयानाचाराचारौ प्रति- पादयितुकाम आहआहाकम्माणि भुंजंति, अण्णमण्णे सकम्मुणा। उवलित्ते ति जाणिज्जा, अणुवलित्ते ति वा पुणो ||8|| साधुप्रधानकारणमादायाऽऽश्रित्य कर्माण्याधाकर्माणि, तानि तु वस्त्रभोजनवसत्यादीन्युच्यन्ते। एतान्याधाकर्माणि ये भुञ्जते एतैरुपभोग ये कुर्वन्ति, अन्योन्यं परस्परं तान् स्वकीयेन कर्मणोपलिप्तान् विजानीयादित्येवं नो वदेत्, तथा-ऽनुपलिप्सानिति वा नो वदेत्। एतदुक्तं भवति- आधाकर्मापि श्रुतोपदेशेन शुद्धमिति कृत्वा भुञ्जानः कर्मणा नोपलिप्यते, तदाऽऽधाकर्मोपभोगेनाऽवश्यतया कर्मबन्धोः भक्तीत्येवं नो वदेत् / तथा श्रुतोपदेशमन्तरेणाऽऽहारगृद्धयाऽऽधाकर्मभुजा-नस्य तन्निमित्तकर्मबन्धसदृशत्वासदृशत्वयोर्व्यवहरणं व्यवहारो नियुक्तिकत्वान्न युज्यते / तथाहि- न वध्यस्य सदृशत्वासदृश-त्वयोर्व्यवहरणं व्यवहारो नियुक्तिकत्वात्न युक्तं सदृशत्वम्, अतोऽनुलिप्तानपिनो वदेत् / यथाऽवस्थितमौनीन्द्रागमज्ञस्य त्वेवं युज्यते वक्तुमाधाकर्मोपभोगेन स्यात्कर्मबन्धः, स्यान्नेति / यत उक्तम्- किश्चिच्छुद्धं कल्पमकल्पं वा स्यादकल्पमपि कल्पम्। पिण्डः शय्या वस्त्र, पात्रं वा भेषजाधं वा।।१।। तथा-ऽन्यैरप्यभिहितम्-"उत्पद्येत हि साऽऽवस्था, देशकालामयान् प्रति / यस्यामकार्य कार्यं स्यात्, कर्म कार्यं च वर्जयेत् |2|| इत्यादि // 6 // किमित्येवं स्याद्वादः प्रतिपाद्यते ? इत्याह - एएहिं दोहि ठाणेहिं, ववहारो ण विजई। एएहिं दोहिं ठाणेहिं, अणायारं तु जाणए / / 6 / / (एएहिं दोहिमित्यादि) आभ्यां द्वाभ्यां स्थानाभ्यामाश्रिताभ्यामनयोर्व्यवस्थानयोराधाकर्मोपभोगेन कर्मबन्धाभावा ऽभावभूतयोर्व्यवहारो न विद्यते / तथाहि- यद्यवश्यमाधाकर्मो-पभोगेनैकान्तेन कर्मबन्धोऽभ्युपगम्येत, एवं चाहाराभावेनापि क्वचित्सुतरामनर्थोदयः स्यात्। तथाहि-क्षुत्पपीडितो न सम्य-गीर्यापथं शोधयेत,ततश्च व्रजन् प्राण्युपमर्दमपि कुर्यात्। मूर्छा-दिसद्भावतया देहपाते सति अवश्यंभावी वसादिव्याधातो- कालमरणे चाऽविरतिरङ्गीकृता भवति, आर्तध्यानापत्तौ च तिर्यग्गतिरिति। आगमश्च-''सव्वत्थ संजमं संजमाओ अप्पा-णमेव रक्खेजा" इत्यादिनाऽपि तदुपभोगे कर्मबन्धाभाव इति। तथाहि- आधाकर्मण्यपि निष्पाद्यमाने षड्जीवनिकायवधः, तद्वधे च प्रतीतः कर्मबन्ध इत्योऽनयोः स्थानयोरेकान्तेनाश्रीयमाणयोर्व्यहरणं व्यवहारो न युज्यते / तथाऽऽभ्यामेव स्थानाभ्यां समाश्रिताभ्यां सर्वमनाचारं विजानीयादिति स्थितम् / पुनरप्यन्यथा दर्शनं प्रति चागमानाचारं दर्शयितुमाह- यदि वा योऽयमनन्तरमाहारः प्रदर्शितः, स सति शरीरे भवति / शरीरं च पञ्चधा, तस्य चौदारिकादेः शरीरस्य भेदाऽभेदं प्रतिपादयितुकामः पूर्वपक्षद्वारेणाऽऽहजमिदं उरालमाहारं, कम्मगं च तहेव य। सव्वत्थ वीरियं अत्थि,णत्थि सव्वत्थ वीरियं / / 10 / / (जमिदमित्यादि) यदिदं सर्वजनप्रत्यक्षमुदारैः पुद्गलैर्निर्वृत्तमौदारिकमेतदेवोरालं निस्सारत्वात् / एतच तिर्यङ्मनुष्याणां भवति / तथा चतुर्दशपूर्वविदा क्वचित्संशयादावाहियत इत्याहारकम्। एतद्ग्रहणाच वैक्रियोपादानमपि द्रष्टव्यम्। तथा कर्मणा निवृत्तं कार्मणम्, एतत् सहचरितं तैजसमपि ग्राह्यम्। औदारिकवैक्रियाहारकाणां प्रत्येकं / तैजसकार्मणाभ्यां सह युगपदुपलब्धेः कस्यचिदेकत्वाशङ्का स्यादतस्तदपनोदार्थं तदभिप्रायमाह- तदेव तद्यदेवौदारिकं शरीरं, त एव तैजसकामणे शरीरे / एवं वैक्रियाहारकयोरपि वाच्यम् / तदेवंभूतां संज्ञां नो निवेशयेदित्युत्तरश्लोके क्रिया / तथैतेषामात्यन्तिको भेद इत्येवंभूतामपि संज्ञां नो निवेशयेत् / युक्तिश्चात्र- यद्येकान्तेनाभेद एव, तत इदमौदारिकमुदारपुद्गलनिष्पन्नं,तथैतत्कर्मणा निर्वर्तितं कार्मणं, सर्वस्यैतस्य संसारचक्रवालस्य भ्रमणस्य करण- भूतं तेजोद्रव्यैर्निष्पन्नं तेज एव तैजसम्, आहारपक्तिनिमित्तं तैजसलब्धिनिमित्तं चेत्येवं भेदेन संज्ञानिरुक्तं कार्य च न स्यात् / अथाऽऽत्यन्तिको भेद एव, ततो घटवभिन्नयोर्दे शकालयोर-प्युपलब्धिः स्यात् / न नियता युगपदुपलब्धिरित्येवं च व्यवस्थिते कथञ्चिदेवोपलब्धेरभेदः, कथञ्चिच्च संज्ञाभेदाभेद इति स्थितम् / तदेवमौदारिकादीनां शरीराणां भेदाभेदी प्रदाधुना सर्वस्यैव द्रव्यस्य भेदाभेदौ प्रदर्शयितुकामः पूर्वपक्षं श्लोकपश्चाद्धेन दर्शयितुमाह-(सव्वत्थ वीरियमित्यादि) सर्व सर्वत्र विद्यत इति कृत्वा साङ्ख्याभिप्रायेण सत्त्वरजस्तमोरूपस्य प्रधानस्यैकत्वात्तस्य च सर्वस्यैव कारणत्वात्, अतः सर्वं सर्वात्मकमित्येवं व्यवस्थिते घटपटाद्यवयवस्य व्यक्तस्य वीर्यं शक्तिर्विद्यते। सर्वस्यैव हि व्यक्तस्य प्रधानकार्यत्वात्कार्य-कारणयोश्चैकत्वादतः सर्वस्य सर्वत्र वीर्यमस्तीत्येवं संज्ञा नो निवेशयेत्।('अणेगंतवाय' शब्देऽत्रैव भागे अग्रेतनी साङ्ख्य-मतनिरासनपरायुक्तिः वक्ष्यते)। सूत्र०२ श्रु०५ अ०) ('णत्थि लोए अलोए वा,ऽणेवं सण्णं णिवेसए'' इत्यादि सूत्राणि 'अस्थिवाय' शब्देऽग्रे प्रदर्शयिष्यन्ते) ओघतोऽभोगानाभोगसेवितार्थमाहसे य जाणमजाणं वा, कटे आहम्मियं पयं / संचरे खिप्पमप्पाणे,बीयं तं न समायरे ||31|| स साधुनिन्नजानन् वा अभोगतोऽनाभोगतश्चेत्यर्थः। कृत्वा अधार्मिक पदम्, कथञ्चिद्रागद्वेषाभ्यां मूलोत्तरगुणविराधनामिति भावः / संचरेत्क्षिप्रमात्मानं भावतो निवालोचना-दिना प्रकारेण, तथा द्वितीय पुनस्तन्न समाचरेदनुबन्धदोषादिति सूत्रार्थः / एतदेवाऽऽह - अणायारं परक्कम्म नेव गृहे न निन्हवे। सुईसया वियडभावे, असत्तो जिइंदिए|३२|| अनाचारं सायद्ययोगं पराक्रम्याऽऽसेव्य गुरुसकाशे आलोचयन्न एव गूहयेत, न निह्ववीत / तत्र गूहनं किञ्चित् कथनम्, निहव एकान्ताऽपलापः / किंविशिष्टः सन्नित्याह- शुचिरकलुषमतिः, सदा विकटभावः प्रकटभावः, असंसक्तोऽप्रतिबद्धः, क्वचित् जितेन्द्रियो जितेन्द्रियप्रमादः सन्निति / दश०८ अ०। (सिद्धान्तपाठको न कदाचिदप्यनाचारीति'नंदिसेण' शब्दे उदाहरण-रूपतया वर्णयिष्यते। तथा त्रिविधोऽनाचारः 'संकिलेस' शब्दे वक्ष्यते) अणायारज्झाण-न०(अनाचारध्यान) न आचारोऽनाचारः / नञः कुत्सार्थत्वाद् दुष्टाचारस्य ध्यानमनाचारः। दुर्थ्याने, वल्लरदावं ध्यायतःकोङ्कणसाधोरिव,देवानामनागमनादुत्प्रव्रजितुकामस्यापाठसूरेरिव वा कुध्याने, आतु। अणायावाइ(ण)-पुं०(अनात्मवादिन) आत्मानं वदितुंशील-मस्येति / यः पुनरेवं भूतमात्मानं नाऽभ्युपगच्छति, सोऽनात्मवादी / आत्मानमनभ्युपगन्तरि नास्तिके, सर्वव्यापिनं नित्यं क्षणिक वाऽऽत्मानमभ्युपगन्तरि, आचा०१श्रु०१अ०१उ०। Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणायाविण 319 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणारिय अणायावि(ण)-पुं०(अनातापिन्) न आतापयति / आतापनां शीतादिसहनरूपांकरोतीत्यनातापी। मन्दश्रद्धत्वात्परीष-हाऽसहिष्णौ, स्था० 5 ठा०२ उ०। अणारंभ-पुं०(अनारम्भ) जीवानुपघाते, भ०८ श०१ उ०। जीवाऽनुपद्रवे, सत्तविहे अणारंभे पण्णत्ते। तंजहा- पुढविकाइयअणारंभे जाव अजीवकायअणारंभे / स्था०७ ठान विद्यते सावध आरम्भो येषां ते तथा / सावद्ययोगरहितेषु, "अपरिग्गही अणारंभा, भिक्खू ताणं परिव्वए''। सूत्र० 1 श्रु०१ अ०४ उ०। अणारंभजीवि(ण)-पुं०(अनारम्भजीविन्) आरम्भः सावद्या-ऽनुष्ठानं प्रमत्तयोगो वा, तद्विपर्ययेण त्वनारम्भः, तेन जीवितुं शीलं येषां ते अनारम्भजीविनः / समस्तारम्भनिवृत्तेषु यतिषु, आचा० आवंतिए आवंतिलोयंसि अणारं भजीविए तेस चेवमणारंमजीवी एत्थोवरए तं झोसमाणे। यावन्तः के चन लोके मनुष्यलोकेऽनारम्भजीविनः, आरम्भः सावद्यानुष्ठानं प्रमत्तयोगो वा / उक्तं च-"आयाणे णिक्खेवे, जासु सगोयठाणगमणादि। सव्वोपमत्तजोगो, समणस्स विहोइ आरंभो" ||1|| तद्विपर्ययेण त्वनारम्भस्तेन जीवितुं शीलमेषा-मित्यनारम्भजीविनो यतयः / समस्तारम्भनिवृत्तास्तेष्वेव गृहिषु पुत्रकलत्रस्वशरीराद्यर्थमारम्भप्रवृत्तेष्वनारम्भजीविनो भवन्ति / एतदुक्तं भवतिसावद्यानुष्ठानप्रवृत्तेषु गृहस्थेषु देहसाधनार्थ- मनवद्यारम्भजीविनः साधवः पङ्काधारपङ्कवन्निर्लेपा एव भवन्ति / यद्येवं ततः किमित्याह(एत्थोवरए इत्यादि) अत्राऽस्मिन् सावद्यारम्भे कर्तव्ये उपरतः संकोचितगात्रः। अत्र चाऽऽर्हते धर्मे व्यवस्थितः उपरतः पापारम्भात् किं कुर्यात् ? स तत्सावद्या-ऽनुष्ठानायान्तकर्म झोषयन् क्षपयन मुनिभावं भजत इति। आचा अणारं भट्ठाण-न०(अनारम्भस्थान) असावद्यारम्भस्थाने, "एगंतमिच्छे असाहू तत्थणंजा सा सव्वतो विरई एसट्ठाणे अणारंभट्ठाणे आरिए'। सूत्र०२ श्रु०२ अ०॥ अणारद्ध-त्रि०(अनारब्ध) केवलिभिर्विशिष्टमुनिभिर्वाऽनाचीणे, "आरंभे जंचऽणारंभे अणारखं च ण आरभे" आचा०१ श्रु०२ अ०१ उ०।। अणाराहय-त्रि०(अनाराधक) विराधके, "अणायावी अस्समिए धम्मस्स अणाराहए भवइ" स्था० 4 ठा०३ उ०। अणारिय-पुं०(अनार्य) नआर्योऽनार्यः। अज्ञानावृतत्वा-दसदनुष्ठायिनि, सूत्र०१ श्रु०१ अ० 2 उ०। पापात्मके, भ०३ श०६ उ०। सूत्र अकार्यकर्मकारिणि, नि०० 17 उ०। धर्मसंज्ञारहिते, शिष्टसंमतनिखिलव्यवहारे वा क्षेत्रे, सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ०। तच - सग जवण सबर बब्बर-कायमुरुड्डडुगोड्डपक्कणया। अरवागहूणरोमय-पारसखसखासिया चेव / / 1 / / दुंबिलयलकुसवोकस-भिल्लंघपुलिंदकोंचभमररुआ। कावोयचीणचुंचुय-मालवदविडा कुलत्था य॥२॥ केक्कयकिरायहयमुह-खरमुहगयतुरगमिंढयमुहा य। हयकन्ना गयकन्ना, अन्ने वि अणारिया बहवे // 3 // शकाः, यवनाः, शबराः, बर्वराः, कायाः, मुरुण्डाः, उड्डाः, गोड्डाः, पक्कणकाः, अरवागाः, हूणाः, रोमकाः, पारसाः, खसाः, खासिकाः, दुम्बिलकाः, लकुशाः, बोक्कसाः,भिल्लाः, आन्ध्राः, पुलिन्दाः, क्रौञ्चाः, भ्रमररुताः, कापोतकाः, चीनाः, चुच्चुकाः, मालवाः, द्रविडाः, कुलार्थाः, कैकेयाः, किराताः, हयमुखाः, खरमुखाः, गजमुखाः, तुरङ्गमुखाः, मिण्ढकमुखाः, हयकर्णाः, गजकर्णाश्चत्येते देशा अनार्थाः / अन्येऽपि देशा अनार्याः। प्रव० 274 द्वा०ान केवलमेत एव किन्त्वपरेऽप्येवं प्रकारा बहवोऽनार्या देशाः प्रश्नव्याकरणाऽऽदिग्रन्थोक्ता विज्ञेयाः। तथाच सूत्रम्बहवे मिलिक्खुजाई, किं ते ? सक्का जवणा सबर-बब्बरगाय-मुरुडोड-भंडग-भित्तिय-पक्क णिया कुलक्खा गौडसिंहल-पारस-कोंच-अंध-दविल-चिल्लल-पुलिंद-आरोसडोव-पोकाण-गंधहारग-बहलीय-जल्ला रोसा मासा बउसमलया य चुंचुया य चूलिय-कोंकणगा-मेय-पल्हव-मालवमहुर-आभासिया अणक्क-चीण-लासिय-खस-खासिय-नेट्ठरमरहट्ठ-मुट्ठिय-आरव-डॉबिलग-कुहण-केकय-हूण-रोमगरुरु-मरुगा चिलायविसयवासीय पाव- मइणो। (इमे बहवे मिलिक्खुजाइ त्ति) म्लेच्छजातीयाः। किं ते इति? तद्यथाशकाः१, यवनाः२, शबराः३, वर्बराः४, कायाः५, मुरुण्डाः६, उड्डाः 7, भण्डाः८, भित्तिकाः६, पक्कणिकाः१०, कुलाक्षाः११, गौडाः१२, सिंहलाः१३, पारसाः१४, क्रौञ्चाः१५, अन्ध्राः१६, द्रविडाः१७, चिल्वला:१८, पुलिन्दा:१६, आरोषाः२०, डोवाः२१, पोकाणाः२२, गन्धहारकाः२३, बहलीकाः२४, जल्लाः२५, रोसाः२६, माषाः२७, बकुशाः२८, मलयाश्च 26, चुञ्चुकाश्च 30, चूलिकाः३१, कोङ्कणगाः३२, मेदाः३३, पहवाः३४, मालवा:३५, महुराः३६, आभाषिकाः३७, अणकाः३८, चीनाः३६, लासिकाः४०, खसाः४१, खासिकाः४२, नेष्टराः ४३,(मरहट्ठ त्ति) महाराष्ट्रा:४४,(पाठान्तरे पामुट्ठी ४५,)मौष्ट्रिकाः४६, आरवाः४७, डोम्बिलिकाः४८, कुहणाः 46, केकयाः५०, हूणाः५१, रोमकाः५२, रुरवः५३, मरुकाः५४, इति / एतानि च प्रायो लुप्तप्रथमाबहुवचनानि पदानि, तथा चिलातविषयवासिनश्चम्लेच्छदेशवासिनः। एते च पापमतयः। प्रश्न०१ आश्र०द्वा०॥ ___अथ सामान्यतोऽनार्यदेशस्वरूपमाहपावाय चंडकम्मा, अणारिया निग्घिणा णिरनुतावी। धम्मो त्ति अक्खराई,सुइणे विन नजइ जेसु // एते सर्वेऽप्यनार्यदेशाः पापाः। पापमपुण्यप्रकृतिरूपम् तद्-बन्धनत्वात् पापाः / तथा चण्ड कोपोत्कटतया रौद्राभिधानरसविशेषप्रवर्तितत्वादतिरौद्रं कर्म समाचरणं येषां ते चण्डक्रर्माणः, तथा न विद्यते घृणा पापजुगुप्सालक्षणा येषां ते निघृणाः,तथा निरनुतापिनः सेवितेऽप्यकृत्ये मनागपिनपश्चात्तापभाज इति भावः / किञ्च-येषु 'धर्मः' इत्यक्षराणि स्वप्नेऽपि सर्वथा न ज्ञायन्ते केवलमपेयपानाऽभक्ष्यभक्षणाऽगम्यगमनादिनिरताः शास्त्राद्यप्रतीतवेषभाषादिसमाचाराः सर्वेऽप्यमी अनार्या अनार्यदेशा इति / प्रव०२७४ द्वा०। आर्याऽनार्यक्षेत्रव्यवस्था चेत्थम् - जत्थुप्पत्ति जिणाणं, चक्कीणं रामकण्हाणं / Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणारिय 320 - अभियानराजेन्द्रः - भाग 1 अणाविलप्पण यत्र तीर्थकरादीनामुत्पत्तिस्तदार्य, शेषमनार्यमिति / आवश्यक-चूर्णी ऽनालम्बनो योगः, यदा तु तस्य बाणस्य विमोचनं लक्ष्याविसंवादि पुनरित्थमार्यानार्यव्यवस्था उक्ता-"जेसु केसु विपएसेसु, मिहुणगाणि / पतनमात्रादेवलक्ष्यवेधकं,तदाआलम्बनोत्तरकालभावी तत्पात-कल्पः पइडिएसु हक्काराइया नीई पारूढा ते आरिया, सेसा अनारिया'' इति।। सालम्बनः केवलज्ञानप्रकाश इत्यनयोः साधर्म्यमङ्गीकृत्य निदर्शनम्। प्रव०२७५ द्वा०(अनार्यक्षेत्रे न विहर्तव्यमिति 'विहार' शब्दे वक्ष्यते) षो०१५ विव०। अष्ट। भयंसि वा महत्ता वा अणारिएहि, विभक्तिव्यत्ययादनायैर्लेच्छादि- अणालंबणपइट्ठाण-त्रि०(अनालम्बनप्रतिष्ठान) अविद्य-मानमालम्बनं भिर्जीवितचारित्राऽपहारि-भिरभिभूतानामिति शेषः / स्था०५ ठा०२ प्रतिष्ठानं त्राणकारणं यत्र स तथा। आलम्बन-रक्षकरहिते, प्रश्न०३ उकासका अनार्या म्लेच्छास्ततश्च साधुनिन्दादिना अनार्या इव अनार्याः / आश्र०द्वा०। साधु-प्रत्यनीकेषु / उत्त०३ अ०। अणालत्त-त्रि०(अनालपित) अभाषिते, "पुट्विं अणालत्तेणं आलवित्तए अणारियट्ठाण-न०(अनार्यस्थान) सावद्याऽऽरम्भाश्रये, सूत्र० वा संलवित्तए वा प्रतिका उपा०। 2 श्रु०२ अग अणालस्स-न०(अनालस्य) अनुत्साहे,ताब०स० कृतोद्यमे, व्य०७ अणारोहग-त्रि०(अनारोहक) न०ब०। योधवर्जिते, "अणासए उन अणारहिए अणारोहए''। भ०७ श०६ उ०| अणालस्सणिलय-पुं०(अनालस्यनिलय) अनालस्यमुत्साह-स्तस्य अणालंबण-न०(अनालम्बन) न विद्यते आलम्बनं यस्य तदनालम्बनम्। गृहम्, अकार्यादौ सादरं प्रवृत्तिहेतुत्वाद् / योषिति, तं०। स्वोपादानक्षणमात्रादुत्पद्यमाने कस्यापि विषयस्याऽनवगमके बुद्धज्ञाने, अणलाव-पुं०(अनालाप) नत्रः कुत्सार्थत्वादशीलेत्यादिवत् कुत्सित अने०४ अधि। आलापोऽनालाप इति। वचनविकल्पभेदे, स्था०७ ठा०। अणालंबणजोग-पुं०(अनालम्बनयोग) परतत्त्वविषयेध्यानविषये, षो / अणालिद्ध-त्रि०(अनाश्लिष्ट) अकृताऽऽश्लेषे, प्रव०२ द्वा०ा आव०। यथा अणालोइय-त्रि०(अनालोचित) न०ता अनिवेदिते, न०ब० / गुरूणां कः पुनरनालम्बनयोगः? कियन्तं कालं भवतीत्याह समीपेऽकृतालोचने, औला सादरमवीक्षिते, "मूर्तिः स्फूर्तिमती सदा सामर्थ्ययोगतो या, तत्र दिदृक्षेत्यसङ्गशक्त्यादया। विजयते जैनेश्वरी विस्फुरन्मोहोन्मादघन प्रमादमदिरामत्तैरनासाऽनालम्बनयोगः, प्रोक्तस्तददर्शनं यावत्॥८॥ लोकिता" अनालोकिता सादरमवीक्षिते-त्यर्थः / अनालोकितपदस्य (सामर्थ्यत्यादि) शास्त्रोक्तात्क्षपकश्रेणीद्वितीयाऽपूर्व-करणभाविनः | सादरमनालोकितत्वेऽर्थान्तर-संक्रमिततया वाच्यत्वाद्, अन्यथा सकाशात् / सामर्थ्य योगस्वरूपं चेदम् - शास्त्र संदर्शितोपाय- चक्षुष्मतः पुरः स्थितवस्तु-नोऽनालोकितत्वानुपपत्तेः, प्रति०। स्तदतिक्रान्तगोचरः। सत्त्वोद्रेकाद्विशेषेण, सामर्थ्याख्योऽयमुत्तमः // 1 // | अणालो इयअपडिकं त-त्रि०(अनालो चिताऽप्रतिक्रान्त) या तत्र परतत्त्वे द्रष्टुमिच्छा दिदृक्षा इत्येवंस्वरूपा, असङ्गा चाऽसौ शक्तिश्च ___ अनालोचितश्चाऽसौ अप्रतिक्रान्तश्च ! गुरूणां समीपेऽकृता-ऽऽलोचने निरभिष्वङ्गाऽनवर-तप्रवृत्तिस्तयाऽऽढ्या परिपूर्णा, दिदृक्षा, सा दोषाचाऽनिवृत्ते, औ परमात्मविषये दर्शनेच्छा अनालम्बनयोगः प्रोक्तः, तद्वेदिभिस्तस्य अणालोइयभासि(ण)-पुं०(अनालोचितभाषिन) सम्यम् परतत्त्वस्याऽदर्शन-मनुपलम्भः, तद् यथावत् परमात्मस्वरूपे दर्शने तु ज्ञानपूर्वकमपर्यालोच्य भाषके, प्रव०७२ द्वा०। केवलज्ञानेन अनालम्बनयोगो न भवति, तस्य तदालम्बनत्वात्। अणालोय-पुं०(अनालोक) न०त०। अज्ञे, “चुलिसीइकथं पुनरनालम्बनोऽयमित्याह जोणिसयसहस्स गुविलं अणालोकमंधयारं ति' / (संसारतत्राप्रतिष्ठितोऽयं, यतः प्रवृत्तश्च तत्त्वतस्तत्र। सागरवर्णकः) अनालोको नामाऽज्ञानाऽन्धकारो यस्य स तथा। प्रश्न०४ सर्वोत्तमानुजः खलु, तेनाऽनालम्बनो गीतः।।६।। आश्र०द्वा० (तत्रेत्यादि) तत्र परतत्त्वेऽप्रतिष्ठितोऽलब्धप्रतिष्ठितः अयम-नालम्बनः अणावाय-न०(अनापात) न आपातोऽभ्यागमः परस्य अन्यस्य यतो यस्मात्प्रवृत्तश्व ध्यानरूपेण तत्त्वतो वस्तुतस्तत्र परतत्त्वे स्वपरपक्षस्य वा यस्मिन् स्थण्डिले तदनापातम् / प्रव०६१ द्वा०। सर्वोत्तमानुजः खलु सर्वोत्तमस्य योगस्याऽनुजः प्रागन-न्तरवर्तिना कारणेनाऽनालम्बनो गीतः कथितः / / जनसंपातरहिते, वर्जिते, भ०८ श०६ उ०१ ध०। पं०व०। विजने, किं पुनरनालम्बनाद् भवतीत्याह आचा०२ श्रु०१ अ०५ उ०। लोकानामुपागमनरहिते, उत्त०२४ अ०। द्रागस्मात्तद्दर्शनमिषुपातज्ञानमात्रतो ज्ञेयम्। स्त्र्याद्यापातरहिते स्थण्डिले, आव०४ अ०धा एतच केवलं तद्, ज्ञानं यत्तत्परं ज्योतिः // 10il अणाविल-त्रि०(आनाविल) न०त० अकलुषे, रागद्वेषाऽसंपृक्ततया (द्रागित्यादि) द्राक् शीघ्रमस्मात् प्रस्तुतादनालम्बनात् तद् दर्शनं मलरहिते, सूत्र० 1 श्रु०१५ अ०। परतत्त्वदर्शनमिषोः पातस्तद्विषयं ज्ञातमुदाहरणं तन्मात्रादिषु *ऋणाबिल-त्रिका ऋणेन कलुषे, आतु। पातज्ञानमात्रतो ज्ञेयं तदर्शनम् / एतच्च परतत्त्वदर्शनं केवलं संपूर्णम् / अणाविलज्झाण-न०(अनाविलध्यान) अणमृणं तेनाऽऽविलः कलुषः तदिति तत्प्रसिद्ध ज्ञानं केवलज्ञानमित्यर्थः / यत्तत्केवलज्ञानं परं प्रकृष्ट ऋणाविलः, तस्य ध्यानम् / तैलकर्षलाया यतिभगिन्या इव दुर्थ्याने, ज्योतिः प्रकाशरूपम्, इषुपातोदाहरणं च यथा-केनचिद्धनुधरेण आतुo लक्ष्याभिमुखे बाणे तदभिसंवादिनि प्रकल्पिते यावत्तस्य बाणस्य न अणाविलप्प(ण)-पु०(अनाविलात्मन्) अनाविलो विषयविमोचनं, तावत्तत्प्रगुणतामात्रेण तदविसंवादित्वेन च समानो- | कषायैरनाकुल आत्मा यस्याऽसावनाविलात्मा / निष्कषायिनि, Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणाविलप्पण 321- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणाह सूत्रत्रयम् - एतेषां तु प्राणिवधविरत्यादीनां समित्यादीनां चाऽनाऽऽश्रवहेतूनां (विवच्चासे त्ति) विपर्यासे प्राणिवधादावश-मितत्वादी चरागद्वेषाभ्यां समार्जितमुपार्जितरागद्वेषसमार्जितं, कर्मेति गम्यते, तन्मे कथयतेति शेषः / एकमेकत्र वस्तुनि अभिनिविष्टत्वेन मनो यस्याः सा एकमनाः, शृण्विति शिष्या-ऽभिमुखीकरणम्, सन्निरुद्ध पाल्यादिना निषेद्धये, जलागमे जलप्रवेशे, (उस्सिचणाए ति) सूत्रत्वादुत्सेचनेनाऽरघट्टघटी-निवहादिभिरुदञ्चनेन (तवणाए त्ति) प्राग्वत्तपनेन रविकरनिकर-सन्तापरूपेण क्रमेण परिपाट्या शोषणा जलाभावरूपा भवेत् / पापकर्मनिराश्रवे पापकर्मणामाश्रवाभावे, भवकोटीसञ्चितमित्यत्रत्रकोटिग्रहणमतिबहुत्वोपलक्षणम्, कोटिनियमाऽसंभवात, कर्म तपसा निर्जीयते आधिक्येन क्षयं नीयते, शेष स्पष्टमिति सूत्रत्रयाऽर्थः / उत्त० 30 अ०। पञ्चत्रिंशे गौणप्राणातिपातविरमणे, तस्य कर्मबन्धनिरोधोपायत्वात्। प्रश्न०१ संव० द्वा०। आ समन्तात् शृण्वन्ति गुरुवचनमाकर्णयन्तीति आश्रवाः / न तथा प्रतिभाषाविषयस्य तस्याश्रवणादनाश्रवः / गुरुवचनेऽस्थिते, "अणासवाथूलवया कुसीला, भिउंपि चंडं पकरेंति सीसा" इति दुर्विनीतलक्षणम् / उत्त० 1 अ०) आश्रवः व्रतविशेषे, आचा० अणासाइजमाण-त्रि०(अनास्वाद्यमान) न० त०। केवलं रसनेन्द्रियविषये, भ०१श०१उ० अणासाएमाण-त्रि०(अनाशायमान) आशाविषयमकुर्वाणे उत्त० 26 अ० "अभयंकरे भिक्खू अणाविलप्पा'। सूत्र० १श्रु०७अ०। अणावुट्ठि-स्त्री०(अनावृष्टि) वर्षणाऽभावे, स०) अणासंसि(ण)-पुं०(अनाशंसिन) न० त०ा श्रोतृभ्यो वस्त्राद्यनाकासिणि प्रवचनसारपरिकथनयोग्ये, बृ० 1 उ०। आचार्याचाराधनाशंसारहिते, सांसारिकफलानपेक्षे वा, आलोचनाप्रदानयोग्ये, आशंसिनो हि समग्राऽतिचारा-5ऽलोचनासंभवात् आशसाया एवाऽतिचारत्वात्। धर्म० 2 अधि० ग०। प्रव०॥ पञ्चा०। अणासग-त्रि०(अनश्वक) अश्वरहिते, भ०७ श०६ उ01 अणासच्छिन्न-त्रि०(अच्छिन्ननास)अकृत्तघ्राणे,नि०चू०४ उ०। अणासण्ण-त्रि०(अनासन्न) अनिकटवर्तिनि, उत्त०२० अ०। अणासत्ति-स्त्री०(अनासक्ति) अप्रतिबद्धतायाम्, स्वजनादिषु स्नेहाभावे, भ०१श०६ उ० अणासय-त्रि०(अनाशय) न विद्यते आशयः पूजाभिप्रायो यस्याऽसावनाशयः / द्रव्यतो विद्यमानेऽपि समवसरणादिके भावतोऽनास्वादके तीर्थकृति, तद्गतगाझ्याऽभावात् / सूत्र०१ श्रु० 15 अ॥ अणासव-पुं०(अनाश्रव) न विद्यन्ते आश्रवा हिंसादयो यस्य / पापकर्मबन्धरहिते हिंसाद्याश्रवद्वारविरते, क० प्र० उत्त०। प्राणातिपातादिरहिते, औ०। "अणासवे अममे अकिंचणे' / औ०। अविद्यमानपापकर्मबन्धे, औ०। आश्रवति तान् तान् शोभनत्वेन अशोभनत्वेन वा गृह्णातीत्याश्रवः, नाऽऽश्रवोऽनाश्रवः / मध्यस्थे रागद्वेषरहिते, बृ०॥ सद्दाणि सोचा अदु भेरवाणि, अणासवे तेसु परिव्वएज्जा। शब्दान् वेणुवीणादिकान् मधुरान्, श्रुतिपेशलान्, श्रुत्वा समाकर्ण्य, अथ भैरवान् भयावहान्, कर्णकटूनाकर्ण्य, तेष्वनुकूलेषु प्रतिकूलेषु श्रवणपथमुपागतेषु शब्देष्वनाश्रवो मध्यस्थो रागद्वेषरहितो भूत्वा परि समन्ताद् व्रजेत्परिव्रजेत्, इति। बृ० 3 उ०। नवकर्माऽनुपादाने, प्रश्न० 1 आश्र० द्वा० अनाश्रवेणैव सर्वथा कर्मक्षय इति यथाऽसौ भवति, तथाहपाणवह मुसावायं, अदत्त मेहुण परिग्गहा विरआ। राईभोयण विरओ, जीवो होई अणासवो।। पंचसमिओ तिगुत्तो, अकसाओ जिइंदिओ। आगारवो य निस्सल्लो, जीवो होइ अणासवो॥ सूत्रद्वयं प्रायः प्रतीतार्थमेव, नवरं, विरत इति प्राणवधादिभिः प्रत्येकममिसम्बध्यते / तथा भवत्यनाश्रव इति अविद्यमानकर्मोपादानहेतुः / द्वितीयसूत्रेऽप्यनाश्रवः समित्यादिविपर्ययाणां कर्मोपादानहेतुत्वेनाश्रवरूपत्वात् , तेषां चाऽविद्यमानत्वादिति सूत्रद्वयार्थः / एवंविधश्च तादृशं कर्म यथाऽसौ क्षपयत्याराधनया। पुनः शिष्याभिमुखीकरणपूर्वकं दृष्टान्तद्वारेण तदाहएएसिं तु विवचासे, रागदोससमज्जियं। खवई तवसा भिक्खू, मएगग्गमणो सुणु // जहा महातलायस्स, सण्णिरुद्धे जलागमे / उस्सिंचणाए तवणाए, कम्मेण सोसणा भवे // एवं तु संजयस्सावि, पावकम्मनिरस्सवो। भवकोडीसंचयं कम्म, तवसा णिज्जरिजइ॥ *अनास्वादयत्-त्रिका अभुञ्जाने, उत्त० 26 अ०। अणासायणा-स्त्री०(अनाशातना) न० त०। तीर्थकरादीनां सर्वथाऽहीलनायाम, दश०९ अ०१उ० द्वा०। मनोवाशायैः प्रतीपवर्जने, उत्त०१ अ01 अणासायणाविणय-पुं०(अनाशातनाविनय) अनुचित क्रियानिवृत्तिरूपे दर्शनविनयभेदे; अयं च पञ्चदशविधः। आह च"तित्थगरधम्मआयरिअवायगे थेरकुलगणे संघे। संभोगिअकिरियाए, मइनाणाईणयतहेव" सांभोगिका एकसामाचारिका क्रिया आस्तिकता। अत्र भावना- तीर्थ-कराणामनाशातनायां तीर्थकरप्रज्ञप्तधर्मस्याऽनाशातनायां च वर्तितव्यमित्येवं सर्वत्र द्रष्टव्यमिति। "कायव्वा पुण भत्ती, बहुमाणो तह य वण्णवाओ य। अरहंतमाइयाणं, के वलनाणावसाणाणं" ||1|| स्था०७ ठा०1०। द०) अणासिय-त्रि०(अनाशित) बुभुक्षिते,"अणासिया णाम महासियाला, या गम्भिणो तत्थ सयासको वा'' सूत्र०१ श्रु०५ अ०२ उ०। अणासेवणा-स्त्री०(अनासेवना) आसेवनाविरहे, आचा० 1 श्रु० ८अ०३ उ०॥ अणाह-त्रि०(अनाथ) अशरणे, नि० चू०३ उ०ा निःस्वामिनि, विपा० 1 श्रु०७ अ योगक्षेमकारिविरहिते, प्रश्न०१ आश्र० द्वा० / रङ्के, ज्ञा० 8 अ० आत्मनोऽनाथत्वपरिभावयितरि मुनिभेदे, पुं०। यथा मुनिना श्रेणिकं प्रति आत्मनोऽनाथता दर्शिता, तथा कोऽर्थः ? अनाथत्वसनाथत्वे च विचारिते / उत्त०२० अ० तथोक्तं च पाई० टीकोपेते उत्तराध्ययनेसिद्धाणं नमो किचा, संजयाणं च भावओ। अत्थधम्मगई तत्थं, अणुसद्धिं सुणेह मे // 1 // भोः शिष्याः ! मे मम अनुशिष्टिं शिक्षां यूयं शृणुत / किं Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणाह 322- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणाह कृत्वा ? सिद्धान् पञ्चदशप्रकारान् नमस्कृत्य, च पुनर्भावतो भक्तितः, संयतान् साधून आचार्योपाध्यायादिसर्वसाधून नमस्कृत्य / कीदृशीं मे अनुशिष्टिम् ? अर्थधर्मगताम् / अथ्यते प्रार्थ्यते धर्मात्मभिः पुरुषैरिति अर्थः, सचाऽसौधर्मश्च अर्थधर्मः, तस्य गतिनि यस्यां सा अर्थधर्मगतिः, ताम्, द्रव्यवद्यो दुष्प्राप्यो धर्मस्तस्य धर्मस्य प्राप्तिकारिकाम्, यया मम शिक्षया दुर्लभधर्मस्य प्राप्तिः स्यादिति भावः / पुनः कीदृशीं मेऽनुशिष्टिम् ? तथ्यां सत्याम् / अथवा 'तचं' तत्त्वरूपां या, इह चाऽनुशिष्टिरभिधेया, अर्थधर्मगतिः प्रयोजनम् / अनयोश्च परस्पमुपायोपेयभावलक्षणः सम्बन्धः सामर्थ्यादुक्त इति सूत्रार्थः / / 1 / / सम्प्रति धर्मकथाऽनुयोगत्वादस्य धर्मकथाकथनव्याजेन प्रतिज्ञातमुपक्रमितुमाहपभूयरयणो राया, सेणिओ मगहाहिवो। विहारजत्तं निजाओ, मंडिकुञ्छिसि चेइए।शा श्रेणिको नाम राजा एकदा मण्डितकुक्षिनाम्नि चैत्ये उद्याने विहारयात्रया उद्यानक्रीडया निर्यातः,नगरात् क्रीडार्थ मण्डित- कुक्षियने गत इत्यर्थः / कीदृशः श्रेणिको राजा ? मगधाऽधिपः मगधानां देशानामधिपो मगधाधिपः / पुनः कीदृशः ? प्रभूतरत्नः प्रचुरप्रधानगजाऽश्वमणिप्रमुखपदार्थधारी॥२॥ तदेव विशिनष्टि - नाणादुमलयाइण्णं, नाणापक्खिनिसेवियं / नाणाकुसुमसंछन, उज्जाणं नंदणोवमं // 3 // अथ मण्डितकुक्षिनाम उद्यानं कीदृशं वर्तते ? तदाह / कीदृशं तद्वनम् ?, नानागुमलताकीर्ण विविधवृक्षवल्लीभियाप्तम् / पुनः कीदृशम् ? नानापक्षिनिषेवितं विविधविहरतिशयेना-ऽऽश्रितम् / पुनः कीदृशम् ? नानाकुसुमसंच्छनं बहुवर्णपुष्पव्याप्तम् / पुनः कीदृशं तत् उद्यानम् ? नागरिकजानां क्रीडास्थानम् / नगरसमीपस्थं वनमुद्यानमुच्यते / पुनः कीदृशम् ? नन्दनोपमं नन्दनं देववनं, तदुपमम् // 3 // तत्थ सो पस्सई साहुं, संजयं सुसमाहियं / निसन्नं रुक्खमूलम्मि, सुकुमालं सुहोइयं // 4 // तत्र वने स श्रेणिको राजा साधुं पश्यति / कीदृशं साधुम् ?, संयतं सम्यकप्रकारेण यतं यत्नं कुर्वन्तम् / पुनः कीदृशम् ?, सुसमाधितं सुतरामतिशयेन समाधियुक्तम् / साधुः सर्वोऽपि शिष्ट उच्यते, तद्स्वच्छेदार्थ संयतमित्युक्तम्, सोऽपि च बहिः संयमवान् निद्वयादिरपि स्यात्, इति सुष्ठुसमाहितोमनःसमाधानवान् सुसमाहितस्तमित्युक्तम् / पुनः कीदृशम् ? वृक्षमूले निषण्णं स्थितम् ।पुनः कीदृशम् ? सुकुमालम् / पुनः कीदृशम् ? सुखोचितं सुखयोग्यम्, शुभोचितं वा // 4|| तस्स रूवं तु पासित्ता, राइणो तम्मि संजए। अचंतपरमो आसी, अउलो रूवविम्हिओ / / 5 / / राज्ञः श्रेणिकस्य तस्मिन् संयते साधौ अत्यन्तः परमोऽतिशयप्रधानोऽधिकोत्कृष्टः, अतुलो निरुपमोऽनन्यसदृशो रूपविस्मयोरूपाश्चर्यमासीत् / किं कृत्वा ? तस्य साधोः, रूपं दृष्ट्वा / तुशब्दो वाक्याऽलङ्कारे // 5 // अहो ! वन्नो अहो ! रूवं, अहो ! अजस्स सोम्मया। अहो ! खंती अहो ! मुत्ती, अहो ! भोगे असंगया|६|| तदा राजा मनसि चिन्तयति स्म- अहो ! इत्याश्चर्ये / आश्चर्यकारी अस्य शरीरस्य वर्णो गौरत्वादिः / अहो ! आश्चर्यकृत्, अस्य साधो रूपं लावण्यसहितम् / अहो ! आश्चर्यकारिणी अस्य आर्यस्य सौम्यता चन्द्रवन्नेत्रप्रियता / अहो ! आश्चर्यकारिणी अस्य शान्तिः क्षमा। अहो ! आश्चर्यकारिणी चाऽस्य मुक्तिर्निलाभता। अहो ! आश्चर्यकारिणी अस्य भोगे असङ्गता, विषये निस्पृहता॥६॥ तस्स पाए उवंदित्ता, काऊण य पयाहिणं / नाऽइदूरमणासन्ने, पंजली परिपुच्छइ / / 7 / / तस्य साधोः पादौ वन्दित्वा, पुनः प्रदक्षिणां कृत्वा, राजा नाऽतिदूर नाऽत्यासन्नः / कोऽर्थः ?, नाऽतिदूरवर्ती नातिनिकटवर्ती वा सन्, प्राञ्जलिपुटो बद्धाऽञ्जलिः पृच्छति, प्रश्नं करोति / / 7 / / तरुणोऽसि अनो! पव्वइओ, मोगकालम्मि संजया !! उवडिओऽसि सामन्ने, एयमढे सुणामि ते // 8 // तदाश्रेणिकः किं पृच्छति-हे आर्य! हे साधो!, त्वं तरुणोऽसि युवाऽसि / हे संयत! हे साधो ! तस्माद्भोगकाले भोगसमये, प्रव्रजितो गृहीतदीक्षः, तारुण्यं हि भोगस्य समयोऽस्ति, न तु दीक्षायाः समयः / हे संयत ! तारुण्ये भोगयोग्यकाले त्वं श्रामण्ये दीक्षायामुपस्थितोऽसि, आदरसहितोऽसि। एतदर्थं एतन्निमित्तं, त्वत्तः शृणोमि, किं तव दीक्षायाः कारणम् ? कस्मानिमित्तात् दीक्षात्वया गृहीता? तत्कारणं त्वन्मुखात् श्रोतुमिच्छामीत्यर्थः / (पाई०टीका)तरुणेत्यादिना प्रश्नस्वरूपमुक्तम् / इह च यत एव तरुणोऽत एव प्रव्रजितो भोगकाले इत्युच्यते, तारुण्यस्य भोगकालत्यात् / यता- तारुण्येऽपि रोगादिपीडायां न भोगकालः स्यात्, इत्येवमभिधानम् / सोऽपि कदाचित्संयमेऽनुद्यत एव स्यात् / त्वं पुनरुपस्थितश्च / पठन्ति च (उवाट्टिओसि ति) एनमर्थनिमित्तं येनाऽर्थेन त्वमीदृश्यामप्यवस्थायां प्रव्रजितः, शृणोमि, 'ता' इति तावत् पश्चात् तु यत्त्वं भणिष्यसि, तदपि श्रोष्यामीति भावः / इति श्लोकसप्तकार्थः / / 8 / / इत्थं राज्ञोक्ते मुनिराह - अणाहो मि महाराय !, नाहो मज्झन विज्जइ। अणुकंपयं सुहिं वा वि, कंची णाहि तुमे महं || अनाथोऽस्यामिकोऽस्मीत्यहं महाराज ! प्रशस्यनृपते ! किमित्येवम् / यतः- नाथो योगक्षेमविधाता, मम न विद्यते / तथा (अणुकंपयं ति) आर्षत्वादनुकम्पको यो मामनुकम्पते (सुहिं ति) तत एव सुहृत् (कंचि त्ति) कश्चिन्न विद्यते, ममेति सम्बन्धः (नाहि त्ति) प्रक्रमादनन्तरोक्तम) जानीहि (तुमे त्ति) त्वम् / पठ्यते - "किंची णाभिसमे महं" किं चिदनुकम्पकं सुहृदं वापि नाभिसमे नाभिसंगच्छामि न केनचिदनुकम्पनेन, सुहृदा च संगतोऽह-मित्यादिनाऽर्थेन तरुणेऽपि प्रव्रजित इति भावः / इति सूत्रार्थः // 6 // एवं मुनिनोक्तेतओ पहसिओ राया, सेणिओ मगहाहिवो। एवं ते इडिमंतस्स, कहं नाहो न विजइ? ||10|| होमि नाहो भयंताणं, मोगे मुंजाहि संजया !! मित्तनाईपरिवुडो, माणुस्सं खलु दुल्लहं // 11 // (पाई०टीका)ततस्तदनन्तरं श्रेणिको मगधाऽधिपो राजा प्रहसितः। हे महाभाग ! एवं तव ऋद्धिमतः ऋद्धियुक्तस्य कथं नाथो न विद्यते ?,नवरम्, एवमिति दृश्यमानप्रकारेण, ऋद्धिमतो Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणाह 323- अभिधानराजेन्द्रः-भाग 1 अणाह विस्मयनीयवर्णादिसंपत्तिमतः, कथमिति केन प्रकारेण, नाथो न विद्यते ? तत्कालाऽपेक्षया सर्वत्र वर्तमाननिर्देशः। “यत्रा-ऽऽकृतिस्तत्र गुणा वसन्ति, तथा गुणवतिधनम्, ततः श्रीः, श्रीमत्याज्ञा, ततो राज्यम्" इति हि लोकप्रवादः / तथा च न कथञ्चिदनाथत्यं भवतः संभवतीति भावः / यदि वाऽनाथतैव भवतः प्रव्रज्याप्रतिपतिहेतुः, ततः हे पूज्याः! अहं (भयंताणं इति) भदन्तानां पूज्यानां युष्माकं नाथो भवामि, यदा भवतां कोऽपि स्वामी नाऽस्ति, तदा अहं भवतां स्वामी भवामि, यदा अनाथत्वाद् युष्माभिर्दीक्षा गृहीता, तदाऽहं नाथोऽस्मीति भावः / हे संयत ! हे साधो ! भोगान् भुक्ष्य। कीदृशः सन् ? मित्रज्ञातिभिः परिवृतः सन्, हे साधो ! खलु इति निश्चयेन, मानुष्यं दुर्लभं वर्तते, तस्मात् मनुष्यत्वं दुर्लभं प्राप्य भोगान् भुक्त्वा सफलीकुरु॥१०-११॥ मुनिराह - अप्पणा वि अणाहोऽसि,सेणिया! मगहाहिवा!! अप्पणा अणाहो संतो, कस्स णाहो भविस्ससि ? ||12| हे राजन् ! श्रेणिक ! मगधदेशाधिपस्त्वमात्मनाऽपि अनाथोऽसि, आत्मना अनाथस्य सतस्तवाऽपि अनाथता,तदात्यमपरस्यकथं नाथो भविष्यसीति? ||१२सा एवं च मुनिनोक्ते - एवं वुत्तो नरिंदो सो, सुसंमंतो सुविम्हिओ। वयणं अस्सुयपुव्वं,साहुणा विम्हयं निओ // 13|| सनरेन्द्रः साधुना एवमुक्तः सन् विस्मयं नीतः, आश्चर्य प्रापितः। कीदृशो नरेन्द्रः ?, सुसंभ्रान्तोऽत्यन्तं व्याकुलतां प्राप्तः / पुनः कीदृशः ? सुविस्मितः पूर्वमेव तद्दर्शनात् संजाताश्चर्यः, पुनरपि तद्वचनश्रवणात् विस्मयवान्जातः, यतो हि तद्वचनमश्रुतपूर्व, श्रेणिकाय 'अनाथोऽसि त्वमिति' वचनं पूर्व केनाऽपि नो श्रावितम् / / 13 / / यदुक्तवांस्तदाहअस्सा हत्थी मणुस्सा मे, पुरं अंतेउरं च मे। मुंजामि माणुसे भोए, आणा इस्सरियं च मे // 14|| एरिसे संपयग्गम्मि, सव्वकामसमप्पिए। कहं अणाहो भवइ. मा हु मंते ! मुसं वए ? ||15| द्वाभ्यां गाथाभ्यां श्रेणिको राजा वदति - हे भदन्त ! पूज्य ! हु इति निश्चयेन, मृषामा ब्रूहि असत्यं मावद / एतादृशे संपदग्रये सतिसम्पत्प्रकर्षे सति, अहं कथमनाथो भवामि?। कीदृशोऽहम् ? सर्वकामसमर्पितः, सर्वे च ते कामाश्च सर्वकामाः, तेभ्यः सर्वकामेभ्यः समर्पितः शुभकर्मणा ढौकितः। अथ राजा स्वसंपत्प्रकर्ष वर्णयति-अश्वाधोटकाः बहवो मम सन्ति, पुनर्हस्तिनोऽपि प्रचुराः सन्ति, तथा पुनर्मनुष्याः सुभटाः सेवका बहवो विद्यन्ते, तथा मम पुरं नगरमप्यस्ति, च पुनर्मे मम अन्तःपुरं राशीवृन्दं वर्तते / पुनरहं मानुष्यान् भोगान् मनुष्यसम्बन्धिनो विषयान् भुनज्मिाच पुनराज्ञैश्वर्यं वर्तते, आज्ञा अप्रति-हतशासनस्वरूपं प्रभुत्वं वर्तते, यतो मम राज्ये कोऽपि मदीयामाज्ञां न खण्डयतीत्यर्थः / यतिस्तमुवाचन तुमं जाणे अणाहस्स, अत्थं पोत्थं च पत्थिवा!। जहा अणाहो हवइ, सणाहो वा नराहिवा!॥१६॥ हे पार्थिव ! हे राजन्! त्वम् 'अणाहस्स' अनाथस्य अर्थम् अभिधेयम्, चशब्दः पुनरर्थे, च पुनरनाथस्य प्रोत्था न जानासि, प्रकर्षणोत्थानं मूलोत्पत्तिः प्रोत्था, तां प्रोत्थाम्, केनाऽभि-प्रायेणाऽयमनाथशब्दः प्रोक्त इत्येवंरूपां न जानासि। हे राजन् ! यथाऽनाथोऽथवा सनाथो भवसि, तथा न जानासि, कथमनाथो भवति, कथं वा सनाथो भवति? ||16|| इत्याह सुणेह मे महाराय ! अव्वक्खित्तेण चेयसा। जहा अणाहो भवइ, जहा मे य पवत्तियं / / 17 / / हे महाराज ! मे मम कथयतः सतः त्यमव्याक्षिप्तेन स्थिरेणचेतसा शृणु / यथाऽनाथो नाथरहितो भवति, तथा मे ममाऽनाथत्वं प्रवर्तितम् / अथवा (मे य इति) मे एतदनाथत्वं प्रवर्तितं, तथा त्वं शृणु।इत्यनेन स्वकथाया उट्टङ्कः कृतः॥१७|| कोसंबी नाम नयरी, पुराणपुरमेयणी। तत्थ आसी पिया मज्झं, पमूयधणसंचओ॥१८॥ हे राजन् ! कौशाम्बी नगरी आसीत् / कीदृशी कौशाम्बी ? पुराणपुरभेदिनी जीर्णनगरभेदिनी, यादृशानि जीर्णनगराणि भवन्ति तेभ्योऽधिकशोभावती / कौशाम्बी हि जीर्णपुरी वर्त्तते जीर्णपुरस्था हि लोकाः प्रायशश्चतुरा धनवन्तश्च बहुज्ञा विवेकवन्तश्च भवन्तीति हार्दम् / तत्र तस्यां कौशाम्ब्यां मम पिताऽऽसीत् / कीदृशो मम पिता ? प्रभूतधनसञ्चयः / नाम्नाऽपि धनसंचयः, गुणेनाऽपि बहुलधनसंचय इतिवृद्धसंप्रदायः // 18 // पढमे वए महाराय !, अउला मेऽस्थिवेयणा। अहोत्था विउलो दाहो, सव्वगत्तेसु पत्थिवा! // 16 // हे महाराज ! प्रथमे वयसि यौवने एकदा अतुलोत्कृष्टा, अस्थि-वेदना अस्थिपीडा, (अहोत्था इति) अभूत्। अथवा "अच्छि-वेयणा'" इतिपाठे अक्षियेदना नेत्रपीडा अभूत् / ततश्च हे पार्थिव ! हे राजन् ! सर्वगात्रेषु विपुलो दाघोऽभूत् // 16 // सत्थं जहा परमतिक्खं, सरीरविवरंतरे। पाविसिज्ज अरी कुद्धो, एवं मे अस्थिवेयणा // 20 // हे राजन् ! यथा कश्चिदरिः क्रुध्यन् कुद्धः सन्, शरीरविवरान्तरे नासाकर्णचक्षुःप्रमुखरन्ध्राणां मध्ये परमतीक्ष्णं शस्त्रं प्रपीडयेद् गाढमवगाहयेत्, एवं मे ममास्थिवेदनाऽभूत्। (शरीरविवरंतरे ति) (पाई०टीका)शरीरवियराणि कर्णरन्ध्रादीनि, तेषामन्तरं मध्यं शरीरविवरान्तरं तस्मिन् (पाविसिज्ज त्ति) प्रवेशयेत् प्रक्षिपेत् / शरीरविवरग्रहणमतिसुकुमारत्वादान्तरत्वं चाऽऽगाढवेदनोपलक्षणम् / पठ्यते च- शरीरवीर्यान्तरेण "आविलिज त्ति" पाठान्तरे शरीरवीर्य सप्त धातवस्तदन्तरे तन्मध्य आपीडयेद् गाढमवगाहेयत्। एवमित्यापीयमानस्य शस्त्रवद् मे ममा-ऽक्षिवेदना / कोऽर्थः ? यथा तदत्यन्तबाधाविधायि तथैषाऽपीति // 20 // तियं मे अंतरिच्छं च, उत्तमंगं च पीडइ। इंदासणिसमा धोरा, वेयणा परमदारुणा // 21 // हे राजन् ! सा परमदारुणा वेदना मे मम त्रिकं कटिपृष्ठविभागम् / च पुनरन्तरिच्छाम्- अन्तर्मध्य इच्छा अन्तरिच्छा, तामन्तरिच्छाम् / भोजनपानरमणाभिलाषरूपाम् / च पुनरुत्तमाङ्ग मस्तकं पीडयति / कीदृशी वेदना ? इन्द्राशनिसमा घोरा, इन्द्रस्याऽशनि-र्यजं तत्समाऽतिदाहोत्पादकत्वात् तुल्या, घोरा भयदा // 21 // किं न कश्चित्तां प्रतिकृतवानित्याहउवट्ठिया मे आयरिया, विजामंततिगिच्छगा। Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणाह 324 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणाह अधीया सत्थकुसला, मंतमूलविसारया||२२|| हेराजन् ! तदेत्यध्याहारः। आचार्याः वैद्यानां शास्त्रा-ऽभ्यासकारकाः मे उपस्थिताश्चिकित्सां कत्तु लग्नाः, कीदृशा आचार्याः विद्यामन्त्रचिकित्सकाः विद्यया मन्त्रेण च चिकित्सन्ति चिकित्सा कुर्वन्तीति विद्यामन्त्रचिकित्सकाः, प्रतिक्रियाकर्तारः / पुनः कीदृशा आचार्याः अधीताः सम्यक् पठिताः / 'अबीया' इति पाठे, न विद्यते अन्यो द्वितीयो येभ्यस्तेऽद्वितीया असाधारणाः / पुनः कीदृशास्ते ? शास्त्रकुशलाः शास्त्रेषु विचक्षणाः। पुनः कीदृशास्ते मन्त्रमूलविशारदाः, मन्त्राणि देवाधिष्ठितानि, मूलानि जटिका-रूपाणि, तत्र विचक्षणाः मन्त्रमूलिकानां गुणज्ञाः // 22 // ते मे तिगिच्छं कुव्वंति, चाउप्पयं जहाहियं / नय दुक्खा विमोयंति, एसा मज्झ अणाहया / / 23 / / ते वैद्याचार्या मम चिकित्सां रोगप्रतिक्रियां यथा हितं भवेत्तथा कुर्वन्ति। कीदृशं चैकित्स्यम् ? चातुष्पादं चत्वारः पादाः प्रकारा यस्यंतचतुष्पदम्, तस्य भावः चातुष्पादम्, चातुर्विध्यमित्यर्थः। वैद्य 1, औषध 2, रोगि 3, प्रतिचारक ४,रूपम् / अथवा- वमन 1, विरेचन 2, मर्दन 3, स्वेदन ५,रूपम्। अथवा-अञ्जन १,बन्धन २,लेपन 3, मर्दनरूपम्। शास्त्रोक्तं गुरु-पारंपर्यागतम् / चक्रुरिति स्थाने प्राकृतत्वात् कुर्वन्तीत्युक्तम्, ते वैद्या मां दुःखात् न विमोचयन्ति स्म। प्राकृतत्वाद् भूतार्थे वर्तमानार्थः प्रत्ययः, एषा ममानाऽथता वर्तते // 23 // अन्यच - पिया मे सव्वसारं पि, देजाहि समकारणा। न य दुक्खा विमोयंति, एसा मज्झ अणाहया // 24 // हे राजन् ! मम पिता मम कारणे सर्वमपि सारं गृहे यत्सारं सार-वस्तु तत्सर्वमपि वैद्योभ्योऽदात, तथापिवैद्या मांदुःखाद्न विमोचयन्ति स्म। एषा मम अनाथता ज्ञेयेति शेषः // 24 // माया वि मे महाराय !, पुत्तसोगदुहट्टिया। न यदुक्खा विमोयंति, एसा मज्झ अणाहया॥२५।। (पाईल्टीका तथा माताऽपि पुत्रविषयः शोकः पुत्रशोकः, हा ! कथमित्थं दुःखी मत्सुतोजात इत्यादिरूपः,ततो दुःखम्, तेन (अट्टियत्ति) आर्ता / अथवा (अद्दिय त्ति) अर्दिता, उभयत्र पीडितेत्यर्थः / ततः पुत्रशोकदुःखार्ता पुत्रशोकदुःखार्दिता वा ज्ञेया॥२५॥ भायरा मे महाराय !, सगा जिट्ठ कणिट्ठगा। न य दुक्खा विमोयंति, एसा मज्झ अणाहया।।२६|| हे महाराज ! मे मम भ्रातरोऽपिस्वका आत्मीयाः,ज्येष्ठकनिष्ठका वृद्धा लघवश्च मां न च दुःखाद्विमोचयन्ति स्म / एषा ममाऽनाथता ज्ञेया। (पाई०टीका)(सग त्ति) लोकरूदित सौदर्याः स्वका वा। अत्मीयाः // 26 // भइणीओ मे महाराय!, सगा जिट्ट कणिट्ठगा। न य दुक्खा विमोयंति, एसा मज्झ अणाहया // 27 // हे महाराज ! मे मम भगिन्योऽपिस्वका एकमातृजाः। ज्येष्ठाः कनिष्ठाश्च मां दुःखात् न विमोचयन्ति स्म, एषा मम अनाथता ज्ञेया // 27 / / भारिया मे महाराय !, अणुरत्ता अणुव्वया। अंसुपुण्णेहि नयणेहि, उरं मे परिसिंचइ // 28|| अन्नं पाणं च पहाणं च, गंधमल्लविलेवणं / मए नायमनायं वा, सा बाला नोव जइ // 26 // खणं पि मे महाराय !, पासाओ विन फिट्टइ। नय दुक्खा विमोयंति, एसा मज्झ अणाहया // 30 // हे महाराज ! मे मम भार्या कामिन्यपि दुःखत् मां न मोचयति स्म। कथम्भूता भार्या ? अनुरक्ता अनुरागवती। पुनः कथंभूता?, अनुव्रता पतिव्रता पतिमनुलक्षीकृत्य व्रतं यस्याः सा अनुव्रता। एतादृशी भार्या में ममोरोहृदयमश्रुपूर्णाभ्यां लोचनाभ्यां सिञ्चति स्म। (पाई०टीका)अपरञ्च भार्या पत्नी अनुरक्ताऽनुरागवती (अणुव्वय त्ति) अन्विति कुलानुरूपं व्रतमाचारोऽस्या अनुव्रता, पतिव्रतेति यावत्, वयोऽनुरूपा वा / पठ्यते च- (अणुत्तरमणुव्वय त्ति) इह च मकारोऽलाक्षणिकः / अनुत्तरा अति प्रधाना (उरं ति) उरो वक्षः, परिषिञ्चति समन्तात् प्लावयति ||28|| पुनः सा बाला मत्कामिनी अन्नमशनं मोदकादिकं भक्ष्यं, पानं शर्क रोदकादिकं, पुनः स्नानं कुङ्कु मादिपानीयैरभितैलचोवकमेदजवाधिप्रमुखैर्गात्रार्चनं मया ज्ञातं वा अज्ञातं स्व- भावेनैव एतत्सर्वं भोगाऽङ्गं नोपभुङ्के नाऽनुभवति / मम दुःखत् सर्वाण्यपि भोगाऽङ्गानि त्यक्तानि। (पाई०टीका)स्नानं स्नात्यनेनेति स्नानम् गन्धोदकादि, मया ज्ञातमज्ञातं वेत्यनेन सद्भावसारतामाह / पठ्यते च- "तारिस रोगमावण्णे ति" तादृशमुक्तरूपं रोगमक्षिरोगादिकम्, 'आवण्णे' प्राप्ते मयीति गम्यते / (से ति) भार्या बालेव बालाऽभिनवयौवना नोपभुक्ते नाऽऽसेवते // 26 // (खणं वि त्ति) पुनर्हे महाराज ! सा बाला मम पाश्र्थात् नैकट्यात् (न विफिट्टति) न अपयातीत्यर्थः / परं दुःखात् मां न मोचयति, एषा ममाऽनाथता ज्ञेया। (पाई०टीका)(पासाओ विण फिट्टइत्ति) अपिश्चशब्दार्थः, ततः पार्थाच्च नाऽपयाति, सदा सन्निहितैवाऽऽस्ते // 30 // अनेन तस्या अपि वत्सलत्वमाहतओ हं एवमाहंसु, दुक्खमा हु पुणो पुणो। वेयणा अणुभविउंजे, संसारम्मि अणंतए॥३१॥ ततोऽनन्तरं प्रतीकारेषु विफलेसु जातेषु अहमेवमवादिषम् / एवमिति किम् ? हुइति निश्चयेन या वेदना अनुभवितुं दुःक्षमा भोक्तुमसमर्थास्ता वेदनाः संसारे पुनः पुनर्भुक्ता इति शेषः / वेद्यते दुःखमनयेति वेदना / दुःखेन क्षम्यते सह्यते इति दुःक्षमा दुस्सहा, कीदृशे संसारे ? अनन्तकेऽपारे। (पाई०टीका)तत इति रोगाप्रतिकार्यतान्तरमहमेवं वक्ष्य-माणप्रकारेण (आहंसु त्ति) उक्तवान्, यथा (दुक्खमा हुत्ति) हुरेवकारार्थः / ततो दुःक्षमैव दुःसहैव पुनःपुनर्वेदना उक्तरूपा रोगव्यथा अनुभवितुम्, 'जे' इति निपातः पूरणे // 31 // सइंच जइ मुन्चेजा, वेयणा विउला उ मे। खंतो दंतो निरारंभो, पव्वइए अणगारियं // 32 // अहं कि मवादिषम् ? तदाह- यदि सकृ दप्ये कवारमप्यह Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणाह 325 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणाह वेदनाया विमुच्ये, तदाऽहं क्षान्तो भूत्वा, पुनर्दान्तो जितेन्द्रियो भूत्वा निरारम्भः सन् अनगारत्वं साधुत्वं, प्रव्रजामि दीक्षां गृह्णामीति भावः / कथम्भूताया वेदनायाः ? विपुलाया विस्तीर्णायाः। (पाई०टीका)यतश्चैवमतः (सइंच ति) चशब्दोऽपिशब्दार्थः / ततः सकृदप्येकदाऽपि यदि मुच्येयाऽहमिति गम्यते / कुतः? (वयण त्ति) वेदनाया (विउल त्ति) विपुलाया विस्तीर्णायाः / इत्यनुभूयमानायाः / ततः किमित्याह- क्षान्तः क्षमावान्, दान्त इन्द्रियनोइन्द्रियदमेन (पव्वए अणगारियं ति) प्रव्रजेयं गृहात् निष्क्रामेयम् / ततश्चाऽनगारिता भावभिक्षुतामङ्गीकुर्यामिति शेषः। यद्वा- प्रव्रजेयं प्रतिपद्येयाऽनगारिताम् येन संसारोच्छित्तितो मूलत एव न वेदनासंभवः स्यादिति भावः // 32 // एवं च चिंतइत्ताणं, पसुत्तो मिनराहिवा !! परियटृति य राईए, वेयणा मे खयं गया॥३३॥ एवं पूर्वोक्तं चिन्तनं चिन्तयित्वा हे नराधिप! यावदहं सुप्तोऽस्मितावत् तस्यामेव रात्रौ प्रवर्त्तमानायाम्, अतिक्रामन्त्यां, मेमम, वेदना क्षयं गता, वेदना उपशान्ता इत्यर्थः। (पाईन्टीका)एवं च चिन्तयित्वा भणन्ति, न केवलमुक्त्वा चिन्तयित्वा चैवं (पसुत्तोमि त्ति) प्रसुप्तोऽस्मि (परियट्टति यत्ति) परिवर्त्तमानायामतिक्रामन्त्याम् // 33 // तओ कल्ले पभायम्मि, आपुच्छित्ताण बंधवे। खंतो दंतो निरारंभो, पव्वइओ अणगारियं // 34 // (पाई०टीका ततो वेदनोपशमनाऽनन्तरं(कल्लेत्ति)कल्योनीरोगः सन् प्रभाते प्रातः / यद्वा- (कल्लइ त्ति) चिन्ताऽऽदिनाऽपेक्षया द्वितीयदिने प्रकर्षण व्रजितो गतः प्रव्रजितः। कोऽर्थः? प्रतिपन्नवाननगारितामिति। ततो वेदनाया उपशान्तेरनन्तरं (कल्ये इति) नीरोगे जाते सति प्रभातसमये बान्धवान् स्वज्ञातीन् आपृच्छ्याऽहमनगारित्वं साधुत्वं प्रव्रजितः, साधुधर्ममङ्गीकृतवान्। कीदृशोऽहम् ? क्षान्तः पुनन्तिः , पुनरहं निरारम्भः // 34 // तओ हं नाहो जाओ, अप्पणो य परस्स या सव्वेसिं चेव भूयाणं, तसाण थावराण य॥३५।। हे राजन् ! ततो दीक्षाग्रहणानन्तरमात्मनश्च पुनः परस्य नाथो योगक्षेमकरत्वेन स्वामीजातः। आत्मनो हि नाथः,शुद्धप्ररूपण-त्वात्। अपरस्य च, हितचिन्तनात् / एवं निश्चयेन सर्वेषां भूतानाम्, त्रसानां च पुनः स्थावराणां नाथो जातः॥३५॥ किमिति प्रव्रज्याप्रतिपत्त्यनन्तरं नाथस्त्वं जातः, पुरा तु नेत्याहअप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली। अप्पा कामदुधा घेणू, अप्पा मे नंदणं वणं // 36 // (आत्मेति)व्यवच्छे दफलत्वाद् वाक्यस्याऽऽत्मैव नाऽन्यः कश्चिदित्याह- नदी सरित् / वैतरणीति नरकनद्या नाम / ततो महानर्थ हे तुतया नरक नदी वा / अत एव आत्मैव कूटमिव जन्तुयातनाहेतुत्वाच्छाल्मली कूटशाल्मली नरकोद्भवा। तथा आत्मैव कामानभिलाषान् दोग्धि प्रापकतया प्रपूरयति कामदुधा, धेनुरिव धेनुः इयं रूढित उक्ता / एतदुपमात्वमभिलषित-स्वर्गापवर्गावाप्तिहेतुतया आत्मैव मे मम, नन्दनं नन्दननामकं वनमुद्यानम् / एतदौपम्यं चाऽस्य चित्तप्रत्तिहेतुतया // 36 // यथा चैतदेवं, तथाऽऽहअप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य / अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्ठिय सुपट्ठिओ // 37|| आत्मैव कर्ता विधायको दुःखानां सुखानां वेति योगः। प्रक्रमान आत्मन एव विकर्ता चा विक्षेपकश्चात्मैव तेषामेव। अतश्च आत्मैव मित्रमुपकारितया सुहृत, (अमित्रं चेति) अभित्रश्चापकारितया दुर्हत्। कीदृक् ? (दुप्पट्ठियं सुप्पद्वितो त्ति) दुष्ठ प्रस्थितः सकलदुःखहेतुरिति विषादिकल्पः, सुष्ठ प्रस्थितश्च सकलसुखहेतुरिति कामधेन्वादि-कल्पः / तथा च प्रव्रज्याऽवस्थायामेवमुपस्थितत्वेन आत्मनोऽन्येषां च योगक्षेमकरणे समर्थत्वान्नाथत्वमिति सूत्रगर्भाऽर्थः / / 37 / / पुनरन्यथा नाथत्वमाहइमा हु अन्नो वि अणाहया निवा!, तमेकचित्तो निवुओ सुणेहि। निगट्ठधम्म लमियाण वी जहा, सीदति एगे बहुकायरा नरा // 38|| (पाई०टीका)इयमनन्तरमेव वक्ष्यमाणा। हुपूरणे, अन्या परा, अपिः समुच्चये। अनाथताऽस्वामिता, यदभावतोऽहं नाथो जात इत्याशयः। निवृत्तिरूपतामित्यनाथतामेकचित्त एकाग्रमनाः, निभृतः स्थिरः, शृणु। का पुनरसावित्याह-निर्गन्थानां धर्म आचारो निर्ग्रन्थधर्मस्तम् (लभियाण वित्ति) लब्ध्वाऽपि। यथेत्युपदर्शन। सीदन्ति तदनुष्ठानं प्रति शिथिलीभवन्ति / एके केचन, ईषदपरिसमाप्ताः कातरा निःसत्त्वा बहुकातराः / "विभाषा सुपो बहुच पुरस्तात्तु" || पाणि० 5 / 3.68 / इत्यतः प्राग् बहुच्प्रत्यये हि सर्वथा निःसत्वाः, ते मूलत एवन निर्ग्रन्थमार्ग प्रतिपद्यन्त इत्येवमुच्यते / यदि वा कातरा एव बहवः संभवन्तीति, बहुशब्दो विशेषणम्। नराःपुरुषाः सीदतश्च नात्मानमन्यांश्च रक्षयितुं क्षमाः। इतीयं सीदनलक्षणा पराऽनाथ तेति भावः / / 3 / / जो पव्वइत्ताण महव्वयाई, सम्मंच ना फासइ से पमाया। अणिग्गहप्पा य रसेसु गिद्धे, न मूलओ छिंदइ बंधणं से // 39 // हे राजन् ! यो मनुष्यः प्रव्रज्य दीक्षां गृहीत्वा, महाव्रतानि प्रमादात् सम्यग्विधिना न स्पृशति, न सेवते, (से इति) स प्रमादवशवर्ती बन्धनं कर्मबन्धनं रागद्वेषलक्षणं संसारकारणं मूलतो मूलाद्न छिनत्ति, मूलतो नोत्पाटयति। सर्वथा रागद्वेषौ न निवारयतीत्यर्थः / (पाई०टीका)नो स्पृशतीति नाऽऽसेवते प्रमादान्निद्रादेरनिग्रहोऽविद्यमानविषयनियन्त्रणे आत्मा यस्य सोऽनिग्रहात्मा। अत एव रसेषु मधुरादिषु गृद्धो गृद्धिमान् / बध्यतेऽनेन कर्मेति बन्धनम् रागद्वेषात्मकं (से इति) सः॥३६॥ आउत्तया जस्स य नत्थि काई, ईरियाइ भासाइ तहेसणाए। आयाण-निक्खेव-दुगंछणाए, न धीरजायं अणुजाइ मग्गं / / 4 / / Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणाह 326 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणाह हे राजन् ! स साधु/रयातं मार्ग नाऽनुयाति, धीरैर्महापुरुषैः तीर्थकरैर्गणधरैश्च यातं प्राप्तम्, अर्थात् मोक्षमार्ग न प्राप्नोति / स कः ? यस्य साधोरीर्यायां गमनागमनसमिती, तथा भाषायां, तथा एषणायामाहारग्रहणसमिती, पुनरादाननिक्षेपणसमिती, वस्तूनां ग्रहणमोचनविधौ, तथा(दुगंछणाए इति)उचार प्रश्रवणश्लेष्मजल्लसिङ्घाणादीनां परिष्ठापनसमितावायुक्तता काचित्, नाऽस्तीति॥४०॥ तथा च चिरं पिसे मुंडरुई भवित्ता, अथिरव्वए तव नियमेहँ भटे। चिरं पि अप्पाण किलेसइत्ता, न पारए होइ हु संपराए / / 4 / / स पूर्वोक्तः पञ्चसमितिरहितो मुन्याभासश्चिरं मुण्डरुचिभूत्याऽऽत्मानमपि चिरं क्लेशेपातयित्वा, हुइति निश्चयेन, संपराये संसारे पारगो न भवति / कीदृशः सः? अस्थिरवतोऽस्थिराणि व्रतानि यस्य सोऽस्थिरव्रतः।पुनः कीदृशः सः? तपो नियमभूष्टः / यः कदापितपोन करोति, तथा पुनर्नियममभिग्रहादिकं च न करोति, केवलं द्रव्यमुण्डो भवति, स संसारस्य पारं न प्राप्नोतीत्यर्थः।।४१।। स चैवंविधः - पोल्लेव मुट्ठी जह से असारो, अयंतिए कूडकहावणे वा। राढामणी वेरुलियप्पगासे, अमहग्घए होइहु जाणएसु // 42 // स पूर्वोक्तो मुण्डरुचिरसारो भवति / अन्तःकरणे धर्माभावात् रिक्तोऽकिश्चित्करो भवति। स क इव ? पोल्लो मुष्टिरिव / यथा-रिक्तो मुष्टिरसारो मध्ये सुषिर एव, तथा स मुण्डरुचिः कूटकार्षा-पण इवाऽसत्यनाणकमिवाऽयन्त्रितो भवति, नयन्त्रितोऽयन्त्रिताऽनादरणीयो निर्गुणत्वादुपेक्षणीयः स्यादित्यर्थः। उक्तमर्थमर्थान्त-रन्यासेन द्रढयतिहु यस्मात् करणात् राढामणिः काचमणिः (जाणएसु इति) ज्ञातृकेषु मणिपरीक्षकनरेषु वैडूर्यप्रकाशोऽमहाऽर्घको भवति, बहुमूल्यो न भवति। वैडूर्य-मणिवत् प्रकाशो यस्य स वैडूर्यमणिप्रकाशः, वैडूर्यमणिसदृक्तेजाः। महान् अ? यस्य स महाघः, महाध एव महाऽर्घकः। न महाघकोऽमहार्घकः। अबहुमूल्य इत्यर्थः / यथा - मणिशेषु वैडूर्यमणिर्बहुमूल्यः स्यात्, तथा काचमणिर्बहुमूल्यो न स्यादेवं धर्महीनो मुनिः साधुर्गुणशेषु यथा सद्धर्माचारयुक्तः साधुर्वन्दनीयः स्यात्तथा स मुण्डरुचिर्वन्दनीयो न स्यादिति भावः। (पाई०टीका)"पोल्लरमुट्ठीजहत्ति' पाठान्तरम्। इह"पोल्लर त्ति' सुषिरा, असारत्वं चोभयोरपिसदर्थशून्यतया॥४२॥ कुसीललिंग इह धारयित्ता, इसिज्झयं जीविय वूहयित्ता। असंजये संजय लप्पमाणे, विणिहायमागच्छइसे चिरं पि॥५३॥ (से इति) स साध्याचाररहितः, इह संसारे चिरं चिरकालं यावत् | निघातमागच्छति पीडां प्राप्नोति / किं कृत्वा ? कुशीललिङ्ग पार्श्वस्थादीनां चिह्न धारयित्वा।पुनर्जीविकायै आजीविका-ऽर्थमृषिध्वज रजोहरणमुखपोत्तिकादिकं बृंहयित्या वृद्धि प्रापय्य, विशेषेण निघातं विनिघातं विविधपीडाम्। स किं कुर्वाणः? असंयतः सन् अहं संयत इति लालप्यमानः, असाधुरपिसाधुरहमिति ब्रुवाणः।।४३।। अत्रैव हेतुमाहविसं तु पीयं जह कालकूडं, हणाइ सत्थं जह कुणहीयं / एमेव धम्मो विसओवसण्णो, हणाइ वेयाल इवाविवण्णो // 44 // हे राजन् ! यथा कालकूटो महाविषः पीतः सन् (हणाइ ति) हन्ति। पुनर्यथा कुगृहीतं विपरीतवृत्त्या गृहीतं शास्त्र हन्ति। एवमेव अनेनैव दृष्टान्तेन विषयैरिन्द्रियसुखैरुपपन्नो विषयसुखाऽभिलाषयुक्तो धर्मोऽपि हन्ति / पुनः स विषयो धर्मोऽविपन्नवे ताल इव हन्ति / मन्त्रादिभिरकीलितः / यथा स्फुरबलोमन्त्रयन्त्रैरनिवारितबलो वेतालो महापिशाचो मारयति, तथा विषयसहितो धर्मोऽपि मारयतीत्यर्थः।।४४ / / (पाई०टीका)-(वेयाल इवाविवण्णो त्ति) चस्य गम्यमान-त्वाद्वेताल इवाऽविपन्नोऽप्राप्तविपत्, मन्त्रादिभिरनियन्त्रित इत्यर्थः / पठ्यते च(बेयाल इवाऽविबंधणो त्ति) इह वा विबन्धनोऽविद्यमानमन्त्रादिनियन्त्रणः / उभयत्र साधकमिति गम्यते।।४४|| जे लक्खणं सुविणं पउंजमाणे, निमित्तकोऊहलसंपगाढे। कुहेडविज्जासवदारजीवी, न गच्छई सरणं तम्मि काले // 4 // यः साधुर्लक्षणं प्रयुञ्जानः सामुद्रोक्तं स्त्रीपुरुषशरीरचिह्न शुभाऽशुभसूचकं प्रयुङ्क्ते, गृहस्थानां पुरतो वक्ति। यः पुनः साधुः सुविणं स्वप्नविद्यां प्रयुञ्जानो भवति,स्वप्नानां फला- ऽफलं वक्ति / पुनर्यः साधुनिमित्तकौतूहलसम्प्रगाढो भवति / निमित्तं च कौतूहलं च निमित्तकौतूहले तयोः सम्प्रगाढोऽत्यन्ताऽऽशक्तः स्यात् / तत्र निमित्त भूकम्पोल्कापातके तूदयादि / कौतूहलं कौतुकं पुत्रादिप्राप्त्यर्थ स्नानभेषजौ-षधादिप्रकाशनम्। उभयत्र संरक्तो भवति। पुनर्यः साधुः कुहेठक्र विद्याऽऽश्रवद्वारजीवी भवति। कुहेटका विद्याः कु-हेटकविद्याः। अलीकाऽऽश्वर्य विधायिमन्त्रतन्त्रयन्त्रज्ञाना- 5ऽत्मिकास्ता एवाश्रवद्वाराणि, तैर्जीवितुमाजीविकां कुतु शीलं यस्य स कुहेटकविद्याऽऽश्रवद्वारजीवी, एतादृशो यो भवति। हेराजन्!परं तस्मिन् काले लक्षणस्वप्ननिमित्तकौतूहलकुहेटकविद्याश्रव द्वारोपार्जितपातकफलोपभोगकाले ससाधुः शरणं न गच्छति,न प्राप्नोति। तं साधु कोऽपि दुःखात् नरकतिर्यग्योन्यादौ न त्रायत इत्यर्थः // 45 // अमुमेवाऽर्थ भावयितुमाहतमंतमेणेव उसे असीले, सया दुही विप्परियासमुवेइ। संधावइ नरयं तिरिक्खजोणी, मोणं विराहितु असाहुरूवे // 46|| Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणाह 327 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणाह पुनः स द्रव्यमुण्डः साधुरूपो मौनं विराध्य साधुधर्म दूषयित्या, नरकतिर्यग्योनि संधावति, सततं गच्छति / पुनः अशीलः कु- शीलो विपर्यासमुपैति, तत्त्वेषु वैपरीत्यं प्राप्नोति, मिथ्यात्वमूढो भवतीति भावः / कीदृशः सः? तमस्तमसैव सदादुःखी अतिशयेन तमस्तमस्तमः, तेन तमस्तमसैव अज्ञानमहाऽन्धकारेणैव संयम विराधनाजनितदुःखसहितः॥४६॥ कथं पुनर्मोनं विराध्य कथं वा नरकतिर्यग्गती सन्धायतीत्याहउद्देसियं कीयगडं नियागं, न मुच्चई किंचि अणेसणिज्जं / अग्गीविवासव्वभक्खी मवित्ता, इओ चुओ गच्छइ कटुपावं // 47 // पुनर्यः साधुपाशः उद्देशिकं दर्शनिन उद्दिश्य कृतं उद्देशिक- माहारम् / पुनः साधुनिमित्तं क्रीतं मौल्येन गृहीतम् / पुनराहृतं साधुसंमुखमानीतं साधुस्थान एव गृहस्थेन आनीतं तदाहृतम् / पुनर्यदाहारं नित्यक नित्यपिण्डं गृहस्थगृहे नियतपिण्डमतादृशं सदोषमाहारमनेषणीयं साधुना अग्राह्यं न मुञ्चति। जिह्वा-लाम्पट्येन किमपिनत्यजति, सर्वमेव गृह्णाति / सोऽग्निरिव सर्व-भक्षीभूय हरितशुष्कप्रज्वालको वैश्वानर इव भूत्वा प्रासुका- ऽऽहारं मुक्त्वा इतश्च्युतो मनुष्यभवाचयुतः कुगति व्रजति / किं कृत्वा ? पापं कृत्वा संयमविराधनां विधाय // 47 / / न तं अरी कंठछेत्ता करेइ, जं से करे अप्पणिय दुरप्पया। से नाहई मचुमुहं ति पत्ते, पच्छाऽणुतावेण दयाविहूणो॥४८|| (पाई०टीका)यतश्चैवं सुदुश्चरितैरेव दुर्गतिप्राप्तिः, अतोऽनेनैव (तमिति) प्रस्तावादनर्थकण्ठछेत्ता प्राणहर्ता (से) तस्य (दुरप्पयेति) प्राकृतत्याद् दुरात्मतां दुष्टाचारप्रवृत्तिरूपां न चैनामाचरन्नपि जन्तुरत्यन्तमूढतया वेत्ति / तत्किमुत्तरकालमपिन वेत्स्यतीत्याह- स दुरात्मा कर्ता ज्ञास्यति। प्रक्रमाद्दुरात्मतां मृत्युमुखं तु मरणसमयम्, पुनः प्राप्तः पश्चादनुतापेनहा दुष्ट मयाऽनुष्ठितमिति, एवंरूपेण दया संयमसत्याधुपलक्षणमहिंसा वा तद्विहीनः सन् / मरणसमये हि प्रायोऽतिमन्दधर्मस्याऽपि धर्माभिप्रायोत्पत्तिरेवम-भिधानम्। यतश्चैवं महानर्थहेतुः पश्चात्तापहेतुश्व दुरात्मता तदादित एव मूढतामपहाय परिहर्तव्येयमिति भावः / / 48|| यस्तु मृत्युमुखं प्राप्तोऽपि न तं वेत्स्यतीति तस्य का वार्तेत्याहनिरट्ठिया निप्परुई उतस्स, जे उत्तमढे विवजासमेइ। इमे वि से नत्थि परे विलोए, दुहओ वि से ज्झिज्झइ तत्थ लोगे ||4|| (पाई०टीका)निरर्थिका तुशब्दस्यैवकाराऽर्थस्येहसम्बन्धात् निरर्थकैव निष्फलैव। नान्ये श्रामण्ये रुचिरिच्छा नाग्न्यरुचिः, तस्य(जे उत्तम8 | ति)सुब्ब्यत्ययादपेश्च गम्यमानत्वादुत्तमार्थे- ऽपि पर्यन्तसमयाराधनारूपे आस्तां पूर्वमित्यपिशब्दार्थः / विपर्यासं दुरात्मतायामपि सुन्दराऽऽत्मतापरिज्ञानरूपमेति गच्छति, इतरस्य तु कथञ्चित् स्यादपि किञ्चित् फलमिति भावः / किमेवमुच्यते? यतः (इमे वित्ति) अयमपि प्रत्यक्षो लोक इति सम्बन्धः / ( से इति) तस्य नाऽस्ति, न विद्यते / न केवलमयमेव, परोऽपिलोको जन्मा-ऽन्तरलक्षणः। तत्रेह लोकाऽभावः शरीरक्लेशहेतुलोचनादिसेवनात्, परलोकाभावश्च कुगतिगमनतः शारीरमानसदुःखसम्भवात्। तथाच (दुहओ वित्ति) द्विधाऽप्यैहिकपारतिकार्थे भावेन (ज्झिज्झइ त्ति) स ऐहिक-पारत्रिकार्थसंपत्तिमतो जनानवलोक्य धिम्मामपुण्य-भाजनमुभयभ्रष्टत-येति चिन्तया क्षीयते। तत्रेत्युभयलोकाभावे सति लोके जगति 1146 / / यदुक्तं स ज्ञास्यति पश्वादनुतापेनेति, तत्र यथाऽसौ परितप्यते तथा दर्शयन्नुपसंहारमाहएमेव हा छंदकुसीलरूवे, मग्गं विराहित्तु जिणुत्तमाणं / कुरीविवा मोगरसाणुगिद्धा, निरट्टसोया परितावमेइ॥५०|| (पाई०टीका) एवमेवोक्तरूपेणैव महाव्रतस्पर्शादिना प्रकारेण यथाछन्दाः स्वरुचिविरचिताचाराः कुशीलाः कुत्सितशीलाः तद्रूपास्तत्स्वभावाः, कुरुरीव पक्षिणीव (निरद्वसोय त्ति) निरर्थो निष्प्रयोजनः शोको यस्याः सा निरर्थशोका, परितापं पश्चात्तापरूपम्, एति गच्छति / यथा चैषाऽऽमिषगृद्धा पक्षाऽन्तरेभ्यो विपत्प्राप्तौ शोचनेन च ततः कश्विद्विपत्प्रतीकार इत्येवमसावपि भोगरसगृद्ध ऐहिकाऽऽमुष्मिकाsनर्थप्राप्तौ ततोऽस्य स्वपरपरित्राणा-समर्थत्येऽनाथत्वमितिभावः / / 50 // एत्-श्रुत्वा यत्कृत्यं, तदुपदेष्टुमाहसोचाण मेहावि ! सुभासियं इम, अणुसासणं नाणगुणोववेयं। मगं कुसीलाण जहाय सव्वं, महानियट्ठाण वए पहेणं // 51 // हे मेधाविन् ! हे पण्डित ! हे राजन् ! इदं सुभाषितं सुष्ठ भाषित सुभाषितम्, अनुशासनम् उपदेशवचनं, श्रुत्या सर्व कुशीलानां मार्गम्। (जहाय इति) त्यक्त्वा महानिर्ग्रन्थानां महासाधूना, पथि मार्गे, चरेत् व्रजेत् / कीदृशमनुशासनम् ? ज्ञानगुणोपपेतं ज्ञानस्य गुणाः ज्ञानगुणाः, तैरुपपेतं ज्ञानगुणोपपेतम्॥५१॥ ततः किं फलमित्याहचरित्तमायारगुणण्णिए तओ, अणुत्तरं संजमपालियाणं। निरासवे संखवियाण कम्म, उवेइ ठाणं विउलुत्तमं धुवं // 52 // ततस्तस्मात् कारणात् महानिर्ग्रन्थमार्गगमात् निराश्रवो मुनिर्महाव्रतपालकः साधुर्विपुलमनन्तसिद्धानामवस्थानादसंकीर्णमुत्तमं सर्वोत्कृष्ट पुनर्बुवं निश्चलं शाश्वतमेतादृशं मोक्षस्थानमुपैति प्राप्नोति / कीदृशः साधुः? चारित्रऽऽचार गुणाऽन्वितःचारित्रस्याऽऽचारश्चारित्राऽऽचारश्चारित्रसेवनं,गुणा ज्ञानशीलादयः, चारित्राऽऽचारश्च गुणाश्च चारित्राऽऽचारगुणास्तैर-न्वितश्चारित्राऽऽचारगुणान्वितः Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणाह 328 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणाह अत्र मकारः प्राकृतत्वात् / किं कृत्वा साधुर्मोक्षं प्राप्नोति ? अनुत्तरं प्रधानं भगवदाज्ञाशुद्धं संयम सप्तदशविधं पालयित्वा। पुनः किं कृत्वा? कर्माण्यष्टावपि संक्षेप्य क्षयं नीत्वैतावता चारित्रा-चारज्ञानादिगुणयुक्तः, अत एव निरुद्धाऽऽश्रवः प्रधानसंयमं प्रपाल्य, सर्वकर्माणि संक्षयं नीत्वा मोक्ष प्राप्नोतीत्यर्थः // 52 // अथोपसंहारमाह-- एवुग्गदंते वि महातवोहणे, महामुणी महापइण्णे महायसे। महानियं ठिजमिणं महासुयं, __ से कहिए महया वित्थरेणं // 53|| एवममुना प्रकारेण, श्रेणिकेन राज्ञा, पृष्टः सन् स महामुनि-महासाधुः, महता विस्तरेण बृहता व्याख्यानेन, महानिर्ग्रन्थीयं महाश्रुतमकथयत्, महान्तश्च ते निर्ग्रन्थाश्च महानिर्ग्रन्थास्तेभ्यो हितं महानिर्ग्रन्थीयं, महामुनीनां हितमित्यर्थः / कीदृशः सः ? उग्रः कर्मशत्रुहनने बलिष्ठः / पुनः कीदृशः सः? दान्तो जितेन्द्रियः। पुनः कीदृशः ? महातपोधनः महच तत्तपश्च महातपः महातपो धनं यस्य स महातपोधनः / पुनः कीदृशः ? महाप्रतिज्ञः व्रते दृढप्रति-ज्ञाधारकः / पुनः कीदृशः? महायशाः महाकीर्तिः // 53 // ततश्चतुट्टो य सेणिओ राया, इणमुदाहं कयंजली। . अणाहत्तं जहा भूयं, सुख मे उवदंसियं // 54 // श्रेणिको राजा तुष्टः / हु इति निश्चयेन / इदम्, 'उदाह' इद-मवादीत्। कीदृशः श्रेणिकः? कृताऽञ्जलिः बद्धाऽजलिः / इदमिति किम् ? हे मुने ! यथाभूतं यथाऽवस्थितमनाथत्वं, मे मम, सुष्ठूपदर्शितं सम्यग्दर्शितम्, त्वयेति शेषः // 55|| किं श्रेणिक आहतुज्झं सुलद्धं खु मणुस्सजम्म, लामा सुलद्धाय तुमे महेसी। तुम्हे सणाहा य सबंधवा य, ___ जंभे ट्ठिया मग्गजिणुत्तमाणं // 55 // हे महर्षे ! खु इति निश्चयेन सुलब्धं सफलं त्वदीयं मानुषं जन्म / हे | महर्षे ! तवैव लाभाः रूपवर्ण विद्यादीनां लाभाः सुलभाः / रूपलावण्यादिप्राप्तयः सुप्राप्तयः / हे महर्षे ! यूयमेव सनाथा आत्मनो नाथत्वात् नाथसहिताः।चपुन!यमेव सबान्धवा ज्ञातिकुटुम्ब-सहिताः। यद् यस्मात्कारणात् (भे इति) भवन्तः जिनोत्तमानां तीर्थकारणां मार्गे | स्थिताः // 55 // तं सिणाहो अणाहाणं, सव्वभूथाण संजया!! खामेमि ते महाभागा!, इच्छामि अणुसासिउं॥५६॥ हे संयत! त्वम्, अनाथानां सर्वभूतानां त्रसानां स्थावराणां च जीवानां नाथोऽसि। हे महाभाग ! हे महाभाग्ययुक्त ! (ते इति) त्वामहं क्षमयामि, मया पूर्व यस्तवापराधः कृतः स क्षन्तव्य इत्यर्थः। अथ भवतोऽनुशासयितुं त्वत्तः शिक्षयितुमात्मानमिच्छामि / मदीय आत्मा तवाऽऽज्ञाऽनुवर्ती भवत्वितीच्छामीत्यर्थः। (पाई०टीका)तं सित्ति पूर्वाऽर्द्धन रूपबृंहणा कृता, उत्तराऽर्द्धन तु क्षमणोपसंपन्नता दर्शिता / इह (तुब्भे त्ति) त्वम् (अणुसासयं ति) अनुशासयितुं शिक्षयितुमात्मानं भवतेति गम्यते॥५६|| पुनः क्षमणामेव विशेषत आहपुच्छिऊणं मए तुज्झं, ज्झाणविग्यो य जो कओ। निमंतियो य भोएहिं,तं सव्वं मरिसेहि मे // 57 / / हे महर्षिन् ! मयातुभ्यं पृष्ट्वा प्रश्नं कृत्वा यस्तव ध्यानविघ्नः कृतः, च पुनर्भोगः कृत्वा निमन्त्रितः - भोः स्वामिन् ! भोगान् भुक्ष्वेत्यादिप्रार्थना तव कृता, तं सर्व मे ममाऽपराधं क्षन्तुमर्हसि, सर्वं ममाऽपराधं क्षमस्वेत्यर्थः / / 57|| सकलाऽध्ययनाऽर्थोपसंहारमाहएवं थुणित्ताणं सरायसीहो, अणगारसीहं परमाइ भत्तिए। सावरोहो सपरियणो सबंधवो, धम्माणुरत्तो विमलेण चेयसा / / 58|| राजसिंहः श्रेणिको राजा / एवममुना प्रकारेण, तमनगारसिंह मुनिसिंह परमया उत्कृष्टया भक्त्या स्तुत्वा, विमलेन निर्मलेन चेतसा धर्मानुरक्तोऽभूदिति शेषः / कीदृशः श्रेणिकः ? सावरोधः अन्तःपुरेण सहितः / पुनः कीदृशः ? सपरिजनः सहपरिजनैवर्तते इति सपरिजनो भृत्यादिवर्गसहितः। पुनः कीदृशः ? सबान्धवः सह बान्धवैर्धातृप्रमुखैवर्तत इति सबान्धवः / पुराऽपि वनवाटिकायां सर्वाऽन्तःपुरपरिजनबान्धवकुटुम्बसहित एव क्रीडां कर्तुमागात, ततः मुनेक्यिश्रवणात् सर्वपरिकरयुक्तो धर्मा-ऽनुरक्तोऽभूदित्यर्थः / / 58 / / उस्ससियरोमकूवो, काऊण य पयाहिणं / अभिवंदिऊण सिरसा, अइयाओ नराहिओ॥५६॥ नराधिपः श्रेणिकोऽतियातो गृहं गतः। किंकृत्वा ? शिरसा मस्तकेन, अभिवन्द्य मुनिं नमस्कृत्य / पुनः किंकृत्वा ? प्रदक्षिणां कृत्वा प्रदक्षिणां दत्त्वा / कथम्भूतो नराधिपः ? (उस्स-सियरोमकू वो त्ति) उच्छ्वसितरोमकूपः साधोर्दर्शनाद्वाक्यश्रवणादुल्लसितरोमकूपः। प्राईटीका जन्मरिसता इकोन्छवतिता जमिन्ना रोमकूपा रोमरन्ध्राणि यस्य स उच्छ्वसितरोमकूपः। (अझ्याओ त्ति) अतियातो गतः स्वस्थानमिति गम्यते // 60 // इयरो वि गुणसमिद्धो, तिगुत्तिगुत्तो तिदंडविरओ य। विहंग इव विप्पमुक्को, विहरइ वसुहं विगयमोहो॥६०॥ त्ति बेमि। अथेतरोऽपि श्रेणिकापेक्षयाऽपरोऽपि मुनिरपि वसुधां पृथिवीं विहरति विहारं करोति। कीदृशः सन् ? विमोहः सन् मोहरहितः सन्, अर्थात् केवली सन् कीदृशो मुनिः? गुणसमृद्धः सप्तविंशतिसाधुगुणसहितः। पुनः कीदृशः? त्रिगुप्तिगुप्तः गुप्तित्रयसहितः। पुनः कीदृशः? त्रिदण्डविरतः त्रिदण्डेभ्यो मनोवाकायानामशुभव्यापारेभ्यो विरतः / पुनः कीदृशः ? विहङ्ग इव विप्रमुक्तः पक्षीव क्वचिदपि प्रतिबन्धरहितो निष्परिग्रह इत्यर्थः / इति सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामिनं प्रति वदति, अहमिति ब्रवीमीति // 60 // उत्त०२० अ० Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणाहपव्वजा 329 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणाहारग अणाहपव्वजा-स्त्री०(अनाथप्रव्रज्या) विंशतितमे उत्तराऽध्ययने, स० 36 सम०। तच महानिर्गन्थीयमिति नाम्ना प्रसिद्धम्। उत्त०२० अ०। अणाहरण-न०(अनाधरण) आधि यतेऽनेनेत्याधरणमाधारः / तन्निषेधोऽनाधरणम्। आधर्तुमक्षमे, भ०१८ श० 3 उ०। अणाहसाला-स्त्री०(अनाथशाला)आरोग्यशालायाम्, व्य०४ उ०। अणाहार-पुं०(अनाहार) न० त०आहारविपरीतेऽभ्यवहार्ये, तल्लक्षणं चाऽऽहारभिन्नत्वमित्याहाराऽनाहारयोः स्वरूपमत्रैव प्रदर्श्यते - परिवासिअआहारस्स मग्गणा को भवे अणाहारो?। एगंगिओ चउविहो, जं वा अण्णमइजाइ तहिं॥ परिवासितस्याहारस्य मार्गणा विचारणा कर्तव्या। तत्र शिष्यः प्राहवयं तवत् एतदेव न जानीमः, को नाम आहारः? को वा अनाहारः? इति / सूरिराह- एकाऽङ्गिकः शुद्ध एव यः क्षुधां शमयति स आहारो मन्तव्यः / स च अशनादिकश्चतुर्विधः / यद्वा- तत्राऽऽहारेऽन्यद् लवणादिकमतियाति प्रविशति, तदप्याहारो मन्तव्यः। अथैकाऽङ्गिकं चतुर्विधमाहारंध्याचष्टे - कूरो नासेइ छुह, एगंगि तक्कउदगमजाइ। खाइम फलसंसाइ, साइम महुफाणियाईणि / / अशने कूर एकाङ्गिकः शुद्ध एव क्षुधं नाशयति / पाने तक्रोदमन्थादिकमेकाऽङ्गिकमपि तृषं नाशयति, आहारकार्यं च करोति, खादिमे फलमांसादिकं, स्वादिमे मधुफाणितादीनि केवलान्यप्याहारकार्यं कुर्वन्ति। 'जं वा अईइ तहिं ति' (मूलसूत्रस्थं) पदं व्याख्यानयतिजं पुण खुहापसमणे, असमत्थेगंगि होइ लोणाई। तं पि होइ आहारो, आहारजुयं व विजुतवा / / यत्पुनरेकाङ्गिक क्षुधाप्रशमनेऽसमर्थ परमाहारे उपयुज्यते तदप्याहारेण संयुक्तमसंयुक्तं वाऽऽहारो भवति, तच लवणादिकम् / तत्राऽशने लवणहिड्गुजीरकादिकमुपयुज्यते। उदए कप्पूराई, फल सुत्ताईणि सिंगबेर गुले। नय ताणि खविंति खुहं, उवगारित्ता उ आहारो॥ उदके कर्पूरादिकमुपयुज्यते, आमादिफलेषु सूक्तादीनिद्रव्याणि, शृङ्गबेरे च शुठ्यां गुड उपयुज्यते / न चैतानि कर्पूरादीनि क्षुधां क्षपयन्ति, परमुपकारित्वादाहार उच्यते, शेषः सर्वोऽप्यनाहारः। अहवा जंबु भुक्खुत्तो, कद्दमउवमाइ पक्खिवइ कोठे। सव्वो सो आहारो, ओसहमाई पुणो भइतो॥ अथवा बुभुक्षया आतय कर्दमोपमया गृहादिकं कोष्ठे प्रक्षिपति। कर्दमोपमानामपि कर्दमपिण्डानां कुर्यात् कुक्षि निरन्तरंस सर्वोऽप्याहार उच्यते। औषधादिकं पुनर्भक्तं विकल्पितं किञ्चिदाहारः किञ्चिचाऽनाहार इत्यर्थः / तत्र शर्करादिकमौषधमाहारः, सर्पदष्टादे मृत्तिकादि औषधमनाहारः। जंवा बुभुक्खुत्तस्स उ, संकममाणस्स देइ अस्सादं / सव्वो सो आहारो, अकामऽणिटुं चऽणाहारो॥ यता- द्रव्यबुभुक्षाऽऽर्तस्य संक्रमतो ग्रसमानस्य कवलप्रक्षेपं कुर्वत इत्यर्थः, आस्वादं रसनाहादकं स्वादं प्रयच्छति, स सर्व आहारः। यत्पुनरकाममभ्यवहरामीत्येवमनभिलषणीयम्, अनिष्टं च जिह्वाया अरुच्या, ईदृशं सर्वमनाहारो भण्यते। तचाऽनाहाररिममिदम्अणहार मोय छल्ली,मूलं च फलं च होति ऽणाहारो। सेस तयभूइतोयं, विंदुम्मि व चउगुरू आणा // मोकं कायिकी, छल्ली निम्बादित्वक, मूलं च पञ्चमूलादिकं, फल चाऽऽमलकहरीतक बिभीतकादिकमेतत् सर्वमनाहारो भवतीति चूर्णिः / निशीथचूर्णी तु या निम्बादीनां छल्ली त्वक् तच, तेषामेव निम्बोलिकादिकं फलं,यच तेषां मूलम्, एवमादिकं सर्वमप्यनाहार इति व्याख्यातम् / बृ०५ उ०। नि० चू०। चउहारे रयणीए, कपिज्जइ जाणि माणि वत्थूणि। समभागकया तिहला, भूनिंबोसीरचंदणयं // 56 // गोमुत्तं कडु रोहिणि, वग्धी अभया य रोहिणी तुग्गा ।मुग्गल वया करीरय, लिंबं पंचंगमासगणो / / 57|| नह आसगंधि बंभी, चीड हलिद्दाय कुंदरू कुड्डा। विसनाई य धमासो, बोलयबीया अरिहाय॥५८|| मिंडलमैं जिट्टकंके-ल्लिकुमारिकं थेर बेर कुट्ठा य / कप्पास वीय पत्तय, अगुरुतुरुक्का य तंतुवडा॥५६॥ धवखयरपलासाइं, कंटकरुक्खाण छल्लिया साणा। जं कडुयरसपरिगयं, आहारं पि हु अणाहारं // 60 / इचाइ जं अणिटुं, पंकुवमं तं भवे अणाहारं / जं इच्छाए भुंजइ, तं सव्वं हवइ आहारं // 61 // " ल०प्र० यथा पञ्चाङ्ग निम्बगुडूचीकडू 'किरिआतुं' 'अतिविसचीडि' - "सूक डि'-रक्षा-हरिद्रा-रोहिणी 'ऊपलोढ' वज-त्रिफलावाउलछल्लीत्यन्ये धमासो-नाहि-आसंधिरिंगणी-एलीओगुग्गुलहरडां-दल-चउणि-बदरी-कंथेरि-करीर-मूलं-पूँवाड मंजीठ बोलबिओ-कुं आरि-चित्रक-कुन्दरुप्रभृतयोऽनिष्टाऽऽख्यानि रोगाद्यापदि चतुर्विधाहारेऽप्येतानि कल्प्यानीति 1 घ०२ अधिक। त्रिफलाद्यनाहारवस्तुद्रव्यमध्ये गण्यते, न वा ? तत्रैवं प्रतिभाति यदनाहारवस्तु प्रायो द्रव्यमध्ये गण्यते, यदि च प्रत्याख्यानाऽवसरे तदगणनमेव विवक्षितम्, तदा न गण्यतेऽपि / यथा सचित्तविकृत्योर्द्रव्यमध्ये ग्रन्थेऽगणनेऽभिहितेऽपि संप्रति बहवो जनाः प्रायस्तयोर्द्रव्यमध्ये गणनां कुर्वाणा उप-लभ्यन्ते इति / ही० 3 प्रका०ा न विद्यते आहारो यस्येत्यनाहारः / आचा०१ श्रु०८ अ०८ उ० अविद्यमानाऽऽहारे, दश०१अ० *ऋणाधार-पुं०। ऋणधारके, विपा० 1 श्रु०१ अ० अणाहारग-पुं०(अनाहारक) न० त०ा आहारमकुर्वति विग्रहगत्यापन्ने समुद्घातगतकेवलिनि, अयोगिसिद्धे च / भ०६ श०३ उ०। णेरइया दुविहा पण्णत्ता / तं जहा- आहारगा चेव अणाहारगा चेव, एवं जाव वेभाणिया। स्था०२ ठा०२ उ०। भ०। अनाहारकाश्चत्वारः - विग्गहगइमावन्ना, केवलिणो समुहया अजोगीय। सिद्धाय अणाहारा, सेसा आहारगा जीवा।। विग्रहगतिर्भवाद् भवाऽन्तरे विश्रेण्या गमनम्, तामापन्नाः सर्वेऽपि जीवाः, तथा के वलिनः समुद्धताः कृतसमुद्घाताः, Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणाहारगं ३३०-अभिधानराजेन्द्रः-भाग 1 अणिएअवास तथाऽयोगिनः शैलेस्यवस्था प्राप्ताः, तथा सिद्धाः क्षीणकर्मा-- एकं च दो व समए, केवलिपरिवजिया अणाहारा। ऽष्टकाः। सर्वेऽप्येतेऽनाहाराः, एतद्व्यतिरिक्ताः शेषाः सर्वे-ऽप्याहारकाः / पंचम्मिदोणि लोए,य पूरिए तिन्नि समयाओ / / 7 / / इह परभवे गच्छतां जन्तूनां गतिर्दैधा- ऋजुगतिः, विग्रहगतिश्च / तत्र केवलिपरिवर्जिताःसंसारस्था जीवा एको द्वौ वा अनाहारका भवन्ति। यदा जीवस्य मरणस्थानादुत्पत्तिस्थानं समश्रेण्या प्राञ्जलमेव भवति, ते च द्विविग्रहत्रिविग्रहोत्पत्तौ त्रिचतुःसामयिकायां द्रष्टव्याः / तदा ऋजुगतिः / सा चैकसमया समश्रेणिव्यवस्थितत्येनोत्पत्तिदेश चतुर्विग्रहपञ्चसमयोत्पत्तिस्तु स्वल्पसत्त्वाश्रितेति न साक्षादुपात्ता / स्याद्यसमय एव प्राप्तो नियमादाहारकश्वास्या हेयग्राह्यशरीरमोक्षग्रहणा- तथाऽन्यत्राऽप्यभिहितम्- एको द्वौ वाऽनाहारकः / वाशब्दात् त्रीन् वा ऽन्तराला-ऽभावेनाऽऽहाराद्यवच्छेदात् / यदा तु मरणस्थानादुत्पत्ति- आनुपूर्या अभ्युदन उत्कृष्टतो विग्रहगतौ चत्वारः समया स्थानं वक्रं भवति तदा विग्रहगतिः, वक्र श्रेण्यामन्तरारम्भरूपेण नाऽऽगमेऽभिहिताः / ते च पञ्च समयोत्पत्तौ लभ्यन्ते, नाऽन्यत्रेति / विग्रहेणोपलक्षिता गतिर्विग्रहगतिरिति कृत्वा तत्र विग्रह- गत्यापन्ना भवस्थकेवलिनस्तु समुद्घातमप्येतत्करणोपसंहाराऽवसरे तृतीयपञ्चमउत्कर्षतस्त्रीन् समयान् यावदनाहारकाः / तथाहि- अस्यां वक्रगती समयौ द्वौ लोकपूरणचतुर्थसमयेन सहितास्त्रयः समया भंवन्तीति।।७।। स्थितो जन्तुरेकेन द्वाभ्यां त्रिभिश्चतुर्भिर्वा वरुत्पत्तिदेशमायाति, पुनरपि नियुक्तिकारः सादिकमपर्यवसानं कालमनाहारकं दर्शयितुमाहतत्रैकवक्रायां द्वौ समयौ तयोश्च नियमादाहारकः / तथाहि- आद्यसमये अंतो मुहुत्तमद्धं, सेलेसीए भवे अणाहारा। पूर्वशरीरमोक्षस्तस्मिन् समये तच्छरीरयोग्याः केचित् पुद्गलाः सादीयमनिहणं पुण, सिद्धायणाहारगा होंति // 8 // जीववीर्ययोगाल्लोमाऽऽहाराः तत्सम्बन्धमायान्ति। औदारिकवैक्रिया- शैलेश्यवस्थाया आरभ्य सर्वथाऽनाहारकः सिद्धाऽवस्थाऽऽहारकपुद्गलादीनां चाऽऽहारः, तत आद्यसमये आहारकः, द्वितीये च ऽप्राप्तावनन्तमपि कालं यावदिति पूर्वं तु कावलिकाख्यव्यतिरेकेण समये उत्पत्तिदेशे तद्भवयोग्यशरीरपुद्गलाऽऽदानादाहारकः, द्विवक्रायां प्रतिसमयमाहारकः / कावलिकेन तु कादाचित्क इति। सूत्र०२ श्रु०३ गतौ त्रयः समयाः / तत्राऽऽद्येऽन्त्ये च प्राग्वदाहारको मध्यमे त्वनाहारकः / अ० नि० श्रा०ा कर्म०। (कं समयमनाहारकः "जीवे णं भंते ! कं त्रिवक्रायां चत्वारः समयाः, ते चैवं त्रसनाड्या बहिरधस्तन- | समयमणाहारए भवइत्ति''आहार' शब्दे द्वितीयभागे 500 पृष्ठे यक्ष्यते) भागादूर्ध्वमुपरितनभागादधो वाजायमानो जन्तुर्विदिशो दिशि दिशो वा | अणाहारिम-न०(अनाहारिम) अनाहार्ये, नि० चू०११ उ०। विदिशि यदोत्पद्यते तदैकेन समयेन विदिशो दिशि याति, द्वितीयेन अणाहारिय-त्रि०(अनाहृत) अतीताहरणक्रिययाऽपरिणामिते, भ०१ उसनाडी प्रविशति, तृतीयेनोपर्यधो वा याति, चतुर्थेन श०१ उ० बहिरुल्पद्यते। दिशो विदिशि उत्पादे सनाडी प्रविशति, तृतीयेनोपर्यधो अणाहिल-पुं०(अनाधृष्ट) वसुदेवस्य धारण्यां जाते पुत्रे, तद्-वक्तव्यता या याति, चतुर्थेन बहिरुत्पद्यते, दिशो विदिशि उत्पादे त्वाद्ये समये गजसुकुमारस्येवेत्यन्तकृद्दशानां तृतीये वर्ग त्रयोदशाऽध्ययने सूचिता। सनाडी प्रविशति, द्वितीये उपर्यधो वा याति, तृतीये बहिर्गच्छति, चतुर्थे अन्त०३ वर्ग विदिशि उत्पद्यते / अत्राऽऽद्यन्तयोः प्राग्वदाहारको मध्यमयोस्त्वना- अणिइय-पुं०(अनितिक) इतिशब्दो नियतरूपोपदर्शनपरः, ततश्च न हारकः / चतुर्वक्रायां पञ्च समयाः, ते च त्रसनाड्या बहिः, एवं विदिशो विद्यते इतिर्यत्राऽसावनितिकः। अविद्यमाननियत-स्वरूपे, ईश्वरादेरपि दिश्युत्पादे प्रागवद् भावनीयः / अत्राऽप्याद्यन्तयोराहारस्त्रिषु दारिद्यादिभावात् संसारे, भ०६ श०३३ उा त्वनाहारकः / प्रव०। प्र०२३३ द्वा०। अणिइपत्त-त्रि०(अनीतिपत्र) ईतिविरहितच्छदे,ज्ञा०१श्रु०१अ०) चतुःसमयोत्पत्तिश्चैवं भवति-सनाड्याबहिरुपरिष्टादधो- ऽधस्ताद्वा / अणि(उ)तय-न०(अतिमुक्तक) मुचोभावे क्त। अतिशयेन मुक्तं बन्धनं पर्युत्पद्यमानो दिशो विदिशि, विदिशो वा दिशि यदुत्पद्यते, तदालभ्यते / यस्य। प्राकृते 'गर्मिताऽतिमुक्तके णः'८/११२०८ / इति तस्य णः / तत्रैकेन समयेन त्रसनाडीप्रवेशः, द्वितीयेनोपर्यधो वा गमनम्, तृतीयेन च प्रा०। 'यमुनाचामुण्डाकामुका-ऽतिमुक्तके मोऽनुनासिका'।८। बहिनिःसरणम्, चतुर्थेन तु विदिक्षुत्पत्ति-देशप्राप्तिरिति / पञ्च 1 / 178 / इति मस्य लुक्, तत्स्थाने चाऽनुनासिकः / प्रा० समयास्त्रसनाड्या बहिरेव विदिशो विदिगुत्पत्तौ लभ्यन्ते / तत्र च 'वक्रादावन्तः' /1 / 26 / इति तृतीयस्याऽनुस्यारः / प्रा०ा तस्य मध्यवर्तिषु अनाहारक इत्यवगन्तव्यम् / आद्यन्तसमययोस्त्वाहारक णत्वेऽकृत्वे-'अइमुतयं अइ-मुत्तयं' इति रूपद्वयम्। तिन्दुकवृक्षे तालवृक्षे इति / सूत्र०२ श्रु०३अ० तथा केवलिनः समुद्धातेऽष्टसामयिकेतृतीय- च। प्रज्ञा०१पद। चतुर्थपञ्चमरूपात् केवलकार्मण-योगयुतान् बीन् समयान् अयोगिनः अणिउण-त्रि०(अनिपुण) न निपुणोऽनिपुणः ।अकुशले, आव० 4 अ01 शैलेश्यवस्थायां हस्वपञ्चाऽक्षरोचारणमात्रम्। सिद्धास्तु सादिमपर्यवसितं नि०चू० दर्श कालमनाहारका इति / प्रव० 233 द्वा० के वलसमुद्घातेऽपि अणिएअचारि(ण)-पुं०(अनियतचारिन्) अनियतमप्रतिबद्धं कार्मणशरीरवर्त्तित्वात् तृतीयचतुःपञ्च-समयेष्वनाहारको द्रष्टव्यः / शेषेषु परिग्रहायोगाचरितुं शीलमस्याऽसावनियतचारी / अप्रतिबद्धत्वौदारिकादि- तन्मिश्रशरीरवर्त्तित्वात् आहारक इति। (मुहुत्तमद्धं च विहारिणि, सूत्र०१ श्रु०६ अ० "स भूइपण्णे अणिए अचारी, ओहंतरे त्ति) अन्तर्मुहूर्त गृह्यते। तच केवली स्वाऽऽयुषः क्षये सर्वयोगनिरोधे सति धीर अणंतचक्खू"। सूत्र० 1 श्रु०६ अ० 5 उ०। "अखिले अगिद्धे हस्वपञ्चाऽक्षरोद्गिरणमात्रकालं यावदनाहारक इत्येवमवगन्तव्यम् / अणिएयचारी, अभयंकरे भिक्खु अणाविलप्पा'। सूत्र० सिद्धजीवास्तु शैलेश्यवस्थाया आदि-समयादारभ्याऽनन्तमपि १श्रु०७ अग कालमनाहारका इति। अणिएअवास-पुं०(अनियतवास) मासकल्पादिनाऽनिके तवासे साम्प्रतमेतदेव स्वामिविशेषविशेषिततरमाह अगृहे उद्यानादौ वासे, "अणिएयवाससमुयाण चरिया, Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणिएअवास 331 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणिच्चभावणा * अण्णाय उच्छं पइरिक्कया य'। दश०२ चू०॥ अणिओग-पुं०(अनियोग) नियोगादन्योऽनियोगः। विपर्ययात् नियोगे, पं०सू०४ सून अणिंगाल-त्रि०(अनङ्गार) रागपरिहारेणाऽङ्गारदोषरहिते, प्रश्न०१ संव० द्वारा अणिंद-त्रि०(अनिन्द्र) नाऽस्तीन्द्रो यस्मिन् सोऽनिन्द्रः। इन्द्र-विरहिते प्रजास्वामिके, भ०३ श०१ उ० अनिन्द्य-त्रि०ा अजुगुप्सिते, सामायिके च / आ०म०वि०। आ०चू० / अणिंदणिज्ज-त्रि०(अनिन्दनीय) गीतार्थादिजनाऽदूष्ये, जी०१ प्रतिका अणिंदिय-त्रि०(अनिन्दित) शुभाऽनुबन्धितयाऽगर्हणीये,ध०१ अधिक। सप्तमकिन्नरेषु, प्रज्ञा०१ पद। अनिन्दिय-पुं०। सिद्धे, अपर्याप्तके, उपयोगतः केवलिनि, स्था० 10 ठा०। णेरइया दुविहा पण्णत्ता। तं जहा- सिइंदिया चेव, अणिंदिया चेव जाय वेमाणिया। स्था०२ ठा०२ उ०) अणिंदिया-स्त्री०(अनिन्दिता) षष्ठयामूर्वलोकवास्तव्यायां दिक्कुमारीमहत्तरिकायाम्, स्था०८ ठा० आ०चूल आ०म० प्र०ा ति०। अणिक्खित्त-न०(अनिक्षिप्त) अविश्रान्ते, औ० भ० अणिकंप-त्रि०(अनिष्कम्प) अनिश्चले, आचा०२ श्रु०२ अ०३ उ०। अणिकाम-न०(अनिकाम) परिमिते, बृ०१ उ० अणिकाय-पुं०(अनिकाय) लधुमृषावादे, नि०चू०१ उ०। ('मुसावाय' शब्देऽस्य विवृतिः)। अणिकेय-पुं०(अनिकेत) न विद्यते निकेतो गृहं यस्य / उत्त०२ अ० अविद्यमानगृहे, अनेकत्र बद्धाऽऽस्पदे, उत्त०१ अ० अणिकट्ठ-त्रि०(अनिष्कृष्ट) न०त०। द्रव्यतोऽकृ शशरीरे, भावतोऽवशीकृतकषाये, स्था०४ ठा०४ उ०। / अणिक्कावाइ(ण)--पुं०(अनेक्वादिन) सत्यपि कथञ्चित् एकत्वे भावानां सर्वथाऽनेकत्वं वदतीत्यनेकवादी। परस्परं विलक्षणा एव भावाः, तथैव प्रतीयमानत्वात् / यथा- रूपं रूपतयेति / अभेदे तु भावानां जीवाऽजीवबद्ध मुक्त सुखित-दु:खितादीनामे क त्वप्रसङ्गाद् दीक्षादिवैयर्थ्यमिति / किञ्च- सामान्यमङ्गीकृत्यैकत्वं वितक्षितं परैः। सामान्यं च भेदेभ्यो भिन्नाभिन्नतया चिन्स्यमानं न युज्यते। एवमवयवेभ्योऽवयवी धर्मेभ्यश्च धर्मी इत्येवमने कवादी, इत्युपदर्शितस्वरूपे अक्रियावादिनि, स्था० 8 ठा०। अणिक्खित्त-त्रि०(अनिक्षिप्त) अनुज्झितेऽप्रत्याख्याते, भ० १७श०२ उ०ा अविश्रान्ते, औला अणिगामसोक्ख-त्रि०(अनिकामसौख्य)अपकृष्टसुखे तुच्छसुखे, उत्त०१४ अ०॥ अणिगण-पुं०(अनग्न) न विद्यन्ते नग्नास्तत्कालीना जना येभ्यस्तेऽनग्नाः / जं०२ वक्ष०ा सवस्वत्वहेतुषु कल्पवृक्षेषु, स०१० सम० / अणिगृहण-न०(अनिगूहन) अगोपने, पंचा०१५ विव०) अणिगृहियबलवीरिय-पुं०(अनिगृहितबलवीर्य) अनिगूहिते-गोपिते बलवीर्य देहप्राणचित्तोत्साहरूपे येन स तथा। पंचा० 15 विव०। अनिह नुतबाह्याऽभ्यन्तरसामर्थ्य, ग०१ अधि०। दशा आचा०ा पं०चूला "अणिगूहियबलवीरिउ, परिक्कमइजो जहुत्त-माउत्तो। जुंजइय जहा थाम, नायव्वो वीरियायारो'। दश०३ अ०) पं०चू०। पञ्चा०। अणिग्गह-पुं०(अनिग्रह) अविद्यमानो निग्रह इन्द्रियनो इन्द्रियनियन्त्रणात्मकोऽस्येति / उत्त० 17 अ० अवशीकृतेन्द्रिये, उत्त० 11 अ० स्वैरे, प्रश्न०२ आश्र०द्वा० उच्छृङ्खले, दश० 8 अ०। एकादशे गौणाऽब्रह्मणि, तत्राऽनिग्रहोऽनिषेधो मनसो विषयेषु प्रवर्त्तमानस्येति गम्यते / एतत्प्रभवत्वाचाऽस्याऽनिग्रह इत्युक्तम् / प्रश्न०४ आश्र०द्वारा अणिच-त्रि०(अनित्य) न०ता नित्यभिन्ने सर्वदा स्थायिनि, आचा०१ श्रु०१अ०५ उ०। प्रत्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावतया कूटस्थं नित्यत्वेन व्यवस्थितं सत् नित्यं, नैवं यत्, तदनित्यम् / अच्युताऽनुत्पन्नस्थिरैकस्वभावं हि नित्यमतोऽन्यत् प्रति-क्षणविशरारु अनित्यम् / आचा०१ श्रु०५ अ०५ उ०। अनु०। उत्त० अशाश्वते, उत्त०२ अ०॥ अनित्यमस्थिरत्वात् / प्रश्न०५ आश्र० द्वा०। अणिचजागरिया-स्त्री०(अनित्यजागरिका) अनित्यचिन्तायाम्, "अणिचजागरियं जागरेंति" भ०१५ श०१ उ०। अणिचमावणा-स्त्री० (अनित्यभावना)अनित्यत्वचिन्तनात्मके प्रथमभावनाभेदे / प्रव०॥ तत्स्वरूपं च - ग्रस्यन्ते वज्रसाराङ्गास्तेऽप्यनित्यत्वरक्षसा। किं पुनः कदलीगर्भ-निःसारा नेह देहिनः ? ||1|| विषयसुखं दुग्धमिव, स्वादयति जनो बिडाल इव मुदितः / नोत्पाटितलगुडमिवोत्पश्यति यममहह ! किं कुर्मः ? ||2|| धराधरधुनीनीर-पूरपारिप्लवं वपुः। जन्तूनां जीवितं वात-घूतध्वजपटोपमम् // 3 // लावण्यं ललनालोक-लोचनाञ्चलचञ्चलम्। यौवनं मत्तमातङ्ग-कर्णतालचलाचलम् // 4 // स्वाम्यं स्वप्नावलीसाम्यं,चपलाचपलाः श्रियः। प्रेम द्विवक्षणस्थेम, स्थिरत्वविमुखं सुखम् // 5 // सर्वेषामपि मावानां, मावयन्नित्यनित्यताम्। प्राणप्रियेऽपि पुत्रादौ, विपन्नेऽपि न शोचति // 6 // सर्ववस्तुषु नित्यत्व-ग्रहग्रस्तस्तु मूढधीः / जीर्णतृणकुटीरेऽपि, मग्ने रोदित्यहर्निशम् / / 7 / / ततस्तृष्णाविनाशेन, निर्ममत्वविधायिनीम्। शुद्धधीवियेन्नित्यमित्यनित्यत्वमावनाम् // 8 // प्रव०६७ द्वा०॥ तत्राऽनित्यत्वभावनैवम् - "यत्प्रातस्तन्न मध्याहे,यन्मध्याह्न तनिशि। निरीक्ष्यते भवेऽस्मिन् हि, पदार्थानामनित्यता ||1|| शरीरं देहिनां सर्वपुरुषार्थनिबन्धनम्। प्रचण्डपवनोद्भूत-घनाघनविनश्वरम्।।२।। कल्लोलचपला लक्ष्मीः, संगमाः स्वप्नसंनिभाः। वात्याव्यतिकरोत्क्षिप्त-तूलतुल्यं च यौवनम् // 3| तथा ध्यायन्ननित्यत्वं, मृतं पुत्रं न शोचति / नित्यतां गृहमूढस्तु. कुड्यमङ्गेऽपि रोदिति ||4|| एतच्छरीरधनयौवनबान्धवादि, तावत् न केवलमनित्यमिहाऽसुभाजाम्। विश्वं सचेतनमचेतनमप्यशेष मुत्पत्तिधर्मकमनित्यमुशन्तिसन्तः // 5 // Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणिच्चभावणा 332- अभिषानराजेन्द्रः - भाग 1 अणिच्चया - इत्यनित्यं जगदवृत्तं, स्थिरचित्तः प्रतिक्षणम्।। तृष्णाकृष्णाहिमन्त्राय, निर्ममत्वाय चिन्तयेत् // 6|| ध०३ अधिo अणिचया-स्त्री०(अनित्यता) अनश्वरतायाम, सूत्र०। अधुना सर्वस्थानाऽनित्यतां दर्शयितुमाहदेवा गंधव्वरक्खसा, असुरा भूमिचरा सरीसिवा। राया नर सेट्ठि माहणा,ठाणा ते वि चयंति दुक्खिया॥५॥ देवा ज्योतिष्कसौधर्माद्याः, गन्धर्वराक्षसयोरुपलक्षणत्वा-दष्टप्रकारा व्यन्तरा गृह्यन्ते / तथा- असुरा दशप्रकारा भवनपतयः / ये चाऽन्ये भूमिचराः सरीसृपाद्यास्तिर्यञ्चः / तथा- राजान-श्चक्रवर्तिनो बलदेववासुदेवप्रभृतयः / तथा- नराः सामान्यमनुष्याः, श्रेष्ठिनः, पुरमहत्तराः, ब्राह्मणाश्च / एतेसर्वेऽपि स्वकीयानि स्थानानि दुःखिताः सन्तस्त्यजन्ति / यतः - सर्वेषामपि प्राणिनां प्राणपरित्यागे महद् दुःखं समुत्पद्यत इति ॥५।किञ्च - कामेहि य संथवेहि य, गिद्धा कम्मसहा कालेण जंतवो। ताले जह बंधणचुए, एवं आउक्खयम्मि तुट्टति॥६॥ कामैरिच्छामदनरूपैः, तथा संस्तवैः पूर्वाऽपरभूतैः, गृद्धा अध्युपपन्नाः सन्तः(कम्मसह त्ति) कर्मविपाकसहिष्णवः। कालेन कर्मविपाककालेन जन्तवः प्राणिनो भवन्ति / इदमुक्तं भवति- भोगेप्सोर्विषयाऽऽसेवनेन तदुपशममिच्छत इहाऽमुत्र क्लेश एव केवलं, न पुनरुपशमाऽवाप्तिः / तथाहि- उपभोगोपायपरो, वाञ्छति यः शमयितुं विषयतृष्णाम् / धावतिआक्रमितुमसौ पुरोऽपराह्ने निजच्छायाम्।।१।।नचतस्य मुमूर्षाः कामैः संस्तवैश्च त्राणमस्तीति दर्शयति, यथा-तालफलं बन्धनाद् वृन्तात् च्युतमत्राणमवश्यं पतति, एवमसावपि स्वाऽऽयुषः क्षये त्रुट्यति जीवितात् च्यवत इति // 6 // जे या वि बहुस्सुए सिया, धम्मियमाहणभिक्खुए सिया। अमि णूमकडेहिं मुच्छिए, तिव्वं से कम्मेहिं किचती ||7|| ये चाऽपि बहुश्रुताः शास्त्राऽर्थपारगाः, तथा धार्मिका धर्मा - ऽऽचरणशीलाः / तथा ब्राह्मणाः, तथा भिक्षुका भिक्षाटनशीलाः, स्युर्भवेयुः, तेऽप्याभिमुख्येन (णूमं ति) कर्म माया वा तत्कृतैरसदनुष्ठानैर्मूच्छितागृद्धास्तीव्रमत्यर्थम्। अत्र च छान्दसत्वाद् बहुवचनं द्रष्टव्यम्। एवम्भूताः कर्मभिरसद्वेद्यादिभिः वृश्यन्ते, छिद्यन्ते, पीड्यन्ते इति यावत् // 7 // साम्प्रतं ज्ञानदर्शनचारित्रमन्तरेण नाऽपरो मोक्षमार्गोऽस्तीति त्रिकालविषयत्वात् सूत्रस्याऽगामितीर्थिकधर्मप्रतिषेधाऽर्थमाह अह पास विवेगमुट्ठिए, ___ अवितिन्ने इह मासई धुवं / णाहिसि आरं कओ परं, वेहासे कम्मेहिं किच्चती||८|| अथेत्यधिकाराऽन्तरे बहादेशे एकाऽऽदेश इति / अथेत्यनन्तरं एतच पश्ययस्तीर्थिको विवेकं परित्याग गृहस्य परिज्ञानं वा / संसारस्याऽऽश्रित्योत्थितः प्रव्रज्योत्थानेन ? स च सम्यक् - परिज्ञानाऽभावादवितीर्णः संसारसमुद्रमतितीर्घः केवलमिह संसारे प्रस्तावे वा शाश्वतत्वाद् ध्रुवो मोक्षस्तं तदुपायं वा संयम भाषत एव न पुनर्विधत्ते, तत्परिज्ञानाभावादिति भावः। तन्मार्गे प्रपन्नस्त्वमपि कथं ज्ञास्यसि ? आरमिहभवं, कुतो वा परंपर-लोकम् ? यदि वा आरमिति गृहस्थत्वं, परमिति प्रव्रज्या- पर्यायम् / अथवा आरमिति संसारं, परमिति मोक्षम, एवंभूत-श्वाऽन्योऽप्युभयभ्रष्टः (वेहासि त्ति) अन्तराले उभयाऽभावतः स्वकृतैः कर्मभिः कृत्यते पीड्यत इति / / 8 / / ननु च तीर्थका अपि केचन निष्परिग्रहास्तथा तपसा निष्टातदेहाच, तत्कथं तेषां नो मोक्षाऽऽवाप्तिरित्येतदाशङ्कयाऽऽह - जइ वि य णिगणे किसे चरे, जइ वि य भुजिय मासमंतसो। जे इह मायादि मिजइ, आगंता गब्भाय ऽणंतसो || यद्यपि तीर्थिकः कश्चित्तापसादिस्त्यक्तबाह्यगृहवासादिपरिग्रहत्वाद् निष्किञ्चनतया नग्नस्त्वक्त्राणाऽभावाच कृशश्चरेत्, स्वकीयप्रव्रज्याऽनुष्ठानं कुर्यात् / यद्यपि च षष्ठाऽष्टमदशमद्वादशादि तपोविशेष विधत्ते / यावदन्तशो मासं स्थित्वा भुङ्क्ते, तथाऽपि आन्तरकषायाऽपरित्यागात् न मुच्यते, इति दर्शयति- यस्तीर्थिक इह मायादिना मीयते, उपलक्षणार्थत्वात् कषायैर्युक्त इत्येवं परिछिद्यते। असौ गर्भाय गर्भार्थम्, आ समन्ताद् गन्ता यास्यत्यनन्तशो निरवधिकं कालमिति। एतदुक्तं भवति-अकिञ्चनोऽपितपोनिष्टप्तदेहोऽपिकषायाऽपरित्यागात् नरकादिस्थानात् तिर्यगादिस्थानं गर्भाद् गर्भमनन्तमपि कालमनिशर्मवत् संसारे पर्यटतीति / / 6 // यतो मिथ्यादृष्ट्यु-पदिष्टतपसाऽपि न दुर्गतिमार्गनिरोधोऽतो मदुक्त एव मार्गे स्थेयमतद्गर्भमुपदेशं दातुमाह - पुरिसोपरम पावकम्मणा, पलियंतं मणुयाण जीवियं। सन्ना इह काममुच्छिया, मोहं जंति नरा असंवुडा॥१०॥ हे पुरुष ! येन पापेन कर्मणा असदनुष्ठानरूपेण त्वमुपलक्षितस्तत्राऽसकृत् प्रवृत्तत्वात् तस्मादुपरम निवर्तस्व। यतः पुरुषाणां जीवितं सुबह पि त्रिपल्योपमान्तं, संयमजीवितं वा पल्योपमस्याऽन्तर्मध्ये वर्तते, तदप्यूनां पूर्वकोटिमिति यावत्। अथवा- परि समन्तात् अन्तोऽस्येति पर्यन्तं सान्तमित्यर्थः / तचैवं तद्गतमेवाऽवगन्तव्यम् / तदेव मनुष्याणां स्तोकं जीवित- मवगम्य यावत्तन्न पर्येति तावद्धर्मानुष्ठानेन सफलं कर्त्तव्यम्।ये पुनर्भोगस्नेहपङ्केऽवसन्ना मनाइह मनुष्यभवे संसारे वा कामेषु इच्छामदनरूपेषु मूञ्छिता अध्युपपन्नास्ते नरा मोहं यान्ति, हिताऽहितप्राप्तिपरिहारे मुह्यन्ति, मोहनीयं वा कर्मोपचि-न्वन्तीति संभाव्यते / एवदसंवृत्तानां हिंसादिस्थानेभ्यो निवृत्तानामसंयतेन्द्रियाणां चेति / / 10 / / एवं च स्थिते यद्विधेयं, तद्दर्शयितुमाह - जयवं विहराहि जोगवं, अणुयाणा पंथा दुरुत्तरा। अणुसासणमेव पक्कमे, वीरेहिं च समं पवेइयं / / 11 / / स्वल्पं जीवितमवगम्य विषयांश्च क्लेशप्रायानवबुध्य छित्त्वा गृहपाशबन्धनं यतमानो यत्नं कुर्वन् प्राणिनामनुपरोधेन Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणिच्चया 333 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणिण्हवण विहर युक्तविहारी भव / एतदेव दर्शयति- योगवानिति संयमयोगवान्, | अणिज्जूढ-त्रि०(अनि! ढ) महतो ग्रन्थात् सुखावबोधाय गुप्तः समितिगुप्त इत्यर्थः / किमित्येवम् ? यतोऽणवः सूक्ष्माः प्राणाः / सङ्गेपनिमित्तमनुग्रहपरगुरुभिरनुद्धृते, भ०१ श० उ०। प्राणिनो येषु ते। तथा चैवंभूताः पन्थानोऽनुपयुक्तैर्जीवाऽनुपमर्दैन दुस्तरा | अणिट्ठ-त्रि०(अनिष्ट) इष्यते स्मेति प्रयोजनवशात् इष्टम, न इष्टमनिष्टम्। दुर्गमा इत्यनेन ईर्यासमितिरूपा क्षिप्ता / अस्याश्चोप-लक्षणार्थत्वात् भ०१ श०५ उ०। 'ष्टस्याऽनुष्ट्रेष्टासंदष्टे' 842634 // इति सूत्रेण ष्टस्य अन्यास्वपि समितिषु सततोपयुक्तेन भवितव्यम् / अपि च- ट्ठः / प्रा०। मनस इच्छामतिक्रान्ते, जी०१ प्रति०। उपा०ा स्था०। भ०। अनुशासनमेव यथाऽऽगममेव सूत्राऽनुसारेण संयमं प्रक्रमेत। एतच सर्वैः अवाञ्छिते, भ०६ श०३३ उ०॥ सतामनभिलषणीये, एव वीरैः अर्हद्भिः सम्यक् प्रवेदितं प्रकर्षेणा-ऽऽख्यातमिति॥११|| "सद्दाइविसयसाहण-धण संरक्खण-परायणमणिहुं"। आव० अथक एते वीराः? इत्याह 4 अ० अणिठ्ठा, अकंता, अप्पिया, अमणुन्ना, अमणामा, एते एकार्थाः / विरया वीरा समुट्ठिया कोह-कायरियाइ-पीसणा। विपा०१ श्रु०१ अ० "अणिट्ठा भवंति णादिज्जे दुट्विणीया' अनिष्टा पाणे ण हणंति सव्वसो,पावाओ विरिया अभिनिव्वुडा॥१२॥ जनस्येति गम्यते / प्रश्न०३ आश्र०द्वा०। इष्टस्य सुखादेर्विरोधिनि हिंसाऽनृताऽऽदिपापेभ्यो ये विरताः, विशेषेण कर्म प्रेरयन्तीति वीराः, प्रतिकूलवेदनीये दुःखे, तत्साधने पापे, विषादौ, अपकारे च / सम्यगारम्भपरित्यागेनोत्थिताः समुत्थिताः, ते, एवं भूताश्च नागवलायाम्, स्त्री० यज-क्त / न०त० अकृतयागे देवादौ, वाचा क्रोधकातरीकादिपीषणाः, तत्र क्रोधग्रहणाद् मानो गृहीतः, कातरीका स्था०। माया, तद्ग्रहणाल्लाभो गृहीतः / आदिग्रहणात् शेषमोहनीय- अणिद्वतर-त्रि०(अनिष्टतर) अतिशयेन कमनीये, जी०३ प्रति०। विपा०। परिग्रहः / तत्पीषणास्तदपनेतारः, तथा प्राणिनो जीवान् अणिट्ठफल-न०(अनिष्टफल) अशुभे कर्मणि, उपा०२ अ०। सूक्ष्मतरभेदभिन्नान् सर्वशो मनोवाकायकर्मभिर्न घ्नन्ति न ] अनभिमतफले दुर्गतिप्रयोजने, पञ्चा०११ विव०॥ अनभिमतव्यापादयन्ति। पापाच सर्वतः सावद्यानुष्ठानरूपाद् विरता निवृत्ताः, / प्रयोजनेऽनर्थफले, पञ्चा०३ विव०॥ ततश्चाऽभिनिवृत्ताः क्रोधाद्युपशमेन शान्तीभूताः / यदि वाऽभिनिवृत्ता | अणिट्ठवयण-न०(अनिष्टवचन)आक्रोशवाचि, "अणि-टुवयणे हिं मुक्ता इव द्रष्टव्या इति॥१२| सूत्र०१ श्रु०२ अ०१ उ०। सप्पमाणा" प्रश्न०३ आश्रद्वा० अणिचाणुप्पेहा-स्त्री०(अनित्यानुप्रेक्षा) "कायः सन्निहितापायः, / अणिद्वविय-त्रि०(अनिष्ठापित) असमापिते, 'अणिहावियसम्पदः पदमापदाम्। समागमाः साऽपगमाः, सर्वमुत्पादिभड्गुरम् // 1 // सव्वकालसंठप्पयं" अनिष्ठापिताऽसमापिता सर्वकालं सदा संस्थाप्यता इत्येवं जीवितादेरनित्यस्याऽनुपेक्षा / धर्मरूपे धर्मध्यान- तत्कृत्यकरणं यस्य तत्तथा। भ०६ श०३३ उ०) स्याऽनुप्रेक्षाभेदे, स्था० 4 ठा०१ उ०) अणिट्ठस्सर-पुं०(अनिष्टस्वर)प्रयोजनवशादपीच्छाऽविषये, स्था०८ अणिच्छा-स्त्री०(अनिच्छा) इच्छाभावलक्षणायामात्मपरिणतो, ठा० "अनिच्छा ह्यत्र संसारे, स्वेष्टालाभादनुत्कटा।" द्वा०६द्वारा पं०सू०।। अणिट्ठिउच्छाह-पुं०(अनिष्ठितोत्साह) अहतोत्साहे, "स च अणिच्छियत्ता-स्त्री०(अनीप्सितता) प्राप्तुमवाञ्छितत्वे, भ०६ श० | सर्वसक्तयाऽनुष्ठानेषु यथाशक्त्योद्यमं करोति''। दर्श०। ३उन अणिठुर-त्रि०(अनिष्ठुर) प्रस्तरागमनवत् कार्कश्यरहिते, ग०२ अधिक। अणिच्छियव्व-त्रि०(अनेष्टव्य) मनागपि मनसाऽपिअप्रार्थनीये, आव०४ अणिट्तुह-त्रि०(अनिष्ठीवक) मुखश्लेष्मणाऽपरिष्ठापके, प्रश्न० अ० धo| "दुचिंतिओ अणायारो अणिच्छियव्यो' आव०४ अ०॥ १संव० द्वा०ा सूत्र अणिजिण्ण-त्रि०(अनिजीर्ण) जीवप्रदेशेभ्यः परिशटितप्रदेशे, औ०। | अणिड्डिपत्त-पुं०(अनृद्धिप्राप्त) आमर्पोषध्यादिलक्षणामृद्धिं अप्राप्ते, नं०। कल्पन प्रज्ञा अणि (ण्णि)जमाण-त्रि०(अन्वीयमान) अनुगम्यमाने, विपा० अणिनिमंत-त्रि०(अनृद्धिमत्) अनृद्धिप्राप्ते,"छव्विहा अणिद्धिमंता १श्रु०१ अ० मणुस्सा पण्णत्ता / तं जहा- हेमवंतगा हिरण्णवंतगा हरिवंसगा अणि(पिण)जमाणमग्ग-त्रि०(अन्वीयमानमार्ग) अनुगम्य-मानमार्गे, रम्मगवंसगा कुरुवासिणो अंतरदीवगा''। स्था०। 6 ठा०। "मच्छिया चडगरहपहकरेणं अणिजमाणमम्गेमियागामे णयरे'' इत्यादि। अणिड्डिय-पुं०(अनर्द्धिक) अनीश्वर प्रव्रजिते, आ०म०वि०। विपा०१ श्रु०१अ०1 अणिण्हव-पुं०(अनिलव) न०त० अनपलापे, ग०१ अधि० धाव्य०। अणिजूहित्ता-अव्य०(अपोह्य) अदत्त्वेत्यर्थे, "वत्थं अणिजूहित्ता' दशा(निवशब्दे वक्ष्यमाणेन) निह्नवत्वेन रहिते, बृ०१ उ०। अपोह्य दत्त्वा हस्ताद्यावृतमुखस्य। प्रति० भ० अणिण्हवण-न०(अनिवन) निवनमपलपनम्, न निह्नवनअणिज्जाएत्ता-अव्य०(अनिर्धार्य) चक्षुरव्यापार्येत्यर्थे, भ०७ श० | मनिहवनम् / यतोऽधीतं तस्याऽनपलापे, एष ज्ञानाचारस्य पञ्चमो ७उ०॥ विषयः / यतोऽनिहवेनैव पाठादिसूत्रादेर्विधेयं, न पुनर्मानादिअणिजायणत्तिया-स्त्री०(अनिर्यापणात्मिका) वाचनासंपर्दोदे, उत्त०१ | वशादात्मनो लाघवाद्याशङ्कया श्रुतगुरूणां श्रुतस्य वाऽपलापेअ० नैति। प्रव०६द्वा० धादगा Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणिण्हवण 334- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणिमा णिण्हवणं अवलावो, अणिदाए वेयणं वेदेति" / भ०१ श०२ उ०। चित्तविकलायां __ कस्स सगासे अधितमण्ण चउगुरुगा। सभ्य ग्विवे कविकलायाम्, प्रज्ञा०३४ पद / अनाभोगवत्यां छहावित विच्छुरघरए, हिंसायाम् भ०१६ श०५ उ०) दाण तिदंडेऽणिण्हवयं / / 16|| अणिदा(या)ण-त्रि०(अनिदान)नाऽस्य स्वर्गावाप्त्यादिनिदानको वि साहू विसुद्धक्खरपदम्मि दुमत्तादिए पढंतो परूवंतो अण्णेण / मस्तीत्यनिदानम् / सूत्र०१ श्रु०२ अ०३ उ०। न विद्यते निदानसाहुणा पुच्छिओ-कस्स सगासे अहीयं ? सागारहिगाराणं संधिप्पओगेण मस्येत्यनिदानः, निराकाङ्के अशेषकर्मक्षयाऽर्थिनि, सूत्र० 1 श्रु० आगारो लब्भति, ततो अहीतं भवति, तेण य जस्स सगासे सिक्खियं, 16 अ०। निदानरहिते, द्वा०५ द्वा०ा निदानवर्जिते, आतुo सो पुण सुद्धतसदसिद्धतेसु पवीणो, जचादिसु वा हीणतरो अतो तेण प्रार्थनारहिते, भ०२ श०१ उ०। पञ्चा०। आचा० भाविफलालज्जति / अण्णं जुग्गप्पहाणं कहय त्ति तगारणगाराणं संधिप्पओगओ ऽऽशंसारहिते, "अणियाणे अकोउहले यजेस भिक्खू"दिश०१०अ० / लब्भति, तेण अण्णमिति भवति। एवं णिण्हवणं भवति। इत्थं से पच्छित्तं / पञ्चा०ा प्रश्न० धा स्वर्गावाप्त्यादिलक्षण-निदानरहिते, सूत्र०१ अहवा सुत्तेहू अत्थेहू वायणायरियं णिण्हवंतस्स इह परलोए य णत्थि श्रु०२ अ०३ उ०। न विद्यते निदानमारम्भ-रूपं भूतेषु जन्तुषु कल्लाणं उयाहरणं"। नि०चू०१ उ० यस्याऽसावनिदानः। सावद्याऽनुष्ठानरहिते अनाश्रवे, सूत्र०१ श्रु०१० गृहीतश्रुतेनाऽनिह्नवः कार्यः। यद्यस्य सकाशेऽधीतं, तत्र स एव कथनीयो अ०। भोगद्धिप्रार्थनास्वभावमार्तध्यानम् / तद्वर्जितेऽनिदानेऽर्थे, नाऽन्यः, चित्तकालुष्याऽऽपत्तेरिति / अत्र दृष्टान्तः - स्था०३ ठा०१ उ०। एगस्सोहावियस्सखुरभंडविजासामत्थेण आगासे अच्छति। तंच एगो अणिदा(या)णमूय-त्रि०(अनिदानभूत) सावद्याऽनुष्ठान - परिव्वायगो बहूहिं उयसंपजणाहिं उपसंपजिऊण, तेण सा विजा लद्धा, रहितेऽनाश्रवभूते कर्मोपादानरहिते अनिदानकल्पे ज्ञानादौ, सूत्रा यथा - ताहे अन्नत्थ गंतुं तिदंडेणागासगएण महाजणेण पूइज्जति त्ति / रन्ना य पुच्छिओ-भगवं ! किंतेस विजातिसओ उयतवातिसओ? सो भणति अप्पडिण्णभिक्खू समाहिपत्ते अणियाणभूते सुपरिव्वएज्जा। विज्जातिसओ / कस्स सयासाओ गहिओ? सो भणति- हिमयंते न विद्यते निदानमारम्भरूपं भूतेषु जन्तुषु यस्याऽसावनिदानः / स फलाहारस्स रिसिणो सयासे अधिजिओ / एवं तु वुत्ते समाणे एवम्भूतः सावद्याऽनुष्ठानरहितः परि समन्तात् संयमाऽनुष्ठाने व्रजेद् संकिलेसदुद्वयाए तं तिदंडं खडत्ति पडितं / एवं जो अप्पागमं आयरियं गच्छेदिति। यदि वा अनिदानभूतोऽनाश्रवभूतः कर्मोपादान-रहितः सुष्ठ निण्हवेऊण अण्णं कहति, तस्स चित्तसंकिलेसदोसेण सा विजा परलोए परिव्रजेत् सुपरिव्रजेत् / यदि वा- अनिदानभूतानि अनिदानकल्पानि ण हयति त्ति, अनिण्हवण त्ति गतं / दश०३ अ० ज्ञानादीनि तेषु परिव्रजेत् / अथया- निदानं हेतुः कारणं दुःखस्याऽन्तो अणिण्हवमाण-त्रि०(अनिढुवान)अनपलपति, ज्ञा० १श्रु०१० निदानभूतः कस्यचिद् दुःखमनुपादयन् संयमे पराक्रमेदिति / सूत्र०१ अणितिय-त्रि०(अनित्य) अप्रच्युताऽनुत्पन्नस्थिरैकस्वभावतया श्रु०१० अ० कूटस्थनित्यत्वेनाऽव्यवस्थिते, आचा०१ श्रु०५ अ०२ उ०॥ अणिदा(या)णया-स्त्री०(अनिदानता)निदायते लूयते ज्ञाना-धाराधना अणित्थंथ-त्रि०(अनित्थंस्थ) अमुंप्रकारमापन्नमित्थम्, इत्थं तिष्ठतीति लता आनन्दरसोपेतमोक्षफला येन परशुनेव देवेन्द्रादिगुणर्धिप्रार्थनाइत्थंस्थम्, न इत्थं स्थमनित्थंस्थम् / केनचिल्लो कि केन ऽध्यवसानेन तत् निदानमनिदानं तद्यस्य सोऽनिदानः,तभावस्तत्ता। प्रकारेणाऽस्थिते, औ०। आव०पं०सू० परिमण्डलादि-संस्थानरहिते, निरुत्सुकतायाम्, एतस्याश्च फल-मागमिष्यद्भद्रतया कर्मप्रकरणम् / भ०२४ श०१२ उ०) अनियताकारे, जी०१ प्रतिम स्था०१० ठा० निदानं भोगद्धि प्रार्थनास्वभावमार्तध्यानं, अणित्थंथसंठाणसंठिय-त्रि०(अनित्थंस्थसंस्थानसंस्थित) इत्थं तद्वर्जितताऽनिदानता / भोगर्द्धि प्रार्थनायाम्, एतस्याः फलं संसारव्यतिव्रजनम्। स्था०३ ठा०१उासव्यत्थ भगवया अणिदाणता तिष्ठतीति इत्थंस्थम्, न इत्थंस्थमनित्थंस्थम्, अनियता पसत्था। स्था०६ ठा। ऽऽकारमित्यर्थः / तच तत् संस्थानम्, तेन संस्थानेन अनियतसंस्थानसंस्थिते,जी०१ प्रति अणिहिट्ठ-त्रि०(अनिर्दिष्ट) प्रागकृतनिर्देशे, नि०चू०१ उ०। अणित्थंथसंठाणा-स्त्री०(अनित्थंस्थसंस्थाना) अनित्थस्थं संस्थान अणिद्देस-पुं०(अनिर्देश) अप्रमाणे, उत्त०१ अ०। यस्या अरूपिण्याः सत्तायाः सा।अनियताकारायां सत्तायाम्, पं०सू०५ *अनिर्देश्य-त्रि० केना ऽपि शब्देनाऽनभिलप्ये, विशे०। सू। अणिद्देसकर-पुं०(अनिर्देशकर) अप्रमाणकर्तरि, "आणा-णिद्देसकरे, अणिदा(या)-स्त्री०(अनिदा)निदानं निदा,न निदाऽनिदा, प्राणि-हिंसा गुरूणऽणुवायकारए"! उत्त०१ अ० नरकादिदुःखहेतुरिति परिज्ञानविकलेन सता क्रियमाणे प्राणिनिर्वहणे, अणिप्पण्ण-त्रि०(अनिष्पन्न) अतीतकाले निष्पत्तिरहिते, औ०। स्वपुत्रादिकमन्यं वा विभागेनाऽविविच्य सामान्येन विधीयमाने, अणिमंतेमाण-त्रि०(अनिमन्त्रयत्) निमन्त्रणमददति, आचा० अजानतो था व्यापाद्यस्य सत्त्वस्य व्यापादने च। "जाणं तु अजाणतो, २श्रु०२ अ०३ उम तहेव उद्दिसिय उ बहवो वा वि। जाणग अजाणगंया, वहेइ अणिया निया अणिमा-पुं०(अणिमन्) परमाणुरूपतापत्तिरूपे सिद्धिभेदे, द्वा० एसा'। पिं० अनिर्धारणायाम्, "पुढविकाइया सव्वे, असण्णिभूया 26 द्वा० Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणिमिस 335 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणियत अणिमिस-पुं०(अनिमिष) न००। मत्स्ये, "बहु अट्ठिअं पोग्गलं, | ठा०१ उ०। सूत्र०। अशीतितमे महाग्र हे, चं०प्र०२० पाहु०॥ अणिमिसं बहुकंटयं"।दश०१ अ०॥ निश्चलनयने, आव०५ अ01 आगमिष्यन्त्यामुत्सर्पिण्या भविष्यति विंशतितमे तीर्थकरे, स०। अणिमिसणयण-पुं०(अनिमिषनयन) न विद्यते निमेषो येषां तानि अणियट्टिकरण-न०(अनिवृत्तिकरण) निवर्तनशीलं निवर्ति, न निवर्ति अनिमेषाणि, अनिमेषाणि नयनानि येषां तेऽनिमेषनयनाः / देवेषु, अनिवर्ति, आसम्यग्दर्शनलाभात् न निवर्तत इत्यर्थःनि निवर्तते नाऽपैति "अमिलाणमल्लदामा, अणिमिसणयणा य नीरजसरीरा। चउरंगुलेण मोक्षतत्त्वबीजकल्पं सम्यक्त्वमनासाद्येत्येवं शीलमनिवर्ति। पञ्चा०३ भूमि, न छिवंति सुरा जिणो कहइ"। व्य०१उ०। आ०म०द्वि०। विव०ा अनिवृत्तिकरणमित्यन्योन्य नाऽतिवर्तन्ते परिणामा अस्मिन् इति निर्निमेषलोचने, पञ्चा०१८ विव०) अनिवृत्तिकरणम् / आचा० 1 श्रु०६ अ०१ उ०। तच तत्करणं च अणिय-न०(अनीक) सैन्ये, कल्प०) अनिवृत्तिकरणं सम्यक् - त्वाद्यनुगुणे विशुद्धतराध्यवसायरूपे भव्यानां देवेन्द्राणां साऽनीका अनीकाऽधिपतयः करणभेदे, "अणियट्टी-करणं, पुण, सम्मत्तपुरक्खडे जीवे"। चमरस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो सत्त अणिया, सत्त आ०म०द्वि०॥ अणियाहिवई पण्णत्ता / तं जहा- पायत्ताणिए, पीढाणिए, अणियट्टिबायर-पुं०(अनिवृत्तिबादर) न विद्यते अन्योऽकुंजराणिए, महिसाणिए, रहाणिए, नट्टाणिए, गंधव्वाणिए, दुमे न्यमध्यवसायस्थानस्य व्यावृतिर्यस्याऽसावनिवृत्तिः। स चा- ऽसौ पायत्ताणियाहिवई / एवं जहा पंचट्ठाणे जाव किन्नरे बादरश्चेति / कर्म०२ कर्म० नवमगुणस्थाने वर्तमाने जीये, स च रहाणियाहिवई रिटेनट्टाणियाहिवई गीयरई गंधव्वाणियाहिवई। कषायाऽष्टक क्षपणाऽऽरम्भात् नपुंसकवेदोपशमने यावद् भवति बलिस्स णं वइरोयणिंदस्स वइरोयणरण्णो सत्त अणिया, सत्त निवृत्तिबादरसमयादूज़ लोभरखण्डवेदनां यावदनिवृत्ति- बादरः। अणियाहिवई पण्णत्ता। तं जहा-पायत्ताणियं जावगंधव्दाणियं / आव०४ अ० अवाप्ताऽणिमादिभावे, पं०व०१ द्वाo महदुमे पायत्ताणियाहिवई जाव किंपुरिसे रहाणियाहिवई अणियट्टिबायरसंपरायगुणट्ठाण-नं०(अनिवृत्तिबादरसंमहारिटेणट्टाणियाहिवईगीयजसे गंधव्वाणियाहिदई।धरणस्स णं नागकु मारिंदस्स नागकुमाररण्णो सत्त अणिया, सत्त परायगुणस्थान) नवमगुणस्थाने, व्याख्या चैवम्- युगपदेतद्अणियाहिवई पण्णत्ता। तंजहा-पायत्ताणिए जावगंधव्वा-णिए। गुणस्थानकं प्रतिपन्नानां बहूनामपि जीवानामन्योन्यमध्यरुद्दसेणे पायत्ताणियाहिवई जाव आणंदे रहाणियाहिवई णट्टने वसायस्थानस्य व्यावृत्तिर्नाऽस्त्यस्येति अनिवृत्तिः, समकालमेतद्णट्टाणियाहिवई तेतले गंधव्वाणियाहिवई / भूयाणंदस्स सत्त गुणस्थानकमारूढस्याऽपरस्य यदध्यवसायस्थानं विवक्षितो-ऽन्योऽपि अणिया, सत्त अणियाहिवईपण्णत्ता। तं जहा-पायत्ताणिएजाव कश्चित्तद्वत्येवेत्यर्थः। संपरैति पर्यटति संसारमनेनेतिसंपरायः कषायोदयः गंधव्वाणिए दक्खे पायत्ताणियाहिवईजावणंदुत्तरे रहाणियाहिवई बादरः सूक्ष्मकिट्टीकृतसंपरायाऽपेक्षया स्थूलसंपरायो यस्य स रई णट्टाणियाहिवई माणसे गंधव्वाणियाहिवई / एवं जाव बादरसंपरायः / अनिवृत्तिश्चाऽसौ बादर-संपरायश्च तस्य घोसमहाघोसाणं णेयव्वं / सक्कस्सणं देविंदस्स देवरण्णो सत्त गुणस्थानमनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थानम् / इदमप्यन्तर्मुहूर्तअणिया, सत्त अणियाहिवई पण्णत्ता। तं जहा-पायत्ताणिए जाव प्रमाणमेव / तत्र चाऽन्तर्मुहूर्ते यावन्तः समयाः, तत्प्रविष्टानां गंधव्वाणिए। हरिणेगमेसी पायत्ताणियाहिवई जाव माढरे तावन्त्येवाऽध्यवसायस्थानानि भवन्ति / एक समयप्रविष्टानामेकस्यैवारहाणियाहिवई, सेए णट्टाणियाहिवई, तुंबरुगंधव्वाणिया- ऽध्यवसायस्थानस्याऽनुवर्तनादिति / स्थापना- 00000 / हिवई। ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरण्णो सत्त अणिया, सत्त प्रथमसमयादारभ्य प्रतिसमयमनन्तगुण-विशुद्धं यथोत्तरमध्यवसायअणियाहिवई पण्णत्ता। तं जहा- पायत्ताणिए जाव गंधव्वाणिए स्थानं भवतीति वेदितव्यम् / स चाऽनिवृतिबादरो द्विधा-क्षपक लहुपरक्कमे पायत्ताणियाहिवई, जाव महासेए णट्टाणियाहिवई, उपशमकश्च / क्षपयति उपशमयति वा मोहनीयादि कर्मेति या कृत्या। णारए गंधवाणियाहिवई / सेसं जहा- पंचट्ठाणे एवं जाव कर्म०२ कर्म०। प्रव० आ००। अचुअस्सेति नेयव्वं / स्था०७ ठा अणियण-पुं०(अनग्न) विचित्रवस्त्रदायित्वात् न विद्यन्ते नग्ना नियासिनो *अनृत-न०। वितथे, मिथ्यावितथमनृतमिति पर्यायाः / स्था० जना येभ्यस्तेऽनग्नाः / संज्ञाशब्दो वाऽयमिति। विशिष्टवस्त्रदायिषु 10 ठा०। आ०म०द्वि०। विशे० आव० कल्पद्रुमभेदेषु, स्था०७ ठा०। प्रव० आव०॥ अणियट्ट-पुं०(अनिवर्त) मोक्षे, आचा०१ श्रु०५ अ०१ उ०। अणियत(य)-त्रि०(अनियत) अप्रतिबद्ध , सूत्र०१ श्रु०६ अ०। अणियट्टगामिन्-पुं०(अनिवर्तगामिन) अनिवर्तो मोक्षस्तत्र गन्तुं शीलं / उत्त०। अनिश्चिते, अष्ट०८ अष्ट। अनेकस्वरूपे, दशा०१० अ०। यस्य स तथा। निर्वाणयायिनि, आचा०१ श्रु०५ अ०३ उ०। न००। अनियमवति अनवस्थिते, प्रश्न०२ आश्र० द्वा०। ज्ञा० अणियट्टि(ण)-न०(अनिवर्तिन) न निवर्त्तते, न व्यावर्त्तते अवश्यंभाव्यु दयाऽप्रापिते आत्मपुरुषेश्वरस्वभावकर्मादिकृते इत्येवंशीलमनिवर्ति / प्रवर्धमानतरपरिणामादव्यावर्तनशीले, सुखादिके, "निययाऽनिययं संतं, अयाणंता अबुद्धिया"। सूत्र० "सुहुमकिरिए अणियट्टी'' इति शुक्लध्यानस्य तृतीये भेदे, स्था०४ 1 श्रु०१ अ०२ उ01 अशाश्वतानि स्थानानि, सर्वाणि दिवि Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणियत 336 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणिसिट्ट चेह च। देवाऽसुरमनुष्याणामृद्धयश्च सुखानि च। सूत्र०१ श्रु०८ अ०। इदं शरीरमनियतं सुरूपादेरपि कुरूपादिदर्शनाद् हरितिलकराजसुतविक्रमकुमारशरीरवत् / तं०1 "अणियओ वासो' अनियतो वासो नानादेशपरिभ्रमणम् / व्य०१ उ०।। अणियत(य)चारिण-पुं०(अनियतचारिन्) अनियतमप्रतिबद्धं परिग्रहयोगाचरितुं शीलमस्याऽसावनियतचारी। अप्रति-बद्धविहारिणि, सूत्र०१ श्रु०६अ। अणियत(य)प्प(ण)-पुं०(अनियताऽऽत्मन्)असंयते, अनिश्चितस्वरूपे च। अष्ट०८ अष्ट। अणियत(य)वट्टि-पुं०(अनियतवृत्ति)अनियतविहारे, उत्त०१अ01 अणियत(य)वास-पुं०(अनियतवास) मासकल्पादिनाऽ-निकेतवासे गृहे, उद्यानादौ वासे, दश०२ चूलिअणियओवासो णिप्पत्तियविहारो, अस्य गृहीतसूत्रार्थस्य शिष्यस्याऽनियतो वासः क्रियते / ग्रामनगरसन्निवेशादिष्वनियतवासेन। विशेषण देशदर्शनं कार्यते, ततः स आचार्यपदे स्थाप्यते। बृ० 1 उ०। अणियत(य)वित्ति-पुं०(अनियतवृत्ति)अनियतचारिणि अनियतविहारे, स्था०८ ठा०व्या अनियताऽनिश्चिता वृत्तिर्व्यवहरणं विहारो वा यस्य सोऽनियतवृत्तिः / 'गामे एगराई, नगरे पंचराइं" इत्यादिप्रकारेण / दशा०४ अ० अणियत्त-त्रि०(अनिवृत्त) अनिवृत्ते, उत्त०२ अ०॥ अणियत्तकाम-त्रि०(अनिवृत्तकाम)अनुपरतेच्छौ, उत्त० 14 अ०। अणियाहिवइ-पुं०(अनीकाधिपति) 6 त०। गजादिसैन्यप्रधाने ऐरावतादौ, स्था०३ ठा० 1 उ०। रा०(यस्य यावन्त्यनीकानि अनीकाधिपतयश्च, ते सर्वे 'अणिय' शब्दे उक्ताः) अणिरिक्ख-अव्य०(अनिरीक्ष्य) चक्षुषाऽज्ञात्वेत्यर्थे , श्रा०। अणिरुद्ध-त्रि०(अनिरुद्ध) क्वचिदप्यस्खलिते, सूत्र०१ श्रु०१२ अ०। कृष्णवासुदेवपुत्रस्य प्रद्युम्नस्य वैदामुत्पन्ने पुत्रे, सच अरिष्टनेमेरन्तिके प्रव्रज्य शत्रुञ्जये सिद्धः। अन्त०४ वर्ग। प्रश्न०। अणिरुद्धपण्ण-त्रि०(अनिरुद्धप्रज्ञ) अनिरुद्धा क्वचिदप्य-स्खलिता प्रज्ञा, प्रज्ञायतेऽनयेति प्रज्ञा ज्ञानं, येषां तीर्थकृतां तेऽनिरुद्धप्रज्ञाः / क्वचिदप्यस्खलितज्ञानेषु तीर्थकृत्सु, सूत्र०१ श्रु०१२अ०) अणिल-पुं०(अनिल) वायौ, प्रश्न०१आश्र०द्वा०। कर्मा दश आवा एकोनविंशे भारताऽतीतजिने, द्वाविंशजिनस्य प्रवर्तिन्यां च / स्त्री०। प्रव०६ द्वा०। ति अणिलामइ(ण)-त्रि०(अनिलाऽऽमयिन)वातरोगिणि, बृ०२ उ० / अणिल्लं-(देशी)प्रभाते, देवना०१ वर्ग। अणिल्लंछिय-त्रि०(अनिर्लाञ्छित) अवर्धितके अखण्डीकृते, भ० 8 श०५ उ०। अणिवारिय-त्रि०(अनिवारित) निषेधकरहिते, विपा०१ श्रु०२ अ०। अणिवारिया-स्त्री०(अनिवारिका) नाऽस्ति निवारको, मैयं कार्षीरित्येवं निषेधको यस्याः साऽनिवारिका / प्रतिषेधक-रहितायाम्, ज्ञा०१श्रु०१६ अ० अणिव्वत-त्रि०(अनिवृत) न०ता कदाचिदनुपशान्ते, "अणिव्वते घातमुवेति बाले"। सूत्र० 1 श्रु० 4 अ०२ उ०। अपरिणते, दश० 1 अ०। अणिव्वाणमादि-त्रि०(अनिर्वाणादि) अनिवृत्त्यर्थहान्याऽसिद्धिप्रभृतिषु दोषेषु, पञ्चा०७ विव०॥ अणिव्वाणि-पुं०(अनिर्वाणि) असुखे, व्य० 170 / अणिव्वुइ-स्त्री०(अनिर्वृति) पीडायाम्, आ०म०वि०। अणिव्वुड-त्रि०(अनिवृत) अपरिणते, दश० 3 अ०। अणिव्वेय-पुं०(अनिर्वेद) उद्योगादनुपरमे, दश०३ अ०। (तद्विषया अर्थकथा अत्थकहा' शब्देऽत्रैव भागे वक्ष्यते) अणिसिट्ठ-त्रि०(अनिसृष्ट) न निसृष्टं सर्वैः स्वामिभिः साधुदानार्थमनुज्ञातं यत् तदनिसृष्टम् / पिं०। एके नैव दीयमाने बहुसाधारणे,"अणिसिटुं सामन्नं गोट्ठियभत्ताइ देइ एगस्स''। प्रश्न० 5 संव०द्वा०। पञ्चा० दशा०। स्था० अनिसृष्टं स्वामिनाऽनुत्संकलितं निष्पन्नमेवाऽन्यतः समानीतम् / आचा०२ श्रु० 2 अ०१ उ०। यदा द्वित्राणां पुरुषाणां साधारणे आहारे एकोऽन्याननापृच्छय साधवे ददाति, तदा पञ्चदशोऽनिसृष्टो दोष उद्गमस्य / उत्त०२४ अ०। अथाऽनिसृष्टद्वारमाहअणिसिहँ पडिकुटुं, ऽणुन्नायं कप्पए सुविहियाणं / लड्डुग चोल्लगजंते, संखडि खीराऽऽवणाईसु॥ निसृष्टमुक्तमनुज्ञातं, तद्विरीतमनिसृष्टमननुज्ञातमित्यर्थः। तत्प्रतिकुष्ट / निराकृतं तीर्थकरगणधरैरनुज्ञातं पुनः कल्पते सुविहितानाम् / तचाऽनिसृष्टमनेधा / तद्यथा- लड्डुकविषयं मोदकविषयं, तथा चुल्लकविभोजनविषयम् ।(यन्त्र इति) कोल्हकादिप्राणकविषयं, तथा संखडिविषयं विवाहादिविषयं, तथा क्षीरविषयं दुग्धविषयं, तथा आपणादिविषयम् / आदिशब्दात्तु गृहादिविषयमवसेयम् / इयमत्र भावनाइह सामान्येनाऽनिसृष्टं द्विधा / तद्यथा- साधारणाऽनिसृष्ट, भोजनाऽनिसृष्टं च / तत्र भोजनाऽनिसृष्टं चुल्लकशब्देनोक्तम्, साधारणाऽनिसृष्टं तु शेषभेदैरिति / तत्र मोदक विषयं साधारणाऽनिसृष्टोदाहरणं गाथाचतुष्टयेनोपदर्शयति - बत्तीसा सामन्ने, ते कहि ण्हाउं गय त्ति इइ वुच्चइ। परसत्तिएण पुन्नं,न तरसि काउंति पच्छाऽऽह / / अवि य हु बत्तीसाए, दिन्ने हि तवेगो मोयगो न भवे। अप्पवयं बहुआयं, जइ जाणसि देहि तो मज्झं / / लाभिय निंतो पुट्ठो, किं लद्धं पेच्छ मोदाए। इयरो वि अहो नाहं, देमि त्ति सहोढदोरत्तं / / गेण्हणकडणववहा-रपच्छकडुड्डाह तहय निव्विसए। आयम्मि भवे दोसा, पहुम्मि दिन्ने तउग्गहणं / / रत्नपुरे माणिभद्रप्रमुखा द्वात्रिंशद् वयस्याः, ते कदाचिद् उद्यापनानिमित्तं साधारणान् मोदकान् कारितवन्तः / कारयित्वा च समुदायेनोद्यापनिकायां गताः। तत्र चैको मोदकरक्षको मुक्तः, शेषास्त्वेक त्रिंशत् नद्यां स्नातुं गताः / अत्राऽन्तरे च कोऽपि लोलुपसाधुभिक्षार्थमुपातिष्ठत, दृष्टाश्च तेन मोदकाः, ततो जातलाम्पट्यो धर्म लाभयित्वा तं पुरुषं मोदकान् याचितवान् / Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणिसिट्ठ 337- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणिसिट्ट स प्राह- भगवन् ! न ममैकाकिनोऽधीना एते मोदकाः, किन्तु / स्वामिनो हस्तिनश्च। अन्येषामप्येकत्रिंशजनानां, ततः कथमह प्रयच्छामि? एवमुक्ते साधुराह तत्र प्रथमतः स्वाम्यनिर्दिष्टं चुल्लकमाहते (कहिं ति) कुत्र गताः ? स प्राह- नद्यां स्नातुमिति / तत एवमुक्ते छिन्नमछिन्नो दुविहो, होइ अछिन्नो निसिट्ठ अणिसिट्ठो। भूयोऽपि साधुस्तं प्रत्याह- परसत्केन मोदकसमूहेन त्वं पुण्यं कर्तुं न छिन्नम्मि चुल्लगम्मि य, कप्पइ घेत्तुं निसिझुम्मि॥ शक्नोषि ? यदेवं याचितोऽपि न ददासि / महानुभावमूढस्त्वं यः इह द्विधा चुल्लकः / तद्यथा- छिन्नोऽछिन्नश्च / इयमत्र भावना- इह परसत्कानपि मोदकान् मह्यं दत्त्वा पुण्यं नोपार्जयसि / अपि च कोऽपि कौटुम्बिकः क्षेत्रगतहालिकानां कस्यापि पार्श्वे कृत्वा भोजनं द्वात्रिंशतमपि मोदकान् यदि में प्रयच्छसि, तथापितव भागेएक एव मोदको प्रस्थापयति / स यदा एकैकहालिकयोग्यं पृथक् पृथक् भाजने कृत्वा याचितः। एवमल्पव्ययं बहायं दानं यदि जानासि सम्यग् हृदयेन, तर्हि प्रस्थापयति, तदा स चुल्लकश्छिन्नः, यदातु सर्वेषामपि हालिकानां देहि मे सर्वानपि मोदकानिति। एवमुक्ते दत्तास्तेन सर्वेऽपि मोदकाः, भृतं योग्यमेकस्यामेव स्थाल्यां कृत्वा प्रेषयति, तदा सोऽछिन्नः / साधुभाजनम्, ततः संजातहर्षः साधुस्तस्मात् स्थानाद् विनिर्गन्तुं एवमन्यत्राप्युदापनिकादौ छिन्नाऽछिन्नत्वं चुल्लकस्य भावनीयम् / प्रवृत्तः / अत्राऽन्तरे च सर्वे समागच्छन्ति स्म माणिभद्रादयः। पृष्टश्च तैः अच्छिन्नोऽपि द्विधा। तद्यथा-निसृष्टोऽनिसृष्टश्च। तत्र निसृष्टः कौटुम्बिकेन साधुः-- भगवन् ! किमत्र त्वया लब्धम् ? ततः साधुना चिन्तितम्- यथा येषां च हालिकाना योग्यः, सचुल्लकस्तैश्च साधुभ्यो दानाय मुत्कलितः / एते मोदकस्वामिनस्ततो यदि मोदका लब्धा इति वक्ष्ये तर्हि भूयोऽपि इतरस्तु मुत्कलितोऽनिसृष्टः / तत्र यस्य निमित्तं छिन्नः, स एव चेत् ग्रहीष्यन्ति। तस्मात् न किमपि लब्धमिति ब्रवीमीति। तथैवोक्त-वान्। तस्याऽऽत्मीयस्य छिन्नस्य दाता, तर्हि तस्मिन् छिन्ने चुल्लके ततस्तैमाणिभद्रप्रमुखै राक्रान्तं साधुमवलोक्य संजात-शङ्करभाणि तत्स्वामिना दीयमाने साधूनां ग्रहीतुं कल्पते, दोषाऽभावात्, तत्तथा दर्शय निजभाजनं साधो! येन प्रेक्षामहे। साधुश्च न दर्शयति। ततो बलात् छिन्नेऽपि सर्वैरपि तत्स्वामिभिरनुज्ञाते तं ग्रहीतुं कल्पते, तत्राऽपि प्रलोकितम्। दृष्टा मोदकाः / ततः कोपारुणलोचनैः साधिक्षेप रक्षकपुरुषः दोषाऽभावात्। एनमेवाऽर्थं सविशेषितमाहपृष्टः- यथा किं भोः त्वयाऽस्मै सर्वेऽपि मोदका दत्ताः ? स भयेन छिन्नो दिट्ठमदिट्ठो,याय निसिट्ठोइछिन्नो य। कम्पमानोऽवदत्-न मया दत्ताः। एवं चोक्ते माणिभद्रादिभिः साधुरूचे सो कप्पइ इयरो उण, अदिदिट्ठो अणुनाओ। चौरस्त्वं पापः साधुवेष-विडम्बक! सहोढ इति इदानीं प्राप्तोऽसि, कुतस्ते मोक्ष इति गृहीतो वस्त्राऽञ्चले कर्षितो बाहुना। ततः पश्चात् कुट्टित इति - यश्चुल्लको यस्य निमित्तं छिन्नः, स तेन दीयमानो मूलस्वामिना गृहीत्वा सकलमपि पात्ररजोहरणादिकमुपकरणं गृहस्थी-कृतः, तत कुटुम्बिकेनाऽदृष्टो दृष्टो वा कल्पते। तथा यश्चाऽछिन्नः, योऽपि च यस्य उड्डाह इति। नीतो राजकुलम्, कथितो धर्माधि-करणिकानाम् / पृष्टश्च निमित्तं छिन्नः, स स्वस्वामिभिरनुज्ञातोऽन्येन दीयमानः तैः / साधुश्च न किमपि लज्जया वक्तुं शक्तवान् ? ततः परिभावितम् स्वस्वामिभिरदृष्टो दृष्टो वा कल्पते (इयरो उ णत्ति) इतर एतद्नूनमेष चौर इति, परं साधुवेषधारीति कृत्वा प्राणैर्मुक्तो | व्यतिरिक्तः, तुःपुनरर्थे। छिन्नोऽछिन्नो वा स्वस्वामिभिरननुज्ञातो-ऽदृष्टो निर्विषयश्चाऽऽज्ञापितः / एवमप्रभावनायके दातरि एतेऽनन्तरोक्ता दृष्टो वा न कल्पते, प्रागुक्तग्रहणादिदोषसंभवात् / अयं च विधिः ग्रहणकर्षणादयो दोषा भवन्ति। (पहुम्मिति) तृतीयार्थे सप्तमी। यथा - साधारणाऽऽदिसृष्टऽपि वेदितव्यः। 'तिसु अलंकिया-पुहवी' इत्यत्र / ततोऽयमर्थः - तस्मात् प्रभुणा तथा चैतदेव गाथाऽर्द्धन प्रतिपादयतिनायकेन दत्ते सति साधुना ग्रहणं भक्तादेः कर्तव्यम्, तत्राऽप्याच्छेद्यादिकं अणुसिट्ठमणुनायं, कप्पइ घेत्तुं तहेव अहिडे / सम्यकपरिहर्तव्यमिति। उक्तं सोदाहरणं मोदकद्वारम्। अधुना शेषाण्यपि गजयस्स य अनिसिहूं, न कप्पई कप्पइ अदिटुं / द्वाराण्यतिदेशेन व्याख्यानयति अनिसृष्टं पूर्व स्वस्वामिभिः सर्वैरननुज्ञातमपि यदि पश्चादनुज्ञातं भवति, एमेव य जंतम्मि वि, संखडिं खीरआवणाईसु। तर्हि कल्पते तद्ग्रहीतुं, तेषामनुज्ञातं सर्वैः स्वामिभिरन्यत्र गतत्वादिना सामन्नं पडिकुटुं, कप्पइ घेत्तुं अणुन्नायं // कारणेनाऽदृष्टमपि ग्रहीतुं कल्पते, तदोषाऽभावात् / संप्रति एवमेव मोदकोदाहरणप्रकारेण यन्त्रेऽपि संखड्यामपि क्षीरेच आपणादिषु हस्तिनश्शुल्लकाऽनिसृष्ट गाथोत्तराऽद्धेन भावयति- (गजयस्स त्ति) च यत् सामान्य साधारणं, तत्स्वामिभिः सर्वैरप्य-निसृष्ट, तत् प्रतिक्रुष्टं | हास्तिनो भक्तं मिण्ठेनाऽनुज्ञातमपि राज्ञा गजेन वाऽनिसृष्टमज्ञातं न तीर्थकरगणधरैः, अनुज्ञातम्। पुनः सर्वैरपि स्वामिभिः कल्पते ग्रहीतुम्, कल्पते, वक्ष्यमाणादिदोषसंभवात्। तथा मिण्ठेन स्वलभ्यं भक्तं दीयमानं तत्र दोषाभावात्। संप्रति चुल्लकद्वारस्य प्रस्तावनां, चुल्लकस्य भेदं च गजेनाऽदृष्ट कल्पते, गजदृष्टग्रहणे तुवक्ष्यमाणोपाश्रयभङ्गादिदोषप्रसङ्गः। प्रतिपादयति अस्यैव विधेरन्यथाकरणे दोषानाहचुल्ल त्ति दारमहुणा, बहुवत्तव्वं तितं कयं पच्छा। निवपिंडो गजभत्तं, गहणाईयंतराइयमदिनं / वन्नेई गुरु सो पुण, सामिय हत्थाण विन्नेओ। डुंबस्स संतिए वि हु, अभिक्ख वसहीइ फेडणया।। अधुना चुल्लकद्वारं व्याख्येयम्। अथोच्यते मूलगाथायां द्वितीय स्थाने इह यद् गजस्य भक्तं, तत् राज्ञः पिण्डो, राज्ञो भक्तं , ततो निर्दिष्टमपि कस्माद् व्याख्यावेलायां पश्चात्कृतम् ? तत आह- राज्ञा अननुज्ञातस्य ग्रहणे ग्रहणादयो ग्रहणाऽऽकर्षणादयो दोषा बहुवक्तव्यमिदं द्वारम्, अतः व्याख्यावेलायां पश्चात्कृतम् / तत्र भवेयुः, तथा- अन्तरायिकम् अन्तरायनिमित्तं पापं साधोः गुरुस्तीर्थकरादिवर्णयति प्ररूपयति, यथा-सचुल्लको द्विधा / तद्यथा प्रसज्जते / राजा हि मदीयाऽऽज्ञामन्तरेणैव साधवे पिण्डं Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणिसिट्र ३३८-अभिधानराजेन्द्रः- भाग 1 अणिस्सिओवहाण ददातीति रुष्टः सन्कदाचिद् मिण्ठस्वाधिकाराभ्रंशयति, ततो मिण्ठस्य वृत्तिच्छेदः साधुनिमित्त इति साधोरान्तरायिकंकल्पते / तथा (अदिन्नं ति) अदत्तादानदोषः, राज्ञाऽननुज्ञातत्वात्। तथा डुम्बस्य मिण्ठेन स्वयं दीयमानेऽभीक्ष्णं प्रतिदिवसं यदि साधुस्तं पिण्डं गजस्य पश्यतो गृह्णाति, | तदा मदीयकवलमध्यादनेन मुण्डेन पिण्डो गृह्यते, इत्येवं कदाचित् रुष्टः सन् यथायोग मार्गे परिभ्रमन् उपाश्रये साधुं दृष्ट्वा तं सुण्डं प्रसार्य स्फोट्येत्, साधुंच कथमपि प्राप्य मारयेत्, तस्मात्, न गजस्य पश्यतो मिण्ठस्यापि सत्कं गृह्णीयात्, तदेवमुक्तमनिसृष्टद्वारम् / पिं०। प्रव०| आचा०ा जीता पं० व०। 'अणिसिटे चउलहुँ। पं० चू०। बृक्षण सूत्रा (अनिसृष्टं रजोहरणादि शब्देष्वेव दृश्यम्) "अणिसिटुंण कप्पति अणुण्णायं"। नि० चू०१४ उ० शय्यातरेणाऽननुज्ञातप्रवेशे, निसृष्टो नाम यस्य शय्यातरेण प्रवेशोऽनुज्ञातः, तदितरोऽनिसृष्टः / 702 उ०। अणिसिद्ध-त्रि०(अनिषिद्ध) अनुमते, कल्पा सावद्याऽनुष्ठाना-निवृत्ते, पञ्चा० 12 विव० अणिसीह-न०(अनिशीथ) प्रकाशपाठात् प्रकाशोपदेशाद् वा निशीथमिति श्रुतभेदे, आ० म० सांप्रतमनिशीथनिशीथयोरेव स्वरूपप्रतिपादनार्थमाहभूआपरिणयविगयं, सद्दकरणं तहेवमनिसीहं। पच्छन्नं तु निसीहं, निसीहनामं जयज्झयणं / भूतमुत्पन्नम्, अपरिणतं नित्यं, विगतं विनष्ट, भूताऽपरिणत-विगतम्, समाहारत्वादेकवचनम्। किमुक्तं भवति ? 'उप्पण्णेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा' इत्यादि। किं विशिष्टम् ? शब्दकरणं शब्दः क्रियते यस्मिन्, तत् शब्दकरणम्। उक्तंच-"उत्तीउसद्दकरणं, पगासपाट वसरविसेसो वा" स निशीथो भवति / इयमत्र भावना- यदुत्पादाद्यर्थप्रतिपादकः, तथा महताऽपि शब्देन प्रतिपाद्य, तत् प्रकाशपाठत् प्रकाशोपदेशाद्वा निशीथ इति। आ०म० द्वि०। अणिस्सकड-न०(अनिश्राकृत)सर्वगच्छसाधारणे चैत्ये, णिस्सकडं जं गच्छं, संति अ तदिअरं अणिस्सकडं / सिद्धाययणं च इंम, चेइयपणगं विणिद्दिढ // 1 // ध०२ अधि०। ये रजोहरणा-दिवेषधारिणो मत्पितृतुल्यास्तेभ्यो दास्यामीति संकल्पं विनैवा-ऽवढौकनाय, बलिनिष्पादने, स्वपित्रादिभक्तिमात्रकृते भक्ते च। पिं० अणिस्सिओवस्सिय-पुं०(अनिश्रितोपाश्रित) निश्रितंरागः, उपाश्रितं द्वेषः। अथवा-निश्रितमाहारादिलिप्सा, उपाश्रितं शिष्य-कुलाद्यपेक्षा, तद्वर्जितो यः सोऽनिश्रितोपाश्रितः / रागद्वेष-वर्जनेन, आहारशिष्यकुलाद्यपेक्षाराहित्येन च मध्यस्थभावंगते, ''साहम्मियाणं अहिगरणंसि उप्पण्णंसि तत्थ अणिस्सिओवस्सिओ अ पक्खगाही"। स्था०८ ठान अणिस्सिओवस्सियं, सम्मेववहरमाणे समणे णिगंथे, आणाए आराहए भवइ। अनिश्रितैः सर्वाशंसारहितैरुपाश्रितोऽङ्गीकृतोऽनिश्रितोपा-श्रितस्तम् / अथवा- निश्रितश्च शिष्यत्वादिप्रतिपन्नः, उपाश्रितश्च स एव वैयावृत्त्यकरत्वादिना प्रत्यासन्नतरस्तौ / अथवा- निश्रितं रागः, उपाश्रितश्च द्वेषस्तम् / अथवा-निश्रितञ्चाऽऽहारादिलिप्सा, उपाश्रितं च मियामीनमा कलाटोमा ते नको यत्र तनोति क्रिया-विशेषणम्। ) सर्वथा पक्षपातरहितत्वेन यथा- वदित्यर्थः / इह पूज्यव्याख्या - ‘रागा यहोइ निस्सा, उवस्सिओदोससंजुत्तो। अहव ण आहाराई,दाही मज्झं तु एस निस्साओ / / 1 / / सो सो पडिच्छए वा, होइ उवस्साकुलादी य त्ति / " भ०८ श०८ उ० अणिस्सिओवहाण-न०(अनिश्रितोपधान) न निश्रितमनिश्रितं द्रव्योपधानम्- उपधानकमेव, भावोपधानं तपः। आव० 4 अ० आ० चू०। शुभयोगसङ्ग्रहाय परसाहाय्याऽनपेक्षे तपसि, स० 32 समला ऐहिकफलाऽनपेक्षतपःकारितायाम्, एष चतुर्थो योगसङ्ग्रहः / इह परत्र चकेन कृतः? इत्यत्रोदाहरणम्पाइलिपुत्त महागिरि, अज्जसुहत्थी असेट्टिवसुभूई। चइ दिसि उजेणीए, जिणपडिमा एलकच्छंच" ||1|| शिष्यौ द्वौ स्थूलभद्रस्य, महागिरिसुहस्तिनौ / महागिरिमहासत्त्वो, गणं दत्त्वा सुहस्तिनः / / 1 / / जिनकल्पे व्यवच्छिन्ने-ऽप्यभ्यासे तस्य वर्तते। विहारेणाऽन्यदाऽगाता, पाटलीपुत्रपत्तनम् // 2 // तत्र श्रेष्ठी वसुभूतिः, सुहस्तिप्रतिबोधितः। श्रावकोऽभूदथावादीद, बोध्यन्तां स्वजना मम / / 3 / / ततः सुहस्ती तद्गेहे, गत्या धर्ममुपादिशत्। महागिरिस्तदा तत्राऽऽयासीभिक्षाकृतेऽथ तान् // 4 // दृष्ट्वोत्तस्थौ सुहस्ती द्राग, वसुभूतिरथाऽब्रवीत्। गुरवो वोऽप्यमी तेऽथ, चक्रुस्तद्गुणसंस्तवम् / / 5 / / एवमावेद्य तेषां ते,प्रदायाऽणुव्रतान्यगुः। वसुभूतिर्द्धितीयेऽह्नि, स्वजनानूचिवानिति / / 6 / / तदोज्झका भवेताऽग्रे, दृष्ट्वाऽऽयान्तं महागिरिम् / दृष्ट्वा तमुज्झनारम्भ, महागिरिरथागतः // 7 // तदशुद्धमिति ज्ञात्वा, वलित्वोचे सुहस्तिनम्। अभ्युत्थानगुणाख्यान-रशुद्धिर्विदधे त्वया // 8 // अथद्वावपि वैदेशी, सगच्छौजग्मतुर्गुरुम्। तत्राजितप्रतिनिधि, वन्दित्वा श्रीमहागिरिः // 6 // गजाग्रपदवन्दारु-रेलकच्छपुरे ययौ। तद्दशार्णपुर पूर्वमासीत् त्वस्मिन्नुपासिका।।१०।। चक्रे वैकालिकं नित्यं, प्रत्याख्याति स्म चाऽथ सा। उपाहसत्पतिस्तस्याः , सायं भुक्तपरोऽपि किम् ? ||11|| निश्यद्यात् सोऽपि भुक्त्वाऽऽह, प्रत्याख्याम्यहमप्यतः। भक्ष्यसि त्वं तयेत्यूचे,न भक्ष्यामीति सोऽवदत्॥१२॥ देवताऽचिन्तयच्छ्राद्धा-मसावुपहसत्यदः / निशीथे स्वसृरूपेणाऽऽ-भ्यागादादाय लाभनम् / / 13 / / खादन्निषिद्धः पत्न्योचे, किमेतै लजालकैः ? / देवता तं प्रहृत्याऽथ, दृग्गोलौ च व्यपातयत् // 14 // मा भून्ममाऽयशः श्राद्धाः, कायोत्सर्गेऽथ सा स्थिता / देवता स्माह तां श्राद्धाऽप्युवाचैवं ममाऽयशः / / 15 / / साऽथानीयादधौ सद्यो, मारितैडस्य चक्षुषी। एडकाक्षस्ततः ख्यातः, स श्राद्धः प्रत्ययादभूत् // 16|| लोकः समेति तं द्रष्टु-मेडकाक्षं कुतूहलात्। एडकाक्षं पुरमपि, तन्नाम्ना तदभूत् ततः।।१७।। मायानोनिः शैलस्यैवमत पुनः) गर्व दशार्णभद्रस्य हर्तु शक्रः समागतः॥१८॥ Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणिस्सिओवहाण 339 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणिहुतपरिणाम गजेन्द्रारूढ एवाथ, त्रिः प्रादक्षिणयत् प्रभुम्। वक्तुं समर्थो नाऽन्यदा। एवं विधाने, किन्तु स्मरणनिरपेक्ष एव भवतीति / ततो दशार्णकूटाख्ये, तत्पदान्युत्थितान्यगे॥१६|| दशा० 4 अ० निश्रारहिते, कस्याऽपि साहाय्यमवाञ्छति, उत्त० 16 देवानुभावात् ख्यातोऽथ, गजेन्द्रपद इत्यसौ। तस्मिन् महागिरिभक्तं, प्रत्याख्याय दिवं ययौ / / 20 / / अणिस्सियकर-त्रि०(अनिश्रितकर) रागद्वेषपरिहारतो यथासुहस्तिसूरयोऽन्येधुर्जग्मुरुज्जयिनी पुरीम्। ऽवस्थितव्यवहारकारिणि, व्य० 3 उ०) सुभद्रा यानशालायां, विशालायां च ते स्थिताः॥२१॥ अणिस्सियप्प(ण)-पुं०(अनिश्रिताऽऽत्मन्) अनिदाने, "अणिस्सिएकदा नलिनीगुल्माऽध्ययनं पर्यवर्तयन्। यप्पा अपडिबद्धा" आव०६अ। सुभद्राभूस्तदाऽवन्तिसुकुमालो महर्द्धिकः // 22 // अणिस्सियवयण-त्रि०(अनिश्रितवचन) रागादिना वाक्यपत्नीद्वाविंशता सार्द्ध, सौधे सप्ततलेऽललत्। कालुष्यवर्जिते, दशा० 4 अलग सुप्तबुद्धः स तत्-श्रुत्वा, जातजातिस्मृतिः क्षणात्॥२३॥ आगत्याऽवोचतावन्ति-सुकुमालोऽस्म्यहं प्रभो!! अणिस्सियवयणया-स्त्री०(अनिश्रतवचनता) निश्रितं क्रोधा-दीनाम्, अभूवं नलिनीगुल्मे, देवः प्राच्यतमे भवे // 24 // अथवा रागद्वेषाणां निश्रामुपगतम्।न निश्रित-मनिश्रितम्। व्य०३ उ० कथं तद्वित्थ यूयं किं. यूयमप्यागतास्ततः ? / मध्यस्थवचनतायाम, स्था०८ ठा०ारागाद्यकलुषवचनतायाम, उत्त०१ गुरुवोऽप्यभ्यधुर्भद्र ! तद्विद्मो वयमागमात् / / 25 / / अ० तत्कथं लभ्यते स्वामिन्नूचुस्ते भद्र !संयमात्। अणिस्सियववहारि(ण)-पुं(अनिश्रितव्यवहारिन्) निश्रारागः, निश्रा सोऽवक् न संयम कर्तु, चिरं शक्तोऽस्मि किं पुनः ? // 26|| संजाता अस्येति निश्रितः / न निश्रितोऽनिश्रितः / स चाऽसौ तदर्थी व्रतमादाय, करिष्यामीङ्गिनीमृतिम् / व्यवहारश्वाऽनिश्रितव्यवहारः, तत्करणशीला अनिश्रित-व्यवहारिणः / अपृच्छज्जननी, नैच्छल्लोचं सोऽथाकृत स्वयम् // 27 // अरागेण व्यवहारकारिणि, व्य०१ उ०। लिङ्गं गुरुर्ददौ सोऽगात्, ततः कन्थारिकावने। अणिह-पुं०(अनिह) निहन्यत इति निहः / न निहोऽनिहः / तस्थौ प्रतिमया तत्र, श्मशानेऽनशनी मुनिः // 28 // क्रोधादिभिरपीडिते, तपःसंयमसहने वा, निगृहितबलवीर्ये च।"अणिहे स्फुटत्पादाऽसृग्गन्धेनाऽऽकृष्टा तत्र शिवाऽभ्यगात्। से पुढे अहियासए"।सूत्र०१ ०२अ०१ उ०ापरीसहोपसर्गे, निहन्यत एकतःसा शिवाऽखादत्, तदपत्यानि चाऽन्यतः॥२६|| इति निहः। न निहोऽनिहः। उपसर्ग- रपराजिते, सूत्र०१श्रु०२ अ०२ प्रथमे प्रहरे जानू, ऊरुस्तम्भौ द्वितीयके। उ०ा "अणिए सहिए सुसंयुडे, धम्मट्ठी उवहाणवीरिए"। सूत्र०१ श्रु०२ तृतीये जठरं तुर्ये , मृत्वा स्थानेऽजनीप्सिते॥३०॥ अ०२ उ०। निहन्यन्ते प्राणिनः संसारे यया सानिहा माया। न विद्यते सा गन्धाऽम्बुपुष्पवर्षाणि, तस्योपरि सुराव्यधुः। यस्याऽसावनिहः ! मायाप्रपञ्चरहिते, सूत्र० 1 श्रु०८ अ०। दश०। आचार्यास्तजनैः पृष्टास्तमिष्टगतिगंजगुः / / 31 / / "अस्सि सुठिच्चा अणिहे चरेजा"। सूत्र०२ श्रु०६अ। सुभद्रा सस्नुषा तत्र, वीक्ष्य तं कृतदुष्करम्। *अनिहत-पुं०। निश्चयेन निहन्यत इति निहतः / न निहितोऽनिहतः / प्रवव्राज स्थितैका तु, गुर्विणी तत्सुता ततः॥३२॥ भावरिपुभिरिन्द्रियकषायकर्मभिरनिहते, "अणिहे एगमप्पाणं संपेहाए अचीकरदेवकुलं श्मशानेऽद्भुतमुच्छ्रितम्। धुणे सिरीरं"। आचा०१श्रु०४ उ०४ उ०ा सर्वत्र ममत्वरहिते, सूत्र०१ तदिदानी महाकालं, जातं लोकपरिग्रहात् // 33 // श्रु०२ अ०२ उ०। आर्यमहागिरीणामनिश्रितं तपः। आ० का अणिहण-त्रि०(अनिधन) अन्तरहिते, अष्ट०७ अष्टO! अणिस्सिय-त्रि०(अनिश्रित) निश्चयेनाऽऽधिक्येन च श्रितो निश्रितः। न निश्रितोऽनिश्रितः। क्वचिच्छरीरादावप्रतिबद्धे, "एत्थ वि अणिहतय-त्रि०(अनिहतक) निरुपक्रमायुष्कत्वात् उरो युद्धे च, समणो अणिस्सिए अणियाणे"। सूत्र० 1 श्रु०१६ अ० "अगिद्धे भूम्यामपातित्वाद्द्घातमप्रापिते, स० सद्दफासे सु, आरंभेसु अणिस्सिए' आरम्भेषु सावद्या अणिहयरिउ-पुं०(अनिहतरिपु) भदिलपुरवास्तव्यनागगृहपतेः ऽनुष्ठानरूपेष्वनिश्रितोऽसम्बद्धोऽप्रवृत्त इत्यर्थः / सूत्र०१ श्रु०६ अ०) सुलसानाम्न्यां भार्यायां जातेऽन्यतमे पुत्रे, तत्कथाऽन्तकृद्- दशासु 3 आचा०। कुलादिष्वप्रतिबद्धे, दश० 1 अ०। इह पर- वर्गे 4 अध्ययने सूचिता / तत्रैव प्रथमाध्ययनोक्ता-ऽणीयसकुमारस्येव लोकाऽऽशंसाविप्रमुक्ते, "जाव ज्जीवाए अणिस्सिओहं नेव सयं पाणे भावनीया। यथा-द्वात्रिंशद्भार्याः, द्वात्रिंशत्कएव दानम्, विंशतिवर्षाणि अइवाएजा''| पा० ध| भाद्रव्यभावनिश्रया रहिते प्रतिबन्धविप्रमुक्ते, पर्यायः, चतुर्दशपूर्वाणि श्रुतम्, शत्रुञ्जये सिद्धिः, तत्त्वतस्त्वयं दश० अ०१ उ०। कीदिनिरपेक्षे वैया-वृत्त्यादौ, प्रश्न०१ संव० वसुदेवदेवकीसुतः। अन्त०३ वर्ग०४ अ० द्वा०। अलिने अवग्रहे, "अणि-स्सियमो गिण्हइ" निश्रितो अणिहुत(य)-त्रि०(अनिभृत) अनुपशान्ते, प्रश्न० 3 आश्र० लिङ्गप्रमितोऽभिधीयते- यथा यूथिकाकुसुमानामत्यन्तशीतमृदु- द्वा०ा औ०। त्रिदण्डिनि, बृ०३उ"अणिहुआयसलावा" अतिभृताश्च स्निग्धादिरूपः प्राक् स्पर्शो-ऽनुभूतस्तेनाऽनुमानेन लिने न तं संलापा गुर्वादिनाऽपि निष्ठरवक्रोक्त्यादयः। पं० 204 द्वा०। प्रज्ञा विषयमपरिच्छिन्दत्, यदा ज्ञानं प्रवर्तते, तदाऽनिश्रितमलिङ्गमवगृह्णातीत्यभिधीयते / स्था०६ ठा०। अनिश्रितं नाम पुस्तकादिनिरपेक्ष- | अणिहुत(य)परिणाम-त्रि०(अनिभृतपरिणाम) अनिभृतो-ऽनुपशमपरः मेवाऽवगृह्णाति च।अथवा एकवारं श्रुतंपुनर्यदा कश्चिदनूद्य वदति, तदैव | परिणामो येषां ते, अनुपशमपरपरिणामेषु, प्रश्न०१आश्र द्वारा बृण Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणिहुतिंदिय 340 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुओग अणिहुतिंदिय-त्रि०(अनिभृतेन्द्रिय) अनुपशान्तेन्द्रियेषु देहेषु, ब० स०। | अणीसाकड-न०(अनिश्राकृत) सर्वगच्छसाधारणे चैत्ये, ध० प्रश्न०५ संव० द्वा०। 2 अधि। अणीइपत्त-त्रि०(अनीतिपत्र) न विद्यते ईतिर्गडु रिकादिरूपा | अणीहड-त्रि०(अनिहत) अनिष्कासिते, बृ० 1 उ०। अबहिर्निर्गते, येषु तान्यनीतीनि / अनीतीनि पत्राणि येषां ते तथा / ईतिविरहित- अनात्मीकृते च। आचा०१ श्रु०१ अ० 1 उ०। च्छदेषु, जं०१ वक्ष। अणीहारिम-न०(अनिहारिम) गिरिकन्दरादौ विधीयमाने अणीय-न०(अनीक) हस्त्यश्वरथपदातिवृषभनर्त्तकगाथक-जनरूपे पादोपगमनमरणे, कलेवरस्याऽनिर्हरणीयत्वात् तत्त्वम्। भ०१३ श०८ सैन्ये, औ० भ०। उा स्था० अणीयस-पुं०(अणीयस) भघिलपुरवास्तव्यनागगृहपतेः सुलसानाम्न्यां अणु-त्रि०(अणु) प्रमाणतःस्तोके, प्रश्न०३ संव० द्वा०ापं०व०। आ० भार्यायां जातेऽन्यतमे पुत्रे, अन्ता म० द्वि०। सूत्र०। सूक्ष्मेलघौ, विशे० आतुला स्थानालघीयसि, आचा०१ एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं भघिलपुरे णामं श्रु०१ अ०१ उ० परमाणौ, आव० 4 अ० अणुः परमाणुर्निरंशो णगरे होत्था। वण्णओ।तस्सणं भद्दिलपुरस्स उत्तरपुरच्छिमेणं निरवयवो निष्प्रदेशोऽप्रदेश इति / विशेष दिसिभाए सिरिवणे णाम उजाणे होत्था। वण्णओ। जियसत्तू / *अनु-अव्य०। प्रश्वाच्छब्दार्थे , आचा०१ श्रु०५ अ०५ उ०ा पश्चाज्जाते, राया, तत्थ णं भद्दिलपुरे णयरे नागे नाम गाहावती होत्था।। त्रि०ा स्था० 1 ठा०। अनुरूपे, उत्त० 12 अ०। समीपे, बृ०३ उ०। अड्डे जाव अपरिमूए तस्सणं णागस्स गाहावतिस्स सुलसाणाम अवधारणे, बृ०१ उ०। मारिया होत्था / सुकुमाला जाव सुरूवा, तस्स णं णागस्स अणुअ-त्रि०(अणुक) तनुके, "अणुअसुकुमाललोमणिद्ध- च्छविं' गाहावतिस्स सुलसाए भारियाए अत्तए अणीयसे नामं कुमारे अणुकानां तनुकानामतिसूक्ष्माणां सुकुमालानां लोम्नां स्निग्धा छविर्यत्र होत्था। सुकुमाले जाव सुरूवे पंच धातिपरिक्खित्ते / तं जहा तत्तथा। जं०३ वक्ष०ा मिणचवाख्ये धान्यभेदे, इति हैमव्याश्रयवृत्तिः / खीरधाती जहा दढपइण्णे जाव०(गिरिकंदरमल्लीणे व्व युगन्धर्याम्, स्त्री०। ध०२ अधि० / बृ०| चंपगवरपायवे सुहं सुहेणं परवट्टते। तते णं से अणीयसं कुमारं) अणुअतंत-त्रि०(अनुवर्तमान) उत्तरदेशकालमागते, नि० चू०५ उ०। सातिरेगा अट्ठवासजायं अम्मापियरो कलायरियाओ जाव भोगसमत्थे जाते यावि होत्था। अणुअल्लं-(देशी)क्षणरहिते, निरवसरे च। दे० ना० 1 वर्ग। तते णं ते अणीयसं कुमारं उम्मकबालभावं जाणित्ता अणुआ-(देशी)यष्टौ, दे० ना० 1 वर्ग। अम्मापियरो सरिसयाणं० जाव बत्तीसा य रायवरकण्णगाणं अणुइओ-(देशी)चणके, दे० ना० 1 वर्ग। एगदिवसेणं पाणी गिहाविति / तते णं से नागे गाहावती अणुइण्ण-त्रि०(अनुचीर्ण) आगते, "कायसंफासमणुचिण्णाए' कायः अणीयसस्स कुमारस्स इमे एयारूवे पीइदाणं दलयति / तं __ शरीरं तत्संस्पर्शमनुचीर्णाः कायसंगमागताः। आचा०२ श्रु०३ चू०। जहा-बत्तीसं हिरण्णकोडीतो जहा महब्बलस्स जाव उप्पिंपासा अणुउद-पुं०(अनृत) अस्वकाले, "विसमं पवालिणो परिणमंति फुडं विहरति / तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहा अरिट्ठनेमी० अणुदूसुर्देति पुप्फफलं'' स्था० 5 ठा० 3 उ०। जाव समोसढे सिरीवणे उज्जाणे अरहा जाव विहरति, परिसा अणुओइय-त्रि०(अनुयोजित) प्रवर्तिते, नं० णिग्गया। तते णं तस्स अणीयसस्स कुमारस्स। तं जहा अणुओग-पुं०पअणु(नु)योगबअणु सूत्रं, महान् अर्थः, ततो गोयमा ! तहा णवरं सामाइयमाझ्याति चोहसपुरवाई महतोऽर्थस्याऽणुना सूत्रेण योगोऽणुयोगः। अनुयोजनमनुयोगः। अनुरूपो अहिमज्जति / वीसं वासातिं परियाओ सेसं तहेव / जाव सत्तुंजए योगोऽनुयोगः / अनुकूलो वा योगोऽनुयोगः / औ०। व्याख्याने पव्वएमासियातेसंलेहणातेजाव सिद्धे, एवं खलु जम्बू ! समणेणं विधिप्रतिषेधाभ्यामर्थप्ररूपणे, विशे०। ज्ञा०। निजेनाऽभिधेयेन भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं। सार्धमनुरूपेसम्बन्धे। साजी०स्था०। अनु०। आ० म०प्र०ा आव०॥ यथा (दढपइण्ण त्ति) दृढप्रतिज्ञो राजप्रश्नकृते यथा वर्णितः, तथाऽयं वर्णनीयो यावत् 'गिरिकंदरमल्लीणो व्व चंपगवरपायवे सुहं सुहेणं (1) अनुयोगाऽधिकारे द्वारनामनिदर्शनम् / परिवट्टइ, तए णं तमणीयसं कुमार' इत्यादि सर्वमभ्यूह्य वक्तव्यम्, (2) निक्षेपद्वारम्। अभिज्ञानमात्ररूपत्वात्। पुस्तकस्य सरिसियाणमित्यादौ यावत्करणात् (3) सप्तविधाऽनुयोगे नामस्थापनाऽनुयोगौ। 'सरिसयाणं सरिसलावण्णरूवजोव्वणगुणोववेयाणं सरिसेहितो कुलेहितो (4) द्रव्याऽनुयोगः। अणिपल्लियाणमिति दृश्यम् / 'जहा- महब्बलस्स ति' (5) द्रव्याऽनुयोगभेदस्वरूपनिरूपणम्। भगवत्यभिहितस्यतथा तस्याऽपि दानं सर्वं वाच्यम्। 'उप्पिंपासावरगए फुदृमाणेहिं मुइंगमच्छएहिं भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ त्ति' / (6) क्षेत्राऽनुयोगनिरूपणम्। 'सत्तुंजयपव्वए मासियाए संलेहणाए सिद्धे एवं खल्विति सुगमम् / अन्त० J (7) कालाऽनुयोगप्ररूपणम् / 3 वर्ग० 4 अ० (8) वचनाऽनुयोगकथनम्। अणीसड-त्रि०(अनिसृष्ट) हस्तप्रमाणादवग्रहादस्फोटिते, बृ०३ उ०) -1 (6) भावाऽनुयोगस्य षण्णां प्रकाराणां प्रदर्शनम्। सरिसिया सरिसेहिताति ' (5) Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओग 341 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुओग (10) एषां चाऽनुयोगविषयाणां द्रव्यादीनां परस्परं यस्य यत्र समावेशो भजना वा तन्निरूपणम्। (11) एकाथिकानां वक्तव्यता। (12) अनुयोगशब्दार्थनिर्वचनम्। (13) अनुयोगविधिः। (14) प्रवृत्तिद्वारम्। (15) गुरुशिष्ययोश्चतुर्भङ्गीनिरूपणम्। (16) केनाऽनुयोगः कर्तव्यः। (17) कस्य शास्त्रस्याऽनुयोगः कर्तव्यः। (18) पञ्चज्ञानेषु श्रुतज्ञानस्याऽनुयोगः। (16) तद्द्वारेऽनुयोगलक्षणम्। (20) यथोक्तगुणयुक्तस्य कोऽर्हः? इत्यनेन संबन्धेन तदर्हद्वारम्। (21) कथाऽधिकारः। (22) चरणकरणाद्यनुयोगचातुर्विध्यनिरूपणम्। (23) अनुयोगानां पृथक्त्वमार्यरक्षितात्। (1) अथाऽनुयोगाधिकारः, स चैतैद्-द्वारैरनुगन्तव्यःनिक्खेवेगट्ठणिरुत्त - विहि पवित्तीय केण वा कस्स? तद्दारभेयलक्खण-तदरिह परिसा य सुत्तत्थो॥ अनुयोगस्य निक्षेपो नामाऽऽदिन्यासो वक्तव्यः, तदनन्तरं तस्यैकार्थिकानि, तदनु निरुक्तं वक्तव्यम्। ततः को विधिरनुयोगे कर्तव्य इति विधिवक्तव्यः / तथा प्रवृत्तिः प्रसवोऽनुयोगस्य वक्तव्यः / तदनन्तरं केनाऽनुयोगः कर्तव्य इति वक्तव्यम् / ततः परं कस्य शास्त्रस्य कर्तव्य इति / तदनन्तरं तस्याऽनुयोगस्य द्वाराण्युपक्रमादीनि वक्तव्यानि। तत्र तेषामेव भेदः, ततः परं सूत्रस्यलक्षणम्, तदनन्तरं सूत्रस्याऽर्हा योग्याः, ततः परं परिषत्, ततः सूत्रार्थः / एष द्वारगाथासंक्षेपार्थः / व्यासार्थस्तु प्रतिद्वारं वक्ष्यते। बृ०१ उ० स्था०। अनु०। आ० म० प्र०ा आ० चूल। (2) तत्र प्रथमतो निक्षेपद्वारमाहनिक्खेवो नासो त्तिय, एगटुं सो उ कस्स निक्खेवो? अणुओगस्स भगवओ, तस्स इमे वन्निया भेया॥ निक्षेपो न्यास इत्येकार्थः / पर आह- स निक्षेपः कस्य कर्तव्यः? सूरिराह- अनुयोगस्य भगवतः, तस्य च निक्षेपस्य इमे वक्ष्यमाणा वर्णिता भेदाः। बृ०१ उ०) अथाऽनुयोगस्यैव संभवन्तं नामादिनिक्षेपमाहनामं ठवणा दविए, खेत्ते काले य वयणभावे य। एसो अणुओगस्स उ, निक्खेवो होइ सत्तविहो॥३८६|| नामाऽनुयोगः, स्थापनानुयोगः, द्रव्यानुयोगः, क्षेत्रानुयोगः, कालानुयोगः, वचनानुयोगः, भावाऽनुयोगः / एषोऽनुयोगस्य सप्तविधो निक्षेपः / इति नियुक्तिगाथार्थः। (3) विस्तरार्थ त्वभिधित्सुर्भाष्यकारो नामस्थापनाऽनुयोग-स्वरूपं / तावदाहनामस्स जोऽणुओगो, अहवा जस्साभिहाणमणुओगो। नामेण व जो जोओ, जोगो नामाणुओगो सो।। ठवणाए जोऽणुओगो-ऽणुओग इति वा ठविज्जए जं च। जावेह जस्स ठवणा, जोग हवणाणुओगो सो।। नाम्न इन्द्रादेर्योऽनुयोगो व्याख्यानमसौ नामाऽनुयोगः / अथवा यस्य वस्तुनोऽनुयोग इति नाम क्रियते तन्नाममात्रेणाऽनुयोगो नामाऽनुयोग इत्युच्यते। यदि वा नाम्ना सह यः कश्चिद्योगोऽनुरूपो योगः संबन्धः स नामानुयोगः, नाम्ना सहाऽनुरूपोऽनुकूलो योगो नामानुयोग इति व्युत्पत्तेः / यथा- दीपस्य दीपनाम्ना सह, तपनस्य तपननाम्ना सह, ज्वलनस्य ज्वलननाम्ना सह इत्यादि / एवं स्थापनाया अनुयोगो व्याख्यानं स्थापनानुयोगः / अथवा अनुयोगं कुर्वन्नाचार्यादिर्यत्र काष्ठादौ स्थाप्यते तत्स्थापनाऽनुयोगः / यावदिहानुयोगकर्तुराचार्यादेस्तदाकारवति लेप्यकर्मादौ योग्याऽनुरूपा स्थापना क्रियते, स स्थापनानुयोगः / स्थापनाया अनुरूपोऽनुकूलो योगः संबन्धः स्थापनाऽनुयोग इति व्युत्पत्तेः। इति निक्षेपद्वारम्। विशे० (4) अथ द्रव्याऽनुयोगमाहसामित्त करण अहिगरण, एहिँ एगत्ते य बहुत्ते य। नामं ठवणा मोत्तुं, इति दव्वादीण छब्मेया॥ स्वामित्वं संबन्धः, करणं साधकतमम्, अधिकृतम्, अधिकरणमाधारः, एतैः प्रत्येकमेकत्वेन बहुत्वेन च पञ्चानां द्रव्यादीनामनुयोगो वक्तव्य इति / एवं नामस्थापना मुक्त्वा द्रव्यादीनामनुयोगस्य प्रत्येकं षड्भेदा भवन्ति। बृ०१ उ०। तथाहिदव्वस्स जोऽणुओगो, दव्वे दव्वेण दव्वहेउस्स। दव्वस्स पञ्जवेण व, जोगो दट्वेण वा जोगो।। बहुवयणओ वि एवं, नेओ जो वा कहेव अणुवउत्तो। दव्वाणुओग एसो. एवं खेत्ताइयाणं पि। द्रव्यस्य योगो व्याख्यानमेष द्रव्यानुयोग इति द्वितीयगाथायां संबन्धः / तथा द्रव्ये निषद्यादावधिकरणभूते स्थितस्यानुयोगो द्रव्यानुयोगः / द्रव्येण वा क्षीरपाषाणशकलादिना करणभूतेनानुयोगो द्रव्याऽनुयोगः / द्रव्यहेतोर्वा शिष्यद्रव्यप्रतिबोधनादिनिमित्तमनुयोगो द्रव्याऽनुयोगः। अथवा द्रव्यस्य वस्त्रादेः कुसुम्भरागादिना पर्यायेण सहय इह योगोऽनुरूपो योगः संबन्धः, स द्रव्यानुयोगः / अथवा द्रव्येणाऽलीकादिना कृत्वा यस्यैव वस्त्रादेः, तेनैव कुसुम्भरागादिना पर्यायेण सह योगो-ऽनुरूपो योगः संबन्धः स द्रव्यानुयोगः / एवं बहुवचनतोऽपिज्ञेयो द्रव्यानुयोगः। तद्यथा-द्रव्याणांद्रव्येषुद्रव्यैर्वाऽनुयोगो द्रव्यानुयोगः, तथा द्रव्याणां हेतोरनुयोगो द्रव्यानुयोगः, द्रव्याणां पर्यायः सह द्रव्यैर्वा करणभूतैरनुरूपो योगो द्रव्यानुयोग इति / यो वाऽनुपयुक्तः कथयत्यनुपयुक्तोऽनुयोगं करोति, स द्रव्यानुयोगः / एवं क्षेत्रादीनामपि क्षेत्रकालवचनभावेष्वपि यथासंभव-मित्थमेवाऽऽयोज्य इत्यर्थः / तद्यथा- क्षेत्रस्य क्षेत्रेण क्षेत्रे, क्षेत्राणां क्षेत्रैः क्षेत्रेष्वऽनुयोगः क्षेत्रानुयोगः, तथा क्षेत्रस्य क्षेत्राणां वा हेतोरनुयोगः क्षेत्रानुज्ञापनाय देवेन्द्रचक्रवादीना-मनुयोगोव्याख्यानं यत् क्रियत इत्यर्थः / तथा क्षेत्रस्य क्षेत्राणां वा, क्षेत्रेण क्षेत्रैर्वा करणभूतैः पर्यायेण पर्यायैर्वा सहानुरूपोऽनुकूलो योगः क्षेत्रानुयोगः / एवं कालवचन-भावविषयेऽप्येकवचनबहुवचनाभ्यां सुधिया यथासंभवं वाच्यम्, नवरं, कालादिष्वमिलापः कार्य इति द्रव्यस्याऽनुयोगो व्याख्यानं द्रव्याऽनुयोग इत्यादावभिहितम् / विशे०। (5) तत्र कतिभेदं तद्रव्यं ? किंस्वरूपश्च तस्यानुयोगः? इत्याशङ्क्याहदव्वस्स उ अणुओगो, जीवदव्वस्स वा अजीवदव्वस्स। एक्कक्कम्मिय भेया, हवंति दव्वाइया चउरो॥ Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओग 342 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुओग मिखटिका, तत्राणायः क्रियतेऽनुयाधिकरणे एकरि द्रव्यस्यानुयोगो द्विधा-जीवद्रव्यस्यवाअजीवद्रव्यस्य या, एकैकस्मिन् योगे द्रव्यादिकाश्चत्वारो भेदा भवन्ति / किमुक्तं भवति? | जीवद्रव्यानुयोगोऽजीवद्रव्यानुयोगो वा प्रत्येकं द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो | भावतश्च भवति। तत्रजीवद्रव्यानुयोगं द्रव्यादित आहदव्वेणेकं खेत्ते, संखातीतप्पदेसमोगाढं। काले अनादिनिहणं, भावे नाणाझ्या ऽणंता॥ द्रव्यतो जीवद्रव्यमेकं, क्षेत्रतोऽसंख्येयप्रदेशावमाद,कालतोऽनाद्यनिधनं, भावतो ज्ञानादिकाः पर्याया अनन्ताः / तथा अनन्ता ज्ञानपर्याया अनन्ताश्चारित्रपर्याय अनन्ता दर्शनपर्याया अनन्ता अगुरुलघुपर्यायाः। अधुना द्रव्यादिभिरजीवद्रव्यस्याऽनुयोगमाहएमेव अजीवस्स वि, परमाणू दव्वमेगदव्वं तु! खेते एगपएसे, ओगाढो सो मवे नियमा। समयाइ ठिति असंखा, ओसप्पिणिओ हवंति कालम्मि। वण्णादि भावऽणंता, एवं दुपदेसमादी वि।। एवमेव अनेनैव प्रकारेण, अजीवद्रव्यस्याप्यनुयोगो वक्तव्यः, तद्यथापरमाणुर्द्रव्यत एक द्रव्यम्, क्षेत्रतः एकप्रदेशावगाढम् कालतो जघन्यतः स्थितिः समयादिरेको द्वौ त्रयो वा / समया-ऽनुकर्षतोऽसंख्यावगाढम्। असंख्येया उत्सर्पिण्योऽवसर्पिण्यश्च भवन्ति / भावतो अनन्ता वर्णादिपर्यायाः। तद्यथा- अनन्ता वर्णपर्यवाः, अनन्ता गन्धपर्यवाः, यावदनन्ताः स्पर्शपर्यवा इति / एवं द्विप्रदेशादेरपि / द्विप्रदेशकस्य यावदनन्तप्रदेशिकस्योपयुज्य वक्तव्यम्। तद्यथा- द्विप्रदेशकः स्कन्धो द्रव्यतः एक द्रव्यं, क्षेत्रतः एकप्रदेशावगाढः, द्विप्रदेशावगाढोवा। कालतो जघन्यतः स्थितिः समयादिरुत्कर्षत असंख्या उत्सर्पिण्योऽवसर्पिण्य एव इत्यादि। अथ द्रव्याणामनुयोग इत्येतद्व्याचिख्यासुराहदव्वाणं अणुओगो, जीवमजीवाण पञ्जवा नेया। तत्थ विय मग्गणाओ,ऽणेगा सहाणपरठाणे। द्रव्याणामनुयोगो द्विधा- जीवद्रव्याणामजीवद्रव्याणां च / किं रूपोऽसावित्याह? पर्यायाः प्ररूप्यमाणा ज्ञेयाः। तथाहि-कतिविधा भदन्त ! पयार्याः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! द्विविधाः / तद्यथाजीवद्रव्याणामजीवद्रव्याणांच। तत्राऽप्यनेकाः स्वस्थाने चपरस्थाने च मार्गणाः / ताश्चैवम्- नैरयिकाणामसुरकुमाराणां च कति पर्यायाः प्रज्ञप्ताः? गौतम ! अनन्ताः / अथ केनाऽर्थे नेदमुच्यते ? गौतम ! नैरयिकोऽसुरकुमारस्य द्रव्यार्थतया तुल्यः, प्रत्येकमेकद्रव्यत्वात्, प्रदेशार्थतयाऽपि तुल्यः, प्रत्येकं लोका-ऽऽकाशप्रदेशत्वात्। स्थित्या चतुःस्थानपतितः, भावतः षट्-स्थानपतितः, ततो भवन्ति नैरयिकाणामसुरकुमाराणां प्रत्येकं पर्याया अनन्ताः। एवमजीवद्रव्याणां पर्याया अपि, एवं स्वस्थाने परस्थाने च मार्गणा। ('परमाणुपोग्गलाणं भंते !' इत्यादि 'पज्जव' शब्देऽभिधास्यते) ततो भवन्ति दयानामपि प्रत्येकमनन्ताः पर्यायाः। एवमनेकधा जीवद्रव्याणामजीवद्रव्याणां चाऽनुयोगः, सूत्रे तत्र तत्र प्रदेशेऽभिहितो भावनीयस्तदेवं द्रव्याणां चेति स्वामित्वं गतम्। इदानी करणे एकत्यबहुत्वाभ्यामनुयोगमाहवतीए अक्खेण व, करंगुलादीण वा विदव्वेण। अक्खेहिं तु दव्वेहिं, अहिगरणे बहुसु कप्पेसु / / वर्ति म खटिका, तत्र या कृता शलाका, तया! अक्षेण वा, कराडल्या वा। आदिशब्दात्प्रलेपकादिना वा यः क्रियतेऽनुयोगः सद्रव्येणानुयोगः। द्रव्यैरनुयोगो यद् बहुभिरक्षैः क्रियतेऽनुयोगः / अधिकरणे एकस्मिन् द्रव्येऽनुयोगो यदा एकस्मिन् कल्पे स्थितोऽनुयोगं करोति, यदा तु बहुषु कल्पेषु स्थितस्तदा द्रव्येषु अनुयोगः। उक्तो द्रव्यानुयोगःषड्भेदः। वृ०१ उ०ा विशेष स्था०1 ('दशविहेदवियाणुओगे' इति 'दव्यानुओग' शब्दे व्याख्यासहितं सूत्रम्) (6) सम्प्रति क्षेत्रस्य क्षेत्राणां वाऽनुयोगमाहपण्णति-जंबूदीवे,खेत्तस्सेमाइ होइ अणुओगो। खेत्ताणं अणुओगो, दीवसमुद्दाण पण्णती॥ क्षेत्रस्याऽनुयोगः क्षेत्रानुयोग एवमादिको भवति / कः? इत्याह-(पण्णतिजम्बूदीवेत्ति)जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिरित्यर्थः / जम्बूद्वीपलक्षणकक्षेत्रव्याख्यानरूपत्वात्तस्याः / बहूनां तु क्षेत्राणामनुयोगो द्वीपसागरप्रज्ञप्तिर्भवति।बहूनां द्वीपसमुद्रक्षेत्राणांतत्र व्याख्याना-दिति / तदेवं क्षेत्रस्य क्षेत्राणामनुयोग इत्युक्तम्। अथ क्षेत्रेण क्षेत्रैरनुयोग इत्येतदाह - जंबूदीवपमाणं, पुढविजिवाणं तु पत्थयं काउं। एवमसंखिज्जमाणा, हवंति लोगा असंखेजा / / खेत्तेहिं बहुदीवे, पुढविजिवाणं तु पत्थयं काउं। एवमसंखिज्जमाणा, हवंति लोगा असंखेज्जा। इह जम्बूद्वीपप्रमाणं प्रस्थकं पल्यं कृत्वा पुनस्तद्भरण-विरेचनक्रमेण यदा सर्वेऽपि सूक्ष्मबादरपृथ्वीकायिका जीवा मीयन्ते, तदा असंख्येयलोकाकाशप्रदेशसंख्योपेता जम्बूद्वीपप्रमाणाः प्रस्था भवन्तीत्येष क्षेत्रेण जम्बूद्वीपरूपेणानुयोगोऽभिधीयत इति / क्षेत्रस्त्वनुयोगोऽयं द्रष्टव्यः / तद्यथा- बहुद्वीप-प्रस्थकं कृत्वाऽभीक्ष्णं तद्भरणविरेचनक्रमेण समस्तपृथ्वी-कायिकजीवा मीयमाना असङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेश-राशिपरिमाणा बहुद्वीपमानप्रस्था भवन्ति / एतदसंख्येयकं पूर्वस्माल्लधुतरं द्रष्टव्यम् / प्रस्थस्येह बृहत्तरत्वादेष बहुद्वीपलक्षणैः क्षेत्रैरनुयोग इति / अथ क्षेत्रे क्षेत्रेषु चाऽनुयोगमाहखेत्तम्मि उ अणुओगो, तिरियं लोगम्मि जम्मि वा खेत्ते / अड्डाइयदीवेसुं.अद्धछवीसाइखेत्तेसुं॥ क्षेत्र पुनरयमनुयोगः, तथा तिर्यग्लोकक्षेत्रे योऽनुयोगः प्रवर्तते यत्र वा ग्रामनगरादौ व्याख्यानसभादौ वा क्षेत्रे स्थितोऽनुयोग-कर्ताऽनुयोगं करोत्येष क्षेत्रेऽनुयोगः क्षेत्राऽनुयोग उच्यते / क्षेत्रेष्यनुयोगः कः? इत्याहयोऽर्द्ध तृतीयद्वीपसमुद्रान्तर्वर्ति क्षेत्रेषु वर्तते सार्द्ध-(अपार्ध) षड्विंशतिजनपदरूपेषु वा आर्यक्षेत्रे-ष्विति। उक्तः क्षेत्रानुयोगः। (7) अधुना कालस्य कालानां चाऽनुयोगमाहकालस्स समयरूवण, कालाण तदाइजाव सव्वद्धा। कालेणऽनिलऽवहारो, कालेहिं उसेसकायाणं / / कालस्याऽनुयोगः, कः? इत्याह - (समयरूवण त्ति) उत्पल पत्रशतभेदपशाठिकापाटनादिदृष्टान्तैःसमयस्यप्ररूपणा इत्यर्थः। कालानां त्वनुयोगः - (तदाइ जाव सव्वद्धत्ति) समय-मादौ कृत्वा यावत् सर्वाद्धायाः प्ररूपणेत्यर्थः / कालेणा-ऽनुयोगोऽनिलाऽपहारः / इदमुक्तं भवतिबादरपर्याप्तवायुकायिका वैक्रियशरीरे वर्तमाना अर्धपल्योपमस्याऽसंख्येय Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओग 343 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुओग भागेनाऽपहियन्त इत्येवं प्ररूपणा, स कालेनाऽनुयोग इति "तिविहं तिविहेणमिति' संग्रहमुक्त्वा पुनर्मणेणमित्यादिना तिविहेण त्ति कोट्याचार्यटीकायां विवृतम्। अन्यत्र त्यनुयोगद्वारादिषु वैक्रियशरीरिणो विवृतमिति क्रमभिन्नम्, क्रमेण हि तिविहमित्येतत् न करोमीत्यादिना वायवः क्षेत्रपल्योपमाऽसंख्येयभागप्रदेश-परिमाणा दृश्यन्ते / तत्त्वं तु विवृत्य ततस्त्रिविधेनेति विवरणीयं भवतीति / अस्य च केवलिनो विदन्ति / शेषाणां तु पृथिव्यादिकायानां यथासंभवं क्रमभिन्नस्याऽनुयोगोऽयम्, यथा- क्रमविवरणे हि यथासंख्यं दोषः कालैरनुयोगः / तद्यथा- "पज्जत्तबायरानलअसंखया हों ति स्यादिति तत्परिहारार्थ क्रमो भेदः / तथाहिन करोमि मनसा, न आवलियवग्गत्ति"। कारयामि वाचा, कुर्वन्तं नाऽनुजानामि कायेनेति प्रसज्यते, अनिष्टं आवलिकायां यावन्तः समयास्तेषां वर्ग: क्रि यते, तथा- चैतत्, प्रत्येकपक्षस्यैवेष्टत्वात्। तथाहि-मनःप्रभृतिभिर्न करोमि, तैरेव विधेषु चाऽसंख्यातेषु वर्गेषु यावन्तः समयास्तत्प्रमाणाः बादर- नकारयामि, तैरेव नाऽनुजानामीति। तथाकालतो भेदोऽतीतादिनिर्देशे पर्याप्ततेजस्कायिका भवन्ति, तथा प्रत्युत्पन्नत्रसकायिका प्राप्ते वर्त-मानादिनिर्देशः। यथा- जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्यादिषु ऋषभस्वामिनअसंख्येयाभिरुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिरपहियन्ते / एवं पृथिव्यादिष्वपि माश्रित्य 'सक्के देविंदे देवराया वंदइ नमसइ ति' सूत्रे / तदनु. यथासंभवं वाच्यमिति। योगश्चाऽयं वर्तमाननिर्देशः, त्रिकालभाविष्यपि तीर्थकरेष्वेतत्अथ काले कालेषु चाऽनुयोगमाह न्यायप्रदर्शनार्थ इति / इदं च दोषादिसूत्रत्रयमन्यथापि विमर्शनीयं, कालम्मि बीयपोरिसि, समासु तिसु दोसु वा वि कालेसु। गम्भीरत्वादस्ये ति वागनुयोगतस्त्वर्थाऽनुयोगः प्रवर्तत इति / प्रथमपौरुष्यां किल सूत्रमध्ये तव्यम्, द्वितीयपौरुष्यां तु | स्था०१० ठा। तस्याऽनुयोगः प्रवर्तते, अत इह कालस्य प्राधान्येन विवक्षणात् काले (E) सम्प्रति भावाऽनुयोगं षट्प्रकारमाहद्वितीयपौरुषीलक्षणेऽनुयोगः कालानुयोग इत्युच्यते। तथा-ऽवसर्पिण्यां भावेण संगहाई-ण उन्नयरेणं दुगाइमावेहिं। सुषमदुःषमा-दुःषमसुषमा-दुःषमारूपासुतिसृषु (समासुत्ति) त्रिष्वरकेषु भावे खओवसमिए, भावेसु उ नत्थि अणुओगो।। अनुयोगः प्रवर्तते नाऽन्यत्र / उत्सर्पिण्यां तु दुःषमसुषमा- अहवा आयाराइसु, भावेसु वि एस होइ अणुओगो। सुषमदुःषमारूपयोर्द्वयोः समययोर्द्वयोरेकयोरनुयोगः प्रवर्तते नाऽन्यत्र / सामित्तं आसज्ज व, परिणामेसुं बहुविहेसुंवा॥ अयं च कालेष्वनुयोगः काला-ऽनुयोगोऽभिधीयते / तदेवं भणितः संग्रहादीनां पञ्चानामध्यवसायानामन्यतरेण चित्ताऽध्यवषड्विधः कालाऽनुयोगः। सायेन योऽनुयोगः क्रियते, स भावेनाऽनुयोगः / ते चाऽमी पञ्चा(८) संप्रति वचनस्य वचनानां चाऽनुयोगमाह ऽभिप्रायाः / यदाह स्थानाने - वयणस्सेगवयाई, वयणाणं सोलसण्हं तु / "पंचहिं ठाणे हिं सुयं वाएजा / तं जहा-संगहट्ठयाए (वयणस्सेत्यादि) इत्थंभूतमेकवचनं भवत्येवंभूतं या द्विव-चनमीदृशं उवग्गहट्ठयाए निज्जरठ्ठयाए सुयपज्जवजाएणं अव्वोच्छित्तीए"|| वा बहुवचनमेवस्वरूप एकवचनाद्यन्यतरवचनस्य योऽनुयोगः, सच अयमर्थः-कथं नुनामैते शिष्याः सूत्रार्थसंग्रहकाःसंपत्स्यन्ते ? तथा वचनस्यानुयोग उच्यते / वचनानां त्वनुयोगः षोडशवचनानुयोगः कथं नु नाम गीतार्थीभूत्वाऽमी वस्त्राद्युत्पादनेन गच्छ-स्योपग्रहकरा (षोडशवचनानि 'वयण' शब्दे वक्ष्यन्ते) वचनानामनुयोगः, भविष्यन्ति ? ममाऽप्येतां वाचयतः कर्मनिर्जरा भविष्यति ? तथा प्रथमैकवचनादीनामेकविंशतिवचनानां व्याख्येति वचनानामित्युक्तम्। श्रुतपर्यवजातं श्रुतपर्यायराशिर्ममाऽपि वृद्धिं यास्यति ? श्रुतस्य अथवचनेन वचनैर्वचनेऽनुयोग इत्येतदाह वाऽव्यवच्छित्तिर्भविष्यतीत्येवं पञ्च-भिरभिप्रायैः श्रुतं सूत्रार्थतो वयणेणायरियाई, एक्केणुत्तो बहूहि वयणेहिं। वाचयेदिति / एषामेय संग्रहादिभावानां मध्याद् द्वित्र्यादिभिर्भावैः वयणे खओवसमिए, वयणे पुण नत्थि अणुओगो॥ सर्वाऽनुयोगं कुर्वतो भावैरनुयोगः 1 क्षायोपशमिके भावे स्थितस्य वचनेनाऽनुयोगो यथा- कश्चिदाचार्यादिः साध्यादिना सकृदेकेनापि व्याख्यां कुर्वतो भावानुयोगः / भावेषु पुनर्नाऽस्त्यनुयोगः, वचनेनाऽभ्यर्थितोऽनुयोगं करोति। वचनैस्त्वनुयोगो-यदास एवाऽसकृद् क्षायोपशमिकत्वेन तस्यैकत्वात्। अथवा एकोऽपि क्षायोपशमिको भाव बहुभिर्वचनैरभ्यर्थितस्तं करोति। क्षायोपशमिके वचने स्थितस्यानुयोगो आचारादिशास्त्रलक्षण-विषयभेदाद् भिद्यते, ततश्च आचारादिशास्त्रवचनाऽनुयोगः। वचनेषु पुनर्नास्त्यनुयोगः, वचनस्य क्षायोपशमिकत्ये- विषयभेदभिन्नेषु क्षायापशमिकभावेषु अप्येषु भवत्यनुयोगो न नैकत्यासंभवात्। अन्ये तुमन्यन्ते- व्यक्तिविवक्षया तेष्वेव क्षायोपशमिकेषु कश्चिद्विरोधः / वा इत्यथवा स्वामित्व-मासाद्यानुयोगकर्तुः स्वामिनो बहुषु वचनेष्वनुयोग इत्यप्यविरुद्धमेवेति। तदेवं पञ्चविधः षड्विधो या बहून् प्रतीत्य क्षायोपशमिकपरिणामेषु बहुष्वनुयोगप्रवृत्तेभविष्वनुयोगो निर्दिष्टो वचनाऽनुयोगः। बृ०1१3० न विहन्यते। इत्युक्तः षड्विधो भावानुयोग इति। शुद्धवागनुयोग: (10) एषां चाऽनुयोगविषयाणां द्रव्यादीनां परस्परं यस्य यत्र समावेशो, दसविहे सुद्धावायाणुजोगे पण्णत्ते / तं जहा- चंकारे मंकारे पिंकारे भजना, वा तदेवाऽऽहसेयंकारे सायंकारे एगत्ते बहुत्ते संजूहे संकामिए भिन्ने। दव्वे नियमा मावो, न विणा ते यावि खेत्तकालेहि। शुद्धा अनपेक्षितवाक्यार्था, या वाक् वचनं, सूत्रमित्यर्थः, तस्था खेत्ते तिण्ण वि भयणा, कालो भयणाइ तीसुपि।। अनुयोगो विचारः शुद्धवागनुयोगः: सूत्रे चाऽपुंवद्भावः प्राकृतत्वात्, तत्र द्रव्ये तावन्नियमाद्भावः पर्यायोऽस्ति,पर्यायविरहितस्य द्रव्यस्य क्याऽपि चकारादिकायाः शुद्धवाचो योऽनुयोगः स चकारादिरेव व्यपदेश्यः। (तत्र कदाचिदप्यभायात् / तौ चाऽपि द्रव्यभावी क्षेत्रकालाभ्यां विना न संभवतः / चकारादीनां व्याख्या स्वस्वस्थाने वक्ष्यते) (मिन्नमिति) द्रव्यभावयोर्हि नियमवान् सहभावो दर्शित एव, द्रव्यं चाऽऽवश्यकं क्वचित् क्रमकालभेदादिभिभिन्नं विसदृशम् / तदनुयोगो यथा क्षेत्रेऽवगाड्मन्यतरस्थितिमदेव भवति, अतः सिद्धमिदं द्रव्यभावावपि Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओग 344 - अभिधानराजेन्द्रः-भाग 1 अणुओग क्षेत्रकालाभ्यां विना क्वाऽपि न भवतः / क्षेत्रे तु त्रयाणामपि द्रव्यकालभावानां भजना विकल्पना, क्वाऽपि तत्र ते प्राप्यन्ते, क्वाऽपि नेत्यर्थः लोकक्षेत्रे त्रयाणामपि भावात्, अलोक-क्षेत्रेऽभावादिति। आहअलोक क्षेत्रेऽप्याकाशलक्षणं द्रव्य-मस्ति, वर्तनादिरूपस्तु कालोऽगुरुलघवश्वाऽनन्ताः पर्यायाः सन्त्येव, तत्कथं तत्र द्रव्यकालभावानामभावः? सत्यम्,किन्तु आकाशलक्षणं द्रव्यं यत्, तत्रोच्यते-तदयुक्तम् तस्य क्षेत्रग्रहणेन एव गृहीतत्वात्, कालस्याऽपीह समयाऽऽदिरूपस्य चिन्तयितुं प्रस्तुतत्वात्,तस्यच समयक्षेत्रादन्यत्राऽभावाद्वर्तनादिरूपस्यत्वत्रा-ऽविवक्षितग्रहणेनैव तत्रतस्य गृहीतत्वाच / पर्यायाश्चेहधर्माधर्मपुद्गलजीवास्तिकायद्रव्यसम्बन्धिनो विवक्षिताः, ते चाऽलोके न सन्ति / एवमाकाशसम्बन्धिनः त्वगुरुलघुपर्यायाः क्षेत्रग्रहणेनैव गृहीतत्वान्नेह विवक्षिताः। इत्यतो लोकत्रयाणामपि द्रव्यकालभावानामभावः। (कालो-भयणाइतीसु पित्ति) द्रव्यक्षेत्रभायेषु त्रिष्वपि कालो भजनया विकल्पनया भवति, समयक्षेत्राऽन्तर्वर्तिषु तेषु तस्य भावात्, तबहिस्त्वभावादिति। एवं च स्थितानाममीषां द्रव्यादीनां / यथा संभवमनुयोगः प्रवर्तत इति। अपरमपि द्रव्यादिगतं किञ्चत् स्वरूपं प्रसङ्गतःप्राऽऽहआहारो आहेयं, च होइ दव्वं तहेव भावोय। खेत्तं पुण आहारो, कालो नियमाउ आहेओ॥ द्रव्यमाधारो भवति पर्यायाणाम, आधेयं च भवति क्षेत्रे, तथा भावश्चाऽऽधारो भवति, कालस्य कालवर्णादीनां समयादिस्थितित्वादिति आधेयश्च भवति द्रव्ये, क्षेत्रमाकाशं पुनः सर्वेषामपि धर्माधर्मपुद्गलजीवकालद्रव्याणामगुरुलघुपर्यायाणां वाऽऽधार एव, न त्वाधेयम्, सर्वस्याऽपि वस्तुनस्तत्रैवाऽवगाढत्वात्, तस्य च स्वप्रतिष्ठितत्वेनाऽन्यत्राऽऽधेयत्वाऽयोगादिति / (कालो नियमाउ आहेओति) कालो नियमादाधेय एव भवति, न त्वाधारः, तस्य द्रव्यपर्यायेष्ववस्थितत्वात्, तत्र चाऽन्यस्याऽस्थितत्वादिति / तदेवं व्याख्यातो नामादिभेदतः सतविधोऽप्यनुयोगः / विशे० ('वच्छगगोणीत्यादि' गाथाभिर्यान्यनुयोगाऽननुयोगसाधारणान्युदाहरणानि दत्तानि, तानि अत्रैव भागे 285 पृष्ठे 'अणणुओग' शब्देऽस्माभिर्दर्शितानि) (11) संप्रत्येकार्थिकानि वक्तव्यानितानि द्विधा- सूत्रस्याऽर्थस्य च। (तत्र सूत्रस्य 'सुय' शब्दे वक्ष्यन्ते) साम्प्रतमथैकाऽर्थिकान्याहअणुयोगो य नियोगो,भास विभासा य वत्तियं चेव। एए अणुओगस्स उ, नामा एगट्ठिया पंच॥ अनुयोगो, नियोगो, भाषा, विभाषा, वार्तिकं च, एतानि पञ्चाऽनुयोगस्यैकार्थिकानि। तत्राऽनुकूलः सूत्रस्याऽर्थेन योगोऽनु-योगः, निश्चितो योगो नियोगः, अर्थस्य भाषा, विविधप्रकारेण भाषणं विभाषा, वृत्तौ भवं वार्तिकम् / यदेकस्मिन् पदे यदर्थापन्नं तस्य सर्वस्याऽपि भाषणम् / उक्तान्येकार्थिकानि। बृ० 13 उ०। विशे०। अनु० आ० म० द्विा आ० चू०। (12) अनुयोग इति कः शब्दार्थः ? इत्याहअणुओयणमणुओगो, सुयस्स नियएण जममिहेएण। वावारो वा जोगो, जो अणुरूवोऽणुकूलो वा / / अहवा जमत्थओ थोव पच्छ भावेहि सुयमणुं तस्स। अभिधेये वावारो, जोगो तेणं च संबंधो।। यत् सूत्रस्य निजेनाऽभिधेयेनाऽनुयोजनमनुसंबन्धनमसावनु योग इत्यर्थः / अथवा- योऽनुरूपोऽनुकूलो वा घटमानः संबध्यमानो व्यापारः प्रतिपादनलक्षणः सूत्रस्य निजार्थविषयेऽयमनुयोगः / अथवायद्यस्मादर्थतोऽर्थात् सकाशादणुसूक्ष्म लघुसूत्रकाभ्यामित्याहा स्तोकं पश्चाद्भावाभ्यामेकस्याऽपि सूत्रस्याऽनन्तोऽर्थः / इत्यर्थात् स्तोकत्वम्। तथा प्रथममुत्पादव्यय-ध्रौव्यलक्षण तीर्थकरोक्तमर्थं चेतसि व्यवस्थाप्य पश्चादेव सूत्र रचयन्ति गणधराः, इत्येवमर्थात्पश्चाद्भावाच सूत्रमण्वेति भावः / तस्मात् तस्याऽणोः सूत्रस्य यः स्वकीयस्याऽभिधेये योगो व्यापारस्तेन चाऽणुना सूत्रेण सह यः सबन्धो योगोऽसावन-योग इति। विशेष ___ तत्र सामान्येन प्रागुक्तमपि विशेषोपदर्शनार्थमाहअणुणा योगोऽणुयोगो, अणु पच्छाभावओ य थोवे य। जम्हापच्छाऽमिहियं, सुत्तं थोवं च तेणाऽणु॥ इह अणुयोग इति वा शब्दसंस्कारः, तत्र अनुना पश्चाद् भूतेन योगोऽनुयोगः, अथवा अणुना स्तोकेन योगोऽणुयोगः। तथा चाऽऽहअणु इति पश्वाद्भावे, स्तोके च यस्मात्पश्चादभिहितं कृतं सूत्रं स्तोकं च, तेन अणु' इति भण्यते / अर्थः पुनरननुः, पूर्वमुक्तत्वात, बादरश्च, बहुत्वात्। एवमाचार्येणोक्ते शिष्यः प्राहपुव्वं सुत्तं पच्छा-य पगासो लोइया वि इच्छंति। पेलासरिसे सुत्ते, अत्थपया हुंति बहुया वि॥ ननु पूर्व सूत्रं पश्चात् प्रकाशोऽर्थः, तान् तान् भावान् प्रकाशयति इति प्रकाश इति व्युत्पत्तेः / सूत्राऽभावे तु स कस्य स्यात् ? अपि च- लौकिका अप्येवमेवेच्छन्ति / तथा चोतं तैरेव - पूर्व सूत्रं ततो वृत्तिवृत्तेरपिच वार्तिकम्। सूत्रवार्तिकयोर्मध्ये, ततो भाष्यं प्रवर्तते / / 1 / / ततो यद्वदथ यूयं- पूर्वमर्थः पश्चात् सूत्रमिति तत् न घटां प्राञ्चति। यदपिचबूथ-सूत्रमणुअर्थो बादर इति। तदपिन सम्यक्। यत एकस्यां पेटायां बहूनि वस्त्राणि सन्ति, तत्र पेटाया एव बादरत्वं युज्यते, तद्वशाबहूनि वस्त्राणिमान्तिस्मा एवमत्राऽपिपेटासदृशेपेटास्थानीये सूत्रे बहून्यर्थपदानि वर्तन्ते, तत्र सूत्रमेव बादरीभवितुमर्हति नाऽर्थ इति। न च महत्त्वमेकान्तेनाऽर्थस्य, कस्मादित्याहइक्कं वा अत्थपयं, सुत्ता, बहुगा वि संपयंसंति। उक्खित्तनाइमाइसु, अयमवि तम्हा अणेगंतो॥ एकमर्थपदं, बहूनि सूत्राणि संप्रदर्शयन्ति / यथा- उरिक्षप्तज्ञाते अनुकम्पा कर्तव्येत्यर्थे बहुभिः सूत्रैर्वर्णितः, आदिशब्दात् संघटादिषु ज्ञातेषु न बलहेतोराहारयितव्यमित्यादिपरिग्रहः। तस्मादयमनेकान्तः, यदर्थो महानिति। आचार्यः प्राह-यत्त्वयोक्तं पूर्व सूत्रं पश्चादर्थ इति, तन्न भवति, कथमित्याहअत्थं भासइ अरिहा, तमेव सुत्तीकरेंति गणधारी। अत्थं च विणा सुत्तं, अणिस्सियं के रिसं होइ? || अर्थ भाषतेऽर्हन, तमेवाऽर्हभाषितमर्थ सूत्रीकुर्वन्ति गणधारिणः / अर्थं च विना सूत्रमिति अनिश्रितं निश्रारहितं कीदृशं स्यात् ? असंबद्धं 'दश दाडिमेत्यादि' वाक्यवदिति भावः / अपि च- लौकिका अपि शास्तारः प्रथमतोऽथ दृष्ट्वा सूत्र कुर्वन्ति, अर्थमन्तरेण सूत्रस्याऽनिष्पत्तेः / यदप्युक्तम्-पेटावद् बादरं सूत्रमर्थोऽणुरिति / तदप्यश्लीलम् / यतस्तस्या एव पेटाया एकं वस्त्रमादाय तेनाऽनेकाः पेटा बध्यन्ते, तथैकस्मादाद बहूनि सूत्राण्यक् ितेनैव बध्यन्ते / एवं वस्त्रस्थानीयस्याऽर्थस्य महत्त्वम्, पेटास्थानीयस्य तु सूत्रस्याऽणुत्वमेव / यदप्युक्तम् Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओग 345 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुओग न च महत्त्वमेकान्तेनाऽर्थस्येत्यादि, तदप्यपरिभावितपरिभाषितम् / यदुत्क्षिप्तज्ञातादिषु सत्त्वाऽनुकम्पादिकोऽर्थः, तावन्मात्रस्य सूत्रस्य, अशेषस्य तु शेषोऽर्थः / उक्तोऽनुयोगः / बृ०१ उ०। स्वाभिधायकसूत्रेण सहाऽर्थस्याऽनुगीयतेऽनूकुलो वा योगोऽस्येदमभिधेयमित्येवं संयोज्य शिष्येभ्यः प्रति पादनमनुयोगः, सूत्राऽर्थकथनमित्यर्थः / अथवा एकस्याऽपि सूत्रस्याऽनन्तोऽर्थ इत्यर्थो / महान्, सूत्रत्वणु, ततश्वाऽणुना सूत्रेण सहाऽर्थस्ययोगोऽणुयोगः। तदुक्तम्निययाऽणुकूलजोगो, सुत्तस्सऽत्थेण जोय अणुओगो। सुत्तं च अणुं तेन, जोगो अत्थस्स अणुओगो।।१।। अनु० दशला नं०। आ० म०प्र०ा जं०1 आचा। (13) अधुना विधिद्वाराऽवसरः, तत्र येन विधिनाऽनुयोगः कर्त्तव्यस्तमाहसुत्तत्थो खलु पढमो, बिइओ निजत्तिमीसिओ भणिओ। तइओ य निरवसेसो, एस विही भणिय अणुओगे।। प्रथमस्य श्रोतुःप्रथमंतावत् सूत्राऽर्थः कथनीयः - यथा नो कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंथीणं वा आमे तालपलंबे अभिन्ने, पडिगाहित्ताए। अस्याऽर्थः - नो इति प्रतिषेधे, न कल्पते, न वर्तत इत्यर्थः। नैषांग्रन्थो विद्यते इति निर्गन्थाः, तेषां, वा विभाषायाम्, निर्गन्थीनां वा, आममपक्वं , तालो वृक्षस्तालभवं तालं, तालफलमित्यर्थः / प्रलम्बं मूलं, तदपि तस्यैव तालवृक्षस्य प्रतिपत्तव्यम् / ततः समाहारः / अभिन्नमव्यपगतजीव, प्रतिग्रहीतुमिति / एवं तावत् कथयितव्यं यावद्ध्ययनपरिसमाप्तिस्ततो द्वितीयस्यां परिपाट्यां नियुक्तिमिश्रितः पीठिकया सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्या च समन्वितः, सोऽपि यावदध्ययनपरिसमाप्तिस्तावत्कथनीयः। तृतीयस्यां परिपाट्यामनुयोगो निरवशेषो वक्तव्यः, पदपदार्थचालना-प्रत्यवस्थानादिभिः सप्रपञ्च समस्तं कथयितव्यमिति भावः। एष विधिरनुयोगे ग्रहणधारणादिसमर्थान् शिष्यान् प्रतिवेदितव्यः। मन्दमतीन प्रति प्रकारान्तरेणाऽनुयोगविधिमाहमूर्य हुंकारं वा, बाढक्कार पडिपुच्छ मीमंसा। तत्तो पसंग पारायणं च परिणि? सत्तमए।। प्रथमतः शृणुयात् / किमुक्तं भवति? प्रथमश्रवणे संयतगात्रस्तूष्णीमासीत्, ततो द्वितीये श्रवणे हुंकारं दद्यात्, वन्दनं कुर्यादित्यर्थः / तृतीये बाढङ्कारं कुर्यात्, बाढमेवमेतद् नाऽन्यथेति प्रशंसेदित्यर्थः / चतुर्थे गृहीतपूर्वापरसूत्राभिप्रायो मनाक् प्रति-पृच्छां कुर्यात्, यथा कथमेतदिति ? पञ्चमे मीमांसां प्रमाणजिज्ञासा कुर्यात् / षष्ठे तदुत्तरोत्तरगुणे प्रसङ्गः, पारगमनं चाऽस्य भवति / ततः सप्तमे परिनिष्ठां गुरुवदनुभाषत इत्यर्थः / यत एवं मन्दमेधसां श्रवणपरिपाट्या विवक्षिताऽध्ययनाऽर्थावगमः, ततस्तान् प्रति सप्त वारान अनुयोगो यथाप्रतिपत्ति कर्तव्यः / अत्र परावकाशमाहचोइए रागदोसा, समत्थ परिणामगे परूवणया। एएसिं नाणत्तं, वोच्छामि अहाणुपुव्वीए। शिष्ये नोदयति प्रश्नयति समर्थे ग्रहणधारणासमर्थे, तथा परिणामके। उपलक्षणमेलत्-ग्रहणधारणासमर्थेऽतिपरिणामके च या प्ररूपणा तया युष्माकं रागद्वेषौ प्रसज्यतः। तथाहितिसृभिः परिपाटीभिरेकान् ग्राहयतो रागोऽपरान् सप्तभिः परिपाटीभिर्दाहयतो द्वेषः / तथा परिणामकान् ग्राहयतो रागः, इतरानतिपरिणामकान् परिहरतश्च द्वेषः / एतेषां ग्रहणधारणा-समर्थाऽसमर्थानां परिणामकादीनां च यथानुपूर्व्या क्रमेण नानात्वं वक्ष्ये, तत्र प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयेत्। प्रथमतो ग्रहणधारणासमर्थाऽसमर्थान् प्रति रागद्वेषावाह-- मच्छरया अविमुत्ती, पूया सक्कार गच्छइ अखिन्नो। दोसा गहणसमत्थे, इयरे रागो उ वुच्छेयो / / ग्रहणधारणासमर्थं शिष्यं तिसृभिः परिपाटीभिग्रहियत, एतावन्ति कारणानि स्युः एष बहुशिक्षितो मम प्रसन्नो भविष्यति, ततो मत्सरतया परिवारत्वेन वर्तत इत्यविमुक्तिकारणम् / अथवागृहीतसूत्रार्थस्याऽस्य पूजा सत्कारो भविष्यति / खिन्नो वा परिश्रान्तोऽन्यगणं गमिष्यति ।(वुच्छे यत्तिमद्वसतौ वाऽनुयोगस्य व्यवच्छेदो भविष्यति, अन्यस्य तथाविधशिष्यस्याऽभावात् / एवं कारणानि संभाव्य ग्रहणधारणासमर्थे तिसृभिः परिपाटीभिरनुयोगं वदतो द्वेषः / इतरस्मिन् जडे रागः, यथातदवबोधमनुयोगस्य प्रवर्तनात्। अत्राऽऽचार्य आहनिरवयवो नहु सक्को समं, पयासो उ संपयंसेउं / कुंभजले विहु तुरि उज्झियम्मि नहु तिण्ण पडिल // नहुनैव सूत्रस्य प्रकाशोऽर्थः सकृदेकया परिपाट्या निरवयवः समस्तः संप्रदर्शयितुं शक्यः, तस्य ग्रहणधारणासमर्थो नैकया परिपाट्याऽवधारयितुमीश इति तिसृभिः परिपाटीभिरनुयोगकथनमित्यदोषः / सांप्रतमतिपरिणामकानपरिणामकान परिहरतो द्वेषाऽभावमाहसुत्तत्थे कहयंतो, पारोक्खी सिस्सभावमुवलभई। अणुकंपाइ अपत्ते, निजूहइ मा विणिसिज्जा।। पारोक्षी परोक्षज्ञानोपेतः शिष्येभ्यः सूत्रार्थो कथयन् विनयाऽविनयकरणादिना तेषां शिष्याणां भावमाभिप्रायमुपलभ्य, अपात्राणि अपात्रभूतान् शिष्यान् अनुकम्पया नियूहयति अपवदति। न तेभ्यः सूत्रार्थी कथयति / श्रुताऽऽशातनादिना मा विनश्येयुरिति कृत्वा / अत्रैवाऽर्थे दृष्टान्तमाहदारुं धाउं वाहीबीए कंकडुय लक्खणं सुविणं / एगतेण अजोग्गे, एवमाई उ उदाहरणा।। एकान्तेनाऽयोग्ये अपरिणामके च दारु धातुाधिबीजानि कांकडुको लक्षणं स्वप्न इत्येवमादीनि उदाहरणानि दृष्टान्ताः। तत्र दारुदृष्टान्तमाहको दोसो एरंडे, जं रहदारुं न कीरए तत्तो। को वा तिणिसे रागो, उवजुज्जइ जं रहंगेसु / / एरण्डे एरण्डद्रुमेको द्वेषः? यत् तस्मात्रथयोग्यं दारुन क्रियते ? को वा तिनिशे रागो ? यदुपयुज्यते, स रथाऽङ्गेषु? जं पिय दारुं जोग्गं, जस्स उ वत्थुस्स तं पि हुन सक्का। जोएउमणिम्मबिउं, तच्छणदलवेहकुस्सेहिं॥ यदपि वस्तुनोऽक्षादेयोग्यं दारुतदपि तक्षणदलवेधकुशीरैः, अनिर्माप्य योजयितुमशक्यम्, किंतु निर्माप्य, एवमिहापि योग्योऽपि यावदक्तिनैः सूत्रःन परिकर्मितस्तावन्न कल्पं व्यवहारं वाऽध्यापयितुं योग्यः / तत्र तक्षणं प्रतीतम, दलानि द्विधा त्रिधा वा काष्ठस्य पाटनं, वेधः प्रतीतः, कुशो यो वेधे प्रोतः प्रवेश्यते। संप्रति धातुदृष्टान्तमाहएमेव अधाउं उज्झिऊण कुणइ धाऊण आयाणं। Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुभिमपोगलाखनु वा कुछ अणुओग 346 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुओग न य अक्कमेण सक्का, धाउम्मि वि इच्छियं काउं॥ जह अरणीनिम्मविओ,थोवो विउलिंधणं नवा दहिउं। एवमेव रागद्वेषौ विना अधातुं त्यक्त्वा धातूनामादानं करोति / सकइ सो पञ्जलिओ, सव्वस्स वि पच्चलो पच्छा। न च धातावप्यक्र मेणेप्सितं कर्तुं शक्यम्, किन्तु क्रमेण / यथा अरणिनिर्मापितः स्तोको वहिर्विपुलमिन्धनं न दग्धं एवमिहाप्ययोग्यानपि क्रमेण ग्राहयतो न द्वेषः। शक्नोति, सएव पश्चात्प्रज्वलितःसर्वस्यापीन्धनजातस्यदहने प्रत्यल: अधुना व्याधिदृष्टान्तमाह समर्थः। सुहसज्झो जत्तेणं,जन्नासज्झो असज्झवाही उ। एवं खु थूलबुद्धी, निउणं अत्थं अपञ्चलो घेत्तुं / जह रोगे पारिच्छा, सिस्ससमावाण वि तहेव // सो चेव जणियबुद्धी, सव्वस्स वि पञ्चलो पच्छा / / यथा रोगे वैद्येन परीक्षा क्रियते, यथा- एष सुखसाध्यः, एष यत्नेन एवमग्निदृष्टान्तेन प्रथमतः शिष्यः स्थूलबुद्धिः सन् निपुणमर्थ साध्यः, एष वाऽसाध्यव्याधिर्यत्नेनाऽप्यसाध्यः। परीक्षाऽनन्तरं च ग्रहीतुमप्रत्यलः, पश्चात् स एव शास्त्रान्तरैर्जनितबुद्धिरुत्पादितरागद्वेषौ विना तदनुरूपा प्रवृत्तिः / एवं शिष्यस्वभावानामपि तथैव बुद्धिः सर्वस्याऽपि शास्त्रस्य ग्रहणे प्रत्यलो भवति। रागद्वेषाऽभावेन परीक्षा क्रियते, तदनुरूपा च प्रवृत्तिः। बालदृष्टान्तमाहअधुना बीजदृष्टान्तमाह देहे अभिवड्ढते, बालस्स उ पीहगस्स अमिवुड्डी। बीयमबीयं नाउं,मोत्तुमबीए उ करिसओ सालिं। अइबहुएण विणस्सइ, एमेव, हुणुट्ठियगिलाणे // ववइ विरोहणजोग्गो, न यावि से पक्खवाओ उ॥ बालस्य देहे अभिवर्द्धमाने तदनुसारेण दातव्यस्य पीथकयथा कर्षको बीजमबीजं च ज्ञात्वा अबीजानि मुक्त्वा शालिं स्याऽऽहारस्याऽपि वृद्धिर्भवति / देहवृद्ध्यनुसारतः पीथकमपि क्रमशो शालिबीजानि वपति, न च तस्मिन् विरोहणयोग्ये बीजे, (से) तस्य / वर्द्धमानं दीयत इति भावः। यदि पुनरतिबहु दीयते, तदा स विनश्यति। कर्षकस्य पक्षपातो रागः। एवमत्रापि भावनीयम्। ग्लानदृष्टान्तमाह- एवमेव बालगतेन प्रकारेण अधुनोत्थितेऽपि ग्लाने संप्रति कांकडुकदृष्टान्तमाह वक्तव्यम्, यथा- ग्लानोऽप्यधुनोत्थितः क्रमेणाऽभिवर्द्धमानमाहारं को कंकडुए दोसो, जं अग्गी तं न पाययइ दित्तो। गृह्णाति, एकवारमतिप्रभूतग्रहणे विनाशप्रसङ्गात् / एवं शिष्योऽपि क्रमेण को वा इयरे रागो, एमेव य अत्थ माविजा / / योग्यताऽनुरूपं शास्त्रमादत्ते, प्रथमत एवाऽतिनिपुणार्थशास्त्रग्रहणे बुद्धिमङ्ग-प्रसक्तेः / सिंहादिदृष्टान्तानाहको द्वेषोऽग्नेः कांकडुके ('कोरडू' इति ख्याते) यदग्निर्दीप्तोऽपितं न खीरमिउपोम्गलेहि, सीहो पुट्ठो नखाइ अट्ठी वि। पचति, को वा इतरस्मिन् रागो यत्पाचयति ? नैव कश्चित् / एवमत्रापि रुक्खो दुपत्तओ खलु, वंसकरिल्लो य नहछिलो॥ भावनीयम् / अधुना लक्षणदृष्टान्तमाह तं चेव विवढंता, हुंति अछेजा कुहाडमाईहिं / जे उ अलक्खणजुत्ता, कुमारगा ते निसिहिउं इयरे। तह कोमलामिबुद्धी, भज्जइ गहणेसु अत्थेसु॥ रज्जरिहे अणुमन्नइ, सामुद्दो नेव विसमो उ॥ सिंहः प्रथमतः क्षीरमृदुपुद्गलैः स्वमात्रा पोष्यते, ततः पुष्टः सन् यथा सामुद्रलक्षणपरिज्ञाता राज्ञो व्यपगते, तस्य ये कु मारा अस्थीन्यपि स खादति। तथा वृक्षो द्विपर्णो, वंशकरीलम्, एतौ द्वावपि अलक्षणयुक्तास्तान् निषिध्य इतरान् लक्षणोपेतान् राज्या प्रथमतो नखच्छे द्यौ, ततः पश्चादभिवर्द्धमानौ यतस्ततः ऽहनिनुमन्यते / नचस तयाऽनुमन्यमानो विषमो रागद्वेषवान्। एवमत्राऽपि कुठारादिभिरच्छेद्यौ भवतः ! प्रथमतः कोमला बुद्धिर्भवति, ततः सा द्रष्टव्यम्। स्वप्नदृष्टान्तमाह गहने ध्वर्थे षु भज्यते भङ्ग मुपयाति, क्र मेण तु शास्त्रान्तरजे जह कहेइ सुमिणं, तस्स तह फलं कहेइ तन्नाणी। दर्शनतोऽभिवर्द्धमाना कठोरात्कठोरतरोपजायते इति न क्वचिरत्तो वा दुट्ठो वा, न यावि वत्तव्वयमुवेइ॥ दपि भङ्गमुपयाति! एतदेवोपदिशन्नाहयो यथा स्वप्नं कथयति, तस्य तथा तज्ज्ञानी स्वप्नफलं निउणे निउणं अत्थं, थूलत्थं थुलबुद्धिणो कहए। कथयति, न च स तथाकथयन् क्त इति वा द्विष्ट इतिया वक्तव्यतामुपैति / बुद्धीविवडणकरं, होहिए कालेण सो निउणो। एवमत्राऽपि एकान्तेनाऽयोग्या ये शिष्याः, तेषां परिहारे रागद्वेषाऽभावे निपुणे निपुणमर्थ कथयेत्, कथंभूतमित्याह-बुद्धिविवर्द्धन-करम्। एवं दृष्टान्ता अभिहिताः। सति स कालेन निपुणो भवति। अन्यथा बुद्धिभङ्ग-प्रसङ्गतो न स्यात्। संप्रति कालान्तरयोग्यानपरिणतान् क्रमेण परिणामयतो सांप्रतमादिशब्दसूचितान हस्त्यादीन् दृष्टान्तानाह__ रागद्वेषाऽभावे दृष्टान्तमाह सिद्धत्थए वि गिण्हए, हत्थी थूलगहणे सुनिम्माओ। अग्गी बाल गिलाणे, सीहे रुक्खे करीलमाईया। सरवेहपत्तच्छिज्ज-प्पवघडपडचित्त तह धमए।। अपरिणए जह एए, सप्पडिवक्खा उदाहरणा।। हस्तीस्थूलग्रहणे सुनिर्मातः सन्पश्चात् सिद्धार्थकानपि गृह्णाति। तथाहिअपरिणते जातकालान्तरयोग्ये, एतानिसप्रतिपक्षाणि, पूर्वमयोग्यतायां नवको हस्ती शिष्यमाणः प्रथमं काष्ठानि ग्राह्यते, तदनन्तरं क्षुल्लकान् पश्चाद् योग्यतायामित्यर्थः / उदाहरणानि, तद्यथा- अनिर्बालो ग्लानः। पाषाणान्, ततो गोलीकाः, ततो बदराणि, तदनन्तरं सिद्धार्थकानपि / सिंहो वृकः / करीलं वंशकरीलम् / आदिशब्दाद् वक्ष्यमाणहस्त्या- यदिपुनः प्रथमत एव सिद्धार्थकान्ग्राह्यते, ततो न शक्नोतिग्रहीतुमिति। दिदृष्टान्तपरिग्रहः। एवं स्वरवेधपत्रछेद्यप्लवकघटकारकपट-कारकचित्रकारकधमकाश्च तत्र प्रथममग्निदृष्टान्तमाह दृष्टान्ता भावनीयाः / ते चैवम्- प्रथमं धानुष्कः स्थूलं द्रव्यं Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओग 347 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुओग व्यर्बु शिक्षति, पश्चात् स चाऽलं पटुत्वादतिसुनिपुणमतिः स्वरेणाऽपि विध्यति। तथा पत्रच्छेद्यकार्यं प्रथममकिञ्चित्करैः पत्रैः शिक्ष्यते, ततो यदा निर्मातो भवति, तदा ईप्सितं पत्रच्छेद्यं कार्यते, तथा प्लवकोऽपि प्रथमं वंशे लगयित्वा प्लाव्यते, ततः पश्चादभ्यसन् आकाशेऽपि तानि तानि करणानि करोति / घटकारोऽपि प्रथमतः शरावादीनि कार्यते, पश्चाच्छिक्षितो घटानपि करोति / पटकारोऽपि प्रथमतः स्थूलानि चीवराणि शिक्ष्यते, ततः सुशिक्षतः शोभनानपि पटान वयति / चित्रकारोऽपि प्रथमं मुण्डकं चित्रयितुं शिक्ष्यते, ततः शेषानवयवान्, पश्चात् सुशिक्षितः सर्वं चित्रकर्म सम्यक् करोति / धमकोऽपि पूर्व शृङ्गाऽऽदीन् धमयते, पश्चात् शङ्खम्। अत्रैवोपनयमाहजत्थ मई ओगाहइ, जोगं जं जस्स तस्स तं कहए। परिणामागमसरिसं,संवेगकर सनिव्वेयं // यथैते हस्त्यादयः क्रमेण निर्माप्यन्ते, एवं शिष्यस्याऽपि यत्रमतिरवगाहते, यस्य च यद् योग्यं शास्त्रं, तस्य तत् कथयति / कथंभूतमित्याह- परिणामागमसदृशं यस्य यादृशः परिणामो यस्य च यावानागमः, तत्सदृशं यथेदृशपरिणामस्येदमेताव-दागमस्य पुनरिदमिति / पुनः किं विशिष्टं कथयितव्यमत आह- संवेगकरं सिद्धिर्देवलोकः सुकुलोत्पत्तिरित्यादेरभिलाषः संवेगः, तत्करणशीलं संवेगकरं, तथा नरकस्तिर्यग्योनिः कुमानुषत्वमित्यादेर्विरक्तता निर्वेदः, तत्करणशीलं निर्वेदकरम् / तदेवं योग्येऽपि क्रमेण दाने रागद्वेषाभाव उक्तः / संप्रति शिष्येष्वाचार्येण परिणामकत्वं परीक्ष्याऽनुयोगः कर्तव्यः, शिष्यैरप्याचार्य परीक्ष्य तस्य सकाशे श्रोतव्यमिति। शिष्याऽऽचार्ययोः परस्परविधिमतिदेशत आहगेहंत गाहगाणं, आइएस विहि समक्खाओ। सा चेव य होइ इयं, उज्जोगो वन्निओ नवरं / / गृह्णतां शिष्याणां ग्राहकस्याचार्यस्य आदिसूत्रेषु सामायिकाऽऽदिषु यो विधिः समाख्यातो गोणीचन्दणेत्यादिलक्षणः,स एवेह निरवशेषो वक्तव्यः ।यस्तु-शिष्याणामनुयोगकथने उद्योग उद्यमो, यथा-तिसृभिः परिपाटीभिरथवा सप्तभिः कर्त्तव्यः सः। नवरं, सप्रपञ्चमुपवर्णितः। बृ० 1 उ इदानीमनुयोगविधिरुच्यते- तत्राऽनुयोगो वक्ष्यमाणशब्दार्थः, स यदाऽधीतसूत्रस्याऽऽचार्यप्रस्थापनयोग्यस्य शिष्यस्याऽनुज्ञायते, तदाऽयं विधिः, प्रशस्तेषु तिथिनक्षत्रकरणमुहूर्तेषु, प्रशस्ते च जिनायलनादौ क्षेत्रे भुवं प्रमाय॑ एका गुरुणामेका शिष्याणामिति निषद्याद्वयं क्रियते, ततः प्राभातिककाले प्रवेदिते निषद्यानिषण्णस्य गुरोश्वोलपट्टकरजोहरणमुखवस्त्रिकामात्रोपकरणो विनेयः पुरतोऽवतिष्ठते, ततो द्वावपि गुरुशिष्यौ मुखवस्त्रिका प्रत्युपेक्षयतः, पुनस्तया च समग्रं शरीरं प्रत्युपेक्षयतः, ततो विनेयो गुरुणा सह द्वादशाऽऽवर्तवन्दनक दत्त्वा वदति- इच्छाकारेण संदिशत स्वाध्यायं प्रस्थापयामि। ततश्च द्वावपि स्वाध्यायं प्रस्थापयतः, ततः प्रस्थापिते स्वाध्याये गुरुर्निषीदति।। ततः शिष्यो द्वादशाऽऽवर्तवन्दनकं ददाति / ततो गुरुरुत्थाय शिष्येण सहाऽनुयोगप्रस्थापननिमित्तं कायोत्सर्ग करोति, ततो गुरुर्निषीदति, ततः स शिष्यो द्वादशावर्तवन्दनकेन वन्दते, ततो गुरुरक्षानभिमन्त्र्योत्तिष्ठत्युत्थाय च निषद्यां पुरतः कृत्वा वामपार्थीकृतशिष्य श्चैत्यवन्दकं करोति, ततः समाप्ते चैत्यवन्दनेत्रिर्गुरुरूवंस्थितएव नमस्कारपूर्वनन्दि मुचारयति, तदन्ते चाऽभिधत्ते- मां साधोरनुयोगमनुजानीत, क्षमाश्रमणानां हस्तेन द्रव्यगुणपर्यायैरनुज्ञातस्ततो विनयस्थो वन्दनकेन वन्दते / उत्थितश्च ब्रवीति- संदिशत किं भणामि ? ततो गुरुराहवन्दित्वा प्रवेदय / ततो वन्दते शिष्यः / उत्थितस्तु ब्रवीतिभवद्भिर्ममाऽनुयोगोऽनुज्ञातः, इच्छाम्यनुशास्तिम्। ततो गुरुर्वदतिसम्यगवधारय, अन्येषां च प्रवेदय, अन्येषामपि व्याख्यानं कुर्वित्यर्थः। ततो वन्दते असौ, वन्दित्वा च गुरुं प्रदक्षिणयति, प्रदक्षिणान्ते च भवदिभर्ममाऽनुयोगोऽनुज्ञात इत्याधुक्तिप्रत्युक्तीः करोति / द्वितीयप्रदक्षिणा च तथैव, पुनस्तृतीयाऽपि तथैव, ततस्तृतीयप्रदक्षिणान्ते गुरुर्निषीदति। तत्पुरःस्थितश्च विनेयो वदति-युष्माकं प्रवेदितं संदिशत, साधूनां प्रवेदयामीत्यादिशेषमुद्देश-विधिवद्वक्तव्यम्, यावदनुयोगाऽनुज्ञानिमित्तं कायोत्सर्ग करोति। तदन्ते च सनिषद्यः शिष्यो गुरुं प्रदक्षिणयति। तदन्ते चवन्दन्ते, पुनः प्रदक्षिणयति, एवं त्रीन् वारान, ततो गुरोर्दक्षिणभुजाऽऽसन्ने निषीदति। ततो गुरुपारंपर्य एतानि मन्त्रपदानि गुरुः त्रीन्वारान् शिष्यस्य कथयति, तदनन्तरं प्रवर्द्धमानाः प्रवरसुगन्धमिश्राः तिस्रोऽक्षमुष्टीस्तस्मै ददाति। ततो निषद्याया गुरुरुत्थाय शिष्यं तत्रोपवेश्य यथासन्निहितसाधुभिः सह तस्मै वन्दनकं ददाति। ततो विनेयो निषद्यास्थित एव 'नाणं पंचविहं पण्णत्तं०" इत्यादि सूत्रमुच्चार्य यथाशक्ति व्याख्यानं करोति / तदन्ते च साधुभ्यो वन्दनकं ददाति, ततः शिष्यो निषद्यात उत्तिष्ठति / गुरुरेव पुनस्तत्र निषीदति / ततो द्वावप्यनुयोगविसर्गार्थ कालप्रतिक्रमणार्थ च प्रत्येकं कायोत्सर्गं कुरुतः। ततः शिष्यो निरुद्धं प्रवेदयति, निरुद्धं करोतीत्यर्थः / अनु०। शिष्यं प्रति आचार्येण - एवं वएसु ठवणा, समणाणं वन्निआ समासेणं। अणुओगगणाऽणुन्नं, अओ परं संपवक्खामि॥३१॥ एवमुक्तेन प्रकारेण व्रतेषु स्थापना श्रमणानां साधूनां वर्णिता समासेन संक्षेपेण अनुयोगगणाऽनुज्ञां प्रागुद्दिष्टामतः परम् किमित्याह- संप्रवक्ष्यामि सूत्रानुसारतो ब्रवीमीति गाथार्थः // 31 // किमित्ययं प्रस्तावः? इत्याहजम्हा वयसंपन्ना, कालोचिअगहिअसयलसुत्तत्था। अणुओगाणुनाए, जोगा भणिआ जिणिंदेहिं // 3 // यस्माद् व्रतसंपन्नाः साधवः कालोचितगृहीतसकलसूत्रार्थाः, तदनुयोगवन्त इत्यर्थः। अनुयोगानुज्ञाया आचार्यस्थापनारूपाया योग्या भणिता जिनेन्द्रनाऽन्य इति गाथार्थः॥३२॥ कस्मादित्याहइहराओ मुसावाओ, पवयणखिंसा य होइ लोगम्मि। सिस्साण दि गुणहाणी, तित्थुच्छेओ अभावेण // 33 // इतरथा अनीदृशानुयोगानुज्ञायां मृषावादः, गुरोस्तमनुजानतः प्रवचनखिंसा च भवति लोके, तथाभूतप्ररूपणात्। ततः शिष्याणामपि गुणहानिः, सन्नायकाभावात्। तीर्थोच्छेदश्च भवेत्ततः, सम्यग्ज्ञानाद्यप्रवृत्तेरिति द्वारगाथार्थः // 33 // व्यासार्थं त्वाह - अणुओगो वक्खाणं, जिणवरवयणस्स तस्सऽणुण्णा उ। कायव्वमिणं भवया, विहिणा सइ अप्पमत्तेणं // 3 // अनुयो गो व्याख्यानमुच्यते जिनवरवचनस्याऽऽगमस्य, Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओग 348 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुओग तस्याऽनुज्ञा पुनरियम्, यदुत कर्तव्यमिदं व्याख्यानं भवता प्राप्तिं करोति तेषु / कुतः? इत्याह- मिथ्याऽभिमानादहमप्याचार्य एव, विधिना, न यथाकथञ्चित्, सदाऽप्रमत्तेन, सर्वत्र समवसरणादिति कथं मच्छिष्या अन्यसमीपे शृण्वन्तीत्येवंरूपादिति गाथार्थः / / 41 / गाथार्थः // 34 // तो ते वि तहाभूआ, कालेण वि होंति नियमओ चेव। कालोचिअतयभावे, वयणं निव्विसयमेवमेयं ति। सीसाण वि गुणहाणी, इअ संताणेण विन्नेआ / / 42|| दुग्गयसुअम्मि जहिमं, दिज्जइ इमाइँ रयणाई // 35 / / ततस्तेऽपि शिष्यास्तथाभूता मूर्खा एव कालेन बहुनाऽपि भवन्ति कालोचिततदभावे अनुयोगाऽभावे, वचनं निर्विषयमेवैतदिति / नियमत एव, विशिष्टसंपर्काऽभावाच्छिष्याणामप्यगीतार्थशिष्यसत्त्वानां तदनुज्ञावचनदृष्टान्तमाह- दुर्गतसुते दरिद्रपुत्रे यथेदं वचनम् 'यदुत गुणहानिरियम, एवं सन्तानेन प्रवाहेण विज्ञेयेति गाथार्थः / / 42 / / दद्यास्त्वमेतानि रत्नानि' रत्नाऽभावात् निर्विषयं, तथेदमप्यनुयोगाऽ- नाणाईणमभावे, होइ विसिट्ठाण ऽणत्थगं सव्वं / भावादिति गाथार्थः // 35 // सिरतुंडमुंडणाइ वि, विवजयाओ जहऽन्नेसि // 43 // असत्प्रवृत्तिनिमित्ताऽपोहायाऽऽह ज्ञानादीनामभाव गते भवति विशिष्टानाम्। किमित्याह- अनर्थकं सर्व किं पिअ अहिअंपि इम, आलंबण नो गुणेहिँ गुरुआणं / निरवशेषम् / शिरस्तुण्डमुण्डनाद्यपि, आदिशब्दाद् भिक्षाऽटनादिएत्थं कुसाइतुल्लं, अइप्पसंगामुसावाओ // 36|| परिग्रहः / कथमनर्थकमित्याह- विपर्ययात् कारणाद, यथाऽन्येषां किमपि यावत्तावदधीतमित्येतदालम्बनं न तत्त्वतो भवति गुणैर्गुरूणाम् / वराकादीनामिति गाथार्थः // 43 // अत्र व्यतिकरे कुशादितुल्यमनालम्बनमित्यर्थः। कस्मात् ? ण य समइविगप्पेणं, जहा तहा कयमिणं फलं देइ। अतिप्रसङ्गात् / स्वल्पस्य श्रावकादिभिरपिअधीतत्वादतो मृषाकादो अवि आगमाणुवाया, रोगतिगिच्छाविहाणं व // 44|| गुरोस्तदनुज्ञानत इति गाथार्थः / / 36|| न च स्वमतिविकल्पेनाऽऽगमशून्येन यथा तथा कृतमिदं अणुओगी लोगाणं, किल संसयणासओ दर्द होइ। शिरस्तुण्डमुण्डनादि फलं ददाति स्वर्गापवर्गलक्षणम् / अपि तं अल्लिअंति तो ते, पायं कुसलाहिगमहेओ॥३७॥ चागमानुपातादागमानुसारेण कृतं ददाति / किमिवेत्याह अनुयोगी आचार्यः लोकानां किल संशयनाशको दृढ - रोगचिकित्साविधानवत्, तदेक प्रमाणत्वात् परलोक स्येति मत्यर्थं भवति / तम्, 'अल्लियंति' उपयान्ति ततस्ते लोकाः गाथार्थः // 44 // प्रायः / किमर्थमित्याह- कुशलाधिगमहेतोः धर्मपरिज्ञानायेति इय दव्वलिंगमित्तं, पायमगीआउ जं अणत्थफलं। गाथार्थः // 37 // ततः किमित्याह जायइ ता विन्नेओ, तित्थच्छेओ य भावेणं॥४५|| सो थोवो अ वराओ, गंभीरपयत्थमणिइमग्गम्मि। (इय) एवं द्रव्यलिङ्ग मात्रं भिक्षाटनादिफलं प्रायोऽगीतार्थाद एगतेणाऽकुसलो, किं तेसिं कहेइ सुहुमपयं? ||3|| गुरोः सकाशाद् यद्यस्मादनर्थफलं विपाके जायते, तत्-तस्माद् स स्तोको वराकश्वाऽल्पश्रुत इत्यर्थः / गम्भीरपदार्थभणितिमार्गे विज्ञेयस्तीर्थोच्छेद एव, भावेन परमार्थेन, मोक्षलक्षणतीर्थबन्धमोक्षतत्त्ववचनलक्षणे एकान्तेनाऽकुशलोऽनभिज्ञः किं तेभ्यः फलाऽभावादिति गाथार्थः / / 4 / / कथयति लोकेभ्यः तस्य सूक्ष्मपदं बन्धादिगोचरमिति गाथार्थः / / 3 / / कालोचिअसुत्तत्थे, तम्हा सुविणिचियस्स अणुओगो। ततश्च निअमाऽणुजाणिअव्वो, न सवणओ चेव जह मणि // 46 / / जं किं चि मासगं तं, दठूण बुहाण होइ अवण्ण त्ति। कालोचितसूत्राऽर्थे अस्मिन् विषये तस्मात् सुविनिश्चितस्य पवयणधरो उ तम्मी,इअपवयणखिसणाणेआ॥३६॥ ज्ञाततत्त्वस्याऽनुयोग उक्तलक्षणः नियमादेकान्तेनाऽनुज्ञातव्यः, गुरुणा, यत्किञ्चिद् भाषकं तमसंबद्धप्रलापिनमित्यर्थः, दृष्ट्वा बुधानां विदुषां न श्रवणत एव श्रवणमात्रेणैव / कथमित्याहयतो भणितं संमत्यां भवत्यवज्ञेति। कथं क्वेत्यत्राऽऽह- प्रवचनधरोऽयमिति कृत्वा तस्मिन् सिद्धसेनाऽऽचार्येणेति गाथार्थः॥४६॥ किमित्याहप्रवचने य एवं, प्रवचनखिं सना अवज्ञा ज्ञातव्या-अहो ! जह जह बहुस्सुओ संमओ असीसगणसंपरिवुडो / असारोऽयमतश्चेदयमेतदभिज्ञः सन्नेवमाहेति गाथार्थः। अविणिबिओ असमये, तह तह सिद्धंतपडणीओ।।४७१० सीसाण कुणइ कह सो, तहाविहो हंदि ! नाणमाईणं। यथा यथा बहुश्रुतः श्रवणमात्रेण संमतश्च तथाविधलोकस्य, अहिआहिअसंपत्तिं, संसारुच्छेअणं परमं / / 40|| शिष्यगणसंपरिवृतश्च बहुमूढपरिवारश्च, अमूढानां तथा-विधापरिग्रहणात्, शिष्याणामिति, शिष्येषु करोति / कथमसौ ? तथाविधोऽज्ञः सन् अविनिश्चितश्चाज्ञाततत्त्वश्च समये सिद्धान्ते, तथा तथाऽसौ वस्तुस्थित्या हंदीत्युपदर्शने, ज्ञानादीनां गुणानां ज्ञानादिगुणानामधिकाऽधिकसंप्राप्ति सिद्धान्तप्रत्यनीकः सिद्धान्त-विनाशकः, तल्लाघवाऽऽपादनादिति वृद्धिमित्यर्थः / किं भूतामित्याहसंसारोच्छेदिनी संप्राप्ति, परमां गाथार्थः // 47 // प्रधानामिति गाथार्थः // 40 // एतदेव भावयतितथा सव्वण्णूहिं पणियं, सो उत्तममइसएण गंभीरं / अप्पत्तणओ पायं, हेआइविवेगविरहिओ वा वि। तुच्छकहणाइ हिट्ठा, सेसाण वि कुणइ सिद्धतं ||4|| नहु अन्नओ वि सो तं, कुणइ अमिच्छाऽभिमाणाओ॥४१॥ सर्वज्ञैः प्रणीतं सोऽविनिश्चितः, उत्तम प्रधानमतिशयेन गम्भीर अल्पत्वात् तुच्छत्वात् कारणात् प्रायो बाहुल्येन, न हि तुच्छोऽसतीं भावाऽर्थसारं, तुच्छकथनयाऽपरिणतदेशनयाऽधः शेषाणामपि गुणसंपदमारोपयति / तथा- हेयाऽऽदिविवेकविरहितो वाऽपि / सिद्धान्तानां करोति, तथाविधलोकं प्रति सिद्धान्तमिति हेयोपादेयपरिज्ञानाऽभावत इत्यर्थः / न ह्यन्यतोऽपि बहुश्रुतादसावज्ञस्तां गाथार्थः / / 48|| Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओग 349 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुओग तथाअविणिच्छिओ ण सम्म, उस्सग्गाववायजाणओ होइ। अविसयपओगओ सिं,सो सपरविणासओ नियमा।।४६|| अविनिश्चितः समये, न सम्यगुत्सर्गापवादज्ञो भवति सर्वत्रैव, / ततश्चाऽविषयप्रयोगतोऽनयोरुत्सर्गाऽपवादयोः, तथाविधः, स्वपरविनाशको नियमात्, कूटवैद्यवदिति गाथार्थः // 46 // ता तस्सेव हिअट्ठा, तस्सीसाणमणुमोअगाणं च। तह अप्पणो अधीरो, जोग्गस्सऽणुजाणइ एवं // 50 // तत्तस्मात् तस्यैवाधिकृतानुयोगधारिणः हितार्थ परलोके, तथा तच्छिष्याणां भाविनामनुमोदकानां च तथाविधाऽज्ञप्राणिनां, तथाऽऽत्मनश्च हितार्थमाज्ञाराधनेन धीरो गुरुयोग्याय विनेयाय अनुजानाति एवं वक्ष्यमाणेन विधिनाऽनुयोगमिति गाथार्थः / / 50|| तिहिजोगम्मि पसत्थे, गहिए काले निवेइए चेव। ओसरणमह णिसिज्जा-रयणं संघट्टणं चेव // 51|| तिथियोगे प्रशस्ते संक्रान्तिपूर्णिमादौ, गृहीते काले, विधिना निवेदिते चैव गुरोः समवसरणम् / अथ निषद्यारचनमुचितभूमावपि गुरुनिषद्याकरणमित्यर्थः / संघट्टनं चैवाऽनिक्षेप इति गाथार्थः / / 51 // तत्तो पवेइआए, उवविसइ गुरुओ णिअनिसिजाए। पुरओ चिट्ठइ सीसो, सम्म जहाजायउवकरणो // 52 // ततस्तदनन्तरं रचकेन साधुना प्रवेदितायांकथितायां सत्या-मुपविशति गुरुराचार्य एव, न शेषसाधवः। क्वेत्याह ? निज-निषद्यायां, या तदर्थमेव रचितेति / पुरतश्च शिष्यस्तिष्ठति प्रक्रान्तः, सम्यगसंभ्रान्तः, यथाजातोपकरणो रजोहरणमुख-वस्विकाऽऽदिधरः, इति गाथार्थः // 52 // पेहिंति तओ पोतं,तीए अस सीसगं पुणो कायं। बारसवंदण संदिस,सज्झायं पट्ठवामो त्ति॥५३।। प्रत्यवेक्षेते तदनन्तरं मुखवस्त्रिका द्वावपि, तया च मुखवस्त्रिकया स शिरः पुनः कायं प्रत्यवेक्षेते इति / ततः शिष्यो द्वादशाऽऽवर्त्तवन्दनपुरस्सरमाह- संदिशत यूयं स्वाध्यायं प्रस्थापयामः? प्रकर्षेण वर्तयाम इति गाथार्थः / / 53|| पट्ठवणाऽणुण्णाए, तत्तो दुअगा वि पट्ठवेइत्ति। तत्तो गुरू निसीअइ, इअरो वि णिवेअइतं ति // 54|| प्रस्थापयेत्यनुज्ञाते सति गुरुणा, ततो द्वावपि गुरुशिष्यौ प्रस्थापयत इति / ततस्तदनन्तरं गुरुर्निषीदति स्वनिषद्यायाम्, इतरोऽपि शिष्यो निवेदयति तं स्वाध्यामिति गाथार्थः // 54 // तत्तो वि दोवि विहिणा, अगुओगं पढविंति उवउत्ता। वंदित्तु तओ सीसो, अणुजाणावेइ अणुओगं / / 5 / / ततश्च द्वावपि गुरुशिष्यौ विधिना प्रवचनोक्तेनाऽनुयोगं प्रस्थापयतः उपयुक्तौ सन्तौ वन्दित्वा ततस्तदनन्तरं शिष्यः / किमित्याह ? अनुज्ञापयत्यनुयोगं, गुरुणेति गाथार्थः / / 55|| अभिमंतिऊण अक्खे, वंदइ देवं तओ गुरू विहिणा। ठिअ एव नमोक्कार, कड्डइ नदिं च संपुन्नं / / 56|| अभिमन्त्र्य आचार्यमन्त्रेणाऽक्षान् चान्दनकान् वन्दते देवान् चैत्यानि, ततो गुरुर्विधिना प्रवचनोक्तेन / ततः किमित्याहस्थित एवोर्ध्वस्थानेन नमस्कारं पञ्चमङ्गलकमाकर्षयति, त्रिः पठति नन्दी च संपूर्णग्रन्थपद्धतिमिति गाथार्थः / / 56| इअरो वि ठिओ संतो, सुणेइ पोत्तीइ ठइअमुहकमलो। संविग्गे उवउत्तो, अचंतं सुद्धपरिणामो // 57|| इतरोऽपि शिष्यः स्थितः सन्नूर्वस्थानेन शृणोति मुखवस्त्रिकया विधिगृहीतया स्थगितमुखकमलः सन्निति / स एव विशेष्यते- संविज्ञो मोक्षाथीं उपयुक्तः सूत्रैकाग्रतया, अनेन प्रकारेणाऽत्यन्तं शुद्धपरिणामः शुद्धाशय इति गाथार्थः // 57|| तो कड्डिऊण नंदि, भणइ गुरू अहमिमस्स साहुस्स। अणुओगं अणुजाणे,खमासमणाण हत्थेणं // 58|| तत आकृष्य पठित्वा नन्दी भणति गुरुराचार्यः - अहमस्य साधोरुपस्थितस्याऽनुयोगमुक्तलक्षणमनुजानामि क्षमाश्रमणानां प्राकृत-ऋषीणां हस्तेन, न स्वमनीषिकयेति गाथार्थः // 58 / / कथमित्याहदव्वगुणपज्जवेहि अ, एस अणुन्नाउवंदिउं सीसो। संदिसह किं भणामो, वंदणमिह जहेव सामइए / / 5 / / द्रव्यगुणपर्यायाख्याङ्गरूपैरेषोऽनुज्ञात इत्यवान्तरे वन्दित्वा शिष्यःसंदिशत यूयं किं भणामीत्यादि वन्दनं जातं यथैव सामायिके तथैव द्रष्टव्यमिति गाथार्थः / / 56 यदत्र नानात्वं तदभिधातुमाहनवरं सम्मधारय, अन्नेसिं तह पवेयह भणाइ। इच्छामणुसट्ठीए, सीसेण कयाइ आयरिओ॥६०॥ नवरम्, अत्र सम्यग्धारय, आचारसेवनेनेत्यर्थः / अन्येभ्यस्तथा प्रवेदय सम्यगेवेति भणति / कदेत्याह- इच्छाम्यनुशास्तौ शिष्येण कृतायां सत्यामाचार्य इति गाथार्थः / / 60 // तिपयक्खणीकए तो, उवविसए गुरु कए अनुस्सग्गे। सणिसज्जे तिपयक्खिण, वंदणसीसस्स वावारो॥६१।। त्रिः प्रदक्षिणीकृते सति शिष्येण, तत उपविशति गुरुः, अत्राऽन्तरेऽनुज्ञाकायोत्सर्गः, कृते च कायोत्सर्गे तदनु सनिषद्ये गुरौ त्रिःप्रदक्षिणं वन्दनं भावसारं शिष्यस्य व्यापारोऽयमिति गाथार्थः॥६१।। उवविसइ गुरुसमीवे, सो साहइ तस्स तिन्नि वाराओ। आयरियपरंपरए-ण आगए तत्थ मंतपए // 62 // उपविशति गुरुसमीपे तन्निषद्यायामेव दक्षिणपार्थे शिष्यः स गुरुं कथयति / तस्य त्रीन् वारान् / किमित्याह- आचार्यपारम्पर्येणाऽऽगतानि पुस्तकादिष्वलिखितानि तत्र मन्त्रपदानि विधिना सर्वाऽर्थसाधकानीति गाथार्थः // 61|| तथादेइ तओ मुट्ठीओ, अक्खाणं सुरमिगंधसहिआणं / वढंत सो वि सीसो, उवउत्तो गिण्हइ विहिणा॥६३।। ददाति ततः त्रीन् मुष्टीनाचार्यो ऽक्षाणां चन्दनकानां सुरभिगन्धसहितानां, वर्द्धमानान् प्रतिमुष्टिं सोऽपि च शिष्य उपयुक्तः सन् गृह्णाति विधिनेति गाथार्थः // 63|| एवं व्याख्याङ्गरूपानक्षान् दत्त्वाउद्वेति निसिज्जाओ, आयरिओ तत्थ उवविसइ सीसो। तो वंदई गुरू तं, सहिओ सेसेहि साहूहि // 64|| उत्तिष्ठति निषद्याया आचार्यो ऽत्राऽन्तरे तत्रोपविशति Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओग ३५०-अभियानराजेन्द्रः-भाग 1 अणुओग शिष्योऽनुयोगी, ततो वन्दते गुरुस्तं शिष्यसहितैः शेषसाधुभिः सन्निहितैरिति गाथार्थः // 64|| भणइ अकुरु वक्खाणं, तत्थ ठिओ चेव सो तओ कुणइ। णंदाइजहासत्ती, परिसं नाऊण वा जोग्गं / 65 // भणति च-कुरु व्याख्यानमिति तमभिनवाऽऽचार्य, तत्र स्थित | एव / ततोऽसौ करोति तद्व्याख्यानमिति नन्द्यादि यथाशक्त्येति तद्विषयमित्यर्थः / पर्षदं च ज्ञात्वा योग्यमन्यदपीति गाथार्थः। आयरिअनिसज्जाए, उवविसणं वंदणंच तह गुरुणो। तुल्लगुणखावणट्ठा, न तया दुटुं दुविण्हं पि॥६६|| आचार्यनिषद्यायामुपवेशनम्, अभिनवाचार्यस्य वन्दनं च तथा गुरोः, प्रथममेवाऽऽचार्यस्य तुल्यगुणख्यापनार्थ लोकानां, न तदा दुष्ट द्वयोरपि शिष्याचार्ययोर्ययोर्यातमेतदिति गाथार्थः / / 66|| वंदंति तओ साहू, उत्तिट्ठइ अतओ पुणो णिसिजाओ। तत्थ निसीअइ अगुरू, उवबूहण पढममन्ने उ॥६७।। वन्दन्तेततःसाधवः, व्याख्यानसमनन्तरमुत्तिष्ठतिचततःपुनर्निषद्याया अभिनवाचार्यः, तत्र निषद्यायां निषीदति च गुरुमौलः, उपबृंहणमत्राऽन्तरे प्रथमम् / अन्ये तु व्याख्यानादिति गाथार्थः / / 67 / / धण्णोऽसि तुमं णायं, जिणवयणं जेण सव्वदुक्खहरं / तं सम्ममियं भवया,पओजिअव्वं सयाकालं // 6 // धन्योऽसि त्वं सम्यग ज्ञातं जिनवचनं येन भवता सर्वदुःखहरं मोक्षहेतुस्तत्सम्यगिदं भक्ता प्रवचननीत्या प्रयोक्तव्यं सदा सर्वकालमनवरतमिति गाथार्थः // 65 // इहरा उरिणं परमं, असंमजोगे अजोगओ अवरो। ता तह इह जइअव्वं,जह एत्तो केवलं होइ॥६६॥ इतरथा तु रिणं परममेतदसम्यग्योगे सुखशीलतया असम्यग-योगश्च अयोगतोऽप्यपरः पापीयान् द्रष्टव्यः / तत्तथेह यतितव्य-मुपयोगतो यथाऽतः केवलं भवति, परमज्ञानमिति गाथार्थः / / 66 // परमो अएस हेऊ, केवलनाणस्स अन्नपाणीणं / मोहावणयणओ तह, संवेगाइसयभावेणं // 7 // परमश्चैष जिनवचनप्रयोगहेतुः केवलज्ञानस्य, अवन्ध्य इत्यर्थः / कुत इत्याह- अन्यप्राणिनां मोहापनयनात् मोहाऽपसरणकारणात्, तथा संवेगातिशयभावेनोभयोरपीति गाथार्थः // 70|| एवं उब्बूहेउं, अणुओगविसज्जणट्ठमुस्सग्गो। कालस्स पडिक्कमणं पवेअणं संघविहिदाणं // 71 / / एवमुपबृंह्य तमाचार्यमनुयोगविसर्जनाऽर्थमुत्सर्गः क्रियते / कालस्य प्रतिक्रमणं, तदात्वे प्रवेदनं, निरुद्धस्य संघविधिदानं यथाशक्ति नियोगत इति गाथार्थः // 71|| पच्छा य सोऽणुओगी,पवयणकजम्मि निचमुजुत्तो। जोगाणं वक्खाणं, करिज सिद्धतविहिणा उ॥७२।। पश्चाच सोऽनुयोगी आचार्यः प्रवचनकार्ये नित्यमुद्युक्तः सन् योगेभ्यो विनेयेभ्यः व्याख्यानं कुर्याद् गुर्वादेशाज्ञासिद्धान्त-विधिनैवेति गाथार्थः ॥७२।योग्यानाहमज्झत्था बुद्धिजुआ, धम्मत्थी ओघओ इमो जोग्गा। तह चेव पसत्थाई, सुत्तविसेसं समासज्ज // 73 // मध्यस्थाः सर्वत्राऽरक्तद्विष्टाः, बुद्धियुक्ताः प्राज्ञाः, धर्मार्थिनः परलोकभीरवः,ओघतः सामान्येनैते योग्याः सिद्धान्तश्रवणस्यातथैव प्रशस्तादयो योग्याः आदिशब्दात् परिणामकादिपरिग्रहः, सूत्रविशेषमङ्गचूडादिरूपं समाश्रित्येति गाथार्थः / / 73 / / मध्यस्थादिपदानां गुणानाहमज्झत्थाऽसग्गाह, एत्तो वि अ कत्थई न कुव्वंति। सुद्धासयाय पायं, होति तहाऽऽसन्नभव्वाय॥७४|| मध्यस्थाः प्राणिनः असद्ग्राहं तत्त्वावबोधशत्रुम, अत एव क्वचिद् वस्तुनि न कुर्वन्ति, अपि तु मार्गानुसारिमतय एव भवन्ति, तथा शुद्धाशयाश्च मायादिदोषरहिताः प्रायो भवन्ति मध्यस्थाः, तथाऽऽसन्नभव्याश्च, तेषु सफलः परिश्रमः, इति गाथार्थः // 74 / / बुद्धिजुआ गुणदोसे, सुहुमे तह बायरे य सव्वत्थ / सम्मत्तकोडिसुद्धे, तत्तट्टिईए पवजंति।।७।। बुद्धियुक्ताः प्राज्ञा गुणदोषान् वस्तुगतान् सूक्ष्मांस्तथा बादरांश्च सर्वत्र विषये सम्यक्त्वकोटिशुद्धान् कषच्छेदतापशुद्धांस्तत्त्व स्थित्याऽतिगम्भीरतया प्रपद्यन्ते साध्विति गाथार्थः // 75|| धम्मत्थी दिट्टत्थे, दढो व्व पंकम्मि अपडिबंधाओ। उत्तारिजति सुह, धन्ना अन्नाणसलिलाओ॥७६|| धर्मार्थिनः प्राणिनः दृष्टार्थे ऐहिके दृढ इव पङ्के ऽप्रतिबन्धात् कारणादुत्तार्यन्ते पृथक् क्रियन्ते सुखं, धन्याः पुण्यभाजः / कुतः ? अज्ञानसलिलात् मोहादिति गाथार्थः // 76 // पत्तो अकप्पिओ इह, सो पुण आवस्सगाइसुत्तस्स। जा सूअगडं ताजं,जेणाऽधीअंति तस्सेव।।७७|| प्राप्तश्च कल्पिकोऽत्र भण्यते, स पुनरावश्यकादिसूत्रस्य यावन् सूत्रकृतं द्वितीयमङ्गं तावद् यद् येनाऽधीतमिति पठित-मित्यर्थः। तस्यैव तान्यस्येति गाथार्थः // 77|| छेअसुआईएसु अ, ससमयभावे वि भावजुत्तोजो। पिअधम्मऽवञ्जभीरू, सो पुण परिणामगो णेओ ||78|| छेदसूत्रादिषु च निशीथादिषु स्वसमयभावेऽपि स्वकालभावेऽपि भावयुक्तो यः विशिष्टाऽन्तःकरणवान् प्रियधर्मस्तीव्ररुचिरवद्यभीरुः पापभीरुः, स पुनरयमेवंभूतः परिणामको ज्ञेयः, उत्सर्गाऽपवादविषयप्रतिपत्तेरिति गाथार्थः / / 78|| एतदेवाऽऽहसो उस्सग ईणं, विषयविभागं जहट्ठिअंचेव। परिणामेइ हियं ता, तस्स इमं होइ वक्खाणं // 7 // स परिणामकः, उत्सर्गापवादयोर्विषयविभागमौचित्येन यथाऽवस्थितमेव सम्यक् परिणमयत्येवमेव हितं, तत्तस्मात् कारणात् तस्येदं भवति व्याख्यानं सम्यगबोधादिहेतुत्वेनेति गाथार्थः // 76 अइपरिणामगऽपरिणामगाण पुण चित्तकम्मदोसेणं / उदियं विष्णेयं दोसुदए ओसहसमाणं उ॥८०|| अतिपरिणामकापरिणामकयोः पुनः शिष्ययोश्चित्रकर्मदोषेण हेतुनोदितमेव विज्ञेयं व्याख्यानं, दोषोदये औषधसमानं विपर्ययकारीति गाथार्थः / / 2011 तेसिं तचिय जायइ, जओ अणत्थो तओ ण मइणं तेसिं चेव हियट्ठा, करिज पुजा तहा चाऽऽहु||१|| तयोरतिपरिणामकाऽपरिणामकयोः, तत एव व्याख्यानात् Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओग 351 - अभियानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुओग जायते यतोऽनर्थो विपर्यययोगात्, ततो न तद्व्याख्यानं मतिमान् गुरुस्तयोरेवाऽतिपरिणामकाऽपरिणामकयोर्हितायाऽनर्थप्रति-घातेन कुर्यात्। नेति वर्तते, पूज्याः पूर्वगुरवः तथा चाऽऽहुरिति गाथार्थः // 81|| आमे घडे निहित्तं, जहा जलं तं घडं विणासेइ। इअ सिद्धतरहस्सं, अप्पाहारं विणासेइ॥२॥ आमे घटे निक्षिप्त सद् यथा जलं तं घटमाम विनाशयति, इत्येवं सिद्धान्तरहस्यमप्यल्पाहारं प्राणिनं विनाशयतीति गाथार्थः / न परंपरया वितओ, मिच्छामिनिवेसभाविअमईओ। अन्नेसि पि अजायइ, पुरिसत्थो सुद्धरूओ अ॥८३|| न परम्परयाऽपि ततोऽतिपरिणामकादेमिथ्याऽभिनिवेश-भावितमतेः सकाशादन्येषामपि श्रोतृणां जायते पुरुषार्थः, शुद्धपो वा, मिथ्याप्ररूपणादिति गाथार्थः / / 83|| एतदेवाऽऽहअविवत्तओ वि पायं, तब्भावोऽणाइमं ति जीवाणं। इअ मुणिऊण तयत्थं, जोगाण करिज वक्खाणं ||4|| अविवर्तक एव अतिपरिणामादिक एव, प्रायो मिथ्याऽभिनिवेशभावितमतेः सकाशात्, तस्य च भावः तद्भावोमिथ्याऽभिनिवेशभावोऽनादिमानिति कृत्वा जीवानां भावना-सहकारिविशेषादियमेवं मत्वा तदर्थ तद्विनाशायैव योगेभ्यो विनेयेभ्यः कुर्याद्व्याख्यान विधिनेति गाथार्थः // 24 // उवसंपण्णाण जहा-विहाणओ एव गुणजुआणं पि। सुत्तत्थाइकमेणं, सुविणिच्छिअमप्पणा सम्मं॥८॥ उपसंपन्नानां सतां यथाविधानतः सूत्रनीत्या, एवं गुणयुक्तानामपि नाऽन्यथा तदपरिणत्यादिदोषात्। कथं कर्तव्यमित्याह-सूत्रार्थादिक्रमेण यथाबोध सुविनिश्चितमात्मना सम्यक् न शुकप्रलापप्रायमिति गाथार्थः // 85|| पं०व०४ द्वा०। (अङ्गा-ऽऽद्यनुयोगविधिः 'जोगविहि' शब्दे वक्ष्यते) (14) अधुना प्रवृत्तिद्वारं वक्तव्यम् - प्रवृत्तिः प्रवाहः प्रसृतिरित्येकार्थाः। प्रथममनुयोगः प्रवर्त्तते इति।साच प्रवृत्तिर्द्विधा- द्रव्यतो भावतश्च। तत्र द्रव्यतः प्रवृत्तिमाह-- अणिउत्तो अणिउत्ता, अणिउत्तो चेव होइ उनिउत्ता। नीउत्तो अणिउत्ता, निउत्तो चेव उनिउत्ता। निउत्तोऽणिउत्ताणं,पवत्तइ अहव ते विउनिउत्तो। दव्वम्मि होइ गोणी, भावम्मि जिणादयो हुंति॥ द्रव्यतः प्रसवे गौर्दृष्टान्तो भवति, भावे जिनाऽऽदयः, तत्र गवि गोदोहकेन सह चत्वारो भङ्गाः, तद्यथा- दोहकोऽनियुक्तो गौरप्यनियुक्ता 1, दोहकोऽनियुक्तो गौर्नियुक्ता 2, दोहको नियुक्तो गौरनियुक्ता 3, दोहको नियुक्तो गौरपि नियुक्ता 4 / एवमाचार्य-शिष्येष्वपि भङ्गचतुष्टयं योजनीयं, तचाऽग्रे योक्ष्यते। तत्र तृतीये भङ्गे नियुक्त आचार्यो बलादप्यनियुक्तानां शिष्याणामनुयोग प्रवर्त्तयति। अथवा द्वितीये भङ्गे तेऽपि शिष्या नियुक्ता अनियुक्त-माचार्यमनुयोगे प्रवर्त्तयन्ति, एवं हि तृतीये द्वितीये च भने ऽनुयोगस्य प्रवृत्तिः / प्रथमे तु सर्वथा न भवति / चतुर्थे प्रवृत्तिनिष्प्रतिपक्षव। तत्र गोदृष्टान्तविषयं भङ्गचतुष्टयं व्याख्यानयति अप्पण्या य गोणी, नेव य दोद्धा समुजओ दोद्धं / खीरस्स कुओ पसवो, जइ वि य सा खीरदा घेणू / / बीए वि नत्थि खीरं,थोवं च हविज्ज एव तइए वि। अत्थि चतुत्थे खीरं, एसुवमा आयरियसीसे // गौरप्रस्नुता नैव च दोग्धा वा दोग्धुं समुद्यतः, ततो यद्यपि सा क्षीरदा धेनुस्तथाऽप्यस्मिन् प्रथमभङ्गे कुतः क्षीरस्य प्रसवः ? नैव कुतश्चित्। द्वितीयेऽपि भङ्गे दोहकोऽनियुक्ती गौनियुक्तेत्येवं रूपे नाऽस्ति क्षीरम्, दोहकस्याऽनियुक्तत्वात्, अथवा गौः प्रस्नुतेति स्तनेषु गलत्सु स्तोकं क्षीरं भवेत्। एवं तृतीयेऽपि भङ्गे दोहको नियुक्तो गौरनियुक्तेत्येवं लक्षणे नाऽस्ति क्षीरप्रसवः,स्तोकं वा स्याद्दोहकगुणेन। चतुर्थे पुनर्भड्ने गौरपि प्रस्नुता दोहकोऽपि नियुक्त इत्यस्ति क्षीर प्रसवः / एषा उपमा भङ्गचतुष्टयात्मिका आचार्य-शिष्ययोरप्यनुयोगस्य प्रसवे वेदितव्या। तथाहि-आचार्यो-ऽप्यनियुक्तः, शिष्या अपि अनियुक्ता इति प्रथमभङ्गे नाऽस्त्यनु-योगस्य प्रवृत्तिः / अनियुक्त आचार्यः शिष्या नियुक्ता इति द्वितीयेऽपि भने नाऽनुयोगः, आचार्यस्याऽनियुक्तत्वात्। अहवा अणिच्छमाणं, अवि किं चि उज्जोगिणो पवत्तंति। तइए सारिते वा, होज पवित्ती गुणिते वा / / अथवा अनियुक्तमाचार्यमनिच्छन्तमपि उद्योगिनः शिष्याः किञ्चित्प्रवृत्तिपृच्छादिभिरनुयोगकर्तुप्रवर्तयन्ति, ततो भवति द्वितीयेऽपि भङ्गेऽनुयोगस्य प्रवृत्तिः। तृतीये- आचार्यो नियुक्तः, शिष्या अनियुक्ता इत्येवंरूपे नाऽस्त्यनुयोगस्य संभवः, अथवा पुनः पुनः सारयत्याचार्ये, अथवा श्रोतुमनिच्छन्तमपि शैलसमानं किञ्चित् श्रोतारं पुरतो विन्यस्यमानस्य त्वनुयोग इति गुणयति गुणननिमित्तमनुयोगं कुर्वति भवेदनुयोगः। ____ अत्र दृष्टान्तः कालिकाऽऽचार्यः, तमेवाऽऽहसागारियमप्पाहण-सुवन्नसुयसिस्सखंतलक्खेण। कहणा सिस्सागमणं, धूलीपुंजोवमाणं च // 1 // उज्जयणीए नयरीए अज्जकालगा नाम आयरिया सुत्तत्थोक्वेया बहुपरिवारा विहरंति, तेसिं अज्जकालगाणं सीसस्स सीसो सत्तत्थोववे ओ सागरो नाम सुवनभूमीए विहरइ, ताहे अज्जकालया चिंतेति-एए मम सीसा अणुओगंन सुणंति, तओ किमेएसिंमज्झे चिट्ठामि। तत्थजामि। जत्थ अणुओगंपवत्तेमि। अविय पए वि सिस्सा पच्छा लजिआ सोचिहिंति, एवं चिंतिऊण सेज्जा-यरमापुच्छंति-कहं अन्नत्थ जामि, तओ मे सिस्सा सुणेहिंति, तुमं पुणमा तेसिं कहेजा, जइ पुण गाढतरं निब्बधं करिजा, तो खरंटेउं साहेजा, जहा सुवनभूमीए सागराणं सगासं गया, एवं अप्पाहित्ता (संदिश्य) रत्तिं चेव पसुत्ताणं गया सुवण्णभूमि, तत्थ गंतुं खंतलक्खेण पविट्ठा सागराणं गच्छं, तओ सागरायरिया खंत त्ति काउं तं नाऽऽढाइआ अन्भुट्ठाईणि, तओ अत्थ पोरिसी-वेलाए सागरायरिएणं भणिया-खंता तुब्भं एयं गमइ? आयरिया भणंति- आमं, तो खाई सुणेहत्ति एकहिया गव्वायंता य कहिंति / इयरे वि सीसाए पभाए संते संभंता आयरियं अपस्संता सव्वत्थ मग्गिओ, सिजायरं पुच्छंति, न कहेइ, भणइय तुम्भं अप्पणो आयरिओ न कहेइ, मम कहं कहेइ? तओ आउरीभूएहिं यणीए नयरीए अञ्जकालाविहरइ, ताह Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओग 352- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुओग गाढनिब्बंधकए कहियं, जहा- तुडभे निव्वेएण सुवन्नभूमीए सागराणां सगासं गया, एवं कहित्ता ते खरिंटिया। तओ ते तह चेव उचलिया सुवन्नभूमि गंतुं, पंथे लोगो पुच्छइ- एस कयरो आयरिओ जाइ? ते कहिंति- अज्जकालगा, तओ सुवन्नभूमीए सागराणं लोगेण कहियं- जहा अजकालगा नाम आयरिया बहुस्सुया बहुपरिवारा इहाऽऽगंतुकामा पंथे वटुंतिताहे सागरो सिस्साणं पुरओ भणतिमम अज्जया इंति, तेसिं सगासे पयत्थे पुच्छीहामि त्ति / अचिरेणं ते सीसा आगया, तत्थ अग्गिल्लेहिं पुच्छिज्जति- किं इत्थ आयरिया आगया चिटुंति? नत्थिं, नवरं अन्ने खंता आगया, केरिसा? वंदिए नायं, एए आयरिया ताहे सागरो लजिओ बहुं, मए इत्थं पलवियं, खमासमणा य वंदाविया / ताहे अवरण्हवेलाए मिच्छादुक्कडं करेइ, आसाइय त्ति / भणियं चाऽणेण- केरिसं खमासमणो ! अहं वागरेमि? आयरिया भणंति- सुंदरं, मा पुण गव्वं करिजासि / ताहे धूलीपुंजदिद्वंतं करेंति, धूली हत्थेण धेत्तुं तिसट्टाणेसु उयारिति, जहा- एस धूली ठविजमाणी ओखिप्पमाणी ओखिप्पमाणी सव्वत्थ परिसडइ ।एवं अत्थो वि तित्थगरेहिंतो गणहराणं, गणहरेहिंतो जाव अम्हं आयरियं उवज्झायाणं परंपरएण आगयं, को जाणइ कस्स केइ पजाया गलिया? तो मा गव्वं काहिसि, ताहे मिच्छादुक्कडं करित्ता आढत्ता अज्जकालिया सीसपसीसाणं अणुओगं कहेउ। संप्रत्यक्षरगमनिका-सागारिका शय्यातरस्तस्य 'अप्पाहणं' संदेशकथनं, स्वयमाचार्याणां सुवर्णभूमौ श्रुतशिष्यस्याऽपि शिष्यस्य सागराऽभिधानस्य 'खंतलक्खेण वृद्धव्याजेन गमनं, पश्चात् शिष्याणां साग रिकेण कथना- यथाऽऽचार्याः सुवर्णभूमौ सागरस्याऽन्तिकं गताः, ततः शिष्याणां तत्राऽऽगमनं, सागरं गर्वमुद्वहन्तं प्रति धूलीपुञ्जोपमानमिति। चतुर्थभङ्गमधिकृत्याहनिउत्तो उभयकालं, भयवं कहणाइ वद्धमाणाओ। गोयममाई विसया, सोयव्वे हुंति उनिउत्ता ||1|| नियुक्त उभयकालमनुयोगं करोति, नियुक्ता उभयकालं शृण्वन्ति / अत्र कथनायां दृष्टान्तो- भगवान् वर्द्धमानस्वामी, श्रोतव्ये सदा नियुक्ता दृष्टान्ता भवन्ति गौतमादयः। ('वायणा' शब्दे चैतद् विस्तरतो वक्ष्यते) गतं प्रवृत्तिद्वारम् / बृ०१ उ०। अनु०। (15) उद्यमी सूरिरुद्यमिनः शिष्याः 1, उद्यमी सूरिरनुद्यमिनः शिष्याः 2, अनुद्यमी सूरिरुद्यमिनः शिष्याः 3, अनुद्यमी सूरिरनुद्यमिनः शिष्याः 4. इति चतुर्भङ्गी। अत्र प्रथमभङ्गे अनुयोगस्य प्रवृत्तिर्भवति, चतुर्थे तु न भवति, द्वितीयतृतीययोस्तु कदाचित्कथञ्चिद् भवत्यपि। अनु०॥ एत्थं पुण अहिगारो, सुयणाणेणं जओ सुएणं तु / सेसाणमप्पणो विय, अणुओगपईवदिट्ठतो।। श्रुतस्य चोद्देशादयः प्रवर्त्तन्त इति / उक्तं च- 'सुयणाणस्स उद्देसो समुद्देशो अणुण्णा अणुओगो य पवत्तइ' तत्राऽऽदावेवोद्दिष्टस्य समुद्दिष्ट स्य समनुज्ञातस्य च सतोऽनुयोगो भवतीति / अतो नियुक्तिकारेणाऽभ्यधायि श्रुतज्ञाने अनुयोगेनाऽधिकृतमिति / (16) इदानीं केनाऽनुयोगः कर्त्तव्यः? इति द्वारमाहदेसकुलजाइरूवी, संहणणी धिइजुओ अणासंसी। अविकत्थणो अमाई, थिरपरिवाडी गहियवक्को / / जियपरिसो जियनिहो, मज्झत्थो देसकालभावन्नू। आसन्नलद्धपइभो, नाणाविहदेसभासन्नू॥ पंचविहे आयारे, जुत्तो सुत्तत्थ-तदुभयविहिन्नू। आहरण हेउं उवयण-नयनिउणो गाहणाकुसलो / / ससमयपरसमयविओ गंभीरो दित्तिमं सिवो सोमो। गुणसयकलिओ जुत्तो, पवयणसारं परिकहेउं / / युतशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते / देशयुतः कुलयुत इत्यादि / तत्र यो मध्यदेशे जातो यावदर्द्धषइविंशतिषु जनपदेषु स देशयुतः, स ह्यार्यदेशभणितंजानाति, ततः सुखेन तस्य समीपे शिष्या अधीयते इति, तदुपादानम् 1, कुलं पैतृकं, तथाच लोके व्यवहारः, इक्ष्वा-कुकुलजोऽयं, नाग(ज्ञात)कुलजोऽयमित्यादि। तेन युतः प्रतिपन्नार्थनिर्वाहको भवति 2, जातिर्मातृकी तया युतो विनया-ऽऽदिगुणवान् भवति 3, रूपयुतो लोकानां गुणविषयबहुमानभाग् जायते, “यत्राऽऽकृतिस्तत्र गुणा वसन्ति'' इति प्रवादात् 4, संहननयुतो व्याख्यायां न श्राम्यति 5, धृतियुतो नाऽतिगहनेषु अर्थेषु भ्रममुपयाति 6, अनाशंसी श्रोतृभ्यो वस्त्राद्यनाकाक्षी७, अविकत्थनो नाऽतिबहुभाषी 8, स्थिरोऽतिशयेन निरन्तराभ्यासतः स्थैर्यमापन्ना अनुयोगपरिपाट्यो यस्य स स्थिरपरिपाटी, तस्य हि सूत्रमर्थो वा न मनागपि गलति, गृहीतवाक्य उपादेयवचनः, तस्य ह्यल्पमति वचनं महार्थमिव प्रतिभाति 10, जितपरिषत् महत्यामपि पर्षदि न क्षोभमुपयाति 11, जितनिद्रो रात्री सूत्रमर्थं वाचयन् परिभावयन् वा न निद्रया बाध्यते 12, मध्यस्थः सर्वेषु शिष्येषु समचित्तः 13, देशं कालं भायं च जानातीति देशकालभावज्ञः / स हि देशं कालं भावं च लोकानां ज्ञात्वा सुखेन विहरति, शिष्याणां वाऽभिप्रायान् ज्ञात्वा तान् सुखेनाऽनुवर्त्तयति 14, आसन्नलब्धप्रतिभः परवादिना समाक्षिप्तः शीघ्र मुत्तरदायी / नानाविधानां देशानां भाषा जानातीति नानाविधदेशभाषाज्ञः१५, स हि नानादेशीयान् शिष्यान् सुखेन शास्त्राणि ग्राहयति 16, पञ्चविध आचारो ज्ञानाचारादिरूपस्तस्मिन् युक्तः स्वयमाचारेष्वस्थितस्याऽन्यानाचारेषु प्रवर्तयितुमशक्यत्वात् 17, सूत्राऽर्थग्रहणेन चतुर्भङ्गी सूचिता। एकस्य सूत्रं, नाऽर्थः 1, द्वितीयस्याऽर्थो न सूत्रम् 2, तृतीयस्य सूत्रमप्यर्थोऽपि 3, चतुर्थस्य न सूत्रं , नाऽप्यर्थ : 4, तत्र तृतीयभङ्गग्रहणाऽर्थं तदुभयग्रहणं सूत्राऽर्थ तदुभयविधीन् जानातीति सूत्रार्थतदुभयविधिज्ञः 18, आहरणं दृष्टान्तः१६, हेतुश्चतुर्विधो ज्ञापकादिर्यथा-दशवैकालिकनियुक्तौ, यदिवा द्विविधो हेतु:-कारको ज्ञापकश्च / तत्र कारको- घटस्य कर्ता कुम्भकारः / ज्ञापको यथातमसि घटादीनामभिव्यञ्जकः प्रदीपः 20, उपनय उपसंहारः२१,नया नैगमादयः, एतेषु निपुण आहरणहेतूपनयनिपुणः, स हि श्रोतारमपेक्ष्य तत्प्रतिपत्त्यनुरोधतः क्वचित् दृष्टान्तोपन्यासं क्वचिद् हेतूपन्यास करोति। उपसंहारनिपुणतया सम्यगधिकृतमुपसंहरति / नयनिपुणतया नययक्तव्यताऽवसरे सम्यक् प्रपञ्चं वैविक्त्येन नयानभिधत्ते / Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओग ३५३-अभिधानराजेन्द्रः-भाग 1 अणुओग ग्राहणाकुशलः प्रतिपादनशक्त्युपेतः, स्वसमयं परसमयं वेत्तीति स्वसमयपरसमयविदः, स च परेणाऽऽक्षिप्तः सुखेन स्वपक्षं परपक्षं च निर्वाहयति / गम्भीरोऽतुच्छस्वभावः / दीप्तिमान् परवादिनामनुद्धर्षणीयः / शिवोऽकोपनः / यदि वा यत्र तत्र वा विहरन् कल्याणकरः। सोमः शान्तदृष्टिः / गुणा मूलगुणा उत्तरगुणाश्च, तेषां शतानि तैः कलितो गुणशतकलितः / युक्तः समीचीनप्रवचनस्य द्वादशाङ्गस्य सारमर्थ कथयितुम्। कस्माद् गुणशतकलित इष्यते? इतिचेदत आहगुणसुट्ठियस्स वयणं,घयपरिसित्तु व्व पावओ भाइ। गुणहीणस्सन सोहइ, नेहविहूणो जह पईवो॥ यो मूलगुणादिषु गुणेषु सुस्थितस्तस्य वचनं घृतपरिसिक्तपावक इव भाति दीप्यते। गुणहीनस्य तु न शोभते वचनम्, यथा स्नेहेन विहीनः प्रदीपः / उक्तंच-"आयारे वट्टतो, आयारपरूवणा-असंकंतो। आयारपरिभट्ठो, सुद्धचरणदेसणे भइओ॥" गतं केन चेति द्वारम्। (17) अधुना कस्येतिद्वारमाहजइ पवयणस्स सारो, अत्थो सो तेण कस्स कायव्वो। एवं गुणन्निएणं, सव्वसुयस्सा उदेसस्सा?|| यदि प्रवचनस्य सारोऽर्थस्तर्हि स तेनैवंगुणाऽन्वितेन कस्य कर्तव्यः? किं सर्वश्रुतस्य, उत देशस्य श्रुतस्कन्धादेरिति। अत्र सूरिराहको कल्लाणं नेच्छइ, सव्वस्स वि एरिसेण वत्तव्यो। कप्पच्ववहारेण उ, पगयं सिस्साण थिज्जत्थं / / को नाम जगति कल्याणं नेच्छति / ततः सर्वस्यापि श्रुतस्याऽनुयोग ईदृशेन वक्तव्यः, केवलं कल्पो व्यवहारश्वाऽपवादबहुलः, तेन तयोरनुयोरे विशेषत एतादृशेन प्रकृतमधिकारः, एवं गुणयुक्ते नैव कल्पव्यवहारयोरनुयोगः कर्तव्य इत्यर्थः / कस्मादेवमुच्यते ? शिष्याणां स्थिरीकरणार्थम्। तदेवं स्थिरीकरणं भावयतिएसुस्सग्गठियप्पा, जयणाऽणुन्ना तादरिसंयतो वि। तासुन वट्टइ नूणं, निच्छयओ ता वि अकरिजा / / यदा नाम यथोक्तगुणशतकलितः कल्पव्यवहास्योरनुयोगं करोति, तदा शिष्या एवमेव बुध्यन्ते- एष स्वयमुत्सर्गस्थिताऽऽत्मा, अथ च कल्पे व्यवहारे च यतनया पञ्चकादिपरिहाणिरूपया प्रतिसेवनाः अनुज्ञाताः प्रदर्शयति। ततः प्रतिसेवनायतनया अनुज्ञाता अपि प्रदर्शयन् स्वयं तासु न वर्तते, किंतु केवलमुत्सर्गमाचरति, तदेवं ज्ञायते नूनम, निश्चयेनैता यतनया अनुज्ञाता अपि प्रतिसेवना अकरणीया न समाचरितव्याः। ततः श्रुतस्कन्धे च एक कस्मिन् निक्षेपश्चतुर्विधो भवति इति वक्तव्यः / एष द्वारगाथासमासार्थः / साम्प्रतमेनामेव विवरीषुः प्रथमतोऽनुयोगे अङ्गादे, पृच्छामाहजइ कप्पाइऽणुओगो, किं सो अंग उयाहु सुयखंधो। अज्झयणं उद्देसो, पडिवक्खंगादिणो बहवो।। यदि कल्पादेरादिशब्दाद् व्यवहारस्य ग्रहणमनुयोगस्ततः किं सोऽङ्गमुताऽहो ! श्रुतस्कन्धोऽध्ययनमुद्देशो वा / अमीषां चाऽङ्गानां प्रतिपक्षा बहवोऽङ्गादयो द्रष्टव्याः / इयमत्र भावना- यदि नामैतादृशेनाऽऽचार्येणाऽनुयोगः कल्पस्य व्यवहारस्य च कर्त्तव्यः, स कल्पो व्यवहारो वा किमङ्गमङ्गानि, श्रुतस्कन्धः श्रुतस्कन्धाः, अध्ययनमध्ययनानि, उद्देश उद्देशाः। ___ अत्र सूरिराहसुयखंधो अज्झयणा, उद्देसा चेव हुंति निक्खिप्पा। सेसाणं पडिसेहो, पंचण्ह वि अंगमाईणं / / श्रुतस्कन्धोऽध्ययनानि उद्देशा एते त्रयः पक्षा भवन्ति निक्षेप्याः , स्थाप्या आदरणीया इत्यर्थः / शेषाणां पञ्चानामप्यङ्गादीनां प्रतिषेधः। तद्यथा-कल्पो व्यवहारोवा नाऽङ्ग नाऽङ्गानि। श्रुतस्कन्धो, नो श्रुतस्कन्धाः। अध्ययनं नाऽध्ययनानि।नो उद्देश, उद्देशाः। तम्हा उनिक्खिविस्सं, कप्प व्ववहार सो सुयक्खंधं / अज्झयणं उद्देशं, निक्खिवियव्वं तु जंजत्थ // यस्मादेवं तस्मात्कल्पं निक्षेप्स्यामि, व्यवहारं निक्षेप्स्यामि, स्कन्ध निक्षेप्स्यामि, अध्ययन निक्षेप्स्यामि, उद्देशं निक्षेप्स्यामि यच यत्र निक्षेप्तव्यं नामादिचतुःप्रकारं षट्प्रकारं च तत्र वक्ष्यामि, तत्र कल्पस्य षविधो नामादिको निक्षेपः / यत उक्तं प्राग-द्वारगाथायाम् - 'कप्पछक्कनिक्खेवो' व्यवहारस्य चतुर्विधो नामादिनिक्षेपः / एतयोः स्वस्थानमाहआइल्लाणं दुण्ह वि, सट्ठाणं होइ नामनिप्फन्ने। अज्झयणस्स चउविहे, उद्देसस्सऽणुगमे मणिओ॥ आद्ययोर्द्वयोः कल्पव्यवहारयोर्यथाक्रमं षट्कस्य चतुष्कस्य निक्षेपस्य स्थानं भवति नामनिष्पन्ने निक्षेपे, ततः स तत्र वक्तव्यः। तत्र कल्पस्य पञ्चकल्पे, व्यवहारस्य पीठिकाया अध्ययनस्य चतुष्प्रकारो निक्षेप ओघनिष्पन्ने निक्षेपेऽभिधास्यते / उद्देशस्य चाऽनुगमे उपोद्घाते निर्युक्यनुगमे भणितः। संप्रति 'सुयखंधे निक्खेवो' इत्यादिव्याख्यानार्थमाहनामसुयं ठवणसुयं, दव्वसुयं चेव होइ भावसुयं / एमेव होइ खंधे, पन्नवणा तेसिं पुव्वुत्ता। श्रुतस्य चतुष्प्रकारोनामादिको निक्षेपः। तद्यथा- नामश्रुतं स्थापनाश्रुतं द्रव्यश्रुतं भावश्रुतं च / एवमेव अनेनैव प्रकारेण, स्कन्धेऽपि चतुष्प्रकारो निक्षेपः / तद्यथा- नामस्कन्धः, स्थापनास्कन्धः, द्रव्यस्कन्धः, भावस्कन्धश्च / एतेषां प्रज्ञापना पूर्वमावश्यके उक्ताऽवधारणीया / गतं कस्येति द्वारम्! बृ०१ उ०। (18) इदमेव सप्तमं द्वारं चेतसि निधाय सूत्रकृदाहनाणं पंचविहं पण्णत्तं तंजहा-आमिणिबोहियनाणं सुयनाणं, ओहियणाणं, मणपञ्जवणाणं, केवलनाणं यदि नाम ज्ञानं पञ्चविधं प्रज्ञाप्तं, ततः किमित्याह किञ्च जो उत्तमेहिँ पहओ, मग्गो सो दुग्गमो न सेसाणं / आयरियम्मि जयंते, तदणुचरा केण सीइज्जा ?|| य उत्तमैर्गुरुभिः प्रहतः क्षुण्णो मार्गः पन्थाः , स शेषाणां दुर्गमो न भवति, किंतु सुगमः, तत्र आचार्ये यतमाने यथोक्तसूत्रनीत्या प्रयत्नवति, तदनुचरास्तदाश्रिताः शिष्याः केन हेतुना सीदेयुः ? नैव सीदेयुरिति भावः। तत एतेन कारणेन कल्पव्यवहारयोरनुयोगे विशेषत एतादृशेन प्रकृतम्। अणुओगम्मिय पुच्छा, अंगाइ अकप्पछक्कनिक्खेदो। सुयखंधे निक्खेवो, इक्केके चउविहो होई॥ अनुयोगे अङ्गादेः पृच्छा वक्तव्या, तदनन्तरं कल्पस्य षट्के निक्षेपः, Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओग 354 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुओग तत्थ चत्तारि नाणाई ठप्पाइं ठविणिजाई,णो उहिस्संति,णो समुहिस्संति,णो अणुण्णविज्जति / सुयनाणस्स उद्देसो समुद्देसोअणुण्णा अणुओगो य पवत्तइ। (तत्थेत्यादि) तत्र तस्मिन् ज्ञानपञ्चके आभिनियोधिकाऽवधिमनःपर्यायकेवलाख्यानि चत्वारि ज्ञानानि (ठप्पाइंति) स्थाप्यान्यसंव्यवहार्याणि / व्यवहारनये हि यदेव लोकस्योपकारे वर्त्तते तदेव संव्यवहार्य मन्यते। लोकस्य च हेयोपादेयेष्वर्थेषु निवृत्तिप्रवृत्तिद्वारेण प्रायः श्रुतमेव साक्षादत्यन्तोपकारि / यद्यपि वेचलादिदृष्टमर्थं श्रुतमभिधत्ते, तथापि गौणवृत्त्या तानि लोकोपकारीणीति भावः। यद्युक्तन्यायेनाऽसंव्यवहार्याणि तानि, ततः किमित्याह- (ठवणिज्जाइंति) ततः स्थापनीयानि एतानि तथाविधोपकाराऽभावतोऽसंव्यवहार्यत्वात्तिष्ठन्ति, न तैरिहोद्देशसमुदेशाद्यवसरेऽधिकार इत्यर्थः / अथवा स्थाप्या-न्यमुखराणि स्वस्वरूपप्रतिपादनेऽप्यसमर्थानि, नहि शब्दमन्तरेण स्वस्वरूपमपि केवलादीनि प्रतिपादयितुं समर्थानि / शब्द-श्वाऽनन्तरमेव श्रुतत्वेनोक्त इति स्वपरस्वरूपप्रतिपादने श्रुतमेव समर्थम, स्वरूपकथनं चेदम्, अतः / स्थाप्यानि अमुखराणि यानि चत्वारि ज्ञानानि तानीहाऽनुयोगद्वारविचारप्रक्रमे / किमित्याह अनुपयोगित्वात्स्थापनीयान्यनधिकृतानि, यत्रैव युद्देशसमुद्देशाऽनुज्ञादयः क्रियन्ते, तत्रैवाऽनुयोगः, तद्वाराणि चोपक्रमादीनि प्रवर्तन्ते / एवंभूतं त्वाचारादि-श्रुतज्ञानमेवेत्यत उद्देशाद्यविषयत्वादनुपयोगीनि शेषज्ञानानि इत्यतोऽत्राऽनधि-कृतानि / अत्राह- अनुयोगो व्याख्यानम्, तच शेषज्ञानचतुष्टयस्याऽपि प्रवर्तत एवेति कथमनुपयोगित्वम् ? ननु समयचर्याऽनभिज्ञता-सूचकमेवेदं वचः, यतस्तत्राऽपि तज्ज्ञानप्रतिपादकसूत्रसंदर्भ एव व्याख्यायते, स च श्रुतमेवेति, श्रुतस्यैवाऽनुयोगप्रवृत्तिरिति। अथवा स्थाप्यानि गुर्वनधीतत्वेनोद्देशाद्यविषयभूतानि। एतदेव विवृणोति- स्थापनीयानि इत्येकार्थों द्वावपि / इदमुक्तं भवति- अनेकार्थ-त्वादतिगम्भीरत्वाद् विविधमन्त्राद्यतिशयसम्पन्नत्याच प्रायो गुरूप-देशाऽपेक्षंश्रुतज्ञानम्, तच गुरोरन्तिके गृह्यमाणं परमकल्याण-कोशत्वादुद्देशादिविधिना गृह्यत इति / तस्योद्देशादयः प्रवर्तन्ते, शेषाणि तु चत्वारि ज्ञानानि तदावरणकर्मक्षयोपशमाभ्यां स्वत एव जायमानानि नोद्देशादिप्रक्रममपेक्षन्ते। यतश्चैवमत आह-'नो उदिसिजंतीत्यादि / नो उद्दिश्यन्ते, नो समुद्दिश्यन्ते, नो अनुज्ञायन्ते। अनु०॥ एवं श्रुतस्यैव उद्देशादयः प्रवर्तन्ते, न शेषज्ञानानाम् / अत्र चाऽनुयोगेनैवाऽधिकारो,न शेषैः। अनुयोगद्वारविचारस्यैवेह प्रक्रान्तत्वात्। अत्र यथाऽभिहितमुपजीव्याऽऽह शिष्यः जइ सुयनाणस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो य पवत्तइ, किं अंगपविट्ठस्स उद्देसो अणुण्णा अणुओगो य पवत्तइ, किं अंगबाहिरस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगोय पवत्तइ ? अंगपविट्ठस्स वि उद्देसोजाव पवत्तइ, अणंगपविट्ठस्स वि उद्देसो जाव पवत्तइ / इमं पुण पट्ठवणं पडुच्च अणंगपविट्ठस्स अणुओगो / जइ अणंगपविट्ठस्स अणुओगो, किं कालिअस्स अणुओगो, उक्कालिअस्स अणुओगो ? कालिअस्स वि अणुओगो, उक्कालिअस्स वि अणुओगो। इमं पुण पट्ठवणं पडुच उक्कालिअस्स अणुओगो / जइ उक्कालिअस्स अणुओगो, किं / आवस्सगस्स अणुओगो, आवस्सगवतिरित्तस्स अणुओगो ? | आवस्सगस्स वि अणुओगो, आवस्सगवितिरित्तस्स वि अणुओगो। (यदीत्यादि) यद्युक्तक्रमेण श्रुतज्ञानस्योद्देशः समुद्देशोऽनुज्ञा अनुयोगश्च प्रवर्तते, तर्हि किमसावङ्गप्रविष्टस्य प्रवर्तते, उताऽङ्ग बाह्यस्येति ? तत्राऽङ्गेषुप्रविष्टमन्तर्गतमङ्ग प्रविष्ट श्रुत-माचारादि, तद्बाह्यमुत्तराध्ययनादि / अत्र गुरुर्निर्वचनमाह-(अंगपविठ्ठस्स वीत्यादि) अपिशब्दी परस्परसमुच्चयार्थौ / अङ्गप्रविष्टस्याप्युद्देशादि प्रवर्तते, तद्बाह्यस्याऽपि / इदं पुनः प्रस्तुतं प्रस्थापनं प्रारम्भं प्रतीत्याऽऽश्रित्याऽङ्गबाह्यस्य प्रवर्तते, नेतरस्य / आवश्यकं यत्र व्याख्यास्यते, तचाऽङ्गबाह्यमेवेति भावः / अत्राऽङ्ग बाह्यस्येति सामान्योक्तौ सत्यां संशयानो विनेय आह-(जइ अंगबाहिरस्सेत्यादि) यद्यङ्ग बाह्यस्योद्देशादिः, किमसौ कालि- कस्य प्रवर्तते, उत्कालिकस्य वा ? द्विधाऽप्यङ्गबाह्यस्य संभवा-दिति भावः / तत्र दिवसनिशाप्रथमचरमपौरुषीलक्षणे कालेऽधीयते, नाऽन्यत्रेति कालिकमुत्तराध्ययनादि / यत्तु कालवेलामात्रवर्ज शेषकालाऽनियमेन पठ्यते, तदुत्कालिकमावश्यकादि। अत्र गुरुः प्रतिवचनमाह (कालियस्स वीत्यादि) कालिकस्याऽप्यसौ प्रवर्तते , उत्कालिकस्याऽपि। इदं पुनः प्रस्तुतं प्रस्थापनं प्रारम्भं प्रतीत्य उत्कालिकस्य मन्तव्यम् / आवश्यकमेव ह्यत्र व्याख्यास्यते, तच्चोत्कालिकमेवेति हृदयम् / उत्कालिकस्येति सामान्यवचने विशेषजिज्ञासुः पृच्छति- (जइ उक्कालियस्सेत्यादि) यदिउत्कालिस्योद्देशादिस्तत्किमावश्यकस्याऽयं प्रवर्तते? अथवा-ऽऽवश्यकव्यतिरिक्तस्य ? उभयथाऽप्युत्कालिकस्य संभवा-दिति। परमार्थस्तत्र श्रमणैः श्रावकैश्चौभयसन्ध्यमवश्यंकरणादावश्यकं सामायिकादिषडध्ययनकलापः / तस्मात्तु व्यतिरिक्तं भिन्नंदशवैकालिकादि। गुरुराह-(आवस्सगस्स वीत्यादि) द्वयोरप्येतयोः सामान्येनोद्देशादिः प्रवर्त्तते, किन्त्विदं प्रस्तुतं प्रस्थापनं प्रारम्भ प्रतीत्याऽऽवश्यकस्याऽनुयोगो, नेतरस्या सकलसामाचारीमूलत्वादस्यैवेह शेषपरिहारेण व्याख्यानादिति भावनीयम्। उद्देशसमुद्देशाऽनुज्ञास्त्यावश्यके प्रवर्तमाना अप्यत्र नाऽधिकृताः, अनुयोगाऽवसरत्वात् / अतस्तत्परिहारेणोक्तम्-(अणुओगो त्ति) अनु०। इमं पुण पट्ठवणं पडुच आवस्सगस्स अणुओगो / जइ आव स्सगस्स अनुओगो, कि अंग अंगाई, सुअखं धो सुअखं धा,अज्झयणं अज्झयणाइ, उद्दे सो उद्देसा ? आवस्सयस्सणं नो अंग, नो अंगाई। सुअखंधो, नो सुअखंधा। अज्झयणं, नो अज्झयणाई,नो उद्देसो, नो उद्देसा। इदं पुनः प्रस्थापनं प्रतीत्यावश्यकस्याऽनुयोग इति पुनरपि आह (जइ आवस्सगस्सेत्यादि) यदि-आवश्यकस्य प्रस्तुतोऽनुयोगस्तर्हि किम् ?णमिति वाक्यालङ्कारे, किमिति परिप्रश्ने, किमेकं द्वादशाऽङ्गाऽन्तर्गतमङ्गमिदमुत बहून्यङ्गानि। अथैकः श्रुतस्कन्धो बहवो वा श्रुतस्कन्धाः , अध्ययनं चैकं बहूनि वाऽध्ययनानि, उद्देशको वा एको बहवो वा उद्देशकाः ? इत्यष्टौ प्रश्नाः / तत्र श्रुतस्कन्धोऽध्ययनानि चेदमिति प्रतिपत्तव्यम्। षडध्ययनात्मकश्रुतस्कन्धरूपत्वादस्य। शेषास्तु षद प्रश्नाः अनादेयाः, अनङ्गादिरूपत्वात् / इत्येतदेवाह(आवस्सयस्स णमित्यादि) अत्राऽऽहनन्वावश्यकं कि मङ्गमङ्गानीत्येतत् प्रश्नद्वयमत्राऽनवकाशमेव, नन्द्यध्ययन एवाऽस्याऽनङ्ग प्रविष्टत्वेन निर्णीतत्वात्। तथाऽत्राऽप्यङ्गबाह्योत्कालिक क्रमेणाऽनन्तरमेवोक्त-त्वादिति। अत्रोच्यते- यत्तावदुक्तं नन्यध्ययन Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओग 355 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुओग एवेत्यादि / तदयुक्तम् / यतो नाऽवश्यकनन्द्यध्ययनं व्याख्याय तदिदं व्याख्येयमिति नियमोऽस्ति, कदाचिदनुयोगद्वारव्या-ख्यानस्यैव प्रथमं प्रवृत्तेः / अनियमज्ञापकश्चाऽयमेव सूत्रोपन्यासः, अन्यथा ह्यङ्ग बाह्यत्वेऽस्य तत्रैव निश्चितः, किमिहाऽङ्गाऽनङ्ग प्रविष्टचिन्तासूत्रोपन्यासेनेति? अधुना तद्द्वारं वक्तव्यम्। यदाहतस्स णं इमे चत्तारि अणुओगदारा भवंति / तं जहा उवक्कमे 1, णिक्खेवे 2, अणुगमे 3, णए 5, 1 अनु०॥ इदानीं भेदद्वारं तेषामेव द्वाराणामानुपूर्वी नाम प्रमाणादिकोऽत्रैवोक्तस्वरूपो भेदो वक्तव्यः। (16) तथाऽनुयोगस्य लक्षणं वाच्यम् - यदाह"संधिया य पदं चेव, पयत्थो पयविग्गहो। चालणा य पसिद्धी य,छविहं विद्धि लक्खणं" || प्रश्ने कृते सति (पसिद्धि त्ति) चालनायां सत्यां प्रसिद्धिः समाधानम् (विद्धि त्ति) जानीहि / व्याख्येयसूत्रस्य च "अलियमुग्घायजणयमित्यादि'' द्वात्रिंशद्दोषरहितत्वादिकं लक्षणं वक्तव्यम्। अनु० (20) यथोक्तगुणयुक्तस्य सूत्रस्य कोऽर्हः? इत्यनेन संबन्धेन तदर्हद्वारमापतितम् / तत्र सोऽर्ह उण्डिकाऽऽदिदृष्टान्तस्योपनयभूतः, तत आहउंडिय भूमी पेढिय, पुरिसग्गहणं तु पढमओ काउं। एवं परिक्खियम्मी, दायध्वं वान वा पुरिसे॥ नवे नगरे निवेश्यमाने प्रथमत उण्डिकापातस्य योग्या भूमिस्तस्य तत्प्रदानार्थमुद्रा पात्यते, ततो भूमिशोधनं, तदनन्तरं पीठिका, एवमत्राऽपि प्रथमतः पुरुषग्रहणं कृत्वा तदनन्तरं परीक्षा कर्तव्याकिमयमपरिणामकोऽतिपरिणामकः, परिणामको वेति ? एवं पुरुषे परीक्षिते दातव्यं, न वा अपरिणामके, अतिपरिणामके वा नदातव्यम्, परिणामके दातव्यमिति गाथासंक्षेपार्थः। . सांप्रतमेनामेव विवरीषुराहअभिनवनगर निवेसे, समभूमिविरेयणऽक्खरविहिन्नू। पाडेइ उंडियाओ, जा जस्स हाणसोहणया / / खणणं कुट्टण ठवणं,पीढं पासाय रयण सुहवासो। इअ संजमनगरुंडिय-लिंग मिच्छत्तसोहणयं // वरि इट्टगठवणनिभा, पेढे पुण होइ जाव सूयगडं। पासाय जहिं पगयं, रयणनिभा हुंति अत्थपया। अभिनवे नगरे निवेश्यमाने प्रथमतो भूमिः परीक्ष्यते, परीक्ष्य च तस्याः समभूमिविरेचन विधीयते / तदनन्तरमक्षरविधिज्ञो या यस्य योग्या भूमिस्तस्य तस्याः प्रदानार्थमुण्डिका अक्षरसंहिताः मुद्रिकाः पातयति। ततः स्वस्थानस्यशोधनता-शोधनम्।ततः स्वस्याः स्वस्याः भूमेः खननं, तदनन्तरं द्रुघणैरिष्टकाशकलानि प्रक्षिप्य तेषां कुट्टनं, ततस्तस्योपरि इष्टकानां स्थापनं, तदनन्तरं यावत् सूत्रं तावत् पीठ, ततस्तस्य पीठकस्योपरि प्रासादकरणं, तदनन्तरं तेषां प्रासादानां रत्नैरापूरणं, ततः सुखेन वासः परि-वसनम्। एष दृष्टान्तः। अयमर्थोपनयः * भूमीग्रहणस्थानीयं पुरुषग्रहणं, शुद्धं पुरुष परीक्ष्य तस्य प्रव्रज्यादानमित्यर्थः / तत'इति एवमुक्तप्रकारेण नगरस्थानीये संयमे स्थाप्यते, तत उण्डिकास्थानीयं रजोहरणादि लिङ्गं दीयते,तदनन्तरं मिथ्यात्वस्य ज्ञानस्य च कचवरस्थानीयस्य शोधनं, ततः शोधयित्वा मिथ्यात्वं समूलमुत्खन्य स्थिरीकरणनिमित्तं सम्यक्त्वद्रुधणैर्यच्छेषमवतिष्ठते मिथ्या-त्वपुद्गलात्मकवत् कुट्टयित्वा भस्मच्छन्नाऽग्निमिव कृत्वा / तत उपरि इष्टकास्थापननिभानि व्रतानि दीयन्ते, तत आवश्यकमादि कृत्वा यावत् सूत्रकृतं तावत् पीठं भवति, ततो यकाभ्यां प्रकृतं तौ कल्पव्यवहारौ प्रासाद-स्थानीयौ दीयेते, तत्राऽर्थपदानि यानि, तानि रत्ननिभानि। गतं तदर्हद्वारम्।बृ०१ उ०ा तथा तस्यैवानुयोगस्य परिषद् वक्तव्या(सा च 'सेलघणकुडग') इत्यादिदृष्टान्तैः परीक्षितव्येति 'सीस' शब्दे, ज्ञापिकादिका च त्रिविधा पर्षत् 'परिसा' शब्दे वक्ष्यते) (21) संप्रति कयाऽधिकार इति प्रतिपादयतिछत्तंतिआए पगयं, जइ पुण सा होजिमेहिं उववेया। तो देति जेहिं पगयं, तदभावे ठाणमादीणि // अत्र छत्राऽन्तिकया पर्षदा प्रकृतमधिकारः, शेषाः पर्षद उच्चरितसदृशा इति प्ररूपिताः / तत्र यदि सा छत्रान्तिका पर्षद् एभिर्वक्ष्यमाणैर्गुणैरुपेता भवति, तदायकाभ्यामत्र प्रकृतं तवको व्यवहारौ सूरयो ददति, तदभावे वक्ष्यमाणगुणाभावे स्थानादीनि, आदिग्रहणेन प्रकीर्णकानां परिग्रहः। अथ के ते गुणाः? इत्यत आहबहुस्सुए चिरपव्वइए, कप्पिए य अचंचलो। अवहिए य मेहावी, अपरिभाविओ विउ।। पत्ते य अणुण्णाते, भावतो परिणामगे। एयारिसे महाभागे, अणुओगं सोउमरिहइ॥ बहुश्रुतश्चिरप्रव्रजितः, कल्पिकोऽचञ्चलः, अवस्थितो, मेधावी, अपरिभावी, यश्च विद् विद्वान् प्रभूताऽशेषशास्त्रपरिमलितबुद्धिः, (पत्ते यत्ति) पात्रं प्राप्तो वा तथाऽनुज्ञातः सन् भावतश्च परिणामकः, एतादृशो महाभागोऽनुयोगं श्रोतुमर्हति, सामथ्र्थात् कल्पव्यवहारयोः / एष द्वारगाथाद्वयसंक्षेपार्थः / बृ०१ उ०(बहुश्रुताऽऽदीनां तिन्तिणिकादीनां च व्याख्या स्वस्वस्थाने द्रष्टव्या) एतत्सर्वमभिधाय ततः सूत्राऽर्थो वक्तव्यः। (22) सोऽनुयोगश्चतुर्विधो भवति - सुयनाणे अणुओगेणऽहिगयं सो चउव्विहो होइ। चरणकरणानुयोगे, धम्मं काले य दविए य॥ कथम् ? चरणकरणाऽनुयोगः,चर्यत इति चरणं व्रतादि, यथोक्तम्"वय समणधम्म संजम, वेयावच्चं च बंभ गुत्तीओ। णाणदितियं तवकोहनिग्गहादी चरणमे यं" ||1|| क्रियत इति करणं - पिण्डविशुद्ध्यादि। उक्तं च-"पिंडविसोही समिई, भावणपडिमाइ इंदियनिरोहो / पडिलेहणगुत्तीओ, अभिग्गहा चेव करणं तु // 1 // चरणकरणयोरनुयोगश्चरणकरणानुयोगः / अनुरूपो योगोऽनुयोगः सूत्रस्याऽर्थेन सार्द्धमनुरूपः संबन्धो व्याख्यानमित्यर्थः। एकारान्तः शब्दः प्राकृतशैल्या प्रथमा-द्वितीयान्तोऽपि द्रष्टव्यः। यथा-"कयरे आगच्छइ दित्तरूवे" इत्यादि। धर्म इति धर्मकथाऽनुयोगः / काले चेति कालाऽनुयोगश्च गणिताऽनुयोगश्चेत्यर्थः / द्रव्यं चेति द्रव्याऽनुयोगश्च / तत्र कालिकश्रुतं चरणकरणानुयोगः, ऋषिभाषितानि उत्तराऽध्ययनादीनि धर्मकथानुयोगः, सूर्यप्रज्ञप्त्यादिर्गणिताऽनुयोगः, दृष्टिवादस्तु द्रव्याऽनुयोगः इति / उक्तं च-"कालियसुयं च Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओग 356 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुओग इसिभासियाइँ तइयो य सूरपन्नत्ती। सव्वोय दिहिवाओ, चउत्थओहोइ अणुओगो" ||1|| इति गाथार्थः / इह चौघतोऽनुयोगो द्विधा अपृथक्त्वाऽनुयोगः पृथक्त्वाऽनुयोगश्च / तत्राऽपृथक्त्वानुयोगो यत्रै कस्मिन्नेव सूत्रे सर्व एव चरणादयः प्ररूप्यन्ते, अनन्तागमपर्यायत्वात्सूत्रस्य / पृथक्त्वा ऽनुयोगश्च यत्र क्वचित् सूत्रे चरणकरणमेव, क्वचित्पुनर्धर्मकथा वेत्यादि / दश०१ अ०। चरणकरणाद्यनुयोगाः "ओहेण उ णि-अत्तिं, योच्छं चरणकरणाणुओगाओ" इति नियुक्ति-गाथायाश्चरणकरणस्येति वक्तव्ये शैली त्यक्त्वा पञ्चम्या निर्देशं कुर्वन्नाचार्य एतज्ज्ञापयतिसन्त्यन्येऽप्यनुयोगा इति / तदत्राऽऽह-'चरणकरणानुयोगाद् वक्ष्ये नाऽन्याऽनुयोगेभ्यः' इति। तथा षष्ठी द्विविधा दृष्टा-भेदषष्ठी, अभेदषष्ठी चातत्र भेदषष्ठी यथा-देवदत्तस्य गृहम्।अभेदषष्ठी यथा-तैलस्यधारा, शिलापुत्रकस्य शारीरकमिति। तद् यदि षष्ठ्या उपन्यासः क्रियते, ततो न ज्ञायते, किं चरणकरणानुयोगस्य भिन्नामोघनियुक्तिं वक्ष्ये, यथादेवदत्तस्य गृहमिति, आहोस्विदभिन्नां वक्ष्ये, यथा तैलस्य धारेत्यस्य संमोहस्य निवृत्त्यर्थं पञ्चम्या उपन्यासः कृत इति / एवं व्याख्याते सत्यपरस्त्वाह-अस्तीत्येकवचनम्, अनुयोगा बहवश्व, तत्कथं बहुत्वं प्रतिपादयति ? उच्यते-अस्तीति तिङन्त-प्रतिरूपकमव्ययम्। अव्ययं च-"सदृशं त्रिषु लिंङ्गैषु, सर्वासु च विभक्तिषु / वचनेषु च सर्वेषु, यन्न व्येति तदव्ययम्"। ततो बहुत्वं प्रतिपादयत्येवेत्यदोषः। अथवा- व्यवहितः संबन्धोऽस्तिशब्दस्य, कथमिदम् ? चोदकवचनम्। षष्ठी सम्बन्धे किमिति न भवति विभक्तिः? आचार्य आह-अस्ति षष्ठीविभक्तिः। पुनरप्याहयद्यस्ति ततः पञ्चमी भणिता किम् ? आचार्य आहअन्येऽप्यनुयोगाश्चत्वारः, अतः षष्ठी विद्यमानाऽपि नोक्तेति भावना पूर्ववत्। अन्येऽपि अनुयोगाः सन्तीत्युक्तम्, न च ज्ञायन्ते कियन्तोऽपि ते ? इत्यत्र प्रतिपादयन्नाहचत्तारि उ अणुओगा, चरणे धम्मगणियाणुओगे य। दवियऽणुओगे य तहा, जहक्कम ते महड्डीया / / 7 / / चत्वार इति संख्यावचनः शब्दः, अनुकूला अनुरूपा वा योगा अनुयोगाः / तुशब्द एक्कारार्थः। चत्वार एवते।अन्ये तुतुशब्दं विशेषणार्थं व्याख्यानयन्ति। किं विशेषयन्तीति चत्वारोऽनुयोगाः, तुशब्दाद् द्वौ च, पृथक् पृथक् भेदात् / कथं चत्वारोऽनुयोगा :? इत्याह-(चरणे धम्मगणियाणुओगे य) चर्यत इति चरणं, तद्विषयोऽनुयोगश्चरणानुयोगस्तस्मिन् चरणानुयोगे। अत्र चोत्तर-पदलोपादित्थमुपन्यासः, अन्यथा चरणकरणानुयोग इत्येवं वक्तव्यम् / स च एकादशाङ्गरूपः / (धम्मे ति) धारयतीति धर्मः दुर्गतौ प्रपतन्तं सत्त्वमिति, तस्मिन् धर्म, धर्मविषयो द्वितीयोऽनुयोगो भवति / स चोत्तराध्ययनप्रकीर्णकरूपः ।(गणियाणुयोगे य त्ति) गण्यत इति गणितम्, तस्यानुयोगो गणितानुयोगः, तस्मिन्, गणितानुयोगविषयस्तृतीयो भवति / स च सूर्यप्रज्ञप्त्यादिरूपः / चशब्दः प्रत्येकमनुयोगपदसमुचायकः / (दवियाणुयोगे यत्ति) द्रवतीति द्रव्यम्-तस्यानुयोगो द्रव्यानुयोगः, सदसत्पर्या-यालोचनारूपः, स च दृष्टिवादः / चशब्दादनार्षः सम्मत्यादिरूपश्च तयेतिक्रमप्रतिपादकः, आगमोक्तेन प्रकारेण यथाक्रम यथा-परिपाट्येति चरणकरणानुयोगाद्या महर्द्धिकाः प्रधाना इति यदुक्तं भवति / एवं व्याख्याते सत्याह-(चरणे धम्मगणियाणुओगे य दवियऽणुओगे यति) यद्येतेषां भेदेनोपन्यासः क्रियते, तत्किमर्थं चत्वार इत्युच्यते? विशिष्टपदोपन्यासादेवाऽयमर्थोऽवगम्यत इति / तथाचरणपदं भिन्नया विभक्तया किमर्थमुपन्यस्तम् ? धर्म-गणितानुयोगौ तु एकयैव विभक्तया, पुनर्द्रव्यानुयोगो भिन्नया विभक्त्येति, तथाऽनुयोगशब्दश्च एक एवोपन्यसनीयः, किमर्थं द्रव्यानुयोग इति भेदेनोपन्यस्त इति ? अत्रोच्यते-यत्तावदुक्तं चतुर्ग्रहणं न कर्त्तव्यं, विशिष्टपदोपन्यासात् / तदसत् / यतो न विशिष्टपदोपन्यासे विशिष्टसङ्ख्याऽवगमो भवति, विशिष्ट पदोपन्यासेऽपि कुतश्चरणधर्मगणितद्रव्यपदानि सन्तीति, अन्यान्यपि सन्तीति संशयो मा भूत् कस्यचिदित्यतश्चतुर्ग्रहणं क्रियत इति। तथा यचोक्तम्-भिन्नया विभक्त्या चरणपदं केन कारणेनोपन्यस्तं, तत्रैतत् प्रयोजनम्, चरणकरणानुयोग एवा नाऽधिकृतप्राधान्यख्यापनार्थ भिन्नया विभक्त्या उपन्यास इति / तथा धर्मगणितानुयोगी एकविभक्त्योपन्यस्तौ,अत्र प्रक्रमे अप्रधानावेताविति। तथा द्रव्यानुयोगे च भिन्नविभक्त्योपन्यासे प्रयोजनम्। अयं हि एकैकानुयोगे मीलनीयः, न पुनर्लोकिक-शास्त्रवद् युक्तिभिर्विचारणीय इति / तथाऽनुयोगे शब्दद्वयोपन्यासे प्रयोजनमुच्यते। यत् त्रयाणां पदानामन्तेऽनुयोगपदमुपन्यस्तं तदपृथक्त्वाऽनुयोगप्रतिपादनार्थम्, यच्च द्रव्यानुयोग इति तत्पृथक्त्वानुयोगप्रतिपादनार्थमिति / एवं व्याख्याते सत्याह परः इह गाथाः, तत्र पर्यायत इदमुक्तम्-'यथाक्रमं ते महर्द्धिकाः' इति। एवं तर्हि चरणकरणानुयोगस्य लघुत्वं, तत्किमर्थं तस्य नियुक्तिः क्रियते ? अपि तु द्रव्यानुयोगस्य युज्यते कर्तुम्, सर्वेषामेव प्रधानत्यात् / एवं चोदकेनाऽऽक्षेपे कृते सत्युच्यतेसविसयबलवत्तं पुण, जुज्जइ तह वि य महड्डियं चरणं। चारित्तरक्खणट्ठा, जेणियरे तिन्नि अणुओगा ||8|| स्वश्वाऽसौ विषयश्च स्वविषयः, तस्मिन् स्वविषये, बलवत्त्वं पुनर्युज्यते घटते। एतदुक्तं भवति-आत्माऽऽत्मीयविषये सर्व एव बलवन्तो वर्तन्त इति / एवं व्याख्याते सत्यपरस्त्वाह- यद्येवं सर्वेषामेव नियुक्तिकरणं प्राप्तम्, आत्माऽऽत्मीयविषये सर्वेषामेव बलवत्त्वात्, तथापि चरणकरणानुयोगस्य न कर्त्तव्येति। एवं चोदकेनाऽऽशङ्किते सत्याह गुरु:(तह वि य महड्डियं चरणं) तथाऽप्येवमपि स्वविषये बलवत्त्वेऽपि सति महर्द्धिकं चरणमेव, शेषानुयोगानां चरणकरणानुयोगार्थमेवोपादानतः पूर्वोऽत्यन्तसंरक्षणार्थ पूर्वप्रति-पत्त्यर्थं च / शेषाऽनुयोगा अप्यैवंवृत्तिभूताः / यथा हि कर्पूरखण्डार्थं वृत्तिरुपादीयते, तत्र हि कर्पूरखण्ड प्रधानं न पुनर्वृत्तिः / एवमत्राऽपि चारित्ररक्षणार्थ शेषाऽनुयोगाना-मुपन्यासः। तथा चाह-(चारित्तरक्खणट्ठा जेणियरे तिन्नि अणुओगा) चरित्रमेव चारित्रं,तस्य रक्षणं, तदर्थं चारित्ररक्षणार्थ, येन कारणेन इतर इति धर्मानुयोगादयस्त्रयोऽनुयोगा इति / एवं व्याख्याते सत्याह-कथं चारित्ररक्षणमिति चेत् तदाहचरणपडिवत्तिहेऊ,धम्मकहा कालदिक्खमाईया। दविए दंसणसुद्धी, सणसुद्धीअचरणं तु || चर्यते इति चरणं व्रतादि, तस्य प्रतिपत्तिः चरणप्रतिपत्तिः / चरणप्रतिपत्तेः हेतुः कारणं निमित्तमिति पर्यायाः। किं तदाह-धम्मकथा, दुर्गतौ प्रपतन्तं सर्वसंघातं धारयतीति धर्मः, तस्यं कथा कथनं, कथाचरणप्रतिपत्तिहेतुः धर्मकथा। तथाहिआक्षेपण्यादिधर्मकथा-ऽऽक्षिप्ताः सन्तोभव्यप्राणिनश्चारित्रं प्राप्नुवन्ति (काले दिक्खमादीय त्ति)कलनं कालः, कालसमूहोवाकालः, तस्मिन्काले, दीक्षादयः दीक्षणं दीक्षा प्रव्रज्याप्रदानम्, आदिशब्दादुपस्थापनादिपरिग्रहः / तथा च शोभनतिथिनक्षत्रमुहूर्त्तयोगादी प्रव्रज्याप्रदानं कर्तव्यम् / अतः कालानुयोगोऽप्यस्यैव Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओग 357 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुओग परिकरभूत इति (दविय त्ति) द्रव्ये द्रव्यानुयोगे किं भवतीत्यत आह(दसणसुद्धि त्ति) दर्शनं सम्यग्दर्शनमभिधीयते, तस्य शुद्धिर्निर्मलता | दर्शनशुद्धिः / एतदुक्तं भवति-द्रव्यानुयोगे सति दर्शनशुद्धिर्भवति, युक्तिभिर्यथावस्थितार्थपरिच्छेदात् / तदत्र चरणमपि युक्त्यनुगतमेव ग्रहीतव्यं, न पुनरागमादेव केवला-दित्याह-दर्शनशुद्ध्यैव / किं तदाह ? दर्शनशुद्धस्यदर्शनं शुद्धं यस्याऽसौ दर्शनशुद्धस्तस्य, चरणं चारित्रं भवतीत्यर्थः / तुशब्दो विशेषणे / चारित्रशुद्धस्य दर्शनमिति / अथवा- प्रकारान्तरेण चरणकरणानुयोगस्यैव प्राधान्यं प्रतिपद्यते / आदिभूतस्याऽपीति / तच दृष्टान्तबलेनाऽचलं भवति, नाऽन्यथेत्यतो दृष्टान्तद्वारेणाऽऽहजह रन्नो विसएसुं, वइरकणगरययलोहे य। चत्तारि आगरा खलु, चउण्ह पुत्ताण ते दिन्ना / / 10 / / यथेत्युदाहरणोपन्यासे, राज्ञो विषयेषु जनपदेषु(वइर त्ति) वज्राकरो भवति, वजाणि रत्नानि तेषामाकरः खनिर्वजाकरः / 'चिंतालोहागरिए' इत्यतः सिंहावलोकितन्यायेनाऽऽकरग्रहणं संबध्यते / एतेन कारणेन होइ हुति' स्याद् भवति क्रिया सर्वत्र मीलनीयेति। कनकं सुवर्णं तस्याऽऽकरो भवति तथा द्वितीयः / रजतं रूप्यं तद्विषयश्च तृतीय आकरो भवति / चशब्दः समुचये / अनेकभेदभिन्नरूपानाकरान् समुचिनोति (लोहे य ति) लोहम्-अयः, तस्मिन् लोहे, लोहविषयश्चतुर्थ आकरो भवति / चशब्दो मृदुकठिनमध्यलोहसमुच्चायकः 'चत्तारि' इति संख्या / आक्रियन्त एतेष्वित्याकराः, तथा च मर्यादया अभिविधिना वा क्रियन्ते वजादीनि येष्विति / खलुशब्दो विशेषणे। किं विशिनष्टि ? सविषयाः सहस्रादयश्चाऽतः पुत्रेभ्यो ददतश्चतुर्णा पुत्राणां सुतानांत इत्याकराः, दत्ता विभक्ता इत्यर्थः // 10 // अधुना प्रधानोत्तरकालं यत्तेषां, तदुच्यतेचिंता लोहागरिए, पडिसेहं कुणइ सो उ लोहस्स। वइरादीहि य गहणं, करेंति लोहस्स ते इतरे / / 11 / / लोहाऽऽकरोऽस्याऽस्तीति लोहाकरिकः तस्मिन् लोहाकरिके चिन्ता भवति-'राज्ञा परिभूतोऽहं येन ममाऽप्रधान आकरो दत्त, एवं चिन्तायां सत्यां सुबुद्धयभिधानेन मन्त्रिणाऽभिहितः-देव!मा चिन्तां कुरु, भवदीय एव प्रधान आकरो, न शेषा आकरा इति / कुत एतदवसीयते? यदि भवत्संबन्धिलोहाकरो न भवति, तदानीं शेषाऽऽकराऽप्रवृत्तिःलोहोपकरणाभावान्न प्रवृत्तिरिति / ततो निहिं भवान् कारयतु कतिचिहिनानि, यावदुपक्षयं प्रतिपद्यते तेषूपकरणजातं, पुनः सुमहार्घमपि ते लोहं ग्रहीष्यन्ते इत्यत आह-(पडिसेहमित्यादि) प्रतिषेधोदाहरणात्तं प्रतिषेधं करोत्यसौ,लोहंप्रतीतमेव,तस्य लोहस्य। तुशब्दो विशेषणेन केवलमनिहिं करोति अपूर्वोत्पादनिरोधं च / ततश्चैवंकृते शेषाकरेषूपस्करः क्षयं प्रतिप्रन्नः, ततस्तेऽवज्ञादिभिः ग्रहणं कुर्वन्ति। कस्येत्यत आह-लोहस्य / के कुर्वन्ति? इतरे वज्राकरिकादयः चशब्दात् केवलं वज्रादिभिर्हस्त्यादिभिश्च / अत्र कथानकं स्पष्टत्वान्न लिखितम्। अयं दृष्टान्तः / सांप्रतं दान्तिकयोजना क्रियते- यथाऽसौ लोहाकर आधारभूतः शेषाकराणाम्,तत्प्रवृत्तौ शेषाणामपि प्रवृत्तेः / एवमन्यत्राऽपि, चरणकरणानुयोगे सति शेषानुयोगसद्भावः / तथाहिचरणव्यवस्थितः शेषानुयोगग्रहणे समर्थो भवति, नान्यथेत्य-स्याऽर्थस्य प्रतिपादनार्थं गाथामाहएवं चरणम्मि ठिओ, करेइ गहणं विहिय इयरेसिं। एएण कारणेणं, चरणाणुओगो महड्डीओ।।१२।। एवमित्युपनयग्रन्थः (चरणम्मि ति) चर्यत इति चरणं, तस्मिन्, व्यवस्थितः करोति विधिना ग्रहणमितरेषामिति द्रव्यानुयोगादीनां, तदनेन कारणेन भवति चरणं महर्द्धिकम्, तुशब्दादन्येषां च गुणानां समर्थो भवतीति। ओ० दशा (23) कियन्तं कालं यावत्पुनरिदमपृथक्त्वमासीत्, कुतो वापुरुषविशेषादारभ्य पृथक्त्वमभूदित्याहजावंति अज्जवइरा, अपुहत्तं कालियाणुओगस्स। तेणारेण पुहत्तं, कालियसुयदिट्ठिवाए य॥२७७।। यावदार्यवैरा गुरुवो महामतयस्तावत्कालिक श्रुतानुयोगस्याऽपृथक्त्वमासीत्, तदा व्याख्यातॄणां श्रोतॄणां च तीक्ष्णप्रज्ञ-त्वात्। कालिक ग्रहणं च प्राधान्यख्यापनार्थम्, अन्यथोत्कालि-केऽपि सर्वत्र प्रतिसूत्रं चत्वारोऽपि अनुयोगास्तदानीमासन् न वेति तदाऽऽरतस्त्वार्यरक्षितेभ्यः समारभ्य कालिकश्रुते दृष्टिवादे वाऽनुयोगानां पृथक्त्वमभूदिति नियुक्तिगाथार्थः // 277|| भाष्यम्अपुहत्तथमासि वइरा, जावंतिपुहत्तमारओऽभिहिए। के ते आसि कया वा, पसंगओ तेसिमुप्पत्ती / / 278|| आर्यवैराद्यावदपृथक्त्वमासीत्, तदाऽऽरतस्तु पृथक्त्वमुक्तम् / एतस्मिंश्चाभिहिते- क एते आर्यवैराः ? कदा च ते आसन्निति विनेयपृच्छायां प्रसङ्गत आर्यवैराणामुत्पत्तिरुच्यते / इति गाथार्थः // 278 / / (एतच्चरितं तु अज्जवइर' शब्देऽत्रैव भागे 216 पृष्ठे द्रष्टव्यम्) सविशेषमाहअपुहत्ते अणुओगो, चत्तारि दुवार भासई एगो। पुहत्तऽणुओगकरणे, ते य तओ वावि वोच्छिन्ना // 27 // आर्यवैराद्यावदपृथक्त्वे सति सूत्रव्याख्यारूप एकोऽप्यनुयोगः क्रियमाणः प्रतिसूत्रं चत्वारि द्वाराणि भाषते, चरणकरणादींश्चतुरोऽप्यर्थान् प्रतिपादयतीत्यर्थः / पृथक्त्वानुयोगकरणे तु ते चरणकरणादयोऽर्थाः ततोऽपि पृथक्त्वानुयोगकरणादेव, व्यव-च्छिन्नाः, तत्प्रभृत्येक एव चरणकरणादीनामन्यतरोऽर्थः प्रतिसूत्रं व्याख्यायते, न तु चत्वारोऽपीत्यर्थः / इति नियुक्तिगाथार्थः / / 267 // अथ यैरनुयोगाः पार्थक्येन व्यवस्थापितास्तेषामार्यरक्षितसूरी__णामुत्पत्तिमभिधित्सुर्भाष्यकारः सम्बन्धगाथामाहकिं वइरेहिं पुहत्तं, कयमह तदनंतरेहिँ भणियम्मि / तदणंतरेहिं तदभिहि-यगहियसुत्तत्थसारेहिं // 280 / / विनेयः पृच्छति-नन्वर्यवैराद्यावदपृथक्त्वमित्युक्तं ततः किमार्य वैरैरेव? कृतं तत्, किं वा तदनन्तरैरार्यरक्षितसूरिभिरित्येवमुभयथा-ऽपि यावच्छब्दार्थोपपत्तेः / इति शिष्येण भणिते गुरुराह-तदनन्तरैरेवार्यरक्षितसूरिभिरनुयोगानां पृथक्त्वमकारि। कथं- भूतैस्तैः ? आर्यवरेणाऽभिहितः प्रतिपादितो गृहीतः सूत्रार्थसारो यैस्ते तथा, तैरार्यवैरसमीपेऽधीतसूत्रोभयरित्यर्थः / इति गाथार्थः / / 280|| पुनरपि कथंभूतैः किं नामकैश्च तैरित्याहदेविंदवंदिएहिं, महाणुभावेहिँ रक्खियजेहिं। जुगमासज्ज विभत्तो, अणुओगो तो कओ चउहा।।२८१।। देवेन्द्रवन्दितैर्महानुभावैरार्यरक्षितैः दुर्बलिकपुष्पमित्रं Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओग ३५८-अभिधानराजेन्द्रः- भाग 1 अणुओगदार प्राज्ञमप्यतिगुपिलतयाऽनुयोगस्य विस्मृतसूत्रार्थमवलोक्य वर्तमानकाललक्षणं युगं चाऽऽसाद्य प्रवचनहितायाऽनुयोगो विभक्तः, पृथक्-पृथक् व्यवस्थापितः / ततश्चतुर्धा कृ तश्चतुर्थकालिक श्रुतादिज्ञानेषु नियुक्तम् / इति नियुक्तिगाथार्थः॥२८॥ "माया य रुदसोमा" इत्यादि पूर्वं मूलावश्यकटीकास्थलेखादार्यरक्षितकथानकमयसेयमिति।(एतच'अजरक्खिय' शब्देऽत्रैव भागे 212 पृष्ठे विन्यस्तं द्रष्टव्यम्) भाष्यकारोऽपि "देविंदवंदिएहिमित्यादि" गाथाभावार्थमाहनाऊण रक्खियजो, मइमेहाधारणासमग्गं पि। किच्छेण धरेमाणं, सुयण्णवं पूसामित्तं पि॥ अइसयकयउवओगो, मइमेहाधारणाइपरिहीणो। नाऊणमेसपुरिसे, खेत्तंकालाणुरूवं च // साणुम्गहोऽणुओगे, वीसुं कासीय सुयविभागेण। सुहगहणाइनिमित्तं, नए वि सुनिगूहिय विभागो॥ स देवेन्द्रवन्दितःश्रीमानार्यरक्षितसूरिर्निजशिष्यं दुर्बलिका पुष्पमित्रमपि कृच्छ्रेण श्रुतार्णवं धारयन्तं ज्ञात्वा विनेयवर्गे सानुग्रहो वक्ष्यमाणकालिकादिश्रुतविभागेन विष्वक् पृथक् चरणकरणाद्यनुयोगानकार्षीदिति सम्बन्धः / कथंभूतं दुर्बलिकापुष्पमित्रम् ? मतिमेधाधारणासमग्रमपि / तत्र'मनु बोधने' मननं मतिरेव, बोधशक्तिः मेधा, धारणा अवधारणाशक्तिः, ताभिः समग्र युक्तमपि, तथाऽतिशयज्ञानकृतोपयोगतया एष्यान् भविष्यतः पुरुषांश्च ज्ञात्वा, कथंभूतान् ? मतिमेधाधारणादि-परिहीणान्, तथा क्षेत्रकालानुरूपं च ज्ञात्वा, न केवलमनुयोगान् पृथगकार्षीत्, तथा नयांश्च नैगमादीन्, अकार्षीदिति वर्तते / कथंभूतान् ? सुष्ठु अति शयेन निगूहितो व्याख्यानिरोधेन छन्नीकृतो विभागो व्यक्त-तापादानरूपो येषां ते निगूहितविभागास्तांस्तथाभूतान् / किमर्थ-म् ? सुखग्रहणादिनिमित्तम् / आदिशब्दाद्धारणादिपरिग्रहः / विशे०। (चरणकरणाधनुयोभेदेनानुयोगचातुर्विध्यमार्यरक्षित-सूरिभिः कृतमिति 'अज्जरक्खिय' शब्देऽत्रैव भागे 214 पृष्ठेदर्शितम्, इहाऽपि उपयुक्तो भागो दर्शितः) अनुरूपोऽनुकूलो वा योगोऽनुयोगः / सूत्रस्य स्वेनाभिधेयेन सार्द्धमनुरूपसंबन्धे तद्पे दृष्टिवादान्तर्गतेऽधिकारे, सास्था०ासच द्विधा से किं तं अणुओगे ? अणुओगे दुविहे पण्णत्ते / तं जहामूल-पढमाणुओगे, गंडियाणुओगे य॥ स च द्विधा-मूलप्रथमानुयोगः,गण्डिकानुयोगश्च / इह मूलं धर्मप्रणयनात्तीर्थकरास्तेषां प्रथम सम्यक्त्वावाप्तिलक्षणपूर्वभवादिगोचरोऽनुयोगो मूलप्रथमानुयोगः / इक्ष्वाक्वादीनां पूर्वापरपरिच्छिन्नो मध्यभागो गण्डिका, गण्डिके व गण्डिका, एकार्थाधिकारा ग्रन्थिपद्धतिरित्यर्थः / तस्यानुयोगो गण्डिकानुयोगः।नं०स०(प्रथमानुयोगगण्डिकानुयोगयोाख्या स्व-स्वस्थाने द्रष्टव्या) णुओगगअ-पुं०(अनुयोगगत) अनुयोगः प्रथमानुयोगः, तीर्थकरादि पूर्वभवादिव्याख्यानग्रन्थः, गण्डिकाऽनुयोगश्च भरतनरपतिवंशजाताना निर्वाणगमनानुत्तरविमानगमनवक्त-व्यताव्याख्यानग्रन्थ इति द्विरूपेऽनुयोगे गतोऽनुयोगगतः / दृष्टि-वादांशभेदे दृष्टिवादान्तर्गतेऽधिकारे, अवयवे समुदायोपचाराद्दृष्टिवादेच। स्था०१०ठा० अणुओगगणाणुण्णा-स्त्री०(अनुयोगगणानुज्ञा) अनुयोगोऽर्थ व्याख्यानम्, गणो गच्छः, तयोरनुज्ञाऽनुमतिः। ध०३ अधिक। अनुयोगगणयोः प्रवचनोक्तेन विधिना स्वतन्त्रानुज्ञाने, पं०व०१ द्वा० / अणुओगतत्तिल्ल-त्रि०(अनुयोगतृप्त) अनुयोगग्रहणैकनिष्ठे, बृ० 1 उ० अणुओगत्थ-पुं०(अनुयोगार्थ) व्याख्यानभूतेऽर्थे, आचा०१ श्रु० १अ०१ उ०। अणुओ गदायय-पुं०-स्त्री०(अनुयोगदायक) सुधर्मस्वामिप्रभृतावनुयोगदायिनि, "वंदित्तु सव्वसिद्धे, जिणे य अणु-ओगदायए सव्वे / आयारस्स भगवओ, नितिं कि राइस्सामि" ||1|| आचा०१श्रु०१ अ०१ उ० अणु ओगदार-न०(अनुयोगद्वार) ब०व०! अध्ययनार्थकथनविधिरनुयोगः / द्वाराणीव द्वाराणि, महापुरस्येव सामायिकस्याऽनुयोगार्थं व्याख्यानार्थ द्वाराण्यनुयोगद्वाराणि / उपक्रमादिषु व्याख्यानप्रकारेषु, अत्र नगरदृष्टान्तं वर्णयन्त्याचार्याः / अनु०। उत्त०। यथा हि अकृतद्वारं नगरं नगरमेव न भवति, कृतैकद्वारमपि हस्त्यश्वरथजनसंकुलत्वाद् दुःखसंचार कार्यातिपत्तये च जायते, कृतचतुर्मूलप्रतोलीद्वारं तु सप्रतिद्वारं मुखनिर्गमप्रवेश कार्या-नतिपत्तये च। सामायिकपुरमप्यर्थाधिगमोपायद्वारशून्य-मशक्याधिगमं भवति , कृतैकानुयोगद्वारमपि कृच्छ्रेण द्राधीयसा च कालेनाधिगम्यते, विहितसप्रभेदोपक्रमादिद्वारचतुष्टयं सुखा-धिगममल्पीयसा च कालेनाऽधिगम्यते, ततः फलवान्-नुयोगद्वारोपन्यासः। उक्तंचअणुओगद्दाराई, महापुरस्सेव तस्स चत्तारि। अणुओगो ति तदत्थो, दाराई तस्स उ मुहाई।।१।। अकयद्दारमनगरं, कयेगदारं पि दुक्खसंचारं। चउमूलद्दारं पुण, सप्पडिदारं सुहाहिगमं // 2 // सामाइयपुरमेवं, अकयद्दारं तहेगदारं वा / / दुरहिगमं चउदारं, सप्पडिदारं सुहाहिगमं // 3 // आ०म०प्र०ा विशे० स्था०ा आचा (चत्वारि अनुयोगद्वाराणि अणुओग' शब्दे 355 पृष्ठे ऽनुपदमेवोक्तानि) नन्वादौ उपक्रमः, तदनन्तरं निक्षेपः, तदनन्तरं चानुगमः, ततोऽप्यनन्तरं नय इत्यमीषामनुयोगद्वाराणामित्थं क्रमोपन्यासे किं प्रयोजनमित्याशक्य 'कमप्पओअणाइं च वच्छा' इत्यष्टमं क्रमप्रयोजनद्वारमभिधित्सुराहदारक्कमोऽयमेव उ, निक्खिप्पइ जेण नासमीवत्थं / अणुगम्मइ नाणत्थं, नाणुगमो नयमयविहूणो / संबंधोवकमओ, समीवमाणीय नत्थनिक्खेवं। सत्थं तओऽणुगम्मइ, नएहि नाणाविहाणेहिं॥ एषामनुयोगद्वाराणामयमेवोपन्यासक्रमः, येन नाऽसमीपस्थमनुपक्रान्तं निक्षिप्यते, न च नामादिभिरनिक्षिप्तमर्थ-तोऽनुगम्यते, नाऽपि नयमतविकलोऽनुगमनियतश्च / संबन्धरूप उपक्रमः संबन्धोपक्रमस्तेन संबन्धका उपक्रमेण समीपमानीय न्यासयोग्य विधाय न्यस्तनिक्षेप विहितनामस्थापनादिनिक्षेपं सच्छास्त्रं, ततोऽर्थतोऽनुगम्यते व्याख्यायते नानाविधानै नामे-दैनयस्तस्मादयमेवानुयोगद्वारुमइति क्रमप्रयोजनद्वार समाप्त-मिति ।ओ० नंगाबृतानि चूकाव्याआ०म०द्विणस्या०। कर्म०| सत्पदप्ररूपणतादिषु, विशे० 'संतपयपरूवणया दव्व Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओगदार 359 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुकंप पमाणं च' इत्याद्यनुयोगद्वाराणामन्यतरदेकमनुयोगद्वारमुच्यते। कर्म०१ कर्म०। तत्स्वरूपप्रतिपादकाध्ययनविशेषोऽभेदोपचारादनुयोगद्वाराणीत्युच्यते। पा० उत्कालिकश्रुतविशेषे, नं० अस्यादावेतट्टीकाकृतसम्यक्सुरेन्द्रकृत संस्तुतिपादपद्ममुद्दामकामकरिराजकठोरसिंहम् / सद्धर्मदेशकवरं वरदं नतोऽस्मि, वीरं विशुद्धतरबोधनिधिं सुधीरम् / / 1 / / वसन्ततिलका अनुयोगभृतां पादान, वन्दे श्रीगौतमादिसूरीणाम्। निष्कारणबन्धूनां, विशेषतो धर्मदातृणाम् // 2 // यस्याः प्रसादमतुलं,संप्राप्य भवन्ति भव्यजननिवहाः। अनुयोगवेदिनस्तां, प्रयतः श्रुतदेवतां वन्दे / / 3 / / इहातिगम्भीरमहानीरधिमध्यनिपतितानय॑रत्नमिवातिदुर्लभं प्राप्य मानुषं जन्म ततोऽपिलब्ध्वा त्रिभुवनैकहितश्रीमज्जिन-प्रणीतबोधिलाभं समासाद्य विरत्यनुगुणपरिणामं प्रतिपद्य चरणधर्ममधीत्य विधिवत् सूत्रं समधिगम्य तत्परमार्थ विज्ञाय स्वपरसमयरहस्यं तथाविधकर्मक्षयोपशमसंभाविनीं चाऽवाप्य विशदप्रज्ञां जिनवचनानुयोगकरणे यतितव्यम्, तस्यैव सकल-मनोऽभिलषितार्थसार्थसंसाधकत्वेनयथोक्तसमग्र- . सामग्रीफलत्वात् / स चाऽनुयोगो यद्यप्यनेकग्रन्थ विषयः संभवति, तथाऽपि प्रतिशास्त्र प्रत्यध्ययनं प्रत्युद्देशकं प्रतिवाक्यं प्रतिपदं चोपकारि-त्वात्प्रथममनुयोगद्वाराणामसौ विधेयः / जिनवचने ह्याचारादिश्रुतं प्रायः सर्वमप्युपक्रमनिक्षेपानुगमनयद्वारैर्विचार्यते / प्रस्तुतशास्त्रे च तान्येवोपक्रमादिद्वाराण्यभिधास्यन्ते, अतोऽस्यानुयोगकरणे वस्तुतो जिनवचनस्य सर्वस्याप्यसौ कृतो भवतीत्यतिशयोपकारित्वात्प्रकृतशास्त्रस्यैव प्रथममनुयोगो विधेयः। स च यद्यपि चूर्णिटीकाद्वारेण वृद्धैरपि विहितस्तथापि तद्वचसामतिगम्भीरत्वेन दुरधिगमत्वाद् मन्दमतिनाऽपि मयाऽसाधारणश्रुतभक्तिजनितौत्सुक्यभावतो-ऽविचारितस्वशक्ति त्वादल्पधियामनुग्रहार्थत्वाच कर्तुमारभ्यते। अनु०॥ सोलससयाणि चतुरुत्तराणि होति उ इमम्मि गाहाणं। दुसहस्समणुठुभछंद वित्तप्पमाणओ भणिओ॥१॥ णगरमहादाराई,चउवक्कमाणुओगवरदारा। अक्खरबिंदूमत्ता, लिहिआ दुक्खक्खयट्ठाए।।२।। गाहा 1604, अनुष्टुप्छन्दसा ग्रन्थसंख्या 2005 | ग्रन्थान्तेचटीकाकृत्प्रायोऽन्यशास्त्रदृष्टः, सर्वोऽप्यर्थो मयाऽत्र संकलितः। न पुनः स्वमनीषिकया, तथापि यत्किञ्चिदिह वितथम्॥१॥ सूत्रमतिलध्य लिखितं, तच्छोध्यं मय्यनुग्रहं कृत्वा। परकीयदोषगुणयोस्त्यागोपादानविधिकुशलैः / / 2 / / छदास्थस्य हि बुद्धिः, स्खलति न कस्येह कर्मवशगस्य ? | सदबुद्धिविरहितानां, विशेषतो मद्विधाऽसुमताम्॥३॥ कृत्वा यद् वृत्तिमिमां, पुण्यं समुपार्जितं मया तेन। मुक्तिमचिरेण लभतां, क्षपितरजाः सर्वभव्यजनः // 4 // श्रीप्रश्नवाहनकुलाऽम्युनिधिप्रसूतः, क्षोणीतलप्रथितकीर्तिरुदीर्णशाखः / विश्वप्रसाधितविकल्पितवस्तुरुचैः, श्छायाशतप्रचुरनिर्वृतभव्यजन्तुः / / 5 / / वसन्ततिलका। ज्ञानादिकुसुमनिचितः, फलितः श्रीमन्मुनीन्द्रफलवृन्दैः। कल्पद्रुम इव गच्छः, श्रीहर्षपुरीयनामाऽस्ति // 6 // एतस्मिन् गुणरत्नरोहणगिरिगाम्भीर्यपाथोनिधिः, तुङ्गत्वानुकृतक्षमाधरपतिः सौम्यत्वतारापतिः। सम्यग्ज्ञानविशुद्धसंयमतपः स्वाचारचर्यानिधिः, शान्तः श्रीजयसिंहसूरिरभवन्निःसङ्गचूडामणिः // 7 / / रत्नाकरादिवैतस्माच्छिष्यरत्नं बभूव तत्। स वागीशोऽपि नामाऽन्यो, यद्गुणग्रहणे प्रभुः // 8 // श्रीवीरदेवविबुधैः, सन्मन्त्राद्यतिशयप्रवरतोयैः। द्रुम इव यः संसिक्तः, कस्तद्गुणवर्णने विबुधः?|| तथाहि-आज्ञा यस्य नरेश्वरैरपि शिरस्यारोप्यते सादरं, यं दृष्ट्वाऽपि मुदं व्रजन्ति परमां प्रायोऽपि दुष्टा अपि। यद्-वक्प्राऽम्बुधिनियंदुज्ज्वलवचःपीयूषपानोद्यतैः, गीर्वाणैरिव दुग्धसिन्धुमथने तृप्तिर्न लेभे जनैः // 10 // कृत्वा येन तपः सुदुष्करतरं विश्वं प्रबोध्य प्रभोः, तीर्थ सर्वविदः प्रभावितमिदं, तैस्तैः स्वकीयैर्गुणैः। शुक्लीकुर्वदशेषविश्वकुहरं भव्यैर्निबद्धस्पृहैः, यस्याऽऽशास्वनिवारितं विचरते श्वेताशुगौरं यशः।।११।। यमुनाप्रवाहविमल-श्रीमन्मुनिचन्द्रसूरिसंपत्।ि अमरसरितेव सकलं, पवित्रितं येन भुवनतलम्॥१२॥ विस्फूर्जत्कलिकालदुस्तरतमःसंतानलुप्तस्थितिः, सूर्येणेव विवेकिभूधरशिरस्यासाद्य येनोदयम्। सम्यग्ज्ञानकरैश्विरन्तनमुनिक्षुण्णः समुयोतितो, मार्गः सोऽभयदेवसूरिरभवत्तेभ्यः प्रसिद्धो भुवि।।१३।। तच्छिष्यलवप्रायैरवगीतार्थाऽपि शिष्यजनतुष्ट्यै। श्रीहेमचन्द्रसूरिभिरियमनुरचिता प्रकृतवृत्तिः / / 14 / / अनु० अणुओगदारसमास-पुं०(अनुयोगद्वारसमास) अनुयोगद्वाराणां व्यादिसमुदाये, कर्म०१ कर्म। अणुओगधर-पुं०(अनुयोगधर) अनुयोगिके, व्य०३ उ०। "अणुओंगधरो अप्पणो गारवाणि रिहरणत्थं सो ताराण य लज्जाणि रिहरणत्थं" आह अनुयोगकथाम्। नि०चू०२० उ०। अणुओगपर-त्रि०(अनुयोगपर) सिद्धान्तव्याख्याननिष्ठे, जी० 1 प्रतिका अणुओगाणुण्णा-स्त्री०(अनुयोगानुज्ञा) आचार्यपदस्थापनायाम्, पं०व०४ द्वा०('अणुयोग' शब्देऽत्रैवभागे 347 पृष्ठे चैतद्रूपंव्याख्यातम्) अणुओगि(ण)-पुं०(अनुयोगिन) अनुयोगो व्याख्यानं प्ररू-पणेति यावत्, सयत्राऽस्तिा व्याख्यानार्थ क्रियमाणे प्रश्नभेदे, यथा-"चउहिं समएहिं लोगो" इत्यादिप्ररूपणाय 'कइहिं समएहिं' इत्यादि। स्था०६ ठा०। आचार्य, "अणुओगी लोगाणं, किल संसयणासओ दढं होइ"। पं०व०४ द्वा०। अणुओगिय-त्रि०(अनुयोगिक) प्रव्रजिते, नं० "अणु-ओगियवरवसभे, नाइलकुलवंसनंदिकरे'' नं० अणुंधरी-स्त्री०(अणुन्धरी) द्वारवतीवास्तव्यस्याऽर्हन्मित्रस्यभार्यायाम, यस्याः पुत्रस्य जिनदेवस्य आत्मदोषोपसंहारे कथा / आव०४ अ० आ०चून अणुकंप-त्रि०(अनुकम्प) अनुशब्दोऽनुरूपार्थे, ततश्चाऽनुरूपं कम्पते चेष्टत इत्यनुकम्पः। अनुरूपक्रियाप्रवृत्तौ, उत्त०१२ अ० / ग्रन्या Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुकंप 360 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुकंपादाण *अनुकम्प्य-त्रि०ा अनुकम्पनीये, बृ०६ उ०। अणुकं पण-न०(अनुकम्पन) दुःखार्तानां बालवृद्धाऽसहायानां यथादेशकालमनुकम्पाकरणे, व्य०३ उ०।। अनुकं पधम्मसवणादिया-स्त्री०(अनुकम्पाधर्मश्रवणादिका) जीवदयाधर्मशास्त्राकर्णनप्रभृतिकायाम्, / पञ्चा०१० विव०। अणुकं पय-त्रि०(अनुकम्पक) भगवतो भक्ते, अनुकम्पायाश्च भक्तिवाचित्वम्, "आयरियऽणुकंपाए, गच्छो अणुकंपिओ महाभागो' इति वचनात् / कल्प०। आत्महिते प्रवृत्ते, स्था० 4 ठा०४ उ०। अणुकंपा-स्त्री०(अनुकम्पा) अनुकम्पनमनुकम्पा। दयायाम, निन्चू०१ उ०ा अनुकम्पा, कृपा, दयेत्येकार्थाः। ओ०। अनुकम्पा कृपा। यथा-सर्व एव सत्त्वाः सुखार्थिनो दुःखप्रहाणार्थिनश्च, ततो नैषाभल्पाऽपि पीडा मया कार्येति। ध०२ अधिकाअनुकम्पा दुःखितेष्वपक्षपातेन दुःखप्रहाणेच्छा सम्यक्त्वलिङ्गम् / पक्षपातेन तु करुणापुत्रादौ व्याघ्रादीनामप्यस्त्येवेति न तादृश्याः कृपायास्तत्त्वम् / सा चानुकम्पा द्रव्यतो भावतश्चेति द्विधा। द्रव्यतः सत्यां शक्तौ दुःखप्रतीकारेण / भावतश्चाऽऽर्द्रहृदयत्वेन। यदाह"दठूण पाणिनिवह, भीमे भवसागरम्मिदुक्खत्तं / अविसेसओऽणुकंपं, दुहा वि सामत्थओ कुणइ" ||1|| ध०२ अधि० श्रा०। प्रव०। दर्श०। संथा। अन्नादिदानरूपायाम्, ध०२ अधिक। भक्तो, आ००। (अनुकम्पया श्रुतसामायिकलाभे उदाहरणानि 'धण्णंतरि' शब्दे वक्ष्यन्ते) भक्तपानादिभिरुपष्टम्भे च, भ०८ श०८ उ०।' अनुकम्पाऽनुकम्प्ये स्यात्' अनुकम्पाऽनुकम्ये विषये, द्वा०१ द्वा०ा स्था०। अणुकं पं पडुच तओ पडिणीया पण्णत्ता / तं जहातवस्सिपडिणीए, गिलाणपडिणीए, सेहपडिणीए। अनुकम्पामुपष्टम्भं प्रतीत्याश्रित्य तपस्वी क्षपकः, ग्लानो रोगादिभिरसमर्थः, शैक्षोऽभिनवप्रव्रजितः, एते ह्यनुकम्पनीया भवन्ति, तत्करणाऽकरणाभ्यां च प्रत्यनीकतेति / अनुकम्पातो यद्दानं तदनुकम्पैवोपचाराद् / दानभेदे, उक्तं च वाचक मुख्यैरुमास्वातिपूज्यपादैः-'कृपणेऽनाथदरिद्रे, व्यसनप्राप्ते च रोगशोकहते। यद्दीयते कृपार्था-दनुकम्पात् तद्भवेद् दानम्" स्था०१० ठा। अणुकं पादाण-न०(अनुकम्पादान) अनुकम्पया कृपया दानं दीनानाथविषयमनुकम्पादानम्। स्था०१० ठा०ा रङ्कदाने, प्रतिका अनुकम्पादानं जिनैरप्रतिक्रुष्टम्अनुकम्पाऽनुकम्पे स्याद्भक्तिः पात्रे तु संगता। अन्यथाधीस्तु दातॄणामतिचारप्रसञ्जिका॥२॥ (अनुकम्पेति) अनुकम्पाऽनुकम्प्ये विषये, भक्तिस्तुपात्रेसाध्वादौ संगता स्यात् समुचितफलदा स्यात् / अन्यथाधीस्तुअनुकम्प्ये सुपात्रत्वस्य, सुपात्रे चाऽनुकम्प्यत्वस्य बुद्धिस्तु दातृणामतिचारप्रसञ्जिकाऽतिचारापादिका / अत्र यद्यपि सुपात्रत्वधियोऽनुकम्प्ये संयतादौ मिथ्यारूपतयाऽतिचारापादकत्वं युज्यते / सुपात्रेऽनुकम्प्यत्वधियस्तु न कथं चित्, तत्र ग्ला-नत्वादिदशायामन्यदाऽपि च स्वेष्टोद्धारप्रतियोगिदुःखा-श्रयत्वरूपाऽनुकम्प्यत्वधियः प्रमात्वात् / तथापि स्वापेक्षया-ऽहीनत्वेसतिस्वेष्टोद्धारप्रतियोगिदुःखाश्रयत्वरूपमनुकम्प्यत्वं तत्राऽप्रामाणिकमेवेति न दोषः / अपरे त्वाहुः- तत्र प्रागुक्तं निर्विशेषणमनुकम्प्यत्वं प्रतीयमानं साहचर्यादिदोषेण यदा हीनत्वबुद्धिं जनयति, तदैवातिचारापादाकं, नान्यदा, / अन्यथाधियोहीनोत्कृष्टयोरुत्कर्षाऽपकर्षबुद्ध्याधानद्वारैव दोषत्वात् / अत एव न चाऽनुकम्पादानं साधुषु न संभवति। "आयरियऽणु-कंपाए.गच्छो अणुकं पिओ महाभागो" इति वचनादित्यष्टकवृत्त्यनुसारेणाचार्यादिष्वप्युत्कृष्टत्वधियोऽप्रतिरोधेऽनु-कम्पाऽव्याहतेति / एतन्नये च सुपात्रदानमपि ग्रहीतृदुःखो-द्धारोपायत्वेनेष्यमाणमनुकम्पादानमेव, साक्षात्स्वेष्टोपाय-त्वेनेष्यमाणं चाऽन्यथेति बोध्यम् / / 2 / / तत्राद्या दुःखिनांदुःखोद्दिधीर्षाऽल्पासुखश्रमात्। पृथिव्यादौ जिनाऽर्चादौ,यथा तदनुकम्पिनाम् / / 3 / / (तत्रेति) तत्र भक्त्यनुकम्पयोर्मध्ये आद्याऽनुकम्पादुःखिनांदुःखार्त्तानां पुंसां दुःखोद्दिधीर्षा दुःखोद्धारेच्छा अल्पानामसुखं यस्मादेतादृशो यः श्रमस्तस्मात् / इत्थं च वस्तुगत्या बल-वदनिष्टाननुबन्धी यो दुःखिदुःखोद्धारस्तद्विषयिणी स्वस्येच्छा-ऽनुकम्पेति फलितम् / उदाहरति, यथा-जिनार्चादौ कार्ये पृथिव्यादौ विषये तदनुकम्पिनामित्थंभूतभगवत्पूजाप्रदर्शनादिना प्रतिबुद्धाः सन्तः षट्कायान् रक्षन्त्यिति परिणामवतामित्यर्थः / यद्यपि जिनार्चादिक भक्त्यनुष्ठानमेव, तथापि तस्य सम्यक्त्वशुद्ध्य-र्थत्वात्तस्य चाऽनुकम्पालिङ्गकत्वात्तदर्थकत्वमप्यविरुद्धमेवेतिपञ्चलिङ्गचादावित्थं व्यवस्थितेरस्माभिरप्येवमुक्तम् // 3 // अल्पासुखश्रमादित्यस्य कृत्यमाहस्तोकानामुपकारः स्यादारम्भाद्यत्र भूयसाम्। तत्रानुकम्पान मता, यथेष्टापूर्तकर्मसु // 4 // (स्तोकानामिति) स्पष्टम्, नवरम्, इष्टापूर्तस्वरूपमे तत्"ऋत्विग्भिर्मन्त्रसंस्कारैर्ब्राह्मणानां समक्षतः। अन्तर्वे द्यां हि यद्दत्तमिष्टं तदभिधीयते / / 1 / / वापीकू पतडागानि, देवताऽऽयतनानि च / अन्नप्रदानमेतत्तु, पूर्त तत्त्वविदो विदुः" // 2 // नन्वेवं कारुणिकदानशालादिकर्मणोऽप्युच्छेदापत्तिरित्यत आहपुष्टालम्बनमाश्रित्य, दानशालादि कर्म यत्। तत्तु प्रवचनोन्नत्या, बीजाधानादिभावतः।।५।। (पुष्टालम्बनमिति) पुष्टालम्बनं सद्भावकारणमाश्रित्य यद्दा-नशालादि कर्म प्रदेशिसंप्रतिराजादीनां, तत्तु प्रवचनस्य प्रशंसा-दिनोन्नत्या बीजाऽऽधानादीनां भावतः सिद्धेर्लोकानाम् // 5 // बहूनामुपकारेण, नानुकम्पा निमित्तताम्। अतिक्रामति तेनाऽत्र, मुख्यो हेतुःशुभाशयः॥६॥ (बहूनामिति) ततो निर्वृतिसिद्धर्बहूनामुपकारेणानुकम्पा निमित्तता नातिक्रामति, तेन कारणेनाऽत्राऽनुकम्पोचितफले, मुख्यः शुभाशयो हेतुः / दानं तु गौणमेव, वेद्यसंवेद्यपदस्थ एव तादृगाशयपात्रं, तादृगाशयानुगम एव च निश्चयतोऽनुकम्पेति फलितम्।।६।। एतदेव नयप्रदर्शनपूर्वं विवेचयतिक्षेत्रादिव्यवहारेण, दृश्यते फलसाधनम्। निश्चयेन पुनर्भावः, केवलः फलभेदकृत् // 7 // व्यवहारेण पात्रादिभेदात्फलभेदो, निश्चयेन तु भाववैचित्र्या देवेति तत्त्वम् // 7 // कालाऽऽलम्बनस्य पुष्ट त्वं स्पष्टयितुमाह Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स०| अणुकंपादाण 361 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुकप्प कालेऽल्पमपि लाभाय, नाऽकाले कर्म बहपि। पच्छा अरमणिज्ने भविजासि'' इत्यादि। ध०२ अधि०| वृष्टौ वृद्धिः कणस्याऽपि, कणकोटितथाऽन्यथा॥६|| दाणं अणुकंपाए, दीणाणाहाण सत्तिओ णेयं / (काल इति) स्पष्टम् / / 8 / / तित्थंकरणातेणं, साहूण य पत्तबुद्धीए॥६॥ अवसराऽनुगुण्येनाऽनुकम्पादानस्य प्राधान्यं भगवदृष्टान्तेन दानं वितरणमन्नादेरनुकम्पया दयया दीनानाथेभ्यः, तत्र दीनाः समर्थयितुमाह क्षीणविभवत्वाद् दैन्यप्राप्तास्त एव सानाथ्यकारिरहिता अनाथाः, धर्माङ्गत्वं स्फुटीकर्तुं, दानस्य भगवानपि। अतस्तेभ्यः शक्तितो वित्तगतं सामर्थ्यमाश्रित्येत्यर्थः, ज्ञेयं ज्ञातव्यम्। अत एव व्रतं गृह्णन्, ददौ संवत्सरं वसु ||6|| अथ दीनादीनामसंयतत्वात् तदानस्य दोषपोषकत्वादसंगतं (धर्माङ्गत्व मिति) अत एव कालेऽल्पस्यापि लाभार्थत्वादेव, तद्दानमित्याशङ्क्याऽऽह-तीर्थकरज्ञातेन जिनोदाहरणेन / तथाहिदानस्याऽनुकम्पादानस्य, धर्माङ्गत्वं स्फुटीकर्तुं भगवानपि व्रतं गृह्णन् संगतंदीनादिदानं, प्रभावनाङ्गत्वाद् जिनस्यैव / अथवा तीर्थकरन्यायेन संवत्सरं वसु ददौ / ततश्च महता धर्माऽवसरे तुष्टितं सर्वस्याऽप्य निर्विशेषतयेत्यर्थः, तीर्थकरप्रमाणतो वा / तथाहि-न वस्थौचित्ययोगेन धर्माङ्गमिति स्पष्टीभवतीति भावः। तदाह दीनादिदानमविधेयं, जिनाचरितत्वाद्, महाव्रतानुपालनवदिति / धर्माङ्गख्यापनार्थं च,दानस्यापि महामतिः। दीनादीनामनुकम्पया तावद्दानम् / अथ साधूनामपि किं तथैवेत्याअवस्थौचित्ययोगेन, सर्वस्यैवानुकम्पया इति || शङ्कायामाह-साधूनां च संयतेभ्यः पुनः पात्रबुद्ध्या ज्ञानादिगुणनन्वेवं साधोरप्येतदापत्तिरित्यत आह रत्नभाजनमेतदिति धिया भक्त्येति गाथार्थः / / 6 / / पञ्चा०६ विव०। साधुनाऽपि दशाभेदं, प्राप्यैतदनुकम्पया। अणु कं पासय-पुं०(अनुकम्पाशय) अनुकम्पाप्रधानमाशदत्तं ज्ञानाद् भगवतो, रङ्कस्येव सुहस्तिना॥१०॥ योऽनुकम्पाशयः / अनुक्रोशप्रधाने चित्ते, स०) "अणुकंपा सयप्पओगतिकालमइविसुद्धभत्तपाणाई" अनुकम्पा अनुक्रोशसाधुनाऽपि महाव्रतधारिणाऽपि दशाभेदं प्राप्य पुष्टालम्बनन स्तत्प्रधान आशयश्चित्तं तस्य प्रयोगो व्यावृत्तिरनुकम्पाशय-प्रयोगस्तेन माश्रित्यैतद्वानमनुकम्पया दत्तं सुहस्तिनेव रङ्कस्य तदाऽऽह / श्रूयते चाऽऽगमे-आर्यसुहस्त्याचार्यस्य रङ्कदानमिति ! कुत इत्याह- भगवतः श्रीवर्द्धमानस्वामिनो ज्ञानात् / तदुक्तम्- ज्ञापकं चाऽत्र भगवान्, अणुकंपि(ण)-स्त्री०(अनुकम्पिन्) अनुकम्पयमाने तच्छीले, सूत्र० निष्क्रान्तोऽपि द्विजन्मने। देवदूष्यं ददद्धीमान्, अनुकम्पाविशेषतः॥१।। 1 श्रु०३ अ०३ उ०। कृपावति, प्रति०। इति / प्रयोगश्चाऽत्रदशाविशेष यतेरसंयताय दानमदुष्टम् , अणुकडि-स्त्री०(अनुकृष्टि) अनुकर्षणमनुकृष्टिः / अनुवर्त्तने, पं०सं० अनुकम्पानिमित्तत्वाद्, भगवद्विजन्मदानवदित्याहुः / / 10 / / ५द्वा०।(अनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानां तीव्रमन्दता परिज्ञानार्थमन चाऽधिकरणं ह्येतद्विशुद्धाशयतो मतम्। नुभागबन्धाध्यवसायस्थानानामनुत्कृष्टिः 'बन्ध' शब्दे वक्ष्यते) अपि त्वन्यद् गुणस्थानं, गुणाऽन्तरनिबन्धनम् // 11 // अणुकड्डेमाण-त्रि०(अनुकर्षत्) अनु पश्चात् कर्षन् अनुकर्षन् / पृष्ठतः (न चेति) न चैतत्कारणिक यतिदानमधिकरणं मतम्। अधि-क्रियते पश्चात् कृत्वा समाकर्षति, नंग आत्माऽनेनाऽसंयतसामर्थ्य पोषणत इत्यधिकरणम् / कुत इत्याह? | अणुकप्प-पुं०(अनुकल्प) ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवृद्धानांपूर्वा-चाऽऽर्याणां विशुद्धाशयतोऽवस्थौचित्येनाऽऽशयविशुद्धः, भावभेदेन कर्मभेदात् / ज्ञानग्रहणेन च तपोविधानेषु च अनुकृतिकरणे, पं०चू०। अनर्थासंभवमुक्तार्थप्राप्तिमप्याह-अपि त्विति अभ्युचये / .................एत्तो वोछं अणूकप्पं / अन्यदधिकृतगुणस्थानकाद् मिथ्यादृष्टित्वादेर परमविरतसम्य अणुसद्दो भूतहियं, पच्छाभावे मुणेयव्वो। ग्दृष्ट्यादिकं गुणानां ज्ञानादीनां स्थानं मतं, गुणाऽन्तरस्य णाणचरणड्डगाणं, पुव्वायरियाण अणुकित्ति। सर्वविरत्यादेर्निबन्धनम्॥१।। द्वा०१ द्वा०। कुणइ अणुगच्छइ गुणधारी अणुकप्पं तं वियाणाहि।। नेव दारं पिहावेइ, मुंजमाणो सुसावओ। गुणसयसहस्सकलियं, गुणंतरं च अभिलसंताणं / अणुकंपा जिणिंदेहिं, सडाणं न निवारिआ ||1|| जे खेत्तकालभावा, आसज्जा जोगहाणिभवे / / दुठूण पाणिनिवहं, भीमे भवसायरम्मि दुक्खत्तं / गुणसतकालिअसंजमो, मोक्खो य गुणंतरो मुणेयव्वो। नाणाइसु परिहाणी, तु जोगहाणी मुणेयव्यो।। अविसेसओऽणुकंप, दुहा वि सामत्थओ कुणइ॥२॥ खेत्ताण संति अद्धाण उच्चक्खेत्तम्मि काल दुब्भिक्खे। (दुहा वि त्ति) द्रव्यभावाभ्यां द्विधा / द्रव्यतो यथा- अन्नादिदानेन, भावे गेलण्हादी, सुद्धाभावे उजदसुद्धं / / भावतस्तु धर्ममार्गप्रवर्तनेन, श्रीपञ्चमाङ्गादावपि श्राद्धवर्णना-ऽधिकारे गेण्हेज्जाऽऽहारादी, णाणादिसु उज्जमण कुज्जा। 'अवंगुदुवारा' इत्युक्तम् / श्रीजिनेनाऽपि सांवत्सरिकदानेन दीनोद्धारः अणसणमादीय तवं, अकरेमाणस्स साहुस्स। कृत एव, न तु केनाऽपि प्रतिषिद्धेः // 2 // एगंतणिज्जरा से,जह भणिता सासणे जिणवराणं। सव्वेहिं पिजिणेहिं, दुञ्जयतियरागदोसमोहेहिं। जोगनियुत्तमतीणं, सुहसीलाणं तवोच्छेदो। अणुकंपादाणं सड्ढयाण न कहिं विपडिसिद्धं // 3 // सुहसीलदुट्ठसीला, तेसिं अफ्फासु गेण्हमाणाणं। न कस्मिन् सूत्रे प्रतिषिद्धं, प्रत्युत देशनाद्वारेण राजप्रथीयोपाङ्गे जं आवजे तहियं, तवं च छेदं च तं पावे |पं०मा०। केशिनोपदेशितम्। तथाहि-"मा णं तुम पएसी पुट्विं रमणिज्जे भवित्ता | इयाणिं अणुकप्पो-(गाहा) (नाणचरणड्डत्ति) जो Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुकंप्प 362- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुगम नाणदरिसणंचरित्ततवऽऽडगाणं पुवायरियाणं नाणग्गहणेण य तत्वाद्वाऽनुत्कषायी / सर्वधनादित्वादिनिः / सत्कारादि क-मकुर्वते तवोविहाणेसु य अणुकिई करेइ, सो अणुकप्पो / (गाहा) ऽकुप्यति, तत्संपत्तौ वाऽनहंकारवति, उत्त०३ अ०॥ (गुणसय त्ति) जा पुण गुणसयसहस्सकलियाणं, अलंकृ *अणुकषायिन-त्रि० अणवः स्वल्पाः संज्वलननामान इति यावत् / तानामित्यर्थः / गुणंतरं चेव अभिलसंताणं नाणाइसु परिहाणी कषायाः क्रोधादयोऽस्येति सर्वधनत्वादिनिप्रत्ययेऽणुकषायी / होजा, खेत्ते अद्धाणाइसु, काले ओमाइसु, भावे प्राकृतत्वात् ककारस्य द्वित्वम् / संज्वलनकषायविशिष्टे, उत्त० गिलाणाइसु ।(गाहा) एगंतनिजरा तहेव तेसिं एगंतनिज्जरा चेव। 15 अ०॥ यथा-भगवभिरुपदिष्टं प्रणीतमित्यर्थः / जो पुण *अनुत्कषायिन-त्रि० उत्कषायी प्रबलकषायी, न तथा अनुसंजमजोगनियतमई चंदउनिया सिरी सुहसीलो दुट्ठसीलो त्ति त्कषायी। अप्रबलकषाये, उत्त०१५ अ०। सत्कारादिना हर्षरहिते, भणइ तेसिं तवोच्छेओ वा / एस अणुकप्पो। "अणुक्कसाई अप्पिच्छे अन्नाए सीअलोलुए" उत्त०२ अ०॥ अणुकरण-न०(अनुकरण) सीवनलेपनादि कुर्वन्तं दृष्ट्वा बूते- | अणकस्स-पं०(अनुत्कर्षवत) अष्टमदस्थानानामन्यत मेनाऽप्युत्सेकमइच्छाकारेण तवेदमहं करिष्यामीत्युक्त्वा तथा करणे, व्य०१ उ०।। कुर्वति, सूत्र०१ श्रु०२ अ०१ उ०। "अणुक्कस्से अप्पलीणे, मज्झेण अणुकरणकारावणणिसग्ग-पुं०(अनुकरणकारापणनिसर्ग) अनुकरणं मुणिजावए'। सूत्र०१ श्रु०२ अ०१ उ०। नाम यत्सीवनलेपादि कुर्वन्तं दृष्ट्वा ब्रूते-इच्छाकारेण तवेदमहं अणुक्कोस-पुं०(अनुत्कर्ष) आत्मनः परेभ्यः सकाशाद् गुणैरुकरिष्यामि ? कुरुते च / कारापणं तद् यत्स्वयं करणे त्कर्षणमुत्कृष्टताभिधानम् / गौणमोहनीयकर्मणि, भ०१२ श० कुशलोऽन्यानपीच्छाकारेण कारापयति, तस्मिन् निसर्गः स्वभावो यस्य 5 उ० स०। आत्मगुणाभिमाने, स्था०४ ठा०४ उ०। सोऽनुकरणकारापणनिसर्गः, इत्थंभूतस्तस्य स्वभावो यदि अनभ्यर्थित *अनुक्रोश-पुं० दयायाम, स्था०४ ठा०४ स०|| एव करोति, कारयतीति भावः। अनभ्यर्थनेनैव कुर्वन्ति, कारयन्ति च। भावसङ्ग्रहविशेषे, व्य०३ उ०। अणुक्खित्त-त्रि०(अनुक्षिप्त) पश्चादुत्पाटिते, "अणुक्खित्तंसि धूगंसि''। ज्ञा०८ अ० अणुकहन-न०(अनुकथन) आचार्यप्ररूपणातः पश्चात् कथने, सूत्र० अणुगंतव्व-त्रि०(अनुगन्तव्य) अनुसर्तव्ये, स्था०५ ठा०१ उ०। 1 श्रु०१३ भा अणुकारि(ण)-त्रि०(अनुकारिन) अनुकरोति। अनु+कृणिनि / स्त्रियां अणुगच्छण-न०(अनुगमन) आगच्छतः प्रत्युद्गमनरूपे काय विनयभेदे, दश०१ अ०। डीप् / गुणक्रियाऽऽदिभिः सदृशीं कारके, वाच० / विव-क्षितवस्तुनः अणुगच्छमाण-त्रि०(अनुगच्छत्) अनुवर्तमाने, "अणु-गच्छमाणे वि सदृशे, अष्ट०७ अष्टा अणुकुइय-त्रि०(अनुकुचित) अनुक्षिप्ते, नि०चू०८ उ०। तहं विजाणे, तहातहा साहू अकक्कसेणं'। सूत्र०१ श्रु०१४ अ०। आचा०। अणुगम-पुं०[अनु(णु)गम] अनुगमनमनुगमः, अनुगम्यतेअणुकुडु-अव्य०(अनुकुड्य) अनुशब्दस्य समीपार्थद्योतकत्वात्, ऽनेनास्मिन्नस्मादिति वाऽनुगमः / सूत्राऽनुकूले परिच्छेदे, स्था०१ ठा०। अनुकुड्यमुपकुड्यम् / बृ३ उ०। कुड्यसमीपवर्तिनि प्रदेशे, बृ० निक्षिप्तसूत्रस्य अनुकूले परिच्छेदे, अर्थे, कथने च / ज०१ वक्षः। ३उन सूत्रस्यानुरूपेऽख्यिाने, व्य०१ उ०। आ०म०प्र०। आचा। अणुकूल-त्रि०(अनुकूल) अनुलोमे, आचा०१ श्रु०३ अ०४ उ० ।स्था०। संहितादिव्याख्यानप्रकारप्ररूपे, उद्देशनिर्देशनिर्गमादिद्वारकलापके वा। निका अनुरूपे, आ०म०प्र०) "अणुकूलेणं धण्णे कुमार-बंभचारी''। स०। अनुयोगद्वारे, अनु०। आव०४ अ० अप्रतिकूले, प्रश्न०४ संव०द्वा०। आचार्याणामन्येषां वा अथाऽनुगमनिरुक्तिमाहपूज्यानां वैयावृत्त्यादिना हितकारिणि उत्सारकल्पिकयोग्यतावति, बृ०१ अनुगम्मइ तेण तहिं, तओ व अणुगमणमेव वाऽणुगमो। उन अणुणोऽणुरूवओ वा, जं सुत्तत्थाणमणुसरणं / / अणुकू लवयण-न०(अनुकूलवचन) अप्रतिकूलवचने, यथा हे अनुगम्यते व्याख्यायते सूत्रमनेनाऽस्मिन्नस्माद्वा इत्यनुगमः महाभाग ! नेदं तवोचितं वक्तुं कर्तुं वेति। दर्शन वाच्यार्थविवक्षा तथैव / अथवा अनुगमनमेवाऽनुगमः। अणुओवा सूत्रस्य अणुकूलवाय-पुं०(अनुकूलवात) आध्रायकविवक्षिते पुरुषाणां पवने, गमो व्याख्यानमित्यनुगमः। यदि वाअनुरूपस्य घट्मानस्याऽर्थस्य गमनं जी०१ प्रति व्याख्यानमनुगमः / सर्वत्र किमुक्तं भवतीत्याह- यत्सूत्रार्थयोरनुकूलं अणुकंत-त्रि०(अनुक्रान्त) अनुष्ठिते आसेवनापरिज्ञया सेविते, सम्बन्धकारणमित्यनुगम इति। विशे०। आचाला "एस विही अणुकं ते माहणे णं मइमया बहुसो"। अनुगमभेदाःआचा०१ श्रु० अ०४ उ० से किं तं अणुगमे ? अणुगमे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा*अन्वाक्रान्त-त्रि० अनुचीर्णे, आचा०१ श्रु० अ०३ उ०। सुत्ताणुगमे अ, निज्जुत्तिअणुगमे अ॥ अणु कम-पुं०(अनुक्रम) अनुपरिपाट्याम् आ०चू०। आनुपूर्वी (से किं तं अणुगमे ? इत्यादि) अनुगमः पूर्वोक्तशब्दार्थः / स च अनुक्रमोऽनुपरिपाटीति पर्यायाः / अनु० आचा० "अणु-परिवाडित्ति द्विधासूत्रानुगमः सूत्रव्याख्यानमित्यर्थः / निर्युक्तयनुगमश्च नितरां वाअणुक्कमेति वा एगट्ठा" आ०पू०१० अ०। युक्ताः सूत्रेण सह लोलीभावेन संबद्धा निर्युक्ता अर्थास्तेषां युक्तिः अणुक्कसाइ(ण)-पुं०(अनुत्कशायिन्) उत्क उत्कण्ठितः सत्कारादिषु स्फुटरूपताऽऽपादनम्, एकस्य युक्तशब्दस्य लोपात् नियुक्तिः / शेते इत्येवंशील उत्कशायी, न तथा अनुत्कशायी / प्राकृ | नामस्थापनादिप्रकारैः सूत्रविभजनेत्यर्थः / तद्पोऽनुगमस्तस्या Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुगम 363 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुग्घाश्य वा अनुगमो व्याख्यानं निर्युक्त्यनुगमः / अनु०। (सूत्रानुगमनियुक्त्यनुगमयोयाख्या स्वस्वस्थाने द्रष्टव्या) व्याख्याने, संगृहीते, सर्वव्यक्तिषु अनुगतस्य सामान्यस्य प्रतिपादने च। विशे० यत्र साधनं, तत्र साध्यमित्येवंलक्षणे साध्यस्य साधनेन सहाऽन्वये, विशे०। पश्चाद्गमने, सहायीभवने च। वाचा अणुगम्म-अव्य०(अनुगम्य) बुद्ध्वा इत्यर्थे, सूत्र०१ श्रु०१४ अ० / अणुगय-त्रि०(अनुगत) पूर्वमवगते, विशे० अव्यवच्छिन्नतया-ऽनुवृत्ते, प्रश्न०३ आश्रद्वा०ा 'मतिसहितं ति वा मतिअणुगतं ति वा एगट्ठा' / आ०चू०१ अ०। पितृविभूत्याऽनुयाते पितृसमे पुत्रे, पुं० स्था०८ ठा०३ उ०। आनुकूल्ये, न० स० अणुगवेसेमाण-त्रि०(अनुगवेषयत्) सामायिकपरिसमाप्त्यनन्तरं गवेषयति, "तंभंडं अणुगवेसेमाणे किं सयं भंडं अणुगवेसइ?"भ०८ श०५ उ० अणुगा(ग्गा)म-पुं०(अनुग्राम) अनुकूलो ग्रामोऽनुग्रामः / व्य०२ उ०। विवक्षितग्राममार्गानुकूले ग्रामे लघुग्रामे, एकस्माद्ग्रामादन्यस्मिन् ग्रामे, उत्त०३ अ०। एकग्रामाल्लघुपश्चाद्भावाभ्यां स्थिते ग्रामे, स्था०५ ठा०२ उ०। विवक्षितग्रामादनन्तरे ग्रामे, “गामाणुगा(गा) मं दूइज्जमाणे" / औ०1 ध०। अणुगामि(ण)-त्रि०(अनुगामिन्) साध्यमसाध्यमग्न्यादिकमनुगच्छति, साध्याऽभावे न भवति, योधूमादिहेतुः, सोऽनुगामी / अदुष्टहेतौ, स्था०३ ठा०३ उ०ा अनुयातरि, आव०५ अ० मोक्षायाऽनुगच्छति, व्य०१० उ०। अणुगामिय-त्रि०(अनुगामिक) उपकारिसत्कालान्तरमनुयाति तदनुगामिकम् / स्था०५ ठा१ उ०। अनुगमनशीले भवपरम्परानुबन्धिसुखजनके, पा०। स्था०। अनुगमनशीलेऽवधिज्ञाने, सूत्र० 2 श्रु०२ अ०२ उ०। गच्छन्तमनुगच्छतीति अनुगामिकः / अनुचरे, सूत्र०२ श्रु०२ अ०२ उ०। अकर्तव्यहेतुभूतेषु चतुर्दशस्वसदनुष्ठानेषु, सूत्र०२ श्रु०२ अ०२ उ० अणुगामियत्त-न०(अनुगामिकत्व) भवपरम्परासुसानुबन्धसुखे, औ०। अणुगिद्ध-त्रि०(अनुगृद्ध) प्रत्याशक्ते, सूत्र०१ श्रु०३ अ०३ उ०। अणुगिद्धि-स्त्री०(अनुगृद्धि) अभिकाङ्खायाम, उत्त०३ अ०। अणुगिलइत्ता-अव्य०(अनुगीर्य) भक्षयित्वेत्यर्थे, ज्ञा०७ अ० अणुगीय-त्रि०(अनुगीत) मूलाचार्यात्पाश्चात्यशिष्यैः कृते ग्रन्थे, महत्थरूवा वयणप्पभूया, गाहाणुगीया नरसंघमज्झे' अन्विति तीर्थकृद्गणधरादिभ्यः पश्चाद् गीता अनुगीता। कोऽर्थः ? तीर्थकरादिभ्यः श्रुत्वा प्रतिपादिता, स्थविरैरिति शेषः। अनुलोमं वा गीताऽनेन श्रोत्रानुकूलैव देशना क्रियते इति ख्यापितं भवति। उत्त०१३ अ०। अणुगुरु-त्रि०(अनुगुरु) यद्यथा-पूर्वगुरुभिराचरितं तत्तथैव पाश्चात्यैरपि आचरणीयमिति गुरुपारम्पर्ये व्यवस्थया व्यवहरणीये, बृ०१ उ०। अणुग्गह-पुं०(अनुग्रह) उपकारे, औ०। ज्ञानाद्युपकारे, स्था० तिविहे अणुग्गहे पण्णत्ते / तं जहा-आयाणुग्गहे, पराणुग्गहे, तदुभयाणुग्गहे य। तत्र आत्मानुग्रहोऽध्ययनादिप्रवृत्तस्य, परानुग्रहो वाचना-दिप्रवृत्तस्य, तदुभयानुग्रहः शास्त्रव्याख्यानशिष्यसङ्ग्रहादि-प्रवृत्तस्येति। स्था०३ ठा०३ उ०। पञ्चा०ा "सर्वज्ञोक्तोपदेशेन, यः सत्त्वानामनुग्रहम् / करोति दुःखतप्तानां, स प्राप्नोत्य-चिराच्छिवम्" आ०म०प्र०। प्रज्ञा०। यो०बि०। अनुपघाते, उज्ज्वालने, नि०चू० 1 उ०। देहस्य स्रक्चन्दनाऽङ्गनावसना-दिभिर्भो गैरुपष्टम्भे, ध०१ अधिका अणुग्गहट्ट-पुं०(अनुग्रहार्थ) अनुग्रह उपकारस्तल्लक्षणो योऽर्थः पदार्थः प्रयोजनं वा / अनुग्रहप्रयोजने, "सपरेसिमणुग्गहढाए'' स्वपरयोरात्मतदन्ययोरनुग्रह उपकारस्तल्लक्षणो योऽर्थः पदार्थः प्रयोजनं वा सोऽनुग्रहार्थः, तस्मै अनुग्रहार्थाय। तत्र स्वानुग्रहः प्रावचनिकार्थानुवादे निर्मलबोधभावात् परोपकारद्वारा यौन-कर्मक्षयायाप्तेश्च / परानुग्रहस्तु परेषां निर्मलबोधतत्पूर्वक -क्रि यासंपादनात् परम्परया निर्वाणसंपादनात्। पञ्चा०६ विव०॥ अणुग्गहता-स्त्री०(अनुग्रहता) अनुगृह्यत इति, अनुग्रहः। कर्मणि अनट् / तस्य भावोऽनुग्रहता। अनुग्रहणे, व्य०१ उ० अणुग्गहतापरिहार-पुं०(अनुग्रहतापरिहार) अनुग्रहतया परिहारोऽनुग्रहतापरिहारः / खोटादिभङ्गरूपे परिहारभेदे, व्य०१ उ०। अणुग्धाइम-न०(अनुद्घातिम) उद्घातो भागपातस्तेन निवृत्तमुद्धातिमलघ्वित्यर्थः। यत उक्तम्-"अद्धेण छिन्नसेसं पुव्वदेणं तुसंजुयं काओ / दिजाइ लहुयदाणं, गुरुदाणं तत्तियं चेव" / / 1 / / इति / ('उग्घाइअ' शब्देऽस्या व्याख्या द्वि०भा०७३० पृष्ठे द्रष्टव्या) एतन्निषेधादनुद्घातिमम्।तपोगुरुणि प्रायश्चित्ते, तद्योगात् तदर्हेषु साधुषु च। स्था०३ ठा०४ उ०। अणुग्घाइय-पुं०(अनुद्घातिक) न विद्यते उद्घातोलधुकरणलक्षणोयस्य तपो विशेषस्य तदनुद्घातम्, यथाश्रुतदानमित्यर्थः, तद्येषां प्रतिसेवाविशेषतोऽस्ति तेऽनुद्घातिकाः / स्था०५ ठा०३ उ०। उद्घातो नामः भागपातः, साऽन्तरहानं वा, स विद्यते येषु ते उद्घातिकाः, तद्विपरीता अनुद्घातिकाः / तपोगुरुप्रायश्चित्ताऽहेषु, बृ०४ उ०। त्रयोऽनुद्घातिकाःतओ अणुग्घाइया(मा)पण्णत्ता। तं जहा- हत्थकम्मं करेमाणे, मेहुणं सेवमाणे, राइभोयणं भुंजमाणे / स्था०३ ठा०४ उ०। त्रयस्त्रिसंख्याका अनुद्घातिकाः। उद्घातो नाम-'अद्धेण च्छिन्नसेसं' इत्यादिविधिना भागपातः, सान्तरहानंवा, स विद्यते येषु ते उद्घातिकाः, तद्विपरीता अनुद्घातिकाः, प्रज्ञप्ता-स्तीर्थकरादिभिः प्ररूपिताः, तद्यथोपदर्शनार्थः / हन्ति हसति वा मुखमावृत्याऽनेनेति हस्तः, शरीरैकदेशो निक्षेपाऽऽदानादिसमर्थः, तेन यत्कर्म क्रियते तद् हस्तकर्म, तत् कुर्वन् / तथा स्त्रीपुंसयुग्मं मिथुनमुच्यते,तस्य भावः कर्म वा मैथुनं, तत्प्रतिसेवमानः। तथा रात्रौ भोजनमशनादिकं भुञ्जानः। एष सूत्रार्थः / बृ०४ उ०। निक्षेपपुरस्सरं विशेषव्याख्यानम्। अथानुद्घातिपदं व्याख्यातुमाह Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुग्धाइय 364 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुग्धाइय उग्घातमणुग्धाते, निक्खेवो छव्विहो उ कायय्वो। प्रायश्चित्तानि भणितानि तैरेवाधिकारः / शेषाणि पुनरुचारितार्थनामंठवणा दविए, खेत्ते काले य भावे य॥ सदृशानि शिष्याणां विकोपनार्थमुक्तानि / बृ०४ उ०। उद्घातिके इह ह्रस्वत्वदीर्घत्वमहत्त्वादिकादनुद्घातिकस्य प्रसिद्धिरिति कृत्वा अनुद्घातिकमनुद्घातिके वा उद्घातिकं पञ्चा-नुद्घातिकाः / 'पंच द्वयोरुद्घातिकानुद्घातिकयोः षड्विधो निक्षेपः कर्त्तव्यः / तद्यथा- अणुग्धाइमा पण्णत्ता / तं जहा-हत्थकम्मं करेमाणे मेहुणं पडिसेवमाणे नामनि स्थापनायां द्रव्ये क्षेत्रे कालेभावे चेति। तत्रनामस्थापने गतार्थे / राईभोयणं भुंजमाणे सागारियर्पिड जमाणे रायपिंड भुंजमाणे'। स्था०५ द्रव्यादिविषयमुद्घातिकमनुद्घातिकंच दर्शयति ठा०२ उ०। उद्घातिके अनुद्घातिकमनुद्घातिके उद्घातिकं ददतः उग्घायमणुग्घाया, दव्वम्मि हलिहराग किमिरागा। प्रायश्चित्तम्। खेत्तम्मि कण्हभूमी, पत्थरभूमी य हलमादी।। जे भिक्खू उग्घाइयं सोचा णचा संभुंजइ, संभुंजंतं वा द्रव्ये द्रव्यत उद्घातिको हरिद्रारागः, सुखेनैवापनेतुं शक्यत्वात् / साइजइ॥१८|| जे भिक्खू उग्धाइयहेउं सोचा णचा संभुंजइ, अनुद्घातिकः कृमिरागः, अपनेतुमशक्यत्वात् / क्षेत्रत उद्घातिका संभुजंतं वा साइज्जइ / / 19 / / जे मिक्खू उग्धाइयसंकप्पं सोचा कृष्णभूमिः अनुदातिका प्रस्तरभूमिः / कुत इत्याह-(हलमाति त्ति) णचा संभुंजइ, संभुजंतं वा साइजइ॥२०॥ जे भिक्खू उग्धाइयं हलकुलिकादिभिः कृष्णभूमिरुद्घातयितुं क्षोदयितुं शक्या, वा उग्घाइयहेउं वा उग्घाझ्यसंकप्पं वा सोचा णचा संभुंजइ, प्रस्तरभूमिरशक्या / तथा संभुजंतं वा साइजइ // 21 // कालम्मि संतर णिरंतरं तु समयो व होतऽणुग्घातो। जे भिक्खू अणुग्धाइयं सोचा णचा संभुंजइ सं जंतं वा भव्वस्स अट्ठ पयडी, उग्घाति पएतरा इयरे॥ साइजइ॥२२॥ जे भिक्खू अणुग्धातियहेउं सोचा णचा संभुजइ, कालत उद्घातिकं सान्तरप्रायश्चित्तस्य दानम्, अनुद्घातिकं संभुजंतं वा साइजइ॥२३|| जे भिक्खु अणुग्घाइयसंकप्पं सोचा निरन्तरदानं, तुशब्दात् लघुमासादिकमुद्घातिकं, गुरुमासा णचा संभुंजइ, संभुजंतं वा साइजइ // 24 // दिकमनुद्घातिकम् / अथवा-कालतः समयोऽनुद्घातिको भवति, जे मिक्खू उग्घातियं वा अणुग्धाइयं वा सोचा णचा संभुंजइ, खण्डशः / कर्तुमशक्यत्वात् / आवलिकादय उद्घातिकाः, खण्डितुं संभुजंतं वा साइजइ // 25|| जे मिक्खू उग्घातियहे शक्यत्वात्। भावत उद्घातिका भव्यस्याऽष्टौ कर्मप्रकृतयः, उद्घातयितुं अणुग्घाइयह उं वा सोचा णचा संभुंजइ संभुजंतं, वा शक्यत्वात्, इतरस्याऽभव्यस्य भक्तास्ता: पदेतरा अनुद्घातिकाः। साइजइ / / 26 / / जे भिक्खू उग्धातियसंकप्पं वा कुत? इति चेदुच्यते अणुग्घाइयसंकप्पं वा सोचा णचा संभुंजइ, संभुजंतं वा जेण खवणं करिस्सति, कम्माणं तारिसो अभव्वस्स। साइजइ / / 27 / / जे भिक्खू उग्घाइयं वा अणुग्घाइयं वा ण य उप्पज्जइ भावो, इति भावो तस्सऽणुग्घातो।। उग्धाइयहेउ वा अणुग्धाइयहेउं वा उग्घाइयसंकप्पं वा येन शुभाध्यवसायेन कर्मणां ज्ञानावरणादीनां क्षपणमसौ करिष्यति, अणुग्धाइयसंकप्पं वा सोचा णचा संभुंजइ, संभुंजतं वा स तादृशो भावोऽभव्यस्य कदाचिदपि नोत्पद्यते, इत्यतस्तस्य साइजइ // 28 // भावोऽनुद्घातः कर्मणाऽनुद्घातं कर्तुमसमर्थः / अत एव तस्य कर्माणि जे भिक्खू अणुग्धाइयं वा उग्घाइयं वा सोचा णचा संभुंजइ, अनुद्घातिकानि भण्यन्ते। संभुंजंतं वा साइजइ / / 26 / / जे मिक्खू अणुग्घाइयहेउं वा अत्र य प्रायश्चित्तानुद्घातिकेनाऽधिकारः / उग्धाइयहे उ वा सोचा णचा संभुजइ, संभुजंतं वा तच कुत्र भवतीत्याह साइजइ॥३०॥जे मिक्खू अणुग्घाझ्यसंकप्पंवाउग्धाइयसंकप्पं हत्थे य कम्म मेहुण, रत्तीभत्ते य होतऽणुग्धाता। वा सोचाणचा संभुंजइ, संभुंजतं वा साइजइ॥३१॥ जे भिक्खू अणुग्धाइयं वा अणुग्धाइयहेउं वा अणुग्घाइयसंकप्पं वा उग्घाइयं एतेसिं तु पहाणं, पत्तेय परूवणं वोच्छं / वा उग्घाइयहेउं वा उग्घाइयसंकप्पं वा सोचा णचा संभुंजइ, हस्ते हस्तकर्मकरणे, मैथुनसेवने, रात्रिभक्ते एतेषु त्रिषु सूत्रोक्तपदेषु संभुंजंतं वा साइजइ॥३२॥ अनुद्घातिकानि गुरुकाणि प्रायश्चित्तानि भवन्ति / तत्र हस्तकर्मणि मासगुरुकं, मैथुनरात्रिभक्त्योश्चतुगुरुंकाः। एतच्च प्रायश्चित्तं यदा यत्र एवं अणुग्घातिए वि सुत्तं / उग्घाताणुग्घायहेउए वि दो सुत्ता / स्थाने भवति, तत्पुरस्ताद् व्यक्तीकरिष्यते / बृ०४ उ०(अथैतेषां उग्घायाणुग्धायसंकप्पे वि दो सुत्ता। हस्तकर्ममैथुनरात्रिभोज-नानां व्याख्याऽन्यत्र स्वस्वस्थान एव द्रष्टव्या) एते छ सुत्ताउपसंहरन्नाह उग्घातियं वहते, आवण्णुग्घायहेउगे होति। अत्थं पुण अधिकारोऽणुग्धाता जेसु जेसु ठाणेसु / उग्घातियसंकप्पिय-सुद्धे परिहारियं तहेव।।२६०।। उच्चारियसरिसाई, सेसाइ विकोवणट्ठाए। उग्धातियं णाम जं संतरं वहति, लघुमित्यर्थः / अणुग्धातियं अत्र पुनः प्रस्तुतसूत्रे हस्तकर्ममैथुनरात्रिभक्तविषयैः स्थान-रधिकारः णाम जं णिरंतरं वहति, गुरुमित्यर्थः / सोचं ति अण्णसगासाओ, प्रयोजनम् / कैरित्याह-येषु येषु स्थानेषु अनुद्घातानि गुरुकाणि | णचं ति सयमे व जाणित्ता, संभंजे ति एगओ भोजनम्, Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुग्धाइय ३६५-अभियानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुग्धाइय उग्घायहेउं संकप्पाण अणुग्घातियाणं तिहि वि इमं वक्खाणं / उग्घातियं पायच्छित्तं वहंतस्स पायच्छित्तमावण्णस्स जाव मणालोइयं ताव हेउं भण्णति, आलोइए अ सुद्धदिणे तुज्झे य पच्छित्तं विच्छिहिति त्ति संकप्पियं भणति, एयं पुण दुविधं पि दुविहं वहति- सुद्धतवेण वा परिहारतवेण या हत्तविसुद्धस्स तवस्स वा परिहारतवस्स वा संकप्पियं पिसुद्धतवेण वा परिहारतवेण अणुग्घायहेयहेउं संकप्पाण अणुग्घातियाण तिण्ह इमं वक्खाणं। अणुधातियं वहते, आवण्णुग्धातहेउगे होति। अणुधातियसंकप्पिय-सुद्धे परिहारियं तहेव // 261 / / पूर्ववत्, णवरं, अणुग्घातिए त्ति वत्तव्वं, जे सगच्छे सुद्ध-परिहारतवाण अरुह ते णज्जति चेव। जे परगच्छातो आगता ते पुच्छिचंति। को भंते! परियाओ, सुत्तत्थअभिग्गहो तवो कम्मा। कक्खडमक्खडएसुय, सुद्धतवे मंडवादो ति॥२६२। इमा पढमा पुच्छा। गीयमगीओ गीओ,महत्तिकं वत्थु कस्स वसि जोग्गो? अग्गीउ त्तिय भणिते, थिरमथिरतवे य कयजोग्गो॥२६॥ सो पुच्छिज्जति-किं तुमं गीयत्थो अगीयत्थो ? जदि सो भणतिगीतोऽहमिति, तो पुणो पुच्छिन्नति-किं आयरिओ? उवज्झाओ? पव्वत्तो ? थेरो ? गण वच्छेओ ? नेता? वसभो? एतेसिं एगंतरे अक्खाए पुच्छिज्जति-कयमस्स तवजोग्गा सुद्धस्स परिहारस्स, अह सो अगीतोऽहमिति भणिज्जति, तओ पुच्छिज्जति-थिरो अथिरो त्ति / थिरो दढो तवकरणे बलवानित्यर्थः / अथिरो अन्तर एव भजते, नान्तं नयतीत्यर्थः / पुण थिरो अथिरो वा पुच्छिज्जति-ताव कयजोग्गो तवकारणेनाऽभ्यस्ततवो। सगणम्मि नत्थि पुच्छा, अण्णगणादागयं च जं जाणे। परियायजम्मदिक्खा, उणतीसा वीसकोडी वा // 26 // सगणे एया उणत्थि पुच्छा उ, जओ सगणवासिणो सव्ये णज्जंति / जो जारिसो अन्नगणागतं पि जं जाणे तं नो पुच्छेअ भंते ! आमंतणवयणं परियाए त्ति / परियाओ दुविहो-जम्मपरियाओ, पव्वजापरियाओ य।जम्मपरियाओजहन्नेण जस्सएगूणतीस वीसा, कहं ? जम्मट्ठवरिसो पव्वति। तोणवमवरिसोपव्वति, तो णवमवरिसे पव्वति, तोतेणवमवरिसे पव्यतीओ विसतिवरिसस्स वरिसेण सम्मत्तो।एवं वरिसेण सम्मत्तो। एवं वरिसेण समत्ती। एते अउणतीसंवीसो उक्कोसेण देसूणा पुवकोडी पव्वजा उणवीसस्स दिट्ठिवातो उद्दिट्टो वरिसेण सम्मत्तो / एते वीसं उक्कोसेण देसूणा पुवकोडी। इदाणिं सुतत्थमितिनवमस्स ततियवत्थू, जहण्णउक्कोसनूणग दसत्तं। सुत्तत्थअभिगहे पुण, दव्वादितवो रयणमादी॥२६॥ णवमस्स पुवजहण्णेणं ततिआयारवत्थूकाले णाणं वणिज्जति, जाहे तं अधीयं उक्कोसेण जाहे ऊणगा दसपुव्वा अधीता संमत्तदसपुविणो परिहारतवोण दिजंति, सुत्तत्थस्स एयं पमाणं (अभिगहे ति) अभिग्गहा दव्वक्खेत्ते कालभावे हि तयो तवोकम्म पुण(रयणमादित्ति) रयणायली आदिसरातो कणगावली, 'सीहविक्कीलियं जवमज्झं वइरमज्झं चंदाणयं' कक्खडेसु य पच्छद्धं / अस्य व्याख्या-सुद्धपरिहारतवाणं कतमो कक्खडो, कयमो वा अक्खडो ? एत्थ सेलए मंडवेडिं दिलुतो कजति। जं मायति तं छुमति, सेलमए मंडवे ण एरंडे। उभयपलियम्मि एवं, परिहारो दुब्बले सुद्धो // 266 / / / सेलमंडवे जं मायइतं छुब्भति, ण सो भजति, एरंडमए पुण जावतियं छुल्भति, एवं उभयवलिए लिविधे संघयंणोवजुत्तोजं आवजति इमेरिसाणं सव्वकालं सुद्धतवो तं परिहारतवेण दिजति, सो पुण वित्तिसंघयणे हि दुब्बलोऽतिहीणो तस्स सुद्धतवो वा हीणतरं पि दिजति। सीसो पुच्छति किं सुद्धपरिहारतवाण एगावली उत भिण्णा ? उच्यते - अविसिट्ठा आवत्ती, सुद्धतवे संहयणपरिहारे। वत्थु पुण आसज्जा, दिज्जत्ते तत्थ एगतरो॥२६७।। सुद्धपरिहारतवाण अविसेसी आवत्ती आरियादिवत्ती। संघयणोवजुत्तं जाणिऊणं परिहारतवो दिज्जति, इतरो वा सुद्धतवो एगं एगतरा दिजति, इमेरिसाणं सव्वकालं सुद्धतवो दिज्जति। सुद्धतवो अजाणं, अगियत्थे दुब्बले असंघयणे। धितियबलिए समंत्ता-गएय सव्वेसि परिहारो॥२६८।। अजाणं गीयत्थस्स बितीयदुब्बलस्स संघयणहीणे, एतेसिं सुद्धतवो दिजति, धितिबलजुत्तो संघयणसमण्णिए य पुरिसे परिहारे तवं पडिवज्जते / इमो विहीविउसग्गो जाणट्ठा, ववणाभीए य दोसु दी तेसु / आगम यदीयराया, दिटुंतो भीय आसत्थे।।२६६॥ परिहारतवं पडिवजंते दव्वादि अप्पसत्थवजेत्ता पसत्थेसु दट्वादिसु काउस्सग्गो कीरइ, सेससाहू जाणणट्ठा आलावणादिपदाण पट्ठवणा ठविज्ञति, तेसु अठविएसुजदि भीता, तो आसासो कीरइ ति, इमेहिं से बीहे पायच्छित्तं सुज्झति, महती य णिज्जरा भवति, कप्पट्ठियअणुपरिहारिया य दो सहाया ठवित्ता इमेहिं अगडतिराइदिटुंतेहिं भीतस्स आसासो कीरइ, अगडे पडियस्स आसासो कीरति, एस जणोधावति, रजआ णिज्जति अथिरा उत्तारेज्जसि, मा विसादं गेण्हसु, एवं जतिणा सासिज्जति, तो कयातिभाएण तत्थ चेव मारेज, णदीपूरगेण हीरमाणो भणति-तडं अवलवाहिए सत्तारगो दतिगादिघेत्तुमतरिओ मुत्तारेहिसि, मा विसादं गेण्हसु। रायगहिओ वि भण्णति-एस राया जदि विदुट्टो तहवि विण्णविजंतो पुरिमादिएसु आयारं पस्सति, अइडंड न करेति, एवं आसासिज्जंतो आससत्ति, दढवेत्तोय भवति। काउस्सग्गो य किं कारणं कीरइ ? उच्यते - नीरुवसग्गणिमित्तं, भयजणणट्ठाय सेसगाणं तु। तस्सऽप्पणो य गुरुणो, पसाहए होति पडिवत्ती॥२७०।। / साहुस्स णिरुवसग्गणिमित्तं सेससाण य भयाजणणट्ठा Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुग्घाइय 366 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुग्धाइय काउस्सग्गो कीरइ, सो य दव्वओ वडमादि खीररु, खेत्तओ देति / सुत्तत्थेसु पडिपुच्छं दित्ति, सो वि परिहारियओ कप्पट्ठियं जिणघरादिसु, कालओ पुव्वसूरे पसत्थादिदिणेसु य भावतो अणुचिकृति अब्भुट्ठाणति किरियं सुत्तमं करेति। सण्णादिगच्छंतो अत्थेइ, चंदताराबलेसु तस्सऽप्पणो य गुरुणो य साहएसु पडिवत्ती पुच्छितो कप्पट्ठियेण ओदंत इति सरीरट्टमाणी कहेतिभवति / सो य जहन्नेण मासो, उक्कोसेण छम्मासा, तम्मि उद्विज णिसीएज्जा, मिक्खं गेण्हज्ज मंडगं पेहे। परिहारतवं पडिवखंति / आयरियो भणति- एय साहुस्स कुविए पिबंधयस्सव, करेति इतरो च तुसिणीओ॥२७७|| णिरुवसग्गणिमित्तं ठामि काउस्सग्गं जाव वो सिरामि, परिहारितो तवकिलामितो जइ दुब्बलयाए उद्देउ ण सक्केइ, ताहे लोगस्सुजोयगरं अणुपेहेत्ता णमोऽरिहंताणं ति पारेत्ता अणुपरिहारियस्स अग्गतो भण्णति / उट्टेजामि णिसीएजामि भिक्खं लोगस्सुज्जोयकरं कड्डित्ता आयरियो भणति हिंडिऊण सक्केमि, तोऽणुपरिहारिओ परिहारियभायणेहिं हिंडित्तुं देति। कम्पट्टिओ अहं ते, अणुपरिहारी य एस ते गीओ। जइ ण सक्केइ भंडगं पडिलेहेळं, ताहे अणुपरिहारितो से पडिलेहणियं पुट्विं कयपरिहारो, तस्स य सयणो वि दढदेहो // 271 / / करेइ, जइण सक्केति सण्णाकाइयभूमिं गंतुं, तत्थ परिहारिओ भणतिआयरिओ आयरिया णिउत्तो वा णियमगीयत्थो तस्स आयरियाण काइयसण्णा भूमिं गच्छेज्जामि, ताहे अंसे अणुपरिहारिओ करेति। पदाणुपालगो कप्पट्टितो भण्णति / सो भणति-अहं ते कप्पद्विती सुत्तणिवाओ इत्थं,परिहारतवम्मि होति दुविधम्मि। परिहारियं गच्छंतं सव्वत्थ अणुगच्छति जो सो अणुपरिहारितो, सो वि सोचा वा णचा वा, संभुजंतस्स आणादी॥२७८|| णियमा मीयत्थो / सो से दिज्जति, एस ते अणुपरिहारी, सो पुण एत्थ सुत्तं निवाओ, जो परिहारतवं दुविधं उग्घायं अणुग्घायं वहइ तं पुवकयपरिहारियस्स असतिअण्णो वि अकयपरिहाराविति संघयणजुत्तो सोचा णचा वा जो संभुजंति तस्स आणादिदोसा भवंति / दढदेहो गीयत्थो अणुपरिहारितो ठवित्रति। एवं दोसु ठविएसुइम भण्णति बितियपदे साहुवंदण उमओ गेलण्णथेरअसती य। एस तवं पडिवज्जति,ण किंचि आलवति मा हु आलवह। आलोयणादितु पए, जयणाए समायरे भिक्खू२७६।। आत्तट्ठचिंतगस्सा, वाघाओ मेनकायव्वो॥२७२|| साधुवंदणत्ति अणत्थं साधुसंठिता अण्णो साधू ते दलु भणतिएस आयविसुद्धकारओ परिहारतवं पडिवजति। एस तुज्झे ण किंचि अमुगसाहुस्स वंदणं करेजा, सो परिहारतवं पडिवण्णो जस्स परिभाति आलवति, तुज्झे विएयंमा आलवह। एस तुज्झे सुत्तत्थेसुसरीरं वट्टमाणी यं हत्थो ते आयाणंतो वंदिउं वंदणकयं कथेति, तस्स णं दोसो, उभओ वा ण पुच्छति, तुज्झे वि एयं मा पुच्छह / एवं परियट्टणादिपदा सव्ये गेलपणं वि कप्पट्ठिय अणुपरिहारिय परिहारिओ य एते जदि तिणि वि भाणियव्वा / एवं आलवणादिपदे आत्मार्थ चिन्तकस्य गिलाणा, ताहे गच्छेल्लया सव्वं जयणाए करेंति। का जयणा? भण्णतिध्यानपरिहारक्रियाव्याघातो न कर्तव्यः। इमा ते आलवणादिपदा- गच्छिल्लया परिहारियमाणेहिं हिंडित्ता कप्पट्ठियस्स पणामेति / सो आलावणपडिपुच्छण-परियट्ठाणवंदणगमत्तो। अणुपरिहारियस्स पणामेति, सोवि परियस्स पणामेति / सो वि पडिलेहणसंघाडग-भत्तदाणसंभुंजणे चेव / / 273|| परिहारियकप्पट्ठिय अणुपरिहारिया पणामेऊ पि ण वएति / सोयमेव आलावो देवदत्तादिपुच्छादिएसु पुव्वा वीतसुतस्स परियट्टणं गच्छिल्लया सव्वे गिलाणा तो ते कप्पट्ठिया दिया तिन्निजयणाए सव्वं पि कालभिक्खादियाण उट्ठाणं / सओ सुतुट्टितेहिं खमणमादीयं वा वंदणं करेजा, परिहारिउंगच्छिल्लयभायणेसु आणिओ अणुपरिहारियस्स खेलकाइयसण्णासंसत्तो मत्तगो बाण सोहिति, तस्स तिओ वाण घेप्पति पणावेति, सो कप्पट्ठियस्स, सो विगछिल्लयाणं थेरअसतीए थेरा उवकरणं, परोप्परंण पडिलेहेंति संघाडगा परोप्परंण भवंति, भत्तदाणं, आयरिया तेसिं वेयावचकरस्स असती। वेयावचकरवाघाए वा अण्णो य परोप्परं ण करेंति। एवं मंडलीए ण भुजंति / यच्चान्यत्किञ्चित्करणीयं सलद्धीओ णत्थि, ताहे परिहारिओ वि करेज जयणा, एसो भायणेसु तत्तेन सार्द्धन कुर्वन्तीत्यर्थः / इमं गच्छवासीण पच्छित्तं - हिंडिउं अणुपरिहारियस्स पणावति / कप्पट्ठियस्स वासो आयरियाणं संघाडगतो जो वा, लहुगो मासो दसण्ह तु पदाणे। देति, एवमादिकज्जेसु आलावणादिपदे जयणाए भिक्खूसमाचरेदित्यर्थः / लहुगा य भत्तदाणे, संभुंजणे होतऽणुग्घाया // 274|| सुत्ताणि हुइदाणिं एतेसिं चेव छण्हं सुत्ताणं दुगादिसंगसुत्ता वत्तव्वा। तत्थ दुगसंजोगे पण्णरस सुत्ता भवंति / तत्थ पढम दसमं च एते तिण्णि दुगं जदि गच्छिल्लगा परिहारियं आलवंति तो ताणं मासलहु / एवं जाव संजोगसुत्ता सुत्तं णेव गहिया। सेसा बारसऽत्थतो वत्तव्वा। तिगसंजोगेण संघाडगपदं अट्ठमं सव्वेसुं मासलहुँ। जदि गच्छल्लया भत्तं गेण्हसु तो वीसं सुत्ता भवंति। तत्थ छट्ठ पन्नरसमं च होति सुत्ता सुत्तेणेव गहिता। चउलहुं, एगढ़ भुजताण चउगुरुं, परिहारियस्स अट्ठसुपएसु मासगुरुं. सेसा अट्ठारस अत्थेणेव वत्तव्वा / चउसंजोगेण पन्नरस, ते अत्थेणवत्तव्वा / भत्तदाणसंभुजणेसु चउगुरु, कप्पट्ठियस्स अणु-परिहारियस्स दोण्ह वि छक्कगसंजोगे एक तं सुत्तेणेव भणिय। एवं एते सत्तावणं संजोगसुत्ता भवति। एगसंभोगो, एते दोवि गच्छिल्लएहिं समाणं आलावं करेंति। वंदामो त्तिय एतेसिं अत्थो पुव्वसमो दुगसंजोगेण उग्धातियं अणुग्घातियं वा कह भणंति, सेसंण करेंति। कप्प-ट्ठियपरिहारियाण इमं परोप्परं करणं संभवति ? भण्णति-आवत्ती से उग्घातिया कारणे उदाउं अणुग्घातियं, कितिकम्मं च पडिच्छति, परिण्ण पडिपुच्छगं पिसे देति / एवं उग्धाय अणुग्धायसंभवो। अहवा तवेण अणुग्घातकालतो उग्घातियं सो वि य गुरुमुवचिट्ठति, उदंतमवि पुच्छितो कहति // 176|| एवं वज्जिऊणं भावेतव्वं / नि०चू०१० उ०॥ कप्पट्टिती परिहारियवंदणं पडिच्छति, परिणति पचक्खाणं / अणुग्घाय-पुं०(अनुद्घात) न विद्यते उद्घातो लघूकरण लक्षणो Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुग्धाय 367- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुजाण यस्य तदनुद्घातम् / यथाश्रुतदाने, स्था०५ ठा०२ उ० आचार- अणुजाइ(ण)-पुं०(अनुयायिन) सेवके, को०। प्रकल्पभेदे, आचा०१ श्रु०८ अ०२ उ०। अणुजाण-न०(अनुयान) रथयात्रायाम, बृ० 1 उ०। अणुग्घायण-न०(अणोद्घातन) अणत्यनेन जन्तुगणश्चतुर्गतिकं तविधिश्चैवम् - संसारमित्यणं कर्म, तस्योत्प्राबल्येन घातनमपनयनमणोद्घात-नम्। नमिऊण वद्धमाणं, सम्म संखेवओ पवक्खामि / कर्मण उद्घातने, "से मेहावी जे अणुग्घायणस्स खेयण्णे जे य बंधए जिणजत्ताए विहाणं, सिद्धिफलं सुत्तणीतीए॥१॥ मोक्खमण्णेसी कुसले पुण णो बद्धे णो मुक्के"। आचा०१ श्रु० नत्वा प्रणम्य, वर्धमान महावीरं, सम्यग्भावतः, संक्षेपतः समासेन, २अ०६उन प्रवक्ष्यामि भणिष्यामि, जिनयात्राया अर्हदुत्सवस्य विधानं विधि, अणुग्घासंत-त्रि०(अनुग्रासयत्) आत्मना गृहीत्वा पश्चाद् ग्रासं ददति, सिद्धिफलं मोक्षप्रयोजनं, सूत्रनीत्या आगमन्यायेनेति गाथार्थः / / 1 / / "जे भिक्खूमा उग्गामस्स मेहुणवडियाए अणुग्घासेज वा अणुपाएज वा, अणुग्घासंतं वा अणुपायंतं वा साइजइ।नि०चू०७ उ०। ('मेहुण' शब्दे जिनयात्राविधिं प्रवक्ष्यामीत्युक्तम्, अथ तत्प्रस्तावनायैवाहऽस्य व्याख्या) दंसणमिह मोक्खंगं, परमं एयस्स अट्ठहाऽऽयारे। अणुच(य)र-त्रि०(अनुचर) अनुचरन्ति / अनु-चर-ट / स्त्रियां णिस्संकादा भणितो, पमावणंतो जिणिदेहिं ||2|| डीप / सहचरे, पश्चाद्गामिनि च / वाच०। अनुपरिहारिकपदस्थितानां दर्शनं सम्यक्त्वम्, इह प्रवचने, मोक्षाङ्ग सिद्धिकारणं, परमं प्रधानम्, यावत् पाण्मासकल्पस्थितानां सेवाकारके, उत्त०२८ अ०॥ आदिकारणत्वात्, तस्यानन्तरकारणतया तु परमं चारित्रमेय, 'सारो अणुचरित्ता-त्रि०(अनुचर्य) आसेव्ये, स०। चरणस्स निव्वाणमिति' वचनादिति। एतस्य दर्शनस्य, पुनरष्टधाऽष्टाभिः अणुचिंतण-न०(अनुचिन्तन) पर्यालोचने, आव०४ अ०। प्रकारैः, आचारो व्यवहारो यः सम्यग्दर्शनिनामाचारः स दर्शनस्याचार अणु चिंता-स्त्री०(अनुचिन्ता) अनुचिन्तनमनुचिन्ता, मन- उच्यते, गुणगुणिनोरभे-दात् / तमेवाह-शङ्कत संशयः, तदभावो निःशङ्को सैवाविस्मरणनिमित्ते सूत्रानुस्मरणे, आव० 4 अ०। निःशङ्कितत्वं, तदादिर्यस्य स निःशङ्कादिः, भणितोऽभिहितः, अणु चिऊण-अव्य०(अनुच्युत्वा) पश्चाच्च्युत्वेत्यर्थे, "अणु- प्रभावनान्तो जिन-शासनोभावनाऽवसानः, जिनेन्द्रैस्तीर्थकरैः / चिऊणेहागओ तिरियपक्खीसु"। महा०६ अ० तथाहि-निस्संकियनिक खिय, निव्वितिगिच्छा अमूढदिट्ठी य। अणुचिण्णवं-त्रि०(अनुचीर्णवत्) अनुष्ठितवति, आचा०१ श्रु०८ अ० उववूहथिरी करणे वच्छल्लपभावणा अट्ठा // 1 // इति गाथार्थः / / 2 / / ६उ। ___ ततः किम् ? अत आहअणुचिय-त्रि०(अनुचित) अभावितशैक्षे, बृ० 1 उ०। अयोग्ये, षो० पवरा पभावणा इह, असेसभावम्मि तीए सब्मावा। ७विव० जिणजत्ता य तयंग, पवरं ता पयासोऽयं // 3 // अणुचीइ-अव्य०(अनुचिन्त्य) औत्पत्तिक्यादिभेदभिन्नया बुद्ध्या प्रवरा प्रधाना, प्रभावना जिनशासनोभावना, इहाऽष्ट प्रकारे पर्यालोच्येत्यर्थे, आव०४ अ० जी०। सूत्र०। "अणुचीइ भासए सम्यग्दर्शनाचारे / कुत एवमित्याह-अशेषाणां समस्तानां सयाणमझे लहइपसंसणं" अनुविचिन्त्य पर्यालोच्य भाषमाणः सतां निःशङ्कितादिसम्यग्दर्शनाचाराणां भावः सत्ता अशेषभावस्तस्मिन् सति, साधूनां मध्ये लभते प्रशंसनम्। दश०७ अ० सूत्र०। तस्याः प्रभावनायाः, सद्भावात् संभवात् निः शङ्कितादिगुण-युक्त एव अणुचीइभासि(ण)-त्रि०(अनुविचिन्त्यभाषिन्) अनुविचिन्त्य हि प्रभावको भवतीति / ततोऽपि किमित्याह- जिनयात्रा च पर्यालोच्य भाषते इत्येवंशीलोऽनुविचिन्त्यभाषी / व्य०१ उ०! जिनोद्देशमहः, पुनस्तदङ्गं जिनप्रवचनप्रभावनाकारणं, यद्यस्माद्धेतोः, आलोचितवक्तरि, दश०६ अ० प्रवरं प्रधान, तत्तस्माद्धेतोः, प्रयासः प्रयत्नोऽयमेव वक्ष्यमाणस्वरूपो अणुचरिय-त्रि०(अनुचरित) अशब्दिते, महा०१चू०। जिनयात्राविषय इति गाथार्थः // 3 // अनुच्चार्य-अव्य०। निन्द्यत्वादुचारयितुमयोग्ये, अभिग्गहिय-मिच्छदिट्ठी अथ जिनयात्रेति कोऽर्थः? इत्यस्यां जिज्ञासायामाहअणुचरियणामधेजे सुजसिवे महा०१चू०।। जत्ता महूसवो खलु, उहिस्स जिणे स कीरई जो उ। अणुचसह-पुं०(अनुचशब्द) अनुचस्वरे, "तं पुण अणुचसद योच्छिन्नमियं पभासे इ" न विद्यते उच्चः शब्दः स्वरो यस्य सो जिणजत्ता भणई, तिए विहाणं तु दाणाइ // 4 // तदनुच्चशब्दः,तद्व्यवच्छिन्नं शब्दं विविक्तममिलिताक्षरमित्यर्थः, यात्रा केत्याह-महोत्सवः खलु महामह एव, न तु देशान्तरगम-नम् / तस्मिन् / व्य० 1 उ०। ततः किमत आह-उद्दिश्याश्रित्य जिनानर्हतः स इति महोत्सवः 'जिणे अणुचाकु इय-पुं०(अनुचाकुचिक) उच्चा हस्तादि यावत् येन उ' इत्यत्र तु पाठान्तरे जिनांस्तु जिनानेवेति व्याख्येयम्, क्रियते पिपीलिकादेर्वधोनस्यात् सपदिदिंशोनस्यात्, अकु-चाकुचपरिस्पन्द विधीयते / यस्तु य एव स इत्यसावेव महोत्सवो जिनयात्रेति भण्यते इति वचनात्। परिस्पन्दरहिता निश्चेलेति यावत, ततः कर्मधारये उच्चा | अभिधीयते, तस्या जिनयात्राया विधानंतुकल्पः पुनर्दानादिविश्राणनकुचा शय्या कम्बादिमयी, सा नो विद्यते यस्य स अनुचाकुचिकः।। प्रभृतिः। आदिशब्दात्तपःप्रभृतिग्रह इति गाथार्थः ||4|| नीचसपरिस्पन्दशय्याके, कल्प०। एतदेवाह Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुजाण ३६८-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुजाण दाणं तवोवहाणं, सरीरसक्कारमो जहासत्तिं। योग्यानि। किंविधानीत्याह-गम्भीरैरतुच्छत्वात्-सूक्ष्मबुद्धिगम्यैः पदार्थः उचितं च गीतवाइय, थुतिथोत्तापेच्छणादी य॥५॥ शब्दाभिधेयैर्विरचितानि विहितानि गम्भीरपदार्थविरचितानि, यानि तु दानं वितरणं, तथा तप उपधानं तपःकर्म, तथा शरीरसत्कारो देहभूषा, यान्येव तान्यपि संवेग-वृद्धिजनकानि मोक्षाभिलाषातिशयकारीणि, मशब्दः प्राकृतशैलीप्रभवः, यथाशक्ति सामर्थ्यानति-क्रमेण, इदं च समानि च तुल्यानिच अविषमाणि वा सुबोधानीत्याह-प्रायेण बाहुल्येन क्रियाविशेषणम्, प्रत्येकं दानादिषु संबध्यते / उचितं योग्यम् / चशब्दः सर्वेषां स्तोतृणामतुल्यादिस्तोत्रादिपाटे हि कोलाहल एवेति न पुनस्तसमुच्चये / गीतं च गेयं, वादितं च पटहादिनादितं, गीतवादितम् / च्छोतृणां भावोत्कर्ष इति गाथार्थः / / 10 / / उक्तं स्तुत्यादिद्वारम् / अनुस्वारलोपश्चाऽत्र द्रष्टव्यः, प्राकृतत्वात् / तथा स्तुतिस्तोत्राणि अथ प्रेक्षणकादिद्वारमाहएकाने कश्लोकरूपाणि, प्रेक्षणादि च प्रेक्षणकप्रभृति च / पेच्छणगा वि णडादी,धम्मियणाडयजुआई इह उचिया / आदिशब्दात्काव्यकथा-रथभ्रमणादिपरिग्रहो जिनयात्राविधानं च पत्थावो पुणणेओ, इमेसिमारंभमादीओ // 11 // भवतीति प्रक्रमः, इति द्वारगाथासंक्षेपार्थः // 5 / / पञ्चा०६ विव०। प्रेक्षणकान्यपि प्रेक्षाविधयः / अपिशब्दः स्तुत्याद्यपेक्षया समुच्चये। किं (यात्राविषयं दानद्वारम् 'अणुकंपा' शब्देऽत्रैव भागे 360 पृष्ठे स्वरूपाणि ? 'नडा' इति नटः शैलूषः तत्प्रवर्तितं यत्प्रेक्षणकं तन्नट उक्तम्)। एवोच्यते-नटप्रेक्षणकमित्यर्थः, तदादि येषां प्रेक्षणकाणां तानि अथतपोद्वारमाह नटादीनि। आदिशब्दात्तदितरपरिग्रहः / तानि चेह एकासणाइ णियमा, तवोवहाणं पि एत्थ कायव्वं / किंविधान्युचितानीत्याह- धार्मिकनाटकयुतानि जिनजन्माभ्युदयतत्तो भावविसुद्धी, णियमा विहिसेवणा चेव।।७।। भरतनिष्क्रमणादिधर्मसंबद्धनाटकोपेतानि, इह जिनयात्रायामुचितानि एकाशनादि एकभक्त प्रभृति, आदिशब्दाचतुर्थादिपरिग्रहः, योग्यानि, भव्यश्रोतृणां संवेगोत्पादक-त्वात् / प्रस्तावोऽवसरः / नियमादवश्यंतया, उपधीयते अनेनेत्युपधानं चरित्रोपष्टम्भनहेतुः, तप पुनःशब्दो विशेषणार्थः / ज्ञेयो ज्ञातव्यः, एषां प्रेक्षणकानामारम्भादिर्या त्रारम्भादिरादिशब्दाद् यात्रा-मध्यादिरिति गाथार्थः / / 11 / / एवोपधानं तपउपधानं,तदपिन केवलंदानमेव। अत्र जिनयात्रायां कर्त्तव्यं प्रेक्षणकानामारम्भादिप्रस्ताव उक्तः। विधेयं भवति / कस्मादिदं कर्तव्यमित्याह-ततस्तपउपधानाद् भावविशुद्धिरध्यवसायनैर्मल्यं नियमादवश्यतया भवति, भावविशुद्धिरेव अथदानस्य कः प्रस्तावः? इत्याशङ्कायामाहधर्मार्थनामुपादेयेति, तथा विधिसेवना जिनयात्रा नीत्यनुपालना चैवेति आरंभे चिय दाणं, दीणादीणमणतुट्ठिजणणत्थं / समुचयार्थः / इति गाथार्थः // 7 // उक्तं तपोद्वारम्। रण्णाऽमाघायकारण-मणहं गुरुणास सत्तीए॥१२॥ (आरंभे चिय) यात्रारम्भकाल एव, दानं वितरणं विधेयं भवति / अथ शरीरसत्कारद्वारमाह किमर्थमित्याह-दीनादीनां रङ्कप्रभृतीनां मनस्तुष्टिः दीनाऽनाथवत्थविलेवणमल्लादिएहि विविहो सरीरसक्कारो। चित्ततोषविधानाय तथा राज्ञा नृपेण मा लक्ष्मीः। सा च द्वेधा-धनलक्ष्मीः कायव्वो जहसत्तिं,पवरो देविंदणाएण||८|| प्राणलक्ष्मीश्च, अतस्तस्या घातो हननं तस्याभावो ऽमाघातोऽमावस्त्रविलेपनमाल्यादिभिर्वासोऽनुलेपनपुष्पप्रभृतिभिरादि शब्दा रिरद्रव्यापहारश्चेत्यर्थः / तस्य करणं विधानममा-घातकरणमनघं निर्दोष दलकारपरिग्रहः। विविधो बहुविधः, शरीरसत्कारो देह भूषा, कर्तव्यो वधवृत्तभोजनवृत्तिमात्रसंपादनेन, अन्यथा तवृत्त्युच्छेदापत्तेर्गुरुणा विधेयो, यथाशक्ति शक्त्यनतिक्रमेण, प्रवरः, सर्वोत्तमः / कथम् ? प्रावचनिकेन स्वशक्त्या स्वसामर्थ्य नेति गाथार्थः / / 12 / / देवेन्द्रज्ञातेन सुरराजोदाहरणेन, यथाहि- भगवतामहतां जन्ममहादिषु प्रस्तुतविधिसमर्थनायाऽऽगमविधिमाहसुरेन्द्रः सर्वविभूत्या सर्वादरेण च शरीरसत्कारं विधत्ते, तद्वदन्यैरप्यसौ विसयपवेसे रणो, उदंसणमोग्गाहादिकहणाय। विधेय इति गाथार्थः / / 8|| उक्तः शरीरसत्कारः। अणुजाणावणविहिणा, तेणाणुण्णायसंवासो॥१३॥ अथोचितं गीत्याद्याह विषयप्रवेशे मण्डलप्रवेशने, राज्ञो नृपतेः, तुशब्दः समुच्चयार्थः / तेन उचियमिह गीयवाइय-मुचियाण वयाइपडिहिजं रम्म। तदभावे तन्मान्ययुवराजमहामात्यादेश्च दर्शने मीलकः कार्यः, दर्शने च जिणगुणविसयं सद्धम्मवुड्डिजणगं अणुवहासं ||6| सति 'किमागमनकारणम्' ? इति च तेन पृष्टे अवग्रहस्य उचितं योग्यमिह- जिनयात्रायां, गीतवादितं गेयवाद्यम् / किं 'देविंदरायगहवइ-सागरसाहम्मिओग्गहो चेव' इत्येवं विधस्य, विधमित्याह-उचितानां योग्यानां स्वभूमिकापेक्षया वय आदि, कैः आदिशब्दाद् राजरक्षितास्तपस्विनो भवन्तीत्यादेव / यदाहकालकृतावस्थाप्रभृतिभिर्वयो वैलक्षण्यरूपसौभाग्यौदार्य श्व क्षुद्रलोकाकुले लोके, धर्म कुर्युः कथं हि ते ? / क्षान्तदान्तार्यादिभिर्भावैर्यद् रम्यं रमणीयं जिनगुणविषयं वीतरागत्वादि ऽरिहन्तारस्तांश्चेद् राजा न रक्षति ? ||1|| इति" कथना प्ररूणा तीर्थकरगुणगोचरं, न राजादिगुणविषयं, तदपि सद्धर्मवृद्धिजनकं अवग्रहा-दिकथना, चशब्दः समुच्यये, कार्येति शेषः / ततश्चानुज्ञापनं सुन्दरधर्ममत्युत्पादकं, तदप्यनुपहासमविद्यमानोपहासमनु-पहासमिति मुत्कलनं कार्यम्, अवग्रहस्य विधिनाऽऽगमनीत्या, ततस्तेन राज्ञा गाथार्थः || राजसंमतेन वा अनुज्ञाते मुत्कलितेऽवग्रहे संवासो निवासः तद्देशे विधेय स्तुतिस्तोत्रद्वाराभिधानायाऽऽह इति गाथार्थः / / 13|| कस्मादेवं विधीयते ? इत्याहथुइथोत्ता पुण ओचिय, गंभीरपयत्थविरइया जे उ। एसा पवयणणीती, पवसंताण णिज्जरा विउला। संवेगवुड्डिजणगा, समाय पाएण सव्वेसिं॥१०॥ इहलोयम्मि वि दोसा, ण होति णियमा गुणा होति / / 14 // स्तुतिस्तोत्राणि प्रतीतानि, पुनःशब्दो विशेषद्योतनार्थः / उचितानि | एषाऽनन्तरोक्ता प्रवचननीतिरागमन्यायो वर्तते / Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुजाणअणुजाण 369 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुजाण अथाऽनया को गुणः? इत्याह- एवमनन्तरोक्तनीत्या वसतां तद्देशे निवसतां निर्जरा कर्मक्षयः, विपुला बढ़ी, अदत्तादानव्रतस्य निरतिचारस्यानु-पालनादाज्ञाराधनाच / न चैतावदेवाऽत्र फलमित्याह-इह लोकेऽप्यत्रापि जन्मनि, आस्तां परलोके, दोषाः प्रत्यनीककृतो-पद्रवलक्षणाः, न भवन्ति, न जायन्ते / नियमादवश्यं-भावेन गुणाः पुना राजपरिग्रहाल्लोके मान्यतादयो, भवन्ति जायन्ते / यदाह-"गन्तव्यं राजकुले, द्रष्टव्या राजपूजिता लोकाः / यद्यपि न भवन्त्याः , भवन्त्यनर्थप्रतीघाताः" ||1|| इति गाथार्थः॥१४॥ ये गुणा भवन्ति, तानेवाहदिट्ठोपवयणगुरुणा राया अणुसासिओ य विहिणा उ। तं नत्थि जंण वियरइ, कित्तियमिह आमघाओ त्ति॥११॥ दृष्टोऽवलोकितः, प्रवचनगुरुणा प्रधानाचार्येण, राजा नृपतिः, अनुशासितोऽनुशिष्टश्च, विधिना तु प्रवचननीत्यैव तत्प्रकृत्यनुवर्तनादिलक्षणया / यदाह- बालादिभावमेवं, सम्य-ग्विज्ञाय देहिनां गुरुणा / सद्धर्मदेशनाऽपि हि, कर्तव्या तदनुसारेण ||1|| एवं चाऽसौ प्रमुदितमना तद्वस्तु नाऽस्ति न विद्यते यन्न वितरति, न ददाति, सर्वमेव ददातीत्यर्थः / कियत् किं परिमाणम् ? अल्पमिति कृत्वा ददात्येवेत्यर्थः / इह यात्राऽवसरे अमाघातः प्राणिघात-निवारणम्, इतिशब्द उपप्रदर्शनार्थः / इति गाथार्थः // 15 // अनुशासित इत्युक्तमतस्तदनुशासनविधिं प्रस्तावयन्नाह.. एत्थमणुसासणविही, भणिओ सामण्णगुणपसंसाए। गंभीराहरणेहिं, उत्तीहि य भावसाराहिं // 16 // अत्र राजविषये, अनुशासनविधिरनुशास्तिविधानं, भणित उक्तः, सूरिभिः / कथम् ? सामान्यगुणप्रशंसया लोके लोकोत्तराविरुद्धविनयदाक्षिण्यसौजन्यादिगुणस्तुत्या, तथा गम्भीरोदाहरणैरतुच्छज्ञातैः, महापुरुषगतैरुक्तिभिश्च भणितिभिश्च, भावसाराभिर्भावगर्भाभिन तु तद्विकलाभिरिति गाथार्थः / / 16 / / अनुशासनविधिमेवाहसामण्णे मणुजत्ते, धम्माओ णरीसरत्तणं णेयं। इय मुणिऊणं सुंदर!, जत्ता एयम्मि कायय्वो॥१७॥ सामान्ये बहूनां प्राणिनां साधारणे मनुजत्वे नरत्वे धर्माद कुशलकर्मणो नरेश्वरत्वं नृपत्वं भवतीति ज्ञेयं ज्ञातव्यम्। इति एतद् ज्ञात्वाऽवगम्य, सुन्दर ! नरप्रधान ! यत्न उद्यमोऽत्र धर्मे कर्तव्यो विधेयो भवतीति गाथार्थः / / 17 // इड्डीण मूलमेसो, सव्वासिंजणमणोहराणं ति। एसो य जाणवत्तं, णेओ संसारजलहिम्मि||१८|| ऋद्धीनां संपदां मूलमिव मूलं कारणम्, एष धर्मः / सर्वासां नराऽमरसंबन्धिनीनां जनमनोहरणां लोकचेतोहारिणीनाम्। इति शब्दो लोकप्रसिद्धस्य संपदां जनमनोहरत्वस्योपदर्शनार्थः / अनेन च सांसारिकफलसाधुत्वमस्योपदर्शितम् / अथ निर्वाणफलसाधकत्वमस्याऽऽह-एष चाऽयमेव यानपात्रं बोधिस्थ इव ज्ञेयो ज्ञातव्यः संसारजलधौ भवोदधौ तरीतव्य इति गाथार्थः / कथं पुनरेष भवतीत्याहजायइ य सुहो एसो, उचियत्थापायणेण सव्वस्स। जत्ताए वीयरागाण विसयसारत्तओ पवरो॥१६॥ जायते संपद्यते, चशब्दः पुनरर्थः, शुभः कुशलानुबन्धः, | शुभनिमित्तत्वादेष धर्मः, उचितार्थापादनेनाऽनुरूपवस्तुसंपादनेन, सर्वस्य समस्तजनस्य / इहैव विशेषमाह-'जत्ताए' इत्यादि / काक्वा चेदमवधेयम् / यात्रयोत्सवेन, पुनर्यात्रायां वा उचितार्था-पादनेनेति प्रकृतम् / के षाम्? वीतरागाणां जिनानां, विषयसारत्वतः प्रधानगोचरत्वात्। वीतरागा एव हि निखिलभुवन-जनातिशायिगुणत्वेन यात्रागोचरोऽनुपचरितो भवतीति प्रवरः प्रधानतरः शेषजनोचितार्थसंपादनोभावधर्मापेक्षया एष जायत इति प्रकृतमिति गाथार्थः / / 16 // अधिकृतराजानुशासनविधौ यो भावस्तं प्रकटयन्नाहएतीए सव्वसत्ता, सुहियाखु अहिसि तम्मि कालम्मि। एम्हि पि अमाघाएण कुणसुतं चेव एतेसिं // 20 // एतया वीतरागयात्रया एतस्या वा, सर्वसत्त्वाः समस्तदेहिनः, सुखिता एवाऽऽनन्दवन्त एव, 'खु' शब्दोऽवधारणार्थः ।(अहिसि त्ति) अभूवः, तस्मिन् काले तदा, यदा जिनानां जन्माद्यभवत् / ततश्चेदानीमप्यधुनाऽपि, यथाऽतीतकाल इत्यपिशब्दार्थः / (अमाघाएणं ति) प्राकृतत्वादमाघातेन, अमारिप्रदानेन, कुरुष्व-विधेहि, त्वं महाराज ! देव ! सुखितत्वमेव / एतेषां सर्वसत्त्वानामिति गाथार्थः / / 20 / / अथाचार्यों न भवेत्तत्र तदा को विधिरित्याहतम्मि असंते राया, दट्ठव्वा सावगेहिं वि कमेण / कारेयव्वो य तहा, दाणेण वि अमाधाओ त्ति // 21 // तस्मिन् प्रवचनगुरावसत्यविद्यमाने, उपलक्षणत्वाद राजदर्शनाद्यसमर्थे वा, राजा नरपतिद्रष्टव्यो दर्शनीयः, श्रावकैरपि श्रमणोपासकैरपि, न तु, न द्रष्टव्य इत्येतदर्थसंसूचनार्थोऽपि शब्दः / क्रमेण नीत्या तद् राजकुलप्रसिद्धया, कारयितव्यो विधापयितव्यो राज्ञा / चशब्दः समुच्चये। तथेति वाक्योपक्षेपमात्रार्थः। तथा कारयि-तव्यश्चेत्येवं चाऽस्य प्रयोगः / इति नेच्छति चेद् राजा तं कारयितुं , तदा दानेनापि द्रव्यवितरणतोऽपि, न केवलं वचनेनेत्यपिशब्दार्थः / (अमाघाओ त्ति) अमाघातः प्राणिनाममारिः, इतिशब्दः समाप्त्यर्थ इति गाथार्थः / / 21 / / किं चाऽन्यत्तेसिं पिघायगाणं, दायव्वं सामपुव्वगं दाणं। तत्तियदिणाण उचियं, कायव्वा देसणाय सुहा॥२२॥ तेषामपि न केवलममाघात एव कारयितव्य इत्यपिशब्दार्थः। घातकानां प्राणिवधोपजीविनां मत्स्यबन्धादीनां, दातव्यं देयं, सामपूर्वक प्रेमोत्पादकवचनपुरस्सरं, दानमन्नादिवितरणं, तावद्दिनानां यात्रापरिणामदिवसानामुचितं योग्यम्, कर्तव्या विधेया, देशना च धर्मदेशना च शुभाऽनवद्या / यथा-भवतामप्येवं धर्मावाप्तिर्भविष्यतीत्यादिरूपा, इत्यनेन च परोपतापपरिहारो धर्मार्थिनां श्रेयानित्युक्तमिति गाथार्थः॥२२॥ एवं क्रियमाणे को गुणः? इत्याहतित्थस्स वण्णवाओ, एवं लोगम्मि बोहिलाभो य। केसिं वि होइ परमो, अण्णेसिं बीयलाभो त्ति // 23|| तीर्थस्य जिनप्रवचनस्य, वर्णवादः श्लाघा, एवममुना प्रकारेण दानपूर्वकाऽमाघातकारणलक्षणेन, लोके जने, भवति / ततश्च किमित्याह-बोधिलाभः सम्यग्दर्शनप्राप्तिः, चशब्दः पुनरर्थो भिन्नक्रमश्च / केषांचिल्लघुकर्मणां प्राणिनां, भवति जायते, परमः प्रधानोऽक्षेपेण मोक्षसाधकत्वादन्येषां पुनरपरेषां, पुनर्बीजलाभः सम्यग्दर्शनबीजस्य जिनशासनपक्षपातरूपशुभाध्य-वसायलक्षणस्य प्राप्तिः / इतिशब्दः समाप्तौ / इति गाथार्थः / / 23 / / Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुजाणअणुजाण 370 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुजाण कथं तीर्थवर्णवाद एव बोधिबीजं भवत्यत आहजधिय गुणपडिवत्ती, सव्वण्णुमयम्मि होइ पडिसुद्धा। सा विय जायति बोहीए तेण णाएण चोराणं // 24 // चियशब्द एवकारार्थः, स चापिशब्दार्थः / ततश्च याऽपि काचिदल्पाऽपीत्यर्थः / गुणप्रतिपत्तिर्गुणाभ्युपगतिः, सर्वज्ञमते जिनशासनविषये, भवति जायते, परिशुद्धा भावगर्भा, साऽपि गुणप्रतिपत्तिः, जायते संपद्यते, बीजहेतुबोधये, सम्यग्दर्शनप्रतिपत्तेः, तेन ज्ञातेन, चौरोदाहरणेन, तच प्रागुक्तमिति गाथार्थः // 24 // यदि श्रावका अपि राजदर्शनासमस्तिदा को विधिरित्याहइय सामत्थाभावे, दोहि वि वग्गेहि पुव्वपुरिसाणं। इयसामत्थजुआणं, बहुमाणो होति कायव्यो / / 25 / / इत्युक्तरूपे राजदर्शनद्वारेणाऽमाघातकारणे यत्सामर्थ्य बलं, तस्य योऽभावः स तथा तस्मिन्, द्वाभ्यामपि, आस्तामेकेन, वर्गाभ्यां समुदायाभ्यां, प्रवचनगुरुश्रावकलक्षणाभ्यां पूर्वपुरुषाणामतीतमानवानाम्, इति सामर्थ्ययुतानाममाघातकारणबलयुक्तानां, बहुमानः प्रीतिविशेषो, भवति वर्तते, कर्तव्यो विधेय इति गाथार्थः // 25 // बहुमानमेव स्वरूपत आहते धण्णा संप्पुरिसा,जे एयं एवमेव णीसेसं / पुट्विं करिसु किचं, जिणजत्ताए विहाणेणं // 26|| ते पूर्वपुरुषाः, धन्याः श्लाध्याः, सत्पुरुषा महापुरुषाः, वर्त्तन्ते ये, एतदनन्तरोक्तं कृत्यमिति योगः / एवमेवोक्तन्यायेनैव, निःशेषं सर्व, पूर्वकाले (करिसुत्ति) अकार्षुः, कृत्यं करणीयं, दान-पूर्वामाघातलक्षणं, जिनयात्रायां जिनोत्सवे, विधानेन विधिनेति गाथार्थः // 26 // अम्हेउ तह अधण्णा, धण्णा उण एतिएण जंतेसिं। बहु मण्णामो चरियं, सुहावहं धम्मपुरिसाणं ||27|| वयं तु, वयं पुनस्तथा तेन प्रकारेण जिनयात्रादिसमयविधानसंपादनसामर्थ्याभावलक्षणेनाऽधन्या अश्लाघ्याः, धन्याः पुनः श्लाघ्याः, पुनरियता एतावता, यत्तेषां पूर्वपुरुषाणां, बहु मन्यामहे पक्षपातविषयीकुर्मः, चरितं चेष्टितं सुखावहं सुखकारणं शुभावहं वा, धर्मपुरुषाणां धर्मप्रधाननराणाम् / वीरपुरुषाणामिति च पाठान्तरमिति गाथार्थः // 27 // एतद्बहुमानस्य फलमाहइय बहुमाणा तेसिं, गुणाणमणुमोयणा णिओगेण। तत्तो तत्तुल्लं विय, होइफलं आसयविसेसा // 28 // इत्यादिबहुमानादनन्तरोक्तपक्षपाताखेतोस्तेषां पूर्वपुरुषाणां सत्कानां गुणानां धर्मचरणादीनामनुमोदनाऽनुमतिर्नियोगेना-वश्यतया भवति ।(तत्तो त्ति) ततश्च गुणानुमोदनातः, तत्तुल्य मेवपूर्वपुरुषानुष्ठानफलसममेव भवति, जायते। फलं कर्मक्षयादिको गुणः / यदाह-अप्पहियमायरंतो, अणुमोयंतो य सग्गई लहइ / रहकारदाणअणुमोयगो मिगो जह य बलदेवो // 1 // अथ कथं कलानुष्ठानवतां सकलानुष्ठानवदिभस्तुल्यं फलं भवतीत्याहआशयविशेषादध्यवसायभेदात् / अध्यवसाय एव हि परं कारणं शुभाशुभकर्मबन्धादिं प्रति / यदाह-परम-रहस्समिसीणं, सम्मतगणिपिडगभरियसाराणं / परिणामियं पभाणं, निच्छयमवलंबमाणाणं / / 1 / / इति गाथार्थः॥२८॥ 'आरंभेचिय दाणं' इत्यादियदुक्तं, तदुपसंहरन्नाह कयमेत्थ पसंगणं, तवोवहाणादिया विणियसमए। अणुरूवं कायव्वा, जिणाण कल्लाणदियहेसुं / / 26 / / कृतमलमत्र दानामाघातप्रसङ्गेन, प्रसक्त्या तप उपधानादिका अपि तपःकर्मशरीरसत्कारप्रभृतिका अपि भावाः, न केवलं दानमित्यपिशब्दार्थः / निजसमये स्वकीयावसरे रूढिगम्ये अनुरूपम् औचित्येन कर्त्तव्या विधेया। कदेत्याह-जिनानामर्हतां कल्याण-दिवसेषु पञ्चमहाकल्याणी प्रतिबद्धदिनेष्विति गाथार्थः // 26 // कल्याणान्येव स्वरूपतः फलतश्चाऽऽहपंचं महाकल्लाणा, सव्वेसिं जिणाण होंति णियमेण। भुवणच्छेरय भूया, कल्लाणफला य जीवाणं / / 30 / / गन्मे जम्मे य तहा, णिक्खमणे चेव णाणणिव्वाणे। भुवणगुरूण जिणाणं, कल्लाणा होति णायव्वा / / 31 / / पञ्चेति पञ्चैव महाकल्याणानि परमश्रेयांसि सर्वेषां सकल-काल निखिलनरलोकभाविनां जिनानामहतां भवन्ति नियमे-नाऽवश्यंभावेन, तथा वस्तुस्वभावत्यात् / भुवनाश्चर्यभूतानि -निखिल भुवनाद्भुतभूतानि, त्रिभुवनजनानन्दहेतुत्वात् / तथा कल्याण-फलानि च निःश्रेयससाधनानि / चः समुच्चये। जीवानां प्राणिनामिति / गर्भ गर्भाधाने, जन्मन्युत्पत्तौ / चशब्दः समुच्चये / तथेति वाक्योपक्षेपे / निष्क्रमणे अगारवासान्निर्गमे, चैवेति समुच्चयावधारणार्थावित्युत्तरत्र संभत्स्येते। ज्ञाननिर्वाण समा-हारद्वन्द्वत्वात्केवलज्ञाननिवृत्योरेव च। केषां गर्भादिष्वित्याह- भुवनगुरूणां जगज्ज्येष्ठानां जिनानामर्हताम् / किमित्याह-कल्याणानि श्वःश्रेयसानि, भवन्ति वर्तन्ते, ज्ञातव्यानि ज्ञेयानीति गाथाद्वयार्थः // 30-31 / / ततश्च - तेसु य दिणेसु धण्णा, देविंदाई करिति भत्तिणया। जिणजत्तादि विहाणा, कल्लाणं अप्पणो चेव॥३२॥ (तेसु यत्ति) तेषु च दिनेषु दिवसेषु, येषु गर्भादयो बभूवुर्धन्या धर्मधनं लब्धारः, पुण्यभाज इत्यर्थः / देवेन्द्रादयः सुरेन्द्रप्रभृतयः, कुर्वन्ति विदधति, भक्तिनता बहुमाननमाः / किमित्याह ?-जिनयात्राऽऽदि, अर्हदुत्सवपूजास्नात्रप्रभृतिम् / कुत इत्याह-विधानाद्विधिना / अथवा जिनयात्रादिविधानानि / किंभूतं जिनयात्रादीत्याह- कल्याणं श्वःश्रेयसम्। कस्येत्याह-आत्मनः स्वस्य, चैवशब्दस्य समुच्यार्थत्वेन परेषां वेति गाथार्थः // 32 // यत एवम्इय ते दिणा पसत्था, ता सेसेहिं पि तेसु कायव्वं / जिणजत्तादि सहरिसं, ते य इमे वद्धमाणस्स // 33|| इत्यतो हेतोः पूर्वोक्तजीवानां कल्याणफलत्वादिलक्षणात्ते इति, येषु जिनगर्भाधानादयो भवन्ति, दिना दिवसाः, दिनशब्दः पुंल्लिङ्गोऽप्यस्ति / प्रशस्ताः श्रेयांसः। ततः किमित्याह-(ता इति) यस्मादेवं तस्मात् शेषैरपि देवेन्द्रादिव्यतिरिक्तै मनुष्यैरपि, न केवलमिन्द्रादिभिरेवेत्यपिशब्दार्थः। तेषु गर्भादिकल्याणदिनेषु, कर्तव्यं विधेयं, जिनयात्रादि वीतरागोत्सवपूजाप्रभृतिकं वस्तु, सहर्ष सप्रमोदं यथाभवति / कानि च तानि दिनानीत्यस्यां जिज्ञासायां सर्वजिनसंबन्धिना, तेषां च वक्तुमशक्यत्वाद्वर्तमान-तीर्थाधिपतित्वेन प्रत्यासन्नत्वादेकस्यैव महावीरस्य, तानि विव-क्षुराह-(ते यत्ति) तानि पुनर्ग दिदिनानि इमानि वक्ष्यमाणानि वर्द्धमानस्य महावीरजिनस्य भवन्तीति गाथार्थः // 33 // Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुजाणअणुजाण 371 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुजाण ___ तान्येवाऽऽह वीतरागाणां, नियमेन नियोगेन,(एत्तोच्चि य त्ति)यत एव आसाढसुद्धछट्टी, चेत्ते तह सुद्धतेरसी चेव। कल्याणकयात्रया तीर्थकरबहुमानादिकं कृतं भवत्यत एव मग्गसिरकिण्हदसमी, वइसाहे सुद्धदसमी य॥३४॥ हेतोर्मागानुसारिभावो मोक्षपथानुकूलाध्यवसाय आगमानुसारी वा, कत्तियकिण्हे चरिमा, गब्भाइदिणा जहक्कम एते। जायते भवति / असौ किं भूतः? विशुद्धोऽनवद्यः। स्यतो विशुद्धोऽसौ हत्थुत्तरजोएणं, चउरो तह सातिणा चरमो॥३५।। जायते, विशुद्ध्यतीत्यर्थ इति गाथाद्वयार्थः / / 37-38 / / आषाढशुद्धषष्ठी आषाढ मासे शुक्लपक्षस्य षष्ठी तिथिरित्येक / यद्यसौ जायते, ततः किमित्याहदिनम् / एवं चैत्रमासे / तथेति समुच्चये। शुद्धत्रयोदश्येवेति द्वितीयम्। तत्तो सयलसमीहिय-सिद्धी णियमेण अविकलं जं से। चैवेत्यवधारणे / तथा मार्गशीर्षकृष्णदशमीति तृतीयम् / वैशाख कारणमितीए भणिओ, जिणेहिं जियरागदोसेहिं // 36 // शुद्धदशमीति चतुर्थम् / चशब्दः समुच्चयार्थः / कार्तिक कृष्णे चरमा ततो विशुद्धर्मागानुसारिभावात् सकलसमीहितसिद्धि निखिलेपञ्चदशीति पञ्चमम् / एतानि किमित्याहग दिदिनानि गर्भजन्म- प्सितार्थ निष्पत्तिर्नियमेन नियोगेन, कुतः पुनरेतदित्याह-अविकल - निष्क्रमणज्ञाननिर्वाणदिवसाः, यथाक्रम क्रमेणैव, एतान्यनन्तरोक्तानि, मवन्ध्यं यद् यस्मात्कारणं हेतुः, अस्याः सकलसमीहितएषां च मध्ये हस्तोत्तरयोगेन, हस्त उत्तरोयासांहस्तोपलक्षिता या उत्तरा सिद्धेर्भणितोऽभिहितो, जिनरर्हभिः / जिनाश्च नामजिनादयोऽपि हस्तोत्तरा उत्तराफाल्गुन्यः ताभिर्योगः संबन्धश्चन्द्रस्येति हस्तोत्तरायोगः, भवन्तीत्यत आह-जितरागद्वेषैर्विगताऽसत्यवादकारणैरित्यर्थ इति तेन करणभूतेन, चत्वार्याधानि दिनानि भवन्ति / तथेति समुच्चये / गाथार्थः॥३६॥ अथ कथमसौ मार्गानुसारिभावः सकलसमीहित-सिद्धेः स्वातिना स्वातिनक्षत्रेण युक्तः। (चरमो ति) चरमकल्याणकदिनमिति, कारणं भणित इत्यत्रोच्यते, शुभचेष्टानिमित्तत्वेन, एतदेव दर्शयन्नाहप्रकृतत्वादिति गाथाद्वयार्थः॥३४-३५|| मग्गाणुसारिणो खलु, तत्तामिणिवेसओ सुभा चेव। अथ किमिति महावीरस्यैवैतानि दर्शितानीत्यत्राऽऽह होइ समत्ता चेट्ठा, असुभा विय णिरणुबंध ति॥४०॥ अधिगयतित्थविहाया, भगवं ति णिदंसिया इमे तस्स। मार्गानुसारिणो मोक्षपथानुकूलभावस्य जीवस्य, खलुर्वा-क्यालङ्कारे, सेसाण वि एवं विय, णियणियतित्थेसु विण्णेया॥३६|| शुभैव चेष्टे ति संबन्धः / कुत एवमित्याह-तत्त्वा-भिनिवेशतो अधिकृततीर्थविधाता वर्तमानप्रवचनकर्ता, भगवान्महावीर वस्तुस्वरूपनिनीषातिशयात्, शुभैव प्रशस्तैव, नेतरा / इति, हेतोर्निदर्शितान्युक्तानि, इमानि कल्याणकदिनानि, तस्य चैवशब्दोऽवधारणार्थः / भवति जायते, समस्ता निःशेषा, चेष्टा वर्द्धमानजिनस्य, अथ शेषाणां तान्यतिदिशन्नाह-शेषाणामपि, न क्रियाऽशुभा। किं सर्वथा न भवतीत्यस्यामाशङ्काया-माह-अशुभाऽपि वर्द्धमानस्यैव / ऋषभादीनामपि, वर्तमानावसर्पिणीभरतक्षेत्रापेक्षया चाऽप्रशस्ताऽपि च / चेष्टेति वर्त्तते / अपि चेति समुच्चये। भवति केवलं एवमेवेह तीर्थे वर्द्धमानस्यैव, निजनिजतीर्थेषु स्वकीय-प्रवचनावसरेषु, निरनुबन्धा अनुबन्धनरहितापुनः पुनरभाविनीत्यर्थः / इतिशब्दः विज्ञेयानि ज्ञातव्यानि, मुख्यवृत्त्या विधेयतयेति / इह च यान्येव समाप्ताविति गाथार्थः // 40 // गर्भादिदिनानि जम्बूद्वीपभरतानामृषभादिजिनानां तान्येव सर्वभरतानां कुतो निरनुबन्धा सेत्याहसर्वैरावतानां च, यान्येव एतेषामस्या-मवसर्पिण्यांतान्येव च सो कम्मपारतंता, वट्टइ तीए ण भावओ जम्हा। व्यत्ययेनोत्सर्पिण्यामपीति गाथार्थः // 36 // इय जत्ता इय बीयं, एवंभूयस्स भावस्स॥४१॥ अथ किमेवं कल्याणकेषु जिनयात्रा विधीयत इत्याह स मार्गानुसारी जीवः कर्मपारतन्त्र्याचारित्रमोहनीयकर्म वशादेव, तित्थगरे बहुमाणो, अब्भासो तह य जीतकप्पस्स। वर्त्तते प्रवर्तते, तस्यामशुभचेष्टायां, न भावतो, न पुनर्भावनादेविंदाद्यणुकित्ती, गंभीरपरूवणा लोए॥३७॥ ऽन्तःकरणेन तत्त्वाभिनिवेशादेव यस्मात्कारणात्तस्माद् निरनुबन्धेति वण्णो य पवयणस्सा, इय जत्ताए जिणाण णियमेण। प्रकृतमिति / कल्याणकयात्राफलनिगमनायाह-इति यात्रामग्गाणुसारिभावो, जायइ एत्तो च्चि य विसुद्धो॥३८|| ऽनन्तरोक्तकल्याणकजिनोत्सव इत्युक्तन्यायेन शुभचेष्टाहेतुलक्षणेन बीजं तीर्थकरे जिनविषये, बहुमानः पक्षपातः तदिदं दिन, यत्र भगवान् कारणम्, एवंभूतस्यानन्तरोक्तस्य सकल-समीहितसिद्धि-कारणस्य, अजनीत्यादि विकल्पितः कृतो भवतीति सर्वत्र गम्यमिति। यात्रयेत्यनेन भावस्य मार्गानुसारिपरिणामस्य, पूर्वोक्तस्येति गाथार्थः // 41 // योगः। तथेति वाक्योपक्षेपार्थोऽत्र द्रष्टव्यः। अभ्यासोऽभ्यसनम्। चशब्दः उत्सवविशेषस्यान्यस्यापि कल्याणकदिनेष्वेव विधेयतां दर्शयन्नाहसमुचये / जितकल्पस्य पूर्व-पुरुषाचरितलक्षणाचारस्येति / तथा ता रहणिक्खमणादि वि, एतेसु दिणे पडुच कायव्वं / देवेन्द्राद्यनुकृतिः देवाधि-पदेवदानवप्रभृत्याचारानुकरणम् / तथा जं एसो व्वि य विसओ, पहाणमो तीऍ किरियाए।॥४२॥ गम्भीरप्ररूपणा गम्भीरं साभिप्रायमिदं यात्राविधानं, न तदिति यस्मात्तीर्थकरबहुमानादयोऽनन्तराभिहितगुणाः यादृच्छिकमित्यस्य प्ररूपणा प्रकाशना गम्भीरप्ररूपणा कृता भवतीति, कल्याणक-दिनेषु जिनयात्रायां भवन्ति, तस्माद् रथस्य जिन तथालोके जनमध्ये, वर्णः प्रसिद्धिर्जायत इति योगः। चशब्दः समुच्चये। बिम्बाधिष्ठितस्य स्यन्दनस्य, जिनगृहान्निष्क्रमणं निर्गमो नगर कस्य ? प्रवचनस्य जिनशासनस्य, दीर्घत्वं प्राकृतत्वादिति / यात्रया परिभ्रमार्थ रथनिष्क मणं, तदाद्यपि तत्प्रभृतिकर्म, आदि अनन्तरोक्तविधानोत्सवेन, क्रियमाणयेति गम्यम् / केषाम् ? जिनानां ] शब्दाच्छिविकाचित्रपटनिष्क्रमणादिग्रहः / न के वलं यात्रेत्यपि Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुजाण 372- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुजाण शब्दार्थः / एतेषु च तान्येव कल्याणकरूपाणि दिवसान् प्रतीत्याश्रित्य, कर्तव्यं विधेयं भवति / कस्मादेवमित्याह-यद् यस्मात्कारणादेष एव कल्याणदिनलक्षणो विषयो गोचरः प्रधानः शोभनः / मकारस्तु प्राकृतशैलीप्रभवः / तस्या रथनिष्क्रमणादिकायाः क्रियायाः चेष्टायाः, इदं चाऽवधारणमनागमोक्तदिनव्यवच्छे दार्थमेव द्रष्टव्यम्, आगमोक्तदिनानां त्वागमप्रामाण्यादेव प्रधानत्वात् / अभिधीयते चागमे - "संवच्छरचाउम्मासएसु अट्ठाहियासुय तिहीसु / सव्वायरेण लग्गइ, जिणवरपूया तवगुणेसु" ||1|| तथा प्रतिष्ठा-ऽनन्तरमष्टाह्निकाया इहैव विधेयतयोपदिष्टत्वादिति गाथार्थः // 4 // ननु कल्याणकदिनेष्वेव यात्रायाः कथं प्राधान्यम् ? बहुफल-त्वादिति ब्रूमः, एतदेवाऽऽहविसयप्पगरिसभावे, किरियामेत्तं पि बहुफलं होई। सकिरिया विहुण तहा, इयरम्मि अवीयरागि व्व // 43 / / विषयस्य क्रियाविशेषगोचरस्य प्रकर्षभाव उत्कृष्टता-विषयप्रकर्षभावः, तत्र क्रियामात्रमपि अविशेषवत् क्रियाऽपि, आस्तां विशिष्टा, बहुफलं प्रभूतेष्टफलं भवति जायते / एतस्यैव व्यतिरेकमाह-सत्क्रिया विशिष्टचेष्टाऽपि आस्ता क्रियामात्रम् / हुशब्दोऽलड्कृतौ / न तथा, न तत्प्रकारा, न बहुफला भवति / इतरस्मिन् विषयस्य प्रकर्षाभावे, उक्तमर्थं दृष्टान्तेन समर्थयन्नाह-अवीतरागे इव पुरुषमात्रवत्। यथाऽस्य वीतरागे गुणोत्कर्षाभावेन विषयप्रकर्षाभावेन महत्यपि पूजादिका चेष्टा बहुफला न भवति, तथा कल्याणकदिनेभ्योऽन्यत्रेति गाथार्थः / / 43 / / अथ कल्याणकयात्रामेव पुरस्कुर्वन्नुपदेशमाहलघृण दुल्लहं ता, मणुयत्तं तह य पवयणं जइणं / उत्तमणिदंसणेसुं, बहुमाणो होइ कायव्वो॥४४॥ लब्ध्या प्राप्य, दुर्लभमसुलभं (ता इति) यस्मादिन्द्रादिभिः कृता बहुफला चकल्याणकयात्रा तस्मात्कारणात्मनुजत्वं नरत्वम्। तथाचेति समुच्यार्थः / प्रवचनं शासनं,जैनं सर्वज्ञरचितं, जिनमतप्राप्तियुक्तस्यैव विशिष्टोपदेशयोग्यता तत्सफलताकरणे सामर्थ्य च भवतीति कृत्वा मनुजत्वमित्याधुक्तम् / उत्तमनिदर्शनेषु प्रधानसत्त्वज्ञातेष्विन्द्रादिलक्षणेषु / तद्यथा- कल्याणकयात्रा विधेया देवप्रभुप्रभृतिप्रवर्तितेयं, यत इति बहुमानः पक्षपातो, भवति जायते, कर्त्तव्यो विधेयो, न तु मोहोपहतसत्त्वनिदर्शनेषु यथा यथाऽमुनाऽमुना वाऽस्मत्पितृपितामहादिनाऽन्येन चेदं विहितमिति विधेयमिति गाथार्थः / / 4 / / अधिकृत यात्रागतमेवोपदेशाऽन्तरमाहएसा उत्तमजत्ता, उत्तमसुयवण्णिआ सइ बुहेहिं। सेसा य उत्तमा खलु, उत्तमरिद्धीए कायव्वा।।४५|| एषाऽनन्तरोक्ता कल्याणकयात्रा उत्तमयात्रा प्रधानयात्रा, तदन्यस्याः का वार्तेत्याह-उत्तमश्रुतवर्णिता प्रधानागमाभिहिता या सा, शेषा च कल्याणकव्यतिरिक्ताऽपि, उत्तमा खलु प्रधानैव। उत्तमश्रुतवर्णिता तु, लोकरूढिकृता तु नेति / अतश्चोत्तमत्वात्सदा बुधैर्विद्वद्भिरुत्तमा प्रधानविभवेन, न यथाकथंचित्कर्तव्या विधेयेति गाथार्थः / / 45! / उक्तव्यतिरेके यदापद्यते, तदाह- . इयरा वाऽबहुमाणोऽवण्णा य इमीए णिउणबुद्धीए। एयं विचिंतियव्वं, गुणदोसविहावणं परमं / / 46|| इतरथाऽन्यथा उत्तमद्ध्या तदकरणे / अथवोत्तमयात्राया अकरणे तत्र | यात्राविशेषाभिधायके उत्तमश्रुते उत्तमनिदर्शनेषु वा बहुमानः प्रीतिः, तबहुमानस्तत्प्रतिषेधोऽतबहुमानः स भवति / तदुक्तयात्राविशेषस्याऽकरणात् तथाऽवज्ञा आवधीरणा च कृता भवति / अस्यामुत्तमयात्रायामिति निपुणबुद्ध्या सूक्ष्मधिया / एतदनन्तरोक्तमनर्थद्वयं विचिन्तयितव्यं परिभावनयिम्, यतो गुणदोषविभावनमर्थानालोचनं सर्वस्यानुष्ठानस्य परमं प्रधानम्, ततः प्रवृत्तिनिवृत्तिभावादिति गाथार्थः // 46 // उत्तमश्रुतोक्तयात्रा-ऽवज्ञानेन लोकरूढ़ेर्यात्राकरणमयुक्तमितिदर्शयन्नाहजेट्टम्मि विज्जमाणे, उचिय अणुजेट्ठपूयणमजुत्तं / लोगाहरणं च तहा, पयडे भगवंतवयणम्मि / / 47|| ज्येष्ठे वृद्धतरे पुत्राद्यपेक्षया पित्रादौ विद्यमाने सति उचिते निर्दोषत्वेन पूजायोग्ये, अनुज्येष्ठस्य लघोः पुत्रादेः, पूजनं सत्कारोऽयुक्तमसंगतम्, यथेति शेष इति दृष्टान्तः / दार्शन्तिकमाह - (लोगाहरणं च) लोकोदाहरणमपि पित्राधुद्देशेनाऽमुष्मिन् वा मासादौ अमुना च क्रियते यात्राऽतस्तथैव सा नो विधेयेत्येवं लक्षणं, तथा तद्वदयुक्तमेवानुज्येष्ठपूजनवत्, प्रकटे स्पष्टे भगवद्वचने जिनागमे सकलजगजनज्येष्ठे सतीति गाथार्थः // 47 // अयुक्तत्वमेव लोकोदाहरणस्य भावयन्नाहलोगो गुरुतरुगो खलु, एवं सति भगवतो वि इट्ठो त्ति। मिच्छत्तमो य एयं, एसा आसायणा परमा॥४८|| लोक एव सामान्यजन एव, गुरुतरको गरीयान् / खलु- अवधारणे, तस्य च दर्शित एव प्रयोगः / एवमुक्तनीत्या ,भगवद्वचनसद्भावेऽपि लोक प्रमाणीकरणलक्षणे वस्तुनि सति,भगवतोऽपि सकलजगज्जयेष्ठजिनादपि सकाशादिष्टोऽभि-मतः / इतिः समाप्तौ / ततः किमित्याह-मिथ्यात्वं मिथ्यादृष्टित्वम् / ओकारो निपातः पूरणार्थः / चशब्दः पुनरर्थकः / एतद्भगवदपेक्षया लोकस्य गुरुतरत्वाभिगमनं विपरीतबोधत्वात्, तथा एषा लोकस्य गुरुतरत्वाभिगमनलक्षणा, आशातना सर्वज्ञावमानना, परमा प्रकृष्टा, अनन्तसंसाराऽऽवहेत्यर्थः / सर्वज्ञवचनमेव प्रमाणतयाऽङ्गीकर्त्तव्यम्।लोकस्तु तद्विरुद्धानुष्ठान एवेति गाथार्थः / / 4 / / अथ सर्वज्ञमुपदेशमाहइय अण्णत्थ वि सम्म,णाउं गुरुलाघवं विसेसेण। इढे पयट्टियव्वं, एसा खलु भगवतो आणा ||46ll इत्येवं कल्याणकयात्रावत्, अन्यत्रापि यात्राव्यतिरिक्त दानादावपि, सम्यगवैपरीत्येन, ज्ञात्वा विज्ञाय, गुरुलाघवं सारेतरत्वं, विशेषेण परस्परापेक्षयाऽऽधिक्येन, इष्टेऽभिमते वैयावृत्त्यादौ, प्रवर्तितव्यं यतितव्यं, यत एषाखलु इयमेवाऽनन्तरोक्तभगवतो जिनस्याऽऽज्ञा आदेश इति गाथार्थः // 46 // अथोपसंहरन्नाहजत्ताविहाणमेयं, णाऊणं गुरुमुहाउ धीरेहिं / एवं विय कायव्वं, अविरहियं भत्तिमंतेहिं / / 5 / / यात्राविधानं जिनोत्सवविधिः, एतदनन्तरोक्तं ज्ञात्वा विज्ञाय, गुरुमुखात् सूरिवदनाद्, धीरैर्धीमद्भिः , (एवं वि यत्ति) एव मेवोतविधिनैव,कर्तव्यं विधेयम्,अविरहितं सन्ततं भक्तिमभिर्बहुमानवद्भिरिति गाथार्थः / / 50 / / इति यात्राविधिप्रकरणं विवरणतः Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुजाण 373 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुजाण समाप्तम्। पञ्चा०६ विव० (अथाऽनुयाने यथा साधवोऽकल्पंपरिहरन्ति, तथा 'एसणा' शब्दे तृतीयभागे 70 पृष्ठे दर्शयिष्यते) अथाऽनुयानविषयो विधिरुच्यतेआणाइणो य दोसा, विराहणा होइ संजमप्पाए। एवं ता वच्चंते, दोसा पत्ते अणेगविहा॥ निष्कारणेऽनुयानं गच्छत आज्ञादयश्च दोषाः, विराधना च संयमात्मनो भवति। एवं तावद्व्रजतो मार्गे दोषाः, तत्र प्राप्तानांपुनरनेकविधा दोषाः / तत्र संयमाऽऽत्मविराधनां भावयतिमहिमा उस्सुयभूए, इरियादी न य विसोहए तत्थ। अप्पा वा कायावा, न सुत्तं नेव पडिलेहणा।। महिमा नाम भगवतः प्रतिमायाः पुष्पारोपणादिपूजात्मकः सातिशय उत्सवः, तस्य दर्शनार्थमुत्सुकभूत ईर्यादिसमितिर्न विशोधयति / आदिशब्दादेषणादिपरिग्रहः / तत्र चेर्यादीनामशोधने आत्मा च कायाश्च विराध्यन्ते। आत्मविराधना कण्टकस्थाण्वाधुपघातेन, संयमविराधना षण्णां कायानामुपमर्दादिना, तथा त्वरमाणत्वादेव न सूत्रं गुणयति, उपलक्षणत्वादर्थ च नाऽनुप्रेक्षते, नैव प्रतिलेखनां वस्त्रपात्रादेः करोति, अथवा अकालेऽविधिना स करोति / एवमेव मार्गे गच्छतां दोषा अभिहिताः। अथ तत्र प्राप्तानां ये दोषास्तानभिधित्सुरिगाथामाहचेइय आहाकम्म, उग्गमदोसाय सेह इत्थीओ। नाडगसंफासणतंतुखुडु निद्धम्मकजा य / / चैत्यानां स्वरूपं प्रथमतो वक्तव्यं, तत आधाकर्म, तत उद्गमदोषाः, ततः शैक्षाणां पार्श्वस्थेषु गमनं, ततः स्त्रीदर्शनसमुत्था दोषाः, ततो नाटकावलोकनप्रभवः, ततः संस्पर्शनसमुत्थाः, तदनन्तरं तन्तवः कोलिकजालं तद्विषयाः, तदनु (खुड्ड त्ति) पार्श्वस्थादिक्षुल्लकदर्शनसमुत्थाः, ततो निर्धर्मणां लिङ्गि नां यानि कार्याणि तदुत्थिताश्च दोषा वक्तव्याः / इति द्वारगाथासमासार्थः / बृ०१ उ०। (चैत्यव्याख्या 'चेइय' शब्दे द्रष्टव्या) (वसतिविषयमाधाकर्म 'आधाकम्म' शब्दे द्वि० भागे 230 पृष्ठ द्रष्टव्यम्) अथोद्गमदोषशैक्षद्वारद्वयमाहठविए संछोभादी, दुसोहया होंति उम्गमे दोसा। वंदिजंते दढुं. इयरे सेहा तहिं गच्छे / बहवः संयताः समायाता इति कृत्वा धर्मश्रद्धावान् लोकः संयतार्थं स्थापितं भक्तपानादेः स्थापनांकुर्यात्। गृहमागता-नामक्षेपेणैव दास्याम इति कृत्वा (संछोभ त्ति) यानि गृहाणि साधुभिरनेषणीयदाने अशङ्कनीयानि, तेषु शाल्योदनतण्डुल-धावनादिकं भक्तपानं, मोदकशोकवर्तिप्रभृतीनि वा खाद्यक-विधानानि निक्षिपेयुः, साधूनामागतानां दातव्यानीति / आदिशब्दात् क्रीतकृतप्राभृतिकादिपरिग्रहः / एते उद्गमदोषाः, तत्र दुःशोध्या दुष्परिहार्या भवन्ति, तथा इतरान् पार्श्वस्थादीन् बहुजनेन वन्द्यमानान् पूज्यमानांश्च दृष्ट्वा शैक्षास्तत्र पार्श्वस्थादिषु गच्छेयुः। सीनाटकद्वारद्वयमाहइत्थी विउव्विया वि हु, भुत्ताणं दठ्ठ दोसाओ। एमेव नाडईया, सविब्भमा नचियगीयाए। ___ स्वीः विकुर्विता वस्त्रविलेपनादिभिरलकृताः दृष्ट्वा भुक्तानां दोषाः स्मृतिकौतुकप्रभवाः भवन्ति। एवमेव नाटकीयानाठ्ययोषितः, सविभ्रमाः सविलासाः, नर्त्तितगीतयोः प्रवृत्ता विलोक्य, श्रुत्वा च भुक्ताऽभुक्तसमुत्था दोषा विज्ञेयाः। संस्पर्शनद्वारमाहइत्थिपुरिसाण फासे, गुरुगा लहुगा सई य संघट्टे / अप्पासंजमदोसाऽणुभावणं पच्छकम्मादी। समवसरणेपुष्पारोपणादिकौतुकेन भूयांसः स्वीपुरुषाःसंमायान्ति, तेषां संमर्दैन स्पर्शा भवति, ततः स्त्रीणां स्पर्श चत्वारो गुरवः, पुरुषाणां स्पर्श चत्वारो लघवः, स्मृतिश्चसंघट्टे भुक्तभोगिनां भवति, चशब्दादभुक्तभोगिनां कौतुकम्।आत्मसंयमविराधना-दोषाश्च भवन्ति। आत्मविराधना संमर्दै सति हस्तपादाद्युपधातः / संयमविराधना संमर्दे पृथिव्यां प्रतिष्ठिता षट्काया नाऽवलोक्यन्ते, न च परिहत्तुं शक्यन्ते (अनुभावणपच्छकम्मादी त्ति) साधुना कोऽपि शौचवादी पुरुषः स्पृष्टः संस्नायात्, संस्नानं निरीक्ष्याऽपरः पृच्छति-किमर्थं स्नासीति ? स प्राह-संयतेन स्पृष्ट इति। एवं परम्परया साधूनां जुगुप्सोपजायते- यथा 'अहो ! मलिना एते' एवमनुभावना, पश्चात् कर्म च भवति / आदिशब्दादसंखडादयो दोषाः। अथ तन्तुद्वारमाहलूयाकोलिगजालग-कोत्थलकारीए उवरि गेहे य। सांडिंतमसांडिंते, लहुगा गुरुगा अभत्तीए॥ असंमाय॑माणे चैत्ये भगवत्प्रतिमाया उपरिष्टादेता नाम भवेयुः, लूता नाम कोलिकपुटकानि / कोलिकजालकानि तु जालकाकाराः कोलिकानां लालातन्तुसंतानाः, कोत्थलकारी भ्रमरी, तस्याः संबन्धि गृहोपरि भवेत्। यद्येतानि लूतादीनि शाटयति, तदा चत्वारो लघवः / अथ न शाटयति ततो भगवतां भक्तिः कृतान भवति, तस्यां चाऽभक्तयां चत्वारो गुरुकाः। अथ क्षुल्लकद्वारं, निर्धर्मकायद्वारं च व्याख्यानयतिघट्ठाइ इयरखुडे, दट्टुं ओगुंठिया तहिं गच्छे। उक्कुट्ठघरधणाई, ववहारा चेव ति लिंगीणं / / छिंदंतस्स अणुमई, अमिलंत अछिंद उक्खिवणा। छिद्दाणि य पेहंती, नेव य कज्जेसु साहिजं / / इतरे पार्श्वस्थास्तेषां ये क्षुल्लका घृष्टा, आदिग्रहणाद् ‘मट्ठामुप्पेट्ठा पंडुरपडवाउरण' इत्यादि, तानित्थंभूतान् दृष्ट्वा संविनक्षुल्लका अवगुण्ठितामलदिग्धदेहाः परिभग्नाः सन्तः, तत्र तेषां लिङ्गि-नामन्तिके गच्छेयुः, तेषां च तत्र मिलितानां परस्परमुत्कृष्ट-गृहधनादिविषया व्यवहारा विवादा उपढौकन्ते, ते च व्यवहार-च्छेदनाय तत्र संविग्नान् आकारयन्ति, ततो यदि तेषां व्यवहार-श्छिद्यते, तदा भवति स्फुटस्तेषां गृहधनादिकं ददतः साधोरनु-मतिदोषः। उपलक्षणमिदम, तेन येषां यद् गृहधनादिकं न दीयते , तेषामप्रीतिकप्रद्वेषगमनादयो दोषाः / अथ लिङ्गिनामेतद्दोषभयात् प्रथमत एव न मिलन्ति, न वा व्यवहारपरिच्छेदं कुर्वन्ति, तत उत्क्षेपणा उद्घाटना साधूनां भवति, संघाटाद्बहिष्करणमित्यर्थः / छिद्राणि च दूषणानि, ते आकारिताः सन्तः साधूनां प्रेक्षन्ते, नैव च ते कार्येषु राजद्विष्टग्लानत्वादिषु साहाय्यं तन्निस्तरणक्षममुपष्टम्भं कुर्वते, यत एते दोषाः, अतो निष्कारणे न Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुजाण 374 - अभियानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुजाण प्रवेष्टव्यमनुयानमिति स्थितम्, कारणेषु च समुत्पन्नेषु प्रवेष्टव्यं, यदि न प्रविशति, तदा चत्वारो लघवः। कानि पुनस्तानीत्युच्यते'चेइयपूया राया-निमंतणं सन्नि वाइ धम्मकहा। संकिय पत्त पभावण, पवित्ति कजाइ उड्डाहो॥ अनुयानं गच्छता चैत्यपूजा स्थिरीकृता भवति, राजा वा कश्चिदनुयानमहोत्सवकारकः संप्रतिनरेन्द्रादिवत् तस्य निमन्त्रणं भवति, संज्ञी श्रावकः, स जिनप्रतिष्ठायाः प्रतिष्ठापनां चिकीर्षति, तथा वादी क्षपको, धर्मकथा च तत्र प्रभावनाऽर्थं गच्छति, शङ्कितयोश्च सूत्रार्थयोस्तत्र निर्णयं करोति, पात्रं वा तत्राऽव्यवच्छित्तिकारकं प्राप्नोति, प्रभावना वा राजप्रव्रजितादिभिस्तत्रगतैर्भवति, प्रवृत्तिश्चाऽऽचार्यादीनां कुशलवार्तारूपा तत्र प्राप्यते, कार्याणि च कुलादिविषयाणि साधयिष्यन्ते। उड्डाहश्च तत्र गतैर्निवारयिष्यते। इत्येतैः करणैर्गन्तव्यमिति द्वारगाथासमासार्थः / अथ विस्तरार्थे बिभणिषुश्चैत्यपूजाराजनिमन्त्रणद्वारे विवृणोतिसड्ढावुड्डी रण्णो, पूयाए थिरतणं पभावणयं। पडिघातो य अणत्थे, अत्था य करावई तित्थे॥ कोऽपि राजा रथयात्रामहोत्सवं कारयितुमनास्तन्निमन्त्रणे गच्छद्भिः तस्य राज्ञः श्रद्धावृद्धिः कृता भवति, चैत्यपूजायां स्थिरत्वं, प्रभावना च तीर्थस्य संपादिता भवति, ये च जैनप्रवचनप्रत्यनीकाः शासनावर्णवादमहिमोपघातादिकमनर्थं कुर्वन्ति, तस्य प्रतिघातः कृतो भवति, तीर्थे च आस्था स्वपरपक्षयोरादरबुद्धिरुत्पादिता भवतीति / अथ संज्ञिद्वारं चाहएमेव य सन्नीण वि, जिणाण पडिमासु पढमपट्ठवणे / मा परवाई विग्धं, करिज वाई अओ विसई॥ संज्ञिनः श्रावकाः केचित् जिनानां प्रतिमासु प्रथमतः (पट्ठवण त्ति) प्रतिष्ठापनं कर्तुकामाः, तेषामप्येवमेव, राज्ञ इव श्रद्धावृद्ध्यादिकं कृतं भवति, तथा मा परवादी प्रस्तुतोत्सवस्य विघ्नं कार्षीदतो वादी प्रविशति। परवादिनिग्रहे च क्रियमाणे गुणानुपदर्शयतिनवधम्माण थिरत्तं, पभावणा सासणे य बहुमाणो। अभिगच्छंतिय विदुसा, अविग्धपूयाय सेयाए। नवधर्मिणामभिनवश्रावकाणां स्थिरत्वं स्थिरीकरणं, शासनस्य च प्रभावना भवति / यथा आह - "प्रतिपत्तिपारमेश्वरं प्रवचनं यत्रेदशा वादलब्धिसंपन्ना'' इति / बहुमानश्चान्येषामपि शासने भवति, तथा च वादिनमभिगच्छन्ति अभ्यायान्ति विद्वांसः सहृदयाः तद्वादिनः कौतुकाकृष्टचित्ताः, तेषां च सर्वविरत्यादिप्रतिपत्त्या महान्लाभो भवति, / परवादिना च निगृहीतेन अविघ्नं निष्प्रत्यूहं पूजा कृता सती स्वपक्षपरपक्षयोरिह पत्र च श्रेयसे भवति / अथ क्षपकद्वारमाहआयाति तवस्सी, ओभावना गया परपवाईण। जइ एरिसा वि महिम, उविंति कारिंति सड्डा य॥ तत्र तपस्विनः षष्ठाऽष्टमादिक्षपका आतापयन्ति, ततश्वाऽ पभावना लाघवं परप्रवादिनां परतीथिकानां भवति, तेषां मध्ये ईदृशानां तपस्विनामभावात् / श्राद्धाश्चिन्तयन्ति-यदि तावदीदृशा अपि | भगवन्तोऽस्माभिः क्रियमाणां महिमा चैत्यपूजां द्रष्टुमायान्ति, तत इत ऊर्ध्व विशेषत एतस्यां यत्नं विधास्याम इति प्रवर्द्धमानश्रद्धाका महिमा कुर्वन्ति कारयन्ति च। अथ काथिकद्वारमाहआयापरसमुत्तारो, तित्थविवड्डी य होइ कहयंते। अन्नान्नाभिगमणे य, पूयाथिरया य बहुमाणो // क्षीराश्रवादिलब्धसंपन्न आक्षेपणीविक्षेपणीसंवेगजननी निवेदनीभेदाचतुर्विधां धर्मकथां कथयन्धर्मकथेत्युच्यते। तस्मिन् धर्म कथयति आत्मनः परस्य च संसारसागरात् समुत्तारो निस्तरणं भवति, तीर्थविवृद्धिश्च भवति, प्रभूते लोकस्य प्रव्रज्याप्रतिपत्तेः / तथा देशनाद्वारेण पूजाफलमुपवण्यान्यान्याभिगमने अन्या-न्यश्रावकबोधने च पूजायां स्थिरता, बहुमानश्च कृतो भवति। अथ शङ्कितपात्रद्वारे व्याख्यातिनिस्संकियं च काहिइ, उभए जं संकियं सुयहरे वि। अह वोच्छित्तिकरं वा, लभित्ति पत्तं दुपक्खाओ॥ उभये सूत्रे अर्थे च, यत्तस्य शङ्कितं, तत्तत्र श्रुतधरेभ्यः पार्थात् निःशङ्कितं करिष्यति / अथ व्यवच्छित्तिकरं वा पात्रं द्विपक्षात् लप्स्यते / द्वौ पक्षी समादृतौ द्विपक्षम्, गृहस्थपक्षः संयतपक्षश्चेत्यर्थः। अथ प्रभावनाद्वारमाहजाइकुलरूवधणबल-संपन्ना इद्धिमंत निक्खंता। जयणाजुत्तो य जई, समेच तित्थं पभाविंति।। जातिर्मातृकपक्षः, कुलं पैतृकपक्षः, रूपमाकृतिः, धनं गणिमधरिममेयपारिच्छेद्यभेदाचतुर्द्धा भवति। प्रभूतं गृहस्था-वस्थायामासीत्, बलं सहस्र यो धिप्रभृतीनामिव सातिशयं शारीरवीर्यम्, एतैर्जात्यादिभिर्गुणैः संपन्नाः, ये च ऋद्धिमन्तः निष्क्रान्ता राजप्रबजितादयो, ये च यतनायुक्ता यथोक्तसंयम-योगकलिता यतयः, ते समेत्य तत्राऽऽगत्य तीर्थं प्रभावयन्ति। अपिचजो जेण गुणेण हिओ, जेण विणा वा न सिज्झए जंतु। सो तेण तंम्मि कजे, सव्वत्थाणं न हावेइ॥ य आचार्यादिर्येन प्रावचनिकत्वादिना गुणेनाधिकः सातिशयः, येन वा विद्यासिद्धयादिना विना यत्प्रवचनं प्रत्यनीकशिक्ष-णादिकार्यं न सिद्ध्यति, स तेन गुणेन तस्मिन् कार्ये सर्वस्थानं सकलमपि वीर्य न हापयति, किंतु सर्वया शक्त्या तत्र गत्वा प्रवचनं प्रभावयतीति भावः / उक्तं च .. "प्रावचनी धर्मकथा, वादी नैमित्तिकस्तपस्वी च। जिनवचनज्ञश्च कविः, प्रवचन-मुद्भावयन्त्येते' / / 1 / / अथ प्रवृत्तिद्वारमाहसाहम्मिवायगाणं,खेमसिवाणंच लडिभइ पवित्तिं। गच्छिहिति जहिं तीइं, होहिंति न वा वि पुच्छति सो।। तत्राऽन्येषां साधर्मिकाणां चिरदेशान्तरगतानां वाचकानां वा आचार्याणां तत्र प्राप्तः प्रवृत्तिं लप्स्यते, तथा क्षेमं परचक्राधुपप्लवाभावः, शिवं व्यन्तरकृतोपद्रवाभावः, तयोरुपलक्षणत्वात् सुभिक्षदुर्भिक्षादीनां चाऽऽगामिसंवत्सरभाविनां प्रवृत्तिं तत्र नैमित्तिक साधूनां सकाशाल्लप्स्यते / यदि वा यत्र देशे स्वयं Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुजाण 375 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुजाण गमिष्यति, तत्र तानि क्षेमादीनि भविष्यन्ति ? न वेति साधर्मिकादीन / पृच्छति।कार्योड्डाह द्वारद्वयमाहकुलमाई कजाई,साहिस्सं लिंगिणो य सासिस्सं। जे लोगविरुद्धाइं, करिति लोगुत्तराई च / / कुलादीनि कुलगणसंघसत्काणि, कार्याणि तत्र गतः शाध-यिष्यामि, लिङ्गिनश्च तत्र गतः शासिष्यामि, हितोपदेशदानादिना शिक्षयिष्यामि। ये लिङ्गिनो लोकविरुद्धानि लोकोत्तरविरुद्धानि च प्रवचनोड्डाहकराणि कार्याणि कुर्वन्तीति / आह- यद्येतानि कारणानि भवन्ति, ततः किं कर्तव्यमित्याहएएहि कारणेहिं, पुव्वं पडिलेहिऊण अइगमणं। अद्धाणनिग्गयादी, लग्गा सुद्धा जहा खवओ॥ एतैश्चैत्यपूजादिभिः कारणैरनुयानं प्रवेष्टव्यमिति निश्चित्य पूर्वं प्रत्युपेक्ष्य ततोऽतिगमनं कार्यम्। अथाऽध्वनिर्गतास्ते अध्वान-मतिलङ्ग्य सहसैव तत्र प्राप्ताः। आदिशब्दादपूर्वोत्स-वादिवक्ष्यमाणकारणपरिग्रहः / एवंविधैः कारणैः प्रत्युपेक्षितेऽपि क्षेत्रे गताः सन्तो यथोक्तां यतनां कुर्वाणा अपि यदि लग्ना अशुद्धभक्तादिग्रहणदोषमापन्नास्तथापि शुद्धाः, यथा क्षपकः पिण्डनियुक्तौ प्रतिपादितचरितः शुद्धं गवेषयन्नपि निगूढबाह्याकारया तथाविधश्राद्धिकया छलितः सन्नाधाकर्मण्यपि गृहीते शुद्धोऽशठपरिणामत्वादिति नियुक्तिगाथासमासार्थः / अथैतदेव भाव्यतेनाऊण य अइगमणं, गीए पेसिंति पेहिउं कजे। उवसय मिक्खाचरिया, बाहिं उभामरादीया।। सब्भाविक इयरे वि य, जाणंती मंडवाइणो गीया। सेहादीण य थेरा, वंदणजुत्तिं बहिं कहए। चैत्यपूजादिके कार्ये समुत्पन्ने अनुयानक्षेत्रं प्रत्युपेक्षितुं गीतार्थान प्रेषयति, ततो ज्ञात्वा सम्यग् क्षेत्रस्वरुपमतिगमनं कर्त्तव्यम्। किं पुनस्तत्र प्रत्यपेक्ष्यमित्याह- मौलग्रामे उपाश्रयो बहिर्बाह्यग्रामेषु च उद्भ्रामकाक्षा भिक्षाचर्या / आदिशब्दात्तस्यां गच्छतामपान्तराले विश्रामस्थानं, मौलग्रामे च भिक्षाविचारभूमिप्रभृतिकं प्रत्युपेक्ष्यम्, तथा सद्भाविका नितरांश्च मण्डपादीन गीतार्था जानन्ति / यथा अमी सद्भावतः स्वार्थ मण्डपाः कृताः, अमी तु संयतार्थं परं कैतवप्रयोगेणा स्मानित्थं प्रत्याययन्ति, आदिग्रहणात् पीठिकादिपरिग्रहः / इत्थं तैः प्रत्युपेक्षिते सूरयः सबाल-वृद्धगच्छसहिता अनुयानक्षेत्रं प्रविशन्ति / स्थविराश्व बहिरेव वर्तमानाः शैक्षादीनां वन्दनयुक्ति पार्थस्थादिवन्दनविधि कथयन्ति, मा भूदन्यथा तद्वन्दने तेषां विपरिणाम इति। अथ चैत्यवन्दनाविधिमाहनिस्सकडमनिस्सकडे, वि चेइए सव्वेहि थुई तिन्नि। वेलं व चेइयाणि य, नाउं इक्किक्किया वा वि।। निश्राकृते गच्छप्रतिबद्धे, अनिश्राकृतेच तद् विपरीते, चैत्ये सर्वत्र तिस्रः स्तुतयो दीयन्ते। अथ प्रतिचैत्यं स्तुतित्रये दीयमाने वेलाया अतिक्रमो भवति भूयांसि वा तत्र चैत्यानि, ततो वेलां चैत्यानि वा ज्ञात्वा प्रतिचैत्यमेकैकाऽपि स्तुतितिव्येति। ____ अथ समवसरणविषयं विधिमाहनिस्स कडे चेइए गुरु, कइवयसहिए य इयरावसहिं। जत्थ पुण अनिस्सकडं, पूरिंति तहिं समोसरणं / / निश्राकृते चैत्ये गुरुराचार्यः कतिपयैः परिणतसाधुभिः सहितैश्चैत्यमहिमावलोकनाय तिष्ठति / इतरे शैक्षादयस्ते मा पार्श्वस्थादीन् भूयसा लोकेन पूज्यमानान् दृष्ट्वा तत्र गमनं कार्युरिति कृत्वा गुरुभिरनुज्ञाता वसतिं व्रजेयुः / यत्र पुनः क्षेत्रे अनिश्राकृतं चैत्यं तत्राऽऽचार्यः समवसरणं पूरयन्ति, सभामापूर्य धर्मकथा कुर्वन्तीत्यर्थः। आह-किं संविग्रैस्तत्र धर्मकथा, आहो श्विदसंविग्नैरपि? उच्यतेसंविग्गेहिँ य कहणा, इयरेहिं अपचओ न ओवसमो। पव्वजाभिमुहा विय, तेसु वए सेहमादीया।। संविगैरुद्यतविहारिभिः कथना धर्मस्य कर्तव्या / कुत इत्याह- इतरे असंविनास्तैर्धर्मकथायां क्रियमाणायां श्रोतृणामप्रत्ययो भवति, नैते यथा वादिनस्तथा कारिण इति / न च तेषामुपशमः सम्यग् - दर्शनादिप्रतिपत्तिर्भवति / अपि च / प्रव्रज्याभिमुखाः शैक्षादयो वा अद्याप्यपरिणतजिनवचनाः, तेऽपि तेषु व्रजेयुः, शोभनंखल्वेतेऽपिधर्म कथयन्तीति। आह-निश्राकृतचैत्ये यदि तदानीमसंविना न भवन्ति,ततः को विधिरित्याहपूरिति समोसरणं, अन्नासइनिस्सचेइएसुंपि। इहरा लोगविरुद्धं, सद्धाभंगो य सङ्घाणं / / अन्येषामसंविनानामसति निश्राकृतेष्वपि चैत्येषु समवसरणं पूरयन्ति, इतरथा लोकविरुद्धं लोकापवादो भवति- अहो ! अमी मत्सरिणो यदेवमन्यदीयं चैत्यमिति कृत्वा नाऽत्रोपविश्य धर्मकथां कुर्वन्ति, श्रद्धाभङ्गश्च श्राद्धानां भवति, तेषामन्यार्थमभ्यर्थ-यमानानामपि तत्र धर्मकथाया अकरणात्। अथ भिक्षाचर्यायां यतनामाहपुष्वपविट्ठहिँ समं, हिंडंती तत्थ ते पमाणं तु। साभाविकभिक्खाओ, विदंतऽपुव्वा य ठवियादी॥ पूर्वप्रविष्टानामपूर्व ये क्षेत्रप्रत्युपेक्षणार्थ प्रहितास्तैः समं भिक्षां हिण्डन्ते, तत्र च भिक्षामटतां त एव प्रमाणं गन्तुं, कैस्तत्र शुद्धा-ऽशुद्धगवेषणा कर्तव्या, ते च पूर्वप्रविष्टा इदं विदन्तियदेताः स्वाभाविकभिक्षाः स्वार्थनिष्पादिताः, एतास्तु अपूर्वाः संयतार्थ स्थापिता निक्षिप्तादयः / स्त्री संकुलनाटकशीतयोर्यतनामाहवंदे ण इंति तंति य, जुवमज्झे थेर इत्थिओ तेणं / चिट्ठति न नामएसुं, अह तंति न पेह रागादी। स्त्रीसंकुलवृन्दे नाऽऽयान्ति निर्गच्छन्ति च,येच युवानस्तेमध्ये क्रियन्ते, यतः स्त्रियस्तेन पार्थेन स्थविरा वृद्धा भवन्ति, मा भूवन् भुक्ताऽभुक्तसमुत्था दोषा इति / यत्र नाटकानि निरीक्ष्यन्ते, तत्र न तिष्ठन्ति / अथ कारणतस्तिष्ठन्ति, ततो (नपेह त्ति) नर्तक्या-दिरूपाणि न प्रेक्षन्ते, सहसा दृष्टिगोचरागतेषु रागादीन् न कुर्वन्ति, तेभ्यश्च प्राग दृष्टि निवर्तयन्ति / तन्तुजालादिषु विधिमाहसीलेह मंखफलए, इयरे चोयंति तंतुमादीसु। अभिजोजयंति तिसु य, अणिच्छि फेहंतऽदीसंता।। इतरे असं विगा देवकु लिका इत्यर्थः, तान् Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुजाण 376 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुट्ठाण तन्तुजाललूता-कोलिकादिषु सत्स, ते साधवो नोदयन्ति-यथा सांभोगिकानपि दृष्ट्वा दानश्राद्धकादिकुलानि वर्जयन्ति ते, शीलयत परिकर्मयत मङ्गफलकानीव मङ्गफलकानि। मनो नाम आधाकर्मादिदोषसंभवात्। शेषेषु कुलेषु पर्यटन्तो (दव्वादी पेहंत त्ति) चित्र-फलकव्यग्रहस्तस्तस्य च यदि फलकमुज्ज्वलं भवति, द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च शुद्धमन्वेषयन्तो, यद्यपि किमपि ततो लोकः सर्वोऽपितं पूजयति। एवं यदि यूयमपि देवकुलानि स्थापनादिकं दोषं लगन्ति प्राप्नुवन्ति, तथा शुद्धाः भूयो भूयः संमार्जनादिना सम्यगुज्ज्वालयत, ततो भूयान् क्षपकवदशठपरिणामतया श्रुतज्ञानोपयोगप्रवृत्तत्वादिति / गतं लोको भवतां पूजासत्कारं कुर्यात् / अथ ते देवकुलिकाः परिहरणाऽनुयानद्वारम् / बृ०१ उ०। सवृत्तिकाचैत्यप्रतिबद्धगृहक्षेत्रादिवृत्तिभोगिनस्तत- अणुजाणण-न०(अनुज्ञापन) अनुमोदने, सूत्र०१ श्रु०६ अस्था० स्तानमियोजयन्ति निर्भर्त्सयन्ति-यथा एकं तावद्देवकुलानां अणुजाणावणा-स्त्री०(अनुज्ञापना) मुत्कलने, पञ्चा० 6 विव० / वृत्तिमुपजीवथ, द्वितीयमेतेषां संमार्जनादिसारामपिन कुरुथ। अणुजाणाहिगार-पुं०(अनुयानाधिकार) रथस्य पृष्ठतोऽनुव्रजनेन इत्थं युक्ता अपि यदि तन्तु-जालादीन्यपनेतुं नेच्छन्ति ततो प्रतिष्ठाधिकारे, जी०१ प्रतिका अदृश्यमानाः स्वयमेव स्फेटयन्ति, अपनयन्तीत्यर्थः। अणुजाणित्तए-अव्य०(अनुज्ञातुम्) तथैव सम्यगेतद्धारयाऽन्येषां च क्षुल्लकविपरिणामसंभवे यतनामाह प्रवेदयेत्येवमभिधातुमित्यर्थे, स्था० 2 ठा०१ उ०। उज्जलवेसे खुड्डे, करिति उव्वट्टणाइ चोक्खे य। अणुजात(य)-त्रि०(अनुयात) अनुगते, प्रश्न०२ आश्र० द्वा०1"सरिसे नो मुच्चंतऽसहाए, दिति मणुन्ने य आहारे॥ वसभाणुजाए" अनुजातशब्दः सदृशवचनः। वृषभस्य अनुजातः सदृशो क्षुल्लकान उज्ज्वलवेषान् पाण्डुरपट्टचोलपट्टधारिणः उद्वर्तन वृषभाऽनुजातः / सू० प्र० 12 पाहु०। अनुरूपः सम्पदा पितुस्तुल्यो प्रक्षालनादिना च चोक्षान् शुचिशरीरान् कुर्वन्ति / न च ते क्षुल्लका जातोऽनुयातः, अनुगतो वा पितृविभूत्या-ऽनुयातः। पितृसमे सुतभेदे, असहाया एकाकिनो मुच्यन्ते, वृषभाश्च तेषां मनोज्ञान् स्निग्ध यथा महायशाः, आदित्ययशसा पित्रा तुल्यत्वात्। स्था०४ ठा० 1 उ०) मधुरानाहारानानीय ददति / उरभ्रदृष्टान्तेन च प्रज्ञापयन्ति / बृ० अणुजुत्ति-स्त्री०(अनुयुक्ति) अनुगतयुक्तो, "सव्याहिं अणुजुत्तीहिं, 130 / (सच दृष्टान्तः 'उरडम' शब्दे द्वि० भा० 851 पृष्ठे वक्ष्यते) अचयंता जवित्तए'" सर्वाभिरर्थानुगताभिर्युक्तिभिः सर्वैरेव हेतुदृष्टान्तैः . अथ निर्द्धर्मकार्येषु यतनामाह प्रमाणभूतैरशक्नुवन्तः / सूत्र० 1 श्रु०३ अ०३ उ०) "सव्वाहिं न मिलंति लिंगिकजे, अत्थंति च मेलिया उदासीणा। अणुजुत्तीहिं, मतिमं पडिले हिया" सर्वा याः काश्वनाऽनुरूपाः बिंति य निब्बंधम्मि, करेसु तिव्वं खु मे दंडं। पृथिव्यादिजीवनिकायसाधनत्वेनाऽनुकूला युक्तयः साधनानि, यत्र लिङ्गिनामाकृष्टगृहधनादिकार्याण्युपढौकन्ते, तत्र प्रथमत एव न यदि वा सिद्धविरुद्धाऽनै कान्तिकपरिहारेण पक्षधर्मत्वमिलन्ति। अथ तैर्बला मोटिकया मील्यन्ते, ततो मेलिता अप्युदासीना सपक्षसत्त्यविपक्षव्यावृत्तिरूपतया युक्तिसंगता युक्तयस्ताभिर्मतिआसते / अथ ते ब्रवीरन-कुरुताऽस्मदीयस्य व्यवहारस्य परिच्छेदम्। मान् / सूत्र० 1 श्रु० 4 अ०१ उ०) तत एवं निर्बन्धे तैः क्रियमाणे साधयो ब्रुक्ते- यद्यस्माकं पार्थे अणुजेट्ठ-त्रि०(अनुज्येष्ठ) अनुगतो ज्येष्ठम् / प्रा०स०। ज्येष्ठानुरूपे व्यवहारपरिच्छेदं कारयिष्यथ, तत उभयेषामपि भवतां ज्येष्ठानतिक्रमे च / वाचला पञ्चा० जेष्ठसमीपे वर्तमाने, यथा- एको तीव्रदण्डमागमोक्तप्रायश्चित्तलक्षणं कुर्मः, करिष्याम इति।। द्विकस्य ज्येष्ठः, त्रिकस्याऽनुज्येष्ठः, चतुष्कादीनां तु ज्येष्ठाऽनु'अद्धाणनिग्गयादी' इति पदं व्याख्यानयति ज्येष्ठः। आ० म०प्र०। अनुग अद्धाणनिग्गयादी, ठाणुप्पाइयमहोसवो कुणगो। अणुञ्जया-स्त्री०(अनूद्यता) उद्देश्यतारूपे विषयताविशेषे, ध० गेलन्नसत्थवसगा, महानई तत्तिया वा वि॥ 1 अधिन अध्वनिर्गता अध्वानमतिलय सहसैव तत्र प्राप्ताः / आदि- | अणुजियत्त-न०(अनूर्जितत्व) वराकत्ये, बृ०३ उ०। शब्दादन्यदप्येवंविधं कारणं गृह्यते, स्थानोत्पातिकमहोत्सवं नाम अणुजुय-त्रि०(अनृजुक) असरले कथञ्चित् सरलं कर्तुमशक्ते, उत्त० तत्राऽपूर्वः कोऽप्युत्सवविशेषः, सहसैव श्राद्धैः कर्तुमारब्धः, तंवा श्रुत्वा, 34 अ०। वक्रे, प्रश्न०२ आश्र० द्वाof यदि वा क्षेत्रं प्रत्युपेक्षितुं प्रेष्यन्ते, तदानीं ग्लाना- अणुज्झाण-न०(अनुध्यान) चिन्तने, अष्ट०२४ अष्ट। ऽग्लानप्रतिचरणव्यापृता वा। अथवा सार्थवशगास्ते तत्र सार्थ-मन्तरेण अणुज्झावित्ता-अव्य०(अनुध्याय) चिन्तयित्वेत्यर्थे , “कम्मगन्तुं न शक्यन्ते / महानदी वा काचिदपान्तराले, तामभीक्ष्णमुत्तरतां गरसालाए अणुज्झावित्ता पडिमं ठित्तो" / आ० म० द्वि०) बहवो दोषाः, तावन्मात्रा एव वा ते साधवो यावतां मध्यादेकस्याऽप्यन्यत्र अणुट्ठाण-न०(अनुष्ठान) आचारे, स्था० 7 ठा०। चैत्यवन्दनादिके प्रेषणं न संगच्छते, अत एतैः कारणैरप्रत्युपेक्षितेऽपि प्रविशतां न आचरणे, पञ्चा०३ विव० आचा० क्रियायाम्, पञ्चा० 16 विव० कश्चिद्दोषः। क्रियाकलापे, ग०१ अधिo कालाऽध्ययनादौ, भ०२ श०१ उ०! अत्र यतनामाह फलवद्-द्रुमसद्बीज-प्ररोहसदृशं तथा। समणुन्ना सह अन्ने, वि दहिउंदाणमाइ वजंति। साध्वनुष्ठानमित्युक्तं, साऽनुबन्धं महर्षिभिः॥२४३।। दव्वाई पेहंता, जइ लग्गंती तहवि सुद्धा / / फलवतः फलप्रारभारभाजो दूमस्य न्यग्रोधादेः सदवन्ध्यं यदि समनोज्ञाः सांभोगिकाः पूर्वप्रविष्टाः सन्ति, ततस्तैः सह यद्बीजं, तस्य यः प्ररोहोऽङ्कुरोद्भेदरूपस्तेन सदृशं समं यत्भिक्षामटन्ति / अथ न सन्ति समनोज्ञास्ततोऽन्यानप्यन्य तथा, तथेति वक्तव्याऽन्तरसमुच्चये, एतेषां योगाधिकारिणां, साधु Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुट्ठाण 377- अभिधानराजेन्द्रः-भाग 1 अणुट्ठाण सुन्दरमनुष्ठानं यमनियमादिरूपमित्यनेन प्रकारेणोक्तं, शास्त्रेषु सानुबन्धमुत्तरोत्तरानुबन्धवद् महर्षिभिः परममुनिभिः, शुद्धाधिकारिसमारब्धत्वात्तस्य // 243 / / अत एव - अन्तर्विवेकसंभूतं,शान्तदान्तमविप्लुतम्। नाऽग्रोद्भवलताप्रायं, बहिश्चेष्टाऽधिमुक्तिकम्॥२४॥ अन्तर्विवेकसंभूतम्, अन्तर्विवेकेन तत्त्वसंवेदननाम्ना संभूतं प्रवृत्तं, शान्तदान्तं, शान्तदान्तपुरुषारब्धत्वाद्, अत एवाविप्लुतं सर्वथा विप्लवरहितम्। व्यवच्छेद्यमाह-न, नैव, अग्रोद्भवलता-प्रायम्-अग्राद् वृक्षप्रान्तादुद्भवो यस्याः, सा चाऽसौ लता च तत्प्रायम् / सा हि लता अग्रोद्भवत्वेननलतान्तरमनुबधु क्षमा। इदं चाऽनुष्ठानमनुत्तरोत्तरानुबन्धप्रधानमित्यत उक्तंनाऽग्रोद्भवलता-प्रायमिति। तथा बहिश्चेष्टायां चैत्यवन्दनादिलपायामधिमुक्तिः शुद्धा यत्र तत्तथा // 244 // इत्थं विषयस्वरूपानुबन्धशुद्धिप्रधानमनुष्ठानत्रयमभिधाय साम्प्रतं त्रयस्याऽप्यवस्थाभेदेन संमतत्वमाविश्चिकीर्षुराहइष्यते चैतदप्यत्र, विषयोपाधि संगतम्। निदर्शितमिदं तावत् पूर्वमत्रैव लेशतः // 255 / / इष्यते मन्यते मतिमभिः / चः समुच्चये / एतदपि प्रागुक्तमत्र योगचिन्तायां, विषयोपाधिर्विषयशुद्धमनुष्ठानं, किंपुनः ? स्वरूपशुद्धानुबन्धशुद्धे इत्यपिशब्दार्थः / कीदृशमित्याह-संगतं युक्तमेव, निदर्शितं निरूपितमिदं संगतत्वम्, तावच्छब्दः क्रमार्थः, पूर्व प्रागत्रैव शास्त्र लेशतः संक्षेपेण "मुक्ताविच्छाऽपिया श्लाघ्या, तमःक्षयकरी मता" इत्यादिना ग्रन्थेन। विस्तरतस्तु विशेष-ग्रन्थादवसेयमिति॥२४५।। अथ प्रस्तुतमनुष्ठानं यस्य भवति, तमधिकृत्याऽऽहअपुनर्बन्धकस्यैवं, सम्यग्-रीत्योपपद्यते / तत्तत्तन्त्रोक्तमखिलमवस्थाभेदसंश्रयात // 246 // कापिलसौगतादिशास्त्रप्रणीतं मुमुक्षुजनयोग्यमनुष्ठानमखिलं समस्तम् / कुत इत्याह-अवस्थाभेदसंश्रयात् / अपुनर्बन्धकस्याऽने कस्वरूपाऽङ्गीकरणात् / अनेकस्वरूपाभ्युपगमे हि अपूर्वबन्धकस्य किमप्यनुष्ठानं कस्यामप्यवस्थायामवतरतीति // 246 / / यो० बिं० प्रीतिभक्त्यनुष्ठानादिभेदाःसूक्ष्माश्च विरलाश्चैवाऽतिचारा वचनोदये। स्थूलाश्चैव घनाश्चैव, ततः पूर्वममी पुनः // 6 // (सूक्ष्माश्चेति) सूक्ष्माश्च लघवः, प्रायशः कादाचित्कत्वात्। विरलाश्चैव सन्तानाभावात् / अतिचारा अपराधा वचनोदये भवन्ति, ततो वचनोदयात् / पूर्वममी अतिचाराः, पुनः स्थूलाश्च बादराश्च, धनाश्च निरन्तराश्च भवन्ति / तदुक्तम् - "चरमाद्यायां सूक्ष्माः, अतिचाराः प्रायशो ऽतिविरलाश्च / आद्यत्रये त्वमी स्युः, स्थूलाश्च तथा घनाश्चैव" |द्वा०२८ द्वारा सदनुष्ठानमतः खलु, बीजन्यासात् प्रशान्तवाहितया। संजायते नियोगात्, पुंसां पुण्योदयसहायम् // 1 // तत्प्रीतिमक्तिवचनाऽसंगोपपदं चतुर्विधं गीतम्। तत्त्वाऽमिज्ञैः परमं, पदसाधनं सर्वमेवैतत्॥२॥ यत्राऽऽदरोऽस्ति परमः,प्रीतिश्च हितोदया भवति कर्तुः। शेषत्यागेन करोति, यच तत् प्रीत्यनुष्ठानम् // 3 // गौरवविशेषयोगाद, बुद्धिमतो यद्विशुद्धितरयोगम् / क्रिययेतरतुल्यमपि, ज्ञेयं तद् मक्त्यनुष्ठानम् // 4 // (सदनुष्ठानमित्यादि) सदनुष्ठानं प्रागुक्तमतः खलु बीजन्या-सादस्मात् पुण्यानुबन्धिपुण्यनिक्षेपात्, प्रशान्तवाहितया प्रशान्त वोढुं शीलं यस्य तत् प्रशान्तवाहि, तद्भावस्तया चित्तसंस्कार रूपया, संजायते निष्पद्यते / नियोगान्नियमेन, पुसा मनुष्याणां, पुण्योदयसहायं पुण्यानुभावसहितम्॥१॥ तदेवभेदद्वारेणाह-(तदित्यादि) तत् सदनुष्ठानं प्रीतिश्च भक्तिश्च वचनं चाऽसङ्गश्चैते शब्दा उपपदमुपोचारिपदं यस्य सदनुष्ठानस्यतत्तथा, चतुर्विधंचतुर्भेद,गीतं शब्दितं, प्रीत्यनुष्ठानम्॥२॥ आदरः प्रयत्नातिशयोऽस्तिपरमः,प्रीतिश्चाऽभिरुचिरूपा, हितोदया हित उदयो यस्याः सा तथा भवति / कर्तुरनुष्ठातुः, शेषत्यागेन शेषप्रयोजनपरित्यागेन, तत्काले करोति यच्चाऽऽतीव धर्मादरात् / तदेवंभूतं प्रीत्यनुष्ठानं विज्ञेयम् // 3 // द्वितीयस्वरूपमाह-गौरवेत्यादि। गौरवविशेष-योगात्, गौरवं गुरुत्वं पूजनीयत्वंतद्विशेषयोगात् तदधिकसंबन्धात्, बुद्धिमतःपुंसो यदनुष्ठानं विशुद्धतरयोग विशुद्ध-तरव्यापारं, क्रियया करणेन, इतरतुल्यमपि प्रीत्यनुष्ठानतुल्यमपि, ज्ञेयं तदेवंविधं भक्त्यनुष्ठानम्॥४॥ आह-कः पुनः प्रीतिभक्त्योर्विशेषः? उच्यतेअत्यन्तवल्लभा खलु, पत्नी तद्वदि हिता च जननीति। तुल्यमपि कृत्यमनयोतिं स्यात् प्रीतिभक्तिगतम् // 5 // (अत्यन्तेत्यादि) अत्यन्तवल्लभाखलु अत्यन्तवल्लभैव, पत्नी भार्या, तद्वत् पत्नीवदत्यन्तेष्टव हिताच हितकारिणीति कृत्वा जननी प्रसिद्धा, तुल्यमपि सदृशमपि, कृत्यं भोजनाच्छादनादि, अनयोर्जननीपत्न्योतिमुदाहरणं स्यात्, प्रीतिभक्तिगतं प्रीति-भक्तिविषयमिदमुक्तं भवति, प्रीत्या पत्न्या क्रियते, भक्त्या मातुरितीयान् प्रीतिभक्त्योर्विशेषः // 5 // तृतीयस्वरूपमाहवचनात्मिका प्रवृत्तिः, सर्वत्रौचित्ययोगतो या तु। वचनानुष्ठानमिदं, चारित्रवतो नियोगेन।।६।। (वचनेत्यादि) वचनात्मिका आगमात्मिका, प्रवृत्तिः क्रियारूपा सर्वत्र सर्वस्मिन् धर्मव्यापारेक्षान्तिप्रत्युपेक्षादौ, औचित्य-योगतो या तु देशकालपुरुषव्यवहाराद्यौचित्येन वचनानुष्ठानमिदमेवं प्रवृत्तिरूपं चारित्रवतः साधोर्नियोगेन नियमनं नाऽन्यस्य भवतीति // 6 // तुर्यस्वरूपमाहयत्त्वम्यासातिशयात्, सात्मीभूतमिव चेष्ट्यते सदिभिः / तदसङ्गानुष्ठानं, भवति त्वेतत्तदा वैधात्॥७॥ (यत्त्वित्यादि, यत्तु, यत् पुनरभ्यासातिशयादभ्यासप्रकर्षाद् भूयो भूयस्तदासेवनेन, सांत्मीभूतमिवात्मसाद्भूतमिव, चन्दन-गन्धन्यायेन चेष्ट्यते क्रियते, सद्भिः सत्पुरुषैर्जिनकल्पिका दिमिस्तदेवंविधमसङ्गानुष्ठानं भवति, त्वेतज्जायते, पुनरेतत्तदा वैधाद् वचनवैधादागमसंस्कारात् // 7 // वचनाऽसङ्गाऽनुष्ठानयोर्विशेषमाह Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुट्ठाण ३७८-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुण्णा चक्रभ्रमणं दण्डात्तद्भावे चैव यत् परं भवति। सद्दस्स अणुणाइणा'' अनुनादिना सदृशेन। कल्प०। वचनासङ्गानुष्ठानयोस्तु तद्द्वापकं ज्ञेयम्॥८|| अणुणाइत्त-न०(अनुनादित्व) प्रतिरवोपेततारूपे सत्यवचना-तिशये, (चक्रेत्यादि) चक्रभ्रमण कुम्भकारचक्रपरावर्तन, दण्डाद्दण्डसंयोगात्, स०३५ समारा तदभावे चैव दण्डसंयोगाभावे चैव, यत्परमन्यद्-भवति, अणुणाय-पुं०(अनुनाद) मेघस्वनादौ, "अणुणादे पयाहिणजले जिणघरे वचनासङ्गानुष्ठानयोस्तु तयोस्तु, ज्ञापकमुदाहरणं ज्ञेयम् / यथा वा' / आ०म०वि०) चभ्रमणमेकंदण्डसंयोगाजायते प्रयत्नपूर्वकमेवं वचनानुष्ठानमप्या अणुणास-पुं०(अनुनाश) अनु-नश-घञ् / अनुमरणे, अदूरगमसङ्गात् प्रवर्तते। तथा चाऽन्यचक्रभ्रमणं दण्डसंयोगाभावे केवलादेव देशादावर्थे / संकाशादित्वात् ण्यः।वाच०। संस्कारापरिक्षयात् संभवति / एवमागमसंस्कारमात्रेण वस्तुतो *आनुनाश्य-त्रि०ा तददूरदेशादौ, वाचा अनुनासिकेनासा-कृतस्वरे, वचननिरपेक्षमेव स्वाभाविकत्वेन यत् प्रवर्तते, तदसङ्गानुष्ठानमितीयान् स्था०७ ठा०। नासा विनिर्गतस्वरानुगते गेयदोषभेदे, जं०७ वक्षा भेद इति भावः / / 8|| अनु०। जी। एषामेव चतुर्णामनुष्ठानानां फलविभागमाह अणुणिञ्जमाण-त्रि०(अनुनीयमान) प्रार्थ्यमाने, "अह एवं पि अभ्युदयफले चाऽऽद्ये, निःश्रेयससाधने तथा चरमे। अणुणिज्जमाणे णेच्छति' / नि० चू०१ उ०। एतदनुष्ठानानां, विज्ञेये इह गतापाये / 6 / अणुण्णत(य)-त्रि०(अनुन्नत) अनुच्छूिते मदरहिते, "एत्थ वि भिक्खू अभ्युदयफले चाऽभ्युदयनिर्वतके च, आधे प्रीतिभक्त्यनुष्ठाने, अणुन्नए विणीए" न उन्नतोऽनुनतः / शरीरेणोच्छ्रितः, निःश्रेयससाधने मोक्षसाधने, तथा चरमे वचनासङ्गानुष्ठाने, भावोन्नतस्त्वभिमानग्रहग्रस्तः, तत्प्रतिषेधात् तपोनिर्जरामदमपि न एतेषामनुष्ठानानां मध्ये, विज्ञेये, इह प्रक्रमे, गताऽपाये अपायरहिते विधत्ते। सूत्र०१श्रु०१६अ०1"अणुन्नए नावणए अप्पहिढे अणाउले" निरपाये अनुन्नतो द्रव्यप्तो भावतश्च / द्रव्यतो नाऽऽकाशदशी, भावतो न एतेष्वेव चतुलनुष्ठानेषु पञ्चविधक्षान्तियोजनमाह जात्याद्यभिमानवान् / दश०५ अ०१ उ०। उपकार्यपकारिविपाकवचनधर्मोत्तरा मता क्षान्तिः। अणुण्णवणा-स्त्री०(अनुज्ञापना) अनुमोदने, आयप्पमाणमित्तो, आद्यद्रये त्रिभेदा, चरमाद्वितये दिभेदेति||१०|| चउद्दिसिं होई उग्गहो गुरुणो / अणणुन्नायस्स सया, न कप्पई तत्थ (उपेत्यादि) उपकारी उपकारवान्, अपकारी अपकारप्रवृत्तिः। विपाकः पविसेउ / / 1 / / इदानीमनुज्ञापना, साऽपि नामादिभिः षड्भेदैव / कर्मफलानुभवनमनर्थपरम्परा वा, वचनमागमः, धर्मः प्रशमादिरूपः नामस्थापने सुगमे / द्रव्याऽनुज्ञापना त्रिधालौकिकी, लोकोत्तरा, तदुत्तरा तत्प्रधाना मता संमता पञ्चविधा, क्षान्तिः क्षमा, आद्यद्वये कुप्रावचनिकी च / तत्र लौकिकी सचित्ताऽचित्तमिश्रभेदैस्त्रिधाआद्यानुष्ठानद्वये, त्रिभेदा त्रिप्रकारा / चरमद्वितये चरमानुष्ठानद्वितये, अश्वाद्यनुज्ञापना प्रथमा / मुक्ताफलवैडूर्याद्यनुज्ञापना द्वितीया / द्विभेदेति द्विविधा, तत्रोपकारिणि क्षान्ति-रुपकारिक्षान्तिः, विविधाऽऽभरणविभूषितवनिताद्यनुज्ञापना तृतीया / लोकोत्तराऽपि तदुक्तदुर्वचनाद्यपि सहमानस्य, तथा अपकारिणि क्षान्तिरपकारिक्षान्तिः, सचित्तादिभेदात् त्रिधाशिष्याद्यनुज्ञा प्रथमा। वस्त्राद्यनुज्ञा द्वितीया / मर्मदुर्वचनाद्यसहमानस्याऽयमपकारी भविष्यति इत्यभिप्रायेण क्षमा परिहितवस्त्रादिशिष्याद्यनुज्ञा तृतीया / एवं कु प्रावनिक्यपि कुर्वतः / तथा विपाके क्षान्तिः विपाकक्षान्तिः, कर्मफलविपाकं वेधाऽवगन्तव्या / क्षेत्रानुज्ञापना यावतो क्षेत्रस्यानुज्ञापनं विधीयते, नरकादिगतमनुपश्यतो दुःखभीरू तया मनुष्यभावमेव वा यस्मिन् वा क्षेत्रेऽनुज्ञा व्याख्यायते वा। एवं कालानुज्ञाऽपि / भावानुज्ञा अनर्थपरम्परामालोचयतो विपाकदर्शनपुरःसरा संभवति / तथा आचाराद्यनुज्ञा, एषा चाऽत्र ग्राह्या ! प्रव० 2 द्वा०। वचनक्षान्तिरागमेवाव-लम्बनीकृत्य या प्रवर्तते, न पुनरुपकारित्वाऽपकारित्वविपाका-ख्यमालम्बनत्रयं, सा (अवग्रहविषयाऽनुज्ञापना 'उग्गह' शब्दे द्वि०भा०६६८ पृष्ठे, वसतिविषया वचनपूर्वकत्वादन्यनिरपेक्षत्वात्तथोच्यते धर्मोत्तरातुक्षान्तिश्छेदनस्येव च'वसइ' शब्दे द्रष्टव्या) शरीरस्यछेददाहादिषु सौरभा-दिस्वधर्मकल्पा परोपकारिणीन क्रियते, अणुण्णवणी-स्त्री०(अनुज्ञापनी) अवग्रहस्याऽनुज्ञापनीयायां भाषायाम्, सहजत्वेनावस्थिता सा तथोच्यते / / 10 // षो० 10 विष०। अष्ट। स्था० 4 ठा०३ उ० देवपूजनादिके, द्वा० १द्वा०। कर्मणि, आ० म० द्वि० अणु ण्णवित्ता-अव्य०(अनुज्ञाप्य) अनुमोद्येत्यर्थ, "जिणवर अणु ट्ठिय-त्रि०(अनुष्ठित) अनुक्रान्ते, आचा० 1 श्रु०६ अ० मणुण्णवित्ता, अंजणघणरुयगविमलसंकासा'' | आ० म०वि० 4 उ० / आ० म०प्र०ा आसेविते, पञ्चा०६ विव०॥"अहवा अवितहणो अणु ण्णवियपाणभोयणभोइ(ण)-पुं०(अनुज्ञाप्यपानअणुट्टि"। सूत्र०१ श्रु०२अ०२ उ० / भोजनभोजिन) आचार्यादीननुज्ञाप्य पानभोजनादिविधातरि, *अनुत्थित-त्रि०। द्रव्यतो निषण्णे, भावतो ज्ञानदर्शनचारित्रो- अदत्तादानविरतेर्द्वितीयां भावनां प्रतिपन्ने, आचा० 2 श्रु० 2 अ० द्योगरहिते, आचा०१ श्रु०४ अ०१ उ० 6 उ०। आवा अणुणंत-त्रि०(अनुनयत्) स्वाभिप्रायेण शनैः शनैः प्रज्ञापयति, अणुण्णवेमाण-त्रि०(अनुज्ञापयत्) अनुज्ञां ददति, स्वजनादीन् "पुरोहियं तं कमसोऽणुणंतं, णिमंतयंतं च सुए धणेणं' | उत्त० तत्कालगतसाधर्मिकपरिष्ठापनायामनुज्ञापयतो नाऽतिक्रामन्ति स्था० 14 अ० ६ठा अणुणाइ(ण)-त्रि०(अनुनादिन्) अनुनदति / अनु-नद्-णिनि। अणु ण्णा-स्त्री०(अनुज्ञा) अनुज्ञानमनुज्ञा / अधिकारदाने, प्रतिरूपशब्दकारके, ''गम्भीरेणाऽनुनादिना'' | वाच० "गजिय- | स्था०३ ठा०३ उ०। अनुमोदने, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। ज्ञा०। Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुण्णा 379 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुण्णा निक्षेपोऽस्यसे किं तं अणुन्ना ? अणुन्ना छव्विहा पन्नत्ता / तं जहानामाऽणुण्णा 1, ठवणाणुण्णा 2, दव्वाणुण्णा 3, खेत्ताणुण्णा 4, कालाणुण्णा 5, भावाणुण्णा 6 / से किं तं नामाणुण्णा ? नामाणुण्णा जस्स णं जीवस्स वा अजीवस्स वा जीवाणं वा अजीवाणं वा तदुभयस्स वा तदुभयाणं वा अणुण्ण त्ति नामं कीरइ, से तं नामाणुन्ना। से किं तं ठवणाणुण्णा? ठवणाणुण्णा जे णं कट्ठकम्मे वा पोत्थकम्मे वा चित्तकम्मे वा गंठिमे वा वेढिमे वा पूरिमे वा संघाइमे वा अक्खए वा वराडए वा एगओ वा अणेगओवा, सब्मावट्ठवणाए वा असब्मावठवणाए वा अणुण्णत्ति ठवणविजइ, से तं ठवणाऽणुण्णा / नामट्ठवणाणं को पइविसेसो ? नाम आवकहियं, ठवणा इत्तिरिया वा हुजा, आवकहिया वा, से तं ठवणाणुण्णा। से किं तं दव्वाणुण्णा? दव्वाणुण्णा दुविहापण्णत्ता। तं जहाआगमओ य, नो आगमओ य / से किं तं आगमओ य दव्वागुण्णा ? आगमओ दव्वाणुण्णा जस्स णं अणुण्ण त्ति पयं सिक्खियं ठियं जियं मियं परिजियं नामसमं घोससमं अहीणक्खरं अणचक्खरं अव्वाइद्धक्खरं अक्खलियं अमिलियं अवचामेलियं पडिपुग्नं पडिपुन्नघोसं कंठोडविप्पमुक्कगुरुवायणोवगयं से णं तत्थ वायणाए पुच्छणाए परियट्टणाए धम्मकहाए नो अणुप्पेहाए ? कम्हाए अणुवओगो दव्वमिति कट्टु नेगमस्स एगे अणुवउत्ते आगमओ य इक्का दव्वाणुना , दुन्नि अणुवउत्ता आगमओ दुन्नि दवाणुण्णाओ, तिण्णि अणुवउत्ता आगमओ तिण्णि दव्वाणुण्णाओ, एवं जावइया अणुवउत्ताओ तावइयाओ दव्वाणुण्णाओ। एवामेव ववहारस्स वि। संगहस्स एगो वा अणेगो वा उवउत्ता वा अणुवउत्ता वा दव्वाणुण्णावासा एगा दव्वाणुण्णा / उजुसुयस्स एगे अणुवउत्ते आगमओ एगा दव्वाणुण्णा, पुहत्तं नत्थि इतिण्हं / सद्दनयाणं जाणए अणुवउत्ते? अत्थकम्हा? जइजाणए अणुवउत्तेन भवइ, जइ अणुवउत्ते जाणए ण भवइ, से तं आगमओ दव्वाणुना।। से किं तं नोआगमओ दव्वाणुण्णा? नोआगमओ दव्वाणुण्णा तिविहा पण्णत्ता / तं जहा-जाणगसरीरदव्वाणुण्णा, भवियसरीरदव्वाणुण्णा, जाणगसरीरभवियसरीरवइरित्ता दव्वाणु ण्णा | से किं तं जाणगसरीरदव्वाणु ण्णा ? जाणगसरीरदव्वाणुन्ना अणुण्ण त्ति पयत्थाहिगारं जाणगस्स जं सरीरं ववगयचुयचावियचत्तदेहं जीवविप्पजदं सिजागयं वा संथारगयं वा निसीहियागयं वा सिद्धसिलागयं वा अहोणं इमेणं सरीरसमुस्सएणं अणुण्ण त्तिय पयं आघवियं पन्नवियं परूवियं दंसियं निदंसियं उवदंसियं / को दिट्ठतो? जहा- अयं घयकुंभे आसी, अयं महुकुंभे आसी, से तं जाणगसरीरदव्वाणुन्ना / से किं तं भवियसरीरदव्वाणुन्ना ? जे जीवजोणीजम्मनिक्खंते इमेणं चेव सरीरसमुस्सएणं आइत्तेणं जिणदिट्ठो णं भावो णं अणुण्णाति पयंसियकाले सिक्खिस्सइ, न ताव सिक्खइ। को दिटुं तो ? जहा- अयं घयकुंभे भविस्सइ, अयं महकुंभे भविस्सइ, से तं भवियसरीरदव्वाणुण्णा। से किं तं जाणगसरीरभवियसरीरवइरित्ता दव्वाणुण्णा ? जाणगसरीरमवियसरीरवइरित्ता दव्वाणुणा तिविहा पण्णत्ता। तं जहा- लोइया, कुप्पावणिया लोउत्तरिया यासे किं तं लोइया दव्वाणुण्णा ? लोइया दव्वाणुण्णा तिविहा पण्णत्ता / तं जहासचित्ता, अचित्तामीसिया। से किं तं सचित्ता? सचित्ता से जहा णामए रायाइ वा जुवरायाइ वा ईसरे वा तलवरे वा मांडलिएइ वा कोडंबिएइ वा सेट्ठीइ वा इन्भेइ वा सेणावई वा सत्थवाहेइ वा, कस्सइ कम्मि कारणे तुढे समाणे आसं वा हत्थिं वा उ वा गोणं वा खरं वा घोडयं वा एलयं वा चलयं वा दासं वा दासिं वा अणुजाणिज्जा / से तं सचित्ता। से किं तं अचित्ता ? से जहा नामए रायाइ वा जुवरायाइवाईसरेइ वा तलवरेइ वा कोडुबिएइ वा मांडलिएइ वा इब्मेइ वा सेट्ठीइ वा सेणावई वा सत्थवाहेइ वा, कस्सइ कम्मि कारणे तुढे समाणे आसणं वा सयणं वा छत्तं वा चामरं वा पडं वा मउडं वा हिरण्णं वा सुवण्णं वा कंसं वा मणिमुत्तियसंखसिलप्पवालरत्तरयणमाइयं संतसारसावऽजं अणुज्जाणिज्जा से तं अचित्ता दव्वाणुण्णा / से. किं तं मीसिया दव्वाणुण्णा ? मीसियादव्वाणुण्णा, से जहा नामए रायाइ वा जुवरायाइवाईसरेइ वा तलवरेइ वा मांडलिएइवा कोडुबिएइ वा इन्भेइ वा सेट्ठीइ वा सेणावई वा सत्थवाहेइ वा, कस्सइ कम्मि कारणे तुढे समाणे हत्थिं वा मुहमंडणमंडियं आसं वा घासगं वा मरमंडियं सकंडियं दासं वा दासि वा सव्वालंकार विभूसियं अणुजाणेज्जा, सेतं मीसिया दव्वाणुण्णा। से तं लोइया दव्वाऽणुण्णा। से किं तं कुप्पावणिया दव्वाणुण्णा ? कुप्पावणिया दव्वाणुण्णा तिविहा पण्णत्ता / तं जहा-सचित्ता अचित्ता मीसिया। से किं तं सचित्ता? से जहा नामए आयरिएइ वा उवज्झाइए वा कस्सइ कम्मि कारणे तुढे समाणे आसं वा हत्थिं वा उदि वा णावं वा खरं वा घोडं वा अयं या एलगं वा चलयं वा दासं वा दासिं वा अणुजाणिज्जा, सेतं सचित्ता कुप्पावणिया दव्वाणुण्णा।से किं तं अचित्ता,? अचित्ता से जहा नामए आयरिएइ वा उवज्झाएइ वा कस्सइ कम्मि कारणे तुट्टे समाणे आसणं वा सयणं वा छत्तं वा चामरं वा पट्टे वा मउडं वा हिरणं वा सुवण्णं वा Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुण्णा 380- अभियानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुण्णा कंसं वा दूसं वा मणिमुत्तियसंखसिलप्पवालरत्तरयणमाइयं संतसारसावइजं अणुजाणिज्जा / से तं अचित्ता कुप्पावणिया दव्वाणुण्णा / से किं तं मीसिया ? मीसिया, से जहा नामए आयरिएइ वा उवज्झाएइ वा कस्सइ कम्मि कारणे तुट्टे समाणे हत्थिं वा मुहभंडगमंडियं वा आसं वा घासगं वा चामरमंडियं वा, सकंडियं वा दासं वा दासिं वा सव्वालंकारविभूसियं अणुजाणिज्जा, से तं मीसिया कुप्पावणिया दव्वाणु-ण्णा। से तं कुप्पावणिया दव्वाणुण्णा। से किं तं लोउत्तरिया दव्वाणुण्णा ? लोउत्तरिया दव्वाणुण्णा तिविहा पण्णत्ता। तं जहा-सचित्ता अचित्ता मीसिया। से किं तं सच्चित्ता? सचित्ता, से जहानामए आयरिएइ वा उवज्झाएइ वा पव्वत्तएइ वा थेरेइ वा गणीइ वा गणहरेइ वा गणावच्छेयएइ वा सीसस्स वासीस्सिणीएइ वा कम्मि कारणे तुडे समाणे सीसंवा सिस्सिणीयं वा अणुजाणिज्जा, से तं सच्चित्ता / से किं तं अचित्ता? अचित्ता, से जहा नामए आयरिएइ वा उवज्झाएइ वा पव्वत्तएइ वा थेरेइ वा गणीइ वा गणहरेइ वा गणावच्छेइए वा सीसस्स वा सिस्सिणीए वा कम्मि य कारणे तुढे समाणे वत्थं वा पायं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुच्छणं वा अणुजाणिज्जा। से तं अचित्ता / से किं तं मीसिया ? मीसिया से जहा नामए आयरिएइ वा उवज्झाएइ वा पवत्तएइ वाथेरे वा गणावच्छेइएइ वा सिस्सस्स वा सिस्सिणीए वा कम्मि कारणे तुटे समाणे सिस्सं वा सिस्सिणीयं वा सभंडमत्तोवगरं अणुजाणिज्जा, से तं मीसिया। से तं लोगोत्तरिया।से तंजाणगसरीरभवियसरीरवइरित्ता दव्वाणुण्णा / से तं नोआगमओ दव्वाणुण्णा / से तं दुव्वाणुण्णा। से किं तं खेत्ताणुन्ना? खेत्ताणुन्ना जो णं जस्स खेत्तं अणुजाणइ जत्तियं वा खेत्तं, जम्मि वा खेत्ते / से तं खेत्ताणुण्णा / से किं तं कालाणुण्णा ? कालाणुण्णा , जो णं जस्स कालं अणुजाणइ, जत्तिया वा कालं अणुजाणइ, जम्मि वा काले अणुजाणइ, तं तीतं पडुप्पन्नं वा अणागतं वा वसंतहेमंतपाउसं वा अवत्थणहेउं / से तं कालाणुण्णा / से किं तं भावाणुण्णा ? भावाणुण्णा तिविहा पण्णत्ता / तं जहा- लोइया, कुप्पावणिया, लोगुत्तरिया / से किं तं लोइया भावाणुण्णा ? से जहा नामए रायाइ वा जुवरायाइ वा जाव रुढे समाणे कस्सइ कोहाइभावं अणुजाणिज्जा / सेतं लोइया भावाणुण्णा।से किं तं कुप्पावणिया भावाणुण्णा ? कुप्पावणिया, से जहा नामए केइ आयरिए वा० जाव कस्स वि कोहाइभावं अणुजाणिज्जा, से तं कुप्पावणिया। से किं तं लोगुत्तरिया भावाणुण्णा ? लोगुत्तरिया भावाणुना, से जहा नामए आयरिए वा० जाव कम्मि कारणे तुट्टे समाणे कालोचियं नाणाइगुणजोगिणो विणयस्स खमाइप्पहाणस्स सुसीलस्स सीसस्स तिविहेणं तिगरणविसुद्धेणं भावेणं आयारं वा सूयगडं वा ठाणं वा समवायं वा विवाहप्पण्णत्ती वा णायाधम्मकहा णं वा उवासगदसा उ वा अंतगडदसाउ वा अणुत्तरोववाइदसाउवा पण्हावागरणं वा विवागसुयं वा दिट्ठिवायं वा सव्व-दव्वगुणपज्जवेहिं सव्वाणुओगं वा अणुजाणिज्जा, से तं लोगुत्तरिया भावाणुण्णा / अनु०।। किमणुण्ण कस्सऽणुण्णा, के वइ कालं पवित्तिआऽणुण्णा / आइगरपुरिमताले, पवत्तिया उसहसेणस्स ||1|| अणुण्ण 1 उणमणी 2 णमणी 3, नामणि : ठवणा 5 पभावो 6 यापभवण 7 पयर 8 तदुभयं , मञ्जाया 10, नाओ 11 मग्गो 12 कप्पो 13 य ॥२।संगह 14 संवर 15 निज्जर 16, ठिइकारणं१७ चेव जीय 18 वुढिपयं 16 / पय पवरं 20 चेव तहा, वीसमणुण्णाइँ नामाइं॥३॥ नं०॥ अणणुव्वइत्तऽणुण्णा 1, उण्णामि य जस्सियं वि उण्णमणी / गिहिसाधूहि णमिजति, तम्हा जा होति णमणि त्ति 3 / / सुतधम्मचरणधम्मो, णामयती जेण णामणी तम्हा / / ठविओ य आरियत्ते, जम्हा तो तेण ठवण त्ति 5 / / ठवितो गणाधिवत्ते, होति पभूतेण पभवो य 6 सव्वेसिंणामादीण होति पभवो पसूइ त्ति७।। एगट्ठा आयरिया-दीणं रूपं पभावित्ते। जेण विणा णो सिज्झति, तेण वियारो तु भिजति गणो से | तदुभयहियंति भण्णति, इह परलोगे य जेण हितं / / गणधरमेव वरेती, जम्हा जत्तेण होति मज्जादा 101 करणेज्जी कप्पोत्ति य, कप्पो गणकप्पकरणेणं 13|| णाणादिमोक्खमग्गो, सो तम्मि ठितो त्ति तो भवति मग्गो 12 / जम्हा तु णायकारी, णाओ वा एस तो णातो 11 / दव्वे भावे सग्गह, दव्वे आहारवत्थमादीहिं।। भावे णाणादीहिं, संगेण्हति संगहो तेणं१४ / दुविहेण संवरेणं, इंदियणोइंदिएसु जम्हा उ। अप्पाण गणं व तहा,संवरयति संवरो तम्हा 15 || गणवारणमगिलाए, कुणमाणे णिज्जरेति कम्माइं। अन्ने यणिज्जरावे, तम्हा तो णिज्जरा होति 16 / / वातेरिताणई इव, एक पमाणाण तरुणमादीणं / होत्ति थिरा वढतो, तरुव्व थिरकरणतेणं तु 17 // जम्हा तु अवोच्छित्ती, सो कुणती णाणचरणमादीणं / तम्हा खलु अच्छेदं, गुणप्पसिद्ध हवति णामं तु / / तित्थकरेहि कयमिणं, गणधारीणं तु तेहिं सीसाणं / तत्तो परंपरेणं, आयमिणं तेण जीयं तु 18 || वड्डइ य णाणचरणं, गणं तु तम्हा उ तेण वुढिपदं 16 / पद पवरं पहाणमत्तं, सव्वेसिं रायदेवाणं 20 // Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुण्णा 381- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुण्णाकप्प एस अणुण्णाकप्पो, जहाविही वणितो समासेणं / पं०भा०॥ तिविहाऽणुन्ना पण्णत्ता।तंजहा-आयरियत्ताए, उवज्झायत्ताए, गणित्ताए। स्था०३ ठा०३ उ०। परं प्रति सूत्रार्थदानानुमतौ, जी०१ प्रति० सूत्रार्थयोरन्यप्रदानं प्रत्यनुगमने, व्य० 1 उ०। गुरोर्निवेदिते, सम्यगिदं धारयाऽन्याँश्वाऽध्यापयेति गुरुवचनविशेषे, अनु०। अन्त०। अनुज्ञाविधिस्तु योगोत्क्षेपकायोत्सर्गवर्जः सर्वोऽप्युद्देशविधिवद् वक्तव्यः / नवरं, प्रवेदिते गुरुर्वदति-सम्यग् धारयाऽन्येषां च प्रवेदय, अन्यानपि पाठयेत्यर्थः आवश्यकादिषु तण्डुल-विचारणादिप्रकीर्णकेष्वपि चैष एव विधिः, नवरं स्वाध्यायप्रस्थापनं योगोत्क्षेपकायोत्सर्गश्च न क्रियते / एवं सामायिकाद्यध्ययनेषूद्देशकेषु च चैत्यवन्दनप्रदक्षिणा त्रयादिविशेषक्रियारहितसप्तवन्दनकप्रदानादिकः स एव विधिरिति तावदियं चूर्णिकारलिखिता सामाचारी। सांप्रतं पुनरन्यथाऽपि ताः समुपलभ्यन्ते, न च तथोपलभ्य संमोहः कर्त्तव्यः, विचित्रत् वात्सामाचारीणामिति / अनु०। अन्त०। आ० म० द्वि०॥ (व्यतिकृष्टदेशकालादौ उद्देशनिषेधः द्वि० भा०८११ पृष्ठे 'उद्देस' शब्दे, पञ्चानां ज्ञानानांमध्ये श्रुतस्यैवाऽनुज्ञा प्रवर्तत इति 'अणओग' शब्दे ऽव भागे 353 पृष्ठे समुक्तम) धनिष्ठाशतभिषकस्वातीश्रवणपुनर्वसुषु अनुझा कार्या। द०प०। अण्णुणाअ-त्रि०(अनुज्ञात) जिनाऽनुमते, स्था० 3 ठा० 4 उ०। दत्ताऽऽज्ञे, उत्त० 23 अ० आ० का अणुण्णाकप्प-पुं०(अनुज्ञाकल्प) कस्मिन् काले वस्त्राद्यनुज्ञातमित्येवंविधौ,पं०भा०। ........... अहुणा वोच्छं अणुण्णकप्पं तु। कण्ही काले गहणं, वत्थाईणं अणुण्णातं / / वत्थप्पायग्गहणे, वासावासामुणिग्गमो सरदे। तिण पणग सत्त तदुगा,उयम्मि कप्पोदगं जाणो / / वत्थादीणं गहणं, णऽणुण्णातं होति वासासु / वासादीए परेणं, दुमास अण्णेसु गिण्हंति॥ तेसिं पुण णे ताणं, सरदे जदि दोण्हगा उयाणंतो। दगसंघट्टजहण्णे,ण तिहि यं चेव मज्झिमगा। सत्ते चउ उक्कोसा, गिम्हम्मि तिण्णि पंच हेमंते / / वासासु य सत्तभवे, परेण खेत्तं णऽणुण्णातं / अप्पोदग ति मग्गा, जंतीरीयासु वणितं पुट्विं // तं अद्धद्धजोयणे, दगघट्टा जाव सत्ते वा। वत्थप्पायग्गहणे, ण व संथरणम्मि पढमठाणम्मि। एत्तोऽवतिक्कमम्मितु, सट्ठाणा सेवणा सुद्धी। पढमं ताऽणुस्सग्गो, तेणं तू णवम होति खेत्तेसु // वत्थादीणं गहणं, तत्थेव य होति उ विहारो। णवठाणातिकमे पुण, हवई सट्टाणतो विसुद्धो तु॥ किं पुण तं सट्ठाणं, अपवादो असति ते होति। अधवा एणं गहणं, उस्सग्गो चेव होइ सो ताहे / / गेण्हंतस्स तु करणे, सुद्धी तह चेव बोधव्वा। जह गेण्हतुवसग्गे, सुद्धीओ बहिस्स एव बितिएणं // गेण्हतस्स विसद्धी, सट्टाणं एवमक्खायं। अहवा वि इमे अण्णे, णव तु हाणा वियाहिता / / दव्वादीया इणमो, वोच्छामी आणुपुव्वी सो। दव्वे खेत्ते काले, वसही मिक्खमंतरे णेयं / / सेज्झाई गुरुजोगी, एते ठाणा णिबोहित्ता। दव्वाणाहारादी-णि जाति सुलभाइँ तम्मिखेत्तम्मि।। खेत्तं वित्थिण्हं खलु, वत्तंत सुणंत गगणस्स। वत्तणपरियटुंती, सुणे ति अत्थं गणो तु बालादी।। तस्स पहुचति खेत्त, आहारादीहिँ संथरणं / तत्तियकाले चेलो, वसही जाग्गा तु तिक्खुसु लमंति। न विगिट्ठमंतरंती, सज्झाउ सुज्झ जहिं च सुलभं च / आयरिआण जाग्गं, विण्णेयं चेव णियमेणं / एते ते णव ठाणा, जहिं उसग्गेण गहण तु // उस्सग्गेण विहारो, संथरमाणेण णवसु खेत्तेसु / ते सिं बुधदुवहीणं, विपेल्लिया वि दगघट्टे य॥ णवि दूरं गच्छंती, णवमस्स असंभवे बितियठाणं / दगघट्टे बहुए वी, पेल्ले दूरं पि गच्छेजा। दुलहम्मि वत्थपादे, ऊण वि एसुं विणवसु गच्छेजा। एमेव विहारो विहु, खेत्ताण सती मुणेयच्यो / आलंबणे विसुद्धे, दुगुणं तिगुणं चउग्गुणं वा वि। खेत्तं कालातीयं, समणुण्णातं पकप्पम्मि॥ एस अणुण्णाकप्पो। पं०भा०। इयाणिं अणुण्णाकप्पो (गाहा) (वत्थे पाए) अणुण्णायम्मि काले वत्थपायाणि घेत्तव्वाणि वासरत्ते ठायं तेसु घेत्तव्वाणि, पच्छाठयाणं नाणुनायाणि निग्गयाणं पुण सरए अत्ते सु खेत्ते सु, जत्थ गीयत्थसंविग्गेसु वासो न कओ तत्थ गोण्हंति, जत्थ वा गीयत्थेहिं संविग्गेहिं कओ तेहिं गएहिं वीरे पच्छा गेण्हंति, तेसिं पुण निगच्छत्ताणं जइ अद्ध जोयणस्स अंतो तिण्हि पंच सत्त दगसंघट्टा, दगसंघट्टो नाम जाणहेट्ठा, तहवि अणुण्णायं परेण नाऽणुन्नायं जंति अप्पोदगा मम्मतिरियाए भणियं जाव सत्तसंघट्टा, एवं अद्धद्धे जोयणे (गाहा)(वत्थे पाए) एवं वत्थपायग्गहणे वा तणसंथारए य पढमठाणं तु जसग्गेण गहणं नवसु ठाणेसु पढमट्ठाणंति उस्सग्गेण वुत्तं होइ नवठाणवइक्कमे पुण सट्ठाणविसोही भवइ उव-हिमाइ / किंच। तं सट्ठाणं आवाए ठाइ उस्सगो ताहे अववायओ गहणं / काणि पुण ताणि नव ठाणाणि? तत्थ (गाहा) (दव्वे खेत्ते) दव्वाणिजइआहारोवकरणाणिलभंतितम्मिखेत्ते उग्गमाइ सुद्धाणि (खेत्त त्ति) खेत्तं विच्छित्तं महाजणपाउग्गं अन्नंचतारिस नत्थि खेत्तं (काले त्ति) तइयाए पोरिसीए भिक्खवेला (वसिहि त्ति) वसहिया उग्गा हेमंत-गिम्हवासपाउग्गा नत्थि नपुंसगाइ दोसरहिया भिक्खा सुलभा, गुरुमाइया उग्गा भिक्खा गामंतराणि अविकिट्ठाणि अण्णत्थ Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुण्णाकप्प 382 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अमुत्तरपरक्कम असज्झाइयं गुरूण सुलभं पाउगंजोगीण व अगाढेतराणं सुलभं पाउग्गं, केवलिस्स णं दस अणुत्तरा पण्णत्ता / तं जहा-अणुत्तरे नाणे, एयाणि णव सुणे ति, अत्थं सुणंति, साहवो अभिणवं गुणेति वासाहति वा अणुत्तरे दंसणे, अणुत्तरे चरित्ते, अणुत्तरे तवे, अणुत्तरे वीरिए, छज्जुयारिति वा सुत्तं गेण्हति परियéति उज्जुयारेति वा सबालवुढाउलस्स अणुत्तराखंती, अणुत्तरा मुत्ती, अणुत्तरे अजवे, अणुत्तरे मद्दवे, वा गच्छस्स नत्थि तारिसं अण्णं खेत्तं कारगं बहुव्वतिसंथरं ताण चेव अणुत्तरे लाघवे। विसोहिट्टाणं पेल्लति वा न दूरं गच्छति मासकप्पं करता चेव उवहिं तत्र ज्ञानावरणक्षयाद् ज्ञानमनुत्तरम्, एवं दर्शनावरणक्षयाद् दर्शनम्, उप्पाययंति अह पुण दव्वं वत्थं पायं दुल्लभं खेत्तं वा न पहुचइ, ताहे बहुए मोहनीयक्षयाद्वा दर्शन, चारित्रमोहनीयक्षयाचारित्रं, चारित्रमोहक्षयावि दगसंघट्टे पेल्लइ, दूरं पि गच्छइ, अद्धजोयणपरेण वि(गाहा) दनन्तवीर्यम्, अनन्तवीर्यत्वाच तपः शुक्ल-ध्यानादिरूपं, (आलंबणे) ते च आलंबणे विसुद्धे सव्वं पि अणुण्णायं दुगुणं खेत्तकालं वीर्यान्तरायक्षयाद्वीर्यम्, इह च तपः क्षान्तिमुक्त्यार्जव-मार्दवलाघवानि दुगुणतिगुणवउगुणबहुगुणे वा खेत्तकालाइक्कमाणुण्णाया पकप्पम्मिा एस चारित्रभेदा एवेति चारित्रमोहनीयक्षयादेव भवन्ति / सामान्यविशेषयोश्च अणुण्णाकप्पो।पं० चू। कथंचिद् भेदाद् भेदेनोपात्तानीति / स्था० 10 ठा०। वृद्धिरहिते च। अणुण्हसंवट्टियक क संग-त्रि०(अनुष्णसंवर्तितकर्क शाङ्ग) आचा० 1 श्रु० 1 अ० 1 उ०। नाऽस्त्यस्योत्तरं सिद्धान्त इत्यनुत्तरम्। भिक्षापरिभ्रमणाभावादुष्णलगनाभावेन संवर्त्तितानि वर्तुली-भूतानि अत यथाऽवस्थितसमस्तवस्तुप्रतिपाद-कत्वादुत्तमे, आव 4 अ०॥ सूत्र०) एवाऽकर्क शानि अङ्गानि पाणिपादपृष्ठोदरप्रभृतीनि येषां ते सर्वोत्कृष्ट श्रीजिनधर्मे, सूत्र०१ श्रु०५ अ० 1 उ०। अनुष्णसंवर्तितकर्कशाङ्गाः / भिक्षाणामभावा-दुष्णसंबन्धाभावेन शीतीभूताङ्गेषु, "अणुण्हसंवट्टियकक्कसंगा, गिण्हंति जं अन्नि न तं अणुत्तरगइ-त्रि०(अनुत्तरगति) सिद्धिगतिप्राप्ते, 'एस करेमि पणाम, तित्थयराणं अणुत्तरगईणं' / द०प०४ प०। सहामो" / बृ०३ उ० अणुतडभेद-पुं(अनुतटभेद) वंशस्येव द्रव्यभेदे, स्था० 10 ठा० / अणुत्तरग्या-स्त्री०(अनुत्तराग्रया) अनुत्तरा चाऽसौ सर्वोत्तमअणुतडियाभेय-पुं (अनुतटिकाभेद) इक्षुत्वगादिवद् द्रव्यभेदे, प्रज्ञा० त्वादग्र्या च लोकाग्रव्यवस्थितत्वादनुत्तराग्र्या / ईषत्प्रारभारायां पृथिव्याम्, सूत्र०१ श्रु०६अ०) 11 पद। (तभेदाः 'सद्ददव्यभेय' शब्दे वक्ष्यन्ते) अणुतप्पि(ण)-त्रि०(अनुतापिन्) अकल्पं किमपि प्रतिसेव्य अनुपश्चाद् अणुत्तरण-न०(अनुत्तरण) न विद्यते उत्तरणं पारगमनं यस्मिन् सति हा ! दुष्टु कारितमित्यादिरूपेण तपति सन्तापमनुभवति, इत्यनुत्तरणः / पारगमनप्रतिबन्धके, उत्त० 1 अ०1 इत्येवंशीलोऽनुतापी। अकल्पप्रतिसेवनाऽनन्तरं पश्चात्तापविशिष्ट, व्य० / अणुत्तरणवास-पुं० अनुत्तरणवास (पाश), न विद्यते उत्तरणं १उ पारगमनमस्मिन् सतीत्यनुत्तरणः। स चाऽसौ वासश्वाऽवस्थानअणुताव-पुं०(अनुताप) पश्चात्तापे, आव० 4 अ०। ज्ञा०! मनुत्तरणवासः / अनुत्तरणवासहेतुत्वाद् आयुर्घतमित्यादिवदनुत्तअणुतावि(ण)-पुं०(अनुतापिन्) पुरःकर्मादिदोषदुष्टाहारग्रहणात् पश्चाद् रणवासः / यद्वा- आत्मनः पारतन्त्र्यहेतुतया पाश-यतीति पाशः, 'हा! दुछ कृतं मया' इत्यादिमानसिकतापधारणशीले, बृ०३ उ०। ततोऽनुत्तरणश्चासौ पाशश्चाऽनुत्तरणपाशः / उभयत्र च सापेक्षत्वेऽपि अणुताविया-स्त्री०(अनुतापिका) अनुतापयतीति अनुतापिका। गमनकत्वात् समासः / संसारावस्थितौ, पारवश्ये वा। एतच सम्बन्धनसंयोगस्याऽर्थतः फलम्। उत्त०१ अ०॥ परस्यानुतापकारिकायां भाषायाम् "अणुतावियं खलु ते भासं भासंति" / सूत्र०२ श्रु०७ अ०| अणुत्तरणाणदंसणधर-त्रि०(अनुत्तरज्ञानदर्शनधर) कथशिद् अणुतप्पया-स्त्री०(अनुत्रिप्यता) पूष्लज्जायाम्' उत्प्राबल्येन त्रप्यते भिन्नज्ञानदर्शनाधारे, "एवं से उदाहु अणुत्तरदंसी अणुत्तरलज्ज्यते येन तत् उत्तप्यं, न उत्त्रप्यमनुत्त्रप्यमलज्जनीयं , यथा च नाणदंसणधरे"। सूत्र० 1 श्रु०२ अ०३ उ०। शरीरशरीरमतोरभेदमधिकृत्य / अहीनसर्वाङ्गे शरीर-संपर्दोदे, / अणुत्तरणाणि(ण)-त्रि०(अनुत्तरज्ञानिन्) नाऽस्योत्तरं प्रधानवपुलज्जाए धाऊ, अलजणीओ अहीणसव्वंगो / होई अणुतप्पे सो, मस्तीत्यनुत्तरम्, तच तज्ज्ञानं च अनुत्तरज्ञानम्, तदस्याअविगलइंदियपडिप्पुण्णो / ति। व्य०२ उ०। उत्त०। बृ०। ऽस्तीत्यनुत्तरज्ञानी। केवलिनि, सूत्र०१ श्रु०२ अ०३ उ०॥ अणुत्त-त्रि०(अनुक्त) अकथिते, ध०३ अधि०। अभाषिते, पं० सं०५ . अणुत्तरधम्म-पुं०(अनुत्तरधर्म) नाऽस्योत्तरः प्रधानो धर्मो विद्यते इति अनुत्तरः / सूत्र० 1 श्रु०६ अ०। श्रुतचारित्राख्ये धर्मे, सूत्र०१ श्रु० अणुत्तर-त्रि०(अनुत्तर) उत्तरः प्रधानो नाऽस्योत्तरो विद्यते इत्यनु-त्तरः।। 2 अ०२ उ० स्था० 10 ठा०। सूत्र० / अविद्यमानप्रधानतरे, भ० 6 श० अणुत्तरपरक्कम-पुं (अनुत्तरपराक्रम) परे शत्रवः / ते च द्विधा- द्रव्यतो 33 उ०। अनन्यसदृशे, आ० म० द्वि० आचा०ा ध०। अनुपप्रधाने, मत्सरिणः, भावतः क्रोधादयः।इह भावशत्रुभिःप्रयोजनं, तेषामेवोच्छेदतो विशे। सर्वोत्कृष्ट, अष्ट० 14 अष्ट०। प्रश्न०। कल्प० आ० म०प्र०। मुक्तिभावात्। आक्रमणमाक्रमः, पराजय उच्छेद इति यावत्। परेषामाक्रमः दशा० उत्त०। औ०। पराक्रमः / सोऽनुत्तरोऽनन्यसदृशो यस्येति, "जिन तित्थयरे भगवंते केवलिनो दशाऽनुत्तराणि अणुत्तरपरक्कमे अमियणाणी" / अत्र आह- ये खल्यैश्वर्यादिभगवन्तः द्वा० Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुत्तरपरक्कम 383 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुत्तरोववाइयदसा तेऽनुत्तरपराक्रमा एव, तमन्तरेण विवक्षितभगासंभवात्, ततोऽनुत्तरपराक्रमानित्येतदतिरिच्यते / नैव दोषः- अस्य अनादिसिद्धेश्वर्यादिसमन्वितपरमपुरुषप्रतिपादनपरनयवादनिषेध-परत्वात्। तथाहि-कैश्चिदनुत्तरपराक्रमत्वमन्तरेणैव हिरण्यगर्भादीनामनादिविवक्षितभगयोगोऽभ्युपगम्यते। उक्तंच - "ज्ञानमप्रतिघं यस्य, वैराग्यं च जगत्पतेः / ऐश्वर्यं चैव धर्मश्च, सह सिद्धं चतुष्टयम्" / / 1 / / इत्यादि / अ०म०प्र०। अणुत्तरपुण्णसंभार-पुं०(अणुत्तरपुण्यसंभार) अनुत्तरः सर्वोत्तमहेतुत्वात् तत्कार्यात् पुण्यसंभारः तीर्थकरनामकर्मलक्षणो येषां ते तथा / तीर्थकृत्सु,पं० सू०४ सूत्र। अणुत्तरविमाण-न०(अनुत्तरविमान) नैषामन्यान्युत्तराणि विमानानि सन्तीत्यनुत्तरविमानानि / चतुर्दशदेवलोकवास्तव्यानुत्तरोपपातिकदेवविमानेषु, अनु०(अत्र वक्तव्यं 'विमान' शब्दे वक्ष्यते) "कइ णं भंते ! अणुत्तरविमाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंच अणुत्तरविमाणा पण्णत्ता / तेणं भंते! किं संखेज्जवित्थडा असंखेज्जवित्थडाय? गोयमा ! संखेञ्जवित्थडा ये असंखेज-वित्थडा य'। भ० 13 श० 2 उ01 "कइ णं भंते ! अणुत्तर विमाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंच अणुत्तरविमाणा पण्णत्ता / तं जहा-विजए, वेजयंते, जयंते, अपराजिए, सव्वट्टसिद्धेय' भ०६श०६ उ०) अणुत्तरोववाइय-पुं०(अनुत्तरोपपातिक) अनुत्तरेषु सर्वोत्तमेषु विमानविशेषेषु उपपातो जन्माऽनुत्तरोपपात, स विद्यते येषां तेऽनुत्तरोपपातिकाः / अ०) उत्तरः प्रधानः / नाऽस्योत्तरो विद्यतेइत्यनुत्तरः / उपपतनमुपपातो जन्मेत्यर्थः, अनुत्तरश्वाऽसावुपपातश्चेत्यनुत्तरोपपातः, सोऽस्ति येषां तेऽनुत्तरोपपातिकाः / सर्वार्थसिद्धादिविमानपञ्चकोपपातिषु, / स्था० 10 ठा०। विजयाद्यनुत्तरविमानवासिनि, स०१ सम०। अनुत्तरोपपातिकानामनुत्तरोपपातिकत्वम्अस्थि णं भंते ! अणुत्तरोववाइया देवा? हंता ! अस्थि / से केणढे णं भंते ! एवं वुचइ अणुत्तरोववाइया देवा ? गोयमा ! अणुत्तरोववाइयाणं अणुत्तरा सदा अणुत्तरा रूवा जाव अणुत्तरा फासा, से तेणढे णं गोयमा ! एवं वुच्चइ जाव अणुत्तरोववाइया देवा।। (अस्थि णमित्यादि) (अणुत्तरोववाइय त्ति) अनुत्तरः सर्वप्रधानोऽनुत्तरशब्दादिविषययोगादुपपातो जन्माऽनुत्तरोपपातः, सोऽस्ति येषां ते अनुत्तरोपपातिकाः / भ०१४ श०७ उ० भेदा अनुत्तरोपपातिकस्यसे किं त अणुत्तरोववाइया ? अणुत्तरोववाइया पंचविहा पण्णत्ता / तं जहा-विजया, वैजयंता, जयंता, अपराजिया, सव्वट्ठसिद्धा। ते समासओ दुविहा पण्णत्ता।तं जहा-पज्जत्तगा य अपज्जत्तगाय। प्रज्ञा०१पद। (अन्तक्रियादयोऽस्य स्वस्थान एव दृश्याः ) उचत्वम्अणुत्ततरोववाइयाणं देवाणं एगा रयणी उड्ड उच्चत्तेणं पन्नत्ता। (एगा रयणि त्ति) हस्तं यावत्, क्रोश कौटिल्येन नदी इतिवदिह द्वितिया। (उ8 उच्चत्तेणं त्ति) वस्तुनो हि अनेकधोचत्वमूर्ध्व-स्थितस्यैकम्, अपरं तिर्यक् स्थितस्य, अन्यद् गुणोन्नतिरूपम् / स्था० 1 ठा०। विजयादिविमानेषूपपत्तिमत्सु साधुषु, स्था० 8 ठा०। अणुत्तरोववाइया णं भंते ! देवा के वइएणं कम्माऽवसे सेणं अणुत्तरोववाइयदेवताए उववण्णा? गोयमा ! जावइयं छट्ठभत्तिए समणे णिग्गंथे कम्मं णिज्जरेइ, एवइएणं कम्मावसेसेणं अणुत्तरोव-वाइयदेवत्ताए उववण्णा। (जावइयं छट्ठभत्तिए इत्यादि) किल षष्ठभक्तिकः सुसाधुर्यावत्कर्म क्षपयति, एतावता कर्मावशेषेणाऽनिर्जीर्णेनाऽनुत्तरोपपातिका देवा उत्पन्ना इति / भ०१४ श०७ उ० अणुत्तरोववाइयदसा-स्त्री०(अनुत्तरोपपातिकदशा) ब० व०। अनुत्तरोपपातिकवक्तव्यताप्रतिबद्धा दशा दशाऽध्ययनोपलक्षिता दशाऽध्ययनप्रतिबद्धप्रथमवर्गयोगाद् दशा ग्रन्थविशेषो - ऽनुत्तरोपपातिकदशा / स्था० 10 ठा०। अनु०नवमेऽङ्गे, नं० पा० / सग से किं तं अणुत्तरोववाइयदसाओ? अणुत्तरो-ववाइयदसासु णं अणुत्तरोववाइयाणं नगराई उजाणाई चेइयाइं वणखंडाई रायाणो अम्मापियरो समोसरणाई धम्मायरिया धम्मकहाओ इहलोगपरलोइया इड्ढिविसेसा भोगपरिचाया पटवजाओ सुयपरिग्गहा तवोवहाणाई परियागो पडिमाओ संलेहणाओ भत्तपाणपञ्चक्खाणाई पाओवगमणाई अणुत्तरोववाओ सुकुलपचाओ पुण बोहिलाहो अंतकिरियाओ आघविजंति अणु-त्तरोववाइयदसासु णं तित्थकरसमोसरणाइंपरम मंगल्लजगहियाइं जिणाऽतिसेसाय बहुविसेसा जिणसीसाणंचेव समणगणपवरगंधहत्थीणं थिरजसाणं परिसहसेण्णरिउबलप मद्दणाणं तवदित्तचरित्तणाण सम्मत्तसारविविहप्पगारप सत्थगुणसंजुयाणं अणगारमहरिसीणं अणगारगुणाण वण्णओ उत्तमवरतवविसिट्ठणाण जोगजुत्ताणं जह य जगहियं, भगवओ जारिसा इविविसेसा देवाऽसुरमाणुसाणं परिसाणं पाउभाओ यजिणसमीवं जहय उवासंति जिणवरं,जह य परिकहति धम्म, लोगगुरू अमरनरसुरगणाणं सोऊण य तस्स भासियं अवसेसकम्मविसयविरत्ता नरा जहा अब्भुवें ति, धम्ममुदालं संजमं तवं वा वि बहुविहप्पगारंजह बहूणि वासाणि अणुचरित्ता आराहियनाणदंसणचरित्तजोगा जिणवयणमणुगयमहियसुभासियत्ता जिणवराण हिययेण मणुणेत्ताजे यजहिं जत्तियाणि भत्ताणि छेअइत्ता लखूण य समाहिमुत्तमज्झाणजोगजुत्ता उववन्ना मुणिवरोत्तमा, जह अणुत्तरएसु पावंति जह अणुत्तरं तत्थ विसयसोक्खंतओ य चुआ कमेण काहिंति संजया जहा य अंतकिरियं, एए अन्ने य एवमाइत्था वित्थरेण। अनुत्तरोपपातिकदशासु तीर्थकरसमवसरणानि / किं भूतानि ? परममाङ्गल्यजगद्धितानि, जिनातिशेषाश्च बहुविशेषाश्च "देह विमलसुयं" इत्यादयश्चतु स्त्रिंशदधिकतरा वा, तथा जिन Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुत्तरोववाइयदसा 384 - अभिघानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुदहमाण शिष्याणां चैव गणधरादीनाम् / किंभूतानामत आह-श्रमणगण- णं अणुत्तरावेवाइयाणं नगराई उजाणाई चेइयाई वणखंडाई प्रवरगन्धहस्तिनां, श्रमणोत्तमानामित्यर्थः / तथा स्थिरयशसां, तथा समोसरणाइं रायाणो अम्मापियरो धम्मायरिया धम्मकहाओ परीषहसैन्यमेव परीषहवृन्दमेव, रिपुबलं परचक्रं, तत्प्रमर्दनानां तथा / इहलोइयपर-लोइया इड्डिविसेसा मोगपरिचाया पव्वजाओ दववद् दावागिरिव, दीप्तान्युज्ज्वलानि, पाठान्तरेण 'तपो- परियागासुयपडिग्गहातवोवहाणाई पडिमाओ उवसग्गसंलेहदीप्तानि' यानि चारित्रज्ञानसम्यक्त्वानि, तैः साराः सफलाः, णाओ मत्तपचक्खाणाई पाओवगमणाइं अणुत्तरोववाइ त्ति विविधप्रकारविस्तारा अनेकविधप्रपञ्चाः। प्रशस्ताश्च येक्षमादयो गुणाः, उववत्तीसु कुलपचायाइओ पुण बोहिलामा अंतकिरियाओ य तैः संयुतानाम्। क्वचिद् 'गुणध्वजानामिति' पाठः। तथा अनगाराश्च ते आघविजंति। अणुत्तरोववाइयदसाणं परित्ता वायणा, संखिज्जा महर्षयश्चेत्यनगारमहर्षयः, तेषामनगारगुणानां वर्णकः श्लाघा, आख्यायत अणुओगदारा, संखिज्जा वेड्डा, संखिज्जा सिलोगा, संखिजाओ इति योगः / पुनः किं भूतानां जिनशिष्याणाम् ? उत्तमाश्च ते निजुत्तीओ , संखिज्जाओ संगहणीओ, संखिज्जाओ पडिजात्यादिभिर्वरतपसश्च ते च ते विशिष्टज्ञान योगयुक्ताश्चेत्यतस्तेषा- वत्तीओ। से णं अंगट्ठयाए नवमे अंगे,एगे सुयखंधे, तिन्नि वग्गे, मुत्तमयरतपोविशिष्टज्ञान-योगयुक्तानाम्। किंच।अपरे यथा च जगद्धितं तिन्नि उद्देसणकाला, तिन्नि समुद्दसेणकाला, संखिज्जाई भगवत इत्यत्र जिनस्य शासनमिति गम्यते / यादृशाश्च ऋद्धिविशेषा पयसहस्साइं पयम्गेण / संखिज्जा अक्खरा, अणंताऽऽगमा, देवाऽसुरमानुषाणां, रत्नोज्ज्वललक्षयोजनमान विमानरचनं अणंता पज्जवा, परित्ता तसा, अणंताथावरा,सासयकडनिबद्ध सामानिकाद्यनेक-देवदेवीको टिसमवयनं, मणिखण्डमण्डित- निकाइया जिणपन्नत्ता मावा आघविजंति पन्नविजंति परूविज्जंति दण्डपटुप्रचलत्पताकि-काशतोपशोभितमहाध्वजपुरःप्रवर्तिनं, दंसिजंति निदंसिज्जति उवदंसिज्जंति, से एवं आया एवं नाया विविधाऽऽतोद्यनादगग-नाभोगपूरणं, चैवमादिलक्षणाः, प्रतिकल्पित- एवं विन्नाया। एवं चरणकरणपरूवणा आघविज्जइ, से तं गन्धसिन्धुर-स्कन्धारोहणं चतुरङ्ग सैन्यपरिवारणं छत्रचामरमहा- अणुत्तरोववाइयदसाओ। ध्यजादि-महाराजचिप्रकाशनं, चैवमादयश्वसम्यविशेषाः समवसरण- (अणुत्तरोववाइयदसासुणमित्यादि) पाठसिद्धयावन्निगमनम्, नवरम्, गमनप्रवृत्तानां, वैमानिकज्योतिष्काणां भवनपतिव्यन्तराणां, अध्ययनसमूहो वर्गः / वर्गे च वर्गे च दश दशाऽध्ययनानि, वर्गश्च राजादिमनुजानां च। अथवा अनुत्तरोपपातिकसाधूनाम्, ऋद्धिविशेषा युगपदेपदेवो दिश्यते इति / त्रय एव उद्देशनकालाः, त्रय एव देवादिसम्बन्धिनस्तादृशा 'आख्यायन्ते' इति क्रियायोगः।। समुद्देशनकालाः, संख्येयानि च पदसहस्राणि, सहस्राऽष्टातथा पर्षदा 'संजयवेमाणित्थी संजइपुव्वेण पविसिओ वीरं' ऽधिकषट्चत्वारिंशल्लक्षप्रमाणानि वेदितव्यानि / नं०। इत्यादिनोक्तस्वरूपाणां प्रादुर्भावाश्च आगमनानि, क्व ? (जिणवरसमीव अणुदत्त-पुं (अनुदात्त) न उदात्तः, विरोधे नञ् / 'नीचैरनुदात्तः' त्ति) जिनसमीपे, यथा च येन प्रकारेण, पञ्चविधाभिगमादिना (उपा पा०।१२।३०। इति लक्षिते ताल्वादिषु सभागेषु स्थानेषूर्ववसमीवंति) उपासते सेवन्ते राजादयः, जिनवरं तथा 'ख्यायते' इति भागे निष्पन्ने स्वरभेदे, यथा नीचैःशब्देन 'जे भिक्खू हत्थकम्मं करेइ' योगः / यथा च परिकथयति धर्म , लोकगुरुरिति जिनवरः, इत्यादि। बृ०१ उ० अमरनराऽसुरगणानां श्रुत्वा च 'तस्येति' जिनवरस्यभाषितं, अवशेषाणि अणुदय-पुं (अनुदय) वेलाप्राक्काले, द्वा०७ द्वा० क्षीणप्रायाणि, कर्माणि येषां ते तथा। तेच ते विषयविरक्ताश्चेति, अवशेष अणुदयबंघुकिट्ठा-स्त्री०(अनुदयबन्धोत्कृष्टा) यासां विपाको-दयाभावे कर्मविषयविरक्ताः / के ? नराः। किम् ? यथा अभ्युपयन्ति धर्ममुदारम् / बन्धादुष्कृष्टस्थितिसत्कर्मावाप्तिः, तासु कर्मप्रकृतिषु, पं० सं०३ द्वा०। किस्वरूपमत आह-संजमं तपश्चाऽपि किम्भूत-मित्याह-बहुविधप्रकार ताश्च 'नारयतिरिउरलदुर्ग' इत्यादि गाथया'कम्म' शब्दे तृ०भा० 276 तथा, यथा बहूनि वर्षाणि (अणुचरिय त्ति) अनुचर्य आसेव्य, संयमं तपश्चेति पृष्ठेदर्शिताः) वर्तते / तत आराधितज्ञानदर्शनचारित्रयोगाः। तथा (जिणवयणमणुगयमहियभासिय त्ति) जिनवचनमाचारादि, अनुगतं संबद्ध अणुदयवई-स्त्री०(अनुदयवती)"चरिमसमयम्मि दलियं, जासिं, नादंवितर्दमित्यर्थः,महितं पूजितम् अधिकं वाभाषितं पैरध्यापनादिना अन्नत्थ संकमे ताओ / अणुदयवई" यासां प्रकृतीनां दलिकं ते तथा। पाठान्तरे जिनवचनभनुगत्याऽऽनुकूल्येन सुष्ठ भाषितं यैस्ते चरमसमयेऽन्त्यसमये, अन्यत्राऽन्यप्रकृतिषु, स्तिबुकसंक्रमेण संक्रमयेत्, जिनवचनानुगतिसुभाषिताः। तथा (जिणवराण हियएण मणुण्णेतत्ता संक्रमय्य चान्यप्रकृतिव्यपदेशेनानुभावतः स्वोदयेन तावत्युदयेन त्ति) इति षष्ठी द्वितीयार्थे / तेन जिनवरान् हृदयेन मनसा अनुनीय प्राप्य योऽनुदयवती संज्ञा / इत्युक्तलक्षणासुकर्मप्रकृतिषु, पं० सं०३ द्वा०। भ्यात्येति यावत्। ये च यत्र यावन्ति च भक्तानि छेदयित्वा लब्ध्या च अणुदयसंकमुक्किट्ठा-स्त्री०(अनुदयसंक्रमोत्कृष्टा) यासामनुसमाधिमुत्तमध्यानयोगयुक्ता उपपन्ना मुनिवरोत्तमाः यथा अनुत्तरेषु, तथा दयसंक्रमत उत्कृष्टस्थितिलाभः तासु कर्म प्रकृतिषु, पं० सं० 'ख्यायते' इति प्रक्रमः / तथा प्राप्नुवन्ति यथाऽनुत्तरं (तत्थ ति) ३द्वा०। ('कम्म' शब्दे तृ०भा०३३० पृष्ठे चासां स्वरूपमावेदयिष्यते) अनुत्तरविमानेषु विषयसुखं, तथा ख्यायन्ते (तत्तो य त्ति) अणुदरंमरि-पुं०(अनुदरंभरि) अनोत्मम्भरौ, द्वा०६द्वा०। अनुत्तरविमानेभ्यश्च्युताः क्रमेण करिष्यन्ति, संयता यथा चाऽन्तः अणुदवि-(देशी)क्षणरहिते, निरवसरे च / दे० ना० 1 वर्ग०| क्रियन्ते तथा ख्यायन्ते। स० अणुदहमाण-त्रि०(अनुदहत्) निसर्गाऽनन्तरमुपतापयति, स्था० 10 से किं तं अणुचरोववाइयदसाओ? अणुत्तरोववाइयदसाएसु ठाण Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुदिण्ण 385- अभिधानराजेन्द्रः-भाग 1 अणुपायकिरिया उन अणु दिण्ण-न०(अनुदीर्ण) न० त०। अनागतकाले उदीरणा- / अ०३ उ०। रहिते चिरेण भविष्यदुदीरणेऽभविष्यदुदीरणे वा कर्मणि, भ० 1 श०३ | अनुपर्यटन-न। भूयोभूयस्तत्रैवाऽऽगमने, "संसारपारकंखी ते संसार अनुयदृति" / संसारमेव चतुर्गतिकसंसरणरूपम्, अनुपर्यटन्ति। सूत्र० अणुदिसा-स्त्री०(अनुदिक्) आग्रेयादिकायां विदिशि, कल्प० आचाo १श्रु०१अ०२ उ०। "पाइणपडिण्णयं वा वि, उढे अणुदिसामवि' / दश० देवे णं मंते ! महिडिए जाव महेसक्खे पभू ! लवणसमुई ६अाआचार्योपाध्यायपदद्वितीयस्थानवर्त्तित्वे,व्य०२ उ०। ('उद्देश' अणुपरियट्टित्ताणं हव्वमागच्छित्तए? हंता ! पम्। देवेणं भंते ! शब्दे द्वि० भा० 808 पृष्ठे तदुद्देशो वक्ष्यते) महिड्डिए एवं धायइसंडदीवं जाव हंता ! पमू। एवं जाव रुयगवरं अणुविट्ठ-त्रि०(अनुद्दिष्ट) यावन्तिकादिभेदवर्जिते, प्रश्न०१ संवद्वान दीवं जाव हंता ! पभू / तेण परं वीईवएज्जा णो चेव णं अणुद्धरिकुंथु-पुं०-स्त्री०(अनुद्धरिकुन्थु) अनुद्धरिनामके कुन्थु-जीये, अणुपरियट्टिजा। बृ०१उ०ा स्था०ास हि चलन्नेव विभाव्यते, न स्थितः, सूक्ष्मत्वादिति / (वीईवइज्जत्ति) एकया दिशा व्यतिक्रामेत् (नो चेवणं अणु-परियट्टिल स्था० 8 ठा० "जं रयिणं च णं समणे भगवं महावीरे जाव त्ति) नैव सर्वतः परिभ्रमेत, तथाविधप्रयोजनाभावादिति संभाव्यते। भ० सव्यदुक्खप्पहीणे, तं रयणिंचणं कुंथुअणुद्धरीनाम समुप्पन्ना, जाठिया 18 श०७ उ०। अचलमाणा णिग्गंथाण य णिग्गंथीण य नो चक्खुप्फासं हव्वमागच्छइ, अणुपरियट्टमाण-त्रि०(अनुपरिवर्त्तमान) एकेन्द्रियादिषु पर्यटति, जाऽठिया चलमाणा छउमत्थाणं निग्गंथाण य निग्गंथीण य चक्खुप्फासं जन्मजरामरणानि वा बहुशोऽनुभवति / सूत्र० 1 श्रु०७ अ०। हव्वमागच्छइ"। कल्प०('वीर' शब्दे व्याख्यास्यते चैतत्) अरघट्टघटीन्यायेन वर्तमाने, आचा०१ श्रु०२ अ०३ उ०ाजी०। अणु द्धय-त्रि०(अनुद्भूत) अनुरूपेण वादनार्थमुत्क्षिप्तोऽनुभूतः। अणुपरियट्टित्ता-अव्य०(अनुपरिवर्त्य) सामस्त्येन परिभ्रम्येति वादनार्थमेव वादकैरत्यक्ते मृदङ्गादौ, ज्ञा० 1 अ० विपा०। जंग। प्रादक्षिण्येन परिभ्रम्येति वाऽर्थे, जी०३ प्रति०) "अणुटुअमुअंगा' अनुभूताऽनुरूपेण वादनार्थमुत्क्षिप्ता, अनुभूता अणु(नु)परिहारि(ण)-पुं० [अ (णु) नुपरिहारिन्] परिहारिणः अणु वादनार्थमेव वादकैरत्यक्ता, मृदङ्गा मर्दला यस्यां सा तथा / ज्ञा० स्तोकं प्रतिलेखनादिषु साहाय्यं करोतीति अणुपरिहारी / यत्र यत्र 1 अ० विपा० भ०। कल्प०। यत्र आनुरूप्येण यथामार्दङ्गिकविधिरुद्धूता वादनार्थमुत्क्षिप्ता मृदङ्गा मर्दलाः सन्ति / जं०३ भिक्षादिनिमित्तं परिहारी गच्छति, तत्र तत्र अनु पश्चात् पृष्ठतो लग्नः सन् गच्छतीत्यनुपरिहारी। व्य०१ उ०। पारिहारिका-णामनुचरे, विशेष वक्ष। (यथा च अनुपारिहारिकाणां पारिहारिकसेवा कर्तव्या तथा परिहारअणु धम्म-पुं०(अणुधर्म) बृहत्साधुधर्मापेक्षयाऽणुरल्पो धर्मो शब्दे वक्ष्यते) निर्विष्ट, आसेवित-विवक्षितचारित्रे च। स्था० 3 ठा० 4 ऽणुधर्मः। देशविरतौ, विशे० आ० म० द्विका उ०। *अनुधर्म-पुंo अनुगतो मोक्षं प्रत्यनुकूलो धर्मोऽनुधर्मः / अहिंसा अणुपविसंत-त्रि०(अनुप्रविशत्) अनु पश्चाद्भावे चरकालक्षणे, परीषहोपसर्गसहनलक्षणे वा धर्मे, "एसोऽणुधम्मो मुणिणा पवेदिओ" / सूत्र० 1 श्रु० 2 अ० 1 उ०। अनु पश्चाद् धर्मोऽनुधर्मः / दिषु निर्वृत्तषु पश्चात्पाककरणकालतो वा पश्चाद् भिक्षार्थ प्रवेशं कुर्वति, नि० चू०२ उ०। तीर्थकरानुष्ठानादनन्तरं चर्यमाणे धर्मे, "एसोऽणुधम्मो इह संजयाणं"। सूत्र०२ श्रु०६अ०नि० चू०। (सयथा पूर्वराचीर्ण तथाऽनुचरणीयमिति अणुपविसित्ता-अव्य०(अनु (णु) प्रविश्य) अनुकूलं स्तोकं वा 'अणाइण्ण' शब्दऽत्रैव भागे 305 पृष्ठे उक्तम्) प्रविश्येत्यर्थे, नि० चू०७ उ०| अणुधम्मचारि(ण)-पुं०(अनुधर्मचारिन) तीर्थकरप्रणीत अणुपवेस-पुं० पअनु (णु)प्रदेशब अनुकूले स्तोके वा प्रवेशे, नि० चू० धर्मानुष्ठायिनि, "जसी विरता समुट्ठिया, कासवस्सअणुधम्म-चारिणो" 7 उ० काश्यपस्य ऋषभस्वामिनो वर्द्धमानस्वामिनो वा संबन्धी यो धर्मः, | अणुपस्सि(ण)-पुं०(अनुदर्शिन) अनु द्रष्टुं शीलमस्येत्यनुदर्शी / तदनुचारिणस्तीर्थकरप्रणीतधर्मानुष्ठायिन इत्यर्थः / सूत्र०१ श्रु०२० पर्यालोचके, "एयाणुपस्सी णिज्झोसइत्ता'' एतदनुदर्शी भवति, 2 उ०। अतीतानागतसुखाभिलाषी न भवतीति यावत् / आचा० अणुपंथ-पुं०(अनुपथ) मार्गाऽभ्यणे,बृ०२ उ० 1 श्रु०३ अ०३ उ०। अणुपत्त-त्रि०(अनुप्राप्त) पश्चात्प्राप्ते, उत्त०३ अ०। अणुपस्सिय-अव्य०(अनुदृश्य) पर्यालोच्येत्यर्थे, सूत्र०१ श्रु० अणुपयाहिणीकरेमाण-त्रि०(अनुप्रदक्षिणीकुर्वाण) आनुकूल्येन २अ०२ उ०। प्रदक्षिणीकुर्वाणे, रा०। अणुपाण-त्रि०(अणुप्राण) अणवः सूक्ष्माः प्राणाः प्राणिनो येषु ते अणुपरियट्टण-न०(अनुपरिवर्तन) पौनःपुन्येन भ्रमणे, भ०१ श० अणुप्राणाः। सूक्ष्मजन्तुयुक्ते, "जययं विहराहि जोगवं, अणुपाणा पंथा 6 उ०ा पार्श्वतो भ्रमणे, सूत्र०१ श्रु०६ अघटीयन्त्रन्यायेन भ्रमणे, दुरुत्तरा"। सूत्र०१ श्रु०२ अ०१ उ०॥ आचा० 1 श्रु०५ अ० 1 उ०। नं०। "दुक्खाणमेव आवर्ल्ड अणुपा(वा)यकिरिया-स्त्री०(अनुपातक्रिया) प्रमत्त-संयतानामापन्नअणुपरियट्टइ ति" / दुःखानां शारीरमानसानामावतः पौनः पातं प्रत्येवंगुणसंपातिमसत्त्वानां विनाशात्मके क्रियाभेदे, आ० चू०४ पुन्यभवनमनुपरिवर्तते, दुःखावर्तावमग्नो बम्भ्रम्यते / आचा०१ श्रु०२ ] अ०॥ Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुपायण ३८६-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुपालणाकप्प अणुपा(वा)यण-न०(अनुपातन) अनु-पत-णिच्-ल्युट्। अवतारणे, ध०२ अधिका अणुपालंत-त्रि०(अनुपालयत्) अनुभवति, "साया सोक्खमणुपालंतेणं' शातं सुखमनुपालयताऽनुभवता / सुखासक्तमनसेत्यर्थः / पा०। प्रतिपालयति, आचा०१ श्रु०५ अ०२ उ०। अणुपा(वा)लण-न०(अनुपालन) शिष्यगणरक्षणे, तचाऽकुर्वतो दोषः। ध०३ अधि०। अननुपालने तु शासनप्रत्यनीकत्वादिदोषा एव / यतः पञ्चवस्तुप्रकरणे -"इत्थंपमायखलिया, पुव्वब्भासेण कस्सवण होति। जो तेण बेइ सम्मं, गुरुत्तर्ण तस्स सफलं ति॥१| को णाम सारहीणं, सहोज्ज जो भद्दवाइणो दमए / दुढे वि अ जे आसे, दमेइ तं आसिअं बिंति ॥२॥जोआयरेण पढम, पुव्वा वेऊण नाणु-पालेइ। सेहे सुत्तविहीए, सोपवयणपञ्चणीओ त्ति॥३॥अवि को वि अपरमत्था, विरुद्धमिह परभवे असे वा। जं पाविति अणत्थं, सो खलु तच्चव्वओ सव्यो'' त्ति॥४/० ध०३ अधिक अणुपा(वा)लणाकप्प-पुं०(अनुपालनाकल्प) आचार्ये कथञ्चिद् विपन्ने गणरक्षणविधौ, पं० भा०॥ स चैवम् - ............अहुणा अणुपालणाकप्पं। संखेवसमुद्दिद्वं, वोच्छामि अहं समासेणं / / मोहतिगिच्छाएँ गते, णडे खेत्तादि अह व कालगते। आयरिए तम्मि गणे, बालादीरक्खणहाए। कोवि गणी ठवणिजो, सन्नति जंति तस्स कोवि सीसो तु। सुत्तत्थतदुभएहिं, णिम्माओ सो ठवेयव्वो॥ असती य तस्स ताहे, ठावेयव्वा कमेण मेणं तु। पव्वज कुले णाणे,खेत्ते सुहिदुक्खसुतसीसो।। गुरु गुरूणं तं तू वा, गुरुसज्झिल्लउ व्व तस्स सीसो तु। पव्वज एगपक्खी, एमादी होति णायव्वो।। असतीऍ कुलचो वी, तस्स सतीएसु एगपक्खीओ। खेत्ते उवसंपन्ने, तस्स सतीए ठवेयव्वो॥ सुहदुक्खियस्स असती, तस्स सतीए सुतोवसंपन्नो। एवं ठियाण तेहिं, सीसम्मितु मग्गणा णत्थि।। पाडिच्छ गणधरे पुण, ठविए तहियं तु मग्गणा इणमो। सुत्तत्थमहिज्जंते, अणहिजंते इमे भागा॥ साहारणं तु पढमे, बितिए खेतम्मिततिए सुहदुक्खे। अणहिजंते सीसे, सेसे एक्कारस विभागा।। पुव्वुद्दिट्ठगणस्स तु, एत्थुद्दिष्टुं पवाइयंतस्स। पुव्वं पच्छुद्दिष्टे, सीसम्मि तुजं तु होति सचित्तं / / संवच्छरम्मि पढमे, तं सव्वगणस्स आहवति। पुवुदिट्ठगणस्सा, पच्छुट्ठि पवाइयंतस्स। संवच्छरम्मि बितिए, सीसम्मितु जंतु सचित्तं / पुव्वं पच्छुद्दिढे, सीसम्मितु जंतु होति सचित्तं / / संवच्छरम्मिततिए, एतं सव्वं पवाइयंतस्स। पुवुहिटुं गच्छे, पच्छुदिटुं पवाइयंतस्स / / संवच्छरम्मि पढमे, सिस्सिणिए जंतु सचित्तं / संवच्छरम्मि बितिए, तं सव्वं पवाइयंतस्स॥ पुव्वं पच्छुद्दिढे, पडिच्छियाए उ जंतु सच्चित्तं / संवच्छरम्मि पढमे, तं सव्वं पवाइयंतस्स। खेत्तुवसंपायरिओ, सुहदुक्खी चेव जति तु सो ठविओ। कुलगणसंघिच्चो वा, तस्स वि सइ होति उ विवेगो॥ सर्वच्छराणि तिण्णि उ,सीसम्मि पडिच्छियम्मितदिवसं। एककुलच्चगणिचे, संवच्छर संघ छम्मासो / / तत्थेव य णिम्माए, अणिग्गए, णिग्गए इमा मेरा। सकुले तिण्हि तियाई, गणे दुगं वच्छरं संघे // ओमादिकारणेहिं, दुम्मेहत्तेण वा ण णिम्मातो। काउण कुलसम्मायं, कुलथेरे वा उवढेति॥ णव हायणाइँ ताहे, कुलं तु सिक्खावए पयत्तेणं / णय किंचि तेसिँ गेण्हति, गणो दुगं एगसंघो तु // एवं तु दुवालसहिं, समाहिँ जदि तत्थ कोवि णिम्मातो। तो णिति अणिम्माए, पुण वि कुलादी उवट्ठाणा / / तेणेव कमेणं तू, पुणो समाओ हवंति बारस तू। णिम्माए विहरती, इहरकुलादी पुणोवट्ठा।। तह वि य बारसमासो, सीसस्स वि गणधरो होइ। तेण परमनिम्माए, इमा विही होइ तेसिं तु || छत्तीसातिकते, पंचविहु व्व संपदा पत्तो। पच्छा पत्तं तुवसं-पदे पवजएसु एगपक्खम्मि॥ पव्वजाऍसु तेण य, चउभंगो होति एगपक्खम्मि। पुवाहित वीसरिए, पढमा सति ततियभंगेणं / / सव्वस्स वि कायव्वं, णिच्छयओ कंकुलं व अकुलं वा। कालसमावममत्ते, गारवलज्जाएँ काहिंति॥ एसऽणुपालणकप्पो। पं०भा०। आयरिया णट्ठावए, आयरिए नढे वा, मोहतिगिच्छाए या, पक्खित्तचित्ते वा, कालगए वा, तस्स य सबालवुड्डाओ तस्स गच्छस्स को गणधारी कायव्वो? तत्थ (गाहा) (पव्वज्जा) जो जस्ससीसो निम्माएल्लओतस्स सइ जो पव्वज्जेगपक्खिओ पित्तियओ पित्तियपुत्तो वा तस्स सइ कुलव्वओ तस्स सइनाणेगपक्खिओएगवायणिओतस्सजोतम्मिखेत्ते उपसंपन्नओ आयरिओसुहदुक्खिओवासुयनिमित्तं वा जो तत्थ एगल्लओपडिच्छओ एएसिं ठवियाणं अहिज्जंताणं कस्स किंवा भवइ, सीसे ताव ठविएल्लए का कहा ? सेसेसु अणहिज्जेतेसुपडिच्छए ठथिए आयरिएण निम्मविएल्लए कुलगणसंघत्तिए वा जो सो आयरिओ ठविओ नाऊण य वोच्छेयं सो कुलिव्व पाइत्तम्मि अत्यंते चेव आयरिया कालगया ते वि आयरियेण तं निमित्तं चेव सीसवद्धावरं तम्मि ममत्तं करंता एस अम्हं सज्झंतिओ सो वि एए मम सज्झंतिएत्ति काऊण ममत्तं करेइ, एवं सो निम्माओ Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुपालणाकप्प 387- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुपालणासुद्ध आयरिया कालगया सो तं गच्छंन मुयइ, एत्था भवंतं वन्ने हं, तत्थ जे ताव आयरियस्स पडिच्छया तेसिं तदिवसमेव गेण्हइ, सचित्ताइ जे आयरियसीसा ते न सज्झायति तस्स सकासे तेण चोइयव्वा तेसु अणहिजंते सुत्तं तत्थ लभइ सचित्ताइ तं सामण्हं पढमवरिसे, बिईए खेत्तोवसंपन्नओ जं लब्भइ ते तं न लभंति / खेत्तोवसंपयाए नाइवग्गं दुविहं मेत्तवए सयलभंति। तइए वरिसे जं सुहपुक्खोवसंपन्नओलभइतं तेसिं लाभं सुहदुक्खियस्स लाभो पुव्वसंथवो पच्छा संथवो य चउत्थे वरिसे सव्वं गेण्हइ / एवं अणहिज्जंते पुण इमे एकारस विभागातस्सायरियस्स सीसा सीसियाओ पडिच्छियाओ जं जीवं तेणायरियजणस्स उद्दिढ़ अज्झायं तस्स पढमवरिसे सचित्तमचित्तं वा लभइ, तं सव्वं गुरुणो कालगयस्स वि एगो विभागो अह इमेण उद्दिटुं पढमवरिसे, तो पवाइयंतस्स जं सचित्ताइ बितिओ विभाओ बिइए वरिसे पुव्वं उद्दिट्ट, पच्छोवदिट्ट वा, सव्वं पवाइयंतस्स तइओ विभाओ, एयं पडिच्छए सीसस्स पढमवरिसे आयरिएण वा उद्दिढ़ तेण वा पडिच्छएण उहितं सव्वं गुरुणो विभाओ, बिइए वरिसे आयरिएण उद्दिटुंतपदंतस्स सचित्तचित्तं लभइ / तं सव्वं गुरुणो विभाओ पंचमो इमेण उद्दिट्ट तं पवाइयंतस्स छट्ठो विभाओ, तइए वरिसे आयरिएण वा उद्दिढ़ इमेण वा सव्वं पवाइयंतो गेण्हइ वा पयंतो एइविभागो सत्तमो, सीसणीयाए जहा पडिच्छयस्स तिहि गमा एए दस गमा, पडिच्छयाए / आयरिएण वा उद्दिढ़ इमेण वा पढमवरिसे चेव गेण्हइ वाययंतो, एए एक्कारस विभागा। एवं उगहे भणियं। पं० चूना संयतिपालनं त्वित्थम् - ........... वोच्छं अणुवालणाएं कप्पं तु। अणुपालंति सुविहिगा, गच्छं विहिणा उ जेणं तु / / परिकड्डी परिकळ, तओ य दुविहो पुणो वि एक्केको / / उवसग्गखेत्तकालव्वसेण अजाण परिवठ्ठी॥ परियट्टियव्वयं खलु, परियट्टी चेव होति एगहूँ। समणा समणीओ वा, दुविहं परियट्टिव्वं तु॥ समणपरियट्ट दुविहो, आयरिओ बीयओ उवज्झाओ। संजतिपरियट्टो पुण, तिविहो तु पवत्तणी तइया / / समणिपरियट्टि दुविहो, विहिपरियट्टीय अविहिते चेव। जतिणि परियट्टियव्वा, नियमेण य कारणा णिमिणा / / ताओ बहूवसग्गा, तेणादिदुसंचराणि खेत्ताणि। कालवसेण य संजति, जायति लोगस्स जं तत्तं / / तम्हा सव्वपयत्तेण रक्खियव्वा उ ताउ णियमेणं / / ण विसरती सोतव्वा, मा होज्ज तासि तु विणासो य। संवेगगतिपरिणतो, तासिं परियट्टओ अणुण्णातो॥ होति पुण अणरिहो खलु, परिकड्डी तू इमो तासिं / अबहुस्सुए अगीयत्थे तरुणे य मंदधम्मिए / कंदप्पसीलणट्ठा, अविही दोणे य गहणे य॥ बहुसुयगीतजहण्णो, आवासगमादिजाव आयारो। तेयग्गी य बहुस्सुय-तिल्हसमाणा रतो तरुणे॥ जो उज्जोग न कुणति, चरणे सो होति मंदधम्मो तु। अणिहुयउल्लावादी, सरीरकिरिआ य कंदप्पी। णिक्कारणे अणद्धा, संजति वसही तु वचए जो तु। णिक्कारणमविहीए, जो देती गिण्हती वा वि।। एयारिसे तु अजाण परिकड्डी तु ण कम्पत्ति। कारणेहिं इमेहिं तु, गम्मतऽजाणवस्सयं / / उवस्सए य गेलण्हे, उवही संघपाहुणे। सेहट्ठवणुदेसे, अणुनाभंडणे ठाणे || अणपज्झअगलियाओ, वीयारे पुत्तसंगमे। संलेहणवोसिरिणे, वोसट्ठाणिहिए तेहिं॥ अरिहो ऽणरिहो वा वी, परियट्टी एवमाहिओ। पं० भा०। इयाणिं अणुपालणाकप्पो (गाहा) (परियट्टियव्वयं) परिय-टुंतव्वओ भाणियव्वो परियट्टतओ ताव आयरियउवज्झाओ साहूणं संजइणं आयरियउवज्झाओ पवत्तिणी परियट्टियव्वयं दुविहं साहू साहुणीओ जतीणं पुण एकेको दुविहो विहिपरियट्टिओ अविहिपरियट्टिओ य तत्थ संजइओ नियमा परियट्टियव्वाओ, किं कारणं बहूवसगं तारिसिं तेयाणि सुखेत्ताणि य दुसंचाराणि कालवसेणं संपयं पडुच लोगो पंतो जाओ, एयाओ भरहाइभि पुव्वपरिपालियाओ ते दुट्टे निवारेंति। तम्हा नियमा परि-पालेयव्वाओ। साहू भइया केरिसो पुण परियडुंतओ? (गाहा) (अबहुस्सुए अबहुस्सुएण)न कप्पइ अगीयत्थेण वा गीयत्थो जो तरुणो मंद धम्मो वा नाणुन्नाओ धम्मसडिओ वि जो कंद-प्पसीलो सो वि णाणुण्णाओ अणट्ठाए जाए संजइणं वसहिं अविहिदायगो नाम निक्कारणे देइ, गिण्इह वा, परिसोन कप्पइ गणधरोअज्जियाणं (गाहा) (उवस्सए) अणट्ठागमओ नाम जो इमाईकारणाईमोत्तूण जाईकाईपुण ताइंकारणाई उवस्सए य गेलएहे उवस्सओ संजयिणं संजएहिं पडिलेहेत्तु दायव्वो तमुवस्सयं गणधरो दाउं वज्जेज्जा, निद्दोसो गिलाणाइ अज्जाए ओसहो सज्जपत्थभोयणं वा दाउं वच्चेज्जा उवदिसिउं वा, जहा वा अगिलाणियाए गिलाणियाए संजइए ओहनिनुत्तिगमए णं उवस्सए वा चिलिमिण्हिअंतरीए वसंतो निघोसो ऊवही उस्सगेण संजइणं गणधरो उम्गमेउं पवित्तिणीए दाउं पञ्चेज्जा संघपाहुणए कुलथेराइआ गया इड्डिम तो वा पव्वओ रायसेणावई अमच्चसेट्ठिगण-नायगगामाउडरहओडमा इए तज्जणनिमित्तं सेजायराइपण्हव-णनिमित्तं विहिणा वचेज्जा सेहट्ठवणं वा रायपुत्तो पव्वइओ मोयपडणीएहिं भिच्छुगाइहिं कहिओ मा एएसिं महिड्डियो होउत्ति अमचाईण मम्गताण कहिए ताहे आहावें ति दवदव्वस्स ताहे अंतहाणिए वेज्जाए पलावेंति, असइवेज्जाए गेलण्हनियडिं काऊण संजईणपडिस्सयमुवेंति, ताहे तत्थ अमणुण्णसंघाडीएकंजियाइपडिया इपरिसेयं काऊण सण्हाओ ओसढेई संति अण्हाओ अद्धिइं करेंति / जहा संजइ पडिलग्गति खरकम्माइ आगयाणं मा बोलं करेहत्ति, पडिसेहं करेंति, एवं नाइक-मइ उद्दिसिउंवा गणधरो अंगसुयखंधज्झयणं वचेला समुद्दिसिउं अणुजाणियं वा वि वचेज्जा वरं खुड्डियाइगोरवेणं आयरिएण उद्दिट्ठति काऊण भंडणे वा संजईण उप्पण्णे गणधरो उवसामेउं वचेज्जा पव-त्तिणी वा कालगया तत्थअणुसासणनिमित्तं, अण्णं वा पवत्तिणिंठवेउं वचेजा अणुप्पज्झए वा खित्तचेत्तजक्खाइए ठाए पुच्छणानिमित्तं Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चू० अणुपालणाकप्प 388- अभियानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुप्पाइण ओसढं वा दाउं वचेजा, अगणिकाए वा उड्डिओ संजईण उवस्सओ मा वा इति गम्यते। औ०जी०। पूर्वस्या अनु, लघव इति गम्यन्ते, अनुपूर्वाः / उज्झिहिइ, उज्झे वा अन्नउवस्सयं काउं वच्चेजा, आउकाए वा नईपूरिए किमुक्तं भवति? पूर्वस्या उत्तरोत्तरा नखं नखेन हीनाः, 'णह णहेण उडिएसुंजयणं उवकरणं संजइओ वा मा वुज्झेजा, आउकारण वालगाए हीणाउ' इति सामुद्रिकशास्त्रवचनात्। अथवा - आनुपूर्येण परिपाट्या वसहिं संठवेउं अन्नं वा दाउं वच्चेजा, वियारभूमिं वा एणभग्गा उड्डा वा वर्द्धमाना हीयमाना वा इति गम्यते, सुसंहता अविरला अगुल्यः संठवेउं अन्नं वा दाउं वच्चेज्जा, सुतो भाया वा अजाए पव्वइओ, सो य पादाग्रावयवा येषां तेतथा। अत्राऽनुपूर्व्यति। विशेषणात्पादाङ्गुलीग्रहणं, अण्णदेसं गंतूण पुव्वगए कालियाणुओगे व निम्माओ आगओतं गणधरो तासामेव नखं, नखेन हीनत्वात्। जं०२ वक्ष०। घेत्तुंवचेज्जा, सलेह वा करेउकामो तत्थेव एसंदाउंसलीढाए वा वोसिरणे अणुपुटवसो-अव्य०(अनुपूर्वशस्) अनुक्रमेणेत्यर्थे, आचा०१ श्रु०६ वोसट्टाए वा अणुसडि दाउं वचेजा, एसा विही, तस्विवरीया अविही। पं० अ०१० अणुप्पइय-त्रि०(अनुत्पतित) उड्डीने, 'आगासेऽणुप्पइओ अणुपा(वा)लणासुद्ध-न०(अनुपालनाशुद्ध) प्रत्याख्यानभेदे, आव०। ललियचवलकुंडलतिरीडी" | उत्त० 6 अ०) कतारे दुभिक्खे, आयके वा महइ समुप्पन्ने / अणुप्पगंथ-पुं० [अनु (णु) प्रग्रन्थ] अनुरूपतयौचित्येन विरतेः, न जं पालिन भग्गं, तं जाणऽणुपालणासुद्धं // 32 // त्वपुण्योदयाद्, अणुरपि वा सूक्ष्मोऽप्यल्पोऽपि प्रगतो ग्रन्थो धनादिर्यस्य कान्तारे अरण्ये, दुर्भिक्षे कालविभ्रमे, आतङ्के महति समुत्पन्ने सति यस्माद् वाऽसावनुप्रग्रन्थः / अपेत्त्यन्तर्भूतत्वा-दणुप्रग्रन्थो वा / यत्पालितं न भग्नं तज्जानीह्यनुपालनाशुद्धमिति / "एत्थ उग्गमदोसा परिग्रहविरते, स्था०६ ठा० सोलस, उप्पायणाए वि दोसा सोलस, एसणाए दोसा दस, एए सव्वे अणुप्पण्ण-त्रि०(अनुत्पन्न) वर्तमानसमयेऽविद्यमाने, नि० चू० बायालीसंदोसा निच्चपडिसिद्धा, एए कंतार-दुभिक्खाइसुन भंजइंति" 5 उ०। अलब्धे, ग०१ अधि०। ('नमोक्कार' शब्दे तदुत्पन्नानुत्पन्नत्यं इति गाथार्थः॥३२१०आव०६अ। स्था०। आ० चू०॥ दर्शयिष्यते) अणुपालित्ता-अव्य०(अनुपाल्य) यथा पूर्वः पालितं तथा अणुप्पदाउं-अव्य०(अनुप्रदातुम्) पुनःपुनातुमित्यर्थे, प्रति० / उपा०। पश्चात्परिपाल्येत्यर्थे, कल्पा अणुप्पदा(या)ण-न०(अनुप्रदान) पुनःपुनर्दाने, आव० अणुपालिय-त्रि०(अनुपालित) आत्मसंयमानुकूलतया पालिते, स्था० 6 अ०। आचा०ापरम्परकेण प्रदाने, व्य०२ उ०। गृहस्थानां 8 ठा० दशा परतीथिकानां स्वयूथ्यानां वा संयमोपघातके दाने, जेणेह णिव्वहे भिक्खू, अण्णपाणं तहाविहं। अणुपासमाण-त्रि०(अनुपश्यत्) भूयः पश्यति, "किं मे परोपासइ किं च अप्पा, किं वा हु खलियं न विवज्जयामि / इचेव सम्म अणुपासमाणो, अणुप्पयाणमन्नेसिं,तं विलं परियाणिया।। अणागयं नो पडिबंध कुञ्जा'' ||1|| दश० 2 चू०। आचा०१ श्रु०६ अग अणुपिट्ठ-न०(अनुपृष्ठ) आनुपूर्व्याम्, 'अणुपिट्ठसिद्धाइं' / सम० / ('धम्म' शब्दे अस्या व्याख्या) अणुपुव्व-न०(अनुपूर्व) क्रमे, आचा०१ श्रु०६ अ०३ उ०ा स्थान अणुप्पभु-पुं०(अनुप्रभु) युवराजे, सेनापत्यादौ च / नि० चू० *आनुपूर्य-न० मूलादिपरिपाट्याम्, औ०। "अणुपुटवसुजायदीहलंगुले' अनुपूर्वेण परिपाट्या सुष्ठु जात उत्पन्नो यः अणुप्पवाएत्ता-त्रि०(अनुप्रवाचयितृ) पाठयितरि, ग०१ अधि०। स्था०। सोऽनुपूर्वसुजातः / स्वजात्युचितकालक्रमजातो हि बल-रूपादिगुणयुक्तो "आयरियउवाए गणंसि सम्म अणुप्पवाएत्ता भवइ" तृतीयं संग्रहस्थानम् / ग०१ अधि० भवति, स चासौ दीर्घलाङ्लो दीर्घपुच्छश्चेति स तथा, अनुपूर्वेण वा स्थूलसूक्ष्मसूक्ष्मतरलक्षणेन सुजातं दीर्घलाङ्गुलं यस्य स तथा।। अणुप्पवाएमाण-त्रि०(अनुप्रवाचयत्) वर्णानुपूर्वीक्रमेण पठति, जं०३ "मधुगुलियपिंगलक्खो, अणुपुव्व-सुजायदीहलंगूलो"। स्था० 4 ठा० वक्षा 4 उ०। 'अणुपुव्वसुजायरु-इलवट्टभावपरिणया' आनुपूर्व्या अणुप्पवाय-पुं०(अनुप्रवाद) अनुप्रवदति साधनानुकूल्येन सिद्धिप्रकर्षण मूलादिपरिपाट्या सुष्ट जाताः आनुपूर्वीसुजाताः, रुचिराः स्निग्धतया प्रवदतीति / नं०। नवमपूर्वे, स्था० 6 ठा०विशे० आ० म० द्वि०। देदीप्यमानच्छविमन्तः, तथा वृत्तभावपरिणताः। किमुक्तं भवति एवं नाम 'विद्याऽनुप्रवादम्' इत्यपरं नाम नं० सर्वासु दिक्षु च शाखाभिश्च प्रसृता यथा वर्तुलाः संजाता इति / अणुप्पवेसण-न०(अनुप्रवेशन) मनसि लब्धाऽऽस्पदीभवने, उत्त०३ आनुपूर्वी सुजाताश्च ते रुचिराश्च आनुपूर्वीसुजातरुचिराः / अ० वृत्तभावपरिणताः / स०। ज्ञा० / जी०। "अणुपुव्वसुजायवप्प अणुप्पवेसेत्ता-अव्य०(अनुप्रवेश्य) "अन्नयरंसि अचित्तंसि सोयगंसि गम्भीरसीयलजलाओ" आनुपूर्येण क्रमेण नीचस्तरां भावरूपेण सुष्ठु अणुप्पवेसेत्ता' नि० चू०१ उ०। अतिशयेन यो जातवप्रः केदारो जलस्थानं तत्र गम्भीरमलब्धतलं शीतलं | अणुप्पसूय-त्रि०(अनुप्रसूत) जाते, आचा० 1 श्रु०१ अ०८ उ०। जलं यासु ताः आनुपूर्व्यसुजातवप्रगम्भीरशीतलजलाः / रा०। ज्ञा०। अणुप्पाइ(ण)-पुं०(अनुपातिन्) अनुपततीत्यनुपाती / घटमाने जी०। "अणुपुव्वसु संहयंगुलीए" आनुपूर्येण क्रमेण वर्द्धमाना हीयमाना | युज्यमाने, नि० चू०१ उ०। 2 उ० Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुप्पिय 389 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुप्पेहा अणु प्पिय-त्रि०(अनुप्रिय) प्रियानुकूले , "अन्नस्स पाणस्सिहलोइयस्स, अणुप्पियं भासति सेवमाणे' अनुप्रियं भाषते यद् यस्य प्रियं तत्तस्य वदनोऽनु पश्चाद् भाषते अनुभाषते। सूत्र०१ श्रु०७ अ०! अणुप्पेहा-स्त्री०(अनुप्रेक्षा) अनुपेक्षणमनुप्रेक्षा। चिन्तनिकायाम, स्था० 5 ठा०३ उ०। अर्थचिन्तने, ध०३ अधिo ग्रन्थार्थानुचिन्तने, ग०२ अधि०। सूत्रानुचिन्तनिकायाम्' / उत्त० 2 अ० दश०। अनुप्रेक्षा स्वाध्यायविशेषः / स तु मनसस्तत्रैव नियोजनाद् भवति / उत्त० 26 अ० प्रव०। अवधाने, प्रति०। तविधिरसौ-"जिणवरपवयणपायडणयउण गुरुवयणओ सुणियपुव्वे / एगग्गमणो धणियं, चित्ते चिंतेइ सुयवियारे" ||1|| ध०२०। एतस्याः फलम् - अणुप्पेहाएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? अणुप्पेहाएणं आउयवजाओ सत्त कम्मप्पयडीओ धणियबंधणबद्धाओ सिढिलंबंधणबद्धाओ पकरेइ, दीहकालट्ठिइयाओ हस्सकालट्ठिइयाओ पकरेइ, तिव्वाणुभावाओ मंदाणुभावाओ पकरेइ, बहुपएसग्गाओ अप्पपएसग्गाओ पकरेइ, आउयं च णं कम्मं सिय बंधइ, सिय नो बंधइ, असायावेयणिज्जं च णं कम्म नो मुजो भुजो उवचिणाइ, अणाइयं च णं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंत-संसारकंतारं खिप्पामेव वीईवयइ। हे भदन्त ! स्वामिन् ! अनुप्रेक्षया सूत्रार्थचिन्तनिकया, जीवः किं जनयति ? गुरुराह - हे शिष्य ! अनुप्रेक्षया कृत्वा जीवः सप्त कर्मप्रकृतीझानावरणदर्शनावरणवेदनीयमोहनीयनामगोत्रान्तरायरूपाणां सप्तानां कर्मणां प्रकृतयः एकशतचतुःपञ्चाशत्प्रमाणाः सप्तकर्मप्रकृतयस्ताः सप्तकर्मप्रकृतीर्धणियबन्धनबद्धाः गाढबन्धनबद्धाः, निकाचितबद्धाः, शिथिलबन्धनबद्धाः प्रकरोति / यतो हि अनुप्रेक्षा स्वाध्यायविशेषः, स तु मनसस्तत्रैव नियोजनाद्भवति, स चानुप्रेक्षा / स्वाध्यायो हि आभ्यन्तरं तपः, तपस्तु निकाचितकर्मापि शिथिलीकर्तुं समर्थं भवत्येवा कथंभूताः सप्त कर्मप्रकृतीः ? आयुर्वर्जाः, प्रकृष्टभावहेतुत्वेन आयुर्वर्जयन्ती-त्यायुर्वर्जाः। पुनर्हे शिष्य! अनुप्रेक्षया कृत्वा, जीवस्ता एव कर्मप्रकृतीर्दीर्घकालस्थितिकाः शुभाध्यवसाययोगात् स्थिति-खण्डांनामपहारेण ह्रस्वकालस्थितिकाः प्रकरोति / प्रचुरकाल-भोग्यानि कर्माणि स्वल्पकालभोग्यानि करोतीत्यर्थः / पुनस्तीवानुभावाः कर्मप्रकृतीर्मन्दानुभावाःप्रकरोति, तीव्रः उत्कटोऽनुभावो रसो यासां तास्तीव्रानुभावाः ईदृशीः कर्मप्रकृतीर्मन्दो निर्बलोऽनुभावो यासां ता मन्दानुभावाः प्रकरोति, तादृशीः प्रकर्षण विदधाति, पुनर्बहुप्रदेशाग्रा अल्पप्रदेशाग्राः प्रकरोति / बहुप्रदेशाग्रं कर्मपुद्गलिकप्रमाणं यासां ताः बहुप्रदेशाग्राः, एतादृशीः कर्मप्रकृतीरल्पप्रदेशाग्राः प्रकरोति / इत्यनेन अनुप्रेक्षयाऽशुभश्चतुर्विधोऽपि बन्धः प्रकृतिबन्धः स्थितिबन्धोऽनुभागबन्धः प्रदेशबन्धः, शुभत्वेन परिणमतीत्यर्थः। अत्र च आयुर्वर्जमित्युक्तम्।तत्तुएकस्मिन् भवे सकृदेव अन्तर्मुहूर्त-काले एव आयुर्जीवो बध्नाति / च पुनः आयुःकर्माऽपि स्याद् बध्नाति, स्यात् न बध्नाति, संसारमध्ये तिष्ठति चेत्तर्हि अशुभमायुर्न बध्नाति / जीवेन तृतीयभागादिशेषायुष्केन आयुःकर्म बध्यते, अन्यथा न बध्यते। तेन आयुः कर्मबन्धे निश्चयो नोक्तः, इत्यनेन मुक्तिं व्रजति तदा आयुर्न | बध्नातीत्युक्तम्। पुनरनुप्रेक्षया कृत्वा जीवोऽसातावेदनीय कर्म शारीरादिदुःखहेतु चकर्म / चशब्दादन्याश्चाऽशुभप्रकृती! भूयो भूय उपचिनोति / अत्र भूयो भूयोग्रहणेन एवं ज्ञेयम्-कश्चिद् यतिः प्रमादस्थानके प्रमादं भजेत् तदा बध्नात्यपि इति हार्दम् / पुनरनुप्रेक्षया कृत्वा जीवश्वातुरन्तसंसारकान्तारं क्षिप्रमेव (वीईवयइ इति) व्यतिव्रजति / चत्वारश्वतुर्गतिलक्षणा अन्ता अवयवा यस्य तत् चातुरन्तं, तदेव संसारकान्तारं संसारारण्यं, तत् शीघ्रमुल्ल यति / कीदृशं संसारारण्यम् ? अनादिकम् - आदेरभावाद् आदिरहितम्। पुनः कीदृशं संसारकान्तारम् ? अनवदग्रमनागच्छत् अग्रं परिमाणं यस्य तद् अनवदग्रम्, अनन्तमित्यर्थः / प्रवाहापेक्षया अनाद्यनन्तम् / पुनः कीदृशम् ? दीर्घाध्वं दीर्घकालं, 'दीहमद्धम्' इत्यत्र मकारोलाक्षणिकः, प्राकृतत्वात् / / उत्तु० 26 अ०। तत्रानुप्रेक्षा चिन्तनिका, तथा प्रकृष्टशुभभावोत्पत्तिनिबन्धनतया आयुष्कवर्जाः सप्त कर्मप्रकृतीः, (घणियं ति) बाढं बन्धनं श्लेषणं, तेन बद्धाः, निकाचिता इत्यर्थः / शिथिलबन्धनबद्धाः किञ्चिन्मुक्ताः। कोऽर्थः ? अपवर्तनादिकरणयोग्याः प्रकरोति, तपोरूपत्वादस्याः / तपसश्च निकाचितकर्मक्षपणेऽपि क्षमत्वात् / उक्तं हि - "तवसा उनिकाइयाणवत्ति" दीर्घकालस्थितिका ह स्वकालस्थितिकाः प्रकरोति, शुभाध्यवसायवशात् / स्थितिखण्डकापहारेणेति भावः। एतच्चैवं, सर्वकर्मणामपि स्थिते-रशुभत्वात्। यत उक्तम् - "सव्वासिं पि ठितीओ, सुभासुभाणं पिहोति असुभाओ। माणुसतेरिच्छदेवा उयं च मोत्तूण सेसाओ" ||1|| तीव्रानुभावाश्चतु:स्थानिकरसत्वेन, मन्दानुभावा-स्त्रिस्थानिकरसत्वाद्यापादनेन प्रकरोति / इह चाशुभप्रकृतय एव गृह्यन्ते / शुभभावस्य शुभासु तीव्रानुभावहेतु-त्वात्। उक्तं हि- "सुभपयडीण विसोहि तिव्यमसुभाण संकिलेसं ति" / अत्र हि - "विसोहिए त्ति' शुभभावेन तीव्रमित्यनुभाग बध्नातीति प्रक्रमः। क्वचिदिदमपि दृश्यते - 'बहुप्पएसगाओ पकरेति' ननु केनाभिप्रायेणायुष्कवर्जाः सप्तेत्यभिधानम्, शुभायुष्क एव संयतस्य संभवात्तस्यैव चानुपेक्षा तात्त्विकी ! न च शुभभावेन शुभप्रकृतीनां शिथिलतादिकरणं, संक्लेशहेतुकत्वात् तस्य / आह - शुभायुर्बन्धोऽप्यस्याः किं न फलमुक्तम्। उच्यते-आयुष्कं च कर्म स्याद् बध्नाति, स्यान्न बध्नाति / तस्य त्रिभागादिशेषा-युष्कतायामेव बन्धसंभवात् / उक्तं हि "सिय तिभागतिभागे'' इत्यादि / ततस्तस्य कादाचित्कत्वेन विवक्षितत्वात् / तद्वतश्च कस्यचिद् मुक्तिप्राप्तेः तद्वन्धानभिधानमिति भावः / अपरं चाशातवेदनीयं शरीरादिदुःखहेतुं कर्म। चशब्दादन्याश्चा-ऽशुभप्रकृती! नैव भूयोभूय उपचिनोति / भूयोभूयोग्रहणं त्वन्यतमप्रमादतः, प्रमत्तसंयतगुणस्थानवर्तितायां तद्वन्धस्याऽपि संभवात्। अन्ये त्वेवं पठन्ति - "सायावेयणिज्जं च णं कम्मं भुजो भुजो उवचिणोति'' इह च शुभप्रकृतिसमुचयार्थश्वशब्दः, शेषं स्पष्टम् / अनादिकदिरसंभवात् / चः समुच्चयार्थो योक्ष्यते / (अणवदग्ग त्ति) अनवगच्छदगं परिमाणं यस्य सदाऽवस्थितानन्तपरिमाणत्वेन सोऽयमनवदग्रोऽनन्त इत्यर्थः, तम् / प्रवाहापेक्षं चैतत् / अत एव (दीहमद्धं ति) मकारो लाक्षणिकः / दीर्घाध्वं दीर्घ कालं, दीर्घा वाऽऽध्वा तत्परिभ्रमणहेतुकर्मरूपो मार्गो यस्मिंस्तत्तथा / चत्वारः चतुर्गतिलक्षणा अन्ता अवयवा यस्मिंस्तचतुरन्तम्, संसारकान्तारं क्षिप्रमेव (वीईवयइ त्ति) व्यतिव्रजति, Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुप्पेहा 390 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुवेलंधर विशेषेणातिक्रामति / किमुक्तं भवति? मुक्तिमवाप्नोति / उत्त० | अणुबंधभावविहि-पुं०(अनुबन्धभावविधि) प्रत्याख्यात परिणामा२६ अ०। अनु पश्चात् प्रेक्षणमनुप्रेक्षा / धर्मध्यानादेः पश्चात्पर्यालोचने, _ विच्छेदभावस्य विधाने, पञ्चा० 5 विव०। भ० 25 श० 8 उ०। स्था०। आव० / उत्त०। ("धमस्स णं झाणस्स अणुबंधववच्छेद-पुं०(अनुबन्धव्यवच्छेद) भवान्तरारम्भकाणाचत्तारि अणुप्पेहाओ" इत्यादि धर्मध्यानादिशब्देष्वेव दृश्यम्) मितरेषां च कर्मणां वन्ध्यभावकरणे, द्वा० 18 द्वा०। अर्हद्गुणानां मुहुर्मुहुरनुस्मरणे च / "अणुप्पेहाए वड्ढामाणीए ठामि अणु बंधसुद्धिभाव-पुं०(अनुबन्धशुद्धिभाव) सातत्येन काउस्सगं" | ध०२ अधिoआचू० / तत्त्वार्थानुचिन्तायाम, ल०।। कर्मक्षयोपशमेनात्मनो निर्मलत्वसद्भावे, पञ्चा० 8 विव०। अणुप्पेहियव्व-त्रि०(अनुप्रेक्षितव्य) अन्वाख्यानविधिना परिभावनीये, अणुबंधावणयण-न०(अनुबन्धापनयन) अशुभभावजातकर्मापं० सू०१ सू० नुबन्धव्यवच्छेदे, पञ्चा० 15 विव०। अणुफास-पुं०(अनुस्पर्श) अनुभावे, "लोहस्सेवऽणुफासो, मन्ने अणुबन्धिअं-(देशी) हिक्कायाम्, दे० ना० 1 वर्ग। अन्नयरामवि"। दश०६ अ० / अणुबंधि(न)-त्रि०(अनुबन्धिन्) अनु-बन्ध-णिनि / हेतौ, ध० अणुबंध-पुं०(अनुबन्ध) सातत्ये, स्था०६ ठा०। अनुबन्धः संतानः 2 अधि०। प्रस्फोटकादीनां सातत्यविशिष्टे अननुबन्धिदोषरहिते प्रवाहोऽविच्छेद इत्यनान्तरम् / षो०१ विव०। अव्य वच्छिन्नसुखपरम्परया देवमनुजजन्मसु कल्याणपरम्परारूपे सन्ताने, षो०१३ विव०। प्रतिलेखने, स्था०६ ठा० तत्परिणामाविच्छेदतः प्रकर्षयापितायाम, पञ्चा० 16 विव०। अणुबद्ध-त्रि०(अनुबद्ध) सदानुगते, जी०३ प्रति० आ० म०। गृहीते, अणुबंधचउक्क-न०(अनुबन्धचतुष्क) प्रयोजनादिकारि नि० चू० 1 उ०। निरन्तरमुपचिते, जी०३ प्रति०ा सतते, प्रश्न संबन्धाभिधेयचतुष्टये, तच्च ग्रन्थादावभिधातव्यम्। आव०१०। अत्र 1 संव० द्वारा स्था०। अव्यवच्छिन्ने, प्रश्न०१ आश्र० द्वा०। प्रतिबद्धे, कश्चिदाह-नन्वधिगतशास्त्रार्थानां स्वयमेव प्रयोजनादि परिज्ञानं ज्ञा०२ अ०। व्याप्ते, ज्ञा० 2 अ०। पूर्वोपार्जितद्वेषबन्धनबद्धे, उत्त० भविष्यतीति निरर्थक एष शास्त्रादौ प्रयोजनाद्युपन्यास इति चेद् / 4 अ० न। अनधिगतशास्त्रार्थानां प्रवृत्तिहेतुतया सफलत्वात्। अथ प्रेक्षावतां अणुबद्धखुहा-स्त्री०(अनुबद्धक्षुध) सततबुभुक्षायाम्, "अणुप्रवृत्तिनिश्चयपूर्विका भवति / न च प्रयोजनादावुक्ते ऽपि बद्धखुहापरद्धसीउण्हतण्हवेयणादुग्घट्टघटियविवण्णमुह-विच्छविया''। अनधिगतशास्त्रार्थानां तन्निश्वयोपपत्तिः, वचनस्य बाह्यार्थ प्रति प्रश्न०३ आश्र० द्वारा प्रामाण्याभावात्। न च संशयतः प्रवृत्तिरुपपन्ना, प्रेक्षावतां क्षतिप्रसङ्गात्, अणु बद्धणिरंतर-त्रि०(अनुबद्धनिरन्तर) अत्यन्तनिरन्तरे, ततः कथं सार्थकता अधिकृतप्रयोजनाडुपन्यासस्य ? "अणुबद्धनिरन्तरवेयणासु" अनुबद्धनिरन्तराः अत्यन्तनिरन्तरा वेदना तदेतदपरिनोदितभाषितम् / वचनस्य बाह्यार्थ प्रति प्रामाण्याभावात्, येषु ते तथा। प्रश्न०१आश्र० द्वा०। अन्यथा सकलव्यवहारोच्छेदप्रसक्तेः / विजृम्भितं चाऽत्र प्रपञ्चतो अणुबद्धतिव्ववेर-त्रि०(अनुबद्धतीव्रवैर) अव्यवच्छिन्नो-त्कटवैरभावे, धर्मसङ्ग्रहणीटीकादाविति ततः परिभावनीयम् / अथ यदि वचनस्य "अणुबद्धतिव्ववेरा, परोप्परं वेयणं उदीरेंति" प्रश्न०१ आश्र0 द्वा०। बाह्यार्थ प्रति प्रामाण्यं, तहत एव सम्यगभिधेयादि अणुबद्धधम्मज्झाण-त्रि०(अनुबद्धधर्मध्यान) अनुबद्धं सततं परिज्ञानभावान्निरर्थिका शास्त्रे प्रेक्षावतां प्रवृत्तिः, फलाभावात्। प्रवृत्तौ धर्मध्यानमाज्ञाविचयादिलक्षणं येषां तेऽनुबद्धधर्मध्यानाः / हि फलमभिधेयादिपरिज्ञानं, तच्चाधिकृतप्रयोजनाडुपन्यासत एव सिद्धमिति / तदेतद्-बालिशविजृम्भितम् / अधिकृतेन हि सततप्रवृत्तधर्मध्याने, प्रश्न० 1 सम्ब० द्वा०। प्रयोजनाडुपन्यासेन प्रयोजनादीनामधिगतिर्भवति, सामान्येन अणुबद्धरोसप्पसर-त्रि०(अनुबद्धरोषप्रसर) अनुबद्धः सततनाशेषविशेषपरि-ज्ञानपुरस्सरा, अधिकृत प्रयोजनाडुपन्यासस्य मव्यवच्छिन्नो रोषस्य प्रसरो विस्तारो यस्य सोऽनुबद्धरोषप्रसरः / सामान्येन प्रवृत्तत्वात् / सामान्यनिष्ठं हि वचः सामान्य प्रतिपादयति, निरन्तरकुद्धे, ग०२ अधिका विशेषनिष्ठं विशेषम् / अतो वचनप्रामाण्यादधिकृतप्रयो- अणुबद्धविग्गह-त्रि०(अनुबद्धविग्रह) सदा कलहशीले, पं० व० जनाद्युपन्यासवाक्यतः सामान्येन प्रयोजनादिकेऽधिगते कथं तु 3 द्वारा नामास्माकं सविशेष सामायिकादिपरिज्ञानं स्यादिति विशेष-परिज्ञानाय निचं विग्गहशीलो, काऊण य नाणुतप्पए पच्छा। भवति प्रेक्षावतां शास्त्र प्रवृत्तिः / अन्यच्च यदि वचनस्य न नय खामिउं पसीयइ, सपक्खपरपक्खओ वा वि।। प्रामाण्यमभ्युपगम्यते तथापिन काचिद्विवक्षितार्थक्षतिः। आ० म०प्र०। नित्यं सततं विग्रहशीलः कलहकरणस्वभावः, कृत्वा च कलहं अणुबंधच्छेयणाइ-पुं०(अनुबन्धच्छेदनादि) अनुबन्धं छिनत्तीति नानुतप्यते पश्चात् / यथाह-किं कृतं मया पापेनेति / तथा क्षमितोअनुबन्धच्छेदनः तदादिः / निरनुबन्धताऽऽपादनादौ कर्मक्षपणोपाये, ऽपि, क्षम्यतां ममायमपराध इति भणितोऽपि स्वपक्षपरपक्षयोरपि, "वित्ताणं कम्माणं, चित्तोचिय होइ खवणुवाओ वि / अणुबन्धछेयणाई, न च नैव प्रसीदति प्रसन्नता भजति, तीव्रकषायोदयत्वात् / अत्र च सो उण एवं ति णायव्वो॥१॥ पञ्चा०१८ विव०। स्वपक्षे साधुसाध्वीवर्गः परपक्षे गृहस्थवर्गः / एषोऽनुबद्धविग्रह उच्यते। अणुबंधभाव-पुं०(अनुबन्धभाव) अनुभावस्य सत्तायाम्, पञ्चा० बृ०१ उ०॥ 5 विव० अणुवेलंधर-पुं०(अनुवेलन्धर) महतां वेलन्धराणामादेशप्रती Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुवेलंधर 391- अभियानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुब्भडवेस च्छकतयाऽनुयायिनो वेलन्धरा अनुवेलन्धराः। स्वनामख्यातेषु / व्यतिव्रज्याऽन्यस्मिन् लवणसमुद्रे द्वादशयोजनसहस्राण्यवगाह्य नागराजेषु,, जी०३ प्रति०। कर्कोटकाभिधाना राजधानी, विजया राजधानीव प्रतिपत्तव्या / एवं तभेदा, तदावासपर्वताश्च यथा कर्दमककैलासारुणप्रभवक्तव्यताऽपि भावनीया, नवरं जम्बूद्वीपे द्वीपे कहि णं मंते ! अणुवेलंधरणागरायाणो पण्णत्ता ? गोयमा ! मन्दरस्य पर्वतस्य लवणसमुद्रे दक्षिणपूर्वस्यां कर्दमकः, दक्षिणापरस्यां चत्तारि अणुवेलंधरणागरायाणो पण्णत्ता / तं जहा- ककोडए, कैलाशः, अपरोत्तरस्या-मरुणप्रभः / नामनिमित्तचिन्तायामपि यस्मात् कद्दमए, कइलासे, अरुणप्पभे / एतेसिं णं मंते ! चउण्हं कर्दमके आवासपर्वते उत्पलादीनि कर्दमप्रभाणि, ततः कर्दमकः। भावना अणुवेलंधरणागराईणं कति आवास-पव्वया पण्णता ? प्रागिव / अन्यत्त्वकर्दमके विद्युत्प्रभो नाम देवः पल्योपमस्थितिकः गोयमा! चत्तारि आवासपव्वया पण्णत्ता / तं जहा- ककोडए, परिवसति, स च स्वभावाद् यक्षक र्दमप्रियः / यक्षकर्दमो नाम कद्दमए, कइलासे अरुणप्पभे / कहि णं भंते ! कक्कोडगस्स कुङ्कुमागुरुक-पूरकस्तूरिकाचन्दनमेलापकः / उक्तं च "कुङ्कुमाअणुवेलं-धरराइस्स कक्कोडए णामं आवासपव्वते पण्णत्ते ? गुरुकर्पूरकस्तूरी-चन्दनानि च / महा-सुगन्धमित्युक्त-नामको गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पध्वयस्स उत्तरपुरच्छिमेणं यक्षकर्दमः" ||1|| ततः प्राचुर्येण यक्षकर्दमसंभवादसौ पूर्वपदलोपे लवणसमुद्रं बायालीसं जोयणसयाई उग्गाहित्ता, एत्थ णं सत्यभामेतिवत् कर्दम इत्यु-च्यते / कैलाशे कैलाशप्रभाणि उत्पलादीनि, कक्कोडयस्स णागरायस्स ककोडए णाम आवासे पण्णत्ते / कैलाशनामा च तत्र देवः पल्योपमस्थितिकः परिवसति, ततः कैलाशः। सत्तरसएक्कवीसाइंजोयणसयाई,तंचेवपमाणं गोथूभस्स,णवरिं एव-मरुणप्रभेऽपि वक्तव्यम् / कर्दमका राजधानी कर्दमकस्यासव्वरयणामए अच्छे जाव निरवसेसं जावसीहासणं सपरिवारं ऽऽवासपर्वतस्य दक्षिणपूर्वया कैलाशा, कैलाशस्यावासपर्वतअट्ठो०। स बहूई उप्पलाई कक्कोडगपभाई, सेसंतं चेव, णवरिं स्य दक्षिणाऽपरया अरुणप्रभा, अरुणप्रभस्यावासपर्वत-स्यापरोत्तरायां कक्केडगपव्वतस्स उत्तरपुरच्छिमेणं, एवं चेव सव्वं कद्दमगस्स तिर्यगसंख्येयान् द्वीपसमुद्रान् व्यतिव्रज्यान्यस्मिन् लवणसमुद्रे विजया वि सो चेव गमओ अपरिसेसिओ,णवरिं दाहिणपुरच्छिमेणं राजधानीव वक्तव्या। जी०३ प्रतिका आवासो विजूजिज्झावी रायहाणी, दाहिणपुरच्छिमेणं कति अणुब्भडं-त्रि०(अनुद्भट) अनुल्बणे, जी०३ प्रति०ा अभि-मानरहिते, भासे वि एवं चेव, णवरिं दाहिणपञ्चच्छिमेणं कइलासा वि उत्त०२ अ० रायहाणी, ताए चेव दिसाए अरुणप्पभे वि उत्तरपुरच्छिमेणं अणुब्भडपसत्थकुक्खि-त्रि०(अनुद्भटप्रशस्तकुक्षि) अनुद्रायहाणी वि, ताए चेव दिसाए चत्तारि वि एगपमाणा भटोऽनुल्बणः प्रशस्तः प्रशस्तलक्षणः पीनः कु क्षिर्यासां ताः सव्वरयणामया य। अनुभटप्रशस्तपीनकुक्षयः। जी०३ प्रति०। (कहि णमित्यादि) कति भदन्त ! अनुवेलन्धरराजाः प्रज्ञप्ताः?। अणुभडवेस-पुं०(अनुद्भट वेष) धिग्जनो चितनेपथ्यवर्जित भगवानाह-गौतम ! चत्वारोऽनुवेलन्धरराजाः प्रज्ञप्ताः / तद्यथा स च तृतीयश्रावकगुणविशिष्ट इति। कर्कोटकः, कर्दमकः, कैलासः अरुणप्रभश्च / (एएसिंणमित्यादि) एतेषां संप्रत्यनुद्भटवेष इति तृतीय भेदं प्रचिकटयिषुर्गाथापूर्वार्द्धमाहभदन्त ! चतुर्णामनुवेलन्धरराजानां कति आवासपर्वताः प्रज्ञप्ताः ? सहइ पसंतो धम्मी, उन्मडवेसो न सुंदरो तस्स। भगवानाह-गौतम ! एकैकस्य एकैकभावेन चत्वारोऽनुवेलन्धरराजानामावासपर्वताः प्रज्ञप्ताः / तद्यथा- कर्कोटकः, विद्युत्प्रभः, (सहइ त्ति) राजते शोभते, प्रशान्तः प्रशान्तवेषो, धर्मी धर्मवान् कैलासः, अरुणप्रभश्च / कर्कोटकस्य कर्कोटकः, कर्दमस्य विद्युत्प्रभः, धार्मिको, भावश्रावक इत्यर्थः / अतः कारणादुद्भटवेषः षिड्कैलासस्य कैलासः, अरुणप्रभस्याऽरुणप्रभ इत्यर्थः / कहि णं भंते !' गजनोचितनेपथ्यः।"लंखस्सवपरिहाणं, गसइव अंगेतहंगिया गाढा। इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमम्। भगवानाह- गौतम! जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य सिरवेढो ढमरेणं, वेसो एसो सिडंगाणं // 1 // सिहिणेण मग्गदेसो, उग्घाडो पर्वतस्योत्तरपूर्वस्यां दिशि लवणसमुद्रं द्वाचत्वारिंशतं नाहिमंडलं तह य / पासाय अद्धपिहिया, कंचुयओ एस वेसाणं " ||2|| योजनसहस्राण्यवगाह्य, अत्र एतस्मिन्नवकाशे कर्कोटकस्य भुजगेन्द्रस्य इत्यादिरूपो न सुन्दरो, नैव शोभाकारी तस्य धार्मिकस्य / स हि तेन भुजगराजस्य कर्कोटको नाम आवासपर्वतः प्रज्ञप्तः। सुतरामुपहासस्थानं स्यात्।"नाकामी मण्डनप्रियः" इति लोकोक्तेरिह (सत्तरसएक्कवीसाई जोयणसयाई) इत्यादिका गोस्तूपस्या लोकेऽपि कदाचिदनर्थं प्राप्नुयाद्, बन्धुमतीवत् / अन्ये पुनराहुः-- ऽऽवासपर्वतस्य या वक्तव्यतोक्ता, सैवेहाऽपि अहीनाऽतिरिक्ता "संतलयं परिठाणं ,जलं च चोवाइयं च मज्झिमयं। सुसिलिट्ठमुत्तरीयं, भणितव्या / नवरं सर्वरत्नमय इति वक्तव्यं, नामनिमित्तचिन्ताया-मपि, धम्म लच्छि जसं कुणइ / / 1 / / परिहाणमणुब्भरचलणकोडिमज्झाय यस्माच क्षुल्लासु क्षुल्लिकासु वापीसु, यावद् बिलपङ्क्तिषु, बहूनि मणुसरंतं तु / परिहाणमक्कमंतो, कंचुयओ होइ सुसिलिट्ठो' ||2|| उत्पलानि यावत् शतसहस्रपत्राणि कर्कोटप्रभाणि कर्कोटकाकाराणि, इत्यादि / एतदपि संगतमेव / किन्तु क्वचिदेव देशे कुले वा घटते, ततस्तानि कर्कोटकानीतिव्यवहियन्ते तद्योगात् पर्वतोऽपि कर्कोटकः / श्रावकास्तुनानादेशेषु च संभवन्ति, तस्माद्देशकुलाविरुद्धो वेषोऽनुद्भट तथा कर्कोटकनामा देवस्तत्र पल्योपमस्थितिकः परिवसति / ततः इति व्याख्यानं व्यापकमिह संगतमिति। कर्कोटकस्वामित्वात् कर्कोटकः राजधान्यपि / कर्कोटकस्याऽऽवास बन्धुमतीज्ञातंत्वेवम्पर्वतस्य उत्तरपूर्वस्यां दिशि तिर्यगसंख्येयान् द्वीपसमुद्रान् अत्थि इह तामलित्ती, नयरी न अरीहिं कहवि परिभूया। Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुग्मडवेस 392 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुभव अ०इगरुयविहवभारो, सिट्टी तत्थासि रइसारो / / 1 / / सारयससिनिम्मलसीलबंधुला बंधुला पिया तस्स। ताणं धूया रूया-इगुणजुया बंधुमइ नाम / / 2 / / सा पुण कंचणचूडय-मंडियबाहा अलंकियसरीरा। पगईए उन्भडवेसपरिगया चिट्ठइ सया वि॥३।। अन्नदिणे सा पिउणा, भणिया वयणेहिँ पणयपवणेहि। एवं उब्भडवेसो, वच्छे! पच्छो न सच्छाण // 4 // यदुक्तम्"कुलदेसाण विरुद्धो, वेसो रन्नो वि कुणइ नहु सोहं। वणियाण विसेसेणं, विसेसओ ताण इत्थीणं / / 5 / / अइरोसो अइतोसो, अइहासो दुजणेहिँ संवासो। अइउन्भडो य वेसो,पंच वि गरुयं पिलहुयंति" ||6|| इचाइजुत्तिजुत्तं, वुत्ता वि न मन्नए इमा किंपि / चिट्ठइ तहेव निचं, पिउपायपसायदुल्ललिया !|7|| भरुयच्छवासिणा विमलसिट्टिपुत्तेण बंधुदत्तेण। सा गंतु तामलित्तिं, महाविभूईई परिणीया |8|| मुत्तूण जणयभवणे, बंधुमई बंधुपरियणसमेओ। जलहिम्मि बंधुदत्तो, संचलिओ जाणवत्तेण / / 6 / / जा किं चि भूमिभागं, गच्छइ ता असुहकम्मउदएणं। पडिकूलपवणलहरी-पणुल्लियं जलहिमज्झम्मि // 10 // सत्थं व विणयहीणे, वियलियसीले विसुद्धदाणंव। तं पवहणं विणटुं, धणधण्णहिरणपडिपुण्णं / / 11 / / सो कहकहमविफलहेण दुत्तरं उत्तरितु नीरनिहिं। जा पिच्छइ दिसिचक्कं, ता तं निच्छेइ ससुरपुरं।।१२॥ तो अप्पं जाणावइ, केण वि पुरिसेण निययससुरस्स। तं सुणिय हा ! किमेयं ति, जंपिरो उढिओ सो वि॥१३॥ अइउमडवेसविसेसरयणलंकारसारभूसाए। बंधुमईए सहिओ,जा से पासे समल्लिपइ ||14|| वररयणकणयचूडयविभूसियंताव रुइरकरजुयलं। बंधुमईए छिन्नं, केण विजूयारचोरेण / / 15 / / तत्तो सो आरक्खियभीओ नासित्तु झत्ति संपत्तो। पहपरिसमवससुत्तस्सबंधुदत्तस्सपासम्मि।।१६।। तेणं च धुत्तयाए, चिंतिय मिणमेव पत्तकालं मे। इय मुत्तु तस्स पासे, करजुयलं तक्करो नट्ठो // 17 // पच्छा गयतलवरतुमुलसवणबुद्धो सलुद्दओ एसो! चोरु त्ति काउ तेहिं, सूलाए झत्ति पक्खित्तो / / 18|| अह रइसारो सिट्ठी, नियपुत्तिए निइत्तु तमवत्थं। बहु झुरिऊण पत्तो, जा जामाउयसमीवं पि|१६|| ता तं सूलाभिन्नं, सहसा पिच्छित्ति बहुंच पलवित्ता। अंसुभरपुन्ननयणो, दुहियो से कुणइ मयकिचं / / 20 / / इत्तोय सुजसनामा, चउनाणी तत्थ आगओ तं च। नमिउं पत्तो सिट्ठी, गुरू वि इय कहइ से धम्मं // 21 // भो भविया ! उन्भडवेसवज्जणं कुणह चयह परुसगिह। चिंतह भवस्स रूवं, जेण न पावेह दुक्खाई॥२२॥ तो सोउं संविग्गो, सिट्टीपणमित्तुं पुच्छए भयवं!। मह जामाउयदुहियाहि किं कथं दुक्यं पुबि ? ||23|| भणइ गुरू अभिरामे, सलिग्गामं पिइत्थिया एगा। आसि अडविव्व बहुमय-बालसुया दुग्गया विहवा // 24 // सा उयरकंदरापूरणत्थमीसरगिहेसु निचंपि। कम्मं करेइ पुत्तो, उ चारए बच्छरूवाइं॥२५।। साठविय भोयणं सिक्कगम्मि पुतट्ठमन्नथ पत्ता। कस्सइ गेहे कम्मत्थमागओ तम्मि जामाऊ॥२६|| सा तस्स तप्पणण्हाणमाइकम्मसु निउत्तया पढमं। पच्छा खंडणपीसणरंधणदलणाइ कारविया।॥२७॥ जाया महई वेला, तेण गिहत्थेण वाउलत्तणओ। नहु सा जिमाविया तो, भुक्खियतिसिया गया सगिह / / 28|| तंदठुसुएण छुहाइएण भणिया सनिठुरं एसा। किं तत्थ तमं खिसासुलाएजंन बह पत्ता // 26 // तीइ वि अणत्थभरियाइ जंपियं किं करा तुहं छिन्ना / जं सिक्कगाउ गहिऊण भोयण नेव भुत्तोसि // 30 // इय फरुसवयणजणियं, कम्मं दोहिँ दि निकाइयं तेहिं। अइनिविडजडिमभावेण नेव आलोइयं तं च // 31 / / तेसिंदाणरयाणं, संजमरहियाण मज्झिमगुणाणं / किंचि सुहभावणाए, वटुंताणं गलियमाउं॥३२॥ तो सो बालो जाओ, जामाऊ तुज्झ बंधुदत्त ति। सा पुण दुग्गयनारी, बंधुमई तुह सुया जाया।।३३।। भवियव्वया निओगा, विचित्तयाए य कम्मपगईए। माया जाया जाया, पुत्तो भत्ता य संजाओ॥३४|| तक्कम्मविवागणं, बंधुमई पाविया करच्छेयं / पत्तो य बंधुदत्तो, सूलापक्खिवणवसणमिणं // 35 // इय सोउं रइसारो, सिट्ठी संभयगरुयसंवेओ। गिव्हिय गुरूण पासे, दिक्खं सुहभायणं जाओ।।३६।। इत्युद्भट वेषमतिश्रयन्त्याः , श्रुत्वा विपाक खलु बन्धुमत्याः। भव्या जना निर्मलशीलभाजस्तद्धत्त देशाद्यविरुद्धमेनम्॥३७|| ध०र०। अणुब्भामग-पुं०(अनुभ्रामक) मौलग्रामे भिक्षापरिमाणशीले, बृ० 1 उ०। अणुभव-पुं०(अनुभव) अनु-भू-अप् / स्मृतिभिन्ने ज्ञाने, विषयाऽनुरूपभवनाच बुद्धिवृत्तेरनुभवत्वम् / अनुभवश्चप्रत्यक्षानुमानोपमानशाब्दभेदेन चतुर्विध इति नैयायिकादयः / वेदान्तिनो मीमांसकाश्च अर्थापत्त्युपलब्धिरूपमधिकं भेदद्वयमुररीचकुः। वैशेषिकाः सौगताश्च प्रत्यक्षानुमानरूपमेवानुभवद्वयं स्वीचा :, अन्येषां सर्वेषामनयोरन्तर्भावात् / सांख्यादयः प्रत्यक्षानुमानशाब्दा एवेति भेदत्रयीमङ्गीचकुः / चार्वाकाः प्रत्यक्षमात्रमिति भेदः। वाचल। स्वसंवेदने, पञ्चा०५ विव० श्रा०। आव० प्रश्न०० अनुभवलक्षणंच योगदृष्टिसमुचयानुसारेण लिख्यतेयथार्थवस्तुस्वरू पोपलब्धिपरभावारमणस्वरूपरमणतदास्वादनैकत्वमनुभवः। तदष्टकम् - संध्येव दिनरात्रिभ्यां, केवलश्रुतयोः पृथक् / बुधैरनुभवो दृष्टः, केवलाऽकरुिणोदयः॥१॥ व्यापारः सर्वशास्त्राणां, दिक्प्रदर्शनमेव हि। पारं तु प्रापयत्येकोऽनुभवो भववारिधेः ||2|| अतीन्द्रियं परं ब्रह्म, विशुद्धाऽनुभवं विना। शास्त्रयुक्तिशतेनापि, न गम्यं यद् बुधा जगुः / / 3 / / ज्ञायेरन हेतुवादेन, पदार्था यद्यतीन्द्रियाः। Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुभव 393 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुभाग कालेनैतावता प्राज्ञैः, कृतः स्यात्तेषु निश्चयः // 4 // केषां न कल्पनादी, शास्त्रक्षीराऽन्नगाहिनी। . विरलास्तद्रसास्वादविदोऽनुभवजिया॥५॥ पश्यन्तु ब्रह्म निर्द्वन्द्वं, निर्द्वन्द्वाऽनुभवं विना। कथं लिपिमयी दृष्टिाङ्मयी वा मनोमयी / / 6 / / नसुषुप्तिरमोहत्वात्, नाऽपि च स्वापजागरौ। कल्पनाशिल्पविश्रान्तेस्तुर्यो वाऽनुभवो दृशा / / 7 / / अधिगत्याऽखिलं शब्दब्रह्म शास्त्रदृशा मुनिः। स्वसंवेद्यं परं ब्रह्माऽनुभवेनाऽधिगच्छति // 8 // अष्ट०२६ अष्ट स्वेन स्वेन रूपेण प्रकृतीनां विपाकतो वेदने, विशे०। अणुभवण-न०(अनुभवन) कर्मविपाकवेदनेऽनुभाये, आव० 4 अग अणुभविउं-अव्य०(अणुभवितुम्) भोक्तमित्यर्थे, "वेयणा अणुभविउं जे संसारम्मि अणतए"। उत्त०१८ अ० अणुभवित्ता-अव्य०(अनुभूय) अनुभवं कृत्वेत्यर्थे, प्रश्न 1 आश्र० द्वारा अणुभाग(व)-पुं०(अनुभाग)(व) वैक्रियकरणादिकायाम-चिन्त्यशक्ती, स्था०२ ठा०३ उ०। ज्ञा० आव०। चं०प्र०। माहात्म्ये, सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ० वर्णगन्धादिगुणे, विशे० शापाद्यनुग्रहविषये सामर्थ्य, प्रज्ञा०२ पद / अनु पश्चाद् बन्धोत्तरकालं भजनं सेवनमनुभजनम्, अनुभागः। कर्म०६ कर्म०। कर्मणां विपाके, सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ० उदये, रसे च ।स्था०७ ठा०ा दर्शा तीव्रादिभेदे रसे, स०।"अनुभागो रसः प्रोक्तः, प्रदेशो दलसंचयः" कर्म०५ कर्म०। अनुभागः, रसः, अनुभाव इति पर्यायाः। अनुभागस्य किञ्चित् तावत् स्वरूपमुच्यतेइह गम्भीरापारसंसारसरित्पतिमध्यविपरिवर्ती, रागादिसचिवो जन्तुः पृथक् सिद्धानामनन्तभागवर्तिभिरभव्येभ्योऽनन्तगुण : परमाणुभिर्निष्पन्नान् कर्मस्कन्धान प्रतिसमयं गृह्णाति / तत्र च प्रतिपरमाणुकषायविशेषान् सर्वजीवानन्तगुणान् अनुभागस्याविभागपलि(रि)च्छेदान् करोति / केवलिप्रज्ञया विद्यमानो यः परमनिकृष्टोऽनुभागांशोऽतिसूक्ष्मतयाऽर्द्ध न ददाति सोऽविभाग-पलिच्छेद उच्यते / उक्तं च-"वुड्डीइ छिज्जमाणो, अणुभागं सो न देइ जो अद्धं / अविभागपलिच्छेओ, सो इह अणुभागबंधम्मि' / तत्र चैवैककर्मस्कधे यः सर्वजघन्यरसः परमाणुः सोऽपि केवलिप्रज्ञया छिद्यमानः किल सर्वजीवेभ्योऽनन्तगुणान् रसभागान् प्रयच्छति, अन्यस्तु परमाणुः तानविभागपलिच्छेदानेकाधिकान् प्रयच्छति, अपरस्तु तानपि द्वयधिकान, अन्यस्तु तानपि चतुरधिक-मित्यादिवृद्ध्या तावन्नेयं यावदन्य उत्कृष्टरसः पर-माणुर्मालराशेरनन्तगुणानपि रसभागान् प्रयच्छति। अत्रच जघन्यरसाये केचन परमाणवस्तेषु सर्वजीवाऽनन्तगुणरसभाग-युक्तेष्वप्यसत्कल्पनया शतरसांशानां परिकल्प्यते। एतेषां च समुदायः समानजातीयत्वादेका वर्गणेत्यभिधीयते / अन्येषां त्वेकोत्तरशतरसभागयुक्तानामणूनां समुदायो द्वितीया वर्गणा / अपरेषां तु व्युत्तरशतरसांशयुक्तानामणूनां समुदायस्तृतीया वर्गणा / अन्येषां तु ऋयुत्तरशतरसभागयुक्तानामणूनां समुदायश्चतुर्थी वर्गणा / एवमनया दिशा | एकै करसभागवृद्धानामणूनां समुदायरूपा वर्गणाः सिद्धानामनन्तभागेऽभव्येभ्योऽनन्तगुणावाच्याः। एतासांचैतावतीनांवर्गणानां समुदायः स्पर्द्धकमित्यभिधीयते। स्पर्धन्त इवोत्तरोत्तररसवृद्ध्या परमाणुवर्गणाः / अत्रेति कृत्वा एताश्चा-ऽनन्तरोक्ताऽनन्तकप्रमाणाः। अथ असत्कल्पनया षट् स्थाप्यन्ते, यथा-१००, 101, 102, 103, 104, 105 इत्यादि... सिद्धाऽनन्तभागं यावत्। इदमेक स्पर्द्धकम् / इत ऊर्ध्वमेकोत्तरया निरन्तररस वृद्ध्या, वृद्धो रसो न लभ्यते, किं तर्हि? सर्वजीवाऽनन्तगुणैरेव रसभागै-वृद्धो लभ्यते / इति तेनैव क्रमेणाऽऽरभ्यते। ततस्तेनैव क्रमेण तृतीयमित्यादि यावदनन्तानि रसस्पर्द्धकानि उत्तिष्ठन्ते। तीव्रमन्दतया द्विविधोऽनुभागःअयं चाऽनुभागः शुभाऽशुभभेदेन द्विविधानामपि प्रकृतीनां तीव्रमन्दरूपतया द्विविधो भवति। अतोऽशुभशुभप्रकृतीनां येन प्रत्ययेनाऽसौ तीव्रो बध्यते, येन च मन्दः, तन्निरूपणार्थमाहतिव्वो असुहसुहाणं, संकेसविसोहिओ विवजयओ। मंदरसो गिरिमहिरय-जलरेहासरिकसाएहिं॥६३|| तत्र प्रथमं तावत्तीव्रमन्दस्वरूपमुच्यते, पश्चादक्षरार्थः / इह घोषातकीपिचुमन्दाद्यशुभवनस्पतीनां सम्बन्धी सहजोऽविर्ता द्विभागावतॊ भागत्रयावर्त्तश्च यथाक्रम कटुकः कटुकतरः कटुकतमोऽतिशयकटुकतमश्च, तथेक्षुक्षीरादिद्रव्याणां सम्बन्धी सहजोऽर्द्धावा विभागावतो भागत्रयावर्त्तश्च यथासंख्यं मधुरो मधुरतरो मधुरतमोऽतिमधुरतमश्च रसो जलाद्यसम्बन्धाद् यथा तीव्रो भवति तथैतेषामेव पिचुमन्दादीनां क्षीरादीनां च द्रव्याणां सम्बन्धी सहजो रसो जललवबिन्द्वर्द्धचुलुकचुलुकप्रसृत्यञ्जलिकरक-कुम्भद्रोणादिसम्बन्धाद् यथा बहुभेदं मन्दतरादित्वं प्रतिपद्यते तथा अविर्तादयोऽपि रसाः / यथा जललवादिसम्बन्धात् मन्दमन्द-तरमन्दतमादित्वं प्रतिपद्यन्ते, तथैवाऽशुभप्रकृतीनां शुभप्रकृतीनां च रसास्तादृशतादृशकषायवशात्तीव्रत्वं मन्दत्वं चाऽनुविदधतीति। अक्षरार्थोऽधुना विव्रियते-तीव्रोरसोभवति। कासामित्याह-(असुहसुहाणं ति) अशुभाश्च शुभाश्चाऽशुभशुभाः, तासा-मशुभशुभानाम्, अशुभप्रकृतीना शुभप्रकृतीनांचेत्यर्थः। कथ-मित्याह ?-(संकेसविसोहिओति) संक्लेशश्च विशुद्धिश्च संक्लेशविशुद्धी, ताभ्यां संक्लेशविशुद्धितः, आद्यादेराकृतिगणत्वात्तस्प्रत्ययः। यथासंख्यमशुभप्रकृतीनांसंक्लेशेनशुभप्रकृतीना विशुद्धयेत्यर्थः / इदमत्रहृदयम्-अशुभप्रकृतीनांद्व्यशीतिसंख्यानांसंक्लेशेन तीव्रकषायोदयेन तीव्र उत्कटो रसो भवति / सर्वाशुभप्रकृतीनां तद्वन्धविधायिनांजन्तूनां मध्येयोय उत्कृष्टसंक्लेशोजन्तुः, स स तीव्ररसं बध्नातीत्यर्थः / शुभप्रकृतीनां विशुद्धया कषायविशुद्ध्या नतीव्रोऽनुभागो भवति / शुभप्रकृति-बन्धकानां मध्ये यो यो विशुद्ध्यमानपरिणामः, स स तासां तीव्र-मनुभागं बध्नातीत्यर्थः। उक्तस्तीव्ररसस्य बन्धप्रत्ययः। संप्रति सएवमन्दरसस्याऽभिधीयते-(क्विजयओ।मंदरसोत्ति) विपर्ययेणं विपर्ययत उक्तवपरीत्येनमन्दोऽनुत्कटोरसो भवति।अयमर्थः- सर्वप्रकृतीनामशुभाना विशुद्ध्या मन्दो रसो जायते, शुभानां तु मन्दः संक्लेशेनेति / उक्तः संक्लेशविशुद्धिवशा-दशुभशुभप्रकृतीनां तीव्रो मन्दश्वाऽनुभागः। (एकस्थानिका-दिकश्चतुर्विधोऽनुभावः) अयं चैकद्वित्रिचतुःस्थानिकभेदात् Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुभाग 394 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुभाग चतुर्द्धा भवत्यत एकस्थानिकादिरसो यैः प्रत्ययैर्यासां प्रकृतीनां भवति, तदाह-(गिरिमहिरय० इत्यादि) गिरिश्च पर्वतः, मही च पृथिवी, रजश्च / वालुका, जलंच पानीयं, गिरिमहीरजोजलानि, तेषु रेखाराजयस्ताभिः सदृशास्तुल्याः,गिरिमहीरजोरेखासदृशास्तेच ते कषायाश्च सम्परायास्तै रसो भवतीति प्रक्रमः॥६३।। कीदृगित्याहचउठाणाइ असुहसुहऽन्नहा विग्घदेसघाइआवरणा। पुभसंजलणिगदुतिचउठाणरसा सेसदुगमाई|६|| चतु:स्थानिक आदिर्यस्य रसस्य, त्रिस्थानिक द्विस्थानिकएकस्थानिकपरिग्रहः। स चतुःस्थानादिः / कासामित्याह-(असुभ त्ति) इह षष्ठ्यर्थे प्रथमा। ततः शुभानामशुभप्रकृतीनाम् / इयमत्र भावना-इह रेखाशब्दस्य प्रत्येक सम्बन्धाद् गिरि-रेखाशब्देन प्रभूतकालव्यपदेशादतितीव्रत्वं कषायाणां प्रति-पाद्यते / ततश्च गिरिरेखासदृशैः कषायैः, अनन्तानुबन्धिभिरित्यर्थः / सर्वासामशुभप्रकृतीनां चतुःस्थानिकरसबन्धो भवति। आतपशोषिततडागमहीरेखासदृशैः कषायैरप्रत्याख्यानावरणैर्मनाग्मन्दोदयैरशुभप्रकृतीनां त्रिस्थानिकरसबन्धो भवति / वालुकारेखासदृशैः कषायै : प्रत्याख्यानावरणैरशुभप्रकृतीनां द्विस्थानिकरसबन्धः / जलरे खासदृशैः कषायैरतिमन्दोदयैः संज्वलनाभिधे विघ्नपञ्च कादिवक्ष्यमाणसप्तदशाऽशुभप्रकृतीनामे वैक स्थानिक रसबन्धो भवति, न शेषाणां शुभप्रकृतीनामशुभप्रकृतीनामिति हि वक्ष्यामः / उक्तोऽशुभानां रसस्य बन्धप्रत्ययः / इदानीं शुभानां रसप्रत्ययविभागमाह-(सुहन्नह त्ति) शुभप्रकृतीनाम्-अन्यथोक्तवैपरीत्येन हेतुविपर्ययाच्चतुःस्थानिकादिरसस्य बन्धो भवति। तत्र वालुकाजलरेखासदृशैः कषायैश्चतुःस्थानिको रसबन्धो भवति। महीरेखासदृशैः कषायैस्त्रिस्थानिको रसबंधो भवति। गिरिरेखासदृशैः कषायै-द्विंस्थानिको रसबन्धः शुभप्रकृतीनां भवति। शुभप्रकृतीनां त्वेकस्थानिको रस एव नास्तीति पूर्वमेवोक्तम्। अथ यासां प्रकृतीनामेकद्वित्रिचतुःस्थानिकभेदाचतुर्विधोऽपि रसबन्धः संभवति, यासां चैकस्थानिकवर्जस्त्रिविध एवेत्येतचिन्तयन्नाह(विग्घदेसघाइआवरणा इत्यादि) विघ्नानि दानलाभभो गोपभोगवीर्यान्तरायभेदादन्तरायाणि पञ्च / देशघात्यावरणा देशघात्यावारिकाः सप्त प्रकृतयः / तद्यथा-मतिज्ञानश्रुतज्ञानावधिज्ञानमनः पर्यायज्ञानावरणाश्वतस्रः / चक्षुर्दर्शनाऽचक्षुर्दर्शनाऽवधिदर्शनावरणास्तिस्रः, इत्येताः / (पुम त्ति) पुंवेदः / संज्वलना-श्चत्वारः क्रोधमानमायालोभाः, इत्येताः सप्तदश प्रकृतयः / किमित्याह(इगदुतिचउठाणरस त्ति) स्थानशब्दस्य प्रत्येकं सम्बन्धात् एक स्थानद्विस्थानत्रिस्थानचतुस्थाना रसा यासां ता एक द्वित्रिचतुःस्थानरसाः / एताः सप्तदशाऽपि प्रकृतयः एकद्वित्रिचतुःस्थानिकरूपेण चतुर्विधेनापि रसेन संयुक्ता बध्यन्त इति तात्पर्यम् / तत्राऽनिवृत्तिबादरे गुणस्थाने संख्येयेषु भागेषु गतेष्वासां सप्तदशानामपि प्रकृतीनामेक स्थानिको रसः प्राप्यते, शेषस्थानिकास्तु, रसास्त्रयोऽप्यासा संसारस्थान् जीवानाश्रित्य प्राप्यन्त इति।शेषाः प्रकृतयस्तर्हि किंरूपा भवन्तीत्याह-(सेसदुगमाइ त्ति) शेषाः भणितसप्तदशप्रकृतिभ्य उद्भरिताः, सर्वाः शुभा अशुभाश्च प्रकृतयो बध्यन्ते / 'दुगमाइ त्ति' सूचनात्सूत्रमिति न्यायाद् द्विस्थानादिरसाः, आदिशब्दात् त्रिस्थानरसा-श्वतुःस्थानरसाश्च / शेषाः प्रकृ तयो द्विस्थानिक त्रिस्थानिक - चतुःस्थानिकरसयुक्ता भवन्ति, न त्वकस्थानिकरसयुक्ता इति भावः / अयमत्राऽऽशयःससदशप्रकृति- 1 ष्वेवैकस्थानिको रसो बध्यते, न तु शेषासु, यतोऽशुभप्रकृतीनामेकस्थानिको रसो यदि लभ्यते तदाऽनिवृत्तिबादरसंख्येयभागेभ्यः परत एव / तत्र च सप्तदश प्रकृतीवर्जयित्वा शेषाणामशुभप्रकृतीनां बन्ध एव नास्त्यतः शेषाणामशुभानामेकस्थानिको रसो न भवति। येऽपि केवलज्ञानकेवलदर्शनावरणलक्षणे द्वे अपि प्रकृती तत्र बध्येते तयोरपि सर्वघातित्वाद् द्विस्थानिकएवरसो निर्वय॑ते, नैकस्थानिक इति।शुभानां तु सर्वासामप्येकस्थानिको रसो न भवति, यत इहाऽसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि संक्लेशस्थाननि भवन्ति / विशुद्धिस्थानान्यप्येतावन्त्येव, यथा यान्येव संक्लेशस्थानान्यारोहति, तेष्वेव विशुद्ध्यमानोऽवतरति, ततश्च यथा प्रासादमारोहतां यावन्ति सोपानस्थानान्यवतरतामपि तावन्त्येव तथाऽत्रापीति भावः। केवलं विशुद्धिस्थानानि विशेषाधिकानि। कथमिति चेदुच्यते-क्षपको येष्वध्यवसायस्थानकेषु क्षपकश्रेणिकामारोहति, न तेषु पुनरपि निर्वर्त्तते, तस्य संक्लेशाभावात्, अतस्तानि विशुद्धिस्थानान्येव भवन्ति, न संक्लेशस्थानानीति, तैरध्यवसायस्थानैर्विशुद्धिस्थानान्यधिकानि। एवं च स्थिते-ऽत्यन्तविशुद्धौ वर्तमानःशुभप्रकृतीनां चतुःस्थानिक रसमभिनिवर्तयति / अत्यन्तसंक्लेशेऽनुवर्त्तमानस्य शुभप्रकृतयो बन्ध एव नागच्छन्ति / या अपि वैक्रियतैजसकार्मणाद्याः शुभा नरक-प्रायोग्याः संक्लिष्टोऽपि बध्नाति, तासामपि स्वभावात् सर्वसंक्लिष्टोऽपि द्विस्थानिकमेव रसं विदधाति / येषु तु मध्यमाध्यवसायस्थानेषु शुभप्रकृतयो बध्यन्ते तेषु तासां द्विस्था-निकपर्यन्त एव रसो बध्यते नै कस्थानिकः, मध्यमपरिणाम-त्वादेवेति न क्वापि शुभप्रकृतीनामेकस्थानिकरससंभव इति कृता चतुर्विधस्यापि रसस्य प्रत्ययरूपणा // 64|| सम्प्रति शुभा-ऽशुभरसस्यैव विशेषतः किञ्चित् स्वरूपमाहनिंबुच्छरसो सहजो, दुतिचउभागकड्डिइक्कभागंतो। इगठाणाई असुहो, असुहाणं सुहो सुहाणं तु // 65 / / इहैवमक्षरघटना-अशुभानामशुभप्रकृतीनां रसोऽशुभः, अशुभाध्यवसायनिष्पन्नत्वात् / क इवेत्याह-निम्बवत् पिचुमन्दवत्। वत्शब्दस्य लुप्तस्येह प्रयोगो द्रष्टव्यः। तथा शुभानां शुभप्रकृ-तीनां रसाः शुभाः, शुभाध्यवसायनिष्पन्नत्वात्। क इवेत्याह-इक्षुवत् इक्षुयष्टिवत्। तथा डमरुकमणिन्यायात निम्बेक्षुरसशब्द एवमप्यावय॑ते, यथा निम्बरस एव इक्षुरस एव सहजः स्वभावस्थ एकस्थानिकरस उच्यते, स एवैकस्थानिकरसो द्वित्रिचतुर्भागाश्च ते पृथग्विभिन्ने ष्वाश्रयेषु क्वथितैकभागान्तो द्विस्थानिकादिर्भवति / कोऽर्थः?-द्वौ च त्रयश्च चत्वारश्च द्वित्रिचत्वारस्ते च ते भागाश्च द्वित्रिचतुर्भागाः, द्वित्रिचतुर्भागाश्च ते पृथग्विभिन्नेष्वाश्रयेषु क्वथिताश्च द्वित्रिचतुर्भागक्वथितास्तेषामेक एकसंख्यो भागोऽन्तेऽवसाने यस्य सहजरसस्य स द्वित्रिचतुर्भागक्वथितैकभागान्तः / स किमित्याह-एकस्थानिकादिः / आदिशब्दाद् द्विकस्थानिकत्रिस्थानिक-चतुःस्थानिकरसपरिग्रहः / इत्यक्षरार्थः। भावार्थस्त्वयम्-इह यथा निम्बघोषातकीप्रभृतीनां कटुकद्रव्याणां सहजोऽक्वथितः कटुको रस एकस्थानिक उच्यते, स एव भागद्वयप्रमाणः स्थाल्यां क्वथितोऽविर्तितः कटुकतरो द्विस्थानिकः, स एव भागत्रयप्रमाणः स्थाल्यां क्वथितस्विभागान्तः कटुकतमस्तिस्थानिकः, स एव भागचतुष्टयप्रमाणो विभिन्नस्थाने क्वथितश्चतुर्थभागान्तोऽतिकटुकतमश्चतुःस्थानिकः / तथा इक्षुक्षीरादीनां सहजो मधुररस एकस्थानिक उच्यते, स एव सहजो भाग Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुभाग 395 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुभाग द्वयप्रमाणः पृथग्भाजने क्वथितोऽद्धावर्तितो मधुरतरो द्विस्था-निकः, स एव भागत्रयप्रमाणः पृथक्स्थाल्यां क्वथितस्त्रिभागान्तो मधुरतमस्तिस्थानिकः, स एव भागचतुष्कप्रमाणो विभिन्नस्थाने क्वथितश्चतुर्थभागान्तोऽतिमधुरतमश्चतुःस्थानिकः / एवमशुभानां प्रकृतीनां तादृशतादृशकषायनिष्पाद्यः कटुकः कटु कतरः कटु कतमोऽतिकटु कतमश्च / शुभप्रकृतीनां मधुरो मधुरतरो मधुरतमोऽतिमधुरतमश्च रसो यथासंख्यमेकद्वित्रि चतुःस्थानिको भवति / एवं च रसोऽशुभप्रकृतीनामशुभः, शुभप्रकृतीनां शुभ इति / तुशब्दो विशेषणे। स चैवं विशिनष्टि-यथा सप्तदशाऽशुभप्रकृतीनामेक'स्थानिक रसस्पर्द्धकान्यसंख्ये यव्यक्ति व्यक्तत्वादसंख्ये यानि भवन्ति।तत्रच सर्वजधन्यस्पर्द्धकरसस्येयं निम्बाधुपमा।तदनुचाऽनन्तेषु रसपलिच्छे देष्वतिक्रान्तेषु तदुत्तरं द्वितीयस्पर्द्धकं भवति / एवमुत्तरोत्तरक्रमेण प्रवृद्धवृद्धतररसोपेतानि शेषस्पर्द्धकान्यपि भवन्ति / एवं शेषाः शुभप्रकृतीनामपि द्वित्रिचतुः स्थानिकरसस्पर्द्धकान्यसंख्येयव्यक्तिव्यक्तानि प्रत्येकमसंख्येयानि भवन्ति / तान्यपि यथोत्तरमनन्तरसपलिच्छेदनिष्पन्नत्वात् परस्परमनन्तगुणरसानि / अत उत्तरोत्तरस्पर्द्धकान्यप्यनन्तगुणरसानि, कि पुनरशुभानां द्वित्रिचतुःस्थानिका रसा इति / तथाहि- अशुभानां निम्बोपमवीयर्यो य एकस्थानिको रसस्तस्मादनन्तगुणवीर्यो द्विस्थानिकस्ततोऽप्यनन्तगुणवीर्यस्त्रिस्थानिकस्तस्मादप्यनन्तगुणवीर्यश्चतुःस्थानिक इति परस्परं सुप्रतीतमेवानन्तगुणरसत्वमिति / शुभप्रकृतीनां पुनरेकस्थानिको रस एव नास्ति / यश्च शुभानामिथुपमो रसोऽभिहितः, स द्विस्थानिकरसस्य सर्वजघन्यस्पर्द्धक एव दृश्यः। तदुत्तरस्पर्द्धकेषु चाऽनन्तगुणा रसा भवन्ति। एतत्सर्वं पञ्चसंग्रहाभिप्रायतो व्याख्यातम्। किञ्च-केवलज्ञानावरणादिरूपाणां सर्वधातिनीनां विंशति-संख्यानां प्रकृतीनां सर्वाण्यपि रसस्पर्द्धकानि सर्वधातीन्येव / देशघातिनीनां पुनर्मतिज्ञानावरणप्रभृतिपञ्चविंशतिप्रकृतीनां रसस्पर्द्धकानि कानिचित्सर्वघातीनि कानिचिद्देशघातीनि / तत्र यानि चतुःस्थानिकरसानि त्रिस्थानिकरसानि वा रसस्पर्द्धकानि, तानि नियमतः सर्वघातीनि, द्विस्थानिकरसानि पुनः कानिचिद्देशघातीनि कानिचित्सर्वघातीनि, एकस्थानिकानि तु सर्वाण्यपि देशघातीन्येव / उक्तं च-रसस्र्पकानि सकलमपि स्वधात्यं ज्ञानादिगुणं घ्नन्ति / तानि च स्वरूपेण तामूभाजनवनिश्छिद्राणि घृतमिवातिशयेन स्निग्धानि, द्राक्षावत् तनुप्रदेशोपचितानि, स्फटिकाऽभ्रगृहवचाऽतीध निर्मलानि। उक्तं च- जो घाएइ नियगुणं, सयलं सो होइ सव्वघाइरसो। सो निच्छिद्दो निद्धो, तणुओ फलिहब्भहरविमलो / / 1 / / यानि च देशघातीनि रसस्पर्द्धकानि, तानिस्वधात्यं ज्ञानादिगुणं देशतोघ्नन्ति, तदुदयेऽवश्यं क्षायोपशम-संभवात् / तानि च स्वरूपेणानेकविधविवरसंकुलानि / तथाहि- कानिचित्कट इवातिस्थूरछिद्रशतसंकुलानि, कानिचित्कम्बल इव मध्यमविवरशतसंकुलानि, कानिचित्पुनरतिसूक्ष्मविवरनिकर-संकुलानि,यथा वासांसि / तथा तानि देशघातीनि रसस्पर्द्धकानि स्तोकस्नेहानि भवन्ति, वैमल्यरहितानि च / उक्तं च-"देस-विघाइत्तणओ, इयरो कडकंबलंसुसंकासो। विविहबहुछिडभरिओ, अप्पसिणेहो अ विमलो य" ||1|| इति प्ररूपितः सप्रपञ्चमनुभागबन्ध इति / कर्म०५ कर्म०। (अघातिरसस्वरूपमत्रैव भागे 180 पृष्ठे 'अघाइरस' शब्देऽभिहितम्) इदानीं तु अनुभागः कस्य कर्मणः कतिविधः? इत्यभि धित्सुराह-तत्राऽऽदौ ज्ञानावरणीयस्यनाणावरणिज्जस्स णं भंते ! कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स पुट्ठस्स बद्धफासपुट्ठस्स संचियस्स चियस्स उवचियस्स आवागपत्तस्स विवागपत्तस्स फलपत्तस्स उदयपत्तस्स जीवेणं कयस्स जीवेणं निव्वत्तियस्स जीवेणं परिणामियस्स सयं वा उदिन्नस्स परेण वा उदीरियस्स तदुभएण वा उदीरिजमाणस्स गतिं पप्प ठिइं पप्प भवं पप्प पोग्गलपरिणामं पप्प कतिविहे अणुभावे पण्णते? गोयमा ! नाणावरणिज्जस्स णं कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पोग्गलपरिणाम पप्प दसविहे अणुभावे पण्णत्ते / तं जहासोतावरणे सोयविनाणावरणे, नेत्तावरणे नेत्तविन्नाणावरणे, घाणावरणे घाणविन्नाणावरणे, रसावरणे रसविन्नणावरणे, फासावरणे फासविन्नाणावरणे, जं वेदेति पोग्गलं वा पोम्गले वा, पोग्गलपरिणाम वा वीससा पोग्गलाणं परिणाम, तेसिं वा उदएणं जाणियव्यं न जाणइ,जाणिउकामे न जाणइ, जाणित्ता वि न जाणइ, उच्छन्ननाणी यावि भवति नाणावरणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं / एसणं गोयमा ! नाणावरणिज्जे कम्मे, एसणं गोयमा ! नाणावरणिज्जस्स कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पोग्गलपरिणामं पप्प दसविहे अणुभावे पण्णत्ते। ज्ञानावरणीयस्य / णमिति वाक्यालङ्कारे / भदन्त ! जीवन बद्धस्य रागद्वेषपरिणामवशतः कर्मरूपतया परिणमितस्य स्पष्टस्या-ऽऽत्मप्रदेशः सह संक्लेशमुपगतस्य (बद्धफासपुट्ठस्से ति) पुनरपि गाढतरं बद्धस्याऽतीव स्पर्शन स्पृष्टस्य च / किमुक्तं भवति? आवेष्टनपरिवेष्टनरूपतयाऽतीव सोपचयगाढतरं च बद्धस्येति संचितस्य आबाधाकालातिक्रमेणोत्तरकालवेदनयोग्यतया निषिक्तस्य चितस्य उत्तरोत्तरस्थितिषु प्रदेशहान्या रसवृद्ध्या-ऽवस्थापितस्य उपचितस्य सभानजातीयप्रकृत्यन्तरदलिक-कर्मणोपचयं नीतस्य आपाकप्राप्तस्य ईषत्पाकाभिमुखीभूतस्य विपाकप्राप्तस्य विशिष्टपाकमुपगतस्य,अत एव फलप्राप्तस्य फलं दातुमभिमुखीभूतस्य / ततः सामग्रीवशादुदयप्राप्तत्वादयः कर्मधर्माः, यथा आमूफलस्य। तथाहि- आम्फलं प्रथमत ईषत्पाकाभिमुखं भवति, ततो विशिष्ट पाकमुपागतं, तदनन्तरं तृप्तिप्रमोदादि फलं दातुमुचितम् , ततः सामग्रीवशादुपयोगप्राप्तं भवति / एवं कर्माऽपीति। ततः पुनर्जी वेन कथं बद्धमित्यत-आह-(जीवेण कयरस) जीवेन कर्मबन्धनबद्धेनेति गम्यते / कृतस्य निष्पादितस्य जीवो छुपयोगस्वभावस्ततोऽसौ रागादिपरिणतो भवति, न शेषः। रागादिपरिणतश्च सन् कर्म करोति / सा च रागादिपरिणतिः कर्मबन्धनबद्धस्य भवति, न तद्वियोगे, अन्यथा मुक्तानामध्यवीतरागत्वप्रसक्तेः। ततः कर्मबन्धनबद्धन सता जीवेन कृतस्येति द्रष्टव्यम् / उक्तं च - जीवस्तु कमबन्धनबद्धो वीरस्य भगवतः कर्ता / संतत्याऽनाद्य च,तदिष्टकर्माऽऽत्मनः कर्तुः // 1 // तथा जीवेन निर्वर्तितस्य, इह बन्धसमये जीवः प्रथमतो विशिष्टान् कर्मवर्गणाऽन्तः पातिनः Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुभाग 396- अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुभाग पुद्गलान् गृह्णन् अनाभोगिके न वीर्येण तस्मिन्नेव बन्धसमये ज्ञानावरणीयादितथा व्यवस्थापनं तन्निर्वर्तनमित्युच्यते / तथा जीवेन परिणामितस्य विशेषप्रत्ययैः प्रद्वेषनिहवादिभिस्ततस्तमुत्तरोत्तरं परिणामं प्रापितस्य स्वयं वा विपाकप्राप्ततया परनिरपेक्षमुदीर्णस्य उदयप्राप्तस्य, परेण वा उदीरितस्य उदयमुपनीतस्य, तदुभयेन स्वपररूपेणोभयेन उदीर्यमाणस्य उदयमुपनीयमानस्य गतिं प्राप्य किंचिद् विकर्म, काञ्चिद् गतिं प्राप्य तीव्रानुभावं भवति / यथा नरकगतिं प्राप्याऽसातवेदनीयम् / असातोदयो हि यथा नारकाणां तीव्रो भवति, न तथा तिर्यगादीनामिति। तथा स्थितिं प्राप्य सर्वोत्कृष्टानुभावमिति शेषः / सर्वोत्कृष्टां हि स्थितिमुपगतमशुभं कर्म तीव्रानुभावं भवति / यथा मिथ्यात्वं भवं प्राप्य इह किमपि किञ्चिद्भवमाश्रित्य स्वविपाकप्रदर्शनसमर्थम्। यथा निद्रा मनुष्यभवतिर्यग्भवं प्राप्येत्युक्तम्। एतावता किल स्वत उदयस्य कारणानि दर्शितानि। कर्म हि तां तां गतिं स्थिति भवं वा प्राप्य स्वयमुदयमागच्छतीति। सम्प्रति परत उदयमाहपुद्गलं काष्ठलेष्टु खड्गादिलक्षणं प्राप्य / तथा हि- परेण क्षिप्त काष्ठलेष्टुखड्डादिकमासाद्य भवत्यसातवेदनीयम् / क्रोधादीनामुदयस्तथा पुद्गलपरिणाम प्राप्य इह किञ्चित्कर्म कमपिपुद्गलमाश्रित्य विपाकमायाति / यथाऽभ्यवहृतस्याऽऽहारस्याजीर्णत्वपरिणामत्वमाश्रित्य असातवेदनीयम्, ज्ञानावरणीयं तु सुरापानमिति / ततः पुद्गलपरिणामं प्राप्येत्युक्तम्। कतिविधोऽनुभावः प्रज्ञप्तः ? इत्येष प्रश्नः / अत्र निर्वचनम् - दशविधोऽनुभावः प्रज्ञप्तः। तदेवदशविधमनुभावं दर्शयति-(सोयावरणे इत्यादि) इह श्रोत्रशब्देन श्रोत्रेन्द्रियविषयः क्षयो-पशमः परिगृह्यते (सोयविन्नाणावरणे इति) श्रोत्रविज्ञानशब्देन श्रोत्रेन्द्रियोपयोगः, यत्तु निर्वृत्त्युपलक्षणं द्रव्येन्द्रियं यदङ्गोपाङ्गं नाम नामकर्म निर्वयं, न ज्ञानावरणविषय इति, न श्रोत्रशब्देन गृह्यते / एवं नेत्रावरणे इत्याद्यपि भावनीयम्। तत्रैकेन्द्रियाणां रसनघ्राणचक्षुःश्रोत्रविषयाणां लब्ध्युपयोगानां प्राय आवरणम्। प्रायोग्रहणं च बकुलादिव्यवच्छेदार्थम्। बकुलादीनां हि यथायोगं पञ्चानामपीन्द्रियाणां लब्ध्युपयोगाः फलतः स्पष्टा उपलक्ष्यन्ते / आगमे पि च प्रोच्यन्ते-"पंचिंदियो व्व बउलो, नरो व्य पंचिं-दिओवओगाओ। तह वि न भन्नइ पंचिंदिओ त्ति दव्विदियाऽ-- भावा'' ||1|| तथा-"जह सुहमं भावेंदियनाणं दबिदियावराहे वि। दव्वस्सु य भावम्मि वि, भावसुयं पत्तिवाईणं" ||1 / / इति। ततः प्राय इत्युक्तम्। द्वीन्द्रियाणांघ्राणचक्षुःश्रोत्रेन्द्रियविषयाणां लब्ध्युपयोगानां त्रीन्द्रियाणां चक्षुःश्रोत्रविषयाणां चतुरिन्द्रियाणां श्रोत्रेन्द्रिय-लब्ध्युपयोगावरणं स्पर्शनेन्द्रियलब्ध्युपयोगावरणं कुष्ठादिव्याधि-भिरुपहतदेहस्य द्रष्टव्यम् / पञ्चेन्द्रियाणामपि जात्यन्धादीनां पश्चाद्वा अन्धबधिरीभूतानां चक्षुरादीन्द्रिय-लब्ध्युपयोगावरणं भावनीयम् / कथमेवमिन्द्रियाणां च लब्ध्युपयोगावरणमिति चेत् ? उच्यते-स्वयमुदीर्णस्य परेण वा उदीरितस्य ज्ञानावरणीयस्य कर्मण उदयेन / तथा चाऽऽह(जं वेएइ इति) यद्वेदयते परेण क्षिप्त काष्ठलेष्टु खड् गादिलक्षणं पुद्गलं लेनाऽभिघातजननसमर्थेन(पुग्गले वा इति) यावद् बहून् पुद्गलान् काष्ठादिलक्षणान् परेण क्षिप्तान् वेदयते, तैरभिघातजननसमर्थः पुद्गलपरिणाममभ्यवहृताऽऽहार-परिणामरूपं पानीयरसादिकमतिदुःखजनकं वेदयते, तेन वा ज्ञानपरिणत्युपहननात्। तथा (वीससा वा पोग्गलाण परिणाममिति) विनसया यत्पुद्गलानां परिणामं शीतोष्णातपादिरूपत्वं वेदयते यदा, तदा तत्रेन्द्रियोपघातजननद्वारेण ज्ञानपरिणतावुपहतायां ज्ञातव्यम् / एकेन्द्रियः किमपि सद्वस्तु न जानाति, ज्ञानपरिणतेरुपहतत्वात् / अयं सापेक्ष उदय उक्तः / निरपेक्षस्य तु विषये सूत्रमिदम्-(तेसिं वा उदएणं ति) ज्ञानावरणीयकर्मपुद्गलानां विपाकप्राप्तानामुदयेन ज्ञातव्यं, न जानाति / (जाणिउकामे न जाणाइ त्ति) ज्ञानपरिणामेन परिणमि-तुमिच्छन्नपि ज्ञानपरिणत्युपघातान्न जानाति / (जाणित्ता वि न जाणइ त्ति) प्राग् ज्ञात्वाऽपि पश्चात् नजानीते, तेषामेव ज्ञानावरणीयकर्मपुद्गलानामुदयात् (उच्छन्ननाणीया विभवइ इत्यादि) ज्ञानावरणीयस्य कर्मण उदयेन जीव उच्छन्नज्ञान्यपि भवति / उच्छन्नं च तज्झानं च उच्छन्नज्ञानं, तदस्यास्तीति उच्छन्नज्ञानी, सर्वधनादि पाठाभ्युपगमादिनिः / यावत् शक्तिप्रच्छादितज्ञान्यपि भवतीत्यर्थः / “एस णं गोयमा ! नाणावरणिज्जे कम्मे०" इत्याधुपसंहारवाक्यं कष्ठ्यम्। प्रज्ञा०। भ०। दर्शनावरणीयस्यदरिसणावरणिजस्सणं भंते ! कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पोग्गलपरिणामं पप्प कतिविहे अणुभावे पण्णत्ते ? गोयमा ! नवविहे अणुभावे पण्णत्ते / तं जहा-निद्दा निद्दानिद्दा पयला पयलापयला थीणद्धी, चक्खुदंसणावरणे अचक्खुदंसणावरणे ओहिदंसणावरणे केवल-दसणावरणे / जं वेदेइ पोग्गलं वा पोग्गले वा पुग्गल-परिणामंवा वीससा वापोग्गलपरिणाम, तेसिं वा उदएणं पासियव्वं वान पासइ, पासिउकामे न पासइ, पासित्ता विन पासइ, उच्छन्नदसणीया वि भवइदरिसणावरणिजस्स कम्मस्स उदए णं, एस णं गोयमा ! दरिसणावरणिज्जे कम्मे , एस णं गोयमा! दरिसणा-वरणिजस्स कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पोग्गलपरिणामं पप्प नवविहे अणुभावे पण्णत्ते। प्रश्नसूत्रं पूर्ववत् / निर्वचनमाह-गौतम ! नवविधः प्रज्ञप्तः / तदेव नवविधत्वं दर्शयति-'निद्दा' इत्यादि / निद्राशब्दार्थमने वक्ष्यामः / भावार्थस्त्वयम् - "सुहपडिबोहा निद्दा, दुहपडिबोहा य निरनिदा य / पयला होइ ठियस्सा, पयलापयला य चंकमओ // 1 // थीणद्धी, पुण अइसं, किलिट्टकम्माण वेयणे होइ।महनिद्दादिणचिंतिय-वावारपसाहणी पायं"।सा चक्षुर्दर्शनावरणंचक्षुःसामान्यो-पयोगावरणम्। एवं शेषेष्वपि भावनीयम् ।(जं वेयइ इत्यादि) यं वेदयते पुद्गलमृदुशयनीयादिकं (पुग्गले वा इति) यान् पुद्गलान् बहून् मृदुशयनीयादीन् वेदयते पुद्गलपरिणाम माहिषदध्याद्य-भ्यवहृताहारपरिणाममित्यर्थः,(वीससा वा पोग्गलाण परि-णाममिति) वर्षास्वभ्रसंसृतनभोरूपं, धाराम्बुनिपातरूपं वा यं वेदयते तेन निद्राद्युदयाक्षेपतो दर्शनपरिणत्युपघाते। एतावता परत उक्तः। सम्प्रति स्वत उदयमाह- (तेसिं वा उदएण त्ति) तेषां वा दर्शनावरणीयकर्मपुद्गलानामुदयेन परिणतिविघातेन द्रष्टव्यं, न पश्यति। तथा कञ्चिद्दर्शनपरिणामेन परिणमितुमिच्छन्नपि जात्यन्धत्वादिना दर्शनपरिणत्युपघातात् न पश्यति- प्राग् दृष्ट्वाऽपि पश्चात् न पश्यति, दर्शनावरणीयकर्मपुद्गलानामुदयात्। किं बहुना ?, दर्शनावरणीयस्य कर्मण उदयेन जीव उच्छन्नदर्शन्यपि यावच्छक्तिप्रच्छादितदर्शन्यपि भवति। "एसणं गोयमा ! दरिसणावरणिजे कम्मे" इत्याद्युपसंहारवाक्यम्। Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुभाग 397 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुभाग __सातासातावेदनीयस्यसातावेयणिज्जस्स णं भंते ! कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पोग्गलपरिणामं पप्प कतिविहे अणुभावे पण्णत्ते ? गोयमा ! सायावेयणिज्जस्स कम्मस्स जीवेण बद्धस्स जाव अट्ठविहे अणुभावे पण्णत्ते। तं जहा- मणुन्ना सद्दा, मणुन्ना रूवा, मणुन्ना गंधा, मणुन्ना रसा, मणुन्ना फासा, मणोसुहता, वयसुहता, कायसुहता।जं वेएइ पोग्गलं वा पोग्गले वा पोग्गलपरिणामं वा वीससा वा पोग्गलाणं परिणाम,तेसिंवा उदएणं सातावेदणिज्जं कम्मं वेदेइ / एस णं गोयमा ! सातावेयणिज्जे कम्मे, एस णं गोयमा ! सायावेयणिजस्स जाव अट्ठविहे अणुभावे पण्णत्ते / असायावेयणिज्जस्स णं भंते ! कम्मस्स जीवेणं तहेव पुच्छा, उत्तरंच, नवरं अमणुन्ना सद्दा जाव कायदुहिता एसणं गोयमा! असाता-वेयणिजस्स जाव अट्ठविहे अणुभावे। प्रश्नसूत्रं प्राग्वत् / निर्वचनमाह - गौतम ! अष्टविधोऽनुभावः प्रज्ञप्तः। अष्टविधत्वमेव दर्शयति- (मणुन्ना सद्दा इत्यादि) मनोज्ञाः शब्दा आगन्तुका वेणुवीणादिसंबन्धिनः / अन्ये 'आत्मीया' इत्याहुः। तदयुक्तम्। आत्मीयशब्दानां वाक्-सुखेनेत्यनेनैव गृहीतत्वात्। मनोज्ञा रसा इक्षुरसप्रभृतयः, मनोज्ञा गन्धाः कर्पूरादिसम्बन्धिनः, मनोज्ञानि रूपाणि स्वगतस्व-स्त्रीचित्रादिगतानि, मनोज्ञाः स्पर्शाः हंसतूल्यादिगताः, (मणो-सुहया इति) मनसि सुखं यस्याऽसौ मनःसुखस्तस्य भावो मनःसुखिता, सुखितं मन इत्यर्थः / वाचि सुखं यस्याऽसौ वाक् सुखस्तस्य भावो वाक्सुखिता / सर्वेषां श्रोत्रमनःप्रह्लादकारिणी वागिति तात्पर्यार्थः / काये सुखं यस्याऽसौ कायसुखस्तद्भावः कायसुखिता, सुखितः काय इत्यर्थः / एते चाऽष्टौ पदार्थाः सातावेदनीयस्योदयेन प्राणिनामुपतिष्ठन्ते। मोहनीस्य - मोहणिजस्स णं भंते ! कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव कइविहे अणुभावे पण्णत्ते ? गोयमा ! मोहणिज्जस्स कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पंचविहे अणुभावे पण्णत्ते / तं जहा-सम्मत्तवेयणिज्जे मिच्छत्तवेयणिज्जे सम्मामिच्छत्तवेयणिज्जे कसायवेयणिज्जे नोकसायवेयणिज्जे, जं वेदेइ पोग्गले वा पोग्गलपरिणामं वा वीससा वा पोग्गलपरिणाम, तेसिं वा उदएणं मोहणिज्जं कम्म वेदेइ, एस णं गोयमा ! मोहणिज्जकम्मे, एस णं गोयमा! मोहणिजस्स जाव पंचविहे अणुभावे पण्णत्ते। प्रश्नसूत्रं प्राग्वत् / निर्वचनम् - पञ्चविधोऽनुभावः प्रज्ञप्तः / तदेव पञ्चविधत्वं दर्शयति-सम्यक्त्ववेदनीयमित्यादि। सम्यक्त्व-रूपेण यद्वेद्यं तत्सम्यक्त्ववेदनीयम् / एवं शेषपदेष्वपि शब्दार्थो भावनीयः / भावार्थस्त्वयम्- यदिह वेद्यमानं प्रशमादिपरिणामं करोति तत्सम्यक्त्ववेदनीयं, यत् पुनरदेवादिबुद्धिहेतुस्तन्मिथ्यात्ववेदनीयं मिश्रपरिणामहेतुः / सम्यमिथ्यात्ववेदनीयं क्रोधादिपरिणामकारण। कषायवेदनीयं हास्यादिपरिणामकारणम्।नो कषाय-वेदनीयम्। (जं वेदेइ पुग्गलमित्यादि) यं वेदयते पुद्गलं विषय-प्रतिमादिकं पुद्गलान् / वा यान् वेदयते बहून् प्रतिमादीन् / यं पुद्गलपरिणाम | देशाधनुरूपाऽऽहारपरिणामं कर्म पुद्गल-विशेषोपादानसमर्थ भवति, आहारपरिणामविशेषादपि कदा-चित्कर्मपुद्गलविशेषो, यथाब्राहयोषधाद्याहारपरिणामात् ज्ञानावरणीयकर्मपुद्गलानां प्रतिविशिष्टः क्षयोपशमः। उक्तञ्च - "उदयक्खयखउवसमोवसमाविजयं च कम्मणो भणिया।दव्वं खेत्तं कालं, भवं च भावं च संपप्प" ||१विस्रसयावा यत् पुद्गलानां परिणाममभ्रविकारदिकं, यद्दर्शनादेवं विवेक उपजायते - आयुः शरञ्जलधरप्रतिमं नराणां, संपत्तयः कुसुमितद्रुमसारतुल्याः / स्वप्नोपभोगसदृशा विषयोपभोगाः, संकल्पमात्ररमणीयमिदं हि सर्वम् / / 1 / / इत्यादि / अन्यं वा प्रशमादिपरिणामनिबन्धनं यं वेदयते, तत्सामर्थ्यात् मोहनीयं सम्यक्त्ववेदनीयादिकं वेदयते, सम्यक्त्ववेदनीयादिकर्मफलं प्रशमादिवेदयते इति भावः। एतावता परत उदय उक्तः / सम्प्रति स्वतस्तमाह - (तेसिं वा उदएणं ति) तेषां च सम्यक्त्ववेदनीयादिकर्म-पुद्गलानामुदयेन प्रशमादि वेदयते, 'एसणं' इत्याद्युपसंहारवाक्यम्। आयुषःआउयस्स णं भंते ! कम्मस्स जीवेणं तहेव पुच्छा / गोयमा ! आउयस्स णं कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव चउविव्हे अणुभावे पण्णत्ते / तं जहा-नेरइयाउए तिरियाउए मणुयाउए देवाउए जं वेदेइ, पोग्गलं वा पोग्गले पोग्गलपरिणामं वा वीससा वा पोग्गलाणं परिणाम वा, तेसिं वा उदएणं आउयं कम्मं वेदेइ, एस णं गोयमा ! आउयस्स कम्मस्स जाव चउविहे अणुभावे पण्णत्ते। प्रश्नसूत्रं प्राग्वत् / निर्वचनम् - चतुर्विधोऽनुभावः प्रज्ञप्तः / तदेव चतुर्विधत्वं दर्शयति - (नेरइयाउए इत्यादि) सुगमम्। 'जं वेएइ पुग्गलं वा' इत्यादि, यं वेदयते पुद्गलं शस्त्रादिकमायुरपवर्तनसमर्थं बहून पुद्गलान् शस्त्रादिरूपान्, यान् वेदयते / यं वा पुद्गगलपरिणाम विषाऽन्नादिपरिणामरूपं, विस्रसया वा यं पुद्गलपरिणामं शीतादिकमेवाऽऽयुरपवर्तनक्षम, तेनोपयुज्यमानभवायुषोपवर्तनात् नारकाद्यायुःकर्म वेदयते। एतावता परत उदयोऽभिहितः। स्वत उदयस्य सूत्रमिदम् - (तेसिंवा उदएणं ति) तेषां वा नारकायुःपुद्गला-नामुदयेन नारकाद्यायुर्वेदयते, 'एसणं' इत्याधुपसंहारवाक्यम्। तत्र नामकर्म द्विधा-शुभनामकर्म, अशुभनामकर्म च। तत्र शुभनामकर्माऽधिकृत्य सूत्रमाहसुभणामस्स णं भंते ! कम्मस्स जीवेणं पुच्छा / गोयमा! सुभनामस्स णं कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव चउद्दसविहे अणुभावे पण्णत्ते / तं जहा- इट्ठा सद्दा, इट्ठा रूवा, इट्ठा गंधा, इट्ठा रसा, इट्ठा फासा, इट्ठा गई, इट्ठा ठिई, इटुं लावन्नं, इट्ठा जसोकित्ती, इट्टे उट्ठाणकम्म-बलवीरियपुरिसक्कारपरक्कमे, इट्ठस्सरता, कंतस्सरता, पियस्सरता,मणुन्नस्सरता। जं वेदेइ पोग्गलं वा पोग्गले वा पुग्गलपरिणामं वा, वीससा वा पोग्गलाणं परिणाम, तेसिंवा उदएणं सुभनामं कम्मं वेदेइ, एस णं गोयमा ! सुभनामकम्मे, एस णं गोयमा ! सुभनामस्स कम्मस्स जाव चउद्दसविहे अणुभावे पण्णत्ते। Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुभाग 398 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुभाग प्रश्नसूत्र प्रायति - ( इविपाकस्य प्रश्नसूत्रं प्राग्वत् / निर्वचनम् - चतुर्दशविधोऽनुभावः / तदेव चतुर्दशविधत्वं दर्शयति - (इट्ठा सद्दा इत्यादि) एते शब्दादय आत्मीया एव परिगृह्यन्ते, नामकर्म विपाकस्य चिन्त्यमानत्वात् / तत्र वादित्राद्युत्पादिता इत्येके / तदयुक्तम् / तेषामन्यकर्मोदयनिष्पाद्यत्वात् / इष्टा गतिमत्तवारणाद्यनुकारिणी शिविकाधारोहणतश्चेति एके। इष्टा स्थितिः सहजा, सिंहासनादौ च अन्ये / इष्टं लावण्यं छायाविशेषलक्षणं, कुङ कुमाद्यनुलेपनजमिति अपरे / इष्टा यशःकीर्तिर्यशसा युक्ता कीर्तिः / यशःकीयोश्चाऽयं विशेषः- दानपुण्यकृता कीर्तिः, पराक्रमकृतं यशः। (इटे उट्ठाणकम्मबलवीरियपुरिसक्कारपरिक्कमे इति) उत्थानं देहचेष्टाविशेषः, कर्म रेचनभ्रमणादि, बलं शारीरसामादिविशेषः, वीर्य जीवप्रभवः, स एव पुरुषाकारोऽभिमानविशेषः, स एव निष्पादितस्वविषयपराक्रमः। इष्टस्वरता वल्लभस्वरता। तत्र इष्टाःशब्दाः इति सामान्योक्तावियं, विशेषोक्तिस्तदन्यबहुमतत्वापेक्षाऽवगन्तव्या / कान्तस्वरतेति कान्तः कमनीयः सामान्यतो-ऽभिलषणीय इत्यर्थः। कान्तः स्वरो यस्य सः, तथा तद्भावः कान्तस्वरता 1 प्रियस्वरतेति / प्रियो भूयोऽभिलषणीयः, प्रियः स्वरो यस्य स तथा तद्भावः प्रियस्वरता / (मणुन्नस्सरया इति) उपरतभावोऽपि स्वालम्बनप्रीतिजनको मनोज्ञः, स स्वरो यस्य स मनोज्ञस्वरता (जं वेएइ इत्यादि) यं वेदयते पुद्गलं वीणावर्णकगन्धताम्बूलपट्टशिविकासिंहासनकुङ्कुमदानराजयोगगुलिकादिलक्षणम्। तथा च वीणादिसम्बधाद् भवन्तीष्टाः शब्दादय इति परिमावनीयमेतत् सूक्ष्मधिया मार्गानुसारिण्या। (पुग्गले वा इति) यतो बहून् पुद्गलान् वेणुवीणादिकान् वेदयतो यं पुद्गलपरिणामं ब्राह्मयाद्याहारपरिणाम विस्रसया वायं पुद्गलानां परिणामं शुभजलदादिकं तथा चोन्नतान् कन्जलसमप्रभान मेघानवलोक्य प्रहर्षमनसो गायन्ति मत्तयुवतयो रेल्लुकानिष्टस्वरानित्यादि, तत्प्रभावात् शुभनामकर्म वेदयते, शुभनामकर्मफलमिष्टस्वरतादिकमनुभवतीति भावः / एतावता परत उक्तः। इदानीं स्वतस्तमाह - (तेसिं वा उदएणं ति) तेषां वा शुभानां कर्मपुद्गलानामुदयेन इष्टशब्दादिकं वेदयते। "एस णं गोयमा !" इत्याद्युपसंहारवाक्यम् / उक्तोऽष्ट विधसातवेदनीयस्याऽनुभावः / परतः सातवेदनीयस्योदयमुपदर्शयति- (जं वेएइ पुग्गलमित्यादि) यद् वेदयते पुद्गलं स्रक्चन्दनादियान् वा वेदयते पुद्गलान् बहून् सक्चन्दनादीन्, यं वा वेदयते पुद्गलपरिणाम देशकालवयोवस्थाऽनुरूपाहारपरिणामम् (वीससा वा पुग्गलाण परिणाम) विस्रसया वा यं पुद्गलानां परिणामकामेऽभिलषितं शीतोष्णादिवेदनाप्रतीकाररूपं, तेन मनसः समाधानसम्पादनात् सातवेदनीयं कर्माऽनुभवति / सातवेदनीयकर्मफलं सातं वेदयते इत्यर्थः / उक्तः परत उदयः। सम्प्रति स्वत उदयमाह (तेसिं वा उदएणं ति) तेषां वा सातवेदनीयपुद्गलानामुदयेन मनोज्ञशब्दादिव्यतिरेके णाऽपि कदाचित्सुखं वेदयते, यथा नैरयिकास्तीर्थकरजन्मादिकाले। "एस णं गोयमा!" इत्याधुपसंहार-वाक्यम् / प्रश्नसूत्रं सुगम, निर्वचनं पूर्ववत्। तथा चाऽऽह - "तहेव पुच्छा, उत्तरंच, नवरं" इत्यादिना पूर्वसूत्रादस्य विशेषमुपदर्शयति- (अमणुन्ना सद्दा इत्यादि) अमनोज्ञाः शब्दाः खरोष्ट्राऽश्वादि-सम्बधिन आगन्तुकाः, अमनोज्ञा रसाः स्वस्याऽप्रतिभासिनो दुःखजनकाः, अमनोज्ञा गन्धा गोमहिषादिमृतकलेवरादिगन्धाः, अमनोज्ञानि रूपाणि स्वगतस्वीगतादीनि, अमनोज्ञाः स्पर्शाः कर्कशादयः। (मणोदुहिया इति) दुःखितं मन इति (वयदुहिया इति) अभव्या वागिति भावार्थः / (कायदुहिया इति) काये दुःखं यस्याऽसौ कायदुःखस्तभावः। कायदुःखिता, दुःखितं काय इत्यर्थः। (जं वेएइ इत्यादि) यं वेदयते पुद्गलं विषशस्त्रकण्टकादि, (पुग्गले वा इति) यान् वा पुद्गलान् बहून् विषशस्त्रकण्टकादीन् वेदयते, यं वा वेदयते पुद्गलपरिणाममत्याहारलक्षणं, विस्रसया वा वं वेदयते पुद्गलपरिणाममकालेऽनभिलषितं शीतोष्णादिपरिणाम, तेन मनसोऽसमाधानसम्पादनात् असातवेदनीयं कर्माऽनुभवति / असातवेदनीयकर्मफलमसातं वेदयत इति भावः। एतेन परत उदय उक्तः। सम्प्रति स्वत उदयमाह- (तेसिं वा उदएणं ति) तेषां वा असातवेदनीयकर्मपुद्गलानामुदयेनाऽसातं वेदयते / 'एस णं गोयमा' इत्याधुपसंहारवाक्यम्। अशुभनाम्नः - दुहनामस्सणं भंते ! पुच्छा गोयमा ! एवं चेव, नवरं अणिट्ठा सद्दा जावहीणस्सरतादीणस्सरता अणिट्ठस्सरता अकंतस्सरताजं वेदेइ, सेसं तं चेव जाव चउद्दसविहे अणुभावे पण्णत्ते। प्रश्नसूत्रं प्राग्वत् / निर्वचनसूत्रं प्रागुक्तार्थवैपरीत्येन भावनीयम् / गोत्रं द्विधा-उर्गोत्रं वा नीचैर्गोत्रं वा। तत्रोचैर्गोत्रविषयं सूत्रमाहउचागोयस्स णं मंते ! कम्मस्स जीवेणं पुच्छा गोयमा ! उच्चागोयस्स कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव अट्ठविहे अणुभावे पण्णत्ते / तं जहा-जातिविसिट्ठता कुल-विसिट्ठता बलविसिट्ठता रूवविसिट्ठता तवविसिट्ठता सुयविसिहता लाभविसिट्ठया इस्सरियविसिट्ठया, जं वेदेइपोग्गलं वा पोग्गले वा पोग्गलपरिणाम वा वीससा वा पोग्गलाणं परिणाम, तेसिं वा उदएणं जाव अट्ठविहे अणुभावे पण्णत्ते। . प्रश्नसूत्रं प्राग्वत् / निर्वचनम् - अष्ट विधो ऽनुभावः प्रज्ञप्तः / तदेवाऽष्टविधत्वं दर्शयति- (जाइविसिट्ठया इत्यादि) जात्यादयः सुप्रतीताः। शब्दार्थस्त्वेवम् - जात्या विशिष्टो जातिविशिष्ट-स्तद्भावो जातिविशिष्टता इत्यादिकम् / वेदयते पुद्गलं बाह्य-द्रव्यादिलक्षणम्। तथाहि- द्रव्यसम्बन्धाद् राजादिविशिष्ट-पुरुषसम्परिग्रहाद्वा नीचजातिकुलोत्पन्नोऽपि जात्यादिसम्पन्न इव जनस्य मान्य उपजायते। बलविशिष्टताऽपि मल्लानामिव लकुटिभ्रमणवशाद् / रूपविशिष्टता प्रतिविशिष्टवस्त्राऽलङ्कार-सम्बन्धात्। तपोविशिष्टता गिरिकूटाद्यारोहणेनाऽऽतापनां कुर्वतः / श्रुतविशिष्टता मनोज्ञभूदेशसंबन्धात् स्वाध्याय कुर्वतः / लाभ-विशिष्टता प्रतिविशिष्टरत्नादियोगात् / ऐश्वर्यविशिष्टता धनकन-कादिसम्बन्धादिति / (पुग्गले वा इति) यान बहून् पुद्गलान् वेदयते, पुदगलपरिणामं दिव्यफलाद्याहारपरिणामरूपं विखसया वा यं पुद्गलानां परिणाममकस्मादभिहितजलदागमसंवादादिलक्षणं तत्प्रभावादुचैर्गोत्रं वेदयते उचैर्गोत्रं कर्मफलं जातिविशिष्ट-त्वादिकं वेदयते / एतेन परत उदय उक्तः। सम्प्रति स्वतस्तमाह - (तेसिं वा उदएणं ति) तेषां वा उद्यैर्गोत्रकर्मपुद्गलानामुदयेन जातिविशिष्टत्वादिकं भवति / "एस णं गोयमा ! इत्याधुपसंहारवाक्यम्। Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुभाग ३९९-अभिधानराजेन्द्रः-भाग 1 अणुभागबंधट्ठाण नीचैर्गोत्रस्य तत्प्रभावात्, एष परत उदय उक्तः / स्वतस्तमाह - (तेसिं दाएणं ति) नीयागोयस्स णं भंते ! पुच्छा / गोयमा ! एवं चेव, नवरं तेषां वा अन्तराय-कर्मपुद्गलानामुदयेन अन्तरायकर्म फलं जातिविहीणता जाव इस्सरियविहीणता जं वेदेइ पोग्गलं वा दानान्तरायादिकं वेदयते। "एस णं" इत्याद्युपसंहारवाक्यम्। प्रज्ञा० पोग्गले वा पोग्गलपरिणामं वा वीससा वा पोग्गलाणं परिणाम, 23 पद। "तम्हा एएसिँ कम्माणं, अणुभागे वियाहिए। एएसिँ संवरे चेव, तेसिं वा उदएणं जाव अट्टविहे अणुभावे पण्णत्ते। खवणे य जए बुहे'' ||1|| उत्त० 33 अ०। कर्मणः स्वभावे, तदुक्तं प्रश्नसूत्रं प्राग्वत् / निर्वचनम् - अष्टविधोऽनुभावः / तमेवाऽष्ट- कर्मप्रकृतिचूर्णी - 'अणुभागोत्ति सहाओ'' क० प्र०। (कर्मणां करणानां विधमनुभावं दर्शयति (जाइविहीणया इत्यादि) सुप्रतीतम् / (जं वेदेइ बन्धनसंक्रमादीनामनुभागबन्धादिभेदाः बन्धादिशब्देषु दृश्याः)। पुग्गलमिति) यं वेदयते पुद्गलं नीचकमसिवनरूपं, नीचपुरुषसम्बन्ध- अणु भागअप्पाबहुय-न०(अनुभागाऽल्पबहुत्व) अनुभाग लक्षणं वा / तथाहि- उत्तमजातिसम्पन्नोऽपि उत्तमकुलोत्पन्नोऽपि यदि प्रत्यल्पबहुत्वे, यथा "सव्वत्थोवाइं अणंतगुणवुद्धिवाणाणि, नीचैः कर्मवशाद् यथा जीविका-रूपमासेवते, चाण्डाली वा गच्छति, असंखेजगुणवुट्टिद्वाणाणि, असंखिज्जगुणाणि, संखिज-गुणवुड्डिट्ठाणाणि, तदा भवति चाण्डालादिरिव जनस्य निन्द्यः / बलहीनता, सुखशयनी असंखिजगुणाई जाव अणंतभागवुट्ठिाणाणि असंखिज्जगुणाणि" / यादिसम्बन्धात् / तपो-विहीनता पार्श्वस्थादिसंसर्गात, श्रुतविहीनता प्रदेशाऽल्पबहुत्वं यथा - "अट्ठविहबंधगस्स य आउयभागो थोवो, विकथाऽपर-साध्वाभासादिसंसर्गात्, लाभविहीनता देशकालानु नामगोयाणं तुल्लो विसेसाहिओ, नाणदंसणावरणंतरायाणं तुल्लो चितकु-क्रियाणां सम्पर्कतः, ऐश्वर्यविहीनता कुगृहकुकलत्रादिसम्पर्कत विसेसाहिओ, मोहस्स विसेसाहिओ, वेयणिज्जस्स विसेसाहिओ त्ति"। इति / (पुग्गले वा इति) यान् बहून् पुद्गलान् वेदयते, यथा स्था०४ ठा०२ उ० पुद्गलपरिणामं वृन्ताकीफलं ह्यभ्यवहृतकण्डूत्युत्पादनेन रूपविहीनतामापा-दयतीत्यादि / विस्रसया वा पुद्गलानां अणुभागउदीरणोवक्कम-पुं०(अनुभागोदीरणोपक्रम) प्राप्तो-दयेनरसेन परिणाममभिहृत-जलदागमविसंवादलक्षणं वेदयते, तत्प्रभावाद् सहाऽप्राप्तोदयस्य रसस्य वेदनाऽऽरम्भे, स्था०५ ठा०१ उ०। नीचैःकर्म वेदयते, नीचैःकर्मफलं जात्यादिविहीनतारूपंवेदयते इत्यर्थः / अणुभागकम्म-न०(अनुभागकर्मन) अनुभागरूपं कर्माऽनुभागकर्म / एतावता परत उदय उक्तः। सम्प्रति स्वत उदयमाह - (तेसिं वा उदएणं रसात्मके कर्मभेदे, भ०१श० 4 उ० ति) तेषां वा नीचे!त्रकर्मपुद्गलानामुदयेन जात्यादिविहीनता- | अणुभागणामनिहत्ताउय-न०(अनुभागनामनिधत्तायुष) अनु-भाग मनुभवति / “एस णं गोयमा!" इत्याधुप-संहारवाक्यम्। अन्तरायस्य- आयुष्कर्मद्रव्याणां तीव्रादिभेदो रसः, स एव, तस्य वा नाम अंतराइयस्स णं भंते ! क्रम्मस्स जीवेणं पुच्छा / गोयमा! परिणामोऽनुभागनाम, अथवा गत्यादीनां नामकर्मणामनुभागबन्धरूपो अंतराइयस्स कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पंचविहे अणुभावे भेदोऽनुभागनाम, तेन सह निधत्तमायुरनु-भागनामनिधत्तायुरिति / पण्णत्ते। तं जहा-दाणंतराए लामंतराए भोगंतराए उवभोगतराए आयुर्बन्धभेदे, स० भ०ा स्था०। वीरियंतराए / जं वेदेति पोग्गलं वा जाव वीससा वा, तेसिं वा अणुभाग(व)बंध-पुं० [अनुभाग(व)बन्ध] अनुभागो उदएणं अंतराइयं कम्मं वेदेइ। एसणं गोयमा! अंतराइए कम्मे। विपाकस्तीवादिभेदो रस इत्यर्थः, तस्य बन्धोऽनुभागबन्धः।बन्धभेदे, एस णं गोयम ! जाव पंचविहे अणुभावे पण्णत्ते। स्था० 4 ठा०२ उ०। ('बंध' शब्देऽस्य व्याख्या) प्रश्नसूत्रं प्राग्वत् / निर्वचनम् - पञ्चविधोऽनुभायः प्रज्ञप्तः / तदेव अणुभागबंधज्झवसायट्ठाण-न०(अनुभागबन्धाऽध्यव-सायस्थान) पञ्चविधत्वं दर्शयति - (दाणंतराए इत्यादि) दानस्यान्तरायो विघ्नः कृष्णादिलेश्यापरिणामविशेषे, कर्म०१ कर्म० / सकषायोदया हि दानान्तरायः। एवं सर्वत्र भावनीयम्। तत्र दानान्तरायो दानान्तरायस्य कृष्णादिलेश्या परिणामविशेषाः अनुभाग-बन्धहेतव इतिवचनात्। क० कर्मणः फलम्। लाभान्तरायो लाभान्त-रायादिकर्मणामिति। (जं वेदेइ प्र०॥ पुग्गलं वा इत्यादि) यं वेदयते पुद्गलं विविध-विशिष्टरत्नादिसम्बन्धाद् दृश्यते, तद्विषये एव दानाऽन्तरायोदयः सन्धिच्छेदनाद्युपकरण अणुभाग(व)बंधट्ठाण-न०[अनुभाग(व) बन्धस्थान] | तिष्ठत्यस्मिन् सम्बन्धाल्लाभान्तरायकर्मोदयः, प्रति विशिष्टाहारसम्बन्धादनार्थ जीव इति स्थानम्, अनुभागबन्धस्य स्थान-मनुभागबन्धस्थानम्। एकेन सम्बन्धादा लोभतो भोगान्तरायोदयः। एवमुपभोगान्तरायकर्मोदयोऽपि काषायिकेणाऽध्यवसायेन गृहीतानां कर्मपुद्गलानां विवक्षितैकसमयभावनीयः / तथा लकुटाद्यभिघाताद् वीर्यान्तरायकर्मोदय इति / बद्धरससमुदायपरिणामे, तनिष्पादकेषु कषा-योदयरूपेषु पुद्गगलान् वा बहून् तथाविधान् यान् पुद्गलान् वेदयते, यं वा अध्यवसायविशेषेषु, / प्रव०१६२ द्वारा पुद्गलपरिणाम तथाविधाहारौषध्यादिपरिणामरूपम् / तथाहि-दृश्यते एगसमयम्मि लोए, सुहुमऽगणिजिया उजे उ पविसंति। तथाविधा-ऽऽहारौषधपरिणामाद् वीर्यान्तरायकर्मोदयः / ते हुंतऽसंखलोयप्पएसतुल्ला असंखेजा।। मन्त्रोपसिक्तवासादि-गन्धपुद्गलपरिणामाद् भोगान्तरायोदयः। यथा तत्तो असंखगुणिया, अगणिक्काया उ तेसिं कायठिई। सुबन्धुसचिवस्य विस्रसया वा पुद्गगलानां परिणाम चित्रं तत्तो संजमअणुभागबंधट्ठाणसंखाणि वा / / शीतादिलक्षणम् / तथाहि- दृश्यन्ते वस्त्रादिकं दातुकामा अपि लोके इह जगति एकस्मिन् समये पृथिवीकायिकादयो जीवाः शीतादिनिपतन्तमालोक्य दानान्तरायोदयात् तस्याऽदातारः, इति। | (सुहुमऽगणिजिया उ त्ति) सप्तम्यर्थत्वात्प्रथमायाः, सूक्ष्माऽग्नि Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुभागबंधट्ठाण 400- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुमत जीवेषु सूक्ष्मनामकर्मोदयवर्तिषु तेजस्कायिकजीवेषु प्रविशन्ति , | सहाऽप्राप्तोदये वेद्यमाने रसे, स्था० 4 ठा०२ उ०। क० प्र०। पं० सं० उत्पद्यन्ते / संख्येयत्वमेवाऽऽह- असंख्यलो के प्रदेशतुल्या | | ('उईरणा' शब्दे द्वि० भा०६५६ पृष्ठेऽस्य व्याख्या) असख्ययलाकाकाशप्रदशरााशप्रमाणाः / इह च विजातीय-जावाना | अणुभागोदय-पुं०(अनुभागोदय) अनुभागविषये कर्मणामुदये, पं० सं० जात्यन्तरतयोत्पत्तिः प्रदेशउच्यते। इत्थमेव प्रज्ञप्तौ प्रवेशनकशब्दार्थस्य 5 द्वा०। क० प्र०। ('उदय' शब्दे द्वि० भा०७७६ पृष्ठेऽस्य व्याख्या) व्याख्यातत्वात् / ततस्ते जीवाः पृथिव्या-दिभ्योऽप्कायेभ्यो अणुभाव-पुं०(अनुभाव) शुभानां कर्मप्रकृतीनां प्रयोग-कर्मणोपात्तानां बादरतेजस्कायेभ्यः सूक्ष्मतेजस्कायत-योत्पद्यन्ते, इह गृह्यन्ते, ये पुनः प्रकृतिस्थितिप्रदेशरूपाणां तीव्रमन्दानुभाव-तयाऽनुभवने, आचा०१ पूर्वमुत्पन्नाः तेजस्कायिकाः पुनर्मृत्वा तेनैव पर्यायेणोत्पद्यन्ते, न गृह्यन्ते। श्रु०२ अ०१ उ० स० अचिन्त्यायां वैक्रियकरणादिकायां शक्तौ च। तेषां पूर्वमेव प्रविष्टत्वात् / ततः सर्वस्तोका एकसमये स्था०३ ठा०३ उ०। प्रभावे च / व्य०२ उ०॥ समुत्पन्नसूक्ष्माऽनिकायिकाः / (तत्तो ति) ततस्तेभ्य एकसमयोत्पन्नसूक्ष्माऽग्रिकायिकेभ्योऽसंख्येय-गुणिता असंख्येयगुणा अग्निकायाः अणुभावकम्म-न०(अनुभागकर्मन्) अनुभागतो वेद्यमाने कर्मणि, यस्य पूर्वोत्पन्नाः, सर्वेऽपि सूक्ष्मा-ऽग्निकायिकजीवाः / कथमिति चेत् ? हि अनुभावो यथा बद्धरसो वेद्यते। स्था०२ ठा०३ उ०। उच्यते- एकः सूक्ष्माग्नि-कायिको जीवः समुत्पन्नोऽन्तर्मुहूर्तं जीवति, अणुभावग-त्रि०(अनुभावक) चिन्तापके, आ०म० द्वि०। एतावन्मात्रायुष्कत्वात्। तेषांतस्मिंश्चाऽन्तर्मुहूते ये समयास्तेषु प्रत्येक- अणुभासण-न०(अनुभाषण) आचार्यभाषणात्पश्चाद् भाषणे, आचार्येण मसंख्येयलोकाकाशप्रमाणाः सूक्ष्मानिकायिकाः समुत्पद्यन्ते, अतः भाषिते पश्चात् भाषणं, न पुनः प्रधानीभूयाचार्यभाषणादने भाषते / सिद्धमेकसमयोत्पन्नसूक्ष्माऽग्निकायिकेभ्यः सर्वेषां पूर्वो त्पन्नसूक्ष्माऽ- "साहूणं अणुभासइ, आयरिएणं तु भासिए संते / ' व्य० ग्निकायिकानामसंख्येयगुणत्वम् / तेभ्योऽपि सर्वसूक्ष्माऽग्निकायिके 3 उ०। आ० चू० भ्यस्तेषामेव प्रत्येकं कायस्थितिः, पुनः पुनस्तत्रैव काये समुत्पत्तिलक्षणा अणुभासण(णा)सुद्ध-न०पअनुभाषण (णा) शुद्धब गुरुचारितस्यशनैः संख्यातगुणा एकैकस्यापि सूक्ष्मानिकायिकस्य संख्येयोत्सर्पिणी शुद्धोचारणरूपे भावविशुद्धिभेदे, आ० चू० 6 अ०। अनुभाषणाशुद्ध, प्रमाणायाः कायस्थिते-रुत्कर्षतः प्रतिपादितत्वादिति / तस्या अपि यथाकायस्थितेः सकाशात् संयमस्थानान्यनुभागबन्धस्थानानि च प्रत्येकमसंख्येयगुणानि कायस्थितावसंख्येयानां स्थितिबन्धानां अनुभासइ गुरुवयणं, अक्खरपयवंजणेहि परिसुद्धं / भावादेकैकस्मिंश्च स्थितिबन्धे असंख्येयानामनुभागबन्धस्थानानां पंजलिउडो अभिमुहो, तं जाणऽणुभासणासुद्धं / / 1 / / सद्भावादिति / संयमस्थानान्यप्यनुभागबन्धस्थानैस्तुल्यान्येवेति / नवरंगुरुर्भणति-(वोसिरइत्ति) शिष्यस्तु - (वोसिरामित्ति) स्था० तेषामुपादानं तत्स्वरूपं चाऽग्रे वक्ष्यामः / अथाऽनुभागबन्धस्थानानीति 5 ठा०३ उ०। कृतकृतिकर्मप्रत्याख्यानं कुर्वन् अनुभाषते, गुरुवचनं कः शब्दार्थः ? उच्यते-तिष्ठत्यस्मिन् जीव इति स्थानम् / लघुतरेण शब्देन भणतीत्यर्थः / कथमनुभाषते ? अक्षरपदव्यञ्जनैः अनुभागबन्धस्य स्थानमनुभागबन्धस्थानम् / एकेन काषायिकेणा- परिशुद्धमननाऽनुभाषणा-यत्नमाह ! नवरं गुरुर्भणति- (वोसिरइ त्ति) ऽध्यवसायेन गृहीतानां कर्म पुद्गलानां विवक्षितै कसमयबद्ध- 'इमो वि भणति- (वोसिरामि त्ति) सेसं गुरुभणियसरिसं भाणियव्वं'। रससमुदायपरिमाणमित्यर्थः / तानि चाऽनुभागबन्धस्थानान्य- किं भूतः सन् ? कृत-प्राञ्जलिरभिमुखस्तज्जानीहि अनुभाषणासंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि, तेषां चाऽनुभागबन्धस्था-नानां ___शुद्धमिति / आव०६ अ०। निष्पादकाः कषायोदयरूपाः अध्यवसायविशेषास्तेऽप्यनु- अणुभूइ-स्त्री०(अनुभूति) अनुभवनमनुभूतिः। अनुभवे, विशे० आo भागबन्धस्थानानीत्युच्यन्ते, कारणे कार्योपचारात् / तेऽपि चाऽनु- म०प्र० दश भागबन्धाध्यवसाया असंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणा इति। प्रव०१६२ अणुमइ-स्त्री०(अनुमति) अनुमोदने, आव०४ अ०। सूत्र०। तत्स्वरूपं द्वा० क० प्र०। पं० सं० "अणुभागबंधट्ठाणा अज्झ-वसायट्ठाणा व च - "कालं सयं परिणते, अणुवारणअनुमती होति, एवं भणति तुम एगट्टा' पं० सं०५ द्वा० अप्पणो य अण्णस्स वा हत्थकम्मं करेहित्ति" / आत्मव्यतिरिक्तस्य अणुभाग(व)संकम-पुं०पअनुभाग (व)संक्रमब अनुभागविषये परस्यैवम् - "इच्छस्स वा अणिच्छस्स वा बलाभिओगा हत्थकम्म संक्रमभेदे, क० प्र०ा तत्स्वरूपंच कारावयतो कारावणा भण्णति' नि० चू०१ उ०। आनुकूल्ये, प्रव०६ "तत्थऽट्ठपयं उव्वट्ठियाव ओवट्ठियावअविभागा। द्वान अणुभागसंकमो एस अन्नपगई निया वा वि" ||1 // ति। अणुमइया-स्त्री०(अनुमतिका) उज्जयिन्यां देवलासुतस्यराज्ञो भाया (अट्ठपयं ति) अनुभागसंक्रमस्वरूपनिर्धारणम् / (अविभाग त्ति) | अनुरक्तलोचनाया दास्याम्, आ० चू०११ उ०। आव०। अनुभागाः (निय त्ति) नीता इति। क० प्र०ा पं० सं०। ('संकम' शब्दे अणुमणण-न०(अनुमनन) अनुमोदने, प्रति०। (द्रव्यस्तवानुमोदन चाऽस्य विस्तृता व्याख्या) साधोः कल्पत इति 'चेइय' शब्दे वक्ष्यते) अणुभागसंतकम्म-न०(अनुभागसत्कर्मन्) अनुभागविषयायां / अणुमत(य)-त्रि०(अणुमत) अणोरपि मन्तरि, "अणुमयाई कुलाई कर्मणः सत्तायाम, क० प्र०) पं० सं०('सत्ता' प्रकरणे व्याख्यास्यामि) भवंति'' अणुरपि क्षुल्लकोऽपि मतो येषु सर्वसाधुसाधारणत्वात्, न तु अणु भागुदीरणा-स्त्री०(अनुभागो दीरणा) प्राप्तो दयेन रसेन ) मुखं दृष्ट्वा तिलकं कुर्वन्तीति / कल्प० / Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुमत ४०१-अभिषानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुमाण अनुमत-त्रि० / अभीष्ट, आ०म०द्वि० / दानमनुज्ञाते, कल्प० अनु पश्चादपि मतोऽनुमतः / ज्ञा०१ अ० विप्रियकरणस्यापि (ज्ञा० 1 अ०) वैगुण्यदर्शनस्थाऽपि (औ०) कार्यविघातस्य (ज्ञा०१ अ०) पश्चादपि मते, भ०२ श०१ उ०। अभिप्रेते, बृ०१ उ० अभिरुचिते, पथ्ये च / औ०। आनुकूल्येन सम्मते, जी०१ प्रति० / बहुमते, पञ्चा० 6 विव० अणुमहत्तर-पुं०(अनुमहत्तर) मूलमहत्तराभावे तत्कार्यकारिणि, "मूलमहत्तरे असण्णिहिते जो पुच्छणिजो धुरेठायति, सो अणु-महत्तरः / नि०चू०६ उ०। मूलमहत्तरे असन्निहिते यस्तत्र सर्वैरपि प्रच्छनीयः, धुरि च प्रथमं तिष्ठिति सोऽनुमहत्तरः। बृ०२ उ०। अणुमाण-पुं०(अणुमान) अणुश्चासौ मानः / स्तोकाहङ्कारे, सूत्र० 1 श्रु० 8 अ०॥"अणुमाणंच मायंचतंपडिण्णायपंडिए'' चक्र-वादिना सत्कारादिना पूज्यमानेनाणुरपि स्तोकोऽपि मानोऽहङ्करो न विधेयः, किमुत महान् ? / यदि वोत्तममरणोपस्थितेनोग्र-तपोनिष्टप्तदेहेन वा, अहो ! अहमित्येवंरूपः स्तोकोऽपि गर्वो न विधेयः। सूत्र०२ श्रु०८ अ०। *अनुमान-न०। अनु इति लिङ्गदर्शनसंबन्धानुस्मरणयोः पश्चात् मानं ज्ञानमनुमानम् / स्था०४ ठा०३ उ०। अविनाभावनिश्चयात् लिङ्गात् लिङ्गिज्ञाने, आ०चू०१ अ01 नं। अनु पश्चाद् लिङ्गलिगिसंबन्धग्रहणस्मरणानन्तरं मीयते परिच्छिद्यते देशकालस्वभावविप्रकृष्टोऽर्थाऽनेन ज्ञानविशेषेणेत्यनुमानम् / स्या०॥ भ०। अनु०। "साध्याविनाभूतलिङ्गात्, साध्यनिश्चायकं स्मृतम्। अनुमानं तदभ्रान्तं, प्रमाणत्वात् समक्षवत् ||1 // इति लक्षणलक्षिते प्रमाणभेदे, स्था०४ ठा०३ उ०। अनुमानस्य प्रामाण्यम्-(अनुमानं न प्रमाणमिति सिषाधयिषया प्रत्यक्षस्येवैकस्य प्रामाण्यमङ्गी-कृत्याऽऽह चार्वाक इति 'आता' शब्दे द्वितीयभागे 181 पृष्ठे द्रष्टव्यम्) साम्प्रतमक्रियावादिनां लौकायतिकानां मतं सर्वाऽधमत्वादन्ते उपन्यस्यन् तन्मतमूलस्य प्रत्यक्षप्रमाणस्याऽनुमानादिप्रमाणाऽन्तराऽनङ्गीकारे अकिञ्चित्करत्वप्रदर्शनेन तेषां प्रज्ञायाः प्रमादमादर्शयतिविनाऽनुमानेन पराभिसंधि__मसंविदानस्य तु नास्तिकस्य। न साम्प्रतं वक्तुमपि क्व चेष्टा, क्व दृष्टमात्रं च हहा! प्रमादः।।२०।। प्रत्यक्षमेवैकं प्रमाणमिति मन्यते चार्वाकः / तत्र संनह्यते- अनु / पश्चाल्लिङ्ग लिङ्गिसंबन्धग्रहणस्मरणानन्तरं मीयते परिच्छिद्यते देशकालस्वभावविप्रकृष्टोऽर्थोऽनेन ज्ञानविशेषेणे-त्यनुमानम्। प्रस्तावात् स्वार्थानुमानम्, तेनानुमानेन लैङ्गिकप्रमाणेन विना पराभिसंधि पराभिप्रायमसंविदानस्य सम्यगजानानस्य, तु-शब्दः पूर्ववादिभ्यो भेदद्योतनार्थः। पूर्वेषां वादिनामास्तिक्तया विप्रतिपत्तिस्थानेषुक्षोदः कृतः। नास्तिकस्य तु वक्तुमपि नौचिती, कुत एव तेन सह क्षोदः ?, इतितुशब्दार्थः। नास्ति परलोकः पुण्यं पापमिति वा मतिरस्य "नास्तिकाऽऽस्तिकदैष्टिकम्" 16466 / इति हैमसूत्रेण निपातनान्नास्तिकः / तस्य लोकायतिकस्य वक्तुमपि न साम्प्रतं, वचनमप्युच्चारयितुं नोचितम् / ततः तूष्णीभाव एवाऽस्य श्रेयान्, दूरे प्रामाणिकपरिषदि प्रविश्य प्रमाणोपन्यासगोष्ठी। वचनं हि परप्रत्यायनाय प्रतिपाद्यते, परेण चाऽप्रतिपित्सितमर्थं प्रतिपादयन्नसौ सतामवधेयवचनो न भवतीत्युन्मत्तवत्। ननु कथमिव तूष्णीकतैवाऽस्य श्रेयसी?, यावता चेष्टाविशेषादिना प्रतिपाद्यस्याऽभिप्रायमनुमाय सुकरमेवानेन वचनोच्चारण-मित्याशङ्कयाह-"क्व चेष्टा क्व दृष्टमात्रं च 'इति / क्वेति बृहदन्तरे, चेष्टा इङ्गितं पराऽभिप्रायरूपस्याऽनुमेयस्य लिङ्गम्। क्व च दृष्ट-मात्रम् ? दर्शनं दृष्ट, भावे ते, दृष्टमेव दृष्टमात्रम्, प्रत्यक्षमात्रम्, तस्य लिङ्गनिरपेक्षप्रवृत्तित्वात् / अत एव दूरमन्तरमेतयोः / न हि प्रत्यक्षेणाऽतीन्द्रियाः परचेतोवृत्तयः परिज्ञातुं शक्याः, तस्यैन्द्रियकत्वात्। मुखप्रसादादिचेष्ट्या तुलिङ्गभूतया परा-ऽभिप्रायस्य निश्चयेऽनुमानप्रमाणमनिच्छतोऽपि तस्य बला-दापतितम् / तथाहिमद्वचनश्रवणाऽभिप्रायवानयं पुरुषः, तादृङ्मुखप्रसादादिचेष्टाऽन्यथाऽनुपपत्तेरिति। अतश्च 'हहा प्रमादः हहा इति खेदे, अहो ! तस्य प्रमादः प्रमत्तता, यदनु-भूयमानमप्यनुमानं प्रत्यक्षमात्राङ्गीकारेणाऽपहनुते। अत्र च सं-पूर्वस्य वेत्तेरकर्मकत्वे एवाऽऽत्मनेपदम्, अत्र तु कर्माऽस्ति, तत्कथमत्राऽऽनश् ? अत्रोच्यते- अत्र संवेदितुं शक्तः संविदान इति कार्यम्, 'वयःशक्ति-शीले' 15 / 2 / 24 / इति शक्तौ शान-विधानात् / ततश्चाऽयमर्थोऽनुमानेन विना पराभिसंहितं सम्यग्-वेदितुमशक्तस्येति। एवं परबुद्धिज्ञानाऽन्यथाऽनुपपत्त्याऽयमनुमान हटादङ्गीकारितः / तथा प्रकारान्तरेणाऽप्ययमङ्गी-कारयितव्यः / तथाहि- चार्वाकः काश्चिद् ज्ञानव्यक्तीः संवादित्वेनाऽव्यभिचारिणीरुपलभ्याऽन्याश्च विसंवादित्वेन व्यभिचारिणीः, पुनः कालान्तरे तादृशीतराणां ज्ञानव्यक्तीनामवश्यं प्रमाणेतरते व्यवस्थापयेत् / न च संहितार्थबलेनोत्पद्यमानं पूर्वाऽपरपरामर्शशून्यं प्रत्यक्षं पूर्वापरकालभाविनीनां ज्ञानव्यक्तीनां प्रामाण्याप्रामाण्यव्यवस्थापक निमित्तमुपलक्षयितुं क्षमते / न चाऽयं स्वप्रतीतिगोचराणामपि ज्ञानव्यक्तीनां परं प्रति प्रामाण्यमप्रामाण्यं वा व्यवस्थापयितुं प्रभवति / तस्माद् यथादृष्ट ज्ञानव्यक्तिसाधर्म्य द्वारेणेदानींतनज्ञानव्यक्तीनां प्रामाण्याऽप्रामाण्यव्यवस्थापकं परप्रतिपादकं च प्रमाणान्तरमनुमानरूपमुपासीत, परलोकादिनिषेधश्च न प्रत्यक्षमात्रेण शक्यः कर्तुम्,संनिहितमात्रविषयत्वात् तस्य / परलोकादिकं चाऽप्रतिषिध्य नाऽयं सुखमास्ते, प्रमाणाऽन्तरं च नेच्छतीति डिम्भहेवाकः / किञ्चप्रत्यक्षस्याऽप्यर्थाऽव्यभिचारादेव प्रामाण्यम् / कथमितरथा स्नानपानावगाहनाद्यर्थक्रियासमर्थे मरुमरीचिकानिचयचुम्बिनि जलज्ञाने न प्रामाण्यम् ? तचाऽर्थप्रतिबद्धलिङ्ग-शब्दद्वारा समुन्मज्जतोरनुमानागमयोरप्याव्यभिचारादेव किं नेष्यते ? व्यभिचारिणोरप्यनयोर्दर्शनादप्रामाण्यमिति चेत्, प्रत्यक्षस्याऽपि तिमिरादिदोषात् निशीथिनीनाथयुगलाऽव-लम्बिनोऽप्रमाणस्य दर्शनात् सर्वत्राऽप्रामाण्यप्रसङ्गः / प्रत्यक्षा-ऽऽभासं तदिति चेत्, इतरत्राऽपि तुल्यम्, एतदन्यत्र पक्षपातात् / स्था०। ये तु तथागताः प्रामाण्यमूहस्य नोहाञ्चक्रिरे तेषामशेषशून्यत्वपातकाऽऽपत्तिः / आः ! किमिदमकाण्डकूष्माण्डाऽऽडम्बरोड्डामरमभिधीयते? / कथं हि तर्कप्रामाण्या-ऽनुपगममात्रेणेदृशमसमञ्जसमापनीपद्येत ? / शृणु, श्रावयामि किल, ताऽप्रामाण्ये तावत् नाऽनुमानस्य प्राणाः, प्रतिबन्धप्रति-पत्तिउपायाऽपायात्।तदभावेन प्रत्यक्षस्यापि। प्रत्यक्षेण हि पदार्थान् प्रतिपद्य प्रमाता प्रवर्तमानः क्वचन संवादादिदं प्रमा Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुमाण 402 - अभिषानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुमाण णमिति, अन्यत्र तु विसंवादादिदमप्रमाणमिति व्यवस्थाग्रन्थिमाबध्नीयात् / न खलुत्पत्तिमात्रेणैव प्रमाणाऽप्रमाण - विवेकः कर्तुं शक्यः, तद्दशायामुभयोः सौसदृश्यात् / संवादविसंवादापेक्षायां च तन्निश्चये निश्चित एवानुमानोपनिपातः, न चेदं प्रतिबन्धप्रतिपत्तौ तर्क स्वरूपोपायापाये अनुमानाऽध्यक्षप्रमाणाभावे च प्रामाणिकमानिनस्ते कौतुस्कुती प्रमेयव्यवस्थाऽपीत्यायाता त्वदीयहृदयस्येव सर्वस्य शून्यता। साऽपिवान प्राप्नोति, प्रमाणमन्तरेण तस्या अपि प्रतिपत्तुमशक्यत्वादिति / अहो ! महति प्रकटकष्टसंकटे प्रविष्टोऽयं तपस्वी किं नाम कुर्यात् ? / अथ "धूमाऽधीर्वह्निविज्ञानं, धूमज्ञानमधीस्तयोः / प्रत्यक्षाऽनुपलम्भाभ्यामिति पञ्चभिरन्वयः / / 1 / / " निर्णेष्यते, अनुपलम्भोऽपि, प्रत्यक्षविशेष एवेति प्रत्यक्षमेव व्याप्ति-तात्पर्यपर्यालोचनचातुर्यवयं किं तर्कोपक्रमेणेति चेत् ? न तु प्रत्यक्षं तावन्नियतधूमाऽग्निगोचरतया प्राक् प्रावृतत्, तद् यदि व्याप्तिरपितावन्मात्रैव स्यात्, तदाऽनुमानमपि तत्रैव प्रवर्ततेति कुतस्त्यं धूमात् महीधरकन्धराधिकरणाऽऽशुशुक्षणिलक्षणं, तबला बभूवान् विकल्पः। सार्वत्रिकी व्याप्ति पर्याभोति निर्णेतुमिति चेत्, कोनामैवं नामस्त? तर्कविकल्पस्योपलम्भा-ऽनुपलम्भसम्भवत्वेन स्वीकारात्। किन्तु व्याप्तिप्रतिपत्तावयमेव प्रमाणं कक्षीकरणीयः। अथ तथा प्रवर्तमानोऽयं प्राक् प्रवृत्तप्रत्यक्षव्यापारमेवाऽभिमुखयतीति तदेव तत्र प्रमाणमिति चेत् / तर्वानुमानमपि लिङ्ग ग्राहिप्रत्यक्षस्यैव व्यापारमामुखयतीति तदेव वैश्वानरवेदने प्रमाण, नानुमानमिति किं न स्यात् ? अथ कथमेवं वक्तुं शक्यम् ? लिङ्गप्रत्यक्षं हि लिङ्गगोचरमेव, अनुमानं तु साध्यगोचरमिति कथं तत्तद्व्यापारमामुखयेत् ? तर्हि प्रत्यक्ष पुरोवर्तिस्वलक्षणे क्षणक्षुण्णमेव / तर्क विकल्पस्तु साध्यसाधनसामान्यावमर्शमनीषीति कथं सोऽपि तद्व्यापारमुद्दीपयेत् ? अथ सामान्यममान्यमेव, असत्त्वादिति कथं तत्र प्रवर्तमानस्तर्कः प्रमाणं स्यादिति चेदनुमानमपि कथं स्यात् ? तस्याऽपि सामान्यगोचरत्वाऽव्यभिचारात् / “अन्यत्सामान्य-लक्षणं सोऽनुमानस्य विषयः" इति धर्मकीर्तिना कीर्तनात् / तत्त्वतोऽप्रमाणमेवैतद्, व्यवहारेणैवाऽस्य प्रमाण्यात्, सर्व एवाऽयमनुमानाऽनुमेयव्यवहारो बुद्ध्यारूढेन धर्मधर्मिन्यायेनेति वचनादिति चेत्, तर्कोऽपि तथाऽस्तु / अथ नाऽयं व्यवहारेणाऽपि प्रमाणम्, सर्वथा वस्तुसंस्पर्शपराङ्मुखत्वादिति चेत्, अनुमानमपि तथाऽस्तु / अवस्तुनिर्भासमपि परम्परया पदार्थ प्रतिबन्धात्प्रमाणमनुमानमिति चेत्, किंनतर्कोऽपि। अवस्तुत्वं च सामान्यस्याद्याऽपि केशरिकिशोर वक्रक्रोडदंष्ट्राऽकुराऽऽकर्षणायमानमस्ति / सदृशपरिणामरूपस्याऽस्य प्रत्यक्षादिपरिच्छेद्यत्वादिति तत्त्वत एवाऽनुमानम्, तर्कश्च प्रमाणं प्रत्यक्षवदिति पाषाणरेखा // 7 / / अत्रोदाहरन्ति यथा यावान् कश्चिद् धूमः, स सर्वो वह्नौ सत्येव भवतीति तस्मिन्नसत्यसौ न भवत्येव ||8|| अत्राऽऽद्यमुदाहरणमन्वयव्याप्तौ, द्वितीयं तु व्यतिरेकव्याप्ताविति / / 8 / रत्ना०३ परि०। सम्म०। (प्रामाण्यमनुमानतो न ग्रहीतुं शक्यम्, तस्य प्रमाणत्वाऽसंभवादिति 'प्रमाण' शब्दे वक्ष्यते परलोक सिद्धावप्यनुमानप्रामाण्यखण्डनम् , अनुमानप्रमाण्यव्यवस्थितिः, शावरमतानुमाननिरासश्च सम्मतिप्रकरणग्रन्थतोऽवसे यः) अथाऽनुमानस्य लक्षणार्थं तावत्प्रकारौ (स्वार्थपराऽर्थाऽनुमाने) प्रकाशयन्ति अनुमानं द्विप्रकारं, स्वार्थ परार्थं च / नन्वनुमानस्याध्यक्षस्येव सामान्यलक्षणमनाख्यायैव कथमादित एव प्रकारकीर्तनमिति चेत् / उच्यते- परमार्थतः स्वार्थस्यैवाऽनुमानस्य भावात्, स्वार्थमेव ह्यनुमानं कारणे कार्योप-चारात् परार्थं कथ्यते / यद् वक्ष्यन्ति तत्रभवन्तः - पक्षहेतु-वचनात्मकं परार्थमनुमानमुपचारात इति। न हि गोरुपचरित-गोत्वस्य च बाहीकस्यैकं लक्षणमस्ति, यत्पुनः स्वार्थेन तुल्य-कक्षतयाऽस्योपादानम्, तद्वादे शास्त्रे चाऽनेनैव व्यवहारात् लौके-ऽपि च प्रायेणाऽस्योपयोगात् तद्वत् प्राधान्यख्यापनार्थम्। तत्र अनु हेतुग्रहणसंबन्धस्मरणयोः पश्चात् मीयते परिच्छिद्यतेऽर्थोऽनेनेत्यनुमानम् / स्वस्मै प्रमातुरात्मने इदं, स्वस्य वाऽर्थोऽनेनेति स्वार्थम्, स्वावबोधनिबन्धनमित्यर्थः / एवं परार्थमपि। अत्र चार्वाकश्चर्चयति-नाऽनुमानं प्रमाणम्, गौणत्वात्। गौण ह्यनु-मानम्, उपचरितपक्षादिलक्षणत्वात् / तथाहि-"ज्ञातव्ये पक्ष-धर्मत्वे, पक्षो धर्म्यभिधीयते। व्याप्तिकाले भवेद्धर्मः, साध्य-सिद्धौ पुनर्द्वयम् // 1 // इति। अगौणं हि प्रमाण प्रसिद्धम्, प्रत्यक्षवदिति। तत्राऽयं वराकश्चावकिः स्वारूढां शाखां खण्डयन् नियतं भौतमनुकरोति / गौणत्वादिति हि साधनमभिदधानो धुवं स्वीकृतवानेवाऽयमनुमानं प्रमाणमिति कथमेतदेव दलयेत् ? नचपक्षधर्मत्वं हेतुलक्षणमाचक्ष्महे, येन तत्सिद्धये साध्यधर्मविशिष्टे धार्मिणि प्रसिद्धमपि पक्षत्वं धर्मिण्युपचरेम, अन्यथाऽनुपपत्त्येकलक्षणत्वाद् हेतोः। नाऽपिव्याप्तिं पक्षेणैव ब्रूमहे, येन तत्सिद्धये धर्मे तदारोपयेमहि, साध्यधर्मेणैव तदभिधानात् / नन्वानुमानिक प्रतीतौ धर्मविशिष्टो धर्मी, व्याप्तौ तु धर्मः साध्यमित्यभिधास्यत इत्येकत्र गौणमेव साध्यत्वमिति चेत् / मैवम्। उभयत्र मुख्यतल्लक्षणभावेन साध्यत्वस्य मुख्यत्वाद्। तत्कि-मिह द्वयं साघनीयम् ? सत्यम् / न हि व्याप्तिरपि परस्य प्रतीता ततस्तत्प्रतिपादनेन धर्मविशिष्ट धर्मिणमयं प्रत्यायनीय इत्यसिद्ध गौणत्वम् / अथ नोपादीयत एव तत्सिद्धौ कोऽपि हेतुः, तर्हि कथमप्रमाणिकाप्रामाणिकस्येष्टसिद्धिः स्यादिति नाऽनुमानप्रामाण्यप्रतिषेधः साधीयस्तां दधाति / "नाऽनुमानं प्रमेत्यत्र हेतुः स चेत्, क्वाऽनुमामानताबाधनं स्यात्, तदा नाऽनुमानं प्रमेत्यत्र-हेतुर्नचेत्, क्वाऽनु मामानताबाधनं स्यात् तया // 1 // " इति संग्रहश्लोकः / कथं वा प्रत्यक्षस्य प्रामाण्यनिर्णयः? यदि पुन-रर्थक्रियासंवादात् , तत्र तन्निर्णयस्तर्हि कथं नाऽनुमानप्रामाण्यम् ? प्रत्यपीपदाम च"प्रत्यक्षेऽपिपरोक्षलक्षणमतेर्येन प्रमारूपता / प्रत्यक्षेऽपि कथं भविष्यति मते, तस्य प्रमारूपता / / 1 / / " इति // 6 // तत्र स्वार्थ व्यवस्थापयन्ति तत्र हेतुग्रहणसंबन्धस्मरणकारकं साध्यविज्ञानं स्वार्थमिति॥१०॥ हिनोत्यन्तर्भावितणिजर्थत्वाद् गमयति परोक्षमर्थमिति हेतुः, अनन्तरमेव निर्देक्ष्यमाणलक्षणस्तस्य ग्रहणं च प्रमाणेन निर्णयः। संबन्धस्मरणंच यथैव संबन्धो व्याप्तिनामा प्राक् तर्केणाऽतर्कि, तथैव परामर्शस्ते कारणं यस्य, तत्तथा। साध्यस्याऽऽख्यास्यमानस्य विशिष्ट संशयादिशून्यत्वेन ज्ञानं स्वार्थमनुमानं मन्तव्यम्।।१०॥रत्ना०३ परि०॥ अधुना परार्थाऽनुमान प्ररूपयन्तिपक्षहेतुवचनात्मकं परार्थाऽनुमानमुपचारात्।।२३।। पक्षहे तुवचनाऽऽत्मक त्वं च परार्थाऽनुमानस्य व्युत्पन्नमति Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुमाण ४०३-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुमाण प्रतिपाद्यापेक्षयाऽत्रोक्तमतिव्युत्पन्नम् / अतिप्रतिपाद्याऽपेक्षया तु धूमोऽत्र दृश्यते इत्यादि हेतुवचनमात्रात्मकमपि तद् भवति। बाहुल्येन तत्प्रयोगाभावात् तु नैतत्साक्षात् सूत्रे सूत्रितम्, उप-लक्षितं तुद्रष्टव्यम्, मन्दमतिप्रतिपाद्यापेक्षया तु दृष्टान्तादि-वचनाऽऽत्मकमपि तद् भवति। यद् वक्ष्यन्ति-'मन्दमतींस्तु व्युत्पादयितुं दृष्टान्तोपनयनिगमनान्यपि प्रयोज्यानि'' इति / पक्ष-हेतुवचनस्य च जडरूपतया मुख्यतः प्रामाण्यायोगे सत्युप-चारादित्युक्तम्, कारणे कार्योपचारादित्यर्थः / प्रतिपाद्यगतं हि यत् ज्ञानं तस्य कारणं पक्षादिवचनम्, कार्ये कारणोपचाराद्वा / प्रतिपादकगतं हि यत्स्वार्थानुमानं तस्य कार्य तद्वचनमिति // 23 // संप्रति व्याप्तिपुरस्सरं पक्षधर्मतोपसंहारं तत्पूर्विकां वा व्याप्तिमाचक्षाणान् भिक्षून पक्षप्रयोगमङ्गीकारयितुमाहुः - साध्यस्यप्रतिनियतधर्मिसंबन्धिताप्रसिद्धये हेतोरुपसंहारवचनवत् पक्षप्रयोगोऽप्यवश्यमाश्रयितव्यः॥२४|| यथा यत्र धूमस्तत्र धूमध्वज इति हेतोः सामान्येनाऽऽधारप्रतिपत्तावपि, पर्वतादिविशिष्टधर्मिधर्मताऽधिगतये धूमश्चाऽत्रेत्येवंरूपभुपसंहारवचनमवश्यमाश्रीयते सौगतैः / तथा साध्य-धर्मस्य नियतधर्मिधर्मतासिद्धये पक्षप्रयोगोऽप्यवश्यमाश्रयितव्य इति // 24 // अमुमेवाऽर्थं सोपालम्भंसमर्थयन्तेत्रिविधं साधनमभिधायैव तत्समर्थनं विदधानः कः खलु न पक्षप्रयोगमङ्गीकुरुते ?||25|| त्रिविध कार्य स्वभावाऽनुपलम्भभेदात् / तस्य साधनस्य समर्थनमसिद्धतादिव्युदासेन स्वसाध्यसाधनसामोपदर्शनम् / न ह्यसमर्थितो हेतुः साध्यसिद्ध्यङ्गम्, अतिप्रसङ्गात् / ततः पक्षप्रयोगमनङ्गीकुर्वता तत्समर्थनरूपं हेतुमनभिधायैव तत्समर्थनं विधेयम्"हन्त ! हेतुरिह जल्प्यते, न चेदस्तु कुत्रस समर्थनाविधिः? तर्हि पक्ष इह जल्प्यते, न चेदस्तु कुत्र स समर्थनाविधिः ?||1|| प्राप्यते ननु विवादतः स्फुट, पक्ष एष किमतस्तदाख्यया / तर्हि हेतुरपि लभ्यते ततोऽनुक्त एव तदसौ समर्थ्यताम् / / 2 / / मन्दमतिप्रतिपत्तिनिमित्तं, सौगत ! हेतुमथाभिदधीथाः / मन्दमतिप्रतिपत्तिनिमित्तं, तर्हि न किं परिजल्पसि पक्षम् ? // 3 // " ||25|| रत्ना०३ परि०। तचाऽनुमानं त्रिविधम्- पूर्ववत्, शेषवत्,अदृष्टसाधर्म्यवचेति से किं तं पुव्ववं ? पुव्ववं- मायापुत्तं जहा नहुँ, जुवाणं पुणरागयं / काई पचाभिजाणेज्जा, पुवलिंगेण केणइ ||1|| तं जहा- खत्तेण वा वणेण वा लंछणेण वा मसेण वा तिलएण वा, से तं पुव्वव। विशिष्ट पूर्वोपलब्धं चिह्नमिह पूर्वमुच्यते, तदेव निमित्तरूपतया यस्यास्ति तत्पूर्ववत्, तद्द्वारेण गमकमनुमानं पूर्ववदिति भावः ! तथा चाह'मायापुत्त' इत्यादिश्लोकः / यथा माता स्वकीयं पुत्रं बाल्यावस्थायां नष्टं युवानं सन्तं कालान्तरेण पुनः कथमप्यागतं काचित्तथाविधस्मृतिपाटववती, न सर्वा, पूर्वदृष्टेन लिङ्गेन केनचित् क्षतादिना प्रत्यभिजानीयाद् मत्पुत्रोऽयमिति अनुमिनुयादित्यर्थः। के न पुनर्लिङ्गे नेत्याह(खत्तेण वेत्यादि) स्वदेहोद्भवमेव क्षतम्, आगन्तुकस्तु श्वदंष्ट्रादिकृतो व्रणः लाञ्छनमषतिलकास्तु प्रतीताः / तदयमत्र प्रयोगः / - मत्पुत्रोऽयम, अनन्यसाधारणक्षता-दिलक्षणविशिष्टलिङ्गोपलब्धेः, इति साधर्म्यवैधय॑दृष्टान्तयोः सत्त्वेतराभावादयमहेतुरिति चेत्। नैवम्। हेतोः परमार्थेनैकलक्षण-त्वात् तबलेनैव गमकत्वोपलब्धः। उक्तं च न्यायवादिनापुरुष-चन्द्रेण-अन्यथाऽनुपपन्नत्वमात्र हेतोः स्वलक्षणम्, सत्त्वाऽसत्त्वे हि तद्धर्मी / दृष्टान्तद्वयलक्षणे / न च धर्मिसत्तायां धर्माः सर्वेऽपि सर्वदा भवन्त्येव, पटादेः शुक्लत्वादिधर्मर्व्यभिचारात् / ततो दृष्टान्तयोः सत्त्वाऽसत्त्वधर्मो यद्यपि क्वचिद् हेतौ न दृश्यते, तथापि धर्मिस्वरूपमन्यथाऽनुपपन्नं भविष्यतीति, न कश्चिद् विरोध इति भावः / यत्राऽपि धूमादौ दृष्टान्तयोः सत्त्वाऽसत्त्वं हेतोदृश्यते, तत्राऽपि साध्यान्यथाऽनुपपन्नत्वस्यैव प्राधान्यात्, तस्यैवैकस्य हेतुलक्षणताऽवसेया। तथा चाह- धूमादेर्यद्यपि स्यातां, सत्त्वाऽसत्त्वे च लक्षणे / अन्यथाऽनुपपन्नत्वप्राधान्याल्लक्षणैकता / / 1 / / किंच- यदि दृष्टान्ते सत्त्वाऽसत्त्वदर्शनाद्धेतुर्गमक इष्यते, तदा लोहलेख्यं वज्र, पार्थिवत्वात् काष्ठादिवदित्यादेरपि गमकत्वं स्यात्। अभ्यधायि च"दृष्टान्ते सदसत्त्वाभ्यां, हेतुः सम्यग् यदीष्यते।लोहलेख्यं भवेद्वजं, पार्थिवत्वाद् द्रुमादिवत्" // 1 // इति। यदि पक्षधर्मत्वसपक्षसत्त्वविपक्षाऽसत्त्वलक्षणं हेतोस्रूप्यमभ्युपगम्यापि यथोक्तदोषभयात् साध्येन सहाऽन्यथाऽनुपपन्नत्वमन्वेषणीयं, तर्हि तदेवैकं लक्षणतया वक्तुमुचितम्, किं रूपत्रयेणेति। आह च-अन्यथाऽनुपपन्नत्वं, यत्र तत्र त्रयेण किम् ? नाऽन्यथाऽनुपपन्नत्वं, यत्र तत्र त्रयेण किम् ? // 1 // इत्यादि अत्र बहु वक्तव्यं, तत्तु नोच्यते, ग्रन्थगहनताप्रसङ्गात्, अन्यत्र यत्नेनोक्तत्वाचेति / आह- प्रत्यक्षविषयत्वादेवाऽत्राऽनुमान प्रवृत्तिरयुक्ता / नैवम्। पुरुषपिण्डमात्रप्रत्यक्षतायामपि मत्पुत्त्रोनवेति ? संदेहाद्युक्त एवाऽनुमानो पन्यास इति कृतं प्रसङ्गेन। से किं तं सेसवं? सेसवं पंचविहं पण्णत्तं / तं जहा- कजेणं कारणेणं गुणेणं अवयवेणं आसएणं / / 'से किं तं सेसवमित्यादि' पुरुषार्थोपयोगितः परिजिज्ञासितात् तुरगादेरादन्यो हेषितादिरर्थः शेष इहोच्यते / स गमकत्वेन यस्याऽस्ति तच्छेषवदनुमानम्। तच पञ्चविधम्, तद्यथा से किं तं कजेणं ? कजेणं- संखे सद्देणं, भेरिं ताडिएणं, क्सभंदक्किएणं, मोरं किंकाइएणं, हयं हेसिएणं, गयं गुग्गुलाएणं, रहं घणघणाइएणं / से तं कजेणं। (कर्लोणत्यादि) तत्र कार्येणाऽनुमानम् / यथा हयमश्वं हेषितेन, अनुमिनुते इत्यध्याहारः। हेषितस्य तत्कार्यत्वात्, तदाऽऽकर्ण्य हयोऽत्रेति या प्रतीतिरुत्पद्यतेतदिह कार्येण कार्यद्वारेणोत्पन्नं शेषवदनुमानमुच्यते इति भावः / क्वचित्तु प्रथमतः शङ्कशब्देन इत्यादि दृश्यते, तत्रोक्ताऽनुसारतः सर्वोदाहरणेषु भावना कार्या। से किं तं कारणेणं? कारणेणं तंतवो पडस्स कारणं,ण पडो तंतुकारणं, वीरणा कडस्स कारणं, ण कडो वीरणाकारणं, मिप्पिंडो घडस्स कारणं, ण घडो मिप्पिडकारणं, सेत्तं कारणेणं। (से किं तं कारणेणमित्यादि) इह कारणेन कार्यमनुमीयते / यथा विशिष्ट मेघोन्नतिदर्शनात् कश्चित् वृष्टयनुमानं करोति / यदाह-रोलम्बगवलव्यालतमालमलिनत्विषः / वृष्टिंव्यभिचरन्तीह Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणमाण ४०४-अभिधानराजेन्द्रः-भाग 1 अणुमाण नैवं प्रायाः पयोमुचः" ||1|| इति। एवं चन्द्रोदयाजल-धेर्वृद्धिरनुमीयते, कुमुद विकासश्च / मित्रोदयाजलरुह प्रबोधः घूकमदमोक्षश्च / तथाविधवर्षणात् सस्यनिष्पत्तिः, कृषीवल-मनःप्रमोदश्चेत्यादि / तदेवं कारणमेवेहाऽनुमापकं साध्यस्य, नाऽकारणम्।तत्र कार्यकारणभाव एव केषांचिद् विप्रतिपत्तिं पश्यस्तमेव तावन्नियतंदर्शयन्नाह-तन्तवः पटस्य कारणम्, न तु पटस्तन्तुनां कारणम् / पूर्वमनुपलब्धस्य तस्यैव तद्भावे उप-लम्भात् / इतरेषां तु पटाभावेऽप्युपलम्भात् / अत्राह- ननु यदा कश्चिन्निपुणः पटभावेन संयुक्तानपि तन्तून् क्रमेण वियोजयति, तदा पटोऽपि तन्तूनां कारणं भवत्येव / नैवम् / सत्त्वेनोपयोगा-ऽभावात् / यदेव हि लब्धसत्ताकं सत् स्वस्थितिभावेन कार्यमुप-कुरुते तदेव तस्य कारणत्वेनोपदिश्यते / यथा मृत्पिण्डो घटस्य / ये तु तन्तुवियोगतोऽभावीभवता पटेन तन्तवः समुत्पद्यन्ते, तेषां कथं पटः कारणं निर्दिश्यते, न हि ज्वराऽभावेन भवत आरोगिता सुखस्य ज्वरः कारणमिति शक्यते वक्तुम् / यद्येवं पटेऽप्युत्पद्यमाने तन्तवोऽभावीभवन्तीति तेऽपि तत् कारणं न स्युरिति चेत् / नैवम् / तन्तुपरिणामरूप एव हि पटः, यदिच तन्तवः सर्वथाऽभावीभवेयुः,तथा मृद्भावे घटस्येवपटस्य सर्वथैवोपलब्धिर्न स्यात्, तस्मात् पटकालेऽपि तन्तवः सन्तीति सत्त्वेनोपयोगात् ते पटस्य कारण-मुच्यन्ते / पटवियोजनकाले त्वे कैकतन्त्ववस्थायां पटो नोपलभ्यते / अतस्तत्र सत्त्वेनोपयोगाभावात् नाऽसौ तेषां कारणम् / एवं वीरणकटादिष्वपि भावना कार्या। तदेवं यद्यस्य कार्यस्य कारणत्वेन निश्चितं तत्तस्य यथासम्भवं गमकत्वेन वक्तव्यमिति। से किं तं गुणेणं ? गुणेणं- सुवण्णं निकसेणं, पुप्फ गंधेणं, लवणं रसेणं, मइरं आसायएणं, वत्थं फासेणं, से तं गुणेणं / (से किं तं गुणेणमित्यादि) निकषः कषपट्टगता कषितसुवरिखा, तेन सुवर्ण मनुमीयते / यथा पञ्चदशादिवर्णकोपेतमिदं सुवर्ण, तथाविधनिकषोपलम्भात्, पूर्वोपलब्धोभयसंमतसुवर्णवत् / एवं शतपत्रिकादिपुष्पमत्र, तथाविधगन्धोपलम्भात्, पूर्वोपलब्ध-वस्तुवत् / एवंलक्षणं मदिरावस्त्रादयोऽनेकभेदसंभवतोऽनियतस्वरूपा अपि प्रतिनियततथाविधरसवादस्पर्शादिगुणोपलब्धेः, इति नियतस्वरूपाः साधयितव्याः से किं तं अवयवेणं ? अवयवेणंमहिसं सिंगेणं, कुकुडं सिहाएणं,हत्थि विसाणेणं, वाराहं दाढाए, मोरं पिच्छेणं, आसं खुरेणं, वग्घंनहेणं, चवरिं बालग्गेणं, दुपयं मणुस्सादि, चउप्पयं गवमादि, बहुपयं गोमिआमादि, सीह केसरेणं, वसहं कुक्कुहेणं, महिला वलयबाहाए / परिअरबंधेण भडं, जाणिज्जा महिलिअं निवसणेणं / सित्थेण दोण पागं, कविं च एक्काए गाहाए ||1|| से तं अवयदेणं। (से किं तं अवयवेणमित्यादि) अवयवदर्शनेनाऽवयवी अनुमीयते / यथा महिषोऽत्र, तदविनाभूतशृङ्गोपलब्धेः, पूर्वोपलब्धो भयसंमतप्रदेशवत् / अयं च प्रयोगो वृत्तिवरण्डकाऽऽद्यन्तरितत्वादप्रत्यक्ष एवावयविनि द्रष्टव्यः, तत्प्रत्यक्ष-तायामध्यक्षत एव तत्सिद्धेः, अनुमानवैयर्थ्यप्रसङ्गादिति ! एवं शेषोदाहरणान्यपि भावनीयानि, नवरं द्विपदं मनुष्यादीत्यादि / मनुष्योऽयम् / तदविनाभूतपदद्वयोपलम्भात्, पूर्वदृष्टमनुष्यवत्। एवं चतुष्पदबहुपदेष्वपि गोम्ही, कर्णशृगाली। 'परियरबंधेण भडं" इत्यादिगाथा पूर्व व्याख्यातैव / तदनुसारेण भावार्थोऽप्यूह्य इति। से किं तं आसएणं ? आसएणं- अग्गिं धूमेणं, सलिलं बलागेणं, वुद्धिं अब्मविकारेणं, कुलपुत्तं सीलमायारेणं / से तं आसएणं। से तं सेसवं। (से किं तं आसएणमित्यादि) आश्रयतीत्याश्रयो धूम-बलाकादिस्तत्र धूमादग्न्यनुमानं प्रतीतमेव / आकारेगिता-दिभिश्चाप्यनुमानं भवति / तथा चोक्तम्- आकारैरिङ्गितैर्गत्या, चेष्टया भाषणेन च / नेत्रवक्त्रविकारैश्च, लक्ष्यतेऽन्तर्गतं मनः / / 1 / / अत्राह- ननु धूमस्याग्निकार्यत्वात्पूर्वोक्तकार्यानुमान एव गतत्वात् किमिहोपन्यासः ? सत्यम्। किन्त्वग्न्याश्रयत्वेनापिलोके तस्य रूढत्वादत्राप्युपन्यासः कृत इत्यदोषः। तदेतद्दृष्टवदनुमानम्। से किं तं दिवसाहम्मवं? दिवसाहम्मवं दुविहं पण्णत्तं / तं जहा-सामन्नदिटुं च विसेसदिहुंच। (से किंतं दिवसाहम्मवमित्यादि) द्रष्टेन पूर्वोपलब्धनार्थेन सह साधर्म्य दृष्टसाधर्म्यम्, तद्गमकत्वेन विद्यते यत्रतदृष्टसाधर्म्य-वत् ।पूर्वदृष्टश्चाऽर्थः कश्चित्सामान्यतः, कश्चित्तु विशेषतो दृष्टः स्यादतस्तद्भेदादिदं द्विविधम्सामान्यतो दृष्टार्थयोगात् सामान्यदृष्टम्, विशेषतो दृष्टार्थयोगाद् विशेषदृष्टम्। से किं तं सामण्णदिटुं? सामन्नदिटुं-जहा एगो पुरिसो तहा बहवे पुरिसा, जहा बहवे पुरिसा तहा एगो पुरिसो, जहा एगो करिसावणो तहा बहवे करिसावणा, जहा बहवे करिसावणा तहा एगो करिसावणो, से तं सामण्णदिह्र / / / (से कितंसामन्नदिट्टमित्यादि) तत्र सामान्यदृष्टं यथा- एकः पुरुषस्तथा बहवः पुरुषा इत्यादि। इदमुक्तं भवति- नालिकेर-द्वीपादायातः कश्चित् तत्प्रथमतया सामान्यत एकं कञ्चन पुरुषं दृष्ट्वाऽनुमानं करोति। यथाअयमेकः परिदृश्यमानः पुरुष एतदाकारविशिष्ट स्तथा बहवोऽत्राऽपरिदृश्यमाना अपि पुरुषा एतदाकारसम्पन्ना एव, पुरुषत्वाऽविशेषात्, अन्याकारत्वेपुरुषत्वहानिप्रसङ्गाद्, गवादिवत्। बहुषु तुपुरुषेषु तत्प्रथमतो वीक्षितेष्वेवमनुमिनोति- यथाऽमी परिदृश्यमानाः पुरुषा एत-दाकारवन्तस्तथाऽपरोऽप्येकः कश्चित्पुरुषः एतदाकारवानेव, पुरुषत्वाद, अपराकारत्वे तद्धानिप्रसङ्गाद् , अश्वादिवत् / इत्येवं कार्षापणादिष्वपि वाच्यम् / विशेषतो दृष्टमाह से किं तं विसेसदिटुं? विसेसदिट्ठ- से जहाणाम केइ पुरुसे, बहूणं पुरिसाणं मज्झे पुवदिटुं पचमि-जाणेज्जा- अयं से पुरिसे / बहूणं करिसावणाणं मज्झे पुटवदिटुं करिसावणं पञ्चभिजाणिजा-अयं से करिसावणे। (से जहा नाम० इत्यादि) अत्र पुरुषाः सामान्येन प्रतीता एव केवलं यदा कश्चित् क्वचित् कञ्चित् पुरुषविशेषं दृष्ट्वा तद् - दर्शनाऽऽहितसंस्कारोऽसञ्जाततत्प्रमेयः समयान्तरे बहुपुरुषसमाजमध्ये तमेव पुरुषविशेषमासीनमुपलभ्यानुमानयति- यः पूर्वं मयोपलब्धः, स एवाऽयं पुरुषः, तथैव प्रत्यभिज्ञायमानत्वात्, Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुमाण 405 - अभिवानराजेन्द्रः-भाग 1 अणुमाण उभयाऽभिमतपुरुषवत् / इत्येतत् तदा विशेषदृष्टमनुमानमुच्यते, पुरुषविशेषविषयत्वात्। एवं कार्षापणादिष्वपि वाच्यम्।तदेव-मनुमानस्य त्रैविध्यमुपदी साम्प्रतं तस्यैवकालत्रय विषयतां दर्शयन्नाहतस्स समासओ तिविहं गहणं भवइ / तं जहा अतीयकालग्गहणं, पडुप्पण्णकालग्गहणं,अणागय कालग्गहणं / (तस्सेति) सामान्येनाऽनुवर्तमानमनुमानमात्रं संबध्यते, तस्याऽनुमानस्य त्रिविधंग्रहणं भवति। तद्यथा- अतीतकाल-विषयग्रहणं ग्राह्यस्य वस्तुनः परिच्छेदोऽतीतकालग्रहणम् / प्रत्युत्पन्नो वर्तमानः कालस्तद्विषयं ग्रहणं प्रत्युत्पन्नकालग्रहणम् / अनागतो भविष्यत्कालस्तद्विषयग्रहणमनागतकालग्रहणम् / कालत्रयवर्तिनोऽपि विषयस्यानुमानात्परिच्छेदो भवतीत्यर्थः। से किं तं अतीयकालम्गहणं? अतीयकालम्गहणं उत्तणाणि वणाणि निप्पण्णं सव्वं वा मेइणिं पुण्णाणि अ कुंडसरणइदीहिआतडागाइं पासित्ता, तेणं साहिज्जइ, जहा-सुवुट्ठी आसी, से तं अतीयकालम्गहणं। तत्र (उत्तिणाई ति) उद्गतानि तृणानि येषु वनेषु तानि तथा। अयमत्र प्रयोगः - सुवृष्टि रिहाऽऽसीद्, तृणवननिष्पन्नसस्यपृथ्वीतलजलपरिपूर्णकुण्डादिजलाशयप्रभृतितत्कार्यदर्शनाद, अभिमत-देशवत्, इत्यतीतस्य वृष्टिलक्षणविषयस्य परिच्छेदः।। से किं तं पडुप्पन्नकालम्गहणं ? पडुप्पन्नकालग्गहणं साहुं गोअरग्गगयं विच्छडियपउरमत्तपाणं पासित्ता, तेणं साहिबइ, जहा-सुभिक्खे वट्टइ। से तं पड़प्पन्नकालग्गहणं। साधुं च गोचराग्रगतं भिक्षाप्रविष्ट विशेषेण छर्दितानि गृहस्थैर्दत्तानि प्रचुरभक्तपानानि यस्य स तथा तं तादृशं दृष्ट्वा कश्चित् साधयति / सुभिक्षमिह वर्तते, साधूनां तद्धेतुकप्रचुरभक्तपानलाभदर्शनात्, पूर्वदृष्टप्रदेशवदिति। से किं तं अणागयकालग्गहणं ? अणागयकालग्गहणम्अन्भस्स निम्मलत्तं, कसिणा य गिरी सविजुआ मेहा। थणिवाउभामो, संझारत्ता पणिहाय।।१|| वारुणं वा महिंदं वा अण्णयरं वा पसत्थं उप्पायं पासित्ता तेणं साहिज्जइ, जहा सुवुट्ठी भविस्सइ / से तं अणागयकालग्गहणं // (अब्भस्स निम्मलत्तं ति) गाथा सुगमा, नवरं स्तनितं मेघगर्जितं (वाउन्भामोत्ति)तथाविधो दृष्ट्यव्यभिचारी प्रदक्षिणं दिक्षु भ्रमन् प्रशस्तो वातः(वारुणंति)आर्द्रामूलादिनक्षत्रप्रभवं माहेन्द्ररोहिणीज्येष्ठादिनक्षत्रसम्भवम् / अन्यतरमुत्पातमुल्कापातदिग्दाहादिकं प्रशस्तं वृष्ट्यव्यभिचारिणं दृष्ट्वाऽनुमीयते / यथा- सुवृष्टिरत्र भविष्यति, तदव्यभिचारिणामभ्रनिर्मलत्वा-ऽऽदीनां समुदितानामन्यतरस्य वा दर्शनाद्, यथाऽन्यवदिति / विशिष्ट ह्यत्र निर्मलत्वादयो वृष्टिं न व्यभिचरन्त्यतः प्रतिपत्त्रैवं तत्र निपुणेन भाव्यमिति। एएसिं चेव विवज्जासे तिविहं गहणं भवइ / तं जहा-अतीयकालग्गहणं, पडुप्पण्णकालग्गहणं, अणागय- | कालग्गहणं / से किं तं अतीयकालम्गहणं? अतीयकालग्गहणं नित्तिणाई अनिप्पण्णं वा सव्वं वा मेइणी सुक्काणि अ कुंडसरनइदीहिआतडागाइं पासित्ता तेणं साहिज्जइ, जहा- कुवुट्टी आसी / से तं अतीयकालग्गहणं / से किं तं पड़प्पण्णकालग्गहणं? पडुप्पण्ण-कालग्गहणं साहुंगोयरग्गगयं मिक्खं अलभमाणं पासित्ता तेणं साइज्जइ, जहा- दुभिक्खे वट्टइ। से तं पडुप्पण्णकालग्गहणं / से किं तं अणागयकालग्गहणं ? अणागयकालग्गहणम् - धूमायंति दिसाओ, संविअमेइणी अपडिबद्धा / वाया नेरइआ खलु, कुवुट्टिमेवं निवेयंति // 1 // अग्गेयं वा वायव्वं वा अण्णयरं वा अप्पसत्थं उप्पायं पासित्ता तेणं साहिज्जइ, जहा कु वुट्ठी भविस्सइ / से तं अणागयकालग्गहणं, से तं विससेदिटुं, से तं तिट्ठसाहम्मवं, सेतमणुमाणे। (एएसिं चेव विवज्जासे० इत्यादि) एतेषामेवोत्तृणवनादीनामतीतवृष्ट्यादिसाधकत्वेनोपन्यस्तानां हेतूनां व्यत्यासे व्यत्यये साध्यस्याऽपि व्यत्ययः साधयितव्यः / यथा- कुवृष्टिरिहाऽऽसीत्, निस्तृणवनादिदर्शनादित्यादिव्यत्ययः सूत्रसिद्धः / नवरम् - अनागतकालग्रहणे माहेन्द्रवारुण परिहारेणाऽऽग्नेयवायव्योत्पाता उपन्यस्ता तेषां वृष्टिविघातकत्वात्, इतरेषां सुवृष्टिहेतुत्वादिति। "सेतं विसेसदिटुं, से तं दिट्ठसाहम्मवं" इत्येतन्निगमनद्वयं दृष्टसाधर्म्यलक्षणानुमानगतभेदत्रयस्य समर्थनानन्तरं युज्यते / यदि तु सर्ववाचनास्वत्रैव स्थाने दृश्यते, तदा दृष्टसाधर्म्यवतोऽपि सभेदस्याऽनुमानमविशेषत्वात् कालत्रयविषयता योजनीयैव / अतस्तामप्यभिधाय ततो निगमनद्वयमिदमकारीति प्रतिपत्तव्यम् / तदेतदनुमानमिति / अनु०। तच क्वचित्पञ्चाऽवयवेन वाक्येन, क्वचिद्दशाऽवयवेन वाक्येन परं प्रति दर्श्यते- तत्र पञ्चाऽवयवाः - प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनानि। अत्र च-"धम्मो मंगलमुक्किटुं, अहिंसा संजमो तवो। देवा वि तं णमंसति, जस्स धम्मे सया मणो" ||1 // इति लक्ष्यमधिकृत्य निदर्श्यतेकत्थइपंचावयवं,दसहा वा सव्वहान पडिसिद्ध / न य पुण सव्वं भन्नइ, हंदी सवियारमक्खायं // 51 / / श्रोतारमेवाऽङ्गीकृत्य क्वचित् पञ्चाऽवयवं, दशधा वेतिक्वचिद् दशाऽवयवम् / सर्वथा गुरुश्रोत्रपेक्षया, न प्रतिषिद्धमुदाहरणाद्यभिधानमिति वाक्यशेषः / यद्यपि च न प्रतिषिद्धं तथाऽप्यविशेषेणैव च, न पुनः सर्वं भण्यते उदाहरणादि। किमित्यत आह-(हंदी सवियारमक्खायं ति) हंदीत्युपप्रदर्शने। किमुपदर्शयति? यस्मादिहाऽन्यत्र शास्त्राऽन्तरे सविचारं सप्रतिपक्षमाख्यातम्, साकल्यत उदाहरणाद्यभिधानमिति गम्यते / पञ्चाऽवयवाश्च प्रतिज्ञादयः / यथोक्तम्-"प्रतिज्ञाहेतूदाहरणजेपनयनि-गमनान्यवयवाः"। दश पुनः प्रतिज्ञाविभक्तत्यादयः / वक्ष्यति च-"ते उ पइण्णविभत्ती हेतुविभत्ती" इत्यादि प्रयोगांश्चैतेषां लाघवार्थमिहैव स्वस्थाने दर्शयिष्याम इति गाथार्थः / दश०१ अ० दशाऽवयवाः पुनरित्थम्प्रतिज्ञा 1, विभक्तिः२, हेतुः३, विभक्तिः४, विपक्षः५, प्रतिषेधः६, दृष्टान्तः७, आशङ्का 8, तत्प्रतिषेधः६, निगमनम् 10 / इह च दशाऽवयवाः प्रतिज्ञादिशुद्धिसहिता भवन्ति / अवयवत्वं च Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुमाण 406 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुमाण तच्छुद्धीनामधिकृतवाक्यार्थी पकारकत्वेन प्रतिज्ञादीनामिव भावनीयमित्यत्र बहु वक्तव्यं, तत्तु नोच्यते, गमनिकामात्रत्वात्प्रारम्भस्येति / दश० 1 अ०। (प्रतिज्ञादीनां स्वरूपं सोदाहरणं स्वस्वस्थाने दृश्यम्) / इदानीं भूयोऽपि भग्यन्तरभाजा दशावयवेनैव वाक्येन सर्वमध्ययनं व्याचष्टे नियुक्तिकारः ते उपइन्नविभत्ती, हेउविभत्ती विवक्ख पडिसेहो। दिढतो आसंका, तप्पडिसेहो निगमणं च // 42|| (त इति) अवयवाः / तु पुनःशब्दार्थः। तु पुनरमी प्रतिज्ञादयः। तत्र प्रतिज्ञानं प्रतिज्ञा, वक्ष्यमाणस्वरूपेत्येकोऽवयवः 1, तथा विभजन विभक्तिः, तस्या एव विषयविभागकथनमिति द्वितीयः२, तथा हिनोति गमयति जिज्ञासितधर्मविशिष्टानानिति हेतुस्तृतीयः 3, तथा विभजनं विभक्तिरिति पूर्ववचतुर्थकः 4, तथा विसदृशः पक्षो विपक्षः, साध्यादिविपर्यय इति पञ्चमः 5, तथा प्रतिषेधनं प्रतिषेधः, विपक्षस्येति गम्यत इत्ययं षष्ठः 6, तथा दृष्टमर्थमन्तं नयतीति दृष्टान्त इति सप्तमः 7, तथा आशङ्कनमाशङ्का, प्रक्रमाद् दृष्टान्तस्यैव इत्यष्टमः 8, तथा तत्प्रतिषेधः अधिकृता-ऽऽशङ्काप्रतिषेध इति नवमः 6, तथा निश्चित गमनं निगमनम्, निश्चितोऽवसाय इतिदशमः १०॥चशब्द उक्तसमुच्चयार्थ इति गाथासमासार्थः / व्यासार्थे तु प्रत्यवयवाऽर्थं वक्ष्यति ग्रन्थकार एव ।।१४२|तथा चाऽऽहधम्मो मंगलमुक्किट्ठ-ति पइन्ना अत्तवयणनिद्देसो। सो य इहेव जिणमए, नऽन्नत्थ पइन्न पविभत्ती।।१४३|| धर्मा मङ्गलमु त्कृष्ट मिति पूर्ववदियं प्रतिज्ञा / आह- केयं प्रतिज्ञेत्युच्यते ?, आप्तवचननिर्देश इति / तत्राऽऽप्त अप्रतारकः / अप्रतारकश्चाऽशेषरागादिक्षयाद् भवतीति। उक्तंच-"आगमो ह्याप्तवचन माप्तं दोषक्षयाद् विदुः / वीतरागोऽनृतं वाक्यं, न बूयाद् हेत्वसंभवात्" ||1|| तस्य वचनमाप्तवचनम् तस्य निर्देश आप्तवचननिर्देशः / आह- 'अयमागम०' इति / उच्यते- विप्रतिपन्नसंप्रतिपत्तिनिबन्धनत्वेनैष एव प्रतिज्ञेति नैष दोषः / पाठान्तरं वासाध्यवचननिर्देशः, इति। साध्यत इति साध्यम, उच्यते इति वचनमर्थः यस्मात् स एवोच्यते- साध्यं च तद्वचनं च साध्यवचनम्, साध्यार्थ इत्यर्थः / तस्य निर्देशः प्रतिज्ञेत्युक्तः प्रथमोऽवयवः / अधुना द्वितीय उच्यते- स चाऽधिकृतो धर्मः, किमिहैव जिनशासने अस्मिन्नेव मौनीन्द्रे प्रवचने, नाऽन्यत्र कपिलादिमतेषु?। तथाहि- प्रत्यक्षत एवोपलभ्यन्ते वस्त्राद्यपूतप्रभूतोदकाद्युपभोगेषुपरिव्राट्-प्रभृतयः प्राण्युपमर्दै कुर्वाणाः, ततश्च कुतस्तेषु धर्म ?, इत्याद्यत्र बहु वक्तव्यम्, तत्तु नोच्यते, ग्रन्थविस्तरभयाद् भावितत्वाचेति / प्रतिज्ञा प्रविभक्तिरियम् - प्रतिज्ञाविषयविभागकथनेति गाथार्थः / उक्तो द्वितीयोऽवयवः / / 143 / / अधुना तृतीय उच्यते। तत्रसुरपूइओ त्ति हेऊ, धम्मट्ठाणे ठिया उजं परमे। हेउविभत्ती निरुवहि-जिवाण अवहेणय जियंति // 14 // सुरा देवास्तैः पूजितः सुरपूजितः। सुरग्रहणमिन्द्राद्युपलक्षणम् / इति शब्द उपदर्शने / कोऽयम् ? हेतुः / पूर्ववद् हेत्वर्थसूचकं चेदं वाक्यम्। हेतुस्तु सुरेन्द्रादिपूजितत्वादिति द्रष्टव्यः / अस्यैव सिद्धतां दर्शयतिधर्मः पूर्ववद् / तिष्ठत्यस्मिन्निति स्थानं, धर्मश्चा-ऽसौ स्थानं च धर्मस्थानम्, स्थानमालयः, तस्मिन् स्थिताः। तुरयमेवकारार्थः, स चाऽवधारणे, अयं चोपरिष्टात् क्रियया सह योक्ष्यते / यद् यस्मात्, किंभूते धर्मस्थाने ? परमे प्रधाने, किम्? सुरादिभिः पूज्यन्त एवेति वाक्यशेषः / इति तृतीयोऽवयवः / अधुना चतुर्थ उच्यते - हेतुविभक्तिरियं हेतुविषयविभागकथनम्। अथक एते धर्मस्थाने स्थिता इत्यत्राह-निरुपधयः / उपधिश्छद्म माया इत्यनर्थाऽन्तरम् / अयं च क्रोधाऽऽधुपलक्षणम् / ततश्च निर्गता उपध्यादयः सर्व एव कषाया येभ्यस्ते निरुपधयो निष्कषायाः, जीवानां पृथिवीकायिकादीनामवधेनाऽपीडया, चशब्दात् तपश्चरणादिना च हेतुभूतेन जीवन्ति प्राणान् धारयन्ति, ये त एव धर्मस्थाने स्थिता नाऽन्य इति गाथार्थः / / 144 // उक्तश्चतुर्थोऽवयवः / अधुना पञ्चममभिधित्सुराहजिणवयणपदुढे वि हु, ससुराईए अधम्मरुइणो वि। मंगलबुद्धीइ जणो, पणमइ आइदुयविवक्खो // 145|| इह विपक्षः पञ्चम इत्युक्तम् / स चाऽयम्- प्रतिज्ञा-विभक्त्योरिति / जिनास्तीर्थकरास्तेषां वचनमागमलक्षणं तस्मिन् प्रद्विष्टा अप्रीता इति समासः, तान् / अपिशब्दा-दप्रद्विष्टानपि / हु इत्ययं निपातोऽवधारणार्थः / अस्थान-प्रयुक्तश्च स्थानं च दर्शयिष्यामः। श्वशुरादीन् / श्वशुरो लोकप्रसिद्धः, आदिशब्दात् पिपत्रादिपरिग्रहः / न विद्यते धर्मरुचिर्येषां ते अधर्मरुचयस्तान् / अपि शब्दाद् धर्मरुचीनपि। किम् ? मङ्गलबुद्ध्या मङ्गलप्रधानया धिया। मङ्गलबुद्ध्यैव नाऽमंगलबुद्धयेत्येवकारोऽवधारणार्थः। किम् ? जनो लोकः / प्रकर्षण नमति प्रणमति। आद्यद्वयविपक्ष इति / अत्राऽऽद्यद्वयं प्रतिज्ञा तच्छुद्धिश्च / तस्य विपक्षः साध्यादेविपर्ययः / इत्याद्यद्वयविपक्षः / तत्राऽधर्मरुचीनपि मङ्गलबुद्धया जनः प्रणमतीत्यनेन प्रतिज्ञाविपक्षमाह- तेषा मधर्माव्यतिरेकाद्, जिनवचनप्रद्विष्टानपीत्यनेन तु तच्छुद्धेः, तत्राऽपि हेतुप्रयोगप्रवृत्त्या धर्मसिद्धेरिति गाथार्थः / / 145 // बिइयदुयस्स विवक्खो, सुरेहि पुजंति जण्णजाई वि। बुद्धाई वि सुरनया, वुचंते णायपडिवक्खो // 146|| द्वयोः पूरणं द्वितीयम्, द्वितीयं च तद् द्ववयं च द्वितीयद्वयम्हेतुस्तच्छुद्धिः, इदं च प्रागुक्तद्वयापेक्षया द्वितीयमुच्यते / तस्याऽयं विपक्षः / इह सुरैः पूज्यन्ते यज्ञयाजिनोऽपि / इयमत्र भावनायज्ञयाजिनो हि मङ्गलरूपा न भवन्ति, अथ च सुरैः पूज्यन्ते, ततश्च सुरपूजितत्वमकारणमित्येष हेतुविपक्षः / तथा- अजितेन्द्रियाः सोपधयश्च यतस्ते वर्तन्ते, अतोऽनेनैव ग्रन्थेन धर्मस्थाने स्थिताः परम इत्यादिकाया हेतुविभक्तेरपि विपक्ष उक्तो वेदितव्य इति / उदाहरणे विपक्ष-मधिकृत्याह- बुद्धादयो-ऽप्यादिशब्दात् कापिलादिपरिग्रहः / ते किम् ? सुरनता देवपूजिता उच्यन्ते भण्यन्ते, तच्छासनप्रतिपन्नैरिति ज्ञातप्रतिपक्ष इति गाथार्थः / / आह- ननु दृष्टान्तमुपरिष्टावक्ष्यत्येवं ततश्च तत्स्वरूपे उक्ते च तत्रैव विपक्षस्तत्प्रतिषेधश्च वक्तुं युक्तः, तत् किमर्थमिह विपक्षस्तत्प्रतिषेधश्चाभिधीयते ? / उच्यते- विपक्षसाम्यादधिकृत एव विपक्षद्वारे लाघवार्थमभिधीयते, अन्यथेदमपि पृथग्द्वारं स्यात् / तथैव तत्प्रतिषेधोऽपि द्वारान्तरं प्राप्नो ति, तथा च सति ग्रन्थगौरवं जायते / तस्माल्लाघवाऽर्थमत्र-वोच्यत इत्यदोषः / आह-'दिटुंतो आसंका, तप्पडिसेहो' त्ति वचनात् उत्तरत्र दृष्टान्तमभिधाय पुनराशङ्कां तत्प्रतिषेधं च वक्षयत्येव / तदाशङ्का च तद्विपक्ष एव / तत्किमथ'मिह पुनर्विपक्षप्रतिषेधावभिधीयेते ? उच्यते- अनन्तरपरम्पराभेदेन Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुमाण 407 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुमाण दृष्टान्तद्वैविध्यख्यापनार्थम्, यः खल्वनन्तरप्रयुक्तोऽपि परोक्षत्वादागमगम्यत्वाद् दार्शन्तिकार्थसाधनायाऽलं न भवति, तत्प्रसिद्धये विपक्षसिद्धो योऽन्य उच्यते,सपरम्परादृष्टान्तः। तथाचतीर्थंकरास्तथा साधवश्च द्वावपि भिन्नावेतावुत्तरत्र दृष्टान्ता-वभिधस्येते / अत्र तीर्थकृल्लक्षणं दृष्टान्तमङ्गीकृत्येह विपक्ष-प्रतिषेधावुक्तौ / साधूंस्त्वधिकृत्य तत्रैवाऽऽशङ्कातत्प्रतिषेधौ दर्शयिष्येते इत्यदोषः / स्यात् मतं प्रागुक्तेन विधिना लाघवार्थ-मनुक्त एव दृष्टान्तः, उच्यता काममिहैव दृष्टान्तविपक्षः, तत्प्रतिषेधश्च स एव दृष्टान्तः, किमित्युत्तरत्रोपदिश्यते, येन हेतुविभक्तेरनन्तरमिहैव न भण्यते ? तथाह्यत्र दृष्टान्ते भण्यमाने प्रतिज्ञादीनामिव द्विरूपस्यापि दृष्टान्तस्याऽर्हत्साघुलक्षणस्यैतावेव विपक्षतत्प्रति-षेधावुपपद्यते। ततश्च साधुलक्षणस्य दृष्टान्तस्याऽऽशङ्का तत्प्रतिषेधावुत्तरत्र न पृथग्वक्तव्यौ भवतः। तथा च सति ग्रन्थलाघवंजायते। तथा प्रतिज्ञाहेतूदाहरणरूपाः सविशुद्धिकास्त्रयोऽप्यवयवाः क्रमेणोक्ता भवन्तीति अत्रोच्यतेइहाऽभिधीयमाने दृष्टान्तस्यैव प्रतिज्ञादीनामपि प्रत्येकमाशङ्कातत्प्रतिषेधौ वक्तव्यौ स्तः / तथा च सत्यवयवबहुत्वे दृष्टान्तस्य वा प्रतिज्ञानीनामिव विपक्षतत्प्रतिषेधाभ्यां पृथगाशङ्कातत्प्रतिषेधौ नवक्तव्यौ स्याताम् / एवं सति दशावयवा न प्राप्नुवन्ति / दशावयवं चेदं वाक्यं भयन्तरेण प्रतिपिपादयिषितम-स्याऽपि न्यायस्य प्रदर्शनार्थमत एव यदुक्तं साधुलक्षण दृष्टान्तस्याशङ्कातत्प्रतिषेधावुत्तरत्र न पृथग्वक्तव्यौ स्यातामित्यादि, तदपाकृतं वेदितव्यमित्यलं प्रसङ्गेन। एवं प्रतिज्ञादीनां प्रत्येकं विपक्षो-ऽभिहितः // 146 / / अधुनाऽयमेव प्रतिज्ञादिविपक्षः पञ्चमो-ऽवयवो वर्तते, इत्येतद्दर्शयन्निदमाहएवं तु अवयवाणं, चउण्ह पडिवक्खु पंचमोऽवयवो। एत्तो छट्ठोऽवयवो, विपक्खपडिसेहतं वोच्छं / / 147 / / एवमित्ययमेवकार उपप्रदर्शने / तुरवधारणे / अयमेवाऽवयवानां प्रमाणाऽङ्गलक्षणानां चतुर्णा प्रतिज्ञादीनां प्रतिपक्षो विपक्षः पञ्चमोऽवयव इति / आह- दृष्टान्तस्याप्यत्र विपक्ष उक्त एव, तत्किमर्थ चतुर्णामित्युक्तम् ? उच्यते हेतोः सपक्षविपक्षाभ्यामनुवृत्तिव्यावृत्तिरूपत्वेन दृष्टान्तधर्मत्वात् तद्विपक्ष एव चाऽस्यान्तर्भावाददोष इत्युक्तः पञ्चमोऽवयवः। अधुना षष्ठ उच्यते तथा चाऽऽह- इत उत्तरत्र षष्ठोऽवयवो विपक्षप्रतिषेधस्तं वक्ष्ये-ऽभिधास्य इति गाथार्थः // 147 // इत्थं सामान्येनाऽभिधायेदानीमाद्यद्वयविपक्षप्रतिषेधम-भिधातुकाम आहसायं सम्मत्त पुमं, हासरई आउनामगोयसुहं। धम्मफलं आइदुगे, विपक्खपडिसेह मो एसो॥१४८| (सायं ति) सातवेदनीयं कर्म (सम्मत्तं ति) सम्यक्त्वं सम्यग्भावः सम्यक्त्वं मोहनीयं कर्मव (पुमं ति) पुंवेदमोहनीयम् / (हासं ति) हस्यतेऽनेनेति हासस्तद्भावो हास्यम्, हास्यमोहनीयम्। रम्यते-ऽनयेति रतिः, क्रीडाहेतू रतिमोहनीयं कर्मव / (आउनामगोयसुहं ति) अत्र शुभशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते, अन्ते वचनात् / ततश्च आयुःशुभं, नामशुभं, गोत्रशुभम्, तत्राऽऽयुःशुभंतीर्थकरादिसंबन्धि, नामगोत्रे अपि कर्मणी शुभे तेषामेव भवतः। तथाहि-यशोनामादिशुभंतीर्थकरादीनामेव भवति। तथोर्गोत्रं तदपि शुभं तेषामेवेति। (धम्मफलं ति) धर्मस्य फलं धर्मफलम्, धर्मेण वा फलं धर्मफलम्, एतदहिंसादेर्जिनोक्तस्यैव धर्मस्य फलम् / अहिंसादिना जिनोक्तेनैव च धर्मणैव फलमवाप्यते / सर्वमेव चैतत् सुखहेतुत्वाद् हितम्। अतः स एव धर्मो मङ्गलं,नश्वशुरा-ऽऽदयः / तथाहि- मङ्गयते हितमनेनेति मङ्गलम् / तच्च यथोक्तधर्मणव मङ्गच्यते नाऽन्येन, तस्मादसावेव मङ्गलं, न जिनवचनबाह्याः श्वशुरादय इति स्थितम् / आह- मङ्गलबुद्ध्यैव जनः प्रणमतीत्युक्तं, तत्कथमित्युच्यते मङ्गलबुद्ध्याऽपि गोपालाऽङ्गनाऽऽदिमोह-तिमिरोपप्लुतबुद्धिलोचनो जनः प्रणमन्नपि न मङ्गलत्वनिश्चयाया-ऽलम् / तथाहि- न तैमरिकद्विचन्द्रोपदर्शन सचेतसां चक्षुष्मतां द्विचन्द्राऽऽकारायाः प्रतीतेः प्रत्ययतां प्रतिपद्यते / अतद्रूप एव तद्पाध्यारोपद्वारेण तत्प्रवृत्तेरिति ।(आइदुगेति)आद्यद्वयं प्रागुक्तं, तस्मिन् आद्यद्वयविषये विपक्ष प्रतिषेधः / मो इति निपातो वाक्याऽलङ्कारार्थः / एष इति यथा वर्णित इति गाथार्थः / इत्थमाद्यद्यविपक्षप्रतिषेधः प्रतिपादितः / / 148 // संप्रति हेतुतच्छुद्ध्योर्विपक्षप्रतिषेधप्रतिपिपादयिषयेदमाहअजिइंदिय सोवहिया,वहगा जइ ते वि नाम पुजंति। अग्गी वि होज सीओ, हेउविभत्तीण पडिसेहो||१४९ll न जितानि श्रोत्रादीनि इन्द्रियाणि यैस्ते तथोच्यन्ते / उपधिश्छद्म मायेत्यनन्तरम् / उपधिना सह वर्त्तन्त इति सोपधयो मायाविनः, परव्यंसका इति यावत् / अथवा उपदधातीत्युपधिर्वस्त्राद्यनेक-रूपः परिग्रहः, तेन सह वर्तन्ते येते तथाविधाः, महापरिग्रहा इत्यर्थः / वहगा इति, वधन्तीति वधकाः प्रण्युपमर्दकर्तारः, जइ ते वि नाम पुजंतित्ति, यदीति पराभ्युपगमसंसूचकः, त इति याज्ञिकाः / अपिः संभावने। नाम इति निपातो वाक्यालङ्कारार्थः / येऽजितेन्द्रिय-त्वादिदोषदुष्टा यज्ञयाजिनो वर्तन्ते, यदि तेऽपि नाम पूज्यन्ते, एवं तद्यग्निरपि भवेच्छीतः ।नच कदाचिदप्यसौ शीतो भवति। तथा यदीन्दीवरस्रजोऽपि बान्धेयोरःस्थलशोभामादधीरन्, न चैतद् भवति / यथैवमादिरत्यन्तोऽभावस्तथेदमपीति मन्यते / अथापि कालदौर्गुण्यात् कथंचिदविवेकिना जनेन पूज्यन्ते, तथाऽपि तेषां न मङ्गलत्वसंप्रसिद्धिरप्रेक्षावतामतद्पेऽपि वस्तुनि तद्पा -ऽध्यारोपेण प्रवृत्तेः,तथाह्यकलङ्कधियामेव प्रवृत्तिर्वस्तुनस्तद्वत्तांगमयति। अतथाभूते वस्तुनितबुद्ध्या तेषामप्रवृत्तेः। सुविशुद्ध-बुद्धयश्च दैत्याऽमरेन्द्रादयः, ते चाऽहिंसादिलक्षणं धर्ममेव पूजयन्ति, न यज्ञयाजिनः / तस्माद् दैत्याऽमरेन्द्रादिपूजितत्वाद् धर्म एवोत्कृष्ट मङ्गलं, न याज्ञिका इति स्थितम् / (हे उविभत्तीणं ति) एष हेतु तद्विभक्त्योः (पडिसेहोत्ति)विपक्षप्रतिषेधः / विपक्षशब्द इहा-ऽनुक्तेऽपि प्रकरणाद् ज्ञातव्य इति गाथार्थः / एवं हेतुतच्छुद्ध्यो-विपक्षप्रतिषेधो दर्शितः। ___ सांप्रतं दृष्टान्तविपक्षप्रतिषेधं दर्शयन्नाहबुद्धाई उवयारे, पूयाठाणं जिणा उ सम्भावं। दिटुंते पडिसेहो,छट्ठो एसो अवयवो उ||१५०|| बुद्धादयः, आदिशब्दात् कापिलादिपरिग्रहः / उपचार इति सुपा सुपो भवन्तीति न्यायादुपचारेण किञ्चिदतीन्द्रिय कथयन्तीति कृत्वा न वस्तुस्थित्या पूजायाः स्थानं पूजास्थानम् / जिनास्तु सद्भावं परमार्थमधिकृत्येति वाक्यशेषः / सर्वज्ञत्वाद्यसाधारणगुणयुक्तत्वादिति भावना / दृष्टान्तप्रतिषेध इति / विपक्षशब्दलोपाद् दृष्टान्तविपक्षप्रतिषेधः / किम् ? षष्ठ एषोऽवयव / तुर्विशेषणाऽर्थः / किं विशिनष्टि ?, सर्वोऽप्ययमनन्तरोदितः Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुमाण ४०८-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुमाण प्रतिज्ञादिविपक्षप्रतिषेधःपञ्चप्रकारोऽप्येकएवेति गाथार्थः / / 150 // षष्ठमवयवमभिधायेदानीं सप्तमं दृष्टान्तनामानमभि-धातुकाम आह अरहंत मग्गगामी, दिलुतो साहुणो वि समचित्ता। पागरएसु गिहीसु उ, एसते अवहमाणा उ।।१५१।। पूजामर्हन्तीति अर्हन्तः / न रुहन्तीति वा अरुहन्तः / किम् ? दृष्टान्त इति सम्बन्धः। तथा मार्गगामिन इति। प्रक्रमात्तदुपदिष्टेन मार्गेण गन्तुंशीलं येषांतएव गृह्यन्ते।केचते? इत्यत आह-साधवः, साधयन्ति सभ्यग्दर्शनादियोगैरपवर्गमिति साधवः, तेऽपि दृष्टान्त इति योगः / किं भूताः? समचित्ता रागद्वेषरहितचित्ता इत्यर्थः / किमिति तेऽपि दृष्टान्त इति ? अहिंसादिगुणयुक्तत्वात् / आह च-पाकरतेष्वात्मार्थमेव पाकसक्तेषु गृहेष्वगारेष्वेषन्ते गवेषयन्ति पिण्डपातमित्यध्याहारः / किं कुर्वाणा इत्यत आह-(अवहमाणा उत्ति)न घ्नन्तोऽनन्तः। तुरवधारणार्थः / ततश्चाऽनन्त एत, आरम्भाकरणेन पीडामकुर्वाणा इत्यर्थः / एवं द्विविधोऽपि दृष्टान्त उक्तः / दृष्टान्तवाक्यं चेदम् / स तु संस्कृत्य कर्तव्योऽहंदादिवदिति गाथार्थः // 151 / उक्तः सप्तमोऽवयवः। सांप्रतमष्टममभिधित्सुराहतत्थ भवे आसंका, उदिस्स जई विकीरए पागो। तेण र विसमं नायं, वासतणा तस्स पडिसेहे / / 15 / / तत्र तस्मिन् दृष्टान्ते भवेदाशङ्का भवत्याक्षेपः / यथोद्दिश्याऽङ्गीकृत्य यतीनपि संयतानपि / अपिशब्दादपत्याऽऽदीन्यपि। क्रियते निर्वय॑ते पाकः। कैः? गृहिभिरिति गम्यते। ततः किमित्यत आह- तेन कारणेन / र इति निपातः किल शब्दार्थः। विषममतुल्यम्, ज्ञातमुदाहरणं वस्तुतः पाकोपजीवित्वेन साधूनामनवद्यवृत्त्य-भावादिति भावितमेवैतत् पूर्वमित्यष्टमोऽवयवः / इदानीं नवममधि-कृत्याह- वर्षातृणानि तस्य प्रतिषेध इत्येतच भाष्यकृता प्राक्प्र-पञ्चितमेवेति न प्रतन्यत इति गाथार्थः / / 152 / / उक्तो नवमोऽवयवः। साम्प्रतं चरममभिधित्सुराहतम्हा उ सुरनराणं, पुजत्तं मंगलं सया धम्मो। दसमो एस अवयवो, पइनहेऊ पुणो वयणं // 153|| यस्मादेवं तस्मात् सुरनराणां देवमनुष्याणां पूज्यस्तद्भायः, तस्मात् पूज्यत्वात् मङ्गलं प्राग्निरूपितशब्दार्थ सदा सर्वकालं धर्मः प्रागुक्तः / दशम एषोऽवयव इति संख्याकथनम्। किं विशिष्टो-ऽयमित्यत आह-प्रतिज्ञाहेत्वोः पुनर्वचनं पुनर्हेतुप्रतिज्ञावचनमिति गाथार्थः / उक्तं द्वितीयं दशावयवम् / साधनाऽङ्गता चाऽवयवानां विनेयाऽपेक्षया विशिष्टमतिपत्तिजनकत्वेन भावनीयेत्युक्तोग्नुपमः ॥१५॥दशनि०१ अ०। प्रासङ्गिकमभिधाय पक्षहेतुवचनात्मकं परार्थमनुमानमिति प्रागुक्तं समर्थयन्ते पक्षहेतुवचनलक्षणमवयवद्रयमेव परप्रतिपत्तेरङ्ग न दृष्टान्तादिवचनम्॥२८ आदिशब्देनोपनयनिगमनादिग्रहः / एवं च यद् व्याप्त्युपेतं पक्षधर्मतोपसंहाररूपं सौगतैः, पक्षहेतुदृष्टान्तस्वरूपं भाट्ट-प्राभाकरकापिलैः,पक्षहेतुदृष्टान्तोपनयनिगमनलक्षणं नैयायिकवैशेषिकाभ्यामनुमानमाम्नायि। तदपास्तम्। व्युत्पन्न-मतीन प्रतिपक्षहेतुवचसोरेवोपयोगत् // 28 // पक्षप्रयोग प्रतिष्ठाप्य हेतुप्रयोगप्रकारं दर्शयन्तिहेतुप्रयोगस्तथोपपत्त्यन्यथाऽनुपपत्तिम्यां दिप्रकारः / / 2 / / तथैव साध्यसंभवप्रकारेणैवोपपत्तिस्तथोपपत्तिः / अन्यथा साध्याऽभावप्रकारेणानुपपत्तिरेवाऽन्यथाऽनुपपत्तिः // 26) अमू एव स्वरूपतो निरूपयन्तिसत्येव साध्ये हेतोरुपपत्तिस्तथोपपत्तिः, असति साध्ये हेतोरनुपपत्तिरेवान्यथाऽनुपपत्तिः॥३०॥ निगदव्याख्यानम् // 30 // प्रयोगतोऽपि प्रकटयन्तियथा कृशानुमानयं पाक प्रदेशः, सत्येव कृशानुमत्त्वे धूमवत्त्वस्योपपत्तेः, असत्यनुपपत्तेर्वा // 31 // एतदपि तथैव॥३१॥ अमुयोः प्रयोगौ नियमयन्तिअनयोरन्यतरप्रयोगेणैव साध्यप्रतिपत्तौ द्वितीयप्रयोगस्यैकत्राऽनुपयोगः // 32 // अयमर्थः - प्रयोगयुग्मेऽपि वाक्यविन्यास एव विशिष्यते, नाऽर्थः / स चाऽन्यतरप्रयोगैणैव प्रकटीबभूवेति किमपरप्रयोगेण ? इति // 32 // अथ यदुक्तं "न दृष्टान्तादिवचनं परप्रतिपत्तेरङ्गम्" इति तत्र दृष्टान्तवचनं तावन्निराचिकीर्षवस्तद्धि किं परप्रतिपत्त्यर्थं परैरङ्गीक्रियते ?, किं वा हेतोरन्यथाऽनुपपत्तिनिर्णीतये ? यद्वाऽविनाभावस्मृतये? इति विकल्पेषु प्रथमं विकल्पं तावद् दूषयन्तिन दृष्टान्तवचनं परप्रतिपत्तये प्रभवति, तस्यां पक्षहेतुवचनयोरेव व्यापारोपलब्धेः // 33 // प्रतिपन्ना अविस्मृतसंबन्धस्य हि प्रमातुरग्निमानयं देशो धूमवत्त्वाऽन्यथाऽनुपपत्तेरित्येतावतैव भवत्येव साध्यप्रतीतिरिति॥३३॥ द्वितीयं विकल्पं परास्यन्तिन च हेतोरन्यथाऽनुपपत्तिनिर्णीतये यथोक्ततर्कप्रमाणादेव तदुपपत्तेः॥३|| दृष्टान्तवचनं प्रभवतीति योगः // 34 // अत्रैवोपपत्त्यन्तरमुपवर्णयन्तिनियतै कविशेषस्वभावे च दृष्टान्ते साकल्येन व्याप्तेरयोगतो विप्रतिपत्तौ तदन्तराऽपेक्षायामनवस्थितेर्दुर्निवारः समवतारः॥३१॥ प्रतिनियतव्यक्तौ हि व्याप्तिनिश्चयः कर्तुमशक्यः। ततो व्यक्त्यन्तरेषु व्याप्त्यर्थं पुनर्दृष्टान्तान्तरं मृग्यम् / तस्याऽपि व्यक्तिरूपत्वेनाऽपरदृष्टान्ताऽपेक्षायामनवस्था स्यात् // 35 / / तृतीयविकल्पं पराकुर्वन्तिनाऽप्यविनाभावस्मृतये, प्रतिपन्न प्रतिबन्धस्य व्युत्पन्नमतेः पक्षहेतुप्रदर्शनेनैव तत्प्रसिद्धेः॥३६|| दृष्टान्तवचनं प्रभवतीति योगः॥३६॥ अमुमेवार्थ समर्थयन्तेअन्तयप्त्यिा हेतोः साध्यप्रत्यायने शक्तावशक्ती च बहिव्यतिरुद्भावनं व्यर्थम् // 37|| अयमर्थः - अन्तव्याप्तः साध्यंसं सिद्धिशक्ती, बायव्याप्तेः Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुमाण ४०९-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुरूंधिज्जत वर्णनं वन्ध्यमेव / अन्तर्व्याप्तेः साध्यसंसिद्धयशक्ती, बाह्यव्याप्तेवर्णनं / अणुयत्तणा-स्त्री०(अनुवर्तना) आनुकूल्याऽनुपघाते, जी०१ प्रति वन्ध्यमेव // 1 // मत्पुत्रोऽयं बहिर्वक्ति, एवंरूपस्वराऽन्यथाऽनुपपत्तेः, इत्यत्र ग्लानोपचारे, बृ०१ उ०। (ग्लानस्याऽनुवर्तना 'गिलाण' शब्दे द्रष्टव्या) बहियाप्त्यभावेऽपि गमकत्वस्य ‘स श्यामः, तत्पुत्रत्वात्, अणुयत्तणाइजुत्त-त्रि०(अनुवर्तनादियुक्त) आनुकूल्याऽनुपघातसहिते, इतरतत्पुत्रवत्, इत्यत्र तु तद्भावे-ऽप्यगमकत्वस्योपलब्धेरिति // 37 / / "अणुयत्तणाइजुत्तो, पासत्थाईसु ता खित्ते" जी०१ प्रति०। रत्ना०३ परि०ा(धर्मिणं साधयन्नेकान्तवादी साधर्म्यतो वैधयंतश्च न शक्नोतीति 'अणेगंतवाय' शब्देऽत्रैव भागे वक्ष्यते) अनुमितेः अणुयत्तमाण-त्रि०(अनुवर्तमान) अनुगच्छति, विशे०। सद्दहइ समत्थेइ साध्याऽविना-भूतहेतुजन्यत्वेनाऽप्युपचाराद् हेतुविशेष,स्था०४ ठा०३ य, कुणइ करावेइ गुरुजणाभिमयं / छंदमणुयत्तमाणो, गुरुजणाराहणं कुणई।।१।। आ०म०प्र०। उ ननु लिङ्गग्रहणं संबन्धस्मरणाभ्यामनु पश्चान्मानमनुमानम्, लिङ्गजं अणुयरिय-न०(अनुचरित) आसेविते, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। ज्ञानमुच्यते। कथं लिङ्गमेवानुमानमिति चेत् ?, सत्यम्, किन्तु कारणे अणुया-स्त्री०(अनुज्ञा) अनुमोदने, सूत्र०२ श्रु०१ अ०। कार्योपचारादप्यनुमानम् / यथा- प्रत्यक्षज्ञानजनको घटोऽपि प्रत्यक्ष अणुयास-पुं०(अनुकाश) विकाशप्रसरे, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। इति / विशे०। दृष्टान्ते, आकाशपटानुमानादत्राऽनुमानशब्दो अणुरंगा-स्त्री० (अनुरङ्गा) गन्त्र्याम्,घंसिकायां च। 'अणुरंगाइजाणे" दृष्टान्तवचनः ।दशा०१अ० बृ०१ उ० अणुमाणइत्ता-अव्य० (अनुमान्य)अनुमानं कृत्वेत्यर्थे, व्य०१ उ०। अणुरंजिएल्लय-त्रि० (अनुरञ्जित) अनु-रञ्ज-ताप्राकृते स्वार्थिक लघुतरापराधनिवेदनेन मृदुदण्डादित्वमाचार्यस्याकलय्य इल्लकप्रत्ययः। संप्रदायक्रमरञ्जिते, जं० 3 वक्ष०) इत्यर्थे, ध०२ अधि० / भ० अणुमाणणिराकिय-त्रि०(अनुमाननिराकृत) अनुमानबाह्ये, यथा नित्यः अणुरत्त-त्रि० (अनुरक्त) अनुरज्ये, औ०। आतु०। अत्यन्तस्नेह-भाजि, शब्दः / वस्तुदोषविषये विशेष, स्था० 10 ठा०। उत्त०१४ अ०। ज्ञा०। अनुरागवत्याम, भ०१२ श०६ उ०। पतिरक्तायां भरि प्रति रागवत्याम, ज्ञा०१६ अ० स्त्रियाम्, "अणुरत्ता अविरत्ता, अणुमाणाभास-पुं०(अनुमानाभास) पक्षाभासादिसमुत्थे ज्ञानेऽय इटे सहफरिसरसरूवगंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोए पचणुब्भवमाणी थार्थाऽनुमाने, रत्ना०६ परि०। विहरति'' अनुरक्ताऽविरक्ता अनुरज्या भर्तरि प्रतिकूले सत्यपि, न अणुमाय-त्रि० (अणुमात्र) स्तोकमात्रे, दश०५ अ०२ उ०। विप्रियेऽपि विरक्ततां गतेत्यर्थः। औ० वर्णवादिनि प्रतीच्छके, अणुमिइ-स्त्री० (अनुमिति)अनु-मा-तिन्। अनुमाने व्याप्ति-विशिष्टस्य ".......अणुयत्ततो विसेसण्हं। उज्जुत्तमपरितंतो, इच्छति सत्थं लभति पक्षधर्मताज्ञानाऽधीनेऽनुभवभेदे, अनुमोदने च / प्रति साधू / जो तु अवाइज्जतो, ण रूसती जह ममं ण वा एति / / सो होति अणुमु(म्मु) क-त्रि० (अनुमुक्त) अविमुक्ते, प्रश्न० 4 आश्र० द्वा०। अणूरत्तो....." | पं०भा० अणुमोइय-त्रि०(अनुमोदित) अनु-मुद्-णिच् / कर्मणि क्तः।। अणुरत्तलोयणा-स्त्री०(अनुरक्तलोचना)। उज्जयिनीपुरीश्वरस्य कृताऽनुमोदने स्वानुमतत्वज्ञापनेन प्रोत्साहिते,"भवता यद् व्यवसितं, देवलासुतस्य राज्ञोऽग्रमहिष्याम्, आ०क० / आव०। तत् मे साध्वनुमोदितम् / प्रार्थ्यमानोऽर्थिना यत्र, ह्या नैव अणुरसिय-न०(अनुरसित) शब्दायिते, ज्ञा०६ अ०॥ विघातिताः / / 1 / / दानकालेऽथवा तूष्णी, स्थितः सोऽर्था अणुराग-पुं०(अनुराग)अनु-रञ्ज-घञ् ।प्रीतिविशेषे, श्रा०। परऽनुमोदितः" इति। उक्तेऽर्थे च, वाच०। यत् त्वया शत्रुहननादि-कार्य स्परस्याऽत्यन्तिक्यां प्रीतिमत्याम्, बृ० 1 उ०। (त्रिविधोऽभिभव्यं कृतमित्यादिवदने, आतु०। ष्वङ्गरूपः, तद्यथा- दृष्ट्यनुरागो, विषयाऽनुरागः, स्नेहाऽनुरागः चेति अणुमोयग-त्रि०(अणुमोदक) दानस्य ग्रहणपरिभोगाभ्यां प्रशंसके राग-शब्दे वक्ष्यते) विशे०। यथावस्थितगुणोत्कीर्तने तदनुसंप्रदाने, विशे० रूपोपचारलक्षणे तीर्थकरनामकर्मबन्धकारणे, प्रव०१० द्वा०॥ अणुमोयण(णा)-स्त्री०[अनुमोदन(ना)] न० / अनुमतौ, पञ्चा० अणुरागय-त्रि० (अन्वागत) अनु+आ-गम्-क्त / रेफ आगमिकः। 6 विव० / आव०। अनुज्ञाने, सूत्र०१ श्रु० 8 अ०। प्रश्न०। अनुरूपे आगमने, भ०२ श०१ उ०। आधाकर्मप्रभृतिकर्तृप्रशंसायाम्, अप्रतिषेधने च / अप्रति अणुराहा-स्त्री०(अनुराधा) अनुगता राधां विशाखाम् / वाच० / षिद्धमनुमतमिति विद्वत्प्रवादात् / पिं0 "हणतं णाऽणुजाणइ" घ्नन्तं नाऽनुजानाति / अनुमोदनेन तस्य वा दीयमानस्याऽप्रति मित्रदेवताके नक्षत्रभेदे, अनु०। जं० / स्था०। अणुराहाणक्खत्ते च षेधनेनाऽप्रतिषिद्धमनुमतमिति वचनाद् हननप्रसङ्ग जन नाच्च / उतारे / पं०सं० / सू०प्र०) ज्यो। ('णक्खत्त' शब्देऽस्याः आह च-कामं सयंन कुव्वइ, जाणतो पुण तहा वितम्गाही।वट्टई तप्पसंग, तत्त्वं व्याख्यास्यामः) अगिण्हमाणो उ वारेइ ||1|| स्था०६ ठा०। जिनपूजा- अणुरुज्झंत-त्रि०(अनुरुध्यमान) अनुरुध्-यक्-शानच् / प्राकृतेदिदर्शनजनितप्रमोदप्रशंसादिलक्षणायामनुमतौ, पञ्चा०६ विव०। 'समनुपाद् रुधेः' / 248 / इति अनोः परस्य रुधेः कर्मभावेज्झो अणुमोयणकम्मभोयगप्पसंसा-स्त्री०(अनुमोदनकर्मभोजक वा। अपेक्ष्यमाणे, प्रा०। प्रशंसा) अनुमोदनादाधाकर्मभोजक प्रशंसायाम्, अक्षतपुण्याः अणुरुधिज्जंत-त्रि०(अनुरुध्यमान) अनु-रुध्-यक् शानच् / सुलब्धिका एते, ये इत्थं सदैव लभन्ते, यतेतेत्येवंरूपा। पिं०। अपेक्ष्यमाणे, प्राण Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुरुव 410 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुवत्तणा अणुरूव-त्रि०(अनुरूप) अविषमे, स्था०६ ठा० / अनुकूले, अणु वउत्त-त्रि०(अनुपयुक्त) हेयोपादेयपरीक्षाविकले, अष्ट० आ०म०प्र०ा घटमानेऽर्थे, विशे०। सदृशे, उत्त०१ अ०। उचिते, ज्ञा० 14 अष्टका उपयोगशून्ये, नि०। 16 अ०। अनुरिति सादृश्यरूपमिति अव्ययीभावः / स्वस्वभावसदृशे, अणुवएस-पुं०(अनुपदेश) स्वभावे, निसर्गः स्वभावोऽनुपदेश सम्म०। इत्यनर्थाऽन्तरम् / स्था० 2 ठा० 1 उ०। नञः कुत्सार्थत्वात् अणुलाव-पुं०(अनुलाप) पौनःपुन्यभाषणे।''अनुलापो मुहुर्भाषा'' इति | कुत्सितोपदेशे, आगमबाधितार्थानुशासने, पञ्चा० 12 विव०। वचनात्। स्था०७ ठा। ज्ञा०॥ अणुवओग-पुं०(अनुपयोग) अनर्थे , अनर्थोऽप्रयोजनमनुपअणुलिंपण-न०(अनुलेपन) सकृल्लिप्ताया भूमेः पुनर्लेपने, प्रश्न०३ योगो निष्कारणतेतिपर्यायाः।आव०६अशक्तेरनुपयोजने अव्यापारणे, संव० द्वारा पञ्चा० 14 विव०ा उपयोजनमुपयोगो जीवस्य बोधरूपो व्यापारः। स अणुलित्त-त्रि०(अनुलिप्त) चन्दनादिना कृताऽनुलेपे, औ०। चेह विवक्षिताऽर्थे चित्तस्य विनिवेशस्वरूपो गृह्यते, न विद्यते स यत्र अणुलित्तगत्त-त्रि०(अनुलिप्तगात्र) अन्विति अतिशयेन लिप्त सोऽनुपयोगः पदार्थः / उपयोगाविषये, ''अणुवओगो दवं' विलेपनरूपकृतं गात्रं शरीरं यस्य स तथा। कृतानुरूपशरीरे, तं०।। भावशून्यतायां च। अनु०। अणुलिहंत-त्रि०(अनुलिखत्) अभिलङ्घ यति, "गगणतल- अणुवकय-त्रि०(अनुपकृत) उपकृतमुपकारो, न विद्यते उपकृतं येषां मणुलिहंतसिहरे" / सू०प्र० 18 पाहु० / रा०ा तं०। स० जी०। | ते। अकृतोपकारिषु, षो०६ विव०। परैरवर्तितेषु, आव० 4 अ० / चं०प्र०। अणुवकयपरहिय-त्रि०(अनुपकृतपरहित) उपकृतमुपकारः, अणुलेवण-न०(अनुलेपन) श्रीखण्डादिविलेपने, स्था० 5 ठा०। ज्ञा०। न विद्यते उपकृतं येषां ते इमेऽनुपकृताः, अकृतोपकारा इत्यर्थः / प्रव०। सकृल्लिप्तस्य पुनः पुनरुपलेपने, प्रज्ञा०२ पद। ते च ते पराश्च, तेभ्यो हितं तस्मिन् रतोऽभिरतः प्रवृत्तोऽनुपकृतअणुलेवणतल-न०(अनुलेपनतल) अनुलेपनप्रधाने तले, परहितरतः। निष्कारणवत्सले, षो०६ विव०। सूत्र० 2 श्रु०२ अ01 पुनरुपलिप्तभूमिकायाम्, 'मेयवसापूय- अणुवकंत-त्रि०(अनुपक्रान्त) अनिराकृते, औ०। रुधिरमंसचिक्खिल्ललित्ताणुलेवणतला" / प्रज्ञा०२ पद। अणुवक्ख-त्रि०(अनुपाख्य) गताऽऽख्यातिके, बृ० 1 उ०। अणुलोम-त्रि०(अनुलोम) अविपरीते, पं०चूला अनुकूले, औ०। सूत्रका अणुवक्खड-त्रि०(अनुपस्कृत) अकृतोपस्कारे, उवक्खड़ा य आचा०। ज्ञा०। अनुकूलतया वेद्यमाने, जं०२ वक्ष०ा मनोहारिणि, दश० खीरदहिमादि,अणुवक्खडा सव्वेसुपरिविट्टेसुनि०चू०१ उ०। 1 अ० / अनुलोमनाऽर्थद्रव्याऽनुयोगोऽनुलोमः / अनुलोमे, अणुवगरण-न०(अनुपकरण) उपधेरभावे, व्य०७ उ०। अनुकूलकरणाय परस्य यो विधीयते- यथा क्षेमं भवतामित्यादिरूपे द्रव्याऽनुयोगभेदे, स्था० 6 ठा०। अणुवचय-पुं०(अनुपचय) अनुपचीयमानतायाम्, अनुपादाने च। उत्त० १अ०॥ अणु लोमइत्ता-अव्य०(अनुलोम्य) विवादाऽध्यक्षान् सामनीत्याऽनुलोमान् कृत्वा प्रतिपन्थिनमेव वा पूर्वं तत्पक्षाऽभ्युपगमेन अणुवचंत-त्रि०(अनुव्रजत्) अनु-व्रज-शतृ। अनुगच्छति, प्रा०। अनुलोमे कृत्येत्यर्थे, "अणुलोमइत्ता पढे" स्था०६ ठा०। अणुवजीवि(ण)-त्रि०(अनुपजीविन्) अनाजीविके, पञ्चा० अणुलोमवाउवेग-त्रि०(अनुलोमवायुवेग) अनुलोमोऽनुकूलो वायुवेगः 15 विव० शरीरान्तर्वर्ती वातजवो येषां तेऽनुलोमवायुवेगाः 11 अणुवज-धा०(गम्) गतौ, भ्वा०प० अनिट् / "गमेरई-अइवायुगुल्मरहितोदरमध्यप्रदेशेषु, तं०। जी०। युगलमनुष्यादिषु / / च्छाऽणुवजाऽवजसोक्कुसाऽक्कुस०१८४११६२॥ इत्यादि- सूत्रेण आह च टीकाकारः - उदरमध्यप्रदेशे वायुगुल्मो येषां ते तथा, तदभावाच्च गम्-धातोरणुवज्जाऽऽदेशः / अणुवजइ-गच्छति। प्रा०। तेषामनुलोमो भवति, वायुवेगो मिथुनानाम् इति / जी० अणुवजि-(देशी)प्रतिजागरिते, दे०ना०१ वर्ग01 1 प्रति० अणुवत्त-त्रि०(अनुवृत्त) द्वितीयवारं प्रवृत्ते जीतव्यवहारादौ, "अणुवत्तो अणुलोमविलोम-पुं०(अनुलोमविलोम) गतप्रत्यागतो, पञ्चा० जो पुणो बितीयवारं"० व्य०२ उ०॥ 16 विव०॥ अणुवत्तय-त्रि०(अनुवर्तक) सर्वमनोऽनुवृत्तिकर्तरि, ध०३ | अधि०| अणुल्लग-पुं०(अनुल्ल्बक) कन्दविशेषे, द्वीन्द्रियजीवभेदे च / उत्त०३ भावाऽनुकूल्येन सम्यकपरिपालके, पं०व०१ द्वा० शिष्याणां छन्दोऽनुवर्तिनि, बृ०४ उ० / चित्रस्वभावानां प्राणिनां गुणान्तराधानअणुल्लण-त्रि०(अनुल्ल्बण) अगर्विते, बृ०३ उ०। धियाऽनुवृत्तिशीले, शिष्याणामनुवर्तनया प्रव्राजना-योग्ये गुरौ, ध०३ अणुल्लाव-पुं०(अनुल्लाप) कुत्सिते काक्वा वर्णने, स्था० 3 ठा०। अधि० "आगारइंगितेहिं , णातुं हिययत्थितं उवविहेति / गुरुवयणं अणुल्लोय-पुं०(अनुल्लक) द्वीन्द्रियजीवविशेषे, उत्त० 36 अ०। अनुलोमे, एसो अणुवत्तओ नाम'' ||1|| पं०३०२ द्वा०। अणुवइट्ठ-त्रि०(अनुपदिष्ट) आचार्थपरम्पराऽनागते, "उस्सुत्त-मणुवइटुं अनुलोममविपरीतमित्यर्थः / पं०चू०(अनु-वर्तकस्य व्याख्या द्वि०भा० नाम जं नो आयरियपरंपरागयं मुक्तव्याकरणवत्' / नि०चू०११ उ० 305 पृष्ठे आयरिय' शब्दे वक्ष्यते) व्य | अणुवत्तणा-स्त्री०(अनुवर्तना) शिष्यानुपालनायाम्, पं०व०१द्वा० / अग Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुवत्ति 411- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुवलद्धि अणुवत्ति-स्त्री०(अनुवृत्ति) इङ्गितादिना गुरुचित्तं विज्ञाय तदाऽऽनुकूल्येन प्रवृत्तौ, विशे०। आ०म०द्वि०। अणुवभोज्ज-त्रि०(अनुपभोज्य) साधूनामुपभोक्तुमयोग्ये, बृ० ३उ० अणुवम-त्रि०(अनुपम)उपमारहिते,आव०५अ०। न विद्यते उपमा शरीरसन्निवेशसौन्दर्यादिभिर्गुणैर्यस्य तदनुपमम्। षो०१५ विव०॥ अणुवमसिरिय-त्रि०(अनुपमश्रीक )निरुपमदेहकान्तिकल्पिते, आ०म०प्र०। अणुवमा-स्त्री०(अनुपमा) खाद्यविशेषे, जी०३ प्रति०। अणुवयमाण-त्रि०(अनुवदत्) पश्चाद् वदति, "आरंभट्ठी अणुवयमाणे हणपाणे घायमाणे"। आचा० 1 श्रु०६ अ० 4 उ० / "असीला अणुवयमाणस्स बितिया' अनुवदतोऽनुपश्चाद् वदतः पृष्ठतोऽपृष्ठतोऽपवदतोऽन्येन वा मिथ्यादृष्ट्यादिना कुशीला इत्येवमुक्तेऽनुवदतः पार्श्वस्थादेः। आचा०१ श्रु०६अ०४ उ०। अणुवरय-त्रि०(अनुपरत)अविरते, स्था०२ ठा०१ उ० / पापाऽनुष्ठानेभ्योऽनिवृत्ते, आचा०१ श्रु०५ अ०१ उ०। अविच्छिन्ने, स०। अणुवरयकायकिरिया-स्त्री०(अनुपरतकायक्रिया)अनुपरत स्याऽविरतस्य सावद्याद् मिथ्यादृष्टे : सम्यग्दृष्टेवा कायक्रियोत्क्षेपादिलक्षणा कर्मबन्धनमनुपरतकायक्रिया / कायिक्याः क्रियाया भेदे, भ०३ श०३ उ०। अणुवरयदण्ड-पुं०(अनुपरतदण्ड) मनोवाक्कायलक्षणदण्डाद् विरते, आचा०१श्रु० 4 अ०१ उ०। अणुवरोह-पुं०(अनुपरोध) अव्यापादने, प्रायोऽन्याऽनुपरोधेन द्रव्यस्नानं तदुच्यते / अप्रतिषेधे च, ध०२ अधि०। अणुवलद्धि-स्त्री०(अनुपलब्धि) उप-लम-क्तिन् / न०तालाभाऽभावे, प्रत्यक्षाऽभावे च / वाच०। सा चदुविहा अणुवलद्धीओ। सओ असओ य। खरसंगस्स बितीया, सओ विदूराइभावओऽभिहिया। सुहुमा सुत्तत्तणओ, कम्माणुगयस्सजीवस्स / / 1 / / सा च अनुपलब्धिरेका असतो भवति, यथा- खरशृङ्गस्य / द्वितीया तु सतोऽप्यर्थस्य भवति।कुत इत्याह-(दूरादिभावादिति) दूरात् सन्नप्यर्थो न दृश्यते, यथा- स्वर्गादिः 1, आदिशब्दादतिसंनिकर्षादतिसौक्ष्म्यात् मनोऽनवस्थानादिन्द्रियापाट वात् मतिमान्द्यादशक्यत्वादावरणादभिभवात् सामान्यादनुपयोगादनुपायाद् विस्मृतेर्दुरागमात् मोहाद् विदर्शनाद् विकारादक्रियातोऽनधिगमात् कालविप्रकर्षात् स्वभावविप्रकर्षाचेति / तच्चाऽतिसन्निकर्षात् सन्नप्यर्थो नोपलभ्यते / यथा- नेत्रदूषिकापक्ष्मादिः 2, अतिसौक्ष्म्यात् परमाण्वादिः 3, मनोऽनवस्थानात् सतोऽप्यनुपलब्धिः, यथा- नष्टचेतसाम् 4, इन्द्रियापाटवात् किंचिद् बधिरादीनाम् 5, मतिमान्द्यादनुपलब्धिः, सतामपि सूक्ष्मशास्त्रार्थविशेषाणाम् 6, अशक्यत्वात् स्वकर्ण कृ काटिकामस्तकपृष्ठादीनाम् ७,आवरणाद् वस्त्रादिस्थगितलोचनायाः, कटकुट्यावृतानां च 8, अभिभवात् प्रसृतसूरतेजसि दिवसे तारकाणाम् 6, सामान्यात् सूपलक्षितस्यापि माषादेः समान-जातीयभाषादिराशिपति-तस्याऽप्रत्यभिज्ञानात् सतोऽप्यनुपलब्धिः 10, अनुपयोगाद् रूपोपयुक्तस्य शेषविषयाणाम् 11, अनुपायाच्छाग्यादिभ्यो गोमहिष्यादिपयः परिमाणजिज्ञासोः 12, विस्मृतेः पूर्वोपलब्धस्य 13, दुरागमाददुरुपदेशात् तत्प्रतिरूपकरीतिकादिविप्रलम्भितमतेः कनकादीनां सतामप्यनुपलब्धिः 14, मोहात् सतामपि जीवादितत्त्वानाम् 15, विदर्शनात् सर्वथाऽन्धादीनाम् 16, वार्द्धक्यादिविकाराद् बहुशः पूर्वोपलब्धस्य सतोऽप्यनुपलब्धिः १७,अक्रियातो भूखननादिक्रियाऽभावाद् वृक्षमूलादीनामनुपलब्धिः 18, अनधिगमाच्छास्त्राऽश्रवणात् तदर्थस्य सतोऽप्यनुपलब्धिः 16, कालविप्रकर्षाद् भूतभविष्यद् ऋषभदेवपद्मनाभतीर्थकरादीनामनुपलब्धिः 20, स्वभावविप्रकर्षात् नभःपिशाचादीनामनुपलम्भः 21 / तदेवं सतामप्यर्थानामेक-विंशतिविधाऽनुपलब्धिः / विशेष आ०५०। त्रिविधा वा, अत्यन्तात् सामान्यादविस्मृतेश्चअचंता सामन्ना, य विस्सुत्ती होइ अणुवलद्धी तु। अनुपलब्धिरेव त्रिधा भवति। तद्यथा-अत्यन्तादेकान्तेनाऽनुपलब्धिः। सामान्याद् विस्मृतेश्च। तत्र प्रथमतोऽत्यन्ताऽनुपलब्धिमाहअत्थस्स दरिसणम्मि वि, लद्धी एगंततो न संभवइ। दलु पि न जाणतो, वोहियपंडा फणससत्तू।। अर्थस्य दर्शनेऽपि कस्यचित्तदर्थविषया लब्धिरेकान्ततो न संभवति। तथा च बोधिकाः पश्चिमदिग्वर्तिनो म्लेच्छाः पनसं दृष्ट्वाऽपि पनस' इत्येवं नजानते, तेषांपनसस्याऽत्यन्त-परोक्षत्वात्।नहितद्देशे पनसः संभवति। तथा पण्डाः मथुरावासिनः सक्तून् दृष्ट्वाऽपि 'सक्तवोऽमी' इति न जानते, तेषां हि सक्तवोऽत्यन्तपरोक्षाः / ततो न तदर्शनेऽपि तदक्षरलाभः। संप्रति सामान्यतदनुपलब्धिमाहअत्थस्सुवम्गहम्मि वि, लद्धी एणंततो न संभवइ। सामन्ना बहुमज्झे, मासं पडियं जहा दट्टुं // अर्थस्याऽवग्रहेऽपि तदन्येनाऽर्थेन सामान्यात् सादृश्यादेकान्ततो लब्धिरक्षरलब्धिर्न संभवति। यथा बहुमध्ये पतितं माषं दृष्ट्वाऽपि तदन्येन सामान्यात् न तदक्षरं लभते / विस्मृतेरनुपलब्धिमाहअत्थस्सऽवि उवलंभे, अक्खरलद्धीन होइ सव्वस्स। पुटवोवलद्धमत्थे, जस्स उ नामं न संसरइ // अर्थस्य पूर्व पश्चाचोपलम्भेऽपि सर्वस्याऽक्षरलब्धिः, तद्विषयाऽक्षरलब्धिर्न संभवति / कस्य न भवतीत्यत आह- यस्याऽर्थे विवक्षार्थविषयं पूर्वोपलब्धं नाम न संस्मरति / तदेवमुक्ता त्रिविधाऽप्यनुपलब्धिः। बृ० 1 उ०। विशेष सम्प्रत्यनुपलब्धि प्रकारतः प्राहुः - अनुपलब्धेरपि दैरूप्यम्, अविरुद्धाऽनुपलब्धिर्विरुद्धाऽनुपलब्धिश्च / / अविरुद्धस्य प्रतिषेध्येनाऽर्थन सह विरोधमप्राप्तस्याऽनुपलब्धिरविरुद्धाऽनुपलब्धिः / एवं विरुद्धाऽनुपलब्धिरपि / / 63 / / Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुवलद्धि 412- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुवलद्धि सम्प्रत्यविरुद्धाऽनुपलब्धेर्निषेधसिद्धौ प्रकारसंख्यामाख्यान्ति, तत्राऽविरुद्धाऽनुपलब्धिप्रतिषेधाऽवबोधे सप्त प्रकाराः // 64|| अमूनेव प्रकारान् प्रकटयन्ति प्रतिषेध्ये नाऽविरुद्धानां स्वभावव्यापक कार्यकारणपूर्वचरोत्तरचरसहचराणामनुपलब्धिः ||5|| एवं च स्वभावानुपलब्धिः, व्यापकानुपलब्धिः, कार्यानुपलब्धिः, कारणानुपलब्धिः, पूर्वचरानुपलब्धिः, उत्तरचरानुपलब्धिः, सहचरानुपलब्धिश्चेति ।।६५|क्रमेणाऽमूरुदाहरन्तिस्वभावाऽनुपलब्धिर्यथा- नाऽस्त्यत्र भूतले कुम्भः,उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्य तत्स्वभावस्याऽनुपलम्भात्।।६।। (उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्येति) उपलब्धिानम्, तस्य लक्षणानि कारणानि चक्षुरादीनि, तैयुपलब्धिलक्ष्यते जन्यत इति यावत्। तानि प्राप्तः, जनकत्वेनोपलब्धिकारणान्तर्भावात्, स तथा दृश्य इत्यर्थस्तस्याऽनुपलम्भात् // 66 // घ्यापकाऽनुपलब्धिर्यथा- नाऽस्त्यत्र प्रदेशे पनसः, पादपाऽनुपलब्धे ||7|| कार्याऽनुपलब्धिय॑थानाऽस्त्यत्राऽप्रतिहतशक्तिकं बीजमकुराऽनवलोकनात् / / 68|| अप्रतिहतशक्तिकत्वं हि कार्य प्रति अप्रतिबद्धसामर्थ्यत्वं कथ्यते। तेन बीजमात्रेण न व्यभिचारः॥६८|| कारणानुपलब्धिर्यथा- न सन्त्यस्य प्रशमप्रभृतयो भावास्तत्त्वार्थश्रद्धानाऽभावात्HIEl (प्रशमप्रभृतयो भावा इति) प्रशमसंवेगनिर्वेदानुकम्पाऽऽस्तिक्यलक्षणजीवपरिणामविशेषाः / तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनं तस्याऽभावः। कुतोऽपि देवद्रव्यभक्षणादेः पापकर्मणः सकाशात् सिध्यन् तत्त्वार्थश्रद्धानकार्यभूतानां प्रशमादीनामभावं गमयति ||6|| पूर्वचराऽनुपलब्धिर्यथा- नोदमिष्यति मुहूर्ताऽन्ते स्वातिनक्षत्रं, चित्रोदयाऽदर्शनात् / / 100|| उत्तरचराऽनुप-लब्धिर्यथानोदगमत् पूर्व भद्रपदामुहूर्तात् पूर्वमुत्तरभद्रपदोदमाऽनवगमात् / / 101|| सहचराऽनुपलब्धिर्यथानाऽस्त्यस्य सम्यग्ज्ञानं सम्यग्दर्शनाऽनुपलब्धः।।१०२|| इयं च सप्तधाऽप्यनुपलब्धिः साक्षादनुपलम्भद्वारेण परम्परया पुनरेषा संभवन्त्यत्रैवाऽन्तर्भावनीया। तथाहि-नाऽस्त्येकान्त-निरन्वयं तत्त्वम्, तत्र क्रमाक्रमाऽनुपलब्धेरिति या कार्यव्यापका-ऽनुपलब्धिः, निरन्वयतत्त्वकार्यस्याऽर्थक्रियारूपस्य यद् व्यापकं क्रमाऽक्रमरूपं, तस्याऽनुपलम्भसद्भावात्, सा व्यापका-ऽनुपलब्धावेव प्रवेशनीया / एवमन्या अपि यथासंभवमास्वेव विशन्ति ।।१०२।विरुद्धाऽनुपलब्धि विधिसिद्धौ भेदतो भाषन्तेविरुद्धाऽनुपलब्धिस्तु विधिप्रतीतौ पञ्चधा / / 103 / / तानेव भेदानाहुः - विरुद्धकार्यकारणस्वभावव्यापकसहचराऽनुपलम्भभेदात्॥१०॥ विधेयेनाऽर्थेन विरुद्धानां कार्यकारणस्वभावव्यापक सहचराणामनुपलम्भा अनुपलब्धयस्तैर्भेदो विशेषस्तस्मात् / ततश्च विरुद्धकार्याऽनुपलब्धिः, विरुद्धकारणाऽनुपलब्धिः, विरुद्धस्वभावाऽनुपलब्धिः, विरुद्धव्यापकाऽनुपलब्धिः, विरुद्धसहचराऽनुपलब्धिश्चेति // 10 // क्रमेणैतासामुदाहरणान्याहुः - विरुद्धकार्यानुपलब्धिर्यथाऽत्र शरीरिणि रोगाऽतिशयः समस्ति, नीरोगव्यापाराऽनुपलब्धेः।।१०५|| विधेयस्य हि रोगाऽतिशयस्य विरुद्धमारोग्यम्, तस्य कार्य विशिष्टो व्यापारः / तस्याऽनुपलब्धिरियम् // 10 // विरुद्धकारणानुपलब्धिर्यथा- विद्यतेऽत्र प्राणिनि कष्टमिष्टसंयोगाऽभावात्॥१०६| अत्र विधेयं कष्टम्, तद् विरुद्धं सुखम्, तस्य कारणमिष्ट-संयोगः, तस्याऽनुपलब्धिरेषा / / 106|| विरुद्धस्वभावाऽनुपलब्धिर्यथा- वस्तुजातमनेकाऽन्तात्मकमेकान्तस्वभावाऽनुपलम्भात्॥१०७|| वस्तुजातमन्तरङ्गो बहिरङ्गश्च विश्ववर्तिपदार्थसार्थः / अम्यते गम्यते निश्चीयते इत्यन्तो धर्मः, न एकोऽनेकः अनेकश्वाऽसावन्त-श्वाऽनेकान्तः, स आत्मा स्वभावो यस्य वस्तुजातस्य तदने का-ऽन्तात्मकम्, सदसदाद्यनेकधर्माऽऽत्मकमित्यर्थः / अत्र हेतुः एकान्तस्वभावस्य सदसदाद्यन्यतरधविधारणस्वरूपस्या-ऽनुपलम्भादिति / अत्र विधेयेनानेकान्तात्मकत्वेन सह विरुद्धः सदायेकान्तस्वभावः, तस्याऽनुपलब्धिरसौ // 107 / / विरुद्धव्यापकाऽनुपलब्धिर्यथा- अस्त्यत्र छाया औष्ण्याऽनुपलब्धेः / / 108|| विधेयया छायया विरुद्धस्तापः, तद्व्यापकमौष्ण्यम्, तस्याऽनुपलब्धिरियम् // 10 // विरुद्धसहचरानुपलब्धिर्य था- अस्त्यस्य मिथ्याज्ञानं, सम्यग्दर्शनाऽनुपलब्धेः॥१०६।। विधेयेन मिथ्याज्ञानेन विरुद्धं सम्यग्ज्ञानं, तत्सहचरं सम्यग्दर्शनं, तस्याऽनुपलब्धिरेषा / / 106 // रत्ना०३ परि० / अथाऽनुपलब्धेः प्रामाण्यविचारः - यदपि- प्रत्यक्षदेरनुत्पत्तिः, प्रमाणाऽभाव उच्यते / साऽत्मनोऽपरिणामो वा, विज्ञानं वाऽन्यवस्तुनि // 1 // (सेति) प्रत्यक्षादिअनुत्पत्तिः आत्मनो घटादिग्राहकतया परिणामाऽभावः प्रसज्यपक्षे / पर्युदासपक्षे पुनरन्यस्मिन् घटविविक्तताऽऽख्ये वस्तुनि अभावे घटो नाऽस्तीति विज्ञानमित्यभावप्रमाणमभिधीयते / तदपि यथासंभवं प्रत्यक्षाद्यन्तर्गतमेव / तथाहि- गृहीत्वा वस्तुसद्भाव, स्मृत्वा च प्रतियोगिनम् / मानसं नाऽस्तिताज्ञानं, जायतेऽक्षानपेक्षया ||1 / / इतीयमभावप्रमाणजनिका सामग्री। तत्रच भूतलादिकं वस्तु प्रत्यक्षेण घटादिभिः प्रतियोगिभिः संसृष्टमसंसृष्ट वा गृह्येत?नाऽऽद्यः पक्षः। प्रतियोगिसंसृष्टस्य भूतलादिवस्तुनः प्रत्यक्षेण ग्रहणे तत्र प्रतियोग्य-भावग्राहकत्वेनाऽभावप्रमाणस्य प्रवृत्तिविरोधात्। प्रवृत्तौ वा न प्रामाण्यम्, प्रतियोगिनः सत्त्वेऽपि तत्प्रवृत्तेः / द्वितीयपक्षे त्वभाव-प्रमाणवैयर्थ्यम्,प्रत्यक्षेणैव प्रतियोगिनां कुम्भादीनामभावप्रतिपत्तेः। अथ न संसृष्टं नाऽप्यसंसृष्टं प्रतियोगिभिर्भूतलादि-वस्तु प्रत्यक्षेण गृह्यते, वस्तुमात्रस्य तेन ग्रहणाऽभ्युपगमादिति चेत् ? तदपि दुष्टम्। संसृष्टत्याऽसंसृष्टत्वयोः परस्परपरिहारस्थितिरूपत्वेनैक-निषेधे अपरविधानस्य परिहर्तुमशक्यत्वादिति / सदसद्रुपवस्तु Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुवलद्धि 413 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुवह ग्रहणप्रवणेन प्रत्यक्षेणैवाऽयं वेद्यते / क्वचित् तु तदघट भूतल-मिति निरंशभावै क रूपत्वाद्वस्तु नस्तत्स्वरूपग्राहिणाऽध्यक्षेण स्मरणेन, तदेवेदमघट भूतलमिति प्रत्यभिज्ञानेन, योऽग्निमान्न भवति, तस्य सर्वात्मना ग्रहणादगृहीतस्य चापरस्यासदंशस्यतत्राभावात् कथं नाऽसौ धूमवानिति तर्केण, नाऽत्र धूमोऽनग्नेरित्यनुमानेन, गृहे गर्गो तद्व्यवस्थापनाय प्रवर्तमानमभावाख्यं प्रमाण प्रामाण्यं श्रुतमस्तु इति नाऽस्ति इत्यागमेनाभावस्य प्रतीतेः, क्वाऽभावप्रमाणं प्रवर्तताम् ? / वक्तव्यम्, यतः सदसदात्मके वस्तुनि प्रत्यक्षादिना तत्र रत्ना०२ परि०। अर्थस्याऽसन्निकृष्टस्य सिद्ध्यर्थं प्रमाणाऽन्तराप्रमा- सदंशग्रहणेऽप्यगृहीतस्यासदंशस्य व्यवस्थापनाय प्रमाणाभावस्य भावमभावाऽऽख्यं वर्णयन्ति / तथाऽपरे- अभावोऽपि प्रमाणाऽभावो प्रवर्तमानस्य न प्रामाण्यव्याहतिः। तदुक्तम् - नास्तीति, अर्थस्यासन्निकृष्टस्येति वचनात्। अन्ये- पुनरभावाख्यं प्रमाणं स्वरूपपररूपाभ्यां, नित्यं सदसदात्मके। विधा वर्णयन्ति / प्रमाणपञ्चकाऽभावलक्षणोऽनन्तरोक्तो भावः / वस्तुनि ज्ञायते किञ्चित, रूपं कैश्चित कदाचन।।१।। प्रतिषिध्यमानाद्वा, तदन्यज्ञानमात्मा वा, विषयरूपेण तन्निवृत्त स्वभाव यस्य यत्र यदोद्भूतिर्जिघ्रिक्षा चोपजायते। इत्यनेन च भावप्रमाणेन, प्रदेशादौ घटादीनामभावो गम्यते। तदुक्तम् वेद्यतेऽनुभवस्तस्य, तेन च व्यपदिश्यते॥२॥ प्रमाणपञ्चकं यत्र, वस्तुरूपेण जायते। तस्योपकारकत्वेन, वर्ततेऽशस्तदेतरः। वस्तुसत्ताऽववोधार्थं, तत्राऽभावप्रमाणता ||1|| उभयोरपि संचिन्त्यो-रुभयानुगमोऽस्ति तु॥३॥ प्रत्यक्षादेरनुत्पत्तिः, प्रमाणाभाव उच्यते। प्रत्यक्षाद्यवतारस्तु, भावांशो गृह्यते यदा। सात्मनोऽपरिणामो वा, विज्ञानं वाऽन्यवस्तुनि // 2 // व्यापारस्तदनुत्पत्तेरभावांशे जिक्षितः / / 4 / / न च भावांशादभिन्नत्वादभावांशस्य तद्ग्रहणे तस्यापि ग्रह इति, न च प्रत्यक्षेणैवाभावोऽवसीयते, तस्याभावविषयत्वविरोधात् / सदसदंशयोर्धय॑भेदेऽपि भेदाऽभ्युपगमात्। उक्तं चभावांशेनैवेन्द्रियाणां संयोगात् / तदुक्तम्- "न तावदिन्द्रियेणैषा, ननु भावादभिन्नत्वात्, संप्रयोगोऽस्ति तेन च। नास्तीत्युत्पद्यते मतिः। भावांशेनैव संवेद्या, योग्यत्वादिन्द्रियस्य न ह्यन्यत्वमभेदोऽस्ति, रूपादिवदिहापि न॥१॥ हि" ||1|| नाऽप्यनुमानेनासौ साध्यते, हेत्वभावात् / न च धर्मयोर्भेद इष्टोऽपि, धर्मं भेदेऽपि नः स्थिते। प्रदेश एव हेतुः, तस्य साध्यधर्मित्वेनाभ्युपगमात् / न चैवमपि उद्भवाभिभवात्सत्त्वात्, ग्रहणं चावतिष्ठते॥२।। इत्यादि। हेतुः प्रतिज्ञा, अर्थकदेशताप्राप्ते: / न च प्रदेशविशेषो धर्मः, तदेवमगृहीतप्रमेयाऽभावग्राहकत्वात् प्रमाणभावस्य प्रमाण-त्वम्, तत्सामान्यहेतुः, तस्यघटाऽभावव्यभिचारात्। न हि सर्वत्र प्रदेशघटाभावः प्रत्यक्षादिष्वनन्तर्भावात् / प्रमाणान्तरत्वं च व्यवस्थितम् / सम्म०। शक्यः साधयितुम् सघटस्यापि प्रदेशस्य संभवात्। अथ घटाऽनुपलब्ध्या (सम्मतितग्रन्थेऽस्मिन् विषये विशेषोऽन्वेष्टव्यः) प्रदेशे धर्मिणि घटाऽभावः साध्यते / असदेतत् / साध्यसाधनयोः कस्यचित् संबन्धस्याभावात् / तस्मादभावोऽपि प्रमाणान्तरमेव / न अणुवलब्भमाण-त्रि०(अनुपलभ्यमान)अदृश्यमाने, "अणुवलभचाऽभावस्य तद्विषयस्या-ऽभावादभावप्रमाणान्तरवैयर्थ्यम् / माणो वि सुहदुक्खमाइएहिं" / दश०१ अ०॥ प्रागभावादिभेदेन चतुर्विधस्य वस्तुरूपस्याऽभावस्य भावात् / अन्यथा | अणुववायकारग-त्रि०(अनुपपातकारक) उप समीपे, पतनं कारणादिविभागतो व्यवहारस्य लोकप्रतीतस्याऽभावप्रसङ्गात् / न च स्थानमुपपातो दृग्विषयदेशावस्थानम्, तत्कारकस्तदनुष्ठाता तद्भिन्नो स्या व्यव-हारोऽयं, कारणादिविभागतः / प्रागभावादिभेदेन, नाऽभावो गुर्वादशादिभीत्या तदव्यवहितदेशस्थायिभिन्नः गुरूणां दृग्विषये यदि भिद्यते॥११ अभावस्य च प्रागभावादिभेदाऽन्यथानुपपत्ते-रपित्त्या स्थित्यकारकः, तस्मिन्, उत्त०१अ० आदेशभयाद्दूर तिष्ठति। उत्त०१ वस्तुरूपताऽवसीयते। तदुक्तम्-नचाऽवस्तुनएतेस्युः, सदा तेनाऽस्य अ०। वस्तुता / कार्यादीनामभावः स्यादित्येवं कारणं विना ||1|| इति / | अणु वसंत-त्रि०(अनुपशान्त) उपशान्तो जितकषायः, न अनुमानप्रमाणाऽवसेया वाऽभावस्य वस्तुरूपा / यदाह- उपशान्तोऽनुपशान्तः। सकषाये, उत्त०१६ अ०।उपशमप्रधाने, सूत्र०२ "यद्वाऽनुवृत्तिव्यावृत्तिबुद्धिग्राह्यो यतस्त्वयम्। तस्माद् गवादिव वस्तु, श्रु०२ अ०। निर्विकारे, स्था०। प्रमेयत्वाच्च गृह्यताम्" ||1|| अभावस्य चतुर्की व्यवस्था- प्रागभावः, अणुवसमंत-त्रि०(अनुपशमयत्) अनुपशमं कुर्वति, व्य०१ उ०। प्रध्वंसाऽभावः, इतरेतराऽभावः, अत्यन्ताऽभावश्चेति। तत्रक्षीरे दद्ध्यादि यन्नास्ति, प्रागभावः स उच्यते। अणुवसु-पुं०(अनुवसु) वसु द्रव्यं, तद्भूतः कषायकालिका-- ऽऽदिमलापगमाद् वीतराग इत्यर्थः / तविपर्ययेणाऽनुवसुः / नास्तिता पयसो दध्नि, प्रध्वंसाभावलक्षणम्॥१॥ गवि योऽश्वाद्यभावस्तु, सोऽन्योऽन्याभाव उच्यते। सरागे, वसुः साधुः, अनुवसुः श्रावकस्तमिन्, "वीतरागोवसुर्जेयो, जिनो शिरसोऽवयवा निम्नाः, वृद्धिकाठिन्यवर्जिताः / / 2 / / वासंयतोऽथवा। सरागोऽह्यनुवसुः प्रोक्तः, स्थविरः श्रावकोऽथवा // 1 // शरो शृङ्गादिरूपेण, सोऽत्यन्ताऽभाव उच्यते। वसुवा अणुवसुवा जाणित्तु धम्मंजहातहा। आचा०१ श्रु०६ अ०२ उ०। यदि चैतद् व्यवस्थापकमभावाख्यं प्रमाणं न भवेत्, तदा अणुवस्सियववहारकारि(ण)-त्रि०(अनुपश्रितव्यवहारकारिन्) निश्रा प्रतिनियतवस्तुव्यवस्था दूरोत्सारितैव स्यात्। तदुक्तम् रागः, निश्रा संजाता अस्येति निश्रितः, न निश्रितोऽनिश्रितः, स चाऽसौ क्षीरे दधि भवेदेवं, दधिन क्षीरं घटे पटः। व्यवहारश्च अनिश्रितव्यवहारः, तत्करणशीला अनिश्रितव्यवहारकारिणः। शशे शृङ्ग पृथिव्यादौ, चैत्यन्यं मूर्तिरात्मनि।।१।। रागेण व्यवहार-कारिणि, व्य०१ उ०॥ अप्सु गन्धो रसश्चाग्नौ, वायौ रूपेण तो सह। अणुवह-अव्य०(अनुपथ) पथः समीपे, ! अनुपथमेवाऽस्मदवसथो भवता व्योम्नि तु स्पर्शता ते च, न चेदस्य प्रमाणता / / 2 / / वर्तेत। आचा०१ श्रु०८ अ०१ उ०। Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुवह 414 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुवास *अनुपध-त्रि०ा भावत उपधाऽयुक्ते, पं० सं०२ द्वा०। अणुवहय-त्रि०(अनुपहत) न०त०। अग्न्यादिभिरविध्वस्ते, पिं०। अणुवहयविहि-पुं०(अनुपहतविधि) अनुत्पन्नमुत्पाद्य दाने, गुरुभिर्दत्तस्य अन्यस्य गुरूननुज्ञाप्य दाने वा / अनुपहतविधिर्यदनुत्पन्नमुत्पाद्य ददाति / अन्ये तु व्याचक्षते- यत्पुनस्तस्य गुरुभिर्दत्तं तत् सोऽन्यस्य गुरूनननुज्ञाप्य ददाति।''अणुवहियं जं तस्स उ, दिन्नं तं देह सो उ अन्नस्स" यत् तस्य दत्तं सोऽन्यस्मै गुरूननुज्ञाप्य ददाति। क्षमाश्रमणैस्तुभ्यमिदं दत्तमित्येषो-ऽनुपहतविधिः / व्य०१ उ०। अणुवहास-त्रि०(अनुपहास) अविद्यमानोपहासे, पञ्चा०६ विव० / अणुवहुआ-देशीo-नववध्वाम, दे०ना०१ वर्ग। अणुवाइ(ण)-त्रि०(अनुपातिन्) अनुपतत्यनुसरतीत्येवंशीलः। स्था०९ ठा०ा योग्ये, अणुवाइ सव्वसुत्तस्स। पं०व०२ द्वा०ा अनु-वदितुं शीलमस्येत्यनुवादी। अनुवादशीले, सूत्र०१ श्रु०१२अ०। अणुवाएज-त्रि०(अनुपादेय) हेये अग्रहीतव्ये, आ०म०द्वि०। अणुवाणहय-त्रि०(अनुपानत्क) न विद्यते उपानही यस्य सोऽयमनुपानत्कः / उपानहोरधारके, षो०१ विव०। अणुवाय-पुं०(अनुताप) संयोगे, भ०१२श०४ उ०। *अनुपात-पुं० / अनुसरणे, प्रज्ञा०१७ पद / अनुपतनमनुपातः। शब्दोच्चारणरूपाऽनुदर्शनादौ, उपा०१ अ०॥ *अनुवात-पुं० आघ्रायकविवक्षितपुरुषाणामनुकूले वाते, जं० 1 वक्ष०ा राका अनुकूलो वातो यत्र देशे सोऽनुवातः / यस्माद् देशाद् वायुरागच्छति तत्र, भ०१६ श०६ उ०। *अनुवाद-पुं० विधिप्राप्तस्य वाक्याऽन्तरेण कथने, वाचा "द्वादश मासाः संवत्सरोऽग्निरुष्णोऽग्निर्हिमस्य भेषजम्' इत्यादीनि तु वेदवाक्यान्यनुवादप्रधानानि, लोकप्रसिद्धस्यैवाऽर्थस्यैतेष्वनु-वादात्। विशे०। अणुवायवाय-पुं०(अनुपायवाद) षष्ठे मिथ्यात्ववादे, नयो०। अणुवालय-पुं०(अनुपालक) आजीविकोपासकभेदे, भ०२४ श०२० उ०। अणुवास-पुं०(अनुवास) वर्षावासे ऋतुबद्धे वा उषित्वा पुनस्तत्रैव पश्चाद् वसने, अशिवादिकारणेषु वृद्धादिवासे वा वसने च। तत्र कल्पः...............अहुणा अणुवासणापकप्पं तु। वोच्छामि गुरूवदेसा, अणुग्गहट्ठा सुविहियाणं / / अणुवासम्मि तु कप्पो, पन्नवग पडच बहुविहा अत्था। अणुवासणए पगतं, सुद्धा य तहा असुद्धाय। अणुवासत्थो बहुहा,उउवासे वण अहव असिवादि। बुड्ढादी वासोवा, अहवा अणुवसणमणुवासो। वसितं पुणो वि वसती,अणुवासिगवसहिसमइगीसण्हा। तीयहिगारो एत्थं, सा होज्जा सुद्धऽसुद्धो वा।। पट्टीवंसादीहिं, वंसगकरणादिएहिं तह चेव। होति असुद्धा वसही, मूलगुण उत्तरगुणे य तहा॥ कालद्धयातिरित्तं, अविसुद्धासु च तासु वसमाणो। पावति पायच्छित्तं, मोत्तूणं कारणमिमेहिं / / असिवे ओमोयरिए, रायढे भए व आगाढे। गेलण्ह उत्तमढे,चरित्तसज्झातिए असती॥ वाहिं सव्वत्थ सिवं, तेण सया कालदुयगम्मि। पुणो वि य णहु णिगुच्छे, अणुपच्छा भाव अणुवासी। आलंबणे विसुद्धे, सुद्धदुतं परिहरे पयत्तेणं / आसज्ज तु परिभोगं, भयणा पडिसेवसंकमणे / / असिवादीहिँ वसंतो, सुद्धाए वसहीऍ वसे साहु / सुद्धासतीऐं जतती, विसोहिकोडीऍ पुव्वं ति। भयणत्ती जं भणितं, पुव्वत्ताए तु जेतु जे दोसा। ते ते पुच्वं सेवे, कम्मण्णे वी इमा भयणा // अप्पावहं तु लेउ, जत्थ गुणा तू भवेज बहुतरगा। गच्छं गच्छंताण व, तं चेव तहिं करेजा तु // असिवादिनिट्ठिए पुण, अव्वक्खेवेण संकमे तत्तो। सत्थं तु पडिच्छंतो, जइ अत्थे तत्थ सुद्धो तु॥ एतं णयरविहूर्ण, अणुवासियं जेतु अणिवसे कप्पं / कालद्धयावराहे, संवड्डितमोऽवराहाणं॥ संवडितावराहे, तवोवछेदो तहेव मूलं वा। आयारपकप्पे जं-पमाणणेमाण चरमम्मि // अणुवासियाएँ कप्पो, एमे सो वण्णितो समासेणं / पं० भा०। इयाणिं अणुवासकप्पो-तत्थ(गाहा) (अणुवासम्मिउ) अणुवासोनाम वासावासओ उवद्ध वा वसित्ता तत्थेव अणुवसइ, उवद्धे मासलहु, वासे चउलहु। तत्थ पुण बहुविहा सुत्तत्था। जहा पत्थेव कप्पे ठिए मासकप्पसुत्ते एत्थ पुण अहिगारो अणु-वासिज्जतीति / अणुवासिया का पुण सा ? वसही सुद्धा य, असुद्धा य / असुद्धा पट्ठीवं सोवसग्गक डणो वंठणादि(गाहा)(असिवे) असिवाइसु कारणेसु असुद्धाए वि वसति रायदुढे कोप्परपल्ली वा सोयाणि वा तत्थ तत्थि जाणि बाहिरएहिं खेत्तेहिं संजयाणि दोसकरणाणि भए व बोधिगादिसु गेलण्णउत्तिमढे चरित्त इस्थि दोस एसणा दोसा असज्झाए वा असइ वा गुणाणं जे तम्मि वसहीए (गाहा)(आलंबणे) एवं आलंबणविसुद्धा सत्तदुए परिहरेज्जा जुत्तेण परिभोगपुण मासज्ज गुणपरियट्टित्ति भणिय होइ भणिया पडिसेहसंकमणे गुणवुड्डिनिमित्तं अच्छेजान सकेज्जा अण्णं वसहि खेत्तं वा एएसुपुण कारणेसु विणासो अणुवासियं परिवसइ तस्स संघट्टियावराहे, एस अणुवासणाकप्पो। पं० चू०। ...........अहुणा वोच्छंऽणुवासणाकप्पं। अणुवासमासकप्पो, वासावासो इमेसुं तु॥ जिणथेर अहालंदे, परिहारितअज्जमासकप्पो तु। Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुवास 415 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुवास खेत्ते कालमुवस्स-पिंडग्गहणे य णाणत्तं। एएसिं पंचण्ह वि, अण्णोण्णस्स चउपदेहिं तु। खेत्तादीहि विसेसो, जह तह वोच्छं समासेणं / / णत्थि उ खेत्तं जिणकप्पियाण उउबद्धमासकालो तु। वासासु चउमासो, वसही अममत्त अपरिकम्मा। पिंडो तु अलेवकडो, गहणं तु एसणा उवरिमादि। तत्थ वि काउमभिग्गह, पंचण्हं अण्णतरियाए॥ थेराण अत्थि खेत्तं, तु उग्गहो जाव जोयणसकोसं। णगरं पुण वसहीए, विकालउउबद्धमासो तु // उस्सग्गेणं भणिओ, अववाएणं तु होज्ज अहिओ वि। एमेव यवासासु वि, चउमासो होज अहिओ वि॥ अममत्त अपरिकम्मो, उवस्सओ एत्थ भंगचउरोतु। उस्सग्गेणं पढमो, तिहि उसेसाऽववादेणं॥ भत्तं लेवकरं वा, अलेवकडं वा वि ते तु गेण्हति / सत्तर्हि वि एसणाहिं,सावेक्खो गच्छवासो त्ति॥ अहलंदियाण गच्छे, अप्पडिबद्धाण जह जिणाणं तु / णवरं कालविसेसो, उउवासे पणगचउमासो।। गच्छे पडिबद्धाणं, अहलंदिणं तु अह पुण विसेसो। उगहो जो तेसिं तू, सो आसरियाण आभवति।। एगवसही, पणगं, छचिउ ववगाम कुवंति। दिवसे दिवसे अण्णं, अडंति विहीय णियमेणं / / परिहारविसुद्धीणं,जहेव जिणकप्पियाण णवरं तु। आयंबिलं तु भत्तं, गेण्हंति य वासकप्पं च // अजाण परिग्गहियाण, उग्गहो लोतु सो तु आयरिए। काले दो दो मासा, उउबद्धे तासि कप्पो तु॥ सेसं जह थेराणं, पिंडो य उवस्सओ य तह तासिं। सो सव्वो विय दुविहो, जिणकप्पो थेरकप्पो य॥ जिणकप्पि अहालंदी,परिहार विसुद्धियाण जिणकप्पो। थेराणं अजाण य, बोधव्वो थेरकप्पो तू॥ दुविहो य मासकप्पो, जिणकप्पो चेव थेरकप्पो य। णिरणुग्गहो जिणाणं, थेराण अणुग्गहपवत्तो। उउवासकालऽतीते, जिणकप्पीणं तु गुरुगाय। हॉति दिणम्मि दिणम्मि वि, थेराणं तेचिय लहू तु। तीसं पदाऽवराहे, पुट्ठो अणुवासियं अणुवसंतो। जे तत्थ पदे दोसा, ते तत्थ तगो समावण्णो / पण्णरसुग्गमदोसा, दस एसणा एऍ पुण वीसं। संयोजणादि पंचय, एते तीसं तु अवराहा।। एतेहिं दोसेहिं, जदि असंपत्ति लग्गती तह वि। दिवसे दिवसे सो खलु, कालातीते वसंतोतु / / वासावासपमाणं, आयारे उप्पमाणितं कप्पं / एयं अणुमोयंतो, जाणसु अणुवासकप्पं तु // आयारपकप्पम्मी, जह भणियं तीत संवसंतो वि। होति अणुवासकप्पो,तह संवसमाणदोसातु / / दुविहे विहारकालें, वासावासे तहेव उउबद्धे। मासातीते अणुवहि, वासातीते भवे उवही। उडुबद्धिएसु अट्ठसु, तीतेसुं वास तत्थ ण तु कप्पो। घेत्तूणं उवही खलु, वासातीतेसु कप्पति तू॥ वास उउ अहालंदे, इत्तिरिसाहणे पुहत्ते य। उग्गहसंकमणं वा, अण्णोण्णसकासहिजंतो।। वासासु चउम्मासो, उउबद्धे मासलंद पंचहिणा। इत्तिरिउ रुक्खमूले, वीसमणट्ठा वि ताणं तु॥ साहारणा तु एते, समट्ठिताणं बहूण गच्छाणं / एक्केण परिग्गहिता, सव्वे पोहत्तिया होंति॥ संकमणमन्नसण्णस्स सकासे जदितु ते अहीयंते। सुत्तत्थ तदुभयाई, संघे अहवा विपडिपुच्छे।। ते पुण मंडलियाए, आवलियाए व तं तु गेण्हेजा। मंडलियमहिजंते, सचित्तादी तु जो लाभो // सो तु परंपरएणं, संकमती ताव जाव संठाणं / जहियं पुण आवलिया, तहियं पुण अंतए ठाति / / तं पुण ठितएक्काए, वसहीए अहव पुप्फकिण्णाओ। अहवा वितु संकमणो, दव्वस्सिणमो विही अण्णो।। सुत्तत्थ तदुभयविसा-रयाण थोवे असंतती भोए। संकमणदव्वमंडलि-आवलियाकप्पअणुवासे॥ पुव्वहिताण खेत्ते, जदि आगच्छेञ्ज अण्णआयरिओ। बहुसु य बहु आगमिओ, तस्स सगासम्मि जदि खेत्तो।। किंचि अहिज्जेज्जाही, थोवं खेत्तं च तं जदि हवेज्जा। ता ते असंथरंता, दोण्णि वि साहू विभजेंति॥ अण्णोण्णस्स सगासे, तेसिं पिय तत्थ धिज्जमाणेणं / आभवणा तह चेवय, जह भणियमणंतरे सुत्ते।। एवं णिव्वाघाते,मासचउमासतो उथेराणं। कप्पो कारणतो पुण, अणुवासो कारणं जाव 10 एसऽणुवासणकप्पो................. पं० मा०। इयाणिं अणुवासणकप्पो-(गाहा)(जिणथेर) सो पुण अणु-वासकप्पो जिणथेरअहालंदिय परिहारविसुद्धी य अज्जाणंति एगेगाओ एगस्स बहु ठाणेहिं खेत्तकालउवस्सयपिंडग्गहणे य नाणत्तं जिणस्स ताव खेत्त नत्थि काले उउबद्धे मासोवासारत्तेचाउम्मासो उवस्सओ अममत्तो अपडिकम्मो भिक्खा अलेवाडा खेत्तोग्गहो थेराणं अस्थि सक्कोसं जोयणं नगरे वसहि उग्गहो तेसिं कालओ मासंवामासाइयं वा उउम्मिकारणमकारणेवासासु चाउमासंवा निक्कारणे कारणे पुण ऊणाहियं उवस्स उउस्सग्गेण अममत्तो अपरिकम्मोय अववाएण ससमत्तो सपरिकम्मोय पिंडोलेवाडो अलेवाडो य अहालंदियाण गच्छे अपडिबद्धाणं जहा जिणाणं नवरिकाले छाभागे गामो कीरइ एगेगो भागे पंचदिवसं भिक्खं हिंडंति, तत्थेव वसंति Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुवास 416- अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुव्वय वासासु एगत्थ च उम्मासो एवं परिहारियाण वि जहा जिणाणं णवरि / चतुर्गुरु, आज्ञादयश्च दोषाः / नि०चू०११ उ०। उपासकः श्रावक आयंबिलेण मासो सव्वो वि दुविहो जिणकप्पो थेरकप्पो य, इतरोऽनुपासकः / अश्रावके, नि०५०८ उ०1 जिणअहालंदिपरिहारविसुद्धियाणं जिणकप्पो अजाणं थेराण य अणुवासणा-स्त्री०(अनुवासना) चर्मयन्त्रप्रयोगेणाऽपानेन जठरे थेरकप्पो गच्छपडिबद्धअहालंदियाणं आयरियाणं चेव सो क्खित्तोग्गहो तैलविशेषप्रवेशने, ज्ञा०१३ अ० विपा०। व्यवस्थापनायाम, आचा०१ संजयणगीयत्थपरिग्गहियाणं अत्थिखेत्तं सो आयरियाणं चेव जिणकप्पो श्रु०६ अ०१ उ० निरणुग्गहो असिवादओ कारणा नत्थि थेरकप्पो साणुग्गहो असिवाइसु अणुवि(वि)म्ग-त्रि०(अनुद्विग्न) न०त०। प्रशान्ते, "चरे मंदमणुव्विग्गे, कारणेसु कालाइए उउम्मि जिणाण गुरुओ मासो दिणे दिणे थेराण लहुओ अविक्खित्तेण चेयसा''। दश० 5 अ०१ उ०। अनुद्विग्नः क्षुधादिजयात् मासो दिणे दिणे तम्मि खेत्ते अत्यंताणं चउम्मासाइयं जिणाणं तम्मि चेव प्रशान्त इति। बृ० 10 // खेत्ते दिणे दिणे चउगुरुंथेराणं दिणे दिणे चउलहुं (गाहा)(तीसपयाऽवराहे अणुविरइ-स्वी०(अनुविरति) देशविरतौ, कर्म०१ कर्म01 ति) सोलस उग्गमदोसा, संजोयणाई पंच दस एसणा दोसा, लाडपरिवाडीए पन्नरस उम्गमदोसा पंच संजोयणमाइ तत्थ छूढा एसा अणुवीइ-अव्य०(अनुविचिन्त्य) अनु-वि-चिति-ल्यप् / वीसा दस एसणा दोसा एए तीसपयावराहेति तेसिं अहवा दिवसे दिवसे पर्यालोच्येत्यर्थे, प्रश्न०२ संव० द्वा० / आलोच्येत्यर्थे, दश० अवराहो तीस दिणामासो जम्मि आवज्जइ जयमाणो वि अत्यंतो निक्कारणे 7 अ०। केवलज्ञानेन ज्ञात्वेत्यर्थे, सूत्र०१ श्रु०१० अ०। तेणलगइ(गाहा) (वासावासपमाणं) वासावासपमाणंच एयं आयारकप्पे *अनुवाच्य-अव्य० / आनुकूल्यं वाचयित्वेत्यर्थे, सूत्र०१ श्रु० भणियं तम्मि अइक्कतो उग्गहकाले अणुवसंतस्स अणुवासिया भवइ 4 अ०१ उ०। (गाहा)(दुविहे विहारकाले) अइकते अट्ठहिं मासेहिं अइएहिं वासं | अणुवीइभासि(ण)-पुं०(अनुविचिन्त्यभाषिन्) अनुविचिन्त्य पडिवजइ तत्थोवही न घेप्पइ वासे अइए घेप्पइ (गाहा) (वास उउ) पर्यालोच्य भाषते इत्येवंशीलोऽनु विचिन्त्यभाषी / व्य० एएसिं ठियाणं जइ बहुया एक्कम्मि खेत्ते ठिया होज्जा वासासु उउम्मि वा 1 उ०स्वालोचितवक्तृरूपे वाचिकविनयभेदे, दश०१ अ०। अहालंदि पंच दिवसा जाव साहरणा पुहुत्ते वा इरित्तिए वा रुक्खहे अणुवीइसमिइजोग-पुं०(अनुविचिन्त्यसमितियोग) अनुविचिन्त्य संकमणं एगो एगस्स मूले दसवेयालिअंउज्जुयारेइतस्स पुण दस वेयालियं पर्यालोच्य भाषणरूपा या समितिः सम्यक्प्रवृत्तिः साऽनुविचिन्त्यउञ्जयारे तस्स मूले अन्हो उत्तरज्झयणाणि पढइ जं उत्तरज्झयणाइत्तो समितिस्तयोर्योगः संबन्धस्तद्रूपो वा व्यापारो वाऽनुचिन्त्य समितियोगः / सचित्ताइ लब्भइ तं दसवेयालियाइ तस्स देइ दोसो उत्तरज्झयणं भाषासमितियोगे, प्रश्न०२ संव० द्वा०॥ उज्जुयारेइ तस्स मूले अन्नो बंभचेरे उज्जुयारेइ जाव विवागसुयं अणुवूहण-न०(अनुव्यूहन) प्रशंसने, कल्प। जहोत्तरापलिया सट्ठाणं चेवएइ दसवेयालियइत्तस्स अत्थेपुण एगो एगस्स अणुवेदयंत-त्रि०(अनुवेदयत्) अनुभवति, सूत्र०१ श्रु०५ अ० मूले आवासगाहाओ पढइ अन्नो पुण आवस्सकस्स अत्थंकहेइ अत्थइत्तो 1 उ०॥ वलिओ वा एगो दसवेयालियस्स सुत्ते वाएइ एगो अत्थं कहेइ अत्थइत्तो बलिओ एगो उत्तरज्झयणा वाएइ एगो अत्थं कहेइ अत्थइत्तो बलिओएवं अनुवेहमाण-त्रि०(अनुप्रेक्षमाण) अनुप्रेक्षां कुर्वति, "घुणे उरालं जाव विवागसुयं सव्वत्थ अत्थो बलिओ एगो पन्नत्तिं वाएइ एगो अणुवेहमाणे, विचाण सोयं अणवेक्खमाणे" सूत्र०१० अ० दसवेयालियाइणं जाव कप्पव्ववहाराणं अत्थं कहेइ, अत्थइत्तो बलिओ | अणुवी-देशी- तथत्यथे, देना०१ वग। एवं जाव विवागसुयं एगो कप्पव्यवहारे कहेइ एगो दिडिवाइसुत्ते वाएइ | अणुव्वय(अ)-न०(अणुव्रत) अणूनि लघूनिव्रतानि अणुव्रतानि / लघुत्वं सुत्तइत्तो बलिओ सव्वत्थ पुव्वगयइत्तो बलिओ जत्थ वा मंडली ठिज्जइ चमहाव्रतापेक्षयाऽल्पविषयत्वादिनेति प्रतीतमेवेति। उक्तं च - "सव्वगयं हेडिल्लाणं तत्थ पावइ सचित्ताइ ते पुण एगाए वसहीए ठिया पुप्फावकिन्ना सम्मत्तं, सुए चरितेन पजवा सव्वे। देसविरई पडुच, दोण्ह विपडिसेवणं वा (गाहा) (सुत्तत्थ) अहवा एगम्मि गामे एगो खारिओ सुत्तत्थविसारओ कुजा" / / 1 / / इति / अथवा सर्वविरताऽपेक्षयाऽणोर्लघोर्गुणिनो पुवडिओ तस्स अन्ने पासे पढंति, तं च खेत्तं थोवं अपञ्जत्ते भत्तपाणे दो व्रतान्यणुव्रतानि / स्था० 5 ठा० 1 उ० विजणा पढंतएओवेऊणं संजए विसज्जेति अण्णं खेत्तं महितेसिं अन्नगाम | *अनुव्रत-न०। अनु महाव्रतस्य पश्चादप्रतिपत्तौ यानि व्रतानि कथ्यन्ते गयाणं परोप्परस्स पढ़ताणं तहेव संकमणट्ठाणं सचित्ताइ दव्दे जाव तान्यनुव्रतानि इति। उक्तं च-"जइधम्मस्स समत्थे, जुजइ तद्देसणं पि आवलिया सट्ठाणगयंति (गाहा) (एसो उ) कालकप्पो निव्वाघाएण साहूणं / तदहिगदोसनिवत्ती, फलंति काया-ऽणुकंपटुं" // 1 // इति / वासासु चाउम्मासे उउम्मि अह्रमासे कारणे पुण थेराणं जाहे अणुवासो स्था०५ ठा०१ उ०। श्रा०ा आतु०॥ध०। भवइ जावतं कारणं समत्तं असिवाइ ताव अणुवासंता विजयंता सुद्धा, श्रावकयोग्येषु देशविरतिरूपेषु स्थूलप्राणाऽतिपातविरमाणा ऽऽदिषु, एस अणुवासकप्पो। पंचू०। तानि चअणुवासग-पुं०(अनुपासक) न उपासकः श्रावकोऽनुपासकः। पंचाऽणुव्वया पण्णत्ता? तं जहा-थूलाओ पाणाइवायाओ रमणं, मिथ्यादृष्टी, स च ज्ञातकोऽज्ञातकश्च, नायकोऽनायकश्चेति द्विधा / थूलाओ मुसावायाओ वेरमणं,थूलाओ अदिन्नाऽऽदाणाओवेरमणं, "अणुवासगो वि नायगमनायगो य" एतस्य द्विविधस्याऽपि प्रव्राजने | सदारसंतोसे, इच्छापरिमाणे। Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुव्वय ४१७-अभियानराजेन्द्रः-भाग 1 अणुव्यय स्थूला द्वीन्द्रियादयः सत्त्वाः, स्थूलत्वे चैतेषां सकललौकिकानां जीवत्वप्रसिद्धः, स्थूलविषयत्वात् स्थूलं, तस्मात् प्राणा-ऽतिपातात्। तथा स्थूलः परिस्थूलवस्तुविषयोऽतिदुष्टो विवक्षा-समुद्भवः, तस्मात् मृषावादाद् / तथा परिस्थूलवस्तुविषयं चौर्या-ऽऽरोपणहेतुत्वेन प्रसिद्धमतिदुष्टाध्यवसायपूर्वकं स्थूलं, तस्मा-ददत्तादानात् / तथा स्वदारसन्तोषः, आत्मीयकलत्रादन्येच्छा-निवृत्तिरित्युपलक्षणात् परदारवर्जनमपि ग्राह्यम् / तथा इच्छाया धनादिविषयस्याऽभिलाषस्य परिमाणं नियमनमिच्छापरिमाणम्, देशतः परिग्रहविरतिरित्यर्थः / स्था०५ ठा०१ उ०ा आव० उपा०। (सातिचाराणां प्राणातिपातादीनां व्याख्या स्वस्थाने) अस्य ग्रहणविधिःतस्मादभ्यासेन तत्परिणामदाढ्ये यथाशक्ति द्वादशव्रतस्वीकारः, तथासति सर्वाङ्गीणविरतेः संभवाद् विरतेश्च महाफलत्वात्, अन्येऽपिच नियमाः सम्यक्त्वयुक्तद्वादशाऽन्यतखतसंबद्धा एव देशविरतित्वाऽभिव्यञ्जकाः। अन्यथा तु प्रत्युतपार्श्वस्थ-त्वाऽऽदिभावाऽऽविर्भावकाः, यत् 'उपदेशरत्नाकरे' सम्यक्त्वा-ऽणुव्रतादिश्राद्धधर्मरहिता नमस्कारगुणनजिनाऽर्चनवन्दनादि-अभिग्रहभृतः श्रावकाऽऽभासाः श्राद्धधर्मस्य पार्श्वस्था इति। इत्थं च विधिग्रहणस्यैव कर्तव्यत्वात् संग्रहेऽस्य प्रवर्तत इत्यत्र धर्मस्य सम्यग्विधिना प्रतिपत्तौ प्रवर्तत इत्येवं पूर्व प्रतिज्ञातत्वाच तद्ग्रहणविधिमेव दर्शयतियोगवन्दननिमित्त-दिगाकारविशुद्धयः। योग्योपचर्येति विधि-रणुव्रतमुखग्रहे / / 23 / / इह विशुद्धिशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते, द्वन्द्वान्ते श्रूयमाणत्वात् / ततो योगशुद्धिर्वन्दनशुद्धिनिमित्तशुद्धिर्दिक शुद्धिराकारशुद्धिश्वेत्यर्थः / तत्र योगाः कायवाङ्मनोव्यापारलक्षणाः, तेषां शुद्धिः सोपयोगान्तरगमननिरवद्यभाषणशुभ चिन्तनादिरूपा, वन्दनशुद्धिरस्खलितप्रणिपातादिदण्ड क समुचारणासंभान्त कायोत्सर्गादिकरणलक्षणा, निमित्तशुद्धिस्तत्कालोच्छलितशङ्खपणवादिनिनादश्रवणपूर्णजम्भभृङ्गारच्छत्रध्वजचामराद्यवलोकनशुभगन्धाघ्राणादिस्वभावा, दिक्शुद्धिः प्राच्युदीचीजिनचैत्याधिष्ठिताऽऽशासमाश्रयणस्वरूपा, आकारशुद्धिस्तु राजाऽभियोगादिप्रत्याख्यानापवादमुत्कलीकरणात्मिकेति / तथा योग्यानां देवगुरुसार्मिकस्वजनदीनानाथादीनामुचिता उपचर्या धूपपुष्पवस्त्रविलेपनाऽऽसनदानादिगौरवाऽऽत्मिका चेति विधिः। स च कुत्र भवतीत्याह-(अणुव्रतेति)अणुव्रतानि मुखे आदौ येषां तानि अणुव्रतमुखानि साधुश्रावकविशेषधर्माचरणानि, तेषां ग्रहे प्रतिपत्तौ भवतीति सद्धर्मग्रहणविधिः। विशेषविधिस्तु सामाचारीतोऽवसेयः। तत्पाठश्वाऽयम्- पसत्थे खित्ते जिणभवणाइए पसत्थेसु तिहिकरणनक्खत्तमुहुत्तचंदबलेसु परिक्खियगुणं सीसं सूरी अग्गओ काउं खमासमणदाणपुव्वं भणावेइ- इच्छकारि भगवन् ! तुम्हे अम्हं सम्यक्त्वसामायिकं श्रुतसामायिकं देशविरतिसामायिकम आरोवावणीयं नंदिकराणीयं देवं वंदावेह / तओ सूरी सेहं वामपासे ठवित्ता वखंतियाहिं थुईहिं संघेण समं देवे वंदेइ०जाव मम दिसंतु / ततः श्रीशान्तिनाथाराधनार्थं करेमि काउस्सग्गं, 'वंदणवत्तियाए' इत्यादि सत्तावीसुस्सासं काउस्सग्गं करेइ, 'श्रीशान्ति' इत्यादि-स्तुतिं च भणति / ततोद्वादशाऽङ्गयाराधनार्थकरेमिकाउस्सगं 'वंदणवत्तिआए' इत्यादि कायोत्सर्गे नमस्कारचिन्तनम्, ततः स्तुतिः, तओ सुयदेवयाए करेमि काउस्सगं, अन्नत्थ ऊससिएणं० इचाइ / ततः स्तुतिः, एवं शासनदेवयाए करेमिकाउस्सग्गं, अन्नत्थलाया पाति शासनं जैन, सद्यः प्रत्यूहनाशिनी / साऽभिप्रेतसमृद्ध्यर्थं भूयाच्छाशनदेवता / / 1 / / इति स्तुतिः / समस्तवैयावृत्त्यकराणां कायोत्सर्गः,ततः स्तुतिः, नमस्कार पठित्वोपविश्य च शक्रस्तव-पाठः / परमेष्ठिस्तवः 'जय वीयराय !0' इत्यादि। इयं प्रक्रिया सर्वविधिषु तुल्या, तत्तन्नामोच्चारकृतो विशेषः / ततो वंदणपुव्वं सीसो भणइ- इच्छकारि भगवन् ! तुम्हे अम्हं सम्यक्त्वसामायिकं श्रुतसामायिकं देशविरतिसामायिकम्, आरोवावणीयं नंदिकरावणीयं काउस्सग्गं करेहातओ सीससहिओ गुरू सम्यक्त्वसामायिकं श्रुतसामायिकंदेशविरति-सामायिकं आरोवावणीयं नंदिकरावणीयं करेमिकाउस्सगं० इचाइ भणइ। सत्तावीसुस्सासचिंतणं चउवीस-त्थय०भणनं, क्षमा० नमस्कारत्रयरूपनन्दिश्रावणं, ततः पृथक पृथक्नमस्कार-पूर्वकं वारत्रयं सम्यक्त्वदण्डकपाठः। स चाऽयम् "अहं णं भंते ! तुम्हाणं समीवे मिच्छत्ताओ पडिक्कमामि, सम्मत्तं उपसंपज्जामि। तं जहा-दव्वओ खित्तओ कालओ भावओ। दव्वओ णं मिच्छत्तकारणाइंपचक्खामि, सम्मत्तकारणाइंउवसंपज्जामि, नो मे कप्पइ अज्जप्पमिई अन्नउत्थिए वा अन्नउत्थियदेवयाणि वा अन्नउत्थियपरिम्गहियाणि वा अरिहंत-चेइयाणि वंदितएवा नमंसित्तए वा पुब्बिं अणालत्तएणं आलवित्तए या संलवित्तएवा, तेसिं असणंवा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दाउं वा अणुप्पयाउं था, खित्तओ णं इत्थ वा अन्नत्थवा, कालओणं जावजीवाए,भावओणंजाव गहेणं न गहिज्जामि, जाव छलेणं न छलिज्जामि, जाव संनिवाएणं नाऽभिभविजामि, जाव अन्नेण वा केणइ रोगायंकाइणाइ एस परिणामो न परिवडइ, ताव मे एअं सम्मबंसणं नऽन्नत्थ रायाभियोगेणं गणाभिओगेणं बलाभिओगेणं देवयाभियोगेणं गुरुनिग्गहेणं वित्तिकंतारेणं वोसिरामि। ततश्च"अरिहंतो मह देवो जाव०" इत्यादिगाथाया वारत्रयं पाठः। यस्तु सम्यक्त्वप्रतिपत्त्यनन्तरं देशविरतिं प्रतिपद्यते, तस्या-ऽत्रैव व्रतोच्चारः। तओ वंदित्ता सीसो भणइ- इच्छकारि भगवन् ! तुम्हे अम्हं सम्यक्त्वसामायिकं श्रुतसामायिकं, देशविरतिसामायिकम्, आरोवो / गुरुराह- आरोवेमि 1, पुणो वंदित्ता भणइ- संदिसह किं भणामि? गुरु भणइ-वंदिता पव्वेएह 2, पुणो वंदित्ता भणइ-तुम्हे अम्हं सम्मत्तसामाइयं सुयसामाइयं देसविरइसामाइयं आरोवियं इच्छामि अणुसदि,गुरु भणइ-आरीवियं 2 खमासमणाणं हत्थेणं सुत्तेणं अत्थेणं तदुभएणं सम्मं धारिजाहि गुरुगुणेहिं वुड्डिजाहि नित्थारगपारगा होह। सीसो भणइ- इच्छं 3, तओ वंदित्ता भणइ- तुम्हाणं पवेइयं संदिसह साहूणं पवेएमि? गुरुभणइ-पवेएह ४,तओ वंदित्ता एग-नमुक्कारमुच्चरंतो समोसरणं गुरुं च पयक्खिणेइ, एवं तिनि वेला / तओ गुरु निसिज्जाए उवविसइाखमासमणपुव्विं सीसोभणइ-तुम्हाणं पवेइयं साहूणं पवेइयं संदिसह काउस्सगं करेमि? गुरु भणइ-करेह 6, तओ वंदित्ता भणइसम्यक्त्वसामायिकं 3 स्थिरीकरणार्थं करेमि काउस्सग्गमित्यादि, सत्तावीसुस्सासचिंतणं चउवीसत्थय० भणनं। ततः सूरिस्तस्य पञ्चोदुम्बर्यादि 3 यथायोग्यमभिग्रहान् ददाति। तद्दण्डकश्चैवम्- अहं णं भंते ! तुम्हाणं समीवे इमे अभिग्गहे गिण्हामि / तं जहा-दव्वओ खित्तओ कालओ भावओ। दव्वओ णं इमे अभिग्गहे गिण्हामि, खित्तओ णं इत्थ वा अन्नत्थ वा, कालओ णं जावजीवाए, भावओ णं अहागहियभंगएणं अरिहंतसक्खियं सिद्धसक्खियं साहु०देव०अप्प० अन्नत्थऽणाभोगेणं सहस्सागारेणं Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुव्वय ४१८-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुव्वय महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तिआगारेणं वोसिरामि० तत एकाशनादि विशेषतपः कारयति, सम्यक्त्वादिदुर्लभताविषयां च देशनां विधत्ते / देशविरत्यारोपणविधिरप्येवमेव / व्रता-भिलापस्त्वेवम्- अहं णं भंते ! तुम्हाणं समीवे थूलगं पाणाइवायं संकप्पओ निरवराह पञ्चक्खामि, जावजीवाए दुविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए काएणं, न करेमिन कारवेमि, तस्स भंते ! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि॥१।। अहं णं भंते! तुम्हाणं समीवे थूलगं मुसावायं जीहा छेआइहेउं कन्नाऽलीयाई पंचविहं पचक्खामि दक्खिन्नाइअविसए जावजीवाए दुविहमित्यादि०।२।। अहं णं भंते ! तुम्हाणं समीवे थूलगं अदत्तादाणं खेत्तखणणाइ चोरकारकरं रायनिग्गहकरं सचित्ताचित्तवत्थु-विसयं पचक्खामि, जावजीवाए दुविहमित्यादि०॥३॥ अहं णं भंते ! तुम्हाणं समीवे ओरालिय-वेउव्वियभेयं थूलगं मेहुणं पञ्चक्खामि, तत्थ दिव्यं दुविहं तिविहेणं तेरिच्छं एगविहं तिविहेणं, मणुअंअहागहियभंगएणं, तस्स भंते ! पडिकमामि निंदामीत्यादि०॥४॥ अहं णं भंते ! तुम्हाणं सभीवे अपरिमियपरिग्गहं पचक्खामि, धणधन्नाइनवविहवत्थुविसयं इच्छापरिमाणं उवसंपज्जामि, जावजीवाए अहागहियभंगएणं, तस्स भंते ! पडिक्कमामि० इत्यादि ||5|| एतानि प्रत्येकं नमस्कारपूर्व वारत्रयमुचारणीयानि। अहंणं भंते! तुम्हाणं समीवे गुणव्वयतिए उड्डाऽहोतिरिय-गमणवियसयं दिसिपरिमाणं परिवज्जामि० / / 6 / / उवभोगपरिभोगवए भोयणओ अणंतकायबहुबीयराइभोयणाइ परिहरामि / कम्मओ णं पन्नरसकम्मादाणाइं इंगालकम्माइयाई बहुसावज्जाइं खरकम्माई रायनियोगं च परिहरामि० // 7 // अणत्थदंडे अवज्झाणाइअं चउव्विहं अणत्थदंडं जहासत्तीए परिहरामि। जावज्जीवाए अहागहियभंगएणं० तस्स भंते !0 इत्यादि।८त्रीण्यपि समुदितानि वारत्रयम्। अहं णं भंते ! तुम्हाणं समीवे सामाइयं० / / 6 / / देसावगासियं० // 10 // पोसहोववासं० / / 11 / / अतिहिसंविभागवयं विभागवयं च जहासत्तीए पडिवजामि, जायजीवाए आहागहियभंगएणं, तस्स भंते ! . इत्यादि // 12 // चत्वार्यपि समुदितानि वारत्रयम्। इच्चेइयं सम्मत्तमूलं पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं सावगधम्म उवसंपज्जित्ताणं विहरामि। वारत्रयमिति / अथाऽणुव्रतादीन्येव क्रमेण दर्शयन्नाहस्थूलहिंसादिविरति-व्रतभङ्गेन केनचित्। अणुव्रतानिपञ्चाहु-रहिंसादीनिशंभवः // 24|| इह हिंसा प्रमादयोगात् प्राणव्यपरोपणरूपा। सा च- स्थूला सूक्ष्माच। तत्र सूक्ष्मा पृथिव्यादिविषया / स्थूला मिथ्यादृष्टीना-मपि हिंसात्वेन प्रसिद्धा या सा। स्थूलानां वा त्रसानां हिंसा स्थूलहिंसा। आदिशब्दात् स्थूलमृषावादाऽदत्तादानाऽब्रह्मपरिग्रहाणां परिग्रहः / एभ्यः स्थूलहिंसादिभ्यो या विरतिनिवृतिस्ताम्। (अहिंसादीनीति)अहिंसासूनृताऽस्तेयब्रह्मचर्याऽपरिग्रहान् / अणूनि साधुव्रतेभ्यः सकाशात् लघूनि, व्रतानि नियमरूपाणि अणुव्रतानि, अणोर्वा यत्यपेक्षया लघुगुणस्थानिनो व्रतान्यणुव्रतानि / अथवा- अनु पश्चात् महाव्रतप्ररूपणाऽपेक्षया प्ररूपणीयत्वाद् व्रतानि अनुव्रतानि / पूर्व हि महाव्रतानि प्ररूप्यन्ते, ततः तत्प्रतिपत्त्यसमर्थस्याऽनुव्रतानि / यदाहजइधम्मे असमत्थो, जुजइतद्देसणं पि साहुति। तानि कियन्तीत्याह- | (पञ्चेति) पञ्चसंख्यानि, पञ्चाऽणुव्रतानीति बहुवचननिर्देशेऽपि, यद् विरतिमित्येकवचननिर्देशः, सः सर्वत्र विरतिसामान्याऽपेक्षयेति / शंभवःतीर्थकराः,आहुः प्रतिपादितवन्तः। किमविशेषेण विरतिः? न, इत्याह- व्रतभङ्गे नेत्यादि / केनचिद् द्विविधत्रिविधादीनामन्यतमेन व्रतभङ्गेन व्रतप्रकारेण बाहुल्येन हि श्रावकाणां द्विविध-त्रिविधादयः षडेव भङ्गाः संभवन्तीति तदादिभङ्गजालग्रहणमुचितमिति भावः / ते च भङ्गा एवम्- श्राद्धा विरताः, अविरताश्च / ते सामान्येन द्विविधा अपि विशेषतोऽष्टविधा भवन्ति। यत आवश्यके-साभिग्गहाय णिरभिग्गहा य ओहेण सावया दुविहा। ते पुण विभज्जमाणा, अट्ठविहा हुंति णायव्वा // 1 // साभिग्रहा विरता आनन्दादयः, अनभिग्रहा अविरताः कृष्ण-सात्यकिश्रेणिकाऽऽदय इति / अष्टविधास्तु द्विविधत्रिविधादिभङ्गभेदेन भवन्ति। तथाहिदुविह तिविहेण पढमो, दुविहं दुविहेण बीअओ होइ। दुविहं एगविहेणं, एगविहं चेव तिविहेणं // 1 // एगविहं दुविहेणं, एगेगविहेण छट्ठओ होइ। उत्तरगुणसत्तमओ, अविरओ विचेव अट्ठमओ|२|| द्विविधम्- कृतं कारितं च / त्रिविधन- मनसा वचसा कायेन, यथास्थूलहिंसादिकं न करोत्यात्मना, न कारयत्यन्यैः,मनसा वचसा कायेनेत्यभिग्रहवान् प्रथमः 1, अस्य चाऽनुमतिः प्रतिषिद्धा, अपत्यादिपरिग्रहसद्भावात्, तैर्हिसादिकरणे तस्याऽनुमतिप्राप्तेः / अन्यथा परिग्रहाऽपरिग्रहयोरविशेषेण प्रव्रजिताऽप्रव्रजितयोरभेदाऽऽपत्तेः। त्रिविधत्रिविधादयस्तु भङ्गा गृहिणामाश्रित्य भगवत्युक्ता अपि क्वाचित्कत्वात् नेहाऽधिकृताः, बाहुल्येन षड्भिरेव विकल्पैस्तेषां प्रत्याख्यानग्रहणात्, बाहुल्याऽपेक्षया चाऽस्य सूत्रस्य प्रवृत्तेः / क्याचित्कत्वं तु तेषां विशेषविषयत्वात्। तथाहि- यः किल प्रविव्रजिषुः पुत्रादिसंततिपालनाय प्रतिमाः प्रतिपद्यते, यो वा विशेष स्वयंभूरमणादिगतं मत्स्यादिमांसं दन्तिदन्तचित्रकचमादिकं स्थूलहिंसादिकं वा क्वचिदवस्थाविशेषे प्रत्याख्याति, स एव त्रिविधत्रिविधादिना करोति, इत्यल्पविषयत्वात् नोच्यते। तथा द्विविधं द्विविधेनेति द्वितीयो भङ्गः२, अत्र चोत्तरभङ्गास्त्रयः, तत्र द्विविधं- स्थूलहिंसादिकं न करोति, न कारयति, द्विविधेन- मनसा वचसा 1, यद्वा- मनसा कायेन 2, यद्वा- वाचा कायेनेति 3 / तत्र यदा- मनसा वचसा न करोति, न कारयति, तदा- मनसाऽभिसंधिरहित एव, वाचाऽपि हिंसादिकमबू वन्नेव कायेन दुश्चेष्टितादि असंज्ञिवत् करोति 1, यदा तु मनसा कायेन न करोति न कारयति, तदा मनसाऽभिसन्धिरहित एव कायेन दुश्चेष्टितादि परिहरन्नेवाऽनाभोगाद्वाचैव हन्मि, घातयामि चेति ब्रूते २,यदा तुवाचा कायेन न करोति, न कारयति, तदा मनसैवाऽभिसन्धि-मधिकृत्य करोति, कारयति३ / अनुमतिस्तु त्रिभिः सर्वत्रैवाऽस्ति। एवं शेषविकल्पा अपि भावनीयाः। द्विविधमेकविधेनेति तृतीयः 3, अत्राऽप्युत्तरभङ्गास्त्रयः। द्विविधं कारणं करणं च, एकविधेन मनसा, यद्वा- वचसा, यद्वा- कायेन / एकविधं त्रिविधेनेति चतुर्थः४,अत्रच द्वौ भङ्गौ, एकविधं करणम्, यद्वा-कारणम्, त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन / एकविधं द्विविधेनेति पञ्चमः 5, अत्रोत्तरभेदाः षट्, एकविधं करणं, यद्वा-कारणम्, द्विविधेन मनसा वाचा, यद्वा- मनसा कायेन, यद्वा वाचा कायेन / एकविधमेकविधेनेति षष्ठः६,अत्राऽपि प्रतिभङ्गाः षट्। Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुव्वय 419 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुव्यय एकविध करणं,यद्वा-कारण, एकविधेन मनसा,यद्वा-वाचा,यद्वा-कार्यन। तदेवं मूलभङ्गाः षट् / षण्णामपि च मूलभङ्गानामुत्तरभङ्गाः सर्वसंख्ययैकविंशतिः(१+३+३+२+६%२१)। तथा चोक्तम्-दुविह तिविहा य छचिअ, तेसिं भेआ कमेणिमे हुंति / पढमिको दुन्नि तिआ, दुगेग दोछक्क इगवीसं॥१॥ स्थापना चेयम्-२-३-१% द्विविध-त्रिविधेन 1 भंगकः 1 / 22-3- द्विविध-द्विविधेन 3 भंगकाः 212-1-3 द्विविध-एकविधेन 3 भंगकाः३।१-३-२ = एकविध-त्रिविधेन 2 भंगौ 4 / 1-2-6 = एकविधद्विविधेन 6 भंगकाः 511-1-6 = एकविध-एकविधेन 6 भंगकाः६एवं च षड् भिर्भङ्गः कृताऽभिग्रहः षड्-विधः श्राद्धः, सप्तमश्चोत्तरगणःप्रतिपन्नगुणवतशिक्षाव्रतादिउत्तरगुणः। अत्रच सामान्येनोत्तरगुणानाश्रित्यकएव भेदो विवक्षितः७, अविरतश्चाऽष्टमः ८।अतः उत्तरगुणवान् १भंगकः / अविरतः १भंगकः। मूलभंगकाः 6+2-8 / उत्तरभंगकाः२१॥ तथा पञ्चस्वप्यणुव्रतेषु प्रत्येकंषड्भङ्गीसंभवेन उत्तरगुणा-ऽविरतमीलनेन च द्वात्रिंशद् भिदा 645+2-32 अपि श्राद्धानां भवन्ति / यदुक्तम्-दुविहा विरयाऽविरया, दुविह-तिविहाइणऽहहा हुंति / वयमेगेगं छचिअ, गुणिअं दुगमिलिअ बत्तीसं // 1 // इति / अत्र च द्विविधत्रिविधादिना भङ्गानिकुरम्बेन श्रावकाऽर्हपञ्चा-ऽणुव्रता-ऽऽदिव्रतसंहतिभङ्गकदेवकुलिकाः सूचिताः / ताश्चैकैक-व्रतं प्रति अभिहितया षड्भङ्गया निष्पद्यन्ते, तासु च प्रत्येकं त्रयो राशयोभवन्ति। तद्यथा-आदौगुण्यराशिमध्येगुणकराशिरन्तेचाऽऽगतराशिरिति / तत्रपूर्वमतासामेव देवकुलिकानां षड्भङ्गया विवक्षितव्रतभङ्गकसर्वसंख्यारूपा एवंकारराशयश्चैवम्- एगवए छब्भंगा, निद्दिट्टा सावयाण जे सुत्ते / तिचिअ पयवङ्कीए, सत्त गुणा छजुआ कमसो॥१॥ सर्वभङ्गराशिंजनयन्तीति शेषः। कथं पुनः षड्भङ्गाः सप्तभिर्गुण्यन्ते ? इत्याह- पदवृद्ध्या मृषावादादिएकैक्व्रतवृद्ध्या एकव्रतभङ्गराशेरवधौ व्यवस्थापितत्वाद् विवक्षितव्रतेभ्यः एकेन हीनाऽऽचारा इत्यर्थः / तथाहि- एकव्रते षड्भङ्गाः सप्तभिर्गुणिता जाता द्विचत्वारिंशत, तत्र षट्क्षप्यन्ते, जाता अष्टचत्वारिंशत्६४७+६४८। एषोऽपि सप्तभिर्गुण्यते, षट् च क्षिप्यन्ते, जाताः 342 / एवं सप्तगुणनषट्प्रक्षेपक्रमेण तावद यावदेकादश्यां वेलायाभागतम 1354,12.87.202 / एते च षडष्टचत्वारिंशदादयो द्वादशाऽप्यागतराशयोऽधोभागेन व्यवस्थाप्यमाना अर्द्धदेवकुलिकाकारां भूमिमावृण्वन्तीति खण्डदेवकुलिकेत्युच्यते। स्थापना 12.87.200+2-1,384,12,87,202 भवन्ति। उत्तर-गुणाश्चाऽत्र प्रतिमादयोऽभिग्रहविशेषाज्ञेयाः / यदुक्तम-तेरस-कोडिसयाई.चलसीइजआइँ बारसयलक्खा। सत्तासी असहस्सा.दो असया तहदरगाय॥१॥ (दरग ति) प्रतिमादि-उत्तरगुणाऽविरतरूपभेदद्वयाऽधिका एतावन्तश्च द्वादश व्रतानि आश्रित्य प्रोक्ताः। पञ्चाऽणुव्रतान्याश्रित्यतु 16806 भवन्ति। तत्राऽप्युत्तर-गुणाऽविरतमीलने 16805 भवन्ति / अत्र चैकद्विकादिसंयोगा गुणकाः षट् षट्त्रिंशादयो गण्यास्त्रिशदादयश्चागतराशयोयन्त्र-कादवसेयाः। इयमत्र भावना-कश्चित्पश्चात् पञ्चाऽणुव्रतानि प्रतिपद्यते। तथा किल पञ्चैककसंयोगाः एकैकस्मिँश्च संयोगे द्विविधत्रिविधादयः षड्भङ्गाः स्युः। तेनषट्पञ्चभिर्गुण्यन्ते,जाताः 645-30 / एतावन्तःपञ्चानां व्रतानामेककसंयोगे भङ्गाः तथा एकैकस्मिन द्विकसंयोगे ३६भङ्गाः। तथाहि-आद्यव्रतसंबन्धादयोभङ्गकोऽवस्थितो.मषावादसत्कान षड्भङ्गान्लभते। एवमाद्यव्रतसंबन्धी द्वितीयेऽपियावत् षष्ठोऽपिभङ्गोऽवस्थित एवमृषावादसत्कान् षड्भङ्गान्लभते।ततश्चषड्, षभिर्गुणिताः६x६-३६, दश चाऽत्र द्विक संयोगाः / अतः 36 410 (दशगणिताः) =360 // एतावन्तः पञ्चानांव्रतानां दिक-संयोगेभङ्गाः। एवं त्रिकसंयोगादिष्वपि भङ्गसंख्याभावना कार्या। स्थापनाचेयम्- एकैकस्मिन्व्रते ६४५-३०भंगकाः, 1 / द्विकव्रते 36410360 भंगकाः, 21 त्रिकव्रते 216410:2160 भंगकाः,३। व्रतचतुष्के 126645-6450 भंगकाः, 4 / व्रतपंचके 777641-7776 भंगकाः, 5 / सर्वमलनेन 16806+1+1=16808 अणुव्रतानां भंगसंख्याः / पञ्चमदेवकुलिकास्थापना एवम्- सर्वासामपि(पूर्वोत्तराणां) देवकुलिकानां निष्पत्तिः स्वयमेवायसेया। इयं च प्ररूपणाऽऽवश्यक-निर्युक्तयभिप्रायेण कृता, भगवत्यभिप्रायेण तु नवभङ्गी। साऽपि प्रसङ्गतः प्रदर्श्यते। तथाहि-हिंसांन करोति मनसा 1, वाचा 2, कायेन ३.मनसा वाचा 4, मनसा कायेन 5, वाचा कायेन 6, मनसा वाचा कायेनाएतत्करणेन सप्तभङ्गीः, 1 / एवम्- कारणेन २,अनुमत्या ३,करणकारणाभ्यां 4, करणाऽनुमतिभ्यां 5, कारणाऽनुमतिभ्यां ६,करणकारणाऽनुमतिभिः 7 / एवं सर्वमिलिता७४७%3D४६ एकोनपञ्चाशद् भवन्ति / एते च त्रिकालविषयत्वात् प्रत्याख्यानस्य कालत्रयेण गुणिताः 4643-147 सप्त-चत्वारिंशच्छतं भवन्ति। यदाहमणवयकादयजोगे, करणे कारावणे अणुमई अ। इक्कगद्गतिगजोगे, सत्ता-सत्ते व गुणवन्ना (v)||1|| पढमिक्को तिन्नि तिआ, दुन्नि नवा तिन्नि दो नवा चेव / कालतिगेण य सहिआ, सीआलं होइ मंगसयं (147) ||2|| सीआलं भंगसयं, पञ्चक्खाणम्मिजस्स उवलद्धं। सो खलु पञ्चक्खाणे, कुसलो सेसा अकुसलाओ // 3 // त्ति / त्रिकाल-विषयता चाऽतीतस्य निन्दया, सांप्रतिकस्य संवरणेन, अनागतस्य प्रत्याख्यानेनेति।यदाह-अईयं निंदामि, पड़प्पन्नं संवरेमि,अणागयंपचक्खामित्ति। एतेचभङ्गा अहिंसामाश्रित्य प्रदर्शिताः व्रताऽन्तरेष्वपि ज्ञेयाः।स्थापना चेयम् 3-3-1 त्रिविध-त्रिविधेन भंगकः, 1 / 3-2-3 त्रिविध-द्विविधेन 3 भंगकाः,२॥३-१-३% त्रिविध-एकविधेन 3 भगकाः,३।२-३-६= द्विविधत्रिविधेन भंगकाः,४।२-२-६ द्विविध-द्विविधेनह भंगकाः,५१२-१३- द्विविध-एकविधेन 3 भंगकाः,६॥ 1-3-3- एकविध-त्रिविधेन 3 भंगकाः७।१-२-६% एकविध-द्विविधेन भगकाः,८/१-१-६- एकविधएकविधेन भंगकाः, 6 / सर्वमलनेन 4643 काल०१४७४५ व्रत०% 735 भंगभेदाः। तत्रपञ्चाऽणुव्रतेषु प्रत्येकं 147 भङ्गकभावाद्७३५ भेदाः श्रावकाणांभवन्ति। उक्तं च-दुविहा अट्ठविहा वा, बत्तीसविहा व सत्त पणतीसा। सोल सय सहस्स भवे, अट्ठसयऽट्ठुत्तरा वइणो (16808) ||1 / / इदं तु ज्ञेयम् - षड्भङ्गीवदुत्तरभङ्ग रूपैक-विंशतिभङ्गया 2, तथा नवभङ्गचा 3, तथैकोनपञ्चाशद्भङ्गया 4, द्वादशद्वादश देवकुलिका निष्पद्यन्ते। यदुक्तम्इगवीसं खलु मंगा, निहिट्ठा सावयाण जे सुत्ते। ते चिअ बावीस गुणा, इगवीसं पक्खवेअव्वा ||1|| चेयम् व्रत० संयोगिभंगाः व्रतभंगविकल्पः व्रतभंगभेदप्रकाराः 1, 12, 6. 2.66, 646%36. 647+648, 3. 220, 36x6:216, 487+6=342 4,465. 216x6-1296. 34247+6-2400 5.762, 126646-7776, 2400x7+6-16806 6,624, 7776x646656. 16...47+6-117648 7.762. 46...46-276636, 11...x7+6-823542 8,465, 27.46-1676616, 52...47+6=5764800 6, 220. 16...46-10077666, 57...x7+6=40353606 10,66, 10...x6-60466176, 40...x7+6-282475248 11, 12, 60...x6-362767056, 28...47+6=1677326642 12,1, 36...46-2176782336, 16...47+6=13841287202 संपूर्ण देवकुलिकास्तु प्रतिव्रतमेकै कदेवकुलिकासद्भावेन षड्भङ्गयां द्वादशदेवकुलिकाः संभवन्तिातत्र द्वादश्यां देवकुलिकायामेकद्विकादिसंयोगा गुणकरूपाश्चैवम्।तत्र च गुण्यराशयस्त्वमी। एतेषां च पूर्वस्य पूर्वस्य षड्गुणनेऽग्रेतनो गुण्यराशिरायातीत्या-नयने बीजम् / एते च षटषट् त्रिंशदादयो द्वादशाऽपि गुण्यराशयः क्रमशो द्वादशषट्षष्टिप्रभृतिभिर्गुणकराशिभिर्गुणिता आगत-राशयः 6412-72 आदयो भवन्ति, ते देवकुलिकागततृतीय-राशितो ज्ञेयाः। स्थापना चाऽग्रे(षड्भग्यां द्वादशव्रतदेव-कुलिकायाः) अत्राऽप्युत्तरगुणा अविरतसंयुक्ताः 1384, Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुव्वय ४२०-अभिवानराजेन्द्रः-भाग 1 अणुसट्ठी 21422+21-463||16Ex10+6=RE ||2|| एगवए नव भंगा, निद्दिट्ठा सावयाण जे सुत्ते। ते चिअदसगुण काउं, नव पक्खेवम्मि कायव्वा / / 2 / / एगुणवन्नं भंगा, दिट्ठा खलु सावयाण जे सुत्ते। ते चिअपंचासगुणा, इगुणवन्नं पक्खिवेअव्वा / / 3 / / 46450+462466 ||3|| 1474148+147-21603 // 4 // सीआलं मंगसयं, ते चिअडयालसयगुणं काउं। सीयालसएण जुअं, सव्वग्गा जाण भंगाण ||4|| एकादश्यां वेलायां द्वादशव्रतभङ्ग कसर्वसंख्यायामागतं क्रमेण खण्डदेवकुलिकातो ज्ञेयम्। तत्स्थापनाश्चेमाः-(द्वादश-व्रतदेवकुलियां षड् नव च भङ्गा यन्त्रतोऽवसेयाः) एवं संपूर्णा देवकुलिका अपि एकविंशत्यादिभङ्गादिषु द्वादश द्वादशभाक्नीयाः। स्थापनाः क्रमेण यथाद्वादशव्रतदेवकुलिकाया-मेकविंशत्येकोनपञ्चाशत्-सप्तचत्वारिंशच्छतं भङ्गायन्त्रतो-ऽवसेयाः, इति प्रसङ्गतः प्रदर्शिता भङ्गप्ररूपणाः बालेन च द्विविधत्रिविधादिषड्भङ्गग्येवोपयोगिनीत्युक्तमेवावसेयमित्यलं विस्तरेण / धर्म०२ अधिगपंचा०। प्रव०| अणुव्वजंत-त्रि०(अनुव्रजत्) अनुकूलं साध्वभिमुखं व्रजति, सूत्र० 1 श्रु०४ अ०१ उ०। अणुव्वयपणग-न०(अनुव्रतपञ्चक) अणुव्रतानां पञ्चकं यत्र सोऽनुव्रतपञ्चकः / प्राकृतवशाचाऽन्यथा निर्देशः / पञ्चाऽनुव्रतिके, दर्शक अणुव्वयमुह-त्रि०(अणुव्रतमुख) अणुव्रतानि मुखे आदौ येषां तानि / साधुश्रावकविशेषधर्माचरणेषु, ध०२ अधिक। अणुव्वया-स्त्री०(अनुव्रता) अन्विति कुलाऽनुरूपं व्रतमाचारोऽस्या अनुद्रता। पतिव्रतायाम, उत्त०२० अ०1 अणुव्वस-त्रि०(अनुवश) वशमुपागते, "एवं तुब्भे सरागत्था, अन्नमन्नणुव्वसा" अन्योऽन्यं परस्परतो वशमुपागताः परस्प-रायत्ताः। सूत्र०१ श्रु०३ अ०३ उ01 अणु विवाग-पुं०(अनुविपाक) अनुरूपे विपाके, एवं तिरिक्खे मणुयासुरेसु, चतुरत्तणतंतयणुविवागं / सूत्र०१ श्रु०५ अ०२ उ०। अणुसंगई-स्वी०(अणुसङ्गति) आकाशादिद्रव्यस्य परमाणु-संयोगे, द्रव्या०१२ अध्या अणुसंचरंत-त्रि०(अनुसञ्चरत्) बम्भ्रम्यमाणे, सूत्र०१श्रु०१० अ०) पश्चात् सञ्चरणे, आचा० 1 श्रु०१ अ०१ उ०। अणुसंधाण-न०(अनुसन्धान) बुद्ध्योपादाने, सूत्र०१श्रु० १२अ०॥ विस्मृतस्य ग्रहणे उपादाने, तस्सेव पएसंतरऽणहस्स-ऽणुसंधाणघडणा' तस्यैव पूर्वगृहीतसूत्रादेः प्रदेशान्तरनष्टस्य क्वचिद्देशे विस्मृतस्य च या घटना साऽनुबन्धना अनुसन्धानमित्युच्यते। पञ्चा०१२ विव०। अणुसंघियं-(देशी) अविरते, हिक्कायां च / देवना०१ वर्ग। अणुसंवेयण-न०(अनुसंवेदन) पश्चात्संवेदने, अनुभवने च / आचा० 1 श्रु०५ अ०५ उ० अणुसंसरण-न०(अनुसंसरण) दिग्विदिशांगमनस्य भाव-दिगागमनस्य वा स्मरणे, आचा०१ श्रु०१ अ०१ उ०) अणुसज्जाणा-स्त्री०(अनुसज्जना) अनुषक्ती, व्य०१ उ० / / ('तित्थाणुसजणा' शब्दे तीर्थस्यानुसज्जनां व्याख्यास्यामः) अणुसज्जिज्जत्था-त्रि०(अनुषक्तवत्) पूर्वकालात् काला उन्तरमनुवृत्तवति, भ०६ श०७ उ०। अणुसट्ठी-स्त्री०(अनुशिष्टि) अनुशासनमनुशिष्टिः। उपदेश-प्रदानरूपे स्तुतिकरणे, लक्षणे वा वैयावृत्त्यभेद, व्य०१ उ०। नि०चू०। पं०व० शिक्षणे, दर्श०। इहलोकाऽपायप्रदर्शने, बृ०१ उ०। तिविहा अणुसट्ठी पन्नता।तंजहा-आयाणुसट्ठी पराणुसट्ठीतदुभयाणुसट्ठी। स्था०३ ठा०३ उ०ा तत्र यद् आत्मानमात्मना अनुशास्ति, सा आत्मा-ऽनुशिष्टिः / यत् पुनः परस्य परेण वाऽनुशासनं, सा पराऽनुशिष्टिः। एवं तदुभयस्मिन् तदुभय विषयाऽनुशिष्टिः / व्य०१ उ०॥ तत्राऽऽत्मनो यथाबायालीसेसणसंकडम्मि गहणम्मिजीव ! ण हुछलिओ। इण्हि जहण हु छलिज्जसि, मुंजतो रागदोसे हिंति ||1|| तथा विधेयमिति शेष इति ।स्था०३ ठा०३ उ०। व्या दंडसुलभम्मि लोए, मा अम तिं कुणह दंडितो मित्ति। एस दुलहो उदंडो, भवदंडनिवारओ जीव!" अवि यहु विसोहिओत्तिं, अप्पाणायारमइलिओ जीव!। अप्पपरे उभए अनु-सट्टीय थुइ त्ति एगट्ठा। दण्डः सुलभो यत्राऽसौ दण्डसुलभस्तस्मिन् लोके, हे जीव ! मा एवं रूपाममतिं कुमतिं कुर्याः / यथाऽहमाचार्येण प्रायश्चित्तदानतो दण्डितोऽस्मीति, यत एष प्रायश्चित्तदानरूपो दण्डो दुर्लभः / कस्माद् दुर्लभः ? इत्याह- भवदण्डनिवारकः / निमित्तपर्यायप्रयोगे सर्वासां विभक्तीनां प्रायो दर्शनम्, इति वार्तिकन न हेतौ प्रथमा। ततोऽय-मर्थः - यत एष दण्डो भव एव संसार एव दुःसहदुःखात्मकत्वाद् दण्डस्तस्य निवारको भवदण्डनिवारकः तस्माद् दुर्लभः / अपि च, हु निश्चितं, हे जीव ! ते आत्मा अनाचार-मलिनः प्रायश्चित्तप्रतिपत्त्या विशोधितो भवति, तस्माद् न दण्डितोऽस्मीति बुद्धिरात्मनि परिभावयितव्या / किन्तूपकृतोऽहमनुपकृतपरहितकारिभिरा-चार्यरिति चिन्तनीयमिति। एवममुना उल्लेखेन आत्मनिपरस्मिन् उभयस्मिश्चाऽनुशिष्टिरवगन्तव्या। आत्मनि साक्षादियमुक्ता, एतदनुसारेण परस्मिन्नुभयस्मिन्नपि च सा प्रतिपत्तव्येति भावः / अनुशिष्टिः स्तुतिरित्येकाऽर्थो / अत्राऽपिशब्दः सामर्थ्याद् गम्यते, एतावपिशब्दावेकार्थो / किमुक्तं भवति ? अनुशिष्टिः स्तुतिरित्यपि द्रष्टव्यमिति। व्य०१ उ०। परानुशिष्टिर्यथा-"ता तंसि भाववेजो, भवदुक्खनिपीडिया नुहं एते। हंदि सरण पवन्ना, मोएयव्वा पयत्तेणं" ||1|| तदुभयाऽनुशिष्टि-र्यथा"कह कह वि माणुसत्ताइ पावियं चरण-पवररयणं च / ता भो ! इत्थ पमाओ, कइया विन हुजए अम्हं" ||1|| स्था०४ ठा०२ उ०। नि०चू०। हितोपदेशरूपायां शिक्षायाम्, "सिद्धाण णमो किचा, संजयाणं च भावओ। अत्थ धम्मगई तचं, अणुसद्धिं सुणेह मे" |1|| इत्यादि अनाथमुनिना श्रेणिकं प्रत्यनुशिष्टिः कृता / उत्त०२० अ० / व्य०। सद्गुणोत्कीर्तनेनोप-बृंहणे साऽविधेयेति यत्रोपदिश्यते साऽनुशास्तिः ("जिणकप्प" शब्दे जिनकल्पं प्रतिपद्यमानेन साधूनामनुशिष्टिर्वक्ष्यते) आहरणतद्देशभेदे च, यथा गुणवन्तोऽनुशसनीया भवन्ति / यथा साधुलोचनपतितरजः कणापनयनेन लोक सम्भावितशीलकलङ्का, तत्क्षालनाया-ऽऽराधित देवताकृतप्रातिहार्या चालनिव्यवस्थापितोदकाच्छोटन तोद्घाटित चम्पागोपुरस्त्रया सुभद्रा अहो ! शीलवतीति महाजनेना-ऽनुशासितेति। इह च तथाविधवैयावृत्त्याकरणा-दिनाऽप्युपनयः संभवति, तत्त्यागेन च महाजनाऽनुशास्तिमात्रेणोपनयः कृतइत्याहरणतद्देशतेति / एवमनभिमतांशत्यागादभिमतांशोपनयनमुत्तरेष्वपि Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुसट्ठी 421 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणुसासित भावनीयमिति। स्था० 4 ठा०३ उ०। धर्मकथां कुर्वन्ति' इत्यस्याऽर्थे, रुष्टत्वादनुशास्ति, तदनुशासनम् / यदि वा यो यथोक्तकार्येऽपि सन् बृ०१उ०॥ कथञ्चित् न कुरुते, तत् कस्यचिच्छिक्षणम्, 'एतत् तव कृत्यमिति' अणु समय-अव्य० (अनुसमय) समयं समयमनुलक्षी- रुष्टत्वादनुशास्ति, एतदनुसासनम् / संग्रहणभेदे, व्य०३ उ० / कृत्येत्यनुसमयम् / वीप्सायामव्ययीभावः / कर्म० 5 कर्म०। 'अणुसासइ' अनुशास्ते। बृ० 1 उ०। सततमित्यर्थे, उत्त०५ अ०। प्रतिसमयमित्यर्थे, क० प्र०। प्रति०। अणुसासणविहि-पुं० (अनुशासनविधि) अनुशास्तिविधाने, पञ्चा०६ प्रतिक्षणमित्यर्थे, चं० प्र०६ पाहु० / “अणुसमयं अविरहियं, णिरंतरं विव०॥ उववजंति' / अनुसमयमित्यादिपदत्रयमेकार्थम् / भ० 41 श० अणु सासिजंत-त्रि० (अनुशास्यमान) तत्र तत्र चोद्यमाने, १उ। अणुसासिज्जतो सुस्सूसइ / दश०६ अ०४ उ० / सूत्र०। अणुसमवयणोववत्तिअ-त्रि० (अनुसमवदनोपपातिक) अनुरूपा अणुसासिय-त्रि० (अनुशासित) युक्तानि शिक्ष्यमाणे कथञ्चित् समाऽविषमा वदनोपपत्तिारघटना येषां ते तथा / अनु- स्खलितादिषु गुरुभिः परुषोक्त्या शिक्षिते, गुरुभिः कठोर-वचनैस्तर्जिते, लोमाऽविषमद्वारघटनाके, "ससिसूरचक्कलक्खणअणुसम वयणोव- | उत्त०१ अ०। अभिहिते, सूत्र०१ श्रु०१४ अ०॥ वत्तिआ" |जं०३ वक्ष०। अणुसिट्ठ-त्रि०(अनुशिष्ट) शिक्षां गृहीते, "तत्तेण अणुसिट्ठाते, अपडिन्नेण अणुसय-पुं० (अनुशय) गर्वे, पश्चात्तापे च / अनु० / प्रश्न०। जाणया'' | सूत्र०१ श्रु०३ अ०३ उ०। अणुसरण-न० (अनुस्मरण) सदसत्कर्तव्यप्रवृत्तिहेतुभूतेऽनुचिन्तने, | अणु सिट्ठी-स्त्री० (अनुशिष्टि) तद्भावकथनपुरस्सरं पञ्चा०१ विव०।"णाणानयाणुसरणं, पुव्वगयसुयाणुसारेणं" आव०४ प्रज्ञापनायाम, बृ० 1 उ० / ('अणुसठ्ठी' शब्दप्रकरणे दर्शितार्थे,) अ०। स्मृतौ, विशे०। शिक्षायाम, उत्त०१०अ०। अणुसरियव्द-त्रि०(अनुसर्तव्य)अनुगन्तव्ये,स्था०५ठा०१ उ०। अणुसुत्ती-(देशी)अनुकूले, दे० ना० 1 वर्ग। अनुस्मर्तव्य-त्रि० / अनुचिन्तनीये, 'अणुसरियव्वो सुहेण चित्तेण एसेव अणुसूयग-पुं०(अनुसूचक)नगराऽभ्यन्तरे चारमुपलभमाने, नमोक्कारा कयन्नुयं मन्नमाणेणं"। आ० म० द्वि०। सूचककथितं श्रुतं दृष्ट वा, स्वयमुपलब्धं च प्रतिसूचकेभ्यः कथयति, अणुसरिस-त्रि० (अनुसद्दश) अनुरूपे, "अणुसरिसोतस्स सामन्तराज्येषुवसतिकृतवृत्तिके अमात्यपुरुष, तादृश्यां कृतवृत्तिकायां होउवज्झाओ''| व्य०२ उ०॥ चैव महिलायाम, "सूयगतहाऽणुसूयगपडिसूयग सव्वसूयगाचेवापुरिसा कयवित्तीया, वसति सामंतनगरेसु / / 1 / / महिला कयवित्तीया वसंति अणुसार-पुं०(अनुसार) अनु-सृ-भावे घञ् / अनुगमने, सदृशी-करणे सामंतणगरेसु" / व्य०१ उ० च / वाच० / “विउसासु अ लक्खणाणुसारेणं" इत्यादि। प्रा०। पारतन्त्र्ये, विशे०। अणुसू(स्सु)यत्ता-न० (अनुस्यूतत्व) अपरशरीराऽऽश्रित तायां परनिश्रायाम, "अचित्तेसु वा अणुसूयत्ताए विउम॒ति'। सूत्र०२ *अनुस्वर-पुं० / स्वराश्रयेण उच्चार्यमाणे बिन्दुरेखया व्यज्य श्रु०३ अ०। माने अनुनासिके वर्णभेदे, वाच० / अनुस्वारो विद्यतेऽस्येति अभ्रादिभ्य इति मत्वर्थीयोऽत् प्रत्ययः। अनुस्वारवत्त्वेन उच्चार्य अणुसोय-न० (अनुश्रोतस्) प्रवाहे, "अणुसोयपट्ठिए बहु- जणम्मि माणेऽनक्षरश्रुतविशेषे, आ० म० द्वि० 1 नं० / अणुस्सारं णाम पम्हुढे पडिसोयलद्धलक्खेण। पडिसोयमेव अप्पा, दायव्वो होउ कामेणं।।१।। अच्छे सत्ते वा संभरिते अन्नेण वा संभारितेज अक्खरविरहितं सद्दकरणं अणुसोयसुहो लोगो, पडिसोओ आसवो सुविहि-याणं / अणुसोओ तमणुस्सारं भन्नति। आ० चू०१०॥ संसारो, पडिसोओ तस्स उत्तारो' ||शादश०२ चू०।अष्ट०२३ अष्ट० / पं० सू०। अणुसासंत-त्रि० (अनुशासत्) शिक्षयति-शिक्षा प्रयच्छति, उत्त० 4 अणुसोयचारि (ण) -त्रि० (अनुश्रोतश्चारिन) अनुश्रोतसा चरतीति अनुश्रोतश्चारी / नद्यादिप्रवाहगामिनि मत्स्ये, एवं भिक्षाके च / यो हि अणुसासण-नं०(अनुशासन)अनुशास्यन्ते सन्मार्गेऽवतार्यन्ते अभिग्रहविशेषादुपाश्रयसमीपात्क्रमेण कुलेषु भिक्षते, सोऽनुश्रोतश्चारी। सदसद्विवेकतः प्राणिनो येन तदनुशासनम् / धर्मदेशनसन्मा स्था० 4 ठा०४ उ०। र्गाऽवतारणे, "अणुसासणं पुढो पाणी, वसुमं पूयणासु ते" / सूत्र० अणुसोयपट्ठिय-त्रि० (अनुश्रोतःप्रस्थित) नदीपूरप्रवाह-पतितकाष्ठवद् 1 श्रु०१५ अ०। भगवदाज्ञारूपे आगमे च / सोचा भगवयाऽणुसासणं, विषयकुमार्यद्रव्यक्रियानुकूल्येन प्रवृत्ते, "अणुसोय-पट्ठिए बहुजणम्मि सच्चे तत्थ करेञ्जवक्कमे 1 सूत्र० 1 श्रु० 2 अ० 3 उ०| पडिसोयलद्धलक्खेणं / पडिसोयमेव अप्पा, दायव्योहोउकामेणं" ||1|| शासनमनुअव्ययीभावः / यथागममित्यर्थे / सूत्रानुसारेणेति यावत् / "अणुसासणमेव पक्कमे , वीरेहिं समं पवेइयं" / सूत्र० दश०२ चू०। 1 श्रु०२ अ०१ उ० / शिक्षायाम्, ज्ञा० 13 अ०। उत्त०। जी०। अणुसोयसुह-त्रि० (अनुश्रोतःसुख) उदक भिन्नाऽभिराजद्विष्टराज्ञोऽनुशासनं वक्ष्यामि / पञ्चा०६ विव० / दुःस्थस्य सर्पणवत् प्रवृत्त्याऽनुकूलविषयादिसुखे, दश०१ अ०।"अणुसोयसुहो सुस्थतासंपादने, स०। अनुकम्पायाम्, "अणुकंपत्ति वा अणुसासणं ति लोगो' / दश०२ चू०। वा एगट्ठा'। पं० चू० / अनुशासनं भज्यमाने वा दृष्टे वा। अणुस्सग्ग-पुं० (अनुत्सर्ग)। अपरित्यागे, दर्श०। किमुक्तं भवति ? सामाचारीतः प्रतिभज्यमानान् कथञ्चिद्, | अणुस्सरित्ता-अव्य० (अनुसृत्य) अनुसारं कृत्वेत्यर्थे, "अंधं . वसतिहाऽणुसूयगपारुष, तादृश्यां कथयति, अ० of Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुस्सरित्ता 422- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणेक(ग) व णेयारमणुस्सरित्ता, पाणाणि चेवं विणिहंति मंदा'' | सूत्र० 1 श्रु०७अ०। अणुस्सव-पुं० (अनुश्रव) अनुश्रूयते गुरुमुखादित्यनुश्रवः / वेदे, द्वा०८ द्वा०। अणुस्सुय-त्रि० (अनुश्रुत) अवधारिते गुरुभिरुच्यमाने, उत्त० 5 अ० / श्रवणपथमायाते, सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ उ०। भारतादौ पुराणे श्रुते, सूत्र०१ श्रु०३ अ०४ उ०। न उत्सकोऽनुत्सुकः। सूत्र०१ श्रु०६ अ०। औत्सुक्यरहिते, पं० सू०४ सू०। अणुस्सुयत्त-न० (अनुत्सुकत्व) विषयसुखेऽनुत्तालत्वे, "सुहसाएणं अणुस्सुयत्तं जणयइ / उत्त० 26 अ०। अणुहवसिद्ध-त्रि०(अनुभवसिद्ध) स्वसंवेदनप्रतीते, पञ्चा० 3 विव०। अणुहविउं-अव्य० (अनुभूय) संवेद्येत्यर्थे, पञ्चा०२ विव०। अणुहियासण-न० (अन्वध्यासन) अविचलकायतया सहने, जं०२ वक्षः। अणुहूअ-त्रि० (अनुभूत) अनु-भू-क्त / प्राकृते-ते हूः। 8 / / 65 / भुवः क्ते प्रत्यये हूरादेशः / अनुभवविषयीकृते, प्रा०। अणू-(देशी) शालिभेदे, दे० ना०१ वर्ग। अणू व-त्रि० (अनूप) अनुगता आपो यत्र / ब० स० / अच् समा०। अत उत्त्वम्। जलप्राये स्थाने, वाचकानद्यादिपानीयबहुले, बृ० 1 उ०। विशे०। व्य०। अणूवदेस-पुं०(अनूपदेश) जलदेशे, व्य०४ उ०। अणे क्क (ग)-त्रि० (अनेक) बहुत्वे, सूत्र० 1 श्रु०१२ अ० / अनेकशब्दघटितप्रयोगा यथा - अणे गगणनायकदंडनायकराईसरतलवरमाड बिअकोडुबिअमंतिमहामंतिगणकदोवारिअअमचचेडपिठमदनगरनिगमसेट्ठिसेणावइसत्थवायदूतसंधि-वालसद्धिं संपरिवुडे० अने के ये गणनायकादयस्तेषां द्वन्द्व-स्ततस्तैरिह तृतीयाबहुवचनलोपो द्रष्टव्यः(सद्धिति)सार्द्ध सहेत्यर्थः / न केवलं तत्सहितत्वमेव, अपितुतैः समिति समन्तात्परिवृतः परिवारित इति। औ०। "अणेगजाइजरामरणजोणि-वेयणं' अनेकजातिजरामरणप्रधानयोनिषु वेदना यत्र स तथा। (संसार इति विशेष्यम्)। औ० / "अणेगजातिजरामरण-जोणिसंसार कलंकलिभावपुणब्भवगब्भवासवसहीपवंच समइक्वंतासासयमणागयसिद्धं" अनेकैर्जातिजरामरणैर्जन्म-जरामृत्युभिर्यश्च तासु योनिषु संसारः संसरणं तेन च यः कलङ्कलीभावः कदीमानता यश्च दिव्यसुखमनुप्राप्तानामपि पुनर्भवे संसारे गर्भवसतिप्रपञ्चः, तौ समतिक्रान्तौ, अत एव शाश्वतमनागतं कालं तिष्ठन्ति ।(सिद्धाइति विशेष्यम्)। प्रज्ञा०२ पद। अनेक-जातिसंश्रयाद् विचित्रत्वम् / सर्वभावानुव्यापितचित्ररूपता / रा० / इह जातयो वर्णनीयवस्तुरूपवर्णनानि।सा"अणेगणड कडगविवरउज्झरपवायपन्भारसिहरपउरे" अनेकानि नटानि कटकाश्व गण्डशैला यत्रस तथा। विवराणि, अवझराश्च निर्झरविशेषाः, प्रपाताश्च भृगवः, प्रारभाराश्च ईषदवनता गिरिदेशाः शिखराणि च कूटानि, प्रचुराणियत्र सतथा। ततः कर्मधारयः (पर्वत इति विशेष्यम्) ज्ञा० 4 अ०। "अणे गणरवामसुप्पसारियअगिज्झघनविपुलवट्ट खंधी' अनेकैर्नरव्यामैः पुरुषव्यामैः सुप्रसारितैरग्राह्योऽप्रमेयो घनो निबिडो विपुलो विस्तीर्णो वृत्तः स्कन्धो येषां ते अनेकनरव्यामसु - प्रसारिताग्राह्यघनविपुलवृत्तस्कन्धाः / रा० / ज्ञा० / "अणेगभूयभावभविएविअहं" अनेके भूता अतीता भावाः सत्त्वाः परिणामा वा भव्याश्च भाविनो यस्य स तथा। इति शुकं प्रति स्थापत्यापुत्रः। स्था०१ ठा० 1 उ०। "अणेगमणिरयण-विविहणिज्जुत्तविचित्त-चिंधगया'' अनेकानि बहूनि मणिरत्नानि प्रतीतानि विविधानि बहुप्रकाराणि नियुक्तानि नियोजितानि येषु तानि तथा, तानि विचित्राणि चिह्नानि गताः प्राप्ताः ये ते तथा / (सुपुरुषवर्णकः) / औलाप्रश्ना" अनेगमणिरयणविविहसुविरइयनामचिंध" अनेकर्मणिरत्नविविधं नानाप्रकारं सुविरचितं नाम चिह्न निजनामवर्ण पङ्क्तिरूपं यत्र स तथा। जं० ३वक्ष०ा 'अणेगमणिकणगरयण पहकरपरिमंडियभागभत्तिचित्तविणिउत्तगमणगुणजणियखोल माणवरललियकुंडलुजलियअहियआभरणजणियसोभे" अनेक- मणिरत्नकनकनिकरपरिमण्डितभागे भक्तिचित्रे विच्छित्तिविचित्रे विनियुक्त कर्णयोर्निवेशिते गमनगुणेन गतिसामर्थ्येन जनिते कृते प्रेझोलमाने चञ्चले ये वरललितकुण्डले ताभ्यामुज्वलितेनोद्दीपनेनाऽधिकाभ्यामाभरणान्यामुज्वलिताधिकैर्वाऽsभरणैश्च कुण्डल-व्यतिरिक्तैर्जनिता शोभा यस्य स तथा। ज्ञा० 1 अ०। 'अणेगरहसगडजाणजुग्गगिल्लिथिल्लिसिवियपडिमोयणा" अनेकेषां, रथशकटादीनामधोविस्तीर्णत्वात् प्रतिमोचनं येषु ते तथा / रा० / "अणेगरायवरसहस्सागुआयमगे" अनेकेषां राजवराणां बद्धमुकुटराज्ञा सहखैरनुयातोऽनुगतो मार्ग पृष्ठं यस्य स तथा / जं०३ वक्ष० / "अणेगवंदाए'' अनेकानि वृन्दानि परीवारो यस्याः स तथा तस्याः (पर्षदः)। रा०ा अणेगवरतुरगमत्तकुंजर रहपहकर(सहकर) सीयसंदमाणीयाइण्णजाणजुग्गा" अनेकै-वरतुरगैमत्तकुञ्जरैः (रहपहकरे त्ति) स्थनिकरैः (रहसहकरेत्ति वा) रथानां सहकारैः सङ्घातैः शिविकाभिः स्यन्दमानीभि-राकीर्णा व्याप्ता यानैर्युग्यैश्च या सा तथा। आकीर्णशब्दस्य मध्यनिपातः प्राकृतत्वात्। अथवा अनेके वरतुरगादयो यस्या-माकीर्णानि च गुणवन्ति यानादीनि यस्यां सा। औ०। 'अणेगवरलक्खणुत्तमपसत्थसुइरइयपाणिलेहे" अनेकैर्वरलक्षणै-रुत्तमाः प्रशस्ताः शुचयो रतिदाश्च रम्याः पाणिलेखा यस्य स तथा। औ० / "अणेगवायामजोग्गवग्गणवामद्दणमल्लजुद्धकरणेहिं" अनेका-नियानि व्यायामनि मित्तयोग्यादीनि तानि तथा तैः तत्र योग्या गुणनिका वल्गनमुल्लड़नंव्यामर्दनं परस्परस्याङ्गमोटनं मल्लयुद्धं प्रतीतं करणानि चाऽङ्गभङ्ग विशेषा मल्लशास्त्रप्रसिद्धाः / औ० / ज्ञा० / 'अणेगवाससयमाउयंतो" अनेकवर्षशतायुष्मन्तः / प्रश्न०४ आश्र० द्वा० / "अणेगसउणिगणमिहुणपवियरिए" अनेकशकुनिमिथुनकानां प्रविचरितमितस्ततो गमनं यत्र तत्तथा (प्रयातकुण्डम्) जं० 4 वक्ष०ा रा०ा अणेगसंकुकीलगसहस्सवितते०अनेकैः शड्कुप्रमाणैः कीलकसहस्रैर्महद्भिर्हि कीलकैः ताडितप्राया मध्यक्षाः संभवन्ति / तथारूपताडाऽसंभवादतः शङ्कुग्रहणं, विततं वितानीकृतं ताडितमिति भावः। रा०जी०1"अणेगसयाए" अनेकानि पुरुषाणां शतानि संख्यया यस्याः सा अनेकशता, तस्याः / रा०'अणेगसाहप्पसाहविडिमा' अनेकशाखाप्रशाखाविटपय-स्तन्मध्यभागो वृक्षविस्तारो वा येषां ते (वृक्षाः)। औ०। ज्ञा० Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणेक्काणंतरसिद्धकेवलनाण 423 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणेगंतवाय अणेक्काणंतरसिद्धके वलनाण-न० (अनेकान्तरसिद्धकेवलज्ञान) आभिनिबोधिकज्ञानभेदे, स्था०२ ठा० 1 उ०। अणेगंगिय-पुं० (अनेकानिक) अनेकपट्टकृते, नि० चू०१ उ०। कन्थिकाप्रस्तारात्मके संस्तारभेदे च। व्य०२ उ०। अणे गंत-त्रि० (अनेकान्त) न एकान्तो नियमोऽव्यभिचारी यत्र / अनियमे, अनिश्चितफलके च।वाच० अनिश्चये, विशे०। एकाग्रये, प्रव० 38 द्वा०। अणे गंतजयपडागा-स्त्री०(अनेकान्तजयपताका) हरिभद्रसूरिविरचिते स्वनामख्याते ग्रन्थभेदे,यवृत्तिविवरणं मुनिचन्द्रेणाऽकारि। तदुपक्रमे "शेषमतातिशयानां, यस्याऽनेकान्तजयपताके ह / हतुमशक्या के नाऽपि वादिना नौमि तं वीरम् // 1 / / कतिपयविषमपदगतं, वक्ष्येऽनेकान्तजयपताकायाः / वृत्तेर्विवरणमहमल्पबुद्धिबुद्ध्यै समासेन"||२| अनेकान्तजयपताकावृत्तिविव०। अणेगंतप्पग-न०(अनेकान्तात्मक) अम्यते गम्यते निश्चीयते इत्यन्तो धर्मः / न एकोऽनेकः / अने कश्चाऽसावन्तश्चाऽने कान्तः / स आत्मा स्वभावो यस्य वस्तुजातस्य तदनेकान्तात्मकम् / सदसदाद्यनेकधर्माऽऽत्मके, रत्ना०३ परि०। अणेगंतवाय-पु०(अनकान्तवाद) स्याद्वादे, सच यथा युक्ततामञ्चति, तथा स्याद्वादमञ्जर्यादिग्रन्थेभ्यः संगृह्यते। (1) एकान्तवाददूषणपुरस्सरमनेकान्तवादिमतम्। (2) प्रत्यक्षोपलक्ष्यमाणमप्यनेकान्तवादं येऽवमन्यन्ते, तेषामुन्मत्त ताऽऽविर्भावनम्। (3) उत्पादविनाशयोरैकान्तिकताऽभ्युपगमनिषेधः / (4) वस्तुनोऽनन्तधर्मात्मकत्वम्। (5) वस्तुन एकान्तसद्रूपत्वं स्वीकुर्वतः सांख्यमतस्यपरासने युक्तिः / (6) कालाधकान्तवादोऽपि मिथ्यात्वमेव / (7) साधर्म्यतो वैधयंतश्च साध्यसिद्धिः। (8) अनेकान्तवाद एव सन्मार्गः। () एकान्तवादिनोऽज्ञाः। (10) अनेकान्तवादस्वीकाराऽस्वीकारयोः सम्यमिथ्यात्वम्। (1) तत्रैकान्तवाददूषणपुरस्सरमनेकान्तवादी आहआदीपमाव्योम समस्वभावं, स्याद्वादमुद्राऽनतिभेदि वस्तु। तन्नित्यमेवैकमनित्यमन्य दिति त्वदाऽऽज्ञाद्विषतां प्रलापाः||५|| आदीपं दीपादारभ्य, आव्योम व्योममर्यादीकृत्य, सर्वं वस्तु पदार्थस्वरूपं, समस्वभावम्-समस्तुल्यःस्वभावःस्वरूपं यस्य तत्तथा / किञ्च- वस्तुनः स्वरूपं द्रव्यपर्यायात्मकत्वमिति ब्रूमः / तथा च वाचकमुख्यः - "उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्" इति / समस्वभावत्वं कुतः? इति विशेषणद्वारेण हेतुमाह - (स्याद्वाद-मुद्राऽनतिभेदि) स्यादित्यव्ययमनेकान्तद्योतकम् / ततः स्याद्वादोऽनेकान्तवादो नित्यानित्याद्यनेकधर्मशबलैकवस्त्वभ्युपगम इति यावत् / तस्य मुद्रा मर्यादा तां नाऽतिभिनत्ति नाऽतिक्रामति इति स्याद्वादमुद्राऽनतिभेदि। यथाहि-न्यायैकनिष्ठे राजनि राज्यश्रियंशासति सति सर्वाः प्रजास्तन्मुद्रां नाऽतिवर्तितुमीशते, तदतिक्रमे तासां सर्वार्थहानिभावात्। एवं विजयिनि निष्कण्टके स्याद्वादमहानरेन्द्र तदीयमुद्रां सर्वेऽपि पदार्था नाऽतिक्रामन्तिः तदुल्लङ्घ ने तेषां स्वरूपव्यवस्थाहानिप्रसक्तेः / सर्ववस्तूनां सम-स्वभावत्वकथनं च पराभीष्टस्यैकं वस्तुव्योमादि नित्यमेव, अन्यच्च प्रदीपादि अनित्यमेवेति वादस्य प्रतिक्षेपबीजम् / सर्वे हि भावा द्रव्यार्थिकनयापेक्षया नित्याः, पर्यायार्थिकनयादेशात् पुनरनित्याः / तत्रैकान्ताऽनित्यतया परैरङ्गीकृ तस्य प्रदीपस्य तावन्नित्याऽनित्यत्वव्यवस्थापने दिङ्मात्रमुच्यते / तथाहि-प्रदीपपर्यायाऽऽपन्नास्तैजसाः परमाणवः स्वरसतस्तैलक्षयाद्वाताभिधाताद्वा, ज्योतिःपर्यायं परित्यज्य तमोरूपं पर्यायान्तर-मासादयन्तोऽपि नैकान्तेनाऽनित्याः, पुद्गलद्रव्यरूपतयाऽव-स्थितत्वात् तेषाम् / न ह्येतावतैवाऽनित्यत्वं यावता पूर्वपर्यायस्य विनाशः, उत्तरपर्यायस्य चोत्पादः। न खलु मृद्रव्यं स्थासक कोशकुशूलशिवकघटाद्यवस्थाऽन्तराण्यापद्यमानमप्येकान्ततो विनष्टम्, तेषु मृद्रव्यानुगमस्याऽऽबालगोपालं प्रतीतत्वात् / न च तम सः पौगलिकत्वमसिद्धम, चाक्षुषत्वाऽन्यथाऽनुपपत्तेः, प्रदीपाऽऽलोकवत्। अथ यश्चाक्षुषं तत् सर्वं स्वप्रतिभासे आलोकमपेक्षते, न चैवं तमः, तत् कथं चाक्षुषम् ? नैवम्। उलूकादीनामालोकमन्तरेणापितत्प्रतिभासात्। यैस्त्वस्मदादिभिरन्यच्चाक्षुषं घटादिकमालोकं विना नोपलभ्यते, तैरपि तिमिरमालोकयिष्यते, विचित्रत्वाद् भावानाम् / कथमन्यथा / पीतश्वेतादयोऽपि स्वर्णमुक्ताफलाद्या आलोकाऽपेक्षदर्शनाः। प्रदीपचन्द्रादयस्तुप्रकाशान्तरनिरपेक्षाः। इति सिद्धं तमश्चाक्षुषं, रूपवत्त्वाच स्पर्शवत्त्वमपि प्रतीयते, शीतस्पर्श-प्रत्ययजनकत्वात्। यानित्वनिविमावयवत्वमप्रतिघातित्वमनुभूतस्पर्श विशेषत्वमप्रतीयमानखण्डावयविद्रव्यप्रविभागत्वमित्यादीनि तमसः पौद्रलिकत्वनिषेधाय परैः साधनान्युपन्यस्तानि, तानि प्रदीपप्रभादृष्टान्तेनैव प्रतिषेध्यानि, तुल्ययोगक्षेमत्वात्। न च वाच्यं तैजसाः परमाणवः कथं तमस्त्वेन परिणमन्त इति ? पुद्गलानां तत्तत्सामग्रीसहकृतानां विसदृशकार्योत्पादकत्वस्याऽपि दर्शनात्। दृष्टो ह्याट्रॅन्धनसंयोगवशाद् भास्वररूपस्याऽपि वढेरभास्वररूपधूमरूपकार्योत्पादः / इति सिद्धो नित्याऽनित्यः प्रदीपः। यदाऽपि निर्वाणादर्वाग् देदीप्यमानो दीपस्तदाऽपि नवनव पर्यायोत्पादविनाशभावत्वात् प्रदीपत्यान्वयाच नित्याऽनित्य एव / एवं व्योमापि उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकत्वान्नित्याऽनित्यमेव / तथाहि - अवगाहाकानां जीवपुद्गलानामवगाहदानोपग्रह एव तल्लक्षणम्, "अवकाशदमाकाशमिति" वचनात्। यदा चाऽवगाहका जीवपुद्गलाः प्रयोगतो विलसातो वा एकस्मात् नभःप्रदेशात् प्रदेशान्तरमुपसर्पन्ति, तदा तस्य व्योम्नस्तैरवगाहकैः सममेकस्मिन् प्रदेशे विभागः, उत्तरस्मिंश्च प्रदेशेसंयोगः। संयोगविभागौ च परस्परं विरुद्धौ धौ / तद्भेदे चाऽवश्यं धर्मिणो भेदः / तथा चाहुः - "अयमेव हि भेदो भेद हे तुर्वा, यद्विरुद्धधर्माऽध्यासः कारणभेदश्चेति" / ततश्च तदाकाशं पूर्वसंयोगविनाशलक्षणपरिणामापत्त्या विनष्टम् उत्तरसंयोगोत्पादाऽऽख्यपरिणामानुभवाचोत्पन्नम् | उभयत्राऽऽकाशद्रव्यस्याऽनुगतत्वाचोत्पादव्यययोरेकाऽधि-करणत्वम्। तथा च "यदप्रच्युताऽनुत्पन्नस्थिरैकरूपं नित्यम्" इति नित्यलक्षण-माचक्षते / तदपास्तम् / एवंविधस्य कस्यचिद्वस्तुनो-ऽभावात्। 'तद्भावाऽव्ययं नित्यम्' इतितुसत्यं नित्यलक्षणम्। उत्पाद-विनाशयोः सद्भावेऽपि तद्भावादन्वयिरूपाद् यत्न व्येति, तत् नित्यम्, इति तदर्थस्य घटमानत्वात् / यदि हि अप्रच्युताऽऽदि लक्षणं नित्यमिष्यते, तदोत्यादव्यययोर्निराधारत्वप्रसङ्गः / न च Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणेगंतवाय 424 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अणेगंतवाय तयोर्यो गे नित्यत्यहानिः / द्रव्यं पर्यायवियुतं, पर्याया द्रव्य - वर्जिताः / क्व कदा केन किंरूपाः, दृष्टा मानेन केन वा ? // 1 // इति वचनात् / न चाऽऽकाशं, न द्रव्यं, लौकिकानामपि घटाऽऽकाशं पटाऽऽकाशमिति व्यवहारप्रसिद्धराकाशस्य नित्याऽनित्वत्वम् / घटाडाकाशमपि हि यदा घटापगमे पटेनाऽऽक्रान्तं, तदा पटाssकाशमिति व्यवहारः / न चाऽयमौपचारिकत्वादप्रमाणमेव ? उपचारस्याऽपि किश्चित्साधर्म्यद्वारेण मुख्याऽर्थस्पर्शित्वात्। नभसो हि यत्किल सर्वव्यापकत्वं मुख्यं परिमाणं, तत् तत् आधेयघटपटादि सम्बन्धिनियतपरिणामवशात् कल्पितभेदं सत्प्रतिनियतदेशव्यापितया व्यवह्रियमाणंघटाऽऽकाशपटा-ऽऽकाशादितत्तद्व्यपदेशनिबन्धनं भवति। तत्तद्घटादिसंबन्धे च व्यापकत्वेनाऽवस्थितस्यव्योम्नोऽवस्थाऽन्तराऽऽपत्तिः, ततश्चा-ऽवस्थाभेदेऽवस्थावतोऽपि भेदः, तासां ततोऽविष्वगभावात्। इति सिद्धं नित्याऽनित्यत्वं व्योम्नः। स्वायम्भुवा अपि हि नित्यानित्यमेव वस्तु प्रपन्नाः। तथा चाऽऽहुस्ते- त्रिविधः खल्वयं धर्मिणः परि-णामो धर्मलक्षणावस्थारूपः / सुवर्ण धर्मि, तस्य धर्मपरिणामो वर्द्धमानरूचकादिः, धर्मस्य तु लक्षण परिणामोऽनागतत्वादिः / यदा खल्वये हेमकारौ वर्द्धमानकं भक्त्वा रुचकमारचयति, तदा वर्द्धमानको वर्तमानतालक्षणं हित्वाऽतीततालक्षणमापद्यते, रूचकस्तु अनागततालक्षणं हित्वा वर्तमानतामापद्यते / वर्तमानताऽऽपन्न एव रुचको नवपुराणभावमा पद्यमानोऽवस्था-परिणामवान् भवति / सोऽयं त्रिविधः परिणामो धर्मिणः / धर्मलक्षणाऽवस्थाश्च धर्मिणो भिन्नाश्चाभिन्नास्च / तथा च ते धर्म्यभेदात् तन्नित्यत्वेन नित्याः भिदाचोत्पत्तिविनाशविषयत्वमित्युभयमुपपन्नमिति || अथोत्तरार्द्ध विवियते एवं चोत्पादव्ययध्रौव्यात्मकल्वे सर्वभावानां सिद्धेऽपि तद्वस्तू एकमाकाशाऽऽत्मादिकं नित्यमेव, अन्यच्च प्रदीपघटादिकमनित्यमेवेति / एवकारोऽत्रापि संबध्यते। इत्येहि दुर्नयवादापत्तिः, अनन्त-धर्माऽऽत्मके वस्तुनि स्वाऽभिप्रेतनित्यत्वादिधर्मसमर्थनप्रवणाः शेषधर्मतिरस्कारेण प्रवर्त्तमाना दुर्नया इति तल्लक्षणात् / इत्यनेनोल्लेखेन त्वदाज्ञाद्विषतां भवत्प्रणीतशासनविरोधिनां, प्रलापाः प्रलपिताऽन्यसंबद्धवाक्यानीति यावत् / अत्र च प्रथममादीपमिति परप्रसिद्ध्या अनित्यपक्षोल्लेखेऽपि यदुत्तस्त्र यथासंख्यपरिहारेण पूर्वतरं नित्यमेवैकमित्युक्तं, तदेवं ज्ञापयतियदनित्यं तदपि नित्यमेव कथञ्चित्, यच नित्यं तदप्यनित्यमेव कथञ्चित् / प्रक्रान्तवादिभिरप्येकस्यामेव पृथिव्यां नित्या-ऽनित्यत्वाऽभ्युपगमात्। तथा च प्रशस्तकारः - सातु द्विविधा नित्याऽनित्या च। परमाणुलक्षणा नित्या, कार्यलक्षणा त्वनित्येति / न चाऽत्र परमाणुद्रव्यंकार्यलक्षणविषयद्वयभेदान्नैकाधिकरणं नित्यऽनित्यत्वमिति वाच्यम् ? पृथिवीत्वस्योभयत्राऽव्यभिचारात् / एवमवादिष्वपीति / आकाशेऽपि संयोगविभागा-ऽङ्गीकारात्तैरनित्यत्वं युक्त्या प्रतिपन्नमेवा तथाच स एवाह - "शब्दकारणत्ववचनात् संयोगविभागौ" इति नित्याऽनित्यपक्षयोः संवलितत्वम् / एतच्च लेशतो भावितमेवेति / प्रलापप्रायत्वं च परवचनानामित्थ समर्थनीयम, वस्तुनस्तावदर्थक्रियाकारित्वं लक्षणम्, तच्चैकान्तनित्याऽनित्यपक्षयोन घटते। अप्रच्युताऽनुत्पन्नस्थिरैकरूपो हि नित्यः / स च क्रमेणाऽर्थक्रियां कुर्वीत ? अक्रमेण वा ? अन्योऽन्यव्यवच्छेदरूपाणां प्रकारा-ऽन्तराऽसंभवात् / तत्र न तावत् क्रमेण / स हि कालाऽन्तरभाविनीः क्रियाः प्रथमक्रियाकाल एव प्रसह्य कुर्यात्, समर्थस्य कालक्षेपाऽयोगात, कालक्षेपिणो वाऽसामर्थ्यप्राप्तेः। समर्थोऽपि तत्तत्सहकारिसमवधाने तं तमर्थं करोतीति चेत्, न तर्हि | तस्य सामर्थ्यम्, अपरसहकारिसापेक्षवृत्तित्वात्। 'सापेक्ष-मसमर्थम्' | इति न्यायात् / न तेन सहकारिणोऽपेक्ष्यन्ते, अपि तु कार्यमेव सहकारिष्वसत्सु अभवत्, तानपेक्षत इति चेत्, तत् किं स भावोऽसमर्थः ? समर्था वा ? समर्थश्चेत् किं सहकारिमुखप्रेक्षणदीनानि तान्युपेक्षते, न पुनर्झटिति घटयति ? / ननु समर्थमपि बीज मिला जलाऽनिलादि स ह क रिस हित में घाऽड्कुरं करोति, नाऽन्यथा / तत् किं तस्य सहकारिभिः किंचिदुपक्रियेत?नवा। यदि नोपक्रियेत, तदा सहकारिसन्निधानात् प्रागिव किं न तदाऽप्यर्थक्रियायामुदास्ते ? उपक्रि येत चेत्, स तर्हि तैरुपकारो भिन्नोऽभिन्नो वा ? क्रियत इति वाच्यम् / अभेदे स एव क्रियते, इति लाभमिच्छतो मूलक्षतिरायात्, कृतकत्वेन तस्याऽनित्यत्वाऽऽपत्तेः / भेदे तु स कथं तस्योपकारः, किं न सह्यविन्ध्याऽद्रेरपि ? तत्संबन्धात् तस्याऽयमिति चेत्, उपकार्योपकारयोः कः संबन्धः? न तावत् संयोगः द्रव्ययोरेव तस्य भावात्। अत्र तु उपकार्य द्रव्यम्, उपकारश्व क्रियेति न संयोगः। नाऽपि समवायः, तस्यैकत्वाद, व्यापकत्वाच / प्रत्यासत्तिविप्रकर्षाभावेन सर्वत्र तुल्यत्वात् न नियतैः संबन्धिभिः संबन्धो युक्तः। नियतसंबन्धिसम्बन्धे चाऽङ्गीक्रियमाणे तत्कृत उपकारोऽस्य समवायस्याऽभ्युपगन्तव्यः तथा च सत्युपकारस्य भेदाऽभेदकल्पना तदवस्थैव। उपकारस्य समवायादभेदे समवायएव कृतः स्यात्।भेदे तु पुनरविसमवायस्यन नियतसंबन्धिसंबन्धत्वम्। तन्नैकान्तनित्यो भावः क्रमेणाऽर्थक्रियां कुरुते / नाऽप्यक्र मेण / नहि एको भावः सकलकालकलाकलाप-भाविनीयुगपत्सर्वाः क्रियाः करोतीति प्रातीतिकम् / कुरुतां वा, तथाऽपि द्वितीयक्षणे किं कुर्यात् ? करणे वा क्रमपक्षभावी दोषः / अकरणे त्वर्थक्रियाकारित्वाऽभावादवस्तुत्वप्रसङ्गः। इति एकान्तनित्यात क्रमाऽक्रमाभ्यां व्याप्ताऽर्थक्रिया व्यापकाऽनुपलब्धिबलाद् व्यापकनिवृत्तौ निवर्तमाना स्वव्याप्यमर्थक्रियाकारित्वं निवर्तयति / अर्थक्रियाकारित्वं च निवर्तमानं स्वव्याप्यं सत्त्वं निवर्तयतीति / इति नैकान्तनित्यपक्षो युक्तिक्षमः / एकान्ताऽनित्यपक्षोऽपि न कक्षीकरणाऽर्हः / अनित्यो हि प्रतिक्षणविनाशी / स च न क्रमेणाऽर्थक्रियासमर्थः, देशकृतस्य कालकृतस्य च क्रमस्यैवाऽभावात् / क्रमोऽहि पौर्वापर्यम्, तच क्षणिकस्याऽसंभवि। अवस्थितस्यैव हि नानादेशकाल-व्याप्तिर्देशक्रमः, कालक्रमश्चाऽभिधीयते। न चैकान्तविनाशिनि साऽस्ति। यदाहुः - "यो यत्रैव स तत्रैव, यो यदैव तदैव सः। न देशकालयोव्याप्तिर्भावानामिह विद्यते ||1|| न च सन्तानाऽपेक्षया पूर्वोत्तरक्षणानां क्रमः संभवति, सन्तानस्याऽवस्तुत्वात्। वस्तुत्वेऽपितस्य यदि क्षणिकत्वम् ? न तर्हि क्षणेभ्यः कश्चिद् विशेषः / अथाऽक्षणिकत्वम् ? तर्हि समाप्तः क्षणभङ्गवादः / नाऽप्यक्रमेणाऽर्थक्रियाक्षणिके संभवति, स हि एको बीजपुरादिक्षणो युगपदनेकान् रसादिक्षणान् जनयन एकेन स्वभावेन जनयेत् ? नानास्वभावैर्वा ? यदि एकेन, तदा तेषां रसादिक्षणानामेकत्वं स्यात्, एकस्वभावजन्यत्वात् / अथ नानास्वभावैर्जनयति किञ्चद् रूपादिकमुपादानभावेन, किञ्चिद् रसादिकं सहकारित्वेनेति चेत्, तर्हि ते स्वभावास्तस्याऽऽत्मभूताः ? अनात्मभूताषा ? अनात्मभूताश्चेत्, स्वभावत्वहानिः / यदि आत्मभूतास्तार्हि तस्याऽनेकत्वम्, अनेकस्वभावत्वात्। स्वभावानांवा एकत्वं प्रसज्येत, तदव्यतिरक्तित्वात् तेषाम, तस्य चैकत्वात्। अथ य एव एकत्रोपादानभावः स एवाऽन्यत्र सहकारिभाव इतिन स्वभावभेद इष्यते, तर्हि नित्यस्यैकरूपस्याऽपि क्रमेण नानाकार्यकारिणः स्वभावभेदः, कार्यसाङ्कयं च कथमिष्यते क्षणिकवादिना ? अथ नित्यमेकरू Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणेगंतवाय 425 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणेगंतवाय पत्वादक्रमम, अक्रमाच क्रमिणां नानाकार्याणां कथमुत्पत्तिः? इति चेत्, अहो ! स्वपक्षपाती देवानां प्रियः, यः खलु स्वयमेकस्मात् निरंशाद् रूपादिक्षणात् कारणाद् युगपदनेककारणसाध्याऽन्यनेककार्याण्यङ्गीकुर्वाणोऽपि परपक्षे नित्येऽपि वस्तुनि क्रमेण नानाकार्यकरणेऽपि विरोधमुद्भावयति। तस्मात् क्षणिक-स्याऽपि भावस्याऽक्रमेणाऽर्थक्रिया दुर्घटा / इत्यनित्यैकान्ता दपि क्रमाऽक्रमयोपिकयोर्निवृत्त्यैव व्याप्याऽर्थक्रियाऽपि व्यावर्तते / तद्व्यावृत्तौ च सत्त्वमपि व्यापकाऽनुपलब्धिबलेनैव निवर्तते, इत्येकान्तानित्यवादोऽपि न रमणीयः / स्याद्वादे तु पूर्वोत्तराकारपरिहारस्वीकारस्थितिलक्षणपरिणामेन भावाना-मर्थक्रियोपपत्तिरविरुद्धा / न चैकत्र वस्तुनि परस्परविरुद्ध-धर्माऽध्यासायोगादसन् स्याद्वाद इति वाच्यम् ? नित्याऽनित्य-पक्षविलक्षणस्य पक्षान्तरस्याऽङ्गीक्रियमाणत्वात, तथैव च सर्वरनुभवात् / तथा च पठन्ति - भागे सिंहो नरो भागे, योऽर्थों भागद्वयात्मकः / तमभाग विभागेन, नरसिंहं प्रचक्षते / / 1 / / इति / वैशेषिकै रपिचित्ररूपस्यैकस्याऽवयविनोऽभ्युपगमात्। एकस्यैव पटादेश्वलाऽचलरक्ताऽरक्ताऽऽवृताऽनावृतत्वादिविरुद्धधर्माणामुपलब्धेः, सौगतैरप्येकत्र चित्रपटीज्ञाने नीलाऽनीलयोर्विरोधाऽनङ्गीकारात्,अत्र च यद्यप्यधिकृतवादिनः प्रदीपादिकं कालान्तराऽवस्थायित्वात् क्षणिकं न मन्यन्ते, तन्मते पूर्वाऽपरान्तावच्छिन्नायाः सत्ताया एवाऽनित्यतालक्षणात् / तथाऽपि बुद्धिसुखादिकं तेऽपि क्षणिकतयैव प्रतिपन्नाः / इति तदधिकारेऽपि क्षणिकवादचर्चा नाऽनुपपन्ना / यदाऽपि च कालाऽन्तरावस्थायि वस्तु, तदाऽपि नित्यानित्यमेव / क्षणोऽपि न खलु सोऽस्ति, यत्र वस्तूत्पादव्ययधौव्यात्मकं नास्तीति काव्यार्थः / / 5 / / स्या०। (अनेकान्तज्ञानस्य यथार्थत्वं 'मोक्ख' शब्दे वक्ष्यते) (2) साम्प्रतमनादि-अविद्यावासनाप्रवासितसन्मतयः प्रत्यक्षोपलक्ष्यमाणमप्यनेकान्तवादं येऽवमन्यन्ते, तेषामुन्मत्तता-माविर्भावयन्नाहप्रतिक्षणोत्पाद विनाशयोगि, स्थिरैकमध्यक्षमपीक्षमाणः। जिन ! त्वदाज्ञामवमन्यते यः, स वातकी नाथ ! पिशाचकी दा? |21|| प्रतिक्षणं प्रतिसमयमुत्पादेनोत्तराऽऽकारस्वीकाररूपेण, विनाशेन च पूर्वाऽऽकारपरिहारलक्षणेन, युज्यत इत्येवंशीलं प्रतिक्षणोत्पादविनाशयोगि। किं तत् ? स्थिरैकं कर्मताऽऽपन्नम, स्थिरमुत्पादविनाशयोरनुयायित्वात् त्रिकालवर्ति यदेकं द्रव्यं स्थिरैकम् / एकशब्दोऽत्र साधारणवाची। उत्पादे विनाशे च तत्साधारणमन्वयिद्रव्यत्वात्। यथाचैत्रमैत्रयोरेका जननी साधारणेत्यर्थः / इत्थमेव हितयोरेकाऽधिकरणता, पर्यायाणां कथञ्चिदनेकत्वेऽपि तस्य कथश्चिदेकत्वात्। एवं त्रयाऽऽत्मकं वस्तु अध्यक्षमपीक्षमाणः प्रत्यक्षमवलोकयन्नपि, हे जिन ! रागादिजैत्र ! त्वदाज्ञाम्, आ सामस्त्येनाऽनन्तधर्मविशिष्टतया ज्ञायन्तेऽवबुध्यन्ते जीवादयः पदार्थाः, यया सा आज्ञा, आगमः, शासनम्, तवाऽऽज्ञा त्वदाज्ञा, तां त्वदाज्ञा भवत्प्रणीत-स्याद्वादमुद्रां, यः कश्चिदविवेकी अवमन्यतेऽवजानाति। जात्यपेक्षमेकवचनम्, अवज्ञया वा। स पुरुषपशुतिकी, पिशाचकी वा। वातो रोग विशेषोऽस्यास्तीति वातकी, वातकीव वातकी, वातूल इत्यर्थः। एवं पिशाचकीव पिशाचकी, भूताऽऽविष्ट इत्यर्थः / अत्र वा शब्दः समुच्चयऽर्थ उपमानाऽर्थो वा। स पुरुषाऽपसदो वातकि पिशाचकिभ्यामधिरोहति, तुलामित्यर्थः। वातातीसारपिशाचात् कश्चाऽन्तः(७।२।६१)इत्यनेन (हैम-सूत्रेण) / मत्त्वर्थीयः कश्चाऽन्तः। एवं पिशाचकीत्यपि। यथा किलवातेन पिशाचेन वाऽऽक्रान्तवपुर्वस्तुतत्त्वं साक्षात् कुर्वन्नपि तदावेशवशादन्यथा प्रतिपद्यते, एवमयमप्येकान्तवादा-ऽपस्मारपरवश इति / अत्र च जिनेति साभिप्रायम्, रागादि-जेतृत्वाद्धि जिनः / ततश्च यः किल विगलितदोषकालुष्यतया-ऽवधेयवचनस्याऽपि तत्रभवतः शासनमवमन्यते तस्य कथं नोन्मत्ततेति भावः / नाथ ! हे स्वामिन् ! अलब्धस्य सम्यग्दर्शना-ऽऽदेर्लम्भकतया लब्धस्य च तस्यैव निरतिचार परिपालनोप-देशदायितया च योगक्षेमकरत्वोपपत्तेनाथः, तस्याऽsमन्त्रणम्। वस्तुतत्त्वं च- उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकम्। तथाहि- सर्व वस्तु द्रव्याऽऽत्मना नोत्पद्यते, विपद्यते वा, परिस्फुटमन्वयदर्शनात् / लूनपुनर्जातनखादिष्वन्वयदर्शनेन व्यभिचार इति न वाच्यम्, प्रमाणेन बाध्यमानस्याऽन्वयस्याऽपरिस्फुटत्वात् / न च प्रस्तुतोऽन्वयः प्रमाणविरुद्धः, सत्यप्रत्यभिज्ञानसिद्धत्वात् / सर्वव्यक्तिषु नियतं क्षणे क्षणेऽन्यत्वमथ च न विशेषः / “सत्यो श्चित्यपचित्योराकृतिजातिव्यवस्थानात्" इति वचनात्। ततो द्रव्यात्मना स्थितिरेव सर्वस्य वस्तुनः, पर्यायात्मना तु सर्व वस्तूत्पद्यते, विपद्यते च, अस्खलितपर्यायानुभवसद्भावात् / न चैवं शुक्ले शङ्ख पीतादिपर्यायाऽनुभवेन व्यभिचारः, तस्य स्खलद् रूपत्वात् / न खलु सोऽस्खलद् रूपो येन पूर्वाऽऽकारविनाशाऽजहद् धृतोत्तराकारोत्पादाऽविनाभावी भवेत् / न च जीवादी वस्तुनि हर्षाऽमर्षां दासीन्यादिपर्यायपरम्पराऽनुभवः स्खलद् रूपः, कस्यचिद् बाधकस्याऽभावात् / ननूत्पादादयः परस्परं भिद्यन्ते ? न वा ? यदि भिद्यन्ते, कथमेकं वस्तु त्रयाऽऽत्मकम् ? न भिद्यन्ते चेत् तथापि कथमेक त्रयाऽऽत्मकम् ? तथा च-"यधुत्पादादयो भिन्नाः कथमे कं त्रयाऽऽत्मकम् ? अथोत्पादादयोऽभिन्नाः, कथमे कंत्रयात्मकम् ?" ||1|| इति चेत्। तदयुक्तम्। कथञ्चिद् भिन्नलक्षणत्वेन तेषां कथञ्चिद् भेदाऽभ्युपगमात् / तथाहि- उत्पादविनाशध्रौव्याणि स्याद् भिन्नानि भिन्नलक्षणत्वाद् रूपादिवदिति। न च भिन्नलक्षणत्वमसिद्धम, असत आत्मलाभः, सतः सत्तावियोगः, द्रव्यरूपतयाऽनुवर्तनं च खलूत्पा-दादीनां परस्परमसङ्कीर्णानि लक्षणानि सकललोकसाक्षिकाण्येव / न चाऽमी भिन्नलक्षणा अपि परस्परा-ऽनपेक्षा खपुष्पवदसत्त्वा-ऽऽपत्तेः / तथाहि- उत्पादः केवलो नाऽस्ति, स्थितिविगमरहित-त्वात्, कूर्मरोमवत्। तथा विनाशः केवलो नाऽस्ति, स्थित्युत्पत्ति-रहितत्वात्, तद्वत् / एवं स्थितिः केवलो नाऽस्ति, विनाशोत्पाद-शून्यत्वात्, तद्वदेव। इत्यन्यो-ऽन्याऽपेक्षाणामुत्पादादीनां वस्तुनि सत्त्वं प्रतिपत्तव्यम् / तथा चोक्तम्- "घटमौलिसुवर्णाऽर्थी, नाशोत्पादस्थितिः स्वयम् / शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं, जनो याति सहेतुकम् / / 1 / / पयोव्रतो नदध्यत्ति, न पयोऽत्ति दधिव्रतः। अगोरसवतो नोभे, तस्माद् वस्तु त्रयात्मकम्' ||2|| इति काव्याऽर्थः // 21 // अथाऽन्ययोगव्यवच्छेदस्य प्रस्तुतत्वाद्, आस्तां तावत् साक्षाद् भवान, भवदीयप्रवचनावयवा अपि परतीर्थिकतिरस्कारबद्धक क्षा इत्याशयवान् स्तुतिकारः स्याद्वादध्यवस्थापनाय प्रयोगमुपन्यस्यन् स्तुतिमाहअनन्तधर्मात्मकमेव तत्त्वमतोऽन्यथा सत्त्वमसूपपादम्। इति प्रमाणान्यपि ते कुवादि-कुरङ्गसंत्रासनसिंहनादाः।।२।। तत्त्वं परमार्थभूतं वस्तु, जीवाऽजीवलक्षणम्, अनन्तधर्मात्मकमेव, अनन्तास्त्रिकालविषयत्वादपरिमिता ये धर्माः सहभाविनः Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणेगंतवाय 426 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणेगंतवाय क्रम भाविनश्व पर्यायास्त एवात्मा स्वरूपं यस्य तदनन्त-धर्मात्मकम्। एवकारः प्रकारान्तरव्यवच्छेदार्थः / अत एवाह - (अतोऽन्यथेत्यादि) अतोऽन्यथा उक्त प्रकारवैपरीत्येन, सत्त्वं वस्तुतत्त्वमसूपपादम् - सुखेनोपपाद्यते घटनाकोटिसंटङ्-कमारोप्यत इति सूपपादम्, न तथाऽसूपपादम्, दुर्घटमित्यर्थः / अनेन साधनं दर्शितम् / तथाहि तत्त्वमिति धर्मि, अनन्त-धर्मात्मकत्वं साध्यो धर्मः, सत्त्वाऽन्यथाऽनुपपत्तेरिति हेतु, अन्यथाऽनुपपत्त्येकलक्षणत्वाद्धेतोः / अन्तव्याप्त्यैव साध्यस्य सिद्धत्वाद् दृष्टान्तादिभिर्न प्रयोजनम् / यदनन्तधर्मात्मकंन भवति, तत्सदपि न भवति।यथा-वियदिन्दीवरम्। इति केवलव्यतिरेकी हेतुः, साधर्म्यदृष्टान्तानां पक्षकुक्षिनिक्षिप्तत्वेनान्वयाऽयोगात् / अनन्तधर्मात्मकत्वं चाऽऽत्मनि तावत् साकाराऽनाकारोपयोगिता, कर्तृत्वं, भोक्तृत्वं, प्रदेशाष्टक-निश्चलता, अमूर्तत्वमसङ्ख्यातप्रदेशात्मकता, जीवत्वमित्यादयः सहभाविनोधर्माः। हर्षविषादशोकसुखदुःखदेवनरनार-कतिर्यक्त्वादयस्तु क्रमभाविनः / धर्मास्तिकायादिष्वप्यसंख्येय-प्रदेशात्मकत्वं गत्यादि- उपग्रहकारित्वं मत्यादिज्ञानविषयत्वंतत्तदवच्छेदका वच्छेद्यत्वभवस्थितत्वमरूपित्वमेकद्रव्यत्वं निष्क्रियत्वमित्यादयः। घटे पुनरामत्वं, पाकजरूपादिमत्त्वं, पृथुबुध्नोदरत्वं, कम्बुग्रीवत्वं, जलादिधारणाऽऽहरणादिसामर्थ्य, मत्यादिज्ञानज्ञेयत्वं, नवत्वं, पुराणत्वमित्यादयः / एवं सर्वपदार्थेष्वपि नानानयमताभिज्ञेन शाब्दानार्थांश्च पर्यायान प्रतीत्य वाच्यम् / अत्र चाऽऽत्म- शब्देनाऽनन्तेष्वपि धर्मेष्वनुवर्तिरूपमन्वयि द्रव्यं ध्वनितम्। ततश्च ‘उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' इति व्यवस्थितम् / एवं तावदर्थेषु शब्देष्वपि उन्मत्ताऽनुदात्तस्वरितविवृतसंवृतघोषवदघोषताऽल्पप्राणमहाप्राणतादयस्तत्तदर्थप्रत्यायनशक्त्यादयश्चावसेयाः / अस्य हेतोरसिद्धविरुद्धाऽनैकान्तिकत्वादि कण्टकोद्धारः स्वयमभ्यूहाः / इत्येवमुल्लेखशेखराणि ते तव, प्रमाणान्यपि न्यायोपपन्नसाधनवाक्यान्यपि / आस्तां तावत्साक्षात्कृतद्रव्यपर्यायनिकायो भवान. यावदेतान्यपि कुवादिक रङ्गसंत्रासनसिंहनादाः, कुवादिनः कुत्सितवादिन एकांशग्राहकनयाऽनुयायिनोऽन्यतीर्थिकाः,तएव संसारवनगहनवसन-व्यसनितया कुरङ्गा मृगाः, तेषां सम्यक् त्रासने सिंहनादा इव सिंह-नादाः / यथा सिंहस्य नादमात्रमप्याकर्ण्य कुरङ्गास्त्रासमासूत्रयन्ति, तथा भवत्प्रणीतैवंप्रकारप्रमाणवचनान्यपि श्रुत्वा कुवा-दिनस्त्रासमश्नुवते, प्रतिवचनप्रदानकातरतां बिभ्रतीति यावत् / एकैकं त्वदुपज्ञ प्रमाणमन्ययोगव्यवच्छे दकमित्यर्थः / अत्र प्रमाणानीति बहुवचनमेवंजातीयानां प्रमाणानां भगवच्छासने आनन्त्यज्ञापनार्थम्, एकैकस्य सूत्रस्य सर्वोदधिसलिलसर्वसरिद्वालुकाऽनन्त-गुणार्थत्वात्, तेषां च सर्वेषामपि सर्वविन्मूलतया प्रमाणत्वात् / अथवा इत्यादि बहुवचनान्ता गणस्य संसूचका भवन्तीति न्यायात् इतिशब्देन प्रमाणबाहुल्यसूचनात्-पूर्वार्द्ध एकस्मिन्नपि प्रमाणे उपन्यस्ते उचितमेव बहुवचनमिति काव्यार्थः / / 2 / / (सप्तभङ्गीनिरूपणं 'सत्तभंगी' शब्दे वक्ष्यते) (उत्पादव्ययोस्वैविध्यं स्वस्थाने) (3) न चोत्पादविनाशयोरैकान्तिकतद् रूपताऽभ्युपगमेऽनेकान्तवादव्याघातः, कथञ्चित्तयोस्तद्रूपताऽभ्युपगमात्। तदाहतिण्णि वि उप्पायाई, अभिन्नकाला य भिन्नकाला य।। अत्यंत अणत्यंतरं च दवियाहिं णायव्वा / / 13 / / त्रयोऽप्युत्पादविगमस्थितिस्वभावाः, परस्परतोऽन्यकालाः / यतो न | पटादेरुत्पादसमय एव विनाशः, तस्यानुत्पत्तिप्रसक्तेः / नापि तद्विनाशसमये तस्यैवोत्पत्तिः, अविनाशोत्पत्तेः। न च तत्प्रा-दुर्भावसमय एव तत्स्थितिः, सद् रूपेणैवाऽवस्थितस्याऽनव-स्थाप्रसक्तितः प्रादुर्भावायोगात्। न च रूपघटरूपमृत्स्थितिकाले तस्य विनाशः, तद् रूपेणावस्थितस्य विनाशस्य एव ध्वंसोऽनु-त्पत्तिप्रसङ्गत एव युक्तः। ततस्त्रयाणामपि भिन्नकालत्वात्, तद् द्रव्यमर्थान्तरम् / नाना स्वभावादनेकान्ताभावप्रसक्तिः। यतोऽभिन्नकालाश्चोत्पादादयः, न हि कुशूलविनाशघटो-त्पादयोभित्रकालता, अन्यथा विनाशात् कार्योत्पत्तिः स्यात्। घटाद्युत्तरपर्यायानुत्पत्तावपि प्राक्तनपर्यायध्वंसप्रसक्तिश्च स्यात् / पूर्वोत्तरपर्यायविनाशोत्पादक्रिया या निर्धारायोगात्। तदाधार-भूतद्रव्यस्थितिरपि तदाऽभ्युपगन्तव्या। न च क्रियाफलमेव क्रियाः,तस्य प्रागसत्त्वात्, सत्त्वे वा क्रियावैफल्यात्। ततस्त्रयाणामपि भिन्नकालत्वाद् तद्व्यतिरिक्तं द्रव्यमभिन्नं न चाभावघटोत्पादविनाशापेक्षया भिन्नकालतयाऽर्थान्तरत्वम्, कुशूलघटाविनाशोत्पादापेक्षयाऽभिन्नकालत्वेनार्थान्तर-त्वादेकान्तर इति वक्तव्यं द्रव्यम्। द्रव्यस्य पूर्वावस्थायां भिन्नाभिन्नतया प्रतीय-मानस्योत्तरावस्थायामपि भिन्नाभिन्नतयैव प्रतीतेरनेकान्तो-ऽव्याहतः / न चाबाधिताध्यक्षादिप्रतिपत्ति विषय-स्य तस्य विरोधाधुद्रायनं युक्तिसंगतम्, सर्वप्रमाणप्रमेयव्यवहारविलोप-प्रसङ्गात् / अत एयार्थान्तरमनन्तिरं चोत्पादादयो द्रव्यात् तदवापो वा तेभ्यस्तथेति ज्ञेयम् / द्रव्यात् तथाभूततद्ग्राहकत्व-परिणततादात्म्यलक्षणात्प्रमाणादित्यपि व्याख्येम् / न हितथाभूत-प्रमाणप्रवृत्तिः तथाभूतार्थमन्तरेणोपपन्नाः, धूमध्वजमन्तरेण स वेद्यते च / तथाभूतग्राह्मग्राहिकरूपतयाऽनेकान्तात्मकं स्वसंवेदनतः प्रमाणमिति, न तदपलापः कर्तुं शक्यः, अन्यथाऽतिप्रसङ्गात् / यता-देशादिविप्रकृष्टा उत्पत्तिविनाशस्थितिस्वभाया भिन्नाभिन्नकाला अर्थान्तरानान्तररूपा द्रव्यत्वाद, द्रव्याद्रव्यातिरिक्तत्वादित्यर्थः। अन्यथोत्पादादीनामभावप्रसक्तेः। तेभ्यो वा द्रव्यमन्तिर-मनन्तरम्, द्रव्यत्वात् / प्रतिज्ञार्थकदेशता च हेतोनशिङ्कनीया, द्रव्यविशेषे साध्ये द्रव्यसामान्यस्य हेतुत्वेनोपन्यासात् / / 132 / / अत्रैवार्थे प्रत्यक्षप्रतीतमुदाहरणमाहजो आउंचणकालो, चेव पसारिस्स विणिजुत्तो। तेसिं पुण पडिवत्ती-विगमे कालंतरं नत्थि।।१३३|| य आकुञ्चनकालोऽगुल्यादेव्यस्य, स एव तत्प्रसारणस्य न युक्तः, भिन्नकालतयाऽऽकुञ्चनप्रसारणयोः प्रतीतस्तयोर्भदः / अन्यथा तयोः स्वरूपाभावापत्तेरित्युक्तं तत्तत्पर्यायाभिन्न-स्याङ्गुल्यादिद्रव्यस्यापि तथाविधत्वात्, तदपि भिन्नमभ्युप-गन्तव्यम्। अन्यथा तदनुपलम्भात्। अभिन्नं च, तदवस्थयोस्तस्यैव प्रत्यभिज्ञायमानत्वात् / तयोः पुनरुत्पादविनाशयोः / प्रतिपत्तिश्च प्रादुर्भावो, विगमश्च विपत्तिः / प्रतिपत्तिविगमम्, तत्र कालान्तरं भिन्नकालत्यमगुलिद्रव्यस्य च नास्ति पूर्वपर्यायविनाशोत्तरपर्यायोत्पत्त्युङ् गुलिद्रव्योत्पत्तिस्थितीनामभिन्नकालताऽभिन्नरूपता च प्रतीयते / एकस्यैव तथाविवर्तात्मकस्याध्यक्षतः प्रतीतेः। अथवा कालान्तरं नास्तीत्यत्राऽऽकारप्रश्लेषात्ततश्चोपादानात्, प्रतिषेधद्वयेन प्रकृतार्थगते: कालान्तरं कालभेद उत्पादादेव्यस्य वाऽस्तीति कथशिद् भेद इत्यर्थः। कथञ्चिद् भेदेनापि प्रतिपत्तेस्तेनोत्पत्तिविनाश-स्थितीनां परस्पररूपपरित्यागप्रवृत्त प्रत्येक यात्मकै क रूपत्वेनापि वर्तमानपर्यायात्मकस्यैवातीतानागतकालयोः सत्त्वम्, Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणेगंतवाय 427- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणेगंतवाय वस्तुनस्त्र्यात्मकत्वाऽभ्युपगमात्। अतीतानागतकालयोरपि तद्रूपेण सत्त्वे उत्पादविनाशयोरभावेन कथं त्र्यात्मकत्वं तस्य ? अतीतानागतकालयोरभावे कथं नित्यत्वमिति वाच्यम् / कथञ्चित्तस्याऽभ्युपगमात्, त्यक्तोपादित्स्यमानपूर्वोत्तरपर्यायस्यान्यान्यवेशपरित्यागोपादानै कनटपुरुषवद् द्रव्यस्य व्यावत्मिकत्वात्, सर्वथाऽनित्यत्वे पूर्वोत्तरव्यपदेशाभावसमक्तेः / सर्वथा नित्यत्वेऽप्युभयत्रैकप्रतिभासव्यप-देशादिव्यवहाराभावश्च स्यात् / न चैकत्वप्रतिभासो मिथ्या, ततो यदेव विनष्टं शिवकरूपतया तदेवोत्पन्नं मृद्रव्यं घटादिरूपतया, अवस्थितं च मृत्त्वेनेति त्र्यात्मकं तत् सर्वदा द्रव्यमवस्थितं यथोत्पादव्यवस्थितम् / यथोत्पादव्यवस्थितीनां प्रत्येकमेकैकरूपं त्र्यात्मकं, तथा भूतवर्तमानभविष्यद्भिरप्येकैकं रूपं त्रिकालतामासादयति। इत्येतदेवाहउप्पञ्जमाणं कालं, उप्पण्णं ति विगयं विगच्छंतं / दवियं पण्णवयंतो, तिकालविसयं विसेसेइ॥१३४|| उत्पद्यमानसमय एव किश्चित्पटद्रव्यं तावदुत्पन्नं, यदि एकतन्तुप्रवेशक्रियासमये न द्रव्यं तेन रूपेणोत्पन्नं, तर्जुत्तरत्रापि तत्रोत्पन्नमित्यत्यन्तानुत्पत्तिप्रसक्तिस्तस्य स्यात् / न चोत्पत्तिप्रसक्तिः, उत्तरोत्तरक्रि याक्षणस्य तावन्मात्रफलोत्पादन एव प्रक्षयादपरस्य फलान्तरस्यानुत्पत्तिप्रसक्तेः / यदि च विद्यमाना एकततन्तुप्रवेशक्रिया न फलोत्पादिका, विनष्टा सुतारां न भवेत, असत्त्वात्, उत्पत्त्यवस्थावत्। न ह्यनुत्पन्नविनष्टयोरसत्त्वे कश्चि-द्विशेषः। ततः प्रथमक्रियाक्षणः केनचिद् रूपेण तमनुत्पादयति, द्वितीयस्त्वसौ तदेवांशान्तरेणोत्पादयति। अन्यथा क्रिया-क्षणान्तरस्य वैफल्यप्रसक्तेः। एकेनांशेनोत्पन्नं सदुत्तरक्रिया-क्षणफलांशेन यद्यपूर्वमपूर्वं तदुत्पद्यते तदोत्पन्नं भवेद्, नाऽन्यथेति / प्रथमतन्तुप्रवेशादारभ्यान्त्यतन्तुसंयोगावधि यावदुत्पद्यमानं प्रबन्धेन तद्पतयोत्पन्नमभिप्रेतानिष्टरूपतया चोत्पत्स्यत इत्युत्पद्यमानमुत्पत्स्यमानं च भवति / एवमुत्पन्नमप्युत्पद्यमान-मुत्पत्स्यमानं च भवति / तथोत्पत्स्यमानमप्युत्पद्यमानमुत्पन्नं चेत्येकैकमुत्पन्नादिकालत्रयेण यथा चैकाल्यं प्रतिपद्यते, तथा विगच्छदादिकालत्रयेणाऽप्युत्पादादिरेकैकः त्रैकाल्यं प्रतिपद्यते। तथाहि-यथा यदैवोत्पद्यतेन तत्तदैवोत्पन्नमुत्पत्स्यते। यद् यदैवोत्पन्नं न तत्तदैवोत्पद्यते उत्पत्स्यते च / यद् यदैवोत्पत्स्यते तत्तदैवोत्पद्यते उत्पन्नं च / तथा तदेव तदैव यदुत्पद्यते तत्तदैव विगतं विगच्छद्विगमिष्यश्च / तथा यदेव यदैवोत्पन्नं तदेव तदैव विगतं विगच्छद्विगमिष्यच्च / तथा यदेव यदैवोत्पत्स्यते तदेव तदैव विगतं विगच्छद्विगमिष्यच / एवं विगमोऽपि त्रिकालमुत्पादादिना दर्शनीयः / तथा स्थित्याऽपि त्रिकाल एवं सप्रपञ्चं दर्शनीयः / एवं स्थितिरप्युत्पादविनाशाभ्यां प्रपञ्चाभ्यामे कै काभ्यां त्रिकालदर्शनीयेति। द्रव्यमन्योन्यात्मक तथाभूतकालत्रयात्मकोत्पादविनाशस्थित्यात्मकं प्रज्ञापयस्त्रिकालविषयप्रादुर्भव-द्धर्माधारतया तद्विशिनष्टि / अनेन प्रकारेण त्रिकालविषयं द्रव्यस्वरूपं प्रतिपादितं भवति / अन्यथा द्रव्यास्याऽभावात् त्रैकाल्यं दूरोत्सारितमेवेति, तद्वचनस्य मिथ्यात्वप्रसक्तिरिति भावः / सर्वथाऽन्तर्गमनलक्षणस्य विनाशस्यासंभवाद् विभागजस्य चोत्पादस्य तत्तद्वयाभावे स्थितेरप्यभावात्। तत् त्रैकाल्यं दूरोत्सारितमेवेति मन्यमानत्वाद्वादिनः प्रति / तदभ्युपगमदर्शनपूर्वकमाहदध्वंतरसंजोगाहिँ केऽवि दवियस्य बिंति उप्पायं। उप्पायत्था कुशला, विभागजायं न इच्छंति।।१३।। समानजातीयद्रव्यान्तरादेव समवायिकारणात् तत्संयोगा-- समवायिकारणात् तत्संयोगासमवायिकारणनिमित्तकारणादिसव्यपेक्षादवयवि कार्यद्रव्यं भिन्न कारणद्रव्येभ्य उत्पद्यत इति द्रव्यस्योत्पादं केचन बुवते / ते चोत्पादार्थानभिज्ञा विभागजोत्पाद नेच्छन्ति। कुतः पुनर्विभागजोत्पादानभ्युपगमवादिन उत्पादार्थानभिज्ञाः ? यतः - अणु अणुएहिं दव्वे, आरद्धे ति अणुयं ति ववएसो। तत्तो य पुण विभत्तो, अणु त्ति जाओ अणु होई // 136 / / द्वाभ्यां परमाणुभ्यां कार्यद्रव्ये आरब्धे ऽणु रितिव्यपदेशः, परमाणुद्वयारब्धस्य व्यणुकस्याणुपरिमाणत्वात् / त्रिभिद्य॑णुकैश्चतुर्भिर्वाऽरब्धे त्र्यणुकमिति व्यपदेशः। अन्यथोत्पन्नानुपलब्धि-निमित्तस्य महत्त्वस्याभावप्रसक्तेः / अत्र किल त्रिभिश्चतुर्भिर्वा प्रत्येक परमाणुभिरारब्धमणुपरिमाणमेव कार्यमिति। आदिपरमाणुनाऽरम्भकत्वे आरम्भवैयर्थ्यप्रसक्तिरिति द्वाभ्यां तु परमाणुभ्यां व्यणुकमारम्यते / त्र्यणुकमपि न द्वाभ्यामणुभ्यामारभ्यते, कारणविशेषपरिमाणतोऽनुपभोग्यत्वप्रसक्तेः, यतो महत्त्वपरिमाणयुक्तं तदुपलब्धियोग्यं स्यात्। तथा चोपभोग्यकारणबहुत्वमहत्त्वप्रचयन्यं च महत्त्वमान् च द्वित्रिपरमाण्वारब्धे कार्ये महत्त्वं, तत्र महत्परिमाणाऽभावात्तेषामणुपरिमाणात्तदुपलब्धियोग्य स्यात्, तथा चोपभोग्य कारणत्वात्, प्रचयोऽप्यवयवाभावान्न संभवति, तेषामपि द्वाभ्यामणुभ्यां कारणबहुत्वाभावात्। नच त्रयोऽपि, प्रशिथिलावयवसंयोगाभावात्। उपलभ्यते च समानपरिमाणैस्त्रिभिः पिण्डैरारब्धे कार्ये महत्त्वं, न द्वाभ्यामिति महत्परिमाणाभ्यां ताभ्यामेवारब्धं महत्त्वं, न त्रिभिरल्पपरिमाणैरारब्ध इति / समानसंख्यातुलापरिमाणाभ्यां तन्तुपिण्डाभ्यामारब्धे पटादि-कार्ये प्रशिथिलावयवतन्तुसंयोगकृतं महत्त्वमुपलभ्यते, न तदितरत्रेति।नन्येवं यदि कार्यारम्भस्तदा। द्रव्याणि द्रव्यान्तरमारभन्ते, द्विबहूनि वा समानजातीयानीत्यभ्युपगमः परित्यज्यताम्, यतो न परमाणुव्यणुकादीनामपि त्यक्तजनकावस्थानामनङ्गीकृत-स्वकार्यजननस्वभावानां च व्यणुकत्र्यणुकादिकार्यनिर्वर्त्तकत्वम्, अन्यथा प्रागपि तत्कार्यप्रसङ्गात् / अथ न तेषामजनकावस्थात्यागतो जनकस्वभावान्तरोत्पत्तौ कार्यजनकत्वम्, किन्तु पूर्वस्वभाव-व्यवस्थितानामेव संयोगलक्षणसहकारिशक्तिसद्भावात् तदा कार्यनिवर्तकत्वं प्राक्तनतदभावान्न कार्योत्पत्तिः / कारणानामविचलितस्वरूपत्वेऽपिनच संयोगेन तेषामनतिशयो व्यावर्त्तते, अतिशयो वा कश्चिदुत्पाद्यते, अभिन्नो भिन्नो वा, संयोग-स्येवातिशयत्वात्। न च कथमन्यः संयोगस्तेषामतिशय इति, वाच्यस्याप्यतिशयत्यायोगात्। न हि स एव तस्यातिशय इत्युप-लब्धम्, तस्मात्तत्संयोगे सति कार्यमुपलभ्यते, तदभावे तु नोपलभ्यत इति संयोग एव कार्योत्पादने तेषामतिश इति, न तदुत्पत्तौ तेषां स्वभावान्तरोत्पत्तिः, संयोगाऽतिशयस्य तेभ्यो भिन्नत्वादिति। असदेतत् / यतः कार्योत्पत्तौ तेषां संयोगाऽतिशयो भवतु, संयोगोत्पत्तौ तु तेषां कोऽतिशयः ? इति वाच्यम्।नतावत्स्व एव संयोगः, तस्या-द्यानुत्पत्तेः। नापि संयोगान्तरं तदनभ्युपगमात् / अभ्युपगमेऽपि तदुत्पत्तावप्यपरसंयोगातिशयप्रकल्पनायामनवस्थाप्रसक्तेः / न च क्रियातिशयः, तदुत्पत्तावपि पूर्वोक्तोदोषप्रसङ्गात् / किं चादृष्टापेक्षादात्माणुसंयोगात्परमाणुषु Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणेगंतवाय 428 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अणेगंतवाय क्रियोत्पद्यत इति अभ्युपगमादात्मपरमाणुसंयोगाभावेऽप्यपरो-ऽतिशयो वाच्यः / तदेव चतत्र दूषणम् / किञ्चासौ संयोगो व्यणुकादिनिवर्तकः किं परमाण्वाद्याश्रितः, उत तदन्याश्रितः, आहोस्विदनाश्रित इति। यद्याद्यः पक्षः, तदा तदुत्पत्तावाश्रय उत्पद्यते, न वेति ? यद्युत्पद्यते, तदा परमाणुनामपि कार्यत्वप्रसक्तिः, तत्संयोगवत् / अथ नोत्पद्यते, तदा संयोगस्तदाश्रितो न स्यात्, समवायस्याऽभावात् / तेषां च तं प्रत्यकारकत्वात् / तदकारकत्वे तु तत्र तस्य प्रागभावानिवृत्तेः, तदन्यगुणान्तरवत् / ततस्तेषां कार्यरूपतया परिणतिरभ्युपगन्तव्या। अन्यथा तदाश्रितत्वं संयोगस्य तस्मादन्याश्रितत्वेऽपि पूर्वोक्तप्रसङ्गः। अनाश्रित्वपक्षे तु निर्हेतुकोत्पत्तिप्रसक्तिः / अथ संयोगो नोत्पद्यत इत्यभ्युपगमः, तदा वक्तव्यं किमसौ सन् वाऽसन् ? यदि संस्तदा तन्नित्यत्वप्रसक्तिः, सदकारण-वन्नित्यमिति भवतोऽभ्युपगमात् / तथा चासौ गुणो न भवेद् नित्यत्वेनानाश्रितत्वात्, अनाश्रितस्य पारतन्त्र्यायोगात्, अपर-तन्त्रस्य चागुणत्वात् अथासन्नितिपक्षः,तदा कार्यानुत्पत्तिप्रसङ्ग, तदभावे प्राग्वद्विशिष्टपरिमाणोपेतकार्यद्रव्योत्पत्त्य भावात् / तथा च जगतोऽदृश्यताप्रसक्तिरिति संयोगैकत्वसंख्यापरिमाणमहत्त्वाद्यनेकगुणानां तत्रोत्पत्तिरभ्युपेया, कारणगुण-पूर्वप्रक्रमेण कार्योत्पत्त्यभ्युगमादिष्टमेवैतदिति चेत् , ननु तेषां क आश्रयः ? इति वक्तव्यम् / न तावत् कार्यम्, तदुत्पत्तेः प्राक् तस्याऽसत्त्वात्, सत्त्वे चोत्पत्तिविरोधात्।नच प्रथमक्षणे निर्गुणमेव कार्यगुणोत्पत्तेः प्रागस्तीति वक्तव्यम् / गुणसंबद्धवत् सत्ता-संबन्धस्याद्यक्षणे अभावः, तत्सत्त्वासंभवात्।नचोत्पत्तिसत्ता-संबन्धयोरेककालतयाऽऽद्यक्षण एव सत्त्वम्, तदा रूपादिगुण-समवायाभावतोऽनुपलम्भे ततस्तत्सत्तासंबन्धव्यवस्थापना-संभवात्, न हि सदित्युपलम्भमन्तरेण तदा तस्य सत्तासंबन्धः, सत्त्वं वा व्यवस्थापयितुं शक्यम्।नच महत्त्वादेर्गुणद्रव्येण सहोत्पादतद्- द्रव्याधेयता, तद्रव्यस्य वा तदाऽऽधारता, अकारणस्या-श्रयत्वायोगात्। नचैककालयोः कार्यकारणभावः सव्येतरगो विपाणयोरिव भवत्पक्षे युक्तः सन् न कार्यं तदाश्रयः / अथाणवस्तदाश्रयाः, तर्हि कार्यद्रव्यस्यापि त एवाश्रय इत्येका-श्रयौ कार्यगुणौ प्राप्तौ / तदभ्युपगमेऽपि तावदयुतसिद्धयोस्तयोः कुण्डबदरवदाश्रयाश्रयिभावः, अकार्यकारणप्रसङ्गात्।नायु-तसिद्धयोः, अयुतसिद्ध्याश्रयाश्रयिभावविरोधात् / तथा ह्यपृथसिद्ध इत्यनेन भेदनिषेधः प्रतिपाद्यते, समवाया-भावेऽन्यस्यार्थस्यात्रासंभवात् / आधाराधेयभाव इत्यनेन चैक-त्वनिषेधः क्रियत इति कथमनयोरेकत्र सद्भावः / अथान्य-त्राधाराधेयभावः, तर्हि तेषां सत्त्वमुतासत्त्वमिति वक्तव्यम् ? / यद्याद्यः पक्षः, तदा संयोगादिगुणाकारपरमाणव एव तथाभूतकार्यमिति जैनपक्ष एव समाश्रितः स्यात् / द्वितीयपक्षे तु, सर्वानुपलब्धिप्रसक्तिः। यदि च परमाणवः स्वरूपापरित्यागतः कार्यद्रव्यमारभन्ते स्वात्मनो व्यतिरिक्तम्, तदा कार्यद्रव्यानुत्पत्तिप्रसक्तिः / न हि कार्यद्रव्य-परमाणुस्वरूपापरित्यागे स्थूलत्वस्य सद्भावः, तस्य तद्भावात्म-कत्वात् / तस्मात्परमाणुरूपतापरित्यागेन मृद्रव्यं स्थूलकार्यस्व-रूपमासादयतीति वलयवत् पुद्गलद्रव्यपरिणतः आदिरन्तो वा न विद्यते, इति न कार्यद्रव्यं कारणेभ्यो भिन्नम् / न चार्थान्तरभावगमनं विनाशोऽयुक्तः, इति तद्पपरित्यागोपादानात्मकस्थिस्विभावस्य द्रव्यस्य त्रैकाल्यं नानुपपन्नम् / यथा च एकसंख्याविभागाऽल्प-परिमाणपरत्वात्मकत्वेन प्रादुर्भावात्परमाणवः | कार्यद्रव्यवत्, तथोत्पन्नाश्चाभ्युपगन्तव्याः / कारणान्वयव्यतिरेकानुविधानोप-लम्भात् कार्यताव्यवस्थानिबन्धनस्यात्रापि सद्भावात, इत्ययमर्थः (तत्तो य) इत्यादिना गाथापश्वार्द्धन प्रदर्शितः, तस्मादेकपरिमाणाद् द्रव्याद् विभक्तः विभागात्मकत्वेनोत्पन्नः (अणुरिति) अणुर्जातो भवति, एतदवस्थायाः प्राक् तदसत्त्वात्। सत्त्वे वा इदानीमिव प्रागपि स्थूलरूपकार्याभावप्रसङ्गात् / इदानीं वा तद् पाऽविशेषात्प्राक्तनावस्थानमिव स्यात्। एवं चतुर्विधकार्यद्रव्याभ्युपगमे संगतः। नच य एव कार्यद्रव्यारम्भकाः, परैकत्वविरोधात्, घटद्रव्यप्रागभावप्रध्वंसाभावमृत्पिण्डकपालवत् / न च प्रागभावप्रध्वंसाभावोत्थरूपतया मृत्पिण्डकपालरूपत्वमसिद्धम्, तुच्छरूपस्याभावस्याप्रमाणत्वात्तजनकत्वेन तविषयत्वतो व्यवस्थापयितुमशक्यत्वादिति प्रतिपाद नात् / न च कपालसंयोगाद् घटद्रव्यमुपजायते, तद्विभागाच विनश्यतीति मृत्पिण्डस्य घटद्रव्यसमवायिकारणत्वानुमानमध्यक्षबाधितकर्मनिर्देशानन्तरप्रयुक्तत्वेन कालात्ययापदिष्टम् / न चाल्पपरिमाणतन्तुप्रभवं महत्परिमाणं पटकार्यमुपलब्धमिति घटादिकमपि तदल्पपरिमाणानेककारणप्रभवं कल्पयितुं युक्तम्, विपर्ययेणापि कल्पनायाः प्रवृत्तिप्रसङ्गात्। अध्यक्षबाधस्तुतदितरत्रापि समानः। किञ्च / परमाणूना सर्वदैकं रूपमभ्युपगच्छन्नभावमेव तेषामभ्युपगच्छेत्, अकारकत्वप्रसङ्गात्। तच्च प्रागभावप्रध्वंसाभावविकल्पत्वेनाना-धेयातिशयत्वात, वियत्कुसुमवत् / तदसत्त्वे च कार्यद्रव्य-स्याप्यभावः, तस्यासत्त्वात्। तदभावेच परापरत्वादिप्रत्यया-देरयोगात् कालादेरप्यमूर्त्तद्रव्यस्याभाव इति सर्वाभावप्रसक्तिः। तथाहि-न तावदध्यक्षं तत् प्रतिपादने व्याप्रियते, कपाल-पर्यन्तघटविनाशोपलम्भे तस्य व्यापारोपलब्धेः। नानुमानमपि, प्रत्यक्षाप्रवृत्तौ तत्र तस्याप्यप्रवृत्तेः, अध्यक्षपूर्वकत्वेन तस्य व्यावर्णनात्। आगमस्य चात्रार्थे अनुपयोगात्। परमाणुपर्यन्ते च विनाशेघटादिध्वंसे न किञ्चिदप्युपलभ्येत, परमाणू-नामदृश्यत्वेनाभ्युपगमात् / छिद्रघटेन पाकनिक्षिप्तेन वा तेनानेकान्त इति चेत् / न / सर्वस्य पक्षीकृतत्वात् / अवयविनिच छिद्रस्योत्पन्नत्वात्तस्य च निरवयवत्वान्नावयवतदुत्पत्तिः, परमाणुषु तदसंभवात् ! पाकान्यथाऽनुपपत्त्या परमाणुपर्यन्तो विनाशः परिकल्पत इति चेत् / न / विशिष्ट सामग्रीवशा-द्विशिष्टवर्णस्य घटादेव्यस्य कथञ्चिद् विनाशेऽप्युत्पत्तिसंभवात् ! परमाणुपर्यन्तविनाशाऽभ्युपगमे च तद्देशत्वतत्संख्यात्वतत्परिमाण-त्वोपर्यवस्थापितकर्पराद्यपातप्रत्यक्षोपलभ्यत्वदीनि पच्यमाने घटे न स्युः। सूच्यग्रविद्धघटेनानेकान्तः परिहृत एव / न च कपालार्थी घट भिद्यादापरमाण्वन्ते विनाशे ततः प्रतीतिविरुद्धत्वान्नासावभ्युपगन्तव्य इति प्रस्तुतमेवाक्षेपद्वारेणोपसंहरत्याचार्यः - बहुयाण एगसद्दे, जइ संयोगाहिँ होइ उप्पाओ। णणु एगविभागम्मि वि, जुज्जइ बहुयाण उप्पाओ / / 137 / / व्यणुकादीनांसति संयोगेयद्येकस्यत्र्यणुकादेः कार्यद्रव्य-स्योत्पादोभवति, अन्यथैकाभिधानप्रत्ययव्यवहारायोगात् / नहि बहुष्येको घट उत्पन्न इत्यादिव्यवहारो युक्तः / नन्वित्थं क्षमायामेकस्य कार्यद्रव्यस्य विनाशेऽपि युज्यत एव बहूनां समानजातीयानांतत्कार्यद्रव्यविनाशात्मकानांप्रभूततया विभक्तात्मनामुत्पाद इति / तथाहि - घटविनाशाद् बहूनि कपालानि Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणेगंतवाय 429 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अणेगंतवाय उत्पन्नानीत्यनेकाभिधानप्रत्ययव्यवहारो युक्तः, अन्यथा तदसंभवात्। ततः प्रत्येकं यात्मकास्त्रिकाश्चोत्पादादयो व्यवस्थिता इत्यनन्तपर्यायात्मकमेकं द्रव्यम्, तत्त्वनन्ते काले भवत्वनन्तपर्यायात्मकमेकं द्रव्यम् / एकसमये तु कथं तत्त दात्मकमवसीयते ? प्रदर्शितदिशा तदात्मकं तदवसीयत इत्यादिएगसमयम्मि एगदवियस्स बहुया विहाँति उप्पाया। उप्पायसमा विगमा, ठिई उउस्सग्गओ णियमा।।१३८|| एकस्मिन्समयेएकद्रव्यस्य बहव उत्पादा भवन्ति, उत्पाद-समानसंख्या विगमा अपितस्यैव तदैवोत्पद्यन्ते, विनाशमन्त-रेणोत्पादस्यासंभवात् / न हि पूर्वपर्यायाविनाशे उत्तरपर्यायः प्रादुर्भवितुमर्हति। प्रादुर्भाव वा सर्वस्य सर्वकार्यताप्रसक्तिः, तदकार्यत्वं वा कार्यान्तरस्य चस्यात्। स्थितिरपि सामान्यरूपतया तथैव नियता, स्थितिरहितस्योत्पादस्याभावात्। भावे वा शशशृङ्गादेरप्युत्पत्तिप्रसङ्गात्॥१३८! एतदेव दृष्टान्तद्वारेण समर्थयन्नाहकायमणवयण किरिया-रूवाइ गई विसेसओ वा वि। संजोगभेयओ जाणणायदवियस्स उप्पाओ॥१३९।। यदैवानन्तान्तप्रदेशिका हावभावपरिणतपुद्गलोपयोगो पजातशशरुधिरादिपरिणतवशाविर्भूतशिरोऽगुल्याद्यगोपाङ्ग भावपरिणतस्थूरसूक्ष्मतरादिभेदभिन्नावयवात्मकस्य कार्योत्पत्तिः, तदैवानन्तानन्तपरमाणूपचितमनोवर्गणापरिणतिलभ्यमान उत्पादोऽपि, तदैव वचनस्यापि कायोत्कृष्टतरवर्गणोत्पत्तिप्रति-लब्धप्रवृत्तिरुत्पादः, तदैव च कायात्मनोरन्योन्यानुप्रवेशा-द्विषमीकृतासंख्यातात्मप्रदेशे कायक्रियोत्पत्तिः, तदैव च रूपादीनामपि प्रतिक्षणोत्पत्तिविनश्वराणामुत्पत्तिः, तदैव च मिथ्यात्वाऽविरतिप्रमादकषायादिपरणतिसमुत्पादिकर्म-बन्धनिमित्तागामिगतिविशेषाणामप्युत्पत्तिः, तदैव चोत्सृज्य मानोपादीयमानानन्तपरमाण्याद्यनन्तपरमाणुसंयोगविभागाना-मुत्पत्तिः / यद्वा- यदैव शरीरादे व्यस्योत्पत्तिः, तदैव तत्रैकान्तगत-समस्तद्रव्यैः सह साक्षात् पारम्पर्येण वा संबन्धानामुत्पत्तिः, सर्वव्याप्तिव्यवस्थिताकाशं धर्माधर्मादिद्रव्यसंबन्धात्, तदैव च भाविस्वपर्यायपरज्ञानविषयत्वादीनां चोत्पादनशक्तीनामप्युत्पादः, शिरोग्रीवाचक्षुनेत्रपिच्छोदरचरणाद्यनेकावयवान्तर्भाव-मयूराण्डकरणशक्तीनामिव, अन्यथा तत्र तेषामुत्तरकाल-मप्यनुत्पत्तिप्रसङ्गात् / उत्पादविनाशस्थित्यात्मकाश्च प्रतिक्षणं भावाः शीतोष्णसंपर्कादिभेदेनानचपुराणतया क्रमेणोपलब्धिः प्रतिक्षणं तथोत्पत्तिमन्तरेण संभवति / न चास्मदाद्यध्यक्ष निरवशेषधर्मात्मक-वस्तुग्राहकं, येनानन्तधर्माणामेकदा वस्तुन्यप्रतिपत्तेरभाव इत्युच्यते, अनुमानतः प्रतिक्षणमनन्त-धर्मात्मकस्य तस्य प्रदर्शितन्यायेन प्रतिपत्तेः / सकलत्रैलोक्यव्यावृत्तस्य वस्तुनोऽध्यक्षेण ग्रहणे तव्यावृत्तीनां पारमार्थिकद्धर्मरूपतया / अन्यथा तस्य तद्व्यावृत्त्ययोगात्, कथं नानन्तधर्माणां वस्तुन्यध्यक्षेण ग्रहणम् ? / सम्म० अन्योन्यनिरपेक्षतयाऽऽश्रितस्य मिथ्यात्वविनाभूतमेव दर्शयन्नाहजे संतवाएँ दोसे, सक्कोलूया वयंति संखाणं / संखाय असव्वाए, तेसिं सव्वेऽपिते सव्वा / / 146|| येऽनेकान्तसद्वादपक्षे द्रव्यास्तिकायाऽभ्युपगमपदार्थाभ्युपगमे शाक्यौलूक्या दोषान् वदन्ति, सांख्यानां क्रियागुणव्यपदेशोपलब्ध्यादिप्रसङ्गादिलक्षणाः, ते सर्वेऽपि तेषां सत्या इत्येवं संबन्धः कार्यः / ते च दोषा एवं सत्याः स्युः यद्यन्यनिरपेक्षतयाऽभ्युपगतपदार्थप्रतिपादकं तच्छास्त्रं न मिथ्या स्यात्, नाऽन्यथा। प्रागपि कार्यावस्थात एकान्तेन तत्सत्त्वनिबन्धनत्वात्तेषाम् / अन्यथा कथञ्चित्सत्त्वेऽनेकान्तवादापत्तेर्दोषाभाव एव स्यात्। सम्म०। (4) वस्तुनोऽनन्तधर्मात्मकत्वम् - अनन्तरं भगवद्-दर्शितस्यानेकान्तात्मना वस्तुनो बुद्धरूपवेद्यत्वमुक्तम् / अनेकान्तात्मकत्वं च सप्तभङ्गीप्ररूपणेन सुखोन्नेयं स्यादिति साऽपि निरूपिता, तस्यां च विरुद्धधर्माध्यासितं वस्तु पश्यन्त एकान्तवादिनोऽबुधरूपा विरोधमुद्भावयन्ति / तेषां प्रमाणमार्गात् च्यवनमाहउपाधिभेदोपहितं विरुद्धं, नाऽर्थेष्वसत्त्वं सदवाच्यते च / इत्यप्रबुद्यैव विरोधभीताः, जडास्तदेकान्तहताः पतन्ति॥२४|| अर्थेषु पदार्थेषु चेतनाऽचेतनेष्वसत्त्वं नास्तित्वं न विरुद्धं न विरोधावरुद्धम, अस्तित्वेन सह विरोधं नानुभवतीत्यर्थः / न केवलमसत्त्वं नविरुद्धम्, किन्तु सदवाच्यते च। सञ्चाऽवाच्यं च सदवाच्ये, तयोर्भावौ सदवाच्यते, अस्तित्वावक्तव्यत्वे इत्यर्थः। ते अपिन विरुद्धे / तथाहिअस्तित्वं नास्तित्वेन सह न विरुद्ध्यते / अवक्तव्यत्वमपि विधिनिषेधात्मकमन्योन्यं न विरुद्धयते। अथवाऽवक्तव्यत्वं वक्तव्यत्वेन साकं न विरोधमुद्वहति / अनेन च नास्तित्वाऽस्तित्वावक्तव्यत्वलक्षणभङ्ग त्रयेण सकलसप्तभङ्गया निर्विरोधतोपलक्षिता, अमीषामेव त्रयाणां मुख्यत्वाच्छेषभङ्गानांचसंयोगजत्वेनामीष्वेवान्तर्भावादिति / नन्वेते धर्माः परस्पर विरुद्धाः, तत्कथमेकत्र वस्तुन्येषां समावेशः संभवति ? इति विशेषणद्वारेण हेतुमाह - (उपाधिभेदोपहितमिति) उपाधयोऽवच्छेदका अंशप्रकाराः, तेषां भेदो नानात्वं, तेनोपहितमर्पितम् / असत्त्वस्य विशेषणमेतत् / उपाधिभेदोपहितं सदर्थेष्वसत्त्वं न विरुद्धम्। सदवाच्यतयोश्च वचनभेदं कृत्वायोजनीयम्। उपाधिभेदोपहिते सती सदवाच्यते अपि न विरुद्ध। अयमभि-प्रायः परस्परपरिहारेण ये वर्तेते, तयोः शीतोष्णवत्सहाऽनवस्थानलक्षणो विरोधः / न चात्रैवम्, सत्त्वासत्त्वयोरितरेतरमविष्वग्भावेन वर्तनात् / न हि घटादौ सत्त्वमसत्त्वं परिहत्य वर्तते, पररूपेणाऽपिसत्त्वप्रसङ्गात्। तथा चतद्व्यतिरिक्तान्तिराणां नैरर्थक्यम्, तेनैव त्रिभुवनार्थसाध्यार्थ-क्रियाणां सिद्धेः / न चासत्त्वं सत्त्वं परिहत्य वर्तते स्वरूपेणाप्य-सत्त्वप्राप्तेः / तथाच निरुपाख्यत्वात्सर्वशून्यतेति, तदा हि विरोधः स्याद् यदि एकोपाधिकं सत्त्वमसत्त्वं च स्यात्। न चैवम्, यतो न हि येनैवांशेन सत्त्वं तेनैवासत्त्वमपि। किंत्वन्योपाधिकं सत्त्वम्, अन्योपाधिकं पुनरसत्त्वम्। स्वरूपेण हि सत्त्वं, पररूपेण चासत्त्वम्। दृष्ट हि एकस्मिन्नेव चित्रपटावयविनि अन्योपाधिकं तु नीलत्वमन्योपाधिकाश्चेतरे वर्णाः / नीलत्वं हि नीलरागाद्युपाधिकम्, वर्णान्तराणिच तत्तद् रञ्जनद्रव्योपाधिकानि / एवं मेचकरक्तेऽपि तत्तद्वर्णपुद्गलोपाधिकं वैचित्र्यमवसे यम् / न चैभिर्दृष्टान्तैः सत्त्वासत्त्वयोर्मिन्नदेशत्वप्राप्तिः, चित्रपटाद्यवयविन एकत्वात् / Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणेगंतवाय ४३०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणेगंतवाय तत्राऽपि भिन्नदेशत्वासिद्धेः / कथञ्चित्पक्षस्तु दृष्टान्ते दान्तिके च स्याद्वादिना नदुर्लभः। एवमप्यपरितोषश्चेदायुष्मतः, तइँकस्यैव पुंसस्तत्र तत्तदुपाधिभेदात् पितृत्वपुत्रत्वमातुलत्वभागिनेयत्व-पितृव्यत्वभ्रातृव्यत्वादिधर्माणां परस्परविरुद्धानामपि प्रसिद्धि-दर्शनात् किं वाच्यम् ? एवमवक्तव्यतादयोऽपि वाच्याः। इत्युक्त-प्रकारेणोपाधिभेदेन वास्तवं विरोधाभावमप्रबुध्यैवाज्ञात्वैव, एवकारोऽवधारणे। स च तेषां सम्यग्ज्ञानस्याभाव एव, न पुनर्लेशतोऽपि भाव इति व्यनक्ति। ततस्ते विरोधभीताः, सत्त्वासत्त्वादिधर्माणां बहिर्मुखशेमुष्या संभावितो यो विरोधः सहानवस्थानादिः, तस्माद् भीतास्त्रस्तमानसाः / अत एवं जडास्तात्त्विकभयहेतोरभावेऽपि तथाविधपशुवद् भीरुत्वान्मूर्खाः परवादिनस्तदेकान्तहताः, तेषां सत्त्वादिधर्माणां य एकान्त इतरधर्मनिषेधेन स्वाभिप्रेतधर्मव्यव-स्थापननिश्चयः, तेनहताइव हताः पतन्ति स्खलन्ति / पतिताश्च सन्तस्ते न्यायमार्गाक्रमणे-नासमर्था न्यायमार्गाध्वनीनानां च सर्वेषामप्याक्रमणीयतां यान्तीति भावः / यद्वापतन्तीति प्रमाणमार्गतः च्यवन्ते। लोके हि सन्मार्गच्युतः पतित इति परिभाष्यते / अथवा- यथा वजादिप्रहारेण हतः पतितो मूछमितुच्छामासाद्य निरुद्धवाक्प्रसरो भवति, एवं तेऽपि वादिनः स्वाभिमतैकान्तवादेन युक्तिसरणिमननुसरता वज्राशनिप्रायेण निहताः सन्तः स्याद्वादिनां पुरतोऽकिञ्चित्करा वाङ्मात्रमपि नोच्चारयितुमीशत इति। अत्र च विरोधस्योपलक्षणत्वा-द्वैयधिकरण्यमनवस्था सङ्कराव्यतिकरः संशयोऽप्रतिपत्तिर्विषयव्यवस्थाहानिरित्येतेऽपि परोद्भाविता दोषा अभ्यूह्याः / तथाहि- सामान्यविशेषात्मकं वस्त्वित्युपन्यस्ते परे उपालब्धारो भवन्ति / यथा सामान्याविशेषयो विधिप्रतिषेधरूपयोर्विरुद्धधर्मयोरेकत्राऽभिन्ने वस्तुन्यसंभवाच्छीतोष्णवदिति विरोधः / न हि यदेव विधेरधिकरणं तदेव प्रतिषेधस्याधिकरणं भवितुमर्हति, एकरूपतापत्तेः / ततो वैयधिकरण्यमपि भवति। अपरं चयेनात्मना सामान्यस्याधिकरणं येन च विशेषस्य, तावप्यात्मानौ एकेनैव स्वभावेनाधिकरोति, द्वाभ्यां वा स्वभावाभ्याम् ? एकेनैव चेत्, तत्र पूर्ववद्विरोधः / द्वाभ्यां वा स्वभावाभ्यां सामान्यविशेषाख्यं स्वभावद्वयमधिकरोति, तदाऽनवस्थातावपि स्वभावान्तराभ्यां, तावपि स्वभावान्तरा-भ्यामिति / येनाऽऽत्मना सामान्यस्याधिकरणं तेन सामान्यस्य विशेषस्य च, येन च विशेषस्याधिकरणं तेन विशेषस्य सामान्यस्य चेति सङ्करदोषः। येन स्वभावेन सामान्यं तेन विशेषः, येन विशेषस्तेन सामान्यमिति व्यतिकरः / ततश्च वस्तुनोऽसाधारणाकारेण निश्चेतुमशक्तेः संशयः। ततश्चा-प्रतिपत्तिः, ततश्च प्रमाणविषयव्यवस्थाहानिरिति / एते च दोषाः स्याद्वादस्य जात्यन्तरत्वान्निरवकाशा एव / अतः स्याद्वादमर्मवेदिभिरुद्धरणीयास्तत्तदुपपत्तिभिरिति, स्वतन्त्रतया निरपेक्षयोरेव सामान्यविशेषयोर्विधिप्रतिषेधरूपयोस्तेषाम्वकाशात् / अथवा विरोधशब्दोऽत्र प्रदोषवाची / यथा विरुद्धमाचरन्तीति दुष्टमित्यर्थः / ततश्च विरोधेभ्यो विरोधवैयधिकरण्यादिदोषेभ्यो भीता इति व्याख्येयम् / एवं च सामान्यशब्देन सर्वा अपि दोषव्यक्तयः संगृहीता भवन्तीति काय्यार्थः // 24 // अथानेकान्तवादस्य सर्वद्रव्यपर्यायव्यापित्वेऽपि मूलभेदाऽपेक्षया चातुर्विध्याभिधानद्वारेण भगवतस्तत्त्वामृतरसास्वाद सौहित्यमुपवर्णयन्नाह स्यान्नाशि नित्यं सदृशं विरूप, वाच्यं न वाच्यं सदसत्तदेव / विपश्चितांनाथ ! निपीततत्त्व-सुधोद्गतोदारपरम्परेयम्॥२५|| स्यादित्यव्ययमनेकान्तद्योतकमष्टास्वपि पदेषु योज्यम्, तदेवाधिकृतमेवैकं वस्तु स्यात्कथञ्चिन्नाशि, विनशनशीलमनित्यामित्यर्थः / स्यानित्यमविनाशधर्मीत्यर्थः / एतावता नित्यनित्यलक्षणमेकं विधानम् / तथा स्यात्सदृशमनुवृत्तिहेतुसामान्यरूपम् / स्याद्विरूपं विविधरूपं विसदृशपरिणामात्मक, व्यावृत्तिहेतुविशेषरूपमित्यर्थः / अनेन सामान्यविशेषरूपो द्वितीयः प्रकारः / तथा स्याद्वाच्यं वक्तव्यम् / स्याद् न वाच्यमवक्तव्यमित्यर्थः / अत्र च समासेऽवाच्यमिति युक्तम्, तथाप्यवाच्यपदे योन्यादौ रूढमित्यसभ्यतापरिहारार्थं न वाच्यमित्यसमस्तं चकार स्तुतिकारः / एतेनाभिलाप्यानभिलाप्यस्वरूपस्तृतीयो भेदः / तथा स्यात्सद्विद्यमानमस्तिरूपमित्यर्थः / स्यादसत्तद्विलक्षणमिति / अनेन सदसदाख्या चतुर्थी विधा / हे विपश्चितां नाथ ! संख्यावतां मुख्य ! इयमनन्तरोक्ता निपीततत्त्वसुधोगतोगारपरम्परा, तवेति प्रकरणात्सामाऱ्यांद्वा गम्यते। तत्त्वं यथावस्थितवस्तुस्वरूप-परिच्छेदः, तदेव जरामरणापहारित्वाद्विबुधोपभोग्यत्वात् मिथ्यात्वविषोमिनिराकरिष्णुत्वादान्तराहादकारित्वाच पीयूषं तत्त्वसुधा / नितरामनन्यसामान्यतया पीता आस्वादिता या तत्त्वसुधा तस्या उद्गता प्रादुर्भूता तत्कारणिका उगारपरम्परा उद्गारश्रेणिरिवेत्यर्थः / यथाहिकश्चिदाकण्ठं पीयूषरसमापीय तदनुविधायिनीमुद्गारपरम्परां मुञ्चति, तथा भगवानपि जरा-मरणापहारे तत्त्वामृतं स्वैरमास्वाद्य तद्रसानुविधायिनीं प्रस्तुता नेकान्तवादभेदचतुष्टयीलक्षणामुद्गारपरम्परां देशनामुखे-नोद्गीर्णवानित्याशयः।अथवा - यैरकान्तवादिभिः मिथ्यात्वगरलभोजनमातृप्ति भक्षितं, तेषां तत्तद्वचनरूपा उद्गारप्रकाराः प्राक प्रदर्शिताः / यैस्तु पचेलिमप्राचीनपुण्यप्राग्भारानुगृही तैर्जगद्गुरुवदनेन्दुनिःस्यन्दि तत्त्वामृतं मनोहत्य पीतं तेषां विपश्चितां यथार्थवादविदुषां हे नाथ ! इयं पूर्वदलदर्शितोल्लेखशेखरा उद्गारपरम्परेति व्याख्येयम्। एते च चत्वारोऽपि वादास्तुषु तेषु स्थानेषु प्रामेव चर्चिताः / तथाहि - 'आदीपमाव्योमेति' वृत्ते नित्यानित्यवादः / 'अनेकमेकात्मकमिति' काव्ये सामान्य-विशेषवादः / सप्तभङ्गयामभिलाप्यानभिलाप्यवादः, सदसद्वादश्च, इति न भूयः प्रयासः। इति काव्यार्थः / / 25 / / इदानीं नित्यानित्यपक्षयोः परस्परदूषणप्रकाशनबद्धलक्षतया वैरायमाणयोरितरेतरोदीरितविविधहेतुहेतिसं निपातसं जातविनिपातयोरयवसिद्धप्रतिपक्षप्रतिक्षेपस्य भगवच्छासन-साम्राज्यस्य सर्वोत्कर्षमाहय एव दोषाः किल नित्यवादे, विनाशवादेऽपि समास्त एव / परस्परध्वंसिषु कण्टकेषु, जयत्यधृष्यं जिन ! शासनं ते // 26|| किले ति निश्वये / य एव नित्यवाद नित्यैकान्तवादे दोषा अनित्यैकान्तवादिभिः प्रसञ्जिताः क्रमयौगपद्याभ्यामर्थ-क्रियाऽनु पपत्त्यादयस्य एव विनाशवादेऽपि क्षणिकैकान्तवादेऽपि समास्तुल्या नित्यैकान्तवादिभिः प्रसज्यमाना अन्यूनाधिकाः / तथाहि नित्यवादी प्रमाणयति-सर्वं नित्यं, सत्त्वात् / क्षणिके सदसत्कालयोरर्थक्रियाविरोधात् तल्लक्षणं सत्त्वं नाऽवस्थां बध्नातीति / ततो Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणेगंतवाय 431 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अणेगंतवाय निवर्तमानमनन्यशरणतया नित्यत्वेऽवतिष्ठते। तथाहि-क्षणिकोऽर्थः सन वा कार्यं कुर्यादसन् वा ? गत्यन्तरा-भावात् / न तावदाद्यः पक्षः, समसमयवर्तिनि व्यापारायोगात्, सकलभावानां परस्परं कार्यकारणभावप्राप्त्याऽतिप्रसङ्गाच / नापि द्वितीयः पक्षः क्षोदे क्षमते / असतः कार्यकरणशक्ति विकलत्वात् / अन्यथा शशविषाणादयोऽपि कार्यकरणायोत्सहेरन, विशेषाभावादिति / अनित्यवादी नित्यवादिनं प्रति पुनरेवं प्रमाणयति - 'सर्व क्षणिकं, सत्त्वात्, अक्षणिके क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधात्, अर्थक्रियाकारित्वस्य च भावलक्षणत्वात्। ततोऽर्थक्रिया व्यावर्तमाना स्वकोडीकृतां सत्तां व्यावर्तये दिति क्षणिक सिद्धिः / न हि नित्योऽर्थोऽर्थक्रियां क्रमेण प्रवर्त्तयितुमुत्सहते, पूर्वार्थक्रियाकरणस्वभावोपमर्दद्वारेणोत्तरक्रियायां क्रमेण प्रवृत्तेः, अन्यथा पूर्वक्रियाकरणाविरामप्रसङ्गात् / तत्स्वभावप्रच्यवे च नित्यता प्रयाति, अतादवस्थ्यस्यानित्यतालक्षणत्वात् / अथ नित्योऽपि क्रमवर्तिनं सहकारिकारणमर्थमुदीक्षमाणस्तावदासीत्, पश्चात्तमासाद्य क्रमेण कार्य कुर्यादिति चेत् / न सहकारिकारणस्य नित्येऽकिश्चित्करत्यात्, अकिञ्चित्करस्याऽपि प्रतिक्षणेऽनवस्थाप्रसङ्गात् / नापि यौगपद्येन नित्योऽर्थोऽर्थक्रियां कुरुते, अध्यक्षविरोधात् / न ह्येककालं सकलाः क्रियाः प्रारभमाणः कश्चिदुपलभ्ये, करोतु वा, तथाऽप्याद्यक्षण एव सकलक्रियापरिसमाप्तेर्द्वितीयादिक्षणेष्वकुर्वाणस्यानित्यता / बलादाढौकते, करणाकरणयो रेकस्मिन् विरोधात् इति / तदेवमेकान्तद्वयेऽपि ये हेतवस्ते युक्तिसाम्याद् विरुद्धं न व्यभिचरन्तीत्यविचारितरमणीयतया मुग्धजनस्य ध्यान्ध्यं चोत्पादयन्तीति विरुद्धा व्यभिचारिणो नैकान्तिका इति / अत्र च नित्यानित्यैकान्तपक्षप्रतिक्षेप एवोक्तः / उपलक्षणत्वाच सामान्यविशेषाद्येकान्तवादा अपि मिथस्तुल्यदोषतया विरुद्धा व्यभिचारिण एव हेतूनुपस्पृशन्तीति परिभावनीयम् / अथोत्तरार्द्ध व्याख्यायत(परस्परेत्यादि) एवं च कण्टकेषु क्षुद्रशत्रुषु एकान्तवादिषु परस्परध्वंसिषु सत्सु परस्परस्मात् ध्वंसन्ते, विनाशमुपयान्तीत्येवंशीलाः, सुन्दोपसुन्दवदिति परस्परध्वंसिनः, तेषु, हे जिन ! ते तय, शासनं स्याद्वादप्ररूपणनिरूपणं द्वादशाङ्गीरूपं प्रवचनं पराभिभावुकानां कण्टकानांस्वयमुच्छिन्नत्वेनैवाभावाद-धृष्यमपराभवनीयम्। 'शक्ताई कृत्याश्च' (5 / 4 / 35) इति (हैमसू०) कृत्यविधानाद् धर्षितुमशक्यं धर्षितुमनह वा, जयति सर्वोत्कर्षण वर्तते / यथा कश्चिन्महाराजः पीवरपुण्यपरीपाकः परस्परं विगृह्य स्वमेव क्षयमुपेयिवत्सु द्विषत्सु अयत्नसिद्धनिष्कण्टकत्वं समृद्ध राज्यमुपभुजानः सर्वोत्कृष्टो भवत्येवं त्वच्छासनम पीति काव्यार्थः // 26|| अनन्तरकाव्ये नित्यानित्यायेकान्तवादे दोषसामान्यमभिहितम्। इदानी कतिपयतद्विशेषान्नामग्राहं दर्शयंस्तत्प्ररूपकारणामसद्भूतोद्भावक तयोवृत्ततथाविधरिपुजनजनितोपद्रवमिव परित्रातुर्धरित्रीपतेः त्रिजगत्पतेः पुरतो भुवनत्रयं प्रत्युपकारकारितामाविष्करोतिनैकान्तवादे सुखदुःखभोगी, न पुण्यपापे न च बन्धमोक्षौ / दुर्नीतिवादव्यसनाऽसिनैवं, परैर्विलुप्तं जगदप्यशेषम् / / 27 / / एकान्तवादे नित्यानित्यैकान्तपक्षाभ्युपगमे, न सुखदुःखभो गौ घटेते, न च पुण्यपापे घटेते, न च बन्धमोक्षौ घटेते / पुनः पुनर्नञः प्रयोगोऽत्यन्ताघटमानतादर्शनार्थः / तथाहि- एकान्तनित्ये आत्मनि तावत् सुखदुःखभोगौ नोपपद्ये ते / नित्यस्य हि लक्षणम् - 'अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकरूपत्वम् / ततो यदाऽऽत्मा सुखमनुभूय स्वकारणकलापसामग्रीवशाद् दुःखमुपभुङ्क्ते , तदा स्वभावभेदादनित्यत्वापत्त्या स्थिरैकरूपताहानिप्रसङ्गः, एवं दुःखमनुभूय सुखमुपभुजानस्यापि वक्तव्यम् / अथावस्थाभेदादयं व्यवहारः / न चावस्थासु भिद्यमानास्वपि तद्वतो भेदः, सर्पस्येव कुण्डलाऽऽर्जवाद्यवस्थासुइति चेत्। ननुतास्ततो व्यतिरक्तिा अव्यतिरिक्ता वा ? व्यतिरेके तास्तस्येति संबन्धाभावः, अतिप्रसङ्गात् / अव्य-तिरेके तु तद्वाने वेति तदवस्थितैव स्थिरैकरूपताहानिः / कथं च तदेकान्तैकरूपत्वेऽवस्थाभेदोऽपि भवेदिति / किश्च / सुखदुःखभोगौ पुण्यपापनिर्वा, तन्निर्वर्तनं चार्थक्रिया , सा च कूटस्थनित्यस्य क्रमेणाक्रमेण वा नोपपद्यत इत्युक्तप्रायम्।अत एवोक्तम्-(नपुण्यपापे इति) पुण्यं दानादिक्रियोपार्जनीयं शुभं कर्म / पापं हिसादिक्रियासाध्यमशुभं कर्म। ते अपिन घटेते, प्रागुक्तनीतेः। तथा न बन्धमोक्षौ / बन्धः कर्मपुद्गलैः सह प्रतिप्रदेशमात्मनो वययःपिण्डवदन्योन्यसंश्लेषः / मोक्षः कृत्स्नकर्मक्षयः / तावप्येकान्तनित्ये न स्याताम्। बन्धो हि संयोग-विशेषः, सचाप्राप्तानां प्राप्तिरिति लक्षणः / प्राक् कालभाविनि अप्राप्ति-रन्याऽवस्था / उत्तरकालभाविनी प्राप्तिश्चान्या। तदनयोरप्य-वस्थाभेददोषो दुस्तरः। कथं चैकरूपत्वे सति तस्याकस्मिको बन्धनसंयोगः ? बन्धनसंयोगाच प्राक् किं नाऽयं मुक्तोऽभवत् ? किच्चा तेन बन्धनेनासौ विकृतिमनुभवति, नवा ? अनुभवति चेचर्मादिवदनित्यः। नानुभवति चेन्निर्विकारत्वे सता असता वा तेन गगनस्येव न कोऽप्यस्य विशेषः / इति बन्धवैफल्यान्नित्यमुक्त एव स्यात् / ततश्च विशीर्णा जगति बन्धमोक्षव्यवस्था / तथा च पठन्ति - "वर्षातपाभ्यां किं व्योम्नश्चर्मण्यस्ति तयोः फलम् / चर्मोपमश्चेत्सोऽनित्यः, खतुल्यश्चेदसत्फलः" / / 1 / / बन्धानुपपत्ती मोक्षस्याऽप्यनुपपत्तिर्बन्धनविच्छेदपर्यायत्वान्मुक्तिशब्दस्येति / एवमनित्यैकान्तवादेऽपि सुखदुःखाद्यनुपपत्तिः / अनित्यं हि अत्यन्तोच्छेद धर्मकम् / तथाभूते चात्मनि पुण्योपादाक्रियाकारिणो निरन्वयं विनष्टत्वात् कस्य नाम तत्फलभूतसुखानुभवः ? एवं पापोपादानक्रियाकारिणोऽपि निरवयवनाशे कस्य दुःखसंवेदन-मस्तु? एवं चान्यः क्रियाकारी, अन्यश्च तत्फलभोक्तत्यसमञ्ज-समापद्यते / अथ "यस्मिन्नेव हि सन्ताने, आहिता कर्मवासना / फलं तत्रैव संधत्ते, कसे रक्तता यथा" ||1|| इति वचनान्ना-समञ्जसमित्यपि वाङ् मात्रम्, सन्तानयासनयोरवास्तवत्वेन प्रागेव निर्लो ठितत्वात् / तथा पुण्यपापे अपिन घटेते। तयोस्र्थक्रिया सुखदुःखोपभोगः। तदनुपपत्तिश्चानन्तरमेवोक्ता, ततोऽर्थक्रिया-कारित्वाऽभावात्तयोरप्यघटमानत्वम्। किञ्च / अनित्यः क्षणमात्रस्थायी, तस्मिंश्च क्षणे उत्पत्तिमात्रव्यग्रत्वात् तस्य कुतः पुण्यपापोपादनक्रियाऽर्जनम् ? द्वितीयादिक्षणेषु चावस्थातुमेव न लभते, पुण्यपापोपादानक्रियाभावे च पुण्यपापे कुतः?निर्मूलत्वात्, तदसत्त्वे च कुतस्तनः सुखदुःखभोगः / आस्तां वा कथञ्चिदेतत्, तथाऽपि पूर्वक्षणसदृशेनोत्तरक्षणेन भवितव्यम्, उपादानाऽनुरूपत्यादुपादेय-स्य / ततः पूर्वक्षणाद् दुःखितादुत्तरक्षणः कथं सुखित उत्पद्यते ? कथं च सुखिता ततः स दुःखित स्यात् ? विसदृशभागताऽऽपत्तेः / Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणेगंतवाय 432- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणेगंतवाय एवं पुण्यपापादावपि / तस्माद् यत्किश्चिदेतत् / एवं बन्धमोक्षयोरप्यसंभवः / लोकेऽपि हि य एव बद्धः स एव मुच्यते / निरन्वयनाशाभ्युपगमे चैकाधिकरणत्वाभावात्सन्तानस्य चाऽवा-स्तवत्वात् कुतस्तयोः संभावनामात्रमपीति? परिणामिनि चात्मनि स्वीक्रियमाणे सर्व निर्वाधमुपपद्यते / 'परिणामोऽवस्थान्तरगमनं न च सर्वथा ह्यवस्थानम् / न च सर्वथा विनाशः, परिणाम-स्तद्विदामिष्टः" ||1|| इति वचनात् / पातञ्जलटीकाकारोऽप्याह- "अवस्थितस्य द्रव्यस्य पूर्वधर्मनिवृत्ती धर्मान्तरोत्पत्तिः परिणामः" इति / एवं सामान्यविशेषसदसदभिलाप्याऽनभि-लाप्यै कान्तवादेष्वपि सुखदुःखाद्यभावः स्वयमभियुक्तैरभ्यूह्यः। अथोत्तरार्द्धव्याख्याएवमनुपपद्यमानेऽपि सुखदुःखभोगादिव्यवहारेपरैः परतीर्थिकः, अथच परमार्थतः शत्रुभिः, परशब्दो हि शत्रुपर्यायोऽप्यस्ति (दुर्नीतिवादव्यसनाऽसिना) नीयतेएकदेशविशिष्टोऽर्थः प्रतीतिविषयमाभिरिति नीतयो नयाः, दुष्ट नीतयो दुर्नीतयो दुर्नयाः, तेषां वदनं परेभ्यः प्रतिपादनं दुर्नीतिवादः / तत्र यद् व्यसनमत्यासक्तिरौचित्यनिरपेक्षा प्रवृत्तिरिति यावत्, दुर्नीतिवादव्यसनम् / तदेव सद्बोधशरीरोच्छेदनशक्तियुक्तत्वाद-सिरिवाऽसिः कृपाणः, दुर्नीतिवादव्यसनाऽसिः। तेन दुर्नीति-वादव्यसनाऽसिना करणभूतेन दुर्नय-प्ररूपणहेवाकखड्गेन / एवमित्यनुभवसिद्धं प्रकारमाह। अपि शब्दस्य भिन्नक्र-मत्वादशेषमपि जगन्निखिलमपि त्रैलोक्यम्, तात्स्थात्तव्यपदेश इति / त्रैलोक्यगतजन्तुजातं विलुप्तम्, सम्यग्ज्ञानादि भावप्राण-व्यपरोपेण व्यापादितम् / तत् त्रायस्वेत्याशयः / सम्यग्ज्ञानादयो हि भावप्राणाः प्रावचनिकैर्गीयन्ते / अत एव सिद्धेष्वपि जीवव्यपदेशः / अन्यथा हि जीवधातुः प्राणधारणार्थेऽभिधीयते / तेषां च दशविधप्राणधारणाऽभावादजीवत्वप्राप्तिः / सा च विरुद्धा / तस्मात्संसारिणो दशविधद्रव्यप्राणधारणाजीवाः, सिद्धाश्च ज्ञानादिभावप्राणधारणादिति सिद्धम्। दुर्नयस्वरूपंचोत्तरकाव्ये व्याख्यास्यामः। इति काव्यार्थः // 27 // स्या०। वस्तुनोऽनियतसदसद्रूपत्वमनेकान्तजयपताकायांन्यक्षेण प्रत्यपादि परं तल्लेखस्यातिसंक्षिप्तत्वेन दुरवबोधत्वात्सम्मति प्रभृतिग्रन्थैर्गतार्थत्वाचास्माभिरत्रोपेक्षितम्। अनेकान्तजयपता कावृत्तिविव०। (5) वस्तुन एकान्तसद्रूपत्वं स्वीकुर्वतःसांख्यमतस्य परासने युक्तिः / एकान्तेन सर्व वस्तु सदिति साङ्ख्य मतं तु न युक्तम् / युक्तिश्चात्र यत्तावदुच्यते सांख्याऽभिप्रायेण - सर्वं सर्वात्मकम्, देशकालाकारप्रतिबन्धात्तु न समानकालोपलब्धिरिति / तदयुक्तम् / यतो भेदेन सुखदुःखजीवितमरणदूरासन्नसूक्ष्मबादरसुरूपकु रूपादिकं संसारवैचित्र्यमध्यक्षेणाऽनुभूयते / न च दृष्टऽनुपपन्नं नाम / न च सर्व मिथ्येत्यध्युपपन्नं युज्यते, यतो दृष्टहानिरदृष्टकल्पना च पापीयसी। किञ्च। सर्वथैक्येऽभ्युपगम्यमाने संसारमोक्षाभाव तथा कृतनाशोऽकृताभ्यागमश्च बलादापतति / यचैतत्सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः प्रधानमित्येतत्सर्वस्य जगतः कारणं, तन्निरन्तराः सुहृदः प्रत्येष्यन्ति, नियुक्तिकत्वात्। अपि च / सर्वथा सर्वस्य वस्तुन एकत्वेऽभ्युपगम्यमाने सत्त्वरजस्तमसामप्येकत्वं स्यात्। तद्भेदे च सर्वस्य भेद इति। तथा यदप्युच्यते- सत्त्वस्य व्यक्तस्य प्रधानकार्यत्वात्सत्कार्यवादत्वाच मयूराण्डकरणे चञ्चुपिच्छादीनां सतामेवोत्पादाभ्युप गमादसदुत्पादे चाऽऽम्रफलदीनाम-प्युत्पत्तिसङ्गादित्येतद्वाड्मात्रम् / तथाहि- यदि सर्वथा कारणे कार्यमस्तिनतत्पिादः, निष्पन्नघटस्येव, अपि च-मृत्पिण्डावस्थायामेव घटगताः कर्मगुणव्यपदेशा भवेयुः। नच भवन्ति, ततो नास्ति कारणे कार्यम् / अथाऽनभिव्यक्तमस्तीति चेत्। न तर्हि सर्वात्मना विद्यते नाऽप्येकान्तेनासत्कार्यवाद एव / तद्भावे हि व्योमारविन्दानामप्येकान्तेनासतो मृत्पिण्डादेर्घटा-देरिवोत्पत्तिः स्यात् / न चैतद् दृष्टमिष्टं वा / अपि चैवं सर्वस्य सर्वस्मादुत्पत्तेः कार्यकारणभावानियमः स्यात् / एवं च न शाल्यकुरार्थी शालिबीजमेवाऽऽदद्यादपि तु यत्किञ्चिदेवेति नियमेन च प्रेक्षापूर्वकारिणामुपादानकारणादौ प्रवृत्तिरतो नास-त्कार्यवाद इति। तदेवं सर्वपदार्थानां सर्वज्ञेयत्वप्रमेयत्वादिभिर्धर्मः कथञ्चिदेकत्वम्, तथा प्रतिनियतार्थकार्यतया यदेवार्थक्रियाकारितदेव परमार्थतः सदिति कृत्वा कथञ्चिद्भेद इति सामान्यविशेषा-त्मकं वस्तु इति स्थितम् / अनेन च स्यादस्ति, स्यान्नास्तीति भङ्गकद्वयेन शेषभङ्गका अपि द्रष्टव्याः। ततश्च सर्ववस्तु सप्तभङ्गीस्वभावम्। ते चाऽमी स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षया स्यादस्ति 1, परद्रव्यापेक्षया स्यान्नास्ति 2, अनयोरेव धर्मयोर्यो गपद्येनाभिधातुमशक्यत्वात् स्यादवक्तव्यम् 3, तथा कस्यचिदंशस्य स्वद्रव्याद्यपेक्षया विवक्षितत्वात, कस्यचिच्चांशस्य परद्रव्याद्यपेक्षया स्याद्वा, नास्ति वा, वक्तव्यं चेति 4, तथैकस्यांशस्य स्वद्रव्याद्यपेक्षया परस्य तु सामस्त्येन स्वद्रव्याद्यपेक्षया विवक्षितत्वात्। स्यादस्ति चावक्तव्यं चेति५, तथैकांशस्य परद्रव्याद्यपेक्षया स्यान्नास्ति चावक्तव्यं चेति 6, तथैकस्यांशस्य स्वद्रव्याद्यपेक्षया, परस्य तु परद्रव्याद्यपेक्षया, अन्यस्यतु यौगपद्येन स्वद्रव्याद्यपेक्षया विवक्षितत्वात् स्यादस्ति च नास्ति चाऽवक्तव्यम् 7, इयं च सप्तभङ्गी यथायोगमुत्तरत्राऽपि योजनीयेति / सूत्र०२ श्रु० 5 अ०। (6) कालाद्येकान्तवादोऽपि मिथ्यात्वमेवेत्याहकालो सहावणियई, पुवकयं परिसकारणेगंता। मिच्छत्तं तो चेवा, समासओ होति सम्मत्तं / / 146 / / कालस्वभावनियतिपूर्वकृतपुरुषकारणरूपाएकान्ताः सर्वेऽपि एकका मिथ्यात्वम्, त एव समुदिताः परस्पराजहवृत्तयः सम्यक्त्वरूपता प्रतिपद्यन्त इति तात्पर्यार्थः / / 146 // (सम्म) पं०व०। तन्नकालाद्येकान्ताः प्रमाणतःसंभवन्तीति तद्वादो मिथ्यात्ववाद इति स्थितेत एवाऽन्योन्यसव्यपेक्षा नित्याद्येकान्तव्यपोहेनैका-नेकस्वभावाः कार्यनिर्वर्तनपटवः प्रमाणविषयतया परमार्थतः सन्त इति तत्प्रतिपादकस्य शास्त्रस्यापि सम्यक्त्वमिति तद्वादः सम्यग्वादतया व्यवस्थितः / यथैते कालाद्येकान्तः मिथ्या-त्वमनुभवन्ति, स्याद्वादोपग्रहात्तु त एव सम्यक्त्वं प्रतिपद्यन्ते, तथाऽऽत्माऽप्येकान्तनित्यानित्यत्वादिधर्माध्यासितो मिथ्यात्वम्, अनेकान्तरूपतया त्वभ्युपगम्यमानः सम्यक्त्वं प्रतिपद्यत इत्याहणत्थि ण णिचो ण कुणइ, कयं ण वेएइ णत्थि णिव्वाणं / णत्थिय मोक्खोवाओ, छं मिच्छत्तस्स छणाइं / / 150 / / नास्त्यात्मा एकान्त इति सांख्याः। अत एव प्राहुः -यः कर्ता, स न भोक्ता, प्रकृतिवत्, कर्तुर्भोक्तृत्वानुपपत्तेः / यद्वा- येन कृतं कर्म, नाऽसौ तद् भुङ्के, क्षणिकत्वात्, छिन्नसंतते रिति बौद्धः। क्षणिकत्वाच तत्सन्ततेः कृतं न वेदयत इति बौद्ध एवाह- कर्ता Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणेगंतवाय 433 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणेगंतवाय भोक्ता चात्मा किन्तु न मुच्यते, सचेतनत्वात्, अभव्यवत्, रागादीनामात्मस्वरूपाव्यतिरेकात् , तदक्षये तेषामप्यक्षयादिति ज्ञायिकः / निर्हेतुक एवासौ मुच्यते, तत्स्वभावताव्यतिरेकेण परस्य तत्रोपायस्याऽभावादिति मण्डली प्राह ! एतानि षट् मिथ्यात्वस्य स्थानानि, षण्णामप्येषां पक्षाणां मिथ्यात्वाधारतया व्यवस्थितेः। तथाहि- तानि नास्तित्वादिविशेषणादीनि साध्यधर्मिविसेशणतयोपादीयमानानि किं प्रतिपक्षय्युदासेनोपादीयन्ते ? आहोस्वित् कथंचित्तत्संग्रहेणे ति कल्पनाद्वयम् / प्रथमपक्षेअध्यक्षविरोधः, स्वसंवेदनाध्यक्षतश्चैतन्यस्यात्मरूपस्य प्रतीतिः. कथक्षितस्य परिणाम नित्यताप्रतीतेश्व, शरीरादिव्यापारतः कर्तृत्वोपलब्धेश्व, स्वव्यापारनिर्वर्तितभक्तरूपादिभोक्तृ-त्वसंवेदनाच, पुद्गललक्षणतया, रागादिव्यक्ततया च, शम-सुखरसावस्थायां कथञ्चित्तस्योपलब्धेश्व।स्वोत्कर्षतरतमा-दिभावतो रागाद्युपचयतरतमभावविधायिसम्यग्ज्ञानदर्शना-देरुपलम्भाच्चानुमानतोऽपि विरोधः / तथाभूतज्ञानकार्या-न्यथाऽनुपपत्तिचैतन्यलक्षणस्यात्मनः सिद्धिर्घटादिवत् रूपा-दिगुणतः ज्ञानस्वरूपगुणोपलम्भात् कथशित्तदभिन्नस्याऽऽत्म-लक्षणस्य गुणिनः सिद्धिरिति नानुमानविरोधः, इतरधर्मनिरपेक्षधर्मलक्षणस्य विशेषणस्य तदाधारभूतस्य च विशेष्यस्याप्रसिद्धेः अप्रसिद्धविशेषणविशेष्योभयदोषैर्दुष्टश्व पक्ष आत्मेति वचनेन, तत्सत्ताऽभिधानं नास्तीत्यनेन च, तत्प्रति-षेधाभिधानपदयोः प्रतिज्ञावाक्यव्याघातो लोकविरोधश्च / तथाभूतविशेषणविशिष्टतया धर्मिणो लोके तद्व्यवहि यमा-णत्वात् स्ववचनविरोधश्च / तत्प्रतिपादक वचनस्येतर धर्मसापेक्षतया प्रवृत्ते हे तुरपीतरनिरपेक्षक धर्मरूपोऽसिद्धः, तथाभूतस्य तस्य क्वचिदनुपलब्धेः सर्वत्र तद्विपरीत एवाभावात् / विरुद्धश्च दृष्टान्तः, साधनधर्माधिकरणतया कस्यचिद्धर्मिणोऽप्रसिद्धेः। तन्न प्रथमः पक्षः / नापि द्वितीयः, स्वाभ्युपगमविरोधप्रसङ्गात्, साधन-वैफल्यापत्तेश्च / तथाभूतस्यानेकान्तरूपतयाऽस्माभिरप्य-भ्युपगमात् / तस्माद् व्यवस्थितमेतदेकान्तरूपतया षडप्येतानि / तद्विपर्ययेणाप्येकान्तवादे तथैव तानीति दर्शयन्नाहअत्थि अविणासधम्मा, करेइ वेएइ अस्थि णिव्वाणं। अस्थि अमोक्खोवाओ, छं मिछत्तस्स ठाणाई।।१५१।। अस्त्यात्मेति पक्षः पूरणादेवादिनः। स चाविनाशधर्मी, एषा प्रतिज्ञा कलमतानुसारिणः / कर्तृभोक्तृस्वभावोऽसाविति मतं जैमिनेः। तथाभूत एवासौ जडस्वरूप इत्यक्षपादकणभुङ् मतानुसारिण / अस्ति निर्वाणमस्ति च मोक्षोपाय इत्यामनन्ति नास्तिकयाज्ञिक-व्यतिरिक्ताः / पाखण्डिन एते चाभ्युपगमाः एकान्तेन तदस्तित्वादेरध्यक्षानुमानाभ्यामप्रतीतेः / तथाऽभ्युपगमे च स्वास्तित्वेनेवान्यभावास्तित्वेनापि तस्य भावात् सर्वभाव-संकीर्णताप्रसक्तेः, स्वस्वरूपाव्यवस्थितेः खपुष्पवदसत्त्वमेव स्यात्, इत्यादिदूषणमसकृत् प्रतिपादितम् / हेतु- दृष्टान्तदोषाश्च पूर्ववदत्रापि वाच्याः। चतुर्थपादं तु गाथायाः केचिदन्यथा पठन्ति 'छस्सम्मत्तस्स ठाणाइंति' |अत्र तुपाठे इतरधर्मा जहवृत्त्या प्रवर्तमाना एते षट् पक्षाः सम्यक्त्वस्याधारतां | प्रतिपद्यन्त इति व्याख्येयम् / न च स्यादस्त्यात्मा) नित्यादिप्रतिज्ञावाक्यमध्यक्षादिना प्रमाणेन बाध्यते, स्वपरभावाभास- | काध्यक्षादिप्रमाणव्यतिरेकेणान्यथाभूतस्या-ऽध्यक्षादेरप्रतीतः।। तेनानुमनाभ्युपगमात् स्ववचने लोकस्य व्यहार-विरोधोऽपि न, 1 प्रतिज्ञाया अध्यक्षादिप्रमाणावसे ये सदसदात्मके वस्तुनि कस्यचिद्विरोधस्यासंभवात् / न चाप्रसिद्धविशेषणः पक्षः, लौकिकपरीक्षकैस्तथाभूतविशेषणस्यापि प्रतिपत्त्या सर्वत्र प्रतीतेरन्यस्य वा विशेषणव्यवहारस्योच्छेदप्रसङ्गात् / अन्यथाभूतस्य क्वचिदप्यसंभवात्तथाभूतविशेषणात्मकस्य धर्मिणः सर्वप्रतीतेनाप्रसिद्धविशेष्यतादोषः / नाप्यप्रसिद्धोभयता दूषणम्, तथाभूतद्वयव्यतिरेकेणान्यस्यासत्त्वतः प्रमाणाविषयत्वहेतुरपि नाप्रसिद्ध, तत्र तस्य सत्त्वप्रतीतेः / विपक्षे सत्त्वासंभवान्नापि विरुद्धः / अनैकान्तिकताऽप्यत एवायुक्ता / दृष्टान्तदोषा अपि साध्यादिविकलत्वादयो नात्र संभविनः, असिद्धत्वादिदोषवत्येव साधने तेषां भावात् / नानुमानतोऽनेकात्मकं वस्तु तद्वादिभिः प्रतीयते / अध्यक्षसिद्धत्वाद्वस्तुप्रतिपत्तेरपि ततस्तस्मिन् विप्रतिपद्यते / तं प्रति तत्प्रसिद्धेनैव न्यायेनानुमानोपन्यासेन विप्रतिपत्तिनिराकरणमात्रमेव विधीयत इति नाप्रसिद्धविशेषणत्वादिदोषस्यावकाशः / प्रतिक्षणपरिणामपरभागादीनां तूरुविकारार्वाग्भागदर्शनाऽन्यथा-ऽनुपपद्यामानेनाध्यक्षादिबाधादस्मदाद्यक्षस्य सर्वात्मना वस्तुग्रहणासामर्थ्यात्स्फटिकादौ चार्वाग्भागपरभागयोरध्यक्षत एवैकदा प्रतिपत्तेरनवस्थैर्यग्राह्यध्यक्ष प्रतिक्षणपरिणामानुमानेन विरुध्यते, अस्य तदनुग्राहकत्वात्, कथञ्चित्प्रतिक्षणपरिणामस्य तत्प्रतीस्यैवानुमानतो विनिश्चयात्। अनेकान्तव्यवच्छेदेनैकान्ताऽवधारिधर्माधिकरणत्वेन धर्मिणं साधयन्नैकान्तवादी न साधर्म्यतः साधयितुं प्रभु पि वैधयंत इति प्रतिपादयन्नाह (7) साधर्म्यतो वैधयंतश्च साध्यसिद्धिः। साहम्मओ व्व अत्थं,साहिल परो विहम्मओ वा वि। अण्णोण्णं पडिकुट्ठा, दोण्ण वि एए असव्वाया।।१५२।। समानस्तुल्यः साध्यसामान्यान्वितसाधनधर्मो यस्यासौ सधर्मा, साधर्म्यदृष्टान्तापेक्षया साधर्मी, तस्य भावः साधर्म्यम्, ततो वाऽर्थ साध्यधर्मादिकरणतया धर्मिणं साधयेत् परः अन्ययिहेतुप्रदर्शनात् / साध्यधर्मिणि विवक्षितं साध्यं यदि वैशेषिकादि साधेयत्, तदा तत्पुत्रत्वादेरपिगमकत्वं स्यात्, अन्वयमात्रस्य तत्रापि भावात्। अथ वैधाद् विगतस्तथाभूतसाधनधर्मो ह्यस्मादसौ विधर्मा, तस्य भावो वैधर्म्यम्, ततो वा व्यतिरेकिणो हेतोः प्रकृतं साध्यं साधयेत्, उभाभ्यां वा, वाशब्दस्य समुच्चयार्थत्वात् / तथापि पुत्रत्वादेरेव गमकत्वप्रसक्तिः। श्यामत्वाभावे च तत्पुत्रत्वादेः, अन्यत्र गौरपुरुषे अभावात्, उभाभ्यामपि तत्साधने / अत एव साध्यसिद्धिप्रसक्तिः स्यात् / अथाऽत्र कालात्ययापदिष्टत्वादिदोषसद्भावान्न साध्यसाधकताप्रसक्तिः, असिद्धविरुद्धानकान्तिकहेत्वाभासमन्तरेणापरहेत्वाभासासंभवात् / न च त्रैरूप्यलक्षणयोगिनोऽसिद्धत्वादिहेत्वाभासता कृतकत्वादेरिवा-नित्यत्वसाधने संभवति / अस्ति च भवदभिप्रायेण त्रैरूप्यं प्रकृतहेताविति कुतोऽस्य हेत्वाभासता? अथ भवत्वयं दोषः, येषां त्रैरूप्येऽविनाभावपरि-समाप्तिः, नास्माकं च लक्षणहेतुवादिनाम्, प्रकरणसमादेरपि हेत्वा-भासत्वोपपत्तेः लक्षण्यसद्भावेऽग्य-परस्याऽसतमतिपक्षत्वा-देहेतुलक्षणस्यासंभवे तदाभासत्वसंभवात्, 'यस्मात्प्रकरणाचिन्ता स प्रकरणसमः' इति प्रकरणसमस्य लक्षणाभिधानात् / प्रक्रियेते साध्यत्वेनाऽधिक्रियेते निश्चितौ पक्षप्रतिपक्षी यौ तौ प्रकरणम्, तस्य चिन्ता संशयात् Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणेगंतवाय 434 - अभियानराजेन्द्रः - भाग 1 अणेगंतवाय प्रवृत्त्यानिश्चयादालोचनस्वभावतो भवति। स एव तन्निश्चयार्थ प्रयुक्तः प्रकरणसमः, पक्षद्वयेऽपि तस्य समानत्वात् / उभयत्रान्वयादिसद्भावात् / तथाहि तस्योदाहरणम् - अनित्यः शब्दः, नित्यधर्मानुपलब्धेः, अनुपलभ्यमाननित्यधर्मकं घटाद्यनित्यं दृष्टम्, यत्पुन नित्यं न तदनुपलभ्यमाननित्यधर्मकं यथाऽऽत्मादि / एवं चिन्तासंबन्धिपुरुषेण तत्त्वाऽनुपलब्धेरे कदेशभूताया अन्यतरानुपलब्धेरनित्यत्वसिद्धौ साधनत्वेनोपन्यासे सति द्वितीयश्चिन्तासंबन्धिपुरुष आह- यद्यनेन प्रकारेणानित्यत्वं साध्यते, तर्हि नित्यतासिद्धिरपि, अन्यतरानुपलब्धेस्तत्रापि सद्भावात्। तथाहि-नित्यः शब्दोऽनित्यधर्मानुपलब्धेः, अनुपलभ्यमानानित्यधर्मकं नित्यं दृष्टमात्मादि / पुनर्यत् न नित्यं तन्नानुपलभ्यमानानित्यधर्मकं, यथा घटादि / एवमन्यतरानुपलब्धेरुभयपक्षे साधारणत्वात् प्रकरणानतिवृत्तेर्हेत्वाभासत्वम् / न च निश्चितयोः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहेऽधिकारात् कथं चिन्तायुक्त एवं साधनोपन्यासं विदध्यादिति वक्तव्यम्, यतोऽन्यदा संदेहेऽपि चिन्तासंबन्धि-पुरुषोऽन्यतराऽनुपलब्धेः पक्षधर्मान्वयव्यतिरेकानवगच्छंस्त-बलात्स्वसाध्यं यदा निश्चिनोति, तदा द्वितीयस्तामेव स्वसा-ध्यसाधनाय हेतुत्वेनाभिधत्ते / यद्यतस्त्वत्पक्षसिद्धिरत एव मत्पक्षसिद्धिः किं न भवेत् ? त्रैरूप्यस्य पक्षद्वयेऽप्यत्र तुल्यत्वात्। अथ नित्यत्वानित्यत्वैकान्तविपर्ययेणाऽप्यस्याः प्रवृत्तेरनैका-न्तिकता / उभयवृत्ति नैकान्तिको न प्रकरणसमः / न यत्र पक्ष-सपक्षविपक्षाणां तुल्यो धर्मो हेतुत्वेनोपादीयते तत्र संशयहेतुता, साधारणत्वेन तस्य विरुद्धविशेषानुस्मारकत्वात् / न तु प्रकृत एवं विधः / यतो नित्यधर्मानुपलब्धेरनित्य एव भावो, न नित्ये, एवमनित्यधर्मानुपलब्धेर्नित्य एव भावो, नानित्ये / एवं चात्र साध्ये विपक्षव्यावृत्तिः प्रकरणसमता, नानैकान्तिकतापक्षद्वयवृत्तित्वेन तस्या भावात्।नयद्ययं पक्षद्वये तदा साधारणाऽनै कान्तिकः / अथ न वर्तते कथमयं पक्षद्वयसाधकः स्यात् अतवृत्तेरतत्साधकत्वात्। न पक्षद्वये प्रकृतस्य वृत्त्यभ्युपगमात्। तथाहि-कथं साधनकालेऽनित्यधर्मानुपलब्धिर्वर्तते, न नित्ये / यदाऽपि नित्यत्वं साध्यं तदाऽपि नित्यपक्ष एवानित्यधर्मानुपलब्धिर्वर्तते नाऽनित्ये। ततश्च सपक्ष एव प्रकरणसमस्य वृत्तिः, सपक्षविपक्षयोश्चा-नैकान्तिकस्य साध्यापेक्षसपक्षविपक्षव्यवहारः, नाऽन्यथा, तेन साध्यद्वयवृत्तिरुभयसाध्यसपक्षवृत्तिश्च प्रकरणसमो, न तु कदाचित्साध्यापेक्षया विपक्षवृत्तिः / अनैकान्तिकस्तु-विपक्षवृत्तिरपीत्यस्मादस्य भेदः / न च रूपत्रययोगेऽप्यस्य हेतुत्वम्, सप्रतिपक्षत्वात् / यस्य तु कदाचित्साध्यापेक्षया विपक्षवृत्तिरने क प्रतिबन्धपरिसमाप्तिरूपत्रययोगे, तेन प्रकरणसमस्य नाहेतुत्वमुपदर्शयितुं शक्यम् / न चाऽस्य कालात्ययापदिष्टत्वमबाधितविषयम्।ययोर्हि प्रकरणचिन्ता तयोरयं हेतुः। न चततः संदिग्धत्वाद् बाधामस्योपदर्शयितुं क्षमः। नचहेतुद्वय-सन्निपातादेकत्र धर्मिणि संशयोत्पत्ते स्तज्जकनत्वेनास्यानैका-न्तिकतया तेन संशयहेतुताऽनैकान्तिकत्वम् इन्द्रियसन्निकर्षादेरपि तथा- त्वप्रसक्तेः। न च तत्त्वानुलब्धिर्विशेषस्मृत्यादिश्वान्या संशयकारणम्, न च तत्सहिताया अस्या हेतुत्वम् केवलायाएव तत्त्वेनोपन्यासात् / न च संदिग्धविषयभान्तपुरुषेण निश्चया-र्थमुपादीयमानाया अस्याः संदेहहे तुता युक्ता / भवतु वा कथश्चिदतः संशयोत्पत्तिः, तथाऽप्यनैकान्तिकादस्य विशेषः। स हि सपक्ष-विपक्षयोः समानः, अयं तु तद्विपरीतः साध्यद्वयवृत्तित्वात्तु प्रकरणसमः / न चासंभवः, अस्यैवंविधसाधनप्रयोगस्य भ्रान्तेः सद्भावात्। अथास्यासिद्धेरन्तर्भावः / अनित्यवादिनो नित्य-धर्मानुपलब्धेरितरस्य चेतरधर्मानुपलब्देरसिद्धत्वात् / असदेतत् / यतश्चिन्तासंबन्धिपुरुषेण समस्य हेतुत्वेनोपन्यासस्तस्य च तत्संबन्धिनो वा कथमितरेणासिद्धतोद्भावन विधातुं शक्यम् / यस्य ह्यनुपलब्धिनिमित्तसंशयोत्पत्तौ शब्दे नित्यत्वजिज्ञासा, स कथमन्यतराऽनुपलब्धे हेतुप्रयोगेऽसिद्धता ब्रूयात् ? अत एव सूत्रकारेण 'यस्मात्प्रकरणचिन्ता, इत्यसिद्धतादोषपरिहारा-र्थमुपात्तम् / एवमनित्यः शब्दः' सपक्षपक्षयोरन्यतरत्वाद् घटवदिति चिन्तासंबन्धिना पुरुषेणोक्तेऽपरस्तत्संबन्धात् नित्यः शब्दः, पक्षसपक्षयोरन्यतरत्वादाकाशवत् यदाह / तया प्रकरणसम एव अत्र प्रेरयन्तिपक्षसपक्षयोरन्यतरः पक्षः? सपक्षो वा ? | यदि पक्षः, तदा न हेतोः सपक्षवृत्तिता, न हि शब्दस्य धर्मान्तरे वृत्तिः संभवीत्वसाधारणतैवास्य हेतोः स्यात् / अथ पक्षोऽन्यतर-शब्दवाच्यस्तदा हेतोरसिद्धता। सपक्षयोर्घटाकाशयोः शब्दा-ख्यधर्मिण्यप्रवृत्तिरसिद्धेऽन्तर्भूतस्यास्यन प्रकरणसमता, न च पक्षसपक्षयोर्व्यतिरिक्तः कश्चिदन्यतरशब्दवाच्यः, यस्यपक्ष-धर्मताऽन्वयश्च भवेत्, तन्नायं हेतुः। अत्र प्रतिविदधति-भवेदेष दोषो यदि पक्षयोर्विशेषशब्दवाच्ययोर्हेतुत्वं विवक्षितं भवेत, तच्च न, अन्यतरशब्दाभिधस्यैव हेतुत्वेन विवक्षितत्वात् / स च पक्ष-सपक्षयोः साधारणः, तस्यैव साधारणशब्दाभिधेयत्वात्।यदि वाऽनुगतो द्वयोधर्मः कश्चिच्छब्दवाच्यो न भवेत्तदा विशेषशब्दवदन्यतर-शब्दोऽपि न तत्र प्रवर्तते, नाऽपि तच्छब्दादुभयत्र प्रतीतिर्भवेत् / दृश्यते, तस्मात्पक्षता सपक्षतां चासाधारणरूपत्वेन कल्पितां परित्यज्यान्यरशब्दो द्वयोरपि वाचकत्वेन योग्यः। ततो या विशेषप्रतीतिः, सापुरुषविवक्षानिबन्धना। यदा हि साधन-प्रयोक्ता पक्षधर्मत्वमस्य विवक्षति तदाऽन्यतरशब्दवाच्यः पक्षः सपक्षेऽनुगमविशेषाभिधायी स्यात् / यतोऽलोकव्यवहाराच्छ-ब्दार्थसंबन्धव्युत्पत्तिस्तत्र च पक्षशब्दस्य न सपक्षे प्रवृत्तिः। नाऽपि सपक्षशब्दस्य पक्षे / यथा वाऽनयोः सङ्केतादपि नान्यत्र प्रवृत्ति-रेवमन्यतरशब्दस्य सामान्ये सङ्केतितस्य न विशेष एव वृत्तिः। उभयाभिधायकत्वे तु विवक्षावसानाऽन्यतरनियमः / न चैवमपि विशेषे तस्य वृत्तौ दूषणम, तदवस्थायामेवं दोषोद्भावने कस्यचित् सम्यगृहेतूपपत्तेः / कृतकत्वादेरपि पक्षधर्मत्वविवक्षायां विशेष-रूपत्वादनुगमाभावात् / सपक्षविशेषितस्य पक्षधर्मत्वायोगात् / अथ कृतकत्वमात्रस्य हेतुत्वेन विवक्षातो न दोषः, तर्हि तत्प्रकृतेऽपि तुल्यम्, अन्यतरशब्दस्याप्यनङ्गीकृतविशेषस्य द्वयाऽभिधाने सामोपपत्तेः। एतेन यदुक्तं न्यायविदा अनर्थः खल्वपि कल्पनासमारोपितो न लिङ्गात् तथा पक्ष एवायं पक्षसपक्षयोरन्यतर इत्यादि / तदपि निरस्तम् / त्रैरूप्यसद्भावेऽपि प्रकरणसमत्वेनास्यागमकत्वात् / प्रत्यक्षागमबाधितकर्मनिर्देशानन्तरप्रयुक्तः कालात्ययापदिष्टोऽपि हेतुत्वाभासोऽपरोऽभ्युपगतः / यथापक्वान्येतान्यामूफलानि, एकशाखाप्रभवत्वात्, उपयुक्तफलवत् / अस्य हि रूपत्रययोगिनोऽपि प्रत्ययबाधितकनिन्तरप्रयोगात् / अपदिष्टतागमकत्वे निबन्धनहेतोः कालाद् दुष्टकर्मानन्तरं प्रयोगः / प्रत्यक्षादिविरुद्धस्य दुष्टकर्मानन्तरं प्रयोगाद्धेतुकालव्यतिक्रमेण प्रयोगः / तस्माच्च कालात्ययादिष्टशब्दा-भिधेयता हेत्वाभासता च / तदुक्तं न्यायभाष्यकृता- 'यत्पुनरनुमानं प्रत्यक्षागमविरुद्धं न्यायाभासः सः" इति। तदेवं पञ्चलक्षणयोगिनि हेतावविनाभावपरिसमाप्तेः। तत्पुत्रत्वादौ तु त्रैलक्षण्येऽपि कालात्ययापदिष्टत्वान्न गमकत्वमिति नैयायिकाः / असदेतत्। असिद्धादिव्यतिरेकेण परस्य Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणेगंतवाय ४३५-अभिधानराजेन्द्रः-भाग 1 अणेगंतवाय प्रकरणसमादेर्हेत्वाभाससस्याऽयोगात् / यच प्रकरणसमस्यानित्यः / शब्दोऽनुपलभ्यमाननित्यधर्मकत्वादीत्युदाहरणं प्रदर्शितम् / तदसंगतमेव / यतोऽनुपलभ्यमाननित्यधर्मकत्वं यदिन ततः सिद्धं, तदा पक्षवृत्तितयाऽस्यासिद्धेः कथं नासिद्धः ? अथ तत्र सिद्धं, तदा किं साध्यधर्मित्वेन धर्मिणि तत्सिद्धम्, उत तद्विकल इति वक्त-व्यम् ? यदि तदन्विते तदा साध्यवत्येव धर्मिणि तस्य सद्भावसिद्धेः कथमगमकता? न हि साध्यधर्ममन्तरेणाधर्मिभवनं विहायापरं हेतोरविनाभावित्वं भवेत् / तच्चेत् समस्ति, कथं न गमकता ? अविनाभावनिबन्धनत्वात् तस्याः / अथ तद्धि कालातत्सिद्ध तदा तत्र वर्तमानो हेतुः कथं न विरुद्धः ? विपक्ष एव वर्तमानस्य विरुद्धत्वात् / भवति च धर्मविकल एव धर्मिणि वर्तमानो विपक्षवृत्तिः / अथ संदिग्धसाध्यधर्मवति तत्तत्र वर्तते, तदा संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वादनैकान्तिकः / अथ साधर्म्यव्यतिरिक्ते धर्म्यन्तरे यस्य साध्याभाव एव दर्शनं, स विरुद्धः / यस्य च तदभावेऽप्यसावनैकान्तिकः। नधर्मिण एव विपक्षता, तस्य हि विपक्षत्वे सर्वस्य हेतोरहेतुत्वप्रसक्तेः। यतः साध्यधर्मासाध्य-धर्मसदसत्त्वाश्रयत्वेन सर्वदा संदिग्ध एव साध्यसिद्धेः प्रागन्यथा साध्याभावे निश्चिते साध्याभावनिश्चायकेन प्रमाणेन बाधि-तत्वाद्धतोरप्रवृत्तिरेव स्यात्। प्रत्यक्षादिप्रमाणेन च साध्य-धर्मयुक्ततया धर्मिणो निश्चये हेतोः यर्थ्यप्रसक्तिः, प्रत्यक्षादित एव हेतुसाध्यस्य सिद्धेः, तस्मात्संदिग्धसाध्यधर्मा धर्मी हेतोरा-श्रयत्वेनैव द्रष्टव्य इति / यद्यनैकान्तिकस्तत्र वर्तमानो हेतुःधूमादिरपि, तर्हि तथाविधएव स्यात्। तस्याप्येवं संदिग्धव्यतिरिक्तत्वात् / यदि हि विपक्षवृत्तित्त्वेन निश्चितो यथा गमकस्तथा संदिग्धव्यति-रिक्तेऽप्यनुमानप्रामाण्यं परित्यक्तमेव भवेत् / ततोऽनुमेयव्यतिरिक्ते साध्यधर्मवति वर्तमानः साध्याभावे चानैकान्तिको हेतुः साध्याभाववत्येवानुवर्तमानः पक्षधर्मत्वे सति विरुद्ध इत्यभ्यु-पगन्तव्यम् / यश्च विपक्षाव्यावृत्तः सपक्षे वाऽनुगतः पक्षधर्मो निश्चितः, सस्वसाध्यंगमयति। प्रकृतस्तुयद्यपि विपक्षाद्यावृत्तस्तथाऽपि नस्वसाध्यसाधकः, प्रतिबन्धस्य स्वसाध्येनानिश्चयात्। तदनिश्चयश्च न विपक्षवृत्तित्वेन, किन्तु प्रकरणसमत्वेन, एकशाखाप्रभवत्वादेस्तु कालात्ययापदिष्टत्वेनेति / असदेतत्। यतो यदिधर्मिव्यतिरिक्तेधर्म्यन्तरे हेतोः स्वसाध्येन प्रतिबन्धोऽभ्युपगम्यते, तदा धर्मिण्युपादीयमानोऽपि हेतुः साध्य-स्योपस्थापको न स्यात् / साध्यधर्मिणि साध्यधर्ममन्तरेणापि हेतोः सद्भावाभ्युपगमात्, तद्व्यतिरिक्त एव धर्म्यन्तरे तस्य साध्येन प्रतिबन्धग्रहणात् / न चान्यत्र स्वसाध्याविनाभावित्वेन निश्चितोऽन्यत्र साध्यं गमयेत्। अति-प्रसङ्गात्। अथ यदि साध्यधर्मान्यत्वेन साध्यधर्मिण्यपि हेतुरन्वयप्रदर्शनकाल एव निश्चितस्तदा पूर्वमेव साध्यधर्मस्य धर्मिणो निश्चयात् पक्षधर्मताग्रहणस्य वैयर्थ्यम्। असदेतत्। यतः प्रतिबन्धप्रसाधकेन प्रमाणेन सर्वोपसंहारेण साधनधर्म-साध्यधर्माभावे क्वचिदपि न भवतीति सामान्येन प्रतिबन्धनिश्चये पक्षधर्मताग्रहणकाले यत्रैव धर्मिण्युपलभ्यते हेतुः, तत्रैव स्वसाध्यं निश्चाययतीति पक्षधर्मताग्रहणस्य विशेषविषयप्रतिपत्तिनिबन्धन-त्वान्नानुमानस्य वैयर्थ्यम् / नहि विशिष्टधर्मिण्युपलभ्यमानो हेतुस्त-द्गतसाध्यमन्तरेणोपपत्तिमान् अस्य। अन्यथा तस्य स्वसाध्यव्याप्तत्वायोगात् / न चैवं तत्र हेतूपलम्भेऽपि साध्यविषयसदसत्तानिश्चयः, येन संदिग्धव्यतिरेकिता हेतोः सर्वत्र भवेत्, निश्चितस्वसाध्याविनाभूतहेतूपलम्भस्यैव साध्यधर्मिणि साध्य प्रतिपत्तिरूपत्वात् / नहि तत्र तथाभूतहेतुनिश्चयादपरः तस्यासाध्यप्रतिपादनव्यापारः। अत एव निश्चितप्रतिबन्धैक-हेतुसद्भावे धर्मिणि न विपरीतसाध्योपस्थापकस्य तल्लक्षणयोगिनो हेत्वन्तरस्य सद्भावः। तयोर्द्वयोरपिस्वसाध्याविनाभूतत्वाभिन्नत्वाऽनित्यत्वयोश्चैक-- त्रैकान्तवादिमतेन विरोधादसंभवात्, तव्यवस्थापकहेत्वोरप्यसंभवस्य न्यायप्राप्तत्वात् / संभवे वा तयोः स्वसाध्याविनानित्यत्वधर्मयुक्तत्वं धर्मतः स्यादिति कुतः प्रकरणसमस्याऽगमकता / अन्यरस्याऽत्र स्वसाध्याविनाभाव-विकलता, तर्हि तत एव तस्याऽगमकतेति किमसत्प्रतिपक्षता-रूपप्रतिपादनप्रयासेन ? किञ्च नित्यधर्मानुपलब्धिः प्रसज्य-प्रतिषेधरूपा, पर्युदासरूपा वा शब्दानित्यत्वे हेतुः ? न तावदाद्यः पक्षः। अनुपलब्धिमात्रस्य तुच्छस्य साध्यासाधकत्वात्। अथ द्वितीयः, तदाऽपि स धर्मोपलब्धिरेव हेतुरिति। यद्यसौ शब्दे सिद्धा, कथं नानित्यता सिद्धिः? अथ चिन्तासंबन्धिना पुरुषेणासौ प्रयुज्यत इति, न तत्र निश्चिता, तर्हि कथं संदिग्धासिद्धो हेतु दिन प्रति प्रतिवादिनस्त्वसौ स्वरूपासिद्ध एव? नित्यधर्मोपलब्धः ? तत्र तस्य सिद्धेः / यदप्युभयानुपलब्धिनिबन्धना यदा द्वयोरपि चिन्ता, तदैकदेशोपलब्धेरन्यतरेण हेतुत्वेनोपादने कथं चिन्तासंबन्ध्येव द्वितीयः तस्यासिद्धतां वक्तुं पारयतीत्याधभिधानम् / तदप्यसङ्गतम्। यतोयदि द्वितीयः संशयापन्नत्वात्तत्रासिद्धतांनोद्धावयितुंसमर्थः प्रथमोऽपि तर्हि कथं संशयित्वादेव तस्य हेतुतामभिधातुं संशयितोऽपि तत्र हेतुतामभिदध्यात्, तमुसिद्धतामप्यभिदध्यात्, भ्रान्तेरुभयत्राविशेषात्। यदपि साधनकाले नित्य धर्मानुपलब्धिरनित्यपक्ष एव वर्त्तते, नविपक्ष इत्याद्यभिधानम्, तदसंङ्गतम्। विपक्षादेकान्ततोऽस्य व्यावृत्तौ पक्षधर्मत्वे च स्वसाध्यसाधकत्वमेव अन्योन्यव्यवच्छेद्यरूपाणामेकव्यवच्छेदेनापरत्र वृत्तिनिश्चये गत्यन्तराभावात् / नहि योऽनित्यपक्ष एव वर्तमानो निश्चितो वस्तुधर्मः स तन्न साधयतीति वक्तुं युक्तम् / अथ द्वितीयोऽपि वस्तुधर्मस्तत्र तावन्निश्चितो न, परस्परविरुद्धधर्मद्वयोस्तदविनाभूतयोर्वा एकत्र धर्मिण्ययोगात् / योगे वा नित्यत्वयोः शब्दाख्ये धर्मिण्येकदा सदावादनेकान्तरूपवस्तुसद्भावोऽभ्युपगतः स्यात् / तमन्तरेण तद्धेतोः स्वसाध्याविनाभूतयोस्तत्रायोगात् / धर्मिणि तयोरुपलब्धिरेव स्वसासाधकत्वमिति कुतस्तत्सद्भावे परस्परविषयप्रतिबन्धः ? तत् प्रतिबन्धो हि तयो स्तथाभूतयोस्तत्राप्रवृत्तिः, सा च त्रैरूप्याभ्युपगमे विरोधादयुक्ता, भावाभावयोः परस्परपरिहारस्थितलक्षणतया एकत्रायोगात् / अथ द्वयोरन्योन्यव्यवच्छेद रूपयोरेकत्रायोगादनित्य धर्मानुप-लब्धेर्नित्यधर्मानुपलब्धेर्वा बाधा।न। अनुमानस्याऽनुमानान्तरेण बाधायोगात्। तथाहि- तुल्यबलयोर्वा तयोबधिकभावोऽतुल्य-बलयो ? न तावदाद्यः पक्षः / द्वयोस्तुल्यत्वे एकस्य बाधक त्वमपरस्य च बाध्यत्वमिति विशेषानुपपत्तेः। न च पक्षधर्मत्वाद्यभावादिरेकस्य विशेष, तस्यानभ्युपगमात् / अम्युपगमे वा तत एवैकस्य दुष्टत्वान्न कि शिदनुमानबाधया / तन्न पूर्व : पक्षः / नापि द्वितीयः / यतोऽतुल्यबलत्वं तयोः पक्षधर्मत्वादिभावकृतम्, अनुमानबाधाजनितं वा न तावदाद्यः पक्षः / तस्यानभ्युपगमात् / अभ्युपगमे वाऽनुमानबाधावैयर्थ्यप्रसक्तेः / नापि द्वितीयः / तस्याद्यापि विचाराऽऽस्पदत्वात् / न हि द्वयोस्खैरूप्याऽतुल्यत्वे एकस्य बाध्यत्वमपरस्य च बाधकत्वमिति व्यवस्थापयितुं शक्यम्। तन्नानुमानबाधाकृतमप्यतुल्यबलत्वम्, इतरेतराश्रयदोषापत्तेः परिस्फुटत्वात्। Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणेगंतवाय 436 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणेगंतवाय एतेन पक्षसपक्षान्यतरत्वादेरपि प्रकरणसमस्य व्युदासः कृतो द्रष्टव्यः, न्यायस्य समानत्वात् / यदप्यत्रासाधारणत्वासिद्धत्वदोषद्वयनिरासार्थमन्यतरशब्दाभिधेयत्वं पक्षसपक्षयोः साधारणं हेतुत्वेन विवक्षितम्, अन्यतरशब्दात् तथाविधार्थप्रतिपत्तेस्तस्य तत्र योग्यत्वादित्यभिधानम्। तदप्यसङ्गतम्। यतो यत्रानियमेन फलसंबन्धो विविक्षितो भवति, तत्रैव लोकेऽन्यतरशब्दप्रयोगो दृष्टः। यथादेवदत्तयज्ञदत्तयोरन्यतरं भोजयेत्यत्रानियमेन देवदत्तो यज्ञदत्तो वा भोजनक्रियया संबध्यते, इत्यन्यतरशब्दप्रयोगः / न चैवं शब्दः पक्षसपक्षयोरन्यतरः, तस्य पक्षत्वेनान्यतरशब्दवाच्यत्वायोगाता यदपि यदा पक्षधर्मत्वं प्रयोक्ता विवक्षति, तदाऽन्यतरशब्दवाच्यः पक्ष इत्याद्यभिधानम् / तदप्यसङ्गतम् / एवं विवक्षायामस्य कल्पनासमारोपितत्वेऽनर्थरूपतया लिङ्ग त्वानुपपत्तेः / नहि कल्पनाविरतस्यार्थत्वं, त्रैरूप्यं वोपपत्तिमत्, अतिप्रसङ्गात्। तत्त्वे वाऽन्यस्य गमकतानिबन्धनस्याऽभावात् सम्यग्धेतुत्वं स्यादित्युक्तं प्राक् कालात्ययापदिष्टस्य तुल्यलक्षणमसङ्गतमेव / नहि प्रमाणप्रसिद्धत्रैरूप्यसद्धावे हेताविषयबाधा संभाविनी, तयोर्विरो-धात्। साध्यसद्भाव एव हेतोर्धर्मिणि सद्भावस्वैरूप्यम्, तदभाव एव च तत्र तत्सद्भावो बाधा, भावाभावयोश्चैक कस्य विरोधः / किं चाध्यक्षागमयोः कुतो हेतुविषयबाधकत्वमिति वक्तव्यम् / स्वार्थासंभवे तयोर्भावादिति चेत्हेतावपि सति त्रैरूप्ये तत्समानमित्यसावपितयोर्विषयो बाधकः स्यात्। दृश्यते हि चन्द्रार्कादिस्थैर्यग्राह्यध्यक्षं देशान्तरप्राप्तिलिङ्ग प्रभवतदत्यनुमानेन बाध्यमानम्। अथ तत्स्थैर्य-ग्राह्यध्यक्षस्यातदाभासत्याद् बाध्यत्वं तर्षे कशाखाप्रभवत्वा-नुमानस्यापि तदाभासत्वाद् बाध्यत्वमित्यभ्युपगन्तव्यम् / न चै-वमस्त्विति वक्तव्यम्, यतस्तस्य तदाभासत्वं किमध्यक्षबाध्यत्वादुत त्रैरूप्यवैकल्यात् / न तावदाद्यः पक्षः / इतरेतराश्रयदोषसद्भावात् / तदाभासत्वेऽध्यक्षबाध्यत्वम्, ततश्च तदाभासत्वमित्येका-सिद्धावन्यतराप्रसिद्धेः / नापि द्वितीयः / त्रैरूप्यसद्धावस्य तत्र परेणाभ्युपगमात् / अनभ्युगमे वा तत एव तस्यागमकत्वोप-पत्तेरध्यक्षबाधाऽभ्युपगमवैयात् / न चाबाधितविषयत्वं हेतुलक्षणमुपपन्नम्, त्रैरूप्यवनिश्चितस्यैव तस्य गमकाङ्गत्वोपपत्तेः / न च तस्य निश्चयः संभवति, स्वसंबन्धिनोऽबाधितत्वनिश्चयस्य तत्कालभाविनोऽसम्यगनुमानेऽपि ससाध्यवनिश्चितस्यैव तस्य गमकाङ्गत्योपपत्तेः / न च तस्य निश्चयः संभवति, स्वसंबन्धिनोऽबाधितत्वनिश्चयस्य तत्कालभाविनोऽसम्यग्भावादुत्तरकालभाविनश्चासिद्धत्वात् नार्वागदृशा सर्वत्र सर्वदा सर्वे-षामत्र बाधकस्याभाव इति निश्चेतं शक्यम। तन्निश्चयनिबन्धन स्याभावान्नानुपलम्भस्तन्निबन्धनः, सर्वसंबन्धिनस्तस्य सिद्धत्वात् / आत्मसंबंधिनोऽनैकान्तिकत्वान्न संवादस्तन्निबन्धनः प्रागनुमानप्रवृत्तेः / तस्यासिद्धेरनुमानोत्तरकालं तत्सिद्ध्यभ्युपगमे इतरेतराश्रयदोषप्रसक्तेः / तथाहि- अनुमानप्रवृत्तौ संवादानिश्चयः, ततश्चाबाधितत्वावगमे अनुमाने प्रवृत्तिरिति परिस्फुटमितरे-तराश्रयत्वम्।नचाविनाभावे निश्चयादप्यबाधितविषयित्वनिश्चयः, यतो लक्ष्ययोग्यविनाभावपरिसमाप्तिवादिनामबाधितविषयत्व-निश्चये अविनाभावनिश्चयस्यैवासंभवात् / यदि च प्रत्यक्षागम-बाधितकर्मनिर्देशानन्तरप्रयुक्तस्यैव कालात्ययापदिष्टत्वं, तर्हि मूर्योऽयं देवदत्तः, त्वत्पुत्रत्वादुमयाभिमतान्पुत्रवत, इत्यस्यापि गमकता स्यात् न हि सकलशास्त्रव्याख्यातृत्वलिङ्ग जनितानु- | मानबाधितविषयत्वमन्तरेणान्यदध्यक्षबाधित विषयत्वं वा गमकतानिबन्धनमस्याऽस्ति। न चानुमानस्य तुल्यबलत्वान्नानुमानं प्रति बाधकता संभाविनीति वक्तव्यम्, निश्चितप्रतिबन्धलिङ्ग समुत्थस्यानुमानस्यानिश्चितप्रतिबन्धलिङ्ग समुत्थेनातुल्यबलत्वात् / अत एव न साधर्म्यमात्राद्धेतुर्गमकः, अपि त्वाक्षिप्तव्यतिरेकात् साधर्म्यविशेषात् / नापि व्यतिरेक्रमात्रात् किन्त्वङ्गीकृतान्वयात् / तद्विशेषान्वये च परस्परानुविद्धोभयमात्रात् / अपि तु पस्परस्वरूपाजहदवृत्तसाधर्म्यवैधर्म्यरूपत्वात् / न च प्रकृतहेतौ प्रतिबन्धनिश्चायकप्रमाणनिबन्धनं त्रैरूप्यं निश्चितमिति। तद्भावादेवास्य हेत्वा-भासत्वं, न पुनरसत्प्रतिपक्षत्वाबाधित-विषयत्वापररूपविहात्। यदाच पक्षधर्मत्वाद्यनेकवास्तवरूपात्म-कमेकं लिङ्गमभ्युपगमविषयः, तदा तत्तथाभूतमेव वस्तु प्रसाधयतीति कथं न विपर्ययसिद्धि : ? न च साध्यसाधनयोः परस्परतो धर्मिणश्चैकान्त-भेदे पक्षधर्मयोगो लिङ्गस्योपपत्तिमान्, संबन्धा-सिद्धेः।नच समवायादेः संबन्धस्य निषेधे एकार्थसमवायादिः साध्य-साधनयोधर्मिणश्च संबन्धः संभवी। एकान्तपक्षे तादात्म्यादेत-दुत्पत्तिलक्षणोऽप्यसावयुक्त एवेति पक्षधर्मस्य सपक्ष एव सत्त्वम्, तदेव विपक्षात् सर्वतो व्यावृत्तत्वमिति वाच्यम् ? अन्वयव्यतिरेकयोर्भावाभावरूपयोः सर्वथा तादात्म्यायोगात्। तत्त्वे वा केवलान्वयी केवलव्यतिरेकी वा सर्यो हेतुः स्यात्, न त्रिरूपवान् / व्यतिरेकस्य चाभावाभावरूपत्वाद्धेतोस्तद्रूपत्वेऽ-भावरूपो हेतुः स्यात् / न चाभावस्य तुच्छरूपत्वात् स्वसाध्येन धर्मिणा वा संबन्ध उपपत्तिमान् / एवं विपक्षे सर्वत्रासत्त्वमेव हेतोः / स्वकीय व्यतिरेकेण प्रतिनियतस्यतत्रासंभवात्। अतस्तदन्यधर्मान्तरं तर्केकरूपस्यैको न तुच्छाभावमात्रमिति वक्तव्यम्, यतो यदि सपक्ष एव सत्त्वं विपक्षादव्यावृत्तत्वं न ततो भिन्नमस्ति, तदा तस्य तदेव सावधारणं नोपपत्तिमत, वस्तुभूतान्याभावमन्तरेण प्रतिनियतस्य तत्रा-संभवात् अथ ततस्तदन्यद्धर्मान्तरं, तइँकरूपस्यानेक-धर्मात्मकस्य हेतोः तथाभूतस्य साध्याविनाभूतत्वेन निश्चितस्याने-कान्तात्मकवस्तुप्रतिपादनात् कथं न परोपन्यस्तहेतुना सर्वेषां विरुद्धाऽनेकान्तेन व्याप्तत्वम्। किञ्च / हेतुः सामान्यरूपो वोपादीयेत परैः ? विशेषरूपो वा? यदि सामान्यरूपः, तदा तद् व्यक्तिभ्यो भिन्नमभिन्नं वा ? न तावद्भिन्नम् / इदं सामान्यम्, अयं विशेषः अयं तद्वानिति वस्तुत्रयोपलम्भानुपलक्षणात् / तथा च सामान्यस्य भेदेनाभ्युपगन्तुमशक्यत्वात् / न च समवायवशात् परस्परं तेषां भेदेनानुपलक्षणम्, यतः समवायस्येह बुद्धिहेतुत्वमुपगीयते / न च भेदग्रहणमन्तरेणेहेदमवस्थिमिति बुद्ध-युत्पत्तिसंभवः / किञ्च / नागृहीतविशेषणा विशेष्ये बुद्धिरिति कारणादानात्सिद्धान्तः / न च सामान्यनिश्चयः संस्थानभेदावसायमन्तरेणोपपद्यते यतो दूरे पदार्थस्वरूपमुपलभमानो नागृहीतसंस्थानभेदः - अश्वत्वादिसामान्यमुपलब्धुं शक्नोति , न च संस्थानभेदावगमस्तदाधारोपलम्भमन्तरेण संभवतीति कथं नेतरेतराश्रयदोषप्रसंगः? तथाहिपदार्थग्रहणे सति संस्थान-भेदावगमः, तत्र च सामान्यविशेषावबोधः, तस्मिंश्च सति पदार्थस्वरूपावगतिरिति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम्, चक्रकप्रसङ्गोवा। किञ्च। अश्वत्यादेः समान्यभेदस्य स्वाश्रयसर्वग-तत्वैक कव्यक्तिशून्ये देशे प्रथमतरमुपजायमानाया व्यक्तेरश्वत्वा-दिसामान्येन बोधो न भवेत् / व्यक्तिशून्ये देशे सामान्यभेदस्य स्वाश्रयसर्वगतस्यानवस्थानात्, व्यक्तान्तरादनागतावस्थानाच्च / Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणेगंतवाय 437 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणेगंतवाय तदभिव्यज्येत / न च कांद्यानामेव तद-भिव्यक्तिसामर्थ्य, न शावलेयादीनामिति वाच्यम् / यतो यया प्रत्यासत्या ता एव तदात्मन्यवस्थापयन्ति तयैव ता एवाश्वोऽश्व इत्येकाकारपरामर्शप्रत्ययमुपजनयिष्यन्तीति किमपरतद्-भिन्नसमान्यप्रकल्पनया? नच स्वाश्रयेन्द्रियसंयोगात् प्राक् स्वज्ञानजनने असमर्थ सामर्थ्यं तदा परैरनाधेयातिशयं तमपेक्ष्य स्वावभासिज्ञानं जनयति, प्राक्तनासमर्थस्वभावापरित्याग-स्वभावान्तरानुत्पादे च तदयोगात् / तथाऽभ्युपगमे च क्षणिक-ताप्रसक्तेः नचस्वभावेतरस्योपजायमानस्य ततो भेदः, संबन्धा-सिद्धित-स्तद्भावेऽपि प्राग्वत्तस्य स्वावभासिज्ञानजननायोगान्न प्रतिभासः स्यात् / तथा च सामान्यस्य व्यक्तिभ्यो भेदेनाप्रतिभास-मानस्यासिद्धत्वार्थ हेतुत्वम् / किश / प्रतिव्यक्तिसामान्यस्य सर्वात्मना परिसमाप्तत्वाभ्युपगमात् एकस्यां व्यक्ताविव, शतस्वरूपस्य तदैव व्यक्त्यन्तरे वृत्त्यनुपपत्तेस्तदनुरूपप्रत्ययस्य तत्रासंभवाद् असाधारणता हेतोः स्यात् / यदि चासाधारणरूपा व्यक्तयः स्वरूपतस्तदा परसामान्ययोगादपि न साधारणतां प्रतिपद्यन्त इति व्यर्था. सामान्यप्रकल्पना, स्वतोऽसाधारणस्यान्ययोगादपि साधारणरूपत्वाद् व्यक्तयः, स्वरूपतस्तदा परसामान्ययोगादपि न साधारणता, अनुपपत्तेः / स्वतस्तद्रूपत्वेऽपि निष्फला सामान्यप्रकल्पनेति व्यक्तिव्यति-रिक्तस्य सामान्यस्याभावाद-सिद्धस्तल्लक्षणो हेतुरिति कथं ततः साध्यसिद्धिः? अथ व्यक्तिव्यतिरिक्तं सामान्यं हेतुः। तदप्यसङ्गतमेव। व्यक्तिव्यतिरिक्तस्य व्यक्तिस्वरूपवद् व्यक्त्यन्तराननुगमात् सामान्यरूपताऽनुपपत्तेः / व्यक्त्यन्तरे साधारणस्यैव वस्तुनः सामान्यमित्यभिधानात् / तस्यासाधारणत्वे वा न तस्य व्यक्तिस्वरूपाव्यतिरिच्यमानमूर्तिता, सामान्यरूपतया भेदाऽव्यतिरिच्यमानस्वरूपस्य विरोधात् / तन्न व्यतिरिक्तमपि सामान्यहेतुः, व्यक्तिस्वरूपवदसाधारणत्वेन गमकत्वायोगात्।अत एवन व्यक्तिरूपमपि हेतुः। न चोभयं परस्पराननुविद्धं हेतुः, उभयदोषप्रसंगात्। नाप्यनुभयम्, अन्योन्यव्यवच्छेदरूपाणामेकाभावे द्वितीयविधानादनुभय-स्यासत्त्वेन हेतुत्यायोगात् / बुद्धिप्रकल्पितं च सामान्य वस्तुरूपत्वात् साध्येनाप्रतिबद्धत्वादसिद्धत्वाच, न हेतुः / तस्मात्पदार्थान्तरानुवृत्तव्यावृत्तरूपमात्मानं बिभ्रदेकमेव पदार्थस्वरूपं प्रतिपत्तुर्भे दाभेदप्रत्ययप्रसूतिनिबन्धनं हेतुत्वेनोपादीयमानं तथाभूतसाध्यसिद्धिनिबन्धनमभ्युपगन्तव्यम्। न च यदेव रूपं रूपान्तराद्ध्यावर्तते, तदेव कथमनुवृत्तिमासादयति ? तचानुवर्तते, तत्कथं व्यावृत्तिरूपतामात्मसात्करोतीति वक्तव्यम् ? भेदाभेदरूपतयाऽध्यक्षतः प्रतीयमाने वस्तुस्वरूपे विरोधासिद्धेरित्यसकृदावेदितत्वात् / किञ्च / एकान्तवाद्युपन्यस्तहेतोः किं सामान्यं साध्यम् ? आहोस्विद्विशेषः, उतोभयं परस्परविविक्तम्, उतस्विदनुभयमिति विकल्पाः ? तत्र न तावत्सामान्यम्, केवल-स्यासंभवात्, अर्थक्रियाकारित्वविकलत्वाच / नापि विशेषः, तस्याननुयायित्वेन साधयितुमशक्यत्वात्। नाप्युमयम, उभयदोषानतिवृत्तेः / नाप्यनुभयम्, तस्यासतो हेत्वव्यापकत्वेन साध्यत्वायोगात्। एतदेवाह गाथापश्चार्द्धन, अन्योन्यप्रतिकुष्टौ प्रतिक्षिप्तौ द्वावप्येतौ सामान्यविशेषकान्तावसद्वादाविति, इतरविनिर्मुक्तस्यैकस्य शशशृङ्गादेरिव साधयितुमशक्यत्वात्। सामान्यविशेषयोः स्वरूपं परस्परविविक्तमनूद्य निराकुर्वन्नाह दव्वट्ठिय-वत्तव्यं, सामन्नं पज्जवस्सय विसेसो। एए समोवणीया, विभजवायं विसेसेंति।।१५३| द्रव्यास्तिकत्य वक्तव्यं वाच्यं विशेषं निरपेक्ष्य सामान्यमात्रम्, पर्यायास्तिकस्य पुनरनुस्यूताकारविविक्तो विशेष एव वाच्यः / एतौ च सामान्यविशेषावन्योन्यनिरपेक्षौ, एकैकरूपतया परस्पर-प्रधानेन एकत्रोपनीतौ प्रदर्शितौ, विभज्यवादमनेकान्तवादं सत्पपथादस्वरूपमतिशयाते, असत्यरूपतया ततस्तावतिशयं लभेते इति यावत्। विशेषे साध्येऽनुगमाभावतः, सामान्ये साध्ये सिद्धसाधन-वैफल्यतः, प्रधानोभयरूपे साध्ये उभयदोषापत्तितः, अनुभयरूपे साध्ये उभयाभावतः, साध्यत्वायोगात् / तस्माद्-विवादास्पदीभूतसामान्यविशेषोभयात्मकसाध्यधर्माधारसाध्यधर्मिण्यन्योन्यानविद्धसाधर्म्यवैधर्म्यस्वभावद्वयात्मक कहेतुप्रदर्शनतो नैकान्तवादपक्षोक्तदोषावकाशः संभवति / अत एव गाथापश्चार्धे नैतौ सामान्यविशेषौ समुपनीतौ परस्परसव्यपेक्षतया स्याद्वादप्रयोगतो धर्मिण्यवस्थापितौ विभज्यवादमेकान्तवादं विशेषयतो निराकृतः अत एव तयोरात्मलाभात् / अन्यथाऽनुमानविषयस्योक्तन्यायेनासत्वादित्यपि दर्शयति। यत्रानुमानं विषयतयाऽभ्युपगन्तव्यमिति दर्शयन्नाहहेउविसओवणीयं,जह वयणिज्जं परो नियत्तेइ। जइ तं जहा पुरिल्लो, दाइं तो केण जिचंति ? ||153 / / हेतुविषयतयोपनीतमुपदर्शितं साध्यधर्मिलक्षणं वस्तु पूर्व-पक्षवादिना 'अनित्यः शब्दः' इत्येव यथा वचनीयं परो दूषणवादी निवर्तयति, सिद्धसाध्यताऽननुगमदोषाधु पन्यासे नै कान्तवचनीयस्य तदितरधर्माऽननुषक्तस्यानेकदोषदुष्टतया निवर्तयितुं शक्यत्वात्। यदि तत्तथा द्वितीयधर्माक्रान्तं स्यात्, शब्दयोजनेन 'पुरिल्लः पूर्वपक्षवादी अदर्शयिष्यत्, ततोऽसौ नैव केनचिदजेष्यत / ततश्चासौ तथाभूतस्य साध्यधर्मिणः प्रदर्शनात् प्रदर्शितस्य चैकान्त-रूपस्यासत्त्वात्, तत्प्रदर्शकोऽसत्यवादितया निग्रहाऽर्ह इति। एतदेव दर्शयन्नाहएगतासब्भूयं, सब्भूयमणिच्छियं च वयमाणो। लोइयपरिच्छियाणं, वयणिज्जपहे पडइवाई ||15|| आस्तांतावदैकान्तेनासद्भूतमसत्यं, सद्भूतमप्यनिश्चितं वदन् वादी लौकिकानां परीक्षकाणां वचनीयमार्ग पतति / ततोऽनेकान्तात्मकाखेतोः तथाभूतमेव साध्यधर्मिणं साधयन् वादी सद्वादी स्यादिति तथैव साध्याविनाभूतो हेतुधर्मिणि तेन प्रदर्शनीयः। तत्प्रदर्शने हेतोः सपक्षविपक्षयोः सदसत्त्वमवश्यं प्रदर्शनीयमिति यदुच्यते परैः / तदपास्तं भवति / तावन्मात्रादेव साध्यप्रतिपत्तेः / न च ततस्तत्प्रतिपत्तावपि विद्यमानत्वाद्पान्तरमपितत्रावश्यं प्रदर्शनीयम्, ज्ञानत्वादेरपि तत्र प्रदर्शनप्रसक्तेः। अथ सामर्थ्यात् तत्प्रतीयत इति न वचनेन प्रदर्श्यतेतन्वियव्यतिरेका-वपितत एवावश्यं प्रदर्शनीयौ,, अत एव दृष्टान्तोऽपि नावश्यं वाच्यः / साधर्म्यवैधयंप्रदर्शनपरत्वात्त्वस्योपनयनिगमन-वचनयोस्तु दुरापास्तता, तदन्तरेणापि साध्याविनाभूतहेतुप्रदर्शनमात्रात् साध्यप्रतिपत्त्युत्पत्तेरन्यथा तदयोगात् / त्रिलक्षणहेतुप्रदर्शनवादिनस्तुनिरंशवस्त्वभ्युपगमविरोधः, निरंशे लक्षण्य-विरोधात् / परिकल्पितस्वरूपत्रैरूप्याभ्युपगमो Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणेगंतवाय ४३८-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणेगंतवाय ऽप्यसंगतः। परिकल्पितस्य परमार्थसत्त्वे तदोषानतिक्रमात्, ोकान्ततोऽतदात्मकं द्रव्यादिभेदभिन्नं व्यतिरिक्तरूपं च प्रमाणं अपरमार्थसत्त्वे तल्लक्षणत्वायोगादसतः सल्लक्षणत्वविरोधात्। न च तन्निरूपयितुं शक्यम्, द्रव्यादिव्यतिरिक्तस्य शशशृङ्ग वत् कल्पनाव्यवस्थापितलक्षणभेदाल्लक्ष्यभेद उपपत्तिमानिति लिङ्गस्य कुतश्चित्प्रमाणाप्रतीतेः / नहि ततो द्रव्यादीनां भेदेऽपि समवायनिरंशस्वभावस्य किञ्चिद् रूपं वाच्यम्। न च साधा-दिव्यतिरेकेण संबन्धवशात् तत्संबद्धताप्रसङ्गः / संबन्धभेदेन तदभेदाभेदतस्य स्वरूपं प्रदर्शयितुं शक्यत इति तस्य निःस्व-भावताप्रसक्तिः। न कल्पनद्वयानतिवृत्तेः / प्रथमविकल्पे समवायानेकत्वप्रसक्तिः / चैकलक्षणहेतुवादिनोऽप्यनैकान्तात्मक-वस्त्वभ्युपगमाद्दर्शनव्याधात संबन्धिभेदतो भेदात् संयोगवदनित्यत्वप्रसक्तिश्च / द्वितीयइति वाच्यम् / प्रयोगनैगम एवैकलक्षणो हेतुरिति व्यवस्थापितत्वात्।न कल्पनायामपि संबन्धिसङ्करप्रसक्तिः / न चैवं छत्रदण्डकुण्डलाचैकान्तवादिनां प्रतिबन्धग्रहणमपि युक्तिसङ्गतम् / अविचलितरूपे दिसबन्धविशेषविशिष्टदेवदत्तादेरिव समवायिनो जातिगुणत्वादे- भैदे आत्मनि ज्ञानपौर्वापर्याभावात् प्रतिक्षणध्वंसिन्यप्युभयग्रहणानु- नोपलब्धः / नहि य एव दण्डदेवदत्तयोः संबन्धः, स एव छत्रादिभिरपि, वृत्त्यै कचैतन्याभावात् / कारणस्वरूपग्राहिणा ज्ञानेन कार्यस्य तत्संबन्धविशेषणाविशेषवैफल्यप्रसक्तेःनि विशेषणं विशेष्यं धर्मान्तराद् तत्स्वरूपग्राहिणा कार्यकारणभावादेहः,एकसंबन्धिस्व-रूपग्रहणेऽपि व्यवच्छिद्यात्मन्यनवस्थापयद् विशेषणरूपता प्रतिपद्यते / एवं तद्ग्रहण-प्रसक्तेः / न च तदग्र हेऽपि निश्चया-ऽनुत्पत्तेरदोषः, समवायसंबन्धस्याविशेषे द्रव्यत्वादीनामपि विशेषणानामविशेषान्न सविकल्पकत्वेन प्रथमाक्षिसंनिपातजस्याध्य-क्षस्य व्यवस्थापनातान जीवाजीवादिद्रव्य-व्यवच्छेदकतास्यादिति समवायिसङ्करप्रसक्तिः कथं च कार्यानुभवानन्तरभाविना स्मरणेन कार्यकारणभावोऽनुसंधीयत इति नासज्येत? नच समवायस्तद्-ग्राहकप्रमाणाभावात् संभवति, तदभावे वक्तव्यम्, अनुभूत एव स्मरणप्रादुर्भावात् / न च प्रतिबन्धः न वस्तुनो वस्तुत्वयोगो भवेदिति तदनेकान्तात्मकैकरूपमभ्युपकेनचिदनुभूतः, तस्योभयनिष्ठत्वात्, उभयस्य च पूर्वापरकालभाविन गन्तव्यम् / न चैकानेकात्म-कत्वं वस्तुनो विरुद्धम्, प्रमाणप्रतिपन्ने एकेनाग्रह-णात्।नच कार्यानुभवानन्तरभाविनः स्मरणस्य कार्यानुभवो वस्तुनि विरोधायोगात् / तथाहि- एकानेकात्मकमात्मादि वस्तु, जनकः, तदनन्तरं स्मरणस्याभावात् / न च क्षणिकै कान्तवादे प्रमेयत्वात, चित्रपटरूपवत्,ग्राह्यग्राहकाकारसंवित्तिरूपैक-विज्ञानस्य कार्यकारणभाव उपपत्तिमानित्युक्तम् / न च सन्तानादिकल्पना प्रत्यात्मसंवेदनीयत्वात्। न च वैशेषिकं प्रति चित्रपटरूपस्यैकानेकऽप्यत्रोपयोगिनी। न च स्मरणकालेऽतीततद्विषयमात्रं प्रतीयते, अपितु त्वमसिद्धम्, प्राक् प्रसाधितत्वात् / नापि ग्राह्यग्राहकसंवित्तिलक्षणतदाऽनुभविताऽपि अहमेवमिदमनुभूत-वानित्यनुभवित्रा धाराऽनुभूत- रूपत्रयात्मकमेकं विज्ञानं बौद्धं प्रत्य-सिद्धम, तथाभूतविज्ञानस्य विषयस्मृत्यध्यवसायादेकाधारे अनुभवस्मरणे अभ्युपगन्तव्ये, तदभावे प्रत्यात्मसंवेदनीयस्य प्रतिक्षेपप्रसक्तेः / स्वार्थाकारयोर्विज्ञानमतथाऽध्यवसायानुपपत्तेः न चानुभवस्मरणयोरनुगतचैतन्याभावे भिन्नस्वरूपम्, विज्ञानस्य च वेद्यवेदकाकारौ भिन्नात्मानौ, तद्धर्मतया अनुभव-स्मरणयोस्तदा प्रतिपत्तियुक्ता / नहि कथञ्चिदनुभवगोचरापन्नौ / एतच प्रतिक्षणस्वभावभेदमनुभवदपि न यत्प्रतिपत्तिकाले यन्नास्ति, तत्तद्धर्मतया प्रतिपत्तुं युक्तम्, बोधाभावे सर्वथा भेदवत् संवेद्यत इति संविदात्मनः स्वयमे कस्य ग्राह्यग्राहकसंवित्ति-त्रितयप्रतिपत्तिवत्, अस्ति च तद्धर्मतया क्रमवयनकात्मकत्वं न विरोध-मनुभवतीति कथमध्यक्षादिविरुद्धं अनुभवस्मरणयोस्तदा पतिपत्तिरिति कथं क्षणिकैकान्तवादः, तत्र वा निरन्वयविनाशित्वमभ्युगन्तुं युक्तम् ? नहि कदाचित् क्वचित् प्रतिबन्धनिश्चय इति? नचैकान्तवादिनः सामान्यादिकं साध्यं संभवीति क्षणिकत्वमन्तर्बहिर्वा-ऽध्यक्षतोऽनुभूयते, तथैव निर्णयानुपपत्तेर्भेदात्मन प्रतिपादितम्, त स्मादनेकान्तात्मकं वस्त्वभ्युपगन्तव्यम्, अध्यक्षादेः एवान्तर्विज्ञानस्य बहिर्घटादेश्वाभिन्नस्य निश्चयात्। तथाभूतस्यानुभवस्य प्रमाणस्य तत्प्रतिपादकत्वेन प्रवृत्तेः। भ्रान्तिकल्पनायां न किञ्चिदध्यक्षमभ्रान्तलक्षणभाग् भवेत् / न हि ज्ञानं (8) स एव च सन्मार्गः (अनेकान्त एव सन्मार्गः) वेद्यवेदकाकारशून्यं स्थूलाकारव्यक्तं परमाणुरूपं वा इत्युपसंहरन्नाह घटादिकमेकं निरीक्षामहे, यतो बाह्याध्यात्मिकं भेदाभेददव्वं खित्तं कालं, भावं पञ्जायदेससंजोगे। रूपतयाऽनुभूयमानं भ्रान्तविज्ञानविषयतया व्यवस्थाप्येत / अतो भेदं च पडुच समा, भावाणं पण्णवणपज्जा / / 155|| यथादर्शनमे वेयमनुमेयव्यवस्थितिः न पुनर्यथातत्त्वमित्येतद्रव्यक्षेत्रकालभावपर्यायदेशसंयोगान् भेदं चेत्यष्टौ भावाना-श्रित्य दनिश्चितार्थाभिधानम् / नहि क्वचित् केनचित् प्रमाणेनैकान्तरूपं वस्तुनो भेदे सति समा सर्ववस्तुविषयायाः प्रतिज्ञाप्यरूपायाः वस्तुतत्वमयं प्रतिपन्नवान्, यत एवं वदन् शोभेत,,यदा वाऽध्यक्षविरुद्धो स्याद्वादरूपायाः पर्या पन्था मार्ग इति यावत्। तत्र द्रव्यं पृथिव्यादि, क्षेत्रं निरंशक्षणिकै कान्तस्ततो नानुमानमप्यत्र प्रवर्तितुमुत्सहते, तदवयवरूपं तदाश्रयं वा आकाशं, कालं युगपदक्षि-प्रत्ययलिङ्गलक्षणं अध्यक्षबाधितविषयत्वात् / तस्य तेन निरन्वयविनश्वरं वस्तु वर्तमानात्मकं वा, नवपुराणादिलक्षणं भावम्, मूलाकुरादिलक्षणं प्रतिक्षणमवेक्षमाणोऽपि नावधारयतीति। एतदप्यसदभिधानम्। प्रतिक्षणं पर्यायम, रूपादिस्वभाव देशम्, मूला-कुरपत्रकायमादिक्रमभावि विशरारुतया कुतश्चिदप्यनीक्ष-णात्। अत एव क्षणिकत्वैकान्ते च विभाग संयोगं भूम्यादि प्रत्येकं समुदाय द्रव्यपर्यायलक्षणं भेदं, सत्त्वादिहेतुरुपादीयमानः सर्व एव विरुद्धः, अनेकान्त एव तस्य संभवात् / प्रतिलक्षणव्यावर्त्तनात्मकं वा, जीवाऽजीवादिभावनां प्रतीत्य समानतया तथाहि- अर्थक्रियालक्षणं सत्त्वम्। न चासौ तदेकान्तक्रमयोगपद्याभ्यां तदतदात्मकत्वेन प्रज्ञापना-निरूपणा या सा सत्पथ इति नहि संभवति, यतो यस्मिन् सत्येव यद्भवति तत्तस्य कारणमितरच कार्यमिति तदतदात्मकैकद्रव्य-त्वादिभेदाभावे खरविषाणादे वादिद्रव्यस्य कार्यकारणलक्षणम् / क्षणिके च कारणे सति यदि कार्योत्पत्तिविशेषः, यतोनद्रव्यक्षेत्रकालभावपर्यायदेशसंयोगभेदरहितं वस्तु केनचित् र्भवत् तदा कार्यकारणयोः सहोत्पत्तेः किं कस्य कारणं किं वा कस्य प्रत्यक्षाधान्यानमाप्रमाणेनावगन्तुं शक्यम् / / 3 प्रमाणामोचरस्य। क्रार्य व्यवस्थाप्टोत ? रैलोक्याच्या कक्षाणावर्तिता प्रसन्न्येता यदनन्तरं सद्व्यवहारगोचरता संभविनीति तदतदात्मकं तदभ्युपगन्तव्यम् / न / यद्भवति तत्तस्य कार्यम्, इतरत् कारणमिति व्यवस्थायां Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणेगंतवाय 439- अभियानराजेन्द्रः-भाग 1 अणेगंतवाय कारणाभिमते वस्तुन्यसत्त्वे च भवतस्तदनन्तरभावित्वस्य दुर्घटत्वादितरविनष्टादपि च तस्य भावो भवेत्, तदभावाविशेषात् / न चान्तरस्यापि कार्योत्पत्तिकालमप्राप्य विनाशमनुभवतश्विरातीत-स्येव कारणता / यतोऽर्थक्रिया क्षणक्षये न विरुध्येत / प्राक्कालभावित्वेन कारणत्वे सर्व प्रति सर्वस्य कारणता प्रसज्येत, सर्ववस्तुक्षणानां विवक्षितकार्य प्रति भावित्वाविशेषात् / तथा च स्वपरसन्तानव्यवस्थाऽप्यनुपपनैवस्यात्।नचसादृश्यात्तद्व्यवस्था, सर्वथा सादृश्ये कार्यस्य कारणरूपताप्रसक्तेरेकक्षणमात्रं सन्तानः प्रसज्येत / कथञ्चित्- सादृश्येनैकान्तवादप्रसक्तिः / न च सादृश्य भवदभिप्रायेणास्ति, सर्वत्र वैलक्षण्याविशेषात् / अन्यथा स्वकृतान्तप्रकोपवन्नोचक्षणिकैकान्तवादिनोऽन्वयव्यतिरेकि-प्रतिपत्तिः संभवतीति साध्यसाधनायास्त्रिकालविषयायाः साकल्येन व्याप्तेरसिद्धे। यत्सत्तत् सर्वं क्षणिकं यथा शङ्खशब्द इत्याद्यनुमान-प्रवृत्तिः कथं न भवेत् ? अकारणस्य च प्रमाणविषयत्वमभ्युपगम साध्यसाधनयोस्त्रिकालविषयव्याप्तिग्रहणं दूरोत्सारितत्वात् / 'नाननुकृतान्धयव्यतिरेकं कारणं विषयः" इतिवचनमनु-मानोच्छेदकप्रसक्तं ग्राह्यग्राहकाकारज्ञानैकत्ववत्, ग्राह्या-कारस्यापि युगपदनेकार्थावभासिनश्चैवैकरूपता एकान्तवादं प्रतिक्षिपति / एवं भ्रान्त्याऽऽत्मनश्च सदर्शनस्यान्तर्बहिश्व भ्रान्तात्मकत्वं कथ-श्चिदभ्युपगन्तव्यम्। अन्यथा कथं स्व-संवेदनाध्यक्षता तस्य भवेत् ? तदभावे च कथं तत्स्वाभावसिद्धिर्युक्ता? कथं च भ्रान्तज्ञानं भ्रान्तिरूपतयाऽऽत्मानमसंविदत् ज्ञानरूपतया चावगच्छन्नन्तर्बहि-स्तथा नावगच्छेत् / यतो भ्रान्तकान्तरूपताऽऽधुपलुतदृशां भवेत्, कथं च भ्रान्त-विकल्पज्ञानयोः स्वसंवेदनमभ्रान्तमविकल्पकंवाऽभ्यु-पगच्छन्ननेकान्तंनाभ्युगच्छेत् ? / ग्राह्यग्राहकवृत्त्याकार- विवेकसंविदं स्वसंवेदनेनासंवेदयन् संविद्रूपतां वाऽनुभवन् कथं क्रमभाविनोर्विकल्पेतरात्मनोरनुगतसंवेदनात्मानमनुभवप्रसिद्ध प्रतिक्षिपेत्। ततः क्रमसहभाविनः परस्परविलक्षणान्स्वाभावान वाऽनन्यथावस्थितरूपतया व्याप्नुवतः सकल-लोकप्रतीतं स्वसंवेदनम्, अनेकान्ततत्त्वव्यवस्थापकमेकान्तवादप्रतिक्षेपि प्रतिष्ठितमिति / निरंशक्षणिकस्वलक्षण-मन्तर्बहिश्वानिश्चितमपि संवित्तिर्विषयीकरोतीति कल्पना-ऽयुक्तिसंगतैव, अप्रमाणप्रसिद्धि कल्पनायाः सर्वत्र निरङ्कशत्वात् / सकलसर्वज्ञताकल्पनप्रसक्तेन ह्येकस्य संवित्तिः परस्यासंवित्तिः / नहि वास्तवसंबन्धाभावे परिकल्पितस्य नियामकत्वं युक्तम्, अतिप्रसङ्गात्।नच वास्तवः संबन्धः परस्य सिद्ध इति तादा-त्म्यतदुत्पत्त्योरभावात् साध्यसाधनयोः प्रतिबन्धनियमाभावेऽनुमानप्रवृत्तिर्दूरोत्सारितैव / अथ क्षणिकाद् निवर्तमानमप्यर्थक्रियालक्षणं सत्त्वमक्षणिके च स्थास्यतीति न ततोऽनेकान्तात्मकवस्तुसिद्धिः / ना क्षणिकेऽपि, क्रमयोगपद्याभ्यां तस्य विरोधात्। तथाहि-नतावद क्षणिकस्य क्रमवत्कार्य-कारणं प्राक् तकरणसमर्थस्याभिमतक्षणवत् तदकरणविरोधात्-प्राक् तदसामर्थ्य पश्चादपिन तत्सामर्थ्यमपरिणामिनोऽना-धेयातिशयत्वात्। स्वभावोत्पत्तिविनाशाभ्युपगमेऽपि नित्य-कान्तवादविरोधात् / ततो व्यतिरिक्त स्यातिशयस्य करणे -ऽनतिशयस्य प्रागिव पश्चादपि तत्करणासंभवात् / सहका-रिणोऽपेक्षाऽपि तस्याऽयुक्तव, यतोऽसहायस्य प्रागकरणस्वभावस्य पुनः सश्रीसहायस्य कार्यकरणं भवेत्, नहि सहकारिकृत-मतिशयमनङ्गीकुर्वतस्तदापक्षोपपत्तिमति तत्र क्रमेणापरिणामी भावः कार्यं निवर्तयति, नापि यौगपद्येन कालान्तरे, तस्याकिञ्चित्कर-त्वेनावस्तुत्वापत्तेः क्षणमात्रावस्थायित्वप्रसक्तेः नच क्रमयोगपद्य-व्यतिरिक्त प्रकारान्तरं संभवतीत्यर्थक्रिया व्यापिका निवर्तमाना व्याप्यां सत्यां नित्यादप्यादाय निवर्तत इति / यत् सत्तत् सर्वमनेकान्तात्मकं सिद्धम्, अन्यथा प्रसक्तादिविरोधप्रसक्तेः / न हि भेदमन्तरेण कदाचित् कस्यचिदभेदोपलिब्धः, हर्षविषादाधनेकाकारविवर्तात्मकस्यान्तश्चैतन्यस्य संवेदनाध्यक्षतो वर्णसंस्थानसदाधनेकाकारस्य स्थूलस्य पूर्वापरस्वभावपरित्यागोपादानात्म-कस्य घटादेब हिरेकस्येन्द्रियजाध्यक्षतः संवेदनात् / सुखादिरूपादिभेदविकलतया चैतन्यघटादेः कदाचिदप्युपलम्भागोचरत्वात् महासामान्यस्यावान्तरसामान्यस्य वा सर्वगतासर्वगतधर्मात्मकता समवायस्य चानवस्थादोषतः संबन्धेतराभावात् द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषाणामन्योन्यं तादात्म्यानिष्ठौ तेष्यवृत्तेः सर्वपदार्थस्वरूपाप्रसिद्धिः स्यात् / स्वत एव समवायस्यद्रव्यादिषु वृत्तौ समवायमन्तरेणापि द्रव्यादावपि स्वाधारेषु वृत्तिं स्वत एवं तस्मात् करिष्यन्तीति समवायकल्पनावैयर्थ्यप्रसक्तिवद्भेदप्रसक्तिषडंश-. प्रतिपत्तेः / अगृहीत- स्वभावाद् गृहीतस्वभावस्य द्रव्यस्य चातद्वतां सामस्त्येन ग्रहणासंभवात् कथंतदग्रहे तद्ग्रहणं भवेत् ? अधाराप्रतिपत्तौ तदाधेयस्य तत्त्वेनाप्रतिपत्तेः / सामान्यायंशेषु गृहीतेष्वपि सामान्यादेः वृत्तिविकल्पादिदोषस्तेष्वपि पूर्ववत् समानः, तदाधेयस्य तत्त्वेनाप्रतिपत्तेः। तदंशग्रहणेऽपि च सामान्यस्य व्यापितः कदाचिदप्यप्रतिपत्तेः सव्व्यमित्यादिप्रतिपत्तिस्तद्वत्सुन कदाचिद्भवेत्, तदंशानां सामान्यादेरत्यन्तभेदात् / एवं द्रव्यादिषट्पदार्थव्यवस्थाऽप्यनुपपन्ना भवेत्, प्रतिभासगोचर- चारिणां सामान्यादंशानां पदार्थान्तरताप्रसक्तेः / अथ निरंशं सामान्यमभ्युपगम्यते इति नाऽयं दोषः, तर्हि सकलस्वा-श्रयप्रतिपत्त्यभावतो मनागपि न सामान्यप्रतिपत्तिरिति सद् द्रव्यं पृथिवीत्यादिप्रतिपत्तेर्नितरामभावः स्यात् / तदंशानां सामान्याद् भेदाभेदकल्पनायां द्रव्यादय एव भेदाभेदात्मकाः किं नाभ्युपगम्यन्तें ? इति सामान्यादिकल्पना दूरोत्सरितैवेति कुतस्त-द्वेदैकान्तकल्पना? ततः सामान्यविशेषात्मकं सर्व वस्तु, सत्त्वात् / नहि विशेषरहितं सामान्यमानं सामान्यरहितं वा विशेषमात्रं संभवति तादृशः क्वचिदपि, वृत्तिविरोधात् / वृत्त्या हि सत्त्वं व्याप्तं स्वलक्षणात्सामान्यलक्षणाद् वा तादृशाद् वृत्तिनिवृत्त्या निवर्तत एव, यतः क्वचिद् वृत्तिमतोऽपिस्वलक्षणस्य न देशान्तरवृत्तिः, नान्येन संयोगः, तत्संसर्गव्यवच्छिन्नस्वभावान्तरविरहाद्विशेषविकलः, सामान्यवत् / एकस्य प्रतिसंबन्धस्वभावविशेषाभ्युपगमविशेषाणां तत्स्वलक्षणं सामान्यलक्षणमेव स्यात्।नच विशेषैरन्यदेशस्थितैः असंयुक्तस्यैकत्रतस्य वृत्तिः, अव्यवधानाविशेषात्। एवं चस्वभावविशेषाणां सामान्य-रूपाः सर्व एव भावाः विशेषरूपाश्च तत्र देशकालावस्था-विशेषनियतानां सर्वेषामपि सत्त्वं सामान्यमेकरूपम्, अव्यवधानात् / तस्य च ते विशेषा एव, अनेकरूपम्, यतस्तदेव सत्त्वं परिणामविशेषापेक्षया गोत्वब्राह्मणत्वादिलक्षणा जातिः, परिणामविशेषाश्च तदात्मका व्यक्तय इति / परस्परव्यावृत्तानेक परिणामयोगादेकस्यैकानेकपरिणतिरूपता संशयज्ञानस्येवा-विरुद्धा व्यक्तिव्यतिरिक्तस्य सामान्यस्योपलब्धिलक्षणप्राप्तस्यानुपलब्धिः, शशशृङ्ग वदसत्त्वात् / सत्त्वरूपादिप्रत्ययः सामान्यविशेषात्मकवस्त्वभावेऽबाधितरूपो न स्यात् / न च चक्षुरादिः बुद्धौ वर्णाकृत्यक्षराकारशून्यं सामान्यपरव्यावर्णित Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणेगंतवाय 440 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अणेगंतवाय स्वरूपमवभासते, प्रतिभासभेदप्रसङ्गात् / यदि च तत्सर्वगतं पिण्डान्तरालेऽप्युपलभ्येत, स्वभावाविशेषादाश्रयाभावादनभिव्यक्त्यभ्युपगमेऽभिव्यक्तस्वरूपभेदात् सामान्यरूपता न स्यात् / न चाश्रयभावाभावादभिध्यक्त्यनभिव्यक्ति सत्प्रत्ययकत्ये नित्यैकस्वभावस्य युज्येते, तद्रूपयो गिनोऽप्येवं कथं नानैकान्तसिद्धिः? स्वाश्रयसर्वगताप्रकाशितायाः सर्वत्र प्रकाशितत्वात्मसकलवस्तुप्रपञ्चस्य सकृदुपलब्धिप्रसंगो न वा कस्यचिदुपलब्धिप्रसंगविशेषात् प्रकारान्तरेण प्रतीत्यभ्युपगमे, अनेकान्तवाद एव स्वतः सतां विशेषाणां सत्तासंबन्धानर्थक्यम्, असतां संबन्धानुपपत्तिरिति प्रसक्तेरक्रियासामान्यसंबन्धाद्व्यक्तीनामक्रियावत्वादव्यापकत्वं स्यात् / व्यक्तिव्यतिरेके व्यक्तिस्वलक्षणवत्त सामान्यमेव न भवेत् / व्यक्तीनां वा सामान्याव्यतिरेकाद् व्यक्ति स्वरूपहाने, सामान्यस्य तद्रूपता न भवेत् / न च व्यतिरेकाव्यतिरेकपक्षेऽप्यनवस्था, उभय पक्षदोषवैयधिकरण्यसंशयविरोधादिदोषप्रसङ्गात्। सर्वथा तदभावोऽनवस्थादिदोषस्य प्राक प्रतिषिद्धत्यात् / प्रतीयमानेऽपि तथा भूतेऽतिविरोदादिदोषासञ्जने प्रकारान्तरेण प्रतिभाससंभ-वात् सर्वशून्यताप्रसंगः।नच सैवास्त्विति वक्तव्यम् / स्व-संवेदनमात्रस्याप्यभावप्रसंगतो निःप्रमाणिकायाः तस्याप्यभ्यु-पगन्तुमशक्यत्वात् / तथापि तस्याभ्युपगमेन वरमनेकान्तात्मकं वस्त्वभ्युपगन्तव्यम्, तस्याबाधितप्रतीतिगोचरत्वात्। तेन रूपादिक्षणिकविज्ञानमात्रशून्यवादाऽभ्युपगमः, तथा पृथि-व्यायेकान्तनित्यत्वाभ्युपगमः, तथाऽऽत्माद्यद्वैतानङ्गीकरणं,तथा परलोकाभावनिरूपणं, द्रव्यगुणादेरत्यन्तभेदप्रतिज्ञानं च, तथा हिंसातो धर्माभ्युपगमः, यज्ञतो मुक्तिप्रतिपादनमित्याद्ये-कान्तवादिप्रसिद्धं सर्वमसत् प्रतिपत्तव्यम्, तत्प्रतिपादनहेतूनां प्रदर्शितनित्याऽनेकान्तव्याप्तत्वेन विरोधात्। इतर धर्मसव्यपेक्षस्यैकान्तवाद्यभ्युपगतस्य सर्वस्य पारमार्थिकत्वात्, अभि-ष्वङ्गादिप्रतिषेधार्थं विज्ञानमात्राद्यभिधानस्य सार्थकत्वात्। तथाहि 'अहमस्यैवाहमेवास्य' इत्येकान्तनित्यत्वस्वामिसंबन्धाद्यभिनिवेशप्रभवरागादिप्रतिषेधपरं क्षणिकरूपादिप्रतिपादनं युक्तमेव / सालम्बनज्ञानैकान्तप्रतिषेधपरं विज्ञानमात्राभिधानं सर्व विषयाभिष्वङ्ग निषेधप्रवणं शून्यताप्रकाशनं क्षणिक एवायं पृथिव्यादिरिति एकान्ताभिनिवेशमूलद्वेषादिनिषेधपरम्, तन्नित्यत्व प्रणयनं जात्यादिमदोन्मूलनानुगुणमात्माद्यद्वैतप्रका शनजन्मान्तरजनितकर्मफलभोक्तृत्वमेव धर्मानुष्ठानमित्येकान्तनिरासप्रयोग जनपरलोकाभावावबोधनं द्रव्याद्यव्यतिरेकै कान्तप्रतिषेधाय तद्भेदाख्यानम्। सम्म०।नं०। (६)येच (एकान्तवादिनोऽज्ञाः) विचेतनागमप्रतिपत्ति-मात्रमाश्रयन्ते, तेऽनवगतपरमार्था एवेति प्रतिपादयन्नाहपाडेक्कनयपहगयं, सुत्तं सुत्तधरसहसंतुट्ठा। अविकोवि असामत्था, जहागम विभाग पडिवत्ती॥१५६।। / प्रत्येकनयमार्गगतं सूत्रं क्षणिकाः सर्वसंस्कारा विज्ञान-मात्रमेवेदम्, भो जिनपुत्राः ! यदिदं त्रैधातुकमिति ग्राह्य-ग्राह्यकोभयशून्यत्वमिति, नित्यमेकं मण्डव्यापि निश्रियमित्यादि सदकारणवन्नित्यमिति "अत्मा रे! श्रोतव्यो ज्ञातव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः" इत्यादिसत्ता द्रव्यत्वसंबन्धात् / सद् द्रव्यं च, स्थितिपरलोकिनो-ऽभावात् परलोकाभावः / "चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः" / इति धर्माधर्मक्षयकरी दीक्षेत्यादिकमधीत्य सूत्रधरा वयमिति शब्दमात्रसंतुष्टा | गर्ववन्तोऽविकोविदसामर्थ्याः, अविकोविदमज्ञं सामर्थ्य येषां ते तथा, अविदितसूत्रव्यापारविषया इति यावत् / किमित्येवं त इत्याहयथाश्रुतमेवाविरुद्धा अविवे के न प्रतिपत्तिरेषामिति कृत्वा सूत्राभिधायिव्यतिरिक्त विषयवि-प्रतिपत्तित्वात् इतरजनवदज्ञा इत्यभिप्रायः। अथवा स्वयूथ्या एव एकनयदर्शने कतिचित्सूत्राण्यधीत्य केचित् सूत्रधरावयमिति गर्विता यथाऽवस्थितान्यनयसव्यपेक्षसूत्रार्थापरिज्ञानादवितथात्मविद्वत्स्वरूपा इति गाथाऽभिप्रायः // 156|| अथैषामेव नयदर्शनेन प्रवृत्तानां यो दोषस्तमुद्भावयितुमाहसम्मइंसणमिणमो,सयलसमत्तवयणिज्जणिद्दोसं। अप्पुक्कोसविणट्ठा, सलाहमाणा विणासें ति॥१५७।। सम्यग्दर्शनमेतत्परस्परविषयापरित्यागप्रवृत्तानेकनयात्मकम्, तच स्यान्नित्य इत्यादि सकलधर्मपरिसमाप्तवचनीयतया निर्दोषम्, एकनयवादिनः स्वविषयैस्तत्र व्यवस्थापनेनात्मोत्कर्षेण विनष्टा स्याद्वादाभिगमं प्रत्यनाद्रियमाणा वयं सूत्रधरा इत्यात्मानं श्लाघ्यमानाः सम्यग्दर्शनं विनाशयन्ति, तदात्मनि नयनस्थापयन्तीति यावत्। अथ नते आगमप्रत्यनीकाः, तद्भक्तत्वात, तद्देशपरिज्ञानवन्तश्चेति / / 157 / / कथं तद्विनाशयन्त्यत्राहण हु सासणभत्ती मेत्तएण सिद्धंतजाणओ होइ। ण वि जाणओ वि णियमा, पण्णवणा निच्छिओ णाम ?||158/ न च शासनभक्तिमात्रेण सिद्धान्तज्ञाता भवति / न च तदज्ञानवान् भावसम्यक्त्ववान् भवति, अज्ञानस्यार्थस्य विशिष्टरुचिविषयत्वानुपपत्तेः / तद्भक्तिमात्रेण श्रद्धानुसारितं यद् द्रव्यसम्यक्त्वमार्गानुसारि, अवबोधमात्रानुषक्तरुचिस्वभावं तु सर्व भावसम्यक्त्वसाध्यफलनिवर्तकम्, भावसम्यक्त्वनिमित्तत्वेनैव तस्य द्रव्यसम्यक्त्वमार्गानुसार्यवबोधसम्यक्त्वरूपतोपपत्तेः / न च जीवादि तत्त्वैकदेशज्ञाताऽपि नियमतोऽने कान्तात्मकवस्तुरूपप्रज्ञापनायां निश्चितो भवति, एकदेशज्ञ नवतः सकलधर्मात्मवस्तुज्ञानविकलतया सम्यक् तत्प्ररूपणासंभवात् / तथाहिसर्वज्ञो यथावस्थितैकदेशज्ञः, जीवादिसकलतत्त्वज्ञाता त्याग-मविदः सामान्यरूपतयाऽभिधीयते, मतिश्रुतयोर्निबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेष्विति वचनात्। तत्त्वं तु- "जीवाजीवाश्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षाख्याः सप्त पदार्थाः" / तत्र चेतनालक्षणो जीवः / तद्विपरीतलक्षणस्त्वजीवः, धर्माधर्माकाशकालपुद्गलभेदेन चासौ पञ्चधा व्यवस्थापितः / एतत्पदार्थद्वयान्तर्वर्तिनश्च सर्वेऽपि भावाः। न हि रूपरस-गन्धस्पर्शादयः साधारणासाधारणरूपा मूर्तचेतनाचेतनद्रव्य-गुणाः, उत्क्षेपणापक्षेपणादीनि च कर्माणि, सामान्यविशेषसमवायाश्च जीवाजीवव्यतिरेकेणाऽऽत्मस्थितिं लभन्ते / तद्भेदेनैकान्तत-स्तेषामनुपलम्भात्, तेषां तदात्मकत्वेन प्रतिपत्तेः। अन्यथा तदसत्त्वप्रसक्तैः। ततो जीवाजीवाभ्यां पृथग् जात्यन्तरत्वेन "द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायाः" न वाच्याः। एवं "प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्तावयवतर्कनिर्णयवाद जल्पवितण्भाहेत्वाभासच्छलजाति-निग्रहस्थानानि'' चन पृथगभिधेयानि / तथा - "प्रकृतेर्महाँस्त-तोऽहङ्कारस्तस्माद् गणश्च षोडशकः / तस्मादपि षोडशकात्, पञ्चभ्यः पञ्च भूतानि" / / 1 / / इति चतुर्विंशतिपदार्थाः पुरुषश्चेति न वक्तव्यम् / तथा दुःखसमुदायमार्गनिरोधाश्चत्वार्येव सत्यानीति न वक्तव्यम् / तथा Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणेगंतवाय 441 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणेगंतवाय 'पृथिव्यापस्तेजो वायुरिति तत्त्वानि' इति न वक्तव्यम् / तत्प्र- | अणेगखं भसयसण्णिविट्ठ -त्रि० (अनेकस्तम्भशतसन्निविष्ट) भेदरूपतयाऽभिधानेऽपि न दोषाः, जात्यन्तरकल्पनाया ७त। अनेकेषु स्तम्भशतेषु सन्निविष्टे / 7 ब०। यत्र वा अनेकानि एवाघटमानत्वात्, राशिद्वयेन सकलस्य जगतो व्याप्तत्वात्, तदव्याप्तस्य स्तम्भशतानि सन्निविष्टानि / 7 ब०। यत्र वा अनेकानि स्तम्भशतानि शशशृङ्गतुल्यत्वात्, शब्दब्रह्मादेकान्तस्य च प्राक् प्रतिषिद्धत्वात् / सन्निविष्टानि। भ०६श०३३ उ०। रा०। विपा०।"एगचणं महं भवणं अबाधितरूपोभयप्रतिभासस्य तथाभूतवस्तुव्य-वस्थापक स्य करेंति अणेगखंभसयसन्निविट्ठलीलट्टियसालभंजियागं'' ज्ञा० 1 अ०। प्रसाधितत्वाद्विद्या-ऽविद्योभयभेदादद्वैतकल्पनायामपि त्रित्वप्रसक्तेः / आ०म०। बाह्यालम्बन-भूतभावापेक्षयाविद्यात्वोपपत्तेः / अन्यथा अणे गगुणजाणय-त्रि० (अनेकगुणज्ञायक) अनेकेषां गुणानिर्विषयत्वेनोभयोरविशेषात् तत्प्रतिभागस्याघटमानत्वात् / न हि नामुपलक्षणत्वाद् दोषाणां च ज्ञायकः / बहुदोषाणां ज्ञायके, द्वयोर्निरालम्बनत्वे विपर्यस्ताविपर्यस्तज्ञानयोरिव विद्याऽविद्या "अणेगगुणजाणए पंडिए विहिण्णू'। जं०३ वक्ष०। त्वभेदः / ततो नाद्वयं वस्तु, नापि तद्व्यतिरिक्तमस्ति / अथा अणेगचित्त-त्रि० (अनेकचित्त) अनेकानि चित्तानि कृषिवाणिज्यावल्गश्रवादीनामप्यनुपपत्तिः, राशिद्वेयन सकलस्यव्याप्तत्वात्।न। ततस्तेषां नादीनि यस्य योऽनेकचित्तः। कृष्यादिषु व्यापृतचित्ते, आचा० 1 श्रु०३ कथञ्चिदभेदप्रतिपादनार्थत्वात् / अनयोरेव तथापरिणतयोः अ०२उ०। सकारणसंसारमुक्तिप्रतिपादनपरत्वात्। तथाऽभिधानस्यानेन वा क्रमेण तज्ज्ञानस्य मुक्तिहेतुत्व-प्रदर्शनार्थत्वात्, विप्रतिपत्तिनिरा-सार्थत्वात्, अणेगजम्म-न० (अनेकजन्मन) अनन्तभवे, पञ्चा० 8 विव०। तद्वदभिधानस्या-दुष्टत्वात्। तथाहि- आश्रवति कर्म यतः स आश्रवः, अणे गजीव-त्रि० (अनेकजीव) अनेके जीवा यस्येति / बहुकायवाङ्मनोव्यापारः / स च जीवाजीवाभ्यां कथञ्चिनिन्नः तथैव जीवाजीवात्मके क्षित्यादौ, "पुढवीचित्तमंतमक्खाया अणेग-जीवा प्रतीतिविषयत्वात्। अथ बन्धाभावे कथं तस्योपपत्तिः? प्राक्तत्सद्भावे पुढोसत्ता" / दश०४ उ०। वा न तस्य बन्धहेतुता। न हि यद्यद्विहेतुकं, तत्तदभावेऽपि भवति, अणे गजोगधर-पुं० (अनेक योगधर) योगः क्षीराश्रवादिलअतिप्रसङ्गात् / असदेतत् / पूर्वोत्तरापेक्षयान्योन्यकार्यकारण- | ब्धिकलापसंबन्धः, तंधारयन्तीति अनेकयोगधराः। लब्धिसंपन्नेषु सूत्र० भावनियमात् / न चेतरेतराश्रय-दोषः, प्रवाहापेक्षयाऽनादित्वात् / 1 श्रु० 1101 उ०। पुण्यापुण्यहेतुबन्धहेतुतया चासौ द्विविधः / अणे गझस-त्रि० (अनेक झष) विविधमत्स्येषु सूक्ष्मउत्कर्षापकर्षभेदेनानेकप्रकारोऽपि / दण्डगुप्त्यादित्रि त्वादिसंख्याद मत्स्यखलमत्स्यादिषु, प्रश्न०१ आश्र० द्वा०। भेदमासादयन् फलानुबन्ध्यननुबन्धिभेदतोऽनेक शब्दविशेषवाच्यता अणेगणरपवरभुयऽगेज्झ-त्रि० (अनेकनरप्रवरभुजाग्राह्य) अनेकस्य मनुभवति। एकान्तवादिना त्वयं नासम्भवतीति, "कम्मजोगनिमित्त' मनुष्यस्य ये प्रवराः प्रलम्बा भुजा बाहवस्तै रग्राह्योऽपरिमेयोऽगाथार्थं प्रदर्शयद्भिः प्राक् प्रतिपादितत्वात्। सम्म०। नेकनरप्रवरभुजाऽग्राह्यः / अनेकपुरुष व्यामैरप्रतिमेयथौल्ये वृक्षादौ, (10) अनेकान्तवादस्वीकाराऽस्वीकारयोः सम्यमिथ्यात्वे रा०। "इचेयं गणिपिडगं, निच्चं दव्वट्टियाएँ नायव्वं / अणेगणाम-न० (अनेकनामन) अनेकपर्यायेषु, "अणेगपरिरयति वा पञ्जाएण अणिचं, निचानिचंच सियवादो।।६।। अणेगपज्जायंति वा अणेगणामभेदंति वा एगट्ठा' 'आ० चू०१ अ०। जो सियवायं भासति, पमाणनयपेसलं गुणाधारं। भावेइ से ण णसयं, सो हि पमाणं पवयणस्स।।६।। अणेगणिग्गमदुवार-त्रि० (अनैकनिर्गमद्वार) न विद्यन्ते नैकानि बहूनि जा सियवायं निंदति, पमाणनयपेसलं गुणाधारं / निर्गमद्वाराणि निःसरणमार्गाः यत्र, ध०१ अधि०। भावेण दुट्ठभावो, नसो पमाणं पवयणस्स"६४॥तिका औ० ज्ञान अणेगतालायराणुचरिय-त्रि० (अनेकतालाचरानुचरित) अनेके च ये अणेगकोडि-त्रि० (अनेककोटि) अनेकाः कोटयो द्रव्यसङ्ख्यायां, तालाचराः तालादानेन प्रेक्षाकारिणः तैरनुचरित आसेवितो यः सतथा / स्वस्वरूपपरिमाणे वा येषां तेऽनेककोटयः / कोटिसङ्ख्याकेषु औ०। नानाविधप्रेक्षाकारिसेविते, भ०११ श०४ उ०। विपा०। पुरादौ, कौटुम्ब्यादिषु, ज्ञा०।"अणेगकोडीकुटुंबियाइण्णणिव्यसुहा" अनेकाः ज्ञा०१ अ० ज०। कोटयो द्रव्यसङ्ख्यायां, स्वस्वरूपपरिमाणे वा येषां तेऽनेककोट्यः,तैः अणेगदन्त-त्रि० (अनेकदन्त) अनेके दन्ता येषां ते अनेकदन्ताः। कौटुम्बिकैः कुटुम्बिभिः, आकीर्णा संकुला या सा तथा, सा चासौ निर्वृता द्वात्रिंशद्दन्तेषु, तं० / प्रश्न० / अनेके दन्ता येषां ते अनेकदन्ताः। च संतुष्टजनयोगात्संतोषवतीति कर्मधारयः। अत एव सा चासौ सुखाच | अनेकदन्तयुक्तेषु, तं०। शुभा च वेति कर्मधारयः॥ज्ञा० 1 अ०। औ०। रा०। अणे गदव्वक्खंध-पुं० (अनेकद्रव्यस्कन्ध) अनेकैः सचित्ताअणेगक्खरिय-न० (अनेकाक्षरिक) अनेकानि च तानि अक्षराणि | चित्तलक्षणैर्द्रव्यैर्निष्पन्नः स्कन्धः अनेकद्रव्यस्कन्धः / विशितैर्निर्वृत्तमनेकाक्षरिकम् / यक्षरादिनिवृत्त द्विनामभेदे, अनु० / “से किं टैकपरिणामपरिणतसचेतनाऽचेतनदेशसमुदायात्मके हयादि-स्कन्धे, तं अणेगक्खरिए ? अणेगक्खरिए कन्ना वीणा लता माला / से तं विशे०। अणेगक्खरिए' / अनु०।० अणे गपएसता-स्त्री० (अनेकप्रदेशता) भिन्न प्रदेशतायाम, अणेगखंडी-स्त्री० (अनेकखण्डी) अनेकेषां नश्यतां नराणां मार्गभूताः "भिन्न प्रदेशता सैवाऽनेकप्रदेशता हि या" / भिन्न प्रदेशता सैव खण्डयोऽपद्वाराणि यस्यां साऽनेकखण्डी। विपा० 103 अ० / अनेक प्रदेशस्वभावता भिन्नप्रदेशयोगेन तथा भिन्नप्रदेशअनेकनश्यत्तरनिर्गमापद्वारायां पुर्याम्, ज्ञा०१८ अ०1१११ कल्पनयाऽनेकप्रदेशयोग्यत्वमुच्यते, द्रव्या०१३ अध्या०। Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणेगंतवाय 442- अभिधानराजेन्द्रः- भाग 1 अणेगगुणजाणय अणेगपासंडपरिग्गहिय-त्रि० (अनेकपाखण्डपरिगृहीत) 3 ता० / "अणेगवायामजोग्गवग्गणवामद्दणम-ल्लयुद्धकरणेहिं संते परिस्संते" नानाविधव्रतिभिरङ्गीकृते, प्रश्न०२ संव० द्वा०। . अनेकानि यानि व्यायामयोग्यानि परिश्रमयोग्यानि वल्गनव्यामर्दनअणे गबहुविविहवीससापरिणय-त्रि० (अनेक बहुविविध- मल्लयुद्धकरणानि, तत्र वल्गनं उल्ललनं, व्यामर्दन परस्परेण विश्रसापरिणत) न एकोऽनेकः, अनेक एकजातीयोऽपि व्यक्तिभेदाद् बाहाद्यङ्गमोटनम्, मल्लयुद्धानि प्रतीतानि। एतैः कृत्या श्रान्तः सामान्येन भवति। तत आह- बहुप्रभूतं विविधो जाति-भेदान्नानाप्रकारः बहुविधः, श्रममुपगतः परिश्रान्तः सर्वाङ्गीणं श्रमं प्राप्तः, एवंविधः सन्। कल्प०। प्रभूतजातिभेदतो नानाविध इति भावः / स च केनाऽपि निष्पादितोऽपि अणेगवालसयसंकणिज्ज-त्रि० (अनेकव्यालशतशङ्कनीय) 3 त०। संभाव्येत / तत आह-विश्रसया स्वभावेन तथाविधक्षेत्रादिसामग्री- अनेकैः श्वापदशतैर्भयजनके, "अणेयवालसयसंकणिजे या वि होत्था''। विशेषजनितेन परिणतोन पुनरीश्वरादिना निष्पादितो विश्रसापरिणतः। ज्ञा०२अ01 ततः पदत्रयस्य पदद्वयमीलनेन कर्मधारयः / नानाविधस्वभावोद्भूते, | अणेगविसय-त्रि०(अनेकविषय) अनेके भूयांसो विषया गोचरा अर्था जी०३ प्रति०। वा येषां ते अनेकविषयाः / प्रभूतविषयतानिरूपित-प्रकारतावत्सु, अणेगभागत्थ-त्रि० (अनेकभागत्थ) द्विवादिभागस्थे, नि० चू० 20 द्रव्या०६ अध्या०। उ०। अणेगविहारि (ण)-त्रि०( अनेकविहारिन्) स्थविरकल्पिके, बृ०५ उ० / अणे गभाव-त्रि० (अनेकभाव) बहुपर्याययुक्ते, भ० 14 श० | अणेगसाहुपूइय-त्रि०(अनेकसाधुपूजित) अनेकसाध्वा-चरिते, दश० 4 उ०॥ 5 अ०२ उ०। अणेगभूय-त्रि० (अनेकभूत) अनेकरूपे, भ०१४ श०४ उ०। अणेगसिद्ध-पुं० (अनेकसिद्ध) एकस्मिन् समये अनेके सिद्धाः अणेगभेद-पुं० (अनेकभेद) अनेकपर्याये, "अणेगपरिरयं ति वा अनेकसिद्धाः। प्रश्न०१आश्र० द्वा०। एकसमये व्या-दिष्वष्टशतान्तेषु, अणेगपज्जयं ति वा अणेग (णाम) भेदं ति वा एगट्ठा''। आ० चू०१ अ० स्था० 1 ठा० 1 उ० / नं० / अनेके च एकस्मिन् समये सिध्यन्त अणेगरूव-त्रि० (अनेकरूप) नानाप्रकारे, "इह लोइयाई भीमाई उत्कर्षतोऽष्टोत्तरशतसंख्या वेदितव्याः। अणेगरूवाई अवि सुम्भिदुम्भिगंधाइंसद्बाई अणेगरूवाई" आचा०१ यस्मादुक्तम् - श्रु०६ अ०२ उ०। "मुहं मुहं मोहगणे जयंतं, अणेगरूवा समणं चरंत। बत्तीसा अडयाला,सट्ठी बावत्तरीय बोधव्वा। फासा फुसंती असमंजसंच, न तेसु भिक्खूमणसापओगे" ||1|| उत्त० चुलसीइ छन्नऊई,दुरहियमहत्तरसयं च / / 1 / / 1 अ० / अनेकमित्यनेकविधं परुष-विषमसंस्थानादिभेदं रूपं अस्या विनेयजनानुग्रहाय व्याख्या-अष्टौ समयान् यावस्वरूपमेषामिति अनेकरूपाः / त्रयोविंशतिविधाः / उत्त० निरन्तरमेकादयो द्वात्रिंशत्पर्यन्ताः सिद्ध्यन्तः प्राप्यन्ते / किमुक्तं 4 अ०। भवति? - प्रथम समये जघन्यत एको द्वौ वा, उत्कर्षतो द्वात्रिंशअणेगरूवधुणा-स्त्री० (अनेकरूपधुना) अनेकरूपा संख्यात्रयाद् सिद्ध्यन्तः प्राप्यन्ते, द्वितीयेऽपि समये जघन्यत एको द्वौवा, उत्कर्षतो अधिका धुना कम्पना यस्यां सा अनेकरूपधुना / उत्त०२६ अ०। द्वात्रिंशत्, एवं यावदष्टमेऽपि समये एको द्वावुत्कर्षतो द्वात्रिंशत्, ततः *अनेकरूपधूनना - अनेकरूपा चासौ संख्यात्रयातिक्रमणतो परमवश्यमन्तरम्, तथा त्रयस्त्रिंशदादयो-ऽष्टचत्वारिंशत्पर्यन्ता निरन्तरं युगपदनेकवस्त्रग्रहणतो वा धूनना कम्पनात्मिका या साऽने- सिध्यन्तः सप्त समयान् याव-त्प्राप्यन्ते परतो नियमादन्तरम्, तथा करूपधूनना / उत्त०२६ अ०। एकोनपश्चाशदादयः षष्टिपर्यन्ता निरन्तरं सिद्ध्यन्तः षट् समयान् *अनेकरूपधूना- अत्र च धून कम्पनमन्यत् प्राग्वत्। उत्त०२६ अ० / यावदवाप्यन्ते, परतोऽवश्यमन्तरम्, तथा एकषष्ट्यादयो द्विसप्ततिपर्यन्ता अनेकप्रकारं त्रयाणां पुरिमाणामुपरिष्टाळूननात्मके, अनेक-वस्त्राण्येकत्र निरन्तरं सिद्ध्यन्त उत्कर्षतः पञ्च समयान् यावदवाष्यन्ते, ततः गृहीत्वायुगपळूननात्मकेवा प्रमादप्रत्यये प्रत्युपेक्षभेदे, ध०३ अधि०। परमन्तरम्, त्रिसप्तत्यादयश्चतुरशीतिपर्यन्ता निरन्तरं सिद्धयन्त "एगा मोसा अणेगरूवधुणा"। उत्त०२६ अ०।"अणेगमपकारं कंपेति, उत्कर्षतश्चतुरःसमयान्यावत् तत ऊर्ध्वमन्तरम्। प्रज्ञा०१ पद। अन्ये अथवा अणेगाणि एगओ काऊण धुणइपमाणे पमायति''पुरिमेषु खोटकेषु तु व्याचक्षते - अष्टौ समयान् यदा नैरन्तर्येण सिद्धस्तदा प्रथमसमये यत्प्रमाणमुक्तं भवति तत् पुरिमादीन् न्यूनानधिकान् वा करोति ! ओ० जघन्येनैकः सिद्ध्यति, उत्कृष्टतो द्वात्रिंशदिति / द्वितीयसमये अणे गवयणप्पहाण-पुं० (अनेकवचनप्रधान) नानाविधवाग जघन्येनैकः, उत्कृतोऽष्टचत्वारिंशत्। तदेवं सर्वत्रजधन्येनैकः समयः, व्यवहाराभिज्ञे, अनेकेषु विविधप्रकारेषु वचनेषु वक्तव्येषु प्रधानो मुख्यः। उत्कृष्टो गाथार्थोऽयं भावनीयः 'बत्तीसेत्यादि / स्था० 1 ठा०१ उ०। अनेकधा वचनप्रकारश्चायं निजशासनप्रवर्तनादौ "आदौ तावन्मधुरं, पा०। श्रा० / न०।०। मध्ये रूक्षं ततः परं कटुकम्। भोजनविधिमिव वि-बुधाः, स्वकार्यसिद्ध्यै अणेगाहगमणिज्ज-न० (अनेकाहगमनीय) अनेकैरहोभिः अनेकाहै वदन्ति वचः" // 1 // अथवा "सत्यं मित्रैः प्रियं स्त्रीभिरलीकमधुरं द्विधा। गम्यत इति अनेकाहगमनीयम्। बहुदिवसैर्गन्तव्ये-ऽध्वनि, नि० चू०१६ अनुकूलं च सत्यं च, वक्तव्यं स्वामिना सह"|२इति।जं००३ वक्ष०। / उ०। आचा०। अणेगवायामजोग्ग-पुं० (अनेकव्यायामयोग्य) परिश्रमविशेषे, | अणेज-त्रि०(अनेज) निष्कम्पे,"अणेजकम्मुदये" आ० का Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणेगगुणजाणय 443 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अणेगवालसयसंकणिज अणेयाउय-त्रि० (अनैयायिक) न्यायेन चरति नैयायिकः, न नैयायिक | | अणोज-त्रि० (अनवद्य) निर्दोष, ज्ञा०८ अ०। अनैयायिकः।असन्न्यायवृत्तिके, "अपडिपुण्णे अणेयाउए असंसुद्धे'। | अणोज्जंगी-स्त्री० (अनवद्याङ्गी) भगवतो महावीरस्वामिनो दुहितरि सूत्र०२ श्रु०२ अ०। जमालिगृहिण्याम्, आ० म० द्वि०। आ० चू०। अणेलिस-त्रि० (अनीदृश) नाऽन्यत्र ईदृशमस्तीति अनीदृशम्। आचा० अणोज्जा-स्त्री० (अनवद्या) महावीरस्य दुहितरि, कल्प० / 1 श्रु०६ अ०१ उ० / अनन्यसदृशे अद्वितीये, सूत्र० / 'जे धम्म आ० क० आचा०। सुद्धमक्खाति, पडिपुण्णमणेलिसं"। सूत्र०१ श्रु०११ अ०। अतुले। अणोत्तप्प-त्रि० (अनवत्राप्य) अविद्यमानमवत्राप्यभवत्रपणं लज्जनं यस्य सूत्र० 1 श्रु०६अ। सोऽयमनवत्राप्योऽलज्जनीयः। अहीनसर्वा-ङ्गत्वेनालज्जाकरे, प्रव०६४ अणेवंभूय-त्रि० (अनेवभूत)। एवंप्रकारमनापन्ने, "अणेवंभूयं पि वेयणं द्वा०ादशा०। वेदंति" यथा बद्धं कर्म नैवंभूताऽनेवंभूता अतस्ताम्, श्रूयन्ते ह्यागमे- अणोत्तप्पया-स्त्री० (अनवत्रप्यता) अलज्जनीयशरीरतायाम्, व्य०६ कर्मणः स्थितिघातादय इति। भ०५ श० 5 उ०। उ०। (विशेषार्थस्तु'अणवतप्पया' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 302 पृष्ठे द्रष्टव्यः) अणेसणा-स्त्री० (अनेषणा) / ईषदर्थे नञ् / न एषणा अनेषणा। अणोद्धंसिज्जमाण-त्रि० (अनुपध्वस्यमान) माहात्म्या-दपात्यमाने, प्रमादादेषणायाम, ध०३ अधि०।"अणेसणाए पाणेसणाएपाणभायेणाए औ०। बीयभोयणाए अणेसणाए" / इदमुक्तं भवति "अणेसणाए अणन्तरेण अणोम-त्रि० (अनवम) मिथ्यादर्शनाऽविरत्यादिविपर्यस्ते, आचा०१ दोसेण संकिता अणेसणाए तुट्ठा महस्ससक्कारेण गहिता' आ० चू०४ श्रु०३ अ०२ उ०। अ०॥"से एसणं जाणमणेसणंच" एषणां गवेषणग्रहणैषणादिकांजानन् अणोमाणतर-त्रि० (अनवमानतर) अतिशयेनासङ्कीर्णे, भ० 13004 सम्यगवगच्छन्ननेषणां चोद्गमदोषादिकां तत्परिहारं विपाकं च उ०॥ सम्यगवगच्छन्। सूत्र०१ श्रु०१३ अ०। अणोरपार-त्रि० (अनर्वाक्पार) अगिभागपरभागवर्जिते, पञ्चा० अणेसणिज्ज-त्रि० (अनेषणीय) एष्यत इत्येषणीयं कल्प्यम्, 15 विव० / अलब्धाऽपरपर्यन्ते, संघा० / विस्तीर्णस्वरूपे, प्रश्न० तन्निषेधादनेषणीयम् भ०५ श०५ उ०। केनचिद्दोषेणाऽशुद्धे, सूत्र०१ 3 आश्र० द्वा० / "अणोरपारं आगासं चेव निरालंब" श्रु०६ अ०। आचा० / उत्त०। साधुनाऽग्राह्ये, उत्त०२० अ०। एष्यते महत्त्वादनर्वापारम् / प्रश्न०३ आश्र० द्वा० / "जह समिला पडभट्ठा, गयेष्यते उद्गमादिदोषविकलतया साधुभिर्यत् तदेषणीयं कल्प्यं, सागरसलिले अणोरपारम्मित्ति" अणोरपारमिति देशीयवचनं प्रचुरार्थे , तन्निषेधादनेषणीयम्।स्था० 3 ठा० 1 उ०। पिं० / 'पूर्य अणेसणिज्जं च, उपचाराद् आराद्भागपरभागरहिते, आ०म० द्वि०। तं विजं परिजाणिया''। सूत्र०१ श्रु०६ अ०।। अणोलय-देशी-क्षणरहिते, निरवसरे च। दे० ना०१ वर्ग। अनेषणीयपरिहारमधिकृत्याह अणोवणिहिया-स्त्री० (अनौपनिधिकी) न विद्यते वक्ष्यमाणभूयाइं च सहारन्म, तमुहिस्सा य जं कडं। पूर्वानुपूर्व्यादिक्रमेण विरचनं प्रयोजनं यस्य इत्यनौपपनिधिकी। तारिसंतुण गिण्हेजा, अन्नपाणं सुसंजए।।१।। द्रव्यानुपूर्विभेदे, यस्यां वक्ष्यमाणपूर्वानुपूर्व्यादिमेण विरचना न क्रियते अभूवन् भवन्ति भविष्यन्ति च प्राणिनस्तानि भूतानि प्राणिनः समारभ्य सा द्वयादिपरमाणु निष्पन्नस्कन्धविषया आनुपूर्त्या संरम्भसमारम्भारम्भैरुपतापयित्वा तं साधुमुद्दिश्य-साध्वर्थ यत्कृतं अनौपनिधिकीत्युच्यते / अनु०। तदकल्पितमाहारोपकरणादिकं तादृशमाधा-कर्मदोषदुष्टं सुसंयतः अणोवम-त्रि० (अनुपम) न विद्यते उपमा यस्यासावनुपमः / अतुले, सुतपस्वी तदन्नं पानकं वा न भुञ्जीत / तु शब्दस्यैवकारार्थत्वान्नै "अतुलसुहसागरगया अव्वाबाहं अणोवमं पत्ता"। औ०। स०। वाभ्यवहरेदेवं तेन मार्गोऽनुपालितो भवति / सूत्र०१ श्रु०८ अ०। अणोवमदंसि (ण)-पुं० (अनवमदर्शिन) अवमं हीनं मिथ्याअणेह-पुं० (अनेहस्) कालद्रव्ये, द्रव्या०१२ अध्या०। दर्शनाऽविरत्यादि, त विपर्यस्तमनवमं तद् द्रष्टुं शीलअणोउया-स्त्री० (अनृतुका) न विद्यते ऋतु रक्तरूपः, शास्त्र-प्रसिद्धो मस्येत्यनवमदर्शी / सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रवति, आचा०१ श्रु०३ अ० वा यस्याः सा अनृतुका / अरजस्कायां स्त्रियाम, यस्या ऋतुकाले मासि 2 उ० / "अरतेपयासु अणोवमदंसी णिस्सण्णो पावेहिं कम्मेहि मासि रक्तं न प्रस्रवति एतादृशी स्त्री पुरुषेण सार्द्ध गर्भ न कोहाइमाणं हणिया य वीरे"। आचा०१ श्रु०३ अ०२ उ०। धरते। स्था०५ ठा। अणोवमसरीअ-त्रि० (अनुपमश्रीक) न० ब० / निरुपमानशोभे, अणोक्कंत- त्रि० (अनुपकान्त) अनिराकृते, औ०। "अणोवमसरीआ दासीदासपरिखुडा' / ज्ञा० 8 अ०। अणोग्घसिय-न० (अनवधर्षित) अव्य० स०अवघर्षण-मवघर्षितं. | अणोवमसुह-न० (अनुपमसुख) न विद्यते उपमा स्वाभाविकाभावे क्तः प्रत्ययः, तस्याऽभावोऽनवघर्षितम् / भूत्यादिनाऽनिर्मार्जने, | त्यन्तिकत्वेन सकलव्याबाधारहितत्वेन सर्वसुखातिशा-यित्वाद्यस्य जी० 3 प्रति० / रा०। "अणोग्घ (ह) सियणिम्मलाए छायाए स ततो चेव तत्सुखमानन्दस्वरूपं यस्मिंस्तत् / मोक्षसुखे, "ठाणमणोवमसमणुबद्धा" / अनवधर्षितेन निर्मला तया छायया समनुबद्धा युक्ताः। सुहमुवगयाणं" इति। सम्म०१ काण्ड। (आदर्शकाः) जी०३ प्रति०। अणोवयमाण-त्रि०(अनवपतत्) अनवतरति, "अणोवयमा Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणेगवालसयसंकणिज 444 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अणोत्सप्य णेहिं उवयंति'' आचा०१ श्रु०२ अ०१ उ०॥ अणोवलेवय-त्रि० (अनुपलेपक) कर्मबन्धनरहिते, प्रश्न०२ आश्र० | द्वा०। अणोवसंखा-स्त्री० (अनुपसङ्ख्या ) संख्यानं संख्या, परिच्छेदः। उप सामीप्येम संख्या उपसंख्या / सम्यग्यथाऽव-स्थिताऽर्थपरिज्ञानम् / नोपसंख्या अनुपसंख्या। अपरिज्ञाने, “अणोवसंखा इति ते उदाह, अट्टे सओ भासइअम्ह एवं"। सूत्र०२ श्रु०१२ अ०। अणोवहिय-त्रि० (अनुपधिक) द्रव्यतो हिरण्यादिकवितो मायया रहिते, आचा० 1 श्रु० 4 अ०१ उ०। अणोसहिपत्त-त्रि० (अनौषधिप्राप्त) औषधिबलरहिते, आव०४ अ०। अणोसिय-त्रि० (अनुषित) अव्यवसिते, सूत्र० 1 श्रु०१४ अ० / "अणोसिएणं न करेति णच्चा'' 'ध,०३ अधि०।। अणोहंतर-पुं० (अनोघन्तर)। न ओघंतरः। संसारोत्तरणं प्रत्यनले, "अणोहंतरा एए, णय ओहतरित्तए"।आचा०१ श्रु०२ अ०३ उ०। अणोहट्टय-त्रि० (अनपघट्टक) अविद्यमानोऽपघट्टको यदृच्छया प्रवर्तमानस्य हस्तग्रहादिना निवर्तको यस्य स तथा / ज्ञा० 8 अ०। बलाद्धस्त दौ गृहीत्वा निवारकेणाऽनिवारिते स्वच्छन्दप्रवृत्ते, विपा०१ श्रु० 2 अ० / 'तवेणं सा सुभद्दा अज्जा अणोहट्टिया अणिवारिता सच्छंदमती" नि०३ वर्ग। अणो हारेमाण-त्रि० (अनवधारयत्) अनवबुध्यमाने, हा० 26 अष्ट। अणोहिया-स्त्री० (अनोघिका) अविद्यमानजलौधिकायाम्, भ० 15 श०१ उ। अनूहा-स्त्री० अतिगहनत्वेनाविद्यमानोहायाम्, “एगं महं अगामियं अणोहियं छिन्नावायं दीहमद्धं" | भ०१५ श०१ उ०। अण्ण(न)-न० (अन्न) अनित्यनेन अन्-नन् / अद्यते इति अद ते वा। "अन्नाण्णः"|४|४|८५ / इति सूत्रनिर्देशाद् अन्नार्थतया न जग्धिः। वाचाखण्डमण्डकादिके, उत्त०१२ अ०।अशने मोदकादिके भक्ष्ये, उत्त० 20 अ०। ओदनादिके, सूत्र०१ श्रु०४ अ०२ उ०। भोजने, सूत्र०१ श्रु०२ अ०। उत्त०। औ०। *अन्य-त्रि०। भिन्ने, सदृशे च / वाच०। अण्णं' पृथगित्यर्थः। नि० चू० 1 उ०। प्रश्न०। प्रज्ञा०। स्वातिरिक्ते, द्वा०२५ द्वा०। प्रश्न०। सर्वनामता चास्य, भ०२ शा० 5 उ० / "नो अण्णदेवे नो अण्णेहि देवाणं देवीओ अभिमुंजिय अभिजुंजिय परियारेइ। भ०२ श०५ न०।"अण्णेहिं बहवे एवमाइणो" औ०। रा०।०। सूत्र०ा अन्यनिक्षेपः - "अण्णे छक्कतं पुण, तदण्णमादेशओचेव" अन्यस्य नामादिषडविधो निक्षेपस्तत्र नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्याऽन्यत् त्रिधा-तदन्यत्, अन्यान्यत्, आदेशाऽन्यच्चेति, द्रव्यपरवचैवमिति। स०। *अर्ण-न० ऋ-न / अकारादौ वर्णे, गमनस्वभावे त्रि० / न० जले, / उत्त०५ अ०। *आण्य-त्रि० / अण्यते उच्चार्यत इति आण्यम् / प्रणिधेये, "तत्सवितुर्वरेण्यम्" इति / वशब्दो वाक्यालङ्कारे ज्ञेयः, रे आण्ये इत्याकारलोपः / भट्टमतेन गायत्रीव्याख्याजै० गा० / अण्णइअ-देशी-तृप्तार्थे , दे० ना० 1 वर्ग। अण्ण(न) इ (गि)लाय -पुं० (अन्नग्लायक) अन्न भोजनं विना ग्लायतीति अन्नग्लायकः। अभिग्रहविशेषात् प्रातरेव दोषान्नभुजि, औ०। प्रश्न०। सूत्र०। रायगिहे जाव एवं वयासी-जावइयं णं भंते ! अण्णगिलायए समणे निग्गंथे कम्मं णिजरेति, एवइयं कम्मं णरएस जेरइयाण वासेणं वासेहिं वा वाससएणा वा खविंति? णो इणटे समझे। जावइयं णं भंते ! चउत्थभत्तिए समणे णिग्गंथे कम्मं णिज्जरेति, एवइयं कम्मं णरएसु णेरइया वाससएणा वा वाससतेहिं वा वाससहस्सेण वा खवयंति ? णो इणढे सम8 | जावइयं णं भंते ! छट्ठभत्तिए समणे णिग्गंथे कम्मं णिज्जरेंति, एवइयं कम्म णरएसु णेरइया वाससहस्सेण वा वाससहस्से हिं वा वाससयसहस्सेण वा खवयंति? णो इणढे समढे / जावतियं णं भंते ! अट्ठमभत्तए समणे णिग्गंथे कम्मं णिज्जरेइ, एवइयं कम्म णरएसु णेरइया वाससयसहस्सेण वा वाससयसहस्सेहिं वा वासकोडीए वा खवयंति? णो इणढे समझे। जावइयं भंते ! दसमभत्तिए समणे णिग्गंथे कम्मं णिज्जरेइ, एवइयं कम्मं णरएसु णेरइया वासकोडीए वा वासकोडीहिं वा वासकोडाकोडीए वा खवयंति? णो इणढे समझे। से केणढे णं भंते ! एवं वुच्चइ? जावइयं अण्णगिलायए समणिग्गंथे कम्मं णिज्जरेइ, एवइयं कम्मं णरएसु णेरइया वासेण वा वासेहिं वा वाससएण वा णो खवयंति, जावइयं चउत्थभत्तिए एवं तं चेव पुव्वभणियं उच्चारेयव्वं जाव वासकोडाकोडीए वाणो खवयंति? गोयमा! से जहाणामए केइ पुरिसे जुण्णे जराजजरिदेहे सि-ढिलतया वलितरंगसंपिणद्धगत्ते पविरलपरिसडियदंतसेढी उण्हाभिहए तण्हाभिहए आतुरे झुझिते पिवासिए दुब्बले किलंते एगं महं कोसंवगंडियं सुक्कं जडिलं गंठिल्लं चिक्कणं वाइद्धं अपत्तियं मुंडेण परसुणा अक्कम्मेज्जा तए णं से पुरिसे महंताई सद्दाई करेइं, णो महंताई महंताई दलाई अवदालेइ, एवामेव गोयमा ! णेरइयाणं पावाई कम्माइंगाढीकयाइं चिक्कणीकयाई एवं जहा छट्ठसएजावणो महपज्जवसाणा भवंति। से जहाणामए केइ पुरिसे अहिगरणे आउडेमाणे महता जाव णो पज्जवसाणा भवंति। से जहा णामए केइ पुरिसे तरुणे बलवं जाव मेहावी णिपुणसिप्पोवगए एगं महं सामलिगंडियं उक्कं अजाडिलं अगंठिलं अचिक्कणं अवाइद्धं संपत्तियं अतितिक्खेण परसुणा अक्कमे जा, तए णं से पुरिसे णो महंताई महंताई Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणोत्तप्प ४४५-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अण्णइ सद्दाई करेइ, महंताई महंताई दलाई अवदालेइ, एवामेव (6) अदत्तादानादिक्रियाविषयेऽन्ययूथिकैः सह विप्रतिपत्तिः / गोयमा ! समणाणं णिग्गंथाणं अहाबादराई कम्माइं श्रमणानां कृता क्रिया क्रियेत न वेत्यत्र विवादः। सिढिलीकयाई णि? जाव खिप्पामेव परिविद्धत्थाई भवंति, प्राणातिपातादौ तद्विरमणादौ च वर्तमानस्य जीवस्यान्यो जावइयं तावइयं जावपज्जवसाणा भवंति। से जहा वा केइ पुरिसे सुक्के तणहत्थगं जाव तेयंसि पक्खिवेज्जा, एवं जहा छट्ठसए तहा जीवोऽन्यो जीवात्मेति विप्रतिपत्तयः। अयोकवल्ले विजाव पज्जवसाणा भवंति,से तेण? णं गोयमा ! () परिचारणा कालगतस्य निर्ग्रन्थस्य भवति न वेति विवादः। एवं वुच्चइजावइयं अण्णगिलायएसमणे णिग्गंथे कम्मं णिज्जरेइ, (10) बालबालपण्डितते अन्ययूथिकमतोक्ते ये तयोर्विवादः। तं चेव जाव कोडाकोडीए वा णो खवयंति। (11) भाषाविषयेऽन्ययूथिकानां मतोपन्यासः। (अन्नगिलायतेत्ति) अन्नं विना ग्लायतिग्लानो भवतीति अन्नग्लायकः / (12) पञ्चयोजनशतानि मनुष्यलोको मनुष्यैर्बहुसमाकीर्णः / प्रत्यग्रकूरादिनिष्पत्तिं यावद् बुभुक्षातुरतया प्रतीक्षितुमशक्नुवन् यः पर्युषितकूरादि प्रातरेव भुङ्क्ते, कूरगड्डुकप्राय इत्यर्थः / चूर्णिकारेण (13) सर्वे जीवाः अनेवंभूतां वेदनां वेदयन्ते इत्यत्र विवादः। तु निस्पृहत्वात् 'सीयकूरभोई अंतपंताहारो त्ति" व्याख्यातम् / अथ (14) शीलं श्रेयः, श्रुतं श्रेय इत्यत्रान्ययूथिकैः सह विवादः। कथमिदं प्रत्याय्यम्, यदुत नारको महाकष्टापन्नो महताऽपि कालेन (15) सर्वजीवानां सुखविषये विप्रतिपत्तयः। तावत्कर्म न क्षपयति यावत्साधुरल्पकष्टापन्नोऽल्पकालेनेति ? उच्यते (16) राजगृहनगरस्य बहिर्वभारपर्वतस्याधःस्थस्य हृदस्य विषये दृष्टान्ततः / स चायम् (से जहा नामए केइ पुरिसे त्ति) यथेति दृष्टान्ते, विप्रतिपत्तयः। नामेति संभावने, 'ए' इत्यलङ्कारे। (से त्ति) स कश्चित्पुरुषः / (जुण्णे त्ति) जीर्णो हानिगतदेहः / स च कारणवशादवृद्धभावेऽपि स्यादत आह (17) संसर्गस्तु कापिलादिभिः सहन समाचरणीय इत्यत्रा-गाढवचनम्। (जराजरियदेहे त्ति) व्यक्तम्। अत एव (सिढिलतया वलितरंगसंपिणद्धगत्ते (18) उदकवीणिकाऽन्ययूथिकैः सह न समाचरणीया। त्ति) शिथिलया त्वचा वलितरङ्गैश्च संपिनद्धं परिगतं गात्रं देहो यस्य स (16) तथाऽन्ययूथिकैरुपकरणरचना। तथा / (पविरलपरिसमियदंतसेढि त्ति) प्रविरलाः केचित्के चिच्च (20) तथा सूची प्रभृत्युपकरणान्यन्ययूथिकेन न कारयितव्यानि। परिशटिता दन्ता यस्यां सा तथाविधा श्रेणिर्दन्तानामेवं यस्य स तथा। (आउरे त्ति) आतुरो दुःस्थः (झुझिए त्ति) बुभुक्षितः / झुरितक इति (21) तथा शिक्यकादिकोपकरणकारणम् / टीकाकारः / (दुब्बले त्ति) बलहीनः (किलंते त्ति) मनःक्लमं गतः / (22) अन्ययूथिकादिभिः सह गोचरचर्याय न प्रविशेत्। एवंरूपो हि पुरुषच्छेदने असमर्थो भवतीत्येवं विशेषितः (कोसंबगंडियं (23) (दानम्) अन्ययूथिकेभ्योऽशनादि न देयम्। ति) 'कोसंव त्ति' वृक्षविशेषः, तस्य गण्डिकाखण्डविशेषस्ताम्। (जडिलं (24) तथा धातुप्रवेदनम्। ति) जटावतीं वलितोद्वलितामिति वृद्धाः1 (रोहिल्लं ति) ग्रन्थिमतीम्। (चिक्कणं ति) श्लक्ष्णस्कन्धनिष्पन्नां (वाइद्धति) व्यादिग्धां (25) तथा पादानामामर्दनप्रमार्जनम्। विशिष्टद्रव्योपदिग्धाम, वक्रामिति वृद्धाः / (अपत्तियं ति) अपात्रिकां (26) तथा पदमार्गादि। अविद्यमानाधाराम, एवं भूताच गण्डिका दुश्छेद्या भवतीत्येवं विशेषिता, (27) तथा भूतिकर्मादि मार्गप्रवेदनं च। तथा परशुरपि मुण्डोऽच्छेदको भवतीति मुण्ड इति विशेषितः / शेष (28) (वाचना) अन्ययूथिकाः पाखण्डिनो गृहिणः सुचशीला वा न तूद्देशकान्तं यावत्षष्ठशतवद्व्याख्येयमिति / भ०१६ श०३ उ०। प्रव्राजनीयाः। अण्णउत्त-त्रि० (अन्योक्त) अन्यैः अविवेकिभिः कथिते, औ०। (26) विचारभूमेर्विहारभूमेर्वा निष्क्रमणम्। अण्णउत्थिय-पुं० (अन्ययूथिक)। जैनयूथादन्यद् यूथं सङ्घान्तरं, (30) विहारः। तीर्थान्तरमित्यर्थः, तदस्ति येषां तेऽन्ययूथिकाः / उपा० 1 अ० / अर्हत्सङ् घापेक्षयाऽन्येषु, औ० / चरक परिव्राजकशाक्या (31) (शिक्षा) अन्ययूथिकस्य वा गृहस्थस्य शिल्पादिशिक्षणम् / ऽऽजीवकवृद्धश्रावकप्रभृतिषु, नि० चू०२ उ० / परतीर्थिकषु, औ० / (32) अन्ययूथिकादिभिः संघाटीसीवनम्। ज्ञा०। नि० च०। आचा० / सरजस्कादिषु, आचा० 1 श्रु०१ अ०१ (33) अन्ययूथिकादिभिः सह संभोगः। उ० / तीर्थान्तरीयेषु कपिलादिषु, ज्ञा० 10 अ०। (34) अन्ययूथिकैः सूच्युपकरणम्। (1) अन्ययूथिकाः कालोदायिप्रभृतयः। (1) तत्र अन्ययूथिकाः कालोदायिप्रभृतयः - (2) अन्ययूथिकैः सह विप्रतिपत्तिषु इहभविकस्य परभविकस्य ते णं काले णं ते णं समए णं रायगिहे नामं नयरे होत्था। वाऽऽयुषो विप्रतिपत्तिः। वण्णओ / गुणसिलए चे इए वण्णओ जाव पुढ(३) एको जीव एकस्मिन् समये द्वे आयुषी प्रकरोतीत्यत्र अन्य-यूथिकैः विसिलापट्टओ। तस्स णं गुणसिलयस्स चे इयस्स अदूरसह विवादः। सामंते बहवे अण्णउत्थिया परिवसति। तं जहा-कालोदाई, (4) चलचलितमित्यादिकर्मादिषु कुतीर्थिकैः सह वि-प्रतिपत्तिः। से लादाई, सेवालोदाई, उदए, नामुदए, अण्णवालए, (5) एकस्य जीवस्यैकस्मिन् समये क्रियाद्वयकरणेऽन्ययूथिकैः सह / सेलवाए, संखवालए, सुहत्थी, गाहावई, तए णं ते सिं विप्रतिपत्तिः। अण्णउत्थियाणं अण्णया कयाइं एगओ सहियाणं समुवागयाणं Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णइ 446 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अण्णउत्थिय सण्णिविट्ठाणं संनिसण्णाणं अयमेयारूवे मिहोकहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था / एवं खलु समणे नायपुत्ते पंचअस्थिकाएपण्णवेइ धम्मत्थिकार्य जाव आगासस्थिकायं / तत्थ णं समणे नायपुत्ते चत्तारि अस्थिकाए अजीवकाएपण्णवेइ। तंजहा-धम्मस्थिकायं अहम्मत्थिकायं आगासत्थिकायं पोग्गलत्थिकायं एगं च णं समणे नायपुत्ते जीवत्थिकायं अरूविकायं जीवकार्य पण्णवेइ। तत्थणं समणे नायपुत्ते चत्तारि अस्थिकाए अरूविकाए पण्णवेइ। तं जहा-धम्मत्थिकायं अधम्मत्थिकायं आगसत्थिकायं जीवथिकायं, एगं च णं समणे नायपुत्ते पोग्गलस्थिकायं रूवीकार्य अजीवकायं पण्णवेइ। से कहमेयं ? मन्ने एवं तेणं काले णं ते णं समए णं समणे भगवं महावीरे जाव० गुणसिलए चेइए समोसड्ढे जाव परिसा पडिगया। ते णं काले णं ते णं समए णं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्टे अंतेवासी इंदभूईनाम अणगारे गोयमगोत्तेणं एवं जहा बितिए सए नियंठुइसए जाव भिक्खायरियाए अडमाणे अहापञ्जत्तं भत्तपाणं पडिलामेमाणेपडिलाभेमाणे रायगिहाओ जाव-अतुरियमचवलं जाव चरियं सोहेमाणे सोहेमाणे तेसिं अण्णउत्थियाणं अदूरसामंतेणं वीईवयमाणं पासंति, पासइत्ताअण्णमण्णं सद्दावेति, सद्दावेइत्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं इमा कहा अविप्पकडा, अयं च णं गोयमे अदूरसामंतेणं वीईवयइ, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं गोयम एयमटुं पुच्छित्तए तिकट्टु अण्णमण्णस्स अंतिए एयमढें पडिसुणंति, परिसुणंतित्ता जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छंतित्ता भगवं गोयमं एवं वयासी - एवं खलु गोयमा ! तव धम्मायरिए धम्मोवएसए समणे नायपुत्ते पंचअस्थिकाए पण्णवेइ। तं जहा-धम्मत्थिकायं जाव आगसत्थिकायं तं चेव जाव रूविकायं अजीवकायं पण्णवेइ। से कहमेयं गोयमा ! एवं ? तए णं से भगवं गोयमे ते अण्णउत्थियं एवं वयासी-नो खलु देवाणुप्पिया! अत्थिभावं नत्थि त्ति वयामो, नत्थिभावं अत्थि त्ति वयामो, अम्हे णं देवाणुप्पिया ! सव्वं अत्थिभावं अत्थि त्ति वयामो, सवं नत्थिभावं नस्थिति क्यामो,तं चेयसाखलु तुम्मे देवाणुप्पिया! एयमé सयमेव पचुवेक्खह तिकटु ते अण्णउत्थिया एवं वयासी-जेणेव गुणसिलए चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे एवं जहा नियंठुद्देसए जाव भत्तपाणं पडिदंसेइ, पडिदंसेइत्ता समणं भगवं महावरं वंदइ नमसइ नचासण्णे जाव पञ्जुवासेइ। (तेणमित्यादि)(एगओ समुवागयाणं ति) स्थानान्तरेभ्य एकत्र स्थाने समागतानामागत्य च (सन्निविट्ठाणं ति) 1 उपविष्टानाम्, उपवेशनं चोत्कुटकत्वादिनाऽपि स्यादत आह- (सन्निसण्णाणं ति) सङ्गततया निषण्णानां सुखासीनानामिति यावत् / (अत्थिकाए त्ति) प्रदेशराशीन् (अजीवकाए ति) अजीवाश्च तेऽचेतनाः, कायाश्च राशयो अजीवकायास्तान् / 'जीवत्थिकाय' इत्येतस्य स्वरूपविशेषणायाह(अरूवकायं ति) अमूर्तमित्यर्थः / (जीवकायं ति) जीवनं जीवो ज्ञानाधुपयोगः, तत्प्रधानः कायो जीवकायोऽतस्तं कैश्चिज्जीवास्तिकायो जडतयाऽभ्युपगम्यते, अतस्तन्मतव्युदासायेदमुक्तमिति। (से कहमेयं मन्ने एवं ति) अथ कथमेतदस्तिकायवस्तु, मन्ये इति वितर्कार्थः / एवममुनाऽ-चेतनादिविभागेन भवतीति तेषां समुल्लापः (इमा कहा अविप्पकड ति) इयं कथाएषाऽस्तिकायवक्तव्यताऽप्यानुकूल्येन प्रकृता प्रक्रान्ता। अथवा न विशेषेण प्रकटा प्रतीता अविप्रकटा।"अविउप्पकड त्ति" पाठान्तरम् / तत्र अविद्वत्प्रकृता अविज्ञप्रकृता, अथवा न विशेषत उत्प्राबल्यतश्व प्रकटा अव्युत्प्रकटा। (अयं च त्ति)। अयं पुनः(तं चेयसा त्ति) यस्माद्वयं सर्वमस्तिभावमेवास्तीति वदामः, तथाविधसंवाददर्शनेन भवतामपि प्रसिद्धमिदं तत्तस्माचेतसा मनसा 'वेदस त्ति' पाठान्तरेज्ञानेन प्रमाणाबाधितत्वलक्षणेन (एयमटुं ति) अमुमस्तिकायस्वरूपलक्षणमर्थं / स्वयमेव प्रत्युपेक्षध्वं पर्यालोचयतेति। ते णं काले णं ते णं समए णं समणे भगवं महावीरे महाकहापडिवण्णे या विहोत्था। कालोदाई यतं देसंहव्वमागए कालोदाइ त्ति समणे भगवं महावीरे कालोदाइं एवं वायासी-से नूणं ते कालोदाई अण्णया कयाई एगयओ सहियाणं समुवागयाणं तहेवजाव से कहमेयं मण्णे एवं से नणं कालोदाई अटे समझे। हंता ! अत्थि। तं सच्चेणं एवमटे कालोदाई ! अहं पंच अस्थिकाए पण्णवेमि, तं जहा- धम्मत्थिकायं जाव पोग्गलत्थिकायं तत्थ णं अहं चत्तारि अस्थिकाए अजीवकाए अजीवत्ताएपण्णवेमि, तहेवजाव एगचणं अहं पोग्गलत्थिकायं रूवीकार्य पण्णवेमि, तएणं से कालोदाई समणं भगवं महावीर एवं वयासी- एएसिणं मंते ! धम्मत्थिकायंसि अधपत्थिकार्यसि आगास-स्थिकायंसि अरूवीकार्यसि अजीवकायंसि चक्किया केइ आसइत्तए वा चिट्टित्तएवा निसीइत्तएवासइत्तएवाजाव तुयट्टित्तए वा? नो इणढे समठे। कालोदाइ ! एयंसिणं पोग्गलत्थिकार्यसि रूवीकार्यसि अजीव-कायंसि चक्किया केइ आसइत्तए वा जाव तुयट्टित्तएवा। एयंसिणं भंते ! पोग्गलस्थिकायंसिरुवीकार्यसि अजीवकायंसिजीवाणं पावाणं कम्माणं पावफल-विवागसंजुत्ता कनंति ? णो इणढे समट्टे / कालोदाइ ! एयं सि णं जीवत्थिकायंसि अरू विकायंसि जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवागसंजुत्ताकचंति? हंता! कजंति। एत्थणंसेकालोदाई संबुद्धे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ / नमसत्ता एवं वयासीइच्छामि गं भंते ! तुज्झं अंतियं धम्मं निसामेत्तए एवं जहा Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णउत्थिय 447 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अण्णउत्थिय खंदए तहेव पव्वइए तहेव एक्कारस अंगाणि० जाव विहरइ, तए णं समणे भगवं महावीरे अण्णया कयाइं रायगिहाओ णयराओ गुणसिलाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ / पडिनिक्खामइत्ता | बहिया जणवयविहारं विहरइ / ते णं काले णं ते णं समए णं रायगिहे नामं नगरे गुण सिलए नामं चेइए होत्था। तएणं समणे भगवं महावीरे अण्णया कयाइं जाव समोसड्ढे जाव पडिगया, ताए णं से कालोदाई अणगारे अण्णया कयाई जेणेव समणे भगवं महावीरं तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छइत्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ / नमसइत्ता एवं वयासी(महाकहापडिवन्ने त्ति) महाकथाप्रबन्धेन महाजनस्य तत्त्वदेशना (एएसिणं ति) एतस्मिन्नुक्तस्वरूपे (चक्किया केइ त्ति) शक्नुयात्कश्चित्। (एयंसि णं भंते ! पोग्गलत्थिकायसीत्यादि) अयमस्य भावार्थः - जीवसंबन्धीनि पापकर्माणि अशुभ-स्वरूपफललक्षणविपाकदायीनि पुद्गलास्तिकायेन भवन्ति, अचेतनत्वेनानुभववर्जितत्वात्तस्य, जीवास्तिकाये एव च तानि तथा भवन्ति / अनुभवयुक्तत्वात्तस्येति प्राक्कालोदायिप्रश्नद्वारेण कर्मवक्तव्यतोक्ता ! अधुना तु तत्प्रश्नद्वारेणैव तान्येव यथा पाप-फलविपाकादीनि भवन्ति / तथोपदर्शयिषुः अत्थि णं भंते ! जीवाणं पावा कम्मा पावफल-विवागसंजुत्ता कजंति? हंता ! अस्थि / कहं णं मंते ! जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवागसंजुत्ता कज्जति ? कालोदाई ! से जहा नामए केइ पुरिसे मणुण्णंथालीपागसुद्धं अट्ठारसवंजमाउलं विसमिस्सं भोयणं मुंजेजा, तस्स भोयणस्स आवाए भद्दए भवइ, तओ पच्छा परिणाममाणे परिणाममाणे दुरूवत्ताए दुग्गंधत्ताए जहा महस्सवए जाव भुजो भुजो परिणमइ, एवामेव कालोदाई ! जीवाणं पाणाइवाए जाव मिच्छादसण-सल्ले तस्स णं आवाए मद्दए भवइ, तओ पच्छा परिणममाणे परिणममाणे दुरुवत्ताए भुजो भुजो परिणमइ, एवं मुजो भुजो कालोदाई ! जीवाणं पावा कम्मा जाव कांति / अत्थि णं मंते ! जीवाणं कल्लाणकम्मा कल्लाणफलविवागसंजुत्ता कजंति? हंताअत्थि। कहं णं भंते ! जीवाणं कल्लाणकम्मा० जाव कजंति ? कालोदाई ! से जहा नामए केइ पुरिसे मणुण्णं थाली-पागसुद्धं अट्ठारसवंजणाउलं ओसहमिस्सं भोयणं मुंजेज्जा, तस्सणं भोयणस्स आवाए नो भद्दए भवइ, तओ पच्छा परिणममाणे परिणममाणे सुरूवत्ताए सुवण्णत्ताए जाव सुहत्ताए नो दुक्खत्ताए मुजो मुजो परिणमइ, एवामेव कालोदाई ! जीवाणं पाणा-इवायवेरमणे जाव परिग्गहवेरमणे कोहविवेगे जाव मिच्छादसणसल्लविवेगे तस्स णं आवाएनो भद्दए भवइ, तओ पच्छा परिणममाणे परिणममाणे सुरूवत्ताए जाव नो दुक्खत्ताए भुजो भुजो परिणमइ। एवं खलु कालोदाई ! जीवाणं कल्लाणकम्मा० जाव कजंति। दो भंते ! पुरिसा सरिसया जाव सरिसभंडमत्तोवगरणा अण्णभण्णेणं सद्धिं अगणिकायं समारंभंति, तत्थ णं एगे पुरिसे अगाणिकायं उज्जालेइ, एगे पुरिसे अगणिकायं निव्वावेइ / एएसिंणं मंते ! दोण्हं पुरिसाणं कयरे पुरिसे महाकम्मतराए चेव महाकिरियतराए चेव महासवतराए चेव महावेयणवराए चेव ? कयरे वा पुरिसे अप्पकम्मतराए चेव जाव अप्पवेयणतराए चेव, जे वा से पुरिसे अगणिकायं उज्जालेइ, जे वा से पुरिसे अगणिकायं निव्वावेइ ? कालोदाई ! तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं उजालेइ, से णं पुरिसे महाकम्मतराए चेव जाव महावेयणतराए चेव, तत्थ णं जे से पुरिसे अग-णिकायं निव्वावेइ, से णं पुरिसे अप्पकम्मतराए चेव० जाव अप्पवेयणतराए चेव। से केणढे णं भंते ! एवं वुचइ, तत्थ णं जे से पुरिसे जाव अप्पवेयणतराए चेव / कालोदाई! तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं उज्जालेइ, से णं पुरिसे बहुतरायं पुढवीकार्य समारंभइ, बहुतरायं आउकायं समारंभइ, अप्पतरायं तेउकायं समारंभइ, बहुतरायं वाउकायं समारंभइ, बहुतरायं वणस्सइकायं समारंभइ, बहुतरायं तसकायं समारंभइ, तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं निव्वावेइ, से णं पुरिसे अप्पतरायं पुढविकायं समारंभइ, अप्पतरायं आउकायं समारंभइ, बहुतरायं तेउकार्य समारंभइ, अप्पतरायं वाउकार्य समारंभइ, अप्पतरायं वणस्सइकायं समारंभइ, अप्पतरायं तसकायं समारंभइ, से तेणढे णं कालोदाई ! जाव अप्पवेयणतराए चेव। (अस्थि णमित्यादि) अस्तीदं वस्तु यदुत जीवानां पापानि कर्माणि, पापो यः फलरूपो विपाकः, तत्संयुक्तानि भवन्तीत्यर्थः / (थालीपागसुद्ध ति) स्थाल्याम्-उखायां, पाको यस्य तत् स्थालीपाकम्, अन्यत्र हि पक्वमपक्वं वा, न तथाविधं स्यादितीदं विशेषणं शुद्धं भक्तदोषवर्जितं ततः, कर्मधारयः / स्थालीपाके न वा शुद्धमिति विग्रहः / (अट्ठारसवंजणाउलं त्ति) अष्टादश-भिलॊकप्रतीतैर्व्यञ्जनैः शालानकैः तक्रादिभिर्वा, आकुलं सङ्कीर्ण यत्तत्तथा / अथवाऽष्टादशभेदं च तद् व्यञ्जनाकुलं चेति। अत्र भेदपदलोपेन समासः / अष्टादश भेदाश्चैते - "सूओ 1 दणो 2 जवण्णं 3, तिन्नि स मंसाइँ 6 गोरसो 7 जूसो 8 / भक्खा | गुल लावणिया 10, मूलफल 11 हरियगं 12 डागो 13 // 1 // होय रसालूय 14 तहा, पाणं 15 पाणीय 16 पाणगं चेव 17 / अट्ठारसमो सागो 18, निरुवहओ लोइओ पिंडो" // 2 // तत्र मांसत्रयं जलचलादिसत्कं, जूषो मुद्गतन्दुलजीरककटुभाण्डादिरसः,भक्ष्याणि खण्डखाद्या-दीनि, गुललावणिया गुलपर्पटिका लोकप्रसिद्धा, गुडधाना वा। मूलफलान्येकमेव पदं, हरितकं जीरकादि, डाको वास्तुकादि Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णउत्थिय 448 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अण्णउत्थिय भर्जिका, रसालू मजिका, तल्लक्षणं चेदं - "दो घयपला महु पलं, दहिस्सऽद्धाढयं मिरियवीसा / दस खंडगुलपलाइं, एस रसालू निवइजोगो'' ||1|| पानं सुरादि, पानीयं जलं, पानकं द्राक्षापानकादि, शाकस्तक्रसिद्ध इति। (आवाय त्ति) आपातस्तत्प्रथमतया संसर्गः (भइए त्ति) मधुरत्वान्मनोहरः (दुरुवत्ताए त्ति) दुरूपतया हेतुभूततया (जहा महासवए त्ति) षष्ठशतस्य तृतीयोदेशको महाश्रवकस्तत्र यथेदं सूत्रं तथेहाप्यवधेयम् / (एवामेवत्ति) विष मिश्रभोजनवत्, "जीवाणं पाणाइवाए'' इत्यादौ भवतीति शेषः। (तस्सणं ति) तस्य प्राणातिपातादेः (तओ पच्छा विपरिणममाणे त्ति) ततः पश्चादापातानन्तरं विपरिणमत् परिणामान्तराणि गच्छत् प्राणातिपातादि, कार्ये कारणोपचारात् प्राणातिपातादिहेतुकं कर्म (दुरूवत्ताए त्ति) दुरूपताहेतुतया परिणमति, दुरूपतां करोती-त्यर्थः / (ओसहमिस्सं ति) औषधं महातिक्तकघृतादि / (एवामेव त्ति) औषधमिश्रभोजनवत् / (तस्स णं ति) प्राणातिपातविरमणादेः (आवाए नो भद्दए भवइ त्ति) इन्द्रियप्रतिकूलत्वात् (परिणममाणे त्ति) प्राणातिपातविरमणादि-प्रभवं पुण्यकर्म, परिणामान्तराणि गच्छद् अनन्तरं कर्माणि फलतो निरूपितानि / अथक्रिया-विशेषमाश्रित्य तत्कर्तृपुरुषद्वयद्वारेण कर्मादीनामल्पत्वबहुत्वे निरूपयति - (दोभंते! इत्यादि) (अगणिकायं समारभंति ति) तेजस्कायं समारभेते, उपद्रवयतः। ततश्चैक उज्ज्यालनेन, अन्यस्तु विध्यापनेन। तत्रोज्ज्वालने बहुतरतेजसामुत्पादेऽप्यल्पतराणां विनाशोऽप्यस्ति, तथैव दर्शनाद्।अत उक्तम्- 'तत्थ णंएगे' इत्यादि (महाकम्मतराए चेव त्ति) अतिशयेन महत् कर्म ज्ञाना-वरणादिकं यस्य स तथा, चैवशब्दः समुच्चये / एवं (महा-किरियतराए चेव त्ति) नवरं, क्रिया दाहरूपा (महासयतराए चेव त्ति) बृहत्कर्मबन्धहेतुकः। (महावेयणतराए चेव त्ति) महती वेदना जीवानां यस्मात्स तथा। अनन्तरमग्निवक्त-व्यतोक्ता। अत्थि णं मंते ! अचित्ता वि पोग्गला ओभासंति, उज्जोवेंति, तवेंति, पभासंति ? हता! अत्थि। कयरे णं भंते ! अचित्ता वि पोग्गला ओभासंति, जाव पभासंति ? कालोदाई ! कुद्धस्स अणगारस्स तेयलेस्सा निसवा समाणी दूरं गता दूरं निवतइ, देसंगता देसं निवतइ,जहिं जहिं च णं सा निवतइ तहिं तहिंच णं ते अचित्ता वि पोग्गला ओभासंति जाव पभासंति। एए णं कालोदाई ! ते अचित्ता वि पोग्गला ओभासंति / तए णं से कालोदाई अणगारे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ बहूहिं चउत्थ-छट्टट्ठम० जाव अप्पाणं भावेमाणे जहा पढमसए कालास-वोसियपुत्ते जाव सव्वदुक्खप्पहीणे सेवं भंते ! भंते ! त्ति। अग्निश्च सचेतनः सन्नवभासते, एवमचित्ता अपिपुद्गलाः किमवभासन्त इति प्रश्नयन्नाह (अत्थि णमित्यादि) (अचित्ता वित्ति) सचेतनास्तेजस्कायिकादयः तावद्वभासन्त एवेत्य-पिशब्दार्थः / (ओभासंति त्ति) प्रकाशा भवन्ति (उज्जोइंति त्ति) वस्तूद्योतयन्ति। (तवंति त्ति) तापं कुर्वन्ति (पभासंति त्ति) तथा-विधवस्तुदाहकत्वेन प्रभावं लभन्ते (कुद्धस्से त्ति) विभक्ति-विपरिणामात् क्रुद्धेन दूरं गंता (दूरं / निवयइ ति) दूरगामिनीति दूरे निपततीत्यर्थः / अथवा दूरे गत्वा दूरे निपततीत्यर्थः / (देसं ता देसं निवयइ त्ति) अभिप्रेतस्य गन्तव्यस्य क्रमशतादेर्देशे तदादौ गमनस्वभावेऽतिदेशे तदर्भादौ निपततीत्यर्थः / क्त्वाप्रत्ययपक्षो-ऽप्येवमेव / (जहिं जहिं च त्ति) यत्र यत्र दूरे वा तद्देशे वा, सा तेजोलेश्या निपतति (तहिं तहिं) तत्र तत्र दूरे तद्देशे वा (ते त्ति) तेजोलेश्या सम्बधिनः। भ०७ श० 10 उ०।। (2) अथान्ययूथिकैः सह विप्रतिपत्तयः प्रदर्श्यन्ते, (आयुः) तत्र इह भविकस्य परभविकस्य वाऽऽयुषः समये विप्रतिपत्तिः - अण्णउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति, एवं भासंति, एवं पण्णवेंति, एवं परूवेंति-एवं खलु एगे जीवे एगे णं समए णं दो आउयाइं पकरेइ / तं जहा-इहभवियाउयं च परभवियाउयं च, जं समयं इहभवियाउयं पकरेइ तं समयं परमवियाउयं पकरेइ, जंसमयं परमवियाउयं पकरेइ तं समयं इहभवियाउयं पकरेइ। इहभवियाउयस्स पक-रणयाए परभवियाउयं पक रेइ, परभवियाउयस्स पकरणयाए इहभवियाउयं पकरेइ / एवं खलु एगे जीवे एगे णं समए णं दो आउयाई पकरेइ / तं जहाइहभवियाउयं च पर भवियाउयं च / से कहमेयं भंते ? एवं गोयमा ! जं णं ते अण्णउत्थिया एवमाइक्खंति० जाव परमवियाउयं च जे ते एवमाहंसु, मिच्छं ते एवमाहंसु / अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामि० जाव परूवेमि-एवं खलु एगे जीवे एगे णं समए णं एग आउयं पकरेइ / तं जहा इहभवियाउयं वा परभवियाउयं वाजं समयं इहभवियाउयं पकरेइ, णोतं समयं परमवियाउयं पकरेइ, जं समयं परमवियाउयं पकरेइ, णो तं समयं इहभवियाउयं पकरेइ। इहमवियाउयस्स पकरणयाए णो परभवियाउयं पकरेइ, परभवियाउयस्स० णो इहभवियाउयं पकरेइ / एवं खलु एगे जीवे एगे णं समएणं एगं आउयं पकरे।। तं जहा-इहमवियाउयं वा, परमवियाउयं वा सेवं भंते ! भंते ! त्ति, भगवं गोयमे जाव विहरइ। दर्शनान्तरस्य विपर्यस्ततां दर्शयन्नाह - (अण्णउत्थिएत्यादि) अन्ययूथं विवक्षितसादपरः सधः, तदस्ति येषां ते अन्य यूथिकास्तीर्थान्तरीया इत्यर्थः / एवमिति वक्ष्यमाणं (आइक्खंति त्ति) आख्यान्ति सामान्यतः / (भासंति त्ति) विशेषतः / (पण्णवंति त्ति) उपपत्तिभिः / (परूवंति त्ति) भेदकथनतो द्वयोर्जीवयोरेकस्य वा समयभेदेनायुयकरणे नास्ति विरोध इत्युक्तम् / (एगे जीवे इत्यादि) (दो आउयाइं पकरेइ ति) जीवो हि स्वपर्याय-समूहात्मकः, स च यदैकमायुःपर्यायं करोति तदाऽन्यमपि करोति, स्वपर्यायत्वाज्ज्ञान सम्यक्त्वपर्यायवत्, स्वपर्यायकर्तृत्वंचजीवस्याभ्युपगन्तव्यमेव। अन्यथा सिद्धत्वादिपर्यायाणा-मनुत्पादप्रसङ्ग इति भावः उक्तार्थस्यैव भावनाऽर्थमाह (जमित्यादि) विभक्तिविपरिणामाद्यस्मिन्समये, इहभवो वर्तमानभवो यत्राऽऽयुषि विद्यते फलतया तदिहभवायुरेवं परभवायुरपि / अनेन चेहभवायुःकरणसमयेपरभवायुःकरणं नियमितम्।अथपरभवायुःकरणसमये इहभवायुःकरणं नियमयन्नाह- (जं समयं परभवियाउयमित्यादि) Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णउत्थिय 449 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अण्णउत्थिय एवमे कसमयकार्यतां द्वयोरप्यभिधायैक क्रियाकार्यतामाह(इहभवियाउयस्सेत्यादि) (पकरणयाए त्ति) करणेन, एवं खल्वित्यादि निगमनम् / (जणं ते अण्णउत्थिया एवमाइक्खंति) इत्याद्यनुवादवाक्यस्यान्ते तत्प्रतीतं, न केवलमित्ययं वाक्यशेषो दृश्यः / (जे ते एवमाहंसु मिच्छं ते एवमाहंसु त्ति) तत्र (आहंसु त्ति) उक्तवन्तः, यश्चायं वर्तमाननिर्देशेऽधिकृते ऽतीतनिर्देशः स सर्वो वर्तमानः कालोऽतीतो भवतीत्यस्यार्थस्य ज्ञापनार्थः, मिथ्यात्व-शास्यैवम्, एकेनाध्यवसायेन विरुद्धयोरायुषोर्बन्धायोगात् / यचोच्यते-पर्यायान्तरकरणे पर्यायान्तरं करोति, स्वपर्यायत्वादिति / तदनै कान्तिकम् / सिद्धत्वकरणे संसारित्वाकरणादिति टीकाकारव्याख्यानं तु-इहभवायुर्यदा प्रकरोति वेदयत इत्यर्थः, परभवायुस्तदा प्रकरोति प्रबध्नातीत्यर्थः, इहभवायुरुपभोगेन परभवायुर्बध्नातीत्यर्थः / मिथ्या चैतत्परमतम् / यस्माजातमात्रो जीव इहभवायुर्वेदयते, तदैव तेन यदि परभवायुर्बद्धं, तदा दानाध्ययनादीनां वैयर्थ्यं स्यादिति / एतच्चायुर्बन्धकालादन्यत्रावसेयम्। अन्यथाऽऽयुर्बन्धकाले इहभवायुर्वेदयते, परभवायुस्तु प्रकरोत्येवेति। भ०१श०६ उ०। (3) एको जीव एकस्मिन् समये द्वे आयुषी प्रकरोतीत्यत्र अन्ययूथिकैः सह विवादःअनन्तरोक्तं लवणसमुद्रादिकं सत्यं सम्यग्ज्ञानिप्रतिपादितत्वान्मिथ्याज्ञानिप्रतिपादितं त्वसत्यमपि स्यादिति दर्शय - स्तृतीयोद्देशकस्यादिसूत्रमिदमाह अण्णउत्थिया णं मंते ! एवमाइक्खंति, एवं भा-सेंति,एवं पण्णवेति, एवं परूवेति / से जहानामए जालगंठियाइ वा आणुपुस्विगंठिया अणंतरगंठिया परंपरगंठिया अण्णमण्णगंठिया अण्णमण्णगुरुयत्ताए अण्णमण्णमारियत्ताए अण्णमण्णगुरु संमारियत्ताए अण्णमण्णघडताए चिटुंति, एवामेव बहूर्ण जीवाणं बहूसु आजाइसहस्से सु बहूई आउयसहस्साई आणु पुव्विगंठियाइंजाव चिटुंति, एगे वियणं जीवे एगेणं समएणं दो आउयाइं पडिसंवेदयइ / तं जहा- इहमवियाउयं च परमवियाउयं चार्ज समयं इहमवियाउयं पडिसंवेदेइ,तं समयं परमवियाउयं पडिसंवेदेइ, जाव से कहमेयं भंते ! एवं? | गोयमा ! जंणं ते अण्णउत्थिया तं चेव जाव परमवियाउयं च जे ते एवमाहंसु ते मिच्छा? अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामिजाव अण्ण-मण्णधडत्ताए चिट्ठति, एवामेव एगमेगस्स जीवस्स बहूहिं आजाइसहस्से हिं बहू हिं आउसहस्साई आणु-पुस्विगंठियाइं जाव चिटुंति, एगे वि यणं जीवे एगेणं समएणं एग आउयं पडिसंवेदेइ / तं जहा इहमविआउय वा परमविआउयं वा / जं समयं इहमवियाउयं पडिसंवेदेइ, नो तं समयं परमवियाउयं पडिसंवेदेइ,जं समयं परमवियाउयं पडिसंवेदेइ, णो तं समयं इहमवियाउयं पडिसंवेदे / इहमवियाउयस्स पडिसंवेदणायाए णो परमवियाउयस्स पडि संवेदणा / परभवियाउयस्स पडिसंवेदणाए, णो इह भवियाउयस्स-पडिसंवेदणा। एवं खलु | जीवे एगेणं समएणं एग आउयं पडिसंवेदेन / तं जहाइहमवियाउयं वा परमवियाउयं वा। (अण्णउत्थियाणमित्यादि) (जालगंठिय त्ति) जालं मत्स्यबन्धनं, तस्यैव ग्रन्थयो यस्यां या जालग्रन्थिका / किंस्वरूपा सेत्याह(आणुपुव्विगंठिय त्ति) आनुपूर्या परिपाट्या ग्रथिता गुम्फिता आधुचितग्रन्थीनामादौ विधानादन्तोचितानांच क्रमेणान्त एव करणात् / एतदेव प्रपञ्चयन्नाह - (अणंतरगंठिय त्ति) प्रथमग्रन्थीनामनन्तरव्यवस्थापितैथिभिः सह ग्रथिता अन-न्तरग्रथिता / एवं परम्परैर्व्यवहितैः सह ग्रथिता परम्परग्रथिता / किमुक्तं भवति(अन्नमनगंठिय त्ति) अन्योऽन्यं परस्परेण एकेन ग्रन्थिना सहान्यो ग्रन्थिरन्येन च सहान्य इत्येवं ग्रथिता अन्योऽन्यग्रथिता / एवं च (अन्नमन्नगरुयत्ताए त्ति) अन्योऽन्येन ग्रन्थनाद् गुरुकता विस्तीर्णता, अन्योऽन्यगुरुकता, तया, (अन्नमन्नभारियत्ताए त्ति) अन्योऽन्यस्य यो भारः स विद्यते यत्र तदन्योऽन्यभारिकं तद्भावस्तत्ता, तया, एतस्यैव प्रत्येको-क्तार्थद्वयस्य संयोजनेन तयोरेव प्रकर्षमभिधातुमाह-(अन्नमन्नगरुयसंभारियत्ताए त्ति) अन्योऽन्येन गुरुकं यत्संभारिकं च तत्तथा, तद्भावस्तत्ता, तया (अन्नमनघड़त्ताए त्ति) अन्योऽन्यं घटा समुदायरचना यत्र तदन्योऽन्यघटं तद्वावस्तत्ता तया, (चिट्ठइत्ति) आस्ते, इति दृष्टान्तः / अथ दान्तिक उच्यते (एवामेव त्ति) अनेनैव न्यायेन बहूनां जीवानां संबन्धीनि (बहुस्सु आजाइसहस्सेसु त्ति) अनेकेषु देवादिजन्मसु प्रतिजीवं क्रमप्रवृत्तेष्वधिकरणभूतेषु बहून्यायुष्क सहस्राणि तत्स्वामिजीयाना-माजातीनां च बहु-सहस्रसंख्यानत्वात् / आनुपूर्वाग्रथितानीत्यादि पूर्ववद् ध्या-ख्येयम् / नवरमिह भारिकत्वं कर्मपुद्गलापेक्षया वाच्यम्। अर्थतेषामायुषां को वेदनविधिरित्याह - (एगे वि येत्यादि) एकोऽपि जीयः आस्तामनेक एकेन समयेनेत्यादि प्रथमशतवत्। अत्रोत्तरम् (जे ते एवमाहंसु इत्यादि) मिथ्यात्वं चैषामेवम्-यानि हि बहूनां जीवानां बहून्यायूंषिजालग्रथिकायत्तिष्ठन्ति तानि यथास्वं जीयप्रदेशेषु संबद्धानि स्युरसंबद्धानि वा ? यदि संबद्धानि, तदा कथं भिन्नभिन्नजीवस्थितानां तेषां जालग्रन्थिका कल्पना कल्पाचितुं शक्या ?, तथापि तत्कल्पने जीवानामपि जालग्रन्थिकाकल्पत्वं स्यात्, तत्संबद्धत्वात् / तथा च सर्वजीवानां सर्वायुःसंवेदनेन सर्व भवभवनप्रसङ्ग इति / अथ जीवानामसंबद्धान्यायूंषि तदा तद्वशादेवादिजन्मे ति न स्यादसंबन्धादेवेति / यचोक्तम्- एको जीव एकेन समयेन द्वे आयुषी वेदयति। तदपि मिथ्या। आयुर्द्वयसंवेदने युगपद्भवढ्यप्रसङ्गादिति। (अहं पुण गोयमेत्यादि) इह पक्षे जालग्रन्थिकासंकलिकामात्रम् / (एगमेगस्सेत्यादि) एकैकस्य जीवस्य न तु बहूनां, बहुष्वाजातिसहस्रेषु क्रमवृत्तेष्वतीतकालकेषु तत्कालापेक्षया सत्सु बहून्यायुस्सहस्राणि अतीतानि, वर्त-मानभवान्तान्यभविकमन्यभविकेन प्रतिबद्धमित्येवं सर्वाणि परस्परं प्रतिबद्धानि भवन्ति, न पुनरेकभव एव बहूनि (इहभवियाउयं व त्ति) वर्तमानभवायुः (परभवियाउयं व त्ति) परभवप्रायोग्यं यद्वर्तमानभवे निबद्धंतच परभवे गतो यदा वेदयति, तदा व्यपदिश्यते (परमवियाउयं वत्ति)। भ०५ श०३ उ०। Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णउत्थिय 450 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अण्णउत्थिय (4) (कर्म) चलंचलितमित्यादिकर्मादिषु कुतीर्थिकैः सह | वि कजंति, दुहा कज्जमाणा एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ विप्रतिपत्तिः - दुपदेसिए खंधे भवइ, तिहा कज्जमाणा तिण्णि परमाणुपोग्गला अण्णउत्थिया णं मंते ! एवमाइक्खंति०, जाव परूवेंति / एवं मवंति, एकं जाव चत्तारिपंच परमाणपोग्गला एगयओ साहणंति, खलु चलमाणे अचलिए जाव निजरिजमाणे अनिजिण्णे दो साहणित्ता खंधताए कजंति, खंधे वि य णं से असासए सया परमाणुपोग्गल एगयओ न साहणंति, कम्हा दो समियं उवचिजइ य अवचिजइ य पुट्विं भासा अभासा परमाणुपोग्गलाणं णत्थि सिणेहकाए०, दो परमाणुपोग्गला भासिज्जमाणी मासाभासा भासासमयं वितिक्कंतं च णं मासिया एगयओ न साहणं ति, तिण्णि पर-माणुपोग्गला एमयओ भासा अभासा, जा सा पुट्विं भासा अभासा भासिज्जमाणी साहणंति, कम्हा तिण्णि पर-माणुपोम्पालाएगयओ साहणंति ? मासाभासा मासासमयं वितिकतंच णं मासिया मासा अभासा, तिणि परमाणु पोग्गलाणं अत्थि, सिणे हकाए, तम्हा सा किं मासओ मासा, अमासओ भासा ? भासओ णं भासा तिण्णिपरमाणुपोग्गला एगयओ साहणंति। ते मिजमाणा दुहा सा, णो खलु सा अभासओ भासा / पुव्विं किरिया अदुक्खा वि तिहा वि कजंति, दुहा किञ्जमाणा एगयओ दिवड्डे जहा मासा तहा माणियव्वा, किरिया वि जाव करणओ णं सा परमाणुपोग्गले भवइ, एवयओ दिवड्डे परमाणुपोग्गले भवइ, तिहा दुक्खा नो खलु सा अकरणओ दुक्खा सेवं वत्तव्वं सिया, किचं कन्जमाणा तिणि परमाणुपोग्गला हवंति, एवं जाव चत्तारि पंच दुक्खं फुसं दुक्खं कज्जमाणकडं दुक्खं कटु कटु पाणभूय परमाणुपोगला एगयओसाहणंति,एगयओसाहणित्ता दुक्खत्ताए जीवसत्तावेदणं वेदंति त्ति वत्तव्द सिया। कञ्जति, दुक्खे वि य णं से सासए सयसमियं उवचिजइयं (चलमाणे अचलिय त्ति) चलत्कर्माचलितं, चलता तेन अवचिज्जइयं पुट्विं मासाभासा मासिज्जमाणी भासा अभासा चलितकार्य करणाद् वर्तमानस्य चातीततया व्यपदेष्टुमभासासमयं वितिक्कंतंचणं मासिय भासाजासा पुव्वं मासाभासा शक्यत्वादेवमन्यत्रापि वाच्यमिति / (एगयओ न साहणंति ति) एकत मासिज्जमाणी भासा अभासा भासासमयं वितिक्कंतं च णं एकत्येन एकस्कन्धतयेत्यर्थः। न संहन्येते न संहतौ मिलितौ स्याताम्। मासियामासा सा किं मासओ मासा अभासओ भासा ? (नधि सिणेहकाए त्ति) स्नेहपर्यवराशि स्तिसूक्ष्मत्वात, ज्यादियोगेतु अभासओ णं सा भासा, णो खलु सा भासओ भासा, पुट्विं स्थूलत्वात्सोऽस्ति / (दुक्खत्ताए कन्जंति त्ति) पश्चात्पुद्गलाः संहत्य किरिया दुक्खा कज्जमाणी किरिया अदुक्खा किरिया समय दुःखतया कर्मतया क्रियन्ते भवन्ती-त्यर्थः / (दुक्खे वियणं ति) कर्मापि वितिक्कंतं चणं कडा किरिया दुक्खा जा सा पुव्वं किरिया दुक्खा च (से त्ति) तत् शाश्वतमनादित्वात् / (सय त्ति) सर्वदा (समियं ति) कज्जमाणा किरिया अदुक्खा किरिया समयं विइक्वंतं च णं कडा सम्य-क्सपरिमाणं वा, चीयतेचयं याति, अपचीयते अपचयं याति, तथा किरिया दुक्खा सा किं करणओ दुक्खा अकरणओ दुक्खा, (पुध्वं ति) भाषणात्प्राग् भासति वाग्द्रव्यसंहतिः / (भास त्ति) अकरणओ णं सा दुक्खा, णो खलु सा करणओ दुक्खा, सेवं सत्यादिभाषा स्यात्तत्कारणत्यात् विभङ्ग ज्ञानित्वेन या, तेषां वत्तव्वं सिआ, अकिचं दुक्खं अफुसं दुक्खं अकञ्जमाणकडं मतमात्रमेतन्निरुपपत्तिकमुन्मत्तवचनवत् / अतो नेहोपपत्तिरत्यर्थं दुक्खं अकटु अकटु पाणभूयं जीवसत्तावेदणं वेदंति त्ति गवेषणीया / एवं सर्वत्रापीति / तथा (भासिज्जमाणी भासा अभास त्ति) वत्तव्वं सिया। निसृज्यमानवाग्द्रव्याण्यभाषा, वर्तमानसमयस्यातिसूक्ष्मत्वेन स कहमेयं मंते ! एवं ? गोयमा ! जं णं ते अण्णउत्थिया व्यवहारानङ्गत्वादिति। (भासासमयविइक्वंतं चणं ति) इहक्तप्रत्ययस्य एवमाइक्खंति० जाव वेदणं वेदंति वत्तव्वं सिया,जेते एवं आहंसु भावार्थत्वात् विभक्तिविपरिणामाच भाषा-समयव्यतिक्रमे च। (भासिय मिच्छं ते एवं आहंसु / अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि०४, त्ति) निसृष्टा सती भाषा भवति, प्रतिपाद्यस्याभिधेये प्रत्ययोत्पादएवं खलु चलमाणे चलिए जाव णिज्जरिजमाणे णिजिण्णे दो कत्वादिति। (अभासओ णं भास त्ति) अभाषमाणस्य भाषा, भाषणात् परमाणुपोग्गला एगयओ साहणंति, कम्हा दो परमाणुपोग्गला पूर्व पश्चाच तदभ्युपगमात् (नो खलु भासओ त्ति) भाष्यमाणायास्तस्या एगयओसाहणंति? दोण्हं परमाणुपोमगलाणं अत्थि सिणेहकाए, अनभ्युपगमादिति / तथा (पुव्विं किरियेत्यादि) क्रिया कायिक्यादिका तम्हा दो परमाणपोग्गला एगयओ साहणंति, ते मिज्जमाणा दुहा सा यावन्न क्रियते तावत् (दुक्ख त्ति) दुःखहेतुः (कज्जमाण त्ति) क्रियमाणा कन्जंति, दुहा कज्जामाणा एगयओ वि परमाणुपोग्गले एगयओ क्रिया न दुःखा न दुःखहेतुः क्रियासमयव्यतिक्रान्तं च क्रियायाः परमाणुपोग्गले मवइ / तिण्णि परमाणुपोग्गला एगयओ क्रियमाणता, व्यतिक्रमे च कृता सती क्रिया दुःखेति / इदमपि साहणंति, कम्हा तिण्णि परमाणुपोग्गला एगयओ साहणंति ? तन्मतमात्रमेव निरुपपत्तिकम् / अथवा पूर्व क्रिया दुःखानभ्यासात् तिण्ह परमाणुपोग्गलाणं अत्थि सिणेहकाए, तम्हा तिण्णि क्रियामाणा क्रिया न दुःखा अभ्यासात् कृता क्रिया दुःखा-नुपतापश्रमादेः परमाणुपोग्गला एगयओसाहणंति,ते भिज्जमाणा दुहा वि तिहा (करणओ दुक्ख त्ति) करणमाश्रित्य करणकाले कुर्वत इत्यर्थः / (अक Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णउत्थिय ४५१-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अण्णउत्थिय कुर्वत इत्यर्थः। (अकरणओ दुक्ख त्ति) अकरणमाश्रित्य अकुर्यत इति यावत् (नोखलु सा करणओदुक्खत्ति) अक्रियमाणत्वे दुःखतया तस्या अभ्युपगमात् / (सेवं वत्तव्वं सिया) अथ एवं पूर्वोक्तं वस्तु वक्तव्यं स्यादुपपन्नत्वादस्येति।अथान्य-यूथिकान्तरमतमाह- अकृत्यमनागतकालापेक्षया अनिर्वर्तनीयं जीवैरिति गम्यम्, दुःखमसातं तत्कारणं वा कर्म, तथा अकृत्यत्वादेवा-स्पृश्यमबन्धनीयं, तथा क्रियमाणं वर्तमानकाले कृतं, चातीतकाले तन्निषेधादक्रियमाणकृतं कालत्रयेऽपि कर्मणो बन्धनिषेधाद-कृताऽकृता / आभीक्ष्ण्ये द्विर्वचनं, दुःखमिति प्रकृतमेव / के इत्याह-प्राणभूतजीवसत्त्वाः / प्राणादिलक्षणं चेदम् - "प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ताः, भूतास्तु तरवः स्मृताः / जीवाः पञ्चेन्द्रिया ज्ञेयाः, शेषाः सत्त्वा इतीरिताः" // 1 // (वेयणं ति) शुभाशुभकर्मवेदनां पीडांवा वेदयन्त्यनुभवन्ति। इत्येतद्वक्तव्यं स्यादस्यैवोपपद्यमानत्वात् / यादृच्छिकं हि सर्वलोके सुखदुःखमिति।यदाह-"अतर्कितोपस्थितमेव सर्व, चित्रं जनानां सुखदुःखजातम् / काकस्य तालेन यथाऽभिघातो, न बुद्धिपूर्वोऽत्र वृथाऽभिमानः" ||1|| (से कहमेयं ति) अथ कथमेतत् भदन्त ! एवमन्ययूथिकोक्तन्यायेनेति प्रश्न: ? (जण्णं ते अण्णउत्थिए) इत्याधुत्तरम्। व्याख्या चास्य प्राग्वत् / मिथ्या चैतदेवं यदिचलदेव प्रथमसमये चलितं न भवेत्तदा द्वितीयादिष्वपि तदचलितमेवेति न कदाचनापि चलेदत एव वर्तमानस्यापि विवक्षया अतीतत्वं न विरुद्धम् / एतच्च प्रागेव निर्णीतमिति न पुनरुच्यते / यचोच्यते-चलितकार्याकरणादचलितमेवेति / तदयुक्तम् / यतः प्रतिक्षणमुत्पद्यमानेषु स्थासकोशादिवस्तुष्वन्त्यक्षणभाविवस्तु आद्यक्षणे / स्वकार्य न करोत्येव, असत्त्वाद्, अतो यदन्त्य-समयचलितकार्य विवक्षितं परेण तदाद्यसमयचलितं यदि न करोति तदा क इव दोषोऽत्र कारणानां स्वस्वकार्यकरणस्वभावत्वादिति / यचोक्तम्-द्वौ परमाणू न संहन्येते, सूक्ष्मतया स्नेहाभावात् / तदयुक्तम् / एकस्यापि परमाणोः स्नेहसंभवात्। सार्द्धपुद्गलस्य संहतत्वेन तैरेवाभ्युपगमाच।यत उक्तम्(तिन्नि परमाणुपोग्गला एगयओ साहणंति, ते भिज्जमाणा दुहा वि तिहा विकचंति, दुहा कज्जमाणा एगयओ दिवड्डेत्ति) अनेन हि सार्द्धपुद्गलस्य संहतत्याभ्युपगमेन तस्य स्नेहोऽभ्युपगत एवेत्यतः कथं परमाण्वोः स्नेहाभावेन सङ्घताभाव इति। यच्चोक्तम्-एकतः सार्द्ध एकतःसार्द्ध इति / एतदप्यचारु / परमाणोरर्धी करणे परमाणुत्वाभावप्रसङ्गात् / तथा यदुक्तम्-पञ्च पुद्रलाः संहताः कर्मतया भवन्ति / तदप्य-सङ्गतम्। कर्मणोऽनन्तपरमाणु-तयाऽनन्तस्कन्धरूपत्वात्पञ्चाणुकस्य च स्कन्धमात्रत्वात् / तथा कर्मजीवावरणस्वभावमिष्यते, तच कथं पञ्चपरमाणुस्कन्धमात्ररूपं सदसङ्ख्यातप्रदेशात्मकं जीवमावृणुयादिति / तथा- यदुक्तम्-कर्म च शाश्वतम् / तदप्यसमीचीनम् / कर्मणः शाश्वतत्वे क्षयोपशमाद्य-भावेन ज्ञानादीनां हानेरुत्कर्षस्य चाभावप्रसङ्गात्। दृश्येते च ज्ञानादिहानिवृद्धी। तथा यदुक्तम्-कर्म सदा चीयते अपचीयतेचेति / तदप्येकान्तशाश्तत्वेनोपपद्यत इति। यच्चोक्तम्भाषणात्पूर्वं भाषा, तद्धेतुत्वात् / तदयुक्तमेव / औपचारिकत्वात् / उपचारस्य च तत्त्यतोऽवस्तुत्वात् / किञ्च / उपचारस्तात्त्विके वस्तुनि सति भवतीति तात्त्विकी भाषाऽस्तीति सिद्धम् / यथोक्तम्-भाष्यमाणा अभाषा, वर्तमानसमयस्याव्यावहारिकत्वात्। तदप्यसम्यक् वर्तमान समयस्यैवास्तित्वेन व्यवहाराङ्ग त्यादतीतानागतयोश्च विनष्टाऽनुत्पन्नतया सत्त्वेन व्यवहारानङ्ग त्वादिति / यचोक्तम् - भाषासमयेत्यादि / तदप्यसाधु / भाप्यमाणभाषाया अभावे भाषासमय इत्यस्याप्यमिलापस्याभावप्रसङ्गात् / यश्च प्रतिपाद्यस्याभिधेये प्रत्ययोत्पादकत्वादिति हेतुः / सोऽनैकान्तिकः / करादिचेष्टानामभिधेयप्रतिपादकत्वे सत्यपिभाषात्यासिद्धेः। तथा यदुक्तम्-अभाषकस्य भाषेति। तदसङ्गततरम्। एवं हि सिद्धस्याचेतनस्य वा भाषाप्राप्तिप्रसङ्ग इति / एवं क्रियाऽपि वर्तमानकाल एव युक्ता, तस्यैव सत्त्वादिति / यचानभ्यासाऽभ्यासादिकं कारणमुक्तम् / तचानै कान्तिकम् / अनभ्यासादावपियतः काचित्सुखादिरूपैव। तथा यदुक्तम्-अकरणतः क्रिया दुःखेति / तदपि प्रतीतिबाधितम् / यतः करणकाल एव क्रिया दुःखावा सुखावा दृश्यते, न पुनः पूर्व पश्चादा, तदसत्त्वादिति। तथा यदुक्तम्- 'अकिच' मित्यादि, यदृच्छावादिमताश्रयणात् / तदप्यसाधीयः / यतो यद्यकरणादेव कर्म दुःखं सुखं वा स्यात्तदा विविधैहिकपारलौकिकानुष्ठानाभावप्रसङ्गः स्यात् / अभ्युपगतं च किश्चित्पारलौकिकानुष्ठानं तैरपिचेति एवमेवत्सर्वमज्ञानविजृम्भितम्। उक्तं च वृद्धः - "परतित्थियवत्तव्व य, पढमसए दसमयम्मि उद्देसे। विभंगीणा देसा, मइभेया या विसा सव्या / / 1 / / सबभूयमसब्भूए, भंगा चत्तारि होति विन्भंगे। उम्मत्तवायसरिसं, तो अण्णाणं ति निढ़ि।।२।।" सद्भूतेपरमाणौ असद्भूतम दि, असद्भूते सर्वगात्मनि सद्भूतं चैतन्यं,सद्भूते परमाणौ सद्भूतं निष्प्रदेशत्वं, असद्भूते सर्वगात्मनि असद्भूतमकर्तृत्वमिति 4 / (अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि) इत्यादि तु प्रतीतार्थमेवेति, नवरं (दोण्हं परमाणुपोग्गलाणं अस्थि सिणेहकाए त्ति) एकस्यापि परमाणोः शीतोष्णस्निग्धरूक्षस्पर्शाना-मन्यतरदविरुद्ध स्पर्शद्रयमेकदैवा-स्ति / ततो द्वयोरपि तयोः स्निग्धत्वभावात् स्नेहकायोऽस्त्येव / ततश्च तौ विषमस्नेहा-त्संहन्येते / इदं च परमतानुवृत्त्योक्तम् / अन्यथा रूक्षावपि रूक्षत्यवैषम्ये संहन्येते / एवं यदाह- 'समनिद्धयाइ बंधो, न होइ समलुक्खयाइ वि न होइ। वेमायलुद्धनिक्खत्तणेण बंधो उखंधाणं" // 1 // ति। (खंधे वि यणं से असासए ति) उपचयापचयिकत्वाद्। अत एवाह-(सया समियमित्यादि) (पुचि भासा अभास त्ति) भाष्यत इति भाषा, भाषणाच पूर्व न भाष्यत इति न भाषेति / (भासिञ्जमाणी भास त्ति) शब्दार्थोपपत्तेः (भासिया अभास त्ति) शब्दार्थवियोगात् / (पुट्विं किरिया अदुक्ख त्ति) करणात्पूर्व क्रियैव नास्तीत्यसत्त्वादेवचन दुःखा, सुखाऽपिनासावसत्वादेव, केवलं परमतानुवृत्त्या दुःखेत्युक्तम्, 'जहा भासे त्ति' वचनात् / (कज्जमाणी किरिया दुक्खा) सत्त्वादिहापि यत्क्रियमाणा क्रिया दुःखेत्युक्तम्, तत्परमतानुवृत्त्यैव। अन्यथा सुखाऽपि क्रियामाणैव क्रिया। तथा (किरिया समयवितिकतं च णमित्यादि) दृश्यम् / (किचं दुक्खमित्यादि) अनेन च कर्मसत्ता वेदिता, प्रमाणसिद्धत्वादस्य / तथाहि- इह यद् द्वयोरिष्टा शब्दादिविषयसुखसाधनसमेतयोरेकस्य दुःखलक्षणं फल-मन्यस्येतरत्, न तद्विशिष्टहेतुमन्तरेणसम्भाव्यते, कार्यत्वात्, घट्वत् / यश्चासौ विशिष्टो हेतुः सकर्मेति। आह च-"जोतुल्लसाहणाणं, फले विसेसोण सो विणा हे। कज्जत्तणओ गोयमा ! घडो व्व हेऊ य से कम्म" ||14 भ०१ श०१ उ०। Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णउत्थिय 452 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अण्णउत्थिय (५)(क्रिया) एकस्य जीवस्य एकेन समयेन क्रियाद्वयकरणे० पुनरप्यन्ययूथिकान्तरमतमुपदर्शयन्नाह अण्णउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति० जाव एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरियाओ पकरेइ।तं जहा-ईरियावहियं च, संपराइयं च / जं समयं ईरियावहियं पकरेइ तं समयं संपराइयं पकरेइ, जं समयं संपराइयं पकरेइ तं समयं इरियावहियं पकरेइ / ईरिया- वहियपकरणयाए संपराइयं पकरेइ, संपराइयपकरणयाइ इरियावहियं पकरेइ / एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरियाओ पकरेइ। तं जहाईरियावहियं च, संपराइयं च से कहमेयं मंते ! एवं ? गोयमा ! जण्णं ते अण्णउत्थिया एवमाइक्खंति-तं चेव जाव०1जे ते एवमाहंसु मिच्छा ते एवमाहंसु। अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि ४-एवं खलु एगे जीवे एगसमए एक्कं किरियं पकरेइ, ससमयवत्तव्वयाए नेयव्वं०जाव ईरियावहियं संपराइयं वा। (अण्णउत्थिया णमित्यादि) तत्र च (ईरियावहियं ति) ईर्या गमनं, तद्विषयः पन्था मार्ग ईर्यापथस्तत्र भवा ऐर्यापथिकी, केवलकाययोगप्रत्ययः कर्मबन्ध इत्यर्थः ।(संपराइयं च त्ति) संपरैति परिभ्रमति प्राणी भवं एभिरिति संपरायाः कषायाः, तत्प्रत्यया या सा साम्परायिकी, कषायहेतुकः कर्मबन्ध इत्यर्थः / (परउत्थिय वत्तव्यं णेयव्यं ति) इह सूत्रेऽन्ययूथिकवक्तव्यं स्वयमुचारणीयं, ग्रन्थगौरवभयेनालिखितत्यात्तस्य। तच्चेदम्- "जं समयं संपराइयं पकरेइ,तं समयं ईरियावहियं पकरेइ, ईरियावहियापकरणयाए संपराइयं पकरेइ, संपराइयपकरणयाए ईरियावहियं पकरेइ, एवं, खलु एगे जीवे एगेणं समएणे दो किरियाओ पकरेइ / तं जहा- ईरियावहियं च संपराइयं चेति ससमयवत्तव्ययाए गेयव्वं' सूत्रमिति गम्यत्।सा चैवम्-"से कहमेयंभंते ! एवं ? गोयमा! जण्णं ते अण्णउत्थियाएवमाइक्खंति 4 जाय। संपराइयंचजेतेएवमाहंसु, मिच्छा ते एवमाहंसु। अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि 4 -- एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एगं किरियं पकरेइ / तं जहा''- इत्यादि पूर्वोक्तानुसारेणाध्येयमिति / मिथ्यात्वं चास्यैवम् -ऐपिथिकी क्रिया अकषायोदयप्रभवा, इतरा तु कषायो-दयप्रभवेति, कथभेकस्यैकदा तयोः संभवः? विरोधादिति। भ०१ 2010 उ०॥ अण्णउत्थिया णं मंते ! एवमाइक्खइ, एवं मासेइ, एवं पन्नवेइ, एवं परूवेइ एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरियाओ पकरेइ / तं जहा- सम्मत्तकिरियं च, मिच्छत्तकिरियं च / जं समयं सम्मत्तकिरियं पकरेइ तं समयं मिच्छत्तकिरियं पकरेइ, जं समयं मिच्छत्तकिरियं पकरेइ, तं समयं सम्मत्तकिरियं पकरेइ / सम्मत्त-किरियापकरणयाए मिच्छत्तकिरियं पकरेइ, मिच्छत्त-किरियापकरणयाए सम्मत्तकिरियं पकरेइ / एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरियाओ पकरेइ / तं जहासम्मत्तकिरियं, मिच्छत्तकिरियं च / से कहमेयं भंते ! एवं? गोयमा ! जण्णं ते अण्णउत्थिया एवमाइक्खंति, एवं भासंति, एवं पन्नर्विति, एवं परूविंति- एवं खलु एगेणं समएणं दो किरियाओ पकरेइ, तहेव जाव सम्मत्तकिरियं च, मिच्छत्तकिरियं च / जे ते एवम हंसु तण्णं मिच्छा / अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि०जाव परूवेमि-एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एग किरियं पकरेइ। तं जहा- सम्मत्तकिरियं वा, मिच्छत्तकिरियं वा। जं समय सम्मत्तकिरियं पकरेइ णो तं समयं मिच्छत्तकिरियं पकरेइ, जं समयं मिच्छत्तकिरियं पकरेइनो तं समयं सम्मत्तकिरियं पकरेइ / सम्मत्तकिरियापकरणायाए नो मिच्छत्तकिरियं पकरेइ, मिच्छत्तकिरियापकरणयाए नो सम्मत्तकिरियं पकरेइ / एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एगं किरियं पकरेइ। तं जहा सम्मत्तकिरियं वा मिच्छत्तकिरियं वा। से तं तिरिक्खजोणीत उद्देसओ बीओ। (अन्नउत्थिया णं भंते! इत्यादि)अन्यथूथिकाअन्यतीर्थिकाः, भदन्त ! चरकादय एवमाक्षते सामान्येन एवं भाषन्ते, स्वशिष्यान् श्रवणं प्रत्यभिमुखानवबुध्य विस्तरेण व्यक्तं कथयन्ति, एवं प्रज्ञापयन्ति प्रकर्षण ज्ञापयन्ति। यथा स्वात्मनि व्यवस्थितं ज्ञान तथा परेष्वप्युत्पादयन्तीति, एवं प्ररूपयन्ति तत्त्वचिन्तायाम- संदिग्धमेतदिति निरूपयन्ति- इह खल्वेको जीव एकेन समयेन युगपद् द्वे क्रिये प्रकरोति / तद्यथासम्यक् क्रियां च सुन्दरा-ध्यवसायात्मिकाम्, मिथ्यात्वक्रि यां चासुन्दराध्यवसायात्मिका। (जं समयमिति) प्राकृतत्वात् सप्तम्यर्थे द्वितीया, यस्मिन् समये सम्यक् क्रिया प्रकरोति (तं समयमिति) तस्मिन् समये सम्यक् क्रियां प्रकरोति। अन्योऽन्यसंवलनोभयनियमप्रदर्शनार्थमाह- सम्यक्त्वप्रकरणेन मिथ्यात्वक्रियां प्रकरोति, मिथ्यात्यक्रियाप्रकरणेन सम्यक्त्वक्रियां प्रकरोति / तदुभयकरण-स्वभावस्य तत्त्वक्रियाकरणात्, सर्वात्मना प्रवृत्तेः / अन्यथाऽक्रियायोगादिति / एवं खल्वित्यादि निगमनं प्रतीतार्थम् / (से कहमेयं भंते !इत्यादि) तत्कथमेतद्भदन्त ! एवम् ? तदेवं गौतमेन प्रश्ने कृते सति भगवानाहगौतम ! यतः'णं इति' वाक्यालङ्कारे / ते अन्ययूथिका अन्यतीर्थिका एवमाचक्षते इत्यादि प्राग्वत् यावत् / तन्मिथ्या त एवमाख्यातवन्तः / अहं पुनर्गौतम ! एवमाचक्षे, एवं भाषे, एवं प्रज्ञापयामि, एवं प्ररूपयामिइह खल्येको जीव एकेन समयेन एकां क्रियां प्रकरोति / तद्यथासम्यक्त्यक्रियां वा, मिथ्यात्वक्रियां वा / अत एव यस्मिन् समये सम्यक्त्वक्रियां प्रकरोति, न तस्मिन् समये मिथ्यात्वक्रिया प्रकरोति, यस्मिन् समये मिथ्यात्वक्रियां प्रकरोति, न तस्मिन् समये सम्यक्त्वक्रियां प्रकरोति / परस्परवैविक्तयनियम-प्रदर्शनार्थमाह- सम्यक्त्यक्रियाप्रकरणेन मिथ्यात्वक्रि या प्रकरोति, मिथ्यात्वक्रियाप्रकरणेन सम्यक्त्याक्रियां प्रकरोति, सम्यक्त्व-मिथ्यात्यक्रिययोः परस्परपरिहारावस्थानात्मकतया जीवस्य तदुभयकरणस्वभावत्वा-योगात्। अन्यथा सर्वथा मोक्षाभवप्रसक्तेः कदाचिदपि मिथ्या-त्वानिवर्त्तनात् / जी०३ प्रति०। (6) अदत्तादानादिक्रियाविषयेऽन्याथिकैः सह विप्रतिपत्तिः - ते णं काले णं ते णं समये णं रायगिहे नयरे वण्णओ / Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णउत्थिय 453 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अण्णउत्थिय गुणसिलए चेइए वण्णओ० जाव पुढवीसिलावट्टओ तस्स णं गुणसिलयस्स णं चेइयस्स अदूरसामंते बहवे अण्णउत्थिया परिवसंति। ते णं समये णं समणे भगवं महावीरे आदिगरे जाव समवसढे जाव परिसा पडिगया। ते णं काले णं ते णं समए णं समणस्स भगवओ महावीरस्स बहवे अंतेवासी थेरा भगवंतो जाइसंपन्ना कुलसंपन्ना जहा बिझ्यसए० जावजीवियासा मरणभयविप्पमुक्का समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूर-सामंते उड्ढे जाणू अहो सिरा झाणकोट्ठोवगया संजमेणं तवसा अप्पाणं मावेमाणा जाव विहरंति / तए णं ते अण्णउत्थिया जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छंति। उवागच्छंतित्ताते थेरे भगवंते एवं वयासी- तुज्झे णं अज्जो ! तिविहं तिविहेणं असंजयअविरयअप्पडिहय० जहा सत्तमसए बिइओ उद्देसओ० जाव एगंतबाला यावि भवइ। तएणं ते थेरा भगवंतो ते अण्णउत्थिए एवं वयासीकेणं करणेणं अञ्जो! अम्हे तिविहं तिविहेणं असंजय अविरय० जाव एगंतबाला यावि भवामो / तए णं ते अण्णउत्थियाते थेरे मगवंते एवं वयासी-तुज्झेणं अजो! अदिण्णं गिण्हह, अदिण्णं मुंजह, अदिण्णं साइजह, तए णं ते तुज्झे अदिण्णं गेण्हमाणा, अदिण्णं मुंजमाणा, अदिण्णं साइज्जमाणा, तिविहं तिविहेणं असंजय अविरय० जाव एगंतबाला यावि भवह। तए णं ते थेरा भगवंतो ते अण्णउत्थिए एवं वयासी- केणं कारणेणं अजो ! अम्हं अदिण्णं गेण्हामो, अदिण्णं भुजामो,अदिण्णं साइजामो, तए णं अम्हे अदिण्णं गेण्हमाणा० जाव अदिण्णं साइजमाणा, तिविहं तिविहेणं असंजय० जाव एगंतबाला यावि भवामो ? तए णं ते अण्णउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी-तुज्झे णं | अञ्जो ! दिण्णमाणे अदिण्णे पडिगाहिज्जमाणे अपडिम्गहिए निसिरिजमाणे आणिसिट्टे, तुज्झेणं अजो ! दिण्णमाणं पडिम्गहणं असंपत्तं एत्थ णं अंतरा केइ अवहरिज्जा गाहावइस्स णं तं भंते ! णो खलु तं तुज्झे तए णं तुज्झे अदिण्णं गिण्हह० जाव अदिण्णं साइजह, तएणं तुज्झे अदिण्णं गिण्हमाणा० जाव एगंतबाला यावि मवह। तए णं ते थेरा भगवंतो ते अण्णउत्थिए एवं वयासी-नो खलु अञ्जो ! अम्हे अदिण्णं गिण्हामो, अदिण्णं मुंजामो, अदिण्णं साइजामो। अम्हे णं अञ्जो ! दिण्णं गिण्हामो, दिण्णं मुंजामो, दिण्णं साइजामो / तए णं अम्हे दिण्णं गिण्हमाणा, दिण्णं मुंजमाणा, दिण्णं साइजणा तिविहं तिविहेणं संजयविरयपडिहय० जहा सत्तमसए० जाव एगंतपंडिया यावि मवामो / तए णं ते अण्णउत्थिया ते थेरे भगवतं एवं वयासी- | केणं कारणेणं अजो ! तुज्झे दिण्णं गिण्हह० जाव दिण्णं साइजह / तए णं तुज्झ दिण्णं गिण्हमाणा० जाव दिण्णं साइजमाणा, एगंतपंडिया यावि मवह / तए णं ते थेरा भगवंतो ते अण्णउत्थिए एवं वयासी- अम्हे णं अजो ! दिजमाणे दिण्णं पडिगाहेजमाणे पडिग्गहिए निसिरिजमाणे निसिटे अम्हे णं अज्जो ! दिजमाणं पडिगगहगं असंपत्तं, एत्थ णं अतंरा केइ अवहरेज्जा अम्हे णं तं नो खलु गाहावइस्स तएणं अम्हे दिण्णं गिण्हामो, दिण्णं मुंजामो, दिण्णं साइज्जामो। तएणं अम्हे दिण्णं गिण्हमाणा० जाव दिण्णं साइजमाणा तिविहं तिविहेणं संजय० जाव एगंतपंडिया यावि भवामो, तुज्झे णं अज्जो ! अप्पणा चेव तिविहं तिविहेणं असंजय०जाव एगंतबालायावि भवह। तएणं ते अण्णउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी- केणं कारणेणं अज्जो ! अम्हे तिविहं० जाव एगंतबाला यावि मवामो ? तएणं ते थेरा भगवंतो ते अण्णउत्थिए एवं वयासी- तुज्झे णं अज्जो ! अदिण्णं गिण्हह 3, तए णं तुज्झे अदिण्णं गेण्हमाणा० जाव एगंतबाला यावि भवह। तए णं ते अण्णउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी- केणं कारणेणं अञ्जो ! अम्हे अदिण्णं गिण्हामो० जाव एगंतबालाया वि भवामो ? तए णं ते थेरा भगवंतो ते अण्णउत्थिए एवं वयासी- तुज्झेणं अजो ! दिजमाणे अदिण्णे तं चेवं जाव गाहावइस्स णं तं नो खलु तं तुज्झे तएणं तुज्झे अदिण्णं गिण्हह। तं चेव जाव एगंतबाला यावि भवइ। तए णं ते अण्णउत्थियाथेरे भगवंते एवं वयासी तुज्झे णं अञ्जो! तिविहं तिविहेणं असंजय० जाव एगंतबाला यावि भवह। तएणं ते थेरा भगवंतो ते अण्णउत्थिए एवं वयासी- केणं कारणेणं अम्हे तिविहं तिविहेणं० जाव एगंतबाला यावि भवामो ? तए णं ते अण्णउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी-तुज्झे णं अजो! रीय रीयमाणा पुढवीं पेचेह, अमिहणह, वत्तेह, लेसेह, संघाएह, संघट्टेह, परितावेह, किलामेह, उवद्दवेह, तए णं तुज्झे पुढवी पेचेमाणा अमिहणमाणा० जाव उवद्दवेमाणा तिविहं तिविहेणं असंजयअविरय० जाव एगंतबाला यावि भवह। तएणं ते थेरा भगवंतो! ते अण्णउत्थिए एवं वयासी-नो खलु अजो! अम्हे रीयं रीयमाणा पुढवीं पेचेमो अभिहणामो० जाव उवद्दवेमो, अम्हे णं अज्जो ! रीयं रीयमाणा कायं वा जोगं वा रीयं वा पडुच देसं देसेणं वयामो, पदेसं पदेसेणं वयामो, तेणं अम्हे देसं देसेणं वयमाणा पदेसं पदेसेणं वयमाणा, नो पुढवीं पेचेमो अमिहणामो० जाव उवहवेमो, तए णं अम्हे Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णउत्थिय 454 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अण्णउत्थिय पुढवीं अपेचेमाणा अणमिहणमाणा० जाव अणोद्दवेमाणा, तिविहं इत्यर्थः / (उवद्दवेह त्ति) उपद्रवयथ, मारयथ इत्यर्थः / (कायं व त्ति) तिविहेणं संजय० जाव एगंतपडिया यावि भवामो? तुज्झे णं कायं शरीरं प्रती-त्योचारादिकायकार्यमित्यर्थः / (योग व त्ति) योगं अञ्जो ! अप्पणा चेव तिविहं तिविहेणं असंजय० जाव बाला ग्लान-वैयावृत्त्यादिव्यापार प्रतीत्य (रीयं वा पडुच्च त्ति) ऋतं सत्यं यावि भवह। तए ण ते अण्णउत्थिया थेरे भगवंते एव वयासी- प्रतीत्याप्कायादिजीवसंरक्षणलक्षणं संयममाश्रित्येत्यर्थः / केणं करणेणं अञ्जो ! अम्हे तिविहं तिविहेणं एगंतबाला यावि (देसंदेसेणं वयामोति) प्रभूतायाः पृथिव्याये विवक्षिता देशा-स्तैजामो भवामो ? तए णं ते थेरा भगवंतो अण्णउत्थिए एवं वयासी-- नाविशेषेणेर्यासमितिपरायणत्वेन सचेतनदेश परिहारतोऽचेतनदेशैर्घजाम तुज्झे णं अज्जा! रीयं रीयमाणा पुढवीं पेचेह० जाव उवद्दवह। इत्यर्थः / एवं (पदेसंपदेसेणं वयामो) इत्यापि, नवरं देशोभूमेर्महत्खण्डम्, तए णं तुज्झे पुढवीं पेचेमाणा० जाव उवद्दवेमाणा तिविहं प्रदेशस्तु लघुतरमिति / अथोक्तगुणयोगेन नास्माकमिवैषां तिविहेणं० जावएगंतबालायाविभवहातएणं ते अण्णउत्थिया गमनमस्तीत्यभिप्रायतः स्थविरा यूयमेव पृथिव्याक्रमणादितोऽथेरे भगवंते एवं वयासी- तुज्झे णं अज्जो ! गममाण अगए संयतत्वादिगुणा इति प्रतिपादनाया-ऽन्ययूथिकान् प्रत्याहुः - (तुज्झे वीइक्कमिजमाणे अवीइकंते रायगिहं नगरं संपाविउकामे णं अजो! इत्यादि) भ०८ श०७ उला असंपत्ते, तएणं ते थेरा भगवंतो ते अण्णउत्थिए एवं वयासी प्राग्गमनमाश्रित्य विचारः कृतोऽथ तदेवाश्रित्याऽन्ययूथिनो खलु अञ्जो! अम्हेगममाणे अगए वीइक्कमिजमाणे अवीइकते कमतनिषेधतः स एवोच्यतेरायगिहं नगरं जाव असंपत्ते अम्हे णं अजो ! गममाणे गए वीइक्कमिजमाणेऽवीइक्कंते रायागहं नगरं संपाविउकामे संपत्ते ते णं काले णं ते णं समए णं रायगिहे०जाव पुढवीसिलापट्टए तुज्झ णं अप्पणा चेव गममाणे अगए विइक्कमिजमाणे वीइकते तस्स णं गुणसिलस्सचेइयरस अदूरसामंते बहवे अण्णउत्थिया परिवसंति। तएणं समणे भगवं महावीरे०जाव समोसले० जाव रायगिहं नगरं जाव असंपत्ते तए णं ते थेरा भगवंतो अण्णउत्थिए एवं पडिहणंति / एवं पडिहणेत्ता गइप्पवायनामं परिसा पडिगया / ते ण काले णं ते णं समए णं समणस्स अज्झयणं पण्णवइंसु। भगवओ महावीरस्स जेद्वे अंतेवासी इंदभूई णामं अणगारे जाव उड्ढे जाण जाव विहरइ।तएणं ते अण्णउत्थिया जेणेव भगवं (तेणमित्यदि) तत्र (अजो त्ति) हे आर्याः ! (तिविहं तिविहेणं ति) त्रिविधं गोयमे तेणेव उवागच्छइ 1 उवागच्छइत्ता मगवं गोयमं एवं करणादिकं योगमाश्रित्य त्रिविधेन मनःप्रभृतिकरणेन (अदिण्णं साइजइ वयासी- तुज्झे णं अञ्जो ! तिविहं तिविहेणं असंजय० जाव त्ति) अदत्तं स्वदध्ये अनुमन्यध्व इत्यर्थः। (दिजमाणे अदिण्णे इत्यादि) एगंतबाला यावि मवह / तए णं भगवं गोयमे तए अण्णउत्थिए दीयमानमदत्तं दीयमानस्य वर्त-मानकालत्वाद्दत्तस्य च अतीतकालव एवं क्यासी-सेकेणं कारणेणं अञ्जो ! अम्हे तिविहं तिविहेण र्तित्वाद् वर्तमानातीत-योश्चात्यन्तं भिन्नत्वाद्दीयमानं दत्तं न भवति / दत्तमेव दत्तमिति व्यपदिश्यते। एवं प्रतिगृह्यमाणादावपि। तत्र दीयमानं असंजय० जाव एगंतबालाया वि भवामो ? तए णं ते दायका-पेक्षया, प्रतिगृह्यमाणं ग्राहकापेक्षया, निसृज्यमानं क्षिप्यमाणं अण्णउत्थिया भगवं गोयम एवं वयासी- तुज्झे णं अञ्जो ! रीयं पात्रापेक्षयेति (अंतरे त्ति) अवसरे / अयमभिप्रायः - यदि दीयमानं रीयमाणा पाणं पेचेह, अभिहणह० जाव उद्दवेह / तए णं तुज्झे पात्रेऽपतितं सद्दत्तं भवति तदा तस्य दत्तस्य सतः पात्रपतनलक्षणं ग्रहणं पाणे पेचमाणा जाव उद्दवेमाणा तिविहं० जाव एगंतबाला यावि कृतं भवति / यदा तु तद्दीयमानमदत्तं, तदा पात्रपतनलक्षणं भवह / तए णं भगवं गोयमे ते अण्णउत्थिए एवं वयासी-णो ग्रहणमदत्तस्येति प्राप्तमिति / निर्ग्रन्थोत्तरवाक्ये तु-(अम्हे णं खलु अञ्जो ! अम्हे रीयं रीयमाणा पाणा पेञ्चेमो० जाव उहवेमो अञ्जो ! दिज्जमाणे दिन्ने) इत्यादि यदुक्तं, तत्र क्रियाकालनिष्ठा अम्हे णं अञ्जो ! रीयं रीयमाणा कायं च जोयं च रीयं च पडुच कालयोरभेदाद्दीयमानत्वादेर्दत्तत्वादिसमवसेयमिति / अथ दिस्सा पदेस्सा वयामो, तएणं अम्हे दिस्सा दिस्सा वयमाणा दीयमानमदत्तमित्यादेर्भवन्मतत्वाद् यूयमे वासं यतत्यादिगुणा पदिस्सा पदिस्सा वयमाणाणो पाणे पेचेमो०जावणो उद्दवेमो, इत्यावेदनायाऽन्ययूथिकान्प्रति स्थविराः प्राहुः / (तुज्झे णं अज्जो ! तए णं अम्हे पाणे अपेचमाणा० जाव अणोद्दवेमाणा तिविहं अप्पणा चेवेत्यादि) (रीयं रीयमाण त्ति) रीतं गमनं, रीयमाणा गच्छन्तो, तिविहेणं० जाव एपंतपंडिया वि० जाव भवामो, तुब्मेणं अञ्जो! गमनं कुर्वाणा इत्यर्थः / (पुढवीं पेचेह त्ति) पृथिवीं आक्रामयथेत्यर्थः / अप्पणो चेव तिविहं तिविहेणं० जाव एगंतबाला यावि मवह / (अभिहणह त्ति) पादाभ्यामाभिमुख्येन हथ (वत्तेह त्ति) पादाभिघातं तएणं ते अण्णउत्थिया भगवं गोयम एवं वयासी-केणं कारणेणं नैव वर्तयथ, श्लक्ष्णतां नयथ (लेसेह त्ति) श्लेषयथ, भूम्यां श्लिष्टान् अञ्जो ! अम्हे तिविहं० जाव विभवामो? तएणं भगवं गोयमे ते कुरुथा। (संघाएह ति) संघातयथ, संहतान् कुरुथ / (संघट्टेह त्ति) अण्णउत्थिए एवं वयासी-तुम णं अजो ! रीयं रीयमाणा पार्ण संघट्टयथस्पृशथ। (परितावेह त्ति) परितापयथ, समन्ताज्जातसन्तापान् पेचेह० जाव उद्दवेह,तएणं तुब्भे पाणे पेचमाणा० जाव उद्दवेमाणा कुरुथ / (किलामेह त्ति) क्लमयथ, मारणान्तिकसमुद्घातं गमयथ | तिविहं० जाव एगंतबाला यावि भवह। तए णं भगवं गोयमे ते Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णउत्थिय 455 - अभिधानराजेन्द्रः- भाग 1 अण्णउत्थिय अण्णउत्थिए एवं पडिहणइ / पडिहणइत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता समणं भगवं महावीरं वदंइणमंसइ णचासणे जाव पञ्जवासइ गोयमादि समणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं वयासी- सुतु णं तुम्ह गोयमा ! ते अण्णउत्थिए एवं वयासी-साहुणं तुमंगोयमा ! ते अण्णउत्थिए एवं क्यासी- अत्थि णं गोयमा ! ममं बहवे अंतेवासी समणा णिग्गंथा छउमत्था जे णं णो पभू एयं वागरणं वागरेत्तए जहा णं तुमं तं सुठु णं तुम गोयमा ! ते अण्णउत्थिए एवं वयासीसाहुणं तुमं गोयमा ! ते अण्णउत्थिए एवं वयासी। (पेचेह त्ति) आक्रामथ (कायं च त्ति) देहं प्रतीत्य व्रजाम इति योगः / देहश्चेद्रमनशक्तो भवति, तदा व्रजामो नान्यथा, अश्वशकटादिनेत्यर्थः / योगं च संयमव्यापारं ज्ञानाद्युपष्टम्भकम्, प्रयोजनं मिक्षाऽटनादि, न तं विनेत्यर्थः। (रीयं च त्ति) गमनं च अत्यरितादिकं गमनविशेषं प्रतीत्याश्रित्य कथमित्याह- (दिस्सा दिस्स त्ति) दृष्ट्या दृष्ट्वा / (पदिस्सा पदिस्स त्ति) प्रकर्षेण दृष्ट्वा दृष्ट्वा / भ०१८ श० 8 उ० (7) श्रमणानां कृता क्रिया क्रियेत? नवा ? इत्यत्र विवादः - अण्णउत्थियाणं भंते ! एवमाइक्खइ, एवं भासेइ, एवं परूवेइकहण्णं समणा णं निम्गंथा णं किरिया कजंति ? तत्थ जा सा कडा कलइ णो तं पुच्छंति 1, तत्थ जा सा कडा णो कज्जइणो तं पुच्छंति 2, तत्थ जा सा अकडा कञ्जइ तं पुच्छंति 3, तत्थ जा सा अकडाणो कज्जइणोतं पुच्छंति से एवं वत्तव्वं सिया अक्किचं दुक्खं, अफुसं दुक्खं, अकज्जमाणकडं दुक्खं, अकटु अकट्टु पाणा भूया जीवा सत्ता वेयणं वेयंति, वत्तव्वं जे ते एवमाहंसु / ते मिच्छा। अहं पुण एवमाइक्खामि, एवं मासामि, एवं पन्नवेमि, एवं परूवेमि-किच्चं दुक्खं किज्जमाणं कडं दुक्खं कटु कट्टु पाणा भूया जीवा सत्ता वेयणं वेयंति त्ति वत्तव्वं सिया। "अन्नउत्थियेत्यादि" प्रायः स्पष्टम्, किन्त्यन्यतीर्थिका इह तापसा विभङ्ग ज्ञानवन्त एवं वक्ष्यमाणप्रकारमाख्यान्ति सामान्यतो भाषन्ते, विशेषतः क्रमेणैतदेव प्रज्ञापयन्ति प्ररूपयन्तीति पर्यायरूपपदद्वयेनोक्त मिति / अथवाऽऽख्यान्तीषद्भाषन्ते, व्यक्तभाषया प्रज्ञापयन्ति, उपपत्तिभिर्बोधयन्ति प्ररूपयन्ति प्रभेदादिकथनत इति / किं तदित्याह- कथं केन प्रकारेण श्रमणानां निर्ग्रन्थानां मत इति शेषः / क्रियत इति क्रिया कर्म, सा क्रियते भवति दुःखायेति विवक्षेति प्रश्नः / इहचत्वारो भङ्गाः। तद्यथा-कृता क्रियते विहितं सत्कर्म दुःखाय भवतीत्यर्थः (1) एवं कृतान कियते (2) अकृता क्रियते ((3) अकृता न क्रियत इति (4) / एतेष्वनेन प्रश्नेन यो भङ्गः प्रष्टुमिष्टस्तं शेषभङ्ग निराकरणपूर्व-कमभिधातुमाह- (तत्थ त्ति) तेषु चतुर्षु भङ्ग केषु मध्ये प्रथम द्वितीयं चतुर्थं च न पृच्छन्ति / एतत्त्रयस्यात्यन्तरुचेरविषयता तत्प्रश्नस्याप्यप्रवृत्तेरिति / तथाहि-याऽसौ कृता क्रियते यत्तत्कर्म कृतं न भवति नो तत् पृच्छन्ति, अत्यन्तविरोधेनासम्भवात्। तथाहि- कृतं चेत्कर्म कथंन भवतीति ? उच्यते। न भवति चेत्कथं कृतं तदिति, कृतस्य कर्मणोऽभवनाभावात्। तत्र तेषु याऽसावकृता यत्तदकृतं कर्म नो क्रियते, न भवति, नो तां पृच्छन्ति अकृतश्चासतश्च कर्मणः खरविषाणकल्पत्वादिति / अमुमेव च भङ्गत्रयं निषेध-माश्रित्यास्य सूत्रस्य त्रिस्थानकावतार इति संभाव्यते। तृतीय-भङ्गकस्तु तत्सम्मत इति तं पृच्छन्ति / अत एवाह - तत्र यासावकृता क्रियते यत्तदकृतं पूर्वमविहितं कर्म भवति दुःखाय सम्पद्यते, तां पृच्छन्ति पूर्वकालकृतत्वस्याप्रत्यक्षतयाऽसत्त्वेन दुःखानुभूतेश्च प्रत्यक्षतया सत्त्वेनाकृतकर्मभवनपक्षस्यासम्मतत्वादिति। पृच्छतां चायमभिप्रायः - यदि निर्ग्रन्था अपि अकृतमेव कर्म दुःखायदेहिनां भवतीति प्रतिपद्यन्ते, ततः सुष्टुशोभनं अस्मत्स-मानबोधत्वादिति / शेषान्न पृच्छन्तस्तृतीयमेव पृच्छन्तीति भावः / (सेत्ति) अथ तेषामकृतकर्माभ्युपगमवतामेवं वक्ष्यमाणप्रकार वक्तव्यमुल्लापः स्यात्।त एववा एवमाख्यान्ति परान् प्रति यदुत अथैव वक्तव्यं प्ररूपणीयं तत्त्ववादिनां स्याद्भवेत्, अकृते सति कर्मणि दुःखाभावात् / अकृत्यमकरणीयमबन्धनी-यमप्राप्तव्यमनागते काले जीवानामित्यर्थः / किं दुःखं ? दुःख-हेतुत्वात्कर्म (अफुसंति) अस्पृश्यं कर्माकृतत्वादेव, तथा क्रियमाणं च वर्तमानकाले बध्यमानं कृतं याऽतीतकाले बद्ध क्रियमाणम् / द्वन्द्वैकत्वं कर्मधारयो वा / न क्रियमाणकृतम-क्रियमाणकृतम् / किं तद्, दुःखम् ? ''अकिचं दुक्खमित्यादि" पदत्रयं (तत्थजा सा अकडा कज्जइ) तं पृच्छतीत्यन्यतीर्थिकमताश्रितं कालत्रयालम्बनमाश्रित्य त्रिस्थानकावतारोऽस्य द्रष्टव्यः। किमुक्तं भवतीत्याह-अकृत्वा अकृत्या कर्म। प्राणा द्वीन्द्रियादयः, भूतास्तरयः, जीवाः पञ्चेन्द्रियाः, सत्त्वाः पृथिव्यादयः / यथोक्तम्"प्राणा द्वित्रिचतुःप्रोक्ताः, भूतास्तु तरवः स्मृताः / जीवाः पञ्चेन्द्रिया ज्ञेयाः, शेषाः सत्त्वा इतीरिताः" ||1| वेदनां पीडां वेदयन्तीति वक्तव्यमित्ययं तेषामुल्लापः। एतद्वा ते अज्ञानोपहतबुद्धयो भाषन्ते परान् प्रति यदुत एवं वक्तव्यं स्यादिति प्रक्रमः / एवमन्यतीर्थिकमतमुपदर्य निराकुर्यन्नाह-(जे ते इत्यादि) य एते अन्यतीर्थिका एवमुक्तप्रकारमाहुः (सुत्ति) उक्तवन्तो मिथ्या असम्यक् तेऽन्यतीर्थिका एवमुक्तवन्तः, अकृतायाः क्रिया-त्वानुपपत्तेः। क्रियते इति क्रिया यस्यास्तु कथञ्चनापि करणं नास्ति, साकथं क्रियेति ? अकृतकर्मानुभवने हि बद्धमुक्तसुखितदुःखितादिनियतव्यवहाराभावप्रसङ्ग इति स्वमतमाविष्कुर्वन्नाह(अहमित्यादि) अहमित्यहमेव नान्यतीर्थिकाः, पुनःशब्दो विशेषणार्थः / स च पूर्ववाक्यार्थादुत्तरवाक्यार्थस्य विलक्षण-तामाह (एवमाइक्खामीत्यादि) पूर्ववत्। कृत्यं करणीय-मनागतकाले दुखः तद्धेतुत्वात्, कर्म स्पृश्यं स्पृष्टलक्षण-बन्धावस्थायोग्यम्, क्रियमाणं वर्तमानकाले कृतमतीते अकरणं नास्ति कर्मणः कथञ्चनापीति भावः / स्वमतसर्वस्वमाह -कृत्वा कृत्वा, कर्मेति गम्यते / प्राणादयो वेदना कर्मकृतशुभाशुभानुभूतिं वेदयन्त्यनुभवन्तीति वक्तव्यं, स्यात् सम्यग्वादिनाम् ।स्था०३ ठा०२ उ०। (जीवजीवात्मानौ) तत्र अतीन्द्रियस्य जीवस्य सिद्धिं 'मंडक' शब्दे मण्डुकः करिष्यते) Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णउत्थिय 456 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अण्णउत्थिय (8) प्राणातिपातादौ तद्विरमणादौ च वर्तमानस्यान्यो जीवो-ऽन्यो जीवात्मेति विप्रतिपत्तिः - अण्णउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति० जाव परूवंति एवं खलु पाणाइवाए मुसावाए.जाव मिच्छादं-सणसल्लवट्टमाणस्स अण्णे जीवे अण्णे जीवाया पाणाइवायवे रमणे० जाव परिग्गहवेरमणे कोहविवेगे, जाव मिच्छादसणसल्लविवेगे वट्टमाणस्स अण्णे जीवे अण्णे जीवाया उम्पत्तियाए० जाव पारणामियाएवट्टमाणस्स अण्णे जीवे अण्णे जीवाया उम्गहे ईहा अवाए वट्टमाणस्स० जाव जीवाया उट्ठाणे० जाव परक्कमे वट्टमाणस्स० जाव जीवाया णेरइयत्ते तिरिक्खमाणुस्स देवत्ते वट्टमाणस्स० जाव जीवाया णाणावरणिज्जे० जाव अंतराइये वट्टमाणस्स० जाव जीवाया, एवं कण्हलेस्साए० जाव सुकलेस्साए सम्मद्दिडीए ३,एवं चक्खुइंसणे / आमिणिबोहियणाणे 5 मइअण्णाणे 3 आहारसण्णाए / एवं ओरालियसरीरे 5, एवं मणजोए 3, सागरोवओगे अणागारोवओगे वट्टमाणस्स अण्णे जीवे अण्णे जीवाया, से कहमेयं भंते ! एवं ? गोयमा ! जण्णं ते अण्णउत्थिया एवमाइक्खंति० जाव मिच्छं ते एवमाहंसु / अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि० जाव परूवेमि-एवं खलु पाणाइवाए० जाव मिच्छादसणसल्ले वट्टमाणस्ससच्चेवजीवे सचेवजीवायाजाव अणागारोवओगे वट्टमाणस्स सचेव जीवे सचेव जीवाया। अन्ययूथिक प्रक्रमादेवेदमाह- (अण्णउत्थिया णमित्यादि) प्राणातिपातादिषु वर्तमानस्य देहिनः (अण्णे जीव त्ति) जीवंति प्राणान् धारयतीति जीवः, शरीरं प्रकृतिरित्यर्थः / स चान्यो व्यतिरिक्त अन्यो जीवस्य देहस्य सम्बन्धी अधिष्ठातृत्वादात्मा जीवात्मा, पुरुष इत्यर्थः / अन्यत्वं च तयोः पुद्गलपुद्गलस्वभात्वात् / ततश्च शरीरस्य प्राणातिपातादिषु वर्तमानस्य दृश्यमानत्वात् / शरीरमेव तत्कर्तृ, न पुनरात्मेत्येके / अन्ये त्वाहुः - जीवतीति जीवो नारकादिपर्यायः, जीवात्मा तु सर्वभेदानुगामि जीवद्रव्यं द्रव्यपर्याययोश्चान्यत्वम्, तथाविधप्रतिभास-भेदनिबन्धनत्वात्, घटपटादियत् / तथाहिद्रव्यमनुगताकारां बुद्धिं जनयति, पर्यायास्त्वननुगताकारामिति। अन्ये त्याहुः - अन्यो जीवोऽन्यश्च जीवात्माजीवस्यैव स्वरूपमिति। प्राणातिपातादिविचित्रक्रियाभिधानं चेह सर्वावस्थासु जीवजीयात्मनोहेंदख्यापनार्थमिति परमतम् / स्वमतं तु -(सभेव जीवे सचेव जीवाय त्ति) स एव जीवः शरीरं स एव जीवात्मा जीव इत्यर्थः, कथञ्चिदिति गम्यम् ।नह्यनयोरत्यन्तंभेदः, अत्यन्तभेदे देहेनस्पृष्टस्यासंवेदनप्रसङ्गो देहकृतस्य च कर्मणो जन्मान्तरे वेदना-भायप्रसङ्गः / अन्यकृतस्यान्यसंवेदने चाकृताभ्यागम-प्रसङ्गोत्पन्नम्, अभेदे च परलोकाभाव इति / द्रव्यपर्यायव्याख्या- नेऽपि न द्रव्यपर्याययो रत्यन्तभेदस्तथानुपलब्धेः / यश्च प्रतिभासभेदो नासावात्यन्तिकत दकृतः, किन्तु पदार्थानामेय तुल्यातुल्यरूपकृत इति जीवात्माजीवस्वरूपम्। इह तुव्याख्याने स्वरूपवतोन स्वरूपमत्यन्तं भिन्नं, भेदे हि निःस्वरूपता तस्य प्राप्नोति / न च शब्दभेदे वस्तुनो भेदोऽस्ति, शिलापुत्रकस्य वपुरित्यादाविवेति॥ भ०१७ श०२ उ०॥ (E) (परिचारणा) परिचारणा कालगतस्य निर्ग्रन्थस्य- . अण्णउत्थिया णं मंते ! एवमाइक्खंति, पण्णवेति, परुति एवं खलु नियंठकालगए समाणे देवन्मूएणं अप्पाणेणं सेणं तत्थ नो अण्णदेवे नो अण्णे सिं देवाणं देवीओ अभिजू जिय अभिजुंजिय परियारेइ, णो अप्पणिच्चियाओ देवीओ अभिजुंजिय अमिजुंजिय परियारेइ, अप्पणामेव अप्पाणं विउव्विय विउव्विय परियारेइ, एगे वि य णं जीवे एगेणं समएणं दो वेदे वेदेइ / तं जहा- इत्थिवेयं च पुरिसवेयं च / एवं अण्णउत्थियवत्तव्वया णेयव्वा० जाव इत्थिवेयं च पुरिसवेयं च स कहमेयं भंते ! एवं ? गोयमा! जण्णं ते अण्णउत्थिया एवमाइक्खंति०जावइत्थीवेयं च पुरिसवेयं य / जे ते एवमाहंसु, मिच्छा ते एवमाहंसु / अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि० जाव परूवेमि-एवं खलु नियंठे कालगएसमाणे अन्नयरेसु देवलोएसुदेवत्ताए उववत्तारो भवंति, महिड्डिएसु० जावमहाणुमागेसुदूरंगतीसुचिरहितीसु सेणं तत्थ देवे भवइमहिडिए० जावदस दिसाओ उज्जोवेमाणे पमासेमाणे० जाव पडिरूवे, से णं तत्थ अण्णे देवे अण्णेसिं देवाणं देवीओ अभिजुजिय अभिजुंजिय 2 परियारेइ, अप्पणिचियाओ देवीओ अभिजुंजिय अभिजुंजिय परियारेइ, नो अप्पणामेव अप्पाणं वेउव्वियं परियारेइ, एगे वि य णं जीवे एगेणं समएणं एग वेदं वेदे। तं जहा-इत्थिवेदं वा पुरिसवेदं वा / जं समय इत्थिवेदं वेदेइ, णो तं समयं पुरिसवेदं वेदेइ, जं समयं पुरिसवेदं वेदेइ, णोतं समयं इत्थिवेयं वेएइ।इत्थिवेयस्स उदएणं नो पुरिसवेदं वेदेइ, पुरिसवेयस्स उदएणं नो इत्थिवेयं वेएइ / एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एगं वेदं वेदेइ / तं जहा- इत्थिवेदं वा पुरिसवेदंवा। इत्थी इत्थिवेएणं उदिण्णेणं पुरिसं पत्थेइ, पुरिसो पुरिसवेदेण उदिण्णेणं इतिथ पत्थेइ।दो वेए अण्णमण्णं पत्थेइ। तं जहा- इत्थी वा पुरिसं, पुरिसो वा इत्थिं। (अण्णउत्थिए इत्यादि) (देवभूए णं त्ति) देयभूतेन आत्मना कारणभूतेन नो परिचारयतीति योगः(से णं त्ति) असौ निर्ग्रन्थदेवस्तत्र देवलोके नो नैव(अण्ण त्ति) अन्यान् आत्मव्यतिरिक्तान् देवान् सुरान्, तथा नो अन्येषां देवानां संदन्धिनीर्देदीः (अभिजुंजिय त्ति) अभियुज्य वशीकृत्य आश्लिष्य वा परिचारयति परिभुङ्क्ते (णो अप्पणिचियाओ त्ति) आत्मीया (अप्पणामेव अप्पाणं विउव्विय त्ति) स्त्रीपुरुषरूपतया विकृत्य। एवं च स्थिते (एगे विय णमित्यादिपरउत्थियवतव्वया णेयव्य ति) एवं चेयं ज्ञातव्या 'जं समयं इत्थिवेयं वेएइ तं समयं पुरिसवेयं वेएइ, जं समयं पुरिसवेयं वेएइ तं समयं इत्थिवेयं वे एइ, इत्थिवे यस्स वेयणयाए पुरिसवेयं वेएइ पुरिसवेयस्स वेयणयाए इत्थियेय वेएइ, एवं खलु एगे वि य णमित्यादि" मिथ्यात्वं चैषामेवम् - स्त्रीरूपकरणेऽपि तस्य देवस्य पुरुषत्वात्पुरुषवेदस्यैवैकत्र समये उदयो, न स्त्रीवेदस्य, वेदपरिवृत्त्या वा स्त्रीवेदस्यैव, न पुरुषवेदस्योदयः, परस्परविरुद्धत्वादिति / (देवलोएसु त्ति) देवजनेषु Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपणउत्थिय 457- अभियानराजेन्द्रः - भाग 1 अण्णउत्थिय मध्ये (उववत्तारो भवंति त्ति) प्राकृतशैल्या उपपत्ता भवतीति दृश्यम् / "महिड्डिए" इत्यत्र यावत् करणादिदं दृश्यम् - "महबुईए महाबले महाजसे महासेोक्खे महाणुभागे हारविराइयवत्थे कडयतुडियथंभियभूए" / त्रुटिका बाहुरक्षिका (अंगयकुंडल-मट्ठगंडकण्णपीठधारी) अङ्गदानि बाह्राभरणविशेषान्, कुण्डलानि कर्णाभरणविशेषान्, मृष्टगण्डानि चोल्लिखित-कपोलानि, कर्णपीठानि कर्णाभरणविशेषान्, धारयतीत्येवंशीलो यः स तथा / (विचित्तहत्थाभरणे विचित्रमालामउलिमउडे) विचित्रमाला च कुसुमस्रक मौलौ मस्तके मुकुटं च यस्य स तथा, इत्यादि यावत् / (रिद्धीए जुईएपभाएछायाए अचीएतेएणं लेस्साए दस दिसाओ उजो एमाणे ति) तत्र ऋद्धिः परिवारादिका, युतिरिष्टार्थसंयोगः, प्रभा यानादिदीप्तिः, छाया शोभा, अर्चि: शरीरस्थरत्नादितेजोज्वाला, तेजः शरीररोचिः, लेश्या देहवर्णः, एकार्थावते / उद्द्योतयन्प्रकाशकरणेन (पभासेमाणे त्ति) प्रभासयन् शोभयन् इह यावत्करणादिदं दृश्यम्-(पासाइए) द्रष्टणां चित्तप्रसादजनकः (दरसणिजे य) पश्यचक्षुर्न श्राम्यति (अभिरूवे) मनोज्ञरूपः (पडिलवे त्ति) द्रष्टारं द्रष्टारं प्रतिरूपं यस्यस तथेति। एकेनैकदाएक एव वेदो वेद्यत / इह कारणमाह- (इत्थी इत्थीवेएणमित्यादि)। भ०२ श०५ उ०। (10) बालपण्डिततेअण्णउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति० जाव परूवेंति एवं खलु समणा पंडिया समणोवासगा बालपंडिया / जस्स णं एगपाणाए विदंडे अणिक्खित्ते,सेणं एगंतबाले त्ति वत्तव्वं सिया, से कहमेयं मंते ! एवं ? गोयमा ! जंणं ते अण्णउत्थिया एवमाइक्खंति० जाव वत्तव्वं सिया,जे ते एवमाहंसु, मिच्छं ते एवमाहंसु / अहं पुण गोयमा ! जाव परूवेमि-एवं खलु समणा पंडिया, समणोवासगा बालपंडिया, जस्स णं एगपाणे वि दंडे णिक्खित्ते, से णं णो एगंतबाले त्ति वत्तव्वं सिया॥ एतत्किल पक्षद्वयं जिनाभिमतमेवानुवादपरतयोक्त्वा द्वितीयपक्ष दूषयन्तस्ते इदं प्रज्ञापयन्ति- (जस्स णं एगपाणाए वि दंड इत्यादि) (जस्स त्ति) येन देहिना एकप्राणिन्यप्येकत्रापि जीवे सापराधादौ, पृथिवीकायिकादौ वा किं पुनर्बहुषु दण्डो वधः / (अणिक्खिते त्ति) अनिक्षिप्तोऽनुज्झितोऽप्रत्याख्यातो भवति। स एकान्तबाल इति वक्तव्यः स्यात् / एवं च श्रमणोपासका एकान्तबाला एव न बालपण्डिता, एकान्तबालव्यपदेशनिबन्धनस्यासर्वप्राणि-दण्डत्यागस्य भावादिति परमतम् / स्वमतं तु- एकप्राणिन्यपि येन दण्डपरिहारः कृतोऽसौ नैकान्तेन बालः, किं तर्हि ? बालपण्डितः, विरत्यंशसद्भावेन मिश्रत्वात्तस्य / एतदेवाह- (जस्स णमित्यादि) एतदेव बालत्वादिजीवादिषु निरूपयन्नाह- (जीवाणमित्यादि) प्रागुक्तानां संयतादीनामिहोक्तानां च पण्डितादीनां यद्यपि शब्दत एव भेदो नार्थतस्तथापि संयतत्वादिव्यपदेशः क्रियाव्यपेक्षः, पण्डितत्वादिव्यपदेशस्तु बोधविशेषापेक्ष इति / भ०१७ श०२ उ०॥ (11) भाषारायगिहे. जाव एवं वयासी - अण्णउत्थिया णं मंते ! एवमाइक्खंति० जाव परूवेंति - एवं खलु के वली जक्खाएसेणं आइस्संति / एवं खलु केवली जक्खाएसेणं आइडे समाणे आहबदो भासाओ भासइ / तं जहा-मोसंवा, सचामोसं वा, से कहमेयं भंते ! एवं ? गोयमा ! जंणं ते अण्णउत्थिया० जाव जं णं एवमाहंसु, मिच्छं ते एवमाहंसु / अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि 4 -णो खलु केवली जक्खाएसेणं आदिस्सइ, णो खलु केवली जक्खाएसेणं आइटे समाणे आहब दो मासाओ मासइ / तं जहा- मोसं वा, सच्चामोसं वा, केवली णं असावजाओ अपरोवघाइयाओ आहब दो मासाओ भासइ।तं जहासचं वा असच्चामोसं वा। (जक्खाएसेणं आइस्सइ त्ति) देवावेशेनाविश्यतेऽधिष्ठीयत इति (नो खलुइत्यादि) नोखलु केवली यक्षावेशेनाविश्यते- ऽनन्तवीर्यत्वात्तस्य / (अण्णाइट्टित्ति) अन्याविष्टः परवशीकृतः सत्यादिभाषाद्वयं च भाषमाणः केवली उपधिप्रग्रहप्रणि-धानादिकं विचित्रं वस्तु भाषत इति / भ०१८ হা০৫ 30|| (12) (मनुष्यलोकः) पञ्चयोजनशतानि मनुष्यलोको मनुष्यैर्बहुसमाकीर्णः - अणउत्थियाण भंते ! एवमाइक्खंति० जाव परुर्वेति-से जहा नामए जुवई जुवाणे हत्थेणं हत्थं गेण्हज्जा, चक्कस्स वा नाभी अरगाउत्तासिया, एवामेव चत्तारिपंचजोयणसयाइं बहुसमाइण्णे मणुयलोए मणुस्सेहिं, से कहमेयं मंते ! एवं ? गोयमा ! जण्णं ते अण्णउत्थिया जाव माणुस्से हिं जे एवमाहंसु, मिच्छा ते एवमाहंसु / अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि० जाव एवामेव चत्तारि पंच जोयणसयाई बहुसमाइण्णे नेरयलोए नेरइएहिं। (अण्णउत्थियेत्यादि) (बहुसमाइन्ने त्ति) अत्यन्तमाकीर्णम्, मिथ्यात्वं चतद्वचनस्य विभङ्ग ज्ञानपूर्वकत्वादयसेयमिति। भ०५ श०६ उला (13) (वेदना) सर्वे जीवा अनेवंभूतां वेदनांवेदयन्ते इत्यत्र विवादः - अण्णउत्थियाणं भंते! एवमाइक्खंति०जाव परूवेंति-सव्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता एवंभूयं वेयणं वेदंति, से कहमेयं भंते ! एवं ? गोयमा ! जण्णं ते अण्णउत्थिया एवमाइक्खंति० जाव वेदंति, जे ते एवमाहंसु, मिच्छा ते एवमाहंसु / अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि० जाव परूवेमिअत्थेगइया पाणा मूया जीवा सत्ता एवं भूयं वेयणं वेदंति, अत्थेगइया पाणा मूया जीवा सत्ता अणेवंभूयं वेयणं वेदंति। से केणटेणं अत्थेगइया तं चेव उच्चारेयव्वं ? गोयमा ! जण्णं पाणा भूया जीवा सत्ता जहा कडा कम्मा तहा वेयणं वेदंति, तेण पाणा मूया जीवा सत्ता एवं भूयं वेयंणं वेदंति, जे णं पाणा भूया जीवा सत्ता जहा कडा कम्मा नो तहा वेयणं वेदंति, ते णं पाणा भूया जीवा सत्ता अणेवंभूयं वेयणं वेदंति, से तेणद्वेणं तहेव // Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णउत्थिय 458- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अण्णउत्थिय (एवंभूयं वेयणं ति) यथाविधं कर्म निबद्धमेवं भूता मेव-प्रकारतयोत्पन्न वेदनामसातादिकर्मोदयं वेदयन्त्यनुभवन्ति। मिथ्यात्वं चैतद्वादिनामेवम्न हि यथा बद्धं तथैव सर्व कर्मा-ऽनुभूयते, आयुः कर्मणो व्यभिचारात्। तथाहि- दीर्घकाला-नुभवनीयस्याप्यायुः कर्मणोऽल्पीयसाऽपि कालेनानुभवो भवति, कथमन्यथाऽल्पमत्युव्यपदेशः सर्वजनप्रसिद्धः स्यात्। कथं वा महासंयुगादौ जीवलक्षाणामप्येकदैव मृत्युरुपपद्येतेति। (अणेवं-भूयं पि त्ति) यथा बद्धं कर्म नैवम्भूताऽनेवम्भूता, अतस्ताम्। श्रूयन्ते ह्यागमे-कर्मणः स्थितिघातरसघातादयं इति। भ०५ श०५ उ०। अण्णउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति० जाव परूवेंति एवं खलु सव्वे पाणा भूया जीवा सत्ता एगंतदुक्खं वेयणं वेयंति,से कहमेयं मंते ! एवं ? गोयमा ! जण्णं ते अण्णउत्थिया० जाव मिच्छं ते एवमाहंसु / अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि० जाव परूवेमि-अत्थेगइया पाणा भूया जीवा सत्ता एगंतदुक्खं वेयणं वेयंति 1 आहच सायं / अत्थे- गइया पाणा भूया जीवा सत्ता एगतं सायं वेयणं वेयंति, आहच असायं वेयणं वेयंति / अत्थेगइया पाणा : वेमायाए वेयणं वेयंति, आहच सायमसायं / से केणद्वे णं०? गोयमा ! नेरइया णं एगतदुक्खं वेयणं वेयंति, आहच सायं / भवणवइवाणमंतरजोइसवेमाणिया एगंतं सायं वेयंति, आहच असायं / पुढविकाइया० जाव मणुस्सा वेमायाए वेयंति, आहच सायमसायं / से तेणढे णं० (अन्नउस्थियेत्यादि) (आहच सायं ति) कदाचित्सातां वेदनाम् / कथमिति ? उच्यते- "उववाएण च सायं, नेरइओ देवकम्मुणा वा वि"। (आहच असायं ति) देवा आहनन-प्रियविप्रयोगादिष्वसातां वेदनां वेदयन्तीति / (वेमाया य त्ति) विविधया मात्रया कदाचित्सातां, कदाचिदसातामित्यर्थः / भ०६ श०१० उ०) (१४)(शीलम्) शीलं श्रेयः, श्रुतं श्रेय इत्यत्रान्ययूथिकैः सह विवादःरायगिहे० जाव एवं वयासी-अणउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति० जाव परूवेति-एवं खलु सील सेयं, सुयं सेयं, सुयं सीलं सेयं / से कहमेयं मंते ! एवं ? गोयमा ! जं णं ते अणउत्थिया एवमाइक्खंति० जाव-जे ते एवमाहंसु, मिच्छा ते एवमाहंसु / अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि० जाव परूवेमिएवं खलु मए चत्तारिपुरिसजाया पण्णत्ता। तं जहा- सीलसंपण्णे नाम एगे, नो सुयसंपण्णे (1) / सुयसंपण्णे नामं एगे नो शीलसंपण्णे (2) / एगे सीलसंपण्णे विसुयसंपण्णे वि (3) / एगे नो सीलसंपण्णे नो सुयसंपण्णे (4) / तत्थ णं जे से पढमे पुरिसजाए, सेणं पुरिसे सीलवं असुयवं उवरए अविण्णायधम्मे।। एस णं गोयमा ! मए पुरिसे देसाराहए पण्णत्ते (1) / तत्थ णं जे से दोच्चे पुरिसजाए, से णं पुरिसे असीलवं सुतवं अणुवरए विण्णायधम्मे, एस णं गोयमा ! मए पुरिसे देसविराहए पण्णत्ते (2) तत्थ णं जे से तचे पुरिसजाए से णं पुरिसे सीलवं सुतवं उवरए विण्णायधम्मे, एस णं गोयमा ! मए पुरिसे सव्वाराहए पण्णत्ते (3) / तत्थ णं जे से चउत्थे पुरिसजाए, से णं पुरिसे असीलवं असुतवं अणुवरए अविण्णायधम्मे, एस णं गोयमा ! मए पुरिसे सव्वविराहए पण्णत्ते / अस्य चूर्ण्यनुसारेण व्याख्या- एवं लोकसिद्धन्यायेन खलु निश्चयेन इहाऽन्ययूथिकाः केचित्क्रियामात्रादेवाऽभीष्टाऽर्थ-सिद्धिमिच्छन्ति / न च किञ्चिदपि ज्ञानेन प्रयोजनं, निश्चेष्टत्वात्, घटादिकरणप्रवृत्तावाकाशादिपदार्थवत् / पठ्यते च -"क्रियैव फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतम् / यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानात्सुखितो भवेत् ||1|| तथा- "जहा खरो चंदणभारवाही, भारस्स भागी न हु चंदणस्सा एवं खुनाणी चरणेण हीणो, नाणस्सभागी नहुसर्गइए" ||1|| अतस्ते प्ररूपयन्तिशीलं श्रेयः प्राणातिपातादिविरमणध्यानाध्ययनादिरूपा क्रियैव श्रेयोऽति- शयेन प्रशस्यं, श्लाध्यपुरुषार्थसाधकत्वाच्छ्रेयं वा समाश्रयणीयं पुरुषार्थविशेषार्थिना / अन्ये तु ज्ञानादेवेष्टार्थसिद्धिमिच्छन्ति,न क्रियातः, ज्ञानविकलस्य क्रियावतोऽपि फलसिद्ध्यदर्शनात् / अधीयते च - "विज्ञप्तिः फलदा पुंसां, न क्रिया फलदा मता। मिथ्याज्ञानात्प्रवृत्तस्य, फलासंवाददर्शनात्"|१॥ तथा"पढमं नाणं तओदया, एवं चिट्ठइ सव्वसंजए। अण्णाणी किं काही किं वा, नाही छेयपावयं'' ||16 अतस्ते प्ररूपयन्ति-श्रुतं श्रेयः, श्रुतं श्रुतज्ञानं तदेव श्रेयोऽतिप्रशस्यमाश्रयणीयं वा, पुरुषार्थ-सिद्धिहेतुत्वात्, न तु शीलमिति। अन्ये तु ज्ञानक्रियाभ्यामन्योन्यनिरपेक्षाभ्यां फलमिच्छन्ति / ज्ञानं क्रियाविकलमेवोपसर्जनीभूतक्रि यं वा लदम् / क्रि याऽपि ज्ञानाविकला उपसर्जनीभूतज्ञाना वा फलदेति भावः / भणन्ति च - "किंचिद्वेदमयं पात्रं, किचित्पात्रंतपोमयम्। आगमिष्यति यत्पात्रं, तत्पात्रं तारयिष्यति"||१|| अतस्ते प्ररूपयन्ति -श्रुतं श्रेयः, तथा शीलं श्रेयः, द्वयोरपि प्रत्येकं पुरुषस्य पवित्रतानिबन्धनत्वादिति / अन्ये तु व्याचक्षतेशीलं श्रेयस्तावन्मुख्यवृत्त्या, तथा श्रुतं श्रेयः श्रुतमपि श्रेयो, गौणवृत्त्या तदुपकारित्वादित्यर्थः, इत्येकीयं मतम् / अन्यदीयमतं तु श्रुतं श्रेयस्तावत् / तथा शीलमपि श्रेयो, गौणवृत्त्या तदुपकारित्वादित्यर्थः / अयं चार्थ इह सूत्रे काकु पाठाल्लभ्यते / एतस्य च प्रथमव्याख्यानेऽन्ययूथिकमतस्य मिथ्यात्वं, पूर्वोक्तपक्षत्रयस्यापि फलसिद्धावनङ्ग त्यात्, समुदायपक्षस्यैव च फलसिद्धिकारणत्वात्। आह च - "नाणं पयासयं, सोहओ तवो संजमो य गुत्तिकरो। तिण्हं पि समाओगो, मोक्खो जिणसासणे भणिओ" ||1|| तपःसंयमौ च शीलमेव / तथा- "संजोगसिद्धीए फलं वयंति, न हुएगचक्केण रहो पयाइ / अंधो य पंगू य वणे समिचा, ते संपउत्ता नगरं पविट्ठा' / / 1 / / त्ति / द्वितीय-व्याख्यानपक्षे ऽपि मिथ्यात्यं, संयोगतः फलसिद्धेदृष्टत्वादेककैस्य प्रधानेतरविवक्षाया असङ्गतत्वादिति / अहं पुनर्गोतम ! एवमा-ख्यामि, यावत्प्ररूपयामीत्यत्र श्रुतयुक्तं शीलं श्रेय इत्येतावान् वाक्यशेषो दृश्यः / अथ कस्मादेवमत्रोच्यते(एवमित्यादि) एवं वक्ष्यमाणन्यायेन (पुरिसजाय त्ति) पुरुषप्रकाराः (सीलवं असुयवंति) कोऽर्थः? (उवरए अविण्णायधम्मे ति) उपरतो Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णउत्थिय 459 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अण्णउत्थिय निवृत्तः स्वबुद्ध्या पापात् अविज्ञानधर्माभावतोऽनधिगतश्रुतज्ञानो बालतपस्वीत्यर्थः / गीतार्थानिश्रिततपश्चरणनिरतो गीतार्थ इत्यन्ये / (देसाराहए त्ति) देशं स्तोकमंशं मोक्षमार्गस्यारा-धयतीत्यर्थः / सम्यग्योधरहितत्वात्क्रियापरत्वाच्चेति / (असीलवं सुययं ति) कोऽर्थः ? (अणुवरए विण्णायधम्मे ति) पापानिवृत्तौ ज्ञातधर्मा च अविरतसम्यग्दृष्टिरिति भावः / (देसविराहए त्ति) देशं स्तोकमंश ज्ञानादित्रयरूपस्य मोक्षमार्गस्य तृतीयभागरूपं, चारित्रं विराधयतीत्यर्थः, प्राप्तस्य तस्यापालनादप्राप्तेर्वा (सव्वा-राहएत्ति) सर्व त्रिप्रकारमपि मोक्षमार्गमाराधयतीत्यर्थः, श्रुत-शब्देन ज्ञानदर्शनयोः संगृहीतत्वात् / नहि मिथ्यादृष्टिर्विज्ञातधर्मा तत्त्वतो भवतीति / एतेन समुदितयोः शीलश्रुतयोः श्रेयस्त्वमुक्तमिति (सव्याराहए) इत्युक्तम् / भ०८ श०१० उ० (15) (सुखम्) सर्वजीवानां सुखविषये विप्रतिपत्तयः - अण्णउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति० जाव परूवेंति - जावइया रायगिहे णगरे जीवा, एवइयाणं जीवाणं नो चक्किया केइ सुहं वा दुहं वा० जाव कोलट्ठिगमायमवि निप्पावमायमवि कलममायमवि मासमायमवि मुग्ग-मायमवि जुयमायमवि लिक्खमायमवि अभिनिव्वदे॒त्ता उवदंसित्तए से कहमेयं भंते ! एवं ? गोयमा! जण्णं ते अण्णउत्थिका एवमाइक्खंति० जाव मिच्छं ते एवमाहंसु, अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि०जाव परूवेमि-सव्वलोए वि य णं सव्वजीवाणं नो चक्किया केइ सुहं वा तं चेव० जाव उवदंसित्तए। से केणद्वेणं ? गोयमा ! अयं णं जंबुद्दीवे दीवेजाव विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते / देवे णं महिडिए० जाव महाणुमागे एगं महं सविलेवणगंधसमुग्गयंगहाय तं अवद्दालेइ। अवद्दालेत्ता० जाव इणामेव कटु केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं तिहिं अच्छरानिवाएहिं तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टित्ताणं हव्वमागच्छेज्जा, से नूणं गोयमा ! से केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे तिहिंघाणपोगलेहिंफुडे? हंता! फुडे, चक्कियाणं गोयमा ! केइ तेसिं घाणपोग्गलाणं कोलट्ठिमायमवि० जाव उवदंसित्तए णो इणढे समटे / से तेणढेणं जाव उवदंसित्तए। जीवे णं मंते ! जीवे जीवे ? गोयमा ! जीवे ताव नियमा जीवे, जीवे विनियमा जीवे। (अन्नउत्थीत्यादि) (नो चक्किय त्ति) न शक्नुयात् / (जाव कोलट्ठियमायमवि त्ति) आस्तां बहु बहुतरं वा यावत्, कुवला-स्थिकमात्रमपि, तत्र कुवलास्थिकं बदरकुलकः, (निप्पाव त्ति) वल्लः, (कल त्ति) कलायः, (जूय त्ति) यूकाः, "अयण्णमित्यादि" दृष्टान्तोपनयः / एवं यथा गन्धपुद्रलानामति सूक्ष्मत्वेनामूर्तकल्पत्वात्कुवलास्थिकमात्रादिकं नदर्शयितुं शक्यते / एवं सर्वजीवानां सुखस्य दुःखस्य चेति / भ०६ श१० उ०। (१६)(हृदः) राजगृहनगरस्य बहिर्वभारपर्वतस्याऽधः - स्थस्य हृदस्य विषये विप्रतिपत्तयः - अण्णउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति, मासंति, पण्णवंति, परूवेंति- एवं खलु रायगिहस्स नयरस्स बहिया वेभारस्स पव्वयस्स अहे एत्थणं महं हरए अघे पण्णत्ते। अणेगाइंजोयणाई आयामविक्खंमेणं नाणादुमखंडमंडि उद्देसे सस्सिरीए० जाव पडिरूवे, तत्थणं बहवे उदारा बलाहया संसेयंति, समुच्छियंति, वासंति, तव्वतिरिते वि य णं सया समिउं उसिणे आउकाए अमिनिस्सवइ, से कहमेयं मंते ! एवं ? गोयमा ! जण्णं ते अण्णउत्थियाएवमाइक्खंति०जावजे ते एवमाइक्खंति, मिच्छं ते एवमाइक्खंति। अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि, मासेमि, पण्णवेमि, परूवेमि एवं खलु रायगिहस्स पयरस्स बहिया वेभारपव्वयस्स अदूरसामंते एत्थ णं महातवोवतीरप्पमवे नाम पासवणे पण्णत्ते / पंच घणु सयाई आयामविक्खं भेणं नाणादुमखंडमंडिउद्देसे सस्सिरीए पासादीए दरिसणिज्जे अमिरूवे पडिरूवे, तत्थ णं बहवे उसिणजोणिया जीवा य पोग्गलाय उदगत्ताए वक्कमंति, विउक्कमंति, चयंति, उवचयंति, तव्वविरित्ते वि य णं सया समियं उसिणे उसिणे आउआए अमिनिस्सवइ, एस णं गोयमा! महातवोवतीरप्पभवे पासवणे, एस णं गोयमा ! महातवोवतीरप्पमवस्स पासवणस्स अट्ठे पण्णत्ते / सेवं भंते ! मंते त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ। (अन्नउत्थियेत्यादि) (पव्ययस्स अहे त्ति) अधस्तात्तस्योपरि पर्वत इत्यर्थः / (हरए ति) हृदः (अधे त्ति) अधाभिधानः / क्वचित्तु (हरए त्ति) न दृश्यते, अघे इत्यस्य च स्थाने अप्पे त्ति दृश्यते, तत्र च आप्यः अपां प्रभवः, हृद एव वेति (ओराल त्ति) विस्तीर्णाः, (बलाहय त्ति) मेघाः, (संसेयंति त्ति) संस्विद्यन्ति, उत्पादाभिमुखीभवन्ति (संमुच्छंति त्ति) संमूर्च्छन्त्युत्पद्यन्ते (तव्वइरित्ते यत्ति) हृदपूरणादतिरिक्तश्च उत्कलित इत्यर्थः। (आउयाए त्ति) अप्कायः(अभिनिस्सवइत्ति) अभिनिश्रवति क्षरति (मिच्छं ते एवमाइक्खंति त्ति) मिथ्यात्वं चैतदाख्यानस्य विभङ्गज्ञानपूर्वकत्वात्प्रायः सर्वज्ञवचनविरुद्धत्वाव्या-वहारिकप्रत्यक्षेण प्रायोऽन्यथोपलम्भाचावगन्तव्यम् / (अदूर-सामंते त्ति) नातिदूरे नाप्यतिसमीप इत्यर्थः / (एत्थ णं ति) प्रज्ञापके नोपदय॑माने (महातवोवतीरप्पभवे नाम पासवणे त्ति) आतप इव आतप उष्णता, महाँश्वासावातपश्चेति महातपो, महाऽऽतपस्य उपतीरं तीरसमीपे प्रभव उत्पादो यस्यासौ महा-तपोपतीरप्रभावः। प्रश्रवति क्षरतीति प्रश्रवणः प्रस्यन्दन इत्यर्थः। (वक्कम ति) उत्पद्यन्ते, (विउक्कम ति) विनश्यन्ति। एवदेव व्यत्ययेनाह- च्यवन्ते उत्पद्यन्तेचेति। उक्तमेवार्थ निगमयन्नाह(एस णमित्यादि) एषोऽनन्तरोक्तरूपः, एष वा अन्ययूथिकपरिकल्पिताप्यसंज्ञो महातपोपतीरप्रभवः प्रश्रवण उच्यते। तथा एषयोऽयमनन्तरोक्तः (उसिणजोणिए इत्यादि) समहा-तपोपतीरप्रभवस्य प्रश्रवणस्यार्थोsभिधानान्वर्थः प्रज्ञातः / भ०२ श०५ उ०) इति दर्शिता अन्ययूथिकैः सह विप्रतिपत्तयः / (अन्ययूथिक-विशेषैः कापिलादिभिः सह विवादास्तु तत्तच्छब्देषु, 'समोसरण' शब्दे च दर्शयिष्यन्ते) Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णउत्थिय ४६०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अण्णउत्थिय (17) संसर्गस्तुतैः (कापिलादिभिः) सहन समाचरणीय एव (आगाढवचनम्) यथाअन्ययूथिकं वा गृहस्थं वा आगाढं वा वदतिजे भिक्खू अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा आगाढंवदइ, वदंतं वा साइजइ।। आगाढ इत्यादि। जे मिक्खू अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा फरुसंवदइ, वदंतं वा साइजइ॥१०॥ जे मिक्खू अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा आगाढं फरुसंवदइ, वदंतं वा साइज्जइ / / 11 / / जे भिक्खू अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा अण्ण-यरिए अचासायणाए अचासादइ, अचासायंतं वा साइजइ॥१२॥ आगाढगाहासुत्तं - आगाढफरुसमीसग-दसमुद्देसम्मिण्णितं पुव्वं / गिहिअण्णतित्थिएहिं, ते चेव य होति तेरसमे // 15 // जहा दसमुद्देसे भदंतं प्रति आगाढफरुसमीसगसुत्ता भणिता, तहाइह गिहत्थअण्णउत्थियं प्रति वक्तव्या / इमेहिं जातिमातिएहिं गिहत्थि अण्णतित्थियं वा ऊणतरं परिभवंतो आगाद फरुसंवा भणतिजातिकुलरूवमासा -घणबलपाहण्णदाणपरिभोगे। सत्तवयबुद्धिनागर--तक्करमयकेयकम्मकरे // 26 // जदि ताव मम्मपरिघट्टितस्स मुणिणो वि जायते मण्णुं। किं पुण गिहीणं मण्णु,न भविस्सति मम्मविद्धो णं / / 27|| जातिकुलरूवभासा धणेण बलेण पाहण्णत्तणेण य एतेहिं दाणं प्रति अदाता संति वि धणे, किमत्तणेण अपरिभोगी हीनसत्त्वो वयसा अपडिप्पण्णो मंदबुद्धिः स्वतो नागरस्तं ग्राम्यं परिभवति। तं वा निहत्थं अण्णतित्थियं वा तस्करप्रभृतककर्मकरभावे हि ट्ठियं परिभवति। जदि ताव कोहणिग्गहपरा वि जदि णो जातिमाति-मम्मेण घट्टिया कप्पंति, किं पुण गिहिणो सुतरां कोपं करिष्यन्तीत्यर्थः / सो य उप्पन्नमंत इमं कुजाखिप्पं मरेज मारेज वि कुजाऽवगेण्हणा दाणिं। देसव्वा वंचकरे, संताऽसंतेण पडिसिण्णे ||28|| अप्पणा वा मण्णुप्पणो मरेज, कुवितो वा साहुं मारेज्जा, रुट्ठो वा साई रायकुलादिणे गेण्हावेज्जा, साधुणा वा सेहिओ देस चागं करेज, संतेण असंतेण वा प्रत्यभिण्णो एवं कुर्यात् / नि० चू०१३ उ०। (18) उदकवीणिकाजे मिक्खू दगवीणियं अण्णउत्थिएहिं वा गारस्थिएहिं वा कारेति, कारंतं वा साइजइ / / 12 / / पाणी तंदगं वीणिया वासोदगस्स वीणिया वि कोवणानिमितं णिज्जुत्तिकारो भण्णतिवासासुदगीणिय, वसहीसंबद्ध एतरे चेव। वसहीसंबद्धा पुण, बहिया अंतोवरि तिघा णिच // 133|| वासासूदगवीणिया कजति / सा दुविहा-वसहीए संबद्धा, इतरा | असंबद्धा / वसहीसंबद्धा तिविहा विहिता-बहिया, अंतो, उवरि च। इम तिविहाए वि विक्खाणं णिचपरिगल विहिता उम्मिञ्जण अंतो व ओदए वा वि। हम्मियतलमालेवा, पणालछिदं व उवरितू॥१३४॥ जा सा वसहीसंबद्धा सा निच परिगालो, जा सा अंते संबद्धा सा भूमी उम्मिजति, सिरावा उप्पलिंगावासोदगंवा छिद्देहिं पविटुं,जा सा उवरि संबद्धा सा हम्मियतले हम्मतले झायालो या मंड-विगाच्छादितमाले वा वासोदगं पविट्ठझायाले वा पणालच्छिदं / वसही य असंबद्धा, उदगागमठाणकद्दमे चेव। पढमा वसहिणिमित्तं, मग्गणिमित्तं दुवे इतरा॥१३॥ वसही असंबद्धा तिविहा उदगस्स आगमो उदगागमो, वसहिं तेण आगच्छति पविसति त्ति, अंगणे वा जत्थ साहुणो अच्छंति तं नाणउदगं एति, णिग्गमणपहे वा उदगं एति, तत्थ कद्दमो भवति, तत्थ पढमा जा वसही तेण पविसति त्ति, ते अण्णतो दगवाहो काति, मा वसहीविणासो भविस्सति, इयरासुदुसुजा अण्णं एति, जाय णिग्गमपहे, एता अण्णतो दगवीणिया कज्जति, मा उदगं ठाहि ति, तं च संसज्जति, तत्थ अर्तितणं ताणं तस्स पाणविराहणा कज्जमो वा होहि त्ति मागणिमित्तं णाम मा मग्गो रुज्झिहित्ति, उदगेण कद्दमेण वा वसहिसंबद्धासु विदगवीणिया कज्जति / एते समण्णतरं, दगवीणिय जो उ कारवे मिक्खू / गिहिअण्णतिस्थिएणव, अयगोलसमेण आणादी।१३६। अयं लोहः, तस्स गोलो पिंडो, सो तत्तो समंता दहति / एवं गिहिअण्णतिथिओ वा समंततो जीवोवघाती, तम्हा एतेहिंण कारवे। दगवीणियएगठ्ठिया इमेदगवीणिय दगवाहो, दगएरिगालो य होति एगट्ठा। विणयति जम्हा तु दगं, दगवीणिय भण्णते तम्हा / 137 / पुव्यद्धे एगट्ठिया, पच्छवे दगवीणियं णिरुत्तं // 137 / / गिहिअण्णतिथिएहिं दगवीणियं कारवेंतस्स इमे दोसाआया तु हत्थपाद, इंदियजायं च पच्छकम्मं वा। फासुगमफासुदेसे,सव्वसिणाणे यलहुगा य॥१३८॥ (आय इति) आयविराहणा-तत्थ हत्थं पादं वा लूसेज्जा, इंदियाण अण्णतरं या लूसेजा, अहया इंदियजायमिति बेदियादिया, ते विराहेज्जा,पच्छाकम्मं या करेज्जा, तत्थ फासुए णं देसे मासलहुं, सव्वे चउलहुं, अफासुएणं देसे, सव्वे वा चउलहुं,अप्पणो करेंतस्स एते चेव दोसा। दगवीणियाए अकरणे इमे दोसापणगादिहरितमुच्छाण-संजमआताअजीरगेलण्णे। वहिता वि आयसंजम-उवधाणा से दुगंछाय॥१३॥ कारणेण करेज वि दगवीणियं। किं कारणं ? इमंवसहीएदुल्लमाए, वाघातजुयाए अहव सुलमाए। Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णउत्थिय 461 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अण्णउत्थिय एतेहिं कारणेहिं, कप्पति ताहे सयं करणं ||140 / / पणगो उल्ली समुच्छइ, आदिग्रहणतो बेंदियादिसमुच्छंति, हरियकाओ उँट्ठति, एसा संजमविराहणा। आयविराहणा सीतलवसहीए भत्तं ण जीरति, ततो गेलण्णं जायति, एते वस-हिसंबद्धाए दगवीणियाए अकजमाणीए दोसा, वसहिअसंबद्धाए बहिया इमे दोसा-उदगागमे ठाणं अनादरे चिलिचले लूति-आयविराहणा संजमे पणगा हरिता बेंदिया वा उवहिविणासो कद्दमेण मलिणवासा दुगुंच्छिज्जति / कारणे गिहिअण्णतित्थिएहिँ विकारविजति। बितियपदमणिउणे वा, णिउणे वा केणई भवे असहू। वाघातो व साहुस्स, णरिकरणं कप्पती ताहे||१४१।। पच्छाकडसामिग्गह-णिरभिम्गहभद्दए य असणी वा। गिहिअण्णतित्थिए वा, गिहि पुव्वं एतरे पच्छा / / 142|| दो वि पूर्ववत् कण्ठातो। नि०चू०१ उ०। (१६)(उपकरणरचना) अन्ययूथिकैः चिलि मिलिकादि कारयतिजे भिक्खू सोत्तियं वा रज्जुयं वा चिलिमिलिं वा अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा कारेति, कारंतं वा साइजइ॥१४|| सुत्ते सुत्ते भवा सोत्तिया, वस्त्रकंबल्यादिकाः इत्यर्थः। रज्जुए भवा रज्जुआ, दोरकि त्ति वुत्तं भवति। छण्णवहणट्ठमरणे, वासे उन्भक्खणी जओ एति। उल्लवहिं विरल्लेंति व, अंतो बहि कसिण इतरं वा // 162|| जाव मंतओण परिहविजति ताव पच्छण्णे धरिजति, अद्धाणे वा जाव थंडिलं न लब्भति ताव छादितो गतो बुज्झति, जओ उब्भक्खणी एति, ततो कडगचिलिमिली दिज्जति, वासासु वा उल्लवहिं विरल्लेंति दोरे जहासंखं अंत बहि कसिण इतरं वा1 पंचविधचिलिमिलीए, जो पुव्वं कप्पती गहणं / असती पुव्वकडाए, कप्पति ताहे सयं करणं / / 16 / / बितियपदमणिउणे वा, निउणे वा होज्ज केणई असहू। वाघातो व साहुस्स, नरिकरणं कप्पती ताहे // 165|| गाहा पूर्ववत् कण्ठा। नि०चू०१ उ०॥ (20) सूचिप्रभृत्युपकरणान्यन्ययूथिकेन वा गृहस्थेन वा कारयतिजे भिक्खू सूचियस्स उत्तरकरणं अन्नउत्थिएण वागारत्थिएण वा कारेति, कारंतं वा साइज्जइ।।१५|| सूयीमादीयाणं, उत्तरकरणं तु जो तु कारेजा। गिरिअण्णतित्थिएणव, सोपावति आणमादीणि।।१६६|| उव्वग्गहितासूयादिया तु एक्केक्कए गुरुस्सेव। गच्छं व समासज्जा, अणायसेक्केक सेसेसु // 167 / / सूची पिप्पलओ णहच्छेयणं कण्णसोहणं उवम्गहितोवकरणं, एते य एकेका गुरुस्स भवंति। सेसा तेहिं चेव कजं कारेंति, महल्लगच्छं वा समासज्ज अणायसा अलोहमया सवंससिंगमयी वा सेससाहूणं एकेका भवति / किं पुण उत्तरकरणं ? / इमं - पासग मट्टिणिसीयण-पजण रिउकरण ओत्तरणं / सुहुमं पिजंतु कीरति, तदुत्तरं मूलणिव्वत्ते / / 168|| पासगं विलंब द्विति, लण्हकरण मट्टिणिसीयणं णिसाणे पज्जणं लोहकारागारे रिजु उज्जुकरणं एवं सव्वं उत्तरकरणं / अहवा मूलनिव्वत्ते उवरिं सुहममविजं कज्जति तं सव्वं उत्तरकरणं। सूयीमादीयाणं, णिप्पडिकरणं तु कप्पती गहणं। असती णिप्पडिकम्मे, कप्पती ताहे सयं करणं // 169 / / नि०चू०१ उ०। (21) शिक्यादिकोपकरणकारणम्जे भिक्खू सिकंग वा सिक्कगणंतगं वा अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा कारेंति, कारंतं वा साइज ||13|| जे भिक्खू सिक्करोप्यादि सिक्कगं एसिं जारिसंवा परिव्वायगस्स सिकं अणंतओ उपाणओ उच्छाडणं भण्णति, जारिसं कावलिस्स भोयगचुलियाणं, एस सुत्तत्थो। इदाणिं निजुत्तिवित्थरोसिक्कगकरणं दुविधं, तसथावरजीवदेहणिप्फण्णं / अंडगवालग कीडज-होरूवन्मादिगतेरस॥१४३|| जे भिक्खू पिप्पलगस्स उत्तरकरणं अण्णउत्थिएण वा गारथिए वा कारेइ, कारंतं वा साइजइ॥१६|| पिप्पलगहणच्छेदण-सोधणए चेव हो ति एवं तु / णवरं पुण णाणत्तं, परिभोगे होति णायव्वं / / 13 / / एवं पिप्पलगहणच्छेयणसोह य एक्कक्के चउरो सुत्ता, अत्थो पूर्ववत् / परिभोगे विसेसो इमोवत्थं छिंदिस्सामिति, जाइ उ पादछिंदणं कुणति। अधवा विपादछिंदण, काहिंतो छिंदती वत्थं // 184|| णक्खं छिंदिस्सामिति, जाइ उ कुणंति सल्लमुद्धरणं / / अहवा सल्लुद्धरणं, काहिंतो छिंदतीणक्खे / / 18 / / पिप्पलगहणच्छेयणाणं अप्पणे इमा विधीमज्झे वा गेण्हित्ता, हत्थे उत्ताणयम्भिवा काउं। भूमीएव ठवेत्तुं, एस विधी होति अप्पणणे // 186|| उभयतो धारणसंभवा मज्झे गेण्हिऊण अप्पेति। सेसं कंठं / / कण्णं सोधिस्सामिति, जाइं तु दंतसोधणं कुणति। अहवा विदंतसोधण, काहिंतो सोहती कण्णे / / 187 / / लाभालाभपरिच्छा, दुल्लभअचियत्तसहसअप्पणणे। बारससु वि सुत्तेसु अ, अवरपदा होति णायव्वा / / 158|| जे भिक्खू लाउयपायंवा दारुपायं वा मट्टियापायंवा चउत्थिएण वा गारथिएण वा परिघट्टीवेति वा, संठवेइवा, जम्माइति वा, अलमप्पणो कारणयाए सुहममविणो कप्पइ,जाणमाणे सरमाणे अन्नमन्नस्स विसरमाणे वियरति, वियरंतं वा साइज्जइ॥३|| (जे भिक्खू लाउयपादं वा इत्यादि) दो द्वियकंचुघटितं मन्मयं कपालकादि परिघट्टणं णिम्मोअणं संठवणं मुहादीणं जम्मावणं विसमाण समीकरणं अलं पजंतं सक्केति, अप्पणो काउंति वुत्तं भवति, जाणइ जहा ण वट्टति, अण्णउत्थियगारस्थिएहिं कारावेउं जाणति वा, सुत्तं सरति, एस अम्हओवदेसो पच्छित्तं वा सरइ, Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णउत्थिय 462 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अण्णउत्थिय अण्णमण्णा गिहत्थऽण्णउत्थिया, ताण वितरति पयच्छति, कारयतीत्यर्थः / अहवा गुरुः पृष्टः साधुभिर्यथा-गृहस्थान्यतीर्थिक, कारयामः / ततः प्रयच्छते, अनुज्ञां ददातीत्यर्थः / भणिओ सूतत्थो। नि०चू०५ उ०। पढमबितियाण करणं. सुहुममवी जो तु कारए मिक्खू। गिहिअण्णतित्थिएण व, सो पावति आणमादीणि / / 16 / / पढमं बहु परिकम्म, बितियं अप्पपरिकम्म, सेसं कंठं। जम्हा एते दोसा तम्हा घट्टितसंठविते वा, पुव्वं जमिते य होति गहणं तु। असती पुव्वकडाए, कप्पति ताहे सयं करणं / / 200 / / नि०चू०५ उ०) जे मिक्खू दंडयं वा लट्ठियं वा अवलेहणियं वा विणुसूइयं वा अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा परिघट्टावेइ वा, जम्माइवेइ वा, अलमप्पणो कारणयाए सुहुममवि णो कप्पड़, जाणमाणे सरमाणे अन्नमन्नस्स वि सरमाणे वियरति, वियरंतं वा साइजइ // 40 // पढमबितियाण करणं, सुहुममवी जो तु कारवे मिक्खू / गिहिअण्णतित्थिएण व, सो पावति आणमादीणि॥२१६।। घट्टितसंठविताए, पुव्वं जमिते य होति गहणं तु। असती पुव्वकडाए, कप्पति ताहे सयं करणं / / 217 // वेलुमयी गवलमयी, दुविधा सूयी समासतो होति। चउरंगुलप्पमाणा, सामिचणसंघणवाए।।२१८|| एकेक्का सा तिविधा, बहुपरिकम्मा य अपरिकम्माए। अपरीकम्मा यतहा,णातव्वा आणुपुव्वीए।।२१६॥ अद्धंगुलप्पमाणं, थिजंतो होति सपरिकम्मा तु। अद्धंगुलमेगंतु, छज्जंती अप्पपरिकम्मं // 220|| जा पुव्ववट्टिता वा, पुव्वं संठवित तत्थ सा वा वि। लब्मति पमाणजुत्ता, साणायव्वा अघाकडगा // 221 // पढमबितियाण करणं, सुहुममवी जो तु कारवे मिक्खू / गिहिअण्णतित्थिएणव, सो पावति आणमादीणि // 222 // घट्टितसंठविताए, पुट्विं जमिताइ होति गहणं तु / असती पुव्वकडाए, कप्पति ताहे सयं करणं / / 223 / / गाहा सव्याओ पूर्ववत् / नि०चू०१ उ०॥ (22) अन्ययूथिकादिभिः सहगोचरचर्याय न प्रविशेत्जे भिक्खू गिहत्थाण वा अण्णउत्थियाण वा सीओदगपरिमोयणा वा हत्थेण वा मत्तेण वादविएणवाभायणेण वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमंवा पडिगाहेइ, पडिग्गहतं वा साइज्जइ॥१८॥ इमो सुत्तत्थोगिहिअण्णतित्थिएण व, सूयीमादीहितं तु मत्तण्णे। जे मिक्खू असणादी, पडिच्छते आणमादीणि // 13 // गिहत्था सोत्तियबंभणादि, अन्नतित्थिया परिव्वायगादि, उदगपरिभोगी मत्तओ सूई, अहवा कोइ सूईवादी तेण दलेआ, सोय सीओदगपरिभोगी मत्तओ उल्लंककमादि तेण गेण्हतस्स आणादिया दोसा, चउलहुं च से पच्छित्तं / इमे सीतोदगपरिभोइणो मत्तादगवारगवट्टणिया, उल्लंकाऽऽयमणिवल्लमा उएगट्ठा। मयवारवदुगमत्ता, सीओदयभोगिणो एते॥१३७॥ दगवारगो गटुअउं आयमणी लोट्टिया कट्टमओ उल्लंकओ कमओ वारओ वटुयं कप्पयंतं पिकमयं एतेसु गेण्हंतस्स इमे दोसानियमा पच्छाकम्म, धोतो वि पुणो दगस्स सो वत्थं / तं पिय सत्थं असणो-दगस्स संसज्जते वण्णं // 13 // भिक्खप्पयाणोवलित्तं पच्छा धुवंतस्स पच्छाकम्म स मत्तगो असणादिरसभाविओ त्ति उदगस्स सत्थं भवति, तमुदगमबीयभूतं संसेव्यते य॥१३८॥ सीओदगमोईणं, पडिसिद्धं मा हु पच्छकम्मं ति। किं होति पच्छकम्मं, किं व न होति त्ति ते सुणसु // 136 / / जेण मत्तेण सचित्तोदगं परिभुजति, तेण भिक्खग्गहणं पडि-सिद्ध / सीसो पुच्छति-कहं पच्छाकम्मं भवति, णो भवति वा? आचार्य आहसुणसुसंसट्ठमसंसढे, भावे सेसे य निरवसेसे य। हत्थे मत्ते दव्वे, सुद्धमसुद्धे तिगट्ठाए।१४०।। संसले हत्थेसंस मत्तेसावसेसे दव्वे एएसुतिसुपदेसुअट्ठभंगा कायव्वा / विसमा सुद्धा, समा असुद्धा ! भंगेसु इमा गहणविधीपढमे गहणं सेसे-सु वि जत्थ सा सुहं क्खु सेसं तु। अण्णेसुतहा गहणं, असव्वसुक्खे वि वा गहणं // 141 / / (अन्नेसु त्ति) सेसेसु भंगेसुजदि देयं दव्यं सुक्खं अवलेवकडं सुक्खं मंडगकुम्भादितो गम्भं पच्छाकम्मस्स अभावात् बितियपदं // 141|| असिवे ओमोयरिए, रायद्दद्वे भए व गेलण्हे। अद्धाण रोहए वा, जयणा गहणं तु गीयत्था / / 142 / / पूर्ववत् अनुसरणीया। निचू०१२ उ०। जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएणवाअसणंवा पाणं वा खाइमं वा साइमंवा देइ, देयंतं वा साइजइ॥७८|| जे मिक्खू असणादी, देजा गिहि अहव अण्णतित्थीणं / सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं पावे // 268 // तेसिं अण्णतित्थियगिहत्थाणं दितो आणादी पावति, चउलहुं च // 268|| सव्वे वि खलु गिहिया, परप्पवादीय देसविरता य। पडिसिद्धदाणकरणे,जेण परालोगकंखीण / / 266 // एतेषु दानं शरीरशुश्रूषाकरणं अधवा दान एव करणं यः Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णउत्थिय 463 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अण्णउत्थिय परलोककाक्षी श्रमणः तस्यैतत् प्रतिषिद्धं, अहवा एतेषु दाणं करणं किं पवण्णा अद्धाणं साहुतित्थगिहियं तत्तत्कारणेहिं गिहीण अच्छिण्णं तं पडिसिद्ध जेण समणो परलोककंक्खी ? चोदक आह साधू गिहीण पव्वजिणेजा, अधवा अद्घाणे अंतिपतियमादियाण देजा, जुत्तमदाणमसीले, कडसामइओ उ होति समण इव। वेज्जस्स वा गिलाणट्ठा आणियस्स देज्जा, तं च जहा दिजति तहा तस्स मजुत्तमदाणं चोदग ! सुण, कारणं तत्थ / / 270|| पुव्वभणियं जत्थ गिहीणं अण्णतित्थियाण य साधूण य अंचियका जे जुत्तं अण्णतित्थियगिहेत्थेसु अविरतेसु त्ति काउंदाणं ण दिजति, जो दुल्लभे भत्त-पाणडंडियमादिणा साहारं ण दिण्णं तत्थ ते गिही पुण देसविरतो सामाइयकडो, तस्स जंदाणं पडिसिज्झति, एयमजुत्तं, अण्णतित्थिया विभजाएयव्वा, अह ते अणिच्छा साधु भणेजा, अहंवाते जेण सो समणभूतो लब्भति / आचार्य आह- हे चोदक ! एत्थं कारणं पंता, ताहे साधू विभज्जति, साहुणा विभयंतेण सव्वेसिं वि हु समग्गमेव सुणसु विभइयव्वं, एसूवदेसो।।१७६|| नि०चू०१५ उ० रंधण-किसि-वाणिज्जं, पावति तस्स पुव्व विणिउत्तं सो। से भिक्खू वा मिक्खुणी वा गाहावतिकु लं० जाव कयसामाइयजोगि वि, सूयस्स अपच्छमाणस्स // पविसित्तुकामे णो अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा परिहारिउ जदि वि सो कयसामाइओ उवस्सए अत्थति, तहा वि तस्स पुट्विजुत्ता वा अपरिहारिएण सद्धिं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविसिज्ज अहिकरण जोगा पावति त्ति रंधणजोगो कृषिकरणजोगो वाणिज्जजोगो वा, णिक्खमेज वा। य, एतेण कारणेण तस्स दाणमजुत्तं / चोदकः -णणु भणियं समणो इव (से भिक्खू वा इत्यादि) स भिक्षुर्यावद् गृहपतिकुलं प्रवेष्टुकाम सावओ। उच्यते- ओवम्मेण तु समणे ते जेण सव्वविरती ण लब्भति। एभिर्वक्ष्यमाणैः सार्द्ध न प्रविशेत, प्राक् प्रविष्टो वा नातिक्रामेदिति जओ भण्णति संबन्धः / यैः सह न प्रवेष्टव्यं तान् स्वनामग्राहमाह- तत्रान्यतीर्थकाः सामाइय पारेउ,ण णिग्गतो साहुवसहीए। सरजस्कादयो गृहस्थाः, पिण्डोपजीविनो धिग्जातिप्रभृतयस्तैः सह अहिकरणं सातिजति, उता हु तं वोसरति सव्वं // 172 / / प्रविशताममी दोषाः / तद्यथा-ते पृष्ठतो वा गच्छेयुरगतो वा, तेऽत्राग्रतो आयरियो सीसं पुच्छति-सामाइयं करेति त्ति। साधुवसही वितोपत्ततो गच्छन्तो यदि साध्वनुवृत्त्या गच्छेयुस्ततस्तत्कृतं ईर्याप्रत्ययः कर्मबन्धः, प्रवचनलाघवं च, तेषां वा स्व-जात्याधुत्कर्ष इति / अथ आरब्भ जाव सामइयं पारेऊण न णिग्गतो साधुवसहीए पोसहसालाओ वा एयम्मि साइयकालो तस्स अधिकरणजोगा पुव्वपवत्ता कन्जंति, तो पृष्ठतस्ततस्तत्प्रद्वेषो, दातुर्वा अभद्रकस्य लाभं च, दाता संविभज्य सा किं सातिञ्जति, उताहु ते वोसरति सव्वे / उच्यते-ण वोसरति दद्यात्तेनावमोदर्यादौ दुर्भिक्षादौ प्राणवृत्तिर्न स्यात, इत्येवमादयो दोषाः। साइज्जति, जदि साइज्जति एवं भणंतस्स सव्वविरती लब्भति॥१७२।। तथा परिहारस्तेन चरति परिहारिकः, पण्डिदोषपरिहरणा दुधुक्तविहारी, साधुरित्यर्थः / स एवंगुणकलितः साधुरपरिहारिकेण दुविह तिविहे ण रुज्झति, अणुमन्ना तेण सा ण पडिरुद्धा। पार्श्वस्थावसन्नः कुशील-संसक्तयथाच्छन्दरूपेण न प्रविशेत, तेन सह अणुओ ण सव्वविरतो, स समामति सव्वविरओ य॥१७३॥ प्रविष्टा नामनेष-णीयमिक्षाग्र हणाग्रहणकृता दोषाः / तथाहिपाणादिवायादियाणं पंचण्हं अणुव्वताणं सो विरतिं करेति / (दुविधं अनेषणीयग्रहणे तत्प्रवृत्तिरनुज्ञाता भवत्यग्रहणे तैः सहाऽसंखडादयो तिविधेण त्ति) दुविधेण करेति,ण कारवेति, तिविधं मणेण वायाए कारणं दोषाः / तत एतान् दोषान् ज्ञात्वा साधुर्गृहपतिकुलं पिण्डपातप्रतिज्ञया ति। एत्थ तेणं अणुमतिण णिरुद्धा, तेण कारणेण वडसामाति ता विसो तैः सहन प्रविशेन्नापि निष्कामेदिति। आचा०२ श्रु०१ अ०१ उ०। सव्वविरतो ण लब्भति, किं चाऽन्यत्॥१७३।। कामी सघरं-गणतो, मूलपइण्णा स होइदट्ठव्वा। (23) (दानम्) अन्ययूथिकेभ्योऽशनादिनदेयम्छेयणमेयणकरणे, उद्दिट्ठकडं च सो मुंजे // 174 / से भिक्खू वा भिक्खुणी वा० जाव पविढे समाणे णो णद्वेहितविस्सरिते, छिण्णे वा मइलिए व वोच्छे य। अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा परिहारिओ वा पच्छाकम्मपवहणा, धुयावणं वा तदट्ठस्स // 175 / / अपरिहारियस्स वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा देज्ज पंच विसया-कामेति त्ति कामी सगृहेण सगृहः, अङ्गना स्त्री, सह वा, अणुपदेज वा। अङ्गनया साङ्गनः, मूलपइण्णा, देसविरति त्ति वुत्तं भवति / साधूणं साम्प्रतं तद्दानार्थप्रतिषेधमाहसव्यविरती वृक्षादिच्छेदेन पृथिव्यादिभेदेन प्रवृत्तः सामायिकभावादन्यत्र (से मिक्खू इत्यादि) स भिक्षुर्यावद् गृहपतिकुलं प्रविष्टः जं च उद्दिष्टकर्ड तं कडसामाइओ वि भुंजति, एवं सो सव्वं ण भवति, सन्नुपलक्षणत्यादुपाश्रयस्थो वा तेभ्योऽन्यतीर्थिकादिभ्यो दोषसंभवाएतेण कारणेण तस्स ण कप्पति दाउं इमो / अहवा दशनादिकं न दद्यात्, स्वतो नाप्यनुप्रदापयेदपरेण गृहस्थादिनेति / बितियपदे परलिंगे, सेहवाणे य वेजसाहारे / तथाहि-तेभ्यो दीयमानं दृष्ट्वा लोकोऽभिमन्येत, एते ह्येवंविधानामपि अद्धाण देसगलणे, असती पडिहारिते गहणं // 176 // दक्षिणार्हाः / अपि च / तदुपष्टम्भादसंयम-प्रवर्तनादयो दोषा जायन्त एयस्स इमा विभासा कारणे। परतित्थियाण मज्झे अच्छतो देञ्ज, सेहो इति / आचा०२ श्रु०१ अ०१ उ०। उड्डो रगत्तणा देज, गिही अण्णतित्थी या णिब्बंधेण मग्गेज, तदा से जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा परिहारिओ दिजात, सहवा गिहिवसद्विती भावतोपव्यइओ तस्स देजा, सत्थेण वा / वा अपरिहारिएण वा गाहावइकु लं पिंडवायपडियाए Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णउत्थिय 464- अभिघानराजेन्द्रः - भाग 1 अण्णउत्थिय अणुपविसइज्ज वा, निक्खमइज वा, अणुपविसंतं वा निक्खमंतं वा साइजइ॥३६॥ अन्यतीर्थिकावरकपरिव्राजकशाक्याजीवकवृद्धश्रावक प्रभृतयः, गृहस्था मरुगादिभिक्खायरा, परिहारिओ मूलुत्तरदोसेपरिहरति, अहवा मूलुत्तरगुणे धरेति, आचरतीत्यर्थः। तत्प्रतिपक्षभूतो अपरिहारी। ते य अण्णतित्थिया गिहत्था। णो कप्पति भिक्खुस्सा, णिहिणा अधवा वि अण्णतित्थीणं। परिहारियस्स परिहारिएण गंतुं वियाराए॥३००।। सद्धिं समानं युगपत् एकत्र आहाकम्मं गाहापडिवणिकाए सावज्जमनादियोगत्रयं करणत्रयं च गाहावतिकुलं / अस्य व्याख्यागाहगिहं गाहा गेहं त्ति वा गिहं ति वा एगटुं, तस्येति गृहस्य पतिः प्रभुः स्वामी, गृहपतिरित्यर्थः। दारमत्यादिसमुदायो कुलं पिण्डं वायपडियाए त्ति। अस्य व्याख्या-पिंडो असणादी गिहिणा दीयमानस्य पिण्डस्य पात्रे पातः, अनया प्रज्ञया एत्थ दिलुतो जहा-बालंजुअवणिउबलं जंघेत्तुंगाम पविट्ठो / अण्णेण पुच्छियं-किं णिमित्तं गार्म पविट्ठोसि ? भणातिसुत्तपायपडियाए धण्णपायपडियाए त्ति, तहेव पिंडवायपडियाए त्ति / किंच-इदं सूत्रं लोगोत्तर-उभयसंज्ञाप्रतिबद्धं किंचित् स्वयमयं संज्ञाप्रतिबद्धं भवति, अणुपविसति। अस्यव्याख्या चरणादि गाहा। अनु पश्चाद्भावे चरगादिसु णियट्टे सु पच्छा पागकरणकालतो वा पच्छा, एवं अनुशब्दः पश्चायोगे सिद्धः। एत्तो एगतरेणं, सहितो जो गच्छती वियाराए। सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं पावे // 301 / / एत्तो एगतरेण गिहत्थेण वा अण्णतित्थिएण वा समं पविसंतस्स आणादिया दोसा। आयसंजमविराहणाओ भावणा। गाहा पंडरंगादिएसु सद्धिं हिंडतस्स पवयणो भावणा भवति, लोगो वयति-पंडरंगादिपसायओ लभंति, सयंनलभंति, असार-वचनप्रयत्न-त्वात्। अधवालोगो वदतिअलद्धिमंता यपरलोगे वा अदिन्नदाणा आत्मानं न विंदति, शूद्रा इति। एते पंडरंगादि शिष्यस्तमभ्युपगन्ता वसति, यत एभिः सार्द्ध पर्यटते, किंचान्यत् / अधिकरणगाहा, गिही अयगोलसमाणो ण वट्टति भणितुं, एहि णिसीदतु, वट्ट धयाहि वा भणतो अधिकरणं गिहत्थो अलद्धी साहू लद्धी उवहणति, साहुस्स अंतरायं अह संजतो अलद्धीतो गिहत्थस्स अंतराय जेण समं हिंडति, दातारस्स वा अचितत्तं किं मया समं हिंडसि त्ति, अधिकरणं च भवे, अखंडेऊण पदुट्ठो अवस्सयं अगणिणा डहेज, पंता वणादि वा करेज, एगस्स वा गिहिणा गिहिणीणि उदोण्ह वितेज्जतं चेव अंतरायं अवियताए संखडा तीया य साहुस्स करेज, दातारस्स वा करेल, उयस्स वा कुजा, दोण्हता अट्ठाणीणि य एगस्स देज, साहुस्स गिहत्थस्सवा, तेचेव अंतरादीदोसा।जतो भण्णति-संजयपदोसगाहा / संजयगिही उभयदोसइतिगतार्था। एवं अणेगहा चत्ति। अस्य व्याख्याणढे दुपदेचउप्पदे णवपएच, एतेसुचेव हडेसुवत्थादिएसुवा वि सुमतिएसु साधुगिहंवा एगंतरं संकेत, उभयंथा किहपुणाति संकेजे, एतेसमणमाहणा परोप्परं विरुद्धा वि एगतो अडति, ण एते जे वा ते वा णूणं एते चोरा चोरिया वा, कामी वा दुपयादि वा अवहडामएहिं जम्हा एते दोसा, तम्हा गिहत्थ-ऽण्णतित्थीहिं समं भिक्खाए ण पविसियव्यं, बितियपदेण कारणे पविसेजा वि।जतो बितियपदगाहा। अंचियं दुभिक्खं, एतेसुअंचियादिसु एतेहिं गिहत्थऽण्णतित्थीहिं समं भिक्खा लब्भति, अन्नदान लब्भति, अतो तेहिं समाणं अडे, सोय जदि अहाभद्दो णिमंतेइ या, अहाभद्दएण पुण समाणं दो तिण्णि घरा, अण्णहा ते चेवासंख-डादी। रायदुढे सो रायवल्लभो गिलाणस्स सह एत्थ भोयणादि, सो दव्यायेति, अण्णहाण लब्भति, भिक्खायरियं वा वचंतस्स उ वि सरीरं तेण रक्खति, पडिणीयसाणे वावारेति / आदिसद्दातो गोणसूयरातीए विपविसतो पुण इमा विही पुव्वगते गाहा / गिहत्थऽन्नतिस्थिएसु पुव्वपविढे पत्तं वा पुव्वपविट्ठो अण्णभावे ति, एरिस तापंदरिसेति जेण णाति, जहा एतेण समाणं हिंडंति, अडतस्स य इमो विही पुव्वं पच्छा कडमरुएसु तओ पच्छा कडअण्णलिङ्गीसु, तओ अहाभद्दमरुएसु तओ अहाभद्दमण्णलिंगिणा अहाभद्दए वि, एस चेव कमो। नि०चू०२ उ०। जे भिक्खू आगंतारेसु वा आरामागारेसु वा गाहा-वइकुलेसु वा परियावसहेसु वा अन्नउत्थियं वा गारत्थियं वा असणं वा पाणं खाइमं वा साइमंवा ओभासिय ओभासिय जायति, जायंत वा साइजइ।।१।। जे मिक्खू आगंतारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा अण्णउत्थीउवा असणं वा पावं वा खाइमं वा साइमं वा ओभासिय ओभासिय जायति, जायंतं वा साइजइशाजे मिक्खू आगंतारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा अन्नउत्थियाणि वा गारत्थियाणि वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा ओभासिय ओमासिय जायति, जायंतं वा साइज्जइ॥३॥ 'जे मिक्खू' पूर्ववत् आगंतारो-जत्थ आगारा आगंतू विहरंति, तं आगंतागारं, गामपरिसट्ठाणं ति वुत्तं भवति / आगंतुगाणं वा कयं अगारं आगंतागारं, बहिया वासो त्ति, आरामे अगारं आरामागारं, गिहस्स पती गिहपती, तस्स कुलं गिहपतिकुलं, अन्यगृहमित्यर्थः / गिहपञ्जायं मोत्तुं पव्वजा परियाए ठिता, तेसिं आवसहो परियावसहो, एतेसु ठाणेसु द्वितं अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा असणाइओभासति, साइज्जति वा, तस्स मासलहु। एस सुत्तत्थो / इमा सुत्तफासियाआगंतारादीसुं, असणादी भासती तु जो मिक्खू। सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराघणं पावे // 2 // आगंतारादिसु निहत्थमन्नतित्थियंधा जो भिक्खू असणादि ओभासति सो पावति आणा, अणवत्थमिच्छत्तविराहणं च / / 2 / / आगमकयमागारं, आगंतु जत्थ चिट्ठति अगारा। परिगमणं पञ्जाओ, सो चरगादी तुणेगविहो ||3|| आगमा रुक्खा, तेहिं कयं अगारं आगंतुं जत्थ चिट्ठति, अगारं तं आगंतागारं परि समंता गारणं गिहभावं गतेत्यर्थः। पञ्जायोपवना, सोय चरगपरिव्वायगसक्कआजीवागमादि णेगविधो भवेतरा ||3|| मद्देतरा तु दोसा, हवेज ओमासिते अठाणम्मि। अचियत्ता भावणता, पंते भद्दे इमे हॉति // 4 // Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णउत्थिय 465 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अण्णउत्थिय अट्ठाणहितो भासिते पंतभद्ददोसा, पंतस्स अचियत्तं भवति, ओभासणता- अहो ! इमे भद्ददोसा। जह आतरोसि दीसइ, जह य विमग्गंति मं अठाणम्मि। दंतेंदिया तवस्सी, तं देमि ण मारितं कजं // 5 // जहा एवं साहुस्सातरो दीसति, जहा-अयं अट्ठाणट्ठियं विमग्गंतिदंतें दिया तवस्सी तो देमि अहं एतेसिं गूणं से भारितं कजं, आपत्कल्पमित्यर्थः // 5 // सडिगिहिं अण्णतित्थी, करिज ओभासिए तु सो असते। उग्गमदोसेगतरं, खिप्पं से संजतट्ठाए॥६॥ श्रद्धाऽस्यास्तीति श्राद्धी, सो य गिही, अण्णतिथिओवा, ओभासिए समाणओ इति / स गिही अण्णतिथिओ वा खिप्पं तुरियं सहं उग्गमदोसाणं अण्णतरं करेज्जा संजयवाए॥६॥ एवं खलु जिणकप्पे, गच्छो णिक्कारणम्मितह चेव। कप्पति य कारणम्मी, जतणा ओमासितुं गच्छे / / 7 / / एवं ताजिणकप्पे भणियं गच्छवासिणो विणिक्कारणे एवं चेव कारणजाते पुण कप्पति। थेरकप्पियाणं ओभासिउं किंचित्कारणं इमंगेलण्ह रायदुद्वे, रोहग अद्धाण अंचिते ओमे। एतेहि कारणेहिं,असतीलभंति ओमासे ||8|| गिलाणऽद्धाण य दुढे वा रोहगे था अंतो अपचंता अंचिते वा, अंचियणं णाम दात्रसंधी, तत्थ भवणी उखंधिआ उण वा णिप्फण्णं, णिप्फण्णे वा ण लम्भति, ओमं दुर्मिक्षं, एवं अंचिए ओमे, दीर्घ दुर्भिक्षमित्यर्थः / एतेहिं कारणेहिं अलभते ओमासेज्जामिण्णं समतिक्कतो, पुव्वं जतिऊण पणगपणगेहिं। तो मासिएसु पच्छ वि, ओभासणमादिसुं असढो || इमा जयणा-पढमं पणगदोसेण गेण्हति पच्छा दस पण्णरस वीस भिण्णमासदोसेण य एवं पणगभेदेहिं जाहे भिण्णं समतिक्कतो ताहेमासि अट्ठाणेसु ओभासणादिसु जतति, असढो / तत्थ तु ओभासणे इमा जयणातिगुणगतेहि प दिट्ठो, णीया वुत्ता तु तस्स उ कहेह। पुट्ठापुट्ठा व ततो, करेति जं सुत्तपडिकुटुं ||10|| पढम घरे ओभासिञ्जति अदितु, एवं तयो वा रायघरे गवेसियव्यो, तत्थ भज्जा ति णीया वत्तव्वा, तस्स आगयस्स कहेज्जह साधूतव सगासं आगया, कलेणंघरे अदिवे पच्छा आगंतारादिसु दिट्ठस्सघरगमणादि सव्वं कहेतु, तेण वंदिते अवंदिते वा तेणेव पुढे अपुट्ठावाजं सुत्ते पडिसिद्धं तं कुव्वंति, ओभासंति इत्यर्थः। जे मिक्खू आगंतारेसु वा आरामागारेसु वा गाहा-वइकुलेसु वा परियावसहेसु वा अन्नउत्थियं वा गारत्थियं वा कोउहल्लपडियाएपडियागयं समाणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा ओभासिय ओभासिय जायति, जायंतं वा साइजइ॥४॥ ___ एवं अण्णउत्थिया वा गारत्थिया वा, एवं अण्णउत्थिणीओ या गारत्थिणीओ वा। पढमम्मी जो तु गमो, सुत्तो बितिए वि होति सो चेव। ततिय चउत्थे वितहा, एगत्तपुहत्तसंजुत्ते / / 11 / / पढमे सुत्ते जो गमो, बितिए वि पुरिसपोहत्तियसुत्ते सो चेव गमो। ततियचउत्थेसु वि इत्थिसुत्तेसु सो चेव गमो॥४॥ जे मिक्खू आगंतारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसुवा परियावसहेसु वा अण्णउत्थियाउ वा गारत्थियाउ वा कोउहल्लपडियागयं समाणं असणं वा पाणं वा खाइमंदासाइमं वा ओभासिय ओमासिय जायति, जायंतं वा साइज्जइ॥५॥जे भिक्खू आगंतारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा अण्णउत्थियाउणी वा गारत्थियाउणी वा कोउहल्लपडियाएपडियागयं समाणं असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं ओभासिय ओमासिय जायति, जायंतं वा साइजइ // 6 // जे मिक्खू आगंतारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा अण्णउत्थियाउणी वा गारत्थियाउणीवा कोउ-हल्लपडियाएपडियागयं समाणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमंवा ओभासिय ओभासिय जायति, जायंतं वा साइजइ७|| जे भिक्खू आगंतारेसु वा इत्यादि कोऊहलं ति यावत्, कौतुकेनेत्यर्थः / गाहासूत्राणिआगंतागारेसुं, आरामगारे तह गिहा वसही। पुव्वहिताए पच्छा, एज गिही अण्णतित्थि वा केई // 12 // तमागतंजे असणातीतो भासति, तस्समासलेहुँ, धम्मं सावगधम्म वा पेच्छामो / एत्तो गाहाअहमावेणं कोऊहल केई वंदणणिमित्तं / पुच्छिस्सामो केई, धम्म दुविधं व पेच्छामो // 13 // एगो एगतरेणं, कारणजातेण आगंतं संतं / जो भिक्खू ओमासति, असणादी तस्सिमा दोसा // 14 // तस्सिमे भद्दपंतदोसाआतपरोमासणता, अदिण्णदिण्णे व तस्स अचियत्तं / परिसो मासणदोसा, सविसेसतरा य इत्थीसु॥१४॥ अलद्धे अप्पणो ओभासणा सुद्धा लभंति तिण्णि अदिण्णे परस्स ओभासणा किवणे त्ति, अदिण्णे वा अचियत्तं भवति, महा-यणमज्झे वा पणइ, ते देमित्ति, पच्छा अचियत्तं भवति, दाओ पुरिसे ओभासणदोसा एव केवला, इत्थिआसु ओभासणदोसा, संकादोसाय, आयपरसमुत्था यदोसा। भद्दो उग्गमदोसे, करेन्ज पच्छण्ण अभिहमादीणि। पंता पेलवगहणं,पुणरावर्ति तहा दुविधं // 15 // भद्दओ उग्गमे गतरदोसं कुञ्जा, पच्छण्णाभिहडं पागाडामिहडं वा अण्णे जपंता साहुसु पेलवग्गहणं करेन-अहो इमे अदिण्णदाणा, जो आगच्छति तमोभासंति, साहुसावगधम्म या Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णउत्थिय 466 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अण्णउत्थिय पडिवज्जामि त्ति, ओभासिओ उद्दुरूढोपडिणियत्तो जाहे सावगो होहामि __ गारत्थियाउणी वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा ताहे ण सुइहिंति, जइ पव्वलं घेप्पामो ति एगो विपरिणमति, तो मूलं अमिहडं आहट्ट दिज्जमाणं पडिसेहित्ता तमेव अणुवित्तिय दोसुणवमं तिसुचरिम, जंचते विपरिणया अंसजभ काहिंति तमावजंति, अणु वित्तिय परिवेट्टिय परिवेट्टिय परिजविय परिजविय अधवा णिण्हएसु वचंति जम्हा एते दोसा तम्हाणओभासियव्यो आगओ, ओभासिय ओभासिय जायति, जायंतं वा साइजइ॥११॥ एवं वि पच्छित्तं परिहरियं आणा अणुपालिया, अणवत्था, मिच्छत्तं च आगंतागाराइसुट्ठियाणं साहूणं अण्णतिथिओ गारत्थिओवा अभिहडंपरिहरियं, दुविहविराहणा परिहरियत्ता कारणे पुण ओभायति / इमे य आभिमुख्येन हृतं अभिहतं, पारणादिसु कोइ सेट्ठी सयमेव आहटु कारणा दलएजति, पडिसेहेत्ता तमेव त्ति, तं दायारं अणुवत्तिय त्ति, सत्त पदाई असिवे ओमोदरिए, रायडुढे भए व गेलण्हे। गंतापरिवेट्टियत्ति, पुरतो पिट्ठतोपासतो ठिचा परिजविय त्ति परिजल्प्य अद्धाण रोहए वा, जतणा ओभासितुं कप्पे॥१६| परिजल्प्य तुज्झेहिं रायं अम्हट्ठा आणियं मा तुज्झं अफलो परिस्समो तिगुणगतेहि ण दिट्ठो, णीया वुत्ता तु तस्स तु कहेह। भवतु, मावा अधितिं करेस्सह, तो गेण्हामो। एवं ओभासंतस्समासलहुं / पुट्ठापुट्ठा व ततो, करेंतिजं सुत्तपडिकुटुं / / 17 / / सुद्धे वि असुद्धे पुण जेण असुद्धं तमावजो। एगते जो तु गमो, णियमा पोहत्ति धम्मि सो चेव। अगंतागारेसुं, आरामाऽगारे तह गिहा वसही। एगता तो दोसा, सविसेसतरा पुहत्तम्मि॥१८|| गिहिअण्णतित्थिएवा, आणिज्ज अभिहडं असण्णियमा।२०। असिवे जदा मासं पत्तो ताहे घरं गंतु ओभासिज्जति, अदिढे महिला से ओलज्जणमणुवयणं, परिवेढण पासि पुरउठातुं वा। भण्णति- अक्खेञासि सावगस्स साधुणो दठुमागता, ते आसिसो परिजवणं पुण जंपइ, गेण्हामो मा तुमं रुस्स / / 21 / / अविरई यसमीवे सोउं अहभावेण वा आगतो सव्वं से घरगमणं कहिज्जति, अणुवइय ति ओलग्गिउं अढव्वलित्तुं परिवेढणं पुरतो पासओ वाउं कारणं च से दीविज्जति, ततो जयणाए ओभासिज्जति, जइ सो भणति, परिजल्पनं परिजल्पः, इमं जंपइ-गेण्हामो, मा तुमं रूसिहिसि / / 21 / / घरं पजह, ताहे तेणेव समं गंतव्वं, मा अभिहडं काहिति, असुद्धं वा एवं तं पडिसेवे नूणं, दोचं अणुवतिया गेण्हती जो उ। रायदुट्ठादिसु वि एगतियसुत्ता तो पोहतिएसु सविसेसतरा दोसा। सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं पावे।।२२।। पुरिसाणं जो उगमो, णियमा सो चेव होइ इत्थीसु। एतेण उवा तमापहडमेव पडिसेहेउंएकप्रतिषेधः, द्वितीयो ग्रहा जो एवं आहारे जो उ गमो, णियमा सो चेव उवधिम्मि।।१६।। गेण्हति, तस्स आणादी दोसा, भद्दपंतदोसा य। आणाए भङ्गो अणवत्था जो पुरिसाणं गमो दोसु सुत्तेसु इत्थीण वि सो चेव दोसु सुत्तेसु वत्तव्यो, कता, अण्णहाकारं तेण मिच्छत्तं जणिय, इमे संजमविराहणा, दोसा, जो आहारे गमो सो चेव अविसेसिओ उवकरणे दडव्यो।।१६।। भद्दपंतदोसोय। सूत्राणि चउरो तेण गेण्हति भद्दउ, करे पसंगं अहालियाऽभिरता। जे भिक्खू आगंतारेसु वा आरामागारेसु वा गाहा-वइकुलेसु माई कवडायारा, घेत्तव्वं भण्णती पंता॥२३॥ वा परियावसहेसु वा अन्नउत्थिएण वा गारित्थिएण वा असणं वा भद्दो चिंतेइ-एतेण उवाएण गेण्हति, आहडे पुणो पसंग करेति, पंतो पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अभिहडं आहटु दिज्जमाणं पेलवगहण करे, भणेज वा अलियं अनृतं, तम्मि अभि अभिरया पडिसेहित्ता तमेव अणु-वित्तिय अणुवित्तिय परिवेट्टेय परिवेट्टेय अलियाभिरया ण गेण्हमो त्ति भणित्ता पच्छा गेण्हति मायाविणो, तत्थ परिजवेय परिजवेय ओभासिय ओभासिय जायति, जायंत वा वसहीएण गेण्हति, इह पडिणियंतस्स गेण्हंति, कवडं कृतकाचारो कवडेण साइजइ ||8|| जे भिक्खू आगंतारेसु आरामागारेसु वा सव्वं पयजं आयरति, ण एतेसिं कोइ सब्भावो अस्थि, सब्भावेण माई गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा अन्नउत्थियाउ वा किरियाजुओ कवडायारमादि भण्णति। एवं पत्तो वदति-जम्हा एते दोसा गारत्थियाउ वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अभिहडं तम्हाण एवं घेत्तव्वं, कारणे पुण संगहणं कुव्वंति // 23 // आहटु दिजमाणं पडिसेहित्ता तमेव अणु-वित्तिय अणुवित्तिय असिवे ओमोयरिए रायबट्टे भए व गेलण्णे। परिवेट्टिय परिवेट्टिय परिजविय परिजविय ओभासिय ओभासिय अद्धाण रोहए वा, जतणा पडिसेवणा गहणं // 24|| जायति, जायंतं वा साइज्जइ || जे भिक्खू आगंतारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकु ले सु वा परियावसहेसु वा पडिसेहे उ जतणाए गेण्हंति। का य जयणा?, इमाअण्णउत्थियाणी वा गारत्थियाणी वा असणं वा पाणं वा खाइम जदि सव्वे गीतत्था, गहणं तत्थि वा होति तु अलंभो वि। वा साइमं वा अमिहडं आहट्ट दिन्जमाणं पडिसेहित्ता तमेव मीसे पुण वाइउणं, माय पुणो तत्थ आणेह ||25|| अणुवित्तिय अणु वित्तिय परिवेट्टिय परिवेट्टिय परिजविय जाहे पणगाइजयणाइ मासलहुँ पत्तो, ताहे जइ सवे साधू परिजविय ओभासिय ओभासिय जायति, जायंतं वा गीयत्था, ताहे तत्थेव वसहीए गेण्हंति, पसंगणिवारणत्थं वा साइज्जइ ||10|| जे भिक्खू आगंतारेसु वा आरामागारेसु वा भण्णति-अम्हं घरगयाणं चेव दिञ्जति, तज्जाणिज्जति, ताणि भणंति गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा अण्ण-उत्थियाउणी वा / अजेचं गेण्हह, ण पुणो अ णेमो ताहे घप्पेति अलंभेति, अप्पा Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णउत्थिय ४६७-अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अण्णउत्थिय वंता अगीयमीसे पुण अगीयत्थं पुरतो पडिसेधेउं पच्छत्तो तस्स अणुवतिऊण भणति-मा पुण आणेह, तत्थेव अम्हे हिंडता एहामो, णिमंतेजा। अहवा जइ अण्णदोसवज्जितं भद्दपंतदोसा वाण भवंति, ताहे गेण्हति, इमं च भणंतितुमे दूराहडं एस, आदरेण सुसंमितं।। मुहवण्णो य ते आसी, विवण्णो तेण गेण्हिमो // 26 / / तुमे दूराओ आणियं वेसवाराइयाण सुसंभिणियं कयं तुज्झपडिसेधिते मुहवण्णो विवण्णो वि आसी, तेण गेण्हामो, एवं जयणाए गेण्हति, पसंगो णिवारितो अगीया य वंचिया आहड प्रतिनिवृत्तभावात्मीकृतत्वात्, एवं इत्थियासु वि, एवं वुहत्त सुत्ते वि 26 / / नि०५०३ उ०।। (24) धातुप्रवेदनम्जे भिक्खू अण्णउत्थियाणं वा गारत्थियाणं वा गारत्थियाणिहिं वा धाउं पावेदइ, पावेयंतं वा साइजइ॥२७॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियाणं वा गारत्थियाणं वा गारत्थियाणिहिं वा धाउं पवेएइ, पवेयंतं वा साइजइ॥२८| यस्मिन् धम्यमाने सुवर्ण एति, स धातुः। अण्णयरागं धातुं, निहिं व आइक्खते तु जे भिक्खू / गिहिअण्णतित्थियाण व, सोपावति आणमादीणि॥५४|| अण्णयरगहणातो बहुभेदा धातुणिधाणणिधीणिहितं स्थापितं, द्रविणजातमित्यर्थः / तं जो महाकालमतादिणा णाउं अक्खाति, तस्स आणादिया दोसा / इमे धातुभेदातिविहो य होति धातू, पासाण रसो य मट्टिया चेव। सो पुण सुवण्ण वुत्तं, वरतरकालायसादीणं / / 5 / / सपरिग्गहेतरो विय, होइ निही जलगओ य थलगो य। कयाऽकय होति सव्वो, अहिकतरं कायवहो धातुम्मि / / 56|| जत्थ पासाणे जुत्तिणो जुत्ते वा धममाणे सुवण्णादि पडति, सो पासाणधातु, जेण धातुपाणिएण तंबगादि आसं तंसुवण्णादि भवति, सो रसो भण्णति / जा मट्टिया जोगजुत्ता अजुत्ता वा धनमाणा सुवण्णादि भवति, सो धातुमट्टिया, कालायसं लोहं आदिग्गहणाओ मणिरयणमोत्तियप्पवालगरादिणिहाणे इमो विगप्पो ।(सपरि) गाहा / सा णिही मणुयदेवतेहिं परिग्गहितो वा दिज्ज, अपरे जतो वा सो जले वा होज, थले वा, जो स थले, सो दुविधो णिक्खतो वा अनिक्खओ वा, सव्वो चेव णिसीहरूवेण दुविधो कयरूवो अकयरूवो वा, रूवगाभरणादि कयरूवो, चक्कलपिंडवितो अकयरूयो। से परिग्गहे अधिकतरा दोसा, कहेंतस्स णिहाणगसामिसमीवातो धातुणिहिवंसयं साधुं धातुव्वायं कारवेति, एसो धातुदंसणे दोसा। इमो णिधाणे मयूरंकदिलुतो अहिकरणं जा करणं, निहिम्मि मक्कोडगहणादी। मोरणिवंऽकियदीणारपिहियणिहिजाणएण ते कहिया। दिवा ववहरमाणा, कओ तए परंपरागहणं / / 57|| मयूरको णामराया, तेण मयूरकेण अंकिता दीणारा, आह-रणादिया, | तेहिं दीणारेहिं णिहाणं ठवियं, तम्मि ठविते बहुकालो- गतो, तं केणइ णेमित्तिणा णिहिलक्खणण णायं, तं तेहि उक्खाय, ते दीणारा ववहरंता रायपूरिसेहिं दिट्ठा। सो वणिओ, तेहिं रायपुरिसेहिं रायसमीवं णीतो / रण्णा पुच्छिओ- कतो एते तुभ दीणारा ? तेण कहियअमुगसमीवातो। एवं परंपरेण ताव णीयं, जाव जेहिं उक्खंतं, तेहिं सो गहितो, दंडियो य, असंजयणिग्गहणे अधिकरणं णिट्टिओ, क्खणेण य निसि जागरणं कायव्वं, अहवा णिहिदसणे अधिकरणं जागरणं णाम यजनकरणं उवालवन धूवपुष्पावलिमादिकरणे अधिकरणमित्यर्थः / णिहिक्खणणे य विभीसिगा-मकोडगादि वि सतुंडा भवति, तत्थ आयविराहणादि रायपुरिसेहिं य गहणं, तत्थ गेण्हणकडणादिया दोसा, एत्थ इमं बितियपद- . असिवे ओमोयरिए, रायढे भए व गेलण्णे। अद्धाण रोहकजट्ठजातवादी पभावणादीसु॥५८|| असिवे वेजो आणितो, तस्स दंसिज्जति, धातुणिहाणगं वा, ओमे असंथरता गिहिअण्णतित्थिए सहाए घेत्तुं धातुं करेति, णिहिं वा गेण्हति, रायदुवे रणो उवसमणट्ठा सयमेव, जो वतं उवसमेति, तस्स वा धाउं णिधायं वा दंसेति, बोधिगादिभयतो जो तापेति, तस्स दंसेति, गिलाणकज्जे सयं गिण्हति, वेजस्स वा दंसेति, अद्धाणे जो णित्थारेति, रोहगे असंथरता सहायसहिता गेण्हंति, अहवा जो रोहगे आधारभूतो, तस्स दंसेति, कुलाइकजे या संजतिमादिणिमित्तं वा अद्धजाते वादी वा सदासीणगहणट्ठा पवयणपभावणट्ठा पूयादिकारणणिमित्तं सहायसहितो गिहि-अण्णतित्थिएहिं धातुं णिहाणं वा गेण्हेज। नि०चू०१३ उ०। (25) पादानामामार्जनप्रमार्जनम्जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा पायं आमजेज वा, पमज्जेज्ज वा, आमजंतं वा पमजंतं वा साइजइ॥११४|| जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा पाए संवाहेज वा, पलिमद्देज वा, संवाहतं वा पलिमहंतं वा साइजइ // 115|| जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा पाए तेल्लेण वा घएण वा वसाएण वा णवणीएण वा मंखेज वा, मिलिंगेज वा, मंखंतं वा भिलिंगंतं वा साइजइ / / 116|| जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा पायं लोद्धेण वा कक्केण वा पोउमचुण्णेण वा उल्लोलेज वा, उव्वट्टेज वा, उल्लोलंतं वा उव्वदृतं वा साइजइ॥११७॥ जे भिक्खू अण्णउत्थियस्त वा गारत्थियस्स वा पायं सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज वा, पधोएज वा, उच्छोलंतं वा पधोयंतं वा साइजइ॥११८||जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा कायं आमज्जेज वा पमञ्जेज वा आमजंतं वा पमजंतं वा साइज्जइ।।११६|| जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा कायं फूमेज वा रएज वा, जाव साइज्जइ / / 120 // जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा कायं संवाहेज वा, पलिमद्देज वा, संवाहतं वा पलिमदंतं वा साइजइ / / 121|| Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णउत्थिय ४६८-अभिघानराजेन्द्रः - भाग 1 अण्णउत्थिय जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा कायं तेल्लेण वा घएण वा वण्णेण वा वसाएण वा मंखेज वा, मिलिंगेज वा, मंखंतं वा मिलिंगतं वा साइजइ // 122 / / जे मिक्खू अण्णउत्थियस्स वागार-त्थियस्स वा कायं लोद्धेण वा कक्केण वा पोउमचुण्णेण वा उल्लोलिज्ज वा, उव्वट्टेज वा उल्लोलंतं उव्वस॒तं वा साइजइ / / 123 // जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा कार्य सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज वा, पधोयेज्ज वा, उच्छोलंतं वा पधोयंतं वा साइजइ / / 124 / / जे मिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा कायं फूमेज वा, रयेज्ज वा, मंखेज वा, फूमंतं वा रयंत वा मंखंतं वा साइजइ / / 125|| जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा कार्य सिवणं आमज्जेज वा, पमज्जेज वा, आमजंतं वा पमजंतं वा साइज्जइ।।१२६।। एवं जाव तइयो उद्देसो गमो णेयव्वो, णवरं अण्णउत्थियस्स या गारत्थियस्स था अभिलावो जाव। जे मिक्खू गामाणुगाम दूइज्जमाणे अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्सवा सीसदुवारिमं करेइ, करंतं वा साइज्जइ॥१६६।। तृतीयाद्देशकगमनिका चत्वारिंशतिसूत्रवक्तव्या यावत् / जे भिक्खू अन्नउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा सीसवारियं कारतीत्य दि। पायए मजणादी, सीसदुवारादि जे करेजाहि। गिहिअण्णतित्थियाणव,सो पावति आणमादीणि // 35 // चउगुरुं पायच्छित्तं, आणादिया य दोसा भवंति। मिच्छते थिरीकारेणं सेहादियाण य तत्थ गमणं पवयणस्स ओभावणं, जम्हा एते दोसा तम्हा एतेहिं वेयावच्चं णो कायव्वं / कारणे पूण कायव्वंबितियपदमणज्झे, करेन्ज अवि को विते व अप्पज्झे। जाणते वा वि पुणो, परलिंगे सेहमादीसु // 36 // कारणे परलिंगपवणो करेजा, सेहो वा अणलो विगिछियव्यो, किमिति करेंति सुद्धो, तस्सग्गतो वा पचत्तणं करेंति सुद्धो॥ नि०चू०११ उ०। __ (26) पदमार्गादिजे भिक्खू पदमग्गं वा संकमं वा अवलंबणं वा अन्नउत्थिएण वा गारथिएण वा कारेति, कारंतं वा साइजइ॥११॥ जे भिक्खू पूर्ववत् / पदं पदाणि, तेसिं मग्गो पदमग्गो, सोवाणा संकमिज्जति, जेण सो संकमो काष्ठचारेत्यर्थः / अवलंबिज्जति त्ति / जंतं अवलंबं पुण बेंति, ता मत्तावलंबो या, चगारो समुच्चयवाची। एते अण्णतित्थिएण वा गिहत्थेण वा कारावेति, तस्स मासगुरुं, आणादिणा य। इदाणी निजुत्तीपदमग्गसंकमालंबण वसहिसंबद्धमेतरो चेव। विसमे कद्दमओदएँ, हरिते तसपाणजातिसु वा / / 122 / पदमग्गो सोवाणा,ते ते तज्जा वा होज्ज इतरे वा। तज्जाता पुढवीए, इट्टगमादी अतज्जाय॥१२३॥ पदानां मार्गः पदमार्गः, सो पुण मग्गो सोवाणा। ते दुविहा-तज्जाया, इतरे अतज्जाया। तम्मि जाता तज्जाता, पुढवि चेव खणिऊण कता, न तम्मि अजाया अतज्जाया, इट्टगपासाणादिहिं कता, एक्के क्का वसहीए संबद्धा, एतरा असंबद्धा, वसहीए लग्गा ठिता, असंबद्धा अंगणए अग्गपवेसदारे वा, तं पुण विसमे कद्दमे या उदरे वा हरिएसु वा जातेसु तसपाणेसुवाघणासंसत्तेसुकरेति। इदाणी संकमो ति॥१२२॥॥१२३॥ दुविओ य संकमो खलु, अणंतरपइद्वितो य वेहासो। दव्वे एगमणेगो, बलाबलो चेव णायव्वो // 124|| संकमिज्जति, जेण सो संकमो, सो दुविहो / खलु अवधारणे / अणंतरपइद्वितो भूमीएचेवपइट्ठियो, वेहासो-जोखंभासुवावेलीसुवा पइद्वितो / एक्के को दुविहो-एगंगिओ य अणे गंगिओ य, एकानेकपट्टकृतेत्यर्थः / पुनरप्येकैको बलस्थिरविकल्पेन नेयः, तदपि विषमकर्दमादिषु कुर्वन्तीत्यर्थः / / 124|| आलंबणं तु दुविहं, मूमीए संकमं व णायव्वं / दुहतो व एगतो वा, विवेदिया सा तु णायव्वा / / 125 // एतस्स चेव संकमस्स अवलंबणं कज्जति, तं अवलंबणं दुविहभूमीए वा संकमे वा भवति / भूमिए विसमे लग्गणणिमित्तं कजति, संकमे वि लग्गणणिमित्तं कज्जति, सो पुणदुहओ एगओवा भवति, सा पुणवेइयत्ति भण्णति, मत्तावलंबो वा ! 125 // एतेसामण्णतरं, पदमग्गं, जो तु कारए भिक्खू / गिहिअण्णतिथिएण व, सो पावति आणमादीणि / / 126 / / एतेसिं पयमग्गसंकमावलंबणाणमण्णयरं जो भिक्खू गिहत्थेण वा अण्णतित्थिरण वा कारवेति, सो आणादीणि पावेति, इमे दोसा // 126 खणमाणे कायवधो, अवि ते वि य वणस्सतितसाण / खणणेण तच्छणेणव, अहिदहुरमादिआघाए।।१२७।। तम्मि गिहत्थे अण्णतित्थिए वा,खणंते छन्नं जीवनिकायाणं विराहणा भवति, जइ वि पुढवी अचित्ता भवति, तहा विवणस्सतितसाणं विराहणा। अहवा पुढवीखणणे अहिंदडुरंवाघाएजा, कटुवा तच्छितोऽभंतरे अहिं उंदुरं वाघाएज्जा, एसा संजमविराहणा, आयाए हत्थंवा पादं वा लूसेज्जा, अहिमादिणा वा खोज्जा, जम्हा एते दोसा तम्हा ण तेहिं कारवेज्जा, अक्वाएण कारवेज्जा वि॥१२७।। वसहीदुल्लमताए, वाघातजुताएँ अघव सुलमाए। एतेहिं कारणेहिं, कप्पति ताहे सयं करणं // 126|| दुल्लभा वसही, मग्गंतेहिं विण लब्भति, अहया सुलभा वसही, Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णउत्थिय 469 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अण्णउत्थिय किं तु वाधातजुत्तालभति, ते य वाघायदव्वपडिबद्धा, भाव-पडिबद्धा, जोतिपडिबद्धा इत्यादि। पच्छद्धं कंठं। सय करणे ताव इमेरिसो साहू करतिजितिंदिओ घिणी दक्खे, पुव्वं तक्कम्ममावितो। उवउत्तो जती कुज्जा,गीयत्थो वा असागरे।।१२६।। इंदियजएमाणो जिइंदिओ, जीवदयालू घिणी, अण्णोएणकिरियाकरणे दक्खो, (पुव्वमिति) गिहत्थकाले तक्कम्म-भावितो णाम तत्कर्माभिज्ञः। स च रहकारधरणिपुत्रेत्यादि, यती प्रव्रजितः, सच उपयुक्तः कुर्यात् मा जीवोपघातो भविष्यति, एवं तावत् कम्मभावितो गीयत्थो, तस्स अभावे अगीयत्थो, तक्कम्मभावितो तस्स भावे, तत्कर्माऽभावितो तस्य अभावे गीयत्थो अगीयत्थो य अपंते सव्वे वि असागरे करेंति। जदा तेहिं पदमग्गसंकमालंबणेहिं कजं सम्मत्तं तदा इमा सामायारीकतकज्जे तु मा होजा, तओ जीवविराधणा। मोत्तुं तज्जायसामाणे, सेसे वि करणं करे / / 130|| कति परिसंमत्ते कज्जे मा जीवविराहणा भवेत्, तओ तस्मात् साधुप्रयोगात् अतः तज्जातो सामाणे मोतुं सेसे वि करणं विणासणं कुज्जा, तज्जाएण विणासे त्ति, मा पुढविकाइय विराहणा भविस्सति अववायं / उस्सग्गे पत्ते अववाओ भण्णतिबितियपदमणिउणे वा, णिउणे वा केणई भवे असहू। वाधाओ उवहिस्सा, पक्खरणं कप्पती ताहे||१३१।। बितियपदं अवघातो, तेण सयं करेति, गिहिणा कारेवेति, कह? भण्णति-सयं अणउिणो णिउणो वा केणइय रोगातंकेण असहूसहुणो वा वाघातो विग्घंतं च आयरियगिलाणो ति एओअणं, परो निहत्थो जतो अप्पणा पुव्याभिहियकारणातो असमत्थो, ताहे तेण कारावेउं कप्पते, तेसिं गिहित्थाण कारावणे इमो कमोपच्छाकड सामिग्गह, निरमिग्गह मद्दएण व असण्णी। गिहिअण्णतित्थिएवा, गिहिपुव्वं एतरे पच्छा।।१३२।। पच्छाकमोपुराणो पढम ताव तेण कारविज्जति, तस्सअभावे साभिग्गहो गिहीयाणुव्वतो सावगो, ततो निरभिग्गही दंसण-सावगो, तओ अधा भद्दएण असण्णिगिहिणा मिथ्यादृष्टिना पच्छाकडादि परतित्थिया वि चउरो दहव्वा / एतेसिं पुण पुव्वं गिहिणा कारवेयव्यं,पच्छा परतित्थिणा अप्पतरपच्छकम्मदोसातो // 132 // नि०चू०१००। जे मिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो पाए आमज्जेज वा, पमज्जेज वा, आमजंतं वा पमञ्जतं वा साइज्जइ / / 13 / / जे मिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो पाए संवाहेजवा, पलिमज्जेज वा, संवाहतं वा पलिमईतं वा साइजइ।।१४।। जे मिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा अप्पणो पाए तेल्लेण वा घएण वा वण्णेण वा वसाएण वा / णवणीएण वा मंखेज वा, मिलिंगेज वा, मंखंतं वा मिलिंगंतं वा साइज्जइ / / 15 / / जे भिक्खू अण्णउत्थिए / वा गारस्थिएण वा अप्पणो पाए लोरेण वा कक्केण वा ण्हाणेण वा पोउमचुण्णेण वा सिणहाणेण वा उव्वट्टेज वा, परियट्टेज वा, उव्वदृतं वा परियट्टतं वा साइज्जइ / / 16 // जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो पाए सीओदगवियडे ण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज वा, पधोवेज वा, उच्छालंतं वा पघोवंतं वा साइजइ // 17 // जे मिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा अप्पणो पाए फूमेज वा, रएज वा, मंखेज वा, फूमंतं वा रयंतं वा मंखंतं वा साइजइ॥१८|| जे मिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा अप्पणो पायं आमजेज वा, पमञ्जेज वा, आमजतं वा पमजंतं वा साइज्जइ / / 16 / / जे मिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारा-थिएण वा अप्पणो कार्य संवाहेजवा, पलिमद्देज वा, संवाहंतवा पलिमहतं वा साइजइ // 20 // जे मिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा अप्पणो कायं तेल्लेण वा घएण वा वण्णेण वा वसाएण वा णवणीएण वा मंखेज वा, मिलिंगेज वा, मंखंतं वा मिलिंगतं वा साइजइ // 21 // जे मिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो कायं लोहेण वा कक्केण वा ण्हाणेण वा पोउमचुण्णेण वावण्णेण व सिणहाणेण वा उव्वट्टेड दा, परियट्टेजवा, उव्वट्टतं परियदृतं वा साइजइ / / 22 / / जे मिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा अप्पणो कायं सीओदगवियडे ण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज वा, पधोवेज वा, उच्छोलंतं वा पघोवंतं वा साइज्जइ // 23 // जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो कायं फूमेज वा, रएज्ज वा, मंखेज्ज वा,फूडतं वा रयंतं मंखंतं वा साइज्जइ // 25 // जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा अप्पणो कार्यसि वणं आमजेज वा, पमन्जेज वा, आमज्जजंतं वा पमजंतं वा साइजइ / / 25 / / जे मिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा अप्पणो कायंसि वणं संवाहेज वा, पलिमद्देज वा, संवाहंतं वा पलिमदंतं वा साइजइ // 26 // जे मिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा अप्पणो कायंसि वणं तेल्लेण वा घएण वावण्णेण वा वसाएण वा णवणीएण वा मंखेज्ज वा, मिलिंगेज वा, मंखंतं वा मिलिंगतं वा साइजइ // 27 // जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो कार्यसि वणं लोहेण वा कक्केण वा पहाणेण वा पोउमचुण्णेण वा सिणहाणेण वा उव्वट्टेज वा, परियट्टेज वा उव्वदृतं वा परियट्टतंवा साइजइ॥२८॥जे मिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा अप्पणो कार्यसि वणं सीओदगवियडेण वा उसिणोदगविथडे ण वा उच्छोलेज वा, पधोवेज वा, Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णउत्थिय 470 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अण्णउत्थिय उच्छोलंतं वा पधोवंतं वा साइज्जइ ॥२६|जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो कायंसि वणं फूडेज्ज वा, रएज वा, मंखेज वा, फू मंतं वा रयंतं वा मंखंतं वा साइजइ॥३०॥ जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा असियणं वा अप्पणो कायसि गंडं वा पलियं वा अरियं वा असियं वा भंगदलं वा अण्णयरेण वा तीखेण वा सत्थजाएण अच्छिंदिज वा, विच्छिदिल वा, अच्छिंदतं वा विच्छिंदतं वा साइजइ॥३१॥ जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो कायंसि गंडं वा पलियं वा अरियं वा असियं वा भंगदलं वा अण्णयरेण वा तीखेण वा सत्थजाएण अच्छिदित्ता वा, विच्छिदित्ता वा, पूर्व वा सोणियं वा णीहरेज वा, विसोहिएज वा, णीहरंतं वा विसोहंतं वा साइजइ // 3 // जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा अप्पणो कार्यसि गंडं वापलियंवा अरियं वा असियं वा भंगदलं वा अण्णयरेण वा तीखेण वा सत्थजाएण वा अच्छिदावेज वा, विच्छिदावेज वा, पूर्व वा सोणियं वा णीहारावेज वा, विसोहियाएज वा, सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा | उच्छालेज वा, पधोयेज्ज वा, उच्छोलंतं वा पधोयंतं वा साइजइ ।।३३शा जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा अप्पणो कायंसि गंडं वा पलियंवा अरियं वा असियं वा भंगदलं वा अण्णयरेण वा तिक्खेण वा सत्थजाएण वा अच्छिदावेज वा, विच्छिदावेज वा, पूयं वा सोणियं वा णीहारावेज वा, विसोहियरेण वा आलेवणजाएण आलिंपेज वा, विलिंपेज वा, आलिंपंतं वा विलिंपतं वा साइज्जइ // 34|| जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो कार्यसि गंडं वा पलियं वा अरियं वा असियं वा भंगदलं वा अण्णयरेण वा तीखेण वा सत्थजाएण वा अञ्छिदावेज वा, विञ्छिदावेज वा, पूर्व वा सोणियं वा णीहारावेज वा, विसोहियाएज्ज वा अण्णयरेण वा आलेवणजाएण तेल्लेण वा धरण वा वण्णेण वा वसाएण वा णवणीएण वा अभिगेज वा, मंखेज वा, अभिगंतं वा मंखंतं वा साइजइ ||35|| जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारस्थिएण वा अप्पणो कार्यसि गंडं वा पलियं वा अरियं वा असियं वा मंगदलं वा अण्णयरेण वा तिक्खेण वा सत्थजाएण वा छिंदित्ता वा, मिंदित्ता वा, पूर्व वा सोणियं वाणीहाराएज वा, विसोहियाएज वा, अण्णयरेण वा धुवणवाएण धुयाएज वा, पधुयाएज वा, धुयावंतं वा पधुयावंतं वा साइज्जइ // 36| जे भिक्खू अप्पणो पालुकि मेयं वा अण्णथिएणवागारथिएण वा अंगुलिए निवेसियाय निवेसियाय णीहरावइ, णीहरावंतं वा साइजइ // 37 // जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा अप्पणो दीहाओ णहसिहाओ कप्पावेज वा, संठावेज वा, कप्पावंतं वा संठावंतं वा साइजइ // 38|| जे मिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो दीहाई वत्थीरोमाई कप्पावेज वा, संठावेज वा, कप्पावंतं वा संठावंतं वा साइजइ // 36|| जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारस्थिएण वा अप्पणो दीहाइं जंघारोमाई कप्पावेज वा, संठावेज वा, कप्पावंतं वा संठावंतं वा साइजइ // 40 // जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा अप्पणो दीहाई सीसके साइं कप्पावेज वा, संठावेज वा, कप्पावंतं वा संठावंतंवा साइज्जइ॥४१॥जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारस्थिएण वा अप्पणो दीहाई कण्णरोमाई कप्पावेज वा, संठावेज वा, कप्पावंतं वा संठावंतं वा साइजइ॥४२जे मिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो दीहाइंभूरोमाइं कप्पावेज वा, संठावेज वा, कप्पावंतं वा संठावंतं वा साइजइ।।४३|| जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो दीहाई चक्खूरोमाई कप्पावेज वा, संठावेज वा, कप्पावंतं वा संठावंतं वा साइजइ|| जे मिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारत्थिणण वा अप्पणो दीहाईणक्करोमाई कप्पावेज वा, संठावेज वा, कप्पावंतं वा संठावंतं वा साइजइ / / 45|| जे मिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो दीहाई मस्सुरोमाई कप्पावेज वा, संठावेज वा, कप्पावंतं वा संठावंतं वा साइजइ॥४६|| जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो दीहाइं कक्खरोमाइं कप्पावेज वा, संठावेज वा, कप्पावंतं वा संठावंतं वा साइजइ / / 47|| जे मिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो दीहाईपासरोमाई कप्पावेज वा, संठावेज वा, कप्पावंतं वा संठावंतं वा साइजइ // 48|| जे मिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो दीहाइं उत्तरउट्ठाइं रोमाइं कप्पावेज वा, संठावेज वा, कप्पावंतं वा, संठावंतं वा साइजइ।४६ll जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो दंते सीओदगवियडेण वा उसिणोदगविडेण वा उच्छोलावेज वा, पधोवावेज वा, उच्छोलंतं वा पधोवंतं वा साइज्जइ / / 50|| जे भिक्खू अण्णउत्थिएणवा गारत्थिएण वा अप्पणो दंते फूमावेज वा, रयावेज वा, मंखावेज वा, फूमावंतं वारयावंतं वा मंखावंतं वा साइज्जइ / / 51 / / जे मिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारस्थिएण वा अप्पणो ओढे आमज्जेज वा, पमजेज वा, आमज्जावंतं वा पमजावंतं वा साइजइ ॥५सा जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो ओढे संवाहावेज वा, पलिमवावेज वा, Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णउत्थिय 471 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अण्णउत्थिय संवाहावंतं वा पलिमवावंतं वा साइज्जए / / 53 / / जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा अप्पणो ओढे तेल्लेण वा घएण वावण्णेण वा वसाएण वाणवणीएण वा मंखावेज वा, मिलिंगावेज वा, मंखावंतं वा मिलिंगावंतं वा साइज्जइ // 54|| जे भिक्खू अण्ण-उत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो ओढे लोद्धेण वा कक्केण वा बहाणेण वा पउमचुण्णेण वा वण्णेण वा उल्लोलावेज वा, उव्वट्टावेजवा, उल्लोलावंतं वा उव्वट्टवंतं वासाइजइ॥५५|| जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो ओढे सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलावेज वा, पधोवाएज वा, उच्छोलावंतं वा पोवावंतं वा साइज्जइ / / 6 / / जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा अप्पणो ओढे फूमावेज वा, रयावेज वा, मंखावेज वा, फूमावंतं वा रयावंतं वा मंखावंतं वा साइजइ॥५७। जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो अच्छिणि आमज्जावेज वा, पमज्जावेज वा, आमज्जावंतं वा पमजावंतं वा साइजइ // 58|| जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो अच्छिणि संवाहावेज वा, परिमद्दावेज वा, संवाहावंतं वा पलिमहावंतं वा साइज्जइ / / 5 / / जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वागारत्थिएण वा अप्पणो अच्छिणि तेल्लेण वा घएण वा वण्णेण वा वसाएण वा णवणीएण वा मंखावेज वा, भिलिंगावेज वा, मंखावंतं वा भिलिंगावंतं वा साइज्जइ / / 60 // जे मिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो अच्छिणि लोद्धेण वा कक्केण वा बहाणेण वा पउमचुण्णेण वा वण्णेण वा उल्लोलावेज वा, उध्वट्टावेज वा, उल्लोलावंतं वा उव्वट्टावंतं वा साइजइ / / 61 / / जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा अप्पणो अच्छिणि सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियमेण वा उच्छोलावेज वा, पधोलावेज वा, उच्छोलावंतं वा पधोलावंतं वा साइजइ / / 6 / / जे भिक्खू अण्ण-उत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो अच्छिणि फूमावेज वा, रयावेज वा, मंखावेज वा, फूमावंतं वा रयावंतं वा मंखावंतं वा साइजइ ॥६३|जे मिक्खू अण्ण-उत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो अच्छिमलं वा कण्णमलं वा दंतमलं वा णहमलं वा णीहरावेज, णीहरावंतं वा साइजइ ॥६४|जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा आपणो कायाउ सेयं वा जल्लं वा पंकं वा मल्लं वाणीहरावेज वा, विसो हावेज वा, णीहरावंतं वा विसोहावंतं वा साइज्जइ / / 6 / / जे भिक्खू गामाणुगाम दुइञ्जमाणं अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा अप्पणो सीसदुवारियं करेइ, करंतं वा साइज्जइ / / 66|| सुत्तत्थो जहा ततिउद्देसगे, तहा भणियट्वं, णवरं अण्णउत्थिएण कारवेइ त्ति वत्तव्यं / एवं प्रलम्बाधिकारः समाप्तः / पादप्पमज्जणादी, सीसदुवारादि जो करेजाहि। गिहिअण्णतित्थिएहिं व,सो पावति आणमादीणि / / 5 / / तेहिं अण्णउत्थिएहिं गारथिएण वा कारवंतस्सखु किं कजं ? उच्यतेकुजा वा पच्छकम्मे, से य मलादीहिँ होज्ज वा अवण्णो। संपातमेव होज्जा उच्छोलणझावणे कुंजा // 25 / / ते साहुस्स पादे पमजित्ता पच्छाकम्मं करेइ, साहुस्स प्रस्वेद मलं वा दट्टुं घाणं वा तेसिं अघाइऊण असुइ इति अवण्णं भासेज, अजयणाए वा पमजंता संपातमेव होज्जा बहुणा वा दव्वे अजयणाए धोवंता उच्छोलणदोसं करेजा, भूमि ठिए वा पाणी झावेज, इमो अववादो // 256 / / बितियपदमणप्पभो, कारेज्जऽवि कोवि ते वि अप्पमं / जाणते वा वि पुणो, परलिंगे सेहमादीसु॥२६०।। अणप्पभो कारवेज्जा, सेहो वा अजाणतो कारवेज्जा, कारणेण वा परलिंगे गहिते परलिंगिमज्झट्ठि ओ कारवेज्जा, सेहो वा उवट्ठितो जाव ण दिक्खिजति तेण कारवेज्जा / / 260 // किंचान्यत्पच्छाकम्मादीहिं, विस्सामावेउ वादि उजातो। पणविज भाविताणं, सतिदेह हत्थकप्पं तु॥२६१।। साहूण अभावे पच्छाकम्मेण, आदिसद्दातो गिहीयाणुव्वएण दसणं, सावगेण वा एतेहिं विस्सामए, को विस्सामाविज्जा ? वादी वा अद्घाणगतो वा उज्जातो श्रान्तः / जे भाविता ते पणविजंति। साधूनां पादरजः श्रेष्ठमाङ्गल्यं शिरसि धार्यत, न दोषः / जे पुण अभाविता तेसिं सति मधुरएवणविजमानेन हत्थकप्पो तेसिं दिज्जति, मापच्छाकम करिस्सं। नि,चू०१५ उ० ('अण्णमण्णकिरिया' शब्दे संबाधनपरिमर्दनसूत्राणि वक्ष्यन्ते) (27) भूतिकर्मादिजे भिक्खू अण्णउत्थियाणं वा गारत्थियाणं वा भूइकम्मं करेइ, करतं वा साइजइ / / 14|| जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाणं वा पसिणं करेइ, करतं वा साइजइ / / 15 / / जे भिक्खू अण्णउत्थियाणं वा गारत्थियाणं वा पसिणापसिणं करेइ, करतं वा साइज्जइ // 16 // जे भिक्खू अण्णउत्थियाणं वा गारत्थियाणं वा पसिणं कहेइ, कहंतं वा साइज्जइ // 17 // जे भिक्खू अण्णउत्थियाणं वा गारत्थियाणं वा पसिणापसिणं काहेइ, काहंतं वा साइजइ // 18 // जे भिक्खू अण्णउत्थियाणं वा गारत्थियाणं वा तीतनिमित्तं करेइ, करंतं वा साइअइ ||19|| जे भिक्खू अण्णउत्थियाणं वा गारत्थियाणं वा पडिपुण्णं निमित्तं करेइ, करतं वा साइजइ / / 20 / / Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णउत्थिय ४७२-अभिषानराजेन्द्रः - भाग 1 अण्णउत्थिय जे भिक्खू अण्णउत्थियाणं वागारत्थियाणं वा आगमीसंनिमित्तं वा पहेण गच्छंताणं ते सावयोवद्दवं सरीरोवहितेणोवद्दवं पावति, (जं पावेति करेइ, करंतं वा साइजइ॥२१॥ जे मिक्खू अण्णउत्थियाणं वा त्ति) जंवा ते गच्छंता अण्णेसिंउवद्दवं करेति,जतो वा ते अणिविदिहातो गारत्थियाणं वा लक्खणं करेइ, करतं वा साइजइ // 22 // जे स्वयं पावंति, ततो ते तस्सपथविहंगस्स साधुस्स अन्नस्स वा साधुस्स भिक्खू अण्ण-उत्थियाणं वा गारत्थियाणं वा सुमिणं करेइ, पदोसमावज्जेति, अम्हे पडिणियत्तणेण एरिसपंथं छूढा, इमेणं पंतावणादि करतं वा साइज्जइ // 23 // जे मिक्खू अण्णउत्थियाणं वा करेज / अधवा दातो विंधेज्ज / गारत्थियाणं वा विज्जं पउंजइ, पउंजंतं वा साइज्जइ // 24 // जे बितियपदमणप्पज्झे, पावे अवि को वि ते व अप्पज्झे। भिक्खू अण्णउत्थियाणं वा गारत्थियाणं वा मंतं पउंजइ, अद्धाण असिव अहिओगआतुरादीसुजाणमवि॥५३॥ पउंजंतं वा साइजइ / / 25 / / जे भिक्खू अण्णउत्थियाणं वा खित्तादिगो अणप्पज्झो सेहो वा, अवि कोवि नो विधेञ्ज, अप्पज्झे वि गारत्थियाणं वा जोगं पउंजइ, पउंजंतं वा साइज्जइ // 26 // अद्धाणे या सत्थस्स पहं अजाणतस्स विंधेज / असिवे गिलाणकज्जे वा निन्चू०१३ उ० वेज्जस्स कप्पियारिस्स वा आणिअंतस्स पंथमुवदिसति। अभियोगो त्ति मार्गप्रवेदनम् बलारातिणा देसितो गहिते एवमादिकरणेहिं जाणतो वि कहिंतो सुद्धो। नि०चू०१३ उ० जे भिक्खू अण्णउत्थियाणं वा गारत्थियाणं वा णट्ठाणं विपरियासियाणं मग्गं वा पवेदेइ, संधिं वा पवेदेइ, मम्गाणं वा (२८)(वाचना) अन्ययूथिकाः पाखण्डिनो गृहिणः सुखसंधिं पवेदेइ, संद्धिओ वा मग्गं पवेदइ, पवेदंतं वा शीला वा न प्रव्राजनीयाः - साइजइ॥२७॥ जे मिक्खू अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा वाएइ, वायंतं वा इमो सुत्तत्थो साइज्जइ / / 25 / / जे मिक्खू अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा पडिच्छइ, पडिच्छंतं वा साइजइ // 26 // जे मिक्खू पासत्थं नट्ठा पथि फिड्डित्ता, मूढा उ दिसाविभागममुणंता। वाएइ, वायंतं वा साइज्जइ॥॥२७॥जे मिक्खू पासत्थं पडिच्छइ, तं विय दिसं पहं वा, पव्वेंति विवजिथा वन्नं / / 48|| पडिच्छंतं वा साइज्जइ।।२८||जे मिक्खू उस्सण्णं वाएइ, वायंत पथि प्रनष्टानां पन्थानं कथयति, अड्वीएवा मूढाणं दिसिभागं अमुणताणं वा साइजइ // 26 // जे मिक्खू उस्सण्णं पडिच्छइ, पडिच्छंतं वि दिसि विभागेण पहं कहेति। जतो चेव आगता तं चेव दिसं गच्छंताणं वा साइज्जइ // 30 // जे मिक्खू कुसीलियं वाएइ, वायंतं वा विवजित्ता वृण्णणं सब्भायं कहेति // 48|| साइजइ // 31 // जे मिक्खू कुसीलियं पडिच्छइ, पडिच्छतं वा मग्गो खलु सगडपहो, पंथो वा तविवञ्जिता संधी। साइज्जइ / / 32 / / जे मिक्खू णितियं वाएइ, वायंतं वा सो खलु दिसाविभागो, पवेयणा तस्स कहणाओ {46 // साइज्जइ // 33 // जे मिक्खू णितियं पडिच्छइ, पडिच्छंतं वा संधी संखेडयगोजतोगमिस्सति सो दिसाभागो,तं तेसिं मूढाणं पवेदेति, साइज्जइ // 34 // जे भिक्खू संसत्तं वाएइ, वायंतं वा कथयतीत्यर्थः / सगडमग्गा उजुसंधिसंखेड्यं पवेदेति, उजुसंधिसंखडेया साइजइ // 35 // जे भिक्खू संसत्तं पडिच्छइ, पडिच्छंतं वा वा सगडमार्ग पवेदेति, कहयति त्ति वुत्तं भवति / अहवा सव्वो चेव पहो साइजइ॥३६॥ मग्गो भण्णति, संधी पथं बोधेयव्वं। अहवा पंथुग्गओ चेव संधी, पंथस्स एवं पासत्थे दो सुत्ता, उस्सण्णे दो, कुसीले दो, संसत्ते दो, णितिये दो, या संधी अंतरे कहेति, संधी उवा वामदक्खिणो पहो, तं कहेति॥४६॥ एतेसिं वायणं देति, पडिच्छति, भावत्तेण वासव्वेसु अहा-च्छंदवज्जिएसु गिहिअण्णतित्थियाण व, मग संधी उजो पवेदेति। चउलहुं, अहवाअत्थेवअहाछंदे चउगुरुं, सुत्ते अत्थेसुमग्गातो वा संघि, संधीतो वा पुणो मग्गं // 50 // अण्णपासंडिय गिही, सुहसीलं वा वि जो उ पव्वज्जे। अहव पडिच्छति तेसिं, चाओऽस्सय साति पोरेसिं // 224|| गतार्था / तेसिं गिहिअण्णतित्थियाणं मग्गादि कहेंतो इमं पावति (पोरिसित्ति) सुत्तपोरिसिं अत्थपोरिसिं वादेंतस्स, तेसिंवा समीवातो सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं तहा दुविहं। पोरिसिं करेंतस्स, अहवा एक्कोपोरिसिं वाएंतस्स, अणेगासु इमपावति जम्हा तेणं, एते उवए विवजेजा।।५१॥ सत्तरत्तं तवो होति, ततो छेदो पहावति। दुविहा आयपरसंजमविराधणा, तेसिं साधुविधिं तेणपहेणं गच्छंताणं छेदेण छिण्णपरिया, एतो मूलं ततो दुगं / / 22 / / इमे अण्णे दोसा सत्तदिवसे चउलहुं तयो, ततो एके दिवसे चउलहु छेदो, ततो छक्कायाण विराहण, सावय तेणोवहिं विदुविहेहिं। एक्के कदिवसे मूलऽणवठ्ठा पारंचिया, अहवा तवो, तहेव य चउलहु, जं पावति जाता वा, पदोस तेसिं तहिंऽन्नेसिं // 52 // छेदो, सत्तदिवसे सेसा, एकेके दिवसं अहवा तवो तहेव / गुरु, जं ते गच्छंता छक्काए विराहेति, स विराधंतो तं णिप्पण्णं पावति, तेण | च्छेदो, सत्तदिवसे, सेसा एक्के वं, अहवा चउलहुतो वा सत्तदिवसे, Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णउत्थिय 473 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अण्णउत्थिय ततो चउगुरु, ततो सत्तदिवसे, ततो छल्लहू सत्तदिवसे, ततो छग्गुरु सत्तदिवसे, ततो एते चेव, छेदो सत्त सत्त दिवसे, ततो मूलऽणवठ्ठप्पपारंचिया एक्के क्कदिणं, अहवा ते चेव चउलहुगादिगा सत्त सत्तदिवसिगा, ततो छेदो, लहुपणगादिगा सत्त सत्त दिवसिगा सत्त सत्त दिवसे णेयव्या, जाव छागुरु, ततो मूलगुरुऽणवठ्ठप्पपारंचिया एकेकदिवस, गिहिअण्णतित्थिएसु इमे दोसा। मिच्छत्तथिरीकरणं, तित्थस्सोभावणा य गेण्हं तु। देति पवंचणकरणं, तेणोवक्खेवकरणं च // 26 // कह मिच्छत्तं थिरतरं? उच्यते-तं दळं तेसिं सभीवे गच्छ मिच्छदिट्टी चिंतेति-इमे चेव पहाणतरा जाता, एते पिएतेसिं समीके सिक्खंति, लोगो दर्छ भणाति, एतेसिं अप्पणो आगमो णत्थि,परे संति, ताणि सिक्खंति, णिस्सारंपवयणं ति ओभावणा, अह तेसिंदेति, तातेसघहत्थादिभाविता महाजणमध्ये चट्ट चोरं खुजा विलियासणए करीसए पिलुअए त्ति / एवमादिपवंचणं करेति उड्डाहंच, अहवा तेणोवसिक्खिकरण अक्खेवेति, चोयणं करेजा, दसेज वा // 226|| गिहिअण्णतित्थियाणं, एए दोसाव देंत गेण्हते। गहणपडिच्छण दोसा, पासत्थादीणि पुच्छत्ता / / 27 / / कंठा, णवरं पासत्थादिसु गहणपडिच्छणदोसाजे ते पण्णरसमे उद्देसगे दुत्ता, ते दट्ठव्या, वंदणपसंसणादिया वा तेरसमे जम्हा एते दोसा तम्हा गिहिअण्णतित्थिया वा ण वाएव्या, परपासंडिलक्खणे जो अण्णाणं मिच्छित्तं कुव्वंतो कुतित्थिए वा एति, जिणवयणं वा णाभिगच्छति, सो परपासंडी, जो पुण गिही अण्णतित्थिओ वा इमेरिसोनाणचरणे परूवण, कुणति गिही अहव अण्ण पासंडी। पयएहिँ संपउत्तो, जिणवयमएणासग्गती जाति // 22 // णाणदसणचरित्ताणि परूवेति। जिणवयणचोरो एति सो संपासंडी चेव सो वाइजइ, जं तस्स जोगं // 228|| एते व विप्पमुक्को, गच्छति गति अण्णतित्थीणं / पव्वज्जाए अमिमुह, एति गिही अहव अन्नपासंडी॥ उववायविहारं वा, पासत्था ओवगंतुकामंवा॥२२९।। जो अण्णतित्थियाणुरूवा गती, तं गच्छति, सेसं कंठ, भवे कारणं वा पूज्जा वि(पव्वजाए) गाहा। गिही अण्णपासंडी वापव्यज्जाभिमुहंसावगंवा छज्जीवणियत्ति जाव सुत्तत्थो, अत्थतो जाव पिंडेसणा एस, गिहत्थादिसु अववादो, इमो पासत्थादिसु अववादो ति ति उवसंपदा उज्जपविहारीणं उवसंपण्णो जोपासत्थादी सो उववादविहारद्वितो तं वा याइज्ज, अहवा पासत्था दिसाण जो संविग्गविहारं उवगंतुकामो, अन्भुद्विउकाम इत्यर्थः / तं वा पासत्थादिभावहितं चेव वाइजा जाव अब्भुतुति, एवं वायणा दिट्ठा, तेसिं समीवातो गहणं कहं होज्जा ? उच्यतेबितियपदसमुच्छेदो, दसाहि ते तहा पकप्पंति। अण्णस्सव असतीए, पडिक्कमंते वजयणाए।।२३०।। जस्स भिक्खूस्स णिरुद्धपरिया उवहिति, णिरुद्धपरियागो णाम जस्स तिणि वरिसाणि परियायस्स संपूराणि, तस्स य आयारपगप्पो अधिज्जियव्यो, आयरिया य कालगते एसेव समुच्छेदो। अहवा कस्सइ साहुस्स आयारपगप्पस्स देसेण अणधीते समुच्छेदो य जाओ, एतेसिं सव्वो आयारपगप्यो पढमस्स बितियस्सयदेसोय अवस्सं अहिल्जियव्यो, सो कस्स पासे अहिज्जियव्यो। उच्यतेसंविग्गपच्छाकडसिद्धपुत्तसारूवि पडिकते। अन्मुट्ठिते अअसती, अणिच्छेसु तत्थ वतिदेसा वीति॥३१॥ सगच्छे चेव जो गीयत्था, तेसिं असति परगच्छेसंविग्ग-मणुनसगासे, तस्स असति परगच्छे संविग्गमणुण्णस्स, ताहे अन्नस्स वि असति पत्ति पत्ति, अन्नसंभोइयस्स वि असति एति, अन्नसंभोइयस्स वि असावणिआदि उक्कमेणं असंविग्गेसु तेसु वि णितियादिठाणाओ असवक हाए पडि कमावित्ता, अणिच्छि जाव अहिज्जइ, ताव पडिक्कमावित्ता, तहा वि अणिच्छे तस्सेव सगासे अहिजइ, सव्वत्थ वंदणादीनि न हावेइ / पसेवजयणा तेसिं असतीए पच्छाकडादिसु पच्छाकडो त्ति,जेण चारित्तं पच्छाकडं उभिक्खंतो भिक्खं हिंडइ या, न वा सारूविगो पुण मुक्किल-वत्थपरिहिओ मुंडमसिहं धरेइ / अभञ्जगो अपत्तादिसु भिक्खं हिंडइ / अण्णे भणंति-पच्छाकडसिद्धपुत्ता चेव जे असिहा ते सारूविगा, एएसिं सगाते सारूविगाइ पच्छाणुलोमणं अधिज्जति, तेसु सारूविगादिसुपडिकते अब्भुट्ठिएत्ति सामातियपडियंता व्रतारोपितो अब्भुडिओ, अहया पच्छाकडादिएसु पडिकतेसु एते सव्ये पासत्थादि पच्छाकडादिया य अण्णं खेत्तं जेउं पडिक्क-माविजंति, (अणिच्छेसु तत्थ वतिदेसा वीति त्ति) / अस्य व्याख्यादेसो सुत्तमहीयं, न तु अत्था अत्थितो व असमत्ती। असति अणुण्णमणुण्णे, इयरेतरपक्खीयमपक्खीयं / / 32|| पुव्वद्धं कंठ। (असतिमणुण्णमण्णुणे त्ति) पयं गच्छति। (इतरेतर त्ति) असति णितियाण इतरा संसत्ता, तेसिं असति इतरा कुशीला एयं णायव्यं, एसो वि अत्थो गट्ठो चेव लेसु विपुव्वं जेसिं विग्गएरिकएसु इमेरिसा,जे पच्छाकडादिया मुंडं वा गा ते पच्छाकडादिया / जावज्जीवाए पडिक्कमाविजंति जावजीव-मणिच्छेसुजाव महिन्जति, तह वि अणिच्छेसु जदि। मुंडं व धरेमाणे, सिंहं च फडित्तणित्थसिस्साह। लिंगेण मसागरिए, ण वंदणादीणि हावेति॥३३॥ (मुंड धरे त्ति) तारयोहरणादि दव्वलिंगं दिज्जति, जाव उद्देसादी करेइ, सा सहस्सविसिहं फेडेतु। एमेवदव्यलिंगं दिज्जति, अणिच्छिसुदव्वालिंग वा णो इच्छति फेडेतुं, तो स सिंहस्सेव पासे अधिज्जत सलिंगं ठिओ चेव असागारिए पएसेसुयपूयत्तिकाओ वंदणाइ सव्वं ण हावेइ, तेण वि वारेयव्वं पच्छा कडयस्स पास-त्थादिसुयस्स वा जस्स पासे अधिज्जति, तत्थ, वेयावचं ण करे / इमो विहीआहार उवहि सेजा-एसणमादीसु होति जतियव्वं / अणुमोयणकारावण, सिक्खति य पदम्मि सो सुद्धो॥३॥ जदि तस्स आहारादिया अत्थितो, पहाणं अह णत्थि, ताहे सव्वं अप्पणा एसणिज्ज आहारादि उप्पाएयव्वं, अप्पणा असमत्थो Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णउत्थिय 474 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अण्णउत्थिय चोदति से परिवार, अकरेमाणे मणादिवासढे। अव्वोच्छित्तिकरस्स उ, सुयभत्तीए कुणह पूयं // 35 // दुविहाऽसति एतेसिं, आहारादी करेति सव्वं तो। पणिहाणी व जयंते, अत्तट्ठा एवमेव गेण्हंतो // 36|| जो तस्स परिवारो पासत्थादियाण वासी स परिवारो सद्दावि संताण करेंति, असंता वा णत्थि सद्दा, एवं असती एसो सिक्खगो आहारादि सव्वं पणं परिहाणीते जयणा, ते तस्स विसोहिकोडीहिं सयं करेंतो सुज्झति, अप्पणो वि एमेव पुव्वं सुद्धं गेण्हति / असति सुद्धस्स पच्छा विसोहिकोडीहिं गेण्हतो सिक्खति, अववादपदेण विसुज्झइ / नि०चू 16 उ० (E) विचारभूमेर्विहारभूमेर्वा निष्क्रमणम्से भिक्खू वा भिक्खुणी वा बहिया वियारभूमि वा विहारभूमि | वा णिक्खममाणे वा पविसमाणे वा णो अण्णउत्थिएण वा गारस्थिएण वा परिहारयो वा अपरिहारिएणं सद्धिं बहिया वियारभूमिं वा विहारभूमि वा णिक्खमेज वा पविसेज वा।। / (से भिक्खू वेत्यादि) स भिक्षुर्बहिर्विचारभूमिं संज्ञाव्युत्सर्गभूमि तथा विहारभूमि स्व ध्यायभूमि तैरन्यतीर्थिकादिभिः सहदोषसंभवान्न प्रविशेदिति संबन्धः / तथाहि- विचारभूमौ प्रासुकोदकस्वच्छबह्वल्पनिर्लेपकृतोपघातसद्भावाद्विहारभूमौ वा सिद्धान्तालापकविकत्थनभयात्,सेहाद्यसहिष्णुकलहसद्भावाच्च साधुस्तु तैः सह न प्रविशेत्, नापि ततो निष्क्रामेदिति। आचा०२ श्रु०१ अ०१ उ०। जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा परिहारिउ वा अपरिहारिएण वा सद्धिं बहिया विहारभूमि वा वियारभूमि वा निक्खमइज्ज वा, पविसइज्ज वा, निक्ख-मंतं वा पविसंतं वा साइजइ।।४०|| (जे भिक्खू अण्णउत्थियेत्यादि) सण्णवो सिरणं वियारभूमी, असज्झाए सज्झायभूमी जा सा विहारभूमी, सा उज्झामगपोरिसी वि भण्णति णो कप्पति। "एत्तो एगतरेणं' गाहा कंठा। वीयारभूमिदोसा-संका अपवत्तणं कुरुकुया वा। दवअप्पकलुसगंधे, असतीव करेज उड्डाहं॥३०॥ वीयारभूमि असती, पडिणीए तेण सावए वा वि। रायढुढे रोधग, जयणाए कप्पते गंतुं // 303|| वियारभूमीए पुरीसावा, तसलोए अदोसासंका (अपवत्तणं त्ति) अपवत्तंते य मुत्तणिरोहे त्रीणि सल्यादिए मट्टियाए बहुदवेण य कुरुकुया करेयव्या, एत्थ उच्छोलणे ओप्पीलणादी दोसा। अह कुरुकुयं ण करेति, उड्डाहो अप्पेण वा दवेण कलुसेण वा दवेण णिल्लेवंतं दद्धं चउत्थरसियादिणा वा गंधिल्लेण अभावे वा दवस्स अणिल्लेविते जणपुरओ उड्डाह करेज, जम्हा एते दोसा तम्हा तेहिं सद्धिंणगंतव्वं, अववादपए भे वज्जेज। (वियार) गाहा / अण्णओ वियारभूमीए असति जदि ते निहत्थअण्ण-उत्थिया वदंति, ततो वएज, जतो अणावातमसंलोअंतओ इमे पडिणीतएण सावयबोधितदोसा / अंतरा तत्थ वा थंडिले गतस्स, अतो गिहत्थेहिं | समं गच्छे, ते निवारेंति, रायडुढे रायवल्लभेण समाणं गम्मइ, राहपएगा' चेव सण्णाभूमी एरिसेहिं कारणेहिं जयणाए गम्मति, सायइमा जयणापच्छाकडत्तदंसण, असण्णिगिहिए तओ कुलिंगीसु / पुव्वमसोयवादिसु, पउरदवे मट्टिया य कुरुयाय // 304 / / पुव्वं पच्छाकडेसु गिहीयाणुव्वएसु तेसु चेव दसणसावएसुततो एसुचेव कुतित्थिएसुततो असण्णिगिहत्थेसुततो कुलिंगिएसु असण्णीसु सव्वासु सव्वेसु पुव्वं असोयवादिसु पच्छा सोचवादिसु दूर दूरेण परं मुहो दुवे लंबवजितो पउरदवेणं मट्टियाए य कुरुकुयं करेंतो अदोसो। एमेव विहारम्मी, दोसा उउंचगादिया बहुधा। असती पडिणीयादिसु, बितियं आगाढजोगिस्स।३०।। विहारभूमीए वि प्रायशः एत एव दोषाः / उडुञ्चकादयश्च अधिकतरा बहवः / अन्ये उडुञ्चका कुट्टिदा उडुति वा वंदनादिसु प्रत्यनीकादिद्वितीयपदं पूर्ववत्।चोदको भणति-जत्थेत्तिया दोसा तत्थ तेहिं सामण्णं गंतुं बितियपदेण विसज्झाओ मा कीरउ / आयरिओ भणति भागाढजोगिस्स उद्देससमुद्देसादओ अवस्संकायव्वा, उवस्सए यअसब्भावेहिं पडिणीयादि, अतो तेण समाणं गंतुं करेंतो सुद्धो। नि०चू० २उ० (30) विहारःसे भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे णो अण्णउत्थिएण वा गारस्थिएण वा परिहारिउ अपरिहारिएण वा सद्धिं गामाणुगामं दूइज्जेज्जा / / 4 / / तथा (से भिक्खू वेत्यादि) स भिक्षुामाद् ग्रामान्तरम्, उपलक्षणार्थत्वान्नगरादिकमपि (दूइज्जमाणे त्ति) गच्छन्ने भिरन्यतीर्थकादिभिः सह दोषसंभवान्न गच्छेत् / तथाहि-कायिकादि निरोधे सत्यात्मविराधना, व्युत्सर्गे च प्रासुकाप्रासुकग्रहणा दावुपघातसंयमविराधने भवतः / एवं भोजनेऽपि दोषसंभवो भावनीयः, सेहादिविप्रतारणादिदोषश्चेति। आचा०२ श्रु०१ अ०१ उ०। जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा परिहारिउ वा अपरिहारिएहिं सद्धिं गामाणुगामं दूइज्जइ, दूइज्जतं वा साइजइ।।१। ग्रामादन्यो ग्रामो ग्रामानुग्रामम्। शेषः पूर्वसूत्रार्थवत्॥४१॥ णो कप्पति भिक्खुस्सा, परिहारस्सा उ अपरिहारीणं / गिहिअण्णतित्थिएण व, गामाणुगामं नु विहरित्ता // 306 / / एत्तो एगतरेणं, सहितो दूइज्जती तु जे भिक्खू / सो आणाअणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं पावे // 307 / / "दुडुगतौ" दूइज्जइ त्तिरीयति, गच्छतीत्यर्थः / रीयमाणो तित्थगराणं आणं आणम्मि जे अणवत्थं करेति,मिच्छत्तं अण्णेसिं जणयति, आयरियसंजमविराहणं पावति / इमं च पुरिसविभागेण पच्छित्तंमायादीया गुरुगा, मासो अविसेसियं चउण्हं पि। एवं सुत्ते पत्थाण होति सट्ठाण पच्छित्तं / / 308|| अगीयत्थभिक्खुणो गीयत्थभिक्खुणो उवज्झायस्स आय Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णउत्थिय 475 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अण्णउत्थिर रियस्सएतेसिं चउण्ह विमासादी चउगुरु मतं, अहवा मासलहुं चेव तव कालविसेसियं / अहवा अविसेसियं चेव मासलहुं / चोदग आह- किं णिमित्तमिह सुत्ते पुरिसविभागेण पच्छित्तं दिण्णं ? आचार्य आह-- सर्वसूत्रप्रदर्शनार्थम् / एवं सुत्ते सुत्ते पत्थाण सट्ठाण पच्छितं दट्ठव्वं / इमा संजमविराहणासंजतगतीऍगमणं, ठाणणिसीयण उ अट्टणं वा वि। वीसंमणादि पडिस्सुय-उच्चारादी अवीसत्था॥३०६।। मासादीया गुरुगा, भिक्खू व समामिसेगआयरिए। मासो विसेसिओवा, चउण्हवी चउसु सुत्तेसु // 310 / / जदा संजओ सिग्घगतीए वा वचति, तदा गिहत्थो बितितो अधिकरणं भवति, तण्हा छुहाए व परिताविति, तण्णिप्पण्णं वीसमंतो च सच्चित्तपुढविकाए उद्धट्ठाणं निसीयणे तु अट्टणं वा करेति, भत्तपाणादियाण उच्चारपासवणेसु य सागारिओऽभिकाउं अवीसत्थो साहुणिस्साए वा गच्छति / तो फलादि खाएज्जा, अहिकरणं साहू वा तस्स पूरओ बितियपदेण गेण्हेज्ज / परितावणाणिप्पण्णं पादपमञ्जणादि वाण करेजा, तत्थ वि सट्ठाणं अह करेति, उड्डाहो। भाष्यकारेणैवायमर्थ उच्यतेअत्थंडिलमेगतरे, ठाणादीखद्धउवहि उड्डाहो। धरणणिसग्गे वातोभयस्स दोसा पमञ्जणए // 311|| साहुणिस्सए वा साहू अथंडिले ठाएन,खद्धोवहिणा भारंदुंदुउत्ति उड्डाहं करेति, धरणणिसगे वा वायकाइयसण्णाण उभयहा दोसो पमजंतस्स उड्डाहो, अपमज्जणे य विराहणा जम्हा ण गच्छे / / 311 / / बितियपदं अद्धाणे, मूढमयाणंत दुट्ठणढे वा। उवहीसरीरतेणग-सावयभयदुल्लभप्पवेसे य॥३१२।। अद्धाणे सत्थिएहिं समं वचति पंथाउ वा मूढो दिसातो वा मूढो, साहू जाव पंथे उच्चरेंति पंथमयाणंतो वा जाणा गिहिं समं गच्छेज, रायदुढे वा रायपुरिसेहिं समं गच्छे, बोधिगादिभया णो वा तेहिं समाणं णिदोसो हवेज्ज, तेणगभए वा गच्छे, सावयभए वा अण्णम्मि वा णगरदेसरले दुल्लभपवेसे तेहिं समं पविसेज / अण्णहा ण लब्भति / तत्थ पुण जगरादिसु विहरतो तत्थ अत्यंतो णितितो भवति, तेहिं समाण गच्छंतो इमा जयणाणिन्भऍ पिट्ठउ गमणं, वीसमणादी पदा तु अण्णत्थ। सावयसरीरतेणग-भएगुतिट्ठाण भयणा तु॥३१३।। णिभए पिट्ठओ गच्छति, पिछतो ठिता सव्वपमजणादि सामायारिं पउंजति, धीसमण त्ति पदा जदि असंजतो थंडिले करेति, तो संजया अण्णथंडिले ठायंति, तेण सावयभयं जइ पिट्ठतो, तो मज्झतो पुरतो वा गच्छंति, मज्झे भए पुरतो पिट्ठओ वा गच्छति॥३१३|| नि०चू०२ उ०। (31) (शिक्षा)अन्ययूथिकं वा गृहस्थं वा शिल्पादि शिक्षयतिजे भिक्खू अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा सिप्पं वा सिलोगं वा अट्ठापदं वा कक्करयं वा वुगाहं वा सलाहंवा सलाहत्थयं वा सिक्खावेइ, सिक्खावंतं वा साइज्जइ।।। (जे भिक्खू अन्नउत्थियं वा इत्यादि) सिप्पं तुण्णगादि, सिलोगो वण्णणा, अट्ठापदं भूत, कक्कडगहेउवुगाहा कलहो, सलाहा कव्वकरुणप्पओगो / एस सुत्तत्थो। इमा णित्रुतिसिप्पसिलोगादीहिं,सेसकलाओ वि सूइया होति। गिहिअण्णतित्थियं वा, सिक्खावेते तमाणादी॥२०॥ सेसा उ गणियलक्खणसउणरुयादिसूचियाण गिही अण्ण-तित्थी वा सिक्खावेयव्वा। जो सिक्खावेति, तस्स आणादिया य दोसा, चउलहुंच से पच्छित्तं // 20 // सिप्पसिलोगे अट्ठा-वएय कक्कडगवुग्गहसलाहा। तुनाग वण्ण जूतो, हेतू कलहुत्तरा कव्वो // 21 / / पुव्वद्धेण सुपसिद्धा गाहा, पच्छवेण जहासंखं तत्थ उदाहरणं / सिप्पं ज आयरिओवदेसेण सिक्खिज्जति, जहा तुण्णागं तुण्णादि, सिलोगो गुणवयणेहिं वण्णणा, अट्ठापदं चउरंगेहि जूतं, अहवा इमं अट्ठापदंअम्हेण वि जाणामो, पुट्ठो अट्ठापयं इमं वेति / सुणगाविसालकूरं, णेच्छति पडूपभातम्मि।।२२।। पुच्छितो अपुच्छितो वा भण्णति-अम्हे णिमित्तं ण सुठु जाणामो, परंपरभावकाले दधि कूरं सुणगादिभावो ण भवति, अणिचो वा भणितो विणासी घट वत् कृतविप्रणासादयश्च दोषा भवन्ति / अहवा कर्कटहेतुसर्वभावैक्यप्रतिपत्तिः / अत्राह- यथा दोषो मूर्त्तिमदमूर्तसदुःखभेदतो ज्ञानकालभेदाच कारक-भूतविशेषाच विरुद्धं सर्वभावैक्यम्। अथ नैवं, ततः प्रतिज्ञा-हानिः / वुग्गहो रायादीणं अमुककाले कलहो भविस्सति / रणणे वा जुद्धं सगडमादिएण कलहे जयमादिसति / दोण्हं वा कलहताणं उ कस्स उत्तरं कहेति ?, सलाह- त्ति, कथासम्भाव कहेति / कव्वेहि वा वारितो कथं करेति ?, सलाह क हत्थेणं ति, सव्वकालो तो सूचितातो भवंति, ताणि अण्णतित्थिमादीणि सिक्खावेंति चउलहू, आणादी य संजमे दोसा / अधिकरणं उस्सग्गावदेसे य इम बितियपदंअसिवे ओमोयरिए, रायदुट्टे भए व गेलण्णे। अद्धाण रोहए वा, सिक्खावणया उजयणाए।।२३।। रायादिमण्णं वा ईसरं सिक्खावेतो असिवगहितो तप्पभावा ओट्ठागादि लभति, ओमे वा पुव्वति सोचा रायदुढे ताणं करेति। बोहिगादिभये ताणं करेति। गिलाणस्स वा उसहातिपहिं उवग्गहं करिस्सति। अद्धाण रोहगेसु वा उवग्गहकारी भविस्सति। एवमादिकारणे अवेक्खिऊणइमाइजयणाए सिक्खावेति // 23 // संविग्गमसंविग्गो, धावियं तु साहेज पढमतोगीयं / विवरीयमगीए पुण, अणभिग्गहमाइतेण परं / / 24| पणगपरिहाणीए जाहे चउलहुँ पत्ता तेसु जतिउं ते से वि असंतरंतो ताहे संविग्गो धाविअंगीयत्थं सिक्खावेति, पच्छा असंविग्गो धावितंगीयत्थं, अगीएसु विवरीयं कजति, ततो असंविग्गो धावितं अगीतं, ततो संविग्गं अगीयं, अन्य विपरीत करणाद् हेतुमद्भावनां करिष्यति / संविग्ग अगीतार्थः / पच्छा गहियाणुव्वयं, ततो पच्छादसणसावर्ग, ततो पच्छा अहाभद्दयं, ततो मिच्छं अणभिग्ग-हाभिग्गहियं। निचू०१३ उ०। Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णउत्थिय अण्णउत्थिय 476 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 (32) (संघाटीसीवनम्) अन्ययूथिकादिभिः संघार्टी सवियतिजे मिक्खू अप्पणो संघाडियं अण्णउत्थिएण वा गारस्थिएण वासीवावेइ, सीवावंतं वा साइजइ॥१२॥ अप्पणो अप्पणिज्जं संधाडी णाम सवडी सहसति त्ति काऊण दोहिं अंतेहिं मज्झे य यदि अण्णउत्थिएण स सरक्खादिणा गिहत्थेण तुण्णागादिणा संसिद्धावेइ अप्पणेण // 12 // णिकारणम्मि अप्पण, कारणे गिहि अधव अण्णतित्थीहिं।। संघाडि सीवावे,सो पावति आणमादीणि // 25 // जदिणिक्कारणे अप्पणासीवेति, कारणे वा अण्णउत्थिय-गारथिएहिं सिव्वावेति, तस्स मासलहुँ, आणादिया इमे दोसाणिक्कारणम्मि लहुगो, गिलाण आरोवणा पविट्ठम्मि। छप्पइकाइसंजमे, कारणसुद्धो खलु विधीए॥२६|| विद्धे आयविराहणाछप्पतियवाधअसंजमविराहणा, कारणे विधीएसयं सिव्वंतोसुद्धो।चोदग आह-पढमुद्देसगेपरकरणे मासगुरुं वण्णिय, इह कहं मासलहुं भवति? आयरिय आहकाम खलु परकरणे, गुरुमासो तु वण्णिओ पुट्विं / कारणियं पुण सुत्तं, सयं वऽणुण्णायते लहुओ // 27 // णेगधुणममुंचते, पलिमंथो उम्गमो तु पडियत्थो / एगस्स वि अक्खेवे, अवहारो होति सव्वेसिं॥२८|| कामं अणुमयत्थे, खलु पूरणे, पुव्वं पढमुद्देसए, इह तु कारणिए सुत्ते अप्पणो अणुण्णाते परेण सीवावेंतस्स मासलहुँ, सवडिए इमे दोसा। (णेगधुणे) गाहा / जदि बद्धं पडिलेहेंति अणेगरूव-धूणणदोसा, अह बंधी मोत्तुंपडिलहंतिपुणोबंधति, सुत्तत्थपि-लिमंथो भवति, पडियत्थो उग्गमोणेगेण, अक्खित्ते एगे विसव्वेसिं अपहारोभवति, अकारणे सिव्यणे य इमा दोसासयसिव्वणम्मि चिट्ठ, गिलाणआरोवणा तु सविसेसा। छिज्जति य संजमम्मी, सुत्तादी अकरणे इमं च // 26 // अप्पणो सिव्वंतो सूयीपविद्धो ताहे गिलाणारोवणा सविसेसा सपरितावमहादुक्खा छप्पतियबाधे असंजमो भवति, तत्थ लहुगो सुतत्थपोरसिंण करेति, जहासंखं सुत्तणासे इकं अत्थं नासेइ,काइमं व परकारवणे दोसदसणं। अविसुद्धठाण काया, पप्फोडण छप्पया य वा तीय। पच्छाकम्मं वसिया, छप्पति, वेधो य हरणं च // 30 // अविसुट्ठाणं अपुढवीकायादियाणं उवरि व्वे ति, काय-विराहणा, पप्फोडणे छप्पया पडंति वाउ संघट्टणा य घाणाव-डियवञ्जिएण देससव्वण्हाणं करेज, छप्पया उवाविंधेति, अप्पणो वा ऊरुयं विंधति, हरेज या तं संघाडिं। इदाणिं अप्पणा सिव्व-णकारणं भण्णतिबितियं तु चट्टमुट्टोरगा, य गेलण्णविसमवत्थे य। एतेहिं कारणेहिं, संसिव्वणमप्पणा कुञ्जा॥३१॥ वुड्डी तस्स हत्था वा पाया वा कंपति,ण तरति पुणो रसं ठवेठ, अधवा उद्दोरगा गिलाणो वा ण तरति, पुणो पुणो संठवेउं विसम-वत्थाणि वा एगढ़ सीविजंति, एतेहिं सयं सीवेंतो सुद्धो, जहण्णेण तिण्णि बंधा,एको दंसंते, बितीओ पासंते, ततियो सज्झेवि। तिणि उक्कोसेण छ भवंति, कारणे अण्णउत्थिएण सिव्यावेति। बितियपदमणिउणे वा, णिउणे वा होज्ज केण वी असहू। वाघातो व सहस्सा, परकरणं कप्पती ताहे॥३२॥ अप्पणा अणिउणो वा असहू गिलाणवाधातो गिलाणाति, पओयणेण वावडी एवं पडोए कारवेउं कप्पति, इमाएजयणाएपच्छाकडसामिग्गह-णिरमिग्गह भदएण वा असण्णी। गिहिअण्णतित्थिएहिं,असोयसोए गिही पुव्वं // 33 // पच्छाकडो पुराणो पढमं तेणततो अणुव्वयसंपण्णोसावओसाभिग्गओ, ततो सण्णी भद्दओ, असण्णी भद्दओ, एते चउरो गिहिभेदा। अन्नउत्थिं एएचउरो भेदा एक्कके असोयसोय भेया कायव्या, पुव्यं गिहीसु, पच्छा सोयवादिषु, पच्छा अण्णतिथि-एसु / नि०५०३ उ० जे मिक्खू निगंथीणं संघाडी, अण्णउत्थिएण वा गारत्थेएण वा सिव्वावेइ, सिव्वावंतं वा साइजइ॥७॥ अन्नतिथिएण निहत्थेण सिव्यावेति, तस्स चउलहु, आणादिया य दोसा। संघाडीओ चतुरो, तिपमाणा ता मवे दुविहा। एगमणेगं छम्मी, अहिकारोऽणेगखंडीए॥५१॥ प्रायेण (संघडिजति त्ति) संघाडी गुण संधायकारिणी वा, संघाडी देसीभासातो वा पाउरणे संघाडी, ततो संखा, पमाणेण चउरो प्रमाणेन तिपमाणगा एगा दुहत्था दीहा, दुहत्थवित्थारा सा उ उवस्सए अत्थमाणीए भवति, दोतिहत्थदीहा, तिहत्थवित्थारा, तत्थेगा भिक्खायरियाए, बितिया वियारं गच्छती पाडणति, चउहत्थ चउहत्था दीहा, चउहत्थवित्थारा, एया सव्वा वि पास-गलद्धा पुणो एक्केक्का दुविहा। पच्छद्धं कंठ। तं जो उ संजतीणं, गिहीण अहवा वि अण्णतित्थीणं। सिव्वावेती मिक्खू, सो पावति आणमादीणि // 52 // तं संजती संजतेयं संघाडि जो आयरितो गिहत्थेण अण्णतिथिएण वा सिव्वावेति, तस्स आणादिणो दोसा। कुज्जा वा अभियोगं, परेण पुढे व संकि उड्डाहो। हीणाहियं व कुज्जा, छप्पइणा संहरिजा उ॥५३॥ सो गिहीअन्नतित्थी वा तत्थ वसीकरणप्पयोगकरेज, अन्नेण वा पुट्ठोकस्स संतियं वत्थं ? सो कधिज्ज संजती-संजतियं, ताहे तस्स संको भवति, उड्डाहं वा करेज, नूणं को दिसंबंधो अस्थि, तेण एसो सिव्वेति, पमाणेण हीणमहीणं वा करेज, छप्पयातो छडेल, मारेज वा, तं वा संघार्डि करेज, सिव्वंतो वा चिट्ठो तत्थ परितावणादिनिप्फण्णं उप्फोसणादिया पच्छाकम्म कुज्जा, जम्हा एते दोसा तम्हा इमो विही - छिण्णपरिकम्मितं खलु, अगुज्झउवहिं तु गणहरो देति / गुज्झोवहिं तु गणिणी, सिव्वेति जहारिहं मिणं तु // 54 // जे अतिप्पमाणं तं छिंदति, उ कुतिमादिणा परिकम्मियं Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णउत्थिय 477 - अभिधानराजेन्द्रः- भाग 1 अण्णउत्थिय अगुज्झोवही तिन्नि कप्पा चउरो संघाड़ी तो पातं पायणिज्जोगो य, एवं गणहरो परिकम्भितं देति, सेसो गुज्झोवही तं गणिणी सरी-रपमाणं मिणिउ सिव्येति, कारणे गिहि अन्नतित्थीण वा सिव्वायें ति। बितियपदमणिउणे वा, निउणे वा होज केणवी असहू। गणिगणहर गच्छे वा, परकरणं कप्पती ताहे // 55 // गणी उवज्झाओ, गणहरो आयरिओ, अन्नो वा गच्छे वुड्डो तरुणो वा वुड्डसीलो, ते सिव्येजा, अह ते असहू होजा, गच्छे वा नत्थि कुसलो, ताहे गिहिअन्नतिथिणा वा सिव्यावेंति। तत्थ इमो कप्पोपच्छाकडसामिग्गह-निरमिग्गहमद्दएयव असण्णी। गिहिअण्णतित्थिएण व, गिहे पुव्वं एतरे पच्छा॥५६॥ पूर्ववत् सिव्वावणे इमो विहीआगातेणं असती, संठणं गंतु सिव्वावे। पासट्ठिय अवखित्तो, तो दोसे वंजणा ण जायंति / / 57 / / सो निहत्थो अन्नतित्थिओ वा साहुसमीवं अह पवत्तीए आगतो | सिव्याविज्जति। जदि अब्भासागतो ण लब्भति, तो तस्स जं संठाणं तं गंतुं सिव्वाविद्धति, जयणाए छप्पदातोपुर्व अन्नत्थ संका-मिञ्जति, तस्स समीवे अवक्खित्तो वि तो णिवण्णो वात्ता च चिट्ठति, जाव सिव्वियं, एवं पुव्युत्ता दोसा ण भवंति। (33) संभोगःजे भिक्खू असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा उवहासे णिक्खिवइ, णिक्खिवंतं वा साइजइ // 38 // जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा सद्धिं भुंजइ, भुजंतं वा साइजए ||36|| जे मिक्खू अण्णउत्थिएहिं वा गारत्थिएहिं वा सद्धिं आवेट्टिय परिवेट्टिय मुंजइ, मुंजंतं वा साइजइ॥४०॥ अण्णउत्थिया तव्वणियादि बंभणा खेत्तिया गारत्था, तेहिं सद्धिं एगभायणे भोयणं एगदुतिदिसिडिएसु आवेढिओ, सव्वदिसिं ठितेसु परवे ट्ठिओ / अहवा आइ मर्यादया वेष्टितः, दिसि विदिसासु विच्छिण्णद्वितेसु परिवेष्टितः / अहवा एगपंतीएसु आवेष्टितः, दुगादिसु पंतीसु समंता परिट्ठियासुपरिवेहितो। गिहिअण्णतित्थिएहिँ व, सद्धिं परिवहितो व तं मज्झे। जे भिक्खू असणादी, मुंजेज्जा आणमादीणि / / 673 / / अण्णउत्थिएहिं सद्धिं भुंजति, अण्णउत्थिआण वा मज्झे ठितो परियेद्वितो वा भुजति, तस्स आणादिया दोसा / ओहओ चउलहुं पच्छित्तं ! विभागतो इमपुव्वं पच्छा संथुय, असोयसोयवाई य लहुगावा। चउरो वा जमलपदा, चरिमपदे दोहि वी गुरुगा॥६७४।। पुव्वं संथुया असोयवादी यपच्छा संथुया। (असोय त्ति) एतेसु चउसु पएसुलहूगा (चउरो त्ति) (जमलपदं ति) कालतवेहिं विसेसिज्जति जाव चरिमपदं पच्छा संयुतोसोयवादी, तत्थ चउलहुगंतं कालतवेहिं विगुरुगं भवति। सुत्थीसु चऊ गुरुगा,छल्लहुगा अण्णतित्थीसु / परउत्थिणि छगुरुगा, पुव्वावरसमणसत्तटुं।।६७५॥ एयासु चेव सुत्थीसु पुरं पच्छा असोयसोयासु चउगुरुगा कालतवेहि विसेसिता, एतेसु चेव अण्णतित्थियपुरिसेसु चउसु छल्लहुगा कालतवविसिट्ठा, एयासु चेव परतित्थिणीसु छग्गुरुगा, पुरव्वसंथुयासु समणीसु छेदो, (अवर त्ति) पच्छा संथुतासु समणीसु अट्ठमं ति मूलं / अयमपरः कल्पःअहवा विणालबद्धे,अणुव्वओवासए व चउलहुगा। एसु विय दोसु इत्थीसुणालबद्धे चऊ गुरुगा।।६७६|| णालबद्धेणपुरिसेण अणालबद्धेणयगहिताणुव्वओवासगेण एतेसु दोसु चउलहुगा, एयासुं विय दोसु इत्थीसुणालबद्धे य अविरयसम्मदिद्विम्मि एतेसु विचउगुरुगा। अणालदंसणित्थिसु, छल्लहु पुरिसे य दिट्ठ-आमटे / दिद्वित्थि पुम अदिढे, मेहुणमोई य छग्गुरुगा॥६७७॥ इत्थीसुअणालबद्धासु अविरयसम्मदिद्विसु, दिहाभ सुपरिसेसु, एतेसु दोसु विछल्लहुगा, इत्थिसु दिट्ठाभट्ठासु, पुरिसेसुअदिट्ठाभट्टेसु, (मेहुणि ति) माउलपिच्छियधाता (भोइय त्ति) पुव्वभञ्जा, एतेसु चउसु वि छागुरुगा। अदिट्ठभट्ठासु थीसु, संभोइयसंजतीण छेदो य। अमणुण्णसंजतीए, मूलं थी फाससंबंधा // 678 // इत्थीसु अदिवाभट्ठासु संभोइयसंजतीसु य एयासु दोसु वि छेओ (अमणुण्ण त्ति) असंभोइयसंजतीसुमूलं,इत्थीहि सह जंतस्स फासे संबंधो, आयपरोभयदोसा, देहे संकाइयायदोसा,जदि संजतिसंति तो समुद्देसो, तो चउलहुं अधिकरणंच।। पुव्वं पच्छाकम्मे, एगतरदुगुंछउडउड्डाहो। अण्णोण्णामयगहणं,खद्धग्गहणे य अचित्तं // 676 / / पुरे काम संजतेण सहभोत्तव्यं हत्थपादादिसुई करेइ, संजतो भुंजिस्सइ / अधिगतरं रंधावेति, पच्छाकम्मं कोवि एसोति सवेलं ण्हाणं करेछ / पच्छितं वा पडिवजे, संजतेण वा भुत्ते अपहुप्पंते अण्णं पिरंधेज्जा, संजतो गिही वा एगतरो दुगुंछं करेजा, विलिंगभावेण वा उजु करेजा, अण्णेण दिवे उड्डाहो भवति, कासादिरोगा वा संकमज्ज। अधिकतरं खद्धेण वा अचियत्तं भवेज्ज। एवं तु मुंजमाणे, तेहिं सद्धिं तु वण्णिता दोसा। परिवरितो जदि मुंजइ, तो चउ लहू इमे दोसा // 680 / परिवारितमज्झगते, सव्वपयारेण होंति चउ लहुगा / कुरुकुयकरणे दोसा, एमादिसु उम्गमा होति // 681 / / मज्झे ठितो जणस्स परिवारिओ जइ भुंजइ, अहवा समंता परिवारितो दोण्हं तिण्हं वा जइ मज्झगओ भुंजति, सव्वप्पगारेहि चउलहुं गिहिभायणे यण भुजियव्वं तत्थ भुंजतो आयाराओ भस्सति। कंसेसुकंसपाएसु सिलोगो वा एवमुग्गमादिसु भुंजंतस्स उड्डाहो भवति, कं चिय दवेण य उड्डाहो, इयरेण आउक्कायविराहणा, बहुदवेण कुरुकुयकरणे उप्पिलावणादि दोसा, जम्हा एवमादी दोसा तम्हा एतेहिं सड्डि परिवेढिएणवा न भुंजियव्यं / Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णउत्थिय 478 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग१ अण्णजोगववच्छेयवत्तीसिया बितियपदसेहसाहारणा य गेलण्ण रायदुढे य। अण्ण(न)ग्गहण-न० (अन्यग्रहण) गानजाते मुखविकारे आहार तेण अद्धाण सेहए लंभ तत्थेव // 682 // गान्धर्विके / 'अन्नग्गहण त्ति गलग्गहस्स उभओ कण्णरुंधेसु सरणीतो पुव्वं संथुओ पच्छा संथुओ वा पुव्वं एगभायणो आसी, स तस्स हेण मण्णतो सुवातसंगहीयासु य आणायत्तं मुहं जंतं हवेज, अहवा अण्णमहे आगतो जदिण भुंजति तोपरिणमति, अतो सेहेण संमं भुंजति, परिवेट्ठितो गंधविओ त्ति' / नि० चू० 17 उ० / वि तेसागएसु मा तेसिं संका भविस्सति-किं एस अप्पसागारिये अण्णजोग-पुं० (अन्ययोग) कार्यान्तरजननसंबन्धे, अनेकासमुद्धिसतित्ति, अम्हे वा विकरेतिमा बाहिरभावंगच्छपरिवेट्ठितो जति। न्तजयपताकावृत्तिविव०४ अधि०। साहारणे वा लब्धं, तेण चेव भुंजियव्वं अह कक्खमंडिओताहे घेत्तुं तीरं भुंजति / अह दाया भदेति ताहे तेहिं चेव सद्धिं परिवुडो वा भुजति, / अण्णजोगववच्छेद-पुं० (अन्ययोगव्ययच्छेद) अन्ययोगस्य गिलाणो वा वेजस्सपुरतो समुद्दिसेज्जा, जयणाए कुरुकुयं करेजा, रायदुढे कार्यान्तरजननसंबन्धलक्षणस्थाभावे, अनेकान्तजयपताकावृत्तिविव० रायपुरिसेहिं णिजंतो तेहिं परिवेट्टितो भुंजेज्ज।आहारतेणगेसुतेसिंपुरओ 4 अधि०। भुंजेज, अद्धाण तेण सावयभया सत्थस्स मज्झे चेव भ॑जति / सेहागं अण्णजोगववच्छेयबत्तीसिया-स्त्री० (अन्ययोगव्यवच्छे दद्वात्रिंसव्वेसिं एकावसही होज्जा, वाहिगादिभए जणेण सह कंदराइसु अत्थति। शिका) श्रीमल्लिषेणविरचितस्याद्वादमञ्जर्याख्यवृत्तिा विभूषिते तत्थ तेसिं पुरतो समुद्विसेज, ओमे कहिं वि सत्ताकारे तत्थेव भुजंताण श्रीहेमचन्द्रसूरिविहते। निःशेष दुर्वादिपरिषद धिक्षेपदक्षे द्वात्रिंशत्पद्यमये लब्भति, भायणेसुण लब्भति। तत्थेव भुजेजा सागारिए एक्को परिवेसणं ग्रन्थे, श्रीहेमचन्द्रसूरिणा जगत्प्रसिद्ध श्रीसिद्ध सेनदिवाकरविरचितकरे, वड्डमाइसु संतरं संभुजंति, णाउं दुविहेण दवेण कुरुकुयं करेइ / द्वात्रिंशकानुकारि श्रीवर्द्धमानजिनस्तुति रूपमयोगव्ययच्छेदान्ययोसव्वेसु जहासंभवं एसा जयणा। नि० चू० 16 उ०। गव्यवच्छेदाभिधानं द्वात्रिंशद् द्वात्रिंश-काद्वितयं विद्वजनमनस्तत्त्वावअण्णाउत्थियदेवय-न० (अन्ययूथिकदैवत) न०। 6 त० / बोधनिबन्धनं विदधे / स्या०। (कुतीर्थिकः श्रीवीरेण सह परतीर्थिकपूज्येषु हरिहरादिषु देवेषु, उपा०१ अ०। औ०। आ० चू० / अन्ययोगश्चिन्तितः। यथा श्रीवीरो यथार्थवादी तथाऽन्येऽपि सौगतादयो प्रति०। देवाः यथार्थवादिनस्तेषां व्यवच्छेदो निषेधः अन्ययोगव्यवच्छेदः) अण्णउत्थियपरिग्गहिय-त्रि० (अन्ययूथिकपरिगृहीतं) तीर्थान्तरीयैः (स्याद्वादमञ्जरी-टिप्पणी) पूज्यत्वादिनाङ्गीकृतेऽर्हचैत्यादौ, उपा० 1 अ०। अण्णजोसिय-स्त्री० (अन्ययोषित्) परकीयकलनेषु मनुष्याअन्ययूथिकास्तदैवतानि, तत्परिगृहीतानि वा अर्हचैत्यानि, श्रावको / ___णां देवानां तिरश्चांच परिणीतसंगृहीतभेदभिन्नेषु कलत्रेषु। ध० 2 अधि०। नवन्देत / तदुक्तं सम्यक्त्वं प्रतिपद्यमानेनाऽऽनन्देन- 'णो खलु भंते! | अण्ण(न)ण्ण(न)-त्रि० (अन्योन्य) अन्यशब्दस्य कर्म-व्यतिहारे कप्पइ अज्जप्पभिइ अण्णउत्थिया वा अण्ण-उत्थियदेवयाणि वा द्वित्वम्, पूर्वपदे सुश्च / "ओतोऽद् वाऽन्योन्य०"1८1११५६ / अण्णउत्थियपरिग्गाहियाणि वा अरिहंत-चेइयाई वंदित्तए वाणमंसित्तए इत्यादि-सूत्रेण अत्वं वा। परस्परार्थे, प्रा०। वा"। उपा०१अ०औ०।अन्ययूथिकपरिगृहीतानि वा अर्हत्-चैत्यानि अर्हत्प्रतिमालक्ष-णानि यथा भौतपरिगृहीतानि वीरभद्रमहाक- अण्ण(नत (य) र-त्रि० (अन्यतर) अन्य-डतर।बहूनां मध्ये एकतरे, लादीनि / उपा०१ अ०। आ० चू०। औ०। "अण्णयरेसुआभियोगेसुदेवलोगेसुदेवत्ताए उववजइ" अन्यतरेषु अण्णओ (त्तो) (दो)-अव्य० (अन्यतस्) अन्य-तसिल। "तो दो | केषुचिदित्यर्थः / भ०१ श० 1 उ० 1 नि० चू०। "अण्णयरे वा तसो वा"।८।२।१६०। इति सूत्रेण तसः स्थाने तो दो इत्यादेशौ, पक्षे दीहकालपडिबंधे एवं तस्स न भवइ"जं०२ वक्ष०ा नि० चू०। उत्त० / दलोपश्च / प्रा०। 'न हुदाहामि ते भिक्खं, भिक्खू जायाहि अण्णओ' / "अण्णयरेसु देवलोगेसु" अन्यतरदेवानां मध्ये इत्यर्थः / स्था०४ ठा० नहु, नैव दास्यामि, ते तुभ्यं भिक्षां याचस्व अन्यतोऽस्मद्व्यतिरिक्तान् / 1301 आचा०। उत्त० 1 अ०। अण्णतरग-पुं० (अन्यतरक) एकस्मिन्काले आत्मपर-योरन्यमन्यतरं अण्णकाल-पुं० (अन्नकाल) सूत्रार्थपौरुष्युत्तरकालं, भिक्षा-काले, तारयन्तीति अन्यतरकाः। अन्यतर-अण। पृषो-दरादित्वाद् ह्रस्वः स्वार्थे "अण्णं अन्नकाले, पाणं पाणकाले"। सूत्र०२ श्रु०१ अ०। कः। तपोवैयावृत्त्यविषयकसामर्थ्याऽभावेन केवलमुभयं युगपत्कर्तुमअण्णक्खाण-न० (अन्वाख्यान) अन्वादेशे, आ०म०प्र०। शक्नुवत्सु एकस्मिन् काले आत्मपरयोरेकतरं तारयत्सु प्रायश्चित्ताअण्णगुण-त्रि० (अन्यगुण) चैतन्यादन्ये गुणा येषां तान्य हपुरुषेषु, व्य०१ उ०। न्यगुणानि। अचेतनेषु, "पंचण्हं संजोए, अण्णगुणाणं च चेयणाइ गुणो" | अण्णतित्थिय-पुं० (अन्यतीर्थिक) चरकपरिव्राजकशाक्याआधारकाठिन्यगुणा पृथिवी। सूत्र०१ श्रु०१ अ०१3०। जीवकवृद्धश्रावकप्रभृतिषु नि० चू० 11 उ०। भिक्षुभौतिकादिषुवा, ध० अण्ण (न) गोत्तिय-पुं० स्त्री० (अन्यगोत्रीय) गोत्रं नाम 2 अधि०१ परदार्शनिकेषु, आय०६ अ01 तथाविधैकपुरुषप्रभवो वंशः / अन्यच तद् गोत्रं चान्यगोत्र तत्र भवा अण्णतित्थियपवत्ताणुओग-पुं० (अन्यतीर्थिकप्रवृत्ता-नुयोग) अन्यगोत्रीयाः। अतिचिरकालव्यवधानवशेन त्रुटित-गोत्रसंबन्धेषु, ध० अन्यतीर्थिकेभ्यः कापिलादिभ्यः सकाशाद्यः प्रवृत्तः स्वकीयाचा१ अधि० / वैवाह्यमन्यगोत्रीयैः, कुल-शीलसमैः समम् / ध० वस्तुतत्त्वमनुयोगो विचारः, तत्करणार्थं शास्त्रसन्दर्भ इत्यर्थः, 1 अधि०। सोऽन्यतीर्तिकप्रवृत्तानुयोग इति। पापश्रुतभेदे, स०२६ सम० / Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णजोसिय ४७९-अभिधानराजेन्द्रः-भाग 1 अण्णभोग अण्णत्तभावणा-स्त्री० (अन्यत्वभावना) देहादेरात्मनो भेदबुद्धौ, मिथ्यादृष्टी, ओघ० / परधार्मिके, वृ०४ उ० / परतीर्थिक, बृ०३ उ०। "जीवः कायमपि व्यपास्य यदहो ! लोकान्तरं याति तद् भिन्नोऽसौ शाक्यादी, गृहस्थेच। स्था०३ठा०४ उ०। वपुषोऽपि कैव हि कथा द्रव्यादि वस्तु व्रजेत् / तस्माल्लिम्पति यस्तनुं अण्णपर-त्रि० (अन्यपर) अन्यरूपतया परस्मिन् अन्यस्मिन्, यथा मलयजैर्यो हन्ति दण्डादिभिर्यः पुष्णातिधनादि यश्च हरते तत्रापि साम्यं एकाणुका व्यणुकत्र्यणुकादि, एवं व्यणुकादेकाणुकद्व्यणुकादि / आचा० श्रयेत्।।१।। शार्दूलविक्रीडितम्। 2 श्रु०१२ अ०। अन्यत्वभावनामेवं, यः करोति महामतिः। अण्णपरिभोग-पुं० (अन्यपरिभोग) खाद्यादिसे बने, पं०व० तस्य सर्वस्वनाशेऽपि, न शोकांशोऽपि जायते" // 2 // प्रव०६७ २द्वा०। द्वा० ध०॥ अण्णपुण्ण-न० (अन्नपुण्य) अन्नात्पुण्यमन्नपुण्यम् / पात्राअण्णत्थ-अव्य० (अन्यत्र) परिवर्जने, यथा "अन्यत्र भीष्म-द्रोणाभ्यां, यान्नदानात्तीर्थकरनामादिपुण्यप्रकृतिबन्धरूपे पुण्यभेदे, स्था०६ ठा० / सर्वे योधाः पराङ्मुखाः"।"अण्णत्थऽणाभोगेणं सहसागारेणं'' इत्यत्र अण्णपमत्त-त्रि० (अन्नप्रमत्त) अन्नार्थं प्रमत्तः / भोजन-करणासक्ते, अन्यत्र अनाभोगात्सहसाकाराच, एतौ वर्जयित्वेत्यर्थः। ध०२ अधि०। उत्त०१४ अ०। "अणत्थकत्थई" अन्यत्र कुत्रचिद् वस्त्वन्तरे, विपा०१श्रु०२ अ०। अन्यप्रमत्त-त्रि० / अन्ये सुहृत्स्वजनादयस्तदर्थं प्रमत्तः / उत्त० आ० चू० / 'अण्णत्थ कत्थइ मणं अकु व्यमाणे" अन्यत्र 14 अ० / सुहृत्स्वजनमातृपितृपुत्रकलत्रभ्रात्रादीनां कार्यकरणासक्ते, कुत्रचिन्मनोऽकुर्वन्। अनु०। "अण्णप्पमत्ते धणमेसमाणे, पप्पोति मच्चु पुरिसो जरं च"। उत्त० 14 *अन्यार्थ-पुं०1 वा दुगभावः / भिन्नार्थे, अन्योऽर्थः अभिधेयं प्रयोजन अ०। वाऽस्य / भिन्नाभिधेयवाचके शब्दे, भिन्नप्रयोजनके पदार्थे च / त्रि०। अण्णवेलचरक-पुं०(अन्यवेलाचरक) अन्यस्यां भोजन-कालापेक्षया वाच०। आधावसानरूपायां वेलायां समये चरतीत्या दिकालाभिग्रहविशेषविशिष्टे *अन्वर्थ-पुं०। अनुगतोऽर्थम्। अत्या० स०। अर्थानुगते व्युत्पत्तियुक्ते भिक्षौ, स्या० 5 ठा० 1 उ०।। शब्दे, वाच० / "ठियमण्णत्थे तयत्थनिरवेक्खं" विवाक्षिताद् अण्णभोग-पुं० (अन्नभोग) खाद्यादिरूपे भोग्यपदार्थे, "अण्णभोगेहि भृतकदारकादिपिण्डादन्यश्चाऽसावर्थश्चान्यार्थो देवाधिपादिः / लेणभोगेहिं"। औ०। सद्भावतस्तत्र यत्स्थितं भूतकदारकादौ तर्हि कथं वर्तते ? इत्याह अण्णमण्ण-त्रि० (अन्योन्य) अन्यशब्दात् कर्मव्यतिहारे द्वित्वं, सुश्च तदर्थनिरपेक्षं तस्येन्द्रादिनाम्नोऽर्थस्तदर्थः, परमैश्वर्यादि, तस्य निरपेक्ष "ओतोऽद्वाऽन्योन्यप्रकोष्ठातोद्याशिरोवेदनामनोहरसरोरुहे तोश्च यः" / संकेतमात्रेणैव तदर्थशून्ये भृतकदारकादौ वर्तत ति पर्यायानभिधेयं 8 / 1 / 156 / इति सूत्रेण ओतः अत्त्वम् / मकार आगमिकः / स्थितमन्यार्थे अन्वर्थे वा तदर्थनिरपेक्षं यत् क्वचिद् भृतकदारकादौ परस्परशब्दार्थे, ज्ञा० 1 अ०। रा०। आ० म०प्र० / भ०। आचा० / इन्द्राद्यभिधानं क्रियते तन्नामेतीह तात्पर्यार्थः / विशे०।। उत्त०। चं० प्र० / अनु०। स्था०। सूत्र०"अण्ण-मण्णमण्णमणुरत्तया अण्णत्थगय-त्रि० (अन्यत्रगत) उक्तस्थानद्वयव्यतिरिक्त-स्थानाश्रिते, अण्णमण्णमणुव्वया अण्णमण्णछंदाणुवत्तया अण्णमण्णहियइच्छियभ०७ श०६ उ० / प्रज्ञापकक्षेत्राद्देवस्था-पनाचापरत्रस्थिते, भ०६श० कारका अण्णमण्णेसु गिहेसु किचाई करणिज्जाइं पचणुभवमाणा ६उ०। विहरति / " (जिनदत्तसागरदत्त-पुत्रयोमिथोऽनुरागवर्णकः) अन्योऽन्यअण्णत्थजोग-पुं० (अन्वर्थयोग) अनुगतशब्दशब्दार्थसंबन्धे, पश्चा० मनुरक्तौ स्नेहवन्तौ, अत एवाऽन्योऽन्यमनुव्रजतः इत्यनुव्रजन्तौ, एवं 12 विव०। छन्दानुवर्तकौ अभिप्रायमनुवर्तिनौ, एवं हृदयेप्सितकारको / (किच्चाई अण्णत्था-स्त्री० (अन्वर्था) अर्थमनुगता या संज्ञा सा अन्वर्था / करणीयाइं ति) कर्तव्यानि प्रयोजनानीत्यर्थः / अथवा कृत्यानि अर्थमङ्गीकृत्य प्रवर्तमानायां संज्ञायाम्, कथम् ? इह यथा भास्करसंज्ञा नैत्यिकानि, करणीयानि कादाचित्कानि, प्रत्यनुभवन्तौ विदधानी / अन्वर्था / कथमन्वर्था ? भासं करोतीति भास्कर इति यो ज्ञा०२ अ०।"अण्णमण्णं खिज्जमाणीओ विव' / परस्परं चक्षुभासनार्थस्तमङ्गीकृत्य प्रवर्तत इत्यन्वर्था / आ० चू० 110 / षाऽऽलोकनेनावलोकनेन ये लेशाः संश्लेषास्तैः खिद्यमाना इव / अण्णदंसि (ण)-त्रि० (अन्यदर्शिन्) अन्यद्रष्टुंशील-मस्येत्यन्यदर्शी / रा०। स्था० / / "अण्णमण्णं सेवमाणा' अन्योऽन्यस्य परस्पर स्यासेवनया, ब्रह्माश्रितभोगेन क्वचित्पाठः / प्रश्न० 4 आश्र० द्वा० / अयथावस्थितपदार्थदृष्टरि, आचा०१ श्रु०२ अ०६ उ०। "अण्णमणं करेमाणे पारंचिए'' अन्योऽन्यं परस्परं मुख-पायुप्रयोगतो अण्णदत्तहर-पुं० (अन्यदत्तहर) अन्येन दत्तं हरतीति राजा मैथुनं कुर्वन पुरुषयुगमिति शेषः। उच्यते - "आसप्पपोसयसेवी, के वि दिनाऽन्येभ्यो वितीर्णस्यापान्तराल एव छेदके, "अण्णदत्तहरे तेणे, माई मणुस्सा दुवेयगा होति। तेसिं लिंगविवेगो त्ति" स्था०३ ठा०४ उ०। कन्नु हरे सढे"। उत्त०७ अ०। बृ०। जीत०। ('पारंचिय' शब्देऽस्य व्याख्या) अण्णदाण-न० (अन्यदान) अशनादेरन्यस्मै दाने, “नो तिविहं अण्णमण्णकिरिया-स्त्री० (अन्योन्यक्रिया) परस्परतः साधुना तिविहेणं, पचक्खाइ अण्णदाणकारवणं''। पं० व०२ द्वा०। कृतप्रतिक्रियया विधेयायां रजःप्रमार्जनादिकायां क्रियाअण्णधम्मिय-पुं० (अन्यधार्मिक) जैनधर्मादन्यस्मिन धर्म वर्तते इति, | याम्, अन्योऽन्य क्रियाश्च अन्योऽन्यक्रियाः। सप्तके दर्शिता यथा Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णमण्णकिरिया ४८०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अण्णमण्ण से मिक्खू वा भिक्खुणी वा अण्णमण्णकिरियं अज्झत्थियं संसेइयं णो तं सातिए, णो तं णियमे, से अण्णमण्णो पाये आमज्जेज्ज वा, पम जवा, णो तं सातिए, णोतं णियमे, सेसं तं चेव, एवं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं सत्तमओ सत्तिकओ सम्मत्तो। क्रिया रजःप्रमार्जनादिकास्ता अन्योन्यं परस्परतः साधुनाकृतप्रतिक्रियया न विधेया इत्येवं नेतव्योऽन्योन्यक्रियासप्तैकक इति / आचा०२ श्रु० 13 अ०। जे मिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथस्स पाए अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा आमज्जेज वा, पमज्जेज वा, आमजंतं वा पमजतं वा साइजइ // 16 // जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथस्स पाए अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा संवाहेज वा, पलिमद्वेज वा, संवाहतं वा पलिमदंतं वा साइजइ / / 17 / जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथस्स पाए अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा तेल्लेण वा घएण वा वण्णेण वा वसाएण वा णवणीएण वा मंखेज वा, मिलिंगेज वा, मखंतं वा मिलिंगतं वा साइज्जइ||१८||जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथस्स पाए अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा लोद्धेण वा कक्केण वा पहाणेण वा पउमचुण्णेण वा वण्णेण वा उल्लोलेज वा, उव्वट्टेज वा, उल्लोलतं वा उव्वंदृतं वा साइज्जेइ / / 16 / / जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथस्स पाए अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएणा वा सीओदगवियडे ण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज वा, पधोएज वा, उच्छोलंतं वा पधोवंतं वा साइज्जइ / / 20 // जे भिक्खू णिग्गये णिग्गंथस्स पाये अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा फूमेज वा, रएज वा, मंखेज वा, फूमंतं वा रयंतं वा मंखंतं वा साइज्जइ // 21 // जे मिक्खू णिग्गंथे णिग्गंयस्स कायं अण्णउत्थिएण वा गारस्थिएण वा आमज्जावेज वा, पमज्जावेज्ज वा, आमञ्जावंतं वा पमज्जावंतं वा साइज्जइ // 22 // जे मिक्खू णिगंथे णिग्गंथस्स कायं अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा संवाहवेज्जा वा, पलिमद्दावेजा वा, संवाहवेजावंतं, वा पलिमद्दावेज्जावंतं वा साइजइ // 23 // जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथस्स कायं अण्णउत्थिएण वा गारस्थिएण वा तेल्लेण वा घएण वा वण्णेण वा वसाएण वा णवणीएण वा मंखावेज्ज वा, मिलिंगावेज वा, मंखावंतं वा मिलिंगावंतं वा साइजइ॥२४॥ जे मिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथस्स कायं अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा लोद्धेण वा कक्केण वा पहाणेण वा पउमचुण्णेण वा वण्णेण वा सिहाणेण वा उव्वट्टावावेज वा, परि-वट्टावावेज वा, उव्वट्टावावंतं वा परिवट्टावावंतं वा साइजइ।२५॥ जे भिक्खू णिग्गंथे णिगंथस्स कार्य अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलावेज वा, पधोवावेज वा, उच्छोलावंतं वा पधोवावंतं वा साइजइ॥२६॥ जेभिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथस्स कायं अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा फूमावेज वा, रयाएज वा, मंखावेज वा, फूमावंतं वा रयावंतं वा मंखावंत वा साइज्जइ॥२७॥ जे मिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथस्स कायंसिवणं अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा आमजावेज वा, पमज्जावेज वा, आमजावंतं वा पमज्जावंतं वा साइज्जइ // 28|| जे मिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथस्स कायंसि वर्ण अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा संवाहिज्जावेज वा, पलिमद्दावेज वा संवाहिज्जावंतं वा पलिमद्दावंतं वा साइजइ // 26 // जे मिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथस्स कायंसि वणं अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा तेल्लेण वा घएण वा वण्णेण वा वसाएण वा णवणीएण वा मंखावेज वा, मिलिंगावेज वा, मंखावंतं वा मिलिंगावंतं वा साइज्जइ॥३०॥जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथस्स कायंसि वणं अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा लोद्धेण वा कक्केण वा ण्हाणेण वा पउमचुण्णेण वा वण्णेण वा सिणीहाणेण वा उव्वट्टावेज वा, परिवट्टावेज वा, उव्वट्टावंतंवा परिवठ्ठावंतं वा साइजइ॥३१।। जे भिक्खू णिग्गंथे जिग्गंथस्स वा कायं सि वणं अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलावेज वा, पधोवावेज वा, उच्छोलावंतं वा पधोवावंतं वा साइजइ॥३२॥ जे मिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथस्स कार्यसि वणं अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा फूमावेज वा, रयावेज्ज वा, मंखावेज वा, फूमावंतं वा रयावंतं वा मंखावंतं वा साइज्जइ॥३३॥ जे मिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथस्स कायंसि अण्णउत्थिएण वा गारस्थिएण वा गंडं वा पलियं वा अरियं वा आसियं वा भगंदलं वा अण्णयरेण वा तीक्खेण वा सत्थजाएण वा अच्छिंदावेज वा, विच्छिंदावेज वा अच्छिंदावंतं वा विच्छिंदावंतं वा साइज्जइ // 34 // जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथस्स कायंसि अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा गंडं वा पलियं वा अरियं वा असियं वा भगंदलं वा अण्णयरेण वा तिक्खेण वा सत्थजाएण वा अच्छिंदावेज वा, विच्छिंदावेज वा, पूर्व वा सोणियं वा णीहरावेज वा, विसोहियावेज वा, णिहरावंतं वा विसोहियावंत वा साइज्जइ ||35|| जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथस्स कायंसि अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा गंडं वा पलियं वा अरियं वा असियं वा मगंदलं वा अण्णयरेण वा तिक्खेण वा सत्थजाएण अच्छिंदावेज वा, विच्छिंदावेज वा, पूयं वा सोणियं वाणीहरावेज वा, विसोहियावेज वा, सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलावेजवा, पधोवावेज वा, उच्छोलावतंवा पधोवावंतं वा साइजइ॥३६॥ Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णमण्णकिरिया 481- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अण्णमण्णकिरिया जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथस्स कायंसि अण्णउत्थिएण वा अण्णउत्थिएण गारथिएण कप्पावेज वा, संठावेज वा, कप्पावंतं गारथिएण वा गंडं वा पलियं वा अरियं वा असियं वा असियं वा संठावंतं वा साइजइ 4aa जे मिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथस्स वा भगंदलं वा अण्णयरेण वा तिक्खेण वा सत्थजाएण वा दीहाई मंसुरोमाइं अण्णउत्थिएण, गारथिएण, कप्पावेज वा, अच्छिंदावेज वा, विच्छिंदावेज वा, पूयं वासोणियं वाणीहराएज संठावेज वा, कप्पावंतं वा संठावंतं वा साइज्जइ॥५०॥ जे मिक्खू वा, विसोहियावेज वा, अण्णयरेण वा आलेवणजाएण वा णिग्गंथे णिग्गंथस्स दीहाई कक्खरोमाइं अण्णउत्थिएण विलेवणजाएण वा आलिंपावंतं वा विलिंपावंतंवा साइजइ॥३७॥ गारथिएण, कप्पावेज वा, संठावेज्ज वा, कप्पावंतं वा संठावंतं जे भिक्खू णिग्गये णिग्गंथस्स कायंसि अण्णउत्थिएण वा वा साइजइ / / 51|| जे मिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथस्स दीहाई गारथिएण वा गंडं वा० जाव अण्णयरेण वा आलेवणजाएण पासरोमाइं अण्णउत्थिएण, गारथिएण वा कप्पावेज वा, तेल्लेण वा० जाव साइजइ॥३८॥ जे भिक्खू णिगंथे णिग्गंथस्स संठावेज वा, कप्पावंतं वा संठावंतं वा साइज्जइ // 52 // जे मिक्खू कायंसि अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा गंडं वा पलियं वा णिग्गंथे णिग्गंथस्स दीहाइं उत्तरउट्ठाइं अण्णउत्थिएण अरियं वा असियं वा भंगदलं वा अण्णयरेण वा तिक्खेण वा गारथिएण कप्पावेज वा, संठावेज वा, कप्पावंतं वा संठावंत सत्थजाएण अच्छिंदावेज वा विच्छिंदावेज्ज वा पूयं वा सोणियं वासाइजइ॥५३शा वा णीहरावेज वा, विसोहियाएज वा, अण्णयरेण वा-धूवेण जे भिक्खू णिग्गंथे णिमगंथस्स दंते अण्णउत्थिएण गारथिएण जीवाएण धूवावेज्ज वा, पधूवावेज वा, धूवावंतं वा पधूवावंतं वा अघसंवेज वा, पघसंवेज वा, अघसंतं वा पघसंतं वा साइज्जइ // 36 // जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथस्स पालुकिमियं साइज्जइ / / 5 / / जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथस्स दंते वा वाकु च्छिकि मियं वा अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अण्णउत्थिएण गारथिएण सी-ओदगवियडे ण वा अंगुलीयाए निवेसिय निवेसिय णीहरावेज वा, णीहरावंतं वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलावेज वा, पधोवावेज वा, साइजइ॥४०॥ उच्छोलावंतं वा पधोवावंतं वा साइजइ // 55 / / जे भिक्खू जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथस्स दीहाउण्हसिहाउ अण्णउत्थिएण णिग्गंथे णिग्गंथस्स दंते अण्णउत्थिए, गारथिएण वा फूमावेज वा गारत्यिएण वा कप्पावेज वा, संठावेज वा, कप्पावंतं वा वा, रयावेज वा, मंखावेज वा, फूमावंतं वा रयावंतं वा मंखावंतं संठावंतं वा साइजइ // 41 // जे भिक्खू णिग्गंथे णिगंथस्स वासाइजइ॥५६॥ दीहाइंवत्थीरोमाई अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा कप्पावेज जे भिक्खू णिगंथे णिग्गंथस्स उद्वे अण्णउत्थिएण गारत्थिएण वा, संठावेज वा, कप्पावंतं वा संठावंतं वा साइज्जइशाजे आमज्जावेज वा, पमज्जावेज वा, आमज्जावंतं वा पमज्जावंतं वा मिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथस्स दीहाई जंधारोमाइं अण्णउत्थिएण साइज्जइ / / 57 / / जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथस्स उट्टे वा गारथिएण वा कप्पावेज वा, संठावेज वा, कप्पावंतं वा अण्णउत्थिएणगारस्थिएण संवाहिवावज वा, पलिमद्दावेज वा, संठावंतं वा साइजइ॥४३॥ जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथस्य दीहाई संवाहिवावंतं वा पलिमद्दावंतं वा साइजइ / / 58|| जे भिक्खू सीसकेसाई अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा कप्पावेज वा, णिग्गंथे णिग्गंथस्स उट्ठे अण्णउत्थिएण गारत्थिएण तेल्लेण वा संठावेज वा, कप्पावंतं वा संठावंतं वा साइज्जइ॥४४||जे भिक्खू घएण वा वण्णेण वा वसाएण वा णवणीएण वा मंखावेज्ज वा, णिग्गंथे णिग्गंथस्स दीहाई कण्णरोमाइं अण्णउत्थिएण वा मिलिंगावेज वा, मंखावंतं वा मिलिंगावंतं वा साइज्जइ / / 5 / / गारत्थिएणवा कप्पावेजवा, संठाविज वा, कप्पावंतंवा संठावंतं जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथस्स उट्ठे अण्णउत्थिएण गारत्थिएण वा साइज्जइ ||15|| जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथस्स दीहाई लोद्धेण वा कक्केण वा पहाणेण वा पउमचुण्णेण वा वण्णेण वा भूरोमाई अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा कप्पावेज वा, उल्लोलावेज वा, उव्वट्ठावेज वा, उल्लोलावंतं वा उव्वट्टावंतं संठावेज वा, कप्पावंतं वा संठावंतं वा साइजहा वा साइजइ // 60 / / जे भिक्ख णिग्गंथे णिग्गंथस्स उट्टे जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथस्स दीहाइं अच्छि पत्ताई अण्णउत्थिएण गारत्थिएण सीओदगवियडे ण वा अण्णउत्थिएण वा, गारथिएणवा, कप्पावेज वा, संठावेज वा, उसिणीदगवियडेण वा उच्छोलावेज वा, पधोवावेज वा, कप्पावंतं वा संठावंतं वा साइज्जइ // 47 // जे भिक्खू णिग्गंथे उच्छोलावंतं वा पधोवावंतं वा साइजइ // 61 / / णिग्गंथस्स दीहाइं चक्खुरोमाइं अण्णउत्थिएण वा गारस्थिएण जे मिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथस्स उट्ठे अण्णउत्थिएण गारथिएण वा कप्पावेज वा, संठावेज वा, कप्पावंत वा संठावंतं वा फूमावेज वा, रयाएजवा, मंखावेज वा, मावंतं वा रयावंतं वा साइजइ।।८|| जे मिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथस्सदीहाइंणकरोमाई| मंखावंतं वा साइज्जइ॥६२।। Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णमण्णकिरिया 482 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अण्णमण्णकिरिया जेभिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथस्म अच्छिणि अण्णउत्थिएण गारथिएण आमज्जावेज वा, पमजावेज वा, आमज्जावंतं वा / पमज्जावंतं वा साइजइ // 633 // जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथस्स अच्छिणि अण्णउत्थिएण वा गारस्थिएण वा संवाहियावेज वा, पलिमद्दावेजवा, संवाहियावंतं वा पलिमहावंतं वासाइज ॥६शा जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथस्स अच्छिणि अण्णउत्थिएण गारथिएण तेल्लेण वा घएण वा वसारण वा णवणीएण वा मंखावेज वा, मिलिंगावेज वा, मंखावंतं वा भिलिंगावंतं वा साइजइ / / 6 / / जे मिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथस्स अच्छिणि लोद्धेण वा ककेण वा पहाणेण वा पउमचुण्णेण वा वण्णेण वा उल्लोलावेज वा, उव्वट्टावेज वा, उल्लोलावंतं वा उव्वट्टावंतं वा साइज्जइ / / 66|| जे भिक्खू णिग्गथे णिग्गंथस्म अच्छिणि अण्णउत्थिएण गारत्थिएण, सीओदगवियडे ण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलावेज वा, पधोदावेज वा, उच्छोलावंतं वा पधोवावंतं वा साइजइ॥६७॥ जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथस्स अच्छिणि अण्णउत्थिएण गारथिएण फूमावाएज वा, रयाएज वा, मंखावाएज वा, फूमावावंतं वा रयावंतं वा मंखावावंतं वा साइज्जइ।।६८|| जे भिक्खू णिग्गंथे जिग्गंथस्स अण्णउत्थिएण गारित्थएण अच्छिमलं वा कण्णमलं वा दंतमलं वा णहमलं वा णीहरावेज वा जाव साइजइ / / 6 / / जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथस्स कायाउसेयं वा जल्लं वा पंकं वा मल्लं वा अण्णउत्थिएण गारथिएण णीहरावेज वा, विसोहावेज वा जावसाइज्जइ / / 7 / / जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथस्स गामाणुगामं दुइज्जमाणे अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा सीसदुवारियं करावेइ, करावंतं वा साइजइ॥७॥ ग्रामजनंसकृत् पुनः पुनः प्रमार्जनम्, (जा सडणि) गाहा ।आदिसराओ बंधणादिसुत्ता पंच, कायसुत्ता छ, वणसुत्ता छ, गंडसुत्ता छ, बालुकिमिसुत्तं णहसिहारोमराई मंसुसुत्तं च, एताणि उत्तरोट्ठणासिगासुत्तं च अच्छिणामञ्जणसुत्ता तिण्णि मुहसुत्तं सयसुत्तं अच्छिमलाइ सुत्तं, सीसदुवारियसुत्तं च / एते चत्तालीसं (म०) सुत्ता ततिओदेसगगमेण भाणियव्वा / तत्थ सयंकरणे इह पुण णिगंथीणं समणस्स अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा कारवेति त्ति, सेसा इमं अधिकयसुत्ते भण्णंतिसमणाण संजतीहिं, असंजतीओ गिहत्थेहिं। गुरुगा लहुगा चउवा, तत्थ वि आणादिणा दोसा||११|| संजतीओ जदि समणस्स पायपमजणादि करेति, तो चउगुरुगा (असंजतीओ त्ति) गिहित्थिओ जइ करेंति, तत्थ वि चउगुरुगा, गिहत्थपुरिसा जदि करेंति, तो चउलहुगा, आणादिया य दोसा भवंति // 11 // मिच्छत्ते उड्डाहो, विराहणा फासभावसंबंधे। पडिगमणादी दोसा, भुत्ताभोगी यणायव्वा॥१२| इत्थियाहिं कीरंतं पासित्ता कोइ मिच्छत्तं गच्छेज-एते कावडिय त्ति, / संजमविराहणा य, इत्थिफासे मोहोदयो, परोपरओ वा फासेण भावसंबंधो हवेज, ताहे पडिगमणं अण्णतित्थियादी दोसा, अहवा फासउज्जो भुत्ताभोगी सा पुव्वरयादि संभरिजा, अहवा चिंतिज-एरिसो मम भोइयाए फासो एरिसी वा मम भोइया आसी, अभुत्तभोइस्स इत्थिफासेण कोउयादि विभासादीहंदणीससेज्जा, पुच्छा कहि एरिसेण कहि एणं। ममभाइया एरिसी,सावा चलणे वंदे एवं // 13|| यो वा संजओ संजतीयाए पमज्जमाणीए दीहं णीससिज्जा, जाहे सो पुच्छति-किमेयं दीहं ते नीससियं? सो भणाति - किं एरिसेण भणाति कहिं एणं ति, निबंधे कहेइ, मम भाइया एरिसी तुम वी सा वा चलणे पमजंती दीहं णीससेज्जा, पुच्छा कहं णं च एवं चेव एते संजतिहिं दोसा / / 13 / / एते चेव य दोसा, असंजतीयाहि पच्छकम्मं च / आतपरमोहुदीरउ, पाउसत्तहु सुत्तत्थपरिहाणी।।१४|| गिहत्थीसु अतिरित्तदोसा पच्छाकम्म हत्थे सीतोदके ण पक्खालेज्जा, पादआमजणादीहिं य उज्जलदेसस्स अप्पणो मोहो उदिज्जेज्जा-सोभामि वा अहं, को मे एरिसकामो तित्ति गव्वो हवेज, तं वा उज्जलवेसं दट्टुं अण्णेसिं इत्थियाणं मोहो उदिजेज, सरीरपाउसत्तं च कतं भवति, जाव तं करेति ताव सुत्तत्थपलिमंथो॥१४॥ संपातिमादिघातो, विवजिओ मे च लोगपरिवाओ। गिहिएहि पच्छकम्म, तम्हा समणेहिँ कायव्वं // 15|| पमज्जमाणं संपातिमे अभिदाएज्ज अजयत्तणेण (विवज्जितोति) साधुणा विभूसापरिवजिएण होयव्यं / भणियं च - "विभूसाइत्थिसंसग्गी, ति सिलोगो / एयस्स विवरीयकरणे भे भवे लोगपरिवादी य, जारिसं सवेज्जग्गहणं एरिसेण अनिवृत्तेन भवितव्यम्, एवमादि इत्थिसु दोसा। गिहत्थपुरिसेसु वि इत्थिफासादिया मोत्तुं एते चेव दोसा, पच्छकम्मंच। इमे य दोसा अजयंते पप्फोडे,ते पाणे उप्पीलणंच संपादी। अतिपेल्लणम्मि आता, फोडणं खय अट्ठिभंगादी||१६|| संजओ अजयणाए पप्फोडेंतोपाणे अभिहणेज, बहूण वा दवेण धोवंतो पाणे उप्पीलावेज वा, खिल्लबंधे वा संपातिमा पडे - ज्जहा। एस संजमविराहणा। आयविराहणा इमा-तेण गिहिणा अतीव पेल्लिओ पादो, ताहे संधी वि करेज, फोडणं ति णित्थरहल्लेजा, णहादिणा वा खयं करेज, अढि वा भंजेज // 16 // एते चेव य दोसा, असंजतीयाहि पच्छकम्मंच। गिहिएहि पच्छकम्म, पच्छा तम्हा तु समणेहिं / / 17 / / गतार्था, किंचि विसेसो।पुव्वद्धेण गिहत्थी भणिता, पच्छद्धेण गिहित्था, दो विपाएपप्फोडेते कुच्छे करेज, कुच्छंतोपच्छा-कम्मसंभवो, जम्हा एते दोसा तम्हा समणाण समणेहिं कायव्वं,णो गिहित्था अण्णतित्थिया वा छंदेयव्वा // 17 // बितियपदमणप्पज्झे, अद्धाणुव्वात अप्पणो उकरे। पमजणादी तु पदे, जयणाए समयोरिहे भिक्खू |18|| अणप्पज्झे कारवेजा, अणप्पज्झस्स वा कारविचंति, अद्धाणे पडिवण्णो वा अतीव उच्चा उप्पमजणादीपदे अप्पणो चेव जयणा पकरेज, अप्पणो असन्नो संजएहिं कारवेजा // 18 // Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णमण्णकिरिया 483 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अण्णमण्णकिरिया असतीय संजयाणं, पच्छाकडमादिएहि कारज्जा। गिहिअण्णतित्थिएहि, गिहत्थि-परतित्थि-तिविहाहि ||19|| असती संजयाणं पच्छाकमेहिं कारवेति, तओ साभिग्गएहि, ततो णिरभिग्गहेहि, ततो अहाभद्दएहि, ततो णियल्लएहिं मिच्छ-विट्ठीहिं, ततो अभिग्गहियमिच्छद्दिट्ठीहि, ततो अण्णतित्थिएहि मिच्छाट्ठिीमादिएहिं, पुटवं असोयवादीहिं, पच्छा सोयवादीहि, ततो पच्छा गिहत्थिपरतिथितिविहाहिं ति, ततो गिहत्थीहिं णालवद्धाहिं अणालबद्धाहिं तिविधाहिं घेरमज्झिमतरूणीहि, एवं परस्थितिएणहि वि, संजतीहि वि, एवं चेव, एसोचेव अत्थो वित्थरतो भण्णति, तआ पच्छा गिहत्थिपरतिथितिविहाहिं ति / गिहत्थी दुविहा- णालबद्धा अणालबद्धा / ततो इमेहिं गिहत्थीहिं णालबद्धाहिं - माताभगिणीधूया-अज्जिणी अयिल्लियाण असतीए। अणियल्लिय थेरेहि, मज्झिमतरूणीहि अण्णतित्थीहिं / / 20 / / | माता भगिणी धूआ अज्जियाऽणुत्तरी य, एतेसिं असतीए, एयाहिं चेव अण्णतिथिणीहि, एतेसिं असतीए अणालबद्धाहिं गिहत्थीहिं तिविधाहिं कमेण थेरमज्झिमतरुणीहिं, तओ एयाहिं चेव अण्णतित्थियाहिं ति // 20 // तिविहाण विएयाणं, असतीऍ संजतिमादिभगिणीहिं। अस्थि य भगिणी ण सती, तप्पच्छाऽवसेसतिविहाहिँ 21|| माताभगिणीधूया-अज्जियाण वि य सेसतिविहा तु / एतासिं असतीए, तिविहा वि करेति जयणा तु॥२२॥ अणालबद्धाणं थेरमज्झिमतरुणीहिं असति संजतीतो माता भगिणी | धूया व अजियाण एवमादि ततो करेति, ततो पच्छा अवसेसाओ अणालबद्धाओ तिविहाओ थेरमज्झिमतरुणीओ करावेंति वा, एयम्मि चेव अत्थेअण्णायरियक इमा गाथा - (माताभगिणी)। (एतासिं असतीए त्ति) मायभगिणिनादियाणं ति, सेसं तिविहाउ त्ति अणालबद्धाओ संजतिओ तिविधाओ थेरमज्झिमतरुणी यजयणा जहानालसंबद्धादि ण भवति, तहा कारवेति, करंति वा // 21 // 22 // जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथीए पाए अण्णउत्थिएण वा गारस्थिएण वा आमज्जावेज वा, पमजावेज वा, आमज्जावंतं वा पमजावंतं वा साइजइ / / 72 / / जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथीए पाए अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा संवाहावेज्ज वा, पलिमहावेज वा, संवाहावंतं वा पलिमद्दावंतं वा साइज्जइ ॥७३जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथीए पाए अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा तेल्लेण वा घएण वा वण्णेण वा वसाएण वा णवसीएण वा मंखेज वा, मिलिंगेज वा, मंखंतं वा मिलिंगंतं वा साइजइ ॥७४||जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथीए पाए अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वालोद्धेण वा कक्केण वा ण्हाणेण वा पउमचुण्णेण वा वण्णेण वा सिसाहाणेण वा उव्वट्टेज वा, परिवटेज वा, उव्वटुंतं वा परिवर्दृतं वा साइज्जइ 75|| जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथीए पाए अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज वा, पधोवेज वा, उच्छोलतं वा पधोवंतं वा साइज्जइ // 76|| जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथीए पाए अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा फूमेएज वा, रयाएज्ज वा, मंखेएज वा, फूमावंतं वारयावंतं वा मंखंतं वा साइजइ 77|| जे भिक्खू-णिग्गंथे णिग्गंथीए काये अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा आमज्जावेज वा, पमज्जावेज्ज वा, आमज्जावंतं वा पमज्जावंतं वा साइजइ॥७॥ जे मिक्खू णिगंथे णिग्गंथीए कार्य अण्णउत्थिएण वागारित्थिएण वा संवाहावेज वा, पलिमद्दावेज वा, संवाहावंतं वा परिमद्दावंतं वा साइज्जइ // 7 // जे मिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथीए कायं अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा तेल्लेण वा धरण वा वण्णेण वा णवणीएण वा मंखावेज वा, मिलिंगावेज वा, मंखावंतं वा मिलिंगावंतं वा साइज्जइ // 8 // जे मिक्खू णिग्गंथे णिगंथीए कार्य अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वालोद्धेण वा कक्केण वा ण्हाणेण वा पउमचुण्णेण वा वण्णेण वा सिणाहाणेण वा उव्वट्टावेज वा, परिवट्टावेज्ज वा, उव्वट्ठावंतं वा परिवठ्ठावंतं वा साइजइ / / 81 // जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथीए कायं अण्णउत्यिएण वा गारथिएण वा सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलावेज वा, पधोवावेज वा, उच्छोलावंतं वा पधोवावंतं वा साइज्जइ / / 8 / / जे मिक्खू णिग्गंथे णिगंथीए कार्य फूमावेज वा, रयाएज वा, मंखावेज वा, फूमावंतं वा रयावंतं वा मंखावंतं वा साइजइ / / 83|| जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथीए कार्यसि वणं अण्ण-उत्थिएण वा गारथिएण वा आमज्जावेज वा, पमजावेज वा, आमज्जावंतं वा पमज्जावंतं वा साइज्जइ / / 64|| जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथीए कायंसि वणं अण्णउत्थिएणवा गारथिएण वा तेल्लेण वा घएण वा वसाएण वा णवणीएण वा मंखावेज वा मिलिंगावेज वा, मंखावंतं वा भिलिंगावंतं वा साइज्जइ॥८५|| जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथस्स कायंसि वणं अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा लोद्धेण वा कक्केण वा बहाणेण वा पउमचुण्णेण वा सिणीहाणेण वा उव्वट्टावेज वा, परिवट्टावेज वा, उव्वट्टावंतं वा परिवठ्ठावंतं वा साइजइ॥५६जे मिक्खू णिग्गंथे णिगंथीए (णिग्गंथीए)? कायंसिवणं अण्णउत्थिएणवागारथिएण वा सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलावेज वा, पधोवावेज वा, उच्छोलावंतं वा पधोवावंतं वा साइजइ // 7 // जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथीए कायंसि वणं अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वाफूमावेज वा, रयावेज वा, मंखावेज वा, फूमावंतं वा रयावंतं वा मंखावंतं वा साइजइ ||8|| Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णमण्णकिरिया 484- अभियानराजेन्द्रः-भाग 1 अण्णमण्णकिरिया जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथीए कायंसि अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा गंडं वा पलियं वा अरियं वा असियं वा भगंदलं वा अण्णयरेण वा सत्थजाएण अच्छिंदावेज वा, विच्छिंदावेज वा, अच्छिंदावंतं वा विच्छिंदावंतं वा साइजइ ||६||जे भिक्खू णिगंथे णिग्गंथीए कार्यसि अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा गंडं वा पलियं वा अरियं वा असियं वा भगंदलं वा अण्णयरेण वा तिक्खेण वा सत्थजाएण वा अच्छिंदावेज वा, विच्छिंदावेज वाय, पूर्व वा सोणियं वा णीहराएज वा, विसोहियावेज वा, णीहरावंतं वा विसोहियावंतं वा साइजइ ||0|| जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथीए कायंसि अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा गंडं वा पलियं वा अरियं वा असियं वा भगंदलं वा अण्णयरेण वा तिक्खेण वा सत्थजाएण अच्छिंदावेज वा, विच्छिंदावेज वा, पूयं वा सोणियं वा णीहराएज्ज वा, विसोहियावेज वा, सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा, उच्छो-लावेज वा, पधोवावेज वा, उच्छोलावंतं वा पधोवावंतं वा साइजइ ||1|| जे मिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथीए कायंसि अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा गंडं वा पलियं वा अरियं वा असियं वा भगंदलं वा अण्णयरेण वा तीक्खेण वा सत्थजाएण अच्छिंदावेज वा, विच्छिं दावेज वा, पूर्व वा सोणियं वा णीहरावेज वा, विसोहियावेज वा, अण्णयरेण वा आलेवणजाएण आलिंपावेज वा, विलिंपावेज वा, आलिंपावंतं वा विलिंपावंतं वा साइज | जे मिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथीए कायंसि अण्णउत्थिएण गारथिएण गंड वा० जाव अण्णयरेण वा आलेवणजाएण तेल्लेण वा० जाव साइज्जइ / / 63 जे मिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथीए कायंसि अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा गंडं वा पलियं वा अरियं वा असियं वा भगंदलं वा अण्णयरेण वा तिक्खेण वा सत्थजाएण अच्छिंदावेज वा, विच्छिंदावेज वा, पूर्व वा सोणियं वाणीहरावेज वा, विसोहियावेज वा, अण्णयरेण वा धूवेण पधूएण वा धूयावेज वा, पधूयावेज वा, धूयावंतं वा पधूयावंतं वा साइजइ ||6|| जे मिक्खू णिग्गंथे णिग्गंधीए पालुकिमियं वा कुच्छिकिमियं वा अण्णउत्थिएण वागारस्थिएण वा अंगुलीयाए निवेसिय निवेसिय णीहरावेइ, णीहरावंतं वा साइजइ ||5|| जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथीए दीहाओ णहसिहाओ अण्णउत्थिरण वा गारथिएण वा कप्पावेज वा, संठावेज वा, कप्पावंतं वा संठावंतं वा साइजइ ।।६६|जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथीए दीहाइंवत्थीरोमाइं अण्णउत्थिएण वा गारस्थिएण वा | कप्पावेज वा, संठावेज वा, कप्पावंतं वा संठावंतं वा साइजइ |७||जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथीए दीहाइंजंघारोमाइं अण्णउत्थिरण वा गारथिएण वा कप्पावेज वा, संठावेज वा, कप्पावंतं वा संठावंतं वा साइज / / 98|| जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथीए दीहाइं सीसकेसाई अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा कप्पावेज वा, संठावेज वा, कप्पवेज वा, संठवेज्ज वा, कप्पावंतं वा संठावंतं वा साइजइ IIEEII जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथीए दीहाई कण्णरोमाई अण्णउत्थिएणवा गारस्थिएण वा कप्पावेज वा, संठावेज वा, कप्पावंतं वा संठावंतं बा साइजइ॥१००|| जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथीए दीहाइंभूमहरोमाई अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा कप्पावेज वा, संठावेज वा, कप्पावंतं वा संठावतं वा साइजइ // 10 // जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथीए दीहाइं चक्खू रोमाई अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा कप्पावेज वा, संठावेज वा, कप्पावंतं वा संठावंतं वा साइजइ / / 10 / / जे मिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथीए दीहाई अच्छिपत्ताई अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा कप्पावेज वा, संठावेज वा, कप्पावंतं वा संठावंतं वा साइजइ / / 103 // जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथीए दीहाइंणक्करोमाई अण्णथिएण वा गारत्थिएण वा कप्पावेज वा, संठावेज वा, कप्पावंतं वा संठावंतं वा साइजइ / / 10 / / जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथीए दीहाई कक्खरोमाई कप्पावेज वा, संठावेज वा, कप्पावंतं वा संठावंतं वा साइजइ / / 105|| जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथीए दीहाई पासरोमाइं अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा कप्पावेज वा, संठावेज वा, कप्पावंतं वा संठावंतं वा साइज्जइ ॥१०६||जे भिक्खू णिग्गंथे णिगंथीए दीहाइं उत्तरउट्ठाई अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा कप्पावेज वा, संठावेज वा, कप्पावंतं वा संठावंतं वा साइजइ॥१०७|| जे मिक्खू णिगंथे णिग्गंथीए दंते अण्णउत्थिएण वा गारात्थिएण वा अघसाएज वा, पघसावेज वा, अघसावंतं वा पघसावंतं वा साइजइ ।।१०८|जे भिक्खू णिग्गं थे णिग्गंथीए दंते अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा सीओदवियडे ण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलावेज वा, पधोवाएज्ज वा, उच्छोलावंतं वा पधोवावंतं वा साइजइ ।।१०जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथीए अण्णउत्थिएण गारत्थिएण दंते फूमावेज वा, रयावेज वा० जाव साइजइ // 110|| जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथीए उढे अण्णउत्थिएण गारथिएण वा आमावेज वा, पमावेज वा, आमावेजंतं वा पमावेञ्जतं वा साइजइ // 111|| जे मिक्खू णिग्गंथे णिगंथीए उढे अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा संवाहवेज वा, पलिमद्दावेज वा, संवाहंतं वा पलिमद्दावंतं वा साइजइ।।११राजे भिक्खू णिग्गंथे Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णमण्णकिरिया 485 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अण्णमण्णसिणेहपडिबद्ध णिग्गंथीए उट्ठे अण्णउत्थिएणवा गारथिएणवा तेल्लेणवाधएण गारथिएण वा आमावेज वा, पमावेज वा, आमावेजंतं वा वा वण्णेण वा वसाएण वाणवणीएण वा मंखाएज वा, मिलिंगाएज्ज पमावेजंतं वा साइजइ / / 125 / / जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथीए वा, मंखावंतं वा मिलिंगावंतं वा साइजइ॥११३|| जे मिक्खू कायाउ अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अच्छिमलं वा णिग्गंथे णिग्गंथीए उढे अण्णउत्थिएण वागारस्थिएण वालोद्धेण कण्णमलं वा दंतमलं वा णहमलं वा णीहरावेज वा० जाव वा क के ण वा ण्हाणे ण वा पउमचुण्णेण वा वण्णे ण साइज्जइ / / 126|| एवं सव्वं गिल्लगमगिल्लगमप्पसरिसंणेयव्वं वा उल्लोलावेज वा, उव्वट्टावेज वा, उल्लोलावंतंवा उव्वट्टावंतं जाव जे णिग्गंथीए णिग्गंथस्स गामाणुगाम दुइज्जमाणे वा साइज्जइ / / 114|| जे मिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथीए उट्टे अण्णउत्थिएणवा गारथिएण वा सीसदुवारियं करावेइ, करावंतं अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा सीओदगवियडेण वा वा साइजइ॥१८३शा उसिणोगदवियडेण वा उच्छोलावेज वा, पधोवावेज वा, जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथीए पाए अण्णउत्थिएण वा गारथिएण उच्छोलावंतं वा पधोवावंतं वा साइजइ / / 11 / / जे मिक्खू वा आमजावेज वा, पमज्जावेज वा, आमज्जावंतं वा पमजावंतं वा णिग्गंथे णिग्गंथीए उढे अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वाफूमा साइजइ / / 184aa एवं तं एतेण वा पएण सरिसा णेयव्वा जावजे वेज वा, रयाएज वा, मंखावेज वा, फूमावंतं वा रयावंतं वा णिगंथी णिग्गंथीए गामाणुगाम दुइज्जमाणे अण्णउत्थिएण वा मंखावंतं वा साइज्जइ॥११६|| गारथिएण वा सीसदुवारियं करावे इ, करावंतं वा जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथीए अच्छिणि अण्णउत्थिएण वा साइजइ // 24 // गारथिएण वा आमावेज वा, पमावेज वा, अमावेजंतं वा सुत्ता एकचत्तालीसं ततिउद्देसगगमा जाव सीसदुवारे त्ति सुत्तं, अत्थो पमावेजंतं वा साइजइ // 117|| जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथीए पूर्ववत्। अच्छिणि अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा संवाहावेजा वा, एसेव गमो नियमा, णिग्गंथीणं पि होइणयव्वो। पलिमद्दावेज वा, संवाहावंतं वा पलिमद्दावंतं वा कारवण संजतेहिं, पुव्व अवरम्मि य पदम्मी तु / / 130|| साइजइ / / 118|| जे मिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथीए अच्छिणि अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा तेल्लेण वा घएण वा वण्णेण संजमो गारत्थमादिएहिं संजतीणं पदे पमजमादि कारवेति, उत्तरोट्टसु वा वसाएण वा णवणीएण वा मंखावेज वा, मिलिंगावेज वा, ण संभवति, अलक्खणाए वा संभवति। नि० चू० 17 उ० / मंखावंतं वा मिलिंगावंतं वा साइज्जइ॥११||जे भिक्खू णिग्गंथे अण्णमण्णगंठिय-त्रि० (अन्योन्यग्रथित) परस्परेणैकेन ग्रन्थिना णिग्गंथीए अच्छिणि अण्णउत्थिएण वा गारित्थएण वा लोद्धेण सहाऽन्यो ग्रन्थिरन्येन च सहाऽन्य इत्येवं ग्रथिते,भ०५ श०३ उ०। वा कक्के ण वा पहावेण वा पउमचुण्णेण वा वण्णेण वा अण्णमण्णगरुयत्ता-स्त्री० (अन्योन्यगुरुकता) अन्योन्येन ग्रन्थनाद् उल्लोलावेज वा, उव्वट्टावेज वा, उल्लोलावंतं वा उव्वट्ठावंतं विस्तीर्णतायाम्, भ० 5 श० 3 उ०। वा साइज्जइ / / 120 / / जे मिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथीए अच्छिणि अण्णमण्णगरुयसंभरियत्ता-स्त्री० (अन्योन्यगुरुकसभा-रिकता) अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा सीओदगवियडे ण वा अन्योन्येन गुरुकं यत्संभारिकं च तत्तथा, तद्भावस्तत्ता / अन्योन्येन उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलावेज वा, पधोवावेज वा, ग्रन्थनाद् विस्तारसंभारवत्त्वे, भ०५ श०३ उ०। उच्छोलावंतं वा पधोवावंतं वा साइजइ / / 121|| जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथीए अच्छिणि अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अण्णमण्णघडता-स्त्री० (अन्योन्यघटता) अन्योन्यं घटन्ते फूमावेज वा, रयावेज वा, मंखावेज वा, फूमावंतं वा रयावंतं संबध्नन्तीति अन्योन्यघटाः / जी० 3 प्रति० / अन्योन्यं घटाः वा मंखावंतं वा साइज्जइ।।१२।। समुदायरचना यत्र तदन्योन्यघटम् / अन्योन्यं घटाः समुदायो येषां तेऽन्योन्यघटाः। परस्परसंबन्धतायाम, भ०५ श० 3 उ०। जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथीए कायाउ अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा सेयं वा जलंवा पंकं वा मल्लं वाणीहरावेज वा, अण्णमण्णपुट्ठ-त्रि० (अन्योन्यस्पृष्ट) स्पर्शनमात्रेण मिथः स्पृष्ट, भ० विसोहावेज वा, णिहरावंतं वा विसो-हावंतं वा साइजइ।।१२३।। १श०६ उ०। जी० जे भिक्खूइणग्गंथे णिग्गंथीए गामाणुगामं दुइज्जमाणे अण्णमण्णबद्ध-त्रि० (अन्योन्यबद्ध)। अन्योन्यं जीवाः पुद्गलानां, अण्णउत्थिए ण वा गारस्थिएग वा सीसदुवारियं करेइ, करतं पुद्रलाश्च जीवानामित्येवमादिरूपेण गाढत संबन्धे, भ०१श०६ उ०। वा साइजइ।।१२४॥ अण्णमण्णबेह-पुं० (अन्योन्यवेध) अन्यस्याऽन्यस्यां संबन्धे, जे मिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथस्स पाए अण्णउत्थिएण वा | नि० चू०२० उ०1"अण्णाण्णवेहओ भत्ति ति" अन्योन्यस्य मा Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णलिंग 486 - अभिषानराजेन्द्रः - भाग 1 अण्णाण ग वेधः संबन्धोऽन्योन्यवेधस्तस्मात्। पञ्चदशाधारोपएकैकस्मिन् स्थापने पठ्यते च (पण्हं ति) पृछ्यते इति प्रश्नः / तं प्रष्टव्यार्थरूपमुदाहरेदिति संयुज्यते इत्यर्थः / नि० चू०२० उ०। भूते लिट्। तत उदाहरे दुदाहृतवान्। पठ्यते च - "अण्णवसि महोघंसि अण्णमण्णब्भास-पुं०(अन्योन्याभ्यास) अन्योन्यं परस्प-रमभ्यासः। एगे तिण्णे दुरुत्तरे'' त्ति / अत्र तु प्रत्यये विशेषः - ततश्वार्णवान्महौघाद् परस्परं गुणने, अनु०। दुरुत्तरात्तीर्ण इव तीर्णस्तीरप्राप्त इति योगः। एको घातिकर्मसाहित्यअण्णमण्णभारियत्ता-स्त्री० (अन्योन्यभारिकता) अन्योन्यस्य यो यो रहितः, (तत्रेति) स देवमनुजयोः परिषदि एकोऽद्वितीयः, स च भारः, स विद्यते यत्र, तदन्योन्यभारिकं, तद्भावस्तत्ता। परस्परं भारवत्त्वे, तीर्थकृदेव / शेषं प्राग्वदिति सूत्रार्थः / उत्त०५ अ०। भ०५ श०३ उ०। अण्णव-त्रि० (ऋणवत्) सप्तविंशतितमे लोकोत्तरमुहूर्ते , ज०७ वक्ष० / अण्णमण्णमणुगय-त्रि० (अन्योन्यानुगत) परस्परानुबद्धे, नं०। अण्णववएस-पुं० (अन्यव्यपदेश) परस्य व्यपदेशे, इदं हि अण्णमण्णसंपत्त-त्रि० (अन्योन्यसंप्राप्त) परस्परसंलग्ने, जी०३ शर्करादिगुडखण्डघृतपूरादिकं यज्ञदत्तसंबन्धीति व्रतिनः श्रावयन् प्रति०। ढौकयत्यदेयबुद्ध्या, न च वतिनः स्वामिनाऽननुज्ञातं गृह्णन्तीति अण्णमण्णसंवास-(पुं०) (अन्योन्यसंवास) परस्परमेकत्र संवासे, व्य० नियमोऽपि तेन भग्नः, शर्करादिकं च रक्षितमिति तृतीयोऽतिचारः। प्र० ३उ०। ७द्वा०। अण्णमण्णसिणेहपडिबद्ध-त्रि० (अन्योन्यस्नेहप्रतिबद्ध) परस्पर अण्णवालय-पुं०(अर्णपालक) कालोदाय्यादिके अन्ययूथिके, भ०७ स्नेहेन प्रतिबद्धे, भ०१श०५ उ०।येनैकस्मिन् चाल्यमाने गृह्यमाणे वा श०१० उ०। परमपि चलनादि धर्मोपेतं भवति। जी०३ प्रति०। अण्णविहि-पुं० (अन्नविधि) सूपकारकलायाम्, जं० 2 वक्ष०।। स०। अण्णमयं-(देशी) पुनरुक्तेऽर्थे, दे० ना० 1 वर्ग। ज्ञा०। औ०। अण्णलिंग-न० (अन्यलिङ्ग) अन्यतीर्थिकानां नेपथ्ये, बृ० 130 / / अण्णह-अव्य० (अन्वह) अति वीप्सार्थेऽव्ययी० / अच् समा०। अण्णलिंगसिद्ध-पुं० (अन्यलिङ्गसिद्ध) परिव्राजकादिसं-बन्धिनि प्रत्यहमित्यर्थे, वाच०। निरन्तरमित्यर्थे, ध०१ अधि०। वल्कलकषायादिवस्त्रादिरूपे द्रव्यलिङ्गे व्यवस्थिताः सन्तो ये अण्ण(न) (ह) हा अव्य० (अन्यथा) अन्येन प्रकारेणेत्यर्थे, आचा० सिद्धास्तेऽन्यलिङ्ग सिद्धाः / नं०। परिव्राजकादिलिङ्ग- सिद्धेषु, १श्रु०५ अ०३ उ०। आ० म०। पं०व०। ल०। श्रा०।०। अण्णहाकाम-पुं० (अन्यथाकाम) पारदायें, हा० 13 अष्ट० / द्वा०। अण्णव-पुं० (अर्णव) अर्णासि सन्त्यस्मिन्। अर्णस्-व। सलोपः / समुद्रे, अण्णहाऽणुववत्ति-स्त्री० (अन्यथाऽनुपपत्ति) अन्यथा अन्य-भावेन उदययुक्ते, जलदातरि, सूर्ये, इन्द्रे च / वाच० / अर्णो जलं विद्यते अनुपपत्तिः असंभवः / स्वाभावाप्रयोज्यसंभवे, अर्था-पत्तिप्रमाणे यत्रासावर्णवः / "अर्णसो लोपश्च" || इति (वार्तिकेन) वप्रत्ययः च। तथाहि-पीनो देवदत्तो दिवा न भुङ्के, इत्यादौ दिवाऽभोक्तुर्देवदत्तस्य सकारलोपश्च / द्रव्यतो जलधौ, भावतश्च भवे / उत्त०५ अ०। पीनत्वं रात्रिभोजनं विनाऽनुपपन्नम्, इति ज्ञानाद् रात्रिभोजनकर्तृवृत्तिअण्णवंसि महोघंसि, एगे तिण्णे दुरुतरे। पीनत्वेन रात्रिभोजनं कल्प्यते। वाचा साध्याऽभावप्रकारेणानुपपत्तौ, तत्थ एगे महापन्ने, इमं पण्हमुदाहरे॥ असति साध्ये हेतोरनुपपत्तिरेवा-ऽन्यथाऽनुपपत्तिः / रत्ना० / एतस्मिन् कीदृशि ? (महोघंसि त्ति) महानोधः प्रवाहो द्रव्यतो "अन्यथाऽनुपपन्नत्वं, यत्र तत्र त्रयेण किम् ? नान्यथाऽनुपपन्नत्वं यत्र जलसंबन्ध, भावतस्तु भवपरम्परात्मकः प्राणिनामत्यन्त- तत्रत्रयेण किम्?"||१|| सूत्र०१ श्रु०१२ अ०। माकुलीकरणहेतुः, चरकादिसमूहोवा यस्मिन् समहौघस्तस्मिन् / महत्त्वं अण्णहामाव-पुं० (अन्यथाभाव) अन्यथा अन्यरूपेण भावो यचोभयत्रागाधतयाऽदृष्टपरपारतया च मन्तव्यम् / तत्र किम् ? इत्याह - स्य / यथारूपमुचितं ततोऽन्यथारूपेण भवने, वाच०। विपरिणमने, (एक इति) असहायो रागद्वेषादिसहभावविरहितो गौतमादिरित्यर्थः / बृ०४ उ०॥ तरति परं पारमाप्नोति, तत्कालापेक्षया वर्तमाननिर्देशः (दुरुतरे इति) अण्णहावाइ (ण) -त्रि० (अन्यथावादिन्) अनृतवादिनि, विभक्तिव्यत्ययाद् दुरुत्तरे दुःखेनोत्तरीतुं शक्ये / दुरुत्तरमिति | "अणुवकयपराणुग्गह परायणाजं जिणा जगप्पवरा जिअराग दोससंमोहा क्रियाविशेषणं वा / नहि यथाऽसौ तरति तथा परैर्गुरुकर्मभिः सुखेनैव य नऽण्णहावाइणो तेणं आव० 4 अ०। तीर्यते, अत एव एक इति संख्यावचनोवा। एक एव जिनमतप्रतिन्नः,न अण्णहि-अव्य० (अन्यथा) अन्यत्र "त्रपो हिहत्थाः"।८।२१६१। तु चरका-दिमताकुलितचेतसोऽन्ये तथा तरीतुमीशत इति। (तत्रेति) इति त्रप्प्रत्ययस्थाने हि हत्था आदेशाः / अन्यस्मिन् स्थाने इत्यर्थे, गौतमादौ तरणप्रवृत्ते (एक इति) / तथाविधतीर्थकरनामकर्मोदयादनुत्तरा-वाप्तविभूतिरद्वितीयः / किमुक्तं भवति ? तीर्थकरः स हि प्रा०। एक एव भरते संभवतीति। महती निरावरणतया अपरिमाणा प्रज्ञा केवल अण्णहिमाव-पुं० (अन्यथाभाव) विपरिणमने, वृ० 4 उ०। ज्ञानात्मिका संविदस्येतिमहाप्रज्ञः। स किमित्याह-इममन्त-रवक्ष्यमाणं अण्णाइट्ठ-त्रि० (अन्वाविष्ट) अभिव्याप्ते, भ० 14 श० 1 उ० / हृदि विपरिवर्तमान- प्रत्यक्ष प्रक्रमातरणोपायं पठति। स्पष्टसंदिग्धम्।। परवशीकृते, भ०१८ श०६ उ०। Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णाण 487- अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अण्णाण अण्णा(न्ना)इस-त्रि० (अन्यादृश) अन्यादृशशब्दस्य "अन्यादृशोऽन्नाइसावराइसौ"|८|| 413 / इति अपभ्रंशे अन्नाइसेत्यादेशः। प्रकारान्तरतामापे, प्रा० / अण्णाएसि (ण)-पुं० (अज्ञातैषिन्) जातिकुलसद्रव्यनिर्द्रव्यतादिनाऽपरीक्षितोऽज्ञातः, तादृशं गृहस्थमाहाराद्यर्थमेषयतीत्येवंशीलोऽज्ञातैषी / उत्त० 2 अ० / अज्ञातो जातिश्रुतादिभिरेषत्युञ्छति अर्थात् पिण्डादीनि इत्यज्ञातैषी। उत्त०३ अ०। अज्ञातस्तपस्वितादिभिर्गुणैरनवगत एषयते ग्रासादिकं गवेषयतीत्येवंशीलोऽज्ञातैषी / उत्त० 15 अ० / यत्र कुले तस्य साधोस्तपोनियमादिगुणो न ज्ञातस्तत्र एषयते ग्रासादिकं गृहीतुं वाच्छत इत्येवंशीलोऽज्ञातैषी। उत्त०१५ अ०। विशिष्टगुणैरज्ञात एव भिक्षणरते, "अकामकामी अण्णा (ना) एसी परिव्वएस भिक्खू"। उत्त० 15 उ० / अण्णाण-न० (अज्ञान) न ज्ञानमज्ञानम्। सम्यगज्ञानादितरस्मिन् ज्ञाने, आव०॥ अण्णाणं परियाणामि, नाणं उवसंपञ्जाणि। आव० अ०। (नाणे त्ति) ज्ञानिनः सम्यग्दृष्टयः, अज्ञानिनो मिथ्यादृष्टयः आह च"अविसेसियामइचिय, सम्मद्दिहिस्सता मइन्नाणं। मइअन्नाणं मिच्छादिहिस्स सुयं पि एमेव" // 1 // इति / अज्ञानता च मिथ्यादृष्टिबोधस्य, सदसतोरविशेषात् / तथाहि सन्त्यर्था इह, तत्सत्त्वं कथंचिदिति विशेषितव्यं भवति, स्वरूपेणेत्यर्थः / मिथ्या-दृष्टिस्तुमन्यते-सन्त्येवेति, ततश्चापररूपेणापि तेषां सत्त्वप्रसङ्गः। तथा न सन्त्यर्था इह, तदसत्त्वं कथचिदिति विशेषितव्यं भवति, परपरूपेणेत्यर्थः / स तु न सन्त्येवेति मन्यते, तथा च तत्प्रतिषेधक-वचनस्याप्यभावः प्रसज्जीति / अथवा शशविषाणादयो न सन्ती-त्येतत्कथचिदिति विशेषणीयम्, यतस्ते शशमस्तकादि-समवेततयैवन सन्ति, नतुशशश्च विषाणंच, शशस्य वा विषाणं, शृङ्गि पूर्वभवग्रहणापेक्षया शशविषाणम्, तद्रूपतयाऽपि न सन्तीति, तदेव सदसतोः कथञ्चिदित्येतस्य विशेषणस्थानभ्युपगमात्। तस्य ज्ञानमप्ययथार्थत्वेन कुत्सितत्वादज्ञानमेव / आह च 'जह दुव्वयणमवयणं, कुच्छियसीलमसीलमसईए / भन्नइ तन्नाणं पि हु, मिच्छादिट्ठिस्स अन्नाणं" ||1|| इति / तथा मिथ्यादृष्टरध्य-वसायो न ज्ञानम्, भवहेतुत्वात्, मिथ्यात्वादिवत्।तथा यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत्तथाज्ञानफलस्य सक्रियालक्षणा-भावादन्धस्यस्वहस्तगतदीपप्रकाशवदिति / आह च - "सदस-दविसेसणाओ, भवहेऊ जहत्थिओवलंभाओ। नाणफला-भावाओ, मिच्छा-दिहिस्स अन्नाणं" ||8|| इति / स्था० 2 ठा० 4 उ० / ध०। आवof "अण्णाणभमंतमच्छपरिहत्थअणिहुतिंदियमहामगरतुरियच-रिय खोखुब्भमाणनचंतचवलचंचलचलंतधुम्मंतजलसमूह" अज्ञानान्येव भ्रमंतो मत्स्याः (परिहत्थं ति) दक्षा यत्र स तथा / अनिभृतान्यनुपशान्तानि यानीन्द्रियाणि तान्येव महामकरास्तेषां यानि त्वरितानि शीघ्राणि चरितानि चेष्टितानि तैः (खोखुब्भमाणे ति) भृशं क्षुभ्यमाणो नृत्यन्निव नृत्यश्च चपलानां मध्ये चञ्चल-श्वास्थिरत्वेन चलंश्च स्थानान्तरगमनेनघूर्णश्च भ्राम्यन्जलसमूहो जलसंघातः, अन्यत्र जडसमूहो यत्र स तथा तं, संसारमिति भावः / औ० / नत्रः कुत्सार्थत्वात् कुत्सितं ज्ञानमज्ञानमिति / अनु०। ज्ञानावरणकर्मोदयजनिते, आव० 4 अ० आत्मपरिणामे, दर्श०। मिथ्यात्वतिमिरोपप्लुतदृष्टीवस्य विपर्यस्ते बोधे, विशे०। उत्त० / अज्ञानमनवबोधः / उत्त०३ अ० / मूढतारूपे, आतु01 ज्ञानाभावे मिथ्यादृष्टिकुतीर्थिकपार्श्वस्थादिसंबन्धिशास्त्रा-वगाहनात्मके, दर्श०। उत्त० / स० / संशयविपर्ययादिरूपे मिथ्याज्ञाने, द्वा० 21 द्वा०। जीवाजीवविवेकरहिते, अष्ट० 22 अष्ट० / सद्बोधाभावे, दर्श० / कुशास्त्रसंस्कारे, औ० / कुत्सितत्वं च मिथ्यात्वसंवलितत्वात्। उक्तं च - "अविसेसिया मइचिय, सम्मद्दिट्ठिस्स ता मइन्नाणं / मइअण्णाणं मिच्छा - दिहिस्स सुयं पिएमेव" 11|| भ०८ श०२ उ०। तच अज्ञानं मिथ्यात्वमिति उच्यतेअन्नाणे तिविहे पण्णत्तो। तंजहा-देसऽण्णाणे, सव्वऽण्णाणे, भावऽण्णाणे। (अन्नाणेत्यादि) ज्ञानं हि द्रव्यपर्यायविषयो बोधः, तन्निषेधो-ऽज्ञानं, तत्र विवक्षितद्रव्यं देशतो यदा न जानाति तदा देशाज्ञानम्, अकारप्रश्लेषात् / यदा च सर्वतो न जानाति तदा सर्वाज्ञानम् / यदा विवक्षितपर्यायतो न जानाति तदा भावाज्ञानमिति / अथवा देशादिज्ञानमपि मिथ्यात्वविशिष्टमज्ञानमेवेति / अकारप्रश्लेषं विनाऽपि नदोष इति। स्था० 3 ठा०३ उ०। अण्णाणे णं भंते! कइविहे पण्णत्ते? गोयमा! तिविहे पण्णत्ते। तं जहा- मइअण्णाणे सुयअण्णाणे विभंगनाणे / से किं तं मइअण्णाणे? मइअण्णाणे चउव्विहे पण्णत्ते / तं जहा-उग्गहे० जाव धारणा / से किं तं उग्गहे ? उग्गहे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा- अत्थोग्गहे य वंजणोग्गहे य / एवं जहेव आभिणिबोहियनाणं तहेव, णवरं एगट्ठियवजं. जाव नोइंदियधारणा, सेतं धारणा / सेतं मइअण्णाणे / से किं तं सुयअण्णाणे ? सुयअण्णाणे जं इमं अण्णाणिएहिं मिच्छादिट्ठिएहिं जहा नंदिए जाव चत्तारिय वेदा संवोवंगा। सेतं सुयअण्णाणे / से किं तं विभंगनाणे ? विभंगनाणे अणेगविहे पण्णत्ते / तं जहा- गामसंठिए नगरसंठिए जाव सण्णिवेससंठिए दीवसंठिए समुहसंठिए वाससंठिए वासहरसंठिए पव्वयसंठिए रुक्खसंठिए थूभसंठिए हयसंठिए गयसंठिए नरसंठिए किंनरसंठिए किंपुरिससंठिए महोरगसंठिए गंधव्वसंठिए उसभसंठिए पसुपसयविहगवानरणाणासंठाणसंठिए पण्णत्ते / भ०८ श०२ उ०। मोहविजृम्भणे, सूत्र० 1 श्रु० 1 अ० 3 स० / आचा० / ज्ञायते सुतत्त्वमनेनेति ज्ञानं श्रुताख्यम्, तदभावोऽज्ञानम् / प्रव०५६ द्वा० / अज्ञान-प्रकर्षे गर्वः प्रज्ञाऽभावे दैन्यचिन्तनमित्युभयथा। उत्त०२ अ०। अज्ञानभावाऽभावाभ्यां द्विधा सोढव्ये एकविंशे परीषहभेदे / अज्ञानपरीषहश्व सोढव्य एव,नतु कर्मविपाकजादज्ञानादुद्विजेत।आव० 4 अ०। तदुक्तम् - "विरतस्तपसोपेतः, छद्यस्थोऽहं तथापिचा धर्मादि साक्षान्नैवेक्षे, नैवं स्यात् क्रमकालवित्" ||1|| आव०१ अ०। एतदेव सूत्रकृत् प्रपञ्चयिषुस्तावदभावपक्षमङ्गीकृत्याह - निरहगम्मि विरओ, मेहुणाओ सुसवंडो। Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णाण 488 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अण्णाण जो सक्खं नाभिजाणामि, धम्म कल्लाण पावगं // अर्थः प्रयोजनं, तदभावो निरर्थ, तदेव निरर्थक, तस्मिन् सति विरतो निवृत्तः, कस्मात् ? मिथुनस्य भावः कर्म वा मैथुनमब्रह्म, तस्मात्, आश्रवान्तरविरतावपि यदस्योपादानं तस्यैवाति-गृद्धिहेतुतया दुस्त्यजत्वात् / उक्तं हि - "दुप्परिचया कामा इमे" इत्यादि / सुष्ठ संवृतः सुसंवृतः / इन्द्रियसंवरणेन, यः साक्षादिति परिस्फुटं नाभिजानामि, धर्म वस्तुस्वभावं (कल्लाण त्ति) बिन्दुलोपात्कल्याणं शुभं, पापकं वा तद्विपरीतं चेत्यस्यांगम्य-मानत्वात्। यद्वा-धर्ममाचार, कल्योऽत्यन्तनीरुक्तया मोक्षः / तमानयति प्रापयतीति कल्याणो मुक्तिहेतुः, तं, पापकं वा नरकादिहेतुः / अयमाशयः - यदि विरतौ कश्चिदर्थः सिद्धयेन्नैवं ममाज्ञानं भवेत् / उत्त०३ अ०। "अज्ञानं खलु कष्ट, क्रोधादिभ्योऽपि सर्वपापेभ्यः अर्थ हितमहितंबा, न वेत्ति येनावृतो लोकः" / / 1 / / उत्त०२ अ०। आव०। आचा०दर्श०। "नातः परमहं मन्ये, जगतो दुःखकारणम्, यथाऽज्ञानमहारोगो, दुरन्तः सर्वदेहिनाम्" // 1 // आचा०१७०३ अ०१ उ०1"अजानन् वस्तु, जिज्ञासुन मुह्येत् कर्मदोषिवत् / ज्ञानिनां ज्ञानमन्वीक्ष्य, तथैवेत्यन्यथा नतु" // 1 // आ०म० द्विारा०1"अण्णाणओ रिपू अण्णो, पाणिणं व विज्जति / एत्तो सक्किरियातीए, अणत्था विस्सतो मुहा" ||1|| पं० सू०५ सू०। कदाचित्सामान्यचर्ययैव न फलावाप्तिरत आहतवोवहाणमादाय, पडिमं पडिवज्ज उ। एवं पि विहरओ मे, छउमं न नियट्टइ।। (पाईटीका)। तपो भद्रमहाभद्रादि, उपधानभागमोपचाररूपमाचाम्लादि, आदाय स्वीकृत्य, चरित्वेति यावत् / प्रतिमा मासिक्यादिभिक्षुप्रतिमां, (पडिवज्ज उत्ति) इति प्रतिपद्याङ्गीकृत्य / पठ्यते च"पडिम पडिवनितो ति" प्रतिमा प्रतिपद्यमानस्याभ्युप-गच्छति / एवमपि विशेषचर्ययाऽपि,आस्तां सामान्यचर्ययेत्यपि-शब्दार्थः / विहरतो निष्प्रतिबन्धत्वेनानियतं विचरतः,छादयतीति छद्मज्ञानावरणादिकर्म, न निवर्तते नापैतीति भिक्षुभिर्न चिन्तये-दित्युतरेण संबन्धः / अज्ञानाभावपक्षे तु समस्तशास्त्रार्थनिकषो-पलकल्पतायामपिन दाऽऽध्मातमानसो भवेत्, किन्तु पूर्व-पुरुषसिंहानां विज्ञानातिशयसागरानन्त्यं / श्रुत्वा साम्प्रतं पुरुषाः, कथं स्वबुद्ध्या मदं यान्ति? ||1|| इति परिभावयन् विगलितावलेपः सन्नेवं भावयेत् - "निरद्वयं" सूत्रद्वयम् / अक्षरगमनिका सैव, नवरं (निरद्वयम्मि त्ति) निरर्थकऽपि प्रक्रमात्प्रज्ञावलेपेरतो, मैथुनात्सुसंवृतः सन्निरुद्धात्मा, सत्योऽहं, यः साक्षात्समझ नाभिजानामि, धर्म कल्याणं पापकं वा। अयमभिप्रायः - "जे एणं जाणति, से सव्वं जाणति, जे सव्वं जाणइ, से एगं जाणइ" इत्याछगमात् / छद्मस्थोऽहमेकमपि धर्म वस्तुस्वरूपं न तत्त्वतो वेधि, ततः साक्षाद्भावस्वभावावभासि चेत् न विज्ञानमस्ति, किमतोऽपि मुकुलितवस्तुस्वरूपपरिज्ञानतोऽवले पेनेति भावः / तथा तप उपधानादिभिरप्युपक्रमणहेतुभिरुपक्रमितुमशक्ये छानि दारुणे वैरिणि निष्प्रतिपत्तिकः किल ममाहङ्कारावसर इति सूत्रद्वयार्थः / साम्प्रतमावृत्त्या पुनः सूत्रद्वारमङ्गीकृत्य प्रकृतसूत्रोपक्षिप्तमज्ञानसद्धावे उदाहरणमाह परिवंतो वायणाएँ, गंगाकूलेऽपि घयसगडयाए। संवच्छरेहिँ हिज्जइ, बारसयं असंखयज्झयणं / / (पाईटीका) परितान्तः खिन्नो वाचनया गङ्गाकूलेऽपिता अशकटा याः संवत्सरैरधीते द्वादशभिरसंस्कृताध्ययनमिति गाथाक्षरार्थः / भावार्थस्तु वृद्ध संप्रदायादवसेयः / स चायम्-गङ्गातीरे द्वौ भ्रतरौ वैराग्याद् दी गृहीतवन्तौ, तत्रैको विद्वान जातः, द्वितीयस्तु मूर्खः / यो विद्वान् सोऽनेकशिष्याध्यापनादिना खिन्न एवं चिन्तयति स्म अहो ! धन्योऽयं में भ्राता यः सुखेन तिष्ठति, निद्रादिकमवसरे कुर्वन्नस्ति / अहं तु शिष्याध्यापनादिकष्ट पतितोऽस्मीति चिन्तयन् काव्यमिदं चकारमूर्खत्वं हि सखे ! ममापि रुचितं तस्मिन् यदष्टौ गुणाः, निश्चिन्तो बहुभोजनोऽत्रपमाना नक्तं दिवाशायकः / / कार्याकार्यविचारणान्धबधिरोमानापमाने समः, प्रायेणाऽऽमयंवर्जितो दृढवपुर्मूर्खः सुखं जीवति" ||1 // परं नैवं चिन्तयति स्मनानाशास्त्रसुभाषितामृतरसैः श्रोत्रोत्सवं कुर्वता, येषां यान्ति दिनानि पण्डितजनव्यायामखिन्नात्मनाम्। तेषां जन्मच जीवितंच सफलं तैरेव भूर्भूषिता, शेषैः किं पशुवद्विवेकरहितैर्भूभारभूतैनरैः? // 2 // एवं पण्डितगुणान् अचिन्तयन् मूर्खगुणांश्चासतोऽपि चिन्तयन् ज्ञ नावरणीयं कर्म बद्धवा दिवं गतः / ततः च्युतो भरतक्षेत्रे आभीरपुत्रो जातः / क्रमेण परिणीतः। तस्य पुत्रिका जाता। सा रूपवती। अन्यदा अनेक आभीरा घृतभृतशकटाः कञ्चिन्नगरं प्रति गच्छन्ति स्म, असावपि तत्सार्थे घृतभृतं शकट गृहीत्वा चलितः। मार्ग सापुत्री शकटखेटनं करोति स्म। ततस्तद्रूपव्यामोहितैराभीरपुत्रैः अपथे खेटितानि शकटानि तानि सर्वाणि भग्नानि।तादृशं संसारस्वरूपं दृष्ट्वा संजातवैराग्यः स आभीरः तां पुत्रीमुद्राह्य दीक्षां जग्राह। उत्तराध्ययनयोगोगहनावसरे असंख्ययाऽध्ययनोद्देशे कृते तस्य आभीरभिक्षोनिावरणोदयोजातः, न तदध्ययनमायाति स्म, आचाम्लान्येव करोति, उच्चैः स्वरेण तदध्ययननिर्घोष करोति स्म। एवञ्च कुर्वतस्तस्य द्वादशवर्षप्रान्ते अज्ञानपरीषहं सम्यगधिसहमानस्य केवलज्ञानं समुत्पन्नम् / एवमज्ञानपरीषहे आभीरसाधुकथा। प्रतिपक्षे च भौमद्वारम्। तत्राऽप्येतत्सूत्रसूचित-मुदाहरणम् - इमं च एरिसं तं च, तारिसं पेच्छ केरिसं जायं ? इय भणइ थूलभद्दो, सण्णायघरं गतो संतो॥ (पाईटीका) इदं चेति द्रव्यम्, ईदृशमिति स्तम्भमूलस्थितमतिप्रभूतं च, अतिशयज्ञानित्वेन तस्य हदि विपरिवर्तमानतया द्रव्यस्येदमानिईशः, (तचे ति) तस्याज्ञानतः परिभ्रमणं, तादृशमिति विप्रकृष्टदुर्गदेशान्तरविषयं यस्य, कीदृशं केन सदृशं जातम् ? न केनापि, नहि कश्चिद् गृहे सति द्रव्ये द्रव्यार्थी बहिर्धाम्यतीति भावः / इतीत्येवं भणति स्थूलभद्रः स्वजातिरिव स्वजातिरत्यन्तसुहृद्गृहं गतः सन्निति गाथार्थः। संप्रदायश्चात्र-यस्य च ज्ञानाजीणे स्यात् तेनापि ज्ञानपरीषहो न सोढः / तत्रार्थस्थूलभद्रकथास्थूलभद्रस्वामी विहरन् बालमित्रद्विजगृहं गतः, तत्र तमदृष्ट्वा, Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णाणओ 489 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अण्णाणिय तद्भार्या पृष्टवान्-क्व ते पतिर्गतः ? / सा प्राह-परदेशे धनार्जनार्थ | अण्णाणया-स्त्री०(अज्ञानता) अज्ञानोनिनिस्तस्य भावो-ऽज्ञानता। गतोऽस्ति / ततः स्वामी तद्गृह स्तम्भमूलस्थितं निधिं पश्यन् | स्वरूपेणानुपलम्भे, भ०१ श०६ उ०) स्तम्भाभिमुखं हस्तं कृत्वा 'इदमीदृशम्, सच तादृशः" इति भणित्वा अण्णाणलद्धि-स्त्री०(अज्ञानलब्धि) आत्मनोऽज्ञानस्य गतः। ततः कालान्तरे गृहागतस्य विप्रस्य तद्भार्यया स्थूलभद्रस्वामिवचो ज्ञानाऽऽवरणीयो-दयतो लाभे, "अन्नाणलद्धी णं भंते ! कइविहा ज्ञापितम्। तेन पण्डितेन ज्ञातम् -अनावश्यं किञ्चिदस्ति। ततः खानितः पण्णत्ता ? गोयमा ! तिविहा पण्णत्ता / तं जहा- मइअण्णाणलद्धी, स्तम्भः / लब्धो निधिः / एवं स्थूलभद्रेण ज्ञानपरीषहो न सोढः / सुयअण्णाणलद्धी, विभंगणाणलद्धी" | भ०८ श०२ उ०। शेषसाधुभिरपीदृशं न कार्यम्। उत्त०३ अ० (विषयान्तरं 'परीसह शब्दे अण्णाणवाइ(ण)-त्रि०(अज्ञानवादिन) सति मत्यादिके वक्ष्यते) भारत-काव्यनाटकादिलौकिकश्रुतरूपे पापश्रुतप्रसङ्गे, स्था०८ हेयोपादेयप्रदर्शक ज्ञानपञ्चके अज्ञानमेव श्रेय इत्येवं वदति अज्ञानिके, ठा०। भावशुद्धप्रतिसेवाविशेष, व्या तत्त्वं च सूत्र०१ श्रु०१२ अ० अन्नयरपमाएणं, असंपउत्तस्स नो पउत्तस्स। अण्णाणसत्थ-न०(अज्ञानशास्त्र) भारतकाव्यनाटकादौ लौकिकश्रुते, ईरियाइसु भूयत्थे, अवट्टते एयमण्णाणं // स्था०६ ठा पञ्चानां प्रमादानामन्यतरेणापि प्रमादेनासंप्रयुक्तस्य कोडी-कृतस्यात अण्णाणि(ण)-त्रि०(अज्ञानिन्) न ज्ञानमज्ञानं, तद्विद्यते येषां एव ईर्यादिषु भूतार्थेनतत्त्वतो वर्तमानस्य यद्भ-वनमेतदज्ञानम्। व्य०१० तेऽज्ञानिनः / अज्ञानमेव श्रेय इति वदत्सु वादिभेदेषु, सूत्र०१ श्रु०१२ उ०। कुशास्त्रसंस्कारे च, औला निर्ज्ञाने (ज्ञानरहिते), त्रि० भ०१श०६ अज्ञाननिहववादिषु, "अण्णाणी अण्णाणं विणइत्ता वेण-इयवादी' / उ०। सूत्र०१ श्रु०१२ अ०। न ज्ञानिनोऽज्ञानिनः / नशब्दः कुत्सायाम्। अण्णाणओ-अव्य०(अज्ञानतस्) ज्ञानावरणोत्कर्षतयेत्यर्थे, दश०१ मिथ्याज्ञानेषु, पं०सं०१ द्वा० "अण्णाणी कम्म खवेति, बहुयाहिं चू० वासकोडीहिं। तन्नाणी तिहिंगुत्तो, खवेइ ऊसासमित्तेण" ||1|| उत्त०१ अण्णाणकिरिया-स्त्री०(अज्ञानक्रिया) 5 त०। अज्ञानात् अ०1 अण्णाणी किं काही, किंवा णाही छेयपावगं" इत्यादि / सूत्र०१ क्रियमाणयोश्चेष्टाकर्मणोः, स्था०३ ठा०३ उ०। (अण्णाणकिरिया तिविहा श्रु०७ अ०1 'किरिया' शब्दे वक्ष्यते) अण्णा(ना)णिय-पुं०(अज्ञानिन्) न ज्ञानमज्ञानं, तद्विद्यते येषां अण्णाणणिव्वत्ति-स्त्री०(अज्ञाननिर्वृत्ति) अज्ञानस्य निर्वृत्तौ, भ०। तेऽज्ञानिनः / अज्ञानशब्दस्योत्तरपदत्वाद् वा मत्वर्थीयः / यथा"कइविहा णं भंते ! अण्णाणणिव्यत्ती पण्णत्ता ? गोयमा ! तिविहा गौरखरखदरण्यमिति। प्राकृते स्वार्थिकः कः। सूत्र०१ श्रु०१अ०१ उ० अण्णाणणिवत्ती पण्णत्ता / तं जहा-मइअण्णा-णणिवत्ती, आज्ञानिक-पुं० (अज्ञानेन) चरन्तीति आज्ञानिकाः।अज्ञानं वा प्रयोजन सुयअण्णाणणिवत्ती, विभंगणाणणिव्वत्ती, एवं जस्स जइ जाव येषां ते आज्ञानिकाः। आव०६ अ०। सम्यग्ज्ञानरहितेषु अज्ञानमेव श्रेय वेमाणिया" | भ०१६ श०८ उ०। इत्येवं वादिषु, सूत्र०१श्रु०१अ०१ उ०॥ अण्णाणतिग-न०(अज्ञानत्रिक) नशब्दः कुत्सायां, मिथ्या तन्मतं चेत्थमुपन्यस्यन्नाह सूत्रकृत्ज्ञानानामित्यर्थः / तेषां त्रिकं अज्ञानत्रिकम्। मिथ्याज्ञानादित्रये, पं०सं०१ अण्णाणिया ता कुसला वि संता, द्वा०। असंथुया णो वितिगिच्छ तिन्ना। अण्णाणदोस-पुं०(अज्ञानदोष) अज्ञानात्कुशास्त्रसंस्काराद् अकोविया आहु अकोविएहिं, हिंसादिष्वधर्मस्वरूपेषु नरकादिकारणेषु धर्मबुद्ध्याऽभ्युदयार्थ या अणाणुवीइत्तु मुसं वयंति ।।शा प्रवृत्तिस्तल्लक्षणो दोषोऽज्ञानदोषः / अथवा उक्तलक्षणमज्ञानमेव ते चाज्ञानिकाः किल वयं कुशलाः, इत्येवं वादिनोऽपि दोषोऽज्ञानदोष इति / स्था०४ ठा०१ उ०। रौद्रध्यानस्य लक्षणभेदे, सन्तोऽसंस्तुता अज्ञानमेव श्रेय इत्येवं वादितया असंबद्धाः / भ०२५ श०७ उ01 औ०। प्रमाददोषे, आचा०१ श्रु०५ अ०१ उ० ग०। असंस्तुतत्वादेव विचिकित्सा चित्तविप्लुतिश्चित्तभान्तिः संशीतिस्तां न तीर्णा नातिक्रान्ताः / तथाहि-ते ऊचुः ये एते ज्ञानिनस्ते अण्णाणपरीसह-पुं०(अज्ञानपरीषह) "ज्ञानचारित्रयुक्तोऽस्मि, परस्परविरुद्धवादितया असंबद्धा असंस्तुतत्वादेव विचिकित्सा,न छदास्थोऽहं तथापि हि। इत्यज्ञानं विषहेत, ज्ञानस्य क्रमलो भवेत् ||1|| यथार्थवादिनो भवन्ति / तथाहि-एके सर्वगतमात्मानं वदन्ति / इति सोढव्ये परीषहभेदे, ध०३ अधि०। प्रव०("अण्णाण' शब्देऽत्रैव तथाऽन्ये असर्वगतम् / अपरे अङ्गुष्ठपर्वमात्रम् / केचन श्यामाभागे 488 पृष्ठेऽस्य तत्त्व-मावेदितम्) कतन्दुलमात्रम् / अन्ये मूर्तममूर्त हृदयमध्यवर्तिनं ललाटअण्णाणपरीसहविजय-पुं०(अज्ञानपरीषहविजय) अज्ञोऽयं पशुसमो व्यवस्थितमित्याद्यात्मपदार्थ एव सर्वपदार्थपुरःसरे तेषां नैकन वेति किञ्चिदित्येवमधिक्षेपवचनं सम्यक् सहमानस्य वाक्यता / नचातिशयज्ञानी कश्चिदस्तीति यद्वाक्यं प्रमाणीक्रियते। परमदुष्करतपोऽनुष्ठाननिरतस्य नित्यमप्रमत्तचेतसो न मेऽद्याऽपि न चासौ विद्यमानोऽप्युपलक्ष्यतेऽर्वाग्दर्शिना / "नासर्वज्ञः सर्व ज्ञानातिशयः समुत्पद्यते इति चिन्तने, पञ्चा०१३ विव०। / जानाति" इति वचनात् / तथाचोक्तम्- "सर्वज्ञोऽसाविति ह्येतअण्णाणफल-त्रि०(अज्ञानफल) अज्ञानमनवबोधस्तत्फलानि, तत्कालेऽपि बुभुत्सुभिः / तज्ज्ञानज्ञेयविज्ञान-शून्यैर्विज्ञायते ज्ञानावरणरूपाणीत्यर्थः / धर्माचार्यगुरुश्रुतनिन्दारूपेषु ज्ञाना- कथम् ?"||1|| न च तस्य सम्यक् तदुपायपरिज्ञानाभावात्संभवः, वरणकर्मसु, उत्त०२ अग संभवाभावश्चेतरेतराश्र-यत्वात् / तथाहि-न विशिष्टपरिज्ञानमृते Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णाणिय 490 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अण्णाणिय तदवाप्त्युपायपरिज्ञानम्, उपायमन्तरेण न चोपेयस्य विशिष्टपरिज्ञानस्यावाप्तिरिति / न च ज्ञानं ज्ञेयस्य स्वरूपं परिच्छेत्तुमलम् / तथाहि यत्किमप्युपलभ्यते, तस्यार्वाग्मध्यपरभागैर्भाव्यम् / तत्रार्वाग्भागस्य वोपलब्धेर्नेतरयोः, तेनैव व्यवहितत्वात् / अर्वाग्भागस्यापि भागत्रयकल्पनात् तत्सर्वारातीयभागपरि-कल्पनया परमाणुपर्यवसानता, परमाणोश्च स्वाभाविकविप्रकृष्ट-त्वादग्दिर्शनिना नोपलब्धिरिति। तदेवं सर्वज्ञस्याभावादसर्वज्ञस्य च यथावस्थितवस्तुस्वरूपापरिच्छेदात्सर्ववादिनां च परस्परविरोधेन पदार्थस्वरूपाभ्युपगमात् यथोत्तरपरिज्ञानिनां प्रमादवतां बहुतरदोष- संभवादज्ञानमेव श्रेयः / तथाहि-यद्यज्ञानवान कथञ्चित्पादेन शिरसि हन्यात्, तथापि चित्तशुद्धेर्न तथाविधदोषानुषङ्गी स्यादित्येवमज्ञानिन एवंवादिनः सन्तोऽसंबन्धान चैवंविधां चित्तविप्लुति वितीर्णा इति। तत्रैवंवादिनस्ते अज्ञानिका अकोविदा अनिपुणाः सम्यक् परिज्ञानविकला इत्यवगन्तव्याः / तथाहि-यत्तैरभिहितम्-ज्ञानवादिनः परस्परविरुद्धार्थवादितया न यथार्थवादिन इति तद्भवतु असर्वज्ञप्रणीतागमाभ्युपगमवादिनामयथार्थवादित्वम्। न चाभ्युपगमवादा एव बाधायै प्रकल्प्यन्ते, सर्वज्ञप्रणीतागमाभ्युपगमवादिनां तु न क्यचित्परस्परतो विरोधः, सर्वज्ञत्वाऽन्यथाऽनुपपत्तेरिति / तथाहि-प्रक्षीणाऽशेषाऽऽवरणतया रागद्वेषमोहानामनृतकारणानामभावान्न तद्वाक्यमयथार्थमित्येव तत्प्रणीतागमयतां न विरोधवादित्वमिति। ननु च स्यादेतत्, यदि सर्वज्ञः कश्चित्स्यात्, न चासौ संभवतीत्युक्तं प्राक् / सत्यमुक्तम्, अयुक्तं तूक्तम् / तथाहि- यत्तावदुक्तम्-न चासौ विद्यमानोऽप्युपलक्ष्यतेऽर्वाग्दर्शिभिः। तदयुक्तम् / यतो यद्यपि परचेतोवृत्तीनांदुरन्वयत्वात्सरागा वीतरागाइव चेष्टन्ते, वीतरागाः सरागा इव, इत्यतः प्रत्यक्षेणानुपलब्धिः, तथापि संभवानुमानस्य सद्भावात्तद्बाधकप्रमाणाभावाच तदस्तित्वमनिवार्यम् / संभवानुमान त्विदम्-व्याकरणादिना शास्त्राभ्यासेन संस्क्रियमाणायाः प्रज्ञाया ज्ञानातिशयो ज्ञेयावगमं प्रत्युपलब्धः, तदत्र कश्चित्तथाभूताभ्यासवशात्सर्वज्ञोऽपि स्यादिति / न च तदभावसाधकं प्रमाणमस्ति / तथाहि-न तावदग्दिर्शिभिः प्रत्यक्षेण सर्वज्ञाभावः साधयितुं शक्यः। तस्य हि तज्ज्ञानाज्ञेयविज्ञानशून्यत्वात्। अशून्यत्वाभ्युपगमेच सर्वज्ञत्वाऽऽपत्तिरिति। नाप्यनुमानेन, तदव्यभिचारिलिङ्गा-भावादिति। नाप्युपमानेन सर्वज्ञाभावः साध्यते, तस्य सादृश्यबलेन प्रवृत्तेः / न च सर्वज्ञाभावे साध्ये तादृग्विधं सादृश्यमस्ति, येनासौ सिध्यतीति / नाप्यर्थापत्त्या, तस्याः प्रत्यक्षादिप्रमाणपूर्वकत्वेन प्रवृत्तेः। प्रत्यक्षादीनां च तत्साधकत्वेनाप्रवर्तमानात्। तस्या-प्यप्रवृत्तिः / नाप्यागमेन, तस्य सर्वज्ञसाधकत्वेनापि दर्शनात्। न प्रमाणपञ्चकाभावरूपेणाभावेन सर्वज्ञाभावः सिध्यति / तथाहिसर्वत्र सर्वदा न संभवति, तद्ग्राहकप्रमाणमित्येतदग्दिर्शिनो वक्तुं न युज्यते, तेन हि देशकालविप्रकृष्टानां पुरुषाणां यद्विज्ञानं तस्य ग्रहीतुमशक्यत्वात्, तद्ग्रहणे वा तस्यैव सर्वज्ञत्वाऽऽपत्तेः / न चाग्दिर्शिनां ज्ञानं निवर्तमानं सर्वज्ञाभावं भावयति, तस्याऽव्यापकत्वात् / न चाव्यापकव्यावृत्त्या पदार्थव्यावृत्तियुक्तति / न च वस्त्वन्तरविज्ञानरूपो भावः सर्वज्ञाभावसाधनायालम, वस्त्वन्तरसर्वज्ञयोरेकज्ञानसंसर्गप्रतिबन्धाभावात् / तदेवं सर्वज्ञबाधकप्रमाणाभावात्संभवानुमानस्य च प्रतिपादितत्वादस्ति सर्वज्ञः, तत्प्रणीतागमाभ्युपगमाच मतभेददोषो दूरापास्त इति तथाहि- | तत्प्रणीतागमाभ्युपगमवादिनामेकवाक्यतया शरीरमात्रव्यापी संसायत्मिाऽस्ति, तत्रैव तद्गुणोपलब्धेः। इति इतरे-तराश्रयदोषश्चात्र नावतरत्येव / यतोऽभ्यस्यमानायाः प्रज्ञाया ज्ञानातिशयः स्वात्मन्यपि दृष्टो,नच दृष्टेऽनुपपन्नं नामेति। यदप्यभिहितम्-तद्यथा नच ज्ञानं ज्ञेयस्य स्वरूपं परिच्छेत्तुमलम्, सर्वत्रार्वाग्भावेनेत्यवधानात्सर्वाऽऽरातीयभागस्य च परमाणु-रूपतयाऽतीन्द्रियत्वादित्येतदपि वाङ्मात्रमेव / यतः सर्वज्ञज्ञानस्य देशकालस्वभावव्यवहितानामपि ग्रहणान्नास्ति व्यवधानसंभवः / अग्दिर्शिज्ञानस्याप्यवयवद्वारेणाऽवयविनि प्रवृत्तेर्नास्ति व्यवधानम् / न ह्यवयवी स्वावयवैर्व्यवधीयत इति युक्तिसंगतम् / अपि च-अज्ञानमेव श्रेय इत्यत्राऽज्ञानमिति किमयं पर्युदासः ? आहोस्वित्प्रसज्यप्रतिषेधः ? तत्र यदि ज्ञानादन्यदज्ञानमिति, ततः पर्युदासवृत्त्या ज्ञानान्तरमेव समाश्रितं स्यात्, नाज्ञानवाद इति। अथ ज्ञानं न भवतीत्यज्ञानं, तुच्छो नीरूपोज्ञानाभावः, सच सर्वसामर्थ्यरहित इति कथं श्रेयानिति? अपि च-अज्ञानं श्रेय इति प्रसज्यप्रतिषेधे न ज्ञानं श्रेयो भवतीति क्रियाप्रतिषेध एव कृतः स्यात् / एतचाध्यक्षबाधितम्, यतः सम्यगज्ञानादर्थं परिच्छिद्य प्रवर्त्तमानोऽर्थक्रियार्थी न विसंवाद्यत इति। किञ्च-अज्ञानप्रमादवद्भिः पादेन शिरःस्पर्शनेऽपि स्वल्पदोषवता परिज्ञायैवाज्ञानं श्रेय इत्यभ्युपगम्यते / एवं च सति प्रत्यक्ष एव स्यादभ्युपगमविरोधो नानुमानं प्रमाणमिति / तथा तदेवं सर्वथा तेऽज्ञानवादिनोऽकोविदाधर्मोपदेशं प्रत्यनिपुणाः, स्वतोऽकोविदेभ्य एव स्वशिष्येभ्यः, आहुः कथितवन्तः।छान्दसत्वाच्चैकवचनं सूत्रे कृतमिति। शाक्या अपि प्रायशोऽज्ञानिकाः। अविज्ञोपचितं कर्म बन्धं न यातीत्येवं यतस्तेऽभ्युपगमयन्ति / तथा ये च बालमत्तसुप्तादयोऽस्पष्टविज्ञाना अबन्धका इत्येवमभ्युपगमं कुर्वन्ति, ते सर्वेऽप्यकोविदा द्रष्टव्या इति। तथाऽज्ञानपक्षसमाश्रयणाचाननुविचिन्त्य भाषणान्मृषा ते सदा वदन्ति, अनुविचिन्त्य भाषणं यतो ज्ञाने सति भवति, तत्पूर्वकत्वाच सत्यवादस्यातोज्ञानानभ्युपगमादविचिन्त्य भाषणाभावः, तदभावाच तेषां मृषावादित्वमिति // 2 // सूत्र०१ श्रु०१२ अ०1 इति दर्शितं सदूषणमज्ञानिनां मतम् / अथ क्रियन्तस्ते इति दर्शयति नियुक्तिकृत् - अण्णाणिय सत्तट्ठी साम्प्रतमज्ञानिकानामज्ञानादेव विवक्षितकार्यसिद्धिमिच्छतां ज्ञानं तु सदपि निष्फलम्, बहुदोषत्वाचेत्येवमभ्युपगमवतां सप्तषष्टिरनेनोपायेना वगन्तव्याः -जीवाजीवादीन् नव पदार्थान् परिपाट्या व्यवस्थाप्य तदधोऽमी सप्त भङ्गकाः संस्थाप्याः - सत्, असत्, सदसत, अवक्तव्यम्, सदवक्तव्यम्, असदवक्तव्यम्, सदसदवक्तव्यमिति। अभिलापस्त्वयम् सन् जीवः, को वेत्ति ? किं वा तेन ज्ञातेन ? ||1|| असन् जीवः, को वेत्ति?, किंवा तेन ज्ञातेन? ||2|| सदसन् जीव, को वेत्ति? किं वा तेन ज्ञातेन ? ||3|| अवक्तव्यो जीवः, को वेत्ति ? किं वा तेन ज्ञातेन ? ||4|| सदवक्तव्यो जीवः, को वेत्ति ? किं वा तेन ज्ञातेन? ||5|| असदवक्तव्यो जीवः, को वेत्ति, किंवा तेन ज्ञातेन? ||6|| सदसदवक्तव्यो जीवः, को वेत्ति ? किं वा तेन ज्ञातेन ?||7|| एवमजीवादिष्वपि सप्त भङ्गकाः। सर्वेऽपि मिलितास्त्रिषष्टिः। तथाऽपरेऽमी चत्वारोभङ्गकाः। तद्यथा सती भावोत्पत्तिः, को वेत्ति, किंवा तया ज्ञातया ?||1|| असती भावोत्पत्तिः, को वेत्ति?, किं वा तया ज्ञातया?श सदसती भावोत्पत्तिः, को वेत्ति, किं वा तया ज्ञातया // 3 // अवक्तव्या भावोत्पत्तिः, को वेत्ति ?, किं वा Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णाणिय 491 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अण्णाणिय तया ज्ञातया ? ||4|| सर्वेऽपि सप्तषष्टिरित्युत्तरं भङ्ग कत्रयमुत्पन्न- (बज्झमिति) बद्धं बन्धनाकारेण व्यवस्थितम् / वागुरादिकं वा बन्धनं, भावावयवोपेक्षमिह भावोत्पत्तौ न सर्भवतीति नोपन्यस्तम् / उक्तं च- बन्धकत्वाद्बन्धमित्युच्यते।तदेवंभूतं कूटपाशादिकं बन्धनं यद्यसावुपरि "अज्ञानिकवादिमतं, नव जीवादीन् सदादिसप्तविधान् / भावोत्पत्तिः प्लवेत्-तदधस्तादतिक्रम्योपरि गच्छेत् तस्य वध्यादेबन्धनस्याधो सदसद्, द्वेधा वाच्या च को वेत्ति ?" ||11 // सूत्र०१ श्रु०१२ अ०। गच्छेत्तत एवं क्रियमाणेऽसौ मृगः, पदे पाशः पदपाशो वागुरादिबन्धनं, एतचतुष्टयप्रक्षेपात्सप्तषष्टिर्भवति / तत्र सन् जीव इति को तस्मान्मुच्यते। यदि वा पद कूट, पाशः प्रतीतः, ताभ्यां मुच्यते। क्वचित् वेत्तीत्यस्यायमर्थः - न कस्यचिद्विशिष्ट ज्ञानमस्ति, योऽतीन्द्रि-यान् पदपाशादीति पठ्यते / आदिग्रहणाद् वद्वधताडनमारणादिकाः क्रिया जीवादीनवभोत्स्यते। न च तैतिः किञ्चित्फलमस्ति। तथाहि- यदि गृह्यन्ते / एवं सन्तमपि तमनर्थोत्पादकं परिहरणोपायं मन्दो नित्यः सर्वगतोऽमूर्तो ज्ञानादिगुणोपेतः, एतद्गुणव्यतिरिक्तो वा, ततः जडोऽज्ञानावृतो न देहतीति न पश्यतीति / कूटपाशादिकं चापश्यन् कतमस्य पुरुषार्थस्य सिद्धिरिति, तस्मादज्ञानमेव श्रेय इति। सू०१ श्रु०१ यामवस्थामाप्नोति, तां दर्शयितुमाहअ०२ उ० प्र०ा आचा०। स्था०। आव०॥ नं०। अहिअप्पाऽहियपण्णाणे, विसमतेणुवागते। साम्प्रतमज्ञानिमतं दूषयितुं दृष्टान्तमाह सबद्ध पयपासेणं, तत्थ घायं नियच्छइ / / 1 / / जविणो मिगा जहा संता, परित्ताणेण वजिआ। एवं तु समणा एगे, मिच्छदिट्टी अणारिआ। असंकियाइं संकंति, संकिआई असंकिणो / / 6 / / असंकिआइंसंकंति, संकिआई असंकिणो / / 10|| परियाणिआणि संकंता, पासिताणि असंकिणो। धम्मपण्णवणा जा सा, तं तु संकति मूढगा। अण्णाभयसंविग्गा, संपलिंति तहिं तहिं।।७।। आरंभाइंन संकंति, अविअत्ता अकोविआ||११|| अह तं पवेज वज्झं, अहे वज्झस्स वा वए। सव्वप्पगं विउक्कस्सं, सव्वं णूमं विहूणिआ। मुच्चेज पयपासाओ, तं तु मंदे ण देहई / / / / अप्पत्तिअं अकम्मंसे, एयमढे मिगे चुए।।१२।। (जविणो इत्यादि) यथाजविनो वेगवन्तः सन्तो मृगा आरण्याः पशवः, (अहीत्यादि) स मृगोऽहितात्मा / तथाऽहितं प्रज्ञानं बोधो यस्य परि समन्तात् त्रायते रक्षतीति परित्राणं, तेन वर्जिता रहिताः, सोऽहितप्रज्ञानः / स चाहितप्रज्ञानः सन् विषमान्तेन कूटपाशा परित्राणविकला इत्यर्थः / यदि वा परित्राणं वागुरादिबन्धनं, तेन तर्जिता दियुक्तप्रदेशेनोपागतः।यदि वा विषमान्ते कूटपाशादिके आत्मानमनुभयं गृहीताः सन्तो भयोद्धान्तलोचनाः समाकुलीभूतान्तः करणाः पातयेत्। तत्र चासौ पतितो बद्धश्च तेन कूटादिना पदपाशादीननर्थबहुलासम्यक् वे कविकलाः, अशङ्कनीयानि कूटपाशादिरहि-तानि नवस्थाविशेषान् प्राप्तः, तत्र बन्धने, घातं विनाश, नियच्छति स्थानान्यशङ्कार्दाणि, तान्येव शङ्कन्ते, अनर्थो त्पादकत्वेन प्राप्नोतीति गृह्णन्ति / यानि पुनः शङ्काऽर्हाणि, शङ्का संजाता येषु योग्यत्वात्तानि एवं दृष्टान्तं प्रदर्श्य सूत्रकार एवं दार्टान्तिकमज्ञानविपाकं दर्शयितुमाहशङ्कितानि, शङ्कायोग्यानि वागुरादीनि, तान्यशङ्किनस्तेषु शङ्का- (एवं तु इत्यादि) एवमिति यथा मृगा अज्ञानावृता अनर्थमनेकशः मकुर्वाणास्तत्र तत्र पाशादिके संपर्ययन्त इत्युत्तरेण संबन्धः / / 6 / / प्राप्नुवन्ति / तुरवधारणे / एवमेव, श्रमणाः के चित्, पुनरप्येतदेवाऽतिमोहाविष्करणायाह- (परियाणीत्यादि) परित्रायते पाखाण्डविशेषाश्रिताः / एके, न सर्वे। किं भूतास्ते इति दर्शयति-मिथ्या इति परित्राणं तज्जातं येषु तानि, यथा परित्राणयुक्तान्येव शङ्कमाना विपरीता दृष्टिर्येषामज्ञानवादिनां, नियतिवादिनां वा ते मिथ्यादृष्टयः / अतिमूढत्वाद्विपर्यस्तबुद्धयस्त्रातर्यपि भयमुत्प्रेक्षमाणाः, पाशितानि तथा अनार्याः आराज्जाताः सर्वहेयधर्मेभ्य इति आर्याः, न आर्या अनार्या पाशोपेतान्यनापादकानि, अशङ्किनः, तेषु शङ्का-मकुर्वाणाः अज्ञानावृतत्वाद सदनुष्ठायिन इति यावत् / अज्ञानावृतत्वं च दर्शयतिसन्तोऽज्ञानेन भयेन च (संविग्गं ति) सम्यक् व्याप्ता वशीभूताः अशङ्कितान्यशङ्कनीयानि सुधर्मा-नुष्ठानादीनि, शङ्कमानाः, तथा शङ्कनीयमशङ्कनीयं वा तत्राऽपरित्राणोपेतं, पाशाद्यन-थोपेतं वा, शङ्कनीयान्यपायबहुलान्येकान्त-पक्षसमाश्रयणानि, अशङ्किनो मृगा सम्यविवेकेनाऽजानानाः, तत्र तत्राऽनर्थबहुले पाशवागुरादिके बन्धने, इव मूढचेतसस्तत्तदारभन्ते, यद्यदनाय संपद्यन्त इति / / 10 / / संपर्ययन्ते समेकीभावेन, परि समन्तात्, अयन्ते यान्ति वा, शङ्कनीयाशङ्कनीयविपर्यासमाह-(धम्मपण्णवणेत्यादि) धर्मस्य गच्छन्तीत्युक्तं भवति / तदेवं दृष्टान्तं प्रसाध्य नियतिवादाद्येका- क्षान्त्यादिदशलक्षणोपेतस्य या प्रज्ञापना प्ररूपणा / तं त्विति / तामेव न्ताऽज्ञानवादिनो दान्तिकत्वेनाऽऽयोज्याः / यतस्तेऽप्येकान्त- शङ्कन्ते। असद्धर्मप्ररूपणेयमित्येवमध्यवस्यन्ति। ये पुनः पापोपादानवादिनोऽज्ञानकास्त्राणभूतानेकान्तवादवर्जिताः सर्वदोषविनिर्मुक्तं भूताः समारम्भास्तानाशङ्कन्ते किमिति / यतोऽव्यक्ता मुग्धाः कालेश्वरादिकारणवादाभ्युपगमेनाऽनाशङ्कनीयमनेकान्तवादमाशङ्कन्ते। सहजसद्विवेकविकलाः, तथा अकोविदा अपमिताः सच्छास्त्राsशङ्कनीयं च नियत्यज्ञानवादमेकान्तं न शङ्कन्ते / ते एवंभूताः दबोधरहिता इति / / 11 // परित्राणार्हेऽप्यनेकान्तवादेशङ्का कुर्वाणा युक्त्या घटमानकमनर्थबहुलमे- ते च अज्ञानावृता यन्नाप्नुवन्ति तद्दर्शनायाह- (सव्वप्पकान्तवादमशङ्कनीयत्वेन गृह्णन्तोऽज्ञानावृतास्तेषु तेषु कर्मबन्धस्थानेषु गमित्यादि) सर्वत्राप्यात्मा यस्यासौ सर्वात्मको लोभः, तं विधूयेति संपर्ययन्त इति // 7 // संबन्धः / तथा विविध उत्कर्षों गर्वो व्युत्कर्षो मान इत्यर्थः / पूर्वदोषैरतुष्यन्नाचार्यों दोषान्तरदित्सया पुनरपि प्राक्तनदृष्टा- तथा (णूमं ति) माया, तां विधूय / तथा (अप्पत्तिअंति) क्रोध न्तमधिकृत्याह-(अह तं पवेज इत्यादि) अथानन्तरमसौ मृगस्तत् | विधूय / कषायविधूनने च मोहनीयविधूननमावेदितं भवति। तदपगमाच Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णाणिय ४९२-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अण्णाणिय शेषकर्माभावः प्रतिपादितो भवतीत्याह-(अकर्माश इति) न विद्यते कर्माशोऽस्येत्यकर्माशः / स च कर्माशो विशिष्टज्ञानाद् भवति, नाज्ञानादित्येव दर्शयति / एतमर्थ कर्माभावलक्षणं, मृगः अज्ञानी (चुए त्ति) त्यजेत् / विभक्तिविपरिणामेन वा अस्मादेयंभूतादर्थात् च्यवेद् भ्रश्येदिति // 12 // भूयोऽप्यज्ञानवादिनां दोषाभिधित्सयाऽऽहजे एयं नामिजाणंति, मिच्छदिट्टी अणारिया। मिगावापासबद्धा ते, घायमेसंतिऽणंतसो||१३| माहणा समणा एगे, सवे नाणं सयं वए। सव्वलोगे विजे पाणा, न ते जाणंति किंचण ||14|| मिलक्खू अमिलक्खूस्स, जहा वुत्ताऽणुभासए। ण हेउं से विजाणाइ, भासिअं अणुभासए|१५| एवामन्नाणिया नाणं, वयंता वि सयं सयं / निच्छयत्थं न जाणंति, मिलक्खु व्व अबोहिया।।१६|| (जे एयमित्यादि) ये अज्ञानपक्षं समाश्रिता एनं कर्मक्षपणोपायं न जानन्ति। आत्मीयाऽसद्ग्राहाऽऽग्रहास्ता मिथ्यादृष्टयो-ऽनास्तेि मृगा इव पाशबद्धा घातं विनाशमेष्यन्ति यास्य-न्त्यन्वेषयन्ति वा, तद्योग्याक्रियाऽनुष्ठानात् / अनन्तशो विच्छे-देनेत्यज्ञानवादिनो गताः / / 13 / / इदानीमज्ञानवादिनां दूषणो-द्विभावयिषया स्ववाग्यन्त्रिता वादिनो न चलिष्यन्तीति तन्मता-विष्करणायाऽऽह-(माहणा इत्यादि) एके केचन, ब्राह्मण-विशेषाः, तथा श्रमणाः परिव्राजकविशेषाः, सर्वेऽप्येते, ज्ञाय-तेऽनेनेति ज्ञानम् / हेयोपादेयार्थाऽऽविर्भावकं परस्परविरोधेन व्यवस्थितं, स्वकमात्मीयं, वदन्ति। न चतानि ज्ञानानि परस्परविरोधेन प्रवृत्तत्वात्सत्यानि / तस्मादज्ञानमेव श्रेयः, किं ज्ञानपरिकल्पनया इत्येतद्दर्शयति-सर्वस्मिन्नपि लोके, ये प्राणाः प्राणिनः, न ते किंचनापि सम्यगुपेतवाचं जानन्तीति विदन्तीति / / 14 / / यदपि तेषां गुरुपारम्पर्येण ज्ञानमायातं, तदपि छिन्न-मूलत्वादवितर्थन भवतीति दृष्टान्तद्वारेण दर्शयितुमाह- (मिलक्खू अमिलक्खुस्सेत्यादि) यथा म्लेच्छ आर्यभाषाऽनभिज्ञः, अम्लेच्छस्यार्यस्य म्लेच्छभाषाऽनभिज्ञस्य, यद्भाषितं, तदनुभाषते अनुवदति, केवलं न सम्यक् तदभिप्रायं वेत्ति / यथाऽनया विवक्ष-याऽनेन भाषितमिति / न च हेतुं निमित्तं, निश्चयेनासौ म्लेच्छ-स्तद्भाषितस्य जानाति, केवलं परमार्थशून्यं तद्भाषितमेवानुभाषत इति।।१५।। एवं दृष्टान्तं प्रदर्श्य दार्शन्तिकं योजयितुमाह- (एवमित्यादि) यथा म्लेच्छः, अम्लेच्छस्य परमार्थमजानानः केवलं तद्भाषिताननुभाषते, तथा अज्ञानकाः सम्यग्ज्ञानरहिताः श्रमणा ब्राह्मणा वदन्तोऽपि स्वीयं स्वीयं ज्ञानं प्रमाणत्वेन परस्परविरुद्धार्थभाषणात्, निश्चयार्थं न जानन्ति / तथाहि-ते स्वकीयं तीर्थकरं सर्वज्ञत्वेन निर्धार्य तदुपदेशेन क्रियासु प्रवर्तेरन्, न च सर्वज्ञविवक्षा अग्दिर्शनिना ग्रहीतुं शक्यते, "नासर्वज्ञःसर्वं जानातीति'न्यायात्। तथाचोक्तम्-"सर्वज्ञोऽसाविति ह्येत-तत्कालेऽपि बुभुत्सुभिः / तज्ज्ञानज्ञेयविज्ञान-रहितैर्गम्यते कथम्?" ||1|| एवं परचेतो-वृत्तीनां दुरन्वयत्वादुपदेष्टुरपि यथावस्थितविवक्षया ग्रहणाऽसंभवान्निश्चयार्थमजानाना म्लेच्छवदपरोक्तमनुभाषन्त एव। अबोधिका बोधरहिताः, केवलमित्यतो-ऽज्ञानमेव श्रेय इति / एवं यावद्यावज्ज्ञानाभ्युपगमस्तावत्तावद् गुरुतरदोषसंभवः। तथाहि-योऽवगच्छन् पादेन कस्यचित् शिरःस्पृशति, तस्य महानपराधो भवति।यस्त्वनाभोगेन स्पृशति, तस्मैन कश्चिदपराध्यतीत्येवं चाज्ञानमेव प्रधानभावमनुभवति, न तु ज्ञानमिति ||16|| एवमज्ञानवादिमतमनूचेदानी तद्दूषणायाहअन्नाणियाणं वीमंसा, नाणे ण विनियच्छा। अप्पणो य परं नालं, कुतो अन्नाणुसासिउं ? ||17| वणे मूढे जहा जंतू, मूढे णेयाणुगामिए। दो वि एए अकोविया, तिव्वं सोयं नियच्छइ||१८|| अंधो अंधं पहं णितो, दूरमद्धाणं गच्छद। आवजे उप्पहं जंतू, अदुवा पंथाणुगामिए।|१६|| एवमेगे णियायट्ठी, धम्ममाराहगा वयं / अदुवा अहम्ममावज्जे, ण ते सव्वज्जुयं वए / / 20 / / (अन्नाणियाणमित्यादि) न ज्ञानमज्ञानं, तद्विद्यते येषां तेऽज्ञा-निनः। अज्ञानशब्दस्योत्तरपदत्वाद्वा मत्वर्थीयः। यथा गौरखरवदरण्यमिति। यथा तेषामज्ञानिनामज्ञानमेव श्रेयः, इत्येवंवादिनां योऽयं विमर्शः पर्यालोचनात्मकः, मीमासां वा मातुं परिच्छे त्तुमिच्छा सा, अज्ञानेऽज्ञानविषये (ण णियच्छइ) न निश्चयेन यच्छति नावतरति, न युज्यत इति यावत् / तथाहि- यैवंभूता मीमांसा, विमर्शो वा, किमेतज्ज्ञानं सत्यमुताऽसत्यमिति ? यथा अज्ञानमेव श्रेयो, यथा यथा च ज्ञानातिशयस्तथा तथा च दोषातिरेक इति, सोऽयमेवंभूतो विमर्शस्तेषां न बुध्यते / एवंभूतस्य पर्या-लोचनस्य ज्ञानरूपत्वादिति / अपि चतेऽज्ञानवादिन आत्मनोऽपि,परं प्रधानमज्ञानवादमिति, शासितुमुपदेष्टु, नालंन समर्थाः। तेषामज्ञानपक्षसमाश्रयणेनाऽज्ञत्वादिति, कुतः पुनस्ते स्वयमज्ञाः सन्तोऽन्येषां शिष्यत्वेनोपगतानामज्ञानवादमुपदेष्टुमलं समर्था भवेयुरिति ? यदप्युक्तम्-छिन्नमूलत्वात् म्लेच्छानुभाषणवत् सर्वमुपदेशादिकम्। तदप्ययुक्तम् / यतोऽनुभाषणमपि न ज्ञानमृते कर्तु शक्यते। तथा यदप्युक्तम्- परचेतोवृत्तीनां दुरन्वय-त्वादज्ञानमेव श्रेय इति। तदप्यसत्। यतो भवतैवाज्ञानमेव श्रेय इत्येवं परोपदेशदानाभ्युद्यतेन परचेतोवृत्तिज्ञानस्याभ्युपगमः कृत इति / तथाऽन्यैरप्यभ्यधायि"आकारैरिङ्गितैर्गत्या, चेष्टया भाषितेन च / नेत्रवक्त्रविकारैश्च, गृह्यतेऽन्तर्गतं मनः // 17 // तदेवं ते तपस्विनोऽज्ञानिन आत्मनः परेषां च शासने कर्तव्ये यथा न समर्थास्तथा दृष्टान्तद्वारेण दर्शयितुमाह-(वणे इत्यादि)। वनेऽटव्यां, तथा कश्चिन्मूढोजन्तुः प्राणी, दिक्परिच्छेदं कर्तु-मसमर्थः, स एवंभूतो यदा परं मूढमेव नेतारमनुगच्छति, तदा द्वावप्यको विदौ सम्यग्ज्ञानानिपुणौ सन्तौ, तीव्रमसह्यं, स्रोतोगहनं, शोकंवा, नियच्छतो निश्चयेन गच्छतः प्राप्नुतः, अज्ञानावृतत्वात्। एवं तेऽप्यज्ञानवादिन आत्मीयं मार्गशोभनत्वेन निर्धारयन्तः परकीयं वाऽशोभनत्वेन जानानाः स्वयं मूढाः सन्तः परानपि मोहयन्तीति॥१८॥ अस्मिन्नेवार्थे दृष्टान्तान्तरमाह- (अंधो अंधमित्यादि) तथा अन्धः स्वयमपरमन्धं पन्थानं नयन, दूरमध्वानं विवक्षितादध्वनः परतरं गच्छति, तथोत्पथमापद्यते जन्तुरन्धः / अथवा-परं पन्थानमनु-गच्छेन्न विवक्षितमेवाध्वानमनुयायादिति / / 16 / / एवं दृष्टान्तं प्रसाध्य दान्तिकमर्थं दर्शयितुमाह- (एवमेगे नियायट्टि त्ति) / एवमिति पूर्वोक्तोऽर्थोपप्रदर्शने / एवं भावमूढा भावान्धाश्चैके आजीविकादयः, (नियायट्टि त्ति) नयो मोक्षः, सद्धर्मा वा, Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णाणिय 493 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अण्णायभासि तदर्थनस्ते किल वय सद्धर्माराधका इत्येवं संधाय प्रव्रज्यायामुद्यताः सन्तः पृथिव्यम्बुवनस्पत्यादिकायोपमर्दैन पचनपाचनादिक्रियासु प्रवृत्ताः सन्तस्तत्तत् स्वयमनुतिष्ठन्ति, अन्येषां चोपदिशन्ति, येनाभिप्रेतावा मोक्षाप्तेर्भश्यन्ति / अथवा तावन्मोक्षाभावस्तमेवं प्रवर्तमाना अधर्म पापमापोरन्। पुनरपि तदूषणाभिधित्सयाऽऽहएवमेगे वियक्काहिं, नो अन्नं पञ्जुवासिया। अप्पणो य वियक्काहिं, अयमंजू हि दुम्मई ||21|| एवं तक्काइ साहिंता, धम्माधम्मे अकोविया। दुक्खं ते नाइतुटुंति, सउणी पंजरं जहा // 22 // सयं सयं पसंसंता, गरहंता परं वयं / जे उ तत्थ विउस्संति, संसारं ते विउस्सिया॥२३|| (एवमित्यादि) एवमनन्तरोक्तया नीत्या एके केचनाऽज्ञानिका वितर्काभिर्मीमांसाभिः स्वोत्प्रेक्षिताभिरसत्कल्पनाभिः, परमन्यमार्हतादिकं ज्ञानवादिनं न पर्युपासते, न सेवन्ते। स्वाव-लेपग्रहग्रस्ता वयमेव तत्त्वज्ञानाभिज्ञानपराः के चिदित्येवं नान्यं पर्युपासते इति / तथाऽऽत्मीयैर्विकल्पैरेवमभ्युपगतवन्तो यथा-ऽयमेवास्मदीयोऽज्ञानमेव श्रेय इत्येवमात्मको मार्गः / (अंजूरिति) निर्दोषत्वाद् व्यक्तः स्पष्टः परैस्तिरस्कर्तुमशक्यः, ऋजुर्वा-प्रगुणोऽकुटिलः, यथावस्थितार्थाभिधायित्वात्। किमिति एवमभिदधति ? हिर्यस्मादर्थे / यस्मात् ते दुर्मतयो विपर्यस्तबुद्धय इत्यर्थः / / 21 / / सांप्रतमज्ञानवादिना स्पष्टमेवाऽनाभिधित्सयाऽऽह-(एवं तक्काइ इत्यादि) एवं पूर्वोक्तन्यायेन तर्कया स्वकीयविकल्पनया साधयन्तः प्रतिपादयन्तोधर्मे क्षान्त्यादिकेऽधर्मे चजीवोपमर्दापादिते पापेऽकोविदा अनिपुणादुःखमसातोदयलक्षणं तद्धेतुंवा, मिथ्यात्वाद्युपचितकर्मबन्धनं नातित्रोटयन्ति, अति-शयेनैतद् व्यवस्थितम् / तथा ते न त्रोटयन्त्यपनयन्तीति। अत्र दृष्टान्तमाह-यथा पञ्जरस्थः शकुनिः पञ्जरं बोटयितुं पञ्जरबन्धादात्मानं मोचयितुं नालम्, एवमसावपि संसारपञ्जरादात्मानं मोचयितुं नालमिति / / 22 / / अधुना सामान्येनैकान्तवादिमतदूषणार्थमाह-(सयं सय-मित्यादि) स्वकं स्वकमात्मीयं च दर्शनमभ्युपगतं प्रशंसन्तो वर्णयन्तः समर्थयन्तो वा, तथा गर्हमाणा निन्दन्तः परकीयां वाचम् / तथाहि- सांख्याः सर्वस्याविर्भावतिरोभाववादिनः, सर्व वस्तु क्षणिकं निरन्वयं निरीश्वरं वेत्यादिवादिनो बौद्धान् दूषयन्ति / तेऽपि नित्यस्य क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरहात् सांख्यान् / एवमन्येऽपि द्रष्टव्या इति / तदेवं य एकान्तवादिनः। तुरवधारणे भिन्नक्रमश्च / तत्रैव तेष्वेवाऽत्मीयात्मीयेषु दर्शनेषु प्रशंसां कुर्वाणाः परवाचं च विगर्हमाणा विद्वस्यन्ते विद्वांस इवाऽऽचरन्ति / तेषु वा विशेषेणोशन्ति स्वशास्त्रविषये विशिष्टं युक्तिवातं वदन्ति / ते चैवंवादिनः संसारं चतुर्गतिभेदेन संसृतिरूपं विविधमनेकप्रकारमुत्प्राबल्येन श्रिताः संबद्धाः, तत्र वा संसारे उषिताः संसारान्तर्वर्तिनः सर्वदा भवन्तीत्यर्थः।।२३।। सूत्र०१ श्रु०१अ०२ उ०। अण्णाणियवाइ(ण)-पुं०(अज्ञानिकवादिन्) अज्ञानमभ्यु-पगमद्वारेण येषामस्ति तेऽज्ञानिकास्त एव वादिनोऽज्ञानिक वादिनाः / अज्ञानमेव श्रेय इत्येवं प्रतिज्ञेषु, स्था०४ ठा०४ उ०। सूत्र०। अण्णात (य)-त्रि०(अज्ञात) अनधिगते सम्यगनवधारिते, ध० 3 अधि० / अनुमानेनाऽविषयीकृते, ।भ०३ श०६ उ०। स्वयं स्वजनादिसंबन्धाऽकथनेन गृहस्थैरपरिज्ञातस्वभावादिभावे भिक्षौ, प्रश्न०१ संव० द्वा०। यत्र ग्रामादौ प्रतिमा प्रतिपन्ना, तयाऽविदिते, प्रव०६७ द्वा०। जातिकुलसद्रव्यादिनाऽपरीक्षिते, उत्त०२ अ०1 राजा दिप्रव्रजितत्वेनाविदितस्य भैक्ष्ये, पञ्चा० 17 विव०।"अण्णायंणाम जहा, अचित्तकरो चित्तं काऊण ण जाणति" अज्ञत्वात् अल्पविज्ञानत्वादित्यर्थः / नि०चू०१५ उ० अण्णात (य) उञ्छ-पुं०(अज्ञातोञ्छ) विशुद्धोपकरणग्रहणे, दश० २चू०। परिचयाकरणे, दश० अ०३ उ०। अण्णाओंछं दुविहं, दव्वे भावे य होइ नायव्वं / दव्वुछ णेगविहं, लोगरिसीणं मुणेयव्वं // अज्ञातोञ्छं द्विविधम्। तद्यथा- द्रव्ये भावे चातत्र द्रव्योञ्छमनेकविधं लोकमृषीणां तापसानां ज्ञातव्यम्। तदेवानेकविधंद्रव्योञ्छमाहउक्खल खलए दव्वी, दंडे संडासए य पोत्तीय। आमे पक्के य तहा, दव्वोंछे होइ निक्खेवो // तापसा उञ्छवृत्तयः, उदूखले छटितेषु तन्दुलेषु ये परिशटिताः शालितन्दुलादयस्तान उचित्य रन्धन्ति। (खलए त्ति) खले धान्ये मर्दिते संव्यूढं च यत् परिशटितं तत् उधिन्वन्ति। (दव्वी ति) धान्यराशेर्यदेकया दा उत्पाट्यते तद् गृह्णन्ति / एवमन्यत्रापि प्रतिदिवसं (दंड त्ति) स्वामिनमनुज्ञाप्य यद्धान्यराशेरेकया यष्ट्या उत्पाट्यते तद् गृह्णन्ति, एतदेवमन्यत्रापि प्रतिदिवसं (संडासएत्ति) अड्गुष्ठप्रदेशिनीभ्यां यद् गृह्यते शाल्यादिकं तावन्मानं प्रतिगृहं गृह्णन्ति। यद्यपि बहुकं पश्यन्तिशाल्यादि, तथापि न मुष्टिं भृत्वा गृण्हन्ति (पोत्ती य त्ति) स्वामिनमनुज्ञाप्य धान्यराशौ पोत्तिं क्षिपन्ति, तत्र यत् पोत्तौ लगति, तद् गृह्णन्ति / एवमन्यत्रापि।तथा आमं,पक्वं वा यचरकादयो भिक्षाप्रविष्टा मृगयन्ते, एष भवति द्रव्योज्छे निक्षेपः। संप्रति भावोञ्छमाहपडिमापडिवण्णे एस भयवमज किर एत्तिया दत्ती। आदियति त्ति न नजइ, अन्नाओंछं तवो भणितो।। प्रतिमाप्रतिपन्न एष भगवान् अद्य किल एतावद्दत्तीरादत्ते इति न ज्ञायते, तेन तस्य भगवतस्तपोऽज्ञातोञ्छं भवति। व्य०१० उ०। अण्णात (य)चरय-पुं०(अज्ञातचरक) अज्ञातोऽनुपदर्शित सौजन्यादिभावः संश्वरतियःसतथा। औ०। अज्ञातेषुवा गृहेषु चरतीति अज्ञातः। अज्ञातगृहे वा चरामीत्यभिग्रहवति, सूत्र०२ श्रु०२ अ० अण्णातपिंड-पुं०(अज्ञातपिण्ड) अज्ञातश्चासौ पिण्डश्चाऽज्ञातपिंडः / अन्तप्रान्तरूपे पिण्डे, अज्ञातेभ्यः पिण्डोऽज्ञातपिण्डः / अज्ञातेभ्यः पूर्वाऽपरसंस्तुतेभ्य उञ्छवृत्त्या लब्धे पिण्डे, "अण्णातपिंग हिपासएजा, णो पूयणं तवसा आवहेजा"। सूत्र०१ श्रु०१ अ०१ उ०। अण्णादत्तहर-त्रि०(अन्यादत्तहर) अन्यैरदत्तमनिसृष्टं हरत्यादत्ते Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णायया 494 - अभिषानराजेन्द्रः - भाग 1 अण्णारंभणिवित्ति इत्यन्यादत्तहरः। ग्रामनगरादिषु चौर्यकृति, उत्त०७ अ०। अण्णा (ना)दि (रि)स-त्रि०(अन्यादृश) अन्येव दृश्यते। अन्य-दृशकज, आत्वम्। "दृशेः क्विप्टक्सकः"1८1१1१४२॥ इति ऋतो रिः। अन्यसदृशे, प्रा०। अण्णाय-त्रि०(अन्याय्य)न्यायादपेते, सूत्र०१ श्रु०१३ अ०। अण्णायभासि(ण)-त्रि०(अन्याय्यभाषिन) अन्याय्यं भाषितुं शीलमस्य सोऽन्याय्यभाषी। यत्किञ्चन भाषिणि, अस्थान-भाषिणि, गुर्वाद्यधिक्षेपकरे च। "जे विग्गहीए अण्णायभासी, न से समे होइ अझंझपत्ते"। सूत्र०१ श्रु०१३ अ०॥ अण्णायया-स्त्री०(अज्ञातता) तपसो यशःपूजाऽऽद्यर्थित्वेनाप्रकाशयद्भिः करणे, स०३२ सम०। कोऽर्थः? पूर्व परीष-हसमर्थानां यदुपधानं क्रियते, तद्यथा लोको न जानाति तथा कर्तव्यम्, विज्ञातं वा कृतं न नयेत्, प्रच्छन्नं वा कृतं नयेत्। आव०४ अ०| अज्ञातद्वारमाहकोसंबि अजिअसेणो, धम्मवसूधम्मघोस-धम्मजसो। विगयभया-विणयवई, इड्डिविभूसाइ परिकम्मे / / 1 / / कौशाम्बीत्यस्ति पूस्तत्राजितसेनो महीपतिः। धारिणीत्यभिधा देवी, तत्र धर्मवसुर्गुरुः॥१॥ धर्मघोषो धर्मयशास्तस्यान्तेवासिनावुभौ। आसीद्विनयवत्याख्या, तत्र तेषां महत्तरा // 2 // तच्छिष्या विगतभया, विदधेऽनशनं तपः। महाप्रभावनापूर्व, सङ्घस्तां निरयामयत् // 3 // तौ च धर्मवसोः शिष्यौ, कुरुतः परिकर्मणाम्। इतश्चउजेणिऽवंतिबद्धण, पालय सुरट्ठवद्धणो चेव। धारिणीऽवंतिसेसो, मणिप्पभो वच्छगातीरे / / 1 / / उज्जयिन्यस्ति पूर्भूभृत, प्रद्योतस्तत्सुतावुभौ। आद्यः पालकनामाऽभूल्लघुर्गोपालकः पुनः॥४॥ गोपालकः प्रवव्राज, पालको राज्यमासदत्। अवन्तिवर्धनो राष्ट्र-वर्द्धनश्चेति तत्सुतौ / / 5 / / तौ राज-युवराजौ च, कृत्वाऽभूत्पालको व्रती। धारिणीकुक्षिजोऽवन्तिसेनोऽभूद् युवराजसूः / / 6 / / भूभुजाऽन्येधुरुद्याने, स्वेच्छस्थाऽदर्शिधारिणी। ऊचे दूत्याऽनुरक्तस्तां, सा नैच्छदशमीलिता / / 7 / / यथा भावेन साऽवोचन्न भ्रातुरपिलबसे? ततोऽसौ मारितस्तेन, स्वशीलं साऽथ रक्षितुम् / / 8 / / ययौ सार्थेन कौशाम्बी-मात्तस्वाभरणोचया। भूभुजो यानशालायां, स्थिताः साध्वीनिरीक्ष्य सा II वन्दित्वा श्राविका साऽभूत्, क्रमाञ्च व्रतमग्रहीत्। गर्भ न सन्तमप्याख्यद्, व्रतलोभभयात्पुनः / / 10 / / ज्ञातो महत्तरायाः स्वः, सद्भावोऽथ निवेदितः। सुगुप्तं स्थापिता साऽथ, रात्रौ पुत्रमजीजनत् / / 11 / / स्वमुद्राभरणाद्यैस्तं, तदैवाभूष्य भूपतेः। सौधाङ्गणे स्थापयित्वा, प्रच्छन्ना स्वयमस्थित // 12|| पार्थिवोऽजितसेनस्तं, दृष्टयाऽऽकाशतलस्थितः। गृहीत्वाऽदात्पट्टराज्ञया, असुतायाः सुतं जयात्॥१३॥ पृष्टा साध्वीभिराख्यत्सा, मृतोऽजन्युज्झितस्ततः। पट्टराज्ञया समं चक्रे, साऽथ सख्यं गताऽऽगतैः।।१४।। मणिप्रभारख्यस्तत्सूनुम॒ते राज्ञयभवन्नृपः। साध्व्याः स चातिभक्तोऽस्या, राजा चावन्तिवर्धनः / / 15 / / भाताऽमारिन साऽथाऽभूत, पश्चात्तापेन पीडितः। राज्यं भातृसुतेऽवन्ति-सेने न्यस्याग्रही व्रतम्॥१६॥ सा कौशाम्बीनृपाद्दण्डमयाचन्न स दत्तवान्। धर्मघोषस्तयोरेकः, प्रपेदेऽनशनं यतिः।।१७।। भूयान्ममापि विगतभयाया इव सत्कृतिः। द्वैतीयीकस्तु कौशाम्बीमवन्तीं चान्तरा गिरौ।।१८|| गुहायां वत्सकातीरे निरीहोऽनशनं व्यधात्। इतश्चागत्य कौशाम्बी, रुरोधावन्तिसेनराट्।।१६।। धर्मघोषान्तिके नागाद्, भयत्रस्तस्ततो जनः। स च चिन्तितमप्राप्तो, मृतो द्वारेण निर्गतः // 20 // न लभ्यते ततः क्षिप्तो, द्वारोपरितलेन सः। साऽथ प्रद्रजिता, दध्यौ, मा भूद्युद्धे जनक्षयः / / 21 / / ततश्चान्तःपुरे गत्वाऽवोचन्मणिप्रभ रहः। भ्रात्रा सह कथं योत्स्ये, सोऽवक् कथमिदं ततः?॥२२॥ सर्वं प्रबन्धमाचख्यौ, पृच्छाऽम्बां प्रत्ययो न चेत्। पृष्टाऽम्बाऽऽख्यत्कथावृत्तं, नाममुद्रामदर्शयत् // 23 // राष्ट्रवर्द्धनसत्कानि, सर्वाण्याभरणानि च। अथोचे प्रसरदलज्जे, सोचे तं सोऽपि भोत्स्यते॥२४॥ इत्युक्त्वा सा विनिर्गत्याऽवन्तिसेनदलेऽगमत्। उपलक्ष्य जनाः सर्वेऽवन्तिसेननृपस्य ताम्।।२५।। आख्यन्निहागताऽम्बा ते, हृष्टोऽपश्यन्ननाम ताम्। मातः कथमिदं चक्रे, सर्व तस्याप्यचीकथत्॥२६।। तेदष तव सोदर्यो, मिलितौ तावथो मिथः। स्थित्वैकमासं कौशाम्ब्यां, द्वावप्युज्जयिनीं गतौ // 27|| निन्ये सगुरुकाऽम्बाऽपि, वत्सकातीरपर्वते। तत्रारोहावरोहांस्ते, कुर्वतो वीक्ष्य संयतान्॥२८|| दृष्ट्वा तेऽप्यगमन्नन्तुं, नृपौ नत्वा मुनि मुदा। चक्रतुविपि स्थित्वा, महिमानं जनैः सह // 26 // एवं तस्याजनि श्रेष्ठाऽनिच्छतोऽपि हि सत्कृतिः। द्वितीयस्येच्छतोऽप्यासीन्न सत्कारलवोऽपि हि ||30|| ततो धर्मयशोवन्निरीहं तपः कार्यम्।आ०क०। अण्णायवइविवेग-पुं०(अज्ञातवाग्विवेक) शुद्धाशुद्धयोग्याऽयोग्यविषयत्वादिरूपो यैस्ते। वाग्विवेकमज्ञातवत्सु, द्वा०1 "अज्ञातवाग-विवेकानां, पण्डितत्वाभिमानिनाम। विषयं वर्तते वाचि, मुखेनाशीविषस्य तत्" / द्वा०२ द्वा०। अण्णायसील-त्रि०(अज्ञातशील) पण्डितैरप्यज्ञातस्वभावे, अब्रह्मशीले च। "ताणं अण्णायसीलाणं (नारीणं)" तासां नारीणामज्ञातशीलानां पण्डितैरप्यज्ञातस्वभावानाम्। यद्वा-नज्ञातं नाङ्गीकृतं शीलं ब्रह्मस्वरूपं याभिस्ता अज्ञातशीलास्तासाम् / यद्वा-नञः कुत्सार्थत्वात् कुत्सितं ज्ञातं शीलं साध्वीनां याभिः परिग्राजिकायो गिन्यादिभिस्ता अज्ञातशीलास्तासाम्। तं०। अण्णारंभणिवित्ति-स्त्री०(अन्यारम्भनिवृत्ति) कृष्याद्यारम्भत्यागे, "अण्णारंभणिवित्तीए, अप्पणा हिद्वणं चेव'' / पञ्चा०७ विव०। Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्णावएस 495 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अण्णेसणा अण्णावएस-पुं०(अन्यापदेश) अन्यस्य परस्य संबन्धीदं विसंवादिवदसौ व्यम्राक्षीत् / अथ नृपोऽनिकापुत्राचार्यमाकार्य गुडखण्डादीत्यपदेशो व्याजोऽन्यापदेशः। परकीयमेतत्तेन साधुभ्यो न तदेवाप्राक्षीत् / तेन तु यादृशान् देव्यपश्यत् तादृशा एवोक्ता नरकाः। दीयते इति साधुसमक्षं भणने जानन्तु साधवो यद्यस्मै तद् भक्तादिकं राज्ञी प्रोचे-भगवन् ! भवद्भिरपि किं स्वप्नो दृष्टः ? कथमन्यथेत्यः वित्थ। भवेत्तदा कथमस्मभ्यं न दद्यादिति साधुसंप्रत्ययार्थम् / अथ वा सूरिरवदद्-भद्रे ! जिनागमात्सर्वमवगम्यते। पुष्पचूलाऽवोचद्-भगवन् ! अस्माधानात्ममान्नादेः पुण्यमस्त्विति भणनेच, एष अतिथिसंविभागस्य केन कर्मणा ते प्राप्यन्ते ? गुरुरगृणाद्-भद्रे ! महारम्भपरिग्रहैर्गुरुपञ्चमोऽतिचारः / ध०२ अधि। प्रत्यनीकतया पञ्चेन्द्रियवधात्,मांसाहाराच तेष्वङ्गिनः पतन्ति / क्रमेण अण्णिय-त्रि०(अन्वित) युक्ते, सूत्र०१ श्रु०१ अ०व्या उत्त०। ससूरिस्तस्यै स्वर्गानदर्शयत् स्वप्ने। राज्ञया तथैवपाखण्डिनः पृष्टानपि अण्णियाउत्त-पुं०(अन्निकापुत्र) जयसिंहनाम्नो वणिकपुत्रस्य जामे: व्यभिचारिवाचो विमृश्य नृपस्तमेवाचार्य स्वर्गस्वरूपमप्राक्षीत्। तेनापि अनिकायाः पुत्रे, ती०। कतमः समहामुनिः? तदनुजगाद नैमित्तिकः - यथावत्तवोदिते स्वर्गावाप्तिकारणम-पृच्छद्राज्ञी। ततः सम्यक्त्वमूलौ श्रूयतां, देव! उत्तरमथुरायां वास्तव्यो देवदत्तास्यो वणिकपुत्रो दिग्यात्रार्थं गृहि-यतिधर्मावादिशद् मुनीशः / प्रतिबुद्धा च सा लघुकर्मा दक्षिणमथुरामगमत्, तत्र तस्य जयसिंहनाम्ना वणिक पुत्रेण सह नृपमनुज्ञापयति स्म प्रव्रज्यायै। सोऽप्यूचे-यदि मद्गृह एव भिक्षामादत्से सौहार्दमभवत् / अन्यदा तद्गृहे भुजानोऽन्निकानाम्नी तज्जामि स्थाने तदा प्रव्रजतयोरीकृते नृपवचसि सा सोत्सवमभूत्तस्याचार्यस्य शिष्या, भोजनं परिवेष्य वातव्यजनं कुर्वती रम्यरूपामालोक्य तस्यामनुरक्तः। गीतार्था च। द्वितीयेऽह्नि वरकान् प्राप्य जयसिंहो देवदत्तमनयाऽऽविष्ट सौहृदमभ्यधाद् अन्यदा च दुर्भिक्षं श्रुतोपयोगाद् ज्ञात्वा सूरिगच्छं देशान्तरे प्रैषीत्। -अहं तस्मा एव ददे स्वसारम्, यो मद्गृहाद्दूरेन भवति, प्रत्यहं तांतंच स्वयं तु परिक्षीण-जङ्गाबलस्तत्रैवास्थात्, भक्तपानं च पुष्पचूलायथा पश्यामि, यावदपत्यजन्म तावद्यदि मद्गृहे स्थाता, तस्मै जामि ऽन्तःपुरादानीय गुरवेऽदात् / क्रमात्तस्या गुरुश्रुश्रूषाभावनाप्रकर्षात् दास्यामीति। देवदत्तोऽप्यामित्युक्त्वा शुभेऽह्नितां पर्यणैषीत्। तया सह क्षपकश्रेण्यारोहात्केवलज्ञानमुत्पेदे / तथाऽपि गुरुवयावृत्त्यान्न निवृत्ता, भोगान् भुजस्तस्यान्यदा पितृभ्यां लेखः प्रेषितः, वाचयतस्तस्य नेत्रे यावद्धि गुरुणा न ज्ञायते केवलीति तावत्पूर्वप्रयुक्तं विनयं केवल्यपि वर्षितुमथुप्रवृत्ते, ततस्तया हेतुः पृष्टोयावन्नाब्रवीत् तावत्तयाऽऽदाय लेखः नात्येति / साऽपि यद्यद्गुरोरुचितं, रुचिरं चतत्तदन्नादि संपादितवती। स्वयं वाचितः / पत्रे चेदं लिखितमासीद् गुरुभ्याम् - "यद् अन्यदा तु वर्षत्यब्दे सा पिण्डमाहरद् / गुरुभिरभिहितम्-वत्से ! वत्स ! आवां वृद्धौ निकटनिधनौ, यदि नौ जीवन्तौ दिदृक्षसे, तदा श्रुतज्ञाऽसि, किमिति वृष्टौ त्वयानीताः पिण्डा इति? साऽभाणीद्द्रागागन्तव्यमिति'' तदनुसा पतिमाश्वास्य भ्रातरं हठादप्यजिज्ञपदा भगवन् ! यत्राध्वनि अप्कायाऽचित्त एवासी-त्तेनैवायासिषमहम् / कुतः सह प्रतस्थे चोत्तरमथुरां प्रति / सगर्भा क्रमान्मार्गे सूनुमसूत, नामास्य प्रायश्चित्ताऽऽपत्तिः ? गुरुराह-छद्मस्थः कथमेतद्वेद ? तयोचे-केवलं पितरौ करिष्यत इति देवदत्तोते परिजनस्तमर्भकमन्निकापुत्र ममास्ति / ततो मिथ्या मे दुष्कृतं केवल्याशातनेति बुयन्नपृच्छत्तां इत्युल्लापितवान् / क्रमेण देवदत्तोऽपि स्वपुरीं प्राप्य पितरौ प्रणम्य च गच्छाधिपः -किमहं सेत्स्यामि नवेति ? केवल्यूचे-मा कृध्वमधृतिम्, शिशुं तयोरार्पयत्। संधीरणेत्याख्यं तौ नप्तुश्चक्राते। तथा ऽप्यन्निकापुत्र गङ्गामुत्तरतां वो भविष्यति केवलम् / ततो गङ्गामुत्तरीतुं लोकैः सह इत्येव पप्रथे। नावमारोहत् सूरिः / यत्र यत्र स न्यषीदत्तत्र नौमतु मारेभे, तदनु असौ वर्द्धमानश्च प्राप्ततारुण्योऽपि भोगाँस्तृणवद्विधूय जयसिंहाचार्य- मध्यदेशासीने मुनौ सर्वाऽपिनौमतुंलना। ततोलोकैः सूरिर्जले क्षिप्तः / पायें दीक्षामग्रहीत् / गीतार्थीभूतः। प्रापदाचार्यकम् / अन्यदा विहरन् दुर्भगीकरणविराद्धया प्राग्भवपत्न्या व्यन्तरीभूतयाऽन्तर्जलं शूले सगच्छोऽद्धर्के पुष्पभद्रपुरं गङ्गातटस्थं प्राप्तः। तत्र पुष्पकेतुर्नृपः / तद्देवी निहितः / शूलप्रोतो-ऽयमप्कायजीवविराधनामेव शोचयन्नाऽऽत्मपीडा, पुष्पवती। तयोर्युग्मजौ पुष्पचूलः पुष्पचूला चेतिपुत्रः पुत्री चाभूताम्।तौ क्षपकश्रेण्या रूढोऽन्तकृत्केवलीभूय सिद्धः / आसन्नैः सुरैस्तस्य च सह वर्द्धमानौ क्रीडन्तौ परस्परं प्रीतिमन्तौ जातौ / राजा दध्यौ- निर्वाणमहिमा चक्रे / त एव तत्तीर्थ प्रयाग इति जगति पप्रथे / प्रकृष्टो यद्यतौ वियुज्येते, तदा नूनं न जीवतः अहम-प्यनयोर्विरहं सोढ़मनीशः, यागः -पूजाऽत्रेति प्रयागः। ती०३६ कल्प०। संथा०। आवाग०॥ तस्मादनयोरेव विवाहं करोमीति ध्यात्वा मन्त्रिमित्रपौरांश्छलेना अण्णी-(देशी) देवरभार्यायां, ननान्दायां, पितृष्वसरि च / दे० ना० ऽपृच्छद्-भोः! यन्ममाऽन्तःपुर उत्पद्यते, तस्य कः प्रभुः? तैर्विज्ञप्तम् १वर्ग देव! अन्तः पुरोत्पन्नस्य किंवाच्यम्, यद्देशमध्येऽप्युत्पद्यते रत्नं, तद्राजा अण्णु-त्रि०(अज्ञ) स्वभावविभावाविवेचके, "मजत्यज्ञः किलाज्ञाने, यथेच्छं विनियुङ्क्ते, कोऽत्र बाधः? तत् श्रुत्वा स्वाभिप्रायं निवेद्य देव्यां वारयन्त्यामपि तयोरेव संबन्धमघटयन्नृपः। तौ दम्पती भोगान् भुङ्कः विष्ठायामिव सूकरः / ज्ञानी निमज्जति ज्ञाने, मराल इव मानसे" / / 1 / / स्म। राज्ञी तु पत्यपमानवैराग्याद् व्रतमादाय स्वर्गे देवोऽभूत् / अन्यदा षो०१६ विव०। पुष्पकेतौ कथाशेषे पुष्पचूलो राजाऽभूत्। सचदेवप्रयुक्तावधिस्तयोरकृत्य अण्णु (नु) ण्ण (न)-त्रि०(अन्योन्य) अन्यशब्दस्य कर्मव्यतिहारे ज्ञात्वा स्वप्नेषुपुष्फचूलायै नरकानदर्शयत्, तदुःखानि च। साच प्रबुद्धा द्वित्वम्, पूर्वपदे सुश्च ।"ओतोऽद्वाऽन्योऽन्य०" ||1156 / भीताचपत्युः सर्वमावेदयत्। सोऽपि शान्तिमचीकरत्।सचदेवः प्रतिनिश ___ इत्यादिसूत्रस्य वैकल्पिकत्वेनौतः स्थानेऽद्भावे संयोगादित्वेन ह्रस्वे नरकाँस्तस्या अदर्शयत्। राजा तु सर्वांस्तीथिकानाहूय पप्रच्छकीदृशा तथारूपम्। प्रा०ा ह्रस्वाभावे 'अण्णोण्णं' / ओघ०। पिं० / वृ०॥ नरकाः स्युरिति ? कैश्चिद्गर्भवासम्, कैरपि दारिद्र्यम्, अपरैः / अण्णेसणा-स्त्री०(अन्वेषणा) मार्गणायाम्, आ०म०द्वि० / प्रार्थनायां पारतन्त्र्यमिति तैर्नरका आचचक्षिरे, राज्ञी तु मुखं मोटयित्वा तान् | च, आचा०१ श्रु०८ अ०८ उ०। सूत्र०ा आ०म० / Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणेसि 496 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अण्हयभावणा अणेसि (ण)-त्रि०(अन्वेषिन) अन्वेष्टु शीलमस्येति अन्वेषी। मार्गणा शीले, आचा०श्रु०२ अ०६ उ०। अणोणंतरिअंगुलिअ-त्रि०(अन्योन्यान्तरितागुलिक) अन्योन्यं परस्परमन्तरिता अगुलयो ययोस्तावन्योऽन्यान्तरितागुलयः / दर्श० / अव्यवहितकरशाखाकेषु, पञ्चा०३ विव०। अण्णोण्णकार-पुं०(अन्योन्यकार) परस्परं वैयावृत्त्यकरणे, बृ०३ उ०। अण्णोणगमण-त्रि०(अन्योन्यगमन) परस्पराभिगमनीये, प्रश्न०२ संवन्द्वा०। अण्णोण्णजणिय-त्रि०(अन्योन्यजनित) परस्परकृते, "अण्णोण्णजणियं च होज्ज हासं, अण्णोण्णगमणं च होज कम्म" / प्रश्न०२ संव० द्वारा अण्णोण्णपक्खपडिवक्खभाव-पुं०(अन्योन्यपक्षप्रतिपक्षभाव) अन्योन्यं परस्परं यः पक्षप्रतिपक्षभावः पक्षप्रतिपक्षत्वमन्योन्यपक्षप्रतिपक्षभावः / परस्परं पक्षविरोधे, तथाहि- य एव मीमांसकानां नित्यः शब्दः इति पक्षः, स एव सौगतानां प्रतिपक्षः, तन्मते शब्दस्यानित्यत्वात् / य एव सौगतानामनित्यः शब्द इति पक्षः स एव मीमांसकानां प्रतिपक्षः / एवं सर्वयोगेषु योज्यम्। स्या०। अण्णोण्णपग्गहियत्त-न०(अन्योन्यप्रगृहीतत्व) परस्परेण पदानां वाक्यानां वा सापेक्षतायाम्, स०३५ सम०। सप्तदशे सत्यवचनातिशये, रा०। अण्णो ण्णमूढदुट्ठातिकरण-न०(अन्योन्यमूढदुष्टातिकरण) अन्योन्यस्य मूढस्य दुष्टस्य च यदतिकरणं तथाविधक्रियासु पौनः पुन्यप्रवृत्तिस्तत्तथा, ततोऽन्योन्यमूढदुष्टातिकरणम्।परस्परं मूढदुष्टयोः क्रियासु प्रवर्त्तने, तत्राऽन्योऽन्यस्यातिकरणं परस्परेण पुरुषयोर्वेदविकारकरणं मूढातिकरणं पञ्चमनिद्रावशविवर्तनम् / दुष्टातिकरणं तु द्विविधम्-कषायतो विषयतश्च / तत्र स्वपक्षे कषायतो लिङ्गिघातः / विषयतस्तु लिङ्गिनि प्रतिसेवा / परपक्षे तु कषायतो राजवधः, विषयतस्तु राजदारसेवेति / अथवा "अन्योऽन्यमूढदुष्टादिकरणतः" इति व्याख्येयम् / तत्र चादिशब्दातीर्थकराद्याशातनाकरणपरिग्रहः / अस्माद् विषयपाराञ्चिकं भवति / पञ्चा०१६ विव० अण्णोण्णसमणु बद्ध-त्रि०(अन्योन्यसमनुबद्ध) परस्परानुगते, ''अण्णोण्णसमणुबद्धं, णिच्छयतो भणियविसयं तु / पञ्चा० 6 विव०। अण्णोण्णसमणुरत्त-त्रि०(अन्योन्यसमनुरक्त) परस्परं सख्यौ, बृ०६ उ०। अण्णोण्णसमाधि-पुं०(अन्योन्यसमाधि) परस्परं समाधौ, "अण्णोण्णसमाहीए एवं वणं विहरंति" यो यस्य गच्छान्तर्गतादेः समाधिरभिहितस्तद्यथा सप्तापि गच्छवासिना, गच्छनिर्गताना द्रयो रग्रहः, पञ्चसु अभिग्रहः, इत्यनेन विहरन्ति / आचा०२ श्रु०१ अ०११ उ० अण्णोवएस-पुं०(अन्योपदेश) आहरणतद्देशाख्योदाहरणभेदे, अन्नोवएसओ ना-हियवाई जेसिँ नत्थि जीवो उ। दाणाइफलं तेसिं,न विजई चउह तद्दोसं // 76| अन्योपदेशतः अन्योपदेशेन नास्तिकवादी लोकायतो वक्तव्यः इति शेषः / अहो ! धिक्ष्ट, कयेषां वादिनां नास्तिजीव एव न विद्यते आत्मैव, दानादिफलं या तेषां न विद्यते, दानहोमयागतपःसमा-ध्यादिफलं स्वर्गापवर्गादि तेषांवादिनांन विद्यते, नास्तीत्यर्थः। कदाचिदेतत् श्रुत्वैवं ब्रूयुर्मा भवतु, का नो हानिः ? न ह्यभ्युपगमा एव बाधायै भवन्तीति / ततश्च सत्त्ववैचित्र्यान्यथाऽनुपपत्तितस्ते संप्रतिपत्तिमानेतव्याः, इत्यलं विस्तरेण / गमनिकामात्रमेतदु-दाहरणदेशना चरणकरणानुयोगानुसारेण भावनीयेति / गतं निश्राद्वारम्। दश०१ अ०॥ अण्णोसरिअ-(देशी) अतिक्रान्ते, दे०ना०१ वर्ग। अण्ह-धा०(भुज) पालनाऽभ्यवहारयोः / रुधादि० पालने / प० स० अनिट् / अभ्यवहारे भोजने, आत्म० स० अनिट् / प्राकृते-"भुजो भुञ्ज-जिम-जेम-कम्माऽण्ह-समाण-चमढ-चड्डाः" |8|4110 / इति भुजेरण्हाऽऽदेशः। अण्हइ-भुङ्क्ते। प्रा०! अण्हयंती-स्त्री०(भुजाना) भोजनं कुर्वत्याम्, तं०। औ०। अण्हय-पुं०(आश्रव) आशृणोत्यादत्ते कर्म यैस्ते आश्रवाः / पा०। अभिविधिना श्रौति श्रवति कर्म येभ्यस्ते आश्रवाः / कर्मोपादान-भूतेषु प्राणातिपातादिषु पञ्चसु, प्रश्न०१ आश्र० द्वा०। (आश्रव-वक्तव्यता प्रश्नव्याकरणेषु आदावेव कृता, सा च प्राणातिपातादिषु शब्देष्वेव दृश्या) "जंबू ! इणमो अण्हय-संवरविणिच्छियं पवयणस्स / णिस्संदं वोच्छामी, णिच्छयत्थं सुभासियत्थं महे सीहिं'' ||1|| प्रश्न० 2 आश्र०द्वा० स्था०। उत्त० "पंचविहो पन्नत्तो, जिणेहि इह अण्हयो अणादीवो / हिंसा 1 मोस२ मदिन्नं 3, अबंभ 4 परिगह चेव 5 // 1 // प्रश्न०१ आश्र०द्वा०। अण्हयकर-पुं०(आश्रवकर) आश्रवः कर्मोपादानं, तत्करणशील आश्रवकरः। प्राणातिपाताद्याश्रवजनकेऽप्रशस्तमनोविनयभेदे, स्था०७ ठा०। अशुभकर्माश्रवकारिणि, ग०१ अधि० औ०। आचा०। अण्हयभावणा-स्त्री०(आश्रवभावना) सप्तम्यां भावनायाम्, अथाश्रवभावना"मनोवचोवपुर्योगाः, कर्म येनाशुभं शुभम्। भविनामाश्रवन्त्येते, प्रोक्तास्तेनाश्रवा जिनैः / / 1 / / मैत्र्या सर्वेषु सत्त्वेषु, प्रमोदेन गुणाधिके। मध्यस्थेष्वविनीतेषु, कृपया दुःखितेषु च।।२।। तंतथा वासितं स्वान्तं, कस्यचित्पुण्यशालिनः। विदधाति शुभं कर्म, द्विचत्वारिंशदात्मकम् // 3 // रौद्रार्तध्यानमिथ्यात्व-कषायविषयैर्मनः। आक्रान्तमशुभं कर्म, विदधाति द्वयशीतिधा / / 4 / / सर्वज्ञगुरुसिद्वान्त-संघसद्गुणवर्णनम्। कृतं हितं च वचनं, कर्म संचिनुते शुभम्।।!। श्रीसङ्घगुरुसर्वज्ञ-धर्मधार्मिकदूषकम्। उन्मार्गदेशवचनमशुभं कर्म चेष्यति॥६॥ देवार्चनगुरूपास्ति-साधुविश्रामणादिकम्। वितन्वतां सुगुप्ता च, तनुर्वितनुते शुभम् // 7 // Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्डयभावणा 497 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अतिंतिण मांसाशनसुरापान-जन्तुघातनचौरिकाः। पारदार्यादि कुर्वाणमशुभं कुरुते वपुः / / 8 / / एतामाश्रवभावनामविरतं यो भावयेद्रावतस्तस्यानर्थपरम्परैकजनकाद् दुष्टाऽऽश्रवौघात्मनः। व्यावृत्त्याऽखिलदुःखदावजलदे निःशेषशावलीनिर्माणप्रवणे शुभाश्रवगणे नित्यं रतिः पुष्यति॥१४॥ प्रव०६७ द्वा०। अण्हाणग-न०(अस्नानक) शरीरमज्जनाकरणे, भ०१श०१ उ०ा औ०। स्था० अत-पुं०(अत्) अत्ति भक्षतेजगदिति सृष्टिसंहारकृत्त्वात्। अक्षपादसम्मते शिवे, उक्तं च- "अक्षपादमते देवः, सृष्टि-संहाकृच्छिवः / विभुर्नित्यैकसर्वज्ञो, नित्यबुद्धिसमाश्रयः" ||1|| "धियो यो नः प्रचोदयाऽत्" अतति सातत्येन गच्छति 'गत्यर्था ज्ञानार्थाः' इति वचनात् अवगच्छतीति अत् सर्वज्ञः, धियो यो नः प्रचोदयाऽत्-इत्यत्र बौद्धस्तथा व्याख्यानात्। जै०गा०। (परमेतादृक् शब्दः प्राकृते न प्रयोक्तव्यः) अतंत-त्रि०(अतन्त्र) न तन्त्रं कारणं, तदधीना विवक्षा वा यस्य / कारणानधीने अनायत्ते, अने० वृत्ति विव०। अतक्कणिज्ज-त्रि०(अतर्कणीय) अनभिलषणीये, बृ०१ उ०। अतक्कि ओवट्ठिय-न०(अतर्कि तोपस्थित) अनभिसन्धिपुर्विकायामर्थप्राप्तौ यदृच्छायाम, यथा-काकतालीयम्, अजा-कृपाणीयम्, | आतुरभेषजीयम्, अन्धकण्टकीयमित्यादि। आचा०१श्रु०१अ०१ उ०। "अतर्कितोपस्थितमेव सर्वं, चित्रंजनानां सुखदुःखजातकम्। काकस्य तालेन यथाऽभिघातो, न बुद्धिपूर्वोऽत्र वृथाऽभिमानः // 1 // " भ०१ श०१० उ०॥ अतकिओवहि-पुं०(अतर्कितोपधि) अतर्कणीये उपधौ, यमुपछि न कोऽपितर्कयति विशेषतः परिभावयति। व्य०८ उ०। अतज्जाय-त्रि०(अतज्जात) अतुल्यजातीये, आव०४ अ० अतज्जाया-स्त्री०(अतज्जाता) अतुल्यजातीये क्रियमाणायां परिष्ठापनि- | कायाम्, आव 4 अ01 अतड-पुं०(अतट) अदीर्घ तटे, "अतड़ववातो सो चेव मग्गो"।। बृ०१ उ० अतणु-त्रि०(अतनु) न विद्यते तनुः शरीरं येषां तेऽतनवः / सिद्धेषु, प्रव०२१४ द्वा०। अतत्तवेइत्त-न०(अतत्त्ववेदित्व) साक्षादेव वस्तुतत्त्वमज्ञातुं शीलमस्य पुरुषविशेषस्य। अग्दिर्शिनि, ध०१ अधि०। अतत्तवे इवाय-पुं०(अतत्त्ववे दिवाद) अतत्त्ववे दिनः साक्षादेव वस्तुतत्त्वमज्ञातुं शीलमस्य पुरुषविशेषस्याग्दिर्शिन इत्यर्थः / वादो वस्तुप्रणयनमतत्त्ववेदिवादः / साक्षादवीक्षमाणेन हि प्रमात्रा प्रोक्ते यस्तुप्रणयनेनातत्त्ववेदिवादः सम्यग्वाद इति।ध०१ अधि०। अतत्तिय-त्रि०(अतात्त्विक) अवास्तवे तात्त्विकाभाये, द्वा०१६ द्वा०। अतत्तुचुक्क-पुं० अणहिल्लपाटनदुर्गभञ्जके हरिवल्लीग्राम-चैत्यत्रोटके चौलुक्यवंशीयभीमदेवनरेन्द्रसमकालीने तुरुक्कमल्लारे राज्ञि, ती०४१ कल्प। अतर-पुं०(अतर)नतरीतुं शक्यते इत्यतरः। रत्नाकरे, वृ०१ उ०। सागरे, प्रव० 1 द्वा०। अतिमहत्त्वादुदधिवत्तरीतुमचिरात्पारं नेतुं न शक्यत इत्यतराणि / सागरोपमकालेषु, कर्म०५ कर्म० / असमर्थे, नि०चू०१ उ०ा ग्लाने, बृ०१ उ०। अतरंत-त्रि०(अतरत्) असहे, नि०चू०१ उ०। व्य०। ग्लाने, ध० 3 अघि अतव-त्रि०(अतपस्)६ बा तपसा विहीने, "अतवो न होति भोगो" बृ०४ उ०ान०त० तपसामभावे, उत्त०२३ अ० अतसी-स्त्री०(अतसी) (अलसी-तीसी) क्षुमायाम, ग०२ अधिo अतसी वल्कलप्रधानो वनस्पतिः, यत्सूत्रं मालवादिदेशे प्रसिद्धम्। अनु० नि०चूल प्रज्ञा अतह-(अतथ)-न-तत्-कथ च / मिथ्याभूतेऽर्थे, सूत्र०१ श्रु०१ अ०२ उ०) *अतथ्य-न० असदर्थाभिधायित्वे, "अणवज्जमतहं तेसिं, ण ते संवुडचारिणो" / सूत्र०१ श्रु०१ अ०२ उ०। अविद्यमाने, आचा० १श्रु०६ अ०४ उ०। वितथेऽसद्भूते, आचा०१ श्रु०६ अ०२ उ० अतहणाण-न०(अतथाज्ञान) न विद्यते यथा वस्तु तथा ज्ञानं यस्य तत्तथा। मिथ्यादृष्टिजीवद्रव्ये, तस्य वितथज्ञानत्वात् / नास्ति यथैव * ज्ञानमवबोधः प्रतीतिर्यस्मॅिस्तत्तथा / अलातद्रव्ये वा, वक्रताऽवभासमाने एकान्तवाद्यभ्युपगते वा वस्तुनि, तथाहि- एकान्तेन नित्यमनित्यं वा वस्तु तैरभ्युपगतं, प्रतिभाति च तत् परिणामितयेति तदतथाज्ञानमिति / एष दशमो द्रव्यानुयोगः / स्था०१० ठा०ा यथा प्रच्छनीयार्थे प्रष्टव्यस्य ज्ञानं तथैव प्रच्छकस्यापि ज्ञानं यत्र प्रश्ने, सः तथाज्ञानो जानत्प्रश्न इत्यर्थः / एतविपरीतस्त्वतथाज्ञानः / अजानत्प्रश्ने, भ०६श०८ उ०! अतार-त्रि०(अतार) 6 बलातरीतुमशक्ये, नदीप्रवाहादौ यस्य हि तरणं नास्ति। "अत्थाहमतारमपोरिसीयं सीओदगम्मि अप्पाणं मुयंति" | ज्ञा०१४ अ० अतारिम-त्रि०(अतारिम) अनतिलकनीये, सूत्र०१ श्रु०३ अ०२ उ०। अतारि(लि)स-त्रि०(अतादृश) न०स०।अतत्सदृशे, "अतारिसे मुणी ओहंतरे' आचा०१ श्रु०६ अ०१ उ०। उत्त। अतिउट्ट-त्रि०(अतिवृत्त) अतिक्रान्तो वृत्तादतिवृत्तः / वृत्तम-जानति, सूत्र०।"जंसी गुहाएजलणेऽतिउट्टे, अविजाणओडज्झइ, लुत्तपण्णो" ज्वलनेऽग्नावतिवृत्तो वेदनाभिभूतत्वात् स्वकृतदुश्चरितमजानन् लुप्तप्रज्ञो गतप्रज्ञाविवेको दन्दह्यते। सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ०) अतिंतिण-त्रि०(अतिन्तिन) न०त०। अलाभेऽपि ईषद्यत् किञ्चना भाषिणि, दश०१ अ० / सकृत्किञ्चिदुक्ते, भूयो भूयोऽसूययाऽवक्तरि चादश०१अ० अतिक्खतुंड-त्रि०(अतीक्ष्णतुण्ड) अनत्यन्तभेदकमुखे, पञ्चा० 16 विवश Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिक्खतुंड ४९८-अभिधानराजेन्द्रः-भाग 1 अतीरंगम अ01 अतिक्खवेयरणी-स्त्री०पअतीक्ष्ण(नैक्ष)(दृक्ष्य)वैतरणीब परमाधा- | अतित्थगरसिद्ध-पुं०(अतीर्थकरसिद्ध) न तीर्थकराः सन्तः र्मिकविकुर्वितनरकनद्याम् तं०। सिद्धाः / सामान्यकेवलिषु सत्सु गौतमादिवत् सिद्धेषु, प्रज्ञा०१ पद / अतिट्ठपुरव-त्रि०(अदृष्ट पूर्व) पूर्वमदृष्टमदृष्ट पूर्वम्, पैशाच्यां ला पा० श्रा०। स्था० नं। तथारूपनिष्पत्तिः। प्रथममेव दृष्ट, "एरिसं अतिट्ठपुरवं" / प्रा०। अतित्थसिद्ध-पुं०(अतीर्थसिद्ध) तीर्थस्याभावोऽतीर्थम, तीर्थस्याभाअतित्त-त्रि०(अतृप्त) न०त० / असन्तुष्टे, उत्त०० "एवं अदत्ताणि वश्वानुत्पादोऽपान्तराले व्यवच्छेदो वा, तस्मिन्नेव सिद्धास्तेऽतीसमाययंतो, भावे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो" | उत्त०१५ अ०1"अतित्ता र्थसिद्धाः / नं०। तीर्थान्तरसिद्धेषु, श्रा०ा तीर्थान्तरे साधुव्यवच्छेदे जातिस्मरणादिना प्राप्तापवर्गमार्गा मरुदेवीवत् सिद्धाः। स्था०१ ठा०१ कामाणं" / प्रश्न०४ आश्रद्वा० उ० नहि मरुदेव्यादिसिद्धिगमनकाले तीर्थमुत्पन्न-मासीत् / नं०॥ध अतित्तप्प-त्रि०(अतृप्तात्मन्) साभिलाषे, षो०४ विव०॥ तथा तीर्थस्य व्यवच्छेदश्चन्द्रप्रभस्वामिसु-विधिस्वाम्यपान्तराले। तत्र अतित्तलाभ-पुं०(अतृप्तलाभ)६ तला तर्पणं तृप्तं, तृप्तिरिति यावत्। ये जातिस्मरणादिना-ऽपवर्गमवाप्य सिद्धास्ते तीर्थव्यवच्छेदसिद्धाः। तस्य लाभस्तृप्तलाभः,न तथाऽतृप्तलाभः। सन्तोषाऽप्राप्तौ, उत्त०३२ प्रज्ञा०१ पद। स्थान अतित्थावणा-स्त्री०(अतिस्थापना) उल्लङ्घनायाम, पं०सं० अतित्ति-स्त्री०(अतृप्ति) असन्तुष्टौ, उत्त०३४ अ०। सा च द्वितीयं / 5 द्वारा श्रद्धालक्षणम्। अतिदुक्ख-न०(अतिदुःख) अतिदुःसहे, आचा०१ श्रु० अ०२ उ०। संप्रत्यतृप्तिस्वरूपं द्वितीयमभिधित्सुराह अतिदुक्खधम्म-त्रि०(अतिदुःखधर्म) अतीव दुःखमशातावेदनीय धर्मः तित्ति न चेव विंदइ, सद्धाजोगेण नाणचरणेसु। स्वभावो यस्य तत्तथा / अक्षिनिमेषमात्रमपि कालं न यत्र दुःखस्य वेयावचतवाइसु. जहविरियं भावओ जयइ III विश्रामः / तादृशे नरकादिस्थाने, सूत्र०1"सया य कलुणपुणधम्मठाणं, गाढोवणीयं अतिदुक्खधम्म"सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ०। तृप्तिं संतोषं कृतकृत्योऽहमेतावतैवेत्येवं रूपं. (नचेवैवेति) चशब्दस्य पूरणत्वान्नैव विन्दति प्राप्नोति / श्रद्धाया योगेन संबन्धेन अतिधूत्त-त्रि०(अतिधूत) अतीवधूतमष्टप्रकारं कर्मयस्यसोऽति-धूतः। ज्ञानचरणयोर्विषये ज्ञानेपठितं यावता संयमानुष्ठानं निर्वहतीति संचिन्त्य प्रभूतकर्मणि, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। नतद्विषये प्रमाद्यति, किंतर्हि नवनवश्रुतसंपदुपार्जने विशेषतः सोत्साहो | *अतिधर्त-त्रि० बहुलकर्मणि, "अयं पुरिसे अतिधुत्ते अइयारक्खे" भवति। तथा चोक्तम् सूत्र०२ श्रु०२ अ० "जह जह सुयमवगाहइ, अइसयरसपसरसंजुयम उव्वं / अतिपास-पुं०(अतिपार्श्व) ऐरवते वर्षे ऽस्यामवसर्पिण्यां जाते सप्तदशे तह तह पल्हाइ मुणी, नवनवसंवेगसद्धाए" ||1|| तीर्थकरे, स०८४ समा तथा अतिप्पणया-स्त्री०(अतेपनता) स्वेदलालाश्रुजलक्षरणकारणपरिवर्जने, "अत्थो जस्स जिणुत्तमेहिँ भणिओ जायम्मि मोहक्खए, पागधा बद्धं गोयममाइएहि सुमहाबुद्धीहि जं सुत्तओ। अतिमुच्छिय-त्रि०(अतिमूर्छित) अत्यन्तमूर्छितोऽतिमूर्छितः / संवेगाइगुणाण बुद्धिजणगं तित्थेसनामावहं, विषयदोषदर्शनं प्रत्यभिमूढतामुपगते, प्रश्न०४ आश्रद्वा०। कायव्वं विहिणा सया नवनवं नाणस्स संपज्जणं' ||1|| अतिल्लिय-न०(अतैल) सर्वथा तैलांशरहिते, तं०। तथा चारित्रविषये विशुद्धविशुद्धतरसंयमस्थानावाप्तये सद्भावनासारं अतिवचंत-त्रि०(अतिव्रजत्) अतिशयेन व्रजति गच्छतीति, अति-व्रजसर्वमनुष्ठानमुपयुक्तमेवानुतिष्ठति, यस्मादप्रमादकृताः सर्वेऽपि शतृ / बाहुल्येन गच्छति, जी०३ प्रति०।। साधुव्यापारा उत्तरोत्तरसंयमकण्डकारोहणेन केवल ज्ञानलाभाय | अतिविज्ज-पं०(अतिविद्य) जातिवद्धसखदःखदर्शनादतीव विद्या भवन्ति / तथा चागमः - तत्त्वपरिच्छेत्रीयस्याऽसावतिविद्यः / जातनिर्वेदेतत्त्वज्ञे, "तम्हाऽतिविजें "जोगे जोगे जिणसासणम्मि दुक्खक्खया पउंजते। परमंतिणचा, आयंकदंसी ण करेइ पावं' आचा०१ श्रु०१ अ०२ उ०। इक्कक्कम्मि अणंता, वट्टतो केवली जाया" ||1|| *अतिविद्वस्-पुं० विशिष्टप्रज्ञे, आचा०१ श्रु०३ अ०२ उ०। तथा वैयावृत्त्यतपसी प्रतीते, आदिशब्दात्प्रत्युपेक्षणा प्रमार्जनादि- | अतीरंगम-त्रि०(अतीरङ्गम) तीरं गच्छन्तीतितीरङ्गमाः (खच्प्रत्ययः)1 परिग्रहः / तेषु यथा वीर्यं सामर्थ्यानुरूप भावतः सद्भावसारं यतते न तीरङ्गमा अतीरङ्गमाः। तीरं गन्तुमसमर्थेषु, आचा०) प्रयत्नवान् भवति। ध००। अतीरंगमा एए, णा य तीरंगमित्तए। अतित्तिलाभ-पुं०(अतृप्तिलाभ)६ता तृप्तिप्राप्त्यभावे, “संभोगकाले अपारंगमा एए, णाय पारंगमित्तए|१|| य अतित्तिलाभे"। उत्त०३४ अ०। (अतीरंगमा इत्यादि) तीरं गच्छन्तीति तीरंगमाः, पूर्ववत् खच् अतित्थ-अव्य०(अतीर्थ) तीर्थस्याऽभावोऽतीर्थम्। तीर्थस्या-नुत्पादे, प्रत्ययादिकम्।न तीरङ्ग मा अतीरङ्गमाः (एते इति) तान् प्रत्यक्ष(अपान्तराले) व्यवच्छेदे च। प्रज्ञा०१ पद। भावमापन्नान कुतीर्थिकादीन् दर्शयति / न च ते तीरङ्ग मनायोद्यता Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतीरंगम 499 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 आप्त अपि तीरं गन्तुमलम्, सर्वज्ञोपदिष्टसन्मार्गाभावादिति भावः / तथा (अपारंगमा इत्यादि) पारस्तटः, परकूलं, तद्गच्छन्तीति पारंगमाः, न पारङ्गमा अपारङ्ग माः / (एत इति) पूर्वोक्ताः , पारगतोपदेशाभावादपारंगता इति भावनीयम् / न च ते पारगतोपदेशमृते पारङ्गमनायोद्यता अपि पारं गन्तुमलम्। अथवा गमनं गमः, पारस्य पारे वा गमः पारगमः / सूत्रे त्वनुस्वारोऽलाक्षणिकः / न पारगमोऽपारगमस्तस्मा अपारगमनाय / असमर्थसमासोऽयम् / तेनयमर्थः - पारगमनाय तेन भवन्तीत्युक्तं भवति। ततश्चानन्तमपि संसारं संसारान्तर्वर्तिन एवासते, यद्यपि पारगमनायोद्यमयन्ति तथापि ते सर्वज्ञोपदेशविकलाः स्वरुचिविरचितशास्त्रवृत्तयो नैव संसारपारं गन्तुमलम्।आचा०१ श्रु०२ अ०३ उ०। अतुच्छभाव-त्रि०(अतुच्छभाव) अकार्पण्ये, पं०व०४ द्वा०।उदराशये, पञ्चा०६ विव० अतुरिय-त्रि०(अत्वरित) स्तिमिते, ध०३ अधिo उत्त०। विपा०। "अतुरियमचवलमसंभताए अविलंबियाए रायहंससरिसीए गईए'। अत्वरितया मानसौत्युक्यरहितया / कल्प०। देहमनश्वापल्यरहितं यथाभवत्येवम्। भ०११ श०११ उ०। रा०ा अतुरियगइ-त्रि०(अत्वरितगति) मायया लोकावर्जनाय मन्द-गामिनि, बृ१ उ० अतुरियभासि(ण)-त्रि०(अत्वरितभाषिन) विवेकभाषिणि, आचा०१ श्रु०२ अ०६ उ०। अतुल-त्रि०(अतुल) तुलामतिक्रान्ते, संथा० / असाधारणे, स०३० सम०ा निरुपमे, प्रश्न०१ आश्र० द्वा० अत्त-त्रि०(आत्त) आ-दा-क्ता गृहीते, उत्त०१७ उ०। करतल-परिगृहीते, ज्ञा०१ अ० भीमो भीमसेन इति न्यायात् आत्तो गृहीतः सूत्रार्थो यैस्ते आत्ताः। गीतार्थेषु, बृ०१ उ०। स्था० *आत्मन्-पुं०1 स्वस्मिन्, उत्त०३२ अ० | जीवे, आचा०१ श्रु० 6 अ०१ उ०। पञ्चा०। स्वभावे, नं०। *आत्र-त्रिका आ अभिविधिनात्रायते दुःखात्संरक्षति सुखं घोत्पादयतीति आत्रः। दुःख सुखसाधके, "णेरइआणं भंते ! किं अत्ता पोग्गला अणत्ता पोग्गलावा?" भ०१४ श०६ उा स्था०। *आप्त-त्रि० / आप्ते, उत्त०१२ अ० अतीव सुष्टुपरिकर्मिते, सू, प्र० 20 पाहु० / चं०प्र०। स्था०। आप्तिर्हि रागद्वेषमोहानामैकान्तिक आत्यन्तिकश्च क्षयः, सा यस्याऽस्ति स आप्तः / अभ्रादित्त्वान्मत्वर्थी योऽप्रत्ययः / स्या० / यथार्थदर्शनादिगुणयुक्ते पुरुष, नं०। दशा० / रागादिविप्रमुक्ते, सूत्र०१ श्रु०६ अ० जी०। अप्रतारके, अप्रतारकश्च (प्रक्षीणदोषः सर्वज्ञः) अशेषदोषक्षयाद् भवतीति। उक्तंच"आगमोह्याप्तवचनमाप्त दोषक्षयाद विदुः / वीतरागोऽनृतं वाक्यं, न ब्रूयात्विसंभवात् ||1|| दश०१ अ०व्य०।। नाणमादीणि अत्ताणि, जेण अत्तो उसो भवे। रागहोसप्पहीणो वा, जे व इटाव सोधिए / / 5 / / ज्ञानादीनि ज्ञानदर्शनचारित्राणि येनाप्तानि स भवत्याप्तः / / ज्ञानादिभिराप्यते स आप्त इति व्युत्पत्त्यन्तरम् / यो वा राग-द्वेषप्रहीणः स आप्तः / यदि वा(इहा) इष्टाः, शोधौ शोधिविषये आप्ताः / / 5 / / व्य०१० उ०॥ आप्तस्वरूपंप्ररूपयन्तिअभिधेयं वस्तु यथावस्थित यो जानीते, यथाज्ञानं चाभिधत्ते स आप्तः | आप्यते प्राप्यते अर्थोऽस्मादित्याप्तः। यद्वा-आप्तिः रागा-दिदोषक्षयः, सा विद्यते यस्येत्यर्श आदित्वादचि आमः | जानन्नपि हि रागादिमान पुमानन्यथाऽपि पदार्थान् कथयेत्, तद्-व्यवच्छित्तये यथाज्ञानमिति। तदुक्तम्- "आगमो ह्याप्तवचनमाप्तिं दोषक्षयं विदुः / क्षीणदोषोऽनृतं वाक्यं, न ब्रूयाद्धेत्वसंभवात्" ||1|| अभिधानंचध्वनेः परम्परयाऽप्यत्र द्रष्टव्यम्। तेनाक्षरविलेखनद्वारेण,अड्कोपदर्शनमुखेन, करपल्लवादिचेष्टाविशेषवशेन वा शब्द-स्मरणाद्यः परोक्षाऽर्थविषयं विज्ञानं परस्योत्पादयति, सोऽप्याप्त इत्युक्तं भवति / स च स्मर्यमाणः शब्दः आगम इति // 4|| कस्मादमूदृशस्यैवाप्तत्वमित्याहुः - तस्य हि वचनमविसंवादि भवति॥५॥ यो हि यथावस्थिताभिधेयवादी परिज्ञानानुसारेण तदुपदेश-कुशलश्व भवति, तस्यैव यस्माद्वचनं विसंवादशून्यं संजायते / मूढवञ्चकवचने विसंवादसंदर्शनात् / ततो यो यस्यावञ्चकः स तस्याप्त इति ऋष्यार्यम्लेच्छसाधारणं वृद्धानामाप्तलक्षणमनूदितं भवति // 5 // आतभेदौ दर्शयन्तिसच द्वेधा-लौकिको,लोकोत्तरश्च / / 6 / / लोके सामान्यजनरूपे भवो लौकिकः / लोकादुत्तरः प्रधानमोक्षमार्गोपदेशकत्वाल्लोकोत्तरः॥६|| तावेव वदन्तिलौकिको जनकादिर्लोकोत्तरस्तु तीर्थकरादिः // 7 // प्रथमाऽऽदिशब्देन जनन्यादिग्रहः / द्वितीयाऽऽदिशब्देन तु गणधरादिग्रहणम्॥७।। रत्ना०४ परि०। न च वाच्यमाप्तः क्षीणसर्वदोषः, तथाविधं चाप्तत्वं कस्यापि नास्तीति। यतो रागादयः कस्यचिदत्यन्तमुच्छिद्यन्ते, अस्मदादिषु तदुच्छेदप्रकर्षापकर्षोपलम्भात्, सूर्याद्यावारकजलदपटलवत् / तथाचाहुः - "देशतोनाशिनोभावाः, दृष्टा निखिलनश्वराः। मेघपत्यादयो यद् वद्, एवं रागादयो मताः" // 1 // इति / यस्य च निरवयवतयैते विलीनाः स एवाप्तो भगवान् सर्वज्ञः अथाना-दित्वाद्रागादीनां कथं प्रक्षय इति चेत् ? न / उपायतस्तद्भावात्, अनादेरपि सुवर्णमलस्य क्षारमृत्पुटपाकादिना विलयोपलम्भात् / तद्वदेवानादीनामपि रागादिदोषाणां प्रतिपक्षभूतरत्नत्रयाभ्यासेन विलयोपपत्तेः, क्षीणदोषस्य च केवलज्ञानाव्यभिचारात् सर्वज्ञत्वम्। तत्सिद्धिस्तुज्ञानतारतम्यं क्वचिद्विश्रान्तं, तारतम्यत्वात्, आकाशपरिमाणतारतम्यवत्। तथासूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः, कस्यचित्प्रत्यक्षाः, अनुमेयत्वात्, क्षितिधरकन्धराधिकरण-धूमध्वजवत् / एवं चन्द्रसूर्योपरागादि सूचकज्योतिर्ज्ञानाविसंवादा-न्यथाऽनुपपत्तिप्रभृतयोऽपि हेतवो। वाच्याः / स्था०। सूत्र०ा साधूनां शोधिविषये इष्ट प्रायश्चित्तदे, व्य०१० उ०। मोक्षे सूत्र०१ श्रु०१० अ०। एकान्तहिते, त्रि० भ०१४ श०६ उ०| माण Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत ५००-अभिधानराजेन्द्रः-भाग 1 अत्तकम्म *आर्त्त-त्रि०ग्लानीभूते, भ०३५ श०१ उ०। दुःखार्ते, स्था०७ ठा०। "कम्मत्ता दुब्भगा चेव, इचाहं सुपुढो जणा'' पूर्वाचरितैः कर्मभिरार्ताः पूर्वस्वकृतकर्मणः फलमनुभवन्ति, यदि वा कर्मभिः कृष्यादिभिरातस्तित्कर्तुमसमर्थाः / सूत्र०१ श्रु०३ अ०१ उ०) अत्तउवण्णास-पुं०(आत्मोपन्यास) आत्मन एव उपन्यासो निवेदनं यस्मिस्तदात्मोपन्यासम्। उदाहरणे, दोषे, उपन्यासभेदे च / दश०। इदानीमात्मोपन्यासद्वारं विवृण्वन्नाहअत्तउवन्नासम्मिय, तलागभेयम्मि पिंगलो थवई। आत्मन एवोपन्यासो निवेदनं यस्मिन् तदात्मोपन्यासम्, तत्र च तडागभेदे पिङ्गलः स्थपतिरुदाहरणमित्यक्षरार्थः / भावार्थ: कथानकगम्यः / स चायम्- "इह एगस्स रन्नो तलागं सव्वरजस्स सारभूअंतं च तलागं वरिसे वरिसे भरियं भिजइ। ताहे राया भणइ-को सो उवाओ होज्जा, जेण तं न भिजेज ? तत्थ एगो कविलओ मणूसो भणति- जदि नवरं महाराय ! अच्छिपिंगलो, कविलियाओ से दाठियाओ, सिरं से कविलियं, सो जीवंतो चेव जम्मि ठाणे भिजति तम्मि ठाणे णिक्खमति, तोणवरण भिजति / पच्छा कुमारामचेण भणियंमहाराय ! एसो चेव एरिसो, जारिसयंभणति, एरिसोनत्थि अन्नो। पच्छा सो तत्थेव मारेत्ता निक्खित्तो / एवं एरिसं णो भाणियव्वं जं अप्पवहाए भवइ" इदं लौकिकम् / अनेन लोकोत्तरमपि सूचितम् / एकग्रहणेन तज्जातीयग्रहणात्तत्रचरणकरणानुयोगेनैवं ब्रूयाद्द्यदुत-"लोइयधम्माओ वि हु जे पन्भट्ठा णराहमा ते उ। कह दव्यसोयरहिया, धम्मस्साराहया होति" // 1 // इत्यादि। द्रव्यानुयोगे पुनरेकेन्द्रिया जीवाः, व्यक्तोच्छ्वास 'निःश्वासादिजीवलिङ्गसद्भावात्, घटवत् इह ये जीवा न भवन्ति, नतेषु व्यक्तोच्छवा-सनिःश्वासादिजीवलिङ्ग सद्भावः, यथा घटे, न च तथैतेष्वसद्भाव इति तस्माजीवा एवैते इत्यत्रात्मनोऽपि तद्रूपापत्त्याऽऽत्मोपन्यासत्वं भावनीयमिति / उदाहरणदोषता चास्याऽऽत्मोपघातजनकत्वेन प्रकटार्था एवेति न भाव्यते / गतमात्मोपन्यासद्वारम् / दश०१ अ॥ अत्तकड-त्रि०(आत्मकृत) आत्मार्थं कृते स्वगृहार्थमेव स्थापिते, बृ०१ शरीरभव्यशरीव्यतिरिक्तम् / द्रव्ये द्रव्यविषये, आत्मकर्म भवति / आत्मसंबन्धित्वेन कर्मकरणमात्मकर्म, इति व्युत्पत्त्या-ऽऽत्मश्रयणात्। भावात्मकर्म च द्विधा / तद्यथा- आगमतः, नोआगमतश्च / तत्रागमत आत्मकर्मशब्दार्थज्ञाता चोपयुक्तः। नोआगमतः पुनराहभावे असुहपरिणओ, परकम्म अत्तणे कुणइ / अशुभपरिणतोऽशुभेन प्रस्तावादाधाकर्मग्रहणरूपेण भावेन परिणतः परस्परपाचकादेः संबन्धे यत्कर्मपचनपाचनादिजनितं ज्ञानावरणीयादि, तदात्मनः संबन्धि करोति। तच परसंबन्धिनः कर्मण आत्मीयत्वेन करणं, भावे भावत आत्मकर्म, नोआगमतो भावात्मकर्मेत्यर्थः / भावेन परिणामविशेषेण परकीयस्यात्मसं-बन्धित्वेन कर्मकरणं भावात्मकर्मेति व्युत्पत्तेः। एतदेव सार्द्धया गाथया भावयतिआहाकम्मपरिणओ, फासुयमवि संकिलिट्ठपरिणामो। आयपरिमाणो बज्झइ, तंजाणसु अत्तकम्मे त्ति / / 1 / / परकम्म अत्तकम्मा, करेइ तं जो गिण्हितुं मुंजे // प्रासुकमचेतनलक्षणमेतदेषणीयं च स्वरूपेण भक्तादिकम् / आस्तामाधाकर्मेत्यपिशब्दार्थः / संक्लिष्टपरिणामः सन्नाधाकर्म ग्रहणपरिणतः सन्नादत्ते गृह्णन् यथाऽहमतिशयेन व्याख्या-नलब्धिमान्, मद्गुणाश्वासाधारणविद्वत्तादिरूपाः, सूर्यस्य भावनमिव कुत्र कुत्र न वा प्रसरमधिरोहन्ति ? ततो मद्गुणावर्जित एष सर्वोऽपि लोकः पक्त्वा पाचयित्वा च मामिष्टमिदमोदनादिकं प्रयच्छतीत्यादि, स इत्थमाददानः साक्षादारम्भकर्तेव ज्ञानावरणीयादि कर्मणा बध्यते / ततस्तज्ज्ञानावरणीयादि कर्मबन्धनमात्मकर्म जानीहि / इयमत्र भावना-आधाकर्म, यद्वा-स्वरूपेण अनाधाकर्मापि भक्तिवशतो मदर्थमेतन्निष्पादितमित्याधाकर्मग्रहणपरिणतो यदा गृह्णाति तदा स साक्षादारम्भकर्तेय स्वपरिणामविशेषतो ज्ञानावरणीयादिकर्मणा बध्यते, यदि पुनर्न गृह्णीयात्तर्हिनबध्यते।तत आधाकर्मग्राहिणा यत्परस्य पाचकादेः कर्म, तदात्मनोऽपि क्रियत इति परकर्म आत्मकर्म करोतीति बध्यते / एतदेव स्पष्ट व्यनक्ति-(परकम्मेत्यादि) तत आधाकर्म यदा साधुर्गृहीत्वा भुङ्क्ते, स परस्परं पाचकादेर्यत्कर्म तदात्मकर्म करोति, आत्मनोऽपि संबन्धि करोतीति भावार्थः। अमुच भावार्थमस्य वाक्यस्याजानानः परो जातसंशयः प्रश्नयति तत्थ भवे परकिरिया, कहं तु अन्नत्थ संकमइ। तत्र परकर्म आत्मकर्म करोतीत्यत्र वाक्ये भवेत् परस्य वक्तव्यम्। यथा-कथं परक्रिया परस्य सत्कं ज्ञानावरणीयादि कर्म, अन्यत्र आधाकर्मभोजके साधौ संक्रामतीति भावः / न खलु जातुचिदपि परकृतं कर्म अन्यत्र संक्रामति / यदि पुनरन्यत्रापि संक्रमेत्तर्हि क्षपक श्रेणिमधिरूढः कृपापरीतचेताः सकलजगज्जन्तुकर्मनिर्मूलनापादनसमर्थः सर्वेषामपि जन्तूनां कर्म ज्ञानात्मनि संक्रमय्य क्षपयेत् / तथा च सति सर्वेषामेककालं मुक्तिरूपंजायेत ? नजायते, तस्मान्नैव परकृतकर्मणामन्यत्र संक्रमः / उक्त च-क्षपकश्रेणिपरिणतः समर्थः सर्वकर्मिणां कर्म / क्षपयिता भवेत् कृपापरीतात्मको यदि कर्मसंक्रमः स्यात्परकृ तस्य / परकृतकर्मणि उ०) अत्तकम्म-न०(आत्मकर्मन्) 6 तक। स्वदुश्चरिते, "निचुब्विग्गो जहा तेणो, अत्तकम्मेहिं दुम्मई" / दश०५ अ०२ उ०। आत्मा अष्टप्रकारकर्मणाऽऽयतकरणकारणामोदनादिभिर्लिप्यते तदा-त्मकर्म / दर्श०। यत्पाचकादि सम्बन्धि कर्म पाकादिलक्षणं, ज्ञानावरणीयादिलक्षणं वा, तदात्मनः सम्बन्धि क्रियतेऽनेने-त्यात्मकर्म / बृ०४ उ०। आधाकर्मशब्दार्थे, पिं० / निक्षेपोऽस्य-तदेवमुक्तमात्मनं नाम / सम्प्रत्यात्मकर्मनाम्नोऽवसरः / तदपि चात्मकर्म चतुर्दा / तद्यथानामात्मकर्म, स्थापनाऽऽत्मकर्म, द्रव्यात्मकर्म, भावात्मकर्म वा / इदं चाधाकर्मैव तावद्भावनीयम्, यावन्नोआगमतो भव्यशरीरं द्रव्यात्मकर्म। ज्ञशरीरभव्यशरीव्यतिरिक्तं तु द्रव्यात्मकर्म प्रतिपादयतिदव्वम्मि अत्तकम्म, जं जो उममायए भवे दव्वं / यः पुरुषो यद्रव्यादिकं द्रव्यं ममायते- ममेति प्रतिपद्यते। तन्ममेति प्रतिपादनं, तस्य पुरुषस्य (दव्वम्मि अत्तकम्म ति) ज्ञ Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्तकम्म 501 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अत्तगवेसणया यस्मात् नाऽऽक्रामति संक्रमो विभागोवा, तस्मात् सत्त्वानां कर्म यस्य संपन्नं तेन तद् वेद्यते। तत् कथमुच्यते परकर्म आत्मकर्मीकरो-तीति? इदं च वाक्यं पूर्वाऽन्तर्गतम् / अन्यथाऽपि केचित्परमार्थम-जानाना व्याख्यानयन्ति। ततस्तन्मतमपाकर्तुमुपन्यसन्नाहकूडउवमाएँ केई, परप्पउत्ते वि बिंति बंधो त्ति। के चित् स्वपूज्या एव प्रवचनरहस्यमजानानाः कूटोपमायाः कूटदृष्टान्तेन, बुवतेपरप्रयुक्तेऽपि परेण पाचकादिना निष्पादितेऽप्योदनादौ साधोस्तद्ग्राहकस्य भवति बन्धः / एतदुक्तं भवति- यथा व्याधेन कूटे स्थापिते मृगस्यैव बन्धी, नव्याधस्य, तथा गृहस्थेनपाकादौ कृते तद्ग्राहकस्य साधोर्बन्धः, न पाककर्तुः। ततः परस्य यत्कर्म ज्ञानावरणीयादि संभवति, तदाधाकर्मग्राही स्वस्यैव संबन्धि करोतीत्युच्यते / तदेतदसदुक्तम् / जिनवचनविरुद्धत्वात् / तथाहिपरस्यापि साक्षादारम्भकर्तृत्वेन नियमतः कर्मबन्धसंभवस्ततः कथमुच्यते तद्ग्राहकस्य साधोर्बन्धो, न पाककर्तुः ? न च मृगस्याऽपि परप्रयुक्तिमात्रात् बन्धः, किन्तु स्वस्मादेव प्रभादादिदोषात्; एवं साधोरपि। तथा चैतदेव नियुक्तिकृदाहभणइ य गुरू पमत्तो, बज्झइ कूडे अदक्खो य। एमेव भावकूडे, बज्झइ जो असुभभावपरिणामो॥१॥ तम्हा उअसुभभावो, वजेयव्वो....... भणति प्रतिपादयति, चः पुनरर्थे / पुनरर्थश्चाऽयम् - एके केचन सम्यग् गुरुचरणपर्युपासनाविकलतया यथाऽवस्थितं तत्त्वमवेदितारोऽनन्तरोक्तं ब्रुवते- गुरुः पुनर्भगवान् श्रीयशोभद्रसूरिरेवमाह / एतेनैतदावेदयति- जिनवचनमवितथं, जिज्ञासुना नियमतः प्रज्ञावताऽपि सम्यग्गुरुचरणकमलपर्युपासनमास्थेयम्, अन्यथा प्रज्ञाया अवैतथ्यानुपपत्तेः। तदुक्तं च- तत्तदुत्प्रेक्ष्यमाणानां, पुराणैरागमैर्विना / अनुपासितवृद्धानां, प्रज्ञा नाऽति प्रसीदति / / 1 / / गुरुवचनमेव दर्शयति- मृगोऽपिखलु कूटैः स बध्यते, यः प्रभत्तोऽदक्षश्च भवति। यस्त्वप्रमत्तो दक्षश्च, स कदाचनापिन बध्यते / तथाहि-अप्रमत्तो मृगः प्रथमत एव कूटदेशंपरिहरति।अथकथमपि प्रमादवशात् कूटदेशमपि प्राप्तो भवति, तथाऽपि यावद् नाऽद्याऽपि बन्धः पतति, तावद् दक्षतया झगिति तद्विषयादपसर्पति / यस्तु प्रमत्तो दक्षतारहितश्च, स बध्यत एव। तस्मात् मृगोऽपि बध्यते / परमार्थतः स्वप्रमाद-क्रियावशतो, न परप्रयुक्तिमात्रात्। (एवमेव) अनेनैव मृग-दृष्टान्तोक्तप्रकारेण (भावकूटे) संयमरूपभावबन्धनाय कूटमिव कूटमाधाकर्म, तत्र स बध्यते, ज्ञानावरणीयादिकर्मणा युज्यते, योऽशुभभावपरिणाम आहारमापद्यते, आधाकर्मग्रहणात्मका-ऽशुभभावपरिणामो, नशेषः।नखल्वाधाकर्मणि कृतेऽपि यो न तद् गृह्णाति, नाऽपि भुङ्क्ते, स ज्ञानावरणीयाऽऽदिना पापेन बध्यते / न हि कूटे स्थापिते यो मृगस्तदेश एव नाऽऽयाति, आयातोऽपि यत्नतस्तद्देशं परिहरति, स कूटे बन्धमाप्नोति / तत्र परयुक्तिमात्राद् बन्धो, येन परोक्तनीत्या परकृतकर्मण आत्मकर्मीकरणमुपपद्यते, किन्त्वशुभाऽध्यव-सायभावतः / तस्मादशुभो भाव आधाकर्मग्रहणरूपः साधुना प्रयत्नेन वर्जयितव्यः परकर्म करोतीत्यत्र वाक्ये भावार्थः प्रागेव दर्शितः 1 यथा- परस्य पाचकादेर्यत्कर्म तदात्मकर्मीकरोति, किमुक्तं भवति? तदात्मन्यपि कर्म करोतीति, ततो ! न कश्चिद्घोषः। परकर्मणश्चाऽऽत्मकर्मीकरणमाधाकर्मणो ग्रहणे भोजने वा सति भवति यथा, तत उपचारादाधाकर्म आत्मकर्मत्युच्यते / ननु तदाधाकर्म, यदा स्वयं करोति, अन्येन वा कारयति, कृतं वाऽनुमोदते, तदा भवेदोषः। यदा तु स्वयंन करोति, नाऽपि कारयति, नाऽप्यनुमोदते, तदा कस्तस्य ग्रहणे दोष इति ? अत्राऽऽहकामं सयं न कुव्वइ, जाणतो पुण तहा वि तम्गाही। वड्लेइ तप्पसंग, अगिण्हमाणो उ वारेइ / / 1 / / काम सम्मतमेतत्, यद्यपि स्वयं न करोत्याधाकर्म; उप-लक्षणमेतत, न कारयति, तथाऽपि मदर्थमेतन्निष्पादितमिति जानानो यदि आधाकर्म गृह्णाति, तर्हि तद्ग्राही तत्प्रसंगम्आधाकर्मग्रहणप्रसङ्गं वर्द्धयति / तथाहि- यदा स साधुराधाकर्म जानानो गृह्णाति, तदाऽन्येषां साधूनां दायकानां च एवं बुद्धिरुप-जायते- नाऽऽधाकर्म भोजने कश्चनाऽपि दोषः; कथमन्यथा स साधु नानोऽपि गृहीतवान् ? इति / तत एवं तेषां बुद्ध्युत्पादे संतत्या साधूनामाधाकर्मभोजने दीर्घकालंषड्जीवनिकायविघातः, स परमार्थतस्तेन प्रवर्त्यते / यस्तु न गृह्णाति, स तथाभूतप्रसङ्ग वृद्धिं निवारयति; प्रवृत्तेरेवाभावात् / तथा चाह(अगिण्हमाणो उ वारेइ) ततोऽतिप्रसङ्ग दोषभयात् कृतकारितदोषरहितमपि नाऽऽधाकर्म भुञ्जीत / अन्यच्च तदाधाकर्म जानानोऽपि भुञ्जानो नियमतोऽनुमोदते / अनुमोदना हि नाम- अप्रतिषेधनम् / अप्रतिषिद्धमनुमोदनमिति विद्वत्प्रवादात् / तत आधाकर्मभोजने नियमतोऽनुमोदनदोषोऽनिवारितप्रसरः / अपि च- एवमाधाकर्मभोजने कदाचित् मनोज्ञाऽऽहारभोजनभिन्न-दृष्टतया स्वयमपि पचेत् पाचयेगा। तस्मात् न सर्वथा आधाकर्म भोक्तव्यमिति स्थितम् / तदेवमुक्तमात्मकर्मेति नाम / पिं०। निचू०। अत्तग-त्रि०(आत्मग) आत्मनिगच्छतीति आत्मगः / आन्तरे, "चिचाण अत्तगं सोय" सूत्र०१ श्रु०६ अ०l अत्तगवेसण-न०(आर्तगवेषण) द्रव्याद्यापत्सु, आर्तस्य, उपलक्षणमेतत्। अनार्तस्य वा, गवेषणं दुर्लभद्रव्यसंपादनाऽऽदिरूपमार्तगवेषणम् / औपचारिकविनयभेदे, व्य०१ उ०। अत्तगवेसणया-स्त्री०(आर्तगवेषणता) आर्तं ग्लानीभूतं गवेषयति भैषज्यादिना योऽसावार्तगवेषणः / तद्भाव आर्तगवेषणता / भ० 25 श०५ उ०ा आर्तस्य दुःखाऽऽर्तस्य गवेषणमौषधाऽऽदेरित्यार्त्तगवेषणम्; तदेवाऽऽर्तगवेषणतेति। पीडितस्योपकार इत्यर्थः। स्था०७ ठा०। *आत्म(स)गवेषणता-स्त्री० आत्मना, आप्तेन वा भूत्वा गवेषणं सुस्थदुःस्थतयोरन्वेषणं कार्यमिति / लोकोपचारविनयभेदे, स्था०७ ठा०ा औ०! साम्प्रतमार्तगवेषणरूपविनयप्रतिपादनार्थमाहदव्वावइमाईसुं, अत्तमणत्ते गवेसणं कुणइ / द्रव्यापदिदुर्लभद्रव्यसंपत्तौ च। तथा च भवति केषुचिद्देशेष्ववन्त्यादिषु दुर्लभं घृतादिद्रव्यमिति / आदिशब्दात् क्षेत्रा-ऽऽपदादिपरिग्रहः / तत्र क्षेत्राऽऽपदि कान्तारादिपत्तने, कालाऽऽपदि दुर्भिक्षे, भावाऽऽपदि गाढग्लानत्वे। आर्त्तस्य पीडितस्य अत्यन्तमसहिष्णुतया, अनार्तस्य या यथाशक्ति, यद् गवेषणं करोति, दुर्लभद्रव्यादि संपादयति, स आर्तगवेषणविनयः / व्य०१ उ०। Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्तगवेसय 502 - अभियानराजेन्द्रः - भाग 1 अत्तट्ट अत्तगवेसय-पुं०(आत्मगवेषक) आत्मानं चारित्राऽऽत्मानं गवेषयतीति आत्मगवेषकः / कथमयं मम स्यादिति संयमजीवमार्गयितरि, तिगिच्छं नाभिनंदेजा, संचिक्खेऽत्तगवेसए। एवं खुतस्स सामण्णं, जंन कुज्जान कारवे / / 1 / / उत्त०२ उ०। नो ताहिं विहन्नेजा, चरेजऽत्तगवेसए। आत्मानं गवेषयेत्, कथं मयाऽऽत्मा भवानिस्तारणीयः, इत्यन्वेषयते। "आत्मगवेषकसिद्धिः स्वरूपाऽऽपत्तिः" इति वचनात् / सिद्धिर्वाऽऽत्मा। ततः कथं ममाऽसौ स्यादित्यन्वेषक आत्मगवेषकः / यद्वा आत्मानमेव गवेषयत इत्यात्मगवेषकः। किमुक्तं भवति?चित्राऽलङ्कारशालिनीरपि स्त्रियोऽवलोक्य तदृष्टिन्यास-स्य दुष्टताऽवगमात् झटिति ताभ्यो दृगुपसंहारत आत्माऽन्वेष्टेव भवति / उत्त०३ अ०॥ अत्तगामि(ण)-पुं० [आप्त (त्म) गामिन्] आप्तं (मोक्ष) गच्छति तच्छीलः / मोक्षगमनशीले आत्महितगामिनि, सर्वज्ञोप-दिष्टमार्गगामिनि वा मुनौ, "मुस न बूया मुणि अत्तगामी' / सूत्र० 1 श्रु०१० अ०) अत्तगुण-पुं०(आत्मगुण) बुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नधर्माऽधर्मसंस्कारेषु जीवगुणेषु, सूत्र०१ श्रु०१२ अ०। अत्तचिंतअ-पुं०(आत्मचिन्तक) आत्मानमेव चिन्तयतीति। परकार्यमनपेक्ष्यैवाऽऽत्मानं चिन्तयति गणधारणाऽयोग्ये, व्य०। अब्भुञ्जयमेगयरं, पडिवजिस्सं ति अत्तचिंतो उ। जो वि गणे वि वसंतो, न वहति तत्ती तु अग्नेसिं ||1|| य आत्मानमेव केवलं चिन्तयन्मन्यते- यथाऽहमभ्युद्यतं जिन-कल्पं यथालन्दकल्पानमेकतरं प्रतिपत्स्ये इति आत्मचिन्तकः। योऽपि गणेऽपि गच्छेऽपि, वसन् तिष्ठन, न वहति,न करोति, तप्तिमन्येषां साधूनां सोऽप्यात्मचिन्तकः। एतौ द्वाक्प्यात्मचिन्त-कावनहीं / व्य०३ उ०। अत्तछट्ठ-पुं०(आत्मषष्ठ) आत्मा षष्ठ इति। पञ्चानां भूतानामात्मा षष्ठः प्रतिपाद्यत इत्ययं पञ्चमं सूत्रकृताङ्गस्य प्रथमोद्देशकस्य अर्थाऽधिकारे, सूत्र०। सांप्रतमात्मषष्ठवादिमतंपूर्वपक्षयितुमाहसंति पंच महन्भूया, इह मेगेसि आहिया। आयछट्टो पुणो आहु, आया लोगे य सासए।।१५। (संतीत्यादि) सन्ति विद्यन्ते, पञ्च महाभूतानि पृथिव्यादीनि, इहाऽस्मिन् संसारे, एकेषां वेदवादिनां सांख्यानां शैवाऽधिकारिणां च, एतदाख्यातम् / आख्यातानि च भूतानि ते च वादिन एवमाहुरेवमाख्यातवन्तः - यथा आत्मषष्ठानि आत्मा षष्ठो येषां तानि आल्मषष्ठानि, भूतानि, विद्यन्त इति / एतानि चाऽऽत्मषष्ठानि भूतानि यथाऽन्येषां वादिनामनित्यानि तथा नाऽमीषामिति दर्शयति- आत्मा, लोकश्व पृथिव्यादिरूपः शाश्वतोऽविनाशी / तत्राऽऽत्मनः सर्वव्यापित्वादमूर्तत्वाचाऽऽकाशस्येव शाश्वतत्वम्, पृथिव्यादीनां च तद्रूपाऽप्रच्युतेरविनश्वरत्वमिति / / 15 / / शाश्वतत्वमेव भूयः प्रतिपादयितुमाहदुहओ ण विणस्संति, नो य उपजए असं। सव्वे विसव्वहा भावा, नियतीभावमागया॥१६॥ (दुहओ ण विणस्संतीत्यादि) ते आत्मषष्ठाः पृथिव्यादयः पदार्थाः (उभयत इति) निर्हेतुकसहेतुकविनाशद्वयेन न विनश्यन्ति / यथा | बौद्धानां स्वत एव निर्हेतुको विनाशः। तथा च ते ऊचुः- जातिरेव हि भावानां, विनाशे हेतुरिष्यते / यो जातश्च न च ध्वस्तो, नश्येत्पश्चात्स केन च? / / 1 / / तथा च वैशेषिकाणां लकुटादिकारणसान्निध्ये विनाशः सहेतुकः / तेनोभयरूपेणापि विनाशेन लोकात्मनोर्न विनाश इति तात्पर्यार्थः / यदि वा (दुहउ त्ति) द्विरूपादात्मनः स्वभावाचेतनाचेतनरूपान्न विनश्यतीति। तथाहिपृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशानि रूपाऽपरित्यागतया नित्यानि, न कदाचिदनीदृशं जगदिति कृत्वा आत्माऽपि नित्य एव, कृतकत्वादिभ्यो हेतुभ्यः / तथा चोक्तम्- नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः / न चैन क्लेदयन्त्यापो, न शोषयति मारुतः // 1 / / अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते। नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः / / 2 / / एवं च कृत्वा नाऽसदुत्पद्यते, सर्वस्य सर्वत्र सद्भावात् / असति च कारकव्यापाराऽभावात् सत्कार्यवादः | यदि वा असदुत्पद्येत, खरविषाणादेरप्युत्पत्तिः स्यादिति / तथा चोक्तम्असदकरणादुपादानग्रहणात् सर्वसंभवाऽभावात् / शक्तस्य शक्यकरणात, कारणभावाच सत्कार्यम् / / 6 / / एवं च कृत्वा मृत्पिण्डेऽपि घटोऽस्ति, तदर्थिनां मृत्पिण्डोपादानात् / यदि वा असदुत्पद्येत, ततो यतः कुतश्चिदेव स्यानाऽवश्यमेतदर्थिनां मृत्पिण्डोपादानमेव क्रियते, इत्यतः सदेव कारणे कार्यमुत्पद्यत इति। एवं च कृत्वा सर्वेऽपि भावाः पृथिव्यादय आत्मषष्ठा नियतिभावं नित्यत्वमागताः, नाऽभावरूपताम्। अभूत्या च भावरूपतां प्रतिपद्यन्ते। आविर्भावतिरोभावमात्रत्वा-दुत्पत्तिविनाशयोरिति। तथा चाऽभिहितम्- नाऽसतो जायते भावो, नाऽभावो जायते सतः। इत्यादि। अस्योत्तरं नियुक्तिकृदाह- "को वेए" इत्यादि प्राक्तन्येव गाथा / सर्वपदार्थनित्यत्वाऽभ्युपगर्म कर्तृत्वपरिणामो न स्यात्, ततश्चाऽऽत्मनोऽकर्तृत्वे कर्मबन्धाऽभावः / तदभावाच को वेदयति, न कश्चित् सुखदुःखादिकमनुभवतीत्यर्थः / एवं च सति कृतनाशः स्यात् / तथा असतश्चोत्पादाभावे येयं मया आत्मनः पूर्वभावपरित्यागेनाऽपरभावोत्पत्तिलक्षणा पञ्चधा गतिरुच्यते, सा न स्यात्। ततश्च मोक्षगतेरभावाद्दीक्षादिक्रियाऽनुष्ठानमनर्थक-मापद्यते। तथाऽप्रच्युताऽनुत्पन्नस्थिरैकस्वभावत्वेन त्वात्मनो देवमनुष्यगत्यागती, तथा विस्मृतेरभावाद् जातिस्मरणादिकं वा न प्राप्नोति / यचोक्तम्सदेवोत्पद्यते / तदप्यसत् / यतो यदि सर्वथा सदेव, कथमुत्पादः ? उत्पादश्चेत्, तर्हि सर्वदाऽसदिति / तथा चोक्तम्- 'कर्मगुणव्यपदेशाः, प्रागुत्पत्तेर्न सन्ति यत् तस्मात् / कार्यमसद्विज्ञेयं, क्रियाप्रवृत्तेश्व कर्तृणाम् // 1 // तस्मात् सर्व-पदार्थानां कथंचिन्नित्यत्वं सदसत्कार्यवादश्चेत्यवधार्यम्। तथा चाभिहितम्- सर्वव्यक्तिषु नियतं, क्षणे क्षणेऽन्यत्वमथ च न विशेषः / सत्यश्चित्यपचित्योराकृतिजातिव्यवस्थानात् // 1 // इति / तथा नाऽन्वयः स हि भेदत्वात्, नभेदोऽन्वयवृत्तितः। मृझेदद्वयसंसर्ग-वृत्तिजात्यन्तरं घटः / / 1 / / सूत्र० १श्रु०१ अ०१ उ० अत्तट्ठ-त्रि०(आत्मस्थ) आत्मनि तिष्ठतीति आत्मस्थः / जीवस्थे, "आत्मस्थं त्रैलोक्यप्रकाशकं निष्क्रियं परानन्द्यम् / तीतादिपरिच्छेदकमलं ध्रुवं चेति समयज्ञाः" // 1 // षो०१५ विव०।। *आत्मार्थ-त्रि० आत्मभोगार्थे स्वभोगार्थे, ध०२ अधिक। आत्मनोऽर्थः आत्मार्थः / अर्थ्यमानतया स्वर्गादौ, आत्मैवाऽर्थ आत्माऽर्थः / आत्मव्यतिरिक्ते, मोक्षे च / उत्त०। "इह कामनियत्तस्स, अत्तद्वे नाऽवरज्झइ" / उत्त०८ अग हा०। Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्तट्टकरणजुत्त 503 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अत्तवयणणिद्देस अत्तट्टकरणजुत्त-त्रि०(आत्मार्थकरणयुक्त) आत्महितार्थकरणयुक्ते, | अत्तपण्णह(ण)-पुं० [आत्त(प्स)प्रज्ञाहन्] आत्तां सिद्धान्ता-ऽऽदिश्रवणतो पं०चू० गृहीतामाप्तां वा इहलोकपरलोकयोः सद्बोधरूपतया हिता अत्तगुरु-त्रि०(आत्मार्थगुरु) आत्मनः स्वस्य अर्थः प्रयोजनं गुरुर्यस्य स प्रज्ञामात्मनोऽन्येषां वा बुद्धिकुतर्कव्याकुलीकरणतो हन्ति यः स आत्मार्थगुरुः / उत्त०३२ अ०। आत्मार्थ एव जघन्यो गुरुः पापप्रधानो आत्तप्रज्ञाहा, आप्तप्रज्ञाहा वा / स्वस्य परेषां च तत्त्वबुद्धिहन्तरि यस्य स आत्मार्थगुरुः। दश०१ अ०। स्वप्रयोजननिष्ठे, "चिंतेहिं ते पापश्रमणे, उत्त०१७ अ० परितावेइ बाले, पीलेइ अत्तगुरू किलट्टे" / उत्त०३२ अ०। अत्तपण्णेसि(ण)-पुं०(आत्मप्रज्ञान्वेषिन) आत्मनः प्रज्ञा ज्ञानमात्मअत्तट्टचिंतग-पुं० (आत्मार्थचिन्तक) आत्मन एव केवलस्याऽर्थ प्रज्ञा, तामन्वेष्टुं शीलं यस्य स आत्मप्रशान्येषी। आत्मज्ञानाऽन्वेषिणि भक्तादिलक्षणं चिन्तयति, न बालादीनाम्, तथाकल्पसामाचारा आत्महितान्वेषिणि, सूत्र०१ श्रु०६ अ०l दित्यात्मार्थचिन्तकः। यदा- आत्मार्थो नाम अतीचारमलिनस्याऽऽत्मनो *आप्तप्रज्ञान्वेषिन्-पुं० आप्तो रागादिदोषविप्रमुक्तः, तस्य प्रज्ञाकेवलयथोक्तेन प्रायश्चित्तविधिना निरतिचारकरणं विशोधनमित्यर्थः / ज्ञानाख्या, तामन्चेष्टुं शीलं यस्यस आप्तप्रज्ञान्वेषी। सर्वज्ञोक्ताऽन्वेषिणि, चिन्तयतीत्यात्माऽर्थचिन्तकः / परिहारतपःप्रतिपन्नत्वेनाऽऽत्मार्थमात्र "दीरा जे अत्तपण्णेसी, धितिमंता जिइंदिआ" | सूत्र०१ श्रु०६ अ०! चिन्तके, व्य०१ उ०। अत्तपण्हह(ण)-पुं०(आत्मप्रश्नहन) आत्मनि प्रश्न आत्मप्रश्नः तं अत्तट्ठिय-त्रि०(आत्मार्थिक) आत्मार्थे भवमात्मार्थिकम्। आत्मनोऽर्थ हन्त्यात्मप्रश्नहा। केनचित्कृतस्य प्रश्नस्य वञ्चके पापश्रमणे, यथा यदि कश्चित्परः पृच्छेत्, किं भवान्तरयायी अयमात्मा, उत नेति ? आत्मार्थस्तस्मिन् भवमात्मार्थिकम् / आत्मन एवा-ऽर्थे, उवक्खडं ततस्तमेव प्रश्नमतिवाचालतया हन्ति, यथा- नास्त्यात्मा, भोयण माहणाणं, अत्तट्ठियं सिद्धमहेगपक्खं / ब्राह्मणानामात्मनोऽर्थ प्रत्यक्षादिप्रमाणैरनुपलभ्यत्वात्; ततोऽयुक्तोऽयं प्रश्नः; सति हिधर्मिणि आत्मार्थस्तस्मिन् भवमात्मार्थिकम्, ब्राह्मणैरप्यात्मनैव भोज्यम्, न धर्माश्चिन्त्यन्त इति। उत्त०१७ अ०। चाऽन्यस्मै देयम्। उत्त०१२ अ०। अत्तपसण्णलेस्स-त्रि०(आत्मप्रसन्नलेश्य) आत्मनो जीवस्य प्रसन्ना अत्तता-स्त्री०(आत्मता) आत्मनो भाव आत्मता / जीवास्ति मनागप्यकलुषा पीताद्यन्यतरा लेश्या यस्मिंस्तदात्म-प्रसन्नलेश्यम् / तायाम् , स्वकृतकर्मपरिणतौ च। "इह खलु अत्तताए तेहिं तेहिं कुलेहिं उत्त०१२ अ०॥ अभिसेएण संभूता" / आचा०१ श्रु०६ अ०१ उ०) *आप्तप्रसन्नलेश्य-त्रि० आप्ता प्राणिनामिह परस्त्र यहिता प्राप्ता वा तैरेव अत्तत्ताण-न०(आत्मत्राण) 6 त०। आत्मरक्षायाम, सूत्र०१ श्रु०११ अ०। प्रसन्ना लेश्योक्तरूपा यस्मिस्तदाप्तप्रसन्नलेश्यम् / आत्मनिर्मलत्वअत्तत्तासंवुड-त्रि०(आत्मात्मसंवृत) आत्मन्यात्मना संवृतस्य कारणेन तेजःपद्मशुक्लादिलेश्यात्रयेण सहिते, "धम्मे हरए बंभे, संति प्रतिसंलीने, भ०३ श०३ उ० तित्थे अणाविले। अत्तप्पसण्णलेस्से," उत्त०१२ अ०) अत्तदुक्कडकारि (ण)-त्रि०(आत्मदुष्कृतकारिन्) स्वपाप-विधायिनि, अत्तभाव-पुं०(आत्मभाव) स्वाभिप्राये, सूत्र०१ श्रु०१३ अ०। "संपराइय णियच्छंति, अत्तदुक्कडकारिणो' / सूत्र०१ श्रु०८ अ० अत्तमइ-त्रि०(आर्तमति) आर्ते आर्तध्याने मतिर्येषां ते आतमतयः / अत्तदोस-पुं०(आत्मदोष) 6 त०। आत्मापराधे, स्था०८ ठा० आर्तध्यानोपयुक्तेषु, आतु०। अत्तदोसोवसंहार-पुं०(आत्मदोषोपसंहार) 6 त०। स्वकीयदोषस्य अत्तमाण-त्रि०(आवर्तमान) आ-वृत्-शानच्। "यावत्तावजीविताऽऽनिरोधलक्षणे एकविंशे योगसंग्रहे, स०३२ सम०। वर्तमानावटप्रावारकदेवकुलैवमेवे वः" ||१२७१।इति वस्य लुक्। अत्रोदाहरणम् संयोगादित्वाद् ह्रस्वः। अभ्यस्यमाने, प्रा०।। वारवइ अरिहमित्ते, अणुद्धरी चेव तह य जिणदेवे। अत्तमुक्ख-पुं०(आप्तमुख्य) आप्तेषु मध्ये मुखमिव सर्वाङ्गता-प्रधानत्वेन रोगस्स य उप्पत्ती, पडिसेहो अप्पसंहारे॥१॥ मुख्ये "शाखादेर्यः" 7 / 1 / 114 / इति (हैमसूत्रेण) तुल्ये यः प्रत्ययः। द्वारवत्यां महापुर्या-मर्हन्मित्रो वणिग्वरः। आप्तप्रधाने केवलज्ञानिनि, तं०। अनुद्धरी प्रिया तस्य, जिनदेवश्च तत्सुतः।।१।। अत्तय-पुं०स्त्री०(आत्मज) आत्मनः पितृशरीराजात इत्यात्मजः। अङ्गजे रोगस्तस्यान्यदोत्पन्नः, शक्यतेन चिकित्सितुम्। पुत्रे, तादृश्यां पुत्र्यां च / यथा भरतस्याऽऽदित्ययशाः। स्था०१० ठा०। आहुर्वद्या रुजोऽमुष्य, निवृत्तिासभक्षणात् / / 2 / / ज्ञान विपा० स्वजनाः पितरौ चाथ, सर्वे प्रेम्णा भणन्ति तम्। अत्तलद्धिय-पुं०(आत्मलब्धिक) यः आत्मन एव सत्का लब्धिर्भक्तासोऽवदत् नैव भोक्ष्येऽहं, सुचिरं रक्षितं व्रतम्॥३॥ दिलाभो यस्याऽसावात्मलब्धिकः / स्वलब्धिके, पंचा०१२ विव०। मृत्युं स्वीकृत्य सावा, प्रत्याचख्यौ विचक्षणः। अत्तव-त्रि०(आर्तव) ऋतुरस्य प्राप्तः, अण् / ऋतुभवे पुष्पादौ, शुभेनाध्यवसायेन, स्वात्मदोषोपसंहृतेः॥४॥ "आर्त्तवान्युपभुजाना, पुष्पाणि च फलाणि च" रजसि च, वाच०। अवाप्य केवलज्ञानं, सिद्धिसौधं जगाम सः। नि०चू। (अस्य व्याख्या 'गब्भ' शब्दे वक्ष्यते) आ०क० / आव० / आ००। अत्तवयणणिद्देस-पुं०(आप्तवचननिर्देश) आप्तस्य अप्रतारकस्य Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्तवयणणिहेस 504 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अत्तीकरण वचनमाप्तवचनं, तस्य निर्देश आप्तवचननिर्देशः। सर्वज्ञोक्तागमे, "धम्मो मंगलमुक्किट्ठति पइन्ना अत्तवयणनिद्देसो" / दश० 1 अ०॥ अत्त(प्प)संजोग-पुं०(आत्मसंयोग) आत्मनः संजोगे औपशमिकादिभिवर्जीवस्य सम्बन्धरूपे संयोगभेदे, उत्त० 1 अ० ('संजोग' शब्दे चैष विशेषतो दर्शयिष्यते) अत्तसंपरिग्गहिय-त्रि०(आत्मसंपरिगृहीत) आत्मैव संप्रगृहीतः- सम्यक् प्रकर्षण गृहीतो येनाऽहं विनीतः सुसाधुरित्येवमादिना स तथा। आत्मोत्कर्षप्रधाने, दश०६ अ०४ उ०। अत्तसक्खिय-त्रि०(आत्मसाक्षिक) आत्मा एव साक्षिको यस्येति आत्मसाक्षिकः / स्वसाक्षिके, "आत्मसाक्षिकसद्धर्मसिद्धौ किं लोकयात्रया ?" | अष्ट०२३ अष्ट। अत्तसम-त्रि०(आत्मसम) आत्मतुल्ये, दश०१० अ० अत्तसमाहि-पुं०(आत्मसमाधि) 6 त०।स्वपक्षसिद्धौ, माध्यस्थ्यवच नादिना पराऽनुपघाते च। सूत्र०१ श्रु०३ उ०३ अ०॥ अत्तसमाहिय-पुं०(आत्मसमाधिक) चित्तस्वास्थ्यवति, सूत्र० 1 श्रु०३ अ०३ उ०। *आत्मसमाहित-त्रि० आत्मना समाहित आत्मसमाहितः / ज्ञानदर्शनचारित्रोपयोगे सदोपयुक्ते , आचा०१ श्रु०४ अ० 3 उ०। आत्मा समाहितोऽस्येत्यात्मसमाहितः / आहिताऽग्न्यादिदर्शनादार्षत्वाद् वा निष्ठाऽन्तस्य परनिपातः / यद्वाप्राकृते पूर्वोत्तरनिपातोऽतन्त्रः। समाहितात्मेत्यर्थः / शुभ-व्यापारवति, आचा०१ श्रु०४ अ०३ उ० अत्तसुन्न-त्रि०(आप्तशून्य) आप्तो वीतरागस्तस्य वाक्यं सिद्धान्तस्तेन शून्यं वर्जितमाप्तशून्यमिति मध्यपदलोपी समासः / आप्तवाक्येन शून्यमाप्तशून्यं स्वमत्या असंभावितं विरचय्य लोके ग्रन्थगौरवाद् दर्शिते, (देवसेन एतत्प्रपञ्चनमचीकरत्) द्रव्या०६ अध्या०1 अत्त(आय)हिय-न०(आत्महित) 6 त०। आत्मोपकारके, प्रश्न० 5 संव०द्वा०। विशे०। आत्महितं दुःखेनाऽसुमता संसारे पर्यटताऽकृतधर्मानुष्ठानेन लभ्यते अवाप्यत इति / तथाहि- न पुनरिदमतिदुर्लभमगाधसंसारजलधिविभ्रष्टम् / मानुष्यं खद्योतकतडिल्लताविलसितप्रतिमम् / / 1 / / सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ उ०। अत्ता-(देशी) जनन्याम्, पितृष्वसरि, श्वश्वाम, वयस्यायां च। देवना०१ वर्ग। अत्तागम-पुं०(आत्मागम) अपौरुषेये आगमे, "वयणेण कायजोगा, भावेण य सो अणादिसुद्धस्स / गहणम्मि य नो हेऊ, सत्थं अत्तागमो कह णु" // 1 // उत्त०२ अ०। अत्ताण-त्रि०(अत्राण) 6 ब०स०। अनर्थप्रतिघातकवर्जित, प्रश्न० १आश्रद्वा०। शरणविरहिते, आ०म०द्विका स्कन्ध-न्यस्तलगुडद्वितीये देशान्तरे गच्छति, कार्पटिके च। बृ० / विरुद्धराज्येऽयं विहरणविधिःअत्ताण चोर भेया, वग्गुर सोनिय पलाइणो रहिका। पडिचरगाय सहाया,गमणागमणम्मि नायव्वा / / (अत्ताण त्ति) संयता आत्मनैव चौरादिसहायविरहिता गच्छन्ति / एष चूर्ण्यभिप्रायः / निशीथचूर्ण्यभिप्रायस्तु-(अत्ताण त्ति) अत्राणो नाम स्कन्धन्यस्तलगुड द्वितीया ये देशान्तरं गच्छन्ति, कार्पटिका वा / बृ०१ उ०। आत्मशब्दस्य तृतीयैकवचनेऽपि 'अत्ताण त्ति' रूपं भवति। "अत्ताण अणिग्गहिया करेंति' आत्मना अनिगृहीता, अनिगृहीतात्मन इत्यर्थः / प्रश्न०५ आश्रद्वा० / अत्ताहिहिअ-त्रि०(आत्मार्थिक) आत्मलब्धिके, ध०३ अधि०। अत्ति-स्त्री०(आप्ति) उपलब्धौ, द्वा० 10 द्वा०। रागद्वेषमोहाना-मैकान्तिके आत्यन्तिके च क्षये, स्या०। अत्तिज(य)-पुं०(आत्रेय) अत्रिवंश्ये ऋषौ, "जीर्णे भोजनमात्रेयः"। आ०क०। ('संखेव' शब्दे कथाद्रष्टव्या) अत्तीकरण-न०(आत्मीकरण) अनात्मन आत्मत्वेन करणं आत्मीकरणम् / आत्मसात् करणे, पिं० / स्ववशीकरणे, नि०चू०। तच राजादीनां संयतैर्न करणीयम्। तदुक्तम् जे भिक्खू रायं अत्तीकरेइ,अत्तीकरतं वा साइज्जइ। नि० चू०। अत्तीकरणं रण्णो, साभावियं कइतवं च णायव्वं / पुव्वावरसंबद्धं, पचक्ख परोक्खमेकेकं // 2 // तंपुण अत्तीकरणं दुविधं साभावियं, कइतवियंच। साभावियं संतं सच्चं चेतसो, तस्स सयणिज्जउ, के तवं, पुण अलियं / ते पुणो एककंदुविधं पुव्वं संठुता वा (अवरमिति) पच्छा संलुतं / पुणो दुविधं पञ्चक्खं, परोक्खं च। पञ्चक्खं सयमेव करेंति, परोक्खं अण्णेण कारवेंति। अहवा राज्ञः समक्ष प्रत्यक्षम्, अन्यथा परोक्षं भवति। संतेपचक्खपरोक्खे इमं भण्णति रायमरणम्मि कुलघरगताएँ जातो मि अवहियाए वा। निव्वासियपुत्तोवमि, असुगच्छगएण जातो वा।।३।। रायाणं मते देवी आवण्णसत्ता कुलधरं गया, तीसे अहं पुत्तो, जहा- खुडगकुमारो / अवधेयाए य जहा- पउमावतीए करकं डुकोईयरायपुत्तो णिच्छूढो / अण्णत्थ गतेणं तेणाऽहं जातो, जहा अभयकुमारो / असुगच्छगएण रण्णा अहं जातो, यथा- वसुदेवेण जरकुमारो, उत्तरमहरवणिएण वा अण्णं णियपुत्तो संतं परकरणं कहं संभवति। दुल्लभपवेसलज्जालुगो व एमेवऽमचमादीहिं। पञ्चक्खपरोक्खं वा, करेज वा संथवं को वि||| तत्थ रायकुले दुल्लभो पवेसो, लज्जालुओ वा, सो साधु अप्पणो असत्तो, असत्तीकरणं काओ, ताहे अमच्चमादीहिं कारवेति, एमेव गहणाओ असत्तं संवज्झति। एते चेव कुलघरादिकारणा जहावज्जाणतो पञ्चक्खं परोक्खं संथवं करेज, अमच्चमादीहिं वा कारवेज। एतो एगतरेणं, अत्तीकरणं तु संतऽसंतेणं / अत्तीकरेति रायं, लहुगा वा आणमादीणि // 5 // संते पचक्खे परोक्खे वा मासलहुँ, असंते पञ्चक्खे परोक्खे वा चउलहं, आणादिणो य दोसा, अणुलोमे पडिलो मे या उवसग्गे करेज्ज। राया रायसुहीवा, रायामित्ता अमित्तसुहिणो वा। Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्तीकरण 505 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अत्तोवणीय भिक्खुस्स व संबंधी, संबंधिसुही व तं सोचा / / 6 / / इमा जयणासयमेव राया; राज्ञः सुहृदः, तेपुनः स्वजना मित्राणि वा; राज्ञो अमित्राः; पणगादिमतिकतो, परोक्ख ताहे संतऽसंतेणं। ते स्वजना दायादाः, अस्वजनाः केनचित्कारणेन विरुद्धाः। अमित्ताण एमेव य पचक्खं, भावे णाणं तु चउयजुओ / / 13 / / वाजे सुहिणो, साधुस्स वा जे संबंधिणो, ताण वा संबंधीणजे सुही, तत् पणगपरिहाणीए जाहे मासलहुं पत्तो ताहे संतं परोक्खं रण्णो य भावो सोच्चा दुविहे उवसग्गे करेज। जाणियव्यो, प्रियाप्रियेति, जो य रयणउजुत्तो यो दर्शनीयः तेजस्वी वा संजमविग्घकरे वा, सरीरबाहाकरे व भिक्खुस्स। स अत्तीकरणं करेति, रायदुई वा उवसमणट्ठा वेरज्जे वा आत्मसंरक्षणार्थ अणुलोमे पडिलोमे, कुज्जा दुविधे व उवसग्गो |7|| विरुद्धरज्जे वा संकमणट्ठा रोहगे वा णिगमणट्ठा अवमंता वा भत्तट्ठा रण्णो संजमविग्घकरे वा उवसग्गे सरीरबाहाकारके वा करेज, जे वा सद्धिं अद्धाणं गच्छंता बहूसु उप्पत्ति- एसुकारणेसु एवमेव अप्पुव्वंती संजमविग्धकरा ते अणुकूला इतरे पडिकूला / एते दुविहे उवसगं क भत्तहा, वादकाले वा पवयण-उज्झावणठ्ठा, पडिणीयस्स वा सासणट्ठा रेख / / 7 / / तत्थिमे अणुकूला अत्तीकतो वा जो णिक्खमेज, तवट्ठा धम्म वा पडिवजिउकामस्स साइजसु रजसिरिं, जुवरायत्तं व गेण्हसु व भोगे। धम्मोवदेसदाणट्ठा कुलगणादिकज्जेसु वा अणेगेसु। इति राय तस्सुहीसु वि, उच्चेजितरे व तं घेत्तुं // 1 // एतेहिं कारणेहि, अत्तीकरणं तु होति कायव्वं / राया भणति- रजसिरिसाइजसु, अयं ते पयच्छामि जुवरायत्तं, विसिटे रायारक्खियनगर-णेगम सब्वे वि एस गमो॥ वा भोगे गेण्हसु / इति उपप्रदर्शने / राया एव / तस्य सुहृदः, तेऽप्येवमेवाहुः / (इतरे त्ति) जे रण्णो पडिणीया, पडिणीयाण वा जे एतेहिं अत्तकारणेहिं वा रण्णा अत्तीकरणं करेज, रायाणं जो रक्खति, सुहिणो, ते तं उप्पव्वावेउ घेत्तुं वि उत्थाणं करेजा, उड्डमरं करें सोरायरक्खिओराजशरीररक्षकः। तत्थ विसोचेव णगरं रक्खति,जो, तीत्यर्थः ||8|| सो णगररक्खिओकोट्टपालओ / सव्वपगईओ जो रक्खति, सो सुहिणो व तस्स विरिय-परक्कमे णाउ साहते रणो। णिगमारक्खिओसो सेट्ठी। देसो विसओ, तं जो रक्खति, सो तो सेही एस णिवं, अम्हे तु ण सुठ्ठ पगणेइ || देसारक्खिओचोरोद्धरणिकः / एताणि सव्वाणि जो रक्खति, सो सव्वारक्खिओ। एतेषु सर्वकार्येष्वापृच्छनीयः। स च महाबलाऽधिक जे पुण भिक्खू, तेतस्स साहुस्स विरियबलपरिकमाणाउं उप्पव्वाति, साहतिवा, रण्णो सोतं उप्पव्वावेइ. ते पुण किं उप्पव्याति, एस रायाणं तयेत्यर्थः / एतेसिं पंचण्हं सुत्ताणं इभ पच्छद्धं अइदेसं करेति, रायातो सेहिति ति / अम्हे राया ण सुट्ठ पगणेइ / / 6 / / इमे सरीरबाहाकरा रक्खियणगरणेगमे सव्वे / अपिशब्दाद् देशारक्षिको द्रष्टव्यः / एलेसु वि पडिकूला उवसग्गा एसेव उवसग्गाऽववायगमो दट्ठव्वो। नि०चू०४ उ०) ओभासिउ धिम्मु-मिएण कुजा वा रजविग्धं मे। सूत्रपाठस्त्वेवम्एमेव सुहि दरिसिते,णियप्पदोसेतरे मारे ||10|| जे भिक्खू रायरक्खियं अत्तीकरेइ, अत्तीकरतंवा साइज्जइ || राया भणति- अहो ! इमेण समणेण महायणमज्झे ओभासिओ धिग् / जे भिक्खू णगररक्खियं वा अत्तीकरेइ, अत्तीकरंतं वा मुण्डितेन दुरात्मना य एवं भाषते, अहवा एष भोगाभिलाषी मम परिसं साइजइ // 6 // जे भिक्खू णिगमरक्खियं वा अत्तीकरेइ, भिंदिउं रजविग्धं करेज, तं सो राया हणेज्ज वा, बंधेज वा, मारेज वा, अत्तीकरतं वा साइज्जइ // 10 // जे भिक्खू सव्वारक्खियं रण्णोजेसुही, तेहिं आणेओ रण्णो दरिसिते, राया तहेवपडिकूलं उवसग्गं अत्तीकरेइ, अत्तीकरंतं वा साइजइ / / 11 / / जे भिक्खू करेन्ज / इतरे णाम जे रण्णो अमित्ता, अमित्तसुहिणो वा, ते रण्णो गामरक्खियं अत्तीकरेइ, अत्तीकरतं वा साइज्जइ / / 12 / / जे पडिणीयताए तं मारेज, भिक्खुस्स णीया वा पडिलोमे उवसग्गे भिक्खू देसरक्खियं अत्तीकरेइ, अत्तीकरतं वा साइज्जइ / / 13 / / करेज // 10 // जे भिक्खू सीमरक्खियं अत्तीकरेइ, अत्तीकरंतं वा उद्धंसिणमो लोगंसि भागहारी व होहि वा मा णे। साइज ||14|| जे भिक्खू रणो रक्खियं अत्तीक रेइ, इति दायिगादिणीता, करेञ्ज पडिलोममुवसग्गे ||11|| अत्तीकरतं वा साइजइ॥१५॥ नि०चू०४ उ० उद्धंसियत्ति ओभासिया- अम्हे एतेण लोगे मज्झे ओभासिआ वा एस अत्तुक्करिस-पुं०(आत्मोत्कर्ष) पञ्चमे गौणमोहनीयकर्मणि, स० 52 अम्हं भागाहारी होहि त्ति, मा वा अम्हं अधिकतरो एत्थ रायकुले होति सम०। अहमेव सिद्धान्ताऽर्थवेदी नाऽपरः कश्चित् मत्तुल्योऽस्तीत्ति, दुव्वयणयाए बंधाइएहिं उत्तावेंति वा, जम्हा एते दोसा, तम्हा ण कप्पति रण्णो अत्तीकरणं काउं, कारणे पुण कम्पति॥११॥ त्येवंरूपेऽभिमाने, "ण करेति दुक्खमोक्खं, उज्जममाणो वि संजमतवेसु / गेलण्ण रायदुटे, अवरतविरुद्धरोहगऽद्धाणे। तम्हा अत्तुक्करिसो, वज्जेयव्वो जतिजणेणं" ||1|| सूत्र०१ श्रु०१३ अ०॥ ओमुत्भावण सासण-णिक्खमणुवदेसकजेसु / / 12 / / अत्तुकोसिय-पुं०(आत्मोत्कर्षिक) आत्मोत्कर्षोऽस्ति येषां ते गिलाणस्स वेजेण उवदिट्ठ-हंसतेल्लं कल्लाणययं तित्तगं, महातित्तगं | __ आत्मोत्कर्षिकाः / गर्वप्रधानेषु वानप्रस्थेषु, औ०। वा, कलमसालिओयणो वा, ताणि परं रण्णो हवेज्ज, ताहे जयणाए अत्तोवणीय-न०(आत्मोपनीत) आत्मैवोपनीतस्तथा निवेदितो अत्तीकरणं करेंति // 12 // नियोजितो यस्मिस्तत्तथा / परमतदूषणायोपात्ते सति आत्म Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्तोवणीय ५०६-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अत्थ मतस्यैव दुष्टतयोपनायके ज्ञाने, यथा पिङ्गलेनाऽऽत्मा।तथाहि- कथमिदं तमागमभेदं भविष्यतीति राज्ञा पृष्टः। पिङ्गलाभिधानः स्थपतिरवोचत्भेदस्थाने कपिलादिगुणे पुरुषे निखाते सतीति। अमात्येनतु स एव तत्र तद्गुणत्वान्निखात इति। तेन आत्मैव नियुक्तः स्ववचनदोषात्। तदेवंविध आत्मोपनीतमिति / अत्रोदाहरणं यथा- "सर्वे सत्त्वा न हन्तव्याः" इत्यस्य पक्षस्य दूषणाय कश्चिदाह- अन्यधर्मस्थिता हन्तव्या विष्णुनेव दानवाः / इत्येवंवादिनामात्मा हन्तव्यतयोपनीतो धर्माऽन्तरस्थितपुरुषाणामिति, तद्दोषता तु प्रतीतैवास्येति। स्था०४ ठा०३ उ०। अत्थ-पुं०(अर्थ)अर्थनमर्थः / अदृष्टऽपि वलयादौ श्रुत्वा तदभिप्रायमात्रे, दश०१०। विद्यापूर्वे धनार्जने, आ०म०द्वि०।अर्यतेऽधिगम्यतेऽर्थ्यते वा याच्यते बुभुत्सुभिरित्यर्थः / व्याख्याने, "जो सुत्ताभिप्पाओ, सो अत्थो अज्जए य जम्ह त्ति' / स्था० 2 ठा०१ उ० / विशे० औ०। "अत्थस्स इमे अणुओगो त्ति वा निओगो त्ति वा भासति वा विभासति वा वत्तियंति वा एगट्ठा" आचू०१ अ०। अर्थस्त्रिविधः-सुखाधिगमः, दुरधिगमः, अनधिगमश्च श्रोतारं प्रति भिद्यते। तत्र सुखाधिगमो यथाचक्षुष्मतश्चित्रकर्मनिपुणस्य रूपसिद्धिः। दुरधिगमस्तु-अनिपुणस्य / अनधिगमस्तु-अन्धस्या तत्राऽनधिगमरूपोऽवस्त्वेव / सुखाधिगमस्तु विचिकित्साविषय एव न भवति / दुरधिगमस्तुदेशकालस्वभावविप्रकृष्टविचिकित्सा-गोचरीभवति। आचा०१ श्रु०५ अ०५ उ० / ऋ-गती, अर्यते गम्यते, ज्ञायत इत्यर्थः। विशे०। सूत्राभिधेये, उत्त०१ अ०। प्रव०। नि०चू०। आ०म०प्र०। पं०व०। दशा०। नं० / ज्ञानाचारविषयभेदे यथार्थ एवार्थः करणीयः, न त्वर्थभेदः / दश० 1 अ०। (''णाणायार" शब्दे विशेषो वक्ष्यते) पं०व०। नि०चू० सूत्रतात्पर्ये, ध०४ अधि० / अर्थ्यते प्रार्थ्यत इत्यर्थः / स्वर्गापवर्गप्राप्तिकारणभूते, उत्त०१८ अ० द्रव्ये, आव०४ अ०॥ मणिकनकादौ, कल्प० / शब्दादिविषयभावेन परिणते द्रव्य-समूह, विशे०। राजलक्ष्म्यादौ, स्था०३ ठा०३ उ०/ आ०चू०। "स्त्यानचतुर्थाऽर्थे वा" / / 2 / 33 / इति संयुक्तस्याऽर्थभागस्य ठत्वं प्रयोजने एव भवति ! धने तु अत्थो' | प्रा०। अर्यते गम्यते, साध्यत इत्यर्थः / सूत्रस्याभिप्राये, "जो सुत्ताभिप्पाओ, सो अत्थो अन्जए जम्हा' / विशे०। आ०म०प्र०ा सूत्र०धo आचा०। अधुनात्वर्थावसरस्तत्रेदमाह(धम्मो एसुवइट्ठो,) अत्थस्स चउव्विहो उ निक्खेवो। ओहेण छव्विहऽत्थो, चउसट्ठिविहो विभागेण ||15|| अर्थस्य चतुर्विधस्तु निक्षेपो नामादिभेदात् / तत्रौघेन सामान्यतः षड्विधोऽर्थः / आगमनोआगमव्यतिरिक्तो द्रव्याऽर्थः चतुः- षष्टिविधो विभागेन विशेषेणेति गाथासमुदायार्थः। अवयवार्थं त्वाहधन्नाणि रयण थावर-दुपय चउप्पय तहेव कुविअंच। ओहेण छव्विहऽत्थो, एसो धीरेहिँ पन्नत्तो।।१६।। धान्यानि यवादीनि, रत्नं सुवर्णम्, स्थावरं भूमिगृहादि, द्विपदं गन्त्र्यादि, चतुष्पदं गवादि, तथैव कुप्यं च ताम्रकलशाद्यनेकविधम् / ओघेन षड्विधोऽर्थः, एषोऽनन्तरोदितः, धीरैस्तीर्थकरगणधरैः, प्रज्ञप्तः प्ररूपित इति गाथार्थः / / 16 // एनमेव विभागतोऽभिधित्सुराहचउवीसा चउवीसा, तिग दुग दसहा अणेगविह एव / सव्वेसिं पिइमेसिं, विभागमहयं पवक्खामि / / 17 / / (चतुर्विशतिचतुर्विशतीति) चतुर्विंशतिविधो धान्याऽर्थो, रत्नाऽर्थश्व (त्रि-द्वि-दशधेति) त्रिविधः स्थावराऽर्थः, द्विविधो द्विपदार्थः, दशविधश्चतुष्पदार्थः 1 अनेकविध एवेत्यनेकविधः कुप्याऽर्थः / सर्वेषामप्यमीषां चतुर्विशतिचतुर्विशत्यादि-संख्याऽभिहितानां धान्यादीनां विभाग विशेषम्, अथाऽनन्तरं प्रवक्ष्यामीत्यर्थः // 17 // दश०६ अ01 (धान्यादीनां व्याख्या स्वस्थाने दर्शयिष्यते) "अर्थानामर्जने दुःखमर्जितानांच रक्षणे। आये दुःखं व्यये दुःखं, धिगर्थ दुःखकारणम्" // 1 // स्था०३ ठा०३ उ०। 'धिग् द्रव्यं दुःखवर्द्धनम्। दश०१ अ० धिगर्थोऽनर्थभाजनम्' इति वा पाठान्तरम्।ध०३ अधिol इदानीमर्थ इति तृतीय भेदं प्रकटयिषुराहसयलाणत्थनिमित्तं, आयासकिलेसकारणमसारं। नाऊण धणं धीमं न हु लुब्मइ तम्मि तणुयम्मि // 63 / / इह धनं ज्ञात्वा, तत्र न लुभ्यतीति योगः / किं विशिष्ट धनम् ? सकलाऽनर्थनिमित्तं समस्तदुःखनिबन्धनम्। आयासश्चित्तखेदः। यथाराजा रोत्स्यति किं नु मे हुतवहो दग्धा किमेतद्धनं, किं वाऽमी प्रभविष्णवः कृतनिभं लास्यन्त्यदो गोत्रिकाः। मोषिष्यन्ति च दस्यवः किमुतथा नंष्टा निखातं भुवि, ध्यायन्नेवमहर्दिवं धनयुतोऽप्यास्तेतरां दुःखितः।।१।। तथा क्लेशः शरीरपरिश्रमस्तयोः कारणं निबन्धनम् / तथाहिअर्थाऽथ नक्रचक्राकुलजलनिलयं केचिदुधैस्तरन्ति, प्रोद्यच्छस्त्राभिघातोत्थितशिखिकणकं जन्यमन्ये विशन्ति। शीतोष्णाऽम्भःसमीरग्लपिततनुलताः क्षेत्रिकां कुर्वतेऽन्ये, शिल्पं चाऽनल्पभेदं विदधति च परे नाटकाद्यं च केचित्॥२॥ तथा असारं, सारफलाऽसंपानाद् / यदाहव्याधीन्नो निरुणद्धि, मृत्युजननज्यानि-क्षये न क्षम, नेष्टाऽनिष्टवियोगयोगहृतिकृत्सध्रयङ् नचप्रेत्य च। चिन्ताबन्धुविरोधबन्धनवधनासाऽऽस्पदं प्रायशो, वित्तं वित्तविचक्षणः क्षणमपि क्षेमाऽऽवहं नेक्षते // 3 // इत्थंभूतं धनंज्ञात्वा, नलुभ्यति, नैव गृध्यति, धीमान् बुद्धिमान, तस्मिन् द्रव्ये, चारुदत्तवत् तनुकमपि स्तोकमपि आस्तां बह्नित्यपेरर्थः / भावश्रावको हि नाऽन्यायेन तदुपार्जनाय प्रवर्तते, नाऽप्युपार्जिते तृष्णावान् भवति, किं तर्हिआयादर्द्ध नियुञ्जीत, धर्मे समधिकं ततः। शेषेण शेषं कुर्वीत, यत्नतस्तुच्छमैहिकम्॥१॥ इति विमृशन् यथायोग तत्सप्तक्षेत्र्यां व्ययतीति / ध००। अर्थ्यते परिच्छिद्यते इति अर्थः / पदार्थ, "सदेव सत् स्यात्सदिति त्रिधाऽर्थो,मीयेत दुर्नीतिनयप्रमाणैः" / स्या। अर्थ्यत इत्यर्थः। द्रव्ये, गुणे च,"अत्थो दब्वे गुणे वा वि"। उत्त०१ अ० पुरुषार्थ-भेदे, यतो हि सर्वप्रयोजनसिद्धिः / ध०१ अधिक प्रयोजने, "स्त्यानचतुर्थाऽर्थे वा" ।८।२।३॥इति (हैमसूत्रेण) ठत्वमार्षे कदाचिन्न भवति। "अणुग्णहत्थं सुविहियाणं" इत्यत्र प्रयोजना-ऽर्थकत्वेनैवाऽर्थशब्दस्य व्याख्यानात्। ओघ०। आव०1०। "अत्थो ति वा हेउ त्ति वा कारण ति वा एगटुं" निचू०२० उ० Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्थ 507- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अत्थकहा साम्प्रतं धर्मादीनामेव संपन्नताऽसंपन्नते अभिधित्सुराहधम्मो अत्थो कामो, मिन्ने ते पिंडिया पडिसवत्ता। जिणवयणं उत्तिन्ना, अवसत्ता होंति नायव्वा / / 2 / / धर्मोऽर्थः कामः, त्रय एते पिण्डिता युगपत्संपातेन प्रतिसपत्नाः परस्परविरोधितः लोके कुप्रवचनेषु च / यथोक्तम्- 'अर्थस्य मूलं निकृतिः क्षमा च, कामस्य वित्तं च वपुर्वयश्च / धर्मस्य दानं च दया दमश्च, मोक्षस्य सर्वोपरमः क्रियासु"॥१॥ इत्यादि। एतेच परस्परविरोधिनोऽपि सन्तो जिनप्रवचनमवतीर्णाः, ततः कुशलाशययोगतो व्यवहारेण धर्मादितत्त्वस्वरूपतो वा निश्चयेन असपत्नाः परस्परविरोधिनो न भवन्ति, ज्ञातव्या इति गाथार्थः॥२६॥ तत्र व्यवहारेणाविरोधमाहजिणवयणम्मि परिणए, अवत्थविहिआणुठाणओ धम्मो। सच्छाऽऽसयप्पयोगा, अत्थो वीसंभओ कामो ||30|| जिनवचने यथावत् परिणते सति अवस्थोचितविहितानुष्ठानात् स्वयोग्यतामपेक्ष्य दर्शनादिश्रावकप्रतिमाइगीकरणे निरतिचार-पालनाद् भवति धर्मः / स्वच्छाऽऽशयप्रयोगाद्विशिष्टलोकतः पुण्यबलाचाऽर्थः विश्रम्भत उचितकलत्राऽङ्गीकरणताऽपेक्षो विश्रम्भेण काम इति गाथार्थः // 30 // अधुना निश्चयेनाविरोधमाहधम्मस्स फलं मोक्खो, सासयमउलं सिवं अणाबाहं। तमभिप्पेया साहू, तम्हाधम्मऽत्थकाम त्ति / / 31 / / धर्मस्य निरतिचारस्य, फलं मोक्षो निर्वाणम्, किं विशिष्टम् ? इत्याहशाश्वतं नित्यम्, अतुलमनन्यतुलम्, शिवं पवित्रम्, अनाबाधं बाधावर्जितमेतदेवाऽर्थः / तं धर्मार्थ मोक्षमभिप्रेताः कामयन्तःसाधवो यस्मात्तस्माद्धर्मार्थकामा इति गाथार्थः // 31 // एतदेव दृढयन्नाहपरलोगमुत्तिमग्गो, नस्थि हु मोक्खो त्ति बिंति अविहिन्नू। सो अत्थि अवितहो जिण- मयम्मि पवरो न अन्नत्थ // 32 // परलोको जन्मान्तरलक्षणो, मुक्तिमार्गो, ज्ञानदर्शनचारित्राणि नास्त्येव मोक्षः सर्वकर्मक्षयलक्षण इत्येवं ब्रुवते अविधिज्ञा न्यायमार्गाप्रवेदिनः। अत्रोत्तरम्- स परलोकादिः अस्त्येवावितथः सत्यो, जिनमते वीतरागवचने प्रवरः पूर्वापराविरोधेन; नाऽन्यत्रैकान्तनित्यादौ, हिंसादिविरोधादिति गाथार्थः // 33 // दश०६ अ० *अस्त-पुं० मेरौ, यतस्तेनाऽन्तरितो रविरस्तंगतइति व्यपदिश्यते। स०३८ समका निरस्ते अविद्यमाने, त्रि०ा ज्ञा०१३ अ०। *अस्त्र-न० अस्यते क्षिप्यते / अस्-ष्ट्रन् / क्षेप्ये शरादौ, वाच० / धनुरादिषु,ध०२ अधि० रिपुक्षेपणमात्रे साधने, प्रहरणमात्रे खड्गादावपि, वाचन अत्थअवगम-पुं०(अर्थावगम) 6 त०।अर्थपरिच्छेदे, दश०१ अ०। अत्थंगय-त्रि०(अस्तंगत) अस्तपर्वतं प्राप्ते, दश०८ अ० अत्यंतर-न०(अर्थान्तर) वस्त्वन्तरे, षो०१६ विव० / पृथग्भूते, दर्श०। गामश्वमभिदधतोऽसत्यभेदे, ध०२ अधि० न्यायमते उद्देश्यसिद्ध्यर्थ प्रयुक्तशब्दसामर्थ्यादनुद्देश्यसिद्ध्यनुकूले दुष्टसाधनवाक्ये, वाच०। अत्यंतरुत्भावणा-स्त्री०(अर्थान्तरोद्भावना) अलीकवचनभेदे, यथेश्वरादिः कर्ता समस्तस्यास्य जगतः क्रोधादिकषाया-ऽऽध्मातचेतसः प्रच्छन्नपापस्य। दर्श०। अत्थकंखिय-त्रि०(अर्थकाक्षित) कासा गृद्धिः, आसक्तिरित्यर्थः। अर्थे द्रव्ये काङ्क्षा अर्थकङ्का, सा संजाता अस्येति अर्थकाशितः। भ०१ श०७ उता प्राप्तेऽप्यर्थे अविच्छिन्नेच्छे, भ०१३ श०६ उ०। अत्थकप्पिय-पुं०(अर्थकल्पिक)आवश्यकादिश्रुतमधीतवति, बृ० / अर्थकल्पिकमाहअत्थस्स कप्पिओ खलु, आवस्सगमादि जाव सूयगमं। मोत्तूणं छेयसुयं, जेण अहीयं तदत्थस्स / / आवश्यकमादिं कृत्वा यावत् सूत्रकृतमङ्गं तावत्, यद् येनाधीतं, स तस्यार्थस्य कल्पिको भवति। सूत्रकृताङ्गस्योपर्यपिछेदश्रुतं मुक्त्वा यद् येनाधीतं सूत्रं, स तस्य सूत्रस्य समस्तस्याप्यर्थस्य कल्पिको भवति / छेदसूत्राणि पुनः पठितान्यपि यावदपरिणतं, तावन्न श्राव्यते, यदा तु परिणतं भवति, तदा कल्पिकः / / 7 / / बृ०१ उ०। अत्थकय-स्त्री०(अर्थकृत)अर्थाऽर्थे, "आसणदानंच अत्थकए" दश०६ अ० अस्थकर-पुं०(अर्थकर) अर्थस्य करस्तत्करणशीलोऽर्थकरः / प्रशस्तविचित्रकर्मक्षयोपशमाविर्भावतो विद्यापूर्वं धनार्जन-करणशीले, आ०म०द्वि०। अत्थकहा-स्त्री०(अर्थकथा) अर्थस्य कथा लक्ष्म्या उपाय-प्रतिपादनपरे वाक्यप्रबन्धात्मके कथाभेदे, उक्तं च- "सामा दिधातुवादादिकृष्यादिप्रतिपादिका / अर्थोपादानपरमा, कथाऽर्थस्य प्रकीर्तिता' // 1 // तथा- "अर्थाख्यः पुरुषार्थोऽयं, प्रधानः प्रतिभासते / तृणादपि लघु लोके, धिगर्थरहितं नरम्" ||1|| इति एतदेव विस्तरत उक्तम् / अधुनाऽर्थकथामाहविजासिप्पमुवाओ, अणिवेओ संचओय दक्खत्तं / सामं दंडो भेओ, उवप्पयाणं च अत्थकहा / / 16 / / विद्या शिल्पमुपायोऽनिर्वेदः संचयश्च दक्षत्वं साम दण्डो भेद उपप्रदानं चाऽर्थकथा, अर्थप्रधानत्वादित्यक्षरार्थः / भावार्थस्तु वृद्धविवरणादवसेयः। तचेदम्-"विजं पडुचऽत्थकहा; जो विजाए अत्थं उवजयति; जहा- एगेण विजा साहिया, सा तस्स पंचयं पइप्पभायं देइ। जहा वासव्वइस्स विजाहरचक्कवट्टिस्स विजापभावेण भोगा उवणया। सव्वइस्स उप्पत्ती जहा य सडकुले वत्थितो, जहा य महेसरो नामं कयं / एवं निरवसेसं जहाऽऽवस्सए जोगसंगहेसु, तहा भाणियव्वं / विज त्ति गयं / इयाणिं सिप्पेत्ति / सिप्पेणऽत्थो उवजिणइति। एत्थ उदाहरणं कोकासो जहाऽऽवस्सए / सिप्पे त्ति गयं / इयाणिं उवाए त्ति / एत्थ दिलुतो चाणक्को / जहा- चाणक्केण बहुविहेहिं अत्थो उवजिओ। कहं? दो मज्झधाउरत्ताओ। एयं पि अक्खाणयं जहाऽऽवस्सए तहा भाणियव्वं / उवाए त्ति गयं। इयाणि अणिव्वेए संचए य एक्कमेव उदाहरणंमम्मणवाणिओ। सो वि जहाऽऽवस्सए तहा भाणियव्वो" (अग्रेतनं तु 'दक्ख' शब्दे वक्ष्यते) दश०३ अ०। विद्यादिभिरर्थस्तत्प्रधाना कथा अर्थकथा / सदसद्पात्मकं वस्तुस्वरूपमिति पदार्थसंबन्धिन्यां वार्तायाम, स्या०। Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्थकामय 508- अभिधानराजेन्द्रः-भाग 1 अत्थग्गहण अत्थकामय-त्रि०(अर्थकाम) अर्थे द्रव्ये कामो वाञ्छामात्रं यस्याऽसावर्थकामः। द्रव्यस्य वाञ्छके, भ०१श०७ उ०। अत्थकिरिया-स्त्री०(अर्थक्रिया) सुखदुःखोपभोगे, स्या०। अत्थकिरियाकारि (ण)-त्रि०(अर्थक्रियाकारिन्) अर्थक्रियाकरण शीले, आ०म०वि० अत्थकु सल-पुं०(अर्थकुशल) अर्थोपार्जनं हस्तलाघवादिपरित्यागेन कुर्वति, दश०५ अ०ध०२०। सम्प्रत्यर्थकुशल इति द्वितीयं भेदं व्याचिख्यासुर्गाथापूर्वार्द्धस्य द्वितीय पादमाह..................,सुणइ तयत्थं तहा सुतित्थम्मि। शृणोत्याकर्णयति, तदर्थ सूत्रार्थ, तथा तेनैव प्रकारेण स्वभूमिकौचित्यरूपेण, सुतीर्थे सुगुरुमूले। यत आहतित्थे सुत्तत्थाणं, गहणं विहिणा उ इत्थ तित्थमिणं। उभयन्नू चेव गुरू, विहिओ विणयाइ ओचित्तो / / 1 / / इत्यादि। अत्रायमाशयः-ऋषिभद्रपुत्रवत् संविग्नगीतार्थगुरुसमीपश्रवणसमुत्पन्नप्रवचनार्थकौशलेन भावश्रावकेण भाव्यमिति। ऋषिभद्रपुत्रकथा चैवम्इत्थेव जंबुदीवे, भारहवासस्स मज्झिमे खंडे। अत्थि पुरी आलभिया, न कया वि अरीहि आलभिया॥१॥ सुगुरुप्पसायउल्लसिय-विमलबहुवयणअत्थकोसल्लो। इसिभद्दपुत्तनामो, सडो तत्थासि सुवियड्डो / / 2 / / अन्ने वि तत्थ निवसति सावया आवया सुदढधम्मा। इतिभहसुओ कइया, वि तेहि मिलिएहि इय पुट्ठो।।३।। भो भो देवाणुपिया ! देवाण ठिई कहेसु अम्हाण। सो विहुपवयणभणियत्थसत्थकुसलो वि इय भणइ॥४॥ असुरा 1 नागा 2 विज्जू,३ सुवन्न 4 अग्गी उ 5 वाउ 6 थणिया ७य।। उदही ८दीय दिसा विय,१० दसहा इह हुंति भवणवई॥पिसाय 1 भूया 2 जक्खा य,३ रक्खसा 4 किंनरा य५ किं पुरिसा ६।महोरगा य७ गंधव्वा 8, अट्ठविहा'वाणमंतरिया॥६||ससि 1 रवि 2 गह 3 नक्खत्ता, तारा 5 जोइसिय पंचहा देवा। वेमाणिया यदुविहा, कप्पगया कप्पऽतीयाथ / / 7 / / तत्र कल्पगता:सोहमीसाण 1-2 सणंकुमार 3 माहिद 4 बंभ 5 लंतगया 6 / सुक्क 7 सहस्साराऽऽणय -6, पाणय 10 आरणय 11 अचुयजा 12||8|| | कल्पातीतास्त्विमे - . सुदरिसण 1 सुप्पबद्धं 2, मणोरम 3 सव्वभद्द 4 सुविसालं ५सोमणसं 6 सोमाणस ७.पीइकरं चेव 8 नंदिकरं Ill विजयं च 1 वेजयंतं,२ जयंत 3 अपराजियं य 4 सव्व8 5 / एएसु जे गया ते, कप्पाईया मुणेयव्वा / / 10 / / चमरबलि अयर महियं, दिवढपलियं तु सेसजम्माण। आउंदो देसूणं, तारापलियं वणयराणं / / 11 / / पलियं वासरलक्खं, वाससहस्सं च पलिय मद्धं च। चउभागोय कमेणं, ससिरविगहरिक्खताराणं / / 12 / / दो१ साहिर सत्त३ साहिय४, दस५ चउद्द६ सत्तर७ अयर जा सुक्के। / एकिकाऽहिगतदुवरि-तित्तीसं अणुत्तरेसुपरं॥१३॥ दसवरिससहस्साई,भवणवईस ठिई जहन्नाओ। पलचउभागो चंदाइचउसुतारेसु अडभागो॥१४॥ पलियंअहिय२ दो अयर३, साहिया४ सत्त५ दसय 6 चउदस य७। सत्तरस 8 जा सहस्सारे, तदुवरि इग अयखुड्डि त्ति / / 15 / / अह जहन्नुक्कोसठिई, अयरा तित्तीस हुंति सव्वडे। एतो परेण देवा, देवाण ठिई य विच्छिन्ना / / 16 / / इसिभद्दपुत्तकहियं इणमट्ठ, सुद्वियं पि ते सद्धा। सव्वे असद्दहंता, नियनियगेहेसुसंपत्ता / / 17 / / सुपभूयभत्तिआहूयपवरपुरहूयबहुसमूहनओ। अह तत्थ वीरसामी, चामीयरसमपहो पत्तो॥१८|| सिरिपवयणउत्थप्पण-पुव्वं जयता व पायनमणत्थं। इसिभहपुत्तसहिया, ते सव्ये सावया पत्ता // 16 // काउंपयाहिणतिगं, सुभत्तिजुत्ता नमिउ ते सामि। निसियंति उचियदेसे, इय धम्मं कहइ भुवणगुरू // 20 // भो भविया ! अइदुलह, नरजम्मेलहिय उज्जमह सययं / अन्नाण हणणमल्ले, पवयणभणियत्थकोसल्ले॥२१|| इय आयन्निय धम्म, ते सड्ढा विनवंति जयपहुणो। तं देवठिइविसेस, सव्वं इसिभहसुयकहियं // 22 // तो संसइ संसयरेणुपुंजहरणे समीरणो सामी। भो भद्दा ! देवठिई, एमेव अहं पिजंपेमि॥२३॥ इय सोते सङ्का, इसिभद्दसुयं सुयत्थकुसलकाइ। खामितु नमितु पहुं तं, संपत्ता नियनियगिहेसु // 24 // इयरो विवंदिय जिणं, पुच्छियपसिणाई सगिहमणुपत्तो। वरकमलुव्व पहू वि हु, अन्नत्थ सुवासए भविए।।२५।। सम्म इसिभद्दपुत्तो, चिरकालं पालिऊण गिहिधम्म। कयमासभत्तयाओ,जाओ सोहम्मसग्गसुरो॥२६॥ अरुणाभं पि विमाणे, चउपलियाई तहिं सुहं भुत्तुं। चविय विदेहे पवयण-कुसलो होउंसिवं गमिही॥२७।। एवं निशम्य सम्यग, भव्याः! ऋषिभद्रपुत्रसुचरित्रम्। भवत भवतापहारिषु, कुशलधियः प्रवचनार्थेषु / / 28|| इति ऋषिभद्रपुत्रकथा / इत्युक्तः प्रवचनकुशलस्य अर्थकुशल इति द्वितीयो भेदः। ध००। अत्थक्क-न०(अकाण्ड) प्राकृते- "गोणादयः" / / 74/ इति अत्थक्कादेशः / अनवसरे, प्रा०ा देना। अत्थक्कजाया-स्त्री०(अकाण्डायाञ्चा) अकालप्रार्थनायाम, बृ०३ उ०) अत्थगवे सि(ण)-त्रि०(अर्थगवेषिन्) द्रव्यान्वेषणकृति, भ० १५श०१ उ01 अत्थग्गहण-न०(अर्थग्रहण) अर्थपरिज्ञाने, व्य०७ उ०। अर्थ निश्चयकरणे,। अत्रार्थग्रहणद्वारं विवरीषुराहसुत्तम्मि य गहियम्मी, दिटुंतो गोण-सालिकरणेणं। उवभोगफलासाली, सुत्तं पुण अत्थकरणफलं / / 1 / / सूत्रे गृहीते सति अवश्यं तस्याऽर्थः श्रोतव्यः / किं कारणमिति चेदुच्यते-दृष्टान्तोऽत्र गवा बलीवर्दैन, शालिक्षेत्रेण / तत्र गोदृष्टान्तो यथा-कश्चिद् बलीवर्दः सकलमपि दिवसं वाहयित्या हला-दरकघट्टात् मुक्तः सन् सुन्दरामसुन्दरां वा चारिं यां प्राप्नोति, तां समिनास्वादयन् चरत्येव / पश्चाद् घ्रातः सन् उपविश्य प्राक् चीर्ण Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्यग्गहण 509- अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अत्थदायि (ण) उन रोमन्थायते, रोमन्थायमानश्च तदास्वादमुपलभते / ततोऽसौ नीरसं अत्थजाय-न० (अर्थजात) द्रव्यप्रकारे, पञ्चा०१० विव०॥ कचवरं परित्यजति / एवमयमपि गृहवासारकघट्टात् मुक्तः प्रथम अत्थजुत्ति-स्त्री०(अर्थयुक्ति) हेयेतररूपार्थयोजनायाम्, दश०५ अ०१ यत्किमपि सूत्रं चारिकल्पं गुरुसकाशादधिगच्छति, तत्सर्वमर्थास्वादनविरहितं गृह्णाति, ततः सूत्रे गृहीते अर्थग्रहणं करोति / यदि पुनरर्थ न अत्थजोणि-स्त्री०(अर्थयोनि) अर्थस्य योनिरर्थयोनिः / राजलक्ष्म्यागृह्णीयात्, तदा तत्सूत्रं निरास्वादमेव संजायते; अर्थे तु श्रुते सम्यक् देरुपाये, “तिविहा अत्थजोणी पन्नत्ता / तं जहा- सामे, दंडे, भेए" तदर्थमवबुझ्यमानः सन्नसौ यथावदवधारयत्युपदेशं, परिहरति सामदण्डादीनामन्यत्र स्वरूपम्। स्था०३ ठा०३ उ०। बिन्दुमात्राभेदादिदोषदुष्टान् कचवरकल्पनाभिलापानिति। अत्थण-न०(अर्थन) ज्ञानाद्यर्थं परस्याऽऽचार्यस्य पार्श्वेऽवस्थाय शालिकरणदृष्टान्तः पुनरयम्।यथा-कर्षकःशालीन्महता परिश्रमेव ज्ञानादिगुणार्जने, उत्त०२६ अ० निष्पाद्य ततो लवनमलनपवनादिप्रक्रियापुरस्सरं कोष्ठागारे प्रक्षिप्य यदि अत्थणय-पुं०(अर्थनय) अर्थनिरूपणप्रवणत्वादर्थनयः। स्था०। रत्ना०। तैः शालिभिः खाद्यपेयादीनामुपभोग न करोति,ततः शालिसंग्रहः मुख्यवृत्त्या जीवाद्यर्थसमाश्रयणात्। आ०म०वि०। यथाकथञ्चिच्छब्दा तस्याऽफलः संपद्यते। अथाऽसौ करोति तैः शालिभिर्यथायोगमुपभोगं, 'एव प्रधानमित्यभ्युपगमपरत्वादर्थनयः / अनु० / यो ह्यर्थमाश्रित्य ततः शालिसंग्रहः सफलो जायते। एवं द्वादशवार्षिके सूत्राध्ययने परिश्रमे वक्तृस्थसंग्रहव्यवहारसूत्राख्यप्रत्ययः प्रादुर्भवति सोऽर्थनयः; अर्थवशेन कृतेऽपि यदि तदीयम) नशृणुयात्तदा स सर्वोऽपि परिश्रमो निष्फल एव तदुत्पत्तेः / अर्थप्रधानतयाऽऽसौ व्यवस्थापयतीति / सम्म०। अर्थमेव भवेत्। अर्थे तु श्रुते सम्यगवधारिते च सफलः स्यात्। अत एवाऽऽह प्राधान्येन शब्दोपसर्जन-मिच्छति / सूत्र०२ श्रु०७ अ०) उपभोगफलाः शालयः, सूत्र पुनरर्थकरणफलम्। चरण करणादिरूप अत्थप्पवरं सद्दो, सद्दाणं वत्थुमुजुसुत्तंता / / सूत्रार्थाचरणादिरूपस्तदर्थाचरणफलं,तच सूत्रो-क्तार्थाचरणं श्रुत एवाऽर्थे भवति, नाऽन्यथा। अतः - ऋजुसूत्रान्ताश्चत्वारो नया वस्तु ब्रुवते प्रतिपादयन्ति / कथंभूतम् ? इत्याह- अर्थप्रवरं शब्दोपसर्जनम् / अथवा अर्थप्रवरं प्रधानभूतो जइ बारसवासाई, सुत्तं गहियं सुणादि से अहुणो। मुख्योऽर्थो यत्र तदर्थप्रवरम् / शब्द उपसर्जन-मप्रधानभूतो गौणो यत्र बारस चेव समाओ, अत्थं तो नाहिसिन वाणं / / 2 / / तच्छब्दोपसर्जनम्। शेषास्तुशब्दादयः त्रयो व्यत्ययमिच्छन्ति। विशे०। यदि द्वादशवर्षाणि त्वया सूत्रं गृहीतम्, अतस्तस्य सूत्राऽर्थमधुनाद्वादशैव अत्थणाण-पुं०(अर्थज्ञान) अभिधेयावबोधे, पञ्चा०१२ विव०। समा वर्षाणि शृणु / ततोऽर्थं शृण्वन् स्वज्ञानाऽऽवारककर्मक्षयोपशमानुसारेण ज्ञास्यसि वा, न वा (णमिति) तं विवक्षितमर्थम् (बृ०) अत्थणिऊर-न०(अर्थनि(कुर)पूर) चतुरशीतिलक्षैर्गुणिते-ऽर्थनिपूराङ्गे, किंचसंज्ञासूत्रादीन्यनेकविधानि सन्ति / इत्थमनेकधा सूत्राणां संभवे अनु०॥ तदर्थश्रवणमन्तरेण न शक्यते कीदृशमिति विवेकं कर्तुम्, इति अत्थणिऊरंग-न०(अर्थनिपूराङ्ग-निकुराङ्ग) चतुरशीतिलक्षैर्गुणिते कर्तव्यमर्थग्रहणम्। अथते शिष्या ब्रूयुः- यः कण्ठतः सूत्रे निबद्धोऽर्थस्तेनैव नलिने, अनु०। स्था०। जी० वयं तुष्टाः, किमस्माकं दुरधिगमत्वाद् बहुपरिक्लेशेन "मज्जण णिसणज्ज | अत्थणिज्जावणा-स्त्री०(अर्थनिर्यापणा) अर्थःसूत्राऽभिधेयं वस्तु, तस्य अक्खा" इत्यादिप्रक्रियापुरस्सरमर्थग्रहणप्रयासेनेति। एते इत्थं ब्रुवाणाः निरिति भृशं, यापना निर्वाहणा, पूर्वापरसाङ्गत्येन स्वयं ज्ञानतोऽन्येषां प्रज्ञापयितव्याः कथमित्याह च कथनतो निर्गमतो निर्यापणा। वाचनासंपर्दोदे, उत्त०१ अ०। अर्थस्य जे सुत्तगुणा खलु लक्खणम्मि कहिया उ सुत्तमाई य। निर्यापणामाहअत्थग्गहणमराला, तेहिं चिय पण्णविनंति॥ निज्जवगो अत्थस्सय,जो उ वियाणाइ अत्थ सुत्तस्स। पीठिकायां लक्षणद्वारे ये सूत्रस्य गुणाः 'निदोसं सारवंतं च' इत्यादिना अत्थेण वि निव्वहति, अत्थं पि कहेइजं भणियं // कथिताः / यद्वा- (सुत्तमाई यत्ति) “सुत्तं तु सुत्तमेव उ' इत्यादिना अर्थस्य निर्यापक इति यद्भणितं तस्याऽयमर्थः - यो नाम सूत्रस्याऽर्थ प्रतिपादिताः, तैरेव हेतुभिरर्थग्रहणे मराला अलसाः शिष्याः प्रज्ञाप्यन्ते। कथ्यमानं विजानाति / यदि वा- अर्थेन निर्वहति अर्थाऽवधारणबलेन यथा-भो भद्राः! निर्दोषसारवद्-विश्वतोमुखादयः सूत्रस्य गुणा भवन्ति, सूत्रपाठे निर्वहमुपयाति, तस्याऽर्थमपि कथयति, आस्तां सूत्रं ते च यथाविधि गुरुमुखादर्थे श्रूयमाण एव प्रकटीभवन्ति / किंच- यथा ददातीत्यपिशब्दार्थः। व्य०१० उ०। द्वासप्ततिकलापण्डितो मनुष्यः प्रसुप्तः सन्न किञ्चित् तासां कलानां अत्थाणियय-त्रि०(अर्थनियत) अर्थनिबन्धने, सम्मका जानीते / एवं सूत्रमप्यर्थेनाबोधितं सुप्तमिव द्रष्टव्यम्। विचित्रार्थनिबद्धानि अत्थत्थिअ-त्रि०(अर्थाऽर्थिन्) अर्थमर्थयते इति अर्थाऽर्थी / सोपस्काराणि च सूत्राणि भवन्ति / अतो गुरुसंप्रदायादेव द्रव्यप्रयोजने, भ०१५ श०१ उ०। औ०। ज्ञा०ा जंग। यथावदवसीयन्ते, नाऽन्यतस्तत इत्थं युक्ति-युक्तैर्वचोभिः प्रज्ञापितास्ते विनेयाः प्रतिपद्यन्ते गुरूणामुपदेशं गृह्णन्ति द्वादशवर्षाणि विधिवदर्थम्। अत्थदंड-पुं०(अर्थदण्ड) शरीराद्यर्थदण्डे, प्रश्न०५ संव० द्वा०। इति गतमर्थग्रहणद्वारम्। बृ०१ उ० अत्थदायि(ण)-त्रि०(अर्थदायिन्) सूत्राऽभिधेयप्रदातरि, काउं Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्थिदायि (ण) 510- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अत्थमाण पणामं च अत्थदायिस्स पञ्जुण्णखमासमणस्स। नि०चू०१ उ०। अत्थभेय-पुं०(अर्थभेद) आगमपदार्थस्याऽन्यथापरिकल्पने, जीत०। अत्थधम्मभासाणवेयत्त-न०(अर्थधर्माऽभ्यासानपेतत्व) अर्थधर्मप्रति 'आवंतीके यावंती लोगम्मि विप्परामुसंति'' इत्यत्र आचारसूत्रे यावन्तः बद्धतारूपे सत्यवचनाऽतिशये, औ०। रा०ा केचन लोकेऽस्मिन् पाखण्डिलोके विपरामृशन्तीत्येवंविधार्थाभिधाने, अत्थधर-पुं०(अर्थधर) अर्थबोद्धरि, स्था०४ ठा०१ उ०। "सुत्तहरा अवन्तीजनपदे के यां रज्जु वातात् कूपे पतितां लोकाः अत्थधरो, अत्थधराओ होइ तदुभयधरो" आ०म०प्र०) स्पृशन्तीत्यन्यथयित्वाऽऽह / व्य०१ उ०। ध० दश०। ग०। अत्थेति दारंअत्थपञ्जय-पुं०(अर्थपर्याय) अर्थकदेशप्रतिपादकेषु पर्यायेषु, अर्थरूपेषु पर्यायेषु च / विशे० / अर्थविषयं पर्येत्यवगच्छति यः, सोऽर्थपर्यायः / वंजणमभिंदमाणे, अवंतिमादीण अत्थगुरुगो तु। ईदृग्भूतार्थग्राहकत्वे, सम्मा जो अण्णोऽण्णणुवाई, णाणादिविराहणा णवरिं||१६|| अत्थपडिवत्ति-स्त्री०(अर्थप्रतिपत्ति) अर्थावबोधे, "नियभासाऍ भणंते, 1 वंजणं सुत्तं, अण्णहाकरणं भेदो, ण भिंदमाणो अभिंदमाणो, अविणासंतो समाणसीलम्मि अत्थपडिवत्ती" / विशे० त्ति भणितं होति। तेसुचेव वंजणेसु अभिण्णेसु अण्णं अत्थं विकप्पयति। अत्थपय-न०(अर्थपद) उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सदित्यादिवदर्थप्रधाने पदे, कहं ? जहा- (अवंतिमादीणं ति) अवंतिके यावंती लोग, समणा य माहणा य (विप्परामुसंति त्ति) अवंतीणामं जणवओ, केय त्ति रज्जुवं ति विशेष णाम, पडिया कूवे लोयंसिणाया। जहा- कूवे केया पडिता, ततो धावंति अत्थपिवासिया-त्रि०(अर्थपिपासित) पिपासेव पिपासाप्राप्तेऽप्य समणा भिक्खूगाइ माहणा धिज्जाईया / ते समणमाहणा कूवे उयरिउ र्थेऽतृप्तिः / अर्थे अर्थस्य वा पिपासा संजाता अस्येति अर्थपिपासितः। पाणियमज्झे विविध परामुसंति। आदिसहातो अण्णं पिसुतं एवं कप्पति / तं०1 अप्राप्तार्थविषयसञ्जाततृष्णे, भ०१५ श०१ उ०। अण्णंति अण्णहा अत्थं कप्पयति, एवं अत्थे अण्णहा कप्पिए, सोही अत्थपुरिस-पुं०(अर्थपुरुष) अर्थार्जनव्यापारपरे पुरुषभेदे, यथा अत्थे गुरुगो उ। अत्थस्स अण्णाणि यंजणाणि करेंतस्स मासगुरु / अह मम्मणवणिक् / आ०म०द्विला आ०चू०। अण्णं अत्थं करेति, तो चउगुरुगा।(जो अपणो त्ति) भणितो अभणितो अत्थपुहत्त-न०(अर्थपृथक्त्व) "अत्थो सुयस्स विसओ, तत्तो भिन्नं सुर्य अण्णो सो य अणिघिट्टसरूवो, (अणणुपाति त्ति) अनुपततीत्यनुपाती, पुहत्तं ति'' अर्थः किमुच्यते ? इत्याह- श्रुतस्य विषयो विधेयः, घटमानो युज्यमान इत्यर्थः / न अनुपाती अननुपाती, अघटमान तस्माचाऽर्थात् कथञ्चिद् भिन्नत्वात् सूत्रं पृथगुच्यते / प्राकृतत्वात्तदेव इत्यर्थः / तमघड-माणमत्थं सुत्ते जोजयंतो(णाणादिविराहण त्ति) णाणं पृथक्त्वम्। सूत्रार्थलक्षणोभयरूपे श्रुतज्ञाने अर्थस्य पृथक्त्वम्। श्रुतज्ञाने आदी जेसिं ताणिमाणि णाणादीणि / आदिसहातो दंसणचरित्ता; ते य तस्य अर्थपृथक्त्वसंज्ञितत्वात् / "अत्थाओ य पुहुत्तं, जस्स तओ वा विराहेति, विराहणा खंडणा भंजणा य एगट्टा / (णवरि ति) इह पुहत्तओजस्स" अर्थात् पृथक्त्वं कथञ्चिद् भेदो यस्य तदर्थपृथक्त्वम्। परलोगगुणपावणवुदासत्थं णवरिसद्दोपउत्तो, विराहणाए केवलेत्यर्थः / स चाऽर्थः पृथक्त्वतः पार्थक्येन भेदेन वर्तते यस्य तदर्थपृथक्त्वम् / अत्थेति दारं गयम्। नि०चू०१ उ०। श्रुत-ज्ञाने, ते वंदिऊण सिरसा, अत्थपुहत्तस्स तेहि कहियस्स।सुयणाणस्स भगवओ, णिज्जुत्तिं कित्तइस्सामि / / 1 / / विशे० आ०म० अत्थभोगपरिवञ्जिय-स्त्री०(अर्थभोगपरिवर्जित)द्रव्येण भोगैश्वर्यरहिते, प्रश्न०२ आश्र०द्वान अत्थपुहुत्त-न०(अर्थपृथुत्व) "अत्थस्स व पिहुभावो, पुत्तमत्थस्स वित्थरंतं ति'' पृथु सामान्येन विस्तीर्णमुच्यते, तस्य भावः पृथुत्वम् / अत्थमंडली-स्त्री०(अर्थमण्डली) द्वितीयायां पौरुष्याम्, आचार्याः अर्थस्य पृथुत्वमर्थपृथुत्वम् / जीवाद्यर्थविस्तरात्मके श्रुतज्ञाने, सूत्राऽर्थं प्रज्ञापयन्ति, शिष्याश्च शृण्वन्तीत्येवंरूपायामर्थपैरुष्याम्, ध०३ श्रुतज्ञानमात्रे च / तस्याऽर्थपृथुत्वसंज्ञित-त्वात्। "जं वा अत्थेण पुहं, अघिला ही०। (एतद्विधिः 'उवसंपया' शब्दे द्वितीयभागे 684 पृष्ठे सप्रपञ्च अत्थपुहुत्तं ति तब्भावो' अर्थेन पृथुविस्तीर्णमर्थपृथु / द्रष्टव्यः) तद्भावोऽर्थपृथोर्भावः - अर्थपृथुत्वम् धर्मधर्मिणोरभेदोपचारात्।। अस्थमय-न०(अस्तमय) सूर्यादर्दृश्यस्य सतोऽदृश्यीभवने, भ०२श०१० श्रुतज्ञाने, “अत्थ-पुहुत्तस्स तेहि कहियस्स"। विशे०। अत्थपोरिसी-स्त्री०(अर्थपौरुषी) अर्थप्रतिबद्धायां पौरुष्याम्, ध०३ | अत्थमहत्थखाणि-पुं०(अर्थमहार्थखानि) भाषाऽभिधेया अर्थाः,विभाषा अधिवा "अत्थपोरिसिं ण करेति, मासलहुँ' / नि०५०१ उ०॥ (वार्तिका)ऽभिधेया महार्थाः, तेषामर्थमहानिां खानिरिव अत्थप्पवर-त्रि०(अर्थप्रवर) अर्थः प्रवरो यत्र तदर्थप्रवरम् / मुख्यार्थक अर्थमहार्थखानिः / भाषावार्तिकरूपानुयोग-विधावतिपटीयसि, वस्तुनि, यस्य हि वस्तुनोऽर्थ एव प्रधानभूतः। विशे०। "अत्थमहत्थखाणिं सुसमणवक्खाण-कहणणिव्वाणि'नं०। अत्थबहुल-त्रि०(अर्थबहुल) अर्थो बहुलो यस्मिंस्तदर्थबहुलम् | अत्थमहुर-त्रि०(अर्थमधुर) परलोकाऽनुगुणाऽर्थे, "वयणाई "ववचित्प्रवृत्तिः क्वचिदप्रवृत्तिः,क्वचिद् विभाषा क्वचिदन्य-देव / अत्थमहुराई'। पं०५०४ द्वा०। विधेविधानं बहुधा समीक्ष्य, चतुर्विधं बाहुलकं वदन्ति' ||1|| अत्थमाण-त्रि०(आसीन) श्मशानादावास्थीयमाने, "तत्थ से अत्थ"अत्थबहुलं महत्थं, हेउनिवाओवसम्गगंभीरं"।दश०२ अ०॥ माणस्स, उवसग्गाभिधारए"। उत्त०२ अ०। उन Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्थमिअ 511- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अथालिय अत्थमिअ-त्रि०(अस्तमित) अत्यन्तास्तंगते, ज्ञा०४ अ०) अत्थविणय-पुं०(अर्थविनय) विनयशब्दे वक्ष्यमाणार्थक विनयभेदे, अत्थमिओदिय-त्रि०(अस्तमितोदित) अस्तमितश्चासौ हीनकुलोत्पत्ति दश०७ अ० दुर्भगत्वदुर्गतत्वादिना, उदितश्च समृद्धिकीर्तिसुगति-लाभादिनेति अत्थविणिच्छय-पुं०(अर्थविनिश्चय) अपापरक्षके कल्याणावहे च अस्तमितोदितः / प्रथमावस्थायां हीने पश्चात् सिद्धि प्राप्ते पुरुषजाते, __अर्थावितथभावे, "पुच्छिज्जऽत्थविणिच्छयं" / दश०८ अ०॥ स्था०।यथा हरिकेशबलाभिधानोऽनगारः। स हि जन्मान्तरोपपन्ननी- 1 अत्थविण्णाण-न०(अर्थविज्ञान)६ताऊहापोहयोगात् मोहसन्देहविचैर्गोत्रकर्मवशादवाप्तहरिकेशाभिधान चाण्डलकुलतया, दुर्भगतया पर्यासव्युदासेन ज्ञानरूपे बुद्धिगुणे, ध०१ अधि०। दरिद्रतया चपूर्वमस्तमिताऽऽदित्य इवाऽनभ्युदयवत्वादस्तमिति, पश्चात् अत्थविहूण-त्रि०(अर्थविहीन) अगीतार्थे, व्य०३ उ०। प्रतिपन्नप्रव्रज्यो निष्कम्पचरणगुणावर्जितदेवकृतसान्निध्यतया / अत्थसंपयाण-न०(अर्थसंप्रदान) अर्थदाने, "अत्थसंपयाणं प्राप्तसिद्धितया सुगतिगततया च उदित इति। स्था०४ ठा०३ उ०। दलयइत्ति' / अर्थदानं करोतीत्यर्थः / विपा०१ श्रु०१ अ०॥ अत्थमियत्थमिय-पुं०(अस्तमितास्तमित) अस्तमितश्चासौ सूर्य इव | अत्थसत्थ-न०(अर्थशास्त्र) अर्थागमनिमित्तं शास्त्रमर्थशास्त्रम् / दुष्कुलतया, दुष्कर्मकारितया चकीर्तिसमृद्धिलक्षणतेजोविवर्जितत्वात, आ०म०प्र० / अर्थोपायव्युत्पादनग्रन्थे कौटिल्यराजनीत्यादौ, ज्ञा० अस्तमितश्च दुर्गतिगमनादित्यस्तमिता-ऽस्तमितः / पौर्वापर्येण दुर्गते, 1 अ०। प्रश्न नं०। "अत्थसत्थकोसल्लयमादी तदा उववत्रा''। स्था०। यथा कालाऽभिधानः सौकरिकः / स हि सूकरैश्चरति मृगयां आ०चू०१ अ० आ०म०द्वि०। (उदाहरणमस्य "वेणइया' शब्दे करोतीति यथाऽर्थः सौकरिक एव दुष्कुलोत्पन्नः, प्रतिदिनं वक्ष्यते) महिषपञ्चशतीव्यापादक इति पूर्वमस्तमितः, पश्चादपि मृत्वा सप्तमनर- अत्थसत्थकुसल-त्रि०(अर्थशास्त्रकुशल) 7 ता नीतिशास्त्रादिषु, कपृथिवीं गत इति अस्तमित एवेति। स्था०४ ठा०३ उ०। कुशले, जं 3 वक्ष। अत्थयारिया-(देशी) संख्यायाम, दे०ना०१ वर्ग। अत्थसार-पुं०(अर्थसार) द्रव्यतत्त्वे, आ०म०द्विका अत्थरय-न०(आस्तरक) आच्छदके, आ०म०प्र० जी०। रा० अत्थसिद्ध-पुं०(अर्थसिद्ध) अर्थो धनं स इतराऽसाधारणो यस्य सोऽर्थसिद्धः / मम्मणवणिग्वत् सिद्धभेदे, ध०२ अधिo "पउरत्थो *अस्तरजस्-त्रि० निर्मले, "अत्थरयमिउमसूरगोत्थयं" आस्तरकेण अत्थपरोव्व मम्मणो अत्थसिद्धो उ' / प्रचुरार्थः प्रभूतार्थः, प्रतीतेन मृदुमसूरकेण वा, अथवाऽस्तरजसा निर्मलेन मृदुमसूरकेण अर्थपरोऽर्थनिष्ठः, अर्थसिद्धोऽतिशययोगात् मम्मणवणिग्वदिति अवस्तृतमाच्छादितं यत्तत्तथा। भ०११श०११ उ०। गाथादलार्थः / आ०म०द्वि०। भावार्थस्तु कथानकादवसेयः (स च अत्थलुद्ध-त्रि०(अर्थलुब्ध) द्रव्यलालसे, भ०१५ श०१ उ०। 'मम्मण' शब्दे वक्ष्यते) लोकोत्तररीत्या दशमे अर्थसिद्धे, जं०७ वक्षा अत्थवं-त्रि०(अर्थवत) पञ्चविंशे मुहूर्ते, कल्पा ऐरवते भविष्यति पञ्चमे तीर्थकरे, ति०। अत्थवति-पुं०(अर्थपति) धनपतौ, व्य०७ उof अत्थसुण्ण-न०(अर्थशून्य) डित्थादिकेऽर्थहीने पदे, स्था० 1 ठा०१ उ०। अत्थवाय-पुं०(अर्थवाद) अर्थस्य लक्षणया स्तुत्यर्थस्य निन्दार्थस्य वा अत्था-स्त्री०(आस्था) स्वपक्षाणामर्हत्कृते तीर्थे बहुमानत्वे, जीवा० वादः। वद्-करणे घञ्। प्रशंसनीयगुणवाचके, निन्दनीय-दोषवाचके च 1 अधिo शब्दविशेषे / भावे घञि तत्कथने, वाच० / अर्थवादस्तु द्विधा- अत्थाण-न०(अस्थान) अविषये, द्वा०१४ द्वा० स्तुत्यर्थवादो निन्दार्थवादश्च / तत्र "पुरुष एवेदं सर्वम्" इत्यादिकः अत्थादा(या)ण-न०(अर्थादान) द्रव्योपादानकरणे अष्टाऽङ्ग-निमित्ते, स्तुत्यर्थवादः / तथा तत्र ‘स सर्व विद्यस्यैषा महिमा तु दिव्ये ब्रह्मपुरे स्था०३ ठा०४ उ० (अस्मिन्नेव भागे 268 पृष्ठे 'अणवठ्ठप्प' शब्दे ह्येष व्योम्न्यात्मा सुप्रतिष्ठितस्तमक्षरं वेदयतेऽथ यस्तु स सर्वज्ञः व्याख्यातमेतत्) सर्ववित्सर्वमेवाविवेश'' इति / तथा- "एकया पूर्णाहुत्या सर्वान् / अत्थाम-त्रि०(अस्थामन्) सामान्यतः शक्तिविकले, भ०७ श० कामानवाप्नोति' इत्यादिकश्च सर्वोऽपि स्तुत्यर्थवादः 1 "एकया | ६उ०। शारीरिकबलविकले, ज्ञा०१ अ० विपा०। पूर्णया'' इत्यादि विधिवादोऽपि कस्मान्न भवतीति चेत् / उच्यते- | अथारिय-पुं०(अस्तारिक) मूल्यप्रदानेन शालिलवनाय क्षेत्रे क्षिप्यमाणे शेषस्याग्निहोत्राद्यनुष्ठानस्य वैयर्थ्यप्रसङ्गादिति!"एष वाव प्रथमो यज्ञो / कर्मकरे, व्य०६ उ०1 योऽग्निष्टोमः योऽनेनानिष्ट्वाऽन्येन यजते, स गर्तमभ्यपतत्' / अत्र | अत्थारो-(देशी) साहाय्ये, देवना०१ वर्ग। पशमेधादीनां प्रथमकरणं निन्द्यत इत्ययं निन्दार्थवादः।"द्वादशमासाः / अत्थालंबण-न०पू०(अर्थालम्बन) अर्थो वाक्यस्य भावार्थः। आलम्बन संवत्सरोऽग्निरुष्णोऽग्निहिमस्य भेषजम्' इत्यादीनि तु वेदवाक्यान्यनु- वाच्ये पदार्थ अर्हत्स्वरूपे उपयोगस्यैकत्वम् / अर्थश्च आलम्बनं वादप्रधानानि, लोकप्रसिद्ध-स्यैवाऽर्थस्यैतेषु अनुवादादिति / विशे० चाऽर्थाऽऽलम्बने / अर्थे, आलम्बने च / अर्थालम्बनयोश्चैत्यवन्दनादौ आ०म० विभावनम्। अष्ट०२७ अष्ट। अत्थविगप्पणा-स्त्री०(अर्थविकल्पना) अर्थभेदोपदर्शने, आ०म०वि०। | अत्थालिय-न०(अर्थाऽलीक) द्रव्यार्थमसत्ये, प्रश्न०२ आश्रद्वा० Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्थालोयण 512- अभिषानराजेन्द्रः - भाग 1 अत्थावत्ति अत्थालोयण-न०(अर्थालोचन) अर्थस्य सामान्येन ग्रहणे, आ०चू० १अ० अत्थावग्गह-पुं०(अर्थावग्रह) अवग्रहणमवग्रहः, अर्थस्याऽवग्रहोऽर्थावग्रहः / अनिर्देशसामान्यमात्ररूपाद्यर्थग्रहणे, आह च नन्द्यध्ययनचूर्णिकृत्-"सामन्नरूवाइविसेसणरहियस्स अवग्गहत्ति" प्रज्ञा०५ पद / आचा अत्थावत्ति-स्त्री०(अर्थापत्ति) अर्थस्य अनुक्तार्थस्य, आपत्तिः सिद्धिः / वाच० "प्रमाणषट्कविज्ञातो, यत्रार्थो नान्यथा भवेत्। अदृष्ट कल्पयेदन्यं, साऽर्थापत्तिरुदाहृता'' ||1 / / इत्युक्तलक्षणे प्रमाणभेदे, रत्ना०२ परि०। सूत्र०ा दृष्टः श्रुतो वाऽर्थोऽन्यथा, नोपपद्यत इति अदृष्टाऽर्थकल्पने, सम्म० / तां प्रमाणचतुष्कवादिनोऽनुमानेऽन्तर्भावयन्ति, तस्याः प्रमाणत्वेऽनुमानेऽन्त-भूतत्वात्। तथाहिदृष्टः श्रुतो वाऽर्थोऽन्यथा नोपपद्यत इत्यदृष्टा-ऽर्थकल्पनाऽर्थापत्तिः। न चाऽसावर्थोऽन्यथाऽनुपपद्यमानत्वानवगमे अदृष्टार्थ परिकल्पनानिमित्तम् / अन्यथा स येन विनोपपद्यमानत्वेन निश्चितस्तमपि परिकल्पयेत्, येन विना नोपपद्यते तमपि वा न कल्पयेत् अनवगतस्याऽन्यथाऽनुपपन्नत्वेनाऽर्थापत्युत्थापकस्याऽर्थस्याऽन्यथाऽनुपपद्यमानत्वे सत्यप्यदृष्टार्थपरिकल्पकत्वासं भवात् / संभवे वा लिङ्ग स्याऽप्यनिश्चितनियमस्य परोक्षार्थानुमापकत्वं स्यादिति, तदपि नाऽपित्त्युत्थापकादर्थाद् भिद्येत / स चाऽन्यथाऽनुपपद्यमानत्वाऽवगमः, तस्याऽर्थस्य न भूयोदर्शननिमित्तः सपक्षे / अन्यथा लोहलेख्यं वजं, पार्थिवत्वात्, काष्ठ वदिति अत्राऽपि साध्यसिद्धिः स्यात् / नाऽपि विपक्षे तस्यानुपलम्भनिमित्तोऽसौ। व्यतिरेकनिश्चायकत्वेनानुपलम्भस्य पूर्वमेव निषिद्धत्वात्; किंतु विपर्यये तद्बाधकप्रमाणनिमित्तः / तच बाधक प्रमाणमर्थापत्तिप्रवृत्तेः प्रागेवानुपपद्यमानस्यार्थस्य तत्र प्रवृत्तिमदभ्युपगन्तव्यम् / अन्यथाऽर्थापत्त्या तस्याऽन्यथाऽनुप पद्यमानत्वावगमेऽभ्युपगम्यमाने यावत् तस्याऽन्यथाऽनुपपद्यमानत्वं नाऽवगतम्, न तावदर्थापत्तिप्रवृत्तिः; यावच्च न तत्प्रवृत्तिः, न तावदर्थापत्त्युत्थापकस्याऽर्थस्याऽन्यथानुपपद्य-मानत्वावगम इतीतरेतराश्रयत्वान्नाऽर्थापत्तिप्रवृत्तिः। अत एव यदुक्तम्अविनाभाविता चात्र, तदैव परिगृह्यते। न प्रागवगतेत्येवं, सत्यप्येषा न कारणम् / / 1 / / तेन संबन्धवेलायां, संबन्ध्यन्यतरो धुवम्। अर्थापत्त्यैव मन्तव्यः, पश्चादस्त्वनुमानता // 2 // इत्यादि। तन्निरस्तम्। एवमभ्युपगमे अर्थापत्तेरनुत्थानस्य प्रतिपादित-त्वात्। स च तस्य पूर्वमन्यथाऽनुपपद्यमानत्वावगमः किं दृष्टान्त धर्मिप्रवृत्तप्रमाणसंपाद्यः ? आहोस्वित् स्वसाध्यधर्मि प्रवृत्तप्रमाणसंपाद्यः ? इति तत्र यद्याद्यः पक्षः / तदाऽत्रापि वक्तव्यम्। किं तद् दृष्टान्तधर्मिणि प्रवृत्तं प्रमाणं साध्यधर्मिण्यपि साध्या-ऽन्यथाऽनुपपन्नत्वं तस्याऽर्थस्य निश्चाययति, आहोस्विद् दृष्टान्तधर्मिण्येव / तत्र यद्याद्यः पक्षः; तदाऽर्थापत्त्युत्थापक-स्याऽर्थस्य, लिङ्ग स्य वा स्वसाध्यप्रतिपादनव्यापार प्रति न कश्चिद् विशेषः / अथ द्वितीयः / सन युक्तः। न हि दृष्टान्तधर्मिणि निश्चितस्वसाध्यान्यथाऽनुपपद्यमानत्वाऽर्थोऽन्यत्रसाध्यधार्मिणि तथा भवति / न च तथात्वेनाऽनिश्चितः स साध्यधर्मिणि स्वसाध्यं परिकल्पयतीति युक्तम्, अतिप्रसङ्गात् / अथ लिङ्गस्य दृष्टान्तधर्मिप्रवृत्तप्रमाणत्ववशात् सर्वोपसंहारेण स्वसाध्यनियतत्वनिश्चयः / अपित्त्युत्थापक स्य त्वर्थस्य स्वसाध्यधर्मिण्येव प्रवृत्तात् प्रमाणात् सर्वो पसंहारेणादृष्टार्थाऽन्यथाऽनुपपद्यमानत्वनिश्चय इति लिङ्गार्थापत्त्युत्थापकयोर्भेदः / नाऽस्माद् भदादर्थापत्तेरनुमानं भेदमासादयति / अनुमानेऽपि स्वसाध्यधर्मिण्येव विपर्ययाद्धेतुव्यावर्त्तकत्वेन प्रवृत्तं प्रमाणं सर्वो पसंहारेण स्वसाध्यनियतत्वनिश्चायकमभ्युपगन्तव्यम् / अन्यथा सर्वभनेकान्तात्मकं , सत्त्वादित्यस्य हेतोः पक्षीकृत-वस्तुव्यतिरेकेण दृष्टान्तधर्मिणोऽभावात्कथं तत्र प्रवर्त्तमानं बाधकं प्रमाणमनेकान्तात्मकत्वनियतत्वमवगमयेत् सत्त्वस्य ? नच साध्यधर्मिणि दृष्टान्तधर्मिणि चप्रवर्तमानेन प्रमाणेना-ऽर्थापत्त्युत्थापकस्यार्थस्य लिङ्गस्य च यथाक्रम प्रतिबन्धो गृह्यत इत्येतावन्मात्रेणाऽर्थापत्त्यनुमानयोर्भेदोऽभ्युपगन्तुं युक्तः। अन्यथा पक्षधर्मत्वसहितहेतुसमुत्थादनुमानात् तद्रहितहेतु समुत्थमनुमानं प्रमाणान्तरं स्यादिति प्रमाणषट् कवादो विशीर्येत / नियमवतो लिङ्गात् परोक्षार्थप्रतिपत्तेरविशेषात्, न ततः तदिन्नमित्यभ्युपगमे, स्वसाध्याविनाभूतादर्थादर्थप्रतिपत्तेरविशेषादनुमानादपित्तेः कथंनाऽभेदः? सम्म० अपित्तिरपि प्रमाणान्तरम्, यतस्तस्या लक्षणम्- दृष्टः श्रुतो वाऽर्थोऽन्यथा नोपपद्यत इत्यदृष्टार्थकल्पनम्। कुमारिलोऽप्येत-देव भाष्यवचन विभजन्नाहप्रमाणषट्कविज्ञातो, यत्रार्थो नान्यथा भवेत्। अदृष्ट कल्पयत्यन्तं, साऽपित्तिरुदाहृता / / 1 / / दृष्टा पञ्चभिरप्यस्माद्, भेदेनोक्ता श्रुतोद्भवा। प्रमाणग्राहिणीत्वेन, यस्मात्पूर्वविलक्षणा // 2 // प्रत्यक्षादिभिः षड्भिः प्रमाणैः प्रसिद्धो योऽर्थः स येन विना नोत्पद्यते तस्यार्थस्य प्रकल्पनमर्थापत्तिः। यथाऽग्नेर्दाहकत्वम्, तत्र प्रत्यक्षपूर्विकाऽर्थापत्तिः। यथाऽग्नेः प्रत्यक्षेणोष्णस्पर्श-मुपलभ्य दाहकशक्तियोगोऽ पित्त्या प्रकल्प्यते / न हि शक्ति-रध्यक्षपरिच्छेद्या; नाऽप्यनुमानादिसमधिगम्या; प्रत्यक्षेणाऽर्थेन शक्तिलक्षणेन कस्यचिदर्थस्य संबन्धाऽसिद्धः। अनुमान-पूर्विका त्वर्थापत्तिर्यथाऽऽदित्यस्य देशान्तर प्राप्त्या देवदत्तस्येव गत्यनुमानम् / ततो गमनशक्तियोगोऽर्थापत्त्याऽवसीयते / उपमानपूर्विका त्वर्थापत्तिर्यथा- गवयवद् गौरित्युक्तेराद् वाहदोहादिशक्तियोगस्तस्याः प्रतीयते, अन्यथा गोत्वस्यैवाऽयोगात् / शब्दपूर्विकाऽर्थापत्तिर्यथा- शब्दादर्थप्रतीतेः शब्दस्यार्थेन संबन्धसिद्धिः। अर्थापत्तिपूर्विकाऽर्थापत्तिर्यथोक्तप्रकारेण शब्दस्याऽर्थेन संबन्धसिद्धावर्थनित्यत्वसिद्धिः, पौरुषेयत्वे शब्दस्य संबन्धाऽयोगात्। अभावपूर्विकाऽर्थापत्तिर्यथाजीवतो देवदत्तस्य गृहेऽदर्शनादर्थाद् बहिर्भावः / अत्र चतसृभिरर्थापत्तिभिः शक्तिः साध्यते। पञ्चम्यां नित्यता। षष्ठ्यां गृहाबहिर्भूतो देवदत्त एव साध्यते। इत्येवं षट्-प्रकाराऽर्थापत्तिः / अन्ये तु- श्रुतार्थापत्तिमन्यथोदाहरन्ति 'पीनो देवदत्तो दिवा न भुक्ते' इति वाक्यश्रवणाद् रात्रिभोजनवाक्यप्रतिपत्तिः श्रुतार्थापत्तिः / गवयोपमिताया गोस्तज्ज्ञानग्राह्यताशक्तिरुपमान-पूर्विकाऽर्थापत्तिः / तदुक्तम्तत्र प्रत्यक्षतो ज्ञानात, तदा दहनशक्तिता। वढेरनुमिता सूर्ये, यानात्तच्छक्तियोगिता / / 1 / / पीनो दिवा न भुङ्क्ते इत्येवं प्रतिवचःश्रुतौ ! रात्रिभोजनविज्ञानं, श्रुतार्थापत्तिरुच्यते // 2 // गवयोपमिताया गोस्तज्ज्ञानग्राह्यशक्तिता। अभिधानप्रसिद्ध्यर्थमर्थापत्त्याऽवबोधितात् // 3 // Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्थावत्ति 513 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अस्थिकाय शब्दे वाचकसामर्थ्यात्, तन्नित्यत्वप्रमेयता। इति वार्तिकेन इनिः / याचके, वाच०। यः परस्मात् मयेदं लभ्यमिति प्रमाणाभावनिर्णीत-चैत्राभावविशेषितात् // 4|| याचते! व्य०१ उ अर्थवति ईश्वरे, पञ्चा०१०विव०। स्वामिनि, विशे० गेहाचैत्रबहिर्भावसिद्धिर्या त्विह दर्शिता। अत्थिअ-पुं०(अस्थिक) बहुबीजकवृक्षविशेषे, प्रज्ञा०१ पद / तत्फले, तामभावोत्थितामन्यामापत्तिमुदाहरेत् // 5 // इत्यादि / ना आचा०१ श्रु०१ अ०५ उ01 इयं च षट्प्रकाराऽप्यपत्तिर्नाऽध्यक्षम्, अतीन्द्रियशक्त्याद्यर्थविषय- | अर्थिन्-त्रि० याचके, स्वामिनि च।"धणी अस्थिको" / प्रा०) त्वात् / अत एव नाऽनुमानम् / प्रत्यक्षाऽवगतप्रतिबद्धलिङ्ग प्रभवत्वेन आस्तिक-पुं० अस्तीति मतिरस्येति आस्तिकः / तत्त्वान्तरश्रवणे-ऽपि तस्योपवर्णनात्; अर्थापत्तिगोचरस्याऽर्थस्यकदाचिदप्यध्यक्षाऽविषय जिनोक्ततत्त्वविषये निराकाङ्कप्रतिपत्तिमति, धo यदाहत्वात् / तेन सहाऽर्थाप-त्युत्थापकस्याऽर्थस्य संबन्धाऽप्रतिपत्तेः मण्णइ तमेव सचं, निस्संकं जं जिणेहि पण्णत्तं। तदैवाऽपित्त्या ततः तस्य प्रकल्पना। सम्म०। सुहपरिणामो सम्म, कंखाइ वि सुत्ति आरहिओ // 5 // अत्थावत्तिदोस-पुं०(अर्थापत्तिदोष) सूत्रदोषभेदे, यत्राऽर्थापत्त्याऽनिष्ट- यत्राऽप्यस्य मोहवशात् क्वचन संशयो भवति, तत्राऽप्यप्रतिमालपति तत्राऽर्थापत्तिदोषः / यथा-'गृहकुक्कुटो न हन्तव्यः' इत्युक्ते हतेयमर्गला श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणोदिताअर्थापत्त्याशेषघातोऽदुष्ट इत्यापतति। विशे। अनु०। यथा-'ब्राह्मणोन कत्थ य मइदुब्बलेणं, तचिय आयरिअविरहओ वा वि। हन्तव्यः' इत्यादब्राह्मणघाताय। आ०म०वि०। वृक्षा भेअगहणत्तणेण य, नाणावरणोदएणं च // 1 // अत्थाह-त्रि०पअस्ताध(थ)ब अगाधे, अस्तं निरस्तमविद्य-मानमधस्तलं हेऊदाहरणासं-भवे असइ सुठुन बुज्झेजा। प्रतिष्ठानं यस्य तदस्ताधः / स्ताथो वा प्रतिष्ठानं, तदभावादस्ताथम् / सव्वण्णुमयमवितह, तहा वि तं चिंतए म इमं // 2 / / ज्ञा०१४ अपिं० यत्र नासिकान ब्रुडति तत् स्ताघम्, यत्रतु नासिका अणुवकयपराणुग्गह-परायणा जं जिणा जगप्पवरा। बुडति तदस्ताधम् / बृ०४ उ०ा पञ्चदशे भारताऽतीतजिने, प्रव०६ द्वा०। जिअरागदोसमोहा, यऽनन्नहा वाइणो तेणं // 3 // अत्थाहिगम-पुं०(अर्थाधिगम) अभिधेयावगमे, पञ्चा०४ विव०) यथा वा सूत्रोक्तस्यैकस्याप्यरोचनादक्षरस्यभवतिनरो मिथ्या-दृष्टिः / अत्थाहिगार-पुं०(अर्थाधिकार) 6 तायो यस्य सामायिकाधध्ययन सूत्रं हि नः प्रमाणं जिनाभिहितमिति / ध०२ अधि०। आस्तिकमतस्याऽऽत्मीयोऽर्थस्तदुत्कीर्तनविषयके उपक्र मभेदे, से किं तं मात्माद्याः, नित्याऽनित्यात्मका नव पदार्थाः / कालनियतिस्वअत्थाहिगारे ? अत्थाहिगारे जो जस्स अज्झयणस्स अत्थाहिगारो। तं भावेश्वरात्मकृतकाः स्वपरसंस्थाः / / 1 / / कालयदृच्छानियतीश्वरस्व भावात्मनश्चतुरशीतिः। स्था० 4 ठा०४ उ०। आव०। जीवाला जहा-"सावज्जजोगविरई, उक्लित्तणगुणवओ य पडिवत्ती। खलियस्स चार्वाकादिभिन्नदर्शनस्वीकर्तरि च। नं० तं० निंदणावणतिगिच्छगुणधारणा चेव' // 1 // से तं अत्थाहिगारे / अनु०॥ आचा अस्थिकाय-पुं०(अस्तिकाय) अस्तीत्ययं त्रिकालवचनो निपातः; अभूवन् भवन्ति भविष्यन्ति चेति भावना / अतोऽस्ति च ते प्रदेशानां कायाश्च अत्थि-अव्य०(अस्ति) "स्तस्य थोऽसमस्तस्तम्बे" 451 राशय इति अस्तिशब्देन प्रदेशप्रदेशाः क्वचिदुच्यन्ते, ततश्च तेषां वा इतिसूत्रेण स्तभागस्य थः / प्रा०। अस्तीति तिङन्तक्रिया कायाः अस्तिकायाः / स्था० 4 ठा०१ उ०। अवयविद्रव्येषु वचनप्रतिरूपको निपातः। औ०। जीवा०। बह्वर्थे, सूत्र०१ श्रु०१अ०१ धर्मास्तिकायादिषु भ०२श० 10 उ०ा दर्शा आ० चूला ते चउ० निपातस्याऽव्ययत्येन, अव्ययस्य च सदृशं त्रिषु लिङ्गेषु, सर्वासु च विभक्तिषु / वचनेषु च सर्वेषु, यन्न व्येति तदव्ययम् इति" ||1|| चत्तारि अस्थिकाया अजीवकाया पन्नत्ता / तं जहाबहुत्वप्रतिपादनात् / औ०। "अत्थेगइया दुअण्णाणी" सन्त्येककाः ! धम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकाए आगासत्थिकाएपोग्गलत्थिकाए। व्यज्ञानिनः / जी०३ प्रति०। अस्तिशब्दश्वायं निपातस्त्रिकालविषयः / चत्तारि अस्थिकाया अरूविकाया पन्नत्ताातं जहा-धम्मत्थिकाए, आचा०१ श्रु०४ अ०४ उ०। त्रिकालवर्तिषु विद्यमानेषु अर्थेषु, अभूवन् अधम्मत्थिकाए, आगासत्थिकाए, जीवत्थिकाए। भवन्ति भविष्यन्ति च इति प्रत्ययवत्सु, स्था०३ ठा०१ उ०"अत्थिणं अजीवकाया अचेतनत्वादिति अस्तिकाया मूर्ताऽमूर्त्ता भवन्ति, भंते ! जीवाणं पाणाइवाएणं किरिया कज्जइ" भ०१श०१ उ०ा आव० इत्यमूर्तप्रतिपादनाय अरूप्यस्तिकायसूत्रम् / रूपं मूर्ति, वर्णादिमत्त्वं, "अस्थिय निचो 2 कुणई, 3 कयं च वेदेइ 4 अस्थि निव्याणं 5 / अस्थि तदस्ति येषां ते रूपिणः, तत्पर्युदासादरूपिणोऽमूर्त्ता इति / स्था० य मोक्खोवाओ 6, छः सम्मत्तस्स ठाणाई" ||18|| प्रव०१४८ द्वारा 4 ठा०४ उ० जी०ा द्रव्या०। येन येन यदा यदा प्रयोजनं तत् तत्तदा तदाऽस्ति भवति जायते इति / एते प्रदेशाऽग्रेण तुल्याः - अस्य आनन्दहेतुत्वात् सुखभेदे च, स्था०१० ठा०। प्रदेशे, स्था०१० चत्तारि पएसग्गेणं तुल्ला पण्णत्ता / तं जहा-धम्मत्थिकाए, ठा०। अनु०। उत्त०। अस्तीति निपातः सर्वलिङ्गवचनः / यदाह अधम्मत्थिकाए, लोगागासे, एगे जीवे / शाकटायनन्यासकृत्अस्तीति निपातः सर्वलिङ्गवचेनष्विति। अनु०॥ प्रदेशाग्रेण प्रदेशप्रमाणेनेति तुल्याः समानाः सर्वेषामेषामसंख्याअत्थि(ण)--त्रि०(अर्थिन्) अर्थशब्दात् अस्त्यर्थे 'अर्थाचा-ऽसन्निहिते' | तप्रदेशत्वात्। स्था०४ ठा०३ उ०। Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्थिकाय 514- अभिधानराजेन्द्रः- भाग 1 अत्थिकाय साम्प्रतमस्तिकायद्वारमाहएएसिणं मंते ! धम्मत्थिकायअधम्मत्थिकायआगासत्थिकायजीवत्थिकाय पोग्गलत्थिकायअद्धासमया णं दव्वट्ठयाए कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! धम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकाए आगासत्थिकाए, एए तिन्नि वि तुल्ला दव्वट्ठयाए सव्वत्थोवा, जीवत्थिकाए दव्वद्वथाए अणंतगुणे, पोग्गलत्थिकाए दव्वट्ठयाए अणंतगुणे, अद्धासमए दव्वट्ठयाए अणंतगुणे। (एएसिणं भंते ! धम्मत्थिकायेत्यादि) धर्मास्तिकायोऽ-धर्मास्तिकाय आकाशास्तिकायः। एते त्रयोऽपि द्रव्यार्थतया द्रव्यमेवार्थो द्रव्यार्थस्तस्यभावो द्रव्यार्थता, तया द्रव्यरूपतया इत्यर्थः / तुल्याः समानाः, प्रत्येकमेकसङ्ग्याकत्वात्। अत एव सर्वेस्तोकाः, तेभ्यो जीवास्तिकायो द्रव्यार्थतयाऽनन्तगुणः / जीवानां प्रत्येकं तद्रव्यत्वात्, तेषां च जीवास्तिकायेऽनन्तत्वात्। तस्मादपि पुद्गलास्तिकायो द्रव्यार्थतयाऽनन्तगुणः। कथम् ? इति चेत्। उच्यते- इहपरमाणुद्विप्रदेशकादीनि पृथक् 2 द्रव्याणि, तानि च सामान्यतस्त्रिधा / तद्यथा-प्रयोगपरिणतानि, मिश्रपरिणतानि, विश्रसापरिणतानि च / तत्र प्रयोगपरिणतान्यपि तावजीवेभ्योऽनन्तगुणानि, एकै कस्य जीवस्यानन्तैः प्रत्येक ज्ञानावरणीयादि-कर्मसु पुद्गलस्कन्धरावेष्टितत्वात्। किं पुनः शेषाणि ? ततः प्रयोगपरिणतेभ्यो मिश्रपरिणतान्यनन्तगुणानि / तेभ्योऽपि विश्रसापरिणतान्यनन्तगुणानि। तथा चोक्तं प्राप्तौ-सव्वत्थोवा पुग्गला पओगपरिणया मीसपरिणया अनन्तगुणा, वीससापरिणया अनन्तगुणात्ति / ततो भवति जीवास्तिकायात् पुद्गलास्तिकायो द्रव्यार्थतया अनन्तगुणः। तस्मादप्यद्धासमयोद्रव्यार्थतया अनन्तगुणः / कथम् ? इति चेत् / उच्यते- इहैकस्यैव परमाणोरनागते काले तत् तद् द्विप्रदेशकत्रिप्रदेशकयावद्दशप्रदेशकसंख्यातप्रदेशकाऽसंख्यातप्रदेशकाऽनन्तप्रदेशकस्कन्धान्तः परिणामितया अनन्ता भाविनः संयोगाः पृथक् पृथक् कालाः केवलदेशोपलब्धाः। यथा चैकस्य परमाणोस्तया सर्वेषां प्रत्येकं द्विप्रदेशकादिस्कन्धानां च अनन्ताः संयोगाः पुरस्कृताः पृथक् पृथक् काला उपलब्धाः / सर्वेषामपि मनुष्यक्षेत्राऽन्तर्वर्तितया परिणामसंभवात् / तथा क्षेत्रतोऽप्ययं परमाणुरमुष्मिन् आकाशप्रदेशे अमुष्मिन् काले अत्र गाहिष्यते, इत्येवमनन्ता एकस्य परमाणो विनः संयोगा यथैकस्य परमाणोस्तथा सर्वेषां परमाणनां, तथा द्विप्रदेशकादीनामपि स्कन्धानामनन्तप्रदेशस्कन्धपर्यन्तानां प्रत्येक तत्तद्देश-प्रदेशाद्यवगाहभेदतो भिन्नभिन्नकाला अनन्ता भाविनः संयोगाः। तथा कालतोऽप्ययं परमाणुरमुष्मिन्नाकाशप्रदेशे एकसमयस्थितिकः, इत्येवमेकस्यापि परमाणोरेकस्मिन्नाकाशप्रदेशे-संख्येया भाविनः संयोगाः। एवं सर्वेष्यप्याकाशप्रदेशेषु प्रत्येकमसंख्येया भाविनः संयोगाः / ततो भूयो भूयस्तथा-55काशप्रदेशेषु परावृत्तौ कालस्याऽनन्तत्वादनन्ताः काललो भाविनः संयोगाः / यथा चैकस्य परमाणोस्तथा सर्वेषां परमाणूनां सर्वेषां च प्रत्येक द्विप्रदेशकादीनां स्कन्धानां; तथा भावतोऽप्ययं परमाणुरमुष्मिन् काले एकगुणकालको भवतीत्येव-मेकस्याऽपि परमाणोभिन्नभिन्नकालाः अनन्ताः संयोगाः / यथा चैकस्य परमाणोस्तथा परमाणूनां च सर्वेषां च द्विप्रदेशकादीनां स्कन्धानां पृथक पृथक् अनन्ता भावतः पुर-स्कृताः संयोगाः। / तदेवमेकस्यापि परमाणोर्द्रव्यक्षेत्रकालभावविशेषसंबन्धवशादनन्ता भाविनः समया उपलब्धाः, यथैकस्य परमाणोस्तथा सर्वेषां परमाणूनां सर्वेषां च प्रत्येक द्विप्रदेशकानां स्कन्धानाम् / न चैतत्परिणामकालवस्तुव्यतिरेकपरिणामि-पुद्गलास्तिकायादिव्यतिरेके चोपपद्यते / ततः सर्वमिदं च तात्त्विकमवसेयम् / उक्तं च- "संयोगपुरक्खारश्च, नाम भाविनि हि युज्यते काले / न हि संयोगपुरवखारो, ह्यसतां केषांचिदुपपन्नः" ||1|| इति यथा च सर्वेषां परमाणूनां च द्विप्रदेशकादीनां स्कन्धानां प्रत्येकं द्रव्यक्षेत्रकालभावविशेषसम्बन्धवशादनन्ता भाविनोऽद्धासमयाः, तथा अतीता अपीति, सिद्धः पुद्गलास्तिकायादनन्तगुणोऽद्धासमयो द्रव्यार्थतयेति / उक्तं द्रव्यार्थतया परस्परमल्पबहुत्वमिति। इदानीमेतेषामेव प्रदेशार्थतया तदाहएएसिणं भंते ! धम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकाए आगासत्थिकाए जीवत्थिकाए पोग्गलत्थिकाए अद्धासमयाणं पदेसट्ठयाए कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! घम्भत्थिकाए अधम्मत्थियाए, एएसिणं दो वितुल्ला पदेसट्ठयाए सव्वत्थोवा, जीवत्थिकाए पदेसठ्ठयाए अणंतगुणा, पोग्गलस्थिकाए पदेसट्ठयाए अणंतगुणा, अद्धासमए पदेसट्ठयाए अणंतगुणा, आगासत्थिकाए पदेसट्ठयाए अणंतगुणा। (एएसिणं भंते! धम्मत्थिकायेत्यादि) धर्मास्तिकायोऽ-धर्मास्तिकायः, एतौ द्वावपि परस्परं प्रदेशार्थतया तुल्यो, उभयोरपि लोकाकाशप्रदेशत्वात् / शेषास्तिकायावद्धासमयापेक्षया च सर्वस्तोकौ / ततो जीवास्तिकायः प्रदेशार्थतया अनन्तगुणः, जीवास्तिकाये जीवानामनन्तत्वात् / एकैकस्य च जीवस्य लोकाकाशप्रदेशपरिमाणप्रदेशत्वात् / तस्मादपि पुद्गलास्ति-कायः प्रदेशार्थतया अनन्तगुणः / कथमिति ? उच्यते- इह कर्मस्कन्धप्रदेशा अपि तावत्सर्वजीवप्रदेशेभ्योऽनन्तगुणाः; एकैकस्यच जीवप्रदेशस्यानन्तानन्तैः कर्मपरमाणुभिरावेष्टित-परिवेष्टितत्वात्। किं पुनः सकलपुद्गलास्तिकायप्रदेशस्ततो भवति जीवास्तिकायात्पुद्गलास्तिकायः प्रदेशार्थतयाअनन्तगुणः, तस्मादप्यद्धासमयः प्रदेशार्थतया अनन्तगुणः; एकैकस्य पुद्गला-स्तिकायप्रदेशस्य प्रागुक्तक्रमेण तत्तद्रव्यक्षेत्रकालभावविशेषसंबन्धभावतोऽनन्तानामतीताद्धासमयाना-मनन्तानामनागतसमयानां भावात्। तस्मादाकाशास्तिकायप्रदेशार्थतया अनन्तगुणः, अलोकस्य सर्वतोऽप्यनन्तताभावात् / गतं प्रदेशाऽर्थतयाऽप्यल्पबहुत्वम्। इदानीं प्रत्येकं द्रव्यार्थप्रदेशार्थतयाऽल्पबहुत्वमाहएएसि णं मंते ! धम्मत्थिकायस्स दव्वट्ठयाए पदेसट्ठयाए कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा एगे धम्मत्थिकाए दव्वट्ठयाए, सो चेव पदेसट्टयाए असं खिज्जगुणा / एएसि णं भंते ! अधम्मत्थिकायस्स दव्वट्ठयपदेसट्टयाए कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवे एगे अधम्मत्थिकाए दव्वट्ठयाए, सो चेव पदेसट्टयाए असंखिजगुणे। एतस्सणं भंते! आगासत्थिकायस्स Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्थिकाय 515 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अस्थिकाय दव्वट्ठपदेसट्टयाए कयरे कयरेहितो अप्पा वा०४ ? गोयमा ! तुल्ला पदेसद्वयाए असंखेजगुणा, जीवत्थिकाए दव्वट्ठयाए सव्वत्थोवे एगे आगासत्थिकाए दव्वट्ठयाए, सो चेव पदेसट्टयाए अणंतगुणे, सो चेव पदेसट्ठयाए असंखिजगुणे, पोग्गलत्थिकाए अर्णतगुणा / एतस्सणं मंते! जीवत्थिकायस्स दव्वट्ठपदेसट्ठयाए दव्वट्ठयाए अणंतगुणे, सो चेव पएसद्वयाए असंखेनगुणे, कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४? गोयमा ! सव्वत्थोवे अद्धासमए दव्वट्ठपदेसट्टयाए अणंतगुणे, आगासस्थिकाए जीवत्थिकाए दव्वट्ठयाए, सो चेव पदेसट्ठयाए असंखिजगुणा। पदेसट्ठयाए अणंतगुणा। एतस्स णं मंते ! पोग्गलत्थिकायस्स दव्वट्ठपदेसट्टयाए कयरे (एएसि णं भंते !0 इत्यादि) धर्मास्तिकायोऽधर्मास्तिकाय कयरेहिंतो अप्पा वा०४? गोयमा! सव्वत्थोवा पोग्गलत्थिकाए आकाशास्तिकायः, एते त्रयोऽपि द्रव्यार्थतया तुल्याः, सर्वस्तोकाश्च दव्वट्ठयाए, सो चेव पदेसट्ठयाए असंखिज्जगुणा, अद्धासमए ण प्रत्येकमे कसंख्याकत्वात् 1-2-3, तेभ्यो धर्माऽस्तिकायोऽपुच्छिज्जइ, पदेसाभावा / धर्मास्तिकायः, एतौ द्वावपि प्रदेशार्थतयाऽसंख्येयगुणौ, स्वस्थाने तु सर्वस्तोको धर्मास्तिकायो द्रव्यार्थतया, एकत्वात् / प्रदेशार्थतया परस्परं तुल्यौ 4-5, ताभ्यां जीवास्तिकायो द्रव्यार्थतया अनन्तगुणः, असंख्येयगुणः, लोकाकाशप्रदेशपरिमाणप्रदेशात्मकत्वात् / अनन्तानांजीवद्रव्याणां भावात् 6, स एव जीवास्तिकायः प्रदेशार्थतया एवमधर्मास्तिकायसूत्रमपि भावनीयम् / आकाशास्तिकायो द्रव्यार्थतया असंख्येगुणः, प्रतिजीवमसंख्येयानां प्रदेशानां भावात् 7, तस्मादपि सर्वस्तोकः, एकत्वात् / प्रदेशार्थतया अनन्तगुणः, अपरिमितत्वात् / प्रदेशार्थतया जीवास्तिकायात् पुद्गलास्तिकायो द्रव्यार्थतया अनन्तगुणः, जीवास्तिकायो द्रव्यार्थतया सर्वस्तोकः, प्रदेशार्थतया असंख्येयगुणः, प्रतिजीवप्रदेशंज्ञानावरणीयादिकर्मपुद्गलस्कन्धानामप्यनन्तानां भावात् प्रतिजीवं लोकाकाशप्रदेश-भावात् / तथा-सर्वस्तोकः पुद्रलास्तिकायो 8, स एव पुद्गलास्तिकायः प्रदेशार्थतया असंख्येयगुणः, अत्र भावना द्रव्यार्थतया, द्रव्याणां सर्वत्राऽपि स्तोकत्वात्। स एव पुद्गलास्तिकाय प्रागिव 6, तस्मादपि प्रदेशार्थतया पुद्रलास्तिकायात् अद्धासमयो स्तद्रव्यापेक्षया प्रदेशार्थतया चिन्त्यमानोऽसंख्येयगुणः। ननु बहवः खलु जगत्यनन्तप्रदेशका अपिस्कन्धा विद्यन्ते, ततोऽनन्तगुणाः कस्मात्न द्रव्यार्थतया अनन्तगुणः, अत्रापि भावना प्रागिव 10, तस्मादप्याभवन्ति ? तदयुक्तम् / वस्तुतत्त्वापरिज्ञानात् / इह हि स्वल्पा काशास्तिकायः प्रदेशार्थतया अनन्तगुणः, सर्वास्वपि दिक्षु विदिक्षु अनन्तप्रदेशकाः स्कन्धाः; परमाण्वादयस्त्वतिबहवः / तथा वक्ष्यति तस्याऽन्तर्भावात्, अद्धासमयस्य च मनुष्य-क्षेत्रमात्रभावात् 11 / सूत्रम्-"सव्वत्थोवा अणंतपएसिया खंधा दव्वट्ठयाए, परमाणुपोग्गला गतमस्तिकायम्। प्रज्ञा०३पद।"चउहिं अस्थिकाएहिलोगे फुडे पन्नत्ते / दव्ववयाए अनन्तगुणा, संखेञ्जपएसिया खंधा दव्वट्ठयाए संखेज्जगुणा, तं जहा- धम्मत्थिकाएणं अधम्मत्थिकाएणं जीवत्थिकाएणं असंखेज्जपएसियाए खंधा दव्वट्ठयाए असंखेनगुणा" इति / ततो पोग्गलत्थिकाएणं'। स्था०। 4 ठा०३ उ०॥ अथवायदा सर्वे एव पुद्गलास्तिकायाः प्रदेशार्थतया चिन्त्यन्ते, तदा कइणं भंते ! अत्थिकाया पण्णता? गोयमा! पंच अस्थिकाया अनन्तप्रदेशकानां स्कन्धानामतिस्तोकत्वात् परमाणूनां पण्णत्ता / तं जहा- धम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए, चातिबहुत्यात्तेषां च पृथक् 2 द्रव्यत्वात् असंख्येयप्रदेशकानांचस्कन्धानां आगासत्थिकाए, जीवत्थिकाए, पोग्गलत्थिकाए। परमाण्वपेक्षया असत्येयगुणत्वादसंख्येयगुण एवोपपद्यतेनाऽनन्तगुणः। धर्मास्तिकायादीनां चोपन्यासेऽयमेव क्रमः। तथाहिधर्मास्तिकायादि(अद्धासमए न पुच्छिज्जइ त्ति) अद्धासमयो द्रव्यार्थप्रदेशार्थतया न पृच्छ्यते / कुतः ? इत्याह-प्रदेशाभावात् ।आह- कोऽयमद्धासमयानां पदस्य माङ्गलिकत्वाद् धर्मास्तिकाय आदावुक्तः, तदनन्तरं च द्रव्यार्थतानियमः, यावता प्रदेशार्थताऽपि तेषां विद्यते एव ? तथाहि तद्विपक्षत्यादधर्मास्तिकायः / ततश्च तदाधारत्वादाकाशास्तिकायः / यथा अनन्तानां परमाणूनां समुदायस्कन्धो भण्यते, स च द्रव्यं, ततोऽनन्तत्वाऽमूर्त्तत्वसाधात्जीवास्तिकायः, ततस्तदुपष्टम्भकत्वात् तदवयवाश्च प्रदेशाः। तथेहापि सकलः कालो द्रव्यम्, तदवयवाश्च समयाः पुद्गलास्तिकाय इति / भ०२ श०१० उ० तेषामस्तित्वम् / अत्र च प्रदेशा इति। तदयुक्तम्। दृष्टान्तदान्तिकवैषम्यात् परमाणूनां समुदायः जीवपुद्गलानां गत्यन्यथा-ऽनुपपत्तेर्धर्मास्तिकायस्य तेषामेव तदा स्कन्धो भवति, यदा ते परस्परसापेक्षतया परिणमन्ते, स्थित्यन्यथानुपपत्तेरधर्मा-ऽस्तिकायस्य सत्त्वं प्रतिपत्तव्यम्।नच वक्तव्य परस्परनिरपेक्षाणां के वलपरमाणू-नामिव स्कन्धत्वायोगात् / तद्गतिस्थिती च भविष्यतः, धर्माऽधर्मास्तिकाये च न भविष्यत इति / अद्धासमयास्तु परस्परं निरपेक्षा एव, वर्तमानसमयभावे प्रति-बन्धाभावादनेकान्तिकतेति तावन्तरेणाऽपि तद्भणनेऽपूर्वापरसमययोरभावात् / ततो न स्कन्ध-त्वपरिणामः / तदभावाच लोकेऽपि तत्प्रसङ्गात् / यदि त्वलोकेऽपि तद्गतिस्थिती स्यातां, नाद्धासमयाः प्रदेशाः, किं तु पृथक् द्रव्याण्येवेति / सम्प्रत्यमीषां तदाऽलोकस्याऽनन्तत्वाल्लोकात् निर्गत्य जीवपुगलानां तत्र धर्मास्तिकायादीनां सर्वेषां युगपद् द्रव्यार्थप्रदेशार्थतयाऽल्पबहुत्वमाह- प्रवेशादे क द्वित्र्यादिजीवपुद्गलयुक्तः सर्वथा तच्छू न्यो वा एएसिणं मंते! धम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकाए आगासस्थिकाए कदाचिल्लोकः स्यात्; नैतद् दृष्टमिष्टं चेत्याद्यन्यदपि दूषणजीवत्थिकाए पोग्गलत्थिकाय अद्धासमया णं दव्वद्वयाए जालमप्यस्ति, नोच्यते ग्रन्थविस्तरभयादिति / आकाशं तु पदेसट्ठयाए कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा जीवादिपदार्थानामाधारः, अन्यथाऽनुपपत्तेरस्तीति श्रद्धेयम् / न विसेसाहिया वा ? गोयमा ! धम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकाए च धर्माधर्मास्तिकायावेव तदाधारौ भविष्यत इति वक्तव्यम् / आगासत्थि-काए य, एए णं तिन्नि वि तुल्ला, दव्वट्ठयाए तयोस्तद्गतिस्थितिसाधकत्वेनोक्तत्वात् / न चाऽन्यसाध्य सव्वत्थोवा धम्मत्थिकाए. अधम्मत्थिकाएय, एएणं दोणि वि / कार्यमन्यः प्रसाधयति, अप्रसङ्गात् / इति घटादिज्ञामगुणस्य Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्थिकाय 516 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अत्थिकाय प्रतिप्राणिस्वसंवेदनसिद्धत्वात् क्लीबस्यास्तित्वमवगन्तव्यम् / एकशब्दाभिधेयाइत्यर्थः / एकार्थाश्चैते शब्दाः। (पएसा अणंता भाणियव्य न च गुणिनमन्तरेण गुणसत्ता युक्ता, अतिप्रसङ्गात् / न च देह त्ति) धर्माधर्मयोरसंख्येयाः प्रदेशा उक्ताः / आकाशादीनां पुनः प्रदेशा एवास्य गुणी युज्यते, यतो ज्ञानममूर्त चिद्रूपं सदेव, अनन्ता वाच्याः; अनन्तप्रदेशकत्वात् त्रयणामपीति / उपयोगगुणो इन्द्रियगोचरातीतत्वादिधपितम्, अतः तस्यानुरूप एव कश्चिद् जीवास्तिकायः प्राग्दर्शितः। भ०२ श०१० उ०) गुणी समन्वेषणीयः। स च जीव एव, न तु देहः, विपरीतत्वात् / यदि प्रदेशनिषूदनम्पुनरननुरूपोऽपि गुणानां गुणी कल्प्यते, त_नवस्था / एयंसि णं भंते ! धम्मत्थिकायअहम्मत्थिकायआरूपादिगुणानामप्याकाशादेर्गुणित्वकल्पनाप्रसङ्गादिति / पुद्गलास्ति- गासत्थिकायंसि चक्किया केइआसइत्तए वासुइत्तएवा चिट्ठित्तए कायस्यतुघटादिकार्यान्यथाऽनुपपत्तेः, प्रत्यक्षत्वाच सत्त्वं प्रतीतमेवेति / वाणिसीयत्तएवा, तुयट्टित्तएवा ? णो इणद्वे समढे,अणंता पुण अनु० तत्थ जीवा ओगाढा। सेकेणतुणं भंते ! एवं वुच्चइ- एयंसिणं __ अस्तिकायानामस्तिकायत्वम् - धम्मत्थि० जाव आगासत्थिकायंसिनो चक्किया केइ आसइत्तए एगे मंते ! धम्मत्थिकायप्पदेसे धम्मत्थिकाए त्ति वत्तव्वं वा० जाव ओगाढा / गोयमा ! से जहा णामए कूडागारसाला सिया? गोयमा! णो इणटे समटे, एवं दोन्नि वि तिन्नि वि चत्तारि सिया दुहओ लित्ता गुत्ता गुत्तदुवारा जहा रायप्पसेणइज्जे० जाव पंच छ सत्त अट्ठ नव दस संखेज्जा असंखेज्जा मंते ! दुवारवयाणाई पिहेति / दुवार० तीसे य कूडागारसालाए धम्मत्थिकायप्पदेसाधम्मत्थिकाएत्तिवत्तव्वं सिया? गोयमा ! बहुमज्झदेसभाए जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा / णो इणद्वे समढे, एगपदेसूणे वि य णं धम्मत्थिकाए त्ति वत्तव्वं उक्कोसेणं पदीवसहस्सं पलीवेजा, से णूणं गोयमा ! ताओ पदीवलेस्साओ अण्णमण्णसंबद्धाओ अण्णमण्णपुवाओ० सिया ? णो इणटे समढे, से केणटेणं मंते ! एवं वुचए, एगे धम्मत्थिकायप्पदेसे नो धम्मत्थिकाये त्ति वत्तव्वं सिया, जाव जाव अण्णमण्णघडताए चिट्ठति, हंता चक्किया णं गोयमा ! एगपदेसूणे वि य णं धम्मत्थिकाए नो धम्मत्थिकाए त्ति वत्तव्वं केइ तासु पदीवलेस्सासु आसइत्तए वा० जाव तुयट्टित्तए वा। भगवं ! णो इणद्वे समठे। अणंता पुण तत्थ जीवा ओगाढा। सिया। से णूणं गोयमा ! खंडे चक्के सगले चक्के ? भगवं ! नो से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ० जाव ओगाढा। खंडे चक्के / सगले चक्केएवं छत्ते धम्मे दंडे दूसे आउहे मोयए। से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वुचइ, एगे धम्मत्थिकायप्पदेसे णो एतस्मिन् णमितिवाक्यालङ्कारे (चक्किय त्ति) शक्नुयात्। कश्चित्पुरुषः। धम्मत्थिकाए त्ति वत्तव्वं सिया० जाव एगपदेसूणे वि य णं भ०१३ श०४ उ०। घम्मत्थिकाए नो धम्मत्थिकाए त्ति वत्तव्वं सिया / से किं खाइए प्रमाणम्णं मंते ! धम्मत्थिकाए त्ति वत्तव्वं सिया। गोयमा ! असंखेज्जा घम्मत्थिकाए णं भंते ! के महालए पण्णत्ते ? गोयमा! धम्म-त्थिकायप्पएसा, ते सव्वे कसिणा पडिपुण्णा निरवसेसा लोए लोयमेत्ते लोयप्पमाणे लोयफुडे लोयं चेव फुसित्ता एक्कग्गहणगहिया / एस णं गोयमा ! घम्मत्थिकाए ति वत्तव्वं णं चिट्ठाइए / एवं अहम्मत्थिकाए लोयाकासे जीवत्थिकाए सिया / एवं अहम्भत्थिकाए वि / आगासत्थिकायजीवत्थि- पोग्गलत्थिकाएक्कामिलावा। कायपोग्गलत्थिकाए वि एवं चेव, नवरं तिण्हं पिपएसा अणंता (के महालए त्ति) लुप्तभावप्रत्ययत्वान्निर्देशस्य, किं महत्त्वं यस्यासौ माणियव्वा, सेसं तं चेव। किंमहत्त्वः। (लोए त्ति) लोको लोकप्रमितत्वात्, लोकव्यपदेशाद्वा, उच्यते (खंडेचक्के इत्यादि) यथाखण्डचक्र, चक्रं नभवति,खण्ड-चक्रमित्येवं च- "पंचत्थिकायमइयं लोयमित्यादि" लोके चासौ वर्तते / इदं तस्य व्यपदिश्यमानत्वात्, अपि तु सकलमेव चक्र, चक्रं भवति / एवं चाप्रश्नितमप्युक्तम्, शिष्यहित-त्वादाचार्यस्येति / लोकमात्रो धर्मास्तिकायः प्रदेशेनाप्यूनो न धर्मास्तिकाय इति वक्तव्यः स्यात् / लोकपरिमाणः, सच किञ्चित्-न्यूनोऽपि व्यवहारतः स्यादित्यत आहएतच निश्चयनयदर्शनम् / व्यवहारनयमते तु एकदेशेनोनमपि वस्तु (लोयप्पमाणे ति) लोकप्रमाणो लोकप्रदेशप्रमाण-त्वात्तत्प्रदेशानाम्। वस्त्वेव / यथा खण्डोऽपिघटो घटएव, छिन्नकण्र्णोऽपिश्चाश्चैवा भणति स चान्यो-न्यानुबन्धेन स्थित इत्येतदेवाह- (लोयफुडे त्ति) लोकेन च- "एकदेशवि-कृतमनन्यवदिति" 1 (से किं खाइए त्ति) अथ किं लोकाकाशेन सकलस्वप्रदेशैः स्पृष्टो लोकस्पृष्टः / तथा लोकमेव च पुनरित्यर्थः। (सव्ये ति) समस्तास्तेच देशापेक्षयाऽपिभवन्ति, प्रकार सकलस्वप्रदेशः स्पृष्ट्वा तिष्ठतीति पुद्रलास्तिकायो लोकं स्पृष्ट्या कात्स्न्येऽपि सर्वशब्द प्रवृत्तेः। इत्यत आह-(कसिण त्ति) कृत्स्ना, नतु तिष्ठतीत्यनन्तरमुक्तमिति। भ०२ श०१० उ०॥ तदेकदेशापेक्षया सर्व इत्यर्थः। ते चस्वस्वभावरहिता अपि भवन्तीत्यत वर्णगन्धरसादिःआह. प्रतिपूर्णा आत्मस्वरूपेणाविकलाः, ते च प्रदेशान्तरापेक्षया घम्मत्थिकाए णं कति वण्णे,कति गंधे, कति रसे, कति स्वस्वभावन्यूना अपि तथोच्यन्ते इत्याह- (णिरवसेस त्ति) फासे ? गोयमा ! अवन्ने अगंधे अरसे अफासे अरूवी प्रदेशान्तरतोऽपि स्वस्वभावेनान्यूनाः / तथा- (एगग्गहणगहिय त्ति) | अजीवे सासए अवहिए लोगदव्वे, ते समासओ पंचविहे एकग्रहणेनैकशब्देन धर्मास्तिकाय इत्येवं लक्षणेन गृहीत ये ते तथा, पण्णत्ते / तं जहादवओ खेत्तओ कालओ भावओ गु Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्थिकाय 517 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अत्थित्त णओ / दव्वओ णं धम्मत्थिकाए एगे दव्वे, खेत्तओ ओगाहिताणं चिट्ठई" इत्ययममिलापो दृश्य इति / भ० 20 श० लोगप्पमाणमेत्ते, कालओ न कयाइ न आसि न कयाइ नत्थि 2 उ०॥ जाव निचे, भावओ अवन्ने अंगधे अरसे अफासे, गुणओ (अस्तिकायानां विषयेऽन्यय थिकैः सह विप्रतिपत्तयः गमणगुणे। अधम्मत्थिकाए विएवं चेव, नवरंगुणओ ठाणगुणे। 'अण्णउत्थिय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 446 पृष्ठे दर्शिताः) आगासत्थिकाए वि एवं चेव, नवरं खेचओ णं आगासत्थिकाए मध्यप्रदेशाःलोया-लोयप्पमाणमेत्ते अणंतेचेवजाव गुणओ अवगाहगुणे / कइ णं मंते ! धम्मत्थिकायस्स मज्झप्पदेसा पण्णता? जीवत्थिकाए णं मंते ! कइ वण्णे, कइ गंधे, कइ रसे, कइ फासे ? गोयमा ! अवन्ने जाव अरूवी जीवे सासए अवट्ठिए गोयमा ! अट्ठ धम्मत्थिकायस्स मज्झप्पदेसा पण्णत्ता। कइणं लोगदव्वे, से समासओ पंचविहे पण्णत्ते / तं जहा- दव्वओ० मंते ! अहम्मत्थिकायस्स मज्झपदेसा पण्णत्ता ? गोयमा ! एवं जाव गुणओ। दव्वओ णं जीवत्थिकाए अणंताई जीवदव्वाइं, चेवा कइणं भंते ! आगासत्थिकायस्समज्झप्पदेसा पण्णता? खेत्तओ लोगप्पमाणमेत्ते, कालओ न कयाइ न आसि० जाव गोयमा! एवं चेवा कइणं मंते ! जीवत्थिकायस्समज्झप्पदेसा निच्चे, मावओ पुण अवन्ने अगंधे अरसफासे, गुणओ पण्णत्ता ? गोयमा ! अट्ठ जीवत्थिकायस्स मज्झप्पदेसा उवओगगुणे / पोग्गलत्थिकाए णं भंते ! कइ वण्णे, कइ पण्णत्ता। एएसिणं मंते ! अट्ठ जीवत्थिकायस्स मज्झप्पदेसा गंधरसफासे ? गोयमा! पंचवन्ने पंचरसे दुगंधे अट्ठफासे रूवी कइसु आगासपदेसेसु ओगाढा होंति ? गोयमा ! जहण्णेणं अजीवे सासए अवट्ठिएलोगदव्वे से समासओ पंचविहे पण्णत्ते / एकंसिवा दोहिंवा तिहिंवाचउहिंवा पंचर्हि वा छहिंवा उक्कोसेणं तं जहा दव्वओ खेत्तओ कालओ भावओ गुणओ। दव्वओ णं अट्ठसु णो चेव णं सत्तसु / सेवं भंते ! भंते ! ति। पोग्गलत्थिकाए अणंताई दवाई, खेत्तओ लोयप्पमाणमेत्ते, प्रत्येकं जीवानामित्यर्थः। ते च सर्वस्यामवगाहनायां मध्यभाग एव कालओ न कयाइ न आसि० जाव निचे, मावओ वण्णमंते भवन्तीति मध्यप्रदेशा उच्यन्ते ! (जहन्नेणं एकसि वेत्यादि) गंधरसफासमंते, गुणओ गहणगुणे। सङ्कोचविकाशधर्मत्वात्तेषाम् / (उक्कोसेणं अट्ठसु त्ति) एकैकस्मिश्च (अवण्णे इत्यादि) यत एवावर्णादिरत एवारूपी अमूर्तः, न तु तेषामवगाहनात्। (नो चेवणं सत्तसुत्ति) वस्तुस्वभावादिति। भ०२५ निःस्वभावः, नञः पर्युदासवृत्तित्वाद् / शाश्वतो द्रव्यतोऽवस्थितः श०४ उ०। स्था०। (अस्तिकायविषये कालोदायिसंवादः प्रदेशतः (लोगदव्वे त्ति) लोकस्य पञ्चास्तिकायात्मकस्यांशभूतं द्रव्यं 'अण्णउत्थिय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 446 पृष्ठे दर्शितः) लोकद्रव्यम्। भावत इति पर्यायतः, (गुणओ ति) कार्यतः (गमणगुणे अत्थिकायधम्म-पुं०(अस्तिकायधर्म) अस्तयः प्रदेशास्तेषां कायो त्ति) जीवपुद्रलानां गतिपरिणतानां गत्युपष्टम्भहेतुः, मत्स्यानां राशिरस्तिकायः / स एव (संज्ञया) धर्मो गतिपर्याये जलमिवेति / (ठाणगुणे त्ति) जीवपुद्गलानां स्थिति-परिणतानां जीवपुद्गलयोर्धारणादित्यस्तिकायधर्मः / स्था०१० ठा०! स्थित्युपष्टम्भहेतुः, मत्स्यानां स्थलमिवेति / (अवगाहणागुणे त्ति) गत्युपष्टम्भलक्षणधर्मास्तिकायनामके द्रव्यधर्मे, स्था०३ ठा० जीवादीनामवकाशहेतुः, बदराणां कुण्डमिव / (उवओगगुणे त्ति) 3 उIL उपयोगश्चैतन्यं साकारानाकारभेदम्। (गहणगुणे ति) ग्रहणं परस्परेण अत्थिक्क-न०(आस्तिक्य) अस्तीतिमतिरस्येत्यास्तिकः। तस्य भावः सम्बन्धनं जीवेन वा, औदारिकादिभिः प्रकारैरिति / भ०२ श०१० कर्म वा आस्तिक्यम् / तत्त्वान्तरश्रवणेऽऽपि जिनो-क्ततत्त्वविषये उ०॥ निराकाङ्क्षायां प्रतिपत्तौ, ध०२ अधि०। अस्ति कायादिविषयाअवगाहनादयः स्तिकश्रद्धायाम्, दर्श०। सन्ति खलु जिने-न्द्रोपदिष्टा अतीन्द्रिया, घम्मत्थिकाए णं मंते ! के महालए पण्णते ? गोयमा ! लोए जीवपरलोकादयो भावा इति / परिणामे,ध०२ अधिo संथा०) लोयमेत्ते लोयप्पमाणे लोयफुडे लोयं चेव उग्गाहिताणं चिद्विति, | अत्थिण(न)त्थिप्पवाय-न०(अस्तिनास्तिप्रवाद) यल्लोके एवं जाव पोग्गलत्थिकाए।अहे लोएणं मंते ! धम्मत्थिकायस्स यथाऽस्ति यथा वा नास्ति; अथवा स्याद्वादाभिप्रायत-स्तदेवास्ति, केवइयं ओगाढे? गोयमा ! साइरेगं अद्धं ओगाढे, एवं एएणं तदेव नास्तीत्येवं प्रवदतीति / स०। यद्वस्तु लोकेऽस्ति अभिलावेणं जहा बिइयसए० जाव ईसिप्पन्भाराणं / भंते ! धर्मास्तिकायादि, यच नास्ति खरशृङ्गादि, तत्प्रवदतीति / अथवा पुढवीलोयागासस्स किं संखेजइमागं ओगाढापुच्छा? गोयमा ! सर्व वस्तु स्वरूपेणास्ति, पररूपेण नास्तीति प्रवदतीति, णो संखेजइमागं ओगाढा, असंखेजइमागं ओगाढा, णो अस्तिनास्तिप्रवादम् / चतुर्थे पूर्वश्रुते नं० तस्य पदपरिमाणं संखेजइमागे ओगाढ, णो अ-संखेज्जइमागे ओगाढा, णो सव्वं षष्टिपदशतसहस्राणि। स० "अत्थिणत्थिप्पवायपुव्वस्सणं अद्यारस लोयं ओगाढा, सेसं तं चेव। वत्थू दस चूलिया वत्थू पण्णत्ता" नंग "धम्मत्थिकाएणं भंते !" इत्यादिरालापकः; तत्र य नवरं केवलं | अत्थित्त-न०(अस्तित्व) अस्ति-भावे त्व। विद्यमानत्वे, दश०१ "लोयं चेव फुसित्ताणं चिट्ठइ ति" / एतस्य स्थाने- "लोयं चेव / अ०।अर्थक्रियाकारित्वे, "यदेवार्थक्रियाकारि, तदेव परमार्थ Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्थित्त 518- अभिधानराजेन्द्रः- भाग 1 अस्थिर सत्" इति वचनात् / आ०म०द्वि०। ('खणियवाई' शब्देऽस्य पेक्षया मृत्पिण्डादेरस्तित्वस्य नास्तित्वात् / सत्सदेव स्यादिति उपपत्तिर्द्रष्टव्या) गुणभेदे,"तत्राऽस्तित्वं परिज्ञेयं, सद्भूतत्वगुणः व्याख्यानान्तरेऽप्येतान्येवोदाहरणानि, पूर्वोत्तरावस्थयोः सद् पुनः" / तत्र इदं परिज्ञेयम्-सत्तया यो भवति यस्मात्सद्भूततया रूपत्वादिति / यदप्यभावोऽभाव एव स्यादिति व्याख्यातम्, तत्रापि व्यवहारो जायते, स चास्तित्वगुणः / द्रव्या०११ अध्या० / प्रयोगेणापि तथा विस्रसयाऽपि अभावो भाव एव स्यात्, न प्रयोगादेः धर्मधर्मिणोरभेदात् सद्वस्तुनि, भ०) साफल्यमिति व्याख्येयमिति / भ०॥ यस्य वस्तुनो यथैवास्तित्वं तथैव भगवता तीर्थंकरेण प्रज्ञप्तमिति अथोक्तस्वरूपस्यैवार्थस्य सत्यत्वेन प्रज्ञापनीयतां दर्शयितुमाहदिदर्शयिषुर्यथावद् वस्तुपरिणामं दर्शयन्नाह से णूणं मंते ! अत्थित्तं अत्थित्ते गमणिज्जं जहा परिणमइ दो से पूणं भंते ! अत्थित्तं अत्थित्ते परिणमइ, णत्थित्तं णत्थित्ते आलावगा, तहा गमणिज्जेण वि दो आलावगा भाणियव्वा, जाव परिणमइ? हंता गोयमा !0 जाव परिणमइ। तहा मे अत्थित्तं अत्थित्ते गमणिज्जं,जहा ते मंते! एत्थं गमणिज्ज, (से णूणमित्यादि) (अस्थित्तं अत्थित्ते परिणमइ त्ति) अस्ति- तहा ते इह गमणिजं, जहा ते इह गमणिशं तहा ते इत्थं त्वमडगुल्यादेरगुल्यादिभावेन सत्त्वम्। उक्तंच - "सर्वमस्तिस्वरूपेण, गमणिज्जं? हंता गोयमा! जहा मे इत्थं गमणिशं तहा मे इह पररूपेण नास्ति च / अन्यथा सर्वभावानामेकत्वं संप्रसज्यते' ||1|| गमणिज्जं। तचेह ऋजुत्वादिपर्यायरूपमवसेयम् ; अमुल्यादिद्रव्यास्तित्वस्य अस्तित्वमस्तित्वे गमनीयं सद्वस्तु सत्त्वेनैव प्रज्ञापनीयमित्यर्थः। (दो कथंचिद् ऋजुत्वादिपर्यायाव्यति-रिक्तत्वात् / अस्तित्वेऽगुल्या आलावग त्ति) (से गूणं भंते ! अस्थित्तं अत्थित्ते गमणिज्ज-मित्यादि) देरेवाशुल्यादिभावेनसत्त्वे वक्रत्वादिपर्याय इत्यर्थः / परिणमति-तथा 'पओगसा वि तं, वीससा वि तं' इत्येतदन्त एकः, परिणामभेदाभवति। इदमुक्तं भवति-द्रव्यस्य प्रकारान्तरेण सत्ता प्रकाशऽन्तरसत्तायां भिधानात् / 'जहा ते भंते ! अत्थित्तं अत्थित्ते गमणिज्जमित्यादि' तदा वर्तते / यथा-मृद्रव्यस्य पिण्डप्रकारेण सत्ता घटप्रकारसत्तायामिति / 'मे अस्थित्तं अस्थित्ते गमणिलं' इत्येतदन्तस्तु द्वितीयोऽस्तित्वनानत्थित्तं नत्थित्ते परिणमइ त्ति) नास्तित्वमङ्गुल्यादेरङ्गुष्ठादिभावे स्तित्वपरिणामयोः समताऽभिधायीति / एवं वस्तुप्रज्ञापनाविषयां नासत्त्वम्, तचाङ्गुष्ठादिभाव एव / ततश्चाङ्गुल्यादेन स्ति समभावनां भगवतोऽभिधायाऽथ शिष्यविषयांतां दर्शयन्नाह- 'जहा ते० त्वमङ्गुष्ठाद्यस्तित्वरूपमङ्गुल्यादेनास्तित्वेऽङ्गुष्ठादेः पर्यायान्तरेणास्तित्वरूपे परिणमति / यथा-मृदो नास्तित्वं तन्स्वादिरूपं त्, इत्यादि' यथा स्वकीय-परकीयताऽनपेक्षतया समत्वेन विहितमिति नाऽस्तित्वरूपे पटे इति, अथवा अस्तित्वमिति धर्म धर्मिणोर प्रवृत्त्या उपकारबुद्धया वा ते तव भदन्त ! (एत्थं ति) एतस्मिन्मयि भेदात्सद्वस्त्वस्तित्वे सत्त्वे परिणमति। सत्सदेव भवति, नात्यन्तं विनाशि सन्निहिते स्वशिष्ये गमनीयं वस्तुप्रज्ञापनीयम् / यथा तेनैव स्यात्। विनाशस्य पर्यायान्तरगमनमात्ररूपत्वात्। दीपादिविनाशस्यापि समतालक्ष्यप्रकारेण उपकारधिया वा (इहं ति) इहास्मिन् तमिस्रादिरूपतया परिणामात् / तथा नास्तित्वमत्यन्ताभावरूपं यत् गृहिपाखण्डिकादौ जने गमनीयं वस्तुप्रकाशनीयमिति प्रश्नः / अथवा खरविषाणादि, तन्नास्तित्वेऽ-त्यन्ताभाव एव वर्तते / नाऽत्यन्तमसतः (एत्थं ति) स्वात्मनि यथा गमनीयं सुखप्रियत्वादि, तथा इह परात्मनि / सत्त्वमस्ति, खरविषाण-स्येवेति / उक्तं च- "नासतो जायते भावो, अथवा यथा प्रत्यक्षाधिकरणार्थतया एत्थमित्येत-च्छब्दरूपमिति नाभावोजायते सतः" ।अथवा अस्तित्वमितिधर्मभेदात्सदस्तित्वे सत्त्वे गमनीयम्, तथा इह इत्थमित्येतच्छब्दरूपमिति, समानार्थत्वाद् वर्तते / यथापटः पटत्व एव / नास्तित्वं चाह- नास्तित्वे सत्त्वे वर्तते, योरपीति / भ०१ श०३ उम यथाऽपटोऽपटत्व एवेति। अस्थिभाव-पुं०(अस्तिभाव) विद्यमानभावे, "अस्थिभावो त्ति वा अथ परिणामहेतुदर्शनायाह विजमाणभावो त्ति वा एगट्ठा" / आ०चू०१ उ०॥ जं तं भंते ! अत्थित्तं अत्थित्ते परिणमइ, णत्थित्तं णत्थित्ते | अत्थि(थि)र-त्रि०(अस्थिर) न०त० / प्राकृतेपरिणमइ, तं किं पओगसा, वीससा ? गोयमा ! पओगसा "खधथधमाम्" 187 / इति थस्य प्राप्तमपि हत्वं प्रायिकत्वान्न वितं, वीससा वि तं। भवति / प्रा०ा अदृढे , ओध०। अतरे, नि०चू०१० उ०। धृति (जंतमित्यादि)(अत्थित्तं अत्थित्ते परिणमइ त्ति) पर्यायः पर्यायान्तरता संहननहीनत्वेन बलहीने, व्य०२ उ०ा चले च, उत्त०२० अ०। यातीत्यर्थः / (णत्थित्तं णत्थित्ते परिणमइ त्ति) वस्त्वन्तरस्य पर्यायः- अपरिचिते, "अस्थिरस्स पुव्यगहियस्स यत्तणा जं इह थिरीकरणं"। तत्पर्यायान्तरतां यातीत्यर्थः / (पओगस त्ति) सकारस्याऽऽगमिकत्वा- पञ्चा०१२ विवाजीणे, आचा०२ श्रु०३ अ०२ उ०। अस्थास्तुद्रव्ये, भ०। त्प्रयोगेण जीवव्यापारेण / (वीसस त्ति) यद्यपि लोके विस्रसाशब्दो अस्थिरं प्रलोटति, स्थिरं वा प्रलोटति इति चिन्तयन्नाहजरापर्यायतया रूढस्तथापीह स्वभावार्थो दृश्यः / इह प्राकृतत्वाद् 'वीससाए' इति वाच्ये वीससेत्युक्तमिति। अत्रोत्तरम् - (पओगसा वितं से णूणं मंते ! अथिरे पलोट्टइ, नो थिरे पलोट्टइ / अथिरे ति) प्रयोगेणापि तदस्तित्वादि, यथा- कुलालव्यापाराद् मृत्पिण्डो मजइ, नो थिरे मजइ।सासए बालए बालियत्तं असासयं,सासए घटतया परिणमति, अङ्गुलिऋजुता वा वक्रतयेति / अपिः समुच्ये / पंडिए पंडियत्तं असासयं ? हंता गोयमा ! अथिरे पलोट्टयइ० (वीससा वि तं ति) यथा- शुभ्राऽभ्रमशुभ्राऽभ्रतया / नास्तित्वस्यापि जाव पंडियत्तं असासयं / सेवं मंते ! भंते ! त्ति० जाव विहरइ। नास्तित्वपरिणामे प्रयोगविस्रसयोरेतान्येवोदाहरणानि / वस्त्वन्तरा- (अथिरे त्ति) अस्थास्नु द्रव्यं लोष्टादि, प्रलोटति परिवर्तते, Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्थिर 519 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अस्थिवाय अध्यात्मचिन्तायामस्थिरं कर्म, तस्य जीवादशेश्याः पतिसमयचलनेनास्थिरत्वात् प्रलोटयति, बन्धोदयनिर्जरणादि-परिणामैः परिवर्तते, स्थिरं शिलादि न प्रलोटति / अध्यात्मचिन्तायां तु स्थिरो जीवः, कर्मक्षयेऽपि तस्य अवस्थितत्वान्नासौ प्रलोटति, उपयोगलक्षणस्वभावान्न परिवर्तते। तथा अस्थिरं भारस्वभावं तृणादि भुज्यते विदलयति। अध्यात्मचिन्तायामस्थिर कर्म, तद्भज्यते व्यपैति, तथा स्थिरमभङ्गुरमयःशलाकादिनभज्यते।अध्यात्मचिन्तायां स्थिरो जीवः सचन भज्यते,शाश्वतत्वादिति !जीवप्रस्तावादिदमाह-(सासए बालए ति) बालको व्यवहारतः शिशुः, निश्चयतोऽसंयतो जीवः, स च शाश्वतः, द्रव्यत्वात् / (बालियत्तं ति) इह कप्रत्ययस्य स्वार्थिकत्वाद् बालत्वम्, व्यवहारतः शिशुत्वम्, निश्चयतस्त्वसंयतत्वम्। तचाशाश्वतम्, पर्यायत्यादिति। एवं पण्डितसूत्रमपि, नवरं पण्डितो व्यवहारेण शास्त्रज्ञो जीवः, निश्चयतस्तु संयत इति। भ०१ श०६ उ०। अतत्स्थे च, स्थिरा नाम येषां तत्रैव गृहाणि, अस्थिरा येषामन्यत्र गृहाणि / बृ०१ उ०। अत्थि(थि)रछक्क-न०(अस्थिरषट्क) अस्थिराऽशुभदुर्भगदुःस्वराऽनादेयाऽयशःकीर्तिरूपे नामकर्मभेदषट्के, कर्म०१ कर्म०। अत्थि(थि)रणाम(ण)-न०(अस्थिरनामन् ) यदुदयात्कर्णभूजिह्वाद्यवयवा अस्थिराश्वपला भवन्ति, तस्मिन् नामकर्मभेदे, कर्म०१ कर्म०। अत्थि(थि)रतिग-न०(अस्थिरत्रिक) अस्थिराऽशुभाइय-शःकीर्तिसंज्ञे कर्मत्रिके, कर्म०४ कर्म०। अस्थि (थि)रदुग-न०(अस्थिरद्विक) अस्थिराशुभाख्ये कर्मद्विके, कर्म०२ कर्मा अत्थि(थि)रव्वय-त्रि०(अस्थिरव्रत) अस्थिराणि गृहीतमुक्ततया चलानि व्रतान्यस्येत्यस्थिरव्रतः / कदाचिद् व्रतं गृह्णाति कदाचिद् मुञ्चति / उत्त०२० अ०। अत्थि (थि)वाय-पुं०(अस्तिवाद) सतां वस्तूनां सत्त्वाभ्युपगमे, यथा"अस्थि य णिचो कुणई, कयं च वेएइ अस्थिणिव्वाणं / अस्थि य मोक्खोवाओ, छः सम्मत्तस्स ठाणाई" ||18|| प्रव०१४८ द्वा० एतमेवास्तिवादं समवसरणे भगवांस्तीर्थकर आख्याति / औला लोकादीनांवस्तुतः सतामस्तित्वमङ्गी-कार्यमेवाऽन्यथा त्वनाचार इति / सर्वशून्यवादिमतनिरासेन लोकालोकयोः प्रविभागेनाऽस्तित्वं प्रतिपादयितुकाम आहणत्थि लोए अलोएवा,णेवं सन्नं निवेसए। अस्थि लोए अलोएवा, एवं सन्नं निवेसए।।१२।। यदि वा सर्वत्र वीर्यमस्ति, नास्ति सर्वत्र वीर्यम्, इत्यनेन सामान्येन वस्त्वस्तित्वमुक्तम् / तथाहि- सर्वत्र वस्तुनो वीर्य शक्तिरर्थक्रियासामर्थ्य मनसः स्वविषयज्ञानोत्पादनम्, तच्चैकान्तेनाऽत्यन्ताभावाच्छशविषाणादेरप्यस्तीत्येवं संज्ञां न निवेशयेत, सर्वत्र वीर्य नास्तीति नो एवं संज्ञां निवेशयेदिति / अनेनावशिष्टं वस्त्वस्तित्वं प्रसाधितम् / इदानीं तस्यैव वस्तुन ईषद्विशेषितत्वेन लोकालोकरूपतयाऽस्तित्वं प्रसाधयन्नाह- (णत्थि लोए अलोए०इत्यादि) लोकश्चतुर्दशरज्ज्यात्मको धर्माधर्माकाशादिपञ्चास्तिकायात्मको वा स नास्तीन्येवं संज्ञां नो निवेशयेत् / तथाऽऽ- | कारशास्तिष्क्रयाकस्क, सवनाविधातावदो संज्ञांनो निवेशयोत। तदभावप्रतिपत्तिनिबन्धनं त्विदम् / तद्यथा-प्रतिभासमानं वस्त्ववयवद्वारेण वा प्रतिभासेत, अवयविद्वारेण वा? तत्र न तावदवयवद्वारेण प्रतिभासनमुत्पद्यते, निरंशपरमाणूनां प्रतिभासमानासंभवात्सर्वारातीयभागस्यपरमाण्वात्मकत्वात्, तेषां च छमस्थविज्ञानेन द्रष्टुमशक्यत्वात्। तथा चोक्तम्-"यावद्दृश्यं परस्तावभागः सचन दृश्यते। निरंशस्य च भागस्य,नास्तिछमस्थदर्शनम् // 1 // इत्यादि। नाप्यवयविद्वारेण विकल्प्यमान-स्यावयविन एवाभावात्। तथाहि असौ स्वावयवेषु प्रत्येकं सामस्त्येन वा वर्तेताम्, अशांशिभावेन वा ? सामस्त्येनावयविबहुत्वप्रसङ्गात् / नाप्यंशेन, पूर्वविकल्पानतिक्रमेणानवस्थाप्रसङ्गात्। तस्माद्विचार्यमाणं न कथंचिद्वस्त्वात्मकं भावं लभते / ततस्तत्सर्वमेवैतन्मायास्वप्नेन्द्रजालमरुमरीचिकाविज्ञानसदृशम् / तथा चोक्तम् -"यथा यथाऽर्थाश्चिन्त्यन्ते, विविच्यन्ते तथा तथा यद्येते स्वयमर्थिभ्यो, रोचन्ते तत्र के वयम् ?" ||1|| इत्यादि। तदेव वस्त्वभावे तद्विशेषलोकालोकाभावः सिद्ध एयेत्येवं नो संज्ञां निवेशयेत्, किन्त्वस्ति लोक उधिस्तिर्यग् रूपो वैशाखस्थानस्थितकटिन्यस्तकरयुग्मपुरुषसदृशः, पञ्चास्तिकायास्मको वा / तद्व्यरिक्तश्वालोकोऽप्यस्ति, संबन्धिशब्दत्वाल्लोकध्यवस्थऽनुपपत्तेरिति भावः / युक्तिश्चात्र- यदि सर्व नास्ति, ततः सर्वान्तःपातित्वात्प्रतिषेधकोऽपि नास्ति इत्यतस्तदभावात् प्रतिषेधाभावोऽपि च सति परमार्थभूते वस्तुनि मायास्वप्नेन्द्रजालादिव्यवस्था / अन्यथा किमाश्रित्य, को वा मायादिकं व्यवस्थापयेत् ? इति / अपि च- "सर्वाभावो यथाभीष्टो, युक्तयभावे न सिध्यति / साऽस्ति चेत्सैव नस्त वं, तत्सिद्धौ सर्ववस्तु सत्" // 1 // इत्यादि / यदप्यवयवावय-विविभागकल्पनया दूषणमभिधीयते तदप्यार्हतमतानभिज्ञेन / तन्मतं चैवंभूतम् / तद्यथा- नैकान्तेनावयवा एव, नाप्यवयव्येव चेत्यतः स्याद्वादाश्रयणात्पूर्वोक्तविकल्पदोषानुपपत्तिरित्यतः कथंचिल्लोकोऽस्त्येवमलोकोऽपीति स्थितम् // 12 // तदेवं लोकालोकास्तित्वं प्रतिपाद्याधुना तद्विशेषभूतयो र्जीवाजीक्योरस्तित्वप्रतिपादनायाहणत्थि जीवा अजीवा वा, णेवं सन्नं निवेसए। अस्थि जीवा अजीवावा, एवं सन्नं निवेसए|१३|| (णत्थि जीवा अजीवा वेत्यादि) जीवा उपयोगलक्षणाः संसारिणो मुक्ता वा, ते न विद्यन्ते- तथा अजीवाश्च, धर्माधर्माकाशपुगलकालात्मका गतिस्थित्यवगाहदानच्छायातपोद्योतादिवर्तनालक्षणा न विद्यन्त इत्येवं संज्ञां परिज्ञानं नो निवेशयेत्, नास्तित्वनिबन्धनं त्विदम्, प्रत्यक्षेणानुपलभ्यमानत्वात् / जीवा न विद्यन्ते, कायाकारपरिणतानि भूतान्येव धावनवल्गनादिकां क्रियां कुर्वन्तीति। तथाऽऽत्माद्वैतवादमताभिप्रायेण- "पुरुष एवेदं सर्व यद्भूतं यच भाव्यम्" इत्यागमात् / तथा अजीवा न विद्यन्ते, सर्वस्यैव चेतनाऽचेतनस्यात्ममात्रनिर्वर्तित्वात्, नो एवं संज्ञां निवेशयेत् / किं त्वस्ति जीवः सर्वस्यास्य सुखदुःखादेर्निबन्धनभूतः स्वसंवित्तिसिद्धोऽहंप्रत्ययग्राह्यः; तथा त व्यतिरिक्ता धर्माधर्माकाशपुद्गालादयश्च विद्यन्ते / सकलप्रमाणज्येष्ठे न प्रत्यक्षेणानुभूयमानत्वात् / तद्गुणानां भूतचैतन्यवादीव वाच्यः / किं तानि भवदभिप्रेतानि भूतानि नित्यानि,उत अनित्यानि ? यदि नित्यानि, ततोऽप्र Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्थिवाय ५२०-अभिघानराजेन्द्रः- भाग 1 अस्थिवाय च्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावत्वान्न कायाकारपरिणते-ऽभ्युपगमः। नापि प्रागविद्यमानस्य चैतन्यमुत्पद्यते, आहोस्विद्विद्य-मानं तावदविद्यमानमः अतिप्रसङ्गात्, अभ्युपेता-गमलोपाद्वा / अथ विद्यमानमेव सिद्धं तर्हि जीवत्वं तथाऽऽ-त्माऽद्वैतवाद्यपि वाच्यः / यदि पुरुषमात्रमेवेदं सर्वम्, कथं घटपटादिषु चैतन्यं नोपलभ्यते ? तथा तदैक्यभेदनिबन्धनानां पक्षहेतुदृष्टान्तानामभावात्साध्य-साधनाभावः तस्मान्नै कान्तेन जीवाजीवयोरभावः, अपि तु सर्वपदार्थानां स्याद्वादाश्रयणाजीवः स्यादजीवः, अजीवोऽपि च स्याज्जीवः / इत्येतच स्याद्वादाश्रयणं जीवपुद्गलयोरन्योन्यानुगतयोः शरीरस्य प्रत्यक्षतयाऽध्यक्षेणैवीपलम्भाद् द्रष्टव्यमिति॥१३॥ जीवास्तित्वे च सिद्ध तन्निबन्धनयोः सदसत्क्रियाद्वाराऽऽ यातयोर्धर्माधर्मयोरस्तित्वप्रतिपादनायाहणत्थि धम्मे अधम्मेवा,णेवं सन्नं निवेसए। अत्थि धम्मे अघम्मेवा, एवं सन्नं निवेसए|१४|| (णत्थि धम्मे अधम्मे वेत्यादि) धर्मः श्रुतचारित्राख्यात्मको जीवस्यात्मपरिणामः कर्मक्षयकारणमात्मपरिणामः, एवमधर्मोऽपि मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगरूपः कर्मबन्धकारणमात्मपरिणाम एव / तावेवं भूतौ धर्माऽधर्मो कालस्वभावनियतीश्वरादिमतेन न विद्येते, इत्येवं संज्ञां नो निवेशयेत् / कालादय एवास्य सर्वस्य जगद्वैचित्र्यस्य धर्माधर्माध्यतिरेकेणैकान्ततः कारणमित्येवमभिप्रायं कुर्यात् , यतः त एवैकका न कारणम्, अपितु समुदिता एवेति। तथा चोक्तम्- "न हिकालादीहितो, केवलेहिंतो जायए किंचि। इह मुग्गरं धणाइ वि, ता सव्वे समुदिया हेऊ" ||11 // इत्यादि। यतो धर्माधर्ममन्तरेण संसारवैचित्र्यं नघटामियर्ति, इत्यतोऽस्ति धर्मः सम्यग्दर्शनादिकः, अधर्मश्च मिथ्यात्वादिक इत्येवं संज्ञा निवेशयेदिति // 4 // सतोश्च धर्माऽधर्मयोर्बन्धमोक्षसद्भाव इत्येतदर्शयितुमाहणत्थि बंधे व मोक्खे वा, णेवं सन्नं निवेसए। अत्थि बंधे व मोक्खे वा, एवं सन्नं निवेसए॥१५॥ (णत्थि बंधे व मोक्खे वा इत्यादि) बन्धः प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशात्मकतया कर्मपुद्गलानां जीवेन स्वव्यापारतः स्वीकरणम् ! स चामूर्तस्यात्मनो गगनस्येव न विद्यत इत्येवं नो संज्ञां निवेशयेत्। तथा तदभावाच मोक्षस्याप्यभाव इत्येवमपि संज्ञांनो निदेश-येत्। कथं तर्हि संज्ञां निवेशयेत् ? इत्युत्तरार्द्धन दर्शयति- अस्ति बन्धः कर्मपुद्गलै जीवस्य, इत्येवं संज्ञां निवेशयेदिति / यत्तूच्यतेमूर्तस्यामूर्त्तिमता संबन्धो न युज्यत इति / तदयुक्तम् / आकाशस्य सर्वव्यापितया पुद्गलैः संबन्धो दुर्निवार्यः, तदभावे तद्व्यापित्यमेव न स्याद्।अन्यथास्य विज्ञानस्य हृत्पूरमदिरादिना विकारः समुपलभ्यते, नचासौ संबन्धमृते। अतो यत्किश्चिदेतत्।अपिच-संसारिणामसुमता सदा तैजसकार्मणशरीरसद्भावादात्यन्ति-कममूर्त्तत्वं न भवतीति। तथा तत्प्रतिपक्षभूतो मोक्षोऽप्यस्ति, तद्भाये बन्धस्याप्यमावः स्यात्, इत्यतोऽशेषबन्धनापगमस्वभावो मोक्षोऽस्तीत्येवं संज्ञां निवेशयेदिति // 15 // बन्धसद्भावेचावश्यंभावी पुण्यपापसद्भाव इत्यतस्तद्धावं निषेधद्वारेणाहणत्थि पुण्णे व पावे वाणेवं सन्नं निवेसए। अस्थि पुण्णे व पावे वा, एवं सन्ने निवेसए॥१६॥ नास्ति, न विद्यते पुण्यं शुभकर्म प्रकृतिलक्षणम्, तथा पापं तद्विपर्ययलक्षणं नास्ति न विद्यते इत्येवं नो संज्ञां निवेशयेत् / तदभावप्रतिपत्तिनिबन्धनं त्विदम्-तत्र केषां चिन्नास्ति पुण्यं, पापमेव पत्कर्षावस्थंसत्सुखदुःखनिबन्धनम्। तथा-परेषां पापं नास्ति, पुण्यमेव ह्यपचीयमानं पापं कार्यं कुर्यादिति / अन्येषां तूभयमपि नास्ति। संसारवैचित्र्यं तु नियतिस्वभावादिकृतम्। तदेतदयुक्तम्। यतः पुण्यपापशब्दौ संबन्धिशब्दौ, संबन्धिशब्दानामे कस्य सत्ता परसत्तानान्तरीयकतो, नेतरस्यसत्तेति। नाप्युभयाभावः शक्यते वक्तुम, निबन्धनस्य जगद्वैचित्र्यस्याभावात् / न हि कारणमन्तरेण क्वचित्कार्यस्योत्पत्तिर्दृष्टा / नियतिस्वभावादिवादस्तु नष्टोत्तराणां पादप्रसारिकाणां पादप्रसारिकाप्रायः। अपिच-तद्वादेऽभ्युपगम्य-माने सकलक्रियावैयर्थ्यम्, तत एव सकलकार्योत्पत्तिः / इत्यतोऽस्ति पुण्यं पापंचेत्येवं संज्ञां निवेशयेत्।पुण्यपापे चैवंरूपे; तद्यथा-"पुद्गलकर्मशुभं यत्तत्पुण्यमिति जिनशासने दृष्टम् / यदशुभमथ तत्पापमिति भवति सर्वज्ञनिर्दिष्टम्" इति // 16 // न कारणमन्तरेण कार्यस्योत्पत्तिरतः पुण्यपापयोः प्रागुक्तयोः कारणभूतावाश्रवसंवरौ तत्प्रतिषेधद्वारेण दर्शयितुकाम आहपत्थि आसवे संवरे वा, णेवं सन्नं निवेसए। अत्थि आसवे संवरे वा, एवं सन्नं निवेसए॥१७॥ (णत्थि आसवे संवरे वेत्यादि) आश्रवति प्रविशति कर्म येन स प्राणातिपातादिरूप आश्रवः कर्मोपादानकारणम् / तथा तन्निरोधः संवरः। एतौ द्वावपिनस्त इत्येवं संज्ञांनो निवेशयेत्। तदभाव-प्रतिपत्त्या शङ्काकारणं त्थिदम्, कायवाङ्मनः कर्मयोगः। स आश्रव। इति यथेदमुक्तं तथेदमप्युक्तमेव-"उचालियम्मि पाए 0 इत्यादि' ततश्च कार्यादिव्यापारेण कर्मबन्धो न भवतीति / युक्तिरपि-किमयमाश्रव आत्मनो भिन्नः, उताऽभिन्नः ? यदि भिन्नो नामाऽसावाश्रवो घटादिवदभेदेऽपिनाश्रवत्वम्, सिद्धात्मनामपि आश्रवप्रसङ्गात्। तदभावे च तन्निरोधलक्षणस्य संवरस्याप्यभावः सिद्ध एव / इत्येवमात्मकमध्यवसायं न कुर्यात् / यतो यत्तदनै-कान्तिकत्वं कायव्यापारस्य "उचालयम्मि पाए" इत्यादिनोतं, तदस्माकमपि सम्मतमेव / यतोऽयमस्माभिरप्युपयुक्तकर्म-बन्धोऽभ्युपगम्यते / निरुपयुक्तस्य कर्मबन्धः, तथा भेदाभेदो-भयपक्षसमाश्रयणात्तदेकपक्षाश्रितदोषाभावः / इत्यस्त्या-श्रवसद्भावः, तन्निरोधश्च संवर इति / उक्तं च"योगःशुद्धः पुण्या-श्रवस्तुपापस्य तद्विपर्यासः। वाक्कायमनोगुप्तिभिराश्रवः संव-रस्तूक्तः" // 1 // इत्यतोऽस्त्याश्रवस्तथा संवरश्चेत्येवं संज्ञा निवे-शयेदिति // 17 // आश्रवसंवरसद्भावे चावश्यंभावी वेदनानिर्जरासद्भाव इत्यतस्तं प्रतिषेधद्वारेणाहणत्थि वेयणा णिज्जरा वा, णेवं सन्नं निवेसए। अस्थि वेयणा णिज्जरा वा, एवं सन्नं निवेसए॥१८॥ (णत्थि वेयणेत्यादि) वेदना कर्मानुभवलक्षणा, तथा- निर्जरा कर्मपुद्गलशाटनलक्षणा / एते द्वे अपि न विद्येते, इत्येवं नो संज्ञा निवेशयेत् / तदभावं प्रत्याशङ्काकारणमिदम् / तद्यथा- "पल्यो पमसागरोपमशतानुभवनीयं कर्मान्तर्मुहूर्तेनैव क्षयमुप-याति" इत्यभ्युपगमात् / तदुक्तम्- 'जं अण्णाणी कम्म, खवेइ बहुयाइँ Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्थिवाय 521- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अत्थिवाय वासकोडीहिं / तण्णाणी तिहि गुत्तो, खवेइ ऊसासमित्तेणं" ||1|| इत्यादि / तथा क्षपक श्रेण्यां च झटित्येव कर्मणो भस्मीकरणात, यथाक्रमबद्धस्य चानुभवनाभावे वेदनाया अभावस्तदभावाच निर्जराया अपीत्येवं नो संज्ञां निवेशयेत् / किमिति ? यतः कस्यचिदेव कर्मण एवमनन्तोरक्तया नीत्या क्षपणात्तपसा प्रदेशानुभवेन चापरस्य तूदयोदीरणाभ्यामनुभवनमित्यतोऽस्ति वेदना / यत आगमोऽप्येवंभूत एव। तद्यथा-"पुट्विं दुचिण्णाणं, दुप्पडिकंताण कम्माणं / वेइत्ता मोक्खो णस्थि अवेइत्ता" इत्यादि वेदनासिद्धौ च निर्जराऽपि सिद्धयेत्यतोऽस्ति वेदना निर्जरावेत्येवं संज्ञां निवेशयेदिति॥१८॥ वेदनानिर्जरे च क्रियाऽक्रियत्वे ततस्तद्भावप्रतिषेधनिषेधपूर्वकं दर्शयितुमाहणत्थि किरिया अकिरिया वा, णेवं सन्नं निवेसए। अत्थि किरिया अकिरिया वा, एवं सन्नं निवेसए।।१६॥ (णस्थि किरिया अकिरिया वा इत्यादि) क्रिया परिस्पन्दलक्षणा, तद्विपर्यस्ता त्वक्रिया, ते द्वे अपिनस्तो, न विद्यते। तथाहि-सांख्यानां सर्वव्यापित्वादात्मन आकाशस्येव परिनिस्पन्दिका क्रिया न विद्यते। शाक्यानांतु क्षणिकत्वात्सर्वपदार्थानां प्रतिसमयमन्यथा वाऽन्यथोत्पत्तेः पदार्थसत्तैव, न तद्व्यतिरिक्ता काचित्क्रियाऽस्ति / तथा चोक्तम्"भूतिर्येषां क्रिया सैव, कारकस्यैव चोच्यते / " इत्यादि / तथा सर्वपदार्थानां प्रतिक्षणमवस्थान्तरगमनात्स-क्रियात्वम्, अतोन क्रिया विद्यते, इत्येवं संज्ञा नो निवेशयेत्। किं तर्हि- अस्ति क्रिया अक्रिया वेत्येवं संज्ञां निवेशयेत्। तथाहि-शरीरात्मनोर्देशाद्देशान्तरावाप्तिनिमित्ता परिस्पन्दात्मिका क्रिया प्रत्यक्षेणैवोपलभ्यते, सर्वथा निष्क्रियत्वे चात्मनोऽभ्युपगम्यमाने गगनस्येव बन्धमोक्षाद्यभावः; सच दृष्टष्टबाधितः / तथा शाक्यानामपि प्रत्यक्षेणोत्पत्तिरेव क्रियेत्यतः कथं क्रियाया अभावः / अपि च-एकान्तेन क्रियाऽभावे संसारमोक्षाभावः स्यात् / इत्यतोऽस्ति क्रिया, तद्विपक्षभूता चाक्रिया, इत्येवं संज्ञा निवेशयेदिति // 16 // तदेवं सक्रियात्मनि सति क्रोधादिसद्भाव इत्येतदर्शयितुमाहणत्थि कोहे व माणे वा, णेवं सन्नं निवेसए। अस्थि कोहे व माणे वा, एवं सन्नं निवेसए॥२०॥ स्वपरात्मनोरप्रीतिलक्षणः क्रोधः, स चानन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानाऽऽवरणसंज्वलनभेदेन चतुर्धाऽऽगमे पठ्यते / तथैतावद्भेद एव मानो गर्वः / एतौ द्वावपि, न स्तो, न विद्यते। तथाहिक्रोधः केषांचिन्मतेन मानांश एव, अभिमानग्रहगृहीतस्य तत्कृतावत्यन्तक्रोधोदयदर्शनात्। क्षपकश्रेण्यां च भेदेन क्षपणानभ्युपगमात्। तथा किमयमात्मधर्मः, आहोस्वित्कर्मणः, उतान्यस्येति ? तत्रात्मधर्मत्वे सिद्धानामपि क्रोधोदयप्रसङ्गः। अथकर्मणः, ततस्तदन्यकषायोदयेऽपि तदुदयप्रसङ्गात्।मूर्तत्वाच कर्मणो हिघटस्येव तदाकारोपलब्धिः स्यात् / अन्यधर्मत्वे त्वकिञ्चित्करत्वम्। अतो नास्ति क्रोध इत्येवं मानोभावोऽपि वाच्य इत्येवं संज्ञांनो निवेशयेत्।यतः कषायः कर्मोदयवर्ती दृष्टेष्टकृतभूकुटीभङ्गो रक्तवदनो गलत्स्वेदबिन्दुसमाकुलः क्रोधाध्मातः समुपलभ्यते / न चासौ मानांशः, तत्कार्याकरणात्, तथा परनिमित्तोत्थापितत्त्वाचेति / तथा जीवधर्मकर्मणोरुभयोरप्ययं / धर्मस्तद्धर्मत्वेन च प्रत्येकविकल्पदोषानुपपत्तिः, अनभ्युपगमात्।। संसार्यात्मनां कर्मणा सार्द्ध पृथग्भवनाभावात्तदुभयस्य च न नरसिंहवद्वस्त्वन्तरत्वात् / इत्यतोऽस्ति क्रोधो मानश्चेत्येवं संज्ञा निवेशयेत् // 20 // साम्प्रतं मायालोभयोरस्तित्वं दर्शयितुमाहणत्थि माया व लोभे वा, णेवं सन्नं निवेसए। अत्थि माया व लोमे वा, एवं सन्नं निवेसए।।२१।। (णत्थि मायावलोभेत्यादि) अत्रापि प्राग्वन्मायालोभ-योरभावादीनां निराकृत्यास्तित्वं प्रतिपादनीयमिति // 21 // साम्प्रतं तेषां च क्रोधादीनां समासेनास्तित्वं प्रतिपादयन्नाहणत्थि पेज्जे व दोसे वा,णेवं सन्नं निवेसए। अत्थि पेज्जे व दोसे वा, एवं सन्नं निवेसए॥२२॥ (णत्थिपेजेत्यादि) प्रीतिलक्षणं प्रेम पुत्रकलत्रधनधान्याद्यत्मीयेषु रागः, तद्विपरीतस्त्वात्मीयोपघातकारिणि द्वेषः, तावेतौ द्वायपि न विद्यते / तथाहि- केषांचिदभिप्रायः / यदुत- माया-लोभावेवावयवौ विद्येते, न तत्समुदायरूपोऽवयव्यस्ति / तथा क्रोधमानावेव स्तः, न तत्समुदायरूपोऽवयवी द्वेष इति। तथा ह्यवयवेभ्यो यद्यभिन्नोऽवयवी तर्हि तदभेदात्त एव, नासौ / अथ भिन्नः, पृथगुपलम्भः स्यात्, घटपटवत् / इतीत्येवमसिद्धिकल्पमूढतया नो संज्ञां निवेशयेत्। यतोऽवयवावयविनोः कथंचिद्भेद इत्येवं भेदाभेदाख्यतृतीयपक्ष समाश्रयणात्प्रत्येकपक्षाश्रितदोषानुपपत्तिः। इत्येवं चास्तिप्रीतिलक्षणं प्रेम, अप्रीतिलक्षणश्च द्वेष इत्येवं संज्ञां निवेशयेत्।।२२।। साम्प्रतं कषायसद्भावे सिद्धे सति तत्कार्यभूतोऽवश्यंभावी संसारसद्भाव इत्येतत्प्रतिषेधनिषेधद्वारेण प्रतिपादयितुमाहपत्थि चाउरंत संसारे,णेवं सन्नं निवेसए। अत्थि चाउरते संसारे, एवं सन्नं निवेसए।।२३।। पत्थि देवो व देवी वा,णेवं सन्नं निवेसए। अत्थि देवो व देवीवा, एवं सन्नं निवेसए।॥२४॥ (णत्थि चाउरते इत्यादि) चत्वारोऽन्ता गतिभेदाः नरकतिर्यङ्नरामरलक्षणा यस्य संसारस्यासौ चतुरन्तः संसार एव कान्तारः, भयैकहेतुत्वात् / स च चतुर्विधोऽपि न विद्यते; अपि तु सर्वेषां संसृतिरूपत्वात्कर्मबन्धात्मकतया च दुःखैकहेतुत्वात् / अथवा नारकदेवयोरनुपलभ्यमानत्वात्तिर्यङ्मनुष्ययोरेव सुखदुःखो-त्कर्षतया तद्व्यवस्थानाद् द्विविधः संसारः, पर्यायनयाश्रयणात् त्यनेकविधः, अतश्चातुर्विध्यं न कथंचिघटत इत्येवं संज्ञां नो निवेशयेत्।अपि त्वस्ति चतुरन्तः संसार इत्येवं संज्ञां निवेशयेत् / यत्तूक्तम्-एकविधः संसारः, तन्नोपपद्यते / यतोऽध्यक्षेण तिर्य-ङ्मनुष्ययोर्भेदः समुपलभ्यते / न चासावेक विधत्वे संसारस्य घटते / तथा संभवानुमानेन नारकदेवानामप्यस्तित्वाभ्युपगमाद् द्वैविध्यमपिन विद्यते। संभवानुमानं तु पुण्यपापयोः प्रकृष्ट-फलभुजस्तन्मध्यफलभुजां तिर्यङ्मनुष्याणां दर्शनात् / अतः संभाव्यते प्रकृष्टफलभुजो ज्योतिषां च प्रत्यक्षेणैव दर्शनात् / अथ तद्विमानानामुपलम्भः, एवमपि तदधिष्ठातृभिः कैश्चिद्भवितव्यमित्यनुपमानेन गम्यते / ग्रहगृहीतवरप्रदानादिना च तदस्तित्वानुमानमिति / तदस्तित्वे तु प्रकृष्टपुण्यफलभुज इव प्रकृष्टपापफलभुग्भिरपि भाव्यमित्यतोऽस्ति चातुर्विध्यम् / संसारस्य पर्यायनयाश्रयणे तु यदनेकविधत्वमुच्यते / तदयुक्तम् / यतः सप्त Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्थिवाय 522 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अस्थिवाय पृथिव्याश्रिता अपिनारकाः समानजातीयाश्रयणादेकप्रकारा एव। तथा तिर्यचोऽपि पृथिव्यादयः स्थावराः, तथा द्वित्रिचतुः - पञ्चेन्द्रियाश्च द्विषष्टियोनिलक्षप्रमाणाः सर्वेऽप्यक-विधा एव / तथा मनुष्या अपि कर्मभूमिजाऽकर्म भूमिजान्तरद्वीपक सं मूच्र्छ नजात्मक - भेदमनादृत्यैकविधत्वेनैवाश्रिताः / तथा देवा अपि भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकभेदेन भिन्ना एकवधित्वेनैव गृहीताः / तदेवं सामान्यविशेषाश्रयणाचातुर्विध्यं संसारस्य व्यवस्थितम्: नेकविधत्यम्, संसारवैचित्र्यदर्शनात् / नाप्यनेकवधित्व्, सर्वेषां नारकादीनां स्वजात्यनतिक्रमादिति // 23 // 24 // सर्वभावानां सप्रतिपक्षत्वात्संसारसद्भावे सति अवश्यं तद्विमुक्तिलक्षणया सिद्ध्याऽपि भवितव्यमित्यतोऽधुना सप्रतिपक्षां सिद्धिं दर्शयितुमाहगत्थि सिद्धी असिद्धी वा, णेवं सन्नं निवेसए। अस्थि सिद्धी असिद्धी वा, एवं सन्नं निवेसए // 25 // (णत्थि सिद्धीत्यादि) सिद्धिरशेषकर्मच्युतिलक्षणा, तद्विपर्यस्ता चासिद्धिास्तीत्येवं नो संज्ञां निवेशयेत्, अपि त्वसिद्धेः संसारविलक्षणायाश्चातुर्विध्येनानन्तरमेव प्रसाधिताया अविगानेनास्तित्वं प्रसिद्धम्, तद्विपर्ययेण सिद्धेरप्यस्तित्वमनिवारितमित्यतोऽस्तिसिद्धिरसिद्धिर्वेत्येवं संज्ञां निवेशयेदिति स्थितम्। इदमुक्तं भवति- सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकस्य मोक्षमार्गस्य सदाकर्मक्षयस्य च, पीडोपशमादिनाऽध्यक्षेण दर्शनात् / अतः कस्यचिदात्यन्तिककर्महानिसिद्धरस्ति सिद्धिरिति / तथा चोक्तम्- "दोषावरणयोहानिनिःशेषाऽस्त्यतिशायिनी / क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो, बहिरन्तर्मलक्षयः" !|1|| इत्यादि / सर्वज्ञसद्भावोऽपि संभवानुमानाद् द्रष्टव्यः / तथा हि-अभ्यस्यमानायाः प्रज्ञाया व्याकरणादिना शास्त्रसंस्कारेणोत्तरोत्तरवृद्ध्या प्रज्ञा तिशयो द्रष्टव्यः। तत्र कस्यचिदत्यन्तातिशयप्राप्तेः सर्वज्ञत्वं स्यादिति संभवानुमानेन चैतदाशङ्कनीयम् / तद्यथा- ताप्यमानमुदकम-त्यन्तोष्णतामियान्नाग्निसाभवेत्। तथा-"दशहस्तान्तरं व्योम्नि,योनामोत्प्लुत्य गच्छति / न योजनमसौ गन्तुं, शक्तोऽभ्या-सशतैरपि" ||1 // इति दृष्टान्तदान्तिकयोरसाम्यात् / तथाहि- ताप्यमानं जलं प्रतिक्षणं क्षयं गच्छेत, प्रज्ञातु विवर्द्धते। यदिवाप्लोषोपलब्धेरव्याहतमग्नित्वम्। तथा प्लवनविषयेऽपि पूर्वमर्यादाया अनतिक्रमाद् योजनोत्प्लवनाभावस्तत्परित्यागे चोत्तरोत्तरं वृद्धया प्रज्ञाप्रकर्षगमनवयोजनशतमपि गच्छेत्, इत्यतो दृष्टान्त-दान्तिकयोरसाम्यात्तदेवं नाशङ्कनीयमिति स्थितम् / प्रज्ञावृद्धेश्च बाधकप्रमामाणाभावादस्ति सर्वज्ञत्वप्राप्तिरिति। यदि वाऽञ्जन-भृतसमुद्रकदृष्टान्तेन जीवाकुलत्वाजगतो हिंसाया दुर्निवारत्वा-सिद्ध्यभावः। तथा चोक्तम्-"जले जीवाः स्थले जीवाः, आकाशे जीवमालिनि / जीवमालाऽऽकुले लोके, कथं भिक्षुरहिंसकः ?" ||1| इत्यादि। तदेवं सर्वस्यैव हिंसकत्यात्सिद्ध्यभाव इति / तदेतदयुक्तम् / तथाहि- सदोषयुक्तस्य पिहिताश्रवद्वारस्य पञ्चसमितिसमितस्य त्रिगुप्तिगुप्तस्य सर्वथा निरवाद्यानुष्ठायिनो द्विचत्वारिंशद्दोषरहितभिक्षाभुज ईर्यासमितस्य कदाचिद् द्रव्यतः प्राणिव्यपरोपणेऽपि तत्कृतबन्धाभावः, सर्वथा तस्यानवद्यत्वात्। तथा चोक्तम्- "उचालियम्मि पाए०" इत्यपि प्रतीतम्, तदेवं कर्मबन्धाभावात्सिद्धेः सद्भावोऽव्याहतः; साम गयभावादसिद्धि सद्भावोऽपीति // 25 // साम्प्रतं सिद्धानां स्थाननिरूपणायाहणस्थि सिद्धी नियं ठाणं,णेवं सन्नं निवेसए। अत्थि सिद्धी नियं ठाणं, एवं सन्नं निवेसए / / 26|| सिद्धेरशेषकर्मच्युतिलक्षणाया, निजं स्थानमीषत्प्राग्भाराख्यव्यवहारतः, निश्चयतस्तु तदुपरि योजनक्रोशषड्भागस्तत्प्रतिपादकप्रमाणाभावात्स नास्तीत्येवं संज्ञां नो निवेशयेत्, यतो बाधकप्रमाणाभावात्साधकस्य चागमस्य सद्भावात् तत्सत्ता दुर्निवारेति / अपि च- अपगताशेषकल्मषाणां सिद्धानां केनचिद्विशिष्टेन स्थानेन भाव्यम्, तचतुर्दशरज्ज्वात्मकस्य लोकस्याग्रभूतं द्रष्टव्यम्।नच शक्यते वक्तुमाकाशवत्सर्व-व्यापिनः सिद्धा इति / यतो लोकालोकव्याप्याकाशम् / न चालोके परद्रव्यास्याकाशमात्र-रूपत्वात् लोकमात्रव्यापित्वमपि नास्ति, विकल्पानुपपत्तेः / तथाहिसिद्धावस्थायां तेषां व्यापि-त्वमभ्युपगतम्, उत प्रागपि ? न तावत्सिद्धावस्थायाम्, तद्व्यापित्वभवने निमित्ताभावात् / नापि प्रागवस्थायाम, तद्भावे सर्वसंसारिणं प्रति नियतसुखदुःखानुभवो न स्यात् / न च शरीराद्- बहिरवस्थितमवस्थानमस्ति, तत्सत्तानिबन्धनप्रमाणस्याभावात् / अतः सर्वव्यापित्वं विचार्यमाणं न कथञ्चिद् घटते। तदभावेच लोकाग्रमेव सिद्धानां स्थानम् / तद्गतिश्च कर्मविमुक्तस्योवं गतिरिति। तथा चोक्तम्-"लाओ एरंडफले, अग्गी धूमे उसूधणुविमुक्के / गइ पुव्वपओगेणं, एवं सिद्धाण वि गईओ" ||1|| इत्यादि। तदेवमस्ति सिद्धिः, तस्याश्च निजं स्थानमित्येवं सज्ञां निवेशयेदिति // 26|| साम्प्रतं सिद्धेः साधकानां तत्प्रतिपक्षभूतानामसाधूनां चास्तित्वं प्रतिपिपादयिषुः पूर्वपक्षमाहणत्थि साहू असाहू वा, णेवं सन्नं निवेसए। अत्थि साहू असाहू वा, एवं सन्नं निवेसए // 27 // नास्ति, न विद्यते ज्ञानदर्शनचारित्रक्रियोपेतो मोक्षमार्गव्यवस्थितः साधुः संपूर्णस्य रत्नत्रयानुष्ठानस्याभावात्, तदभावाच तत्प्रतिपक्षभूतस्यासाधोरप्यभावः, परस्परापेक्षित्वात् / एतव्यवस्थानस्यैकतराभावे द्वितीयस्याप्यभाव इत्येवं संज्ञांनो निवेशयेत्, अपित्वस्ति साधुः, सिद्धेः प्राक्साधितत्वात्। सिद्धिसत्ता चन साधुमन्तरेण / अतः साधुसिद्धिस्तत्प्रतिपक्षभूतस्य वाऽसाधोरिति / यश्च संपूर्णरत्नत्रयानुठानाभावः प्रागाशङ्कितः, स सिद्धान्ताभि-प्रायमबुद्ध्वैव / तथाहिसम्यग्दृष्टरुपयुक्तस्यारक्तद्विष्टस्य सत्संयमवतः श्रुतानुसारेणाऽऽहारादिकं शुद्धबुद्धया गृह्णतः क्वचिदज्ञानादनेषणीय-ग्रहणसं भवेऽपि सततोपयुक्ततया संपूर्णमेव रन्तत्रयानुष्ठानमिति / यश्च भक्ष्यमिदं चाभक्ष्यम्, गम्यमिदं चागम्यम्, प्रासुकमेषणीयमिदमिदं च विपरीतमित्येवं रागद्वेषसंभवेन समभावरूपस्य सामायिकस्याभावः कैश्चिचोद्यते, तत्तेषां चोदनमज्ञानविज़म्भणात् / तथाहि- न तेषां सामायिकवतां साधूनां रागद्वेषतया भक्ष्याभक्ष्यादियिवेकोऽपि तु प्रधानमोक्षाङ्गस्य सच्चारित्रस्य साधनार्थमपि चोपकारापकारयोः समभावतया सामायिकम्, न पुर्नभक्ष्याभक्ष्ययोः समभाववृत्त्येति।।२७।। तदेवं मुक्तिमार्गप्रवृत्तस्य साधुत्वम्, इतरस्य चासाधुत्वं, प्रदाधुना च सामान्येन कल्याणपापवतोः सद्भाव प्रतिषेधनिषेधद्वारेणाहणत्थि कल्लाणपावे वा, णेवं सन्नं निवेसए। अस्थि कल्लाणपावे वा, एवं सन्नं निवेसए|२८|| Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्थिवाय 523 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अस्थिवाय (णस्थि कल्लाणपावे वेत्यादि) यथेष्टार्थफलसम्प्राप्तिः कल्याणः, तन्न विद्यते, सर्वाशुचितया निरात्मकत्वात् / सर्वपदार्थानां बौद्धाभिप्रायेण, तथा तदभावे कल्याणवाँश्च न कश्चिद्विधते, तथाऽऽत्मभूतवाद्यभिप्रायेणपुरुष एवेदं सर्वमिति कृत्वा पापं पापवान् वा न कश्चिद्विद्यते, तदेवमुभयोरप्यभावः। तथा चोक्तम्-"विद्याविनयसंपन्ने, ब्राह्मणे गवि हस्तिनि। शुनि चैव श्वपाके च, पण्डिताः समदर्शिनः" / / 1 / / इत्येवमेव कल्याणपापकाभावरूपां संज्ञां नो निवेशयेत्। अपि त्वस्ति कल्याणं, कल्याणवाँश्व विद्यते, तद्विपर्यस्तं पापं तद्वाँश्च विद्यते, इत्येवं संज्ञा निवेशयेत् / तथाहि- नैकान्तेन कल्याणाभावो यो बौद्धरभिहितः, सर्वपदार्थानामशुचित्वासंभवात्, सर्वाऽशुचित्वे च बुद्धस्याप्यशुचित्वप्राप्तेः / नापि निरात्मनः स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षया सर्वपदार्थानां विद्यमानत्वात्परद्रव्यादिभिस्तु न विद्यन्ते, सदसदात्मकत्वाद्वस्तुनः। तदुक्तम्- स्वपर-सत्ताव्युदासोपादानोत्पाद्यं हि वस्तुनो वस्तुत्वमिति / तथाऽऽत्मा-द्वैतभावाभावात्पापाभावोऽपि नास्ति, अद्वैतभावे हि सुखी दुःखी सरोगो नीरोगः सुरूपः कुरूपो दुर्भगः सुभगोऽर्थवान् दरिद्रः, तथाऽयमन्तिकोऽयं तु दवीयान् इत्येवमादिको जगद्वैचित्र्यभावोऽध्यक्षसिद्धोऽपि न स्यात् / यच समदर्शित्वमुच्यते ब्राह्मण- चाण्डालादिषु, तदपि समानपीडोत्पादनतो द्रष्टव्यम्: न पुनः कर्मोत्पादितवैचित्र्याभावोऽपितेषां ब्राह्मणचाण्डालादीनामस्तीति। तदेवं कथंचित्कल्याणमस्ति, तद्विपर्यस्त तु पापकमिति / न चैकान्तेन कल्याणमेव, यतः के वलिनां प्रक्षीणघनघातिकर्मचतुष्टयानां सातसातोदयसद्भावात् / तथा नारकाणामपि पञ्चेन्द्रियत्वविशिष्टज्ञानादिसद्भावानैकान्तेन तेऽपिपापवन्त इति। तस्मात्कथंचित्कल्याणं कथंचित्पापमिति स्थितम् // 28 / / तदेवं कल्याणपापयोरनेकान्तरूपत्वं प्रसाध्यैकान्तं दूषयितुमाहकल्लाणे पावए वा वि, ववहारो ण विजइ। जं वेरं तं न जाणंति, समणा बालपंडिया // 26 // (कल्लाणे पायए इत्यादि) कल्यं सुखमारोग्यं शोभनत्वंवा, तदणतीति कल्याणम्, तदस्यास्तीति कल्याणः "अर्श आदिभ्योऽच्" 5 / 2 / 127|| इत्यनेन पाणिनीयसूत्रेण मत्वर्थीया-ऽच्प्रत्ययान्तः; कल्याणवानिति यावत् / पापकशब्दोऽपि मत्वर्थीयाऽच्प्रत्ययान्तो द्रष्टव्यः, तदेवं सर्वथा कल्याणवानेवायम्, तथा पापवानेवायमित्येवंभूतो व्यवहारो न विद्यते। तदैकान्तभूतस्यार्थस्यैवाभावात् / तदभावस्य च सर्ववस्तू - नामनेकान्ताश्रयणेन प्राक्प्रसाधितत्वादिति / एतच व्यवहाराभावाश्रयणं सर्वत्र प्रागपि योजनीयम्। तद्यथा- सर्वत्र वीर्यमस्ति नास्ति वा सर्वत्र वीर्यमित्येवंभूत एकान्तिको व्यवहारो न विद्यते। तथा नास्ति लोकोऽलोको वा, तथा सन्ति जीवा अजीवा इति वेत्येवंभूतो व्यवहरोन विद्यत इति सर्वत्र संबन्धनीयम्। तथा वैरं वजं तद्वत्कर्म वैरं, विरोधो वा वैरम्, तद्येन परोपतापादिनैकान्तपक्षसमाश्रयणेन वा भवति, तत्ते श्रमणास्तीर्थिका बाला इव बाला रागद्वेषकलिताः पण्डिताभिमानिनः शुष्कतर्क दध्माता न जानन्ति, परमार्थभूतस्याहिंसालक्षणस्य धर्मस्यानेकान्तपक्षस्य वाऽनाश्रयणादिति / यदि वा यद्वैरं तत्ते श्रमणा बालाः पण्डिता वान जानन्तीत्येवं वाचं न निसृजेदित्युत्तरेण संबन्धः / किमिति न निसृजेत् ? यतस्ते किञ्चिजानन्त्येव / अपि च- तेषां तन्नि मित्तकोपोत्पत्तेर्यचैवंभूतं वचस्तन वाच्यम् / यत उक्तम् -"अप्पत्तियं जेण सिया, आसु कुप्पिज वा परो / सव्यसो तं ण भासेजा, भासं अहियगामिणि" ||1|| इत्यादि / / 26 / / अपरमपिवाक्संयममधिकृत्याऽऽहअसेसं अक्खयं वा वि, सव्वदुक्खे ति वा पुणो। वज्झा पाणा न वज्झन्ति, इति वायं न नीसरे // 30 // (असे समित्यादि) अशेषं कृत्स्नं तत्साङ्ख्याभिप्रायेण कृतं नित्यमित्येवं नब्रूयात्, प्रत्यर्थं प्रतिसमयं चान्यथान्यथाभावदर्शनात्। स एवायमित्येवंभूतस्यैकत्वसाधकस्य प्रत्यभिज्ञानस्य लून पुनर्जातेषु केशनखादिष्वपि प्रदर्शनात्। तथापि शब्दादेकान्तेन क्षणिकमित्येवमपि वाचं न निसृजेत्, सर्वथा क्षणिकत्वे पूर्वस्य सर्वथा विनष्टत्वादुत्तरस्य निर्हेतुक उत्पादः स्यात् / तथा च सति "नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वा, हेतोरन्यानपेक्षणात्" इति। तथा सर्वं जगद् दुःखात्मकमित्येवमपि न ब्रूयात्, सुखात्मकस्यापि सम्यग्दर्शनादिभावेनदर्शनात्। तथाचोक्तम्"तणसंथारनिस्सण्णो, विमुणिवरोभट्टरागमयमोहो।जपावइ मुत्तिसुहं, कत्तो तं चक्कवट्टी वि"||१|| तथा-वध्याश्चौरपारदारिकादयः, अवध्या वा, तत्कर्मानुमतिप्रसंगात्, इत्येवंभूतां वाचं स्वानुष्ठानपरायणः साधुः परव्यापारनिरपेक्षो न निसृजेत् / तथाहि- सिंहव्याघ्रमार्जारादीन् परसत्त्वव्यापादनपरायणान् दृष्ट्वा माध्यस्थ्यमवलम्बयेत् / तथा चोक्तम्- 'मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यादीनि सत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमानविनयेषु" इति। एवमन्योऽपि वाक्संयमो द्रष्टव्यः। तद्यथाअमी गवादयो वाह्यान वाह्याः, तथाऽमीवृक्षादयश्छेद्या नछेद्या वेत्यादिकं वचो न वाच्यं साधुनेति॥३०|| अयमपरो वाक्संयमप्रकारोऽन्तःकरणशुद्धि समाश्रितः प्रदर्श्यतेदीसंति समियाचारा, भिक्खुणा साहुजीविणो। एए मिच्छोवजीवंति, इति दिढेि नधारए॥३१॥ दृश्यन्ते समुपलभ्यन्ते स्वशास्त्रोक्तेन विधिना निभृतः संयत आत्मा येषां ते निभृतात्मानः / क्वचित्पाठः -(समियाचारं त्ति) / सम्यक् स्वशास्त्रविहितानुष्ठानादविपरीत आचारोऽनुष्ठानं येषां ते सम्यगाचाराः, सम्यग्वा इतो व्यवस्थित आचारो येषां ते समिताचाराः 1 के ते? भिक्षणशिला भिक्षामात्रवृत्तयः / तथा साधुना विधिना जीवितुं शीलं येषां ते साधुजीविनः। तथाहि-ते न कस्यचिदुपरोधविधानेन जीवन्ति / तथा क्षान्ता दान्ता जितक्रोधाः सत्यसन्धा दृढव्रतायुगान्तरमात्रदृष्टयः परिपूतोदकपायिनो मौनिनः सदा तायिनो विविक्तैकान्तध्यानाध्यासिनोऽकौकुच्याः, तानेवंभूतानवधार्या अपि सरागा अपि वीतरागा इव चेष्टन्ते, इति मत्वैते मिथ्यात्वोपजीविन इत्येवं दृष्टिं न धारयेन्नैवंभूतमध्यवसायं कुर्यात्, नाप्येवंभूतां वाचं निसृजेत्यथैते मिथ्योपचारप्रवृत्ता मायाविन इति, छडास्थेन ह्यग्दिर्शिनवंभूतस्य निश्चयस्य कर्तुमशक्यत्वादित्यभिप्रायः / ते च स्वयूथ्या वा भवेयुस्तीर्थान्तरीया वा; तावुभावपि न वक्तव्यौ साधुना / यत उक्तम् "यावत्परगुणपरदोषकीर्तने व्यापृतं मनो भवति। तावदरं विशुद्धे ध्याने व्यग्रं मनः कर्तुम्" // 1 // इत्यादि॥३१॥ Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्थिवाय 524- अभिधानराजेन्द्रः-भाग 1 अत्थुग्गह किञ्चाऽन्यत्दक्खिणाए पडीलंभो, अस्थि वा णत्थि वा पुणो॥ ण वियागरेज मेहावी, संति मग्गं च वूहए / / 3 / / (दक्खिणाए इत्यादि) दानं दक्षिणा, तस्याः प्रतिलम्भः प्राप्तिः, स दानलाभोऽस्माद्गृहस्थादेः सकाशादस्ति नास्ति वेत्येवं न व्यागृणीयात्, मेधावी मर्यादाव्यवस्थितः। यदि वा स्वयूथस्य तीर्थान्तरीयस्य वा दानं ग्रहणं वा प्रतिलाभः। सएकान्तेनास्ति संभवति, नास्ति वेत्येवं न ब्रूयात्, एकान्तेन तद्दानग्रहणनिषेधे दोषोत्पात्तसभंवात् / तथाहितद्दाननिषेधेऽन्तरायसंभवः, तद्वैचित्र्यं च तदानानुमतावप्यधिकरणोद्भव इत्यतोऽस्ति दानं न वेत्ये-वमकान्तेनन ब्रूयात्। कथं तर्हि ब्रूयात् ? इति दर्शयति- शान्तिर्मोक्षः, तस्य मार्गः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकः, तमुपबृंहयेद्वर्धयेत्। यथा मोक्षामार्गाभिवृद्धिर्भवति तथा ब्रूयादि-त्यर्थः / एतदुक्तं भवतिपृष्टः केनचिद्विधिप्रतिषेधमन्तरेण देयप्रतिग्राहकविषयं निरवद्यमेव ब्रूयादित्येवमादिकमन्यदपि।।३२॥ - साम्प्रतमध्ययनार्थमुपसंजिघृक्षुराहइथेएहिँ ठाणेटिं, जिणदिद्वेहिं संजए। धारयंते उ अप्पाणं, आमोक्खाए परिवएज्ज // 33 // ति बेमि। इत्येतैरकान्तनिषेधद्वारेणानेकान्तविधायिभिः स्थानैक्संयमप्रधानैः समस्ताध्ययनोक्तैः रागद्वेषरहितैर्जिनदृष्टरुपलब्धैर्न स्वमतिविकल्पोस्थापितैः, संयतः सन् संयमवानात्मानंधार यन्नैभिर्विविधधर्मदेशनावसरे वाच्यम् / तथा चोक्तम्- "सावजऽणवजाण, वयणाणं जो ण जाणइ विसेसं" इत्या-दिस्थानैरात्मानं वर्तयन्नामोक्षायाशेषकर्मक्षयार्थ मोक्षं यावत्परिसमन्तात्संयमानुष्ठाने व्रजेः, गच्छेस्त्वमिति विधेयस्योपदेशः / इतिः परिसमाप्त्यर्थे / ब्रवीमीति पूर्ववत् // 33 // अत्थीकरण-न०(अर्थी करण) अर्थयते अर्थी वा करोति अर्थं जनयते इत्यर्थीकरणम् / राजादीनां प्रार्थने, तैर्वाऽऽत्मनः प्रार्थनाकारणे, साधू रायाणं भणति- मम अत्थि विज्जा, णिमित्तं वा तीताणागत। ताहे सोराया अत्थीभवति। आदिसद्दातो रसायणादिजोगा। इमं अत्थीकरणं / घातुनिघाणदरिसणे, जणयंतं तत्थ होति सट्ठाणं / अत्ती अची अत्थे-ण संतऽसंतेण लहु लहुया // 23 // धातुवादेण वा से अत्थं करे ति, महाकालमतेण वा से णिहिं दरिसेति / एवं अत्थं जणयतो सट्टाणपच्छित्त, छक्काया चउसु लहुगा / सीहावलोयणेण गतोऽप्यर्थः पुनरुच्यते-अत्ती, अची, अत्थी, एतेसु संतेसुमासलहुं, असंतेचउलहुँ। एके एगतरेणं, अत्थीकरणेण जो तु रायाणं / अत्थीकरेति मिक्खू, सो पावति आणमादीणि // 24 // राया भिक्खुस्स संजम अणुगेलण्ण एतेहिं राया चत्तारि गाहाओ जाव एतेहि। नि०यू०४ उ० अत्थु (त्थोव)ग्गह-पुं०(अर्थायग्रह) अर्थ्यते इत्यर्थः / अर्थस्यावग्रहणमर्थावग्रहः / सकलरूपादिविशेषनिरपेक्षाऽनिर्देश्यसामान्यमात्ररूपार्थग्रहणलक्षणे मतिज्ञानभेदाऽवग्रहभेदे, नं०।सका कर्म० भ०। स्था०। प्रज्ञा "सामनरूवाइं विसेसणर-हियस्स अनिद्देसस्स" अवग्रहणमवग्रह इति / नं०। प्रव०। अर्थ्यतेऽधिगम्यते, अर्थ्यते वाऽन्विष्यत इति अर्थः / तस्य सामान्यरूपस्याशेषनिरपेक्षानिर्देश्यस्य रूपादेरवग्रहणं प्रथम-परिच्छेदनमर्थावग्रह इति निर्विकल्पकं ज्ञानं दर्शनमिति यदुच्यते इत्यर्थः / स नैश्चयिको यः स सामायिकः / यस्तु व्यावहारिक शब्दोऽयमित्याधुल्लेखवान् सोऽन्तौहूर्तिक इति।अयं पञ्चेन्द्रियमनःसंबन्धात् षोढा इति। स्था०२ ठा०१ उ०। (अर्थावग्रहस्य सोपपत्तिकः स्वरूपविवेकः 'उग्गह' शब्दे द्वितीयभागे 698 पृष्ठे द्रष्टव्यः) स च मनः सहितेन्द्रियपञ्चकजन्यत्वात्षोढा। प्रव०२१६ द्वा०। तथा च सूत्रम् - अत्थोवग्गहे णं मंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! छविहे पण्णत्ते / तं जहा- सोइंदीय अत्थो वग्गहे 1, चक्खिदियअत्थोवग्गहे 2, घाणिं दियअत्थोवग्गहे 3. जिमिदियअत्थो वग्गहे 4, फासिंदियअत्थो वग्गहे 5, नोइंदियअत्थोवग्गहे 6aa प्रज्ञा०१५ पद०॥स्थाo अथ कोऽयमविग्रहः ? सूरिराह- अर्थावग्रहः षड्विधः प्रशासः / तद्यथा-श्रोत्रेन्द्रियार्थावग्रह इत्यादि।श्रोत्रेन्द्रियेणार्थावग्रहोव्यञ्जनावग्रहानन्तरकालमेकसामयिकमनिर्देश्यसामान्य-रूपार्थावग्रहण श्रोत्रेन्द्रियार्थावग्रहः / एवं प्राणजिह्वास्पर्श-नेन्द्रियार्थावग्रहेष्वपि वाच्यम् / चक्षुर्मनसोस्तु व्यञ्जनावग्रहो न भवति / ततस्तयोः प्रथममेवरूप-द्रव्यगुणक्रियाविक्ल्पनाऽतीतमनिर्देश्य सामान्यमात्ररूपार्थावग्रहणमर्थावग्रहोऽवसेयः / तत्र(नोइंदियअत्थावग्गहो त्ति) नोइन्द्रियं मनः / तच द्विधा द्रव्यरूपं, भावरूपं च / तत्र मनः पर्याप्तिनामकर्मा दयतो यन्मनःप्रायोग्यवर्गणादलिकानादाय मनस्त्वेन परिणमति, तद्रव्यरूपं मनः / तथाचाह चूर्णिकृत् नि०चू जे मिक्खू राय अत्थीकरेइ, अत्थीकरतं वा साइज॥१॥जे भिक्खू रायरक्खियं अत्थीकरेइ, अत्थीकरतं वा साइज // 2 // जे भिक्खू णगररक्खियं अत्थीक रेइ, अत्थीक रंतं वा साइजइ॥३॥ जे मिक्खू गामरक्खियं अत्थीकरेइ, अत्थीकरतं वा साइजइ / / || जे भिक्खू देसरक्खियं अत्थीकरेइ, अत्थीकरंतं वा साइजइ // 5 // जे मिक्खू सीमारक्खियं अत्थीकरेइ, अत्थीकरंतं वा साइजइ // 6 // जे भिक्खू णिगमरक्खिये अत्थीकरेइ, अत्थीकरंतं वा साइजइ // 7 // जे मिक्खू सव्वारक्खियं अत्थीकरेइ, अत्थीकरतं वा साइजइ।।८| अत्थयते अत्थी वा, करेइ अत्थं व जणयते जम्हा। अत्थीकरणं तम्हा, विजादिणिमित्तमादीहिं॥२२॥ साहू रायाणं अत्थेति प्रार्थयते, साधू वा तहा करेति जहा सो राया तस्स साहुस्स अत्थीभवति, प्रार्थयतीत्यर्थः। साधुर्या तस्य राज्ञः अर्थ जनयति / जम्हा एवं करेति तम्हा अत्थीकरण भण्णति / Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्थुग्गह ५२५-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अदक्खुदंसण "मणपञ्जत्ति नाम-कम्मोदयओजोगो मणोदव्ये घेत्तुंमणत्तेण परिणामिया | अदं(ई)सण-न०(अदर्शन) न०त०। प्राकृते-"समासेवा" ||27 दव्वमणो भण्णई" तथा- द्रव्यमनोऽवष्टम्भेनजीवस्य यो मननपरिणामः / इति दस्य वा द्वित्वम् / प्रा०ा चाक्षुषज्ञानाभावे, न विद्यते दर्शनं दृग् स भावमनः / तथा चाह चूर्णिकार एव-'जीयो पुण मणण- यस्येत्यदर्शनः / अन्धे, स्त्यानर्द्धिनिद्रोदयवति च / ग० 1 अधि०) न परिणामकिरियापन्नो भावमणो / किं भणियं होइ?- मण-दव्वालंबणो विद्यते दर्शनं सम्यक्त्वमस्येतिव्युत्पत्तेः। अयं च दीक्षितः सन् विकलतया जीवस्स मणवावारो भावमणो भण्णइ" / तत्रेहभावमनसा प्रयोजनम्, यत्र तत्रवा संचरन्षट्कायान् विराधयेद्विषमकीलककण्टकादिषु चपतेत्। तद्ग्रहणे ह्यवश्यं द्रव्यमनसोऽपि ग्रहणं भवति; द्रव्यमनोऽन्तरेण स्त्यानर्द्धिस्तु प्रविष्टो गृहिणां साधूनां च मारणादि कुर्यात् / प्रव०१०७ भावमनसोऽसम्भवात् / भावमनो विनाऽपि च द्रव्यमनो भवति; यथा द्वा० धा भवस्थकेयलिनः; तत उच्यते-भावमनसेह प्रयोजनम्। तत्र नोइन्द्रियेण दुविहो अदंसणो खलु, जाति उवघाततोय णायव्यो। भावमनसोऽर्थावग्रहो द्रव्ये-न्द्रियव्यापारनिरपेक्षो घटाद्यर्थस्वरूपपरि- उवधातो पुण तिविहो, वाहीउवघाडअंजणत्ताए // 1 // भावनाऽभिमुखः प्रथममेकसामायिको रूपाद्यर्था कारादिविशेषचिन्ता संगेणं चिय अवरो, थीणद्धीओ मुणेयव्यो। विकलो निर्देश्यसामान्यमात्रचिन्ताऽऽत्मको बोधो नोइन्द्रियार्थावग्रहः। एतेसिं सो हि इमा, जहक्कमेणं मुणेयव्यो / / 2 / / नं०। अयं च नैश्वयिक एकसामयिकः / व्यावहारिकस्त्यान्तर्मोहूर्तिकः / उड्डियणयणे तहसेसएसुथीणद्धितो तु कमसो तु। स्था०६ ठा०) छागुरु चउगुरु चरिम, दोसा तहिँ दिक्खिते इणमो // 3 // अत्थु(त्थो)ग्गहण-न०(अर्थावग्रहण) फलनिश्चये, भ०११ श० छक्कायविउरमणता, आवडणं खाणुकंटमादीसु। 11 उ०। थंडिल्लअपडिलेहा, अंधस्स ण कप्पती दिक्खा ||4|| अत्थुडं - (देशी) लघौ, देवना०१ वर्ग। अवहति य महादोसं दसणकम्मोदएण थीणद्धी। एगमणेगय उ से, जं अत्थुप्पत्ति-स्त्री०(अर्थोत्पत्ति) उत्पद्यते यस्मादिति उत्पत्तिः / काही तं तु आवजे // 5 // पं० भा०ा चौरे, दे० ना० 1 वर्ग। अर्थस्योत्पत्तिर्व्यवहार उच्यते अर्थोत्पत्तिः। करणव्यवहारे, व्य० 1 उता अदक्खु-त्रि०(अदृष्ट) न०ब०।अर्वाग्दर्शने, सूत्र०१ श्रु०२ अ०३ उ०। अत्थेर-न०(अस्थैर्य) अस्थिरत्वे, अष्ट०४ अष्ट। *अदक्ष-त्रि०।अनिपुणे,सूत्र०१श्रु०२१०३ उ० अत्थोप्पायण-न०(अर्थोत्पादन) द्रव्याऽऽवर्जने, प्रव०२२६ द्वा० *अपश्य-त्रि०ा पश्यतीति पश्यः, न पश्योऽपश्यः।अन्धे, सूत्र०१ श्रु०२ अत्थोभय-न०(अस्तोभक) न०बास्तोभकरहिते गुणवत्सूत्रे, अनु अ०३ उ०। आद्राक्षीत् इत्यस्यापि 'अदक्खू' इति रूपम्। प्रति०। भ०। "उय व इकारो ह त्ति अ-कारणाईय थोभया हुंति' उत वै अदक्खुदंसण-त्रि०(अदक्षदर्शन) असर्वज्ञोक्तशासनानुयायिनि, सूत्र०१ हाऽऽदिप्रभृतीनामकारणप्रक्षेपाः स्तोभकाः / तद्रहितमस्तोभ- श्रु०२ अ०३ उ०॥ कम् / बृ०१ उ०। विशेष *अदृष्टदर्शन-त्रि०ा असर्वज्ञोक्तशासनाऽनुयायिनि, सूत्र०१ श्रु० अथव्वण-पुं०(अथर्वण) चतुर्थवेदे, "जाव अथव्यणकुसलेया विहोत्था" २अ०३ उ०। विपा०१ श्रु०५ अन *अपश्यकदर्शन -त्रि०ा अपश्यकस्यापि सर्वज्ञस्याभ्युपगतं दर्शनं अद् -अ०(अद्) आश्चर्ये, "धियो यो नः प्रचोदयाऽत्" अदिति येनाऽसावपश्यकदर्शनः / स्वतोऽग्दिर्शिनि, सूत्र०। आश्चर्यरूपस्तत्कारणेऽनिवृत्तत्वात्, ततश्च हे अत्!, विरामे वा।१।३।५१। अदक्खुव दक्खुवाहियं, सद्दहसु अदक्खुदंसणा। इति दस्य तः / साङ्याभिप्रायेण गा०व्याख्या / जै० गा०। एतादृशः हंदि हु सु निरुद्धदंसणे, मोहणिजेण कडेण कम्मुणा // 11 // प्रयोगः प्राकृते न प्रयुज्यते। (अदक्खुवेत्यादि) पश्यतीति पश्यः, न पश्योऽपश्योऽन्धः, तेन अदंड -पुं०(अदण्ड) प्रशस्तयोगत्रये, अहिंसामात्रेच। "एगे अदंडे" स०१ तुल्यं कार्याकार्याविवेचित्वादपश्यवत् / तस्याऽऽमन्त्रणं हे सम०। अपश्यवत् ! अन्धसदृश ! प्रत्यक्षस्यैवैकस्याऽभ्युपगमेन अदंडकु(को)दंडिम-त्रि०(अदण्डकुदण्डिम) दण्डलभ्यं द्रव्यं दण्ड कार्याकार्यानभिज्ञ ! पश्येन सर्वज्ञेन,व्याहृतमुक्तं सर्वज्ञागम, श्रद्धस्व एव / कुदण्डेन निर्वृत्तं द्रव्यं कुदण्डिमम्, तन्नास्ति यत्र तत्तथा / प्रमाणीकुरु, प्रत्यक्षस्यैवैकस्याऽभ्युपगमेन समस्तैव्यवहारविलोपेन दण्डकुदण्डाभ्यामगृह्यमाणद्रव्ये नगरादौ, तत्र दण्डोऽपराधानु- हंत ! हतोऽसि, पितृनिबन्धनस्याऽपि व्यवहारस्याऽसिद्धेरिति / सारेण राजग्राह्यं द्रव्यम् : कुदण्डस्तु-कारणिकानां प्रजापरा- तथा-ऽपश्यकस्याऽपि असर्वज्ञस्याऽभ्युपगतं दर्शनं येनासावपश्यकधान्महत्यपराधिनोऽपराधेऽल्पं राजग्राह्यं द्रव्यमिति / "उम्मुक्कं दर्शनः; तस्याऽऽमन्त्रणं वा हे अपश्यकदर्शन ! स्वतोऽग्दिर्शी उक्करं उक्केट्ठ अदिजं अमेजं अभडप्पवेसं अदंडकोदंडिमं अधरिमं भतांस्तथाविधदर्शनप्रमाणश्च सन् कार्याकार्याविवेचितयाऽन्धवदगणियावरनाडइजलियं" (पुरीवर्णकः) भ०११श०११ उ०। ज्ञा०ा जं० भविष्यत् यदि सर्वज्ञाभ्युपगमं नाऽकरिष्यत् / यदि वाऽदक्षो वा कल्पा अनिपुणो वा यादृशस्तादृशो वाऽचक्षुर्दर्शनमस्याऽसायचक्षुर्दर्शनः अदंतवण-त्रि०(अदन्तवन) दन्तधावनरहिते, अदन्तधावनो धर्मो केवलदर्शनः सर्वज्ञस्तस्माद् यदवाप्यते हितं तत् श्रद्धस्व / इदमुक्तं वीरमहापद्मयोस्तीर्थेऽनुज्ञातः ।स्था०६ ठा०। भवति- अनिपुणेन निपुणेन वा सर्वज्ञदर्शनोक्तं हितं श्रद्धातव्यम् / अदंमग-त्रि०(अदम्भक) वञ्चनाऽनुगतवचनविरहिते, व्य०३ उ०। यदि वा हे अदृष्ट ! हे अर्वाग्दर्शन ! दृष्टाऽतीताऽनागतव्यवहित Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदक्खुदंसण 526 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अदत्तादाण सुक्ष्मपदार्थदर्शिना यद्व्याहृतम-भिहितमागमः, तं श्रद्धस्व / हे | अदृष्टदर्शन !, अदक्षदर्शन ! इति वा, असर्वज्ञोक्तशासनानुयायिन् ! तमात्मीयमाग्रहं परित्यज्य सर्वज्ञोक्त मार्गे श्रद्धानं कुर्विति तात्पर्यार्थः / किमिति सर्वज्ञोक्ते मार्ग श्रद्धानमसुमान्न करोति येनैवमुपदिश्यते, तन्निमित्तमाह-हंदीत्येवं गृहाण।हुशब्दो वाक्यालङ्कारे, सुष्ठ अतिशयेन निरुद्धमावृतं दर्शनं सम्यक् अवबोधरूपं यस्य सः / केनेत्याह-मोहयतीति मोहनीयम्, मिथ्यादर्शनादि; ज्ञानावरणीयादिकं वा, तेन कृतेन कर्मणा निरुद्धदर्शनः प्राणी सर्वज्ञोक्तं मार्ग न श्रद्धत्ते / अतस्तन्मार्गश्रद्धानं प्रति चोद्यत इति। सूत्र०१ श्रु०२ अ० उ०। अदक्खुव-त्रि०(अपश्यवत्) अपश्योऽन्धः, तेन तुल्यं कार्याऽकार्याविवेचित्वादपश्यवत् / अन्धसदृशे कार्याकार्यानभिज्ञे, सूत्र० १श्रु०२ अ०३ उ०। अदढ-त्रि०(अदृढ) दुर्बले, व्य०४ उ०। आचा०। अदढधिई-त्रि०(अदृढधृति) धृतिरहिते, नि०चू०१ उ०। असमर्थे, नि०यू०१ उ० अदण-न०(अदन) अद्-ल्युट्। भोजने बृ०१ उ०। अदण्ण-त्रि०(अदत्त) आकुलीभूते, वृ०१ उ०। विषादीकृते, "तेणं विय गिलाणेण ते अदण्णा' / नि०चू०१० उ०। अदत्त(दिण्ण)-त्रि०(अदत्त)न०तका अवितीर्णे, प्रश्न० ३आश्र० द्वा० / ध० अदत्तद्रव्यग्रहणरूपे तृतीये आश्रवभेदे, प्रश्न०१ आश्र० द्वा०। "हिंसामोसमदिण्णबभपरिग्गहे" / प्रव०१ द्वा० अदत्त(दिण्ण)हारि(ण)-त्रि०(अदत्तहारिन्) अदत्तमपहर्तुं शीलमस्याऽसावदत्तहारी। परद्रव्यापहारके, "जे लूसएहोइ अदत्तहारी, ण सिक्खती से य वियस्स किंचि"। सूत्र०१ श्रु०३ अ०१ उ०। अदत्ता(दिण्णा)दाण-न०(अदत्तादान) अदत्तस्य स्वामिजीवतीर्थकरगुरुभिरवितीर्णस्याऽननुज्ञातस्य सचित्ताचित्तमिश्रभेदस्य वस्तुन आदानं ग्रहणमदत्तादानम् / तच विविधोपाधिव-शादनेकविधम्। "एगे अदिण्णादाणे" स्था०१ ठा०१उका सूत्र० चौर इति व्यपदेशनिबन्धने, उपा०१अ परस्वापहारे, आव०६ अ०। आ०चूला यथा च तददत्तादानं (प्रश्न)०३ अधर्मद्वारे- यादृक् 1, यन्नाम२, यथा च कृतं 3, यत्फलं ददाति ४,ये च कुर्वन्ति 5, इति पञ्चभिः क्रमेण प्ररूपितं, तथैवेह प्रदर्श्यते(१) यादृशमदत्तादानस्यरूपं, तत्प्रतिपादनम् / (2) अदत्तादानस्य नामानि। (3) (यथा च कृतं) ये चादत्तादानं कुर्वन्ति, तन्निरूपणम्। (4) अदत्तादानं यत्फलं ददाति तन्निरूपणम्। (5) आचार्योपाध्यायादिभ्योऽदत्तादाननिरूपणम् / (6) लघुस्वकमदत्तं गृह्णाति। (7) तपस्तैन्यादि न कुर्वीत। (1) तत्र यादृशमदत्तादानस्वरूपं, तत्प्रतिपादयस्तावदाहजंबू ! ततियं च अदिण्णादाणं हरदहमरणमयकलुसतासणं, परसं तिगगिज्झलोभमूलं, कालाविसमसंसियं , | अहोऽच्छिण्णतण्हपत्थाणपत्थोइमइयं, अकित्तिकर, अणचं, छिदमंतरविधुरवसणमग्गणउस्सवमत्तपमत्तपसुत्तवंचणाऽऽखिवणघायपणपराणिहुयपरिणामतक्करजणबहुमयं, अकलुणं, रायपुरिसरक्खियं, सया साहुगरहणिजं, पियजप मित्तजणमेदविप्पीतिकारकं, रागदोसबहुलं, पुणो य उप्पूरसमरसंगामडमरकलिकलहवहकरणं, दुग्गतिविणिवायवडणं, भव-पुनमवक रं, चिरपरिचियं, अणुगर्य, दुरंतं, तइयं अधम्मदारं। हे जम्बूः ! तृतीयं पुनराश्रवद्वाराणां किमदत्तस्य धनादेरादानं ग्रहणमदत्तादानम् ? 'हर दह' इत्येतौ हरणदाहयोः परप्रवर्तनार्थी शब्दौ, हरणदहनपर्यायौ या छान्दसाविति / तौ च मरणं च मृत्युः, भयं च भीतिरेता एव कलुष पातकं, तेन त्रासनं त्रासजनकं च रूपं यत्तत्तथा / तच्च तत् तथा (परसंतग त्ति) परसत्के धने यो गृद्धिलोभो रौद्रध्यानान्विता मूर्छा, स मूलं निबन्धनं यस्यादत्तादानस्य तत्तथा। तचेति कर्मधारयः / कालश्चार्धरात्रिविषयः, विषमश्च पर्वतादिदुर्गः, तैः संश्रितमाश्रितं यत्तत्तथा / ते हि प्रायः तत्कारिभिराश्रीयत इति / (अहोच्छिण्णतण्हपत्थाणपत्थोइमइयं ति) अधः अधोगतो, अच्छिन्नतृष्णानां अत्रुटितवाञ्छानां, यत् प्रस्थानं यात्रा, तत्र प्रस्तोत्री प्रस्ताविका प्रवर्तिका मतिर्बुद्धिर्यस्मिँस्तत्तथा। अकीर्तिकरणम-नार्यम्; एते व्यक्ते। तथा छिदं प्रवेशद्वारम्, अन्तरमवसरः, विधुरमपायः, व्यसनं राजादिदत्ततापः, एतेषां मार्गणम् ; उत्सवेषु मत्तानां च प्रमत्तानां च प्रसुप्तानांच वचनंच प्रतारणम्, आक्षेपणं च चित्तव्यग्रताऽऽपादनम्, घातनं च मारणम्, इति द्वन्द्वः / तत एतत्परत एतन्निष्ठोऽनिभृतो-ऽनुपशान्तः परिणामो यस्यासौ छिद्रान्तरविधुरव्यसनमार्गणोत्सवमत्तप्रमत्तप्रसुप्तवशनाक्षेपणघातनपरानिभृतपरिणामः। सचासौ तस्करजनः, तस्य बहुमतं यत्तत्तथा / वाचनान्तरे त्विदमेवं पठ्यते- "छिद्दविसमपावगेत्यादि" छिद्रविषमपापकं च नित्यं छिद्रविषमयोः संबन्धीदं पापमित्यर्थः / अन्यदाऽऽहितन्यायं प्रायः कर्तुमशक्यमिति भावः / अनिभृतपरिणामसंक्लिष्टं तस्करजनबहुमतं चेति / अकरुणं निर्दयं, राजपुरुषरक्षितम, तैर्निवारितमित्यर्थः। सदासाधुगर्हणीयं, प्रतीतम्। प्रियजनमित्रजनानां भेदं वियोजनं विप्रीतिं करोति यत्तत्तथा। रागद्वेषबहुलं, प्रतीतम् / पुनश्च पुनरपि (उप्पूर त्ति) उत्पूरेण प्राचुर्येण समरो जनमरकयुक्तो यः संग्रामो रणः स उत्पूरसमरसंग्रामः, सच डमरं भीत्या पलायनं, कलि-कलहश्च राटीकलहो, न तु रतिकलहः / वधश्चानुशयः, एतेषां करणं कारणं यत्तत्तथा / दुर्गतिविनिपातवर्द्धनं, प्रतीतम् / भवे संसारे, पुनर्भवान् पुनरुत्पादान् करोतीत्येव शीलं यत्तत्तथा / चिरं परिचितम्, अनुगतमव्युच्छिन्न-तयाऽनुवृत्तं, दुरन्तं दुष्टावसानं विपाकदारुणत्वात् तृतीयमधर्मद्वारं पापोपाय इति। (2) अथ यन्नामेत्यभिधातुमाहतस्स य नामाणि गोणाणि हंति तीसं / तं जहाचोरिकं 1, परहडं 2, अदत्तं 3, कूरिमडं 4, परलामो 5, असंजमो 6, परधणम्मि गेही 7, लोलिक्का 8, तक्करतणं 6, ति य अवहारो१०, हत्थलहुत्तणं 11, पावकम्मकरणं 12, तेणिको 13, हरणविप्पणासो 14, आदियणा 15, लुंपणाधणाणं १६,अप्पचओ 17, ओवीलो 18, अक्खेवो 16, Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदत्तादाण 527- अभिधानराजेन्द्रः- भाग 1 अदत्तादाण क्खेदो 20, विक्खेवो 21, कूडया २२,कुलमसी य २३,कंखा 25, लालप्पणपत्थणा 25, (असासणाय) वसणं 26, इच्छा मुच्छाय 27, तण्हा गेही य 28, नियइकम्मं 26, अवरोच्छत्ति वि य 30 / तस्स एयाणि एवमाईणि नामधेजाणि हुंति तीसं अदिण्णादाणस्स पावकलिकलुसकम्मबहुलस्स अणेगाई। "तस्सेत्यादि' सुगमम् / तद्यथेत्युपदर्शनार्थः / (चोरिकं ति) चोरणं चोरिका, सैव चौरिक्यम् 1, परस्मात् सकाशात्हतंपरहृतम् २,अदत्तम्अवितीर्णम् 3, (कूरिकडं ति) कूरं चित्तं, कूरो वा परिजनो येषामस्ति ते कूरिणस्तैः कृतमनुष्ठितं यत्तत्तथा। क्वचित्तु 'कुरुंटुककृतमिति' दृश्यते। तत्र कुरुण्टुकाः काकटुकबीजप्राया अयोग्याः सद्गुणानामिति 4, परलाभः परस्माद्रव्यागमः 5, असंयम; 6, परधने गृद्धिः७, (लौलिक्क त्ति) लौल्यम् 8, तस्करत्वमिति ६,अपहारः १०,(हत्थलत्तणं ति) परधन-हरणकुत्सितो हस्तो यस्यास्तिस हस्तलः, तद्भावो हस्तलत्वम् / पाठान्तरेण 'हस्तलघुत्वमिति' 11, पापकर्मकरणं १२,(तेणिक्क त्ति) स्तैनिकस्तेयम् 13, हरणेन मोषणेन विप्रणाशः परद्रव्यस्य, हरणं च तद् विप्रणाशः १४,(आदियण त्ति) आदानं, परधनस्येति गम्यते 15, लोपेन अवच्छेदनं धनानां द्रव्याणां, परस्येति गम्यते 16, अप्रत्ययकारणत्वादप्रत्ययः 17, अवपीडनं परेषामित्यवपीडः 18, आक्षेपः, परद्रव्यस्येति गम्यते 16, क्षेपः परहस्ताद् द्रव्यस्य प्रेरणम् 20, एवं विक्षेपोऽपि 21, कूटता तुलादीनामन्यथात्वम् २२,कुलमषी वा कुलमालिन्यहेतुरिति कृत्वा 23, काङ्क्षा, परद्रव्य इति गम्यते 24 / (लालप्पणपत्थण त्ति) लालपनस्य गर्हितलालपनस्य प्रार्थनेव प्रार्थना लालपनप्रार्थना, चौर्यं हि कुर्वन् गर्हितलपनानि तदपलापरूपाणि, दीनवचनरूपाणि वा प्रार्थयति च, तत्र हि कृते तान्यवश्यं वक्तव्यानि भवन्तिति भावः 25, व्यसनं व्यसनहेतुत्वात् / पाठान्तरेण"असासणाय वसणं" आशंसनाय विनाशाय व्यसनमिति 26, इच्छा च परधनं प्रत्यभिलाषा, मूच्छा तत्रैव गाढाभिष्वङ्ग रूपा, तद्धेतुकत्वाददत्तग्रहणस्येति इच्छा मूर्छा तदुच्यते 27, तृष्णा च प्राप्तद्रव्यस्याव्ययेच्छा, गृद्धिश्चाप्राप्तस्य प्राप्तिवाञ्छा, तद्धे तुकं चादत्तादानमिति तृष्णा गृद्धिश्वोच्यत इति 28, निकृतेर्मायायाः कर्म निकृतिकर्म 26, अविद्यमानानि परेषामक्षीणि द्रष्टव्यतया यत्र तदपरोक्षम्, असमक्षमित्यर्थः / इतिः रूपप्रदर्शने, अपिचेति समुच्चये 30 / इह च कानिचित्पदानि सुगमत्वान्न व्याख्यातानि ! (तस्स त्ति) यस्य स्वरूप प्राग्यर्णितं तस्यादत्तादानस्येति संबन्धः / एतान्यनन्तरोदितानि त्रिशंदिति योगः। एवमादिकानि एवंप्रकाराणि वाऽनेकानीति सम्बन्धः / अनेकानीति क्वचिन्न दृश्यते। नामधेयानि नामानि भवन्ति। किं भूतस्य अदत्तादानस्य ? पापेनापुण्यकर्मरूपेण कलिना च युद्धन कलुषाणि मलीमसानि यानि कर्माणि मित्रद्रोहादिव्यापाररूपाणि, तैर्बहुलं प्रचुरं यत्तानि वा बहुलानि बहूनि यत्र तत्तथा, तस्य। (3) अथ येऽदत्तादानं कुर्वन्ति तानाहतं पुण करेंति चोरियं तकरा, परदव्वहरा, छेया, कय करणलद्धलक्खा, साहसिया, लहुस्सगा, अतिमहिच्छलोम- ग्गत्था / ददरओवीलका य गिद्धिया, अहिमरा, अणमंजका, भग्गसंधिया / रायदुट्ठकारी य विसयनिच्छूढलोकबज्झा। उद्दहकगामघायकपुरघाय-कपंथधायकआदीवकतित्थभेया, लहुहत्थसंपउत्ता, जूयकरा, खंडरक्खत्थीचोरपुरिसचोर-- संधिच्छेया य गंठिभेदका पिरधणहरणलोमावहारअक्खेवी, हडकारकनिम्मद्दगगूढचोरगोचोरअस्सचोरकदासिचोरा या एकचोरा य ओकट्टक-संपदायक-ओछिपक-सत्थघायकविलकोलीकारकाय निग्गाहविप्पलुंपगा बहुविहं तेणिकहरणबुद्धी। एते अण्णे य एवमादी परस्स दव्वाहिजे अविरया। विपुलबलपरिग्गहाय बहवो रायाणो परघणम्मि गिद्धा सए दवे असंतुट्ठा परविसए अहिहणंति लुद्धा परधणस्स कज्जे, चउरंगसमत्तबलसमग्गा निच्छियवरजोह-जुद्धसद्धा य अहमहमिति दप्पिएहिं सेनेहिं संपरिवुडा पउमसगडसूइचक्कसागरगरुलवूहादिएहिं अणीएहिं उच्छरंता अभिभूय हरंति परधणाइं। अवरे रणसीसलद्धलक्खा संगामं अतिवयंति / सण्णद्धबद्धपरियरउप्पाडियचिंधपट्टगहिया, आउपहरणा, माढिवरवम्मगुंडिया, आविद्धजालिका, कवयकं डइया, उरसिरमुहबद्धकंठतोणा, पासियवरफलकरचियपहकरसरभसखरचावकरकरंचियसुनिसितसरवरिसवडकरकमुयंतघणचंडवेगधारानिवायमग्गे, अणेगधणुमंडलग्गसंधितउच्छलियसत्तिकणगवाम करगहियखेडगनिम्मलनिक्किट्ठखग्गपहरंतकुंततोमरचक्कगयापरसु मुसललंगलसूललउडमिडिपालसवलपट्टिसचम्मेद्वघणमोट्ठियमोगरवरफलिहजंतपत्थरदुहणतोणकुवेणीपीढाकलिए इलीपहरणमिलिमिलिंतखिप्पंतविलुज्जल विरचितसमप्पहनहतले, फुडपहरणे, महारणसंखभेरिवरतूरपउरपडपडहाहयनिनाय-गंभीरणंदितपक्खुभिविपुलघोसे, हयगयरहजोहतुरियपसरियरयुद्धततमं धकारबहुले, कायरनरनयणहिययवाउलक रे, विलुलियउक्कडवरमउडकिरिडों मलोडुदामाऽऽडोवियपगडपडागउच्छियधयवेजयंतिचामरचलंछत्तंऽधकारगंभीरे ,हयहेसियहत्थिगुलगुलाइयरहधणघणाइयपाइकहरहराइयअफेाडियसीहनायछिलिय विघुट्ठु कुट्ठकं ठकय-- सद्दमीमगजिएसयरायहसंतरुसंतकलकलरवे, असूणियवयणरुहमीमदसणाधरोहगाढदढसप्पहारकरणुजयकरे, अमरिसवसतिवरत्तनिदारितऽच्छिवेरदिढिकुद्धचे डियतिवलीकुडिलभिगुडिकयललाडे, वधपरिणयनरसहस्सविक्कम्मवियं भियबलेवग्गंततुरंगरहपहावियसमरभडावडियछेयलाघवपहारसाधितसमूस्सवियबाहुजुयलमुक्कट्टहास पुक्कंतबोलबहुले कलकलगा, फलगावरणगहियगयवरपत्थंतदरियमडखलपरोप्परपलग्गजुद्धगवियविउसितवरासिरोसतुरियअभिमुहपहरंतछिण्णकरिकरविंगियकरे अवइटनिसुद्धभिन्नफालियपगलियरुहिरकयभूमिकद्दमचिक्खिल्लपहे Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदत्तादाण 528 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अदत्तादाण कु छिदालियगलितनिब्मेलितंतफुरफुरतविगलमम्महयविगयगाढदिण्णपहारमुच्छितरुलंतविमलविलावकलुणे, हयजोहममंततुरगउद्दाममत्तकुंजरपरिसंकियजणणिम्मुक्क. छिण्णद्धयभग्गरहवरनट्ठसिरकरिकलेवराकिण्णपडियपहरणविकिन्नाभरणभूमिभागे,नचंतकबंधपउरे, भयंकरवायसपरिलित्तगिद्धमंडलभमंतछायंऽधकारगंमीरे,वसुवसुहविकंपितव्व पचक्खपिउवणं, परमरुद्दबीहणगं दुप्पवेसतरगं, अभिवडिंति संग्गामसंकडं पणघणमहंता। अवरे पाइक्कचोरसंघासेणावइचोरवंदपागडिका य अडविदेसदुग्गवासी, कालहरितरत्तपीतसुकिल्लअणेगसयचिंधपट्टबंधा, परविसए अमिहणंति लुद्धाधणस्स कज्जे,स्यणागरसागरं च उम्मीसहस्समालाऽऽकुलविगयपोतकलकलंतकलितं, पातालकलससहस्सवायवसवेगसलिलउद्धम्ममाणदगरयरयंऽधकारं, वरफेणपउरधवलपुलंपुलसमुट्ठियाट्टहासं,मारुयविक्खुम्ममाण पाणियजलमालुप्पलहुलियं / तं पि य समंतओ क्खु मियललितखोखुम्ममाणपक्खलियचलियविपुलजलचक्क वालमहानदीदे गतु रियआपूरमाणा गभीरविपुलआवत्तचंचलभम माणगुप्पमाणुव्वलंतपचोणियंतपाणि यपधावितखरफरुसपयंडवाउलियसलिलफुटुंतवीचिकल्लोलसंकुलं, महामगरमच्छकच्छमोहारगाह तिमिसुंसमारसावयसमाहतसमुद्धाय-माणयपूरघोरपउरं, कायरजणहिययकंपणं, घोरमारसंतं महन्मयं भयंकरं पतिमयं उत्तासणगं अणोरपारं अगासं चेव निवलंबं उप्पाइयपवणधणियणोल्लियउवरुवरितंरगदरिय-अतिवेगचक्खूपहमोच्छरंतं, कत्थइ गंभीरविउलगजियगुंजियनिग्घायगरुयानिवतितसुदीहनीहारिद्र-सुचंतगं मीरधुगधुगं तिसई, पडिपहरुमंतजक्खरक्ख सकू हंडपिसायरुसियतज्जायउव सग्गसहस्ससंकुलं, बहूप्पाइयभूयं विरचितबलिहोमधूमउवचारदिण्णरुहिर-ऽचणाकरण पयतजोगपयतचरियं, परियंतजुगंऽतकालकप्पोवमं दुरंतमहानइनइवइमहामीमदरिसणिज्जं, दुरणुचरं, विसमप्पवेसं, दुक्खुत्तारं, दुरासयं, लवणसलिलपुण्णं। असितसियमुच्छियगेहिं हत्थतरेकेहि वाहणेहिं अतिवाइत्ता समुद्दमज्झे हणंति, गंतूण जणस्स पोत्ते परदव्वहरा नरा निरणुकंपा, निरवेक्खा, गागागरनगरखेडकव्वडमंडवदोणपहपट्टणासमणिगमजणवयं,ते य धणसमिद्धे हणं ति, थिरहिययच्छिन्नलज्जा बंदिग्गह गोग्गहा य गेण्हंति, दारुणमतिनिकिवा णियं हणंति छिदिति गेहसंधिनिक्खित्ताणि य हरंति, धण-धण्णदव्वजायाणि जणवयकुलाणं निग्धिणमदी परदव्वाहिं ज अविरया। तहेव केई अदिण्णादाणं गवेसमाणा कालाकालेसु संचरंता चितगपज्जलियसरसदरदट्टकडियकलवरे, रुहिलित्तवदणअक्खयखादियपीतमाइणिममंतभयकरे, जंबुयखिक्खियंते, घूयकयघोरसद्दे वेयालुट्ठिय विसुद्धक हकहंते,पहसितवीहणगनिरभिरामे अतिबीमच्छदुब्मिगंधदरिसणिज्जे सुसाणे वणे सुण्णघरलेणअंतरावणगिरिक दरविसमसावयसमाकुले सु वसहिसु किलिस्संता सीतातवसोसियसरीरा, ददृच्छविनिरयतिरियभवसंकडदुक्खसंभारवेदणिज्जाणि पावकम्माणि संचिणंता, दुल्लभभक्खणपाणमोयणपिवासिया, झुझिया, किलंता मंसकुणिमकंदमूले जं किं चि कयाहारा उदिवग्गउप्पुया, असरणा, अडवीवासं उ ति, वालसतसंकणीयं अयसकरा तक्करा भयंकरा कस्स हरामो त्ति अज्ज दव्वं इति समामंतं करेंति, गुज्झं बहुयस्स जणस्स कन्जकरणेसु विग्घकरा मत्तप्पमत्तपसुत्तवी-सत्थछिद्दघाती वसणम्मुदएसुहरणबुद्धी विगव्व रुहिरमहिया परितत्ति नरवतिमज्जायमतिकता सज्जणजणदुग्गंछिया सकम्मेहिं पावकम्मकारी असुमपरिणया य दुक्खभागी निचाउलदुहम-निवुइमणा इह लोके चेव किलिस्संता परदब्दहरा नरा वसणसयमावण्णा। (तं पुणेत्यादि) तत् पुनः कुर्वन्ति चौर्य तस्करा; तदेव चौर्य कुर्वन्तीत्येवंशीलाः तस्कराः परद्रव्यहराः, प्रतीतम्, छेकानिपुणाः, कृतकरणा बहुशो विहितचौरानुष्ठानाः, ते च लब्धलक्षाश्च अवसरज्ञाः कृतकरणलब्धलक्षाः, साहसिका धैर्यवन्तः, लघुस्वकाश्च तुच्छात्मानः, अतिमहेच्छाश्च लोभग्रस्ताश्चेति समासः। (दद्दरओवीलगा यत्ति) दर्दरण गलदर्दरेण, वचना-टोपेनेत्यर्थः।अपव्रीडयन्ति गोपायन्तमात्मस्वरूपं परं विलजी-कुर्वन्ति ये ते दर्दरापव्रीडिकाः, मुष्णन्ति हि शतात्मानः, तथा-विधवचनाक्षेपप्रकटितस्वभावं मुग्धजनमिति / अथवादर्दरणोपपीडयन्ति जातमनाबाधं कुर्वन्तीति दर्दरोपपीडिकाः, तेच गृद्धिं कुर्वन्तीतिगृद्धिकाः। अभिमुखाः परंमारयन्ति ये तेऽभिमराः। ऋणं देय द्रव्यं भञ्जन्ति, न ददति,ये ते ऋणभञ्जकाः / भग्नाः लोपिताः सन्धयः विप्रतिपत्तौ संस्था यैस्ते भग्नसन्धिकाः, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः / राजदुष्टं कोशहरणादिकं कुर्वन्ति ये ते तथा / विषयान्मण्डलात् (निच्छूढ़ति) निर्धाटिता येते, तथा लोकबाह्या जनबहिष्कृताः, ततः कर्मधारयः / उद्रोहकाश्च धातकाः, उद्दोहकाश्च वा अटव्यादिदाहकाः, ग्रामघातकाश्च पुरघातकाश्च पथि घातकाश्च गृहादिप्रदीपनककारिणः तीर्थभेदाश्च तीर्थमोचका इति द्वन्द्वः लधुहस्तेन हस्तलाघवेन संप्रयुक्ता ये ते। तथा (जूयकरे त्ति) द्यूतकराः, खण्डरक्षाः शुल्कपालाः, कोट्टपाला वा, स्त्रियाः सकाशात् स्त्रीमेव चोरयन्ति, स्त्रीरूपा वा ये चौरास्ते स्त्रीचौराः, एवं पुरुषचौरका अपि / सन्धिच्छेदाः खात्रखानकाः,एतेषां द्वन्द्वः 1 ततस्ते च ग्रन्थिभेदका इति वक्तव्यम् / परधनं हरन्ति ये ते परधनहारिणः। लोमान्यवहरन्ति येते लोमावहराः / निःशूकतया भयेन परप्रणान् विनाश्यैव मुष्णन्ति ये ते लोमावहरा उच्यन्ते / आक्षिपन्ति वशीकरणादिना ये ते ततो मुष्णन्ति ते आक्षेपिणः। एतेषां द्वन्द्वः। (हडकारग त्ति) हठेन कुर्वन्तिये ते हठकारकाः / पाठान्तरेण - "परधणहारलोहावहारवक्खेवहिंडकारक त्ति' सर्वेऽप्येते चौरविशेषाः। निरन्तरं मर्दयन्ति येते निर्मदकाः। गूढचौराः प्रच्छन्नचौराः, गोचौराः, अश्वचोरकाः, दासीचौराश्च प्रतीताः। Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदत्तादाण 529 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अदत्तादाण एतेषां द्वन्द्वः। अतस्तेच एकचौरा येएकाकिनः सन्तोहरन्तीति। (ओकट्ट त्ति) अपकर्षका ये गेहाद् ग्रहणं निष्कासयन्ति चौराण्याकार्य परगृहाणि मोषयन्ति, चौरपृष्ठबहा वा संप्रदायकाश्चौराणां भक्तकादि प्रयच्छन्ति। (ओच्छिंपक त्ति) अवच्छिम्पकाश्चौरविशेषा एव / सार्थघातकाः प्रतीताः। विलकोलीकारकाः / परव्यामोहनाय विसर्वर-वचनयादिनो, विसर्वरवचनकारिणो वा / एतेषां द्वन्द्वः / ते च निग्रहाद् ग्रहणान्निग्राह्य राजादिना गृहीता इत्यर्थः। ते चैते विप्रलोपकाश्चेति समासः। बहुविधेन (तेणिक्क त्ति) स्तेयेन हरणे बुद्धिर्येषां ते- 'बहुविहतेणिकहरणबुद्धीए'। पाठान्तरेण- (बहु-विधतहाऽवहरणबुद्धि त्ति) बहुविधा तथा तेन प्रकारेणापहरणे बुद्धिर्येषांतेतथा। एते उक्तरूपाः, अन्ये चैतेभ्यः एवंप्रकारा अदत्तमाददतीति प्रक्रमः। कथंभूतास्ते ? इत्याह- परस्य द्रव्याद् ये अविरता अनिवृत्ताः। इति ये अदत्तादानं कुर्वन्ति ते उक्ताः। अधुनात एव यथातत् कुर्वन्ति, तदुच्यते-विपुलं बलं सामर्थ्य परिग्रहश्च परिवारो येषां ते तथा। ते च बहवो राजानः परधने गृद्धाः / इदमधिकं वाचनान्तरे पदत्रयम् / तथा स्वके द्रव्ये असंतुष्टाः / परविषयान् परदेशानभिघ्नन्ति लुब्धाः,धनस्य कृते इत्यर्थः / चतुर्भिरङ्ग विभक्तं समाप्तं वा यद्लं सैन्यं तेन समग्रा युक्ता ये ते तथा। निश्चितैनिश्चयवद्भिर्वरयोधैः सह यद्युद्धं संग्रामस्तत्र श्रद्धा संजाता येषां ते तथा, ते च ते अहमित्येवं दर्पिताश्च दर्पवन्तः इति समासः। तैरेवंविधैः भृत्यैः पदातिभिः / क्वचित्सैन्यैरिति पठ्यते / संपरिवृताः समेताः, तथा पद्मशाकटसूचीचक्रसागरगरुडव्यूहानि, तैः / इह व्यूहशब्दः प्रत्येक संबध्यते / तत्र पद्माकारो व्यूहः पद्मव्यूहः, परेषामनभिभवनीयसैन्यविन्यासविशेषः। एवमन्येऽपिपञ्च / एतै रचितानि यानि तानि तथा तैः / कैः ? अनीकैः सैन्यैः। अथवा- पद्मादियूँहा आदिर्येषां गोमूत्रिकाव्यूहादीनां तथा। तैरुपलक्षितैः, कैः? अनीकैः। (उच्छरंत ति) आस्तृण्वन्त आच्छादयन्तः, परानीकानिति गम्यम् / अभिभूय जित्वा, तान्येव हरन्ति, परधनानीति व्यक्तम् / अपरे सैन्योवृतेभ्यो नृपेभ्योऽन्ये स्वयं योद्धारो राजानो रणशीर्षे संग्रामशिरसि प्रकृष्टरणे लब्धं लक्ष्यं यैस्ते तथा। 'संगामं ति’ द्वितीया सप्तम्यर्थेतिकृत्या संग्रामे रणे अतिपतन्ति स्वयमेव प्रविशन्ति, न सैन्यमेव योधयन्ति / किंभूताः ? सन्नद्धाः सन्नहनादिना कृतसन्नाहाः, बद्धः परिकरः कवचो यैस्ते तथा। उत्पाटितो गाढबद्धश्चिह्नपटो नेत्रा-दिचीवरात्मको मस्तके यैस्ते तथा / गृहीतान्यायुधानि शस्त्राणि प्रहरणानि यैस्ते तथा / अथवाआयुधप्रहरणानां क्षेप्याक्षेप्येन कृतो विशेषः / ततः सन्नद्धादीनां कर्मधारयः। पूर्वोक्तमेव विशेषणं प्रपञ्चयन्नाह-'माढी' तनुत्राणविशेषः, तेन वरवर्मणा च प्रधान-तनुत्राणविशेषेणैव गुण्डिताः प्रेरिता ये ते माढीवरवर्मगुण्डिताः / पाठान्तरेण-(वम्मटिवम्मगुडिता) तत्र 'गुडा' तनुत्राणविशेष एव; अन्यत् तथैव / आविद्धा परिहिता जालिका लोहकञ्चुको यैस्ते तथा / कवचेन तनुत्राणविशेषेणैव कण्टकिताः कृतकवचा ये ते तथा / उरसा वक्षसा सह शिरोमुखा ऊर्ध्वमुखाः बद्धा यन्त्रिताः कण्ठे गले तोणास्तूणीराः शरधयो यैस्ते / उरः शिरोमुखबद्ध-कण्ट तोणाः / तथा (पासिय त्ति) हस्तपाशितानि वरफलकानि प्रधानफलकानि यैस्ते तथा। तेषां सत्को रचितो रणोचितरचनाविशेषेण परप्रयुक्तपहरणप्रहार-प्रतिघाताय कृतः (पहकर त्ति) समुदायो यैस्ते तथा / ततः पूर्वपदेन सह कर्मधारयः / अतस्तैः सरभसैः सहर्षेः खरचापकरैः निष्ठुरकोदण्डहस्तैः, धानुष्कैरित्यर्थः / ये कराञ्चिताः कराकृष्टाः सुनिशिता अतिनिशिताः शरा बाणास्तेषां यो वर्षवटकरको वृष्टिविस्तारो (मुयंत त्ति) मुच्यमानः स एव घनस्य मेघम्य चण्डवेगानां धाराणां निपातः तस्य मार्गो यः स तथा / तत्र 'मंतेत्ति' पाठान्तरं च / तत्र मत्प्रत्ययान्तत्वान्निपातवति संग्रामेऽतिपतन्तीति प्रक्रमः / तथा अनेकानि धपि च मण्डलाग्राणि च खड्गविशेषाः, तथा सन्धिताः क्षेपणायोगीर्णा उच्छलिता ऊर्ध्वव गताः शक्तयश्च त्रिशूलरूपाः, कनकाच बाणाः, तथा वामकरगृहीतानि खेटकानि च फलकानि, निर्मला निकृष्टाः खड्गाश्च उज्ज्वलविकोशीकृतकरवालाः / तथा प्रहरन्ति प्रहारप्रवृत्तानि कुन्तानि च शस्त्रविशेषाः, तोमराश्च बाणविशेषाः, चक्राणि च अराणि, गदाश्च दण्डविशेषाः, परशवश्व कुठाराः, मुशलानि च प्रतीतानि, लाङ्गलानि च हलानि, शूलानि च, लगुडाश्च प्रतीताः / भिन्दिपालाश्च शस्त्रविशेषाः / शवलाश्च भल्लाः / पट्टिशाश्चाऽस्त्रविशेषाः, चर्मेष्टाश्च चर्मनद्धपापाणाः, घनाश्च मुद्गरविशेषाः, मौष्टिकाश्च मुष्टिप्रमाणपाषाणाः,मुद्रराश्च प्रतीताः, वरपरिघाश्च प्रबलार्गलाः, यन्त्रप्रस्तराश्च गोफणादिपाषाणाः, द्रुधणाश्चट्टकराः, तोणाश्च शरधयः, कुवेण्यश्च रूढिगम्याः, पीठानि च आसनानीति द्वन्द्वः / एभिः प्रतीताप्रतीतैः प्रहरणविशेषैः कलितो युक्तो यः स तथा। तत्र इलीभिः करवालविशेषैः प्रहरणैश्च (मिलिमिलिंत त्ति) चिकचिकायमानैः (खिप्पंत ति) क्षिप्यमाणैः विद्युतः क्षणप्रभाया उज्ज्वलाया निर्मलाया विरचिता विहिता समा सदृशी प्रभा दीप्तिर्यत्र तत्तथा। तदेवंविधंनभस्तलंयत्र सतथा तत्र संग्रामे। तथा स्फुटप्रहरणे स्फुटानि व्यक्तानि प्रहरणानि यत्रस तथा; तत्र संग्रामे। तथा महारणस्य संबन्धीनि यानि शङ्ख श्व, भेरीचदुन्दुभिः, वरतूर्य चलोकप्रतीतम, तेषां प्रचुराणां पटूनां स्पष्टध्वनीनां पटहानां च पटहकानामाहतानामास्फालितानां निनादेन ध्वनिना गम्भीरेण बहलेन ये नन्दिताः हृष्टाः अक्षुभिताश्च भीतास्तेषां विपुलो विस्तीर्णो घोषो यत्र स तथा तत्र / हयगजरथयोधेभ्यः सकाशात्त्वरितं शीघ्रं प्रसृतं प्रसरमुपगतं यद् जो धूलीतदेवोद्धततमान्धकारमतिशयं प्रबलं तमिलं तेनबहुलो यः स तथा तत्र, तथा कातरनराणां नयनयोर्हदयस्य च (वाउलि ति) व्याकुलत्वं क्षोभं करोतीत्येवंशीलो यः स तथा तत्र / विलुलितानि शिथिलतया चञ्चलानि यान्युत्कटवराण्युन्नतप्रवराणि मुकुटानि मस्तकाभरणविशेषाणि किरीटानि च तान्येव शिखरत्रयोपेतानि, कुण्डलानि च कर्णाभरणानि, उडुदामानि च नक्षत्रमालाऽभिधानाभरणविशेषाः, तेषामाटोपः स्फारता सा विद्यते यत्र स विलुलितोत्कटवरमुकुटकिरीटकुण्डलोडुदामाटोपित इति। तथा प्रकटा याः पताकाः, उच्छ्रिताश्च ऊर्वी कृता ये गजगरुडा-दिध्वजाः, वैजयन्त्यश्च विजयसूचिकाः पताका एव चामराणि चलन्ति छत्राणि च तेषां सम्बन्धि यदन्धकार तेन गम्भीरोऽलब्धमध्यो यः स तथा कर्मधारयः। ततस्तत्र; हयानां यद् हेषितं शब्दविशेषः, हस्तिनां यद् गुलुगुलायितं शब्दविशेष एव, तथा रथानां यत् (घणघणाय त्ति) घणघणेत्येवंरूपस्य शब्दस्य करणम्, तथा(पाइक्क त्ति) पदातीनां यत् (हरहराइय त्ति) हरहरेतिशब्दकरणम् आस्फोटितं च करास्फोटरूपं सिंहनादश्व सिंहस्येव शब्दकरणम्, (छिलिय त्ति) सण्टितं सीत्कारकरणम्, विघुष्टं च Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदत्तादाण 530 - अभियानराजेन्द्रः - भाग 1 अदत्तादाण विरूपघोषकरणं, उत्कृष्ट उत्कृष्टनादः, आनन्दमहाध्व-निरित्यर्थः / कण्ठकृतशब्दश्च, तथाविधो गलरवः, त एव भीमगर्जितं मेघध्वनियंत्र स तथा तत्रा एकहेलया हसतां रुषतां वा कललक्षणोखो यत्रस तथा तत्र / तथा अशूनितेनेषत्शूलीकृतेन वदनेन ये रौद्रा भीषणास्ते तथा तथा भीमं यथा भवतीत्येवं दशनैरधरोष्ठौ गाढं दष्टौ यैः, ते तथा। ततः कर्मधारयः। ततस्तेषां भटानां सत्प्रहरणे सुष्ठु प्रहारकरणे उद्यताः प्रयत्नप्रवृत्ताः करा यत्र स तथा तत्र / तथा अमर्षवशेन कोपवशेन तीव्रमत्यर्थं रक्ते लाहिते निर्दारिते विस्फारिते अक्षिणी लोचने यत्र स तथा / वैरप्रधाना दृष्टि रदृष्टिः, तथा वैरदृष्ट्या वैरबुद्ध्या वैरभावेन ये कु द्धाश्चेष्टिताश्च तैः / त्रिवली कुटिला वलित्रया वक्रा भूकुटिर्नयनललाटविकारविशेषकृता ललाटे यत्र स तथा तत्र / तथा वधपरिणतानां मारणाध्यवसायवतां नरसहस्राणां विक्रमेण पुरुषाकारविशेषेण विजृम्भितं विस्फुरितं बलं शरीरसामर्थ्यं यत्र स तथा तत्र / तथा वल्गत्तुरङ्गैः रथैश्च प्रधाविता वेगेन प्रवृत्ता ये समरभटाः संग्रामयोधास्तेतथा। आपतिता योद्धमुद्यताः, छेका दक्षा लाघवप्रहारेण दक्षताप्रयुक्तघातेन साधिता निर्मिता यैस्ते तथा (समूस्सविय त्ति) समुच्छ्रितं हर्षातिरेकादूर्णीकृतं बाहुयुगलं यत्र तत्तथा, तद्यथा भवतीत्येवं मुक्ताट्टहासाः कृतमहाहासध्वनयः। (पुक्कंत त्ति) पुत्कुर्वन्तः पूत्कारं कुर्वाणाः, ततः कर्मधारयः / ततस्तेषां यो बोलः कलकलः स बहुलो यत्र स तथा तत्र। तथा (फलगावरणगहिय ति) स्फाराश्च फलकानि च आवरणानि स सन्नाहा गृहीतानियैस्ते तथा (गयदरपत्थंत त्ति) गजवरान् रिपुमतङ्गजान् प्रार्थयमाना हन्तुमारोढुं वाऽभिलषमाणास्तत्र शक्तास्तच्छीला वा ये ते तथा। ततः कर्मधारयः। ततस्तेचते दृप्तभटखलाश्च दर्पितयोधदुष्टा इति समासः। तेचते परस्परप्रलग्नाच, अन्योन्यं योद्धमारब्धा इत्यर्थः। तेच ते युद्धगर्विताश्च योधनकलाविज्ञानगर्विताः, तेच ते विकोशितवरासिभिः निष्कर्षितवरकरवालैः, रोषेण कोपेन त्वरितं शीघ्रम्, अभिमुखमाभिमुख्येन प्रहरद्भिश्छिन्नाः करिकरा यैस्ते तथा / ते चेति समासः। तेषां (विगिय ति) व्यगिताः खण्डिताः करा यत्रस तथा तत्र। तथा (अवइट्ठ त्ति) अपविद्धास्तोमरादिना सम्यग्विद्धाः निशुद्धभिन्नाः स्फाटिताश्च विदारिता यैः, तेभ्यो यत्प्रगलितं रुधिरं तेन कृतो भूमौ यः कर्दमस्तेन चिक्खिल्ला विलीनाः पन्थानो यत्र स तथा तत्रा तथा कुक्षौ दारिताः कुक्षि-दारिताः, गलितं रुधिर स्रवन्ति रुलन्ति वा भूमौ लुठन्ति, निन्भे-लितानि कुक्षितो बहिष्कृतानि अन्त्राणि उदरमध्यावयवविशेषा येषां ते तथा / (फुरफुरंतविगल त्ति) फुरफुरायमाणाश्च विकलाश्च विरुद्धेन्द्रियवृत्तयो ये ते। तथा मर्मणि हता मर्महताः, विकृतो गाढो यत्र दत्तः प्रहारो येषां ते तथा। अत एव मूर्छिताः सन्तो भूमौ लुठन्तः विह्वलाश्च निस्सहाङ्गाः ये ते तथा। तथा कुक्षिदारितादिपदानां कर्मधारयः। ततस्तेषां विलापः शब्दविशेषः करुणाः दयाऽऽस्पदं यत्र स तथा तत्र तथा हता विनाशिता योधा अश्वारोहादयो येषां ते तथा। तत्र ते यदृच्छया संभ्रमन्तस्तुरगाश्च उद्दाममत्तकुञ्जराश्च परिशङ्कितजनाश्च भीतजनाः (निम्मुक्कछिन्नद्धय त्ति) निर्मूलाः छिन्नाः केतवो भना दलिता रथवराश्च यत्र सतथा। नष्टशिरोमिश्छिन्नमस्तकैः करिकलेवरैः दन्तिशरीरैराकीर्णा व्याप्ताः / पतितप्रहरणा ध्वस्तायुधाः विकिर्णाभरणा विक्षिप्तालङ्काराः, भूमे गा देशा यत्र स तथा / ततः कर्मधारयः, तत्र / तथा नृत्यन्ति कबन्धानि शिरोरहितकलेवराणि प्रचुराणि यत्र स तथा / भंयकर वायसानां (परिलित्तगिद्ध त्ति) परिलीयमानगृद्धानां यन्मण्डलं चक्रवालं भ्राम्यतः संचरतस्तस्य या छाया तया यदन्धकारं तेन गम्भीरो यः स तथा। तत्र संग्रामे, अपरे राजानः परधनगृद्धाः, अतिपतन्तीति प्रकृतम्। अथ पूर्वोक्तमेवार्थ संक्षिप्ततरेण वाक्येनाह- वसवो देवाः, वसुधा च पृथिवी, विकम्पिता यैस्ते तथा। ते इव राजान इति प्रक्रमः / प्रत्यक्षमिव साक्षादिव तद्धर्मयोगात् पितृवनं श्मशानं प्रत्यक्षपितृवनम् (परमरुद्धबीहणगं ति) अत्यर्थदारुणं भयानकं दुष्प्रवेशतरक प्रवेष्टुमशक्यं, सामान्यजनस्येति गम्यम् / अतिपतन्ति प्रविशन्ति संग्रामसंकटं संग्रामगहनं, परधनं परद्रव्यं (महंत त्ति) इच्छत इति। तथा अपरे राजन्या अन्ये (पाइक्कचोरसंधा) पदातिरूपचौरसमूहाः, तथा सेनापतयः। किं स्वरूपाः? चौरवृन्दप्रकर्षकाच, तत्प्रवर्तका इत्यर्थः। अटवीदेशे यानि दुर्गाणि जलस्थलदुर्गरूपाणि, तेषु वसन्ति येते तथा। कालहरितरक्तपीतशुक्लाः , पञ्चवर्णा इति यावत् / अनेकशतसंख्याश्चिह्नपट्टा बद्धायैस्ते तथा / परविषयानभिघ्नन्ति; लुब्धा इति व्यक्तम्। धनस्य कार्ये धनकृते इत्यर्थः। तथा रत्नाकरभूतो यः सागरः, तथा तं चातिपत्याभिघ्नन्ति, जनस्यापातानिति सम्बन्धः / ऊर्मयो वीचयस्तत्सहस्राणां मालाः पक्तयस्ताभिराकुलो यः स तथा / आकुला जलाभावेन व्याकुलितचित्ता ये च तोयपोताः विगतजलयानपात्राः सांयात्रिकाः (कलकलंत त्ति) कलकलायमाना हलबोलं कुर्वाणास्तैः कलितो यः स तथा। अनेनाऽस्याऽपेयजलत्वमुक्तम् / अथवा-ऊर्मिसहस्रमालाभिराकुलोऽतिव्याकुलो यः स तथा। तथा विगतपोतैर्विगतसंबन्धनावोद्भिन्नैः कलकलं कुर्वद्भिः कलितो यः स तथा / ततः कर्मधारयः / तथा तम्। तथा पातालाः पाताल-कलशास्तेषां यानि सहस्राणि तैतिवशाद्वेगेन यत्सलिलं जल-धिजलम्(उद्धम्ममाणं ति) उत्पाट्यमानं तस्य यदुदकर-जस्तोयरेणुस्तदेव रजोऽन्धकारं धूलीतमो यत्र स तथा तम्। वरः फेनो डिण्डीरः। प्रचुरोधवलः(पुलंपुल त्ति) अनवरतंयः समुस्थितो जातः स एवाट्टहासो यत्र / वरफेन एव वा प्रचुरादिविशेषणोऽट्टहासो यत्र स तथा तम् / मारुतेन विक्षोभ्यमाणं पानीयं यत्र स तथा; जलमालानां जलकल्लोलानामुत्पलः समूहः (हुलिय त्ति) शीध्रो यत्र स तथा, ततः कर्मधारयोऽतस्तम् / अपिचेति समुच्चये / तथा समन्ततः सर्वतः क्षुभितवायुप्रभृतिभिर्व्याकुलितं लुलितं तीरभुवि लुठितं (खोक्खुम्भमाण त्ति) महामत्स्यादिभिर्भृशं व्या-कुलीक्रियमाणं, प्रस्खलितं निर्गच्छत्पर्वतादिस्खलितं, चलितं स्वस्थानगमनप्रपन्नं, विपुलं विस्तीर्ण, जलचक्र वालं तोयमण्डलं यत्र स तथा / तथा महानदीवेगैर्गङ्गाऽऽदिनिम्नगाजवैः त्वरितं यथा भवतीत्येवमापूर्यमाणो यः स तथा / गम्भीरा अलब्धमध्याः, विपुला विस्तीर्णाश्च ये आवर्ता जलप्रमाणस्थानरूपास्तेषु चञ्चलं यथा भवन्तीत्येवं भ्रमन्ति संचरन्ति, गुप्यन्ति व्याकुलीभवन्ति, (उप्पतंति) उद्बलन्ति वा ऊर्ध्ववमुखानि चलन्ति प्रत्यवनिवृत्तानि वाऽधः पतितानि पानीयानि प्राणिनो वा यत्र स तथा / अथवा जलचक्र वालेति नदीनां विशेषणमापूर्यमाणेति चावनिामिति / तथा प्रधाविता विगतगतयः खरपरुषा अतिकर्क शाः प्रचण्डाः रौद्रा व्याकुलितसलिला विलोलितजलाः स्फुटन्तो विदार्यमाणा ये वीचिरूपाः कल्लोलाः, न तु वायुरूपाः कल्लोलाः तैः सङ् कुलो यः स तथा / ततः कर्मधारयोऽतस्तम् / तथा महामक रमत्स्यकच्छ पाश्च Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदत्तादाण 531 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अदत्तादाण (उहारत्ति) जलजन्तुविशेषाः, तेच ग्राहतिमिशुंशुमाराश्च ते। द्वन्द्वः। तेषां समाहताश्च परस्परेणोपहताः (समुद्धायमाण यत्ति) समुद्धावन्तश्च प्रहाराय समुत्तिष्ठन्तो ये पूराः संघाः घोरा रौद्रास्ते च प्रचुरा यत्र स तथा तम्। कातरनर-हृदयकम्पनमिति प्रतीतम्।घोरं रौद्रं यथा भवतीत्येवमारसनं शब्दायमानं, महाभयादीन्येकार्थानि। (अणोरपारंति) अन-क्पिारमिव महत्त्वादनर्वापारम्, आकाशमिव निरालम्बम्, न हि तत्र पतद्भिः किञ्चिदालम्बनमवाप्यत इति भावः / औत्पातिकपवनेनोत्पातजनितवायुना (धणिय त्ति) अत्यर्थ ,येन (णोल्लियत्ति) नोदिताः प्रेरिता उपर्युपरि निरन्तरं तरङ्गाः कल्लोलास्ते, दृप्त इव अतिवेगोऽतिक्रान्तः शेषवेगं यो वेगस्तेन लुप्ततृतीयैकवचनदर्शनात् / चक्षुःपथे दृष्ट मार्गे (मोच्छरंतं कत्थइ ति) क्वचिद्देशे गम्भीरं विपुलगर्जितं मेघस्येव ध्वनिर्गुञ्जितं च, गुजालक्षणातोद्यं च निर्घातश्च गगने व्यन्तरकृतो महाध्यनिः, गुरुकनिपतितंच विद्युदादिगुरुकद्रव्यनिपातजनितध्वनियंत्र स तथा / सुदीर्घनिस्दी अह्रस्वप्रतिरवो (दूरसुचंतत्ति) दूरे श्रूयमाणो गम्भीरो धुगधुगित्येवंरूपश्च शब्दो यत्र स तथा कर्मधारयः / ततस्तम्। पथि मार्गे (रुभंतत्ति) रुन्धानाः संचरिष्णूनां मार्ग स्खलयन्तो ये यक्षराक्षसकूष्माण्ड पिशाचव्यन्तरविशेषाः, तेषां यत्प्रगर्जितं, उपसर्गसहस्राणि च। पाठान्तरेण (रुसियत्तज्जाय-उवसम्गसहस्सत्ति) तत्र यक्षादयश्च रूषिताः, तज्जातोप-सर्गसहस्राणि, तैः सकुलो यः स तथा तम् / बहूनि च औत्पातिकानि उत्पातान् भूतः प्राप्तो यः स तथा / वाचनान्तरे-उपद्रवेणाभिभूतो यः स उपद्रवाभिभूतः / ततः प्रतिपथेत्यादिना कर्मधारयः / अतस्तम्। तथा विरचितो बलिना उपहारेण होमेनाग्निकारिकया धूमेन उपचारो देवतापूजा यैस्ते तथा। दत्तं वितीर्ण रुधिरं यत्र तत्तथा, तच तदर्चनाकरणं च देवतापूजनं च तत्र प्रयता ये ते तथा / योगेषु प्रवहणोचितव्यापारेषु प्रयता ये ते तथा / ततो विरचितेत्यादीना कर्मधारयः / अतस्तैः सांयात्रिकैरिति गम्यते / चरितः सेवितो यः स तथा तम्। पर्यन्तयुगस्य सकल-युगान्तिमयुगस्ययोऽन्तकालःक्षयकालस्तेन कल्पा कल्पनीया उपमा रौद्रत्वाद्यस्य स तथा! दुरन्तं दुरवसानं महानदीनां गङ्गादीनां चेतरासांपतिः प्रभुर्यः स तथा। महाभीमो दृश्यते यः स तथा। कर्मधारयः / अतस्तम्।दुःखेनानुचर्यते सेव्यते यः स तथा तम्। विषमप्रवेशंदुष्प्रवेशं, दुःखोत्तारमिति च प्रतीतम् / दुःखेनाश्रीयत इति दुराश्रयस्तं, लवणसलिलपूर्णमिति व्यक्तम् / असिताः कृष्णाः, सिताः सितपटाः, समुच्छ्रिता उर्वीकृता येषु तान्य-सितसितसमुच्छ्रितानि तैः, चौरप्रवहणेषु कृष्णा एव सितपटाः क्रियन्ते, दूरादनुपलक्षणहेतोरित्यसितेत्युक्तम्। (दत्थतरेकेहिं ति) सांयात्रिकयानपात्रेभ्यः सकाशाद् दक्षतरैर्वेगवद्भिरित्यर्थः / वाहनैः प्रवहणैरतिपत्य पूर्वोक्तविशेषणं सागरं प्रविश्य समुद्रमध्ये घ्नन्ति, गत्वा जनस्य सायात्रिकलोकस्य, पोतान् यानपात्राणि, परद्रव्यहरणेये निरनुकम्पा निःशूकास्ते तथा। वाचनान्तरेपरद्रव्यहरा नरा निरनुकम्पाः (निरवेक्ख त्ति) परलोकं प्रति निरवकाक्षा निरपेक्षाः / ग्रामो जनपदाश्रितः सन्निवेशविशेषः, आकरो लवणाद्युत्पत्तिस्थानम्, नकरः अकरदायिलोकः,खेटं धूली-प्राकारः, कर्वट कुनगरं, मडंबं सर्वतोऽनासन्नसन्निवेशान्तरं, द्रोणपर्थ जलस्थलपथोपेतं, पत्तनं जलपथयुक्तं, स्थलपथयुक्तं वा, रत्नभूमिरित्यन्ते / आश्रमस्तापसविनिवासः, निगमो वणिग्जननिवासः, जनपदो देशः। इति द्वन्द्वः। अतस्तांश्वधनसमृद्धान्घ्नन्ति। | तथा स्थिरहृदयाः तत्रार्थे निश्चलचित्ताच्छिन्नलज्जाश्च ये ते तथा / बन्दिग्रहगोग्रहाँश्च गृह्णन्ति कुर्वन्तीत्यर्थः। तथा- दारुणमतयः निष्कृपा निघ्नन्ति, छिन्दन्ति गेहसन्धिमिति तम्। निक्षिप्तानि स्वस्थानन्यस्तानि हरन्ति, धनधान्यद्रव्यजातानि धनधान्य-रूप्यप्रकारान् / केषाम् ? इत्याह- जनपदकु लानां लोकगृहाणां, निघृणमतयः परस्य द्रव्याचैरविरताः, तथा / तथैव पूर्वोक्तप्रकारेण केचिददत्तादानमवतीर्ण द्रव्यं गवेषयन्तः कालाकालयोः सञ्चरणस्योचितानुचितरूपयोः सञ्चरन्तो भ्रमन्तः, (चियग त्ति) चितिषु प्रतीतासु प्रज्ज्वलितानि वह्निदीप्तानि सरसानि इन्धनादियुक्तानि दरदग्धानि ईषद्भस्मीकृतानि वृष्टान्याकृष्टानि तथा- विधप्रयोजनाभिः कलेवराणि मृतशरीराणि यत्र तत्तथा, तत्र श्मशाने। क्लिश्यमाना अटवी वासमुपयन्तीति संबन्धः। पुनः किं भूते ? रुधिरलिप्तवदनानि अक्षतानि समग्राणि; मृतकानि इति गम्यते / खादितानि भक्षितानि, पीतानि च शोणितापेक्षया, यूकाभिस्तास्त था, ताभिश्च डाकिनीभिः शाकिनीभिः भ्रमन्तीभिः तत्र सञ्चरन्तीभिः भयङ्करं यत्र तं रुधिरलिप्तवदनाक्षत खादितपीतडाकिनीभ्रमद्भयङ्करम् / क्वचिदक्षत इत्येतस्य स्थाने - "अदरंत" इति पठ्यते। तत्र चाभिनिर्भयाभिरिति व्याख्येयम्। (जंबुयखिक्खियंते त्ति) खिक्खीतिशब्दायमानः, शृगालः, ततः कर्मधारय / अतस्तत्र / तथा घूककृतघोरशब्दे कौशिकविहितरौद्रध्वाने, वेतालेभ्यः विकृतपिशाचेभ्य उत्थितं समुपजातं विशुद्ध शब्दान्तरामिश्र (कहकहेति त्ति) कहकहायमानं यत्प्रहसितं तेन (भीहणगं ति) भयानकम्। अत एव निरभिरामं वा ऽरमणीयं यत्र तत्तथा। तथा तत्र अतिबीभत्सदुरभिगन्धे इति व्यक्तम् / पाठन्तरेण-अतिदुरभिगन्धबीभत्सदर्शनीये इति / कस्मिन्नेवभूते ? इत्याह-श्मशाने पितृवने, तथा वने कानने यानि शून्यगृहाणि प्रतीतानि, लयनानि शिलामयगृहाणि, अन्तरे ग्रामादीनामर्धपथे, आपणा हट्टाः, गिरिकन्दराश्च गिरिगुहाः। इति द्वन्द्वः / ताश्च ताः विषमश्वापदसमाकुलाश्चेति कर्मधारयः, अतस्तासु / कासु एवं विधास्वित्याह- वसतिषु वा स्थानेषु वा क्लिश्यन्तः, शीतातपशोषितशरीरा इति व्यक्तम् / तथा दग्धच्छवयः शीतादिभिरुपहतत्वचः / तथा निरयतिर्यग्भव एव यत्सङ्कट गहनं तत्र यानि दुःखानि निरन्तरदुःखानि तेषां यः सम्भारो बाहुल्यं, तेन वेद्यन्ते अनुभूयन्ते यानि तानि तथा तानि पापकर्माणि संचिन्वन्तो बध्नन्तः दुर्लभं दुरापं भक्ष्याणां मोदकादीनामशनम्, ओदनादीनां पानानां च मद्यजलादीनां भोजनं प्राशनं येषां ते तथा। अत एव पिपासिता जाततृषः, (झुझिय त्ति) बुभुक्षिताः क्लान्ता म्लानीभूताः, मांसं प्रतीतम् (कुणिम ति) कुणयः शवः, कन्दमूलानि प्रतीतानि, यत्किञ्चिच्च यथावाप्तवस्तु। इति द्वन्द्वः / एतैः कृतो विहित आहारो भोजनं यैस्ते तथा / उद्विग्ना उद्वेगवन्त उत्प्लुता उत्सुकाः, अशरणाः अत्राणाः / किम् ? इत्याहअटवीवासमरण्यवसनमुपयन्ति / किं भूतम् ? व्यालशतशङ्कनीयं भुजगादिभिर्भयङ्करमित्यर्थः / तथा अयशस्कराः तस्करा भयङ्कराः, एतानि पदानि व्यक्तानि / कस्य हरामश्चोरयामः, इति इदं विवक्षितम् / अद्यास्मिन्नहनि, द्रव्यं रिक्थम्, इति एवंरूपं, समामन्त्रणं कुर्वन्ति, गुह्यं रहस्यम्, तथा बहुकस्य जनस्य, कार्यकरणेषु प्रयोजनविधानेषु, विघ्नकरा अन्तरायकारकाः, मत्तप्रमत्तसुप्तविश्वस्तान् छिद्रे अवसरे घ्नन्तीत्येवंशीला ये ते तथा / व्यसनाभ्युदयेषु हरणबुद्धय Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदत्तादाण 532- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अदत्तादाण इति व्यक्तम् / किञ्च- (विगव्व ति) वृका इव नाखरविशेषा इव, (रुहिरमहियं ति) लोहितेच्छवः (परितत्ति) परियन्ति सर्वतो | भ्रमन्ति / पुनः कथंभूताः ? नरपतिमर्यादा-मतिक्रान्ता इति प्रतीतम्। सजनजनेन विशिष्टलोकेन, जुगुप्सिता. निन्दिता येते तथा, स्वकर्मभिर्हेतुभूतैः, पापकर्मकारिणः पापानुष्ठायिनः, अशुभपरिणताश्वाशुभ-परिणामाः, दुः०खभागिन इति प्रतीतम्। (निच्चाविल (उल) दुहमनिव्वुइमण त्ति) नित्यं सदा आविलगं सकालुष्यमाकुलं वा दुःखं प्राणिनांदुःख हेतु, अनिवृतं स्वास्थ्यरहितं मनो येषां तेतथा / इहलोक एव क्लिश्यमाना व्यसनशतसमापन्नाः, एतानि पदानि व्यक्तानीति। (4) अथतहेवेत्यादिना परधनहरणे फलद्वारमुच्यतेतहेव केइ परस्स दव्वं गदेसमाणा गहिया य हता य बद्धा रुद्धा य तुरियं अतिघाडिया पुरवरं समप्पिया चोरग्गहचारभडचाडुकरणा तेहिं य कप्पडप्पहारनिद्दयाऽऽरक्खियखरफरुसवयणतज्जणगलत्थल्लउत्थलणाहिं विमणाचारणवसहिं पविसिया निरयवसहिसरिसं तत्थ वि गोम्मिकपहारदुम्मणा निब्भच्छणकडुयवयणभेसणग(भय) आमिभूया अक्खित्तणिवसणा मलिणडंडिखंडवसणा, उक्कोडालंचनपासुमग्गणपरायणे हिं गोम्मिगभडे हिं विविहे हिं बंधणे हिं, किं ते हडिनियडवालरजुयकुडंडगवरत्तलोहसंकलहत्थंडयवज्झपट्टदामकणिक्कोडणेहिं अण्णेहि य एवमादिएहिं गोम्मिकभंडोवगरणे हिं दुक्खसमुदीरणे हिं संकोडणमोडणे हिं वझंति मंदपुण्णा संपुडकवाडलोहपंजरभूमिघर निरोहकूवचारगकीलगजूपचक्कविततबंधणखंभालेणउद्धचलणबंधण-विहंमणाहिय विहेडियंता अहकोडागाढउरसिरवद्धउद्धपूरिय (यंत) फुरंत उरकंडगमोडणेहिं संबद्धायनीससंतासीसावेढऊरुयालवप्पङसंधिबंधणतत्तसलागसूइआकोडणाणि तच्छणविमाणणाणि य खारकडुयतित्तनावणजायण-कारणसयाणि बहुयाणि पावियंता, उरघोडीदिण्णगाढपेल्लणअद्विकसिंभग्गसपंसुलिया गलकालकलोहदंड उर उदरवत्थिपिट्ठिपरिपीलिया मच्छंतहिययसंचुण्णियंगुपंगा आणत्तिकिंकरेहिं, के य अविराहियवेरिएहिं जडपुरिससंनिभे हिं पहया ते तत्थ मंदपुण्णा चडवेला वज्झपट्टपोरा इति वा कसलत्त-वरत्तवेत्तपहारसततालियंगुपंगा किवणा लवंतवम्मवण-वेयणविमुहियमणाघणकोट्टिमनियलजुयलसंकोडि-यमोडिया य कीरंति, निरुबारा एया अण्णा य एवमा-दीओ वेयणाओ पावा पावंति, अदंतिं दिया वसट्टा बहुमोहमोहिया परणधम्मि लुद्ध, फासिंदियविसयतिव्वगिद्धा इत्थिगयरूवसहरसगंधइट्ठ-रतिमहियभोगतण्हाइया य धणतोसगा गहिया य जे नरगणा पुणरवि ते कम्मदुट्वियड्ढा उवणीया रायकिं कराणं तेसिं वधसत्थगपाढयाणं विलउलीकारकाणं लंचसयगेण्हयाणं कूडकवडमायाणियडिआयरण- पणिहिवंचणविसारयाणं बहुविहअलियसयजंपकाणं परलोकपरंमुहाणं निरयगति-गामियाणं तेहि य आणत्तजा (जी) यदंडा तुरियं उग्घाडिया पुरवरेहिं सिंघाडातियचउक्कचत्तरमहापहपहेसु वेत्तदंडलउडकट्ठले?पत्थरपणालियपणोलिमुटिलत्तपादपण्हिजाणुकोप्परप्पहारसं मग्गमथितगत्ता अट्ठारसकम्मकारिणा पायियंगुपंगा कलुणा सुक्कोट्टकं ठगलतालुजिब्भा जायंता पाणियं विगयजीवियासा तण्हाइत्ता वरागा तं पि य न लहंति, वज्झपुरिसेहिं धाडियंता / तत्थ य खरफरसपडहघट्टितकूडग्गहगाढरुट्ठनिसट्ठपरामट्ठवज्झकरकुडिजुयनिवसिया सुरत्तक णवीरगहियविमुकुलकं ठे गुणवज्झदूत आविद्ध मल्लदाममरणभयुप्पण्णसेयमायतणेहउन्नुप्पियकिलिण्णगत्ता चुण्णगुंडियसरीररयरेणुभरियके सा कुसंभगुक्किण्णमुद्धया छिण्णजीवियासा घुणंता वज्झपाणपीया तिलं तिलं चेव छिज्जमाणा सरीरविकत्तलोहिओलित्तकागणिमंसाणि खायियंता पावाखरकरसएहिं तालिज्जमाणदेहा वातिकनरनारिसंपरिवुडा पिच्छिजंता य नागरजणे ण बज्झने वत्थिया पणिज्जति णगरमज्झेण किवणकलुणा अत्ताणा असरणा अणाहा अबंधवा बंधु विप्पहीणा विपिक्खंता दिसो दिसिं मरणभयुविग्गा आघायणपडिदुवारसंपाविया अधण्णासूलग्गविलग्गा-भिण्णदेहा ते य तत्थ कीरंति, परिक प्पियंगुपंगा उल्लं बिजंति रुक्खसालेहिं के इ कलुणाइ विलवमाणा / अवरे चउरंगधणियबद्धा पध्वयक डगा पमुचंते दूरपातबहुविसमपत्थरसहा। अण्णे य गयचलणभलणनिम्मदिया कीरंति, पावकारी अट्ठारसखंडिया य कीरंति मुंडपरिसुहिं / केइ उक्खित्तकण्णोदुनासा उप्पाडियनयणदसणवसणा जिन्मिंदियांचिया छिण्णकण्णसिरा पणिज्जति छिज्जंति य असिणा निव्विसया छिण्णहत्थपाया य पमुचंति, जाव जीववंधणा य कीरंति / केइ परदव्वहरणलुद्धा कारग्गलनियलजुयलरुद्धा चारगाए हतसारा सयणविप्पमुक्का मित्तजणनिरक्कया निरासा बहुजणधिक्कारसद्दलजाइया अलज्जा अणुबद्धखुहापरद्धसिउण्हतण्हवेयणदुघट्टघट्टियविवण्णमुहविच्छविया विहलमइलदुबला किलंता कासंता वाहिया य आमामिभूयगत्ता परूढनहकेसमंसुरोमा मलमुत्तम्मिणियगम्मि खुत्ता तत्थेवमया अकामुका बंधिऊण पाए सुकड्डिया खाइयाए छूढा, तत्थ य वगसुणयसियालकोलमंजारवंदसंडासतुंडपक्खिगणविविहमुहसयविलुत्तगत्ता कयविहंगा / के इ कि मिणाइ कुथितदेहा अणिट्ठवयणेहिं सप्पमाणा सुट्ठ कयं जं मओ त्ति पावो तुढेण जणेण हणमाणा लज्जावणका य हुंति सयणस्स वि यदीहकालं मया संता पुणो परलोगसमावण्णा नरगे गच्छति। निरभिरामे अंगारपलित्तककप्पअञ्चत्थसीयवेयणाऽऽसायणो Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदत्तादाण 533- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अदत्तादाण दिण्णसततदुक्ख-सयसमभिभूएततो वि उव्वट्टिया समाणा पुणो वि पवजंति तिरियजोणिं, तहिं पि निरओवमं अणुभवंति वेयणं ते, अणंतकालेण जति णाम कहिं वि मणुयभावं लहिंति णेगेहिं णिरयगतिगमणतिरीयभवसयसहस्सपरियट्टएहिं तत्थ वि य भंवताऽणारिया नीचकुलसमुप्पण्णा लोयबज्झा तिरिक्खभूया य अकुसला कामभोगतिसिया जहिं निबंधंति निरयवत्तणि भवप्पवंचकरणपणोल्लि पुणो वि संसारवत्तणेममूले धम्मसुइविवज्जिया अणज्जा कूरा मिच्छत्तसुतिपवणा य हुंति, एगंतदंड रुइणो वे ढंता को सिकारकीडो व अप्पगं अट्ठकम्मतंतुघणबंधणेणं, एवं नरगतिरियनर अमरगमणपेरंतचक्कवालं जम्मजरामरणकरणगंभीरदुक्खपक्खुभियपउरसलिलं संजोगवियोगवीचिचिंतापसंगपसरिय वहबंधमहल्लविपुलकल्लोलकलुणविलवितलोभकलकलंतबोलबहुलं अवमाणणफे णतिव्वखिंसणपुलं पुलप्पभूयरोगवे यणपरभवविणिवायफ रुसधरिसणसमावडियकठिणकम्मपत्थरतरंगरिंगंतनिचमच्यु भयतोयपटुं कसायपायालसंकुलं भवसयसहस्सजलसंचयं अणंतं उव्वेजणयं अणोरपारं महन्मयं भयंकरं पइभवं अपरिमियमहिच्छकलुसमतिवाउवेगउद्धम्ममाणाऽऽसापिवासापायालकामरतिरागदोसबंधणबहुविहसंकप्पविउलदगर-यरयंऽधकारमोहमहावत्तभोगभममाणगुप्पमाणुच्छलंतबहुगब्भवासपचोणियत्तपाणिपधावियवसणसमावण्णरुण्णचंड मारुयसमाहयमणुण्णवीचीवाकुलितभंगफुटुंतनिट्ठकल्लोलसंकुलजलं पमादबहुचंडदुट्ठसावयसमाहयउद्धायमाणगपूरघोरविद्धसणस्थऽणत्थबहुलं अण्णाणभमंतच्छपरिदक्खअनिहुतिंदियमहामगरतुरियचरि-यखोक्खुब्भमाणसंतावनिचयचलंतचवलचंचलअत्ताणासरणपुव्वकम्मसंचयोदिण्णवज्जवेदिजमाणदुहसयविवागघुणंतजलसमूह इड्डिरससायगारवोहारगहियकम्मपडिबद्धसत्तकड्डिजमाणनिरयतलदुत्तसण्णविसण्णबहुलअरतिरतिभयविसायसोगमिच्छत्तसेलसंकडं अणाइसंताणकम्मबंधणलेसचिक्खिल्लदुठुत्तारं अमरनरतिरियगतिगमणकुडिलपरियत्तविपुलवेलं हिंसाऽलियअदत्तादाणमेहुणपरिग्गहारंभकरणकारावणाणुमोयणअट्ठविहअणिट्ठकम्मपिंडितगुरभाराक्कंतदुग्गजलोघदूरनिचोलिजमाण-उम्मग्गनिमग्गदुल्लहतलं सरीरमणोमयाणि दुक्खाणि उप्पियंता सातासायपरितावणमयं उवुडनिव्वुड्डयंकरें ति। चउरंत-महंतमणवयग्गं रुदं संसारसागरं अट्ठियअणालंबण-पतिट्ठाणमप्पमेयं चुलसीइजोणिसयसहस्सगविलं अणालोक-मंधकारं अणंतकालं जाव णिचं उत्तत्थसुण्णाभयसण्णसंपउत्ता संसारसागरं वसंतिउन्निमग्गवासवसहिं, जहिं जहिं आउयं निबंधंति पावकम्मकारिणो बंधवजणसयणमित्तपरिवज्जिया अणिट्ठा भवंति / अणादिजदु· विणीया कुट्ठाणासणसेज्जा-कुभोयणा असुयणो कुसंहयण कुप्पमाणकुसंठिया कुरुवा बहुकोहमाणमायालोमा बहुमोहा धम्मसण्णसम्मत्तपब्मट्ठा दारिद्दोबद्दवाभिभूया निचं परकम्मकारिणो जीवणत्थर हिया किवणा परिपिंडतक्किक्का दुक्खलद्धाहारा अरसविरसतुच्छ-कयकु क्खिपूरा परस्स पच्छंता रिद्धिसक्कारभोयण-विसेससमुदयविहिं निंदंता अप्पकं, कयंतं च परिवयंता, इह यपुरे कडाईकम्माई पावगाइं विमणसो सोएण डज्झमाणा परिभूया हुति, सत्तपरिवजिया य छोभा सिप्पकलासमयसत्थपरिवज्जिया जहाजायपसुभूया अवियत्ता निचं नीयकम्मोदजीविणो लोयकुच्छणिज्जा मोहमणोरहनिरासबहुला आसापास-पडिबद्धपाणाअत्थोप्पायणकामसोक्खे य लोयसारे हुंति / अफलवंतगा य सुछ अवि अ उज्जचंता तद्विवसुजुत्तकम्मकय-दुक्खसंठवियसिस्थपिंडसंचयपरा खीणदवसारा णिचं अधुवधणधण्णकोसपरिभोगविवजिया रहियकामभोगपरि-भोगसव्वसोक्खा परसिरिभोगोवभोग निस्साणमग्गणापरायणा वरागा, अकामिकाए विणियंति दुक्खं, णेव सुहं, णेव णिव्वुति उवलंभंति, अचंतविपुलदुक्खसयसंपलित्ता परदव्वेहिं जे अविरया। एसो सो अदिण्णादाणस्स फलविवागो इहलोए परलोए अ अप्पसुहो बहुदुक्खो महन्मयो बहुरयप्पगाहो दारुणो कक्कसो असाओवाससहस्सेहिं मुथति, नय अवेदयित्ता अत्थि हु मोक्खो त्ति। एवमाहंसु नायकुलनंदणो महप्पा जिणो महावीरनामधेयो कहेसीयं अदिण्णादाणस्स फलविवागं,एवं तं ततियं पि अदिण्णादाणं हरदहमरणभयकलुसतासणपरसंतिक-गिज्झलोभमूलं, एवं जाव चिरपरिगयमणुगयं दुरंतं ततियं अहम्मदारं सम्मत्तं त्ति बेमि / (तहेवेत्यादि) तथैव यथापूर्वमभिहिताः, केचित्केचन, परस्य द्रव्यं गवेषयन्त इति प्रतीतम्। गृहीताश्च राजपुरुषः, हताश्व यष्ट्यादिभिः, बद्धा रुद्धाश्च रज्ज्वादिभिः संयमिताः, चारकादिनिरुद्धाश्च (तुरियं ति) त्वरित शीघ्रं, अतिघाटिता भ्रामिता अतिवर्तिता वा, भ्रमिता एव पुरवरं नगरं समर्पिता ढौकिताः, चौरग्राहाश्च चारभटाश्च चाटुकाराश्च येते तथा। तैश्च चौरग्राह-चारभटचाटुकारैः; चारकवसतिं प्रवेशिता इति सम्बन्धः / कर्पटप्रहाराश्च लकुटाकारवलितचीवरैस्ताडनाः, निर्दया निष्करुणा ये आरक्षिकास्तेषां संबन्धीनि यानि खरपरुष-वचनानि अतिकर्कशभणितानि, तर्जनानि च वचनविशेषाः। (गलत्थल त्ति) गलग्रहणं, तथा (उत्थलण त्ति) अपवर्तना, अपप्रेरणा इत्यर्थः / तास्तथा, तानि चेति पदचतुष्टयस्य द्वन्द्वः ताभिः विमनसो विषण्णचेतसःसन्तःचारकवसतिं गुप्तिगृहं प्रवेशिताः। किं भूताम् ? निरयवसतिसदृशामिति व्यक्तम्। तत्रापि चारकवसतौ, (गोम्मिक त्ति) गौल्मिकस्य गुप्तिपालस् संबन्धिनो ये प्रहारा धाताः (दुम्मण त्ति) दवनानि उपतापानि, निर्भर्त्सनानि Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदत्तादाण 534 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अदत्तादाण आक्रेशविशेषाः कटुकवचनानि च कटुकवचनैर्वा भीषणकानि च परिपीसिता येते तथा / (मत्थंत त्ति) मथ्यमानं हृदयं येषां ते तथा। इह भयजननानि, तैरभिभूता ये ते तथा / पाठान्तरेण- एभ्यो यद् भयं थकारस्य छकारादेशश्छान्दसत्वात् / तथा संचूर्णिताङ्गोपाङ्गाश्चेति तेनाभिभूता येते तथा। आक्षिप्तनिवसना आकृष्टपरिधानवस्त्राः मलिनं समासः। आज्ञप्तिकिङ्करैः यथाऽऽदेशकारिभिः, किं कुर्वाणैः ? केचित् दण्डिखण्डिरूपं बसनं वस्त्रं येषां ते तथा / उत्कोचाल- के चन, अविराधिता एवाइनपराद्धा एव, वैरिका ये ते तथा तैः, झयोर्द्रव्यबहुत्वेतरत्वादिभिर्लो के प्रतीतभेदयोः पार्थाद् गुप्ति- यमपुरुषसन्निभैः, प्रहता इति प्रकटम्। ते अदत्तहारिणः / तत्र चरकगर्ने गतनरसमीपाद्, उन्मार्गणं याचनं, तत्परायणास्तन्निष्ठा येते तथा, तैः, मन्दपुण्या निर्भाग्याः, चडवेला चपेटा, वर्द्धपट्टः चर्मविशेषपट्टिका, पोरा गौल्मिकमटैः कर्तृभिः, विविधैर्बन्धनैः करणभूतैर्बध्यन्त इति संबन्धः। इति लोहकुशीविशेषः, कषश्चर्मयष्टिका, लत्ताकं च, वरत्रा चर्ममयी (किंते त्ति) तद्यथा (हडि त्ति) काष्ठविशेषः, निगडानि लोहमयानि, महारज्जुः, वेत्रो जलवंशः, एभिर्ये प्रहारास्तेषां यानि शतानि वालरजुका गवादिवालमयी रज्जुः कुदण्डकं काष्ठमयं प्रान्ते रज्जुपाशं, तैस्ताडितान्यङ्गोपाङ्गानि येषां ते तथा, कृपणाः दुस्थाः, लम्बमानवर्माणि वरत्रा चर्यमयी महारज्जुः, लोहसङ्कला प्रतीता, हस्ताण्डकं लोहादिमयं यानि व्रणानि क्षतानि, तेषु या वेदना पीडा, तथा विमुखीकृतं हस्तयन्त्रणं, वध्यपट्टश्चर्मपट्टिका, दामकं रञ्जमयपादसंयमनं, निष्कोटनं चौर्याद्विरञ्जितं मनो येषां ते तथा / धनकुट्टनेन घनताडनेन निवृत्त च बन्धनविशेषः / इति द्वन्द्वः / ततस्तैरन्यैश्चोक्तव्यतिरिक्तैरेवमा- धनकुट्टिमम, तेन निगडयुगलेन प्रतीतेन, संकोटिताः सङ्कोचिताः, दिकैरेवंप्रकारैगोल्मिकभाण्डोप-करणैर्गौल्मिकपरिच्छदविशेषैः मोटिताश्च भन्नाङ्गाः, ये ते तथा। ते च क्रि यन्ते विधीयन्ते, दुःखसमुदीरणैरसुखप्रवर्तकः / आज्ञप्तिकिङ्करैरितिप्रकृतम्। किं भूताः ? निरुच्चारा निरुद्धपुरीषोत्सर्गाः, तथा संकोचना गात्रसङ्कोचनम्, मोटना च गात्रभञ्जना, ताभ्याम; अविद्यमानसंवरणा नष्टवचनोच्चारणा वा; एता अन्याश्च एवमादिका किम् ? इत्याह- बध्यन्ते / के ? इत्याह-- मन्दपुण्याः / तथा संपुटं एवंप्रकाराः वेदनाः पापाः पापफलभूताः, पापकारिणो वा प्राप्नुवन्ति। काष्ठयन्त्रं, कपाट प्रतीतम्। लोहपञ्जरे भूमिगृहे च यो निरोधः प्रवेशनं स अदान्तेन्द्रियाः, वृत्तिवशेन विषयपारतन्त्र्येण ऋताः पीडिता वशार्ताः, तथा / कूपोऽन्धकूपादिः, चारको गुप्तिगृहं, कीलकाः प्रतीताः, यूपो युगं, बहु-मोहमोहिताः, परधने लुब्धा इति प्रतीतम्।। चक्रं रथाङ्ग, विततबन्धन प्रतर्दितबाहुजङ्घाशिरसः संयन्त्रणम्, (खंभाले स्पर्शनेन्द्रियविषय स्त्रीकलेवरदौ, तीव्रमत्यर्थं गद्धा अभ्युपपन्ना ये ते णं ति) स्तम्भागलनं, स्तम्भालगनमित्यर्थः। उर्ध्वं चरणस्य यद्बन्धनं तथा / स्वीगता ये रूपशब्दरसगन्धास्तेषु इष्टाऽभिमता या रतिः, तथा तत्तथा। एतेषां द्वन्द्वः। तत एभिर्या विधर्मणाः कदर्थनास्तास्तथा, ताभिश्च स्त्रीगत एव महितो वाच्छितो यः स्वीभोगो निधुवनं, तेन या तृष्णा (विहेडियतं ति) विहेड्यमाना वध्यमानाः, संकोटिता मोटिताः क्रियन्त आकाङ्क्षा, तथा अर्दिता बाधिता ये ते तथा / ते च धनेन तुष्यन्तीति इति सम्बन्धः / अधः कोटकेन कोटाया ग्रीवायाः अधोनयनेन, गाढं धनतोषकाः, गृहीताश्व राजपुरुषैरिति गम्यम् / ये केचन नरगणाः बाढं, उरसि हदये, शिरसि च मस्तके, ये बद्धास्ते तथा / ते च चौरनरसमूहाः, (पुणरवि त्ति) एकदा ते गौल्मिकनराणां समर्पिताः तैश्च ऊर्ध्ववपूरिताः श्वासपूरितोसर्वकायाः, ऊर्ध्वा वा स्थिताः, धूल्या विविधबन्धनबद्धाः क्रियन्त इत्युक्तम्, ततः तेभ्यः सकाशात् पुनरपिते पूरिताः / पाठान्तरे (उद्धपूरियंत त्ति) ऊर्ध्वपूरितान्त्रा उर्ध्वगतान्त्राः, कर्मदुर्विदग्धाः, कर्मपापक्रियासु विषये फलपरिज्ञानं प्रति विज्ञाः, स्फुरदुरः कण्टकाश्च कम्पमानवक्षस्थलाः, इतिद्वन्द्वः। तेषां सतांयन्मोटनं उपनीताः ढौकिताः / राजकिङ्कराणां, किंविधानाम् ? (तेसिं त्ति) ये मर्दनं, आमेडना वा, विपर्यस्तीकरणं वा, ते तथा। ताभ्यां विहेड्यमाना निर्दयादिधर्मयक्तास्तेषाम. तथा वधशास्त्रक--पाठकानां इति व्यक्तम्। इति प्रकृतम् / अथवा- स्फुरदुरःकण्टका इह प्रथमाबहुवचनलोपो विलउलीकारकाणां तिविट्टपोल्लकर्तृणां विलोकनाकारकाणां वा, दृश्यः / ततश्चा- मोटनामेडनाभ्यामित्येतदुत्तरत्र योज्यन्ते। लचाशतग्राहकाणां, तत्र लशा उत्कोचाविशेषः / तथा कूट तथा च बद्धाः सन्तः निःश्वसन्तो निःश्वासान्विमुञ्चन्तः, शीर्षावेष्टनं च मानादीनामन्यथाकरणं, कपटं वेषभाषावैपरीत्यकरणं, माया वरत्रादिना शिरोवेष्टनं, (उरुयाल त्ति) ऊर्वोर्जयोरो दारणं, ज्वालो प्रतारणबुद्धिः, निकृतिर्वश्चनक्रिया, तयोर्वा प्रच्छादनार्थ माया क्रियैव, वा ज्वलनं, यः स तथा स च / पाठान्तरेण - (उरुयावल त्ति) एतासां यदाचरणं प्रणिधिना एकाग्रचित्तप्रधानेन यद्वञ्चनं, प्रणिधीनां वा ऊरुकयोरावलनंऊरुकावलः। वपडकानां काष्ठयन्त्रविशेषाणां, सन्धिषु गूढपुरुषाणां यद्वञ्चनं तच, तत्र विशारदाः, पण्डिता ये ते तथा / तेषां जानूकूपरादिषु, बन्धनं वपडकसन्धिबन्धनं, तच्च तप्तानां शलाकानां बहुविधाऽलीक-शतजल्पकानां, परलोकपराङ्मुखाना, निरयगतिकीलरूपाणां, सूचीनां श्लक्ष्णतीक्ष्णाग्राणां, यान्याकुट्टानानि कुट्टनेनाङ्गे गामिकानामिति व्यक्तम् / तैश्च राजकिङ्करैः, आज्ञप्तमादिष्ट, जाते प्रवेशनानि, ताभि तथा; तानि चेति द्वन्द्वः / तानि प्राप्यमाणा इति दुष्टनिग्रहविषय-माचरितं, दण्डश्च प्रतीतः, जीतदण्डो वा रूपदण्डो, संबन्धः / तक्षणानि च वास्या काष्ठस्येव, विमाननानि च कदर्थनानि, जीवदण्डो वा जीवितनिग्र हलक्षणो, येषां ते तथा / त्वरित तानि च तथा, क्षाराणि तिल- क्षाराणि,- कटुकानि मरीचादीनि, शीघ्रमुद्घाटिताः प्रकाशिताः, पुरवरे शृङ्गाटिकादिषु, तत्र शृङ्गाटकं तिक्तानि निम्बादीनि, तैर्यत् (नावण त्ति) तस्य दानं तदादि सिङ्घाटकाकारं त्रिकोणस्थानमित्यर्थः। त्रिकरथ्यात्रयमीलनस्थानम्, चतुष्क यातनाकारणशतानि कदर्थनाहेतुशतानि, तानि बहुकानि प्राप्यमाणाः / रथ्याचतुष्कमीलनस्थानम्, चत्वरमनेकरथ्यापतनस्थानम्, चतुर्मुखंतथा उरसि वक्षसि, (घाडि ति) महाकाष्ठं, तस्या दत्ताया वितीर्णायाः, देवकुलिकादि, महापथो राजमार्गः, पन्था सामान्यमार्गः, किंविधाः सन्तः निवेशिताया इत्यर्थः / यद्गाढप्रेरणं तेनास्थिकानि हड्डानि संभग्नानि प्रकाशिताः? इत्याह-वेत्रदण्डोलकुटः, काष्ठ, लेष्ट्रः, प्रस्तरश्च, प्रसिद्धाः। (सपासुलग त्ति) सपा स्थानि येषां ते तथा / गल इव वडिशमिव (पणालि त्ति) प्रकृष्टा नाली शरीरप्रमाणा दीर्घतरा यष्टिः, (पणोलि ति) घातकत्वेन यः स गलः, स चासौ कालकलोहदण्डश्च कालायसयष्टिः, प्रणोदितो जात-दण्डः, मुष्टिलत्ता पादपाष्णि, जानुकूपरं चैतान्यपि तेन उरसि वक्षसि, उदरे च जठरे च, वस्तौ च गुह्यदेशे, पृष्ठौ च पृष्ठे, - प्रसिद्धानि / एभिर्ये प्रहारास्तैः संभग्रान्यामर्दितानि मथितानि विलोडितानि Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदत्तादाण 535 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अदत्तादाण गात्राणि येषां ते तथा। अष्टादश कर्मकारणाः, अष्टादश चौरप्रसूतिहेतवः / तत्र चौरस्य, तत्प्रसूतीनां च लक्षणमिदम्। "चौरः 1 चौरापको 2 मन्त्री, 3 भेदज्ञः 4 काणकक्रयी 5 / अन्नदः 6 स्थानदश्चैव, चौरः सप्तविधः स्मृतः" // 1 // अत्र काणकक्रयी बहूमूल्यमपि अल्पमूल्येन चौराहृतं काणकं हीनं कृत्वा क्रीणातीत्येवंशीलः। "भलनं 1 कुशलं 2 तर्जा 3, राजभागो 4 ऽवलोकनम् 5 / अमार्गदर्शनं 6 शय्या 7, पदभङ्गः तथैव च // 1 // विश्रामः पादपतनं 10. आसनं 11 गोपनं 12 तथा। खण्डस्य खादनं चैव 13, तथाऽन्यन्मोहराजिकम् 14 // 2 // पद्याऽग्न्युदक-रजूनां 15-18, प्रदानं ज्ञानपूर्वकम्। एताः प्रसूतयो ज्ञेयाः, अष्टादश मनीषिभिः'' ||3|| तत्र भलनम्- न भेत्तव्यं भवताऽहमेव त्वद्विषये भलिष्यामीत्यादिवाक्यैश्चौर्यविषयं प्रोत्साहनम् 1 कुशलमिलितानां सुखदुःखतद्वार्ताप्रश्नः / तर्जा-हस्तादिना चौर्य प्रति प्रेषणादिसंज्ञाकरणम् 3 / राजभागोराजभाव्यद्रव्यापह्नवः 4 / अवलोकनम्-हरतां चौराणामुपेक्षाबुद्धया दर्शनम् 5 / अमार्ग-दर्शनम्- चौरमार्गप्रच्छकानां मार्गान्तरकथनेन तदपज्ञानम् 6 / शय्या-शयनीयसर्मपणादि७ापदभङ्गः- पश्चाच्चतुष्पदप्रचारादिद्वारेण / विश्रामः- स्वगृह एव वासकाद्यनुज्ञा / पादपतनम्प्रणामादिगौरवम् १०।आसनम्-विष्टरदानम् 11 // गोपनम्-चौरापह्नवम् 12 / खण्डखादनम्-मण्डकादिभक्तप्रयोगः 13 / मोहराजिक लोकप्रसिद्धम, 14 / पद्याऽग्न्युदकरज्जूनां प्रदानमिति प्रक्षालनाभ्यगाभ्यां दूरमार्गागमजनितश्रमापनोदित-त्वेन पादेभ्यो हितं पद्यमुष्णजलतैलादि तस्य 15, पाकाद्यर्थ चाऽग्नेः 16, पानाद्यर्थं च शीतोदकस्य 17, चौराहृतचतुष्पदादिबन्धनार्थं च रज्ज्वाश्च 18, प्रदान वितरणम् / ज्ञानपूर्वकं चेति सर्वत्र योज्यम्, अज्ञानपूर्वकस्य निरपराधत्वादिति। तथा पातिताऽङ्गोपाङ्गाः कदर्थिताङ्गोपाङ्गाः, तैः राज्ञः किङ्करैरिति प्रकृतम्। करुणाः, शुष्कोष्ठकण्ठगलतालुजिह्वाः, याचमानाः पानीयम्, विगतजीविताशाः, तृष्णार्दिताः, वराका इति स्फुटम् / (तं पि य त्ति) तदपि पानीयमपिन लभन्ते, वध्येषु नियुक्ता ये पुरुषा:-ते वध्यपुरुषाः, तैर्वाध्यमानाः प्रेर्यमाणाः। तत्र च धाडने, खरपरुषोऽत्यर्थकठिनो यः पटहको डिण्डिमकः, तेन प्रचलनार्थं पृष्ठदेशे घट्टिताः प्रेरिता येते तथा। कूरग्रहः कटिग्रहः, तेन च गाढरुष्टैर्निसृष्टमत्यर्थं परामृष्टाः गृहीता ये ते तथा / ततः कर्मधारयः / वध्यानां सम्बन्धि यत् करकुटीयुगं वस्त्रविशेषयुगलं तत्तथा, तन्निवसिताः परिहिताः / पान्तरं वधाश्च करकुट्यो हस्तलक्षणः, तयोः युगं युगलं, निवसिताश्च येते तथा। सुरक्तैः कणवीरैः कुसुमविशेषैः, ग्रथितं गुम्फितं, विमुकुलं विकसितं, कण्ठे गुण इव कण्ठे गुणं, कण्ठसूत्रसदृशमित्यर्थः / वध्यदूत इव वध्यदूतः, बद्धचिह्नमित्यर्थः / आविद्धिं परिहितं, माल्यदाम कुसुममाला, येषां ते तथा, मरणभयादुत्पन्नो यः स्वेदः तेनायतमायामवद् यथा भवतीत्येवं स्नेहेन उन्नुपितानीव स्नापितानीव क्लिन्नानि चार्टीकृतानि गात्राणि येषां ये तथा / चूर्णेनाङ्गारादीनां गुण्डितं शरीरं, कुसुभरजसा वातोत्खातेन रेणुना च धूलीरूपेण भरिताश्च भृताः केशा येषां ते तथा / कुसुम्भकेन / रागविशेषेण उत्कीर्णा गुण्डिता मूर्द्धजा येषां ते तथा / छिन्नजीविताशा | इति प्रतीतम् / घूर्णमानाः, भयविकलत्वात् / वध्याश्च हन्तव्याः, प्राणप्रीताश्व उच्छ्वासादि-प्राणप्रियाः, प्राणपीता वा भक्षितप्राणा ये ते तथा। पाठान्तरेण (वेज्झायणभीय त्ति) वधकेभ्यो भीता इत्यर्थः। 'तिलं तिलं चेव छिज्जमाणा' इति- व्यक्तम् / शरीराद्विकृत्तानि छिन्नानि लोहितावलिप्तानि यानि काकणीमांसानि श्लक्ष्णखण्डपिशितानि तानि तथा खाद्यमानाः, पापाः पापिनः, खरकरशतैः श्लक्ष्णपाषाणभृतैः, चर्मकोशकविशेषशतैः, स्फुटितवंशशतैः ताङ्यमानदेहाः, वातिकनरनारीसिंपरिखताः वातो येषामस्ति ते वातिकाः, वातिका इव वातिकाः अयन्त्रिता इत्यर्थः / तैनरैनारीभिश्च समन्तात्परिवृता ये ते तथा / प्रेक्ष्यमाणाश्च, नागरजनेनेति व्यक्तम् / वध्यनेपथ्यं संजातं येषां ते वध्यनेपथ्यिताः। प्रणीयन्ते नीयन्ते नगरमध्येन सन्निवेशमध्यभागेन, कृपणानां मध्ये करुणाः कृपणकरुणाः, अत्यन्तकरुणा इत्यर्थः / अत्राणाः, अनर्थप्रति-घातकाभावात्। अशरणाः, अर्थप्रापकाभावात्। अनाथाः, योगक्षेमकारिविरहितत्वात्। अबान्धवाः, बान्धवानामनर्थकत्वात्। बन्धुविप्रहीणाः, बान्धवैः परित्यक्तत्वात्। विप्रेक्षमाणाः पश्यन्तः (दिसो दिसंति )एकस्या दिशोऽन्यां दिशं, पुनस्तस्या अन्यां दिशमित्यर्थः / मरणभयेनोद्विग्रा येते तथा (आघायण त्ति) आघातनंच वध्यभूमिमण्डलस्य प्रतिद्वारम् / द्वारमेव संप्रापिता नीता ये ते तथा। अधन्याः, शूलाग्रे शूलकान्ते विलग्नोऽवस्थितो भिन्नो विदारितो देहो येषां ते तथा / ते च, तत्र आघातने, क्रियन्ते विधीयन्ते / तथा परिकल्पिताङ्गोपाङ्गाः छिन्नावयवाः, उल्लम्ब्यन्ते वृक्षशाखाभिः। केचित् करुणानि, वचनानीति गम्यन्ते; विलपन्त इति। तथा अपरे चतुलङ्गेषु हस्तपादलक्षणेषु (धणिय) गाढं बद्धा येते तथा। पर्वतकटकाद् भृगोः, प्रमुच्यन्ते क्षिप्यन्ते, दूरात्पातः पतनं च, बहुविषमप्रस्तरेषु अत्यन्तासमपाषाणेषु, सहन्ते ये ते तथा / तथाऽन्ये वाऽपरे गजचरणमलनेन निर्मर्दिता दलिता येते तथा। ते क्रियन्ते। कैः ? इत्याह-मुण्डपरशुभिः कुण्टकुठारैः। तीक्ष्णैर्हि तैर्नात्यन्तं वेदनोत्पद्यत इति विशेषणमिति / तथा केचित् अन्ये, उत्क्षिप्तकर्णोष्ठनासारिछन्नश्रवणदशनच्छदघ्राणाः, उत्पाटित-नयनदशनवृषणा इति प्रतीतम्। जिह्वा रसना, आञ्चिता आकृष्टा, छिन्नौ कर्णी, शिरश्च, नयनाद्याः येषां ते तथा। प्रणीयन्ते, आघातस्थानमिति गम्यते / छिद्यन्ते च खण्ड्यन्ते, असिना खड्ग न, तथा निर्विषया देशाद् निष्कासिताः, छिन्नहस्तपादाश्च, प्रमुच्यन्ते राजकिङ्करैस्त्यज्यन्ते, छिन्नहस्तपादा देशान्निष्कास्यन्त इति भावः / तथा यावज्जीवबन्धनाश्च क्रियन्ते, केचिदपरे, के ? इत्याह-परद्रव्यहरणलुब्धाइति प्रतीतम्।कारार्गलया चारकपरिधेन, निगडयुगलैश्च रुद्धा नियन्त्रिता ये ते तथा / ते क्व ? इत्याह (चारगाएत्ति) चारके गुप्तौ, किंविधाः सन्तः? इत्याह-हतसारा अपहृतद्रव्याः, स्वजनविप्रमुक्ता मित्रजननिराकृताः निराशाश्चेति प्रतीतम् / बहुजनधिक्कारशब्देन लज्जायिताः प्राप्तलजाः ये ते तथा / अलज्जा विगतलजाः, अनुबद्धक्षुधा सततबुभुक्षया, प्रारब्धाभिभूता अपराद्धा वा येते तथा। शीतोष्णतृष्णावेदनया दुर्घटया दुराच्छादनया, घट्टिताः स्पृष्टा येते तथा। विवर्णं मुखं, विरूपा च छविः शरीरत्वक, येषां ते विवर्णमुखविच्छविकाः। ततोऽनुबद्धेत्यादिपदानां कर्मधारयः / तथा विफला अप्राप्तेच्छितार्थाः, मलिना मलीमसाः, दुर्बलाश्चासमर्था ये ते तथा / क्लान्ता ग्लानाः, तथा कासमाना रोगविशेषात्कुत्सितशब्दं कुर्वाणाः, व्याधिताश्च सजातकुष्ठादिरोगाः, आमेनापक्वरसेनाभिभूतानि गात्राण्यङ्गानि येषां ते तथा / प्ररूढानि वृद्धिमुपगतानि, वृद्धत्वेनासंस्काराद् नखके शश्मश्रुरोमाणि Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदत्तादाण 536 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अदत्तादाण येषां ते तथा। तत्र केशाः शिरोजाः, श्मश्रूणि कूर्चरोमाणि, शेषाणि तु रोमाणीति / (मलमुत्तम्मि त्ति) पुरीषमूत्रे निजके, (खुत्त त्ति) निमग्राः, तत्रैव चारकबन्धने मृताः अकामुकाः मरणेऽनभिलाषाः, ततश्च बद्ध्या पादयोराकृष्टाः, खातिकायां (छूट त्ति) क्षिप्ताः, तत्र तु खातिकायां, वृकशुनक्शृगालक्रोडमार्जारवृन्दस्य संदेशकतुण्डैः पक्षिगणस्य च विविधमुखशतै विलुप्तानि गात्राणि येषां ते तथा / कृता विहिता वृकादिभिरेव (विहग त्ति) विभागाः, खण्डशः कृता इत्यर्थः / केचिदन्ये - (किमिणाइ त्ति) कृमिवन्तश्च, कुथितदेहा इति प्रतीतम्। अनिष्टवचनैः शप्यमाना आक्रोश्यमानाः / कथम् ? इत्याहसुष्ठ कृतं, ततः कदर्थनमिति गम्यते। यदिति यस्मात् कदर्थनात्मृतः पाप इति / अथवा सुष्ठ कृतं सुष्ठु सम्पन्नं, यन्मृत एष पाप इति / तथा तुष्टन जनेन हन्यमानाः, लज्जामापयन्ति प्रापयन्तीति लज्जापनास्त एव कुत्सिताः लज्जापनकाः, लज्जावहा इत्यर्थः / ते च भवन्ति जायन्ते, न केवलमन्येषां, स्वजनस्यापि च दीर्घकालं यावदिति तथा मृताः सन्तः, पुनर्भरणानन्तरं, परलोकसमापन्नाः जन्मान्तरसमापन्नाः, निरये गच्छन्ति, कथंभूते ? निरभिरामे / अङ्गाराश्च प्रतीताः / प्रदीप्तकं च प्रदीपनकं च तत्कल्पस्तदुपमो योऽत्यर्थं शीतवेदनेनासातनेन कर्मणा उदीर्णानि उदीरितानि, सततानि अविच्छिन्नानि यानि दुःखशतानि तैः समभिभूतो यः स तथा तत्र / ततस्ततोऽपि नरकादुद्वृत्ताः सन्तः पुनः प्रपद्यन्ते तिर्यग्योनिम्, तत्रापि निरयोपमानामनुभवन्ति वेदनाम्, ते अनन्तरोदितादत्त-ग्राहिणः, अनन्तकालेन यदि नाम कथञ्चिन्मनुजभावं लभन्ते इति व्यक्तम् / कथम् ? इत्याह- नैकेषु बहुषु, निरयगतौ यानि गमनानि तिरश्चां च ये भवास्तेषां ये शतसहस्रसंख्यापरिवर्तास्ते तथा तेषु, अतिक्रान्तेषु सत्स्विति गम्यते। तत्रापि च मनुजत्वलाभे भवन्ति जायन्तेऽनार्याः शकयवनबब्बरादयः। किं भूताः? नीचकुल-समुत्पन्नाः, तथा आर्यजनेऽपि मगधादौ समुत्पन्ना इति शेषः / लोकबाह्या जनवर्जनीयाः, भवन्तीति गम्यम् तिर्यग्भूताश्च, पशुकल्पा इत्यर्थः / कथम् ? इत्याह- अकुशलास्तत्त्वेष्वनिपुणाः, कामभोगे तृषिता इति व्यक्तम् / (जहिं ति) यत्र नरकादिप्रवृत्तौ, न तु मनुजत्वं लभन्ते, यत्र निबध्नन्ति (निरयवत्तणि त्ति) निरयवर्तिन्यां नरकमार्गे, भवप्रपञ्चकरणेन जन्मप्राचुर्यकरणेन, (पणोल्लि त्ति) प्रणोदीनि तत्प्रवर्तकानि, तेषां जीवानामिति हृदयम् / यानि तानि तथा। अत्र द्वितीयाबहुवचनलोपो द्रष्टव्यः / पुनरपि आवृत्त्या संसारो भवो (नेम त्ति) मूलं येषां तथा, दुःखानीति भावः। तेषां यानि मूलानि तानि तथा, कर्माणीत्यर्थः। तानि निबध्नन्तीति प्रकृतम् / इह च मूला इति वाच्ये मूल इत्युक्तं प्राकृतत्वेन लिङ्ग व्यत्ययादिति। किं भूतास्ते मनुजत्वे वर्तमाना भवन्ति ? इत्याहधर्मश्रुतिविवर्जिताः धर्मशास्त्रविकला इत्यर्थः / अनार्या आर्येतराः, क्रूराः, जीवो-पघातोपदेशकत्वात् / क्षुद्राः, तथा मिथ्यात्वप्रधाना विपरीत-तत्त्वोपदेशकाः श्रुतिसिद्धान्ततां प्रपन्ना अभ्युपगताः, तथा ते च भवन्तीति / एकान्तदण्डरुचयः, सर्वथा हिंसनश्रद्धा इत्यर्थः / वेष्टयन्ते कोशिकाकारकीट इव, आत्मानमिति प्रतीतम् / अष्टकर्मलक्षणैस्तन्तुभिर्यद् धनं बन्धनम् / तथा एवमनेन आत्मनः कर्मभिर्बन्धनलक्षणप्रकारेण नरकतिर्यड्नरामरेषु यद् गमनं तदेव पर्यन्तचक्रवालं बाह्यपरिधेर्यस्य स तथा तम, संसारसागरं वसन्तीति सम्बन्धः। किं भूतम् ? इत्याह- जन्मजरामरणान्येव करणानि साधनानि यस्य तत्तथा, तच गम्भीरदुःखं चत्तदेव प्रक्षुभितं सञ्चलितं प्रचुर सलिलं | यत्र स तथा तम् / संयोगवियोगा एव- वीचयस्तरङ्गा यत्र स तथा / चिन्ताप्रसङ्गः चिन्तासातत्य, तदेव प्रसृतं प्रसरो यस्य स तथा। वधा हननानि, बन्धाः संयमनानि, तान्येव महान्तो दीर्घतया, विपुलाश्च विस्तीर्णतया, कल्लोला महोर्मयो यत्र स तथा; करुणविलपिते लोभ एव कलकलायमानो यो बोलो ध्वनिः स बहुलो यत्र स तथा। ततः संयोगादिपदानां कर्मधारयः। अतस्तम्। अवमाननमेवापूजनमेव, फेनो यत्र स तथा। तीव्रखिंसनं वाऽत्यर्थनिन्दा पुलपुलप्रभूता अनवरतोद्भूता या रोगवेदनास्ताश्च परिभूतविनिपातश्चपराभिभवसम्पर्कः, परुषधर्षणानि च निष्ठरवचननिर्भत्सितानि, समापतितानि समापन्नानि, येभ्यस्तानि तथा तानि च तानि कठिनानि कर्कशानि, दुर्भदानीत्यर्थः / कर्माणि च ज्ञानावरणादीनि, क्रिया वा, ये प्रस्तराः पाषाणाः, तैः कृत्वा तरङ्ग रिङ्गद् वीचिभिश्चलन, नित्यं धुवं, मृत्युश्च भयं चेति त एव वा तोयपृष्ठ जलोपरितनभागो यत्र स तथा / ततः कर्मधारयः / अथवा- अपमानेन फेनेन, फेनमिति तोयपृष्ठस्य विशेषणम् / अतो बहुव्रीहिरेव अतस्तम्। कषाया एव पातालाः पातालकलशास्तैः संकुलो यः स तथा तम्। भवसहस्राण्येय जलसञ्चयस्तोयसमूहो यत्र स तथा तम् / पूर्व जननादिजन्यदुःखस्य सलिलतोक्ता, इह तु भवानी जननादि-धर्मवतां जलविशेषसमुदायतोक्ते ति न पुनरुक्तत्वम् / अनन्तमक्षयं, उद्वेजनकमुद्रेगकरम्, अनर्वाक्पारं विस्तीर्णस्वरूपम्, महाभयादिविशेषणत्रयमेकार्थम्। अपरिमिता अपरिमाणा ये महेच्छा बृहदभिलाषा लोकास्तेषां कलुषाऽविशुद्धा या मतिः सा एव वायुवेगस्तेन (उसम्ममाण त्ति उत्पाट्यमानं यत्तत्तथा / तस्य आशा अप्राप्तार्थसम्भावनाः, पिपासा प्राप्तार्थकाङ्गाः, त एव पातालाः पातालकलशाः, पातालं व समुद्रजलतलं, तेभ्यस्तस्माद्वा कामरतिः शब्दादिष्वभिरतिः रागद्वेषबन्धनेन च बहुविध-संकल्पाश्चेति द्वन्द्वः / तल्लक्षणस्य विपुलस्योदकरजस उदकरणोर्यो रयो वेगस्तेनान्धकारो यः स तथा तम्। कलुषमतिवातेनाऽऽशादिपातालाद्युत्पाद्यमानकामरत्याधुदकरजोरयोऽन्धकारमित्यर्थः / मोह एव महावर्तो मोहमहावर्तः, तत्र भोगा एव कामा एव, भ्राम्यन्तो मण्डलेन सञ्चरन्तो, गुप्यन्तो व्याकुलीभवन्त उद्वलन्त उच्छलन्तो, बहवः प्रचुराः गर्भवासे मध्यभागविस्तरे, प्रत्यवनिवृत्ताश्च उत्पत्य निपतिताः, प्राणिनो यत्र जले तत् तथा / तथा प्रधावितानि इतस्ततः प्रकर्षण गतानि यानि व्यसनानि तानि समापन्नाः प्राप्ता येते। पाठान्तरेण-बाधिताः पीडिता ये व्यसनसमापन्ना व्यसनिनः, तेषां हृदि यत् प्रलपितं तदेव चण्डमारुतस्तेन समाहतममनोज्ञ वीचिव्याकुलितं भङ्गैस्तरङ्गैः, स्फुटन् विदलन्, अनिष्टस्तैः कल्लोलैर्महोर्मिभिः संकुलं च जलं तोयं यत्र स तथा तम्। मोहावर्तभोगरूपभ्राम्यदादिविशेषणप्राणिकं व्यसनमापन्नरुदि-तलक्षणदण्डमारुतसमाहतादि विशेषणंजलंयत्रेत्यर्थः / प्रमादा मद्यादयः,तएव बहवश्चण्डा रौद्राः, दुष्टाः क्षद्राः, श्वापदा व्याघ्रादयः, तैः समाहता अभिभूताये (उदायमाणग ति) उत्तिष्ठन्तो (विविधचेष्टासु) समुद्रपक्षे मत्स्यादयः, संसारपक्षे पुरुषादयः, तेषां यः पूरः समूहस्तस्य ये घोरा रौद्रा विध्वंसनार्था विनाशलक्षणाः, अनर्था अपायाः, तैर्बहुलोयत्र स तथा। अज्ञानान्येव भ्रमन्तोमत्स्याः (परिदक्ख त्ति) दक्षा यत्र स तथाते। अनिभृतान्युपशान्तानि यानीन्द्रियाणि, अनिभृतेन्द्रिया वा ये देहिनस्तान्येव, त एव वा, महामकरास्तेषां यानि त्वरितानि शीघ्राणि, चरितानि चेष्टानि, तैरेव (खोक्खुब्भमाणत्ति) भृशक्षुभ्य Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदत्तादाण 537 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अदत्तादाण माणो यः स तथा / सन्तापः, एकत्र शोकादिकृतः, अन्यत्र वाडवाग्रिकृतो नित्यं यत्र स सन्ताप-नित्यकः / तथा चलन् चपलश्वञ्चलश्च यः स तथा, अतिचपल इत्यर्थः / स च अत्राणानामशरणानां पूर्वकृतकर्मसञ्चयानां, प्राणिनामिति गम्यम्। यदुदीर्णं वयं पापंतस्य यो वेद्यमानो दुःखशतरूपी विपाकः स एव घूर्णश्च भ्रमन्जलसमूहोयत्र सतथा / ततोऽज्ञानादिपदानां कर्मधारयः। अतस्तम्। ऋद्धिरससातलक्षणानि यानि गौरवाण्यशुभाध्यवसायविशेषाः, त एवापहारा जलचरविशेषाः, तैहीता ये कर्मसंनिबद्धाः सत्त्वाः, संसारपक्षे ज्ञानावरणादिबद्धाः, समुद्रपक्षे विचित्रचेष्टाप्रसक्ताः। (कड्डिज-माण त्ति) आकृष्यमाणा नरक एव तल पातालं (दुत्तं ति) तदभिमुखं सन्ना इति सन्नकाः खिन्नाः, विषण्णाश्च शोकिताः, तैर्बहुलो यः स तथा। अरतिरतिभयानि प्रतीतानि। विषादो दैन्यं,शोकस्तदेव प्रकर्षाव-स्थम्। मिथ्यात्वं विपर्यासः,एतान्येव शैलाः पर्वतास्तैः सङ्कटो यः स तथा / अनादिसन्तानो यस्य कर्मबन्धनस्य तत्तथा, तच्चलेशाश्च रागादयस्तल्लक्षणं यत् चिक्खिल्लं कर्दमस्तेन दुष्ठु दुरुत्तारो यः स तथा। ततःसऋद्धीत्यादिपदानां कर्मधारयः, अतस्तम्। अमरनरतिर्यगगतौ यद्रमनं सैव कुटिलपरिवर्ता चक्रपरिवर्तना, विपुला विस्तीर्णा, वेला जलवृद्विलक्षणा, यत्र स तथा तम्। हिंसाऽलीकादत्तादानमैथुनपरिगृहलक्षणा ये आरम्भा व्यापाराः, तेषां यानि करणकारणानुमोदनानि तैरष्टविधमनिष्टं यत्कर्म पिण्डितं सञ्चितं, तदेव गुरुभारस्तेनाक्रान्ता येते तथा, तैदुर्गाण्येव व्यसनान्येव यो जलौघस्तेन दूरमत्यर्थं, निचोल्यमानैः निमज्जमानैः, (उम्मग्गनिमग त्ति) उन्मग्ननिमगैरूवा॑ऽधो-जलगमनानि कुर्वाणैः, दुर्लभंतलं प्रतिष्ठानं यस्य स तथा तम्। शरीरमनोमयानि दुःखानि उत्पिबन्त आसादयन्तः, सातंच सुखम्, असातपरितापनं च दुःखजनितोपतापः, एतन्मयमेतदात्मकम्, (उव्वुडुनिव्वुड्डयं ति) उन्मग्रनिमनत्वं कुर्वन्तः। तत्र सातमुन्मनत्वमिव, असातपरितापनं निमनत्वमिवेति / चतुरन्तं चतुर्विभागं दिग्भेदगतिभेदाभ्यां महान्तं प्रतीतम्, कर्मधारयोऽत्र दृश्यः / अनवदग्रमनन्तं, रुद्रं विस्तीर्ण, संसारसागरमिति प्रतीतम्। किंभूतम् ? इत्याहअस्थितानां संयमाव्यवस्थितानाम-विद्यमानमालम्बनं प्रतिष्ठानं च त्राणकारणं यत्र स तथा तम् अप्रमेयमसर्ववे दिनाऽपरिच्छेद्यं, चतुरशीतियोनिशतसहस्रगुपिलम्, तत्र योनयो जीवानामुत्पत्तिस्थानानि, तेषां चासंख्यातत्वेऽपि समवर्णगन्धरसस्पर्शानामेकत्वविवक्षणा-दुक्तसंख्यया अविरोधित्वं द्रष्टव्यम्। तत्र गाथा - "पुढवि '7 दग 7 अगणि 7 मारुय 7, एक्कक्के सत्त जोणिलक्खाओ। वणपत्तेय 10 अणंते १४,दसचोद्दस जोणिलक्खाओ॥१॥ विगलिंदिएसुदोदो, चउरो चउरो नारय-सुरेसु / तिरिएसु हुंति चउरो, चोद्दस लक्खा य मणुएसु" || इति / अनालोकानामज्ञानमन्धकारो यः स तथा तम्। अनन्तकालमपर्यवसितकालं यावत्, नित्यं सर्वदा, उत्त्रस्ता उद्गतत्रासाः, शून्याः इतिकर्तव्यतामूढाः, भयेन संज्ञाभिश्च आहारभयमैथुनपरिग्रहादिभिः, संप्रयुक्ता युक्ताः / ततः कर्मधारयः / वसन्ति अध्यासते, संसारसागरमिति प्रकृतम् / इह च वसेनिरुपसर्गस्यापि कर्मत्वं संसारस्य, छान्दसत्वादिति / किं भूतं संसारम् ? उन्निमग्नानां वासस्य वसनस्य वसतिस्थानं यः स तथा तम्।। तथा यत्र यत्र ग्रामकुलादौ आयुर्निबध्नन्ति पापकारिण-चौर्यविधायिनः, तत्र तत्रेति गम्यते / बान्धवजनादिवर्जिता भवन्तीति क्रियासम्बन्धः / बान्धवजनेन भ्रात्रादिना, स्वजनेन पुत्रादिना, मित्रैश्च सुहृद्भिः परिवर्जिता | ये ते तथा / अनिष्टाः, जनस्येति गम्यते, भवन्ति जायन्ते / अनादेयदुर्विनीता इति प्रतीतम् / कुस्थानासनशय्याश्च ते, कुभोजिनश्चेति समासः / (असुइणो त्ति) अशुचयोऽश्रुतयः, कुसंहननाः छेदवा संहननयुक्ताः, कुप्रमाणा अतिदीर्धा अतिहस्वा वा, कुसंस्थिता हुण्डादिस्थानाः / इति पदत्रयस्य कर्मध रयः / कुरूपाः कुत्सितवर्णाः बहुक्रोधमानमायालोमा इति प्रतीतम् / बहुमोहा अतिकाना अत्यर्थाज्ञाना वा, धर्मसंज्ञाया धर्मबुद्धेः, सम्यक्त्वाच्च ये परिभ्रष्टास्ते तथा / दारिद्र्योपद्रवाभिभूताः, नित्यं परकर्मकारिण इति प्रतीतम् / जीव्यते येनार्थेन द्रव्येण तद्रव्यरहिता ये ते तथा / कृपणा रङ्काः, परपिण्डतर्ककाः परदत्तभोजनगवेषकाः, दुःखलब्धाहारा इति व्यक्तम्। अरसेन हिङ्ग्वादिभिरसंस्कृतेन, विरसेन पुराणादिना, तुच्छेन अल्पेन, भोजनेनेति गम्यते। कृतकुक्षिपूरा यैस्ते तथा। तथा परस्य संबन्धिनं प्रेक्ष्यमाणाः। पश्यन्ति किम्? इत्याह- ऋद्धिः सम्पत्, सत्कारः पूजा, भोजनमशनम्, एतेषां ये विशेषाः प्रकाराः, तेषां यः समुदायः, उदयवर्तित्वं वा, तस्य यो विधिर्विधानमनुष्ठानं, स तथा तम् / ततश्च निन्दन्तो जुगुप्समानाः, (अप्पकं ति) आत्मनं, कृतान्तं च दैवं, तथा परिवदन्तो निन्दन्तः, कानि? इत्याह (इह य पुरे कडाई कम्माई पावगाइं ति) इहैवमक्षरघटनापुराकृतानि च जन्मान्तरकृतानि कर्माणि इह जन्मनि पापकान्यशुभानि / क्वचित्पापकारिण इति पाठः / विमनसो दीनाः, शोकेन दह्यमानाः, परिभूता भवन्तीति सर्वत्र संबन्धनीयम् / तथा सत्त्वपरिवर्जिताश्च (छोभ त्ति) निस्सहायाः क्षोभणीया वा, शिल्पचित्रादिकला धनुर्वेदादिः, समयशास्त्रम्जैनबौद्धादिसिद्धान्तशास्त्रम्, एभिः परिवर्जिता ये ते तथा / यथाजातपशुभूताः शिक्षाऽऽभरणा-दिवर्जितबलीवादिसदृशाः, निर्विज्ञानत्वादिसाधात्। (अवियन्न त्ति) अप्रतीत्युत्पादकाः, नित्यं सदा, नीचान्यधमजनोचितानि, कर्माण्युपजीवन्ति तैर्वृत्तिं कुर्वन्ति येते तथा। लोककुत्सनीया इति प्रतीतम्। मोहाद् ये मनोरथा अभिलाषास्तेषां ये निरासाः क्षेपास्तैर्बहुला ये ते तथा / अथवा- मोघमनोरथा निष्फलमनोरथाः, निराशबहुलाश्च आशाऽभावप्रचुरा येते तथा। आशा इच्छाविशेषः, सैव पाशो बन्धनं तेन प्रतिबद्धाः संरुद्धाः, निर्यान्त इति गम्यम् / प्राणा येषां ते तथा / अर्थोत्पादानं द्रव्यार्जनं, कामसौख्यं प्रतीतम्, तत्रचलोकसारे लोकप्रधाने, भवन्ति, जायन्ते, (अफलवंतगा यत्ति) अफलवन्तः अप्राप्तका इत्यर्थः / लोकसारता चतयोः प्रतीता। यथाहुः- "यस्यार्थस्तस्य मित्राणि, यस्यार्थस्तस्य बान्धवाः। यस्यार्थः सपुमाँल्लोके, यस्यार्थः स च पण्डितः" ||1|| इति। तथा- "राज्ये सारंवसुधा, वसुन्धरायांपुरंपुरेसौधम्। सौधेतल्पंतल्पे, वराङ्गनाऽनङ्गसर्वस्वम्" ||1|| इति। किं भूताः, अपीत्याह- सुष्ठ्यपि च (उज्जच्चंत त्ति ) अत्यर्थमपि च प्रयतमानाः। उक्तं च - "यद्यदारभते कर्म, नरो दुष्कर्मसंचयात् / तत्तद्विफलतां याति, यथा बीजं महोषरे" ||1|| तदिवसं प्रतिदिनमुद्यक्तैरुद्यतैः सद्भिः कर्मणो व्यापारेण कृतेनयो दुःखेन कष्टन संस्थापितो मीलितः सिक्थानां पिण्डस्तस्यापि सञ्चये पराः प्रधाना ये ते तथा। क्षीणद्रव्यसारा इति व्यक्तम् / नित्यं सदा अधुवा अस्थिराः, धनानामणिमादीनां,धान्यानां शाल्यादीनां, कोशा आश्रया येषां स्थिरत्येऽपि तत्परिभोगेन वर्जिताश्च ये ते तथा। रहितं त्यक्तं कामयोः शब्दरूपयोः भो गानां च गन्धर Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदत्तादाण 538- अभिषानराजेन्द्रः - भाग 1 अदत्तादाण सस्पर्शानां परिभोगे आसेवने यत्तत् सर्वसौख्यमानन्दो यैस्ते तथा। परेपां यौ श्रियाः भोगोपभोगौ तयोर्यन्निश्राणं निश्रा, तस्य मार्गणपरायणा गवेषणपराः, ये ते तथा।तत्र भोगोपभोगयोरयं विशेषः - "सइ भुञ्जइ त्ति भोगो, सो पुण आहारपुप्फमाईओ। उवभोगो उ पुणो पुण, उवभुजइ वत्थनिलयाई"||१| इति। वराकास्तपस्विन अकामिकया अनिच्छया, विनयन्ति प्रेरयन्ति, अतिवाहयन्तीत्यर्थः / किं तत् ? इत्याहदुःखमसुखं, नैव सुखं, नैव निर्वृति स्वास्थ्यमुपलभन्ते प्राप्नुवन्ति, अत्यन्तविपुल-दुःखशतसंप्रदीप्ताः परस्य द्रव्येषु ये अविरता भवन्ति, ते नैव सुखं लभन्त इति प्रस्तुतम् तदैव यादृशं फलं ददाति तादृशमभिहितम् / अधुनाऽध्ययनोपसंहारार्थमाह (एसो सो) इत्यादि सर्वं पूर्ववत् / प्रश्न०३ आश्र० द्वा०। (पञ्चमं ये च कुर्वन्तीति द्वारं तृतीयद्वारेण सहैवोक्त-मिति न पृथगुक्तम्)। (अदत्तादानस्य द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदाः "अदत्तादाणवेरमण" शब्देऽनुपदमेव वक्ष्यते) (5) आचार्योपाध्यायादिभ्योऽदत्तादाननिरूपणम् - जे मिक्खू आयरियउवज्झाएहिं अवादिणं गिरं आइयति, आइयंत वा साइज्जइ // 25 // गिर त्ति वाणी वयणं, तं पुण सुत्ते चरणे वा जातं आय-रियउवज्झाएहिं अदत्तं गेण्हति, तत्थ सुत्ते एकं, अत्थे दो, चरणमूलुत्तरगुणेसु अणेगविहं पच्छित्तं। दुविहमदत्ता उ गिरा, सुत्ते अत्थे तहेव चारित्ते। सुत्तत्थेसु सुयम्मी, मासा दोसे चरित्तम्मि॥२१६|| एति णियगारवेणं, बहुसुत्तमतेण अण्णतो वा वि। गंतुं अपुच्छमाणो, उभयं अण्णावदेसेणं // 217 / / जा सुत्ते गिरा, सादुविधा- सुत्ते, अत्थेवा। चरणे सा साव-जदोसजुत्ता भासा / कहं पुण सोऽदिण्णं आइयत्ति ? उच्यते- (एति णिय) गाहा। तस्स किंचि सुत्तत्थं संदिट्ठ, सो सव्वं एति णिउहंति गारवेणइमेण पुच्छति, सीसत्तं वा न करेइ, बहुसुओ वाऽहं भणामि कहमण्णं पुच्छिस्सं ? एवमादिगारवट्ठितो अण्णतो वि ण गच्छति, गतो वा ण पुच्छति, ताहे जत्थ सुत्तं अत्थाणि वा इज्जति तत्थ चिलिमिलिकुडंकडंतरिओ या वि अण्णावदेसेण वा गतागतं करेंतो सुणेति, उभयं पि अण्णावदेसेण। एसा सुत्त अदत्ता, होति चरित्तम्मि जा स सावञ्जा। गारत्थियभासा वा, दट्टर पलिओ विसावा वि॥२१८|| चरित्ते दट्ठरं ससरं करेति, आलोयणकाले पलिओ, सेति कताकते वा अस्थि पलिओ वित्ति, सेसं कंठं। बितिओ विय आएसो, तवतेणादीणि पंच तु पदाणि। जे मिक्खू आदियती, सो खमओ आम मोणं वा / / 21 / / तवतेणे वयतेणे, रूपतेणे य जे नरे / आयारभावतेणे य, कुव्वइ देवकिव्विसं // 1 // एतेसिं इमा विभासा, (खमओ) गाहा-से भावदुब्बलो भिक्खागओ, अण्णत्थ वा पुच्छिओ सो-तुमखमओ त्ति भंते ! ताहे सो भणाति-आम, मोणेण वा अत्थति / अहवा भणाति-को जतीसु खमणं पुच्छवइ ? तेणे त्ति तुमं, सो धम्मकहीओ दीणे मित्तिओ गणी वायगो वा। पच्छ वि भणाति आमं, तुहीको वावि पुच्छति जतीणं / धम्म कहिवादिवयणे, रूवेणीयल्ल पडिमाए।।२२०॥ भणाति रूवे-तुम अम्ह सयणोऽसि, अहवा तुम सो पडिम पडिवण्णमासी, एत्थेव तहेव तुण्हिकादि अत्थति। बाहिरठवाणवलिओ, परपञ्चयकारणा उ आयारे। माहुरुदाहरणं तह,सावे गोविंदपव्वजा / / 221 / / आयारतेणे महुराकोडेइल्ला उदाहरणं, ते भावसुण्णा परुप्पत्तिणिमित्तं बाहिरकिरिया सुळु उजुत्ता जे, ते आयारतेणा / भावतेणो जहागोविंदवायगो वादे णिजिओ, सिद्धतहरणट्टयाए पव्वयमज्झुवगतो पच्छा सम्मत्तं पडिवण्णो। एवमादि गिराणं अदित्ताणं णो गहणं कायव्वं, पक्कता वयणभंसो कतो भवति / मुसावादिया य वयणभंसदोसाएतेसामण्णतरे, गिरि अदत्तं तु आदिया जे तु। सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं पावे // 222|| कंठ्या / आवण्णसट्ठाणं ण पच्छित्तं, ते अदत्तं पि आदिएज्ज। बितियपदमणप्पज्झे, आदिएँ अवि को विते व अप्पज्झे। दुद्दाइसंजमट्ठा, दुल्लभदव्वेणऽजाणंता / / 223|| खेत्तादिचित्तो वा आइएज, सेहो वा अजाणतो (दुद्दाइ त्ति) उपसंपण्णाण वि न देइ, तस्स उवसंपण्णो अणुवसंपण्णो वा जत्थ गुणेइ, वक्खाणेइ वा, कस्स वि तत्थ कुटुंतरिओ सुणेति, गयागयं वा करेंतो संजमे हेउं वत्ति। अत्थितो कइमियादिट्ठति, पुच्छिओ दिट्ठो विन दिट्ठति, भणेजा जत्थवा संजयभासा ते भासिज्जमाणा सागारिगा संजयभासाओगेण्हेजा, तत्थ अविदिण्णा ते गार-त्थिगभासाए भासेज्जा / आयरियस्स गिलाणस्स वा, सयपागेण वा, सहस्सपागेण वा दुल्लभदव्वेण कजं तदवाणिमित्त पउंजेज अण्णं वा किंचि संथववयण भणेज्न / तदवावेव तेणादि वा पंचपदे भणेजा। नि० चू० 16 उ० / “अदिन्नादाणं सुहुमं, बादरं च / तत्थ सुहुमं तणडगलछारमल्लगादीणं गहणे / बादरं हिरण्णसुवण्णादि। महा०३ अ०। स्वाम्यदत्तादिस्वामिजीवतीर्थकरगुर्वदत्तभेदेनादत्तं चतुर्विधम् / तत्र स्वाम्यदत्तं तृणोपलकाष्ठादिकम्, तन्न स्वामिना दत्तम् 1 जीवादत्तं यत्स्वामिना दत्तमपि जीवेनादत्तम्, यथा प्रव्रज्यापरिणामविकलो मातापितृभ्यां पुत्रादिगुरुभ्यो दीयते स तीर्थकरादत्तं यत्तीर्थकरैः प्रतिषिद्ध-माधाकर्मादि गृह्यते 3 / गुर्वदत्तं नाम स्वामिना दत्तमाधाकर्मादि-दोषरहितं गुरूनननुज्ञाप्य यद् गृह्यते 4 / इति चतुर्विधस्याप्यत्र परिहारः। इत्युक्तं तृतीयं व्रतम्। ध०३ अधि०। चित्तमंतमचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बहुँ। दंतसोहणमित्तं पि, उग्गहं सि अजाइया / / 14|| चित्तवद् द्विपदादि, अचित्तवद्धिरण्यादि; अल्पं वामूल्यतः, प्रमाणतश्च / यदि वा बहु-मूल्यप्रमाणाभ्यामेव / किं बहुना ? दन्तशोधनमात्रमपि तथाविधं तृणादि अवग्रहे यस्य तत्तमयाचित्या न गृह्णन्ति साधवः, कदाचनेति सूत्रार्थः। दश०६ अ०। (6) लघुस्वकमदत्तं गृह्णाति - जे भिक्खू लहु सयं अदतं आदियति, आदियंतं का साइजइ॥१६॥ Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदत्तादाण ५३९-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अदत्तादाण लहु थोवं, अदत्तं तेणं, आदियणं गहणं, साइज्जणा अणुमोयणा, मासलहु पच्छित्तं। तं अदत्तं दव्वादि चउव्विहं - दव्वे खेत्ते काले, भावे लहुसगं अदत्तं तु। एतेसिंणाणत्तं,वोच्छामि अहाऽऽणुपुव्वीए॥७१।। दव्वखेत्तकालाणं गहणं, साइज्जणा अणुमोयणा, मासलहू पच्छित्तं, तं अदत्तं दव्वादिहिं चउविहं। दव्वखेतकालाणं इमं वक्खाणंदव्वे कडणादिएसु, खेत्ते उच्चारभूमिमादीसु। काले इत्तरियमवी, अद्धाइ तु चिट्ठमादीसु // 72 / / वणस्सतिभेओ इक्कडालादीणं पसिद्धो, कटणो वंसो, आदिग्गहणाओ अवलेहणिया, दारुदंडपादपुंछणमादि, एते अणणुन्नाते गेण्हति। खेत्तओ अदत्तं गेण्हति उच्चारभूमि, आदिग्गहणाओ पासवणलाओ अणिल्लेवणभूमीए अणणुन्नवित्ता उच्चारादी आयरइ / खित्तओ अदत्तं गतं। काले इत्वरं स्तोक अणणुन्नं चिट्ठति। भिक्खादि हिंडतो जाव वासं वसति वितिच्छं वा पडिच्छति, अद्धाणे वा अणणुन्नवेत्ता रुक्खहेट्ठाइसु चिट्ठति निसीयति, तुयदृति वा, दव्वाइसु विमासलहुँ। इदाणी भावे अदत्तं - भावे पाओगस्सा, अणणुण्णवणा तु तप्पढमताए। ठायंते उडुबद्धे, वासाणं वुड्डवासे य।।७३|| उडुबद्ध वासासुवा, वुड्ढावासे वा, तप्पढमयाए पाओगाऽणणुण्णवणभावेण परिणयस्स दव्वादिसु चेव भावओ लहु अदत्तं, अदुवा साहु वुड्डेसु जं जेसुजं जोग्गं पाउग्गं भण्णति। लहुसमदत्तं गेण्हंतस्स को दोसो?, इमो - एतसामण्णतरं, लहुसमदत्तं तु जो तु आदियइ। सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं पावे ||7|| कारणतो गेण्हतो अपच्छित्ती, अदोसो य। अद्धाण गेलण्णे ओमऽसिवे गामाणुगामिमतिवेला। तेणासावयमसगा, सीतं वासंदुरहियासं|७|| अद्धाणाओ णिग्गता परिसंता गामं वियाले पत्ता, ताहे अणुण्णवितं इक्कडादि गेण्हेन्ज / वसहीए वि अणुण्णवियाए ठाएज, आगाढगेलण्णे तुरियकजे खिप्पमेव अणुण्णवितं गेण्हेज, ओमोदरियाए भत्तादि अदिण्णं सयमेव गेण्हेज। असिवगाहिताणंण को विदेइ,ताहे अदिण्णं संथारगादि गेण्हेज / गामाणुगामं दूइज्जमाणा वियाले गाम पत्ता / जइ य वसही ण लब्भति, ताहे बाहिं वसंतु, मा अदत्तं गेण्हंतु / अह बाही दुविहातेणाऽसिवादि वा सावयमसगेहिं वा खिजिजति, सीयं वा दुरहियासं, जहा उत्तरावहे अणवरतं वासं पडति। एतेहिं कारणेहिं, पुव्वउ घेत्तु पच्छऽणुण्णवणा। अद्धाण णिग्गतादी, दिट्ठमदिटे इमं होति // 76 / / एतेहिं तेणादिकारणेहिं वसहिसामीए दिढे अणुण्णवणा, अदितु अद्धाण णिग्गयादी, सयणसमोसिगाइं अणुण्णवेत्तुं घरसामिणा अदिण्णं घेत्तुं घरसामियमणुण्णवेति इमेण विहाणेण पडिलेहणऽणुण्णवणा, अणुलोमणफरुसणा य अहियासो। अतिरिचमिदायणणिग्गमणे वा दुविधभेदो य।७७|| पडिलेहण त्ति। अस्य व्याख्या - अब्भासत्थं गंतू-ण पुच्छणा दूरपत्तिमा जतणा। तद्दिसमेत्तपडिच्छण-पत्तम्मि कहिंति सब्भावं / / 78|| सो घरसामी जदि खेत्तं खलगं वा गते जदि अन्भासतो गंतुं अणुण्णविज्जति। अह दूरं गतो ताहे संघाडओ णाम विधेजाहिं। आगमे तं दिसं अदूरं गंतुंपडिक्खतिजाहे साहू समीवं पत्तोताहे अणुलोमवयणेहि पण्णविज्जति। अणुसासणं सजाती, स जाति मणुख त्ति तह वितु अटुंते / अभिउग्गणिमित्तं वा, बंधणगा से य ववहारो ||7|| जहा गोजातिमंडलचुओ गोजातिमेव जाति, आसपणे वि णो महिस्सादिसु ठिति करेति। एवं चयं पि माणुसा माणुसमेव जामो। जदि तह विण देति, फरुसाणि वा भणति, ताहे सो फरुसं ण भण्णति, अधियासिज्जइ / जइ तह वि णिच्छभेज्ज, ततो विज्जाए, चुण्णेहिं वा वसी कजति, णिमित्तेण वा आउंटाविज्जति। तस्स असति रुक्खमादिसु बाहिं वसंतु, मा य तेण समाणं कलहेतु। अह बाहिं दुविहभेओ-आयसंजमाणं वाकरणसरीराणं वा संजम-चरित्ताणं वापण्णवणं व अतिरिचते,लघत इत्यर्थः / ताहे भण्णति-अम्हे सहामो, ज एस आगतिमं सोएस रायपुत्तो ण सहिस्सति, एस वा सहस्सजोधी, सो वि कयकरणो किंचि करणं दएति, जहाति / जहा- विस्सभूतिणा पुट्ठिप्पहारेण खंधम्मि कविट्ठा पाडिया एस दायणा, तह वि अट्ठायमाणे बंधिउंउवेंति, जाव पभायं सोय जइ रायकुलं गच्छति, तत्थ तेण समाणं ववहारो कजति, कारणियाणं आगतो भणति-अम्हेहिं रायहियं आचिटुंतेहिं मुसित्ता सावएहिं वा खज्नं वा, तो रण्णो अभिहियंअयसो य भवंतो परकृतनिलयाश्च तपस्विनः, रायरक्खियाणि यतपोवणाणि, ण दोसे त्ति। नि० चू०२ उ०। लघुकादत्तं पुनः, अननुज्ञापिततृणलेष्टुक्षारमल्लकालिकवृक्षा दिच्छायविश्रमणादिविषयम् / जीत०। (7) गृहादौ तपस्तैन्यादि न कुर्वीत - तवतेणे वयतेणे, रूवतेणे अजे नरे। आयारभावतेणे अ, कुव्वई देवकिविसं // 46|| तपस्तेनः, वास्तेनः, रूपस्तेनस्तु यो नरः कश्चिद्, आचारभावस्तेनश्व पालयन्नपि क्रिया तथा भावदोषात्किल्विषं करोति किल्विषिकं कर्म निवर्तयतीत्यर्थः / तपस्तेनो नाम क्षपक-रूपकतुल्यः कश्चित्केनचित् पृष्ठस्त्वमसौ क्षपक इति ? स पूजाद्यर्थमाह- अहम् / अथवा वक्ति-साधव एव क्षपकाः / तूष्णीं वाऽऽस्ते / एवं वास्तेनो धर्मकथकादितुल्यरूपः कश्चित्केनचि-त्पृष्ट इति / एवं रूपस्तेनो राजपुत्रादितुल्यरूपः / एवमाचारस्तेनो विशिष्टाचारवत्तुल्यरूप इति / भावस्तेनस्तु-परोत्प्रेक्षितं कथञ्चित् किञ्चित् श्रुत्वा स्वयमनुत्प्रेक्षितमपि मयैतत्प्रपञ्चेन चर्चित-मित्याहेति सूत्रार्थः। अयं चेत्थंभूतःलद्भूण वि देवत्तं, उवउन्नो देवकिव्विसे। Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदत्तादाण 540 - अभिषानराजेन्द्रः - भाग 1 अदत्तादाणवेरमण तत्था वि से न जाणइ, किम्मे किच्चा इमं फलं |7|| लब्ध्वाऽपि देवत्वं तथाविधक्रियापालनवशेन उपपन्नो देव-किल्विषे देवकिल्विषकाये तत्राप्यसौ न जानात्यविशुद्धावधिना किं मम कृत्वा इदं फलं किल्विषिकदेवत्वमिति सूत्रार्थः। अत्रैव दोषान्तरमाहतत्तो वि से चइत्ता णं, लब्भिही एलमूअयं / नरगं तिरक्खजोणिं वा, बोही जत्थ सुदुल्लहा / / 48|| ततोऽपि दिवलोकादसौ च्युत्वा लप्स्यत एलमूकतामजभाषाऽनुकारित्वं मानुषत्वे, तथा नरकं, तिर्यग्योनि वा, पारम्पर्येण लप्स्यते / बोधिर्यत्र सुदुर्लभः | सकलसम्पन्निबन्धना यत्र जिनधर्मप्राप्तिर्दुरापा / इह च प्राप्नोत्येलमूकतामिति वाच्ये असकृद्भावप्राप्तिख्यापनाय लप्स्यत इति भविष्यत्कालनिर्देशः / इति सूत्रार्थः / दश० 5 अ०२ उ०। (अदत्तादानस्य दर्पिका कल्पिका च प्रतिसेवा स्वस्थान एव वक्ष्यते) (शब्दादिविषयगृद्धौ अदत्तादानमापतितमिति उत्त०३२ अध्ययने दर्शितमन्यत्र वक्ष्यते) (साधर्मिकादिस्तैन्यं "अणवट्ठप्प" शब्देऽस्मिन्नेव भागे 296 पृष्ठे दर्शितम्) अदत्ता (दिण्णा) दाणकि रिया-स्त्री० (अदत्तादानक्रिया) आत्माद्यर्थमदत्तग्रहणे, स्था०५ ठा०२ उ० / स्वामिजीवगुरुतीर्थकरादत्तग्रहणे, ध० 3 अधि०। अदत्ता (दिण्णा) दाणवत्तिय-पुं० न० (अदत्तादानप्रत्ययिक) अदत्तस्य परकीयस्यादानं स्वीकरणमदत्तादानंस्तेयं, तत्प्रत्ययिको दण्डः। एतच सप्तमे क्रियास्थाने, सूत्र०। अहावरे सत्तमे किरियाठाणे अदिन्नादाणवत्तिए त्ति आहिज्जइ, से जहाणामए केइ पुरिसे आयहेउं वा० (णाइहेउं वा अगारहेउं वा) वा जाव परिवारहेउवा सयमेव अदिन्नं आदियइ, अन्नेणं वि अदिन्नं आदियावेति, अदिन्नं आदियंतं अन्नं समणुजाणइ, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जं ति आहिज्जइ, सत्तमे किरियाठाणे अदिन्नादाणवत्तिएत्ति आहिए। एतदपि प्राग्वद् ज्ञेयम् / तद्यथा नाम कश्चित्पुरुष आत्मनिमित्तं (ज्ञातिनिमित्तम, अगारनिमित्त) यावत्परिवारनिमित्तं पर-द्रव्यमदत्तमेव गृह्णीयात्, अपरं च ग्राहयेद्, गृह्णन्तमप्यपरं सम-नुजानीयादित्येवं तस्यादत्तादानप्रत्ययिकं कर्म संबध्यते / इति सप्तमं क्रियास्थानमाख्यातमिति। सूत्र०२ श्रु०२ उ० आ० चू०प्र०व०। स्था०। अदत्ता (दिण्णा)दाणविरइ-स्त्री० (अदत्तादानविरति) परद्रव्यहरणविरतौ, महा०७ अ०। अदत्ता (दिण्णा) दाणवेरमण-न० (अदत्तादानविरमण) अदत्तादानाद् विरमणमदत्तादानविरमणम् / स्वाम्याद्यनुज्ञातं प्रत्याख्यामीति स्तेयविरतिरूपे व्रतभेदे, प्रश्न० 3 संव० द्वा० / तत्र स्थूलकाऽदत्त प्रत्याख्यानं तृतीयमणुव्रतं, सर्वाऽदत्तप्रत्याख्यानं तृतीयं महाव्रतमिति। / तत्र स्थूलकादत्तविरमणमित्थम् - "तदाऽणंतर चणं थूलग अदिण्णादाणं पञ्चक्खामि। दुविहं तिविहेणं, ण करेमि, ण कारवेमि, मणसा वयसा कायसा"। स्थूलकमदत्तादानं चौर इति व्यपदेशनिबन्धनम्। उपा० 1 अ० / थूलगमदत्तादाणं समणोवासओ पचक्खाइ, से अदिन्नादाणे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा- सचित्तादत्तादाणे, अचित्तादत्तादाणे अ1 अदत्तादान द्विविधम् - स्थूल, सूक्ष्म च / तत्र परिस्थूलविषय चौर्यारोपणहेतुत्वेन प्रसिद्धमिति दुष्टाध्यवसायपूर्वकं स्थूलम्, विपरीतमितरत्, स्थूलमेव स्थूलकं, स्थूलकं च तत् अदत्तादानं चेति समासः / तच्छ्रमणोपासकः प्रत्याख्यातीति पूर्ववत् / 'से' शब्दो मागधदेशीप्रसिद्धो निपातस्तच्छब्दार्थः। तच्चादत्तादानं द्विविधं प्रज्ञप्तम्, तीर्थङ्करगणधरैर्दिप्रकारं प्ररूपितमित्यर्थः / तद्यथेति पूर्ववत्। सह चित्तेन सचित्तं-द्विपदादिलक्षणं वस्तु, तस्य क्षेत्रादौ सुन्यस्तदुय॑स्तविस्मृतस्य स्वामिना अदत्तस्य चौर्यबुद्ध्या आदानं सचित्तादत्तादानम्। आदानमिति ग्रहणम् / अचित्तं वस्त्रकनकरत्नादि, तस्यापि क्षेत्रादौ सुन्यस्तदुर्यस्तविस्मृतस्य स्वामिनाऽदत्तस्य चौर्यबुद्ध्याऽऽदानमचित्तादत्तादानमिति। अदत्तादाणे को दोसो? अकजंते वा के गुणा? एत्थ इमं एगं चेव उदाहरणं / जहा- एगा गोट्ठी सावगो जतीए गोट्ठीए एगत्थपगरणं वट्टइ, जाणगते गोहिल्लएहिं घरं पेल्लियं थेरीए एकेको मोरपुत्तेण पाए पडतीए अंकिओ पभाए य रनो निवेइयं / राया भणइ- कहं ते जाणियव्वा ? थेरी भणइ-एते पादेसु अंकिया नगरसमागमे दिट्ठा, दो वि तिन्नि चत्तारि सव्वा गोट्ठिगहिया। एगो सावगो भणइ-न हरामि, न लंछिओ। तेहिं विभणियं-नएस हरइ। तेहिं विमुक्को। इयरे सासिया अविय सावगेण गोट्ठीन पविसियव्वं / जइ कहं विपओयणेण पविसइ, ताओ हारगं हिंसादि न देइ, न य तेसिं आओगट्ठाणेसु ठाइ। आव०६ अ०। तस्यातिचाराःतयाऽणंतरं च णं थूलगअदिण्णादाणस्स पंच अइयारा जाणियव्वा, नसमायरियव्वा। तं जहा- तेनाहडे, तक्करप्पओगे, विरुद्धरजाइक्कमे, कुडतुलाकुडमाणे, तप्पडिरूवगववहारे / उपा०१अ०। एतानि समाचरन्नतिचरति, तृतीयानुव्रत इति / 'दोसा पुणतेनाहडगहियं राया वि जाणेज्जा, सामी वा पञ्चभिजाणेजा, ततो मारेज वा, दंडेज वा' इत्यादयः शेषेष्वपि वक्तव्याः / उक्तं सातिचारं तृतीयाणुव्रतम् / आव०६ अ०। पा०/ध०२०11०। सर्वस्माददत्तादानाद् विरमणं त्वित्थम्अहावरे तो भंते ! महव्वए अदिन्नादाणाओ वेरमणं / सव्वं भंते ! अदिन्नादाणं पञ्चक्खामि / से गामे वा नगरे वा रन्ने वा अप्पं वा बहुं वा अणुं वा थूलं वा चित्तमंतं वा अचित्तमंतं वा, नेव सयं अदिन्नं गिण्हिज्जा, नेवऽन्नेहिं अदिन्नं गिण्हाविन्जा, अदिन्नं गिण्हते वि अन्ने नसमणुजाणामि। जावञ्जीवाए, तिविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए काएणं, न करेमि, न कारवेमि, करंतं पि अन्नं न समण जाणामि / तस्स भंते! Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदत्तादाणवेरमण 541 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अदत्तादाणवेरमण पडिक्कमापि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि, तच्चे भंते ! महव्वए उवडिओ मि सव्वाओ अदिन्नादाणाओ वेरमणं // 3 // / अथापरस्मिँस्तृतीये भदन्त ! महाव्रते अदत्तादानाद्विरमणम् / सर्व भदन्त ! अदत्तादानं प्रत्याख्यामीति पूर्ववत् / तद्यथा-ग्रामे वा नगरे वा / अरण्ये वेत्यनेन क्षेत्रपरिग्रहः। तत्र ग्रसति बुद्ध्यादीन गुणान् इति ग्रामः, तस्मिन् / नास्मिन् करो विद्यत इति नकरम्। अरण्यं काननादि। अल्पं वा बहु वा अणु वा स्थूलं वा चित्तवद्धा अचित्तवद्वेत्यनेन तु द्रव्यपरिग्रहः। तत्राल्पं मूल्यत एरण्डकाष्ठादि, बहु-वज्रादि। अणु प्रमाणतो वज्रादि। स्थूलमे रण्डकाष्ठादि / एतच्च चित्तवद् वाऽचित्तवद् वेति, चेतनाचेतनमित्यर्थः (णेव सयं अदिण्णं गिण्हिज्ज त्ति) नैव स्वयमदत्तं गृह्णामि, नैवान्यैरदत्तं ग्राहयामि, अदत्तं गृह्णतोऽप्यन्यान् न समनुजानामीत्येतद्यावज्जीवमित्यादि च भावार्थमधिकृत्य पूर्ववत् / विशेषस्त्वयम्-अदत्तादानं चतुर्विधम् - द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतो, भावतश्च / द्रव्यतोऽल्पादौ, क्षेत्रतो ग्रामादौ, कालतो रात्र्यादौ, भावतो रागद्वेषाभ्याम्। द्रव्यादिचतुर्भङ्गीत्वियम्- "दव्वओ नामेगे अदिन्नादाणे णो भावओ 1 / भावओ नामेगे नो दव्वओ / एगे दव्वओ वि भावओ वि 3 / एगे णो दव्वओ नो भावओ 4 / तत्थ अरत्तऽदुहस्स साहुणो कहिं वि अणणुण्णवेऊण तणाइ गेण्हओ दव्वओ अदिन्नादाणं नो भावओ, हरामीति अब्भुजयस्स तदसंपत्तीए भावओ नो दव्वओ। एवं चेव संपत्तीए भावओ दव्वओ वि। चरिमभंगो पुण सुन्नो।" दश०४ अ० अहावरं तचं महव्वयं पच्चाइक्खामि / सव्वं अदिन्नादाणं, से गामे वा णगरे वा अरण्णे वा, अप्पं वा बहुं वा अणुं वा थूलं वा चित्तमंतं वा अचित्तमंतंवा,णेव सयं अदिन्नं गिण्हेजा, णेवऽण्णेहिं अदिण्णं गिण्हावेजा, अण्णं पि अदिण्णं गिण्हतं ण समणुजाणेज्जा / जावजीवाए, जाव वोसिरामि / तस्सिमाओ पंच भावणाओ भवंति-तत्थिमा पढमा भावणा- अणुवीइमिउग्गह जाइसे णिग्गंथे णो अणणुवीइमिउग्गहं जाइसे णिगंथे। केवली बूया-अणणुवीइमितोग्गहं जाति,से णिग्गंथे अदिण्णं गिण्हेजा, अणुवीइमिउग्गहं जाति से णिग्गंथे णो अणुवीइमितोग्गहजाइ त्ति पढमा भावणा // 1 // अहावरा दोचा भावणा-अणुण्णविय पाणभोयणभोई से णिग्गंथे णो अण्णुण्णविय पाणभोयणभोई। के वली बूया- अणुण्णविय पाणभोई से णिग्गंथे अदिण्णं भुंजेजा / तम्हा अणुण्णविय पाणभोयणभोई से णिगंथे णो अणुण्णविय पाणभोयणभोइ त्ति दोचा भावणा ||2|| अहावरा तथा भावणाणिग्गंथेणं उग्गहसि उग्गहितंसि एतावता व उग्गहणसीलए सिया / केवली बूया- णिग्गंथेणं उग्गर्हसि उग्गहियंसि एतावता व अणोग्गहणसीले अदिणं उग्गिण्हेजा णिग्गंथेणं उग्गहंसि एतावता व उग्गहणसीलए सि त्ति तचा भावणा / / 3 / / अहावरा चउत्था भावणाणिग्गंथे णं उग्गहमि उग्गहियंमि अभिक्खणं 2 उग्गहणसीलए सिया। केवली। बूयाणिग्गंथेणं उग्गहंसि उग्गहियंसि अभिक्खणं 2 अणोग्गहणसीले अदिण्णं गिण्हेजा, णिग्गंथे उग्गहंसि उम्गहियंसि अभिक्खणं 2 उग्गहणसीलए त्तिचउत्था भावणा ||4|| अहावरा पंचमा भावणाअणुवीइमितोग्गहं जाइ से णिग्गंथे साहम्मिएसु णो अणणुवीइमिउग्गहं जाति / केवली बूया- अणणुवीइमिउग्गहं जाति से णिग्गंथे साहम्मिएस अदिण्णं उग्गिण्हेजा। से अणुवीइमिउग्गहं जाति से णिग्गंथे साहम्मिएसु णो अणुवीइमिउग्गहं ति पंचमा भावणा।।५।। एतावता महव्वए सम्म जाव आणाए आराहिते आवि भवइ / तच्चे भंते ! महव्वए। आचा०२ श्रु०१ अ०॥ तस्य चेमे अतीचारा:एवं तृतीयेऽदत्तस्य, तृणादेर्ग्रहणादणुः। क्रोधादिभिर्बादरोऽन्य-सचित्ताद्यपहारतः॥५०॥ एवं पूर्वोक्तरीत्या सूक्ष्मबादरभेदेन द्विविध इत्यर्थः / तृतीये-इस्तेयव्रते प्रक्रमादतिचारो भवतीति शेषः / तत्र अणुः सूक्ष्मः, अदत्तस्य स्वाम्यादिनाऽननुज्ञातस्य तृणादेग्रहणा-दनाभोगेनाङ्गीकरणाद्भवति, तत्र तृणं प्रसिद्धम्। आदिशब्दाद् डगलच्छारमल्लकादेरुपादानम्। अनाभोगेन तृणादि गृह्णतो-ऽतिचारो भवति, आभोगेन त्वनाचार इति भावः। तथाक्रोधादिभिः कषायैरन्येषां साधर्मिकणां चरकादीनां गृहस्थानां वा संबन्धि सचित्तादि सचित्ताचित्तमिश्रवस्तु, तस्याऽपहारतोऽपहरणपरिणा-माद् बादरोऽतिचारो भवतीति संबन्धः / यतः "तइअम्मि वि एमेव य, दुविहोखलुएस होइ विण्णेओ। तणङगलछारमल्लग, अविदिण्णं गिण्हओ पढम" ||1|| अनाभोगेनेति तवृत्तिलेशः / 'साहम्मि अन्नसाहम्मि आणगिहि आणकोहमाईहिं। सचित्ताइ अवहरओ, परिणामो होइ बीओ उ'' ||2|| साधर्मिकाणां साधुसाध्वीनाम्, अन्यसधर्माणा चरकादीनामिति तवृत्तिरित्युक्ताः तृतीयद्रताति-चाराः / ध० 2 अधि० / एतदेव सर्वस्माददत्तादानविरमणं दत्ताऽनुज्ञातसंवरनाम्ना स्वरूपोपदर्शनपूर्वकं सभावनाकं प्रश्रव्याकरणेषु तृतीयसंवरद्वारेऽभिहितम्। तस्य चेदमादिम सूत्रम्जंबू ! दत्तमणुण्णायसंवरो नाम होइ ततीयं, सुव्वय ! महव्वयं गुणव्वयं परदव्वहरणपडिविरइकरणजुत्तं अपरिमियमणंततण्हामणुगयमहिच्छमणवयणकलुसआयाणसुनिग्गहियं सुसंजमियमणहत्थपायनिहुयं निग्गंथं निट्ठिकं निरुत्तं निरास निभयं विमुचं उत्तमनरवसमपवरबलवगसुविहितजणसम्मतं परमसाहुधम्मचरणं जत्थ य गामागरनगरनिगमखेडकव्वडमडंबदोणमुहसंवाहपट्टणासमगयं च किंचि दव्वंमणिमुत्तसिलप्पवालकंसदूसरययवरकणगरयणमादि पडियं पम्हटुं विप्पणटुं न कप्पति कस्स ति कहेउं वा, गेण्हेतुं वा, अहिरण्ण Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदत्तादाणवेरमण 542 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अदत्तादाणवेरमण सुवण्णकेण समलेट्तु कंचणाणं अपरिग्गहसंवुडेण लोगम्मि विद्येते यस्य सः हिरण्यसुवर्णिकः, तन्निषेधेनाहिरण्यसुवर्णिकः, तेन, विहरियव्वं , जं पि य होज्जाहि दव्वजातं खलगतं खेत्तगतं समे तुल्ये उपेक्षणीयतया लेष्टुकाञ्चने यस्य स तथा। तेन अपरिग्रहो रनमंतरगयं च किंचि, पुप्फफलतयप्पवालकंदमूलतणकट्ठ- धनादिरहितः संवृतश्चेन्द्रियसंवरेण यः सोऽपरिग्रहसंवृतः / तेन लोके सक्कराइं अप्पं च बहुं च अणुं वा थूलग वान कप्पति / उग्गहे विहर्तव्यमासितव्यं संचरितव्यं वा, साधुनेति गम्यते / यदपि च भवेद अदिण्णम्मिगेण्हेउ,जे हणि हणि उग्गहे अणुण्णाविय गेण्हियव्वं द्रव्यजातं द्रव्यप्रकारं, खलगतं धान्यमलनस्थानाश्रितं, क्षेत्रगतं वजेयव्वो य सव्वकालं अचियत्तधरप्पवेसो अचियत्तभत्तपाणं कर्षणभूमिसंश्रितं, (रन्नमंतरगयं च त्ति) अरण्यमध्य-गतम् / अचियत्तपीढफलगसेज्जासंथारगवत्थपायकंबलदंडगरयोहर- वाचनान्तरे- 'जलथलगयं खेत्तमंतरगयं च त्ति' दृश्यते / णनिसेजचोलपट्टग-मुहपोत्तियपादपुंछणादिभायणभंडोवहि किश्चिदनिर्दिष्टस्वरूप, पुष्पफलत्वक्प्रवालकन्दमूलतृण-काष्ठशर्करादि उवकरणं परपरिवाओ परस्स दोसो परववएसेण जं च गिण्हेति प्रतीतम्। अल्पं वा मूल्यतो, बहु वा तथैव; अणु वा स्तोकं प्रमाणतः, परस्स नासेइ जं च सुकयं दाणस्स य अंतराइयं दाणस्स स्थूलकं वा तथेव, न कल्पते न युज्यते। अवग्रहे ग्रहस्थण्डिलादिरूपे, विप्पन्नासे पेसुण्णं चेव मच्छरित्तं च / जे वि य अदत्ते स्वामिनाऽननुज्ञाते, ग्रहीतुमादातुं, 'जे' इति निपातग्रहणे निषेध पीढफलगसेज्जासंथारगवत्थपायकंबलदंडगरओहरणनिसेजचोल उक्तः / अधुना तद्विधिमाह - (हणि हणि त्ति) अहन्यहनि, पट्टमुहपोत्तियपायपुंछणादि भायणभंडोवहिउवगरणं असंविभागी प्रतिदिनमित्यर्थः। अवग्रहमनुज्ञाप्य, यथेह भवदीयेऽवग्रहे इदम्, इदं च असंगहरुई तववयतेणे य रूवतेणे य आयारे चेव भावतेणे य साधुप्रायोग्यं द्रव्यंग्रहीष्यामि इति पृष्टेन तत्स्वामिना एवं कुरुतइत्यनुमते सद्दकरे झंझकरे कलहकरे वेरकरे विकहकरे असमाहिकारके सतीत्यर्थो गृहीतव्यमा-दातव्यं, वर्जयितव्यश्च सर्वकालं (अचियत्त त्ति) साधून प्रति अप्रीतिमतो यद् गृहं तत्र यः प्रवेशः स तथा। (अचियत्त ति) सया अप्पमाणभोई सततं अणुबद्धवेरेय निचरोसी, से तारिसए अप्रीतिकारिणः संबन्धि यद्भक्तपानं तत्तथा, तद्वर्जयितव्यमिति प्रक्रमः। नाराहए वयमिणं॥ तथा- अचियत्तपीठफलकशय्यासंस्तारकवस्वपात्रकम्बलदण्डक(जंबू इत्यादि) तत्र जम्बूरित्यामन्त्रणम्। (दत्तमणुनायसंवरो-नाम त्ति) रजोहरण-निषद्याचोलपट्टकमुखपोत्तिकापाद-प्रोञ्च्छनादि प्रतीतमेव। दत्तं च वितीर्णमन्नादिकम्, अनुज्ञातं च प्रातिहारिकपीठफलकादि किमेवंविधभेदम् ? इत्याह- भाजनं पात्रं, भाण्डं च तदेव मृण्मयं, ग्राह्यमिति गम्यते। इत्येवंरूपः संवरो दत्तानुज्ञातसंवर इत्येवं नामकं भवति उपधिश्चवस्त्रादिः, एते एवोपकरणमिति समासतस्तद्वर्जयितव्यमिति तृतीयं, संवरद्वारमिति गम्यते। हे सुव्रत ! जम्बूनामन् ! महाव्रतमिदं, प्रक्रमः / अदत्तमेतत् स्वामिनाऽनुज्ञातमिति कृत्वा / तथा-परपरिवादो तथा गुणाना-मैहिकामुष्मिकोपकाराणां कारणभूतं व्रतं गुणव्रतम्। किं विकत्थनं वर्जयित- व्यमिति / तथा- परस्य दोषो दूषणं, द्वेषो वा स्वरूप-मिदम् ? इत्याह- परद्रव्यहरणप्रतिविरतिकरणयुक्तम्, तथा वर्जयितव्यः, परिवदनो येन दूषणीयेन च तीर्थकरगुरुभ्यां अपरिमिता अपरिमाणद्रव्यविषया, अनन्ता वाऽक्षया, या तृष्णा तयोरनुज्ञातत्वेनादत्तरूपत्वादिति।अदत्तलक्षणं ह्रीदम् "सामीजीवादत्तं, विद्यमानद्रव्याव्ययेच्छा, तया यदनुगतं महेच्छं वा अवि-द्यमानद्रव्यविषये तित्थयरेणं तहेव य गुरुहि ति / तथा-परस्याचार्यग्लाना-देर्व्यपदेशेन महाभिलाषं यन्मनो मानसं, वचनं च वाक्, ताभ्यां यत्कलुषं व्याजेन च यच गृह्णाति आदत्ते वैयावृत्त्यकरादिस्तत्तेनान्येन च परधनविषयत्वेन पापरूपमादानं ग्रहणं तत्सुष्ठ निगृहीतं नियमितं यत्र वर्जयितव्यम्, आचार्यादरेव दायकेन दत्तत्वादिति / तथा-परस्य तत्तया। तथा सुसंयमितमनसा संवृतेन चेतसा हेतुना हस्तौ च पादौ च परसंबन्धि नाशयति मत्सरादपहनुते, यच्च सुकृतं सच्चरितमुपकारं वा निभृतौ परधनादानव्यापारादुपरतौ यत्र तत् सुसंयमितमनोहस्तपाद- तत्सुकृतं तस्य नाशनं वर्जयि-तव्यं / तथा-दानस्य चान्तरायिकं विघ्रः, निभृतम् / अनेन च विशेषणद्वयेन मनो-वाक्कायनिरोधः परधनं प्रति दानविप्रणाशो दत्तापलापः, तथा पैशुन्यं चैव पिशुनकर्म मत्सरित्वं च दर्शितः / तथा निर्ग्रन्थं निर्गत-बाह्याभ्यन्तरग्रन्थम् ; नैष्ठिकं परगुणानामसहनं, तीर्थकरा-धननुज्ञातत्वाद्वर्जनीयमिति / तथा- (जे सर्वधर्मप्रकर्षपर्यन्तवर्त्ति; नितरामुक्तं सर्वज्ञैरनुपादेयतयेति निरुक्तम्, वि येत्या दि) योऽपि च पीठफलकशय्यासंस्तारकवस्वपात्रकम्बल अव्यभिचरितं वा; निराश्रवं कर्मादानरहितम: निर्भयमविद्यमानराजा दण्डकरजोहरण-निषद्याचोलपट्टमुखपोतिकापादप्रोञ्छनादि दिभयम:, विमुक्तं लोभदोषत्यक्तम, उत्तमनरवृषभाणां (पवरबलवग त्ति) भाजनभाण्डोपध्युप-करणं प्रतीत्येति गम्यते / असं विभागी आचार्यग्लानादीनामेषणगुणा-विशुद्धिलब्धं सन्न विभजते, असौ प्रधानबलवतां च सुविहितजनस्य च सुसाधुलोकस्य सम्मतम-भिमतं नाराधयति व्रतमिति संबन्धः / तथा (असं गहरुइ ति) यत्तथा / परमसाधूनां धर्मचरणं धर्मानुष्ठानं यत् तत् तथा। यत्र च तृतीये गच्छोपग्रहकरस्य पीठादिकस्योपकरण-स्यैषणादोषयिमुक्तस्य संवरे, ग्रामाकरनगरनिगमखेटकर्वटमण्डपद्रोणमुखसंवाहपत्तनाश्रमगतं लभ्यमानस्यात्मम्भरित्वेन न विद्यते संग्रहे रुचिर्यस्यासावच, ग्रामादिव्याख्या पूर्ववत् / किञ्चिद-निर्दिष्टस्वरूपं द्रव्यं रिक्थम् / संग्रहरुचिः / (तववयतेण य त्ति) तपश्च वाक् च तपो-वाचौ, तयोः तदेवाह- मणिमौक्तिकशिलाप्रवालकांस्यदूष्यरजतवरकनकरत्ना स्ते नश्चौरः- तपोवाक् स्तेनः / ततः स्वभावतो दुर्बलाङ्गदिकमित्याह / पतितं भ्रष्टं (पम्हटुं ति) विस्मृतं, विप्रणष्टं मनगारमवलोक्य कोऽपि किञ्चन व्याकरोति / तथा भोःसाधो ! स्वामिकैर्गवेषयद्भिरपि न प्राप्तं, न कल्पते न युज्यते, कस्यचित् सत्यम् ?यः श्रूयते तत्र गच्छे मासक्षपकः / एवं पृष्टे यो असंयतस्यसंयतस्यदा, कथयितुं वा प्रतिपादयितुम, अर्थग्रहणप्रवर्तनं विवक्षितक्षपको-ऽसन्नप्याह-एवमेतत् / अथवा धूर्ततया ब्रूते-भोः मा भूदितिकृत्वा,गृहीतुं वाऽऽदातुं, तन्निवृत्तत्वात् साधोः / यतः श्रावकाः ! साधवः क्षपका एव भवन्ति / श्रावकस्तु मन्यतेकथं साधु वंभूतेन विहर्तव्य-मित्यत आह-हिरण्यं रजतं, सुवर्ण च हेम, ते / स्वयमात्मानमयं भट्टारकः क्षपकतया निस्पृहत्वात् प्रकाशयति ? Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदत्तादाणवेरमण 543 - अभिधानराजेन्द्रः-भाग 1 अदत्तादाणवेरमण इतिकृत्वैवं विधमात्मौद्धत्यपरिहारपरं सकलसाधुसाधारणं वचनमाविष्करोति, इत्यतःस एवायंयो मया विवक्षितः। इत्येवं परसंबन्धि तप आत्मनि परप्रतिपत्तितः सम्पादयस्तपस्तेन उच्यते। एवं भगवन् ! स त्वं वाग्मी ? इत्यादिभावनया परसंबन्धिनी वाचमात्मनि तथैव सम्पादयन् वास्तेन उच्यते। तथा (रूवतेणेय त्ति) एवं रूपवन्तमुपलभ्य स त्वं रूपवानित्यादि भावनया रूपस्तेनः / रूपं च द्विधाशारीरसुन्दरता, सुविहतसाधुनेपथ्यं च / तत्र साधुनेपथ्यं यथा - "देहोरुगाउ-मन्ने, जेसिं जल्ले ण फासियं अंगं / मलिणा य चोलपट्टा, दोन्नि य पाया समक्खाया" ||1|| तत्र सुविहिताकाररञ्जनीयं जनमुपजीवितुकामः सुविहितः, सुविहिताकारधारी रूपस्तेनः। (आयारे चेव त्ति) आचारे साधुसामाचार्याविषये स्तेनो यथा-सत्वं यः क्रियारुचिः श्रूयते ? इत्यादिभावना। तथैव (भावतेणे यत्ति) भावस्य श्रुतज्ञानादिविशेषस्य स्तेनो भावस्तेनः / यथा- कमपि कस्यापि श्रुतविशेषस्य व्याख्यानविशेषमन्यतो बहुश्रुतादुपश्रुत्य प्रतिपादयति, यथाऽयं मया पूर्वश्रुतपर्यायोऽभ्यूहितो, नाऽन्यः। एवमभ्यूहितुं प्रभुरिति।तथा-शब्दकरो रात्रौ महता शब्देनोल्लापः स्वाध्यायादिकारको गृहस्थभाषाभाषको वा। तथा-भझञ्झाकरो येन येन गणस्य भेदो भवति तत्तत्कारी, येन गणस्य मनो-दुःखमुत्पद्यते तद्भाषी / तथा- कलहकरः कलहहेतुभूतकर्तव्यकारी / तथा-वैरकरः, प्रतीतः / विकथाकारी-स्त्र्यादिकथाकारी। असमाधिकारकश्चित्तास्वा-स्थ्यकर्ता स्वस्य, परस्य वा। तथा-सदा अप्रमाणभोजी द्वात्रिंशत्कवलाधिकाहारभोक्ता / सततमनुबद्धवैरश्च सततमनुबद्धं प्रारब्धमित्यर्थः, वैरं वैरिकर्म येन स तथा। नित्यरोषी सदाकोपः (से तारिसे त्ति) सतादृशः पूर्वोक्तस्वरूपः। (नाराहए वयमिणं ति) नाराधयतिन निरतिचारं करोति, व्रतं महाव्रतम्, इदम्-अदत्तादानविरतिस्वरूपं, स्वाम्यादिभिरननुज्ञातकारित्वातस्येति। अह के रिसए पुणाई आराहए वयमिणं, जे से उवहिं भत्तपाणादाणसंगहणकुसले अचंतबालदुब्बलगिलाणवुड्डमासखवणे पवत्तिआयरियउवज्झाए सेहे साहम्मिए तवस्सि कुलगणसंघचेइयडेय निजरट्ठी वेयावचं अणिस्सियं दसविहं बहुविहं करेइ, नय अचियत्तस्स घरं पविसइ,नय अचियत्तस्स भत्तपाणं गिण्हइ, न य अचियत्तस्स सेवइ पीढफलगसेज्जासंथारगवत्थपायकं बलदंडगरओहरणनिसेजचोलपट्टमुहपोत्तियपायपुंछणाइ भायणभंडोवहिउवगरणं, न य परिवायं परस्स जंपति, न यावि दोसे परस्सगेण्हति, परव्वएसेण विन किंचि गेण्हति, णय विपरिणामेति कंचि जणं, ण याविणासेति दिण्णसुकयं दाऊण य काऊण य ण होइ पच्छाताविते,संविभागसीले संगहोवग्गहकुसले, से तारिसए आराहेति वयमिणं / अथ प्रश्नार्थः / कीदृशः पुनः, 'आई' इति अलङ्कारे, आराधयति व्रतमिदम् ? इह प्रश्नोत्तरमाह- (जे से इत्यादि) यः साधुरुपधिभक्तपानादानं च संग्रहणंच तयोः कुशलो विधिज्ञोयः सतथा। बालश्चेत्यादि समाहारद्वन्द्वः / ततोऽत्यन्तं यद् बालदुर्बलग्लानवृद्धमासक्षपकं तत्तथा। तत्र विषये वैयावृत्त्यं करोतीति योगः। तथा- प्रवृत्त्याचार्योपाध्याये, इह द्वन्द्वैकत्वात् प्रवृत्त्यादिषु / तत्र प्रवर्त्तितलक्षणमिदम् - "तवसंजमजोगेसुं, जोजोगोजत्थ तं पवत्तेइ / असहुं व नियत्तेई, गणतत्तिल्लो पवत्तेई" // 1 // इतरौ प्रतीतौ। तथा - (सेहे त्ति) शैक्षे अभिनवप्रव्रजिते, सा-धर्मिके समानधर्मिके, लिङ्ग प्रवचनाभ्यां तपस्विनि चतुर्थ-भक्तादिकारिणि, तथा कुलं गच्छसमुदायरूपं चन्द्रादिकं, गणः कुलसमुदायः कोटिकादिकः, सङ्घस्तत्समुदायरूपः, चैत्यानि जिनप्रतिमाः, एतासां योऽर्थः प्रयोजन स तथा। तत्र च निर्जरार्थः कर्मक्षयकामः, वैयावृत्त्यं व्यावृत्तकर्मरूपमुपष्टम्भनमित्यर्थः / अनिश्रितंकीर्त्यादिनिरपेक्ष, दशविधंदशप्रकारम्। आह च"वेयावचं वावड-भावो इह धम्मसाहणणिमित्तं। अन्नाइयाण विहिणा, संपायणमेस भावत्थो||१|| आयरिय 1 उवज्झाए 2, थेर 3 तवस्सी 4 गिलाण 5 सेहाण 6 / साहम्मिय 6 कुल ८गण संघ 10 संगयं तमिह कायव्वं" ||2|| इति। बहुविधं भक्तपानादिदानभेदेनानेकप्रकारं, करोतीति। तथा-न च नैवच (अचियत्तस्स त्ति) अप्रीतिकारिणो गृहं प्रविश-ति।नच नैव च (अचियत्तस्स त्ति) अप्रीतिकारिणः सत्कं गृह्णाति यद् भक्त-पानम्। न वा (अचियत्तस्स त्ति) अप्रीतिकर्तुः सत्कं सेवते भजते, पीठफलक शय्यासंस्तारकवस्त्रपात्रकम्बलदण्डकरजो हरणनिषद्याचोलपट्टकमुखपोत्तिकापादप्रोच्छनादि भाजनभाण्डोपध्युपकरणम् / तथा-न च परिवादं परस्य जल्पति, न चापि दोषान् परस्य गृह्णाति। तथा-परव्यपदेशेनापिग्लानादिव्याजेनापि, न किञ्चिद् गृह्णाति, न च विपरिणमयति दानादिधर्माद्विमुखीकरोति, कञ्चिदपि जनम्।न चापि नाशयति अपह्नवद्वारेण दत्तसुकृतं वितरणरूपं सुचरितं परसंबन्धि, तथा- दत्त्वा च देय, कृत्वा वैयावृत्त्यादिकार्य, न भवति पश्चात्तापवान्। तथा- संविभागशीलः लब्धभक्तादि संविभागकारी। तथा संग्रहे शिष्यादिसंग्रहणे, उपग्रहे च तेषामेव भक्तश्रुतादिदानेनोपष्टम्भने यः कुशलः स तथा / (से तारिसे त्ति) स तादृश आराधयति व्रतमिदमदत्तादानविरतिलक्षणम्। इमं च परदव्वहरणवेरमणपरिरक्खणट्ठयाए पवयणं भगवया सुकहियं अत्तहियं पेचाभाविकं आगमसिं भ सुद्धं नेयाउयं अकुडिलं अनुत्तरं सव्वदुक्खपावाणं विउसमणं / (इमं चेत्यादि) इमं च प्रत्यक्ष प्रवचनमिति संबन्धः / परद्रव्यहरणविरमणस्यपरिरक्षणं पालनंसएवार्थः, तद्भावस्तत्। तस्यैव प्रवचन शासनमित्यादि व्यक्तम्। अस्य पञ्च भावनातस्स इमा पंच मावणाओ ततियस्स वयस्स हुंति परदव्वहरणवेरमणपरिरक्खणट्ठाए / पढमं देवकुलसमापवाऽऽवसहरुक्खमूलआरामकंदराऽऽगरगिरिगुहकमंतुजाणजाणसालकुवियसालमंडवसुण्णघरसुसाणलेणआवणे अण्णम्मि य एवमादियम्मि दगमट्टिय बीजहरिततसपाणअसंसत्ते अहाकडे फासुए विविते पसत्ते उवस्सए होइ विहरियव्वं / आहाकम्मबहुले यजे से आसियसम्मजिओसित्तसोहियछाणदुमणलिंपण अणु लिंपणजलणभंडचालणं अंतोबाहिं मज्झे च असंजमो जत्थ वट्टति संजयाणं अट्टा वजेयव्वे हु Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदत्तादाणवेरमण 544- अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अदत्तादाणवेरमण उवस्सए से तारिसए सुत्तपरिकुटे / एवं विवित्तवासवसहिस- | मितिजोगेण भावितो भवति अंतरप्पा निचं अहिकरणकरणकारावणपावकम्मविरए दत्तमणुण्णा-यउग्गहरुयी||१|| (पढमं ति) प्रथमं भावनावस्तु विविक्तवसतियासो नाम / तत्राऽऽहदेवकुलं प्रतीतम्, सभा महाजनस्थानम्, प्रपा जलदानस्थानम्, आवसथः परिव्राजकस्थानम्, वृक्षमूलं प्रतीतम्, आरामो माधवीलताद्युपेतो दम्पतिरमणाश्रयो वनविशेषः, कन्दरा दरी आकरो लोहाद्युत्पत्तिस्थानम्, गिरिगुहा प्रतीता / कमन्तिो यत्र सुधादि परिकर्म्यते, उद्यानं पुष्पादिमवृक्षसंकुलमुत्सवादी बहुजनभोग्यम्, यानशाला रथादिगृहम्, कुफ्तिशाला तूल्या-दिगृहोपस्करशाला, मण्डपो यज्ञादिमण्डपः, शून्यगृह, श्मशानं च प्रतीतम्। लयनं शैलगृहम्, आपणः पण्यस्थानम्, एतेषां समाहारद्वन्द्वः / ततस्तत्र, अन्यस्मॅिश्चैवमादिके एवंप्रकारे, उपाश्रवे, भवति विहर्तव्यमिति सम्बन्धः / किंभूते ? दकमुदकम्, मृत्तिका पृथिवीकायः, बीजानि शाल्यादीनि, हरितं दूर्वादिवनस्पतिः, त्रसप्राणा द्वीन्द्रियादयः, तैरसंसक्तो यः स तथा, तत्र।तथाकृते गृहस्थेन स्वार्थे निर्वर्तिते, (फासुएत्ति) पूर्वोक्तगुणयोगादेव प्रासुके निर्जीवे, विविक्ते स्त्र्यादिदोषरहिते, अत एव प्रशस्ते, उपाश्रये वसतौ, भवति विहर्त्तव्यमासितव्यम् / यादृशे पुनासितव्यं तथाऽसावुच्यते - (आहाकम्मबहुले यत्ति) आधया साधूनां सत्कस्याधानेन साधूनाश्रित्येत्यर्थः, यत्कर्म पृथिव्या-द्यारम्भक्रिया, तदाधाकर्म / आह च - "हिययम्मि समाहेउ, एगमणेगं च गाहगं जंतु। वहणं करेइ दाया, कायाण तमाह कमंतुं"||१| तेन बहुलः प्रचुरः, तद् वा बहुलं यत्र सतथा। (जे से त्ति) य एवंविधः स वर्जयितव्य एवोपाश्रय इति संबन्धः / अनेन मूलगुणाः शुद्धस्य परिहार उपदिष्टाः / स तथा (आसिय त्ति) आसिक्तमासेवनमीषदुदकच्छटक इत्यर्थः। (सम्मञ्जिय त्ति) सन्मार्जनं शलाकाहस्तेन कचवरशोधनम्, उत्सिक्तमत्यर्थ जलाभिषेचनम्, (सोहियत्ति) शोभनं वन्दनमालाचतुष्क-पूरणादिना शोभाकरण, (छादण त्ति) छादनं दर्भादिपटलकरणम्, (दुमण त्ति) सेढिकया धवलनम्, (लिंपण त्ति) छगणादिना भूमेः प्रथमतो लेपनम्, (अणुलिंपण त्ति) सकृल्लिप्ताया भूमेः पुनर्लेपनम्, (जलण त्ति) शैत्यापनोदाय वैश्वानरस्य ज्वलनम, शोधनार्थं वा प्रकाशकरणाय वा दीपप्रबोधनम् / (भण्डचालण त्ति) भाण्डादीनां पिठरकादीनां, पण्यादीनां वा तत्र गृहस्थस्थापितानां साध्वर्थं चालनं स्थानान्तरस्थापनम्। एतेषां समाहारद्वन्द्वः, विभक्तिलोपश्च दृश्यः। तत आसिक्तादिरूपः अन्तर्बहिश्च उपाश्रयस्य; मध्ये मध्ये च, असंयमो जीवविराधना, यत्र यस्मिन्नुपाश्रये, वर्तते भवति, संयतानां साधूनाम्, अर्थाय हेतवे, (वज्जेयव्वे हु त्ति) वर्जयितव्य एव उपाश्रयो वसतिः, स तादृशः, सूत्रप्रतिक्रुष्टः- आगमनिषिद्धः। प्रथमभावना-निगमनायाऽऽहएवमुक्तेनानुष्ठानप्रकारेण, विविक्तो लोकद्वयाश्रित-दोषवर्जितः, विविक्तानां वा निर्दोषाणां वासो निवासो यस्यां सा विविक्तवासवसतिः, तद्विषया या समितिः सम्यकप्रवृत्तिः, तया यो योगःसंबन्धः, तेन भावितो भवत्यन्तरात्मा / किंविधः ? इत्याह-नित्यं सदा, अधिक्रियतेऽधिकारीक्रियते, दुर्गतावात्मा येन तद् दुरधिकरणं दुरनुष्ठानं, तस्य यत्करणं कारापणं च तदेव पापकर्म पापोपादानक्रिया, ततो विरतो यः स तथा। दत्तोऽनुज्ञातश्च योऽवग्रहोऽवग्रहणीय वस्तु तत्ररुचिर्यस्य स तथेति। बितियं आरामुजाणकाणणवणप्पदेसभागे जं किंचि इक्कडं वा कढिणगं वा जंतुगं वा परमेरकुचकुसदमप्पलालसूयगवल्लयपुप्फफलतयपवालकंदमूलतणकट्ठसक्कराई गेण्हति सेजोवहिस्स अट्ठा न कप्पए, उग्गहे अदिण्णम्मि गेण्हिउं जे हणि हणि उग्गहं अणुण्णविय गेण्हितव्वं / एवं उग्गहसमितिजोगेण भावितो भवति अंतरप्पा णिचं अहिकरणकरणकारावणपावकम्मविरए दत्तमणुण्णायउम्गहरुयी।।२।। (बितियं ति) द्वितीय भावनावस्तु अनुज्ञातसंस्तारकग्रहणं नाम / तचैवम्-आरामो दम्पतिरमणस्थानभूतमाधवीलतागृहादियुक्तः, उद्यानं पुष्पमवृक्षसंकुलमुत्सवादौ बहुजनभोग्यम्, काननं सामान्यवृक्षोपेतं, नगरासन्नं, च; वनं नगरविप्रकृष्टम्, एतेषां प्रदेशरूपो यो भागः स तथा तत्र / यत्किञ्चिदिति सामान्ये-नावग्रहणीय वस्तु / तदेव विशेषेणाह - 'इक्कडं वा' दंदणसदृशंतृणविशेष एव। कठिनकं जन्तुकं च जलाशय विशेषतृणमेव, पर्णमित्यर्थः। तथापरा तृणविशेषः, मेरा तुमुञ्जसिरिका, कू! येन तृणविशेषेण कुविन्दाः कूत् कुर्वन्ति, कुशदर्भयोराकारकृतो विशेषः, पलालं कङ्ग्यादीनाम्, सूयको मेदपाटप्रसिद्ध-स्तृणविशेषः। वल्वजः तृणविशेषः, पुष्पफलत्वप्रवाल-कन्दमूलतृणकाष्ठशर्कराः प्रतीताः; ततः परादीनां द्वन्द्वः; पुनस्ता आदिर्यस्य तत्तथा। तद् गृह्णाति आदत्ते / किमर्थम् ? शय्योपधेः संस्तारकरूपस्योपधेः, अथवा संस्तारकस्योपधेश्वार्थाय हेतव इह तदिति शेषो दृश्यः, ततस्तं, न कल्प्यते न युज्यते / अवग्रहे उपाश्रयान्तर्वर्तिनि अवग्राह्ये वस्तुनि, अदत्तेऽननुज्ञाते शय्यादायिना (गिहिउंजे त्ति) गृहीतमादातुं, 'जे' इति निपातः / अयमभिप्रायः-उपाश्रयमनुज्ञाप्य तन्मध्यगतं तृणाद्यपि तु ज्ञापनीयम्, अन्यथा तदग्राह्य स्यादिति / एतदेवाह - (हणि हणि ति) अहनि अहनि प्रतिदिवसम् / अयमभिप्रायः- उपा-श्रयानुज्ञापनादिने उपगृह्णन्ति अवग्राह्यमिक्कडादि; अनुज्ञाप्य ग्रहीतव्यमिति / एवमित्यादिनिगमनं प्रथमभावनावदवसेयम् नवरमवग्रहसमितियोगेन अवग्रहणीयतृणादिविषयसम्यक्प्रवृत्ति-संबन्धिनेत्यर्थः। ततियं पीठफ्लगसेज्जासंथारगट्ठयाए रुक्खान च्छिंदियव्वा, न यछेयणभेयणेण य सेजा कारियव्वा, जस्सेव उवस्सए वसेजा, सेजं तत्थेव गवेसेना, न य विसमं करेजा, न य निवायपवायउस्सुगत्तं, न डंसमसगेसु क्खुभियव्वं अग्गिधूमो य न कायव्वो, एवं संजमबहुले संवरबहुले संवुडबहुले समाहिबहुले धीरो काएण फासयंते सययं अज्झप्पज्झाणजुत्ते समीए, एवं एगे चरेज धम्मं, एवं सिजासमितिजोगेण भावितो भवइ अंतरप्पा णिचं अहिकरणकरणकारावणपावकम्मविरइदत्तमणुण्णायउग्गहरुयी॥३॥ इदं तु तृतीयभावनावस्तु शय्यापरिकर्मवर्जनं नाम / तचैवम् पीठ फलक शय्यासंस्तारकार्थतायै वृक्षा न छे त्तव्याः, न च छे दनेन तद्भूम्याश्रितवृक्षादीनां कर्त्तनेन, भेदनेन च, तेषां पाषाणादीनां वा शय्या शयनीयं कारयितव्या। तथा- यस्यैव Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदत्तादाणवेरमण 545 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अदत्तालोयण गृहपतेरुपाश्रये निलये वसेत- निवासं करोति, शय्यां शयनीयं तत्र गवेषयेन्मृगयेत् / न च विषमांसती समां कुर्यात्।न निर्वातप्रवातोत्सुकत्वं, कुर्यादिति वर्तते। न च दंशमशकेषु विषयेषु क्षुभितव्यम्-क्षोभः कार्यः / अतश्च दंशाद्यपनयनार्थमनिर्धूमो वा न कर्त्तव्यः / एवमुक्तप्रकारेण संयमबहुलः पृथिव्यादिसंरक्षणप्रचुरः, संवरबहुलः प्राणातिपाताद्याश्रवद्वारनिरोधप्रचुरः, संवृतबहुलः कषायेन्द्रियसंवृतप्रचुरः, समाधिबहुलश्चित्तस्वास्थ्यप्रचुरः, धीरो बुद्धिमान-क्षोभो वा, परीषहेषु कायेन स्पृशन् न मनोरथमात्रेण तृतीयसंवरमिति प्रक्रमगम्यम् / सततमध्यात्मनि आत्मानमधिकृत्य आत्मालम्बनं, ध्यानं चित्तनिरोधस्तेन युक्तो यः स तथा। तत्रात्मध्यानं 'अमुगगेहे, अमुगकुले, अमुगसिस्से, अमुगरम्मट्ठाणट्ठिए, न मे तस्विराहणे' इत्यादि- रूपणम्। (समीए ति) समितः समितिभिः, एकः ससहायोऽपि रागाद्यभावात् चरेदनुतिष्ठेत्, धर्म चारित्रम् / अथ तृतीयभावनानिगमनायाहएवमन्तरोदितन्यायेन शय्यासमिति-योगेन शयनीयविषयसम्यक् प्रवृत्तियोगेन, शेषं पूर्ववत्। चउत्थं साहारणपिंडवायलाभे सइ भोत्तव्वं संजएण समितं,न सायसूपादिकं, न क्खु घनं, न वेगियं, न तुरियं, न चवलं,न साहसं,नयपरस्सपीलाकरं सावजं, तह भोतव्वं जह से ततियं वयं न सीयति साहारणपिंडवायलाभे सुहमे अदिण्णादाणवयनियमवेरमणे, एवं साहारणपिंडवायलाभे समितिजोगेण भाविओ भवति अंतरप्पा णिचं अहिकरणकरणकारावणपावकम्मविरते दत्तमणुण्णाय उग्गहरुयी||४|| इह चतुर्थ भावनावस्तु अनुज्ञातभक्तादिभोजनलक्षणम् / तचैवम्साधारणः सङ्घादिसाधर्मिकस्य सामान्यो यः पिण्डः, तस्य भक्तादेः, पात्रस्य पतद्ग्रहलक्षणस्य, उपलक्षणत्वादु-पध्यन्तरस्य च, पात्रे वाऽधिकरणे, लाभो दायकात्सकाशात् प्राप्तिः स साधारणपिण्डपात्रलाभः, तत्र सति, भोक्तव्य-मभ्यवहर्तव्यम् / परिभोक्तव्यं च केन कथम् ? इत्याह-संयतेन साधुना, (समियं ति) सम्यक्, यथाऽदत्तादानं भवतीत्यर्थः / सम्यक्त्वमेवाऽऽह - न शाकसूपादिकम्, साधारणस्य पिण्डस्य शाक सूपाधिके भागे भुज्यमाने सङ्घादिके साधोरप्रीतिरुत्पद्यते। ततस्तददत्तं भवति / तथा-न खलु धनं प्रचुरं, प्रचुरभोजनेऽप्यप्रीतिरेव, प्रचुरभोजनता च साधारणे पिण्डे भोजकान्तरापेक्षया वेगेन भुज्यमाने भवतीति। तन्निषेधायाह-नवेगितं, ग्रासस्य गिलने वेगवत् / न त्वरितं मुखक्षेपे; न चपलं हस्तग्रीवादिरूपकायचलनवत् / न साहसमवितर्कितम्, अत एव न च परस्य पीडाकरं च तत्सावा चेति परस्यपीडाकरं सावद्यम्, किंबहुनोक्तेन ? तथा भोक्तव्यं संयतेन नित्यं यथा (से) तस्य संयतस्य, तद्वा, तृतीयव्रतं न सीदति भ्रश्यति / दुरीक्षं चेदं, सूक्ष्मत्वात् / इत्यत आहसाधारण पिण्डपात्रे लाभे विषयभूते सूक्ष्म सुनिपुणमतिरक्षणीयत्वादणुकमपि तदित्याह- अदत्तादानविरमणलक्षणेन व्रतेन यन्नियमनमात्मनो नियन्त्रणं तत्तथा / पाठान्तरेण- अदत्तादानाद् व्रतमिति बुद्ध्या नियमेनावश्यतया / यद्विरमणं निवृत्तिस्तत्तथा / एतन्निगमयन्नाह- एवमुक्तन्यायेन साधारण-पिण्डपात्रलाभे विपयभूते समितियोगेन सम्यक्प्रवृत्तिसंबन्धेन भावितोभवत्यन्तरात्मा। किंभूतः ? इत्याह - 'निच्चमित्यादि' तथैव। पंचमगं साहम्मिएसु विणओ पउंजियव्वो। उवयरणपारणासु विणओ पउंजियो वायणपरियट्टणासु विणओ पउंजियव्वो, दाणग्गहणपुच्छणासु विणओ पउंजियव्वो, निक्खमण-. पवेसणासु विणओ पउंजियव्वो, अण्णेसु य एवमाइसु बहुसु कारणसतेसु विणओ पउंजिव्वो, विणओ वि तवो, तवो वि धम्मो, तम्हा विणओ पउंजियव्वो गुरुसु साहुसु तवस्सीसु य, एवं विणएण भाविओ भवति अंतरप्पा निचं अहिकरणकरणकारावणपावकम्मविरते दत्तमणुण्णायउग्गहरुयी / / 5 / / (पंचमगं ति) पञ्चमं भावनावस्तु। किं तदित्याह-साधर्मिकेषु विनयः प्रयोक्तव्यः / एतदेव विषयभेदेनाह - (उवकरणपारणासु ति) आत्मनोऽन्यस्य वा उपकरणं ग्लानाद्यवस्थायामन्येनोप-कारकरणम्, तच पारणे तपसः श्रुतस्कन्धादिश्रुतस्य पारगमनम्, उपकरणपारणे, तयोः विनयः प्रयोक्तव्यो, विनयश्वेच्छा-कारादिदानेन बलात्कारपरिहारादिलक्षण एकत्र, अन्यत्र च गुर्वनुज्ञया भोजनादिकृत्यकरणलक्षणः। तथा-वाचना सूत्रग्रहणं, परिवर्तना तस्यैव गुणनम्, तयोविनयः प्रयोक्तव्यो वन्दना-दिदानलक्षणः / तथा- दानं लब्धस्यान्नादेग्लानादिभ्यो वितरणं, ग्रहणं तु तस्यैव परेण दीयमानस्यादानम्, प्रच्छना विस्मृत-सूत्रार्थप्रश्रः, एतासु विनयः प्रयोक्तव्यं, तत्र दानग्रहणयोर्गु-र्वनुज्ञालक्षणः / प्रच्छनायां तु वन्दनादिर्विनयः / तथा निष्क्रमण-प्रवेशनायास्तु आवश्यिकीनैषध्यादिकरणम् / अथवा हस्तप्रसारणपूर्वकं प्रमार्जनानन्तरं पादविक्षेपलक्षणः / किं बहुना प्रत्येक विषयभणनेनेत्यत आह-अन्येषु चैवभादिकेषु कारणशतेषु विनयः प्रयोक्तव्यः / कस्मादेवमित्याह(विनयोऽपि) न केवलमन-शनादितपः, अपितु विनयोऽपि तपो वर्तते, आभ्यन्तरतपोभेदेषु पठितत्वात्तस्य / यद्येवं ततः किम् ? अत आहतपोऽपि धर्मः, न केवलं संयमो धर्मः, तपोऽपि धर्मो वर्तते, चारित्रांशत्वात्तस्य। यत एवं तस्माद्विनयः प्रयोक्तव्यः। केषु? इत्याहगुरुषु साधुषु तपस्विषु च अष्टमादिकारिषु ; विनयप्रयोगे हि तीर्थकराद्यनुज्ञा-स्वरूपादत्तादानविरमणं परिपालितं भवतीति पञ्चमभावना-निगमनार्थमाह-एवमुक्तन्यायेन भावितो भवत्यन्तरात्मा। किंभूतः? - 'नित्यमित्यादि' पूर्ववत्॥ एवमिणं संवरस्सदारं सम्मंचरियं होइसुपणिहियं इमेहिं पंचहिं वि कारणेहिं मणवयणकायपरिरक्खिएहिं निचं आमरणंतं च एस जोगो नेयवो धिइमया मइमया अणासवो अकलुसो अच्छिद्दो अपरिस्साई असंकिलिट्ठो सुद्धो सव्वजिणमणुण्णाओ, एवं तइयं संवरदार फासियं पालियं सोहियं तिरियं किट्टियं सम्मं आराहियं आणाए अणुपालियं भवति, एवं नायमुणिणा भगवया पण्णवियं परूवियं पसिद्धं सिद्धिवरसासणमिणं आघवियं सुदेसियं पसत्थं ततियं संवरदारं सम्मतं त्ति बेमि / इदं च निगमनसूत्रं पुस्तकेषु किञ्चित् साक्षादेव यावत्करणेन चदर्शितम्। व्याख्या चास्य प्रथमसंवराऽध्ययनवदवसेयेति समाप्तभष्टमाऽध्ययनविवरणम्। प्रश्न०३ संव० द्वा०! अदत्ता(दिण्णा)लो यण-त्रि० (अदत्तालोचन ) अदत्ता Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदत्तालोयण 546 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अदुगुंछिय गुरुपुरतोऽप्रकटिता, आलोचना-आलोचनाहं पापं येन | पूर्वमनुपलब्धादायकाल्लाभो यस्यास्ति सतथा। औ०। तेन वा चरतीति सोऽदत्तालोचनः / अकृतालोचने, ग०१ अधि०। अदृष्टलाभिकः / अभिग्रहविशेषधारके भिक्षाचरके, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। अदत्ताहार पुं० (अदत्ताहार) चौरे, "अदत्ताहारा था से अवहरंति रायाणो | अदिवसार-त्रि० (अदृष्टसार) अगीतार्थे , पं० चू। वा से विलुपंति"। आचा० 1 श्रु०२ अ०३ उ०। अदिट्ठहट्ठ-त्रि० (अदृष्टहृत) अदृष्टोत्क्षेपनिक्षेपपदमानीते, ध० 2 अदभ-त्रि० (अदभ्र)न० त०। दम्भ-रक्। दभ्रमल्पम्, न दभ्रमद-भ्रम् / अधि०। आव०। भूर्यर्थे (अनल्पे), जं०३ वक्षः। अदिट्ठाणुभाव-पुं० (अदृष्टानुभाव) क० स०। अदृष्टफलविपाके, विशे०। अदभवाह-त्रि० (अदभ्रवाह) अदभ्रं वहतीति अदभ्रवाहः / / अदिण्ण-त्रि० (अदत्त) स्वामिजीवतीर्थकरगुरुभिरवितीर्णे, स्था० भूरिवाहके ऽश्वादौ, "अदब्भवाहं अमेलनयण कोकासिय 1 ठा० 1 उ०।"अदिण्णे से वि अ पिबित्तए' औ० / परकीये द्रव्ये, बहलपत्तलऽच्छं"। 03 वक्ष०। आचा०८ अ०१०। अदय-त्रि० (अदय) निर्दये, नि० चू०२ उ01 अदैन्य-न०। अदीनभावे, द्वा० 12 द्वा०। अदलंत-त्रि०(अददत्) अददाने, व्य०२ उ०। अदिण्णवियार-त्रि० (अदत्तविचार) न दत्तो विचारः प्रवेशो यत्र अदस-त्रि० (अदश) दशारहिते, दश०७अ०। तान्यदत्तविचाराणि।अननुज्ञातप्रवेशेषु कोष्ठिकादीनांगृहेषु, व्य०८ उ०। अदारुय-त्रि०(अदारुक) काष्ठादिरहिते, तं०। अदित्त-त्रि० (अदृप्त) न० त०। दर्परहितेशान्ते, बृ० 1 उ०। अदिज-त्रि० (अदेय) न० ब०। क्रयविक्रयनिषेधेन अविद्यमान-दातव्ये अदिस्स-त्रि० (अदृश्य) न० त०। चक्षुषोऽविषये, उत्त०२३अ०। "पच्छन्ने नगरादौ, भ०११ श०११ उ०। यत्र हि न केनापि कस्यापि देयमिति। आहारनीहारे अदिस्से मंसचक्खुणा' स०३४ सम०। जं०३ वक्ष०ा कल्प०। अदिस्समाण-त्रि० (अदृश्यमान) अनुपलभ्यमाने, आव० 5 अ०। अदिट्ठ-त्रि० (अदृष्ट) न० त० अनुपलब्धे, ज्ञा० 16 अ०। "तेसिमवि अनुपदिश्यमाने, आचा०१ श्रु०३ अ०२ उ०। वरायाणमदिट्ठकल्लाणाणमहमिदमयन्भुयं किंपि संपादयामीति" आ० अदीण-त्रि० (अदीन) अक्षुभिते दीनाकाररहिते, प्रश्न०१ संव० द्वा० / चू०१ अ० / प्रागजन्मकृतकर्मणि, नं०। द्वा०। आ० म०। विशे०। शोकाभावात् / अन्त०७ वर्ग / प्रसन्नमनसि स्वभावस्थे, नि० चू० आव०। भ०। (अदृष्टसिद्धिः 'कम्म' शब्दे तृतीयभागे 243 पृष्ठे द्रष्टव्या) ३उ०। नैयायिकसम्मते गुणभेदे, 'कर्तृफलदाय्यात्मगुण आत्ममनःसंयोगजः स्वकार्यविधिर्धर्मा-ऽधर्मरूपतया भेदवान् - अदृष्टाख्यो गुणः' इति अदीणचित्त-त्रि०(अदीनचित्त) अदैन्यवन्मानसे, पञ्चा०१८ विव०। वैशेषिकैः परोक्षा दृष्टस्वरूपमुपवर्णितम्। कर्तुः प्रियहितमोक्षहेतुर्धर्मः; अदीणमणस-त्रि० (अदीनमनस्) अदीनं मनो यस्य स अदीनअधर्मस्तु-अप्रियप्रत्यवायहेतुरिति। एतच्च तत्समवायिकारणस्यात्मनो मनाः / सूत्रत्वाददीनमनाः अदीनमानसो वा / उत्त० 2 अ०। मनस आत्ममनःसंयोगस्य च निमित्तासमवायिकारणत्वेनाभ्युपगतस्य अनिष्प्रकम्पचित्ते, आ० म०प्र०। निषेधात् कारणाभावे कार्यस्याप्यभावात् सर्वमनुपपन्नम् / सम्म० / अदीणया-स्त्री० (अदीनता) अशनाद्यलाभेऽपि वैक्लव्याभावे, अदृष्टधर्मणि पुरुषे, व्य०१० उ०। द्वा०२७ द्वा०! तद्रूपे भिक्षुलिङ्गे, दश० 10 अ०। अदिट्ठदेस-पुं० (अदृष्टदेश) अदृष्टपूर्वदेशान्तरे, व्य० 10 उ०। अदीणवित्ति-त्रि० (अदीनवृत्ति) आहाराद्यलाभेऽपि शुद्धवृत्तौ, दशा०६ अदिट्ठधम्म (ण)-त्रि० (अदृष्टधर्मन्) न० ब० / सम्यगनुपल- अ०। श्रुतादिधर्मिणि, दश० 1 अ०।दशा०। अदीणसत्तु-पुं० (अदीनशत्रु) कुरुदेशनाथे हस्तिनागपुरवास्तव्ये अदिट्ठभाव-पुं० (अदृष्टभाव) आवश्यकादिश्रुतमदृष्टवति, बृ०१३०॥ स्वनामख्याते राजनि, स्था० 5 ठा०१ उ०। ज्ञा० / “अदीणसत्तुस्स अथादिमादृष्टभावद्वारं विवृणोति रण्णो धारणीपामोक्खाणं देवीसहस्सं उरोहेया वि होत्था'। विपा०२ आवासगमाईया, सूयगडा जाव अइमा भावा। श्रु०१अ०। ते उण दिट्ठा जेणं, अदिट्ठभावो हवइ एसो।।१।। अदु-अव्य० (अथ) अथशब्दो निपातः। निपातानामनेकार्थत्वाद् अत आवश्यकादयः सूत्रकृताङ्गं यावत् ये आगमग्रन्थास्तेषु ये पदार्था इत्यस्यार्थे, सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ उ०। आनन्तर्ये, आचा०६ अ०१ अभिधेयास्ते आदिमा भावा उच्यन्ते, (ते उ) ते पुनर्भावा येन न दृष्टा उ०। नावगताः स एषोऽदृष्टभाय इति / उपलक्षणत्वादादिमा-दृष्टभावो | अदुक्खणया-स्त्री० (अदुःखनता) दुःखस्य करणं दुःखनं, तदविद्यमानं भवतीति / बृ०१ उ०। यस्यासायदुःखनः, तद्भावस्तत्ता। अदुःखकरणे, भ०७ श०६ उ० / अदिट्ठलाभिय-पुं० (अदृष्टलाभिक) अदृष्टस्यापि अपवारका दुःखोत्पादने मानसिकाऽसातानुदीरणे, पा० / ध०। दिमध्यान्निर्गतस्य श्रोत्रादिभिः कृतोपयोगस्य भक्तादेरदृष्टाद् वा | अदुगुंछिय-त्रि० (अजुगुप्सित) अगर्हिते, “अदुगुंछियमणग Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदुगुंछिय 547 - अभिधानराजेन्द्रः-भाग 1 अद्दइज्ज रहियमणवजमिमं वि एगट्ठा' / आ० म० द्वि० / सामायिके, अनिदं च | वारादयो येन आप-दन् ह्रस्वश्च / वत्सरे, वाच०। अदुगुंछितमणगरहितंअणवलंचेव एगट्ठा" |आ० चू०१अ01 अनिन्दिते, *अर्द-पुं० / अदर्यते गम्यतेऽनेनेति अर्दः / आकाशे, भ० 20 श० ओ०1 2 उ०। अदुट्ठ-त्रि० (अदुष्ट) न० त०। दोषरहिते, प्रश्न 1 संव० द्वा०। *आर्द्र-त्रि० अर्द-रक् दीर्घश्च / क्लिन्ने सरसे सजले वस्तुनि, सूत्र० *अद्विष्ट-त्रि० / द्वेषरहिते, प्रश्न०१ संव० द्वा० अस्य निक्षेपाऽर्थसूत्रकृताङ्ग नियुक्तिकृदाहअदुट्ठचेत (स)-त्रि० (अदुष्टचेतस्) 6 ब० / अकलुषान्तःकरणे, नाम ठवणा अई, दव्वई चेव होइ भाव // "तितिक्खए णाणि अदुठ्ठचेयसा"। आचा०१ श्रु० 5 अ०४ उ०। एसो खलु अद्दझओ, निक्खेवो चउविहो होइ / / 1 / / अदुत्तरं-अव्य० (अथापर) अतोऽनन्तरमित्यर्थे , ''अदुत्तरं च णं (नाम ठवणा अद्दमित्यादि) नामस्थापनाद्रव्यभावभेदाचतुर्धाऽऽर्द्रकस्य गोयमा!पभूणंचमरे असुरिंदे" अथापरं चेदंच सामर्थ्या-तिशयवर्णनम्। निक्षेपो द्रष्टव्यः। भ०३ श०१ उ०।“अदुत्तरं च णं मम समणा णिग्गथा" ज्ञा०१अ०। तत्रनामस्थापने अनादृत्य द्रव्याद्रप्रतिपादनार्थमाहजी०। उदगई सार,छविअदं खलु तहा सिणेहई / / अदुय-न० (अद्रुत) अशीघे, भ०७ श०६ उ०। एयं दव्वहं खलु, भावेणं होइ राग / / / अदुयत्त-न० (अद्रुतत्व) सप्तविंशे सत्यवचनातिशये, स०३५ सम०॥ (उदगद्दमित्यादि) तत्रद्रव्या द्विधा-आगमतोनोआगमतश्च आगमतो अदुयबंधण-न० (अद्रुतबन्धन) दीर्घकालिकबन्धने, सूत्र० 2 श्रु० 2 ज्ञाता, तत्र चानुपयुक्तोऽनुपयोगो द्रव्यमितिकृत्वा / नोआगमतस्तु अ०। ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तम् / यदुदकेन मृत्तिकादिकं द्रव्यमार्दीकृतं अदुवा-अय्य० (अथवा) पक्षान्तरोपन्यासद्वारेणाऽभ्युच्चयोप- तदुदकाम्। सारार्द्रतु-यबहिः शुष्कार्द्रमप्यन्तर्मध्ये सार्द्रमास्ते, यथादर्शने, आचा०१ श्रु०१ अ०३ उ०। सूत्र०। श्रीपर्णसौवर्चलादिकम् 'छविअहं' तु-यत् स्निग्धत्वगद्रव्यं अदूर-त्रि० (अदूर) न० त०। अविप्रकृष्ट, भ०१ श०१ उ०। मुक्ताफलरक्ताशोकादिकं तदभिधीयते, वसयोपलिप्तं वासार्द्रम् / तथा अदूरग (य)-त्रि०(अदूरग) शरीराऽनतिभेदके शल्ये कण्टकादौ, पञ्चा० श्लेष्मा चक्रलेपाद्युपलिप्तं स्तम्भकुड्यादिकंयव्यं तत्स्निग्धाकारतया 16 विव०। परस्परसमीपवर्तिनि, सूत्र०१ श्रु०४ अ०२ उ०। श्लेष्मामभिधीयते / एतत्सर्वमप्युद-कादिकं द्रव्यामेवाभिधीयते, खलु- शब्दस्यैवकारार्थत्वात्। भावाऽर्द्रतुपुनः रागस्नेहाभिष्वङ्गः, तेनार्दै अदूरगेह-न० (अदूरगेह) प्रत्यासन्नप्रातिवेश्मिकगृहे, बृ०२ उ०। यजीवद्रव्यं तद्भावामित्यभिधीयते। अदूरसामंत-पुं० (अदूरसामन्त) दूरं विप्रकृष्टं, सामन्तं च सन्निकृष्ट, साम्प्रतमार्द्रककुमारभधिकृत्यान्यथा तनिषेधाददूरसामन्तम् / नातिदूरे नातिसमीपे, भ० 1 0 1 उ० / द्रव्या प्रतिपादयितुमाहअनिकटाऽऽसन्ने उचितदेशे, औ०। ज्ञा०।"अज्जसुहम्मस्स अणगारस्स अदूरसामंते उद्धं जाणू जाव विहरति / नि०१ वर्ग। एगभविय बद्धाऊ, जो अभिमुहओ नामगोए य। अदूरागय-त्रि० (अदूरागत) समीपदेशं प्राप्ते, "अदूरागए बहुसंपत्ते अद्धाण एते तिन्नाऽऽदेसा, दवम्मि अहगे होंति॥३|| पडिवण्णे अंतरापहे वट्टइ" भ०२श०१ उ०। (एगभविय इत्यादि) एकेन भवेन यो जीवः स्वर्गादेरागत्याककुमाअदूसिय-त्रि० (अदूषित) अभिष्वङ्गेणाकलुषिते, पञ्चा० 6 विव०। रत्वेनोत्पत्स्यते / तथा- ततोऽप्यासन्नतरो बद्धायुष्कः / तथा अदेसकालप्पलावि(ण)-पुं० (अदेशकालप्रलापिन्) अदेश | ततोऽप्यासन्नतमोऽभिमुखनामगोत्रः, योऽन-न्तरसमयमेवार्द्रकत्वेन काले अनवसरप्रलपनशीलोऽनवसरप्रलापी। ('चंचल' शब्दे दर्शिते) समुत्पत्स्यते। एते त्रयोऽपि प्रकारा द्रव्याक द्रष्टव्या इति। भावार्द्रकं तुभाषाचपलभेदे, बृ०१ उ०। आर्द्रककुमार इति नगरभेदे, तदधिपतौ राजभेदे, तत्सुते, तवंशजेषु च / सूत्र०२ श्रु०६अ। काठिन्ययुक्ते, आनुगुण्ययुक्ते च। अश्चिन्यादिके अदेसाकालायरण-न० (अदेशाकालाचरण) प्रतिषिद्धो देशोऽदेशः, षष्ठे नक्षत्रे, स्त्री०। वाच०। आाया रुद्रो देवता।ज्यो०६ पाहु०। प्रतिषिद्धः कालोऽकालः, तयोरदेशाकालयोरचरणं चरणाभावःअदेशाऽकालाचरणम् / प्रतिषिद्धदेशकाल-योश्चरणाभावरूपे अद्दइज्ज-न० (आर्द्रकीय) आर्द्रकात्समुत्थितमध्ययनमार्द्रकीयम् / गृहिधर्मभेदे, अदेशाकालचारी हि-चौरा-दिभ्योऽवश्यमुपद्रवमाप्नोति; आर्द्रककुमारवक्तव्यताप्रतिबद्धे सूत्रकृताङ्गस्य द्वितीय-श्रुतस्कन्धस्य अदेशाकालाचरणं बलाबलविचारणम्। ध०१ अधि०। षष्ठेऽध्ययने, सूत्र०। अदोस पुं० (अद्वेष) तत्त्वविषयेऽप्रीतिपरिहारे, षो०१६ विव०। निरुक्तं तु विस्तरतो नियुक्तिकृतैवेत्थमुक्तम् - अद्द-पुं० (अब्द) अपो ददाति ! अप-दा-क / 6 तक। "सर्वत्र अहपुरा अद्दसुतो, नामेण अद्दगो य अणगारो। लवरामचन्द्रे"।८।२७६ / इति सूत्रेण वलोपः / प्रा० / मेघे, तत्तो समुट्ठियमिणं, अज्झयणं, अद्दइज्जं त्तिा मुस्तायांच, तस्याश्चात्यन्तशतिवीर्यत्वेन वैद्याकोक्लेमलमय-मूलत्याचा / (अहुपुरा इत्यादि) आर्द्रकायुष्कनामगोत्राण्यनुभवन् भायाो तथात्वम्, आप्यन्ते व्याप्यन्ते ऋजुमासपक्षतिथिनक्षत्रयोगकरण- | भवति / यद्यपि शृङ्ग बेरादीनामप्याक संज्ञाव्यवहारोऽस्ति Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहइज्ज 548 - अभिषानराजेन्द्रः - भाग 1 अङ्गकुमार तथापि नेदमध्ययनं तेभ्यः समुस्थितमतो न तैरिहाधिकारः। / (2) आर्द्रककुमारेण सह विवदमानस्य गोशालकस्य तीर्थकृद् किन्त्वार्द्रककुमाराभिधानगारात्समुत्थितमतस्तेनैवेहाधिकार इतिकृत्वा विषयेऽसूयाऽऽविष्करणम्। तद्वक्तव्यताऽभिधीयते। एतदेव नियुक्तिकृदाह (अद्दपुरा इत्यादि) अस्याः तत्रार्द्रककुमारस्य समाधानम्। समासे नायमर्थः- आर्द्रकपुरे नगरे आर्द्रको नाम राजा, अपगतरागद्वेषस्य प्रभाषमाणस्यापि दोषाभावः। तत्सुतोऽप्याकाभिधानः कुमारः, तद्वंशजाः किल सर्वेऽप्याकाभिधाना (5) बीजाधुपभोगिनोन श्रमणव्यपदेशभाजः। एव भवन्तीतिकृत्वा / स चानगारः संवृतः / तस्य च समवसरणाद्युपभोगवतोऽपि भगवतो न कर्मबन्धः। श्रीमन्महावीरवर्द्धमानस्वामिसमवसरणे गोशालकेन साहस्तितापसैश्च केवलां भावशुद्धिमेव मन्यमानस्य बौद्धस्य खण्डनम्। वादोऽभूत् / तेन च ते एतदध्ययनार्थापन्यासेन पराजिताः, अत (8) हिंसामन्तराऽपि मांसो न भक्षणीयः। इदमभिधीयते / ततस्तस्मादाकात्समुत्थित मिदमध्ययनमा- (8) आर्द्रककुमारेण सह ब्राह्मणानां विवादः। कीयमिति गाथासमासार्थः। व्यासार्थ तु स्वत एव नियुक्तिकृदाईकपूर्व- | (10) एकदण्डिभिः सहार्द्रककुमारस्योत्तरप्रत्युत्तराणि / भवोपन्यासेनोत्तरत्र कथयिष्यतीति। (11) तथा हस्तितापसैः सहोक्तिप्रत्युक्तयः। ननु च शाश्वतमिदं द्वादशाङ्ग, गणिपिट कमाद्रककथानकं तु | (1) तत्र तावत्पूर्वभवसम्बन्धि आर्द्रककथानकं गाथाभिरेव श्रीवर्द्धमानतीर्थावसरं, तत्कथमस्यशाश्वतत्वमित्याशाङ्क्याह नियुक्तिकृदाहकामं दुवालसंगं, जिणवयणं सासयं महाभागं / गामे वसंतपुरये, सामयिओ धरणिसहिओ निक्खंतो। सव्वज्झयणाइँ तहा, सव्वक्खरसण्णिवाओ य।।५।। भिक्खाऽऽयरिया दिट्ठा, ओहासिय भत्तवेहासं॥|| (काममित्यादि) काममित्येतदभ्युपगमे, इष्टमेवैतदस्माकम्।तद्यथा संवेगसमावन्ने, माइ भत्तं चइत्तु दियलोए। द्वादशाङ्ग मपि जिनवचनं शाश्वतं नित्यं महाभागं महानुभाव चइऊण अहपुरे, अद्दसुओ अद्दओ जाओ | मामर्षांषध्यादिऋद्धिसमन्वितत्वान्न केवलमिदं, सर्वाण्यप्यध्ययनान्येवं पीती य दोण्हि दूतो, पुच्छणमभयस्स पच्छ वेसो उ। भूतानि, तथा सर्वाक्षरसन्निपाताश्च मेलापका द्रव्यादिशा नित्या तेणावि सम्मदिट्ठि-त्ति होज पडिमाऽरहम्मि गओ |10|| एवेति // 5 // दतु संबुद्धो रक्खिओ य रायाण वाहणपलाओ। ननु च मतानुज्ञा नाम निग्रहस्थानं भवत इत्याशड्क्याह पव्वावंतो धरितो, रजंन करेति को अन्नो? // 11 // तह विय कोई अत्थो, उप्पञ्जति तम्मि समयम्मि। अगणिं तो निक्खंतो, विहरइ पडिमाइ दारिगा चइओ। पुव्वभणिओ अणुभतो, इति इसिभासिए य जहा ||6|| सुवरणवसुहाराओ, रन्नो कहणं च देवीए / / 12 / / वरआइ पिता तीसे, पुच्छण कहणं च वरण दोवारे। (तह वि य इत्यादि) यद्यपि सर्वमपीदं द्रव्यार्थतः शाश्वतं, तथापि कोऽप्यर्थस्तस्मिन्समये तथा क्षेत्रे च कुत्तश्चिदाकादेः सकाशादाविर्भा जाणाइ पायबिंब, आगमणं कहण निग्गमणं // 13|| वमास्कन्दति, स तेन व्यपदिश्यते / तथा पूर्वमप्यसावर्थोऽन्यमु पडियागए समीवे, सपरीवारा वि भिक्खुपडिवयणं / दिश्योक्तोऽनुमतश्च भवति, ऋषिभाषिते षूत्तराध्ययनादिषु यथेति। भोग सुतो पुच्छण सुत्तबंध पुत्ते य निम्गमणं ||14|| रायगिहागम चोरा, रायभया कहण ते सि दिक्खाया। सांप्रतं विशिष्टतरमध्ययनोत्थानमाह गोसालभिक्खुबंभी-तिदंडियातावसेहि सह वादो ||15|| अज्जद्दएण गोसालमिक्खुबंभवतितिदंडीणं / वादे पराइयत्ते, सव्वे विय समणमब्भुवगताओ। जह हत्थितावसाणं, कहियं इणमो तहा वोच्छं।७।। अगसहिया सव्वे, जिणवीरसामिनिक्खंता॥१६|| (अजहएणेत्यादि) आर्याईके ण समवसरणाभिमुखमुञ्चलिनेन (गामे इत्यादि गाथाष्टकम्) आसां चार्थः कथानकादवसेयः। तचेदम्गोशालकभिक्षोस्तथा ब्रह्मवतिनां त्रिदण्डिनां यथा हस्तितापसानां च मगधजनपदे वसन्तपुरग्रामः, तत्र सामयिको नाम कुटुम्बी प्रतिवसति कथितमिदमध्ययनार्थजातं तथा वक्ष्ये सूत्रेणेति / सूत्र०२ श्रु० स्म। स च संसारभयोद्विग्नो धर्मघोषाचार्यान्तिके धर्म श्रुत्वा सपत्नीकः ६अ। प्रव्रजितः। स च सदाचारतःसंविगैः साधुभिः सार्द्ध विहरति स्म, इतरा अद्दग-न० (आर्द्रक) अर्दयति रोगान।अर्द-अन्तर्भतण्यर्थे रक, दीर्घश्च, साध्वीभिः सहेति / कदाचिचासावेकस्मिन्नगरे भिक्षार्थमटन्तीं दृष्ट्वा संज्ञायां कन् / आर्द्रायां भूमौ जातं वा वुन् / आर्द्रयति जिह्वाम्, आर्द्र तामसौ तथाविधकर्मोदयात्पूर्वरतानुस्मरणेन तस्यामध्युपपन्नः, तेन णिच-बुन् वा / मूलप्रधाने वृक्षभेदे, आर्टिकाऽप्यत्र / स्त्री० / वाच० / चात्मीयोऽभिप्रायो द्वितीयस्य साधोर्निवेदितः, तेनापि चैतत् प्रवर्तिन्याः, शृङ्ग बेरे, आचा०२ श्रु०१अ०८ उ०। (आर्द्रकशब्दार्थो नगरभेदादिकं तयाऽपिचाभिहितम्-नमम देशान्तरे एकाकिन्यागमनं युज्यते। न चासो च'अद्द' शब्दे समुक्तम्)। तत्राप्यनुबन्धं त्यक्ष्यतीत्यतो ममास्मिन्नवसरे भक्तप्रत्याख्यानमेव श्रेयः, न पुनव्रतविलोपनम् / इत्यतस्तया भक्तप्रत्याख्यानपूर्वकमात्मोअद्ग(य)कुमार -पुं० (आर्द्रककुमार) आर्द्रकनामधेये कुमारे, स्था०२ बन्धनमकारि, मृता साऽगाच देवलोकम् / श्रुत्वा चैनं व्यतिकरमसौ श्रु०६ अ01 संवेगमुपगतः। चिन्तितंच तेन-तया व्रतभङ्गभयादिदमनुष्ठितम्, ममत्वसौ अथाऽर्द्रककुमारस्य निरवशेषा वक्तव्यता संजात एवेत्यतो-ऽहमपि भक्तप्रत्याख्यानं करोमीत्याचार्यस्या-निवेद्यैव (1) नियुक्तिकृन्मताभिप्रायेण संक्षिप्तमार्द्रककुमारकथानकम्। मायावी, परमसंवेगापन्नोऽसावपि भक्तं प्रत्याख्याय दिवं गतः। ततोऽपिच Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहगकुमार 549- अभिषानराजेन्द्रः - भाग 1 अहगकुमार प्रत्यागत्याऽऽर्द्रपुरे नगरे आर्द्रकसुत आर्द्रकाभिधानो जातः / साऽपि च तत्पादगता-भिज्ञानदर्शनतो जानामीति / तदेवमसौ तत्परिज्ञानार्थ देवलोकाचयुता वसन्तपुरे नगरे श्रेष्ठिकुले दारिका जाता। इतरोऽपिच सर्वस्य भिक्षार्थिनो भिक्षा दापयितुं निरूपिता / ततो द्वादशभिर्वर्गतैः परमरूपसंपन्नो यौवनस्थः संवृत्तः। अन्यदाऽसावाकपिता राजगृहनगरे कदाचिचासौ भवितव्यतानियोगेन तत्रैव विहरन्समायातः; प्रत्यभिज्ञातश्च श्रेणिकस्य राज्ञः स्नेहा-विष्करणार्थ परमप्राभृतोपेतं महत्तमं प्रेषयति तथा तत्पादचिह्नदर्शनतः / ततोऽसौ दारिका सपरिवारा तत्पृष्ठतो स्म / आर्द्रककुमारे-णासौ पृष्टः,यथा- कस्यैतानि महार्हाण्यत्युग्राणि जगाम / आर्द्रककुमारोऽपि देवतावचनं स्मरैंस्तथाविधकर्मोदयादवश्य प्राभृतानि मत्पित्रा प्रेषितानि यास्यन्तीति / असावकथयत्-यथा भवितव्यतानियोगेन च प्रति-भग्नस्तया सार्द्ध भुनक्ति स्म भोगान् / आर्यदेशे तव पितुः परममित्रं श्रेणिको महाराजः, तस्यैतानीति / पुत्रश्चोत्पन्नः / पुनरार्द्रक-कुमारणासावभिहिता-सांप्रतं ते पुत्रो द्वितीयः, आर्द्रककुमारे - णाप्यभाणि -किं तस्यास्ति कश्चिद्योग्यः पुत्रः ? अहं स्वकार्य-मनुतिष्ठामि / तया सुतव्युत्पादनार्थ कासकर्तनमाअस्तीत्याहा यद्येवं, मत्प्रहितानि प्राभृतानि भवता तस्य सर्मपणीयानीति रब्धम् / पृष्टा चासौ बालकेन-किमम्ब! एतद्भवत्या प्रारब्धमितरजनाभणित्वा, महाहाणि प्राभृतानि समाभिहितम् वक्तव्योऽसौ / चरितम् ? ततोऽसाववोचद् - यथा तव पिता प्रव्रजितुकामः, त्वं चाद्यापि मद्वचनाद्यथाऽऽर्द्रककुमारस्त्वयि स्निह्यतीति / स च महत्तमो शिशुरसमर्थोऽर्थार्जने, ततोऽहमनाथा स्त्रीजनोचिते-नानिन्छन गृहीतोभयप्राभृतो राजगृहमगात् / गत्वा च राजद्वारपालनिवेदितो विधिनाऽऽत्मानं भवन्तं च किल पालयिष्यामीत्येतदालोच्येदराजकुलं प्रविष्टः / दृष्टश्च श्रेणिकः / प्रमाणपूर्व निवेदितानि भारब्धमिति। तेनापि बालकेनोत्पन्नप्रतिभया तत्कर्तितसूत्रेणैव 'क्वायं प्राभृतानि / कथितं च यथा संदिष्टम् / तेनाप्यासनाशनताम्बूलादिना मद्बद्धो यास्यतीति तन्मनोऽनुकूलभाषिणोपविष्ट एवासौ पिता यथार्हप्रतिपत्त्या संमानितः / द्वितीये चाऽह्निआर्द्रककुमारसत्कानि परिवेष्टितः। प्राभृतान्यभयकुमारस्य समर्पितानि; कथितानि च तत्प्रीत्युत्पादकानि तेनापि चिन्तितम्-यावन्तोऽमी बालककृतवेष्टनतन्तवस्तावन्त्येव तत्संदिष्टवचनानि। अभयकुमारेणापि पारिणामिक्या बुद्ध्या परिणामितम् वर्षाणि मया गृहे स्थातव्यमिति / निरूपिताश्च तन्तवो यावद् द्वादश, नूनमसौ भव्यः समासन्नमुक्ति-गमनश्व, तेन मया सार्द्ध तावन्त्येव वर्षाण्यसौ गृहवासे व्यवस्थितः / पूर्णेषु द्वादशसु संवत्सरेषु प्रीतिमिच्छतीति / तदिदमत्र प्राप्तकालम् यदादितीर्थकरप्रतिकरप्रतिमा- गृहान्निर्गतः, प्रव्रजितश्चेति / ततोऽसौ सूत्रार्थनिष्पन्न एका-किविहारेण संदर्शनेन तस्यानुग्रहः क्रियते, इति मत्वा तथैव कृतम्। महार्हाणि च विहरन राजगृहाभिमुखं प्रस्थितः। तदन्तराले च तद्रक्षणार्थ यानि प्राक् प्रेषितानि प्राभृतानीति / उक्तश्च महत्तमः यथा- मत्प्रहितप्राभृतमेतदे- पित्रा निरूपितानि पञ्च राजपुत्रशतानि, तस्मिन्नश्वे नष्ट राजभयाद्वैलक्ष्याच कान्ते निरूपणीयम् / तेनापि तथैव प्रतिपन्नम् / गतश्वासावार्द्रकपुरम्। न राजान्तिक जग्मुः। तत्रा-टवीदुर्गेण चौर्येण वृत्तिं कल्पितवन्तः। तैश्वासौ समर्पितं च प्राभृतं राज्ञः, द्वितीये चाह्याककुमारस्येति / कथितं च दृष्टः प्रत्य-भिज्ञातश्च / तेच तेन पृष्टाःकिमिति भवद्भिरेवंभूतं कर्माश्रितम् ? यथासंदिष्टम्। तेनाप्येकान्ते स्थित्वा निरूपिता प्रतिमा।तांच निरूपयत तैश्च सर्व राजभयादिकं कथितम् / आर्द्रककुमारवचनाच संबुद्धाः ऊहाऽपोहविमर्शनेन समुत्पन्नं जातिस्मरणम्। चिन्तितं च तेन, यथा- प्रव्रजिताश्च / तथा राजगृहनगरप्रवेशे गोशालको, हस्तितापसाः, ममाऽभयकुमारेण महानुपकारोऽकारि सद्धर्मप्रतिबोधत इति। ब्राह्मणाश्च वादे पराजिताः / तथाऽर्द्रककुमारदर्शनादेव हस्ती ततोऽसावार्द्रक: संजातजातिस्मरणोऽचिन्तयत्-यस्य मम बन्धनाद्विमुक्तः / ते च हस्तितापसादय आर्द्रककुमारधर्मकथाक्षिप्ता देवलोकभोगैर्यथेप्सितं संपद्यमानस्तृप्ति भूत्तस्यामी-भिस्तुच्छानुषैः जिनवीर-समवसरणे निष्क्रान्ताः / राज्ञा च विदितवृत्तान्तेन स्वल्पकालीनैः कामभोगैस्तृप्तिर्भविष्यतीति कुतस्त्यम् ? महाकुतूहला-पूरितहृदयेन पृष्टः-भगवन् ! कथं त्वद्दर्शनतो हस्ती इत्येतत्परिगणय्य निर्विण्णकामभोगो यथोचित-भोगमकुर्वन् राज्ञा निर्गलः संवृत्तः ? इति महान् भगवतः प्रभाव इति / एवमभिहितः संजातभयेन मा क्वचिद्यायादित्यतः पञ्चभिः शतैः राजपुत्राणां सन्नाककुमारोऽब्रवीनवमगाथयोत्तरम् - रक्षयितुमारेभे / आर्द्रककुमारोऽप्यश्ववाहनिकया विनिर्गतः, प्रधानाश्चन ण दुक्करं वारण पासमोयणं, प्रपलायितः। ततश्च प्रव्रज्यां गृह्णन् देवतया सोपसर्ग भवतोऽद्यापि भणित्या गयस्स मत्तस्स वणम्मि रायं !! निवारितोऽप्यसावार्द्रको राज्यं तावन्न करोति स्म / कोऽन्यो मां विहाय जहा उ तत्थावलिएण तंतुणा, प्रव्रज्यां ग्रहीष्यतीत्य-भिसंधाय तां देवतामवगणय्य प्रव्रजितः सुदुक्करं मे पडिहाइ मोयणं / / 17 / / विहरन्नन्यदाऽन्यतर-प्रतिमाप्रतिपन्नः कायोत्सर्गव्यवस्थितो वसन्तपुरे (णदुक्करमित्यादि) न दुष्करमेतन्नरपाशैर्बद्धमत्तवारणस्य विमोचनं वने, तया देवलोका-युतया श्रेष्ठिदुहित्रा परदारिकामध्यगतया आरमत्येष राजन् ! एतत्तु मे प्रतिभाति दुष्करम्-यञ्च तत्रावलितेन तन्तुना बद्धस्य मम भर्ता' इत्येवमुक्ते सत्यनन्तरमेव तत्सन्निहितदेवतयाऽर्द्ध- मम प्रतिमोचनमिति। स्नेहतन्तवो हि जन्तूनांदुरुच्छेदा भवन्तीति भावः / त्रयोदशकोटिपरिमाणा "शोभनं वृतमनयेतिभणित्वा हिरण्य- गतमार्द्रककथानकम् / इति दर्शितं समासतो नियुक्तिकृताऽऽर्द्रकवृष्टिर्मुक्ता / तां च हिरण्यवृष्टिं राजा गृह्णन् देवतया सद्युत्थानतो विधृतः / कथानकम्।अथतदेव सूत्रकृद् व्यासेन दर्शयन्नाह - अभिहितं च तया यथैतद् हिरण्यं जातमस्या दारिकायाः, नान्यस्य (2) यथा च गोशालकेन सार्द्ध वादोऽभूदाककुमारस्य कस्यचिदित्यतस्तत्पित्रा सर्वं संगोपितम्। आर्द्रककुमारोऽप्यनुकूलोप . तथाऽनेनाध्ययनेनोपदिश्यतेसर्ग इति मत्वाऽश्वेनान्यत्र गतः / गच्छति च काले दारिकायाः वरकाः पुरा कडं अद्द ! इमं सुणेऽहं,समागच्छन्ति स्म। पृष्टौ च पितरौ तया-क्रिमेषामागमनप्रयोजनम् ? ऐगंतयारी समणे पुराऽऽसी। कथितं च ताभ्याम्-यथैते तव वरका इति / ततस्तयोक्तम्-तात ! से भिक्खुणो उवणेत्ता अणेगे, सकत्कन्याः प्रदीयन्ते, नानेकशः, दत्ता चाहं तस्मैयत्संबन्धि हिरण्यजातं __आइक्खति ण्डं पुढो वित्थरेण // 1 // भवद्भिगृहीतम् / ततः सा पित्राऽभाणि-किं त्वं तं जानीये? तयोक्तम्- 1 साजीविया पट्ठविताऽथिरेणं, Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगकुमार ५५०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अङ्गकुमार सभागओ गणओ भिक्खुमज्झे। आइक्खमाणो बहुजन्नमत्थं, न संधयाती अवरेण पुव्वं // 2 // तं च राजपुत्रकमाईककुमारं प्रत्येकबुद्धं भगवत्समीपमागच्छन्तं गोशालकोऽब्रवीत्- यथा हे आर्द्रक ! यैदहं ब्रवीमि तच्छृणु। पुरा पूर्व, यदनेन भवत्तीर्थकृता कृतं तचेदमिति दर्शयति- एकान्तेजन-रहिते प्रदेशे चरितुं शीलमस्येत्येकान्तचारी, तथा श्राम्यतीति श्रमणः, पुराऽऽसीत्तपश्चरणोधुक्तः, सांप्रतं तूणैस्तपश्चरणविशेषैनिभर्सितो मां विहाय देवादिमध्यगतोऽसौ धर्मं किल कथयति, तथा भिक्षून् बहूनुपनीय प्रभूतशिष्यपरिकरं कृत्वा भवद्विधानां मुग्धजनानामिदानी पृथक् पृथग्, विस्तरेणाचष्टे धर्ममिति शेषः ||1|| पुनरपि गोशालक एव 'सा जीविया' इत्याद्याह-येयं बहुजनमध्यगतेन धर्मदेशना युष्मद्-गुरुणाऽऽरब्धा सा जीविका प्रकर्षण स्थापिता प्रस्थापिता, एकाकी विहरन लौकिकैः परिभूयत इति मत्वा लोकपङ्क्तिनिमित्तं महान् परिकरः कृतः / तथा चोच्यते - "छत्रछात्रं पात्रं,, वस्त्रं यष्टिच चर्चयति भिक्षुः / वेषेण परिकरण च, कियताऽपि विना न भिक्षाऽपि" ||1|| तदनेन दम्भप्रदानेन जीविकार्थमिदमारब्धम् / किंभूतेन ? अस्थिरेण, पूर्व ह्ययं मया सार्द्धमेकाक्यन्तप्रान्ताशनेन शून्यारामदेवकुलादौ वृत्तिं क-ल्पितवान्, न च तथाभूतमनुष्ठानं सिकताकवलवन्निरास्वादं यावज्जीवं कर्तुमलम्, अतो मां विहायायंबहून् शिष्यान् प्रतार्यवंभूतेन स्फुटाटोपेन विहरतीत्यतः कर्तव्येऽस्थिरश्चपलः, पूर्वचर्या-परित्यागेनापरकल्पसमाश्रयात्। एतदेव दर्शयति-सभायां गतः सदेवमनुजपर्षदि व्यवस्थितो (गणओ ति) गणशो बहुशः, अनेकश इति यावत्। भिक्षूणांमध्ये गतो व्यवस्थितः, आचक्षाणो बहुजनेभ्यो हितो बहुजन्योऽर्थस्तमर्थ बहुजनहितं कथयन् विहरति / एतचास्यानुष्टानं पूर्वापरेण न संधत्ते / तथाहि- यदि सांप्रतीयं वृत्तं प्राकारत्रयं सिंहासनाशोकवृक्षभामण्डलचामरादिकं मोक्षाङ्गमभविष्यत्ततो या प्राक्तन्येकचर्या क्लेशबहुला तया कृता सा क्लशाय के वलमस्येति / अथ कर्मनिर्जरणहेतुका परमार्थभूता, ततः साम्प्रतावस्था परप्रतारकत्वाद् दम्भकल्पेत्यतः पूर्वोत्तरयोरनुष्ठानयोनिव्रतिकधर्मदेशनारूपयोः परस्परतो विरोध इति // 2 // अपिचएगंतमेवं अदुवा वि इण्हिं, दोवग्गमन्नं न समेति जम्हा। (एगंतमित्यादि) यद्येकान्तचारित्रमेव शोभनं, पूर्वमाश्रितत्वात्ततः सर्वदाऽन्यनिरपेक्षैस्तदेव कर्तव्यम् / अथ चेदं साम्प्रतं महापरिवारवृत्तं साधु मन्यते, ततस्तदेवादावप्याचरणीयमासीत् / अपि च-द्वे अप्येते छायाऽऽतपवदत्यन्तविरोधनीवृत्ते नैकत्र समवायं गच्छतः। तथाहि-यदि मौनेन धर्मस्ततः किमियं महता प्रबन्धेन धर्मदेशना ? अथाऽनयैव धर्मस्ततः किमिति पूर्वं मौनव्रतमाललाप? यस्मादेवं तस्मात्पूर्वोत्तरव्याहतिः। (3) तदेवं गोशालकेन पर्यनुयुक्त आर्द्रककुमारः श्लोकपश्चार्द्धनोत्तरदानायाहपुट्विं च इन्निं च अणागतं वा, एगंतमेवं पडिसंधयाति||३|| (पुट्विं चेत्यादि) पूर्वं पूर्वस्मिन्काले, यन्मौनव्रतिकत्वं, या | चैकचर्या, तच्छद्मस्थत्वाद् घातिकर्मचतुष्टयक्षयार्थम् / सांप्रतं यन्महाजनपरिवृतस्य धर्मदेशनाविधानं, तत् प्राग्बद्धभवोपग्राहिकर्मचतुष्टयक्षपणोद्यतस्य विशेषतस्तीर्थकरनाम्नो वेदनार्थम्, अपरासां चोचैर्गोत्रशुभायु मादीनां शुभप्रकृतीनामिति / यदि वा पूर्व साम्प्रतमनागते च काले रागद्वेषरहितत्वादेकत्वभावनाऽनतिक्रमणाचैकत्वमेवानुपचरितं भगवानशेषं जनहितं धर्मं कथयन् प्रतिसंदधाति। नतस्य पूर्वोत्तरयोरवस्थयोरा-शंसारहितत्वाद्भेदोऽस्ति, अतो यदुच्यते भवता पूर्वोत्तर-योरवस्थयोरसाङ्गत्यं, तत् प्लवत इति // 3 // एतद्धर्मदेशनया प्राणिनां कश्चिदुपकारो भवत्युत नेति ? भवतीत्याहसमिच लोगं तसथावराणं, खेमंकरे समणे माहणे वा। आइक्खमाणो वि सहस्समज्झे, एगंतयं सारयती तहचे // 4 // सम्यग्यथावस्थितं लोकं षड्द्रव्यात्मकं मत्वाऽवगम्य के-वलालोकेन परिच्छिद्य, त्रस्यन्तीति सास्त्रसनामकर्मोदयात्, द्वीन्द्रियादयः, तथा तिष्ठन्तीति स्थावराः स्थावरनामकर्मोदयात्, स्थावराः पृथिव्यादयः, तेषामुभयेषामपि जन्तूनां, क्षेमंशान्तिः-रक्षा, तत्करणशीलः क्षेमंकरः। श्राम्यतीति श्रमणः- द्वादश-प्रकारतपोनिष्टप्सदेहः / तथा - 'मा हण' इति प्रवृत्तिर्यस्यासौ माहनः, ब्राह्मणो वा, स एवंभूतो निर्ममो रागद्वेषरहितः, प्राणिहितार्थं न लाभपूजाख्यात्यर्थ धर्ममाचक्षाणोऽपि, प्राग्वत् छद्मस्थावस्थायां मौनव्रतिक इव वाक्संयत उत्पन्नदिव्यज्ञानत्वाद्भाषागुणदोषविवेकज्ञतया भाषणेनैव गुणावाप्तेः, अनुत्पन्नदिव्यज्ञानस्यतु मौनव्रतिकत्वेनेति। तथा- देवासुरनर-तिर्यक्सहस्रमध्येऽपि व्यवस्थितः, पङ्काधारपङ्कजवत्, तद्दोष-व्यासङ्गाभावात्। ममत्वविरहादाशंसादोषविकलत्वादे-कान्तमेवासौ सारयति - प्रख्याति नयति, साधयतीति यावत्। ननु चैकाकिपरिकरोपेतावस्थयोरस्ति विशेषः, प्रत्यक्षेणैवोपल भ्यमानत्वात् / सत्यमस्ति / विशेषो बाह्यतो, न त्वान्तरतोऽपीति दर्शयति-तथा प्राग्वत्, अर्चा लेश्या शुक्लध्यानाख्या यस्य स तथार्चः। यदि वाऽर्चा शरीरं, तच प्राम्वद्यस्य स तथार्चः / तथाहि असावशोकाद्यष्टप्रातिहार्योपेतोऽपि नोत्सेकं याति, नापि शरीरं संस्कारायत्तं विदधाति। स हि भगवानात्यन्तिकराग द्वेषप्रहाणादेकाक्यपि जनपरिवृतो, जनपरिवृतोऽप्येकाकी, न तस्य तयोरवस्थयोः कश्चिद्विशेषोऽस्ति / तथा चोक्तम्- "रागद्वेषौ विनिर्जित्य, किमरण्ये करिष्यसि ? अथ नो निर्जितावेतौ, किमरण्ये करिष्यसि ?" ||1|| इत्यतो बाह्यतनं गमनान्तरमेव कषायजयादिकं प्रधानं कारणमिति स्थितम् // 4 // (4) अपगतरागद्वेषस्य प्रभाषमाणस्यापि दोषाभावं दर्शयितुमाहधम्मं कहंतस्स उणत्थि दोसा, खंतस्स दंतस्स जितिंदियस्स। भासायदोसे य विवज्जगस्स, गुणे य भासाय णिसेवगस्साशा तस्य भगवतोऽपगतघनघातिकलङ्कस्योत्पन्नसकलपदार्था Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्गकुमार 551- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अहंगकुमार विर्भावज्ञानस्यजगदभ्युद्धरणप्रवृत्तस्यैकान्तपरहितप्रवृत्तस्य स्वकार्यनिरपेक्षस्य धर्म कथयतोऽपि, तुशब्दस्य अपि शब्दार्थत्वात्, नास्ति कश्चिद्दोषः / किंभूतस्य ? इत्याह क्षान्तिसंपन्नस्य, अनेन क्रोधनिरासमाह / तथा दान्तस्योपशान्तस्य, अनेन मानव्युदास-माहा तथा-जितानि स्वविषयप्रवृत्ति-निषेधेनेन्द्रियाणियेन स जितेन्द्रियः, अनेन तु लोभनिरासमाचष्टे / मायायास्तु लोभनिरासा-देव निरासो द्रष्टव्यः, तन्मूलत्वात्तस्याः | भाषादोषाः असत्यसत्या मूषक शाऽसभ्यशब्दोचारणादयः तद्विवर्जक स्य तत्परिहर्तुः। तथा-भाषाया ये गुणाः,हित मितदेशकालासंदिग्धभाषणादयः। तन्नि-वेधकस्य सतो ब्रूवतोऽपि नास्ति दोषः / छद्मस्थस्य हि बाहुल्येन मौनव्रतमेव श्रेयः, समुत्पन्नकेवलस्य तु भाषणमपि गुणायेति / / 5 / / किंभूतं धर्ममसौ कथयति ? इत्याहिमहव्वए पंच अणुव्व एय, तहेव पंचासव संवरे या विरतिं इह सामणियम्मि पन्ने, लवादसप्पी समणे त्ति बेमि / / 6 / / महान्ति च तानि व्रतानि प्राणातिपातविरमणादीनि, तानि च साधूनां प्रज्ञापितवान् पञ्चापि / तदपेक्षयाऽणूनि लघूनि व्रतानि पञ्चैव, तानि श्रावकानुद्दिश्य प्रज्ञापितवान्। तथैव पञ्चाश्रवान् प्राणातिपातादिरूपान् कर्मणः प्रवेशद्वारभूतान; तत्संवरं च सप्तदशप्रकारं संयम प्रतिपादितवान् / संवरवतो हि विरतिर्भवत्यतो विरतिं च प्रतिपादितवान् / चशब्दात्तत्फलभूतौ निर्जरामोक्षौ च। इहास्मिन् प्रवचने, लोके वा, श्रमणस्य भावः श्रामण्यं-संपूर्णः संयमः, तस्मिन् वा विधेये मूलगुणान् महाव्रताणुव्रतरूपान, तथाउत्तरगुणान् महाव्रताणुव्रतरूपान्, कृत्स्ने संयमे विधातव्ये / प्राज्ञ इति क्वचित्पाठः / प्रज्ञाने तत्प्रतिपादितवानिति / किंभूतोऽसौ ? लवं कर्म, तस्मात् (अवसप्पी ति) अवसर्पणशीलोऽवसी,श्राम्यतीति श्रमणः तपश्चरणयुक्तः, इत्येतदहं ब्रवीमि / स्वयमेव च भगवान्पञ्चमहाव्रतोपपन्न इन्द्रियनोइन्द्रियगुप्तो विरतश्चासौ लवावसी सन् स्वतोऽन्येषामपि तथाभूतमुपदेशं दत्तवान्, इत्येतद् बवीमीति / यदि वाऽऽर्द्रक कुमारवचनमाकाऽसौ गोशालकस्तत्प्रतिपक्षभूतं वक्तुकाम इदमाह- इत्येतद्वक्ष्यमाणं यदहं ब्रवीमि तच्छृणु त्वम्, इति॥६॥ यथाप्रतिज्ञातमेवाह गोशालकः-- सीओदगं सेवउ बीयकायं, आहायकम्मं तह इत्थियाओ। एगंतचारिस्सिह अम्हधम्मे, तवस्सिणो णाभिसमेति पावं |7|| भवतेदमुद्ग्राहितम्-परार्थं प्रवृत्तस्याशोकादिप्रातिहार्यपरिग्रहः, तथा शिक्षादिपरिकरो, धर्मदेशना च, न दोषायेति यथा, तथाऽस्माकमपि सिद्धान्ते यदेतद्वक्ष्यमाणं, तन्न दोषायेति / शीतं च तदुदकं च शीतोदकमप्रासुकोदकम्; तत्सेवनं परिभोगं करोतु, तथा-बीज कायोपभोगम, आधाकर्माश्रयणं, स्त्रीप्रसङ्ग च विदधातु, अनेन च स्वपरोपकारः कृतो भवतीति / अस्मदीये धर्मे प्रवृत्तस्य एकान्तचारिण आरामोद्यानादिष्वेकाकिविहारोद्यतस्य तपस्विनो नाभिसमेतिनाभिसंबन्धमुपयाति पापमशुभकर्मेति / इदमुक्तं भवति-एतानि शीतोदकादीनि यद्यपीषत्कर्मबन्धाय, तथापि धर्माधारं, शरीर प्रतिपालयत एकान्तचारिणस्तपस्विनो बन्धाय न भवन्तीति / / 7 / / (5) बीजाद्युपभोगिनो न श्रमणव्यपदेशभाजःसीतोदगं वा तह बीयकायं, आहायकम्मं तह इत्थियाओ। एयाइँ जाणं पडिसेवमाणा, अगारिणो अस्समणा भवंति||८|| एतत्परिहतुकाम आह-एतानि प्रागुपन्यस्तानि अप्रासुकोदकपरिभोगादीनि प्रतिसेवन्तोऽगारिणो गृहस्थास्ते भवन्त्यश्रमणाश्वाप्रव्रजिताश्चैवं जानीहि / यतः-"अहिंसा सत्यमस्तेयं, ब्रह्मचर्यमलुब्धता'' इत्येतच्छ्रमणलक्षणं चैषां शीतोदक बीजाधाकर्मस्त्रीपरिभोगवतां नास्तीत्यतस्ते नामाकाराभ्यां श्रमणाः, न परमार्थानुष्ठानत इति॥८॥ पुनरप्याक एवैतदूषणायाहसिया य बीओदगइत्थियाओ, पडिसेवमाणा समणा भवंतु। अगारिणो वि य समणा भवंतु, सेवंति ऊ ते वि तहप्पगारं || स्यादे तद् भवदीयं मतं, यथा ते एकान्तचारिणः क्षुत्पिपासादिप्रधानतपश्चरणपीडिताश्च तत्कथं ते न तपस्विनः ? इत्येत. दाशङ्क्याऽऽर्द्रक आह-(बीओदग त्ति) यदि बीजाद्युपभोगिनोऽपि श्रमणा इत्येवं भवताऽभ्युपगम्यते, एवं तर्खगारिणोऽपि गृहस्थाः श्रमणा भवन्तु, तेषामपि देशिकावस्थायामाशंसावतामपि निष्किञ्चनतयैकाकिविहारित्वं, क्षुत्पिपासादिपीडनं च संभाव्यते / अत आह(सेवंति ऊ) तुरवधारणे, सेवन्त्येव, तेऽपि गृहस्थाः / तथाप्रकारमेकाकिविहारादिकमिति / / 6 / / पुनरप्याईको बीजोदकादिभोजिनां दोषाभिधित्सयाऽऽहजे याविबीओदगभोत्ति भिक्खू, भिक्खं वि हिंडंति य जीवियट्ठी। ते णातिसंजोगमविप्पहाय, कायोवगाऽणंतकरा भवंति|१०|| ये चापि भिक्षवः प्रव्रजिताः, बीजोदकभोजिनः सन्तो द्रव्यतो ब्रह्मचारिणोऽपि भिक्षां वाऽटन्ति जीवितार्थिनः, ते तथाभूताः, ज्ञातिसंयोगं स्वजनसंबन्धं, विप्रहाय त्यक्त्वा कायात्कायेषु चोपगच्छन्तीति कायोपगाः, तदुपमईकारम्भप्रवृत्तत्वात्, संसारस्यानन्तकरा भवन्तीति / इदमुक्तं भवति-केवलं स्त्रीपरिभोग एव तैः परित्यक्तोऽसावपि द्रव्यतः शेषेण तुबीजोदकाद्युपभोगेन गृहस्थकल्पा एव ते / यत्तु भिक्षाऽटनादिकमुपन्यस्यं तेषां, तद् गृहस्थानामपि केषांचित्संभाव्यते, नैतावता श्रमणभाज इति // 10 // अधुनैतदाकर्ण्य गोशालकोऽपरमुत्तरं दातुमसमर्थोऽन्यतीर्थ कान्सहायान् विधाय सोल्लुण्ठमसारं वक्तुकाम आहइमं वयं तु तुम पाउकुव्वं, पावाइणो गरिहसि सव्व एव। Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्गकुमार 552- अमिधानराजेन्द्रः-भाग 1 अहगकुमार पावाइणो पुढो किट्टयंता, जात्या तल्लिङ्गग्रहणोद्घट्टनेन वाऽभिधारयामो गर्हणाबुद्ध्योद्घट्टयामः, __ सयं सयं दिट्टि करेंति पाउ|११|| केवलं स्वदृष्टिमार्ग तदभ्युपगतं दर्शनं प्रादुष्कुर्मः प्रकाशयामः / तद्यथाइमां पूर्वोक्तां, वाचम् / तुशब्दो विशेषणार्थः, त्वं प्रादुष्कुर्वन्प्रकाश- "ब्रह्मा लूनशिरा हरिदृशि सरुग् व्यालुप्तशिश्नो हरः, यन्, सर्वानपि प्रावादुकान्, गर्हसि जुगुप्ससे, यस्मात्सर्वेऽपि तीथिका सूर्योऽप्युल्लिखितोऽनलोऽप्यखिलभुक्सोमः कलङ्काङ्कितः। बीजोदकादिभोजिनोऽपि संसारोच्छित्तये प्रवर्तन्ते, ते तु भवता स्वाथोऽपि विसंस्थुलः खलु वपुःसंस्थैरुपस्थैः कृतः, नाभ्युपगम्यन्ते। तेतु प्रावादुकाः पृथक् पृथक् स्वीयां स्वीयां दृष्टिं प्रत्येक सन्मार्गस्खलनाद्भवन्ति विपदः प्रायः प्रभूणामपि" ||1|| स्वदर्शनं कीर्तयन्तः, प्रादुष्कुर्वन्ति प्रकाशयन्ति / यदि वा इत्यादि / एतच्च तैरेव स्वागमे पठ्यते, वयं तु श्रोतारः केवलमिति। श्लोकपश्चार्द्धमार्द्रककुमार आह-सर्वे प्रावादुका यथावस्थितं स्वदर्शनं आर्द्रककुमार एव परपक्षं दूषयित्वा स्वपक्षसाधनार्थं श्लोकपश्चार्द्धनाहप्रादुष्कुर्वन्ति, तत्प्रामाण्याच वयमपिस्वदर्शनाविर्भावनं कुर्मः। तद्यथा (भग्गे त्ति) अयं मार्गः पन्थाः सम्यग्दर्शनादिकः कीर्तितो व्यावर्णितः। अप्रासुकेन बीजो दकादिपरिभो गिनः कर्मबन्ध एव के वलं, कैः? आर्यः, सर्वज्ञैरस्त्याद्यधर्मदूरवर्तिभिः / किंभूतो धर्मः ? नसंसारोच्छेद इतीदमस्मदीयं दर्शनमा एवं व्यवस्थिते काऽत्र परनिन्दा? नास्मादुत्तरः प्रधानो विद्यत इत्यनुत्तरः, पूर्वापराव्याहतत्वाद्, को वाऽऽत्मोत्कर्षः? इति // 11 // किञ्च यथावस्थितजीवादिपदार्थस्वरूपनिरूपणाच्च। किंभूतैरायः ? सन्तश्चते ते अन्नमन्नस्स विगरहमाणा, पुरुषाश्च सत्पुरुषास्तैश्चतुस्त्रिंशदतिशयोपेतैराविभूतसमस्तपदार्थाअक्खंति उसमणा माहणाय। विर्भावकदिव्यज्ञानैः। किंभूतोमार्गः? अजूव्यक्तः- निर्दोषत्वात्प्रकटः, सतोय अत्थी असतो य णत्थी, ऋजुर्वा; वक्रैकान्त-परित्यागादकुटिल इति॥१३॥ गरहाम दिह्रिण गरहाम किंचि / / 12 / / पुनरपिस्वसद्धर्मस्वरूपनिरूपणायाऽऽहते प्रावादुकाः, अन्योन्यस्य परस्परेण तु, स्वदर्शनप्रतिष्ठाऽऽशया उड्डं अहेवं तिरियं दिसासु, परदर्शनं गर्हमाणाः स्वदर्शनगुणानाचक्षते / तुशब्दात्परस्परतो तसाय जे थावर जे य पाणा। व्याहतमनुष्ठानं चानुतिष्ठन्ति / ते च श्रमणा निर्ग्रन्थादयो, ब्राह्मणा भूयाहिसंकाभिदुगुंछमाणा, द्विजातयः, सर्वेऽप्येतेस्वकं पक्षसमर्थयन्ति, परकीयं च दूषयन्ति / तदेव ___णो गरहती दुसिमं किंचि लोए॥१४॥ पश्चार्द्धन दर्शयति-(सतो त्ति) स्वत इति स्वकीये पक्षे स्वाभ्युपगमेऽस्ति उर्ध्वमधस्तिर्यक्ष्वेवं सर्वास्वपि दिक्षु प्रकारापेक्षया, भावपुण्यं, तत्कार्य च स्वर्गापवर्गादिकमस्ति।अस्वतः पराभ्युपगमाचनास्ति पुण्यादिकमित्येवं सर्वेऽपि तीर्थकाः परस्परव्याघातेन प्रवृत्ताः; अतो दिगपेक्षया वा, तासु ये त्रसाः, ये च स्थावराः प्राणिनः / चशब्दो वयमपि यथावस्थिततत्त्वप्ररूपणतो युक्तिविकलत्वादेकान्तदृष्टिं गहमिो स्वगतानेकभेदसंसूचकौ / भूतं सद्भूतं तथ्यं, तत्राभिशङ्कया तथ्यनिर्णयेन जुगुप्सामः, नासावेकान्तो यथावस्थिततत्त्वाविर्भावको भवतीत्येवं प्राणातिपातादिकं पातकं जुगुप्समानो गर्हमाणः; यदि वा भूताभिशङ्कया व्यवस्थिते तत्त्वस्वरूपं वयमाचक्षाणा न किञ्चिद् गर्हामः, सर्वसावधमनुष्ठान जुगुप्समानो नैव परलोकं कञ्चन गर्हति काणकुण्ठोद्घट्टनादिप्रकारेण केवलं स्वपरस्वरूपाविर्भावनं कुर्मः;नच निन्दति(बुसिमं ति) संयमवानिति / तदेवं रागद्वेषवियुक्तस्य वस्तुस्वरूपाविर्भावने परापवादः। तथा चोक्तम् - वस्तुस्वरूपाविर्भावने, न काचिद् गहेंति। अथ तत्रापि गर्दा भवति, तर्हि नेत्रर्निरीक्ष्य बिलकण्टककीटसान, न हृष्णोऽग्निः, शीतमुदकं, विषं मारणात्मकमित्येवमादि किञ्चिद्वस्तु. सम्यक् पथा व्रजत तान्परिहृत्य सर्वान्। स्वरूपमाविर्भावनीयमिति // 14 // कुज्ञानकुश्रुतिकुमार्गकुदृष्टिदोषान्, स एवं गोशालकमतानुसारी त्रैराशिको निराकृतोऽपि सम्यग्विचारयति कोऽत्र परापवादः? // 1 // इत्यादि। पुनरन्येन प्रकारेणाऽऽहयदि चैकान्तवादिनामेवास्त्येव नास्त्येव वाऽभ्युपगमवतामयं आगंतगारे आरामगारे, परस्परगर्हाख्यो दोषो नास्माकमनेकान्तवादिनां, सर्वस्यापि सदादेः समणे उभीते ण उदेति वासं। कथञ्चिदभ्युपगमात् / एतदेव श्लोकपश्चार्द्धन दर्शयति-(स्वत इति) दक्खा हु संते बहवो मणुस्सा, स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावैरस्ति।तथा-(परत इति) परद्रव्यादिभिनास्तीत्येवं ऊणाऽतिरित्ताय लवाऽलवाय॥१५|| पराभ्युपगमं दूषयन्तो गर्हामोऽन्याने-कान्तवादिनः। तत्स्वरूपनिरूपण स विप्रतिपन्नः सन्नाकमेवाह- योऽसौ भवत्संबन्धी तीर्थकरः स तस्तु रागद्वेषविरहान्न किश्चिद्-गर्हाम इति स्थितम्॥१२॥ रागद्वेषभययुक्तः / तथाहिअसावागन्तुकानां कार्पटिकादीनामगारएतदेव स्पष्टतरमाह मागन्तागारं, तथाऽऽरामेऽगारमारामागारं, तत्राऽसौ श्रमणो भवत्तीर्थकरः। ण किंचि रूवेणऽमिधारयामो, तुशब्द एवकारार्थे / भीत एवासौ तपोध्यंसनभयात्तत्रागन्तागारादौ न सदिहिमग्गं तु करेमि पाउं। वासमुपैति, न तत्रासन-स्थानशयनादिकाः क्रियाः कुरुते / किं तत्र मग्गे इमे किट्टिएँ आरिएहिं, भयकारणम् ? इति चेत्तदाह-दक्षा निपुणाः प्रभूतशास्त्रविशारदाः / अणुत्तरे सप्पुरिसेहिँ अंजू // 13 // हुशब्दो यस्मादर्थे / यस्माद्बहवः सन्ति मनुष्याः, तस्मादसौ तीतो न न कञ्चन श्रमणं, ब्राह्मणं वा; स्वरूपेण जुगुप्सिताङ्गावयवोद्घट्टनेन / वासं तत्र समुपैति न तत्र समातिष्ठते / किंभूताः, न्यूनाः स्वतोऽवमा Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहगकुमार 553- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अङ्गकुमार हीनाः, जात्याद्यतिरिक्ता वा, ताभ्यां पराजितस्य महाँश्छायाभंश इति। तानेव विशिनष्टिलपन्तीति लपा वाचालाः, घोषितानेकतर्कविचित्रदण्डकाः। तथा- न लपा मौनव्रतिका निष्ठतयोगाः, गुटिकादियुक्ता वा, यद्वशादभिधेयविषया वागेव न प्रवर्तते / ततस्तद्भयेनासौ युष्मत्तीर्थकृदागन्तागार दौ नैव व्रजतीति।।१५।। पुनरपि गोशालक एवाऽऽहमेहाविणो सिक्खिय बुद्धिमंता, सुत्तेहिँ अत्थेहिँ य णिच्छयन्ना। पुच्छिसु मा णे अणगार अन्ने, इति संकमाणो ण उवेति तत्थ।।१६|| मेधा विद्यते येषां ते मेधाविनो ग्रहणधारणसमर्थाः, तथाऽऽचार्यादः समीपे शिक्षा ग्राहिताः शिक्षिताः, तथौत्पत्तिक्यादि-चतुर्विधबुद्ध्युपेता बुद्धिमन्तः, तथा-सूत्रेऽपि सूत्रविषयेऽर्थे विनिश्चयज्ञाः, यथावस्थितसूत्रार्थवेदिन इत्यर्थः / ते चैवंभूताः सूत्रार्थविषयं मा प्रश्नमकार्षुः, अन्येऽनगरा एके केचन, इत्येवमसौ शङ्कमानस्तेषां बिभ्यन्न तत्र तन्मध्ये उपैत्युपगच्छतीति / ततश्च न ऋजुमार्ग इति, भययुक्तत्वात्तस्य / तथा-म्लेच्छविषयं गत्वा न कदाचिद्धर्मदेशनां च करोति, आर्यदेशेऽपिन सर्वत्र / अपितु कुत्रचिदेवेत्यतो विषमदृष्टित्वाद् रागद्वेषवय॑साविति / / 16 / / एतद् गोशालकमतं परिहर्तुकाम आर्द्रक आहणोऽकामकिच्चा ण य बालकिच्चा, रायामिओगेण कुओ भएणं?| वियागरेज्जा पसिणं नवा वि, सकामकिच्चं सिह आरियाणं / / 17|| स हि भगवान्प्रेक्षापूर्वकारितया नाकामकृत्योभवति, कमनं काम इच्छा; न कामोऽकामस्तेन कृत्यं कर्त्तव्यं यस्यासावकामकृत्यः, स एवंभूतो न भवति, अनिच्छाकारीन भवतीत्यर्थः / यो युत्प्रेक्षापूर्वकारितया वर्तते, सोऽनिष्टमपि स्वपरात्मनो निर-र्थकमपि कृत्यं कुर्वीत। भगवांस्तु सर्वज्ञः सर्वदर्शी परहितैकरतः कथं स्वपरात्मनोनिरुपकारकमेवं कुर्यात् ? तथा च-बालस्येव कृत्यं यस्य स बालकृत्यः, न चासो बालवदनालोचितकारी, न परानुरोधान्नापि गौरवाद्धर्मदेशनादिकं विधत्ते / अपि तु यदि कस्यचिद्भव्यसत्त्वस्योपकाराय तद्भाषितं भवति, ततः प्रवृतिर्भवति, नान्यथा / न राजाभियोगेनासौ धर्मदेशनादौ कथञ्चित्प्रवर्तते, ततः कुतस्तस्य भयेन प्रवृत्तिः स्यादित्येवं व्यवस्थिते केनचित्क्वचित्संशयकृतं प्रश्नं व्यागृणीयाद्, यदि तस्योपकारो भवत्युपकारमन्तरेण न च नैव व्यागृणीयाद्, यदि वाऽनुत्तरसुराणां मनःपर्यायज्ञानिनां च द्रव्यमनसैव तन्निर्णयसं भवादतो न व्यागृणीयादित्युच्यते / यदप्युच्यते भवता यदि वीतरागोऽसौ किमति धर्मकथां करोतीति चेदित्याशङ्कयाहस्वकामकृत्येन स्वेच्छाचारितयाऽसावपि तीर्थ कृन्नामकर्मणः क्षपणाय न यथाकथञ्चिदतोऽसावग्लानः, इहास्मिन् संसारे आर्यक्षेत्रे चोपकारयोग्ये आर्याणां हि सर्वहे यधर्मदूरवर्तिनां तदुपकाराय धर्मदेशनां व्यागृणीयादसाविति / किञ्चाऽन्यत् - गतां च तत्था अदुवा अगता, वियागरेजा समियाऽऽसुपन्ने। अणारिया दंसणओ परित्ता, इति संकमाणा ण उवेति तत्थ / / 18|| स हि भगवान् परहितैकरतो गत्वाऽपि विनेयासन्नम्, अथवा-ऽप्यगत्वा यथा भव्यसत्त्वोपकारो भवति तथा भगवन्तोऽर्हन्तोधर्मदेशनां विदधति। उपकारे सति गत्वाऽपि कथयन्ति, असति तु स्थिता अपिन कथयन्ति / अतो न तेषां रागद्वेषसंभव इति / केवलमाशुप्रज्ञः सर्वज्ञः समतया समदृष्टितया चक्रवर्त्तिद्रमकादिषु पृष्टो वा धर्म व्यागृणीयात्; "जहा पुण्णस्स कत्थइ तहा तुच्छरस कत्थई'' इति वचनात् / इत्यतो न रागद्वेषसद्भावस्तस्येति / यत्पुनरनार्यदशमसौ न व्रजति तत्रेदमाहआनार्याः क्षेत्रभाषा-कर्मभिर्बहिष्कृताः, दर्शनतोऽपि परि समन्तादिता गताः, प्रभ्रष्टा इति यावत् / तदेवमसौ भगवानित्येतत् तेषु सम्यग्दर्शनमात्रमपि कथंचिन्न भवति इत्याशङ्कमानस्तत्र न व्रजतीति। यदि वा विपरीत-दर्शनिनो भवन्त्यनार्याः शकयवनादयः, ते हि वर्तमानसुखमेवैकमङ्गीकृत्य प्रवर्तन्ते, न पारलौकिकमङ्गीकुर्वन्त्यतः सद्धर्मपराङ्मुखेषु तेषु भगवान्न याति, न पुनस्तद्-द्वेषादिबुद्ध्येति / यदप्युच्यतेत्वया यथाऽनेकशास्त्रविशारंदगुटिकासिद्धविद्यासिद्धादितीर्थकपराभवभयेन न तत्समाजे गच्छतीति / एतदपि बालप्रलपितप्रायम् / यतः सर्वज्ञस्य भगवतः समस्तैरपि प्रावादु कै मुखमप्यवलोकयितुं न शक्यते, वादस्तु दूरोत्सारित एवेत्यतः कुतस्तस्य पराभवः? भगवाँस्तु केवलालोकेन यत्रैव स्वपरोप-कारं पश्यति तत्रैव गत्वाऽपि धर्मदेशनां विधत्त इति // 18 // पुनरन्येन प्रकारेण गोशालक आहपन्नं जहा वणिए उदयट्ठी, आयस्स हेउं पगरेति संग। तओवमे समणे नायपुत्ते, इन्चेव मे होति मती वियको ||16|| यथा वणिक् कश्चिदुदयार्थी पण्यं व्यवहारयोग्यं भाण्ड कर्पूरागरुकस्तूरिकाम्बरादिकं देशान्तरंगत्वा विक्रीणाति, तथा आयस्य लाभस्य हेतोः कारणान्महाजनसङ्गं विधत्ते, तदु-पमोऽयमपि भवत्तीर्थकरः श्रमणो ज्ञातपुत्र इत्येवं मे मम मतिर्भवति, वितर्को मीमांसा वेति॥१९॥ एवमुक्तो गोशालकेनाईक आहनवं न कुजा विहुणे पुराणं, चिचाऽमइंताई स आह एव। पन्नावया वंभवतं ति वुत्ता, तस्सोदयट्ठी समणे त्ति बेमि // 20 // योऽयं भवता दृष्टान्तः प्रदर्शितः, स किं सर्वसाधर्म्यण, उत देशतः? यदि देशतस्ततोननः क्षतिमावहति। यतो वणिग्वद्यत्रैवोपचयं पश्यति तत्रैव क्रियां व्यापारयति, न यथा-कथञ्चिदित्येतावता साधर्म्यमस्त्येव / अथ सर्वसाधर्म्यणेति / तन्न युज्यते / यतो भगवान् विदितवेद्यतया सावद्यानुष्ठानरहितो नवं प्रत्यग्रं कर्म न कुर्यात् / तथाविधूनयत्यपनयति पुरातनं यद्भवोपग्राहिकर्म बद्धम् / तथा-त्यक्त्वा अमतिं विमति, त्रायी भगवान् सर्वस्य परित्राणशीलः, विमतिपरित्यागेन चैवंभूत एव भवतीति भावः / तायी वा मोक्ष प्रति। अय-वय-मय-पयचय-तय-णय गतावित्यस्य रूपम् / स एव भगवानेवाऽऽह- यथा विमतिपरित्यागेन चैवंभूत एव भवतीत्येतावता च संदर्भण ब्रह्मणो मोक्षस्य, व्रतं ब्रह्मव्रतमित्येतदुक्तम् / तस्मिँश्चोक्ते, तदर्थं वाऽनुष्ठाने Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्गकुमार 554 - अभिषानराजेन्द्रः - भाग 1 अङ्गकुमार क्रियमाणे तस्योदयार्थी श्रमण इति ब्रवीम्यहमिति // 20 // न चैवंभूता वणिज इत्येतदाककुमारो दर्शयितुमाहसमारभंते वणिया भूयगाम, परिग्गहं चेव ममायमाणा। ते णातिसंजोगमविप्पहाय, आयस्स हेउं पगरंति संगं / / 21 / / ते हि वणिजः, चतुर्दशप्रकारमपि भूतग्राम जन्तुसमूह, समारभन्ते तदुपमर्दिकाः क्रियाः प्रवर्तयन्ति, क्रयविक्रयार्थं शकटयानवाहनोष्ट्रमण्डलिकादिभिरनुष्ठानैरिति। तथा- परिग्रहं द्विपदचतुष्पदधनधान्यादिकं ममीकुर्वन्ति ममेदमित्येवं व्यवस्थापयन्तिाते हि वणिजो ज्ञातिभिः स्वजनैः सह यः संयोग-स्तमविप्रहायापरित्यज्य, आयस्य लाभस्य हेतोर्निमित्तादपरेण सार्द्ध सङ्गं संबन्धं प्रकुर्वन्ति / भगवांस्तु षड्जीवरक्षापरोऽपरिग्रहस्त्यक्तस्वजनपक्षः सर्वत्राप्रतिबद्धो धर्मार्थमन्वेषयन् गत्वाऽपि धर्मदेशनां विधत्ते, अतो भगवतो वणिग्भिः सार्द्धन सर्वसाधर्म्यमस्तीति // 21 // पुनरपि वणिजां दोषमुद्भावयन्नाहवित्तेसिणो मेहुणसंपगाढा, ते भोयणट्ठा वणिया वयंति। वयं तु कामेसु अज्झोववन्ना, अणारिया पेमरसेसु गिद्धे / / 22 / / वित्तं द्रव्यं तदन्वेष्टुं शीलं येषां ते वित्तैषिणः। तथा- मैथुने स्त्रीसंपर्के, संप्रगाढा अध्युपपन्नाः। तथा-ते भोजनार्थमाहारार्थ, वणिज इतश्चेतश्च व्रजन्ति, वदन्ति वा। तांस्तुवणिजो वयमेवं ब्रूमः- यथैते कामेष्वध्युपपन्ना गद्धाः, अनार्यकर्मकारित्वादनार्या रसेषु च सातागौरवादिषु गृद्धा मूर्च्छिताः,नत्वेवंभूता भगवन्तोऽर्हन्तः, कथं तेषां तैः सह साधर्म्यमिति ? दूरत एव निरस्तैषा कथेति॥२२॥ किश्चान्यत्आरंभगं चेव परिम्गहं च, अविउस्सिया णिस्सिय आयदंडा। तेसिंच से उदए जं वयासी, चउरंतऽणंताय दुहायणेह / / 23 / / आरम्भं सावद्यानुष्ठानं च, तथा-परिग्रहं चाऽव्युत्सृज्यापरित्यज्य, तस्मिन्नेवारम्भे क्र यविक्र यपचनपाचनादिके, तथा-परिग्रहे च धनधान्यहिरण्यसुवर्णद्विपदचतुष्पदादिके, निश्चयेन श्रिता बद्धा निःश्रिताः, वणिजो भवन्ति, तथाऽऽत्मैव दण्डो, दण्डयतीति दण्डो, येषां ते भवन्त्यात्मदण्डाः, असदाचारप्रवृत्तेरिति। भावोऽपि चैषां वणिजां परिग्रहारम्भवतां स उदयो लाभो यदर्थ ते प्रवृत्ताः,यं चत्वं लाभं वदसि, स तेषां चतुरन्तश्चतुर्गतिको यः संसारोऽनन्तस्तस्मै तदर्थं भवतीति। न चेहासावेकान्तेन तत्प्रवृत्तस्यापि भवतीति // 23 // एतदेव दर्शयितुमाहणेगंत णऽचंतिय उदएवं, वयंति, ते दो वि गुणोदयम्मि / से उदए सादि मणंत पत्ते, तमुदयं साहयइ ताइ णाई // 25 // एकान्तेन भवतीत्यैकान्तिकः, तथा न:तल्लाभार्थं प्रवृत्तस्य विपर्ययस्यापि दर्शनात् / तथा- नाप्यात्यन्तिकः सर्वकालभावी, तत्क्षयदर्शनात्;स तेषामुदयोलाभो नैकान्तिको नात्यन्तिकश्चेत्येवं तद्विदो वदन्ति। तौ च द्वावपि भावौ विगतगुणोदयौ भवतः। एतदुक्तं भवति-किं तेनोदयेन लाभरूपेण यो नैकान्तिकः, नात्यन्तिकश्व, पश्चादनायेति / यश्च भगवतः(से) तस्य दिव्यज्ञानप्राप्तिलक्षण उदयो लाभो यो वा धर्मदेशनाऽवाप्तनिर्जरालक्षणः, सच सादिरनन्तश्च। तमेवंभूतमुदयं प्राप्तो भगवानन्येषामपि तथा- भूतमेवोदयं साधयति कथयति, श्लाघते वा। किंभूतो भगवान् ? तायी। अय-वय-मय-पय-चय-तय-णयगतावित्यस्य दण्डकधातोणिनिप्रत्यये रूपम, मोक्षं प्रति गमनशील इत्यर्थः / त्रायी वा, आसन्नभव्यानां त्राण-करणात्। तथा- ज्ञाती, ज्ञाता क्षत्रिया, ज्ञातं वा वस्तुजातं विद्यते यस्य स ज्ञाती; विदितसमस्तवेद्य इत्यर्थः / तदेवंभूतेन भगवता तेषां वणिजां निर्विवे किनां कथं सर्वसाधर्म्यमिति ? // 24 // (6) सांप्रतं कृतदेवसमवसरणपद्मावलीदेवच्छन्दकसिंहास-नाद्युपभोग कुर्वन्नप्याधा कर्मकृतवसतिनिषेधकसाधुवत्कथं तद-नुमतिकृतेन कर्मणाऽसौ न लिप्यते ? इत्येतद्गोशालकमत-माशङ्कयाऽऽहअहिंसयं सव्वपयाणुकंपी, धम्मे ठियं कम्मविवेगहेउं। तमायदंडेहिं समायरंता, अबोहिए-ते पडिरूवमेयं / / 2 / / असौ भगवान् समवसरणाद्युपभोगं कुर्वन्नप्यहिंसकः सन्नुपभोगं करोति। एतदुक्तं भवति-नहितत्र भगवतो मनागप्याशंसा, प्रतिबन्धो वा विद्यते, समतृणमणिमुक्तालोष्टकाञ्चनतया तदुपभोगं प्रति प्रवृत्तेर्देवानामपि प्रवचनोद्विभावयिषूणां कथं नु नाम भव्यानां धर्माभिमुखं प्रवृत्तिर्यथा स्यादित्येवमर्थमात्मलाभार्थच प्रवर्तनात्, अतो भगवानहिंसकः। तथासर्वेषां प्रजायन्त इति प्रजा जन्तवः, तदनुकम्पी च, तान्संसारे पर्यटतोऽनुकम्पयते तच्छीलश्च / तमेवंरूपं धर्मपरमार्थरूपे व्यवस्थित कर्मविवेकहेतुभूतं भवद्विधा आत्म-दण्डैः समाचरन्त आत्मकल्पं कुर्वन्ति, वणिगादिभिरुदाहरणैः / एतचाबोधेरज्ञानस्य प्रतिरूपं वर्तते। एकंतावदिदमज्ञानं यत्स्वतः कुमार्गप्रवर्तनम्। द्वितीयं चैतत्प्रतिरूपमज्ञानं यद् भगवतामपि जगद्वन्द्यानां सर्वातिशयनिधानभूतानामितरैः समत्वापादनमिति // 25 // साम्प्रतमार्द्रककुमारमपहस्तितगोशालकं ततो भगवदभिमुखं गच्छन्तं दृष्ट्वाऽथान्तराले शाक्यपुत्रीया भिक्षव इदमूर्यदेत-द्वणिग्दृष्टान्तदूषणेन बाहामनुष्ठानं दूषितं, तच्छोभनं कृतं भवता; यतोऽतिफल्गुप्राय बाह्यमनुष्ठानम्, आन्तरमेव त्वनुष्ठानं संसार-मोक्षयोः प्रधानाङ्गम्, अस्मत्सिद्धान्ते चैतदेव व्यावर्ण्यते। इत्येत-दाईककुमार! भो राजपुत्र! त्वमवहितः शृणु, श्रुत्वा चावधारयेति भणित्वा ते भिक्षुका आन्तरानुष्ठानसमर्थकमात्मीयसिद्धान्ता-ऽऽविर्भावनायेदमाहुः• पिन्नागपिंडीमवि विद्धसूले, केई पएज्जा पुरिसे इमे त्ति। अलाउयं वा वि कुमारए त्ति, स लिंपती पाणिवहेण अम्हं // 26 // Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहंगकुमार 555 - अभियानराजेन्द्रः-भाग 1 अहगकुमार पिण्याकः खलः, तस्य पिण्डिभित्तकं, तदचेतनमपि सत् कस्मिंश्चित्संभ्रमेम्लेच्छादिविषये केनचिन्नश्यता प्रावरणं खलोपरि क्षिप्तं, तच म्लेच्छेनान्वेष्टु प्रवृत्तेन पुरुषोऽयमिति मत्वा, खलपिण्ड्या सह गृहीतम्, ततोऽसौम्लेच्छो वस्त्रवेष्टितां तां खलपिण्डी पुरुषबुद्ध्या शूले प्रोतां पावकेऽपचत् / तथा- अलाबुकं तुम्बकं कुमारोऽयमिति मत्वाऽनावेव पपाच, स चैवं चित्तस्य दुष्टत्वात्प्राणिवधजनितेन पातके न युज्यते अस्मत्सिद्धान्ते चित्तमूलत्वाच्छुभाशुभबन्धस्य, इत्येवं तावदकुशलचित्तप्रामाण्यादकुर्वन्नपि प्राणातिपातप्रतिघात-फलेन युज्यते // 26 // अमुमेव दृष्टान्तं वैपरीत्येनाऽऽहअहवा वि विभ्रूण मिलक्खु सूले, पिन्नागबुद्धीइ नरं पएजा। कुमारगं वा वि अलाबुयं ति, न लिप्पई पाणिवहेण अम्हं // 27 // अथवाऽपि सत्यपुरुषं खलबुद्ध्या कश्चिन्म्लेच्छः शूलप्रोतमग्नौ पचेत्, तथा- कुमारकं बालं, तुम्बकबुद्धयाऽनावेव पचेत् / नैवमेवासौ प्राणिवधजनितेन पातकेन लिप्यतेऽस्माकमिति // 27 / / किञ्चाऽन्यत्पुरिसं च विश्रूण कुमारगं वा, सूलम्मि केई पएज्जायतेए। पिन्नायपिंडी सतीमारुहेत्ता, बुद्धाण तं कप्पति पारणाए॥२८|| पुरुष वा,कुमारं वा, विद्ध्वा शूले कश्चित्पचेजाततेजस्यग्नावारुह्य खलपिण्डीयमिति मत्वा सती शोभनां तदेतबुद्धानामपि पारणाय भोजनाय कल्पते योग्यं भवति; किमुतापरेषाम् ? एवं सर्वास्ववस्थास्वचिन्तितं मनसाऽसंकलितं कर्मचयं नागच्छत्यस्मत्सिद्धान्ते / तदुक्तम्- "अविज्ञानोपचितं विपरिज्ञानोपचितमीर्यापथिक स्वप्नान्तिकं चेति कर्मोपचयं न याति // 28 // पुनरपि शाक्य एव दानफलमधिकृत्याऽऽहसिणायगाणं तु दुवे सहस्से, जे भोयए णितिए मिक्खुयाणं। तु पुन्नखंधं सुमहं जिणित्ता, भवंति आरोप्प महंतसत्ता / / 29ll स्नातका बोधिसत्त्वाः / तुशब्दात्पश्चशिक्षापदिकादिपरिग्रहः / तेषां भिक्षुकाणां सहस्रद्वयं, ये निजे शाक्यपुत्रीये धर्मे व्यवस्थिताः केचिदुपासकाः पचनपाचनाद्यपि कृत्वा भोजयेयुः समांस-गुडदाडिमेनेष्टन भोजनेन, ते पुरुषा महासत्त्वाः श्रद्धालवः पुण्य-स्कन्धं महान्तं समावणं, तेन च पुण्यस्कन्धेनारोप्याख्या देवा भवन्त्याकाशोपगाः, सर्वोत्तमा देवगतिं गच्छन्तीत्यर्थः // 26 // (7) तदेवं बुद्धेन दानमूलः, शीलमूलश्च धर्मः प्रवेदितः, तदेह्यागच्छ, बौद्धसिद्धान्तं प्रतिपद्यस्वेत्येवं भिक्षुकैरभिहितः सन्नाकोऽनाकुलया दृष्ट्या तान्वीक्ष्योवाचेदं वक्ष्यमाणमित्याहअजोगरूवं इह संजयाणं, पावं तु पाणाण पसज्झ काउं। आबोहिए दोण्ह वितं असाहु, __ वयति जे यावि पडिस्सुणंति॥३०|| इहास्मिन्भवदीये शाक्यमते, संयतानां भिक्षूणां, यदुक्तं प्राक्, तदत्यन्तेनायोग्यरूपमघटमानकम् / तथाहि- अहिंसार्थमुत्थितस्य त्रिगुप्तिगुप्तस्य पञ्चसमितिसमितस्य सतः प्रव्रजितस्य सम्यगज्ञानपूर्विकां क्रियां कुर्वतो भावशुद्धिः फलवती भवति, तद्विपर्यस्तमतेस्त्वज्ञानावृतस्य महामोहाकुलीकृतान्तरात्मतया खलपुरुषयोविवेकमजानतः कुतस्त्या भावशुद्धिः / अत्यन्तमसाम्प्रतमेतद् बुद्धमतानुसारिणाम्, यत्खलबुद्ध्या पुरुषस्य शूले प्रोतनपचनादिकम् / तथा बुद्धस्येवान्नबुद्ध्या पिशितभक्षणानुमत्यादिकमिति / एतदेव दर्शयति- प्राणानामिन्द्रिया-णामपगमेन तुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् पापमेव कृत्वा रस-सातागौरवादिगृद्धास्तदभावं व्यावर्णयन्ति / एतच तेषां पापा- भावव्यावर्णनमबोध्यै अबोधिलाभार्थ तयोर्द्वयोरपि संपद्यते, अतोऽसाध्वेतत्। कयोद्धयोः? इत्याह-ये वदन्ति पिण्याकबुद्ध्या पुरुषपाके ऽपि पातकाभावं, ये च तेभ्यः शृण्वन्त्येतयोयोरपि वर्गयोरसाध्वेतदिति / अपि च नाज्ञानावृतमूढजनभावशुद्ध्या शुद्धिर्भवति। यदि च स्यात्, संसारमोचकादीनामपि तर्हि कर्मविमोक्षः स्यात् / तथा- भावशुद्धिमेव केवलामभ्युपगच्छता भवतां शिरस्तुण्डमुण्डनपिण्डपातादिकं, चैत्यकर्मादिकं चानुष्ठानमनर्थकमापद्यते, तस्मान्नैवंविधया भावशुद्ध्या शुद्धिरुपजायत इति स्थितम् // 30 // परपक्षं दूषयित्वाऽऽर्द्रकः स्वपक्षाऽविर्भावनायाऽऽहउड्डं अहेयं तिरियं दिसासु. विनाय लिंगं तसथावराणं। भूयामिसंकाइ दुगच्छमाणा, वदे करेजाव कुओ विहऽत्थि? ||31|| ऊर्ध्वमधस्तिर्यक्षु या दिशः प्रज्ञापनादिकास्तासु सर्वास्वपि दिक्षु, त्रसानां, स्थावराणां च जन्तूनां यत् त्रसस्थावरत्वेन जीवलिङ्गं चलनस्पन्दनाङ्कुरोद्भवच्छेदम्लानादिकं, तद्विज्ञाय भूता-भिशङ्कया जीवोपमर्दोऽत्र भविष्यतीत्येवंबुद्ध्या सर्वमनुष्ठानं जुगुप्समानस्तदुपमर्द परिहरन् वदेत् / (कुतोऽपि) अतः कुतोऽस्ती-हास्मिन्नेवंभूतेऽनुष्ठाने क्रियमाणे प्रोच्यमाने वाऽस्मत्पक्षे युष्म-दापादितो दोष इति ? // 31 // अधुना पिण्याके पुरुषबुद्ध्यसम्भवमेव दर्शयितुमाहपुरिसे त्ति विन्नत्तिन एवमत्थि, अणारिए सेऽपुरिसे तहा हु। को संभवो पिन्नागपिंडियाए? वाया वि एसा बुझ्या असचा // 32 // तस्यां पिण्याकबुद्ध्यां पुरुषोऽयमित्येवमत्यन्तजडस्यापि विज्ञप्तिरेव नास्ति, तस्माद्य एवं वक्ति सोऽत्यन्तोऽपुरुषः / तथा- ऽभ्युपगमेन, हुशब्दस्यैवकारार्थत्वेऽनार्य एवासौ यः पुरुषमेव खलोऽयमिति मत्वा हतेऽपि नास्ति दोष इत्येवं वदेत् / तथाहि-कः संभवः पिण्ड्यां पुरुषबुद्धेः ? इत्यतो वागपीयमीदृगसत्येति, सत्त्वोपघातकत्वात्। ततश्च निःशङ्कप्रहार्यनालोचको निर्विवे कतया बद्ध्यते, तस्मात् पिण्याककाष्ठादावपि प्रवर्तमानेन जीवोपमर्द-भीरुणा साशकेन प्रवर्तितव्यमिति // 32 // Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहगकुमार 556- अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अहगकुमार किञ्चान्यत् वायाभियोगेण जमावहेज्जा, णो तारिसं वायमुदाहरिजा। अट्ठाणमेयं वयणं गुणाणं, णो दिक्खिए बूयऽनुदालमेयं / / 33 / / याचाऽभियोगो वागभियोगः, तेनापि यद्यस्मात्, आवहेत् पापं कर्म, ततो विवेकी भाषागुणदोषज्ञो, न तादृशी भाषामुदाहरेन्नाभिदध्यात् / यत एवं ततोऽस्थानमेतद्वचनं गुणानाम्, नहि प्रव्रजितो यथावस्थितार्थाभिधाय्येतदनुदारमसुष्ठ परिस्थूरं निःसारं निरुप-पत्तिकं वचनं ब्रूयात् / तद्यथा- पिण्याकोऽपि पुरुषः; पुरुषोऽपि पिण्याकः / तथाऽलाबुकमेव बालकः, बालक एवाऽलाबुकमिति // 33 / / साम्प्रतमार्द्रककुमार एव तं भिक्षुकं युक्तिपराजितं सन्तं सोल्लुण्ठं बिभणिषुराहलद्धे अढे अहो एव तुब्भे, जीवाणुभागे सुविचिंतिए य। पुव्वं समुहं अवरं च पुढे, ओलोइए पाणितले ठिए वा||३४|| अहो ! युष्माभिः, अथानन्तर्ये वा, एवंभूताभ्युपगमे सति लब्धार्थों विज्ञानं यथावस्थितं तत्त्वमिति तथावगतः सु विचिन्तितो भवद्भिर्जीवानामनुभागः कर्मविपाकस्तत्पीडेति, तथैवंभूतेन विज्ञानेन भवतां यशः पूर्वसमुद्रमपरं च पृष्ठं गतमित्यर्थः / तथा भवद्भिरेवंविधविज्ञानावलोकनेनावलोकितः पाणितलस्थ इवायं लोक इति; अहो ! भवतां विज्ञानातिशयः, यदुत भवन्तः पिण्याकपुरुषयोर्बालाऽलाबुकयोर्वा विशेषानभिज्ञया पापस्य कर्मणो यथैतद्भावाभावं प्राक्कल्पितवन्त इति // 34 / / तदेवं परपक्षं दूषयित्वा स्वपक्षस्थापनायाऽऽहजीवाणुभागं सुविचिंतयंता, आहारिया अन्नविहे य सोहिं। न वियागरे छन्नपओपजीवी, एसोऽणुधम्मो इह संजयाणं // 3 // मौनीन्द्रशासनप्रतिपन्नाः सर्वज्ञोक्तमार्गाऽनुसारिणो जीवानामनुभागमवस्थाविशेष, तदुपमर्दैन पीडां वा, सुष्ठ विचिन्तयन्तः पर्यालोचयन्तोऽन्नविधौ शुद्धिमाहृतवन्तः स्वीकृतवन्तः, द्विचत्वारिंशद्दोषरहितेन, शुद्धेनाहारेणाहारं कृतवन्तो न तु यथा भवतां पिशिताद्यपि पात्रपतितं न दोषायेति / तथा-छन्नपदोपजीवी मातृ स्थानोपजीवी सन् न व्यागृणीयात् / एषोऽनन्तरोतो, अनु पश्चाद्धर्मोऽनुधर्मस्तीर्थकरानुष्ठानादनन्तरं भवतीत्यमुना विशिष्यते। इहास्मिन् जगति, प्रवचने वा, सम्यग्यतानां सत्साधूनां न तु पुनरेवंविधभिक्षूणामिति / यच्च भवद्भिरोदनादेरपि प्राण्यङ्ग-समानतया हेतुभूततया मांसादिसादृश्यं चोद्यते, तदविज्ञाय लोकतीर्थान्तरीयमतम्। तथाहि- प्राण्यङ्गत्वेन तुल्येऽपि कि-चिन्मासं किश्चिच्चामांसमित्येवं व्यवहियते / तद्यथा-मोक्षीररुधिरादेर्भक्ष्याभक्ष्यव्यवस्थितिः, तथासमानेऽपि स्त्रीत्वे भार्यास्वनादौ गम्यागम्यव्यवस्थितिरिति / तथाशुष्कतर्कदृष्ट्या यो प्राण्यङ्गत्वादिति हेतुर्भवतोपन्यस्यते / तद्यथा "भक्षणीयं भवेन्मांसं, प्राण्यङ्गत्वेन हेतुना / ओदनादिवदित्येवं, कश्चिदाहेति तार्किकः" |1|| सोऽसिद्धानकान्तिकविरुद्धदोषदुष्टत्वादपकर्णनीयः / तथाहि-निरंशत्वाद् वस्तुनस्तदेव मांसं, तदेव च प्राण्यङ्ग मिति प्रतिज्ञार्थं कदेशादसिद्धः / तद्यथा-नित्यः शब्दो नित्यत्वात् / अथ भिन्नं प्राण्यङ्ग, ततः सुतरामसिद्धः, व्यधिकरणत्वात् / यथा- देवदत्तस्य गृहं, काकस्य काष्र्ण्यम् / तथाऽनै कान्तिकोऽपि, श्वादिमांसस्याभक्ष्यत्वात् / अथ तदपि क्वचित्कथंचित्केषांचिद्भक्ष्यमिति चेत् ? एवं च सत्यन्यादेरभक्ष्यत्वादनैकान्तिकत्वम्। तथा-विरुद्धव्यभिचार्यपि, यथाऽयं हेतुर्मासस्य भक्ष्यत्वं साधयति, एवं बुद्धानामपूज्यत्वमपि / तथालोकविरोधिनी चेयं प्रतिज्ञा। मांसोदनयोरसाम्या दृष्टा-न्तविरोधश्चेत्येवं व्यवस्थिते यदुक्तं प्राग्- यथा बुद्धानामपि पारणाय कल्पत एतदिति, तदसाध्विति स्थितम् / / 3 / / अन्यदपि भिक्षुकोक्तमाककुमारोऽनूद्य दूषयितुमाहसिणायगाणं तु दुवे सहस्से, जे भोयए णितिए भिक्खुयाणं। असंजए लोहियपाणि से ऊ, णियच्छते गरिहमिहेव लोए॥३६|| स्नातकानां बोधिसत्त्वकल्पानां भिक्षणां नित्यं यः सहस्रद्वयं भोजये दित्युक्तं प्राक् / तद् दूषयति-असंयतः सन् रुधिरक्लिन्नपाणिरनार्य इव गहीं निन्दा जुगुप्सापदवीं साधुजनानामिह लोक एव निश्चयेन गच्छति, परलोके वाऽनार्यगम्यां गतिं यातीति / एवं तावत्सावद्याऽनुष्ठानानुमन्तॄणामपात्रभूतानां यद्दानं तत्कर्मबन्धायेत्युक्तम् / / 36 / / किञ्चान्यत्थूलं उभं इह मारिया णं, उद्दिमत्तं च पगप्पइत्ता। तं लोणतेल्लेण उवक्खडेत्ता, सपिप्पलीयं पगरंति मंसं // 37|| आर्द्रककुमार एव तन्मतमाविष्कुर्वन्निदमाह- स्थूलं बृहकायमुपचितमांसशोणितम्, उरभ्रमरणकम्, इह शाक्यशासने, भिक्षुकसंघोद्देशेन व्यापाद्य घातयित्वा, तथोद्दिष्टभक्तं च प्रकल्पयित्वा, तदुरभ्रमांसं लवणतैलाभ्यामुपसंस्कृत्य पाचयित्वा, सपिप्पलीकमपरद्रव्यसमन्वितं प्रकर्षेण भक्षणयोग्यं मांसं कुर्वन्तीति॥३७।। संस्कृत्य च यत्कुर्वन्ति, तईशयितुमाहतं मुंजमाणा पिसितं पभूतं, ण ओवलिप्पामो वयं रएणं। इचेवमाहंसु अणज्जधम्म, अणारिया बाल रसेसु गिद्धा॥३८|| तत्पिशितं शुक्रशोणितसंभूतमनार्या इव भुजाना अपि प्रभूतं तद्रजसा पापेन कर्मणानक्यमुपलिप्यामः, इत्येवंधाष्टोपेताः प्रोचुः। अनार्याणामिव धर्मः स्वभावो येषां ते तथाऽनार्य-कर्मकारित्वादनार्याः, बाला इव बाला विवेकरहितत्वाद्रसेषु च मांसादिकेषु गृद्धा अध्युपपन्नाः॥३८|| Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहंगकुमार 557- अभियानराजेन्द्रः- भाग 1 अङ्गकुमार एतच तेषां महतेऽनायेति दर्शयतिजे यावि भुंजंति तहप्पगारं, सेवंति ते पावमजाणमाणा। मणं न एयं कुसला करेंति, वाया वि एसा बुझ्याउ मिच्छा / / 3 / / ये चापि रसगौरवगृद्धाः शाक्योपदेशवर्तिनः, तथाप्रकारं स्थूलोरभ्रं संस्कृतं घृतलवणमरिचादिसंस्कृतं पिशितंच, भुञ्जतेऽश्नन्ति, तेऽनार्याः, पापंकल्मषम्, अजानाना निर्विवेकिनः,सेवन्ते आददते।तथा चोक्तम् - "हिंसामूलममेध्यमास्पदमलं ध्यानस्य रौद्रस्य यद, बीभत्सं रुधिराविलं कृमिगृहं दुर्गन्धपूयादिकम्। शुक्रास्रक्प्रभवं नितान्तमलिनं सद्भिः सदा निन्दितं, को भुङ्क्ते नरकाय राक्षससमो मांसं तदात्मद्रुहः?" 11|| अपिच"मांस भक्षयिताऽमुत्र, यस्य मांसमिहाम्यहम्। एतन्मांसस्यमांसत्वं,प्रवदन्ति मनीषिणः" ||2|| तथा"योऽत्ति यस्य च तन्मांसमुभयोः पश्यतान्तरम्। एकस्य क्षणिका तृप्तिरन्यः प्राणैर्वियुज्यते" ||3|| तदेवं महादोषं मांसादनमिति मत्वा यद्विधेयं तद्दर्शयतिएतदेवंभूतं मांसादनाभिलाषरूपं मनोऽन्तःकरणं, कुशला निपुणा मांसाशित्वविपाकवेदिनस्तन्निवृत्तिगुणाभिज्ञाश्च, न कुर्वन्ति, तद-भिलाषादात्मनो निवर्तयन्तीत्यर्थः / आस्तां तावद्भक्षणं, वागप्येषा यथा मांसभक्षणेऽदोष इत्यादिका भारत्यभिहितोक्ता मिथ्या। तुशब्दान्मनोऽपि तदनुमत्यादौ न विधेयमिति / तन्निवृत्तौ चेहैवानुपमा श्लाघा, अमुत्र च स्वर्गापवर्गगमन मिति। तथा चोक्तम् - "श्रुत्वादुःखपरम्परामतिघृणां मांसाशिनां दुर्गतिं, ये कुर्वन्ति शुभोदयेन विरतिं मांसादनस्यादरात्। तद्दीर्घायुरदूषितं गदरुजा संभाव्य यास्यन्ति ते, मर्त्यष्टभोगधर्ममतिषु स्वर्गापवर्गेषु च // 3aa इत्यादि। न केवलं मांसादनमेव परिहार्यमन्यदपि मुमुक्षूणां परि हर्त्तव्यमिति दर्शयितुमाहसव्वेसिजीवाण दयट्टयाए, सावज्जदोसं परिवजयंता। तस्संकिणो इसिणो नायपुत्ता, उद्दिभत्तं परिवज्जयंति||४|| सर्वेषां जीवानां प्राणार्थिनां, न केवलं पञ्चेन्द्रियाणामेवेति सर्वग्रहणम्। दयार्थतया दयानिमित्तं सावद्यमारम्भं महानयं दोष इत्येवं मत्वा तत्परिवर्जयन्तः साधवः / तच्छङ्किनो दोषशङ्किन ऋषयो महामुनयो ज्ञातपुत्रीयाः श्रीमन्-महावीरवर्द्धमानशिष्याः, उद्दिष्टं दानाय परिकल्पितं यद्भक्तपानादिकं, तत्परिवर्जयन्ति // 40 // किञ्चभूयामिसंकाएँ दुगंछमाणा, सव्वेसि पाणाण विहार दंडं। तम्हा ण मुंजंति तहप्पगारं, एसोऽणुधम्मो इह संजयाणं // 11 // भूतानां जीवानाम, उपमर्दशङ्कया सावद्यमनुष्ठानं जुगुप्समाना परिहरन्तः, तथा-सर्वेषां प्राणिनां दण्डयतीति दण्डः समुपतापस्तं, विहाय परित्यज्य, सम्यगुत्थिताः सत्साधवो यतस्ततो न भुञ्जते, तथाप्रकारमाहारमशुद्धजातीयमेषोऽनुधर्मः, इहास्मिन्प्रवचने, संयताना यतीनां तीर्थकराचरणात् / अनु पश्चाचर्यत इत्यनुना विशेष्यते / यदि चाणुरिति स्तोकेनाप्यतिचारेण वा बाध्यते शिरीषपुष्पमिव सुकुमार इत्यतोऽणुना विशेष्यत इति // 41 // किचाऽन्यत् - निगंथधम्मम्मि इमं समाहिं, अस्सिं सुठिचा अणिहो चरेजा। बुद्धे मुणी सीलगुणोववेए. अचस्थतं पाउणती सिलोगे||१२॥ अस्मिन्मौनीन्द्रधर्मे बाह्याभ्यन्तररूपो ग्रन्थोऽस्यास्तीति नि-ग्रन्थः, स चासौ धर्मश्च निर्ग्रन्थधर्मः, स च श्रुतचारित्राख्यः, क्षान्त्यादिको वा सर्वज्ञोक्तः, तस्मिन्नेवभूतेधर्मे व्यवस्थिते, इमं पूर्वोक्तं समाधिमनुप्राप्तः, अस्मिँश्वाशुद्धाहारपरिहाररूपे समाधौ, सुष्टु, अतिशयेन स्थित्वा, अनीहोऽमायः / अथवा- निहन्यत इति निहः, न निहोऽनिहः, परीषहैरपीडितः। यदि वा-स्निह बन्धने, स्निह इति स्नेहरूपबन्धनरहितः संयममनुष्ठानंचरेत्। तथा-बुद्धोऽवगततत्त्वो, मुनिः कालत्रयवेदी, शीलेन क्रोधाद्युपशमरूपेण, गुणैश्च मूलोत्तरगुणभूतैरुपेतो युक्त इत्येवंगुणकलितोऽत्यर्थतां सर्वगुणातिशायिनीं सर्वद्वन्द्वोपरमरूपां संतोषात्मिकां श्लाघां प्रशंसां लोके लोकोत्तरे वाऽऽप्नोति। तथा चोक्तम् - "राजानं तृणतुल्यमेव मनुते शक्रेऽपि नैवादरो, वित्तोपार्जनरक्षणव्ययकृताः प्राप्नोति नो वेदनाः। संसारान्तरवर्त्यपीह लभते संमुक्तवन्निर्भयः, संतोषात्पुरुषोऽमृतत्वमचिराद्यायात्सुरेन्द्रार्चितः" // 1 / / इत्यादि। (8) तदेवमाककुमारं निराकृतगोशालकाजीवकबौद्धमतमभिसमीक्ष्य साम्प्रतं द्विजातयः प्रोचुः / तद्यथा- भो आर्द्रककुमार ! शोभनमकारि भवता, यदेते वेदबाह्ये द्वे अपि मते निरस्ते, तत्साम्प्रतमप्यार्हतं वेदबाह्यमेव, अतस्तदपि नाश्रयणार्ह भवद्विधानाम् / तथाहि-भवान् क्षत्रियवरः, क्षत्रियाणां च सर्ववर्णोत्तमा ब्राह्मणा एवोपास्याः, न शूद्राः, अतो यागादिविधिना ब्राह्मणसेवैव युक्तिमतीत्येतत्प्रतिपादनायाऽऽहसिणायगाणं तु दुवे सहस्से, जे भोयए णितिए माहणाणं / ते पुन्नखंधे सुमहज्जणित्ता, भवंति देवा इति वेयवाओ॥४३॥ तुशब्दो विशेषणार्थः। षट्कर्माभिरता वेदाध्यापकाः शौचा-चारपरतया नित्यं स्नायिनो ब्रह्मचारिणः स्नातकाः,तेषां सहस्रद्वयं नित्यं ये भोजयेयुः कामिकाहारेण ते समुपार्जितपुण्य स्कन्धाः सन्तो देवाः स्वर्गनिवासिनो भवन्तीत्येवंभूतो वेदवाद इति // 43 / / अधुनाऽऽर्द्रककुमारएतद्दूषयितुमाहसिणायगाणं तु दुवे सहस्से, Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहगकुमार 558- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अहगकुमार जे भोयए णितिए कुलालयाणं / से गच्छती लोलुवसपगाढे, तिव्वामितावीणरगामिसेवी ||4| स्नातकानां सहस्रद्वयमपि नित्यं ये भोजयन्ति। किंभूतानाम् ? कुलानि गृहाणि, आमिषान्वेषणार्थिनो, नित्यं येऽटन्ति ते कुलाटा मार्जाराः, कुलाटा इव कुलाटा ब्राह्मणाः / यदि वा- कुलानि क्षत्रि- यादिगृहाणि तानि नित्यं पिण्डपातान्वेषिणां परतओ काणामालयो येषां ते कुलालयास्ते / निन्द्यजीविकोपगतानामेवंभूतानां यो सहस्रद्वयं भोजयेत्सः सत्पात्रनिक्षिप्तदानो गच्छति बहुवेदनासु गतिषु / किंभूतः सन् ? लोलुपैरामिषपरैः गृद्धैः रससातागौरवाद्युपपन्नैः जिह्वेन्द्रिय-वशगैः संप्रगाढो व्याप्तः / यदि वा- किंभूते नरके याति ? लोलुपैरामिषगृध्नुभिरसुमद्भिर्याप्तो यो नरकस्तस्मिन्निति / किं भूतश्चासौ दाता ? नरकाभिसे वी भवति / तद्दर्शय-तितीव्रोऽसह्यो योऽभितापः क्रकचपाटनकुम्भीपाकतप्तत्रपुपानशाल्मल्यालिङ्गना-दिरूपः, स विद्यते यस्यासौ तीव्राभितापी। इत्येवंभूतवेदना भितप्तस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमानि यावदप्रतिष्ठाननरकाधिवासी भवतीति / / 44|| दयावरं धम्म दुगंछमाणा, वहावहं धम्म पसंसमाणा। एग विजे भोययती असीलं, णिओ णिसं जाति कुओऽसुरेहिं ?||4|| दया प्राणिषु कृपा, तया वरः प्रधानो यो धर्मस्तमेव धर्म, जुगुप्समानो निन्दन; तथा-वधं प्राण्युपमईमावहतीति वधावहस्तं तथाभूतं धर्म, प्रशंसन् स्तुवन, एकमप्यशीलं निर्वृत्तं, षड्जीवकायोपमर्दैन यो भोजयेत्, किं पुनः प्रभूतान् ? नृयो राजन्यो वा यः कश्चिन्मूढमति-र्धार्मिकमात्मानं मन्यमानः स वराको निशेव नित्यान्धकारत्वान्निशा नरकभूमिस्तां याति, कुतस्तस्यासुरेष्वप्यधमदेवेष्वपि प्राप्तिरिति ? तथा- कर्मवशादसुमतां विचित्रजातिगमनाजातेर-शाश्वतत्वम्, अतो नजातिमदो विधेय इति। यदपि कैश्चिदुच्यते यथा-ब्राह्मणा ब्रह्मणो मुखाद्विनिर्गताः, बाहुभ्यां क्षत्रियाः, ऊरुभ्यां वैश्याः, पद्भयां शूद्राः, इति / एतदप्यप्रमाणत्वादतिफल्गुप्रायम्। तदभ्युपगमेचन विशेषो वर्णानांस्यात्। एकस्मात्प्रसूतेर्बुध्नशाखाप्रतिशाखाग्रभूतपनसोदुम्बरादिफलवद्ब्रह्मणो वा मुखादेवयवानां चातुर्वर्ण्यावाप्तिः स्यात्, न चैतदिष्यते भवद्भिः। तथा- यदि ब्राह्मणादीनां ब्रह्मणो मुखादेरुद्भवः, साम्प्रतं किं न जायते ? अथ युगादावेतदित्येवं सति, दृष्टहानिरदृष्टकल्पना स्यादिति / तथा यदि कैश्चिदभ्यधायि सर्वज्ञनिक्षेपावसरे, तद्यथा- सर्वज्ञरहितो-ऽतीतः कालः, कालत्याद्वर्तमानकालवत्। एवं च सत्येतदपि शक्यते वक्तुम्- यथा नातीतः कालो ब्रह्ममुखादिविनिर्गतचातुर्वर्ण्यसमन्वितः, कालत्वाद्वर्तमानकालवत् / भवति च विशेष पक्षीकृते सामान्यहेतुरित्यतः प्रतिज्ञार्थंकदेशासिद्धता नाशङ्कनीयेति / जातेश्चानित्यत्वं युष्मत्सिद्धान्त एवाभिहितम् / तद्यथा 'शृगालो वा एष जायते यः सपुरीषो दह्यते' इत्यादिना। तथा "सद्यः पतति मांसेन, लाक्षया लवणेन च / त्र्यहेण शूद्रीभवति, ब्राहाणः क्षीरविक्रयी' ||1|| इत्यादिलोके चावश्यंभावी जातिपातः। यत उक्तम्'कायिकैः कर्मणां दोषै-र्याति स्थावरतां नरः / वाचिकैः पक्षिमृगतां, मानसैरन्त्यजातिताम्" // 1 // इत्यादि- गुणैरप्येवंविधैर्न ब्राह्मणत्वं युज्यते / तद्यथा- 'षट् शतानि नियुज्यन्ते, पशूनां मध्यमेऽहनि / अश्वमेधस्य वचनात्, न्यूनानि पशुभिस्त्रिभिः" / / 1 / / इत्यादि वेदोक्तत्वान्नायं दोष इति चेत् / नन्विदमभिहितमेव- "न हिंस्यात्सर्व भूतानि" इत्यतः पूर्वोत्तरविरोधः / तथा- "आततायिनमायान्तमपि वेदान्तगं रणे। जिघांसन्तं जिघांसीयान्न तेन ब्रह्महा भवेत् // 1 // तथा शूद्रं हत्वा प्राणायाम जपेत्, अपहसितं वा कुर्यात, यत्किञ्चिता दद्यात, तथा- 'नास्थिजन्तूनां शकटभरं मारयित्वा ब्राह्मणं भोजयेत्" इत्येवमादिका देशना विद्वज्जनमनांसि न रञ्जयतीत्यतोऽत्यर्थमसमञ्जसमिव लक्ष्यते युष्मदर्शनमिति॥४५॥ (10) तदेवमार्द्रककुमारं निराकृतब्राह्मणविवाद भगवदन्तिकं गच्छन्तं दृष्ट्या एकदण्डिनोऽन्तराले एवमूचुः। तद्यथा- भो आर्द्रककुमार! शोभनं कृतं भवता यदेते सर्वारम्भप्रवृत्ता गृहस्थाः शब्दादिविषयपरायणाः पिशिताशनेन राक्षसकल्पा द्विजातयो निराकृताः; तत्सांप्रतमस्मसिद्धान्तं शृणु, श्रुत्वा चावधारय। तद्यथा- सत्त्वरजस्तमसांसाम्यावस्था प्रकृतिः, "प्रकृतेर्महाँस्ततो-ऽहङ्कारस्तस्माद्गणश्च षोडशकः। तस्मादपि षोडशकात्पञ्च (तन्मात्राणि ते) भ्यः पञ्च भूतानि" / / 1 / / तथा चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपमिति / एतत्त्वार्हतैरप्याश्रितमतः पञ्चविंशतितत्त्वपरिज्ञानादेव मोक्षावाप्तिरित्यतोऽस्मत्सिद्धान्त एव श्रेयान्नापर इति। तथा न युष्मत्सिद्धान्तोऽतिदूरेण भिद्यते इति। एतद्दर्शयितुमाहदुहओ वि धम्मम्मि समुट्ठियामो, अस्सि सुठिचा तह एसकालं! आयारसीले बुइएऽह नाणं, णसंपरायम्मि विसेसमत्थि।।४६|| योऽयमस्मद्धर्मो, भवदीयश्चार्हतः, स उभयरूपोऽपि कथंचित्स-मानः / तथाहि-युष्माकमपि जीवास्तित्वे सति पुण्यपाप-बन्धमोक्षसद्भावः,न लोकायतिकानामिव तदभावे प्रवृत्तिः, नापि बौद्धानामिव सर्वाधारभूतस्यान्तरात्मन एवाभावः / तथाऽस्माकमपि पञ्च यमा अहिंसादयः, भवतां च त एव पञ्च महाव्रतरूपाः। तथेन्द्रियनोइन्द्रियनियमोऽप्यावयोस्तुल्य एव / तदेवमुभयस्मिन्नपि धर्मे बहुसमाने सम्यगुत्थानोत्थिता यूयं, वयं च, तस्मादस्मिन् धर्मे सुष्ठ स्थिताः, पूर्वस्मिन्, काले, वर्तमाने, एष्ये च, यथागृहीतप्रतिज्ञानिर्वोढारः / न पुनरन्ये यथा व्रतेश्वर-यागविधानेन प्रव्रज्यां मुक्तवन्तो, मुञ्चन्ति, मोक्ष्यन्ति चेति। तथाऽऽचारप्रधानं शीलमुक्तं यमनियमलक्षणं न फल्गुवत् कुहकाजीवनरूपम्, अथानन्तरं ज्ञानं च मोक्षाङ्गतयाऽभिहितं, तच श्रुतज्ञानं, केवलाख्यं च, यथास्वमावयोर्दर्शने प्रसिद्धम् / तथासंपर्ययन्ते स्वकर्मभिर्धाम्यन्ते प्राणिनो यस्मिन्स संपरायः संसारः, तस्मिश्चावयोर्न विशेषोऽस्ति / तथाहि- यथा भवतां कारणे कार्य नैकान्तेनासदुत्पद्यते, अस्माकमपि तथैव; द्रव्यात्मतया नित्यत्व भवद्भिरप्याश्रितमेव / तथोत्पादविनाशावपि युष्मदभिप्रेतो, आविर्भावतिरोभावाश्रयणादस्माकमपीति / / 46|| पुनरपि तथैवैकदण्डिनः सांसारिकजीवपदार्थसाम्यापादन-याऽऽहु:अव्वत्तरूपं पुरिसं महंतं, Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहगकुमार 559 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अङ्गकुमार सणातणं अक्खयमव्वयं च। सव्वेसु भूतेसु वि सव्वतो से, ___ चंदो व्व ताराहिँ समत्थरूवे // 47 // पुरिशयनात्पुरुषो जीवः,तंयथा भवन्तोऽभ्युपगतवन्तस्तथा वयमपि / तमेव विशिनष्टि-अमूर्त्तत्वादव्यक्तं रूपमस्यासाव-व्यक्तरूपः, तथा करचरणशिरोग्रीवाद्यवयवतया स्वतोऽवस्थानात् / तथा- महान्तं लोकव्यापिनं, तथा-सनातनं शाश्वतं, द्रव्यार्थतया नित्यं, नानाविधगतिसंभवेऽपि चैतन्यलक्षणात्मस्वरूपस्याप्रच्युतेः / तथाअक्षयं केनचित्प्रदेशानां खण्डशः कर्तुमशक्यत्वात्। तथा- अव्ययम्, अनन्तेनापि कालेनैकस्यापि तत्प्रदेशस्य व्ययाभावात्। तथा- सर्वेष्वपि भूतेषु कायाकारपरिणतेषु प्रतिशरीरं सर्वतः सामस्त्यान्निरंशत्वादसावात्मा भवति / क इव? चन्द्र इव शशीव, ताराभिरश्विन्यादिभिर्नक्षत्रैर्यथा समस्तरूपः संपूर्णः संबन्धमुपयात्येवमसावपि आत्मा प्रत्येकं शरीरैः सह संपूर्णः संबन्धमुपयाति, तदेवमेकदण्डिभिर्दशनसाम्यापादनेन सामवादपूर्वकं स्वदर्शनारोपणार्थमाईककुमारोऽभिहितः, यत्रैतानि संपूर्णानि निरुप-चरितानि पूर्वोक्तानि विशेषणानि, धर्म संसार-योर्विद्यन्ते, स एव पक्षः सश्रुतिकेन समाश्रयितव्यो भवति। एतानि चास्मदीय एव दर्शने यथोक्तानि सन्ति, नार्हते, अतो भवताऽप्यस्मद्दर्शनमेवाभ्युपगन्तव्यमिति॥४७॥ तदेवमभिहितः सन्नाककुमारस्तदुत्तरदानायाऽऽहएवं ण मिजंति ण संसरंति, न माहणा खत्तिय वेसपेस्सा। कीडा य पक्खी यसरीसिवाय, नरा य सव्वे तह देवलोए।४८| यदि वा प्राक्तनश्लोकः "अव्वत्तरूवं" इत्यादिको वेदान्तवाद्यात्माद्वैतमतेन व्याख्यातव्यः तथाहि-ते एकमेवाव्यक्तं पुरुषमात्मानं महान्तमाकाशमिव सर्वव्यापिनं सनातनमन-न्तमक्षयमव्ययं सर्वेष्वपि भूतेषु चेतनाचे तनेषु सर्वतः सर्वात्मतयाऽसौ व्यवस्थित इत्येवमभ्युपगतवन्तः / यथा-सर्वास्वपि तारास्वेक एव चन्द्रः संबन्धमुपयात्येवं चासावपि, इत्यस्य चोत्तरदानायाह-(एवमित्यादि) एवमिति / तथा- भवतां दर्शने एकान्तेनैव नित्योऽविकार्यात्माऽभ्युपगम्यते इत्येवं पदार्थाः सर्वेऽपि नित्याः / तथा च सति कुतो बन्धमोक्षसद्भावः ? बन्धाभावाचन नारकतिर्यड्नरामरलक्षणश्चतुर्गतिकः संसारः / मोक्षाभावाच निरर्थकं व्रतग्रहणं भवतां, पञ्चरात्रोपदिष्टयमनियमप्रतिपत्तिश्चेत्येवं च यदुच्यते भवता यथाऽऽक्योस्तुल्यो धर्म इति / तदयुक्तमुक्तम्। तथा-संसारान्तर्गतानांच पदार्थानां न साम्यम्। तथाहि- भवतां द्रव्यैकत्ववादिनां सर्वस्य प्रधानादभिन्नत्वात्कारप्पमेवास्ति, कार्य च कारणाभिन्नत्वात्सर्वात्मना न विद्यते। अस्माकं च द्रव्य-पर्यायोभयवादिनां कारणे कार्यं द्रव्यात्मतया विद्यते, नपर्यायात्मकतया। अपिच-अस्माकमुत्पादव्ययघौव्ययुक्तमेव सदित्युच्यते; भवतां तुघौव्यंयुक्तमेव सदिति। यावप्याविर्भावतिरोभावौ भवतोच्येते,तावपि नोत्पादविनाशावन्तरेण भवितुमुत्सहेते / तदेवमैहिकामुष्मिकचिन्तायामावयोन कथशित्साम्यम् / किंच- सर्वव्यापित्वे सर्वात्मनामविकारित्वे चात्माद्वैते चाभ्युपगम्यमाने नारकतिर्यनराऽमरभेदन बालकुमारकसुभगदुर्भगाऽऽन्यदरिद्रा-दिभेदेन वा न मीयेरन्न परिच्छे-घेरन्, नापि स्वकर्मचोदिता नाना-गतिषु संसरन्ति, सर्व व्यापित्वादेकत्वाद्वा। तथा- नब्राह्मणाः, न क्षत्रियाः, न वैश्याः, न प्रेष्या न शूद्राः, नापि कीटपक्षिसरीसृपाश्च भवेयुः / तथा- नराश्च सर्वेऽपि देवलोकाश्चेत्येवं नानागतिभेदे नो भिद्येरन्। अतो न सर्वव्यापी आत्मा, नाप्यात्माद्वैतवादोऽप्यायाति, अतः प्रत्येकं सुखदुःखानुभवः समुपलभ्यते / तथा- शरीरत्वक्पर्यन्तमात्र एवात्मा, तत्रैव तद्गुणविज्ञानोपलब्धेरिति स्थितम् // 48 // तदेवं व्यवस्थिते युष्मदागमो यथार्थाभिधायी न भवति, असर्वज्ञप्रणीतत्वात, असर्वज्ञप्रणीतत्वं चैकान्तपक्षसमाश्रयणादित्येवमसर्वज्ञस्य मार्गोद्भावनं दोषमाविर्भावयन्नाहलोयं अयाणित्तिह केवलेणं, कहंति जे धम्ममजाणमाणा। णासंति अप्पाण परं च णट्ठा, संसारघोरम्मि अणोरपारे॥४६॥ लोकं चतुर्दशरज्वात्मकं, चराचरं वा लोकम, अज्ञात्वा केवलेन दिव्यज्ञानावभासेनेहास्मिन् जगति, ये तीर्थका अजानाना अविद्वांसो धर्म दुर्गतिगमनमार्गस्यार्गलाभूतं, कथयन्ति प्रतिपादयन्ति, ते स्वतो नष्टा अपरानपि नो त्रायन्ते / क्व ?, घोरे भयानके संसारसागरे (अणोरपारे त्ति) अर्वाग्भागपरभागवर्जितऽनाद्यनन्त इत्येवंभूते संसारार्णवे आत्मानं प्रक्षिपन्तीति यावत्॥४६॥ साम्प्रतं सम्यग्ज्ञानवतामुपदेष्ट्रणां गुणानाविर्भावयन्नाहलोयं विजाणंतिह केवलेणं, पुग्नेण नाणेण समाहिजुता। धम्म समत्तं च कहंति जे ऊ, तारंति अप्पाण परं च तिन्ना ||5|| लोकं चतुर्दशरज्ज्वात्मकं केवलालोकेन केवलिनो विविध-मनेकप्रकारं जानन्ति विदन्तीहास्मिन् जगति प्रकर्षण जानाति प्रज्ञः, पुण्यहेतुत्वात् पुण्यम् / तेन तथाभूतेन ज्ञानेन समाधिना च युक्ताः, समस्तं धर्म श्रुतचारित्ररूपं, ये तु परहितैषिणः, कथयन्ति प्रतिपादयन्ति, ते महापुरुषास्ततः संसारसागरं तीर्णाः, परं च तारयन्ति सदुपदेशदानत इति के वलिनो लोकं जानन्तीत्युक्ते यत्पुनाने नेत्युक्तं तद् बौद्धमतोच्छेदेन ज्ञानाधार आत्मा अस्तीति प्रतिपादनार्थमिति एतदुक्तं भवति-यथाऽऽदेशिकः सम्यड्मार्गज्ञ आत्मानं परं च तदुपदेशवर्तिन महाकान्ताराद्विवक्षितदेशप्रापणेन निस्तारयत्येवं केवलिनोऽप्यात्मानं परं च संसारकान्तारान्नि-स्तारयन्तीति / / 50|| पुनरप्याककुमार एवाहजे गरहियं ठाणमिहावसंति, जे यावि लोए चरणोववेया। उदाहमंतं तु समं मईए, __ अहाउसो ! विप्परियासमेव // 51 // असर्वज्ञप्ररूपणमेवंभूतं भवति / तद्यथा- ये के चित्संसारा न्तर्वर्तिनोऽशुभकर्मणोपेता समन्वितास्तद्विपाकसहायाः, गर्हितं निन्दितं जुगुप्सितं निर्विवेकिजनाचरितं, स्थानं पदं कर्मानुष्ठानरूपमिहास्मिन् जगति, आसेवन्ते जीविकाहेतुमाश्रयन्ति, यथा चये सदुपदेशवर्तिनो लोकेऽस्मिन् चरणेन विरतिपरिणामरूपेणोपेता; समन्विताः, तेषामुभयेषामपि, यदनुष्ठानं शोभनाशोभनस्वरूपमपि Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्गकुमार ५६०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अहगकुमार सत् तदसर्वज्ञैरवग्दिर्शभिः समं सदृशं तुल्यमुदाहृतमुपन्यस्तं, स्वमत्या स्वाभिप्रायेण, न पुनर्य-थावस्थितपदार्थनिरूपणेन / अथवाआयुष्मन् ! हे एकदण्डिन् ! विपर्यासमेव विपर्ययमेवोदाहरेदसर्वज्ञो यदशोभनं तच्छोभनत्वेन; इतरत्वितरथेति / यदि वा(विपर्यास इति) मत्तोन्मत्तप्रलापवदित्युक्तं भवतीति / / 51 / / (११)तदेवमेकदण्डिनो निराकृत्याऽऽककुमारो यावद्भग-वदन्तिकं व्रजति तावद् हस्तितापसाः परिवृत्य तस्थुरिदं च प्रोचुरित्याहसंवच्छरेणावि य एगमेगं, बाणेण मारेउ महागयं तु। सेसाण जीवाण दयट्ठयाए, वासं वयं वित्तिं पकप्पयामो ||5|| हस्तिनं व्यापाद्यात्मनो वृत्तिं कल्पयन्तीति हस्तितापसाः, तेषां मध्ये कश्चिद् वृद्धतम एतदुवाच / तद्यथा-भो आर्द्रककुमार ! सश्रुतिकेन सदाऽल्पबहुत्वमालोचनीयम्, तत्र ये अमी तापसाः कन्दमूलफलाशिनस्ते बहूनां सत्त्वानां स्थावराणां तदाश्रितानां वोदुम्बरादिषु जङ्गमानामुपघाते वर्तन्ते / येऽपि च भक्ष्येणात्मानं वर्तयन्ति तेऽप्याशंसादोषदूषिता इतश्चेतश्चाटाट्यमानाः पि-पीलिकादिजन्तूनां उपघाते वर्तन्ते / वयं तु संवत्सरेणापि, अपिशब्दात् षण्मासेन चैकैकं हस्तिनं महाकायं बाणप्रहारेण व्यापाद्य शेषसत्त्वानां दयार्थमात्मनो वृत्ति वर्तनं तदामिषेण वर्षमेकं यावत्कल्पयामः / तदेवं वयमेकसत्त्वोपघातेन प्रभूततरसत्त्वानारक्षां कुर्म इति / / 521 // साम्प्रतमेतदेवाऽऽर्द्रककुमारोहस्तितापसमतं दूषयितुमाहसंवच्छरेणावि य एगमेगं, पाणं हणंता अणियत्तदोसा। सेसाण जीवाण वहेऽलगाय, सिया य थोवं गिहिणो वितम्हा॥५|| संवत्सरेणैकैकं प्राणिनंनतोऽपि प्राणातिपातादनिवृत्तदोषास्ते भवन्ति / आशंसादोषश्च भवतां पञ्चेन्द्रियमहाकायसत्त्व-वधपरायणानामतिदुष्टो भवति / साधूनां तु-सूर्यरश्मि-प्रकाशितवीथिषु युगमात्रदृष्ट्या गच्छतामीर्यासमितिसमितानां द्विचत्वारिंशद्दोषरहितमाहारमन्वेषयतां लाभालाभसमवृत्तीनां कुतस्त्य आशंसादोषः ? पिपीलिकादिसत्त्वोपघातो वेत्यर्थः / स्तोकसत्त्वोपघातेनैवं भूतेन दोषाभावो भवताऽभ्युपगम्यते, तथा च सति गृहस्था अपि स्वारम्भदेशवर्तिन एव प्राणिनो घन्तीति शेषाणांचजन्तूनां क्षेत्रकालव्यवहितानां भवदभिप्रायेण वधेन प्रवृत्तायत एवं तस्मात्कारणात्स्यादेवं स्तोकमतिस्वल्पं यस्माद् घन्ति ततस्तेऽपि दोषरहिता इति // 53|| साम्प्रतमार्द्रककुमारो हस्तितापसान्दूषयित्वा तदुपदेष्टारं दूषयितुमाहसंवच्छरेणावि य एगमेगं, पाणं हणंता समणव्वयेसु। आयाऽहिए ते पुरिसे अणजे, णतारिसे केवलिणो भवंति // 5|| श्रमणानां यतीनांव्रतानि श्रमणव्रतानि, तेष्वपिव्यवस्थिताः सन्त एकैकं / संवत्सरेणापि, ये घन्ति, ये चोपदिशन्ति, तेऽनार्याः, असत्कर्मानुष्ठायित्वात् / तथा- आत्मानं परेषां चाहितास्ते पुरुषाः / बहुवचनमार्षत्वात् / न तादृशाः केवलिनो भवन्ति / तथाहि-एकस्य प्राणिनः संवत्सरेणापिघाते येऽन्ये पिशिताश्रितास्तत्संस्कारे च क्रियमाणे स्थावरजङ्गमा विनाशमुपयान्ति, तेतैः प्राणि-वधोपदेष्टुभिर्न दृष्टाः। न च तैर्निरवद्योपायो माधुकर्या वृत्त्या यो भवति स दृष्टः, अतस्तेन केवलमक्वलिनो विशिष्टविवेक-रहिताश्चेति। तदेवं हस्तितापसान्निराकृत्य भगवदन्तिकं गच्छन्तमाईककुमार महता कलकलेन लोके नाभिष्ट्रयमानं तं समुपलभ्य अभिनवगृहीतः संपूर्णलक्षणसंपूर्णो हस्ती समुत्पन्नस्तथाविधविवेकोचितं यद् यथाऽऽर्द्रककुमारोऽयमपकृ ताशेषतीथिको निष्प्रत्यूहं सर्वज्ञपादपद्मान्तिकं वन्दनाय व्रजति, तथाऽहमपि यद्यप्यपगताशेष-बन्धनः स्यांतत एनं महापुरुषमाईककुमारं प्रतिबुद्धतस्कर-पञ्चशतोपेतं, तथा प्रतिबोधितानेकवादिगणसमन्वितं परमया भक्त्यैतदन्तिकं गत्वा वन्दामीत्येवं यावदसौ हस्ती कृत-संकल्पस्तावत्नटनटदिति त्रुटितसमस्तबन्धनः सन्नाककुमारा-भिमुखं प्रदत्तकर्णतालस्तथो प्रसारितदीर्घकरः प्रधावितः, तदनन्तरं लोकेन कृतहाहारवगर्भकलकलेन पूत्कृतम् / यथा- "धिक कष्टं हतोऽयमाईककुमारो महर्षिर्महापुरुषः तदेवं प्रलपन्तो लोका इतश्वेतश्च प्रपलायमानाः, असावपि वनहस्तीसमाग-त्याऽऽर्द्रककुमारसमीपं भक्तिसंभ्रमावनतानभागोत्तमाङ्गो निवृत्त-कर्णतालः त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य निहितधरणीतलदन्ताग्रभागः स्पृष्टकराग्रतचरणयुगलः सुप्रणिहितमनाः प्रणिपत्य महर्षिवनाभिमुखं ययाविति। तदेवमार्द्रककुमारतपोनुभावाद् बन्धनोन्मुखं महागजमुपलभ्य स पौरजनपदः श्रेणिकराजस्तमाककुमारं महर्षि तत्तपःप्रभाव चाभिनन्द्याभिवन्द्य च प्रोवाच-भगवन् ! आश्चर्यमिदं, यदसौ वनहस्ती तादृगविधाच्छस्त्रोच्छेद्योच्छृङ्खलाबन्धनाद्युष्मत्तपःप्रभावान्मुक्त इत्येतदतिदुष्करमित्येवमभिहिते, आर्द्रकुमारः प्रत्याह- भोः श्रेणिक महाराज! नैतदुष्करं यदसौ वनहस्ती बन्धनान्मुक्तः। अपि त्वेतद्दुष्कर यत् स्नेहपाशमोचनं, एतच्च प्राङ्-नियुक्तिगाथया प्रदर्शितम्। सा चेयम्"ण दुक्करं वारणपासमोयणं, गयस्स मत्तस्स वणम्मि रायं ! / जहा उ तत्थाऽऽवलिएण तंतुणा, सुदुक्कर में पडिहाइ मोयणं' ||1|| एवमार्द्रककुमारेण राजानं प्रतिबोध्य तीर्थकरान्तिकं गत्वाऽभिवन्द्य च भगवन्तं भक्तिभरनिर्भर आसाञ्चक्रे / भगवानपि तानि पञ्चापि शतानि प्रव्राज्य तच्छिष्यत्वेनोपनिन्य इति // 54|| साम्प्रतं समस्ताध्ययनार्थोपसंहारार्थमाहबुद्धस्स आणाएँ इमं समाहिं, अस्सि सुठिचा तिविहेण ताई। तरिउं समुदं च महाभवोघं, आयाणवंतं समुदाहरेजा // 55 // त्ति बेमि। बुद्धोऽवगततत्त्वः सर्वज्ञो वीरवर्द्धमानस्वामी, तस्य, आज्ञया तदाऽऽगमेन, इमं समाधि सद्धर्भावाप्तिलक्षणमवाप्यास्मि श्व समाधौ सुष्टु स्थित्वा मनोवाक्कायैश्च प्रणिहतेन्द्रियो न मिथ्यादृष्टिमनुमन्यते, केवलं तदाचरणजुगुप्सां त्रिविधेनापि करणेन न विधत्ते / स एवंभूत आत्मनः परेषां च त्राणशीलः, तायी वा गमनशीलो Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्गकुमार 561- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अहगकुमार मोक्षं प्रति, स एवंभूतस्तरीतुमतिलध्य समुद्रमिव दुस्तरं महाभवौघं मोक्षार्थमादीयत इत्यादानं सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्ररूपं तद्विद्यते यस्यासावादानवान् साधुः; स च सम्यग्दर्शनेन सता परतीर्थिकतपःसमृद्ध्यादिदर्शनेन मौनीन्द्रादर्शनान्न प्रच्यवते; सम्यग्ज्ञानेन तु यथावस्थितवस्तुप्ररूपणतः समस्तप्रावादुकवादिनिराकरणेनापरेषां यथावस्थितमोक्षमार्गमाविर्भावयतीति; सम्यक् चारित्रेण तु समस्तभूतग्रामहितैषया निरुद्धाश्रवद्वारः सन् तपो विशेषाचानेकभावोपार्जितंकर्म निर्जरयति / स्वतोऽन्येषां चैवंप्रकारमेवंधर्ममुपाहरेद् व्यागृणीयादित्यर्थः / इतिः परिसमाप्त्यर्थे , ब्रवीमीति // 55 // सूत्र०२ श्रु०७ अ०|| अद्दग(य)पुर-न०(आर्द्रकपुर) नगरभेदे, यत्र आर्द्रककुमार उत्पन्नः / सूत्र०२ श्रु०६ अ० अद्दचंदण-न०(आर्द्रचन्दन) सरसचन्दने, औ०। 'अदचंदणाणुलित्तगत्ता इसिसिलिंधपुप्फप्पगासाइंसुहुमाइं असंकिलिट्ठाई वत्थाई परवपरिहिया" इति / आइँण सरसेन चन्दनेनाऽनुलिप्तं गात्रं येषां ते आर्द्रचन्दनानुलिप्तगात्राः। (सुपुरुषवर्णकः) औ०। अद्दण-पुं०(अर्दन) अर्द्ध-ल्युट्। गतौ, पीडायां, वधे, याचने च / वाचा स्वनामख्याते राजनि च, येन पद्मावती प्रार्थयित्वा माणिक्यदेवप्रतिमाऽऽनीता। ती०५१ कल्प। अद्दणो(ण्णो)-(देशी) आकुले, दे०ना०१ वर्ग! अदव-त्रि०(अद्रव) निगालिते, आव०६ अ०। अद्दव्व-न०(अद्रव्य) रूप्याधुचितद्रव्याभावे, पञ्चा०३ विवा अहहण-न०(आद्रहण) आ-द्रह-भावेल्युट्ा उत्क्वाथने, करणे-ल्युट्। / द्रव्यपाकायाग्नावुत्ताप्यमाने उदकतैलादौ, उपा०३ अ० अद्दा-स्त्री०(आर्द्रा) रुद्रदेवताके नक्षत्रभेदे, अनु०। 'दो अदाओ'" स्था०२ ठा०३ उ० "अद्दा खलु नक्खत्ते"। सू०प्र०१०पाहु०॥ अद्दा णक्खत्ते एगतारे'। पं०सं०१ द्वार। अद्दाइय-न०(आदर्शित) आदर्शनेन पवित्रीभूते, बृ०१ उ०। अदाओ-(देशी) दर्पणे, दे० ना०१ वर्ग। अदाग-पुं०(आर्दश) दर्पणे, स०) अद्दाय पेहमाणे मणुस्से किं अदाय पेहति, अत्ताणं पेहति, / पलिभागं पेहति ? गोयमा ! णो अघायं पेहति, णो अत्ताणं, पलिभागं पेहति / एवं एतेणं अभिलावेणं असि मणि दुद्धं पाणं तेल्लं फाणियरसं। (अद्दायमिति) आदर्श (पेहमाणे त्ति) प्रेक्ष्यमाणो मनुष्यः किमादर्श प्रेक्षते ? आहोस्विदात्मानम् ? अत्राऽऽत्मशब्देन शरीरमभिगृह्यते। उत पलिभागमिति? प्रतिभागं प्रतिबिम्बम्। भगवानाह- आदर्श तावत्प्रेक्षत एव, तस्य स्फुटस्वरूपस्य यथावस्थिततया तेनोपलम्भात् / आत्मानं आत्मशरीरं पुनर्न पश्यति, तस्य तत्रा-भावात् / स्वशरीरं हि आत्मनि व्यवस्थितं नादर्श, ततः कथमात्मशरीरंतत्र च पश्येत् इति ? प्रतिभागं स्वशरीरस्य प्रतिबिम्बंपश्यति। अथ किमात्मन : प्रतिबिम्बः ? उच्यतेछाया पुद्गला-त्मकम् / तथाहि-सर्वमै न्द्रियकं वस्तु स्थूलं चयापचयधर्मक, रश्मिवच; रश्मय इति छायापुद्गला व्यवहियन्ते।तेच छायापुद्गलाः प्रत्यक्षत एव सिद्धाः, सर्वस्यापि स्थूलवस्तुनश्छायाया अध्यक्षता प्रतिप्राणिप्रतीतेः / अन्यच्च- यदि स्थूलवस्तु व्यवहिततया, दूरस्थिततया वा नादर्शादिष्ववगाढरश्मिर्भवति, ततोनतस्मात्तदृश्यते, तस्मादवसीयतेसन्ति च्छायापुद्गला इति / ते च च्छायापुद्गलास्तत्तत्सामग्रीवशाद्विचित्रपरिणमनस्वभावाः / तथाहि-ते छायापुद्गला दिवा वस्तुन्यभास्वरप्रतिगताः सन्तः स्वसंबन्धिद्रव्याकारमाबिभ्राणाः श्यामरूपतया परिणमन्ते, निशि तु कृष्णाभाः, एतच प्रसरति दिवसे सूर्यकरनिकरम्, निशि तु चन्द्रोद्योते प्रत्यक्षत एव सिद्धः / त एव च्छायापरमाणव आदर्शादिभास्वरद्रव्य-प्रतिगताः सन्तः स्वसंबन्धिद्रव्याकारमादधाना यादृगवर्णाः स्वसंबन्धिनि द्रव्ये कृष्णो, नीलः, सितः, पीतोवा, तदाभाः परिणमन्ते। एतदप्यादर्शादिष्वध्यक्षतः सिद्धम् / ततोऽधिकृतसूत्रेऽपि ये मनुष्यस्य छायापरमाणव आदर्शादिकमुपसंक्रम्य स्वदेहवर्णा-भतया, स्वदेहाकारतया च परिणमन्ते, तेषां तत्रोपलब्धिर्न शरीरस्य, ते च प्रतिबिम्बशब्दवाच्याः। अत उक्तं न शरीरं पश्यति, किन्तु प्रतिभागमिति / नैवैतत्स्वमनीषिकाविजृम्भितम्। यत उक्तं आगमे"भासा उ दिवा छाया, अभासुरगता निसिं तु कालाभा। सा चेव भासुरगया, सदेहवन्ना मुणेयव्वा / / 1 / / जे आदरिसं तत्तो, देहावयवा हवंति संकंता। तेसिं तत्थऽवलद्धी, पगासयोगा न इयरेसिं'' // 2 // एतन्मूलटीकाकारोऽप्याह-यस्मात्सर्वमेव हि ऐन्द्रियकं स्थूलं द्रव्यं चयापचयधर्मकं, रश्मिवच भवति, यतश्चादर्शादिषु छाया स्थूलस्य दृश्यतेऽवगाढरश्मिनः / न चादर्श अनवगाढरश्मिनः स्थूलद्रव्यस्य कस्यचिदर्शनं भवति / न चान्तरितं दृश्यते किञ्चित्, अतिदूरस्थं वा इति। पलिभागं प्रतिभागं (पेहति) पश्यति / एवमसिमण्या-दिविषयाण्यपि षट् सूत्राण्यपि भावनीयानि। सूत्रपाठोऽप्येवम्- "असिं देहमाणं मणूसे किं असिं देहइ, अत्ताणं देहइ, पलिभाग देहइ" इत्यादि / प्रज्ञा०१५ पद / स्था०। स्फटिकादिमणौ, नि०चू० 13 उ०। 'अणायार' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 313 पृष्ठे आदर्श मुखप्रलोकनप्रस्तावेऽप्येतदुक्तम्) अद्दागपासिण(न०)-पुं०(आदर्शप्रश्न) प्रश्नविद्याभेदे, यथा आदर्श देवताऽवतारः क्रियते / एतद्वक्तव्यताप्रतिबद्धे प्रश्नव्याकरणानामष्टमेऽध्ययने च / परमिदानी प्रश्नव्याकरणेषु एतदध्ययनं न दृश्यते। स्था०१ ठा० अदागविज्जा-स्त्री०(आदर्श विद्या) विद्याविशेषे, ययाऽऽतुर आदर्श प्रतिबिम्बितोपमृज्यमानः प्रगुणो जायते। व्य०५ उ०। अदागसमाण-पुं०(आदर्शसमान) आदर्शन समानस्तुल्य इति श्रमणोपासकभेदे, स्था० / यो हि साधुभिःप्रज्ञाप्यमानानुत्सर्गापवादादीनागमिकान् भावान् यथावत्प्रतिपद्यते सन्निहितार्थानादर्शकवत्, स आदर्शसमानः।स्था०४ ठा०३ उ०। अद्दामलग-न०(आर्द्रामलक) पीलुवृक्षसंबन्धिनि मधुरे, (इति संप्रदायः)। ध०२ अधि०। पञ्चा०। "अद्दामलगप्पमाणं सचित्तपुढविकायं गेहति" / नि०चू०१ उ०। शणवृक्षसंबन्धिनि मुकुरे, प्रव०४ द्वारा Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदारिद 562- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अद्धमागही अद्दारिट्ठ-पुं०(आारिष्ट) कोमलकाके, आ०म०प्र०) अद्धजिण्ण-त्रि०(अर्द्धजीर्ण) जीर्णाऽजीर्णे, आ०म०वि०। अद्विय-त्रि०(अदित) पीडिते, व्य०१० उ०। अद्धजोयण-न०(अर्द्धयोजन) योजनस्थार्द्धमर्द्धयोजनम्। गव्यूतौ, बृ०४ अद्दोहि(ण)-त्रि०(अद्रोहिन्) कस्याऽप्यवञ्चके, ध०३ अधि०। उ० अद्ध-न०(अर्द्ध)"श्रद्धर्धिमूर्धाऽर्धेऽन्ते वा" 2041 / इति सूत्रेण | अट्ठम-त्रि०(अर्धाष्टम) अर्द्धमष्टमं येषां तान्यष्टिमानि। सा-र्द्धसप्तसु, संयुक्तस्य ढत्वविकल्पनान्नात्र ढः। प्रा०ा समप्रविभागे, एकदेशे च / विशे०। ज्ञा०१ अ० "अट्ठमाण य राइंदियाणं य विइकताणं' स्था०९ ठा०। "अखंऽगुलसोणिको जेठ्ठप्पमाणो असी भणिओ' / जं०३ वक्ष०। / सार्द्धसप्ताहोरात्राधिकेषु / अतीतेषु, कर्म०१ / *अद्धंतो-(देशी) पर्यन्ते, दे०ना०१ वर्ग। अद्धणाराय-न०(अर्द्धनाराच) अर्द्ध नाराचमुभयतो मर्क टबन्धो यत्र अद्ध(द्धा)ण-पुं०(अध्वन्) प्राकृते- "पुंस्यन आणो तदर्धनाराचम् / मर्कटकैकदेशबन्धनद्वितीयपार्श्वकीलिका-संबन्धरूपे राजवब" ।।३।५६।इति सूत्रेण अनः स्थाने वा आण इत्यादेशः। प्रा० चतुर्थसंहनने, सायत्र हि एकपा मर्कटबन्धो द्वितीयेच पार्श्वे कीलिका पथि, को०। मार्गे, ज्ञा०१४ अ० निचू० भवति / जी०१ प्रति०। कल्प०। पं०सं०। कर्म०॥ तं स्था० अद्धाणं पिय दुविहं, पंथो मग्गों य होइ नायव्वो॥ अद्धतुला-स्त्री०(अर्द्धतुला) तुलाप्रमाणस्याः , अनु०॥ अध्वा द्विविधः, तद्यथा- पन्थाः, मार्गश्च / पन्था नाम यत्र अद्धद्ध-न०(अर्द्धार्द्ध) चतुर्भागे, बृ०३ उ०। ग्रामनगरपल्लीव्रजिकानां किश्चिदेकतरमपि नास्ति / यत्र अद्धद्धा-स्त्री०(अद्धाऽद्धा) अद्धाया अद्धा अद्धाद्धा। दिवसस्य रज़न्या वा पुनामानुग्रामपरम्परयाऽवसितं भवति स ग्रामे मार्ग उच्यते। बृ०१ उ०॥ एकदेशे प्रहरादौ, स्था०१० ठा०। प्रयाणके, विपा०१ श्रु०३ अ० अद्धद्धामीसय-न०(अद्धाद्धामिश्रक) अद्धाद्धाविषयं मिश्रक अद्ध(द्धाण) कप्प-पुं०(अध्वकल्प) अध्वनि गृह्यमाणे कल्पे कमनीये सत्याऽसत्यमद्धाद्धामिश्रकम् / सत्यमृषाभेदे, यथा कश्चित्कस्मिआहारे, बृ०१ उ०। ('विहार' शब्दे एतद्विधिर्द्रष्टव्यः) श्चित्प्रयोजने प्रहरमात्र एव मध्याह्नमित्याह / स्था०१० ठा०। अद्धकरिस-पुं०(अर्द्धकर्ष) पलस्याऽष्टमांशे, अनु०। अद्धपंचममुहुत्त-पुं०(अर्धपञ्चममुहूर्त) अर्द्धपञ्चमाश्च ते मुहूर्ताश्च अद्धकविट्ठ-पुं०(अर्द्धकपित्थ) अर्द्धकपित्थाारवति, "अद्धकविठ्ठ अर्द्धपश्चममुहूर्ताः / नवसु घटिकासु अर्द्धपञ्चमा मुहूर्ता यस्य। 6 ब० संट्ठाणसंठियं'' उत्तानीकृतमर्द्धमानं कपित्थस्यैव, यत् संस्थानं तेन नवघटिकापरिमिते, "जया णं भंते ! उक्कोसिया अद्ध-पंचममुहूत्ता संस्थितमर्द्धकपित्थसंस्थानसंस्थितम्। सू०प्र०१०पाहु०। दिवसस्स राईएवा पोरिसी भवइ"। भ०११ श०११ उ०। अद्धकुल(ड)व-पुं०[अर्द्धकुल(ड)व मगधदेशप्रसिद्ध धान्यमान अद्धपल-न०(अर्धपल) कर्षद्वये, अनु० / विशेषे, रा० अद्धपलिअंका-स्त्री० [अर्धपर्य(ल्य)ङ्काऊरावेकपाद निवेशन-लक्षणायां अद्धकोस-पुं०(अर्द्धक्रोश) धनुःसहने, जं०४ वक्ष लक्षणायाम, स्था०५ ठा०१ उ०। अद्धक्खणं-देशी-प्रतीक्षणे, दे० ना०१ वर्ग। अद्धपेडा-स्त्री०(अर्द्धपेटा) पेटाया अर्द्धमर्द्धपेटा / पेटायाः समखण्डे / अर्द्धपेटेवार्द्धपेटा। पेटार्द्धसमानगमनलक्षणे गोचरभेदे,पञ्चा०१८ विव०॥ अद्धक्खिअं-देशी-संज्ञाकरणे, देवना०१ वर्ग। दशाo! "अद्धपेड इमीए चेव अद्धसंठिया घरपरिवाडी'। पं०व०२द्वा०। अद्धक्खि(च्छि)कडक्ख-न०(अर्द्धाक्षिकटाक्ष) अर्द्ध तिर्य-ग्वलितमक्षि अर्द्धपेटाऽप्येवमेव, नवरमद्धपटासदृशं स्थानयोर्दिगद्वयं संबद्धयोर्गृहयेषु कटाक्षरूपेषु चेष्टितेषुते। अर्द्धकटाक्षेषु, "अर्द्धऽच्छकडक्खचिट्ठिएहिं श्रेण्योरेव पर्यटति, बृ०१ उ०। स्था०। उत्ताधा ग०। लूसेमाणा उवेति' / जी०३ प्रति। अद्धभरह-पुं०(अर्द्धभरत) भरतस्यार्द्धमर्द्धभरतम् / भरतार्द्ध, अद्धक्खिय-त्रि०(अर्द्धाक्षिक) अर्द्धविकृतलोचने, महा०३ अ०! "अद्धभरहस्स सामिका धीरकित्ति पुरिसा''। प्रश्न०४ आश्र०द्वा०| अद्धखल्ला-स्वी०(अर्द्धखल्वा) अर्धजनां छादयन्त्यामुपानहि, बृ०३ अद्धभरहप्पमाणमेत्त-त्रि०(अर्द्धभरतप्रमाणमात्र) अर्द्धभरतस्य उन यत्प्रमाणं तदेव मात्रा प्रमाणं यस्य स तथा / सातिरेकत्रिषष्ट्याअद्धचंद-पुं०(अर्द्धचन्द्र) अर्द्धचन्द्राकारे सोपाने, ज्ञा०१ अ० स० धिकयोजनशतद्वयमिते, "अद्धभरहप्पमाणमेत्तं बों दिं विसेणं सौधर्मकल्पोऽर्द्धचन्द्रसंस्थानसंस्थितः। रा० विसपरिणयं विसट्टमाणिं करेत्तए"(वृश्चिक आशीविषो वा)। स्था० अद्धचक्कवाल-न०(अर्द्धचक्रवाल) गतिविशेषे, स्था०७ ठा०। 4 ठा०४ उ० अद्धचक्कवाला-स्त्री०(अर्द्धचक्रवाला) अर्द्धवलयाकारायां श्रेणी, स्था०७ अद्धमागह-न०(अर्द्धमागध) मगधार्द्धविषयभाषानिबद्धे, अष्टा ठा। दशदेशीभाषानियते च। नि०यू०११ उ०। अद्धछट्ठ-त्रि०(अर्द्धषष्ठ) सार्द्धषु पञ्चसु, आ०म०प्र०। अद्धमागही-स्त्री०(अर्धमागधी) 'रसोर्लशौ" / / 4 / 288 / अद्धजंघा-देशी-मोचकाख्यपादत्राणे, दे०ना०१ वर्ग। मागध्यामित्यादिमागधीभाषालक्षणेनापरिपूर्णायां प्राकृतभाषा Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अद्धमागही 563 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अद्धाकाल लक्षणबहुलायां भाषायाम्, औ०। प्राकृतादीनां षण्णां भाषाविशे-षाणां अद्धहारवरभद्द-पुं०(अधहारवरभद्र) अर्द्धहारवरद्वीपाधिपतौदेवे,जी०३ मध्ये या मागधी नाम भाषा "रसोर्लशौ' मागध्यामित्या-दिलक्षणवती, प्रति सा असमाश्रितस्वकीयसमग्रलक्षणाऽर्द्ध-मागधीत्युच्यते। "भगवं चणं अद्धहारवरमहावर-पुं०(अर्धहारवरमहावर) अर्द्धहारसमुद्राधिपतौ देवे, अद्धमागहीए भासाए धम्म-माइक्खइ'' इति द्वाविंशो बुद्धातिशयः / | जी०३ प्रति०। स०३४ सम०। विपा०। प्रज्ञा०। रा०ा आचा०ा आ०म०। "अद्धमागही अद्धहारवरवर-पुं०(अर्धहारवरवर) अर्द्धहारवरसमुद्राधिपतौ देवे, जी०३ भासा भासिज्जमाणी विसिज्जइ" भाषा किल षड् विधा भवति, यदाह प्रति "प्राकृतसंस्कृत-मागधपिशाचभाषा च शौरसेनीच। षष्ठोऽत्र भूरिभेदो, अद्धहारोभास-पुं०(अर्धहारावभास) स्वनामख्याते द्वीपभेदे, समुद्रभेदे देशविशेषादप-भ्रंशः" ||1| भ०५ श०४ उ०| च। तत्र अर्द्धहारावभासे द्वीपे अर्द्धहारावभासभद्रार्द्धहारावभासमहाभद्रौ, अद्धमास-पुं०(अर्द्धमास) अर्धं मासस्य / एकदे० त०स०। पञ्च- अर्द्धहारावभासे समुद्रे अर्द्धहारावभासवरार्द्धहारावभासमहावरौ देवौ दशाहात्मके मासस्यार्द्धरूपे पक्षात्मके काले, प्रश्न,१ संवद्वा० वसतः। जी०३ प्रति०। अद्धमासिय-त्रि०(अर्धमासिक) पाक्षिके, "अद्धमासिए कत्तरिमुंडे त्ति" अद्धहारोभासभद्द-पुं०(अर्धहारावभासभद्र) अर्द्धहारावभासयदि कर्तर्या कारयति तदा पक्षे पक्षे गुप्तं कारणीयम्, क्षुरकर्तर्योश्च लोचे द्वीपाधिपतौ देवे, जी०३ प्रति०] प्रायश्चित्तम्। कल्प अद्धहारोमासमहाभद्द-पुं०(अर्धहारावभासमहाभद्र) अर्द्धहाराअद्धरत्तकालसमय-पुं०(अर्धरात्रकालसमय) समयः समा-चारोऽपि वभासद्वीपाधिपतौ देवे,जी०३ प्रतिका भवतीति कालेन विशेषितः / कालरूपः समय कालसमयः / स अद्धहारोभासमहावर-पुं०(अर्धहारावभासमहावर) अर्द्धहारावभासचाऽनर्द्धरात्ररूपोऽपि भवतीत्यतोऽर्द्धरात्रकालसमयः / निशीथे समुद्राधिपतौ देवे, जी०३ प्रति०। रात्रेमध्यकाले, "अद्धरत्तकालसमयंसि सुत्तजागरा ओहीरमाणी अद्धहारोमासवर-पुं०(अर्धहारावभासवर) अर्द्धहारावभाससमुद्राधिपतौ ओहीरमाणी'' इत्यादि। भ०११ श०११ उ०। देवे, जी०३ प्रतिका अद्धलव-पुं०(अर्धलव) लवस्य समेंऽशे, ज्यो०१पाहु०। अद्धा-स्त्री०(अद्धा) समयादिषु कालभेदेषु, संकेतादिवाचकोऽप्यस्ति / अद्धविआरं-(देशी) मण्डने, देखना०१ वर्ग। भ०११श०११ उ०। अनु०।अवधिज्ञानाss-वरणक्षयोपशमलाभरूपायां अद्धवे याली-स्वी०(अर्धवैताली) वैताल्या विद्याया उपशाम- लब्धौ, विशे०। अद्धा त्रिविधा-अतीताद्धा, वर्तमानाद्धा, अनागताद्धा कविद्यायाम, सूत्र०२ श्रु०२ अ० च। कर्म०५ कर्म अद्धसंकासिया-स्त्री०(अर्धसाङ्काश्यिका) देवलसुतराजस्य प्रव्रजितस्य अद्धाउय-न०(अद्घायुष) अद्धा कालस्तत्प्रधानमायुःकर्मविशेषोऽद्धायुः। प्रव्रजितायामेव देव्यामुत्पन्नायां पुत्र्याम्, आव०४ अ०) आ०चू० भवात्ययेऽपि कालात्ययेऽपि कालान्तरानुगामिनि, स्था०२ ठा०३ उ०। ('सव्वकामविरत्तया' शब्दे कथा वक्ष्यते) कायस्थितिरूपे आयुष्कर्मभेदे, स्था०२ठा०४ उ०। यथा- मनुष्यायुः अद्धसम-न०(अर्धसम) एकतरसमे वृत्ते, यत्र पादा अक्षराणि वा समानि, कस्याऽपि भवात्यय एव नागच्छति। "दोण्णं अद्धाउए पण्णत्तं / तं अथवा यत्र प्रथमतृतीययोर्द्वितीयचतुर्थयोश्व समत्वम्। (नसर्वत्र) स्था०७ जहामणुस्साणं घेव पंचिंदियतिरिक्ख-जोणियाणं चेव" / स्था०२ ठा०३ उ० ठाण अद्धहार-पुं०(अर्धहार) नवसरिके कण्ठाभरणभेदे, राधाज्ञा०ा जी०। वि०। / अद्धाकाल-पुं०(अद्धाकाल) अद्धासमयादयो विशेषाः, तद्रूपः कालोऽद्धाकालः। चन्द्रसूर्यादिक्रियाविशिष्टेऽर्द्धतृतीयसमुद्रा-न्तर्वर्तिनि जाजीवा०ा आचा० भ० औ स्वनामख्यातेद्वीपे, समुद्रे च / जी०३ प्रति०। तत्रार्द्धहारद्वीपे, अर्द्धहारभद्रार्द्धहारमहाभद्रौ देवौ अर्द्धहारसमुद्रे समयादौ कालभेदे, भ०११ श०११ उ०। विशे०आ०म०। आ०चू० अर्द्धहारवरार्द्धहारमहावरौ" / जी०३ प्रतिका अद्धाकालस्वरूपोपदर्शनार्थं विशेषावश्यकभाष्ये अद्धहारभद्द-पुं०(अर्धहारभद्र) अर्द्धहारगीपाधिपतौ देवे, जी० आह३ प्रति सूरकिरिया विसिट्ठो, गोदोहाइकिरियासु निरवेक्खो। अद्धाकालो भणई, समयक्खेत्तम्मि समयाई ||4|| अद्धहारमहाभह-पुं(अर्धहारमहाभद्र) अर्द्धहारद्वीपाऽधिपतौ देवे, जी०३ प्रति०। सूरो भास्करः, तस्य क्रिया मेरोश्चतसष्वपि दिक्षु प्रदक्षिणतोऽजसं भ्रमणलक्षणा; सूरस्योपलक्षणत्वाचन्द्रग्रहनक्षत्रताराणामपीत्थं भूता अद्धहारमहावर-पुं०(अर्धहारमहावर) अर्द्धहारसमुद्राधिपतौ देवे, क्रिया गृह्यते, तया सूर्यादिक्रियया विशिष्टो विशेषितोव्यक्तीकृतोऽर्द्धतृतीअर्द्धहारवरसमुद्राधिपतौ देवे च।जी०३ प्रति०। यद्वीपसमुद्रलक्षणे समयक्षेत्रे यः समया-वलिकादिरर्थः प्रवर्तते, न परतः, अद्धहारवर-पुं०(अर्धहारवर) स्वनामख्याते द्वीपभेदे, समुद्रभेदे सूर्यादिक्रियाऽभावात्, सोऽद्धाकालो भण्यते। क्रियैव परिणामवती कालो च। तत्र अर्द्धहारवरार्द्धहारवरमहावरौ च देवौ वसतः। जी०३ प्रति०।। नान्य इति ये कालभपहलुवते, तन्मतव्यवच्छेदार्थमाहगोदोहादिक्रियासु Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अद्धाकाल 564- अभिवानराजेन्द्रः-भाग 1 अद्धाणकप्प निरपेक्षा, न खलु यथोक्ताद्धाकालः क्रियां गोदोहाद्यात्मिकामपेक्ष्य प्रवर्तते, किंतु सूर्यादिगतिम् / तथाहि-यावद्यावत्क्षेत्रं स्वकिरणैर्दिनकरश्वलन्द्योतयते तद् दिवस उच्यते, परतस्तु रात्रिः / तस्य च दिवसस्य परमनिकृष्टोऽसंख्यतमो भागः समयः / ते चासंख्येया आवलिका इत्यादि / एवं च प्रवृत्तस्यास्य कालस्य सूर्यादिगतिक्रियां विहाय काऽन्या गोदोहादिक्रियापेक्षेति ? के पुनस्ते समयादयोऽद्धा-कालभेदा इत्याह नियुक्तिकारः- "समयावलियमुहुत्ता, दिवस-महोरत्तपक्खमासा य / संव-च्छरयुगपलिया, सागरउस्सप्पि-परियट्टा" ||1|| विशे०। एतदेव सूत्रकृदाहसे किं तं अद्धाकाले? अद्धाकाले अणेगविहे पण्णत्ते / तं जहासमयट्ठयाए आवलियट्ठयाए०जाव उस्सप्पिणीयट्ठयाए। एसणं सुदंसणा अद्धादोहार-च्छेयणेणं छिज्जमाणा जाहे विभागं जो हव्वमागच्छइ, सेतं समए / समयट्ठयाए असंखेजाणं समयानं समुदयसमितिसमागमेणं एगा आवलिय त्ति वुचइ, संखेजाओ आवलियाओ जहा सालिउद्देसए० जावतं सागरोवमस्स एगस्स भवे परिमाणं। (से किं तं अद्धाकाले इत्यादि) अद्धाकालोऽनेकविधः प्रज्ञप्तः / तद् यथा-(समयट्ठयाए त्ति) समयरूपोऽर्थः समयार्थस्तद्भा-वस्तत्ता, तया, समयभावेन इत्यर्थः / एवमन्यत्रापि। यावत् करणात् 'मुहत्तट्ठयाए' इत्यादि दृश्यमिति। अथानन्तरोक्तस्य समयादि-कालस्य स्वरूपमभिधातुमाह(एस णमित्यादि) एषाऽन-न्तरोक्तोत्सर्पिण्यादिका (अद्धा दोहारच्छेयणेणं ति) द्वौ हारौ भागौ यत्रच्छेदने, द्विधा वा कारः करणं यत्र तद, द्विहारं द्विधाकारं वा, तेन। (जाहे त्ति) / यदा, समय इति शेषः / "से तमित्यादि" निगमनम्। (असंखेजाणमित्यादि) असंख्यातानां समयाना संबन्धिनो ये समुदया वृन्दानि तेषां याः समितयो मीलनानि तासां यः समागमः संयोगः समुदयसमितिसमागमस्तेन, यत्कालमानं भवतीति गम्यते; सैकावलिकेति प्रोच्यते। (सालिउद्देसए ति) षष्ठशतस्य सप्तमोद्देशके। भ०११ श०११ उ०। अद्धाखिण्ण-त्रि०(अध्वखिन्न) पथि बहुचलनेन परिश्रान्ते, जो पुण अद्धाखिन्नं, अतिहिं पूएइ तं दाणं। पिं०। अद्धाछेय-पुं०(अद्धाच्छेद) आवलिकाद्विके, क०प्र०। पं०सं०। अद्धाढय-पुं०(अर्धाढक) मगधदेशसंबन्धिनि मानविशेषे, औला अद्धाण-पुं०(अध्वन) पथि, "पुंस्यन आणो राजवच" ||356 / इत्यनः स्थाने आणेत्यादेशः। प्रा०। *अध्वान-न० प्रयाणके, "अद्धाणेहिं सुहेहिं पातरासेहिं जेणेव सालाडवी चोरपल्ली तेणेव उवागच्छइ" / विपा०१ श्रु०३ अ० अद्धाणकप्प-पुं०(अध्वकल्प) मार्गविहरणविधौ, (सच यथावद् "विहार' शब्दे दर्शयिष्यते) लेशतस्त्वत्र.................अहुणा अद्धाणकप्पवोच्छामि। जेहिं च कारणेहिं, अद्धा णो गम्म ते इणमो // 1 / / असिवे ओमोदरिए, रायद्ढे भए व आगाढे। देसुट्टाणे अपरक्कमे य अद्धाणतो पणगे / / 2 / / उद्दद्दरे सुमिक्खे, अद्धाण पवजणं च दप्पेणं / दिवसादी चउ लहुगा, चउगुरुगा कालगा होति / / 3 / / उग्गमउप्पादणएसणाएँ जे खलु विराहिते ठाणे। तं णिप्पण्णं तस्स उ, पायच्छित्तं तु दायव्वं / / 4 / / पुढवी आऊ तेऊ, वाउ वणस्सति तसाय आणता। इयरेसु परित्तेसु य, जं जहिं आरोवणा भणिता / / 5 / / लहुओ गुरुओ लहु गुरु, चत्तारि छच्च लहुयाय। छग्गुरु छेदो मूलं, अणवट्ठप्पोघपारंची।।६।। असिवे ओमोदरिए, रायडुढे भए व आगाढे। गीयत्था मज्झत्था, सत्थस्स गवेसणं कुजा / / 7 / / कालमकालं मोती, णातूण य अहिवतिं अणुण्णवणा। मिच्छू मिच्छादिट्ठी, धम्मकहा एणमेत्ते या सत्थयसमिए खंडी-परिच्छणे खलु तहेव पोग्गलिए। धम्मकहणिमित्तेणं, वसही पुण दव्वलिंगेणं / / / संथे पंथे तेणे,पंचविहो उग्गहो य दव्वाणं। सुण्णग्गामे दव्वग्गहणं जयणाएँ गीयत्था / / 10 / / तुवरे फले य पत्ते, गो महिसे सुत्तरा य हत्थी य। आणवमणातवे विय, जयणाए जाणगे गहणं / / 11 / / पिप्पलगसूति आरिगणक्खव्वणतलियपुडगपत्ते य। कत्तिय कत्तरि सिक्कग-संविदूऍ लाउ चेव वात्ती य॥१२|| पेत्तिय सेंभिय गुलिगाणं अगदसत्थकोसे य। जं चण्हु व गृहकर, गेण्हद्द अद्धाणकप्पम्मि // 13 // सीहाणुगा य पुरतो, वसमाणुमम्गतो समण्णेति। पंथे तं पिय जंता,धरेंति जा अद्धपज्जत्ती||१४|| दंडिय मिच्छद्दिष्ठी, समुदाण णिवारणं च णिव्विसए। सारूविसण्ण भद्दग-वसभा पुण दव्वलिंगेणं / / 15 / / उवकरणचरित्ताणं, विलोयणा सरीरलोयणागाढे। धम्मकहणिमित्तेणं, पुलागकज्जेण आगाढे ||16|| असिवादिकारणेहिं, अद्धाण पवजणं अणुण्णातं। उवकरणपुव्वपडिले-हिएण सत्थेण गंतव्वं / / 17 / / वचंताणं असहू, को तीण तरेज गंडपादेहिं? अपरक्कमो तु ताहे, तहियं तु इमे वि मग्गेज्जा / / 18 / / एगक्खुरऐं दुक्खरे, दुपिए अणुबंधि तह य अणुरंगा। अह भद्दया विजायति, असती अणुसहिमादीहि / / 1 / / एगखुरा आसादी, दुखुरा उद्दादि दुपिय जड्डादी। अणुबंधी सकमादी, अणुरंगप्पिसी तु बोधव्वा / / 20 / / एएसु पुव्ववट्ट-क्खुरादिजातित्तु सिद्धपुत्तादी। असतीय खुडओ वा, लिंगविवेगेण कति तु // 21 // आवासियम्मि सत्थे, तस्सेव तगं पि अप्पिणंति पुणो। अह भणति गता संता, अप्पेजाह विममं एयं / / 2 / / ताहे य छक्कमादी, चारेदी तेसि असतिए खुड्डो। Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अद्धाणकप्प 565 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अद्धासमय लिंगविवेगं काउं, चारेतीजा गताद्धाणं // 23 // आ०चू०६अ। एवं दुखुरादीसु वि, जयणा जा जत्थ सा तु कायव्वा। अवयवार्थः पुनःसुत्तत्थजाणएणं, अप्पाबहुयं तु णायव्वं // 24 // अद्धा कालो तस्स य, पमाणमद्धं तु जं भवे तमिह / एतेसामण्णतरं, अवगाढा णो णिसेवेजा। अद्धापचक्खाणं, दसमं तं पुण इमं भणियं / / 1 / / तट्ठाणगावराहे, संवट्टियमोऽवराहाणं // 25 // अद्धाशब्देन कालस्तावदभिधीयते, तस्य च कालस्य मुहूर्तसंवट्टियाऽवराहे, तवोवत्थ दो तहेव मूलं वा। पौरुष्यादिकं प्रमाणमप्युपचारात् / (अद्धं ति) अद्धा वदन्तीति आयारपकप्पे जं, पमाणणिम्माणचरिमम्मि||२६|| शेषः / तुशब्दो अप्यों भिन्नक्रमश्च यथास्थानं योजित एव / ततो अद्धाणकप्प एसो,................ पं० भा०। ऽद्धापरिमाणपरिच्छिन्नं यत्प्रत्याख्यानं भवेत् तदिह अद्धाप्रत्या-ख्यानं अस्य चूर्णिः - अद्धाणकप्पम्मि तिण्णि परिसाओ कीरति, सीहपरिसा | दशमं पूर्वोक्तभाव्यतीतप्रत्याख्यानादीनां चरममित्यर्थः / तत्पुनरिदं पुरओ, वसभपरिसा मज्झओ मिगा यमज्झे, वसभा अंते। जाहे उत्तिन्ना वक्ष्यमाणं भणितं गणधरैरिति // 1 // अद्धाणं ताव न परिठवेंति; अद्धाणकप्पं० जाव अद्धपजत्ती, सो पुण तदेवाहसत्थवाहो मिच्छादिट्ठी समुदाणं वा निवारेजा धम्मकहाइ पण्णवणा, नवकारपोरिसीए, पुरिमड्डेगासणेगठाणे च। सारूवियसन्नभद्दएहिंवा पन्नवेंति। अह वसभा दव्वलिगकाऊणपण्णति आयंबिलऽभत्तट्टे, चरिमे य अभिग्गहे विगई||२|| वा णं / गाहा-(उवकरण त्ति) सो पुण मिच्छादिडिओ उवधारणं वा विलोवेज्जा, चरित्तसरीरमाइं वा पच्छा धम्मकहाइ पुलागकजं करेंति, अत्र भीमसेनन्यायेन नमस्कारशब्दात्परतः सहितशब्दो द्रष्टव्यः / ततो आगाढे कहं पुण गंतव्वं सव्वेहिं वि? अह कोइ न तरइ बहिउं अतरंता। नमस्कारश्च, कोऽर्थः ?नमस्कारसहितं च पौरुषी च नमस्कारपौरुषी, गाहा-(एगक्खुर त्ति) पच्छा वड्डखुरंमग्गति, सिद्धपुत्तसावओवाणं कड्डइ, तस्मिन्, नमस्कारविषये, पौरुषीविषये चेत्यर्थः / पूर्वार्द्ध च, एकासनं असई खुडओ लिंगविवेगेणं आवासिए पञ्चप्पिणंति। अह भणेजा-तत्थ च, एकस्थानं चेति समाहारे सप्तम्येकवचने, पूर्वार्द्धविषये एकासनविषये गया पचप्पिणेज्जाह, ताहे लिंगविवेगेणं खुड्ढे उच्चारेइ / एवं गोणोऽवि एकस्थानविषये च / तथा आचामाम्लं च अभक्तार्थश्च आचामाम्लादुप्पिओ नाम वत्थी अणुरंगी, सकडअणुबंधी, पयंसा, एवं अप्पाबहुयं भक्तार्थ, तत्र, आचामाम्लविषये उपवासविषये च / तथा-चरिमे नाऊण / गाहा सिद्धं० जाव पमाणणिम्मा-णचरिमम्मि / एस चरमविषये / तथा अभिग्रहे अभिग्रहविषये / तथा-(विगइ त्ति) अद्धाणकप्पो / पं०चू०। विकृति विषये; सप्तम्येकवचनं लुप्तमत्र द्रष्टव्यमिति / दशभेदमिदमद्धा प्रत्याख्यानम् / नन्वेकासनादिप्रत्याख्यानं कथमद्धाप्रत्याख्यानम् , न अद्धाणगमण-न०(अध्वगमन) पथि विहरणे, "णण्णत्थ अद्धाणगमणे ह्यत्र कालनियमः श्रूयते ? सत्यम् / अद्धाप्रत्याख्यानपूर्वाणि णो कप्पइ, सगडं वा जाव संदमाणियं वा दुरूहित्ताणंगच्छित्तए"। औ०। प्रायेणैकासनादीनि क्रियन्ते इत्यद्धाप्रत्याख्यानत्वेन भण्यन्त इति / / 2 / / स्था / प्रव०४ द्वान अद्धाणणिग्गय-त्रि०(अध्वनिर्गत) मार्गनिर्गते, व्य०८ उ०। अद्धापजाय -पुं०(अद्धापर्याय) कालकृतधर्मे, स्था०७ ठा०। अद्धाणपडिवन्न-त्रि०(अध्वप्रतिपन्न) मार्गप्रतिपन्ने, भ०२ श०१ उ०।। अद्धापरिवित्ति-स्त्री०(अद्धापरिवृत्ति) कालपरावृत्तो, ''अद्धा(अन्तरापथे वर्तमाने) विहारं वा कुर्वति, बृ०॥ अस्य त्रयो परिवित्तीओ, पमत्त इयरे सहस्ससो किचा।" क०प्र० भेदाः / तद्यथा- "दूताहिंडविहारी, ते वि य होती सपडिवक्खा" अद्धामीसय-नं०(अद्धामिश्रक) कालविषये सत्यमृषाभेदे, यथा बृ०५ उ०॥ कस्मॅिश्चित्प्रयोजनेसहायाँस्त्वरयन् परिणतप्राये वासर एव रजनी वर्तत अद्घाणवायणा-स्त्री०(अध्ववाचना) अध्वनि मार्गे सूत्रार्थप्रदाने, व्य०१ इति ब्रवीतीति। स्था०१० ठा०। उ० अद्धामीसिया-स्त्री०(अद्धामिश्रिता) अद्धा कालः, स चेह प्रस्तावाद् अद्धाणसीसय-न०(अध्वशीर्षक) कान्तारादिनिर्गमरूपे प्रवेश-रूपे, दिवसो रात्रिर्वा परिगृह्यते, संमिश्रितो यथा साऽद्धा मिश्रिता / पिं० / ततः परं समुदायेन सार्थकेन सह गन्तव्यम् / तस्मिन्, व्य० सत्यमृषाभाषाभेदे, यथा- दिवसे वर्तमान एव वदतिउत्तिष्ठ रात्रिजतिति, 4 उ०। निर्भयमार्गान्ते, बृ०३ उ०। रात्रौ वा वर्तमानायामुत्तिष्ठोद्गतः सूर्य इति / प्रज्ञा० 11 पद ! अद्धाणिय-त्रि०(आध्वनिक) पथिके, बृ०४ उ०। अद्धारूव-त्रि०(अद्धारूप) अद्धा कालः, सैव रूपं स्वभावो यस्य अद्धापचक्खाण-न०(अद्धाप्रत्याख्यान) कालख्यामद्धामाश्रित्य तदद्धारूपम्। कालस्वभावे, पञ्चा०५ विव०॥ पौरुष्यादिकालमाने, आव०६ अ०| अद्धावकं ति-स्त्री०(अर्धापक्रान्ति) अर्द्धस्य समप्रविभागरूपस्य एतच दशमं प्रायश्चित्तमित्थं प्रतिपादितम् - एकदेशस्य वा एकादिपदात्मकस्यापक्रमणमवस्थानं, शेषस्य तु अद्धापच्चक्खाणं, जंतं कालप्पमाणछेएणं। व्यादिपदसंघातस्यैकदेशस्योर्ध्व गमनंयस्यां रचनायां साऽपिक्रान्तिः / पुरिमद्धपोरिसीए, मुहूत्तमासऽद्धमासे हिं|१८|| (समयपरिभाषया) पदत्रयमध्यादेकदेशाऽपक्रान्तौ, विशे०। अद्धाकाले प्रत्याख्यानं यद्, तत्कालप्रमाणच्छे दे न भवति अद्धासमय-पुं०(अद्धासमय) अद्धा कालः, तल्लक्षणः समयः पुरिमार्द्धपौरुषीभ्यां मुहुर्तमासार्द्धमासैरिति गाथासंक्षेपार्थः // 18 // | क्षणोऽद्धासमयः / भ०२ श०१० उ०। अद्धायाः समयो निर्विभागो Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अद्धासमय 566- अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अधम्म भागः; समयः संकेतादिवाचकोऽप्यस्ति, ततो विशिष्यतेऽ-द्धारूपः द्वा० कादाचित्कभाविनीषु कर्मप्रकृतिषु, कर्म०५ कर्म०। पं०सं० समयः(अनु०) पट्टसाटिकादृष्टान्तसिद्धेसर्वसूक्ष्मे पूर्वापरकोटि-विप्रमुक्ते / ('कम्म' शब्दे तृतीयेभागे 264 पृष्ठे तासां स्वरूपं द्रष्टव्यम्) स्मिन् कालाश, अनु० / जागा षड् द्रव्याणि, तत्र पञ्च | अद्ध(धु) वसाहण-न०(अध्रुवसाधन) अध्रुवाणि नश्वराणि साधनानि धर्मास्तिकायादयोऽस्तिकायाः, षष्ठोऽद्धासमयः / अस्य मानुष्यक्षेत्रजात्यादीनि यस्य तदध्रुवसाधनम्। अनित्यहेतौ, पञ्चा०१६ अस्तिकायत्वाभावः, वर्तमानक्षणलक्षणत्वेनैकत्वात्, अतीता विव० ऽनागतयोरसत्त्वात् / भ०२ श०१० उ० अनु० बहुप्रदेशत्व एव हि अद्ध(धु)वोदया-स्त्री०(अध्रुवोदया) ध्रुवोदयप्रतिपक्षासु कर्म-प्रकृतिषु, अस्तिकायत्वम्। अत्र त्वतीतानागतयोर्विनष्टाऽनुत्पन्नत्वेन वर्तमानस्येव कर्म० / यासां तु व्यवच्छिन्नोऽप्युदयो भूयोऽपि प्रादुर्भवति कालप्रदेशस्य सद्भावाद् न त्वेवमावलिकादि-कालाभावः, समयबहूत्व तथाविधद्रव्यक्षेत्रकालभवभावस्वरूपं पञ्चविधं हेतुसंबन्धं प्राप्य ता एव तदुपपत्तेरिति चेद्, भवतु तर्हि, को निवारयिता ? अध्रुवोदयाः। "अव्वुच्छिओ उदओ, जाणं पगईण ता धुवोदइया''। "समयावलियमुहुत्ता दिवसमहोरत्तपक्खमासा य'' इत्याद्यागमविशेध कर्म०५ कर्म० / 'कम्म' शब्दे द्वितीयभागे 271 पृष्ठे प्रतिपादयिष्यते इति चेत् / नैवम् / अभिप्रायापरिज्ञानात् / व्यवहारनयमतेनैव तत्र चैतम्। त्वभ्युपगमात्; अत्र तु निश्चयनयमतेन तदसत्त्वप्रतिपादनात् / नहि अद्धोवमिय-न०(अद्धौपम्य) औपम्यमुपमा पल्यसागररूपा तत्प्रधाना पुगलस्कन्धे परमाणुसंघात इवावलिकादिगतसमयसंघातः कश्चिदवस्थितः समस्तीति तदसत्त्वमसौ प्रतिपद्यते, इत्यलं विस्तरेण। अद्धा कालोऽद्धौपम्यम्।राजदन्तादिदर्शनादौपम्यशब्दस्यपरनिपातः। पल्योपमादौ उपमाकाले, स्था०८ ठा०। उपमानमन्तरेण अनु०। ('समय' शब्दे एतत्प्ररूपणा वक्ष्यते) यत्कालप्रमाणमनतिशयिना गृहीतुं न शक्यते, तदद्धौपमिकमिति अद्धि-पुं०(अब्धि) आपो धीयन्ते ऽस्मिन् / धा-आधारे कि। सरोवरे, भावः।"दुविहे अद्धोवमिएपन्नते। तं जहा-पलिओवमे चेव, सागरोवमे समुद्रे च / वाचला ऊर्मी, अष्ट०१ अष्ट०। सागरोपमे (कालविशेषे), चेव" स्था०२ ठा०४ उ० "द्वा०२६ द्वा०। सच भेदप्रभेदाभ्यां समासतोऽष्टविधःअद्धिइ(ति)करण-न०(अधृतिकरण) अधिकरणे (कलहे), निचू०१० अट्ठविहे अद्धोवमिए पन्नते। तं जहा-पलिओवमे 1 सागरोवमे उo/ २ओसप्पिणीए 3 उस्सप्पिणीए 5 पोग्गलपरियट्टे 5 अतीतऽद्धा अद्धीकारग-त्रि०(अर्धीकारक) अर्द्धमहं करोमि, अर्द्ध पुनस्त्वया ६अणागयऽद्धा७ सव्वऽद्धारा कर्तव्यमित्येवंकारके, बृ०३ उ०॥ पल्योपमसागरोपभयोरुपमाकालता स्पष्टा; अवसर्पिण्यादीनां तु अद्भुट्ठ-त्रि०(अर्धचतुष्क) अर्द्धाधिकत्रिषु, प्रश्न०४ आश्र० द्वा०। कर्म०। सागरोपमनिष्पन्नत्वादुपमाकालत्वं भावनीयम्। समया दिशीर्षप्रहेलिअद्भुत्त-त्रि०(अर्धोक्त) अर्द्धभाषिते, "अद्भुत्तेण उपंचाला" व्य०१० उ०। कान्तः कालोऽनुपमाकालः। स्था०८ ठा०। अद्ध(धु)व-त्रि०(अध्रुव) अवश्यभावि त्रियामान्ते सूर्योदयवध्रुवम्।न अध-अव्य०(अथ) आनन्तर्ये, "अध ससरीरो भगवं मकरध्वजो" तथा यत्तदध्रुवम्। आचा०१ श्रु०५ अ०२ उ०। अनियतसत्त्वे, "अधुवा (पैशाचीप्रयोगः) प्रा०ा नि०चूल। अणियता असासया सटणपटण विद्धंसण धम्मा कामभोगा'। ज्ञा०१ अधण्ण-त्रि०(अधन्य) न०त०। निन्द्ये, “अधण्णा सूलग्गभिण्ण-देहा''। अ०। अस्थिरे, "अधुवधणधण्ण-कोसपरिभोगविवजिया' | अध्रुवा प्रश्न०३ आश्रद्वा०। "नरणा उवट्ठिया अधण्णा ते वि य दीसंति' अस्थिरा धनानां गणिमादीनां, धान्यानां शाल्यादीनां, कोशा आश्रया प्रश्न०१आश्र०द्वा० येषां स्थिरत्वेऽपि तत्परिभोगेन वर्जिताश्च येते तथा। प्रश्न०३ आश्र०द्वा। अध(ह)म-त्रि०(अधम) जघन्ये, "निग्घिणमणसोऽहमविवागं" प्रव०। चले, आचा० 1 श्रु०८ अ०१ उ० दशा०। (अधमविपाकमिति) अधमो जघन्यो नरकादिप्राप्तिलक्षणो विपाकः अद्ध(धु)वबंधिणी-स्त्री०(अध्रुवबन्धिनी) न००। ध्रुवबन्धिनी परिणामो यस्य तत्तथाविधम् / (आर्तध्यानम्)। आव०४ म० "अहो प्रकृतिप्रतिपक्षासु कर्मप्रकृतिषु, यासां च निजहेतुसद्भावेना वयइ कोहेण माणेणं अहमा गई' मानेन अधमा गतिर्भवति / वश्यं बन्धस्ताः। क०प्र०। (ताश्च त्रिसप्ततिसङ्ख्याकाः "कम्म" शब्दे गर्दभोष्ट्रमहिषसूकरादिगतिः स्यात्। उत्त०६ अग तृतीयभागे 261 पृष्ठे दर्शयिष्यन्ते) अध(ह)म्म-पुं०(अधर्म) गतिपरिणतानां तत्स्वभावाधरणादधर्मः / अद्ध(धु) वसंतकम्म न०(अध्रुवसत्कर्मन्) सत्कर्मभेदे, यत्पुनरन अनु०॥ न धर्मोऽधर्मः / अधर्मास्तिकाये जीवपुद्गलानां स्थित्युपष्टम्भवाप्तगुणानामपि कदाचिद् भवति, कदाचिन्न, तदध्रुवसत्कर्म / पं०सं०३ कारिणि, स्था०१ ठा०१ उ० "एगे अधम्मे" एकोऽधर्मोऽसंख्यद्वान प्रदेशोऽपि द्रव्यार्थतया। स०१ सम० श्रा०ा मिथ्यात्वाविरतिप्रमादअद्ध (धु)वसक्क म्मिया-स्त्री०(अधुवसत्कर्मिका) धुवसत्क- कषाययोगरूपे कर्मबन्धकारणे आत्मपरिणामे, "णत्थि धम्मे अधम्मे मिकाप्रतिपक्षभूतासु कर्मप्रकृतिषु, क०प्र०) वा, णेवं सन्नं णिवेसए"। सूत्र० 2 श्रु०५ अ०। (यतिनां गृहिणां अद्ध(धु)वसत्तागा-स्त्री०(अध्रुवसत्ताका) अध्रुवा कदाचिद् भवन्ति, - चाधर्मपक्षप्रदर्शनं "पुरिसविजयविभंग" शब्दे करिष्यते) सावद्यानुष्ठाकदाचिन्न भवन्तीत्येवमनियता सत्ता यासांता अध्रुवसत्ताकाः।पं०सं०३ | नरूपे पापे, "अधम्मेण चेव वित्तिं कप्पेमाणे विहरइ'' अथर्मेण पापेन Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधम्म ५६७-अभिधानराजेन्द्रः-भाग 1 अधम्मस्थिकाय सावद्यानुष्ठानेनैव दहनाङ्कननिर्लाञ्छनादिना कर्मणा वृत्तिर्वतन कल्पयन् कुर्वाणो विहरति, ज्ञा०१८ अ० रा०ा विपा० भ०। आव०) षोडशे गौणाब्रह्मणि च, तस्याऽचारित्ररूपत्वात्। प्रश्न०४ आश्र० द्वा०। अध(ह)म्मक्खाइ-त्रि०(अधर्मख्याति) अधर्मेण ख्यातिर्यस्य। रा०ान धर्माद् ख्यातिर्यस्येति च / भ०१२ श०२ उ०। अविद्यमानधर्मोऽयमित्येवं प्रसिद्धिके, विपा०१ श्रु०१ अ०॥ अध(ह)म्मक्खाइ(ण)-त्रि०(अधर्माऽऽख्यायिन) अधर्ममाख्यातुं शीलं यस्य स तथा / ज्ञा०१८ अ०। न धर्ममाख्यातीत्येवंशीलो वा / भ०३ श०७ उ०। अधर्मप्रतिपादके, विपा०१ श्रु०१अ० अध(ह)म्मजुत्त-न०(अधर्मयुक्त) 3 ता पापसंबद्धेतद्दो-षोदाहरणभेदे, स्था०। यद्धि उदाहरणं कस्यचिदर्थस्य साधना-योपादीयते केवलं पापाभिधानरूपं, येन चोक्तेन प्रतिपाद्य-स्याधर्मबद्धिरुपजायते, तदधर्मयुक्तम् / तद्यथा- उपायेन कार्याणि कुर्यात्, कोलिकनलदामवत्। तथाहिपुत्रखादकमत्कोटकमार्गणोपलब्धबिलवासानामशेषमत्कोटकानां तप्तजलस्य बिले प्रक्षेपणतो मारणदर्शनेन रञ्जितचित्तचाणक्यावस्थापितेन चौरग्राहे नलदामाभिधानकु विन्देनचौर्यसहकारितालक्षणोपायेन विश्वासिता मिलिताश्चौरा विषमिश्रभोजनदानतः सर्वे व्यापादिता इति / आहरणतद्दोषता चास्याधर्मयुक्तत्वात्तथाविधश्रीतुरधर्म-बुद्धिजनकत्वाचेति, अत एव नैवंविधमुदाहर्तव्यं यतिनेति / स्था०४ ठा०३ उ०। इदं च नलदामकुविन्दोदाहरणं लौकिकम्, / तथैव "चाणक्केण णंदे उच्छाइए चंदगुत्ते रायाणए ठविए एवं सव्वं वण्णित्ता जहा सिक्खाए, तत्थ णंदमंतिएहिं मणुस्सेहिं सह चोरगाहो मिलिओ णगरं मुसइ / चाणको वि अन्नं चोरग्गाहं च ठविउकामो तिदंडं गहेऊण परिवायगवेसेण णयरं पविट्ठो, गओ णलदामकोलियसगासं, उवविठ्ठो वणणसालाए अत्थइ, तस्स दारओ मक्कोमडएहिं खाइओ, तेण कोलिएण बिलं खणित्ता दड्डा / ताहे चाणक्केण भण्णइ-किं एए डहसि ? कोलिओ भणइ-जइ एए समूलजाला ण उच्छाइजंति, तो पुणो वि खाइस्संति। ताहे चाणक्केण चिंतियं-एस मएलद्धो चोरगाहो, एस णंदतेणया समूलया उद्धरिसिहिइ / चोरग्गाहो कओ, तेण तिदंडिणा विस्संभिया-अम्हे सम्मिलिया मुसामो त्ति। तेहिं अन्ने वि अक्खाया- जे तत्थ मुसगा बहुया, सुहतराग मुसामो त्ति। तेहिं अन्ने वि अक्खाया। ताहे ते तेण चोरग्गाहेण मिलिऊण सव्वे विमारिया। एवं अहम्मजुत्तण भाणियव्यं,ण य कायव्वं ति। इदंतावल्लौकि-कम्। अनेन लोकोत्तरमपि चरणकरणानुयोग द्रव्यानुयोगं चाधिकृत्य सूचितमवगंतव्यम्, एकग्रहणात्तज्जातीय-ग्रहणमिति न्यायात्। तत्र चरणकरणानुयोगेन- "णेवं अहम्मजुत्तं, कायव्यं किं वि भाणियव्वं वा / थोवगुणं बहुदोसं, विसेसओ ठाणपत्तेणं / / 1 / / तम्हा सो अन्नेसि पि आलंबणं होइ' द्रव्यानुयोगे तु-"वादम्मितहा रूवे, विजाय बलेण पवयणट्ठाए / कुजा सावजं पि हु, जह मोरीण उलिमादीसु / / 1 / / सो परिवायगो विलक्खीकओ ति" |औदाहरणदोषता चास्याधर्मयुक्तत्वादेव भावनीयेति / गतमधर्मयुक्तद्वारम् / दश०१ अ०। अध(ह)म्मत्थिकाय-पुं०(अधर्मास्तिकाय) न धारयति गतिपरिणतावपि जीवपुद्गलाँस्तत्स्वभावतया नाऽवस्थपयति, स्थित्युपष्टम्भ कत्वात्तस्येति अधर्मः, स चासौ अस्तिकायश्च / उत्त० 35 अ०। कर्म० जीवपुद्गलानां स्थितिपरिणामपरिणतानां तत्परिणामोपष्टम्भकेऽमूर्तेऽसङ्ख्यातप्रदेशसघातात्मके द्रव्यविशेषे, प्रज्ञा० पद। अनु० स्था०। आव०। द्रव्या०। (सिद्धिरस्य 'अत्थिकाय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 513 पृष्ठे दर्शिता) तत्त्वंचअहम्मत्थिकाए णं भंते ! जीवाणं किं पवत्तइ ? गोयमा! अहम्मत्थिकाए णं जीवाणं ठाणणिसीयण-तुयट्टण मणस्स य एगत्तीभावकरणया जे यावण्णे तहप्पगारा थिरसभावा सवे ते अहम्मत्थिकाए पवत्तति ठाणलक्खणेणं अहम्मत्थिकाए। (ठाणनिसीयणतुयट्टण ति) कायोत्सर्गासनशयनानि, प्रथमाबहुवचन-- लोपदर्शनात्। तथा मनसश्चअनेकत्वस्यैकत्वस्यभवनमेकत्वीभावस्तस्य यत्करण तत्तथा। भ०१३ श०४ उ० अस्येमान्यभिवचनानिअहम्मत्थिकायस्स णं भंते ! केवइया अभिवयणा पण्णता? गोयमा ! अणेगा अभिवयणा पण्णत्ता / तं जहा अधम्मेति वा अधम्मत्थिकाएति वा, पाणातिवाय० जाव मिच्छादंससल्लेति वा ईरियाअसमिएत्ति वा० जाव उच्चारपासवण० जाव पारिट्ठावाणिया असमितीति वा मणअगुत्तीति वा वइ अगुत्तीति वा काय अगुत्तीति वा, जे यावण्णे तहप्पगारा सवे ते अहम्मत्थिकायस्स अभिवयणा। भ०२० श०२ उ०) 'अट्ठ अहम्मत्थिकायमज्झप्पएसा पण्णत्ता' 1 ते च रुचकरूपा इति। स्था०८ ठा० अधर्मास्तिकायसिद्धिः- अधर्मोऽधर्मास्तिकायः, स्थितिः स्थानं गतिनिवृत्तिरित्यर्थः / तल्लक्षणमस्येति स्थानलक्षणः / स हि स्थितिपरिणतानां जीवपुद्गलानां स्थितिलक्षणकार्य प्रत्यपेक्षाकारणत्वेन व्याप्रियत इति, तेनैव लक्ष्यत इत्युच्यते / अनेनाप्यनुमानमेव सूचितम् / तच्चेदम् -यद्यत्कार्यं तत्तदपेक्षाकारणवत्, यथाघटादि कार्यम् / तथा चासौ स्थितिः, यच्च तदपेक्षाकारणं तदधर्मास्तिकाय इति / अत्र च नैयायिकादिः सौगतो वा वदेत्नास्त्यधर्मास्तिकायः, अनुपलभ्यमानात्, शशविषाणवत् / तत्र यदि नैयायिकः, तदाऽसौ वाच्यः- कथं भवतोऽपि दिगादयः सन्ति ? अथ दिगादिप्रत्ययलक्षण-कार्यदर्शनाद्भवति हि कार्यात्कारणानुमानम्, एवं सति स्थितिलक्षणकार्यदर्शना-दयमप्यस्तीति किं न गम्यते? अथतत्र दिगादिप्रत्ययकार्यस्यान्यतोऽसंभवात्तत्कारणभूतान् दिगादीन अनुमिमीमहे इति मतिरिहाप्याकाशादीनामवगाहना दिस्वस्वकार्यव्यापृतत्वेन ततोऽसंभवात्, अधर्मास्तिकायस्यैव स्थितिलक्षणं कार्यमिति किं नानुमीयते? अथासौन कदाचिद् दृष्टः, एतद्विगादिष्वपि समानम् / अथ सौगतः, सोऽप्येवं वक्तव्यः, यथा- भवतः कथं बाह्यार्थसंसिद्धिः? नहि कदाचिदसौ प्रत्यक्षगोचरः, साकारज्ञानवादिनः सदा तदाकारस्यैव संवेदनात् / तथा च तस्याप्यनुलभ्यमानत्वादभाव एव / अथाकारसंवेदनेऽपि तत्कारिणमथ परिकल्पते, धूमज्ञान इवाग्निः / Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधम्मत्थिकाय 568 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अधरगमण अ०॥ एवं स्थितिदर्शनेऽपि किं न तत्कारणस्याधर्मास्तिकायस्य निश्चयः / ये ते / भ०१२ श०२ उ०। अधर्मप्रायेषु कर्मसु प्रकर्षण रज्यते अथायमप्यभिदधीत न कदाचिदसौ तत्कारणत्वेनेक्षित इति / इत्यधर्मप्ररज्जनः। रलयोरैक्यमिति कृत्वा रेफस्थानेलकारः / ज्ञा०१८ ननु बाह्यार्थे ऽपि तुल्यमेतत्, न हि सोऽपि तदाकारतया अ०। अधर्मरागिणि, विपा०१ श्रु०१ अ०। कदाचिदवलोकितः। अथ मनस्कारस्य चिद्रूपतायामेव व्यापारः, न तु अध(ह)म्मपलोइ(ण )-त्रि०(अधर्मप्रलोकिन्) न धर्ममुपादेयतया नियताकारत्वे, अतस्तत्रार्थः कारणं कल्प्यते, एवं तर्हि प्रलोकयति यः सोऽधर्मप्रलोकी / भ०१२ श०२ उ०। अधर्म मेव जीवपुद्गलपरिणाममात्र एव कारणं, स्थितिपरिणतौ पुनरधर्मास्ति प्रलोकयितुं शीलं यस्यासावधर्मप्रलोकी। ज्ञा०१८ अ० अधर्मस्यैव कायापेक्षा, तत् कारणत्वेन व्याप्रियत इति किं न कल्प्यते ? अथासौ उपादेयतया प्रेक्षके(परिभाषके), विपा०१ श्रु०१ अ०॥ सर्वदा सर्वस्य सन्निहित इत्यनियमेन स्थितिकारणं भवेत् / ननु अध(ह)म्मराइ(ण)-त्रि०(अधर्मरागिन्) अधर्म एव रागो यस्य एवमर्थोऽपि किं न सन्निहित इत्येवं स्वाकारमर्पयति ? अथ सोऽधर्मरागी। दशा०६ अग चक्षुरादिव्यापारमयमपेक्षते, अधर्मास्तिकायोऽपि तर्हि स्वपरगतो विश्रसाप्रयोगानपेक्षत इति नानयोर्विशेषमुत्पश्यामः / तथा अध(ह)म्मरुइ-त्रि०(अधर्मरुचि) न विद्यतेधर्मेरुचिर्येषां ते अधर्मरुचयः / भाजनमाधारः सर्वद्रव्याणां जीवादीनां नभ आकाशम्, दश०१०। अवगाहोऽवकाशस्तल्लक्षण-मस्येत्यवगाहलक्षणम्, तद्ध्यवगाढं अध(ह)म्मसमुदायार-त्रि०(अधर्मसमुदाचार) नधर्मरूप-श्चारित्रात्मकः प्रवृत्तानामालिम्बनीभवति, अनेनावगाहकारणत्वमाकाशस्योक्तम् / न समुदाचारः समाचारः सप्रमोदो वाऽऽचारो यस्य य चास्यतत्कारणत्वम-सिद्धम्, यतो यद्यदन्वयव्यतिरेकानुविधायि तत्तत् तथा। भ०१२ श०२ उ०। चारित्रविकले दुराचारे, विपा०१ श्रु०१ अ० कार्यम्, यथा-चक्षुराद्यन्ययव्यतिरेकानुविधायि रूपादिविज्ञानम्, आ- अव(ह)म्मसीलसमुदायार-त्रि०(अधर्मशीलसमुदाचार) अधर्म एव काशान्वयव्यतिरेकानुविधायी चावगाहः। तथाहि- सुषिर-रूपमाकाशं, शीलं स्वभावः समुदाचारश्च यत्किञ्चनानुष्ठानं यस्य स तथा। तत्रैव चावगाहः, न तुतद्विपरीते पुंगलादौ / अथैवमलोकाकाशेऽपि कथं स्वभावतश्चेष्टया चाऽधर्मिके, ज्ञा०१८ अ०। विपा०) नावगाहः ? उच्यते-- स्यादेवं यद्धि कश्चिदवगाहिता भवेत् / तत्र तु अध(ह)म्माणुय-त्रि०(अधर्मानुग) धर्म श्रुतरूपमनुगच्छतीति धर्मानुगः, धर्मास्तिकायस्य जीवादीनां चासत्त्वेन तस्यैवाभाव इति कस्यासौ न धर्मानुगोऽधर्मानुगः / भ०१२ श०२ उ०। श्रुत-चारित्राभावमनुगते, समस्तु ? नन्वेवमपि न तत्सिद्धिः, हेतोरसिद्धत्वात्, तदसिद्धिश्वा- विपा०१ श्रु०१ अ० अधर्म कर्तव्ये -ऽनुज्ञाऽनुमोदनं न्वयाभावातः सति हि तस्मिन् भवत्यन्वयः। न च तत्सत्त्वसिद्धिरस्ति, यस्यासावधर्मानुज्ञः ।ज्ञा०१८ अ०।अधर्मानुज्ञायके, विपा०१ श्रु०१ अन्वयाभावे च व्यतिरेकस्याप्यसिद्धिरस्तीति। उत्त०२८ अ०) अध(ह)म्मदाण-न०(अधर्मदान) अधर्मकारणश्चासौ दानं च, अध(होम्मिजोय-पुं०(अधर्मियोग) निमित्तवशीकरणादिप्रयोगे, स०३० अधर्मपोषकं वा दानमधर्मदानम् / दानभेदे, यथा- "हिंसाऽनृतचौ समा योद्यत- परपरिग्रहप्रसक्तेभ्यः / यद्दीयते हि तेषां, तज्जानीयाद अध(ह)म्मिट्ठ-त्रि०(अधर्मिष्ठ) अतिशयेन धर्मी धर्मिष्ठः; न धर्माय" ||1|| इति। स्था०१० ठा०। धर्मिष्ठोऽर्धर्मिष्ठः | भ०१२ श०२ उ०) अतिशयेन निधर्मे अध(होम्मदार-न०(अधर्मद्वार) आश्रवद्वारे, "पढम अहम्मदारं सम्मत्तं निस्विंशकर्मकारित्वादतिशयेन धर्मवर्जिते, ज्ञा०१८ अ०। विपा०। राor ति बेमि"। प्रश्न०१ आश्र० द्वा०। सूत्रा अध(ह)म्मपक्ख-पुं०(अधर्मपक्ष) अनुपशान्तस्थाने, "अध- | *अधर्मीष्ट-त्रि० अधर्मिणामिष्टः / अधर्मिणां वल्लभे, भ०१२ श० म्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिए; तस्स णं इमाइं तिन्नि तेवढाइ 2 उ01 पावदुयसयाइं भवंतीति माक्खाई / तं जहा-किरियावाईणं, *अधर्मेष्ट-त्रि० धर्मः श्रुतचारित्ररूपः एवेष्टः पूजितो वा यस्य स अकिरियावाईणं, अन्नाणियवाईणं, वेणइयवाईणं,"।सूत्र०२ श्रु०२ अ०। धर्मेष्टः / न धर्मेष्टोऽधर्मेष्टः। अधर्म एव इष्टो वल्लभः पूजितो वा यस्य स अध(ह)म्मपजणण-त्रि०(अधर्मप्रजनन) अधर्म जनयतीति तथा। अधर्मेषके, अधर्मसभाजके वा। भ०१२ 202 उ०। अधर्मप्रजननः। लोकानामप्यधर्मोत्पादके, रा०। अध(ह)म्मिय-त्रि०(अधार्मिक) न धार्मिकोऽधार्मिकः / धर्मण अध(ह)म्मपडिमा-स्त्री०(अधर्मप्रतिमा) अधर्मविषया प्रतिमा / श्रुतचारित्रात्मके न चरतीति धार्मिकः (तथा न)। भ०१२ श० अश्रुतचारित्रविषयायां प्रतिज्ञायाम्, अधर्मप्रधाना वा प्रतिमा 2 उ० 1 अधर्मेण चरतीति अधार्मिकः / ज्ञा०१८ अापापिनि, विपा० अधर्मप्रतिमा। अधर्मप्रधाने शरीरे, “एगा अध (ह)म्मपडिमा, जं सि 1 श्रु०३ अ० असंयते, स्था०। धर्मे भवं, धर्मो वा प्रयोजनमस्येति (से) आया परिकिलेस त्ति" एका अधर्मप्रतिमा, सर्वस्य धार्मिकम्, (तथा न) / न०तका धार्मिकविपर्यस्ते, स्था०४ ठा० परिक्लेशकारणतयैकरूपत्वात्। अत एवाह-(जं से इत्यादि) यद्यस्मात्, १उ01 से तस्याः / स्वाम्यात्मा जीवः / अथवा-(सि त्ति) पाठान्तरम्।। अध(होर-पुं०(अधर) न ध्रियते / धृङ् -अच् / न०त०। वाच०। सोऽधर्म प्रतिभावानात्मा परिक्लिश्यते / ततश्च प्राकृतत्वेन अधस्तनदशनच्छदे, जं०२ वक्ष०ा नं०। उपा० प्रश्न०। आत्यन्तिके लिङ्गव्यत्ययादयस्यामधर्मप्रतिमायां सत्यामात्मा परिक्लिश्यते सा एकै / कारणे,बु०३ उ०। वेति।स्था०१ ठा०१ उ० अध(ह) रगमण-न०(अधरगमन) अधोगतिगमनकारणे, "तहा अध(ह)म्मपलज्जण-त्रि०(अधर्मप्ररजन) नधर्मे प्ररज्यन्ते आसजन्ति | गवालीकं च गरुयं भणंति अध (ह) गमणं'। प्रश्न०२ आश्र० द्वा०। Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अघरिम 569- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अधिगरण अध(ह)रिम-त्रि०(अधरिम) अविद्यमानं धरिममृणद्रव्यं यस्मिंस्त- सकलसूत्रविषयिण्या रुचौ, ध०२ अधि०। तथा / ज्ञा०१ अ० विपा० उत्तमर्णाधमाभ्यां परस्परं तदृणार्थ न | अधि(मि) गमसम्मदंसण-न०(अधिगमसम्यग्दर्शन) 3 त०॥ विवदनीयं, किन्तु अस्मत्पार्श्वे द्युनं गृहीत्वा ऋणमुत्कलनीयमिति गुरूपदेशादिजन्ये सम्यग्दर्शनभेदे, यथा भरतस्य / "अभिराजाज्ञाविशिष्ट नगरादौ, जं०३ वक्ष०। विपा०। गमसम्मदंसणे, दुविहे पण्णत्ते।पडिवाईचेव, अपडिवाईचेव।" प्रतिपतनं अध(ह)री-स्त्री०(अधरी) पेषणशिलायाम्, "अध(ह)रीसंठाण-संठिया शीलं प्रतिपाति, सम्यग्दर्शनमौपशमिकं, क्षायोपशमिकं वा। अप्रतिपाति दो वि तस्स पाया"। उपा०१ अ० क्षायिकम्। स्था०२ ठा०१ उ०। / अध(ह)रीलोट्ठ-पुं०(अधरीलोष्ट) शिलापुत्रके, "अधरीलोट्टसंठाण- | अधि(हि)गय-न०(अधिकृत) अधि-कृ-भावे-क्त / अधिकारे, दश० संठिआओ पाएसु अंगुलीओ'। उपा०१अ० 10 // अण(ह)रुट्ठ-न०(अधरोष्ठ) द्व०साह्रस्वःसंयोगे दीर्घस्य"८/१/८४॥ *अधिगत-त्रि० प्राप्ते, उत्त०१० अ० विज्ञाते, व्य०२ उ०। पञ्चा० / इति सूत्रेण ओतो ह्रस्वः / प्रा० उपरिस्थाधःस्थोष्ठयुग्मे, प्रश्न०३ अधि(हि)गरण-न०(अधिकरण) अधिक्रियतेऽस्मिन्निति अधिकरणम्। आश्रद्वा०। अधस्तनदन्तच्छदे, "ओयवियसिलप्पवालबिंबफल आधारे, यथा चक्रमस्तके घटः / नि००१ उ०। अधिक्रियते सण्णिभाऽधरुट्ठा" नं० नरकगतियोग्यतां प्राप्यते आत्माऽनेनेत्यधिकरणम्। कलहे, प्राभृते च / अध(ह)व (वा)-अव्य०(अथवा) विकल्पे, नि०चू०१० उ०। बृ०१ उ०। स० अधारणिज-त्रि०(अधारणीय) अविद्यमानो धारणीयोऽधमणों | (1) अधिकरणनिरुक्तानि समानार्थकानि च / यस्मिस्तत्तथा / ज्ञा०१ अ०। अविद्यमानाधमणे पुरादौ, विपा० | (2) अधिकरणनिक्षेपः। १श्रु०३ अ०। आत्मनो धारयितुमशक्ये, भ०७ श०६ उ०॥ अयापनीये, (3) अधिकरणं न करणीयम्। यापनां कर्तुमात्मनोऽशक्ये च / ज्ञा०८ अ० विपा०ा जं०। (4) कृत्वा तु व्युपशमनीयम्। अधि(हि)-अव्य०(अधि) आधिक्ये, भ०१ श०१ उ०) (5) अधिकरणोत्पत्तिकारणानि / अधि(हि)इ-स्त्री०(अधृति) धृतेरभावे, "तो तुमे पिया एवं वसणं पाविओ (6) उत्पन्ने च व्युपशमनीयमेव नोपेक्षणीयम्। तस्स अधिइ जाया सुणित्तओ चेव उद्घायलोहदंडग्गहा य वियडाणि (7) भावनिक्षेपः। भंजामि"। आव०४ अ०। (8) अधिकरणं कृत्वाऽन्यगणसंक्रान्तिन कर्तव्या। अधि(हि)ग-त्रि०(अधिक) अत्यर्थे, बृप उ०। (8) गच्छादनिर्गतस्याधिकरणे समुत्पन्ने विधिः। अधि(हि)गम-पुं०(अधिगम) अधिगम्यन्ते परिच्छिद्यन्ते पदार्थो येन / (10) खरपरुषाणि भणित्वा गच्छान्निर्गच्छतो विधिः / सोऽधिगमः। आव०३ अ०। गुरूपदेशजे यथाऽवस्थित-पदार्थपरिच्छेदे, एषसम्यक्त्वस्य हेतुविशेषः। निसर्गाद्वाऽधिगमतो जायते।तच पञ्चधा (11) गृहस्थैः सहाधिकरणं कृत्वाऽव्यपशमय्य पिण्डग्रहणादिन कार्यम् / औपशमिकं 1 क्षायिकं 2 क्षायोपशमिकं 3 वेदक 4 सास्वादनं च 5 / (12) अनुत्पन्नमधिकरणमुत्पादयति। ध०२ अधि० "जुगवं पि समुप्पन्नं, सम्मत्तं अहिगमं विसोहेइ" / / (13) कारणे सत्युत्पादयेत्। आवा०३ अ०। "गुरूपदेशमालम्ब्य, सर्वेषामपि देहिनाम् / यत्तु सम्यक् (14) पुराणान्यधिकरणानि क्षान्तव्युपशमितानि पुनरुदीरणम्। श्रद्धानं तत्, स्यादधिगमजं परम्" ||1|| जीवादीणमधिगमो, मिच्छत्तस्स (15) निर्ग्रन्थैर्व्यतिकृष्टमधिकरणं नोपशमनीयम्। खओवसमभावे। अधिगमसम्मंजीवो, पावेइ विसुद्धपरिणामो"।ध०२ (16) निर्ग्रन्थीभिर्व्यतिकृष्टमधिकरणं व्युपशमनीयम्। अधि० (17) साधिकरणेनाकृतप्रायश्चित्तेन सह न संभोगः कार्यः। अधि(मि)(हि)गमरुइ-पुं०-स्त्री०[अधि(भि)गमरुचि अधिगमो विशिष्टं परिज्ञानं, तेन रुचिः जिनप्रणीततत्त्वाभिलाषरूपा यस्यावावधि (18) अधिकरण्यधिकरणनिरूपणम्। गमरुचिः / प्रव०१४६ द्वा० / सरागदर्शनार्यभेदे, प्रज्ञा०१ पद। (1) इमे अधिकरणनिरुत्ता, एगडिया यतत्स्वरूपंच अहिकरणमहोकरणं, अहरगतीगाहगं, अहोतरणं / सो होइ अभिगमरुई,सुअनाणं जस्स अत्थओ दिटुं। अद्धितिकरणं च तहा, अहीकरणं च अहिकरणं // 165 / / एक्कारस अंगाई, पइन्नगा दिहिवाओ य॥ भावाधिकरणं कर्म बन्धकारणमित्यर्थः / अथवा-अधिकं अतिरिक्तं यस्य श्रुतज्ञानमर्थतो दृष्टं, कि मुक्तं भवति ? येन श्रुत उत्सूत्रं करणं अधिकरणम्। अधो अधस्तात् आत्मनः करणम्। अधरा ज्ञानस्यार्थोऽधिगतो भवतीति / किं पुनस्तच्छुतज्ञानम् ? इत्याह अधमा जघन्या गतिस्तामात्मानं ग्राहयतीति। अधो अधस्तादवतारभूमि (एक्कारस अंगाई ति) एकादशाङ्गानि आचाराङ्गादीनि, प्रकीर्ण गृहनिश्रेण्यानि वा / न धृतिररतिरित्यर्थः, अस्याः करणम् / अधीरस्य कान्युत्तराध्ययननन्द्यध्यनादीनि, दृष्टिवादः परिकर्मसूत्राद्यङ्गत्वेऽपि असत्त्ववतः करणं अधिकरणम्।अथवा-अधीः अबुद्धिमान् पुरुषः, स पृथगुपादानमस्य प्राधान्यख्यापनार्थम् / चशब्दादुपाङ्गानि तं करोति, इत्यधिकरणम्। चौपपातिकादीनि, स भवत्यधिगमरुचिः।प्रव०१४६ द्वा०ास्था०।अर्हतः सो अधिकरणो दुविधो, सपक्खपरपक्खतोच नायव्वो। Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिगरण 570 - अभियानराजेन्द्रः - भाग 1 अधिगरण एक्कको विय दुविहो, गच्छगतो णिग्गतो चेव / / 166 / / साधिकरणे साधू दुविधेन अधिकरणेन भवति, तं चिमं दुविधं - सपक्खाधिकरणं, परपक्खाधिकरणं च / सपक्खाधिकरणकारी गच्छगतो, गच्छणिग्गतो वा, एवं परपक्खाधिकरणे वि दुविधं / नि०चू०१० उ०। (2) अस्य निक्षेपस्त्वित्थं नियुक्तिकृदाहनामं ठवणा दविए, भावे यचउव्विहं तु अहिगरणं / दव्वम्मि जंतमादी, भावे उदओ कसायाणं // नामाधिकरणं, स्थापनाधिकरणं, द्रव्याधिकरणं, भावाधिकरणं चेति चतुर्विधमधिकरणम् / तत्र नामस्थापने गतार्थे, द्रव्या-धिकरणम्आगमतो, नोआगमतश्व। आगमतो-अधिक-रणशब्दार्थं निरूपयन्, न तु प्रयुक्त वक्ता, नोआगमतो ज्ञशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्तम् / द्रव्याधिकरणे यन्त्रादिकं द्रष्टव्यम्, यन्त्रं नाम दलनयन्त्रादि / भावे भावाधिकरणे कषायाणां क्रोधादीनां उदयो विज्ञेयः। तत्र द्रव्याधिकरणं व्याख्यानयतिदव्वम्मि उ अधिकरणं,चउव्विहं होइ आणुपुव्वीए। निव्वत्तण निक्खवणे, संजोयण निसिरणे य तहा॥ द्रव्ये द्रव्यविषयमधिकरणं चतुर्विधंभवत्यानुप्रा परिपाट्या। तद्यथानिर्वर्तनाधिकरणं, निक्षेपणाधिकरणं, संयोजनाधिकरणं, निसर्जनाधि-- करणं च। बृ०१ उ०। णिव्यत्तणे अधिकरणं दुविधं-मूलकरणं, उत्तरकरणं च / तत्थ मूलणिव्वत्तणाधिकरणं अट्ठविहं भण्णतिपढमे पंच सरीरा, संघाडणसाडणे य उभए वा। पडिलेहणापमजण, अकरण अविधिय णिक्खिवणा // 23 // | (पढमे त्ति) णिव्वत्तणाधिकरणे पंच सरीराओरालियादि, संघातकरणं साडनकरणं च। एवं अट्ठविहं मूलकरणं // 235 // पुनः णिव्वत्तणाधिकरणसरूवं भण्णतिणिव्वत्तणा य दुविहा, मूलगुणे वा वि उत्तरगुणे य। मूले पंच सरीरा, दोसु ते संधातणा णत्थि / / 237 / / णिव्वत्तणाऽधिकरणं दुविधं- मूलगुणणिव्वत्तणाधिकरणं, उत्तरगुणणिव्वत्तणाधिकरणं च / मूले ओरालियादि पंच सरीरा दट्ठव्या / दोसु य / तेयकम्मएसुसव्वे काले संघातणा णत्थि, अनाद्यत्वात्।।२३७|| संघातणा य परिसाडणा य उभयं व जाव आहारं। उभयस्स अणियतठिती,आदी अंते यसमओ तु // 238|| त्रिकं त्रिष्वपि संभवति, उभयं संघातपरिसाडौ, तस्स ठिती अणियता, द्विकादिसमयसंभवात् / संघातो आयातीए सर्वपरिसाडो, अंते एगे एगसमयता // 23 // सर्वसंघातप्रदर्शनार्थमाहहविपूओ कम्मगारे, दिटुंता हो ति तिसु सरीरेसु। करणे य खंधकरणे, उत्तरकरणं तु संघडणा / / 239 / / हवि घितं, तत्थ जो पूतो पचति सो हविपूओ सोयघयपुण्णो भण्णति। संघायसंघते पक्खित्ते पढमसमए एगतेण घयग्गहणं करेति, बितिआदिसमएसु गहणं मुंचति य, कम्मकारो लोहकारो, तेण जहा। तपितमायसं जले पक्खित्तं, पढमसमए एगंतेण जालातणं करेति, बितिआदिसमएसु गहणं मुंचइ य / एवं तिसुओरा-लियादिसरीरेसु पढमसमए गहणमेव करोति, बितिआदिसमएसु संघातपरिसाडो, तेयगकम्भाणं सव्वकालंन संघातपरिसाडो, अनाद्यत्वात्। पंचण्ह विजते सव्वसाडो / अहवा तिण्डं ओरालियविउव्विआहारगाणं मूलंगकरणा अट्ठसिरो, उर, उदरं, पुट्ठी, दो बाहाओ, दोणियऊरू, सेसं उत्तरकरणं / अहवा तिसु आइल्लेसु ओरालादी, उत्तरकरणं छेत्रेण, खंधकरणं त्रिफला-दिघृतादिना वन्नकरणं / अथवा इमं चउव्विहं सव्वकरणं संघायकरणं परिसाडणाकरणं // 23 // संघाय परिसाडणा, य मीसे तहे व पडिसेहे। पडसंखणघूणादी, उट्टति रित्थाणुकरणं तु / / 240|| परिसाडणाकरणं, तत्थ ओरालिय एगिदियादि पंचविधं, तज्जोणी पाहुडादिणा / जहा सिद्धसेणायरिएण अस्सए कता, जहा वा एगेण आयरिएण सीसस्स उवदिवो जोगो जहा महिसो भवति, तं च सुयं आगरियस्स भाइणिज्जेण, सो य णिद्धम्मो उणिक्खंतो महिसं उप्पादेउं सोयरियाण हत्थे विक्किणइ आयरिएण सुयं, तत्थ गतो भणाति- किं ते एएण? अहं ते रयणजोगं पयच्छामि। दव्वे आहराहि। ते य आहरित्ता आयरिएण संजोतिता, एगंते णिक्खित्ता भणितो-एत्तिएण कालेण ओक्खणेजाहि, अहं गच्छामि। तेण उक्खित्तो दिट्ठीविसो सप्पो जातो। सो तेण मारितो, अधिकरणच्छेओ, सो विसप्पो अंतोमुहुत्तेण मओ। एवं जो णिव्वत्तेइ सरीरं तं अधिकरणकह, जतो सुत्ते भणियं 'जीवे णं भंते ! ओरालियसरीरं णिव्वत्तेमाणे किं अधिकरणं? अधिकरणी जीवो, अधिकरणी सरीरं, अधिकरणं णिव्वत्तणाधिकरणं / णिव्यत्तणाधिकरणं गतं। नि०चू०४ उ०। निक्षेपणाधिकरणं द्विधा- लौकिकं, लोकोत्तरिकं च / तत्र यन्मत्स्यग्रहणार्थ गलनामा लोहकण्टको कुण्ट वा मृगादीनां ग्रहणाय जालं था, लावकादीनामर्थाय निक्षिप्यते शतघ्न्यादीनि घरघट्टादीनि वा यन्त्राणि स्थाप्यन्ते, तदेतल्लौकिकं निक्षेप-णाधिकरणम् / यस्तु लोकोत्तरिकं तत् षड्विधम् -यत्र पात्राद्युपकरणं निक्षिपति, तत्र न प्रत्युपेक्षतेन प्रर्माजयति १,न प्रत्युपेक्षते, प्रमार्जयति 2, प्रत्युपेक्षते, न प्रमार्जयति 3, यत्तु प्रत्युपेक्षते प्रमार्जयति तदुःप्रत्युपेक्षितं दुष्प्रमजितम् 4, दुःप्रत्युपेक्षितंदुःप्रमार्जितम्५, सुप्रत्युपेक्षितं सुप्रमार्जितं 6 करोति / एवमेते षड्भङ्गा निक्षेपणाधिकरणम् / यस्तु सप्तमो भङ्गः सुप्रत्युपेक्षितं सुप्रमार्जितं करोतीति लक्षणः, स नाधिकरणं; शुद्धत्वात् / यद्वा-यद् भक्तं पानकं वा अपावृतं स्थापयति तन्निक्षेपणाधिकरणम्। बृ०१ उ०। इयाणिं संजोयणा, सा दुविहा-लोइया, लोउत्तरिया य। लोइया अनेकविहाविसगरमादी लोए,लोउत्तरं भत्तोवधिमादिम्मि। अंतो बहि आहारे, विहियविधा सिच्चणा उवधी // 24 // कंडादिलोअणिसिरण-ओत्तरणा पमादणा भोगे। मूलादिजाव चरिमं, अधवा दी जंजहिक्कमति // 25 // नि०चू०५ उ० संयोजनाधिकरणमपि द्विविधम्-लौकिकलोकोत्तरिकभेदात् / तत्र लौकिक रोगाद्युत्पत्तिकारणं; विषगरादिनिष्पतिनिबन्धनंवा द्रष्टव्यसंयोजनमालोकोतरिकंतु Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिगरण 571 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अधिगरण भक्तोपधिशय्याविषयसंयोजनम्। बृ०१ उ०। इयाणिं णिसिरणा दुविधा- लोइया, लोउत्तरिया, (लोइया) णिसिरणे तिविधा-- सहसा, पमाएण; अणाभोगेण य, पुव्वाइटेण जोगेण। किंचि सहसा णिसरति पंचविधपमायन्नतरेण पमत्तो णिसरति। एगंत विस्सति अणाभोगो तेण णिसरति। नि० चू०४ उ०। निसर्जनाधिकरणमपि लौकिकम्-शरशक्तिचक्र पाषाणादीनां निसर्जनम् / लोकोत्तरिकं तु सहसाकारादिना यत्कण्टककङ्करादीनां भक्तपानान्तःपतितानां निसर्जनम्। बृ० 1 उ०। इयाणिं णिव्वत्तणादिसु पच्छित्तं, तत्थ णिव्यत्तणे मूलादि पच्छद्धं / एगिदियादी णिव्वत्तयं तस्स अभिक्खमेवं दुच पढमवाराए मूलं, , बितियवाराए अणवल, ततियवाराए पारंचियं, अधवा जं जहिं कमति संघट्टणादिकं आयविराहणादिणिप्पण्णं वा।। एगिंदियमादीसु तु, मूलं अधवा वि होति सट्ठाणं / झुसिरेतरनिप्पण्णं, उत्तरकरणम्मि पुव्वुत्तं / / 244|| एगिदियं जाव पंचिंदियं णिव्वत्ते, तस्स मूलं, अहवा वि होति सट्ठाणं ति "छक्कायचउसु' गाहा / परितं णिव्वत्तेति चउलहुं, अणंते चउगुरु, बेइंदिएहिं छ लहुँ, तेइंदिए छग्गुरु, चउरिदिएहिं छेदो, पंचेंदिए मूलं, उत्तरकरणे झुसिराझुसिरणिप्पण्णं पुव्युत्तं, इहेव पढमुद्देसए पढमसुत्ते णिक्खिवसंजोगणिसिरणेसु इमं पच्छित्तंतिय मासिय तिग पणए, णिक्खिवसंजोगगुरुगलहुगा वा। झुसिरेतरसंतरणिरं-तरे य वुत्तं णिसिरणम्मि।।२४।। सत्तभंगीए पढमबितियततिएसुभंगेसुमासलहुं, चउत्थपंचमछट्टेसुपणगं, चरिमो सुद्धो तवकालविसेसितो कायव्वो। आहारे उवकरणे वा एगे चउगुरुगं, दोसुचउलहुगं। अहवा सामण्णेण आहारे चउगुरुगा, उवकरणे लहुगो, णिसिरणे झुसिरा अज्झुसिरे य संतरणिरंतरेसु वुत्तं पच्छित्तं पढमसुत्ते / दव्वाहिकरणे गयं। नि० चू०४ उ०। अथ भावाधिकरणमाहअह तिरिय उड्डकरणे, बंधण निव्वत्तणा य निक्खिवणं / उवसमखएण उड्डं, उदएण भवे अहीगरणं / / इह क्रोधादीनामुदयो भावाधिकरणमित्युक्तम् / अतस्तेषामेवाधस्तिर्यगूर्ध्वकरणे अधोगतिनयने तिर्यग्गतिनयनेऊयंगति-नयने चस्वरूप वक्तव्यम्। बृ०१उ०॥ (3) अधिकरणं च न करणीयम् - अहिगरणकडस्स भिक्खुणो, वयमाणस्स पसज्झ दारुणं। अट्ठे परिहायती बहू, अहिगरणं न करिज पंडिए ||1|| अधिकरणं कलहः, तत्करोति तच्छीलश्चेत्यधिकरणकरः / तस्यैवंभूतस्य भिक्षोः, तथाऽधिकरणकरी दारुणां भयानकां वा प्रसह्य प्रकटमेव, वाचंब्रुवतःसतोऽर्थो मोक्षः, तत्कारणभूतो वा संयमः, स बहु परिहीयते ध्वंसमुपयाति / इदमुक्तं भवति-बहुना कालेन यदर्जितं विप्रकृष्टन तपसा महत्पुण्यं तत्कलहं कुर्वतः परोपघातिनी च वाचं ब्रुवतस्तत्क्षणमेव ध्वंसमुपयाति / तथाहि "जं अज्जियं समीखल्लएहिं तवनियमबंभमइएहिं / माहुतयं कलहंता, छड्डे अह सागपत्तेहिं // 1|| इत्येवं मत्वा मनागप्यधिकरणं न कुर्यात् पण्डितःसदसद्विवेकीति। सूत्र० १श्रु०२ अ०२उ०। (4) कृत्वातुव्युपशमनीयम् - भिक्खू य अहिगरणं कडुत्तं अहिगरणं विवसमित्ता वि ओसइयपाहुडे; इच्छाए परो आढाइज्जा, (इच्छाए परो नो आढाइजा,) इच्छाए परो अन्मुटेजा, (इच्छाए परो नो अब्भुट्टेजा,) इच्छाए परो वंदिज्जा, इच्छाए परो नो वंदिज्जा, इच्छाए परो संभुजेज्जा, इच्छाए परो नो संभुजेज्जा, इच्छाए परो संवसिज्जा, इच्छाए परो नो संवसिज्जा, इच्छाए परो उवसमिजा; जो उवसमइतस्स अस्थि आराहणा, जोन उवसमइ तस्स नत्थि आराहणा। तम्हा अप्पणा चेव उवसमियव्वं / से किमाहु भंते ! अवसमसारं सामन्नं / / भिक्षुः सामान्यः साधुः, चशब्दस्यानुक्तसमुच्चयार्थत्यादाचार्योपाध्यायावपि गृह्यते। अधिक्रियते नरकगतिगमनयोग्यतां प्राप्यते आत्मा अनेनेत्यधिकरणम्, कलहः प्राभृतमित्येकार्थाः / तत्कृत्वा तथाविधद्रव्यक्षेत्रादिसाचिव्यो पबृंहितकषायः मोहनीयोदयो द्वितीयसाधुना सह विधाय; ततः स्वयमन्योपदेशेन वा परिभिधेत तस्यैहिकामुष्मिकापायबहुलं तां तदधिकरणं विविधमनेकैः प्रकारैः स्वापराधप्रतिपत्तिपुरस्सरं मिथ्यादुष्कृत-प्रदानेन ताव्युपशमय्य उपशर्म नीत्वा ततो / विशेषेणा-वसायितमवसनां नीतं प्राभृतं कलहो येनाध्यवसयितप्राभृतो व्युत्सृष्टकलहो भवेत्। किमुक्तं भवति? गुरुसकाशे स्वदुश्च-रितमालोच्य, तत्प्रदत्तप्रायश्चित्तं च यथावत्प्रतिपद्य, भूयस्तदकरणायाभ्युत्तिष्ठेत् / आह- येन सह तदधिकरणमुत्पन्नं स यधुपशम्यमानोऽपि नोपशाम्यति ततः को विधिः? इत्याह - "इच्छाए परो आढाइज्जा'' इत्यादि सूत्रम्। इच्छया यथा स्वरूपव्यापारमाश्रियेत, प्रागेव संभाषणादिभिरादरं कुर्याद्वा न वेति भावः / एवमिच्छया परस्तमभ्युत्तिष्ठेत् / इच्छया परो साधुना सह संभुञ्जीत, एकमण्डल्या भोजनंदानग्रहणसंभोग वा कुर्यात्। इच्छया परोन संभुञ्जीत। इच्छया परस्तेन साधुना सह संवसेत्, समेकीभूयैकत्रोपाश्रये वसेत्, इच्छया परो न संवसेत्। इच्छया पर उपशाम्येत्। परंय उपशाम्यति कषायतापापगमेन निवृत्तो भवति तस्यास्ति सम्यग्दर्शनादीनामाराधना, यस्तु नोपशाम्यति तस्य नास्ति तेषामाराधना, तस्मादेवं विचिन्त्यात्मनैवोपशान्तव्यमुपशमः कर्तव्यः / शिष्यः प्राह- (से किमाहु भंते !) अथ किमत्र कारणमाहुर्भदन्त ! परमकल्याणयोगिनस्तीर्थकरादयः ? सूरिराहउपशमसारं श्रामण्यं, तद्विहीनस्य निष्फलतयाऽ-भिधानात्। उक्तं च दशवैकालिकनियुक्तौ- "सामन्नमणुचरंतस्स कसाया जस्स उक्कडा होति / मन्नामि उच्छुपुप्फं, व निष्फलं तस्स सामन्नं // 1 // इति सूत्रार्थः। अथ विषमपदानि भाष्यकृद् विवृणोतिघेप्पंति चसद्देणं, आयरिया भिक्खुणीओ अ। अहवा मिक्खुग्गहणा, गहणं खलु होइ सव्वेसिं॥ इह सूत्रे भिक्षुश्चेति यश्चशब्दः, तेन गणी, उपाध्यायः, तथा आचार्यो, भिक्षुण्यश्च गृह्यन्ते। अथवा भिक्षुपदोपादानात् सर्वेषामप्याचार्यादीनां ग्रहणे तज्जातीयानां सर्वेषां ग्रहणमिति वचनात्। खामिय विनासिय विणा-सियं च खवियं च होइ एगट्ठा। पाहुण पहेण पणयण, एगट्ठाते उ निरयस्सा // Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिगरण 572 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अधिगरण क्षामितं विनाशमितं, विनाशितं क्षपितमिति च एकार्थानि पदानि भवन्ति / तथा- प्राभृतं प्रहेणकं प्रणयनमितिवात्रीण्यप्येकार्थानि / तानि तु प्राभृतादीनि नरकस्य मन्तव्यानि / यत एतदधिकरणं नरकस्य सीमन्तकादेशप्राभृतमुच्यते / एवं प्रहेणक प्रणयनपदे अभिभावनीये। इच्छा न जिणादेसो, आढा उण आदरो जहा पुट्विं / भुंजण वास मणुन्ने, सेस मणुण्णे च इतरे वा / / इच्छा नाम जिनादेशस्तीर्थकृतामुपदेशोऽयमिति कृत्वा नादरादीनि पदानि करोति, किं त्वसच्छब्देन / तथा आढा नाम आदरस्तं यथा पूर्वमुचितालापादिभिः कृतवाँस्तथा कुर्याद्वा न वा; शेषाणि त्वभ्युत्थानादीनि सुगमानीतिकृत्वा भाष्यकृता न व्याख्यातानि। अत्र च संभोजनसंवासनपदे मनोज्ञेषु सांभोगिकेषु भवतः, शेषाणि त्वादराभ्युत्थानवन्दनोपशमनपदानि मनोज्ञेषु वा सांभोगिकेषु, इतरेषु वा असांभोगिकेषु भवेयुः / कृता भाष्यकृता विषमपदव्याख्या / बृ० १उ०। (5) अधिकरणोत्पत्तिकारणानिअथ कथं तदुत्पद्यते? इत्याशङ्कावकाशमवलोक्य तदुत्थानकारणानि दर्शयतिसञ्चित्ते य अचित्ते, मीसवओगयपरिहारदेसकहा। सम्मंणाउट्टत्ते, अहिगरणमओ समुप्पजे / / सचित्ते शैक्षादौ, अचित्ते वस्त्रपात्रादौ, मिश्रके स्वभाण्ड-मात्रकोपकरणैः शिक्षादौ, अनासेव्ये अपरेण गृहामाणे, तथा वचोगत व्यत्यानेडितादि। तत्र चाविधीयमाने परिहारः स्थापना, तदुपलक्षितानि यानि कुलानि तेषु प्रवेशे क्रियमाणे देशकथायां वा विधीयमानायां एतेषु स्थानेषु प्रतिनोदितो यदि सम्यङ्नावर्तते न प्रतिपद्यते; अतोऽधिकरणमुत्पद्यत इति नियुक्ति गाथा-समासार्थः / अथैनामेव विवृणोतिआमव्वमदेमाणे, गिण्हतं तहेव मग्गमाणे य। सचित्तेतरमीसे, वितहपडिवत्तिओ कलहो।। आभाव्यं नाम शैक्षं, शैक्षः कस्याप्याचार्यस्योपतस्थे, प्रव्रज्यां गृह्णामीति / तमुपस्थितं मत्वा विपरिणमय्य परः कश्चिदाचार्यो गृह्णाति / ततो मूलाचार्यों ब्रवीति- किमिति मदीयमाभाव्यं गृह्णासि ? पूर्वगृहीतं वा शैक्षादिकं याचितो मदीयमाभाव्यं किं न प्रयच्छसीति ? एवमाभाव्यं सचित्तमचित्तं मिश्रं वा तत्काल-गृह्यमाणं पूर्वगृहीतं वा मार्यमाणमपि यदा वितथप्रतिपत्तितो न ददाति, तदा सकलहो भवति। वितथप्रतिपत्तिर्नाम परस्याभाव्यमपि शैक्षादिकमना-भाव्यतया प्रतिपद्यते। वचनोगतद्वारमाहवेचामेलण सुत्ते, देसीभासा पवंचणे चेव / अन्नम्मि यवत्तव्वे, हीणाहियअक्खरे चेव / / सूत्रे सूत्रविषये, व्यत्यामेडना अपरापरोद्देशकाध्ययनश्रुतस्कन्धेषु घट्टनाऽऽलापकश्लोकादीनां योजना / यथा - "सव्वे जीवा वि इच्छंति, जीविउंन मरिजिउं'' इत्यत्रेदमालापकपदं घटते ''सव्वे पाणपिया उ" इत्यादि / तथाभूतं सूत्रं परावर्तयन् किमेवं सूत्र व्यत्यामेडयसीति प्रतिनोदितो यदि न प्रतिपद्यते तदाऽधिकरणं भवति / देशीभाषा नाम मरुमालवमहाराष्ट्रादिदेशानां भाषातोऽन्यत्र देशान्तरे भाषमाण उपहस्यते, उपहस्यमानश्च संखडं करोति।यद्वा-प्रपञ्चनं वचनानुकारेण वा करोति, ततः प्रपञ्च्यमानः साधुना सहाधिकरणमुत्पद्यते। अन्यस्मिन् वा वक्तव्ये कोऽप्यन्यद्वक्ति। यद्वा-हीनाक्षरमधिकाक्षरं वा पदं वक्ति। तत्र हीनाक्षरं भास्कर इति वक्तव्ये भाकर इति वक्ति। अधिकाक्षरं सुवर्णमिति वक्तव्ये सुसुवर्णमिति ब्रवीति / परिहारकद्वारमाहपरिहारियमठविते, ठवियमणट्ठाएँ णिव्विसंते वा। कुच्छियकुले य पविसइ, वा जइ णाउट्टणे कलहो। गुरुग्लानबालादीनां यत्र प्रायोग्यं लभ्यते, तानि कुलानि पारिहारिकाण्युच्यन्ते, एकं गीतार्थसंघाटकं मुक्त्या शेषसंघाटकानां परिहारमहन्तीति व्युत्पत्तेः / तानि यदि न स्थापयति, स्थापितानि वा अनर्थ निष्कारण निर्विशति, प्रविशतीत्यर्थः / यद्वा-पारिहारिकाणि नाम कुत्सितानि जात्यादिजुगुप्सितानीति भावः / तेषु कुलेषु प्रविशति / एतेषु स्थानेषु यदि नावर्त्तते न वा तेषु प्रवेशादुपरमते, ततः कलहो भवति। देशकथादेसकहा परिकहणे, एक्के एक्के व देसरागम्मि। सोरट्ठदेस एगे, दाहिण बीयम्मि अहिगरणं। नवर्त्तते साधूनामीदृशीं कथां कथयितुम्। स प्राह-कोऽसि त्वं ? येनैव मां वारयसि / तथाऽप्यस्थिते अनुपरते सत्यधिकरणं भवति / यद्वा - (एक्कक्के व देसरागम्मि त्ति) एकः साधुः सुराष्ट्र वर्णयति, यथा रमणीयः सुराष्ट्रो विषयः / द्वितीयः प्राह- कूपमण्डूक ! त्वं किं जानासि ? दक्षिणापथ एव प्रधानो देशः / एवमेकैकदेशरागेणोत्तरप्रत्युत्तरिकं कुर्वाणयोरधिकरणं भवति / बृ० 1 उ० / नि० चू०। (6) उत्पन्ने च व्युपशमनीयमेव, नोपेक्षणीयम्। एवमुत्पन्ने अधिकरणे किं कर्त्तव्यम् ?, इत्याहजो जस्स उ उवसमई, विज्झवणं तस्स तेण कायव्वं / जो उ उवेहं कुज्जा, आवजइ मासियं लहुगं / / यः साधुर्यस्य साधोः प्रज्ञापनया उपशाम्यति तस्य तेन साधुना विध्यापनं क्रोधाग्निनिर्वापणं कर्तव्यम् / यः पुनः साधुरुपेक्षां कुर्यात, स आपद्यते मासिकं लघुकम्। लहुओ उ उवेहाए, गुरुओ सो चेव उवहसंतस्स। उत्तुयमाणा लहुगा, सहायगत्ते सरिसदोसा।। उपेक्षां कुर्वाणस्य लघुको मासः; उपहसत एव मासो गुरुकः / अथ उत्प्राबल्येन तुदति अधिकरणं करोति, विशेषत उत्तेजयतीत्यर्थः / ततश्चत्वारो लघुकाः / अथ कलहं कुर्वतः सहायकत्वं साहाय्यं करोति, ततोऽसावधिकरणकृता सह सदृशदोष इति कृत्वा सदृशं प्रायश्चित्तमापद्यते, चतुर्गुरुकमित्यर्थः / तथा चाऽऽहचउरो चउगुरु अहवा, विसेसिया होंति मिक्खुमाईणं। अहवा चउगुरुगादी, हवंति उच्छेदनिट्ठवणा॥ भिक्षुवृषभोपाध्यायाचार्याणामधिकरणं कुर्वतां प्रत्येकं चतुर्गुरुकम्, ततश्चत्वारश्वतुर्गुरुका भवन्ति / अथवा त एव चतुर्गुरुकाः, Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिगरण 573 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अधिगरण तपःकालविशेषिता भवन्ति। तद्यथा-भिक्षोश्चतुर्गुरुकं तपसा, कालेन च लघुकम् / वृषभस्य तदेव कालगुरुकम् / उपाध्यायस्य तपोगुरुकम्। आचार्यस्य तपसा कालेन च गुरुकम्। अथवा चतुर्गुरुकादारभ्य छेदे निष्ठापना कर्तव्या। तद्यथा-भिक्षुरधिकरणं करोति चेत्चतुर्गुरुकम्। वृषभस्य षड्लघुकम्। उपाध्यायस्य षड्गुरुकम्। आचार्यस्याधिकरणं कुर्वाणस्य छेद इति / यथा वाऽधिकरणकरणे आदेशत्र येण प्रायश्चित्तमुक्तम्, तथा साहाय्यकरणेऽपि द्रष्टव्यम्: समानदोषत्वात्। अथोपेक्षाव्याख्यानमाह.परपत्तिया न किरिया, मोत्तु परटुं च जयसु आयटे। अवि य उवेहा वुत्ता, गुणो वि दोसो हवइ एवं // इहाधिकरणं कुर्वतो दृष्ट्वा मध्यस्थभावेन तिष्ठति, नान्ये-षामप्युपदेशं प्रयच्छति। यतः परप्रत्यया या क्रिया कर्मसंबन्धः सा अस्माकंन भवति, परकृतस्य कर्मण आत्मनि संक्रमाभावात् / तथा यद्येतावधिकरणादुपशाम्येते, ततः परार्थकृतो भवति / तं च परार्थ मुक्त्वा यदि मोक्षार्थिनस्तत आत्मार्थ एव स्वाध्यायादिके यतध्वं यत्नं कुरुत। अपि चेत्यभ्युचये। ओघनियुक्तिशास्त्रेऽप्युपेक्षा संयमाङ्गतया प्रोक्ता-"उवेहा संजमो वुत्तो' इति वचनात्। यद्वा- मैत्री प्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यानि सत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमानाविनेयेषु मध्ये स्थापयन्या उपेक्षा प्रोक्ता ततः सैव साधूनां कर्तुमुचितेति भावः / अत्र सूरिराह - (गुणो वि दोसो हवइ) यदिदमविनेयेषु माध्यस्थ्यमुपदिष्टं तत् संयतापेक्षया, न पुनः संयतानङ्गीकृत्य; यस्मादसंयतेष्वियमुपेक्षा क्रियमाणा गुणः, संयतेषु क्रियमाणा महान् दोषो भवति / उक्तं चौघनिर्युक्तावपि - "संजयगिहचोयणाचोयणे यवावार उवेहा। अथ 'परपत्तिया न किरिय त्ति' पदं भावयतिजइ परो पडिसेविका, पावियं पडिसेवणं / मज्झ मोणं चरंतस्स, के अटे परिहायई ? || यदि पर आत्मव्यतिरिक्तः पापिकामकुशलकर्मोपाधिकरणादिकां प्रतिसेवनां प्रतिसेवते, ततो मम मौनमाचरतः को नाम ज्ञानादीनां मध्यादर्थः परिहीयते? न कोऽपीत्यर्थः॥ अथ 'मोत्तु परहुंच जयसु आयडे' इति पदं व्याचष्टेआयटे उवउत्ता, मा पमह वावडा होइ। हंदि परहाउत्ता, आयट्ठविणासगाहों ति॥ आत्मार्थो नाम ज्ञानदर्शनचारित्ररूपंपारमार्थिक स्वकार्यम्, तत्रोपयुक्ता भवत / मा परकायें अधिकरणोपशमनादौ व्यापृता भवत / हंदीति हेतूपप्रदर्शने, यस्मात्परार्थायुक्ता आत्मा-र्थविनाशकाः स्वाध्यायध्यानाद्यात्मकार्यपरिमन्थकारिणो भवन्ति। अथोपहसनोत्तेजनाद्वारे युगपद्व्याचष्टेएसो विताव दमयतु, हसइव तस्सोमयाएँ ओहसणा। उत्तरदाणं तह मोसराहि अह होइ उत्तअणा।। द्वयोरधिकरणं कुर्वतोरेकस्मिन् सीदति सति आचार्योऽन्यो वा ब्रवीतिएषोऽपितावददान्तपूर्वः, दम्यतामिदानीमनेन, यदि वा तस्यावमतायाः, | पश्चात्करणे इत्यर्थः, स्वयमट्टहा सैरुपहसति. एतदुपहसनमुच्यते। तथा तयोर्मध्याधः सीदति तस्योत्तरदानम्-अमुकममुकं च ब्रूहि इत्येवं शिक्षापणम्, यद्वा- मा अमुष्मादपसर त्वं, दृढीभूय तथा लग, यथा न तेन पराजीयसे / अथैषा उत्तेजनाऽभिधीयते॥ अथ साहाय्यकरणं व्याख्यानयतिवायाए हत्थेहिं,पाएहिँ व दंतलउडमादीहिं। जो कुणइ सहायत्तं, समाणदोसं तयं विति // द्वयोः कलहायमानयोर्मध्यादेकस्य पक्षे भूत्वा यः कोऽपि वाचा हस्ताभ्यां वा पद्भ्यां वा दन्तै लगुडादिभिर्वा साहाय्यं करोति, तं तेनाधिकरणकारिणा सह समानदोषं तीर्थकरादयो ब्रुवते। अथाचार्याणामुपेक्षां कुर्वाणानां सामान्येन वा अधिकरणे अनुपशम्यमाने दोषदर्शनार्थमिदमुदाहरणमुच्यतेअरत्तमज्झे एग सव्वतो वणसंडमहियं महंतं सरं अस्थि / तत्थ य बहूणि जलचरथलचरखहचरसत्ताणि अच्छंति / तत्थ एगं महल्लं हस्थिजूहं परिवसइ, अन्नया य गिम्ह-काले तं हथिजूहं पाणियं पाउंण्हाउत्तिन्नं मज्झण्हदेस-काले सीयलरुक्खछायाए सुहं सुहेणं चिट्ठइ। तत्थय अदूरदेसे दो सरडा भंडिउमारद्धा। वणदेवयाए अंते दुहुँ सव्वेसिं सभासाए आघोसियं"नागा! वा जलवासीया!, सुणेह तसथावरा!। सरडा जत्थ भंडंति, अभावो परियत्तइ" ||1|| ता मा एते सरडे उवेक्खह, वारेह तुब्भे / एवं भणिया वि ते जलचराइणो चिंतेंति-किं अम्हं एते सरडा भंडता काहिंति ? तत्थ य एगो सरडो तो पिल्लितो सो धाडिवतो सुहपसुत्तस्स एगस्स जूहाहिवस्स बिलं ति काउंनासापुडं पविट्ठो। बिइओ वि तस्स पिट्टओ चेव पविट्ठो; ते सिरकपाले जुद्ध संपलग्गा। तस्स हित्थस्स महती अरई जाया / तओ वेयणढे मेहइए असमाहीए वट्टमाणो उद्देत्ता तं वणसंडं चूरेइ / बहवे तत्थ विस्संता घाइया, जलं च आडोहितेण जलचरा घाइया, तलागपाली य भेइया, तडागं विणटुं, ताहे जलचरा सव्वे वि णट्ठा। भो नागा हस्तिनः ! जलवासिनो मत्स्यकच्छपादयः! अपरे च ये त्रसा मृगपशुपक्षिप्रभृतयः ! स्थावराश्च सहकारादयो वृक्षाः ! एते सर्वेऽपि यूयं शृणुत मदीयं वचनम्-यत्र सरसि सरटौ भण्डतः- कलहं कुरुतः; तस्याभावः परिवर्तते, विनाशः संभाव्यत इति भावः / अमुमेवार्थमाहवणसंडमसरे जलथल-खहचरवीसमण देवयाकहणं। वारेह सरहुवेक्खण, धाडण गयनास चूरणया॥ वनखण्डमिते सरसिजलथलखचराणां विश्रमणं, तत्र सरटभण्डनं दृष्ट्वा वनदेवतया, 'नागा वा जलवासीया' इत्यादि श्लोककथन कृत्वा वारयत सरटौ कलहायमानावित्युपदिष्टम्। ततश्च तैनागादिभिः सरटयोरुपेक्षणं कृतम्, एकस्य च सरटस्य द्वितीयेन धाटनं कृतं, ततोऽसौ धाट्यमानो गजनासापुटं प्रविष्ट वान् / तत्पृष्ठ तो Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिगरण 574 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अधिगरण द्वितीयोऽपि प्रविष्टः, तयोश्च युद्धे लग्नेऽसहवेदनातन हस्तिना वनखण्डस्य चूर्णं कृतमिति, एष दृष्टान्तः / अयमर्थोपनयः- यथा तेषामुपेक्षमाणानां तत्पद्मसरः सर्वेषामप्याश्रयभूतं विनष्ट, तस्मिँश्च विनश्यमाने तेऽपि विनष्टाः, एवमत्राप्याचार्यादीनामुपेक्षमाणानां महान् दोष उपजायते / कथमिति चेत् ? उच्यते-इह तावधिकरणकारिणावुपेक्षितौ परस्परं मुष्टामुष्टि वा दण्डादण्डि वा युध्येतां, ततश्च परम्परया राजकुले ज्ञाते सति महान् दोषः, यतः स राजादिस्तेषां साधूनां बन्धनं वा, ग्रामनगरादेर्निष्कासनं वा, कण्टकमर्दनं वा कुर्यात्। किञ्चान्यत् - तावो भेदो अयसो, हाणी दंसणचरित्तनाणाणं / साहुपदोसो संसारवडणो साहिकरणस्स॥ तापो, भेदो, अयशो, हानिर्दर्शनज्ञानचारित्राणां, तथा-साधुप्रद्वेषः संसारवर्द्धनो भवति, एते साधिकरणस्य दोषा भवन्तीति समासार्थः। ___ अथैनामेव गाथां विवृणोतिअइभणिय अभणिए वा, तावो भेदो उ जीवचरणाणं / रूवसरिसं न सील, जिम्हं मण्णे अयस एवं / / तापो द्विधा-प्रशस्तोऽप्रशस्तश्च। तत्रातिभणिते सति चिन्तयति-धिङ् मां येन तदानीं स साधुर्बहुभिर्विधैरसद्व्याख्या-नैरभ्याख्यातःइत्थमित्थं चाक्रुष्टः, एष प्रशस्तस्ताप उच्यते। अथाऽभणितं,न तथाविधं तस्य मुखे भणितं, ततश्चिन्तयति-हा ! मन्दभाग्यो विस्मरणशीलोऽहं यन्मया तदीयं जात्यादिमर्मनिकुरम्बंन प्रकाशितं, एष अप्रशस्तस्तापो मन्तव्यः / तथा कलहं कृत्वा जीवितभेदं चरणभेदं वा कुर्युः, पश्चात्तापात्तप्तचेतसो विहाय-सादिमरणमभ्युपगच्छेयुः, उन्निष्क्रमणं वा कुर्युरिति भावः / लोकोऽपि ब्रूयात्- अहो ! अमीषां श्रमणानां रूपसदृशं बहिः प्रशान्ताकारं रूपमवलोक्यते,तादृशं शीलं मनःप्रणिधानं नास्ति। यद्वा-किम् ? मन्ये जिहां लज्जनीयं किमप्यनेन कृतं, येनैवं प्रम्लानवदनो / दृश्यते, एवमादिकमयशः समुच्छलति। आकुट्ट तालिए वा, पक्खापक्खि कलहम्मि गणभेदो। एगयर सूयएहिँ व, रायादि सिटे गहणादी। जकारमकारादिभिर्वचनैराकृष्ट, ताडिते वा चपेटादण्डादिभिराहते सति, पक्षापक्षि परस्परपक्षपरिग्रहेण साधूनांकलहे जाते सति गणभेदो भवति, तथा- तयोः पक्षयोर्मध्यादेकतरपक्षण राजकुलं गत्वा शिष्ट कथिते सति, सूचकैर्वा राजपुरुषविशेषैः राजादीनां ज्ञापिते ग्रहाणाकर्षणादयो दोषा भवन्ति / वत्तकलहो विन पढइज्जऽवच्छलत्ते य दंसणे हाणी। जह कोहाइविवड्डी, तह हाणी होइ चरणे वि / / वृत्तकलहोऽपि कलहकरणोत्तरकालमपि कषायकलुषितः पश्चात्तापतप्तमानसो वा यन्न पठति, तेन ज्ञानपरिहाणिः, साधौ प्रद्वेषिते साधर्मिकवात्सल्यं विराधितं भवति, अवात्सल्ये च दर्शनपरिहाणिः, यथा च क्रोधादीनां कषायाणां वृद्धिस्तथा चरणेऽपि चारित्रस्य परिहाणिर्भवति, विशुद्धसंयमस्थानप्रतिघातेनाविशुद्धसंयम-स्थानेषु गमनं भवतीत्यर्थः / एतच व्यवहारमाश्रित्योक्तम्। निश्चयतस्तुअकसायं खु चरित्तं, कसायसहितो न संजओ होइ। साहूण पदेसेण य, संसारं सो विवड्डेइ। खुशब्दस्यैवकारार्थत्वादकषायमेव कषायविरहितमेव चारित्रं भगवद्भिः प्रज्ञप्तम्, अतो निश्चयनयाभिप्रायेण कषायसहितः संयत एव न भवति, चारित्रशून्यत्वात्। तथा साधूनामुपरि यः प्रद्वेषस्तेनासौ संसारं वर्द्धयति, दीर्घतरं करोति। यत एते दोषास्तत उपेक्षा न विधेया। किं पुनस्तर्हि कर्तव्यम् ? इत्याहआगाढे अहिगरणे, उवसम अवकडणा य गुरुवयणं / उवसमह कुणह झायं, छड्डुणया सायपत्तेहिं / / आगाढे कर्कशे, अधिकरणे उत्पन्ने द्वयोरप्युपशमः कर्तव्यः / कथमित्याह- कलहायमानयोस्तयोः पार्थस्थितैः साधुभिरपकर्षणमपसारणं कर्तव्यम्, गुरुभिश्वोपशमनार्थमिदं वचनमाभिधातव्यम्-आर्याः ! उपशाम्यतोपशाम्यत / अनुपशान्तानां कुतः संयमः ? कुतो वा स्वाध्यायः? तस्मादुपशमं कृत्वा स्वाध्यायं कुरुथ। किमेवं द्रमकवत् कनकरसस्य शाकपत्रैः छर्दना परित्यागं कुरुथ ? कः पुनरयं द्रमकः ? उच्यते जहा-एगो परिव्वायगो दमगपुरिसं चिंता-सोगसागरावगाढं पासति / पुच्छति य - किमेवं चिंतापरो? तेण से सम्भावो कहितो, दारिद्वाभिभूतो मि त्ति / तेण भण्णइ सो-इस्सरं तुम करेमि, जतो सीतातववातपरिस्सम अगणंतेहिं तिसाखुधावेयणं सहंतेहिं बंभचारीहिं अचित्तकं दमूलपत्तपुप्फफलाहारीहिं समीपत्तपुडएहिं भावतो अरुसमाणेहिं घेत्तव्यो / एस से उवचारो। तेण दमगेण सो कणगरसो उवचारेण गहितो, तुंबयं भरितं / ततो णिग्गतो तेण परिव्वायगेण भणियं-सुरुद्वेण वि तुमे एस सागपत्तेण ण छड्डियव्यो। ततो सो परिव्वायगो गच्छंतो दमगपुरिसं पुणो पुणो भणति-ममपभावेण ईसरो भविस्सासि। सो य पुणो पुणो वजमाणो रुट्ठो भणति-जं तुज्झ पसाएण इस्सरत्तणं, तेण मे न कजं, तं कणगरसं सागपत्तेण छड्डेति / ताहे परिव्वायगेण भणियं-हा हा दुरात्मन् ! किमयं तुमे कयं? जं अज्जियं समीख-ल्लएहिं तवनियमबंभमइएहिं। तं दाणि पच्छ नाहिह, छडुतो सागपत्तेहिं॥ यदर्जितं शमीसंबन्धिभिः खल्लकैः पत्रपुटैस्तपोनियमब्रह्मयुक्तः तदिदानी शाकपत्रैः परित्यजन् पश्चात्परित्यागकालादूर्ध्वमुपरित ज्ञास्यसि, यथा दुष्ठु मया कृतं, यच्चिरसंचितः कनकरसः शाकपत्रैरुत्सिच्य परित्यक्तः। एवं परिव्राजकेण द्रमक उपालब्धः / अथाचार्यस्तावधिकरणकारिणावुपालभते / अर्चा यचारित्रं कनकरसस्थानीयं तपोनियमब्रह्मचर्यमयैः शमीखल्लक रर्जितं परीषहोपसर्गादिश्रमं न गणयसि, चिरात्कथं कथमपि मीलितं तदिदानीं शाक पत्रसदृशैः कषायैः परित्यजन्तः पश्चात्परितप्यमानमनाः स्वयमेव ज्ञास्यसि / यथा- हा ! बहुकालोपार्जितेन संयमकनकरसेन तुम्बकस्थानीयं स्वजीवबहुचूर्ण Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिगरण 575 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अधिगरण कृत्वा पश्चात्कलहायमानैः शाकवृक्षपत्रस्थानीयैः कषायैरुत्सिच्योत्सिच्यायमसारीकृतः, शिरस्तुण्डमुण्डनादिश्च प्रव्रज्या प्रयासो मुधैव विहित इति / आह- कथमेकमुहूर्तभाविनाऽपि क्रोधादिना चिरसंचितं चारित्रं क्षयमुपनीयते ? उच्यते - जं अज्जियं चरितं, देसूणाए वि पुष्वकोडीए। तं पिय कसायमेत्तो, नासेइ नरो मुहुत्तेण // यदर्जितं चारित्रं देशोनयाऽप्यष्टवर्षाधूनयाऽपि पूर्वकोट्या तदपि स्तोकमल्पतरकालोपार्जितमित्यपिशब्दार्थः / तदपि कषायि-तमात्रः उदीर्णमात्रक्रोधादिकषाय इत्यर्थः / नाशयति हारयति, नरः पुरुषो, मुहूर्तेन, अन्तर्मुहूर्तेनेति भावः / यथा-प्रभूत-कालसंचितोऽपि महान् तृणराशिः सकृत्प्रज्वालितेनापि अग्रिनासकलोऽपि भस्मसाद्भवति; एवं क्रोधानलेनापि सकृदुदीरितेन चिरसंचितं चारित्रमपि भस्मीभवतीति हृदयम् / एवमाचार्येण सामान्यतस्त-योरनुशिष्टिदातव्या, न त्वेकमेव कञ्चन विशिष्य भणनीयम् / यत आहआयरिएन भणे अह, एग निवारेइ मासियं लहुगं / रागद्दोसविमुक्को, सीयघरसमो उ आयरिओ॥ आचार्यो नैकमधिकरणकारिणं भणति अनुशास्ति। अथाचार्य एकमेव निवारयति अनुशास्ति, न द्वितीयम्, ततो मासिकं लघुकमापद्यते, असामाचारीनिष्पन्नमिति भावः / तस्मादाचार्यो रागद्वेषविमुक्तः शीतगृहसमो भवेत्। शीतगृहं नाम वर्द्ध-किरत्ननिर्मितं चक्रवर्तिगृहम; तच वर्षास्वनिवातप्रवातम्; शीतकाले सोष्मम्, ग्रीष्मकाले शीतलम्। यथा च तचक्र वर्तिनः सर्वत॒क्षम, तथा द्रमकादेरपि प्राकृतपुरुषस्य तत्सर्वर्तुक्षममेव भवति / एवमाचार्यरपि निर्विशेषैर्भवितव्यम्। अथ विशेषं करोति, तत इमे दोषाःवारेइ एस एवं, ममं न वारेइ पक्खरागेणं। बाहिरभाव गाढतरगं तुमं च पेक्खसी एक्कं // एष आचार्य आत्मीयोऽयमिति बुद्ध्या अमुं वारयति; एवं पक्षरागेण | क्रियमाणेन अननुशिष्यमाणः साधुर्बाह्यभावं गच्छति / यद्वा-स अननुशिष्यमाणो गाढतरमधिकरणं कुर्यात् / अथवा-तमाचार्य परिस्फुटमेव ब्रूयात्-त्वं मामेवैकं बाह्यतया प्रेक्षसे, ततश्वात्मानमुबध्य यदि मारयति, तत आचार्यस्य पाराञ्चिकमः अथो निष्कामति, ततो मूलम् / तस्माद् द्वावप्यनुशासनीयौ, अनुशिष्टौ च यद्युपशान्तौ ततः सुन्दरम् / अथैक उपशान्तो, न द्वितीयः, तेन चोपशान्तेन गत्वा स स्वापराधप्रतिपत्तिपुरस्सरं क्षामितः, परमसौ नोपशाम्यति / आहकथमेतदसौ जानाति यथाऽयं नोपशान्तः? उच्यते- यदा वन्द्यमानोऽपि न वन्दनकं प्रतीच्छति। यदि वाऽवमरत्नकोऽसौ ततस्तं रत्नाधिकं न वन्दते, आद्रियमाणोऽपि वा नाद्रियते। एवं तमनुपशान्तमुपलक्ष्य ततोऽसौ किं करोतीत्याहउवसंतोऽणुवसंतं, पासिज्जा विण्णवेइ आयरियं / तस्स उ पन्नवणट्ठा, निक्खेवो परो इमो होइ॥ उपशान्तः साधुरनुपशान्तमपरं दृष्ट्वा आचार्य विज्ञापयति- | क्षमाश्रमणाः ! उपशान्तोऽहं, परमेष ज्येष्ठार्योऽमुको वा नोपशाम्यति / तत आचार्यास्तस्य प्रज्ञापनार्थं परनिक्षेपं कुर्वन्ति / बृ० 1 उ०। (सच परनिक्षेपः 'पर' शब्द एवं करिष्यते) (7) अथ भावपरो व्याख्यायते, भावः क्षयोपशमादिः, तदपेक्षया परो भावान्तरवर्ती, भावान्तरः स वेदोदयिक-भाववृत्तिगृह्यते। तथा चाऽऽहआढणमन्मुट्ठाणं, वंदण संभुंजणा य संवासो। एयाइं जो कुणई, आराहण अकुणओ नस्थि / अकसायं निव्वाणं, सव्वेहिँ वि जिणवरेहिँ पन्नत्तं / सो लब्मइ भावपरो, जो उवसंते अणुवसंतो॥ आदरः अभ्युत्थानं, वन्दनं, संभोजनं, संवासश्चेत्येतानि पदानि य उपशान्तो भूत्वाकरोति, तस्याऽऽराधना अस्ति, यस्त्वेतानिन करोति, तस्याऽऽराधना नास्ति। एतेन "जो उवसमइ तस्स अस्थि आराहणा" इत्यादिकः सूत्रावयवो व्याख्यातः। अयं किमर्थ-मादरादिपदानामकरणे आराधना नास्ति ? इत्याह- अकषायं कषायाभावसंभवि निर्वाणं सकलकर्मक्षयलक्षणं सर्वैरपिजिनवरैः प्रज्ञप्तम् / अतो यः कश्चिदुपशान्तेऽपि साधावनुपशान्तः, आदरादि-पदानामकरणेन सकषायः, सभावपरो लभ्यते, औदयिक-भाववर्तित्वात्। अथाचार्यस्तमुपशान्तं साधं प्रज्ञापयन् प्रस्तुतयोजनां कुर्वन्नाहसो वट्टइ उदईए, भावे तुं पुण खओवसमियम्मि। जह सो तुह भावपरो, एमेव य संजमतवाणं / भोभद्र ! द्वितीयः साधुरद्याप्यौदयिके भावे वर्तते; त्वं पुनःक्षायोपशमिके भावे वर्तसे। अतो यथाऽसौत्वदपेक्षया भावपरस्तथा संयमतपोभ्यामप्येवं परः पृथग्भूत इत्यतस्त्वया न काचित्तदीया चिन्ता विधेया। बृ०१ उ० / नि० चू०। (8) अधिकरणं कृत्वाऽन्यगणसङ्क्रान्तिर्न कर्तव्याभिक्खु य अहिगरणं अवि ओसमित्ता इच्छिता अन्नं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, कप्पइ तस्सपंचराइंदियं छेयं कडं, परिनिव्वविय परिनिव्वविय दोचं पितमेवगणं पडिनेअव्वं सिया, जहा वा तस्स गणस्स तहा सिया। भिक्षुः, चशब्दादाचार्यो पाध्यायौ वा, अधिकरणं कृत्वा तदधिकरणमप्यवशमय्य, इच्छेदन्यगणमुपसंपद्य विहर्तुम्, ततः कल्पते तस्य अन्यगणसंक्रान्तस्य पञ्चरात्रिंदिवं छेदं कर्तुम्, ततः परिनिर्वाप्य परिनिर्वाप्य कोमलवचःसलिलसेकेन कषायाग्निसंतप्तं सर्वशीतलीकृत्य, द्वितीयमपि वारंतमेवगणं संघप्रतिनेतव्यः स्यात्। यथा वा तस्य गणस्य, तथा कर्त्तव्यमेवेति सूत्रार्थः / बृ०५ उ०॥ (9) गच्छादनिर्गतस्याऽधिकरणे उत्पन्ने विधिःगच्छा अणिग्गयस्सा, अणुवसमंतस्सिमो विधी होइ। सज्झायमिक्खभत्तट्ट पाओसए व चउर एकेके। गच्छादनिर्गतस्यानुपशाम्यतोऽयं विधिर्भवति- सूर्योदयकाले यः स्वाध्यायः क्रियते तदवसरे प्रथममसौ नोद्यते, द्वितीयं भिक्षवतरणवेलायां, तृतीयं भक्तार्थनाकाले, चतुर्थ प्रादोषिका - Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिगरण 576 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अधिगरण ऽऽवश्यकवेलायाम् / एवं चतुरो वारानेकै कस्मिन् दिने नोद्यते, तत्राधिकरणं प्रभाते प्रतिक्रान्तानां स्वाध्याये अप्रस्थापिते। एवमादौ कारणे तदुत्पद्यतेदुप्पडिलेहियमादिसु, नोदिएँ सम्म अपडिवज्जत्ते। ण वि पट्ठति उवसम-कालो ण सुद्धो जियं वाऽसी॥ दुष्प्रत्युपेक्षितं कुर्वन; आदिशब्दादप्रत्युपेक्षमाणः, असामाचार्या या प्रत्युपेक्षमाणो नोदितः सम्यग्यदिन प्रतिपद्यते, ततो अधिकरणं भवेत्। उत्पन्ने चाधिकरणे यदि स्वाध्यायेऽप्रस्थापिते स्वयमेवोपशान्तस्ततः सुन्दरम्। अथ नोपशान्तस्ततोयः प्रस्थापनार्थमुपतिष्ठते, सवारणीयः / यथा- तिष्ठतु तावद् यावत् सर्वेऽपि नो मिलिताः, तत आगतेषु सर्वेषु सूरयो ब्रुवते- आर्याः ! पश्यत इमे साधवः स्वाध्यायं न प्रस्थापयन्तिा ते चेष्टोत्तरं प्रयच्छ-न्त्यवश्यं-कालोनशुद्धः पराजितं तेषां साधूनां सूत्रश्रुतं, ततोनस्थापयन्ति। एवं भणतो मासगुरु, साधवश्च सर्वेऽपि प्रस्थापयन्ति स्वाध्यायं च कुर्वन्ति। काले प्रतिक्रान्ते भिक्षावेलायां जातायामिदमाचार्या भण्यन्ते - णोतरण अभत्तट्ठी, ण च वेला अभुंजणाऽजिण्णं / ण य पडिकमंति उवसम, णिरतीयारा तु पच्छाऽह॥ आर्य ! साधवस्त्वदीयेनानुपशमनेन भिक्षां नावचरन्ति, तत उपशमं कुरु / स चेष्टोत्तरं प्राह-यूयमभक्तार्थिनो, न वा भिक्षावेला, एवमुक्ते सर्वेऽप्यवतरन्ति, तस्याऽनुपशान्तस्य द्वितीयं मासगुरु। भिक्षा-निवृत्तेषु साधुषु गुरवो भणन्ति- आर्य! साधवो न भुञ्जते। स प्राह- नूनं साधूनां नजीर्णम् / एवमुक्ते सर्वेऽपि समुदिता भुञ्जते, तस्य पुनस्तृतीयं मासगुरु। भूयोऽपि प्रतिक्रमणवेलायां भणन्ति- आर्य ! साधवो न प्रतिक्रामन्ति, उपशमं कुरु / स चेष्टोत्तरं प्रत्याह- तुरिति वितर्के, संभावयाम्यहं निरतीचाराः श्रमणास्तेन न प्रतिक्रामन्ति, एवमुक्ते सर्वेऽपि प्रतिक्रामन्ति / तस्य पुनश्चतुर्गुरुकम् / एवं प्रभातकाले अधिकरणे उत्पन्ने विधिरुक्तः। अन्नम्मि वि कालम्मी, पढंत हिंडंत मंडलाऽवस्से। तिन्नि व दोण्णि व मासा, हों ति पडिकंत गुरुगा उ॥ अथान्यस्मिन् काले अधिकरणमुत्पन्नम्, कदेत्याह- पठतां हीनाधिकादिपठने, भिक्षां हिण्डमानानां, मण्डल्यां वा समुद्विशतामावश्यके वा। तत्र यदि द्वितीयवेलायामधिकरणमुत्पन्नं तदा त्रयो गुरुमासाः, चतुर्थवेलायामुत्पन्ने अनुपशान्तस्यद्वौ गुरुमासौ, एवं विभाषा कर्तव्या। अथ प्रतिक्रान्ते प्रतिक्रमणे कृतेऽपिनोपशान्तस्ततश्चतुर्गुरुकाः। एवं दिवसे दिवसे, चाउक्काले तु सारणा तस्स। जति वारे ण सारेति, गुरूण गुरुगो तु तति वारे // एवमनुपशान्तस्य दिवसे दिवसे चतुष्काले स्वाध्यायप्रस्थापनादिसमयरूपे, तस्य सारणा कर्तव्या / यदि यावतो वारान् आचार्यो न सारयति, तावतो वारान् मासगुरुकाणि भवन्ति। एवं तु अगीतत्थे, गीतत्थे सारिए गुरु सुद्धो। जति तं गुरू ण सारे, आवत्ती होइ दोण्हं पि। एवं दिने दिनेसारणाविधिरगीतार्थस्य कर्तव्यः,यस्तुगीतार्थः, सयद्येक दिनं स्वाध्यायभिक्षाभक्तार्थनावश्यकलक्षणेषु चतुर्यु स्थानेषु सारितस्तदा परतस्तमसारयन्नपि गुरुः शुद्धः, यदि पुनः तमगीतार्थ गीतार्थ वा गुरुर्न सारयति, ततोद्वयोरप्याचार्यस्यानुपशाम्यतश्च प्रायश्चित्तस्यापत्तिः / अन्ये ब्रुवते-अगीतार्थस्यानुपशाम्यतोऽपि नास्ति प्रायश्चित्तं, यस्तु गुरुरगीतार्थ न नोदयति, तस्य प्रायश्चित्तम्। गच्छो य दोणि मासे, पक्खे पक्खे इमं परिहवइ। भत्तट्ठणसज्झायं, वंदण लावं ततो परेण / / एवमनुपशाम्यन्तं गच्छो द्वौ मासौ सारयति, इदं पुनः पक्षे पक्षे परिहापयति / तद्यथा-अनुपशान्तस्य पक्षे गते गच्छेतेन सार्द्ध भक्तार्थन न करोति, नगृह्णाति वा, नवा किमपितस्य ददातीत्यर्थः / द्वितीये पक्षे गते स्वाध्यायं तेन समं न करोति, तृतीये पक्षे गते वन्दनं न करोति, चतुर्थोऽपि पक्षो यदा गतो भवति, ततः परमालापमपि तेन सार्द्ध वर्जयति। आयरिय चउर मासे, संभुजति चउर देइ सज्झायं। वंदणलावे चउरो, तेण परं मूलनिच्छुमणा / / आचार्यः पुनश्चतुरोमासान् सर्वैरपि प्रकारैस्तेन समं संभुङ्क्ते, ततः परं चतुरोमासान् भक्तार्थनं वर्जयति, स्वाध्यायंतु ददाति। ततश्चतुरोमासान् स्वाध्यायं परिहत्य वन्दनालापौ ददाति, ततः परं वर्षे पूर्णे सांवत्सरिके प्रतिक्रान्तेऽनुपशान्तस्य गणान्निष्कासनं कर्त्तव्यम्। एवं बारसमासे, दोसु तवो सेसए भवे छेदो। परिहीयमाण तद्दिव-से तव मूलं पडिकंते॥ एवं द्वादशमास्यामप्यनुपशाम्यतोर्द्वयोरादिममासयोर्यावद्गच्छेन विसर्जितस्तावत्तपः प्रायश्चित्तमेव, शेषेषु दशसुमासेषु पञ्चरात्रिंदिवं छेदो यावत्सांवत्सरिकम्, एवं प्राप्तं भवति- पर्युषणारात्रौ प्रतिक्रान्तानामधिकरण उत्पन्ने एष विधिरुक्तः / (परिहायमाण तदिवस ति) पर्दूषणापारणकदिनादेकैकदिवसेन परिहीयतः, तावन्नेयं यावत्तदिवसं, पर्युषणादिवस एवाधिकरण उत्पन्ने तत्रतपो मूलं वा भवति तच्छेदः / अथ प्रतिक्रमणं कुर्वतामुत्पन्नं ततः सांवत्सरिके कायोत्सर्गे कृते मूलं च केवलं भवति। एतदेव सुव्यक्तमाहएवं एक्के क्कदिणे, हवेतु ठवणादिणे वि एसेव। चेइयवंदणसारे, तम्मि वि काले तिमासगुरू / / भाद्रपदशुद्धपञ्चम्यामनुदिते आदित्ये यद्यधिकरणमुत्पद्यते, ततः पर्युषणायामप्यनुपशान्ते संवत्सरो भवति / षष्ठ्यामुत्पन्ने एकदिवसो न संवत्सरः। सप्तम्यां दिवसद्वयम्। एवमेकैक दिन हापयित्वा तावन्नेयं यावत् प्रस्थापनादिनं पर्युषणादिवसः। तत्र वाऽनुदिते रवौ कलहे उत्पन्ने एवमेव नोदना कर्तव्या / प्रथम स्वाध्यायप्रस्थापनं कर्तुकामैः सारणीयम्, ततश्चैत्यवन्दनार्थं गन्तुकामाः सारयेयुः / तत्राप्यनुप-शान्ते प्रतिक्रमणवेलायां सारयन्ति / एवं तस्मिन्नपि पर्युषणाकालदिवसे त्रिषु स्वाध्यायप्रस्थापनादिषु स्थानेषु नोदितस्यानुपशान्तस्य त्रीणि मासगुरुकाणि भवन्ति। पडिकंते पुण मूलं, पडिक्कमंते व होज्ज अधिकरणं / संवच्छरमुस्सग्गे, कयम्मि मूलंन सेसाई॥ पर्युषणादिने सर्वेषामधिकरणानां व्यवच्छित्तिः कर्तव्ये तिकृत्वा Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिगरण 577 - अभिधानराजेन्द्रः-भाग 1 अधिगरण प्रतिक्रान्ते समाप्ते आवश्यके यदि नोपशान्तः, ततो मूलम्। (पडिक्कमंते व ति) अथ प्रतिक्रमणे प्रारब्धे यावत् सांवत्सरिको महाकायोत्सर्गः, तावदधिकरणे कृते मूलमेव केवलं, न शेषाणि प्रायश्चित्तानि। संवच्छरं च रुटुं, आयरिओ रक्खए पयत्तेणं। जदिणाम उवसमेजा, पव्वयराईसरिसरोसो।। एवमाचार्यस्तं रुष्ट संवत्सरंयावत्प्रयत्नेनरक्षति। किमर्थम् ? इत्याहयदि नाम कथञ्चिदुपशाम्येत / अथ संवत्सरेणापि नोपशाम्यति, ततः पर्वतराजीसदृशरोषः स मन्तव्यः। / तस्य वर्षादूज़ को विधिः? इत्याहअण्णे दो आयरिया, एक्कक्कं वरिसमुवेयस्स। तेण परं गिहिए सो, वितियपदे रायपव्वइए। तं वर्षादूर्ध्व मूलाचार्यसमीपान्निर्गतमन्यौ द्वावाचार्यो क्रमेणैकेकं वर्षमेतेनैव विधिना प्रयत्नेनसंरक्षतः, तन्मध्याद्येनोपश-मितस्तस्यैवासौ शिष्यः / ततः परं वर्षत्रयादूर्ध्वमेष गृहीक्रियते सङ्घ स्तदीयं लिङ्ग मपाकरोतीत्यर्थः / द्वितीयपदे राजप्रवजितस्य लिङ्ग प्रस्तारदोषभयान्न हियते। एवं भिक्षोरुक्तम्। एमेव गणायरिए, गच्छम्मि तवो उ तिन्नि पक्खाई। दो पक्खा आयरिए, पुच्छा य कुमारदिर्सेतो।। एवमेव गणिन आचार्यस्य चमन्तव्यम्।नवरमुपाध्याय-स्यानुपशाम्यतो गच्छे वसतस्वीपक्षाँस्तपः प्रायश्चित्तम्, परतश्छेदः / आचार्यस्यानुपशाम्यतो द्वौ पक्षौ तपः, परतश्छेदः। शिष्यः पृच्छति-किं सदृशापराधे विषमं प्रायश्चित्तं प्रयच्छथ ? रागद्वेषिणो यूयम् / आचार्यः प्राह-कुमारदृष्टान्तेऽत्र भवति / स चोत्तरत्राभिधास्यते / उपाध्यायस्य त्रयः पक्षास्ते दिवसीकृताः पञ्चचत्वारिंशदिवसा भवन्ति। ततःपणयालदिणे गणिणो, चउहा काऊण साहिएक्कारो। भत्तट्टण-सज्झाए, वंदणलावे यहावेति। गणिनः संबन्धिनः पञ्चचत्वारिंशदिवसाः चतुर्दा क्रियन्ते। चतुभगिच, साधिकाः सपादा एकादश दिवसा भवन्ति / तत्र गच्छ उपाध्यायेन सममेकादश दिनानि भक्तार्थनं करोति / एवं स्वाध्यायवन्दनालापानपि प्रत्येकमेकादश दिनानि यथाक्रमं करोति, परतस्तुपरिहाप-यति। पञ्चचत्वारिंशदिवसानन्तरं चोपा-ध्यायस्य दशकच्छेदः / आचार्यस्तथैवोपाध्यायमपि चतुर्भिश्चतुर्भिर्मासैर्भतार्थनादीनि परिहापयन् संवत्सरं सारयति / आचार्यस्य द्वौ पक्षौ दिवसीकृतौ त्रिंशदिवसा भवन्ति। ततःतीसदिणा आयरिए, अद्धट्ठदिणातु हावणातत्थ। गच्छेण चउपदेहि, णिच्छूढे लग्गती छेदे॥ त्रिंशदिवसाश्चतुर्थभागेन विभक्ता अष्टिमदिवसा भवन्ति / तत्र गच्छे आचार्ये ण सहा ष्टमानि दिवसानि भक्तार्थनं करोति / एवं स्वाध्यायवन्दनालापनमपि यथाक्रममद्धष्ट मैर्दिवसः प्रत्येक हापयति। ततः परं गच्छेन चतुर्भिरपि भक्तार्थनादिभिः पदै-निष्कासित आचार्यः पञ्चदशके छेदे लगति। ततःसंकंतो अण्णगणं, सगणेण पवजितो चउपदेहिं। आयरिओ पुण दरिसं, वंदणलावेहि सारे।।। स्वगणेन भक्तार्थनादिभिश्चतुर्भिः पदैर्यदा वर्जितः, तदा अन्यगणं संक्रान्तः, पुनरन्यगणस्याचार्यो केवलं वन्दनालापाभ्यां द्वाभ्यां पदाभ्यां संभुञ्जानः सारयति यावद्वर्षम्। सज्झायमाइएहिं, दिणे दिणे सारणा परगणे वि। नवरं पुण नाणतं, तवो गुरुस्सेयरे छेदो।। परगणेऽपि संक्रान्तस्य आचार्यस्य स्वाध्यायादिभिः पदैर्दिने दिने सारणा क्रियते / नवरं परगणोपसंक्रान्तस्येदं नानात्वं विशेषः / अन्यगणसक्तस्य गुरोरसारयतस्तपः प्रायश्चित्तम्, इतरस्य पुनरधिकरणकारिण आचार्यस्यानुपशान्तस्य छेदः / अत्र परः प्राहरागद्वेषिणो यूयम्- आचार्य शीघ्रं छेदं प्रापयथ, उपाध्यायं बहुतरेण, भिक्षु ततोऽपि चिरतरेण / एवं भिक्षूपाध्याययोर्भवतां रागः, आचार्ये द्वेषः / अत्र सूरिः प्रागुद्दिष्ट कुमारदृष्टान्तमाहसरिसावंराधमंडो, जुवरण्णो भोगहरणबंधादी। मज्झिम बंधवहादी, अव्वत्ते कन्नखिंस त्ति // "एगस्स रन्नो तिन्नि पुत्ता-जेट्ठो, मज्झिमो, कणिमो। तेहि य तिहिं वि समत्थियंपितरं मारित्ता रजं तिहा विभयामो, तं च रण्णा णायं, तत्थ जेट्ठो जुवराया, तुमं पमाणभूओ कीस एवं करेसि ति? तस्स भोगहरणबंधणताडणादिया सव्वे दंडप्पगारा कया। मज्झिमो रायप्पहाणो त्ति काउं तस्स भोगहरणं न कयं, बंधवहादिया कया। अव्वत्तो कणेट्ठो एतेहिं वियारिओ त्ति काउंतस्स कण्णविमोडणदंडो खिंसा दंडोय कओ, न भोगहरणाइया" अक्षरगमनिका-सदृशेऽप्यपराधे युवराजस्य भोगहरणबन्धानादिको महान् दण्डः कृतः। मध्यमस्य बन्धवधादिको, न भोगहरणम्, अशक्तः कनिष्ठस्तस्य कर्णामोटनादिकः, खिंसा च कृता। अयमर्थोपनयः। यथा- लोकैर्लोकोत्तरेऽप्युत्कृष्टमध्यमजघन्येषु पुरुषवस्तुषु बृहत्तमोलघुर्लघुतरश्च यथाक्रमं दण्डः क्रियते। प्रमाणभूते च पुरुषे अक्रियासु वर्तमाने एते दोषाःअप्पचय वीसत्थ-त्तणं च लोगे गरहा दुरहिगमो। आणाए य परिभवो, णेव भयं तो तिहा दंडो॥ एत एवाचार्या भणन्ति, अकषायं चारित्रं भवति, स्वयं पुनरित्थं रुष्यन्ति / एवं सर्वेषूद्देशेष्वप्रत्ययो भवति।शेषसाधूनामपि कषायकरणे विश्वस्तता भवति, लोको वा गहाँ कुर्यात् / प्रधान एवामीषां कलह करोतीति, रोषणश्च गुरुः शिष्याणां प्रतीच्छकानां च दुरधिगमो भवति, रोषणस्य चाज्ञां शिष्याः परिभवन्ति, न च भयं तेषां भवति, अतो वस्तुविशेषेण त्रिधा दण्डः कृतः। गच्छम्मि उ पट्ठवए, जम्मि पदे निग्गतो बितियं / भिक्खुगणायरियाणं, मूलं अणवट्ठ-पारंची। गच्छे यस्मिन् पदे प्रस्थापिते निर्गतस्ततो द्वितीयं पदं परगणे संक्रान्तः प्राप्नोति, तद्यथा-तपसि प्रस्थापिते यदि निर्गतस्ततश्छेदं प्राप्नोति, छेदे प्रस्थापिते निर्गतस्ततो मूलम्, एवं भिक्षो रुक्तगणावच्छेदक स्यानवस्थाप्ये आचार्यस्य पारशिके पर्यवस्यति / Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिगरण 578 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अधिगरण अथवा येन भक्तार्थनादिना पदेन गच्छान्निर्गतः, ततो द्वितीयपदमन्यगणे गतस्य प्रारभ्यते / यथा- गच्छाद्भक्तार्थेन पदेन निर्गतः, ततोऽन्यं गणं गतेन तेन समंगणोन भुङ्क्ते, स्वाध्यायं पुनः करोति। एवं स्वाध्यायपदेन निर्गतस्य वन्दनं करोति / वन्दनपदेन निर्गतस्यालापं करोति / आलापपदेन निर्गतस्य परगच्छश्चतुर्भिरपि पदैः परिहारं करोति / 'भिक्खुगणायरियाणं' इत्यादिना तु त्रयाणामप्यन्त्यप्रायश्चित्तानि गृहीतानि / बृ० 5 त्त० / नि० चू० / (द्वितीयपदं कारणे सत्युत्पादयेदित्यधिकारेऽनुपदमेव वक्ष्यते) (10) खरपरुषाणि भणित्वा गच्छान्निर्गच्छतो विधिःयद्यधिकरणं कृत्वा प्रज्ञापितोऽपि नोपशाम्यति, ‘स किं करोति ? इत्याहखरफरुसनिट्ठराइं,अह सो भणिउं अभाणियव्वाई। निग्गमण कलुसहियए, सगणे अट्ठा परगणे य॥ अथासौ खरपरुषनिष्ठुराणि अभणितव्यानि वचनानि भणित्वा कलुषितहृदयः स्वगच्छान्निर्गमनं करोति, ततो निर्गतस्य तस्य स्वगणे परगणे च प्रत्येकमष्टौ स्पर्द्धकानि वक्ष्यमाणानि भवन्ति / खरपरुषनिष्ठुरपदानि व्याख्यातिउद्धं सरोस भणियं, हिंसग-मम्मवयण खरं तं तु। अक्कोस णिरुवचारिं, तमसचं पिठुरं होति॥ ऊर्ध्वं महता स्वरेण सरोषं यद्भणितं-हिंसकं मर्मघट्टनवचनं वा, तत्तु खरं मन्तव्यम् / जकारमकारादिकं यदाक्रोशवचनं यच्च निरुपचारि विनयोपचाररहितं, तत्परुषम् / यदसत्यं सभाया अयोग्यं, कस्त्वमित्यादिकं, तद् निष्ठुर भण्यते। ईदृशानि भणित्वा गच्छान्निर्गतस्याचार्यः प्रायश्चित्तविभाग दर्शयितुकाम इदमाहअट्ठऽटअद्धमासा, मासा होतऽटअट्ठसु पयारो। वासासु अ संचरणं,ण चेव इयरे वि पेसंति॥ स्वे गणे यान्याचार्यसत्कान्यष्टौ स्पर्द्धकानि, तेषु पक्षे अप-रापरस्मिन् स्पर्द्धके संचरतो अष्टावर्द्धमासा भवन्ति! परगणमध्ये-ऽप्यष्टसुस्पर्द्धकेषु पक्षे पक्षे संचरतो अष्टावर्द्धमासाः। एवमुभयेऽपि मीलिता अष्टौ मासा भवन्ति, अष्टसु च ऋतुबद्धमासेषु साधूनां प्रचारो विहारो भवतीतिकृत्वा अष्टग्रहणं कृतम् / वर्षासु चतुरो मासान् तस्याधिकरणकारिणः साधोः संचरणं नास्ति वर्षाकाल इतिकृत्वा इतरेऽपि येषां स्पर्द्धकेषु संक्रान्तस्तेऽपितं प्रज्ञाप्य वर्षावास इतिकृत्वा यतो गणादागतस्तत्र न प्रेषयन्ति; तत्र यानि स्वगणे अष्टौ स्पर्द्धकानि, तेषु संक्रान्तस्य तैः स्वाध्याय-भिक्षाभोजनप्रतिक्रमणवेलासु प्रत्येकं सारणा कर्तव्या / 'आर्य ! उपशमं कुरु' यद्येवं न सारयन्ति, ततो मासगुरुकम्। तस्य पुनरनुपशाम्यत इदं प्रायश्चित्तम्सगणम्मि पंच राई-दियाणि दस परगणे मणुण्णेसुं। अण्णेसु होइ पण्णरस, वीसा तु गयस्स ओसण्णो॥ . स्वगणे स्पर्द्धकेषु संक्रान्तस्यानुपशाम्यतो दिवसे दिवसे पञ्चरात्रिंदिवश्छेदः, परगणे मनोज्ञेषु सांभोगिकेषु संक्रान्तस्य दशरात्रिंदिवः; अन्यसांभोगिकेषु संक्रान्तस्य दशरात्रिंदिवः, अन्यसांभोगेषु पञ्चदशरात्रिंदिवः / अवसन्नेषु गतस्य विंशतिरात्रिंदिवश्छेदः / एवं भिक्षोरुक्तम्। अथोपाध्यायाऽऽचार्ययोरुच्यतेएमेव य होइगणी, दसदिवसादी भिण्णमासंते। पण्णरसादी तु गुरू, चउसु वि ठाणेसु मासंते // एवमेव गणिन उपाध्यायस्यापि अधिकरणं कृत्वा पर-गणसंक्रान्तस्य मन्तव्यम् / नवरं दशरात्रिंदिवमादौ कृत्वा भिन्नमासान्तस्तस्य छेदः / एवमेव गुरोरप्याचार्यस्य चतुषु स्वगणपरगणे सांभोगिकान्यसांभोगिकावसन्नेषु पञ्चदशरात्रिं-दिवादिको मासिकान्तश्छेदः / एतत्पुरुषाणां स्वगणादिस्थान-विभागेन प्रायश्चित्तमुक्तम्। अथ तथैव स्थानेषु पुरुषविभागेन प्रायश्चित्तमाहसगणम्मि पंचराइं-दियाइ भिक्खुस्स तदिवस छेदो। दस होइ अहोरत्ता, गणिआयरिए व पण्णरसा।। स्वगणे संक्रान्तस्य भिक्षोस्तदिवसादारभ्य दिने दिने पञ्चरात्रिदिवश्छेदः / गणिन उपाध्यायस्य दशरात्रि दिवः / आचार्यस्य पञ्चदशरात्रिंदिवः। अण्णगणे भिक्खुस्स य, दस राइंदिया भवे छेदो। पण्णरस अहोरत्ता,गणिआयरिए भवे वीसा।। अन्यगणे सांभोगिकेषु संक्रान्तस्य भिक्षोर्दशरात्रिंदिवश्छेदः / उपाध्यायस्य पञ्चदशरात्रिंदिवः / आचार्यस्य विंशतिरात्रिंदिवः'। एवमन्यसांभोगिकेषु अवसन्नेषु च प्रागुक्तानुसारेण नेयम्। बृ०५ उ०। एवं एकेक्कदिणं, हवेतु ठवणा दिणे वि एमेव। चेइयवंदणसारिएँ, तम्मिव काले तिमासगुरू॥२१८|| पासत्थादिगयस्स य, वीसं राइंदियाइँ भिक्खुस्स। पणवीस उवज्झाए, गणिआयरिए भवे मासो।।२१९।। गणस्य गणे वा आचार्यः, अधवा-गणित्वमाचार्यत्वं च यस्यास्त्यसो गणिआयरिओ। नि० चू० 10 उ० अथैवं प्रतिदिन छिद्यमाने पर्याये पक्षण कियन्तो मासा अमीषां छिद्यन्ते ? इति जिज्ञासायां छेदसंकल्पनामाह अड्डाइजा मासा, अहहि मासा हवंति वीसं तु। पंच उमासा पक्खे, अट्ठहि चत्ताउ मिक्खुस्स। स्वगणासंक्रान्तस्य भिक्षोः प्रतिदिनं पञ्चकच्छेदेन छिद्यमानस्य पर्यायस्य पक्षेणार्द्धतृतीया मासाः छिद्यन्ते / तथाहि- पक्षे पञ्चदश दिनानि भवन्ति, तैः पञ्च गुण्यन्ते, जाता पञ्चसप्ततिः। तस्या मासानयनाय त्रिंशता भागे हृते अर्द्धतृतीयमासा लभ्यन्ते, स्वगणे चाष्टौ स्पर्द्धकानि, तेषु पक्षे पक्षे संचरतः पञ्चकच्छेदेन विंशतिर्मासाश्छिद्यन्ते / तथाहि- पञ्चदशाष्टभिर्गुणिता जातं विंशोत्तरं शतम्, तदपि पञ्चभिर्गुणितं जातानि षट्शतानि। तेषां त्रिंशता भागे हृते विंशतिर्मासा Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिगरण 579 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अधिगरण - लभ्यन्ते / एवमुत्तस्त्रापि गुणकारभागाहारप्रयोगेण स्वबुद्ध्योपयुज्यमासा आनेतव्याः / परगणे संक्रान्तस्य भिक्षोर्दशकेन छेदेन छिद्यमानस्य पर्यायस्य पक्षेण पञ्च मासाश्छिद्यन्ते, दशके नैव छे देनाष्टभिः पक्षश्चत्वारिंशन्मा-साश्छिद्यन्ते, एवं भिक्षोरुक्तम्। उपाध्यायस्य पुनरिदम्पंच उ मासा पक्खे, अट्ठहिँ मासा हवंति चत्ताउ। अद्धट्टमास पक्खे, अट्ठहिँ सट्ठी भवे गणिणो / / उपाध्यायस्यापि स्वगणे दशकेन छेदेन पक्षेण पञ्च मासाः, अष्टभिः पक्षैर्गुणिताश्चत्वारिंशन्मासाः छिद्यन्ते, तस्यैव परगणे पञ्चदशकेन छेदेनार्ड्सष्टममासाः पक्षण छिद्यन्ते / परगणे त एवाऽष्टभिः पक्षैर्गुणिताः षष्टिर्मासा गणिनश्छिद्यन्ते। अद्धभट्टमास पक्खे, अट्ठहि मासा हवंति सट्ठीतु। दस मासा पक्खेणं, अट्ठहिँऽसीती उ आयरिए।। आचार्यस्य स्वगणे संक्रान्तस्य पञ्चदशकेन छेदेन छिद्यमाने पर्याय पक्षणार्धाष्टममासा अष्टभिः पक्षैर्गुणिताः षष्टिर्मासाश्छिद्यन्ते / तस्यैव परगणसंक्रान्तस्य विंशेन छेदेन पक्षेण दश मासा अष्टभिः पक्षरशीतिर्भासाश्छिद्यन्ते। एवं स्वगणे परगणे च सांभोगिकेषु संक्रान्तस्य छेदसंवलनाऽभिहिता / अन्यसांभोगिकेषु अवसन्नेषु च संक्रान्तस्य भिक्षोरुपाध्यास्याचार्यस्य वाऽनयैव दिशा छेदसंकलना कर्तव्या। एसा विही उ निग्गएँ, सगणे चत्तारिमास उक्कोसा। चत्तारि परगणम्मी, तेण परं मूल निच्छुमणं // एष विधिर्गच्छान्निर्गतस्योक्तः। अथ च स्वगणे अष्टसु स्पर्द्धकेषु पक्षे पक्षे संचरतश्चत्वारो मासा उत्कर्षतो भवन्ति। परगणेऽप्वेवं चत्वारो मासाः। एवमप्येष्वपि चत्वारो मासाः। ततः परं यद्युपशान्तस्ततो मूलम् / अथ नोपशान्तस्तदा निष्कासनं कर्तव्यम्; लिङ्गमपहरणीयमित्यर्थः / चोएइ रागदोसे, सगणे थोवं इमं तु नाणत्तं / पंतावण निच्छुमणं, परकुलघरघोडिए ण गया। शिष्यः प्रेरयति-रागद्वेषिणो यूयं,यत्स्व गणेस्तोकं छेदप्रायश्चित्तं दत्तम्, परगणे तु प्रभृतम् / एवं स्वगणे भवतां रागः, परगणे द्वेषः / गुरुराह-इदं छेदनानात्वं कुर्वतो वयं न रागद्वेषिणः। तथा चात्र दृष्टान्तःएगस्स गिहिणो चउरो भजाओ। ततो यतेण कम्हि एगे सरिसे अवराहे कते पंतता णीह मम गिहाओ ति निच्छुढा तत्थेगा कम्हि इयरघरम्मि गया, बिझ्या कुलघरं, ततिया भत्तुणो एगसरीरो घोडिओ त्ति वयंसो, तस्स घरं गया, चउत्थी निच्छुमंती वि बारसहाए लग्गा हण्णमाणी वि न गच्छइ, भणइ य-कतोणं वचामि? नत्थिमे अन्नो गइविसओ,जइ विमारेहि, तदा वि तुमं चेव गती सरणं त्ति तत्थेव ठिया। के नापि गृहिणा चतसृणां भार्याणां प्रतापन (प्रताडन)कुट्टन कृत्वा गृहान्निष्कासनं कृतं तत्रैका परगृहम, द्वितीया कुलगृहम, तृतीया घोटिको मित्रं, तद्गृहं गता, चतुर्थी तु न क्वापि गता। तओ तुटेण चउत्थी घरसामिणी कया। तइयाए घोडियघरं जंतीए सो चेव अणुवत्तितो विगतरोसेण खरंटिता, आणीता य। बितियाए कुलघरं जंतीए जं पिउगिहवलं गहियं गाढतरं रुद्रुण अन्नेहिं मणिएहिं विगतरोसेण खरंटिता, दंडिया य। पढमा दूरे णद्वेत्तिनताए किंविपओयणं,महंतेण वा पच्छित्तदंडेण दंडिउं आणिज्जइ / एवं परसंहाणिया ओसन्ना, कुलघरसंठाणिया अन्नसंभोइया,घोडियसमासंभोइया, अनिग्गमे सघरसमा गच्छे जाव दूरंतरं ताव महत्तरो डंडो भवइ / बृ०५ उ०। (11) गृहस्थैः सहाधिकरणं कृत्वाऽव्यवशमय्य पिण्डग्रहणादिन कार्यम्मिक्खू य अहिकरणं कडुत्तं अहिगरणं अविओसमित्ता ना से कप्पइ गाहावइकुनं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तएवा, बहिया वियारभूमि वा विहारभूमिंदा निक्खमित्तए वा, पविसत्तए वा, गामाणुगामं वा दूइज्जत्तए गणातो वा गणं संकमित्तए वा, वासावासं वा वत्थु, जत्थेव अप्पणाऽऽयरियउवज्झायं पासेञ्जा, बहुस्सुयं बज्झागमं तस्संतिए आलोइजा, पडिक्कमिजा, निदिजा, गरहिज्जा, विगुट्टेजा, विसोहेज्जा, अकरणयाए अब्भुटेजा, अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जेज्जा, से य सुएण पट्टविए आदिइतव्वे सिया, से य सुएण नो पट्टविए नो आदिइतव्वे सिया, से य सुएण पट्टवेजमाणे नो आईया स निच्छूहियध्वं सिया। अस्य संबन्धमाहकेण कयं कीस कयं, निच्छुभओ एस किं इहाणेति ? एसो वि गिही तुदितो, करेज कलह असहमाणो।। केनेदं वहनं काष्ठानयनं कृतं, कस्मादेतत् कृतं, निष्कासितोऽप्येष किमर्थमिहानयति, एवमादिभिर्वचोभिर्गृहिणा तुदितो व्यथितः कश्चिदसहमानः कलहं कुर्यात्। अत इदमधिकरणसूत्रमारभ्यते। अनेन संबन्धेनायातस्यास्य व्याख्या-भिक्षुः प्रागुक्तः, चशब्दा दुपाध्यायादिपरिग्रहः / अधिकरणं कलहं कृत्वा नो कल्पते तस्य तदधिकरणमव्यवशमय्य गृहपतिकुलं भक्ताय वा पानाय वा निष्कसितुं वा, प्रवेष्टु वा, ग्रामानुग्रामं वा गन्तुं विहर्तु, गणाद्वा गणं संक्रमितुं, वर्षावासं वा वस्तुं, किंतु यत्रैवात्मन आचार्योपाध्यायं पश्येत्। कथंभूतम् ? बहुश्रुतं छेदग्रन्थादिकुशलम् / बागमं अर्थतः प्रभूतागमम्, तत्र तस्यान्तिके आलोचयेत् / स्वापराधं वचसा प्रकटयेत्, प्रतिक्रामेत् मिथ्यादुःष्कृतं तद्विषये दद्यात्। निन्द्याद् आत्मसाक्षिकं जुगुप्सेत, गर्हेत गुरुसाक्षिकं निन्द्यात् / इह च निन्दनं गर्हणं वा तात्त्विकं तदा भवति, यदा तत्करणतः प्रतिनि-वर्तते।तत आह-व्यावर्तेत तस्मादपराधपदान्निवर्तेत, व्यावृत्तावपि Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिगरण ५८०-अभिधानराजेन्द्रः-भाग 1 अधिगरण कृतात्पापात्तदा मुच्यते, यदात्मनो विशोधिर्भवति। तत आह-आत्मानं विशोधयेत् पापमलस्फोटनतो निर्मलीकुर्यात् / विशुद्धिः पुनः पुनः करणतायामुपपद्यते। ततस्तामेवाऽऽह- अकरणता अकरणीयता, तया अभ्युत्तिष्ठेत् / पुनरकरणतया अभ्युत्थानेऽपि विशोधिः प्रायश्चित्तप्रतिपत्त्या भवति / तत आह- यथार्ह यथायोग्यं तपःकर्म प्रायश्चित्तं प्रतिपद्यते / तच्च प्रायश्चितमाचार्येण श्रुतेन श्रुतानुसारेण यदि प्रस्थापितं प्रदत्तं, तदा आदातव्यं ग्राह्यं स्याद्भवेत् / अथ श्रुतेन न प्रस्थापितं, तदा नादातव्यं स्यात् / स चाऽऽलोचको यदि श्रुतेन प्रस्थाप्यमानमपि तत्प्रायश्चित्तं नाददाति, न प्रतिपद्यते , ततः स निच्छूहि तव्यः, अन्यत्र शोधिं कुरुष्वेति निषेधनीयः स्यात् / इति सूत्रार्थः / अथभाष्यविस्तरःअवियत्त कुलपवेसे, अइभूमि अणेसणिज्जपडिसेहे। अवहारमंगलुत्तर-सभावअवियत्तमिच्छत्ते॥ अविदितभूमिस्थाने कथमधिकरणमुत्पन्नम् ? इत्यस्यां जिज्ञासायामभिधीयते-कस्मिँश्चित् कुले साधवः प्रविशन्तोऽप्रीतिकरास्तत्राजानतामनाभोगाद्वा प्रवेशे गृहपतिराक्रोशेद् वा, हन्याद् वा, साधुरप्यसहमानः प्रत्याक्रोशेत; ततोऽधिकरणमुत्पद्यते। एवमतिभूमि प्रविष्ट अनेषणीयभिक्षाया वा प्रतिषेधे, शैक्षस्य वा संज्ञातकस्यापहारे, यात्राप्रस्थितस्य वा गृहिणः साधुं दृष्ट्वा अमङ्गलमिति प्रतिपत्तौ समयविचारेण वा प्रत्युत्तरं दातुमसमर्थो गृहस्थस्वभावेन वा क्वापि साधौ (अवियत्ते) अनिष्ट दृष्ट अभिग्रहमिथ्यादृष्टा सामान्यतः साधाववलोकिते अधिकरण-मुत्पद्यते। पडिसेघे पडिसेघो, भिक्खुवियारे विहारे गामे व। दोसा मा होज्ज बहु, तम्हा आलोयणा सोधी॥ भगवद्भिः प्रतिषिद्धंन वर्ततेसाधूनामधिकरणं, कुर्तुम्, एवं विधिप्रतिषेधे भूयः प्रतिषेधः क्रियते। कदाचित्तदधिकरणं गृहिणा समं कृतं भवेत्, कृत्वा च तस्मिन्ननुपशमिते भिक्षायां न हिण्डनीयम्, विचारभूमी विहारभूमौ वा न गन्तव्यम्, ग्रामानुग्रामं न विहर्त्तव्यम्। कुतः? इत्याहमाबहवो बन्धनकण्टकमर्दनादयोदोषा भवेयुः। तस्मात्तं गृहस्थमुपशमय्य गुरूणामन्तिके आलोचना दातव्या। ततः शोधिः प्रतीच्छनीया। इदमेव भावयतिअहिकरण गिहत्थेहि, ओसारण कवणा य आगमणं। आलोयण पत्थवणं, अणेसणे हों ति चउ लहुगा / / गृहस्थैः सममधिकरणे उत्पन्ने द्वितीयेन साधुनातस्य साधो-रपसारणं कर्तव्यम् / अथ नापसरति ततो बाहौ गृहीत्वा आकर्ष-णीयः / इदं च वक्तव्यम्-न वर्तते मम त्वया साधिकरणेन समं भिक्षामटितुम् / अतिप्रतिश्रये परिनिवर्तामहे / एवमुक्त्वा प्रतिश्रयमागत्य गुरूणामालोचनीयम्। ततोगुरूभिरुपशमनार्थं वृषभास्तस्य गृहस्थस्य मूले प्रेषणीयाः। यदि न प्रेषयन्ति, तदा चतुर्लघु! आणादिणो य दोसा, बंधणणिच्छुभणकडगमादाय। वुग्गाहण सत्थेणं, अगणुवकरणं विसं वारे // आज्ञादयश्च दोषाः / स च गृहस्थो येन साधुना सहाधिकरणं ज्ञातं | तस्यानेकेषां वा साधूनां बन्धनं निष्कासनं वा कुर्यात् / कटकमादाय सर्वानपि साधून कोऽपि व्यपरोपयेत् / व्युद्ग्राहणं वा लोकस्य कुर्यात् / नास्त्यमीषां दत्ते परलोकफलम्, यद्वाऽमी संज्ञां व्युत्सृज्य विकिरन्ति, नच निर्लेपयन्ति, खड्गादिना वा शस्त्रेण साधुना हन्यात्। अनिकायेन वा प्रतिश्रयं दहेत्। उपकरणं वा अपहरेत्, विषं गरादिकं या दद्यात्, भिक्षां वा दारयेत्। तच वारणमेतेषु स्थानेषु कारयेत् - रज्जे देसे गामे, णिवेसणे गिहे निवारणं कुणति। जा तेण विणा हाणी, कुलगणसंघे च पच्छारो।' राज्ये सकलेऽपि निवारणं कारयेत् / एतेषां भक्तमुपछि वसतिं वा मा दद्यात्। एवं देशे, ग्रामे, निवेशने, गृहे वा, निवारणं करोति। ततो या तेन भक्तादिना विना परिहाणिस्तां वृषभानप्रेषयन् गुरुः प्राप्नोति / अथवा यः प्रभवति, स कुलस्य गणस्य सङ्घस्य वा प्रस्तारं विस्तरेण विनाश कुर्यात्। एयस्स णत्थि दोसो, अपरिक्खिय दिक्खगस्स अह दोसो। पभु कुजा पच्छारं, अपभू वा कारणे पभुणा / / गृहस्थः चिन्तयति-एतस्य साधो स्ति दोषः, किं तु य एनमपरीक्ष्य दीक्षितवान् तस्याऽयं दोषः / अतस्तमेव घातयामीति विचिन्त्य प्रभुः स्वयमेव प्रस्तारं कुर्यात्। अप्रभुरपि द्रव्यं राजकुले दत्त्वा प्रभुणा कारयेत्। यतएतेदोषाःतम्हा खलु पट्ठवणं, पुव् िवसमा समं च वसभेहिं। अणुलोमण पेच्छामो, णिति अणिच्छंपितं वसमा॥ तस्माद् वृषभाणां तत्र स्थापनं कर्त्तव्यम् / (पुद्दिति) येन साधुना अधिकरणं कृतं, तावन्न प्रेषयन्ति, यावद् वृषभान् पूर्वं प्रज्ञापयन्ति। किं कारणम् ? उच्यते-सगृहस्थः तं दृष्ट्वा कदाचिदाहन्यात्। अथ ज्ञायते, न हनिष्यति, ततो वृषभैः समं तमपि प्रेषयन्ति / तत्र गताश्चानुकूलवचोभिरनुलोमं प्रगुणीकरणं तस्य कुर्वन्ति। अथासौ गृहस्थो ब्रूयात्-आनयत तावत्तं कलहकारिणं येनैकवारं पश्यामः, पश्चात् क्षमिष्ये / न च ततो वृषभास्तदभिप्रायं ज्ञात्वा तं साधुं गृहिणः समीपमानयन्ति / अथासौ साधुर्नेच्छति, ततो बलादपि वृषभास्तं तत्र नयन्ति / तेच वृषभाईदृशगुणयुक्ताः प्रस्थाप्यन्तेतस्संबंधि सुही वा, पगया ओयस्सिणो गहियवक्का। तस्सेव सुहीसहिया, गर्मेति वसभा तगं पुव्वं / / तस्य गृहिणः, संयतस्य वा संबन्धिनः सुहृदो वा ते भवेयुः प्रगता लोकप्रसिद्धाः, ओजस्विनो बलीयांसः, गृहीतवाक्या आदे-यवचसः, ईदृशा वृषभाः, तस्यैव गृहिणः सुहृद्भिः सहिताः तकंगृहस्थं पूर्व गमयन्ति। / कथम् ? इत्याहसो निच्छुब्मति साहू, आयरिए तं च जुज्जसि गमेत्तुं / नाऊण वत्थुभावं, तस्स जदी णिति गिहिसहिया। येन साधुना त्वया सह कलहितं, स साधुराचार्य : साम्प्रतं Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिगरण 581- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अधिगरण निष्कास्यते, अस्मदीयं च वचो गुरवो न सुष्ठ शृण्वन्ति; अत आचार्यान् गमयितुं त्वंयुज्यसे-युक्तो भवसि / एवमुक्ते यद्याचार्यं गमयति-क्षामयति, ततो नष्टम् / अथ ब्रूते- पश्यामस्तावत्तं कलहकारिणम् / ततो ज्ञात्वा वस्तुतो गृहस्थस्य भावं किमयं हन्तुकामस्तमानाययति, उत क्षामयितुकामः ? एवमभिप्रायं ज्ञात्वा तस्यायं सुहृत्, अतस्ते असहिता एवतं साधुंतत्र नयन्ति। अथासौ गृही तीव्रकषायतया नोपशाम्यति, ततस्तस्यसा-धोगच्छस्य च रक्षणार्थमयं विधिःवीसुं उवस्सए वा, ठर्वेति पेसेंति फडपतिणो वा। देंति सहाए सव्वे, वि गैति गिहिणे अणुवसंते॥ विष्वगन्यस्मिन्नुपाश्रये तं साधुं स्थापयन्ति, अन्यग्रामे वा यः स्पर्द्धकपतिस्तस्यान्तिके प्रेषयन्ति, निर्गच्छतश्च तस्य सहायान् ददति। अथ मासकल्पः पूर्णस्ततः सर्वेऽपि निर्यान्ति निर्गच्छन्ति / एष गृहस्थेऽनुपशान्ते विधिः! अथ गृहस्थ उपशाम्यति, न साधुस्तदा तस्येदं प्रायश्चित्तम् - अविओसियम्मि लहुगा,मिक्खवियारे स वसहिगामेय / गणसंकमणे भण्णति, इहं पि तत्थेव वचाहि / / अधिकरणे अव्यवशमिते यदि भिक्षां हिण्डते, विचारी वा गच्छति, क्सतेनिर्गत्यापरसाधुवसतिं गच्छति; ग्रामानुग्राम विहरति; सर्वेषु चतुर्लघु / अथापरं गणं संक्रामति, ततस्तैरन्यगण-साधुभिर्भण्यतेइहापि गृहिणः क्रोधनाः सन्ति, ततस्तत्रैव व्रज। इदमेव सुव्यक्तमाहइह वि गिही अविसहणा, ण य वोच्छिण्णा इहं तुहा कसाया। अण्णेसिं आयासं,जणइस्ससि वच तत्थेव।। इहापि ग्रामे गृहिणोअविषहणाः क्रोधनाः,नचेह समागतस्य तव कषाया व्यवच्छिन्नाः / अतोऽन्येषामप्यस्मदादीनामायासं जनयिष्यसि, तस्मात्तत्रैव व्रज। सिट्ठम्मिन संगिज्झति, संकंतम्मि उ अपेसणे लहुगा। गुरुगा अजयणकहणे, एगतरदोसतो जं वा।। अनुपशान्ते साधौ गणान्तरं संक्रान्ते मूलाचार्येण साधुसंघाट-कस्तत्र प्रेषणीयः, तेन च संघाटकेन शिष्टे कथिते सति द्वितीयाचार्यों न संगृह्णीयात्, अथ मूलाचार्यः संघाटकं न प्रेषयति, तदा चतुलघु। संघाटको यद्ययतनया कथयति ततश्चतुर्गुरु। अयतनकथनं नामबहुजनमध्ये गच्छे गत्वा भणति- एष निर्धर्मा गृहिभिः सममधिकरणं कृत्वा समायातः, सकलेनापि गच्छेन नोपशान्तः / एवमयतनया कथितेन साधुरेकतरस्य गृहिणः साधुसंघाटकस्य मूलाचार्यस्य वा प्रद्वेषतो यत्करिष्यति तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम्। तस्मादयं विधिःउवसामितो गिहत्थो, तुम पि खामेहि एहि वच्चामो। दोसा हु अणुवसंते,ण य सुज्झइ तुज्झ सामाइयं // पूर्वं गुरूणामेकान्ते कथयित्वा ततः स्वयमेकान्तेन भण्यते, उपशामितः सगृहस्थः, एहि व्रजाम, त्वमपितं गृहस्थंक्षामय, अनुपशान्तस्येह परत्र च बहवो दोषाः, समभावः सामायिकम् / तचैवं सकषायस्य भवतो न शुद्ध्यति, न शुद्धं भवति / एवमेकान्ते भणितो यदि नोपशाम्यति, तो गणमध्येऽप्येवमेव भणनीयः। ततोऽपि चेन्नोपशाम्यति, प्रत्युत चेतसि चिन्तयेत्-तस्य गृहिणो निमित्तेनेहाप्यवकाशं न लभे। ततः - तमतिमिरपडलभूतो, पावं चिंतेइ दीहसंसारी। पावं ववसिउकामो, पच्छित्ते मग्गणा होति॥ कृष्णचतुर्दशीरजन्यां द्रव्याभावस्तम उच्यते / तस्यामेव च रात्रौ यदा रजो धूमधूमिका भवति, तदा तमस्तिमिरं भण्यते / यदा पुनस्तस्यामेव रजन्यां रजःप्रभृतयो मेघदुर्दिनं च भवति, तदा तमस्तिमिरपटलमभिधीयते / यथा तत्रैवान्धकारे पुरुषः किञ्चिदपि न पश्यति, एवं यस्तीव्रतीव्रतरतमेन कषायोदयेनाभिभूतो भण्यते, तमःशब्दस्येहोपमार्थवाचकत्वात् / एवंभूतश्चेदपराधे हि तमपश्यन् दीर्घसंसारी तस्य गृहस्थस्योपरि पापमैश्वर्याज्जीविताद्वा भ्रंश-यिष्यामीति रूपं चिन्तयति। एवं च पापं कर्तु व्यवसिते तस्मिन्नियं प्रायश्चित्ते मार्गणा भवति। वचामि वचमाणे, चउरो लहुगा य होति गुरुगाय। "उग्गिण्णम्मि य छेदो, पहरण मूलं च जं तत्थ / / व्रजामितं गृहस्थं व्यपरोपयामीति संकल्पे चतुर्लघवः / पदभेदादारभ्य पथि व्रजतश्चतुर्गुरवः / यदि यष्टिलोष्टादिकं प्रहरणं मार्गयति, तदा षड्लघवः / प्रहरणे लब्धे गृहीते चषड्गुरुवः / उद्गीर्णे प्रहारे छेदः। प्रहारे पतिते यदि न मियते, ततः छेद एव। अथ मृतस्ततो मूलम् / यत् स्वयं परितापनादिकं संभवति, तत्तत्र वक्तव्यम् / एते चापरे दोषाः - तं चेव णिहवेती, बंधणणिच्छुभणकडगमद्दो य। आयरिए गच्छम्मिय, कुलगणसंघे य पत्थारे // स गृहस्थस्तं संयतं वधार्थमागतं दृष्ट्वा कदाचित्तत्रैव निष्ठापयतिव्यापादयति, तं ग्रामनगरादेर्वा निर्धाटयति; कटकमर्दैन वा गृह्णाति / अथवा कटकम रुष्ट एतस्य सर्वमपि गच्छं व्यापादयति, यथा-पालकः स्कन्धकाचार्यगच्छम् / अथवा बन्धननिष्का-सनादिकमाचार्यस्य अपरगच्छस्य वा करोति। तथा कुलसमवायं कृत्वा कुलस्य बन्धादिकं कुर्यात्। एवं गणस्य वा, संघस्य वा, एष प्रस्तारः / एवमेकाकिनो व्रजत आरोपणा दोषाश्च भणिताः। अथ सहायसहितस्याऽऽरोपणामाहसंजतगणो गिहगणो, गामे नगरे व देसरजे य। अहिवतिरायकुलम्मिय, जा जहिं आरोवणा भणिया / / बहवः संयताः संयतगणः, तं सहायं गृह्णाति, एवं गृहगणं वा सहायं गृह्णाति / स च गृहगणो ग्रामं वा नगरं वा देशं वा राज्य वा भवेद् : ग्रामादिवास्तव्यजनसमुदाय इत्यर्थः / एतेषां चाऽसंयतादीनां, येऽधिपतयः, तान् वा सहायत्वेन गृह्णाति / अन्यद्वा राजकुलं गृहीत्वा गच्छति। यथा- कालिकाचार्येण त्रिक-राजवृन्दम्; तत्र चैकाकिनो या यत्र संकल्पादेवारोपणा भणिता, सा चेहापि द्रष्टव्या Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिगरण 582 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अधिगरण एतदेव व्याचष्टेसंजयगणो तदधिवो, गिही तु गामपुरदेसरने वा। एतेसिं चिय अहिवा, एगतरजुओ उभयतो वा॥ संयतगणः प्रतीतः, तेषां संयतानामधिपस्तदधिपः, आचार्य इत्यर्थः / ये गृहिणः स्वग्रामपुरदेशराजवास्तव्याः, एतेषामधिपतयो वा भवेयुः, तत्र ग्रामाधिपतिः, भोगिकाधिपतिः, पुराधिपतिः, श्रेष्ठी, कोट्टपालो, देशाधिपतिर्देशरक्षको देशव्यापृतको वा, राज्याधिपतिमहामन्त्री, राजा वा; एतेषामेकतरेणोभयेन वा युक्तो व्रजति, तत्रेयं प्रायश्चित्तमार्गणातहि वच्चंते गुरुगा, दोसु तु छल्लहुग गहण छग्गुरुगा। उग्गिणपहरण छेदो, मूलं जं जत्थ वा पंथे। संयतगणेन तदधिपेन वा उभयेन वा सहाऽहं व्रजामीति संकल्पेचतुर्लघु / पदभेदमादौ कृत्वा तत्र व्रजतश्चतुर्गुरु, प्रहरणस्य मार्गणायां दर्शने च द्वयोरपि षड्लघु, प्रहरणस्य ग्रहणे षड्गुरु। उदीर्णे प्रहरणे छेदः / प्रहारे दत्ते मूलम् / यद्वा-परितापनादिकं पृथिव्यादिविनाशनं यत्र पथि ग्रामे वा करोति तन्निष्पन्नमपि मन्तव्यम् / तथा गृहस्थवर्गेऽपि ग्रामेण वा, गामाधिपतिना यावद् राज्येन वा, राज्याधिपतिना वा, उभयेन वा, सह व्रजामीति संकल्पे चतुर्गुरु / पथि गच्छतः प्रहरणं च गृह्णतः षड्लघु, गृहीते षड्गुरु; शेष प्राग्वत्। एवं भिक्षोः प्रायश्चित्तमुक्तम्। एसेव गमो नियमा, गणियायरिये य होइ णायव्वो। णवरं पुण णाणत्तं, अणवठ्ठप्पो य पारंची // एष एव गमो नियमाद् गणिन उपाध्यायस्याचार्यस्य, चशब्दाद्गणावच्छे दिकस्य वा मन्तव्यः | नवरं पुनरत्र नानात्वमधस्तादेकैकपदहासेन यत्र भिक्षोर्मूलं, तत्रोपाध्यायस्याऽन-वस्थाप्यम्, आचार्यस्य पाराञ्चिकम्। तपोऽहं च प्रायश्चित्तमित्थं विशेषयितव्यम् - भिक्खुस्स दोहि लहुगा, गणवच्छे गुरुग एगमेगेणं / उवझाए आयरिए, दोहि च गुरुगं च णाणत्तं / / भिक्षोरेतानि प्रायश्चित्तानि द्वाभ्यामपि तपःकालाभ्यां लघुकानि, गणावच्छेदिकस्यैकतरेण तपसा कालेन वा गुरुकाणि, उपाध्यायस्याचार्यस्य च द्वाभ्यामपि तपःकालाभ्यां गुरुकाणि, एतन्नानात्वं विशेषः। काऊण अकाऊण व, उवसंत उवट्टियस्स पच्छित्तं। सुत्तेण उपट्ठवणा, असुत्त रागो वा दोसोवा।। गृहस्थस्य प्रहारादिकमपकारं कृत्वाऽकृत्वा वा यधुपशान्तो निवृत्तः प्रायश्चित्तप्रतिपत्त्यर्थ वाऽऽलोचनाविधानपूर्वकमपुनः करणेनोपस्थितस्तदा प्रायश्चित्तं दातव्यम् / कथम् ? इत्याह-सूत्रेण प्रायश्चित्तं प्रस्थापनीयम्, असूत्रोपदेशेन तु प्रस्थापयतो रागो वा द्वेषो वा भवति / प्रभूतमापन्नस्य स्वल्पदाने रागः / स्तोकमापन्नस्य प्रभूतदाने ददाति, ततो यावता न पूर्यते, तावदात्मना प्राप्नोति। अतः सूत्रेण प्रस्थापना कर्तव्या। यस्तु सूत्रोक्तं प्रायश्चित्तं नेच्छति, स वक्तव्यः- अन्यत्र शोधिं कुरुष्व। एषा नियूँहणा भण्यते। अस्या एव पूर्वार्द्ध व्याचष्टे - जेणऽहियं ऊणं वा, ददाति तावतियमप्पणो पावे। अहवासुत्तादेसा, पावति चउरो अणुग्घाया॥ यत् यावता अधिकमूनं ददाति, तावदात्मना प्राप्नोति / अथवा सूत्रादेशादूनातिरिक्तं ददानश्चतुरोऽनुद्धातान्मासान् प्राप्नोति / तचेदं निशीथदशमोद्देशकान्तर्गतसूत्रम् - जे भिक्खू उग्घाइए अणुग्धाइयं देइ, अणुग्धाइए उग्घाइयं वा देइ, देंतं वा साइज्जइ॥१६| (तस्य चतुर्गुरुकं प्रायश्चित्तमित्यर्थः) अथ द्वितीयपदमाहबितियं उप्पाएउं,सासणपंते असज्झपंच पया। आगाढे कारणम्मी, रायस्संसारिए जतणा॥ द्वितीयपदं नाम अधिकरणमुत्पादयेदपि शासनप्रान्तः प्रवचनप्रत्यनीकोऽसाध्यश्च न यथा, तथा शासितुं शक्यते; ततस्तेन सममधिकरणमुत्पाद्य शिक्षणं कर्त्तव्यम् / तत्र च स्वयमसमर्थः संयतनामनगरदेशराज्यलक्षणानि पञ्चापि पदानि सहायतया गृह्णीयात् / आगाढे कारणे राजसंसारिका राजान्तरस्थापना, तामपि यतनया कुर्यात् / तथाहि-यदि राजा अतीव प्रवचनप्रान्तोऽनुशिष्यादिभिरनुकूलोपायैर्न उपशाम्यति, ततस्तं राजानं स्फेटयित्वा तद्वंशजमन्यवंशजं वा भद्रकं राजानं स्थापयेत्। यश्चतं स्फेटयति, सईदृग्गुणयुक्तो भवतिविजाओरस्सबली, तेयसलद्धी सहायलद्धी वा। उप्पादेउं सासति, अतिपंतं कालगज्जो व्व। यो विद्याबलेन युक्तः, यथा-आर्यखपुटः / औरसेन वा बलेन युक्तः, यथा-बाहुबली। तेजोलब्ध्यावासलब्धिकः, यथा-ब्रह्मदत्तः। संभूतभवे सहायलब्धियुक्तः, यथा- हरिके शबलः / ईदृशोऽधिकरणमुत्पाद्यातिप्रान्तमतीवप्रवचनप्रत्यनीकं शास्ति, कालिकाचार्य इव / यथा कालिकाचार्यो गर्दभिल्लराजानं शासित-वान्। बृ० 4 उ०। कथानकं चेत्थम् - को उ गद्दभिल्लो ? को वा कालगजो ? कम्मि काले सासितो? भण्णति-उज्जेणी णाम णगरी, तत्थ य गद्दभिल्लो णाम राया, तत्थ कालगन्जा णाम आयरिया जोतिसणिमित्तबलिया, ताण भगिणी रूपवती पढमे वयसि वट्टमाणा गद्दभिल्लेण गहिया, अंतेपुरे छूढा, अज्जकालगा विण्णवेंति; संघेण य विण्णत्तो ण मुंचति। ताहे रुट्ठो अजकालगो पइण्णं करेति- जइ गद्दभिल्लं रायाणं रज्जाओ ण उम्मूले मि, तो पवयणसंजमोवधायगाणं तमुवेक्खगाण यगतिं गच्छामि। ताहे कालगजो कयगेण उम्मत्तलीभूतो तिगचउक्कचचरमहाजणट्ठाणेसु इमं पलवंतो हिंडति-जइ गद्दभिल्लो राया, तो किमतः परम् ? जइवा अंतेपुरं रम्म, तो किमतः परम् ? विसंयोजइ वा रम्मो, तो किमतः परम् ? सुणिवेहा पुरी जइ, तो किमतः परम् ? जइ वा जणो सुवेसो, तो किमतः परम् ? जइवा हिंडामि वो भिक्खं, तो किमतः परम् ? जइ सुणे देवकुले वसामि, तो द्वेषः। एवं रागद्वेषाभ्यां प्रायश्चित्तदाने दोषमाहथोवं जति आवण्णो, अतिरेगं देति तस्स तं होति। सुत्तेण उ पट्ठवणा, सुत्तमणिच्छंति निनुहणा।। स्तोकं प्रायश्चित्तमापन्नस्तस्य यावद् व्यतिरिक्तं ददाति, ततो यावता अधिकं तावत्तस्य प्रायश्चित्तदातुःप्रायश्चित्तम, आज्ञादयश्च दोषाः। अथोनं Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिगरण ५८३-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अधिगरण किमतः परम् ? एवं भामेउ सो कालगञ्जो पारसकुलं गतो, तत्थ एगो साहित्ति राया भण्णति, तं समल्लीणो णिमित्तादिएहिं हियं आउटृति, अण्णया तस्स साहाणुसाहिणाआ परमसामिणा कम्हि वि कारणे भट्टेण कलारिंगा सद्देउ पेसिया, सीसं छिंदाहि त्ति / तं आकोप्पमाणं आयात पेच्छिऊण सो य विमणो संजातो, अप्पाणं मारिउं धवसिओ / ताहे कालगज्जेण भणितो- मा अप्पाणं मारेहि / साहिणा भणियं- परमसामिणारुटेण एत्थ अत्थिउंण तीरइ। कालगजेण भणियंएहि हिंदुगदेसं बच्चामो / रण्णा पडिसुयं / तत्तुल्लाणं य अण्णेसि पि पंचाणउतीए साहिणा सुअं, केण कट्ठारियाओ सद्देउ पेसियाओ। तेण पुव्विल्लेण डूया पेसिया, मा अप्पाणं मारेह। एहि वच्चामो हिंदुगदेसं। ते छन्नओ। पि सुरट्ठमागया, कालो य णवपाउसो वट्टइ। तारिसे काले ण तीरइ गंतुंतत्थमंडलाइंकया वि विभक्तिऊणं जं कालगन्जो समल्लीणो सोतत्थ अधिवो राया ठवितो, ताहे सगवंसो उप्पण्णो, वत्तेय वरिसाकाले कालगजेण भणिओ- गद्दभिल्लं रायाणं रोहेमो, ताहे लाडा रायाणो जे गद्दभिल्लेण अवमाणिता ते मेलिआ अण्णे य, ततो उज्जेणी रोहिता। तस्सय गद्दभिल्लस्स एक्का विज्जा गद्दहिरूवधारिणी अस्थि, सायएगम्मि अट्टालगे परबलाभिमुहा ठविया, ताहे परमे अवकप्पे गद्दभिल्लो राया अट्ठमभत्तोववासी तं अववारेइ, ताहे सा गद्दभी महंतेण सद्देण णादति / तिरिओ मनुओ वा जो परबलट्ठिओ सदं सुणेति, स सव्वो रुहिरं वमतो भयविन्भलो गट्ठसेणो धरणितलं णिवडइ / कालगन्जो य गद्दभिल्लं अट्ठमभत्तोववासिणं सव्वविधाणदक्खाणं अट्ठसतं जोहाण णिरूवेति, जाहे एस गद्दभी मुहं वियंसेति, जाव यसबंण करेति ताव जमगसमगएण मुहंपूरेजा। तेहिं पुरिसेहिं तहेव कयं, ताहे सा वाणमंतरीतस्स गद्दभिल्लस उवरिं हगिउं मुत्तेउं बलहीणं कयं, ताहे सो वि गद्दभिल्लो अबलो उम्मूलिओ, गहिया उज्जेणी, भगिणी पुणरवि संजमे ठविया। नि० चू० 100 उ०। (12) अनुत्पन्नमधिकरणमुत्पादयतिजे मिक्खू णवाइं अणुप्पण्णाई अहिगरणाई उप्पाएइ, उप्पायंतं वा साइज्जइ // 27 // नवं यत्पुरातनं न भवति, अणुप्पन्ना संपयकाले अविजमाणा अधिक करणं, संयमयोगातिरिक्तमित्यर्थः / नि० चू०५ उ०। (13) कारणे सत्युत्पादयेत् - बितियपदमणप्पज्झो, उप्पादे वि कोविते व अप्पज्झो। नाणं ते वा विपुणो, विगिचणट्ठा य उप्पाए / / 250|| अणप्पज्झो अकोवितो वा रोहो वा अणरिहो कारणे पचाषितो कतो, कारणे सो अधिकरणं कालं विर्गिचियव्वो। नि० चू०५ उ०। करोति, कृत्वा चाधिकरणं सर्वाण्यप्यनादरादीनि पदानि कुर्यात्। स्पष्टतरं भावयति - कारणे अनले दिक्खा, सम्पत्तेऽणुसहि तेण कलहो वि। कारणे सद्दठिता णं, कलहो अण्णोण्ण तेणं वा // कारणे अनलस्यायोग्यस्य दीक्षा दत्ता, समाप्ते च तस्मिन् कारणे तस्यानुशिष्टिः क्रियते। तथाऽप्यनिर्गच्छता तेन समं कलहोऽपि कर्तव्यः / कारणे वा शब्दप्रतिबद्धायां वसतौ स्थिताः, ततोऽन्योन्यं तेन शब्दकारिणा समं कलहः क्रियते, येन शब्दो न श्रूयते / बृ० 5 उ०। (14) पुराणान्यधिकरणानि क्षान्तव्युपशमितानि . पुनरुदीरयतिजे भिक्खू पोराणाई अहिगरणाइं खामियविउसमियाई पुणो उदीरेइ, उदीरंतं वा साइजइ // 26|| पोराणा पूर्वं उत्पन्ना, अधिकरणं पूर्ववत् / दोसावगमो खमा, तं च खामियं भण्णति / विविधं ओसमियं विउसमियं मिच्छादुक्कडपदाणं। अहवा-खामियं वायाए, मणसा विउसमियं, व्युत्सृष्टं ताणि जो पुणो उदीरेइ उप्पादयति, तस्समासलहुँ। खामियविउसामियाई, अधिकरणाइंतु जे य उप्पाए। पावाणा तत्थ तिसिं, तुज्झ ण जुत्तं परूवणा इणमो / / 251 / / पावाणा, साधुधर्मे व्यवस्थिता इत्यर्थः। कहं उप्पाएति? कति साहुणो पुव्वं कलहिता, तम्मिय खामियविउसमिते तत्थेगो भणाति- अहं णाम तुमे तदा एवं भणितो, आसीणजुत्तं तुज्झ; इयरोपडिभणति-अहं पिते किं भणितो? इतरो भणाति- इयाणिं किं ते मुयामि, एवं उप्पाएति। स उप्पायगोउप्पादगमुप्पण्णं, संबद्धो कक्खडे य पाहूयं / आविट्टणा य पुच्छण, समुग्घतोऽति घायणे चेव / / 252 / / पुणो ते वि कुलसिया उप्पायगा, जेहिं उप्पण्णं, संबद्धं णामवायाए परोप्परं समिउमारद्धा कक्खड णाम, पासद्वितेहिं वि ओसमिज्जमाणा वि गोवसमंति, (पाहुअंति) रोसवसेण बलेऽबले जुज्झंलग्गा, आविट्टणाएगो णिहओ, जो सो णिहितो सो पुच्छितो / मारणंतियसमुग्धारण समोहतो, अतिघायणा मारणं। एतेसुणवसुठाणेसुउप्पायगस्स इमंपच्छित्तलहुओ लहुगा गुरुगा, छम्मासा हों तिलहुगगुरुगा य। छेदो मूलं च तहा, अणवठ्ठप्पो य पारंची / / 253 / / बितियादिसु चउलहुगादी पच्छित्ता, उप्पादगपदं ण भवति त्ति काउं। तावो मेदो अयसो, हाणी दंसणचरित्तणाणाणं / साधुपदोसो संसा-रवडणादी उदीरंते॥२५|| बितियपदमणप्पज्झे, ओदीरे वि कोविते व अपज्झे। नाणं ते वा विपुणो, विगिचणट्ठा उदीरेजा।।२५।। पूर्ववत् / नि० चू०५ उ०। खेत्तादिऽकोविओ वा, अनलविवेगट्ठया व जाणं पि। अहिगरणं तु करेत्ता, करेज सव्वाणि वि पयाणि / / क्षिप्तचित्तः आदिशब्दाद् दृप्तचित्तो, यक्षाविष्टो वा, अनात्मवशत्वादधिकरणं कुर्यात् / अकोविदो वा अद्याप्य-परिणतजिनवचनः शैक्षः, स अज्ञत्वादधिकरणं विदध्यात् / यद्वा-जानन्नपि गीतार्थोऽपीत्यर्थः / अनलस्य-प्रव्रज्याया अयोग्यस्य नपुंसकादेः कारणे दीक्षितस्यतत्कारणपरिसमाप्तौ विवेचनार्थं परिष्ठापनायतेन सहाधिकरणं Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिगरण 584- अभिवानराजेन्द्रः- भाग 1 अधिगरण (15) निर्ग्रन्थैर्व्यतिकृष्टमधिकरणं नोपशमनीयम् - ओहावणं व वेहासं, पदोसा जंतु काहिति। नो कप्पइ निग्गंथाणं वितिगिट्ठाई पाहुडाइं विउसमित्तए॥१०॥ मूलं ओहावणे होइ, वेहासे चरमं भवे // अस्य संबन्धमाह यद् यस्मात्प्रेषणे, कथने वा; प्रद्वेषादवधावनं करिष्यति। वेहायसं वा, वैहायसं नामोत्कलं वनम् / तत्रावधावने तेन कृते सति प्रेषयितुः वितिगिट्ठा समणाणं, अव्वितिगिट्ठा यहोइ समणीणं / कथयितुर्वा मूलं प्रायश्चित्तम्; वैहायसे चरमं पाराश्चिकमिति / मा पाहुडं पि एवं, भवेज सुत्तस्स आरंभो // अन्यञ्चव्यतिकृष्टा श्रमणानां दिग्भवति, अव्यतिकृष्टा श्रमणी तत्थऽन्नत्थन वा संवदेति मे न वि य नंदभाणेणं / नामित्यनन्तरसूत्रद्वयेऽभिहितमेव / तच्चाकर्ण्य मा प्राभृतमप्येवं नंदंति ते खलु मए, इति कलुसऽप्पा करे पावं / / भवेदित्येतदधिकृतसूत्रस्यारम्भः / अस्य व्याख्यानं कल्पते निर्ग्रन्थानां मम तत्रात्मीयसमीपे अन्यत्रैवेहागतस्य जन्मान्तरवैराद्वासन संवदति, व्यतिकृष्टानि क्षेत्रविकृष्टानि, प्राभूतानि कलहानित्यर्थः। नापि च मयि नन्दति ते नन्दन्ति, महाप्रद्वेषतोऽसुख-भावात् / ततो न विउसमितुमुपशमयितुम, किं तु यत्रोत्पन्नं न तत्रोपशमयितुं कल्पते। जन्मान्तरवैरिणः ते मम पृष्ठं मुञ्चन्तीति विचिन्त्य कलुषात्मा पापं कुर्यात् / इत्येष सूत्राक्षरार्थः। किं तत् ? इत्याहअत्र भाष्यप्रपञ्चः आदीवेज व वसहिं, गुरुणो अन्नस्स घाय मरणं वा। सेज्जासणातिरित्ते, हत्थादी घट्ट भायणाभेदे। कंडच्छारिउ लूसय-सहितो सयमुरस्स बलवं तु // वंदंतमवंदंते, उप्पज्जइ पाहुडं एवं // कण्डच्छारिओ नाम ग्रामो, ग्रामाधिपतिर्वा; लूषका वा सहायास्तेन शय्यासनातिरिक्ते, किमुक्तं भवति ? अतिरिक्तां शय्यामति-रिक्तानि सहितः, स्वयं वा औरसो बलवान्, वसतिमादीपयेत् गुरोरन्यस्य वा वाऽऽसनानि, परिग्रहे कुर्वति वार्यमाणे, यदि वा हस्तादि हस्तपादादिकं घातं, मारणं वा कुर्यात्। पादेन संघट्याऽऽक्रम्य क्षमयित्वा व्रजति, यद्वा कथमप्यनुपयोगतो ___ किं तत् ? इत्याहभाजनभेदे, अथवा पूर्व वन्दमाने पश्चादवन्दने प्राभृतं नाम जइ भासइ गणमझे, अवप्पयोगा व तत्थ गंतूण। कलहस्तदेवमुत्पद्यते। अवितोसमिए एत्था-गतो त्ति ते चेव ते दोसा।। अहिगरणसमुप्पत्ती, जावुत्ता पारिहारियकुलम्मि। यः प्रेषितो, यद्वा- अवप्रयोगाद् अन्येन कार्येण तत्र गत्वा गणमध्ये सम्ममणाउट्टते, अधिकरण तओ समुप्पञ्जो॥ सकलगणसमक्षं यदि भाषते, यथा- एषोऽधिकरणं कृत्वा येन उत्पत्तिसंभवे सति ततः सम्यगनावर्त्तमाने अधिकरणं समुत्पद्यते। सहाधिकरणमभूत्तस्मिन्नतोषिते अत्रागत इति, (ते इति) तस्यापित एव अहिगरणे उप्पन्ने, अवितोसवियम्मि निग्गयं समणं। प्रागुक्ता दोषाः। जेऽऽसाइज्जइ मुंजइ, मासा चत्तारि भारीया / / जम्हा एए दोसा, अविही पेसणे य कहणे य। अधिकरणे उत्पन्ने सति यैः सहाधिकरणमुदपादि, तस्मि-न्नवितोषिते तम्हा इमेण विहिणा, पेसण कहणं तु कायव्वं // निर्गतं श्रमणं य आसादयति प्रतिगृह्णाति स्वसत्तामात्रेण, यश्च तेन सह यस्मादविधिना प्रेषणे, कथने च एतेऽनन्तरोदिता दोषाः, तस्मादनेन भुक्ते, तस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो मासाः, भारिका गुरवः। वक्ष्यमाणेन विधिना प्रेषणं कथनं च कर्त्तव्यम्। सगणं परगणं वा वि, संकंतमवितोसिते। तमेव विधिमाहछेदादि वणिया सोही, नाणत्तं तु इमं भवे / / गणिणो अस्थि निम्मेयं, रहिते किचपेसितो। येन सहाधिकरणमुपजातं तस्मिन्नवितोषिते स्वगणं परगणं वा, गमेति तं रहे चेव, नेच्छे सहमहं खु तो // संक्रान्तमधिकृत्य या छेदादिका शोधिः पूर्वं कल्पाध्ययने वर्णिता अन्येन प्रयोजनेन प्रेषितः सत्त्वरहिते विविक्ते प्रदेशे, अथ निर्भेदं साऽत्रापि तथैव वक्तव्या; नवरमत्र यन्नानात्वं, तदेवं वक्ष्यमाणं तदधिकरणरहस्यं गणिन आचार्यस्य गमयति कथयति, क्रमे-णाचार्यस्तं भवति। तदेवाऽऽह कृताधिकरणं रहस्येव गमयति / यथा- त्वमित्थ-मित्थमधिकरणं कृत्वाऽत्र समागतो, न च स उपशमित इति / एवमुक्ते यदि स नेच्छेद्, मा देह हाणमेयस्स, पेसणे जइ तो गुरू। यथा- अहंनाधिकरणं कृत्वा समागतः, यस्त्विदं ब्रूते, तेन सहाऽहं (खु) चऊगुरू ततो तस्स, कहते वि चऊलहू // निश्चितमिति। अन्यत्र गतस्य यद्याचार्यः साधुसंघाट, संदेश वा प्रेषयति, गुरूसमक्खं गमितो, तहावि जइ नेच्छइ। यदेषोऽधिकरणं कृत्वा समागतो वर्तते, तस्मादेतस्य स्थानमा देहि इति; ताहे वि गणमज्झम्मि, भासते नातिनिठुरं / / तदा तस्य प्रायश्चित्तं चतुर्गुरु / ततः प्रेषणानन्तरं यस्य पार्श्वे सोऽन्यत्र एवं तस्यानिच्छायां स प्रयोजनान्तरव्याजेन प्रेषितो रहसि गतस्तस्य स प्रेषितो यदि कथयति, तदा तस्मिन्नपि प्रायश्चित्तं चतुर्लघु। गुरुसमक्षमधिकरणं कथशनापि तचित्तमनुप्रविश्य कथयति, यतस्तत्रेमे दोषाः यथा रोषं न विदधाति / तथा- गमितोऽपि यदि नेच्छति, Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिगरण 585 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अधिगरण ततः प्रहरदिवसाधतिक्रमेण प्रस्तावान्तरमारचय्य गणमध्ये तं भाषते, परं नातिनिष्ठुरम्। कथं तं भाषते ? इत्याह - गणस्स गणिणो चेव, तुमम्मी निग्गते तया। अधिती महती आसी, सो विवक्खो य तज्जितो॥ तदा तस्मिन्काले त्वयि अधिकरणं कृत्वा निर्गत समस्तस्यापि गणस्य, गणिनश्चाचार्यस्य महती अधृतिरासीत्। येन च सह तयाधिकरणमभूत. सोऽपि विपक्षो गणिना गणेन च तर्जितः। गणेण गणिणा चेव, सारेज तमझंपिणो। ताहे अन्नावदेसेण, विवेगो से विहिज्जइ॥ एवमुक्तानन्तरं तत्रत्येन गणेन गणिनाच स सम्यक्सारणीयः शिक्षणीयः, येन स्वदोषं प्रतिपद्य तत्र गत्वा विपक्ष क्षमयति / अथ स तथा सार्यमाणोऽकम्पितो नोपशमं नीतो दुःस्वभावत्वात्-ततोऽन्यापदेशेन तस्य विवेकः परित्यागो विधीयते। केनोपदेशेन ? इत्याहमहाजणो इमो अम्हं,खेत्तं पिन पहुप्पति। वसही सन्निरुद्धावा, वत्थपत्ता वि नत्थि णो॥ अयं साधुसाध्वीलक्षणो महान् जनोऽस्माकमेतावतां न चैतत् क्षेत्र प्रभवति, संकीर्णत्वात्। यदि वा वसतिः सन्निरुद्धा संकटा वर्तते, तत एतावन्तः साधवोऽत्र न मान्ति, अथवा वस्त्रपात्राण्यस्माकं संप्रति न सन्ति / अपिशब्दान्न चात्र तथाविधः शमोऽप्यस्ति, साधयोऽप्येतेऽतीवासहनाः, तस्मात् यूयमन्यत्र क्वापि गच्छत / यदि पुनः स सार्यमाण उपशममधिगच्छति, ततः स वक्ष्यमाणेन विधिनोपशमयितव्यः। तत्र प्रथमतोऽधिकरणोपशमनस्थानमाहसगणिपरगणिणा, समणुण्णेयरेण वा। रहस्सादिव उप्पण्णं, जं जहिं तं तहिं खवे / / स्वगणसक्तेन परगणसक्तेन वा तेनापि समनोज्ञेन सांभोगिकेनेतरेण वा सह रहसि वा, आदिशब्दादरहसि वा; यतो यत्राधिकरणमुत्पन्नं तत्तत्र क्षपयेदुपशमयेत्। तत्रोपशमनविधिमाहएक्को व दो व निग्गम, उप्पण्णं जत्थ तत्थ वोसमणं / गामे गच्छे दु गच्छे, कुलगणसंघे य बिइयपयं // एको वा, द्वौ वा, व शब्दात् त्रयो वा, चत्वारो वा, येऽधिकरणं कृत्वा निर्गतास्ते यत्र ग्रामे नगरे वाऽधिकरणमुत्पन्नं तत्रानीयन्ते, आनीय यैः | सहाधिकरणमभूत्तैः सह व्युपशमनं क्षामणं कार्यम् / तत्पुनरधिकरणमेकस्मिन् गच्छे, यदि वा द्वयोर्गच्छयोः, अथवा कुले, यदि वा गणे यदि वा संघे, समुत्पन्नं स्यात्, (बिइयपदमिति) अत्रापि द्वितीयपदमपवादपदम् / ततो वक्ष्यमाणकारणैर्विकृष्टमपि प्राभृतं वितोषयेत्। ततश्च वितोषणमग्रे भावयिष्यते। साम्प्रतमधिकरणमुत्पन्ने यथोपशमयितव्यं तथा चाऽऽहतं जेत्तिएहि दिटुं, तेत्तियमोत्ताण मेलणं काउं। गिहियाण व साहूण व, पुरतोऽज्जिय दोवि खामंति।। तदधिकरणमुत्पन्नं यावद्भिगृहस्थैः संयतैर्वा दृष्ट तावन्मात्राणां गृहस्थानां साधूनां च मीलनं कृत्वा तेषां पुरतो द्वावपि परस्पर क्षमयतः / कुलादिसमवाये यद्युत्पन्नं, ततः कुलादिसमवायं कृत्वा क्षमयतः / किं कारणम् ? यावन्मात्रैहिभिः संयतैर्वा दृष्टं तावतां मीलनं कृत्वा परस्परं क्षमयतः, तत्राऽऽहनवणीयतुल्लहियया, साहू एवं गिहिणो उ नाहिंति। न य दंडभया साहू, काहिंती तत्थ वोसमणं / / नवनीततुल्यहृदयाः साधवः,एवं गृहिणः, तुशब्दाद-भिनवशैक्षादयश्च ज्ञास्यन्ति / न च दण्डभयात्साधवोऽधिकरणे समुत्पन्ने व्युपशमनं करिष्यन्ति, किं तु कर्मक्षपणाय, एवं ज्ञास्यन्ति, एवंरूपा च प्रतिपत्तिः शुभोदयपरम्पराहेतुः; अतस्तावतां मीलनं कृत्वा परस्परं तौ क्षमयतः। संप्रति यदुक्तं 'बिइयपयमिति' तद्व्याख्यानार्थमाहबितियपदे वितिगिट्टे, वितोसवेज्जा उवद्विते बहुसो। बिइतो जइ न उवसमे, गतो य सो अन्नदेसेसु॥ द्वितीयपदे व्यतिकृष्टान्यपि प्राभृतानि वितोषयेदुपशमयेत् / कथम् ? इत्याह-येन सहाधिकरणं बहुशो बहून वारान् कृतं, तस्योपस्थितस्तं क्षमयति, स च क्षम्यमाणो द्वितीय उपशाम्यति। यदि नोपशमेत् अनुपशान्तश्व गतोऽन्यं देशं ततः - कालेण च उवसंतो, वजिज्जतो व अन्नमन्नेहिं / खीरादिसलद्धीण व, देवय गेलन्न पुट्ठो वा॥ तस्यान्यदेशं गतस्य बहुना कालेन गतेन तस्य कषायाः प्रतनवोऽभवन्, तत उपशान्तः। अथवा- अन्योन्यैः साधुभिः कृताधिकरण एव इति स्थानविवर्ण्यमान एवं स्वचेतसि संकथयति-यथा कषायदोषेणाऽहं स्थाने स्थाने विवय॑मानः, तस्मादलं कषायैरिति पुनरावृत्तिः, अथवा क्षीरादिसलब्धीनां क्षीराश्रवादिलब्धीनामुपदेशतः सममुपगतवान् देवतया शिक्षितः, यदि वा ग्लानत्वेन पृष्ठस्ततश्चिन्तयति- यदि कथमपि साधिकरणोऽप्रियोऽहं, ततः सापराधिको भवामि, तस्मात्तं गत्वोपशमयामि। एवं जातपुनरावृत्तिनायत्कर्तव्यं तदाहगंतुं खामेयव्वो, अहव न गच्छेजिमेहिं दोसेहि। नीयल्लग उवसम्गो, तहियं, वा तस्स होजंत॥ तेन जातपुनरावृत्तिना यत्रोत्पन्नमधिकरणं तत्र गत्वा शमयितव्यः / अथवा- एतैर्वक्ष्यमाणैर्दो रैस्तत्र न गच्छेद्यत्रोत्पन्नमधिकरणम् / कैर्दोषैः ? इत्यत आह-निजकाः स्वजनाः, तस्य तत्र विद्यन्त, ततस्तत्र गतस्य तैरुपसर्गः क्रियते। तथागामो उठ्ठिउ हुजा, अंतर वा जणवतो निण्हवगणं / अन्नं गता न तरई, अहवा गेलन्न पडिचरई॥ यत्र ग्रामेऽधिकरणमुत्पन्नं स ग्राम उत्थित उद्वशीभूतः, अथवा अन्तराज्जनादुत्थितो, यदि वा येन सममधिकरणमजायत, स निह्नवगणं प्रविष्टवान्। अन्यत्र गत इतरो वा ग्लानो जातस्ततोगन्तुंन शक्नोति। अथवा ग्लानं प्रतिचरति। अब्भुञ्जय पडिवज्जे, मिक्खादि अलंभ अंतर तहिं वा। Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिगरण 586 - अभिधानराजेन्द्रः-भाग 1 अधिगरण रायडुटुं ओमं, असिवं वा अंतर तहिं वा।। अथवा सोऽधिकृतः क्षमयितुमना अभ्युद्यतं विहारं प्रतिपत्तुकामो लग्नं प्रत्यासन्नं, ततो गन्तुं न शक्नोति / अथवा- अन्तराले तत्र वा यत्राधिकरणमुत्पन्नं, भिक्षाया अलाभो, यदि वाऽन्तरस्तत्र वा राजद्विष्टमवमौदर्यमशिवं वा। सबरपुलिंदादिभयं, अंतर तहियं च अहव हुजाहि। एएण कारणेणं, वचंतं कंपि अप्पाहे // अन्तरा तत्र वा शबरभयं पुलिन्दभयम्, आदिशब्दात् स्तेनम्लेच्छादिभयपरिग्रहः / भवेत्, त एतैः कारणैस्तत्र गन्तुमशक्नुवन् यः कोऽप्यन्यः श्रावको वा, सिद्धपुत्रो वा, मिथ्यादृष्टिा, तत्र भद्रको व्रजति, तं संदेशयति / यथाऽहमधुनोपशान्त एतैश्च कारण-रागन्तुमशक्तः, तस्मात्त्वमत्रागत्य मया सह क्षमणं कुरु। ततः संदेशे कथितेऽनेन यत्कर्त्तव्यं तदाहगंतूण सो वितहियं, सपक्खपरपक्खमेव मेलित्ता। खामेइ सो वि कजं, व दीहए आगतो जेण / / यस्य संदेशः कथापितः, सतत्र गत्वायैस्तदधिकरणं ज्ञातं सपक्षं परपक्ष च मेलयित्वा तं क्षमयति; सोऽपि च क्षम्यमाणो येन कारणेनागतस्तत्कारणं तस्य साक्षादीक्षयति कथयति। अह नत्थि को वि वचंतो, ताहे उवसमति अप्पणा। खामेइ जत्थ मिलती, अद्दिटे गुरुणंतियं काउं। अथ नास्ति कोऽपि तत्र व्रजन् यस्य संदेशः कथ्यते, तर्हि आत्मना स्वयमुपशाम्यति, सर्वथा मनसोऽधिकरणमुपशमपरायणतया स्फेटयति, ततो यत्र मिलति, तत्र क्षमयति। अथ न क्वापि मिलति, ततस्तस्मिन्नदृष्ट गुरूणामन्तिकं कृत्वा तं मनसि कृत्य क्षामणं करोति / व्य० 1 उ० / ('वसही' शब्दे साधुसाध्वीकलहे यतना ‘एकवगडा' प्रस्तावे द्रष्टव्या) (16) निर्ग्रन्थीभिर्व्यतिकृष्टमप्यधिकरणंव्युपशमनीयम् - कप्पइ निग्गंथीणं वितिविट्ठाइं पाहुडाई वितोसइत्तए। कल्पते निर्गन्थीनां व्यतिकृष्टानि कलहान वितोषयितुमुपशमयितुमित्येष सूत्राक्षरार्थः / संप्रति भाष्यप्रपञ्चःनिग्गंथीणं पाहुड, वितोसवियव्वं वितिगिट्ट। किह पुण होज उप्पण्णं? चेइयघरवंदमाणीणं / / चेइयथुतीण भणणे, उण्हे उ अण्णतो बहि अच्छंति / परितावियाम धणियं, कोइलसद्दाहिँ तुम्माहिं / / निर्ग्रन्थीनां प्राभृतं वितोषयितव्यमुपशमयितव्यं भवति व्यतिकृ-ष्टम्। शिष्यः प्राह-कथं केन प्रकारेण पुनस्तासामधिकरणमुत्पन्नं स्यात् ? सूरिराह-काश्चनाऽऽर्यिकाश्चैत्यवन्दनाय चैत्यगृहं गताः, तस्मिंश्च चैत्यगृहे बहिर्मुखमण्डपादिकं न समस्ति; तत-श्चैत्यगृहमध्यस्थिताः चैत्यानि वन्दन्ते, तासांचवन्दमानानां प्रथमस्तुतेरारभ्याऽन्याः काश्चन संयत्यः समागताः, ताश्च मध्ये अवकाशो नास्तीति बहिरुष्णे स्थिताः / ततो विस्तरेण चैत्यस्तुतीनां भणने ता बहिः स्थिताः उष्णेन परिताप्यमाना वदन्ति- युष्माभिः कोकिलाशब्दाभिर्धणियमतिशयेन वयं परितापिताः। नग्घंति नाडनाई, कलंऽपि कलभाणणीण तुम्हाण। विप्पगते भवतीणं, जायंते भयं नरवतीतो॥ युष्माकं कलभाननानां तु स्वरमनोज्ञाननानांपुरतः कलामपि मनागपि नाटकानि नार्हन्ति, ततो भवतीनां विप्रकृते कारणमजानानानामस्माकं भयं नरपतितो यद् यूयं नाटके प्रक्षेप्स्यध्वे। इति असहणउत्तेजित-मज्झत्था तो समंति तत्थेव। असुणाम सव्वगणभंडणे व गुरुसिद्विमा मेरा / / इत्येवमुपदर्शितेन प्रकारेणासहनाभिर्या उत्तेजिताः कोपं आहितानां मध्यस्थाः संयत्यस्तत्रेव शमयन्ति / न च तास्तद् भण्डनं कस्यापि श्रावितवत्यः / अथ मध्यस्थानां संयतीनामभावतो वेलावशाद्वा सर्वगणस्य भण्डनमभूत, तर्हि सर्वगणभण्डने स्वस्वगुरुशिष्टं कर्तव्यम्। ततस्तावुपशमयतः। अथ लज्जातो भयतो वा न स्वस्वगुरोर्निवेदितं तर्हि तत्रेयं मर्यादा एतदेवाऽऽहगणहरगमणं एगाऽऽयरियस्स दोन्नि वा वग्गा। आसन्नागम दूरे, च पेसणं तं च बितियपयं॥ समस्तस्यापि गणस्य भण्डने गते आत्मीयस्य समीपे गमनम्, अथवा एकस्याचार्यस्य संबन्धिनौ तो द्वावपि संयतवर्गी, तत एकस्य समीपे गच्छतः, ततः स एकस्तौ वा द्वौ गणधरौतदधिकरणं यत्र चैत्यगृहेऽन्यत्र चोत्पन्नं, तत्र द्वावपि वर्गों नीत्वा उपशमयतः / अथ लज्जादिना स्वस्वगुरोर्निवेदितमेकतरश्च पक्षो निर्गतः, तत आह- (आसन्नेत्यादि) यद्यासन्नं गतोऽपान्तराले च निर्भयं, ततः स आनाय्यते, अथ सापायं तर्हि तासांगणधर आगच्छति, आगत्य क्षमणं करोति। अथ दूरे गतस्तर्हि वृषभाणां प्रेषणं कर्त्तव्यम्, ततो वृषभाः समेत्य ताः संयतीः क्रमयन्ति। अथ द्वितीयपक्षो नोपशान्तस्ततः पुनरावृत्तौ जातायां पूर्वोक्तवदेवं प्रागुक्तं द्वितीय पदमवसातव्यम्; यत्र मिलन्ति तत्रैव क्षमयन्ति / अमिलने गुरूणामन्तिके इति। एतदेव मूलतः सविस्तरं विभावयिषुरिदमाहचेइयधरं नइत्ता, जत्थुप्पन्नं च तत्थ विज्झवणं / लज्ज भया व असिट्टे, दुवेगतरनिग्गम इमं तु / / स्वस्वगुरुनिवेदने कृतेतौ द्वावपि गुरूसंयतीवर्गद्वयमपिचैत्यगृहं नीत्वा, अथवा यत्रान्यत्रोत्पन्नमधिकरणं तत्र नीत्वाऽधिकरणस्य विध्यापनं कुरुतः। अथ लज्जया भयाद्वा गुरुणामशिष्टमभवत् / द्वयोश्च पक्षयोर्मध्ये एकतरस्य पक्षस्य निर्गमस्तत इदं कर्त्तव्यम् आसन्नमणायाए, अणवाएँ वा से गणहरा गम्म। जणनाय अभिक्खामण, आणाविजऽन्नहिं वा वि॥ यद्यासन्नं निर्भयं च ततस्ता निर्गताः संयत्यः स्वगणेन सह आनाय्यन्ते। अथ सापायं ततस्तासांगणधर आगच्छति, ततस्ताः संयत्य आनीताः, गणधरो वा एकक आगतो यत्र जनज्ञातं भण्डनमभूत्, तत्रानाय्यन्ते। अन्यत्र वा आनाय्यपरस्परमभिक्षमणं कार्यम् / अथ दूरे गतास्तर्हि वृषभाः समागत्य संयतीःक्षमयन्ति। व्य०७ उ०॥ तथा Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिगरण 587- अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अधिगरण या! साहिगरणं निग्गंथं निग्गंथे गिण्हमाणे वा अगिण्हमाणे वा नातिकमइ॥ अस्य व्याख्या प्राग्वत्। अत्र भाष्यम् - उप्पन्ने अहिगरणे, ओसमणं दुविहऽतिक्कम दर्छ। अणुसासणभासनिलं-मणा य जो तीऍ पडिवक्खो। संयत्या गृहस्थेन सममधिकरणे उत्पन्ने द्विविधमतिक्रमं दृष्ट्वा तस्याधिकरणस्य व्यवशमनं कर्तव्यम् / किमुक्तं भवति ?-स गृहस्थोऽनुपशान्तः सन् तस्याः संयत्याः संयमभेदं, जीवितभेदं चेति द्विविधमतिक्रमं कुर्यात्। तत उपशमितव्यमधिकरणम्। कथम् ? इत्याहयस्तस्याः संयत्याः प्रतिपक्षो गृहस्थस्तस्य प्रथमतः कोमलवचनैरनुशासनं कर्तव्यम् / तथाऽप्यतिष्ठति भाषणं तापनं कर्तव्यम् / तथाऽप्यभिभवतो निरुम्भणं, यस्य या लब्धिस्तेन तया निवारणं कर्तव्यम्। बृ०६ उ०॥ (17) साधिकरणेनाऽकृतप्रायश्चित्तेन सहन संभोगः कार्यः! जे भिक्खू साहिगरणं अविओसमियपाहुडं अकडपच्छित्तं परं तिरायाओ विप्फालियं अविप्फालियं संभुजइ, संभुजंतं वा साइजइ // 15 // जदि णिद्देस, भिक्खू पुव्ववण्णितो सहाधिकरणः कषायभावशुभभावाधिकरणसहित इत्यर्थः / विविधं विविधेहिं वा पगारेहिं विउसमियं उवसामियं। किं तं? पाहुडं, कलहमित्यर्थः / ण विओसमियं अविओसमियं, पाहुडं, तम्मि पाहुडकरणे जं पच्छित्तं, जेण सो कडपच्छित्तो। "अमानोनाः प्रतिषेधे' न कृतं प्रायश्चित्तं अकृतप्रायश्चित्तं, जो तं संभुंजणसंभोएण संभुंजति, एगमंडलीए, संभुंजइ ति वुत्तं भवति,अहवा दाणग्गहेण संभोएण भुजति तस्स चउगुरुगा आणादिणा य दोसा। नि०चू०४ उ०। (18) अथदण्डकक्रमेणाऽधिकरण्यधिकरणद्वयनिरूपणा-याऽऽहजीवे णं भंते ! अहिगरणी, अहिगरणं ? गोयमा ! जीवे अधिगरणी। वि, अधिगरणं वि।से केणटेणं भंते ! एवं वुचइजीवे अधिगरणी वि, अधिगरणं वि? गोयमा! अविरतिं पडच से तेणटे णं जाव अधिगरणी वि अधिगरणं पिणेरइएणं भंते ! किं अधिगरणी, अधिगरणं? गोयमा! अधिगरणी वि, अधिगरणं | पि। एवं जहेव जीवे तहेवणेरइए वि,एवं णिरंतरं जाव वेमाणिए। (जीवे णमित्यादि)। (अहिगरणी वि त्ति) अधिकरणं दुर्गतिनिमित्तं वस्तु, तच्च विवक्षया शरीरमिन्द्रियाणि च, तथा बाह्यो हलगन्त्र्यादिपरिग्रहः, तदस्यास्तीत्यधिकरणी जीवः / (अहिगरणं पि त्ति) शरीराद्यधिकरणेभ्यः कथञ्चिदव्यतिरिक्त-त्वादधिकरणं जीवः / एतच्च द्वयं जीवस्याविरतिं प्रतीत्योच्यते; तेन यो विरतिमानसः शरीरादिभावेऽपि नाधिकरणी, नाप्यधिकरणम्, अविरतियुक्तस्यैव शरीरादेरधिकरणत्वादिति। एतदेव चतुर्विशतिदण्डके दर्शयति-(नेरइए इत्यादि) अधिकरणी जीव इति प्रागुक्तम्। सच दूरवर्तिनाऽप्यधिकरणेन स्यात्, यथा- गोमान् / इत्यतः पृच्छति जीवे णं भंते ! किं साहिगरणी, णिरहिगरणी? गोयमा ! साहिगरणी, णो णिरहिगरणी। से केणटेणं पुच्छा? गोयमा ! अविरतिं पडुच, से तेण?णं जाव णो णिरहिगरणी। एवं जाव वेमाणिए। (साहिगरणि ति) सह सहभाविनाऽधिकरणेन शरीरादिना वर्तत इति समासान्त-इन-विधेः साधिकरणी। संसारिजीवस्य शरीरेन्द्रियरूपाधिकरणस्य सर्वदैव सहचरितत्वात्साधिकरण-त्वमुपदिश्यते। शस्त्राद्यधिकरणापेक्षया तु स्वस्वामिभावस्य तदविरतिरूपस्य सह वर्तित्वाञ्जीवः साधिकरणीत्युच्यते / अत एव वक्ष्यति-(अविरइं पडुच्च त्ति) अत एव संयतानां शरीरा-दिसद्भावेऽप्यविरतेरभावान्न साधिकरणित्वम् / (निरहिगरणि त्ति) निर्गतमधिकरणमस्मादिति निरधिकरणी। समासान्तविधेर-धिकरणदूरवर्तीत्यर्थः। स च न भवति, अविरतेरधिकरणभूताया अदूरवर्त्तित्वादिति / अथवा-सहाधिकरणिभिः पुत्रमित्रादिभिर्वर्तत इति साधिकरणी / कस्यापि जीवस्य पुत्रादीनामभावेऽपि तद्विषयविरतेरभावात्साधिकरणित्वमवसेयम् / अत एव नो निरधिकरणीत्यपि मन्तव्यमिति। अधिकरणाधिकारादेवेदमाहजीवे णं भंते ! किं आयाहिगरणी, पराहिगरणी, तदुभयाहिगरणी ? गोयमा ! आयाहिगरणी वि, पराहिगरणी वि, तदुभयाहिकरणी वि। से केणटेणं भंते ! एवं वुइ० जाव तदुभयाहिगरणी वि? गोयमा ! अविरतिं पडुच्च, से तेणटेणं जाव तदुभयाहिगरणी वि। एवं जाव वेमाणिए। (आयाहिगरणि त्ति) अधिकरणी कृष्यादिमान्, आत्म-नाऽधिकरणी आत्माधिकरणी / ननु यस्य कृष्यादि नास्ति स कथमधिकरणी ? इत्यत्रोच्यते-अविरत्यपेक्षया, इत्यत एवाऽविरतिं प्रतीत्येति वक्ष्यति। (पराहिगरणि त्ति) परतः परेषामधिकरणे प्रवर्तनेनाधिकरणी पराधिकरणी, (तदु-भयाहिगरणि ति) तयोरात्मपरयोरुभयं तदुभयं, ततोऽधिकरणीयः स तथेति। अथाधिकरणस्यैव हेतुप्ररूपणायाऽऽहजीवे णं भंते ! अधिगरणे किं आयप्पओगणिव्वत्तिए, परप्पओगणिय्वत्तिए, तदुभयप्पओगणिव्वत्तिए ? गोयमा ! आयप्पओगणिव्वत्तिए वि, परप्पओगणिव्वत्तिए वि,तदुभयप्पओगणिव्वत्तिए वि। से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ ? गोयमा ! अविरतिं पडुच,से तेणटेणं जाव तदुभयप्पओगणिव्वत्तिए वि। एवं जाव वेमाणियाणं। (आयप्पओगणिव्वत्तिए त्ति) आत्मनः प्रयोगेण मनः-प्रभृतिव्यापारेण निर्वर्तितं निष्पादितं यत्तत्तथा / एवमन्यदपि द्वयम् / ननु यस्य वचनादिपरप्रवर्तनवस्तु नास्ति तस्य कथं परप्रयोग-निर्वर्तितादि भविष्यति ? इत्याशङ्कामुपदर्य परिहरन्नाह-(से केण- मित्यादि) अविरत्यपेक्षया त्रिविधमप्यस्तीति भावनीयमिति। अथ शरीराणामिन्द्रियाणां योगानां च निर्वर्तनायां जीवादे रधिकरणित्वादिप्ररूपयन्निदमाहजीवेणं भंते! ओरालियसरीरं णिव्वत्तिएमाणे किं अधिकरणी, Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिगरण ५८८-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अधिटुंत अधिगरणं? गोयमा! अधिगरणी वि, अधिगरणं पि।सेकेणटेणं अ(आ)धि(हि)गरणिया-स्त्री०(आधिकरणिकी) अधिक्रियतेस्थाप्यते भंते ! एवं वुचइ- अधिगरणी वि, अधिगरणं पि ? गोयमा ! | नरकादिष्वात्मा येन तदधिकरणमनुष्ठान-विशेषो बाह्यं वस्तु अविरतिं पडुच, से तेणद्वेणं जाव अहिगरणी वि, अधिगरणं पि। चक्रखड्गादि, तत्र भवा, तेन वा निर्वृत्ता, आधिकरणिकी। प्रज्ञा०२१ पुढवीकाइए णं मंते ! ओरालियसरीरं णिव्वत्तिएमाणे किं पद। खगादिनिर्वर्तनलक्षणे क्रियाभेदे, स०७ समा स्था०। अहिगरणी, अधिगरणं ? एवं चेव, एवं जाव मणुस्से / एवं ___ अस्या भेदाःवेउव्वियसरीरं पि, णवरं जस्स अस्थि / जीवे णं भंते ! अहिगरणिया णं भंते। किरिया कइविहा पण्णत्ता ? मंडियआहारगसरीरं णिव्वत्तिएमाणे किं अधिगरणी पुच्छा? गोयमा! अधिगरणी वि, अधिगरणं पि।सेकेणटेणं जाव अधिगरणं पि? पुत्ता ! दुविहा पण्णत्ता / तं जहा- संजोयणा-हिगरणकिरिया गोयमा ! पमादं पडुच्च, से तेण?णं जाव अधिगरणं पि / एवं य, निव्वत्तणाहिगरणकिरिया य॥ मणुस्से वि / तेया सरीरं जहा ओरालियं; णवरं सव्वजीवाणं (संजोयणाहिगरणकिरिया यत्ति) संयोजन हलगरविषकूटयन्त्राद्यङ्गानां भाणियव्वं / एवं कम्मगसरीरं पि। पूर्वनिर्वर्तितानां मीलनं, तदेवाधिकरणक्रिया संयोजनाधिकरणक्रिया। (अहिगरणी वि अहिगरणं पित्ति) पूर्ववत् / (एवं चेव त्ति) अनेन (णिव्वत्तणाहिगरणकिरिया य त्ति) निर्वर्तनमसिशक्तितोमरादीनां जीवसूत्राभिलापः पृथिवीकायिकसूत्रे समस्तो वाच्य इति दर्शितम्। (एवं निष्पादनं, तदेवाधिकरणक्रिया निर्वर्तनाधिकरणक्रिया। भ०३ श०३ वेउव्वीत्यादि) व्यक्तम्। (नवरं जस्स अत्थित्ति) इह तस्य जीवपदस्य उ०। अधिकरणक्रिया द्विधा-अधिकरणप्रवर्त्तना, अधिकरणनिर्वर्तना वाच्यमिति शेषः। तत्र नारकदेवानां वायोः पञ्चेन्द्रियतिर्यड्मनुष्याणांच च। तत्र निर्वर्त-नेनाधिकरणक्रिया द्विविधा मूलगुणनिर्वर्तनाधिकरणतदस्तीति ज्ञेयम् / (पमायं पडुच त्ति) इहाहारकशरीरं संयमवतामेव क्रिया, उत्तरगुणनिर्वर्तनाधिकरणक्रिया च / तत्र मूलगुणनिर्वर्तनाधिभवति / तत्र चाविरतेरभावेऽपि प्रमादादधिकरणित्वमवसेयम् / करणक्रिया-पञ्चानां शरीरकाणां निर्वर्तनम् / उत्तरगुणनिर्वर्तनादण्डकचिन्तायां चाहारकं मनुष्यस्यैव भवतीत्यत उक्तम्- (एवं मणुस्से धिकरणक्रिया-हस्तपादाङ्गोपाङ्गानां निर्वर्तनम् / अथवा मूलगुणवित्ति) निर्वर्तनाधिकरणक्रिया-असिशक्तिभिण्डिपालादीनां निर्वर्तनम् / जीवे णं भंते ! सोइंदियं णिव्वत्तिएमाणे किं अधिगरणी, संयोजनाधिकरणक्रिया-तेषां वियुक्तानां संयोजनमिति / अथवा संयोगः अधिगरणं / एवं जहेव ओरालियसरीरं तहेव सोइंदियं पि विषगरहलकूडधनुर्यन्त्रादीनां, निर्वर्तनाधिकरण-क्रिया शर्यलकेण भाणियव्वं, णवरं जस्स अस्थि सोइंदियं / एवं सोइंदियं कालकूटमुद्रादीनाम्। कूटपाशनिवृत्त क्रियाभेदे च। आ०चू०४ अ०| चक्खिदियं घाणिंदियजिब्मिदिय-फासिंदियाणि विजाणियव्वं; अधि(हि)गरणी-स्त्री०(अधिकरणी) कर्मारोपकरणविशेषे, यत्र जस्स जं अस्थि / जीवे णं मंते ! मणजोगे णिव्वत्तेमाणे किं लोहकारा अयोधनेन लोहानि कुट्टयन्ति / भ०६ श०१ उ०। अधिगरणी, अधिगरणं ? एवं जहेव सोइंदियं तहेव तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे. जाव पञ्जवासमाणे एवं णिरवसेसं / वइजोगं एवं चेव, णवरं एगिंदियवजाणं / एवं वयासी-अस्थि णं भंते ! अधिकरणम्मि वाउयाए वइक्कमइ ? कायजोगे वि, णवरं सव्वजीवाणं जाव वेमाणिए / सेवं मंते ! हंता अत्थिा से भंते ! किं पुढे उद्दाइ, अपुढे उद्दाइ ? गोयमा! भंते ! त्ति। भ०१६ श०१ उ०। पुढे उद्दाइ,णो अपुढे उद्दाइ। से भंते ! किं ससरीरी णिक्खमइ, अधिक्रियते प्राणिदुर्गतावनेनेति अधिकरणम् / दानेनाऽसंयतस्य असरीरी णिक्खमइ? एवं जहा खंदए जाव से तेणट्टेण जावणो सामर्थ्यपोषणतः पापारम्भप्रवर्तने, हा०२७ अष्ट० / आधारे, असरीरी णिक्खमइ। व्याकरणशास्त्रे- "कर्तृकर्मव्यवहितामसाक्षाद्धारयेत् क्रियाम्। उपकुर्वत् (अस्थि त्ति) अस्त्ययं पक्षः, (अहिगरणमिति) आधिकरण्यं, (वाउयाए क्रियासिद्धौ, शास्त्रेऽधिकरणं स्मृतम्" // 1 // इति हरिपरिभाषिते अधिकरणसंज्ञके कर्तृकर्मद्वाराक्रियाश्रये कारके, यथा- गेहे स्थाल्यामन्नं त्ति) वायुकायः, (वइक्कमइ ति) व्युत्क्रामति अयोधनाभिघातेनोत्पद्यते, पचतीत्यादौ गृहस्य कर्तृद्वारा, स्थाल्याश्च कर्मद्वारा, परम्परया अयञ्चाक्रान्तसंभवत्वेनादावचेत-नतयोत्पन्नोऽपि पश्चात् स पाकक्रियाश्रयत्वाद् गृहादेः / वाचा चेतनीभवतीति संभाव्यत इति। उत्पन्नश्च सन् म्रियत इति प्रश्नयन्नाह "से भंते' इत्यादि। (पुढे त्ति) स्पृष्टः स्वकायशस्त्रादिना सशरीरश्च अधि (हि) गरणकिरिया-स्त्री०(अधिकरणक्रिया) अधिक कलेवरान्निष्कामति कार्मणाद्यपेक्षया औदारिकाद्यपेक्षया त्वशरीरीति। रणविषयिका क्रिया अधिकरणक्रिया / कलहविषयके व्यापारे, अधिकरणक्रिया द्विविधा- निर्वर्त्तनाधिकरणक्रिया, संयोजना भ०१६ श०१ उ०। धिकरणक्रिया च / तत्राद्या- खड्गादीनां तन्मुष्ट्यादीनां निर्वर्तन अधि(हि)गार-पुं०(अधिकार) अधि-कृ-घञ्। ओघतः प्रपञ्चप्रस्तावे, लक्षणा। द्वितीया तु-तेषामेव सिद्धानां संयोजनलक्षणेति / अथवा "अहिगारो पुवुत्तो चउदिवहो बिइयचूलिय-ज्झयणं' / दश०१ अ०| प्राणिनां दुर्गत्यधिकारित्वकारणे, क्रियामात्रे च / "अहिगरण- प्रयोजने, “अहिगारो इह तुमो एणं''। व्य०६ उ० / नि०चूला व्यापारे; किरियापवत्तगा बहुविहं अनत्थं अवमई अप्पणो परस्स य करेंति" "अहिगारो तस्स विजएणं'। आचा०१ श्रु०२ अ०१ उ०। प्रश्न०२ आश्र०द्वान अधि(हि)टुंत-त्रि०(अधितिष्ठत्) निवसति, नि०चू०१२ उ०। Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिट्ठावण 589 - अभियानराजेन्द्रः - भाग 1 अधेकम्म अधि(हिट्ठावण-न०(अधिस्थापन) संनिषद्यावेष्टित एव | निजं भावमध्यवसायं यस्मादाधाकर्म भुञ्जानः साधुरधः करोति, हीनेषु रजोहरणादेरुपवेशने, "जे भिक्खू रयहरणं अहिद्वेइ, अहिट्ठतं वा | हीनतरेषु स्थानेषु विधत्ते / तस्मात्तदाधाकर्म भावाधःकर्म भावस्य साइजई" / नि०चू०५ उ०॥ परिणामस्य संयमादिसंबन्धिषु शुभेषु शुभतरेषु स्थानेषु वर्तमानस्य अधः अधि(हि)टेइत्ता-अव्य०(अधिष्ठाय) ममेदमिति गृहीत्वेत्यर्थे, नि०चू०१२ अधस्तनेषु हीनेषु हीनतरेषु स्थानेषु कर्म क्रिया यस्मात्-तद् उ। भावाधःकर्मेति व्युत्पत्तेः। अधि(हि) मासग-पुं०(अधिमासक) अभिवर्द्धितवर्षद्वादशभागे, "एस एनामेव गाथां भाष्यकृद् गाथात्रयेण व्याख्यानयति अभिवड्डियवरिसबारसभागो अधिमासगो / जो पुण ससिसूरगति- तत्थाणंता चारित्तपज्जवा हति संयमट्ठाणं। विसेसणिप्पण्णो अधिमासगो अउणतीसं दिणा विसतिभागा य बत्तीसं संखाईयाणि उ ताणि कंडगं होइ नायव्वं // 98|| भवंति' / नि०चू०२० उ०। संखाईयाणि उ कंडगाणि छट्ठाणगं विणिद्दिटुं। अधि(हि)मुत्ति-स्त्री०(अधिमुक्ति) शास्त्रश्रद्धावति, द्वा०२३द्वा० छट्ठाणा उ असंखा, संयमसेढी मुणेयव्वा ||Bell अधि(हि)वइ (ति)-पुं०(अधिपति) प्रजानामतीव सुरक्षके, व्य०१ उ०। किण्हाइया उलेसा, उक्कोसविसुद्धठिइविसेसा उ। एएसि वि सुद्धाणं, अप्पं तग्गाहगो कुणइ॥१००।। अधीमहि अव्य०(अधीमहि) अस्यापत्यं इ:-कामः / तस्य मह्यः कामिन्यः, ता अधिकृत्य-अधीमहि / स्त्रियोऽधिकृत्येत्यर्थे, "भर्गो दे इह सर्वोत्कृष्टादपि देशविरतिविशुद्धिस्थानाद् जघन्यमपि वस्यधीमहि " गायत्री। वसतीति वसो विच्प्रत्यये रूपम् / क्व वसि ? सर्वविरतिविशुद्धिस्थानमनन्तगुणता च सर्वत्रापिषट्स्थान-कचिन्तायां इत्याकाङ्खायामाह- अधीमहि, स्त्रीषु तिष्ठमाने स्त्र्यायत्तात्मनी सर्वजीवानन्तकप्रमाणेनगुणकारेण द्रष्टव्या।इयं चात्र भावना-जधन्यमपि त्याशयः। जै०गा। सर्वविरतिविशुद्धिस्थानं केवलिप्रज्ञाच्छेदकेन छिद्यते, छित्त्वा च निर्विभागा भागाः सर्वसंकलनया परिभा-व्यमानाः सर्वोत्कृष्टदेशअधीरपुरिस-पुं०(अधीरपुरुष) अबुद्धिमति पुरुषे, उत्त० 6 अ०। विरतिविशुद्धिस्थानगता निर्विभागा भागाः सर्वजीवानन्तकरूपेण अधुव-पुं०(अध्रुव) यः पुनरायत्यां कदाचिद्व्यवच्छेदं प्राप्स्यति, स गुणकारेण गुण्यमाना यावन्तो जायन्ते, तावत्प्रमाणाः प्राप्यन्ते / भव्यसंबन्धी यो बन्धः, सध्रुवबन्धः। क०५ कर्म०। अत्राप्ययं भावार्थ:- इह किल असत्कल्पनया सर्वोत्कृष्ट स्य अधे(हे)कम्म-न०(अधःकर्मन) अधोगतिनिबन्धनं कर्म अधः-कर्म / देशविरतिविशुद्धिस्थानस्य निर्विभागाभागाः 10,000 दशसहस्राणि, आधाकर्मणि। तथाहि-भवति साधूनामाधाकर्मभुजानाना-मधोगतिः, सर्वजीवानन्तकप्रमाणश्च राशिः शतम् (100) / ततस्तेन शतसंख्येन तन्निबन्धनप्राणातिपाताद्याश्रवेषु प्रवृत्तेः / अस्य निक्षेपः- अधःकर्म सर्वजीवानन्तकप्रमाणेन राशिना दशसहस्रसंख्याः सर्वोत्कृष्टदेशविरचतुर्दा / तद्यथा- नामाधःकर्म, स्थापनाधःकर्म, द्रव्याधःकर्म, तिविशुद्धिस्थानगता निर्विभागा भागा गुण्यन्ते, जातानि 10,00,000 भावाधःकर्म च / एतचाधाकर्मवत्तायद्वक्तव्यं यावन्नो-आगमतो दशलक्षाणि / एतावन्तः किल सर्वजघन्यस्यापि सर्वविरतिविशुद्धिभव्यशरीररूपं द्रव्याधःकर्म। ज्ञशरीरभव्यशरीव्यतिरिक्तं तु द्रव्याधःकर्म स्थानस्य निर्विभागा भागा भवन्ति / संप्रति सूत्रमनुश्रीयते-तत्र तेषु नियुक्तिकृदाह संयमस्थानादिषु वक्तव्येषु, प्रथमतः संयमस्थानमुच्यत इति शेषः / जं दव्वं उदगाइसु, छूढमहे वयइ जंच भारेण / अनन्ता अनन्तसंख्याः पाश्चात्यसंकलनया दशलक्षप्रमाणाः, ये सीईए र एण व, ओयरणं दव्वऽहेकम्मं ||6|| चारित्रपर्यायाः सर्वजघन्यचारित्रसत्कविशुद्धिस्थानगता निर्विभागा यत्किमपि द्रव्यमुपलादिकमुदकादिषु उदकदुग्धादिषु मध्ये-क्षिप्तं सत् | भागास्ते समुदिताः संयमस्थानम्, अर्थात्सर्वजघन्यभावं प्राप्नुवन्ति। भारेण स्वस्य गुरुतया अधो व्रजति तथा(जं चेति) यच्च (सीईए त्ति) तस्मादनन्तरं यद् द्वितीयं संयमस्थानं, तत् पूर्वस्मादनन्तभागनिःश्रेण्या रज्या वा अवतरणं पुरुषादेः कूपादौ, मालादेर्वा भुवि, तद् वृद्धम् / किमुक्तं भवति ? प्रथमसंयमस्थानगतनिर्विभागभागापेक्षया अधोऽधोव्रजनमवतरणं वा द्रव्याधःकर्म / द्रव्यस्योपलादेरधो- द्वितीयसंयमस्थाने निर्विभागा भागा अनन्ततमेन भागेनाधिका ऽधस्तानमनरूपमवतरणरूपं वा कर्म द्रव्याधःकर्मेति व्युत्पत्तेः। भवन्तीति / तस्मादपि यद् अनन्तरं तृतीयं तत्ततोऽनन्तभागवृद्धम् / एवं संप्रति भावाधःकर्मणोऽवसरः,तच द्विधा- आगमतो, नोआगमतश्च / पूर्वस्मादुत्तरोत्तराणि अनन्ततमेन भागेन वृद्धानि निरन्तरं संयमस्थानानि तत्र आगमतोऽधःकर्म शब्दार्थज्ञानात,तत्रचोपयुक्तो, नोआगमत आह- तावद्वक्तव्यानि यावदङ्गुलमात्रक्षेत्रासंख्येयभाग गतप्रदेशराशिप्रमाणानि संजमठाणाणं कंडगाण लेसाठिईविसेसाणं। भवन्ति / एतावन्ति च समुदितानि स्थानानि कण्डकमित्युच्यते। तथा भावं अहे करेई, तम्हा तं भावऽहेकम्मं / / 67 चाऽऽह-संख्यातीतानि असंख्येयानि।तुः पुनरर्थे। तानि संयमस्थानानि, कण्डकं भवति ज्ञातव्यम्। कण्डकं नाम समयपरिभाषया अगुलमात्रसंयमस्थानानां वक्ष्यमाणानां कण्डकानां संख्यातीतसंयमस्थानसमुदायरूपाणाम्, उपलक्षणमेतत् षट्स्थानकानां संयम क्षेत्रासंख्येयभागगतप्रदेशराशिप्रमाणा संख्या विधीयते। श्रेणेश्च। तथा लेश्यानां, तथा सातवेदनीयादिरूपशुभप्रकृतीनां संबन्धिनां तथा च भाष्ये उक्तम्स्थितिविशेषाणां च संबन्धिषु विशुद्धेषु विशुद्धतरेषु स्थानेषु वर्तमानं सन्तं __ "कंडंति इत्थ भन्नइ, अंगुलभागो असंखेजो"। Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधेकम्म ५९०-अभिधानराजेन्द्रः-भाग 1 अबेकम्म अरमाच कण्डकात्परतो यदन्यदनन्तरं संयमस्थानं भवति, तत् पूर्वस्मादसंख्येयभागाधिकम् / एतदुक्तं भवति- पाश्चात्यकण्डकसत्कचरमसंयमस्थानगतनिर्विभागभागापेक्षया कण्डकादनन्तरे संयमस्थाने निर्विभागा भागा असंख्येयतमेन भागेनाधिकाः प्राप्यन्ते, ततः पराणि पुनरपि कण्डकमात्राणि संयमस्थानानि यथोत्तरमनन्तभागवृद्धानि भवन्ति / ततः पुनरेकमसंख्येय-भागाधिकं संयमस्थानं, ततो भूयोऽपि, ततः पराणि कण्डकमात्राणि संयमस्थानानि यथोत्तरमनन्तभागवृद्धानि भवन्ति। ततः पुनरप्येकमसंख्येयभागाधिकं संयमस्थानम् एवमनन्तभागाधिकैः कण्डकप्रमाणैः संयमस्थानैर्व्यवहितानि असंख्येयभागाधिकानि संयमस्थानानि तावद्वक्तव्यानि यावत्तान्यपि कण्डकमात्राणि भवन्ति / ततश्चरमादसंख्येयभागाधिक-संयमस्थानात्पराणि यथोत्तरमनन्तभागवृद्धानि कण्डकमात्राणि संयमस्थानानि भवन्ति। ततः परमेकं संख्येयभागादिकं संयमस्थानम्, ततो मूलादारभ्य यायन्ति संयमस्थानानि प्रागतिक्रान्तानि तावन्ति भूयोऽपि तेनैव क्रमेणाभिधाय पुनरप्येकं संख्येयभागाधिकं संयमस्थानं वक्तव्यम् / इदं द्वितीयं संख्येयभागाधिकं संयमस्थानम्। ततोऽनेनैव क्रमेण तृतीयं वक्तव्यम्। अमूनि चैवं संख्येयभागाधिकानि स्थानानि तावद् वक्तव्यानि यावत्कण्ड कमात्राणि भवन्ति / तत उक्तक मेण भूयोऽपि संख्येयभागाधिकसंयमस्थानप्रसंगे संख्येयगुणा-धिकमेकं संयमस्थानं वक्तव्यम् / ततः पुनरपि मूलादारभ्य यायन्ति संयमस्थानानि प्रागतिक्रान्तानि तावन्ति भूयोऽपि तत्रैव वक्त-व्यानि / ततः पुनरप्येकं संख्येयगुणाधिकं संयमस्थानं वक्तव्यम् / ततो भूयोऽपि मूलादारभ्य यावन्ति भवन्ति संयमस्थानानि तावन्ति तथैव वक्तव्यानि / ततः पुनरप्येकं संख्येयगुणाधिकं संयमस्थानं वक्तव्यम् / अमून्यप्येवं संख्येणगुणाधिकानि संयमस्थानानि तावद्वक्तव्यानि यावत्कण्डकमात्राणि भवन्ति। तत उक्त क्रमेण पुनरपि संख्येयगुणाधिकसंयमस्थानप्रसंगे असंख्येयगुणाधिकं संयमस्थानं वक्तव्यम्। ततः पुनरपि मूलादारभ्य यावन्ति संयमस्थानानि प्रागतिक्रान्तानि, तावन्ति तेनैवक्रमेण भूयोऽपि वक्तव्यानि। ततः पुनरप्येकमसंख्येयगुणाधिकं संयमस्थानं वक्तव्यम्। ततो भूयोऽपि मूलादारभ्य तावन्ति संयमस्थानानि तथैव वक्तव्यानि / ततः पुनरप्ये-कमसंख्येयगुणाधिकसंयमस्थानं वक्तव्यम् / यावन्ति अमूनि चेव संख्येयगुणाधिकसंयमस्थानानि तावन्त्यसंख्येयगुणाधिकसंयमस्थानानि तावद्वक्तव्यानि यावत्कण्डकमात्राणि भवन्ति / ततः पूर्वपरिपाट्या पुनरप्य-संख्येयगुणाधिकसंयमस्थानप्रसंगे अनन्तगुणाधिकं संयमस्थानं वक्तव्यम् / ततः पुनरपि मूलादारभ्य थावन्ति संयमस्थानानि प्रागतिक्रान्तानि, तावन्ति तथैव क्रमेण भूयोऽपि वक्तव्यानि / ततः पुनरप्येकमनन्तमुणाधिकं संयमस्थानं वक्तव्यम्। ततो भूयोऽपि मूलादारभ्य तावन्ति संयमस्थानानि तथैव वक्तव्यानि। ततः पुनरप्येकमनन्तगुणाधिकं संयमस्थानं वक्तव्यम् / एवमनन्तगुणाधिकानि संयमस्थानानि तावद्वक्तव्यानि यावत्कण्डकमात्राणि भवन्ति / ततो भूयोऽपि तेषामुपरि पञ्चवृक्षात्मकानि संयमस्थानानि मूलदारभ्य तथैव वक्तव्यानि। यत्पुनरनन्तगुणवृद्धिस्थानं, तन्नप्राप्यते, षट्स्थानकस्य परिसमाप्तत्वात् / इत्थंभूतान्यसंख्येयानि कण्डकानि समुदितानि षट्स्थानकं भवति। तथा चाऽऽहभाष्यकृत् - "संखाईयाणि उ कंडगाणि छट्ठाणगं विणिदिव' सुगमम् / अस्मॅिश्च षट्स्थानके षोढा वृद्धिरुक्ता। तद्यथा-अनन्तभागवृद्धिः, असंख्यातभागवृद्धिः, संख्यातभागवृद्धिः, संख्येयगुणवृद्धिः; असंख्येयगुणवृद्धिः, अनन्तगुणवृद्धिश्च। तत्र यादृशोऽनन्ततमो भागोऽसंख्येयतमः संख्येयतमो वा गृह्यते; यादृशस्तु संख्ये-योऽसंख्येयोऽनन्तो वा गुणकारः स निरूप्यते-तत्र यदपेक्षया अनन्तभागवृद्धिता तस्य सर्वजीवसंख्याप्रमाणेन राशिना भागो हियते, हृते च भागे लब्धः सोऽनन्ततमो भागः। तेनाधिकमुत्तरं संयमस्थानम् / किमुक्तं भवति ? प्रथमस्य संयमस्थानस्य ये निर्विभागा भागास्तेषां सर्वजीवसंख्याप्रमाणेन राशिना भागे हते सति ये लभ्यन्ते, ते तावत्प्रमाणैर्निर्विभागैर्भागैर्द्वितीये संयमस्थाने निर्विभागा अधिकाः प्राप्यन्ते, द्वितीयस्य संयमस्थानस्य ये निर्विभागास्तेषां सर्वजीवसंख्याप्रमाणेन राशिना भागे हृते सति यावन्तो लभ्यन्ते तावत्प्रमाणैनिर्विभागैरधिकास्तृतीये संयमस्थाने निर्विभागा भागाः प्राप्यन्ते / एवं यद् यत् संयमस्थानमनन्तभागवृद्धभुपलभ्यतेतत्तत् पाश्चात्यसंयमस्थानस्य सर्वजीवसंख्याप्रमाणेन राशिना भागे हृते सति यद् यल्लभ्यते ताव-त्प्रमाणेनानन्ततमेन भागेनाधिकमवगन्तव्यम् / असंख्येयभागा-धिकानि पुनरेवम्पाश्चात्यस्य पाश्चात्यसंयमस्थानस्य सत्कानां निर्विभागभागानामसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणेन राशिना भागे हृते सति यद्यल्लभ्यते सोऽसंख्येयतमो भागः, स्व-तस्तेनासंख्येयतमेन भागेनाधिकानि असंख्येयभागाधिकानि स्थानानि वेदितव्यानि। संख्येयभागाधिकानि चैवम्-पाश्चात्यस्य संयमस्थानस्य उत्कृष्टेन संख्येयेन भागे हृते सति यद् यल्लभ्यते स स संख्येयतमो भागः / ततस्तेन तेन संख्येयतमेन भागेनाधिकानि संख्येयभागाधिकानि स्थानानि वेदितव्यामि। संख्येयगुणवृद्धानि पुनरेवम्-पाश्चात्यस्य पाश्चात्यसंयमस्थानस्य ये ये निर्विभागा भागास्ते ते उत्कृष्टेन संख्येयकप्रमाणेन राशिना गुण्यन्ते; गुणिते च सति यावन्तो यावन्तो भवन्ति तावत्तावत्प्रमाणानि संख्येयगुणाधिकानि स्थानानि द्रष्टव्यानि / एवमसंख्येगुणवृद्धानि, अनन्तगुणवृद्धानि च भावनीयानि; नवरमसंख्येयगुणवृद्धौ पाश्चात्यस्य पाश्चात्यस्य संयमस्थानस्य निर्विभागा भागा असंख्येयलोकाकाशप्रदेश-प्रमाणेनासंख्येयेन गुण्यन्ते / अनन्तगुणवृद्धौ तु सर्वजीवप्रमाणेना-नन्तेन / इत्थं च भामहार-गुणकारकल्पनं मा स्वमनीषिकाशिल्प-कल्पितं मंस्थाः / यत उक्तं कर्मप्रकृतिसंग्रहिण्यां षट्स्थानकगत-भागहारगुणकारविचाराधिकारे -"सव्वजियाणमसंखेजा भाग-संखिज्जगस्स जेट्ठस्स / भागो तिसु गुणणा तिसु, ...." / इति। प्रथमाच षट्स्थानकादूर्ध्वमुक्तक्रमेणैव द्वितीयं षट्स्थानकमुत्तिष्ठति, एवमेष तृतीयम्। एवं षट्स्थानकान्यपि तावद्वाच्यानि यावदसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि भवन्ति / उक्तं च - "छट्ठाणगअवसाणे, अन्नं छट्ठाणयं पुणो अन्नं / एवमसंखा लोगा, छट्ठाणाणं मुणेयव्वा' / इत्थंभूतानि च असंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानिषट्स्थानकानि संयमश्रेणिरुच्यते। तथा चाऽऽह- 'छट्ठाणा उ असंखा, संजमसेढी मुणेयव्वा' तथा (लेस ति) कृष्णादयो लेश्याः स्थितिविशेषाः, उत्कृष्टानां सर्वोत्कृष्टानां सातवेदनीयप्रभृतीनां विशुद्धप्रकृतीनां संबन्धिनो विशुद्धाः स्थितिविशेषा Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधेकम्म 591 - अभियानराजेन्द्रः - भाग 1 अपगंड वेदितव्याः / तत एतेषां संयमस्थानादीनां संबन्धिषु शुभेषु स्थानेषु सोऽधोऽवधिः / परमावधेरधोवयंवधियुक्तेजीवे," अधोहि समोहएण वर्तमानस्तद्ग्राहक आधाकर्मग्राहकः, आत्मानमेतेषां संयमस्थाना- चेव अप्पाणेणं आया अहेलोगं जाणइ" स्था०२ ठा०२ उ०। दीनां विशुद्धानामधोऽधस्तात्करोति / अन्तर-न०(अन्तर) "वर्गेऽन्त्यो वा" 811 / 30 / इति सूत्रेणानुयदि नाम संयमस्थानादीनामधस्तादात्मानमाधाकर्मग्राही करोति ततः / स्वारवैकल्पिकत्वम्। व्यवधाने, प्रा०| किं दूषणं तस्यापतितम् ? अत आह अन्त्रडी-स्त्री० (अन्त्रन) उदरमध्यावयवे, "पाइ विलग्गी अन्त्रडी सिरु भावावयारमाहेउमप्पगे किंचिनूणचरणग्गो। ल्हसिखंधस्सु" प्रा०। आहाकम्मग्गाही, अहो अहो नेइ अप्पाणं ||1|| अन्नाइस-त्रि०(अन्यादृश) "अन्यादृशोऽन्नाइसावराइसौ" |8|4|413 // भावानां संयमस्थानादिरूपाणां विशुद्धानामधस्ताद् हीनेषु हीनतरेषु इति अन्यादृशशब्दस्य अन्नाइसेत्यादेशः / अन्यसदृशे, अन्यप्रकारे च। अध्यवसायेष्ववतारमवतरणमात्मन्याधाय कृत्वा किंचिन्न्यूनचरणाऽग्र प्रा०॥ इति / इह चरणेनाऽग्रः प्रधानश्वरणाऽग्रः; स च निश्चयनयमतापेक्षया अप-स्त्री०(अप) ब०व० / जले, "पुव्वापोट्टवया नक्खत्ते किं देवयाए क्षीणकषायादिरकषायचारित्रः परिगृह्यते / न च तस्य प्रमादसंभवेनापि लौल्यम्, एकान्तेन लोभादि-मोहनीयस्य विनाशात् / ततो न पण्णत्ते ? अपदेवयाए"। सू० प्र०१. पाहु०। तस्याऽऽधाकर्मग्रहणसंभवः, इति किञ्चित् न्यूनग्रहणम् / किञ्चिन्न्यूनेन अपइ (प्प) इहाण पुं०(अप्रतिष्ठान) न विद्यते प्रतिष्ठानमौदाचरणेनाऽग्रः प्रधानः किञ्चन्न्यूनचरणाऽग्रः। स च परमार्थत उपशान्तमोह रिकशरीरादेः कर्मणो वा यत्र सोऽप्रतिष्ठानः / मोक्षे, आचा०१ श्रु० उच्यते / अतिशयख्यापनार्थं चैतदुक्तम् / ततोऽयमर्थः- किञ्चित् 5 अ०६ उ०। सप्तम्यां नरकपृथिव्यां पञ्चानां कालादीनां नरकावासानां न्यूनचरणाऽग्रोऽपि यावत्, आस्तांप्रमत्तसंयमादिरिति।आधा-कर्मग्राही मध्यवर्तिनिनरकावासे, स्था०४ ठा०३ उ०। सूत्र०ा तस्येन्द्रेच। जी०३ अधोऽधो रत्नप्रभादिनरकादौ नयत्यात्मानम्, एतद् दूषणमाधा- प्रति०।"अप्पइट्ठाणे नरए एग जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं'। कर्मग्राहिणः। एतदेव भावयति पं०सं०१द्वान बंधइ अहेभताउं, पकरेइ अहोमुहाईकम्माई। अप(प्प)इट्ठिय-त्रि०(अप्रतिष्ठित) प्रतिष्ठानरहिते, स्था०४ ठा० घणकरणं तिव्वेण उ, भावेण चओवचटया य॥२।। 1 उ०। क्वचिदप्रतिबद्धे, अशरीरिणि च / आचा०२ श्रुका आधाकर्मग्राही विशुद्धेभ्यः संयमादिस्थानेभ्योऽवतीर्य अधोऽधोवर्तिषु | अप(प्प)इण्णपसरियत्त न०(अप्रकीर्णप्रसृतत्व) सुसंबन्धस्य सतः हीनेषु हीनतरेषु भावेषु वर्तमानोऽधोभवस्य रत्नप्रभादिनारकरूपस्य प्रसरणे,असंबद्धाधिकारित्वातिविस्तारयोरभावे सत्यवचनातिशये, भवस्य संबन्धि आयुर्बध्नाति / शेषाण्यपि कर्माणि / गत्यादीनि स०३५ समा औ० अधोमुखानि अधोगत्यभिमुखानि, अधोगतिनयनशीलानीत्यर्थः / अपउल्ल-त्रि०(अपक्व) अग्निना संस्कृते, पञ्चा०१ विव०। प्रकरोति प्रकर्षेण दुस्सहकटुक-तीव्रानुभावयुक्ततया करोति बध्नाति। बद्धानां च सतामाधा-कर्मविषयपरिभोगलाम्पट्यवृद्धितो निरन्तरमुप अपएस-त्रि०(अप्रदेश) न०ब० प्रदेशरहितत्वे, द्रव्या०१० अध्या०! जायमानेन तीव्रण तीव्रतरेण भावेन परिणामेन धनकरणं यथायोगं अवयवाभावाद् निरंशे, भ०२० श०५ उ० निरन्वये, विशे० / स्था०| विभक्तरूपतया निकाचनारूपतया वा व्यवस्थापनम् / तथा नञः कुत्सार्थत्वादलाक्षणिकत्वेनाशिष्टजना-कीर्णत्वेन वा कुत्सिते प्रतिक्षणमन्यान्य-पुद्गलग्रहणेन चय उपचयश्च। तत्रस्तोकतरा वृद्धिश्चयः, प्रदेशे, पञ्चा०७ विव०। (जीवानां सप्रदेशत्वाप्रदेशत्वचिन्ता 'पएस' शब्दे प्रभूततरावृद्धिरुपचयः। एतेन च व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्रमाचार्येणानुवर्तितम् / वक्ष्यते) तथा च व्याख्याप्रज्ञप्तावालापकः- "आहाकम्मऽन्नं भुंजमाणे समणे अपओस-पुं०(अपद्वेष) अमत्सरे माध्यस्थ्ये, पञ्चा०३ विव०। निग्गंथे अट्ठकम्मपगडीओ बंधइ; अहे बंधइ, अहे चिणइ, अहे उवचिणइ" अपंडिय-पुं०(अपण्डित) सदबुद्धिरहिते, बृ०१ उ०। इत्यादि। तत एवं सति अपंथ-पुं०(अपथ) अशस्त्रोपहतपृथिव्याम्, बृ०१ उ०। तेसिं गुरूणमुदएण अप्पगं दुग्गईएँ पवडतं / अपक्क-त्रि०(अपक्व) अग्न्यादिनाऽसंस्कृतेशालिगोधूमौषधादौ, प्रव०८ न वएइ विधारेउ, अहरगतिं निंति कम्माइं ||3|| द्वारा पाकमप्रापिते, प्रश्न०५ संव० द्वा०। तेषामधोभवायुरादीनां कर्मणां गुरूणामधोगतिनयनस्व-भावतया गुरूणीव गुरूणि तेषामुदयेन विपाकवेदनानुभवरूपेण, विपाकवेदनानु अपक्कोसहिभक्खणया-स्त्री०(अपक्वौषधिभक्षणता) अपक्वाया भवरूपोदयवशादित्यर्थः / दुर्गतौ प्रपतन्तमात्मानं विधारयितुं अग्निनाऽसंस्कृताया ओषधेः शाल्यादिकाया भक्षणता निवारयितुमाधाकर्मग्राही न शक्नोति / यतः कर्माणि अधोभवायुरादीनि भोजनमपक्वौषधिभक्षणता / भोजनत उपभोगपरिभोग-व्रतातिउदयप्राप्तानि बलादधरगतिं नरकादिरूपां नयन्ति। न च कर्मणः कोऽपि चारभेदे, उपा०१० बलीयान, अन्यथा न कोऽपि नरकंयायात, नवा कोऽपिदुःखमनुभवेत्। अपक्खग्गाहि(ण)-त्रि०(अपक्षग्राहिन्) न पक्षं गृह्णाती-त्यपक्षग्राही। तस्मा-दाधाकर्म अधोगतिनिबन्धनमित्यधःकर्मत्युच्यते / शास्त्रबाधितपक्षाग्रहणशीले, स्था०६ ठा०) तदेवमुक्तमधःकर्मेति नाम। पिं०। अपगंड-अपगण्ड-अपगतं गण्डं दोषो यस्मात्तदपगण्डम् / निर्दोषे, अधो (हो)हि-पुं०(अधोऽवधि) परमावधेरधोवयंवधिर्यस्य | उदकफेने च। सूत्र०१ श्रु०६ अ० Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपगडसुख 592 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अपच्छिममारणंतियसलेहणाझूसणा अपगंडसुक्क त्रि०(अपगण्डशुक्ल) अपगतं गण्डमपद्रव्यं यस्य (भंते! इत्यादि) तत्र 'भंते !त्ति हे भदन्त ! इति, एवमामन्त्र्येति शेषः / तदपगतगण्डम्, तच्च शुक्लम् / निर्दोषार्जुनसुवर्णवच्छुक्ले, तथा अथवा- भदन्त इति कृत्वा, गुरुरितिकृत्वेत्यर्थः / (सेट्टिस्स त्ति) अपगण्डमुदकफेनं तत्तुल्यमपगण्डशुक्लम् / उदकफेनवदवदाते, श्रीदेवताध्यासितसौवर्णपट्टविभूषितशिरोवेष्टनोपेत-पौरजननायकस्य "अणुत्तरं धम्ममुईरइत्ता, अणुत्तरं झाणवरं झियाइ / सुसुक्कसुकं (तणुयस्स त्ति) दरिद्रस्य (किवणस्सत्ति) रङ्कस्य (खत्तियस्स त्ति) राज्ञः अवगंडसुकं, संखिंदुएगंतऽवदातसुक्क' सूत्र०१ श्रु०६ अ०। (अपचक्खाणकिरिय त्ति) प्रत्याख्यान-क्रियायां अभावोऽप्रत्याख्याअपचय-पुं०(अपचय) अभावे, उत्त०१० नजन्यो वा कर्मबन्धः, (अविरइ त्ति) इच्छाया अनिवृत्तिः, सा हि सर्वेषा अप(प्प)चक्ख-त्रि०(अप्रत्यक्ष) अचाक्षुषे, आ०म०द्विा अप्रत्यक्ष-वती समैवेति। भ०१श०६ उ01 "सेनूणं भंते ! हथिस्स य कुंथुस्सयसमा बुद्धिः, प्रत्यक्षोऽर्थ इति वचनात् / ला चेव अप्पचक्खाणकिरिया कज्जइ ? हंता गोयमा ! हथिस्स य कुंथुस्स य० जाव कजइ। सेकेणडेणं एवं वुचइ० जाव कजइ ? गोयमा ! अविरई अप(प्प)चक्खाण-पुं०(अप्रत्याख्यान) न विद्यते प्रत्याख्यान पडुच से तेणटेणं० जाव कजई"। भ०७ श० उ०| मणुव्रतादिरूपयेषु। स्था०४ ठा०१ उगन विद्यते स्वल्पमपि प्रत्याख्यानं अप(प्प)चक्खाणि (ण)-त्रि०(अप्रत्याख्यानिन्)न०त०। येषामुदयात्तेऽप्रत्यख्यानाः / देशविरत्यावारकेषु कषायेषु, यदभाणि अप्रत्याख्यातरि, अविरते यो न प्रत्याख्याति / प्रज्ञा०२२ पद / भ०। "नाल्पमप्युत्सहेद्येषां, प्रत्याख्यानं महोदयात्। अप्रत्याख्यानसंज्ञाऽतो, द्वितीयेषु निवेशिता'' ||1|| ते चत्वारः क्रोधमानमायालोभाः। कल्प०। (के के प्रत्याख्यानिनः ? इति "पच्चक्खाण' शब्दे दर्शयिष्यते) न०त०। मनागपि विरतिपरिणामा-भावे, नं०। प्रज्ञा०ा पं०सं० अप (प्प)चक्खाय-त्रि०(अप्रत्याख्यात) अकृतप्रत्याख्याने, भ० श०५ उ० अप(प)चक्खाणकि रिया-स्त्री०(अप्रत्याख्यानक्रिया) अप्रत्याख्यानेन निवृत्त्यभावेन क्रिया कर्मबन्धादिक रण अप (प्प)चय-पुं०(अप्रत्यय) अविश्वासे, नि०चू०१६ उ०। मप्रत्याख्यानक्रिया। भ०१ श०२ उ०। अप्रत्याख्यानजन्ये कर्मबन्धे, प्रत्ययाभावरूपे चतुर्विंशगौणालीके, प्रश्न०२ आश्र० द्वा०। सप्तदशे अप्रत्याख्यानमेव क्रिया। अप्रत्याख्यानक्रियाया अभाव, भ०१ श० गौणादत्तादाने च, तस्य अप्रत्ययकारणत्वात्। प्रश्न०३ आश्र०द्वा०। ६उन अपचयकारग-त्रि०(अप्रत्ययकारक) विश्वासविनाशके, प्रश्न० तभेदाः २आश्र०द्वा० अपचक्खाणकिरिया दुविहा पन्नत्ता / तं जहा- जीवअ- | अपचल-त्रि०(अप्रत्यल) अयोग्ये, नि० चू०११ उ०। असमर्थे , पच्चक्खाणकिरिया चेव, अजीवअपच्चक्खाणकिरिया चेव। / अनलोऽप्रत्यलः, अयोग्य एकार्थाः / नि०चू०११ उ०। आव०) (जीवअपञ्चक्खाणकिरिया चेव त्ति) जीवविषये प्रत्या-ख्यानाभावेन अपच्छाणुतावि(ण)-त्रि०(अपश्चात्तापिन) आलोचितेऽपराधे यो बन्धादिापारः सा जीवाप्रत्याख्यानक्रिया / तथा पश्चात्तापमकुर्वति निर्जराभागिनि आलोचनादानयोग्ये, भ०२५ श० 7 उ०। अपश्चात्तापी नाम यः पश्चात्परितापं न करोति- 'हा ! दुष्ठ कृत (अजीवअपचक्खाणकिरिया चेव त्ति) यदजीवेषु मद्यादिष्व मया यद् आलोचितमिदानी प्रायश्चित्तं तपः कथं करिष्यामीति ? प्रत्याख्यानात् / कर्मबन्धनं सा अजीवाप्रत्याख्यानक्रियेति / स्था० किन्त्वेवं मन्यते- कृतपुण्योऽहं यत्प्रायश्चित्तं प्रतिपन्नवानिति / व्य० २ठा०१ उ०। आ००। 1 उ०ा स्थान साच अविरतस्य अपच्छायमाणा-त्रि०(अप्रच्छादयत्) प्रच्छादनमकुर्वति, "अणिअपचक्खाणकिरिया णं भंते ! कस्स कज्जइ ? गोयमा! ण्हवमाणा अपच्छायमाणा जहाभूयमवितहमसंदिद्धं एयमटुंआइक्खई" अन्नयरस्स वि अपचक्खाणिस्स। ज्ञा०१ अ०॥ अप्रत्याख्यानक्रिया अन्यतरस्याप्यप्रत्याख्यानिनः, अन्यतरदपि,न | अपच्छिम-त्रि०(अपश्चिम) न विद्यते पश्चिमोऽस्मादित्यपश्चिमः / किंचिदपीत्यर्थः। यो न प्रत्याख्याति, तस्येति भावः। प्रज्ञा०२२ पद। सन्तिमे, "तित्थयराणं अपच्छिमेजयइ" नं०।चरमे मरणे, कल्प० / समैव सा सर्वस्य आव०। आ०म०। अकारस्त्वमङ्गलपरिहारार्थः / पश्चात्कालभाविनि, भंते ! ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ, नमसइ, स०। "अपच्छिमे दरिसणे (मेघकुमारस्य) भविस्सइ ति कटु" वंदइत्ता णमंसइत्ता एवं वयासी- से णणं भंते ! सेट्ठिस्स य अकारस्यामङ्ग लपरिहारार्थत्वात्, पश्चिमं दर्शनं भविष्यति तणुयस्स किवणस्स खत्तियस्स य समा चेव अपचक्खाण- एतत्केशदर्शनमपनीतकेशावस्थस्य मेघकुमारस्यदर्शनं सर्वदर्शनं पाश्चात्य किरिया कजइ ? हंता गोयमा ! से ट्ठियस्स० जाव भविष्यतीति भावः। अथवा न पश्चिममपश्चिमं पौनःपुन्येन मेधकुमारस्य अपचक्खाणकिरिया कज्जइ / से केणटेणं भंते !? गोयमा ! दर्शनमेतद्दर्शनेन भविष्यतीत्यर्थः / ज्ञा०१ अ०भ०। प्रव०ा आ०क०। अविरइं पडुच, से तेणतुणं गोयमा! एवं वुचइ-सेट्ठिस्सयतणु० अपच्छिममारणं तियसंलेहणाझूसणा-स्त्री०(अपश्चिममारणाजाव कजइ। न्तिकसंलेखनाजोषणा) पश्चिमैवाऽमङ्ग लपरिहारार्थमपश्चिमा, Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपच्छिममारणंतियसंलेहणाझसणा५९३-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अपडिपोग्गल मरणं प्राणत्यागलक्षणम्, इह यद्यपि प्रतिक्षणमावीचीमरणमस्ति तथापि | अपज्जत्तणाम-न०(अपर्याप्तनामन्) अपर्याप्तयो विद्यन्ते येषां ते अपर्याप्ता न तद् गृह्यते,किं तर्हि ?, विवक्षित-सर्वायुष्कक्षयलक्षण-मिति / इति कृत्वा तन्निबन्धनं नाम अपर्याप्तनाम / यदुदयाद् जन्तवः मरणमेवान्तो, मरणान्तः, तत्र भवा मारणान्तिकी, संलिख्यते __ स्वयोग्यपर्याप्ति-(परिसमाप्ति)-समर्थाः न भवन्ति, तस्मिन्नामकर्मणि, कृशीक्रियतेऽनया शरीरकषायादीति संलेखना, तपोविशेषलक्षणा, ततः कर्म०१ कर्म०। स० कर्मधारयादपश्चिम-मारणान्तिकसंलेखना / तस्या जोषणा सेवा, अपजत्ति-स्त्री०(अपर्याप्ति) पर्याप्तिप्रतिपक्षेऽर्थे, जी०१ प्रतिका अपश्चि-ममारणान्तिकसंलेखनाजोषणा / मरणकाले संलेखनानाम्ना अपञ्जवसिय-त्रि०(अपर्यवसित) न०त० / अनन्ते, "एस्थ णं सिद्धा तपसा शरीरस्य कषायादीनां च कृशीकरणे, भ०७ श०२ उ०। कल्प। भगवंतो सादिया अपज्जवसिया चिटुंति" अपर्यवसिता रागाद्यभावेन स। प्रतिपातासंभवात्। प्रज्ञा०२ पद। अपच्छिममारणंतियसंलेहणाझूसणाझूसिय-त्रि० (अपश्चिममार अपञ्जुवासणा-स्त्री०(अपर्युपासना) न०त० / असेवनायाम, ज्ञा० णान्तिकसंलेखनाजोषणाजोषित) (झूषित) अपश्चिम मारणान्ति 13 अ०1 कसंलेखनाजोषणया जोषितः सेवितस्तथा / अपश्चिममारणान्ति अपजोसणा-स्त्री०(अपर्युषणा) अप्राप्तायामतीतायां वा पर्युषणायाम, कसंलेखनायुक्ते, अपश्चिममारणान्तिक-संलेखनाजोषणया झूषितः क्षपित इति। अपश्चिममारणान्ति-कक्षपितदेहे, स्था०२ ठा०२ उ०) नि०चू०१० उ० अपच्छिममारणंतियसंलेहणाझूसणाराहणता -स्त्री०(अपश्चिममा अपट्टविय-त्रि०(अप्रस्थापित) अकृतप्रस्थाने, "पुव्वण्हउ पट्ठविते रणान्तिकसंलेखनाजोषणाराधनता) अपश्चिममारणान्तिकसंलेखना अवरण्हे उद्वितेसुय" / नि०चू०५ उ०। जोषणाऽस्य आराधनमखण्डकालकरणं तद्भावोऽपश्चिममारणान्तिक अप(प्प)डिकम्म-न०(अप्रतिकर्मन्) प्रतिकर्मरहिते, "सुण्णागारे व जोषणाराधनता। देशोत्तरगुणप्रत्या-ख्यानभेदे, "एत्थ सामायारी अप्पडिकम्मे'' प्रश्न०५ संव०द्वा०ा शरीरप्रतिक्रियावर्ज-पादपोपगमने, आसेवियगिहधम्मेण किल सावगेण पच्छा निक्खमियव्यं, एवं सावगधम्मे स्था०२ ठा०४ उ०। उज्जमिओ होइ, नसकई ताहे भत्तपच्चक्खाणकाले संथारसमणेण होयव्यं अप(प्प)डिक्कंत-त्रि०(अप्रतिक्रान्त) दोषादनिवृत्ते, औ० ति विभासा अहोत्तं' अपश्चिममारणान्तिकसंलेखनाजोषणाराधना | अप(प्प)डिचक्क-त्रि०(अप्रतिचक्र) न विद्यते प्रति अनुरूपं समानं चक्र चाति-चाररहिता सम्यक्पालनीयेति वाक्यशेषः / आव०६ अ०। औ०। यस्य तदप्रतिचक्रम्। परचक्रैरसमाने, "अप्पडिचक्कस्स जओ होइ सया अस्या अतिचारः संघचक्कस्स'' अप्रतिचक्रस्य चरकादि च तैरसमानस्य। नं०। तयाणंतरं च णं अपच्छिममारणं तियसंलेहणाझूसणा- अपडिच्छिरो-(देशी) जडमतौ, दे०ना०१ वर्ग। राहणाए पंच अइयारा जाणियदा, न समायरियव्वा / अप(प्प)डिण्ण-त्रि०(अप्रतिज्ञ) नास्य मयेदमसदपि समर्थनीतं जहा- इहलोगासंसप्पओगे 1, परलोगासंसप्पओगे 2, यमित्येवंप्रतिज्ञा विद्यतेऽस्येत्यप्रतिज्ञः / रागद्वेषरहिते, "तत्तेणं जीवियासंसप्पओगे३,मरणासंसप्पओगे, कामभोगासंसप्प- अणुसिट्ठाते, अपडिन्नेण जाणया"। सूत्र०१ श्रु०३ अ०३ उ०। आचा०। ओगे 5 1 उपा०१ अ०। आव०॥ कल्प। धo नाऽस्य प्रतिज्ञा इहलोकपरलोकाशंसिनी विद्यत इत्यप्रतिज्ञः / ('इहलोगासंसप्पओग' इत्यादिशब्दानां स्वस्वस्थाने व्याख्या ऐहिकामुष्मिकाकाङ्क्षाराहित्येन तपोऽनुष्ठातरि, सूत्र०१ श्रु०१० अ०॥ द्वितीयादिभागेषु द्रष्टव्या) "गंधेसु वा चंदणमाहु सेहूँ, एवं मुणीणं अपडिन्नमाहु'। सूत्र०१ श्रु०६ अपजत्त-त्रि०(अपर्याप्त) परि-आप-क्त / न०त०। असमर्थे, असंपूर्ण अ०न विद्यते प्रतिज्ञा निदानरूपा यस्य सोऽप्रतिज्ञः। सूत्र०१ श्रु०२ स्वकार्याऽक्षमे च / वाच०। अपर्याप्तयो विद्यन्ते यस्य सोऽपर्याप्तः / अ०२ उ०। अनिदाने, यो हि वसुदेववत्सुसंयमानुष्ठानं कुर्वन् निदानं न "अभ्रादिभ्यः' 7 / 2 / 46 / इति हैमसूत्रेण अप्रत्ययः / करोति प्रतिज्ञा च कषायोदयादविरतिः / तद्यथा- क्रोधोदयात् अपर्याप्तकर्मोदयेनानिवृत्ते, स्था०१ ठा०१ उ०। तत्र द्वेधा अपर्याप्ताः स्कन्दकाचार्येण स्वशिष्ययन्त्रपीडनव्यतिकरमवलोक्य सबलवाहनलब्ध्या करणैश्च / तत्र ये अपर्याप्तका एव सन्तो मियन्ते, न पुनः राजधानीसमन्वितपुरोहितोपरि विनाशप्रतिज्ञा अकारि, तथास्वयोग्यपर्याप्तीः सर्वा अपि समर्थयन्ति, ते लब्ध्यपर्याप्ताः, ये च पुनः मानोदया बाहुबलिना प्रतिज्ञा व्यधायि, यथा-कथमहं शिशून स्वभ्रातृन् करणानि शरीरेन्द्रियादीनि न तावन्निवर्तयन्ति, अथ चाऽवश्यं उत्पन्ननिरावरणज्ञानान् छद्मस्थः सन् द्रक्ष्यामीति, तथापुरस्तान्निवर्तयिष्यन्ति ते करणापर्याप्ताः / इह च एवमागमः मायोदयान्मल्लिस्वामिजीवेन यथाऽपरयति-विप्रलम्भो भवति तथा लब्ध्यपर्याप्ता अपि नियमादाहारशरीरेन्द्रियपर्याप्तिपरिसमाप्तावेव प्रत्याख्यानप्रतिज्ञा जगृहे / तथा- लोभोदयाद्वाऽविदितपर-मार्थाः नियन्ते, नार्वाक् / यस्मादागामिभवायुर्बद्ध्वा नियन्ते सर्व एव देहिनः, साम्प्रतक्षिणोयत्याभासा मासक्षणादिका अपि प्रतिज्ञाः कुर्वते। आचा०१ तबाहारशरीरेन्द्रियपर्याप्तिपर्याप्तानामेव बध्यत इति / कर्म०१ कर्मा श्रु०२ अ०५ उ०। प्रतिज्ञारहिते, आचा०१ श्रु० अ०२ उ०। सूत्र०। पं०सं० नं० प्रश्न। सा अपडिपुण्ण-त्रि०(अप्रतिपूर्ण) गुणशून्यत्वादिभिस्तुच्छे इतरअपज्जत्तग-पुं०(अपर्याप्तक) "दुविहाणेरड्या पण्णत्तातं जहा-पजत्तगा / पुरुषाचीर्णत्वात् सद्गुणविरहात्तुच्छे, सूत्र०२ श्रु०२ अ०| चेव, अपजत्तगा चेव, जाव वेमाणिया" स्था०२ ठा०२ उ०। अपडिपोग्गल-न०(अप्रतिपुद्गल) दारिद्रये। नि०चू०५ उ०। Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपडिबझंत 594 - अभियानराजेन्द्रः - भाग 1 अपडिवाइ(ण) अप (प्प)डिबज्मंत-त्रि०(अप्रतिबध्यमान) कर्मकर्तर्ययं प्रयोगः। | अप(प्प)डिरूव-त्रि०(अप्रतिरूप) अपरानुवृत्त्यात्मके विनये. दश० क्वचिदपि प्रतिबन्धमकुर्वति, व्य०२ उ०॥ ६अ०१ उ० अप(प्प)डिबद्ध-त्रि०(अप्रतिबद्ध) प्रतिबन्धरहिते, अभिष्व-ङ्गरहिते, ] अप(प्प) डिलद्ध-त्रि०(अप्रतिलब्ध) न०त० असंजाते, ज्ञा०१ अ०। प्रव०१०४ द्वा०ा "अपडिबद्धो अनलोव्व प्रश्न०५ संव० द्वा०। महा० / अप(प्प)डिलद्धसम्मत्तरयणपडि लंभ-त्रि०(अप्रतिलब्धपञ्चा०। अप्रतिस्खलितेऽनुपहते, षो०६ विव०। सम्यक्त्वरत्नप्रतिलम्भे) असंजातविपुलकुलसमुद्भवे,ज्ञा०१ अ०। अप(प्प)डिबद्धया-स्त्री०(अप्रतिबद्धता) मनसि निरभिष्वङ्गतायाम्, अप(प्प)डिलेस्स-त्रि०(अप्रतिलेश्य) अतुलमनोवृत्तिषु, "अप्पडिलेनीरोगत्वे, उत्त०२६ अ० तत्फलम् स्सासु सामण्णरया दंता इणमेव णिग्गंथं पावयणं पुरओ काउं विहरति''। . अप्पडिबद्धयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? अप्पडिबद्धयाए औ०। णं निस्संगत्तं जणयइ, निस्संगत्तेणं जीवे एगे एगग्गचित्ते दिया य | अप(प्प)डिलेहण-न०(अप्रत्युपेक्षण) न प्रत्युपेक्षणमप्रत्युपेक्षणम् / राओ य असन्जमाणे अपडिबद्धे यावि विहरइ। गोचरापन्नस्य शय्यादेश्वक्षुषाऽनिरीक्षणे, आव०६ अ०। अप्रतिबद्धतया मनसि निरभिष्वङ्गतया निःसङ्गत्वं बहिः सङ्गाभावं | अप(प्प)डिलेहणासील-त्रि०(अप्रतिलेखनाशील) दृष्ट्वा प्रमार्जनजनयति, निःसङ्गत्वेन जीव एको रागादिविकलतया तत शीले, कल्प। एवैकाग्रचित्तो। धर्मकतानमनाएकाग्रतानिबन्धकहेत्वभावे दिवा च रात्री अप(प्प)डिलेहिय-त्रि०(अप्रतिलेखित) (अप्रत्युपेक्षित) जीवरक्षार्थ वाऽसजन्, कोऽर्थः?-सर्वदा बहिः सङ्गं त्यजन् अप्रतिबद्धश्चापि विहरति / चक्षुषाऽनिरीक्षिते, उपा०१ अ० कोऽभिप्रायः ? विशेषतः प्रतिबन्ध विकलो मासकल्पादिनोद्यतविहारेण अप(प्प)डिले हियदुप्पडिले हियउच्चारपासवणभूमि-स्त्री० पर्यटति। उत्त०२६ अ० (अप्रत्युपेक्षितदुष्प्रत्युपेक्षितोच्चारप्रश्रवणभूमि) अप्रत्युपेक्षिता अप (प्प) डिबद्धविहार-पुं०(अप्रतिबद्धविहार) अप्रतिबद्धस्य जीवरक्षार्थचक्षुषान निरीक्षिता दुष्प्रत्युपेक्षिताऽसम्यग् निरीक्षिता उच्चारः विहारोऽप्रतिबद्धविहारः / द्रव्यादिषु सर्वभावेषु अभिष्व ङ्गरहितत्वे पुरीषः प्रश्रवणं मूत्रं तयो निमित्तं भूमिः स्थण्डिलमप्रत्युपेक्षितनैकत्राऽनवस्थाने, प्रव०। अप्रतिबद्धश्च सदा सर्वकालमभिष्वङ्गरहित दुष्प्रत्युपेक्षितोचारप्रश्रवणभूमिः / पोषधोपवासस्य तृतीयातिचारभेदे, इत्यर्थः / गुरूपदेशेन हेतुभूतेन / क्व ? इत्याह- सर्वभावेषु द्रव्यादिषु / उपा०१ अ०|धा आ०चू० तत्र द्रव्ये श्रावकादौ, क्षेत्रे निर्वातवसत्यादौ, काले शरदादौ, भावे शरीरोपचयादौ, अप्रतिबद्धः / कि मित्याह-मासादि विहारेण अप(प)डि ले हियदुप्पडि ले हियसिज्जासं थारय-पु० (अप्रत्युपेक्षितदुष्प्रत्युपेक्षितशय्यासंस्तारक) अप्रत्युपेक्षितो जीवरक्षार्थ सिद्धान्तप्रसिद्धेन विहरेविहारं कुर्यात् / यथोचितं संहननाद्यौचित्येन चक्षुषा न निरीक्षित उद्भ्रान्तचेतोवृत्तितयाऽसम्यग् निरीक्षितः शय्या नियमादवश्यंभाव इति। एतदुक्तं भवति-द्रव्यादिप्रतिबद्धःसुखलिप्सुतया शयनंतदर्थं संस्तारकः / कुशकम्बलफलकादिः शय्यासंस्तारकः / ततः तावदेकर न तिष्ठत्, किं तर्हि, पुष्टालम्बनेन मासकल्पादिना, विहारोऽपि च द्रव्याद्यप्रतिबद्धस्यैव सफलः / यदि पुनरमुकं नगरादिकं गत्वा तत्र पदत्रयस्य कर्मधारये भवत्यप्रत्युपेक्षित- दुष्प्रत्युपेक्षितशय्या संस्तारकः। पोषधोपवासस्य प्रथमातिचारभेदे, अतिचारत्वं चास्य महर्द्धिकान श्रावकानुपार्जयामि, तथा च करोमि,यथा मां विहायापरस्य ते भक्ता न भवन्तीत्यादि-द्रव्यप्रतिबन्धेन, तथा निवातवसत्या उपभोगस्यातिचारहेतुत्वात् / उपा०१ अ०। आ००। पञ्चा०। दिजनितरत्युत्पादकममुकं क्षेत्रमिदं तु न तथाविधमित्यादि | अप(प्प)डि ले हियपणग-न०(अप्रतिले खितपञ्चक) तूली 1, क्षेत्रप्रतिबन्धेन, तथा परिपक्वसुरभिशाल्यादिसस्यदर्शनादिरमणीयोऽयं आलिङ्गनिका 2, मस्तकोपधानं 3, गल्लमसूरिका 4, आसनक्रिया 5 विहरता शरत्कालादिरित्यादिकाल-निबन्धेन, तथास्निग्धमधुराद्या पञ्चके, जीत०। हारादिलाभेन तत्र गतस्य मम शरीरपुष्ट्यादिसुखं भविष्यत्यत्र न तत् / अप(प्प) डिलोमया-स्त्री०(अप्रतिलोमता) आनुकूल्ये, भ० संपद्यते / अपरं चैवमुद्यतविहारेण विहरन्तं मामेवोद्यतं लोका 25 श०७ उ०। स्था। भणिष्यन्त्यमुकं तु शिथिलमित्यादिभावप्रतिबन्धेन च मासकल्पादिना अप(प्प)डिवाइ(ण)-त्रि०(अप्रतिपातिन) प्रतिपतनशीलं प्रतिपाति, विहरति, तदाऽसौ विहारोऽपि कार्यासाधक एव। तस्मादवस्थानं विहारो न प्रतिपाति अप्रतिपाति / सदाऽवस्थायिनि, नं०। अनुपरतस्वभावे, वा द्रव्याद्यप्रतिबद्धस्यैव साधक इति। प्रव०१०४ द्वा०। ध०३ अधि०। आमरणान्तभाविनि, आ०म०प्र० आकेवलोत्पत्तेः अप(प्प)डिबुज्झमाण-त्रि०(अप्रतिबुध्यमान) शब्दान्तरा- स्थिरे, कल्प०। स्था०। केवलज्ञानादर्वाग् भ्रंशमनुपयाति अवधिज्ञानण्यनवधारयति, भ०६ श०३३ उ०। विशेषे, नं०। विशे आमा *अप्रत्यूह्यमान -त्रि० वैरागतमानसत्वादनपहियमाणमानसे, भ०६ से किं तं अपडिवाइयं ओहिनाणं? अपडिवाई ओहिनाणं श०३३ उ०। ओ० जेणं अलोगस्स एगमवि आगासपएसं जाणइ, पासइ, तेणं परं अप(प्प)डियार-पुं०(अप्रतीकार) व्यसनापरित्राणे, पञ्चा०२ विव०॥ अपडिवाई ओहिनाणं / से तं अपडिवाइए ओहिनाणं // 6|| आचा (से किं तमित्यादि) अथ किं तदप्रतिपात्यवधिज्ञानम् ? सूरिराह Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपडिवाइ (ण) 595 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अपढम अप्रतिपात्यवधिज्ञानं, येनावधिज्ञानेनालोकस्य संबन्धिनमेकम- अप(प्प)डिसुणेत्ता-अव्य०(अप्रतिश्रुत्य) प्रतिश्रवणमकृत्वेत्यर्थे, प्याकाशप्रदेशम्, आस्तां बहूनाकाशप्रदेशानित्यपि शब्दार्थः / आव०४ अ०॥ पश्येत्। एतच सामर्थ्यमात्रमुपवर्ण्यतेन त्वलोके किञ्चिदप्यव-धिज्ञानस्य अपडिसेह-पुं०(अप्रतिषेध) अनिवारणे, पञ्चा०६ विव०। द्रष्टव्यमस्ति; एतच प्रागेवोक्तम् / तत आरभ्याऽऽ-प्रतिपत्त्याकेवल अपडिस्सावि(ण)-त्रि०(अप्रतिस्राविन्) पाषाणाऽयोभयभाजनं न प्राप्तेरवधिज्ञानम् / अयमत्र भावार्थः- एतावति क्षयोपशमे संप्राप्ते प्रतिस्रवति। प्रतिस्रवणरहिते, दर्शन सत्यात्मा विनिहितप्रधानप्रतिपक्षयोध-संघातनरपतिरिव न भूयः कर्मशत्रुणा परिभूयते, किन्तु समासा-दितैतावदालोकजयाप्रतिनिवृत्तः अप(प्प)डिहड-अव्य०(अप्रतिहत्य) अर्पणमकृत्वेत्यर्थे, बृ०३ उ०। शेषमपि कर्मशत्रुसंघातं विनिर्जित्य प्राप्नोति केवलराज्यश्रियमिति, अप(प्प)डिहणंत-त्रि०(अप्रतिघ्रत्) तद्वचनमविकुट्टयति, वृ०१ उ०। तदेतदप्रतिपा-त्यवधिज्ञानम्। तदेवमुक्ताः षडप्यवधिज्ञानस्य भेदाः। अप(प्प)डिहय-त्रि०(अप्रतिहत) प्रतिघातरहिते अखण्डिते, ज्ञा० सम्प्रति द्रव्याद्यपेक्षयाऽवधिज्ञानस्य भेदान् चिन्तयति 16 अ० कटकुड्यपर्वतादिभिरस्खलिते, स०१ सम०। अवि-संवादके, तं समासओ चउव्विहं पण्णत्तं / तं जहा-दव्वओ, खेत्तओ, औ०भ० केनापि अनिवारिते, उत्त०११ अ०।अन्यैश्च लयितुमशक्ये, कालओ, भावओ / तत्थ दव्वओ णं ओहिनाणी / जहन्नेणं उत्त०११ अ०। अणंताई रूविदव्वाइं जाणइ, पासइ / उक्कोसेणं सव्वाई अप(प्प)डि हयगइ-त्रि०(अप्रतिहतगति) अप्रतिहतविहारे, रूविदव्वाई जाणइ, पासइ / खेत्तओ णं ओहिनाणी जहन्नेणं "अपडिहयगई गामे गामे य एगरायं णगरे णगरे पंचरायं दूइज्जते य अंगुलस्स असंखिजइ भाग जाणइ, पासइ / उक्कोमेणं जिइंदिए" / प्रश्न०५ संव०द्वा०। संयमे गतिः प्रवृत्तिर्न हन्यतेऽस्य असंखिजाई अलोगे लोगप्पमाणमित्ताईखंडाईजाणइ. पासइ।। कथचिदिति भावः। स्था०६ ठा०। कालओ णं ओहिनाणी जहन्नेणं आवलियाए असंखिज्जइ भागं अप(प्प)डिहयपचक्खायपावकम्म-त्रि०(अप्रतिहतप्रत्याख्यातजाणइ, पासइ / उक्कोसेणं असंखिज्जाओ उस्सप्पणीओ पापकर्मन् / प्रतिहतं निराकृतमतीतकालकृतं, निन्दादिकरणेन अवसप्पणीओ अईयमणागयं च कालं जाणइ पासइ / भावओ प्रत्याख्यातं च वर्जितमनागतकालविषयं पापकर्म प्राणातिपातादि येन णं ओहिनाणी जहन्नेणं अणंते भावे जाणइ, पासइ / उक्कोसेणं स प्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा, तन्निषेधादप्रतिहत प्रत्याख्यातवि अणंते भावे जाणइ, पासइ / सव्वभावाणमणंतभागं जाणइ, पापकर्मा / अनिषिद्धातीतानागतपापकर्मणि, भ०१श०१ उ०। पासइ। अप(प्प)डिहयबल-त्रि०(अप्रतिहतबल) अप्रतिहतं केनाप्य-निवारितं ओही भवपचइओ, गुणपचइओ य वण्णिओ दुविहो। तस्स य बहू विगप्पा, दव्वे खेत्ते य काले य / / 1 / / बलं यस्य स अप्रतिहतबलः (उत्त०) अप्रतिहतमन्यैश्च लड़यितुमशक्यं बलं सामर्थ्यमस्येति अप्रतिहतबलः। सहज-सामर्थ्यवति, उत्त०११ नरेइय-तित्थकरा, ओहिस्स बाहिरा हुंति। पासंति सव्वओखलु, सेसा देसेण पासंति / / 2 / / से तं ओहिनाणं / नं01 अप(प्प)डिहयवरणाणदंसणधर-पुं०(अप्रतिहतवर-ज्ञानदर्शनधर) (टीका चाऽस्य ओहि' शब्दे तृतीयभागे १४१पृष्ठे अवधि-क्षेत्रप्ररूपणेन अप्रतिहते कटकुड्यादिभिरस्खलिते, अवि-संवादके वा / गतार्था सुगमा च नेहोपन्यस्तेति) अत एव क्षायिकत्वाद्वा वरे प्रधाने ज्ञानदर्शने के वलाख्ये अप(प्प)डिसंलीण-त्रि०(अप्रतिसंलीन) अकुशलेन्द्रिय कषायाद्य विशेषसामान्यबोधात्मके धारयति यः स तथा। केवलज्ञान-दर्शनोपयुक्ते निरोधके, स्थान जिने, भ०१ श०१ उ०1 साऔ०! तस्य च त्रीणि सूत्राणि अप(प्प)हियसासण-त्रि०(अप्रतिहतशासन) 60aa अखण्डिताऽऽज्ञे, चत्तारि अपडिसंलीणा पण्णत्ता। तं जहा-कोहअपडिसलीणे, __"अपडिहयसासणे असेणावई"। ज्ञा०१६ अ०॥ माणअपडिसंलीणे,मायाअपडि-संलीणे, लोभअपडिसंलीणे। | अप(प्प)डिहारय-पुं०(अप्रतिहारक) न० प्रत्यर्पणायोग्ये शय्यापुनः संस्तारकं, आचा०२ श्रु०२ अ०३ उ० चत्तारि अपडिसंलीणा पण्णत्ता। तं जहा-मणअपडिसलीणे, | अपरम्प)डाकार-त्रि०(अप्रताकार) सूतिकमादिराहत, कि त वइअपडिलीणे, कायअपडि-संलीणे, इंदियअपडिसंलीणे।। सीउण्हतण्हखुहवेयणअपडीकारअडविजम्मणा णिचभउ व्विग्गवासजस्था०४ ठा०२ उ०। गाणं" प्रश्न०१ आश्र०द्वा०। (टीका चाऽस्य प्रतिसंलीनस्येव भावनीया) अप(प्प)डुप्पण्ण-त्रि०(अप्रत्युत्पन्न) अनागमिके प्रतिपत्त्यकुशले, पंच अपडिसंलीणापण्णत्ता। तं जहा-सोइंदियअपडिसलीणे | 'अपडुप्पण्णे यतहिं, कहेइ तल्लद्वितो अण्णे''। व्य०६ उ०। नि०चू०। जाव फासिंदियअपडिसंली। स्था०५ ठा०२ उ01 अपढम-त्रि०(अप्रथम) न०त०। प्रथमताधर्मरहिते, अनादी, अ० Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपढम 596 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अपमज्जित्ता भ०१८ श०१ उ०। (जीवादीनामर्थानां प्रथमत्वादिविचारः 'पढम' शब्दे | | अपत्तजोवणा-स्त्री०(अप्राप्तयौवना) यौवनावस्थामप्राप्तायाम्, साचगर्भ दर्शयिष्यते) न धरति, प्राय आद्वादशवर्षकादावाभावात्। स्था०५ ठा०२ उ०। अपढमखगइ-स्त्री०(अप्रथमखगति) अप्रशस्तविहायोगतौ, कर्म०५ | अपत्तभूमिग(य)-पुं०(अप्राप्तभूमिक) न प्राप्ता भूमिका येन कर्म। सोऽप्राप्तभूमिकः।दूरस्थत्वेनेष्टस्थानमप्राप्ते 'जोयणमादि अपत्तभूमिआ अपढमसमय-पुं०(अप्रथमसमय) द्वितीयादिके समये, स्था०२ ठा०२ बारसओ जाव" ! नि०चू० "जे जोयणमादीसु ठाणेसु जाव बारस उ० जोयणा, ते सव्वे अपत्तभूमिया भवंति'' नि०चू०१० उ०। अपढमसमयउववण्णग-पुं०(अप्रथमसमयोपपन्नक) न०त० | अपत्तविसय-त्रि०(अप्राप्तविषय) अप्राप्तोऽसंबद्धोऽसंक्लिष्टो विषयो प्रथमसमयोपपन्नव्यतिरिक्तेषु नैरयिकादिषु वैमानिकपर्यन्तेषु, "णेरड्या ग्राह्यवस्तुरूपो यस्य तदप्राप्तविषयं लोचनम् / अप्राप्तकारिणि दुविहापण्णत्ता।तंजहा-पढमसमयोववण्णगाचेव, अपढमसमयोववन्नगा इन्द्रियजाते, "लोयणमपत्तविसयं, मणो व्व जमणुग्गहाइ सुणति" / चेव० जाव वेमाणिया" स्था०२ ठा०२ उ०। विपा०१ श्रु०२ अ० अपढमसमयउवसंतक सायवीयरागसंजम-पुं०(अप्रथम अपत्तिय-त्रि०(अपात्रिक) अविद्यमानाधारे, भ०१६ श०३ उ०) समयोपशान्तकषायवीतरागसंयम) क०सान प्रथमः समयःप्राप्तो येन *अप्रीतिका-स्त्री० अप्रेम्णि, पञ्चा०७ विव०। सोऽप्रथमसमयः, स चाऽसौ उपशान्तकषायवीतरागसंयमश्च तथा। उपशमश्रेणिप्रतिपन्नवीतरागसंयमभेदे, स्था०८ ठा०। अपत्थ-त्रि०(अपथ्य) अहिते, "अपत्थं अंबगं भुच्चा, राया रजंतुहारए''। अपढमसमयएगिदिय-पुं०(अप्रथमसमयैकेन्द्रिय) प्रथमसमयैकेन्द्रिय उत्त०७ अ० स्था०। अप्रायोग्यभोजने, पञ्चा०७ विव०। भिन्ने, यस्यैकेन्द्रियस्यैकेन्द्रियत्वे प्रथमः समयो नाऽस्ति / स्था०१० अप(प्प)त्थण-न०(अप्रार्थन) अभिलाषस्याऽकरणे, उत्त०३२ अ० ठाण अप(प्प)त्थिय-त्रि०(अप्रार्थित) अमनोरथगोचरीकृते, जं०३ वक्षः। अपढ मसमयक्खीणक सायवीयरागसं जम-पुं०(अप्रथम अप(प्प)त्थियपत्थ(त्थि)य-त्रि०(अप्रार्थितप्रार्थक) अप्रार्थितं समयक्षीणकाषायवीतरागसंयम) न प्रथमः समयः प्राप्तो येन केनाप्यमनोरथगोचरीकृतं प्रस्तावान्मरणं, तस्य प्रार्थकोऽभिसोऽप्रथमसमयः, स चाऽसौ उपशान्तकषायवीतरागसंयमश्च तथा / लाषी / मरणार्थिनि, जं०३ वक्ष०ा 'कसणं एस अप्पत्थियपत्थए उपशमश्रेणिप्रतिपन्नवीतरागसंयमभेदे, स्था०८ ठा०। दुरंतपंतलक्खणे" भ०३ श०२ उ०। उपा०। अपढमसमयजोगिभवत्थ-पुं०(अप्रथमसमयसयोगिभवस्थ) अप्रथमो अपद(य)-न०(अपद) न०ब० / वाहनवृक्षादौ, चरणहीने, परिग्रहे, द्वयादिः समयो यस्य सयोगित्वे स तथा, स चाऽसौ भवस्थश्चेति आ०चू०६ अ01 अष्टादशे सूत्रदोषभेदे, यत्र हि पद्यबन्धेऽन्यअप्रथमसमयसयोगिभवस्थः / सयोगिभवस्थभेदे, स्था०२ठा०१ उ०। च्छन्दोऽधिकारेऽन्यच्छन्दोऽभिधानम्, यथाऽऽपिदेऽभिधातव्ये अपढमसमयसिद्ध-पुं०(अप्रथमसमयसिद्ध) न प्रथमसमय- दैतालीयमभिदध्यात् / विशे०। यत्र गाथाबद्धे गीतिकापदं वानवासिद्धोऽप्रथमसमयसिद्धः / परम्परासिद्धविशेषणाप्रथमसमय-वर्तिनि, सिकापदं वा क्रियते / बृ०१ उ०ा आ०म०। दाडिमाऽऽमबीजपूरकादौ सिद्धत्वसमयाद् द्वितीयसमयवर्तिनि सिद्धविशेषे, प्रज्ञा० वृक्षे, विशे०। अनु०। न विद्यते पदमवस्थाविशेषो यस्य सोऽपदः / १पद! श्रा०ा स्था०। मुक्तात्मनि, "अपयस्स पयं णत्थि' आचा०१ श्रु०५ अ०६ उ०। अपढमसमयसुहुमसंपरायसंजम-पुं०(अप्रथमसमयसूक्ष्म अपदंस-पुं०(अपदंश) पित्तरुचि, निचू०१ उ०। संपरायसंयम) न प्रथमः समयः प्राप्तो येन सोऽप्रथमसमयः, सचाऽसौ सूक्ष्मः किट्टीकृतः संपरायः कषायः संज्वलनलोभलक्षणो वेद्यमानो अप(प्प)दुस्समाण-त्रि०(अप्रद्विष्यत्) प्रद्वेषमगच्छति, अन्त० 4 वर्ग। यस्मिन्, स तथा। सरागसंयमभेदे, स्था०८ ठा० अपदवंत-त्रि०(अपद्रवत्) म्रियमाणत्वे, भ०२श०१ उ०। अपण्णविय-त्रि०(अप्रज्ञापित) प्रज्ञापनामप्रापिते, "सो य सेज्जातरो अपप्पकारित्त-न०(अप्राप्यकारित्व) विषयदेशं (अ)-गत्वा कार्यकारित्वे, अपन्नविओ, पन्नविओ वा घरे भणाति" | नि०चू०२ उ०॥ नं०। (नयनमनसोरप्राप्यकारित्वं द्वितीयभागस्य 557 पृष्ठे 'इंदिय' अपत्त-त्रि०(अपात्र) अयोग्ये, बृ०१ उ०। अभाजने, नि०चू०१६ उ01 शब्दे वक्ष्यते) *अप्राप्त-त्रि०पर्यायेणोपस्थापनाभूमिमनधिगते. ध०३ अधिo | अप(प्प)मु-पुं०(अप्रभु) भृतकादौ, ध०३ अधि०ा ओघ० अनधिगते, व्य०४ उ०। पिं०। पूर्वमश्रुते, द्वा०१५ द्वा०। अप(प्प)मजणसील-त्रि०(अप्रमार्जनशील) अप्रमार्जनशीले, कल्प०। अपत्तजात-त्रि०(अपत्रजात) न विद्यते पत्रजातं पक्षोद्भवो | अप(प्प)मजित्ता-अव्य०(अप्रमाय॑) प्रमार्जनामकृत्वेत्यर्थे, यस्यासावपत्रजातः / अजातपक्षोद्भवे पक्षिजाते, "जहा दिया | "पासाईसागारिएँ, अपमजित्ता वि संजमो होइ / तं चेव पमजते, पोत्तमपत्तजातं, सावासगा पविउ मन्नमाणं"। सूत्र०१ श्रु०१४ अ०॥ | असागारिऍ संजमो होइ।' प्रव०६६ द्वा०। Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपमजिय 597 - अभिधानराजेन्द्रः-भाग 1 अपमाय अप(प्प)मञ्जिय-त्रि०(अप्रमार्जित) रजोहरणवस्त्राञ्चलादिनाऽवि- (जहण्णे णं अंतोमुहुत्तं ति) किलाप्रमत्ताद्धायां वर्तमानशोधिते, प्रव०६ द्वारा स्यान्तर्मुहूर्तमध्ये मृत्युर्न भवतीति; चूर्णिकारमतं तु प्रमत्तसंयत-वर्जः अप(प्प)मजियचारि(ण)-पुं०(अप्रमार्जितचारिण) अ-प्रमार्जिते, सर्वोऽपि सर्वविरतोऽप्रमत्त उच्यते, प्रमादाभायात् / स चोपशमश्रेणी अवस्थाननिषीदनशयनादि करणनिक्षेपोचारादिपरिष्ठापनं च कुर्वति, प्रतिपद्यमानो मुहूर्ताभ्यन्तरे कालं कुर्वन् जघन्य-कालो लभ्यत इति; "अपमजियचारीया वि भवइ," इति षष्ठं समाधिस्थानम्। दशा० 1 देशोनपूर्वकोटी तु केवलिनमाश्रित्येति / (नाणा जीवे पडुच सव्वद्धं) अ०। प्रश्न। इत्युक्तम् / अथ सर्वाद्धाभा-विभावान्तरप्ररूपणायाऽऽह- भंते ! अप(प्प)मजियदुप्पमजियउच्चारपासवणभूमि-स्त्री० / भंते ! त्ति इत्यादि। भ०३ श०३ उ०। पञ्चा०।०। (अप्रमार्जितदुष्प्रमार्जितोचारप्रस्रवणभूमि) पोषधोपदासस्या- | अप(प्प)मत्तसंजयगुणट्ठाण-न० (अप्रमत्तसंयतगुणस्थान) सप्तमे तिचारभेदे, उपा०१ अ० आव०। गुणस्थानके, प्रव०२२४ द्वा०। मज्जियप्पमजियसिज्जासंथार-पं० (अप्रमार्जितदष्प्रमा- | अप(प्प)माण-न०(अप्रमाण) प्रमाणातिरिक्ते, बृ०३ उ०। यदा सिद्धान्ते र्जितशय्यासंस्तार) पोषधोपवासस्यातिचारे, इह प्रमार्जनं शय्यादौ पुरुषस्याहार उक्तोऽस्ति तस्मादाहारप्रमाणात् स्वादुलोभेन सेवनकाले वस्त्रोपान्तादिनेति, दुष्टमविधिना प्रमार्जनं दुष्प्रमार्जनम् / अधिकमाहारं करोति, तदाऽप्रमाणो द्वितीय आहारदोषः / उत्त० आव०६ अ० उपा०॥ 24 अ०। ('पमाण' शब्देऽस्य विवृतिः) प्रामाण्यविरुद्धे, रत्ना०। अप(प्प)मत्त त्रि०(अप्रमत्त) न प्रमत्तोऽप्रमत्तः / यद्वा-नास्ति __ प्रसङ्गायातमप्रामाण्यरूपमपि धर्म प्रकटयन्तिप्रमत्तमस्येत्यप्रमत्तः / पं०सं०१ द्वा०। आचा०1 अज्ञाननिद्रा तदितरत्त्वप्रामाण्यमिति // 16 // विकथादिषष्ठ प्रमादरहिते, ग०२ अधि० श्रा० ते च प्रायो तस्मात्प्रमेयाव्यभिचारित्वादितरत् प्रमेयव्यभिचारित्वमप्रामाण्यं जिनकल्पिकपरिहारविशुद्धिकयथालन्दकल्पिक-प्रतिमाप्रतिपन्नाः, प्रत्येयम् / प्रमेयव्यभिचारित्वं च ज्ञानस्य स्वव्यतिरिक्तग्राह्यापेक्षयैव तेषां सततोपयोगसम्भवात् / नं०। स०न विद्यते प्रमत्तः प्रमादो लक्षणीयम्, स्वस्मिन् व्यभिचारस्यासंभवात्। तेन सर्वज्ञानं स्वापेक्षया मद्यविषयकषायविकथाप्रमादाख्यो यस्य। अप्रमादिनि, "अहोयराओ प्रमाणमेव, न प्रमाणाभासम् / बहिरपेिक्षया तु किञ्चित्प्रमाणम्, यअप्पमत्तेण हुँति" प्रश्न०५ संव० द्वा०ा निद्रादिप्रमादरहिते, "अप्पमत्ते किश्चित्प्रमाणाभासम् / रत्ना०१ परि०। समाहिए झाइ" | आचा०१ श्रु०६ अ०२ उ०। "अपमत्ते सया परिक्कमेजा" / आचा०१ श्रु०४ अ०१ उ० "अप्पमत्ते जए णिचं" अप(प्प)माणभोइ(ण)-त्रि०(अप्रमाणभोजिन) द्वात्रिंशत् कवलाधि(दश०) / "सुस्सूसए आय-रियमप्पमत्ते'' (दश०) प्रयत्नवति च / काहारभोक्तरि, प्रश्न०३ संवद्वा० "अप्पमत्तो अहिंसओ' | दश०१ अ01 अप(प्प)माय-पुं०(अप्रमाद) न प्रमादोऽप्रमादः / प्रमादवर्जनलक्षणे अप(प्प)मत्तसंजय-पुं०(अप्रमत्तसंयत) न प्रमत्तोऽप्रमत्तः, नास्ति वा षड्विंशयोगसंग्रहे, स०३२ सम०। प्रमत्तमस्यासावप्रमत्तः; स चासौ संयतश्चाप्रमत्तसंयतः / कर्म० तत्र उदाहरणम् - 3 कर्म०। प्रव०। सर्वप्रमादरहिते सप्तमगुणस्थानकवर्तिनि, स० रायगिह मगहसुंदरि-मगहसिरी कुसुमसत्थपक्खेवो। 14 सम। परिहरिअ अप्पमत्ता,नटेंगी अन्नवी चुक्का / / 1 / / सच पुरे राजगृहेऽत्रासी-जरासन्धो महानृपः। अप्पमत्तो दुविहो-कसायअप्पमत्तोय,जोगअप्पमत्तोय।तत्थ गाथक्यौ तस्य मगध-सुंदरीमगधश्रियौ / / 1 / / कसायअप्पमत्तो दुविहो-खीणकसाओ, निग्गहपरो य। एत्थ चेन्नासौ स्यात्तदैकाऽहं, राजा च स्याद्वशे मम। निग्गहपरेण अहिगारो / कहं तस्स अप्पमत्तत्तं भवति ? मगधश्रीस्ततो दुष्टा, तस्या नाट्यस्य वासरे।।२।। कोहोदयनिरोहो वा, उदयपत्तस्स वा विफलीकरणं, एवं जाव विषभावितसौवर्ण -केसरायितसूचिभिः। लोभो त्ति। जोगअप्पमत्तो मणवयणकायजोगेहिं तिहिं व गुत्तो। संचलितैः कर्णिकारैः, रङ्गोत्सङ्गमपूजयत्।।३।। अहवा अकुसलमणनिरोहो, कुसलमणउदीरणं वा मणसो वा अक्का मगधसुन्दर्या, विलोक्याभ्यूहते स्मतान्। एगत्तीभावकरणं / एवं वइए वि, एवं काए वि, तहा इंदिएसु किमेषु कर्णिकारेषु, न लीयन्ते मधुव्रताः?||४|| सोइंदियविसयपयारनिरोहो वा / सो-इंदियविसयए तेसु वा सदोषाणि स्फुटं पुष्पा-ण्येतान्यत्रच चेदहम्। अत्थेसुरागदोसविणिग्गहो, एस अप्पमत्तो। आ०चू०४ अ० द्रक्ष्ये योग्यानि नार्चाया, भावितानि विषेण वा // 5 // ग्राम्यता स्यान्मम तत-स्तदुपायेन बोधये। तस्य कालः - अत्रान्तरेऽवतीर्णा च, रङ्गे मगधसुन्दरी।।६।। अप्पमत्तसंजयस्सणं मंते! अप्पमत्तसंजमेवट्टमाणस्ससव्वावि मङ्गले गीयमानेऽका, प्रागायद्गीतिकामिमाम्। यणं अप्पमत्तद्धाकालओ केव चिरं होइ ? मंडिया ! एगं जीवं | पत्तं वसंतमासे, एआओ अपमोइअम्मिघुट्ठम्मि। पडुच जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुव्वकोडी देसूणा। णाणा मुत्तूण कण्णिआरऍ, भमरा सेवंति चूअकुसुमाई॥१॥ जीवे पडुच सव्वद्धं सेवं भंते ! भंते ! ति। श्रुत्वा गीतिमपूर्वां तां, जज्ञे मगधसुन्दरी। Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपमाय 598 - अभियानराजेन्द्रः - भाग 1 अपमाय कर्णिकाराणि दुष्टानि, तत्परीहारतस्तया // 7 // गीतं नृत्तं च साक्षेप, छलिता नाप्रमादतः। कर्तव्या साधुनाऽप्येवं, सर्वदाऽप्यप्रमादिता !|8|| आ०का आव०। आ०चूला प्रश्न०। प्रमादाभावे, आचा०१ श्रु०५ अ०४ उ०।अष्टसु स्थानेषु अप्रमादवतो भवितव्यम्। प्रमादो न कार्य:अट्ठहिं ठाणेहिं सम्मं संघडियव्वं जइयव्वं परक्कमियव्वं, अस्सि चणं अढे नो पमाएयव्वं भवइ, असुयाणं धम्माणं सम्म सुणणयाए अब्भुट्टे यव्वं, सुयाणं धम्माणं ओगिण्हयाए ओवहारणयाए अब्भुट्टेयव्वं भवइ, तवाणं कम्माणं संजमेणं अकरणयाए अब्भुट्टेयव्वं भवइ, पोराणाणं कम्माणं तवसा विगिंचणयाए विसोहणत्ताए अब्भुढे यवं भवइ, असंगिहियपरिजणस्स संगिण्हयाए अब्भुट्टेयव्वं भवइ, से हं आयारगोयरंगहणयाए अब्मुट्टेयव्वं भवइ, गिलाणस्स अगिलाए वे यावचं करणयाए अन्भुट्टे यवं भवइ, साहम्मियाणं अहिगरणंसि उप्पन्नंसि तत्थ अणिस्सिओवस्सिए अपक्खग्गाही मज्झत्थभावभूए कहण्णु साहम्मिया अप्पसद्दा अप्पझंझा अप्पतुमतुमा उवसामणयाए अन्मुढेयव्वं भवइ। कण्ठ्यम्।नवरमष्टासुस्थानेषु वस्तुषु सम्यग्घटितव्यम्-अप्राप्तेषु योगः कार्यः / यतितव्यम्-प्राप्तेषु तदवियोगार्थ यत्नः कार्यः। पराक्रमितव्यम्शक्तिक्षयेऽपि तत्पालने पराक्रम उत्साहातिरेको विधेयः। किं बहुना?एतस्मिन्नष्टस्थानकलक्षणे वक्ष्यमाणेऽर्थेन प्रमादनीयम् -न प्रमादः कार्यो भवति। अश्रुतानामनाकर्णितानां धर्माणां श्रुतभेदानां सम्यक् श्रवणतायै वाऽभ्युत्थातव्यमभ्युपगन्तव्यं भवति / एवं श्रुतानां श्रोत्रेन्द्रियविषयीकृतानामवग्रहणतायै मनोविषयीकरणतयोपधारणतायैअविच्युतिस्मृतिवासनाविषयीकरणायेत्यर्थः। (विगिचणयाए त्ति) विवेचना निर्जरत्यर्थः, तस्यै। अत एव आत्मनो विशुद्धिर्विशोधना, अकलङ्कत्वम; तस्यै इति। असंगृहीतस्यानाश्रितस्य, परिजनस्य शिष्यवर्गस्येति / (सेहं ति) विभक्तिपरिणामाच्छैक्षकस्या-भिनवप्रव्रजितस्य, (आयारगोयरं ति) आचारः साधु-सामाचारस्तस्य गोचरो विषयो व्रतषट्कादिराचारगोचरः / अथवा-आचारश्च ज्ञानादिविषयः पञ्चधा, गोचरश्च भिक्षाचर्येत्याचारगोचरम् / इह विभक्तिविपरिणामादाचरगोचरस्य ग्रहणतायां शिक्षणे शैक्षमाचारगोचरं ग्राहयितुमित्यर्थः / (अगिलाए त्ति) अग्लान्या अखेदेनेत्यर्थः। वैयावृत्त्यं प्रतीति शेषः। (अधिगरणंसि त्ति) विरोधे, तत्र साधर्मि के षु निश्रितं रागः, उपाश्रितं द्वेषः / अथवानिश्रितमाहारादिलिप्सा, उपाश्रितं शिष्यकुलाद्यपेक्षा / तद्वर्जितो यः,सोऽनिश्रितोपाश्रितः। न पक्ष शास्त्रबाधितं गृह्णातीत्यपक्षग्राही। अत एव मध्यस्थभावं भूतः प्राप्तो यः स तथा / स भवेदिति शेषः / तेन च तथाभूतेन कथं नु केन प्रकारेण साधर्मिकाः साधवः ? अल्पशब्दा विगतराटीमहाध्वनयः; अल्पझञ्झा विगततथाविधप्रकीर्णवचनाः, अल्पतुमतुमा विगतक्रोधना विकारविशेषाः भविष्यन्तीति भावयतोपशमनाया-धिकरणस्याभ्युत्थातव्यं भवतीति। स्था० 8 ठा०। किञ्च अणण्णपरमं नाणी, णो पमाए कयाइ वि। आयगुत्ते सया धीरे, जायमायाऐं जावए। "अणण्णपरमं'' इत्याधनुष्टुप् / न विद्यते अन्यः परमः प्रधानोऽस्मादित्यनन्यपरमः संयमः,तंज्ञानी परमार्थवित्नो प्रमादयेत्, तस्य प्रमादं न कुर्यात्कदाचिदपि / यथा चाप्रमादवत्ता भवति तथा दर्शयितुमाह(आयगुत्ते इत्यादि) इन्द्रियनो-इन्द्रियात्मना गुप्त आत्मगुप्तः / सदा सर्वकालम, यात्रा संयमयात्रा, तस्यां मात्रा यात्रामात्रा / मात्रा च'अव्वाहारो ण सहे' इत्यादि, तथाऽऽत्मानं यापयेद्, यथा विषयानुदीरणेन दीर्घकालं संयमाधारदेहप्रतिपालनं भवति तथा कुर्यात् / आचा०१ श्रु०३ अ०३ उ०। अपरंचउदाहु वीरे अप्पमादो महामोहे अलं कुसलस्स पाएणं संति मरणं संपेहाए भिउरधम्म संपेहाए। (उदाहु इत्यादि) उत्प्राबल्येन आहोक्तवान् / कोऽसौ ? वीरः, अपगतसंसारभयः, तीर्थकृदित्यर्थः / किमुक्तवान् ? तदेव, पूर्वोक्तं वा दर्शयति-अप्रमादः कर्त्तव्यः / क्व ? महामोहे अङ्गनाभिष्वङ्ग एव महामोहकारणत्वान्महामोहः तत्र, प्रमादवता न भाव्यम् / आह(अलमित्यादि) अलं पर्याप्तम् / कस्य ? कुशलस्य निपुणस्यसूक्ष्मेक्षिणः / केनाऽलम् ? मद्यविषयकषाय-निद्राविकथारूपेण पञ्चविधेनापि प्रमादेन, यतः प्रमादो दुःखाद्यभिगमनायोक्त इति स्यात्। किमालम्ब्य प्रमादेनाऽलम् ? इत्युच्यते। (संति इत्यादि) शमनं शान्तिरशेषकर्मापगमः, अतो मोक्ष एव शान्तिरिति / मियन्ते प्राणिनः पौनः पुन्येन यत्र चतुर्गतिके संसारे समरणः संसारः / शान्तिश्च मरणश्व शान्तिमरणं, समाहारद्वन्द्वः। तत्संप्रेक्ष्य पर्यालोच्य, प्रमादवतः संसारानुपरमस्तत्परित्यागाच्च मोक्ष इत्येतद्विचार्येति हृदयम्।सचाकुशलः प्रेक्ष्य विषयकषायप्रमादं न विदध्यात् / अथ च शान्त्या उपशमेन मरणं मरणावधिः, यावत्तिष्ठतो यत्फलं भवति तत्पयालोच्य प्रभादं न कुर्यादिति / किञ्च-(भिउर इत्यादि) प्रमादो हि विषया-भिष्वङ्गरूपः शरीराधिष्ठानस्य च शरीरं भिदुरधर्मम स्वत एव भिद्यत इति। भिदुरं स एव धर्मः स्वभावो यस्य तद्भिदुरधर्मम् / एतत्समीक्ष्य पर्यालोच्य प्रमाद न कुर्यादिति संबन्धः। आचा०१ श्रु०२ अ०४ उ० प्रमादवर्जनरूपायां 46 गौणाहिंसायाम्, प्रश्न०१ संवन्द्वा०ा यत्नातिशये, पं०व०१द्वा०। उपयोगपूर्वकरणक्रियायाम्, नि०चू०१ उ०। सर्वक्रियास्वप्रमाद इति चतुर्थं साधुलिङ्गम्सुगइनिमित्तं चरणं, तं पुण छक्कायसंजमो चेव। सो पालिउंन तीरइ, विगहाइपमायजुत्तेहिं॥११०|| शोभना गतिः सुगतिः सिद्धिरेव, तस्या निमित्तं कारणं, चरणं यति धर्मः / तदुक्तम्- "नो अन्नहा वि सिद्धी, पाविजइ जं तओ इमीए वि। एसो चेव उवाओ, आरंभावट्टमाणो उ" // 1 // तथाविरहिततरकाण्डा बाहुदण्डैः प्रचण्ड, कथमपि जलराशिं धीधना लश्यन्ति। न तु कथमपि सिद्धिः साध्यते शीलहीनैः, दृढयति यतिधर्मे चित्तमेवं विदित्वा / / 1 // इति / शालिनीवृत्तम्। Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपमाय ५९९-अभिधानराजेन्द्रः-भाग 1 अपराइत तत्पुनश्चरणं षट् कायसंयम एव, पृथ्वीजलज्वलनपवन- प्रत्युपेक्षायाम्, "छव्विहा अप्पमायपडिलेहा पण्णत्ता / तं जहावनस्पतित्रसकायजीवरक्षैव / किमुक्तं भवति ?एतेषु षड्- "अणचावियं अचलितं, अणाणुबंधीममोसलिं चेव / छ प्युरिमा णव जीवनिकायेष्वे कमपि जीवनिकायं विराधयन् जगद्भर्तु - खोडा, पाणीपाणविसोहणी" ||1|| स्था०६ ठा०। ('अणच्चाविय' राज्ञाविलोपकारित्वादचारित्री संसारपरिवर्द्धक श्च / तथाचा- शब्दादीनां व्याख्याऽस्मिन् भागे 283 पृष्ठे अणचाविय' शब्दे, तथा च ऽऽहुः प्रतिहतसकलव्यामोहतमिश्राः श्रीधर्मदासगणिमिश्राः स्वस्वशब्देषु द्रष्टव्या) सव्वाओगेजह कोइ अमच्चो नरवइस्स चित्तूण! अप(प्प)मायभावणा-स्त्री०(अप्रमादभावना) मद्यादिप्रमादानाआणाहरणे पावइ, वहबंधण दव्वहरणं वा / / 1 / / मनासेवने, आचा०२ श्रु०१५ अ०॥ तह छक्कायमहव्वय-सव्वनिवित्तीउ गिहिऊण जई। अप(प्प)मायवुड्विजणगत्तण-न०(अप्रमादवृद्धिजनकत्व) एगमवि विराहतो, अमच्चरन्नो हणइ बोहिं॥२॥ अप्रमत्तताप्रकर्षोत्पादकत्वे, पञ्चा०५ विव०। तो हयबोही पच्छा, कयावराहाणुसरिसमियममियं। अप(प)मायपडि से वणा- स्त्री०(अप्रमादप्रति से वना) पुण वि भवोयहिपडिओ, भमइ जरामरणदुग्गम्मि / / 3 / / अप्रमत्तकल्पप्रतिसेवायाम् , नि०यू०१ उ०| किंच-छज्जीवनिकायमहव्वयाण परिपालणाइ जइधम्मो। अप(प्प)मेय-त्रि०(अप्रमेय) न०त० / प्रमाणेनापरिच्छेये, प्रश्न०४ जइ पुण ताइँ न रक्खइ, भणाहि को नाम सो धम्मो॥४॥ आश्रद्वा०। अणंतमप्यमेयभवियधम्मचाउरंतचक्कवट्टीनमोत्थुते अरहंतो छजीवनिकायदया-विवजिओ नेव दिक्खिओ न गिही। त्ति कटु वंदइ / अप्रमेयः, तद्गुणानां परैरप्रमेयत्वात् / आ०म०प्र०) जइधम्माओ चुक्को, चुक्कइ गिहिदाणधम्माओ॥५॥ इत्यादि। प्राकृतजनापरिच्छेद्ये मोक्षे, ध०१ अधि०। अशरीर-जीवस्वरूपस्य स पुनः संयमः पालयितुं वर्द्धयितुं (न तीरइ त्ति) न शक्यते; विकथा छद्मस्थैश्छेत्तुमशक्यत्वादिति। पा० विरुद्धाः कथा राजकथाद्या रोहिणीकथायां सप्रपञ्चं प्ररूपिताः; अपयमाण-पुं०(अपचमान) न विद्यन्ते पचमानाः पाचका यत्रा-ऽसौ आदिशब्दाद्विषयकषायादिपरिग्रहः, तल्लक्षणः प्रमादो विकथादि अपचमानः / पाक क्रियानिवर्तकाऽसे विते, पचते इति प्रमादः। तद्युक्तैः संयमः प्रतिपालयितुं न शक्यते / अतः सुसाधुभिरसौ पचमानः न पचमानोऽपचमानः पाकमकुर्वति, "जं भए इमस्स धमस्स न विधेय इति। के वलिपन्नत्तस्स (इत्यादि) अपयमाणस्स(इत्यादि) पंचमप्रमादस्यैव विशेषतोऽपायहेतुतामाह हव्वयजुत्तस्स"|ध०३ अधि०। पव्वजं विजं विव, साहंतो होइ जो पमाइल्लो। अपया-स्त्री०(अप्रजा) अपत्यविकलायां स्त्रियाम्, बृ०१ उ०॥ तस्स न सिज्झइ एसा, करेइ गरुयं च अवयारं / / 111|| अपर-पुं०(अपर) न विद्यते परः प्रधानोऽस्मादित्यपरः। संयमे, आचा०१ प्रव्रज्यां जिनदीक्षां विद्यामिव स्त्रीदेवताधिष्ठितामिव साधयन् भवति / श्रु०३ अ०३ उ०। पूर्वोक्तादन्यस्मिन्, अपराणाम जा सा पुब्बिं भणिता, यः (पमाइल्लु त्ति) प्रमादवान् "आल्विल्लोल्लालवंत- मंतेत्तेरमणाः ततो जा अण्णा सा अपरा। नि०चू०२० उ०। मतोः" / 8 / 21156 / इति (हैमसूत्रात) वचनात् / तस्य प्रमादवतो न | अपरक्कम-त्रि०(अपराक्रम) न विद्यते पराक्रमः सामर्थ्यमस्मिन्नित्यसिद्धयति, न फलदानाय संपद्यते, एषा पारमेश्वरी दीक्षा, विद्येवः | पराक्रमम्। जङ्घाबलपरिक्षीणे, आचा०१ श्रु०८ अ०१ उ०। चकारस्य भिन्नक्रमत्वात् / करोति च गुरुं महान्तमपकारमनर्थमिति / अपरक्कममरण-न०(अपराक्र ममरण) न विद्यते पराक्रमः भावार्थः पुनरयम्- यथा अत्र प्रमादवतः साधकस्य विद्या फलदा न सामर्थ्यमस्मिन्नित्यपराक्रमम् / सामर्थ्य नष्ट मरणे, किं तत् मरणम् ? भवति, ग्रहसंक्रमाऽऽदिकमनर्थं च संपादयति, तथा शीतलविहारिणो तच यथा- जवाबलपरिक्षीणानामुदधिनाम्नामार्यसमुद्राणामपराक्रम जिनदीक्षाऽपि न केवलं सुगतिसंपत्तये न भवति, किन्तु मरणमभूत् , अयमादेशाद् दृष्टान्तो, वृद्धवादादायात इति / आचा०१ दुर्गतिदीर्घभवभ्रमणापायं च विदधाति, आर्यमङ्गोरिव! उक्तं च श्रु०८ अ०१ उ०। (अस्मिन्नेव भागे 216 पृष्ठे “अज्जसमुद्द" शब्द सीयलविहारओखलु, भगवंतासायणा-निओएण। विशेषोऽस्य द्रष्टव्यः) तत्तो भवो सुदीहो, किलेसबहुलो जओ भणियं // 1 // अपरपरिग्गहिय-त्रि०(अपरपरिगृहीत) अनन्यस्वामिना परिगृहीते तित्थयरपवयणसुयं, आयरियं गणहरं महिड्डीयं / अव्याकृते, न परोऽपरस्तेन परिगृहीतमपरपरिगृहीतम् / द्वितीयैरपरैः आसायंतो बहुसो, अणंतसंसारिओ भणिओ॥२॥ ति। साधुभिः परिगृहीते, "अव्वोगडे सु अपरपरिग्गहेसु, अपरतस्मादप्रमादिना साधुना भवितव्यमिति। ध०र०। (आर्य-मगुकथा परिणहिएसु"।०३ उ०। ('उग्गह' शब्दे द्वितीयभागे७०८ पृष्ठेचतुर्विधा च 'अज्जमंगु' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 211 पृष्ठे दर्शिता) व्याख्याऽस्य वक्ष्यते) सम्यक्त्वपराक्रमाख्ये एकोनत्रिंशे उत्तराध्ययने, स०३५ सम० / अपराइत(य)-त्रि०(अपराजित) न००। पराजयमप्राप्ते, वाच०। अप(प्प) मायपडिलेहा-स्वी०(अप्रमादप्रत्युपेक्षणा) षविधा अप्रमादेन अन्येनाऽजिते, सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ उ०! अपरिभूते, प्रश्न० प्रमादविपर्ययेण प्रत्युपेक्षणा अप्रमादप्रत्युपेक्षणा / अप्रमादेन | 4 आश्र० द्वा०। द्वासप्ततितमे महाग्रहे, पुं०। दो अपराजिया, Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपराइत 600- अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अपरिच्छय स्था० 2 ठा०३ उ० / (एतत्सूत्र एवाऽयमुपलभ्यते / चन्द्रप्रज्ञप्ती अधिग अपरिक्खिओ पुव्वद्धं अपरिक्खिउ' अनालोच्य आयो लाभः धृतसंग्रहगाथासु तु न दृश्यते) अपरैरन्यैरभ्युदयविघ्र हेतुभि- प्राप्तिरित्यर्थः / व्ययो लब्धस्य प्रणाशः। ते च आयव्वए अनालोचितं रजिता अनभिभूता अपराजिताः / उत्त०३६ अ०। अनुत्तरोप- पडिसेवमाणस्स अपरिक्खपडिसेवणा भवतीत्यर्थः। अपरिच्छत्ति गत। पातिकदेवविशेषेषु, प्रज्ञा०१ पद / तद्विमाने च, जी०३ प्रति०। स्था०। नि०चू०१ उ० सप्तमे प्रतिवासुदेवे, ती०१ कल्प०। जम्बूद्वीपस्य चतुर्थे, लवणसमुद्रस्य *अपरीक्ष्य-अव्य० अनालोच्येत्यर्थे, नि०चू०१ उ०। धातकीखण्डस्य पुष्करोदसमुद्रस्य कालोदस्य समुद्रस्य चद्वारे, जी०३ अपरिखेदितत्त-न०(अपरिखेदितत्व) अनायाससम्भवात्मके चतुस्त्रिंशे प्रति बुद्धवचनातिशये, औ०। (जम्बूद्वीपादिशब्देषु विवृतिरस्य द्रष्टव्या) श्रीऋषभस्वामिनां त्रिषष्टितमे अपरिग्गह-पुं०(अपरिग्रह) न विद्यते धर्मोपकरणाद् ऋतेशरीरो-पभोगाय पुत्रे, कल्प०। स्वनामख्याते चतुर्दशपूर्वधरे आचार्य च, नन्दिनः स्वल्पोऽपि परिग्रहो यस्य स तथा / प्रत्याख्यातपरिग्रहे साधौ, सूत्र०१ नन्दिमित्रः अपराजितः गोवर्धनो भद्रबाहुश्चेति पञ्च श्रुतकेवलिनः। जै० श्रु०१ अ०४ उ०। "अपरिगहा अणारंभा, भिक्खू ताणं परिव्यए' / इ०। मेरोरुत्तरे रुचकपर्वतस्य कूटभेदे, ना स्था०८ ठा०। सूत्र०१ श्रु०१ अ०४ उ०। आचा०। न विद्यते परि समन्तात् सुखार्थ अपराइया-स्त्री०(अपराजिता) महावत्साभिधानविजयक्षेत्रे वर्तमाने गृह्यत इति परिग्रहो यस्याऽसावपरिग्रहः / सूत्र०१ श्रु०५ अ०२ उ०। पुरीयुग्मे, "दो अपराइआओ' (स्था०) वप्रकावती-विजयक्षेत्रे वर्तमाने धनादिरहिते, प्रश्न०३ संव० द्वा०। पुरीयुगले च। "दो अपराइयाओ" स्था०२ ठा०३ उ०। अपराजिता अपरिग्गहसंवुड-त्रि०(अपरिग्रहसंवृत) क०स० / धनादिरहिते राजधानी, वैश्रमणकूटो नाम वक्षस्काराद्रिः / जं०४ वक्ष०ा दशमरात्री, इन्द्रियसंवरेण च संवृते, प्रश्न०३ संव० द्वा०। जं०७ वक्ष० / कल्प०। अञ्जनादौ, उत्तरदिस्थायां पुष्करिण्याम् / अपरिग्गहा-स्त्री०(अपरिग्रहा) न विद्यते परिग्रहः कस्यापि यस्याः ती०२ कल्प०द्वी०। अङ्गारस्य महाग्रहस्याग्रमहिष्याम्, स्था०४ ठा०२ साऽपरिग्रहा। बृ०६ उ०। साधारणस्त्रियाम्, "अपरिग्गहाणियाए, उ०ा एवं सर्वेषां ग्रहादीनां चतुर्थी अग्रमहीषी अपराजिता। जी०३ प्रतिका सेवगपुरिसो उ कोइ आलत्तो"। व्य०२ उ०। रुचकवासिन्यामष्टम्यां दिक्कुमारीमहत्तरिकायाम्, जं०५ वक्ष०। आ०म०। स्था०। आ०चू०। अष्टमबलदेववासुदेवयोतिरि, आव० 1 अ०॥ अपरिग्गहिया-स्त्री०(अपरिगृहीता) वेश्यायामन्यसत्कायां गृहीतअष्टमतीर्थकरस्य निष्क्रमणशिविकायाम,स०७२ सम०।अहिच्छनास्थे भाटिकुलाङ्ग नायाम्, अनाथायाम, श्रा०। ध०र०। उत्त०। आव० महौषधिभेदे, ती०७ कल्पा विधवायाम्, ध०२ अधि० देवपुत्रिकायां, घटदास्यांचा "अपरिगहिया अपरामुट्ठविधेयंस-न०(अपरामृष्टविधेयांश) स्वनामख्याते णाम जो मातादीहिं ण परिग्गहिया, अट्विं कुलटा य सा। अण्णे पुण भणंति-देवपुत्तिया घडदासी वा-एवमादि, सो पुण भाडीए वा अभाडीए अनुमानदोषे, अपरामृष्टविधेयांशं यथा।अनित्यशब्दः कृतक-त्वादिति / गच्छति, जो भाडीए गच्छति, तस्स जदि अण्णेणं पढम भाडी दिन्नो सा अत्र हि शब्दस्यानित्यत्वं साध्यं, प्राधान्यात्पृथनिर्देश्यम्, न तुसमासे ण वट्टति परनियतस्स गंतु, जा पुण अभाडीए गच्छति, सा जइ अण्णेणं गुणीभावकालुष्यकलङ्कितमिति / पृथनिर्देशेऽपि पूर्वमनुवाद्यशब्दस्य भणिओ-अज्ज अहं तुमए समं सुविस्सामि; ताए य पुच्छित्तं तस्स ण वत्ति निर्देशः शस्यतरः, समानाधिकरणतायां तदनुविधेयस्यानित्यत्वस्याऽ-- अंतराइयं काउं''। आ०चू०५ उ०। लब्धास्पदस्य तस्य विधातुमशक्यत्वात्। रत्ना०८ परि० / ति०) अपरिग्गहियागमण-न०(अपरिगृहीतागमन) अपरिगृहीतायां गमनमअपरिआइत्तए-अव्य०(अपर्यादाय) अगृहीत्वेत्यर्थे, भ०२५ श०७ उ०| परिगृहीतागमनम् / अपरिगृहीतया सह मैथुनकरणस्वरूपे अस्वदारअपरिआविय-त्रि०(अपरितापित) स्वतः परतो वाऽनुपजात सन्तोषाख्यचतुर्थाणुव्रतातिचारभेदे, अतिचारताऽस्य अतिक्रमादिभिः / कायमनःपरितापे, आव०। उपा०१ अ०। परदारत्वेन रूढत्वात्। ध०र०। आव०। अपरिकम्म-त्रि०(अपरिकर्मन) साधुनिमित्तमालेपनादि-परिकर्मवर्जिते, अपरिचत्तकामभोग-पुं०(अपरित्यक्तकामभोग) न परित्यक्ताः कामभोगा पं०व०४ द्वा०नि००। येन / गृहीतकामभोगे, कामौ च शब्दरूपे, भोगाश्च गन्धरसस्पर्शाः, अपरिक्कम-त्रि०(अपराक्रम) न०त०। पराक्रमरहिते, "तए णं तुम कामभोगाः / अथवा-काम्यन्त इति कामाः, मनोज्ञा इत्यर्थः / ते च ते मेहाजुण्णे (इत्यादि) अत्थामे अबले अपरिक्कमे" अपराक्रमो भुज्यन्त इति भोगाश्च शब्दादय इति कामभोगाः।नपरित्यक्ताः कामभोगा निष्पादितस्वफलाभिमानविशेषरहितत्वात, अचङ्कमणतो वा / ज्ञा०१ येन स तथा स्था०२ ठा०४ उ01 अ० अपरिच्छ-त्रि०(अपरीक्ष) युक्तपरीक्षाविकले, व्य०१० उ०) अपरिक्खदिट्ठ-त्रि०(अपरीक्ष्यदृष्ट) अविमृश्योक्ते, "अपरिक्खदिटुंण | अपरिच्छण्ण-त्रि०(अपरिच्छन्न) परिच्छदरहिते, व्य०३ उ०॥ हुएव सिद्धी''। सूत्र०१ श्रु०७ अ०। परिवाररहिते, व्य०१ उ०। अपरिक्खिय-त्रि०(अपरीक्षित) अकृतपरीक्षे उपस्थापनायोग्ये, ध० | अपरिच्छय- त्रि०(अपरीक्षक) उत्सर्गापवादयोरायव्ययावनालोच्य ३अधिवा "अपरिक्खिओमाधवए निसेवमाणे होति अपरिच्छ' ।ध०३ ति अपारच्छ ध०३ | प्रतिसेवमाने, जीत० Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिणय ६०१-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अपरिणय अपरिणय-त्रि०(अपरिणत) न परिणतं रूपान्तरमापन्नमपरिणतम् / स्वरूपेणावस्थिते परिणाममप्राप्ते, यथा दुग्धं दुग्धभाव एवावस्थितं दधिभावमनापन्नमपरिणतम् / पिं० / देयं द्रव्यं मिश्रमचित्तत्वेन परिणमनादपरिणतम् / ध०३ अधि० अप्रासुकीभूते देयद्रव्ये, तद्दाने आपतति सप्तमे एषणादोषेच, न०1०३अधि०। प्रव०। अपरिणतमिति यद्देयं न सम्यगचित्तीभूतं दातृग्राहकयोर्वा न सम्यग्भावोपेतम्। आचा०२ श्रु०१ अ०७ उ०! यदा द्रव्येण अपरिणतमाहारं भावोनम्, उभयोः पुरुषयोराहारं वर्तते, तन्मध्ये एकस्य साधवे दातुंमनोऽस्ति, एकस्यच नास्ति, तदाहारमपरिणतदोषयुक्तं स्यात्, अपरिणतदोषश्चाष्टमः। तच्चापरिणतद्वारमाहअपरिणयं पिय दुविहं, दव्वे भावे य दुविहमिकेक। दव्वम्मि होइ छक्कं, भावम्मि य होइ सज्झलगा॥ अपरिणतमपि द्विविधं, तद्यथा-द्रव्ये द्रव्यविषयं, भावे भावविषयं, द्रव्यरूपमपरिणतं, भावरूपमपरिणतं चेत्यर्थः / पुनरप्ये कै कं दातृगृहीतृसंबन्धाद् द्विधा / तद्यथा-द्रव्यापरिणतं, दातृसत्कं च / एवं भावापरिणतमपि। तद्रव्यापरिणतस्वरूपमाहजीवत्तम्मि अविगए, अपरिणयं गए जीव दिटुंतो। दुद्धदहीइ अभटुं, अपरिणयं परिणयं भटुं॥ जीवत्वे सचेतनत्वे अविगते अभ्रष्टे पृथिवीकायादिकं द्रव्यमपरिणतमुच्यते, गते तु जीवे परिणतम् / अत्र दृष्टान्तो दुग्धदधिनी। यथा हि-दुग्धत्वात्परिभ्रष्ट दधिभावमापन्नं परिणतमुच्यते, दुग्धभावे चाऽस्थिते अपरिणतम्, एवं पृथिवीकायादिकमपि स्वरूपेण सजीवं सजीवत्वापरिभ्रष्टमपरिणतमुच्यते / जीवेन च विप्रमुक्तं परिणतमिति। तच्च यदा दातुः सत्तायां वर्तते, तदा दातृसत्कम्, यदा तु गृहीतुः सत्तायां तदा गृहीतृसत्कमिति। संप्रति दातृविषयं भावापरिणतवत् - दुगमाईसामन्ने, जइ परिणमइ उ तत्थ एगस्स। देमि तिन सेसाणं, अपरिणयं भावओ एयं // एवं द्विकादिसामान्ये भ्रात्रादिद्विकादिसाधारणे देयवस्तुनि यद्यैकस्य कस्यचिद्ददामीत्येवंभावः परिणमति, शेषाणामेतभावतोऽपरिणतम्, न भावापेक्षया देयतया परिणतमित्यर्थः / अथ साधारणानिसृष्टस्य दातृभावापरिणतस्य च कः परस्परं प्रतिविशेषः ? उच्यतेसाधारणानिसृष्टं दायकपरोक्षत्वे, दातृभावा-परिणतं तु दायकसमक्षत्वे इति। संप्रति गृहीतृविषयं भावापरिणतमाहएगेण वा वि तेसिं, मण्णम्मि परिणामियं न इयरेण। तं पि हु होइ अगेज्झं, सज्झलगा सामि-साहू वा / / एकेनापि केनचित् अग्रेतनेन पाश्चात्त्येन वा एषणीयमिति मनसि परिणमितं, न इतरेण द्वितीयेन, तदपि भावतोऽपरिणतमपि कृत्वा | साधूनामग्राह्यम्, शङ्कितत्वात्, कलहादिदोषसंभवाच / संप्रति द्विविधस्यापि भावापरिणतस्य विषयमाह-(सज्झलगेत्यादि) तत्र दातृविषयं भावापरिणतं भ्रातृविषयं स्वामिविषयं च / गृहीतृविषयं भावापरिणतं साधुविषयम् / उक्तमपरिणतद्वारम् / पिं०। एतच साधूनामकल्प्यम्, शङ्कितत्वात्, कलहादिदोषसंभवाच / ध०३ प्रति० / गा"अपरिणए दव्वे मासलहुं चउलहुं अह सट्ठाणपच्छित्तं''। पं०चू०। (अपरिणतग्रहणनिषेधः पाणग' शब्दे वक्ष्यते) अपरिणतफलौषधिग्रहणम् - से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जाव पविसमाणे से आगंतारेसुवा आरामागारेसु वा गाहावतिकुलेसु वा परियावसहेसु वा अण्णगंधाणि वा पाणगंधाणि वा सुरभिगंधाणि वा अग्घाय से तत्थ आसायवडियाए मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोववण्णे अहो ! गंधो, अहो ! गंधो, णो गंधमाघाएज्जा / से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जाव समाणे से जं पुण जाणेज्जा, सालुयं वा विरालियं वा सासवणालियं वा अण्णतरं वा तहप्पगारं आमगं असत्थपरिणयं अफासुयं जाव लाभे संते णो पडिगाहेज्जा। (से भिक्खू वेत्यादि) (आगंतारेसु वे त्ति) पत्तनाद् बहि गृहेषु तेषु ह्यागत्यागत्य पथिकादयस्तिष्ठन्तीति / तथाऽऽरामगृहेषु वा पर्यावसथेविति, भिक्षुकादिमठेषु चेत्येवमादिष्वन्नपानगन्धान सुरभीनाघ्राय स भिक्षुस्तेष्वास्वादनप्रतिज्ञया मूञ्छितोऽध्युप-पन्नःसन् अहो ! गन्धः, अहो ! गन्ध इत्येवमादरदवान्न गन्धं जिघृक्षेदिति / पुनरप्याहारमधिकृत्याह-'से भिक्खू वेत्यादि' सुगमम्। सालुकमिति क न्दुको जलजः। वेरालियमिति कन्द एव स्थलजः / (सासवनालियं ति) सर्षपकन्दल्य इति। किञ्चसे मिक्खू वा भिक्खुणी वा जाव पविट्ठे समाणे से जं पुण जाणेजा, पिप्पलिं वा पिप्पलिचुण्णं वा मिरियं वा मिरियचुण्णं वा सिंगबेरं वा सिंगबेरचुण्णं वा अण्णतरं वा तहप्पगारं आमगं असत्थपरिणयं अफासुयं लाभे संते जाव णो पडिगाहेजा। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जाव पविढे समाणे से जं पुण पलंबगजातं जाणेजा। तं जहा-अंबपलंबंवा अंबाडगपलंबं वा तालपलंबं वा झिज्झिरिपलंबं वा सुरभिपलंबं वा सल्लइल्लपंलंबं वा अण्णतरं वा तहप्पगारं पलंबजातं आगमं असत्थपरिणयं अफासुयं अणेसणिज्जं जाव लाभे संते नो पडिगाहेजा / से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जाव पविढे समाणे से जं पुण पवालजातं जाणेज्जा / तं जहा-आसोत्थपवालं वा णग्गोहपवालंवा पिलक्खुपवालंवा पीयूरपवालंवा सल्लइपवालं वा अण्णयरं वा तहप्पगारं पवालजायं आगमं असत्थपरिणयं अफासुयं अणेसणिजं० जाव णो पडिगाहेजा / से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जाव समाणे से जं पुण सरडुयजायं जाणेजा / तं जहा- अंबसरडुयं वा कविट्ठसरडुयं वा दालिमसरडुयं वा बिल्लसरडुयं वा अण्णयरं वा तहप्पगारं सरडुयजायं आमं Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिणय 602- अभिधानराजेन्द्रः-भाग 1 अपरिणामग "MI असत्थपरिणयं अफासुयं० जाव णो पडिगाहेज्जा / से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जाव पविट्ठे समाणे से जं पुण मंथुजायं जाणेजा / तं जहा- उंबरमंथु वा णग्गोहम, वा पिलक्खुमंथु वा आसोत्थमंथु वा अण्णयरं वा तहप्पगारं मंथुजायं आमयं दुरुक्कं साणुबीयं अफासुयं जाव णो पडिगाहेज्जा। "से भिक्खू वेत्यादि' स्पष्टम् णवरं (मंथु त्ति) चूर्णम्। (दुरुत्तं ति) ईषत्पिष्टम्। (साणुबीयं ति) अविध्वस्तयोनिबीजमिति॥ से मिक्खू वा भिक्खुणी वा जाव समाणे से जं पुण जाणेज्जा , आमडागंवा पूतिपिण्णागं वा महुं वामजं वासप्पि वा खोलंवा पुराणं एत्थपाणा अणुप्पसूया एत्थपाणाजाया एत्थपाणा संवुड्डा एत्थ पाणा अवुकंता एत्थ पाणा अपरिणता एत्थपाणा अविद्धत्था णो पडिगाहेजा। (से भिक्खू वेत्यादि) स भिक्षुर्यत् पुनरेवं जानीयात्तद्यथा (आमडागं वे | त्ति) आमपण्णं अरणिकतन्दुलीयकादि / तच्चाद्धपक्वमपक्वं वा, (पूतिपिण्णागं ति) कुथितखलम् / मधुमद्येप्रतीते, सर्पिघृतम्, खोलं मद्याधःकर्दमः, एतानि पुराणानि न ग्राह्याणि / यत एतेषु प्राणिनो अनुप्रसूता जाताः, संवृद्धाः, अव्युत्क्रान्ताः, अपरणिताः, अविध्व-स्ता नानादेशजविनेयानुग्रहार्थमेकाथिकान्ये वैतानि, किश्चिद्भेदाता भेदः। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जाव समाणे से जं पुण जाणेजा, उच्छुमेरगं वा अंककरेलुयं वा करेरुगं वा सिंघाडगं वा पूतिआलुगं वा अण्णयरं वा तहप्पगारं आमगं असत्थपरिणयं जावणो पडिगाहेज्जा। (जे भिक्खू वेत्यादि) (उच्छुमेरगं वे त्ति) अपनीतत्वगिक्षु-गण्डिका (अंककरेलुअंवे त्ति) एवमादीन्वनस्पतिविशेषान् जलजान् / अन्यद्रा तथा प्रकारमाममशस्त्रोपहतं नो प्रतिगृह्णीया-दिति // से भिक्खू वा मिक्खुणी वा से जं पुण जाणेज्जा, उप्पलं वा उप्पलणालं वा भिसं वा भिसमणालं वा पोक्खलं वा पोक्खलविभागं वा अण्णयरं वा तहप्पगारं जाव णो पडिगाहेजा। (जे भिक्खू वेत्यादि) स भिक्षुर्यत् पुनरेवं जानीयात्तद्यथा उत्पलं नीलोत्पलादि, नालं तस्यैवाधारः / भिसं पद्मकन्दमूलं, भिसमणालं पद्मकन्दोपरिवर्तिनी लता, पोक्खलं पद्मकेसरं, पोक्खविभागपद्मकन्दः। अन्यद्वा तथाप्रकारमाममशस्त्रोपहतं नो प्रतिगृह्णीया-दिति। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जाव समाणे से जं, पुण जाणेजा, अग्गबीयाणि वा मूलबीयाणि वाखंधबीयाणि वा पोरबीयाणि वा अग्गजायाणि वा मूलजायाणि वा खंघजायाणि वा पोरजायाणि वा णण्णत्थ तक्कलि-मत्थएण वा तक्कलिसीसेण वा णालिएरमत्थएण वा खजूरमत्थएण वा तालमत्थएण वा अण्णयरं वा तहप्पगारं आमगं असत्थपरिणयं जाव णो पडिगाहेजा। / (से भिक्खू वेत्यादि) स भिक्षुर्यत्पुनरेवं जानीयात्तद्यथा-अग्रबीजानि | जपाकुसुमादीनि, मूलबीजानि जायादीनि, स्कन्धबीजानि शल्लक्यादीनि, पर्वबीजानि इक्ष्वादीनि। तथा अग्रजातानि मूलजातानि स्कन्धजातानि पर्वजातानीति / (णण्णत्थ त्ति) नान्यस्मादग्रादेरानीयान्यत्र प्ररोहितानि, किन्तु तत्रैवाग्रादौ जातानि, तथा (तकलिमत्थएण वा) तक्कली णमिति वाक्यालङ्कारे। तन्मस्तकं तन्मध्यवर्ती गर्भः / तथा कन्दलीशीर्ष कन्दली-स्तबकः। एवं नालिकेरादेरपिद्रष्टव्यमिति। अथवा कन्दल्यादि-मस्तकेन सदृशमन्यद्यच्छित्त्वाऽनन्तरमेव ध्वंसमुपयाति, तत् तथाप्रकारमन्यदाममशस्त्रपरिणतं न प्रतिगृह्णीयादिति। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जाव समाणे से जं पुण जाणेजा, उच्छु वा काणं अंगारियं सम्मिस्सं वियदूसितं वेत्तगं वा कंदलीऊसुयगंवा अण्णयरं वा तहप्पगारं आमं असत्थपरिणयं जाव णो पडिगाहेजा। (से भिक्खू वेत्यादि) स भिक्षुर्यत्पुनरेवं जानीयात्, तद्यथा-इखं वा (काणगं ति) व्याधिविशेषात्सच्छिद्रं, तथा-अङ्गारकितं विवर्णीभूतं, तथा-सन्मिश्रस्फुटितत्वक् (वियदूसियं ति) वृकैः शृगालैर्वा ईषदक्षितं, नह्येतावतारन्धाधुपद्रवेण तत्प्रासुकं भवतीति सूत्रोपन्यासः। तथा वेत्राग्रं (कन्दलीऊसुयगं व त्ति) कन्दलीमध्यं तथाऽन्यदप्येवंप्रकारमाममशस्त्रोपहतं न प्रति-गृह्णीयादिति।। से भिक्खू वा मिक्खुणी वा जाव समाणे से जं पुण जाणेजा, लसुणं वा लसुणपत्तं वा लसुणणालं वा लसुणकं दं वा लसुणचोयगं वा अण्णयरं वा तहप्पगारं आमं असत्थपरिणयं जाव णो पडिगाहेजा। लशुनसूत्रं सुगमम् / णवरं (चोयगं ति) कोशकाकारा लशुनस्य बाह्यत्वक् / सा च यावत्सार्दा तावत्सचित्तेति। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जाव समाणे से जं पुण जाणेजा, अत्थि वा कुंभिपक्कं तिंदुर्ग वा वेलुयं वा पलगं वा कासवणालियं वा अण्णयरं वा आमं असत्थपरिणयं जाव णो पडिगाहेज्जा / जे भिक्खू वा भिक्खुणी वा जाव समाणे से जं पुण जाणेजा, कणं वा कणकुंडगं वा कणपूयलिं वा चाउलं वा चाउलपिटुं वा तिलं वा तिलपिटुं वा तिलपप्पडगं वा अण्णयरं वा तहप्पगारं आमं असत्थपरिणयं जाव लाभे संते णो पडिगाहेजा। (से भिक्खू वेत्यादि)(अत्थिअंति) वृक्षविशेषफलम् / (तेंदुअंति) टेम्बरुयम्, (बिलु त्ति) बिल्वं, (कासवणालियं) श्रीपर्णी फलं, कुम्भीपक्कशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते। एतदुक्तं भवति-यदस्थिकफलादि गर्तादावप्राप्तपाककालमेव बलात्पाकमानीयते तदाममपरिणतं न प्रतिगृह्णीयादिति / (से इत्यादि) कणमिति शाल्यादेः कणिकास्तत्र कदाचिन्नाभिः संभवेत् / कणिककुण्ड कणिकाभिर्मिश्राः कुक्कुसाः, (कणपूयलियं ति) कणिकाभिः पूपलिका, अत्रापि मन्दपक्वादौ नाभिः संभाव्यते। शेषं सुगमम्। आचा०२ श्रु०१अ०८ उ०। स्वभाववणे, नि०चू० 17 उ०। रसरुधिरादिधातुत्वेन परिणाममगते, पञ्चा०३ विव०। Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिणामग 603 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अपरिसाइ(ण) अपरिणामग-पुं०(अपरिणामक) न विद्यते परिणामो यदुक्तार्थ-परिणमनं ___ अनादिको वा सपर्यवसितो भवविशेषः / जी०२ प्रति०। (कायापरीतायस्य स तथा। व्य०१ उ०। उत्सर्गकरुचौ पुरुषे, नं०जी०१ प्रतिका दिव्याख्यानं 'अंतर' शब्देऽस्मिन्नेव भागे -77 पृष्ठे दृश्यम्) अपरिणामकमाह अपरिमूय-त्रि०(अपरिभूत) अपरिभवनीये, स्था०७ ठा०। जो दव्वखित्तकयकालभावओ जं जहा जिणक्खायं / अपरिभोग-पुं०(अपरिभोग) परिभोगाभावे, स्था०५ ठा०२ उ०। तं तह असद्दहतं, जाण अपरिणामयं साहुं // नि०चू०। यो द्रव्यक्षेत्रकालभावकृतं तद्न श्रद्दधाति तं तथा अश्रद्दधतं जानीहि / अपरिमाण-त्रि०(अपरिमाण) न विद्यते परिमाणं यस्य स तथा / क्षेत्रतः अपरिणामकं साधुम् / बृ०१ उ०पं०व०। ('परिणाम' शब्दव्याख्या- कालतो वा इयत्तारहिते, "अपरिमाणं वि आणाइ, इहमेगेसिमाहियं"। नावसरे अतिपरिणामकस्यापिव्याख्याऽभ्यधायि, तत्रैवास्यापि शब्दस्य सूत्र०१ श्रु०१ अ०४ उ०नि००। व्याख्या दृष्टान्तश्च द्रष्टव्यः) अपरिमिय-त्रि०(अपरिमित) अपरिमाणे, न परिमितोऽपरिमितः / अनु०॥ अपरिणिव्वाण-न०(अपरिनिर्वाण) परि समन्ताद् निर्वाणं सुखं परिमाणरहिते, "अपरिमियमहिच्छकलुसमतिवाउवेग-उद्धम्ममाणं' परिनिर्वाणं, न परिनिर्वाणमपरिनिर्वाणम्। समन्तात् शरीरमनःपीडाकरे, अपरिमिता अपरिमाणा ये महेच्छा बृहदभिलाषा अविरता लोकास्तेषा "सव्वेसिं सत्ताणं असायं अपरिनिव्वाणं महब्भयं दुक्खं" / आचा०१ कलुषाऽविशुद्धामतिः स एव वायुवेगस्तेन उत्पाद्यमानं यत्तत्तथा। प्रश्न०३ श्रु०१ अ०६ उ०। संव०द्वा०। आव० "अप-रिमियनाणदंसणधरेर्हि' (तीर्थकृभिः ) अपरिणत्त-त्रि०(अपरिज्ञप्त) अज्ञापिते, कल्प०) प्रश्न०१ संव० द्वा०ा बृ०ा दर्श० अनन्ते, औ०। बृहति, "अपरिमियं च अपरिण्णाय-त्रि०(अपरिज्ञात) ज्ञपरिज्ञया स्वरूपोऽनवगते, वसाणे, कव्वं गज्जे ति नायव्वं"।दश०२ अ०॥ प्रत्याख्यानपरिज्ञया चाप्रत्याख्याते, स्था०५ ठा०२ उ०। आचा०। अपरिमियपरिग्गह-पुं०(अपरिमितपरिग्रह) अपरिमितश्वासौ परिग्रहणं अपरितंत-त्रि०(अपरितान्त) अपरितान्ते परिश्रममगच्छति, नं० प्रश्न०। परिग्रहः। परिमाणरहितपरिग्रहे, आव०६ अ०। पं०भा०। 'अपरितन्तो सुत्तत्थतदुभएसु' / पं०चूला अपरिमियबल-त्रि०(अपरिमितबल) अपरिमितं बलं यस्य सोअपरितंतजोगि(ण)-त्रि०(अपरितान्तयोगिन) अपरितान्तोऽ-विश्रान्तो ऽपरिमितबलः / निर्विशेषवीर्यान्तरायक्षयादनन्तबलशालिनि, "तत्तो योगः समाधिर्यस्य सोऽपरितान्तयोगः / स्वार्थिक नन्तत्वाच्चापरि बला बलभद्दा, अपरिमियबला जिणवरिंदा"। विशे०। सूत्र। "अपरिमियबलवीरियजुत्ते" अपरिमितानि बलादीनि, तैर्युक्तो, यः स तान्तयोगी। अन्त०७ वर्ग। अविश्रान्तसमाधौ, अणु०३वर्ग।अपरितान्ता अश्रान्ता योगा मनःप्रभृतयः सदनुष्ठानेषु यस्य स तथा तत तथा। उपा०२ अ०) अपरिश्रान्तसंयमे प्रयते, प्रश्न०१ संव०द्वा०। अपरिमियमणंततण्हा-स्त्री०(अपरिमितानन्ततृष्णा) अपरिअपरितावणया-स्त्री०(अपरितापनता) शरीरपरितापानुत्पादने, भ०५ माणद्रव्यविषया अनन्ता वाऽक्षया या तृष्णाऽविद्यमानद्रव्याश०६ उ०। परितापानुत्पादने, ध०३ अधि०। समन्ताच्छरी ऽऽयेच्छा। अपरिमितवाञ्छायाम, प्रश्न०३ संव० द्वा०। रसन्तापपरिहारे, पा०। अपरिमियसत्तजुत्त-त्रि०(अपरिमितसत्त्वयुक्त) अपरिमित-मियत्तारहितं अपरिताविय-त्रि०(अपरितापित) स्वतः परतो वाऽनुपजातकाय यत्सत्त्वं धृतिबलं तेन युक्तः। अपरिमितधैर्ये, बृ०३ उ०। मनःपरितापे, जी०३ प्रति०। अपरियत्तमाणा-स्त्री०(अपरावर्तमाना) न परावर्तमाना अपरा-वर्तमाना, पं०सं०३ द्वा०ा परावर्तमानप्रकृतिभिन्नासुकर्मप्रकृतिषु, पं० सं०३ द्वा०। अपरित्त-पुं०(अपरीत) न०त०। साधारणशरीरे, स्था०३ ठा०२ उ०। (मूलप्रकृतीनां बन्धादिप्रस्तावे 'कम्म' शब्दे तृतीये भागे 261 पृष्ठे अनन्तसंसारे वाजीवे, भ०६श०३ उ०॥ दर्शयिष्यन्त एताः) अपरित्ते दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-कायअपरित्ते य, संसारअपरित्तेय। अपरियाइत्ता-अव्य०(अपर्यादाय) परितः समन्तादगृहीत्वेत्यर्थे, स्था०२ ठा०१ उ०। सामस्त्येनागृहीते, स्था०१ ठा०१ उ०। कायापरीतोऽनन्तकायिकः; संसारापरीतः सम्यक्त्वादिनाऽकृतपरिमितसंसारः / प्रज्ञा०१८ पद / कायापरीतः साधारणः, अपरियाणित्ता-अव्य०(अपरिज्ञाय) ज्ञपरिज्ञयाऽज्ञात्वा प्रत्यासंसारापरीतः कृष्णपाक्षिकः / जी०२ प्रतिका ख्यानपरिज्ञया चाप्रत्याख्यायेत्यर्थे, स्था०२ ठा०१ उ०। तत्र अपरियार-त्रि०(अपरिचार) न० ब०। प्रविचारणा मैथुनो-पसेवारहिते, संसारअपरित्ते दुविहे पण्णत्ते।तं जहा-अणादिए अपज्जवसिए, अप्रविचारे, प्रज्ञा०३४ पद। अणाइए सपज्जवसिए। अपरिवडिय-त्रि०(अप्रतिपतित) स्थिरे, पञ्चा०७ विव०। संसारापरीतो द्विधा-अनाद्यपर्यवसितो यो न कदाचनापि अपरिसा(स्सा) इ (वि) (ण)-पुं०(अपरिस्राविन्) परिस्रवितुंशीलमस्य संसारव्यवच्छेदं करिष्यति, यस्तु करिष्यति सोऽनादिसपर्यवसितः। परिस्रावी। न परिस्रावी अपरिस्रावी / द्रव्यतः स्राव-रहिते तुम्बकादौ, प्रज्ञा०१८ पद ! अनादिकोऽपर्यवसितो येन जातुचिदपि सिद्धिं गन्ता, | भावतः श्रुतार्थक्षरणाकारकेऽनुयोगदानयोग्ये! बृ०॥ Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिसाइ(ण) 604 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अपवग्ग एतत्स्वरूपं सप्रतिपक्ष निक्षेपदृष्टान्तप्रदर्शनपूर्वक-मुच्यते अबन्धके निरुद्धयोगे, अयं च पञ्चमः स्नातकभेदः / उत्तराध्ययनेषुत्वहन अपरिस्राविद्वारमाह जिनः केवलीत्ययं पञ्चमो भेद उक्तः, अपरिस्रावीति तु नाधीतम्। भ० परिसाइ अपरिसाई, दवे भावे य लोग-उत्तरिए। 25 श०६ उ०। स्था०। न परिस्रवति नालोचकदोषानुपसृत्याऽन्यस्मै एक्केको विय दुविहो, अमच-वडुईऍ दिट्ठतो॥ प्रतिपादयति, य एवं-शीलः सोऽपरिस्रावी। आलोचकदोषा-प्रख्यापके परिसवितुं शीलमस्येति परिस्रावी; तद्विपरितोऽपरिस्रावी / उभावपि आलोचनांप्रतीच्छके, "जो अन्नयस्स उदोसेन कहेइ, अपरिस्साई सो द्विविधौ-द्रव्ये, भावे च / तत्र द्रव्यतः परिस्रावी घटादिः, अपरिस्रावी होइ'' स्था०८ ठा०। पञ्चा० धाव्या योन परिस्रवतिपरिकथितात्मतुम्बकादिः / भावतः परिस्रावी / एकैकोऽपि द्विविधः, तद्यथा-(लोग गुह्यजलमित्येवंशीलोऽपरिस्रावी। आलोचनामाश्रित्य आचात्ति) लौकिकः / (उत्तरिए त्ति) पदैकदेशे पद-समुदायोपचाराद् राङ्गोक्ततृतीयभङ्गतुल्य इत्यर्थः / ग०१ अधिol लोकोत्तरिकः / तत्र लौकिके भावतः परिस्राविणि अमात्यदृष्टान्तः। अपरिसाडि-पुं०(अपरिशाटि) परिशाटिवर्जिते, प्रश्न०१ आश्र०द्वा०। शय्यासंस्तारके, नि०चू०२ उ०। फलकादिमये, बृ०३ उ०। सचाऽयम् अनवयवोज्झनेच, "अपरिसाडिं अक्खोवंजणवणाणु-लेवणभूयं ति'। "एगो राया, तस्स कन्ना गद्दभस्स जारिसा, सो निचं खोलाए भ०७ श०१ उ०। अमुकियाए अत्थइ / सो अन्नया अमच्चेणं एगते पुच्छिओ-किं तुब्भे अपरिसाडिय-त्रि०(अपरिशाटित) परिशाटरहिते, उत्त०१ अ०॥ भट्टारयपादा खोलाए आवट्टियाए अच्छह, न कस्सइ सीसं कन्ना य अपरिसुद्ध-त्रि०(अपरिशुद्ध) सदोषे, पञ्चा०३ विव०। अयुक्तियुक्त, दरिसेह ? रन्ना सम्भावो कहिओ; भणियं चमा रहस्समन्नयं काहिसि आव०४ अ01 त्ति। तेण अगंभीरयाए तं रहस्सं अप्पहियासमाणेण अडविं गंतुं रुक्खकोडरे मुहं छोढूण भणियं-गद्दभकन्नो राया। राया तं रुक्खं अन्नेण अपरिसेस-त्रि०(अपरिशेष) निःशेषे, प्रश्न०२ आश्र० द्वा०। केणइ छेत्तुं वादित्तं कयं, भवियव्वयावसेण य तं रण्णो पुरओ पढम अपरिहारिय-पुं०(अपरिहारिक) न परिहारिकोऽपरिहारिकः / वाइयंतवजं तं भणइ-गद्दभकन्नो राया। रन्ना अमचो पुच्छिओ- तुमे परं पार्श्वस्थावसन्नकुशीलसंसक्तयथाच्छन्दरूपे, आचा०१ श्रु०१ अ०१ उ०। एयं रहस्सं नायं, कस्सते कहियं? अमचेण जहावत्तं सिट्टा एस लोइओ मूलोत्तरगुणदोषाणामपरिहारके, मूलोत्तरगुणानां वा-ऽधारके, परिस्सावी / लोउत्तरिओ जो अप्पहियासमाणो पुच्छिओ वा अपुच्छिओ अन्यतीर्थिकगृहस्थेवा। नि०चू०२ उ०। वा अपरिणयाणं अववायफ्याणि कहेइ"। अपरोवताव-पुं०(अपरोपताप) परपीडापरिहारिणि, पं० सू०२ सू०। ईदृशस्य परिस्राविणः सूत्रं यो ददाति, तस्य चत्वारो लघवः / अर्थ अपरोवतावि(न)-पुं०(अपरोपतापिन्) साधूनां वर्णवादिनि / ददाति, तस्य चत्वारो गुरवः / यत एवं ततो अपरिस्राविणो दातव्यम्। पं० चू०। सोऽपि द्विधा- लौकिको, लोकोत्तरिकश्च / तत्र लौकिके अपरिस्राविणि | अपलिअ-त्रि०(अपक्व) अग्निनाऽसंस्कृते, ध०२ अधि०। बटुक्याः दृष्टान्तः। स चाऽयम् - अपलिउंचमाण-त्रि०(अप्रतिकुञ्चयत्) अगोपयति, आचा०२ श्रु० "राया सिट्ठी अमच्चो आरक्खिओ मूलदेवो य एक्काए पुरोहियभजाए 5 अ०१ उ०। बडुइणीए अईवरूवंसिणीए अज्झोववन्नो।ताए सव्वेसिं संकेअओ ठितो, अपलिउंचि-त्रि०(अपरिकुञ्चिन्) अमायाविनि, व्य०१ उ०। ते आगया दुवारे ठिया / ताए भन्नति-जइ महिलारहस्सं जाणेह तो अपलिउंचिय-त्रि०[अप्रति(परि)कुञ्च्य] न परिकु ञ्च्यमपरिपविसह / ते भणं ति-ण जाणामो, मूलदेवेण भणियं- अहं कुच्यम् / अकौटिल्ये, व्य०१ उ०॥ जाणामि / ताए भणियं- पविसह त्ति, पविट्ठो पुच्छिओ- किं *अप्रति(परि)कुञ्च्य-अव्य० मायामकृत्वेत्यर्थे, व्य०१ उ०नि०यू० / महिलारहस्सं ? तेण भणियं-मारिजंतेहिं वि अन्नस्सन कहेयव्वं / "त्वं विदग्धः कामुकः" इति तुट्ठाए सव्वरत्तिं रमिओ। पभाए रनो पुच्छिओ अपलिच्छण्ण-त्रि०(अपरिच्छन्न) परिच्छदरहिते। व्य०३ उ०। मूलदेवो-किं महिलारहस्सं? मूलदेवो भणइ- अहं एवं उल्लावं पिन अपलिमंथ-पुं०(अपरिमन्थ) परिमन्थः स्वाध्यायादिकृतिस्तदजाणामि / रण्णा अवलवइ त्ति वज्झो आणत्तो, तह वि न कहेइ, ताहे भावोऽपरिमन्थः (उत्त०)स्वाध्यायादौ निरालस्ये। उत्त०२६ अ० धेजाइणीए आगंतुं रन्नो पुरतो कहियं-जहा एयं चेव महिलारहस्सं, जं अप(प्प)लीण-त्रि०(अप्रलीन) असंबद्धे, सूत्र०१ श्रु०१ अ०। सरीरचाए वि न कस्सइ मीसइ त्ति / एस लोइओ अपरिस्सावी / अपवग्ग-पुं०(अपवर्ग) जन्ममरणप्रबन्धोच्छेदतया सर्व:दुःख-प्रहाणलक्षणे लोउत्तरिओ पुण जो छेअसुअस्स रहस्सियाणि अपवायपयाणि सुणित्ता मोक्षे, सूत्र०१ श्रु०१३ अ० संथा०। "तद्भावेऽपवर्ग इति तस्य उडिओ, तओ जइ कोइ अपरिणओ पुच्छइ- किं एयं कहिजइ ? भणइ- रागादिक्षयस्य भावे सकललोकालोकविलोकनशालिनोः केवलज्ञानचरणकरणं साहूणं वन्निज्जइ" ईदृशस्यापरिस्राविणो यदि सूत्रं न ददाति दर्शनयोर्लब्धौ सत्यां निस्तीर्णभवार्णवस्य सतो जन्तोरपवर्ग उक्त निरुक्त तदा चतुर्लघु। अर्थ न ददाति तदा चतुर्गुरु बृ०१ उ०ा स्था०। परिस्रवति उद्भवतीति। किंलक्षणः? इत्याह-"स आत्यन्तिको दुःखविगम इतीति' आसवति कर्म बध्नातीत्येवंशीलः परिस्रावी, तन्निषेधादपरिस्रावी।। सोऽपवर्गः,अत्यन्तं सकलदुःखशक्तिनिर्मूलनेन भवतीति आत्यन्तिको Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपवग्ग 605 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अपाणय तं०। दुःखविगमः। सर्वशारीरमानसाऽशर्मविरहः, सर्वजीवलोकाऽसाधार- गोणे साणे व्व वते, ओभावण खिंसणा कुलघरे य। णाऽऽनन्दाऽनुभवश्चेति / ध०१ अधि०। णासह खइय लज्जा, सुण्हाए होति दिटुंतो॥ अपवग्गबीय-न०(अपवर्गबीज) मोक्षस्य कारणे, षो०६ विव०। पात्रकमन्तरेण यत्र तत्र समुदेशनीयम्। ततो लोको ब्रूयाद्यथा गौर्यत्रैव अप(प्प)वत्तण-न०(अप्रवर्तन) अप्रवृत्तौ, पञ्चा०४ विव०॥ चारिं प्राप्नोति तत्रैवालेह्य चरति। यथा वा श्वानो यत्रैव स्वल्पमप्याहार अपवाय-पुं०(अपवाद) द्वितीयपदे, निचू०२० उ०। लभते, तत्रैव निस्त्रपो भुङ्क्ते / एवमेता अपि गोश्वानसदृश्यो यत्रैव प्राप्नुवन्ति, तत्रैव भुञ्जते। तथा लोकस्य पुरतः समुद्दिशन्ति-अहो ! अप(प्प)वित्त-त्रि०(अप्रवृत्त) तत्त्वतो व्यावृत्ते, पञ्चा०१४ विव०। आभिर्गोव्रतं श्वानव्रतं वा प्रतिपन्नं, एवं न प्रव्रजना भवति। (खिंसणा अप(प्प)वित्ति-स्त्री०(अप्रवृत्ति) गाढं मनोवाक्कायानामनवतारे, ध०१ कुलघरे य त्ति) तास्तथा भुञ्जाना दृष्ट्वा तदीयकुलगृहे गत्या लोकः अधिक खिंसां कुर्यात् / यथा-युष्मदीया दुहितरः स्नुषा वा, याः पूर्व अप(प्प)संसणिज्ज-त्रि०(अप्रशंसनीय) साधुजनैः प्रशंसां कर्तुमयोग्ये, चन्द्रसूर्यकिरणैरप्यस्पृष्टगात्रास्ताः साम्प्रतं सर्वलोकपुरतो गाव इव चरन्त्यो हिण्डन्ते / एवमुक्ते ते भूयस्ताः स्वगृहमानयन्ति / 'नासढुं' अप(प्प)सज्झ-त्रि०(अप्रसह्य) अप्रधृष्ये, व्य०७ उ०) अत्यर्थं चखादितं भक्षणं लोकस्यपुरतः सर्वासु कुर्वतीषुलोको ब्रूयात् - अप(प्प)सज्झपुरिसाणुग-त्रि०(अप्रसह्यपुरुषानुग) अप्रधृष्ट अहो ! बहुभक्षकाः, अस्तिस्त्रीणांचलज्जा विभूषणं, सा चैतासांनास्तीति / पुरुषानुसारिणि, (व्य०) "गणिणी गुणसंपण्णाऽपसज्झपुरिसा अत्र च लज्जायां स्नुषा दृष्टान्तो भवति। स च द्विधा-प्रशस्तोऽप्रशस्तश्च / णुगा"। व्य०२ उ०। प्रशस्तं तावदाहअप(प्प)सत्थ-त्रि०(अप्रशस्त)न०ता अशोभने, "अपसत्थे संजमे उचासणम्मि सुण्हा, ण णिसीयइ णावि भासए उच्चं। चयइ" आव०५ अ० विशे० भ० व्या अश्रेयसि, अनादेये,स्था०३ णावि पगासे मुंजइ, गिण्हइ वि य ण णाम अप्पाणं // ठा०३ उ०। बलवर्णादिनिमित्तं प्रतिसेविनि, व्य०१० उ०। यथा- स्नुषा वधूरुचैरासने न निषीदति, नाप्येवं महता शब्देन भाषते, अपसत्थखेत्त-न०(अप्रशस्तक्षेत्र) शरीरादिक्षेत्रे, नि०चू०१० उ०। न च प्रकाशे भूभागे भुङ्क्ते, आत्मीयं च नाम न गृह्णाति, न प्रकटयति, अपसत्थदटव-न०(अप्रशस्तद्रव्य) अस्थ्यादौ अशोभनद्रव्ये, एवं संयतीभिरपि भवितव्यम्। नि०चू०११ उ०। अप्रशस्तस्नुषादृष्टान्तः पुनरयम्अपसत्थलेस्सा-स्त्री०(अप्रशस्तलेश्या) कृष्णनीलकापोतासु तिसृषु अहवा महापयाणिं, सुण्हा ससुरे य इक्कमेक्कस्स। लेश्यासु, उत्त०३४ अन दलमाणेण विणासं, लज्जानासेण पावंति॥ अपसत्थविहगगतिनाम-न०(अप्रशस्तविहगगतिनामन् ) विहा अथवा प्रकारान्तरेण स्नुषादृष्टान्तः क्रियते-महापदानि विकृष्टतराणि योगतिनामभेदे, यदुदयात्पुनरप्रशस्ता गतिर्भवति, यथा खरादीनां, पदानि, स्नुषा श्वशुरश्चैकैकस्य, परस्परं प्रयच्छतो, यथा लज्जानाशेन तदप्रशस्तविहायोगतिनाम / कर्म०६ कर्म०। विनाशं प्राप्नुतः, तथा संयत्यपि निर्लज्जा विनश्यतीत्यक्षरार्थः / अपसारिया-स्त्री०(अपसारिका) पटालिकायाम, बृ०२ उ० भावार्थस्त्वयम्-एगस्स धिज्जाइयस्स भजाए मयाए पुत्तेण से अट्ठिया णिमायत्तिका ओगंगनीयाणि इयरेहिं सुण्हाससुरेहिं हासखिड्डाइयं करेंतेहिं अपसु-पुं०(अपशु) न० ब०॥ द्विपदचतुष्पदादि (परिग्रह) रहिते, “समणे निल्लज्जत्तणओ निस्सेणिआरुहित्ता अतिघायपुव्वगं विगिट्टतराइंपयाई भविस्सामि अणगारे अकिंचणे अपुत्ते अपसू परदत्तभोगी"। आचा०२ देंतेहिं एक्कमेक्कस्स सागारियं पडुप्पायं दो वि विणवाणि, एवं निल्लज्जाए श्रु०७ अ०१ उ०॥ विणासो हुन्जा। अपस्समाण-त्रि०(अपश्यत्) अनीक्षमाणे, "अपस्समाणे पस्सामि, देवे द्वितीयपदमाहजक्खे य गुज्झगे"।स०३० सम०। पायस्स वि तेणहिए, झामिएँ छुढे व सावयभए वा। अपहिट्ठ-त्रि०(अप्रहृष्ट) अहसति, दश०५ अ०१ उ०। बोहिभए खित्ता एव, अपाइया हुज बिइयपए। अपहु-पुं०(अप्रभु) भृतकादौ, ध०३ अधि०। पात्रस्याभावे स्तेनकतया हते अग्निभावाद्ध्यामिते दकपूरेण क्षिप्ते पात्रे अपहुव्वंत-त्रि०(अप्रभुवत्) अप्रभाववति, व्य०१० उ०। श्वापदभये बोधिकभये वाशीध्र पात्राणि परित्यज्य नष्टा सती क्षिप्तचित्ता अपाइया-स्त्री०(अपात्रिका) पावरहितायाम् (निर्ग्रन्थ्याम), वा, आदि शब्दाद्यक्षाविष्टा वा अपात्रिका पावरहिता द्वितीयपदे भवेत्। निर्ग्रन्थ्या पात्ररहितया न भवितव्यम् - बृ०५ उ०। नो कप्पइ निग्गंथीए अपाइयाए हुंतए। अपाउड-त्रि०(अप्रावृत) न विद्यते प्रावृतं प्रावरणं यस्येत्यप्रावृतकः / नो कल्पते निर्ग्रन्थ्या अपात्रायाः पात्ररहिताया भवितुमिति सत्रार्थः। / स्था०५ ठा०१ उ०। औपक्षिकाद्युपरितनोपकरणरहिते, बृ५ उ०। अथ भाष्यम् अपाणय-त्रि०(अपानक) जलवर्जिते, जं०२ वक्ष० / चतु Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपाणय ६०६-अभिधानराजेन्द्रः-भाग 1 अपुणबंधय उत्त०। We von विधाहाररहिते, पञ्चा०१८ विव०॥"छद्रेणं भत्तेणं अपाणएणं' जं०२ अपिट्टणया-स्त्री०(अपिट्टनता) यष्ट्यादिताडनपरिहारे, भ०७ वक्ष०ापानकसदृशेषु शीतलत्वेन दाहोपशमहेतुषु स्थाली-पानकादिषु, श०६ उ०॥ गोशालकसम्मतपदार्थेषु च। भ०१५ श०१ उ०। (तत्प्रदर्शनं 'गोसालक' अपिय-त्रि०(अप्रिय) अप्रीतिकरे, भ०६ श०३३ उ०। अप्रियदर्शने, शब्दे करिष्यामि) पानकाहारवर्जित, जं०४ वक्ष०। पानीयपान- जी०१ प्रति०। अप्रीतिके, “अचियत्तं ति वा अपियत्तं ति वा एग8" परिहारवति, स्था०६ ठा०। एकान्तरोपवासे, ध०३ अधिo व्य०२ उ० अपाय-त्रि०(अपाद) विशिष्टच्छन्दोरचनायोगात्पादवर्जिते, दश०१अ० अपिवणिज्जोदग-पुं०(अपानीयोदक) अपातव्यजले मेघे, भ०७ श०६ उ०। अपायच्छिण्ण-त्रि०(अपादच्छिन्न) अच्छिन्नचरणे, नि०चू०१४ उ०। अपिसुण-त्रि०(अपिशुन) छेदनभेदनयोरकर्तरि, दश०६ अ०३ उ०। अपार-त्रि०(अपार) अनन्ते, स०। अपीइकारग-त्रि०(अप्रीतिकारक) अमनोज्ञे, स्था०३ ठा०१ उ०। अपारंगम -त्रि०(अपारङ्गम) पारस्तटः परकूलं, तद् गच्छतीति अपीइगरहिय-त्रि०(अप्रीतिकरहित) अप्रीतिवर्जिते, पञ्चा०७ विवा पारङ्गगमः, न पारगमोऽपारङ्गमः / पारगतोपदेशाभावाद-पारंगमे, अपीइतर-त्रि०(अप्रीतितर) अमनोज्ञतरे, विपा०१ श्रु०१ अ०। "अपारंगमा एए, ण य पारंगमित्तए"। एते कुतीर्थिकादयः अपारङ्गमा अपीड(ल)णया-स्त्री०(अपीडनता) पादाद्यनवगाहने, पा०ाधा इत्यादि। पारस्तटः परकूलं, तद् गच्छन्तीति पारङ्गमाः, न पारङ्गमा अपीडिय-त्रि०(अपीडित) संयमतपःक्रियया आश्रवनिरोधाअपारङ्गमाः, एत इति पूर्वोक्ताः / पारगतोपदेशा-भावादपारङ्गता इति __ऽनशनादिरूपतया पीडयाऽदुःखिते, पं०सूं०४ सू०। भावनीयम् / न च ते पारगतोपदेशमृते पारङ्गमनायोद्यता अपि पारं अपुच्छिय-त्रि०(अपृष्ट) पृच्छामगते, "अपुच्छिओ न भासिज्जा, गन्तुमलम् / अथवा गमनं गमः, पारस्य पारे वा गमः पारगमः / सूत्रे | भासमाणस्स अंतरा / पिट्ठिमंसं न खाइज्जा, मायामोसंविवत्वनुस्वारोऽलाक्षणिकः, न पारगमोऽपारगमस्तस्मा अपारगमाय / जए"||१|| दश०८ अ०। असमर्थसमासोऽयम् / तेनायमर्थः-पारगमनाय ते न भवन्तीत्युक्तं अपुज-त्रि०(अपूज्य) न०१०। अवन्दनीये, आव०३ अ०। भवति / ततश्चानन्तमपि संसारान्तर्वर्तिन एवासते / यद्यपि अपुट्ठ-त्रि०(अपुष्ट) दुर्बले, बृ०३ उ०। अपुष्कले, सूत्र०१ श्रु०१४ अ०। पारगमनायोद्यमयन्ति, तथापि ते सर्वज्ञोपदेशविकलाः / स्वरुचिविर *अपृष्ट-त्रि०अज्ञीप्सिते, भ०३ श०१ उ०। चितशास्त्रवृत्तयो नैव संसारपारंगन्तुमलम्। आचा०१ श्रु०२ अ०३ उ०) अपुट्ठधम्म-पुं०(अपुष्टधर्मन्) अपुष्टोऽपुष्कलः सम्यगपरिज्ञातो धर्मः अपारग-त्रि०(अपारग) अतीरं गामिनि, सूत्र०१ श्रु०३ अ०३ उ०। श्रुतचारित्राख्यो दुर्गतिप्रसृतजन्तुधरणस्वभावो येनासावपुष्टअपारमग्गो-(देशी) विश्रामे, दे० ना०१ वर्ग। धर्मा / अगीतार्थे, "एवं नु सेहे दि अपुट्ठधम्मे, धम्मं न जाणाइ अपाव-त्रि०(अपाप) अफ्गताशेषकर्मकलड़े. सूत्र०१ श्रु०१अ०३ उ०| अबुज्झमाणे" सम्यगपरिणतधर्मपरमार्थे, सूत्र०१ श्रु०१४ अ० अपावभाव-त्रि०(अपापभाव) लब्ध्याद्यपेक्षारहिततया शुद्धचित्ते, अपुट्ठलाभिय-पुं०(अपृष्टलाभिक) न पृष्टलाभिकोऽपृष्टलादश०६ अ०१ उ० . भिकः। हे साधो ! किं ते दीयते? इत्यादिप्रश्नमन्तरेण भिक्षा लभमाने भिक्षाचरकभेदे, धर्मधर्मिणोरभेदोपचाराद् भिक्षाचर्या भेदे च औ०। अपावमाण-त्रि०(अप्राप्नुवत्) अनासादयति, ओघ०। अपुट्ठवागरण-न०(अपृष्टव्याकरण) अपृष्ट सति प्रतिपादने, "एवं सव्वं अपावय-पुं०(अपापक) शुभचिन्तारूपे प्रशस्तमनोविनये, स्था० अपुट्ठवागरणं नेयव्वं" भ०३ श०१ उ०। 7 ठा०। अपापवाक्प्रर्वतनरूपे वाग्विनये, भ०२५ श०७ उ०। अपुट्ठालंबण-न०(अपुष्टालम्बन) अदृढापवादकारणे, प्रव०२ द्वा०। अपावा-स्त्री०(अपावा)अपापाऽपरनाम्न्यां पुर्याम, यत्र श्रीमहावीरः अपुणकरणसंगय-त्रि०(अपुनःकरणसंगत) पुनरिदं मिथ्याचरणं न स्वामी निर्वृत्तः। स्था०। करिष्यामीत्येवं निश्चयान्विते, पञ्चा०११ विव०। अपास-पुं०(अपाश) अबन्धने, आचा०१ श्रु०१ अ०३ उ०। अपुणचव-पुं०(अपुनश्च्यव) न पुनश्च्यवनं च्यवोऽपुनश्च्यवः, अपासत्थया-स्त्री०(अपार्श्वस्थता) न पार्श्वस्थोऽपार्श्वस्थस्तस्य देवेभ्यश्च्युत्वा तिर्यगादिषूत्पत्त्यभावे, उत्त०३ अ०। भावस्तत्ता / पार्श्वस्थतापरिहारे, अनया चागमिष्यद्भद्रताकारणानि अपुणबंधय-पुं०(अपुनर्बन्धक) न पुनरपि बन्धो मोहनीयकर्मोकुर्वता आशंसाप्रयोगो न विधेयः। स्था०१० ठा०। त्कृष्ट स्थितिबन्धनं यस्य स अपुनर्बन्धकः / पञ्चा०३ विव०। अपासिऊण-अव्य०(अदृष्ट्वा) अनालोच्येत्यर्थे, नि०चू०१ उ०। भावसारे धर्माधिकारिभेदे, यो० बिं०। यस्तु तां तथैव क्षपयन अपि(वि)-अव्य०(अपि) सम्भावने, उत्त०४ उ०। स्था०। बाढाथै, रा०। / ग्रन्थिप्रदेशमागतः पुनर्न तां भङ्गयति भेत्स्यति च ग्रन्थि, Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपुणबंधय 607 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अपुणबंधय सोऽपुनर्बन्धक उच्यते। "पावं ण तिव्वभावा कुणइ" इति वचनात् / ध०३ अधि०। एतल्लक्षणं यथापावं ण तिव्वभावा, कुणइ ण बहुमन्नई भवं घोरं। उचिअट्टिइंच सेवइ, सव्वत्थ वि अपुणबंधो ति॥ पापमशुद्धं कर्म, तत्कारणत्वाद्धिंसाऽऽद्यपि पापम्। तद् नैव तीव्रभावाद् गाढसंक्लिष्टपरिणामात्करोति। अत्यन्तोत्कट-मिथ्यात्यादिक्षयोपशमेन लब्धाऽऽत्मनैर्मल्यविशेषत्वात्तीवेति विशेषणादापन्नम्अतीव्रभावाकरोत्यपि, तथाविधकर्म-दोषात् / तथा न बहु मन्यते, न बहुमानविषयीकरोति, भवं संसार, घोरं रौद्र, घोरत्वावगमात् / तथा उचितस्थितिमनुरूपप्रतिपत्तिं, च शब्दः समुच्चये / सेवते भजते / कर्मलाघवात्सर्वत्रापि, आस्तामेकत्र, देशकालावस्थापेक्षया समस्तेष्वपि देवातिथिमातापितृप्रभृतिषु मार्गानुसारिताभिमुखत्वेन मयूरशिशुदृष्टान्तादपुनर्बन्धकः, उक्तनिर्वचनो जीव इत्येवंविधक्रियालिङ्गो भवतीत्यलं प्रसङ्गेन। ध०१ अधि०। द्वा०ा प्रकारान्तरेणभवामिनन्दिदोषाणां, प्रतिपक्षगुणैर्युतः। वर्द्धमानगुणप्रायो, ह्यपुनर्बन्धको मतः // 178|| भवाभिनन्दिदोषाणां 'क्षुद्रो लोभरतिर्दी नो मत्सरी' इत्यादिना | प्रागेवोक्तानां, प्रतिपक्षगुणैरक्षुद्रतानिर्लोभतादिभिर्युतो, वर्द्धमानगुणप्रायो वर्द्धमानाः शुक्लपक्षक्षपापतिमण्डलमिव प्रतिकलमुल्लसन्तो गुणा औदार्यदाक्षिण्यादयः, प्रायो बाहुल्येन यस्य स तथा / अपुनर्बन्धको धर्माधिकारी मतोऽभिप्रेतः। अस्यैषा मुख्यरूपा स्यात्, पूर्वसेवा यथोदिता। कल्याणाशययोगेन, शेषस्याप्युपचारतः॥१७॥ अस्यापुनर्बन्धकस्यैषा प्रागुक्तमुख्यरूपा निरुपचरिता, स्याद्भवेत्। पूर्वसेवा देवादिपूजारूपा, यथोदिता यत्प्रकारा निरूपिता प्राक् / कल्याणाशययोगेनमनाग मुक्त्यनुकूल-शुभभावसंबन्धेन, शेषस्यापुनबन्धकापेक्षया विलक्षणस्य सकृद्वन्धकादेः, उपचारत औपचारिकी पूर्वसेवा स्यात्, अद्यापि तथाविधभववैराग्या-भावात्तस्य॥१७६।। इह केचिन्मार्गपतितमार्गाभिमुखावपि शेषशब्देनाहुः। तच्च न युज्यते, अपुनर्बन्धकावस्थाविशेषरूपत्वात्तयोरपुनर्बन्धकग्रहणे-नैव गतत्वात्। यतो ललितविस्तरायां मार्गलक्षणमित्थमुक्तम्- इह मार्गश्चेतसोऽ-- वक्रगमनं,भुजङ्गमनलिकाऽऽयामतुल्यो विशिष्ट-गुणस्थानावाप्तिप्रगुणः स्वरसवाही क्षयोपशमविशेष इति / तत्र प्रविष्टो मार्गपतितः मार्गप्रवेश योग्यभावापन्नो मार्गा-भिमुखः, एवं च नैतावपुनर्बन्धकावस्थायाः परपरतरावस्थाभाजौ वक्तुमुचितौ, भगवदाज्ञावगमयोग्यतया, पञ्चसूत्रकवृत्तावन-योरुक्तत्वात्। यथोक्तं तत्र-इयं च भागवती सदाज्ञा सर्वैवाऽपुन-बन्धकादिगम्या / अपुनर्बन्धकादयो ये सत्त्वा उत्कृष्टां कर्मस्थिति तथाऽपुनर्बन्धकत्वेन क्षपयन्ति, ते खल्वपुनर्बन्धकाः / आदि-शब्दात्न्मार्गापतितमार्गाभिमुखादयः परिगृह्यन्ते, दृढप्रतिज्ञालोचनादिगम्यलिङ्गाः / एतद्गम्येयं न संसाराभिनन्दिगम्येति / संसाराऽभिनन्दिनश्चापुनर्बन्धकप्रागवस्थाभाजो जीवाइति ननूपचरितं वस्त्वेव नभवति, तत् कथमुपचारतः शेषस्य पूर्वसेवा स्यात् ? इत्याशङ्ख्याहकृतश्चास्या उपन्यासः, शेषापेक्षोऽपि कार्यतः। नासन्नोऽप्यस्य बाहुल्या-दन्यथैतत्प्रदर्शकः॥१८०|| कृतश्च कृतः पुनरिह अस्याः पूर्वसेवायाः उपन्यासः प्रज्ञापनारूपः शेषापेक्षोऽपि अपुनर्बन्धकभावासन्नजीवानाश्रित्य, कार्यतो भाविनी भावरूपां पूर्वसेवामपेक्ष्य नड्व लोदकं पादरोग इत्यादिदृष्टान्तात् / यतः, न नैवाऽऽसन्नोऽपि समीपवर्त्यपि, जीवोऽस्यापुनर्बन्धकाभावस्य, किं पुनरयमेवेत्यपिशब्दार्थः / बाहुल्यात्प्रायेणान्यथाऽपुनर्बन्धाचारविलक्षणो वर्तते इत्येतस्यार्थस्य प्रदर्शको व्यापकः / न हि मृत्पिण्डादिकारणं कार्याद् घटादेबाहुल्येन वैलक्षण्यमनुभवद् दृश्यते, किन्तु कथञ्चित्तुल्यरूपतामिति। ___इदमेवाधिकृत्याहशुद्ध्यल्लोके यथा रत्नं, जात्यं काञ्चनमेव वा। गुणैः संयुज्यते चित्रैस्तद्वदात्माऽपि दृश्यताम्॥१८१|| शुद्ध्यच्छुद्धिमनुभवत् क्षारमृत्पुटपाकादिसंयोगेन,लोके व्यवहारार्हजनमध्ये यथा रत्नं पद्मरागादि, जात्यमकृत्रिमं, काञ्चनमेव वा चामीकर वा, गुणैः कान्त्यादिभिः, संयुज्यते संश्लिष्यति, चित्रैर्नानाविधैस्तदुचितैः, तद्वद् त्नकाञ्चनवत्, आत्माऽपि जीवः शुद्ध्येत्, किं पुना रत्नकाञ्चने ? इत्यपिशब्दार्थः। दृश्यताम्- ऊहापोहचक्षुषाऽवलोक्यतामिति। अत्रैव मतान्तरमाहतत्प्रकृत्यैव शेषस्य, केचिदेनां प्रचक्षते। आलोचनाद्यभावेन, तथाऽनाभोगसङ्गताम्॥१८२|| सा वक्ष्यमाणविशेषणानुरूपा या प्रकृतिः स्वभावस्तया शेषस्य सकृद्बन्धकादेः, के चित् शास्त्रकारा एनां पूर्वसेवा, प्रचक्षते व्याकुर्वते, न पुनः सर्वे / कीदृशीम् ? इत्याह- आलोचनाद्यभावेन आलोचनस्योहस्य, आदिशब्दादपोहस्य, निर्णयस्य, मार्गविषयस्याभावेन, तथाऽनाभोगसंगतां, तथा तत्प्रकारः, कथञ्चिदपि भवस्वरूपाऽनिर्णायको योऽनाभोग उपयोगाभावस्तत्संगतां पूर्वकारणभावेनोपचरितत्वमुक्तमत्र चानाभोगद्वारेणेति। एतदेव समर्थयमान आहयुज्यते चैतदप्येवं, तीव्र मलविषे न यत्। तदावेगो भवासङ्गस्तस्योपैर्विनिवर्तते॥१८३॥ युज्यते च घटत एवैतदप्यनन्तरोक्तं वस्तु, किं पुनः परम्परोक्तम् ? इत्यपिशब्दार्थः। एवं यथा केचित्प्रचक्षते। अत्र हेतुः-तीनेऽत्यन्तमुत्कटे, मलविषे कर्मबन्धयोग्यतालक्षणे, न नैव, यद्यस्मात्, तदावेगो मलविषावेगः। किंरूपः?, इत्याह-भवासङ्गः संसारप्रतिबन्धः, तस्य शेषजीवस्य, उच्चैरत्यन्तं, विनिवर्तते, मनागपि हि तन्निवृत्तौ तस्यापुनर्बन्धकत्वमेव स्यात् इत्यौ-पचारिक्येव; शेषस्य पूर्वस्यैवेति स्थितम्। अथ यां प्रकृतिमाश्रित्य पूर्वसेवा स्यात्तां, तद्विपर्ययं चाऽऽहसंक्लेशायोगतो भूयः, कल्याणाङ्गतया च यत्। तात्त्विकी प्रकृति या, तदन्या तूपचारतः॥१८४|| Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपुणबंधय 608 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अपुणबंधय संक्लेशाऽयोगतो भूयः पुनरपि, तीव्रसंक्लेशाऽयोगेन कल्याणाङ्गतया च उत्तरोत्तरभववैराग्यादिकल्याणनिमित्तभावेन वा। यद्यस्माद् वर्तते या सा तस्मात्तात्त्विकी वास्तवरूपा, प्रकृतिः स्वभावलक्षणाधर्माऽर्हजीवस्य ज्ञेया; तदन्या तु तस्या अन्या पुनः प्रकृतिरुपचारत उपचरितरूपा तात्त्विकप्रकृतिविलक्षण-त्वात्तस्याः। एनां चाश्रित्य शास्त्रेषु, व्यवहारः प्रवर्तते। ततश्चाधिकृतं वस्तु, नान्यथेति स्थितं ह्यदः // 185 / / एनां चैनामेव तात्त्विकी प्रकृति चाश्रित्यापेक्ष्य, शास्त्रेषुयोगप्रतिबद्धेषु, | व्यवहारः पूर्वसेवादिः, प्रवर्तते प्रज्ञापनीयतामेति / ततश्च तस्मादेव हेतोरधिकृतं पूर्वसेवालक्षणं वस्तु तात्त्विकं, नान्यथा पुनर्बन्धक व्यतिरिच्य इति स्थितं प्रतिष्ठितं, हि स्फुटम्, अद एतत्। तथाशान्तोदात्तत्वमत्रैव, शुद्धानुष्ठानसाधनम्। सूक्ष्मभावोहसंयुक्तं, तत्त्वसंवेदनानुगम्॥१८६|| शान्तस्तथाविधेन्द्रियकषायविकारविकलः, उदात्त उच्चोच्चतराधाचरणस्थितिबद्धचित्तः / ततः शान्तश्वासावुदात्तश्च शान्तोदात्तः, तस्य भावस्तत्त्वम् / अत्रैव प्रोक्तप्रकृतौ सत्यां, जायते शुद्धाऽनुष्ठानसाधनं निरवद्याचरणकारणम्।तथा- सूक्ष्म-भावोहसंयुक्तं बन्धमोक्षादिनिपुणभावपर्यालोचनयुतम्। अत एव तत्त्वसंवेदनानुगंतत्त्वसंवेदनसंज्ञितज्ञानविशेषसमन्वितम्। ततः किमुक्तं भवति ?-स्वबुद्धि कल्पनाशिल्पिनिर्मितम् / स्वबुद्धिकल्पना स्वच्छन्दमतिविकल्परूपा, सैव शिल्पी वैज्ञानिकस्तेन निर्मितं घटितम्; न तुनपुनस्तत्त्वतः परमार्थतस्तद्भोगसुखं धर्मानुष्ठानं चेति। तद्भावनाऽर्थमाहभोगानशक्तिवैकल्यं, दरिद्रायौवनस्थयोः। सुरूपरागाशले च, कुरूपस्य स्वयोषिति // 160|| इह भोगाङ्गानि रूपादीनि / यदाह वात्स्यायनः- "रूपवयो - वैचक्षण्यसौभाग्यमाधुर्य श्वर्याणि भोगसाधनम्' इति / तत्रापि रूपवयो वित्तान्यत्वानि प्रधानानीति / एतदेव त्रितयमपेक्ष्याऽऽह 'भोगाङ्गशक्तिवैकल्यं' भोगाङ्गानां रूपादीनां, शक्ते गा-सेवनलक्षणाया वैकल्यमभावः, दरिद्रायौवनस्थयोर्दरिद्रस्य भोगाङ्गविरहोऽयौवनस्थस्य त्वशक्तिरिति / सुरूपरागाशङ्के च सुरूपे भोक्तुमारब्धे स्त्रीगते सुन्दरे संस्थाने रागोऽभिष्वङ्गातिरेकः, आशङ्का च स्त्रीगतानुरागसंदेहरूपा तस्मिन्, ततः सुरूपरागश्चाशङ्का च सुरूपरागाशङ्के, पुनः कुरूपस्य तु पुंसः स्वयोषिति स्वस्त्रिया-मिति। ततश्चअभिमानसुखाभावे, तथा क्लिष्टान्तरात्मनः। अपायशक्तियोगाच, न हीत्थं भोगिनः सुखम् / / 191|| अभिमानसुखाभावे अहं सुखीत्येवं चित्तप्रतिपत्तिरूपलक्षणस्याभिमानसुखस्याभावे सति, तथेति विशेषणसमुचये / क्लिष्टाम्तरात्मनोऽपूर्यमाणेच्छत्वेन साबाधचित्तस्यापाय-शक्तियोगायापायस्य निर्वाहशरीरव्यवच्छेदरूपस्य दरिद्रायौवनस्थयोः कुरूपस्य वा रुचिमत्स्त्रीकृतोच्चाटनादेर्या शक्तिर्योग्यता, तस्या योगात्संबन्धात्, चः समुच्चये / किम् ? इत्याह-- नहि नैवेत्थमनाढ्यत्वादिविशिष्टस्य भोगिनः सुखं भोगजं यद्विचक्षणैर्मुग्यत इति। यथा च तद्भोगसुखमनुष्ठानं च दृष्टान्तदान्तिकभावेन स्यातां तथाऽऽहअतोऽन्यस्य तु धन्यादे-रिदमत्यन्तमुत्तमम्। यथा तथैव शान्तादेः,शुद्धानुष्ठानमित्यपि।।१९२|| अतः प्रागुक्ताद्भोगिनः सकाशात्, अन्यस्य तु अन्यप्रकारभाजः, पुनः धन्यादेरुक्तरूपस्य भोगिन इदं भोगसुखमत्यन्तमुत्तमं, शेषभोगसुखातिशायि यथा स्यात्तथैव, शान्तादेःशान्तोदात्तप्रकृ तेरनुष्ठान प्रस्तुतमित्यपीदमपि ज्ञेयम्। एवं सति यत्स्यात्तदाहक्रोधाद्यबाधितः शान्तः, उदात्तस्तु महाशयः। शुभानुबन्धिपुण्याच, विशिष्टमतिसंगतः।।१६३|| क्रोधाद्यबाधितः शान्तः, उदात्तस्तु उदात्तः, पुनर्महाशयो गाम्भीर्यादिगुणोपेतत्वेन महाचेताः, शुभानुबन्धिपुण्याच पुण्यानुबन्धिनः पुण्यात्सकाशात्पुनर्विशिष्टमतिसंगतो मार्गानुसारि प्रौढप्रज्ञानुगतः सन्। किमित्याहऊहतेऽयमतःप्रायो, भवबीजादिगोचरम्। कान्ताऽऽदिगतगेयाऽऽदि, तथा भोगीव सुन्दरम्।।१६४|| शान्तोदात्तः प्रकृत्येह, शुभभावाश्रयो मतः। धन्यो भोगसुखस्येव, वित्तान्यो रूपवान् युवा / / 187 // शान्तोदात्त उक्तरूपः, प्रकृत्या स्वभावेनेह जने, शुभभावाश्रयः परिशुद्धचित्तपरिणामस्थानं, मतो जन्तुः / अत्र दृष्टान्तमाह- धन्यः सौभाग्यादेयतादिना धनार्हो भोगसुखस्येव शब्दरूपरसगन्धस्पर्शसेवालक्षणस्य यथाऽऽश्रयः, वित्ताढ्यो विभवनायकः, रूपवान् शुभशरीरसंस्थानः, युवा तरुणः पुमान्। एतदेव व्यतिरेकत आहअनीदृशस्य च यथा, न भोगसुखमुत्तमम् / अशान्तादेस्तथा शुद्धं, नानुष्ठानं कदाचन // 158|| अनीदृशस्य च धन्यादिविशेषणविकलस्य पुनर्यथा न भोगसुखं शब्दादिविषयानुभवलक्षणम्, उत्तम प्रकृष्टम्, अशान्तादेरशान्तस्यानुदात्तस्य च / तथा भोगसुखवत्, शुद्धं निर्वाणावन्ध्यबीजकल्पं नानुष्ठानं देवपूजनादि, कदाचन क्वचिदपि काले। तहिं किं स्यात् ?, इत्याशङ्कयाऽऽहूमिथ्यात्रिकल्परूपं तु, दयोयमपि स्थितम्। स्वबुद्धि कल्पनाशिल्पि- निर्मितं न तु तत्त्वतः // 18 // मिथ्याविकल्परूपं तु मरुमरीचिकादिषु मुग्धमृगादीनां जलादिप्रतिभासाकारं, पुनर्द्वयोरुक्तविलक्षणयो गिधार्मिकयोयमपि भोगसुखानुष्ठानरूपं, किं पुनरेकैकमित्यपिशब्दार्थः / स्थितं प्रतिष्ठितम्। Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपुणबंधय 609 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 . अपुणबंधय ऊहते वितर्कयति, अयमपुनर्बन्धकः, अतो विशिष्टमति-सांगत्यात् प्रायो बाहुल्येन / कथम् ?, इत्याह- भवबीजादिगोचरं भवबीजं भवकारणम्; आदिशब्दाद्भवस्वरूपं भवफलं च गृह्यते। यथा- "एस णं अणाइजीवे अणाइजीवस्स भवे अणाइ-कम्भसंयोगनिव्वत्तिए. दुक्खरूवे दुक्खफले दुक्खाणुबंधित्ति' ततो भवबीजादिगोचरो यत्र तत्तथा, क्रियाविशेषणमेतत् / अथवा भवबीजादिगोचरो विषय ऊहनीयतया भवबीजादिगोचरस्तम् / अत्र दृष्टान्तः- कान्तादिगतगेयादि / कान्ता वल्लभा, आदिशब्दा-त्तदन्यगायनादिग्रहः / तद्गतं तत्प्रतिबद्धं यद् गेयं गीतम, आदि-शब्दादूपरसादिशेषेन्द्रियविषयग्रहः / तथा तत्प्रकारो गेयाचूह-योग्यो भोगी, स इव सुन्दरं मनोहारीन्द्रियविषयस्थानमागतमिति / यथा विचक्षणो भोगी सुन्दरं कान्तादिगतगेयादि ऊहते, तथा-ऽयं भवबीजादिकमिति भावः। यथोहते तथैवाऽऽहप्रकृतेर्भेदयोगेन, नासमो नाम आत्मनः। हेत्वमेदादिदं, चारु,न्यायमुद्राऽनुसारतः // 165 / / प्रकृतेः परपरिकल्पितायाः सत्त्वरजस्तमोरूपायाः, स्व-प्रक्रियायाश्च ज्ञानावरणादिलक्षणायाः, भेदयोगेनैकान्तेनैव भेदेनेत्यर्थः। न नैवासमो विसदृशो, नामः परिणामश्चैतन्यश्रद्धा-नोन्मीलनादिकः प्रत्यक्षत एवोपलभ्यमानः, आत्मनो जीवस्य स्यात, किन्तु सर्वजीवानां सर्वदैव सम एव प्राप्नोति / कु तः?, इत्याह-हेत्वभेदात् / हेतोः प्रकृतिभेदलक्षणस्याभेदाद् नानात्वात् / नाभिन्ने हेतौ क्वचिदपि फलभेद उपपद्यत इति कृत्वा इदमनेकान्तेनैव प्रकृतिभेद आत्मनः परिणामवैसदृश्या-साङ्गत्यलक्षणं वस्तु चारु संगतं वर्तते / कुतः ? इत्याह-न्याय- मुद्राऽनुसारतः, न्यायस्य मुद्रा कृतप्रयत्नैरपि परैरनुल्लङ्घनीयत्वाद् राजादिमुद्रावत, तस्या अनुसारतोऽनुवर्तनात्। तथाहि-यदि प्रकृतिभेदे सत्यपि परिणामनानात्वमात्मन इष्यते, तदा मुक्तानामपि प्राप्नोति, संसारिणां मुक्तानामपि च प्रकृतिभेदाविशेषात्। एवं च सर्वस्तद्योगा-दयमात्मा तथा तथा। भवे भवेदतः सर्व-प्राप्तिरस्याविरोधिनी / / 166|| एवं च प्रकृतिभेद आत्मनः परिणामनानात्वसाङ्गत्ये सति पुनः किं स्यादित्याह-सर्वः निरवशेषः, तद्योगात्प्रकृतिसंयोगात्कथञ्चिदैक्यापत्तिलक्षणात्, अयम् -अपुनर्बन्धकाद्यवस्थाभाग आत्मा जीवः, तथा तथा नरनारकादिपर्यायभाक्त्वेन भवे संसारे, भवेत्स्यात्। अतस्तथा तथा भवनात् सर्वप्राप्तिः संसारापवर्गावस्थालाभरूपाऽस्यात्मनोऽविरोधिनी अविघटमाना संपद्यते / प्रकृतियोगात्तस्य संसारावस्था, / विप्रयोगाच मुक्तावस्थेति भावः। सांसिद्धिकमलाद् यदा, न हेतोरस्ति सिद्धता। तद्विघ्नं यदभेदेऽपि, तत्कालादिविभेदतः // 197|| सांसिद्धिकमलात्कर्मबन्धयोग्यतालक्षणादनादिस्वभावात्, सांसिद्धिकमलं परिहत्येत्यर्थः। यद्वेति ऊहस्यैव पक्षान्तरसूचकः। 'न' नैव, हेतोरन्यस्येश्वरानुग्रहादेः परिणामचित्रतायां साध्यायां सिद्धता प्रमाणप्रतिष्ठिता। ईश्वरो हि अप्रतिस्खलितवैराग्यवान्। यतः पठ्यते"ज्ञानमप्रतिघं यस्य, वैराग्यं च जगत्पतेः। ऐश्वर्यं चैव धर्मश्च, सह सिद्ध चतुष्टयम्' ||1|| ततः कथमसौ कञ्च-नानुगृह्णीयान्निगृह्णीयाद्वा ? किञ्चासौ योग्यतामपेक्ष्य प्रवर्तते, इतरथा वेति द्वयी गतिः। किं चातः ? यदि प्रथमः पक्षः, तदा सैव योग्यता हेतुः किमीश्वरानुग्रहनिग्रहाभ्याम् ? अथेतरथा, तदा सार्वत्रि-कावेवानुग्रहनिग्रहौ स्यातां, न तु विभागेन, न वा क्वचित्, निमित्ताभावात्। यतः पठ्यतेनित्यं सत्त्वमसत्वं वा, हेतोरन्यानपेक्षणात्।। अपेक्षातो हि भावानां,कादाचित्कत्वसंभवः / / 1 / / इति / / सां सिद्धिकमलमेवात्मनां परिणामवैचित्र्यहेतुरत्र हेतुः / तत्सांसिद्धिकमलं, भिन्नं नानारूपम्, यद्यस्मात्कारणात् अभेदेऽपि कथश्चित्सामान्यरूपतया / एतदपि कुतः ? इत्याह- तत्कालादिविभेदतः ते शास्त्रान्तरप्रसिद्धा ये कालादयः कालस्वभावनियतिपूर्वकृतपुरुषकारलक्षणा हेतवः सर्वजगत्कार्यजनकाः, तेषां विभेदतो वैसदृश्यात् / इदमुक्तं भवतिकाला-दिभेदात्तत्सांसिद्धिकं मलमात्मना सह भेदाभेदवृत्ति सद्यो नानावृत्तं रूपं वर्तते, ततस्तद्वशादेव परिणामवैचित्र्यमात्म-नामनुपचरितमेवोपपद्यते, न पुनरीश्वरानुभावात् / प्रागुक्तयुक्त्या तस्य निराकृतत्वात्, इति वा चिन्तयत्यसाविति। इदमेव समर्थयतिविरोधिन्यपि चैवं स्या-त्तथा नोकेऽपि दृश्यते। स्वरूपेतरहेतुभ्यां, भेदादेः फलचित्रता // 16 // विरोधिन्यपि च विघटमानैव च सर्वार्थप्राप्तिरित्यनुवर्तते, न पुनः कथञ्चिदपि विरोधिनी; एवं सांसिद्धिकमलादन्यहेल्वभ्युपगमे सति, स्याद्भवेत् / यथा च विरोधिनी सर्व प्राप्तिः, तथाऽनन्तरमेव दर्शितेति। तथेति हेत्वन्तरसमुच्चये। लोकेऽपि शास्त्रे तावद्दर्शितैवेत्यपिशब्दार्थः 1 दृश्यते विलोक्यते / स्वरूपेतरहेतुभ्यां स्वरूपेतरहेतुः परिणामिकारणम्। यथा- मृद्घटस्य, इतरः पुनर्निमित्तहेतुर्यथातस्यैव चक्रचीवरादि, ताभ्यां तावाश्रित्येत्यर्थः / भेदादेर्भदादभेदाच, यथायोगं संबन्धात्स्वरूपहेतुम-पेक्ष्याभेदात्, इतरापेक्षयाच भेदात्। किमित्याहफलचित्रता कार्याणां नानारूपता। यदि हि मृन्मात्रक एव घटः स्यात्तदा सर्वघटानां मृन्मयत्वाविशेषादेकाकारतैव स्यात् / तथा बाह्यमात्रनिमित्तत्वे परिणामिकारणविरहेण कूर्मरोमादेवि न कस्यचित्कार्यास्योत्पत्तिः स्यादिति / स्वरूपेतरहेतू समाश्रित्याभेदवृत्त्या भेदवृत्त्या च कार्यमुत्पद्यमानं चित्ररूपतां प्रतिपद्यते / एवं च सांसिद्धिके मले सर्वजीवानां परिणामिकारणे सति तत्कालादिबाह्यकारणसव्य-पेक्षतायां चित्रकर्मबन्धकानां नानापरिणामप्राप्त्या सर्वो लोकः शास्त्रप्रसिद्धो नरनारकादिपर्यायः, तद्ग्रासात् पुनरपुनर्बन्धकत्वादियावत्सर्वक्लेशप्रहाणिलक्षणा मुक्तिरिति सर्वमनुपचरितमुपपद्यत इत्यूहते इति। ततः किमित्याहएवमूहप्रधानस्य, प्रायो मार्गानुसारिणः। एतद्वियोगविषयोऽप्येष सम्यक् प्रवर्त्तते // 16 // एवमुक्तरूपेण ऊहप्रधानस्य वितर्कसारस्य, प्रायो बाहुल्येन, मार्गानुसारिणो निर्वाणपथानुकूलस्यापुनर्बन्धकत्वेन क्वचिदन्यथाऽपि प्रवृत्तिरस्य स्यादिति प्रायो ग्रहणम् / एतद्वियोगविषयोऽपि आत्मना सह प्रकृतिविघट नगोचरः, किं पुनर्भवबीजादिगोचर इत्यपिशब्दार्थः / एष ऊहः, सम्यगूहनीयार्था Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपुणबंधय ६१०-अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अपुव्यकरण व्यभिचारी, प्रवर्त्तते समुन्मीलति। इदमुक्तं भवति- यथा भवबीजादिगो- न भवति, "सिद्धिगइणिलयं सासयमव्वाबाहं अपुणब्भवं पसत्थं चरमतिनिपुणमूहते,तथा क्रमेणात्मनः कर्मणा वियोगो घटत एवमप्यूहत / सोमं'' (ब्रह्मचर्य),ततः पुनर्भवसम्भवाऽभावात्। प्रश्न०१ आश्र० द्वा०। इति। अपुणब्भाव-त्रि०(अपुनर्भाव)अपुनस्तथाजायमाने, "अपुणब्भावे एवं सति यत्सिद्धं, तदाह सिया'" अपुनर्भावस्यात् कर्म, पुनस्तथाऽबन्धकत्वेन / पं० सं०१ द्वा०। एवंलक्षणयुक्तस्य, प्रारम्भादेव चापरैः। अपुणरागम-त्रि०(अपुनरागम) नित्ये, जन्मादिरहिते च। दश०१चू०। योग उक्तोऽस्य विद्वद्वि-र्गापेन्द्रेण यथोदितम् // 200 | अपुणरावत्तय-पुं०(अपुनरावर्तक) न० ब०। अविद्यमानपुनर्भवाऽवतारे, एवंलक्षणयुक्तस्य पूर्वोक्तोहगुणसमन्वितस्य, प्रारम्भादेव प्रारम्भमेव, सिद्धिगत्याख्येऽर्थे, पुनर्भवबीजकर्माऽभावात्, तत्प्राप्तानां पुनरजनपूर्वसेवालक्षणमाश्रित्य, अपरैस्तीन्तिरीयैर्योगो वक्ष्यमाणनिरुक्तः, नात्। स० १सम०। औ०। "अपुनरावत्तयं सिद्धिगइणामधेयं ठाणं उक्तोऽस्यापुनर्बन्धकस्य, विद्वद्भिर्विचक्षणैः, गोपेन्द्रेण योगशास्त्रकृता, संपाविउकामेणं" भ०१श०१ उ० यथोदितं यत्प्रकारमिदं वस्तु, तथो-दितमिति। यो० बिं०। अपुणरावित्ति-पुं०(अपुनरावृत्ति) न० / न पुनरावृत्तिः संसारेऽवतारो पुनरपि यस्मात् तत्तथा। सिद्ध्याख्येऽर्थे, ध०२ अधिo रा०ा पुनरावृत्त्यभावे, शुक्लपक्षेन्दुवत्प्रायो, वर्द्धमानगुणः स्मृतः। पं० सू०। "ऋतुर्व्यतीतः परिवर्तते पुनः, क्षयं प्रयातः पुनरेति भवाभिनन्दिदोषाणा-मपुनर्बन्धको व्यये ||1|| चन्द्रमाः / गतं गतं नैव तु संनिवर्तते, जलं नदीनां च नृणां च अस्यैव पूर्वस्येवोक्ता, मुख्याऽन्यस्योपचारतः। जीवितम्" ||1|| पं० सू०५ सू०। / अस्यावस्थान्तरं मार्ग-पतितामिमुखौ पुनः॥२॥ दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं प्रादुर्भवति नाऽङ्कुरः कर्मबीजे तथा दग्धे, न रोहति भवाऽङ्कुरः ||1|| ल०॥ (शुक्लेति) शुल्कपक्षेन्दुवदुज्ज्वलपक्षचन्द्रवत्, प्रायो बाहुल्येन, वर्द्धमानाः प्रतिकलमुल्लसन्तो, गुणा औदार्य-दाक्षिण्यादयो यस्य अपुणरुत्त-त्रि०(अपुनरुक्त) न०त०।पुनरुक्तिदोषरहिते, "अपुणरुत्तेहिं भवाऽमिनन्दिदोषाणां प्रागुक्तानां क्षुद्र-त्वादीनां व्ययेऽपगमे महावित्तेहिं संथूणइ'" / रा०। जं०। आ०म० सत्यपुनर्बन्धकः स्मृतः / / 1 / / (अस्यैवेति) अस्यैवाऽपुनर्बन्धकस्यैवोक्ता अनुवादादरवीप्सा-भृशार्थविनियोगहेत्वसूयासु। ईषत्संभ्रमविस्मय- गणनास्मरणेष्वपुनरुक्तम्॥१|| दर्श०। गुर्वादिपूजालक्षणा पूर्वसेवा, मुख्या कल्याणाशययोगेन निरुपचरिता, अन्यस्याऽपुनर्बन्धकाऽतिरिक्तस्य सकृबन्धकादेः, पुनरुपचारतः सा, अपुण्ण-त्रि०(अपुण्य) न०ब० / अविद्यमानपुण्ये, विपा०१ श्रु०७ अ०। तथाविधभववैराग्याऽभावात् / मार्गपतितमार्गाऽभिमुखौ पुन तीब्राऽसातोदये वर्तमाने, “सामा णेरइयाणं, पवत्तयंती अपुन्नाणं / " रस्याऽपुनर्बन्धकस्य, अवस्थान्तरं दशाविशेषरूपः, मार्गों हि सूत्र० 1 श्रु०५ अ०१ उ०। अनार्ये पापाऽऽचारे, आचा०१ श्रु०६ अ०१ उ० चेतसोऽवक्र गमनं भुजङ्ग मनलिकाऽऽयामतुल्यो विशिष्ट गुणस्थानाऽवाप्तिप्रगुणः स्वरसवाही क्षयोपशमविशेषः तत्र प्रविष्टोमार्गपतितो *अपूर्ण-त्रि० पूर्णव्यतिरिक्ते,"अहण्णं अधण्णा अपुण्णा" अपूर्णाः, मार्गप्रवेशयोग्यभवत्वोपपन्नश्च मार्गाऽभिमुख इति / न ह्येवमेतावपुनर्ब अपूर्णमनोरथत्वात्। विपा०१ श्रु०७ अ०। न्धकाऽवस्थायाः परतरावस्थाभाजौ, भगवदाज्ञाऽवगमयोग्यतया अपुण्णकप्प-पुं०(अपूर्णकल्प) असमाप्तकल्पे, व्य०४ उ०। पञ्चसूत्रकवृत्तावनयोरुक्तत्वात्। अपुण्णकप्पिय-पुं०(अपूर्णकल्पिक) गीतार्थे असहाये, व्य० 1 उ०। अपुनर्बन्धकस्यैवाऽनुष्ठानं युक्तम् - अपुत्त-त्रि०(अपुत्र) न० ब०। सुतरहिते, "अपुत्रस्य न सन्ति लोकाः। योग्यत्वेऽपि व्यवहितो, परे त्वेतौ पृथग् जगुः / ('लोगवाय' शब्देऽस्य खण्डनं वक्ष्यते) स्वजन-बन्धुरहिते, निर्ममे च। अन्यत्राप्युपचारस्तु, सामीप्ये बहुभेदतः // 3 // आचा०२ श्रु०६अ०२ उ०। (योग्यत्वेऽपीति) परे त्वेतौ मार्गपतितमार्गाभिमुखौ योग्यत्वेऽपि अपुम-पुं०(अपुंस्) नपुंसके, ओघ०।०। ''अहमेत्तिए अपुमं भणिओ व्यवहितावपुनर्बन्धकापेक्षया दूरस्थाविति, पृथगपुनर्बन्धकाद् भिन्नौ परिसेवामि''। नि०चू०१ उ०। जगुः / अन्यत्रापि सकृ बन्धकादावपि, उपचारस्तु पूर्व- अपुरकार-पुं०(अपुरस्कार) पुरस्करणं पुरस्कारः / गुणवानयमिति सेवायाः सामीप्येऽपुनर्बन्धकसन्निधानलक्षणे सति, बह्न भेदतो गौरवाऽध्यारोपः, न तथा पुरस्कारः / अवज्ञाऽऽस्पदत्वे, "गरहणयाए ऽतिभेदाभावात् / / 3 / / द्वा० 14 द्वा०। पं० सू०। बीजाधानमपि अपुरकारंजणयइ" / उत्त० 26 अ०। ह्यपुनर्बन्धकस्य। न चाऽस्यापि पुद्गलपरावर्तः संसारः। (ल०) न ह्येवं अपुरकारगय-त्रि०(अपुरस्कारगत) अपुरस्कारं गतः प्रवर्तमानो नेष्टसाधक इति भग्नोऽप्येतद्यत्नलिङ्गोऽपुनर्बन्धक इति तं प्राप्तोऽपुरस्कारगतः / सर्वत्राऽवज्ञाऽऽस्पदीभूते, उत्त० 26 अ०। प्रत्युपदेशसाफल्यं नाऽनिवृत्ताधिकारायां प्रकृतावेवंभूत इति कापिलाः। | अपुरव-त्रि०(अपूर्व) पूर्वमदृष्टश्रुते, 'पूर्वस्य पुरवः ||4270 // इति न वा पुनर्भवविपाक इति च सौगताः / अपुनर्बन्धकास्त्वेवंभूता इति ___ शौरसेन्यां पूर्वशब्दस्य पुरवेत्यादेशः। "अपुरवं नाडों। अपुरवागदं। जैनाः। तच्छ्रोतव्यमेतदादरेण परिभावनीयम्। ल०|| पक्षे- अपुव्वं पदं। अपुव्वाऽगदं"। प्रा०।। अपुणब्भव-त्रि०(अपुनर्भव) नम्ब०। पुनर्भवसम्भवरहिते,यतः पुनर्जन्म | अपुरिस-पुं०(अपुरुष)नपुरुषः। न०तानपुंसके, स्था०६ ठा०। Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपुरिसक्कारपरक्कम 611- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अपूरत अपुरिसक्कारपरक्कम-त्रि०(अपुरुषकारपराक्रम) न० ब०। पुरुषकारः एतच गुणस्थानकं प्रपन्नानां कालत्रयवर्तिनो नानाजीवानपेक्ष्य पराक्रमश्चन विद्येते यस्यसोऽपुरुषकारपराक्रमः। अनिष्पादितप्रयोजनेन सामान्यतोऽसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि अध्य-वसायस्थानानि निष्पादितप्रयोजनेन वा पौरुषाऽभिमानेन रहिते। विपा०१ श्रु०३ अ०। भवन्ति। कथं पुनस्तानि भवन्तीति विनेय-जनाऽनुग्रहार्थं विशेषतोऽपि भा प्ररूप्यन्तेअपुरिसवाय-पुं०स्त्री०[अपुरुषवाद(च)] अपुरुषो नपुंसकः तद्वादः, इह तावदिदं गुणस्थानकमन्तर्मुहूर्तकालप्रमाणं भवति / तत्र च वाग् वा / बृ०६ उ०। नपुंसकोऽयमित्येवंवार्तायाम्, "अपुरिसवायं प्रथमसमयेऽपि ये प्रपन्नाः, प्रपद्यन्ते, प्रपत्स्यन्तेच, तदपेक्षयाजघन्यावयमाणे, दासवायं वयमाणे, इच्चेइ कप्पस्स'' द्वितीयः प्रस्तारः / दीन्युत्कृष्टान्तान्यसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणा-ऽध्यवसायस्थानानि (व्याख्याऽन्यत्र)। स्था०६ठा०। लभ्यन्ते, प्रतिपत्तृणां बहुत्वादध्यवसायानां विचित्रत्वादिति भावनीयम्। अपुरोहिय-त्रि०(अपुरोहित) नाऽस्तिपुरोहितो यत्र / शान्तिकर्मकारि ननु यदि कालत्रयाऽपेक्षा क्रियते, तदैतद् गुणस्थानकं प्रतिपन्नानामनरहिते, यत्र तथाविधप्रयोजनाऽभावात्पुरोहितो नाऽस्ति। भ०३ श०१ न्तान्यध्यवसायस्थानानि कस्मात् न भवन्ति ? अनन्तजीवरस्य उ० प्रतिपन्नत्वादनन्तै-रेव च प्रतिपत्स्यमानत्वादिति। सत्यम्। स्यादेवं यदि तत्प्रतिपत्तॄणां सर्वेषां पृथक् पृथग् भिन्नान्येवाऽध्यवसायस्थानानि स्युः, अपुव्व-त्रि०(अपूर्व) न० त०। अभिनवे अनन्यसदृशे, प्रव० 224 द्वा०। तच नाऽस्ति, बहूनामेकाध्यवसायस्थानवर्तित्वादपीति / ततो प्रति०। अवृतपूर्वे, आ०म०द्वि०1 अपूर्वकरणे, आव० 4 अ०। द्वा०। द्वितीयसमये तदन्यान्यधिकतराण्यध्यवसायस्थानानि लभ्यन्ते / अपुव्वकरण-न०(अपूर्वकरण) अपूर्वामपूर्वां क्रियां गच्छतीत्यपूर्वक तृतीयसमये तदन्यान्यधिकतराणि। चतुर्थसमये तदन्यान्यधिक-तराणि रणम् / तत्र च प्रथमसमय एव स्थितिघातरसधातगुणश्रेणिगुणसंक्रमाः, इत्येवं तावन्नेयं यावचरमसमयः। एतानि च स्थाप्यमानानि विषमचतुरस्त्रं अन्यश्च स्थितिबन्धः, इत्येते पञ्चाऽप्यधिकारा यौगपद्येन पूर्वमप्रवृत्ताः क्षेत्रमभिव्याप्नुवन्ति। प्रवर्तन्ते इत्यपूर्वकरणम्।आचा०१श्रु०६ अ०१ उ०। अप्राप्त पूर्वमपूर्वम्, तद्यथा- 4,00,00,000 अत्र प्रथमसमयजघन्याऽध्यवसायस्थिति-घातरसघाताद्यपूर्वाऽर्थनिर्वर्तनं वा। अपूर्व च तत्करणंच अपूर्व स्थानात् प्रथमसमयोत्कृष्टमध्यवसायस्थानमनन्तगुणविशुद्धम, तस्माच करणम् / भव्यानां सम्यक्त्वाद्यनुगुणे विशुद्धतररूपे परिणाम द्वितीयसमयजघन्यमनन्तगुणविशुद्धम्, ततोऽपि द्वितीय-३०,००,००० विशेषे, आ०म०प्र०ा पञ्चा०। बृ०षो। ('करण' शब्दे तृतीयभागे 356 समयजघन्यात् तदुत्कृष्टमनन्तगुणविशुद्धम, तस्माच्च तृतीयपृष्ठे व्याख्यास्यते चैतत् ) अपूर्वमभिनवं प्रथममित्यर्थः / करणं 2,00,000 समयजघन्यमनन्तगुणविशुद्धम् / ततोऽपि तदुत्कृष्ट - स्थितिघातरसघातगुणश्रेणिगुणसंक्रमस्थितिबन्धानां पञ्चानामर्थानां 10,000 मनन्तगुणविशुद्धमित्येवंतावन्नेयं यावद् द्विचरमसमयोत्कृष्टात् निर्वर्तनं यस्याऽसावपूर्वकरणः / अष्टमगुणस्थानकं प्रतिपन्ने जीवे, कर्म०। चरमसमयजघन्यमनन्तगुणविशुद्धम् / ततोऽपि तदुत्कृष्टमनन्तगुणतथाहि- बृहत्प्रमाणाया ज्ञानावरणीयादि-कर्मस्थितेरपर्वतनाकरणेन विशुद्धमिति / एकसमयगतानि चाऽमून्यध्यवसायस्थानानि खण्डनमल्पीकरणं स्थितिघात उच्यते / रसस्यापि प्रचुरीभूतस्य परस्परमनन्तभागवृद्ध्यसङ्ख्यातभागवृद्धिसङ्ख्यातभागवृद्धिसंख्येयसतोऽपवर्तनाकरणेन खण्डन-मल्पीकरण रसघात उच्यते। एतौ द्वावपि गुणवृद्ध्यसंख्येयगुण-वृद्ध्यनन्तगुणवृद्धिरूपषट्स्थानकपतितानि / पूर्वगुणस्थानेषु विशुद्धेरल्पत्वादल्पावेद कृतवान् / अत्र पुनर्विशुद्धेः प्रकृ युगपदेतद् गुण-स्थानप्रविष्टानां च परस्परमध्यवसायस्थानव्यावृत्तिटत्वाद् बृहत्प्रमाणतया अपूर्वाविमौ करोति / तथा उपरि लक्षणा निवृत्तिरप्यस्तीति / निवृत्तिगुणस्थानकमप्येतदुच्यते / अत तनस्थितेर्विशुद्धिवशादपवर्तनाकरणेनाऽवतारितस्य दलिकस्याऽन्त एवोक्तं सूत्रे-"नियट्टि अनियट्टीत्यादि" / कर्म०२ कर्म०। प्रव०। मुहूर्तप्रमाणमुदयक्षणादुपरि क्षिप्रतरक्षपणाय प्रतिक्षणमसंख्येयगुणवृद्ध्या विरचनं गुणश्रेणिः। स्थापना अपुटवणाणग्गहण-न०(अपूर्वज्ञानग्रहण) अपूर्वस्य ज्ञानस्य निरन्तरं ग्रहणमपूर्वज्ञानग्रहणम् / तच्चाऽष्टादशं तीर्थकरनामकर्मबन्धएतांच पूर्वगुणस्थानेष्वविशुद्धत्वात् कालतो द्राधीयसी दलिकरचना कारणम् / अपूर्वस्य ज्ञानस्य निरन्तरं ग्रहणे, आ०म०प्र०। प्रव०। माश्रित्याऽप्रथीयसीमल्पदलिकस्याऽपवर्तनाद् विरचितवान् / इह तु तामेव विशुद्धत्वादपूर्वां कालतो ह्रस्वतरां दलिकरचनामाश्रित्य पुनः अपु(प्पु)स्सुय-त्रि०(अल्पोत्सुक)अविमनस्के, आचा०२ श्रु०३ अ० पृथुतरां बहुतरदलिकस्यापवर्तनाद् विरचयतीति। तथा बध्यमानशुभ १उ०। प्रकृतिष्ववध्यमानाऽशुभ-प्रकृतिदलिकस्य प्रतिक्षणमसंख्येयगुणवृद्ध्या अपुहत्त-त्रि०(अपृथक्त्व) अविद्यमानं पृथक्त्वं प्रस्तावात् संयमयोगेभ्यो विशुद्धिवशात् नयनं गुणसंक्रमः / तमप्यसाविहाऽपूर्वं करोति / तथा विमुक्तत्वस्वरूपं यस्याऽसावपृथक्त्यः / सदा संयमयोगवति,(उत्त०) स्थितिं कर्मणामशुद्धत्वात् प्राग्दाघीयसीं बद्धवान्, इह तु तामपूर्वा संयमयोगेभ्योऽभिन्ने, (उत्त०)"अपुहत्ते सुप्पणिहिए विहरइ'' | उत्त० विशुद्धत्वादेव हसीयसीं बध्नातीति (स्थितिबन्धः)। अयं चाऽपूर्वकरणो 26 अ० द्विधा-क्षपकः, उपशमकश्च / क्षपणोपशमना-ऽर्हत्वाच्चैवमुच्यते, अपुहत्ताणुओग-पुं०(अपृथक्त्वाऽनुयोग) अनुयोगभेदे, यौकस्मिन्नेव राज्याऽर्हकुमारराजवत्। न पुनरसौ क्षपयति उपशमयति वा / कर्म०२ सूत्रे सर्व एव चरणाऽऽदयः प्ररूप्यन्ते, अनन्त-गमपर्यायत्वात् सूत्रस्य। कर्म०। प्रवापं०सं०गदर्श अष्ट। आचा०। दश०१अ०। अपुव्वकरणगुणट्ठाणग-न०(अपूर्वकरणगुणस्थानक) अपूर्वकरणस्य अपूया-स्त्री०(अपूजा) पूजाऽभावे, "पूयाऽपूया हियाऽहिया''। स्था० गुणस्थानकमपूर्वकरणगुणस्थानकम् / अष्टमगुणस्थानके, प्रव० 224 / ५ठा०३ उ०। द्वारा | अपूरेत-त्रि०(अपूरयत्) अनाचरति, आ०म०द्विा Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपेय ६१२-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्पकिरिया अपेय-त्रि०(अपेय) मद्यमांसरसादिके (पातुमनर्हे), नि०चू०२ उ०। अपेयचक्खु-त्रि०(अपेतचक्षुष) लोचनरहिते, बृ०१ उ०। अपेहय-त्रि०(अपेक्षक) अपेक्षिणि, निर्जरापेक्षिकर्मक्षयापेक्षक इति / आव०४ अ०॥ अपोग्गल-पुं०(अपुद्गल) न विद्यन्ते पुद्गला येषां तेऽपुद्गलाः सिद्धाः। पुद्गलरहिते, स्था०२ ठा०१ उ०। अपोरिसिमय-त्रि०(अपौरुषिक) पुरुषः प्रमाणमस्येति पौरुषिकम; तन्निषेधादपौरुषिकम् / पुरुषप्रमाणाभ्यधिकेऽगाधजलादौ, अत्थाहमपोरिसियं पक्खिवेजा। ज्ञा०५ अ० अपोरिसीय-त्रि०(अपौरुषेय) पुरुषः परिमाणं यस्य तत्पौरुषेयं, तनिषेधादपौरुषेयम् / पुरुषप्रमाणाभ्यधिके ऽगाधे जलादौ "अत्थाहमतारमपोरिसीयं ति" / ज्ञा०१४ अ०। पुरुषेणाकृते वचने, अपौरुषेयो वेदः, वेदकारणस्याश्रूयमाणत्वात् / स्था०१० ठा०ा ला पं०व०। नं०। (वेदानामपौरुषेयत्वविमर्श; 'आगम' शब्दे द्वितीयभागे 53 पृष्ठे प्रतिपादयिष्यते) अपोह-पुं०(अपोह) अपोहनमपोहः / निश्चये, "होइ अपोहो वाओ"। अपोहस्तावत् किमुच्यते ? इत्याह-अपोहो भवत्यपायः / योऽयमपोहः, स मतिज्ञानतृतीयभेदोऽपाय इत्यर्थः / विशे० नं०। उक्तियुक्तिभ्यां विरुद्धादर्थाद् हिंसादिकात् प्रत्यपायव्यावर्तने विशेषज्ञाने, (ध०) एष षष्ठो बुद्धिगुणः / ध०१ अधि०। पृथग्भावे, तत्स्वरूपायां प्रतिलेखनायां च, तथा चक्षुषा निरूपयति यदि तत्र सत्त्वसम्भवो भवति, तत उद्धार करोति सत्त्वानामन्यलोभे सति, सचापोहः प्रतिलेखना भवति। औघo बौद्धाभिमते वादविशेष, तथाहि-अपोहवादिना बुद्ध्याकारोबाह्यरूपतया गृहीतः शब्दार्थ इतीष्यते / यथोक्तम्"तद्रूपाऽऽरोपगत्याऽन्यव्यावृत्यधिगतैः पुनः। शब्दार्थोऽर्थःसएवेति, वचनेन विरुध्यते" ||1 // इति। सम्म०२ काण्ड। (विशेषस्तुशब्दार्थनिरूपणावसरे 'सद्दत्थ' शब्देऽपोह विचारोद्रष्टव्यः) अप्प-त्रि०(अल्प) स्तोके, सूत्र०१ श्रु०५ अ०२ उ०। आचा०। पिं०] प्रज्ञा० औ०। प्रश्न आव० स्था०। चं०प्र०। नि०चू०। आ०चू०। अभावे, आचा०१ श्रु०८ अ०६ उ०। उत्तअनु०। आ०म०ा रा०। अल्पशब्दोऽभाववाचकः। स्था०७ ठा०ा बृ०| अप्प(ण)-पुं०(आत्मन्) अत सातत्यगमने। अतति सततं गच्छति विशुद्धिसंक्लेशात्मकपरिणामान्तराणीत्यात्मा। उत्त०१ अ०। आ०चू०! अत् मनिन्, प्राकृते- "भस्मात्मनोः पो वा" / / 2 / 51 // इति सूत्रेण संयुक्तस्य वा पः। प्रा०ा जीवे, यत्ने, मनसि, वृत्तौ, बुद्धौ, अर्के, वह्नौ, वायौ, स्वरूपे च। 'अप्पणा चेव उदीरेइ" आत्मना स्वयमेव / भ०१ श०३ उ०ा "अप्पणा अप्पणो कम्मक्खयं करित्तए" आत्मनाऽऽत्मनः कर्मक्षयं कर्तुमिति / ज्ञा०५ अ०। आ०चा० "अप्पणो भासाए परिणामेणं' स्वभाषापरिणामेनेत्यर्थः / उत्त०२ अ०) "अप्पा गई वेतरणी, अप्पा मे कूडसामली"। उत्त०२० अ० देहे, आत्मन आधारभूतत्वात् / उत्त०३ अ० (अस्मिन्नेव भागे 'अणाह' शब्दे 325 पृष्ठे व्याख्यातमेतत्) अप्पउल्लदुप्पउल्लतुच्छ भक्खणय-न०(अपक्वदुष्पक्वतुच्छभक्षणक) अपक्वं अग्निना संस्कृतं, दुष्पक्वं चार्द्धस्विन्नं तुच्छं च निःसारमिति द्वन्द्वः / तेषां, धान्यानामिति गम्यम् / भक्षणमदनं तदेव स्वार्थि के कप्रत्यये सति अपक्वदुष्पक्व-तुच्छभक्षणकम् / भोगपरिभोगोपभोगवृत्तातिचारे, पञ्चा०१ विव०। अप्पओयण-न०(अप्रयोजन) अप्रयोजने निष्कारणतायाम्, अन र्थोऽप्रयोजनमनुपयोगो निष्कारणतेति पर्यायाः। आव०६ अ०॥ अप्पंड-त्रि०(अल्पाण्ड) अल्पान्यण्डानि कीटकादीनां यत्र तदल्पाण्डम् / अल्पशब्दोऽत्राभावे वर्तते / अण्डकरहिते, आचा०१ श्रु० ८अ०६ उ०। अप्पकंप-त्रि०(अप्रकम्प) अविचलितसत्त्वे, "मंदरो इव अप्पकंपे" मेरुरिवानुकूलाद्युपसर्गरविचलितसत्त्वः। स्था०१० ठा० अप्पकम्म-त्रि०(अल्पकर्मन्) लघुकर्मणि, स्था०४ ठा० 3 उ०। अप्पकम्मतर-त्रि०(अल्पकर्मतर) स्तोककर्मतरे, अकर्मतरे च / "इंगालभूए मुम्मुरभूए छारियभूए तओ पच्छा अप्पकम्मतराए चेव" अङ्गाराद्यवस्थामाश्रित्याल्पशब्दः स्तोकार्थः। क्षारावस्थाया त्वभावार्थः / भ०५ श०६ उ० नैरयिका ये नरकेषु उत्पन्नास्तेषु, (के महाकर्मतराः ? केऽल्पकर्मतराः? इति 'उववाय' शब्दे द्वितीयभागे 680 पृष्ठेऽवलोवनीयम्) अप्पकम्मपचायाय-त्रि०(अल्पकर्मप्रत्यायात) अल्पैः स्तोकैः कर्मभिः करणभूतैः प्रत्यायातः प्रत्यागतो मानुषत्वमिति अल्पकर्म-प्रत्यायातः। एकत्र जनितत्वात्ततोऽल्पकर्मा सन् यः प्रत्यायातः, स तथा। लघुकर्मतयोत्पन्ने, स्था०४ ठा०१ उ०। अप्पकाल-त्रि०(अल्पकाल) अल्पः कालो यस्य तदल्पकालम् / इत्वरकाले, अनु०। अप्पकिरिय-त्रि०(अल्पक्रिया) लघुक्रिये, स्था०४ ठा०३ उ०। अप्पकिरिया-स्त्री०(अल्पक्रिया) निरवद्यायां वसतौ, पं०व०३ द्वा० / जा पुण जहुत्तदोसेहिं वजिया कारिया सअट्ठाए। परिकम्मविप्पभुक्का, सा वसही अप्पकिरियाओ। या पुनर्यथोक्तदोषैः कालातिक्रान्तादिलक्षणैर्वर्जिता के वलं स्वस्यात्मनोऽर्थाय कारिता परिकर्मणा च विप्रमुक्का; सर्वस्यापि परिकर्मणः स्वत एवाग्रे प्रवर्तितत्वात्, सा वसतिरल्पक्रिया वेदितव्या। सम्प्रति यतनां दर्शयितुकाम इदमाहहिडिल्ला उबरिल्लाहिँ बाहिया न उ लभंति पाहन्नं / पुव्वाणुन्नाऽभिणवं, चउसु भय पच्छिमाऽभिनवा।। अधस्तन्य उपरितनाभिर्बाध्यन्ते, बाधिताश्च सत्यो न तु नैव, लभन्ते प्राधान्यम् / इयमत्र भावना- नवाऽपि वसतयः क्रमणे स्थाप्यन्ते, तत्राल्पक्रिया निर्दोषेति प्रथमम् / तद्यथा- अल्पक्रिया, कालाति क्रान्ता, उपस्थाना, अभिक्रान्ता, अनभिक्रान्ता, वा, महावा, सावद्या, महासावद्या च / अत्राधस्तनी अल्पक्रिया,अस्यां यदि Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पकिरिया 613 - अभिषानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्पकोउहल्ल अतिरिक्तं कालं तिष्ठन्ति, ततः सा कालातिक्रान्ता, या बाध्यते, सा अणभिकंताय वजा य महावज्जा सावज्ज-महप्पकिरिया य' एताश्च नव कालातिक्रान्ता भवतीति भावः / कालातिक्रन्तामपि यदि वसतयो यथाक्रमं नवभिरनन्तरसूत्रैः प्रतिपादिताः / आसु च प्रागभिहितस्वरूपांकालमर्यादां द्विगुणां द्विगुणा-मपरीहत्योपागच्छन्ति, | अभिक्रान्ताऽल्पक्रिये योग्ये, शेषास्त्वयोग्या इति। आचा०२ श्रु०२ अ०२ ततः सा उपस्थानया बाध्यते, उपस्थाना सा भवतीति भावः / एवं उ० यथासंभवमुपयुज्य वक्तव्यम्। (पुव्वाणुन्नत्ति) आसांचनवानां शय्यानां वसतिपरिकर्मछादनलेपनादिमध्ये कालातिक्रान्ता पूर्वा सा अनुज्ञाता, अल्पक्रियाया अलाभे सा से य णो सुलभे फासुए उंछे अहेसणिज्जे, णो य खलु सुद्धे आश्रयणीया इति भावः। तस्या अप्यभावे शेषाणां पूर्वा उपस्थाना, सा इमेहिं पाहुडेहिं तं छाअणओ लेवणओ, संथारदुवारपिहुणाओ अनुज्ञाता, एवं या या पूर्वा, सा सा अनुज्ञाता तावद्वक्तव्या यावत्, पिंडवातेसणाओ। सावद्यायाः महा-सावद्यायां पूर्वा सा अनुज्ञाता / एवं पूर्वस्याः पूर्वस्या इहानन्तरसूत्रे अल्पक्रिया शुद्धा वसतिरभिहिता, इहाप्यादिसूत्रेण अलाभे उत्तरस्या उत्तरस्या अनुज्ञा वेदितव्या। अभिनवं(चउसु भय त्ति) तद्विपरीतां दर्शयितुमाह-(से इत्यादि) अत्र च कदाचित् चतसृषु वसतिषु, अभिनवेति दोषः संबध्यते / अभिनवं दोषं भज कश्चित्साधुर्वसत्यन्वेषणार्थं भिक्षार्थं वा गृहपतिकुलं प्रविष्टः सन् विकल्पय, कदाचिद्भवति कदाचिन्न भवतीति जानीहीत्यर्थः / अत्रापीयं केनचिच्छ्रद्धालुनैवमभिधीयते / तद्यथा- 'प्रचुरान्नपानोऽयं ग्रामः, भावना- अनतिक्रान्तायामपरिभुक्ते ति कृत्वा विरक्त अतोऽत्र भवता वसतिं प्रतिगृह्य स्थातुं युक्तम्' इत्येवमभिहितः तायामप्यभिनवदोषो भवति / वादिषु पुनर्या अपरिभुक्तास्तासु सन्नेवमाचक्षीत-न केवलं पिण्डपातःप्रासुको दुर्लभस्तदवाप्तावपि यत्रासौ नाभिनवदोषः / एषा भजना पश्चिमा। (अभिनव त्ति) पश्चिमो नाम भुज्यते स च प्रासुक आधाकर्मादिरहितः प्रतिश्रयो दुर्लभः / (उछेत्ति) महासावद्योपाश्रयः तस्मिन् अभिनवकृते, वा चिरकृतेवा अपरिभुक्ते वा छादनाद्युत्तरगुणदोषरहितः। एतदेव दर्शयति-(अहेसणिज्ज त्ति) यथाऽसौ अभिनवदोषा भवन्ति, एकपक्षनिरिणात्। एतैर्मूलगुणादिदोषैर्यः परिहा मूलोत्तरगुणदोषरहितत्वेनैषणीयो भवति, तथाभूतो दुर्लभ इति। जानाति, सग्रहणे कल्पिकः। ते चाऽमी मूलोत्तरगुणाः - कथं पुनर्जानाति परिहर्तुम् ? इति चेद्, आह पट्टी वंसो दो धारणाउ चत्तारि मूलवेलीओ। उम्गमउप्पायणएसणाहिँ सुद्धं गवेसए वसहिं। मूलगुणेहिं विसुद्धा, एसा य अहागडा वसही॥१॥ तिविहं तिहिं विसुद्धं, परिहर नवगेण भेदेणं / / वंसगकडणो कंपण-छायणलेवणदुवारभूभीय। उद्गमेन, उत्पादनया, एषणया, शुद्धां वसतिं गवेषयति / तत्र त्रयाणां परिकम्मविप्पमुक्का, एसा मूलुत्तरगुणेसु॥२॥ पदानामष्टौ भङ्गाः / तेषु चोपरितनेषु सप्तसु भङ्गेष्वशुद्धां परिहर्तुं यो / दूमियधूमियवासिय-उज्जोविय वलि कडा अवत्ता य। जानाति, स ग्रहणे कल्पिकः / कथंभूतां वसतिमुद्रमादिशुद्धां सित्ता सम्मट्ठा वि य, विसोहिकोडी गया वसही॥३॥ गवेषयति ? इत्यत आह- त्रिविधां खातादिभेदतस्त्रिप्रकाराम् / अत्रच प्रायशः सर्वत्र संभवित्वादुत्तरगुणानाम्,तानेव दर्शयति।नचासौ तथात्रिभिर्मनसा वाचा कायेन च, विशुद्धां गवेषयति / तथा शुद्धो भवत्यमीभिः कर्मोपादानकर्मभिः। तद्यथा-छादनतो दर्भादिना, खातादीस्तिस्रोऽपि वसतीरुद्रमाद्यशुद्धा नवकेन भेदेन परिहरति / लेपनतो गोमयादिना, संस्तारकमपवर्तकमाश्रित्य, तथा द्वारमाश्रित्य तद्यथा- मनसा न गृह्णाति, नापि ग्राहयति, नापि गृह्णन्तमनु बृहल्लघुत्वापादनतः, तथा द्वारस्थगनं कपाटमाश्रित्य, तथा जानीते। एवं वाचा कायेन च वक्तव्यमिति। पिण्डपातैषणामाश्रित्य। तथाहि- कस्मॅिश्चित्प्रतिश्रये प्रतिवसतः साधून शय्यातरपिण्डेनोपनिमन्त्रयेत्, तद्गृहे निषिद्धाचरणं, अग्रहे तत्प्रद्वेषादि पढियसुयगुणियधारिय, उवउत्तो जोजणो परिहरति। संभवः / इत्यादिभिरुत्तरगुणैः शुद्धः प्रतिश्रयो दुरापः। शुद्धे च प्रतिश्रये आलोयणमायरिए, आयरिउ विसोहिकारो से। साधुना स्थानादि विधेयम् / यत उक्तम्- 'मूलुत्तरगुणसुद्धं, थीपअस्या व्याख्या प्राग्वत्। उक्तः शय्याकल्पिकः / बृ०१ उ०। सुपंडगविवज्जियं वसहि। सेवेज सव्वकालं, विवज्जए होंति दोसाओ" ||1|| इदानीमल्पक्रियाऽभिधानमधिकृत्याऽऽह मूलोत्तरगुणशुद्धावाप्तावपि स्वाध्यायादिभूमिसमन्वितो विविक्तो दुराप इह खलु पाईणं वा जाव तं रोयमाणेहिं अप्पणो सयट्ठाए इति। आचा०२ श्रु०२ अ०३ उ०। तत्थ तत्थ अगारीहिं अगाराइं चेइयाई भवंति, तं आएसणाणि अप्पकिलंत-त्रि०(अल्पक्लान्त) अल्पं स्तोक्तं क्लान्तं क्लमो येषां ते वा० जाव गिहाणि वा महया पुढवि-कायसमारंभेणं जाव अल्पक्लान्ताः। अल्पवेदनेषु, ध०२ अधि०। 'खवणिज्जो भे किलामो अगणिकाए वा उजालियपुव्वे भवति। जे भयंतरो तहप्पगाराई अप्पकिलंताणं बहुसुभेणं दिवसोवइक्कतो" आव०३ अ०। आएसणाणि वा० जाव गिहाणि वा उवागच्छंति,इतरा इतरेहिं अप्पकु क्कु इय-त्रि०(अल्पकौकुच्य) 6 अ० / अल्पस्पन्दने, पाहुडेहिं एगपक्खं ते कम्म सेवंति, अयमाउसो ! अप्पसावजा करादिभिरल्पमेव चलति, अल्पशब्दोऽभाववाची, अल्पमसत्, 'कुक्कुयं' किरिया वि भवति / एवं खलु तस्स मिक्खुस्स वा भिक्खुणीए कौकुच्यं करचरणभूभ्रमणाद्यसचेष्टात्मकमस्ये-त्यल्पकौकुच्यः / वा सामग्गियं। हस्तपादशिरः प्रमुखशरीरावयवानधुन्वाने, “निसीएजऽप्पकुक्कुए"। इत्यादि सुगमम: नवरं अल्पशब्दोऽभाववाचीति / एतत्तस्य भिक्षोः उत्त०१ उ० सामग्रयं संपूर्णो भिक्षुभाव इति। "कालाइक्कंतुवहणा अभिक्ता चेव | अप्पकोउहल्ल-त्रि०(अल्पकौतूहल) 6 ब०। स्त्रीरूपदर्शनादिषु Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पकोउहल्ल 614- अभिधानराजेन्द्रः- भाग 1 अप्पणो अविद्यमानकौतूहले, अल्पशब्दस्येहाविद्यमानार्थत्यात् बृ०३ उ०। | अप्पज्ज-(ण्ण)-त्रि०(आत्मज्ञ) आत्मानं जानातीति आत्मज्ञः। 'ज्ञो अप्पकोह-पुं०(अल्पक्रोध) अविद्यमानकषायभेदे, भावावमोदरिकां ञः"८।१८३। इति सूत्रेण अस्यवालुक् / याथार्थ्येनात्मतत्त्वज्ञातरि, प्रतिपन्ने, औ०। प्रा० अपरायत्ते, निन्चू०१ उ०। अप्पक्खर-न०(अल्पाक्षर) अल्पान्यक्षराणि यस्मिस्तदल्पाक्षरम् / अप्पज्जोइ-पुं०(आत्मज्योतिष) आत्मैव ज्योतिरस्य सोऽयमात्मऔ०। मिताक्षरे, गुणवति सूत्रे, यथा सामायिकसूत्रम् / अप्रभूताक्षरे, ज्योतिः / ज्ञानात्मके पुरुष, वेदे ह्ययं पुरुष आत्मज्योतिविशे०। औ०। अनु०। आ०म०। "अप्पक्खरं महत्थं अणुग्गहत्थं ष्ट्वेनाभिधीयते। सुविहियाणं"। ओघo अत्थमिए आइचे, चंदे संतासु अग्गिवायासु। अप्पक्खरं महत्थं, महक्खरऽप्पऽत्थ दोसु वि महत्थं / किं जोइरयं पुरिसो?, अप्पजोइत्ति णिदिहो। दोसु वि अप्पं च तहा, भणियं सत्थं चउवियप्पं // 13 // अस्तमिते आदित्ये, चन्द्रमः स्वस्तमिते, शान्तेऽनौ, शान्तायां वाचि अत्र च चतुर्भङ्गिका-(अप्पक्खरं ति) अल्पान्यक्षराणि यस्मिन् याज्ञवल्क्यः- "किं ज्योतिरेवायं पुरुषः ? आत्मज्योतिः सम्राडिति तदल्पाक्षरं, स्तोकाक्षरमित्यर्थः / (महत्थं त्ति) महानर्थों यस्मिन् तत् होवाच' / ज्योतिरिति ज्ञानमाह, आदित्यास्तमयादौ / किं ज्योतिः ? महार्थं, प्रभूतार्थमित्यर्थः / तत्रैकं शास्त्र अल्पाक्षरं भवति महार्थं च, इत्याह-अयं पुरुष इति, पुरुष आत्मेत्यर्थः / अयं च कथंभूतः ? इत्याहप्रथमो भङ्गः। अथवाऽन्यत् किंभूतं भवति ? (महक्खरऽप्पत्थं) महाक्षरं, (अप्पजोइ त्ति) आत्मैव ज्योतिरस्य सोऽयमात्मज्योतिः, ज्ञानात्मक प्रभूताक्षरं भवतीति हृदयम्। अल्पार्थ, स्वल्पार्थमिति हृदयम्, द्वितीयो इति हृदयम्। निर्दिष्टो वेदविद्भिः कथितः, ततो न ज्ञानं भूतधर्म इत्यर्थः। भङ्गः / अथवाऽन्यत् किंभूतं भवति ? (दोसु वि महत्थं) द्वयोरपीति विशे०। अक्षरार्थयोः श्रुतत्वा-दक्षरार्थोभयं परिगृह्यते। एतदुक्तं भवति-प्रभूताक्षरं अप्पज्झो (देशी ) आत्मवशे, दे०ना०१ वर्ग। प्रभूतार्थ च, तृतीयो भङ्गः। तथाऽन्यत् किंभूतं भवति? इत्याह-(दोसु अप्पझंझ-त्रि०(अल्पझञ्झ) विगततथाविधविप्रकीर्णवचने, स्था० वि अप्पं च तहा) द्वयोरपि अल्पम्, अक्षरार्थयोः / एतदुक्तं भवति 8 ठा० भ० / भावावमोदरिका प्रतिपन्ने, रा०| अल्पाक्षरमल्पार्थं चेति / तथेतितेन आगमोक्तप्रकारेण, भणितमुक्तं, अप्पडिकंटय-त्रि०(अप्रतिकण्टक) न विद्यते प्रतिमल्लः कण्टको यत्र शास्त्रं, चतुर्विकल्पं चतुर्विध-मित्यर्थः। तदप्रतिकण्टकम्। अप्रतिमल्ले, रा०) अधुना चतुर्णामपि भङ्गिकानामुदाहरणदर्शनार्थमियं गाथा अप्पडिवरिय-पुं०(अप्रतिवृत) प्रादोषिके काले, "अप्पडियरियं कालं सामायारी ओहे, णायज्झयण्णा य दिट्ठिवाओ य। घेत्तूण य वेयए" प्रादोषिककालं यथा साधवः प्रतिजागरितं लोइय कथासादि अणु-कमाय पकरेंति कारगा चउरो॥१४॥ गृह्णन्ति। बृ०१ उ०। ओघसामाचारी प्रथमभङ्ग के उदाहरणं भवति / ततः प्रभूताऽक्षरत्व अप्पण-त्रि०(आत्मीय) अपभ्रंशे, "शीघ्रादीनां बहिल्लामल्पार्थ चेति द्वितीयक्रमः / ज्ञाताध्ययनादिषष्ठाङ्गे प्रथमश्रुत-स्कन्धे दयः" / / 1522 / इति सूत्रेण आत्मीयस्य 'अप्पण' इत्यादेशः / तेषु कथानकान्युच्यन्ते। ततः प्रभूताक्षरत्वमल्पार्थं चेति द्वितीयभङ्गके स्वकीये, "फोडेंसिजेहि अडउं अप्पण' / प्रा०। स्वस्मिन, उत्त०१ ज्ञाताध्ययनान्युदाहरणम्। चशब्दादन्यच यदस्यां कोटौ व्यवस्थितम्। अ०। प्रश्न०। चं०प्र०। शरीरे, आचा०१ श्रु०२ अ०४ उ०। दृष्टिवादश्च तृतीयभङ्गक उदाहरणम् / यतोऽसौ प्रभूताक्षरः प्रभूतार्थश्व, अप्पणछन्द-त्रि०(आत्मच्छन्द) स्वतन्त्रे, बहिणुए तं धरु कहि चशब्दात्तदेकदेशोऽपि / चतुर्भङ्गोदाहरण-प्रतिपादनार्थमाह- (लोइय किंव णंदउंजेत्थु कुडुंबउं अप्पण-छन्दउं। प्रा०४४२२ 122 कथासादि त्ति) लौकिकं चतुर्भङ्गो-दाहरणम्, किंभूतं ? कथासादि / आदि-शब्दाच्छिवभद्रादिग्रहः। (अणुक्कम त्ति) अनुक्रमादिति। अनुक्रमेण अप्पण? -त्रि०(आत्मार्थ) अनेन मे जीविका भविष्यतीति / स्वार्थे, परिपाट्येवं तृतीयार्थे पञ्चमी / कारकाणि कुर्वन्तीति कारकाण्युदाहणान्युच्यन्ते। चत्वारीति। यथासंख्येनैवेति। ओघा अप्पणय-त्रि०(आत्मीय) प्राकृते-"ईयस्यात्मनो णयः" / / 2 / 153 / अप्पग-पुं०(आत्मन्) स्वस्मिन्, "जइ अप्पगं न साहयामि, तो कह | इति सूत्रेण आत्मनः परस्य यस्य णय इत्यादेशः। स्वकीये, प्रा०) अन्नं विणिग्गतो नगराओ' / आव०४ अ०आचा०। सूत्र०। प्रश्न०। अप्पणाण-न०(आत्मज्ञान) 6 त०। वादादिव्यापारकाले किममुं अप्पगास-पुं०(अप्रकाश) अन्धकारे, नि०चू०१ उ०१ प्रतिवादिनं जेतुंमम शक्तिरस्तिन वेति आलोचनरूपे प्रयोगमतिसंपतेंदे, अप्पगुत्ता-(देशी) कपिकच्छ्वाम्, देवना०१ वर्ग०। उत्त०१५ अ०। आत्मपरिज्ञानमित्यप्यत्र / ध००। अप्पचिंतय-पुं०(आत्मचिन्तक) अभ्युद्यतमरणं वा प्रतिपत्तुं निश्चिते, अप्पणिज-त्रि०(आत्मीय) स्वकीये, "अप्पणिज्जियाए महिलाए'। व्य०१० उ०। * आ०म०द्विा नि०चूला दशा०) अप्पछंदमइ-त्रि०(अल्पच्छन्दमति) आत्मच्छन्दा आत्मायत्ता अप्पणो-अव्य०(स्वयम्) स्वयमित्यव्ययार्थे, "स्वयमोऽर्थे मतिर्यस्य कार्येष्वसावात्मच्छन्दमतिः / स्वाभिप्रायकार्यकारिणी, अप्पणो नवा" 206 / इति सूत्रेण स्वयमित्यस्यार्थे 'अप्पणो' "कस्स न होही वेसो, अणब्भुवंगतो निरुवगारी य। अप्पच्छंदमई तो, इत्यस्य वा प्रयोगः / "विसयं विअसंति अप्पणो कमलसरा''। पहियतो गंतुकामो य" / आ०म०प्र० / विशे०। पक्षे- 'सयं चेव मुणसि करणिज्जं' / प्रा०। ''अप्पणो दर्शन Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पणो 615 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्पलेवा अग सेसयाई ति" आत्मन आत्मीयानि। विपा०१ श्रु०२ अ०) घोषोऽघोषोऽल्पप्राणो महाप्राण उदात्तोऽनुदात्तः स्वरितश्चेति / अल्पः अप्पतर-त्रि०(अल्पतर) अतिशयिते स्तोके, "अप्पतराए से पावे कम्मे प्राणः प्राणहेतुकं बलमस्य / अल्पबले, त्रि० / वाचा कजइ" भ०८ श०६ उ०। आचा०ा सूत्र अप्पपाणासि(ण)-त्रि०(अल्पपानाशिन) अल्पं पानम शितु अप्पतरबंध-पुं०(अल्पतरबन्ध) अत्यल्पे कर्मणां बन्धे, यदा शीलमस्यासावल्पपानाशी / यत्-किञ्चन पानपातरि, सूत्र०१ श्रु०८ त्वष्टविधादिबहुबन्धको भूत्वा पुनरपि सप्तविधाद्यल्पतरबन्धको भवति, स एव प्रथमसमय एवाल्पतरबन्धः (कर्म०)। यदातुप्रभूताः प्रकृतीबंधनन् अप्पपिंडासि(ण)-त्रि०(अल्पपिण्डाशिन्) अल्पं स्तोकं पिण्डमशितुं परिणामविशेषतः स्तोकां बद्धमारभते, यथाऽष्टौ बद्ध्या सप्त बध्नाति; शीलमस्यासावल्पपिण्डाशी / यत्किञ्चनाशिनि, तथा च आगमः-- "हे सप्त वा बद्ध्वा षड् वा बद्ध्वा एकां, तदानीं स बन्धोऽल्पतरः। तथा जन्तव ! आसीय, जत्थ तत्थ व सुहोवगयनिद्दा / जेण व तेण व संतुट्ठ चाऽऽह- "एगाइऊणबिइओ' एका-दिभिरेकद्वित्र्यादिभिः प्रकृतिरूपोने वीरमुणिओ सिते अप्पा" ||1|| सूत्र०१ श्रु०६ अ०। बन्धे द्वितीयप्रकारः, अल्पतर इत्यर्थः / कर्म०५ कर्म०। अप्पभक्खि (ण)-त्रि०(अल्पभक्षिन्) स्तोकाहारकारिणि, उत्त० 15 अप्पतुमतुम-त्रि०(अल्पतुमतुम) विगतक्रोधमनोविकारविशेषे, स्था०८ अ०। ठा० अप्पभव-पुं०(अल्पभव) परीतसांसारिकत्वे, प्रति०। अप्पत्त-न०(अल्पत्व) तुच्छत्वे, पं०व०४ द्वा०) अप्पमासि(ण)-त्रि०(अल्पभाषिन) कारणे परिमितवक्तरि, दश० अप्पत्तिय-न०(अप्रीतिक) आर्षत्वात्तथारूपम् ।अप्रेम्णि, भ०७ श० 8 अ० "अप्पं भासेज्ज सुव्वए"।तथा सुव्रतः साधुरल्पंपरिमितं हितंच 1 उ०॥धाआ०म०ा दर्शा अप्रीतिस्वभावे, भ०१३श०१ उ०मनसः भाषेत, सर्वदा विकथारहितो भवेदित्यर्थः। सूत्र०१ श्रु०६ अ01 पीडायाम्, आचा०२ श्रु०७ अ०२ उ०। क्रोधे, सूत्र०१ श्रु० अप्पभूय-त्रि०(अल्पभूत) अल्पसत्त्वे, स्था०५ ठा०१ उ०। १अ०२ उ०अपकरणे, नि०चू०१ उ०। अप्पमइ-त्रि०(अल्पमति) अल्पबुद्धौ, क०प्र०। अप्पत्थाम-त्रि०(अल्पस्थामन) अल्पसामर्थ्य, सूत्र०१ श्रु०२ अ०३ अप्पमहग्याभरण-त्रि०(अल्पमहा_भरण) अल्पानिस्तोक-भारवन्ति उन महार्घाभरणानि बहुमूल्यवझूषणानि यस्यासौ तत्तथा / अप्पधण-त्रि०(अल्पधन) अल्पमूल्ये, "महाधणे अप्पधणे व वत्थे, अल्पभारवबहुमूल्यभूषणयुके, "हाए सुद्धप्पाये साई अप्पमुच्छिज्जती जो अविवित्तभावे" | बृ०३ उ०। महग्घाभरणा साओ गिहाओ पडिनिक्खमई" / उपा०१ अ०) अप्पपएसग-त्रि०(अल्पप्रदेशक) अल्पं स्तोकं प्रदेशाग्रं कर्म अप्परय-त्रि०(अल्परत) अल्पमिति अविद्यमानं रतमिति क्रीडितं दलिकपरिमाणं यस्य सः / स्तोकप्रदेशाग्रके कर्मणि, भ०१ श० मोहनीयकर्मोदयजनितमस्येति अल्परतः। क्रीडाविरहितेलवसप्तमादौ, 4 ਤੁi उत्त०१ अ० कण्डूयरिंगते कण्डूयनकल्परतरहिते, दश०६ अ०४ उ०। अप्पपज्जवजाय-न०(अल्पपर्यायजात) अल्पे तुषादौ त्यजनीये, ध०३ / *अल्परजस् -त्रि० रजोरहिते, उत्त०२ अ०। प्रतनुबध्यमानकर्मणि, अधिन "सिद्धेवा हवइ सासए देवे वा अप्परए महिड्डिए'' / उत्त०१ अ०। अप्पपरणियत्ति-स्त्री०(आत्मपरनिवृत्ति) आत्मनः परेषां च परेभ्यो अप्पलाहलद्धि-पुं०(अल्पलाभलब्धि)अल्पातुच्छा वस्त्र-पात्रादिलाभे निवृत्तौ, आलोचनाप्रदानतः स्वयमात्मनो दोषेभ्यो निवृत्तिः, कृतानां लब्धिर्यस्य सोऽल्पलाभलब्धिः / क्लेशेन वस्त्र-पात्राद्युत्पादके, बृ०१ तद् दृष्ट्वाऽप्यन्ये आलोचनाभिमुखा भवन्तीत्यन्येषामपि दोषेभ्यो निवर्तनमिति // व्य०१ उ०।। अप्पलीण-त्रि०(अप्रलीन) असंबद्ध तीर्थकषु गृहस्थेषु पार्श्व-स्थादिषु अप्पपरिग्गह-पुं०(अल्पपरिग्रह) अल्पधनधान्यादिस्वीकारे, औ०। संश्लेषमकुर्वति, "अणुक्कस्से अप्पलीणे, मज्झेण मुणि जावए" सूत्र०१ अप्पपरिचाय-पुं०(अल्पपरित्याग) स्वल्पतरगुणपरिहारे, पञ्चा०१८ श्रु०१अ०४ उ० अप्पलीयमाण-त्रि०(अप्रलीयमान) कामेषु मातापित्रादिके वा लोके न अप्पपाण-त्रि०(अल्पप्राण) अल्पशब्दोऽभावाभिधायी तथेहापि, / प्रलीयमाना अप्रलीयमानाः / अनभिषक्ते, आचा०१ श्रु०६ अ०२ उ०॥ सूत्रत्वेन मत्वर्थीयलोपात्प्राणाः प्राणिनः, अल्पा अविद्यमानाःप्राणिनो | अप्पलेव-त्रि०(अल्पलेप) अल्पशब्दोऽभाववाचकः / पृथुकादौ निर्लेपे, यस्मिँस्तदल्पप्राणम् / अवस्थितागन्तुकजीवविरहिते उपाश्रयादौ, आव०४ अ०। वल्लचणकादौ नीरसे, ध०३ अधि०।। उत्त०१ अ०॥ अल्पः प्राणः प्राणनक्रिया यस्मिन् / वर्णभेदे, यस्योचारणे | अप्पलेवा-स्त्री०(अल्पलेपा) निर्लेपं पृथुकादि गृह्णतश्चतुर्थ्यां अल्पप्राणवायोापारस्तस्मिन्, स च शिक्षायामुक्तः."अयुग्मा पिण्डे षणायाम, आव०४ अ० ध० आचा०। पञ्चा०। सूत्र०। वर्गयमगाः, यपश्चाल्पासवः स्मृताः" इति / तथा च वर्गेषु "जस्स दिज्जमाणदवस्स णिप्पावचणगादिस्स लेवो ण भवति प्रथमतृतीयपञ्चमवर्णाः यमगा यवरलाश्च अल्पासवः। तादृशवर्णोचारण- सा अप्पलेवा" / नि०चू०१६ उ०। आ००। अल्पलेपिकाऽप्यत्र, बाह्यप्रयत्ने, बाह्यप्रयत्नस्तु एकादशधाविवारः संवारः श्वासो नादो स्था०७ ठा०। स्तोकोऽल्पः पश्चात् क मादिजनितः उ01 विवा Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पलेवा ६१६-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्पा कर्मबन्धो यस्यां साऽल्पलेपा / चतुर्थ्यां पिण्डैषणायाम, तथा स्याभाववचनत्वाद् अविद्यमानवर्षे, "अण्णया कयाई पढमे सरदकालचाऽऽचाराङ्गम् समयंसि अप्पबुटिकायंसि" / भ०१५ श०१ उ०। "अस्सि खलु पडिग्गहियंसि अप्पे पच्छाकम्मे अप्पपज्जवजाए'।ध०३ | अप्पसंतचित्त-त्रि०(अप्रशान्तचित्त) उत्कटक्रोधादिदूषितभावे, पञ्चा०२ अधिका विव०॥ अप्पवस-त्रि०(आत्मवश) स्ववशे, ग०२ अधिक। अप्पसंतमइ-त्रि०(अप्रशान्तमति) अपरिणतशिष्ये, "अप्रशान्त-मतौ अप्पवसा-स्त्री०(आत्मवशा) नार्याम्, तस्या निरङ्कुशत्वेन __ शास्त्रसद्भावप्रतिपादनम् / दोषायाभिनवोदीर्णशमनीय-मिव स्वच्छन्दत्वात्। प्रा० को०। ज्वरे" ||1|| सूत्र०१ श्रु०१४ अ०। अप्पवाइ(ण)-पुं०(आत्मवादिन) पुरुष एवेदं सर्वमित्यादि प्रतिपन्ने | अप्पसक्खिय-न०(आत्मसाक्षिक) आत्मा स्वजीयः, स वादिनि, नं०। स्वसंवित्प्रत्यक्षविरतिपरिणामपरिणतः साक्षी यत्र, तदात्म-साक्षिकम्। अप्पवीय-त्रि०(अल्पबीज) अविद्यमानानि बीजानि शाल्यादीनि स्वद्रष्टकेऽनुष्ठाने, “साहुसक्खियं देवसक्खियं अप्पसक्खियं"। पा० नीवारश्यामाकादीनां यस्मिंस्तत् अल्पबीजम्। बीजस्यो-पलक्षणत्वात् अप्पसत्तचित्त-त्रि०(अल्पसत्त्वचित्त) आपत्स्ववैक्लय्यकरएकेन्द्रियादिरहिते, उत्त०१ अ० आचा०। मध्यवसानकरं च सत्त्वमुक्तम् / ततश्वाल्पं तुच्छं सत्त्वं यत्र तदल्पसत्त्वं, अप्पवुट्ठि-स्त्री०(अल्पवृष्टि) आसारे, प्रा०को। तचित्तं यस्य सोऽल्पसत्त्वचित्तः। चेतसा विक्लवे, "ण हि अप्पसत्तचित्तो धम्माहिगारी जओ होइ"। पञ्चा०२ विव०। अप्पबुट्ठिकाय-पुं०(अल्पवृष्टिकाय) अल्पःस्तोकोऽविद्यमानो वा, वर्षणं वृष्टिरधःपतनं वृष्टिप्रधानः कायो निकायोऽल्पवृष्टिकायः। वर्षणधर्मयुक्तं अप्पसत्तम-त्रि०(आत्मसप्तम) आत्मना सप्तमः / सप्तानां पूरणः / आत्मा च उदकं वृष्टिः, तस्याः कायो राशिष्टिकायः / अल्पश्चासौ वा सप्तमो यस्यासावात्मसप्तमः। अन्यैः षभिः सह विद्यमाने, "मल्लीणं वृष्टिकायश्चाल्पवृष्टिकायः। स्तोके व्योमनि पतदप्काये, स्था०। अरहा अप्पसत्तमे मुंडे भवित्ता" स्था०७ ठा०। अल्पवृष्टश्च त्रीणि कारणानि अप्पसत्तिय-त्रि०(अल्पसात्त्विक) निःसारे, "सुसमत्था वऽसमत्था, तिहिं ठाणेहिं अप्पट्टिकाए सिया। तं जहा-तेसिंचणं देसंसि कीरंति अप्पसत्तिया पुरिसा / दीसंति सूरवादी, णारीवसगा ण ते वा पएसंसि वा णो बहवे उदगजोणिया जीवा य पोग्गला य सूरा'' ||1|| सूत्र०१ श्रु०४ अ०१ उ०। उदगत्ताए वकमंति विउक्क मंति चयंति उववजंति देवा नागा अप्पसद्द-पुं०(अल्पशब्द) विगतराट्यां ध्वनी, स्था०८ ठा०। जक्खा णो सम्ममाराहिया भवंति। तत्थ समुट्ठियं उदगपोग्गलं रात्र्यादावसंयतजागरणभयात् / भ०२५ श०७ उ०। अल्पकलहे, परिणयं वासिउकामं अन्नं देसं साहरंति, अब्भवहलगं च णं कलहक्रोधकार्ये / औ०) समुट्ठियं परिणयं वासिउकामं वाउयाए विहणेइ। इचेएहिं तिहिं अप्पसरयक्ख-न०(अल्पसरजस्क) अल्पे तृणादौ, आचा०२ श्रु०१ ठाणेहिं अप्पबुट्टिगाए सिया। अ०५ उ०। (तेसिं ति) मगधादौ, चशब्दोऽल्पवृष्टिकारणान्तरसमुच्चयार्थः / अप्पसार-न०(अल्पसार) अल्पंच तत्सारं चेत्यल्पसारम्। प्रमाणतोऽल्पे णमित्यलङ्कारे / देशे जनपदे, प्रदेशे तस्यैव एकदेशरूपे, वाशब्दौ वस्तुनः सारे, ज्ञा०१ अ० "अप्पसारं तुत्थंति जीवा बंधणं"। विकल्पार्थो / उदकस्य योनयः परिणामकारणभूता उदकयोनयः त आ०म०प्र०1"अप्पसारियणेउं उवचरति" | नि०चू०१ उ०) एवोदकयोनिका उदकजननस्वभावाः, व्युत्क्रामन्ति उत्पद्यन्ते, अप्पसावजकिरिया-स्त्री०(अल्पसावधक्रिया) शुद्धायांवसतौ, आचा०२ व्यपक्रामन्ति, च्यवन्ते, एतदेव यथायोगं पर्यायत आचष्टे-च्यवन्ते, श्रु०२ अ०२ उ01 ('वसही' शब्देऽस्याः सूत्रम्) उत्पद्यन्ते, क्षेत्रस्वभावादित्येकम् / तथा देवा वैमानिका ज्योतिष्काः, अप्पसुय-त्रि०(अल्पश्रुत) अनधीतागमे, द्वा०२६ द्वा०। नागा नागकुमाराः, भवनपत्युपलक्षणमेतत् / यक्षा भूता इति अप्पसुह-त्रि०(अल्पसुख) 5 ब०ा भोगसुखलक्सम्पादके, अविद्यमानसुखे व्यन्तरोपलक्षणम्। अथवा देवा इति सामान्यम्। नागादयस्तु विशेषम्, च। प्रश्न०१ आश्र० द्वा० एतद्ग्रहणं च प्राय एषामेवंविधेकर्मणि प्रवृत्तिरितिज्ञापनाय, विचित्रत्वाद्वा सूत्रगतेरिति; नो सम्यगाराधिता भवन्ति / अविनयकरणाज्जानपदैरिति अप्पहरिय-त्रि०(अल्पहरित) अल्पानि हरितानि दूर्वाप्रवालादीनि यत्र गम्यते। ततश्च तत्र मगधादौ देशे प्रदेशे वा तस्यैव समुत्थितमुत्पन्नम् तत्तथा। दूर्वादिरहिते, आचा०२ श्रु०६अ०६ उ०। उदकप्रधानं पौद्रलं पुद्गलसमूहो, मेघ इत्यर्थः / उदकपौद्गलं तथा अप्पहिंसा-स्त्री०(अल्पहिंसा) अल्पशब्दोऽभाववाची। अल्पानामेव परिणत-मुदकदायकावस्थां प्राप्तम् / अत एव विधुदादिकारणात् / प्राणिनां हिंसायाम, व्य०१ उ०॥ वर्षितुकामं सदन्यं देशं मगधादिकं, संहरन्ति नयन्तीति द्वितीयम्। अप्पा-पुं०(आत्मन) अतति सातत्येन गच्छति ताँस्तान् ज्ञानदर्शनअभ्राणि मेघास्तैर्वदलकं दुर्दिनम्, अभ्रवर्दलकम् / (वाउयाए त्ति) सुखादिपर्यायानित्याद्यात्मादिशब्दव्युत्पत्तिनिमित्तसंभवात्। आ० म० वायुकायः प्रचण्डवातो विधुनाति विध्वंसयतीति तृतीयम्। "इच्चे" द्वि० / जीवे, उत्त०२ अ० (आत्मसिद्धयादि वक्तव्यता 'आता' शब्दे इत्यादि निगमनमिति / स्था० 3 ठा०३ उ०। अल्पशब्द- द्वितीयभागे 167 पृष्ठे द्रष्टव्या) Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाइव 617- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्पाबहुय अप्पाइय-त्रि०(आप्यायित) मनोज्ञाहारैः स्वस्थीभूते, बृ०१ उ० (3) पृथ्वीकायादीनां जघन्याद्यवगाहनयाऽल्पबहुत्वम्। अप्पाउअ-त्रि०(अल्पायुष्क) स्तोकजीविते, प्रश्न०१ आश्र० द्वा० (4) द्रव्यस्थानाधायुषामल्पबहुत्वम्। अप्पाउअत्ता-स्त्री०(अल्पायुष्कता) अल्पमायुर्यस्यासावल्पायुष्कः, (5) आहारद्वारे आहारकानाहारकजीवानामल्पबहुत्वम् / तद्भावस्तत्ता। अल्पायुष्कतायाम्, भ०५ श०६ उ०। अल्पमायुर्जीवितं सेन्द्रियाणां परस्परमल्पबहुत्वम्। यद्, तदल्पायुः, तद्भावस्तत्ता / जघन्यायुष्ट्वे। स्था०३ ठा०१ उ०) (7) उद्वर्तनापर्वतनतयोरल्पबहुत्वम्। (अल्पायुषः कारणं आउ' शब्दे द्वितीयभागे 11 पृष्ठे वक्ष्यते) (8) उपयोगद्वारे साकारानाकारोपयुक्तानामल्पबहुत्वम्। अप्पाउड-पुं०(अप्रावृत) प्रावरणवर्जके अभिग्रहविशेषग्राहके, सूत्र०२ (9} कषायद्वारे क्रोधकषरयादीनामल्पबहुत्वम्। श्रु०२अ॥ अप्पाउरण-न०(अप्रावरण) प्रावरणनिषेधात्तद्विषयोऽभिग्रहोऽप्यप्रा (10) कायिकद्वारे सकायिकानामल्पबहुत्वम्। वरणम् / पञ्चा०५ दिव०। प्रावरणत्यागरूपेऽभिग्रह-प्रत्याख्यानभेदे, (11) क्षेत्रद्वारे जीवाः कस्मिन् क्षेत्रे स्तोकाः कस्मिन् बहव प्रव०४ द्वा०। अत्र पञ्च आकाराः- "अभिग्गहेसु अप्पाउरणं कोइ इत्यादिनिरूपणम्। पचक्खाइ, तस्स पंच (आगारा) अण्णत्थऽणाभोगे, सहसागारे, ] (12) गतिद्वारे चतुःपञ्चाष्टगतिसमासेनाल्पबहुत्वम्। चोलपट्टामारे, महत्तरागारे सव्वसमाहिवत्तियागारे य"। (13) चरमद्वारे चरमाचरमाणामल्पबहुत्वम्। तथा च सूत्रम् (14) जीवद्वारे जीवपुद्गलादीनामल्पबहुत्वम् / अप्पाउरणं पडिवज्जति अन्नत्थऽणाभोगेणं, सहसागारेणं, (15) ज्ञानद्वारे ज्ञानिप्रमुखाणामल्पबहुत्वम् / चोलपट्टागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं (16) दर्शनद्वारे दर्शनिनामल्पबहुत्वम्। वोसिरइ ति। आव०६ अ०। (17) दिग्द्वारे दिगनुपातेन जीवानामल्पबहुत्वम्। चोलपट्टकादन्यत्र सागारिकप्रदर्शने चोलपट्टके गृह्यमाणेऽपि न भङ्ग इत्यर्थः। प्रव०४ द्वा०। | (18) परीतद्वारे परीतापरीतनोपरितानामल्पबहुत्वम्। अप्पाण-पुं०(आत्मन्) स्वस्मिन्, प्रश्न०२ आश्रद्वाला"पुंस्यन आणो (16) पर्याप्तद्वारे पर्याप्तापर्याप्तनोपर्याप्तानामल्पबहुत्वम् / राजवच" ||356 पुंल्लिङ्गे वर्तमानस्यान्नन्तस्य स्थाने आण (20) पुद्गलद्वारम्। इत्यादेशो वा भवति; पक्षे यथादर्शनं राजवत्कार्य भवति / आणादेशे च | (21) बन्धद्वारे आयुःकर्मबन्धकादीनामल्पबहुत्वम्। "अतः सेझैः" / / 3 / 2 / इत्यादयः प्रवर्तन्ते। पक्षे तुराज्ञः "जस् (22) भवसिद्धिकद्वारम्। शस्-सि-ङसां णो" ||3501 "टो णा" (813 / 24) (23) भाषकद्वारम्। "इणममामा"||३५३ इति प्रवर्तन्ते। अप्पाणो अप्पाणा। अप्पाणं। अप्पाणे / अप्पाणेण / अप्पाणेहिं / अप्पाणाओ। अप्पाणासुन्तो। (24) महादण्डकद्वारम्। अप्पाणस्स।अप्पाणाण। अप्पाणम्मिा अप्पाणेसु। अप्पाण-का पक्षे (25) योगद्वारे चतुर्दशविधस्य संसारसमापन्नजीवस्य राजवत्। अप्पा। अप्पो। हे अप्पा! हे अप्प ! अप्पाणो चिट्ठति। अप्याणो योगानामल्पबहुत्वम्। पेच्छ। अप्पणा / अप्पेहिं / अप्पाणो / अप्पाओ। अप्पाउ / अप्पाहि। (26) योनिद्वारम्। अप्पाहिन्तो। अप्पा / अप्पासुन्तो। अप्पणो धणं / अप्पाणं / अप्पे। (27) लेश्याद्वारे सलेश्यानामल्पबहुत्वम्। अप्पेसु / प्रा०। (य आत्मानमादर्शादौ, पश्यति इति 'अणायार' (28) वेदद्वारम्। शब्देऽस्मिन्नेव भागे 313 पृष्ठे दर्शितम्) स्वभावे, न०। स्था०२ ठा०२ (26) शरीरद्वारे आहारकादिशरीरिणामल्पबहुत्वम्। उ०। अप्पाणरक्खि(ण)-त्रि०(आत्मरक्षिन) आत्मानं रक्षति पापेभ्यः (१)तचतुर्विधम्कुगतिगमनादिभ्य इत्येवंशील आत्मरक्षी। आत्मनः पापेभ्यो निवारके, चउविहे अप्पाबहुए पण्णत्ते। तं जहा-पगइ-अप्पा- बहुए, उत्त०४ अ० ठिइ-अणुभाव-पएस-अप्पाबहुए। अप्पाधार-पुं०(अल्पाधार) अल्पस्य सूत्रस्य अर्थस्य वा प्रकृतिविषयमल्पबहुत्वं बन्धापेक्षया, यथा- सर्वस्तोकप्रकृतिबन्धक आधारोऽल्पाधारः। सूत्रार्थपुण्यविकले, व्य०१ उ०। उपशान्तमोहादिरेकविधबन्धकः, उपशमकादिसूक्ष्मसंपरायः षड्विधबन्धकः, बहुतरबन्धकः सप्तविधबन्धकः, ततोऽष्ट-विधबन्धक अप्पाबहुय(ग)-न०(अल्पबहुत्व) अल्पंच स्तोकं बहुच प्रभूतमल्पबहु, इति। स्थितिविषयमल्पबहुत्वं यथा- "सव्वत्थोवो संजयस्स जहन्नओ तद्भावोऽल्पबहुत्वम् / दीर्घत्वासंयुक्तत्वे च प्राकृतत्वादिति। स्था०४ ठिइबंधो एगिदियबायरपज्जत्तगस्स जहन्नओ ठिइ-बंधो ठा०२ उ०। गत्यादिरूपमार्गणास्थानादीनां परस्परस्तोकभूयस्त्वे, असं खिजगुणो" इत्यादि / अनुभागं प्रत्यल्पबहु त्वं यथाकर्म०४ कर्म०। "सव्वत्थौवाई अणंतगुणवु-ड्डिहाणाणि असंखेज्जगुणवुड्डिट्ठाणाणि, (1) अल्पबहुत्वस्य चातुर्विध्यनिरूपणम्। असंखिज्जगुणाणि संखिजगुणवुड्डिठ्ठाणाणि असंखिज्जगुणाई जाव (2) द्वारसंग्रहः। अणंतभागवुट्विट्ठाणाणि असंखिजगुणाणि'' | प्रदेशाल्पबहुत्वं यथा Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्याबहुय(ग) 618- अभिधानराजेन्द्रः-भाग 1 अप्पाबहुय(ग) अट्ठविहबंधगस्स य आउयभागो थोवो, नामगोयाणं तुल्लो विसेसाहिओ नाणदसणावरणंतरायाणं तुल्लो, विसेसाहिओ मोहस्स विसेसाहिओ वेयणिजस्स विसेसाहिओ ति" स्था०४ ठा०२ उ०। (2) तत्रद्वारसंग्रहगाथाद्वयम्दिसिगइइंदियकाए, जोए वेए कसायलेसाओ। सम्मत्तणाणदंसण-संजमउवओगआहारे।।१।। भासगपरित्तपञ्जत्तिसुहुमसण्णी भवऽत्थि से चरिमे। जीवऍ खेत्तं बंधे, पुग्गल-महदंडए चेव ||2|| प्रथमं दिग्द्वारम् 1, तदनन्तरंगतिद्वारम् 2, तत इन्द्रियद्वारम् 3, ततः / कायद्वारम् 4, ततो योगद्वारम् 5, तदनन्तरं वेदद्वारम् 6, ततः कषायद्वारम् 7, ततो लेश्याद्वारम् 8, ततः सम्यक्त्वद्वारम् ,तदनन्तरं ज्ञानद्वारम् 10, ततो दर्शनद्वारम् 11, ततः संयमद्वारम् 12, तत उपयोगद्वारम् 13. तत आहारद्वारम् १४,ततो भासकद्वारम् 15, ततः(परित्त इति) परीताः प्रत्येक शरीरिणः शुक्लपाक्षिकाच; तवारम् 16, तदनन्तरंपर्याप्तिद्वारम् 17, ततः सूक्ष्मद्वारम् 18, तदनन्तरं संज्ञिद्वारम् 16, ततो (भवत्ति) भवसिद्धिद्वारम् 20, ततोऽस्तीति अस्तिकायद्वारम् 21, ततश्चरमद्वारम् 22, तदनन्तरं जीवद्वारम् 23, ततः क्षेत्रद्वारम् २४,ततो बन्धद्वारम् 25, ततः पुद्गलद्वारम् 26, ततो महादण्डकः 27, इति सर्वसंख्यया सप्तविंशतिद्वाराणि / प्रज्ञा०३ पद। (तत्र गाथोपन्यस्तक्रममनादृत्याक्षरानुक्रमतो द्वाराणि निरूपयिष्यन्ते, तथा मध्येऽन्यतः किञ्चिद् संगृहीतं प्रक्षिप्य प्ररूपयिष्यतेऽल्पबहुत्वम्) (अनुभागबन्धस्थानानामल्पबहुत्वं 'बंध' शब्दे द्रष्टव्यम्) (3) (अवगाहना) पृथ्वीकायादीनां जघन्याद्यवगाहन याऽल्पबहुत्वम् - एएसिणं भंते ! पुढवीकाइयाणं आऊ-तेऊ-वाऊ-वणस्सइकाइयामं सुहमाणं बादराणं पजत्तगाणं अपजत्तगाणं जहण्णुको सिया ओगाहणाए कयरे कयरे हिंतो० जाव विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा सुहमणिगोयस्स अपज्जत्तगस्स जहणिया ओगाहणा 1, सुहमवाऊकाइगस्स अपञ्जत्तगस्स जहणिया ओगाहणा असंखेनगुणा 2, सुहुमतेऊ० अप्पजत्तगस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा 3, सुहुमआऊ० अपजत्तगस्स जहणिया ओगाहणा असंखेनगुणा 4, सुहमपुढवी० अपज्जत्तगस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा 5, बादरवाऊकाइयस्स अपज्जत्तगस्स जहणिया ओगाहणा असंखेजगुणा 6, बादरतेऊ० अपजत्तगस्स जहणिया ओगाहणा असंखेजगुणा 7, बादरआऊ० अपज्जत्तगस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा 8, बादरपुढवी० अपज्जत्तगस्स जहणिया ओगाहणा असंखेजगुणा 6, पत्ते यसरीरबादरवणस्सइकाइयस्स बादरनिओयस्स, एएसिणं अपज्जत्तगाणं जहणिया ओगाहणा दोण्ह वि तुल्ला असंखेज्जगुणा 10-11, सुहुमनिओयस्स पजत्तगस्स जहणिया ओगाहणा असंखेनगुणा 12, तस्स चेव अपञ्जत्तगस्स उक्कोसिया ओगाहणा विसेसाहिया 13. तस्स चेव पज्जत्तगस्स उक्कोसिया ओगाहणा विसे साहिया 15, सुहुमवाउकाइयस्स पज्जत्तगस्स जहणिया ओगाहणा असंखेजगुणा 15, तस्स चेव अपज्जत्तगस्स उक्कोसिया विसेसाहिया 16, तस्स चेव पज्जत्तगस्स उक्कोसिया ओगाहणा विसेसाहिया 17, एवं सुहुमतेउकाइयस्स वि 18-16-20, एवं सुहुमआउकाइयस्स वि 21-22-23, एवं सुहमपुढविकाइयस्स वि 24-25-26, एवं बादरवाउकाइयस्स वि२७२८-२६, एवं बादरतेउकाइयस्स वि 30-31-32, एवं बादरआउकाइयस्स वि 33-34-35, एवं बादरपुढविकाइयस्स वि 36-37-38, सव्वे सिं तिविहेणं गमेणं भाणियव्वं बादरनिओयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा ३६,तस्स चेव अपञ्जत्तगस्स उक्कोसिया ओगाहणा विसेसाहिया 40, तस्स चेव पञ्जत्तगस्स उक्कोसिया ओगाहणा विसेसाहिया 41, पत्तेयसरीरबादरवणस्सइकाइयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेजगुणा ४२,तस्स चेव अपजत्तगस्स उक्कोसिया ओगाहणा असंखेनगुणा 43, तस्स चेव पञ्जत्तगस्स उक्कोसिया असंखेनगुणा 44 / इह किल पृथिव्यप्तेजोवायुनिगोदाः 5, प्रत्येकं सूक्ष्मबादरभेदाः / एवमेते दश;एकादश च प्रत्येकं वनस्पतिः / एते च प्रत्येक पर्याप्तकाऽपर्याप्तभेदाः 22, तेऽपि जघन्योत्कृष्टावगाहनाः, इत्येवं चतुश्चत्वारिंशत् जीवभेदेषु स्तोकादिपदन्यासेनावगाहना व्याख्येया। स्थापना चैवम्-पृथ्वीकायस्याऽधः सूक्ष्मबादरपदे, तयोरधः प्रत्येकं पर्याप्ताऽपर्याप्तभेदे, तेषामधः प्रत्येकं जघन्योत्कृष्टा चाऽवगाहनेति / एवमप्कायादयोऽपि स्थाप्याः। प्रत्येकवनस्पतेश्चाऽधः पर्याप्ताऽपर्याप्तपदद्वयम्, तयोरधः प्रत्येकं जघन्योत्कृष्टा चाऽवगाहनेति। इह च पृथिव्यादीनामगुलाऽसंख्येयभागमात्राऽवगाहनत्वेऽप्यसंख्येयभेदत्वादगुलाऽसंख्येयभाग-स्येतरेतरापेक्षयाऽसंख्येयगुणत्वं न विरुध्यते, प्रत्येकशरीरवन-स्पतीनां चोत्कृष्टाऽवगाहना योजनसहसं समधिकमेव गन्तव्येति। भ०१६ श०३ उ०। (अस्तिकायद्वारे धर्मास्तिकायादीनां द्रव्यार्थतयाऽल्पबहुत्वम् 'अत्थिकाय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 514 पृष्ठे समुक्तम) (आत्मनामल्पबहुत्वम् 'आता' शब्दे द्वितीयभागे 170 पृष्ठे वक्ष्यते) (4) (आयु) द्रव्यस्थानाधायुषामल्पबहुत्वम्एयस्स णं भंते ! दवट्ठाणाउयस्स खेत्तट्ठाणाउयस्स Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुय(ग) 619 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्पाबहुय(ग) ओगाहणट्ठाणाउयस्स भावट्ठाणाउयस्स कयरे कयरेहिंतो०जाव विसे साहिया ? गोयमा ! सव्वत्थोवे खेत्तट्टाणाउए, ओगाहणट्ठाणाउए असंखेज्जगुणे, दव्वट्ठाणाउए असंखेज्जगुणे, भावट्ठाणाउए असंखेजगुणे, "खेत्तोगाहणदव्वे, भावट्ठाणाउयं च अप्पबहुं। खेत्ते सव्वत्थोवे,सेसट्ठाणा असंखेजा" ||1|| (एयस्सणं भंते ! दव्वट्ठाणाउयस्स त्ति) द्रव्यं पुद्गलद्रव्यं, तस्य स्थान भेदः परमाणु द्विप्रदेशकादि, तस्याऽऽयुः स्थितिः / अथवा द्रव्यस्याऽणुत्वादिभावेन यत् स्थानमवस्थानं, तद्रूपमायुः, द्रव्यस्थानायुः, तस्य / (खेत्तट्ठाणाउयस्स त्ति) क्षेत्रस्याकाशस्य, स्थानं भेदः पुद्गलावगाहकृतः, तस्यायुः-स्थितिः। अथवा क्षेत्रे एकप्रदेशादौ, स्थान यत्पुद्गलानामवस्थानं, तद्रूपमायुः, क्षेत्रस्थानायुः। एवमवगाहनास्थानायुर्भावस्थानायुश्च; नवर-मवगाहनानियतपरिमाणक्षेत्रावगाहित्वं पुद्गलानाम्। भावस्तु कालत्वादिः। ननु क्षेत्रस्यावगाहनायाश्च को भेदः? उच्यते-क्षेत्रमवगाढमेव / अवगाहना तु-विवक्षितक्षेत्रादन्यत्रापि पुद्गलानां तत्परिमाणावगाहित्वमिति / "क यरे' इत्यादि कण्ठ्यम् / एषां च परस्परेणाऽल्पबहुत्वव्याख्या गाथाऽनुसारेण कार्या। ताश्चेमाः खेत्तोगाहणदव्वे, भावट्ठाणाउ अप्पबहुयत्ते। थोवा असंखगुणिया, तिन्नि य सेसा कहं नेया ? ||1|| खेत्ताऽमुत्ताओ, तेण समं बंधपचयाभावा / तो पोग्गलाण थोवो, खेत्तायट्ठाणकालो उ॥२॥ अयमर्थः- क्षेत्रस्याऽमूर्त्तत्वेन क्षेत्रेण सह पुद्गलानां विशिष्ट-बन्धप्रत्ययस्य स्नेहादेरभावान्नैकत्र ते चिरं तिष्ठन्तीति शेषः / यस्मादेवं, तत इत्यादि व्यक्तम्। अथावगाहनायुषो बहुत्वं भाव्यतेअन्न खेत्तगयस्स वि, तंचियमाणं चिरं पि संधरइ। ओगाहणनासे पुण, खेत्तऽन्नत्तं फुड होइ / / 3 / / इह पूर्वाऽर्धन क्षेत्राद्धाया अधिकाऽवगाहनाद्धेत्युक्तम् / उत्तरार्द्धन तु अवगाहनाऽद्धातो नाधिका क्षेत्राद्धेति / कथमेतदेवम् ? इत्युच्यतेओगाहणावबद्धा, खेत्तद्धा अक्किया वा बद्धा य। न उ ओगाहणकालो, खेत्तद्धामेत्तसंबद्धो // 4|| अवगाहनायामगमनक्रियायां च नियता क्षेत्राद्धा विवक्षिता, अवगाहनासद्भाव एवाक्रियासद्भावः। एवं च तस्याऽभावादुक्तव्यतिरेके चाऽभावात्। अवगाहना तु- न क्षेत्रमात्रनियता, क्षेत्राऽद्धाया अभावेऽपि तस्या भावादिति। अथ निगमनम्जम्हा तत्थऽण्णत्थय, सव्वे ओगाहणा भवे खेते। तम्हा खेत्तद्धाओऽवगाहणद्धा असंखगुणा / / 5 / / __ अथद्रव्यायुषो बहुत्वं भाव्यतेसंकोयविकोएणव, उवरमियाएऽवगाहणाए वि। तत्तियमेत्ताणं चिय, चिरं पि दव्वाणऽवत्थाणं // 6 // संकोचेन, विकोचेन वा उपरतायामप्यवगाहनायां यावन्ति द्रव्याणि पूर्वमासँस्तावतामेव चिरमपि तेषामवस्थानं संभवति / अनेनावगाहनानिवृत्तावपि द्रव्यं न निवर्तत इत्युक्तम्। अथ द्रव्यनिवृत्ति विशेषेऽवगाहना निवर्तत एवेत्युच्यतेसंघायभेयओवा, दव्वोवरमे पुणाइ संखित्ते। नियमा तद्दव्वोगाहणाइ नासो न संदेहो // 7 // सङ्घातेन, पुद्गलानां भेदेन वा तेषामेव यः संक्षिप्तः स्तोकावगाहनः स्कन्धो, न तु प्राक्तनावगाहनः, तत्र यो द्रव्योपरमो द्रव्यान्यथात्वं, तत्र सति,नच सङ्घातेन, नसंक्षिप्तः स्कन्धो भवति, तत्र सति सूक्ष्मतरत्वेनापि तत्परिणतेः श्रवणाद् नियमात्तेषां द्रव्याणा-मवगाहनाया नाशो भवति। कस्मादेवम् ? इत्यत उच्यतेओगाहद्धा दव्वे, संकोयविकोयओ य अवबद्धा। न उदव्वं संकोयण-विकोयमेत्तम्मि संबद्धं / / / / अवगाहनाद्धा द्रव्येऽवबद्धा नियतत्वेन संबद्धा / कथम् ? सङ्कोचाद्विकोचाच, सङ्कोचादि परिहत्येत्यर्थः / अवगाहनादिद्रव्ये सङ्कोचविकोचयोरभावे सति भवति, तत्सद्भावे च न भवतीत्येवं द्रव्येऽवगाहना नियतत्वेन संबद्धत्युच्यते / द्रुमत्वे खदिरत्वमिवेति। उक्तविपर्ययमाह-न पुनद्रव्यं सङ्कोचविकोचमात्रेसत्यप्य-वगाहनाया नियतत्वेन संबद्ध सङ्कोचविकोचाभ्यामवगा-हनानिवृत्तावपि द्रव्यं न निर्वत्तत इत्यवगाहनायां तन्नियतत्वेना-संबद्धमित्युच्यते, खदिरत्वे द्रुमत्ववदिति। अथ निगमनम्जम्हा तत्थऽन्नत्थ व, दव्वं ओगाहणाइतं चेव। दव्वद्धा संखगुणा, तम्हा ओगाहणद्धाओ // 6 // अथ भावायुर्बहुत्वं भाव्यतेसंघायभेयओवा, दव्योवरमे वि पञ्जवा संति। तं कसिणगुणविरामे, पुणाइदव्वं न ओगाहो।।१०।। सङ्घातादिना द्रव्योपरमेऽपि पर्यवाः सन्ति, यथा- घृष्टपुटेशुक्रादिगुणाः / सकलगुणोपरमे तु न तद्रव्यं, न चावगाहनाऽनुवर्तते। अनेन पर्यवाणां चिरं स्थानं, द्रव्यस्य त्वचिरमित्युतम्। अथ कस्मादेवम् ? इत्युच्यतेसंघायभेयबंधा- णुवत्तिणी णिचमेव दव्वद्धा। न उ गुणकालो संघायभेयमत्तऽद्धसंबद्धो / / 11 / / सङ्घातभेदलक्षणाभ्यां धर्माभ्यां यो बन्धः संबन्धस्तदनुवर्तिनी तदनुसारिणी, सङ्घाताद्यभाव एव द्रव्याद्धायाः सद्भावात्, तद्भावे चाऽभावात्। न पुनर्गुणकालः, सङ्घातभेदमात्रकालसंबद्धः सङ्घातादिभावेऽपि गुणानामनुवर्तनादिति। अथ निगमनम्जम्हा तत्थऽन्नत्थव, दव्वे खेत्तावगाहणासुंच। तं चेव पज्जवा संति वा तदद्धा असंखगुणा / / 12 / / आह अणेगंतो यं, दव्योवरमे गुणाणऽवत्थाणं। गुणविप्परिणामम्मि य, दव्वविसेसो यऽणेगंतो।।१३।। द्रव्यविशेषो द्रव्यपरिणामः। विप्परिणयम्मिदव्वे, कस्सि गुणपरिणई भवे जुगवं। कम्मि विपुलतदवत्थे, वि होइ गुणविप्परीणामो॥१४|| भण्णइ सचं किं पुण, गुणबाहुल्ला न सव्वगुणनासो। दव्वस्स तदन्नत्ते, वि बहुत्तराणं गुणाण ठिई।।१५।। त्ति। भ०५ श०७ उग Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्याबहुय(ग) 620 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्पाबहुय(ग) (नैरयिकाद्यायुषामल्पबहुत्वम्' आऊ' शब्दे द्वितीय भागे 11-12 पृष्ठे दर्शयिष्यते) (जातिनामनिधत्तायुरादीनां भेदाः 'आउबंध' शब्दे द्वितीयभागे 36 पृष्ठे वक्ष्यन्ते) (५)(आहारद्वारम्) आहारकानाहारकजीवानामल्पबहुत्वम्एएसि णं भंते ! जीवाणं आहारगाणं अणाहारगाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४ ? गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा अणाहारगा, आहारगा असंखिजगुणा। सर्वस्तोका जीवा अनाहारकाः, विग्रहगत्यापन्नादीनामेवानाहारकत्वात्। उक्तं च- "विग्गहगइमावन्ना, केवलिणो समुहया अजोगी य। सिद्धा य अणाहारा, सेसा आहारगा जीवा" ||1|| तेभ्य आहारका असङ्ख्ययगुणाः। ननु वनस्पतिकायिकानां सिद्धेभ्योऽप्यनन्तत्वात् तेषां चाहारकतयाऽपिलभ्यमानत्वात्कथमनन्तगुणान भवन्ति ? तदयुक्तम् / वस्तुतत्त्वापरिज्ञानात् / इह सूक्ष्मनिगोदाः सर्वसङ्ख्ययाऽप्यसङ्ख्ययाः, तत्राप्यन्तर्मुहूर्त-समयराशितुल्याः सूक्ष्मनिगोदाः सर्वकालविग्रहे वर्तमाना लभ्यन्ते / ततोऽनाहारका अप्यतिबहवः सकलजीवराश्यसंख्येयभागतुल्या इति / तेभ्य आहारका असङ्केययगुणाः, ते च नाऽनन्तगुणाः / गतमाहारद्वारम् / प्रज्ञा०३ पद / जी०। कर्म०। (इन्द्रियाणामवगाहनयाऽल्पबहुत्वं, तेषां कर्कशादिगुणाश्च इंदिय' शब्दे द्वितीयभागे 554 पृष्ठे वक्ष्यन्ते) (6) (इन्द्रियद्वारम्) सेन्द्रियाणां परस्परमल्पबहुत्वम्एएसिणं भंते ! सइंदियाणां एगिदियाणं बेइंदियाणं तेइंदियाणं चउरिंदियाणं पंचिंदियाणं अणेंदिआण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा पंचिंदिया चउरिंदिया विसेसाहिया, तेइंदिया विसेसाहिया, बेइंदिया विसेसाहिया, अणिंदिया अणंतगुणा, एगिंदिया अणं०। सइंदिया वि० सर्वर तोकाः पञ्चेन्द्रियाः संख्येयाः, दशयोजनकोटाकोटिप्रमाणविष्कम्भसूचीप्रतिप्रतरासंख्येयभागवर्त्यसंख्येय श्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात्। तेभ्यश्चतुरिन्द्रिया विशेषाधिकाः, विष्कम्भसूच्यास्तेषां प्रभूतसंख्येययोजन-कोटाकोटिप्रमाणत्वात् / तेभ्योऽपि त्रीन्द्रिया विशेषाधिकाः, तेषां विष्कम्भसूच्याः प्रभूततरसंख्येययोजनकोटाकोटिप्रमाणत्वात् / तेभ्योऽपि द्वीन्द्रिया विशेषाधिकाः, तेषां विष्कम्भसूच्याः प्रभूततरसंख्येययोजनकोटाकोटिप्रमाणत्वात् / तेभ्योऽनीन्द्रिया अनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात् / तेभ्योऽपि एकेन्द्रिया अनन्तगुणाः, वनस्पतिकायिकानां सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वात् / तेभ्योऽपि सेन्द्रिया विशेषाधिकाः, द्वीन्द्रियादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् / तदेवमुक्तमेकमौधिकानामल्पबहुत्वम्। प्रज्ञा०३ पद / जी०) अर्थतश्चेत्थम्- "पण 1 चउ 2 ति 3 दुय 4 अणिदिय 5, एगिदिय 6 सइंदिया कमा हुंति / थोवा 1 तिन्नि य अहिया 4, दोऽणंतगुणा 6 विसेसहिया" / / 1|| भ०२५ श०३ उ०। जी०। इदानीमेतेषामेवापर्याप्तानां द्वितीयमल्पबहुत्वमाहएएसिणं भंते ! सइंदियाणं एगिंदियाणं बेइंदियाणं तेइंदियाणं चउरिंदियाणं पंचिंदियाणं अपज्जत्तगाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा पंचिंदिया अपजत्तगा, चउरिदिया अप्पज्जत्तगा विसेसाहिया, तेइंदिया अप्पज्जत्तगा विसेसाहिया, बेइंदिया अपज्जत्तगा विसेसाहिया, एगिं दिया अपज्जत्तगा अणंतगुणा, सइंदिया अपज्जत्तगा विसेसाहिया। सर्वस्तोकाः पञ्चेन्द्रिया अपर्याप्ताः एकस्मिन्प्रतरे यावन्त्यगुलासंख्येयभागमात्राणिखण्डानितावत्प्रमाणत्वात् तेषाम्। तेभ्यश्चतुरिन्द्रिया अपर्याप्ता विशेषाधिकाः, प्रभूतागुला-संख्येयभागखण्डप्रमाणत्वात्। तेभ्यस्त्रीन्द्रिया अपर्याप्ता विशेषाधिकाः, प्रभूततरप्रतराङ्गुलासंख्येयभागखण्डमानत्वात् / तेभ्योऽपि द्वीन्द्रिया अपर्याप्ता विशेषाधिकाः, प्रभूततमाड्-गुलासंख्येयभागखण्डप्रमाणत्वात् / तेभ्य एकेन्द्रिया अपर्याप्ता अनन्तगुणाः, वनस्पतिकायिकानामपर्याप्तानामनन्ततया सदा प्राप्यमाणत्वात् / तेभ्योऽपि सेन्द्रिया अपर्याप्ता विशेषाधिकाः, द्वीन्द्रियाद्यपर्याप्तानामपि तत्र प्रक्षेपात्। गतं द्वितीयमल्पबहुत्वम्। प्रज्ञा०३ पद। जी० अधुनैतेषामेव पर्याप्तापर्याप्तगतमल्पबहुत्वमाहएएसिणं मंते ! सइंदियाणं एगिंदियाणं बेइंदियाणं तेइंदियाणं चउरिंदियाणं पंचिंदियाणं पजत्तगाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा पजत्तगा चउरिंदिया, पंचिंदिया पञ्जत्तगा विसेसाहिया, तेइंदिया पज्जत्तगा विसेसाहिया, बेइंदिया पञ्जत्तगा विसेसाहिया, एगिदिया पज्जत्तगा अणंतगुणा, सइंदिया पजत्तगा संखेज्जगुणा। सर्वस्तोकाश्चतुरिन्द्रियाः पर्याप्ताः, यतोऽल्पायुषश्चतुरिन्द्रियाः, ततः प्रभूतकालमवस्थानाभावात् / पृच्छासमये स्तोका अपि प्रतरे यावन्त्यगुलसंख्येयभागमात्राणि खण्डानि तावत्प्रमाणा वेदितव्याः / तेभ्यः पञ्चेन्द्रियपर्याप्ता विशेषाधिकाः, प्रभूताङ्गुल संख्येयभागखण्डमानत्वात्।तेभ्योऽपि द्वीन्द्रियाः पर्याप्ता विशेषाधिकाः, प्रभूततरप्रतरा गुलसंख्येयभाग-खण्डमानत्वात् / तेभ्योऽपि त्रीन्द्रियाः पर्याप्ता विशेषाधिकाः, स्वभावत एव तेषां प्रभूततमप्रतराङ्गुलसंख्येयभागखण्ड-प्रमाणत्वात्। तेभ्य एकेन्द्रियाः पर्याप्ता अनन्तगुणाः, वनस्पति-कायिकानां पर्याप्तानामनन्तत्वात्। तेभ्यः सेन्द्रियाः पर्याप्ता विशेषाधिकाः, द्वीन्द्रियादीनामपि पर्याप्तानां तत्र प्रक्षेपात् / गतं तृतीयमल्पबहुत्वम्। सम्प्रत्येषामेव सेन्द्रियाणांपर्याप्ताऽपर्याप्तगतान्यल्पबहुत्वान्याहएएसिणं भंते ! सइंदियाणं पजत्तापञ्जत्तगाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसे साहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा सइंदिया अपञ्जत्ता, पज्जत्तगा सइंदिया संखेज्जगुणा / एएसि णं भंते ! एगिदियाणं पञ्जत्तापज्जत्ताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा 4? गोयमा! सव्वत्थोवा एगिदिया पज्जत्तगा, एगिंदिया अपज्जत्ता असं०। एएसि णं भंते ! बेइंदियाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा 4? गोयमा! सव्वत्थोवा बेइंदिया पज्जत्ता, बेइंदिया अपज्जत्ता Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुय(ग) 621- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्पाबहुय(ग) असंखेजगुणा। एएसिणं भंते! तेइंदियाणं पजत्तापज्जत्ताणं कयरे ततो विशेषाधिकरसंतृतीयम्। एवं तावत्सर्वोत्कृष्टरसमन्ते।तत्राऽऽदिस्पकयरेहिंतो अप्पा वा०४? गोयमा! सव्वत्थोवा तेइंदिया र्द्धकादारभ्योत्तरोत्तरस्पर्द्धकानि प्रदेशापेक्षया विशेषहीनानि, पज्जत्तगा, तेइंदिया अपज्जत्तगा असंखेजगुणा / एएसिणं भंते ! अन्तिमस्पर्द्धकादारभ्यपुनरधोऽधः क्रमेण प्रदेशापेक्षया विशेषाधिकानि, चउरिंदियाणं पञ्जत्तापञ्जत्ताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४? तेषां मध्ये एकस्मिन् द्विगुणवृद्ध्यन्तरे द्विगुणहान्यन्तरे वा यत् स्पर्द्धक गोयमा! सव्वत्थोवाचउरिदिया पज्जत्तगा, चउरिंदिया अपज्जत्तगा याति, तत् सर्वस्तोकम् / अथवा स्नेहप्रत्ययस्य स्पर्द्धकस्य असंखेज्जागुणा / एएसि णं भंते ! पंचेंदियाणं पजत्तापज्जत्ताणं अनुभागद्विगुणवृद्ध्यन्तरे, द्विगुणहान्यन्तरे वा यदनुभागपटलं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४? गोयमा! सव्वत्थोवा पंचिंदिया तत्सर्वस्तोकान्येव प्राप्यन्ते / अन्तिमस्थितिषु प्रभूतानि, इति पजत्तगा, पंचिंदिया अपज्जत्तगा असंखेजगुणा॥ स्पर्द्धकसंख्यापेक्षया द्वयोरपि निक्षेपस्तुल्यः / एवमतिस्थापसर्वस्तोकाः सेन्द्रिया अपर्याप्तकाः, इह सेन्द्रिया एव बहव-स्तत्रापि नायामुत्कृष्टनिक्षेपेऽपिच भावनी-यम्।क्रमश इति च सकलगाथाऽपेक्षया सूक्ष्माः, तेषां सर्वलोकापन्नत्वात्। सक्ष्माश्चापर्याप्ताः सर्वस्तोकाः,पर्याप्ताः योजनीयम् / ततो द्वयोरप्यतिस्थापना व्याघातबाह्या अनन्तगुणा, संख्येयगुणा इति / सेन्द्रिया अपर्याप्ताः सर्वस्तोकाः, पर्याप्ताः स्वस्थाने तु परस्परं तुल्या। ततो "वाघाएणेत्यादि" व्याघातेन यद् संख्येयगुणाः / एवमे केन्द्रिया अपर्याप्ताः सर्वस्तोकाः, पर्याप्ताः उत्कृष्ट अनुभाग-कण्डकमेकया वर्गणया एकसमयमात्रस्थितिग-- संख्येयगुणा भावनीयाः। तथा सर्वस्तोका द्वीन्द्रिया पर्याप्ताः, यावन्ति तस्पर्द्धक-संहतिरूपया ऊनम्, एषा उत्कृष्टानुभागकण्डकस्य प्रतरेऽङ्गुलस्य असंख्येयभाग-मात्राणि खण्डानि तावत्प्रमाणत्वात् याऽतिस्थापना, सा अनन्तगुणा। तत उद्वर्तनापवर्तनयोरुत्कृष्टो निक्षेपो तेषाम् / तेभ्योऽपर्याप्ता असंख्येयगुणाः, प्रतरगतामुलासंख्येय विशेषा-धिकः, स्वस्थानेतुपरस्परंतुल्यः। ततः (ससंतबंधोयसविसेसो भागखण्डमात्रत्वात्। एवं त्रिचतरिन्द्रियाऽल्पत्वान्यपि वक्तव्यानि। गतं त्ति) पूर्वबद्धोत्कृष्ट-स्थितिकर्मानुभागेन सह उत्कृष्टस्थित्यनुभागबन्धो षडल्पबहुत्वात्मकंचतुर्थमल्पबहुत्वम्। विशेषाधिकः। क० प्र०। सम्प्रत्येतेषां सेन्द्रियादीनां समुदितानां पर्याप्तापर्याप्तानामल्पबहुत्व (8) उपयोगद्वारम्- साकाराऽनाकारोपयुक्तानामल्पबहुत्वम् - माह एएसिणं भंते ! जीवाणं सागारोवउत्ताणं अणागारोवउत्ताण य एएसिणं भंते ! सइंदियाणं एगिंदियाणं बेइंदियाणं तेइंदियाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४? गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा चउरिंदियाणं पंचिंदियाणं पजत्तापज्जत्ताणं कयरे कयरेहिंतो अणागारोवउत्ता, सा-गारोवउत्ता संखिज्जगुणा। अप्पा वा०४? गोयमा ! सव्वत्थोवा चउरिंदिया पज्जत्तगा, इहाऽनाकारोपयोगः कालः सर्वस्तोकः, साकारोपयोगकालस्तु पंचिंदिया पञ्जत्तगा विसेसाहिया, बेइंदिया पज्जत्तगा विसेसाहिया, सङ्ख्यगुणः ततो जीवा अप्यनाकारोपयोगोपयुक्ताः सर्वस्तोकाः, तेइंदिया पज्जत्तगा विसेसाहिया, पंचिंदिया अपञ्जत्तगा पृच्छासमये तेषां स्तोकानामेवावाप्यमानत्वात् / तेभ्यः साकारोपयोअसंखेज्जगुणा, चउरिंदिया अपज्जत्तगा विसेसाहिआ, तेइंदिया गोपयुक्ताः सखयेयगुणाः, साकारोपयोगकालस्य दीर्घतया तेषां अपज्जत्तगा विसेसाहिआ, बेइंदिया अपज्जत्तगा विसेसाहिया, पृच्छासमये बहूनां प्राप्यमाणत्वात् / गतमुपयोग-द्वारम् / प्रज्ञा० 3 पद। ' एगिंदिया अपज्जत्तगा अणंतगुणा, सइंदिया अपज्जत्तगा जी० कर्म०पं० सं०।क० प्र०। विसेसाहिया, एगिदिया पजत्तगा संखेजगुणा, सइंदिया पज्जत्तगा (कति सचितानां कति असश्चितानामवक्तव्यक सचितानां विसेसाहिया, सइंदिया विसेसाहिया। षट् क समर्जितानां यावचतुरशीतिसमर्जितानां, कर्म प्रदेशाइदं प्रागुक्तद्वितीयतृतीयाल्पबहुत्वभावनानुसारिणा स्वयं भावनीयम्, / ग्राणामल्पबहुत्वं 'बंध' शब्दे प्रदेशबन्धावसरे वक्ष्यते) तत्त्वतो भावितत्वात्। गतमिन्द्रियद्वारम्। प्रज्ञा०३ पद / जी01 प्रव०। (6) कषायद्वारम्। क्रोधकषायादीनामल्पबहुत्वम्(इन्द्रियोपयोगाऽद्धाविषयमल्पपबहुत्वम् - 'इंदियउवओगद्धा' शब्दे एएसि णं भंते ! जीवाणं सकसाईणं कोहक साईणं द्वितीयभागे 568 पृष्ठे प्ररूपयिष्यते) माणकसाईणं मायाकसाईणं लोभकसाईणं अकसाईण य कयरे (7) उद्वर्तनाऽपवर्तनयोरल्पबहुत्वम् / सम्प्रति द्वयोरपि कयरेर्हितो अप्पावा०४? गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा अकसाई, उद्वर्तनापवर्तनयोरल्पबहुत्वं सूत्रकृत् प्रतिपादयति माणकसाई अणंतगुणा, कोहकसाई विसेसाहिया, मायाकसाई थोवं पएसगुणहाणि अंतरे दुसु जहन्ननिक्खेवो। विसेसाहिया,लोभकसाई विसेसाहिया, सकसाई विसेसाहिया। कमसो अणंतगुणिओ, दुसु वि अइत्थावणा तुल्ला // 222|| सर्वस्तोका अकषायिणः, सिद्धानां कतिपयानां च मनुष्याणामकवाघाएणऽणुभाग-कंडगमेक्काववग्गाणाऊणं। षायत्वात् / तेभ्यो मानकषायिणो मानकषायपरिणामवतोऽनन्तगुणाः, उक्किट्ठो निक्खेवो, ससंतबंधो य सविसेसो // 223 / / षट्स्वपिजीवनिकायेषु मानकषायपरिणामस्याऽवाप्यमानत्वात्। एकस्यां दिशि स्थितौ यानि स्पर्द्धकानि तानि क्रमशः स्थाप्यन्ते। तेभ्यः क्रोधकषायिणो विशेषाधिकाः, तेभ्यो मायाकषायिणो तद्यथा- सर्वजघन्यं रसस्पर्द्धकमादौ, ततो विशेषाधिकरसं द्वितीयम्, | विशेषाधिकाः, तेभ्योऽपि लोभकषायिणो विशेषाधिकाः, Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुय(ग) 622- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्पाबहुय(ग) मानकषायपरिणामकालापेक्षया क्रोधादिकषायपरिणामकालस्य यथोत्तरं विशेषाधिकतया क्रोधादिकषायाणामपि यथोत्तरं विशेषाधिकत्वभावात् / लोभकषायिभ्यः सामान्यतः सकषायिणो विशेषाधिकाः, मानादिकषायाणामपि तत्र प्रक्षेपात्। सकषायिण इत्यत्रैवं व्युत्पत्तिः- कषायशब्देन कषायोदयः परिगृह्यते, तथा च लोके व्यवहारः सकषायोऽयं, कषायोदयवानित्यर्थः। सह कषायेण कषायोदयेन वर्तन्ते सकषायोदयाः विपाकावस्थां प्राप्ताः स्वोदयमुपदर्शयन्तः कषायकर्मपरिमाणवन्तस्तेषु सत्सु जीवस्यावश्यं, कषायोदय-संभवात् / सकषाया विद्यन्ते येषां ते सकषायिणः, कषायोदयसहिता इति तात्पर्यार्थः / गतं कषायद्वारम् / प्रज्ञा० 3 पद / जी० / कर्म० / सकषायिणामकषायिणांचाऽल्पबहुत्वचिन्तायां, सर्वस्तोका अकषायिणः सकषायिणोऽनन्तगुणाः / जी०८ प्रति०। (कामभोगविषयमल्पबहुत्वं 'कामभोग' शब्दे वक्ष्यते) (10) कायद्वारम् / सकायिकानामल्पबहुत्वम्एएसि णं भंते ! सकाइयाणं पुढविकाइयाणं आउकाइयाणं तेउकाइयाणं वाउकाइयाणं वण-स्सइकाइयाणं तसकाइयाणं अकाइयाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०५? गोयमा ! सव्वत्थोवा तसकाइया, तेउकाइया असंखे जगुणा, पुढविकाइया विसे साहिया, आउकाइया विसेसाहिया, वाउकाइया विसेसाहिया, अकाइया अणंतगुणा, वणस्सइकाइया अणंतगुणा, सकाइया विसेसाहिया वा। सर्वस्तोकास्त्रसकायिकाः, द्वीन्द्रियादीनामेव त्रसकायिकत्वातः तेषां चशेषकायापेक्षया अत्यल्पत्वात्। तेभ्यस्तेजस्कायिका असंख्येयगुणाः, असंख्येयलो काकाशप्रमाणत्वात् / तेभ्यः पृथिवीकायिका विशेषाधिकाः, प्रभूतासङ्ख्ये यलोकाकाश-प्रदेशप्रमाणत्वात् / तेभ्योऽप्कायिका विशेषाधिकाः, प्रभूततरासङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात् / तेभ्यो वायुकायिका विशेषाधिकाः, प्रभूततमासङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशमानत्वात् / तेभ्योऽकायिका अनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात् / तेभ्यो वनस्पतिकायिका अनन्तगुणाः, अनन्तलोकाकाशप्रदेश-राशिमानत्वात्। तेभ्यः सकायिका विशेषाधिकाः, पृथिवी-कायिकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् / उक्तमौधिकानामल्पबहुत्वम्। प्रज्ञा०३पद।जी०। अर्थतश्चैवम् - "तसतेउ-पुढवि-जल-वाउकाय-अकाय वणस्सइसकाया 8 / थोवा 1 ऽसंखगुणाहिय 2, तिन्नि उ५ दोऽणतगुणा 7 अहिया"||१त्ति। भ० 25 श० 3 उ०। पं० सं०। इदानीमेतेषामेवापर्याप्तानां द्वितीयमल्पबहुत्वमाहएएसिणं भंते ! सकाइयाणं पुढविकाइयाणं आउकाइयाणं तेउकाइयाणं वाउकाइयाणं वण-स्सइकाइयाणं तसकाइयाण य अपजत्तगाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४? गोयमा ! सव्वत्थोवा तसकाइया अपञ्जत्तगा, तेउकाइया अपज्जत्तगा असंखेनगुणा, पुढविकाइया अपज्जत्तगा विसेसाहिया, आउकाइया अपज्जत्तगा विसेसाहिया, वाउकाइया अपज्जत्तगा विसेसाहिया, वणस्सइकाइया अपज्जत्तगा अणंतगुणा। सकाइया अपनत्तगा विसेसाहिया। प्रज्ञा०३पदा (टीका चाऽस्य सुगमाऽतो न प्रतन्यते) साम्प्रतमेतेषामेव पर्याप्तानां तृतीयमल्पबहुत्वमाहएएसि णं भंते ! सकाइयाणं पुढविकाइयाणं आउकाइयाणं तेउकाइयाणं वाउकाइयाणं वण-स्सइकाइयाणं तसकाइयाण य पज्जत्तगाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा० 4? गोयमा ! सव्वत्थोवा तसकाइया पज्जत्तगा, तेउकाइया पज्जत्तगा असंखेजगुणा, पुढविकाइया पज्जत्तगा विसेसाहिया, आउकाइया पज्जत्तगा विसेसाहिया, वाउकाइया पञ्जत्तगा विसेसाहिया, वणस्सइकाइया पञ्जत्ता अणंतगुणा, सकाइया पजत्ता विसेसाहिया। प्रज्ञा०३ पद। (टीका सुगमा) साम्प्रतमेतेषामेव सकायिकादीनां प्रत्येकं पर्याप्ताऽपर्याप्त गतमल्पबहुत्वमाहएएसिणं भंते ! सकाइयाणं पज्जत्तापजत्ताणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा सकाइया अपञ्जत्तगा, सकाइया पज्जत्तगा संखेजगुणा / एएसि णं भंते ! पुढविकाइयाणं पञ्जत्तापज्जत्ताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा पुढविकाइया अपज्जत्तगा, पुढविकाइया पज्जत्तगा संखिज्जगुणा / एएसि णं भंते ! आउकाइयाणं पञ्जत्तापज्जत्ताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४ ? गोयमा ! सव्वत्थोवा आउकाइया अपजत्तगा, आउकाइया पञ्जत्तगा संखिजगुणा / एएसि णं भंते ! तेउकाइयाणं पजत्तापञ्जत्ताणं कयरे कयरे हिंतो अप्पा वा०४? गोयमा ! सव्वत्थोवा तेउकाइया अपज्जत्तगा, तेउकाइया पज्जत्तगा संखेजगुणा। एएसि णं भंते ! वाउकाइयाणं पज्जत्तापजत्ताणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा०४? गोयमा ! सव्वत्थोवा वाउकाइया अपजत्तगा, वाउकाइया पञ्जत्तगा संखेनगुणा / एएसि णं भंते ! वणस्सइकाइयाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा० 4? गोयमा ! सव्वत्थोवा वणस्सइकाइया अपज्जत्तगा, वणस्सइकाइया पज्जत्तगा संखेज्जगुणा / एएसि णं मंते ! तसकाइयाणं पजत्तापजत्ताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४? गोयमा! सव्वत्थोवा तसकाइया पजत्तगा, तसकाइया अपज्जत्तगा असंखेनगुणा / प्रज्ञा०३ पद। (टीका सुगमा) साम्प्रतमेतेषामेव सकायिकादीनां समुदितानां पर्याप्ताऽपर्याप्तगतमल्पबहुत्वं पञ्चममाह Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुय(ग) 623- अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्पाबहुय(ग) एएसि णं भंते ! सकाइयाणं पुढविकाइयाणं आउकाइयाणं तेउकाइयाणं वाउकाइयाणं वणस्सइकाइयाणं तसकाइयाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४? गोयमा ! सव्वत्थोवा तसकाइया पज्जत्तगा, तसकाइया अपज्जत्तगा असंखेनगुणा, तेउकाइया अपज्जतगा असंखेजगुणा, पुढविकाइया अपजत्तगा विसेसाहिया, आउकाइया अपज्जत्तगा विसेसाहिया, वाउकाइया अपजत्तगा विसेसाहिया,तेउकाइया पज्जत्तगा संखेजगुणा पुढविकाइया पज्जत्तगा विसेसाहिया, अप्पकाइया पज्जत्तगा विसेसाहिया, वाउकाइया पञ्जत्तगा विसे साहिया, वणस्सइकाइया अपज्जत्तगा अणंतगुणा, वणस्सइकाइया पज्जत्तगा संखेजगुणा, सकाइया अपज्जत्तगा विसे साहिया, सकाइया पज्जत्तगा संखेज्जगुणा, सकाइया विसेसाऽहिया। सर्वस्तोकास्त्रसकायिकाः पर्याप्तकाः, तेभ्यस्त्रसकायिकाएवाऽपर्याप्तका असंख्येयगुणाः; द्विन्द्रीयादीनामपर्याप्तानां पर्याप्तदीन्द्रियादिभ्योऽसंख्येयगुणत्वात् / ततस्तेजस्कायिका अपर्याप्ता असङ्ख्येयगुणाः, असंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात्। ततः पृथिव्यम्बुवायवोऽपर्याप्ताः क्रमेण विशेषाधिकाः / ततस्तेजस्कायिकाः पर्याप्तकाः सङ्ख्येयगुणाः, सूक्ष्मेष्वपर्याप्तभ्यः पर्याप्तानां संख्येयगुणत्वात्। ततः पृथिव्य-ब्वायवः पर्याप्ताः क्रमेण विशेषाधिकाः। ततो वनस्पतयोऽपर्याप्ता अनन्तगुणाः / पर्याप्ताः सङ्घयेयगुणाः। तदेवं कायद्वारे सामान्येन पञ्चसूत्राणि प्रतिपादितानि // सम्प्रत्यस्मिन्नेव द्वारे सूक्ष्मबादरादिभेदेन पञ्चदश सूत्राण्याहएएसि णं भंते ! सुहुमाणं सुहुमपुढविकाइयाणं सुहुमआउकाइयाणं सुहुमतेउकाइयाणं सुहुमवाउकाइयाणं सुहुमवणस्सइकाइयाणं सुहुमणिओयाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा० 4 ? गोयमा ! सव्वत्थोवा सुहुमतेउकाइया, सुहुमपुढ विकाइया विसेसाहिया, सुहुमआउकाइया विसेसाहिआ, सुहमवाउकाइया विसेसाहिया, सहमनिगोदा असंखेजगुणा / सुहुमवणस्सइकाइया अणंतगुणा, सुहुमा विसेसाऽहिआ। सर्वस्तोकाः सूक्ष्मतेजस्कायिकाः असंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात् / तेभ्यः सूक्ष्मपृथिवीकायिका विशेषाधिकाः, प्रभूतासङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात्। तेभ्यः सूक्ष्मा-उप्कायिकाः प्रभूतरासंख्येयलोकाकाशमानत्वात् / तेभ्यः सूक्ष्म-वायुकायिका विशेषाधिकाः, प्रभूततमासङ्ख्येयलोकाकाश-प्रदेशराशिमानत्वात् / तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदा असंख्येयगुणाः / सूक्ष्मग्रहणं बादरव्यवच्छेदार्थम्। द्विविधा हि निगोदाः- सूक्ष्माः, बादराश्च / तत्र बादराः सूरणकन्दादिषु, सूक्ष्माः सर्वलोकापन्नाः, ते च प्रतिगोलकमसङ्खये या इति सूक्ष्मवायुकायिकेभ्योऽ-संख्येयगुणाः / तेभ्यः सूक्ष्मवनस्पतिकायिका अनन्तगुणाः, प्रतिनिगोदमनन्तानां भावात् / तेभ्यः सामानिकाः | सूक्ष्मजीवा विशेषाधिकाः, सूक्ष्मपृथिवीकायिकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात्। गतमौधिकानामिद-मल्पबहुत्वम्। इदानीमेतेषामेवाऽपर्याप्तानामाहएएसि णं भंते ! सुहुमअपज्जत्तगा णं सुहुमपुढविकाइया, अपजत्तगाणं सुहमआउकाइआ, अपजत्तगाणं सुहमतेउकाइया, अपज्जत्तगा णं सुहुमवाउकाइया, अपज्जत्तगा णं सुहुमवणस्सइकाइया, अपज्जत्तगाणं सुहुमनिगोदा, अपजत्तगा ण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४? गोयमा ! सव्वत्थोवा सुहुमतेउकाइया अपज्जत्तया, सुहुमपुढविकाइया अपज्जत्तगा विसेसाहिया, सुहमआउकाइया अपज्जत्तया विसेसाहिया, सुहुमवाउकाइया अपज्जत्तया विसेसाहिया, सुहुमनिगोदा अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा, सुहुमवणस्सइकाइया अप्पज्जत्तगा अणंतगुणा, सुहुमा अपज्जत्तगा विसेसाहिआ। __ इदमपि प्रागुक्तक्रमेणैव भावनीयम्। सम्प्रत्येतेषामेव पर्याप्तानां तृतीयमल्पबहुत्वमाहएएसिणं भंते ! सुहमपज्जत्तगाणं सुहमपुढविकाइयपज्जत्तगाणं सुहुमआउकाइयपज्जतगाणं सुहुमतेउकाइयपज्जत्तगाणं सुहुमवाउकाइयपजत्तगाणं, सुहुमवणस्सइकाइयपज्जत्तगाणं, सुहुमनिगोदपज्जत्तागाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा० 4 ? गोयमा ! सव्वत्थोवा सुहुमतेउकाइया पज्जत्तगा, सुहमपुढविकाइया पज्जत्तगा विसेसाहिया / सुहुमआउकाइया पज्जत्तगा विसेसाहिया, सुहुमवाउकाइया पज्जत्तगा विसे साहिया, सुहुमनिगोदा पज्जत्तगा असंखेज्जगुणा, सुहुमवणस्सइकाइया पज्जत्तगा अणंतगुणा, सुहमा पञ्जत्ता विसेसहिया। इदमपि प्रागुक्तक्रमेणैव भावनीयम्। प्रज्ञा०३ पद। पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रियाणां नवानामल्पबहुत्वचिन्तायामाह अप्पाबहुगं सव्वत्थोवा पंचिंदिया, चउरिंदिया विसेसाहिया, तेइंदिया विसेसाहिया, बेइंदिया विसेसाहिया, तेउक्काइया असंखेनगुणा, पुढवि० आउ० वाउ० विसे साहिया, वणस्सइकाइया अणंतगुणा। सर्वस्तोकाः पञ्चेन्द्रियाः संख्येययोजनकोटीकोटिप्रमाणविष्कम्भसूचीप्रमितराश्यसंख्येयभागवर्त्य संख्येयश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् / तेभ्यश्चतुरिन्द्रिया विशेषाधिकाः, विष्कम्भसूच्यास्तेषा प्रभूतसंख्येययो-जनकोटीकोटिप्रमाणत्वात् / तेभ्योऽपि त्रीन्द्रिया विशेषाधिकाः, तेषां विष्कम्भसूच्याः प्रभूततरसंख्येययोजनकोटीकोटिप्रमाणत्वात् / तेभ्योऽपि द्वीन्द्रिया विशेषाधिकाः, तेषां विष्कम्भसूच्याः प्रभूततम-संख्येययोजनकोटीको टिप्रमाणत्वात् ।तेभ्यस्तेजस्कायिका असंख्येयगुणाः, असंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात् / तेभ्यः पृथ्विीकायिका विशेषाधिकाः, प्रभूतासंख्ये यलो काकाशप्रमाणत्वात् / तेभ्योऽप्कायिका विशेषाधिकाः, प्रभूततरासंख्येयलोकाकाश-प्रदेशप्रमाणत्वात् / Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुय(ग) 624 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्याबहुय(ग) तेभ्यो वायुकायिका विशेषाधिकाः, प्रभूततमासंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात् / तेभ्यो वनस्पतिकायिका अनन्तगुणाः, अनन्तलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात्। जी०६ प्रति०। सम्प्रति एतेषामेवानिन्द्रियसहितानां दशानामल्पबहुत्वमाहएएसिणं भंते ! पुढविकाइयाणं अउकाइयाणं तेउ०, वाउ०, वणप्फति०, बेइंदियाणं, तेइंदियाणं चउरिंदियाणं पंचिंदियाणं अणिंदियाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा० जाव विसेसाहिया ? गोयमा ! सव्वत्थोवा पंचेंदिया, चउरिंदिया विसेसाहिया, तेइंदिया विसेसाहिया, बेइंदिया वि० तेउक्काइया असंखेज्जगुणा / पुढविकाइया वि०, आउकाइया वि०, वाउकाइया वि०, अणिंदिया अणंतगुणा, वणप्फतिकाइया अणंतगुणा। सर्वस्तोकाः पञ्चेन्द्रियाः, चतुरिन्द्रिया विशेषाधिकाः, त्रीन्द्रिया विशेषाधिकाः, द्वीन्द्रिया विशेषाधिकाः, तेजस्कायिका असंख्येयगुणाः, पृथिवीकायिकाः, विशेषाधिकाः, अप्कायिका विशेषाधिकाः, वायुकायिका विशेषाधिकाः, अनिन्द्रिया अनन्तगुणाः, वनस्पतिकायिका अनन्तगुणाः / जी० 100 प्रति०। अधुनाऽमीषामेव सूक्ष्मादीनां प्रत्येकं पर्याप्तगता न्यल्पबहुत्वान्याहएएसिणं भंते ! सुहमाणं पजत्ताऽपज्जत्ताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४? गोयमा ! सव्वत्थोवासुहमा अपज्जत्तगा, सुहुमा पज्जत्तगा संखेजगुणा / एएसि णं भंते ! सुहुमपुढविकाइयाणं पञ्जत्ताऽपज्जत्ताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा० 4? गोयमा ! सव्वत्थोवा सुहुमपुढविकाइया अपञ्जत्तया, सुहुमपुढविकाइया पज्जत्तगा संखेजगुणा। इह बादरेषु पर्याप्तभ्योऽपर्याप्ता असंख्येयगुणाः, एकैकपर्याप्तनिश्रया असंख्येयानामपर्याप्तानामुत्पादात्। तथाचोक्तं प्राक्प्रथमे प्रज्ञापनाख्ये पदे-'"पज्जत्तगनिस्साए अपज्जत्तगा वक्कमंति, जत्थ एगो तत्थ नियमा असंखेज्ज" इति / सूक्ष्मेषु पुनयिं क्रमः / पर्याप्ताश्चापर्याप्तापेक्षया चिरकालावस्थायिन इति / सदैव ते बहवो लभ्यन्ते / तत उक्तम्सर्वस्तोकाः सूक्ष्मा अपर्याप्ताः, तेभ्यः सूक्ष्माः पर्याप्तकाः संख्येयगुणाः, एवं पृथिवीकायिकादिष्वपि प्रत्येकं भावनीयम्।गतं चतुर्थमल्पबहुत्वम्। इदानीं सर्वेषां समुदितानां पर्याप्तापर्याप्तगतं पञ्चममल्पबहु त्वमाहएएसि णं भंते ! सुहुमआउकाइयाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं कयरे कयरे हिंतो अप्पा वा० 4? गोयमा ! सव्वत्थोवा सुहुमआउकाइया अपज्जत्तया, सुहुमआउकाइया पञ्जत्तगा संखे जगुणा / एएसि णं भंते ! सुहुमते-उकाइयाणं पजत्तापज्जत्ताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा० 4 ? गोयमा ! सव्वत्थोवा सुहुमतेउकाइया अपज्जत्तगा, सुहुमतेउकाइया पजत्तगा संखिज्जगुणा / एएसिणं भंते ! सुहुमवाउकाइयाणं पज्जत्तापजत्ताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४? गोयमा ! सव्वत्थोवा सुहुमवाउकाइया अपञ्जत्तगा, सुहुमवाउकाइया पञ्जत्तगा संखेज्जगुणा। एएसिणं भंते ! सुहुमवणस्सइकाइयाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४? गोयमा ! सव्वत्थोवा सुहुमवणस्सइकाइया अपज्जत्तगा, सुहुमवणस्सकाइया पज्जत्तगा संखिजगुणा / एएसिणं भंते ! सुहमनिगोदाणं पज्जत्तापजत्ताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४? गोयमा ! सव्वत्थोवा सुहुमनिगोदा अपज्जत्तगा सुहम-निगोदा पज्जत्तगा संखेज्जगुणा। "अगुणा एएसि णं भंते ! सुहुमाणं सुहुमपुढ विकाइयाणं सुहुमआउकाइयाणं सुहुमते-उकाइयाणं सुहुमवाउकाइयाणं सुहुमवणस्सइकाइयाणं सुहुमनिगोदाणय पज्जत्तापञ्जत्ताणं कयरे करय हिंतो अप्पा वा० 4 ? गोयमा ! सव्वत्थोवा सुहुमतेउकाइया अपज्जत्तया, सुहुमपुढविकाइया अपज्जत्तया विसेसाहिया, सुहुमआउकाइया अपज्जत्तया विसेसाहिया, सुहुमवाउकाइया अपजत्तया विसेसाहिया, सुहुमते-उकाइया पज्ज० संखेजगुणा, सुहुमपुढविकाइया पज्जत्तया विसेसाहिया, सुहुमआउकाइया पज्जत्तगा विसेसाहिया, सुहुमवाउकाइया पज्जत्तगा विसेसाहिया, सुहुमनिगोदा अपज्जत्तगा असंखेजगुणा, सुहुमनिगोदा पज्जत्तगा संखेजगुणा, सुहुमवणस्सइकाइया अपज्जत्तगा अणंतगुणा, सुहमा अपज्जत्तगा विसेसाहिया, सुहमा वणस्सइकाइया पज्जत्तगा संखेनगुणा, सुहुमा पज्जतगा विसेसाहिया। सर्वस्तोकाः सूक्ष्मास्तेजस्कायिका अपर्याप्ताः; कारणं प्रागेवोक्तम् / तेभ्यः सूक्ष्माः पृथिवीकायिका अपर्याप्ता विशेषाधिकाः / तेभ्यः सूक्ष्माऽप्कायिका अपर्याप्ता विशेषाधिकाः। तेभ्यः सूक्ष्मवायुकायिका अपर्याप्ता विशेषाधिकाः / अत्रापि कारणं प्रागेवोक्तम् / तेभ्यः सूक्ष्मतेजस्कायिकाः पर्याप्ताः संख्येयगुणाः / अपर्याप्तभ्यो हि पर्याप्ताः संख्येयगुणाः / इत्यनन्तरं भावितम् / तत्र सर्व स्तोकाः सूक्ष्मतेजस्कायिका अपर्याप्ता उक्ताः / इतरे च सूक्ष्मपर्याप्ताः पृथिवीकायिकादयो विशेषाधिकाः विशेषाधिकत्वं च मनागधिकत्वम्, न द्विगुणत्वं, न त्रिगुणत्वं वा / ततः सूक्ष्मतेजस्कायिकेभ्योऽपर्याप्तेभ्यः पर्याप्ताः सूक्ष्मतेज-स्कायिकाः संख्येयगुणाः सन्तः सूक्ष्मवायुकायिकाः पर्याप्तभ्योऽपि असंख्येगुणा भवन्ति / तेभ्यः सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः पर्याप्ता विशेषाधिकाः। तेभ्यः सूक्ष्माऽप्कायिकाः पर्याप्ताः विशेषाधिकाः। तेभ्योऽपि सूक्ष्मवायुकायिकाः पर्याप्ता विशेषाधिकाः / तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदा अपर्याप्ता असंख्येयगुणाः, तेषामतिप्राचुर्यात् / तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदाः पर्याप्ताः संख्येयगुणाः, सूक्ष्मेष्वपर्याप्तभ्यः पर्याप्ता-नामोघतः संख्येयगुणत्वात्। तेभ्यः सूक्ष्मवनस्पतिकायिका अपर्याप्ता अनन्तगुणाः, प्रतिनिगोदमनन्तानां तेषां भावात्।तेभ्यः सामान्यतः सूक्ष्मा अपर्याप्तकाः विशेषाधिकाः, सूक्ष्मपृथिवीकायिकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् / तेभ्यः सूक्ष्मवनस्पतिकायिकाः Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अय्याबहुय(ग) 625 - अभिधानराजेन्द्रः-भाग 1 अप्पाबहुय(ग) पर्याप्तकाः संख्येयगुणाः। सूक्ष्मेषु हि अपर्याप्तेभ्यः पर्याप्तकाः संख्येयगुणाः / यचापान्तराले विशेषाधिकत्वं तदल्पमिति न संख्येयगुणत्वव्याघातः / तेभ्यः सूक्ष्मपर्याप्तका विशेषाधिकाः, सूक्ष्मपृथिव्यादीनामपि पर्याप्तानां तत्र प्रक्षेपात् / तेभ्यः सूक्ष्मा विशेषाधिकाः, अपर्याप्तानामपि तत्र प्रक्षेपात् / / 15 / / तदेवमुक्तानि सूक्ष्माश्रितानि पञ्चसूत्राणि। सम्प्रति बादराश्रितानि पञ्चोक्तक्रमेणाभिधित्सुराहएएसि णं भंते ! बादरगाणं बादरपुढविकाइयाणं बादर आउकाइयाणं बादरते उकाइयाणं बादरवाउकाइयाणं बादरवणस्सइकाइयाणं पत्तेयसरीरबादरवणस्स-इकाइयाणं बादरनिगोदाणं बादरतसकाइयाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वातुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा! सव्वत्थोवा बादरतसकाइया, बादर-ते उकाइया असंखे जगुणा, पत्तेयसरीरबादरवण-स्सइकाइया असंखेजगुणा, बादरनिगोदा असंखेज्ज-गुणा, बादरपुढविकाइया असंखेजगुणा, बादरआउकाइया असंखेज्जगुणा, बादरवाउकाइया असंखेज्जगुणा, बादरवणस्सइकाइया अणंतगुणा, बादरा विसेसाहिया॥१॥ सर्वस्तोका बादरत्रसकायिकाः, द्वीन्द्रियादीनामेव बादर-त्रसत्वात्, तेषां च शेषकायेभ्योऽल्पत्वात् / तेभ्यो बादर-तेजस्कायिका असङ्ख्येयगुणाः, असंख्येयलोकाकाशप्रदेश-प्रमाणत्वात्। तेभ्योऽपि प्रत्येकशरीरबादरवनस्पतिकायिका असंख्येयगुणाः, स्थानस्यासंख्येयगुणत्वात्। बादरतेजस्कायिका हि मनुष्यक्षेत्र एव भवन्ति। तथा चोक्तं द्वितीयस्थानाख्ये पदे - "कहि णं भंते ! बादरतेउकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता ? गोयमा ! सहाणेणं अंतो मणुस्सखित्ते अदाइजेसुदीवसमुद्देसु निव्वाघाएणं पन्नरसकम्मभूमिसु वाघाएणं पंचसु महाविदेहेसु एत्थ णं बायरतेउक्काइयाणं पजत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता, तत्थेव बायरते-उक्काइयाणमपज्जत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता" इति। बादरवनस्पतिकायिकेषु त्रिष्यपि लोकेषु भवनादिषु।। तथा चोक्तं तस्मिन्नेव द्वितीये स्थानाख्ये पदे - "कहि णं भंते ! बायरवणस्सइकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता ? गोयमा ! सट्ठाणेणं सत्तसुघणोदहीसु सत्तसु घणोदहिवलएसु अोलोए पायालेसु भवणेसु भवणपत्थडे सु उड्डलोए कप्पेसु विमाणे सु विमाणावलियासु विमाणपत्थडेसु तिरियलोए अगडेसु तलाएसु नदीसु दहेसु वापीसु पुक्खरिणीसुदीहियासु गुंजालियासुसरेसुसरपंतियासुसरसरपंतियासु बिलपंतियासु उज्झरेसुनिज्झरेसु चिल्लरेसुपल्ललेसु विपिन्नेसुदीवेसु समुद्देसु सव्वेसु चेव जलासएसु जलढाणेसु, एत्थ णं बायरवणस्सइकाइयाणं पजत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता'। तथा - "जत्थेव बायरवणस्सइकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा, तत्थेव बायरवणस्सइकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता'' इति / ततः क्षेत्रस्यासंख्येयगुणात्यादुपपद्यन्ते बादरतेजस्कायिकेभ्योऽ-संख्येयगुणाः प्रत्येकशरीरबादरवनस्पतिकायिकाः / तेभ्यो बादरनिगोदा असंख्येयगुणाः, तेषामत्यन्तसूक्ष्मावगाहनत्वात्, जलेषु सर्वत्रापि च भावात्। पनकशैवालादयो हि जले अवश्य भाविनः,ते च बादरानन्तकायिका इति। तेभ्योऽपि बादरपृथिवीकायिका असंख्येयगुणाः, अष्टसु पृथिवीषु सर्वेषु विमानभवनपर्वतादिषु भावात् / तेभ्योऽसंख्येयगुणा बादराऽप्कायिकाः, समुद्रेषु जलप्राभूत्यात् / तेभ्यो बादरवायुकायिका असंख्येयगुणाः, सुषिरे सर्वत्र वायुसंभवात्। तेभ्यो बादरवनस्पतिकायिका अनन्तगुणाः, प्रतिबादरनिगोदमनन्तानां जीवानां भावात् / तेभ्यः सामान्यतो बादराजीवा विशेषाधिकाः, बादत्रसकायिकादीनामपितत्र प्रक्षेपात्। गतमेकमौघिकानां बादराणामल्पबहुत्वम् / / 1 / / इदानीं तेषामेवाऽपर्याप्तानां द्वितीयमाहएएसि णं भंते ! बादरापञ्जत्तगाणं, बादरपुढ विकाइया अपज्जत्तगाणं, बादरआउकाइया अपजत्तगाणं, बादरतेउकाइया अपज्जत्तगाणं,बादरवाउकाइया अपज्जत्तगाणं बादरवणस्सइकाइया अपज्जत्तगाणं, पत्तेयसरीरवणस्सइकाइया अपजत्तगाणं, बादरनिगोदा अपज्जत्तगाणं, बादरतसकाइया अपजत्तगाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? | गोयमा ! सव्वत्थोवा बादरतसकाइया अपज्जत्तगा, बादरतेउकाइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा, पत्तेयसरीरबादरवणस्सइकाइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा, बादरनिगोदा अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा, बादरपुढविकाइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा, बादरआउकाइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा, बादरवाउकाइया अपज्जतगा असंखेजगुणा, बादरवणस्सइकाइया अपज्जत्तगा अणंतगुणा, बादरअपजत्तगा विसेसाहिया॥२॥ सर्वस्तोका बादरत्रसकायिका अपर्याप्तकाः, युक्तिस्त्र प्रागुक्कैव / तेभ्यो बादरतेजस्कायिका अपर्याप्ता असंख्येयगुणाः, असंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात् / इत्येवं प्रागुक्तक्रमेणेदमल्पबहुत्वं भावनीयम् / गतं द्वितीयमल्पबहुत्वम्॥२॥ इदानीमेतेषामेव पर्याप्तानां तृतीयमल्पबहुत्वमाहएएसिणं भंते ! बादरपज्जत्तयाणं बादरपुढविकाइया पज्जत्तयाणं बादरआउकाइया पजत्तयाणं बादरतेउकाइया पज्जत्तयाणं बादरवाउकाइया पज्जत्तयाणं बादरवणस्सइकाइया पजत्तयाणं पत्तेयसरीरबादरवणस्सइकाइयापज्जत्तयाणं बादरनिगोदपज्जत्तयाणं बादरतसकाइया पज्जत्तयाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा बादरतेउकाइया पञ्जत्तया, बादरतसकाइया पञ्जत्तया असंखेज्जगुणा, पत्तेयसरीरबादरवणस्सइकाइया पज्जत्तगा असंखेज्जगुणा, बादरनिगोदा पज्जत्तगा असंखेजगुणा, बादरपुढविकाइया पज्जत्तगा असंखेज्जगुणा, बादरआउकाइया पञ्जत्तया असंखेज-गुणा, बादरवाउकाइया पजत्तगा असंखेजगुणा बादरवणस्स-इकाइया पजत्तगा अनन्तगुणा, बादरपज्जत्तगा विसेसाहिया॥३॥ Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुय(ग) 626 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्पाबहुय(ग) सर्वस्तोका बादरतेजस्कायिकाः पर्याप्ताः, आवलिकासमयवर्गस्य कतिपयसमयन्यूनैरावलिकासमयैर्गुणितस्य यावान् समयराशिर्भवति तावत्प्रमाणत्वं तेषाम् / उक्तं च - "आवलिवग्गो य ऊणावलिए गुणिओ हु बायरा तेऊ" इति / तेभ्यो बादर-त्रसकायिकाः पर्याप्ठा असंख्येयगुणाः, प्रतरे यावन्त्य-गुलासंख्येयभागमात्राणि खण्डानि तावत्प्रमाणत्वात्तेषाम् / तेभ्यः प्रत्येकशरीरबादरवनस्पतिकायिकाः पर्याप्ता असंख्येयगुणाः, प्रतरे यावन्त्यगुलासंख्येयभागमात्राणि खण्डानि तावत्प्रमाणत्वात्तेषाम् / उक्तं च - "पत्तेयपज्जवणकाइया उ पयर हरंति लोगस्स। अंगुलअसंखभागेण भाइयमिति"। तेभ्यो बादरनिगोदाः पर्याप्तका असंख्येयगुणाः, तेषामत्यन्तसूक्ष्मावगाहनत्वात्, जलाशयेषु च सर्वत्र भावात्। तेभ्यो बादरपृथिवीकायिकाः पर्याप्ता असंख्येयगुणाः, अतिप्रभूत संख्येयप्रतरामुलासंख्येयभागखण्डमानत्वात्। तेभ्योऽपि बादराऽप्कायिकाः पर्याप्ता असंख्येयगुणाः, अतिप्रभूततर-संख्येयप्रतराङ्गुलासंख्येयभागखण्डसंख्यत्वात्। तेभ्यो बादर-वायुकायिकाः पर्याप्ता असंख्येयगुणाः, घनीकृतस्य लोकस्यासंख्येयेषु प्रतेरषु संख्याततमभागवर्त्तिषु यावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणत्वात्तेषाम् / तेभ्यो बादरवनस्पतिकायिकाः पर्याप्ता अनन्तगुणाः, प्रतिबादरैकैकनिगोदमनन्तानां जीवानां भावात्। तेभ्यः सामान्यतो बादरपर्याप्ता विशेषाधिकाः, बादरतेजस्कायिकानामपि पर्याप्तानां तत्र प्रक्षेपात् / गतं तृतीय-मल्पबहुत्वम्॥३॥ इदानीमेतेषामेव पर्याप्ताऽपर्याप्तानां चतुर्थमल्पबहुत्यमाहएएसि णं भंते ! बादराणं पज्जत्तापज्जत्ताणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा बादरा पज्जत्तगा, बादरा अप्पञ्जत्तगा असंखेज्जगुणा। एएसिणं भंते ! बादर-पुढविकाइयाणं पज्जत्तापजत्ताणं कयरे कयरे हिंतो अप्पा वा० 4 ? गोयमा ! सव्वत्थो वा बादरपुढविकाइया पज्जत्तगा, बादरपुढविकाइया अप्पज्जत्तगा असंखेनगुणा / एएसि णं मंते ! बादरआउकाइयाणं पजत्तापञ्जत्ताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४? गोयमा ! सव्वत्थोवा बादरआउकाइया पज्जत्तगा, बादरआउकाइया अपज्जत्तया असंखेज्जगुणा। एएसि णं भंते ! बादरतेउकाइयाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा! सव्वत्थोवा बादरतेउकाइया पज्जत्तया, बादरतेउकाइया अपज्जत्तया असंखेनगुणा / एएसिणं भंते ! बादरवाउकाइयाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा बादरवाउकाइया पज्जत्तगा, बादरवाउकाइया अपजत्तगा असंखेजगुणा / एएसि णं भंते ! बादरवणस्सइकाइयाणं पञ्जत्तापज्जत्ताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा० 4? गोयमा ! सव्वत्थोवा बादरवणस्सइकाइया पज्जत्तगा, बादर वणस्सइकाइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा / एएसि णं भंते ! पत्तेयसरीरबादरवणस्सइकाइयाणं पञ्जत्ता पज्जत्ताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४? गोयमा ! सव्वत्थोवा पत्तेयसरीरबादरवणस्सइकाइया पज्जत्तगा, पत्तेयसरीरबादरवणस्सइकाइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा / एएसि णं भंते ! बादर निगोदाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४? गोयमा ! सव्वत्थोवा बादरनिगोदा पज्जत्तगा, बादरनिगोदा अप्पजत्तगा असंखिज्जगुणा। एएसिणं भंते! बादरतसकाइयाणं पज्जत्तापजत्ताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा 4? गोयमा! सव्वत्थोवा बादरतसकाइया पज्जत्तगा, बादरतसकाइया अपनत्तगा असंखेज्जगुणा // 4 // इह बादरैकैकपर्याप्तनिश्रया असंख्येया बादरा अपर्याप्ता उत्पद्यन्ते।" पज्जत्तगनिस्साए अप्पजत्तगा वक्कमंतिजत्थएगोतत्थ नियमा असंखेज्जा" इति वचनात् / ततः सर्वत्र पयप्तिभ्योऽपर्याप्ता असंख्येयगुणा वक्तव्याः। त्रसकायिकसूत्रप्रागुक्तयुक्त्या भावनी-यम्।गतं चतुर्थमल्पबहुत्वम्॥४॥ सम्प्रत्येतेषामेव समुदितानां पर्याप्ताऽपर्याप्तानां पञ्चम-मल्पबहुत्वमाहएएसि णं भंते ! बादराणं बादरपुढविकाइयाणं बादरआउकाइयाणं बादरते उकाइयाणं बादरवाउकाइयाणं बादरवणस्सइकाइयाणं पत्तेयसरीरबादरवणस्सइकाइयाणं बादरनिगोदाणं बादरतसकाइयाणं पञ्जत्तापज्जत्ताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा बादरतेउकाइया पञ्जत्तया, बादरतसकाइया पञ्जत्तया असंखेजगुणा, बादरतसकाइया अपज्जत्तया असंखिजगुणा, बादरपत्तेयवणस्सइकाइया पज्जत्तगा असंखेज्जगुणा, बादरनिगोदा पज्जत्तगा असंखेजगुणा, बादरपुढविकाइया पज्जत्तगा असंखेज्जगुणा, बादरआउकाइया पज्जत्तगा असंखेज-गुणा, बादरवाउकाइया पज्जत्तगा असंखिजगुणा। बादरतेउकाइया अपजत्तगा असंखेजगुणा, पत्तेयसरीरबादरवणस्सइकाइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा, बादरनिगोदाअपञ्जत्ता असंखेज्जगुणा, बादरपुढविकाइया अपज्जत्तगा असंखेजगुणा, बादरआउकाइया अपज्जत्तगा असंखेजगुणा, बादरवाउकाइया अपजत्तगा असंखेज्जगुणा / बादरवण-स्सइकाइया पजत्तगा अणंतगुणा, बादरा पजत्तगा विसेसाहिया, बादरवणस्सइकाइया अपंजत्तगा असंखेज्जगुणा, बादरा अपज्जत्तगा विसेसाहिया, बादरा विसेसाहिया॥१॥ सर्वस्तोका बादरतेजस्कायिकाः पर्याप्ताः / तेभ्यो बादरत्रसकायिकाः पर्याप्ता असंख्येयगुणाः। तेभ्यो बादरत्रसकायिका अपर्याप्ता असंख्येयगुणाः / तेभ्यो बादरप्रत्येकवनस्पतिकायिकाः पर्याप्ता असंख्ये यगुणाः / तेभ्यो बादरनिगोदाः पर्याप्ता असंख्ये यगुणाः / तेभ्यो बादरपृथिवीकायिकाः पर्याप्तका Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुय(ग) 627 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्पाबहुय(ग) असंख्येयगुणाः। तेभ्यो बादराऽप्कायिकाः पर्याप्ता असंख्येय-गुणाः / तेभ्यो बादरवायुकायिकाः पर्याप्ता असंख्येयगुणाः / एतेषु पदेषु युक्ति : प्रागुक्ता अनुसरणीया / तेभ्यो बादरतेजस्कायिका अपर्याप्तका असंख्येयगुणाः, यतो बादरवायुकायिकाः पर्याप्ताः संख्येयेषु प्रतरेषु यावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणाः, बादरतेजस्कायिकाश्चापर्याप्ता असंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणाः, ततो भवन्त्यसंख्येयगुणाः। ततः प्रत्येक शरीरबादरवनस्पतिकायिकाः, बादरनिगोदाः, बादरपृथिवी-कायिकाः, बादराऽप्कायिकाः, बादरवायुकायिका अपर्याप्ता यथोत्तरम- संख्येयगुणा वक्तव्याः / यद्यपि चैते प्रत्येकमसंख्ये यलो काकाशप्रदेशप्रमाणास्तथाऽप्यसंख्यातस्यासंख्यातभेदभिन्नत्वादित्थं यथोत्तरमसंख्येयगुणत्वं न विरुध्यते। तेभ्यो बादरवनस्पतिकायिका जीवाः पर्याप्ता अनन्तगुणाः, प्रतिबादरैकैकनिगोदमनन्तानां जीवानां भावात् / तेभ्यः सामान्यतो बादराः पर्याप्ता विशेषाधिकाः, बादरतेजस्कायिकादीनामपि पर्याप्तानां तत्र प्रक्षेपात् / तेभ्यो बादरवनस्पतिकायिका अपर्याप्ता असंख्येयगुणा एकैकपर्याप्तबादरवनस्पतिकायिकनिगोदनिश्रया असंख्येयानामपर्याप्तबादरवनस्पतिकायिकनिगोदानामुत्पादात्। तेभ्यः सामान्यतो बादरा अपर्याप्ता विशेषाधिकाः, बादरतेज-स्कायिकादीनामप्यपर्याप्तानां तत्र प्रक्षेपात् / तेभ्यः पर्याप्ता-पर्याप्तविशेषणरहिताः सामान्यतो बादरा विशेषाधिकाः, बादरपर्याप्त-तेजस्कायिकादीनामपि तत्र प्रेक्षपात्। गतानि बादराश्रितान्यपि पञ्च सूत्राणि / / 5 / / सम्प्रति सूक्ष्मबादरसमुदायगतां पञ्चसूत्रीमभिधित्सुः प्रथमत औधिकं सूक्ष्मबादरसूत्रमाहएएसि णं भंते ! सुहुमाणं सुहुमपुढविकाइयाणं सुहुमआउ काइयाणं सुहुमतेउकाइयाणं सुहुमवाउकाइयाणं सुहुमवणस्सइकाइयाणं सुहमनिगोदाणं बादराणं बादरपुदविकाइयाणं बादरआउकाइयाणं बादरतेउकाइयाणं बादरवाउकाइयाणं बादरवण-स्सइकाइयाणं पत्तेयसरीरबादरवणस्सइकाइयाणं बादरनिगोदाणं बादरतसकाइयाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४? गोयमा ! सव्वत्थोवा बादरतसकाइया 1, बादरतेउकाइया असंखेज्जगुणा २,पत्तेयसरीरबादरवणस्सइकाइया असंखेजगुणा 3, बादरनिगोदा असं खिज्जगुणा 4, बादरपुढविकाइया असंखेज्जगुणा 5, बादरआउकाइया असंखेजगुणा 6, बादरवाउकाइया असंखेजगुणा 7, सुहुमते उकाइया असंखेज्जगुणा 8, सुहुमपुढविकाइया विसेसाहिया 6, सुहुमआउकाइया विसेसाहिया 10, सुहुमवाउकाइया विसे साहिया 11, सुहुमनिगोदा असंखे जगुणा 12, बादरवणस्सइकाइया अणंतगुणा 13, बादरा विसेसाहिया 14, सुहुमवणस्सइकाइया असंखेजगुणा 15, सुहमा विसेसाहिया 16 (एएसिणं भंते ! इत्यादि) इह प्रथमं बादरगतमल्पबहुत्वं बादरसूत्र्यां | यत्प्रथमं सूत्रं तद्वद्भावनीय, यावद् बादरवायुकायिकपदम् / तदनन्तरं यत्सूक्ष्मगतमल्पबहुत्वम् / ततः सूक्ष्मपञ्चसूत्र्यां यत्प्रथमं सूत्रं तद्वत्, तावद्यावत्सूक्ष्मनिगोदचिन्ता / तदनन्तरं बादरवनस्पतिकायिका अनन्तगुणाः, प्रतिबादरनिगोदमनन्तानांजीवानां भावात्। तेभ्यो बादरा विशेषाधिकाः, बादरतैज-स्कायिकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् / तेभ्यः सूक्ष्मवनस्पतिकायिका असंख्येयगुणाः, बादरनिगोदेभ्यः सूक्ष्मनिगोदानामसंख्येयगुणत्वात् / तेभ्यः सामान्यतः सूक्ष्मा विशेषाधिकाः, सूक्ष्मतेज-स्कायिकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् / गतमेकमल्पबहुत्वम्। प्रज्ञा०३ पद / जी० इदानीमेतेषामेवापर्याप्तानां द्वितीयमाहएएसि णं भंते ! सुहुमअपज्जत्तयाणं सुहुमपुढविकाइयाणं अपज्जत्तयाणं, सुहुमआउकाइयाणं अपज्जत्तयाणं, सुहुमतेउकाइयाणं अपज्जत्तयाणं सुहुमवाउकाइयाणं अपज्जत्तयाणं सुहुमवणस्सइ-काइयाणं अपञ्जत्तयाणं,सहमनिगोदा अपज्जतयाणं, बादरा अपज्जत्तयाणं, बादरपुढविकाइया अपजत्तयाणं, बादरआउ-काइया अपज्जत्तयाणं बादरतेउकाइया अपज्जत्तयाणं बादरवाउ-काइया अपञ्जत्तयाणं बादरवणस्सइकाइया अपजत्तयाणं पत्तेयसरीसबादरवणस्सइकाइया अपञ्जत्तयाणं बादरनिगोदा अपज्जत्तयाणं बादरतसकाइया अपज्जत्तयाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा ? गोयमा ! सवत्थोवा बादरतसकाइया अपज्जत्तगा 1, बादरतेउकाइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा २,पत्तेयसरीरबादरवणस्सइकाइया अपज्जगत्ता असंखेज्जगुणा 3, बादरनिगोदा अपज्जत्तया असंखेज्जगुणा 4, बादरपुढविकाइया अपजत्तगा असंखेनगुणा 5, बादरआउकाइया अपञ्जत्तगा असंखे०६, बादरवाउकाइया अपजत्तगा असंखेनगुणा ७.सुहुमतेउकाइया अपजत्तगा असंखेजगुणा 8, सुहुमपुढविकाइया अपजत्तगा विसेसाहिया, सुहुमआउकाइया अपज्जत्तगा विसेसाहिया 10, सुहुमवाउकाइया अपजत्तगा विसेसाहिया 11, सुहुमनिगोदा अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा 12, बादरवणस्सइकाइया अपनत्तगा अणंतगुणा 13, बादरा अपजत्तगा विसे साहिया 14, सुहुमवणस्सइकाइया अपज्जत्तगा असंखिजगुणा 15, सुहुमा अपज्जत्तगा विसेसाहिया 16 // सर्वस्तोका बादरत्रसकायिका अपर्याप्ताः। ततो बादरतेजस्कायिका बादरप्रत्येकवनस्पतिकायिकबादर-निगोदबादरपृथिवीकायिकबादराऽप्कायिकबादरवायुकायिका अपर्याप्ताः क्रमेण यथोत्तरमसंख्येय-गुणाः / अत्र भावना बादरपञ्चसूत्र्यां यद् द्वितीयमपर्याप्तकसूत्रं तद्वत्कर्त्तव्या। ततो बादरवायुकायिकेभ्योऽसंख्येयगुणाः सूक्ष्मतेजस्कायिका अपर्याप्ताः, अतिप्रभूतासंख्येय-लोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात् / तेभ्यः सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः सूक्ष्माऽप्कायिकाः सूक्ष्मवायुकायिकाः सूक्ष्मनिगोदा अपर्याप्ता यथोत्तरमसंख्येयगुणाः / अत्र भावना सूक्ष्मपशसूत्र्यां यद् द्वितीयं सूत्रं तद्वत् / तेभ्यः सूक्ष्म निगोदाऽपर्याप्त भ्यो बादरवनस्पतिकायिका जीवा Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुय(ग) 628 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्पाबहुय(ग) अपर्याप्ता अनन्तगुणाः,प्रतिबादरैकैक्रनिगोदमनन्तानां सद्भावात्। तेभ्यः सामान्यतो बादरा अपर्याप्तका विशेषाधिकाः, बादरत्रसकायिकापर्याप्तादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् / तेभ्यः सूक्ष्मवनस्पतिकायिका अपर्याप्ता असंख्यगुणाः, बादरनिगोदपर्याप्तभ्यः सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तानामसंख्येयगुणत्वात् / तेभ्यः सामान्यतः सूक्ष्मा अपर्याप्ता विशेषाधिकाः, सूक्ष्मतेजस्कायिकापर्याप्ता-दीनामपि तत्र प्रक्षेपात् / गतं द्वितीयमल्पबहुत्वम्। प्रज्ञा०३ पद। जी०। अधुनैतेषामेव पर्याप्तानां तृतीयमल्पबहुत्वमाहएएसिणं भंते ! सुहुमपज्जत्तयाणं सुहुमपुढविकाइयपज्जत्तगाणं सुहुमआउकाइयपज्जत्तगाणं सुहुमते-उकाइयपज्जत्तयाणं सुहुमवाउकाइयपजत्तयाणं सुहुमवणस्सइकाइयपज्जत्तयाणं सुहुमनिगोयपजत्तयाणं बादरपज्जत्तगाणं बादरपुढविकाइयपज्जत्तयाणं बादरआउकाइयपज्जत्तगाणं बादरतेउकाइयपञ्जत्तयाणं बादरवाउकाइयपज्जत्तयाणं बादरवणस्सइकाइयपज्जत्तयाणं पत्तेयसरीरबादर-वणस्सइकाइयपज्जत्तयाणं बादरनिगोदपज्जत्तयाणं बादरतसकाइयपञ्जत्तयाण य कयरे कयरेहिंतो अप्यावा०४? गोयमा! सव्वत्थोवाबादरतेउकाइया पज्जत्तगा, बादरतसकाइया पज्जतया असं खिजगुणा, पत्तेयसरीरबादरवणस्सइकाइया पञ्जत्तगा असंखेज्जगुणा, बादरनिगोदा पञ्जत्तया असंखेनगुणा, बादरपुढविकाइया पज्जत्तया असंखेनगुणा, बादरआउकाइया पज्जत्तया असंखेजगुणा, बादरवाउकाइया पजत्तया असंखेजगुणा, सुहुमतेउकाइया पज्जत्तगा असंखेनगुणा, सुहुमपुढविकाइया पजत्तगा विसेसाहिया, सुहुमआउकाइया पज्जत्तगा विसेसाहिया, सुहुम-वाउकाइया पज्जत्तगा विसेसाहिया, सुहुमनिगोदा पञ्जत्तया असंखेजगुणा, बादरवणस्सइकाइया पज्जत्तया अणंतगुणा, बादरा पज्जत्तया विसे साहिया, सुहुमवणस्सइकाइया पज्जत्तगा असंखिजगुणा, सुहुमा पञ्जत्तया विसेसाहिया। (सुहमपज्जत्तयाणमित्यादि) सर्वस्तोका बादरतेजस्कायिकाः पर्याप्ताः, तेभ्यो बादरत्रसकायिकाः, बादरप्रत्येक-वनस्पतिकायिकाः, बादरनिगोदाः, बादरपृथिवीकायिकाः, बादराऽप्कायिकाः, बादरवायुकायिकाः पर्याप्ता यथोत्तरम-संख्येयगुणाः। अत्र भावना बादरपञ्चसूत्र्यां यत् ततीयं पर्याप्तसूत्रं तद्वत्कर्तव्या / बादरपर्याप्तवायुकायिकेभ्यः सूक्ष्मतेजस्कायिकाः पर्याप्ता असंख्येयगुणाः, बादरवायुकायिका हि असंख्येय-प्रतरप्रदेशराशिप्रमाणाः, सूक्ष्मतेजस्कायिकास्तु पर्याप्ता असं-ख्येयलोकाकाशप्रदेशराशिप्रमाणाः, ततोऽसंख्येयगुणाः / ततः सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः सूक्ष्माऽप्कायिकाः सूक्ष्मवायुकायिकाः पर्याप्ताः क्रमेण यथोत्तरं विशेषाधिकाः। ततः सूक्ष्मवायु-कायिकेभ्यः पर्याप्तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदाः पर्याप्तका असंख्येय-गुणाः, तेषामतिप्रभूततया प्रतिगोलकं भावात् / तेभ्यो बादर-वनस्पतिकायिका जीवाः पर्याप्तका अनन्तगुणाः, प्रतिबादरै-कैकनिगोदमनन्तानां भावात्। तेभ्यः सामान्यतो बादराः पर्याप्तका विशेषाधिकाः, बादरतेजस्कायिकादीनामपि पर्याप्तानां तत्र प्रक्षेपात्। तेभ्यः सूक्ष्मवनस्पतिकायिकाः पर्याप्ता असंख्येयगुणाः, बादरनिगोद-पर्याप्तेभ्यः सुक्ष्मनिगोदपप्तिानामसंख्येयगुणत्वात् / तेभ्यः सामान्यतः सूक्ष्माः पर्याप्ता विशेषाधिकाः, सूक्ष्मतेजस्कायिका-दीनामपि पर्याप्तानां तत्र प्रक्षेपात्। गतं तृतीयमल्पबहुत्वम्। प्रज्ञा०३ पद / जी०। इदानीमेतेषामेव सूक्ष्मबादरादीनां प्रत्येकं पर्याप्ताऽपर्याप्तानां पृथक्-पृथक् अल्पबहुत्वमाहएएसिणं भंते ! सुहमाणं बादराण य पञ्जत्तापज्जत्ताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०? गोयमा! सव्वत्थोवा बादरा पजत्तगा, बादरा अपज्जत्तगा असंखेजगुणा, सुहमा अपञ्जत्तगा असंखेज्जगुणा, सुहुमा पज्जत्तगा संखेज्जगुणा / एएसि णं भंते ! सुहुमपुढविकाइयाणं बादरपुढविकाइयाण य पज्जत्तापज्जत्ताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा० 4? गोयमा ! सव्वत्थोवा बादरपुढविकाइया पजत्तया, बादरपुढविकाइया अपज्जत्तया असंखेजगुणा, सुहुमपुढविकाइया अपजत्तगा असंखेज्जगुणा, सुहुमपुढविकाइया पज्जत्तगा संखेजगुणा / एएसि णं भंते ! सुहुमआउकाइयाणं बादरआउकाइयाणं पञ्जत्तापज्जत्ताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४? गोयमा ! सव्वत्थोवा बादरआउकाइया पज्जत्तया, बादरआउकाइया अपज्जत्तया असंखेज्जगुणा, सुहुमआउकाइया अपज्जत्तया असंखेनगुणा, सुहमआउकाइया पज्जत्तगा संखेजगुणा। एएसिणं भंते ! सुहुमतेउकाइयाणं बादरते- उकाइयाण य पज्जत्तापजत्ताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा० 4? गोयमा ! सव्वत्थोवा बादरतेउकाइया पज्जत्तगा, बादस्तेउकाइया अपज्जत्तया असंखेजगुणा / सुहुमतेउकाइया अपज्जत्तया असंखेज्जगुणा, सुहुमते-उकाइया पञ्जत्ता संखेजगुणा / एएसि णं मंते ! सुहुम-वाउकाइयाणं बादरवाउकाइयाण य पञ्जत्तापज्जत्ताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा बादरवाउकाइया पञ्जत्तया, बादरवाउकाइया अपज्जत्तया असंखेज्जगुणा / सुहुमवाउकाइया अपज्जत्तया असंखेजगुणा, सुहुमवाउकाइया पञ्जत्तया असंखेज्जगुणा। एएसि णं भंते ! सुहुमवणस्सइकाइयाणं बादरवणस्सइकाइयाण य पज्जत्तापजत्ताणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा०४? गोयमा ! सवत्थोवा बादरवणस्सइकाइया पज्जत्तया, बादरवणस्सइकाइया अपज्जत्तया असंखिजगुणा, सुहुमवणस्सइकाइया अपज्जत्तया असंखिज्जगुणा, सुहुमवणस्सइकाइया पज्जत्तया संखिज्जगुणा। एएसिणं भंते ! सुहमनिगोदाणं बादरनिगोदाण य पञ्जत्तापजत्ताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा बा०४? गोयमा ! सव्वत्थोवा बादरनिगोदा पज्जत्तया, बादरनिगोदा Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुय(ग) 629 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्याबहुय(ग) अपजत्तया असं खिजगुणा, सुहमनिगोदा अपजत्तया असंखिजगुणा, सुहुमनिगोदा पज्जत्तया संखेजगुणा। सर्वत्रयं भावना-सर्वस्तोका बादराः पर्याप्ताः, परिमितक्षेत्रवर्तित्वात्। तेभ्यो बादरा अपर्याप्ता असंख्येयगुणाः, एकैकबादरपर्याप्तनिश्रया असंख्येयानां बादरपर्याप्तानामुत्पादात् / तेभ्यः सूक्ष्मा अपर्याप्ता असंख्येयगुणाः, सर्वलोकोत्पत्तितया तेषां क्षेत्रस्यासंख्येयगुणत्वात्। तेभ्यः सूक्ष्माः पर्याप्तकाः संख्येयगुणाः, चिरकालावस्थायितया तेषां सदैव संख्येयगुणतया ऽवाप्यमानत्वात्। गतं चतुर्थमल्पबहुत्वम्॥४॥ इदानीमेतेषामेव सूक्ष्मपृथिवीकायिकादीनांबादरपृथिवीकायिकादीनां च प्रत्येकं पर्याप्तापर्याप्तानां च समुदायेन पञ्चममल्पबहुत्वमाहएएसि णं भंते ! सुहुमाणं सुहुमपुढविकाइयाणं सुहुमआउकाइयाणं सुहुमते उकाइयाणं सुहुमवाउकाइयाणं सुहुमवणस्सइकाइयाणं सुहुमनिगोदाणं बादराणं बादरपुढविकाइयाणं बादरआउकाइयाणं बादरतेउकाइयाणं बादरवाउकाइयाणं बादरवणस्सइकाइयाणं पत्तेयसरीरबादरवणस्सइकाइयाणं बादरनिगोदाणं बादरतसकाइयाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४? गोयमा ! सव्वत्थोवा बादरतेउकाइया पज्जत्तया 1, बादरतसकाइया पज्जत्तया असंखेज्जगुणा 2, बादर-तसकाइया अप्पज्जत्तया असंखिज्जगुणा 3, पत्तेय-सरीरबादरवणस्सइकाइया पज्जत्तया असंखिजगुणा 4, बादरनिगोदा पञ्जत्तया असंखिज्जगुणा 5, बादरपुढविकाइया पज्जत्तया असंखेज्जगुणा ६,बादरआउकाइया पज्जत्तगा असंखेनगुणा ७,बादरवाउकाइया पञ्जत्तगा असंखेजगुणा / बादरतेउकाइया अपज्जत्तया असंखेज्जगुणा , पत्तेयसरीरबादरवणस्सइकाइया अपजत्तया असंखेज्जगुणा 10, बादरनिगोदा अपज्जत्तया असंखेजगुणा 11, बादरपुढविकाइया अपजत्तया असंखेज्जगुणा 12, बादरआउकाइया अपज्जत्तया असंखेजगुणा 13, बादरवाउकाझ्या अपज्जत्तया असंखेजगुणा 14, सुहुमते उकाइया अपज्जतया असंखे जगुणा 15, सुहुमपुद विकाइया अपज्जत्तगा विसे साहिया 16, सुहुमआउकाइया अपज्जत्तगाविसेसाहिया १७.सुहमवाउकाइया अपज्जत्तया विसेसाहिया 18 // सुहुमतेउकाइया पज्जत्तया संखेनगुणा 16, सुहमपुढविकाइया पज्जत्तया विसेसाहिया 20, सुहुमआउकाइया पञ्जत्तगा विसेसाहिया 21, सुहुमवाउकायिा पजत्तया विसेसाहिया 22, सुहुमनिगोदा अपज्जत्तया असंखेज्जगुणा 23, सुहुमनिगोदा पज्जत्तया संखेज्जगुणा 24, बादरवणस्सइकाइया पज्जत्तया अणंतगुणा 25, बादरा पञ्जत्ता विसे साहिया 26, बादरवणस्सइकाइया अपज्जत्तगा असंखेजगुणा 27, बादरा अपज्जत्तया विसेसाहिया 28, बादरा विसेसाहिया 26, सुहुमवणस्सइकाइया अपजत्तगा असंखेजगुणा 30, सुहुमा अपज्जत्तगा विसेसाहिया 31, सहुमवणस्सइकाइया पञ्जत्तगा असंखेज्जगुणा 32, सुहुमा पञ्जत्तगा विसेसाहिया 33, सुहुमा विसेसाहिया 34 / (एएसि णं भंते ! सुहमाणं सुहुमपुढविकाइयाणमित्यादि) सर्वस्तोका बादरतेजस्कायिकाः पर्याप्ताः, आवलिकासमयवर्गकतिपयसमयन्यूनरावलिकासमयैर्गुणिते यावान् समयराशिस्तावत्प्रमाण-त्वात् तेषाम् 1, तेभ्यो बादरत्रसकायिकाः पर्याप्ता असंख्येयगुणाः, प्रतरे यावन्त्यगुलासंख्येयभागमात्राणि खण्डानितावत्प्रमाण-त्यात्तेषाम् 2, तेभ्यो बादरत्रसकायिका अपर्याप्ता असंख्येयगुणाः, प्रतरे यावन्त्यगुलाऽसंख्येयभागमात्राणि खण्डानि तावत्प्रमाण-त्वात्तेषाम् 3, ततः प्रत्येकशरीरबादरवनस्पतिकायिक 4, बादरनिगोद 5, बादरपृथ्वीकायिक 6, बादराऽप्कायिक 7, बादरवायुकायिकाः ८,पर्याप्ता यथोत्तरमसंख्येयगुणाः। यद्यप्येते प्रत्येकं प्रतरे यावन्त्यङ्गुलासंख्येयभागमात्राणि खण्डानि तावत्प्रमाणास्तथाप्यङ्गुलासंख्येयभागस्यासंख्येयभेदभिन्नत्वादित्थं यथोत्तरमसंख्येयगुणत्वमभिधीयमानं न विरुध्यते। एतेभ्यो बादरतेजस्कायिका अपर्याप्ता असंख्येयगुणाः, असंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात् 6, ततः प्रत्येकशरीरबादरवनस्पतिकायिक 10, बादरनिगोद 11, बादरपृथिवीकायिक 12, बादराऽप्कायिक 13 बादरवायुकायिका अपर्याप्ता यथोत्तरमसंख्येयगुणाः 14, ततो बादरवायुकायिके भ्योऽपर्याप्तेभ्यः सूक्ष्मतेजस्कायिका अपर्याप्ता असंख्येयगुणाः 15, ततः सूक्ष्मपृथिवीकायिक 16, सूक्ष्माऽप्कायिक 17, सूक्ष्मवायुकायिका अपर्याप्ता यथोत्तरं विशेषाधिकाः 18, ततः सूक्ष्मतेजस्कायिकाः पर्याप्ताः संख्यातगुणाः, सूक्ष्मेष्वपर्याप्तभ्यः पर्याप्तानामोघत एव संख्येयगुणत्वात् 16, ततः सूक्ष्मपृथिवीकायिकः 20, सूक्ष्मा-ऽप्कायिकम् 21, सूक्ष्मवायुकायिकाः पर्याप्ता यथोत्तरं विशेषा-धिकाः 22, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदा अपर्याप्तां असंख्येयगुणाः, तेषामतिप्राभूत्येन सर्वलोकेषु भावात् 23, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदाः पर्याप्तकाः संख्येयगुणाः, सूक्ष्मेष्वपर्याप्तभ्यः पर्याप्तानामोघत एव सदा संख्येयगुणत्वात् / एते च बादरापर्याप्ततेजस्कायिकादयः पर्याप्तसूक्ष्मनिगोदपर्यवसानाः षोडश पदार्था यद्यप्यन्यत्रा-ऽविशेषेणासंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणतया सङ्गीयन्ते, तथाप्यसंख्येयस्यासंख्येयभेदभिन्नत्यादित्थमसंख्येयगुणत्वं वि-शेषाधिकत्वं संख्येयगुणत्वं प्रतिपाद्यमानं न विरोधभागिति 24 / तेभ्यः पर्याप्तसूक्ष्मनिगोदेभ्यो बादरवनस्पतिकायिकाः पर्याप्ता अनन्तगुणाः, प्रतिबादरैकैकनिगोदमनन्तानां जीवानां भावात् 25, तेभ्यः सामान्यतो बादराः पर्याप्ता विशेषाधिकाः बादरपर्याप्ततेजस्कायिकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् 26, तेभ्यो बादरवनस्पतिकायिका अपर्याप्तका असंख्येयगुणाः, एकैक-पर्याप्तबादरनिगोदनिश्रया असंख्येयानां बादरनिगोदा-ऽपर्याप्तानामुत्पादात् २७,तेभ्यः सामान्यतो बादरा अपर्याप्ता विशेषाधिकाः, बादरतेजस्कायिकादीनामप्यपर्याप्तानां तत्र प्रक्षेपात् 28, तेभ्यः सामान्यतो बादरा विशेषाधिकाः, पर्याप्तानामपि तत्र प्रक्षेपात् 26, तेभ्यः सूक्ष्मवनस्पतिकायिका अपर्याप्ता असंख्येयगुणाः, बादरनिगोदेभ्यःसूक्ष्मनिगोदानामप्यपर्याप्तानामप्यसंख्येगुणत्वात् 30, ततः सामान्यतः सूक्ष्मा अपर्याप्तका विशेषाधिकाः सूक्ष्मपृथिवीकायिकादीनामप्यपर्याप्तानां तत्र प्रक्षेपात् 31 / तेभ्यः सूक्ष्मवनस्पतिकायिकाः पर्याप्ता असंख्ये यगुणाः सूक्ष्मवनस्पतिकायिकापर्याप्तभ्यो हि सूक्ष्मवनस्पतिकायिकपर्याप्ता Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुय(ग) 630 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्पाबहुय(ग) संख्येयगुणाः सूक्ष्मेष्वोघतोऽपर्याप्तभ्यः पर्याप्तानां संख्येयगुणत्वात् / ततः सूक्ष्मापर्याप्तेभ्योऽप्यसंख्येयगुणाः, विशेषाधिकत्वस्य संख्येयगुणत्वबाधनायोगात् 32 / तेभ्यः सामान्यतः सूक्ष्माः पर्याप्ता विशेषाधिकाः, पर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकादीन नपि तत्र प्रक्षेपात् 33 / ततः सामान्यतः सूक्ष्माः पर्याप्तापर्याप्तविशेषणरहिता विशेषाधिकाः, अपर्याप्तानामपि तत्र प्रक्षेपात् 34 / गतं सूक्ष्मबादरसमुदायगतं पञ्चममल्पबहुत्वं, तद्गतौ समर्थितानि पञ्चदशाऽपि सूत्राणि / इति गतं कायद्वारम्। प्रज्ञा०३ पदानोसूक्ष्मनोबादरबादराणामल्पबहुत्वम्।जी० 3 प्रति०। (आरम्भिक्यादिक्रियाणामल्पबहुत्वं 'किरिया' शब्दे वक्ष्यते) (11) क्षेत्रद्वारम् कस्मिन् क्षेत्रे जीवाः स्तोकाः कस्मिन् वा बहवः ? इति चिन्त्यन्तेखित्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा जीवा उडलोयतिरियलोए, अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया, तिरियलोए असंखिज्जगुणा, तेलुके असंखेजगुणा, उड्डलोए असंखेजगुणा, अहोलोहे विसेसाहिया। क्षेत्रस्यानुपातोऽनुसारः क्षेत्रानुपातस्तेन, विचिन्त्यमाना जीवाः सर्वस्तोका ऊर्ध्वलोकतिर्यग्लोके , इह ऊर्ध्वलोकस्य यदधस्तनमाकाशप्रदेशप्रतरं, यच्च सर्वतिर्यग्लोकस्य सर्वोपरितनमाकाशप्रदेशप्रतरमेष ऊर्ध्वलोकप्रतरः, तथा प्रवचने प्रसिद्धेः / इयमत्र भावनाइह सामस्त्येन चतुर्दशरज्ज्वात्मको लोकः। स च त्रिधा भिद्यते। तद्यथाऊर्ध्वलोकः, तिर्यग्लोकः, अधोलोकश्च। रुचकाश्चैतेषां विभागः। तथाहि रुचकस्याधस्तान्नवयोजनशतानि, रुचकस्योपरिष्टान्नवयोजनशतानि तिर्यग्लोकः, तिर्यग्लोक-स्याधस्तादधोलोकः, उपरिष्टादूर्ध्वलोकः, देशोनसप्तरप्रमाण ऊर्ध्वलोकः, समधिकसप्तरज्जुप्रमाणोऽधोलोको, मध्येऽष्टादश-योजनशतोच्छ्रयस्तिर्यग्लोकः। तत्ररुचकसमानाद्भूतलभागान्नवयोजनशतानि गत्वा यज्योतिश्चक्रस्योपरितनं तिर्यग्लोकसंबन्धि एकप्रादेशिकमाकाशप्रतरं, तत् तिर्यग्लोकप्रतरम्। तस्य चोपरि यदेकप्रादेशिकमाकाशप्रतरं, तदूर्ध्वलोकप्रतरम् / एते च द्वे अप्यूर्वलोकतिर्यग्लोके इति व्यवहियेते / तथाऽनादिप्रवचनपरिभाषाप्रसिद्धः / तत्र वर्तमाना जीवाः सर्वस्तोकाः / कथम् ? इति चेत् / उच्यते- इह ये ऊर्ध्वलोकात् तिर्यग्लोके तिर्यग्लोकादूर्ध्वलोके समुत्पद्यमाना विवक्षितं प्रतरद्वयं स्पृशन्ति, ये च तत्रस्था एव केचन तत्प्रतरद्वयाध्यासिनो वर्तन्ते, ते किल विवक्षिते प्रतरद्वये वर्तन्ते नाऽन्ये; ये पुनरूज़लोकादधोलोके समुत्पद्यमानास्तत्प्रतरद्वयं स्पृशन्ति, तेन गण्यन्ते, तेषां सूत्रान्तरविषयत्वात् / ततः स्तोका एवाधिकृतप्रतरद्वयवर्तिनोजीवाः। ननू लोकगतानामपि सर्वजीवानामसंख्येयभागोऽनवरतं म्रियमाणोऽवाप्यते, ते च तिर्यग्लोके समुत्पद्यमाना विवक्षितं प्रतरद्वयं स्पृशन्तीति कथमधिकृतप्रतरद्वयस्पर्शिनः स्तोकाः? तदयुक्तम्, वस्तुतत्त्वापरिज्ञानात् / तथाहि- यद्यपि नाम उर्ध्वलोकगतानां सर्वजीवलोकानामसंख्येयो भागोऽनवरतं म्रियमाणोऽवाप्यते, तथापि नते सर्व एव तिर्यग्लोके समुत्पद्यन्ते, प्रभूततराणामधोलोके ऊर्ध्वलोके च समुत्पादात्। ततोऽधिकृतप्रतरद्वयंवर्तिनः सर्वस्तोका एव / / 1 / / तेभ्योऽधोलोकतिर्यग्लोके विशेषाधिकाः / इह यदधोलोकस्योपरितनमेकप्रादेशिकमाकाशप्रदेशप्रतरं, यच्च तिर्यग्लोकस्य सर्वाधस्तन मेकप्रादेशिकमाकाशप्रदेशप्रतरमेतद्वयमप्य-धोलोकतिर्यग्लोक इत्युच्यते,तथा प्रवचनप्रसिद्धः। तत्रये विग्रहगत्या तत्रस्थतया वावर्तन्ते ते विशेषाधिकाः / कथमिति चेत् ? उच्यते- इह ये अधोलोकात्तिर्यग्लोके तिर्यग्लोकादा-ऽधोलोके ईलिकागत्या समुत्पद्यमाना अधिकृतं प्रतरद्वयं स्पृशन्ति; ये च तत्रस्था एव केचन तत्प्रतरद्वयमध्यासीना वर्तन्ते, ते विवक्षित-प्रतरद्वयवर्तिनः, ये पुनरधोलोकादूर्ध्वलोके समुत्पद्यमानास्तत्प्रतरद्वयं स्पृशन्ति, ते न परिगृह्यन्ते, तेषां सूत्रान्तरविषयत्वात्। केवलमूर्ध्वलोकादधोलोको विशेषाधिकः, इत्यधोलोकात्तिर्य-लोके ईलिकागत्या समुत्पद्यमाना ऊर्ध्वलोकापेक्षया विशेषाधिका अवाप्यन्ते; ततो विशेषाधिकाः 2, तेभ्यस्तिर्यग्लोकवर्तिनोऽसंख्येयगुणाः, उक्तक्षेत्रद्विकात्तिर्यग्लोके क्षेत्रस्यासंख्येयगुणत्वात् 3 / तेभ्यस्त्रैलोक्ये त्रिलोकसंस्पर्शिनोऽसंख्येगुणाः, इह ये केवलेऊयलोके अधोलोके तिर्यग्लोके वा वर्तन्ते, येच विग्रहगत्या ऊर्ध्वलोकतिर्यग्लोको स्पृशन्ति, ते न गण्यन्ते, किन्तु ये विग्रहगत्यापन्नास्त्रीनपि लोकान् स्पृशन्ति, ते परिगृह्याः, सूत्रस्य विशेषविषयत्वात् / ते च तिर्यग्लोकयर्तिभ्योऽसंख्येयगुणा एव / कथमिति चेत् ?, उच्यते- इह बहवः प्रतिसमयमूर्ध्वलोके अधोलोके च सूक्ष्मनिगोदा उद्वर्तन्ते, ये तु तिर्यग्लोकवर्तिनः सूक्ष्मनिगोदा उद्वर्तन्ते, तेऽर्थादधोलोके ऊर्यलोके वा के चित्तस्मिन्नेव वा तिर्यग्लोके समुत्पद्यन्ते, ततो न ते लोकत्रयसंस्पर्शिन इति नाधिकृतसूत्रविषयाः / तत्रोललोकाधोलोकगतानां सूक्ष्मनिगोदानामुद्वर्तमानानां मध्ये केचित्स्वस्थान एव ऊर्द्धलोके अधोलो के वा समुत्पद्यन्ते, के चित् तिर्यग्लो के, तेभ्योऽसंख्येयगुणा अधोलोकगता ऊर्ध्वलोके, ऊर्ध्वलोकगता अधोलोके समुत्पद्यन्ते / ते च तथोत्पद्यमानास्त्रीनपि लोकान् स्पृशन्तीत्यसंख्येयगुणाः / कथं पुनरेतदवसीयते, यदुत एवंप्रमाणा बहवो जीवाः सदा विग्रहगत्यापन्ना लभ्यन्ते? इति चेत्, उच्यते-युक्तिवशात्। तथाहि- प्रागुक्तमिदमत्रैव सूत्र पर्याप्तिद्वारे - "सव्वत्थोवा जीवा नोपज्जत्ता नोअपजत्ता, अपज्जत्ता अनंतगुणा, पज्जत्ता संखेज्जगुणा" इति / तत एवंनामापर्याप्ताः बहवो ये नैतेभ्यः पर्याप्ताः संख्येयगुणा एव नासंख्येयगुणाः; नाप्यनन्तगुणास्ते चापर्याप्ता बहवोऽन्तरगतौ वर्तमाना लभ्यन्ते, इति / तेभ्य ऊर्ध्वलोके ऊर्ध्वलोकावस्थिता असंख्येयगुणाः, उपपातक्षेत्रस्यातिबहुत्वात् / असंख्येयानां च भागानामुद्वर्तनायाश्च संभवात् 5, तेभ्योऽधोलोकेऽधोलोकवर्तिनो विशेषाधिकाः, ऊर्ध्वलोकक्षेत्रादधोलोकक्षेत्रस्य विशेषाधिकत्वात् 6 / तदेवं सामान्यतो जीवानां क्षेत्रानुपातेनाल्पबहुत्वमुक्तम्। इदानीं चतुर्गतिदण्डकक्रमेण तदभिधित्सुः प्रथमतो नैरयिकाणामाह खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा नेरइया तेल्लुक्के, अहोलोगतिरियलोगे असंखेजगुणा, अहोलोए असंखेजगुणा। क्षेत्रानुपातेन क्षेत्रानुसारेण नैरयिका श्चिन्त्यमानाः सर्वस्तोकाः त्रैलोक्ये लोकत्रयसंस्पर्शिनः / कथं लोक त्रयसंस्पर्शिनो नैरयिकाः? कथं वा ते सर्वस्तोकाः? इति चेत्, उच्यते- इह ये मेरुशिखरे अञ्जनदधिमुख-पर्वतशिखरादिषु वा वापीषु वर्तमाना मत्स्यादयो नारके षूत्पित्सव ईलिकागत्या प्रदेशान् विक्षिपन्ति, ते किल त्रैलोक्यमपि स्पृशन्ति, नारक व्यपदेशं च लभन्ते, Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबडय(ग) 631- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्याबहुय(ग) तत्कालभेव नरकेषूत्पन्ने नारकायुष्कप्रतिसंवेदनात् / ते चेत्थंभूताः कतिपया इति सर्वस्तोकाः। अन्ये तुव्याचक्षते- नारका एव यथोक्तवापीषु तिर्यक्पोन्द्रियतयोत्पद्यमानाः समुद्यातवशतो विक्षिप्तनिजात्मप्रदेशदण्डाः परिगृह्यन्ते। ते हि किल तदा नारका एवं निर्विवादं तदायुष्कप्रतिसंवेदनात् त्रैलोक्यसंस्पर्शिनश्च यथोक्तवापीर्यावदात्मप्रदेशदण्डस्य विक्षिप्तत्वादिति 1, तेभ्योऽधो-लोकतिर्यग्लोकसंज्ञाः प्रागुक्तप्रतरद्वयस्य संस्पर्शिनोऽसंख्येय-गुणाः, यतो बहवोऽसंख्येयेषु द्वीपसमुद्रेषु पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका नरकेषूत्पद्यमाना यथोक्तप्रतरद्वयं स्पृशन्ति, ततो भवन्ति पूर्वोक्तेभ्योऽसंख्येयगुणाः, क्षेत्रस्यासंख्यातगुणत्वात् / मन्दरादि-क्षेत्रादसंख्येयद्वीपसमुद्रात्मकं क्षेत्रमसंख्येयगुणमित्यतो भवन्त्य-संख्येयगुणाः / अन्ये त्वभिदधति- नारका एवासंख्येयेषुद्वीप-समुद्रेषु तिर्यक्पञ्चेन्द्रियतयोत्पद्यमाना मारणान्तिकसमुद्घातेन विक्षिप्त-निजात्मप्रदेशदण्डा द्रष्टव्याः / ते हि नारकायुःप्रतिसंवेदना नारका उद्वर्तमाना अप्यसंख्येयाः प्राप्यन्ते, इति प्रागुक्तेभ्योऽसंख्येय-गुणाः२, तेभ्योऽधोलोकेऽसंख्येयगुणाः, तस्य तेषां स्वस्थानत्वात् 3 / उक्तं नारकगतिमधिकृत्य क्षेत्रानुपातेनाऽल्पबहुत्वम् / इदानी तिर्यग्गतिमधिकृल्याऽऽहखेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा तिरिक्खजोणिया उड्डलोयतिरियलोए, अहो लोयतिरियलोए विसे साहिया, तिरियलोए असंखेज्जगुणा, तेलुक्के असंखेजगुणा, उड्डलोए असंखिजगुणा, अहोलोए विसेसाहिया। इदं सर्वमपि सामान्यतो जीवसूत्रमिव भावनीयम्। तदपि तिरश्च एव सूक्ष्मनिगोदानधिकृत्य भावितम्। अधुना तिर्यग्योनिकस्त्रीविषयमल्पबहुत्वमाहखेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा तिरिक्खजोणिणीओ, उडलोयतिरियलोए असंखेज्ज०, तेलुक्के संखेज०,अहोलोयतिरियलोए संखिजगुणाओ, अहोलोए संखेनगुणाओ, तिरियलोए संखिज्जगुणाओ। क्षेत्रानुपातेन तिर्यग्योनिकाः स्त्रियश्चिन्त्यमानाः सर्वस्तोका ऊर्ध्वलोके, इह मन्दरादिवापीप्रभृतिष्वपि हि पञ्चेन्द्रियतिर्यग्यो निकाः स्त्रियो भवन्ति, ताश्च क्षेत्रस्याऽल्पत्वात् सर्वस्तोकाः 1, ताभ्यऊर्ध्वलोकतिर्यग्लोकसंज्ञे प्रतरद्वये वर्तमाना असंख्येय-गुणाः / कथमिति चेत् ? उच्यतेयावत्सहस्रारदेवलोकस्तावद् देवा अपि गर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्यक्पञ्चेन्द्रिययोनिषूत्पद्यन्ते, किं पुनः शेषकायाः ? ते हि यथासंभवमुपरिवर्तिनोऽपि तत्रोत्पद्यन्ते; ततो ये सहस्रारान्ता देवा अन्येऽपि च शेषकाया ऊर्ध्वलोकात् तिर्यपञ्चेन्द्रियस्त्रीत्वेन तदायुःप्रतिसंवेदयमाना उत्पद्यन्ते, याः तिर्यग्लोकवर्तिन्यस्तिर्यक्प-चेन्द्रियस्त्रिय ऊर्ध्वलोके देवत्वेन शेषकायत्वेन चोत्पद्यमाना मारणान्तिकसमुद्घातेनोत्पत्तिदेशे निजनिजात्मकप्रदेशदण्डान् विक्षिपन्ति, ता यथोक्तप्रतरद्वयं स्पृशन्ति। तिर्यग्यो निकाः स्त्रियश्च ताः, ततोऽसंख्येयगुणाः, क्षेत्रस्याऽसंख्येयगुणत्वात् 2 / ताभ्यस्त्रैलोक्ये संख्येयगुणाः यस्मादधोलोकाद्भवनपतिव्यन्तरनारकाः शेषकाया अपि चोर्ध्वलोकेऽपि तिर्यक्पञ्चेन्द्रिय-स्त्रीत्वेनोत्पद्यन्ते / ऊर्ध्वलोकाद् देवादयोऽप्यधोलोके च ते समवहता निजनिजात्म- | प्रदेशदण्डैस्त्रीनपि लोकान् स्पृशन्ति / प्रभूताश्च ते तथा तिर्यग्योनिक स्त्र्यायुःप्रतिसंवेदनात्। तिर्यग्योनिकाः स्त्रियश्च, ततः संख्येयगुणाः३।। ताभ्योऽधोलोकतिर्यग्लोकसंज्ञे प्रतरद्वये वर्तमानाः संख्येयगुणाः, बहवो हि नारकादयः समुद्घातमन्तरेणाऽपि तिर्यग्लोके तिर्यक्पञ्चेन्द्रियस्त्रीत्वेनोत्पद्यन्ते / तिर्यग्लोकवर्तिनश्च जीवास्तिर्यग्योनिकस्त्रीत्वेनाऽधोलौकिकग्रामेष्वपि च, ते च तथोत्पद्यमाना यथोक्तं प्रतरद्वयं स्पृशन्ति। तिर्यग्योनिक-स्त्र्यायुःप्रतिसंवेदनाच तिर्यग्योनिकास्त्रियोऽपि, तथाऽधोलौकिकग्रामा योजनसहस्रावगाहाः पर्यन्तेऽर्वाक् क्वचित्प्रदेशेनवयोजनशतावगाहा अपितत्र काश्चित् तिर्यग्योनिकस्त्रियोऽवस्थानेनाऽपि यथोक्तप्रतरद्वयाध्यासिन्यो वर्तन्ते, ततो भवन्ति पूर्वोक्ताभ्यः संख्येयगुणाः 4, ताभ्योऽधोलोके संख्येयगुणाः, यतोऽधोलौकिकग्रामाः सर्वेऽपि च समुद्रा योजनसहस्राऽवगाहाः, ततो नवयोजनशतानामधस्ताद् या वर्तन्ते मत्स्यीप्रभृतिका: तिर्यग्योनिकस्त्रियस्ताः स्वस्थानत्वात् प्रभूता इति संख्येयगुणाः, क्षेत्रस्य संख्येयगुणत्वात् / ताभ्यस्तिर्यग्लोके संख्येयगुणाः 5 / उक्तं तिर्यग्गतिमप्यधिकृत्याऽल्पबहुत्वम्। इदानीं मनुष्यगतिविषयमाहखेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा मणुस्सा तेलु के, उनलोयतिरियलोए असंखेनगुणा, अहो लोयतिरियलोए संखिज्जगुणा, अहोलोएसंखेज्जगुणा, तिरियलोए संखिजगुणा। क्षेत्रानुपातेन मनुष्याश्चिन्त्यमानाः त्रैलोक्ये त्रैलोक्यसंस्पर्शिनः सर्वस्तोकाः, यतो ये ऊर्ध्वलोकादधोलौकिकग्रामेषु समुत्पि-त्सवो मारणान्तिक समुद्घातेन समवहता भवन्ति, ते के चित्समुद्घातवशागहिर्निर्गतैः स्वात्मप्रदेशैस्त्रीनपि लोकान् स्पृशन्ति, येऽपि च वैक्रियसमुद्घातमाहारकसमुद्घातं वा गताः तथाविधप्रयत्न-विशेषाद् दूरतरमूर्ध्वाऽधोविक्षिप्तात्मप्रदेशाः, ये च केवलसमु-द्घातगतास्तेऽपि त्रीनपि लोकान् स्पृशन्ति / स्तोकाश्चेति सर्व-स्तोकाः१, तेभ्य ऊर्ध्वलोकतिर्यग्लोके ऊर्ध्वलोकतिर्यग्लोकसंज्ञे प्रतरद्वयसंस्पर्शिनोऽसंख्येयगुणाः, यत इह वैमानिकदेवाः शेषकायाश्च यथासंभवमूर्ध्वलोकात्तिर्यग्लोके मनुष्यत्वेन समुत्पद्यमाना यथोक्तप्रतरद्वयसंस्पर्शिनी भवन्ति / विद्याधराणा-मपि च मन्दरादिषु गमनं, तेषां च शुक्ररुधिरादिपुद्गले संमूर्छिम-मनुष्याणामुत्पाद इति, ते विद्याधरा रुधिरादिपुद्गलसंमिश्रा अवगच्छन्ति / तथा संमूर्छिममनुष्या अपि यथोक्तप्रतर-द्वयस्पर्शवन्त उपजायन्ते, ते चाऽतिबहव इत्यसंख्येयगुणाः। तेभ्योऽधोलोकतिर्यग्लो के अधोलोकतिर्यग्लोकसंज्ञे प्रतरद्वयेऽसंख्येयगुणाः,यतोऽधोलौकिकग्रामेषु स्वभावत एव बहवो मनुष्याः, ततो ये तिर्यग्लोकान्मनुष्येभ्यः शेषकायेभ्यो वा-धोलौकिकग्रामेषु गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्यत्वेन संमूर्छिम-मनुष्यत्वेन वा समुत्पित्सवो ये चाऽधोलोकादधोलौकिकग्रामरूपात् शेषाद्वा मनुष्येभ्यः शेषकायेभ्यो वा तिर्यग्लोके गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्यत्वेन वा संमूर्छिममनुष्यत्वेन वा समुत्पत्तुकामास्ते यथोक्तं किल प्रतरद्वयं स्पृशन्ति, बहुतराश्च ते तथा स्वस्थानतोऽपि केचिदधोलौकिकग्रामेषु यथोक्तप्रतरद्वय-स्पर्शिन इति प्रागुक्तेभ्योऽसंख्येयगुणाः३, तेभ्य ऊर्ध्वलोके ऽसंख्येयगुणाः सौमनसादिषु क्रीडार्थ चैत्यवन्दननिमित्तं वा प्रभूततराणां विद्याधरचारणमुनीनां भावात्। तेषां च यथायोगं रुधिरादिपुद्गलयोगतः संमूर्छि ममनुष्यसंभवात् 4, तेभ्योऽधोलोके संख्येयगुणाः, स्वस्थानत्वेन बहुत्वभावात्। तेभ्य-स्तिर्यग्लोके संख्येयगुणाः, क्षेत्रस्य संख्येयगुणत्वात् स्वस्थानत्वाच ! Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्याबहुय(ग) 632- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्पाबहुय(ग) सम्प्रति क्षेत्रानुपातेन मानुषीविषयमल्पबहुत्वमाहखेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवाओ माणुस्सीओ तेलु के, उड्डलोयतिरियलोए संखेज्जगुणाओ, अहोलोयतिरियलोए संखेजगुणाओ, उडलोए संखेजगुणाओ, अहोलोए संखेज्ज०, तिरियलोए संखेज। क्षेत्रानुपातेन मानुष्यश्चिन्त्यमानाः सर्वस्तोकास्त्रैलोक्यस्पर्शिन्य ऊर्ध्वलोकादधोलोके समुत्पित्सूनां मारणान्तिकसमुद्घातवशविनिर्गतदूरतरात्मप्रदेशानामथवा वैक्रि यसमुद्घातगतानां केवलिसमुद्घातगतानां वा त्रैलोक्यसंस्पर्शिन्यः, तासां चाऽतिस्तोकत्वमिति सर्वस्तोकाः 1, ताभ्य ऊर्ध्वलोकतिर्यग्लो के ऊर्ध्वलोकतिर्यग्लोक संज्ञे प्रतरद्वये संख्येयगुणाः, वैमानिकदेवानां शेषकायाणां चोर्ध्वलोकात्तिर्यग्लोके मनुष्यस्त्रीत्येनोत्पद्य-मानानां तथा तिर्यग्लोकगतमनुष्यस्त्रीणामूर्ध्वलोके समुत्पित्सूनां मारणान्तिकसमुद्घातवशाद् दूरतरमूर्ध्वविक्षिप्तात्मप्रदेशाना-मद्यापि कालमकुर्वतीनां यथोक्तप्रतरद्वयसंस्पर्शनभावात्, तासां चोभयासामपि बहुतरत्वात् / ताभ्योऽधोलोकतिर्यग्लोके प्रागुक्तस्वरूपप्रतरद्वयरूपे संख्येयगुणाः, तिर्यग्लोकात् मनुष्यस्त्रीभ्यः शेषेभ्यो वाऽधो-लौकिकग्रामेषु यदि वाऽधोलौकिकग्रामरूपात् शेषाद्वा तिर्यग्लोके मनुष्यस्त्रीत्वेनोत्पित्सूनां / कासाञ्चिदधोलौकिकग्रामेष्वव-स्थानतोऽपि यथोक्तप्रतरद्वयसंस्पर्शसम्भवात्, तासां च प्रागुक्ताभ्योऽतिबहुत्वात् 3, ताभ्योऽप्यूर्ध्वलोके संख्येयगुणाः, क्रीडार्थ चैत्यवन्दनानिमत्तिं वा सौमनसादिषु प्रभूततराणां विद्याधरीणां संभवात् 4, ताभ्योऽपि अधोलोके संख्येयगुणाः, स्वस्थानत्वेन तत्रापि बहुतराणां भावात् 5, ताभ्यस्तिर्यग्लोके संख्येयगुणाः, क्षेत्रस्यासंख्येयगुणत्वात्, स्वस्थानत्वाच 6, गतं मनुष्यगतिमधिकृत्याऽल्पबहुत्वम्। इदानीं देवगतिमधिकृत्याऽऽहखेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा देवा उडलोए, उडलोयतिरियलोए असंखेजगुणा, तेलुक्के असंखेजगुणा, अहोलोए तिरियलोए / असंखेन्ज / अहोलोए संखि-जगुणाओ, तिरियलोए संखिज्जगुणाओ। क्षेत्रानुपातेन चिन्त्यमाना देवाः सर्वस्तोकाः, ऊर्ध्वलोके वैमानिकानामेव तत्र भावात, तेषां चाऽल्पत्वात्। येऽपि भवनपतिप्रभृतयो जिनेन्द्रजन्ममहादौ मन्दरादिषु गच्छन्ति, तेऽपि स्वल्पा एवेति सर्वस्तोकाः 1, तेभ्य ऊर्ध्वलोकतिर्यग्लोके ऊर्ध्वलोकतिर्यग्लोकसंज्ञे प्रतरद्वये असंख्येयगुणाः, तद्धि ज्योतिष्काणां प्रत्यासन्नमिति स्वस्थानम्। तथा भवनपतिव्यन्तर-ज्योतिष्का मन्दरादौ सौधर्मादिकल्पगताः स्वस्थानगमागमेन, था ये सौधर्मादिषु देवत्वेनोत्पित्सवो देवायुःप्रतिसंवेद्यमानाः स्वोत्पत्तिदेशमभिगच्छन्ति, यथोक्तप्रतरद्वयं स्पृशन्ति। ततः सामस्त्येन यथोक्तप्रतरद्वयसंस्पर्शिनः परिभाव्यमाना अतिबहव इति पूर्वोक्तेभ्योऽसंख्येयगुणाः२। तेभ्यस्वैलोक्यसंस्पर्शिनः संख्येयगुणाः / ततो भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका देवास्तथाविधप्रयत्नविशेषवशतो वैक्रि यसमुद्घातेन समवहता सन्तस्त्रीनपि लोकान् स्पृशन्ति, ते चेत्थं समवहताः प्रागुक्तप्रतरद्वयस्पर्शिभ्यः संख्येयगुणाः, केवलवेदसोपलभ्यन्त इति संख्येयगुणाः३, तेभ्योऽधोलोक-तिर्यग्लोके अधोलोकतिर्यग्लोकसंज्ञे प्रतरद्वये वर्तमानाः संख्येय-गुणाः / तद्धिप्रतरद्धिकं भवनपतिव्यन्तरदेवानां प्रत्यासन्नतया स्वस्थानं, तथा बहवो भवनपतयः स्वभावस्थास्तिर्यग्लोक- गमागमेन तथोद्वर्तमानाः तथा वैक्रियसमुद्घातेन समवहतास्तथा तिर्यग्लोकवर्तिनस्तिर्यक्पश्चेन्द्रियमनुष्या वा भवनपतित्वेनोत्पद्य-माना भवनपत्यायुरनुभवन्तो यथोक्तप्रतरद्वयसंस्पर्शिनोऽतिबहव इति संख्येयगुणाः 4, तेभ्योऽधोलोके संख्येयगुणाः, भवनपतीनां स्वस्थानमिति कृत्वा 5, तेभ्यस्तिर्यग्लोके संख्येयगुणाः, ज्योतिष्कव्यन्तराणां स्वस्थानत्वात् 6 / अधुना देवीरधिकृत्याऽल्पबहुत्वमाहखेत्ताणुवाएणं सवत्थोवाओ देवीओ उडलोए , उडलोयतिरियलोए असंखेनगुणाओ, तेलुक्के संखेज्जगुणाओ, अहोलोयतिरियलोए असंखे जगुणाओ, अहोलोए संखेज्जगुणाओ, तिरियलोए संखिजगुणाओ। सर्वं देवसूत्रमिवाऽविशेषेण भावनीयम्। तदेवमुक्तं देवविषयमौधिकमल्पबहुत्वम्। इदानीं भवनपत्यादिविशेषविषयं प्रतिपिपादयिषुः प्रथमतो भवनपतिविषयमाह खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा भवणवासी देवा उड्डलोए, उडलोयतिरियलोए असंखेज्जगुणाओ, तेलुक्के संखिज्जगुणा, अहोलोयतिरियलोए असंखेजगुणा, तिरियलोए असंखिज्जगुणा, अहोलोए असंखेज०। खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा भवणवासिणीओ देवीओ उडलोए, तिरिलोए असं खि०, तेलुक्के संखेजगुणाओ, अहोलोए तिरियलोए असंखेज०, तिरियलोए असंखिज्ज० अहोलोए असंखिज्ज०॥ क्षेत्रानुपातेन भवनवासिनो देवाश्चिन्त्यमानाः सर्वस्तोकाः ऊर्ध्वलोके, तथाहि- केषाञ्चित् सौधर्मादिष्वपि कल्पेषु पूर्वसंगतिकनिश्रया गमनं भवति / केषाञ्चिन्मन्दरे तीर्थकर-जन्ममहिमानिमित्तम्, अञ्जनदधिमुखेऽष्टका(अष्टाह्रिका) निमित्तम्, अपरेषां मन्दिरादिषु क्रीडानिमित्तं गमनम् / एते च सर्वे-ऽपि स्वल्पा इति सर्वस्तोकाः 1, ऊर्ध्वलोके तेभ्य ऊर्ध्व-लोकतिर्यग्लोकसंज्ञे प्रतरद्वयेऽसंख्येयगुणाः, कथमिति चेत् ? उच्यते- इह हि तिर्यग्लोकस्था वैक्रियसमुद्घातेन समवहता ऊर्ध्वलोकतिर्यग्लोकं च स्पृशन्ति / यथा ते तिर्यग्लोकस्था एव मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहताऊर्ध्वलोके सौधर्मादिषुदेवलोकेषु बादरपर्याप्तपृथिवीकायिकतया बादरपर्याप्ताऽप्रकायिकतयाबादरपर्याप्तप्रत्येकवनस्पतिकायिकतया च शुभेषु मणिविधानादिषु स्थानेषूत्पतुकामा अद्याऽपि स्वभवा-ऽऽयुःप्रतिसंवेदयमाना न पारभाविक पृथिवीकायिकाद्यायुः। द्विविधा हिमारणान्तिकसमुद्घातेन समवहताः केचित् पारभाविकमायुः प्रतिसंवेदयन्ते, केचिन्नेति / तथा चोक्तं प्रज्ञप्तौ - "जीवे णं भंते ! मारणंतिगसमुग्घाएणं सम्मोहएसम्मोह-णित्ता जे भविए मंदरस्स पव्वयस्स पुरच्छिमेणं बायरपुढविकाइय-ताए उववजित्तए, सेणं भंते! किं तत्थ गए उववज्जेज्जा, उयाहुपडिनियत्तेत्ता उववज्जइ ? गोयमा ! अत्थेगइए तत्थ गए चेव उववज्जइ, अत्थेगइए तओ पडिनियत्तित्ता, दोच्चं पि Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुय(ग) 633- अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्पाबहुय(ग) मारणंतियसमुग्घाएणं समोहणंति, समोहणित्ता तओ पच्छा उववज्जइ चिरकालमवस्थानात् 5, तेभ्योऽसंख्येयगुणास्तिर्यग्लोके, तिर्यग्लोकस्य त्ति' स्वभावायुःप्रतिसंवेदनाच ते भवनवासिन एव लभ्यन्ते। तेइत्थंभूता तेषां स्वस्थानत्वात् 6 / एवं ज्योतिष्कदेवीसूत्रमपि भावनीयम्। उत्पत्तिदेशे विक्षिप्तात्मप्रदेशदण्डास्तथा ऊर्ध्वलोकगमना सम्प्रति वैमानिकदेवविषयमल्पबहुत्वमाहगमनतस्तत्प्रतरद्वयप्रत्यासन्नकीडास्थानञ्च यथोक्तं प्रतरद्वयं स्पृशन्ति / खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा वेमाणिया देवा उड्ड-लोयतिरियलोए, ततः प्रागुक्तेभ्योऽसंख्येयगुणाः२, तेभ्यस्वैलोक्ये त्रैलोक्यसंस्पर्शिनः तेलुक्के संखेज्ज०, अहोलोयतिरिय-लोए संखिज०, अहोलोए संख्येयगुणाः, यतो ये ऊर्ध्वलोके तिर्यक्पञ्चेन्द्रिया भवनपतित्वेनो- संखेजगुणा, तिरियलोएसंखेज०, उडलोए असंखिज०। त्पत्तुकामाः, ये च स्वस्थाने वैक्रियसमुद्घातेन मारणान्तिकप्रथम खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवाओ वेमाणिणीओ देवीओ समुदघातेन वा तथाविधतीव्र प्रयत्नविशेषेण समवहतास्ते उड्डलोयतिरियलोए, तेलुक्के संखेजगुणाओ, अहोलोयतिरियत्रैलोक्यसंस्पर्शिन इति संख्येयगुणाः, परस्थानसमवहतेभ्यः लोए संखिज०, अहोलोए संखेज०, तिरियलोए संखेज्ज०, स्वस्थानसमवहतानां संख्येयगुणत्वात् 3 / उडलोए असंखे। तेभ्योऽधोलोक तिर्यग्लो के अधोलोकतिर्यग्लोकसंज्ञे प्रतर- क्षेत्रानुपातेन क्षेत्रानुसारेण चिन्त्यमाना वैमानिका देवाः सर्व-स्तोका द्वयेऽसंख्येयगुणाः; स्वस्थानप्रत्यासन्नतया तिर्यग्लोके गमना- ऊर्ध्वलोकतिर्यग्लोकसंज्ञे प्रतरद्वये, यतो ये अधोलोके तिर्यग्लोके वा ऽगमनभावतः स्वस्थानस्थितक्रोधादिसमुद्घातगमनतश्च बहूनां वर्तमाना जीवा वैमानिकेषूत्पद्यन्ते, ये च तिर्यग्लोके वैमानिका यथोक्तप्रतरद्वयसंस्पर्शभावात् 4, तेभ्यः तिर्यग्लोकेऽसंख्येयगुणाः, गमनागमनं, कुर्वन्ति, ये च विवक्षितप्रतरद्वयाध्यासिनः क्रीडास्थानं समवसरणादौ वन्दननिमित्तं द्वीपेषु च रमणीयेषु क्रीडानिमित्तमागम- 1 संश्रिताः, ये च तिर्यग्लोकेस्थिता एवं वैक्रियसमुद्घातमारणान्तिसम्भवादागतानां च चिरकालमप्यवस्थानात् 5, तेभ्योऽधोलोकेऽ- कसमुद्घातं वा कुर्याणास्तथाविधप्रयत्न-विशेषादूर्ध्वमात्मप्रदेशदण्ड संख्येयगुणाः, भवनवासिनामधोलोकस्य स्वस्थानत्वात् 6 / एवं | निसृजन्ति, ते विवक्षितं प्रतरद्वयं स्पृशन्ति। ते चाऽल्प इति सर्वस्तोकाः भवनवासिदेवीगतमल्पबहुत्वं भावनीयम्। 1, तेभ्यस्त्रैलोक्ये संख्येय-गुणाः / कथमिति चेद् ? उच्यते- इह सम्प्रति व्यन्तरगतमल्पबहुत्वमाह येऽधोलौकिकग्रामेषु समवसरणादिनिमित्तमधोलोके वा क्रीडानिमित्तं गताः सन्तो वैक्रि यसमुद्घातं मारणान्तिक समुद्घातं वा खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा जोइसिया देवा उड्कलोए, कुणास्तथाविध-प्रयत्नविशेषाद्दूरतरमूर्ध्वविक्षिप्तात्मप्रदेशदण्डाः, उडलोयतिरियलोए असं खिज०, तेलु क्के संखेजगुणा, ये च वैमानिकभवादीलिकागत्या च्यवमाना अधोलौकिकग्रामेषु अहोलोयतिरियलोए असंखिज्जगुणा, अहोलोए संखेजगुणा, समुत्पद्यन्ते, ते किल त्रीनपि लोकान् स्पृशन्ति / बहवश्च पूर्वोक्तभ्य इति तिरियलोए असंखेज्जगुणा। संख्येयगुणाः२। खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा जोईसिणीओ देवीओ उड्डलोऐ, तेभ्योऽपि अधोलोकतिर्यग्लोके प्रतरद्वयसंज्ञे संख्येयगुणाः, उडलोयतिरियलोए असंखेजगुणाओ, तेलुक्के संखेज्जगुणाओ, अधोलौकिकग्रामेषु समवसरणादौ गमनागमनभावतो विवक्षितअहोलोयतिरियलोए असंखेज्ज०,अहोलोए संखि०, तिरियलोए प्रतरद्वयाध्यासिनः समवसरणादौ वाऽवस्थानतो बहूनां यथोक्तअसंखे० प्रतरद्वयसंस्पर्शभावात् 3. तेभ्योऽधोलोके संख्येयगुणाः, अधोलौकिकक्षेत्रानुपातेन ज्योतिष्काश्चिन्त्यमानाः सर्वस्तोकाः ऊर्ध्वलोके ग्रामेषु बहूनां समवसरणादाववस्थानाभावात् 4, तेभ्यस्तिर्यग्लोके के षाञ्चिदेव मन्दरे तीर्थकरजन्ममहोत्सवनिमित्तम्, अञ्जन- संख्येयगुणाः, बहुषु समवसरणेषु बहुषु च क्रीडास्थानेषु दधिमुखेष्वष्टाहिकानिमित्तम्, अपरेषां केषाश्चिमन्दरादिषु क्रीडानिमित्तं / बहूनामवस्थानाभावात् 5, तेभ्य ऊर्ध्वलोके -ऽसंख्येयगुणाः, गमनसंभवात् 1, तेभ्यऊर्ध्वलोकतिर्यग्लोके प्रतरद्वयरूपेऽसंख्येयगुणाः, ऊर्ध्वलोकस्य स्वस्थानत्वात्, तत्र च सदैव बहुतरभावात् 6 / एवं तद्धि प्रतरद्वयं केचित्स्वस्थाने स्थिता अपि स्पृशन्ति, प्रत्यासन्नत्वात्। वैमानिकदेवीविषयसूत्रमपि भावनीयम्। अपरे वैक्रियसमुद्घातसमवहताः, अन्ये ऊर्ध्वलोके गमनागमन सम्प्रत्येकेन्द्रियादिगतमल्पबहुत्वमाहभावतस्ततोऽधिकृतप्रतरद्वयस्पर्शिनः पूर्वोक्तभ्योऽसंख्येयगुणाः 2, खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा एगिदिया जीवा उड्डलोयतिरियलोए, तेभ्यस्वैलोक्ये त्रैलोक्यसंस्पर्शिनः संख्येयगुणाः / ये हि अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया, तिरियलोए असंखेज्जगुणा, ज्योतिष्कास्तथाविधतीव्रप्रयत्नवैक्रिय-समुद्घातेन समवहतास्त्रीनपि तेलुक्के असं०, उडलोए असंखेजगुणा, अहोलोए विसेसाहिआ। लोकान् स्वप्रदेशैः स्पृशन्ति, ते स्वभावतोऽप्यतिबहव इति पूर्वोक्तेभ्यः खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा एगिदिया जीवा अपज्जत्तगा संख्येयगुणाः३। उड्डलोयतिरियलोए, अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया, तेभ्योऽधोलोकतिर्यग्लोके प्रतरद्वये वर्तमाना असंख्येयगुणाः, यतो / तिरियलोए असंखेजगुणा, तेलुक्के असंखेजगुणा, उड्डलोए बहवोऽधोलौकिकग्रामेषु समवसरणादिनिमित्तम्, अधो-लोके असंखिजगुणा, अहोलोए विसेसाहिया / खेत्ताणुवाएणं क्रीडानिमित्तं गमनागमनभावतो बहवश्वाऽधोलोका ज्योतिष्केषु सव्वत्थोवा एगिंदिया जीवा पञ्जत्तगा उडलोयतिरियलोए, समुत्पद्यमाना यथोक्तं प्रतरद्वयं स्पृशन्ति, ततो घटन्ते अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया, तिरियलोए असंखेज्जगुणा, पूर्वोक्तेभ्योऽसंख्येयगुणाः४, तेभ्यः संख्येयगुणाः अधोलोके, तेलुक्के असंखेजगुणा, उड्डलोए असंखेज्जगुणा, अहोलोए बहूनामधोलोके क्रीडानिमित्तमधोलौकिकग्रामेषु समवसरणा-दिषु / विसेसाहिया। Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्याबहुय(ग) ६३४-अभियानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्पाबहुय(ग) क्षेत्रानुपातेन चिन्त्यमाना एकेन्द्रिया जीवाः सर्वस्तोका ऊर्ध्व- तेलुक्के असंखेजगुणा, अहोलोयतिरियलोए असंखिज्जगुणा, लोकतिर्यग्लो के ऊर्वलोकतिर्यग्लोकसंज्ञे प्रतरद्वये, यतो ते तेलुक्के असंखेज्जगुणा, अहोलोयतिरियलोए असंखजगुणा, तत्रस्था एव केचन, ये चोर्ध्वलोकात्तिर्यग्लोके, तिर्यग्लोकादा ऊर्यलोके अहोलोए संखेजगुणा, तिरियलोए संखे०। समुत्पित्सवः कृतमारणान्तिकसमुद्धातास्ते किल विवक्षितप्रतरद्वयं क्षेत्रानुपातेन क्षेत्रानुसारेण चिन्त्यमाना द्वीन्द्रियाः सर्वस्तोकाः स्पृशन्ति, स्वल्पाश्च ते इति सर्वस्तोकाः 1, तेभ्योऽधोलोकतिर्यग्लोके ऊर्ध्वलोके, ऊर्ध्वलोकस्यैकदेशे तेषां संभवात् 1, तेभ्य ऊर्ध्वविशेषाधिकाः, यतो ये अधोलोकात् तिर्यग्लोके, तिर्यग्लोकाद्वाऽधोलोके लोकतिर्यग्लोके प्रतरद्वये असंख्येयगुणाः, यतो ये ऊर्ध्वलोकात् ईलिकागत्या समुत्पद्यमाना विवक्षितप्रतरद्वयं स्पृशन्ति, तत्रस्थाश्च तिर्यग्लोके तिर्यग्लोकाद् वा ऊर्ध्वलोके द्वीन्द्रियत्वेन समुत्पत्तुऊर्ध्वलोकाचाऽधोलोको विशेषाधिकः, ततो बहवोऽधोलोकात्तिर्यग्लोके कामास्तदायुरनुभवन्त ईलिकागत्या समुत्पद्यन्ते / ये च द्वीन्द्रिया एवं समुत्पद्यमाना अवाप्यन्ते, इति विशेषाधिकाः२। तिर्यग्लोकादूर्ध्वलोके ऊर्ध्वलोकाद्वा तिर्यग्लोके द्वीन्द्रिय-त्वेनान्यत्वेन तेभ्यस्तिर्यग्लोके असंख्येयगुणाः, उक्तप्रतरद्विकक्षेत्रात् तिर्यग्लोकक्षेत्र- वा समुत्पत्तुकामाः कृतप्रथममारणान्तिक समुद्घाता अत एव स्याऽसंख्येयगुणत्वात् 3, तेभ्यस्त्रैलोक्ये-ऽसंख्येयगुणाः, बहवो हि द्वीन्द्रियायुःप्रतिसंवेदयमानाः समुद्घातवशाच दूरतरविक्षिप्तनिजात्मऊर्ध्वलोकादधोलोके अधोलोकादा ऊर्ध्वलोके समुत्पद्यन्ते। तेषां च प्रदेशदण्डाः, ये च प्रतरद्वयाऽध्यासित-क्षेत्रसमासीनास्ते यथोक्तप्रतमध्ये बहवो मारणान्तिक-समुद्घातवशाद्विक्षिप्तात्मप्रदेशदण्डास्त्रीनपि रद्वयस्पर्शिनो बहवश्चेति पूर्वोक्ते-भ्योऽसंख्येयगुणाः / लोकान् स्पृशन्ति, ततो भवन्त्यसंख्येयगुणाः 4, तेभ्य ऊर्ध्वलोके तेभ्यस्त्रैलोक्येऽसंख्येयगुणाः, यतो द्वीन्द्रियाणां प्राचुर्येणोत्पत्तिस्थाअसंख्येयगुणाः, उपपातक्षेत्रस्याऽतिबहुत्वात् 5, तेभ्योऽधोलोके नान्यधोलोके तस्माच्चाऽतिप्रभूतानि तिर्यग्लोके, तत्र ये वीन्द्रिया विशेषाधिकाः, ऊर्ध्वलोकक्षेत्रादधोलोकक्षेत्रस्य विशेषाधिकत्वात् 6 / अधोलोकादूर्वलोके द्वीन्द्रियत्वेनान्यत्वेन वा समुत्पत्तुकामाः एव-मपर्याप्तविषयं पर्याप्तविषयं च सूत्रं भावयितव्यम्। कृतप्रथममारणान्तिकसमुद्घाताः समुद्घात-वशाचोत्पत्तिदेश अधुना द्वीन्द्रियादिविषयमल्पबहुत्वमाह यावद्विक्षिप्तात्मप्रदेशदण्डास्ते द्वीन्द्रियाऽऽयुःप्रतिसंवेदयमानाः, ये खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा बेइंदिया उडलोए, उड्ड चोर्ध्वलोकादधोलोके द्वीन्द्रियाः शेषकाया यावद् द्वीन्द्रियत्वेन लोयतिरियलोए असंखे जगुणा, तेलुके असंखेज-गुणा, समुत्पद्यमाना द्वीन्द्रियाऽऽयुरनुभवन्ति, त्रैलोक्यसंस्पर्शिनः ते च अहोलोयतिरियलोए असंखेजगुणा, अहोलोए संखेज्जगुणा, पूर्वोक्तभ्योऽसंख्येयगुणाः३, तेभ्यो-ऽधोलोकतिर्यग्लोकेऽसंख्येयगुणाः / तिरियलोए संखेज्जगुणा / खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा बेइंदिया यतो ये वीन्द्रिया अधोलोकात् तिर्यग्लोके ये च द्वीन्द्रियास्तिर्यग्लोअपजत्तया उडलोए, उड्डलोयतिरियलोए संखेजगुणा, तेलुक्के कादधोलोके द्वीन्द्रियत्वेन शेषकायत्वेनोत्पित्सवः कृतप्रथममारअसंखेज्जगुणा, अहोलोयतिरियलोए असंखेज्जगुणा, अहोलोए णान्तिकसमुद्घाता द्वीन्द्रियायुरनुभवन्तः समुद्घातवशेनोत्पत्तिदेशे संखेज्जगुणा तिरियलोए संखेनगुणा। खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा यावद्विक्षिप्तात्म-प्रदेशदण्डास्ते यथोक्तं प्रतरद्वयं स्पृशन्ति। प्रभूताश्चेति बेइंदिया पज्जत्तया उड्डलोए, उड्डलोयतिरियलोए असंखेज्जगुणा, पूर्वोक्तभ्योऽसंख्येयगुणाः ४,तेभ्योऽधोलोके संख्येयगुणाः, तेलुक्के असंखेज्जगुणा, अहोलोयतिरियलोए असंखेज्जगुणा, तत्रोत्पत्तिस्थानानामतिप्रचुराणां भावात् 5, तेभ्योऽपि तिर्यग्लोके अहोलोए संखेज्जगुणा, तिरियलोए संखेजगुणा। संख्येयगुणाः, अतिप्रचुरतराणां योनि-स्थानानां तत्र भावात् 6 / खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा तेइंदिया उड्डलोए, उड्ड यथेदमौधिकं द्वीन्द्रियसूत्र तथा पर्याप्ताऽपर्याप्तद्वीन्द्रियलोयतिरियलोए असंखेज्जगुणा, तेलुक्के असंखेज्जगुणा, अधोलोए सूत्रौधिकत्रीन्द्रियपर्याप्ताऽपर्याप्तौधिकचतुरिन्द्रियपर्याप्ता-ऽपर्याप्तसूत्राणि संखेज्जगुणा, तिरियलोए संखेज्जगुणा। खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा भावनीयानि। तेइंदिया अपञ्जत्तगा उडलोए, उड्डलोयतिरियलोए साम्प्रतमौधिकपञ्चेन्द्रियविषयमल्पबहुत्वमाहअसंखिज्जगुणा, तेलुक्के असंखेज्जगुणा, अहोलोयतिरियलोए खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा पंचेंदिया तेलुक्के, उडलोयअसंखेजगुणा, अहोलोए संखेज्जगुणा, तिरियलोएसंखेज्जगुणा। तिरियलोए असंखेजगुणा, अहोलोयतिरियलोए संखेज्जगुणा, खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा तेइंदिया पञ्जत्तगा उड- उड्डलोए संखेज्जगुणा, अहोलोए संखेज्जगुणा, तिरियलोए लोए, उड्डलोयतिरियलोए असंखिजगुणा, तेलुक्के असंखेज्जगुणा, असंखेजगुणा। अहोलोयतिरियलोए असंखिजगुणा, अहोलोए संखिजगुणा, खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा पंचें दिया अपज्जत्तया तेलुक्के, तिरियलोए संखिजगुणा। उड्डलोयतिरियलोए असंखेज्जगुणा, अहोलोयतिरियलोए खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा चउरिंदिया जीवा उडलोए, संखेजगुणा, उड्ढलोए संखेजगुणा, अहोलोए संखेजगुणा, उडलोय तिरियलोए असंखिजगुणा, तेलुक्के असंखिजगुणा, तिरियलोए संखेज्जगुणा। अहोलोयतिरियलोए असंखिजगुणा, अहोलोए संखेजगुणा, क्षेत्रानुपातेन चिन्त्यमानाः पञ्चेन्द्रियाः सर्वस्तोकाः त्रैलोक्ये तिरियलोए संखेज्जगुणा। खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा चउरिंदिया त्रैलोक्यसंस्पर्शिनः, यतो येऽधोलोकादूर्ध्वलोके ऊर्ध्वलोकाद्वाऽजीवा अपञ्जत्तगा उड्डलोए, उड्डलोयतिरियलोए असंखेज्जगुणा, | धोलो के शेषकायाः पोन्द्रियायुरनु भयन्त ईलिकागत्या Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुय(ग) 635 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्पाबहुय(ग) समुत्पद्यन्ते, ये च पञ्चेन्द्रिया ऊर्ध्वलोकादधोलोके अधोलोकादूर्वलोके शेषकायत्वेन पञ्चेन्द्रियत्वेन चोत्पित्सवः कृतमारणान्तिक समुद्घाताः समुद्घातवशाच्चोत्पत्तिदेशं यावद् विक्षिप्ताऽऽत्मप्रदेशदण्डाः पञ्चेन्द्रियायुरधाप्यनुभवन्ति, ते त्रैलोक्यसंस्पर्शिनः, ते चाऽल्पे इति सर्वस्तोकाः 1, तेभ्य ऊर्ध्वलोकतिर्यग्रूपेऽसंख्येयगुणाः, प्रभूततराणामुपपातेन समुद्घातेन वा यथोक्तप्रतरद्वयसंस्पर्शसंभवात 2. तेभ्योऽधोलोकतिर्यग्लो के संख्ये यगुणाः, अतिप्रभूततराणामुपपातसमुद्घाताभ्यामधोलोक तिर्यग्लो क संज्ञप्रतरद्वयसं स्पर्शभावात् 3, तेभ्य ऊर्ध्वलोके संख्येयगुणाः, वैमानिकानामवस्थानभावात् 4, तेभ्योऽधोलोके संख्येयगुणाः, वैमानिकदेवेभ्यः संख्येयगुणानां नैरयिकाणां तत्र भावात् 5, तेभ्यस्तिर्यग्लोकेऽसंख्येयगुणाः, संमूछिमजलचरखचरादीनां व्यन्तरज्योतिष्काणां सम्मूच्छिममनुष्याणां च तत्र भावात् 6 / एवं पञ्चेन्द्रियापर्याप्तसूत्रमपि भावनीयम्। पञ्चेन्द्रियपर्याप्तसूत्रमिदम् - खेत्ताणुवाएणं सध्वत्थोवा पंचिंदिया पज्जत्ता उड्डलोए, उड्डलोयतिरियलोए असं०, तेलुके असं०, अहोलोयतिरियलोए संखेज०, अहोलोए संखेज्ज०, तिरियलोए असंखेनगुणा। क्षेत्रानुपातेन चिन्त्यमानाः पञ्चेन्द्रियाः पर्याप्ताः सर्वस्तोकाः ऊर्ध्वलोके, प्रायो वैमानिकानामेव तत्र भावात् 1, तेभ्य ऊर्ध्व-लोकतिर्यग्लोके प्रतरद्वयरूपेऽसंख्येयगुणाः, विवक्षितप्रतर-द्वयप्रत्यासन्नज्योतिष्काणां तदध्यासितक्षेत्राऽऽश्रितव्यन्तर-तिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणां वैमानिकव्यन्तरज्योतिष्क विद्याधरचारणमुनितिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणामूर्यलोके तिर्यग्लोके च गमनाऽगमने कुर्वतामधिकृतप्रतरद्वयस्पर्शात 2, तेभ्यस्त्रैलोक्ये त्रिलोकसंस्पर्शिनः असंख्येयगुणाः / कथमिति चेत् ? यतो ये भवनपति-व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका विद्याधरा वा अधोलोकस्थाः कृतक्रियसमुद्घातास्तथाविधप्रयत्नविशेषादूर्ध्वलोक-प्रदेशविक्षिप्तात्मप्रदेशदण्डास्ते त्रीनपि लोकान् स्पृशन्तीति संख्येयगुणाः 3, तेभ्योऽधोलोकतिर्यग्लोके प्रतरद्वयरूपे संख्येयगुणाः, बहवो हि व्यन्तराः स्वस्थानप्रत्यासन्नतया भवन-पतयस्तिर्यग्लोके ऊर्ध्वलोके वा व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका देवा अधोलौकिकग्रामेषु समवसरणादावधोलोके क्रीडादिनिमित्तं च गमनागमनकरणतः, तथा समुद्रेषु केचित् तिर्यक्पञ्चेन्द्रियाः स्वस्थानप्रत्यासन्नतया, अपरे तदध्यासितक्षेत्राश्रिततया यथोक्तंप्रतरद्वयं स्पृशन्ति, ततः संख्येयगुणाः 4, तेभ्योऽधोलोके संख्येयगुणाः, नैरयिकाणां भवनपतीनां च तत्रावस्थानात् 5, तेभ्यस्तिर्यग्लोकेऽसंख्येयगुणाः, तिर्यक्पञ्चेन्द्रियमनुष्यव्यन्तर-ज्योतिष्काणामवस्थानात् 6 / तदेवमुक्तं पञ्चेन्द्रियाणामल्पबहुत्वम्। इदानीमे केन्द्रियभेदानां पृथिवीकायिकादीनां पञ्चानामौधिकपर्याप्ताऽपर्याप्तभेदेन प्रत्येकं त्रीणि त्रीण्यल्पबहुत्वान्याह खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा पुढविकाइया उड्डलोयतिरियलोए, अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया, तिरियलोए असंखेज्जगुणा, तेलुक्के असंखिजगुणा, उड्डलोए असंखेज्जगुणा, अहोलोए विसेसाहिया। खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा पुढ विकाइया अपज्जत्तया उडलोयतिरियलोए, अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया, तिरियलोए असंखेजगुणा, तेलुक्के असंखेजगुणा, उड्डलोए असंखेनगुणा, अहोलोए विसेसाहिया / खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा पुढविकाइया पञ्जत्तगा उडलोयतिरियलोए, तिरियलोयअहोलोए विसेसाहिया, तिरियलोए असंखेजगुणा, तेलुक्के असंखेजगुणा, उड्डलोए असंखेजगुणा, अहोलोए विसेसाहिया। खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा आउकाइया उड्डलोयतिरियलोए, अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया, तिरियलोए असंखेज्जगुणा, तेलुक्के असंखेज्जगुणा, उड्डलोए असंखेज्जगुणा, अहोलोए विसेसाहिया। खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा आउकाइया अपज्जत्तया उडलोयतिरियलोए, अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया, तिरियलोए असंखेजगुणा, तेलुक्के असंखेज्जगुणा, उड्डलोए असंखेनगुणा, अहोलोए विसेसाहिया / खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा आउकाइया पजत्तया उड्डलोयतिरियलोए, अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया, तिरियलोए असंखेजगुणा, तेलुक्के असंखेजगुणा, उड्डलोए असंखेज्जगुणा, अहोलोए विसेसाहिया। खेत्ताणुवाएवं सव्वत्थोवा तेउकाइया उड्डलोयतिरियलोए, अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया, तिरियलोए असंखेज्जगुणा, तेलुक्के असंखेज्जगुणा, उड्डलोए असंखेजगुणा, अहोलोए विसेसाहिया। खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा तेउकाइया अपज्जत्तया उड्डलोयतिरियलोए, अहोलोयतिरियलोए विसे साहिया, तिरियलोए असंखेज्जगुणा, तेलुक्के असंखिजगुणा, उड्डलोए असंखे जगुणा, अहोलोए विसे साहिया / खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा ते उकाइया पञ्जत्तया उड्डलोयतिरियलोए, अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया, तिरियलोए असंखेजगुणा, तेलुक्के असंखेनगुणा, उड्डलोए असंखेजगुणा, अहोलोए विसेसाहिया। खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा वाउकाइया उड्डलोयतिरियलोए, अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया, तिरियलोए असंखेज्जगुणा, तेलुक्के असंखिजगुणा, उडलोए असंखेजगुणा, अहोलोए विसेसाहिया। खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा वाउकाइया अपज्जत्तया उड्ड-लोयतिरियलोए, अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया, तिरियलोए असंखेजगुणा, तेलुक्के असंखेनगुणा, उडलोए असंखिजगुणा, अहोलोए विसेसाहिया / खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा वाउकाइया पञ्जत्तया उडलोयतिरियलोए, अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया, तिरियलोए असंखेज्जगुणा, तेलुक्के असंखेज्जगुणा, उड्डलोए असंखेजगुणा, अहोलोए विसेसाहिया। खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा वणस्सइकाइया उडलोयतिरियलोए, Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुय(ग) 636 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्पाबहुय(ग) अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया, तेलुक्के असंखेजगुणा, उड्डलोए असंखेज्जगुणा, अहोलोए विसेसाहिया। खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा वणस्सइकाइया अपज्जत्तया उड्डलोयतिरियलोए, अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया, तिरियलोए असंखिजगुणा, तेलुके असंखिजगुणा, उड्डलोए असंखेजगुणा, अहोलोए विसेसाहिया / खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा वणस्सइकाइया पज्जत्तया उड्डलोयतिरियलोए, अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया, तिरियलोऐ असंखेज्जगुणा, तेलुक्के असंखिजगुणा, उड्डलोए असंखेजगुणा, अहोलोए विसेसाहिया। इमानि पञ्चदशापि सूत्राणि प्रागुक्तै केन्द्रियसूत्रवद्भावनीयानि / साम्प्रतमौघिकत्रसकायपर्याप्तापर्याप्तत्रसकायसूत्राण्याह खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा तसकाइया तेलुक्के, उड्डलोयतिरियलोए असंखिज्जगुणा, अहोलोयतिरियलोए असंखिज्जगुणा, उड्डलोए संखेज्जगुणा, अहोलोएसंखेज्जगुणा, तिरियलोए असंखिजगुणा। खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा तसकाइया अपज्जत्तया तेलुक्के, उड्डलोयतिरियलोए असंखिजगुणा, अहोलोयतिरियलोए असंखिज्जगुणा, उड्डलोए संखिज्जगुणा, अहोलोए संखिज्जगुणा, तिरियलोए असंखिज्जगुणा / खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा तसकाइया पञ्जत्तया तेलुक्के, उडलोयतिरियलोए असंखिजगुणा, अहोलोयतिरियलोए असंखेनगुणा, उडलोए संखिज्जगुणा, अहोलोए संखिज्जगुणा, तिरियलोए असंखेजगुणा। इमानि पञ्चेन्द्रियसूत्रवद्भावनीयानि। गतं क्षेत्रद्वारम् / प्रज्ञा० 3 पद / (12) गतिद्वारम्। चतुर्गतिसमासेन पञ्चगतिसमासेनाऽष्टगति-समासेन वाऽल्पबहुत्वम्एतेसिणं भंते ! णेरइयाणं० जाव देवाण य कयरे कयरेहिंतो० जाव विसेसाहिया ? गोयमा ! सव्वत्थोवा मणुस्सा, नेरइया असंखेज्जगुणा, देवा असंखेज्जा, तिरिया अणंता। प्रश्नसूत्रं पाठसिद्धम् / भगवानाह-गौतम ! सर्वस्तोकाः मनुष्याः, श्रेण्यसंख्येयभागवर्तिनभःप्रदेशराशिप्रमाणत्वात्। 1, तेभ्यो नैरयिका असंख्येयगुणाः, अङ्गुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशेर्यत् प्रथमं वर्गमूलं, तद् द्वितीयेन वर्गमूलेन गुण्यते, गुणिते च सति यावान् प्रदेशराशिर्भवति, तावत्प्रमाणासु श्रेणिषु यावन्त आकाशप्रदेशाः तावत्प्रमाणत्वात् तेषाम् 2, तेभ्यो देवा असंख्येयगुणाः, व्यन्तराणां ज्योतिष्काणां नैरयिकेभ्योऽप्यसंख्येयगुणतया महादण्डके पठितत्वात् 3, तेभ्योऽपि तिर्यशोऽनन्ताः, वनस्पतिजीवानामनन्तत्वात् 4 / जी०४ प्रति०। पं० सं०। पञ्चगतिसमासेनाऽल्पबहुत्वमाहएएसिणं भंते ! णेरइयाणं तिरिक्खजोणियाणं मनुस्साणं देवाणं सिद्धाण य पंचगइसमासेणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा मणुस्सा, णेरइया असंखेज्जगुणा, देवा असंखेज्जगुणा, सिद्धा अणंतगुणा, तिरिक्खजोणिया अणंतगुणा। सर्वस्तोका मनुष्याः, षण्णवतिच्छे दनकच्छे द्यराशिप्रमाणत्वात्। स चषण्णवतिच्छेदनकदायो राशिये ('सरीर' शब्दे) दर्शयिष्यते 1, तेभ्यो नैरयिका असंख्येयगुणाः, अङ्गुलमात्र-क्षेत्रप्रदेशराशेः संबन्धिनिप्रथमवर्गमूले द्वितीयवर्गमूलेन गुणिते यावान्प्रदेशराशिर्भवति, तावत्प्रमाणासु घनीकृतस्य लोकस्यैक-प्रादेशिकीषु श्रेणिषु यावन्तो नभःप्रदेशास्तावत्प्रमाणत्वात् 2, तेभ्यो देवा असंख्येयगुणाः, व्यन्तराणां ज्योतिष्काणां च प्रत्येक प्रतरासंख्येयभागवर्तिश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् 3, तेभ्यः सिद्धा अनन्तगुणाः, अभव्येभ्योऽप्यनन्तगुणत्वात् 4, तेभ्यस्तिर्यग्योनिका अनन्तगुणाः, वनस्पतिकायिकानां सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वात् 5 / तदेवं नैरयिकतिर्यग्यो निकमनुष्यदेवसिद्धरूपाणां पञ्चानामल्पबहुत्वमुक्तम्। प्रज्ञा० 3 पद। एतच्चैवमर्थतो गाथानर-नेरइया देवा, सिद्धा तिरिया कमेण इह हॉति। थोव असंख असंखा, अणंतगुणिया अणंतगुणा / / 1 / / भ० 25 श०३ उ०। साम्प्रतं नैरयिकतिर्यग्यो निकतिर्यग्योनिकीमनुष्यमानुषीदेवदेवीलक्षणानां सप्तानामल्पबहुत्वचिन्तायामाह अप्पाबहुयं सव्वत्थोवा माणुस्सीओ, मणुस्सा, असंखेजगुणा, नेरइया असंखेज्जगुणा, तिरिक्खजोणिणीओ असंखेज्जगुणाओ, देवा संखेजगुणा, देवीओ संखेजगुणाओ, तिरिक्खजोणिया अणंत-गुणा। प्रश्वसूत्रसुगमम्। भगवानाह- सर्वस्तोका मानुष्यः, कतिपयकोटीकोटिप्रमाणत्वात् 1, ताभ्यो मनुष्या असंख्येयगुणाः, संमूर्छिममनुष्याणां श्रेण्यसंख्येयभागप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् 2, तेभ्यो नैरयिका असंख्येयगुणाः 3, तेभ्यस्तिर्यग्योनिकाः स्त्रियोऽ-संख्येयगुणाः, प्रतरासंख्येयभागवर्तिश्रेण्याकाशप्रदेशराशि-प्रमाणत्वात् 4, ताभ्यो देवाः संख्येयगुणाः, वाणमन्तरज्योति-ष्काणामपि जलचरतिर्यम्योनिकीभ्यः संख्येयगुणतया महादण्डके पठितत्वात् 5, तेभ्यो देव्यः संख्येयगुणाः, द्वात्रिंशद्गुणत्वात् / “बत्तीसगुणा बत्तीसरूवअहिया उ होंति देवाणं देवीओ" इति वचनात् 6, ताभ्यस्तिर्यग्योनिका अनन्तगुणाः, वनस्पति जीवानामनन्ताऽनन्तत्वात्७।जी०७ प्रति० / इदानीमेतेषामेव सिद्धसहितानाभष्टानामल्पबहुत्वमाहएएसि णं भंते ! णेरइयाणं तिरिक्खजोणियाणं तिरिक्खजोणिणीणं मणुस्साणं मणुस्सीणं देवाणं सिद्धाण य अट्ठगतिसमासेणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहियावा? गोयमा ! सव्वत्थोवा मणुस्सीओ, मणुस्सा असंखेजगुणा, णेरड्या असंखेज्जगुणा, तिरिक्खजोणि-णीओ असंखेजगुणाओ, देवा असंखेज्जगुणा, देवीओ संखेज-गुणाओ, सिद्धा अणंतगुणा, तिरिक्खजोणिया अणंतगुणा। Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुय(ग) 637 - अभियानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्पाबहुय(ग) सर्वस्तोका मानुष्यो मनुष्यस्त्रियः, संख्येयकोटाकोटिप्रमाणत्वात् 1, ताभ्यो मनुष्या असंख्येयगुणाः, इह मनुष्याः संमूर्च्छनजा अपि गृह्यन्ते, वेदस्याविवक्षणात् / ते च संमूच्र्छनजा वान्तादिषु नगरनि मनान्तेषु जायमाना असंख्येयाः प्राप्यन्ते 2, तेभ्यो नैरयिका असंख्येयगुणाः, मनुष्या ह्युत्कृष्टपदेऽपि श्रेण्यसंख्येय भागगतप्रदेशराशिप्रमाणा लभ्यन्ते / नैरयिकास्त्वगुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशिसत्कद्वितीयवर्गमूलगुणितप्रथमवर्गमूलप्रमाणश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणाः, ततो भवन्त्यसंख्येय-गुणाः३, तेभ्यस्तिर्यग्योनिकाः स्त्रियोऽसंख्येयगुणाः, प्रतराऽसंख्येयभागवर्त्य संख्येयश्रेणिनभःप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् 4, ताभ्योऽपि देवा असंख्येयगुणाः, प्रतरासंख्येयभाग-वर्त्यसंख्येयश्रेणिगतप्रदेशराशिमानत्वात् 5, तेभ्योऽपि देव्यः संख्येयगुणाः, द्वात्रिंशद्गुणत्वात् 6, ताभ्योऽपि सिद्धा अनन्तगुणाः 7, तेभ्योऽपि तिर्यग्योनिका अनन्तगुणाः / अत्र युक्तिः प्रागेवोक्ता 8 / प्रज्ञा०३ पद! अर्थतश्चैवं गाथानारी नर नेरइया, तिरित्थि सुर देवि सिद्ध तिरिया य। थोव असंखगुणा चउ, संखगुणाऽणंतगुण दोन्नि / / 2 / / भ 25 श०३ उ०। अथ(समासेन) प्रथमाऽप्रथमसमयविशेषणेन गतिष्वल्पबहुत्वम्। अप्पाबहु एते सि णं भंते ! पढमसमयणे रइयाणं० जाव पढमसमयदेवाणं कयरे कयरेहिंतो० जाव विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा पढमसमयमणुस्सा, पढमसमयणेरइया असंखेजगुणा, पढमसमयदेवा असंखेजगुणा, पढमसमयतिरिक्खजोणिया असंखेज्जगुणा / एते सिणं भंते ! अपढमसमयनेरइयाणं जाव० अपढमसमयदेवाणं कयरे कयरेहिंतो० जाव विसेसाहिया वा? गोयमा ! एवं चेव; नवरि अपढमस मयतिरिक्खजोणिया अणंतगुणा / एतेसिणं भंते ! पढमसमयनेरइयाणं अपढमसमयणेरइयाणं कयरे कयरेहिंतो० जाव विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा पढमसमयणेरइया, अपढमसमयणेरइया असंखेनगुणा, एवं चेव तिरिक्खजोणिया, नवरं अपढम-समयतिरिक्खजोणिया अणंतगुणा / मणुयदेवाणं अप्पाबहुयं जहा नेरइया। एएसि णं भंते ! पढमसमयणे रइयाणं० जाव अपढमसमयतिरिक्खजोणियाण य कयरे कयरे-हिंतो० जाव विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा पढमसमयमणुस्सा, अपढमसमयमणुस्सा असंखेजगुणा, पढमसमयणेरइया असंखेज्जगुणा, पढमसमयदेवा असंखेज्जगुणा, पढमसमयतिरिक्खजोणिया असंखेज्जगुणा, अपढमसमयणे रइया असंखेजगुणा, अपढमसमयदेवा असंखेज्जगुणा, अपढमसमयतिरिक्खजोणिया अणंतगुणा। प्रश्नसूत्रं सुगमम्।भगवानाह- गौतम! सर्वस्तोकाः प्रथमसमयमनुष्याः , श्रेण्यसंख्येयभागमात्रत्वात् / तेभ्यः प्रथम-समयनै रयिका असंख्येयगुणाः, अतिप्रभूतानामेकस्मिन् समये उत्पादसंभवात्। तेभ्यः प्रथमसमयदेवा असंखेयगुणाः, व्यन्तरज्योतिष्काणामतिप्रभूततराणामेकस्मिन् समये उत्पाद-संभवात् / तेभ्यः प्रथमसमयतिर्यचोऽसंख्येयगुणाः, इह येनारका-दिगतित्रयादागत्य तिर्यक्प्रथमसमये वर्तन्ते ते प्रथमसमयतिर्यचो, न शेषाः, ततो यद्यपि प्रतिनिगोदमसंख्येयभागः सदा विग्रहगति प्रथमसमयवर्ती लभ्यते, तथापि निगोदानामपि तिर्यक्त्वात्, नते प्रथमसमयतिर्यञ्चः, एभ्यः संख्येयगुणा एव। साम्प्रतमेतेषामेव चतुर्णामप्रथमसमयानां परस्परमल्पबहुत्वमाह - एएसि णमित्यादि , प्रश्रसूत्रं सुगमम् / भगवानाह- गौतम ! सर्वस्तोका अप्रथमसमयमनुष्याः, श्रेण्यसंख्येयभागमात्रत्वात् / तेभ्योऽप्रथमसमयनैरयिका असंख्येयगुणाः, अगुलमात्र-क्षेत्रप्रदेशराशेः प्रथमवर्गमूले द्वितीयेन वर्गमूलेन गुणिते यावान् प्रदेशराशिः, तावत्प्रमाणासु श्रेणिषु यावन्त आकाशप्रदेशाः तावत्प्रमाणत्वात् / तेभ्योऽप्रथमसमयदेवा असंख्येयगुणाः, व्यन्तरज्योतिष्काणामतिप्रभूतत्वात् / तेभ्योऽप्रथमसमय-तिर्यग्योनिका अनन्तगुणाः, वनस्पतीनामनन्तत्वात् / साम्प्रत-मेतेषामेव नैरयिकादीनां प्रत्येक प्रथमसमयाऽप्रथमसमयगत-मल्पबहुत्वमाह- "एएसि णं भंते !" इत्यादि प्रश्रसूत्रं सुगमम् / भगवानाह- गौतम ! सर्वस्तोकाः प्रथमसमयनै रयिकाः, एकस्मिन् समये संख्याऽतीतानामपि स्तोकानामेवोत्पादात् / तेभ्योऽप्रथमसमयनैरयिका असंख्येयगुणाः, चिरकालावस्था-यिनां तेषामन्योऽन्योत्पादेनातिप्रभूतभावात् / एवं तिर्यग्योनिक-मनुष्यदेवसूत्राण्यपिवक्तव्यानि, नवरं तिर्यग्योनिकसूत्रेऽप्रथमसमयतिर्यग्योनिका अनन्तगुणा वक्तव्याः, वनस्पतिजीवानामनन्तत्वात्। साम्प्रतमेतेषामेव प्रथमसमयाप्रथमसमयानां समुदायेन परस्परमल्पबहुत्वमाह- "एएसि णमित्यादि' प्रश्न सूत्रं सुगमम्। भगवानाहगौतम ! सर्वस्तोकाः प्रथमसमयमनुष्याः, एकस्मिन् समये संख्यातीतानामपि स्तोकानामेवोत्पादात्। तेभ्योऽप्रथम-समयमनुष्या असंख्येयगुणाः, चिरकालाऽवस्थायितया अतिप्राभूत्येन लभ्यमानत्वात् / तेभ्यः प्रथमसमयनैरयिका असंख्येयगुणाः, अतिप्रभूततराणामेकस्मिन्नपि समये उत्पादसंभवात् / तेभ्यः प्रथमसमयदे वा असंख्येयगुणाः, व्यन्तरज्योतिष्काणामेकस्मिन्नपि समये अतिप्राचुर्येण कदाचिदुत्पादात् / तेभ्यः प्रथमसमयतिर्यग्योनिका असंख्येयगुणाः, नारकवर्जगतित्रयादप्युत्पादसंभवात् / तेभ्योऽप्रथमसमयनैरयिका असंख्येयगुणाः, अङ्गु लमात्रक्षेत्रप्रदेशराशेः प्रथमवर्गमूले द्वितीयवर्गमूलेन गुणिते यावान् प्रदेशराशिस्तावत्प्रमाणासु श्रेणिषु यावन्त आकाशप्रदेशाः तावत्प्रमाणत्वात्। तेभ्योऽप्रथमसमयदेवाः असंख्येयगुणाः, प्रतरासंख्येयभागवर्ति-श्रेण्याकाशप्रदेशराशि-प्रमाणत्वात् / तेभ्योऽप्रथमसमयतिर्यग्योनिका अनन्तगुणाः, वनस्पति-जीवानामनन्तत्वात्। जी०८ प्रति०। अत्र (व्यासेन) चत्वार्यल्पबहुत्वानि, तद्यथासिद्ध णं भंते ! सिद्धे त्ति कालतो केव चिरं होति? गोयमा! सादिए अपज्जवसिए। (जी०) तत्र प्रथममिदम् -- एएसि णं भंते ! पढमसमयने रइयाणं पढमसमयतिरिक्खजोणियाणं पढमसमयमणुस्साणं पढमसमयदेवाण य कयरे जाव विसे साहिया ? गोयमा ! सटवस्थोवा पढमसमयमणुस्सा, पढमसमयणे रइया असंखेज्जगुणा, पढमसमयदेवा असंखेज्जगुणा, पढमसमयतिक्खिजोणिया असंखेजगुणा। सर्वस्तोकाः प्रथमसमयमनुष्याः / तेभ्यः प्रथमसमयनैरयिका असंख्येयगुणाः। तेभ्यः प्रथमसमयदेवा असंख्येयगुणाः। तेभ्यःप्रथम समयतिर्यग्योनिका असंख्येयगुणाः, नारकादिशेषगतित्रयादा Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुय(ग) ६३८-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्याबहुय(ग) गतानामेव प्रथमसमये वर्तमानानां प्रथमसमयतिर्यगयोनिकत्वात्। द्वितीयमेवम् - एएसिणं भंते ! अपढमसमयणेरइयाणं अपढमसमयतिरिक्खजोणियाणं अपढसमयमणूसाणं अपढमसमयदेवाण य कयरे कयरेहिंतो० जाव विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा अपढमसमयमणूसा, अपढमसमयणेरड्या असंखेज्जगुणा, अपढमसमयदेवा असंखेजगुणा, अपढमसमयतिरिक्खिजोणिया अणंतगुणा। सर्वस्तोका अप्रथमसमयमनुष्याः, तेभ्योऽप्रथमसमयनैरयिका असंख्येयगुणाः, तेभ्योऽप्रथमसमयदेवा असंख्येयगुणाः, तेभ्योऽप्रथमसमयतिर्यग्योनिका अनन्तगुणाः, निगोदजीवानामनन्तत्वात्। तृतीयमेवम् - एएसि णं पढमसमयणेरइयाणं अपढसमयणेरइयाणं कयरे कयरेहिंतो० जाव विसे साहिया ? गोयमा ! सव्वत्थोवा पढमसमयणेरइया, अपढमसमयणेरइया असंखेज्जगुणा। एएसि णं भंते ! पढमसमयतिरिक्खजोणियाणं अपढमसमयतिरिक्खजोणियाणं कयरे कयरेहिंतो० जाव विसेसाहिया ? गोयमा ! सवत्थोवा पढमसमयतिरिक्खजोणिया, अपढमसमयतिरिक्खजोणिया अणंतगुणा / मणुयदेवाणं अप्पाबहुयं जहा नेरइया। सर्वस्तोकाः प्रथमसमयनैरयिकाः, अप्रथमसमयनै रयिका असंख्येयगुणाः / तत्र प्रथमसमयतिर्यग्यो निकाः सर्वस्तोकाः, अप्रथमसमयतिर्यग्यो निका अनन्तगुणाः, तथा सर्वस्तोकाः प्रथमसमयमनुष्याः, अप्रथमसमयमनुष्याः असंख्येयगुणाः / तथा सर्वस्तोकाः प्रथमसमयदेवाः, अप्रथमसमयदेवा असंख्येय-गुणाः। सर्वसमुदायगतं चतुर्थमेवम् - एएसिणं भंते ! पढमसमयणेरइयाणं अपढमसमयणेरइयाणं पढमसमयतिरिक्खजोणियाणं, अपढमसमयतिरिक्खजोणियाणं पढमसमयमणूसाणं अपढमसमयमणूसाणं पढमसमयदेवाणं अपढमसमयदेवाणं सिद्धाण य कयरे कयरेहिंतो० जाव विसेसाहिया ? गोयमा ! सव्वत्थोवा पढमसमयमणूसा, अपढमसमयमणूसा असंखेजगुणा, पढसमयणेरइया असंखेज्जगुणा, पढमसमयदेवा असंखेज्जगुणा, पढमसमयतिरिक्खजोणिया असंखेनगुणा, अपढमसमयनेरइया असंखेज्जगुणा, अपढमसमयदेवा असंखेजगुणा, सिद्धा अणंतगुणा, अपढमसमयतिरिक्खजोणिया अणंतगुणा। सर्वस्तोकाः प्रथमसमयमनुष्याः, अप्रथमसमयमनुष्या असंख्येयगुणाः, तेभ्यः प्रथमसमयनैरयिका असंख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि प्रथमसमयदेवा असंख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि प्रथम समयतिर्यञ्चोऽसंख्येयगुणाः, तेभ्योऽप्यप्रथमसमयनैरयिका असंख्येयगुणाः, तेभ्योऽप्यप्रथमसमयदेवा असंख्येयगुणाः, तेभ्यः सिद्धा अनन्तगुणाः, तेभ्योऽप्रथमसमयतिर्यग्योनिका अनन्तगुणाः / जी०६ प्रति०। प्रथमसमयाप्रथमसमयभेदेन भिन्नानां नैरयिकतिर्यग्योनिकमनुष्यदेवसिद्धानां दशानामल्पबहुत्वान्यत्राऽपि चत्वारि। तत्र प्रथममिदम् - एते सि णं भंते ! पढमसमयणे रइयाणं पढमसमय तिरिक्खजोणियाणं पढमसमयमणसाणं पढमसमय-देवाणं पढमसमयसिद्धाणय कयरे कयरेहिंतो० जाव विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा पढमसमय-सिद्धा पढमसमयमणुसा असंखेजगुणा, पढमसमयणेरड्या असंखेज्जगुणा, पढमसमयदेवा असंखेज्जगुणा, पढमसमयतिरिक्खजोणिया असंखेजगुणा। सर्वस्तोकाः प्रथमसमयसिद्धाः, अष्टोत्तरशतादूर्ध्वमभावात् / तेभ्यः प्रथमसमयमनुष्या असंख्येयगुणाः, तेभ्यः प्रथमसमयनैरयिकाः असंख्येयगुणाः, तेभ्यः प्रथमसमयदेवाः असंख्येयगुणाः, तेभ्यः प्रथमसभयतिर्यचोऽसंख्येयगुणाः। द्वितीयमिदम् - एतेसि णं भंते ! अपढमसमयणेरइयाणं अपढमसमयतिरिक्खजोणियाणं अपढमसमयमणूसाणं अपढमसमयदेवाणं अपढमसमयसिद्धाण य कयरे कयरेहिंतो० जाव विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा अपढमसमयमणूसा, अपढमसमयणेरड्या असंखेजगुणा, अपढमसमयदेवा असंखेजगुणा, अपढमसमयसिद्धा, अणंतगुणा, अपढमसमयतिरिक्ख-जोणिया अणंतगुणा। सर्वस्तोका अप्रथमसमयमनुष्याः, अप्रथमसमयनैरयिका असंख्येयगुणाः, अप्रथमसमयदेवा असंख्येयगुणाः, अप्रथम समयसिद्धा अनन्तगुणाः, अप्रथमसमयतिर्यञ्चोऽनन्तगुणाः / तृतीयम् - एएसिणं भंते ! पढमसमयणेरइयाण य अपढमसमयणेरइयाण य कयरे कयरेहिंतो० जाव विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा पढमसमयणे रइया, अपढमसमयणे रइया असंखेज्जगुणा। एतेसिणं भंते ! पढमसमयतिरिक्खजोणियाणं अपढमसमय-तिरिक्खजोणियाण य कयरे कयरेहिंतो० जाव विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा पढमसमयतिरिक्खजोणिया, अपढमसमयतिरिक्खजोणिया अणंतगुणा। एतेसिणं भंते ! पढमसमयमणूसाणं अपढमसमयमणूसाण य कयरे कयरेहितो० जाव विसेसाहियावा? | गोयमा ! सव्वत्थोवा पढमसमयमणूसा, अपढमसमयमणूसा असंखेज्जगुणा / जहा मणूसा तहा देवा वि / एतेसि णं मंते ! पढमसमयसिद्धाणं अपढम-समयसिद्धाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसे साहिया वा ? गोयमा ! सम्वत्थोवा पढमसमयसिद्धा, अपढमसमयसिद्धा अणंतगुणा। प्रत्येकभाविनैरयिकतिर्यङ्मनुष्यदेवानां पूर्ववत् / सिद्धानामेवम्सर्वस्तोकाः प्रथमसमयसिद्धाः, अप्रथमसमयसिद्धा अनन्तगुणाः / Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुय(ग) 639 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्पाबहुय(ग) समुदायगतं चतुर्थमेवम् - एएसिणं भंते ! पढमसमयणेरइयाणं अपढम-समयणेरइयाणं पढमसमयतिरिक्खजोणियाणं अपढमसमयतिरिक्खजोणियाणं पढमसमयमणूसाणं अपढमसमयमणूसाणं पढमसमयदेवाणं अपढमसमयदेवाणं पढमसमयसिद्धाणं अपढमसमयसिद्धाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वातुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा पढमसमयसिद्धा, पढमसमयमणूसा असंखेजगुणा, अपढमसमयमणूसा असं खिजगुणा, पढमसमयणे रइया असंखिजगुणा, पढमसमयदेवा असंखिजगुणा, पढमसमयतिरिक्खजोणिया असंखेज्जगुणा, अपढमसमयणेरइया असंखिजगुणा, अपढमसमयदेवा असंखिजगुणा, अपढमसमयसिद्धा अणंतगुणा, अपढमसमयतिरिक्खजोणिया अणंतगुणा। सर्वस्तोकाः प्रथमसमयसिद्धाः, तेभ्यः प्रथमसमयमनुष्या असंख्येयगुणाः, तेभ्योऽप्रथमसमयमनुष्या असंख्येयगुणाः, तेभ्यः प्रथमसमयनैरयिका असंख्येयगुणाः, तेभ्यः प्रथमसमय-देवा असंख्येयगुणाः, तेभ्यः प्रथमसमयतिर्यशोऽसंख्ये यगुणाः, तेभ्योऽप्रथमसमयनैरयिका अनन्तगुणाः,तेभ्योऽप्रथमसमयदेवा असंख्येयगुणाः तेभ्योऽप्रथमसमयसिद्धा अनन्तगुणाः, तेभ्योऽप्रथमसमयतिर्यञ्चोऽनन्तगुणाः। भावना सर्वत्रापि प्राग्वत् / नवरं सूत्रे संक्षेप इति। जी० 10 प्रतिः। संप्रति गुणस्थानकेष्वेव वर्तमानानां जन्तूनामल्पबहुत्वमाह(पण दो खीण दु जोगी,ऽणुदीरग अजोगि)थोव उवसंता। संखगुण खीण सुहुमाऽनियट्टिअपुव्व समा अहिय॥६॥ (थोव उवसंतत्ति) स्तोका उपशान्तमोहगुणस्थानवर्तिनो जीवाः, यतस्ते प्रतिपद्यमाना उत्कर्षतोऽपि चतुष्पञ्चाशत्प्रमाणा एव प्राप्यन्त इति / तेभ्यः सकाशात् क्षीणमोहाः संख्येयगुणाः यतस्ते प्रतिपद्यमानका एकस्मिन् समयेऽष्टोत्तरशतप्रमाणा अपि लभ्यन्ते। एतचोत्कृष्टपदापेक्षयोक्तम् / अन्यथा कदाचिद् विपर्ययोऽपि द्रष्टव्यः / स्तोकाः क्षीणमोहाः, बहवस्तु तेभ्य उपशान्तमोहाः, तथा तेभ्यः क्षीणमोहेभ्यः सकाशात् सूक्ष्म-संपराया निवृत्तिबादरापूर्वकरणा विशेषाधिकाः, स्वस्थाने पुनरेते चिन्त्यमानास्त्रयोऽपि समास्तुल्या इति // 6 // जोगि अपमत्त इतरे, संखगुणा देससासणा मीसा। अविरय अजोगि मिच्छा, असंख चउरो दुवेऽणंता // 63|| तेभ्यः सूक्ष्मादिभ्यः सयोगिके वलिनः संख्यातगुणाः, तेषां कोटिपृथक्त्वेन लभ्यमानत्वात् / तेभ्योऽप्रमत्ताः संख्येयगुणाः, कोटिसहस्रपृथक्त्वेन प्राप्यमाणत्वात् / तेभ्य(इयरत्ति)अप्रमत्तप्रतियोगिनः प्रमत्ताः संख्येयगुणाः, प्रमादभावो हि बहूनां बहु-कालंच लभ्यते, विपर्ययेण स्वप्रमाद इति न यथोक्तसंख्याव्याघातः / (देसे त्यादि)देशविरतसास्वादन मिश्राऽविरत-लक्षणाश्चत्वारो यथोत्तरमसंख्येयगुणाः,अयोगिमिथ्यादृष्टिलक्षणौ च द्वौ यथोत्तरमनन्तगुणौ, तत्र प्रमत्तेभ्यो देशविरता असंख्येयगुणाः, तिरश्चामप्यसंख्यातानां देशविरतिभावात्। सास्वादनास्तु कदाचित् सर्वथैव न भवन्ति, यदा भवन्ति, तदा जघन्येनैको द्वौ वा, उत्कर्षतस्तु देशविरतेभ्योऽप्यसंख्येयगुणाः, तेभ्यो मिश्रा असंख्येयगुणाः, सास्वादनाद्धाया उत्कर्षतोऽपि षडावलिकामात्रतया स्तोकात्वात् / मिश्राऽद्धायाः पुनरन्त-मुहूर्तप्रमाणतया प्रभूतत्वात् / तेभ्योऽप्यसंख्येयगुणाः अविरत-सम्यग्दृष्टयः, तेषां गतिचतुष्टयेऽपि प्रभूततया सर्वकालसंभवात्। तेभ्योऽप्ययोगिकेवलिनो भवस्थाभवस्थभेदभिन्ना अनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात् / तेभ्योऽप्यनन्तगुणा मिथ्यादृष्टयः, साधारण-वनस्पतीनां सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वात् / तेषां च मिथ्या-दृष्टित्वादिति / तदेवमभिहितं गुणस्थानवर्तिनां जीवानामल्पबहुत्वम्। कर्म०४ कर्म०। पं० सं०। (13) चरमद्वारम्। चरमाऽचरमाणामल्पबहुत्वम्एएसि णं भंते ! जीवाणं चरिमाणं अचरिमाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा०? गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा अचरिमा, चरिमा अणंतगुणा। इह येषां चरिमोभवः संभवी योग्यतयाऽपितेचरमा उच्यन्ते।तेचाऽर्थाद् भव्याः, इतरेऽचरमा अभव्याः सिद्धाश्च, उभयेषामपि चरमाऽचरमभावात् / तत्र सर्वस्तोका अचरमाः, अभव्यानां सिद्धानांच समुदितानामप्यजघन्योत्कृष्टयुक्तानन्तकपरिमाणत्वात्। तेभ्योऽनन्तगुणाश्चरमाः, अजघन्योत्कृष्टानन्ता-ऽनन्तकपरिमाणत्वात् / गतं चरमद्वारम्। प्रज्ञा०३ पद। (रत्नप्रभादीनां चरमाचरमगतमल्पबहुत्वं, सातप्रदेशस्य सङ्घातप्रदेशावगाढस्य परिमण्डलादेश्वरमादिविषयमल्पबहुत्वंच 'चरम' शब्दे एव दर्शयिष्यते) (14) जीवद्वारम्। जीवपुगलसमयद्रव्यप्रदेशपर्यायाणामल्पबहुत्वम् - एएसिणं भंते ! जीवाणं पोग्गलाणं अद्धासमयाणं सव्वदव्वाणं सव्वपएसाणं सव्वपज्जवाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४? गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा, पोग्गला अणंतगुणा, अद्धासमया अणंतगुणा, सव्वदव्वा विसेसाहिया, सव्वपदेसा अणंतगुणा, सव्वपज्जवा अणंतगुणा / प्रज्ञा०३ पद। तदेवमर्थतःजीवा 1 पोग्गल 2 समया 3, दव्व४ पएसा य 5 पज्जवा 6 चेव / थोवाऽणंताऽणंता, विसेसअहिया दुवेऽणता ||1|| इह भावना- यतोजीवाः प्रत्येकमनन्तानन्तैः पुद्गलैर्बद्धाः प्रायो भवन्ति, पुद्गलास्तु जीवैः संबद्धा असंबद्धाश्च भवन्तीत्यतः स्तोकाः पुद्गलेभ्यो जीवाः। यदाहजं पोग्गलावबद्धा, जीवा पाएण होति तो थोवा।। जीवेहि विरहियाऽविरहिया व पुण पोग्गला संति / / 1 / / जीवेभ्योऽनन्तगुणाः पुद्गलाः / कथम् ? यत्तैजसादिशरीरं, येन जीवेन परिगृहीतं, तत्ततो जीवात्पुद्गलपरिणाममाश्रित्य अनन्तगुणं भवति, तथा- तैजसशरीरात्प्रदेशतोऽनन्तगुणं कार्मणम्, एवं च ते जीवप्रतिबद्धेऽनन्तगुणे जीवविमुक्ते च ते, ताभ्यामनन्तगुणे भवतः। शेषशरीरचिन्ता त्विहन कृता, यस्मात् तानि मुक्तान्यपि स्वे स्वे स्थाने तयोरमन्तभागे वर्तन्ते, तदेवमिह तैजस Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुय(ग) 640. अभियानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्याबहुय(ग) शरीरपुद्गला अपि जीवेभ्योऽनन्तगुणाः, किं पुनः कार्मणादिपुद्गलराशिसहिताः।तथा पञ्चदशविधप्रयोगपरिणताः पुद्गलाः स्तोकाः, तेभ्यो मिश्रपरिणताः अनन्तगुणाः, तेभ्योऽपि विस्रसापरिणता अनन्तगुणाः, त्रिविधा एव च पुद्गलाः सर्व एव भवन्ति! जीवाश्च सर्वेऽपि प्रयोगपरिणतपुद्गलानांप्रतनुकेऽनन्तभागे वर्तन्ते यस्मादेवं तस्माजीवेभ्यः सकाशात् पुद्गलाः बहुभिरनन्ता-ऽनन्तकैगुणिताः सिद्धा इति। आह चजंजेण परिग्गहियं, तेयादिजिएण देहमेक्ककं / तत्तो तमणंतगुणं, पोग्गलपरिणामओ होइ // 1 // तेयाओ पुण कम्मग-मणंतगुणियंजओ विणिद्दिट्ट। एवं ता बद्घाई, तेयगकम्माइ जीवहिं / / 2 / / एत्तोऽणंतगुणाई, तेसिं चिय जाणि हों ति मुकाई। इह पुण थोक्त्ताओ, अग्गहणं सेसदेहाणं / / 3 / / जंतेसिं मुक्काई, पिहोंति सट्ठाणऽणंतभागम्मि। तेण तदगाहणमिहं, बद्धाबद्धाण दोण्हं पि॥४॥ इह पुणतेयसरीरग-बद्ध चिय पोग्गला अणंतगुणा। जीवेहिं तो किं पुण, सहिया अवसेसरासीहिं // 5 // थोवा भणिया सुत्ते, पन्नरसविहप्पओगयाओग्गा। तत्तो मीसपरिणया-ऽणंतगुणा पोग्गला भणिया |6|| ते वीससा परिणया, तत्तो भणिया अणंतसंगुणिया। एवं तिविहपरिणया, सव्वे वि य पोग्गलालोए|७|| जंजीवा सव्वे विय, एक्कम्मि पओगपरिणयाणं पि। वट्टति पोग्गलाणं, अणंतभागम्मि तणुयम्मि // 8 // बहुएहि अणताणं, तहिँ तेण गुणिया जिएहितो। सिद्धा भवंति सव्वे, वि पोग्गला सव्वलोगम्मि।।६।। ननुपुद्रलेभ्योऽनन्तगुणाः समया इति यदुक्तम्।तन्न संगतम्। तेभ्यस्तेषां स्तोकत्वात्। स्तोकत्वं च मनुष्यक्षेत्रमात्र-वर्तित्वात्समयानां, पुद्गलानां चसकललोकवर्तित्वादिति। अत्रोच्यते- समयक्षेत्रे ये केचन द्रव्यपर्यायाः सन्ति, तेषामेकैकस्मिन् साम्प्रतं समयो वर्तते / एवं च साम्प्रतं समयो यस्मात्समयक्षेत्रद्रव्यपर्यवगुणो भवति, तस्मादनन्ताः समया एकैकस्मिन् समये भवन्तीति। आह चहोंति य अणंतगुणिया, अद्धासमया उपोग्गलेहिंतो। नणु थोवा ते नरखेत्तमेत्तवत्तणाओ त्ति / / 1 / / भण्णइ समयक्खेत्तम्मि संतिजे केइ दव्वपज्जाया। वट्टइ संपयसमओ, तेसिंपत्तेयमेक्केवे // 2 एवं संपयसमओ, जं समयखेत्तपज्जवज्झत्थो। तेणाणता समया, भवंति एकसमयम्मि॥३॥ एवं च वर्तमानोऽपि समयः पुद्गलेभ्योऽनन्तगुणो भवति, एकद्रव्यस्याऽपि पर्यायाणामनन्तत्वात् / किं च / केवलमित्थं पुद्रलेभ्योऽप्यनन्तगुणाः समयाः सर्वलोकद्रव्यप्रदेशपर्यायभ्योऽप्यनन्तगुणास्ते संभवन्ति / तथाहि- यत्समस्तलोकद्रव्यप्रदेशपर्यवराशेः समयक्षेत्रद्रव्यप्रदेशपर्यवराशिना भक्ताल्लभ्यते। एतद्भावना चैवं किल-असद्भावकल्पनया लक्षणं लोकद्रव्यप्रदेशपर्यवाणांतस्य समयक्षेत्रद्रव्यप्रदेश-पर्यवराशिना कल्पनया सहस्रमानेन भागे हृते शतं लब्धम्, ततश्च किल तात्त्विकसमयशते गते लोकद्रव्यप्रदेशपर्यवसंख्या तुल्या समयक्षेत्रद्रव्यप्रदेशपर्यवरूपसमयसंख्या लभ्यते। समयक्षेत्राऽपेक्षया असंख्यातगुणलोकस्य कल्पनया शतगुणत्वात्। तथाऽन्येष्वपितावत्सुतात्त्विकसमयेषु / गतेषु तावन्त एवौपचारिकसमया भवन्तीत्येवमसंख्यातेषु कल्पनया शतमानेषु तात्त्विकसमयेषु पौनःपुन्येन गतेष्वनन्ततमायां कल्पनया सहस्रतमायां वेलायां गता भवन्ति / तात्त्विकसमया लोकद्रव्यप्रदेशपर्यवमात्राः कल्पनया लक्षप्रमाणाः, एवं चैकै कस्मिन् तात्त्विकसमयेऽनन्तानामौपचारिक-समयानां भावात् सर्वलोकद्रव्यप्रदेशपर्यवराशेरपि समया अनन्तगुणाः प्राप्नुवन्ति, किं पुनः पुद्गलेभ्यः? इति / यदाहजंसव्वलोगदव्वप्पएसपज्जवगणस्सभइयस्स। लब्भइ समयक्खेत्तप्पएसपज्जायपिंडेण / / 1 / / एवइसमएहिँ गएहिँ, लोगपज्जवसमा समयसंखा। लठभइ अन्नेहि पि य, तत्तियमेतहिं तावइया ||2|| एवमसंखेजेहिं, समएहिँ गतेहिंतो गयाहिं ति। समयाओ लोगदव्व-प्पएसपञ्जायमेत्ताओ॥३॥ इय सव्वलोगपज्जव-रासीओ वि समया अणंतगुणा। पावंति गणिजंता, किं पुण ता पोग्गलेहिंतो? ||4|| अन्यस्तु प्रेरयति- उत्कृष्टोऽपिषण्मासमात्रमेव सिद्धिगतेरन्तरं भवति, तेन च सेत्स्यद्भ्यः सिद्धेभ्योऽपि च जीवेभ्योऽसंख्यातगुणा एव समया भवन्ति / कथं पुनः ? सर्वजीवेभ्योऽनन्तगुणा भविष्यन्तीति इहाऽप्यौपचारिकसमयापेक्षया समयानाभनन्तगुणत्वं वाच्यमिति। अथ समयेभ्यो द्रव्याणि विशेषाधिकानीति कथम् ? अत्रोच्यते-यस्मात् सर्वे समयाः प्रत्येकं द्रव्याणि, शेषाणि चजीवपुद्गलधर्मास्तिकायादीनि, तेष्वेव क्षिप्तानीत्यतः के वलेभ्यः समयेभ्यः सकाशात् समस्तद्रव्याणि विशेषाधिकानि भवन्ति, न संख्यातगुणादीनि, समयद्रव्याऽपेक्षया जीवादिद्रव्याणा-मल्पतरत्वादिति। उक्तं चएत्तो समएहितो, होति विसेसाहियाइँ दव्वाइं। जं भेया सव्वे चिय, समया दव्वाइ पत्तेयं / / 1 / / सेसाईंजीवपोग्गल-धम्माधम्मं वराइँ छूढाइं। दव्वट्ठयाएँ समएसुतेण दव्या विसेसहिया // 2 // नन्यद्धासमयानां कस्माद् द्रव्यत्वमेवेष्यते ? समयस्कन्धाऽपेक्षया प्रदेशार्थत्वस्यापि तेषां युज्यमानत्वात्। तथाहियथा स्कन्धो द्रव्यं सिद्ध, स्कन्धा पर्यवा अपि यथाप्रदेशाः सिद्धाः, एवं समयस्कन्धवर्तिनः समया भवन्ति, प्रदेशाश्च द्रव्यंचेति? अत्रोच्यतेपरमाणूनामन्योऽन्यसव्यपेक्षत्वेन स्कन्धत्वं युक्तम्, अद्धासमयानां पुनरन्योऽन्यापेक्षिता नाऽस्ति / यतः कालसमयाः प्रत्येकत्वे च काल्पनिकस्कन्धभावे च वर्तमानाः प्रत्येकवृत्तय एव, तत्स्वभावत्वात् , तस्मात् तेऽन्योऽन्यनिरपेक्षाः, अन्योऽन्य-निरपेक्षत्याच,न ते वास्तवस्कन्धनिष्पादकाः, ततश्च तेषां प्रदेशार्थतेति। उक्तं चाऽत्र आह - अद्धासमयाणं किं, पुण दव्वट्ठएव नियमेण। तेसि पएसट्ठा विहु, जुज्जइ खंधं समासज्ज / / 1 / / सिद्धं खंधो दव्वं, तदवयवा वि य जहा पएस त्ति। इय तव्वत्ती समया, होतिपएसा यदव्वं च // 2 // भण्णइ परमाणूणं, अन्नोन्नमवेक्ख खंधया सिद्धा / अद्धासमयाणं पुण, अन्नोन्नावेक्खया नस्थि / / 3 / / अद्धासमया जम्मा, पत्ते पत्तेयखंधभावे य। पत्तेयवत्तिणो चिय, ते तेणऽन्नोऽन्ननिरवेक्खा ||4|| Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्याबहुय(ग) 641 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्पाबहुय(ग) अथ द्रव्येभ्यः प्रदेशा अनन्तगुणा इति / एतत्कथम् ? उच्यतेअद्धासमयद्रव्येभ्यः आकाशप्रदेशानामनन्तगुणत्वात्। ननु क्षेत्रप्रदेशानां कालसमयानां च समानेऽप्यनन्तत्वे किं कारण-माश्रित्याकाशप्रदेशा अनन्तगुणाः, कालसमयाश्च तदनन्त-भागवर्तिन इति ? उच्यते - एकस्यामनाद्यपर्यवसितायामाकाश प्रदेशश्रेण्यामे कैकप्रदेशानुसारतस्तिर्यगायतश्रेणीनां कल्पनेन, ताभ्योऽपि चैकैकप्रदेशानुसारेणैवोधिआयतश्रेणीविरचनेन आकाशप्रदेशघनो निष्पद्यते, कालसमयश्रेण्यां तु सैव श्रेणी भवति, न पुनर्घनः, ततः कालसमयाः स्तोका भवन्तीति। इह गाथाएत्तो सव्वपएसाऽणंतगुणा खप्पएसऽणंतत्ता। सव्वागासमणतं, जेण जिणिंदेहि पन्नत्तं / / 1 / / आह- समेऽणंतत्तम्मि खेत्तकालाण किं पुण निमित्तं ? | भणियं खमनंतगुणं, कालोऽयमणंतभागम्मि // 2 // भन्नइ नभसेढीए, अणाइयाए अपज्जवसियाए। निप्फज्जइ खम्मि घणो, न उ काले तेण सो थोवो // 3 // प्रदेशेभ्योऽनन्तगुणाः पर्याया इत्येतद्भावनार्थं गाथा - एत्तो य अणंतगुणा, पज्जाया जेण नहपएसम्मि। एक्कक्कम्मि अणंता, अगुरुलहू पञ्जवा भणिया।।१।। इति। भ० 25 श०३ उ० गतं जीवद्वारम्। (15) ज्ञानद्वारम्। ज्ञानिनामल्पबहुत्वम् - एएसि णं भंते ! जीवाणं आमिणिबोहियणाणीणं सुयणाणीणं ओहिणाणीणं मणपञ्जवणाणीणं के वलणाणीण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा 4 ? गोयमा ! सव्वत्थोवा मणपज्जवनाणी, ओहिणाणी असं०, आमिणिबोहियनाणी सुयनाणी दोवि तुल्ला विसेसाहिया, केवलनाणी अणंतगुणा। सर्वस्तोका मनःपर्यवज्ञानिनः, संयतानामेवामर्षांषध्यादिऋद्धिप्राप्तानां मनःपर्यवज्ञानसंभवात् / तेभ्योऽसंख्येयगुणा अवधिज्ञानिनः, नैरयिकतिर्यक् पञ्चेन्द्रियमनुष्यदेवानामप्यवधिज्ञानसं भवात् / तेभ्य आभिनिबोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनश्च विशेषाधिकाः, संज्ञितिर्यक् पश्शेन्द्रियमनुष्याणामेवावधिज्ञानविकलानामपि केषाञ्चिदाभिनिबोधिकश्रुतज्ञानभावात् / स्वस्थाने तुल्येऽपिपरस्परंतुल्याः।“जत्थमइनाणं तत्थसुअनाणं, जत्थसुयनाणं तत्थ मइनाणं" इतिवचनात् / तेभ्यः केवल-ज्ञानिनोऽनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात् / उक्तं हि ज्ञानि-नामल्पबहुत्वम्। इदानीं प्रतिपक्षभूतानामज्ञानिनामल्पबहुत्वमाहएएसि णं भंते ! जीवाणं मइअण्णाणीणं सुयअण्णाणीणं विभंगनाणीण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४? गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा विभंगनाणी, मइअण्णाणी सुयअण्णाणी दोवि तुल्ला अणंतगुणा। सर्वस्तोका विभङ्ग ज्ञानिनः, कतिपयानामेव नैरयिकदेवतिर्यक् पञ्चेन्द्रियमनुष्याणां विभङ्गभावात् / तेभ्यो मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनोऽनन्तगुणाः, वनस्पतीनामपि मत्यज्ञानश्रुताज्ञान-भावात्। स्वस्थाने तुपरस्परंतुल्याः।"जत्थ मइअन्नाणं तत्थ सुयअन्नाणं, जत्थ सुयअन्नाणं तत्थ मइअन्नाणं" इति वचनात्। ___ संप्रत्युभयेषां ज्ञानाज्ञानिनामल्पबहुत्वमाहएएसिणं भंते ! जीवाणं आभिनिबोहियनाणीणं सुयणाणीणं ओहिणाणीणं मणपज्जवणाणीणं केवलणाणीणं मतिअण्णाणीणं सुयअन्नाणीणं विमंगनाणीणय कयरे कयरेहिंतो अप्पा व०४? गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा मणपज्जवणाणी, ओहिनाणी असंखिजगुणा, आमिनिबोहियनाणी सुयनाणी य दोवि तुल्ला विसेसाहिया, विभंगनाणी असंखेज०, केवलनाणी अणंतगुणा, मइअन्नाणी सुयअन्नाणी य दोवि तुल्ला अणंतगुणा। सर्वस्तोका मनःपर्यवज्ञानिनः, संयतानामेवामाँषध्या दिऋद्धिप्राप्तानां मनःपर्यवज्ञानसंभवात् / तेभ्योऽसंख्येयगुणा अवधिज्ञानिनः, तेभ्य आभिनिबोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनश्च विशेषाधिकाः, स्वस्थाने तु द्वावपि परस्परं तुल्याः / अत्र भावना प्रागेवोक्ता / तेभ्योऽसंख्येयगुणा विभङ्गज्ञानिनः, यस्मात्सुरगतौ निरयगतौ च सम्यग्दृष्टिभ्यो मिथ्यादृष्टयोऽसंख्येयगुणाः पठ्यन्ते, देवनैरयिकाश्च सम्यग्दृष्टयोऽवधिज्ञानिनो, मिथ्यादृष्टयो विभङ्ग ज्ञानिन इत्यसंख्येयगुणाः, तेभ्यः केवलज्ञानिनोऽनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात्। तेभ्यो मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनश्चानन्तगुणाः, वनस्पतिकायिकानां सिद्धेभ्योऽप्यनन्तत्वात् तेषां च मत्यज्ञानिश्रुताज्ञानित्वात् / स्वस्थाने तु द्वावपि परस्परं तुल्याः / गतं ज्ञानद्वारम् / प्रज्ञा०३ पद / भ० जी०। कर्म०। इदानीं ज्योतिष्काणामल्पबहुत्वमाहएतेसि णं भंते ! चंदिमसूरिअगहणक्खत्ततारारूवाणं कयरे कयरेर्हितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! चंदिमसूरिआ दुवे तुल्ला सव्वत्थोवा, णक्खत्ता संखेजगुणा, गहा संखेनगुणा, तारारूवा संखेजगुणा। (एतेसि णमित्यादि) एतेषामनन्तरोक्तानां, प्रत्यक्षप्रमाण-गोचराणां वा, भदन्त ! चन्द्रसूर्यग्रहनक्षत्रतारारूपाणां कतरे कतरेभ्योऽल्पाः स्तोकाः / वाऽत्र विकल्पसमुचयार्थे / कतरे कतरेभ्यो बहुका वा कतरेभ्यस्तुल्या वा, अत्र विभक्तिपरिणामेन तृतीया व्याख्येया। कतरे कतरेभ्यो विशेषा वेति ? गौतम! चन्द्रसूर्या एतेद्वयेऽपि परस्परंतुल्याः , प्रतिद्वीपं प्रतिसमुद्रं चन्द्रसूर्याणां समसंख्याकत्वात्। शेषेभ्यो ग्रहादिभ्यः सर्वेऽपिस्तोकाः, तेभ्यो नक्षत्राणि संख्येयगुणानि, अष्टाविंशतिगुणत्वात्। तेभ्योऽपि ग्रहाः संख्येयगुणाः, सातिरेकत्रिगुणत्वात् / तेभ्योऽपि तारारूपाणि संख्येयगुणानि, प्रभूतकोटाकोटिगुणत्वादिति / जं०७ वक्ष०। ज्ञानपर्यायाणामल्पबहुत्वम्। भ०८ श०२ उ०/"सव्वत्थोवा नाणी, अण्णाणी अणंतगुणा" / जी० 1 प्रति०। सस्थावरनोत्र सनोस्थावराणामल्पबहुत्वम् - "अप्पाबहुं सव्वत्थोवा तसा, णोतसा णोथावरा अणंतगुणा" जी०२ प्रति०। (निर्ग्रन्थानां पुलाकादीनामल्पबहुत्वं 'निगंथ' शब्दे वक्ष्यते) (16) दर्शनद्वारम्। दर्शनिनामल्पबहुत्वम् - एएसिणं भंते ! जीवाणं चक्खुदंसणीणं अचक्खुदंसणीणं ओ हिदंसणीणं के वलदंसणीण य क यरे क यरे Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुय(ग) 642 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्पाबहुय(ग) हिंतो अप्पा वा०४? गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा ओहिदंसणी, वनस्पतिकायिका अपि प्रभूता इति विशेषाधिकाः३, तेभ्योऽप्युदीच्यां चक्खुदंसणी असंखेनगुणा, के वलदंसणी अणंतगुणा, दिशि विशेषाधिकाः। किं कारणामिति चेत् ? उच्यते-उदीच्यां हि अचक्खुदंसणी अणंतगुणा। दिशि संख्येययोजनेषुद्वीपेषु मध्ये कस्मिंश्चिद्वीपे आयामविष्कम्भाभ्यां सर्वस्तोका अवधिदर्शनिनः, देवनै रयिकाणां कतिपयानां च संख्येययोजनकोटाकोटिप्रमाणं मानसं नाम सरः समस्ति, ततो संज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्याणामवधिदर्शनभावात्। तेभ्यश्चक्षुर्दशनिनोऽ दक्षिणदिगपेक्षया अस्यां प्रभूतमुदकम्, उदकबाहुल्याच प्रभूता संख्येयगुणाः, सर्वेषां देवनैरयिकगर्भजमनुष्याणां संज्ञितिर्यक्पञ्चेन्द्रि वनस्पतयः, प्रभूता द्वीन्द्रियाः शङ्कादयः, प्रभूतास्तटलगशङ्कायाणां चतुरिन्द्रियाणां च असंज्ञितिर्यक्पञ्चे-न्द्रियाणां चक्षुर्दर्शनभावात्। दिकलेवराश्रिताः त्रीन्द्रियाः पिपीलिकादयः प्रभूताः पद्मादिषु तेभ्यः केवलदर्शनिनोऽनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात् / चतुरिन्द्रिया भ्रमरादयः, प्रभूताः पञ्चेन्द्रिया मत्स्यादयः, इति तेभ्योऽचक्षुर्दर्शनिनोऽनन्तगुणाः, वन-स्पतिकायिकानां सिद्धेभ्योऽप्य विशेषाधिकाः / / नन्तत्वात्। गतं दर्शनद्वारम्। प्रज्ञा०३ पद / कर्म०। जी०। इदानीं विशेषेण तदाह(१७) दिग्द्वारम् / दिगनुपातेन जीवानामल्पबहुत्वम् - दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा पुढविकाइया दाहिणेणं, उत्तरेणं दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा जीवा पञ्चच्छिमेणं, पुरच्छिमेणं विसे साहिया, पुरच्छिमेणं विसे साहिया, पचच्छिमेणं विसेसाहिया, दाहिणेणं विसेसाहिया, उत्तरेणं विसेसाहिया। / विसे साहिया / दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा आउकाइया पञ्चच्छिमेणं,पुरच्छिमेणं विसेसाहिया, दाहिणेणं विसेसाहिया, इह दिशः प्रथमे आचाराख्येऽङ्गे अनेकप्रकारा व्यावर्णिताः, तत्रेह क्षेत्रदिशः प्रतिपत्तव्याः, तासां नियतत्वात् / इतरासां च प्रायो उत्तरेणं विसेसाहिया। ऽनवस्थितत्वादनुपयो गित्वाच, क्षेत्रदिशां च प्रभवस्तिर्यग दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा तेउकाइया दाहिणुत्तरेणं, पुरच्छिमेणं लोकमध्यगतादष्टप्रदेशकाद्च काद्।यत उक्तम् - "अट्ठपएसोरुयगो, विसेसाहिया, पञ्चच्छिमेणं विसेसाहिया / दिसाणुवाएणं तिरियलोयस्स मज्झियारम्मि / एस पभवो दिसाणं, एसेव भवे सव्वत्थोवा वाउकाइया पुरच्छिमेणं, पञ्चच्छिमेणं विसेसाहिया, अणुदिसाणं" ||1|| इति दिशामनुपातो दिगनुसरणं, तेन दाहिणेणं विसेसाहिया, उत्तरेणं विसेसाहिया। दिशोऽधिकृत्येति तात्पर्यार्थः / सर्वस्तोका जीवाः पश्चिमेन पश्चिमायां दिगनुपातेन दिगनुसारेण, दिशोऽधिकृत्येति भावः / पृथिवीदिशि। कथमिति चेत् ? उच्यते-इदं ह्यल्पबहुत्वं बादरानधिकृत्य द्रष्टव्यं, कायिकाश्चिन्त्यमानाः सर्वस्तोकाः दक्षिणस्यां दिशि / कथमिति न सूक्ष्माणां, सर्वलोकापन्नानां प्रायः सर्वत्राऽपि समत्वात्। बादरेष्यपि चेत् ? उच्यते-इह यत्र घनं तत्र बहवः पृथिवीकायिकाः, यत्र सुषिरंतत्र मध्ये सर्वबहवो वनस्पति-कायिकाः अनन्तसंख्याततया तेषां स्तोकाः, दक्षिणस्यां दिशि बहूनि भवनपतीनां भवनानि, बहवो प्राप्यमाणत्वात् / ततो यत्र ते बहवः, तत्र बहुत्वं जीवानां, यत्र त्वल्पे नरकावासास्ततः सुषिरप्राभूत्यसंभवात्, सर्वस्तोका दक्षिणस्यां दिशि तत्राऽल्पत्वम्। वनस्पतयश्च तत्र बहवो यत्र प्रभूता आपः। "जत्थ जलं पृथिवीकायिकाः १,तेभ्य उत्तरस्यां दिशि विशेषाधिकाः, यत्र उत्तरस्यां तत्थ वणं" इति वचनात्। तत्राऽवश्यं पनकशैवालादीनां भावात्। तेच दिशि दक्षिणदिगपेक्षया स्तोकानि भवनानि स्तोका नरकावासास्ततो पनकशैवालादयो बादरनाभकर्मोदये वर्तमाना अपि अत्यन्तसूक्ष्मा- घनप्राभूत्यसंभवाद् बहवः पृथिवीकायिका इति विशेषाधिकाः 2, वगाहनत्वादतिप्रभूतपिण्डीभावाच सर्वत्र सन्तोऽपिनचक्षुषा ग्राह्याः। तेभ्योऽपि पूर्वस्यां दिशि विशेषाधिकाः,रविशशिद्वीपानांतत्र भावात् 3, तथा चौक्तमनुयोगद्वारेषु - "ते णं वालग्गा सुहमपणगजीवस्स तेभ्योऽपि पश्चिमायां दिशि विशेषाधिकाः / किं कारणमिति चेत् ? सरीरोगाहणार्हितो असंखेजगुणा'' इति। ततो यत्रापि नैते दृश्यन्ते तत्रापि उच्यते- यावन्तो रविशशिदीपाः पूर्वस्यां दिशि, तावन्तः पश्चिमायामपि, ते सन्तीति प्रतिपत्तव्याः / आह च मूलटीकाकारः- इह सर्वबहवो तत एव तावता साम्यम् / परं लवणसमुद्रे गौतमनामा द्वीपः वनस्पतय इतिकृत्वा यत्र ते सन्ति, तत्र बहुत्वं जीवानां, तेषां च बहुत्वम् पश्चिमायामधिकोऽस्ति, तेन विशेषाधिकाः 4 / "जत्थ आउकाओ तत्थ नियमा वणस्सइकाया'' इति / अत्र पर आह- ननु यथा पश्चिमायां दिशि गौतमद्वीपोऽभ्यधिकः "पणगसेवालहढाई बायरा वि होंति, सुहुमा आण गिज्झान चक्खुणा' समस्ति, तथा तस्यां पश्चिमायां दिशि अधोलौकिकग्रामा अपि इति। उदकं च प्रभूतं समुद्रेषु द्वीपद्विगुणविष्कम्भात्। तेष्वपि च समुद्रेषु योजनसहस्रावगाहाः सन्ति, ततः खातपूरितन्यायेन तत्तुल्या एव प्रत्येकं प्राचीप्रतीचीदिशोर्यथाक्रम चन्द्रसूर्यद्वीपाः, यावति च प्रदेशे पृथिवीकायिकाः प्राप्नुवन्ति, न विशेषाधिकाः / नैतदेवम् / चन्द्रसूर्यद्वीपा अवगाढास्तावत्युदकाभावः, उदकाभावाच यतोऽधोलौकिकग्रामावगाहो योजनसहस्रं, गौतमीपस्य पुनः वनस्पतिकायिकाभावः, केवलं प्रतीच्यां दिशि लवणसमुद्राधिपसु षट्सप्तत्यधिकं योजनसहस्रमुच्चैस्त्वं, विष्कम्भस्तस्य द्वादशयोजन सहस्राणि, यच मेरोरारभ्याधोलौकिकग्रामेभ्योऽर्वाक हीनत्वं स्थितनामदेवावासभूतो गौतमद्वीपो लवणसमुद्रेऽभ्यधिको वर्तते, तत्रच हीनतरत्वं तत्पूर्वस्यामपि दिशि प्रभूतगर्तादिसम्भवात् समानम् / उदकाभावाद्-वनस्पतिकायिकानामभावात् / ततो यद्यधोलौकिकग्रामच्छिद्रेषु बुद्ध्या गौतमद्वीपः प्रक्षिप्यते, सर्वस्तोका जीवाः पश्चिमायां दिशि 1, तेभ्यो विशेषाधिकाः पूर्वस्यां तथापि समधिक एव प्राप्यते, न तुल्य इति / तेन समधिकेन दिशि, तत्र हि गौतमद्वीपो न विद्यते, ततस्तावता विशेषेणाधिका विशेषाधिकाः पश्चिमायां दिशि पृथिवीकायिकाः। उक्तं दिगनुपातेन भवन्त्यतिरिच्यन्ते 2, ते भ्योऽपि दक्षिणस्यां दिशि विशेषाधिकाः, पृथिवीकायिकानामल्पबहुत्वम् / इदानीमकायिकायतस्तत्रचन्द्रसूर्यद्वीपान विद्यन्ते, तदभावात्तत्रोदकं प्रभूतं, तत्प्राभूत्याच | नामल्पबहुत्वमाह- (दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा आउकाइया Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्याबहुय(ग) 643 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्पाबहुय(ग) इत्यादि) सर्वस्तोका अप्कायिकाः पश्चिमायां दिशि, गौतमद्वीपस्थाने दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा पंकप्पभा पुढविणे रइया तेषामभावात् 1, तेभ्योऽपि विशेषाधिकाः पूर्वस्यां दिशि 2, तेभ्योऽपि | पुरच्छिमपच्छिमउत्तरेणं, दाहिणणं असंखेजगुणा / विशेषाधिका दक्षिणस्यां दिशि, चन्द्रसूर्यद्वीपाभावात् 3, तेभ्योऽप्युत्त- दिसाणुवाएणं सत्वत्थोवा धूमप्पभा पुढविनेरइया रस्यां दिशि विशेषाधिकाः, मानसरःसद्भावात् / / पुरच्छिमपचच्छिमउत्तरेणं, दाहिणेणं असंखे जगुणा / तेजस्कायिकानामल्पबुहत्वम् - (दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा तेउकाइया दिसाणुवाएणं सम्वत्थोवा तमप्पभा पुढविने रइया इत्यादि) तथा दक्षिणस्यामुत्तरस्यांचदिशिसर्वस्तोकाः तेजस्कायिकाः, पुरच्छिमपचच्छिमउत्तरेणं, दाहिणेणं असंखेजगुणा / यतो मनुष्यक्षेत्रे एव बादरास्तेजस्कायिका नाऽन्यत्र तत्रापि यत्र बहवो दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा अहे सत्तमा पुढ विने रइया मनुष्याः तत्र ते बहवो, बाहुल्येन पाकारम्भसम्भवात्, यत्र त्वल्पे तत्र पुरच्छिमपञ्चच्छिमउत्तरेणं, दाहिणेणं असंखेज्जगुणा। स्तोकाः / तत्र दक्षिणस्यां दिशि पञ्चसु भरतेषु, उत्तरस्यां दिशि नैरयिकसूत्रे सर्वस्तोकाः पूर्वोत्तरपश्चिमदिविभाविनो नैरयिकाः, पञ्चस्वैरावतेषु क्षेत्रस्याल्पत्वात् स्तोका मनुष्याः / तेषां स्तोकत्वेन पुष्पावकीर्णनरकावासानां चात्राल्पत्वात् बहूनां प्रायः तेजस्कायिका अपि स्तोकाः; अल्पपाकारम्भसम्भवात् / ततः संख्येययोजनविस्तृतत्वाच / तेभ्यो दक्षिणदिग्भागविभाविनो सर्वस्तोका दक्षिणोत्तरयोर्दिशोः तेजस्कायिकाः; स्वस्थाने तु प्रायः संख्येयगुणाः, पुष्पावकीर्णनरकावासानां तत्र बाहुल्यात्, तेषां च समानाः 1-2, तेभ्यः पूर्वस्यां दिशि संख्येयगुणाः, क्षेत्रस्य प्रायोऽसङ्के ययोजनविस्तृतत्वात्, कृष्णपाक्षिकाणां तस्यां दिशि संख्येयगुणत्वात् 3, ततोऽपि पश्चिमायां दिशि विशेषाधिकाः, प्राचुर्येणोत्पादाच / तथाहि- द्विविधा जन्तवः, शुक्लपाक्षिकाः, अधोलौकिकग्रामेषु मनुष्यबाहुल्यात् / / कृष्णपाक्षिकाश्च / तेषां लक्षणमिदम् - किश्चिदूनपुद्रलपरावर्ताइदानीं वायुकायिकानामल्पबहुत्वम् - (दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा र्द्धमात्रसंसारास्ते शुक्लपाक्षिकाः, अधिकतरसंसारभाजिनस्तु वाउकाइया पुरच्छिमेणमित्यादि)। इह यत्र शुषिरं तत्र वायुर्यत्रचघनं तत्र कृष्णपाक्षिकाः। उक्तञ्च- 'जेसिमवड्डोपुग्गलपरियट्टो सेसओय संसारो। वाय्वभावः / तत्र पूर्वस्यां दिशि प्रभूतं धनमित्यल्पा वायवः१, पश्चिमायां ते सुक्कपक्खिया खलु, अहीऍ पुण कण्हपक्खीओ" ||1|| अत एव च दिशि विशेषाधिकाः, अधोलौकिकग्रामेषु सम्भवात् 2, उत्तरस्यां दिशि स्तोकाः शुक्लपाक्षिकाः, अल्पसंसारिणां स्तोकत्वात् / बहवः विशेषाधिकाः, भवननरकावासबाहुल्येन शुषिरबाहुल्यात् 3, ततोऽपि कृष्णपाक्षिकाः, प्रभूतसंसारिणामतिप्रचुरत्वात् / कृष्ण-पाक्षिकाच दक्षिणस्यां दिशि विशेषाधिकाः, उत्तरदिगपेक्षया दक्षिणस्यां दिशि प्राचुर्येण दक्षिणस्यां दिशि समुत्पद्यन्ते, न शेषासु दिक्षु, भवनानां नरकावासानां चाऽतिप्रभूतत्वात्। तथास्वाभाव्यात्। तथा यत्र प्रभूता आपस्तत्र प्रभूताः पनकादयोऽनन्तकायिका तच तथास्वाभाव्यं पूर्वाचार्यरवंयुक्तिभिरुपबृह्यते। तद्यथा कृष्णपाक्षिका वनस्पतयः, प्रभूताः शङ्खादयो द्वीन्द्रियाः, प्रभूताः पिण्डीभूतशैवाला दीर्घतर संसारभाजिन उच्यन्ते / दीर्धतरसंसारभाजिनश्च द्याश्रिताः कुन्थ्वादयः त्रीन्द्रियाः, प्रभूताः पद्माद्याश्रिता भ्रमरादयश्च बहुपापोदयाद्भवन्ति, बहुपापोदयाञ्च क्रूरकर्माणः, क्रूरकर्माणश्व तुरिन्द्रिया इति। प्रायस्तथास्वाभाव्यात् / तद्भवसिद्धिका अपि दक्षिणस्यां दिशि इदानीं वनस्पत्यादीनामल्पबहुत्वम् - समुत्पद्यन्ते, न शेषासु दिक्षु / यत उक्तम् - "पायमिह कूरकम्मा, भवसिद्धिथा वि दाहिणल्लेसु / नेरइयतिरियमणुया, सुराइठाणेसु दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा वणस्सइकाइया पचच्छिमेणं, गच्छंति" ||il ततो दक्षिणस्यां दिशि बहूनां कृष्णपाक्षिकाणापुरच्छिमेणं विसेसाहिया, दाहिणेणं विसेसाहिया, उत्तरेणं मुत्पादसंभवात्, पूर्वोक्तकारणद्वयाच्च सम्भवन्ति पूर्वोत्तरपश्चिमदिग्भाविसेसाहिया। दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा बेइंदिया पचच्छिमेणं, विभ्यो दाक्षिणात्या असंख्येयगुणाः / यथा च सामान्यतो नैरयिकाणां पुरच्छिमेणं विसेसाहिया, दाहिणेणं विसेसाहिया, उत्तरेणं दिग्विभागेनाल्पबहुत्वमुक्तमेवं प्रतिपृथिव्यपि वक्तव्यम्, युक्तेः सर्वत्रापि विसेसाहिया। दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा तेइंदिया पचच्छिमेणं, समानत्वात्। तदेवं प्रतिपृथिव्यपि दिग्विभागेना-ल्पबहुत्यमुक्तम्। पुरच्छिमेणं विसेसाहिया, दाहिणेणं विसेसाहिया, उत्तरेणं इदानीं सप्तापि पृथिवीरधिकृत्य दिम्विभागेनाल्पबहुत्वमाहविसेसाहिया। एवं चउरिंदिया वि। दाहिणेहिंतो अहेसत्तमा पुढविनेरइएहिंतो छट्ठीए तमाए वनस्पस्त्यादिसूत्राणि चतुरिन्द्रियसूत्रर्पयन्तानि अप्कायिकसूत्रवद्भाव पुढवीए नेरइया पुरच्छिमपञ्चच्छिमउत्तरेणं असंखेज्जगुणा, नीयानि। नैरयिकाणामल्पबहुत्वम् - दाहिणेणं असंखेज्जगुणा / दाहिणल्ले हिंतो तमापुढविदिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा णेरड्या पुरच्छिम-पचच्छिमेणं, नेरइएहिंतो पंचमा धूमप्पभाए पुढवीए नेरझ्या पुरच्छिमउत्तरदाहिणेणं असंखज्जगुणा / दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा पञ्चच्छिमउत्तरेणं असंखेज्जगुणा, दाहिणेणं असंखेज्जगुणा। रयणप्पभा पुढविणेरइया पुरच्छिमपचच्छिमेणं, उत्तरेणं दाहिणल्लेहिंतो धूमप्पमा पुढविनेरएहिंतो चउथिए पंकप्पदाहिणेणं असंखेजगुणा। दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा सक्करप्पभा भाए पुढवीए णेरझ्या पुच्छिमपञ्चच्छिमउत्तरेणं असंखेजपुढविणेरइया पुरच्छिमपञ्चच्छिमउत्तरेणं, दाहिणेणं असंखेज- गुणा, दाहिणेणं असंखेजगुणा / दाहिणल्लेहिंतो पंकप्पगुणा / दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा णेरइया वालुयप्पभा | भापुढविणे रइएहितो तइयाए वालूयप्पभाए पुढविपुढविपुरच्छिमपञ्चच्छिमउत्तरेणं, दाहिणेणं असंखेजगुणा। नेरइया पुरच्छिमपचच्छिमउत्तरेणं असंखेजगुणा, दाहिणेणं अपाशता Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुय(ग) 644 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्पाबहुय(ग) असंखेनगुणा। दाहिणल्लेहिंतो वालुयप्पभापुढविणरेइएहितो दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा वाणमंतरा देवा पुरच्छिमेणं, बीयाए सकरप्पभाए पुढवीए णेरझ्या पुरच्छिमपचच्छिमउत्तरेणं पञ्चच्छिमेणं विसेसाहिया, उत्तरेणं विसेसाहिया, दाहिणेणं असंखेनगुणा, दाहिणेणं असंखेज्जगुणा / दाहिणल्ले हितो विसेसाहिया। सक्करप्पभा पुढविणेरइएहिंतो इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए व्यन्तरसूत्रे भावना- यत्र शुषिरं, तत्र व्यन्तराः प्रचरन्ति, यत्र घनं तत्र णेरइया पुरच्छिमपचच्छिमउत्तरेणं असंखेज्जगुणा, दाहिणल्लेणं न।ततः पूर्वस्यां दिशिघनत्वात्स्तोका व्यन्तराः। तेभ्योऽपरस्यां दिशि असंखेज्जगुणा। विशेषाधिकाः, अधोलौकिकग्रामेषु शुषिरसम्भवात्। तेभ्योऽप्युत्तरस्यां सप्तमपृथिव्यां पूर्वोत्तरपश्चिमदिविभाविभ्यो नैरयिकेभ्यो ये सप्तमपृथि- दिशि विशेषाधिकाः, स्वस्थानतया नगरा-वासबाहुल्यात् / तेभ्योऽपि व्यामेव दाक्षिणात्यास्तेऽसंख्येयगुणाः, तेभ्यः षष्ठपृथिव्यां दक्षिणस्यां दिशि विशेषाधिकाः, अतिप्रभूतनगरावासबाहुल्यात्। तमप्रभाभिधानायां पूर्वोत्तरपश्चिमदिविभा-विभ्योऽसंख्येयगुणाः / ज्योतिष्काणामल्पबहुत्वमाह - कथमिति चेत् ? उच्यते-इह सर्वोत्कृष्टपापकारिणः संज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यङ्- दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा जोइसिया देवा पुरच्छिममनुष्याः, सप्तमनरकपृथिव्याभुत्पद्यन्ते / किञ्चिद्धीनहीनतरपाप- पचच्छिमेणं,दाहिणेणं विसेसाहिया, उत्तरेणं विसेसाहिया। कर्मकारिणश्च षष्ठ्यादिषु पृथिवीषु सर्वोत्कृष्टपापकर्मकारिणश्च सर्वस्तोकाः तथा सर्वस्तोका ज्योतिष्काः, पूर्वस्यां पश्चिमायां च दिशि बहवश्च यथोत्तरं किशिद्धीनतरादिपापकर्मकारिणः, ततो चन्द्राऽऽदित्यदीपेषूद्यानकल्पेषु कतिपयानामेव तेषां भावात्। तेभ्योऽपि युक्तमसंख्येयगुणत्वं सप्तमपृथिवीदाक्षिणात्यनारकापेक्षया षष्ठपृथिव्यां दक्षिणस्यां दिशि विशेषाधिकाः, विमानबाहुल्यात, कृष्णपाक्षिकाणां पूर्वोत्तरपश्चिमनार-काणाम् / एवमुत्तरोत्तरपृथिवीरप्यधिकृत्य दक्षिणदिग्भावित्वाच्च / तेभ्योऽप्युत्तरस्यां दिशि विशेषाधिकाः, यतो भावयितव्यमातेभ्योऽपि तस्यामेवषष्ठपृथिव्यां दक्षिणस्यां दिशि नारका मानसे सरसि बहवो ज्योतिष्काः क्रीडास्थानमिति क्रीडनव्यापृताः असंख्येयगुणाः / युक्तिरत्र प्रागेवोक्ता / तेभ्योऽपि पञ्चमपृथिव्यां नित्यमासते।मानससरसि च ये मत्स्यादयो जलचरास्ते आसन्नविमानधूमप्रभाभिधानायां पूर्वोत्तरपश्चिम-दिग्भाविनोऽसंख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि दर्शनतः समुत्पन्नजातिस्मरणात् किञ्चिद् व्रतं प्रतिपद्याऽनशनादि च कृत्वा तस्यामेव पञ्चमपृथिव्यां दाक्षिणात्या असंख्येयगुणाः / एवं सर्वास्वपि कृतनिदानास्तत्रोत्पद्यन्ते / ततो भवन्त्यौत्तराहा दाक्षिणात्येभ्यो क्रमेण वाच्यम्। विशेषाधिकाः। पञ्चेन्द्रियतिरश्चामल्पबहुत्वमाह वैमानिकानामल्पबहुत्यमाहदिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा पंचिं दियतिरिक्खजोणिया दिसाणुवाएणं सवत्थोवा देवा सोहम्मे कप्पे पञ्चच्छिमेणं, पुरच्छिमेणं विसेसाहिया, दाहिणेणं विसेसाहिया, पुरच्छिमपचच्छिमेणं, उत्तरेणं असंखेज्जगुणा, दाहिणेणं उत्तरेणं विसेसाहिया। विसेसाहिया / दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा देवा ईसाणे कप्पे इदं च तिर्यक्पञ्चेन्द्रियसूत्रमप्कायसूत्रवत्। पुरच्छिमपञ्चच्छिमेणं, उत्तरेणं असंखेज्जगुणा, दाहिणेणं मनुष्याणामल्पबहुत्वमाह विसेसाहिया। दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा देवा सणंकुमारे कप्पे दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा मणुस्सा दाहिणउत्तरेणं, पुरच्छिमेणं पुरच्छिमपञ्चच्छिमेणं, उत्तरेणं असंखेजगुणा, दाहिणेणं संखेज्जगुणा, पञ्चच्छिमेणं विसेसाहिया। विसेसाहिया / दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा देवा माहिंदे कप्पे सर्वस्तोका मनुष्या दक्षिणस्यामुत्तरस्यां च, पञ्चानां भरतक्षेत्राणां पुरच्छिमेणं पञ्चच्छिमेणं, उत्तरेणं असंखेज्जगुणा, दाहिणेणं पञ्चानामैरावतक्षेत्राणामत्यल्पत्वात्। तेभ्यः पूर्वस्यां दिशि संख्येयगुणाः, विसेसाहिया। दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा बंभलोए कप्पे देवा क्षेत्रस्य संख्येयगुणत्वात् / तेभ्योऽपि पश्चिमायां दिशि विशेषाधिकाः, पुरच्छि-मपञ्चच्छिमउत्तरेणं, दाहिणेणं असंखेज्जगुणा / स्वभावत एवाधोलौकिकग्रामेषु मनुष्य-बाहुल्यभावात्। दिसाणुवाएणंसव्वत्थोवालंतए कप्पे देवा पुरच्छिम पचच्छिमउत्तरेणं, दाहिणेणं असंखेज्जगुणा / दिसाणुवाएणं भवनवासिनामल्पबहुत्वमाह सव्वत्थोवा देवा महासुक्के कप्पे पुरच्छिमपचच्छिमउत्तरेणं, दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा भवणवासी देवा पुरच्छि दाहिणणं असंखेज्जगुणा / दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा देवा मपञ्चच्छिमेणं, उत्तरेणं असंखेज्जगुणा, दाहिणेणं असंखेज्जगुणा। सहस्सारे कप्पे पुरच्छिमपञ्चच्छिमउत्तरेणं, दाहिणेणं सर्वस्तोका भवनवासिनो देवाः, पूर्वस्यां पश्चिमायां च दिशि, तत्र असंखेज्जगुणा / तेण परं बहुसमोववन्नगा समणाउसो ! पनानामल्पत्वात् / तेभ्य उत्तरदिग्भाविनोऽसंख्येयगुणाः, तथा सौधर्मे कल्पे सर्वस्तोकाः पूर्वस्या पश्चिमायां च दिशि स्वस्थानतया तत्र भवनानां बाहुल्यात् / तेभ्योऽपि दक्षिण-- वैमानिका देवाः, यतो यान्यावलिकाप्रविष्टानि विमानानि, दिग्भाविनोऽसंख्येयंगुणास्तत्र भवनानामतीव बाहुल्यात् / तथाहि तानि चतसृष्वपि दिक्षु तुल्यानि, यानि पुनः पुष्पावकीर्णानि निकाये-निकाये चत्वारि चत्वारि भवनशतसहस्राण्यतिरिच्यन्ते, तानि प्रभूतानि असंख्येययोजनविस्तृतानि, तानि च दक्षिणस्याकृष्णपाक्षिकाश्च बहवस्तत्रोत्पद्यन्ते, ततो भवन्त्यसंख्येयगुणाः। मुत्तरस्यां दिशि, नाऽन्यत्र, ततः सर्वस्तोकाः पूर्वस्या पश्चिमाया च दिशि व्यन्तराणामल्पबहुत्वमाह 1, तेभ्य उत्तरस्यां दिशि असंख्येयगुणाः,पुष्पावकीर्णविमानानां Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुय(ग) 645 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्पाबहुय(ग) बाहुल्यादसंख्येययोजनविस्तृतत्वाच्च 2, तेभ्योऽपि दक्षिणस्यां दिशि विशेषाधिकाः, कृष्णपाक्षिकाणां प्राचुर्येण तत्र गमनात् 3, एवमीशानसनत्कुमारमाहेन्द्रकल्पसूत्राण्यपि भावनीयानि।। ब्रह्मलोककल्पे सर्वस्तोकाः पूर्वोत्तरपश्चिमदिग्भाविनो देवाः, यतो बहवः कृष्णपाक्षिकास्तिर्यग्योनयो दक्षिणस्यां दिशि समुत्पद्यन्ते / शुक्लपाक्षिकाः पुनः पूर्वोत्तरपश्चिमासु, शुक्लपाक्षिकाश्च स्तोका इति पूर्वोत्तरपश्चिमदिग्भाविनः सर्वस्तोकाः 1, तेभ्यो दक्षिणस्यां दिशि असंख्येगुणाः, कृष्णपाक्षिकाणां बहूनां तत्रोत्पादात् 2 / एवं लान्तकशुक्रसहस्रारसूत्राण्यपि भावनीयानि। आनतादिषु पुनर्मनुष्या एवोत्पद्यन्ते, तेन प्रतिकल्पं प्रतिवेयक प्रत्यनुत्तरविमानं चतसृषु दिक्षु प्रायो बहुसमा वेदितव्याः। तथा चाऽऽह"तेण परं बहुसमाववन्नगा समणाउसो!" इति। इदानी सिद्धानामल्पबहुत्वमाहदिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा सिद्धा दाहिणउत्तरेणं, पुरच्छिमेणं संखेज्जगुणा, पञ्चच्छिमेणं विसेसाहिया। सर्वस्तोकाः सिद्धाः दक्षिणस्यामुत्तरस्यां च दिशि / कथमिति चेत् ? उच्यते- इह मनुष्या एव सिद्ध्यन्ति, नाऽन्ये, मनुष्या अपि सिद्धयन्तो येष्वाकाशप्रदेशे विह चरमसमये अवगाढास्ते - ष्वेवाकाशप्रदेशेषूर्ध्वमपि गच्छन्ति, तेष्वेव चोपर्यवतिष्ठन्ते, न मनागपि वक्रं गच्छन्ति, सिद्ध्यन्ति च, तत्र दक्षिणस्यां दिशि पञ्चसु भरतेष्वुत्तरस्यां दिशिपञ्चस्वैरावतेषु मनुष्या अल्पाः, क्षेत्र-स्याऽल्पत्वात्। सुषमसुषमादी च सिद्धेरभावादिति। तत्क्षेत्रसिद्धाः सर्वस्तोकाः१, तेभ्यः पूर्वस्यां दिशि संख्येयगुणाः, पूर्व विदेहानां भरतैरावतक्षेत्रेभ्यः संख्येयगुणतया तद्गतमनुष्याणामपि संख्येयगुणत्वात्, तेषां च सर्वकालं सिद्धिभावात् 2, तेभ्यः पश्चिमायां दिशि विशेषाधिकाः, अधोलौकिकग्रामेषु मनुष्यबाहुल्यात् 3 / प्रज्ञा०३ पद। भव्यदेवादीनाम् - एएसिणं भंते ! भवियदव्वदेवाणं णरदेवाणं० जाव भावदेवाण य कयरे कयरेहिंतो० जाव विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा णरदेवा, देवाहिदेवा संखेज्जगुणा, धम्मदेवा संखेज्जगुणा, भवियदव्वदेवा असंखेनगुणा, भावदेवा असंखेज्जगुणा। भरतैरवतेषु प्रत्येकं द्वादशानामेव तेषामुत्पत्तेर्विजयेषु च वासुदेवसम्भवात्; सर्वेष्वेकदाऽनुत्पत्तेरिति / (देवाहिदेवा संखेजगुण ति) भरतादिषु प्रत्येकं तेषां चक्रवर्तिभ्यो द्विगुणतयोत्पत्तेर्विजयेषु च वासुदेवोपेतेष्वप्युत्पत्तेरिति / (धम्मदेवा संखेजगुण त्ति) साधूनामेकदाऽपि कोटिसहस्रपृथक्त्वसद्भावादिति। (भविय-दव्वदेवा असंखेज्जगुण त्ति) देशविरतादीनां देवगतिगामिनाम-संख्यातत्वात् / (भावदेवा असंखे जगुण त्ति) स्वरूपेणैव तेषामति-बहुत्वादिति / अथ भावदेवविशेषाणां भवनपत्यादीनामल्प-बहुत्वप्ररूपणायाहएएसि णं भंते ! भावदेवाणं भवणवासीणं वाणमंतराणं जोइसियाणं वेमाणियाणं सोहम्मगाणं, जाव अच्चुयगाणं गेवेज्जगाणं अणुत्तरोववाइयाण य कयरे कयरे हितो० जाव विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा अणुत्तरोववाइया भावदेवा, उवरिमगेवेजा, भावदेवा संखेज्जगुणा, मज्झिमगेवेज्जा संखेजगुणा, हेट्ठिमगेवेञ्जा संखेजगुणा, अचुयकप्पे देवा संखेज-गुणा, जाव आणतकप्पे भावदेवा। एवं जहा जीवाभिगमे तिविहे देवपुरिसे अप्पाबहुयं० जाव जोइसिया भावदेवा असंखेज्जगुणा। (जहा जीवाभिगमे तिविहे इत्यादि) इह च "तिविहे ति" त्रिविधजीवाधिकार इत्यर्थः / देवपुरुषाणामल्पबहुत्वमुक्तं तथेहापि वाच्यम्। भा० 12 श०६ उ०। (तच 28 अधिकारे वेद-द्वारे वक्ष्यते) (निगोदविषयकं 'णिगोद' शब्दे दर्शयिष्यते) (कायादिपरिचारकाणामल्पबहुत्वं परिचारणा' शब्दे निरूप-यिष्यते) (18) परीतद्वारम् / परीतापरीतनोपरीतानामल्पबहुत्वम्एएसि णं भंते ! जीवाणं परित्ताणं अपरित्ताणं नोपरित्ताणं नोअपरित्ताण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा, वा०४? गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा परित्ता, नोपरित्ता नोअपरित्ता अणंतगुणा, अपरित्ता अणंतगुणा। इह परीता द्विविधाः- भवपरीताः, कायपरीताश्च / तत्र भवपरीता येषां किञ्चिदूनाऽपार्द्ध पुद्गलपरावर्तमानसंसारः / कायपरीताः प्रत्येकशरीरिणः, तत्र उभयेऽपि परीताः सर्वस्तोकाः, शुक्ल-पाक्षिकाणां प्रत्येकशरीरिणां च शेषजीवापेक्षयाऽतिस्तोकत्वात् / ततो नोपरीता नोअपरीता अनन्तगुणाः, उभयप्रतिषेधवृत्ताश्च सिद्धाः,तेचानन्ता इति / तेभ्योऽपरीता अनन्तगुणाः, कृष्णपाक्षिकाणां साधारणवनस्पतीनां वा सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वात्। गतं परीतद्वारम्। (16) पर्याप्तद्वारम् / पर्याप्ताऽपर्याप्तनोपर्याप्ताना मल्पबहुत्वम् - एएसिणं मंते जीवाणं पज्जत्ताणं अपञ्जत्ताणं नोपज्जत्ताणं नोअपज्जत्ताण य कयरे कयरेहिंतो अप्प वा०४? गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा नोपज्जत्तगा नोअपज्जत्तगा, अपेजचगा अणंतगुणा, पज्जत्तगा संखेज्जगुणा। सर्वस्तोका नोपर्याप्तका नोअपर्याप्तकाः, उभयप्रतिषेधवर्तिनो हि सिद्धाः, ते चाऽपर्याप्तकादिभ्यः सर्वस्तोका इति / तेभ्यो-ऽपर्याप्तका अनन्तगुणाः, साधारणवनस्पतिकायिकानां सिद्धे-भ्योऽनन्तगुणानां सर्वकालमपर्याप्तत्वेन लभ्यमानत्वात्। तेभ्यः पर्याप्ताः संख्येयगुणाः, इह सर्वबहवो जीवाः सूक्ष्माः, सूक्ष्माश्च सर्वकालमपर्याप्तेभ्यः पर्याप्ताः संख्येयगुणाः, इति संख्येयगुणा उक्ताः / गतं पर्याप्तद्वारम् / प्रज्ञा० ३पद। (20) पुद्गलद्वारम्। पुद्गलानां क्षेत्रानुपातादिभिरल्पबहुत्वमाह खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा पोग्गला तेलुक्के, उड्डलोयतिरियलोए अणंतगुणा, अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया, तिरियलोए असंखेज्जगुणा, उड्डलोए असंखिजगुणा, अहोलोए विसेसाहिया। इदमल्पबहुत्वं पुद्गलानां द्रव्यार्थत्वमङ्गीकृत्य घ्याख्येयम्, तथासम्प्रदायात्। तत्र क्षेत्रानुपातेन क्षेत्रानुसारेण चिन्त्यमानाः पुद्गलाः त्रैलोक्ये त्रैलोक्यसंस्पर्शिनः सर्वस्तोकाः, सर्वस्तोकानि त्रैलो क्यव्यापीनीति पुद्गलद्रव्याणीति भावः / स्मान्महास्कस्धा एव त्रैलोक्यव्यापिनस्ते चाऽल्पा इति / तैभ्य ऊर्ध्वलोकतिर्यग्लो के Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुय(ग) 646 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्पाबहुय(ग) अनन्तगुणाः, यतस्तिर्यग्लोकस्य यत्सर्वोपरितनमेकप्रादेशिकं प्रतरं यचो_लोकस्य सर्वाधस्तनमेकप्रादेशिकं प्रतरमेते द्वे अपि प्रतरे ऊर्ध्वलोकतिर्यग्लोक उच्यते। ते चाऽनन्ताःसंख्येयप्रदेशिकाः, अनन्ता असंख्येयप्रदेशिकाः, अनन्ता अनन्तप्रदेशिकाः स्कन्धाः स्पृशन्तीति द्रव्यार्थतया अनन्तगुणाः / तेभ्योऽधोलोकतिर्यग्लोके प्रागुक्तप्रकारेण प्रतरद्वयरूपे विशेषाधिकाः, क्षेत्रस्य आयाम-विष्कम्भाभ्यां मनाम् विशेषाधिकत्वात्। तेभ्यस्तिर्यग्लोके असंख्येयगुणाः, क्षेत्रस्याऽसंख्येयगुणत्वात् / तेभ्य ऊर्ध्वलोके असंख्येयगुणाः, यतस्तिर्यग्लोकक्षेत्रादूर्ध्वलोकक्षेत्रमसंख्येय-गुणमिति / तेभ्योऽधोलोके विशेषाधिकाः, ऊर्ध्वलोकादधोलोकस्य विशेषाधिकत्वात् / देशोनसप्तरज्जुप्रमाणो ह्यूलोकः, समधिकसप्तरज्जुप्रमाणस्त्वधोलोकः / संप्रति दिगनुपातेनाऽल्पबहुत्वमाहदिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा पोग्गला उडदिसाए, अहोदिसाए विसेसाहिया, उत्तरपुरच्छिमेणं दाहिण-पञ्चच्छिमेण य दोवि तुल्ला असंखेज्जगुणा, दाहिण-पुरच्छिमेणं उत्तरपचच्छिमेण य दोवि तुल्ला विसेसाहिया, पुरच्छिमेणं असंखेजगुणा, पञ्चच्छिमेणं विसेसाहिया, दाहिणेणं निसेसाहिया, उत्तरेणं विसेसाहिया। दिगनुपातेन दिगनुसारेण चिन्त्यमानाः पुद्गलाः सर्वस्तोका ऊर्ध्वदिशि, इह रत्नप्रभासमभूमितलमेरुमध्ये अष्टप्रादेशिको रुचकस्तस्माद्विनिर्गताश्चतुःप्रदेशाः, ऊर्ध्वा दिक् यावल्लोकान्तः / ततस्तत्र सर्वस्तोकाः पुद्गलाः, तेभ्योऽधोदिशि विशेषाधिकाः, अधोदिगपि रुचकादेव प्रभवति / चतुःप्रदेशा यावल्लोकान्तस्ततस्तस्याविशेषाधिकत्वात् / तत्र पुद्गला विशेषाधिकाः, तेभ्य उत्तरपूर्वस्यां दक्षिणपश्चिमायां च प्रत्येकमसंख्येय-गुणाः, स्वस्थाने तु परस्परंतुल्याः सन्तस्ते द्वे अपि दिशौ रुचकाद्विनिर्गते मुक्तावलिसं स्थिते तिर्यग्लोकान्तमधोलोकान्तमूर्ध्वलोकान्तपर्यवसिते, तेन क्षेत्रस्याऽसंख्येयगुणात्यात्तत्र पुद्गला असंख्येयगुणाः, क्षेत्रं तु स्वस्थाने सममिति पुद्गला अपि स्वस्थाने तुल्याः, तेभ्योऽपि दक्षिणपूर्वस्यामुत्तरपश्चिमायां च प्रत्येक विशेषाधिकाः, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः। कथं विशेषाधिका इति चेत् ? उच्यते- इह सौमनसगन्धमादनेषु सप्त सप्त कूटानि, विद्युत्प्रभमाल्यवतो व नव, तेषु च कूटेषु धूमिकावश्यायादिसूक्ष्मपुद्गलाः प्रभूताः संभवन्ति, ततो विशेषाधिकाः। स्वस्थाने तु क्षेत्रस्य पर्वतादेश्च समानत्वात्तुल्याः। तेभ्यः पूर्वस्यां दिशि असंख्येयगुणाः, क्षेत्रस्यासंख्येयगुण-त्वात् / तेभ्यः पश्चिमायां विशेषाधिकाः, अधोलौकिकग्रामेषु शुषिरभावतो बहूनां पुद्गलानामवस्थानभावात् / तेभ्यो दक्षिणस्यां विशेषाधिकाः, बहुभवनशुषिरभावात् / तेभ्य उत्तरस्यां विशेषाधिकाः, यत उत्तरस्यामायामविष्कम्भाभ्यां संख्येययो-जनकोटीकोटिप्रमाणं मानसं सरः, तत्र ये जलचराः, पनकशै-वालादयश्व सत्त्वास्ते अतिबहव इति तेषां ये तैजसकार्मणपुद्गलास्ते अधिकाः प्राप्यन्ते, इति पूर्वोक्तेभ्यो विशेषाधिकाः। तदेवं पुद्गलविषयमल्पबहुत्वमुक्तम्। इदानीं सामान्यतो द्रव्यविषयं क्षेत्रानुपातेनाऽऽहखेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवाइं दवाइं तेलुक्के, उड्डलोयतिरियलोए अणंतगुणाई. अहोलोयतिरियलोए विसेसाहियाई, उनुलोए असंखेजगुणाई, अहोलोए अणंतगुणाई, तिरियलोए संखिजगुणाई। क्षेत्रानुपातेन चिन्त्यमानानि द्रव्याणि सर्वस्तोकानि त्रैलोक्यसंस्पशीनि, यतो धर्मास्तिकायाऽधर्मास्तिकायाऽऽका-शास्तिकायद्रव्याणि पुद्गलास्तिकायस्य महास्कन्धा जीवा-स्तिकायस्य मारणान्तिकसमुद्घातेनातीवसमवहता जीवा-स्त्रैलोक्यव्यापिनः, ते चाऽल्पे इति सर्वस्तोकानि। तेभ्यऊर्ध्व-लोकतिर्यग्लोके प्रागुक्तस्वरूपप्रतरद्वयात्मके अनन्तगुणानि, अनन्तैः पुद्गलद्रव्यैरनन्तैर्जीवद्रव्यैः तस्य संस्पर्शनात्। तेभ्योऽधोलोकतिर्यग्लो के विशेषाधिकानि, ऊर्ध्वलोकतिर्यग्लोकादधोलोकतिर्यग्लोकस्यमनाग विशेषाधिकत्वात्। तेभ्य ऊर्ध्यलोके असंख्येयगुणानि, क्षेत्रस्याऽसंख्येयगुणत्वात् / तेभ्योऽधोलोके अनन्तगुणानि / कथमिति चेत् ? उच्यते-इहाऽधोलौकिकग्रामेषु कालोऽस्ति, तस्य च कालस्य तत्तत्परमाणुसंख्येयाऽसंख्येयाऽनन्तप्रादेशिकद्रव्यक्षेत्रकालभावपर्यायसंबन्धवशात्प्रतिपरमाण्वादिद्रव्यमनन्तता, ततो भवन्त्यधोलोके-ऽनन्तगुणानि, तेभ्यस्तिर्यग्लोकेऽसंख्येयगुणानि, अधोलौकिक-ग्रामप्रमाणानां खण्डानां मनुष्यलोके कालद्रव्याधारभूते संख्ये-यानामदाप्यमानत्वात्। साम्प्रतं दिगनुपातेन सामान्यतो द्रव्याणामल्पबहुत्वमाहदिसाणुवाएणं सव्वत्थोवाइं दव्वाइं अहोदिसाए, उड्ढदिसाए अणंतगुणाई, उत्तरपुरच्छिमेणं दाहिणपचच्छिमेणं दोवितुल्लाई असंखेज्जगुणाई, दाहिणपुरच्छिमेणं उत्तरपचच्छिमेण य दोवि तुल्लाइं विसेसाहियाई, पुरच्छिमेणं असंखेजगुणाई, पञ्चच्छिमेणं विसेसाहियाइं, दाहिणेणं विसेसाहियाई, उत्तरेणं विसेसाहियाई। दिगनुपातेन दिगनुसारेण चिन्त्यमानानि सामान्यतो द्रव्याणि सर्वस्तोकानि अधो दिशि प्राग्व्यावर्णितस्वरूपायाम् / तेभ्य ऊर्ध्वदिश्यनन्तगुणानि। किं कारणमिति चेत् ? उच्यते- इह ऊर्ध्वलोके मेरोः पञ्चयोजनशतकं स्फटिकमयं काण्डं, तत्रचन्द्रादित्यप्रभाऽनुप्रवेशाद् द्रव्याणां क्षणादिकालप्रतिभागोऽस्ति, कालस्य च प्रागुक्तनीत्या प्रतिपरमाण्वादिद्रव्यमानन्त्यात् / तेभ्योऽनन्तगुणानि, तेभ्य उत्तरपूर्वस्यामीशान्यां, दक्षिणपश्चिमायां, नैर्ऋतकोणे इत्यर्थः / असंख्येयानि, क्षेत्रस्यासंख्येयगुणत्वात्। स्वस्थाने तुद्वयान्यपि परस्पर तुल्यानि, समानक्षेत्रत्वात्। तेभ्यो दक्षिणपूर्वस्यामाग्नेय्याम, उत्तरपश्चिमायां, वायव्यकोणे इति भावः। विशेषाधिकानि, विद्युत्प्रभमाल्यवन्तकूटाश्रितानां धूमिकावश्यायादिश्लक्ष्णपुद्गलद्रव्याणां बहूनां सम्भवात्। तेभ्यः पूर्वस्यां दिशि असंख्येयगुणानि, क्षेत्रस्यासंख्येयगुणत्वात् / तेभ्यः पश्चिमायां विशेषाधिकानि, अधोलौकिकग्रामेषु शुषिरभावतो बहूनां पुद्गलद्रव्याणामवस्थानात् / ततो दक्षिणस्यां दिशि विशेषाधिकानि, बहुभवनशुषिरभावात्। तत उत्तरस्यां विशेषाधिकानि, तत्र मानससरसि जीवद्रव्याणां तदाश्रितानां तैजसकार्मणपुद्गलस्कन्ध-द्रव्याणां च भूयसां भावात्। सम्प्रति परमाणुपुद्गलानां संख्येयप्रदेशानामसंख्येयप्रदेशानामनन्तप्रदेशानां परस्परमल्पबहुत्वमाहएएसिणं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं संखेञ्जपदेसियाणं असंखेञ्जपदेसियाणं अणंतपदेसियाण य खंधाणं दव्वट्ठयाए Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुय(ग) 647- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्याबहुय(ग) पएसट्ठयाए दव्वट्ठपदेसट्ठयाए कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४ ? गोयमा ! सव्वत्थोवा अणंतपदेसिया खंधा दव्वट्ठयाए, परमाणुपोग्गला दवट्ठयाए अणंतगुणा, संखेजपदेसिया खंधा दव्वट्ठयाए संखेनगुणा, असंखेज्जपदेसिया खंधा दव्वट्ठयाए असंखेज्जगुणा, पदेसट्ठयाए सव्वत्थोवा अणंतपदेसिया खंधा, पदेसट्ठयाए परमाणुपोग्गला अणंतगुणा, संखेज्जपदेसिया खंधा पदेसट्टयाए संखेजगुणा, असंखेज्जपएसिया खंधा पदेसट्ठयाए असंखेज्जगुणा, दव्वट्ठपदेसट्ठयाए सव्वत्थोवा अणंतपदेसिया खंधा, दवट्ठयाए ते चेव, पदेसट्टयाए अणंतगुणा, परमाणुपोग्गला दवट्ठपदेसट्ठयाए अणंतगुणा, संखिज्जपदेसिया खंधा दव्वट्ठयाए संखिजगुणा, ते चेव यपदेसट्ठयाए संखिज्जगुणा, असंखिज्जपएसिया खंधा दव्वट्ठयाए असंखिज्जगुणा, ते चेव पदेसट्ठयाए असंखेज्जगुणा। व्याख्यानं पाठसिद्धम् / नवरमत्राऽल्पबहुत्वभावनायां सर्वत्र | तथास्वाभाव्यं कारण वाच्यम् / संप्रत्येतेषामेव क्षेत्रप्राधान्येनाल्पबहुत्वमाहएएसिणं भंते ! एगपएसोगाढाणं संखेजपएसोगाढणं असंखिज्जपएसोगाढाण य पोग्गलाणं दवट्ठयाए पदेसट्टयाए दव्वट्ठपदेसट्टयाए कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा० 4 ? गोयमा ! सव्वत्थोवा एगपदेसोवगाढा पुग्गला दव्वट्ठयाए, संखेज्जपएसोवगाढा पुग्गला दव्वट्ठयाए संखिज्जगुणा, असंखिजपदेसोवगाढा पोग्गला दव्वट्ठयाए असंखिज्जगुणा; पदेसट्टयाए सव्वत्थोवा एगपदेसोवगाढा पोग्गला, पदेसट्टयाए संखिज्जपदेसोगाढा पोग्गला, पदेसट्ठसयाए संखेज्जगुणा, असंखेज्जपदेसोगाढा पोग्गला पदेसट्टयाए असंखेजगुणा, दव्वट्ठपदेसट्टयाए सव्वत्थोवा एगपदेसोगाढापोग्गला, दव्वट्ठयपदेसट्टयाए संखेज्जपदेसोगाढा पोग्गलादवट्ठयाए संखेजगुणा, ते चेव पएसट्टयाए संखेज्जगुणा, असंखिज्ज-पएसोगाढा पोग्गलादवट्ठयाए असंखेजगुणा, तेचेव पएसट्ठयाए असंखिजगुणा। एएसि णं भंते ! एगसमयद्वितीयाणं संखिज्जसमयद्वितीयाणं असंखिजसमयद्वितीयाण य पोग्गलाणं दव्वट्टयाए पदेसट्ठयाए दव्वट्ठपदेसट्ठयाए कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४? गोयमा ! सव्वत्थोवा एगसमयट्टिईया पोग्गला दट्वट्ठयाए, संखे असमयद्वितीया पोग्गला दव्वट्ठयाए संखेज्जगुणा, असंखिज्जसमयट्ठिईया पोग्गला दव्वट्ठयाए असंखिज्जगुणा, पदेसट्ठयाए सव्वत्थोवा एगसमयष्टिईया पोग्गला, पदेसट्टयाए संखेजसमयविईया पोग्गला पएसट्टयाए संखिजगुणा, असंखिज्जसमयट्टिईया पोग्गला पदेसट्ठयाए असंखेजगुणा, दव्वट्ठपदेसट्टयाए सव्वत्थोवा एगसमयट्टिईया पुग्गला दव्वट्ठपएसट्ठयाए , संखेज्जसमयट्टिईया पोग्गला दव्वट्ठयाए संखिजगुणा, ते चेव पदेसट्टयाए संखिज्जगुणा, असंखिजसमयद्विईया पोग्गला दध्वट्ठयाए असंखिजगुणा, ते चेव पदेसट्ठयाए असंखेनगुणा / एएसि णं भंते ! एगुणकालगाणं संखिज्जगुणकालगाणं असंखेजगुणकालगाणं अणंत-गुणकालगाण य पोग्गलाणं दवट्ठयाए पदेसट्टयाए दवट्ठपदेसट्टयाए कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४? गोयमा ! जहा परमाणुपोग्गला तहा भाणियव्वा / एवं संखेज्जगुणकालयाण वि / एवं सेसाण वि वण्णरसगंधा भाणियव्वा, फासाणं कक्खडमउयगरुयलहुयाणं जहा एगपदेसोगाढाणं भणियं तहाभाणियव्वं, अवसेसा फासा जहा वण्णा भणिया तहा भाणियव्वा। इह क्षेत्राधिकारतः क्षेत्रस्य प्राधान्यात्परमाणुकाद्यनन्ताणुकाः स्कन्धा अपि विवक्षितैकप्रदेशावगाढा आधाराधेययोरभेदोपचारादेकद्रव्यत्वेन व्यवह्रियन्ते / ते इत्थंभूता एकप्रदेशावगाढाः पुद्गलाः पुद्गलद्रव्याणि सर्वस्तोकानि, लोकाकाशप्रदेश-प्रमाणानीत्यर्थः / नहि स कश्चिदेवंभूत आकाशप्रदेशोऽस्ति, य एक प्रदेशावगाहनपरिणामपरिणतानां परमाण्वादीनामवकाश-प्रदानपरिणामेन परिणतो नवर्तते इति। तेभ्यः संख्येय-प्रदेशावगाढाः पुद्गला द्रव्यार्थतया संख्येयगुणाः / कथमिति चेत् ? उच्यते-इहाऽपि क्षेत्रस्य प्राधान्याद् द्व्यणुकाद्यनन्ताणुकस्कन्धा द्विप्रदेशावगाढा एकद्रव्यत्वेन विवक्ष्यन्ते, तानि च तथाभूतानि पुद्गलद्रव्याणि पूर्वोक्तेभ्यः संख्येयगुणानि / तथाहि-सर्वलोकप्रदेशास्तत्त्वतोऽसंख्येया अपि असत्कल्पनया दश परिकल्प्यन्ते, ते च प्रत्येकचिन्तायांदशैवेति दश एकप्रदेशावगाढानि पुद्गलद्रव्याणिलब्धानि, तेष्वेव दशसु प्रदेशे-ष्यन्यग्रहणान्यमोक्षणद्वारेण बहवो द्विकसंयोगा लभ्यन्ते, इति भवन्त्येक प्रदेशावगाढेभ्यो द्विप्रदेशाव-गाढानि पुद्गलद्रव्याणि संख्येयगुणानि / एवं तेभ्योऽपि त्रिप्रदेशावगाढानि। एवमुत्तरोत्तरं यावदुत्कृष्टसंख्येयप्रदेशावगाढानि / ततः स्थितमेतत्एकप्रदेशावगाढेभ्यः संख्येयप्रदेशावगाढपुद्गला द्रव्यार्थतया संख्येयगुणा इति। एवं तेभ्योऽसंख्येयप्रदेशावगाढाः पुद्रला द्रव्यार्थतयाऽसंख्येयगुणाः, असंख्यातस्य असंख्यातभेदभिन्नत्वात् / प्रदेशार्थतासूत्रं द्रव्यार्थप यार्थतासूत्रं च सुगमत्वात् स्वयं भावनीयम् / कालभावसूत्राण्यपि सुगमत्वात् स्वयं भावयितव्यानि, नवरं " जहा परमाणुपोग्गला तहा भाणियव्वा' इति / यथा प्राक् सामान्यतः पुद्रला उक्तास्तथा एकगुणकालकादयोऽपि वक्तव्याः। ते चैवम् - "सव्वत्थोवा अणंतपएसिया खंधा एगगुणकालगा परमाणुपोग्गलादब्वट्टयाए एगगुणकालगा अणंतगुणा, संखेजपएसिया खंधा एगगुणकालगा संखेजगुणा, असंखेजपएसिया खंधा एगगुणकालगा असंखेज्जगुणा, पएसट्टयाए सव्वत्थोवा अणंतपएसिया खंधा एगपरमाणुपोग्गला एगगुणकालगा अणंतगुणा'' इत्यादि / एवं संख्येयगुणकालकानामनन्तगुण-कालकानामपि वाच्यम् / एवं शेषवर्णगन्धरसा अपि वक्तव्याः / कर्कशमृदुगुरुलघवः स्पर्शा यथा एकप्रदेशाद्यवगाढा भणितास्तथा वक्तव्याः / ते चैवम् - Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुय(ग) 648 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्पाबहुय(ग) "सव्वत्थोवा एगपएसोगाढा एगगुणकक्खडफासा दवट्ठयाए / संखेजपएसोगाढा एगगुणकक्खडफासा दव्वट्ठयाए संखेनगुणा'" इति। एवं संख्येयगुणकर्कशस्पर्शा असंख्येयगुणकर्कशस्पर्शा वाच्याः / एवं मृदुगुरुलघव अवशेषाश्चत्वारः शीतादयः स्पर्शाः, यथा वर्णादय उक्तास्तथा वक्तव्याः / तत्र पाठोऽप्युक्तानुसारेण सुगमत्वात् स्वयं भावनीयः। प्रज्ञा०३ पद। एएसिणं मंते ! परमाणुपोग्गलाणं दुपदेसियाण य खंधाण य दव्वट्ठयाए कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! दुपदेसि-एहिंतो खंधेहिंतो परमाणुपोग्गलादव्वट्ठयाए बहुया। एएसिणं मंते! दुपदेसियाणं तिपदेसियाण यखंधाणंदव्वट्ठयाए कयरे कयरेहिंतो बहुया०? गोयमा ! तिप-देसिएहिंतो खंधेहिंतो दुपदेसिया खंधा दव्वट्ठयाए बहुया / एवं एएणं गमएणं जाव दसपदेसिएहितो णवपदेसिया खंधा दव्वट्ठयाए बहुगा। एएसिणं भंते ! दसपएसा पुच्छा? गोयमा! दसपदेसिएहिंतो खंधेहिंतो संखेज्जपएसिया खंधा दव्वट्ठयाए बहुया / एएसि णं भंते ! संखेज्जा पुच्छा ? गोयमा! संखेज्जपएसिएहिंतोखंधेहिंतो असंखेजपदेसिया खंधा दव्वट्ठयाए बहुया। एएसिणं भंते ! असंखेजपदेसिया पुच्छा? गोयमा! असंखेज्जपदेसिएहिंतो खंधेहिंतो अणंतपदेसिया खंधा दव्वट्ठयाए बहुया। एएसि णं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं दुपदेसियाण य खंधाणं पदेसट्टयाए कयरे कयरे हिंतो बहुया ? गोयमा ! परमाणुपोग्गले हिंतो दुपदेसिया खंधा पदेसट्ठयाए बहुया / एवं एएणं गमएणंजावणवपएसिएहिंतो खंधेहिंतो दसपएसिया खंधा पदेसट्टयाए बहुया। एवं सव्वत्थ पुच्छियव्वं / दसपएसिएहितो खंधे हिंतो संखे अपएसिया खंधा पदेसट्ठया ए बहुया, संखेज्जपएसिएहिंतो खंधेहिंतो असंखेजपएसिया खंधा, पदेसट्टयाए बहुया। एएसिणं भंते! असंखेजपएसियाणं पुच्छा? गोयमा! अणंत-पएसिएहिंतोखंघेहिंतो असंखेजपएसिया खंधा पएसट्टयाए बहुया। एएसिणं भंते ! एगपएसोगाढाणं दुपदेसोगाढाण यपोग्गलाण य दव्वट्ठयाए कयरे कयरेहिंतो विसेसाहिया वा? गोयमा ! दुपदेसोगाढे-हिंतो पोग्गले हिंतो एगपदेसोगाढा पोग्गला दव्वट्ठयाए विसेसाहिया / एवं एएणं गमएणं तिपदेसोगाढेहिं तो पोग्गलेहिंतो दुपदेसोगाढा पोग्गला दव्वट्ठयाए विसेसाहिया जाव दसपएसोगाढेहिंतो पोग्गलेहिंतो णव पदेसोगाढा पोग्गला दव्वट्ठयाए विसेसाहिया। एएसि णं भंते ! दसपएसा पुच्छा? गोयमा ! दसपदेसोगाढेहिं तो पोग्गले हिंतो संखेज्जपएसोगाढा पोग्गला दव्वट्ठयाए बहुया, संखेज्जपएसोगाढेहिंतो पोग्गलेहितो असंखेज्जपएसोगाढा पोग्गला दव्वट्ठयाए बहुया / एवं पुच्छा सव्वत्थ भाणियव्वा। एएसि णं भंते ! एगपएसोगाढाणं दुपदेसोगाढाणं पोग्गलाण पदेसट्टयाए कयरे कयरेहितो० जाव विसेसाहिया वा ? गोयमा! एगपदेसोगाढेहिंतो पोम्पलेहिंतो दुपदेसोगाढा पोग्गला पदेसट्टयाए वि-सेसाहिया / एवं जाव णवपदेसोगाढेहिं तो पोग्गलेहिंतो दसपएसोगाढा पोग्गला पदेसट्ठयाए विसेसाहिया। दसपएसोगाढेहिंतो पोग्गलेहिंतो संखेजपएसोगाढा पोग्गला पदेसट्ठयाए बहुया। संखेज्जपएसोगाढे हिंतो पोग्गले हितो असंखेज्जपदेसोगाढा पोग्गला पएसट्टयाए बहुया। एएसिणं भंते ! एगसमयट्टिईयाणं दुसमयट्टिईयाण य पोग्गलाणं दव्वट्ठयाए जहा ओगाहणा वत्तव्वया, एवं ठितीए वि।एएसिणं भंते! एगगुणकालयाणं दुगुणकालयाण य पोग्गलाणं दव्वट्ठयाए। एएसि णं जहा परमाणुपोग्गलादीणं तहेव वत्तव्वया णिरवसेसा, एवं सव्वेसिं वण्णगंधरसाणं। एएसि णं भंते ! एगगुणक-क्खडाणं दुगुणकक्खडाण य पोग्गलाणं दव्वट्ठयाए कयरे कयरेहिंतो० जाव विसेसाहिया वा? गोयमा ! एगगुणकक्खडेहिंतो पोग्गलेहिंतो दुगुणकक्खडा पोग्गला दवट्ठयाए विसेसाहिया, एवं जाव णवगुणकक्खडेहिंतो पोग्गलेहिंतो दसगुणकक्खडा पोग्गला दध्वट्ठयाए विसेसाहिया, दसगुणकक्खडेहिंतो पोग्गलेहिंतो संखेज्जगुणकक्खडा पोग्गला दव्वट्ठयाए बहुया। संखेज्जगुणकक्खडेहिंतो पोग्गले हितो असंखेज्जगुणक क्खडा पोग्गला दव्वट्ठयाए बहुया। असंखेज्जगुणकक्खडे हिंतो पोग्गलेहिंतो अणंतगुणकक्खडापोग्गला दव्वट्ठयाए बहुया। एवं पदेसठ्ठयाए सव्वत्थ पुच्छा भाणियव्वा, जहा कक्खडा / एवं मउयगुरुयलहुया वि सीयउसिणणिद्धलुक्खा जहा वण्णा। एएसि णं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं संखेज्जपएसियाणं असंखेजपएसियाणं अणंतपएसियाणं खंधाणं दवट्ठयाए पदेसट्टयाए दव्वट्ठपदेसट्टयाए कयरे कयरेहिंतो० जाव विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा अणंतपदेसिया खंधा दव्वट्ठयाए, परमाणुपोग्गला दवट्ठयाए अणंतगुणा, संखेज्जपएसिया खंधा दव्वट्ठयाए संखेजगुणा, असंखेज्जपएसिया खंधा दव्वट्ठयाए असंखेजगुणा, पदेसट्टयाए सव्वत्थोवा अणंतपदेसिया खंधा, पदेसट्टयाए परमाणुपोग्गला, अपदेसट्टयाए अणंतगुणा, संखेजपदेसिया खंधा पदेसट्ठयाए संखेनगुणा, असंखेज्जपएसिया खंधा पदेसट्टयाए असंखेज्जगुणा, दव्वट्ठपएसट्टयाए सव्वत्थोवा अणंतपदेसिया,दव्वट्ठयाएते चेव, पदेसट्टयाए अणंतगुणा, परमाणुपोग्गला दव्वट्ठयाए अपएसट्ठयाए अणंतगुणा, संखेज्जपएसिया खंधा दवट्ठयाए संखेजगुणा, ते चेव पदेसट्टयाए संखेज्जगुणा, असंखेज्जपएसिया। खंधा दव्वट्ठयाए असंखेज्जगुणा, ते चेव पदेसट्ठयाए असंखेज्जगुणा / Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्याबहुय(ग) 649 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्याबहुय(ग) एएसि णं मंते ! एगपदेसोगाढाणं संखेजपदेसोगाढाणं असंखेज्जपदेसोगाढाणं पोग्गलाणं दव्वट्ठयाए पएसट्टयाए दव्वट्ठपएसट्ठयाए कयरे कयरेहिंतो० जाव विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा एगपएसोगाढा पोग्गला दवट्ठयाए, संखेजपएसोगाढा पोग्गला दवट्ठयाए संखेजगुणा, असंखेञ्जपएसोगाढा पोग्गला दव्वट्ठयाए असंखेजगुणा, पएसट्टयाए सव्वत्थोवा एगपएसोगाढा पोग्गला, पएसट्टयाए संखेजपएसोगाढा पोग्गला, पदेसट्टयाए असंखेजगुणा, असंखेजपएसोगाढा पोग्गला पदेसट्टयाए असंखेजगुणा, दव्वट्ठपएसट्ठयाए सव्वत्थोवा एगपएसोगाढा पोग्गला, दव्वट्ठपएसट्टयाए संखेजपएसोगाढा पोग्गला, दवट्ठयाए संखेज्जगुणा, तेचेव पदेसट्ठयाए संखेज्जगुणा।असंखेज्जपएसोगाढा पोग्गला दव्वट्ठयाए असंखेजगुणा, ते चेव पदेसट्टयाए / असंखेज्जगुणा। एएसि णं मंते ! एगसमयद्वितीयाणं संखेजसमयद्वितीयाणं असंखेजसमयद्वितीयाण य पोग्गलाणं जहा ओगाहणाए तहा ठितीए विभाणियव्वं अप्पाबहुगं। एएसिणं भंते! एगगुणकालगाणं संखेनगुणकालगाणं असंखेनगुणकालगाणं अणंतगुणकालगाण य पोग्गलाणं दव्वट्ठयाए पदेसट्टयाए दव्वट्ठपएसट्टयाए एएसिं जहा परमाणुपोग्गलाणं अप्पाबहुगंतहा एएसिं पिअप्पाबहुगं / एवं सेसाण विवण्णगंधरसाणं / एएसिणं भंते ! एगगुणकक्खडाणं संखेज्जगुणकक्खडाणं असंखेज्जगुणकक्खडाणं अणंतगुणकक्खडाण य पोग्गलाय य दव्वट्ठयाए पदेसट्टयाए दव्वट्ठपदेसट्टयाए कयरे कयरेहिंतो० जाव विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा एगगुणकक्खडा पोग्गला दव्वट्ठयाए, संखेजगुणकक्खडा पोम्गलादव्वट्ठयाए संखेनगुणा, असंखेजगुणकक्खडा पोग्गला दव्वट्ठयाए असंखेजगुणा, अणंतगुणकक्खडा पोग्गला दव्वट्ठयाए अणंतगुणा, पदेसट्टयाए एवं चेव / णवरं संखेज्जगुणकक्खडा पोग्गला पदेसट्टयाए असंखेज्जगुणा / सेसं तं चेव। दव्वट्ठपदेसट्टयाए सव्वत्थोवा एगगुणकक्खडा पोग्गला, दव्वद्वपदेसट्टयाए संखेजगुणकक्खडा पोग्गला दव्वट्ठयाए संखेज्जगुणा, ते चेव पदेसट्ठयाए संखेज्जगुणा, असंखेजगुणकक्खडा दवट्ठयाए असंखेज्जगुणा, ते चेव पदेसट्टयाए असंखेजगुणा, अणंतगुणकक्खडा दव्वट्ठयाए अणंतगुणा, ते चेव पदेसट्टयाए असंखेजगुणा / एवं मउयगुरुयलहुया वि अप्पाबहुगं। सीयउसिणणिद्धलुक्खाणं जहा वण्णाणं तहेव। टीका सुगमा प्रज्ञापनापाठेन गतार्था चेति नेहोपन्यस्यते भ० 25 श० 4 उ०। (प्रयोगादिपरिणतानामल्पबहुत्वं 'परिणाम' शब्दे वक्ष्यते) (आहारायाऽस्पृश्यमानानामनास्वाद्यमानानां च पुद्गलानां पर- | स्परमल्पबहुत्वम् - 'आहार' शब्दे द्वितीयभागे 501 पृष्ठे प्रतिपादयिष्यते) (प्रत्याख्यानविषयमल्पबहुत्वं पचक्खाण' शब्दे वक्ष्यते) (प्रवेशनकमाश्रित्य पवेसणग' शब्दे निरूपयिष्यते) (21) बन्धद्वारम्। आयुःकर्मबन्धकादीनामल्पबहुत्वम् - एएसिणं भंते ! जीवाणं आउस्स कम्मस्स बंधगाणं अबंधगाणं अपज्जत्ताणं पज्जत्ताणं सुत्ताणं जागराणं समोहयाणं असमोहयाणं सातावेदगाणं असातावेदगाणं इंदियउवउत्ताणं णोइंदियउवउत्ताणं सागारोवउत्ताणं अणागारोवउत्ताण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा आउस्स कम्मस्स बंधगा, अपजत्तया संखिअगुणा, सुत्ता संखिजगुणा, समोहया संखिज्जगुणा, सातावेदगा संखिजगुणा, इंदियउवउत्ता संखिज्जगुणा, अणागारोवउत्ता संखिज्जगुणा, सागासेवउत्ता संखिजगुणा, नोइंदियउवउत्ता विसेसाहिया, असातावेदगा विसेसाहिया, असमोहिया विसेसाहिया, जागरा विसेसाहिया, पज्जत्तगा विसेसाहिया, आउस्स कम्मस्स अबंधगा विसेसाहिया। इहायुःकर्मबन्धकाबन्धकानां पर्याप्तापर्याप्तानां सुप्तजाग्रतां समवहतासमवहतानां सातावेदकासातावेदकानाम्, इन्द्रियोपयुक्तनोइन्द्रियोपयुक्तानां साकारोपयुक्ताऽनाकारोपयुक्तानां समुदायेनाऽल्पबहुत्वं वक्तव्यम्। तत्र प्रत्येकं तावद् ब्रूमः- येन समुदाये सुखेन तदवगम्यते। तत्र सर्वस्तोका आयुषो बन्धकाः, अबन्धकाः संख्येयगुणाः, यतोऽनुभूयमानभवायुरपि त्रिभागावशेष-पारभविकमायुर्जीवा बध्नन्ति त्रिभागत्रिभागाद्यवशेषे वा, ततो द्वौ त्रिभागावबन्धकाल एकं विभागो बन्धकाल इति बन्धके-भ्योऽबन्धकाः संख्येयगुणाः। तथा सर्वस्तोका अपर्याप्तकाः, पर्याप्तकाः संख्येयगुणाः / एतच सूक्ष्मजीवानधिकृत्य वेदितव्यम् / सूक्ष्मेषु हि बाह्यो व्याघातो न भवति, ततस्तदभावादहूनां निष्पत्तिः, स्तोकानामेव चानिष्पत्तिः। तथा सर्वस्तोकाः सुप्ताः, जागराः संख्येयगुणाः, एतदपि सूक्ष्माने के न्द्रियानधिकृत्य वेदितव्यम्, यस्मादपर्याप्ताः सुप्ता एव लभ्यन्ते, जागरा अपि। उक्तं मूलटीकायाम् - 'जम्हा अपज्जत्ता सुत्ता लभंति के इ अपज्जत्तगा जे सिं संखिज्जा समया अतीता ते यथोवा, इयरे विथोवगा चेव, सेसा जागरा पञ्जत्तगा संखिज्ज-गुणा'' इति / जागराः पर्याप्तास्तेन संख्ये यगुणा इति / तथा समवहताः सर्वस्तोकाः, यत इह समवहता मारणान्तिक - समुद्घातेन परिगृह्यन्ते, मारणान्तिकश्व समुद्घातो मरणकाले, न शेषकालं, तत्राऽपि न सर्वेषामिति सर्वस्तोकाः / तेभ्योऽसमवहताः संख्येयगुणाः, जीवनकालस्यातिबहुत्वात् / तथा सर्वस्तोकाः सातवेदकाः, यत इह बहवः साधारणशरीरा अल्पे प्रत्येकशरीरिणः, साधारणशरीराश्च बहवोऽसातवेदकाः, स्वल्पाः सात-वेदिनः, प्रत्येकशरीरिणस्तुभूयांसः सातवेदकाः, स्तोका असात-वेदिकनः, ततः स्तोकाः सातवेदकाः, तेभ्योऽसातवेदकाः संख्येयगुणाः, Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुय(ग) 650 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्पाबहुय(ग) तथा सर्वस्तोका इन्द्रियोपयुक्ताः / इन्द्रियोपयोगो हि प्रत्युत्पन्नकालविषयः; यतः तदुपयोगकालस्य स्तोकत्वात् पृच्छासमये स्तोका अवाप्यन्ते। यदा तुतमेवार्थमिन्द्रियेण दृष्ट्वा विचारयति, अथ संज्ञयाऽपि तदा नोइन्द्रियोपयुक्तः स व्यपदिश्यते / ततो नोइन्द्रियोपयोगस्याऽतीताऽनागतकालविषयतया बहुकाल-त्वात्संख्येयगुणा नोइन्द्रियोपयुक्ताः, तथा सर्वस्तोका अना-कारोपयुक्ताः, अनाकारोपयोगकालस्य स्तोकत्वात्। साकारोप-युक्ताः संख्येयगुणाः, अनाकारोपयोगकालात् साकारोपयोगस्य संख्येयगुणत्वात्। इदानी समुदायगतं सूत्रोक्तमल्पबहुत्वं भाव्यते, सर्वस्तोका जीवाः आयुष्कर्मणो बन्धकाः, आयुर्बन्धकालस्य प्रतिनियतत्वात् १,तेभ्योऽपर्याप्ताः संख्येयगुणाः, यस्मादपर्याप्ता अनुभूयमानभवत्रिभागाद्यवशेषायुषः पारभाविकमायुर्बध्नन्ति, ततो द्वौ त्रिभागावबन्धकालौ, एको बन्धकाल इति बन्ध-कालादबन्धकालः संख्येयगुणः, तेन संख्येयगुणा एवाऽपर्याता आयुर्बन्धकेभ्यः२, तेभ्योऽपर्याप्तभ्यः सुप्ताः संख्येयगुणाः, यस्मादपर्याप्तेषु च पयप्तिषु च सुप्ता लभ्यन्ते / पर्याप्ताश्चाऽपर्याप्तेभ्यः संख्येयगुणाः, इत्यपर्याप्तेभ्यः सुप्ताः संख्येयगुणाः 3, तेभ्यः समवहताः संख्येयगुणाः, बहूनां पर्याप्तेष्वपर्याप्तषु च मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहतानां सदा लभ्यमानत्वात् 4, तेभ्यः सातावेदकाः संख्येयगुणाः, आयुर्बन्धकाऽपर्याप्तकसुप्तेष्वपि सातावेदकानां लभ्यमानत्वात् 5, तेभ्य इन्द्रियोपयुक्ताः संख्येयगुणाः, असातवेदकानामपि इन्द्रियोपयोगस्य लभ्य-मानत्वात् 6, तेभ्योऽनाकारोपयोगोपयुक्ताः, इन्द्रियोपयोगेषु नोइन्द्रियोपयोगेषु वाऽनाकारोपयोगस्य लभ्यमानत्वात् 7, तेभ्यः साकारोपयुक्ताः संख्येयगुणाः, इन्द्रियोपयोगेषु नोइन्द्रियोप-योगेषु साकारोपयोगकालस्य बहुत्वात् 8, तेभ्यो नोइन्द्रियोपयुक्ता विशेषाधिकाः, नोइन्द्रियाऽनाकारोपयुक्तानामपि तत्र प्रक्षेपात्, साकारानाकारोपयुक्तानामपि तत्र प्रक्षेपात् / / अत्र विनेयजनानुग्रहार्थमसद्भावस्थापनया निदर्शनमुच्यतेइह सामान्यतः किल साकारोपयुक्ता द्विनवत्यधिकं शतम् 162 / ते च किल द्विधा- इन्द्रियसाकारोपयुक्ताः, नोइन्द्रियसाकारोपयुक्ताश्च / तत्रेन्द्रियसाकारोपयुक्ताः किलाऽतीवस्तोका इति विंशतिसंख्याः कल्पन्ते; शेषं द्विसप्तत्युत्तरं शतम् 172 ! नोइन्द्रियसाकारोपयुक्तानोइन्द्रियानाकारोपयुक्ताश्च द्विपञ्चाशत्-कल्पाः 52 / ततः सामान्यतः साकारोपयुक्तेभ्य इन्द्रियसाकारोप-युक्तेषु विंशतिकल्पेष्वपनीतेषु द्विपञ्चाशत्कल्पेषु अनाकारोपयुक्तेषु तेषु मध्ये प्रक्षिप्तेषु द्वे शते चतुर्विंशत्यधिके भवतः 162-20+54-224 / ततः साकारोपयुक्तेभ्यो नोइन्द्रियोपयुक्ता विशेषाधिका:६, तेभ्योऽसातवेदका विशेषाऽधिकाः, इन्द्रियोपयुक्तानामप्यऽसातवेदकत्वात् 10, तेभ्योऽसमवहता विशेषाधिकाः, सातवेदकानाप्यसमवहतत्वभावात् 11, तेभ्यो जागरा विशेषाधिकाः, समवहतानामपि केषांचिजागरत्वात् 12, तेभ्यः पर्याप्ता विशेषाधिकाः, सुप्तानामपि केषांचित् पर्याप्तत्वात्। सुप्ता हि पर्याप्तापर्याप्ता अपि भवन्ति; जागराः तुपर्याप्ता एवेति नियमः 13, तेभ्योऽपि पर्याप्तभ्य आयुः-कर्माऽबन्धका विशेषाधिकाः, अपर्याप्तानामप्यायुः कर्माऽबन्धक-भावात् 14 // इदमेवाऽल्पबहुत्वं विनेयजनाऽनुग्रहाय स्थापनाराशिभिरुपदश्यते- इह द्वे पङ्क्ती उपर्यधोभावेन न्यस्येते / तत्रोपरितन्यां पङ्क्तौ आयुःकर्मबन्धका अपर्याप्ताः सुप्ताः समवहताः सातवेदका इन्द्रियोपयुक्ता अनाकारोपयुक्ताः क्रमेण स्थाप्यन्ते, तस्या अधस्तन्यां पङ्क्तौ तेषामेव पदानामधस्ताद् यथासंख्य-मायुरबन्धका पर्याप्ता जागरा असमवहता असातवेदका नोइन्द्रियोपयुक्ताः साकारोपयुक्ताः। स्थापना चेयम्-आद्यमिति तत्परिमाणं संख्यामेकः स्थाप्यते। ततः शेषपदानि किल जघन्येन संख्येयगुणानीति द्विगुणो द्विगुणा-ऽङ्कः तेषु स्थाप्यते। तद्यथा-द्वौ चत्वार अष्टौ षोडश द्वात्रिंशत् चतुःषष्टिः; सर्वोऽपि जीवराशिरनन्ताऽनन्तस्वरूपोऽप्यसत्-कल्पनया षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयपरिमाणः परिकल्प्यते 256 / ततोऽस्माद् राशेरायुबन्धकादिगताः संख्याःशोधयित्वा, यत् शेषमवतिष्ठते ,तदायुरबन्धकादीनां परिमाणे स्थापयितव्यम्। तद्यथा- आयुरबन्धकादि पदे द्वे शते पञ्चपञ्चाशदधिके, 2561-255, शेषेषु यथोक्तक्रमद्वेशते चतुष्पञ्चाशदधिके 256-2-254, द्वे शते द्विपञ्चाशदधिके२५६-४-२५२, द्वे शते अष्टचत्वारिंशदधिके 256-8-248, द्वे शते चत्वारिंशदधिके 256-16-240, द्वे शते चतुर्विंशत्यधिके 256-32-224, द्विनवत्यधिकं शतम् २५६६४-१९२एवं च सति उप-रितनपक्तिगतान्यनाकारोपयुक्तपर्यन्तानि पदानि संख्येयगुणानि, द्विगुणद्विगुणाऽधिकत्वात् / ततः पर साकारोपयुक्तपदमपि संख्येयगुणम्, त्रिगुणत्वात् / शेषाणि तु नोइन्द्रियोप-युक्तादीनि प्रतिलोमं विशेषाधिकानि, द्विगुणत्वस्याऽपि क्वचिदभावात्। प्रज्ञा०३ पद। (प्रकृतिबन्धादीनाम्) सम्प्रति प्रागुक्तचतुर्विधबन्धे योगस्थानानि कारणं, प्रकृतयः प्रदेशाच तत्कार्यं वर्तन्ते / तथा स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानानि कारणं, स्थितिविशेषास्तु तत्कार्यम्, अनुभागबन्धाध्यवसाय-स्थानानि कारणम्, अनुभागस्थानानि तु तत्कार्य वर्तन्त इति कृत्वा सप्तानामप्येषा पदार्थानां परस्परमल्पबहुत्वमभिधित्सुराहसेढिअसंखिजंसे,जोगट्ठाणाणि पयडिठिइभेया। ठिइबंधज्झवसाया-ऽणुभागठाणा असंखगुणा ||5|| योगो वीर्यम् तस्य स्थानानि वीर्याविभागान्त्रासकातरूपाणि। कियन्ति पुनस्तानि भवन्ति? इत्याह - (सेढिअसंखेचंसे त्ति) श्रेणिरसंख्येयांशः श्रेण्यसंख्येयांशः 1 एतदुक्तं भवति-श्रेणेवक्ष्यमाणस्वरूपाया असंख्येयभागेयावन्त आकाशप्रदेशा भवन्ति, तावन्ति योगस्थानानि। एतानि चोत्तरपदापेक्षया सर्वस्तोकानीति शेषः / तत्र यथैतानि योगस्थानानि भवन्ति, तथोच्यते- इह किल सूक्ष्मनिगोदस्यापि सर्वजघन्यवीर्यलब्धि-युक्तस्य प्रदेशाः केचिदल्पवीर्ययुक्ताः केचित्तु बहुबहुतरबहुत-मवीर्योपेताः; तत्र सर्वजघन्ययुक्तवीर्यस्यापि प्रदेशस्य संबन्धि वीर्य केवलिप्रज्ञाछेदेन छिद्यमानमसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणान् भागान् प्रयच्छति, तस्यैवोत्कृष्टवीर्ययुक्तप्रदेशे यद्वीर्य, तदेतेभ्योऽसंख्येयगुणान् भागान् प्रयच्छति। उक्तं च - पन्नाए छिज्जंता, असंखलोगाण जत्तियपएसा। तत्तियवीरियभागा, जीवपएसम्मि एकेके // 1 // सव्वजहन्नगविरिए, जीवपएसम्मितत्तिया संखा। तत्तो असंखगुणियं, बहुविरिऐं जियपएसम्मि // 20 भागा अविभागपरिच्छेदा इति चाऽनन्तरम् / ततः सर्वस्तोका विभाग-परिच्छे दकलितानां लोकासंख्येयभागवर्त्य संख्येय प्रतरप्रदेशराशि-संख्यानां जीवप्रदेशानां समानवीर्यपरिच्छेदतया जघन्यैका वर्गणा। तत एकेन योगपरिच्छेदेनाधिकानां तावतामेव जीवप्रदेशानां द्वितीया वर्गणा / एवमे कै कयोगपरिच्छे दवृद्धया Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुय(ग) 651- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्पाबहुय(ग) वर्द्धमानानां जीवप्रदेशानां समानजातीयरूपा घनीकृतलोकाऽऽकाशश्रेणेरसंख्येयभागप्रदेशराशिप्रमाणा वर्गणा वाच्याः। एताश्चैतावत्योऽप्यसत्कल्पनया षट्स्थाप्यन्ते१५/१४/१३/१२/११/१० तत्र जघन्यवर्गणायां 15/14/13/12/11/10 जीवप्रदेशा असंख्येय वीर्यभागान्विताः। अथ 15/14/13/12/11/10 सत्कल्पनया त्रयस्त्रयः स्थाप्यन्ते, एताश्चैतावत्यः समुदिता एकंवीर्यस्पर्द्धकमित्युच्यते। अथ स्पर्द्धक इति कः शब्दाऽर्थः? उच्यते- एकैकोत्तरवीर्य-भागवृद्ध्या परस्परं स्पर्धन्ते वर्गणा यत्र तत्। तत ऊर्ध्वमेकेन व्यादिभिर्वा वीर्यपरिच्छेदैरधिका जीवप्रदेशान प्राप्यन्ते। किंतर्हि ? प्रथमस्पर्द्धकचरमवर्गणायां जीवप्रदेशेषु यावन्तो वीर्यपरिच्छेदास्तेभ्योऽसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणैरेव वीर्यपरिच्छेदैरधिका जीवप्रदेशाः, अतस्तेषामपि समानवीर्य-भागानां समुदायो द्वितीयस्पर्द्धकस्याद्यवर्गणा / तत एकेन वीर्यभागेनाधिकानां समुदायो द्वितीयवर्गणा / एवमेकोत्तरवृद्धिक्रमेणैता अपि श्रेण्यसंख्येयभागवर्तिप्रदेशराशिमाना वाच्याः / एतासामपि समुदायो द्वितीयं स्पर्द्धकम्। इत ऊर्ध्व पुनरप्येकोत्तरवृद्धिर्न लभ्यते / किं तर्हि असंख्येयलोकाकाशप्रदेशतुल्यैरेव वीर्यभागैरधिकास्तत्प्रदेशाः प्राप्यन्ते, अतस्तेनैव क्रमेण तृतीयस्पर्द्धकमारभ्यते / पुनस्तेनैव क्रमेण चतुर्थम्, पुनः पञ्चममित्येवमेतान्यपि वीर्यस्पर्द्धकानि श्रेण्यसंख्येयभागवर्तिप्रदेशराशिप्रमाणानि वाच्यानि / एषां चैतावतां स्पर्द्धकानां समुदाय एकं योगस्थानकमुच्यते। इदं तावदेकस्य सूक्ष्मनिगोदस्य भवाद्यसमये सर्वजघन्यवीर्यस्य योगस्थानकमभिहितं, तदन्यस्य तु किञ्चिदधिकवीर्यस्य जन्तोः, अनेनैव क्रमेण द्वितीयं योगस्थानकमुत्तिष्ठते / तदन्यस्य तु तेनैव क्रमेण तृतीयम्, तदन्यस्य तु तेनैव क्रमेण चतुर्थम् / इत्यमुना क्रमेणैतान्यपि योगस्थानानि नानाजीवानां कालभेदेनकजीवस्य वा श्रेणेरसंख्येयभागवर्तिनभःप्रदेशराशि-प्रमाणानि भवन्ति / ननुजीवानामनन्तत्वात्, तद्भेदात्योगस्थानान्यनन्तानि कस्मात् न भवन्ति ? नैतदेवम्- यत एकैकस्मिन् सद्रशे योग-स्थानेऽनन्ताः स्थावरजीवा वर्तन्ते, सास्त्वेकैकस्मिन् सदृशे योगस्थानेऽसंख्याता वर्तन्ते, तेषां च तदेकैकमेव विवक्षितमतो विसदृशानि यथोक्तमानान्येव योगस्थानकानि भवन्ति। तथा-ऽपर्याप्ताः सर्वेऽप्येकस्मिन् योगस्थानके एकसमयमवतिष्ठन्ते / ततः परमसंख्येयगुणवृद्धेषु प्रतिसमयमन्योन्ययोगस्थानकेषु संक्रामन्ति, पर्याप्तास्तु सर्वेऽपि स्वप्रायोग्ये सर्वजधन्ययोगस्थानके जघन्यतः समयमुत्कृष्टतश्चतुरः समयान् यावद्वर्तन्ते, ततः पर-मन्यद्योगस्थानकमुपजायते, स्वप्रायोग्योत्कृ ष्टयोगस्थानके तु जघन्यतः समयम्, उत्कृष्टतस्तु द्वौ समयौ, मध्यमेषु जघन्यतः समयम्, उत्कृष्टतस्तु क्वचित् चतुरः, क्वचित्पञ्च, क्वचित् षट्, क्वचित् सप्त, क्वचिदष्टौ समयान्यावद्वर्तन्त इति। अयं चैतावानपि यो गो मनःप्रभृतिसहकारिकारणवशात् संक्षिप्य सत्यमनोयोगः 1, असत्यमनोयोगः 2, असत्यमृषा- मनोयोगः 3, असत्यामृषामनोयोगः 4 / सत्यवाग्योगः 1, असत्यवाग्योगः 2, सत्यमृषावाग्योगः 3, असत्यामृषावाग्योगः 4 / औदारिककाययोगः १,औदारिकमिश्रकाययोगः 2, वैक्रि यकाययोगः 3, वैक्रियमिश्र काययोगः 4, आहारककाययोगः 5, आहारकमिश्रकाययोगः 6, कार्मणकाययोग 7 भेदतः (4+4+7=15) पञ्चदशधा प्रोक्त इत्यलं प्रसंगेन। एतेभ्यश्च योगस्थानेभ्योऽसंख्येयगुणाः असंख्यातगुणिताः। (पयडित्ति) भेदशब्दस्य प्रत्येकं संबन्धात् प्रकृतिभेदात् स्थिभिदाच ज्ञानावरणादीनां भेदाः।असंखगुणत्ति पदमनु-भागबन्धस्थानानियावत्सर्वत्रयोजनीयम्। इयमत्र भावना- इह तावदावश्यका दिष्ववधिज्ञानदर्शनयोःक्षयोपशमवैचित्र्यादसंख्यातास्ताव भेदा भवन्ति। ततश्च तदावरणबन्धस्याऽपि तावत्प्रमाणभेदाः संगच्छन्ते, वैचित्र्येण बद्धस्यैव विचित्रक्षयोपशमोपपत्तेरिति। कथं पुनः क्षयोपशमवैचित्र्येऽप्यसंख्येयभेदत्वं प्रतीयते ? इति चेत्। उच्यते- क्षेत्रतारतम्येनेति / तथाहि- त्रिसमयाऽऽहारकसूक्ष्मपनक सत्त्वावगाहनामानं जघन्यमवधिद्विकस्य क्षेत्रं परिच्छेद्यतयोक्तम्।यदाह सकलश्रुतपारदृश्वा विश्वा-ऽनुग्रहकाम्यया विहितानेकशास्त्रसंदर्भो भगवान् श्रीभद्रबाहुस्वामी- "जावइय तिसमयाहारगस्स सुहुमस्स पणगजीवस्सा ओगाहणाजहन्ना, ओहीखित्तं जहन्नं तु" ||1|| उत्कृष्ट तु सर्व-बहुतैजस्कायिकजन्तूनां शुचिः सर्वतो भ्रामिता यावन्मात्र क्षेत्रं स्पृशति, तावन्मानं तस्य प्रमाणं भवति / यदाहुः श्रीमदाराध्य-पादाः "सव्वबहुअगणिजीवा, निरंतरं जत्तियं भरिजंसु / खिव्वं सव्वदिसागं, परमोही खित्तनिधिहो" // 1 // इति। ततो जघन्यात् क्षेत्रादारभ्य प्रदेशवृद्ध्या प्रवृद्धोत्कृष्टक्षेत्र-विषयत्वे सत्यसंख्येयभेदत्वमवधिद्विक स्य क्षेत्रं तारतम्येन भवति / अतस्तदावारकस्याऽवधिद्विकस्यापि नानाजीवानां क्षेत्रादिभेदेन बन्धवैचित्र्यादुदयवैचित्र्याचासंख्येयगुणभेदत्वम् / एवं नानाजीवानाश्रित्य मतिज्ञानावरणादीनां शेषाणामप्यावरणानां तथाऽन्यासामपि सर्वासां मूलप्रकृतीनामुत्तरप्रकृतीनां च क्षेत्राऽऽदिभेदेन बन्धवैचित्र्यादुदयवैचित्र्यादाऽसंख्याता भेदाः संपद्यन्त इति। उक्तंचजम्हा उ ओहिविसओ, उक्कोसेसव्वबहुयसिहिसूई। जत्तियमित्तं फुसई, तत्तियमित्तप्पएससमो॥१॥ तत्तारतम्मभेया, जेण बहू हुंति आवरणजणिया। तेणाऽसंखगुणतं, पयडीणं जोगओ जाण / / 2 / / चतसृणामानुपूर्वीणां बन्धोदयवैचित्र्येणाऽसंख्याता भेदाः, ते च लोकस्याऽसंख्येयभागवर्तिप्रदेशराशितुल्या इति बृहच्छतकचूर्णिकारोक्ता विशेषाः / ननु जीवानामनन्तत्वात् तेषां बन्धोदयवैचित्र्येणाऽनन्ता अपि प्रकृतिभेदाः कस्मात् न भवन्ति ? नैतदेवम्, सदृशानां बन्धोदयानामेकत्वेन विवक्षितत्वाद् विसदृशास्त्वेतावन्त एव तद्भेदा भवन्ति / ते च भेदाः प्रकृतिभेदत्वात् प्रकृतय इत्युच्यन्ते / ततश्च योगस्थानेभ्योऽसंख्यातगुणाः प्रकृतयः, यत एकैकस्मिन् योगस्थाने वर्तमान नाजीवैः कालभेदादेकजीवेन वा सर्वा अप्येताः प्रकृतयो बध्यन्त इति। तथा तेभ्यः प्रकृतिभेदेभ्यः स्थितिभेदाः स्थितिविशेषा अन्तर्मुहूर्तसमयाधिकान्तर्मुहूर्त त्रिसमयाधिकान्तर्मुहूर्तादि-लक्षणा असंख्यातगुणा भवन्ति / एकैकस्याः प्रकृतेरसंख्यातैः स्थितिविशेषैर्षध्यमानत्वादेकमेव हि प्रकृतिभेदं कश्चिञ्जीवोऽन्येन स्थितिविशेषेण बध्नाति, स एव च तं कदाचिदन्येन, कदाचिदन्यतरेण, कदाचिदन्यतमेनेत्येवमेकं प्रकृतिभेदमेकं जीवमाश्रित्यासंख्याताः स्थितिभेदा भवन्ति, किं पुनः सर्वप्रकृतीः सर्वजीवानाश्रित्य प्रकृतिभेदेभ्यः ? स्थिति Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुय(ग) ६५२-अभियानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्पाबहुय(ग) भेदानामसंख्यातगुणत्वमित्यतः प्रकृतिभेदेभ्यः स्थितिभेदाः असंख्यातगुणा भवन्तीति; तथा स्थितिभेदेभ्यः सकाशात् स्थितिबन्धाध्यवसायाः पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानान्यसंख्यातगुणानि। तत्र स्थान स्थितिः? कर्मणोऽवस्थानं, तस्या बन्धः स्थितिबन्धः / अध्यवसानान्यध्यवसायाः, ते चेह कषायजनिता जीव-परिणामविशेषाः। तिष्ठन्ति जीवा एष्वितिस्थानानि, अध्यवसाया एव स्थानान्यध्यवसायस्थानानि; स्थितिबन्धस्य कारणभूतान्यध्यवसायस्थानानि स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानानि, तानि स्थितिभेदेभ्योऽसंख्येयगुणानि, यतः सर्वजघन्योऽपि स्थितिविशेषोऽसंख्येयलो काकाशप्रदेशप्रमाणै रध्यवसायस्थानर्जन्यते / उत्तरे तु स्थितिविशेषास्तैरेव यथोत्तरं विशेषवृद्धैर्जन्यन्ते; अतः स्थितिभेदेभ्यः स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानान्यसंख्यातगुणानि सिद्धानि भवन्ति। तथा-(अणुभागट्ठाण त्ति) पदैकदेशे पदसमुदायोपचारादनुभागस्थानान्यनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानि / तत्राऽनु पश्चाद् बन्धोत्तरकालं भज्यते सेव्यतेऽनुभूयत इत्यनुभागो रसः, तस्य बन्धोऽनुभागबन्धः, अध्यवसानान्यध्यवसायाः, ते चेह कषायजनिता जीवपरिणामविशेषाः / तिष्ठन्ति जीवा एष्वेति स्थानानि, अध्यवसाया एव स्थानान्यध्यवसायस्थानानि, अनुभागबन्धस्य कारणभूतान्यध्यवसायस्थानान्यनुभागबन्धाऽध्यवसायस्थानानि / स्थितिबन्धाऽध्यवसायस्थानेभ्यः तान्यसंख्येयगुणानि भवन्ति, स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानं ह्येकैकमन्तर्मुहूर्तप्रमाणमुक्तम् / अनुभागबन्धाध्यवसायस्थानेत्ये कै कं जघन्यतः सामायिकम्, उत्कृष्ट तस्त्वष्ट - सामायिकाऽन्तमेवोक्तमत एकस्मिन्नपि नगरकल्पे स्थितिबन्धाध्यवसायस्थाने तदन्तर्गता नगरान्तर्गतोश्चर्नीचैहकल्पानि नानाजीवान् कालभेदेनैकजीवान् कालभेदेनैकजीवं वा समाश्रित्यासंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि अनुभागबन्धाऽध्यवसायस्थानानि भवन्ति। तथाहि-जघन्यस्थितिजनकानामपि स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानानांमध्ये यदाद्यं सर्वलघुस्थितिकं बन्धाध्यवसायस्थानं तस्मिन्नपि देशक्षेत्रकालभावजीवभेदेनाऽसंख्येयलोकाकाश-प्रदेशप्रमाणान्यनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानि प्राप्यन्ते / द्वितीयादिषु तु तान्यप्यधिकान्यधिकतराणि च प्राप्यन्ते इति सर्वेष्वपि स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानेषु भावनाः कार्याः अतः स्थितिबन्धाऽध्यवसायस्थानेभ्योऽनुभागबन्धाध्यवसाय-स्थानान्यसंख्येयगुणानीति। तत्तो कम्मपएसा, अणंतगुणिया तओ रसच्छेया। ततस्तेभ्योऽनुभागबन्धाध्यवसायस्थानेभ्यः, कर्मप्रदेशाः कर्मस्कन्धा अनन्तगुणिता भवन्ति / अयमत्र तात्पर्यार्थः- प्रत्येकमभव्यानन्तगुणैः सिद्धानन्तभागवर्तिभिः परमाणुभि-निष्पन्नानभव्यानन्तगुणानेव स्कन्धान मिथ्यात्वादिभिर्हेतुभिः प्रतिसमयं जीवो गृह्णातीत्युक्तम् / अनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानि तु सर्वाण्यप्यसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणान्येवाभिहितानि, अतोऽनुभागबन्धाध्यवसायस्थानेभ्यः कर्मप्रदेशा अनन्तगुणाः सिद्धा भवन्ति। तथा(तओ रसच्छेय ति) ततस्तेभ्यः कर्मप्रदेशेभ्यो, रसच्छेदा अनन्तगुणा भवन्ति / तथाहि- इह क्षीरनिम्बरसाद्यधिश्रयणरिवाऽनुभागबन्धाध्यवसायस्थानेस्तन्दुलेष्विव कर्मपुद्रलेषु रसोजन्यते, स चैकस्यापि परमाणोः संबन्धी केवलिप्रज्ञया छिद्यमानः सर्वजीवानन्तगुणानविभागपरिच्छेदान् प्रयच्छति / यस्माद् भागादपि सूक्ष्मतयाऽन्यो भागो नोत्तिष्ठति, सोऽविभागपरिच्छेद उच्यते / एवंभूताश्चानुभागस्याऽविभागपरिच्छेदा रसपर्यायाः सर्वकर्मस्कन्धेषु प्रतिपरमाणु सर्वजीवाऽनन्तगुणाः संप्राप्यन्ते। यतः - गहणसमयम्मि जीवो, उप्पाएइ उगुणे सपञ्चयओ। सव्वजियाणंतगुणे, कम्मपएसेसु सव्वेसु॥ गुणशब्देनेहाविभागपरिच्छेदा उच्यन्ते / शेषं सुगमम् / कर्मप्रदेशाः पुनः प्रतिस्कन्धं सर्वेऽपि सिद्धानामप्यनन्तभाग एव वर्तन्ते। अतः कर्मप्रदेशेभ्यो रसच्छेदा अनन्तगुणाः सिद्धा भवन्तीति। कर्म०५ कर्म०। (औदारिकादिशरीरबन्धकाना-मल्पबहुत्वं तु सरीर' शब्द एव दृश्यम्) (22) भवसिद्धिकद्वारम् / भवसिद्धिकद्वारमाहएएसि णं भंते ! जीवाणं भवसिद्धियाणं अभव-सिद्धियाणं नोभवसिद्धियाणं नोअभवसिद्धियाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०Y? गोयमा ! सव्वत्थोवा अभवसिद्धिया, नोभवसिद्धिया नोअभवसिद्धिया अणंतगुणा, भवसिद्धिया अणंतगुणा। सर्वस्तोका अभवसिद्धिकाः अभव्याः, जघन्ययुक्तानन्तक - परिमाणत्वात्। उक्तं चानुयोगद्वारेषु- "उक्कोसए परित्ताणंतरूये पक्खित्ते जहन्नयजुत्ताणतयं होइ, अभवसिद्धिया वि तत्तिया चेव त्ति'' तेभ्यो नोभवसिद्धिका अभवसिद्धिका अनन्तगुणाः, यत उभयप्रतिषेधवृत्तयः सिद्धास्ते चाऽजघन्योत्कृष्टयुक्ता-ऽनन्तकपरिमाणा इत्यनन्तगुणाः / तेभ्यो भवसिद्धिका अनन्तगुणाः, यतो भव्यनिगोदस्यैकस्यानन्तभागकल्पाः सिद्धा भव्य-जीवराशिनिगोदाश्चाऽसंख्येया लोके इति। गतं भवसिद्धिद्वारम् / प्रज्ञा०३ पद। (23) भाषकद्वारम्। भाषकाऽभाषकाऽल्पबहुत्वमाहएएसि णं भंते ! जीवाणं भासगाणं अभासगाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा भासगा, अगासगा अणंतगुणा। सर्वस्तोका भाषका भाषालब्धिसंपन्नाः, द्वीन्द्रियादीनामेव भाषकत्यात् / अभाषका भाषालब्धिहीना अनन्तगुणाः, वनस्पतिकायिकानामनन्तत्वात्। प्रज्ञा०३ पद। सत्यादिभेदेन भाषाणामल्पबहुत्वम्। प्रज्ञा०११ पद। (भाषाद्रव्याणां खण्डादिभिर्भेदर्भिद्यमानानामल्पबहुत्वं च'भासा' शब्दे वक्ष्यते) (24) महादण्डकद्वारम्। सर्वजीवाऽल्पबहुत्वम्अह भंते ! सव्वजीवप्पहुं महादंडयं वत्तइस्सामि, सव्वत्थोवा गम्भवकं तियमणुस्सा, मणुस्सीओ संखे जगुणाओं, बादरतेउकाइया पज्जत्तया असंखि-जगुणा, अणुत्तरोववाइया देवा असंखे जगुणा, उवरिमगे वे जगा देवा संखेनगुणा, मज्झिमगेवेजगा देवा संखजगुणा, हेहिमगेवेजगा, देवा संखेजगुणा, अचुए कप्पे देवा संखेज्जगुणा, आरणे कप्पे देवा Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्याबहुय(ग) 653- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्पाबहुय(ग) संखेजगुणा, पाणए कप्पे देवा संखेनगुणा, आणए कप्पे देवा / संखेज्जगुणा। अहेसत्तमाए पुढवीए णेरइया असंखेज्जगुणा, छट्ठीए तमाए पुढवीए नरेइया असं०, सहस्सारे कप्पे देवा असंखिज्जगुणा, महासुक्के कप्पे देवा असंखिजगुणा, पंचमाए धूमप्पभाए पुढवीए णेरइया असं०, लंतए कप्पे देवा असंखेजगुणा; चउत्थीए पंकप्पभाए पुढवीए नेरइया असंखेज्जगुणा, बंभलोए, कप्पे देवा असंखेनगुणा, तचाए वालुयप्पभाए पुढवीए णेरइया असंखेनगुणा, माहिदे देवा असंखेनगुणा, सणंकुमारे कप्पे देवा असंखेज्जगुणा; दोचाए सक्करप्पभाए पुढवीएणेरइया असं०, संमुच्छिममणुस्सा असंखेज्ज०,ईसाणे कप्पे देवा असं०,ईसाणे कप्पे देवीओ संखे०, सोहम्मे कप्पे देवा संखेज०, सोहम्मे कप्पे देवीओ संखेनगुणाओ, भवणवासीदेवा असंखेज्जगुणा, भवणवासिणीओ देवीओ संखिजगुणाओ, इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए गेरइया असंखिजगुणा। खहचरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया पुरिसा असंखेज्जगुणा, खहचरपंचिंदियतिरिक्खजोणिणीओ संखिज्जगुणाओ, थलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया पुरिसा असंखेजगुणा, थलचरपंचिंदियतिरिक्खजोणिणीओ संखिजगुणाओ, जलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया.पुरिया संखे जगुणा, जलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिणीओ संखिज्जगुणाओ, वाणमंतरा देवा संखेज्जगुणा, वाणमंतरीओ देवीओ संखेज्ज०, जोइसिया देवा संखेजगुणा, जोइसिणीओ देवीओ संखिजगुणाओ, खहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया नपुंसया संखिज्ज०, थलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया नपुंसया संखेज०, जलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया नपुंसया संखे०। चउरिंदिया पजत्तया संखेज०, पंचिंदिया पज्जत्ता विसेसाहिया, बेइंदिया पञ्जत्ता विसे०, पंचिंदिया अपजत्तया असंखिज्जगुणा, चउरिंदिया अपज्जत्तया विसेसाहिया, तेइंदिया अपज्जत्तया विसेसाहिया, बेइंदिया अपज्जत्तया विसेसाहिया, पत्तेयसरीरबादरवणस्सइकाइया पज्जत्तगा असंखेजगुणा, बादरनिगोदा पज्जत्तगा असंखेजगुणा, बादरपुढ विकाइया अपज्जत्तगा असंखेजगुणा, बादरआउकाइया पजत्तया असंखिजगुणा, बादरवाउकाइया पजत्तगा असंखिजगुणा, बादरतेउकाइया अपज्जत्तगा असंखेजगुणा, पत्तेयसरीरबादरवणस्सइकाइया अपज्जत्तगा असंखिजगुणा, बादरनिगोदा अपञ्जत्तया संखिजगुणा, बादरपुढविकाइया अपजत्तगा असंखेजगुणा, बादर-आउकाइया अपज्जत्तगा असंखिज्जगुणा, बादरवाउ-काइया अपज्जत्तया अंसखेजगुणा, सुहुमतेउकाइया अपजत्तगा असंखेज्जगुणा, सुहमपुढविकाइया अपज्जत्तगा विसेसाहिया; सुहुमआउकाइया अपज्जत्तया विसेसाहिया, सुहुमवाउकाइया अपज्जत्तगा विसे साहिया, सुहुमते उकाइया पञ्जत्तगा असं खिज्ज०, सुहुमपुढविकाइया पज्जत्तगा विसेसाहिया, सुहमआउकाझ्या पज्जत्तगा विसेसाहिया, सुहमवाउकाइया पज्जत्तगा विसेसाहिया, सुहमणिगोदा अपज्जत्ता असंखे०, सुहमणिगोदा पज्जत्तया संखिजगुणा। अभवसिद्धिया अणंतगुणा, पडिवत्तियसम्मदिट्ठी अणंतगुणा, सिद्धा अणंतगुणा; बादरवणस्सइकाइया पज्जत्तगा अणंतगुणा, बादरपज्जत्ता विसेसाहिया, बादरवणस्सइकाइया अपज्जत्तया असंखिजगुणा, बादरअपज्जत्तया विसे साहिया, बादरा विसेसाहिया, सुहुमवणस्सइकाइया अपज्जत्तया असंखेज्जगुणा, सुहुमा अपञ्जत्तया विसेसाहिया, सुहुमवणस्सइकाइया पजत्तया संखेज०, सुहमपज्जत्तया विसेसाहिया, सुहमा विसेसाहिया, भवसिद्धिया विसेसाहिया, निगोदा जीवा विसेसाहिया, वणस्सइजीवा विसेसाहिया, एगिंदिया विसेसाहिया, तिरिक्खजोणिया विसेसाहिया, मिच्छदिट्ठी विसेसाहिया, अविरया विसेसाहिया, छउमत्था विसेसाहिया, सजोगी विसेसाहिया, संसारत्था विसेसाहिया, सव्वजीवा विसेसाहिया। इदानीं महादण्डकं विवक्षुगुरुमापृच्छति- (अह भंते !0 इत्यादि) अथ भदन्त ! सर्वजीवाऽल्पबहुत्वं सर्वजीवाऽल्पबहुत्व-वक्तव्यतात्मकं महादण्डकं वर्तयिष्यामि, रचयिष्यामीति तात्पर्यार्थः / अनेन एतत् ज्ञापयतितीर्थकरानुज्ञामात्रसापेक्ष एव भगवान् गणधरः सूत्ररचनां प्रति प्रवर्तते, न पुनः श्रुताऽभ्यासपुरस्सरमिति। यद्वैतज्ज्ञापयति- कुशलेऽपि कर्मणि विनेयेन गुरुमनापृच्छ्य न प्रवर्तितव्यं, किन्तु तदनुज्ञापुरस्सरम्, अन्यथा विनेयत्वायोगात् / विनेयस्य हि लक्षणमिदम् - "गुरोर्निवेदितात्मा यो, गुरुभावाऽनुवर्तकः / मुक्त्यर्थं चेष्टते नित्यं, स विनेयः प्रकीर्तितः " ||1|| गुरुरपि यः प्रच्छनीयः, स एवं रूपः- "धर्मज्ञो धर्मकर्ता च, सदा धर्मप्रवर्तकः / सत्त्वेभ्यो धर्मशास्त्रार्थ- देशको गुरुरुव्यते' // 1 // इति महादण्डकं वर्तयिष्यामीत्युक्तम्। ततः प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति-(सव्वत्थोवा गब्भवक्कं तियमणुस्सेत्यादि) सर्वस्तोका गर्भव्युत्क्रान्तिका मनुष्याः, संख्येयकोटीकोटिप्रमाणत्वात् 1, तेभ्यो मानुष्यो मनुजस्त्रियः संख्येयगुणाः, सप्तविंशतिगुणत्वात् / उक्तं च- "सत्तावीसगुणा पुण, मणुयाणं तदहिया चेव' इति 2, ताभ्यो बादरतैजस्कायिकाः पर्याप्ता असंख्येयगुणाः, कतिपयवर्गन्यूनाऽऽवलिकाघनसमय-प्रमाणत्वात् 3 / तेभ्योऽनुत्तरोपपातिनो देवा असंख्येयगुणाः, क्षेत्रपल्योपमाऽसंख्येयभागवर्तिनभःप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् 4, तेभ्य उपरितनग्रैवेयकत्रिकदेवाः संख्येयगुणाः, बृहत्तरक्षेत्रपल्योपमाऽसंख्येयभागवर्तिनभःप्रदेशराशिप्रमाणत्वात्। एतदपि कथमव-सेयम् ? इति चेत्। उच्यते- विमानबाहुल्यात् / तथाहि-अनुत्तरदेवानां पञ्च विमानानि विमानशतं तूपरितनप्रैवेयक-त्रिकदेवानां प्रतिविमानं वाऽसंख्येया देवा यथा यथा चाऽधोवर्तीनि विमानानि, तथा तथा देवा अपि प्राचुर्येण लभ्यन्ते, ततोऽवसीयते-अनुत्तरोपपातिदेवेभ्यो बृहत्तरक्षेत्रपल्योपमाऽसंख्येयभागवाकाशप्रदेशराशिप्रमाणा उपरितनग्रैवेयकत्रिकदेवाः / एवमुत्तरत्राऽपि भावना कार्या, यावदानतकल्पः 5 / Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुय(ग) 654 - अभिषानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्पाबहुय(ग) तेभ्योऽप्युपरितन वे यकत्रिकदेवेभ्यो मध्यम वेयक त्रिकदेवाः बत्तीसरूवअहियाओ होंति देवीओ' इति वचनात् 26, ताभ्यः संख्येयगुणाः 6, तेभ्योऽप्यधस्तनप्रैवेयकत्रिकदेवाः संख्येयगुणाः 7, सौधर्मकल्पे देवाः संख्येयगुणाः, तत्र विमानबाहुल्यात्। तथाहि-तत्र तेभ्योऽच्युतकल्पदेवाः संख्येयगुणाः 8, तेभ्योऽप्यारणकल्पदेवाः द्वात्रिंशत्शतसहस्राणि विमानानामष्टाविंशतिशतसहस्राणि ईशाने कल्पे, संख्येयगुणाः। यद्यप्यारणाच्युतकल्पौसमश्रेणिकौ, समविमानसंख्याको अपि च- दक्षिणदिग्वर्ती सौधर्म-कल्पः, ईशानकल्पस्तूत्तरदिग्वर्ती, च, तथाऽपि कृष्णपाक्षिकाः तथास्वाभाव्यात् प्राचुर्येण दक्षिणस्यां दिशि दक्षिणस्यां च दिशि बहवः कृष्णपाक्षिकाः समुत्पद्यन्ते। ततः ईशानदेवेभ्यः समुत्पद्यन्ते, नोत्तरस्यां, बहवश्च कृष्णपाक्षिकाः, स्तोकाः सौधर्मदेवाः संख्येयगुणाः / नन्धियं युक्तिहिन्द्रसनत्कुमारशुक्लपाक्षिकाः, ततोऽच्युत-कल्पदेवापेक्षया आरणकल्पे देवाः कल्पयोरप्युक्ता, परं तत्र माहेन्द्रकल्पापेक्षया सनत्कुमारकल्पदेवा संख्येयगुणाः 6, तेभ्योऽपि प्राणतकल्पे देवाः संख्येयगुणाः 10, असंख्येयगुणा उक्ताः, इह तु सौधर्मकल्पे संख्येयगणाः / तदेव तेभ्योऽप्यानतकल्पे देवाः संख्येयगुणाः, भावना आरणकल्प- तत्कथम् ?, उच्यते- वचनप्रामाण्यात् / न चाऽत्र पाठभ्रमः, यतोवत्कर्तव्या 11 / ऽन्यत्राऽप्युक्तम्- "ईसाणे सव्वत्थ वि, बत्तीसगुणा उ होति तेभ्योऽधः सप्तमनरकपृथिव्यां नैरयिका असंख्येयगुणाः, देवीओ। संखेजा सोहम्मे, तओ असंखा भवणवासी' ||1|| इति 27, तेभ्योऽपि तस्मिन्नेव सौधर्मकल्पे देव्यः संख्येयगुणाः, द्वात्रिंशद्श्रेण्यसंख्येयभागगतनभःप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् 12, तेभ्यः षष्ठपृथिव्यां नैरयिका असंख्येयगुणाः, एतच्च प्रागेव दिगनुपातेन नैरयिकाल्पबहुत्व गुणत्वात् / “सव्वत्थ वि बत्तीसगुणाओ होंति देवीओ'' इति चिन्तायां भावितम् १३,तेभ्योऽपि सहस्रारकल्पदेवा असंख्येयगुणाः, वचनात् 28 / षष्ठ पृथिवीनै रयिक परि-माण हेतु श्रेण्यसंख्ये यभागापेक्षया ताभ्योऽप्यसंख्येयगुणा भवनवासिनः / कथम् ?, इति चेत् / इह सहस्रारकल्पदेवपरिमाणहेतोः श्रेण्यसंख्येयभागस्यासंख्येयगुणत्वात् अगुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशेः सम्बन्धिनि प्रथमे वर्गमूले तृतीयेन वर्गमूलेन 14, तेभ्यो महा-शुक्रे कल्पे देवा असंख्येय गुणाः, विमानबाहुल्यात्। गुणितेयावान् प्रदेशराशिर्भवतितावत्प्रमाणा-ऽऽयुर्घनीकृतस्य लोकस्य तथाहि-षट्सहस्राणि विमानानां सहस्रारकल्पे, चत्वारिंशत्सहस्राणि एकप्रादेशिकीषु श्रेणिषु यावन्तो नभःप्रदेशास्तावत्प्रमाणो महाशुक्रे, अन्यच्च अधोविमानवासिनो देवा बहु बहुतराः, भवनपतिदेवदेवीसमुदायः, तद्गत-किश्चिदूनद्वात्रिंशद्भागकल्पाश्च स्तोकस्तोकतराश्वोपरित-नोपरितनविमानवासिनः, ततः सहस्रार भवनपतयो देवाः, ततो घटन्ते सौधर्मदेवीभ्यस्तेऽसंख्येयगुणाः 26, देवेभ्यो महाशुक्र कल्पे देवा असंख्ये यगुणाः 15, तेभ्योऽपि तेभ्यो भवनवासिनो देव्यः संख्येयगुणाः, द्वात्रिंशद्गुणत्वात् 30, ताभ्योऽप्यस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिका असंख्येयगुणाः, अगुलपञ्चमधूमप्रभाभिधाननरक पृथिव्यां नैरयिका असंख्येयगुणाः, बृहत्तमश्रेण्यसंख्येयभागवर्तिनभः प्रदेशराशिप्रमाणत्वात् 16, तेभ्योऽपि मात्रक्षेत्रप्रदेशराशेः सम्बन्धिनि प्रथमवर्गमूले द्वितीयेन वर्गमूलेन गुणिते यावान् प्रदेशराशिस्तावत्प्रमाणासु श्रेणिषु यावन्त आकाशलान्तके कल्पे देवा असंख्येयगुणाः, अतिबृहत्तरश्रेण्यसंख्येयभागगतनभः प्रदेशास्तावत्प्रमाणत्वात् 31, तेभ्योऽपिखचरपञ्चेन्द्रिय-तिर्यम्योनिकाः प्रदेशराशि-प्रमाणत्वात् 17, तेभ्योऽपि चतुर्थ्यां पङ्कप्रभायां पृथिव्यां पुरुषा असङ्ख्येयगुणाः, प्रतराऽसंख्ययभाग वर्त्यसंख्येयश्रेणिनभःनैरयिका असंख्येयगुणाः, युक्तिः प्रागुक्कैव भावनीया 18, तेभ्योऽपि प्रदेशराशिप्रमाणत्वात् 32, तेभ्योऽपि खचरपञ्चेन्द्रियास्तिर्यग्योनिकाः ब्रह्मलोके कल्पे देवा असंख्येयगुणाः, युक्तिः प्रागुक्तैव 16, तेभ्योऽपि स्त्रियः संख्येयगुणाः, त्रिगुणत्वात्। "तिगुणा तिरूवअहिया, तिरियाणं तृतीयस्यां वालुकाप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकाः संख्येयगुणाः 20, इत्थिया मुणेयव्वा' इति वचनात् 33, ताभ्यः स्थलचरपञ्चेन्द्रियाः तेभ्योऽपि माहेन्द्रकल्पे देवा असंख्येयगुणाः 21, तेभ्योऽपि तिर्यग्योनिकाः पुरुषाः संख्येयगुणाः, बृहत्तरप्रतरासंख्येयभागसनत्कुमारकल्पे देवा असंख्येयगुणाः, युक्ति सर्वत्रापि प्रागुक्तैव 22, तेभ्यो वर्त्य संख्येयश्रेणिगताकाश-प्रदेशराशिप्रमाणत्वात् 34, तेभ्यः द्वितीयस्यां शर्कराप्रभायां पृथिव्यां नैरयिका असंख्येयगुणाः / स्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः स्त्रियः संख्येयगुणाः, त्रिगुणत्वात् 35 1 एते च सप्तमपृथिवीनारकादयो द्वितीयपृथिवीनरकपर्यन्ताः ताभ्यो जलचरपञ्चेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकाः पुरुषाःसंख्येयगुणाः, बृहत्तमप्रत्येकं स्वस्थाने चिन्त्यमानाः सर्वेऽपि घनीकृतलोक प्रतरासंख्येय-भागवयंसंख्येयश्रेणिगताकाश प्रदेशराशिप्रमाणत्वात् श्रेण्यसंख्येयभागवर्तिनभःप्रदेशराशिप्रमाणा द्रष्टव्याः, केवलं 36 / तेभ्यो जलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः स्त्रियः संख्येयगुणाः, श्रेण्यसंख्येयभागोऽसंख्येयभेदभिन्नः, तत इत्थमसंख्येयगुणतया त्रिगुणत्वात् 37 / अल्पबहुत्वमभिधीयमानं न विरुध्यति 23 / / ताभ्यो व्यन्तरादेवाः पुंवेदोदयिनः संख्येयगुणाः, यतः तेभ्यो द्वितीयनरकपृथिवीनारकेभ्यः संमूछिममनुष्या असंख्येयगुणाः, संख्येययोजनकोटाकोटिप्रमाणानि सूचीरूपाणि खण्डानि ते हि अगुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशेः संबन्धिनि तृतीयवर्गमूलेन गुणिते यावन्त्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति, तावन्तः सामान्येन व्यन्तराः, केवलमिह प्रथमवर्गमूले यावान् प्रदेशराशिः तावत्प्रमाणानि खण्डानि, पुरुषा विवक्षिता इति सकलसमुदायापेक्षया किंचिदूनद्वात्रिंशत्तमयावन्त्येकस्यामेव प्रादेशिक्या श्रेणौ भवन्ति तावत्प्रमाणाः 24 , तेभ्य भागकल्पावेदितव्याः। ततो घटन्तेजलचरयुवतिभ्यः संख्येयगुणाः 38, ईशाने कल्पे देवा असंख्येय-गुणाः, यतोऽङ्गुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशेः तेभ्योव्यन्तर्यः संख्येयगुणाः, द्वात्रिंशद्गुणत्वात् ३६.ताभ्योज्योतिष्वदेवाः संबन्धिनि द्वितीये वर्गमूले तृतीयेन वर्गमूलेन गुणिते यावान् संख्येयगुणाः, तेहि सामान्यतः षट्पञ्चाशदधिक-शतद्वयाऽगुलप्रमाणानि प्रदेशराशिर्भवति तावत्प्रमाणाः तु घनीकृतस्य लोकस्यैकप्रादेशिकीषु सूचीरूपाणि खण्डानि यावन्त्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति, तावत्प्रमाणाः; श्रेणिषु यावन्तो नभः- प्रदेशास्तावत्प्रमाणा ईशानकल्पगतोदेवदेवी- परमिह पुरुषा विवक्षिता इति ते सकलसमुदायापेक्षया किंचिदूनसमुदायः तद्गतकिञ्चिदूनद्वात्रिंशत्तम-भागकल्पाईशानदेवाः, ततो देवाः द्वात्रिंशत्तम-भागकल्पाः प्रतिपत्तव्याः, तत उपपद्यन्ते व्यन्तरीभ्यः संमूछिममनुष्येभ्योऽसंख्येय-गुणाः 25, तेभ्य ईशानकल्पे संख्येयगुणाः 40, तेभ्यो ज्योतिष्कदेव्यः संख्येयगुणाः, द्वात्रिंशद्देव्योऽसंख्येयगुणाः, द्वात्रिंशद्गुणत्वात् / 'बत्तीसगुणा गुणत्वात् 41 / ताभ्यः खचरपञ्चेन्द्रियतिर्य-ग्योनिका नपुंसकाः Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अय्याबहुय(ग) 655 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्पाबहुय(ग) संख्येयगुणाः। क्वचित् 'असंख्येयगुणाः' इति पाठः; सन समीचीनः, यत इतऊर्ध्व ये पर्याप्तचतुरिन्द्रिया वक्ष्यन्तेतेऽपिज्योतिष्कदेवाऽपेक्षया संख्येयगुणा एवोपपद्यन्ते। तथाहि-षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयाऽङ्गुलप्रमाणानि सूचीरूपाणि खण्डानि यावन्ति एकस्मिन् प्रतरे भवन्ति तावत्प्रमाणा ज्योतिष्काः / उक्तंच-छप्पन्नदोसयंगुलसूइपएसेहिं भाइया पयरं / जोइसिएहिं हीरइ, इति / अगुलसंख्येयभागमात्राणि च सूचीरूपाणि खण्डानि यावन्त्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति, तावत्प्रमाणाश्चतुरिन्द्रियाः। उक्तं च- "पज्जत्तापज्जत्ताविति चऊ असन्निणो अवहरंति। अंगुल संखाऽसंखप्पएसभइयं पुढो पयरं" ||1|| अङ्गुलसंख्येय-भागापेक्षया षट्पञ्चाशदधिकमङ्गुलशतद्वयं सङ्घययगुणं, ततो ज्योतिष्कदेवापेक्षया परिभाव्यमानाः पर्याप्तचतुरिन्द्रिया अपि सङ्ख्येयगुणा एव घटन्ते, किं पुनः पर्याप्तचतुरिन्द्रियापेक्षया सङ्ख्येयभागमात्रखचरपञ्चेन्द्रियनपुंसका इति 42, तेभ्योऽपि स्थलचरपञ्चेन्द्रियनपुंसकाः संख्येयगुणाः 43, तेभ्योऽपि जलचरपोन्द्रियनपुंसकाः संख्येयगुणाः 44, तेभ्योऽपि पर्याप्तचतुरिन्द्रियाः संख्येयगुणाः 45, तेभ्योऽपि पर्याप्ताः संजयसंज्ञिभेदभिन्नाः पञ्चेन्द्रिया विशेषाधिकाः 46 / तेभ्योऽपि पर्याप्ता द्वीन्द्रिया विशेषाधिकाः 47, तेभ्योऽपि पर्याप्तास्त्रीन्द्रिया विशेषाधिकाः 48, यद्यपि पर्याप्त-चतुरिन्द्रियादीनां पर्याप्तत्रीन्द्रियपर्यन्तानां प्रत्येकमगुला-ऽसंख्येयभागमात्राणि सूचिरूपाणि खण्डानि यावन्त्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति, तावत्प्रमाणत्वमविशेषेणान्यत्र वर्ण्यते, तथाऽप्यगुला-संख्येयभागस्य संख्येयभेदभिन्नत्वादित्थं विशेषाऽधिकत्वमुच्यमानं न विरुद्धम् / उक्तं चेत्थमल्पबहुत्वमन्यत्राऽपि "तओ नपुंसकखहयरसंखेज्जा थलयरजलयरनपुंसका चतुरिंदिया तओ पणविति पज्जत्ता किंचऽहिय त्ति" 48, तेभ्योऽपि पर्याप्ततीन्द्रियेभ्योऽपर्याप्ताः पश्शेन्द्रिया असंख्येयगुणाः, अगुलासंख्येयभागमात्राणि खण्डानि सूचीरूपाणि यावन्ति एकस्मिन् प्रतरे भवन्ति तावत्प्रमाणत्वात् ४६,तेभ्यश्चतुरिन्द्रिया अपर्याप्ता विशेषाधिका ५०,तेभ्योऽपित्रीन्द्रिया अपर्याप्ता विशेषाधिकाः 51, तेभ्यो द्वीन्द्रिया अपर्याप्ता विशेषाधिकाः, यद्यपि चाऽपर्याप्ताश्चतुरिन्द्रियादयोऽपर्याप्तद्वीन्द्रियपर्यन्ताः प्रत्येकमगुलस्यासंख्येयभागमात्राणि खण्डानि सूचीरूपाणि यावन्त्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति, तावत्प्रमाणा अन्यत्रा-ऽविशेषेणोक्ताः, तथाप्यगुलासंख्येयभागस्य विचित्रत्वादित्थं विशेषाऽधिकत्वमुच्यमानं न विरोधमास्कन्दति 52 / / तेभ्योऽपितीन्द्रियाऽपर्याप्तभ्यः प्रत्येकबादरवनस्पतिकायिकाः पर्याप्ता असंख्येयगुणाः, यद्यपि चाऽपर्याप्तद्वीन्द्रियादिवत्पर्याप्तबादरवनस्पतिकायिका अप्यङ्गुलासंख्येयभागमात्राणि सूचीरूपाणि खण्डानि यावन्त्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति तावत्प्रमाणा अन्यत्रोक्ताः,तथाऽप्य गुलाऽसंख्येयभागस्यासंख्येयभेद-भिन्नत्वाद् बादरपर्याप्त प्रत्येकवनस्पतिपरिमाणचिन्तायामगुला-ऽसंख्येयभागोऽसंख्येगुणहीनः परिगृह्यते, ततो न कश्चिद्विरोधः 53, तेभ्यो बादरनिगोदा अनन्तकायिकशरीररूपाः पर्याप्ता असंख्येयगुणाः 54, तेभ्योऽपि बादरपृथिवीकायिकाः पर्याप्ताः असंख्येयगुणाः 55, तेभ्योऽपि पर्याप्तबादराऽप्कायिका असंख्येयगुणाः, यद्यपि च पर्याप्तबादरप्रत्येकवनस्पतिकायिका-ऽप्कायिकाः प्रत्येकमङ्गुलाऽसंख्येयभागमात्राणि सूचीरूपाणि खण्डानि यावन्त्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति, तावत्प्रमाणा अन्यत्राविशेषेणोक्ताः, तथाऽप्यगुलाऽसंख्येयभागस्याऽसंख्येयभेदभिन्नत्वादित्थमसंख्येयगुणत्वादित्थमभिधाने न | कश्विघोषः 56, तेभ्यो बादरपर्याप्ताऽप्कायिकेभ्यो बादरवायुकायिकाः पर्याप्ता असंख्येयगुणाः, धनीकृतलोकासंख्येयभागवर्त्यसंख्येयप्रतरग.. तनभःप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् 57, तेभ्यो बादरतेजस्कायिका अपर्याप्ता असंख्येयगुणाः, असंख्येयलोका-काशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् 58, तेभ्यः प्रत्येकशरीरबादरवनस्पति-कायिका अपर्याप्ता असंख्येयगुणाः 56, तेभ्योऽपि बादरनिगोदा अपर्याप्तका असंख्येयगुणाः 60, तेभ्यो बादरपृथिवीकायिका अपर्याप्तका असंख्येयगुणाः ६१,तेभ्यो बादराऽप्कायिका अपर्याप्ता असंख्येयगुणाः 62, तेभ्यो बादरवायुकायिका अपर्याप्ता असंख्येयगुणाः 63, तेभ्यः सूक्ष्मतेजस्कायिका अपर्याप्ता असंख्येयगुणाः 64, तेभ्यः सूक्ष्मपृथिवीकायिका अपर्याप्ता विशेषाऽधिकाः 65, तेभ्यः सूक्ष्माऽप्कायिका अपर्याप्ता विशेषाधिकाः 66, तेभ्यः सूक्ष्मवायुकायिका अपर्याप्ता विशेषाधिकाः 67, तेभ्यः सूक्ष्मतेजस्कायिकाः पर्याप्तका असंख्येयगुणाः, अपर्याप्त - कसूक्ष्मेभ्यः पर्याप्तसूक्ष्माणां स्वभावत एव प्राचुर्येण भावात्। तथा चाऽऽह अस्यामेव प्रज्ञापनायां संग्रहणीकारः- "जीवाणमपज्जत्ता, बहुतरगा बायराण विन्नेया। सुहमाण य पञ्जत्ता, ओहेण य केवली बिंति"॥१॥ 68, तेभ्योऽपि सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः पर्याप्ता विशेषाधिकाः 66, तेभ्योऽपि सूक्ष्माऽप्कायिकाः पर्याप्ता विशेषाधिकाः 70, तेभ्योऽपि सूक्ष्मवायुकायिकाः पर्याप्ता विशेषाधिकाः७१। तेभ्योऽपि सूक्ष्मनिगोदा अपर्याप्तका असंख्येयगुणाः 72, तेभ्योऽपि पर्याप्ताः सूक्ष्मनिगोदाः संख्येयगुणाः, यद्यपि च पर्याप्ततेजस्कायिकादयः पर्याप्तसूक्ष्मनिगोदपर्यन्ताअविशेषेणाऽन्यत्राऽसंख्येयलोकाकाशप्रदेशराशिप्रमाणा उक्ताः, तथाऽपि लोकासंख्येयत्वस्याऽसंख्येयभेदभिन्नत्वादित्थमल्पबहुत्वमभिधीयमानमुपपन्नं द्रष्टव्यम्७३। तेभ्योऽभवसिद्धिका अनन्तगुणाः, जघन्ययुक्ताऽनन्तक-प्रमाणत्वात् 74, तेभ्यः प्रतिपतितसम्यग्दृष्टयोऽनन्तगुणाः 75, तेभ्यः सिद्धा अनन्तगुणाः 76, तेभ्योऽपि बादरवनस्पतिकायिकाः पर्याप्ता अनन्तगुणाः 77, तेभ्योऽपि सामान्यतो बादरपर्याप्ता विशेषाधिकाः, बादरपर्याप्तपृथिवीकायिकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् 78, तेभ्यो बादरापर्याप्तवनस्पतिकायिका संख्येयगुणाः, एकैकबादरनिगोदपर्याप्तनिश्रयासंख्येयगुणानां बादराऽपर्याप्तनिगोदानां संभवात् 76, तेभ्यः सामान्यतो बादरापर्याप्ता विशेषाधिकाः, बादरपर्याप्तपृथिवीकायिकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् 80, तेभ्यः सामान्यतो बादरा विशेषाऽधिकाः, पर्याप्ताऽपर्याप्तानां तत्र प्रक्षेपात् 81, तेभ्यः सूक्ष्मवनस्पतिकायिका अपर्याप्ता असंख्येयगुणाः 82, तेभ्यः सामान्यतः सूक्ष्मा अपर्याप्ता विशेषाऽधिकाः, सूक्ष्माऽपर्याप्तपृथिवीकायिकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् 83 / तेभ्यः सूक्ष्मवनस्पतिकायिकाः पर्याप्तकाः संख्येयगुणाः, पर्याप्तसूक्ष्माणामपर्याप्तसूक्ष्मेभ्यः स्वभावतः सदैव संख्येयगुणतया प्राप्यमाणत्वात्, तथा के वलवेदसोपलब्धेः 84 तेभ्योऽपि सामान्यतः सूक्ष्माः पर्याप्त विशेषाधिकाः, पर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् 85, तेभ्यः पर्याप्ताऽपर्याप्तविशेषणरहिताः सूक्ष्मा विशेषाऽधिकाः, अपर्याप्तसूक्ष्मपृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिकायिकानामपि तत्र प्रक्षेपात् 86, तेभ्योऽपि भवसिद्धिका भवे सिद्धिर्येषां ते भवसिद्धिकाः' भव्या विशेषाधिकाः, जघन्ययुक्ताऽनन्तकमात्र-भव्यपरिहारेण सर्वजीवानां भव्यत्वात्८७, तेभ्यः सामान्यतो निगोदजीवा विशेषाधिकाः, इह भव्याभव्याश्चाऽतिप्राचुर्येण बादरसूक्ष्मनिगोदजीवराशावेव प्राप्यन्ते, नाऽन्यत्र, अस्यैषां Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुय(ग) 656 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्पाबहुय(ग) पात, सर्वेषामपि मिलितानामसंख्येयलोकाकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् / अभव्याश्च युक्ताऽनन्तकसंख्यामात्रपरिमाणाः, ततो भव्याऽपेक्षया ते किञ्चिन्मात्रा:, भव्याश्च प्रागभव्यपरिहारेण चिन्तिताः / इदानीं तु बादरसूक्ष्मनिगोदचिन्तायां तेऽपि प्रक्षिप्यन्त इति विशेषाधिकाः 58, तेभ्यः सामान्यतो वनस्पतिजीवा विशेषाऽधिकाः, प्रत्येकशरीरिणामपि वनस्पतिजीवानां तत्र प्रक्षेपात् 86, तेभ्यः सामान्यत एकेन्द्रिया विशेषाऽधिकाः, बादरसूक्ष्मपृथिवीकायिकादीनामपितत्र प्रक्षेपात्६०। तेभ्यः सामान्यतस्तिर्यग्योनिकाः विशेषाधिकाः,पर्याप्ताऽपर्याप्तद्वित्रिचतुरिन्द्रियतिर्यकपञ्चेन्द्रियाणामपि तत्र प्रक्षेपात् 61, तेभ्यश्चतुर्गतिभाविनो मिथ्यादृष्टयो विशेषाधिकाः, इह कतिपयाविरतसम्यग्दृष्ट्यादिसंज्ञिव्यतिरेकेण शेषाः सर्वेऽपि तिर्यञ्चो मिथ्यादृष्टिचिन्तायां चाऽसंख्येयनारकादयः, तत्र प्रक्षिप्यन्ते / ततस्तिर्यग्जीवराश्यपेक्षया चतुर्गतिका मिथ्यादृष्टयश्चिन्त्यमाना विशेषाधिकाः 62, तेभ्योऽविरता विशेषाऽधिकाः, अविरतिसम्यग्दृष्टीनामपि तत्र प्रक्षेपात् 63, तेभ्यः सकषायिणो विशेषाधिकाः, देशविरतादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् 64, / तेभ्यश्छद्यस्था विशेषाधिकाः, उपशान्तमोहादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् 65, तेभ्यः सयोगिनो विशेषाऽधिकाः, सयोगिकेवलिनामपि तत्र प्रक्षेपात्६६,तेभ्यः संसारस्था विशेषाधिकाः, अयोगिकेवलिनामपि तत्र प्रक्षेपात् 67, तेभ्यः सर्वजीवा विशेषाऽधिकाः, सिद्धानामपि तत्र प्रक्षेपात् 68 / गतं महादण्डक-द्वारम्। प्रज्ञा०३ पद। पं० सं०। (25) योगद्वारम्। चतुर्दशविधस्य संसारसमापन्न जीवस्य योगानामल्पबहुत्वम्एएसिणं भंते ! चउद्दसविहाणं संसारसमावण्णगाणं जीवाणं जहण्णुक्कोसगस्सजोगस्स कयरे कयरेहिंतो०जाव विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा सुहमस्स अपज्जत्तगस्स जहण्णए जोए 1, बादरस्स अपज्जत्तगस्स जहण्णए जोए असंखेनगुणे 2, बेइंदियस्स अपज्जत्त-गस्स जहण्णए जोए असंखे० 3, एवं तेइंदियस्स 4, एवं चउरिंदियस्स 5, असण्णिपंचिंदियस्स अपज्जत्तगस्स जहण्णए जोए असंखेज्जगुणे ६,सण्णिपंचिंदियस्स अपज्जत्तगस्स जहण्णए जोए असंखे०७, सुहुम-पज्जत्तगस्स जहण्णए जोए असंखेजगुणे 8, बादरस्स पज्जत्तगस्स जहण्णए जोए असंखेजगुणे 6, सुहमस्स अपज्जत्तगस्स उक्कोसए जोए असंखेनगुणे 10, बादरस्स अपज्जत्तगस्स उक्कोसए जोए असंखे०११, सुहुमस्स पजत्तगस्स उक्कोसए जोए असंखे०१२, बादरस्स पज्जत्तगस्स उक्कोसए जोए असंखे०१३, बेइंदियस्स पज्जत्तगस्स जहण्णए जोए असंखे०१४,एवं तेइंदियस्स वि 15, एवं जाव सण्णिपंचिंदियस्सपज्जत्तगस्स जहण्णए जोए असंखे० 16, बेइंदियस्स अपजत्तगस्स उक्कोसए जोए असंखे०१६,एवं तेइंदियस्स वि 20, एवं चउरिंदियस्स वि 21, एवं जाव सण्णिपंचिंदियस्स अपज्जत्तगस्स उक्कोसए जोए असंखे०२३, बेइंदियस्स पञ्जत्तगस्स उक्कोसए जोए असंखे० 24, एवं तेइंदियस्स वि 25, एवं जाव सण्णिपंचिंदियस्स पञ्जत्तगस्स उक्कोसए जोए असंखेज्जगुणे 28 / (जहन्नुकोसगस्सजोगस्सत्ति) जघन्यो निकृष्टः काश्चिद्-व्यक्तिमाश्रित्य स एव च व्यक्तयन्तरापेक्षयोत्कर्ष उत्कृष्टो जघन्योत्कर्षः, तस्य योगस्य वीर्यान्तरायक्षयोपशमादिसमुत्थकायादिपरिस्पन्दस्य एतस्य च योगस्य चतुर्दशजीवस्थानसम्बन्धाजघन्योत्कर्षभेदाचाष्टाविंशतिविधस्या ऽल्पत्वबहुत्यादिजीवस्थानकविशेषाद्भवति, तत्र सव्वत्थोवेत्यादि, सूक्ष्मस्य पृथिव्यादेः सूक्ष्मत्वाच्छरीरस्य तस्याऽप्यपर्याप्तकत्वेनाऽसम्पूर्णत्वात् तत्राऽपि जघन्यस्य विवक्षितत्वात्सर्वेभ्यो यो वक्ष्यमाणेभ्यो योगेभ्यः सकाशात् स्तोकः, सर्वस्तोको भवति, जघन्यो योगः। स पुनर्वैग्रहिक-कार्मणौदारिकपुद्गलग्रहणप्रथमसमयवर्ती, तदनन्तरञ्च समयवृद्ध्याऽजघन्योत्कृष्टो यावत्सर्वोत्कृष्टो न भवति / (बायरस्सेत्यादि) बादरजीवस्य पृथिव्यादेरपर्याप्तकजीवस्य जघन्यो योगः पूर्वोक्तापेक्षयाऽसङ्घयातगुणोऽसंख्यातगुणवृद्धो बादरत्वादेवेति / एवमुत्तरत्राऽप्यसंख्यातगुणत्वं दृश्यम् / इह च यद्यपि पर्याप्तकत्रीन्द्रियोत्कृष्ट - कायापेक्षया पर्याप्तकानां द्वीन्द्रियाणां सज्ञिनामसज्ञिनां च पञ्चेन्द्रियाणामत्कष्टः कायः संख्यातगणो भवति. संख्यातयोजनप्रमाणत्वात्, तथाऽपीह योगस्स परिस्पन्दस्य विवक्षितत्वात्तस्य च क्षयोपशमविशेषसामर्थ्याद्यथोक्तमसंख्यातगुणत्वं न विरुध्यते,नहि अल्पकायस्याऽल्प एव स्पन्दो भवति, महाकायस्य वा महानेव, व्यत्ययेनाऽपि तस्य दर्शनादिति। भ०२५ श०१ उ०) एतस्यैव योगाऽल्पबहुत्वस्यव्याख्यायिका गाथासुहुमनिगोयाइखणऽप्पजोगबायरविगलअसण्णिमणा / अपज्ज लहुपढमदुगुरु, पज्जहस्सियरो असंखगुणो // 53 // तत्र सूक्ष्मनिगोदस्य सूक्ष्मसाधारणस्य लब्ध्यपर्याप्तकस्य सर्वजघन्यवीर्यस्येति च सामर्थ्यादृश्यम्। तस्यैव सर्व-जधन्ययोगस्य प्राप्यमाणत्वादादिक्षणः प्रथमोत्पत्तिसमयः सूक्ष्मनिगोदादिक्षणः, तत्र सप्तम्येकवचनलोपश्च प्राकृतत्वात्। किम् ?, इत्याह- (अप्पजोग त्ति) अल्पः सर्वस्तोको योगो वीर्य, व्यापार इति यावत् / ततो बादरस्य (विगलत्ति) विकलस्य / (असण्णत्ति) असंज्ञिनः 'अपज्जत्ति' प्रत्येक संबन्धात्सूक्ष्मनिगोद बादरलक्षणस्य गुरुरुत्कृष्टो योगो संख्येयगुणो वाच्यः / ततः प्रथमद्विकस्य (पजहस्सियरो असंखगुणत्ति) पर्याप्तस्य हस्वो जघन्य इतर उत्कृष्टयोगो यथाक्रममसंख्येयगुणो वाच्य इति गाथाक्षरार्थः। भावार्थस्त्वम्- सूक्ष्मनिगोदस्य लब्ध्यपर्याप्तकस्य प्रथमसमये वर्तमानस्य जघन्यो योगः सर्वस्तोकः 1, ततो बादरैकेन्द्रियस्य लब्ध्यपर्याप्तकस्य प्रथमसमये वर्तमानस्य जघन्यो योगोऽसंख्येयगुणः २,ततो द्वीन्द्रियस्य लब्ध्यपर्याप्तकस्य प्रथमसमये वर्तमानस्य जघन्यो योगोऽसंख्येयगुणः 3, ततः त्रीन्द्रियस्य लब्ध्यपर्याप्तकस्य प्रथमसमये वर्त्तमानस्य जघन्यो योगोऽसंख्येयगुणः 4, ततश्चतुरिन्द्रियस्य लब्ध्यपर्याप्तकस्य प्रथमसमये वर्तमानस्य जघन्यो योगोऽसंख्येयगुणः 5, ततो-ऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियस्य लब्ध्यपर्याप्तस्य प्रथमसमये वर्तमानस्य जघन्यो योगोऽसंख्येयगुणः 6, ततः संज्ञिपञ्चेन्द्रियस्य लब्ध्य-पर्याप्तस्य प्रथमसमये वर्तमानस्य जघन्यो योगोऽसंख्येयगुणः 7 / ततः सूक्ष्मनिगोदस्य लब्ध्यपर्याप्तस्योत्कृष्टो योगोऽसंख्येयगुणः८, ततो बादरैकेन्द्रियस्य लब्ध्यपर्याप्तस्योत्कृष्टो योगोऽसंख्येयगुणः 6, ततः सूक्ष्मनिगोदस्य पर्याप्तस्य जघन्यो योगोऽसंख्येयगुणः 10, ततो बादरैकेन्द्रियस्य पर्याप्तस्य जघन्यो योगोऽसंख्येयगुणः 11, ततः सूक्ष्मनिगोदस्य पर्याप्तस्योत्कृष्टो योगोऽसंख्येयगुणः 12, ततो बादरैकेन्द्रियस्य पर्याप्तकस्योत्कृष्टो योगोऽसंख्येयगुणः 13 / असमत्ततसुक्किहो, पज्जजहन्नियर एव ठिइठाणा। Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुय(ग) 657 - अभिमानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्पाबहुय(ग) अपज्जेयर संखगुणा, परमपज्जबीए असंखगुणा // 5 // असमाप्ता अपर्याप्तास्तेचतेत्रसाश्चद्वीन्द्रियादयोऽसमाप्तत्रसाः, अपर्याप्तद्वित्रिचतुरिन्द्रियाः,संज्ञिपञ्चेन्द्रियास्तेषामुत्कृष्टोऽसमाप्तत्रसोत्कृष्टोऽसंख्येयगुणो वाच्यः। अयमर्थ:- पर्याप्तबादरैकेन्द्रियोत्कृष्टयोगाद् द्वीन्द्रियस्य लब्धिअपर्याप्तकस्योत्कृष्टो योगोऽसंख्येयगुणः 14, ततस्त्रीन्द्रियस्य लब्ध्यपर्याप्तकस्योत्कृष्टो योगोऽसंख्येयगुणः 15, ततः चतु-रिन्द्रियस्य लब्ध्यपर्याप्तकस्योत्कृष्टो योगोऽसंख्येयगुणः 16, ततोऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियस्य लब्ध्यपर्याप्तकस्योत्कृष्टो योगो-ऽसंख्येयगुणः 17, ततः संज्ञिपञ्चेन्द्रियस्य लब्ध्यपर्याप्तक-स्योत्कृष्टो योगोऽसंख्येयगुणः 18, (पज जहन्नत्ति) ततस्त्रसानां पर्याप्तानां जघन्यो योगोऽसंख्येयगुणो वाच्यः 16, ततोऽपि (इयरत्ति) त्रसानां पर्याप्तानामुत्कृष्टो योगोऽसंख्येयगुणो वाच्यः 20, इत्यक्षराऽर्थः। भावार्थस्त्वयम्- ततः संज्ञिपञ्चेन्द्रियस्य लब्ध्यपर्याप्तकोत्कृष्टयोगात् पर्याप्तद्वीन्द्रियस्य जघन्योयोगोऽसंख्येयगुणः 21, ततस्त्रीन्द्रियस्यपर्याप्तकस्य जधन्यो योगोऽसंख्येयगुणः 22, ततश्चतुरिन्द्रियस्य पर्याप्तकस्य जघन्यो योगोऽसंख्येय-गुणः२३. ततोऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियस्य पर्याप्तकस्यजघन्योयोगोऽसंख्ये यगुणः 24, ततः संज्ञिपश्शेन्द्रियस्य पर्याप्तस्य जघन्यो योगोऽसंख्येयगुणः 25 / ततः पर्याप्तद्वीन्द्रियस्योत्कृष्टो योगोऽसंख्येयगुणः 26, ततः पर्याप्तत्रीन्द्रियस्योत्कृष्टो योगोऽसंख्येयगुणः 27, ततः पर्याप्तचतुरिन्द्रियस्योत्कृष्टो योगोऽसंख्येयगुणः 28, ततः पर्याप्त-संज्ञयुत्कृष्टयोगादनुत्तरोपपातिनामुत्कृष्टो योगोऽसंख्येयगुणः 26, ततो ग्रैवयकदेवानामुत्कृष्टो योगोऽसंख्येयगुणः ३०,ततो भोगभूमिजानां तिर्यङ्-मनुष्याणामुत्कृष्टो योगोऽसंख्येयगुणः 31, ततोऽप्याहारकशरीरिणामुत्कृष्टो योगोऽसंख्येयगुणः 32, ततः शेषदेवनारक तिर्यङ्मनुष्याणां यथोत्तरमुत्कृष्टो योगोऽसंख्येय-गुणः 33 / अथ सुखावबोधायाऽल्पबहुत्वपदानां यन्त्रकमुपदर्शाते। तच्चेदम्- स्थापनासूक्ष्मनिगोद-अपर्याप्त-जघन्य-योगः सर्वस्तोकः 1, बादरनिगोदअप०जधव्योगः असंख्येयगुणः 2, द्वीन्द्रिय-अप० जघ० योगः असं०३, वीन्द्रिय-अप० जघन्योगः असं०४, चतुरिन्द्रिय-अप० जघन्योगः असं० 5, असंज्ञिपंचेंद्रिय-अप० जघ० योगः असं०६.संझिपं०अप०जघन्योगः असं०७। सूक्ष्मनिगोद-पर्याप्त-जघन्य-योगः असं० 5, बादरनिगोदपर्याप्त-जघन्योगः असं०६, सूक्ष्मनिगोद-अपर्याप्त-उत्कृष्ट-योगः असं०१०, बादरनिगोद- अप०उत्कृष्ट-योगः असंख्येयगुणः 11, सूक्ष्मनिगोद-पर्याप्तउत्कृष्ट-योगः असं० 12, बादरनिगोद-पर्याप्त-उत्कृष्ट-योगः असं०१३१ द्वीन्द्रिय-अप० उत्कृष्ट-योगः असं० 14, त्रीन्द्रिय-अप० उत्कृष्ट-योगः असं० 15, चतुरिन्द्रिय-अप० उत्कृष्ट-योगः असं० 16, असंज्ञिपं० अप०उत्कृष्ट-योगःअसं०१७, संज्ञिपं०अप०उत्कृष्ट-योगः असं०१८॥ द्वीन्द्रिय-पर्याजघ० योगः असं०१६, त्रीन्द्रिय-पर्या० जघ०योगः असं०२०, चतुरिन्द्रिय-पर्या० जघव्योगः असं० 21, असंज्ञिपंचेंद्रियपर्याजधव्योगःअसं०२२, संज्ञिपं०पर्याजघ०योगः असं०२३। द्वीन्द्रिय-पर्या०उत्कृष्ट-योगः असं० 24, त्रीन्द्रिय-पर्या० उत्कृष्ट-योगः असं० 25, चतुरिन्द्रिय-पर्या० उत्कृष्ट-योगः असं०२६, असंज्ञिपंचेंद्रियपर्या॰उत्कृष्ट-योगःअसं०२७, संज्ञिपंचेंद्रिय-पर्या॰उत्कृष्ट-योगः असं०२८ / अनुत्तरोपपातिक-उत्कृष्ट-योगःअसं०२६, ग्रैवेयक-उत्कृष्ट-योगः असं०३०, भोगभूमियुगलिक-उत्कृष्ट-योगः असं०३१, आहारक-उत्कृष्ट योगः असं० 32, देव-नारक-तिर्यड्-मनुष्य-उत्कृष्ट-योगः असंख्यातगुणः 33 / गुणकारश्चाऽत्राऽपिसूक्ष्मक्षेत्रपल्योपमाऽसंख्येयभागरूपः प्रत्येकंग्राह्यः। तदत्र जधन्ययोगी जघन्यकर्मप्रदेशग्रहणं जघन्य-स्थितिं च विदधाति, योगवृद्धौ च तद्वृद्धिरपीति स्थितमिति। एवठिइठाणेत्यादि, एवम्, मकारस्य लोपः,प्राकृतत्वात् / पूर्वोक्तयोगप्ररूपणान्यायेन सूक्ष्मैकेन्द्रियादिजीवक्रमेणैव स्थितीनां स्थानानि स्थितिस्थानानि, वाच्यानीति शेषः। तत्रजघन्यस्थितेरारभ्य एकैकसमयवृद्ध्या सर्वोत्कृष्टनिजस्थितिपर्यवसानाः ये स्थितिभेदास्ते स्थितिस्थानान्युन्ते। कथं पुनरेतानि वाच्यानि? इति कियद्गुणानिपुनरेतानि?, इत्याह- संख्यगुणानि। तत्र संख्यानं संख्या, तामहति संख्यः। दण्डादिभ्यो यः।६।४।१७८ / इति (हैमसूत्रेण) य-प्रत्ययः। ततःसंख्यःसंख्येयः संख्यात इत्यर्थो गुणो गुणकारो येषां तानि संख्यगुणानि, संख्यातगुणितानीत्यर्थः / किं सर्वपदेषु संख्यातगुणान्येव, आहोस्विदस्ति कस्मॅिश्चित्पदे विशेषः ?, इत्याह(परमपज्जबीए असंखगुणत्ति) परं केवलम, अपर्याप्तद्वीन्द्रिये अपर्याप्तद्वीन्द्रियपदे, तानि स्थितिस्थानानि असंख्यातगुणानि 2, ततः सूक्ष्मैकेन्द्रियस्य पर्याप्तकस्य स्थितिस्थानानि संख्यातगुणानि 3, ततो बादरैकेन्द्रियस्य पर्याप्तकस्य स्थितिस्थानानि संख्यातगुणानि 4, एतानि च पल्योपमासंख्येयभागसमयतुल्यानि स्थितिस्थानानि भवन्ति। यतएकेन्द्रियाणां जघन्योत्कृष्टस्थित्योरन्तरालमेतावन्मात्रमेवेति / ततोऽपर्याप्तद्वीन्द्रियस्य स्थितिस्थानान्यसंख्यातगुणितानि, पल्योपमसंख्येयभागमात्राणीति कृत्वा 5, ततस्तस्यैव द्वीन्द्रियस्य पर्याप्तस्य स्थितिस्थानानि संख्यातगुणितानि 6, ततस्त्री-न्द्रियस्यापर्याप्तकस्य स्थितिस्थानानि संख्यातगुणितानि 7, ततस्त्रीन्द्रियस्य पर्याप्तस्य स्थितिस्थानानि संख्यातगुणितानि 8, ततश्चतुरिन्द्रियस्यापर्याप्तस्य स्थितिस्थानानि संख्यातगुणितानि , ततः पर्याप्तचतुरिन्द्रियस्य स्थितिस्थानानि संख्यातगुणितानि 10, ततोऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियस्यापर्याप्तस्य स्थितिस्थानानि संख्यातगुणितानि 11, ततोऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियस्य पर्याप्तस्य स्थिति-स्थानानि संख्यातगुणानि १२.ततः संज्ञिपधेन्द्रिस्यापर्याप्तस्य स्थितिस्थानानि संख्यातगुणानि 13, ततः संज्ञिपञ्चेन्द्रियस्थपर्याप्तस्य स्थितिस्थानानि संख्यातगुणानि भवन्तीति 14 / / स्थापना सूक्ष्म-एकेन्द्रिय-अपर्याप्त-स्थितिस्थान-सर्वस्तोकः १,सूक्ष्म-एकेन्द्रियपर्याप्त-स्थिति० संख्यातगुणः२, बादर-एके न्द्रिय-अपर्याप्तस्थिति०संख्यातगुणः 3, बादर-एकेन्द्रिय-पर्याप्त-स्थिति० संख्यातगुणः 4, द्वीन्द्रिय-अपर्याप्त-स्थिति०असंख्यातगुणः 5, द्वीन्द्रिय-पर्याप्तस्थिति०संख्यातगुणः 6, त्रीन्द्रिय-अपर्याप्त-स्थिति०संख्यातगुणः 7, त्रीन्द्रिय-पर्याप्त-स्थिति० संख्यातगुणः८, चतुरिन्द्रिय-अपर्याप्त-स्थिति० संख्यातगुणः६, चतुरिन्द्रिय-पर्याप्त-स्थिति० संख्यातगुणः 10, असंज्ञिपंचेन्द्रिय-अपर्याप्त-स्थिति०संख्यातगुणः 11, असंज्ञि-पंचेन्द्रिय-पर्याप्तस्थिति० संख्यातगुणः 12, संज्ञि-पंचेन्द्रिय-अपर्याप्त-स्थितिस्थानसंख्यातगुणः 13, संज्ञि-पंचेन्द्रिय-पर्याप्त-स्थितिस्थान-संख्यातगुणः 14, योगप्रसङ्गेन स्थितिस्थानानि। कर्म०५ कर्म०। योगस्यैवाऽल्पबहुत्वं प्रकाराऽन्तरेणाऽऽहएयस्स णं भंते ! पन्नरसविहस्स जहणु को सगस्स कयरे कयरेहिंतो० जाव विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सवत्थो कम्मगसरीरस्स जहण्णए जोइ१,ओरालियमीसगस्स जहण्णए जोए असंखे अगुणे 2, देउग्वियमीसगस्स जहण्णए जोए असंखेजगुणे 3, ओरालियसरीरस्स जहण्णए जोए असंखेज्जगुणे, Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुय(ग) 658 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्पाबहुय(ग) वेउव्वियसरीरस्स जहण्णए जोए असंखेजगुणे 5, कम्मगसरीरस्स उक्कोसए जोए असंखेजगुणे 6, आहारगमीसगस्स जहण्णए जोगे असंखेजगुणे 7, आहारगमीसगस्स उक्कोसए जोए असंखेज्जगुणे 8, ओरालियमीसगस्स वेउव्वियमीसगस्स। एएसि णं उक्कोसए जोए दोण्ह वि तुल्ले अंसखेजगुणे 6-10, असचामोसमणजोगस्स जहण्णए जोए असंखेजगुणे 11, आहारगस्स सरीरस्स जहण्णए जोए असंखेजगुणे 12, तिविहस्स मणयोगस्स, चउव्विहस्स वइजोगस्स एएसिणं सत्तण्ह वितुल्ले जहण्णए जोए असंखेज्जगुणे 12-13, आहारगसरीरस्स उक्कोसए जोए असंखेजगुणे ओरालियसरीरस्स वेउव्वियसरीरस्स चउव्विहस्स य मणजोगस्स चउव्विहस्सय वइजोगस्स / एएसि णं दसण्ह वि तुल्ले उक्कोसए जोए असंखेज्जगुणे 21-30 टीका सुगमा। भ०२५ श०१ उ०॥ मनोयोम्यादीनामल्पबहुत्वम् - एएसिणं भंते ! जीवाणं सजोगीणं मणजोगीणं वयजोगिणं कायजोगीणं अजोगीण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा मणजोगी, वयजोगी असंखेज्जगुणा, अजोगी अणंतगुणा, कायजोगी अणंतगुणा, सजोगी विसेसाहिया। सर्वस्तोका मनोयोगिनः, संजयसंज्ञिपर्याप्ता एव हि मनोयोगिनः, तेच स्तोका इति; तेभ्यो वाग्योगिनोऽसंख्येयगुणाः, द्वीन्द्रियादीनां वाग्योगिनां संज्ञिभ्योऽसंख्यातगुणत्वात् / तेभ्योऽयोगिनोऽ-नन्तगुणाः, सिद्धानमनन्तत्वात्। तेभ्यः काययोगिनोऽनन्ताः, वनस्पतीनामनन्तत्वात् / यद्यपि निगोदजीवानामनन्तानामेकं शरीरं तथापि तेनैकेन शरीरेण सर्वेऽप्याहारादिग्रहणं कुर्वन्तीति सर्वेषामपि काययोगित्वान्नाऽनन्तगुणत्वव्याघातः / तेभ्यः सामान्यतः सयोगिनो विशेषाधिकाः, द्वीन्द्रियादीनामपि वाग्योग्यादीनांतत्र प्रक्षेपात्। गतंयोगद्वारम्। प्रज्ञा०३ पद / कर्मा जी पं० सं०। (26) योनिद्वारम् / शीतादियोनिकानाम् - एतेसिं णं भंते ! जीवाणं सीतजोणियाणं उसिणजोणियाणं सीतोसिणजोणियाणं अजोणियाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४? गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा सीतोसिणजोणिया, उसिणजोणिया असंखेज्जगुणा, अजोणिया अणंतगुणा, सीतजोणिया अणंतगुणा। अल्पबहुत्वचिन्तायां सर्वस्तोकाः शीतोष्णयोनयः शीतोष्णोभययोनिकाः, भवनवासिगर्भजतिर्यक्पश्शेन्द्रियगर्भजमनुष्यव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकानामेवोभययोनिकत्वात्। तेभ्योऽसंख्येयगुणा उष्णयोनिकाः, सर्वेषां सूक्ष्मबादरभेदभिन्नानां तैजस्कायिकानांप्रभूततराणां नैरयिकाणां कतिपयानां पृथिव्य-पुवायुप्रत्येकवनस्पतीनां वोष्णयोनिकत्वात्। अयोनिका अनन्तगुणाः सिद्धानामनन्तत्वात् / तेभ्यः शीतयोनिका अनन्तगुणाः अनन्तकायिकानां सर्वेषामपि शीतयोनिकत्वात् , तेषां च सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वात्। सचित्ताऽचित्तमिश्रयोनिकानाम् - एतेसि णं भंते ! जीवाणं सचित्तजोणीणं अचित्तजोजोणीणं मीसजोणीणं अजोणीण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४? गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा मीसजोणिया, अचित्तजोणिया असंखिजगुणा, अजोणिया अणंतगुणा, सचित्तजोणिया अणंतगुणा। अल्पबहुत्वचिन्तायां सर्वस्तोका जीवा मिश्रयोनिकाः, गर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्यकपञ्चेन्द्रियमनुष्याणामेव मिश्रयोनिकत्वात् / तेभ्योऽचित्तयोनिका असंख्येयगुणाः, नैरयिकदेवानां कतिपयानां च प्रत्येकं पृथिव्यप्तेजोवायुप्रत्येकवनस्पतिद्वित्रि-चतुरिन्द्रियसंमूछिमतिर्यक् पञ्चेन्द्रियसंमूछिममनुष्याणा-मचित्तयोनिकत्वात्। तेभ्योऽप्ययोनिका अनन्तगुणाः, सिद्धा-नामनन्तत्वात् / तेभ्यः सचित्तयो निका अनन्तगुणाः, निगोदजीवानां सचित्तयोनिकत्वात्, तेषां च सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वात् / संवृतविवृतयोनिकानाम्एतेसिणं मंते ! जीवाणं संवुडजोणियाणं वियडजोणियाण य संवुडवियडजोणियाणं अजोणियाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा० 4? गोयमा ! सव्वत्थोवा संवुडवियडजोणिया, वियडजोणिया असंखेजगुणा, अजोणिया अणंतगुणा, संवुडजोणिया अणंतरगुणा। अल्पबहुत्वचिन्तायां सर्वस्तोकाः संवृतविवृतयोनिकाः, गर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्यक्पञ्चेन्द्रियमनुष्याणामेव संवृतविवृत-योनिकत्वात, तेभ्यो विवृतयोनिकाः संख्येयगुणाः, द्वीन्द्रियादीनां चतुरिन्द्रियपर्यवसानाना समूच्छिमतिर्यक्पञ्चेन्द्रियसंमूञ्छि-ममनुष्याणां च विवृतयोनिकत्वात्। तेभ्योऽयोनिका अनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात्।तेभ्यः संवृतयोनिका अनन्तगुणाः, वनस्पतीनां संवृतयोनिकत्वात्, तेषां च सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुण-त्वात्। प्रज्ञा०८ पद। (27) लेश्याद्वारम् / सलेश्यानामल्पबहुत्वम् - तत्र सलेश्याऽलेश्यानामल्पबहुत्वचिन्तायाम्-"सव्वत्थोवा अलेस्सा, सलेस्सा अणंतगुणा" जी०१ प्रति०। सम्प्रति सलेश्यादीनामष्टानामल्पबहुत्वमाहएएसि णं भंते ! जीवाणं सलेसाणं किण्हलेसाणं नीललेसाणं काउलेसाणं तेउलेसाणं पम्हलेसाणं सुक्कलेसाणं अलेसाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४? गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा सुक्कलेस्सा, पम्हलेस्सा संखिज्जगुणा, तेउलेस्सा संखिज्ज०, अलेस्सा अणंतगुणा, काउलेस्सा अणंतगुणा, नीललेस्सा विसे-साहिया, कण्हलेस्सा विसेसाहिया॥१॥ सर्वस्तोकाः शुक्ललेश्याः, लान्तकादिष्वेवानुत्तरपर्यवसानेषु वैमानिकेषु देवेषु कतिपयेषु च गर्भव्युत्क्रान्तिकेषु कर्मभूमिकेषु संख्येयवर्षायुष्केषु मनुष्येषु तिर्यक् स्त्रीपुं नपुंसकेषु कतिपयेषु संख्येयवर्षायुष्केषु तस्याः संभवात् / तेभ्यः पद्मलेश्याकाः संख्येयगुणाः, सा हि सनत्कु मारमाहेन्द्रब्रह्मलोककल्पवासिषु देवेषु तथा प्रभूतेषु गर्भव्युत्क्रान्तिकेषु कर्मभूमिजेषु संख्येय Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुय(ग) 659 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्याबहुय(ग) वर्षायुष्केषु मनुष्यस्त्री पुनपुंसकेषु तथा गर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्यग्योनिकस्त्रीपुनपुंसकेषु असंख्येयवर्षायुष्केष्ववाप्यते, सनत्कुमारादिदेवादयश्च समुदियता लान्तकादिदेवादिभ्यः संख्येयगुणाः, इति भवन्ति शुक्ललेश्याकेभ्यः पद्मलेश्याकाः संख्येयगुणाः, तेभ्यस्तेजोलेश्याकाः संख्येयगुणाः, सर्वेषासौधर्मेशानज्योतिष्कदेवानां कतिपयानां च भवनपतिव्यन्तर-गर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्यक्पोन्द्रियमनुष्याणां बादराऽपर्याप्त-केन्द्रियाणां च तेजोलेश्याभावात्। नन्वसंख्येगुणाः करमान्न भवन्ति, कथं न भवन्ति?, इति चेत्। उच्यते. इह ज्योतिष्का भवनवासिभ्योऽप्यसंख्ये यगुणाः, किं पुनः सनत्कुमारादिदेवेभ्यः, ते च ज्योतिष्कास्तेजोलेश्याकास्तथा सौधर्मेशानकल्पदेवाश्च, ततः प्राप्नुवन्त्यसंख्येयगुणाः / तदयुक्तम् / वस्तुतत्त्वापरिज्ञानात्। लेश्यापदे हि गर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्यग्योनिकानां संमूर्छिम-पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां च कृष्णलेश्याद्यल्पबहुत्वे सूत्रं वक्ष्यति- "सव्वत्थोवा गन्भवतियतिरिक्खजोणिया सुक्कलेस्सा, तिरिक्खजोणिणीओ संखेज्जगुणाओ, पम्हलेस्सा गब्भवतियतिरिक्खजोणिया संखेज्जगुणा, तिरिक्खजोणिणीओ संखेज्जगुणाओ, तेउलेस्सा गब्भवऋतिरिक्खजोणिया संखे-जगुणा, तेउलेस्साओ तिरिक्खजोणिणीओ संखेज्जगुणाओ" इति महादण्ड के च तिर्यग्योनिकस्त्रीभ्यो व्यन्तरज्योतिष्काश्च संख्येयगुणा वक्ष्यन्ते / ततो यद्यपि भवनवासिभ्योऽप्यसंख्येयगुणा ज्योतिष्काः, तथापि पदालेश्याकेभ्यस्तेजोलेश्याकाः संख्येयगुणा एव। इदमत्र तात्पर्यार्थः- यदि केवलान् देवानेव पद्मलेश्यानधिकृत्य देवा एव तेजोलेश्याकाश्चिन्त्यन्ते ततो भवन्त्यसंख्येयगुणाः, यावता तिर्यक्संमिश्रया पद्मलेश्याकेभ्यस्तिर्यक्संमिश्रा एव तेजोलेश्याकाश्चिन्त्यन्ते, तिर्यञ्चश्व पद्मलेश्या अपि अतिबहवस्ततः संख्येयगुणा इति। तेभ्यः अलेश्याका अनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात् / तेभ्यः कापोतलेश्या अनन्तगुणाः, वनस्पतिकायिकानामपि कापोतलेश्यायाः संभवात्, वनस्पतिकायिकानांच सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वात्। तेभ्योऽपि नीललेश्या विशेषाधिकाः, प्रभूततराणां नीललेश्यासंभवात्। तेभ्योऽपि कृष्णलेश्याका विशेषाधिकाः, प्रभूतानां कृष्णलेश्याकत्वात् / सामान्यतः सलेश्या विशेषाधिकाः, नीललेश्याकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् / प्रज्ञा०३ पद। जी०। कर्मा तदेवं सामान्यतोऽल्पबहुत्वं चिन्तितं; संप्रति नैरयिकेषु तच्चिन्तयन्नाहएतेसि णं भंते ! नेरइयाणं कण्हलेस्साणं नीललेस्साणं काउलेस्साण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा नेरइया कण्हलेस्सा, नीललेस्सा असंखेजगुणा, काउलेस्सा असंखेजगुणा।।२। नैरयिकाणां हि तिस्रो लेश्याः / तद्यथा-कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या / उक्तञ्च- "काऊया दोसु तइयाए मीसिया नीलिया चउत्थीए / पंचमियाए मिस्सा, कण्हा तत्तो परमकण्हा" ||1|| ततः त्रयाणामेव पदानां परस्परमल्यबहुत्वचिन्ता, तत्रसर्वस्तोकाः कृष्णलेश्या नैरयिकाः, कतिपयपञ्चमपृथिवीगतनरकावासेषु षष्ठयां सप्तम्यां नैरयिकाणां कृष्णलेश्यासद्भावात् / ततोऽसंख्येयगुणा नीललेश्याः, कतिपयेषु तृतीयपृथिवीगतनरकावासेषु चतुर्थ्यां समस्तायां पृथिव्यां कतिपयेषु पक्षमपृथिवीगतनरकावासेषु नैरयिकाणां पूर्वा के भ्योऽसंख्येयगुणानां नीललेश्याभावात् / तेभ्योऽप्यसंख्येयगुणाः कापोतलेश्याः, प्रथमद्वितीयपृथिव्यो-स्तृतीयपृथिवीगतेषु च कतिपयेषु नरकावासेषु नारकाणा-मनन्तरोक्तेभ्योऽसंख्येयगुणानां कापोतलेश्यासद्भावात्। अधुना तिर्यक्पञ्चेन्द्रियेष्वल्पबहुत्वमाहएएसि णं भंते ! तिरिक्खजोणियाणं कण्हलेस्साणं० जाव सुक्कलेस्साण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा तिरिक्खजोणिया सुक्कलेस्सा, एवं जहा ओहिया, नवरं अलेस्सवजा॥३॥ (एवं जहा ओहिया इति) एवमुपदर्शितेन प्रकारेण प्राग्वत् औधिकास्तथा वक्तव्याः, नवरमलेश्यावर्जास्तिरश्चामले-श्यानामसंभवात्। ते चैवम्सर्वस्तोकास्तिर्यग्योनिकाः शुक्ललेश्यास्ते च जघन्यपदे संख्याता द्रष्टव्याः 1, तेभ्योऽ-संख्येयगुणाः पद्मलेश्याः 2, तेभ्योऽपि संख्येयगुणास्तेजोलेश्याः 3, तेभ्योऽप्यनन्तगुणाः कापोतलेश्याः 4, तेभ्योऽपि नीललेश्या विशेषाधिकाः 5, तेभ्योऽपि कृष्णलेश्या विशेषाधिकाः 6, तेभ्योऽपि सलेश्या विशेषाधिकाः७। साम्प्रतमेकेन्द्रियेष्वल्पबहुत्वमाहएतेसिणं भंते ! एगिदियाणं कण्हलेस्साणं० जाव तेउलेस्साण यकयरे कयरेहिंतो अप्पावा 4? गोयमा! सव्वत्थोवा एगिंदिया तेउलेस्सा, काउलेस्सा अणंतगुणा, नीललेस्सा विसेसाहिया, कण्हलेस्सा विसेसाहिया॥४|| सर्वस्तोका एकेन्द्रियास्तेजोलेश्याः, कतिपयेषु बादर-पृथिव्यप्प्रत्येकवनस्पतिकायिकेष्वपर्याप्तावस्थायां तस्याः सद्भावात् / तेभ्यः कापोतलेश्या अनन्तगुणाः, अनन्तानां सूक्ष्मबादरनिगोदजीवानां कापोतलेश्यासद्भावात्। तेभ्योऽपि नीललेश्या विशेषाधिकाः, तेभ्योऽपि कृष्णलेश्या विशेषाधिकाः। अत्र भावना प्रागेवोक्ता। सम्प्रति पृथिवीकायिकादिविषयमल्पबहुत्वं वक्तव्यम्। तत्र पृथिव्यप्वनस्पतिकायानां चतस्रो लेश्याः, तेजोवायुकायानां तिस्र इति तथैव सूत्रमाहएते सि णं भंते ! पुढवीकाइयाणं कण्हलेस्साणं० जाव तेउलेस्साण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४ ? गोयमा ! जहा ओहिया एगिदिया, नवरं काउलेस्सा असंखिजगुणा, एवं आउक्काइयाण वि / एते सि णं भंते ! तेउक्काइयाणं कण्हले स्साणं नीलकाउलेस्साण य कयरे कयरे हितो अप्पा वा०४? गोयमा ! सव्वत्थोवा तेउक्काइया काउलेस्सा, नीलले स्सा विसे साहिया, कण्हले स्सा विसेसाहिया, एवं वाउक्काइयाण वि / एतेसि णं भंते ! वणस्सइकाइयाणं कण्हलेस्साणं० जाव तेउलेस्साण य जहा एगिदियाणं बेइंदियते इंदियचउरिंदियाणं जहा ते उकाइ-याणं / एतेसि णं भंते ! पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं कण्हलेस्साणं० जाव सुक्कलेस्साण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! जहा ओहियाणं तिरिक्खजोणियाणं, नवरं काउलेस्सा जोणियाणं जहा ओहियाणं, तिरिक्खजोणियाणं नवरं काउलेस्सा संखिजगुणा 3, एवं तिरिक्खजोणिणीणं वि 4 ||5|| Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुय(ग) 660 - अभियानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्याबहुय(ग) असंखिज्जगुणा 1, संमुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं | संखे जगुणा, नीललेस्सा विसे साहिया, कण्हले स्सा जहा तेउक्काइयाणं 2, गम्भवकतियपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं विसेसाहिया, काउलेस्साओ संखिज्जगुणाओ, नीललेस्साओ जहा ओहियाणं, तिरिक्खजोणियपाणं नवरं काउलेस्सा विसेसाहियाओ, कण्हलेस्साओ विसेसाहियाओ / / 7 / / संखिज्जगुणा 3, एवं तिरिक्खजोणिणीणं वि। "एएसि णं भंते ! इत्यादि सुगमम् / नवरं सर्वास्वपि लेश्यासु स्त्रियः 'पुढवीकाइयाणमित्यादि' सुगमम् / द्वित्रिचतुरिन्द्रियविषयमपि प्रचुराः, सर्वसङ्ख्ययाऽपि च तिर्यक्पुरुषेभ्य तर्यक्-स्त्रियस्त्रिगुणाः, पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकसूत्रे कापोतलेश्या असंख्यातगुणा न त्वनन्तगुणाः, “तिगुणाऽतिरूवअहिया, तिरियाणं इत्थिया मुणेयव्या'' इति वचनात्। पञ्चेन्द्रियतिरश्चां सर्वसंख्ययाऽप्यसंख्यातत्वात् / संमूच्छिमपञ्चे- ततः संख्यातगुणा उक्ताः, नपुंसकास्तु गर्भव्युत्क्रान्तिकाः कतिपय इति न्द्रियतिरश्वां यथा तेजस्कायिकानामुक्तं तथा वक्तव्यम् / न ते यथोक्तमल्पबहुत्वं व्याघ्नन्तिा तेजस्कायिकानामिव तेषामप्याद्यलेश्यात्रयमात्रसद्भावात्। गर्भव्युत्क्रा- | सम्प्रति संमूछिमपञ्शेन्द्रियतिर्यग्यो निकगर्भव्युत्क्रान्तिकन्तिकपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकसूत्रम्- तेजोलेश्याभ्यः कापोतलेश्याः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्यो निकतिर्यक् स्त्रीविषयमष्टम, तथा सामान्यतः संख्येयगुणा वक्तव्याः, तावता-मेव तेषां केवलवेदसोपलब्धत्वात्, पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकतिर्यस्त्रीविषयं नवमं, तथाच सामान्यतशेषमौघिकसूत्रं वक्तव्यम् / एवं तिर्यग्योनिकानामपि सूत्रं वक्तव्यम्। तथा स्तिर्यग्योनिकतिर्यस्त्रीविष्यं दशमं सूत्रमाहचाऽऽह-(एवं तिरिक्खजोणिणीण त्ति) एतेसि णं भंते ! संमुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं अधुना संमूछिमगर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्यक्पञ्चेन्द्रियस्त्रीविषयं सूत्रमाह- गब्भवतियपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं तिरिक्खजोणिएतेसि णं मंते ! संमुच्छिमपंचिदियतिरिक्खजोणि-याणं णीण य कण्हलेस्साणं० जाव सुक्कलेस्साण य कयरे कयरेहितो गब्भवक्कंतियपंचिंदियतिरिक्खजोणियक-हलेस्साणं० जाव अप्पा वाov? गोयमा ! सव्वत्थोवा गन्मवक्कं तियतिरिक्खसुक्कलेस्साण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४? गोयमा ! जोणिया सुक्कलेस्सा, सुकलेस्साउ त्ति संखिज्जगुणाओ, सव्वत्थोवा गम्भवक्कं तियपं-चिंदियतिरिक्खजोणिया पम्हलेस्साओ संखिजगुणाओ, तेउलेस्साओ गम्भत्ति सुक्कलेस्सा, पम्हलेस्सा, संखिजगुणा, तेउलेस्सा संखिजगुणा, संखेज्जगुणा, तेउलेस्साउत्ति संखेज्जगुणा, काउलेस्साउत्ति संखेजगुणा, नीललेस्सा विसे साहिया, कण्हले स्सा काउलेस्सा संखेजगुणा, नीललेस्सा विसेसाहिया, कण्हलेस्सा विसेसाहिया, काउलेस्सा संमुच्छिमपंचिंदियतिरिक्ख-जोणिया विसेसाहिया, काउलेस्साओ संखेज्जगुणाओ, नीललेस्साओ विसेसाहियाओ, कण्हलेस्साओ विसेसाहियाओ, काउअसंखेज्जगुणा, नीललेस्सा विसेसाहिया, कण्हलेस्सा विसे लेस्साओसंमुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणिया असंखिजगुणा, साहिया। एतेसिणं भंते ! संमुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणि नीललेस्सा विसेसाहिया, कण्हलेस्सा विसेसाहिया॥८॥ याणं तिरिक्खजोणिणी य कण्हलेस्साणं० जाव सुक्कलेस्साण एएसिणं भंते ! पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं तिरिक्खय कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४ ? गोयमा ! जहेव पंचमं तहा इमं पिछटुं भाणियव्वं // 6 // जोणिणीण य कण्हलेस्साणं० जाव सुक्कलेस्साण य कयरे कायरे हिंतो अप्पा वा०४ ? गोयमा ! सव्वत्थो वा एतच प्राग्वद्भावनीयम्। इदं किल पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाधिकारे षष्ठं पंचिंदियतिरिक्खजोणिया सुक्कलेस्सा, सुक्कलेस्साओ सूत्रम्, अनन्तरोक्तं च पञ्चमम्। अत उक्तम्- (जहेव पंचम, तहाइमं छटुं संखिजगुणाओ, पम्हलेस्सा संखिजगुणा, पम्हलेस्साओ भाणियव्वं) संखिज्जगुणाओ, तेउलेस्सा संखेज्जगुणा, तेउलेस्साओ अधुना गर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्यक्पश्चेन्द्रियतिर्यस्त्रीविषयं संखिजगुणाओ, काउलेस्सा संखेजगुणा, नीललेस्सा सप्तमं सूत्रमाह विसे साहिया, कण्हलेस्सा विसेसाहिया, काउलेस्साओ एतेसि णं भंते ! गब्भवतियपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं संखेज्जगुणाओ, नीललेस्साओ विसेसाहियाओ, कण्हलेस्साओ तिरिक्खजोणिणीण य कण्हलेस्साणं० जाव सुक्कलेस्साण य विसेसाहियाओ||l कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४? गोयमा ! सम्वत्थोदा एतेसि णं भंते ! तिरिक्खजोणियाणं तिरिक्खजोणि-णीण य गब्भवक्कं तियपंचिं दियतिरिक्खजोणिया सुक्कलेस्सा, कण्हलेस्साणं० जाव सुक्कलेस्साण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा सुक्कलेस्साओ तिरिक्खजोणिणीओ संखेज्जगुणाओ, पम्हलेस्सा वा०४ ? गोयमा ! जहेव णवमं अप्पाबहुगं, तहा इमं पि, नवरं गन्भवतियपंचिंदितिरिक्खजोणिया संखेज्जगुणा, पम्हले- काउलेस्सा तिरिक्खजोणिया अणंतगुणा / एवं एते दस स्साओ तिरिक्खजोणिणीओ संखेनगुणाओ, तेउलेस्सा अप्पाबहुगा तिरिक्खजोणियाणं // 10 // एवं मणुस्साण वि संखेजगुणा, तेउलेस्साओ संखिजगुणाओ, काउलेस्सा अप्पाबहुगा भाणियव्वा; नवरं पच्छिमगं अप्पाबहुगं णत्थि। Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्याबहुय(ग) 661- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्पाबहुय(ग) भावना प्रागुक्तानुसारेण कर्तव्या / तिर्यग्योनिकविषयां सूत्रसंकलनामाह- "एवमेते दस अप्पाबहुगा तिरिक्खजोणियाण-मिति" सुगममः नवरमिहेमे पूर्वायार्यप्रदर्शिते संग्रहणीगाथे ओहियपणंदि 1 संमुच्छिया य 2 गब्भ 3 तिरिक्खइत्थीओ 4 / संमुच्छगन्भतिरिया, 5 मुच्छतिरिक्खी य 6 गब्भम्मि 7 // 1 / / संमुच्छगभइत्थी, 8 पणिदितिरिगत्थियाओ इत्थी उ 10 / दस अप्पबहुगभेया, तिरियाणं होति णायव्वा // 2 // यथा तिरश्वामल्पबहुत्वान्युक्तानि तथा मनुष्याणामपि वक्तव्यानि, नवरं पश्चिमं दशममल्पबहुत्वं नास्ति, मनुष्याणामनन्तत्वाऽभावात्; तदभावे "काउलेसा अणंतगुणा'' इति पदाऽसंभवात्। अधुना देवविषयमल्पबहुत्वमाहएतेसिणं भंते ! देवाणं कण्हलेस्साणं० जाव सुक्कलेस्साण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४ ? गोयमा ! सव्वत्थोवा देवा सुक्कलेस्सा, पम्हलेस्सा, असं खिजगुणा, काउलेस्सा असं खिज्जगुणा, नीललेस्सा विसे साहिया, कण्हलेस्सा विसेसाहिया, तेउलेस्सा संखिजगुणा। सर्वस्तोका देवाः शुक्ललेश्याः, लान्तकादिदेवलोकेष्वेव तेषां सद्भावात् / तेभ्यः पद्मलेश्या असंख्येयगुणाः, भवनपतिव्यन्तरदेवेषु सनत्कुमारादिदेवेभ्योऽसंख्येयगुणेषु कापोतलेश्यासद्भावात्। तेभ्योऽपि नीललेश्या विशेषाधिकाः प्रभूततराणां भवनपति-व्यन्तराणां तस्याः संभवात् / तेभ्योऽपि कृष्णलेश्या विशेषाधिकाः, प्रभूततराणां तेषां कृष्णलेश्याकत्वात्। तेभ्योऽपि तेजोलेश्याः संख्येयगुणाः, कतिपयानां भवनपतिव्यन्तराणां समस्तानां ज्योतिष्कसौधर्म शानदेवानां तेजोलेश्याभावात्। अधुना देवीविषयं सूत्रमाहएएसि णं भंते ! देवीणं कण्हलेस्साणं० जाव तेउलेस्साण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवाओ देवीओ काउलेस्साओ, नीललेस्साओ विसेसाहियाओ, कण्हलेस्साओ विसेसाहियाओ, तेउलेस्साओ संखेजगुणाओ। (एएसिणं भंते ! देवीणमित्यादि) देव्यश्च सौधर्मेशानान्ता एव, न परत इति तासां चतस्र एव लेश्यास्ततस्तद्विषयमेवाल्प-बहुत्वमभिधित्सुना "जाव तेउलेस्साण य" इत्युक्तम् / सर्वस्तोका देव्यः कापोतलेश्याः, कतिपयानां भवनपतिव्यन्तरदेवानां कापोतलेश्याभावात् / तेभ्यो विशेषाधिका नीललेश्याः, प्रभूतानां भवनपतिव्यन्तरदेवानां तस्याः सम्भवात् / तेभ्योऽपि कृष्णलेश्या विशेषाधिकाः, प्रभूतानां तासां कृष्णलेश्याकत्वात्। ताभ्यस्तेजोलेश्याः संख्येयगुणाः, ज्योतिष्कसौधर्मेशानदेवानामपि समस्तानां तेजोलेश्याकत्वात्। सम्प्रति देवदेवीविषयंसूत्रमाहएतेसि णं भंते ! देवाणं देवीण य कण्हलेस्साणं० जाव सुक्कलेस्साण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वाov ? गोयमा! सव्वत्थोवा देवा सुक्कलेस्सा, पम्हलेस्सा असंखेजगुणा, काउलेस्सा असंखेजगुणा, नीललेस्सा विसे साहिया, कण्हलेस्सा विसे साहिया, काउलेस्साओ देवीओ संखेज्जगुणाओ,नीललेस्साओ विसेसाहियाओ, कण्हलेस्साओ विसेसाहियाओ, तेउलेस्सा देवा संखिज्जगुणा, तेउलेस्साओ देवीओ संखेज्जगुणाओ। सर्वस्तोका देवाः शुक्ललेश्याः, तेभ्योऽसंख्येयगुणाः पद्मलेश्याः, तेभ्योऽप्यसंख्येयगुणाः कापोतलेश्याः, तेभ्यो नीललेश्या विशेषाधिकाः, तेभ्योऽपि कृष्णलेश्या विशेषाधिकाः, एतावत्प्रागेवभावितम्। तेभ्योऽपि कापोतलेश्याका देव्यः संख्येयगुणाः / ताश्च भवनपतिव्यन्तरनिकायान्तर्गता वेदितव्याः, अन्यत्रदेवीनांकापोतलेश्याया असम्भवात्। देव्यश्च देवेभ्यः सामान्यतः प्रतिनिकायं द्वात्रिंशद्गुणाः, ततः कृष्णलेश्याभ्यो देवीभ्यः कापोतलेश्या देव्यःसंख्येयगुणा अपिघटन्ते, ताभ्यो नीललेश्या विशेषाधिकाः, ताभ्यः कृष्णलेश्या विशेषाधिकाः / अत्रापि प्राग्वद् भावना। तेभ्योऽपि तेजोलेश्या देवाः संख्येयगुणाः, कतिपयानां भवनपतिव्यन्तराणां समस्तानां ज्योतिष्कसौधर्म शानदेवानां तेजोलेश्याकत्वात् / तेभ्योऽपि तेजोलेश्याका देव्यः संख्येयगुणाः, द्वात्रिंशद्गुणत्वात्। सम्प्रति भवनवासिदेवविषयं सूत्रमाहएतेसि णं भंते ! भवनवासीणं देवाणं कण्हलेस्साणं० जाव तेउलेस्साण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०.? गोयमा ! सम्वत्थोवा भवणवासी देवा तेउलेस्सा, काउलेस्सा असंखेजगुणा, नीललेस्सा विसेसाहिया, कण्हले स्सा विसेसाहिया। (एएसि णं भंते ! इत्यादि) सर्वस्तोकास्तेजोलेश्याः, महर्द्धयो हि तेजोलेश्याका भवन्ति; महर्द्धयश्वाऽल्पे, इति सर्वस्तोकाः / तेभ्योऽसंख्येयगुणाः कापोतलेश्याः, अतिशयेन प्रभूतानां कापोतलेश्यासंभवात्। तेभ्यो नीललेश्या विशेषाधिकाः, अतिप्रभूततराणां तस्याः संभवात् / तेभ्योऽपि कृष्णलेश्या विशेषाधिकाः, अतिप्रभूततराणां कृष्णलेश्याभावात्। एवं भवनपतिदेवीविषयमपि सूत्रं भावनीयम्। तच्चएतेसिणं भंते ! भवणवासिणीणं देवीणं कण्हलेस्साणं० जाव तेउलेस्साण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४? गोयमा ! एवं चेव। अधुना भवनपतिदेवदेवीविषयं सूत्रमाहएएसिणं भंते ! भवणवासीणं देवाणं देवीण य कण्हलेस्साणं० जाव तेउलेस्साण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा० 4? गोयमा ! सम्वत्थोवा भवणवासी देवा तेउलेस्सा, भवणवासिणीओ तेउलेस्साओ संखिजगुणाओ, काउलेस्सा भवणवासी असं खिजगुणा, नीलले स्सा विसे साहिया, कण्हलेस्सा विसेसाहिया, काउलेस्साओ भवणवासिणीओ संखेजगुणाओ,नीललेस्साओ दिसेसाहियाओ, कण्हलेस्साओ विसेसाहियाओ, एवं वाणमंतराण वि तिण्णेव अप्पाबहुगा जहेव भवणवासीणं तहेव भाणियव्वा। Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुय(ग) ६६२-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्पाबहुय(ग) (एएसिणमित्यादि) सर्वस्तोका भवनवासिनो देवास्तेजो--लेश्याकाः। युक्तिरत्र प्रागेवोक्ता / तेभ्यस्तेजोलेश्याका भवन-वासिन्यो देव्यः संख्येयगुणाः, देवेभ्यो हि देव्यः सामान्यतः प्रतिनिकायं द्वात्रिंशद्गुणास्तत्रोत्पद्यन्ते संख्येयगुणत्वमिति / तेभ्यः कापोतलेश्या भवनवासिनो देवा असंख्येयगुणाः, तेभ्योऽपिनीललेश्या विशेषाधिकाः, तेभ्योऽपि कृष्णलेश्या विशेषा-धिकाः / युक्तिरत्र प्रागुक्ताऽनुसरणीया। तेभ्यः कापोतलेश्या भवनवासिन्यो देव्यः संख्येयगुणाः, भावना प्रागुक्तभावना-नुसारेण भावनीया / ताभ्यो नीललेश्या विशेषाधिकाः, ताभ्य; कृष्णलेश्या विशेषाधिकाः, एवं वाणमन्तरविषयमपि सूत्रत्रयं भावनीयम्। ज्योतिष्कविषयसूत्रम् - एतेसि णं भंते ! जोइसियाणं देवाणं देवीण य तेउलेस्साणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४? गोयमा ! सव्वस्थोवा जोइसियदेवा तेउलेस्सा, जोइसिणीओ देवीओ तेउलेस्साओ संखिज्ज-गुणाओ। ज्योतिष्कविषयमेकमेव सूत्रं, तन्निकार्य तेजोलेश्याव्यतिरेकेण लेश्यान्तरासम्भवात्, पृथग्देवदेवीविषयसूत्रद्वयाऽसम्भवात्। वैमानिकदेवविषयं सूत्रमाहएतेसिणं भंते ! वेमाणियाणं देवाणं तेउलेस्साणं पम्हलेस्साणं सुक्कलेस्साण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा० 4? गोयमा ! सम्वत्थोवा वेमाणिया देवा सुकलेस्सा, पम्हलेस्सा असंखिज्जगुणा, तेउलेस्सा देवा असंखिज्जगुणा। सर्वस्तोकाः शुक्ललेश्याः, लान्तकादिदेवानामेव शुक्ललेश्यासम्भवात्। तेषां चोत्कर्षतोऽपि श्रेण्यसंख्येयभाग-गतप्रदेशराशिमानत्वात्। तेभ्यः पद्मलेश्या असंख्येयगुणाः, सनत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मलोककल्पवासिनां सर्वेषामपि देवानां पद्यलेश्यासंभवात् / तेषां चातिबृहत्तमश्रेण्यसंख्येयभाग-वर्तिनभःप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् / लान्तकादिदेवपरिमाण-हेतुश्रेण्यसंख्येयभागापेक्षया ह्यमीषां परिमाणहेतुश्रेण्यसंख्येय-भागोऽसंख्येयगुणः, तेभ्योऽपि तेजोलेश्या असंख्येयगुणाः, तेजोलेश्या हि सौधर्मेशानदेवानाम्, ईशानदेवाश्चाङ्गुलमात्र क्षेत्रप्रदेशराशिसम्बन्धिनि द्वितीयवर्गमूले तृतीयवर्गमूलेन गुणिते यावान् प्रदेशराशिर्भवति तावत्प्रमाणासु घनीकृतस्य लोकस्य एक प्रादेशिकीषु श्रेणिषु यावन्तो नभःप्रदेशाः तावत्प्रमाणाः, ईशानकल्पगतदेवसमुदायस्तद्गतकिञ्चिदूनद्वात्रिंशत्तमभागकल्पाः, तेभ्योऽपि सौधर्मकल्पदेवाः संख्येयगुणाः स्वतो भवन्ति, पद्मलेश्येभ्यस्तेजोलेश्या असंख्येयगुणाः, देव्यश्च सौधर्म - शानकल्पयोरेव, तत्रच केवला तेजोलेश्या, तेजोलेश्या-न्तरासम्भवात्; नतद्विषये पृथक्सूत्रमतः। सम्प्रति देवदेवीविषयं सूत्रमाहएएसिणं मंते ! वेमाणियाणं देवाणं देवीण य तेउलेस्साणं पम्हलेस्साण य सुक्कलेस्साण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४ ? गोयमा ! सव्वत्थोवा वेमाणिया देवा सुक्कलेस्सा, पम्हले स्सा संखे जगुणा, तेउलेस्सा असं खिज्जगुणा, तेउलेस्साओ वेमाणिणीओ देवीओ संखेज्जाओ। 'एएसिणं भंते !' इत्यादि सुगमम्, नवरं "तेउलेस्साओ वेमाणिणीओ देवीओ संखेज्जगुणाओ' देवेभ्यो देवीनां द्वात्रिंशद्गुणत्वात्। अधुना भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकविषयं सूत्रमाहएएसिणं भंते ! भवणवासीणं देवाणं वाणमंतराणं जोइसियाणं वेमाणियाणं देवाण य कण्हलेस्साणं० जाव सुक्कलेस्साण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४? गोयमा ! सव्वत्थोवा वेमाणिया देवा सुक्कलेस्सा, पम्हलेस्सा असंखिज्जगुणा, तेउलेस्सा असंखिजगुणा, तेउलेस्सा भवणवासी देवा असंखिज्जगुणा, काउलेस्सा असं खिज्जगुणा, नीलले स्सा विसे साहिया, कण्हलेस्सा विसे साहिया, तेउलेस्सा वाणमंतरा देवा असंखेजगुणा, काउलेस्सा असं खिज्जगुणा, नीललेस्सा विसेसाहिया, कण्हलेस्सा विसेसाहिया, तेउलेस्सा जोइसिया देवा संखेज्जगुणा। एतेसिणं भंते ! भवणवासिणीणं वाणमंतरीणं जोइसिणीणं वेमाणिणीण य कण्हलेस्साणं० जाव तेउलेस्साण यकयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०? गोयमा! सव्वत्थोवाओ देवीओ वेमाणिणीओ तेउलेस्साओ, भवणवासिणीओ तेउलेस्साओ असंखे जगुणाओ, काउलेस्साओ असंखेजगुणाओ, नीललेस्साओ विसेसाहियाओ, कण्हलेस्साओ विसेसाहियाओ, तेउलेस्साओ वाणमंतरीदेवीओ असंखेजगुणाओ, काउलेस्साओ असंखेज्जगुणाओ, नीललेस्साओ विसेसाहियाओ, कण्हलेस्साओ विसेसाहियाओ, तेउलेस्साओ जोइसिणीओ देवीओ संखेज्जगुणाओ। (एएसि णं भंते ! भवणवासीणमित्यादि) तत्र सर्वस्तोका वैमानिका देवाः शुक्ललेश्याः, पद्मलेश्या असंख्येयगुणाः, तेजोलेश्या असंख्येयगुणाः, इत्यत्र भावनाऽनन्तरमेव कृता / तेभ्योऽपि भवनवासिनो देवास्तेजोलेश्याका असंख्येयगुणाः / कथमिति चेत् ? उच्यतेअगुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशेः संबन्धिनि प्रथमवर्गमूलेन गुणिते यावान् प्रदेशराशिर्भवति तावत्प्रमाणासु धनीकृतस्य लोकस्य एकप्रादेशिकीषु श्रेणिषु यावान् प्रदेशराशिस्तावत्प्रमाणो भवनपतिदेवीसमुदायः, तगतकिश्चिदूनद्वात्रिंशत्तमभागकल्पाः भवनपतयो देवास्तत इमे प्रभूता इति घटन्ते सौधर्मेशान-देवेभ्यस्तेजोलेश्याका असंख्येयगुणाः, तेभ्यः कापोतलेश्या भवनवासिन एवासंख्येयगुणाः, अल्पर्द्धिकानामप्यतिप्रभूतानांकापोतलेश्यासम्भवात्। तेभ्योऽपि भवनवासिन एव नीललेश्या विशेषाधिकाः। युक्तिरत्र प्रागेवोक्ता। तेभ्योऽपि वाणमन्तरास्तेजोलेश्याका असंख्येयगुणाः / कथमिति चेत् ? उच्यते- इहासंख्येययोजनकोटीकोटीप्रमाणानि सूचिरूपाणि खण्डानि यावन्त्ये कस्मिन् प्रतरे भवन्ति तावान् व्यन्तरदेवदेवीसमुदायः, तद्गतकिञ्चिदूनद्वात्रिंशत्तमभागकल्पा व्यन्तरदेवाः, तत इमे भवनपतिभ्योऽतिप्रभूततमा इत्युपपद्यन्ते / कृष्णलेश्येभ्यो भवनपतिभ्यो वाणमन्तरास्तेजोलेश्याका असंख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि वाणमन्तरा एव कापोतलेश्याका असंख्येयगुणाः,अल्पर्द्धिकानामपि कापोतले श्या-भावात् / तेभ्योऽपि वाणमन्तरा नीललेश्या विशेषाधिकाः, तेभ्योऽपि कृष्णलेश्या विशेषाधिकाः, अत्रापि युक्तिः प्रागुक्ताऽनुसरणीया। तेजोलश्या ज्योतिष्का देवाः संख्येय-गुणाः, यतः षट् पश्चाशदधिका-गुलशतद्वयप्रमाणानि सूचीरूपाणि Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुय(ग) ६६३-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्याबहुय(ग) यावन्ति खण्डानि एकस्मिन् प्रतरे भवन्ति तावत्प्रमाणो ज्योतिष्कदेवदेवी समुदायः, तद्गतकिञ्चिदूनद्वात्रिंशत्तमभागकल्पा ज्योतिष्कदेवाः, ततः कृष्णलेश्येभ्यो वाणमन्तरेभ्यः संख्येयगुणा एव घटन्ते ज्योतिष्कदेवाः, न त्वसंख्येयगुणाः, सूचीरूपखण्डप्रमाणहेतोः संख्येययोजनकोटीकोट्यपेक्षया षट्पञ्चाशदधिकागुलशतद्वयसंख्येयभागमात्रवर्तित्वात्। सम्प्रति भवनवास्यादिदेवदेवीविषयं, तदनन्तरं भवनवास्या-दिदेवदेवी समुदायविषयं सूत्रमाहएतेसि णं मंते ! भवणवासीणं० जाव वेमाणियाणं देवाण य देवीण य कण्हलेस्साणं० जाव सुकलेस्साण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४? गोयमा! सव्वत्थोवा वेमाणिया देवा सुक्कले स्सा, पम्हलेस्सा असंखेनगुणा, तेउलेस्सा असंखेनगुणा, तेउले स्साओ देवीओ वेमाणिणीओ संखेज्जगुणाओ, तेउलेस्सा भवणवासीदेवा असं०, तेउलेस्साओ भवणवासिणीओ संखेज०, काउलेस्सा भवणवासी असं० नीलले स्सा विसे साहिया, कण्हले स्सा विसे साहिया, काउलेस्साओ भवणवासिणीओ संखेज०, नीललेस्साओ विसे-साहियाओ, कण्हलेस्साओ विसेसाहियाओ, तेउलेस्सा वाणमंतरा असं०, तेउलेस्साओ वाणमंतरीओ संखे०, काउलेस्सा वाणमंतरा असं०, नीललेस्सा विसेसाहिया, कण्हलेस्सा विसेसाहिया, काउलेस्साओवाणमंतरीओ संखे०, नीललेस्साओ विसेसाहियाओ, कण्हलेस्सा विसेसाहिया, तेउलेस्सा जोइसिया संखे०, तेउलेस्साओ जोइसिणीओ संखेजगुणाओ। एतच्च सूत्रद्वयमपि प्रागुक्तभावनाऽनुसारेण भावनीयम् / प्रज्ञा० 17 पद / (लेश्यास्थानानामल्पबहुत्वं तु 'लेस्सा' शब्दे वक्ष्यते) (वर्गणाया अल्पबहुत्वं बन्धप्ररूपणावसरे वक्ष्यते) (28) इदानीं वेदद्वारमाहएएसिणं भंते ! जीवाणं सवेदगाणं इत्थीवेदगाणं पुरिसवेदगाणं नपुंसगवेदगाणं अवेदगाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०५? गोयमा ! सव्वत्थोवाजीवा पुरिसवेदगा, इत्थीवेदगा संखेजगुणा, अवेदगा अणंतगुणा, नपुंसगवेदगा अणंतगुणा, सवेदगा विसेसाहिया। सर्वस्तोकाः पुरुषवेदाः, संज्ञिनामेव तिर्यङ्मनुष्याणां देवानां च पुरुषवेदभावात्। तेभ्यः स्त्रीवेदाः संख्येयगुणाः,यत उक्तं जीवाभिगमे"तिरिक्खजोणियपुरिसेहिंतो तिरिक्खजोणियइत्थीओ तिगुणाओ तिरूवाहियाओ य तहा मणुस्सपुरिसे हिंतो मणुस्सइत्थीओ सत्तावीसगुणाओ सत्तावीसरुवुत्तराओ यतहा देवपुरिसेहिंतो देवित्थीओ बत्तीसगुणाओ बत्तीसरूयुत्तराओ य" इति। वृद्धाचार्यरप्युक्तम्तिगुणा तिरूवअहिया, तिरियाण इत्थिया मुणेयव्वा। सत्तावीसगुणा पुण, मणुयाणं तदहिया चेव ||1|| बत्तीसगुणा बत्ती-सरूवअहिया य तह य देवाणं। देवीओ पन्नत्ता, जिणेहि जियरागदोसेहिं / / 2 / / अवेदका अनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात् / तेभ्यो नपुंसकवेदा अनन्तगुणाः, वनस्पतिकायिकानां सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वात् / सामान्यतः सवेदका विशेषाधिकाः, स्त्रीवेदकपुरुषवेदकानामपि तत्र प्रक्षेपात्। प्रज्ञा०३ पद / जी० सवेदानामल्पबहुत्वचिन्तायाम्अप्पाबहुगंसव्वत्थोवा अवेदगा, सवेदगा अणंतगुणा / एवं सकसाती चेव अकसाती चेव जहा सवेया यतहेव भाणियव्वा। जी०१ प्रति० भ० अथ वेदविशेषवतां स्त्रीपुंनपुंसकानां प्रत्येकमल्पबहुत्वम्-तत्र स्त्रीणां पशाऽल्पबहुत्वानि / तद्यथा-प्रथमं सामान्येनाल्पबहुत्वम्, विशेषचिन्तायां द्वितीयं त्रिविधतिर्यस्त्रीणाम, तृतीयं त्रिविध-मनुष्यस्त्रीणाम्, चतुर्थ चतुर्विधदेवस्त्रीणाम्, पञ्चमं मिश्रस्त्रीणाम्। तत्र प्रथममल्पबहुत्वमभिधित्सुराहएतासि णं भंते ! तिरिक्खजोणित्थियाणं मणु-स्सित्थियाणं देवित्थियाणं कयरा कयराहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवाओ मणुस्सित्थियाओ, तिरिक्खजोणित्थियाओ, असंखेजगुणाओ, देवित्थियाओ संखेजगुणाओ। (एतासि णं भंते ! इत्यादि) सर्वस्तोका मनुष्यस्त्रियः, संख्यातकोटाकोटिप्रमाणत्वात्। तेभ्यस्तिर्यग्योनिकाः स्त्रियोऽसंख्येय-गुणाः, प्रतिद्वीपं प्रतिसमुद्रं तिर्यस्त्रीणामतिबहुतया संभवात्, द्वीपसमुद्राणां वाऽसंख्ये यत्वात् / तत्ताभ्योऽपि देवस्त्रियोऽसंख्ये यगुणाः, भवनवासिव्यन्तरज्योतिष्कसौधर्मेशानदेवीनां प्रत्येकमसंख्येयश्रेण्याकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् / / 1 // द्वितीयमल्पबहुत्वमाहएतासिणं मंते ! तिरिक्खजोणित्थियाणं जलयरीणं थलयरीणं खहयरीण य कयरा कयराहिंतो अप्पाओ वा बहुयाओ वा तुल्लाओ वा विसेसाहियाओ वा ? गोयमा! सव्वत्थोवाओ खहयरतिरिक्खजोणियाओ, थलयरतिरिक्खजोणियाओ संखेञ्जगुणाओ, जलयरतिरिक्खजोणियाओ संखेजगुणाओ। सर्व स्तोकाः खचरतिर्यग्यो निकस्त्रियः, ताभ्यः स्थलचरतिर्यग्योनिकस्त्रियः संख्येयगुणाः,खचराभ्यः स्थलचराणां स्वभावत एव प्राचुर्येण भावात् / ताभ्यो जलचरस्त्रियः संख्येयगुणाः, लवणे कालोदे स्वयंभूरमणे च समुद्रे मत्स्यानामतिप्राचुर्येण भावात् / स्वयंभूरमणसमुद्रस्य च शेषसमस्तद्वीपसमुद्रापेक्षयाऽतिप्रभूतत्वात् / / 2 / / अधुना तृतीयमाहएतासिणंभंते!मणुस्सित्थियाणं कम्मभूमियाणं अकम्मभूमियाणं अंतरदीवियाण य कयरा कयराहिंतो अप्पा वा०४? गोयमा ! सव्वत्थोवाओ अतंरदीवग अकम्मभूमग-मणुस्सित्थियाओ, देवकुरुउत्तरकुरुअकम्मभूमगमणु-स्सित्थियाओदो वितुल्लाओ Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्याबहुय(ग) 664 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्याबहुय(ग) संखेज्जगुणाओ, हरिवासरम्मगवासअकम्मभूमगमणुस्सित्थि- जोतिसियाणं वेमाणिणीण य कयरा कयराहिंतो अप्पा याओ दो वि तुल्लाओ संखेज्जगुणाओ, हेमवयहिरण्णवयवास- वा० 4? गोयमा! सम्वत्थोवा अंतरदीवगअकम्मभूमगअकम्मभूमगमणुस्सित्थियाओ दो वि तुल्लाओ संखेनगुणाओ, मणुस्सित्थियाओ, देवकु रुउत्तरकु रुअकम्मभूमगमणुभरहेरवयवासकम्मभूमगमणुस्सित्थियाओ दो वि तुल्लाओ स्सित्थियाओ दो वि संखेज्जगुणाओ, हरिवासरम्मगवासअकम्मसंखे जगुणाओ, पुटवविदेहअवरविदेहकम्मभूमगमणुस्सि- भूमगमणुस्सित्थियाओ दो वि संखेज्जगुणाओ, हेमवतहेरन्नत्थियाओ दो वि तुल्लाओ संखेजगुणाओ। वासअकम्मभूमगमणुस्सित्थियाओ दो वि संखेज्ज-गुणाओ, सर्वस्तोका अन्तरद्वीपकाऽकर्मभूमकमनुष्यस्त्रियः, क्षेत्रस्याल्प- भरहेरवयवासकम्मभूमगमणुस्सित्थीओ दो वि संखेज्जगुणाओ, त्वात् / ताभ्यो देवकुरूत्तरकुरु० स्त्रियः संख्येयगुणाः, क्षेत्रस्य पुटवविदेहअवरविदेहवासकम्मभूमगमणुस्सित्थीओ दो वि संख्येयगुणत्वात् / स्वस्थाने तु द्वयोरपि परस्परं तुल्याः, संखेजगुणाओ, वेमाणियदेवित्थियाओ असंखेनगुणाओ, समानप्रमाणक्षेत्रत्वात्। ताभ्यो हरिवर्षरम्यकवर्षाकर्म भूमकमनुष्य भवणवासिदेवित्थियाओ असंखेज्जगुणाओ, खहयरतिरिक्खस्त्रियः संख्येयगुणाः, देवकुरूत्तरकुरुक्षेत्रापेक्षया हरिवर्षरम्यकक्षेत्र जोणित्थियाओ असंखे जगुणाओ, थलयरतिरिक्खस्यातिप्रचुरत्वात् / क्षेत्रस्य समानत्वात् / ताभ्योऽपि हैमवतहरण्यव जोणित्थियाओ संखेनगुणाओ, जलयरतिरिक्खजोणित्थिताकर्मभूमकमनुष्य स्त्रियः संख्येयगुणाः, क्षेत्रस्याल्पत्वेऽपि याओ संखेजगुणाओ, वाणमंतरदेवित्थियाओ संखेनगुणाओ, अल्पस्थितिकतया बहूनां तत्र तासां सम्भवात्। स्वस्थाने तु द्वयोरपि जोतिसियदेवित्थियाओ संखेज्जगुणाओ। परस्परं तुल्याः / ताभ्योऽपि भरतैरवतकर्मभूमकमनुष्यस्त्रियः सर्वस्तोकाः अन्तरद्वीपकाऽकर्मभूमकमनुष्यस्त्रियः, ताभ्यो देवसंख्येयगुणाः, कर्मभूमितया स्वभावत एव तत्र प्राचुर्येण संभवात् / कुरूत्तरकुर्वकर्मभूकमनुष्यस्त्रियः संख्येयगुणाः, ताभ्योऽपि स्वस्थानेऽपि द्वयोरपि परस्परं तुल्याः / ताभ्योऽपि पूर्वविदेहापर हरिवर्षरम्यक स्त्रियः संख्येयगुणाः, ताभ्योऽपि हैमवतहरण्यविदेहकर्मभूमक-मनुष्यस्त्रियः संख्येयगुणाः, क्षेत्रबाहुल्यादजितस्वा वतस्त्रियः संख्येयगुणाः, ताभ्योऽपि भरतैरवतकर्मभूमकमिकाले इव च स्वभावत एव तत्र प्राचुर्येण भावात्; स्वस्थानेऽपि मनुष्यस्त्रियः, संख्येयगुणाः, ताभ्योऽपि पूर्वविदेहाऽपरविदेहद्वयोरपि परस्परं तुल्याः। उक्तं तृतीयमल्पबहुत्वम् / / 3 / / मनुष्यस्त्रियः संख्येयगुणाः / अत्र भावना प्राग्वत् / ताभ्यो वैमानिकदेवस्त्रियोऽसंख्ये यगुणाः, असंख्येयश्रेण्याकाशअधुना चतुर्थमाह प्रदेशराशिप्रमाणत्वात्तासाम् / ताभ्यो भवनवासिदेवस्त्रियोऽएतासि णं मंते ! देवित्थियाणं भवणवासीणं वाणमंतरीणं संख्यातगुणाः / अत्र युक्तिः प्रागेवोक्ता / ताभ्यः खचरतिर्यग्योजोइसियाणं वेमाणिणीण य कयरा कयराहिंतो अप्पा वा०४ ? निकस्त्रियोऽसंख्येयगुणाः, प्रतरासंख्येयभागवर्त्यसंख्येयश्रेणिगोयमा ! सव्वत्थोवाओ देमाणियदेवित्थियाओ, भवणवासी गताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात्तासाम् / ताभ्यः स्थलघदेवित्थियाओ असंखेनगुणाओ, वाणमंतरदेवित्थियाओ | रतिर्यग्योनिकस्त्रियः संख्येयगुणाः, बृहत्तरप्रतरासंख्येयभागवर्त्य असंखेज-गुणाओ, जोइसियदेवित्थियाओ संखेजगुणाओ। संख्येयश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् / ताभ्यो जलचर सर्वस्तोका वैमानिकदेवस्त्रियः, अङ्गुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशेर्यद तिर्यग्यो निक स्त्रियः संख्येयगुणाः, बृहत्तमप्रतरासंख्येयभागद्वितीयं वर्गमूलं, तस्मिन् तृतीयेन वर्गमूलेन गुणिते यावत् वर्त्यसंख्येयश्रोणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् / ताभ्यो प्रदेशराशिस्तावत्प्रमाणासु घनीकृतस्य लोकस्य एकप्रादेशिकीषु वाणमन्तरदेवस्त्रियः संख्येयगुणाः, संख्येययोजनकोटाश्रेणिषु यावन्तो नभःप्रदेशा द्वात्रिंशत्तमभागहीनास्तावत् प्रमाण- कोटिप्रमाणकप्रादेशिकश्रेणिमात्राणि खण्डानि यावन्त्येकस्मिन् प्रतरे त्वात् / प्रत्येकं सौधर्मेशानदेवस्त्रीणां, ताभ्यो भवनवासिदेव- भवन्ति, तेभ्यो द्वात्रिंशत्तमे भागेऽपहृते यावान् राशिस्तिष्ठति, स्त्रियोऽसंख्येयगुणाः, अगुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशेर्यत् प्रथम वर्गमूलं, तावत्प्रमाणत्वात् / ताभ्योऽपि ज्योतिष्कदेवस्त्रियः संख्येयगुणाः / तस्मिन् द्वितीयेन वर्गमूलेन गुणिते यावत्प्रदेश-राशिस्तावत्प्रमाणसु एतच्च प्रागेव भावितम् / उक्तानि स्त्रीणां पञ्चाप्यल्पबहुत्वानि / / 5 / / श्रेणिषु यावान् प्रदेशराशिभत्रिंशत्तम-भागहीनस्तावत्प्रमाणत्वात् / जी०२ प्रति० ताम्यो व्यन्तरदेवस्त्रियो-ऽसंख्येयगुणाः, संख्येययोजनप्रमाणे साम्प्रतं नपुंसकानामुच्यतेकप्रादेशिकश्रेणिमात्राणि खण्डानि यावन्त्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति, एतेसि णं भंते ! नेरइयनपुंसकाणं तिरिक्खजोणियनपुंसकाणं तेभ्योऽपि द्वात्रिं-शत्तमभागेऽपनीते यच्छेषमवतिष्ठते तावत्प्रमाणत्वात् मणुस्सनपुंसकाण य कतरे कतरेहिंतो० जाव विसेसाहिया वा ? तासाम्। ताभ्यः संख्येयगुणा ज्योतिष्कदेवस्त्रियः, षट्पञ्चाशदधिक गोयमा ! सव्वत्थोवा मणुस्सनपुंसका, नेरइयनपुंसका शतद्वयाङ्गुलप्रमाणे कप्रादेशिक श्रेणिमात्राणि खण्डानि याव असंखेजगुणा, तिरिक्खजोणियनपुंसका अणंतगुणा / न्त्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति, ताभ्यो द्वात्रिंशत्तमे भागेऽपसारिते प्रश्नसूत्रं सुगमम्। भगवानाह- गौतम! सर्वस्तोका मनुष्य-नपुंसकाः, यावत्प्रदेशराशिर्भवति तावत्प्रमाणत्वात् / उक्तं चतुर्थ श्रेण्यसंख्येयभागवर्तिप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् / तेभ्यो - ऽपि मल्पबहुत्वम् / / 4|| नैरयिकनपुंसका असंख्येयगुणाः, अङ्गुलमात्रक्षेत्रप्रदेश-राशी इदानीं समस्तस्त्रीविषयं पञ्चममल्पबहुत्वमाह तद्गतप्रथमवर्गमूलगुणिते यावान् प्रदेशराशिर्भवति तावत्प्रमाणासु एतासि णं मंते ! तिरिक्खजोणियाणं जलयरीणं थलयरीणं धनीकृतस्य लोकस्य एकप्रादेशिकासु श्रेणीषु यावन्तो खहयरीणं, मणुस्सित्थियाणं कम्मभूमियाणं अकम्मभूमियाणं नभःप्रदेशास्तावत्प्रमाणत्वात्तेषाम् / तेभ्यस्तिर्यग्योनिकनपुंसका अंतरदीवियाणं, देवित्थियाणं भवणवासिणीणं वाणमंतरीणं अनन्तगुणाः,निगोदजीवानामनन्तत्वात्। न्त्येकामगुलप्रमाण कमज्योतिष्कदेवासतिले तावत् Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६५-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्पाबाय(ग) अप्पाबहुय(ग) सम्प्रति नैरयिकनपुंसकविषयमल्पबहुत्वमाह तेभ्योऽपि जलचरतिर्यग्योनिकनपुंसकाः संख्येयगुणाः, बृहत्तरएते णि णं भंते ! नेरइयनपुंसकाणं० जाव अहेसत्तम प्रतरासंख्येयभागवर्त्यसंख्येयश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् / पुढविनेरइयनपुंसकाण य कयरे कयरेहिंतो० जाव विसेसाहिया तेभ्योऽपि चतुरिन्द्रियतिर्यग्यो निकनपुंसका विशेषाधिकाः, वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा अहेसत्तमपुढविनेरइयनपुंसका, असंख्येयकोटीकोटिप्रमाणाकाशप्रदेशराशिप्रमाणासु घनीकृतस्य छहपुढविणे रइयणपुंसका असंखेज्जगुणा० जाव दोबा लोकस्य एकप्रादेशिकीषु श्रेणिषु यावन्तो नभः प्रदेशास्तावत्प्रमाणपुढविनेरइयनपुंसका असंखेजगुणा, इमीसे रयणप्पमाए त्वात्। तेभ्यस्त्रीन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका विशेषाधिकाः, प्रभूततरपुढवीएनेरइयणपुंसका असंखेजगुणा। श्रेणिगताकाशप्रदेशराशिमानत्वात् / तेभ्योऽपि द्वीन्द्रियति र्यग्योनिक नपुंसका विशेषाधिकाः, प्रभूततमश्रेणिगताकाश-प्रदेशराशिमानत्वात् / (एएसिणमित्यादि) सर्वस्तोका अधःसप्तमपृथिवीनैरयिक-नपुंसकाः, तेभ्यः तेजस्कायिकैकेन्द्रियतिर्यग्यो-निकनपुंसका असंख्येयगुणाः, अल्पतरश्रेण्यसंख्येयभागवर्तिनभःप्रदेशराशिप्रमाण-त्वात्। तेभ्योऽपि सूक्ष्मबादरभेदभिन्नानां तेषाम-संख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात्। षष्ठपृथिवीनैरयिकनपुंसका असंख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि पञ्चमपृथिवीनैर तेभ्यः पृथिवीकायिकै-केन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका विशेषाधिकाः, यिकनपुंसका असंख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि चतुर्थपृथिवीनैरयिकनपुंसका प्रभूतासंख्येय-लोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात् / तेभ्योऽप्कायिकैअसंख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि तृतीयपृथिवीनैरयिकनपुंसका असंख्ये केन्द्रियतिर्यग्यो-निकनपुंसका विशेषाधिकाः, प्रभूततरासंख्येयलोकायतगुणाः, तेभ्योऽपि द्वितीयपृथिवीनैरयिकनपुंसका असंख्यातगुणः, काशप्रदेशमानत्वात् / तेभ्योऽपि वायुकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकसर्वेषामप्येतेषां पूर्वपूर्वनैरयिकपरिमाणहेतुश्रेण्यसंख्येयभागा-पेक्षया नपुंसका विशेषाधिकाः, प्रभूततमासंख्येयलोकाकाशप्रदेशअसंख्येयगुणाः, संख्येयगुणश्रेण्यसंख्येयभागवर्तिनभःप्रदेशरा राशिप्रमाणत्वात् / तेभ्योऽपि वनस्पतिकायिकै केन्द्रियतिर्यग्योशिप्रमाणत्वात् / द्वितीयपृथिवीनरयिकनपुंसकेभ्योऽस्यां रत्नप्रभायां निकनपुंसका अनन्तगुणाः, अनन्तलोकाकाशप्रदेशराशि-प्रमाणत्वात् / पृथिव्यां नैरयिका असंख्येयगुणाः, अङ्गुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशी अधुना मनुष्यनपुंसकविषयमल्पबहुत्वमाहतद्गतप्रथमवर्गमूलगुणिते यावान् प्रदेशराशिस्तावत्प्रमाणासु एतेसि णं भंते ! मणुस्सणपुंसकाणं कम्मभूमिकाणं अक धनीकृतस्य लोकस्य एकप्रादेशिकीषु श्रेणिषुयावन्त आकाशप्रदेशास्ता म्मभूमिकणपुंसकाणं अंतरदीवकाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वतप्रमाणत्वात् / प्रतिपृथिवीं च पूर्वोत्तरपश्चिमदिग्भाविनो नैरयिकाः वा०४? गोयमा ! सव्वत्थोवा अंतरदीवगाऽकम्मभूमगमणुसर्वस्तोकाः, तेभ्यो दक्षिणदिग्भाविनोऽसंख्येयगुणाः, पूर्वपूर्वपृथिवीगत स्सण-पुंसका, देवकु रुउत्तरकु रुअकम्मभूमगा दो वि दक्षिण-दिग्भागभाविभ्योऽप्युत्तरस्यामुत्तरस्यां पृथिव्यामसंख्येयगुणाः संखे जगुणा, एवं जाव पुव्वविदेहअवरविदेहकम्मपूर्वोत्तरपश्चिमदिभाविन इत्यादि। भूमगमणुस्सणपुंसगा दो वि संखेजगुणा। सम्प्रति तिग्-र्यग्योनिकनपुंसकविषयमल्पबहुत्वमाह सर्वस्तोकाः अन्तरद्वीपजमनुष्यनपुंसकाः, एतेच संमूर्छनजा द्रष्टव्याः, एते सिणं मंते ! तिरिक्खजोणियनपुंसकाणं, एगिं गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्यनपुंसकानां तत्रासंभवात, संहृतासु कर्मभूमिदियतिरिक्खजोणियनपुंसकाणं, पुढविकाइयएगिदियण जास्तत्र भवेयुरपि / तेभ्यो देवकुरुत्तरकुर्वकर्म-भूमकमनुष्यनपुंसकाः पुंसकाणं० जाव वनस्सइकाइयएगिदियतिरिक्खजोणियण संख्येयगुणाः तद्गतगर्भजमनु-ष्याणामन्तरद्वीपजगर्भजमनुष्येभ्यः पुंसकाणं, बेइंदियतिरिक्खजोणियणपुंसकाणं, तेइंदिय संख्येयगुणत्वात्। गर्भ-जमनुष्योचाराद्याश्रयेण च संमूर्छनजमनुष्याणाचउरिदियपंचेंदियतिरिक्खजोणियणपुंसकाणं, जलयर मुत्पादात् / स्वस्थाने तु द्वयेऽपि परस्परं तुल्याः / एवं तेभ्यो थलयरखहयराण य कयरे कयरेहिंतो० जाव विसेसाहियावा ? हरिवर्षरम्यक-वर्षाऽकर्मभूमकमनुष्यनपुंसकाः संख्येयगुणाः, स्वस्थाने गोयमा ! सव्वत्थोवा खहयरतिरिक्खजोणियणपुंसका, तु द्वयेऽपि परस्परं तुल्याः / हैमवतहै रण्यवतवर्षाऽकर्मभूमथलयरतिरिक्खजोणियनपुंसका संखेज्जगुणा, जलयर- कमनुष्यनपुंसकाः संख्येयगुणाः, स्वस्थाने तुद्वयेऽपिपरस्परं तुल्याः। तिरिक्खजोणियनपुंसका संखेज्जगुणा, चतुरिंदियतिरिक्ख- तेभ्यो भरतै-रखतवर्षकर्मभूमकमनुष्यनपुंसकाः संख्येयगुणाः, स्वस्थाने जोणियनपुंसका विसेसाहिया, तेइंदिया विसेसाहिया, बेइंदिया तुद्वयेऽपिपरस्परंतुल्याः। तेभ्यः पूर्वविदेहाऽपरविदेहकर्मभूमकमनुष्यविसेसाहिया, तेउक्काइयएगिदियतिरिक्खा असंखेज्जगुणा, नपुंसकाः संख्येयगुणाः, स्वस्थाने तु द्वयेऽपि परस्परं तुल्याः। युक्तिः पुढविकाइयएगिदियतिरिक्खजोणिया विसेसाहिया, एवं आउ- सर्वत्रापि तथैवानुसतव्या। वाउ०, वणस्सइकाइयएगिंदियतिरिक्खजोणियणपुंसका संप्रति नैरयिकतिर्यङ्मनुष्यविषयमल्पबहुत्वमाहअणंतगुणा। एतेसि णं भंते ! नेरइयनपुंसकाणं रयणपुढविनेरइय(एएसि णमित्यादि) सर्वस्तोकाः खचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग-नपुंसकाः, नपुंसकाणं० जाव अहेसत्तमपुढविनेरइयनपुंसकाणं तिरिक्खप्रतरासंख्येयभाग्य॑ संख्येयश्रेणिगताकाश-प्रदेशराशिप्रमाणत्वात् / जोणियनपुंसकाणं एगिदियतिरिक्खजोणियाणं पुढविकाइयतेभ्यः स्थलचरतिर्यग्यो निकनपुंसकाः संख्येयगुणाः, बृहत्तर- एगिदियतिरिक्खजोणियनपुंसकाणं० जाव वणस्सइकाइयप्रतरासंख्येयभागवर्त्यसंख्येयश्रेणिगतनभःप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् / / एगिंदियनपुंसगाणं बेइंदियतेइंदियचउरिंदियपंचें दिय Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुय(ग) 666- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्पाबहुय(ग) तिरिक्खजोणियण पुंसकाणं,जलयराणंथलयराणं खहयराणं, मणुस्सणं घुसकाणं कम्मभूमिकाणं अकम्म-भूमिकाणं अंतरदीवकाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४? गोयमा ! सव्वत्थोवा अहेसत्तमपुढविनेरइयनपुंसका, छठ्ठपुढविनेरइयनपुंसका असंखेजगुणा० जाव दोचा पुढविनेरइयनपुंसका असंखेजगुणा, अंतरदीवगमणुस्सण-पुंसका असंखेजगुणा, देवकुरूत्तरकुरु अकम्मभूमिका दो वि संखेनगुणा, जाव पुव्वविदेहअवरविदेहकम्मभूमगमणु-स्सणपुंसका दो वि संखेज्जगुणा, रयणप्पभापुढविनेरइयण-पुंसका असंखेजगुणा, खहयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियण-पुंसका असंखेनगुणा, थलयरा संखेजगुणा, जलयरा संखेजगुणा, चतुरिंदियतिरिक्खजोणियनपुंसका विसेसाहिया, तेइंदियनपुंसगा विसेसाहिया, बेइंदियनपुंसगा विसेसाहिया, तेउक्काइयएगिदियनपुंसगा असंखेजगुणा, पुढविकाइयएगिंदियनपुंसगा विसेसाहिया, आउक्काइय-नपुंसगा विसेसाहिया, वाउक्काइया विसेसाहिया, वणस्सइकाइयएगिं दियतिरिक्ख जोणियणपुंसका अणंतगुणा! सर्वस्तोकाः अधःसप्तमपृथिवीनैरयिकनपुंसकाः, तेभ्यः षष्ठपञ्चमचतुर्थतृतीयद्वितीयपृथिवीनैरयिकनपुंसका यथोत्तर-मसंख्येयगुणाः, द्वितीयपृथिवीनै रयिकनपुंसके भ्योऽन्तरद्वीपजमनुष्यनपुंसका असंख्येयगुणाः, एतदसंख्येयगुणत्वं संमूर्छनजमनुष्यापेक्षं, तेषां नपुंसकत्वाद्, एतावतां च तत्र संमूर्छनसंभवात् / तेभ्यो देवकुरूत्तरकुर्वकर्मभूमकमनुष्यनपुंसकाः, हैमवतहरण्यवताकर्मभूमकमनुष्यनपुंसकाः, भरतैरवत-कर्मभूमकमनुष्यनपुंसकाः पूर्वविदेहाऽपरविदेहकर्मभूमकमनुष्य-नपुंसका यथोत्तरं संख्येयगुणाः, स्वस्थानचिन्तायां तु द्वये परस्परं तुल्याः , पूर्व विदेहाऽपरविदेहकर्मभूमकमनुष्यपुंसकेभ्योऽस्यां प्रत्यक्षत उपलभ्यमानायां रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकनपुंसका असंख्येयगुणाः, तेभ्यः खचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्यो निकनपुंसकाः असंख्येयगुणाः, तेभ्यः स्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका जलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका यथोत्तरं संख्येयगुणाः, जलचरपञ्चेन्द्रियनपुंसकेभ्यश्चतुरिन्द्रियत्रीन्द्रियतिर्यग्यो निकन-पुंसका यथोत्तरं विशेषाधिकाः, द्वीन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकेभ्य स्तेजस्कायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका असंख्येयगुणाः, तेभ्यः पृथिव्यम्बुवायुतिर्यग्योनिकनपुंसका यथोत्तरं विशेषा-धिकाः, वाय्वेकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकेभ्यो वनस्पतिकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका अनन्तगुणाः / युक्तिः सर्वत्राऽपि प्रागुक्तानुसारेण स्वयं भावनीया / इत्युक्तानि पञ्च नपुंसकानामपि अल्पबहुत्वानि। जी०२ प्रति०। साम्प्रतं पुरुषाणामुच्यन्ते - तानि च पञ्च / तद्यथा-प्रथम सामान्याल्पबहुत्वम् 1, द्वितीयं त्रिविधतिर्यक्पुरुषविषयम् 2, तृतीयं त्रिविधमनुष्यपुरुषविषयम् 3, चतुर्थं चतुर्विधदेव-पुरुषविषयम् 4, पञ्चम मिश्रपुरुषविषयम् / तत्र प्रथमं तावदभिधित्सुराह(एतेसिणं भंते) देवपुरिसाणं भवणवासीणं वाणमंतराणं जोइसियाणं वेमाणिथाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा वेमाणियदेवपुरिसा, भवणवइदेवपुरिसा असंखेजगुणा, वाणमंतरदेवपुरिसा असंखेजगुणा, जोइसियदेवपुरिसा संखेज्जगुणा। (एएसि णं भंते ! इत्यादि) सर्वस्तोका मनुष्यपुरुषाः, संख्येयकोटीकोटिप्रमाणत्वात् / तेभ्यः तिर्यग्यो निकपुरुषा असंख्येयगुणाः, प्रतरासंख्येयभागवर्त्य संख्येयश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात्तेषाम् / तेभ्यो देवपुरुषाः संख्येयगुणाः, बृहत्तरप्रतरासंख्येयभागवर्त्यसंख्येयश्रेणिगतानकाशप्रदेशराशितुल्यत्वात्। तिर्यग्योनिकपुरुषाणां यथा तिर्यग्योनिकस्त्रीणां, मनुष्यपुरुषाणां यथा मनुष्यस्त्रीणामल्पबहुत्वं वक्तव्यम्। संप्रति देवपुरुषाणामल्पबहुत्वमाह- सर्वस्तोका अनुत्तरोपपातिकदेवपुरुषाः, क्षेत्रपल्योपमासंख्येयभागवाकाश-प्रदेशराशिप्रमाणत्वात् / तेभ्य उपरितन| वेयकदेवपुरुषाः संख्येयगुणाः, बृहत्तरक्षेत्रपल्योपमासंख्येयभागवर्तिनभः प्रदेशराशिमानत्वात् / कथमेतदवसेयमिति चेत् ? उच्यते-विमानबाहुल्यात् / तथाहिअनुत्तरदेवानां पञ्च विमानानि, विमानशतं तूपरितनगवेयकप्रस्तटे, प्रतिविमानं चासंख्येया देवाः, यथाऽत्राऽधोऽधोवर्तीनि विमानानि तथा तथा देवा अपि प्राचुर्येण लभ्यन्ते; ततोऽवसीयते अनुत्तरविमानवासिदेवपुरुषापेक्षयाबृहत्तरक्षेत्रपल्योपमाऽसंख्येयभागवर्तिनभःप्रदेशराशिप्रमाणा उपरितनप्रैवेयकप्रस्तटे देवपुरुषाः, एवमुत्तरत्रापि भावना विधेया। तेभ्यो मध्यमग्रैवेयकप्रस्तटे देवपुरुषाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽप्यधस्तनप्रैवेयकप्रस्तटे देवपुरुषाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽप्यच्युतकल्पदेवपुरुषाः संख्येयगुणाः, यद्यप्यारणा-ऽच्युतकल्पौ समश्रेणिको समविमानसंख्याको च, तथापि कृष्णपाक्षिकास्तथास्वाभाव्यात् प्राचुर्येण दक्षिणस्यां दिशि समुत्पद्यन्ते। अथ के ते कृष्णपाक्षिकाः ? उच्यते- इह द्वये जीवाः, तद्यथा-कृष्णपाक्षिकाः, शुक्लपाक्षिकाचा तत्र येषां किञ्चिदूनोपार्द्धपुद्गलपरावर्तः संसारस्ते शुक्लपाक्षिकाः, इतरे दीर्घसंसारभाजिनः कृष्णपाक्षिकाः / उक्तं च- "जेसिमवड्डो पोग्गलपरियट्टो सेसओ य संसारो / ते सुक्कपक्खिया खलु, अहिए पुण कण्हपक्खीओ" ||१||अत एव स्तोकाः शुक्लपाक्षिकाः, अल्पसंसाराणां स्तोकानामेव भावात् / बहवः कृष्णपाक्षिकाः, दीर्घसंसाराणामनन्तानां भावात्। अथ कथमेतदवसातव्यं कृष्णपक्षिकाः प्राचुर्येण दक्षिणस्यां दिशि समुत्पद्यन्ते ? उच्यते- तथास्वाभाव्यात् / तच तथास्वाभाव्यमेवं पूर्वाचायैर्युक्तिभिरुपबृंहितम्, कृष्णपाक्षिकाः खलु दीर्घसंसारभाजिन उच्यन्ते, दीर्घसंसारभाजिनश्च बहुपापोदयात् बहुपापोदयाश्व क्रूरकर्माणः, क्रूरकर्माणश्च प्रायस्तथास्वाभाव्यात्। तद्भवसिद्धिका अपि दक्षिणस्यां दिशि समुत्पद्यन्ते, यत उक्तम्- "पायमिह कूरकम्मा, भवसिद्धिया वि दाहिणि-ल्लेसु ! नेरइयतिरियमणुया, सुरा य ठाणेसु गच्छंति" ||1|| ततो दक्षिणस्यां दिशि प्राचुर्येण कृष्णपाक्षिकाणां संभवादुप-पद्यतेऽच्युतकल्पदेवपुरुषापेक्षया आरणकल्पदेवपुरुषाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि प्राणतकल्पदेवपुरुषाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽप्यानतकल्प-देवपुरुषाः संख्येयगुणाः, अत्रापि प्राणतकल्पापेक्षया संख्येयगुणत्वं, कृष्णपाक्षिकाणां दक्षिणस्यां दिशि प्राचुर्येण भावात् / एते च सर्वे ऽप्यनुत्तरविमानवास्यादय आनतकल्पवासिपर्यन्तदेवपुरुषाः प्रत्येक क्षेत्रपल्योपमसंख्येय Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुय(ग) 667 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्पाबहुय(ग) भागवर्तिनभःप्रदेशराशिप्रमाणा द्रष्टव्याः / "आणयपाणयमाई पल्लस्साऽसंखभागा उ'' इति वचनात्। केवलमसंख्येयो भागो विचित्र इतिपरस्परं यथोक्तं संख्येयगुणत्वं न विरुध्यते।आनतकल्पदेवपुरुषेभ्यः सहस्रारकल्पवासिदेवपुरुषा असंख्येय-गुणाः, धनीकृतस्य लोकस्य एकप्रादेशिक्याः श्रेणेरसंख्येयतमे भागे यावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणत्वात्तेषाम्, तेभ्योऽपि महाशुक्र कल्पवासिदेवपुरुषा असंख्येयगुणाः, बृहत्तरश्रेण्य-संख्येयभागाकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात्। कथमेतत् प्रत्येय-मिति चेत् ? उच्यते-विमानबाहुल्यात् / तथाहिषट्सहस्राणि विमानानां सहस्रारकल्पे, चत्वारिंशत्सहस्राणि महाशुक्रे, अन्यचाधो विमान-वासिनो देवा बहुबहुतराः, स्तोकस्तोकतरा उपरितनविमानवासिनः, तत उपपद्यते सहस्रारकल्पदेवपुरुषेभ्यो महाशुक्रकल्पवासिदेवपुरुषा असंख्येयगुणाः, तेभ्योऽपिलान्तककल्पदेवपुरुषा असंख्येयगुणाः, बृहत्तमश्रेण्य संख्येयभागवर्तिनभःप्रदेशराशिप्रमाणत्वात्। तेभ्योऽपि ब्रह्मलोककल्पवासिनो देवपुरुषा असंख्येयगुणाः, भूयोबृहत्तमश्रेण्यसंख्येयभागवांकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् / तेभ्योऽपि माहेन्द्रकल्पदेवपुरुषा असंख्येयगुणाः, भूयस्तरबृहत्तमश्रेण्यसंख्येयभागगताकाशप्रदेशमानत्वात्। तेभ्यः सनत्कुमारकल्पदेवा असंख्येयगुणाः, विमानबाहुल्यात् / तथाहिद्वादशशतसहस्राणि सनत्कुमारकल्पे विमानानाम्, अष्टौ शतसहस्राणि माहेन्द्रकल्पे, अन्यच दक्षिणदिग्भागवर्ती सनत्कुमारकल्पो, माहेन्द्रकल्पश्चोत्तरदिग्वर्ती , दक्षिणस्यां च दिशि बहवः समुत्पद्यन्ते कृष्णपाक्षिकाः, तत उपपद्यन्ते माहेन्द्रकल्पात्सनत्कुमारकल्पदेवा असंख्येयगुणाः / एते च सर्वेऽपि सहस्रारकल्पवासिदेवादयः सनत्कुमारकल्पवासि-देवपर्यन्ताः प्रत्येक स्वस्थाने चिन्त्यमानाधनीक तलोकैक-श्रेण्यसंख्येयभागगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणा द्रष्टव्याः। केवलं श्रेण्यसंख्येयभागोऽसंख्येयभेदस्तत इत्थमसंख्येयगुणतया अल्पबहुत्वमभिधीयमानं न विरोधभाक् / सनत्कुमारकल्पदेवपुरुषेभ्य ईशानकल्पदेवपुरुषा असंख्येयगुणाः, अङ्गुल-मात्रक्षेत्रप्रदेशराशेः संबन्धिनि द्वितीयवर्गमूले तृतीयेन वर्गमूलेन गुणिते यावान् प्रदेशराशिस्तावत्संख्याकासु घनीकृतस्य लोकस्य एकप्रादेशिकीसु श्रेणीषु यावन्तो नभःप्रदेशास्तेषां यावान् द्वात्रिंशत्तमो भागस्तावत्प्रमाणत्वात्। तेभ्यः सौधर्मकल्पवासिदेवपुरुषाः संख्येयगुणाः, विमान-बाहुल्यात्। तथाहि- अष्टाविंशतिः शतसहस्राणि विमानानामीशानकल्पे, द्वात्रिंशच्च शतसहस्राणि सौधर्मकल्पे, अपि च दक्षिणदिग्वर्ती सौधर्मकल्पः, ईशानकल्पश्चोत्तरदिग्वर्ती, दक्षिणस्यां च दिशि बहवः कृष्णपाक्षिका उत्पद्यन्ते।तत ईशानकल्पवासिदेवपुरुषेभ्यः सौधर्मकल्पवासिदेवपुरुषाः सङ्घचेयगुणाः। नन्वियं युक्तिः सनत्कुमारमाहेन्द्रकल्पयोरप्युक्ता, परंतत्र माहेन्द्रकल्पापेक्षया सनत्कुमारकल्पदेवा असंख्येयगुणा उक्ताः, इह तु सौधर्मकल्पे संख्ये यगुणाः, तदेतत्कथम् ? उच्यतेतथावस्तुस्वाभाव्यात् / एतचावसीयते प्रज्ञापनादौ, सर्वत्र तथा भणनात्। तेभ्योऽपि भवनवासिदेवपुरुषा असंख्येयगुणाः, अङ्गुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशेः संबन्धिनि प्रथमवर्गमूले द्वितीयेन वर्गमूलेन गुणिते यावान् प्रदेशराशिरुपजायते, तावत्संख्याकासु घनीकृतस्य लोकस्य एकप्रादेशिकीषु श्रेणिषुयावन्तो नभः- प्रदेशास्तेषां यावान् द्वात्रिंशत्तमो भागस्तावत्प्रमाणत्वात् / तेभ्यो व्यन्तरदेवपुरुषाः संख्येयगुणाः, संख्येययोजनकोटीकोटि प्रमाणैक-प्रादेशिकश्रेणिमात्राणि खण्डानि यावन्त्ये कस्मिन् प्रतरे भवन्ति, तेषां यावान् द्वात्रिंशत्तमो भागस्तावत्प्रमाणत्वात् / तेभ्यः संख्येय-गुणा ज्योतिष्का देवपुरुषाः, षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयाङ्गुल-प्रमाणैक प्रादेशिक श्रेणिमात्राणि खण्डानि यावन्त्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति, तेषां यावान् द्वात्रिंशत्तमो भागस्तावत्प्रमाणत्वात् / जी०२ प्रति०। इति चत्वार्यल्पबहुत्वान्युक्तानि। (अत्र टीकाकारस्यान्यादृशः पाठः सम्मत इदानींतनप्रतिषु तु अन्यादृश इति शब्दतो भेद आभाति, अर्थतस्तु न भेदः) सम्प्रतिपञ्चममल्पबहुत्वमाहएतेसिणं भंते! तिरिक्खजोणियपुरिसाणं जलयराणंथलयराणं खहयराणं मणुस्सपुरिसाणं कम्मभूमगाणं अकम्मभूमगाणं अंतरदीवगाणं देवपुरिसाणं, भवण-वासीणं, वाणमंतराणं, जोतिसियाणं, वेमाणियाणं, सोधम्माणं० जाव सव्वट्ठसिद्धगाण य कयरे कयरेहिंतो० जाव विसेसाहिया ? गोयमा! सव्वत्थोवा अंतरदीव-गमणुस्सपुरिसा, देवकुरुउत्तरकुरुअकम्मभूमगमणुस्सपुरिसा दो वि सं खिजगुणा, हरिवासरम्मवासअकम्मभूमगमणुस्सपुरिसा दो वि संखे अगुणा, हेमवतहेरण्णवतवास- अकम्मभूमगमणुस्सपुरिसा दो वि संखेज्जगुणा, भरहेरवयवासकम्मभूमगमणुस्सपुरिसा दो वि संखेज्जगुणा, पुव्वविदेहअवरविदेहकम्ममूमगमणुस्सपुरिसा दो विसंखेजगुणा। अणुत्तरोववातिदेवपु रिसा असंखे जगुणा, उवरिमगेवेज्जगदेवपुरिसा संखेजगुणा, मज्झिमगेवेजदेवपुरिसा संखेज्जगुणा, हिद्विमगेवेजदेवपुरिसा संखेज्जगुणा, अचुते कप्पे देवपुरिसा संखेजगुणा, आरणकप्पे देवपुरिसा संखेज्जगुणा, पाणयकप्पे देवपुरिसा संखेज्जगुणा, आणतकप्पे देवपुरिसा संखेजगुणा, सहस्सारकप्पे देवपुरिसा असंखेज्जगुणा, महासुक्ककप्पे देवपुरिसा असंखे-जगुणा० जाव माहिंदे कप्पे देवपुरिसा असंखे जगुणा, सणं कु मारकप्पे देवपुरिसा असंखेजगुणा, ईसाणकप्पे देवपुरिसा असंखेजगुणा, सोधम्मे कप्पे देवपुरिसा संखेनगुणा, भवणवासिदेव-पुरिसा असंखेज्जगुणा, खहयरतिरिक्खजोणियपुरिसा असंखेज्जगुणा, थलयरतिरिक्खजोणियपुरिसा संखेनगुणा, जलयरतिरिक्खजोणियपुरिसा संखेजगुणा, वाणमंतरदेवपुरिसा संखेजगुणा, जोतिसियदेवपुरिसा संखेज्जगुणा। सर्वस्तोका अन्तरद्वीपजमनुष्यपुरुषाः, क्षेत्रस्य स्तोकत्वात् / तेभ्यो देवकुरूत्तरकुरुमनुष्यपुरुषाः संख्येयगुणाः, क्षेत्रस्य बाहुल्यात्। स्वस्थाने तुद्वयेऽपिपरस्परंतुल्याः , तेभ्योऽपिहरिवर्षरम्यकवर्षाकर्मभूमकमनुष्यपुरुषाः संख्येयगुणाः, क्षेत्रस्याति-बहुत्वात्। स्वस्थाने तुद्वयेऽपि परस्पर तुल्याः, क्षेत्रस्य समानत्वात्। तेभ्योऽपि हैमवतहरण्यवताकर्मभूमकमनुष्यपुरुषाः संख्येयगुणाः, क्षेत्रस्याल्पत्वेऽप्यल्पस्थितिकतया प्राचुर्येण लभ्यमानत्वात् / स्वस्थाने तु द्वयेऽपि परस्परं तुल्याः। Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुय(ग) ६६८-अभिधानराजेन्द्रः- भाग 1 अप्पाबहुय(ग) तेभ्योऽपि भरतैरवतवर्षकर्मभूमकमनुष्यपुरुषाः संख्येयगुणाः, अजितस्वामिकाले उत्कृष्ट पदे स्वभावत एव भरतैरवतेषु च मनुष्यपुरुषाणामतिप्राचुर्येण संभवात् / स्वस्थाने च द्वयेऽपि परस्परं तुल्याः, क्षेत्रस्य तुल्यत्वात् / तेभ्योऽपि पूर्व विदेहापरविदेहादकर्मभूमकमनुष्यपुरुषाः संख्येयगुणाः, क्षेत्रबाहुल्यात् / अजितस्वामिकाले इव स्वभावत एव मनुष्यपुरुषाणां प्राचुर्येण संभवात् / स्वस्थाने तु द्वयेऽपि परस्परं तुल्याः, तेभ्योऽप्यनुत्तरोपपातिदेवपुरुषा असंख्येयगुणाः, क्षेत्रपल्योपमासंख्येयभागवाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात् / तदनन्तरमुपरितनगवेयकप्रस्तटदेवपुरुषा अच्युतकल्पदेवपुरुषा आरणकल्पदेवपुरुषाः प्राणतकल्पदेवपुरुषा आनतकल्पदेवपुरुषा यथोत्तरं संख्येयगुणाः / भावना प्रागिव / तदनन्तरं सहस्रारकल्पदेवपुरुषा लान्तककल्पदेवपुरुषा ब्रह्मलोककल्पदेवपुरुषामाहेन्द्रकल्पदेवपुरुषाः सनत्कुमारकल्पदेवपुरुषा ईशानकल्पदेवपुरुषा यथोत्तरम-संख्येयगुणाः, सौधर्मकल्पदेवपुरुषाः संख्येयगुणाः, सौधर्मकल्प-देवपुरुषेभ्यो भवनवासिदेवपुरुषा असंख्येयगुणाः, भावना सर्वत्रापि प्रागिव। तेभ्यः खचरतिर्यग्योनिकपुरुषा असंख्येयगुणाः, प्रतरासंख्येयभागवर्त्य संख्येयश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् / तेभ्यः स्थलचरतिर्यग्योनिकपुरुषाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि जलचरतिर्यग्योनिकपुरुषाः संख्येयगुणाः / युक्तिस्त्रापि प्रागिव / तेभ्योऽपि वाणमन्तरदेवपुरुषाः संख्येयगुणाः, संख्येययोजनकोटीकोटिप्रमाणैकप्रादेशिक श्रेणिकमात्राणि खण्डानि यावन्त्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति, तेषां यावान् द्वात्रिंशत्तमो भागस्तावत्प्रमाणत्वात् / तेभ्यो ज्योतिष्कदेवपुरुषाः संख्येय-गुणाः / युक्तिः प्रागेवोक्ता / जी०२ प्रति० / इति प्रतिपादितानि स्त्रीपुंनपुंसकानां प्रत्येकमल्पबहुत्वानि। इदानीं समुदितानामुच्यन्तेन्तानि चाऽष्ट / तत्र- प्रथमं सामान्येन तिर्यस्त्रीपुरुषनपुंसकप्रतिबद्धम्, एवमेतदेव मनुष्यप्रतिबद्धं द्वितीयम्, देवस्त्रीपुरुषनारकनपुंसकप्रतिबद्ध तृतीयम्, सकल-सन्मिश्रं चतुर्थम्, जलचर्यादिविभागतः पञ्चमम्, कर्मभूमि-जादिमनुष्यादिविभागतः षष्ठं, भवनवास्यादिदेव्यादिविभागतः सप्तमं, जलचर्यादिविजातीयव्यक्तिव्यापकमष्टमम्। तत्र प्रथममभिधित्सुराहएते सि णं मंते ! तिरिक्खजोणित्थीणं तिरिक्खजोणियपुरिसाणं तिरिक्खजोणियणपुंसकाण य कयरे कयरेहिंतो० जाव विसे साहिया ? गोयमा ! सव्वत्थोवा तिरिक्खजोणियपुरिसा, तिरिक्खजोणियत्थीओ संखेनगुणाओ, तिरिक्खजोणियणपुंसका अणंतगुणा। सर्वस्तोकास्तिर्यक्पुरुषाः, तेभ्यस्तिक स्त्रियः संख्येयगुणाः, त्रिगुणत्वात्। ताभ्यस्तिर्यङ्नपुंसका अनन्तगुणाः, निगोद जीवानामनन्तत्वात् // 1 // संप्रति द्वितीयमल्पबहुत्वमाहएते सि णं भंते ! मणस्सित्थीणं मणुस्सपुरिसाणं मणुस्सणपुंसकाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४? गोयमा ! सव्वत्थोवा मणुस्सपुरिसा, मणुस्सित्थीओ संखेज्जगुणाओ, मणुस्सणपुंसका असंखेजगुणा। सर्वस्तोका मनुष्यपुरुषाः, कोटीकोटिप्रमाणत्वात् / तेभ्यो मनुष्यास्त्रियः संख्येयगुणाः, सप्तविंशतिगुणत्वात् / तेभ्यो मनुष्यनपुंसकाश्च संख्येयगुणाः, श्रेण्यसंख्येयभागगतप्रदेशराशिप्रामाणत्वात् // 2 // संप्रति तृतीयमल्पबहुत्वमाहएतेसि णं भंते ! देवित्थीणं देवपुरिसाणं णेरइयनपुंसकाण य कयरे कयरेहिंतो० जाव विसेसाहिया ? गोयमा ! सव्वत्थोवा नेरइयनपुंसगा, देवपुरिसा असंखेजगुणा, देवित्थीओ संखेजगुणाओ। सर्वस्तो का नैरयिकनपुंसकाः, अङ्गुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशी स्वप्रथमवर्गमूलेन गुणिते यावान् प्रदेशराशिर्भवति तावत्प्रमाणासु घनीकृतस्य लोकस्य एकप्रादेशिकीषु श्रेणिषु यावन्तो नभः प्रदेशास्तावत्प्रमाणत्वात् / तेभ्यो देवपुरुषा असंख्येयगुणाः, असंख्येययोजनकोटीको टिप्रमाणायां शुचौ यावन्तो नभःप्रदेशास्तावत्प्रमाणासु धनीकृतस्य लोकस्य एकप्रादेशिकीषु श्रेणिषु यावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणत्वात् / तेभ्यो देवस्त्रियः संख्येयगुणाः, द्वात्रिंशद्गुणत्वात्।।३।। सम्प्रति सकलसंमिश्रं चतुर्थमल्पबहुत्वमाहएतेसि णं भंते ! तिरिक्खजोणित्थीणं तिरिक्खजोणियपुरिसाणं तिरिक्खजोणियनपुंसगाणं,मणुस्सित्थीणं मणुस्सपुरिसाणं मणुस्सनपुंसगाणं, देवित्थीणं देवपुरिसाणं नेरइयनपुंसकाण य कयरे कयरेहिंतो०? गोयमा ! सव्वत्थोवा मगुस्सपुरिसा, मणुस्सित्थीओ संखेजगुणाओ, मणुस्सणपुंसका असंखेनगुणा, नेरइयणपुंसका असंखेज्जगुणा, तिरिक्खजोणियपुरिसा असंखेज्जगुणा, तिरिक्खजोणित्थियाओ संखेनगुणाओ, देवपुरिसा असंखेजगुणा, देवित्थियाओ संखेजगुणाओ, तिरिक्खजोणिय-नपुंसका अणंतगुणा। सर्वस्तोका मनुष्यपुरुषाः, तेभ्यो मनुष्यस्त्रियः संख्येयगुणाः। तेभ्यो मनुष्यनपुंसका असंख्येयगुणाः / अत्र युक्तिः प्रागुक्ता / तेभ्यो नैरयिकनपुंसका असंख्ये यगुणाः, असंख्येयश्रेण्याकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् / तेभ्यस्तिर्यग्योनिकपुरुषा असंख्येय-गुणाः, तेभ्यस्तिर्यग्योनिकस्त्रियः संख्यातगुणाः, त्रिगुणत्वात्। ताभ्यो देवपुरुषाः संख्येयगुणाः, प्रभूततरप्रतरासंख्येयभागवर्त्य संख्येयश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् / तेभ्यो देवस्त्रियः संख्येयगुणाः, द्वात्रिंशद्गुणत्वात् / ताभ्यस्तिर्यग्योनिकनपुंसका अनन्तगुणाः, निगोदजीवानामनन्तत्वात् // 4 // संप्रति जलचर्यादिविभागतः पञ्चममल्पबहुत्वमाहएतासिणंभंते!तिरिक्खजोणित्थीणंजलयरीणंथलयरीणंखहयरीणं, तिरिक्खजोणियपुरिसाणं जलयराणं थलयराणं खहयराणं, तिरिक्खजोणियणपुंसकाणं, एगिदियतिरिक्ख जोणियणपुंसकाणं, पुढविक्काइयएगिं दियतिरिक्ख जोणियनपुंसगाणं० जाव वणस्सइकाझ्यएगिदियतिरिक्खजोणियन-पुंसगाणं,बेइंदियतिरिक्खजोणियण पुंसकाणं, तेइंदियचतुर्रि-दियपंचेंदियतिरिक्खजोणियण पुंसकाणं, जलयराणं थलयराणं खयराणं कयरे कयरेहिंतो० जाव विसेसाहिया वा ? गोयमा! सव्वत्थोवा खहयरतिरिक्ख Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुय(ग) 669- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्याबहुय(ग) जोणियपुरिसा, खहयरतिरिक्खजोणित्थियाओ संखेजगुणाओ, | पुव्वविदेहअवरविदेहकम्मभूमकमणुस्सणपुंसका दो वि थलयरतिरिक्खजोणियपुरिसा संखेज्जगुणा, थलयरतिरिक्ख- संखेज्जगुणा। जोणित्थीओ संखेज्जगुणाओ, जलयरतिरिक्खजोणियपुरिसा सर्वस्तोका अन्तरद्वीपकमनुष्यस्त्रियोऽन्तरद्वीपकमनुष्य-पुरुषाश्च, एते संखेज्जगुणा, जलयरतिरिक्खजोणित्थियाओ संखेनगुणाओ, चद्वयेऽपि परस्परं तुल्याः। तत्रत्यस्त्रीपुंसां युगल-धर्मोपेतत्वात् / तेभ्यो खहयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियणपुंसका संखेजगुणा, देवकुरुत्तरकुर्वकर्मभृतमकमनुष्यस्त्रियो मनुष्यपुरुषाः संख्येयगुणाः / थलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियणपुंसगा संखेजगुणा, युक्तिरत्र प्रागेवोक्ता / स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः / एवं जलयरतिरिक्खजोणियणपुंसक पंचेंदिया संखेजगुणा, हरिवर्षरम्यकमनुष्यपुरुषस्त्रियो, हैमवत-हैरण्यवतमनुष्यपुरुषस्त्रियश्च चउरिदियतिरिक्खजोणियणपुंसका विसेसाहिया, तेइंदियण यथोत्तरं संख्येयगुणाः, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः / ततो पुंसका विसे साहिया, बेइंदियणपुंसका विसे साहिया, भरतैरवतकर्मभूमकमनुष्या द्वये संख्येयगुणाः, स्वस्थाने तु परस्परं तेउक्काइय-एगिंदियतिरिक्खजोणियणपुंसका असंखेज्जगुणा, तुल्याः। तेभ्यो भतैररवतकर्मभूमकमनुष्यस्त्रियो द्वयोऽपि संख्येयगुणाः, पुढविनपुंसका विसेसाहिया, आउ० विसेसाहिया, वाउ० सप्तविंशतिगुणत्वात्, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः / ताभ्यः विसेसाहिया, वणप्फतिएगिदियणपुंसका अणंतगुणा। पूर्वविदेहाऽपरविदेहकर्मभूमकमनुष्यपुरुषा द्वयेऽपि संख्येयगुणाः, सर्वस्तोकाः खचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकपुरुषाः तेभ्यःखचरतिर्यग्यो- स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः / तेभ्यः पूर्वविदेहाऽपरविदेहकर्मनिकस्त्रियः संख्येयगुणाः, त्रिगुणत्वात्। ताभ्यः स्थलचरतिर्यग्योनिक- भूमकमनुष्यस्त्रियो द्वय्योऽपि संख्येयगुणाः, सप्त-विंशतिगुणत्वात्, पुरुषाः संख्येयगुणाः। तेभ्यः स्थल-चरतिर्यम्योनिकस्त्रियः संख्येयगुणाः, स्वस्थाने तु परस्परंतुल्याः। त्रिगुणत्वात्। ताभ्यः जलचरतिर्यग्योनिकपुरुषाः संख्येयगुणाः। तेभ्यः ताभ्योऽन्तरद्वीपकमनुष्यनपुंसका असंख्येयगुणाः, श्रेण्यसंख्येयभाजलचर-तिर्यग्यो निकस्त्रियः संख्येयगुणाः, त्रिगुणत्वात् / ताभ्यः गगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् / तेभ्यो देवकुरूत्तरकुर्वकर्मभूमकखचरपोन्द्रियतिर्यग्यो निक नपुंसकाः संख्येयगुणाः / तेभ्यः मनुष्यनपुंसका द्वयेऽपि संख्येयगुणाः, स्वस्थानेतुपरस्परं तुल्याः। तेभ्यो स्थलचरतिर्यग्योनिकनपुंसका यथाक्रम संख्येयगुणाः। ततश्चतुरिन्द्रिय हरिवर्षरम्यकवर्षाकर्मभूम-कमनुष्यनपुंसका द्वयेऽपि संख्येयगुणाः, त्रीन्द्रियद्वीन्द्रिया यथोत्तरं विशेषाधिकाः / ततस्तेजस्कायिकै स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः / तेभ्यो हैम-वतहरण्यवताकर्मभूमकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका असंख्येयगुणाः / ततः पृथिव्यम्बुवायु कमनुष्यनपुंसका द्वयेऽपि संख्येयगुणाः, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः। कायिकैकेन्द्रियतिर्यम्योनिकनपुंसका यथोत्तरं विशेषाधिकाः / ततो तेभ्यो भरतैर-वतकर्मभूमकमनुष्यनपुंसका द्वयेऽपि संख्येयगुणाः, वनस्पतिकायिकैकेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकनपुंसका अनन्तगुणाः // 5|| स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः / तेभ्योऽपि पूर्वविदेहापरविदेहसंप्रति कर्मभूमिजादिमनुष्यस्त्रियादिविभागतः षष्ठ कर्मभूमकमनुष्य-नपुंसका द्वयेऽपि संख्येयगुणाः, स्वस्थाने तु परस्परं मल्पबहुत्वमाह तुल्याः // 6 // एयासि णं भंते ! मणुस्सित्थीणं कम्मभूमियाणं अकम्म- संप्रति भवनवास्यादिदेव्यादिविभागतः सप्तममल्पबहुत्वमाहभूमियाणं अंतरदीवियाणं, मणुस्सपुरिसाणं कम्मभूमिकाणं एतासिणं भंते! देवित्थीणं भवणवासीणं वाणमंतरीणंजोइसीणं अकम्मभूमिकाणं अंतरदीविकाणं, मणुस्सणपुंसकाणं वेमाणिणीणं, देवपुरिसाणं भवणवासीणं० जाव वेमाणियाणं, कम्मभूमगाणं अकम्मभूमगाणं अतंरदीविकाण य कयरे सोधम्मकाणं० जाव गेविजकाणं अणुत्तरोववाइयाणं, कयरेहिंतो अप्पा वा०? गोयमा! अंतरदीवकअकम्मभूमक रायनपुंसकाणं, रयणप्पभापुढ-विनेरड्यनपुंसकाणं० जाव मणुस्सित्थियाओ मणुस्सपुरिसा य एतेसिणं दोण्णि वितुल्ला अहेसत्तमापुढविनेरइय-नपुंसगाणं कयरे कयरेंहितो० जाव सव्वत्थोवा, देवकुरुउत्तरकुरुअकम्मभूमकमणुस्सित्थियाओ विसेसाहिया वा? गोयमा ! सध्वत्थोवा अणुत्तरोववाइया मणुस्सपुरिसाओ एते णं दोण्णि वि तुल्ला संखेजगुणा; देवपुरिसा, उवरिमगेवेजा, देवपुरिसा संखेज्जगुणा, तहेव० जाव हरिवासरम्मक वासअकम्मभूमक मणु स्सित्थियाओ मणुस्सपुरिसा य एते णं दोण्णि वि तुल्ला संखेज्जगुणा, हेमवते आणतकप्पे देवपुरिसा संखेजगुणा। हेरण्णवते अकम्मभूमकमणुस्सित्थीओ मणुस्सपुरिसा य दो अहेसत्तमाए पुढवीए नेरइयनपुंसका असंखेनगुणा, छट्ठीए वितुल्ला संखेज्जगुणा, भरहेरवत-कम्मभूमगमणुस्सपुरिसा दो पुढवीए नेरइयनपुंसका असंखेनगुणा, सहस्सारे कप्पे विसंखेज्जगुणा, भरहेर-वयकम्मभूमगमणुस्सित्थियाओ दोवि देवपुरिसा असंखेजगुणा, महासुक्के कप्पे देवा असंखेजगुणा, संखेज्जगुणाओ, पुव्वविदेहअवरविदेहकम्मभूमगमणुस्सपुरिसा पंचमाए पुढवीए नेरइयनपुंसका असंखेज्जगुणा, लंतए कप्पे दो वि संखेजगुणा, पुव्वविदेहअवरविदेहकम्मभूमगमणु- असंखेज्जगुणा, चउत्थीए पुढवीए नेरइया असंखेज्जगुणा, स्सित्थीओ दो वि संखेनगुणाओ, अंतरदीवगअकम्म बंभलोए कप्पे देवपुरिसा असंखे-जगुणा, तचाए पुढवीए नेरइया भूमगमणुस्सणपुंसका असंखेजगुणा, देवकुरुउत्तरकुरुअ- असंखेज्जगुणा, माहिंदे कप्पे देवपुरिसा असंखेनगुणा, कम्मभूमगमणुस्सणपुंसका दो विसंखेजगुणा, एवं तहेव० जाव सणंकुमारे कप्पे देवपुरिसा असंखेज्जगुणा, दोचाए पुढवीए नेरइया Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुय(ग) ६७०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्पाबहुय(ग) असंखेज्जगुणा, ईसाणे कप्पे देवपुरिसा असंखेजगुणा, ईसाणे कप्पे देवित्थियाओ संखेज्जगुणाओ, सोधम्मे कप्पे देवपुरिसा संखेज्जा, सोधम्मे कप्पे देवित्थियाओ संखे०, भवनवासिदेवपुरिसा असंखेज्जगुणा, भवणवासिदेवीस्थियाओ संखे०, इमीसे रयणप्पभापुढवीनेरइया असंखेज्जगुणा, वाणमंतरदेवपुरिसा असंखेजगुणा, वाणमंतरदेवित्थियाओ संखेज्जगुणाओ, जोतिसियदेवपुरिसा संखेज्जगुणा, जोतिसियदेवित्थियाओ संखेज्जगुणाओ। सर्वस्तोका अनुत्तरोपपातिकदेवपुरुषाः, तत उपरितनगवेयकमध्यप्रैवेयकाऽधस्तनौवेयकाऽच्युताऽऽरणप्राणताऽऽनतकल्प-देवपुरुषा यथोत्तरं संख्येयगुणाः। ततोऽधः सप्तमषष्ठ पृथिवीनैरयिकनपुंसकसहस्रारमहाशुक्रकल्पदेवपुरुषपञ्चमपृथिवीनैरयिकनपुंसकलान्तककल्पदेवपुरुषचतुर्थपृथिवी-नैरयिकनपुंसकब्रह्मलोककल्पदेवपुरुषतृतीयपृथिवीनैरयिकनपुंसक माहेन्द्रसनत्कुमाकल्पदेवपुरुषद्वितीय-पृथिवीनैरयिक नपुंसका यथोत्तरमसंख्येयगुणाः / तत ईशानकल्पदेवपुरुषा असंख्ये यगुणाः, तेभ्य ईशानकल्पदेवस्त्रियः संख्येयगुणाः, द्वात्रिंशद्गुणत्वात्। ततः सौधर्मकल्पे देवपुरुषाः संख्येयगुणाः, तेभ्यः सौधर्मकल्पे देवस्त्रियः संख्येयगुणाः, द्वात्रिंशद्गुणत्वात् / ताभ्यो भवनवासिदेवपुरुषा असंख्येयगुणाः, तेभ्यो भवनवासिदेव्यः संख्येयगुणाः, द्वात्रिंशद्गुणत्वात् / ताभ्यो रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकनपुंसका असंख्येयगुणाः, तेभ्यो वाणमन्तरदेवपुरुषा असंख्येयगुणाः, तेभ्यो वाणमन्तरदेव्यः संख्येयगुणाः, ताभ्यो ज्योतिष्कदेवपुरुषाः संख्येयगुणाः, तेभ्यो ज्योतिष्कदेवस्त्रियः संख्येयगुणाः, द्वात्रिंशद्गुणत्वात्॥७॥ सम्प्रति विजातीयव्यक्तिव्यापकमष्टममल्पबहुत्वमाहएतासि णं भंते ! तिरिक्खजोणित्थीणं जलयरीणं थलयरीणं | खहयरीणं, तिरिक्खजोणियपुरिसाणं जलयराणं थलयराणं खहयराणं, तिरिक्खजोणियणपुंसकाणं एगिदियतिरिक्खजोणियनपुंसकाणं पुढवीकाइयएगिंदियतिरिक्खजोणियनपुंसकाणं आउक्काइयएगिंदियतिरिक्खजोणियनपुंसकाणं० जाव वणस्सइकाइयएगिदियतिरिक्खजोणियणपुंसकाणं, बेइंदियतिरिक्खजोणियणपुंसकाणं ते इंदियतिरिक्खजोणियणपुंसकाणं चउरिंदियतिरिक्खजोणियणपुंसकाणं पंचेंदियतिरिक्खजोणियणपुंसकाणं, जलयराणं थलयराणं खहयराणं, मणुस्सित्थीणं कम्मभूमियाणं अकम्मभूमियाणं अंतरदीवयाणं, मणुस्सपुरिसाणं कम्मभूमकाणं अकम्मभूमकाणं अंतरदीवकाणं, मणुस्सनपुंसकाणं कम्मभूमिकाणं | अकम्मभूमिकाणं अंतरदीवकाणं, देवित्थीणं भवणवासिणीणं वाणमंतरीणं जोतिसिणीणं वेमाणिणीणं, देवपुरिसाणं भवणवासीणं वाणमंतराणं जोतिसियाणं वेमाणियाणं, सोधम्मकाणं० जाव गेविजकाणं, अणुत्तरोववाइयाणं, नेरइयन पुंसकाणरयणप्पभपुढविनेरइयन पुंसकाणं० जाव अहेसत्तमा पुढविनेरइयन पुंसकाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा० 4? गोयमा! सव्वत्थोवा अंतरदीवकअकम्मभूमिकमणुस्सित्थीओ मणुस्सपुरिसा य एतेणं दो वितुल्ला सव्वत्थोवा, देवकुरुउत्तरकुरुअकम्मभूमगमणुस्सित्थीओ मणुस्सपुरिसा य एते णं दो वि तुल्ला संखेनगुणा; एवं हरिवासरम्मवासे, एवं हेमवते हेरण्णवते, भरहेरवतवासकम्मभूमगमणुस्सपुरिसा दो दि संखे०, भरहेरवयकम्मभूमगमणु स्सित्थीओ दो दि संखेज्जगुणाओ, पुव्वविदेहअवरविदेहकम्मभूमगमणुस्सपुरिसा दो वि संखेज्जगुणा, पुटवविदेहअवरविदेहकम्मभूमगमणुस्सित्थियाओदो वि संखेज्जगुणाओ, अणुत्तरोववातियदेवपुरिसा असंखेज्जगुणा; उवरिमगेवेजा देवपुरिसा संखेज्जगुणा० जाव आणतकप्पे देवपुरिसा संखेज्जगुणा। अहेसत्तमाए पुढवीए नेरइयणपुंसगा असंखेजगुणा, छट्ठीए नेरइयणपुंसका असंखेजगुणा, सहस्सारे कप्पे देवपुरिसा असंखेज्जगुणा, महासुक्के कप्पे असंखेज्जगुणा, पंचमाए पुढवीए नेरइयनपुंसका असंखेजगुणा, लंतए कप्पे देवपुरिसा असंखेजगुणा, चउत्थीए पुढवीए नेरइयनपुंसका असंखेनगुणा, बंभलोए कप्पे देवपुरिसा असंखेजगुणा, तबाए पुढवीए नेरइया असंखेज्जगुणा, माहिंदे कप्पे असंखेज्जगुणा, संणकुमारे कप्पे देवपुरिसा असंखेज्जगुणा, दोचाए पुढवीए णेरइयणपुंसका, असंखेज्जगुणा, अंतरदीवगअकम्मभूमगमणुस्सणपुंसका असंखेज्जगुणा / देवकुरुउत्तरकुरुअकम्मभूमगमणुस्सणपुंसका दो वि संखेजगुणा, एवं० जाव विदेहो त्ति। ईसाणकप्पे देवपुरिसा असंखेज्जगुणा, ईसाणकप्पे देवित्थियाओ संखेजगुणाओ, सोधम्मे कप्पे देवपुरिसा संखेज्जगुणा, सोधम्मे कप्पे देवित्थियाओ संखेज्जगुणाओ, भवणवासिदेवपुरिसा असंखे०, भवणवासिदेवित्थियाओ संखेज्जगुणाओ; इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए नेरइयनपुंसका असंखेज्जगुणा, खहयरतिरिक्खजोणियपुरिसा संखेज्जगुणा, खहयरतिरिक्ख-जोणित्थियाओ संखेज्जगुणाओ, थलयरतिरिक्खजोणियपुरिसा संखेज्ज०, थलयरतिरिक्खजोणित्थियाओ संखे०, जलयर-तिरिक्खजोणित्थियाओ संखेज्जगुणाओ, वाणमंतरदेवपुरिसा संखेज्जगुणा, वाणमंतरदेवित्थियाओ संखेज्जगुणाओ, जोइसियदेवपुरिसा संखेज्ज०, जोइसियदेवित्थियाओ संखेजगुणाओ, खहयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियणपुंसका असंखेजगुणा, थलयरनपुंसका संखे०, जलयरनपुंसका संखे०, चतुरिंदियणपुंसका विसेसाहिया, तेइंदिया विसेसाहिया, बेंदिया विसेसाहिया, तेउकाइयएगि-दियतिरिक्खजोणियनपुंसका असंखे० पुढवी० विसेसाहिया, आउ० विसे साहिया, Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुय(ग) ६७१-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्पाबहुय(ग) वाउ० विसे साहिया, वणप्फइकाइयएगिं दियतिरिक्खजोणियणपुंसका अणंतगुणा। सर्वस्तोका अन्तरद्वीपकमनुष्यस्त्रियो मनुष्यपुरुषाश्च, स्वस्थाने तु द्वयेऽपि तुल्याः , युगलधर्मोपेतत्वात् / एवं देवकुरूत्तरकुर्वकर्मभूमक हरिवर्ष रम्यक वर्षाकर्मभूमक है मवत है रण्यवताकर्मभूमकमनुष्यस्त्रीपुरुषा यथोत्तरं संख्येयगुणाः, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः। तेभ्यो भरतैरवतकर्मभूमकमनुष्यपुरुषा द्वयेऽपि संख्येयगुणाः, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः। तेभ्यो भरतैरवत-कर्मभूमकमनुष्यस्त्रियो द्वय्योऽपि संख्येयगुणाः, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः। ताभ्यः पूर्व विदेहापरविदेहकर्मभूमकमनुष्यपुरुषा द्वये-ऽपि संख्येयगुणाः, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः / तेभ्योऽपि पूर्वविदेहापरविदेहकर्मभूमकमनुष्यस्त्रियो द्वय्योऽपि संख्येय-गुणाः, सप्तविंशतिगुणत्वात्। स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः। ताभ्योऽनुत्तरोपपातिकोपरितनौवेयकमध्यमग्रैवेयकाधस्तनप्रै-वेयकाच्युतारणप्राणतानतकल्पदेवपुरुषाः यथोत्तरं संख्येयगुणाः; ततोऽधःसप्तमषष्ठपृथिवीनैरयिकसहस्रारकल्पदेवपुरुषा महा-शुक्रकल्पदेवपुरुषाः पञ्चमपृथिवीनैरयिक लान्तककल्प-देवपुरुषाश्चतुर्थपृथिवीनैरयिकनपुंसकब्रह्मलोककल्पदेवपुरुषतृतीयपृथिवीनै रयिक नपुंसकमाहेन्द्रकल्पसनत्कुमारकल्पदेवपुरुषद्वितीयपृथिवीनैरयिकनपुंसकान्तरद्वीपनपुंसका यथोत्तरमसंख्येयगुणाः। ततो देवकुरूत्तरकुर्वकर्मभूमकहरिवर्षरम्यकवर्षाकर्मभूमकहैमवतहरण्यवताकर्मभूमक-भरतैरवतकर्मभूमकपूर्वविदेहापरविदेहकर्मभूमकमनुष्यपुंसकाः यथोत्तरं सख्येयगुणाः, स्वस्थाने तुद्वये परस्परं तुल्याः / तत ईशानकल्पदेवपुरुषा असंख्येयगुणाः, तत ईशानकल्पे देवस्त्रियः संख्ये०। ताभ्यः सौधर्मे कल्पे देवपुरुषस्त्रियः संख्ये० / तेभ्यो भवनासिदेवपुरुषा असंख्येयगुणाः, तेभ्यो भवनवासिदेवस्त्रियः संख्येयगुणाः / ताभ्योऽस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकनपुंसका असंख्येयगुणाः। ततः खचरतिर्यग्योनिकपुरुषाः खचरति-र्यग्योनिकस्त्रियः स्थलचरतिर्यग्योनिकपुरुषाः स्थलचरतिर्यग्योनिकस्त्रियः जलचरतिर्यग्योनिकपुरुषाः जलचरतिर्य-योनिकस्त्रियो वाणमन्तरदेवपुरुषाः वाणमन्तरदेवस्त्रियो ज्योतिष्कदेवपुरुषाः ज्योतिष्कदेवस्त्रियो यथोत्तरं संख्येयगुणाः। ततः खचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका असंख्येयगुणाः / ततः स्थलचरजलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकाः क्रमेण संख-येयगुणाः ततश्चतुरिन्द्रियत्रीन्द्रियद्वीन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका यथोत्तरं विशेषाधिकाः। ततस्तेजस्कायिकैकेन्द्रियतिर्यग्यो-निकनपुंसका असंख्येयगुणाः, ततः पृथिव्यप्वायुकायिकति-र्यग्यो निकनपुंसका यथोत्तरं विशेषाधिकाः / वनस्पतिकायिकै - केन्द्रियतिर्यग्यो निकनपुंसका अनन्तगुणाः, निगोदजीवानाम-नन्तत्वात् / / 8|| जी०२ प्रति०। शरीरमाश्रित्य सशरीराऽशरीराऽल्पबहुत्वचिन्तायाम्"सव्वत्थोवा ससरीरी, असरीरी अणंतगुणा' (२६)शरीरद्वारम् आहारकादिशरीरिणाम्अप्पाबहुसव्वत्थोवा आहारगसरीरी, वे उब्वियसरीरी असंखेज्जगुणा, ओरालियसरीरी असंखेनगुणा, असरीरी अणंतगुणा, तेयाकम्मासरीरी दो वि तुल्ला अणंतगुणा। सर्वस्तोका आहारकशरीरिणः, उत्कर्षतोऽपि सहस्रपृथक्त्वेन प्राप्यमाणत्वात् / तेभ्यो वैक्रियशरीरिणोऽसंख्येयगुणाः, देवनारकाणां कतिपयगर्भजतिर्यक्पञ्चेन्द्रियमनुष्यवायुकायिकानां च वैक्रियशरीरत्वात् / तेभ्य औदारिकशरीरिणोऽसंख्येयगुणाः, इहानन्तानामपि जीवानां यस्मादेकमौदारिकं शरीरं, ततः स एक औदारिकशरीरी परिगृह्यते, ततोऽसंख्येयगुणा एवौदारिकशरीरिणो, नाऽनन्तगुणाः। आह च मूलटीकाकारः 'औदारिकशरीरिभ्यो-ऽशरीरा अनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात्, औदारिकाशरीरिणां च शरीरापेक्षतया असंख्येयत्वादिति' / तेभ्योऽशरीरिणोऽनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात्। तेभ्यः तैजसशरीरिणः कार्मणशरीरिणः अनन्तगुणाः, स्वस्थाने तु द्वयेऽपि परस्परं तुल्याः / तैजसकार्मणयोः परस्पराविनाभावित्वात् / इह तैजसशरीरं कार्मणशरीरं च निगोदेष्यपि प्रतिजीवं विद्यते, इति सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वम् / जी०६ प्रति०) (औदारिकादिशरीराणां चाऽल्पबहुत्वं 'सरीर' शब्दे वक्ष्यते) (संक्रमविषयमल्पबहुत्वं 'सकंम' शब्दे द्रष्टव्यम्) (समुद्धातविषयमल्पबहुत्वं 'समुग्धाय' शब्दे प्ररूपयिष्यते) (३०)संज्ञिद्वारा संजयसंज्ञिनोसंज्ञिनोअसंज्ञिनामल्पबहुत्वम्एएसिणं भंते ! जीवाणं सन्नीणं असन्नीणं नोसन्नीणं नोअसन्त्रीण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४? गोयमा ! सव्वत्थोवा सन्नी, नोसन्नी नोअसन्नी अणंतगुणा, असन्नी अणंतगुणा। सर्वस्तोकाः संज्ञिनः, समनस्कानामेव संज्ञित्वात्। तेभ्यो नोसंझिनो नोऽसंज्ञिनोऽनन्तगुणाः, उभयप्रतिषेधवृत्ता हि सिद्धाः, ते च संज्ञिभ्योऽनन्तगुणा एवेति / तेभ्योऽसंज्ञिनोऽनन्तगुणाः, वनस्पतीनां सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वात्। प्रज्ञा०३ पद। (आहारा-दिसंज्ञोपयुक्तानां नैरयिकादीनामल्पबहुत्वं 'सन्ना' शब्दे वक्ष्यते) (सामायिकादिसंयतविषयमल्पबहुत्वं 'संजय' शब्दे एव द्रष्टव्यम्) (संयमस्थानानामल्पबहुत्वं 'संजमट्ठाण' शब्दे भावयिष्यते) (31) संयमद्वारम् संयतानामसंयतानां नोसंयत नोअसंयतानामल्पबहुत्वम् - एएसिणं भंते ! जीवाणं संजयाणं असंजयाणं संजयासंजयाणं नोसंजयाणं नोअसंजयाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४? गोयमा! सव्वत्थोवाजीवा संजया, संजयासंजया असंखेजगुणा, नोसंजता नोअसंजता अणंतगुणा, असंजता अणंतगुणा। सर्वस्तोकाः संयताः, उत्कृष्ट पदेऽपि तेषां कोटिसहस्रपृथक्त्वप्रमाणतया लभ्यमानत्वात् / "कोटिसहस्सपुहुत्तं मणुयलोए संजयाणं" इति वचनात् / तेभ्यः संयतासंयता देशविरता असंख्येयगुणाः, तिर्यक् पञ्चेन्द्रियाणामसंख्यातानां देशविरतिसद्भावात् / तेभ्यो नोसंयता नोअसंयता अनन्तगुणाः, प्रतिषेधत्रयवृत्ता हि सिद्धाः, ते चाऽनन्ता इति। तेभ्योऽसंयता अनन्तगुणाः, वनस्पतीनां सिद्धेभ्योऽप्यनन्तत्वात्। प्रज्ञा०३ पद। (३२)संस्थानद्वारम्। संस्थानानामल्पबहुत्यम् - एएसिणं भंते ! परिमंडलवट्टचउरंसतंसआयत अणित्थंत्थाणं संठाणाणं दवट्ठयाए पदेसट्टयाए दवट्ठपदे सट्टयाए Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्याबहुय(ग) 672- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्पाहार कयरे कयरेहिंतो० जाव विसेसाहियावा? गोयमा! सव्वत्थोवा परिमंडलसंठाणा दवट्ठयाए, वट्टा संठाणा दव्वट्ठयाए संखेजगुणा, चउरंसा संठाणा दव्वट्ठयाए संखेनगुणा, तंसा संठाणा दव्वट्ठयाए संखेज्जगुणा, आयतसंठाणा दव्वट्ठयाए संखेजगुणा, अणित्थंत्था संठाणा दवट्ठयाए असंखेजगुणा / पदेसट्टयाए सव्वत्थोवा परिमंडला संठाणा, वडा संठाणा पदेसट्टयाए संखेज्जगुणा / जहा दव्वट्ठयाए तहा पदेसट्टयाए वि० जाव अणित्थंस्था संठाणा पदेसट्टयाए असंखेज्जगुणा / दव्वट्ठपदेसट्ठयाए सव्वत्थोवा परिमंडलसंठाणा, दव्वट्ठयाए सो चेव गमगो भाणियव्वो० जाव अणित्थंत्था संठाणा दव्वट्ठयाए असंखेजगुणा, अणेत्थंत्थेहिंतो संठाणेहिंतो दव्वट्ठयाएहितो परिमंडला पदेसट्टयाए असंखेजगुणा, वट्टा संठाणा पदेसट्टयाए असंखेजगुणा, सो चेव पदेसट्टयाए गमओ भाणियव्वो० जाव अणित्थंत्था संठाणपदेसट्टयाए असंखेनगुणा / भ०२५ श०३ उ०। (षट्कसमर्जितानां यावचतुरशीतिसमर्जितानामल्पबहुत्वं उववाय' शब्दे द्वितीयभागे 622 पृष्ठे निरूपयिष्यते) (33) सम्यक्त्वद्वारम् सम्यग्दृष्टिमिथ्यादृष्टिसम्यमिथ्या दृष्टीनामल्पबहुत्वम् - एएसि णं भंते ! जीवाणं सम्मादिट्ठीणं मिच्छादिट्ठीणं सम्मामिच्छदिट्ठीणं च कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४ ? गोयमा ! सव्वत्थोवाजीवा सम्मामिच्छदिट्टी,सम्मादिद्वीअणंतगुणा, मिच्छादिट्ठी अणंतगुणा। सर्वस्तोकाः सम्यग्मिादृष्टयः, सम्यग्मिथ्यादृष्टिपरिणामकालस्याऽन्तर्मुहूर्तप्रमाणतयाऽतिस्तोकत्वेन तेषां पृच्छासमये स्तोकानामेव लभ्यत्वात्। तेभ्यः सम्यग्दृष्टयोऽनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात् / तेभ्योऽपि मिथ्यादृष्टयोऽनन्तगुणाः, वनस्पतिकायिकानां सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वात्, तेषां च मिथ्यादृष्टित्वादिति। प्रज्ञा०३ पद। सम्यक्त्वद्वारे सास्वादनसम्यग्दृष्टयः स्तोकाः, औपशमिकसम्यक्त्वात्केषांचिदेव प्रच्यवमानानां सास्वादनत्वात् / तेभ्य औपशमिकसम्यग्दृष्टयः सङ्ख्यातगुणाः। मीसा संखा वेयग-असंखगुण खइय मिच्छ दु अणंता। सण्णिनयर थोवऽणंताऽणहार थोवेयर असंखा॥४४॥ तेभ्यश्चौपशमिकसम्यग्दृष्टिभ्यो मिश्राः संख्यातगुणाः, तेभ्यो (वेयगत्ति) क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टयोऽसंख्यातगुणाः। तेभ्यः क्षायिकसम्यग्दृष्टयोऽनन्तगुणाः, क्षायिकसम्यक्त्ववतां सिद्धा-नामनन्तत्वात् / तेभ्योऽपि मिथ्यादृष्टयोऽनन्तगुणाः, सिद्धेभ्योऽपि वनस्पतिजीवानामनन्तगुणत्वात्, तेषां च मिथ्यादृष्टित्वादिति। कर्म०४ कर्म०। (34) सिद्धविषयकम् सिद्धासिद्धयोरल्पबहुत्वम् - एएसिणं मंते ! सिद्धाणं असिद्धाण य कयरे कयरेहितो, जाव | विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा सिद्धा, असिद्धा अणंतगुणा। "एएसि णमित्यादि'' प्रश्नसूत्रं सुगमम् / भगवानाह- गौतम ! सर्वस्तोकाः सिद्धाः, असिद्धा अनन्तगुणाः, निगोदजीवानामतिप्रभूतत्वात्। (35) सूक्ष्मद्वारम् सूक्ष्मबादरनोसूक्ष्मनोबादराणामल्पबहुत्वम् - एएसि णं मंते ! सुहुमाणं बादराणं नोसुहुमाणं नोबादराण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४? गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा नोसुहुमा नोबादरा, बादरा अणंतगुणा, सुहुमा असंखेजगुणा। सर्वस्तोकाः जीवा नोसूक्ष्मा नोबादराः, सिद्धा इत्यर्थः; तेषां सूक्ष्मजीवराशेबर्बादरजीवराशेश्वानन्तभागकल्पत्वात् / तेभ्यो बादरा अनन्तगुणाः, बादरनिगोदजीवानां सिद्धेभ्योऽनन्तगुणत्वात् / तेभ्यः सूक्ष्मा असंख्येयगुणाः, बादरनिगोदेभ्यः सूक्ष्मनिगोदानामसंख्येयगुणत्वात् / गतं सूक्ष्मद्वारम् / प्रज्ञा०३ पद / कर्म०। क० प्र०ा पं०सं०। (स्थितिबन्धानामल्पबहुत्वं 'बंध' शब्दे द्रष्टव्यम्) अप्याभिणिवेस-पुं०(आत्माभिनिवेश) पुत्रभ्रातृकलत्रादि-ब्वात्मीयाभिनिवेशे, नैरात्म्यावगतौ आत्माभिनिवेशः। नं०। अप्पायंक-त्रि०(अल्पातक) अल्पशब्दोऽभाववाची / अल्पः सर्वथाऽविद्यमान आतङ्को ज्वरादिर्यस्याऽसावल्पातङ्कः। जी०३ प्रति०। रा०। अनातङ्केनीरोगे, भ०१४ श०१ उ०। अरोगिणि, आचा०१ श्रु०२ अ०६ उ०। उपा०ा रोगमुक्ते, ध०३ अधि०ा ओघo| अप्पारंभ-त्रि०(अल्पारम्भ) कृष्यादिरूपं पृथिव्यादिजीवोपमर्दे एवं कुर्वाणे, औ०। अप्पावय-त्रि०(अप्रावृत) अस्थगिते, सूत्र०१श्रु०५ अ०१ उ०। अप्यावयदुवार-पुं०(अप्रावृतद्वार) अप्रावृतमस्थगितं द्वारं गृहमुखं यस्य सोऽप्रावृतद्वारः / दृढसम्यक्त्वे, यस्य हि गृहं प्रविश्य परतीर्थकोऽपि यद्यत् कथयति, तदसौ कथयतु, न तस्य परिजनोऽप्यन्यथा भावयितुं सम्यक्त्वाच्च्यावयितुं शक्यते इति यावत्। सूत्र०२ श्रु०६ अ०) अप्पाह-धा० (संदिश) सम् -दिश-तुदा० / वार्ताकथने, प्राकृते "संदिशेरप्पाहः"||१८०॥ इति सूत्रेण संपूर्वकस्य दिशेरप्पाहादेशः। प्रा०४ पाद। अप्पाहति संदिशति व्य०१ उ०। अप्पाहति संदेश कथयति, यथा-मया कृतोऽमुकस्य समीपे कायोत्सर्ग इति।व्य०४ उ० अप्पाहण्ण-न०(अप्राधान्य) अप्रधानत्वे, पञ्चा०१ विव०। अप्पाहार-पुं०(अल्पाऽऽहार) अल्पश्चाऽसौ आहारश्व अल्पाहारः / स्तोकाहारे, अल्प आहारो यस्य सोऽल्पाहारः / स्तोकमाहारमाहारयति साधौ, भ०। अट्ठकुकुडिअंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाहारेमाणे अप्पाहारे। कुक्कुट्यण्डकस्य यत्प्रमाण मानं, तत्परिमाणं मानं येषां ते तथा / अथवा कुटीव कुटीरकमिव जीवस्याश्रयत्वात् / कुटी शरीरं,कुत्सिता अशुचिप्रायत्वात् कुटी कुकुटी,तइया अण्डक Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाहार ६७३-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्पोस अ०1 मिवाण्डकमुदरपूरकत्वादाहारः कुकुट्यण्डकम, तस्य प्रमाणतो मात्रा नामक्षायिकादिभावः / स्वाधारे भाववति, ज्ञाताऽयमित्यादिरूपेण द्वात्रिंशत्तमांशरूपा येषां ते कुकुट्यण्डकप्रमाणमात्राः / अतस्तेषामय- ज्ञानमस्येत्यादिरूपेण वचनव्यापारेण वक्त्रा स्थापिते व्यवहारे, उत्त०१ मभिप्रायः- यावान् यस्य पुरुषस्याहारस्यद्वात्रिंशत्तमो भागस्तत्पुरुषापेक्षया कवलः / इदमेव कवलमानमाश्रित्य प्रसिद्धकवलचतुःष- अप्पियवह- त्रि०(अप्रियवध) अप्रियं दुःखकारणं तद् घ्नन्तीति ट्यादिमानाहारस्यापि पुरुषस्य द्वात्रिंशता कवलैः प्रमाणप्राप्ततोपपन्ना अप्रियवधाः / दुःखहेतुनिवारके, "सव्वे पाणा पियाउया सुहसाया स्यात्, नहि स्वभोजनस्यार्द्धभुक्तवतः प्रमाणप्राप्तत्वमुपपद्यते / दुक्खपडिकुला अप्पियवहा" |आचा०१ श्रु०२ अ०३ उ०। प्रथमव्याख्यानं तु प्रायिकपक्ष-मवगन्तव्यमिति / (अप्पाहारे त्ति) अप्पियस्सर-त्रि०(अप्रियस्वर) प्रेमाऽविषयस्वरे, स्था०८ ठा०। अल्पाहारः, साधुर्भवतीतिगम्यते। अथवाऽष्टौ कुकुट्यण्डकप्रमाणमात्रान् अप्पियाणप्पिय-न०(अर्पितानर्पित) द्रव्यं ह्यर्पितं विशेषितं, यथा कवलानाहार-माहारयति कुर्वति साधौ अल्पाहारः स्तोकाहारः, जीवद्रव्यम् किंविधम् ? संसारीति, संसार्यपि त्रसरूपं, सरूपमपि आहारचतुर्थां-शरूपत्वात्तस्य / भ०७ श०१ उ०1 व्या आचा०। पञ्चेन्द्रियम्, तदपि नररूपमित्यादि। अनर्पितमविशेषितमेव, यथा(अल्पाहारस्य इन्द्रियाणि विषयेषु न वर्तन्त इति 'जिणकप्पिय' शब्दे जीवद्रव्यमिति। ततश्चाऽर्पितंच तदनर्पितंचेत्यर्पिताऽनर्पितंद्रव्यं भवतीति वक्ष्यते) समान्यविशेषकथनरूपं द्रव्यानुयोगभेदे, स्था०१० ठा० अप्पाहिगरण-पुं०(अल्पाधिकरण) अल्पमविद्यमानमधिकरणं अप्पीकय-त्रि०(आत्मीकृत) आत्मना गाढतरमागृहिते, "पुढे रेणुं व स्वपक्षपरपक्षविषयो यस्य तत्तथा / स्था०६ ठा०१० उ०। निष्कलहे, तणुम्मि बद्धमप्पीकयं"। विशे०। आत्मप्रदेशस्तनुलग्नतोयवद् स्था०८ ठा। मिश्रीभूतम् / आ०म०वि०। अप्पिच्छ-त्रि०(अल्पेच्छ) अल्पा स्तोका धर्मोपकरणप्राप्ति अप्पुट्ठाइ(ण)-त्रि०(अल्पोत्थायिन्) अल्पमुत्थातुं शीलमात्रविषयत्वेन, न तु सत्कारादिकामितया महती, अल्प मस्येत्यल्पोत्थायी / प्रयोजनेऽपि अपुनःपुनरुत्थानशीले, उत्त० शब्दस्याभाववाचित्वेनाविद्यमाना इच्छा वाञ्छा यस्येत्यल्पेच्छः / 10) "अप्पुट्ठाई निरुट्ठाई निसीएज्जऽप्पकुक्कुए"। उत्त०१ अ०। उत्त०३ अ०। अमहेच्छे, औ| धर्मोपकरणमात्रधारिणि, उत्त०२ अ०॥ न्यूनोदरतयाऽऽहारपरित्यागिनि, दश०८ अ० अल्पाः स्तोकाः अप्पुत्सिंगपणगदगमट्टियामक डसंताण-त्रि०(अल्पोत्तिङ्गपरिग्रहारम्भेष्विच्छाऽन्तःकरणप्रवृत्तिर्येषां ते तथा। सूत्र०२ श्रु०२ अ०) पनकोदकमृत्तिकामर्कट सन्तान) उत्तिङ्गपनकोदकमृत्तिकाममणिकनकादिविषयप्रतिबन्धरहिते, जी०३ प्रति०।२०। जं०। कैटसन्तानरहिते, तत्रोत्तिषः पिपीलिकासन्तानकः, पनको भूम्यादावुल्लिविशेषः, उदकमृत्तिका अचिराऽप्कायार्दीकृता मृत्तिका, अप्पिय-अ०(अप्रिय) प्रियस्याभावोऽप्रियम् / चित्तदुःखासिकायाम्, मर्कटसन्तानको लूतातन्तुजालम्। आचा०१ श्रु०८ अ०६ उ०। सूत्र०१ श्रु०४ अ०१ उ०ा न प्रियमप्रियम्। अप्रीतिहेतौ, भ०१ श०५ उ०। उपा० द्वेष्ये, स०। यद्धि दर्शनायातकालेऽपि न अप्पुदय-त्रि०(अल्पोदक) भौमान्तरिक्षोदकरहिते, आचा०१ श्रु०८ प्रियबुद्धिमुत्पादयति / जी०१ प्रति०। प्रेमाऽविषये, स्था०८ ठा०॥ अ०६ उन "अणिहा अकंता अप्पिया अमणुन्ना अमणा एकह" / विपा०१ श्रु०१ अप्पुल्ल-त्रि०(आत्मीय) आत्मनि भवम्। "हस्वः संयोगे"।।१८।। अ०"कोहं असचं कुविञ्जा, धारिजा पियमप्पियं / ' अप्रियमपि "मस्मात्मनोः पो वा" / / 2 / 51 / इति त्मस्य पः। "अनादौकर्णकटुकतया, तदनिष्टमपि, गुरुवचनमिति गम्यते। उत्त०१ अ०। "|| इति प्पः। "डिल्लड़ल्लौ भवे" ||1633 इति *अर्पित-त्रि० प्राक्कृतसुकृतेन दौकिते, उत्त० 3 अ०। आहिते, भ०६ सूत्रेण "उल्ल'' प्रत्ययः। आत्मनि भवे, प्रा०२ पाद। श०७ उ०1 ढौकिते, विपा०१ श्रु०२ अ०। विशेषिते, स्था०१० ठा०। अप्पुस्सुय-त्रि०(अल्पौत्सुक्य) औत्सुक्यवर्जिते, औ० / म०। अनुत्सुके, "अप्पियमयं विसेसो,सामन्नमणप्पियनयस्स' विशे०। "जहा ज्ञा०१ अ०। अविमनस्के, आचा०२ श्रु०३ अ०३ उ०। दवियमप्पियंतं तहेव" यद् द्रव्यमर्पितं प्रतिपादयितुमभीष्टम्। सम्म०१ अप्पो-पुं०(देशी) पितरि, दे०ना०१ वर्ग। काण्ड। अप्पोलंभ-पुं०(आप्तोपालम्भ) आप्तेन हितेन, गुरुणेत्यर्थः / उपालम्भो *अल्पित -त्रि० अल्पं क्रियते स्म, अल्प-कृतार्थे णिच, कर्मणि- विनेयस्याविहितविधायिन आप्तोपालम्भः / अविधिप्रवृत्तस्य शिष्यस्य क्तः / अल्पीकृते, "मृषा न चक्रेऽल्पितकल्पपादपः''। वाच०। गुरुणा मार्गे स्थापनाय उपालम्भे, (तीर्थकृता) "अप्पोलंभनिमित्तं अप्पियकारिणी-स्त्री०(अप्रियकारिणी) श्रोतुम॑तनिवेदनादिरूपायां पढमस्स णायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते त्ति बेमि' / ज्ञा०१ अ०। भाषायाम,"अप्पियकारिणिंच भासंन भासिज्जा सयासपुजो"।दश०६ अप्पोल्ल-त्रि०(देशी) दृढवेष्टनादशुषिरे, "अप्पोल्लं मिदुपण्हं च, पडिपुन्नं अ०३ उ० हत्थपुरिसं" / बृ०३ उ०। नि०चू०। अप्पियणय-पुं०(अर्पितनय) अर्प्यते विशेष्यते इत्यर्पितो विशेषः, तद्वादी | अप्पोवगरणसंधारण-न०(अल्पोपकरणसन्धारण) अल्पमेवो-पकरणे नयोऽर्पितनयः / विशेष एवास्ति, न सामान्यमिति समयप्रसिद्धे नये, सन्धारणीये, षो०१ विव० विशे०। सम्म०। अप्पोवहित्त-न०(अल्पोपधित्व) अनुल्बणयुक्तस्तोकोपधिसेवित्वे, अप्पियता-स्त्री०(अप्रियता) अप्रेमहेतुतायाम्। भ०६श०३ उ० दश०२ चू०। अप्पियववहार-पुं०(अर्पितव्यवहार) अर्पित इति व्यवहारो यस्मिन् | अप्पोस-त्रि०(अल्पावश्याय) अधस्तनोपरितनावश्यायवि-पुड्वर्जिते, सोऽयमर्पितव्यवहारः / मयूरव्यंसकादित्वात् समासः / अर्पिता- / आचा०१ श्रु०८ अ०६उ०। Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पलेवा 674 - अभिधानराजेन्द्रः-भाग 1 अप्पा अप्पोसहिमंतबल-त्रि०(अल्पौषधिमन्त्रबल) अल्पं स्तोकमौषधिमन्त्रबलं यस्य स तथा / स्तोके नौषधिमन्त्रबलेन युते, 'अप्पोसहिमंतबलो नहु अप्पाणं तिगिच्छिहिसि / आव०४ अ०। अप्फालण-न०(आस्फालन) हस्तेनाऽऽताडने उत्तेजने, औ०। दशा०। भम्भाहोरम्भाणं वादनमास्फालनमिति प्रसिद्धम् / रा०। आ०५०। अप्फालिजंत-त्रि०(आस्फाल्यमान) हस्तेनाऽऽताडयमाने, "अप्फालिज्जतीणं भंभाणं होरंभाणं" रा०] अप्फा(फा)लिय-त्रि०(आस्फालित) आ समन्तात्स्फार प्रापिते, व्य०१ उ० अप्फिह-त्रि०(अस्पृह) स्पृहाविरहिते "उपसर्गाननिष्टेष्टान्नेकोऽ-भीरस्पृहः क्षमेत् आ०म०द्वि०। अप्फुडिय-त्रि०(अस्फुटित) अजर्जर,जं०२ वक्ष०ा ''अखंडऽप्फुडिआ कायव्या'' अस्फुटिताः सर्वविराधनापरित्यागेन, दश०६अ। अप्फुडियदंत-त्रि०(अस्फुटितदन्त) अस्फुटिता अजर्जरा जरा-रहिता दन्ता येषां तेऽस्फुटितदन्ताः / जी०३ प्रति० अजर्जरदन्तेषु, जं०२ वक्ष०ा औ०। राजिरहितदन्तेषु, तं०। व्य०। कल्प०| अप्फुण्ण-त्रि०(आक्रान्त)आ-क्रम-क्ता"तेनाऽप्फुण्णादयः" ||1258 / इतिक्तविशिष्टस्याऽऽक्रान्तशब्दस्याऽप्फुण्णादेशः। प्रा०४ पाद / व्याप्ते, "अप्फुण्णा समाणी'' नि० अप्फुण्ण त्ति, आस्पृष्टा व्याप्ता, आक्रान्ता इति यावत् / अनु० जंग रा०) अप्फोआ(या)-स्त्री०(अफोया) वनस्पतिविशेषे, जी०३ प्रति०। व्य। जं०। प्रज्ञा अप्फोडिअ(ह)-न०(आस्फोटित) कराऽऽस्फोटे, जं०३ वक्ष०ा प्रश्न०। भ०। ज्ञा०। कल्पना अप्फो(फो)व-पुं०(अप्फोव) वृक्षाद्याकीणे, अफोव इति कि-मुक्तं भवति- आस्तीर्णवृक्षगुच्छगुल्मलतासंछन्न इत्यर्थः, इति वृद्धाः। उत्त०१८ अ० अप्फोवमंड-पुं० पअप्फो (फो)वमण्डपब अफोवश्चासौ मण्डपः / नागवल्लीद्राक्षादिभिर्वेष्टिते स्थाने, "अप्फोवमंडवम्मि, झायइ खवियासवे"। उत्त०१ अ० अफरुस-न०(अपरुष) अनिष्ठुरे, मनःप्रह्लादके, व्य०३ उ०/ अफरुसमासि(ण)-त्रि०(अपरुषभाषिन्) अपरुषमनिष्ठुरं / तद्भाषणशीलोऽपरुषभाषी। वाग्विनयविशेष प्रतिपन्ने, व्य०१ उ०। अफलवादि(ण)-पुं०(अफलवादिन) न विद्यते कस्याश्चित् क्रियायाः फलमित्येवंवादिनि, सूत्र०१ श्रु०१ अ०१ उ०) अफलवादिनश्चाऽक्रियावादिन इति तत्रैवैतन्मतमनुपन्यस्य दूषितम्। तीर्थान्तरीयाणामफलवादित्वम् - अगारमावसंता वि, अरण्णा वा वि पव्वया। इमं दरिसणमावण्णा, सव्वदुक्खा विमुच्चइ / / 16 / / ते णावि संधि णचा णं, न ते धम्मविओ जणा। जे ते उ वाइणो एवं, न ते ओहंतराहिया // 20 // ते णावि संधिं णचा णं, न ते धम्मविओ जणा। जे ते उ वाइणो एवं, न ते संसारपारगा।।२१।। ते णावि संधिंणचा णं,न ते धम्मविओ जणा। जे ते उवाइणो एवं,न ते गब्भस्स पारगा||२२| ते णावि संधिं णचा णं,नते धम्मविओ जणा। जे ते उवाइणो एवं,न ते जम्मस्स पारगा॥२३॥ ते णावि संधिंणचा णं, न ते धम्मविओ जणा। जे ते उ वाइणो एवं, न ते दुक्खस्स पारगा॥२४।। ते णावि संधिं णच्चा णं, न ते धम्मविओ जणा। जे ते उ वाइणो एवं, न ते मारस्स पारगा // 25 // साम्प्रतंपञ्चभूतात्माऽद्वैततज्जीवतच्छरीराकारकात्मषष्ठक्षणिकपञ्चस्कन्धवादिनामफलवादित्वं वक्तुकामः सूत्रकारस्तेषां दर्शनफलाभ्युपगमं दर्शयितुमाह-(अगारेत्यादि) अगारं गृहं, तत्रवसन्तस्तस्मिस्तिष्ठन्तो गृहस्था इत्यर्थः / आरण्या वा तापासदयः, प्रव्रजिताश्च शाक्यादयः। अपि सम्भावने / इदं ते संभावयन्ति-यथेदमस्मदीयं दर्शनमापना आश्रिताः सर्वदुःखेभ्यो विमुच्यन्ते।आर्षत्वादेकवचनं सूत्रे कृतम्। तथापि पञ्चभूत-तज्जीवतच्छरीरवादिनाममाशयः- यथेदमस्मदीयं दर्शनं ये समाश्रितास्ते गृहस्थाः सन्तः सर्वेभ्यः शिरस्तुण्डमुण्डन - दण्डाजिनजटाकाषायचीवरधारणके शोल्लुश्चनभाग्भ्यस्तपश्चरण कायक्लेशरूपेभ्यो दुःखेभ्यो मुच्यन्ते। तथा:- "तपांसियातनाश्चित्राः, संयमो भोगवञ्चनम् / अग्निहोत्रादिकं कर्म, बालक्रीडेय लक्ष्यते // 1 // इति। सांख्यादयस्तु-मोक्षवादिन एवं संभावयन्ति यथा येऽस्मदीय दर्शनमकर्तृत्वात्माऽद्वैतपञ्चस्कन्धादिप्रतिपादकमापन्नाः प्रव-जितास्ते सर्वेभ्यो भन्मजरामरणगर्भ- परम्पराऽनेकशारीर-मानसाऽतितीव्रतराऽसातोदयरूपेभ्यो दुःखेभ्यो विमुच्यन्ते। सकल-द्वन्द्वविनिर्मोवं मोक्षमास्कन्दन्ततीत्युक्तं भवति / / 11 / / इदानीं तेषामेवाऽफलवादित्वाविष्करणा याऽऽह-(ते णावीत्यादि) ते पञ्चभूतवाद्याद्याः, नाऽपि, नैव,सन्धिं छिद्रं विवरं, सच द्रव्यभावभेदाद् द्वेधा-तच द्रव्यसन्धिः कुड्यादिः, भावसन्धिानावरणादिविवररूपः, तमज्ञात्वा ते प्रवृत्ताः / णमिति वाक्यालङ्कारे / यथा- आत्मकर्मणोः सन्धिर्द्विधा भावलक्षणो भवति, तथा अबुधा इव ते वराका दुःखमोक्षार्थमभ्युद्यता इत्यर्थः / यथा त एवंभूतास्तथा प्रतिपादितं, लेशतः प्रतिपादयिष्यते च / यदि वा संधानं सन्धिरुत्तरोत्तरपदार्थपरिज्ञानं, तदज्ञात्वा प्रवृत्ता इति / यतश्चैवमतस्ते न सम्यग्धर्मपरिच्छेदे कर्तव्ये विद्वांसो निपुणाः, जनाः पञ्चभूतास्तित्वादिवादिनो लोका इति। तथाहि- क्षान्त्यादिको दशविधो धर्मस्तमज्ञात्वैवाऽन्यथा च धर्म प्रतिपादयन्ति / यत्फलभावाच तेषामफलबादित्वं तदुत्तरग्रन्थेनोद्देशकपरिसमाप्त्यवसानेन दर्शयति- ये ते त्विति / तुशब्दश्चशब्दार्थे / य इत्यस्याऽनन्तरं प्रयुज्यते / ये च ते एवमनन्तरोक्तप्रकारवादिनो नास्तिकादयः, ओघो भवौधः संसारः, तत्तरणशीलास्ते न भवन्तीति श्लोकार्थः // 20 // तथा न ते वादिनः संसारगर्भजन्मदुःखमारादिपारगा भवन्तीति।२१-२५ / नाणाविहाइंदुक्खाई, ऽणुहवंति पुणो पुणो।। संसारचक्कवालम्मि, मबुवाहिजराकुले // 26 // उच्चावयाणि गच्छंता, गन्भमेस्संतिऽणंतसो। नायपुत्ते महावीरे, एवमाह जिणोत्तमे // 27 // नायपगच्छंता, गजराकुले Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अफलवादि (ण) 675 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अबंध यत्पुनस्ते प्राप्नुवन्ति, तद्दर्शयितुमाह- (नाणाविहाई इत्यादि) नानाविधानि बहुप्रकाराणि दुःखान्यसातोदयलक्षणान्यनुभवन्ति पुनः पुनः / तथाहि- नरकेषु करपत्र दारणकुंभीपाकतप्तायःशाल्मलीसमालिङ्ग नादीनि, तिर्यक्षु च शीतोष्णादिदमनाङ्कनताडनाऽतिभारारोपणक्षुत्तृडादीनि, मनुष्येषु इष्टवियोगाऽनिष्ट संयोगशोकाक्रन्दनादीनि, देवेषु चाभियोगेष्याकिल्विषिकत्वच्यवनादीन्यनेकप्रकाराणि दुःखानि, ये एवंभूता वादिनस्ते पौनःपुन्येन समनुभवन्ति / एतच श्लोकार्द्ध सर्वेषूत्तरश्लोकार्द्धषु योज्यम्। शेषं सुगमं यावदुद्देशकसमाप्तिरिति // 26|| नवरमुच्चावचानीति-अधमोत्तमानि नानाप्रकाराणि वासस्थानानि गच्छन्तीति गच्छन्तो भ्रमन्तो गर्भाद्गर्भमेष्यन्ति यास्यन्त्यनन्तशो निर्विच्छेदमिति ब्रवीमीति। सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनं प्रत्याह-ब्रवीम्यहं तीर्थराज्ञया न स्वमनीषिकया, स चाऽहं ब्रवीमि, येन मया तीर्थङ्करसकाशात् श्रुतम् / एतेन च क्षणिकवादिनिरासो द्रष्टव्यः / 27 / सूत्र०१ श्रु०१ अ०१ उ01 अफास-त्रि०(अस्पर्श) न विद्यते स्पर्शोऽष्ट प्रकारो मृदुकर्कशादिरस्येत्यर्थः / षो०१६ विव० अशुभस्पर्शे एकान्तोद्वेजनीये, सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ० अफासुय-न०(अप्रासुक) न० प्रगता असवोऽसुमन्तो यस्मात् , तदप्रासुकम्। सजीवे, भ०५ श०६ उ०ा सचित्ते, आचा०१ श्रु०१अ०१ उ०। सूत्र०। स्था। अफासुयपडिसेवि(ण)-त्रि०(अप्रासुकप्रतिसेविन्) अप्रासुकं सचित्तं प्रतिसे वितुं शीलमस्य स भवत्यप्रासुकप्रतिसेवी / सचेतनजलादिवस्तुप्रतिसेवनशीले, "अफासुयपडिसेविय, णाम भुजो य सीलवादी या" सूत्र०१ श्रु०७ अ० अफुस-त्रि०(अस्पृश्य) स्प्रष्टुमयोग्ये, "अफुसं दुक्खं" अस्पृश्यं कर्माकृतत्वादेव।स्था०३ ठा०२ उ०) अफुसमाणगइ-पुं०(अस्पृशद्गति) अस्पृशन्ती सिद्ध्यन्तराल-प्रदेशान् | गतिर्यस्य सोऽस्पृशद्गतिः। अन्तरालप्रदेशा-नामस्पर्शनेनैवोज़ गच्छति सिद्धे, औ०। उजूसेढीपडिवन्ने अफुसमाणगई उड्ढे एक्कसमएणं अविग्गहेणं / उड्डूं गता सागारोवउत्ते सिज्झिहित्ति। अन्तरालप्रदेशस्पर्शने हि नैकेन समयेन सिद्धिः, इष्यते च तत्रक एव समयः, य एव चाऽऽयुष्कादिकर्मणां क्षयसमयः, स एव निर्वाणसमयोऽतोऽन्तराले समयान्तरस्याऽभावादन्तरालप्रदे- | शानामसंस्पर्शनमिति सूक्ष्मश्चायमर्थः केवलिगम्यो भावत इति / औ०। "अफुसमाणगती बितियं समयं ण फुसति, अहवा जेसु अवगाढो जे य फुसति उड्डमविगच्छमाणो तत्तिए चेव आगासपदेसे फुसमाणो गच्छति"। आ०चू०२ अ०॥ अबंझ-त्रि०(अवन्ध्य) न वन्ध्यमवन्ध्यम्। अवश्यकार्यकारिणि, सूत्र०। अवन्ध्यमेकादशं पूर्वम्, वन्ध्यं नाम निष्फलं, न विद्यते वन्ध्यं यत्र, तदवन्ध्यम, सफलमित्यर्थः / तत्र हि- सर्वेऽपि ज्ञान-तपःसंयमयोगाः शुभफलेन सफला वर्ण्यन्ते, अप्रशस्ताश्च प्रमादादिकाः सर्वे अशुभफला वर्ण्यन्तेऽतोऽवन्ध्यम्, तस्य च परिमाणं षड्वंशतिपदकोटयः / स०) "अबंझपुव्वस्सणं बारस वत्थूपण्णत्ता' नं० स०ा अवश्यकार्यकर्तरि, सूत्र०२ श्रु०१ अ०॥ अबंध-पुं०(अबन्ध) बन्धाऽभावे, पं० सं०५ द्वा०॥ अबंधग-पुं०(अबन्धक) निरुद्धयोगे, भ०२५ श०६ उ०। आ०म०द्वि। अबंधव-त्रि०(अबान्धव) स्वजनसम्पाद्यकार्यरहिते, प्रश्न०१ आश्र०द्वा०। अंबभ-न०(अब्रह्मन्) अकुशले कर्मणि, तच्च मैथुनं विवक्षितम्, अत्यन्ताकुशलत्वात् तस्य। प्रश्न०४ आश्र०द्वा०। तचाऽष्टादशधाअट्ठारसविहे अबंभे ओरालिअंच दिव्वं, मणवयकाएण जोएण अणुमोअणकारावणकरणेणऽद्वारसाऽबंभ / / इह मूलतो द्विधाऽ ब्रह्म भवति- औदारिकं तिर्यड्मनुष्याणां, दिव्यं च भवनवास्यादीनां, चशब्दस्य व्यवहितः संबन्धः / मनोवाकायाः कारणं, त्रिधा योगेन त्रिविधेनैवानुमोदनकारणकरणेन निरूपित, पश्चात्तु पूर्वोपन्यासः अब्रह्माऽष्टादशधा भवति। इयं भावना-औदारिकं स्वयं न करोति मनसा वाचा कायेन, नाऽन्येन कारयति मनसा वाचा कायेन, कुर्वन्तं नाऽनुमोदते मनसा वाचा कायेना एवं वैक्रियमपि। आव०४ अ० एतच प्रश्नव्याकरणानां चतुर्थेऽध्ययने यथा यादृशादिद्वारपञ्चकेन / द्वारपञ्चकं चेदम् - "जारिसओ 1 जनामा 2, जह य कओ 3 जारिसं फलं दिति / जे वि य करेंति पावा 5, पाणवहं तं निसामेह'' // 1 // प्रश्न०५ आश्र०द्वारा तत्रयादृशमब्रह्मेतिद्वारार्थप्रतिपादनायेदं सूत्रम्जंबू ! अभंच चउत्थं सदेवमणुयासुरस्स लोयस्स पत्थणिज्जं पंकपणगपासजालभूयं इत्थीपुरिसनपुंसगवेदचिण्हं तवसंजमबंभचेरविग्धं भेदाययणबहुपमादमूलं कायरका-पुरिससेवियं सुयणजणवजणिजं उड्ढुनरयतिरियतिलोकपइट्वाणं जरामरणरोगसोगबहुलं बधबंधविधायदुव्दिघायं दंसणचरित्त-मोहस्स हेउभूयं चिरपरिचयमणुगयं दुरंतं चउत्थं अहम्मदारं / (जंबू ! इत्यादि) जम्बू ! इति शिष्यामन्त्रणम् / अब्रह्म अकुशलं कर्म, तचेह मैथुनं विवक्षितम्, अत्यन्ताकुशलत्वात्तस्य आह च "नो किंचि अणुन्नायं, पडिसिद्धं वा वि जिणवरिंदेहिं / मुत्तं मेहुणमेगं, न जं विणा रागदोसेहिं" ||1|| चकारः पुनरर्थः / चतुर्थसूत्रक्रमापेक्षया सह देवमनुजासुरैया लोकः स तथा, तस्य प्रार्थनीयमभिलषणीयम् यतः - "हरिहरहिरण्यगर्भ-प्रमुखे भुवने न कोऽप्यसौ शूरः / कुसुमविशिखस्य विशिखा-नस्खलयद्यो जिनादन्यः'' |१||पङ्को महान् कर्दमः, पनकः स एव प्रतलः, सूक्ष्मः पाशो बन्धनविशेषः, जालं मत्स्यबन्धनम्। एतद्भूतमेतदुपमं कलङ्कनिमित्तत्वेन दुर्भाचनत्वेन च साधात्।उक्तं चसन्मार्गे तावदास्ते प्रभवति पुरुषस्तावदेवेन्द्रियाणां, लज्जा तावद्विधत्ते विनयमपि समालम्बते तावदेव। भूचापाकृष्टमुक्ताः श्रवणपथजुषो नीलपक्ष्माण एते, यावल्लीलावतीनां न हृदि धृतिमुषो दृष्टिबाणाः पतन्ति / / 1 / / तथास्त्रीपुरुषनपुंसक्वेदानांचिह्नलक्षणंयत्तत्तथा तपः स्यमब्रह्मचर्यविनमिति व्यक्तम्। तथा भेदस्य चारित्र जीवितविनाशस्यायतनान्याश्रया ये बहवः प्रमादा Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अबंभ 676 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अबंभ मद्यविकथादयस्तेषां मूलं कारणं यत्तत्तथा / आह- च- "किं किं न कुणई किं किं, न भासए चिंतए य किं किं न / पुरिसो विसयासत्तो, विहलंघलिउव्व मजेण" ||1|| कातराः परीषहभीरवः, अतएव कापुरुषाः कुत्सितनरास्तैः सेवितं यत्तत्तथा / सुजनानां सर्वपापविरतानां यो जनसमूहस्तस्य वर्जनीयं परिहरणीयं यत्त-त्तथा। उर्ध्वं चऊर्ध्वलोको नरकश्चाऽधोलोकस्तिर्यग्लोक एतल्लक्षणं यत्त्रैलोक्यं, तत्र प्रतिष्ठानं यस्य तत्तथा / जरामरण-रोगशोकबहुलं, तत्राऽन्यत्र च जन्मनि जरामरणादिकारणत्वात् / उच्यते च- "जो सेवइ किं लब्भइ," इति (गाहा) वधस्ताडनं,बन्धः संयमनं, विघातो मारणम्, एभिरपि दुष्करो विघातो यस्य तद्धबन्धविघातदुर्विघातम् / गाढरोगाणां हि महापद्यप्यब्रोच्छा नोपशाम्यति। आह चकुशः काणः खञ्जः, श्रवणरहितः पुच्छविकलः,, क्षुधाक्षामो जीर्णः, पिठरककपालार्पितगलः। वणैः पूयक्लिन्नैः, कृमिकुलचितैराचिततनुः, शुनीमन्वेति श्वा हतमपि च हन्त्येव मदनः।।१।। शिखरिणी। दर्शनचारित्रमोहस्य हेतुभूतं तन्निमित्तम् / ननु चारित्रमोहस्य हेतुरिदमिति प्रतीतम् / यदाह- "तिव्वकसाओ बहुओहपरिणओ रागदोससंजुत्तो। बंधइचरित्तमोहं, दुविहं पिचरित्तगुणघाइ'' ||1|| द्विविधं कषायनोकषायमोहनीयभेदात्। यत् पुनदर्शनमोहस्य हेतुभूतमिदमिति, तन्न प्रतिपद्यामहे, तद्धेतुत्वेनाभणनात् / तथाहि- तद्धेतुप्रतिपादिका गाथैवं श्रूयते-"अरहंतसिद्धचेइय-तवसुयगुरुसाहुसंघपडणीओ।बंधइ दसणमोहं, अणंत संसारिओ जेण" ||1|| भवतीह वाक्यशेषः। सत्यम्, किन्तु स्वपक्षा-ब्रह्मसेवनेन या संघप्रत्यनीकता, तया दर्शनमोहं बध्नतोऽब्रह्मचर्य दर्शनमोहहेतुतां न व्यभिचरति / भण्यते च स्वपक्षाब्रह्मसेवकस्य मिथ्यात्वबन्धः, अन्यथा कथं दुर्लभबोधिरसाव- / भिहितः ? आह च- "संजइचउत्थभंगे, चेइयदव्वे य पवयणुड्डाहे। रिसिघाये यचउत्थे, मूलग्गी बोहिलाभस्स" ||1|| इति। चिरंपरिचितमनादिकाला-सेवितम्। चिरपरिगतं वा पाठः।अनुगतं अनवच्छिन्नंदुरन्तं दुष्टफलं चतुर्थमधर्मद्वारमाश्रवद्वारमिति अब्रह्मस्वरूपमुक्तम्। अथ तदेकार्थकद्वारमाहतस्स यणामाणि गोणाणि इमाणि हंति तीसं। तं जहा- अबंभ 1 मेहुण 2 चरंत 3 संसम्गि सेवणाहिकारो 5 संकप्पो 6 बाहणा पदाण 7 दप्पो 8 मोहोमणसंखोभो 10 अणिग्गहो 11 विग्गहो 12 विधाओ 13 विभंगो 14 विब्भमो 15 अहम्मो 16 असीलया 17 गामधम्मतत्ती 18 रती 16 रागचिंता 20 कामभोगमारो 21 वेरं 22 रहस्सं 23 गुज्झं 24 बहुमाणो 25 बंमचेरविग्यो 26 वावत्ति 27 विराहणा 28 पसंगो 26 कामगुणो त्ति ३०विय। तस्स एयाणि एवमादीणि नामधेजाणि हुंति तीसं। 'तस्सेत्यादि' सुगमम् / अब्रह्माऽकुशलानुष्ठानं 1, मैथुनं मिथुनस्य युग्मस्य कर्म 2, चतुर्थमाश्रवद्वारमिति गम्यते पाठान्तरेण। 'चरंत त्ति' चरन् विश्वं व्याप्नुवन् 3, संसर्गः सम्पर्कः, ततः स्त्रीपुंसंसर्गविशेषरूपत्वात् संसर्गजत्वात्संसर्गीत्युच्यते। आह च-"नामापि स्वीति संहादि, विकरोत्येव मानसम् / किं पुनदर्शनं तस्याः, विलासोल्लासितभुवः // 1 // 4 // सेवनां चौर्यादि-प्रतिसेवनामधिकारी नियोगः सेवनाधिकारः, अब्रह्मप्रवृत्तो हि चौर्याद्यनर्थसेवास्वधिकृतो भवति। आह च-"सर्वेऽना विधीयन्ते, नरैरर्थकलालसैः / अर्थस्तु प्रार्थ्यते प्रायः प्रेयसीप्रेमकामिभिः" ||1|| इति५, संकल्पो विकल्पः, तत्प्रभवत्वादस्य संकल्प इत्युक्तम् / उक्तं च- "कामं जानामि ते रूपं, संकल्पात्किल जायसेन त्वां संकल्पयिष्यामि, ततो मे न भविष्यसि" ||1|| इति 6, बाधना बाधहेतुत्वात्। केषाम् ? इत्याह-पदानां संयमस्थानानां प्रजानां घा लोकानाम् / आह च- "यचेह लोकेष्वपरं नराणामुत्पद्यते दुःखमसह्यवेगम्। विका-शिनीलोत्पलचारुनेत्राः, मुक्त्वा स्त्रियस्तत्रन हेतुरन्यः" // 1 // इति७, दो देहदृप्तता, तज्जन्यत्वादस्य दर्प इत्युच्यते। आह च-"रसा पगामन निसेवियव्वा, परं रसा दित्तिकरा हवंति। दित्तं च कामा समभिद्दवंति, दुमं जहा साउफलं तु पक्खी" ||1|| अथवा दर्प सौभाग्याद्यभिमानस्तस्य भवं चेदं, न हि प्रशमाद्दैन्याता पुरुषस्याऽत्र प्रवृत्तिः सम्भवतीति दर्प एवोच्यते / तदुक्तं "प्रशान्तवाहिचित्तस्य, संभवन्त्यखिलाः क्रियाः / मैथुनव्यतिरेकिण्यो, यदि रागं न मैथुनम्" / / 1 // इति 8, मोहो मोहनं वेदरूपमोहनीयोदयसंपाद्यत्वादस्याज्ञानरूपत्वाद्वा मोह इत्युच्यते / आह चदृश्यं वस्तु परं न पश्यति जगत्यन्धः पुरोऽवस्थितं, रागान्धस्तु यदस्ति तत् परिहरन, यन्नास्ति तत्पश्यति। कुन्देन्दीवरपूर्णचन्द्रकलशश्रीमल्लतापल्लवे, रोषो नोऽशुचिराशिषु प्रियतमागात्रेषु यन्मोदते // 11 // 6 / मनःसंक्षोभः चित्तचलनं, तद्विनेद् न जायते इति / उच्यते च"तिक्कडकडुक्खकड-प्पहारनिभिन्नजोगसन्नाहा / भहरिसि जो वा जुवईण जं निसेवंति गयगव्वा" ||14|10, अनिग्रहोऽनिषेधो मनसो विषयेषु, प्रवर्तमानस्येति गम्यते। एतत्प्रभवत्वाचास्या-ऽनिग्रह इत्युक्तम् 11, (विग्गहो त्ति) विग्रहः कलहः तद्धेतुत्वादस्य विग्रह इत्युच्यते। उक्तं च- "ये रामरावणादीनां, संग्राम-ग्रस्तमानवाः / श्रूयन्ते स्त्रीनिमित्तेन, तेषु कामो निबन्धनम्" ||1|| अथवा (बुग्गहो ति) विग्र हो विपरीतोऽभिनिवेशस्तत्प्रभवत्वादस्य तथैवोच्यते / यतः कामिनामिदं स्वरूपम्- "दुःखात्मकेषु विषयेषु सुखाभिमानः, सौख्यात्मकेषु नियमादिषु दुःखबुद्धिः / उत्कीर्णवर्ण-पदपङ्क्तिरिवान्यरूपं, सारूप्यमेति विपरीतगतिप्रयोगात्" ||1|| 12, विधातो गुणानामिति गम्यते / यदाह- 'जइ वा णो' गाथाद्वयम् 13, विभङ्गो विराधना गुणानामेव 14 / विभ्रमो भ्रान्तत्वमनुपादेयेष्वपि विषयेषु परमार्थबुद्ध्या प्रवर्तनाद्, विभ्रमाणां मदन-विकाराणामाश्रयत्वाद्विभ्रमा इति 153 अधर्मः, अचारित्ररूपत्वात् 16, अशीलता चारित्रवर्जितत्यम् 17, ग्रामधर्माः शब्दादयः कामगुणास्तेषां तप्तिर्गवेषणं पालनं च ग्रामधर्मतप्तिः, अब्रह्मपुरोहितं कुर्वन्तीति अब्रह्मापि तथोच्यते 18, रतिः रतं, निधुवनमित्यर्थः 16, रागो रामानुभूतिरूपत्वादस्य, क्वचिद् रागचिन्तेति पाठः 20! कामभोगैः सह मारो मदनं मरणं वा कामभोगमारः 21, वैरं वैरहेतुत्वात् 22, रहस्यमेकान्तकृत्यत्वात् / 23, गुह्यं गोपनीयत्वात् 24, बहुमानः बहूनां मतत्वान् 25, ब्रह्मचर्य मैथुनविरमणं, तस्य विघ्रो व्याघातो यः स तथा 26, व्यापत्तिः भंशो, गुणानामिति गम्यते 27, एवं विराधना 28, प्रसङ्ग कामेषु प्रसजनमभिष्वङ्गः 26, कामगुणो मकरकेतुकार्यः 30 इती रूपप्रदर्शने / अपिचेति समुच्चये / तस्याऽब्रह्मण एतानि Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अबंभ 677 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अबंभ उपदर्शितस्वरूपाणि, एवमादीनि एवंप्रकाराणि, नामधेयानि त्रिंशद्भवन्ति / काक्वाऽऽधेयं प्रकारान्तरेण पुनरन्यान्यपि भवन्तीति भावः / उक्तं यन्नामेति द्वारम्। अथ ये तत्कुर्वन्ति, तद् द्वारमुच्यतेतं च पुण निसेविंति सुरगणा अच्छरा मोहमोहितमती असुर 1 भुयग 2 गरुल 3 विजुजलणदीवउदहिदिसि-पवणथणिय 10 अणपन्नियपणपन्नियइसिवाइय भुयवादियकंदियमहाकं दियकूहंडपयंगदेवा पिसायभूयजक्खरक्खसकिण्णरकिंपुरिसमहोरगगंधव्वतिरियजोइसविमाणवासिमणुयगणा जलयरथलयरखहचरा य मोहपडिबद्धचित्ता अवितण्हा कामभोगतिसिया णं तण्हाए बलवईए महईए सममिभूया गढिता य अतिमुच्छिता य अबंभे ओसण्णा तामसेण भावेण अणुमुक्का दंसणचरित्तमोहस्स पंजरं पिव करेंति अण्णमण्णं सेवमाणा, भुजो मुजो असुरसुरतिरियमणुयभोगरतिविहारसंपत्ता य / चक्कवट्टीसुरनरवतिसक्कया सुरवर व्व देवलोए भरहनगणगरनिगमजणवयपुरवरदोण मुहखेडकव्वडमडंवसंवाहपट्टणसहस्समंडियं थिमियमेयणियं एगच्छत्तं ससागरं भुंजिऊण वसुहं नरसीहा नरवतिनरिंदा नरवसहा मरुयवसभकप्पा अब्भहियं रायतेयलच्छीए दीप्पमाणा सोमा रायवंसतिलगा रविससिसंखवरचक सोत्थियपभागजवमच्छ कुम्मरहवरभगभवणविमाणतुरंगतोरणगोपुरमणिरयणनंदियावत्तमुसललंगलसुरइयवरकप्परुक्खमिगवतिभद्दासणसुरुइथूभवरमउडसरियकु ण्डलकुंजरवरवसभपदीवमंदरगरुलज्झयइंदकेउदप्पणअट्ठावयचाव बाणनक्खत्तमेहमेहलवीणाजुगछत्तदाभदामिणिकमंडलुकमलघंटावरपोतसूचीसागरकुमुदागरमगरहारगागरनेउरणगणगरवइरकिण्णरमयूरवररायहंससारसचक्कोरचक्कवागमिहुणचामरखेडगपव्वीसगविपंचिवरतालियंटसिरियाभिसेयमेयणिखग्गंकुसविमलकलसभिंगारवद्धमाणगपसत्थउत्तमविभत्तवरपुरसलक्खणधरा बत्तीसरायवरसहस्साणु-जायमग्गा चउसट्ठिसहस्सपवरजुवतीणयणकं ता रत्तामा पउम-पम्हकोरंटगदामचंपगसुतत्तवरकणकनिकसवण्णा सुजायसव्वंगसुंदरंगा महग्धवरपट्टणुग्गयविचित्तरागएणीपएणीनिम्मियदुगुल्लवरचीणपट्ट कोसेजसोणीसुत्तकविभूसियंगा वरसुरभिगंधवरचुण्णवासवरकुसुमभरियसिरया कप्पियच्छेयायरियसुकयरइयमालकडगंगयतुडियवरभूसणपिणद्धदेहा एकावलिकंठसुरइयवच्छपलंबपलं ब-माणसुक यपड उत्तरिजमुद्वियापिंगलं गुलिया, उज्जलनेवत्थरइयचिल्लगविरायमाणा, तेएण दिवाकरो व्व दित्ता, सारयनवत्थणियमहुरगंभीरनिद्धघोसा, उप्पण्णसमत्तरयणचक्करयणपहाणा नवनिहिपइणा समिद्धकोसा चाउरता चाउराहिं सेणाहिं समणुजाइज्जमाणमग्गा तुरंगपतीगयपतीरहपतीनरपतीविपुलकुलवीसुयजसा, सारयससिसकलसोम्मवयणा सूरा तिलोक्कनिग्गयप-भावलद्धसद्दा, समत्तभरहाहिवा नरिंदा , समेलवण-काणणं च हिमवंतसागरंतं धीरा भोत्तूण भरहवासं जियसत्तू पवररायसीहा, पुटवकडतवप्पभावा, निविट्ठसंचियसुहा, अणेगवाससय-माउव्वंतो, भजाहि य जणवयप्पहाणाहिं लालियंता, अतुलसद्दफरिसरसरूवगंधे य अणुभवित्ता ते वि उवणमंति मरणधम्म अवितित्ता कामाणं। भुजो बलदेवा वासुदेवा य, पवरपुरिसा महाबलपरक्कमा, महाधणुवियट्टका महासत्तसागरा दुद्धरा धणुधरा नरवसभा रामकेसवा मायरो सपरिसा वसुदेवसमुद्दविजयमादिदसाराणं पञ्जुण्णपयिवसंबअनिरुद्धनिसढउम्मुयसारणगयसुमुहदुम्मुहादीणं जायवाणं अद्भुट्ठाणं वि कुमारकोडीणं हिययदइया देवीए रोहिणीए, देवीए देवईए य हियाणंदहियभावनंदणकरा, सोलसरायवरसहस्साणुजायमग्गा, सोलसदेवीसहस्सवरणयणहिययदइया, णाणामणिकणगरयणमोत्तियपवालधणधण्णसंचया, रिद्धिसमिद्धकोसा हयगयरहसहस्ससामी, गामागरणगरखेड कवडमडंवदोणमुहपट्टणासमसंवाहसहस्सथिमियनिव्वुयप्पमुदितजणविविहसस्सेयनिप्पज्जमाणमे इणीसरसरियतलागसेलकाणणआरामु जाणमणाभिरामपरिमंडियस्स, दाहिणड्डवेयद्यगिरिविभत्तस्स, लवणजलपरिग्गहस्स छव्विहकालगुणकमजुत्तस्स, अद्धभरहस्स सामिका, धीरकित्तिपुरिसा, ओहबला, अतिबला, अनिहया, अपराजियसत्तुमद्दणा , रिउसहस्समानमहणा, साणुक्कोसा, अमच्छरी, अचवला, अचंडा, मियमंजुलप्पलावा, हसियगंभीरमहरभणिया, अब्भुवगयवच्छला, सरण्णा, लक्खणवंजण-गुणोववेवा, माणुम्माणपमाणपडिपुण्णसुजायसव्वंगसुदरंगा, ससिसोमाकाराकंता, पियदसणा, अमस्सणा, पयंडदंडप्पयार-गंभीरदरिसिज्जा, तालज्झयउव्विद्धगरुलकेउबलव-गजंतदरितदप्पियमुट्ठियचाणूरचूरगा, रिट्ठवसभघाती, केसरीमुहविष्फाडगा, दरियभागदप्पमहणा जमलजुण्णभंजगा, महासउणिपूयणरिपू, कंसमउडमोडगा, जरासंधमाणमहणा। तेहि य अविरलसमसहियचंदमंडलसमप्पमे हिं सूरमरीयकवयविणिमुयंतेहिं सप्पडिदंडेहिं आयवत्तेहिं धरिजंतेहिं विरायंता / ताहि य पवरगिरिकु हरविहरणसमुद्धियाहिं, निरुवहयचमरिपच्छिमसरीरसंजायाहिं, अमइलसियकमलविमुकु लुञ्जलितरयतगिरिसिहरविमलससिकिरणसरिसकलहोयनिम्मलाहिं पवणाहयचवलचलियसलिलियनचियवीयिपसरियखीरोदगपवरसागरुप्पूरचवलाहिं माणससरपसरपरचियावासविसयावेसाहिं, कणगगिरिसिहरसंसियाहिं, ओवाउप्पायचवलजवियसिग्घवेगाहिं, हंसवधुयाहिं Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अबंभ 678 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अबंभ चेव कलिया नाणामणिकणगमह-रिहतवणिजुज्जलविचित्तदंडाहिं, सलिलियाहिं नरवइसिरिसमुदयप्पकासणकराहिं, वरपट्टणुगयाहिं, समिद्धरायकुलसे वियाहिं, कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कधूववासविसिट्टगंधुझ्याभिरामाहिं, चिल्लियाहिं, उभयो पास पिचामराहिं उक्खिप्पमाणाहिं, सुहसीयलवायवीयियंगा अजिता अजियरहा हलमुसलकणगपाणी संखचक्कगयसत्तिणंदगधरा, पवरुज्जलसुकयविमलकोथूभकिरीडधारी, कुंडलउज्जोवियाणणा, पुंडरीयणयणा,एगावलिकं ठरइयवच्छा, सिरिवच्छ सुलंछणा, वरजसा सव्वाउयसुरभिकुसुमरइयपलंबसोहंतवियसंतविचित्तवणमालरइयवच्छा, अट्ठसयविभत्तलक्खणपसत्थसुंदरविराइयंगुपंगा, मत्तगयवरिंदललियविक्कमविलसियगती, कडिसुत्तकनीलपीयकोसेन्जवाससा, पवरदित्ततेया, सारयणवथणियमधुरगंभीरणिद्धघोसा, नरसीहा, सीहविक्कमगती, अत्थमियापवररायसीहा, सोम्मा, वारवयिपुण्णचंदा, पुटवकयतवप्पभावा, निविट्ठसंचियसुहा, अणेगवाससयमाउवंतो, भजाहि यजणवयप्पहाणाहिं लालियंता, अतुलसद्दफरिसरसरूवगंधे य अणुभवित्ताते वि उवणमंति मरणधम्म, अवितित्ता कामाणं। भुञ्जो मंडलियणरवरिंदा सबला सअंतेउरा सपरिसा सपुरोहिया अमचडंडणायक सेणावतिमंतिणीतिकु सला,णाणामणिरयणविपुलधणधण्णसंचयनिहिसमिद्धकोसा, रजसिरिविपुलमणुभवित्ता, विक्कोसंता, बलेण मत्ता, ते वि उवणमंति मरणधम्म अवितत्ता कामाणं। भुजो उत्तरकु रुदेवकु रुवणविवरपायचारिणो, नरगणा मोगुत्तमा, भोगलक्खणधरा, भोगसस्सिरीया, पसत्थसोमपडि पुण्णरूवदरिसणिज्जा, सुजायसव्वंगसुंदरंगा, रत्तुप्पलपत्तकंतकरचरणकोमलतला, सुपइट्ठियकुम्मचारुचलणा, आणुपुव्वसुसंहयंगुलीया, उण्णयतणुतंबनिद्धनखा, संठियसुसिलिट्ठगूढगोंफा, एणीकुरुविंदावत्तवट्टाणुपुव्वजंघा, समुग्गनिमग्गगूढजाणू, गयगमणसुजायसंनिभोरुवरवारणमत्ततुल्लविक्कमविलासियगती, वरतुरगसुजायगुज्झदेसा, आयणहयो व्व निरुवलेवा, पमुइयवरतुरयसीहअइरेगवट्टियकडी,गंगावत्तगदाहिणावत्ततरंगभंगुररविकिरणबोहियविकोसायंतपम्हगंभीरवियडनाभी, साहयसाणंदमुसलदप्पणनिगरियवरकणगछरुसरिसवरवइरवलियमज्झा, उज्जगसमसंहियजचतणुकसिणनिद्धआदिजलडहसुकुमालउयरोभरायी, झसविहगसुजायपीणकुच्छी, झसोदरा, पम्हवियडणाभी, संनयपासा, संगतपासा, सुंदरपासा, सुजायपासा, सितमाइयपीणरइयपासा, अकरंडुयकणगरुयगनिम्मलसुजायनिरुवहयदेहधारी, कणगसिलातलपसत्थसमतलउवइथवित्थिण्णपिहलवच्छा जुयसण्णिमा, पीणरइयपीवरपउट्ठसंठियसु सिलिट्ठविसिट्ठलट्ठ सुणि- | चियघणथिरसुबंधसंधी, पुरवरफलिहवट्टियभुजा भूइएसरविपुलभोगआयाणफलिहउच्छूढदीहबाहू, रत्ततलोवइयमउयमंसलसुजायलक्खणपसत्थअच्छिदजालपाणी, पीवरसुजायकोमलवरंगुली, तंबनलिणसुइ-रुइलनिद्धणखा, निद्धपाणिलेहा, चंदपाणिलेहा, सूरपाणिलेहा, संखपाणिलेहा, चक्कपाणिलेहा, दिसासोवत्थियपाणिलेहा, रविससिसंखदरचक्कदिसासोवत्थिविभत्तसुरइयपाणिलेहा, वरमहिसवराहसीहसर्लरिसहनागवरपडिपुण्णविउलखंधा, चउरंगुलीप्पमाणकंबुवरसरिसगीवा। अवट्टियसुविभत्तचित्तसमंसुउवचियमंसलपसत्थसङ्कलविपुलहणुया, उवचियसिलप्पवालबिंबफलसन्निभाऽधरोट्ठा पंडुरससिसकलविमलसंखगोखीरफेणकुंददगरयमुणालियाधवलदंतसेढी अखंडदंता, अफुडियदंता, अविरलदंता, सुणिद्धदंता, सुजातदंता, एगदंतसेढी व्व अणे गदंता, हुतवहनिद्धं -तधोततत्ततवणिज्जरत्ततलतालुजीहा, गरुलायतउज्जु-तुंगनासा अवदालियपुंडरीयनयणा विकोसियधवलपत्तलच्छाआणामियचावरुयिलकिण्हन्भरायिसंठियसंगयायतसुजायभूमगा, अल्लणीपमाणजुत्तसवणा, सूस्सवणा, पीणमंसलकवोलदे सभागा, अचिरुग्गयबालचंदसंठियमहानिलाडा, उडुपतिपडि पुण्णसोमवयणा, छत्तागारुत्तमंगदेसा , घणनिचियसुबद्धलक्खणुण्णयकूडागारनिभपिंडिवग्गसिरा, हुतवहनिद्धं तधो ततत्तत-वणिजरत्तकेसंत के सभूमी, सामलिपॉडघणनिचियच्छोडियमिउविसयपसत्थसुहुमलक्खणसुगंधसुंदरभुयमोयगभिंगनीलकज्जलपहिट्ठभमरगणनिद्धनिउरंबनिचियकुंचियपयाहिणावत्तमुद्धसिरया। सुजायसुविभत्तसंगयंगा लक्खणवंजणगुणोववेया पसत्थबत्तीसलक्खणधरा हंसस्सरा कोंचस्सरा दुंदुहिस्सरा सीहस्सरा मेघस्सरा ओघस्सरा सुस्सरा सुस्सरनिग्घोसा वज्जरिसभनारायसंघयणा समचउरंससंठाणसंठिया, छाया उज्जोवियंगमंगा, पसत्थछवी, निरातं का, के कगहणा, कवोतपरिणामा, सउणिपासपिट्ठतरोरुपरिणया, पउमुप्पलस-रिसगंधसाससुरभिवयणा, अणुलोमवाउवेगा, अवदाय-निद्धकाला, विम्गहउण्णयकुच्छी, अमयरसफलाहारी, तिगऊयसमुच्छिया, तिपलिओवमद्वितीया, तिण्णिय पलिओवभाई परमाउंपालइत्ता ते वि उवणमंति मरणधम्म अवितित्ता कामाणं। पमदा वि य तेसिं हंति सोमा सुजायसवंगसुंदरिओ, पहाणमहिलागुणे हिं जुत्ता, अतिकं तविसप्पमाणमउयसुकु मालकुम्मसंठियसिलिट्ठचलणा, उज्जुमउयपीवरसुसंहतंगुलीओ, अब्भुण्णतरइयतलिणतंबसुइनिद्धनखा, रोमरहियवट्टसं ठियअजहण्णपसत्थलक्खणअकोप्पजंघजुयला, सुणिम्मितसुनिगूढजानुमंसलपसत्थसुबद्धसंधी, कयलीखं भाइरेगसंठियनिव्वणसुकु मालमउयकोमलअविरालसमसहितवट्टपीवरनिरंतरोरू,अवयवीतिपट्ठसंठियपसत्थवित्थिण्णपिहुलसोणी, वदणायामप्पमाणदुगुणिय माणा Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अबंभ 679 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अबज्झ विसालमंसलसुबद्धजहणवरधरीओ वज्जविराइयप-सत्थलच्छणनिरोदरीओ, तिवलिवलिततणुनमित-मज्झमाओ, उज्जुयसमसहियजच्चतणुकसिणनिद्ध आदेजलडहसुकुमालमउयसुविभत्तरोमराई, गंगावत्तगदाहिणावत्ततरंगभंगरविकिरणतरुणबोहित अकोसायंतपउम-गंभीरविगडनाभी, अणब्महपसत्थसुजायपीणकुच्छी, समंत-पासा, सन्नयपासा, सुजायपासा, मियमायितपीणरयियपासा, अकरंडुयकणगरुयगनिम्मलसुजायनिरुवहयगायलट्ठी, कंचणकलसप्पमाणसमसं हितलहचुचुयआमेलगजमलजुयलवट्टियपओहरा, भुयंगअणुपुव्वतणुयगोपुच्छवट्टसम-सहितनिम्मिय आदेजलडहबाहा, तंबनहा, मंसलग्गहत्था, कोमलपीवरंगुलीया, णिद्धपाणिलेहा, ससिसूरसंखचक्क वर-सोत्थियविभत्तसुविरइयपाणिलेहा पीणु ण्णयक क्खवत्थिप्पदे सपडि पुण्णगलक पोला, चउरंगुलसुप्पमाण कंबुवरसरिसगीवा, मंसल संठियपसत्थहणुया, दालिमपुप्फप्पकासपीवरपलंबकोंचियवराधरा, सुंदरोत्तरट्ठा, दहिदगरयकुंदचंदवासंतिमउलअच्छिद्दविमलदसणा, रत्तुप्पलरत्तपउमपत्तसुकुमालतालुजीहा, कणवीरमउलकुडिलअन्मुण्णयउज्जत्तुंगनासा सारदनवकमलकुमुयकु वलयदलनिगरसरिसलक्खणपसत्थनिम्मलकंतनयणा, अनामियचावरुइलकिण्हराइसंगयसुजायतणुक सिणनिद्धभूमगा, अल्लीणपमाणजुत्तसवणा, सुस्सवणा, पीणमट्ठगंडलेहा, चउरंगुलविसालसमनिडाला, कोमुदिरयणिकरविमलपडिपुण्णसोमवयणा, छत्तुण्णयउत्तमंगा, अकविलसुसिणिद्धदीहसिरया। छत्तज्झयजुवथूभदामणिकमंडलुकलसवाविसोत्थियपडागजवमच्छकुम्मरहवरमयरज्झयअंकथालअंकुसअट्ठावयसुपतिद्वअमरसिरियाभिसेयतोरणमेयिणिउदधिवरपवरमवणगिरिवरवरायंससुललियगयवसभसीहचामरपसत्थबत्तीसलक्खणधरीओ, हंसस-रिच्छगतीओ, कोइलमहुयरिगिराओ, कंता सव्वस्स अणुमयाओ, ववगयवलीपलियवंगदुवण्णवाहिदो- | भग्गसोय-मुक्काओ, उच्चत्तेण य नरथोवूणसूसियाओ सिंगारागारचारु-वेसा, सुंदरथणजहणवयणकरचलणणयणा, लावण्ण-रू वजोवणगुणोववेया, णंदणवणछराओव्व उत्तरकुरुमाणु-सच्छराओ अच्छे रगयेच्छिणियाओ तिण्णि पलिआवेमाइं परमाउं पालयित्ताओ वि उवणमंति मरणधम्म अतित्ता कामाणं। मेहुणसन्नपगिद्धाय मोहमरिया सत्थेहिं हणंति एकमेकं विसयं विसउदीरएहिं अवरे परदारेहिं हणंति विसुणिया धननासं सयणविप्पणासं च पाउणंति, परस्स दाराओ जे अविरया मेहुणसण्णसंपगिद्धा य मोहमरिया अस्सा हत्थी गवाय महिसा मिगा य मारिंति एक्कमेकं मणुयगणा वानरा य पक्खी य विरुझंति मित्ताणि खिप्पं भवंति, सत्तू समयधम्मगणे य भिंदंति पारदारी धम्मगुणरया य बंभयारी खणेण उलोट्टयचरित्ताओ जसमंतो सुव्वया य पावंति अयसकित्तिं रोगत्ता वाहिता वड्डति रोयवाही, दुवे य लोएदुराराहगा भवंति, इहलोए चेव परलोए परस्स दाराओ जे अविरया तहेव केइ परस्स दारं गवेसमाणा गहिया य हया य बद्धरुद्धा य एवं० जाव गच्छंति विपुलमोहामिमूयसण्णा मेहुणमूलंच सुव्वएतत्थ तत्थ वत्तपुव्वा संगामा जणक्खयकरा सीताए दोवतीए य कए रूपिणीए पउमावतीए ताराए कंचणाए रत्तसुभद्दाए अहिल्लायाए सुवण्णगुलियाए किन्नरिए य सुरूवविजुमतीए रोहिणीए य अण्णेसु य एवमाइसु बहवे महिलाकए सुवति अतिकंता संगामा गामधम्ममूला, इह लोए ताव नट्ठा, परलोए य नट्ठा, महया मोहतिमिरंधकारे घोरे तसथावरसुहुमबायरेसुपज्जत्तमपज्जत्तकसाहारणसरीरपत्तेयसरीरेसु य अंडजपोयज-जराउजरसजसंसेइमसमुच्छिमउब्मिजउववाइएसु य नरगतिरियदेवमाणुसेसु जरामरणरोगसोगबहुले पलिओवम-सागरोवमाइं मणादीयं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंतसंसारकंतारं अणुपरियटुंति जीवा महामोहवससंनिविट्ठा। एसो सो अबंभस्स फलविवागो इह लोइओ परलोइओ य अप्पसुहो बहुदुक्खो मदन्मओ बहुरयप्पगाढो दारुणो कक्कसो असाओ वाससहस्सेहिं मुचंति, न य अवेयइत्ता अत्थिहुमोक्खो त्ति / एवमाहंसु नायकुलनंदणो महप्पा जिणो वरवीरनामधेजो कहेसी य अबंभस्स फलविवागो, एयं तं अबभं पि चउत्थं पि सदेवमणुयासुरस्स लोगस्स पत्थणिजं, एवं चिरपरिचियमणुगयं दूरंतं चउत्थं अहम्मदारं सम्मत्तं त्ति बेमि। (तं च पुण निसेविति ति) तच पुनरब्र हा निषेवन्ते सुरगणा वैमानिकदेवसमूहाः साऽप्सरसः सदेवीकाः, देव्योऽपि सेवन्त इत्यर्थः (इत्यादिटीकाऽनुपयोगिनी महती चेत्युपेक्षिता) प्रश्न०४ आश्र० द्वा० शेषद्वारद्वयं मध्य एवासातम्। अब्रह्म मैथुनमितिपर्यायौ। (मैथुनशब्देन चोच्यमानो विषयो 'मेहुण' शब्द एव वक्ष्यते) "अबंभचरियं घोरं पमायं दुरहिट्ठियं / नायरंति मुणी लोए, भेयापणविवजणे" ||1|| दश०६ अ० अब भवजण-न०(अब्रह्मवर्जन) दिवा रात्रौ वा पत्न्याद्याश्रित्य मैथुनत्यागरूपायां षष्ठ्यामुपाससकप्रतिमायाम, तत्स्वरूपं प्रश्न०१ आश्रद्वा०। ('उवासगपडिमा' शब्दे द्वितीयभागे 1105 पृष्ठे व्याख्याऽस्य द्रष्टव्या) अबज्झ-त्रि०(अवध्य) वधमर्हति यत्। न० त० / वधानर्हे, "अक्माणयं बज्झाणं' अकारलोपे 'बज्झाणं' इति भवति / तत्र अवध्यानां वधानहर्हाणामपि विद्वेषिवचनतो वध्यत्वेनस्थापितानां सुदर्शनसुजातादीनामिव देवताप्रातिहार्यतो निराकृतवध्यत्व-दोषाणाम् / संथा०। Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पलेवा 680 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्या *अबाध्य-त्रि० परैर्बाधितुमशक्ये, स्या०। अबज्झसिद्धंत-पुं०(अबाध्यसिद्धान्त) अबाध्यः परैर्बाधितुमशक्यः सिद्धान्तः स्याद्वादश्रुतलक्षणोऽस्य तथा / कुतीर्थिकोपन्यस्तकुहेतु समूहाशक्यबाधस्याद्वादरूपसिद्धान्तप्रणयनभणनाद् वचनातिशयसंपन्ने तीर्थकरे, "अबाध्यसिद्धान्तममर्त्यपूज्यम्' स्था०। अबज्झा-स्त्री०(अबाध्या) अयोध्यायाम् जं०४ वक्ष०ा ती०। गन्धिलाख्यविजयक्षेत्रयुगले पुरीयुगले, "दो अबज्झाओ" स्था०२ ठा०३ उ० अबद्ध-न०(अबद्ध) पद्यगद्यबन्धनरहिते ग्रन्थे, आ०म०द्विका अबद्धट्ठिय-न०(अबरास्थिक) अबद्धमस्थि यस्य तदबद्धास्थिकम् / अनिष्पन्ने फले, "भिन्ने य बद्धट्ठिए वि एवं एमेव य हति बहुबीए'" / विशे०। आ० म०। अथाऽप्यबद्धबीजे अनिष्पन्ने, बृ०१ उ०। अबद्धसुय-न०(अबद्धश्रुत) गद्यात्मके श्रुते, विशेला आ०म०। ('करण' शब्दे व्याख्या) अबद्धिय-पुं०(अबद्धिक) स्पृष्ट जीवेन कर्म, न स्कन्धबन्ध-बद्धद्रुमवदबद्धं, तदेषामस्तीत्यबद्धिकाः।"अतोऽनेकस्वरात्" 7226aa इति हैमसूत्रेण इकप्रत्ययः। स्पृष्टकर्मविपाकप्ररूपकेषु निह्नवभेदेषु, स्था०७ ठा० आ०म० / विशे। यथा चाऽबद्धिकानां दृष्टिर्गोष्ठामाहिलाद् दशपुरनगरे समुत्पन्ना तथाऽभिधित्सुराहपंचसया चुलसीया, तइया सिद्धिंगयस्स वीरस्स। तो अब्बद्धियदिट्ठी, दसउरनयरे समुप्पन्ना॥ पञ्च वर्षशतानि चतुरशीत्यधिकानि (584) तदा सिद्धिंगतस्य महावीरस्य, ततोऽबद्धिकनिहवदृष्टिदशपुरनगरे समुत्पन्नेति / कथं पुनरियमुत्पन्ना? इत्याहदसउरनगरुच्छुघरे, अजरक्खियपूसमित्ततियगं च। गोट्ठामाहिलनवमट्ठमेसु पुच्छा य विंझस्स॥ (एतद्भावार्थस्तु आर्यरक्षितवक्तव्यतातोऽवसेयो यावद् गोष्ठामाहिलनिह्नवो जातः। कथा च 'अज्जरक्खिय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 215 पृष्ठे समुक्ता) गोष्ठामाहिलो मथुरात आगत्य पृथगुपाश्रये स्थितः। विशे० / दुर्बलिकापुष्पमित्रोऽपवादग्रहणादिना व्युद्ग्राहयति साधून्न च व्युद्ग्राहयितुं शक्रोति, दुर्बलिकापुष्पमित्रः समीपे चाभिमानतो न किञ्चिच्छृणोति, किन्तु व्याख्यानमण्डलिकोपस्थितस्य चिन्तनिकां कुर्वतो विन्ध्यस्यान्तिके समाकर्णयति / अन्यदा चाष्टमनवमपूर्वयोः कर्मप्रत्याख्यानविचारेऽभिनिवेशाद्विप्रतिपन्नो वक्ष्यमाणनीत्या निवो जात इति / अथ प्रकृत-("सोऊण कालधम्मं, गुरुणो गच्छम्मि पूसम्मित्तं च" इत्यादि) गाथाऽक्ष-रार्थोऽनुश्रीयते-कालो मरणं, तल्लक्षणो धर्म : पर्यायः कालधर्मः, तं गुरोरार्यरक्षितस्य श्रुत्वा तथा पुष्पमित्रं च गच्छेऽधिपतिं स्थापितमाकर्ण्य गोष्ठामाहिलः संजातमत्सराध्यवसायः किलेदंचकार किमित्याहवीसुं वसही ठिओ, छिद्दऽन्नेसणपरो य स कयाए। बिंझस्स सुणइ पासेऽणुभासमाणस्स वक्खाणं / / विष्वग्वसतौ स्थितः छिद्रान्वेषणपरः स गोष्ठामाहिलः कदाचिद्विन्ध्यस्यानुभाषमाणस्य चिन्तनिकां कुर्वतः पार्श्वे व्याख्यान शृणोतीति / विशे०। (कर्मविषया विप्रतिपत्तिः) ततः किम् ? इत्याहकम्मप्पवायपुव्वे, बद्धं पुढें निकाइयं कम्म। जीवपएसेहिँ समं, सूइकलावोवमाणाउ॥ उव्वट्टणमुक्केरो, संछोभो खवणमणुभवो वा वि। अणिकाइयम्मि कम्मे, निकाइए पायमणुभवणं / सो ऊ भणइ सदोसं, वक्खाणमिणं ति पावइ जओ भे। मोक्खामावो जीव-प्पएसकम्माविभागाउ॥ इह कर्मप्रवादनाम्न्यष्टमे पूर्वे कर्मविचारे प्रस्तुते दुर्बलिका-पुष्पमित्र एवं व्याख्यानयति। तद्यथा-जीवप्रदेशैः सह बद्धं बद्धमात्रमेव कर्म भवति। यथा- अकषायस्येर्यापथप्रत्ययं कर्म, तच कालान्तरस्थितिमवाप्यैव जीवप्रदेशेभ्यो विघटते, शुष्ककुड्यापतितचूर्णमुष्टिवदिति। अन्यत्तु (पुटुं ति) बद्धमित्यत्रापि संबध्यते, ततश्च बद्धं स्पृष्ट चेत्यर्थः / तत्रबद्धजीवेन अह संयोगमात्रमापन्नं; स्पृष्ट तु जीवप्रदेशैरात्मीकृतम् / एतचेत्थं बद्धं सत्कालान्तरेण विघटते आर्द्रलेपकुड्ये सस्नेहचूर्णवदिति। (निकाइयं ति) बद्धं स्पृष्ट चेत्यत्रापि संबध्यते / ततश्चापरं किमपि कर्म बद्धं स्पृष्ट निकाचितं भवतीत्यर्थः / तत्र तदेव बद्धस्पृष्ट गाढतराध्यवसायेन बद्धत्वादपवर्त-नादिकरणायोग्यतां नीतं निकाचितमुच्यते / इदं घ कालान्तरेऽपि विपाकतोऽनुभवमन्तरेण प्रायेणाऽपगच्छति, गाढतरबद्धत्वाद्, बाह्यकुड्यश्लेषित-निबिडश्वेतकाहस्तकवदिति। अयं च त्रिविधोऽपि बन्धः सूचीकलापोपमानाद्भावनीयः / तद्यथागुणावेष्टितसूचीकलापोपमं बद्धमुच्यते. लोहपट्टबद्धसूची, संघातसदृश तु बद्धस्पृष्टमभिधीयते, बद्धस्पृष्टनिकाचितं त्वग्नितप्तघनाहति क्रोडीकृतसूचीनिचयसन्निभं भावनीयमिति। नन्वनिकाचितस्य कर्मणः को विशेषः ? इत्याह-(उव्वट्टणेत्यादि) इह कर्मविषयाण्यष्टौ करणानि भवन्ति / उक्तं च- "बंधणसंकमणुवट्टणा य उव्वट्टणा उईरणया। उवसावणा निधत्ती, निकायणा वत्ति करणाइ" ||1|| तत्र निकाचिते कर्मणि स्थित्यादिखण्डनरूपा (उवट्टण त्ति) अपवर्तना प्रवर्तते। तथा(उक्केरो त्ति) स्थित्यादिवर्द्धनरूप उत्कोच उद्वर्तना। तथा- (संछोभो त्ति) असातादेः सातादौ क्षेपणरूपः संक्रमः / तथा-(खवणं ति) प्रक त्यन्तरसंक्रमितस्य कर्मणः प्रदेशोदयेन निर्झरणं क्षपणम् / तथा(अणुभवोत्ति) स्वेन स्वेन रूपेण प्रकृतीनां विपाकतो वेदनमनुभवः। इदं चोपलक्षणमुदीरणादीनां, तदेतान्यपवर्तनादीनि सर्वाण्यप्यनिकाचिते कर्मणि प्रवर्तन्ते / निकाचिते तु प्रायो विपाकेनानुभवमेव प्रवर्तते, न पुनरपवर्तनादीनीत्यनयोर्विशेषः / समाचीर्णविकृष्टतपसामुत्कटाध्यवसायबलेन 'तवसा उ निकाइयाणं पीति' वचनान्निकाचितेऽपि कर्मण्यपवर्त्तनादिकरण-प्रवृत्तिर्भवतीति। प्रायोग्रहणम्। तदत्र व्याख्याने क्षीरनीरन्यायेन वह्नितप्तायोगोलकन्यायेन वा जीवप्रदेशैः सह कर्म Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अबद्धिय 681 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अध्या संबद्धमिति पर्यवसितम्। विन्ध्यसमीपे श्रुत्वा तथाविध कर्मोदयाद अत्र भाष्यम्भिनिवेशेन विप्रतिपन्नो गोष्ठामाहिलः प्रतिपादयति- ननु सदोषमिदं आसंसा जा पुन्ने, सेविस्सामि त्ति दूसियं तीए। व्याख्यानम्- यस्मादेवं व्याख्यायमाने भवतां मोक्षाभावः प्राप्नोति, जेण सुयम्मि वि भणियं, परिणामाओ असुद्धं तु॥ जीवप्रदेशैः सह कर्मणामविभागेन तादात्म्येना-ऽवस्थानादिति। आशंसातः प्रत्याख्यानं दुष्टमित्युक्तम् / तत्राशंसा का ? इत्याह-(ज अमुमेवार्थ प्रमाणतः साधयन्नाह त्ति) या एवंविधपरिणामरूपा / कथंभूतः परिणामः ? इत्याह- पूर्णे न हि कम्मं जीवाओ, अवेइ अविभागओ पएसो व्व। प्रत्याख्याने देवलोकादौ सुराङ्गनासंभोगादि भोगानहं सेविष्ये, तदणवगमादमोक्खो, जुत्तमिणं तेण वक्खाणं / / इत्येवंभूतपरिणामरूपा च या आशंसा, तया प्रत्याख्यानं दूषितं भवति। नहि नैव कर्म जीवादपैतीति प्रतिज्ञा / अविभागाद् वय- कुतः ? इत्याह-येन श्रुतेऽप्यागमेऽपि भणितं, दुष्टपरिणामाशुद्धेः योगोलकन्यायतो जीवेन सह तादात्म्यादित्यर्थः, एष हेतुः। (पएसोव्व प्रत्याख्यानमशुद्धं भवति / तथा चागमः- "सोही सद्दहणा जाणणा य त्ति) जीवप्रदेशराशिवदित्यर्थः, एष दृष्टान्तः। इह यद्येन सहाऽविभागेन विणएऽणुभासणा चेव। अणुपालणा विसोही, भारविसोही भवे छट्ठा' व्यवस्थितं नतततो वियुज्यते, यथा जीवात्त-त्प्रदेशनिकुरम्बम्। इष्यते तत्र ‘पचक्खाणं सव्वण्णुदेसियं" इत्यादिना श्रद्धानादिषु व्याख्यातेषु चाविभागो जीवकर्मणोर्भवद्भिरिति न तस्माद्वियुज्यते, ततस्तदप- भावविशुद्धेर्यद् व्याख्यानं, तत्प्रकृतोपयोगीति दृश्यते। "रागेण च गमात्तस्य कर्मणो जीवादनपगमाद् वियोगात्सर्वदैव जीवानां दोसेणं, परिणामेव व न दूसियं जंतु। तं खलु पञ्चक्खाणं, भावविसुद्धं सकर्मकत्वान्मोक्षाभावः, तेन तस्मादिदमिह मदीयं व्याख्यानं कर्तुं मुणेयव्वं" ||1|| इति। विशे०। (एते विप्रतिपत्ती 256 पृष्ठे 'कम्म' शब्दे, युक्तमिति। 'पञ्चक्खाण' शब्दे च वक्ष्येते) एवं युक्तिभिः प्रज्ञापितेऽपि यावदसौ न तदित्याह किञ्चित्प्रतिपद्यते, ततः किं संजातम् ? इत्याहपुट्ठो जहा अबद्धो, कंचुइणं कंचुओ समन्नेइ। . इय पण्णविओ विन सो, जाहे सद्दहइ पूसमित्तेण। एवं पुट्ठमबद्धं, जीवं कम्मं समन्नेइ॥ अन्नगणत्थेरेहि य, काउं तो संघसमवायं / / यथा स्पृष्टः स्पर्शनमात्रेण संयुक्तोऽबद्धः क्षीरनीरन्यायादलोलीभूत एव / आहूय देवयं बेइ जाणमाणो वि पचयणिमित्तं / कञ्चुको विषधरनिर्मोकः कञ्चुकिनं विषधरं समन्वेति समनुगच्छति, वच जिणिंदं पुच्छसु, गयागया सा परिकहेइ। एवं कर्मापि स्पृष्टं सर्पकञ्चुकवत्स्पर्शनमात्रेणैव संयुक्तमबद्धं संघो सम्मावाई, गुरूपुरोगो त्ति जिणवरो भणइ। वययःपिण्डादिन्यायादलोलीभूतमेव जीवं समन्वेति, एवमेव इयरो मिच्छावाई, सत्तमओ निण्हओऽयं ति।। मोक्षोपपत्तेरिति। विशे०। "यतो यद्भेत्स्यते तेन, स्पृष्टमात्रं तदिष्यताम्। एईसे सामत्थं, कत्तो गंतुं जिंणिंदमूलम्मि। कञ्चुकी कञ्चुकेनेव, कर्म भेत्स्यति चाऽऽत्मनः" // 1 // प्रयोगः- योन वेइ कडपूयणाइ, संघेण तओ कओ बज्झो / भविष्यत्पृथग्भावं, तत्तेन स्पृष्टमात्रं, यथा कञ्चुकः कञ्चुकिना, चतसृणामप्यासामक्षरार्थः सुगम एव / भावार्थस्तु कथाभविष्यत्पृथग्भावं व कर्म जीवेन। उत्त०३ अग नकशेषादवसेयः। तच्चेदम्-एवं युक्तिभिः प्रज्ञाप्यमानो यावदसौन किमपि (प्रत्याख्यानविषया विप्रतिपत्तिः) श्रद्धत्ते तावत्पुष्पमित्राऽऽचार्यरन्यगच्छगतबहुश्रुत-स्थविराणामन्तिके तदेवं कर्मविचारे विप्रतिपत्तिमुपदयेंदानी प्रत्याख्यानविषयां नीतः, ततस्तैरप्युक्तोऽसौ-यादृशंसूरयः प्ररूपयन्त्यार्यरक्षितसूरिभिरपि विप्रतिपत्तिमुदर्शयन्नाह तादृशमेव प्ररूपितं, न हीनाधिकम्, ततो गोष्ठामाहिलेनोक्तम्-किं सोऊण भन्नमाणं, पचक्खाणं पुणो नवमपुवे। यूयमृषयो जानीथ ? तीर्थकरैस्तादृशमेव प्ररूपितं, यादृशमहं सो जावज्जीव विहियं, तिविहं तिविहेण साहूणं / प्ररूपयामि / ततःस्थविरैरुक्तम् -मिथ्याभिनिविष्टो मा कार्षीस्तीर्थक राशातनाम्, न किमपित्वंजानासि।ततः सर्वविप्रतिपत्तेः तस्मिन् सर्वैरपि स गोष्ठामाहिलः कर्मविचारे विप्रतिपन्नः पुनरन्यदा नवमपूर्वे "करेमि तैः संघसमवायः कृतः / सर्वेणापि च संघेन देवताहानार्थं कायोत्सर्गो भंते ! सामाइयं, सव्वं सावजं जोगं पञ्चक्खामि, जावज्जीवाए०" विहितः। ततो भद्रिका काचिद्देवता समागता। सा वदतिस्म-संदिशत इत्यादि / यावजीवावधिकं साधूनां संबन्धप्रत्याख्यानं भण्यमानं किं करोमि ? ततः संघः प्रस्तुतमर्थ जानन्नपि सर्वजनप्रत्ययनिमित्तं विन्ध्यसमीपे विचार्यमाणं शृणोति / ब्रवीति- महाविदेहं गत्वा तीर्थकरमापृच्छस्व, किं दुर्बलिकातदेवं कृत्वा किं करोति ? इत्याह पुष्पमित्रप्रमुखः संघो यगणति, तत्सत्यमुत यद्गोष्ठामाहिलो वदति? जंपइ पञ्चक्खाणं, अपरीमाणाइ होइ सेयं त। ततस्तया प्रोक्तम्- मम महाविदेहे गमनागमने कुर्वन्त्याः प्रत्यूहानुजेसिं तु परीमाणं, तं दुटुं आसँसा होइ / / घातार्थमनुग्रहं कृत्वा कायोत्सर्गं कुरुत, येनाऽहं गच्छामि / ततस्तथैव गोष्ठामाहिलो जल्पति- ननु प्रत्याख्यानं सर्वमपि अपरिमाणतया कृतं संघेन। गता च सा। पृष्ट्वा च भगवन्तं प्रत्यागता कथयति स्मयदुत अवधिरहितमेव क्रियमाणं श्रेयोहेतुत्वाच्छ्रेयः शोभनं भवति, येषां तु तीर्थंकरः समादिशति- दुर्बलिकापुष्पमित्रपुरस्सरसंघः सम्वग्वादी। व्याख्याने प्रत्याख्यानस्य यावज्जीवादिपरिमाणमवधिविधीयते, | गोष्ठामाहिलस्तु मिथ्यावादी; सप्तमश्चाऽयं निह्नव इति, तदेतच्छुत्वा तेषामनेन तत्प्रत्याख्यानमाशंसादोषदुष्टत्वात् दुष्टं सदोषं प्राप्रोति। गोष्ठामाहिलो ब्रवीति- नन्वल्पर्द्धिकेयं वराकी, का नामैतस्याः Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अबला 682- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अबाहा कटपूतनायास्तीर्थकरान्तिके गमनशक्तिरित्येवमपि यावदसौ न किञ्चिन्मन्यते तावत्संघेनोद्घाट्य बाह्यः कृतोऽनालोचित प्रतिक्रान्तश्च कालं गतः॥५४२।। विशे०। अबम्हञ्च-त्रि०(अब्रह्मण्य) न० ब० / मागध्याम् -"न्यण्य-ज्ञ-जां ञः" ||263 / इति सूत्रेण ण्यस्थाने द्विरुक्तो ञः / प्रा०४ पाद / ब्रह्मण्यशून्ये / ब्रह्मण्याऽभावे, वाचा अबल-न०(अबल)न बलं सामर्थ्यमुत्कर्षो वा / अभाव न० त०। बलाऽभावे, वाचा शरीरबलवर्जित, त्रि०। विपा०१ श्रु०३ अ०। सूत्र० / भ०। विषमपदादौ गन्तुमसमर्थे, भारंवोदुमसमर्थे च। सूत्र०१ श्रु०२ अ०३ उा जं०। ज्ञा०। अबलत्त-न०(अबलत्व) अबलस्य भावोऽबलत्वम्। बलाभावे, बृ०६ उ०॥ अबला-स्त्री०(अबला) महिलायाम्, को० / अकिश्चित्करायाम् बृ०१ उन अबहिट्ठ-न०(अवहित्थ) आकारगोपने, वाच०। मैथुने, सूत्र०१ श्रु० अ०) अबहिम्मण-त्रि०(अबहिर्मनस्) न विद्यते बहिर्मनो यस्यासावबहिर्मनाः। सर्वज्ञोपदेशवर्तिनि, आचा०१ श्रु०५ अ०५ उ०| अबहिल्ले स्स-त्रि०(अबहिर्लेश्य) अविद्यमाना बहिः संयमाद् बहिस्ताल्लेश्या मनोवृत्तिर्यस्यासावबहिर्लेश्यः / भ०२ श०१ उ०। प्रश्न०। औ०। अबहुवादि(ण)-त्रि०(अबहुवादिन्) असकृदव्याकुर्वाणे, आचा०१ श्रु०६ अ०४ उ० अबहुस्सुय(त)-पुं०(अबहुश्रुत) बहु श्रुतं यस्य स बहुश्रुतः, न बहुश्रुतोऽबहुश्रुतः / अनधीतनिशीथाध्ययने, अश्रुताधस्तनश्रुते च / नि०चू०१ उ०। अबहुश्रुतो नाम येनाचारप्रकल्पो निशीथाsध्ययननामकः सूत्रतोऽर्थतश्च नाऽधीतः। व्य०३ उ०। बहुश्रुतस्वरूपं च तद्विपर्ययपरिज्ञाने तद्विविक्तं सुखेनैव ज्ञायत इत्यबहुश्रुतस्वरूपमाहजे यावि होइ निविजे, थद्धे लुद्धे अणिग्गहे। अमिक्खणं उल्लवइ, अविणीएऽबहुस्सए॥।॥ (जे यावित्ति) यः कश्चित्, चाऽपिशब्दौ भिन्नक्रमत्वाद् उत्तरत्र योक्ष्येते, भवतिजायते, निर्गतो विद्यायाः सम्यकशास्त्रावगम-रूपाया निर्विद्योऽपि यः स्तब्धोऽहङ्कारी, लुब्धो रसादिगृद्धिमान्, न विद्यते विग्रह इन्द्रियनियमनात्मकोऽस्येत्यनिग्रहोऽभीक्ष्णं पुनःपुनरुत्प्राबल्येनासंबद्धं भाषितादिरूपेण लपति वक्ति उल्ल-पति। अविनीतश्च विनयविरहितो (अबहुस्सुए त्ति) यत्त-दोर्नित्याऽभिसंबन्धात् सोऽबहुश्रुत उच्यत इति शेषः। संविज्ञस्या-ऽप्यबहुश्रुतत्वं, बहुश्रुतफलाभावादिति भावनीयम्। एतद्विपरीत-स्त्वर्थाबहुश्रुत इति सूत्रार्थः। कुतः पुनरीदृशमबहुश्रुतत्वं लभ्यते ? इति तत्कारणमाह अह पंचहि ठाणेहिं, जेहिं सिक्खा न लब्भइ। थंभा कोहा पमाएणं, रोगेणालस्सएण य // 3 // अथेत्युपन्यासार्थः / पञ्चभिः पञ्चसंख्यैस्तिष्ठन्त्येषु कर्मवशगा जन्तव इति स्थानानि, तैः, यैरिति वक्ष्यमाणै हें तुभिः शिक्षणं शिक्षा, ग्रहणसेवनात्मिका न लभ्यते, नाऽवाप्यते, तैरीदृशमबहु श्रुतत्वमवाप्यत इति शेषः / कैः पुनः सा न लभ्यते ? इत्याह स्तम्भाद् मानात्, क्रोधात् कोपात्, प्रमादेन मद्यविषयादिना, रोगेण गलतकुष्ठादिना, आलस्येनाऽनुत्साहात्मना, शिक्षा न लभ्यत इति। क्रमश्च समस्तानां व्यस्तानां च हेतुत्वमेषां द्योतयतीति। उत्त०११ अ० अबालुया-स्त्री०(अबालुका) अबालुशब्दार्थे चिक्कणपदार्थे, तंग। अबाहा-स्त्री०(अबाधा) बाधृ-लोमने, बाधत इति बाधा, कर्मण उदयः। न बाधाऽबाधा। कर्मणो बन्धस्योदयस्य चाऽन्तरे, भ०६ श०३ उ० स० 0aa बाधा परस्परं संश्लेषतःपीडनं, न बाधाऽबाधा / भ०१४ श०८ उ०) व्यवधानापेक्षयाऽन्तरे, स०४२ सम० / विशे० आ० चू० (अबाधया अन्तरम्- 'अंतर' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 78 पृष्ठे उक्तम्) मंदरस्स णं भंते ! पव्वयस्स केवइयाए अबाहाए जोइसंचारं चरइ ? गोयमा! इक्कारसेहिं इकवीसेहिं जोयणसएहिं अबाहाए जोइसं चारं चरइ / लोगंताओ णं भंते ! केवइयाए अबाहाए जोए जोइसे पण्णत्ते ? गोयमा ! एक्कारसिं एक्कारसे हिं जोअणसएहिं अबाहाए जोइसे पण्णत्ते। धरणितलाओ णं भंते ! सत्तहिं णउएहिं जोअणसएहिं जोइसंचारं चरइ। एवं सूरविमाणे अहहिं सएहिं चंदविमाणे अट्ठहिं असीएहिं उवरिल्ले तारारूवे णवहिंजोअणसएहिंचारं चरइ।जोइसस्सणं भंते ! हेट्ठिल्लाओ तलाओ केवइयाए अबाहाए सूरविमाणे चारं चरइ ? गोयमा ! दसहिं जोअणेहिं अबाहाए चारं चरइ / एवं चंदविमाणे णउएहिं जोअणेहिं चारं चरइ / उवरिल्ले तारारूवे दसुत्तरे जोअणसए चारं चरइ, सूरविमाणाओ चंदविमाणे असीए जोअणेहिं चार चरइ, सूरविमाणाओ जोअणसए उवरिल्ले तारारूवे चारं चरइ, चंदविमाणाओ वीसाए जोअणेहिं उवरिल्ले तारारूवे चारं चरइ। (मंदरस्स णं भंते ! इत्यादि) मन्दरस्य भदन्त ! पर्वतस्य कियत्या अबाधयाऽपान्तरालेन ज्योतिश्चकं चार चरति ? भगवानाह गौतम ! जगत्स्वभावादेकादशभिरेकविंशत्यधिकैोजन शतैरित्येवंरूपयाऽबाधया ज्योतिषं चारं चरति / किमुक्तं भवति ?- मेरुतश्चक्रवालेन एकविंशत्यधिकान्येकादशयोजनशतानि मुक्त्वा चलन् ज्योतिश्चक्रं तारारूपं चारं चरति, प्रक्र माज्जम्बूद्वीपगतमवसेयम् / अन्यथा लवणसमुद्रादिज्योतिश्चक्रस्य मेरुतो दूरवर्तित्वे प्रमाणासंभवः / पूर्वे तु सूर्यचन्द्रवक्तव्यताऽधिकारे अबाधाद्वारे सूर्यचन्द्रयोरेव मेरुतोऽबाधा उक्ता, साम्प्रतं तारापटलस्य, इति न पूर्वापरविरोध इति / अथ स्थिर ज्योतिश्चक्रमलोकतः कि यत्या अबाधया अर्वाग् अवतिष्ठत इति पिपृच्छिषुश्चतुर्थ द्वारमाह- (लोगंताओ णमित्यादि) लोकान्ततः Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठ्ठाहा 683 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अबाहा अलोकादितोऽर्वाक कियत्या अबाधया प्रक्रमात् स्थिरं ज्योति-श्वक्रं मुक्त्वा तदनन्तरं चक्रवालतया ज्योतिश्चक्रं, चारं चरति। (तालोयंताओ प्रज्ञप्तम् ? भगवानाह- गौतम ! जगत्- स्वभावाद् एकादश- णमित्यादि) ता इति पूर्ववत् / लोकान्तादर्वाक, णमिति वाक्यालङ्कारे। भिरेकादशाधिकैर्योजनशतैरबाधया ज्योतिष प्रज्ञप्त, प्रक्रमात् स्थिरं कियत्क्षेत्रमबाधया कृत्वा ज्योतिषं प्रज्ञप्तम् ? भगवानाहबोध्यम्, चरज्योतिश्चक्रस्य तत्राभावादिति। (एक्कारसेत्यादि) एकादश योजनशतानि एकादशाधिकानि अबाधया अथ पञ्चमद्वारं पृच्छति- 'धरणितलोओ णं भंते !' इत्यनेन कृत्वा अपान्तरालं विधाय ज्योतिष प्रज्ञप्तम्। (ता जंबूदीवेणं दीवे कयरे तत्सूत्रैकदेशेन परि-पूर्ण प्रश्नसूत्रं बोध्यम् / तच्च- "धरणितलाओ णं नक्खत्ते) इत्यादि सुगमम् / नवरमभिजिन्नक्षत्रं सर्वाभ्यन्तरं भंते ! उड्डे उप्पइत्ता केवइआए अबाहाए हिडिल्ले जोइसे चारं नक्षत्रमण्मलमपेक्ष्य, एवं मूलादीन्यपि सर्वबाह्यादीनि वेदितव्यानि। (ता चरइ ? गोयमा !" इत्यन्तं वस्त्वेकदेशस्य वस्तुस्कन्धस्मारकत्व- चंदविमाणे णमित्यादि) संस्थानविषयं प्रश्नसूत्रं सुगमम् / भगवानाहनियमात् / तत्राऽयमर्थः- धरणितलात् समयप्रसिद्धात् समभूतल (ता अद्धकविट्ठगेत्यादि) अर्द्धकपित्थमुत्तानीकृतमर्द्धमात्रं कपित्थं भूभागादूर्ध्वमुत्पत्य कियत्याऽबाधया अधस्तनं ज्योतिषं तारापटलं चार तस्येव यत् संस्थानं, तेभ्यः संस्थितमर्द्धकपित्थसंस्थानसंस्थितम्। चरति ? भगवानाह- गौतम! सप्तभिर्नवत्यधिकैर्योजन-शतैरित्येवंरूपया आह- यदि चन्द्रविमानमर्द्धमात्रकपित्थफलसंस्थानसंस्थितं, तत अबाधया अधस्तनं ज्योतिश्चक्रं चारं चरति / अथ उदयकाले अस्तमनकाले यदि वा तिर्यकपरिभ्रमत् पौर्णमास्यां सूर्यादिविषयमयाधास्वरूपं संक्षिप्य भगवान् स्वयमेवाह- (एवं सूरविमाणे कस्मात्तदर्द्धकपित्थफलाकारं नोपलभ्यते? कामं शिरस उपरि वर्तमान अट्ठहिं सएहिं चंद०) इत्यादि / एवमुक्तन्यायेन यथा- वर्तुलमुपलभ्यते? अर्द्धकपित्थस्य शिरस उपरि दूरमवस्थापितस्य समभूमिभागादधस्तनं ज्योतिश्चक्रं नवत्यधिकसप्तयोजन-शतैस्तथा परभागः दर्शनतो वर्तुलतया दृश्यमानत्वात् ? उच्यते - समभूमिभागादेव सूर्यविमानमष्टभिर्योजनशतैश्चन्द्रविमानमशीत्यधिकै- इहाऽर्द्धकपित्थफलाकारं चन्द्रविमानंनसामस्त्येन प्रतिपत्तव्यम्, किंतु रष्टभिर्योजनशतैरुपरितनं तारारूपं नव-भिर्योजनशतैश्चारं चरति। तस्य चन्द्रविमानस्य पीठ, तस्य च पीठस्योपरि चन्द्रदेवस्य अथ ज्योतिश्चक्रचारक्षेत्रापेक्षया अबाधाप्रश्नमाह- (जोइसस्स ज्योतिश्चक्रराजस्य प्रासादः, तथा कथञ्चनापि व्यवस्थितो यथा पीठेन णमित्यादि) ज्योतिश्चक्रस्य दशोत्तरयोजनशतबाहुल्यस्याध सह भूयान्वर्तुल आकारो भवति, सचदूरभावात् एकान्तरतः समवृत्ततया स्तनात्तलात् कियत्या अबाधया सूर्यविमानं चारं चरति ? गौतम ! जनानां प्रतिभासते, ततो न कश्चिद् दोषः / न चैतत् स्वमनीषिकया दशभिर्योजनैरित्येवंरूपया अबाधया सूर्यविमानं चारं चरति / अत्र च जृम्भितम् / यदेतदेव जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणेन विशेषणवत्यामाक्षेपसूर्यसमभूभागादूर्व नवत्यधिकसप्तयोजनाऽतिक्रमे ज्योति- पुरस्सरमुक्तम्श्वक्रबाहुल्यमूलभूत आकाशप्रदेशप्रतरः, सोऽवधिमन्तव्यः / एवं अद्धकविट्ठागारा, उदयऽत्थमणम्मि कहं न दीसंति। चन्द्रादिसूत्रेऽपि। एवं चन्द्रविमानं नवत्या योजनैरित्येवंरूपया अबाधया ससिसूराण विमाणा, तिरियक्खेत्तट्ठियाणं च ?||1|| चार चरति। तथा चोपरितनं तारारूपंदशाधिके योजनशते ज्योतिश्चक्र उत्ताणऽद्धकविट्ठा-गाएं पीठं तदुवरि पासाओ। बाहुल्यप्रान्ते इत्यर्थः, चारं चरति / अथ गतार्थमपि शिष्य वड्डा लेखेण तओ, समवह दूरभावाओ॥२॥ व्युत्पादनार्थमाह- सूर्यादीनां परस्परमन्तरं सूत्रकृदाह-(सूर-विमाणाओ तथा सर्व निरवशेष स्फटिकमयंस्फटिकविशेषमणिमयं, तथा अभ्युद्गता इत्यादि) सूर्यविमानात् चन्द्रविमानं अशीतियोजनैश्वारं चरति / आभिमुख्येन सर्वतो विनिर्गता उत्सृता प्रबलतया सर्वासु दिक्षु प्रसृता या सूर्यविमानात् योजनशतेऽतिक्रान्ते उपरितनं तारापटलं चारं चरति / प्रभा दीप्तिस्तया सितंशुक्लमभ्युद्गतोउच्छ्रित-प्रभासितं; तथा विविधा चन्द्रविमानाद् विंशत्या योजनैरुपरितनं तारापटलं चार-चरति। अत्र अनेकप्रकारा मणयश्चन्द्रकान्तादयो रत्नानि कर्केतनादीनि, तेषां सूचनामात्रत्वात् सूत्रेऽनुक्ताऽपि ग्रहाणां नक्षत्राणां च क्षेत्राणां च भक्तयो विच्छित्तिविशेषाः ताभि-चित्रमनेकरूपवत्, आश्चर्यवद् वा क्षेत्रविभागव्यवस्था मतान्तरश्रिता संग्रहणिवृत्त्यादौ दर्शिता लिख्यते- विविधमणिरत्नचित्रम्; तथा वातोद्भूता वायुकम्पिता विजयोऽभ्युदयशतानि सप्त गत्वोवं, योजनानां भुवस्तलात्। स्तत्संसूचिका वैजयन्त्यभिधाना याः पताकाः / अथवा विजया इति नवतिं च स्थितास्ताराः, सर्वाऽधस्तान्नभस्तले // 1 // वैजयन्तीनां पार्श्वक र्णिका उच्यते, तत्प्रधाना वैजयन्त्यो तारकापटलाद् गत्वा, योजनानि दशोपरि। विजयवैजयन्त्यः पताकास्ता एव विजयवर्जिता वैजयन्त्यः, सूराणां पटलं तस्मा-दशीतिं शीतरोचिषः / / 2 / / छातिच्छत्राणि च उपर्युपरि स्थितातपत्राणि, तैः कलितं, ततो वातोधूत चत्वारितुततो गत्वा, नक्षत्रपटलं स्थितम्। विजय-वैजयन्तीपताकाच्छत्रातिच्छत्रकलितं, तुङ्गमुचम्, अत एव गत्वा ततोऽपि चत्वारि, बुधानां पटलं भवेत्॥३॥ (गगनतलमणु लिहंतसिहरंति) गगनतलमम्बरतलमनुलिखत्, शुक्राणां च गुरूणां च, भौमानां मन्दसंज्ञिनाम्। अभिलायच्छिखरं यस्य तद् गगनतलानुलिखच्छिखरम्। त्रीणि त्रीणि च गत्वोचं, क्रमेण पटलं स्थितम्॥४॥ इति। जं०७ वक्ष०ा तथा जालानि जालकानि, तानि च भवनभित्तिषु लोके प्रतीतानि, (मंदरस्स णमित्यादि) ता इति पूर्ववत् / मन्दरस्य पर्वतस्य तदनन्तरेषु, विशिष्टशोभानिमित्तं रत्नानि यत्तद् जालान्तररत्नम्, जम्बूद्वीपगतस्य सकलतिर्यग्लोकमध्यवर्तिनः कियत्क्षेत्रमबा-धया सर्वतः सूत्रे चाऽत्र प्रथमैकवचनलोपो द्रष्टव्यः। तथा पञ्जरादुन्मीलितमिव कृत्वा चारं चरति ? भगवानाह-(ता एक्कारसेत्यादि) ता इति पूर्ववत् / बहिष्कृतमिव पञ्जरोन्मीलितमिव / तथा हि किल किमपि वस्तु एकादश योजनशतानि एकविंशत्यधिकानि अबाधया कृत्वा चारं चरति / पञ्जराद् वंशादिमयप्रच्छादनविशेषाद् बहिष्कृतमत्यन्तमकिमुक्तं भवति ? मेरोः सर्वतः एकादशयोजनशतान्येकविंशत्यधिकानि | विनष्टच्छायत्वात् शोभते, एवं तदपि विमानमिति भावः / तथा Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अबहाय 684 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्पा मणिकनकानां संबन्धिनी स्तूपिका शिखरं यस्य तद् मणिकनकस्तूपि- ये केचनाऽबुद्धा धर्म प्रत्यविज्ञातपरमार्था व्याकरणशुष्कतकाकम् / तथा विकसितानि शतातपत्राणि पुण्डरीकाणि द्वारादौ कांदिपरिज्ञानेन जातावलेपाः पण्डितमानिनोऽपि परमार्थवस्तुप्रतिकृतित्वेन स्थितानि तिलकाश्च भित्त्यादिषु चन्द्राणि रत्नमयाश्चाऽ- तत्त्वानवबोधादबुद्धा इत्युक्तम् / न च व्याकरणपरिज्ञानमात्रेण र्द्धचन्द्रद्वाराग्रादिषु तैश्चित्रं विकसितम्, आत पत्रपुण्डरीक- सम्यक्त्वव्यतिरेकेण तत्त्वावबोधो भवतीति / तथा चोक्तम्तिलका चन्द्रचित्रम्। तथा- अन्तर्बहिश्च श्लक्ष्णं मसृणमित्यर्थः। तथा- शास्त्रावगाहपरिघट्टनतत्परोऽपि,नैवाऽबुधः समभिगच्छति वस्तुतत्त्वम्। तपनीयं सुवर्णविशेषस्तन्मय्या वालुकायाः सिकतायाः प्रस्तटः प्रतरो नानाप्रकाररसभावगताऽपि दर्वी,स्वादं रसस्य सुचिरादपि नैव यत्र तत्तथा; तपनीयवालुकाप्रस्तटतया सुवर्णस्पर्श शुभस्पर्श वा। तथा वेत्ति ॥५॥वसन्ततिलका। सश्रीकाणि सशोभानि रूपाणि नरयुग्मादीनि रूपाणि तत्र तत् यदि वा अबुद्धा इव बलवीर्यवन्तः, तथा महान्तश्च ते भागाश्व सश्रीकरूपम् / प्रासादीयं मनःप्रसादहेतुः, अत एव दर्शनीयं द्रष्टुं योग्यं, तद्दर्शनेन तृप्तेरसंभवात्। तथा- प्रतिविशिष्टमसाधारणं रूपं यस्य तत्तथा। महाभागाः / भागशब्दः पूजावचनः / ततश्च महापूज्या इत्यर्थः / लोकविश्रुता इति / तथा वीराः परानीकभेदिनः सुभटा इति। इदमुक्तं (एवं सूरविमाणे वीत्यादि) यथा चन्द्रविमानस्वरूपमुक्तमेवं सूर्यविमानं भवति-पण्डिता अपि त्यागादिभिर्गुणैर्लोकपूज्याः / अपि च- तथा ताराविमानं च वक्तव्यं, प्रायः सर्वेषामपि ज्योतिर्विमाना सुभटवादं वहन्तोऽपि सम्यक्तत्त्वपरिज्ञानविकलाः केचन भवन्तीति नामेकरूपत्वात्। तथा चोक्तं समवायाने "केवइया णं भंते ! दर्शयति-न सम्यग् असम्यक्, तद्भावोऽसम्यक्त्वम्।तद्रष्टुं शीलं येषां जोइसियावासा पन्नत्ता ? गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए ते तथा, मिथ्यादृष्टय इत्यर्थः / तेषां च बालानां यत्किमपि बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ सत्तनउयाईजोयणसयाईउड्डेउप्पइत्ता दसुत्तरजोयणसयबाहल्ले तिरियमसंखेजे जोइसविसए जोइसियाणं तपोदानाध्ययनयमनियमादिषु पराक्रान्तमुद्यमस्तद-शुद्धमविशुद्धदेवाणं असंखेजा जोइसिया विमाणावासा पन्नत्ता; ते णं कारि, प्रत्युत कर्मबन्धाय, भावोपहतत्वात्, सनिदा-नत्वाद्वेति, जोइसियविमाणावासा अब्भुग्गा पमुसियपहसिया विविहमणिरयण कुवैद्यचिकित्सावद्विपरीताऽनुबन्धीति। तच तेषां परक्रान्तं सह फलेन भत्तिचित्तातंचेव० जावपासाईया दरिसणिजापडिरूवा" | चं० प्र०१८ कर्मबन्धेन वर्तत इति सफलम् / सर्वश इति / सर्वाऽपि तत्क्रिया पाहु०। न बाधा अबाधा / अनाक्रमणे, रा०ा जी०। स्था०। औ०।। तपोऽनुष्ठानादिका कर्मबन्धायैवेति / / 22 / / सूत्र०१ श्रु०८ अ० अबाहिरिय-त्रि०(अबाहिरिक) बहिर्भवा बाहिरिका। "अध्यात्मादिभ्य बोधाविषये, वाचा इकण्' / 6 / 378 / इति हैमसूत्रेण इकणप्रत्ययः / प्राकारबहिर्वर्तिनो अबुद्धजागरिया-स्त्री०(अबुद्धजागरिका) छद्मस्थज्ञानवतां जागरिगृहपद्धतिरित्यर्थः / न विद्यते बाहि-रिका यत्र तदबाहिरिकम् / यस्य कायाम्, भ०। 'अबुद्धा अबुद्धजागरियं जागरंति त्ति' अबुद्धाः प्राकारा बहिर्गृहाणि न सन्ति तस्मिन् स्थाने, बृ०१ उ०॥ केवलज्ञानाभावेन यथासंभवं शेषज्ञानसद्भावाच बुद्धसदृशाः, ते च अबाह्य-त्रि० ग्रामस्यात्यन्तमबहिर्भूते, "अबाहिरए कप्पइ हेम-तगिम्हासु अबुद्धानां छदास्थज्ञानवतां याजागरिका, सा तथा, तां जाग्रति। भ०१२ मासं वत्थए"।व्य०१ उ०। श०१ उ० अबाहूणिया-स्त्री०(अबाधोनिका) अबाधया उक्तलक्षणया ऊनिका अबुद्धसिरी- (देशी) मनोरथाधिकफलप्राप्तौ, दे० ना०१ वर्ग। अबाधोनिका / भ०६ श०३ उ०। अबाधाकालपरिहीनायाम्, | अबुद्धिअ-त्रि०(अबुद्धिक) तत्त्वज्ञानरहिते, ग०१ अधि० अज्ञानिनि, "अबाहूणिया कम्मट्ठिई पण्णत्ता' / जी०२ प्रति०। पं०चूला बुद्धिरहिते, सूत्र०१ श्रु०२ अ०१ उ०। अबिद्ध-त्रि०(अविद्ध) वेधरहिते, व्य०८ उ०॥ तं०। अबुह-पुं०(अबुध) विरोधे, अप्राशस्त्ये वा / न०त० / बुधभिन्ने मूर्खे, अबिद्धकन्न-पुं०(अविद्धकर्ण) स्वनामख्याते तीर्थिकभेदे, यदपि अल्पज्ञाने च / वाच०। अजानाने, सूत्र०१ श्रु०२ अ०१ उ०। बालिशे, गजतुरगस्यन्दनादिव्यतिरिक्त निमित्तप्रभवः संख्याप्रत्ययः, प्रश्न०१आश्र०द्वा०॥ तत्त्वपरिज्ञानविकले, बृ०१ उ०। गजादिप्रत्ययविलक्षणत्वाद्, वस्त्रचर्मकम्बले नीलप्रत्ययवदिति अबुहजण-त्रि०(अबुधजन) अबुधोऽविपश्चिज्जनः परिजनो यस्य स संख्याप्रसिद्धप्रत्यये अविद्धकर्णो क्तं प्रमाणम् / तदयुक्तम् / अबुधजनः, अकल्याणमित्रपरिजने, “विसयसुहेसु पसत्थं, गजादिव्यतिरिक्तसंकेतादिप्रभवत्वेनेष्टत्वात् सिद्धसाध्यता अबुहजणकामरागपडिबद्धं"।दश०२ अ० दोषाघ्रातत्वात्। सम्म०२ काण्ड। अबोह-पुं०(अबोध) न०ता अनवगमे, ध०१अधि०। अबीय-त्रि०(अद्वितीय) के नचिदपरेण सहाऽवर्तमाने, यथाहि ऋषभश्चतुस्सहस्रया राज्ञां सार्द्ध , मल्लिपाश्वा त्रिभिस्विभिः शतैः, अबोहंत-त्रि०(अबोधयत्) अजागरयति, उत्त०२६ अ०॥ वासुपूज्यः षट्शत्या, शेषाश्च सहस्रेण सह प्रव्रजितास्तथा भगवान् न अबोहि-स्त्री०(अबोधि) न०त० / अज्ञाने, सूत्र०२ श्रु०६ अ०। केनाऽप्यतोऽद्वितीयः। कल्प०) जिनधर्मानवाप्तौ, औत्पत्यादिबुद्ध्यभावे च / भ०१ श०६ उ०। अबुद्ध-त्रि०(अबुद्ध) अविपश्चिति, दश०२ अ०! अविवेकिनि, सूत्र०१ मिथ्यात्वकार्य ज्ञाने, "अबोधिं (हिं) परियाणामि, बोहिं श्रु०११ अ०॥ उवसंपज्जामि" आव०४ अ०। अबुद्धनिन्दा कस्थाऽबोधिर्भवति? इति प्रश्नस्योत्तरमाहजे अबुद्धा महाभागा, वीराऽसम्मत्तदंसिणो। मिच्छादसणरत्ता, सनिदाणा किण्हलेसमोगाढा। असुद्धं तेसि परकंतं, सफलं होइ सव्वसो |22|| इह जे मरंति जीवा, तेसिं दुलहा मवे बोही।। Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अबोहि 685 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अब्बुय मिथ्यादर्शनं विपर्यस्तदर्शनं, मिथ्यात्वंतु मिथ्याक्रिया द्यभिलाषरूपं, तत्र रताः, तथा सह निदानेन देवत्वादि प्रार्थनारूपेण वर्तन्त इति सनिदानाः। तथा कृष्णां सर्वाधर्मरूपालेश्यांजीवपरिणामरूपामवगाढाः प्राप्ता इहाऽस्मिन् जगति एवंविधा ये जीवा म्रियन्ते, तेषां दुर्लभो भवेद् बोधिः / आतु०। अबोहिकलुस-त्रि०(अबोधिकलुष) मिथ्यादृष्टी, दश०४ अ०। अबो हिबीय-न०(अबोधिबीज) अबोधेर्जन्मान्तरे जिनधर्माऽप्राप्तौ बीजमिव बीजं हेतुरबोधिबीजम्। पञ्चा०४ विव०। सम्यग्दर्शनाभावहेतौ, पञ्चा०७ विवा अबोहिय-न०(अबोधिक) मिथ्यात्वफले (अज्ञाने), दश०६ अ० न विद्यते बोधिर्यस्य सोऽबोधिकः / बोधरहिते, "निच्छयत्थं न जाणंति, मिलक्खुव्व अबोहिया'। सूत्र०१श्रु०१ अ०२ उ०।अविद्यमानबोधिके, औ० / अविद्यमानो बोधोऽस्मात् / भवान्तरप्राप्तव्यजिनधर्मलाभाप्रतिजागरेणाऽज्ञे, “अप्पणो य अबोहीए, महोमोहं पकुव्वइ" / स०३० समा अब्बुय-पुं०(अर्बुद) स्वनामख्याते (आबू) पर्वते, ती०। तत्कथा चैवम् - अर्हन्तौ प्रणिपत्याऽहं, श्रीमन्नाभेयनेमिनौ। महाद्रेर्बुदाख्यस्य, कल्पं जल्पामि लेशतः / / 1 / / देव्याः श्रीमातुरुत्पत्तिमादौ वक्ष्ये यथाश्रुतम्। यदधिष्ठानतो ह्येष, प्रख्यातो भुवि पर्वतः / / 2 / / श्रीरत्नमालनगरे, राजाऽभूद् रत्नशेखरः। सोऽनपत्यतया दूनः प्रैषीच्छाकुनिकान बहिः / / 3 / / शिरस्थां काष्ठभारिण्यास्ते दुर्गा दुर्गतस्त्रियाः। वीक्ष्य व्यजिज्ञपन राज्ञे, भाव्यस्यास्त्वत्पदे सुतः॥४॥ राज्ञाऽऽदिष्टा सगर्भव, सा हन्तुं तन्नरैर्निशि। गर्ने क्षिप्ता कायचिन्ताव्याजात् तस्माद् बहिर्निरत् // 5 // साऽसूत सूनुमत्यार्ता, द्राग् वडातान्तरेऽमुचत्। गर्त चाऽऽनीय तवृत्ताऽनभिहस्तैरघानि सा॥६|| पुण्येरितार्भ स्तन्यं चाऽपीप्यत् सन्ध्याद्वये मृगी। प्रवृद्धेऽस्मिष्टङ्कशाला-महालक्ष्याः पुरोऽन्यदा / / 7 / / मृग्याश्चतुर्णा पादानामधो नूतननाणकम्। जातं श्रुत्वा शिशुरूपं, लोके वार्ता व्यज़म्भत॥८|| नव्यो नृपोऽभूत् कोऽपीति, श्रुत्वा प्रैषीद भटान् पः। तद्धायाऽथ तं दृष्ट्वा, सायं ते पुरगोपुरे।।६।। बालहत्याभियाऽमुञ्चन्, गोयूथस्यायतः पथि। तत्तथैव स्थितं भाग्यादेकस्तूक्षा पुरोऽभवत्॥१०॥ तत्प्रेर्य च चतुष्पादान्तराले तं शिशुन्यधात्। तच्छुत्वा मन्त्रिवाक्यात्तं, राजाऽमस्तौरसं मुदा // 11 // श्रीपुञ्जाख्यः क्रमात्सोऽभूद्, भूपस्तस्याऽभवत्सुता। श्रीमाता रूपसंपन्ना, केवलं प्लवगानना // 12 // तद्वैराग्यान्निर्विषया, जातु जातिस्मरा पितुः। न्यवेदयत् प्राग्भवं स्वं, यदाऽहं वानरी पुरा // 13 // संचरन्त्यर्बुदे शाखिशाखांतालुनि केनचित्। विद्धा वृक्षाच रुण्डं मे, कुण्डेऽपतत् तरोरधः॥१४॥ तस्य कामिततीर्थस्य, माहात्म्याद् नृतनुर्मम। मस्तकं तु तथैवास्तेऽद्याप्यतः कपिमुख्यहम्।।१५।। श्रीपुज्जोऽक्षेपयच्छीर्ष , कुण्डे प्रेष्य निजान नरान। ततः सा नृमुखी जज्ञे, तपस्वी चाऽर्बुदे गिरौ // 16 // व्योमगामन्यदा योगी, दृष्ट्वा ता रूपमोहितः। खादुत्तीर्याऽलपत् प्रेम्णा, मां कथं वृणुषे शुभे?! ||17|| सोचेऽत्यगादाद्ययामो, रात्रोस्तावदतः परम्। ताम्रचूडतादर्वाक, कयाचिद्विद्यया यदि॥१८॥ शैलेऽत्र कुरुषे हृद्याः, पद्या द्वादश तर्हि मे। वरःस्या इतिचेटैस्वैर्दियाम्याऽचीकरत्स ताः।।१६।। स्वशक्त्या कुक्कुटरवे, कृतके कारिते तया। निषिद्धोऽपि विवाहाय, नाऽस्थात्तत्कैतवं विदन // 20 // सरित्तीरेऽथ तं स्वस्रा, कृतवीवाहसंभृतिम्। सोचे त्रिशूलमुत्सृज्य, विवेढुं संनिधेहि मे // 21 // तथाकृत्वोपागतस्य, पादयोर्विकृतान् शुनः। नियोज्य साऽस्य शूलेन, हृद्यस्त्रेण वधं व्यधात्॥२२॥ इत्याजन्माखण्डशीला, जन्म नीत्वा स्वराप सा। श्रीपुञ्जः शिखरे तत्र, तत्प्रासादमचीकरत् / / 23 / / षण्मासान्तेऽर्बुदाख्योऽस्याऽधोभागेऽद्रेश्वलत्यहिः। ततो विकम्पस्तत्सर्वः, प्रासादशिखरं विना / / 24|| लौकिकास्त्वाहु:नन्दिवर्धन इत्यासीत्, प्राक् शैलोऽयं हिमाद्रिजः / कालेनाऽर्बुदनागाधिष्ठानात्त्वर्बुद इत्यभूत् // 25|| वसन्ति द्वादश ग्रामाः, अस्योपरि धनोधराः। तपस्विनो गौगालिकाः, राष्ट्रिकाश्च सहस्रशः // 26 // न स वृक्षोन सा वल्ली, न तत्पुष्पं न तत्फलम्। नस स्कन्धो न सा शाखा, या नैवात्र निरीक्ष्यते / / 27 / / प्रदीपवन्महौषध्यो, जाज्वलन्त्यत्र रात्रिषु / सुरभीणि रसाट्यानि, वनानि विविधान्यपि॥२८॥ स्वच्छन्दोच्छलदच्छोर्मिस्तीरद्रुकुसुमान्विता। पिपासुतप्ताऽऽनन्दाऽत्र, भाति मन्दाकिनी धुनी // 26 // चकासत्यस्य शिखराण्युत्तुङ्गानिसहस्रशः। परिस्खलन्ति सूर्यस्य, येषु रथ्या अपि क्षणम्॥३०॥ चण्डालीवजतैलेभकन्दाद्याः कन्दजातयः। दृश्यन्ते च प्रतिपदं, तत्तत्कार्यप्रसाधिकाः॥३१।। प्रदेशाः पेशलाः कुण्डैस्तत्तदाश्चर्यकारिभिः / अस्य धातुखनीभिश्च, निर्भरश्वाऽमृतोदकैः // 32 // काकूयिते कृते चोचैर्द्राक्कोकूयितकुण्डितः। प्रादुर्भवति वाःपूरः, कुर्वन् खलहलारवम्॥३३।। श्रीमाताऽचलेश्वरस्य, वशिष्ठाश्रम एव च। अत्रापि लौकिकास्तीर्थाः, मन्दाकिन्यादयोऽपि च // 34|| महारेरस्य नेतारः,परमारनरेश्वराः। पुरी चन्द्रावती तेषां, राजधानी निधिः श्रियाम्॥३५॥ कलयन् विमला, बुद्धि, विमलो दण्डनायकः। चैत्यमवर्षभस्याधात्, पैत्तलप्रतिमान्वितम् // 36 / / आराध्याऽम्बां भगवती, पुत्रसंपदपस्पृहः। तीर्थस्थापनमभ्यर्थ्य, चम्पकद्रुमसन्निधौ // 37 / / पुष्पसग्दामरुचिरं, दृष्ट्वा गोमयगोमुखम्। तत्राग्रही भुवं दण्डेत्, श्रीमातुर्भवनान्तिके॥३८॥ (युग्मम्) राजानके श्रीधान्धूके, क्रुद्धं श्रीगुर्जरेश्वरम्। प्रसाद्य भक्त्या तं चित्रकूटादानाय्य तद्गिरा // 36 / / Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब्बुय 686 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अब्भंगण वैक्रमे वसुवस्वाशा 1088, मितेऽब्दे भूरिरैव्ययात्। सत्प्रासादं सुविमलवसत्याहू व्यधापयत्॥४०॥ योत्रोपनम्रसंघस्यानि विघ्रविघातनम्। कुरुतेऽत्राम्बिका देवी, पूजिता बहुभिर्विधैः / / 41 / / युगादिदेवचैत्यस्य, पुरस्तादत्र चाश्मनः। एकरात्रेण घटितः, शिल्पिना तुरगोत्तमः // 42 // वैक्रमे वसुवस्वर्क 1288, मितेऽब्दे नेमिमन्दिरम्। निर्ममे लूणिगवसत्याह्वयं सचिवेन्दुना // 43 // कषोपलमयं बिम्ब,श्रीतेजःपालमन्त्रिराट्। तत्र न्यस्थात् स्तम्भतीर्थे, निष्पन्नं दृसुधाऽजनम्॥४४|| मूर्तीः स्वपूर्ववंश्यानां, हस्तिशालंच तत्र सः। न्यवीविशद्विशां पत्युः, श्रीसोमस्य निदेशतः॥४५|| अहो ! शोभनदेवस्य, सूत्रधारशिरोमणेः। तचैत्यरचनाशिल्पान्नाम लेभे यथार्थताम् // 46 // वज्रात्त्रातः समुद्रेण, मैनाकोऽस्यानुजो गिरेः। समुद्रस्नातोऽन्वनेन, दण्डेत् मन्त्रीश्वरो भवात्।।४७|| तीर्थद्वयेऽपि भनेऽस्मिन, दैवान् म्लेच्छैः प्रचक्रतुः / अस्योद्धारं द्वौ शकाब्दे, वह्रिवेदार्कसम्मिते 1243 // 48 // तत्राद्यतीर्थस्योद्धर्ता, लल्लो महणसिंहभूः / पीथमस्त्वितरस्याभूदुद्धर्ता, चण्डसिंहजः॥४६॥ कुमारपालभूपालश्चौलुक्यकुलचन्द्रमाः / श्रीवीरचैत्यमस्योचैः, शिखरे निरमीमपत्॥५०॥ तत्तत्कौतूहलाकीर्णं, तत्तद्दोषविबन्धुरम्। धन्याः पश्यन्त्यर्बुदाद्रि, नैकतीर्थपवित्रितम्॥५१।। दृब्धः श्रोत्रसुधाकल्पः, श्रीजिनप्रभसूरिभिः। श्रीमदर्बुदकल्पोऽयं, चतुरैः परिवीयताम्॥५२॥ इति श्रीअर्बुदाचलकल्पः समाप्तः। ती०८ कल्प। अब्भ-न०(अभ्र) अपो बिभर्तीति अब्भ्रम् / मेघे, रा०ा अपभ्रंशेलिङ्गमतन्त्रम्" 4445] इति सूत्रेण पुंस्त्वम् / “अब्भा लग्गा डोंगरिहिं, पहिउ रडतउ जाइ। जो एहा गिरिगिलणमणु, सो किं धणहि धणाइ" ||1|| प्रा०४ पाद / अभ्राणि सन्त्यस्मिन्नित्यभ्रम् / 'अभ्रादिभ्यः' 17 / 2 / 46 / इति हैमसूत्रेण मत्वर्थीयोऽप्रत्ययः। आकाशे, "अब्भवद्दलए विउव्यइ" अभे यानि वार्दलकानि, तानि विकुर्वन्ति, आकाशे मेघान् विकुर्वन्तीत्यर्थः / रा०। स्था०। आ०म०| अभंग-पुं०(अभ्यङ्ग) अभि-अङ्ग्-भावे घन : कुत्वम् / स्तोकेन तैलादिना मर्दने, एकवारं तैलमर्दने च। नि०चू०३ उ०। अभंगण-न०(अभ्यञ्जन) घृतवशादिना (प्रश्न०४ संवन्द्वा०) सहस्रपाकतैलादिभिर्वा (आचा०१ श्रु०६ अ०४ उ०) म्रक्षणे, कल्प०३ क्षण / स्था०। नि०चूला आ०म० बृ०। प्रव०। साधूनामभ्यञ्जनं न कार्यम्- . नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा, परिवासिएण तेल्लेण वा घएण वा नवणीएण वा वसाएवा, गत्तं अन्भंगित्तएवा पक्खित्तए वा, नन्नत्थ आगाढेहिं रोगायंकेहिं / अस्य सम्बन्धमाहससिणेहो असिणेहो, दिज्जइ मक्खित्तु वा तगं दिति। सव्वो वि वणो लिप्पइ, दुहा उ वा मक्खणा भूया // आलेपः स्नेहोऽस्नेहो वा दीयते, ततो यथा स्नेहेन म्रक्षितं क्रियते, नवा, तथाऽनेनाऽभिधीयते। यद्वा-व्रणं म्रक्षित्वा तकमनन्तर-सूत्रोक्तमालेपं प्रयच्छन्ति; न वा सर्वोऽपि व्रण आलेप्यते। द्विधा वा म्रक्षणा भूयात, क्षतो व्रणोऽपि म्रक्ष्यते, आलेपोऽपि म्रक्षितुं दीयत इति भावः / अनेन संबन्धेनायातस्यास्य व्याख्यानो कल्पते परिवासितेन वा तैलेन वा धृतेन वा नवनीतेन वा वसयावा गात्रमभ्यङ्गितुं वा बहुलेन तैलादिना, मेक्षितुं वा स्वल्पेन तैलादिना, नान्यत्र गाढगाढेभ्यो रोगातङ्केभ्यः, तान्मुक्त्वा न कल्पते इत्यर्थः / दोषाश्चात्र त एव संचयादयो मन्तव्याः। आह- यद्येवं परिवासितेन न कल्पते म्रक्षितुं, ततस्तदिवसानीतेन कल्पिष्यते। सूरिराहतद्दिवसमक्खणम्मी, लहुओ मासो उ होइ बोधव्वो। आणायणा विराहण, धूलि सरक्खो य तसपाणा॥ तदिवसानीतेनापि यदि म्रक्षयति, तदा लघुमासः, आज्ञादयश्च दोषाः, विराधना च संयतस्य भवति / तथाहि- म्रक्षिते गात्रे धूलिलंगति, सरजस्को वा सचित्तरजोरूपो वा तेनोद्धतो लगति, तेन चीवराणि मलिनीक्रियन्ते, तेषां धावने संयमविराधना, स्नेहगन्धेन वा ये त्रसप्राणिनो लगन्ति, तेषां विराधना भवेत्। धुवणाधुवणे दोसा, निसि भत्तं उप्पिलावणं चेव / चउसत्त समइ तलिया, उव्वट्टणमाइ पलिमंथो॥ स्नेहेन मलिनीकृतानां चीवराणां गात्राणां च धावनाधावनयोरुभयोरपि दोषाः / तथाहि- यदि न धाव्यन्ते, तदा निशि भक्तम्, अथ धाव्यन्ते, ततः प्राणिनामुत्प्लावना भवेत्। उपकरणशरीर-योर्वा, कृशत्वं च भवति / (स मंइ त्ति) स एव हेवाको लगति, म्रक्षिते च गात्रपादयोर्मा धूली लगिष्यति इतिकृत्वा तलिकाऽपि नाति, तत्र गर्वो निर्दिवतेत्यादयो दोषाः। यावत्स्वगात्रस्यो-द्वर्तनादिकं करोति, तावत्सूत्रार्थपरिमन्थो भवति / तद्दिवसमक्खणेण उ, दिट्ठा दोसा जहा उ मक्खिज्जा। अद्घाणेणुव्वाएऽपवाएँ अरुकच्छुजयणाओ॥ तदिवसम्रक्षणेन जनिता एतदोषा दृष्टाः / द्वितीयपदे यथा म्रक्षयेत् तथाऽभिधीयते- अध्वगमनेनाभारोद्वान्तः, परिश्रान्तो वा, तेन वा कटी गृहीता, अरुणं तद्द्वाररोपे जातं कच्छूः पामा, तया वा कोऽपि गृहीतस्ततो यतनया मक्षयेदपि। तामेवाऽऽहसन्नाईकयकजो, धुवितं मक्खेउ अत्थए अंते। परिपीय गोमयाई-उवट्टणा धोवणे जयणा। संज्ञा गमनम्, आदिशब्दादागमनादिकं च कायकृते कृतकार्यो, न संसद्वादकृतकार्यः, सर्वाणि बहिर्गमनकार्याणि समाप्येत्यर्थः / स यावन्मात्र म्रक्षणीयं, तावन्मात्रमेव धावित्वा प्रक्षाल्य ततो म्रक्षयति, म्रक्षयित्वा च प्रतिश्रयस्यान्तस्तावदास्ते, यावत्तेन गात्रेण तत्तैलादिकम्रक्षणं परिपीतं भवति / ततो गोमयादिना तस्योद्वर्तनं कृत्वा यतनया यथा प्राणिनां प्लावना न भवति, तथा धावनं कार्यम्। जह कारण तद्विवसं, तु कप्पई तह भवेज इयरं पि। आयरियवाहि वसभेहिँ पुच्छिए वेज संदेसो॥ यथा कारणे तद्दिवसानीतं म्रक्षणं कल्पते, तथेतरदपि परिवासितं Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब्भंगण 687- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अब्भंतरवाहरिय मृक्षणं कारणे कल्पते। कथमिति चेत् ? अत आह- आचार्यस्य कोऽपि अथवाऽपदिष्टः सन्नभ्यन्तरे गत्वा तद् गच्छादिप्रयोजनं ब्रूते, व्याधिरुत्पन्नस्ततो वृषभैः वैधः पूर्वोक्तविधिना प्रष्टव्यः, तेन च संदेश एतदभ्यन्तरकरणम् / यदि वा तेन सह ये बाह्यभावं मन्यन्ते, तानपि उपदेशो दत्तो भवेत्, यथा- शतपाकादीनि तैलानि यदि भवन्ति, ततः तथाऽनुवर्त्तयति, यथा तं तेजस्विनमभिमन्यन्ते, एतदभ्यन्तरकरणम् चिकित्सा क्रियते। (व्य०) ततः किं कर्तव्यम् ? इत्याह पूयण जहा गुरूणं, अब्भंतर दोण्हमुल्लवंताणं / सयपाग सहस्सं वा, सयसाहस्सं व हंसमरुतेल्लं। तइयं कुणती बहिया, बेइ गुरूणं च तं पिट्ठो। दूरा उणीय असई, परिवासिज्जा जयं धीरे।। पूजनं यथाक्रमं गुरूणामभ्यन्तरकरणं, यदभ्यन्तरे द्वयोरुल्लपशतपाकं नाम तैलं तदुच्यते-यदौषधानां शतेन पच्यते / यद्वा ___ तोस्तृतीयमुपशुश्रूर्षु बहिः करोति, यदि वा तद् गच्छादिप्रयोजनं पृष्टः एके नाऽप्यौषधेन शतवारं पक्वं परिवासयेत् / एवं सहस्रपाकं सन्नभ्यन्तरं गत्वा गुरूणां ब्रूते कथयति।व्य०३ उ०1। शतसहस्रपाकं च मन्तव्यम्। हंसपाकं नागहंसेन औषध-समारम्भवृत्तेन | अब्म(भि)तरग-पुं०(आभ्यन्तरक) आसन्नमन्त्रिप्रभृतौ, विपा०१ यदेतत्तैलं पच्यते / मरुतैलं मरुदेशे पर्वतादुत्पद्यते / एवंविधानि श्रु०३ अ० स्था० दुर्लभद्रव्याणि प्रथमं तदैवसिकानि मार्गणीयानि, अथ दिने दिने न अब्भ (भि)तरठाणिज-पुं०(अभ्यन्तरस्थानीय) आभ्यन्तर-नामसु लभ्यन्ते, ततः पञ्चकपरिहारण्या चतुर्गुरुप्राप्तो दूरादप्यानीय धीरो प्रेष्यपुरुषेषु, "अभितरट्ठावणिज्जे पुरिसे सद्दावेइ' / ज्ञा०१३ अ०। गीतार्थो यतनया अल्पसागारिके स्थाने अन्वहं चीरेण वेष्टयित्वा अब्म(मि) तरतव-न०(अभ्यन्तरतपस्) अभ्यन्तरमन्तरस्यैव शरीरस्य परिवासयेत्। इदमेव सुव्यक्तमाह तापनात्सम्यग्दृष्टिभिरेव तपस्तया प्रतीयमानत्वाच, तच तत्तपश्चेति एयाणि मक्खणट्ठा, पाणट्ठा पडिदिणं ण लंभेजा। अभ्यन्तरतपः / औला लौकिकैरनभिलक्ष्यत्वात् तन्त्रान्तरीयैश्च पणहाणीए जइउं, चउगुरु पत्तो अदोसोउ। परमार्थतोऽनासेव्यमानत्वात् मोक्षप्राप्त्यन्तर-मत्वाचाऽभ्यन्तरमिति। एतानि शतपाकादीनि म्रक्षणार्थं पानार्थं वा प्रतिदिनं यदि न लभ्यन्ते, स्था०६ ठा० स० पं०व०॥ पञ्चा०। ग० भ०उत्त०। अभ्यन्तरस्यैव ततः पञ्चकपरिहाण्या यतित्वा चतुर्गुरुकं, यदा प्राप्तो भवति, तदा शरीरस्य कार्मणलक्षणस्य तापकत्वादभ्यन्तरतपः। प्रश्न०५ संव० द्वा०। परिवासयन्नप्यदोषो, न प्रायश्चित्तभाक् / बृ०५ उ०। सूत्र०॥"सेसे परो प्रायश्चित्तादौ तपो भेदे, औ०। "प्रायश्चितं ध्यानं, वैयावृत्त्यं कायं तेल्लेण वा घएण या क्साए वा मक्खेज वा अन्भंगेज वा, णोतं विनयमथोत्सर्गः। स्वाध्याय इति तपः षट् -प्रकारमाभ्यन्तरं सातिए, णोतं णियमे" आचा०२ श्रु०१३ अ०।"जे भिक्खू अंगादाणं भवति'' |1|| ध०१ अधि० ग0) उत्त० "छव्विहे अभंतरिए तवे तेल्लेण वा घएण वा णवणीएण वा वसाए वा अब्भंगेज वा मक्खेज वा पन्नत्ते / तं जहा- पायच्छित्तं विणओ वेयावचं सज्झाओ झाणं अब्भंगतं वा मंखंतं वा साइजई" नि० चू०१ उ०। ('अंगादाण' विउस्सग्गो' स्था०६ ठा० शब्देऽस्मिन्नेव भागे 40 पृष्ठे व्याख्यातमेतत्) "अब्भंगणं विहिपरिमाणं अब्भ (भि)तरतो-अव्य०(अभ्यन्तरतस्) सप्तम्यर्थेतसिल्।अभ्यन्तरे करेइ"उपा०१ अ०। ('आणंद' शब्दे द्वितीयभागे 106 पृष्ठे दर्शयिष्यते मध्ये इत्यर्थे, "सत्तण्हं पयडीणं अभितरतो उ कोडिकोडीए" / सूत्रम्) आ०म०प्र० अब्भगिएल्लय-त्रि०(अभ्यङ्गित) स्नेहाभ्यक्तशरीरे, बृ०१ उ०। पिं० अब्भ (म्भि)तरदेवसिय-न०(अभ्यन्तरदैवसिक) दिवसाभ्यआ० म०ा ओघा न्तरसम्भवेऽतिचारे, “अब्भुष्टिओमि अभंतरदेवसियं वा खामेउ" इति / अब्भंगि(गे)त्ता-अव्य०(अभ्यज्य) तैलादिना अभ्यङ्गं कृत्वेत्यर्थे, ध०२ अधि। स्था०३ ठा०१ उ०। आचा०) अब्भ (भि)तरपरिस-पुं०(अभ्यन्तरपरिषत्) स्त्री० / वयस्यअब्भंगिय-त्रि०(अभ्यङ्गित)स्नेहेन मर्दिते, पिं०। मण्डलीस्थानीयायां परममित्रसदृश्यां समित्यपरनामिकायां देवेन्द्राणां अन्म(भि)तर-त्रि०(अभ्यन्तर) पुत्रकलत्रादिवत् प्रत्यासन्ने, स्था०८ पर्षदि, रा०ा स्थान ठा०॥ अब्भ(मि)तरपाणीय-त्रि०(अभ्यन्तरपानीय) अभ्यन्तरे पानीयं यस्य *आभ्यन्तर-त्रि०अभ्यन्तरेभवमाभ्यन्तरम्। मध्यस्थे, स्था०२ ठा०१ सतथा। मध्यस्थजलयुक्ते चौरपल्ल्यादावर्थे, ज्ञा०१८ अ०॥ उ०। पिं०) विपा० ज्ञा०। अभ्यन्तरभागवर्तिनि, रा०। जी० अभं (म्भि)तरपुक्खरद्ध-न०(अभ्यन्तरपुष्कराद्ध) मानुषोत्तर"सव्यभंतराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ'। जं०७ वक्ष। पर्वतादर्वाग्भवे, पुष्करवरदीपस्याऽर्द्ध, जी०३ प्रति०। सू० प्र० अन्म(मि)तरओसचित्तकम्म-त्रि०(अभ्यन्तरतःसचित्र-कर्मन्) मध्ये (नामनिरुक्त्यादि 'पुक्खरखरदीव' शब्दे व्याख्यास्यते) चित्रकर्मरमणीये, कर्म०२ कर्म०। कल्प! अन्म(मि)तरपुप्फफल-त्रि०(अभ्यन्तरपुष्पफल) अभ्यन्त-राणि अब्भ (भि)तरकरण-न०(अभ्यन्तरकरण) भावसंग्रहभेदे, ध्य० / अभ्यन्तरभागवर्तीनि पुष्पाणि च फलानि च पुष्पफलानि येषाम् / तचअभ्यन्तरकरणं नाम द्वयोः साध्वोर्गच्छमेढीभूतयोरभ्यन्तरे | पत्रावृत्तत्वाद् बहिरदृश्यपुष्पफलके वृक्षे, राम कुलादिकार्यनिमित्तं परस्परमुल्लपतोस्तृतीयस्योपशुश्रू-पोर्बहिःकरगं, | अब्भ (मि) तरबाहरिय-त्रि०(अभ्यन्तरबाहिरिक) सहाऽभ्य Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पलेवा 688- अभिवानराजेन्द्रः- भाग 1 अप्पा न्तरेण नगरमध्यभागेन बाहिरिका नगरबहिर्भागो यत्र तत्तथा। नगरमध्ये | बाहिरिकाया विद्यमानत्वे, दशा०१० अ०) अब्भ (भि)तरय-पुं०(आभ्यन्तरक) राजानमतिप्रत्यासन्नी भूयाऽवलगति, व्य०१ उ०॥ अब्भं(भि)तरलद्धि-स्त्री०(अभ्यन्तरलब्धि) अभ्यन्तरावधेः प्राप्तौ, यथाचोक्तं चूर्णी- "तत्थ अभंतरलद्धीनाम जत्थ से ठियस्स ओहिनाणं समुप्पण्णं, ततो ठाणाओ आरम्भ सो ओहिन्नाणी निरंतरसंबद्धं संखेचं वा असंखेजं वा खित्तओ ओहिणा जाणइ पासइ, एस अभितरलद्धि त्ति" / विशे० "अभितरलद्धी सा, जत्थ पईवप्पभ व्व सव्वत्तो / संबद्धमोहिनाणं, अभितरओऽवहीनाणी' ||753 // विशेष अब्भं (टिभ)तरसंबुक्का-स्त्री०(अभ्यन्तरशम्बूका) अभ्यन्तराद् मध्यभागात् शङ्ख वृत्तगत्या भिक्षमाणस्य बहिर्निस्सरणे भवन्त्यां गोचरभूमौ, ध०३ अधि०। यस्यां क्षेत्रबहिर्भागाच्छङ्कवृत्तत्वगत्याऽटन् क्षेत्रमध्यभागमायाति साऽभ्यन्तरशम्बूका / स्था०६ ठा०। अब्भ(मि)तरसगडुद्धिया-स्त्री०(अभ्यन्तरशकटोद्धिका) अङ्गुष्ठौ मीलयित्वा विस्तार्य पाणी तु बाह्यतस्तिष्ठत्युत्सर्ग, एष भणितोऽभ्यन्तरशकटोद्धिकादोष इति। कायोत्सर्गस्यो-द्धिकादोषभेदे, प्रव०५ द्वा०ा आव०। अब्भ (डिंभ)तरोहि-पुं०(अभ्यन्तरावधि) अवधिभेदे, अयं हाभ्यन्तरावधिः प्रदीपप्रभापटलवदवधिमता जीवेन सह सर्वतो नैरन्तर्येण सम्बद्धोऽखण्डो देशरहित एकस्वरूपोऽत एवाऽयं सम्बद्धावधिदेशावधिश्वोच्यते। विशे०। अब्भ (टिम)तरिया-स्त्री०(आभ्यन्तरिकी) अभ्यन्तरभागवर्तिन्यां जवनिकायाम्, ज्ञा०१ अ० अब्मक्खइज्ज-त्रि०(अभ्याख्यातव्य) अभ्याख्यानदाप्ये, अभ्याख्यान नामाऽसदभियोगः, यथा चौरंचौरमित्याह। आचा०।१श्रु०१ अ०३ उ०। अब्मक्खणं-(देशी)-अकीर्ती, देना०१ वर्ग०। अब्भक्खाण-न०(अभ्याख्यान) आभिमुख्येन आख्यानं दोषाविष्करणमभ्याख्यानम्। भ०५ श०६ उाऔ० प्रकटम-सदोषारोपणे, प्रज्ञा०२२ पद / प्रश्न०। आव०। असद् दूषणाभिधाने, प्रश्न०२ अश्रिद्वा०। अभिन्यसने, असदध्यारोपणे च / आव०५ अ०॥ परस्याभिमुखं दूषणवचने, प्रश्न०२ आश्रद्वा० / प्रव०। असदभियोगे, यथा चौरं चौरमित्याह। आचा०१ श्रु०१ अ०३ उ०। औ०। सूत्र०ा "एगे अब्भक्खाणे' / स्था०१ ठा०१ उ०। अधिकरत्नाधिकमवमरत्नाधिकोऽभ्याख्यातिदो साहम्मिया एगतो विहरंति, तेहिं एगे तत्थ अण्णयरं अकिञ्चट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोइजा- अह णं भंते ! अमुएणं साहुणा सद्धिं इमियम्मि कारणम्मि मेहुणपडिसेवी। पञ्चयहेउं च सयं पडिसेवियं भण्णति। तत्थ पुच्छियव्वे- किं पडिसेवी? अपडिसेवी ? से य वएज्जा पडिसेवी परिहारपत्ते। से य वएज्जाणो पडिसेवी, णो परिहारपत्ते / जे से पमाणं वदति, से यपमाणाउ घेतव्वं सिया। से किमाहु भंते !, सच्चपइण्णा ववहारा // 22 // द्वौ साधर्मिको सांभोगिकी, एकत एकेन संघाटकेन विहरतः, तत्र तयोर्द्वयोर्मध्ये एक इतरस्याभ्याख्यानप्रदाननिमित्तमन्यतरद् 'अवियत्तं' अभ्युपगच्छति, न परस्यैव केवलस्याभ्याख्यानं ददाति, तत आह-(पचयहेउंचेत्यादि) परेषामाचार्याणामन्येषां च साधूनामेष संवदति, अन्यथा को नामात्मानं प्रति सेवितम-भिमन्यत इति प्रत्ययो विश्वासः स्यादिति हेतोः स्वयमपि च प्रतिसेवितमिति भणति / एवमुक्तो यस्याऽभ्याख्यानमदायि, सप्रष्टव्यः- किंवा भवान् प्रतिसेवी, नवा? तत्र यदिस वदेत्-प्रतिसेवी,ततः सपरिहारतपोभाक् क्रियते, उपलक्षणमेतत्। छेदादिप्रायश्चित्तभागपि क्रियते इति द्रष्टव्यः। अथस वदेत्-नाऽहं प्रतिसेवी; तर्हि परिहारः प्राप्तः स्यात् / न परिहारतपःप्रभृति- प्रायश्चित्तभाक् क्रियते इति भावः। स च प्रतिसेवी वा यदभ्याख्यानदाता "से" तस्य प्रतिसेवनायां प्रमाणं चरकादि वक्ति; तस्मात्प्रमाणाद् गृहीतव्यो निश्चेतव्यः सः / अथ किं कस्मात्कारणादेवमाहुर्भवन्तः? हे भदंत!? सूरिराहसत्यप्रतिज्ञव्यवहारास्तीर्थकरैर्दर्शितास्ततो न यथा-कथञ्चित्प्रतिसेवी अप्रतिसेवी वा क्रियते। एष सूत्राक्षरार्थः। अधुना नियुक्तिभाष्यविस्तरः / तत्र भिक्षाचर्याविचारभूमिगमनविहारादिषु यो रत्नाधिकतरः कुतश्चिद्दोषादवमो जातः, स तमवमरत्नाधिकं यैः कारणैरभ्याख्यानेन दूषयति, तानि प्रतिपादयिषुराहरयणाहियवायएणं,खलियमिलियपेल्लणाएँ उदएणं। देव उल मेहुणम्मि य, अब्भक्खाणं कुडंगम्मि॥ रत्नाधिकवातेन रत्नाधिकोऽहमिति गर्वेण अवमरत्नाधिक दशविधचवालसामाचार्यामस्खलितमपि कषायोदयेन तर्जयति। यथा-हे दुष्ट ! शैक्ष ! स्खलितोऽसीति। तथा ऐपिथिकी प्रतिक्रम्य प्रथममेव परावर्तयन्तं, यदि वा अग्रिमतरपदं पदेन विच्छिन्नं सूत्रमुच्चारयन्तं- हा दुष्ट ! शैक्षक ! मिलितमुच्चारयसीति तर्जयति। तथा (पेल्लणत्ति) अन्यैः साधुभिर्वार्यमाणोऽपि कषायोदयतः स्वहस्तेन प्रेरयति तर्जयति। ततः सोऽवमरत्नाधिकः कषायितः सन् चिन्तयति-एष रत्नाधिकवातेनेत्थं, बहुजनसमक्षंतर्जयति, अथवैष सामाचारी, रत्नाधिकस्य सर्व क्षन्तव्यमिति, ततस्तथा करोमि, यथैष मम लघुको भवति एवं चिन्तयित्वा तौ द्वावपि भिक्षाचर्याय गतौ, तत्र च तृषितौ बुभुक्षितौ चेत्येवं चिन्तितवन्तौ-अस्मिन्नार्यादेवकुले वृक्षविषमे वा प्रथमालिकां कृत्वा पानीयं पास्याम इति, एवं चिन्तयित्वा तौ तदभिमुखं प्रस्थितौ, अत्रान्तरे अवमरत्नाधिकः परिव्राजिकामेकां तदभिमुखं गच्छन्तीं दृष्ट्वा स्थितः, उपलब्ध एष इदानीमिति चिन्तयित्वा तं रत्नाधिकं वदति-अहो ! अद्य ज्येष्ठार्य ! कुरु त्वं प्रथमालिकां, पानीयं वा पिब, अहं पुनः संज्ञां व्युत्सृक्ष्यामि, एवमुक्त्वा त्वरित मैथुने अभ्याख्यानं दातुं वसतावागत्यालोचयति। तथा दर्शयतिजेट्ठऽजेण अकजं, सजं अज्जाघरे कयं अजं। उवजीवितोऽत्थ भंते !, मए वि संसट्ठकप्पो व्व // Page #873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पलेवा 689 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्पा ज्येष्ठार्येणाद्य सद्य इदानीमायगृहे कृतमकार्य मैथुनाभिसेवा-लक्षणं, ततो भदन्त ! तत्संसर्गतो मयाऽपि संसृष्टकल्पो मैथुनप्रतिसेवा, अत्राऽस्मिन्प्रस्तावे उपजीवितः। अहवा उच्चारगतो, कुडंगमाईकडिल्लदेसम्मि। बेती कयं अकजं, जेट्टजेणं सह मए वि॥ अथवेत्यभ्याख्यानस्य प्रकारान्तरप्रदर्शने / कुडङ्गादौ कडिल्ल-देशे गहनप्रदेशे उच्चाराय गतस्तत्र च ज्येष्ठार्येण सह मयापिकृतमकार्यमिति। तस्माद् व्रतानि मम साम्प्रतमारोपयत। एवमुक्तेसुरिभिः स एवं वक्तव्यःतम्मागते वयाई, दाहामो देंति वाऽऽउरंतस्स। भूयत्थे पुण नाए, अलियनिमित्तं न मूलं तु॥ योऽसौ त्वया अभ्याख्यातः, स यदा आगतो भविष्यति, तदा तस्मिन्नागते व्रतानि दास्यामः / अथ स त्वरमाणो ब्रूते- भगवन् ! कुशाग्रस्थितवाताहतजलबिन्दुरिवातिचञ्चलं जीवितमिति न शक्यते क्षणमात्रमप्यव्रतेन स्थातुम् इत्यधुनैव ममारोप्यतांव्रतादीनीति। तस्यैव त्वरमाणस्य ददति व्रतानि, वाशब्दो विकल्पार्थः / तत्र पुनर्भूतार्थोगवेषणीयः, किमयं सत्यं ब्रूते, उताऽलीकम् ? तत्र यथा भूतार्थो गवेषणीयस्तथाऽनन्तरमेव वक्ष्यते / भूतार्थे च ज्ञाते यदि सत्यं, तदा द्वयोरपि मूलं दीयते। अथाऽलीकम्, ततो योऽभ्याख्यातः सशुद्धः, इतरस्य त्वभ्याख्यातुर्मूलं न दीयते, किन्त्वलीकनिमित्तं मृषावादप्रत्ययं चतुर्गुरुकं प्रायश्चित्तमिति। सम्प्रति यथा भूतार्थो ज्ञायते, तथा प्रतिपिपाद यिषुरिगाथामाहचरियापुच्छणपेसण, कावालिय तवसंघो यजं भणइ। चउभंग निरिक्खा देवया य तहियं विही एसो॥ तत्रभूतार्थे ज्ञातव्ये एष विधिः- चरिका परिवाजिका, तस्याः प्रच्छनाय वृषभाणां प्रेषणं, स चेत्सत्यवादी न मन्यते, ततस्तौ द्वावपि पृथगाश्रये प्रेक्ष्य तत्र वृषभाः तत्स्वरूपगवेषणाय कापालि-करूपेण प्रेष्यन्ते। कापालिकग्रहणमुपलक्षणम्, तेन सरजस्का-दिरूपेणापीत्यपि द्रष्टव्यम्। एवमपि भूतार्थानिर्णय (तवो ति) तपः स्वकायोत्सर्गेण देवतामाकम्प्य पृच्छति। एतस्यापि प्रकारस्याभावे संघो मेलयित्वाः प्रच्छनीयः, तेनच निरीक्षिणो निरीक्षका-नधिकृत्य चतुर्भङ्गी-केचित्तथाभूतं तथाभावेन पश्यन्तीत्यादिरूपा वक्ष्यमाणा प्ररूप्यते। गाथायां पुंस्त्वं प्राकृतत्वात्। सा च चतुर्भङ्गी भद्रप्रान्तदेवता आश्रित्य संभवति / एष द्वारगाथासंक्षेपार्थः। साम्प्रतमेनामेव गाथां विवरीषुराहआलोइयम्मि तिउणो, कज्जं से सीसए तयं सव्वं / पडिसिद्धिम्मि य इयरो, भणाइ वीयं पिते नत्थि॥ अभ्याख्यातः साधुरागतः सन् आलोचयति-प्रथमालिकां यावन्न जानामि द्वितीयः संघाटकः क्वापि गत इति केवलोऽहमागतोऽस्मि। तत आचार्या ब्रुवते - सम्यगालोचय / ततः स स्मृत्वा आलोचयति, यावत्तस्मिन्नपितृतीये वारे तदालोचितम्। ततस्त्रिगुणं त्रिःकृत्व आलोचिते यदि न प्रतिसेवित-मित्यालोचयति, ततो येन कारणेन त्रीन् वारान् / आलोचायितस्तत्कार्य कारणं सर्व तस्य शिष्यते कथ्यते, यथा-सएष तव संघाटकस्त्वया सह किञ्चिन्मात्रं हिण्डित्वा समागतो ब्रूते-ज्येष्ठार्येण आर्यागृहे वृक्षविषमे च क्वचित्प्रदेशे कृतमकार्यम्, तत्संसर्गतो मयाऽपि संसृष्टकल्प उपजीवित इति / ततोऽभ्या-ख्यातसाधुर्वदति न मया प्रतिसेवितम् / एवं तेन प्रतिषिद्धे प्रतिसेवने इतरोऽभ्याख्यानप्रदाता भवति-अहो ! ज्येष्ठार्य ! तव द्वितीयमपि व्रतं नास्ति, आस्तां चतुर्थमित्यपिशब्दार्थः। दोण्हं पि अणुमएणं, चरिया वसहे पुच्छियपमाणं। अन्नत्थ वसह तुम्भे, जा कुणिमो देव उस्सगं / / एवं द्वयोरपि विवदतोरेवमुच्यते-चरिका पृच्छ्यतां, यत्सा वक्ष्यति, तत्प्रमाणयिष्यते। एवमुक्ते यदि तौद्वावप्यनुमन्येते, ततो द्वयोरनुमतेन, संमत्या इत्यर्थः। वृषभाश्चरिको प्रष्टुं प्रेष्यन्ते, तेचतत्र गताः प्रथमतश्चरिकां प्रज्ञापयन्ति, प्रज्ञाप्य पृच्छन्ति-किमत्र सत्यम्, अलीकं वा ? एवं वृषभैश्वरिका पृष्टा सती, यद् ब्रूते तत्प्रमाणं कर्त्तव्यम्। तत्र चरिकयोक्तम्भगवन् ! अभ्यख्यानं तेन द्वितीयेन तस्मै दत्तमिति / एतचोक्तं वृषभा वसतावागत्यगुरवे निवेदयन्तिा यथावस्थिते निवेदिते यद्यन्यतरोवदतिगृहयति चरिका,नसम्यक्कथयति। तदा गुरवो द्वावपि ब्रुवते-यूयमन्यत्र वसतिं याचयित्वा तत्र वसथ, यावदद्य रात्रौ देवताराधनार्थ कायोत्सर्ग कुर्मः। किमुक्तं भवति?-कायोत्सर्गेण देवतामाकम्प्य पृच्छामः- कोऽत्र सत्यवादी? को वाऽलीकवादी? इति। एवमुक्ते तौ द्वावपि वसत्यन्तरे गते यद् भवति, तदभिधित्सुराहअद्विगमादी वृसभा, पुट्विं पच्छा वजंति निसि सुणणा। आवस्सग आउट्टण, सन्मावे वा असन्मावे॥ अस्थिकाः कापालिकाः, आदिशब्दात्सरजस्कादिपरिग्रहः, तद्रूपाः सन्तः / किमुक्तं भवति?- कापालिकं वेषं सरजस्कवेषं कृत्वा यस्यां वसतीद्वावपिजनौ तिष्ठतस्तत्र पूर्वं वृषभा गच्छन्ति। यदिवा तयोर्गतयोः पश्चात्तत्र च गत्वा रात्रौ मातृस्थाने सुप्ता इव तिष्ठन्ति, तथापि तयोः परस्परमुल्लापं शृण्वन्ति / तयोश्चावश्यकं कर्तुकामयोर्योऽसाववमरत्नाधिकोऽभ्याख्यानदाता, सइतरं प्रति मिथ्यादुष्कृतेनोपस्थित एतद्वदति-त्वं मया असता अभ्याख्यानेनाभ्याख्यातोऽतो मिथ्यादुष्कृतमिति / ततो रत्नाधिको ब्रूते-किं नाम तवापकृतं मया, येनासदाभ्याख्यानं मे दत्तमिति? अवमरत्नाधिको भाषते-त्वं नित्यमेव यत्र तत्र वा कार्य सम्यग् प्रवर्त्तमानमपि- हे दुष्ट ! शैक्षक ! इति तर्जयसि, तेन मया त्वमसदभ्याख्यानेनाभ्याख्यातः / एवमावश्यके आवश्यकवेलायामावर्त्तने भावप्रत्याख्याने अलीकाभ्याख्याने सद्भावो ज्ञायते / अथ न परस्परसंभाषणतः सद्भावो ज्ञायते, तदा सद्भावपरिज्ञानाभावे तपस्वी प्रष्टव्य इति शेषः। तथाचाऽऽहसढो त्तिमं भाससि निचमेव, बहूण मज्झम्मि तओ कहेमि। अभासमाणाण परोप्परं वा, देवाणमुस्सग्ग तवस्सि कुज्जा। नित्यमेव सर्वकालमेव यद् हे शठ ! शैक्षक ! इति मां भाषसे, तेन त्वमसताऽभ्याख्यानेनाभ्याख्यातः / अथ स रत्नाधिकस्त Page #874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पलेवा ६९०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अप्पा मवमरत्नाधिकं ब्रूयात्- यदि मया कदापि युवत्या सह कृतमकार्य , ततः किं त्वया बहूनां मध्ये अहमेवमभ्याख्यातः- अनेन कृता प्रतिसेवनेति। किन्त्वहमेवैकान्तेवक्तव्यो भवामि। यथादुष्ठ कृतमालोचनां गृहाण गुरूणामन्तिक इति। मम रोषेण त्वयाऽऽत्मीयमपिशीलं विगोपितम् एवं सद्भावो ज्ञायते / एतावता "आवस्सग आउट्टण, सब्भावे वा'' इति व्याख्यातम्। इदानीमसद्भावे इति व्याख्यानयति-"अभासमाणाण परोप्परं वा" इति / अथ कदाचित्तौ रोषतः परस्परं न संलपतः, तदा तयोः परस्परमभाषमाणयोर्भूतार्थपरिज्ञानाभावे तपस्वी क्षपको देवताध्यानार्थ कायोत्सर्ग कुर्यात् / कायोत्सर्गेण च देवतामाकम्प्य पृच्छतिकोऽनयोयोर्मध्ये सम्यग्वादी, को वा मिथ्यावादीति ? तत्र यद्देवता ब्रूते, तत्प्रमाणम्। तेन तप इति द्वारं व्याख्यातम्। ___ अधुना सङ्घद्वारं व्याचिख्यासुरिदमाहकिंचि तहाऽतह दीसइ, चउभंगे पंत देवया भहा। अत्तीकरेइ मूल, इयरे सबप्पतिण्णाओ॥ सर्वप्रकारेणाज्ञायमाने भूतार्थे संघसमवायं कृत्वा तस्मै आवेद्यतेरत्नाधिको वदति- नाऽहं कृतवान्प्रतिसेवनाम् ; इतरो ब्रूते द्वावपि प्रतिसेवितवन्ताविति, तत्र किंकर्तव्यमिति? एवमादिना कृते ये संधमध्ये गीतार्थास्ते वदन्ति- किञ्चित्तथाभावं तथा भावेन दृश्यते; किशित्तथाभावमन्यथाभावेन; किश्चिदन्यथाभावं तथाभावेन; किञ्चिदन्यथाभावमन्यथाभावेन / एषा चतुर्भङ्गी। अस्यां चतुर्भङ्ग्यां प्रथमो भङ्गः प्रतीतः। द्वितीयभङ्गभावना त्वेवम्-कोऽपि क्यापि धनप्रदेशे गच्छति। तत्र केचिदारक्षका अपगतक्षमा असिव्यग्रहस्ता वल्गन्तिाततः कदाचिद्देवता भद्रिका मा विनश्यत्वेष पुरुष इति तंदूरान्तरितं दर्शयति। तृतीयमङ्ग:- भगवतोवर्द्धमानस्वामिनः सागारिकमकषायितं सङ्गमकः कषायितं दर्शयति / चतुर्थभङ्ग:-कस्याञ्चिद्विपदि दासं राज्ञा कारितराजनेपथ्यं विनश्यन्तं दृष्ट्वा कदाचिद्भद्रदेवतातदनुकम्पया स्त्रियं दर्शयति। एवं प्रान्ता भद्रा च देवता अन्यथाभूतं यद्वस्तु अन्यथा करोतिअन्यथा भूतं दर्शयति, ततो दृष्टमपि तावदप्रमाणमत्र। ननुज्ञायते-किमपि दृष्टमवमरत्नाधिकेन, अथ च सत्यप्रतिज्ञा व्यवहारास्तीर्थकृद्भिरुपदिष्टास्तस्माद्यद् रत्नाधिको ब्रूते- न मया प्रतिसे वितमिति तत्प्रमाणतः शुद्ध एष न प्रायश्चित्तभागिति / यदपि चावमरत्नाधिको वक्तिमया प्रतिसेवितमिति, तदपि प्रमाणमतस्तस्य मूलं प्रायश्चित्तमिति। व्य०२ उन अन्भच्छण्ण-त्रि०(अभ्रच्छन्न) मेघावृते. बृ०१उ०। अब्भड-देशी-प्रसिद्धशब्दः / अनुव्रजने, "अब्भडवंचिउ बे पय, पेम्मु निअत्तइजाएँ। सव्वासण-रिउ-संभव-हो, कर परिअत्ता ता" प्रा०) प्रेमशब्देन प्रिया वाच्या, अभेदोषचारात्। यथा प्रेमवतीत्युच्यते, तथा प्रेमापीत्युच्यते / प्रियाप्रियमिति शेषः / प्रियम्, (अब्भडवं चिउ इति) अनुव्रज्य मुत्कलाय्य यावद् द्वौ पादौ निवर्तते, तावत् सर्वाशनरिपु संभवस्य चन्द्रस्य कराः किरणाः परिवृताः, प्रसृता इत्यर्थः / सर्वमश्नातीति 'नन्द्यादि० / 5 / 1 / 52 // इत्यनः प्रत्ययः। सर्वाशनोऽग्निः, तस्य रिपुर्जलं, तत्संभवश्चन्द्रः।अनुव्रजेन रते 'अब्भड' इति वंचक्त्या / प्र०। वंचयते लोकान् 'स्वराणां०८/२३८। अब्भडवंचिउ॥९०४ पाद। अब्भणुण्णा-स्त्री०(अभ्यनुज्ञा) कर्त्तव्यानुमतिदाने, स्था०। अथात्र भगवतो महावीरस्याऽभ्यनुज्ञातानि प्रदर्श्यन्तेपंच ठाणाई समणेणं भगवया महावीरेणं समणाणं निग्गंथाणं णिचं वणियाई णिचं कित्तियाइं णिचं बुइयाइं णिचं पसत्थाई निचमब्भणुण्णाई भवंति / तं जहा-खंती मोत्ती अज्जवे मद्दवे लाघवे। पंच ठाणाई समणाणं० जाव अब्मणुन्नायाइं भवंति।तं जहा- सचं संजमे तवे चियाए बंभचेरवासे / पंच ठाणाई समणाणं० जाव अब्भणुन्नायाई भवंतितं जहा- उक्खित्तचरए णिक्खित्तचरए अंतचरए पंतचरए लूहचरए। पंच ठाणाइं० जाव अब्मणुनायाइं भवंति / तं जहा-अन्नायचरए अन्नवेलचरए मोणचरए संसट्ठकप्पिए तज्जायसंसट्ठक-प्पिए। पंच ठाण इं० जाव अब्भणुन्नायाई भवंति। तं जहा- उवनिहिए सुद्धसणिए संखादत्तिए दिट्ठलाभिए पुट्ठलामिए। पंच ठाणाइं० जाव अब्मणुनायाई भवंति / तं जहा- आयंबिलए निव्विइए पुरिमड्डिए परि-मियपिंडवाइए भिन्नपिंडवाइए / पंच ठाणाइं० जाव अब्मणुनायाई भवंति / तं जहा-अरसाहारे विरसाहारे अंताहारे पंताहारे लूहाहारे। पंच ठाणा० जाव भवंति। तं जहाअरसजीवी विरसजीवी अंतजीवी पंतजीवी लूहजीवी / पंच ठाणाई० जाव भवंति / तं जहा-ठाणाइए उक्कुडुआसणिए पडिमछाइवीरासणिए णेसज्जिए। पंच ठाणाइं० जाव भवंति। तं जहा-दंडायइए लगंडसाई आयावए अवाउडए अकंडुयए। नित्यं सदा वर्णितानि फलतः कीर्तितानि संशब्दितानि, नामतः (बुइयाई ति) व्यक्तवाचोक्तानि, स्वरूपतः प्रशस्तानि प्रशंसितानि लाधितानि, शंसु स्तुताविति वचनात् / अभ्यनुज्ञातानि कर्त्तव्यतया अनुमतानि भवन्तीति। अयं च सूत्रोत्क्षेपः प्रतिसूत्रे वैयावृत्त्यसूत्रं यावत् दृश्यत इति / स्था०५ ठा०१ उ०। (क्षान्त्यादीनां व्याख्या स्वस्थाने वक्ष्यते) असत्याऽभ्याख्यानं कुर्वतः क्रियाजे णं भंते ! परं अलिएणं असब्भूएणं अब्भक्खाणेणं अब्भक्खाइ, तस्स णं कहप्पगारा कम्मा कजंति ? गोयमा! जेणं परं अलिएणं असंतएणं अब्भक्खाणेणं अब्भक्खाइ, तस्स णं तहप्पागरा चेव कम्मा कजंति, जत्थेवणं अभिसमागच्छइ, तत्थेव णं पडिसंवेदेइ / तओ से पच्छा वेदेइ / सेवं भंते ! भंते ! त्ति। अलीके न भूतनिहवरूपेण पालितब्रह्मचर्य साधुविषयेऽपि नाऽनेन ब्रह्मचर्य मनु पालितमित्यादिरूपेण (असब्भूएणं ति) अभूतोद्भावनरूपेण अचौरेऽपि चौरोऽयमित्यादिना / अथवा अलीके न असत्येन तच द्रध्यतोऽपि भवति, लुब्धकादिना मृगादीन्पृष्टस्य जानतोऽपि नाऽहं जानामि, इत्यादि / अत आह Page #875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब्भणुण्णाय 691- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अब्भास असद्भूतेन दुष्टाभिसन्धित्वादशोभनरूपेणाचौरेऽपि चौरोऽ-यमित्यादिना (अब्भक्खाणेणं ति) आभिमुख्येनाख्यानं दोषा-विष्करणमभ्याख्यानं, तेन अभ्याख्याति बूते / (कहप्पगार त्तिकथंप्रकाराणि ? किंप्रकराणीत्यर्थः / (तहप्पगारत्ति) अभ्या-ख्यानफलानीत्यर्थः / / (जत्थेव णमित्यादि) यत्रैव मानुषत्वा-दावभिसमागच्छति उत्पद्यते, तत्रैव प्रतिसंवेदयत्यभ्याख्यानफलं कर्म, ततः पश्चाद्वेदयति निर्जरयतीत्यर्थः / भ०५ श०७ उ०। अब्भणुण्णाय-त्रि० (अभ्यनुज्ञात) कर्तव्यतयाऽनुमते, स्था० 5 ठा०१ उ०॥ अब्भत्थ-त्रि० (अभ्यस्त) अभि-अस्-क्त / पौनःपुन्ये नैक -- जातीयक्रियाकर्मणि पुनःपुनरावर्तिते, "शैशवेऽभ्यस्तविद्यानां यौवने विषयैषिणाम्" / "उभे अभ्यस्तम्" / / 6 / 1 / 5 / / उक्तयोः कृतद्वित्वयोरुभयोः धातुभागयोः।"नाभ्यस्ताच्छतुः"।७।१।७। "अभ्यस्तस्यच"।६।१।३३। वाच०। गुणिते, विशे०। आ०म०॥ पं०व०॥ अब्मत्थणा-स्त्री० (अभ्यर्थना) परस्परप्रवर्तनायां त्वं ममेदं कार्यममुष्य वा कुरु' इत्येवं रूपायाम्, पञ्चा० 11 विव०। "जइ अब्भत्थे अपरं, कारणजाते करेज सो को वि / तत्थ वि इच्छाकारो, न कप्पइ बलामिओगाओ" ||१आ० म० द्वि०। (अभ्यर्थनायां मरुकदृष्टान्तः "इच्छक्कार" शब्दे द्वितीयभागे 575 पृष्ठे दर्शयिष्यते) अब्भपडल-न० (अभ्रपटल) मेघवृन्दे, पृथिवीकायपरिणामविशेषे च / (अभ्रकस्तबक)। "अडभपडलपिंगलुजलेण" (छत्रेण) अभ्रपटलमिव मेघवृन्दमिव बृहच्छायाहेतुत्वात् अभ्रपटलं, पिङ्गलं च कपिशं सुवर्णकच्छिकानिर्मितत्वात् उज्ज्वलं निर्मलं यत्तत्तथा / अथवा अभ्रमभ्रकं | पृथिवीकायपरिणामविशेष-स्तत्पटलमिव पिङ्गलं चोज्ज्वलं च तत्तथा। तेन। औ०। सूत्र०। जी० / प्रज्ञा०। अब्भपिसाय-(देशी) राहौ, दे० ना०१ वर्ग। अब्भबालुया-स्त्री० (अभ्र वालुका) अभ्रपट लमिश्रवालुकारूपे खरबादरपृथिवीकायभेदे, प्रज्ञा०१पद / जी०। सूत्र०। अन्भरहिय-त्रि० (अभ्यर्हित) राजामात्यादिपुत्रे गौरविके, (बृ०) राजमान्ये,बृ०१ उ०। नि० चू०। अब्भराग-पुं० (अभ्रराग) सायं सूर्यकरयोगाद् मेघानां नानावणे, प्रज्ञा० १७पद। अब्मरुक्ख-पुं०(अभ्रवृक्ष) अभ्रात्मको वृक्षोऽभ्रवृक्षः। भ०३ श०६ उ०। वृक्षाकारेण परिणतेऽभ्रे,जी०३ प्रति०। अनु०। अब्भवद्दलय-न० (अभ्रवालक) अभ्ररूपं वारो जलस्य दलकं कारणमभ्रवालकम् / मेघे, भ० 15 श०१ उ०। अभ्र आकाशे वार्दलकमभ्र वादलकम् / नभोगतमेघे, "अब्भवद्दलयाई विउव्वई" / आ० म०प्र०। अभ्राणि मेघास्तैर्वार्दलकम् / मेघैः कृते, स्था० 3 ठा०३ उ०रा० अब्भसंझा-रत्री० (अभ्रसन्ध्या) सन्ध्याकाले नीलाद्यभ्रपरिणती, जी० 3 प्रति०। अब्मसंथड-न० (अभ्रसंस्तृत) मेघैराकाशाच्छादने, स्था० 4 ठा० 4 उ०1 अब्भसण-न० (अभ्यसन) अभि-अस्-ल्युट् / अभ्यासे, पौनः पुन्येनैकक्रियाकरणे पुनःपुनरावर्त्तने, वाच० "अब्भसणं ति वा गुणणं ति वा एगट्ठा" / दशा० 1 अ०। अब्भसिय-अव्य० (अभ्यस्य) अभ्यासीकृत्येत्यर्थे, द्रव्या०६ अध्या०। अन्महिय-त्रि० (अभ्यधिक) अत्यर्थे, प्रश्न० 4 आश्र० द्वा० / भ० / "अब्भहियभीमभेरवप्पगारेणं" / अभ्यधिकं यथा भवत्येवं भीमभैरवोऽतिभीष्मो रवप्रकारो यस्य स तथा तेन (वनदवेन) ज्ञा०१ अ०। प्रज्ञा०।"अब्भहियं सोभितुमाढत्तो" | आ० म० प्र०। "अब्भहियरायतेयलच्छीए' / कल्प० 3 क्षण। अब्भहियतरग-त्रि० (अभ्यधिकतरक) विपुलतरे (विस्तीर्णे) नं०। अब्भागम-पुं० (अभ्यागम) आभिमुख्येनाऽऽगम्यतेऽत्र। अभि-आ-गम्क्त-अप्। युद्धे, कर्मणि अप्। अन्तिके, करणे अप। विरोधे, भावे अप। अभ्युत्थाने, अभिघाते च अभिमुखगमने, वाच०। प्रा० / आसन्नवासे, नि० चू०२ उ०। अन्मागमिय-पुं० (अभ्यागमिक) आगन्तुकेषु, सूत्र०१ श्रु० 2 अ०३ उ०। अब्भागय-पुं० (अभ्यागत) अभि-आ-गम्-क्त / भिन्नग्रामीणे गृह गतेऽतिथौ, वाच० / “तिथिपर्वोत्सवाः सर्वे, येन त्यक्ता महात्मना। अतिथिं तं विजानीया-च्छेषमभ्यागतं विदुः" ||1|| इत्यतिथेर्भेदोऽस्य / आचा०१ श्रु०२ अ०२ उ०। अभावगासिय-न० (अभ्रावकाशिक) सहकारादेर्मूलाधो-भागवर्तिनि प्रतिश्रये, बृ०२ उ०। अब्भास-पुं० [अभ्यास(श)] अभ्यसनमभ्यासः / अशूड् - व्याप्तावित्यस्याभिपूर्वस्य घञ्। कर्म०५ कर्म०। हेवाके, स्था० 4 ठा० 4 उ०।परिचये, षो०१ विव० / गुणने, अनु०। भावनायाम्, "अब्भास त्ति वा भावण त्ति वा" (एकार्थम्) बृ०१ उ० / अभ्या-सादेव हि सर्वक्रियासु सुकौशलमुन्मीलति, अनुभवसिद्धं चेदं लिखनपठनसंख्यानगाननृत्यादिसर्वकलाविज्ञानेषु सर्वेषाम् / उक्तमपि-"अभ्यासेन क्रियाः सर्वाः, अभ्यासात्सकलाः कलाः। अभ्यासाद् ध्यानमौनादि, किमभ्यासस्य दुष्करम् ?" ||1|| निरन्तरं विरतिपरिणामाभ्यासे च प्रेत्यापि तदनुवृत्तिः स्यात् / यत उक्तम्- "जं अब्भासंइ जीवो, गुणं च दोसं च एत्थ जम्मम्मि।तं पावइ परलोए, तेण य अब्भासजोएणं' ||1|| ध०२ अधि०। अत्र दृष्टान्तः - कश्चिद् गोपस्तदहर्जातं तर्णकमुत्क्षिप्य गवान्तिके नयत्यानयतिवा ततोऽसावनेनैवक्रमेण प्रत्यहं प्रवर्द्धमानमपि वत्स-मुत्क्षिपन्नभ्यासवशाद् द्विहायनं त्रिहायणमप्युत्क्षिपत्येव साधुरप्यभ्यासात् शनैः शनैः परीषहोपसर्गजयं विधत्त इति। सूत्र०१श्रु०११ अ०। ध्याने, एकावलम्बनेन मनःस्थैर्ये च / विशे० 'तत्राऽभ्यासः स्थितौ श्रमः" तत्राऽभ्यासः स्थितौ वृत्तिरहितस्य चित्तस्य स्वरूप-निष्ठे परिणामे श्रमो यत्नः पुनःपुनस्तथात्वेन चेतसि निवेशनरूपः / तदाह - "तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यास इति / " स च चिरं चरिकालं नैरन्तर्येणादरेण चाश्रितो दृढभूमिः स्थिरो भवति / तदाह- "स तु दीर्धकालनैरन्तर्यसत्कारसेवितो दृढभूमिरिति / द्वा० 11 द्वा० / Page #876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब्भास 692 - अभियानराजेन्द्रः - भाग 1 अब्भुगय शुद्धोऽभ्यास: विशिष्टोत्तरावस्था-विशेषभाजौ मार्गाभिमुखमार्गपतितौ, अविरतसंम्यअभ्यासोऽपि प्रायः, प्रभूतजन्मानुगो भवति शुद्धः। ग्दृष्ट्यादयश्च गृह्यन्त इति। ध०१ अधि०। कुलयोग्यादीनामिह, तन्मूलाधानयुक्तानाम् // 13|| | अब्भासकरण-न० (अभ्यासकरण)पार्श्वस्थादिधर्माच्च्युतस्य पुनस्तत्रैव (अभ्यासोऽपीत्यादि) अभ्यासोऽपि परिचयोऽपि, प्रायो बाहुल्येन, संस्थानलक्षणे संभोगभेदे, स० 6 सम० / व्य० / ये प्रभूतजन्मानुगोऽनेकजन्मानुगतो, भवति जायते, शुद्धो निर्दोषः, अभ्यासगतास्तेषामात्मसमीपवर्तित्वकरणे, व्य०३ उ०। कुलयोग्यादीनां गोत्रयोगिव्यतिरिक्तानां कुलयो गिप्रवृत्तचक्र - अब्भासग-पुं० (अभ्यासक) निक्षेपे, "णिक्खेवो स्थापनाऽभ्यासक प्रभृतीनामिह प्रक्रमे, तासां मैत्र्यादीनां मूलाधानं मूलस्थापनं इत्यनान्तरम्' आ० चू०१ अ०। बीजन्यासस्तद्युक्तानाम् / कुलयोगिलक्षणं चेदम् - "ये योगिनां कुले अन्मासगुण-पुं० (अभ्यासगुण) गुणभेदे, सच भोजनादिविषयः / तद्यथाजातास्तद्धर्मानुगताश्च ये / कुलयोगिन उच्यन्ते, गोत्रवन्तोऽपि तदहर्जातबालकोऽपि भवान्तराभ्यासात् स्तनादिकं मुख एव प्रक्षिपति, नाऽपरे" ||1|| गोत्रयोगिनश्च - "सामान्येनोत्तमा भव्याः, सर्वत्राऽद्वेषिणश्च उपरतरुदितश्च भवति / यदि वाऽभ्यासवशात्सतमसेऽपि ते / दयालवो विनीताश्च, बोधवन्तो जितेन्द्रियाः" ||1|| कवलादेर्मुखविवरप्रक्षेपाद् व्याकुलितचेतसोऽपि च तुदद्गात्रइत्याद्यभिधानात् / / 13 // कण्डूयनमिति। आचा०१श्रु०२ अ०१ उ०। कस्य पुनरयमभ्यासः शुद्धो भवति ? इत्याह अन्मासजणियपसर-त्रि० (अभ्यासजनितप्रसर) आसेवनोद्-भूतवेगे, अविराधनया यतते, यस्तस्याऽयमिह सिद्धिनुपयाति। पं०व०१द्वा०। गुरुविनयः श्रुतगर्भो, मूलं चास्या अपि ज्ञेयः ||14|| अब्मासत्थ-त्रि० (अभ्याशस्थ) निकटवर्तिनि, व्य०६ उ०। (अविराधनयेत्यादि) विराधना अपराधासेवनं, तनिषेधा- अब्भासवत्तिअ-न० (अभ्याशवर्तित्व)अभ्याशो गौरव्यस्य समीपं, तत्र दविराधनया हेतुभूतया, यतते प्रयत्नं विधत्ते, यः पुरुषस्तस्य वर्तितुं शीलमस्येत्यभ्याशवर्ती, तद्भावोऽभ्याशवर्तित्वम्। भ०२५ श० प्रयतमानस्यायमभ्यासः, इह प्रस्तुते, सिद्धिमुपयाति सिद्धिभाग 7 उ01 गुरुपादपीठिकाप्रत्यासन्नवर्तित्वलक्षणे लोकोपचारविनये, व्या० भवति / गुरुविनयः प्रागुक्तः, श्रुतगर्भ आगमगर्भो, मूलं च कारणं चास्या 1 उ०।औ० स्था० ग०। अप्यविराधनाया, ज्ञेयो ज्ञातव्यः। षो०१२ विव०।। *अभ्यासप्रत्यय-पुं० अभ्यासो हेवाको वर्णनीयासन्नता वा प्रत्ययो अथाऽभ्यासभेदाः निमित्तं यत्र दीयते, तदभ्यासप्रत्ययम् / हेवाकेन वर्णनीयासन्न-तया वा अन्ने भणंति तिविहं, सययविसयभावजोगओ णवरं। प्रकाशनादौ, एतेन सतोगुणान् दीपयति। दृश्यते ह्यभ्यासान्निर्विषयाऽपि धम्मम्मि अणुहाणं, जहुत्तरपहाणरूवं तु ||1|| निष्फलाऽपि च प्रवृत्तिः, सन्निहितस्य च प्रायेण गुणानामेव ग्रहणमिति। एअंच ण जुत्तिखमं, णिच्छयणयजोगओ जओ विसए। स्था० 4 ठा० 4 उ०। नि० चू०। भावेण य परिहीणं, धम्माणुट्ठाणमो किह णु // 2 // *अभ्यासप्रीतिक-न० अभ्यासे प्रीतिकं प्रेम अभ्यासप्रीतिकम्। ववहारओ उ जुज्जइ, तहा तहा अपुणबंधगाईसु।। इति।। लोकोपचारविनयभेदे,भ०२ श०५ उ०। एतदर्थो यथा- अन्ये आचार्या वते-त्रिविधं त्रिप्रकार अब्मासवित्ति-स्त्री० (अभ्याशवृत्ति) नरेन्द्रादीनां समीपेऽवस्थाने, दश० सततविषयभावयोगतः, योगशब्दस्य प्रत्येकमभिसंबन्धात् 6 अ०१ उ०। सततादिपदानां सतताभ्यासादौ लाक्षणिकत्वात्सतताभ्यास- अन्मासाइयसय-पुं० (अभ्यासातिशय) अभ्यासप्रकर्षे, षो० 10 विव० / विषयाभ्यास-भावाभ्यासयोगादित्यर्थः। नवरं केवलं धर्मेऽनुष्ठानं यथोत्तरं अब्भासासण-न० (अभ्याशासन) उपवरणीयस्यान्तिकेऽवस्थाने, स० प्रधानरूपम्, तुरेवकारार्थः / यदुत्तरं, तदेव सततं प्रधानमित्यर्थः / तत्र 61 सम०। सतताभ्यासो-नित्यमेव मातापितृ-विनयादिवृत्तिः / विषयाभ्यासो- अन्मासिय-त्रि० (अभाषित) द्रविडादिदेशोद्भवे, बृ०३ उ०। मोक्षमार्गनायकेऽहल्लक्षणे पौनःपुन्येन पूजनादिप्रवृत्तिः। भावाभ्यासो अभिग-पुं० (अभ्यङ्ग) स्नेहने, ज्ञा० 18 अ०। पश्चादुन्मर्दने, दशा०६ भावानां सम्यग्दर्शनादीनां भवोद्वेगेन भूयोभूयः परिशीलनम् / एतच्च अ०। द्विविधमनुष्ठानं न युक्तिक्षम नोपपत्तिसह, निश्चयनययोगेन निश्चयनयाभिप्रायेण, यतो- मातापित्रादिविनयस्वभावे सतताभ्यासे अभिगिय-त्रि० (अभ्यङ्गित) अभ्यङ्गः क्रियते स्म यस्य। तस्मिन्, ज्ञा० १अ०। सम्यग्दर्शनाद्यनाराधनारूपे धर्मानुष्ठानं दुरापास्तमेव / विषय इत्यनन्तरमपिर्गम्यः। विषयेऽपिअर्हदादिपूजालक्षणे विषयाभ्यासे-ऽपि / अभिड-सम्-गम्-धातुः। मेलने,"समा अभिडः"||४|१६॥ भावेन भववैराग्यादिना परिहीणं धर्मानुष्ठानं कथं नु, न कथञ्चिदित्यर्थः / इति सूत्रेण समा युक्तस्य गमेरब्भिड आदेशः। अभिडइसंगच्छते। प्रा० ओकारः प्राकृतत्वात्। परमार्थो योगरूपत्वाद्धर्मानुष्ठानस्य निश्चयनयमते 4 पाद। भावाभ्यास एव धर्मानुष्ठानम्, नान्यद् द्वयमिति निगर्वः / व्यवहारात्तु अभिण्ण-त्रि० (अभिन्न) अविवृते, ध०२ अधि०। व्यवहार- नयादेशात्तु युज्यते द्वयमपि तथा तथा तेन तेन प्रकारेण अब्मुक्खणीया-स्त्री० (अभ्युक्षणीया) पवनप्रेरितासु उदक-कर्णिकासु, अपुनर्बन्धकादिषु अपुनर्बन्धकप्रभृतिषु / तत्रापुनर्बन्धकः पापं न | बृ० 1 उ०। तीव्रभावात्करोती-त्याधलक्षणः / आदिशब्दादपुनर्बन्धकस्यैव | अमुग्गम-पुं० (अभ्युद्गम) उदये, सूत्र 1 श्रु०१४ अ०। Page #877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब्भुगय 693 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अब्भुट्ठाण अन्नग्गय-त्रि० (अभ्युद्गत) अभिमुखमुद्गतोऽभ्युद्गतः / उत्पाटिते, औ०। आभिमुख्येन सर्वतो विनिर्गत, चं० प्र०१८ पाहु०। अड्कुरवदुत्पन्ने वर्द्धितुं प्रवृत्ते, उन्नते च / ज्ञा० 1 अ० ज०। विपा० / अग्रिमभागे / मनागुन्नते, रा०ा जं०।अभ्युत्कटे, रा०ाजी०। भूद्वयमध्यतो विनिर्गत, जं०२ वक्ष०ा अतिरमणीयतया द्रष्ट्रणां प्रत्यभिमुखमुत्प्राबल्येन स्थिते, रा०॥"अब्भुग्गयमउल-मल्लियाविमलधवलदंतं" अभ्युद्गतमुकुला आयतकुड्मला ये मल्लिकाविचकिलास्तद्वद् विमलौ दन्तौ यस्या अथवा प्राकृत-त्वात् मल्लिकामुकुलवदभ्युद्गतावुन्नतौ विमलधवलदन्तौ यस्य तदभ्युद्गतमुकुलमल्लिकाविमलधवलदन्तम् (हस्तिनम्) / उपा०२ अ०।"अब्भुग्गयमउलमल्लियाधवलसरिससंठाणं' अभ्युद्गतान्युनतानि मुकुलमल्लिकेय कोरकावस्थविचकिल-कुसुमवद्धवलानि तथा सदृशं समं संस्थानं येषां तानि / जं०७ वक्ष० ।"अब्भुग्गयसुकयवइश्वेइयतोरणवररइयलीलट्ठिय-सालिभंजियागं" अभ्युद्गते उच्छ्रिते सुकृतवज़वेदिकायाः सम्बन्धिनि तोरणवरे रचिता लीलास्थिताः शालभञ्जिका यस्यां सा तथा, ताम् / (शिबिकाम्) भ०६ श०३३ उ० / आ० म०। ज्ञा० / रा० / अड्कुरवदुत्पन्ने च, ज्ञा०१ अ०॥ *अभ्रोद्रत-त्रि०। उन्चे, भ० 12 श०५ उ०। अब्भुग्गयभिंगार-(अभ्युद्तभृङ्गार) अभ्युद्गतोऽभिमुखमुद्रत उत्पाटितो भृङ्गारो यस्य स तथा। तथाभूते महाभागे, औ० / भ० / दशा०। अब्भुग्गयमुसिय-(त्रि०) अभ्यु(भ्रो)द्रतोच्छ्रित अभ्युद्गतश्वासावुच्छ्रितश्चेत्यभ्युद्तोच्छ्रितः / अत्यर्थमुचे, भ० / "अब्भुग्गयमुसियपहसिया'' अभ्युद्गतमभ्रोद्गतं वा यथा भवत्येवमुच्छ्रितश्चेत्यभ्युद्गतोच्छ्रितः / अत्यर्थमुच इत्यर्थः / प्रथमैकवचनलोपश्चात्र दृश्यः। तथा प्रहसित इव प्रभापटलपरिगततया प्रहसितः। प्रभया वा सितः शुक्लः, संबद्धो वा प्रभासित इति। भ०२ श०८ उ०। स०।०। जी०। अब्भुजय-त्रि० (अभ्युद्यत) वर्द्धितुं प्रवृत्ते, "अन्भुग्गएसु अब्भुज्जएसु अब्भुट्टिएसु" (मेघेषु) ज्ञा० 1 अ० / सोद्यमे, ज्ञा० 5 अ० / उद्यतविहारिणि, व्य०४ उ०1"अब्भुजयं दुविधं अब्भुज्जयमरणेण, अब्भुजयविहारेण वा" / नि० चू०१६ उ०। अभ्युद्यतविहारमरणयोः स्वरूपमाहजिण-सुद्ध-जहालंदे, तिविहो अब्भुज्जओ अह विहारो। अब्भुज्जयमरणं पुण, पाउवगमणिंगिणिपरिना।। जिनकल्पः, शुद्धपरिहारकल्पो, यथालन्दकल्पश्चेति त्रिविधोऽभ्युद्यतः; अथैष विहारो मन्तव्यः / अभ्युद्यतमरणं पुनस्त्रिविधम्पादपोपगमनमिङ्गिनीमरणं, परिक्षेति भक्तप्रत्याख्यानम्, बुद्धिश्चा-प्येतेषु अभ्युद्यतरूपतया श्रेयसी। अतः कतरदनयोः प्रतिपत्तव्यम् ? उच्यते - सयमेव आउकालं, नाउं पेछित्तु वा बहु सेसं। सुबहुगुणलाभकंखी, विहारमन्भुजयं भवइ / / स्वयमेवायुःकालं सातिशयश्रुतोपयोगाद् बहु दीर्घ शेष-मवशिष्यमाणं ज्ञात्वा दृष्ट्वा वाऽन्यं श्रुताद्यतिशययुक्तमाचार्यं बहु शेषमवबुद्ध्य, ततः / सुबहुगुणलाभकाजी सन् विहारमभ्युद्यतं भवति, प्रतिपद्यत इत्यर्थः / बृ०१ उ०। ('जिणकप्पिय' शब्देऽस्य विधिः) अब्मुज्जयमरण-न०(अभ्युद्यतमरण) अभ्युद्यतस्य मरणे, तन्निषिद्धमिति अनन्तरमुक्तम् / बृ०१ उ०। नि०चू० / पं० भ०। संथा० / (पादपोपगमनादिषुवक्तव्यताऽस्य) अन्भुजयविहार-पुं०(अभ्युद्यतविहार) अभ्युद्यतानां जिनकल्पिकादीनां विहारे,पं०व०४ द्वा०ा बृ०॥ (सच त्रिविधइति अब्भुजय' शब्दे उक्तम्) अन्भुट्ठाण-न०(अभ्युत्थान) आभिमुख्येनोत्थानमुद्गमनमभ्युत्थानम् / ग०२ अधि०। उत्त० तदुचितस्यागतस्य अभिमुखमुत्थाने, पञ्चा०१७ विव० दश०। द्वा०। विनयाहस्य दर्शनादेवाऽऽसनत्यजने, स्था०७ ठा०ा ससंभ्रममासनमोचने, उत्त०३ अाव्या प्रवन एष दर्शनविनयभेद इत्थं समाचरणीयः - अन्मुट्ठाणे लहुगा, पासत्थादन्नतित्थीणं। संजइणीण पुणो तह, संजइवग्गे य गुरुगा उ॥ साधुभिः साधूनामेवाभ्युत्थानं विधेयं, न गृहस्थादीनां, तत्रापि संविनानामेव, न पावस्थादीनाम् / अथ पार्श्वस्थादीनामन्यतीथिकानां गृहिणां वाऽभ्युत्थानं करोति, तदा चत्वारो लघवः / तथा संयत्यादीनामन्यतीर्थिनीनां संयतवर्गस्य अभ्युत्थाने चतुर्गुरवः / अथाऽत्रैव दोषानुपदर्शयतिउद्वेइ इत्थिं जह एस चिंति, धम्मे ठिओ नाम न एस साहू। दक्खिन्नपन्ना वसमेइ चेवं, मिच्छत्तदोसा य कुलिंगिणीसु // संयतं कस्या अपि स्त्रिया अभ्युत्तिष्ठन्तं दृष्ट्वा श्रावका-दिश्चिन्तयेत्यथैष साधुः स्त्रियमायान्तं दृष्ट्वा अभ्युत्तिष्ठति / तथा नामेति संभावनायाम्। संभावयम्यहं नैष सम्यग्धर्मे श्रुतचारित्रात्मके स्थितः, अन्यथा किमेष एनामभ्युत्तिष्ठेत् ? अपि च-एवं स्त्रिया अभ्युत्तिष्ठन् दाक्षिण्यवान् भवति।दाक्षिण्यपण्यत्वेतस्या वशमायत्ततामुपैति। ततश्च ब्रह्मचर्यविराधनादयो दोषाः / यास्तु कुलिङ्गि न्यस्ताः परिवाजिकाप्रभृतयः, तासु अभ्युत्थीयमानासु यथाभद्रकादीनां मिथ्यात्वगमनादयो दोषा भवन्ति। अन्यतीर्थिकषु पुनरिमे दोषाःओभावणा पवयणे, कुतित्थउम्भावणा अबोहीय। खिसिजंतिय तप्प-क्खिएहि गिहिसुव्वया बलियं // . भो भागवत! सौगतादीनामन्यतीर्थिकानामभ्युत्थाने प्रथमचरममहती अपभ्राजना भवति-अहो ! निस्सारं प्रवचनममीषां यदेवमन्यदर्शनिनामभ्युत्थानं विदधाति, तदीयस्य च कुतीर्थस्योद्भावना प्रभावना भवति-एतदेव दर्शनं शोभनतरं, यदेव जैना अप्येतत्प्रतिपन्नानभ्युत्तिष्ठन्तीति। (अबोही यत्ति) प्रवचनलाधवप्रत्यय मिथ्यात्वमोहनीयं कर्मोपचित्य भवोदधौ परिभ्रमन् बोधिलाभ नासादयन्ति / ये च गृहिणः सुव्रताः शोभनाणुव्रतधारकाः, सुश्रावका इत्यर्थः, ते तत्पाक्षिकैः शाक्यादिपक्षपातिभिरुपासकैः, बलिकमत्यर्थ खिंस्यन्तेअस्माकमेव दर्शनं सर्वोत्तम, भवदीयगुरूणामपि गौरवार्हत्वात्। Page #878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब्भुट्ठाण 694 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अब्भुट्ठाण एएचेव य दोसा, सविसेसयरऽन्नतित्थिगीसुपि। लाघवअणुज्जियत्तं, तहागयाणं अवण्णो य॥ एतएव दोषाः प्रवचनापभ्राजनादयोऽन्यतीर्थिकीष्वपि भवन्ति, नवरं सविशेषतराः शङ्कादिभिर्दोषैः समधिकतरा मन्तव्याः / गृहिणाभन्यतीर्थकादीनां चाभ्युत्थाने सामान्यत इभे दोषाः / तद्यथालाघवमेतेभ्योऽप्ययं हीन इत्येवं लक्षणो लघुभाव उपजायते। अनूर्जितत्वं वराकत्वमुपदर्शितं भवति। तथाहि-लोको ब्रूयात् अहो ! अदत्तादानाः श्वान इव वराका अमी यदे-वमाहारादिनिमित्तमवितरकाणामपि चाटूनि कुर्वन्ति / तथा तेन यथावस्थित-पदार्थोपलम्भात्मकेन प्रकारेण गतं ज्ञानमेषां तथा-गताः, सद्भूतार्थवेदिनस्तीर्थकरा गणधरा इत्यर्थः / तेषामवर्णवादो भवति। यथा- नाऽमी सम्यग्मोक्षमार्ग दृष्ट वन्तः। अथ संयतीनामभ्युत्थाने दोषान् विशेषतो दर्शयन्नाहपायं तवस्सिणीओ, करेंति किइकम्म मो सुविहियाणं / एसुत्तिट्ठइ वतिणिं, भवियव्वं कारणेणेत्थ / / संयतीमभ्युत्तिष्ठन्तं दृष्ट्वा कश्चिदभिनवधर्मा चिन्तयेत्प्रायस्तपस्विन्यः संयत्यः सुविहितानां कृतिकर्म कुर्वन्ति / 'मो' इति पादपूरणे / एष पुनव्रतिनीमुत्तिष्ठति, तद्भवितव्यमत्र कारणे-नेति। एवं शङ्कायां चतुर्गुरु, निःशङ्किते मूलम्, यत एते दोषास्ततो नैषामभ्युत्थानं विधेयम्। अथ येषामभ्युत्थातव्यं, तदभ्युत्थानाकरणे प्रायश्चित्तमभिधित्सुराहआयरिए अभिसेगे, भिक्खुम्मि तहेव होइ खुड्डे य / गुरुगा लहुगा लहुगो, मिन्ने पडिलोमबितिएणं // आचार्ये अभिषेके भिक्षौ तथैव क्षुल्लके; आचार्यादीन् प्राघुर्णिकान् यथाक्रममनभ्युत्तिष्ठति गुरुका लघुका लघुको भिन्नमासाश्चेति प्रायश्चित्तानि / द्वितीयादेशेन इदमेव प्रायश्चित्तं प्रतिलोम प्रतीपक्रमेणाचार्यादीनां वक्तव्यम्। आचार्यस्य भिन्नमासः, अभिषेकस्य लघुमासः, भिक्षोः चतुर्लघवः, क्षुल्लकस्य चतुर्गुरव इति भावः / एवं संग्रहगाथासमासार्थः। ___अथैनामेव विवृणोतिआयरियस्सायरियं, अणुट्ठयंतस्स चउगुरू हों ति। वसभे भिक्खुक्खुड्डे, लहुगा लहुगो य मिन्नो य॥ आचार्यस्य आचार्य प्राघूर्णकमायान्तमनुत्तिष्ठतश्चतुर्गुरवो भवन्ति, | वृषभमनुत्तिष्ठतः चतुर्लघुकाः, क्षुल्लकमनुत्तिष्ठतो लघुकः, भिक्षुमनुत्तिष्ठतो भिन्नमासः / एवमाचार्यस्य प्रायश्चित्तमुक्तम् / शेषाणामतिदिशतिसट्ठाणपरहाणे, एमेव वसभभिक्खुखुड्डाणं / जं परठाणे पावइ, तं चेव य सोवि सट्ठाणे // एवमेव वृषभभिक्षुक्षुल्लकानामपि स्वस्थानपरस्थाने प्रायश्चित्तं वक्तव्यम्, स्वस्थानं नाम वृषभस्य वृषभस्थानं, वृषभस्याचार्यो भिन्नस्थानम् / एवं भिक्षुक्षुल्लकयोरपि स्वस्थानपरस्थानभावना कर्तव्या। अत्र च यत्परस्थाने आचार्यः प्राप्नोति, तदसायपि वृषभादिः स्वस्थाने प्राप्नोति / किमुक्तं भवति- वृषभस्य प्राघूर्णकमाचार्यमनभ्युत्तिष्ठतश्चतुर्गुरुकाः, वृषभस्थानभ्युत्थाने चतुर्लघवः, भिक्षोरनभ्युत्थाने मासलघु, क्षुल्लकस्यानभ्युत्थाने भिन्नभासः। एवं भिक्षुक्षुल्लकयोरपि मन्तव्यम्। अत्र परस्थानमाचार्यस्य वृषभादयः, तेषामभ्युत्थाने यथाऽसौ चतुर्लघुकादिकमापन्नवान् तथा वृषभादयोऽपि स्वस्थानमन-भ्युत्तिष्ठन्तस्तदेव प्राप्नुवन्ति। अथैतदेव प्रायश्चित्तं तपःकालाभ्यां विशेषयन्नाहदोहिं वि गुरुगा एते, आयरियस्स तवेण कालेण। तवगुरुगा कालगुरू, दोहि वि लहुगा य खुड्डस्स। आचार्यस्यैतानि चतुर्गुरुकादीनि प्रायश्चित्तानि, द्वाभ्यामपि गुरुकाणि कर्तव्यानि। तद्यथा-तपसा, कालेन च वृषभस्य तपोगुरुकाणि। भिक्षोः कालगुरुकाणि, क्षुल्लकस्य द्वाभ्यामपि तपः कालाभ्यां लघुकानि। अहवा अधिसिटुं चिय, पाहुणयागंतुए गुरुगमादी। पावें ति अणुट्टिता, चउगुरु लहुगा लहुगमिन्नं / / अथवेति प्रायश्चित्तस्य प्रकारान्तरताद्योतकः / अविशिष्टमेवाचार्यादिभिर्विशेषैर्विरहितं प्राघूर्णकमागन्तुकमनुत्तिष्ठन्तो गुर्वादय आचार्यप्रभृतयो यथाक्रमं चतुर्गुरुकचतुर्लघु-कलधुमासभिन्नमासान् प्राप्नुवन्ति / तद्यथा- आचार्यस्य यं वा तं वा प्राघूर्णकमागतमनभ्युत्तिष्ठतश्चतुर्गुरु, वृषभस्य चतुर्लघु, भिक्षोलघुमासः, क्षुल्लकस्य भिन्नमास इति। अहवा जं वा तं वा, पाहुणगं गुरुमणुहिहं पावे। मिन्नं वसभो सुक्कं, भिक्खु लहू खुडु चउगुरुगा।। अथवा यं वा तं वा प्राघूर्णकमनुत्तिष्ठन् गुरुराचार्यो भिन्नमासं प्राप्नोति, वृषभः शुक्लमासं, लघुमासमित्यर्थः। भिक्षुश्चतुर्लधुकम्, क्षुल्लकः चतुर्गुरुकम्। एतेन 'पडिलोमबितिएणं ति" पदं व्याख्यातम्। अथ किमर्थमयं द्वितीयादेशः प्रवृत्तः? इत्याहवायणवापारणधम्मकहणसुत्तत्थचिंतणासुंच। वाउलिए आयरिए, बिझ्यादेसो उ भिन्नाई॥ इहाऽऽचार्यस्याऽनेकधा व्याक्षेपकः। तद्यथा-वाचनानामनुयोगः / सा विनेयाना दातव्या व्यापारणं साधूनां वैयावृत्त्यादिषु यथायोग्यं विधेयम्। श्राद्धानां धर्मकथनं विधातव्यम् / भूयस्सूत्रार्थ-योश्चिन्तनानुप्रेक्षाः कर्तव्याः / एवमादिषु कार्येषु निरन्तरमाचार्यो व्याकुलितो भवति / वृषभादयस्तु न तथा व्याकुला इत्यतोऽयं भिन्नमासादिर्द्वितीय आदेशः प्रवृत्तः / इयमत्र भावना-आचार्यो बहुव्याकुलतया प्राघूणकमागच्छन्तं दृष्ट्वाऽपि नाभ्युत्थानं पारयेत्; अतस्तस्य स्वल्पतरं प्रायश्चित्तम् / वृषभभिक्षुक्षुल्लकास्तू यथाक्रममल्पाल्पतराल्पतमव्याक्षेपाः, ततो लघुमासादीनि प्रभूतप्रभूततरप्रभूततमानि तेषां प्रायश्चित्तानीति / अथ क्षुल्लकस्य गुरुतमप्रायश्चित्तदाने विशेषकारणमाहवेसइए लहुमुट्ठइ, धूलीधवलो असंफुनो खुड्डो / इति तस्स होति गुरुगा, पालेइ हु चंचलं दंडो।। क्षुल्लको बालः स लघुशरीरतया सुखेन उपविशति, उत्तिष्ठति वा; क्रीडनशीलतयाचप्रायेणधूलीधवलोरजोगुण्डितदेहः, असंस्फुटश्चासंवृतोऽसौ भवति। अतोयद्यसावपि प्राधुणकमागतं नोत्तिष्ठति, महदूषणमाप्नोति। अत एतस्य चतुर्गुरुकाः प्रायश्चित्तम् / किश्चयश्चञ्चलः स्वभावाचपलोऽपि सन् Page #879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब्भुट्ठाण 695 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अब्भुट्ठाण गुर्वादीनां नाभ्युत्तिष्ठति; तं दण्डः प्रायश्चित्तलक्षणो दीयमानःपालयति, चञ्चलत्वमपनयतीत्यर्थः। अपि चजइ ता दंडत्थाणं, पावइ बालो वि पयणुए दोसे। हणु दाणिं अक्खमणं, पमाइउं रक्खणा सेसे / / बालस्यापि गुरुके प्रायश्यित्ते दत्ते सति शेषसाधवश्चिन्तयेयुः- यदि तावदयं बालोऽपि प्राघूर्ण के अनभ्युत्थानमात्रलक्षणे प्रतनु के स्वल्पेऽप्यपराधे एवं दण्डस्थानं प्राप्नोति / (हणु दाणिं ति) तत इदानीमस्माकं प्रमत्तुमभ्युत्थाने प्रमादं कर्तुमक्षमणमनुचितमिति शेषसाधुवर्गस्यापि रक्षणं कृतं भवति / आह-अभ्युत्थानमकुर्वतामात्मसंयमयोस्तावत्काचिदपि विराधना नाऽस्ति, ततः किं कारणमेवमेवं प्रायश्यित्तं दीयते ? उच्यते - दिटुंतो दुवखरए, अन्भुट्टितेहिं जह गुणो पत्तो। तम्हा उद्वेयव्वो, पाहुणओ गच्छ आयरिओ॥ इह प्राघूर्णकमाचार्यमनुत्तिष्ठन् भगवतामाज्ञामतिक्रामति / तथाचाऽत्र व्यक्षरकेण दासेन दृष्टान्तः- “एगो राया, से केणइ दुअक्खरएणं आराहिओ। स्ना से पट्ट बंधिउपहाणं रज्जं दिन्नं। तत्थदंडभडभोइयाइणो अदुअक्खरो त्ति काउं परिभावेणं तस्स अन्भुट्ठाणाइयं न करेंति। ताहे तेण ते अणब्भुढेता दंडिया, मारिया या जे विणीया, ते अब्भुटुिंति, तेसिं तेण परितुढेण रज्जसं विभागो दिन्नो" / अथाऽर्थोपनयः- यथा तैरभ्युत्तिष्ठ निरिह लोके गुणः प्राप्तः तथा साधवोऽपि प्राघूर्णकमाचार्यमभ्युत्तिष्ठन्त इह परत्र च गुणानासादयन्ति, तस्मात्प्राघूर्णक आचार्यः सकलेनाऽपि गच्छेनाऽभ्युत्थातव्यः। अमुमेव व्यक्षरदृष्टान्तं व्याख्यानयतिआराहितो रज सपट्टबंधं, कासीय राया उदुवक्खरस्स। पसासमाणं सुकुलीणमादी, नाढंति तं तेण य ते विणीया। आराधितः केनापि गुणविशेषेण परितोषं प्रापितः सन् राजा यक्षरकस्य सपट्टबन्धं राज्यमकार्षीत, पट्टबन्धनपतिं तं विहितवानिति भावः। ततः तं व्यक्षरकराज राज्यं प्रशासतं कुलीनादयो नाद्रियन्ते, वयं कुलीनाः, अयं तुहीनकुलोत्पन्नः आदिशब्दाद्वयं प्रधानपुरुषाः, अयं पुनः कर्मकर इत्यादि परिभवबुद्ध्या नाभ्युत्थानादिकमादरं तस्य कुर्वन्ति, ततः ते तेन राज्ञाऽविनीताः शिक्षा प्रापिताः, 'विनयः शिक्षाप्रणत्योः' इति वचनात्। कथं शिक्षिताः? इत्याहसव्वस्सं हाऊणं, निजूढा मारिया य विवदंता। भोगेहिं संविभत्ता, अणुकूलअणुल्लणा जे उ॥ सर्वस्वमपहृत्य ते स्वनगरान्नि!ढा निष्काशिताः, ये च तत्र निष्काश्यमाना विवदन्ते- किमस्माभिरपराद्धं यो यो व्यक्षरको भविष्यति, तस्य तस्य किं वयमभ्युत्थानं करिष्यामः ? इत्यादि कलहायन्ते, ते विवदमाना मारिताः / ये तु तत्रानुकूला अभ्युत्थानादिकारिणाऽनुल्बणा अगर्वितास्ते भोगैः संविभक्ताः, राज्यभोगसंविभागस्तेषां कृतः / एष दृष्टान्तः। अयमर्थोपनयःअहिराया तित्थयरो, इयरो उ गुरू उ होइ नायव्यो। साहू जहा व दंडिय, पसत्थमपसत्थगा होति // यथा अधिराजो मौलपृथिवीपतिः, तथा तीर्थकरः, यथा इतरो व्यक्षरकराजः, तथा तीर्थकराधिराजेनैवानुज्ञाताचार्यः पदपट्टबन्धमहितगणाधिपत्यराज्ये गुरुराचार्यो ज्ञातव्यो भवति / यथा च ते प्रशस्ताप्रशस्तरूपा दण्डिकास्तथा साधवोऽप्युभयस्वभावा भवन्ति / तत्रजह ते अणुट्ठिहंता, हियसव्वस्सा उ दुक्खमाभागी। इय णाणे आयरियं, अणुट्टिहंताण वोच्छेदो // यथा ते दण्डभटभोजिकादयो व्यक्षरकनृपतिमनुत्तिष्ठन्तो हृतसर्वस्वा ऐहिकस्य दुःखस्याभागिनः संजाताः / इत्येवमाधार्य-मप्यनुत्तिष्ठतां दुर्विनीतसाधूनां ज्ञाने, उपलक्षणत्वाद् दर्शन-चारित्रयोश्च व्यवच्छेदो भवति / ततश्चानेकेषां जन्मजरा-मरणादिदुःखानामाभोगिनस्ते संजायन्ते, एषोऽप्रशस्तोपनयः / अथ प्रशस्तोपनयःउहाण सिज्जासणमाइएहिं, गुरुस्स जे होंति सयाऽणुकूला। नाउं विणीए अह ते गुरू उ, संगिण्हई देइ य तेसि सुत्तं / / उत्थानं- गुरुमागच्छन्तं दृष्ट्वा ऊर्ध्वं भवनं, शय्या सुन्दरावकाशे गुरूणां संस्तारकरचनम्, आसनमुपवेशनयोग्यनिषद्यादिरचनम्। यदा-(सेज्जासणं ति) गुरूणां शय्याया आसनाथ नीचतरशय्यासनयोराश्रयणम् / आदिशब्दादञ्जलिप्रग्रहणादि परिग्रहः / एवमादिभिर्विनयभेदैर्ये शिष्याः सदैव गुरोरनुकूला भवन्ति तान् विनीतान ज्ञात्वा, अथानन्तरं गुरुः संगृह्णाति / मयैते सम्यक्पालनीया इत्येवं संग्रहबुद्ध्या स्वीकरोति, सूत्रं च तेषां प्रयच्छति, ततश्च ते इह परत्र च कल्याणपरम्पराभाजनं जायन्ते। अथ प्रशस्तोपनयं विशेषतो भावयन्नाहपज्जायजाईसुतओ य वुड्डा, जत्तनिआ सीससमिद्धिमंता। कुव्वंतऽवण्णं अह ते गणाउ, निजूहई नो य ददाइ सुत्तं / / पर्यायतो ये वृद्धास्ते अवमरात्निकोऽयमिति बुद्ध्या, जातिमधिकृत्य ये वृद्धाः, षष्टिवर्षजन्मपर्याया इत्यर्थः, ते बालकोऽयमिति बुद्ध्या, श्रुततश्च तमङ्गीकृत्य ये वृद्धास्तेऽल्पश्रुतोऽयमिति कृत्वा, जात्यन्विता विशिष्टजातिसंभूता हीनजात्युद्भवोऽयमिति मत्या, शिष्यसमृद्धिमन्तः परिवारसंपदुपेता अल्पपरिवारोऽयमिति बुद्ध्या, गुरोरवज्ञामनभ्युत्थानलक्षणां कुर्वन्ति / अथैवमवज्ञाकरणानन्तरं गुरुस्तान् स्वगच्छनगरान्नि!हति, ये च बहुपाक्षिकत्वादिभिः कारणैर्नियूहयतुं न शक्यन्ते, तेषां भोगसंविभागकल्पसूत्रं श्रुतं न प्रयच्छति / एवं तावत्प्राघूर्णकमाचार्यमङ्गीकृत्याऽभ्युत्थाना-ऽनभ्युत्थानयोर्गुणदोषा उपवर्णिताः। अथ सामान्यतो गच्छमध्ये स्थितस्यैवाऽऽचार्यस्याऽनभ्युत्थाने दोषमाहमज्झत्थ पोरिसीए, लेवे पडिलेह आइयण धम्मे / पयल गिलाणे तह उत्तमट्ठ सव्वेसिँ उहाणं // आचार्यमागच्छन्तं दृष्ट्वा गच्छसाधवो मध्यस्थास्तिष्ठन्ति, ततः Page #880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब्भुट्ठाण 696 - अभिषानराजेन्द्रः - भाग 1 अब्भुट्ठाण पूर्वोक्तमेव प्रायश्चित्तम् / सूत्रार्थपौरुषी लेपप्रदानं प्रतिलेखनम् (आइयणंति) 'आदानं' समुद्देशनं धर्मकथां वा विदधानाः प्रचलायमाना वानाभ्युत्तिष्ठन्ति / अत्रापि तदेव वृषभादिविषयं प्रायश्चित्तम्। ग्लानो वा उत्तमार्थप्रतिपत्तौ वा शक्तौ सत्यां यदि नोत्तिष्ठति, तदा तस्यापि प्रायश्चित्तम् / यत एवमतः सर्वेषामभ्युत्थानं भवति / इदमत्र हृदयम्आचार्याणामनभ्युत्थाने सूत्र-पौरुषीकरणादीनि कदालम्बनानि, यथा ममायमालाप-कोऽर्द्धपछितो वर्तते, लेपो वा पात्रके नाद्यापि परिपूर्णे दत्तः, प्रतिलेखनादिकं वा सम्प्रति कुर्वाणोऽस्मि; ग्लानो वा कृतभक्तप्रत्याख्यानो वाऽहमस्मीति, किन्तु सर्वैरपिसूत्रा-ध्ययनादिव्यापार परिहृत्याभ्युत्थातव्यम्, एवं तावदुपाश्रये विधिरभिहितः। अथान्यत्र गृहादौ रथ्यादिषु वा यत्र दृश्यते, तत्राऽयं विधिःदूरागयमुढेलं, अभिनिगंतुं नमंतिणं सव्वे / दंडगहणं च मोत्तुं, दिढे उट्ठाणमन्नत्थे॥ दूरादाचार्यमागतं दृष्ट्वा आभिमुख्येन निर्गत्य सर्वेऽपिसाधवो (णमिति) एनमाचार्य नमन्ति शिरसा वन्दन्ते, यदा च गुरव उपाश्रयं प्रविशन्ति, तदा दण्डकग्रहणमपि कर्त्तव्यम्, अन्यत्र तु गृहादौ दृष्ट गुरौ दण्डकग्रहणं मुक्त्वा अभ्युत्थानमेव कर्त्तव्यम्।। एवमभ्युत्थाने के गुणाः ? इत्याहपरपक्खो य सपक्खो, होइ अगम्मत्तणं च उट्ठाणे। सुयपूयणा थिरतं, पभावणा निजरा चेव // परपक्षः परपाखण्डिनः, स्वपक्षः पार्श्वस्थादिवर्गः, तयोरगम्यत्वमनभिभवनीयता गुरोरभ्युत्थाने भवति, तथा गुरवो बहुश्रुता भवन्तीति श्रुतपूजनमपि कृतं स्यात्। अन्येषामभ्युत्थानादौ विनये सीदतां स्थिरत्वमनुष्ठितं भवति / प्रभावना च शासनस्यैवं कृता भवेत्-अहो ! शोभनमिदं प्रवचनं, यत्रैवंविधो विनयो विधीयते, निर्जराच कर्मक्षयरूपा विपुला भवति, विनयस्याभ्यन्तरत-पोभेदत्वात् तस्य च निर्जरानिबन्धनतया सुप्रतीतत्वात्। आह-यः प्रव्रजितः सर्वपापोपरतस्तस्य किं नाम विनयेन कार्यम् ? इति उच्यतेअकारणा नत्थिह कजसिद्धी, नयाऽणुवाएण उति तण्णा। उवायवं कारणसंपउत्तो, कजाणि साहेइ पयत्तवं च॥ अकारणा कार्यस्य सिद्धिरिहास्मिन् जगति नास्ति, यद्यस्य कार्यस्योपादानं कारणं, तत्तेन विना न सिध्यतीत्यर्थः / यथा मृत्पिण्डं विना घट इति / कारणसद्भावेऽपि न च नैव, अनुपायेन उपायाभावेन कार्यं भवतीति तज्ज्ञाः कार्यसिद्धिवे दिनो वदन्ति / यथा मृत्पिण्डसद्भावेऽपिचक्रचीवरोदकाद्युपायमन्तरेण घटोन सिद्ध्यति; यः पुनः उपायवान्, कारणसंयुक्तप्रयत्नवान् भवति, स साधयति, यथा कुम्भकारो मृत्पिण्डमासाद्य चक्रचीवरायु-पायसाचिव्यजनितोपष्टम्भः स्वहस्तव्यापारणरूपं प्रयत्नं कुर्वन् घट निर्माति। आह-यद्येवमुपायकारणयुक्तः कार्याणि साधयति, ततस्तु तेन किमायातम् ? इत्याह धम्मस्स मूलं विणयं वयंति, धम्मो य मूलं खलु सोगईए। सा सोगई जत्थ अबाहया उ, तम्हा निसेव्वो विणयो तदट्ठा।। धर्मस्य श्रुतचारित्ररूपस्य मूलं प्रथममुत्पत्तिकारणं विनयमभ्युत्थानादिरूपं वदन्ति, तीर्थकरादय इति गम्यते। स च धर्मः, खलु रवधारणे; सुगतेर्मूलं कारणं मन्तव्यम्। दुर्गतौ प्रपतन्तं प्राणिनं धारयति, सुगतौ च स्थापयतीति निरुक्तिसिद्धत्वात, तस्येति भावः / अथ सुगतिः कीदृशी गृह्यते ? इत्याह-सा सुगतिरभिधीयते-यत्राऽबाधना, क्षुत्पिपासारोगशोकादीनां शरीरमानसानां बाधा-नामभावसिद्धिरित्यर्थः / यत एवं तस्मात्तदर्थं सुगतिनिमित्तं विनयो निषेव्यः / इदमत्र हृदयम्- इह कार्यं तावदव्याबाधसुखलक्षणो मोक्षः, तस्य च कारणं श्रुतचारित्ररूपः सर्वज्ञभाषितो धर्मः सद् गुरोरभ्युत्थानवन्दनादिविनयलक्षणमुपाय-मन्तरेण न साधयितुं शक्यते। अतः परम्परया मोक्षकारणमेवाऽयमिति मत्वा तदर्थं विनय आसेव्यत इति। आह-युक्तं पौरुषीलेपप्रदानादिकारणा-दभ्युत्थानम्, ग्लानोत्तमार्थप्रतिपन्नयोस्तु किमर्थमभ्युत्थानम् ? उच्यतेमंगलसद्धाजणणं, विरियायारो न हाविओ चेव। एएहि कारणेहिं, अतरंतपरिण्णउट्ठाणं / / अतरन्तो ग्लानः(परिन्नत्ति) मतुप्प्रत्ययलोपात् परिज्ञावान् अनशनी, एतया गुरूणामभ्युत्थाने मङ्गलं भवति, ततश्च ग्लानस्याचिरादेव प्रगुणीभवन, कृतभक्तप्रत्याख्यानस्यतु निर्विघ्नमुत्तमार्थसाधनं स्यात्। यथा ग्लानपरिज्ञा भवति तथा गुरुमभ्युत्तिष्ठति, शेषाणामभ्युत्थाने श्रद्धाजननं विहितं, यद्येषोऽप्येवं गुरुमभ्युत्तिष्ठति, ततोऽस्माभिः सुतरामभ्युत्थात-व्यम् / अपि च-एवं कुर्वता ग्लानेन परिज्ञावता च वीर्याचारो न हापितो भवति, अत एतैः कारणैरेताभ्यामभ्युत्थातव्यम्। (अभ्युत्थानाऽकरणे प्रायश्चित्तम्) प्रकारान्तरेण प्रायश्चित्तमुपदर्शयन्नाहचंकमणे पासवणे, वीयारे साहु संजई सन्नी। सन्निणि वाइ अमचे, संघे वा रायसहिए वा / / पणगं च भिन्नमासो, मासो लहुगो य होइ गुरुगो य। चत्तारि छट्ठ लहु गुरु, छेदो मूलं तह दुगं च / / इह प्रथमगाथायाः द्वितीयगाथायाश्च पदानां यथासंख्येन योजना।' तद्यथा- आचार्य चङ्क्रमणं कुर्वाणं दृष्ट्वा नाभ्युत्तिष्ठति, पञ्चक पञ्चरात्रिंदिवानि प्रायश्चित्तम्, प्रश्रवणभूम्यामागतं नाभ्युत्तिष्ठति भिन्नमासः, विचारसंज्ञां कृत्वा समागतस्यानभ्युत्थाने मासगुरु, संयतीभिः सार्द्धमागतस्यानुत्थाने चतुर्लधु, संज्ञिनः श्रावकाः, तैः सममायातमनुत्तिष्ठतश्चतुर्गुरु, असंज्ञिभिः सममायातस्यानभ्युत्थाने षड्लघु, संज्ञिनीभिरसंज्ञिनीभिश्च स्त्रीभिः सममायान्तमनभ्युत्तिष्ठतः षड्गुरुावादिना सार्द्धमायातेअनभ्युत्थिते छेदः, अमात्येन सार्द्धमागते मूलम्, संघेन सार्द्ध समायाते अनुत्थिते अनवस्थाप्यम्, राज्ञा सहित सूरिमा-गतमनुत्तिष्ठतः पाराञ्चिकम्। अथ किमर्थं स्त्रीभिः सममायाते गुरुतरं प्रायश्चितम् ? उच्यते Page #881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब्भुट्ठाण 697- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अब्भुट्ठाण पूयंति पूइयं इत्थियाउ पाएण ताउ लहुसत्ता। योगत्रयेऽपि व्यापार्यमाणे दोषा यथा च गुणा भवन्ति, तदेतत् एएण कारणेणं, पुरिसेसुं इत्थिया एत्थ // प्रतिपादयतिइह स्त्रियः प्रायेण पूजितं पूजयन्ति, यमेवाचार्यादिकं मणो य वाया काओ अ, तिविहो जोगसंगहो। साधुश्रावकादिभिरभ्युत्थादिना पूज्यमानं पश्यन्ति, तस्यैव पूजा ते अजुत्तस्स दोसाय, जुत्तस्स य गुणावहा।। विदधति, ताश्च स्त्रियः प्रायेण लघुसत्त्वास्तुच्छाशया भवन्ति / ततः मनोयोगो वाग्योगः काययोगश्चेति त्रिविधो योगसंग्रहो भवति, साधुभिरनभ्युत्थीयमानमाचार्य गाढतरं परिभवबुद्ध्या पश्यन्ति, न संक्षेपतस्विधा योगो भवतीत्यर्थः। ते मनोवाक्काययोगा अयुक्तस्य किमप्येष आचार्यो जानाति, नवाऽयं विशिष्टगुणवान् संभाव्यते, अन्यथा अनुपयुक्तस्य दोषाय कर्मबन्धाय भवन्ति, युक्तस्य तु त एव किमेते साधयो नाभ्युत्तिष्ठन्ति, एवमेतेन कारणेन पुरुषेषुसाधुश्रावकादिषु गुणावहकर्मनिर्जराकारिणः संपद्यन्ते। पूर्व लघुतरप्रायश्चित्तमुक्त्वा पश्चात् स्त्रियोऽधिकृत्य गुरुतरमुक्तम्। इदमेव भावयतिअथ राज्ञा सार्द्ध समागतस्याऽनभ्युत्थाने किं कारणं जह गुत्तस्सिरियाई,न होंति दोसा तहेव समियस्स। पाराञ्चिकम् ? इत्याह गुत्तीठियप्पमायं, रुंभइ समिई सचेट्ठस्स॥ पाएणिद्धा एंति महायणेण समं फातिं दोसो गच्छइ एएसु तणु यथा किल मनोवाकायगुप्तस्य ईर्यादिप्रत्यया अनुपयुक्त-गमनादिक्रिया वि गझं वक्कं होज कहं वा परिभूते वेडुजं वा कुत्थियवेसम्मि समुत्था दोषा न भवन्ति, तथैव समितस्यापि चङ्क्रमणं कुर्वत मणुस्से वट्टा ईर्यादिप्रत्यया दोषा न भवन्त्येव / किं कारणम् ? इत्याह-यदा किल राजादय ऋद्धिमन्तः प्रायेण बाहुल्येन महाजनेन सामन्त गुप्तिषु मनोगप्त्यादिषु स्थितो भवति, तदा योऽगुप्तिप्रत्ययः प्रमादस्तं मन्त्रिमहत्तमादीनां महता समवायेन समं समागच्छन्ति, ततएतेषु तनुरपि निरुणद्धि, तन्निरोधाच तत्प्रत्यय कर्मापि न बध्नाति, यस्तु समितौ स्वल्पोऽपि अनभ्युत्थानमात्रलक्षणो दोषः स्फातिं गच्छति, सर्वत्र स्थितः, सचेष्टस्य यः प्रमादो , यश्च तत्प्रत्ययः कर्मबन्धस्तयोनिरोधं विदधाति। विस्तरतीति भावः। अपि च- साधुभिरनभ्युत्थीयमाने आचार्यः परिभूतो भवति, परिभवपदमुपगच्छतीत्यर्थः / परिभूतस्य च वाक्यं वचनं कथं परः प्राह-यो गुप्तः स समितौ भवत्युत नेति ? यो वा समितः स गुप्तो नाम राजादीनां ग्राह्यमुपादेयं भवेत् ? वैडूर्यमिव रत्नं कुत्सितवेषे भवत्युत नेति? अत्रोच्यतेकार्पटिकवेषधारिणि मनुष्ये वर्तमानं यथा तदीये हस्ते स्थितं सदनय॑मपि समितो नियमा गुत्तो, गुत्ते समियत्तणम्मि भइअव्वो। तन्न जनस्योपादेयम्, एवं गुरूणामपिधर्मकथावाक्यं गाम्भीर्यमाधुर्यगुणै- कुसलवइमुदीरंतो, जं वइसमितो वि गुत्तो वि।। रनय॑मपि परिभूततया न राजादीनामुपादेयं भवति / तदनुपादेयतायां इह समितयः प्रतीचाररूपा इष्यन्ते, गुप्तयस्तु प्रतीचाराच तेषां सम्यग्दर्शना-दिप्रतिपत्तिरपिन भवति, अतोराज्ञा सार्द्ध समायाते ऽप्रतीचारोभयरूपाः। प्रतीचारो नाम कायिको वाचिको व्यापारः, ततो अनभ्युत्थी-यमाने पाराञ्चिकम्। यः समितः सम्यग्गमनभाषणादिचेष्टायां प्रवृत्तः, स नियमाद् गुप्तो गुप्तियुक्तो परः प्राह-युक्तं प्रश्नवणभूम्यादेरागतस्याभ्युत्थानम्, यत्तु चङ्क्रमणं मन्तव्यः। यत्र गुप्तः समितत्वे भक्तव्यो विकल्पनीयः, तत्र समितः कथं कुर्वतोऽभ्युत्थानं, तन्नाऽस्माकं युक्तिक्षमं प्रतिभाति / नियमाद् गुप्तः ? इत्याह- कुशलां निरवद्यतादिगुणोपेतां वाचमुदीरयन् यतः यस्माद्वाक्समितोऽपि गुप्तोऽ-पि। किमुक्तं भवति?-यः सम्यगनुविचिन्त्य निरवद्या भाषां भाषते, स भाषासमितोऽपि वाग्गुप्तोऽपि च भवति, अवस्सकिरियाजोगे, वटुंते साहुपूजया। गुप्तेरप्रतीचाररूपतयाऽप्यभिधानात् / अतः समितो नियमाद् गुप्त इति। परिफग्गुं तु पासामो, चंकमंते वि उट्ठाणं / / गुप्तः समितत्वे कथं भजनीयः? इत्याहविचारविहारादिको योऽवश्यंकर्तव्यः क्रियायोगस्तत्र वर्तमानो यदा जो पुण कायवईओ, निरुज्झ कुसलं मणं उदीरेइ। समागच्छति, तदा साध्वी श्रेयसी, तस्यपूज्यता।यदातुचङ्कमणं करोति, चिट्ठइ एक्कग्गमणा, सो खलु गुत्तोन समितो उ॥ तदा निरर्थको योगो वर्तते। अतश्चक्रमत्यपि गुरौ यदुत्थानं तत्परिफल्गु यः पुनः कायवाचौ निरुध्य कुशलं शुभं मन उदीरयन् एकाग्रमना निर्मूलमेव पश्यामः / यत उक्तं भगवत्याम्-"जावं च णं से जीवे आरंभे धर्मध्यानाधुपयुक्तचित्तः तिष्ठति, स खलु गुप्त उच्यते, न समितः वट्टइ, संरंभे वट्टइ, तावं चणं तस्स जीवस्स अंतकिरियान भवइ / अत्र प्रतीचाररूपत्वात् / यस्तु कायवाचौ सम्यक् प्रयुक्ते, स गुप्तोऽपि सूरिप्रतिविधानमाह समितोऽपि मन्तव्यः। कामं तु एअमाणो, अरंभाईसु वट्टई जीवो। अथ समितिगुप्तीनां परस्परमवतारं दर्शयन्नाहसो उ अणट्ठी णट्ठो, अवि बाहूणं पि उक्खोवे / / वायगसमिई बिइया, तइया पुण माणसी भवे समिई। काममनुमतं,यदेष जीवएजमान आरम्भादिषु कर्मबन्धकारणेषु वर्तते, सेसा उ काझ्या उ, मणो उसव्वासु अविरुद्धो॥ स तु, स पुनः परस्पन्दोऽनर्थी निष्कारणं, नेष्टो नाभिमतः / अपि वाचिक समितिः, सा द्वितीया वाग्गुप्तिमन्तव्या। यदा किल बाह्रोरुत्क्षेपे बाहूत्क्षेपमात्रेऽपि, किं पुनः चक्रमणा-दिरित्यपिशब्दार्थः / भाषासमितो भवति, तदा यथा भाषाया असमितिप्रत्ययकर्मबन्धं अर्थादापन्नं- यः सार्थकः चङ्क्रमणा-दियापारः, स इष्ट एवेति। निरुणद्धि तथाऽवाग्गुप्तिप्रत्ययमपि कर्मबन्धं निरुणद्धि, एवं अथ सार्थकोऽपि व्यापारः कथमिष्टः ? इत्यस्यां जिज्ञासायां यथा | भाषासमितिवाग्गुप्त्योरेक त्वम् / तृतीयं पुनरेषणाख्या समि Page #882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब्भुट्ठाण 698 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अब्भुट्ठाण तिर्मानसी मानसिकोपयोगनिष्पन्ना / किमुक्तं भवति ?-यदा साधुरेषणासमितो भवति, तदा श्रोत्रादिभिरिन्द्रियैर्हस्तमात्रकधावनादिसमुत्थेषु शब्दादिषूपयुज्यते / अत एवास्या मनोगुप्से चैकत्वं, शेषास्तु समितय ईा आदाननिक्षेपोचारादिपारिष्ठापनिकाख्याः कायिक्य:- कायचेष्टानिष्पन्नाः। अत एवासां तिसृणामपि कायगुप्त्या सहैकत्वम् / (मणो उ सव्वासु अविरुद्धोत्ति) मानसिक उपयोगः सर्वासु पञ्चस्वपि समि-तिष्वविरुद्धः, समितिबन्धकेऽप्यस्तीति भावः। अत एव मनोगुप्तस्य सर्वासां समितीनां मनोगुप्त्या सहैकत्वं मन्तव्यम् / आह-भिक्षार्थ गृहद्वारे स्थितस्य तत्राहारादीनि कल्पनीयानि मार्गयतः श्रोत्रादिनिरुपयुक्तस्य भाषासमितिमनोगुप्त्येषणासमी-तीनां तिसृणामपि संभवो दृश्यते। अतः किमासामेकत्वमुता-ऽन्यत्वम् ? इत्याशक्याऽऽहवयसमितो चिय जायइ, आहारादीणि कप्पणिजाणि। एसणउवओगे पुण, सोयाई माणसी भवइ / / शशितम्रक्षितादिदशदोषरहितं मया ग्राह्यमित्येषणासमिति-भावसंयुक्तो यदा साधुराहारादीनि कल्पनीयानि मार्गयति तदा वाक्समित एवासौ जायते, नपुनर्मनोगुप्तः इत्येवकारार्थः। यदातु श्रोत्रादिभिरेषणायामुपयोगं करोति, तदा मानसी नाम गुप्तिर्भवेत्, मनोगुप्तिरित्यर्थः / न पुनर्वाग्भाषासमितिः / इदमेव तात्पर्यम्- भाषासमितिः, मनोगुप्तिश्चेति द्वे समितिगुप्ती युगपन्न भवतः, किन्तु भिन्नकालं, यद्यपिच 'मणोय सव्वासु अविरुद्धो ति" वचनाद् भाषासमितावपि मानसिकोपयोगः समस्ति, तथापि गौणत्वादसौ सन्नपिन विवक्ष्यत इति। अपि चजो वि य ठियस्स चेट्ठा, हत्थादीणं तु भंगियाईसु। सो वि य ईरियासमिती, न केवलं चंकमंतस्स // न केवलं चक्रमतश्चक्रमणं कुर्वत एव ईर्यासमितिः, किन्तु स्थितस्य गमनागमनक्रियामकुर्वतो भङ्गिकादिषु भङ्ग-बहुलगमबहुलादिश्रुतेषु परावर्तमानेषु भङ्ग कादिरचना, ययाऽपि हस्तादीनां चेष्टा, साऽपि परिस्पन्दरूपत्वादीर्यासमितिः प्रति-पत्तव्या।यच परेण प्रागुक्तंचङ्क्रमणं निरर्थकमित्यादि तत्परिहाराय चक्रमणगुणानुपदर्शयतिवायाई सट्ठाणं, वयंति कुविया उ संनिरोहेणं। लाघवमग्गिपडुत्तं, परिस्समजओ अचंकमतो।। अनुयोगदानादिनिमित्तं यश्विरमेकस्थानोपवेशनलक्षणः सन्निरोधः, तेन कुपिताः स्वस्थानाचलिता ये वातादयो धातवस्ते चंक्रमतो भूयः स्वस्थानं व्रजन्ति / लाघवं शरीरे लघुभाव उपजा-यते / अग्रिपटुत्वं जाठरानलपाटवंच भवति।यस्तु व्याख्यानादि-जनितः परिश्रमः, तस्य जयः कृतो भवति / एत चक्रमतो गुणा भवन्ति, अतो न निरर्थक चक्रमणम्। आह- यद्येवं, ततः किमवश्यं तत्राऽभ्युत्थानं कर्तव्यमुतन ? इत्यत्रोच्यतेचंकमणे पुण भइयं, मा पलिमंथो गुरूवितिन्नम्मि। पणिवायवंदणं पुण, काऊण सई जहाजोगं / / चैतद्विशिनष्टिप्रश्रवणविचारभूम्यादेरागतस्य गुरोः कर्तव्यमेवाभ्युत्थानम्। चक्रमणे पुनर्भक्तं विकल्पितम्। कथम् ? इत्यत आह-मा / सूत्रार्थपरावर्तनायाः परिमन्थो व्याघातो भवत्विति कृत्वा, यदि गुरवो अनभ्युत्थानं वितरन्ति, तदा नाऽभ्युत्थातव्यम् / परमेवं गुरुभिर्वितीर्णे सति सकृदेकवारमभ्युत्थानं विधाय प्रणिपातवन्दनशिरःप्रणामलक्षण कृत्वा भगवन् ! अनुजानीध्वमिति भणित्वा यथायोगं यथेप्सितं सूत्रार्थगुणनादिकं व्यापारं कुर्यात् / अथवा गुरयो न वारयन्ति, ततो नियमादभ्युत्थातव्यम्। पुनरपि परः प्रेरयति-यदिचक्रमणाभ्युत्थाने सूत्रार्थ-परिमन्थदोषो भवति, तत इदमस्माभिरुच्यतेअइसुठुमिदं वुच्चइ, जं चंकमणे वि होइ उट्ठाणं / एवमकारिजंतो, भद्दगमोई व मा कुज्जा / अतिसुष्ठ वतीव प्रबुद्धजनोचितमिदं भवद्भिरुच्यते-यचङ् - क्रमणेऽप्यभ्युत्थानं कर्तव्यं भवति / सूरिराह- एवं चड्-क्रमणविषयमभ्युत्थानमकार्यमाणा भद्रकभोजिकस्येव प्रसङ्गतो मा शेषमप्यविनयं कार्षुरितिकृत्वा चङ्क्रमणेऽपि अभ्युत्थानं कार्यते / अथ कोऽयं भद्रकभोजिकः ? इत्युच्यते। "जहा -एगो भोइओ तस्स रन्ना तुटेण गाममंडलं पसासणे दिन्नं। सो तत्थ गतो, ताहे ते गामिल्लया तुट्ठा भइओ सामी लद्धो त्ति (ऋजुरित्यर्थः) तओ ते भोइयं विन्नवेति-अहे तव पुत्ताणुपुत्तियं तिव्वा जाया, तो अम्हे चिंतणिज त्ति काउंकरपुव्वपरिमाणाओथोवतरं करेहि, भोइएण अब्भुवगयइ / अन्नया जं जं ते विन्नति, तो तं सो भद्दओ तेसिं गामेल्लयाणं अनुग्गहं करेइ / अइवीसत्थत्तणेण लद्धपसरा ते जहारिहं विणयं भंसिउमादत्ता। ततो भोइयेण रुट्टेण तेगामिल्लया दंडिया, केइ उद्दविया" एस दिलुतो। अयमत्थोवणओ- "चंकमणे अणदभुट्ठाणे, सेसं पि विणियं परिहविज, ततो रुट्ठो आयरिओ पच्छित्ते दंडिजा, जे य तत्थ अचंतावराहिणोते गच्छाओ निच्छुभिजा, विणयमकारिजंताय ते इह लोए पारलोए य परिचत्ता भवंति। आयरिओय सरणमुवगयाणं तेसिं न संरक्षणकारी भवइ, अओ चंकमणे विते अब्भुट्ठाणं कारिजंति'। अपिचवसभाण हॉति लहुगा, असारणे सारणे अपच्छित्ता। ते वि य पुरिया दुविहा, पंजरभग्गा अभिमुहा य॥ येते गुरुचक्रमणादिषु नाभ्युत्तिष्ठन्ति, तान यदि वृषभान सारयन्तिकस्मादाचार्यान्नाभ्युत्तिष्ठथ? ततो वृषभाणां चतुर्ल घवः / अथ वृषभैः प्रतिनोदिताः परं ते न प्रतिशृण्वन्ति, ततः सारण- कृते सति वृषभा अप्रायश्चित्ताः, इतरे प्रायश्चित्तमापद्यन्ते / अनभ्युत्थाने असारणायां चाऽमी दोषा भवन्ति- ये प्रतीच्छका उपसंपत्प्रतिपत्त्यर्थमायाताः ते द्विविधा पुरुषा भवन्ति-पञ्ज-रभग्राः, संयमाभिमुखाश्च / तत्र गच्छे वसतां यदाचा-र्योपाध्यायप्रवर्तकं स्थविरगणावच्छेदिकाख्यपदस्थपञ्चकस्य पारतन्त्र्यं यावद् परस्परं प्रतिनोदनाः, एतत् पञ्जरमुच्यते, एतस्मात् पञ्जराद्भग्ना निन्दिताः पञ्जरभग्नाः / संयमाभिमुखास्तुपावस्थाद्यवयव भग्नविहारिगच्छाचारित्राभिलाषितात्संविन-गच्छं प्रवेष्टुकामाः, तत्र ये पञ्जरभग्ना आगतास्तेषामनभ्युत्थान-विषयाः। मुख्यस्तु पार्श्वस्थाद्यप्रतिनोदनां दृष्ट्वा चिन्तयतिभग्गा कटी अब्भुट्ठाणेण देइ अणुट्ठाणगे सोही। अनिरोहसुहो वासो, होहिइणे इत्थ चिट्ठामो॥ Page #883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब्भुट्ठाण 699 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अब्भुणय अस्माकं पूर्वस्मिन् गच्छे वसतामाचार्यस्य चक्रमणादिषु वारं वारं संयमकामिना संयमाभिमुखेन साधुना मोक्तव्योऽसौ, नाऽऽश्रयणीय इति अभ्युत्थानेन कटी भग्ना, अथाऽसौ नाभ्युत्थीयते, तदाशोधिं प्रायश्चित्तं भावः ! गाथायां प्राकृतत्वादिकारस्य दीर्घत्वम्। प्रयच्छति, गाढंच खरपरुषैः खरण्टयति, अस्मिस्तुगच्छेन प्रायश्चित्तं, प्रकारान्तरेण प्रायश्चित्तमभिधित्सुः प्रस्तावनामाहन च खरण्टना, अतोऽनिरोधोऽनियन्त्रणा, तेन सुखं सुखदायी वासोऽत्र अयमपरो उ विकप्पे, पुव्वावरवाहय त्ति ते बुद्धी। 'णे' अस्माकं भविष्यति, तिष्ठामो वयमत्रेति कृत्वा तत्रैव तिष्ठेयुः, न भूयः लोए वि अणेगविहं, नणु भेसज मो रुजोवसमे।। स्वगच्छंगच्छेयुः। अयमग्रेतनगाथायां वक्ष्यमाणोऽपरः प्रायश्चित्तस्य विकल्पः जे पुण उज्जयचरणा, पंजरभग्गो न रोयए ते उ। प्रकारः / अत्र परः प्राह-पूर्वापरव्याहतमिदम्, पूर्वमन्यादृश अन्नत्थ वि सइरत्तं, न लब्भई एति तत्थेव // प्रायश्चित्तमुक्त्वा यदिदानीमन्यादृशमभिधीयते, तदेतत् पूर्वाये पुनरुद्यतचरणाः स्वल्पेऽप्यनभ्युत्थानादावपराधे सम्यक्प्रति- परविरुद्धमिति ते तव बुद्धिः स्यात्। तत्रोच्यते-ननु लोकेऽपि रुजोपशमे नोदनाकारिणः, तान् पञ्जरभग्नो न रोचयति, न रुचिपथं विधातव्ये यथा त्रिफलात्रिकटुकादिभेदादनेकविधं भेषजं, 'मो' प्रापयति / चिन्तयति च -अन्यत्रापि गच्छान्तरे स्वैरित्वं स्वातन्त्र्यं न पादपूरणे / प्रयुज्यमानं दृष्टमेव, एवमत्राप्येकस्यैवान-भ्युत्थानस्यतथा लभ्यत इति विचिन्त्य तत्रैव स्वगच्छे एति समागच्छति। क्षेत्रमहाजनादिभेदेनानेकविधं प्रायश्चित्तमभिधीयमानं न विरुद्ध्यते। अत्र संयमाभिमुखोऽसौ समागतस्ततः किम् ? इत्याह इत्थं पराभिभूतं परिहत्य प्रायश्चित्तमाहचरणोदासीणे पुण, जो विप्पजहाय आगतो समणो। वीयारसाहुसंजइ-निगमघडासंघरायसहिए तु। सो तेसु पविसमाणो, सड्ढं वड्डेइ ओभओ वि॥ लहुगो लहुगा गुरुगा, छम्मासा छेदमूलदुर्ग / यः पुनः श्रमणश्चरणोदासीनान् पार्श्वस्थादीन् सुखशीलविहारिणो आचार्य विचारभूमेरागतं नाऽभ्युत्तिष्ठन्ति, मासलघु, साधुभिः विप्रहाय संयमाभिमुखः समागतः, स तेषु गच्छान्तरीयेषु साधुषु प्रविशन् सममायातमनभ्युत्तिष्ठतां चतुर्लघवः, संयतीभिः समं चतुर्गुरवः, निगमैः उभयेषामपि साधूनां श्रद्धां वर्द्धयति। तथाहि-यत्र गच्छे असौ प्रविशति, पौरवणिग्विशेषैः समं षड्लघवः, घटया महत्तरा-दिगोष्ठीपुरुषस मवायलक्षणया समं छेदः, संघेन समं मूलम्, राज्ञा सममनवस्थाप्यम्। तदीयाः साधवः चिन्तयन्तिएष "सुन्दरा अमी" इति परिभाव्याऽस्माकं (सहिए त्ति) संघसहितेन राज्ञा सममा-यातमनभ्युत्तिष्ठतां पाराश्चिकम्। मध्ये प्रविशति, अतः सुन्दरतरं कुर्महे। यस्मादपि गच्छादायातः तदीया अपि चिन्तयन्ति -अस्मान् सुखशीलानिति विज्ञायैव गच्छान्तरं गच्छति, गतमभ्युत्थानम्। बृ०३ उ०। (यत्राऽवसरे यैर्वा कारणैरभ्युत्थानंन कर्तव्यं, तदेतत् सर्व 'अइसेस' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 24 पृष्ठे दर्शितम्) अतो वयमुद्यता भवाम इति / अथाऽसौ संयमाऽभिमुखस्तत्राऽपि पुन तत्करिष्यामीत्यभ्युपगमे, स्था०३ ठा०३ उ० प्रयत्ने, स्था०२ सामाचारीहापन प्रतिनोदनाया अभावं च पश्यति, ततश्चिन्तयति ठा०१ उ०। आसनत्यागरूपे, संभोगाऽसंभोगस्थाने यथा इत्थ वि मेराहाणी, एते विहु सारवारणामुक्का। पार्श्वस्थादेरभ्युत्थानं कुर्वस्तद्वि-संभोग्यः। स०१२ सम०ा प्रव०आव० अन्ने वयइ अभिमुहो, तप्पचयनिजराहाणी॥ आ०चू०। गुरूनागतान् दृष्ट्वा स्वकीयस्थानादूर्वीभवने, उत्त०३३ अ०। अत्रापि गच्छे, न केवलं पूर्वस्मिन्नित्यपिशब्दार्थः / मर्यादाया (अभ्युत्थाने दण्डकः 'सक्कार' शब्दे दर्शयिष्यते) (त्रिभिः स्थानैर्देवा अभ्युत्थानादिसामाचार्या हानिरवलोक्यते, एतेऽपि च साधवः ____ अभ्युत्तिष्ठेयुरिति 'मणुस्सलोय' शब्दे दर्शयिष्यते)। सारणवारणया मुक्ताः परिस्फुटं प्राक्तनगच्छसाधव इव निरर्गलाः | अन्मुट्टित्तए-अव्य०(अभ्युत्थातुम्) अभ्युपगन्तुमित्यर्थे, स्था०२ ठा०१ समीक्ष्यन्ते, अतः को नामामीषां समीपे स्थास्यतीति मत्वा स उ० संयमामिमुखः साधुरन्यान् गच्छान्तरीयान् साधून व्रजति प्रवि अन्मुट्ठिय-त्रि०(अभ्युत्थित) कृतोद्यमे, "अब्भुट्ठियं रायरिसिं, शति। प्रविशतु नाम गच्छान्तरं, का नो हानिरिति चेत् ? अत आह पव्वजाठणमुत्तमं / उत्त०६ अ० "अब्भुट्टिएसु मेहेसु' प्रर्वषणाय तत्प्रत्ययातस्य साधोः संयमानुपालनोपष्टम्भकारणहेतुका या निर्जरा, कृतोद्यमेषु, ज्ञा०१ अ० प्रारब्धे, ध०३ अधि। अभ्युदिते, उत्त०६ अ०। तस्या हानिः प्राप्नोति, सान भवतीत्यर्थः।। आह -किं कारणमसौ तेषु तत्र विशति? इत्याह अब्भुढेत्ता-त्रि०(अभ्युत्थात) अभ्युपगन्तरि, स्था०५ ठा०१ उ०। जहि नत्थि सारणा वारणा य पडिचोयणा य गच्छम्मि। अन्मुडेयव्व-त्रि०(अभ्युत्थातव्य) अभ्युपगन्तव्ये, स्था०५ ठा०1 सो उ अगच्छो गच्छो, संजमकामीणा मोत्तव्यो / / अब्भुण्णय-त्रि०(अभ्युन्नत) उन्नतिमति, ज्ञा०१ अ० "अब्भुविस्मृते क्वचित् कर्तव्ये भवतेदं न कृतमित्येवंरूपा स्मारणा सारणा, प्रणयरइयतलिणतंबसुइनिद्धनखा'' अभ्युन्नता रतिदाः सुखदाः, अकर्तव्यनिषेधो वारणा, उपलक्षणत्वादन्यथा कर्तव्यमनाभोगादिना अथवा रचिता इव रचिताः, तलिनाः प्रतलाः, ताम्रा आरक्ताः, अन्यथा कुर्वतः सम्यक् प्रवर्तना प्रेरणा, वारितस्यापि पुनः पुनः शुचयः पवित्राः,स्निग्धाः कान्ताः, नखा येषां ते तथा / प्रश्न०४ प्रवर्तमानस्य खरपरुषोक्तिभिः शिक्षणं प्रतिनोदना:एताः सारणादयो यत्र आश्र०द्वा०। "अब्भुण्णयपीणरइयसंठियपओहरा" अभ्युन्नतागच्छे न सन्ति, स गच्छ गच्छकार्याकरणादगच्छे मन्तव्यः / अत एव वुचौ पीनौ स्थूलौ रतिदौ सुखप्रदौ संस्थितौ विशिष्टसंस्थानवन्तौ स Page #884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब्भुण्णय 700- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 आग्गसेण पयोधरौ स्तनौ यस्याः सा तथा / (वरतरुणी) जी०३ प्रति०। ज्ञा०।। अत्युत्कटे, आ०म०प्र०ा जं० रा०) अब्भुत्त-धा०(स्ना) पर०, अदा०, शौचे, "स्नातेर मुत्तः"।८।४।१४। / इति सूत्रेण धातोः अन्भुत्त' इत्यादेशः अब्भुत्तइ-स्नाति। प्रा०४ पाद / प्र-दीप-धा०, दिवा०। आत्मप्रकाशे, "प्रदीपेस्ते अवसंदुमसंधुक्कामुत्ताः" |841521 इति सूत्रेण प्रदीप्यतेः 'अब्भुत्त' आदेशः / अब्भुत्तइ-प्रदीप्यते / प्रा०४ पाद। अब्भुदय-पुं०(अभ्युदय) राजलक्ष्म्यादिलाभे, ज्ञा०२ अ० अभ्युदयो / यथेह राज्याभिषेकादिप्रीतये भवति, तथा स्वर्गापवर्गप्राप्ति-हेतुत्वादस्य संस्तारकस्य, अतएषोऽप्यभ्युदयः। संथा०। अब्भुदयफल-त्रि०(अभ्युदयफल) अभ्युदयनिवर्तके, षो०६ विव०। अब्भुदयहेउ-पुं०(अभ्युदयहेतु) कल्याणनिमित्ते, पचा०५ विव०। अब्भुदयावुच्छित्ति-स्त्री०(अभ्युदयाव्युच्छित्ति) स्वर्गादेरव्यवच्छेदे सन्ततौ, षो०६ विव०। अब्भुय-त्रि०(अद्भुत) सकलभुवनातिशायिनि श्रुतशिल्पत्यागतपःशौर्यकर्मादिके अपूर्वे वस्तुनि, उपचारात्तद्दर्शन-श्रवणादिभ्यो जाते विस्मयरूपे रसविशेषे, पुं०। अनु०। अद्भुतरसं स्वरूपतो लक्षणतश्चाऽऽहविम्हयकरो अपुष्वो, अनुभूअपुव्वो य जो रसो होइ। हरिसविसाओप्पत्ती-लक्खणा उ अब्भुओ नाम॥६॥ अब्भुओ रसो जहाअब्मुअतरमिह एतो, अन्नं किं अस्थि जीवलोगम्मि। जंजिणवयणे अत्था, तिकालजुत्ता मुणिजंति॥ कस्मिँचिदनुभूते वस्तुनि दृष्ट विस्मयं करोति, विस्मयोत्कर्षरूपो यो रसो भवति सोऽद्भुतो नामेति संटङ्कः / कथंभूतः ? अपूर्वोऽनुभूतपूर्वो *वा / अनुभूतपूर्वः किंलक्षणः ? इत्याह- हर्षविषादोत्पत्तिलक्षणः, शुभे वस्तुन्यद्भुते दृष्टहर्षजननलक्षणः, अशुभेतु विषादजननलक्षण इत्यर्थः / उदाहरणमाह- "अब्भुय" -गाहा / इह जीवलोकेऽद्भुततरं इता जिनवचनात् किमन्यदस्ति, नास्तीत्यर्थः / कुतः ? इत्याहयद्यस्माग्जिनवचनेनार्था जीवादयः सूक्ष्मव्यवहिततिरोहिताऽतीन्द्रियाऽमूर्तादिस्वरूपा अतीतानागत-वर्तमानरूपाः त्रिकालयुक्ता अपि ज्ञायन्त इति / अनु० / “अब्भुए गीए अब्भुए वाइए अब्भुए न?" अद्भुतामाश्चर्यकारि। रा०] अब्भुवगम-पुं०(अभ्युपगम) अङ्गीकरणे, स्था०२ ठा०४ उ०| अब्भुवगमसिद्धंत-पुं०(अभ्युपगमसिद्धान्त) सिद्धान्तभेदे, बृ० सचजं अन्मुविच कीरइ, सेच्छाए कहा स अब्भुवममो उ। सीतो वन्ही गयजूह तणग्गे मग्गुखरसिंगा।। यत अभ्युपेत्य स्वेच्छया अभ्युपगम्य वादकथा क्रियते / यथाशीतो वह्निः, गजयूथं तृणाग्रे, मद्गोर्जलकाकस्य, खरस्य च शृङ्गम्, इत्येषोऽभ्युपगमसिद्धान्तः / बृ०१ उ०। अपरीक्षितार्थाभ्युपगमात्तद्विशेषपरीक्षणमभ्युपगमसिद्धान्तः। तद्यथा-किंशब्दः ? इति विचारे कश्चिदाह-अस्तु द्रव्यं शब्दः, सतु किं नित्योऽथाऽनित्य इत्येवं विचारः। सूत्र०१ श्रु०१२ अ० अब्भुवगय-त्रि०(अभ्युपगत) अभि आभिमुख्येनोपगतः। आचा०२ श्रु०३ अ०१ उ०ा अभ्युपगमवति, व्य०७ उ०। संप्राप्ते, पा० / श्रुतसंपदोपसंपन्ने, आ०म०प्र० / अङ्गीकृते, पं०व०१ द्वार। अन्मोवगमिया-स्त्री०(आभ्युपगमिकी) अभ्युपगमेनाङ्गीकरणेन निवृत्ता, तत्र भवा वाऽऽभ्युपगमिकी / स्वयमभ्युपगतायां (वेदनायाम)। स्था०२ ठा०४ उगा या हि स्वयमभ्युपगम्यते, यथा-साधुभिः प्रव्रज्याप्रतिपत्तितो ब्रह्मचर्यभूमिशयनकेशोल्लु-चनातापनादिभिः शरीरपीडाभ्युपगमनम्। भ०१ श०४ उ०। "दुविहा वेदणा पण्णत्ता / तं जहा-अब्भोवगमिया य उवक्कमिया य" / प्रज्ञा०३४ पद। अभग्ग-त्रि०(अभग्न) न भग्नोऽभग्नः / सर्वथाऽविनाशिते, "एवमादिएहिं आगारेहिं अभग्गो अविराहिओ हुन्ज मे काउस्सग्गो" | आव०५ अ०। धाला आ०चू०। अभग्गसेण-पुं०(अभग्नसेन) विजयाभिधानचौरसेनापतिपुत्रे, विपा०। तत्कथानकं चेदम् - तबस्स उक्खेवो, एवं खलु-जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं पुरिमतालणाम णयरे होत्था, रिद्धि० तस्स णं पुरिमतालस्स उत्तरपुरच्छिमे दिसिभाए, एत्थणं अमोहदंसी उज्जाणे, तत्थ णं अमोहदंसिस्स जक्खस्स जक्खायतणे होत्था, तत्थ णं पुरिमताले महब्बले णामं राया होत्था, तत्थ णं पुरिमतालस्स णयरस्स उत्तरपुरच्छिमे दिसिमाए देसप्पंते अडवी संसया। एत्थ णं सालाडवी णामं चोरपल्ली होत्था, विसमगिरिकंदरकोलंबसण्णिविट्ठा वंसीकलंकपागारपरिक्खित्ता छिण्णसेलविसमप्पवायफरिहोवगूढा अभितरपाणिया सुदुल्ल-भजलपेरंता अणेगखंडी विदितजणदिण्णनिग्गमप्यवेसा सुबहुयस्स विक्कविजयस्सजणस्स दुप्पवेसा यावि होत्था। तत्थ णं सालाडवीए चोरपल्ली विजए णामं चोरसेणावइ परिवसइ, अहम्मिए, जाव लोहियपाणी बहुणयरणिग्गयजसे सूरे दढप्पहारे साहस्सिए सहवेही असिलट्ठिपढममल्ले,सेणं तत्थ सालाडवी चोरपल्लीए पंचण्हं चोरसयाणं आहिवचं० जाव विहरइ। तए णं से विजए चोरसेणावइ बहूणं चोराण य पारदारियाण य गंठिच्छे याण य संधिभेयाण य खंडपट्टाण य अण्णेसिं च बहूणं छिण्णमिण्णबाहिराऽहियाणं कु डंगेया वि होत्था / तएणं विजयचोरसेणावइपुरिमतालस्स णयरस्स उत्तरपुरिच्छिमिल्लं जणवयं बहुहिं गामघाएहि य णयर Page #885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभग्गसेण 701 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अभग्गसेण घाएहि य गोग्गहणे हि य बंदिग्गहणे हि य पंथकोट्टे हि य खत्तखणणेहिय उवीलेमाणे उवीलेमाणे विद्धंसेमाणे विद्धंसेमाणे तज्जेमाणे तजेमाणे तालेमाणे तालेमाणे णित्थाणे णिद्धणे णिक्कणे करेमाणे विहरइ, महब्बलस्स रण्णो अभिक्खणं अभिक्खणं कप्पाइं गिण्हइ, तत्थ णं विजयस्स चोरसेणावइस्स खंधसिरी णामं भारिया होत्था / अहीण तत्थ णं विजयचोरसेणावइस्स पुत्ते खंधसिरीए भारियाए अत्तए अभग्गसेणे णामं दारए होत्था अहीण०॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे पुरिमतालणामं णयरे जेणेव अमोहदंसी उज्जाणे तेणेव समोसढे परिसा राया निग्गओ, धम्मो कहिओ, परिसा राया वि गओ। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्टे अन्तेवासी गोयमे० जाव रायमगं समोवगाढे, तत्थ णं बहवे हत्थी पासइ। तए णं तं पुरिसं राया पुरिसा पढमंसि चचरंसि णिसियाविंति, णिसियाविंतित्ता अट्ठचुल्लपिउए अग्गओ घाएइ कसप्पहारेहितालेमाणे तालेमाणे कलुणं काकणिमंसाइंखावेइ, खावेइत्ता रुहिरपाणं च पायतित्ति / तयाणंतरं च णं दोचं पि चचरसि अट्ठलहुमाउयाओ अग्गयो घाएयति, घाएयतित्ता एवं तचे० अट्ठमहापिउए, चउत्थे० अट्ठमहामाउए, पंचमे पुत्ता,छट्टे सुण्हा, सत्तमे जामाउया, अट्ठमे धूयाओ, णवमे णत्तुया, दसमे णत्तुयओ, एकारसे णत्तुयावइ, बारसमे णइणीओ, तेयारसमे उस्सियपतिया, चउद्दसमे पिउस्सियाओ, पण्णरसमे मासियाओ पझ्याओ, सोलसमे मासियाओ०,सत्तरसमे मासियाओ०, अवारसमे अवसेसं मित्तणाइणियगसयणसंबंधिपरिजणं अग्गओ घायंति, घायंतित्ता कसप्पहारेहिं तालेमाणे तालेमाणे कलुणं काकणिमसाई खावेइ रुहिरपाणं च पाएइ / तए णं से भगवं गोयमे तं पुरिसं पासइ, पासइत्ता अयमेयारूवे अज्झवत्थिये 5 समुप्पण्णे० जाव तहेव णिग्गए एवं क्यासी- एवं खलु अहं भंते ! से णं भंते ! पुरिसे पुव्वभवे के आसी० जाव विहरइ। एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे भारहे वासे पुरिमताले णामं णयरे होत्था, रिद्धि०३ तत्थणं पुरिमताले उदये णामं राया होत्था, महया० तत्थ णं पुरिमताले निन्नए णामं अंडयवाणियए होत्था, अड्डे० जाव अपरिभूए अहम्मिए० जाव दुप्पडियाणंदे / तस्स णं णिण्णियस्स अंडयवाणियस्स बहवे पुरिसा दिण्णभत्तिभत्तवेयणा कल्ला-कल्लिं कोहालियाओ य पत्थियाए पडिए गेण्हइ,गेण्हइत्ता पुरिमतालस्स णयरस्स परिपेरंते सुबहुकाकअंडए य घूतिअंडए य पारेवइटेट्टिमिखगिमयूरिकुकुडिअंडए य अण्णेसिं चेव बहूणं जलयरथलयरखहयरमाईणं अंडाई गेण्हइ, गेण्हइत्ता पत्थियपडिगाइं भरेइ, भरेइत्ता जेणेव निण्णए अंडयवाणियए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता णिण्णयस्स अंड्यवाणियस्स उवणेइ, तएणं तस्स णिण्णयस्स अंडयवाणियस्स बहवे पुरिसा दिण्णभए बहवे कायअंडए य० जाव कुकुडअंडए य अण्णेसिं च बहूणं जलथलखेचरमाईणं अंडए तवएसु य कंडएसु य भजणएसु य इंगालेसु य तलिंति भजंति सोल्लिति, तल्लिता भजंता सोल्लिताय रायमग्गं अंतरावणंसि अंडयपणियणं वित्तिं कप्पेमाणे विहरइ, अप्पणो वियणं से णिण्णए अंडयवाणियए तेसिं बहूहिं कायअंडएहि य० जाव कुकुडिअंडरहिय सोल्लेहिं तल्लि भजे सुरं च 4 आसाए०४ विहरइ / तए णं से णिण्णए अंडए एयकम्मे० 5 सुबहुपावं समज्जित्ता एगं वाससहस्सं परमाउं पालइ, पालइत्ता कालमासे कालं० तचाए पुढवीए उक्कोससत्तसागरोवमद्वितीएसु जेरइएसुणेरइयत्ताए उववण्णे। से णं ताओ अणंतरं उव्वट्टित्ता इहेव सालाडवीए चोरपल्लीए विजयस्स चोरसेणावइस्स खंदसिरीए भारियाए कुञ्छिसि पुत्तत्ताए उववण्णे, तएणं से खंदसिरीभारियाए अण्णया कयाई तिण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं इमेयारूवे दोहले पाउब्भूएधण्णाओणं ताओ अम्मयाओ०४ जाणं बहूहि मित्तणाइणियगसयणसंबंधिपरियणमहिलाएहिं अण्णे हि य चोरमहिलाहिं सद्धिं संपरिवुडा ण्हाया० जाव पायच्छित्ता सव्वालंकारभूसिया विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं सुरं च० 5 आसाएमाणे० 4 विहरइ / जिमियभुत्तुत्तरागयाओ पुरिसणेवत्थिया सण्णद्ध० जाव पहरणावरणाभरिएहि य फ्लएहिं णिक्टिाहिं असीहि अंसागएहि तोणे हिं सजीवेहिं धणू हिं समुक्खित्तेहिं सरेहिं समुल्लावेलियाहि य दामाहिं लंबियाहिं उसारियाहिं उरुघंटाहिं छिप्पत्तरेणं विज्जमाणे विजमाणे महया महया उक्किट्ठ०जाव समुहरवभूयं पिव करेमाणीओ सालाडवीए चोरपल्लीए सव्वओ समंताओ लोएमाणीओ लोएमाणीओ आहिंडमाणीओ आहिंडमाणीओ, दोहलं विर्णिति, तं जइ अई अहं पि बहूहिं णाइणियगसयणसंबंधि-परियणमहिलाई अण्णेहि सालाडवीए चोरपल्लीएसव्वओ समंता ओलोएमाणीओ ओलोएमाणीओ आहिंडमाणीओ आहिंडमाणीओ दोहलं विणिज्जामि त्ति कटु तंसि दोहलंसि अवणिजमाणंसि० जाव ज्झियामि / तए णं से विजए चोरसेणावई खंदसिरीभारियं ऊहय० जाव पासइ,एवं क्यासी-किण्हं तुम्हं देवा० ऊहय० जाव झियासि ? तए णं सा खंदसिरी भारिया विजयं एवं वयासी- एवं खलु देवाणुप्पिया ! ममं तिण्हं मासाणं० जाव झियामि, तए णं से विजये चोरसेणावइ खंदसिरीभारियाए अंतियं एयमटुं सोचा णिसम्म खंदसिरीभारियं एवं वयासी Page #886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभग्गसेण 702 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अभग्गसेण अहासुहं देवाणुप्पिए ! एयमढे पडिसुणेइ, पडिणेइत्ता तयाणंतरं सा खंदसिरी भारिया विजएणं चोरसेणावइणा अब्भणुण्णाया समाणी हट्ठतु४० बहू हिं मित्त० जाव अण्णे हि य बहुहिं चोरमहिलाहिं सद्धिं परिवुडा पहाया० जाव विभूसिया विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं सुरं च० 5 आसाएमाणी० 4 विहरइ / जिमियमुत्तुत्तरागया पुरिसणेवत्था सण्णद्ध० जाव आहिंडमाणी दोहलं विणिंति / तए णं सा खंदसिरी भारिया संपुण्णदोहलासमाणीयदोहला विणियदोहला वोच्छिण्णदोहला संपुण्णदोहला तं गन्मं सुहं सुहेणं परिवहइ। तएणं साखंदसिरी चोरसेणावइणी णवण्हं मासाणं बहुपडि-पुण्णाणं दारयं पयाया / तए णं से विजयचोरसेणावई तस्स दारगस्स इड्डीसक्कारसमुदएणं दसरत्तट्ठिइपडियं करेइ / तए णं से विजयचोरसेणावइ तस्स दारगस्स एक्कारसमे दिवसे विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेइ,उवक्खडावित्ता मित्तणाइ०आमंतएइ, आमंतइत्ता० जाव तस्सेव मित्तणाइपुरओ एवं वयासी-जम्हाणं अम्हं इमंसि दारगंसिगभगयंसि समाणंसि इमेयारूवे दोहले पाउन्भूए, तम्हा णं होउं अम्हं दारए अभंगसेणणामेणं / तए णं से अभंगसेणकुमारे पंचधाइ० जाव परिघायइ / तए णं से अभंगसेणे णाम कुमारे उम्मुक्कबालभावे यावि होत्था, अट्ठदारियाओ० जाव अट्ठओ दाओ उप्पि भुजई। तए णं से विजए चोरसेणावई अण्णया कयाइ कालधम्मणा संजुत्ते, तए णं से अमंगसेणकु मारे पंचहिं चोरसएहिं सद्धिं संपरिवुडे रोयमाणे विजयस्स चोरसेणावइस्स महया इड्डीसक्कार-समुदएणं णीहरणं करेइ, करेइत्ता बहूहिं लोइयाइं मयकिच्चाई करेइ, करेइत्ता कालेणं अप्पए जाए यावि होत्था। तएणं से अभंगसेणकुमारे चोरसेणावई जाए अहम्मिए० जाव कप्पाइं गेण्हइ, गेण्हइत्ता तए णं ते जाणवया पुरिसा अभंगसेणचोरसेणावइणा बहुग्गाम-घायावणाहिं ताविया समाणा अण्णमण्णं सदावेइ, सद्दावेइत्ता एवं वयासी- एवं खलु देवाणुप्पिया ! अमंगसेणचोरसेणावइया पुरिमताले णयरे पुरिमतालणयरस्स उत्तरिल्लंजणवयं बहूहिं गामघाएहिं० जाव णिद्धणं करेमाणे विहरइ, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! महब्बलस्स रण्णो एयमढें विण्णवित्तए / तए णं जाणवया पुरिसा एयमद्वं अण्णमण्णं पडिसुणेइ, पडिसुणेइत्ता महत्थं महग्धं महरिहं रायरिहं पाहुडं गिण्हइ, गेण्हइत्ता जेणेव पुरिमताले णयरे तेणेव उवागच्छे इ, उवागच्छइत्ता जेणेव महब्बले राया तेणेव उवागच्छेद, उवागच्छइत्ता महब्बलस्स रणोतं महत्थंजाव पाहुडं उवणेइ करयलअंजलिं कट्ठ महब्बलं रायं एवं वयासीतुब्नं बाहुच्छाया परिग्गहिया निब्भया णिरुविग्गा सुहं सुहेणं | परिवसित्तए सालाडवीचोरपल्लीए अभंगसेणे चोरसेणावई अम्हं बहूहिंगामघाएहिय० जाव णिद्धणे करमाणे विहरइ, तं इच्छामि णं सामी ! तुब्भं बाहुच्छाया परिग्गहिया णिब्भया निरुविग्गा सुहं सुहेणं परिवसित्तए त्ति कटु पायवडीया पंजलिउडा महब्बलरायं एयमद्वं विण्णवंति / तए णं से महब्बले राया तेसिं जणवयाणं पुरिसाणं अंतिए एयमह सोचा णिसम्म आरुसुत्ते० जाव मिसिमिसेमाणे तिवलियं मिउडि णिलाडे साहटु दंडं सहावेइ, सद्दावेइत्ता एवं वयासी- गच्छह णं तुभं देवाणुप्पिया ! सालाडविचोरपल्लिं विलुपाहि, अभंगसेणचोरसेणावई जीवग्गाहं गिण्हइत्ता ममं उवण्णेहि, तए णं से दंडे तह त्ति एयमढे पडिसुणेइ, पडिसुणे इत्ता तए णं से दंडे बहूहिं पुरिसेहिं सण्णद्ध० जाव पहरणेहिं सद्धिं संपरिवुडे मगइएहिं फलएसिं० जाव छिप्पतरेहिं वजमाणेणं महया उक्किट्ठणायं करेमाणे पुरिमतालं णयरं मज्झंमज्झेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छइत्ता जेणेव सालाडवी चोरपल्ली तेणेव पहारेत्थ गमणाए / तए णं तस्स अभंग-सेणावइस्स चोरपुरिसे इमीसे कहाए लढे समाणे जेणेवं सालाडवी चोरपल्ली जेणेव अभंगसेणावई तेणेव उवागया, करयल० जाव एवं क्यासीएवं खलु देवाणुप्पिया ! पुरिमताले णयरे महब्बलेणं रण्णा महया भडचड गरेणं परिवारेणं दंडे आणए- गच्छह णं तुम देवाणुप्पिया ! सालाडवीचोरपल्लिं विलुपाहि, अभंगसेणं चोरसेणावई जीवग्गाहिं गिण्हेहि, गिण्हेइत्ता ममं उवण्णेहि / तए णं से दंडे महया भडचडगरेणं जेणेव सालाडवी चोरपल्ली तेणेव पहारेत्थ गमणाए। तए णं से अभंगसेणचोरसेणावइ तेसिं चोरपुरिसाणं अंतिए एयमढे सोचा णिसम्म पंचचोरसयाई सद्दावेइ, सहावेइत्ता एवं वयासी- एवं खलु देवाणुप्पिया ! पुरिमताले णयरे महब्बले० जाव तेणेव पहारेत्थ गमणाए आगए, तए णं से अभंगसेणे ताई पंच चोरसयाई एवं वयासी-तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं तं दंडं सालाडविं चोरपल्लिं अंसं पत्तं अंतरा चेव पडिसेहित्तए, तए णं ताइं पंच चोरसयाई अभंगसेणस्स तहत्ति० जाव पडिसुणेइ, पडिसुणेइत्ता तएणं से अभंगसेणे चोरसेणावई विपुलं असणं पाणं खाइमं साइम उवक्खडावेइ, उवक्खडावेत्ता पंचहि चोरसएहिं सद्धिण्हाएक जाव पायच्छित्ते भोयणमंडवंसि तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं सुरं च 5 आसाएमाणे०४ विहरइ / जिमियभुत्तुत्तरागए वि य णं समाणे आयंते चोक्खे परमसुइभए पंचहिं चोरसएहिं सद्धिं अल्लं चम्मं दुरूहइ, दुरूहइत्ता सण्णद्धं० जाव पहरणे मग्गइ, तेहिं० जाव रवेणं पच्चावरण्हकालसमयंसि सालाङवी चोरपल्लियाओ णिग्गच्छइ, णिग्गच्छइत्ता Page #887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभग्गसेण 703 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अभग्गसेण विसमदुग्गगहणे ठिए गहियभत्तपाणिए तं दंडं पडि-वालेमाणे चिट्ठइ / तए णं से दंडे जेणेव अभंगसेणे चोरसेणावइए तेणेव उवागच्छेइ,उवागच्छइत्ता अभंगसेणेणं चोरसेणावइणा सद्धिं संपलग्गे यावि होत्था। तए णं से अभंगसेणे चोरसेणावई तं दंडं खिप्पामेव हयमहिय० जाव पडिसेहति / तए णं से दंडे अभंगसेणे चोरसेणावई हय० जाव पडिसेहिए समाणे अत्थामे अबले अवीरिए अपुरिसक्कारपरक्कमे आधारणिज्जेमि त्ति कटु जेणेव पुरिमताले णयरे जेणेव महब्बले राया तेणेव उवागच्छेइ, उवागच्छ इत्ता करयल० एवं वयासी- एवं खलु सामी ! अभंगसेणचोरसेणावई विसमदुग्गगहणे ठिए गहियभत्तपाणिए, णो खलु से सक्का केणइ सुबहुएण वि आसबलेण वा हत्थिबलेण वा जोहबलेण वा रहबलेण वा चाउरंगिणं पि उरं उरेण गिण्हत्तए / ताहे सामेण य भेदेण य उवप्पदाणेण य वीसंभमाणे उपत्तेयावि होत्था। जे दंडेण य वियसे अभितरगा सीसगसमामित्तणाइणियसयणसंबंधिपरियणं च विपुलेणं धणकणगरयणसंतसारसावएजेणं भिंदइ, अभग्गसेणस्स य चोरसेणावइ० अभिक्खणं अभिक्खणं महत्थाई महग्घाई महरिहाई पाहुडाइं पेसेइत्ता अभंगसेणं च चोरसेणावई वीसंभमाणेइ / तए णं से महब्बले राया अण्णया कयाइ पुरिमताले णयरे एगं महं महइ महालियं कूडागारसालं करेइ, अणेगखं भसयपासा०४, तए णं महब्बले राया अण्णया पुरिमताले णयरे उस्सुक्कं० जाव दसरत्तं पमोयं उग्घोसावेइ, उग्घोसावेइत्ता कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सहावे इत्ता एवं वयासी- गच्छहणं तुन्मं देवाणुप्पिया! सालाडवीए चोरपल्लीए, तत्थ णं तुडभे अभंगसेणं चोरसेणावइणं करयल० जाव वयहएवं खलु देवाणु-प्पिया ! पुरिमता० महब्बलस्स रण्णो उस्सुके 0 जाव दसरत्ते पमोदउग्घोसिए, तं किं णं देवाणुप्पिया ! विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं पुप्फवत्थगंधमल्लालंकारे य इहं हव्वमाणिज्ज उदाहु सयमेव गच्छित्ता। तए णं कोडुंबियपुरिसे महब्बलस्स रण्णो करयल० जाव पडिसुणेइ, पडिसुणे इत्ता पुरिमतालाओ णयराओं पडिणिक्खमइ, पडि० णाइविक हेहिं अद्धाणे हिं सुहे हिं पातरासेहिं जेणेव सालाडवी चोरपल्ली तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता अभंगसेणं कयरल० जाव एवं वयासी- एवं खलु देवाणुप्पिया ! पुरिमताल० मह-ब्बलस्सरण्णो उस्सुक्के०जाव उदाहु सममेव गच्छित्ता / तए णं से अभंगसेणे ते कोडुबियपुरिसे एवं वयासी-अहणं देवाणुप्पिया! पुरिमता० सयमेव गच्छामि कोडुंबियपुरिसे सक्कारेइ, सक्कारेइत्ता पडिविसज्जेइ। तए णं से अभंगसेणे बहूहिं मित्त० जाव परिदुडे, पहाए० जाव पायच्छित्ते सव्वाऽलंकारविभूसिए सालाडदी चोरपल्लीओपडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमइत्ता, जेणेव पुरिमता० जेणेव महब्बले राया, तेणेव० करयलपरि-ग्गहियं महब्बलं रायं जएणं विजएणं बद्धावेइ, बद्धावेइत्ता महत्थं० जाव पाहुडं उवणेइ, तए णं से मह० अभंगसेणस्स चोरस्स तं महत्थं० जाव पडिच्छइ, अभग्गसेणचोरसेणा० सक्कारेइ संमाणेइ, संमाणेइत्ता विसजेइ कूडागारसालवणे आवासएहिं दलयइ / तए णं से अभग्गसेणे चोरसेणावई महब्बलेणं रण्णा विसज्जिए समाणे जेणेव कूडागारसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता तए णं से महक कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेइत्ता एवं वयासी- गच्छह णं तुब्भे देवाणु प्पिया ! विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेइ, उवक्खडावेइत्ता तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं सुरं च 5 सुबहुपुप्फगंधमल्लाऽलंकारं च अभग्गसेणस्स चोरसेणा० कूडागारसालाए उवणेही तएणं ते कोडुंबियपुरिसा करयल० जाव उवण्णेइ / तए णं से अभग्गसेणे० बहू हिं मित्त०सद्धिं संपरिबुडे पहाए० जाव सव्वाऽलंकारविभूसिए तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं सुरं च आसाएमाणे०४ पमत्ते विहरइ / तए णं से मह० कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सदावेइत्ता एवं वयासी- गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! पुरिमतालस्स णयरस्स दुवाराइं पिहिति, पिहितित्ता अभंगसेणं चोरसेणावई जीवग्गाहं गेहंति, गेण्हंतित्ता महब्बलस्स रण्णो ते उवणेह / तए णं मह० अभंगसेण चोरो एतेणं विहाणेणं वज्झं आणवेइ, एवं खलु गोयमा ! अभंगसेणचोर० पुरा० जाव विहरइ। अभंगसेणे णं भंते ! चोरसेणावई कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छिहिंति ? कहिं उववनिहिंति ? गोयमा ! अभंगसेणचोरसेणा० सत्ता-वीसं वासाइं परमाउं पालित्ता अजेव तिभागावसेसे दिवसे सूली भिण्णकए समाणे कालमासे कालं किया इमीसे रयणप्पभाए उक्कोसेणं णेरइएसु उववजिहिंति, से णं ताओ अणंतरं उवट्टित्ता एवं संसारो जहा पढमे० जाव पुढवी० / तओ उवट्टित्ता वाणारसीए णयरीए सूयरत्ताए पचायाहिंति, से णं मच्छसोयरिएहिं जीवियाओ विवरोविए समाणे० तत्थेव वाणारसीए णयरीए सेट्टकुलंसि पुत्तत्ताए पचाहिंति, से णं तत्थ उम्मुक्कबालभावे एवं जहा पढमे, जाव अंतकाहिंति, णिक्खेवो। (एवं खलु त्ति) एवं वक्ष्यमाणप्रकारेणाऽर्थः प्रज्ञप्तः, खलु वाक्याऽलङ्कारे / (जंबू त्ति)आमन्त्रणे (देसप्पत्तेत्ति) मण्डलप्रान्ते (विसमगिरिकंदरे कोलंबसंनिविट्ठा) विषमं यगिरेः कन्दरं कुहरं, तस्य यः कोलम्बः प्रान्तः, तस्य सन्निविष्टा सन्निवेशिता या सातथा। कोलम्बो हि लोके अवनतं वृक्षशाखाग्रमुच्यते। इहोपचारतः कन्दरं प्राप्तः कोलम्बो व्याख्यातः। विपा०३ श्रु०३ अ०। (इत्यादिटीका सुगमेति न गृहीता) वारतपुरराजनि,आ०चू०६ अ०॥ Page #888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभजिय ७०४-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अभयकुमार अभज्जिय-त्रि०(अभग्न) अमर्दिते, अविराधिते, आचा०१ श्रु० 101 ] अभयकुमार-पुं०(अभयकुमार) श्रेणिकस्य राज्ञः नन्दादेव्यामुत्पन्ने पुत्रे, उन ज्ञा०॥ तद्वक्तव्यताअभडप्पवेसा-स्त्री०(अभटप्रवेशा) अविद्यमानो भटानां राजाऽऽज्ञा- पढमस्स य णं भंते ! अज्झयणस्स के अटेपण्णत्ते? एवं खलु दायिनां पुरुषाणां प्रवेशः कुटुम्बिगृहेषु यस्यां सा तथा। यत्र राजाज्ञां दातुं जंबू ! तेणं कालेण तेणं समएणं इहेव जम्बुद्दीवे दीवे भारहे भटाः प्रवेष्टुं न शक्नुवन्ति तादृश्यां पुर्याम्, भ० 12 श०४ उ०। जं० वासे दाहिणड्डभरहे रायगिहे णामं नयरे होत्था / वण्णओ। ज्ञा०1 विपान गुणसिलए चेईए वण्णओ। तत्थ णं रायगिहे णयरे सेणिए णाम अभत्तट्ट-पुं०(अभक्तार्थ) भक्ते न भोजनेनाऽर्थः प्रयोजनं, भक्ता-ऽर्थः, राया होत्था। महिमाहिमवंत०वण्णओ / तस्स णं सेणियस्स न भक्तार्थोऽभक्तार्थः / अथवा न विद्यते भक्ताओं यस्मिन् रनो नंदा नाम देवी होत्था, सुकुमालपाणिपाया वण्णओ०। प्रत्याख्यानविशेषे सोऽभक्तार्थः। उपवासे, ध०२ अधिo/ तस्स णं सेणियस्स पुत्तो नंदाए देवीए अत्तए अभए नाम कुमारे अत्र पञ्चाऽऽकाराः, तथा च सूत्रम् - होत्था। अहीण जाव सुरूवे सामभयदंडउवप्पयाणणीतिसुप्पसूरे उग्गए अभत्तटुं पच्चक्खाइ, चउव्विहं पि आहारं, असणं उत्तनयविहिन्नू ईहापूहमग्गणगवेसणं अत्थसत्थमई विसारए पाणं खाइमं साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं उप्पत्तियाए वेणझ्याए कम्मयाए पारिणामियाए चउव्विहाए बुद्धिए पारिट्ठावणिया-गारेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं उववेए, सेणियस्स रण्णो बहूसु कज्जेसु य कुटुंबेसु य मंतेसु य वोसिरइ। गुज्झेसु य रहस्सएसु य निच्छएसु य आपुच्छिणिजे अस्यार्थः - (सूरे उग्गए) सूर्योद्गमादारभ्य, अनेन भोजनानन्तरं पडिपुच्छणिज्जे मेढीपमाणे आहारे आलंबणे चक्खुमेढीभूए प्रत्याख्यानस्य निषेध इति ब्रूते / भक्तेन भोजनेनाऽर्थः प्रयोजन, पमाणभूए आहारभूए आलंबणभूए चक्खू सव्वकले सु भक्ताऽर्थः, न भक्ताऽर्थोऽभक्तार्थः / अथवा- न विद्यते भक्तार्थो यस्मिन् सवभूमियासु लद्धपचए विइण्णवियारे विइण्णवियारे प्रत्याख्यानविशेषे सोऽभक्ताऽर्थः, उपवास इत्यर्थः। आकाराः पूर्ववत्। रज्जधुरचिंतते यावि होत्था / सेणियस्स रण्णो रजं च रष्टुं च नवरं पारिष्ठापनिकाकारे विशेषः,यदि त्रिविधाऽऽहारस्य प्रत्याख्याति, कोसंच कोट्ठागारं च बलंच वाहणं च पुरं च अंतेउरं च सयमेव तदा पारिष्ठापनिकं कल्प्यते, यदि तु चतुर्विधाऽऽहारस्य प्रत्याख्याति समुप्पेक्खमाणे समुप्पेक्खमाणे विहरति। पानकं च नाऽस्ति, तदा न कल्प्यते, पानके तूद्धरिते कल्प्यत एव / एवमित्यादि सुगम, नवरम्- एवमिति वक्ष्यमाणप्रकारोऽर्थः प्रज्ञप्त इति (योसिरइ) भक्ताऽर्थमशनादि वस्तु व्युत्सृजति / प्रव०४ द्वार / ध०। प्रक्रमः / खलु वाक्याऽलङ्कारे / जम्बूरित्यामन्त्रणे / इहैवेति / देशतः आव०। आ० चूगल०प्र०ा पंचा० / प्रत्यासन्नेन पुनरसंख्येयत्वात् जम्बूद्वीपाना-मन्यत्रेतिभावः / अभत्तट्ठिय-पुं०(अभक्ताऽर्थिक) उपवासिके, ओघ०। द्वितीयेऽह्नि (इत्यादिटीका सुगमा नोपन्यस्यते)। ज्ञा० 1 अ० नं० नि०। स्था०। भोक्तरि, पं०व०२ द्वार। विशे० आ०म० ध००। ('मेहकुमार' शब्देऽपूर्वसाङ्केतिकदेवमेलनं * अभत्तपाण-न०(अभक्तपान) भक्तपानाऽलाभे, व्य०७ उ०। वक्ष्यते)। अभय-न०(अभय) न०तका विशिष्ट आत्मनः स्वास्थ्ये निश्रेयस अभयकुमारकथा चेयम् - धर्मभूमिकानिबन्धनभूतायां धृतौ, ल०। रा०। अभयं पत्थिवा अस्तिस्वस्तिकवत् पृथ्व्याः, पृथ्व्याः संपद आस्पदम्। तुम्भं, अभयदाया भवाहि य / उत्त०१८ अ०। प्राणिरक्षायाम्, सूत्र० सुचङ्गमङ्गलव्याप्तं, पुरं राजगृहाऽभिधम् / / 1 / / 1 श्रु०६ अ० अविद्यमानं भयमस्मिन् सत्त्वानामित्यभयः। सप्तदशविधे प्ररूढप्रौढमिथ्यात्व-काननैकपरश्वधः। संयमे, आचा०१ श्रु०१ अ०५ उ० सप्तप्रकारक-भयरहिते,त्रि०ा सूत्र०१ सुधोञ्चलगुणश्रेणिः, श्रेणिकस्तत्र पार्थिवः॥२॥ श्रु०६ अ० श्रेणिकपुत्रे अभयकुमारे, पुं० आ०चू०१ अ० आ०म०। आगमार्थपरिज्ञान-विस्फूर्जदबुद्धिबन्धुरः। धo तस्याऽभयकुमाराऽऽख्यो, नन्दनो विश्वनन्दनः // 3 // अभयंकर-त्रि०(अभयङ्कर) अभयं प्राणिनां प्राणरक्षारूयं स्वतः परतश्च आगच्छदन्यदा तत्र, मुनिपञ्चशतीयुतः। सदुपदेशदानात् करोतीत्यभयङ्करः / स्वतो हिंसानिवृत्त-त्वेन परतश्च प्रकटीकृतसद्धर्मा, सुधर्मा गणभृद्वरः / / 4 / / हिंसां मा कार्षीरित्युपदेशदानेन प्राणिनामनुकम्पके, अभयंकरे वन्दितुं तत्पदद्वन्द्वं, सर्वा श्रेणिको नृपः। वीरअणंतचक्खू। सूत्र०१ श्रु०६ अ० निर्भयकरे, तं०। शासनोत्सर्पणामिच्छन्, अगच्छत् सपरिच्छदः / / 5 / / अभयकरण-न०(अभयकरण) जीवानामभयकरणे, पं०व०॥ नानायानसमारूढः, तथाऽन्योऽपि पुरीजनः। मुत्तूण अभयकरणं, परोवयारो विनत्थि अण्णो त्ति। भक्तिसंभारसंजात-रोमञ्चोच्छ्वसितां गतः / / 6 / / डंडिगितेणगणायं, न य गिहिवासे अविगलं तं // 22 // एवं प्रभावनां प्रेक्ष्य, तत्रैकः काष्ठभारिकः। मुक्त्वाऽभयकरणमिहलोकपरलोकयोः परोपकारोऽपि नाऽस्त्यन्य गत्वा भक्त्या गुरून् नत्वाऽश्रौषी धर्ममिमं यथा // 7 // इति। अत्र दृष्टान्तमाह- डण्डिकीस्तेनकज्ञातमत्र द्रष्टव्यम्।नच गृहवासे जन्तुघातो मृषाऽस्तेय-मब्रह्म च परिग्रहः / अविकलं, तद् अभयकरणमिति गाथार्थः। पं०व०१ द्वार०) भो भो भव्याः ! विमुच्यन्ता, पञ्चैते पापहेतवः // 8 // Page #889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभयकुमार 705 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अभयघोष इत्याकर्ण्य नरेन्द्राधा, पर्षद् नत्वा गृहेऽगमत् / द्रमकः स तु तत्रैव, स्वार्थाऽर्थी तस्थिवान् स्थिरः / / 6 / / गुरुस्तमूचे चित्तज्ञः, चिन्तितं ब्रूहि ! सोऽब्रवीत्। जानामि यदि वः पादान, वरिवस्यामि सर्वदा // 10 // ततः प्रव्राज्य तं सद्यो, गुरवः कृतयोगिनाम्। अर्पयामासुराचारं, शिक्षयामासुराशु ते // 11 // तं गीतार्थयुतं भिक्षा-चर्यायामन्यदा गतम् / प्रागवस्थाविदः पौराः, प्रेक्ष्य प्राहुरहंयवः / / 12 / / अहो ! महर्केस्त्यक्ताऽयं, महासत्त्वो महामुनिः। इति वक्रोक्तितः षिड्ग, उपहास्यत सोऽन्वहम् // 13 // ततोऽसौ शैक्षकत्वात् तं, परीषहमसासहिः / सुधर्मस्वामिना प्रोचेऽनूचानेन वचस्विना / / 14 // संयमे किं समाधान-मस्ति ते सुष्ठ सोऽभ्यधात् / अस्ति युष्मत्प्रसादेन, विहारोऽन्यत्र चेद् भवेत्॥१५॥ विधास्यते समाधिस्ते, वत्सेत्युक्त्वा गुरुस्ततः / अभयस्याऽऽगतस्याऽऽख्याद् , विहारो नो भविष्यति / / 16|| अभयः स्माऽऽहनः कस्मा-दकस्मादीदृशः प्रभो!। अप्रसादोऽथ तेऽत्रोचुः, मुनेरस्य परीषहम् / / 17|| अभयोऽप्यभ्यधादेकं, दिवसं स्थीयतां प्रभो!। निवर्त्तत न चेदेष, न स्थातव्यं ततः परम्॥१८|| ओमित्युक्ते मुनीन्द्रेण, निस्तन्द्रः शासनोन्नती। जगाम धाम सद्धर्म-धामधामाऽभयस्ततः // 16 // रत्नानामसपत्नानां, रत्नगर्भाऽधिपोऽङ्गणे / कोटित्रयीं समाकृष्य, राशित्रयमचीकरत् // 20 // तुष्टो राजा ददात्युच्चै-रत्नकोटित्रयी जनाः ! / गृहीतैना यथेष्ट हि, पटहेनेत्यघोषयत्॥२१॥ ततोऽमिलद् द्रुतं लोको, लोलुपः सोऽभयेन तु। बभाष गृह्यतामेषा, रत्नकोटित्रयी मुधा // 22 // युष्माभिः स्वगृहं गत्वाऽनया किन्तु गृहीतया। यावजीवं विमोक्तव्यं, जलमग्निं स्त्रियस्तथा // 23 // इत्याकर्ण्य जनास्तूर्ण-मुत्कर्णास्तजिघृक्षवः / बिभ्यतो निश्चलास्तस्थुः, सिंहनादं मृगा इव // 24 // अभयः प्राह भोः! कस्माद् विलम्बस्तेऽप्यदोऽवदन्। लोकोत्तरमिदं लोकः, किं कश्चित् कर्तुमीश्वरः? ||25|| सोऽवादीत् मुनिना तेन, तत्यजे त्रयमप्यदः / तत्कुतो हसतैवं त-मतिदुष्करकारकम् ? ||26|| न जानीमो वयं स्वामिन् !, तस्यर्षेः सत्त्वमीदृशम् / तमृषिमचर्यिष्यामस्तदिदानीं महामते ! // 27 // अभयेन समं गत्वा, श्रीमन्तस्ते प्रणम्य तम्। महर्षि क्षामयामासुः, स्वापराधं मुहर्मुहः // 28 // इत्येवमभयो जैन-शासनार्थविशारदः / अतिष्ठिपज्जनं मुग्धं, चिरं धर्मे जिनोदिते // 26 // इत्यवेत्य हतपापकश्मलं, सज्जना अभयवृत्तमुज्ज्व लम्। शिक्षयन्तु कृतसर्वमङ्गलं, संततं प्रवचनार्थकौशलम् // 30|| ध०२०।। अभयघोस-पुं०(अभयघोष) स्वनामख्याते वैद्य, ध०२०। अभयघोषकथा चेयम् - आसीत् पूर्वविदेहेषु, शत्रुसंहतिदुर्जये। वत्सावत्याख्यविजये, प्रवरा पू: प्रभङ्करा / / 1 / / तस्यां सुविधिवैद्यस्य, सूनुः सत्कर्मकर्मठः। आसीदभयघोषाख्यो, वैद्यविद्याविशारदः / / 2 / / नरेन्द्रमन्त्रिसार्थेश- नगरश्रेष्ठिनां सुताः। प्रशस्याः सद्गुणश्रेण्यो, वयस्यास्तस्य जज्ञिरे // 3 // मिलितानामथामीषा-मन्येधुर्वेद्यमन्दिरे / आगादनगारवृत्तिः, साधुर्माधुकरी चरन् // 4 // तं पृथ्वीपालभूपाल-पुत्रं नाम्ना गुणाकरम्। निकृष्टकुष्ठं ते दृष्ट्वा , प्रोचिरे वैद्यनन्दनम् / / 5 / / सदाऽर्थदृग्भिर्वेश्यावद्, भवद्भिर्भक्ष्यते जनः। न कस्यचित् तपस्व्यादेः, चिकित्सा क्रियते किल // 6 // जगाद वैद्यजन्माऽपि, चिकित्स्योऽयं मुनिया। भो भद्राः ! निश्चितं किन्तु, भेषजानि न सन्ति मे // 7|| तेऽप्यूचुर्दद्महे मूल्यं, शाधि साध्वौषधानि नः / उवाच सोऽपि गोशीर्ष-चन्दनं रत्नकम्बलम् // 8 // लक्षद्वयेन तत् क्रेयं, तृतीयं तु मदोकसि। विद्यते लक्षपाकाख्यं, तैलं तद् गृह्यतां द्रुतम् / / 6 / / लक्षद्वयं गृहीत्वाऽथ, गत्वा ते कुत्रिकाऽऽपणे। अयाचन्तौषधे तांस्तु, श्रेष्ठ्यूचे किं प्रयोजनम् ? ||10|| तेऽवोचन् कुष्ठिनः साधोः, चिकित्साऽऽभ्यां विधास्यते। अकार्ण्य तद्वचः श्रेष्ठी, चेतस्येवमचिन्तयत्।।११।। क्वैषां प्रमादशार्दूल-काननं यौवनं ह्यदः। विवेकबन्धुरा बुद्धिः, क्व चेयं वार्धकोचिता? |12|| महादृशामीदृशं योग्य, जराजर्जरवमणाम्। यत् कुर्वन्त्यपि तदहो!, धन्यैभरोिऽयमुह्यते // 13 // एवं विचिन्त्य स श्रेष्ठ, ते समयौषधे मुधा। भाविताऽऽत्मा प्रवव्राज, वव्राज च महोदयम् // 14 // कृत्वा समग्रसामग्री, तेऽग्रिमा भक्तिशालिनाम् / समं वैद्यवरेण्येन, प्रययुः साधुसन्निधौ / / 15 / / नत्वाऽनुज्ञाप्य तैलेन, सर्वाऽङ्गे मूक्षितः स तैः। वेष्टितः कम्बलेनाऽथ, निरीयुः कृतयस्ततः // 16 // शीतत्वात् तत्र ते लग्नाः, निर्यद्भिस्तैः प्रपीडितः। लिप्तश्च चन्दनेनाऽऽशु, स्वास्थ्यमाप मुनिः क्षणात् // 17|| विरेवमाद्यवेलायां, निर्ययुः कृमयस्त्वचः। मांसगास्तु द्वितीयस्यां, तृतीयास्यां च तेऽस्थिगाः // 18 // तान कृमींस्ते दयावन्तः, चिक्षिपुर्गोकलेवरे। संरोहण्या च तं साधु, सद्यः सज्जं प्रचक्रिरे // 16 // क्षमयित्वा च नत्वा च, गत्वाऽन्तनगरं ततः। चैत्यं चक्रुश्च विक्रीय, तेऽर्द्धमूल्येन कम्बलम् // 20 // गृहीत्वा गृहिधर्मे च, पश्चात् कृत्वा च संयमम्। ते पञ्चाऽप्यच्युतेऽभूवन, इन्द्रसामानिकाः सुराः / / 21 / / ततश्च्युक्त्वा विदेहेषु, भूत्वा पञ्चाऽपि सोदराः। ते प्रव्रज्य च सर्वार्थ-सिद्धेऽभूवन सुरोत्तमाः // 22 // ततोऽप्यभयघोषस्य, जीवश्च्युत्त्वाऽत्र भारते। बभूव भव्यसंदोह-योधनः प्रथमो जिनः // 23 // शेषास्तु भरतो बाहु-बलिबाही च सुन्दरी। जज्ञिरे तदपत्यानि, प्राऽऽपुश्च परमं पदम् // 24 // एवं निशम्याऽभयघोषवृत्तं, मुदा गुरूणां गुणराजिभाजाम्। दाने सदाऽप्यौषधभेषजादेः, कृतोद्यमा भव्यजना भवन्तु // 25 / / ध०२०। Page #890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभयणंदा 706 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अभयदेव अभयणंदा-स्त्री०(अभयनन्दा) बुद्धिनिधाने, अणु०१ वर्ग। अभयदय-पुं०पअभयद(क)यब अभयं विशिष्टमात्मनः स्वास्थ्यम्, निःश्रेयसधर्मनिबन्धनभूता परमा धृतिरितिभावः। तत अभयं ददातीति अभयदः। जी०३ प्रतिकालातदित्थंभूतमभयं गुणप्रकर्षयोगादचिन्त्यशक्तियुक्तत्वात् सर्वथा परार्थकारित्वाद् भगवन्त एव ददतीति / ध०२ अधि०। रा०। न भयं दयते ददाति प्राणाऽपहरणरसिके 5प्युपसर्गकारिप्राणिनीत्यभयदयः / अथवा- सर्वप्राणिभयपरिहारवती दयाऽनुकम्पा यस्य सोऽभयदयः / अहिंसाया निवृत्ते, उपदेशदानतो निवर्तके च / भ०१ श०१ उ०। औ०। ध०। भयानामभावाद् भयस्याऽभावोऽभयं, तद्दायकः। तीर्थकरे, कल्प०१क्ष०। अभयदाण-न०(अभयदान) दानभेदे, ग०। यः स्वभावात् सुखैषिभ्यो, भूतेभ्यो दीयते सदा। अभयं दुःखभीतेभ्योऽभयदानं तदुच्यते॥१॥ ग०२ अधिक। नहि भूयस्तमो धर्मः, तस्मादन्योऽस्ति भूतले। प्राणिनां भयभीताना-मभयं यत् प्रदीयते // 51|| द्रव्यधेनुधरादीनां, दातारः सुलभा भुवि। दुर्लभः पुरुषो लोके, यः प्राणिष्वभयप्रदः // 52 / / महतामपि दानामां, कालेन क्षीयते फलम्। भीताभयप्रदानस्य, क्षय एव न विद्यते // 53 / / दत्तमिष्टं तपस्तप्तं, तीर्थसेवा तथा श्रुतम्। सर्वाण्यभयदानस्य, कलां नाऽर्हन्ति षोडशीम्॥५५।। एकतः क्रतवः सर्वे, समग्रवरदक्षिणाः। एकतो भयभीतस्य, प्राणिनः प्राणरक्षणम्॥५५॥ सर्वे वेदान तत्कुर्युः सर्वे यज्ञा यथोदिताः। सर्वे तीर्थाऽभिषेकाच, यत् कुर्यात् प्राणिनां दया // 56 / / ध०र०॥ अभयदेव-पुं०(अभयदेव) नवाङ्गवृत्तिकारके स्वनामख्याते आचार्ये, स्था०। (1) तचरित्रं त्वेवमाख्यान्ति - धारापुर्यां नगर्या महीधरस्य श्रेष्ठिनो धनदेव्यां नाम भार्यायामभयकुमारो नाम पुत्ररत्नं जज्ञे / स च धारायामेव समवसृतस्य वर्द्धमानसूरिशिष्यजिनेश्वरसूरिणोऽन्तिके प्रवव्राज / ततः प्रज्ञाऽतिशय्यात् षोडशवर्षजन्मपर्यायः कुमारावस्थ एव वर्धमानसूरिणाऽभ्यनुज्ञातो विक्रमीयसं०१०८८ मिते वर्षे आचार्यपदमध्यतिष्ठत् / तदानीं दुष्कालादिभिरध्ययनलेखनादिषु विरहादागमानां वृत्तयो व्युच्छिन्नप्राया आसन, इत्येकदा निशि शुभध्यानाऽवस्थितं तमभयदेवसूरि शासनदेवताऽवोचत्भगवन् ! पूर्वाचार्यैः एकादशस्वप्यङ्गेषु टीकाः कृताः, तास्तुद्वेएवाऽवशिष्ट, शेषा व्युच्छिन्ना इति संप्रति ताः पुनरुज्जीव्य सङ्घोऽनुग्राह्य इति / आचार्येणोक्तम्-शासनाऽधीश्वरि ! मातः! अल्पबुद्धिरहमेतद् गहनं कार्ये कर्तु कथं शक्नुयाम् ?, यतस्तत्र यदि किञ्चिदप्युत्सूत्रं स्यात् , तन्महतेऽनर्थाय संसारपाताय भवे-दिति। ततो देवतयोक्तम्-भगवन्! त्वामहं समर्थमेव मत्वा-ऽवोचम्। यत्र च त्वं संशयिष्यसे, तत्र तत्क्षणमेवाऽहं स्मर्त्तव्या, अहं च महाविदेहं गत्वा तत्र सीमन्धरस्वामिनं पृष्ट्वा त्वां वक्ष्यामीतिन विञ्चिदनुपपन्नं भविष्यति, इति प्रवचनदेव्योत्साहितस्तत्कार्य प्राऽऽरभत। समाप्तेः पूर्वमेव आचामाम्लतपसा निशि जागरणैश्च धातुप्रकोपाद विकृतरुधिरः समजायतातदा द्विष्टलोकैः सहर्षे प्रावाद्यत- यदयमभयदेव उत्सूत्रं व्याख्याति स्मेति, कुपिता शासनदेवी | अस्य शरीरे कुष्ठरोगमुदपादयत् / तमपवादमाकर्ण्य दुःखितमाचार्य रात्रावागत्य धरणेन्द्रस्तं रुधिररोगं व्यनाशयत् / अकथयचस्तम्भनग्रामपार्वे सेढिकानद्यास्तटे भूमिमध्ये श्रीपार्श्वनाथप्रतिमाऽस्ति, यस्याः प्रभावाद् नागार्जुनन रससिद्धिराप्ता, तां प्रकटय तत्र महातीर्थं प्रवर्त्तय, ततस्त्वं विधूताऽपकीर्तिर्भविष्यसि। ततस्तत्रा-ऽभयदेवसूरिणा 'जय तिहुअण !0' इत्यादि द्वात्रिंशद्गाथा-ऽऽत्मकं स्तोत्रमुद्गीर्य सईसमक्षं सा प्रतिमा प्रकटायिता, तस्मात्तस्याऽऽचार्यस्य महद्यशः सर्वत्र प्रोदच्छलत्। पश्चाद्धरणेन्द्रवचसातस्यस्तोत्रस्य द्वेगाथे वियोज्य त्रिंशद्गाथाऽऽत्मकमेव प्राचीकटत्, तादृशमेवाद्याऽपि उपलभ्यते। सा च प्रतिमा खम्भात'नगरेऽद्याऽपि पूज्यमाना वरीदति / सा च नेमिनाथशासनसमये 2222 वर्षे कृतेति तत्प्रतिमाया आसनपृष्ठे टङ्कितमस्ति, पश्चाद् नवाऽङ्गेषु वृत्तीः पञ्चाशकादिटीकाश्च निर्माय कर्पटवणिजनगरे वि०सं०११३५ मिते देवलोकं गतः / जै००। इत्येकोऽभयदेवसुरिः। अनेन चाऽऽत्मकृतप्रबन्धेष्वेवं स्वपरिचयोऽदर्शिश्रीमदभयदेवसूरिनाम्ना मया महावीरजिनराजसन्तानवर्तिना महाराजवंशजन्मनेव संविग्नमुनिवर्गप्रवरश्रीमजिनचन्द्राऽऽचार्याsन्तेवासियशोदेवगणिनामधेयसाधोरुत्तरसाधकस्येव विद्याक्रियाप्रधानस्य साहायेन समर्थितम्, तदेवं सिद्धमहा-निधानस्येव समापिताऽधिकृताऽनुयोगस्य मम मङ्गलाऽर्थ पूज्य-पूजा- नमो भवते वर्तमानतीर्थनाथाय श्रीमन्महावीराय, नमः प्रतिपन्थिसार्थप्रमथनाय श्रीपार्श्वनाथाय / नमः प्रवचनप्रबोधिकायै श्रीप्रवचनदेवतायै / नमः प्रस्तुतानुयोगशोधिकायै श्रीद्रोणाचार्य-प्रमुखपण्डितपर्षदे, नमश्चतुर्वर्णाय श्रीश्रमणसङ्घभट्टार-कायेति। एवं च निजवंशवत्सलराजसन्तानिकस्येव ममाऽसमानमिममाया-समतिसफलतां नयन्तो राजवंश्या इव वर्द्धमानजिनसन्तानवर्तिनः स्वीकुर्वन्तु, यथोचितमितोऽर्थजातमनुतिष्ठन्तुसुधूचितपुरुषा-ऽर्थसिद्धिमुपयुञ्जतांच योग्येभ्यइति। किश - सत्सम्प्रदायहीनत्वात्, सदूहस्य वियोगतः। सर्वस्वपरशास्त्राणा-मदृष्टरस्मृतेश्च मे।।१।। वाचनानामनेकत्वात्, पुस्तकानामशुद्धितः। सूत्राणामतिगाम्भीयात्, मतिभेदाच कुत्रचित् // 2 // क्षुण्णानि संभवन्तीह, केवलं सुविवेकिभिः। सिद्धान्तानुगतो योऽर्थः, सोऽस्माद् ग्राह्यो न चेतरः॥३॥ शोध्यं चैतजिने भक्तै-ममिवद्भिर्दयापरैः। संसारकारणाघोरा-दपसिद्धान्तदेशनात्॥४॥ कार्या न वा क्षमाउस्मासु, यतोऽस्माभिरनाग्रहैः। एतद्गमनिकामात्र-मुपकारीति चिर्चितम् // 5 // तथा संभाव्य सिद्धान्ताद्, बोध्यं मध्यस्थया धिया। द्रोणाचार्यादिभिः प्राज्ञै-रनेकैरादृतं यतः / / 6 / / जैनग्रन्थविशालदुर्गभवनादुचित्य गाढश्रम, सद्व्याख्यानफलान्यमूनि मयका स्थानाऽङ्गसद्भाजने। संस्थाप्योपहितानि दुर्गतनरप्रायेण लब्ध्यर्थिना, श्रीमत्सङ्घविभोरतः परमसावेव प्रमाणं कृती / / 7 / / श्रीविक्रमादित्यनरेन्द्रकालात्, शतेन विंशत्यधिकेन युक्त। समासहस्रेऽतिगते (वि०सं०११२०) निबद्धा, स्थानाङ्गटीकाऽल्पधियोऽपिगम्या / / / स्था०१० ठा। Page #891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभयदेव 707 - अभिषानराजेन्द्रः - भाग 1 अभयदेव तस्याऽऽचार्यजिनेश्वरस्य मदवद् वादिप्रतिस्पर्द्धिनः, तबन्धोरपि बुद्धिसागर इति ख्यातस्य सूरे वि। छन्दोबन्धनिबद्धबन्धुरवचःशब्दादिमल्लक्ष्मणः, श्रीसंविग्नविहारिणः श्रुतनिधेश्चारित्रचूडामणेः // 8 // शिष्येणाऽभयदेवाऽऽख्य-सूरिणा वियतिः कृता / ज्ञाताधर्मकथाङ्गस्य, श्रुतभक्त्या समासतः / / 6 / / (युग्मम्) निवृतिककुलनभस्तल-चन्द्रद्रोणाऽऽख्यसूरिमुख्येन। पण्डितगणेन गुणवत्-प्रियेण संशोधिता चेयम् // 10 // एकादशसु शतेष्वथ, विंशत्यधिक षु विक्रमसमानाम् (1120) / अणहिलपाटकनगरे,विजयदशम्यां च सिद्धेयम् / / 11 / / ज्ञा०२ श्रु०॥ यस्मिन्नतीते श्रुतसंयमश्रिया वप्राप्नुवत्यथ परं तथाविधम्। स्वस्याऽऽश्रयं संवसतोऽतिदुस्थिते, श्रीवर्द्धमानः स यतीश्वरोऽभवत्॥१॥ शिष्योऽभवत्तस्य जिनेश्वराख्यः, सूरिः कृताऽनिन्द्यविचित्रशाखः। सदा निरालम्बविहारवर्ती, चन्द्रोपमश्चन्द्रकुलाऽम्बरस्य / / 2 / / अन्योऽपि विज्ञो भुवि बुद्धिसागरः, पाण्डित्यचारित्रगुणैरनुपमैः।। शब्दादिलक्ष्मप्रतिपादकाऽनघग्रन्थप्रणेता प्रवरः क्षमावताम् // 3 // तयोरिमां शिष्यवरस्य वाक्याद्, __ वृत्तिं व्यधात् श्रीजिनचन्द्रसूरेः। शिष्यस्तयोरेव विमुग्धबुद्धिः, ग्रन्थाऽर्थबोधेऽभयदेवसूरिः // 4 // बोधो न शास्त्रार्थगतोऽस्ति तादृशो, न तादृशी वाक्पटुताऽस्ति मे तथा। न चाऽस्ति टीकेह न वृद्धनिर्मिता, हेतुः परं मेऽत्र कृतौ विभोर्वचः / / 5 / / यदिह किमपि दृग्धं बुद्धिमान्द्याद् विरुद्धं, मयि विहितकृपास्तद् धीधनाः शोधयन्तु। विपुलमतिमतोऽपि प्रायशः सावृतेः स्यात्, नहि न मतिविमोहः किं पुनर्मादृशस्य? // 6 // चतुरधिकविंशतियुते, वर्षसहस्रे शते (सं०११२४) च सिद्धेयम्। धवलकपुरे प्रसत्त्य, धनपत्योर्बकुलचन्द्रिकयोः // 7 // अणहिलपाटकनगरे, संघवरैर्वर्तमानबुधमुख्यैः। श्रीद्रोणाचार्याधैः,विद्वद्भिः शोधिता चेति / / || पश्चा०१६ विय० अविस्सई तयवत्थो, जिणनाहो पणसयाइ वरिसाणं / तयणु धरणिंदनिमिअ-सन्निज्झो बिइअसुअसारो // 55 // सिरिअभयदेवसूरी, दूरीकयदुरिअरोगसंघाओ। पयर्ड तित्थं काही, अहीणमाहप्पदिप्पंतं // 56|| ती०६ कल्प। (2) राजगच्छीये प्रद्युम्नसूरिशिष्ये, येन वादमहार्णवो नाम ग्रन्थो विरचितः, 'न्यायवनसिंह' इति च बिरुदं लेभे / वि०सं०१२७६ वर्षे पार्श्वनाथचरित्रनाम्नो गन्थस्य का माणिक्यचन्द्रसूरिणा तत्र लिखितम् - यद् वादमहार्णवकृतोऽभयदेवसूरे रहं नवमोऽस्मीति / अभयदेवसूरेरेव शिष्यः धनेश्वरसूरिर्मुञ्जराजस्य मान्यो गुरुरासीदिति तत्समयोऽनुमातुं शक्यते / अनेनैव अभयदेवसूरिणा तत्त्वबोधविधायिनी नाम सम्मतिटीका विरचितेति / जै०इ०) एतच्च स्फुटमेव प्रतिभाति ग्रन्थसमाप्तौ "इति कतिपयसूत्रव्याख्यया यन्मयाऽऽप्तं, कुशलमतुलमस्मात् सम्मतेर्भध्यसार्थः। भवभयमभिभूय प्राप्यतां ज्ञानगर्भ, विसलमभयदेवस्थानमनिन्दसारम् / / 1 / / पुष्यद्वाग्दानवादिद्विरदघनघटाकुन्तधीकुम्भपीठ- प्रध्वंसोद्भूतमुक्ताफलविशदयशोराशिभिर्यस्य तूर्णम् / गन्तुं दिग्दन्तिदन्तच्छलनिहितपदं व्योम पर्यन्तभागान, स्वल्पब्रह्माण्डभाण्डोदरनिविडतरोत्पिण्डितैःसंप्रतस्थे / / 2 / / प्रद्युम्नसूरेः शिष्येण, तत्त्वबोधविधायिनी। तस्यैषाऽभयदेवेन, सम्मतेर्दिवृतिः कृता / / 3 / / सम्म०३ काण्ड। इत्ययं द्वितीयोऽभवदेवसूरिः // (3) हषपुरीसगच्छोद्भवे भलधारीत्यपरनामके सूरौ, स च कोटिकगणस्य मध्यमशाखायां प्रश्नवाहनकुलसंभूतः स्थूलभद्रस्वामिनो वंश्यः / एकदा हर्षपुराद् विहरन् अणहिल्लपट्टननगरे बहिःप्रदेशे सपरिवारः स्थितः, अन्यदा श्रीजयसिंहदेवनरेन्द्रेण गजस्कन्धाऽऽरूढेन राजवाटिकाऽऽगतेन दृष्टो मलमलिनवस्त्रदेहः, राज्ञा च गजस्कन्धादवतीर्य दुष्करकारक इति दत्तं तस्य "मलधारी' इति नामेति / जै० इ०।। तथा च विविधतीर्थकल्पे जिनप्रभसुरिः - "सिरिपण्हवाहणकुलसंभूओ दरिसपुरीयगच्छालंकारभूत्तिओ अभयदेवसूरी, हरिसओ राओ, एगया गामाणुगामं विहरतो सिरिअणहिल्लवाडयपट्टणमागओ, ठिओ बाहिं पएसे सपरिवारो, अन्नया सिरिजयसिंहदेवनरिंदेण गयखंधारूढे ण रायवाडियागएण दिट्ठो मलमलिणवत्थदेहो, राएण गयखंधाओ ओअरिऊण दुक्करकारओ त्ति दिण्णं 'मलधारि' त्ति नामं, अब्भत्थिऊण नयरमज्झे नीओ रण्णा, दिण्णोउवस्सओ बयवसहीसमीवे, तत्थ ठिआ सूरिणो''। ती०४० कल्प। अस्य गुरुर्जयसिंहसूरिन माऽऽसीत, हेमचन्द्रसूरिनामा च शिष्योऽभवत् / येन वि०सं०११७० वर्षे 'भवभावना' नाम ग्रन्थो व्यरचि, येनैकसहस्रं ब्राह्मणा जैनीकृताः, यदुपदेशादजयमेरुनगरा-ददूरवर्तिनि 'मेडता' ग्रामे प्रसिद्धतज्जिनमन्दिरं कारितम् / किन-अस्यैव अभयदेवसूरेरुपदेशाद् भुवनपालराजेन जिनमन्दिरे पूजाकृभिर्देयः करो मोचितः / अजयमेरुराजेन जयसिंहेनाऽपि तदुपदेशात् मासस्य द्वयोरष्टम्योर्द्वयोश्चतुर्दश्योः शुक्लपञ्चम्यां च स्वराज्ये प्राणिमात्रवधो निवारितः / शाकम्भरीराजेन पृथ्वीराजेन च तदुपदेशाद् रणस्तम्भपूरे स्वर्णकलशोपशोभितं जिनमन्दिरं कारितम् / यदा च सोऽभयदेवसूरिरनशनेन देवलोकंगतस्तदा तस्य शवं चन्दनमयरथे निधायाऽग्निसंस्कारः कृतः, तस्य च शवरथस्य पश्चात् सर्व एव नागरो लोको जयसिंहराजश्व पृष्ठतोऽनुजगाम। दग्धे च तद्भस्म रोगोपद्रवनाशकमिति मत्वा सर्वलोका उधिक्युः / इत्येतत् सर्वं रणस्तम्भपुरीयजिनमन्दिरे शिलायां लिखितमुपलभ्यते / इत्ययं तृतीयोऽभयदेवसूरिः / जै० इ०। (5) भद्रेश्वरसूरिशिष्ये, सं० 1248 वर्षे विवेकमञ्जाः कारकस्य आसमस्य गुरौ, अनेन च भद्रबाहुकृतसामुद्रिकशास्त्रोपरि टीका कृता / केचिदेनं श्रीशान्त्याचार्यशिष्यं मन्यन्ते / इत्ययं चतुर्थोऽभयदेवसूरिः। जै० इ०। (5) रुद्रपालीयगच्छोद्भवे विजयेन्दुसूरिशिष्ये देवभद्रसूरि-गुरौ, अनेन काशिराजाद् 'वादिसिंह' इति बिरुदं लेभे / 'जयन्तविजयं' नाम महाकाव्यं च वि०सं०१२७८ वर्षे निर्ममे / इत्ययं पञ्चमोऽभयदेवसूरिः। जै० इ०॥ (6) गुणाकरसूरिसहवासिनि, येन वि०सं०१४२६ वर्षे सरस्वतीपाटननगरे भक्ताऽमरस्तोत्रटीका कृता, 1451 वर्षे तिजयपहुत्त' नामकं स्तोत्रं च निर्मितम् / जै००। Page #892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभयप्पदाण ७०८-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अभविय अभयप्पदाण-न०(अभयप्रदान) दानभेदे, "दाणाण सेहूं अभयप्पदाणं'' तथा स्वपरानुग्रहार्थमर्थिने दीयत इति दान-मनेकधा, तेषां मध्ये जीवानां जीवितार्थिनां त्राणकारित्वादभय-दानं श्रेष्ठम् / तदुक्तम् - दीयते म्रियमाणस्य, कोटिं जीवितमेव वा / धनकोटिं न गृह्णीयात्, सर्वो जीवितुमिच्छति / / 1 / / गोपाला-ऽङ्गनादीनां दृष्टान्तद्वारेणाऽर्थो बुद्धौ सुखेनाऽऽरोहतीति। अतोऽभयप्रदानप्राधान्यख्यापनार्थं कथानकमिदम् - वसन्तपुरे नगरे अरिदमनो नाम राजा। सच कदाचित् चतु-वधूसमेतो वातायनस्थः क्रीडायमानस्तिष्ठति / तेन कदाचित् चोरो रक्तकरवीरकृतमुण्डमालो रक्तपरिधानो रक्तचन्दनोपलिप्त-श्व प्रहतवध्यडिण्डिमो राजमार्गेण नीयमानः, सपत्नीकेन दृष्टः / दृष्ट्वा च ताभिः पृष्टम्- किमनेनाकारीति? तासामेकेन राज-पुरुषेणाऽऽवेदितम्यथा परद्रव्याऽपहारेण राजविरुद्धमिति / तत एकया राजा विज्ञप्तः - यथा यो भवता मम प्राग वरः प्रतिपन्नः, सोऽधुना दीयताम्, यथाऽहमस्योपकरोमि किञ्चित्। राज्ञाऽपि प्रतिपन्नं, ततस्तया स्नानादिपुरःसरमलङ्कारेणाऽलङ्कृतो दीनार-सहस्रव्ययेन पञ्चविधान् शब्दादीन् विषयानेकमहः प्रापितः / पुनर्द्वितीययाऽपि तथैव द्वितीयमहो दीनारशतसहस्रव्ययेन लालितः / ततस्तृतीयया तृतीयमहो दीनारकोटिव्ययेन सत्कारितः / चतुर्थ्यां तु राजानुमत्या मरणाद् रक्षितोऽभयप्रदानेन / ततोऽसा-वन्याभिर्हसिता, नाऽस्य त्वया किञ्चिद् दत्तमिति। तदेवं तासां परस्परं बहूपकारविषये विवादे जाते राज्ञाऽसावेव चौरः समाहूय पृष्टः / यथा-केन तव बहूपकृतमिति ? तेनाऽप्यभाणियथा न मया मरणमहाभयभीतेन किञ्चित् स्नानादिकं सुखं विज्ञायीति। अभयप्रदानाऽऽकर्णनेन पुनर्जन्मानमिवाऽऽत्मानमवैमीति / अतः सर्वदानानामभयप्रदानं श्रेष्ठमिति स्थितम्। सूत्र०१ श्रु०६ अ०) अभयसेण-पुं०(अभयसेन) वारतकपुरराजनि, पिं०ा आवा अभया-स्त्री०(अभया) दधिवाहनभूपस्य स्वनामख्यातायां राज्ञयाम्, . ती०३५ कल्प। तं०। हरीतक्याम्, नि०चू०१५ उ०। धा आचा०। अभयारिष्ट-न०(अभयारिष्ट) स्वनामख्याते मद्यविशेषे, सूत्र० १श्रु०८ अ० अभवसिद्धिय-पुं०(अभवसिद्धिक) न भवसिद्धिकोऽभवसिद्धिकः / अभव्ये, स्था०१ ठा०१ उ०॥ नं0"णेरइया दुविहा पण्णत्ता। तं जहाभवसिद्धिया चेव, अभवसिद्धिया चेव० जाव वैमाणिया"। स्था०२ ठा०२ उ०। अभविय(व्व)-पुं०(अभव्य) न० त० तथाविधाऽनादिपारिणामिकभावात् (कदाचनाऽपि) सिद्धिगमनाऽयोग्ये जीवे, कर्म०३ कर्म। कुतो नाऽभव्यः सिद्धिं गच्छति।आह- ननुजीवत्वसाम्येऽप्ययं भव्यः, अयं चाऽभव्य इति किं कृतोऽयं विशेषः ? न च वक्तव्यं यथा जीवत्वे समानेऽपि नारकतिर्यगादयो विशेषास्तथा भव्याऽभव्यत्वविशेषोऽपि भविष्यतीति, यतः कर्मजनिता एव नारकादिविशेषाः, न तु स्वाभाविकाः, भव्याऽभव्यत्वविशेषोऽपि यदि कर्मजनितस्तदा भवतु, को निवारयिता? न चैवम्। इत्येतदेवाऽऽह - होउ व जइ कम्मकओ, न विरोहो नारगाइभेद व्व। भण्णह भव्वाभव्वा, सभावओ तेण संदेहो। भवतु वा यदि कर्मकृतो भव्याऽभव्यत्वविशेषो जीवानामिष्यते, नाऽत्र कश्चिद् विरोधः, नारकादिभेदवत् / न चैतदस्ति, यतो भव्याऽभव्याः स्वभाव एव जीवाः, न तु कर्मत इति यूयं भणथ, तेनाऽस्माकं संदेह इति, परेणैवमुक्ते सतीत्याह - दव्वाइत्ते तुल्ले, जीवनहाणं सहावओ भेओ। जीवाजीवाइगओ, जह तह भव्वेयरविसेसो॥ यथा जीवनभसोर्द्रव्यत्वसत्त्वप्रमेयत्वज्ञेयत्वादौ तुल्येऽपि जीवाऽजीवत्वचेतनाऽचेतनत्वादिस्वभावतो भेदः, तथा जीवानामपि जीवत्वसाम्येऽपि यदि भव्याऽभव्यकृतो विशेषः स्यात्, तर्हि को दोषः ? इति। इत्थं संबोधितो भव्यत्वादिविशेषमभ्युपगम्य दूषणाऽन्तरमाह - एवं पि भव्वभावो, जीवत्तं पिव सभावजाईओ। पावइ निचो तम्मिय, तदवत्थे नत्थि निव्वाणं // नन्वेवमपि भव्यभावो नित्योऽविनाशी प्राप्नोति, स्वभाव-जातीयत्वात् स्वाभाविकत्वान्जीवत्ववत् भवत्वेवमिति चेत्, तदयुक्तम्।यतस्तस्मिन् भव्यभावे तदवस्थे नित्याऽवस्थायिनि नाऽस्ति निर्वाणम्, 'सिद्धो न भव्यो नाऽप्यभव्यः' इति वचनादिति। नैवम्, कुतः? इत्याह -- जह घडपुव्वभावो-ऽनाइसहावो वि संनिहाणेवं। जह भव्वत्ताभावो, भवेज किरियाए को दोसो ? // यथा घटस्य प्रागभावोऽनादिस्वभावजातीयोऽपिघटोत्पत्तेः सन्निधाने विनश्वरो दृष्टः, एवं भव्यत्वस्याऽपि ज्ञानतपःसचिव-चरणक्रियोपायतोऽभावः स्यात्, तर्हि को दोषः संपद्यते ? न कश्चिदिति / आक्षेपपरिहारौ प्राऽऽह - अणुदाहरणमभावो, खरसिंग पिव मई न तं जम्हा। भावो चिय य विसिट्ठो, कुंमाणुप्पत्तिमेत्तेणं॥ स्यात् मतिः परस्य, तत् तु- अनुदाहरणमसौ प्रागभावः, भावरूपतयैवाऽवस्तुत्वात्, खरविषाणवत् / तत् न, यस्माद् भाव एवाऽसौ घटप्रागभावस्तत्कारणभूतानादिकालप्रवृत्तपुद्गल-संघातरूपः, केवलं घटानुत्पत्तिमात्रेण विशिष्ट इति, भवतु तर्हि घटप्रागभाववद् भव्यत्वस्य विनाशः केवलम्, इत्थं सति दोषाऽन्तरं प्रसज्जति। किम् ? इत्याह - एवं भव्दुच्छेओ, कोट्ठागारस्स अवचउव्व त्ति। तं नाणंतत्तणओ-ऽणागयकालंबराणं व॥ नन्वेवं सति भव्योच्छेदो भव्यजीवैः संसारः शून्यः प्राप्नोति, अपचयात्। कस्य यथा समुच्छेदः? इत्याह- स्तोकस्तोकाऽऽकृष्यमाणधान्यस्य भृतकोष्ठाऽगारस्य। इदमुक्तं भवति-कालस्याऽनन्त्यात् षण्मासपर्यन्ते चाऽवश्यमेकस्य भव्यस्य जीवस्य सिद्धिगमनात् क्रमेणाऽपचीयमानस्य धान्यकोष्ठाऽगारस्येव सर्वस्यापि भव्यराशेरुच्छेदः प्राप्नोतीति / अत्रोत्तरमाहतदेतत् न, अनन्तत्वाद् भव्यराशेः, अनागतकालाऽऽकाशवदिति / इह यद् बृहदनन्तके नाऽनन्तस्तोकस्तोकतयाsपचीयमानमपि नोच्छिद्यते, यथा- प्रतिसमयं वर्तमानताऽऽत्माऽपचीयमानोऽप्यनागत-कालसमयराशिः, प्रतिसमयं बुद्ध्या प्रदेशाऽपहारेणाऽपचीयमानः सर्वनभःप्रदेशराशिर्वा, इतिन भव्योच्छेदः / कुतः? इत्याह - जंचातीयाणागय-काला तुल्ला जओ य संसिद्धो। एक्को अणंतभागो, भव्वाणमईयकालेणं / / Page #893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभविय ७०९-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अभाव एस्सेण तत्तिओ चिय, जुत्तो जंतो वि सव्वभव्वाण। जुत्तो न समुच्छेओ, होज मई कहमिणं सिद्धं / भव्वाणमणंतत्तण-मणंतभागो व कह विमुक्कोसि। कालादओ व मंडिय!, मह वयणाओ विपडिवजा / / . यस्माचाऽतीताऽनागतकालौ तुल्यावेव, यतश्चाऽतीतेना-इनन्तेनाऽपि कालेनैक एव निगोदानन्ततमो भागोऽद्याऽपि भव्यानां सद्धिः, एष्यताऽपि भविष्यत्कालेन तावन्मात्र एव भव्याऽनन्तभागः सिद्धिं गच्छन् युक्तो घटमानको, न हीनाऽधिकः, भविष्यतोऽपि कालस्याऽतीततुल्यत्वात्। तत एवमपि सति न सर्वभव्यानामुच्छेदो युक्तः, सर्वेणाऽपि कालेन तदनन्तभागस्यैव सिद्धिगमन-संभवोपदर्शनात्। अथपरस्य मतिर्भवेत्कथमिदं ससंबद्धम् ? यदुताऽनन्ता भव्याः, तदनन्तभागश्च सर्वेणैव कालेन सेत्स्यति? इति / अत्रोच्यते- कालाऽऽकाशादय इवाऽनन्तास्तावद् भव्याः, तदनन्तभागस्य च मुक्तिगमनात् कालाऽऽकाशय्योरिव न सर्वेषामुच्छेद इति प्रतिपद्यस्व / मद्वचनाद् वा मण्डिक ! सर्वमेतत् श्रद्धेहीति। विशे०। पञ्चा०। हा०। कर्मा श्रा०ा नं०। बृथा दशा०। अभारिय-पुं०(अभार्य) अपत्नीके, कल्प०| पद्मावती च समुवाच विना वधूटी, शोभा न काचन नरस्य भवत्यवश्यम्। नो केवलस्य पुरुषस्य करोति कोऽपि, विश्वासमेव विट एव भवेदभार्यः ||1|| कल्प०१क्ष०। अभाव-पुं०(अभाव) अशुभभावे, उत्त०१ अ०) जीवादयः पदार्था अन्याऽपेक्षया अभावाः / निषेधे, भ०४२ श०१ उ०। विनाशे, बृ० 1 उ०। असम्भवे, दश०१ उ०। असत्तायाम्, पञ्चा०३ विव० स०) (अभावप्रामाण्यम्) यदपि - प्रत्यक्षादेरनुत्पत्तिः, प्रमाणाभाव उच्यते। साऽऽत्मनोऽपरिणामोवा, विज्ञानं वाऽन्यवस्तुनि॥१॥ (सेति) प्रत्यक्षाद्यनुत्पत्तिः, आत्मनो घटादिग्राहकतया परिणामाऽभावः प्रसज्यपक्षे, पर्युदासपक्षे पुनरन्यस्मिन् घटविविक्ता-ऽऽख्ये वस्तुनि अभावे घटो नास्तीति विज्ञानम्, इत्यभावप्रमाण-मभिधीयते। तदपि यथासंभवं प्रत्यक्षाद्यन्तर्गतमेव। तथाहिगृहीत्वा वस्तुसद्भावं, स्मृत्वा च प्रतियोगिनम्। मानसं नास्तिता ज्ञानं, जायतेऽक्षानपेक्षया॥१॥ इयमभावप्रमाणजनिका सामग्री। तत्र च भूतलादिकं वस्तु प्रत्यक्षेण घटादिभिः प्रतियोगिभिः संसृष्म, असंसृष्ट वा गृह्यत? नाSE: पक्षः / प्रतियोगिसंसृष्टस्य भूतलादिवस्तुनः प्रत्यक्षेण ग्रहणे तत्र प्रतियोग्यभावग्राहकत्वेनाऽभावप्रमाणस्य प्रवृत्ति-विरोधात् / प्रवृत्तौ वा न प्रामाण्यम्, प्रतियोगिनः सत्त्वेऽपि तत्प्रवृत्तेः / द्वितीयपक्षे तुअभावप्रमाणवैयर्थ्य , प्रत्यक्षेणैव प्रतियोगिनां कुम्भादीनामभावप्रतिपत्तेः / अथ न संसृष्टं नाऽप्यसंसृष्ट प्रतियोगिभिर्भूतलादि वस्तु प्रत्यक्षेण गृह्यते, वस्तुमात्रस्य तेन ग्रहणाऽभ्युपगमादिति चेत् / तदपि दुष्टम् / संसृष्टत्यासंसृष्टत्वयोः परस्परपरिहारस्थिति-रूपत्वेनैकनिषेधेऽपरविधानस्य परिहर्तुमशक्यत्वात्, इति सदसद्रूपवस्तुग्रहण प्रवणेन प्रत्यक्षेणैवाऽयं वेद्यते। क्वचित्तु- तदघटं भूतलमिति स्मरणेन, तदेवेदमघट भूतलमिति प्रत्यभिज्ञानेन, योऽग्निमान् न भवति, नाऽसौ धूमवानिति तर्केण, नाऽत्र धूमो नाऽग्निरित्यनुमानेन, गृहे गर्गो नाऽस्तीत्यागमेनाऽभावस्य प्रतीतेः क्वाऽभावप्रमाणं प्रवर्तताम् ? रत्ना०२ परि०। अस्यैव प्रकारानाह - स चतुर्धा- प्रागभावः प्रध्वंसाऽभाव इतरेतराऽभावोऽत्यन्ताऽभावश्च // 58|| प्राक् पूर्व वस्तूत्पत्तेरभावः, प्रध्वंसश्चाऽसावभावश्च, इतरस्येतरस्मिन्नभावः, अत्यन्तं सर्वदाऽभावः / विधिप्रकारास्तु प्राक्तनैर्नोचिरे। अतः सूत्रकृद्भिरपि नाऽभिदधिरे // 58|| तत्र प्रागभावमाविर्भावयन्ति - यन्निवृत्तावेव कार्यस्य समुत्पत्तिः, सोऽस्य प्रागभावः॥५६ यस्य पदार्थस्य निवृत्तावेव सत्यां, न पुनरनिवृत्तावपि, अतिव्याप्तिप्रसक्तेः / अन्धकारस्याऽपि निवृत्तौ क्वचिद् ज्ञानोत्पत्तिदर्शनादन्धकारस्याऽपि ज्ञानप्रागभावत्वप्रसङ्गात् / न चैवमपि रूपज्ञानं तन्निवृत्तावेवोत्पद्यत इति तत्प्रति तस्य तत्त्वप्रसक्तिरिति वाच्यम् / अतीन्द्रियदर्शिनि नक्तंचरादौ च तद्भावेऽपि तद्भावात् / (स इति) पदार्थः, (अस्येति) कार्यस्य / / 56 / / अत्रोदाहरन्ति - यथा मृत्पिण्ड निवृत्तावेव समुत्पद्यमानस्य घटस्य मृत्पिण्डः // 6 // प्रध्वंसाऽभावं प्राहुः - यदुत्पत्तो कार्यस्याऽवश्यं विपत्तिः, सोऽस्य प्रध्वंसाऽभावः॥६१। यस्य पदार्थस्योत्पत्तौ सत्यां प्रागुत्पन्नकार्यस्याऽवश्यं नियमेन, अन्यथाऽतिप्रसङ्गात्। विपत्तिविघटन, सोऽस्य कार्यस्य प्रध्वंसाऽभावोऽभिधीयते // 61 // उदाहरन्तियथा कपालकदम्बकोत्पत्तौ नियमतो विपद्यमानस्य कलशस्य कपालकदम्बकम्॥६२। इतरेतराऽभावं वर्णयन्तिस्वरूपान्तरात् स्वरूपव्यावृतिरितरेतराऽभावः॥६३|| स्वभावाऽन्तरात् न पुनःस्वस्वरूपादेव तस्याऽभावप्रसक्ते:, स्वरुपयावृतिः स्वस्वभावव्यवच्छेद इतरेतराऽभावोऽन्याऽपोहनामा निगद्यते॥६३।। उदाहरणमाहुः - यथा स्तम्भस्वभावात् कुम्भस्वभावव्यावृत्तिः॥६॥ अत्यन्ताऽभावमुपदिशन्तिकालत्रयाऽपेक्षिणी हि तादात्म्यपरिणामनिवृत्ति-रत्यन्ताऽभावः // 6 // अतीताऽनागतवर्तमानरूपकालत्रयेऽपि याऽसौ तादात्म्य परिणामनिवृत्तिरेकत्वपरिणतिव्यावृत्तिः, सोऽत्यन्ताऽभावो-ऽभिधीयते // 65 / / निदर्शयन्ति इतरता Page #894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभाव 710- अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अभि(भी) यथा चेतनाऽचेतनयोः॥६६।। अज्झत्तिए जाव समुप्पज्जित्था, एवं खलु अहं उदायणस्स पुत्ते नखलु चेतनमात्मतत्त्वमचेतनपुद्गलाऽऽत्मकतामचकलत, कलयति, पभावइए देवीए अत्तए / तए णं से उदायणे राया ममं अवहाय कलयिष्यति वाः तचैतन्यविरोधात् / नाऽप्यचेतनं पुद्गलतत्त्वं / णियगं भायणिज्जं केसी-कुमारं रज्जे ठावेत्ता समणस्स भगवओ चेतनस्वरूपताम्, अचेतनत्वविरोधात्। रत्ना०३ परि०ा नं०सम्म०! महावीरस्स जाव पव्वइत्तए। इमेणं एय्यारूवेणं महता अपत्तिएणं अभावचातुर्विध्यं चाऽवश्यमाश्रयणीयम् / तदुक्तम्- कार्यद्रव्यमनादिः मणोमाणसीएणं दुक्खेणं अभिभूए समाणे अंतेउरपरिस्यात्, प्रागभावस्य निहवे / प्रध्वंसस्य त्वभावस्य, प्रच्यवेऽनन्तता यालसंपरिबुडे सभंडमत्तोवगरणमायाय वीइभयाओ णयराओ व्रजेत् / / 1 / / सर्वाऽऽत्मकं तदेकं स्यादन्याऽपोहव्यतिक्रमे / इत्यादि। णिग्गच्छइ, णिग्गच्छइत्ता पुव्वाऽणुपुट्विं चरमाणे गामाणुगाम सूत्र०१श्रु०१अ०१ उ०। (सम्मत्यादिग्रन्थेभ्यो विशेषोऽवगन्तव्यः) दूइज्जमाणे जेणेव चंपा णयरी, जेणेव कूणिए राया, तेणेव परिचाराऽभावो द्विविधः- विद्यमानाऽभावोऽविद्यमानाऽभावश्च / विद्यमानः उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता कूणियं रायं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ। सन्, अभावोऽसन्, वैयावृत्यादेरकरणाद् विद्यमानाऽभावः। अविद्यमानः तत्थ विणं से विउलभोगसमितिसमण्णागए यावि होत्था। तए सन्, अभावोऽविद्यमानाऽभावः / व्य०२ उ०। णं से अभीइकुमारे समणोवासए यावि होत्था, अभिगय० जाव अभाविय-त्रि०(अभावित) असंसर्गप्राप्ते प्राप्तसंसर्गे वा वज्रतन्दुलकल्पे, विहरइ / उदायणम्मि रायरिसिम्मि समणुबद्धवेरे यावि होत्था। अयोग्ये च। "अभाविया परिसा" तृतीय- माश्चर्यम्। स्था० 10 ठा०। तेणं कालेणं तेणं समएणं इमीसे रयणप्पमाए पुढवीए अभावियक्खेत्त-न०(अभावितक्षेत्र) क०स०। संविग्नसाधु णिरयपरिसामंतेसु चोसट्ठिअसुरकुमारावाससयसहस्सा विषयश्रद्धाविकल्पे, पार्श्वस्थादिभाविते च क्षेत्रे, बृ०३ उ०। पण्णत्ता / तए णं से अभीइकुमारे बहूई वासाइं समणोवासगं परियायं पाउणइ, पाउणइत्ता अद्धमासियाए संलेहणाए तीसं अभावुग-न०(अभावुक) न० त०। वेल्लुकादिरूपभावुक- विलक्षणे भत्ताइं अणसणं अणसणं तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिकंते चलनादौ, पं०व०३द्वार। आव०॥ कालमासे कालं किया इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अभासग-पुं०(अभाषक) भाषाऽपर्याप्त अयोगिसिद्धे, एकेन्द्रियेचा स्था० णिरयपरिसामंतेसु चोसट्ठीए आतावा० जाव सहस्से सु 2 ठा०४ उ०। अनु०। चं०प्र०। ("भासग" शब्दे दण्डकोऽस्य वक्ष्यते) अण्णयरंसि आयावा असुरकुमारावासंसि आतावासंसि अभासा-स्त्री०(अभाषा) मृषाभाषायाम्, सत्यामृषायां च / भ० असुरकु मारदेवत्ताए उववण्णो, तत्थ णं अत्थेगइयाणं 25 श०३ उ० असुरकुमाराणं एग पलिओवमट्टिई पण्णत्ता। तस्सणं अभीइस्स अभासिय-त्रि०(अभासिक) अदीप्तिमति भूम्यादिके द्रव्ये, नि०चू० देवस्स एग पलिओवमं ठिई पण्णत्ता / से णं अभीइदेवे ताओ 13 उ० देवलोगाओ आउक्खएणं३ अणंतरं उव्वट्टित्ता कहिंगच्छिहिति, अभि-अव्य०(अभि) आभिमुख्ये, अनु०। आचा०। विपा०। संमुखे, नं०। कहिं उववजिहिति? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति० विकल्पे, पदार्थसंभावने च / निचू० 1 उ०। कश्चित् प्रकारं प्राप्तस्य जाव अंतं काहिति / सेवं मंते! भंते! ति। द्योतने, आभिमुख्ये, अभिलापे, वीप्सायां, लक्षणे, समन्तादर्थे च / (अप्पत्तिएणं मणोमाणसिएणं दुक्खेणंति) अप्रीतिकेनाऽप्रीतिस्वभावेन वाचा मनसो विकारो मानसिकं, मनसि मानसिकं, न बहिरुपलक्ष्यमाणविकारं अभिआवण्ण-त्रि०(अभ्यापन्न) अभिमुखं समापन्ने, सूत्र० 1 श्रु० यत् , तत् मनोमानसिकं, तेन / केनैवंविधेन ? इत्याह- दुःखेन / 4 अ०२ उ० सभंडमत्तोवगरणमायायत्ति स्वां स्वकीयां भाण्डमात्रां भाजनरूपपरिच्छदमुपकरणं च शय्यादि गृहीत्वेत्यर्थः / अथवा- सह अभि(भी)इ-न०(अभिजित) ब्रह्मदेवताके नक्षत्रभेदे, स्था०२ ठा० भाण्डमात्रया यदुपकरणं, तत् तथा, तदादाय (समणुबद्धवेरि त्ति) 3 उ०। अनु० "दो अभिई"। स्था० 2 ठा० 3 उ०। जं० तच्च अव्यवच्छिन्नवैरिभावः / (निरयपरिसामंतेसुत्ति) नरकपरिपार्श्वतः उत्तराषाढानक्षत्रस्य शेषचतुर्थोऽशसहितश्रवणनक्षत्राऽऽद्यकला (चोसट्ठीए आयावा असुरकुमारावासेसु त्ति) इह "आयावत्ति" चतुष्करूपम् / शब्द० "अभीइणक्खत्ते तितारे"। पं०सं०२ द्वार / असुरकुमारविशेषाः, विशेषतस्तुनाऽवगम्यन्त इति। भ०१३श०६उ०। नक्षत्रेण सहाऽस्य योगस्तत्रैव / ज्यो०६ पाहु०। वीतभयनगरराज लोकोत्तररीत्या द्वादशे दिवसे, कल्प०६क्षा श्रेणिकस्यधारिण्यां जाते स्योदायनस्य प्रभावत्या देव्यामुत्पन्ने पुत्रे, भ०। स च प्रव्रजता स्वपित्रा पुत्रे, अणु०। स च वीराऽन्तिके प्रव्रज्य पञ्च वर्षाणि श्रामण्यं परिपाल्य तद्भागिनेये केशिकुमारश्रमणे राज्यमधिष्ठापिते द्विष्टः सन्, संलेखनया विजये विमाने उत्पन्न इति अनुत्तरोपपातिकदशानां 1 वर्गे 10 अध्ययने मृतः सन्, असुरकुमारदेवत्वेनोत्पन्नः / भ० 13 श०६ उ०। स्था०। सूचितम्। अणु०१ वर्ग। अभिमुखीभूय जयति शत्रून, अभि-जि-क्विप। तए णं तस्स अभीइकुमारस्स अण्णया क्याई पुव्वरत्ता- शत्रुजयिनि, यात्राऽनुकूललग्नभेदे, पञ्चदशधा विभक्तदिनस्याऽष्टमे भागे, ऽवरत्तकालसमयंसि कुटुंबजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे | स्मृतिप्रसिद्ध कुतपकाले च। वाचला द०प०॥ Page #895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिउंजिय 711- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अभिओगी अभिउंजिय-अव्य०(अभियुज्य) सम्बन्धमुपागत्य प्रतिस्पर्द्ध, स्था०३ ठा०४ उ०। वशीकृत्याऽऽश्लिष्य वा इत्येतेषामर्थे, दशा० 10 अ०। अभिओग-पुं०(अभियोग) अभियुज्यमानतायाम्, स द्विविधो- दैवो | मानुषिकश्च / व्य०८उ०। (सच 'उवसगपत्त' शब्दे द्वितीयभागे 1026 पृष्ठे व्याख्यास्यते) अभियोजनमभियोगः / राजाभियोगादिके अनिच्छतोऽपि व्यापारणे, ध०२ अधिo आदेशकर्मणि, औ०। प्रश्नका आज्ञायाम, स्था० 10 ठा०ा वशीकरणे, नि०चू०१ उ०। अभिभवे, आव० 5 अ०। बृ०। सूत्र०ा गर्वे, आव०५ अ० अभियोजन विद्यामन्त्रादिभिः परेषां वशीकरणादिरभियोगः / स च द्विधा / यदाह - दुविहो खलु अभिओगो, दव्वे भावे य होइ नायव्यो। दव्वम्मि होंति जोगा, विज्जामंताइ भावम्मि। इदानीम(अभिओगो ति) व्याख्यानयन्नाह-(दुविहो खलु अभिओगो त्ति) इह द्विविधो अभियोगः- द्रव्याभियोगो, भावाभियोगश्च ज्ञातव्यः। तत्र द्रव्ये योगो द्रव्ययोगश्चूर्णम्, तन्मिश्रः पिण्डो द्रव्याभियोगपिण्डः, स चपरित्यजनीयः। भावाभियोगश्च, विद्यया मन्त्रेण वा पिण्डं ददाति सच भावाभियोगः पिण्डः। सच परिष्ठापनीय इति। अत्र अगार्या दृष्टान्तः - "एगा अविरइया, सा अणिट्ठा पइणो, ताए परिव्वाइया अब्भत्थियाकिंचि मंतेण अभिमंतिऊण मम देहि, जेण पई मे वसो होइ, ताहे ताए अभिमंतिऊण कूरो दिन्नो / अविरइयाए चिंतियं-मा एसो दिन्नो मरेज, तओ ताए अणुकंपाए उक्कडरुडियाए छड्डिओ, सो गद्दहेण खाइओ, सो रत्तिं घरदारं खोदिउमारद्धो, ताणि निग्गयाणि जाव पेच्छंति गद्दहेण खोद्दिजंत, सा अविरइया भण्णइ-किमेय त्ति ?, ताए सब्भावो कहिओ, तेहिं वि सा चरिया दंडाविया, एस दोसो, एवं ताव जइ तिरियाणं एसा अवस्था होइ, माणुसस्स पुण सुहयरं होइ, अओ एरिसो पिंडो न घेत्तव्वो"। अमुमेवार्थ गाथाभिरुपसंहरन्नाह - विजाए हो अगारी, अवियत्ता साच पुच्छए चरियं / अभिमंतणोदणस्स उ,अणुकंपत्तणमुस्सण्णं च खरे // 604|| | विद्याभिमन्त्रिते पिण्डे अगारीदृष्टान्तः - सा भर्तुरस्वायत्ता न रोचते। सा च चरिका परिव्राजिकां पृच्छति पत्युर्वशीकरणार्थम् / तया अभिमन्त्रणमोदनस्य कृत्वा दत्तं, तयाऽपि अगार्या पत्युर्मरणानुकम्पया नदत्तः सओदनः, किन्तु उत्सन्नः, परित्यागः कृतः। सच खरेण भक्षित इति। वारस्स पिट्टणम्मि य, पुच्छण कहणं च हो अगारीए। सेटे चरिआ दंडे, एवं दोसाइहिं पिसया ||10|| सच गर्दभ आगत्य द्वारं पिट्टति मन्त्रवशीकृतः सन, शेष सुगमम् / एवं भावाभियोगे दृष्टान्त उक्तः। इदानीं द्रव्याभियोगे चूर्णवशीकरणपिण्डः, स उच्यते"एगा अविरइया, सायगुरुअस्स भिक्खुणो अज्झोववण्णा अणुरत्ता, ताहे सा तं पत्थेइ, अणिच्छंतस्स चुण्णाभिओगेण संजोएउ भिक्खं पडिवेसिय घरे काऊण दवावियं ताए, जओ चेव तस्स साहुस्स पडिग्गहे | पडियं तओ चेव तस्स साहुस्स तत्तो मणो हीरइ, तेण य णायं, ताहे णियट्टति, णियट्टो आयरियाणं पडिग्गहं काउंकाइयभूमिं वच्चइ, जाव आयरियाणं पितत्तो हुत्तो भावो हीरति, ताहे सो सीसो आगंतु आलोएइ, | मम पि अत्थि भावो, तं एत्थं संजोगचुन्नेण कओ पिंडो अत्थि, ताहे परिहविजइ,जो विहि परिहवणे सो उवरिंभण्णिहित्ति"। एवमेव विसकयं पि- "एगा अगारी साहुणो अज्झोववण्णा, सोयणो इच्छति, ताए रुवाए विसेण मिस्सा भिक्खा दिन्ना ! तस्स य दिन्नमत्ताणं चेव सिरोवेयणा जाया, परिणियट्टो गुरुणो समप्पेऊण वोसिरइ,जावगुरुणो विसीसवेयणा जाया, तं च गुरुणा गंधेण णायं, जहा इमं विसमिस्सं, अहवा तत्थ लवलकया भिक्खा पडिया, ताहे तं विसं उप्पिसइ / एवं गाते परिद्वविज्जति"। इदानीममुमेवार्थ गाथाभिरुपसंहरन्नाह - जोगम्मि उ अविरइया, अज्झोववन्ना सुरूवभिक्खुम्मि। कडयोगिमणिच्छत्त-स्स देइ भिक्खं असुहभावो // 606|| योगे अविरतिका गृहस्थीदृष्टान्तः - अध्युपपन्ना रक्ता सुरूपे भिक्षी, अनिच्छितस्तत्कर्मकर्तुः कृतयोगां भिक्षा, भिक्षापिण्ड ददाति / पुनश्च तस्य साधोहणानन्तरमेव अशुभभावो जातः। तदभिमुखं चिन्तयतिसंकाए स नियट्टो, दाऊण गुरुस्स काइयं विसरे। तेसिं पि असुहभावो, पृच्छा य ममं पि उस्सयणा ||607 / / तया च शङ्कया योगकृतभिक्षाशङ्कया निवृत्तः भिक्षापरिभ्रमणात् / शेष सुगमम्। एमेव संकियम्मि वि, दाऊण गुरुस्स काइए विसरे। गंधाई विण्णाए, उस्सण्णऽविही सियालवहे || एवमेव विषकृतोऽपि दृष्टान्तः- गुरोर्दत्त्वा समर्थयित्वा कायिकां व्युत्सृजति, तेन गुरुणा गन्धादिना विज्ञातम्। आदिग्रहणात् तत्तस्य उत्सर्जनं परित्यागः क्रियते, तत्र विधिना परिष्ठापनं कर्तव्यम्, नाऽविधिना अविधिपरिष्ठापने सति शृगालादिवो भवति। ओ०। बृ०॥ अभिओगी-स्त्री०(आभियोगी) आ समन्तादाभिमुख्येन युज्यन्ते प्रेष्यकर्मणि व्यापार्यन्ते इत्याभियोग्याः किङ्करस्थानीया देवविशेषास्तेषामियमाभियोगी / भावनायाम्, बृ०॥ अथाभियोगीमाह - कोउअ-भूई-पसिणे,पसिणापसिणे निमित्तमाजीवी। रिड्डिरससायगुरुओ, अभिओगीभावणं कुणइ / / ऋद्धिरससातगुरुकः सन् कौतुकाजीवी भूतिकर्माजीवी, प्रश्नाजीवी, प्रश्नाप्रश्नाजीवी, निमित्ताजीवी च भवति एवंविध आभियोगीभावनां करोतीति / बृ० अथ ऋद्धिरससातगुरुक इति पदव्याख्यानार्थमाह - एयाणि गारवट्ठा, कुणमाणो आमिओगियं बंधइ। बीयं गारवरहिओ, कुव्वं आराह गुत्तं च।। एतानि कौतुकादीनि ऋद्धिरससातगौरवार्थं कुर्वाणः प्रयुञ्जानः सन्नाभियोगिकं देवादिप्रेष्यकर्मव्यापारफलं कर्म बध्नाति / द्वितीयमपवादपदमत्र भवति- गौरवरहितः सन्नतिशयज्ञाने सति निस्पृहवृत्त्या प्रवचनप्रभावनार्थमेतानि कौतुकादीनि कुर्वन् आराधको भवति, उचैर्गोत्रं च कर्म बध्नाति, तीर्थोन्नतिकरणा Page #896 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिओगी 712- अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अभिग्गह __दिति। गत आभियोगिकी भावना। बृ०१ उ० भ०। स्था०। औ | अभिगम-पुं०(अभिगम) सम्यग्धर्मप्रतिपत्तौ, पा०। ध० दशा। अमिओयण-न०(अभियोजन) परेषां विद्यामन्त्रादिभिर्वशीकरणे, अभिगमाः - प्रा०२०पद। आवा थेरे भगवंते पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छंति / तं जहाअभिकंखमाण-त्रि०(अभिकाङ्क्षत्) कर्तुमिच्छति, दश०६ अ०३ उ०। सचित्ताणं दवाणं विउसरणयाए, अचित्ताणं दवाणं अभिकंखा-स्त्री०(अभिकाङ्क्षा) अभिलाषे, सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ उ०। अविउसरणयाए, एगसाडिएणं उत्तरसंगकरणेणं, चक्खुप्फासे आचा अंजलिपगहेणं, मणसा एगत्तीकरणेणं / अमिवंत-त्रि०(अभिक्रान्त) अतिलङ्गिते,आचा०१ श्रु०४ अ०५ उ०। (अभिगमेणं ति) प्रतिपत्त्या अभिगच्छन्ति समीपं गच्छन्ति। (सचित्ताणं भावे निष्ठाप्रत्ययः। अभिक्रमणे, दश०४ अ० ति) पुष्पताम्बूलादीनां (विउसरणयाए त्ति) व्यव-सर्जनया त्यागेन, अभिक्कं तकिरिया-स्त्री०(अभिक्रान्तक्रिया) चरकादिभिरनव- | (अचित्ताणं ति) वस्त्रमुद्रिकादीनां, (अविउस-रणयाए त्ति) अत्यागेन, सेवितपूर्वायां वसतौ, आचा०२ श्रु०२ अ०२ उ०॥ (एगसाडिएणं ति) अनेकोत्तरीय-शाटकानां निषेधार्थमुक्तम् / (उत्तरासंगकरणेणं ति) उत्तरासङ्ग उत्तरीयस्य देहे न्यासविशेषः, अभिकंतकूरकम्म-त्रि०(अभिक्रान्तक्रूरकर्मन्) हिंसादिक्रिया प्रवृत्ते, चक्षुःस्पर्श दृष्टिपाते, (एगत्तीकरणेणं ति)अनेकत्वस्यानेकालम्बनत्वस्य सूत्र०२ श्रु०२ अ०। आचाo एकत्वं करणं एकालम्बन-त्वकरण, एकत्वीकरणं, तेन। भ०२श०५उ०। अभिक्कं तवय-न०(अभिक्रान्तवयस्) जरामतिमृत्युं वाऽतिक्रान्ते, दर्श०। सूत्र०ा वस्तुनः परिच्छेदे प्राप्तौ अभिगम्यतेऽस्मिन्नित्यभिगमः, आद्यवयोद्वयातिक्रमे जराभिमुखे वयसि, बालादीनां चयोपचय इति व्युत्पत्त्या वस्तुपरिच्छेदाधिकरणे, दश०४अ०। वत्यवस्था, तामभिमुखमाक्रान्ते, आचा०१ श्रु०२ अ०१ उ०॥ अभिगमण-न०(अभिगमन)अभिमुखगमने,दशा०१०अ०। धo ज्ञा०| अभिक्कमण न०(अभिक्रमण) अभिमुखं क्रमणे, आचा० 1 श्रु० / निका सूत्र०। सर्वबाह्यमण्डलादभ्यन्तरप्रविशने, सू०प्र० 13 पाहु०। ८अ०८ उ० "अभिगमणट्टयाए'' अवगमलक्षणाया-ऽर्थायेत्यर्थः / ज्ञा० 12 अ०। अभिक्कममाण-त्रि०(अभिक्रममाण) गच्छति, आचा०१ श्रु० अभिगमणजोग्ग-त्रि०(अभिगमनयोग्य) अभिमुखगमनायोचिते, रा०। १अ०२ उ० अभिगमरुइ-पुं०(अभिगमरुचि) अभिगमो विशिष्टं परिज्ञानं, तेन अभिकम्म-अव्य०(अभिक्रम्य) आभिमुख्येन क्रान्त्वेत्यर्थे, सूत्र० रुचिर्यस्याऽसौ अभिगमरुचिः / सम्यक्त्वभेदे, तद्वति च / प्रव० 146 1 श्रु०११०२ उ०। द्वार। अभिक्खणं-अव्य०(अभीक्ष्णम्) अनवरते, आ०म०प्र० भ०। प्रश्न०। सो होइ अभिगमराई,सुयनाणं जस्स अत्थओ दिटुं। विशे०। सूत्र०। आचा०। पुनःशब्दार्थे, स्था०५ ठा०१उ०। "एगे एकारस अंगाई, पइण्णगा दिहिवाओ य। समुप्पज्जेज्जा अभिक्खणं अभिक्खणं इत्थिकह भत्तकह'। स्था० 2 ठा० यस्य श्रुतज्ञानमर्थतो दृष्ट मे कादशाङ्गानि, प्रकीर्णकमित्यत्र 4 उ०ा अभीक्ष्णं पुनः पुनः। विशेा बृ०नि०चूादशा सा भूयोभूयः / जातावेकवचनम् / ततोऽयमर्थः - प्रकीर्णानि उत्तराध्ययनादीनि, दशा० 10 अ०। रा०ा वारंवारम् / कल्प० 6 क्ष०ा उत्त०। असकृत् / दृष्टिवादः, चशब्दादुपाङ्गानि च, स भवत्यधिगमरुचिः। प्रज्ञा० 1 पद। दशा०२ अ०। भृशम्। स०३० सम०"अभिक्खणमोधारणिं भासई"। उत्त आव०४ अ०॥ अभिगमसङ्घ-पुं०(अभिगमश्राद्ध) प्रतिपन्नाणुव्रते, ध० 3 अधि०। अभिक्खणिसेवण-न०(अभीक्ष्णनिषेवण) अभीक्ष्णप्रतिसेवने, अभिगमसम्मत्त-न०(अभिगमसम्यक्त्व)जीवाऽजीवपुण्य पापाऽऽश्रवव्य०३ उ० संवरनिर्जराबन्धमोक्षेषु परीक्षितनवपदार्थाऽभिगमप्रत्ययिके अभिक्खमाइण-त्रि०(अभीक्ष्णमायिन) बहुशो मायाविनि, सम्यक्त्वभेदे, आचू०४ अ॥"अभिगमसम्मदंसणे दुविहे पन्नत्ते।तं व्य०३ उ० जहा-पडिवाई चेव, अपडिवाईचेव" स्था०२ ठा०१ उ०। अभिक्खसेवा-स्त्री०(अभीक्ष्णसेवा) प्रमाणाधिकसेवायाम, निचू०१ | अभिगय-पुं०न०(अभिगत)आभिमुख्येन गतः / प्रविष्ट,बृ०१उ०। अभिगिज्झ-अव्य०(अभिगृह्य) अङ्गीकृत्य अभिमुखीभूयेत्यर्थे, स्था० अभिक्खालामिय-पुं०(अभिक्षालाभिक) अतुच्छानवज्ञान-ग्राहके | २ठा०१ उ०। भिक्षाचर्याविषयकाभिग्रहविशेषधारके साधौ, औ०। सूत्र अभिगिझंत-त्रि०(अभिगृध्यत्) आभिमुख्येन लुभ्यमाने अमिक्खासेवणा-स्त्री०(अभीक्ष्णासेवना) असकृदा सेवना-याम, | लोभवशगीभवने, सूत्र०२ श्रु०२ उ०। नि००१ उ०। अभिग्गह-पुं०(अभिग्रह) आभिमुख्येन ग्रहोऽभिग्रहः / नि०चू० अभिगजंत-न०(अभिगर्जत्) घनध्वनिमुञ्चने, उपा०२ अ०॥ 2 उ०। अभिगृह्यत इत्यभिग्रहः / प्रतिज्ञाविशेषे, आव० 6 अ०। उन Page #897 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिग्गह 713 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अभिग्गहिया साध्वाचारविशेषे, यथेत्थमाहारादिकममीषां कल्पते, इत्थं च न कल्पते। उत्क्षिप्तं पाकपिठरात् पूर्वमेव दायकेनोद्धृतं तद्ये चरन्ति गवेषयन्ति बृ०१ उ०। स च द्रव्यादिविषयभेदाच्चतुर्विधः / ध०३ अधिo तत्र / ते उत्क्षिप्तचरकाः / आदिशब्दाद् निक्षिप्तचरकाः, संख्यादत्तिकाः, द्रव्याभिग्रहो लेपकृदादिद्रव्यविषयः, क्षेत्राभिग्रहः स्वग्रामपरग्रामादि- इष्टलाभिकाः, पृष्टलाभिका इत्यादयो गृह्यन्ते / त एते गुणगुणिनोः विषयः, कालाभिग्रहः पूर्वाह्रादिविषयः, भावाभिग्रहस्तु कथंचिदभेदाभावयुताः खल्वभिग्रहा भवन्ति, भावाभिग्रहा इति भावः / गानहसनादिप्रवृत्तपुरुषादिविषयः। औ०। प्रव०॥ यद्वा- गायन् यदि दास्यति, तदा मया ग्रहीतव्यम्, एवं रुदन वा, हिडंति तओ पच्छा, अमुच्छिया एसणाए उवउत्ता। निषण्णादिर्वा, आदि-ग्रहणादुत्थितः, संप्रस्थितश्च यद्ददाति तद्विषयो दव्वादभिग्गहजुआ, मोक्खट्ठा सव्वभावेणं ||7|| योऽभिग्रहः स सर्वोऽपि भावाऽभिग्रह उच्यते। तथा - हिडन्ति अटन्ति ततः पश्चाद, विधिनिर्गमनानन्तरमित्यर्थः / अमूर्छिता ओस्सकणअहिसक्कण, परंमुहालंकिए य इयरो वा। आहारादौ मूर्छामकुर्वन्तः, एषणायां ग्रहणविषयायाम, उपयुक्तास्तत्पराः, भावऽनयरेण जुओ, अह भावाभिग्गहो नाम / द्रव्याद्यभिग्रहयुता वक्ष्यमाणद्रव्याऽऽद्यभिग्रहोपेताः, मोक्षार्थं तदर्थ अवष्वष्कन्नपसरणं कुर्वन, अभिष्वष्कन् संमुखमागच्छन्, पराङ्मुखः विहितानुष्ठानत्वात्, भिक्षाऽटनस्य सर्वभावेन सर्वभावाभिसन्धिना प्रतीतः, अलङ्कृतः कटककेयूरादिभिः, इतरो वा अनलड्कृतः पुरुषो तद्वैयावृत्त्यादेरपि मोक्षार्थत्वादिति गाथार्थः। तत्र द्रव्याऽभिग्रहानाह - यदि दास्यति तदा ग्राह्यमित्येतेषां भावाना-मन्यतरेण भावेन युतः, अथायं भावाभिग्रहो नामेति। बृ०१उ०। आचा०। "तए णं समणे भगवं लेवमलेवजुअंवा, अमुगं दव्वं व अज्ज घिच्छामि। महावीरे गब्भत्थे चेव इमेयारूवे अभिग्गहं अभिगिण्ह- नो खलु मे कप्पइ अमुगेणं च दव्वेणं, अह दव्वाभिग्गहो चेव / / 6|| अम्मापिउहिं जीवंतेहिं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए''। लेपवजुगार्यादि, तन्मिश्रं वा, अलेपवद्वा तद्विपरीतम्, अमुकं द्रव्यं वा कल्प० 5 क्ष०। श्रीवीरः पञ्चाऽभिग्रहानभिगृह्याऽस्थिकग्राम प्रति मण्डकादि, अद्य ग्रहीष्यामि अमुकेन वा द्रव्येण दर्वीकुन्तादिना, अथाऽयं प्रस्थितः / अभिग्रहाश्चैते-नाऽप्रीतिमद्गृहे वासः१, स्थेयं प्रतिमया सदा द्रव्याऽभिग्रहो नाम साध्वाचरणविशेष इति गाथार्थः। क्षेत्राऽभिग्रहमाह - शन गेहिविनयः कार्यः 3, मौनं 4 पाणौ च भोजनम् 5 / / 1 / / कल्प०५ अट्ठउ गोअरभूमि, एलुगविक्खंभमेत्तगहणं च। क्ष०ा प्रत्याख्यानभेदे, "पंच चउरो अभिग्गहे'' पञ्च चत्वार-श्वाऽभिग्रहे सग्गामपरग्गामे, एवइअगिहाण खेतम्मिIIEI आकाराः - अभिग्गहेसु अप्पाउरणं कोइ पचक्खाइ, तस्स पंच अष्टौ गोचरभूमयो वक्ष्यमाणलक्षणाः, तथा एलुकविष्कम्भ-मात्रग्रहणं (आगारा), अण्णत्थरुणाभोगे सहसागारे चोलपट्टागारेमहत्तरागारे सेसेसु च, यथोक्तम्- 'एलुकविक्खंभइत्ता'। तथा स्वग्राम-परग्रामयोरेतावन्ति चोलपट्टागारो णत्थि, विगईए अट्ठ नव य आगारा। आव०६ अ० 0 च गृहाण क्षेत्रे इति, स क्षेत्रविषयोऽभिग्रह इति गाथार्थः। पं०व०२ द्वार / ल०प्र०। इदमेव दर्शनं शोभनं नाऽन्यदित्येवंरूपे कुमतपरिग्रहे, स्था०२ कालाऽभिग्रहमाह - ठा०१ उ०। गुरुनियोग-करणाऽभिसन्धौ, द्वा०२६ द्वा०। एष कायिकविनयभेदः / व्य० 1 उ०। दश०। पं० सं०। प्रकाशकरणे, काले अभिग्गहो पुण, आई मज्झं तहेव अवसाणे। अभियोगे, आभिमुख्येनोद्यमे गौरवान्विते च / वाच०) अप्पत्ते सइ काले, आई बिइओ अचरिमम्मि॥ अभिग्गहियसिजासणिय-पुं०(अभिग्रहीतशय्याऽऽसनिक) काले कालविषयोऽभिग्रहः पुनरयम् - आदौ मध्ये तथैवावसाने शय्याऽऽसनाऽभिग्रहयुते साध्वाचारे, कल्प० भिक्षावेलायाः, एतदेव व्याचष्टे - अप्राप्ते भिक्षाकाले यत्पर्यटति स नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अणभिग्गहियप्रथमोऽभिग्रहः / यस्तु सति प्राप्ते भिक्षाकाले चरति स द्वितीयो सिज्जासणिएण हुत्तए॥ मध्यविषयोऽभिग्रहः / यत्पुनश्वरमेऽतिक्रान्ते भिक्षाकाले पर्यटति सोऽवसानविषयोऽभिग्रहः / कालत्रयेऽपि तु गुणदोषानाह नो कल्पते साधूनां, साध्वीनां वा (अणभिग्गहिय त्ति) न अभिगृहीते शय्याऽऽसने येन स अनभिगृहीतशय्याऽऽसनः, अनभिदिंतगपडिच्छगाणं, हविज सुहुमंपिमा हु अवियत्तं। गृहीतशय्याऽऽसन एव अनभिगृहीतशय्याऽऽसनिकः। स्वार्थे इकण इय अप्पत्ते अइए, पवत्तणं मा ततो मज्झे / / प्रत्ययः / तथाविधेन साधुना (हत्तए त्ति) भवितुं न कल्पते / वर्षासु ददत्प्रतीच्छकयोरिति- भिक्षादातुरगारिणो भिक्षाप्रतीच्छकस्य च मणिकुट्टिमे पीठफलकादिग्रहणवतैव भाव्यम्, अन्यथा शीतलायां भूमौ वनीपकादेर्मा भूत् सूक्ष्ममप्यवियत्तमप्रीतिकम्, इत्यस्माद् शयने उपवेशने च कुन्थ्वादि-विराधनोत्पत्तेः। कल्प०६ क्ष) हेतोरप्राप्तेऽतीते च भिक्षाकालेऽटनं श्रेय इति गम्यते। (पवत्तणं मा ततो अभिग्गहिया-स्त्री०(अभिगृहीता) अभिग्रहवत्यामेषणायाम, प्रव०। मज्झे ति) अप्राप्ते अतीते वा पर्यटतः प्रवर्तनं पुरःकर्म-पश्चात्कर्मादेर्मा अभिग्रहश्चैवम्-तासां, सप्तानामेषणानां मध्ये आद्य-योर्द्वयोरग्रहणं, पञ्चसु भूत, तत एतेन हेतुना मध्ये प्राप्ते भिक्षाकाले पर्यटति / अथ ग्रहणं, पुनरपि विवक्षितदिवसे अन्त्यानां पञ्चानां मध्ये द्वयोरभिग्रहः / भावाऽभिग्रहमाह - प्रव०६ द्वा० "अभिग्गहरहिया एसणा जिणकप्पियाणं"। नि०चू०४ उक्खित्तमाइचरगा, भावजुया खलु अभिग्गहा होति। उ०। प्रतिनियताऽवधारणे, यथा इदमिदानी कर्तव्यमिदं नेति / प्रज्ञा० गायंतो व रुदंतो, जं देइ निसण्णमादीया / / ११पद। Page #898 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिघट्टिज्जमाण 714 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अभिणवधम्म अभिघट्टिजमाण-त्रि०(अभिघट्यमान) वेगेन गच्छति, रा०) *अभियोक्तु म्-(अव्य०)विद्या दिसामर्थ्यतस्तदनुप्रवेशेन अभिधाय-पुं०(अभिघात) अभिहनने, प्रश्न०१ आश्र० द्वा०। __व्यापारयितुमित्यर्थे, प्रति लकुटादिप्रहारे, जीता नि०चूला "गोफणधणुमादिअभिघातो" अभिजुत्त-त्रि०(अभियुक्त) पण्डिते, नं०। संपादितदूषणे, ज्ञा० गोफणा च दवरकमयी प्रसिद्धा-तया, धनुःप्रभृतिभिर्वा लेष्टुकमुपलं वा 14 अ०। स्या। यत्प्रक्षिपति, एषोऽभिघात उच्यते। अथवा - अभिज्झा-स्त्री०(अभिध्या) अभिध्यानमभिध्या / स० विहुवणणंतकुसादी-सिणेहउदगादि आवरिसणं तु। 52 सम०। धनादिष्वसन्तोषे परिग्रहे, हा० 13 अष्ट०। द्वा०। तदात्मके काओ तु बिंबसत्थे, खारो तु कलिंवमादीहिं। गौणमोहनीयकर्मणि, स०५२ सम०। विधुवनं वीजनकं, णंतकं वस्त्रं, कुशो दर्भस्तत्प्रभृतिभिर्वीजयन अभिट्तु य-त्रि०(अभिष्टुत)आभिमुख्येन स्तुतोऽभिष्टुतः / यत्प्राणिनो अभिहन्ति, एष वा अभिघात उच्यते, स्नेहो नाम उदकेन, आव०२ अ०। स्वनामभिः कीर्तिते, ल० अनु०॥ आदिशब्दाद् घृतेन तैलेन वा, आवर्षणं करोति / कायो अभिड् डुय-त्रि०(अभिद्रुत) अध्यवसायरूपेण व्याप्ते, नाम द्विपदादीनां बिम्बम्, प्रतिरूपमित्यर्थः / बृ०४ उ०) गर्भाऽऽधानादिदुःखैः पीडिते. सूत्र०१ श्रु०२ अ०३ उ०। अभिचंद-पुं०(अभिचन्द) अवसर्पिण्यां भरतक्षेत्रे जाते पञ्चदशानां दशमे, अभिणंदण-पुं०(अभिनन्दन) अस्यामवसर्पिण्यां जाते भरतक्षेत्रीये चतुर्थे सप्तानां चतुर्थे वा कुलकरे, जं०२ वक्ष०ा "अभिचंदे णं कुलगरे तीर्थकरे, आ०म० तथा अभिनन्द्यते देवेन्द्रादि-मिरित्यभिनन्दनः / सर्व एव भगवन्तो यथोक्तस्वरूपा इत्यतो विशेषहेतुप्रतिपादनायाहछधणुसयाई उर्दू उच्चत्तेणं होत्था'| स्था०२ ठा०१ उ०। आ०क०। "अभिनंदए अभिनंदाणा तेण" शक्रो गर्भादारभ्याभीक्ष्णं प्रतिक्षणं आ०म०। कल्पना (पत्न्यादयः 'कुलकर' शब्दे वक्ष्यन्ते) दशाहपुरुषभेदे, यमभिवन्दितवानिति अभिनन्दनः। कृद्-बहुलमितिवचनात् कर्मण्यनट। अन्त०१ वर्ग। दिवसस्य षष्ठे मुहूर्ते, चन्द्र०१०पाहु०। स०ा ज्यो। तथा च वृद्धसम्प्रदायः - गब्भप्पभिई अभिक्खणं सक्केण अभिवंदिया अभिजप्प-पुं०(अभिजल्प) शब्दार्थकीकरणे, सम्म०। अन्ये तु इतो तेण सो अभिनंदणो त्ति नाम कयं। आ०म०द्विाधा सा आ०चू० (सौगतविशेषाः) शब्द एवाभिजल्पत्वमागतः शब्दार्थ इति / स आ०क०। "अभिनंदणो अ भरहे, एरवए नंदिसेणजिणचंदे" त्ति चाऽभिजल्पः शब्द एवार्थ इत्येवं शब्देऽर्थस्य निवेशनम्, (समकालमुत्पन्नौ) ती०६ कल्प / स्था०। प्रव० लोकोत्तररीत्या सोऽयमित्यभिसंबन्धः / तस्माद् यदा शब्दस्याऽर्थेन सहै की- श्रावणमासे, सू०प्र०१० पाहु। भूतं रूपं भवति, तदातं स्वीकृतार्थाऽऽकारं शब्दमभिजल्प-मित्याहुः / अमिणंदंत-त्रि०(अभिनन्दयत्) राजानं समृद्धिमन्तमाचक्षाणे, औ०। सम्म०१ काण्ड। (एषां खण्डनम् 'आगम' शब्दे द्वितीयभागे 75 पृष्ठे जय जीवेत्यादिभणनतोऽभिवृद्धिमाचक्षाणे, भ०५श० उ०। प्रीति वक्ष्यते) कुर्वति, संथा। अभिजाइ-स्त्री०(अभिजाति) कुलीनतायाम्, उत्त०११ अ०। अमिणंदमाण-त्रि०(अभिनन्दयत्) समृद्धिमन्तमाचक्षाणे, कल्प०५ क्ष०) अभिजाणमाण-त्रि०(अभिजानत्) आसेवनापरिज्ञयाऽऽसेवमाने, | अभिणंदिजमाण-त्रि०(अभिनन्द्यमान)जनमनःसमूहैः समृद्धिमुपनीयआचा०१ श्रु०८ अ०४ उ०। माने जय जीव नन्देत्यादिपर्यालोचनात्। औ०। संस्तूयमाने, स्था०६ अभिजाय-त्रि०(अभिजात)अभि प्रशस्तं जातं जन्म यस्य सः। कुलीने, वाचला जला कुलीनलक्षणम् ,शिखरणीछन्दसि यथा अभिणंदिय-पुं०(अभिनन्दित) लोकोत्तररीत्या श्रावणे मासि, ज्यो०४ प्रदानं प्रच्छन्नं गृहमुपगते संभ्रमविधिः, पाहु। प्रियं कृत्वा मौनं सदसि कथनं चाऽप्युपकृतेः। अभिणय-पुं०(अभिनय) अभि-नी-करणे अच् / हृद्गतभावव्यञ्जके अनुत्सेको लक्ष्म्या निरभिभवसाराः परकथाः, शरीरचेष्टादौ, भावे अचि / अभिनेयपदार्थस्य शरीरचेष्टाभाषणादिभिश्रुते चाऽसन्तोषः कथमनभिजाते निवसति? ॥१॥ध०१अधि० रनुकरणे, अभिनयति बोधयत्यर्थमत्र- आधारे अच / शरीरचेष्टादिभिलोकोत्तररीत्या दिवसभेदे,चं०प्र०१०पाहु०। ज्यो। दृश्यपदार्थज्ञापके रूपकादौ दृश्यकाव्ये, वाच०। चउव्विहे अभिणए अभिजायत्त-न०(अभिजातत्व) चक्षुः प्रतिपाद्यस्येव भूमिका पण्णत्ते / तं जहा- दिलृतिए, पडि सुए, सामंतोवणिए लोगमज्झवासिए। स्था०४ ठा०४ उ०) अप्येककाश्चतुर्विधमभिनयमभिनयन्ति / तद्यथाऽनुसारितायां सत्यवचनाऽतिशयरूपायाम, स०३५ सम०। दार्शन्तिकं, प्रातिश्रुतिकं, सामान्यतो विनिपातिकं, लोकाध्यवसाअमिजायसङ्घ-त्रि०(अभिजातश्रद्ध)उत्पन्नतत्त्वरुचौ,उत्त०१४ अ०। निकमिति / एते नाट्यविधयोऽभिनयविधयश्च भरतादिसङ्गीतअभिजुजित्ता-अव्य०(अभियोक्तुम्) विद्यादिसामथ्यतः, तदनुप्रवेशेन शास्त्रज्ञेभ्यो-ऽवसेयाः। आ०म०प्र०। रा० व्यापारयितुम्। भ०३ श० 5 उ०। अभिणव-त्रि०(अभिनव) प्रत्यग्रे अजीर्ण, षो० 5 विव०। अभिजुंजिय-अव्य०(अभियुज्य) वशीकृत्य, आश्लिप्य, भ० 2 श०५ | विशिष्टवर्णादिगुणोपेते, जी०३ प्रति०। उ०ा व्यापार्य, स्मारयित्वा, एषामर्थ, सूत्र०१श्रु०५अ०२ उ०। अभिणवधम्म-पुं०(अभिनवधर्मन्) अधुनैव गृहीतप्रव्रज्ये, बृ० 4 उ०। ठा। Page #899 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिणिवंत 715 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अभिणिसज्जा अभिणिकंत-त्रि०(अभिनिष्क्रान्त) अधीताऽऽचारादिशास्त्रे , तदर्थभावनोपबृंहितचरणपरिणामेच। आचा०१श्रु०६१०१ उ०॥ अभिणिगिज्झ-अव्य०(अभिनिगृह्य) अवरुध्येत्यर्थे, आचा० 1 श्रु०३ अ०३ उ०। अमिणिचारिया-स्त्री०(अभिनिचारिका) आभिमुख्येन नियता चरिका, सूत्रोपदेशेन बहुव्रजिकादिषुदुर्बलानामाप्यायनिमित्तं पूर्वाह्न काले समुत्कृ ष्टसमुदाने लघुगमने, व्य०४ उ०। अमिणिपया-स्त्री०(अभिनिप्रजा) अभि प्रत्येकं नियता विविक्ता प्रजा | अभिनिप्रजा। प्रत्येकं विविक्तायां प्रजायाम, व्य०६ उ०। अभिणिबोह-पुं०(अभिनिबोध) अर्थाऽभिभिमुखो नियतः प्रतिनियतस्वरूपो बोधो बोधविशेषोऽभिनिबोधः / अभि निबुध्यतेऽनेनाऽस्मादस्मिन् वेति / मतिज्ञाने, तदावरणक्षयोपशमे च / आ०म०प्र०) सम्मानं आवा स्था०ा आभिमुख्येन निश्चितत्वेनचबुध्यते संवेदयते आत्मा तदित्यभिनिबोधः / अवग्रहादिज्ञाने, अभिनिबुध्यते वस्त्ववगच्छतीति अभिनिबोधः। मतिज्ञानात्मनि, विशे०। अभिणियट्टण-न०(अभिनिवर्तन)व्यावर्तने,आचा०१श्रु०३अ०४ उ०। अभिणिविट्ठ-त्रि०(अभिनिविष्ट) बद्धाऽऽदरे, उत्त०१४ अ० बद्धाऽऽग्रहे, उत्त०१४ अ० अभिविधिना निविष्टम्। भ०१२ श०३ उ०। जीवप्रदेशेषु अभिव्याप्त्या निविष्ट अतिगाढतां गते, भ० 13 श०७ उ०। अभिणिवेस-पुं०(अभिनिवेश)अतत्त्वाऽऽग्रहे, पञ्चा०१४ विव०। चित्तावष्टम्भे, ओघातद्-स्पे योगशास्त्रप्रसिद्ध क्लेशभेदे, द्वा०। विदुषोऽपितथारूढः, सदा स्वरसवृत्तिकः। शरीराद्यवियोगस्या-भिनिवेशोऽभिलाषतः // 20 // (विदुषोऽपीति) विदुषोऽपि पण्डितस्याऽपि, तथाऽऽरूढः पूर्वजन्माऽनुभूतमरणदुःखाऽभाववासनाबलाद् भूयः समुपजायमानः, शरीरादीनामवियोगस्याऽभिलाषतः शरीरादिवियोगो मे मा भूदित्येवं लक्षणाद, अभिनिवेशो भवति, सदा निरन्तरं, स्वरसवृत्तिकोऽनिच्छाधीनप्रवृत्तिकः / तदुक्तम्- स्वरसवाही विदुषोऽपि तथारूढोऽभिनिवेशः, इति॥२०॥ द्वा०२५ द्वा०। कहं बद्धो एत्थ विचारे सोऽभिणिवेसेण अन्नहा कम्मं वजइ। आ०म०द्वि०। अमिणिवेह-त्रि०(अभिनिवेध) वेधने, वाच०। उन्माने, आ०म०प्र०। अभिणिव्दगडा-स्त्री०(अभिनिवगडा) अभि प्रत्येकं नियतो वगडः | परिक्षेपो यस्यां सा अभिनिवगडा। पृथक्परिक्षेपायाम्, व्य०६ उ०) *अभिनिाकृता-स्त्री०। पृथग्विविक्तद्वारायां वसती,व्य०१ उ०। अभिणिव्वट्ट-त्रि०(अभिनिवृत्त) साङ्गोपाङ्गस्नायुशिरोरोमादिकमाभिनिर्वर्तनात् संपादिते, आचा०१ श्रु०६ अ०१ उ०। अमिणिव्वट्टित्ता-अव्य०(अभिनिर्वर्त्य) समाकृष्येत्यर्थे , अभिणिव्वट्टित्ता गंउवदंसेजा।सूत्र०२श्रु०१अ० विधायेत्यर्थे, दंडसहस्सं अभिणिव्वट्टित्ता ण उवदंसित्तए। भ०५श०४ उ० अभिणिव्वुड-त्रि०(अभिनिवृत) क्रोधाद्युपशमेन शान्तीभूते, मुक्ते, सूत्र०१ श्रु०२ अ०१ उ०। विषयकषायाद्युपशमाच्छीतीभूते, आचा०१ श्रु० अ०४ उ०ा लोभादिजयात् निरातुरे, खंतेऽभिनिव्वुडेदंते, वीतगिद्धी सदाजए। क्रोधादिपरित्यागात्शान्तीभूते, सूत्र०१श्रु०८अ०) पावाओ विरतेऽभिनिवुडे / सूत्र०१श्रु०२अ०१उ०। अभिनिव्वुडे अमाई० अभिनिर्वृतग्रहणं संसारमहातरुकन्दोच्छेद्यवि-प्रतिपत्या / आचा०१ श्रु०१ अ०१ उ०। अभिणिसजा-स्त्री०(अभिनिषद्या) अभि रात्रिमभिव्याप्य स्वाध्यायनिमित्तमागता निषीदन्त्यस्यामित्यभिनिषद्या / अभिनषेधिक्या स्वाध्यायं कृत्वा रात्रिमुषित्वा प्रत्यूषे प्रतियातायां वसतौ, व्य०१ उ० वह परिहारियाऽपरिहारिया इच्छेज्जा- एगंतओ अभिनिसिखं वा अभिनिसीहियं वाचेति, तएणोणं कप्पतिथेरे अणापुच्छित्ता एगंतओ अभिनिसेज्जं वा अभिनिसीहियं वा चेइतए। कप्पइण्ह थेरे आपुच्छित्ता ते एगंतओ अभिनिसेज्जं वा अभिनिसीहियं वा चेइतए, थेरा य ण्हं से (ते) वियरिजा- एवं ण्हं कप्पड़ अभिनिसेज वा अभिनिसीहियं वा चेतेतए / थेरा ण्हं नो वितरेजा। एवं ण्हं णो कप्पइ एगंतओ अभिणिसेजं वा अभिणिसीहियं वा चेतेतए / जो णो थेरेहिं अवित्तिण्हं अभिनिसिज्जं वा अभिनिसीहियं वा चेतेति, से संतरा छेदे वा परिहारे वा // 22 // बहवस्विप्रभृतयोऽने के पारिहारिका उक्तशब्दाऽर्थाः, बहवो - ऽपारिहारिका इच्छेयुरेकान्ते विविक्ते प्रदेशाऽन्तरे वसत्यन्तरे वा अभिनिषद्याम्, अभि रात्रिमभिव्याप्य स्वाध्यायनिमित्तमागता निषीदन्त्यस्यामित्याभिनिषद्या, तां वा / तथा निषेधः स्वाध्यायव्यतिरेकेण सकलव्यापारप्रतिषेधः, तेन निर्वृत्ता नैषेधिकी / अभि आभिमुख्येन संयतप्रायोग्यतया नैषेधिकी अभिनषेधिकी, तांया। इयमत्र भावना- तत्र दिवा स्वाध्यायं कृत्वा रात्रौ वसतिमेव साधवःप्रतियन्ति, सा अभिनषेधिकी। अभिनषेधिक्यामेव स्वाध्यायं कृत्वा रात्रिमुषित्वा प्रत्यूषे वसतिमुपागच्छन्ति, सा अभिनिषद्येति / तामभिनिषद्यामभिनषेधिकी वा (चेतितए इति) गन्तुं, तत्र नो नैव, 'से' तेषां पारिहारिकाणामपारिहारिकाणां च कल्पते, स्थविरान् आचार्यादीन् अनापृच्छय (एकान्ततः) एकान्ते विविक्ते प्रदेशे, वसत्यन्तरे वा अभिनिषद्यामभिनषेधिकी वा गन्तुम्, उच्छ्यासनिश्वासव्यतिरेकेण शेषसाधुव्यापाराणां समस्तानामपि गुरुपृच्छाऽधीनत्वात् / तदेवं प्रतिषेधसूत्रमभिधाय सम्प्रति विधिसूत्रमाह-(कप्पति ग्रह थेरे आपुच्छित्ता) इत्यादि सुगमम् / इह पारिहारिका नाम आपन्नपरिहारतपसोऽभिधीयन्ते। तत्र चोदकं प्राह - पुव्वंसि अप्पमत्तो, भिक्खू उववण्णितो भयंतेहि। Page #900 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिणिसज्जा 716- अभियानराजेन्द्रः-भाग 1 अभिणिसजा एक्को व दुवे होज्जा, बहुया उ कहं समावन्ना / / पूर्वस्मिन् कल्पे नाम्नि अध्ययने भिक्षुरप्रमत्तो भदन्तैः परमकल्याणयोगिभिरुपवर्णितः, ततः कथं परिहारतपःप्रायश्चित्ताऽऽपत्तिर्यतः पारिहारिका भवेयुः ? अपि च- एको द्वौ वा पारिहारतप आपद्येयाताम्, एकस्य एकाकिदोषाणां द्वयोरसमाप्तकल्पदोषाणां संभवात्। ये च बहवस्तेच समाप्तकल्पकल्पत्वात्परस्परं रक्षणपरायणाः कथं पारिहारिकत्वं समापन्ना इति? अत्राऽऽचार्य आह - चोयग ! बहुउप्पत्ती, जोहा व जहा तहा समणजोहा। दव्वच्छलणे जोहा, भावच्छलणे समणजोहा॥ हे चोदक ! परीषहाणामसहनेन श्रोत्रेन्द्रियादिविषयेष्विष्टाऽनिष्टषु रागद्वेषाभिगमनेन परिहारतपःप्रायाश्चित्तस्थानाऽऽपत्त्या बहूनां पारिहारिकाणामुत्पत्तिर्न विरुद्धा / अथवा- यथा योधाः सन्नद्धबद्धकवचा अपि रणे प्रविष्टाः प्रतिपन्थिपुरुषैस्तथाविधं कमप्यवसरमवाप्य देशतः, सर्वतो वा छल्यन्ते, तथा श्रमणयोधा अपि मूलगुणोत्तरगुणेष्वत्यन्तमप्रमत्ततया यतमाना अपिछलना-माप्नुवन्ति। सा च छलना द्विधाद्रव्यतो, भावतश्च / द्रव्यत-श्छलना खड्गादिभिः | भावतः परीषहोपसर्गाद्यैः / तत्र द्रव्यच्छलने द्रव्यतश्छलनविषयाः, योधा रणे प्रविष्टा भटाः, भावच्छलने भावच्छलनविषयाः श्रमणयोधाः / सम्प्रति यदुक्तं- यथा योधास्तथा श्रमणयोधा इति, तद्व्याख्यानयति - आवरिया वि रणमुहे, जहा छलिजंति अप्पमत्ता वि। छलणा वि होइ दुविहा, जीवंतकरी य इयरी य॥ व्यथा योधा आवृता अपि सन्नद्धसन्नाहा अपि अप्रमत्ता अपि च रणमुखे प्रविष्टाः प्रतिभटैश्छल्यन्ते। सा च छलना द्विधा-जीविताऽन्तकरी, इतरा च / तत्र यया जीवताद् व्यपरोप्यते, सा जीवताऽन्तकरी, यया तु परितापनाऽऽद्यापद्यते नाऽपद्रावणं, सा इतरा। मूलगुणउत्तरगुणे, जयमाणा विहु तहा छलिअंति। भावच्छलणा य पुणो, सा वि य देसे य सव्वे य॥ तथा यतयो रागादिप्रतिपक्षभावनासन्नाहसन्नद्धा यथाऽऽगमं मूलगुणेषूत्तरगुणेषु चाऽत्यप्रमत्ततया यतमाना अपि 'हु' निश्चितं, भावच्छलनया परीषहोपसर्गादिभिः सन्मार्गच्यावनरूपया छल्यन्ते। साऽपि च भावच्छलना द्विधा- देशतः, सर्वतश्च / तत्र यया तपोऽहं प्रायश्चित्तमापद्यते, सा देशतो भावच्छलना। यया मूलमाप्नोति, सासर्वतः। एवं परिहारीया-ऽपरिहारीया व होज्ज बहुया तो। ते एगंत निसीहिय-मभिसिजं वा विचेएज्जा।। यतो रणे प्रविष्टा योधा इव श्रमणयोधा अपिपरीषहादिभि-श्छल्यन्ते, तत एवमुक्तेन प्रकारेण, बहवः पारिहारिका अपारि-हारिकाश्च भवेयुः। तदेवं पारिहारिकापारिहारिकबहुत्व-मुपपाद्याऽधुना सूत्राऽवयवान् ध्याचिख्यासुराह- (ते एगंत० इत्यादि) ते बहवः पारिहारिका अपारिहारिका वा एकान्तत एकान्ते विविक्ते प्रदेशे प्रत्यासन्ने दूरतरे वा नषेधिकीमभिशय्यां वाऽपि अभिनिषद्यामपि चेतयेयुर्गच्छे युः, गन्तुमिच्छेयुरित्यर्थः / तत्र का नैषेधिकी? का वा अभिशय्या ? इति व्याख्यानयात ठाणं निसीहिय त्ति य, एग8 जत्थ ठाणमेवेगं। चेतें ति निसि दिया वा, सुत्तत्थ निसीहिया साउ॥ सज्झायं काऊणं, निसीहिया तो निसिं चिय उवेंति। अभिवसिउं जत्थ निसिं, उति पातो तई सेज्जा। तिष्ठन्ति स्वाध्यायव्यापृताः अस्मिन्निति स्थानम् / निषेधेन स्वाध्यायव्यतिरिक्तशेषव्यापारप्रतिषेधेन निर्वृत्ता नैषेधिकी। ततः स्थानमिति वा, नैषेधिकीति वा (एगट्ठमिति) एकार्थम्, द्वावप्येतौ तुल्यार्थाविति भावः। व्युत्पत्त्यर्थस्यद्वयोरप्यविशिष्टत्वात्। यत्र स्थानमेव स्वाध्यायनिमित्तमेकं, न तु ऊर्ध्वस्थानं अवाग्वर्तन-स्थानं वा चेतयन्ति / निशि रात्रौ दिवा वा सा सूत्राऽर्थहेतुभूता नैषेधिकी। एतेनाऽस्मिन् या नैषेधिक्युक्ता, सा सूत्राऽर्थप्रायोग्या नैषेधिकी प्रतिपत्तव्या, न तु कालकरणप्रायोग्या नैषेधिकी प्रतिपत्तव्या। किमुक्त भवति? यस्यां नैषेधिक्यां दिवा स्वाध्यायं कृत्वा दिवैव, यदि वा निशि च स्वाध्यायं कृत्वा निश्येव निशायामवश्यं नैषेधिकी वसतिमुपयन्ति, सा अभिनषेधिकी / यस्यां पुनर्नैषधिक्यां दिवा निशायां वा स्वाध्यायं कृत्वा रात्रिमुषित्वा प्रातर्वसतिमुपयन्ति / (तई इति) तका अभिशय्या अभिनिषद्येति भावः। अथ स्थविरा आपृष्टा अपि यदा न ब्रुवन्ति, तदा किं कल्पते ? न वा ? इत्याशङ्कायामाह- (थेरा एहमित्यादि) स्थविरा आचार्यादयः, चशब्दो वाक्यभेदे, एहमिति वाक्यालङ्कारे, स तेषां पारिहारिकाणामपारिहारिकाणां वा वितरेयुरनुजानीयुरभिनैषेधिकीमभिशय्यां वागन्तुं, एवममुना प्रकारेण, एहमिति पूर्ववत्, कल्पते अभिशय्यायामभिनषेधिक्यां वा (चतेतए इति) गन्तुम् / (थेरा एहमित्यादि) स्थविराः, हमिति प्राग्वत्। नो नैव, तेषां वितरेयुरेवममुना प्रकारेण नो कल्पते, एकान्ततोऽभिनिषद्या-मभिनषेधिकी वा गन्तुम। (जे णमित्यादि) यः पुनर्णमिति वाक्याऽलङ्कृती, स्थविरैरवितीर्णोऽननुज्ञातः सन्एकान्ततो अभिनिषद्यामभिनषेधिकी वा (चेतेइ) गच्छति, ततः (से)तस्य स्वाऽन्तरात्स्वकृतमन्तरं स्वाऽन्तरंतस्मात्, यावत्न मिलति यावद्वा स्वाध्यायभूमेर्नोत्तिष्ठति तावद् यद् विचालं तत् अन्तरं तस्मात् स्वकृतादन्तरात् छेदो वा पञ्चरात्रिन्दिवादिकः, परिहारो वा परिहारतपो वा मासलघुकादिः / एष सूत्राऽर्थः / अधुना नियुक्तिविस्तरःनिकारणम्मि गुरुगा, कज्जे लहुया अपुच्छणे लहुओ। पडिसेहम्मि य लहुया, गुरुगमणे होतऽणुग्घाया। यदि निष्कारणे कारणाऽभावे अभिशय्यामभिनषेधिकीं वा गच्छन्ति, ततस्तेषां प्रायश्चित्तं गुरुकाश्चत्वारो गुरुमासाः / अथ कार्ये समुत्पन्ने गच्छन्ति, तत्र प्रायश्चित्तं लघुकाश्चत्वारो लघुमासाः / कार्यमुपरिष्टाद् वर्णयिष्यते।यदिपुनः कार्ये समुत्पन्ने अनापृच्छ्यगच्छन्ति, तदा अपृच्छने लघुको मासलघुः। पृच्छायामपि कृतायां यदि स्थविरैः प्रतिषेधे गच्छन्ति ततो लघुकाश्चत्वारोलघुमासाः।(गुरुगमणे इत्यादि) गुरुराचार्यः सयदि गच्छत्यभिशय्याममिनैषेधिकी वा ततस्तस्य, भवन्ति अनुद्घातगुरुकाश्वत्वारो गुरुमासाः। ये पुनर्वसतिपालाः समर्था भिक्षवस्ते यदीच्छन्ति, ततस्तेषामिमे दोषाः तेणाऽऽदेसगिलाणे, कामणइत्थीनपुंसमुच्छा वा। जगत्तमदासाहवातिएउक्तहरिए। Page #901 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिणिसज्जा ७१७-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अभिणिसजा ये वसतिपालास्तैर्वसतेरूनत्वे हीनत्वे एते गाथापूर्वाऽोक्ता दोषा भवन्ति। तद्यथा-स्तेनाश्चोरास्ते 'गताः साधवो वसतेः' इति ज्ञात्या वसतावापतेयुः, आदेशा आघूर्णकास्ते वा समागच्छेयुः, तेषां च समागतानामविश्रामणादिप्रसक्तिः, समर्थसाध्वभावात्। (गिलाण त्ति) ग्लानो वा, तेषामभावे व्याधिपीडितोऽसमाधिमाप्नुयात्। (कामण त्ति) दाहो वा प्रदीपनकेन वसतेभूयात् / तथा स्तोकाः साधवो वसतौ तिष्ठन्तीति स्त्रियो नपुंसका वा कामविह्वलाः समागच्छेयुः / तत्राऽऽत्मपरोभयसमुत्था दोषाः। तथा मूर्छा कस्याऽपि पित्तादिवशतो भूयात् / तदेवं यतो वसतिपालानामिमे विनिर्गमे दोषास्तस्मात् तैरपि शय्यादिषु न गन्तव्यमित्येष द्वारगाथासंक्षेपार्थः / व्यासाऽर्थ तु भाष्यकृदाह - दुविहाऽवहार सोही, एसणघातो य जाय परिहाणी। आएसमविस्सामण-परितावणयाय एकतरे।। स्तेनैरपहारो द्विविधः। तद्यथा- साध्वपहारः, उपध्यपहारश्च। तस्मिन् द्विविधेऽप्यपहारे शोधिः प्रायश्चित्तम् / तद्यथा- यद्येकं साधुमपहरन्ति स्तेनास्तदा वसतिपालानां प्रायश्चित्तं मूलम् / अथ द्वावपहरन्ति, ततोऽनवस्थाप्यम् / त्रिप्रभृतीनामपहरणे पाराश्चिकम् / तथा जघन्योपध्यपहारे पञ्चरात्रिन्दिवम् / मध्य-मोपध्यपहारे मासलघु / उत्कृष्टोपध्यपहारे चतुर्गुरुकम्।तथा एषणाया घातःप्रेरणभेषणघातः,स च स्यात् / तथाहि- भक्त्युपधि-पात्रादिकमन्तरेण एषणाघातः, तत एषणाप्रेरणे यत्प्रायश्चित्तं, तदापद्यते तेषां वसतिपालानामिति। तथा (जा य परिहाणि त्ति) या च परिहाणिरुपधिमन्तरेण शीतादिबाधितस्य, तद्गवेषणप्रयत-मानस्य वा, सूत्रार्थस्य च भ्रंशः, तन्निमित्तकमपि समापद्यते प्रायश्चित्तम्। तत्र सूत्रपौरुष्या अकरणे मासलघु। अर्थपौरुष्या अकरणे मासगुरु / अथोपधिगवेषणेन दीर्घकालतः सूत्रं नाशयन्ति, ततश्चतुर्लघु / अर्थनाशने चतुर्गुरु / तथा तेषु वसतिपालेषु साधुष्वभिशय्यादिगतेषु आदेशानामाघूर्णकानां समागतानामध्वपरिश्रान्तानामविश्रामणे या अनागाढा परितापनोपजायते, तनिष्पन्नमपि तेषामापद्यते प्रायश्चित्तम् / (एक्कतरे ति) तेषु वसतिपालेष्वभिशय्यादिगतेषु यो मुक्त एकतरोवसतिपालः, स एको द्वौ बहवो वा, 'यदि आगच्छन्ति प्राघूर्णकाः, ते सर्वेऽपि नियमतो विश्रमयितव्याः इति जिनप्रवचनमनुस्मरन्बहून्प्राघूर्णकान् विश्रामयन् यदनागाढमागादं वा परितापनामाप्नोति तन्निमित्तकमपि समापतति तेषां प्रायश्चित्तम्। साम्प्रतमस्या एव गाथायाः पश्चाऽर्द्ध व्याख्यानयति - आदेसमविस्सामण-परितावण तेसऽवच्छलत्तं च / गुरुकरणे वि य दोसा, हवंति परितावणादीया। आदेशानां प्राघूर्णकानामविश्रामणे, 'गाथायां मकारो-ऽलाक्षणिकः,' एवमन्यत्राऽपि द्रष्टव्यम् / दीर्घाऽध्वपरिश्रमतो यदनागाढमागाढं वा / परितापनं, तथा तेष्वादेशेषु समागतेषु अवत्सलत्वमवात्सल्यकरणं तन्निष्पन्नं तेषां प्रायश्चित्तम् / अन्यच्च वसतिपालेष्वपि शय्यादिगतेषु प्राघूर्णकानां समा-गतानामन्याभावे गुरुः स्वयं वात्सल्यं करोति, गुरुकरणेऽपिचदोषा भवन्ति परितापनादयः। तथाहि-गुरोः स्वयं करणे सुकुमारतया अनागाढमागाढं वा परितापनं स्यात्, परितापनाच रोगसमागमः, रोगसमागमे च बहूनां स्वगच्छपरगच्छीयानां सूत्रार्थहानिः, श्रावकादीनां धर्मदेशनाश्रवणव्याघातः, लोके चाऽवर्णवादः / यथादुर्विनीता एते शिष्या इति / गतमादेश-द्वारम् / अधुना ग्लानद्वारमाह - सयकरणमकरणे वा, गिलाणपरितावणा य दुविहो वि। बालोवहीण दाहो, तदट्ठमण्णो व आदित्ते / / वसतिपालेष्वभिशय्यादिगतेषु, द्विधा द्वाभ्यामपि प्रकाराभ्यां ग्लानस्य परितापना / तद्यथा- स्वयंकरणे, अकरणे वा / तथाहि-रलानो यदि स्वयमुद्वर्तनादिकं करोति, तदाऽपि तस्याऽना गाढादिपरितापनासंभवः / अथ न करोति, तथापि परितापनासंभवः, ततस्तन्निमित्तं आपद्यते तेषां प्रायश्चित्तम्। अन्यच्च यः पश्चान्मुक्तो वसतिपालः, स यदा प्रभूतं ग्लानस्य ग्लानानां वा कर्तव्यं करोति, तदा सोऽपि परितापनमनागाढमागाद वाऽऽपद्यते, ततः, तद्धेतुकमपि प्रायश्चित्तम्। गतं ग्लानद्वारम्। अधुना कामणद्वार-माह- (बालोवहीणमित्यादि) तेषु समर्थेषु वसतिपालेषु बालं वसतिपालं मुक्त्वा अभिशय्यामभिनषेधिकी वा गतेषु अग्नि-कायेन प्रदीप्ते उपाश्रये बालानामुपधीनां च दाहो भवेत्। तत्र यदि एकोऽपि साधुभ्यिते, तदा चरमं पाराश्चिकं प्रायश्चित्तम्। अथन मियते, किन्तु दाहमागाढमनागाद वापरितापनमाप्नोति, तदा तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् / अथोपधिर्जघन्यो मध्यम उत्कृष्टो वादह्यते, ततस्तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् (तदहमन्नो वत्ति)तदर्थं बालनिस्तारणार्थम् , उपधिनिस्तारणार्थ वा अन्यः प्रविशेत, तदा कदाचित्सोऽपि बालो दह्येत अन्यश्च प्रविशन्, ततस्तदुभय-निमित्तमापद्यते प्रायश्चित्तम्, लोके च महान् अवर्णवादः / गतमग्निद्वारम् / अधुना स्त्रीनपुंसकद्वारमाह - इत्थीनपुंसगा विय, ओमत्तणओ तिहा भवे दोसा। अभिधाय पित्ततो वा, मुच्छा अंतो व बाहिंच।। स्त्रियो नपुंसकां वा, अवमत्वेन हीनत्वेन, 'स्तोकाः साधवो वसतौ तिष्ठन्ति, परिणतव्रताश्चान्यत्र गता वर्तन्ते' इति ज्ञात्वा समागच्छे यु स्तदागमने च त्रिधा आत्मपरोभयसमुत्थत्वेन दोषाः स्युः / तथाहि- यत् स्त्र्यादिकमुपलभ्य स्वयं क्षोभमुपयन्ति साधवः, एष आत्मसमुत्थो दोषः। यत्पुनः स्वयमक्षुभ्यतः साधून बलात् स्त्र्यादिकं क्षोभयति,एष परसमुत्थः / यदातु स्वयमपि क्षुभ्यन्ति,स्त्र्यादिकमपि च क्षोभयति,तदा उभयसमुत्थ इति / मूद्विारमाह (अभिघातेत्यादि)वसतेरन्तःस्थितस्य वसति-पालस्य कथमपि जराजीर्णत्वादिना पतन्त्यां वसतौ काष्ठादिभिः शरीरस्योपरि निपतभिर्बहिर्वा वसतेः स्थितस्य कथमपि वातादिना पात्यमानेन तरुणा, तरुशाखाया वा अभिघातेन मूर्छा भवेत् / उपलक्षणमेतत् - अनागाढा आगाढा वा परितापना स्यात् / यदि वा वसतेरन्तर्बहिर्वा व्यवस्थितस्याऽपि ततःपित्तप्रकोपतो मूर्छा भवेत् / तत एकाकिनः सतस्तस्य को मूच्र्छामुपशमयेत् ? ततस्तन्निष्पन्नप्रायश्चित्तसंभवः, प्रभूतश्च जनापवादः / तदेवं पश्चान्मुक्तानां वसतिपालानां दोषा अभिहिताः। सम्प्रति ये अभिशय्यादिगतास्तेषां दोषानभिधित्सुरिदमाह - जत्थ वियते वयंती, अमिसेजं वा निसीहियं वा वि। तत्थ वि य इमे दोसा, हॉति गयाणं मुणेयव्वा / / Page #902 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिणिसज्जा 718- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अभिणिसजा यत्राऽपि च विविक्ते प्रदेशे ते निष्कारणगामिनो अभिशय्यामभिनषेधिकी वा व्रजन्ति, तत्रापि तेषां गतानामिमे वक्ष्यमाणा दोषा भवन्ति ज्ञातव्याः। तानेवाऽभिधित्सुरिगाथामाह - वीयारतेणआरक्खितिरिक्खा इथिओ नपुंसाय। सविसेसतरा दोसा, दप्पगयाणं हवंतेते।। कथमप्यकालगमने विचारे विचारभूमावप्रत्युपेक्षितायां, तथा स्तेनाऽऽशङ्काया,(आरक्खित्ति) आरक्षकाशङ्कायां वा, तथा तिरश्चां चतुष्पदादीनां संभवे, तथा स्त्रियो वा दत्तसंकेताः, तत्र तिष्ठन्ति, नपुंसका वा दत्तसंकेतास्तत्र तिष्ठन्ति, इत्याद्या-शङ्कायामेते वक्ष्यमाणाः सविशेषतरा दोषा दर्पगतानां निष्कारण-गतानां भवन्ति। तदेव सविशेषतरत्वं दोषाणां प्रतिद्वारमभिधित्सुः प्रथमतो विचारद्वारमधिकृत्याऽऽह - अप्पमिलेहियदोसा, अविदिण्णे वा हवंति उभयम्मि। वसहीवाघाएणय, एतमणते य दोसा उ॥ यदि नाम ते दर्पहताः कथमप्यचक्षुर्विषयवेलायां गता भवेयुः, ततः संस्तारकोचारप्रश्रवणादिषु भूमिष्वप्रत्युपेक्षितासुये दोषा ओघनियुक्ती सविस्तरमाख्यातास्ते सर्वेऽप्यत्राऽपि वक्तव्याः / तथा विकालवेलाया गभने यदि कथमपि शय्यातर उचारप्रश्रवणयोग्यमवकाशं न वितरेत्, ततोऽवितीर्णेऽननुज्ञाते अवकाशे उभयस्मिन् उच्चारप्रश्रवणलक्षणे भवन्ति दोषाः। तथाहि- यदि अननुज्ञाते अवकाशे उच्चारं प्रश्रवणं वा कुर्वन्ति, तदा कदाचित् शय्यातरस्तेषामेव वसत्यादिव्यवच्छेद कुर्यात्, यदि वा सामान्येन दर्शनस्योपरि विद्वेषतः सर्वेषामपि साधूनामिति। अथवा कथमप्यलाक्षणिकतया वसतेरभिशय्यारूपाया व्याघातो भवेत्,ततो रात्रि मूलवसतिमागच्छतां तेषां श्वापदाऽऽदिभिरात्मविराधना / अथ नाऽऽयान्ति वसतिं तदा अभिशय्यायाः समीपे अप्रत्युपेक्षितस्थानाऽऽश्रयणतः संयमविराधना / गतं विचारद्वारम् / अधुना स्तेनद्वारमारक्षिकद्वारंच युगपदभिधित्सुराह - सुण्णाई गेहाई उति तेणा, आरक्खिया ताणिय संचरंति। तेणो त्ति एसो पुररक्खिओवा, अन्नोन्नसंकाएऽतिवायएज्जा।। शून्यानि गृहाणि, स्तेनाः विवक्षितगृहे प्रवेशनाय वेलां प्रतीक्ष-माणाः, आरक्षिकादिभयतो वा उपयन्ति / तानि च शून्यानि गृहाणि आरक्षिकाः पुररक्षिकाः ‘मा कश्चिदत्र प्रविष्टश्चौरो भूयात्' इति संचरन्ति प्रविशन्ति / एवमुभयेषां प्रवेशसंभवे अन्योऽन्याशङ्कया आरक्षिका अभिशय्यायामग्रे प्रविष्ट साधुमुपलभ्य स्तेन एष व्यवतिष्ठते इति, स्तेना अग्रे प्रविष्टास्तत्र प्रविशन्तं साधुं दृष्ट्वा पुररक्षक एष प्रविशतीत्येवंरूपया, स्तेना आरक्षिका वा अतिपातयेयुः व्यापादयेयुः / गतं स्तेनाऽऽरक्षिकद्वारम् / सम्प्रति तिर्यग्द्वारमाह - दुगुंच्छिया वा अदुगुछिया वा, दित्ता अदित्ता व तहिं तिरिक्खा। चउप्पिया वालसरीसिवावा, एगो व दो तिण्णि व जत्थ दोसा।। तत्र अभिशय्यायामभिनषेधिक्यां वा चतुष्पदाः तिर्यचो द्विधा भवेयुः / तद्यथा- जुगुप्सिता नाम निन्दिताः, ते च गर्दभीप्रभृतयः / तद्विपरीता अजुगुप्सिताः, गोमहिष्यादयः / एकैके द्विधा, तद्यथा- दृप्ताश्च दध्माताः, तद्विपरीता अदृप्ताः, न केवल-मित्थम्भूताश्चतुष्पदा भवेयुः, किंतु व्याला भुजङ्गादयः, सरी-सृपा वा गृहगोधिकादयः इत्थम्भूतेषु च तिर्यक्षु चतुष्पदेषु व्यालसरीसृपेषु, एको द्वौ त्रयो वा दोषा भवेयुः / तत्र एकः आत्मविराधनादीनामन्यतमः, द्वौ साधुभेदेनाऽऽत्मविराधना-संयमविराधने, त्रयः कस्याऽप्यात्मविराधना, कस्याऽपि संयम-विराधना, कस्याऽप्युभयविराधनेति। अत्र चतुर्भङ्गीकस्याऽप्यात्मविराधना, न संयमविराधना 1, कस्याऽपि संयम-विराधना, नाऽऽत्मविराधना 2, कस्याऽप्यात्मविराधनाऽपि संयमविराधना 3, कस्याऽपि नोभयविराधनेति 4 / उपलक्षण-मेतत्जुगुप्सिततिर्यक्चतुष्पदसंभवे विरूपाऽऽशङ्कासंभवतः प्रवचनोड्डाहोऽपि स्यादिति। गतं तिर्यग्द्वारम्। __ अधुना स्त्रीनपुंसकद्वारे युगपदभिधित्सुराह - संगारदिन्ना व उर्वति तत्थ, ओहा पडिच्छंति निलिच्छमाणा। इत्थी नपुंसा व करेज दोसे, तस्सेवणट्ठाए उवेंति जे उ॥ संगारः संकेतः, स दत्तो यैस्ते संगारदत्ताः, निष्ठान्तस्य परनिपातः प्राकृतत्वात्, सुखादिदर्शनाद्वा / दत्तसंकेता इत्यर्थः / इत्थम्भूताः सन्तस्तत्राऽभिशय्यादिषु उपयन्ति गच्छन्ति, एवं लोकाना-माशङ्का भवेत्। अथवा तत्र गतेषु जनानामेवमाशङ्का समुपजायते। तथा स्त्रियो नपुंसका वा ओघा इति / तन्मुखान् निरीक्षमाणाः प्रतीक्षन्ते, ततोऽमी गताः / यदि वा तासां स्त्रीणां नपुंसकानां वा सेवनार्थं ये तत्रोपयन्ति पुरुषास्ते 'अस्मत्-स्त्र्यादिसेवनार्थमेतेऽत्र संयताः समागताः' इति दोषान् अभिघाताऽवर्णवादादीन कुर्युः / तदेवं यस्मादकारणे निर्गतानामिमे दोषास्तस्मात्न निष्कारणे गन्तव्यं, कारणे पुनर्गन्तव्यम् / तथाचाऽऽह - कप्पइ उ कारणेहिं, अभिसेजं गंतुममिनिसीहिं वा। लहुगा उ अगमणम्मी, ताणि य कजाणिमाइंतु॥ कल्पते पुनः कारणैरस्वाध्यायादिलक्षणैर्वक्ष्यमाणैरभिशय्यामभिनषेधिकी वा प्रागुक्तशब्दाऽर्थां गन्तुं, यदि पुनर्न गच्छन्ति, ततो लघुकाश्चत्वारो लघुमासाः प्रायश्चित्तम्। तानि पुनः कार्याणि कारणानि इमानि वक्ष्यमाणानि / तान्येवाऽऽह - अज्झाइयपाहुणए, संसट्टे दुट्टिकायसुयरहसे। पढमचरमे दुगं तू, सेसेसु य होइ अभिसेज्जा / / वसतावस्वाध्यायः, प्राघूर्णका वा बहवः समागताः, वसतिश्च संकटा, ततः स्वाध्याये, प्राघूर्णकसमागमे, तथा संसक्ते प्राणिजातिभिरुपाश्रये, तथा वृष्टिकाये निपतति गलन्त्यां वसतौ, तथा श्रुतरहस्ये छे दश्रुतादौ व्याख्यातुमुपक्रान्ते, अमिशय्या, Page #903 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिणिसज्जा 719 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अभिणिसजा अभिनषेधिकी वा गन्तव्या / तत्र (पढमचरमे दुगं तू इति) प्रथमे सूत्रक्रमप्रामाण्यादस्वाध्याये, चरमे श्रुतरहस्ये, द्विकमभिशय्याऽभिनैषधिकीलक्षणं यथायोग्यं गन्तव्यं, शेषेषु च प्राघूर्णकसंसक्तवृष्टिकायरूपेषु, भवत्यभिशय्या गन्तव्या। तत्राऽस्ति अनानुपूर्व्यपि व्याख्याया इति न्यायख्यापनाऽर्थं प्रथमतः श्रुतरहस्यमिति चरमद्वार विवरीषुरिदमाहछेयसुयविजमंता, पाहुडि अवगीय महिसदिटुंता। इइ दोसा चरमपए, पढमपए पोरिसीभंगो॥ छेदश्रुतानि प्रकल्पव्यवहारादीनि, तानि वसतौ अपरिणामकोऽतिपरिणामको वा शृणुयात्, तथा विद्यामन्त्रांश्च वसतौकस्याऽपि दीयमानान् अविगीतो निर्धर्मा शृणुयात्, प्राभृतं वा योनिप्राभृतादिरूपं वसतौ व्याख्यायमानम्, अविगीतः कथमपिशृणुयात्। तच्छ्रवणेचमहान् दोष / तथाचाऽत्र महिषदृष्टान्तः - "कयाइ जोणिपाहुडे वक्खाणिजमाणे एगेण आयरियाईण अदिस्समाणेण निद्धम्मेण सुयं / जहाअमुगदव्वसंजोगे महिसो संमुच्छइ,तं सोउंसो उत्थाविओगतो अन्नम्मि ठाणे, तत्थमहिसेदव्वसंजोगेण समुच्छावित्ता सागारियहत्थेस विक्किणइ, तं आयरिया कहमवि जाणित्ता तत्थ आगया, उदंतो से पुच्छितो, तेण सम्भावो कहिओ। आयरिया भणति- अण्णं सुंदरसुवण्णरयणजुत्तादि गेण्ह / तेण अज्झुवगय। ततो आयरिएहि भणिय- अमुगाणि दव्वाणि य तिरिक्ख-संजोएज्जासि, ततो पभूयाणि सुवण्णरयणाणि भविस्संति। तेण तहा कयं, समुत्थितो दिट्ठीविसो सप्पो, तेण दिवो मतो"। ततोऽभिशय्याऽभिनषेधिकी था गन्तव्या। तथा प्रथमपदमस्वाध्याय-लक्षणं, तत्र दोषः पौरुषीभङ्गः / इयमत्र भावना- अस्वाध्याये यसतावुपजाते स्वाध्यायकरणार्थमवश्यमभिशय्याया-मभिनषेधिक्यां या गन्तव्यम्, अन्यथा सूत्रपौरुष्या अर्थपौरुष्या वा भङ्गः / तद्भङ्गे च तन्निष्पन्नप्रायश्चित्ताऽऽपत्तिः / गतं चरम-द्वारमस्वाध्यायद्वारं च। सम्प्रति प्राघूर्णकादिद्वारत्रितयमाह - अभिसंघट्टे हत्था-दिघट्टणं जम्गणे अजिण्णादी। दोसु असंजमदोसा, जग्गण अल्लोवहीया वा॥ कदाचिदन्यत्तथाविधवसत्यलाभे साधवः संकटायां वसतौ स्थिता भवेयुः, प्राघूर्णकाश्च साधवो भूयांसः समागताः, तत्र दिवसे यथा तथा वा तिष्ठन्ति, रात्रौ भूमिषु अपूर्यमाणासु यद्यभिशय्यां न व्रजन्ति, तदा तस्मिन्नुपाश्रये अतिशयेन संघट्टः परस्पर संहननाऽभिसंकटतया सोऽभिसंघट्टः, तस्मिन्नेव स्थितानां परस्परं हस्तपादादीनां घट्टनं भवेत्, तद्भावे च कलहा-ऽसमाध्यादिदोषसंभवः। अथैतदोषभयादुपविष्टा एव तिष्ठन्ति, ततो जागरणे रात्री जाग्रतामजीर्णादिदोषसंभवः / अजीर्ण-माहारस्याऽजरणं, तद्भावे च रोगोत्पत्तिः / रोगे च चिकित्साया अकरणे असमाधिः, क्रियमाणायां च चिकित्सायां षट्कायव्यापत्तिः / इति गतं प्राघूर्णकद्वारम् / अधुना संसक्तद्वारं चाऽऽह- (दोसु असंजम०इत्यादि) द्वयोः संसक्ते उपाश्रये वृष्टिकाये च निपतति, असंयमविराधनारूपौ, दोषौ। तथाहि-संसक्तत्वे दुष्प्रत्युपेक्षणीया वसतिरिति, तत्राऽवस्थाने स्फुटा संयमविराधना। तथा वृष्टिकायेष्वपि निपतितेषु क्वचित्प्रदेशेषु वसतिर्गलतीति तत्राऽपि संयमविराधना, अप्कायविराधना-संभवात्। अन्यच वृष्टिकाये निपतति उपधिका येन स्तीम्यते, स्तीमितेन चोपधिना शरीरलग्नेन रात्री निद्रा नाऽऽयाति, निद्राया अभावे च अजीर्णदोषः / तस्मात् संसक्तायां वसतौ वृष्टिकायेच निपतति नियमतो गन्तव्या अभिशय्येति। तदेवमुक्तं गन्तव्यकारणम्। तथा चाऽऽहदिलृ कारणगमणं, जइ य गुरु वच्चए तओ गुरुगा। ओरालइथिपेल्लण, संका पचत्थिया दोसा।। दृष्ट मुपलब्धं भगवदुपदेशतः पूर्वसूरिभिः, कारणे अस्वाध्यायादिलक्षणेऽभिशय्यायां गमनं, तत्र यद्येवं दृष्टे कारणगमने गुरुरभिशय्यामभिनषेधिकी वा व्रजेत्, ततस्तस्य प्रायश्चित्तं गुरुकाश्चत्वारो गुरुमासाः। को दोषो गुरुगमने इति चेत् ? अत आह-(ओरालेत्यादि) आचार्यः प्राय उदारशरीरोभवेत्, सहाया अपिच कथमपि तस्यस्तोका अभूवन, ततः काश्चन स्त्रियः सहायादीनस्थापयित्वाऽस्य हृदयादिना प्रेरयेयुः / अन्यच-शय्यातरादीनां शङ्का समुपजायते, तथाहि- किं वसतावाचार्यो नोषितः, नूनमगारी प्रतिसेवितुं गत इति / यदि वा प्रत्यर्थिका प्रत्यनीकाः प्रतिवाद्यादयोऽल्पसहायमुपलभ्य विनाशायाऽऽययुः / तत एवमाचार्यगमने दोषाः, तस्मात् तेन न गन्तव्यमिति, न केवलमाचार्येण न गन्तव्यं, किन्त्वेतैरपिन गन्तव्यम्। के ते एते ? इत्याह - गुरुकरणे पडियारी, भएण बलवं करेज जे रक्खं / कंदप्पविग्गही वा, अचियत्तो ठाणदुट्ठो वा।। गुरोराचार्यादेःकरणे करणविषये ये प्रतिचारिणः प्रतिचारकाः कायिकमात्रकादिसमर्पका विश्रामकाच, तैर्न गन्तव्यं, तेषां गमने गुरोः सीदनात् / तथा भयेन पश्चाद्वसतावपान्तरालेऽभिशय्यायां वा तस्करादिभयेन समुत्थितेन सर्वैरपि साधुभिर्न गन्तव्यम्, आत्मसंयमविराधनादोषप्रसङ्गात् / तथा यो बलवान् गुर्वादीनां तस्कारादिभ्यो रक्षा करोति, तेनापि न गन्तव्यं, तद्गमने गुर्वादीनामपायसंभवात् / तथा यः कन्दर्पः कन्दर्पशीलः, यश्च विग्रही, तथाचाऽऽराटिकरणशीलः, यो वा यत्र गम्यते तत्र शय्यातरादीनां कैश्चिदपि कारणैः पूर्ववैरादिभिः (अचियत्तो ति) अप्रीतो, यश्वस्थानदुष्टः, पुरादिदुष्टः, एतैरपि सर्वैर्न गन्तव्यम्, प्रवचनोड्डाहाऽऽत्मविराधनादिदोषप्रसङ्गात् / यदि कथमपि ते गच्छन्ति, ततो बलादाचार्यादिभिरियितव्या इति। अथ कारणे समुत्पन्ने तेषां गच्छता को नायकः प्रवर्तयितव्यः? उच्यते - गंतव्व गणावच्छे-दयपवत्तिथेरयगीयभिक्खू य। एएसिं असतीए, अगीयए मेरकहणं तु || कारणे अस्वाध्यायादिलक्षणे समुत्पन्ने सति शेषसाधुभिगन्तव्यमभिशय्यादि, तेषां च गच्छतां नायकः प्रवर्तनीयो गणाऽवच्छेदको वक्ष्यमाणस्वरूपः / तदभावे प्रवर्ती , सोऽपि वक्ष्यमाणस्वरूपः, तदभावे स्थविरः, तस्याऽप्यभावे गीतभिक्षुर्गीताऽर्थः सामान्यव्रती। एतेषामसति अभावेऽगीतार्थोऽपि माध्यस्थ्यादिगुणयुक्तः प्रवर्तनीयः / के वलं तस्मिन्नगीताऽर्थ (मेरक हणं तु इति) मर्यादायाः सामाचार्याः कथनम् - यथा साधूनामावश्यके आलोचनायां प्रायश्चित्तं दीयते, नमस्कार Page #904 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिणिसज्जा 720 - अभिधानराजेन्द्रः-भाग 1 अभिणिसजा पौरुष्यादिकं च प्रत्याख्यायते यस्मै दातव्यमित्येवमादि सर्व कथ्यते / इति भावः / कथं किस्वरूपः सोऽगीतार्थो नायकः स्थापनीयः ? इत्यत आहमज्झत्थोऽकंदप्पी, जो दोसे लिहइ लेहओ चेव। केसु उ ते सीएज्जा, दोसेसुं ते इमे सुणसु॥ मध्यस्थो- रागद्वेषविरहितः, अकन्दपी- कन्दर्पोद्दीपनभाषिता- | ऽऽदिविकलः,एवंभूतो नायकः स्थापनीयः। तेन च साधवोऽ-सामाचारी | समाचरन्तः शिक्षणीयाः, शिक्षमाणाश्च यदि कथयेयुः,यथा- यदि वयमेवं कुर्मस्ततस्तव किम् ? कस्त्वम् ? इत्यादि, तदा स (लेहओ चेव त्ति) लोचकवत् तेषां सर्वेषां साधूनां दोषान् अविस्मरणनिमित्तं मनसि लिखति, सम्यगवधारयतीत्यर्थः। अथ केषु ते साधवः सीदेयुः,यान स स्वचेतसि धारयति? सूरिराह- तान् दोषानिमान् वक्ष्यमाणान् शृणुत। तत्र यदुक्तं -एएसिं असतीए० इत्यादि, तद्व्याख्यानार्थमाह - थेरपवित्तीगीया-ऽसतीए मेरकहतऽगीयत्थे। भयगोरवं च जस्स उ, करेंति सयमुजतो जो य।। स्थविरस्य, प्रवर्तिनः, उपलक्षणमेतत्- गणावच्छेदस्य च, तथा गीतस्य गीतार्थस्य भिक्षोरसति अभावे अगीतार्थोऽपि प्रेषणीयः, तस्मिश्चाऽगीतार्थे प्रेष्यमाणे(मेरत्ति) मर्यादां सामाचारी यथोक्तस्वरूपां कथयन्ति, किविशिष्टः सोऽगीतार्थः प्रेष्यः? आह-(भयगौरवमित्यादि) यस्य भयं साधवः कुर्वन्ति, यस्य चाऽनुवर्तना गुणतो भयतो गौरवं यथोचित्तं कुर्वन्ति / यश्च स्वयमात्मना समुद्युक्तोऽप्रमादी, सोऽगीतार्थो नायकः प्रवर्तनीयः। किं कारणमिति चेत् ? उच्यतेसामाचारीरूपदोषप्रतिषेधनार्थम् / अथ के ते असमाचारीरूपा दोषाः? अत आह - पडिलेहणऽसज्झाए, आवस्सगदंडविणयराइत्थी। तेरिच्छवाणमंतर-पेहा नहवीणिकंदप्पे॥ प्रतिलेखनायामस्वाध्याये आवश्यक दण्डे, उपलक्षण-मेतत्दण्डकादौ विषये, तथा विनये वन्दनकादौ, तथा राज्ञि, स्त्रियां, तिर्यक्षु हस्त्यादिषु, वाणमन्तरे वाणमन्तरप्रतिमायां विपणिषु रथेन गच्छन्त्यां प्रेक्षायां कालग्रहणादौ, (नहवीणत्ति) नखवीणिकायां, कन्द वाऽसमाचारीरूपाः दोषाः / एष द्वारगाथासंक्षेपार्थः / एतेन यदुक्तं प्रागुक्तानिमान् दोषान् शृणुतेति तद्व्याख्यानमुपक्रान्तमिति द्रष्टव्यम्। तत्र प्रतिलेखनाद्वार-मस्वाध्यायद्वारंच विवरीषुराह - पडिलेहणसज्झाए, न करेंति हीणाहियं च विवरीयं / सेजोवहिसंथारय-दंडगउच्चारमादीसु॥ प्रतिलेखनां स्वाध्यायं वा मूलत एव न कुर्वन्ति, यदि वा हीनमधिकं विपरीतं वा विपर्यस्तक्रमं कुर्वन्ति। तत्र येषु स्थानेषु प्रतिलेखना संभवति, तानि स्थानान्युपदर्शयति- शय्योपधिसंस्तारक-दण्डकोचारादिषु / इयमत्र भावना- शय्या वसतिः, तस्याः प्रत्युपेक्षणं मूलत एव न कुर्वन्ति, यदि वा हीनमधिकं वा कुर्वन्ति, अथवा यः शय्यायाः प्रत्युपेक्षणाकालस्तस्मिन् न कुर्वन्ति, किन्तु कालाऽतिक्रमेण / एवमुपधेः, संस्तारकस्य, दण्डकादेश्च भावनीयम् / तथा उच्चारादिभूमि न प्रत्युपेक्षन्ते, हीनमधिकं वा, यदि वा कालातिक्रमेण प्रत्युपेक्षन्ते इति / स्वाध्यायमपि मूलत एव न कुर्वन्ति / यदि वा अप्रस्थापिते कुर्वन्ति। यदि वाऽकालिक-वेलायामुत्कालिक वेलायां वा कुर्वन्ति / सम्प्रति आवश्यकादि-द्वारत्रितयमाह - न करेंती आवस्सं, हीणाहियनिविट्ठपाउयनिसन्ना। दंडगहणादि विणयं, रायणियादीण न करेंति॥ आवश्यकं मूलत एव न कुर्वन्ति, यदि वा हीनमधिकं वा, कायोत्सर्गाणां हीनकरणतः कुर्वन्ति, अधिकं वाऽनुप्रेक्षार्थं कायोत्सर्गाणामेव चिरकालकरणतः कुर्वन्ति / यदि वा निविष्टा उपविष्टाः, प्रावृताः शीतादिभयतः, कल्पादिकप्रावरणप्रावृता निषण्णास्त्वग्वर्तनेन निपतिताः प्रकुर्वन्ति / गतमावश्यकद्वारम् / (दंडगहणादि त्ति) दण्डग्रहादौ, दण्डग्रहणं भाण्ड-मात्रकादीनामुपलक्षणम्, दण्डकादीनां ग्रहादौ ग्रहणे, निक्षेपेच, न प्रत्युपेक्षणं, नाऽपि प्रमार्जनं, दुष्प्रत्युपेक्षितादि वा कुर्वन्ति। गतं दण्डद्वारम्। विनयद्वारमाह-(विणयं ति) विनयं रत्नाऽधिकादीनामाचार्यादीनां यथा रत्नाऽधिकंन कुर्वन्ति। गतं विनयद्वारम् / राजादिद्वारकदम्बकमाह - रायं इत्थि तह अस्समादि वंतर रहे य पेहंति। तह नक्खवीणियादी, कंदप्पादी वि कुव्वंति।। राजानं निर्गच्छन्तं वा, स्त्रियं वा सुरूपामिति विशिष्टाऽऽभरणाऽलङ्कृतामागच्छन्तीं वा, तथा 'तिरिक्ख' इत्यस्य व्याख्यानम्अश्वादिकमश्वं वा हस्तिनं वा राजवाहनमतिप्रभूतगुणाकीर्णं, व्यन्तरं तथात्वविभूत्या विपणिमार्गेषु गच्छतः प्रत्यागच्छतो वा प्रेक्षन्ते / एतेन राजस्त्रीतिर्यग्वाणमन्तरद्वाराणि व्याख्यातानि / तथेत्यनुक्तसमुच्चयार्थः,सचेदमनुक्तं समुचिनोतिकालप्रत्युपेक्षणं न कुर्वन्ति, न वा कालं प्रतिजागरति / गतं प्रेक्षाद्वारम् / तथा नखवीणिकादिक नखैर्वीणावादनम् / आदिशब्दाद् नखानां परस्परं घर्षणमित्यादिपरिग्रहः / तथा कन्दर्पादि कन्दर्पकौकुच्यकोयुकादि कुर्वन्ति। एएसु वट्टमाणे, अट्ठिए पडिसेहए इमा मेरा। हियए करेइ दोसे, गुरुए कहणं स देइ ते सोहिं॥ एतेष्वनन्तरोदितेषु दोषेषु वर्तमानान्, वारयतीति क्रियाऽध्याहारः। कृतेऽपि वारणे यदि ते न तिष्ठन्ति, प्रतिषेधन्ति वा। यदि वयमेवं कुर्मस्ततः किं तव? को वा त्वम् ? इत्यादि / ततोऽस्थिते, प्रतिषेधिते वा नायके इयमनन्तरमुच्यमाना (मेर त्ति) मर्यादा सामाचारी। तामेवाहहृदये तान् दोषान् करोति, कृत्वा च गुरवे कथयति, सच गुरुर्ददाति तेषां शोधिं प्रायश्चित्तमिति। सम्प्रति वक्ष्यमाणार्थसंग्रहाय द्वारगाथामाह - अतिबहुयं पच्छित्तं, अदिण्ण वाहे य रायकन्ना य / ठाणाऽसति पाहुणए, न उगमणं मास कक्करणे / / चोदकवचनम्- अतिबहुकं प्रायश्चित्तं गुरुमासादि न दातव्यम्, तद्दाने व्रतपरिणामस्यापि हानिप्रसक्तेः / अत्र गुरुवचनम् -"जो जत्तिएण सुज्झइ" इत्यादि वक्ष्यमाणं, यः पुनरालोचनाप्रदानेन प्रायश्चित्तलक्षणं शल्यं नोद्धरति- तस्मिन्नदत्ते अदत्तालोचने व्याधो दृष्टान्तः। यः पुनराचार्यः शिष्यस्य प्रायश्चित्तस्थानापत्तिं जानन्नपि न शोधिं ददाति, तस्मिन्नदत्ते अदत्तप्रायश्चित्ते गुरौ दृष्टान्तो Page #905 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिणिसज्जा 721 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अभिणिसज्जा राजकन्या / पदैकदेशेन राजकन्याऽन्तःपुरपालकः / तथा"ठाणाऽसति" इत्यादि / संकटायां वसतौ प्राघूर्णके समागते सति स्थानस्य योग्यभूमिप्रदेशस्य असति-(भावप्रधानोऽयं निर्देशः) अविद्यमानत्वे, उत्सर्गतो न तु नैव गमनं, किन्तुयतना वक्ष्यमाणा कार्या, तस्यां च यतनायां कर्तुमशक्यमानायामभिशय्यादिषु प्रेक्ष्यमाणा यदि केचन कर्करायन्ते / यथा- अस्मद्वधाय प्राघूर्णकाः समागताः, यद् गन्तव्यमस्माभिरभिशय्यादिषु, कर्तव्यं वा रात्रौ जागरणमिति, तदा तेषां ककरणे प्रायश्चित्तं मासलघुदेयमिति द्वारगाथासंक्षेपार्थः / साम्प्रतमेनामेव गाथां विवरीषुः प्रथम-तोऽतिबहुकं प्रायश्चित्तमिति व्याख्यानयति - अतिबहुयं वेढिज्जइ, भंते ! मा हु दुरुवेढओ भवेज्ज / पच्छित्तेहि अयंडे, निद्दयदिण्णेहिँ भज्जेजा।। भदन्त ! परकल्याणयोगिन् !, गुरोर्यदि प्रभूतं गुरुमासादि प्रायश्चित्तं पदे दीयते, ततः स प्रायश्चित्तैः समन्ततोऽतिशयेन वेष्ट्यते, अतिवेष्टितः सन , मा निषेधे, 'हु' निश्चितं, दुरुद्वेष्टको भूयात्, दुःखेन तस्य प्रायश्चित्तेभ्य उद्वेष्टनं स्यात्, अतिप्रभूतेषु हि गुरुषु प्रायश्चित्तेषु पदे दीयमानेषु कदाऽऽत्मानमुद्वेष्टयिष्यति, इति भावः। अपि च- अकाण्डे यत् तत्र चापदे पदे निर्दयैः सद्भि-युष्माभिर्दत्तैः प्रायश्चित्तैः स भज्येत, भग्नपरिणामो भूयात्। तथा च सति महती हानिः / तस्मात् - तं दिजउ पच्छित्तं, जंतरती सा य कीरऊ मेरा। जा तीरइ परिहरिलं,मोसादि अपचओ इहरा॥ तत्प्रायश्चित्तं दीयता, यत्तरति शक्नोति कर्तु, सा च क्रियतां 'मेरा' मर्यादा या परिहर्तुं शक्यते / पाठान्तरं वा-(परिवहिउमिति) तत्र या परिवोढुं शक्यते इति व्याख्येयम् / उभयत्राऽप्ययं भावाऽर्थः - या परिपालयितुं शक्यते इति / मासादि (अपचओ इहरा इति) इतरथा प्रभूते प्रायश्चित्ते दत्ते मृषादोष उभयोरपि समुपजायते / तत्र गुरोर्मात्राधिकप्रायश्चित्तदानात्, इतरस्य तु भग्नपरिणामतया तथा परिपालनायोगात् / अन्यच्च- अतिमात्रे प्रायश्चित्ते दत्ते युष्माभिरपि पूर्वमाशातनादोष उद्भावितः। अप्रत्ययश्च शिष्यस्योपजायते, यथाअतिप्रभूतमाचार्याः प्रायश्चित्तं ददति, न चैवंरूपं प्रायश्चित्तं जिनाः प्ररूपितवन्तः, सकलजगज्जन्तु हितैषितया तेषामतिकर्क शप्रायश्चित्तोपदेशदानायोगात् / तस्मात् सर्वमिदं स्वमतिपरिकल्पितमसदिति। एवं चोदकेनोक्ते गुरुराह - जो जत्तिएण सुज्झइ, अवराहो तस्स तत्तियं देइ। पुव्वमियं परिकहियं, घडपडगाइएहिँ नाएहि॥ चोदक आह- त्वया सर्वमिदमयुक्तमुच्यते, यतो देशकालसंहननाद्यपेक्षया योऽपराधो यावन्मात्रेण प्रायश्चित्तेन शुद्धयति , तस्याऽपराधस्य शोधनाय तावन्मात्रमेव सूरिः प्रायश्चित्तं ददाति, नाऽधिकं, नाऽपि हीनम्, एतच्च पूर्वमेव घटपटादिभितिरुदा-हरणैः "जलनिल्लेवणकुडए'' इत्यादिना ग्रन्थेन परिकथितं, तस्मान्न दोषः / साम्प्रतमदत्तालोचने यो व्याधदृष्टान्त उपन्यस्तः, तं भावयतिकंटगमादिपविटे, नोद्धरई सयं न भोइए कहइ। कमढीभूऐं वणगए, आगलणं खोमिया मरणं / / इह किलव्याधावने संचरन्त उपानही पादेषु नोपनह्यन्ति, मा हस्तिन उपानहोः शब्दानश्रौषुरिति ! तत्रैकस्य व्याधस्याऽन्यदा वने उपानही विना परिभ्रमतो द्वयोरपि पादयोः कण्टकादयः प्रविष्टाः, आदिशब्दात् श्लक्ष्णकिलिञ्जादिपरिग्रहः। तान् प्रविष्टान् कण्टकादीन स्वयं नोद्धरति, नाऽपि भोजिकायै निजभार्याय घ्याध्यै कथयति / ततः स तैः पादतलप्रविष्टैः कण्टकाऽऽदिभिः पीडितः सन् वनगतो हस्तिना पृष्ठतो धावता प्रेर्यमाणो धावन् कमठीभूतः, स्थले कमठ इव मन्दगतिरभूत् , ततः 'प्राप्तो हस्ती प्रत्यासन्नं देशम्' इति जानन् क्षुब्ध्वा क्षोभं गत्वा, आगलणमिति वैकल्यं प्राप्तः / ततो मरणम् / एष गाथाऽक्षरार्थः। भावार्थस्त्वयम्- “एगो वाहो उवाहणाओ विणा वणे गतो, तस्सपायतला कंटगाईणं भरिया, ते कंटगाइया नो सयमुद्धरिया, नो वि य वाहीए उद्धराविया, अन्नया वणे संचरंतो हत्थिणा दिट्ठो, तो तस्स धावंतस्स कंटगाइया दूरतरं मंसे पविट्ठा, ताहे अतिदुक्खेण अद्वितो महापायवो इव छिन्नमूलो हत्थिभएण वेयणभूतो पडितो, हस्थिणा विणासितो''। बितिए सयमुद्धरती, अणुट्ठिए भोइयाएँ नीहरइ। परिमद्दणदंतमला-दिपूरणं वणगयपलातो। अन्यो द्वितीयो व्याध उपानही विना वने गतः, तस्य वने संचरतः कण्टकादयः पादतले प्रविष्टास्तान् स्वयमुद्धरति, ये च स्वयमुद्धर्तुं न शक्यास्तान् अनुद्धृतान् भोजिकया निजभार्यया व्याध्या नीहारयति निष्काशयति, तदनन्तरं तेषां कण्टकादिवेधस्थानानामङ्गुष्ठा-दिना परिमर्दनं, तदनन्तरं दन्तमलादिना, आदिशब्दात् कर्णमलादिपरिग्रहः / पूरणं कण्टकादिवेधानाम् / ततोऽन्यदा वनं गतः सन् हस्तिना दृष्टोऽपि पलायितो, जातो जीवितव्य-सुखानामाभागी। एष दृष्टान्तः। साम्प्रतं दान्तिकयोजनामाह - वाहत्थाणी साहू, वाहिगुरूकंटकादि अवराहा। सोहीय ओसहाई, पसत्थनाएणुवणओ ऊ॥ व्याधस्थानीयाः साधवः,व्याधीस्थानीयोगुरुः, कण्टकादि-स्थानीया अपराधाः, ओषधानि दन्तमलादीनि, तत्स्थानीया शोधिः / अत्र द्वौ व्याधदृष्टान्तौ, तत्र प्रशस्तोऽप्रशस्तश्च / आद्योऽप्रशस्तो, द्वितीयः प्रशस्तः। तत्र प्रशस्तेन ज्ञातेन दृष्टान्तेनोपनयः कर्तव्यः / आचार्योऽपि यदा तान् उपेक्षते, ततः कण्टकादीनामुपेक्षको व्याध इव सोऽपि दुस्तरामापदमाप्नोति। तथाचाऽऽहपडिसेवंत उवेक्खइ, न य णं ओवीलए अकुव्वंतो। संसारहत्थिहत्थं, पावइ विवरीयमियरो वि।। इतरोऽपि आचार्योऽपि, तुशब्दार्थोऽपिशब्दार्थः, यः प्रति-सेवमानान् उपेक्षते, न तु निषेधति, न वाऽकुर्वतोऽकुर्वाणान् प्रायश्चित्तमुत्पीडयति, न भूयः प्रायश्चित्तदानदण्डेन ताडयन् (प्रायश्चित्तं) कारयति, स विपरीतम्, आचार्यपदस्य हि यथोक्त-नीत्या परिपालनफलमचिरात् मोक्षगमनं, तद्विपरीतं संसार एव हस्तिहस्तं प्राप्नोति, दुस्तरं संसारमागच्छतीति भावः। उपसंहारमाहआलोयमणालोयण, गुणा य दोसा य वणिया एए। अयमन्नो दिद्रुतो, सोहिमदिते य दिंते य॥ Page #906 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिणिसजा 722 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अभिणिसज्जा एते अनन्तरोदिता आलोचनायां गुणाः, अनालोचनायांदोषा वर्णिताः। सम्प्रति यः प्रायश्चित्तं ददाति, तस्मिन् शोधिमददाने, ददाने च, अयं वक्ष्यमाणो राजकन्यान्तःपुरपालकरूपोऽन्यो दृष्टान्तः / तमेवाह - निजूहादिपलोयण, अवारण पसंगअग्गदारादि। धुत्तपलायण निवकहण दंडणं अन्नठवणं च // "एगो कन्नतेउरपालगो, सो गोखलएण कन्नाओ पलोएतीओ न वारेइ, ततो ताओ अग्गदारेण निफिडिउमाढत्ता, ततो विन वारेइ, ताहे ततो अनिवारित्रमाणीओ कयाइ धुत्तेहिं समं पलायाओ, एवं सव्वमवारणादि केणइ रन्नो कहियं, ततो रण्णा तस्स सव्वस्सहरणं कयं, विणासितोय, अण्णो कण्णतेउरपालो ठवितो'' | अक्षरगमनिका- निहो गवाक्षः, गोखलक इत्यर्थः / आदिशब्दात्तदन्यतथाविधप्रदेशपरिग्रहः / तेन निहादिना प्रलोकने अवारणं कृतवान्, ततोऽग्रद्वारादिष्वपि प्रसङ्गः, अग्र-द्वारे अन्यत्र वा यथास्वेच्छं तासां कन्यानां प्रसङ्गः / ततोऽन्यदा धूर्तः सह पलायनम् / एतस्य च सर्वस्यापि वृत्तान्तस्य नृपस्य पुरतः कथनं, ततो राजा तस्यकन्यान्तःपुरपालकस्य दण्डनम्, अन्यस्य कन्याऽन्तःपुरपालकस्य स्थापनं चाऽकार्षीत्। निजहगयं दटलु, बितिओ कन्नाउ वाहरित्ता णं / विणयं करेइ तीसे, सेसभयं पूयणा रन्ना / / अन्यो द्वितीयः कन्यान्तःपुरपालको निर्मूहगतां गवाक्षगतामेकां कन्या दृष्ट्वा (वाहरित्ता णं ति) एनां व्याहृत्य आकार्य विनयं शिक्षा तस्याः करोति, ततः शेषाणां कन्यानामुदपादि भयं, तेनैव काऽपि गृहद्वारादिषु नावतिष्ठते, न च धूर्त रपहरणम्, ततः सम्यक्-कन्याऽन्तःपुरपालनं कृतवानिति राज्ञा पूजना कृता। एष दृष्टान्तः। अयमर्थोपनयःराया इव तित्थयरा, महतरय गुरू उ साहु कण्णाओ। ओलोयण अवराहा, अपसत्थपसत्थगोवणओ] राजा इव राजस्थानीयास्तीर्थकराः, महत्तरः कन्यान्तःपुर-पालकः, तत्स्थानीया गुरखः, साधवः कन्यास्थानीयाः, अवलोकनमपराधः / अत्राऽप्रशस्तेन कन्याऽन्तःपुरपालकेन, प्रशस्तेन चोपनयः कर्तव्यः। तद्यथा-आचार्यः प्रमादिनः शिष्यान्न वारयति, न च प्रायश्चित्तं ददाति, स विनश्यति, यथा प्रथमः कन्यान्तःपुरपालकः।यस्तु प्रमाद्यतः शिष्यान् वारयति, प्रायश्चित्तं च यथापराधं प्रयच्छति, स इह लोके प्रशंसादिपूजां प्राप्नोति, परलोके च सम्यशिष्यनिस्तारणतो निर्वाणमचिरादाप्नुयादिति / सम्प्रति यदुक्तं प्राधूर्णकसमागमे संसक्ते उपाश्रये वृष्टिकाये च निपतति अभिशय्या गन्तव्येति तद्विषयमपवादं क्रमेणा-ऽभिधित्सुराह - असज्झाइए असंते, अणाऽसति पाहुणागमे चेव। अन्नत्थ न गंतव्वं, गभणे गुरुगा उ पुव्वुत्ता। अस्वाध्यायिके असति अविद्यमाने, प्राघूर्णकानामागमे वाऽसति स्थानस्यसंस्तारकयोग्यभूमिलक्षणस्य असति, अपिशब्दोऽत्र सामर्थ्यादवगम्यते। असत्यपि, भावप्रधानोऽयं निर्देशः। इत्य-भावेऽपि अन्यत्राऽभिशय्यादौ न गन्तव्यम्, किन्तु यतना कर्तव्या ! यदि तया / अन्यत्र गमनं कुर्वन्ति, ततो गमने पूर्वोक्ता गुरुकाश्चत्वारो गुरुमासाः प्रायश्चित्तम्। का पुनर्यतना? तमाह - वत्थव्वा वारंवारएण जग्गंतु मा य वचंतु। एमेव य पाहुणए, जग्गण गाढं अणुव्वाए। वास्तव्या वारंवारेण जाग्रतु / इयमत्र भावना- वास्तव्याना मध्ये यो यावन्मात्रमर्द्धयामादिकं जागरितुं शक्नोति, तावन्मात्रं जागर्ति, तदनन्तरं जागरितुमशक्नुवन् अन्य साधुमुत्थापयति, सोऽपि स्वजागरणवेलाऽतिक्रमेऽन्यम्, एवं वारेण वारेण जाग्रतु / यदि पुनर्वास्तव्याः समस्ता अपि रात्रि वारेण जागरितुं न शक्नुवन्ति, ततो यदि गाद न परिश्रान्ताः प्राघूर्णकाः, ततः प्राधूर्णके (अणुव्वाए इति) अपरिश्रान्ते, एवमेव वारेण जागरणं समर्पणीयं,मा पुनः, चशब्दः पुनःशब्दार्थे, व्रजन्वभिशय्याम, यदि पुनर्वास्तव्याः प्राघूर्णकाश्चनवारण जागरितुं शक्नुवन्ति, तदाऽभिशय्या गन्तव्येति / एमेव असंसत्ते, देसे अगलंतएय सव्वत्थ। अम्हवहा पाहुणगा, उति रिक्खा उ कक्करणा / / एवमेव अनेनैव प्रकारेण, संसक्ते उपाश्रये यो देशः प्रदेशोऽसंसक्तस्तस्मिन्नसंसक्ते देशे, तथा वृष्टिकाये निपतति यः प्रदेशो न गलति, तस्मिन् प्रदेशे यतना कर्तव्या। तद्यथा- संसक्तायां वसतौ येष्ववकाशेषु संसक्तिस्तान् परिहृत्य शेषेष्ववकाशेषु संसक्ति-रहितेषु पूर्वप्रकारेण जागरणयतना कर्तव्या / ततो वृष्टिकायेऽपि निपतति येष्ववकाशेषु वसतिः निर्गलति तानवकाशान् परिहत्य शेषेष्वगलत्स्ववकाशेषु यतना पूर्ववत्कर्तध्येति (सव्वत्थ त्ति) यदि पुनः सर्वत्र संसक्ता, सर्वत्र वा गलति, तदाऽभिशय्या गन्तव्येति / यदुक्तं - "मासो उ ककरणे' इति, तत्र कक्करणं व्याख्यानयति- एते रिक्ताः प्राघूर्णका अस्मद्वधाय उपयन्ति समागच्छन्ति / एवमादिभाषणं कक्करणेति। सम्प्रति यदवादीत् - आचार्येण न गन्तव्यम्, अनापृच्छया वा (साधुभिः) न गन्तव्यमिति, तद्विषयमपवादमाह - बितियपयं आयरिए, निद्दोसे दूरगमणऽणापुच्छा। पडिसेहियगमणम्मी, तो तं वसभा बलं नँति / / द्वितीयमपवादपदमाचार्य विषये, क्व सति ?,इत्यत आहनिर्दोषे स्त्र्यादिदोषाणामभावे,यदि वा निर्गता दोषा यस्मात् , तद् निर्दोष क्षेत्रं, तस्मिन्, तथा दूरे अभिशय्या, ततस्तत्र दूरगमने अनापृच्छा, तथा प्रतिषेधितस्य गमने द्वितीयपदमिदम् - (तो त्ति) तस्मादेव संज्ञादिस्थानात् परतो यदा वृषभा बलात् नयन्ति, तदा प्रतिषेधितः प्रतिपृच्छामन्तरेणापि गच्छतीति / एष गाथासंक्षेपार्थः / साम्प्रतमेनामेव गाथां विवरीषुः प्रथमतः "आयरिए निरोसे" इति व्याख्यानयतिजत्थ गणी न वि नजइ, भद्देसु य जत्थ नत्थि ते दोसा। तत्थ वयंतो सुद्धो, इयरे वि वयंति जयणाए। यत्र गणी आचार्यों न ज्ञायते, अपिशब्दात् न च तथाविधोदारशरीरो, नाऽपि के नचिदपि सह वादोऽभवत् / यत्र स्वभावत एव Page #907 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिणिसजा 723 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अभिणिसज्जा भद्रेष्वनुत्कट रागद्वेषेषु लाकेषु प्रागुक्ताः स्त्र्यादिसमुत्था दोषा न सन्ति,तत्राभिशय्यामपि गच्छन्नाचार्यः शुद्धः, इतरेऽपि ये अनापृच्छया गच्छन्ति, येऽपिच प्रतिषेधितास्तेऽपिच यतनया गच्छन्ति। का यतना? इति चेदत आह - वसतीऍ असज्झाए, सन्नादिगतो य पाहुणो दट्टुं। सोउं व असज्झायं, वसहिं उवें ति भणइ अन्ने / वसतावस्वाध्यायो जातो, गुरवश्च संज्ञाभूम्यादिषु गताः, ततोऽस्वाध्याये, तथा स्वयं (संज्ञादिगतः) संज्ञाभूमिम्, आदिशब्दादन्यद्वा स्थानं प्रयोजनेनगतः सन् प्राघूर्णकान्समागच्छतो दृष्ट्वा नूनमस्माकं वसतिः संकटा प्राघूर्णकाश्च बहवः समागताः, ततो न सर्वेषां संस्तारकयोग्यभूमिरवाप्यते इति विचिन्त्य, तथा पूर्व वसतावस्वाध्यायो नाभूत् संज्ञादिगतेन च तेन श्रुतं, यथा- जातो वसतावस्वाध्यायस्ततोऽस्वाध्यायं च श्रुत्वा यावद् गुरूणां प्रष्टुं वसतावागच्छति तावद् रात्रिः समापतति, दूरे चाऽभिशय्या, रात्रौ च गच्छतामारक्षकभयं, ततोऽनापृच्छ्यैव ततः स्थाना-दभिशय्यां गच्छति, केवलं येऽन्ये साधयो वसतिमुपयन्ति, तान् भणति प्रतिपादयति, संदिशतीत्यर्थः / किं तद् ? इत्याह - दीवेह गुरूण इम, दूरे वसही इमो विकालो य। संथारकालकाइय-भूमीपेहट्ठ एमेव / / दीपयत प्रकाशयत कथयतेति यावत् / गुरूणां, यथा- दूरे वसतिरभिशय्या / अयं च प्रत्यक्षत उपलभ्यमानो विकालः सभापतितः,तत एवमेव अनापृच्छयैव युष्मान, संस्तारकभूमेः कालभूमीनां कायिकीभूमीनां (कायिकी संज्ञा) उपलक्षणमेतत् - प्रश्रवणभूमीनां च प्रेक्षाऽर्थमभिशय्यां गत इति / एवमनापृच्छायामपवाद उक्तः। सम्प्रति प्रतिषिद्धेऽपवादमाह - एमेव य पडिसिद्धे, सण्णादिगयस्स कंचि पडिपुच्छे। तं पिय होढा असमि-क्खिऊण पडिसेहितो जम्हा।। कस्यापि साधारभिशय्यादिगमने गुरुणा प्रतिषिद्धे, संज्ञा-दिगतस्य कायिक्यादिगतस्य कायिक्यादिभूमिगतस्य सत एवमेवमनन्तरोक्तेन प्रकारेण, गुरून् प्रति संदेशकथनं ज्ञातव्यम्। कथम् ? इत्याह - (कंचि पडिपुच्छे त्ति) कमपि वृषभं प्रतिपृच्छत्- यथा न मम किमपि गमनप्रतिषेधकारणमभूत्, केवलमेवमेव गुरुणा प्रसिद्धः, अथ च मया स्वाध्यायः कर्तव्यः, वसतौ वा अस्वाध्यायादिकमुपजातमतः किं करोमि ?, यामि वसति, प्रतिपृच्छामि गुरुमिति / एवमुक्ते ते वृषभादयोऽभिशय्यां गन्तुकामाः कालस्य स्तोकत्वात्यावद्वसतौ गत्वा गुरून प्रतिपृच्छय समागच्छन्ति, तावद् रात्रिः पततीति तं प्रत्येवमुदीरयन्ति। (तं पिय०इत्यादि) तदपि गुरूणां प्रतिपृच्छनं (होढा इति) देशीपद-मेतत् / दत्तमेव, कृतमेवेत्यर्थः / यस्मादसमीक्ष्याऽपर्यालोच्य, अनाभोगत एवेत्यर्थः / त्वं प्रतिषेधितः, ततो यदत्र किमपि गुरवो वक्ष्यन्ते, तत्र वयं प्रत्याख्यामः, यथैष न किमपि गमनप्रतिषेधकारणं कृतवान्, प्रतिपृच्छार्थं चाऽऽगच्छन् अस्माभिर्वारितः, तावत्कालस्याऽप्राप्यमाणत्वात्। एवमुक्त्वा बलादपि तं वृषभा नयन्ति, सोऽपि च बलात् नीयमानश्चिन्तयति- यथा नाऽस्ति मम कश्चिद् दोषः? किं न गच्छामीति। स च तत्र गच्छन्, वृषभाश्च येऽन्ये साधवो वसतिमुपयान्ति, तेषां संदेशं प्रयच्छन्ति। अथाऽसमीक्ष्य प्रतिषिद्ध इति वृषभाः कथं जानन्तीत्यत आह - जाणंति व तं वसभा, अहवा वसभाण तेण सब्भावो। कहितो न मेऽस्थि दोसो, तोणं वसभा बला निति / / जानन्ति स्वयमेव तं वृषभाः, यथा- निर्दोष एषोऽकारणे गुरुणा प्रतिषिद्धः, अस्मत्समक्षमेवाऽस्य प्रायोऽवस्थानात् / अथवा तेन वृषभाणां सद्गावः कथितः, यथा- न मे कश्चन दोष इति। तत एतद् ज्ञात्वा गुरुमनापृच्छयैव यथोक्तप्रकारेण वृषभा बलात् नयन्ति / योऽपि आचार्यस्य प्रतिचारी पूर्व प्रतिषिद्धः, सोऽपि- 'तत् कर्तव्यं, यद् वृषभैः सम्पादितं भवति' इति ज्ञात्वा ततो गच्छत्यभिशय्यामिति न कश्चिद् दोषः। संप्रति अभिशय्याया नैषेधिक्याश्च भेदानाह - अभिसेजमभिनिसीहिय, एक्केका दुविहा होइनायव्वा। एगवगडाए अंतो, बहिया संबद्धसंबद्धा॥ या गन्तव्या अभिशय्या, अभिनषेधिकी वा, सा एकैका द्विविधा भवति / तद्यथा- साधुवसतेः (एगवगडाए इति) एकवृत्ति-परिक्षेपायाभन्तर्बहिश्च / इयमत्र भावना- द्विविधा अभिशय्या, एका वसतेरेकवृत्तिपरिक्षेपाया अन्तः, अपरा बहिः / एवं नैषेधिक्यपि द्विविधा भावनीया / भूय एकैकाऽभिशय्या द्विविधा / तद्यथा- संबद्धा, असंबद्धा च। तत्र यस्या अभिशय्याया वसतेश्च एक एव पृष्ठवंशः, सासंबद्धा / यस्याः पुनः पृथक् पृष्ठवंशः, सा असंबद्धा। अथैकवृत्तिपरिक्षेपस्यान्तरभिशय्या द्विविधाऽपि यथोक्तप्रकारा घटते, या त्वेकवृत्तिपरिक्षेपस्य बहिः सा नून- मसंबद्धा स्यात्, तस्याः सुप्रतीतत्वात् / या पुनः संबद्धा, सा कथमुपपद्यते ? उच्यते- यस्या अभिशय्याया वृत्तिपरिक्षेपस्य बहिर्भूतायाः, वसतेश्व तल्लग्नायाः पृष्ठवंशोऽपान्तराले च भित्तिः, सा बहिर्भूताऽपि संबद्धेति। नैषेधिकी पुनरन्तर्बहिर्वा नियमादसंबद्धैव / हस्तशतस्याऽभ्यन्तरतोऽस्वाध्यायिके समुत्पन्ने स्वाध्याया-संभवात् / तथा चाऽऽह - जासा उ अमिनिसीहिय, सा नियमा होउ ऊ असंबद्धा। संबद्धमसंबद्धा, अभिसेजा होति नायव्वा॥ अत्र येति- अवगते, सेति-यदुक्तं, तदोषाऽभावोपक्रमप्रदर्शनार्थमित्यदुष्टम् / याऽस्य अभिनषेधिकी, सा नियमाद् भवत्यसंबद्धा। कारणमनन्तरमेवोक्तम्, या त्वभिशय्या, सा संबद्धा असंबद्धा च भवति ज्ञातव्या। अथ कस्यां वेलायां तत्र गन्तव्यम् ? तत्र आह - धरमाणचिय सूरे, संथारुचारकालभूमीओ। पडिलेहियऽणुण्णविए, वसहेहि वयंतिम वेलं / / योऽसावभिशय्यायाः शय्यातरस्तं वृषभा अनुज्ञापयन्ति, यथास्वाध्यायनिमित्तं वयमत्र वत्स्याम इति ! तत एवं वृषभैरनुज्ञापिते शय्यातरे, धरमाण एव अनस्तमिते एव सूर्य, तत्राऽभिशय्यायां संस्तारकोचारकालभूमीः प्रत्युप्रेक्ष्य भूयो वसतावागत्य इमां वेलामिति "कालाऽध्वनोाप्तौ''१२।२।२४ / इति (हैम) सूत्रेण सप्तम्यर्थे द्वितीया। अस्यामनन्तरं वक्ष्यमाणायां वेलायां व्रजन्ति। Page #908 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिणिसज्जा 724 - अभिषानराजेन्द्रः - भाग 1 अभिणिसज्जा कस्यां वेलायाम् ? इत्यत आह - आवस्सयं तु काउं, निव्वाघाएण होइ गंतव्वं / वाघाएण उभयणा, देसं सव्वं अकाऊण / / व्याघातस्यस्तेनादिप्रतिबन्धस्याभावो निर्व्याघातः, तेन निर्व्याघातेन भवति गन्तव्य वसतेराचार्यैः सममावश्यकं कृत्वा।व्याघातेन पुनर्हेतुभूतेन भजना विकल्पना / का भजना ? इत्यत आह- देशं वा आवश्यकस्याकृत्वा, सर्वं वाऽवश्यकमकृत्वा। सम्प्रति यैः कारणैः प्रतिबन्धस्तान्युपदर्शयतितेणा सावय-वाला, गुम्मियआरक्खिठवणपडिणीए। इत्थिनपुंसगसंसत्तवासचिक्खिल्लकंटेय॥ स्तेनाश्चौरास्ते संध्यासमये अन्धकारकलुषिते संचरन्ति, श्वापदानि वा दुष्टानि भूयांसि तदा उदृप्तानि हिण्डन्ते, व्याला वा भुजङ्गमादयो वातादिपानाय भूयांसः संचरन्ति, तथा गुल्मेन समुदायेन संचरन्तीति गौल्मिका आरक्षिकाणामप्युपरि स्थायिनो हिण्डकाः, आरक्षकाः पुररक्षकाः, ते अकाले हिण्डमानान् गृह्णन्ति / तथा(ठवण त्ति) क्वचिद्देशेएवंरूपास्थापना क्रियते। यथा- अस्तमिते सूर्ये रथ्यादिषु सर्वथा न संचरणीयमिति, प्रत्यनीको वा कोऽप्यन्तरादिघातकरणार्थ तिष्ठन् वर्तते, स्त्रियो नपुंसका वा कामबहुलास्तदा उपसर्गयेयुः, संसक्तो वा प्राण-जातिभिरपान्तराले मार्गः, ततोऽन्धकारेणेयर्यापथिका न शुद्ध्यति / वर्ष वा पतत् संभाव्यते, (चिक्खिल्ल त्ति) कर्दमो वा पथि भूयानस्ति, ततो रात्रौ पादलग्नः कर्दमः कथं क्रियते ? (कंटेत्ति) कण्टका वा मार्गेऽतिबहवः, ते रात्रौ परिहर्तुं न शक्यन्ते / एतै-व्याघातकारणैः समुपस्थितैः देशतः सर्वतो वाऽऽवश्यकमकृत्वा गच्छन्ति / तत्र देशतः कथमकृत्वेत्यत आह - थुतिमंगल कितिकम्मे,काउस्सग्गे य तिविहकियिकम्मे / तत्तो य पडिक्कमणे, आलोयणयाएँ कितिकम्मो॥ स्तुतिमङ्गलमकृत्या, स्तुतिमङ्गलाऽकरणे चाऽयं विधिः- आवश्यक समाते द्वे स्तुती उच्चार्य तृतीयां स्तुतिमकृत्वा अभिशय्यां गच्छन्ति / तत्र च गत्वा ऐर्यापथिकी प्रतिक्रम्य तृतीयां स्तुतिं ददति / अथवा आवश्यके समाप्ते एका स्तुतिं कृत्वा द्वे स्तुती अभिशय्यां गत्या पूर्वविधिनोचारयन्ति / अथवा समाप्ते आवश्यकेऽभिशय्यां गत्वा तत्र तिस्रः स्तुतीर्ददति / अथवा स्तुतिभ्यो यद् वक्ति, तत् कृतिकर्म, तस्मिन्नकृते तेऽभिशय्यां गत्वा तत्रैर्यापथिकी प्रतिक्रम्य मुख-वस्त्रिका च प्रत्युपेक्ष्य कृतिकर्म कृत्वा स्तुतीर्ददति। (काउस्सग्गे य तिविह त्ति) त्रिविधे कायोत्सर्गे क्रमेणाकृते,तद्यथा- चरमकायोत्सर्गमकृत्या अभिशय्यां गत्वा तत्र चरमकायोत्सर्गादिकं कुर्वन्ति / अथवा द्वौ कायोत्सर्गी चरमावकृत्वा, यदि वा त्रीनपि कायोत्सर्गान् अकृत्वा, अथवा कायोत्सर्गेभ्योऽक्तिनं यत् कृतिकर्म, तस्मिन् अकृते, उपलक्षणमेतत्, ततोऽप्यक्तिने क्षामणे, यदि वा ततो-ऽप्यक्तिने कृतिकर्मणि अकृते, अथवा ततोऽप्यक्तिने प्रति-क्रमणे अकृते, यदि वा ततोऽप्यक्तिने आलोचने अकृते, अथवा ततोऽप्यारात्तने कृतिकर्मणि अकृते, अभिशय्यामुपगम्य तत्र तदाद्यावश्यक कर्तव्यमिति / एवमावश्यकस्य देशतोऽकरणमुक्तम्। इदानीं सर्वस्याऽकरणमाह - काउस्सग्गमकाउं, कितिकम्मालोयणं जहण्णेणं / गमणम्मी एस विही, आगमणम्मी विहिं वोच्छं। यो दैवसिकानि वारानुप्रेक्षार्थ प्रथमः कायोत्सर्गः, तमप्यकृत्या / किमुक्तं भवति ? सर्वमावश्यकमकृत्वाऽभिशय्यां गच्छन्ति, किमेवमेय गच्छन्ति ? उताऽस्ति कश्चन विधिः? उच्यते- अस्तीति बूमः। तथा चाऽऽह- (कितिकम्मालोयणं जहण्णेणं ति) जघन्येन जघन्यपदे सर्वमावश्यकमकृत्या, सर्वे गुरुभ्यो वन्दनं कृत्वा, यश्च सर्वोत्तमो ज्येष्ठः, स आलोच्य, तदनन्तरमभिशय्यां गत्वा सर्वमावश्यकमहीनं कुर्वन्ति / एषोऽभिशय्यायां गमने / अभिशय्यातः प्रत्यागमने पुनर्यो विधिस्तमिदानी वक्ष्ये। प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयतिआवस्सगं अकाउं, निव्वाघाएण होइ आगमणं / वाघायम्मि उ भयणा, देसं सव्वं च काऊणं॥ यदि कश्चनाऽपि व्याघातो न भवति, ततो निर्व्याघातेन व्याघाताऽभावेनाऽऽवश्यकमकृत्वाऽभिशय्यातो वसतावागमनं भवति / आगत्य च गुरुभिः सहाऽऽवश्यकं कुर्वन्ति / व्याघाते तु भजना। का पुनर्भजना? इत्यत आह-देशमावश्यकस्य कृत्वा, सर्व वा आवश्यकं कृत्वा / तत्र देशत आवश्यकस्य करणमाह - काउस्सग्गं काउं, कितिकम्मालोयणं पडिक्कमणं / किइकम्मं तिविहं वा, काउस्सगं परिण्णा य॥ कायोत्सर्गमाद्यं कृत्या वसतावागत्य शेषं गुरुभिः सह कुर्वन्ति। अथवा द्वौ कायोत्सर्गों कृत्वा, यदि वा त्रीन् कायोत्सर्गान कृत्वा, अथवा कायोत्सर्गत्रयानन्तरं यत् कृतिकर्म तत्कृत्वा, अथवा तदनन्तरमालोचनामपि कृत्वा, यदि वा तत्परं यत्प्रतिक्रमणं, तदपि कृत्वा, अथवा तदनन्तरं यत्कृतिकर्म द्विभेदं, तत्क्षामणादक्तिनं, परं चेत्यर्थः, तदपि कृत्वा / पाठान्तरम् - ''तिविहं ते वि'' मूलकृतिकर्माऽपेक्षया त्रिविधं वा कृतिकर्म कृत्वा / अथवा कायोत्सर्ग चरम पाण्मासिकं कृत्वा, परिज्ञा प्रत्याख्यानं, तामपि वा कृत्वा / अत्राऽयं विधिः- सर्वे साधवश्वरमकार्योत्सर्ग वसतावागत्य गुरुसमीपे वन्दनकं कृत्वा, सर्वोत्तमश्च ज्येष्ठ आलोच्य, सर्वे प्रत्याख्यानं गृह्णन्ति / अथवा- सर्वभावश्यकं कृत्वा, एकां च स्तुतिं दत्त्वा, शेषे द्वे स्तुती कृत्वा, शेषं गुरुसकाशे कुर्वन्ति / तदेवमुक्तं देशत आवश्यकस्य करणम्। अधुना सर्वतः करणमाह - थुति मंगलं च काउं, आगमणं होति अभिनिसिज्जातो। बितियपदे भयणा ऊ, गिलाणमादी उ कायव्वा // अथवा प्रत्याख्यानं, तदनन्तरं स्तुति, मङ्गलं च स्तुतित्रयाऽऽकर्षणरूपं तत्र कृत्वा अभिशय्यात आगमनं भवति / तत्रेयं सामाचारीगुरुसमीपे ज्येष्ठ एक आलोचयति, आलोच्य प्रत्याख्यानं गृह्णाति, शेषैः ज्येष्ठस्य पुरत आलोचना। प्रत्याख्यानं च कृतं, वन्दनक च सर्वे ददति, क्षामणं च। द्वितीयपदे अपवादपदे ग्लानादिषु प्रयोजनेषु भजना कर्तव्या। किमुक्तं भवति ? ग्लानादिकं प्रयोजनमुद्दिश्य वसतौ नाऽऽगच्छेयुरपीति। ग्लानादीन्येव प्रयोजनान्याह - गेलण्ण वास महिआ, पदुट्ट अंतेउरे निवे अगणी। अहिगरणहत्थिसंभम-गेलण्ण निवेयणा नवरिं। Page #909 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिणिसज्जा 725 - अभियानराजेन्द्रः - भाग 1 अभिप्यायसिद्ध ग्लानत्वमेकस्य बहूनांवा साधूनां तत्राभवत्, ततः सर्वेऽपि साधवस्तत्र चारविशेषेण खण्डित आचारो ज्ञानाचारादिको यस्याऽसाव-भिन्नाचारः / व्यापृतीभूता इतिन वसतावागमनम्। अथवावर्षपतितुमारब्धम्। महिका व्य०। जात्योपजीवनादिपरिहरति, व्य०३ उ०। वा पतितुं लगा। यद्वा-(पदुट्ठ त्ति) प्रद्विष्टः कोऽप्यन्तरा विरूपकरणाय | अमितत्त-त्रि०(अभितप्त) अग्रिना आभिमुख्येन सन्तापिते, सूत्र० तिष्ठति। अन्तःपुरं वा तदानीं निर्गन्तुमारब्ध, तत्रच राज्ञा उद्घोषितम्- / १श्रु०४ अ०१ उ०। यथा पुरुषेण न केना-ऽपि रथ्यासु संचरितव्यम्। राजावा तदा निर्गच्छति, अमितप्पमाण-त्रि०(अभितप्यमान) कदीमाने, सूत्र० 1 श्रु० तत्र हय-गजपुरुषादीनां संमर्दः / अग्निकायो वाऽपान्तराले महान् 5 अ०१उन उत्थितः / अधिकरणं वा गृहस्थेन समं कथमपि जातं बृहद्, वृषभाः अमिताव-अव्य०(अभिताप) तापाऽभिमुखे, आचा० 1 श्रु०६ अ० तदुपशमयितुं लग्नाः / हस्तिसंभ्रमो वा जातः। किमुक्तं भवति? हस्ती ४उ०। क्रकचपाटन-कुम्भीपाक-तप्तत्रपुपानशाल्मल्यालिङ्गनाऽऽदिरूपे कथमप्यालानस्तम्भं भक्त्वा शून्यासनः स्वेच्छया तदा परिभ्रमति। सन्तापे, सूत्र०२ श्रु०६ अगदाहे, सूत्र०१ श्रु०५ अ० 1 उ०॥ एतेषु कारणेषु नाऽऽगच्छेयुरपि क्सतिम्। नवरमेतेषु कारणेषु मध्ये ग्लानत्वे अभित्थुय-त्रि०(अभिष्टुत) विशिष्टगुणोत्कीर्तनेन व्यावर्णिते, संथा०। विशेषः, यदि ग्लानत्वमागाढमुफ्जातमेकस्य बहूनां वा, तदा गुरूणां अमित्थुव्वमाण-त्रि०(अभिष्टुवत्) संस्तुवति, स्था०६ ठा० निवेदना कर्त्तव्येति / समाप्ता प्राक्तनसूत्रस्य निर्विशेषा व्याख्या। व्य०१ उ० *अभिष्ट्रयमान-त्रि०ा अभिनन्द्यमाने संस्तूयमाने, स्था०६ ठा० अभिणिसड-त्रि०(अभिनिस्सट) अभिविधिना निर्गताः सटाः कल्प०ा आ०म० तदवयवरूपाः, के शरिस्कन्धसटा वा यस्य तदभिनिःसटम् / अभिदुग्ग-पुं०(अभिदुर्ग) कुम्भीशाल्मल्यादौ,सूत्र०। अति- विषमे, बहिरभिनिर्गताऽवयवे, भ०१५ श०१ उ०॥ सूत्र०१ श्रु०५ अ०२ उ०। अग्निस्थाने, सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ० / अभिणिसिट्ठ-त्रि०(अभिनिसृष्ट) बहिर्भागाऽभिमुखं निसृष्टे, अभिहुय-त्रि०(अभिद्रुत) अध्यवसायरूपेण व्याप्ते, सूत्र०१ श्रु० 3 अ०३ उ०। गर्भाऽऽधानादिदुःखैः पीडिते, सूत्र० 1 श्रु० जी०३ प्रति० रा० २अ०३ उ०। अभिणिसेहिया-स्त्री०(अभिनषेधिकी) निषेधःस्वाध्याय-व्यतिरेकेण सकलव्यापारप्रतिषेधः, तेन निर्वृत्ता नैषेधिकी। अभि आभिमुख्येन अभिधारण-न०(अभिधारण) प्रव्रज्यार्थमाचार्यादेर्मनसा संकल्पने, तच द्विधा- अनिर्दिष्टं, निर्दिष्टं च / अनिर्दिष्ट नाम अभिधारयन् संयतप्रायोग्यतया नैषधिकी अभिनषेधिकी। दिवा स्वाध्यायं कृत्वा रात्री कमप्याचार्य विशेषतो न निर्दिशति / स च अभि-धारको द्विधा- संज्ञी, प्रतिगन्तव्यायां वसतौ, व्य०१ उ०। (तद्गमनवक्तव्यता-ऽनन्तरमेव असंज्ञी च। पुनरेकैको द्विधा- गृहीतलिङ्गः, अगृहीतलिङ्गश्च / बृ०ा मनसि 'अभिणिसज्जा' शब्दे 715 पृष्ठे दर्शिता) करणे, बृ०३ उ०। व्य०। अभिणिस्सड-त्रि०(अभिनिस्सृत) बहिष्टान्निर्गते, ''बहिया अभिधेज-त्रि०(अभिधेय) अर्थे शब्दवाच्ये, यथा- घटशब्देन अभिणिस्सडओ पभासें ति" / भ०१४ श०६ उ०। घटोऽभिधीयते / विशे०ा नि०चू०। अभिणूमकड -त्रि०(अभिनूमकृत) आभिमुख्येन कर्मणा मायया वा कृते, अभिपवुट्ठ-त्रि०(अभिप्रवृष्ट) कृ तवर्षे, "वासावासे अभिपवुढे "अभिणूमकडेहिँ मुच्छिए, तिव्वं से कम्मेहिं किच्चती" | सूत्र०१ श्रु०२ बहवे पाणा" | आचा०२ श्रु०३ अ०१ उ०। अ०१ उ०। अभिप्पाइयणाम-न०(आभिप्रायिकनामन्) अभिप्रायतः क्रियमाणे अभिण्ण-त्रि०(अभिन्न) अविशीर्णे, उपा०२ अ० भिन्नशब्दा-ऽर्थविरुद्धे, नामनि, अनु। बृ०३ उ०। नि००। से किं तं अभिप्पाइयणामे ? अभिप्पाइयणामे अंबए निंबुए अभिण्णगंठि-पुं०(अभिन्नग्रन्थि) सकृदप्यनवाप्तसम्यग्दर्शने, पञ्चा०११ वकुलए पलासए सिणए पीलुए करीरए। से तं अभिप्पाइयनामे। विव०। इह यवृक्षादिषु प्रसिद्धम् 'अम्बक-निम्बक' इत्यादि नाम देशरूढ्या अभिण्णपुडो-(देशी)रिक्तपुटे ,शिशुभिः क्रीडया जनप्रलोभा-ऽर्थ स्वाभिप्रायानुरोधतो गुणनिरपेक्ष पुरुषेषु व्यव-स्थाप्यते, तदभिप्रायिक विपणिमार्गे रिक्ता पुटिका या क्षिप्यते, सैवमुच्यते। दे०ना० १वर्ग / स्थापनानामेति / भावाऽर्थः - तदेतत्स्थापना-प्रमाणनिष्पन्नं सप्तविधं अभिण्णाय (जाणिय)-अव्य०(अभिज्ञाय) ज्ञात्वेत्यर्थे, आचा० नामेति / अनु०॥ 1 श्रु०६ अ०१ उ०। बुद्धवेत्यर्थे, आचा० 1 श्रु०६ अ०६ उ०। अभिप्पाय-पुं०(अभिप्राय) मनोविकल्पे, विशे०। बुद्धिविपर्यये, आभिमुख्येन परिच्छिद्य इत्येतेषां शब्दानामर्थेषु, आचा० 1 श्रु० आ०म०वि०। बुद्धेरध्यवसाये, आ०म०प्र०ा चेतःप्रवृत्तौ, आचा०१ श्रु०४ 3 अ०१ उ०॥ अ०१ उ०। अभिप्रायश्चतुर्विधः - औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कर्मजा, अभिण्णायदंसण-त्रि०(अभिज्ञातदर्शन) सम्यक्त्वभावनया भाविते, पारिणामिकीत्यादिना / आ०चूठा संवि-ज्ञानमवगमो भावो-ऽभिप्राय आचा०१ श्रु०६ अ०१ उ०। इत्यनाऽन्तरम्। आ०म०प्र०। (अस्यच 'बुद्धि' शब्दे व्याख्या द्रष्टव्या) अभिण्णायार-पुं०(अभिन्नाचार) न भिन्नो न केनचिदप्यती- अभिप्पायसिद्ध-पुं०(अभिप्रायसिद्ध) बुद्धिसिद्धे, आ०म०। Page #910 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिप्यायसिद्ध 726 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अभिलाव साम्प्रतमभिप्रायसिद्ध प्रतिपादयन्नाह - "अभिमाणो माणो भण्णति' / नि०चू०१ उ०। ('इंदभूइ' शब्दे विपुला विमला सुहुमा, जस्स मई जो चउव्विहाए वा। द्वितीयभागे 544 पृष्ठे तदभिमानो द्रष्टव्यः) छुद्धीए संपन्नो, स बुद्धिसिद्धो इमा साय।। अभिमाणबद्ध-त्रि०(अभिमानबद्ध) अभिमानाऽऽस्पदे, सूत्र०१ श्रु० विपुला विस्तारवती, एकपदेनाऽनेकपदानुसारिणीति भावः। विमला 13 उ०। संशयविपर्ययाऽनध्यवसायमलरहिता, सूक्ष्मा अतिदुरवबोधसूक्ष्मव्यव- | अभिमार-पुं०(अभिमार) विशेषतोऽग्निजनके वृक्षविशेषे, उत्त०३ उ०। हितार्थपरिच्छेदसमर्था, यस्यमतिः स बुद्धिसिद्धः। यदिवा- यश्चतुर्विधया अभिमुह-त्रि०(अभिमुख) अभि भगवन्तं लक्ष्यीकृत्य मुखमस्येति औत्पत्तिक्याऽऽदिभेदभिन्नया बुद्ध्या संपन्नः स बुद्धिसिद्धः। आ०म०वि० ___ अभिमुखः। भगवतः संमुखे, रा०ा कृतोद्यमे, पा०। चं०प्र०ा ज्ञा०ा स्था०। आ०चू०। (अस्य कथा 'उप्पत्तिया शब्दे द्वितीयभागे 825 पृष्ठेद्रष्टव्या) सू०प्र०ा औ०। अभिप्पेय-त्रि०(अभिप्रेत) मनोविकल्पिते, विशे० आचा०। कामयति, अभियंद-पुं०(अभिचन्द्र) महाबलस्य राज्ञः स्वनामख्याते प्रियवयस्ये, दश०६ अ० अभिप्रेतविषये, संयोगे च / उत्त०१ अ० ('संजोग' ज्ञा०८ अ शब्देऽस्य विवृत्तिः) अभियावण्ण-त्रि०(अभ्यापन्न) आभिमुख्येन भोगाऽनु-कूल्येनाऽऽपन्नो अभिभव-पुं०(अभिभव) अभियोगे, आव०५ अ० पराजये, आचा० व्यवस्थितः। सावद्यानुष्ठानेषु प्रतिपन्ने, सूत्र०१ श्रु०४ अ०२ उ०॥ 1 श्रु०६ अ०२ उ०। आ०चू०। अभिभवो नामादिभेदतश्चतुर्धा / अभिरइ-स्त्री०(अभिरति) लोकेऽर्थादिभ्य आभिमुख्येन रतौ, विशे०। द्रव्याऽभिभवो रिपुसेनादिपराजयः, आदित्यतेजसा वा चन्द्रग्रहनक्षत्रा अभिरमंत-त्रि०(अभिरममाण) अभितो रतिं कुर्वाणे, "अभि-रममाणा दितेजोऽभिभवः / भावाऽभिभवस्तु परीषहोपसर्गाऽनीकजयात् तुट्ठा'। प्रश्न०१आश्रद्वा० ज्ञानदर्शनाऽऽवरणमोहाऽन्तरायकर्म-निर्दलनं, परीषहोपसर्गादिसेना- अभिराम-त्रि०(अभिराम) रम्ये, ज्ञा०१३ अ० औ०। अभि-रमणीये, विज्याद् विमलं चरणं, चरण-शुद्धेानावरणादिकर्मक्षयः, तत्क्षयात् चं०प्र०२०पाहु०। विपा०। रा०ा आ०म० स०। मनोज्ञे, ज्ञा०१७ अ०। निरावरणमप्रतिहत-मशेषज्ञेयग्राहि केवलमुपजायते / इदमुक्तं भवति- मनोहरे, कल्प०१क्ष। परीषहोपसर्गज्ञानदर्शनाऽऽवरणीयमोहाऽन्तरायाण्यभिभूय केवलमुत्पाद्य अभिरुइय-त्रि०(अभिरुचित) स्वादुभावमिवोपगते, भ०६ श०३३ उ०। तैरुपलब्धमिति। आचा० 1 श्रु० 1 अ० 4 उ०। अभिरूव-त्रि०(अभिरूप) अभि आभिमुख्येन सदाऽवस्थितानि रूपाणि अभिभविय-अव्य०(अभिभूय) जित्वेत्यर्थे, भ०६ श०३३उ०। राजहंसचक्रवाकसारसादीनि गजमहिषमृगयूथादीनि वा जलाऽन्त र्गतानि करिमकरादीनि वा यस्मिंस्तदभिरूपमिति। सूत्र०२ श्रु०१ अ०। अभिभूय-अव्य०(अभिभूय) आभिमुख्येन पीडयित्वेत्यर्थ , अभिद्रष्ट्रन् प्रति प्रत्येकमभिमुखमतीव चेतोहारित्वाद् रूपमाकारो यस्य सूत्र०२श्रु०१०। जित्वेत्यर्थे, प्रश्न०२ आश्र०द्वा०। पराजित्येत्थे, स अभिरूपः / रा०ा अभि सर्वेषां द्रष्ट्रणां मनःप्रसादाऽनुकूलतया सूत्र०१श्रु०६अ० दशा तिरस्कृत्येत्यर्थे च। आचा०१श्रु०५अ०६ उ०। अभिमुखं रूपं यस्य, तत् अभिरूपम् / अत्यन्तकमनीये, तं० जी०। * अभिभूत-त्रि०ा व्याप्ते, जं०२ वक्ष। तिरोहितशुभव्यापारे प्रज्ञा०। स्था०। अभिमतरूपे, विपा०१ श्रु०२ अ० ज०। द्रष्टारं द्रष्टारं च। आचा०१श्रु०३अ०१3०1 प्रत्यभिमुखं, न कस्यचिद् विरागहेतुरूपमाकारो यस्य सोऽभिरूपः / अभिभूयणाणि(ण)-पुं०(अभिभूयज्ञानिन्) अभिभूय परा- रा० अभिमुखमतीवोत्कट रूपमाकारो यस्य सः। सू०प्र०१ पाहु०। जित्य मत्यादीनि चत्वार्यपि ज्ञानानि, यद् वर्तते ज्ञानं केवला-ऽऽख्यं मनोज्ञरूपे, ज्ञा०१ अ०॥ उपा०।औ० भ०। अभि प्रतिक्षणं नवं नवमिव तेन ज्ञानेन ज्ञानी। केवलिनि, सूत्र०१ श्रु०६ उ०। रूपं यस्य तदभिरूपम् / आ०म०प्र०ा अनुसमयमहीयमानरूपे, स०) अभिमंतिऊण(अभिमंतिय)-अव्य०(अभिमन्त्र्य) मन्त्रपाठेन "अभिरुवं अभिरूवं पडिरूवं पडिरूवं पासादीयं पासादीयं" आचा० संस्कृत्येत्यर्थे, "रायगणे जे खंभा, अच्छति ते अभिमंतिय आगासेण 2 श्रु०४ अ०२ उ०। उप्पाइया'| आ०म०द्विता नि००। अभिलप्प-त्रि०(अभिलाप्य) कथनयोग्ये, प्रज्ञापनयोग्ये, आ० म०प्र० अभिमञ्जु-अव्य०(अभिमन्यु) "न्यण्योञ्जः" 14100305 // इति सूत्रका "जे पुण अभिलप्पा, ते दुविहा भवंति / तं जहा-पण्णवणिज्जा, अपण्णवणिज्जा य। तत्थ जे ते अपण्णवणिज्जा, तेसु विण चेव अहिगारो पैशाच्यां न्यण्योः स्थाने जो जातः / अर्जुनस्य सुभद्रायां अस्थि त्ति / जे पुण पण्णवणिज्जा भावा, ते केवलणाणेण पासिऊण जाते पुत्रे, प्रा०४ पाद। तित्थयरो तित्थकरनामकम्मोदएण सव्वसत्ताणं अणुग्गहनिमित्त अभिमय-त्रि०(अभिमत) इष्टे, सूत्र०२ श्रु०४ अ०। विशे०| भासति'।आ०चू०१ अ० अभिमयट्ठ-पुं०(अभिमतार्थ) अवधारितार्थे, ज्ञा०१ अ०॥ अभिलाव-पुं०(अभिलाप) अभिलप्यते आभिमुख्येन व्यक्तमुच्यते अभिमाण-पुं०(अभिमान) अभि- मन, भावे घञ् / आत्मनि अनेनार्थ इत्यभिलापः / वाचके शब्दे, तद्विषये संयोगे च / उत्त० उत्कर्षाऽऽरोपे, मिथ्यागर्वे, अर्थादिद,ज्ञाने, प्रलये, हिंसायांचा वाचा / १अ० आ०म०। विशे०। प्रज्ञा०। Page #911 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिलावपावियट्ट 727 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अभिवड्डमाण अभिलावपावियट्ठ-पुं०(अभिलापप्लावितार्थ) शब्द-संसृष्टेऽर्थे, कर्म०६ 62 / एतदभिवर्द्धितसंवत्सरपरिमाणम् / तत्र त्रयाणां अहोरात्रशतानां कर्म। त्र्यशीत्यधिकानां द्वादशभिर्भागे हृते लब्धा एकत्रिंशदहोरात्राः, अभिलावपुरिस-पुं०(अभिलापपुरुष) अभिलप्यतेऽनेनेति अभिलापः शेषास्तिष्ठन्त्येकादश / ते मुहूर्तकरणार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि शब्दः, स एव पुरुषः पुंलिङ्गतयाऽभिधानात्। पुरुष-भेदे, यथा- घटः त्रिंशदधिकानि त्रीणि शतानि 330 / येऽपि च चतुश्चत्वारिंशद्वाषष्टिभागा कुटोवेति। आह च- अभिलायो पुंलिंगाऽभि-हाणमेत्तं, घडो व्व। स्था०३ रात्रिन्दिवस्य, तेऽपि मुहूर्तकरणार्थ विंशता गुण्यन्ते, जातानि ठा०१उ०। आ०चू०विशेला आ०म०) त्रयोदशशतानि विंशत्यधिकानि 1320 // तेषां द्वाषष्ट्या भागो हियते, अभिलास-पुं०(अभिलाष) इच्छायाम्, स्था० 5 ठा० 2 उ०। लब्धा एकविंशतिर्मुहूर्ताः, शेषास्तिष्ठन्त्यष्टादश / तत्रैकविंशतिमुहूर्ता लब्धेऽप्यधिकतरस्य वाञ्छायाम, स्था० 4 ठा० 3 उ०। यदिद-महं मुहूर्तराशौ प्रक्षिप्यन्ते, जातानि मुहूर्तानां त्रीणि शतान्येकपञ्चाप्राप्नोमि, ततो भव्यं भवतीत्याद्यक्षराऽनुविद्धायां प्रार्थनायाम, नं० शदधिकानि 351 / एतेषां द्वादशभिर्भागो हियते, लब्धा एकोनत्रिंशत् ममैवंरूपं वस्तु पुष्टिकारि, तद्यदीदमवाप्यते, ततः समीचीनं भवतीत्येवं मुहूर्ताः, शेषास्तिष्ठन्ति त्रयः। ते द्वाषष्टि-भागकरणार्थ द्वाषष्ट्या गुण्यन्ते, शब्दार्थोल्लेखानुविद्धे स्वपुष्टिनिमित्तभूतप्रति नियतवस्तुप्राप्त्य- जातं षडशीत्यधिकं शतम् 186 / ततः प्रागुक्ताः शेषीभूता ध्यवसाये, नं०। आ०म०ा दृष्टषु शब्दादिषु भोगेच्छायाम, ज्ञा० अ० मुहूर्तस्याऽष्टादश द्वाषष्टिभागाः प्रक्षिप्यन्ते, जाते द्वे शते चतुरुत्तरे 204 / अभिवड्डिय-त्रि०(अभिवर्द्धित) मासभेदे, संवत्सरभेदे च / तयोदशभिर्भागो ह्रियते, लब्धा मुहूर्तस्य सप्तदश द्वाषष्टिभागाः / (ता स्था०। तत्र एकत्रिंशद् दिनानि, एकविंशत्युत्तरशतं चतुर्विशति से णमित्यादि) ता इति पूर्ववत् / सोऽभिवर्द्धितमासः कियान उत्तरशतभागानामभिवर्द्धितमासः, एवं विधेन मासेन द्वादश मुहूर्ताऽग्रेणाऽऽख्यात इति वदेत् ? भगवानाह- (ता नवेत्यादि) नव प्रमाणोऽभिवर्द्धितसंवत्सरः / स च प्रमाणेन त्रीणि शतान्यहां मुहूर्तशतानि एकोनषष्ट्यधिकानि 656 / सप्तदश च मुहूर्तस्य त्र्यशीत्यधिकानि चतुश्चत्वारिंशच द्विषष्टिभागाः, 383, द्वाषष्टिभागाः / तथाहि- एकत्रिंशदप्यहोरात्राः त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि 44/62 / स्था० 5 ठा०३ उ०। बृ०ा कल्प० स०। चं० प्र०। व्यः। नवशतानि त्रिंशदधिकानि मुहूर्तानाम् / तत उपरितना एकोनत्रिंशत् यस्मिन् संवत्सरे अधिकमाससंभवेन त्रयोदश चन्द्रमासा भवन्ति, मुहूर्तास्तत्र प्रक्षिप्यन्ते, जातानि मुहूर्तानामे कोनषष्ट्यधिकानि सोऽभिवर्द्धितसंवत्सरः। उक्तंच- "तेरस यचंदमासा, एसो अभिवडिओ नवशतानि / (ता एएसि णमित्यादि) प्राग्वद् व्याख्येयम् / (ता से उनायव्वो"। जं०२ वक्ष णमित्यादि) रात्रिंदिवप्रश्नसूत्रं सुगमम्। भगवानाह- (ता तिण्णीत्यादि) ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं पंचमस्स अभिव त्रीणि रात्रिंदिवशतानि त्र्यशीत्यधिकानि एकविंशतिमुहूर्ता एकस्य च ड्डियसंवच्छरस्स अभिवड्डियमासे तिसतीमहत्तेणं अहोरत्तेणं मुहूर्तस्याऽष्टादश द्वाषष्टिभागा रात्रिंदिवाऽग्रेणाऽऽख्याता इति वदेत् / गणिजमाणे के वइयराइंदियग्गेणं आहिए ? ता एकतीसं तथाहि- एक त्रिंशद् अहो-रात्रो द्वादशभिगुण्यन्ते, जातानि राइंदियाइं एगुणतीसं च मुहुत्ता सत्तरस-बावट्ठिभागे मुहुत्तस्स त्रीणि शतानि द्विसप्तत्यधिकानि रान्दिवानाम्, 372 / तत एकोनत्रिंशत् राइंदियग्गेणं आहितेति वदेज्जा / ता से ण केवइए मुहुत्तग्गेणं मुहूर्ता द्वादशभिर्गुण्यन्ते, जातानि त्रीणि शतानि अष्टाचत्वारिंशदआहिता? ता णव एगुणसट्टे मुहुत्तसते सत्तरस य बावट्ठिभागे धिकानि, 348 | तेषामहोरात्रकरणार्थं त्रिंशता भागो हियते, लब्धा मुहुत्तस्स मुहुत्तग्गेण आहिता। ता एतेसि णं अद्धा दुवालस एकादश अहोरात्राः, अष्टादश तिष्ठन्ति। येऽपि च सप्तदश द्वाषष्टिभागाः खुत्तकडा अभिवड्डीए संवच्छरे। ता सेणं केवइय राइंदियग्गेणं मुहूर्तस्य, तेऽपि द्वादशभिर्गुण्यन्ते, जाते द्वे शते चतुरुत्तरे, 204 / ततो आहिता ति वदेजा? ता तिण्णि तेसीए राइंदियसते एक्कवीसंच द्वाषष्ट्या भागो ह्रियते, लब्धास्त्रयो मुहूर्ताः, ते प्राक्तनेषु अष्टादशसु मध्ये मुहुत्ते अट्ठारसबावट्ठिभागे मुहुत्तस्स राइंदियग्गेणं आहिया ति प्रक्षिप्यन्ते, जाता एकविंशतिर्मुहूर्ताः / शेषाः तिष्ठन्ति अत्यष्टादश वदेजा / ता से णं केवतियमुहत्तग्गेणं आहिता ति वदेज्जा ? ता द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्य। (ता सेणमित्यादि) प्रश्नसूत्रं सुगमम्। भगवानाहएक्कार-मुहुत्तसहस्सा पंचए एक्कारे मुहुत्ते सते अट्ठारस य (एक्कारसेत्यादि) एकादश मुहूर्तसहस्राणि पञ्च मुहूर्त्तशतानि बावट्ठिभागे मुहुत्तस्स मुहुत्तग्गेणं आहिता ति वदेजा। एकादशाऽधिकानि अष्टादश च द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्येति 'ता एएसि णं, इत्यादि पञ्चमाभिवर्द्धितसंवत्सरविषयं प्रश्न मुहूर्ताऽग्रेणाऽऽभिवतिसंवत्सर आख्यात इति वदेत् / तथाहिसूत्र सुगमम्। भगवानाह- (एक्कतीसमित्यादि)ता इति पूर्ववत्। एकत्रिंशद् अभिवर्द्धितसंवत्सरस्य परिमाणं त्रीण्यहोरात्रशतानि त्र्यशीत्यधिकानि रात्रिन्दिवानि, एकोनत्रिंशच मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तदश एकविंशतिर्मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्त्तस्याऽष्टादश द्वाषष्टिभागास्तत्र द्वाषष्टिभागा रात्रिन्दिवाऽग्रेणाऽऽख्याता इति वदेत् / तथाहि एकै कस्मिन् रात्रिं-दिवे त्रिंशद् मुहूर्ता इति त्रीण्यहोरात्रशतानि त्रयोदशभिश्चन्द्रमासैरभिवर्द्धितसंवत्सरः / चन्द्रमासस्य च त्र्यशीत्यधिकानि त्रिंशता गुण्यन्ते, गुणयित्वा चोपरितना परिमाणमेकोनत्रिंशत् रात्रिंदिवानि, एकस्य च रात्रिन्दिवस्य द्वात्रिंशद् एकविंशतिर्मुहूर्तास्तत्र प्रक्षिप्यन्ते, ततो यथोक्ता मुहूर्तसंख्या भवतीति। द्वाषष्टिभागाः। 26,32/62 / एतत् त्रयोदशभिर्गुण्यते, ततो यथासंभवं चं० प्र०१२ पाहु०। नि०चूला ज्यो० ज०। (अवशेषा वक्तव्यता "मास' द्वाषष्टिभागः रात्रिन्दिवेषु कृतेषु जातमिदं त्रीण्यहो रात्रशतानि 'संवच्छर' शब्दयोः करिष्यते) त्र्यशीत्यधिकानिचतुश्चत्वारिंशच द्वाषष्टिभागा अहोरात्रस्य,३८३,४४/ | अभिवड्डेमाण-त्रि०(अभिवर्द्धयत्) अभिवृद्धिं कुर्वाणे, जं०७ वक्ष Page #912 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिवायण ७२८-अभिधानराजेन्द्रः-भाग 1 अभिसमेच अभिवायण-न०(अभिवादन) वाङ्नमस्कारे, दश०२ चू०। उत्त०। अभिसंजाय-त्रि०(अभिसंजात) पेशीं यावदुत्पन्ने, आचा० 1 श्रु०६ पादयोः प्रणिपतने, तं०। कायेन प्रणिपाते, संथा०आचा अ०१ उ०। अभिवायमाण-त्रि०(अभिवादयत्) अभिवादने कुर्वाणे, आचा० | अभिसंधारण-न०(अभिसंधारण) पर्यालोचने, आचा०१ श्रु० 1 श्रु०६ अ० 1 उ० ६अ०१उ०। अभिवाहरणा-स्त्री०(अभिव्याहरणा) संशब्दनायाम्, पञ्चा०२ विव०। अभिसंधिय-त्रि०(अभिसंधित) गृहीते, आचा०१ श्रु० 4 अ०२ उ० अभिवाहार-पुं०(अभिव्याहार) अभिव्याहरणमभिव्याहारः / अभिसंभूय-त्रि०(अभिसंभूत) यावत्कललं तावदभिसंभूताः। आचा०१ कालिकादिश्रुतविषये उद्देशसमुद्देशादौ, आलोचनादिषु अष्टमे नये, श्रु०६ अ०१ उ०। प्रादुर्भूत, आचा०२ श्रु०३ अ०१ उ०॥ विशे० आ०म० अधुना चरमद्वारं व्याचिख्यासुराह - अभिसंवड-त्रि०(अभिसंवृद्ध)धर्मश्रवणयोग्यावस्थायां वर्तमाने, आचा० अभिवाहारो कालिय- सुयस्स सुत्तत्थतदुभएणं ति। 1 श्रु०६ अ० 1 उ०। दव्वगुणपज्जदेहि य, दिट्ठीवायम्मि बोधव्वे // अभिसंवुड-त्रि०(अभिसंबुद्ध) धर्मकथादिकं निमित्तमासाद्यो अभिव्याहरणं शिष्याचार्ययोः वचनप्रतिवचने अभिव्याहारः। स च पलब्धपुण्यपापतया ज्ञाते, आचा०१ श्रु०६ अ०१ उ०। कालिक श्रुते आचारादौ, (सुत्तत्थतदुभएणं ति) सूत्रतोऽर्थतः / अभिसमन्नागय-त्रि०(अभिसमन्वागत) अभिराभिमुख्येन सम्यगिष्टातदुभयतश्च / इयमत्र भावना-शिष्येण इच्छाकारेणेदमङ्गाऽऽद्युद्दिशस्वे- निष्टावधारणतया अन्विति शब्दादिस्वरूपाऽपगमात् पश्चादागतो ज्ञातः त्युक्ते सति इच्छापुरस्सरमाचार्यवचनम् - 'अहमस्य साधोरि- परिच्छिन्नः / आचा०१ श्रु०३ अ०१ उ०। प्रज्ञा०। आभिमुख्येन दमङ्गमध्ययनमुद्देशं वा उद्दिशामि' वदामीत्यर्थः / आप्तोपदेशपारम्प- व्यवस्थिते, सूत्र०२ श्रु०१ अ आचातापरिभोगत उपभोग प्राप्ते, ज्ञा०२ र्यख्यापनार्थं क्षमाश्रमणानां हस्तेन सोत्प्रेक्षया सूत्रतोऽर्थतस्तदुभयतो श्रु०। विशेषतः परिच्छिन्ने, भ०५ श०४ उ० मिलिते, भ०१५ श०१ वाऽस्मिन् कालिकश्रुते। अथोत्कालिके दृष्टिवादे कथम् ? इत्यत आह- उ०। अभिविधिना, सर्वाणीत्यर्थः / समन्वागतानि संप्राप्तानि जीवेन द्रव्यगुणपर्यायैश्च दृष्टिवादे बोद्धव्योऽभिव्याहारः / एतदुक्तं भवति- रसानुभूति समाश्रित्य। भ०१२ श० 4 उ०। उदयाऽऽवलिकायामागतेषु, शिष्यवचनानन्तरमाचार्यवचनम् -"इदमुद्दिशामि सूत्रतोऽर्थतस्तदुभयतो भ०१३ श०७ उ०ा भोग्यावस्थां गतेषु, स्था०४ ठा०३ उ०) द्रव्य-गुणपर्यायैरनन्तरमङ्गसहितैरिति / एवं गुरुणा समादिष्टऽभिव्याहारे अभिसमागम-पुं०(अभिसमागम) अभीत्यर्थाभिमुख्येन, न तु शिष्याऽभिव्याहारः। शिष्यो ब्रवीति- 'उद्दिशस्वेदं मम, इच्छाम्यनुशासनं विपर्यासरूपतया समिति सम्यक् , न संशयतया तथा / आमर्यादया क्रियमाणं पूज्यैरिति / एवमभिव्याहारद्वारमष्टमं नीतिविशेषनये।। गमनमभिसमागमः। वस्तुपरिच्छेदे, स्था०। आ०म०प्र० तिविहे अभिसमागमे पन्नत्ते / तं जहा-उड्ढ अहं तिरियं / जया अभिविहि-पुं०(अभिविधि) सामस्त्ये, पञ्चा०१५ विव०। आ०म०। णं तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अइसेसे णाणदंसणे अभिवुड्डि-पुं०(अभिवृद्धि) अहिर्बुध्नापरनामके उत्तरभाद्रपद-नक्षत्रे, समुप्पज्जइ, सेणं तप्पढमयाए उड्डमभिसमेइ, तओ तिरियं, तओ जं०७ वक्षा पच्छा, अहे अहोलोगेणं दुरभिगमे पन्नत्ते समणाउसो!। अभिवुड्डित्ता-अव्य०(अभिवi) अभिवृद्धिं कारयित्वेत्यर्थे, सू०प्र०१ (अइसेस त्ति) शेषाणि छद्मस्थज्ञानान्यतिक्रान्तमतिशेषं ज्ञानदर्शनं, पाहु तच परमावधिरूपमिति सम्भाव्यते, केवलस्य न क्रमेणोपयोगः, येन तत्प्रथमतयेत्यादि सूत्रमनवद्यं स्यादिति / तस्य ज्ञानादेरुत्पादस्य अभिव्वंजण-न०(अभिव्यञ्जन) स्वरूपतः प्रकाशने, सूत्र०१ श्रु०१ प्रथमता तत्प्रथमता, तस्याः (उर्दू ति) ऊर्ध्व लोकमभिसमेति अ०१ उ०। समभिगच्छति जानाति। ततस्तिर्यगिति तिर्यग्लोकं, ततस्तृतीये स्थाने अभिसंका-स्त्री०(अभिशङ्का) तथ्याऽनिर्णये, सूत्र०२ श्रु०६अ।स्था०। अध इत्यधोलोकमभिसमेति / एवं च सामर्थ्यात्प्राप्तमधोलोको ''भूयाऽभिसंकाइ दुगुंछमाणे, ण णिव्वहे मंतपदेण गोयं" भूतेषु प्राणिषु दुरभिगमः, क्रमेण पर्यन्ताऽधिगम्यत्वादिति / हे श्रमणायुष्मन् ! इति अभिशङ्का उपमर्दशङ्का, तयाऽऽशीर्वादं सावा, जुगुप्सां वा न ब्रूयात्। गौतमा-ऽऽमन्त्रणमिति। स्था०३ ठा०४ उ०] सूत्र०१श्रु०१४ अ०। अभिसमागम्म-अव्य०(अभिसमागम्य)अभिराभिमुख्ये, समेकीभावे, अभिसंकि (ण)-त्रि०(अभिशङ्किन) "उज्जू माराऽभिशंकी मरणा आङ्-मर्यादाऽभिविध्योः / गम्लु-सृप्ल-गतौ, सर्व एव गत्यर्था ज्ञानार्था पमुचति' / मरणंमारः, तदभिशङ्की मरणादुद्विग्नः, तत्करोतियेन मरणात् ज्ञेयाः। आभिमुख्यं सम्यग्ज्ञात्वेत्यर्थे, "एवं अभिसमागम्मचित्तमादाय प्रमुच्यते। आचा०१ श्रु०३ अ०१ उ०१ आउसो' / दश०५ अध्या०। आचा०। अभिसं(स्संग-पुं०(अभिष्वङ्ग)भावरागे, विशे०। अध्युपपत्ती, स्था०३ | अभिसमेच-अव्य०(अभिसमेत्य) आभिमुख्ये न सम्यगित्वा ठा०४ उ०) ज्ञात्वा / आचा०१ श्रु०३ अ०३ उ०) आभिमुख्येन सम्यक् Page #913 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिसमेच्च 729 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अभिसेग परिच्छिद्यपृथक् प्रवेदितं वा।आचा० 1 श्रु० 4 अ०२ उ०। अवगम्येत्यर्थे, स्था०६ ठा०ा आचा०ा समधिगम्य अवबुध्य, इत्यर्थे, अभिसमेत्य धर्म यावत्केवलित्वमुत्पादयेत् / 'धर्मोपादेयतां ज्ञात्वा, संजातेच्छोऽत्र भावतः / दृढं स्वशक्तिमालोच्य, ग्रहणे संप्रवर्तते" ||1|| स्था० 2 ठा० 1 उ०। अभिसरण-न०(अभिसरण) आपेक्षिकसंमुखाऽभिगमने, प्रश्न० 1 आश्र०द्वारा अभिसरित-त्रि०(अभिसरित) रत्यर्थं सङ्केतस्थलं प्रापिते, आचा०१ श्रु०२ अ०५ उ०। अभिसव-पुं०(अभिषव) अनेकद्रव्यसन्धाननिष्पन्नसुरासौवीरकादौ मांसप्रकारखण्डादौ सुरामध्वाद्यभिष्यन्दिद्रव्ये, द्रव्योपयोगे च। अयं च सावद्याऽऽहारवर्जकस्यानाऽभोगाऽति-क्रमादिनाऽतिचारः। प्रव०६द्वार। अभिसित्त-त्रि०(अभिषिक्त) कृताऽभिषेके जाताऽभिषेके, "अणेण अमयकलसेण अभिसित्तो अब्भहियं सोभितुमाढत्तो' आ० म०प्र० अभिसेग-पुं०(अभिषेक) शुक्रशोणितनिषेकाऽऽदिक्रमे, आचा०१ श्रु०६ अ०१ उ०। सर्वोषधिसमुपस्कृततीर्थोदकैः राज्याधिष्ठातृत्वादिप्राप्त्यर्थ मन्त्रोचारणपूर्वकं तद्योग्यशिरसो-ऽभ्युक्षणम् / संथा०) तत्रेन्द्राणामभिषेक इत्थम् - जेणामेव अभिसेयसभा तेणामेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता अमिसेयसभं अणुपयाहिणं करेमाणे पुरच्छिमिल्लेणं दारेणं अणु पविसति, अणुपविसित्ता जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छति, तेणेव उवागच्छित्तासीहासणवरगते पुरच्छाभिमुहे सण्णिसण्णे / तए णं तस्स विजयस्स देवस्स सामाणियपरिसोववण्णागा देवा आभिओगीए देवे सद्दावेति, सहावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! तुडमे विजयस्स देवस्स महत्थं महग्धं महरिहं विपुलं इंदाभिसेयं उवट्ठवेह / तए णं ते आभिओगिया देवा सामाणियपरिसोववण्णएहिं देवेहिं एवं उत्ता समाणा हट्ठ० जाव हियया करतल-परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु एवं देवा० तह त्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता उत्तरपुरच्छिमं दिसीभागं अवक्कमंति, अवक्कमित्ता वेउब्वियसमुग्धाएणं समोहणंति, समोहणेत्ता संखिज्जाइं जोयणाई दंडणिसरंति, णिसरित्ता तावइयाई पोग्गलाइं गेण्हइ / तं जहा- रयणाए० जाव रिट्ठाणं अहाबायरे पोग्गले परिसाडेंति, परिसाडित्ता अहसहमे पोग्गले परितायंति, परित्ताइत्तादोचं पि विउव्वियसमुग्घाएणं समोहणंति, समोहणित्ता अट्ठसयं सोवणियाणं कलसाणं,अट्ठसतं रुप्पमयाणं कलसाणं, अट्ठसयं मणिमयाणं कलसाणं, अट्ठसयं सुवण्णरुप्पमयाणं | कलसाणं, अट्ठसहस्सं सुवण्ण-मणिमयाणं कलसाणं, अट्ठसयं रुप्पमणियाणं कलसाणं, अट्ठसयं सुवण्णरुप्पमणिमयाणं कलसाणं, अट्ठसयं भूमियाणं कलसाणं अट्ठसयं भिंगाराणं कलसाणं, एवं आयंसगाणं थालाणं पातीणं सुपतिट्ठकाणं चित्ताणं रयणकरंडगाणं पुप्फचंगेरीणं० जाव लोमहत्थचंगेरीणं पुप्फपडलगाणं० जाव लोमहत्थपडलगाणं अट्ठसयं सीहासणाणं छत्ताणं चामराणं अवपडगाणं वट्टकाणं सिप्पीणं खोरकाणं पीणगाणं तेलसमुग्गकाणं अट्ठसहस्सं धूवक डुत्थकाणं विउव्वंति / तेसा भावियए विउव्विए य कलसे य० जाव धूवकडुत्थए य गेण्हंति, गेण्हित्ता, विजयाओ रायहाणीओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ताताए उक्किट्ठाए० जाव उद्घत्ताए दिव्वाए देवगतीए तिरियमसंखेजाणं दीवसमुदाणं मज्झमज्झेणं वीयीवयमाणा वीयीवयमाणा जेणेव खीरोदे समुद्दे तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता खीरोदगं गेण्हंति, खीरोदगं गेण्हित्ताजाइंतत्थ उप्पलाइं० जाव सय-सहस्सपत्ताइं गेण्हंति, ताइं गेण्हित्ता जेणेव पुक्खरोदे समुद्दे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पुक्खरोदगं गेण्हंति, पुक्खरोदगं गेण्हित्ता जाई तत्थ उप्पलाइं० जाव सतसहस्सपत्ताइंगेण्हंति, ताई गेण्हित्ता जेणेव समयखेत्ते जेणेव भरहेरवयाइवासाइंजेणेव मागधवरदामप्पभासाइं तित्थाई तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता तित्थोदगं गेहंति, तित्थोदगं गिण्हेत्ता तित्थमट्टियं गेण्हति, तित्थमट्टियं गेण्हित्ता जेणेव गंगासिंधुरत्तवतीओ सलिलाओ तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता सरितोदगं गेण्हंति, सरितोदगंगेण्हित्ता उपयोतडमट्टियं गेहंति, तडमट्टियं गेण्हित्ता जेणेव चुल्लहिमवंतसिहरिवासपव्वता तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता सव्वतुवरे य सव्वपुप्फे य सव्वगंधे य सव्वमल्ले य सव्वोसहि सिद्धत्थए य गेण्हंति, गेण्हित्ता जेणेव पउमद्दहं पुंडरियहहा तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता, दहोदगं गेण्हंति, दहोदगं गेण्हित्ता जाई तत्थ उप्पलाइं० जाव सतसहस्सपत्ताई गेण्हंति, ताई गेण्हित्ता जेणेव हेमवतेरण्णवयाइं वासाइं जेणेव रोहिया रोहियातंसा सुवण्णकू लरुप्पकू लाओ तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता सलिलोदगं गेहंति, सलिलोदगंगेण्हित्ता उभयो तडमट्टियं गेण्हंति, उभयो तडमट्टियं गेण्हित्ता जेणेव सद्दावतिवियडावतिमालवंतपरियागावदृवेयड्नुपव्वता तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता सव्वत्तुवरे य० जाव सव्वोसहिसिद्धत्थए य गेण्हंति, सिद्धत्थए गेण्हित्ता जेणेव महाहिमवंतरुप्पिवाससहरपव्वते तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता सव्वपुप्फे० तं चेव० जेणेव महापउमद्दहमहापुंडरीयद्दहा तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता जाई तत्थ उप्पलाई तं चेव० जेणेव हरिवासरम्मगवासाइं जेणेव हरिकांताओ सलिलाओ नरगंताओ तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता सलिलोदगं गेण्हंति, सलिलोदगं गेण्हित्तातंचेव० Page #914 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिसेग ७३०-अभियानराजेन्द्रः- भाग 1 अभिहड ..... जेणेव वियडावतिगंधावति० वट्टवेयजपव्वया तेणेव उवागच्छंति, | अभिसेग(य)भंड-न०(अभिषेकभाण्ड) अभिषेकयोग्ये उपस्करे, रा०। तेणेव उवागच्छित्ता सवपुप्फे य, तं चेव० जेणेव जी णिसढणीलवंतवासहरपव्वता तेणेव उवागच्छंति, तेणेव अभिसेग(य)समा-स्त्री०(अभिषेकसभा)अभिषेकाऽर्थसभायाम, उवागच्छित्ता सव्वत्तुवरे य, तं चेव० जेणेव तिगिच्छिद्दहं / यस्यां राज्याऽभिषेकेणाऽभिषिच्यते। स्था०५ठा०३ उ०। केसरिवहं तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता दहोदगं अभिसेगसिला-स्त्री०(अभिषेकशिला) तीर्थकराणामभिषेकाऽर्थगेण्हंति, दहोदगं गेण्हित्ता तं चेव० जेणेव पुव्वविदेह शिलायाम्, स्था०। अवरविदेहवासाणि जेणेव सीयासीओयामहानईओ जहा जंबू ! मंदरपव्वयपंडुगवणे चत्तारि अभिसेगसिलाओ नईसु जेणेव सव्वचक्कवट्टिविजया जेणेव विदेहाऽवरविदेहवासाइं जेणेव सव्वमागहवरदामपभासाइं तित्थाइं जेणेव पण्णत्ताओ। तं जहा-पंडुकंबलसिला, अतिपंडुकंबलसिला, सव्वंतरणदीओ० सलिलोदगं गेण्हंति, सलिलोदगं गेण्हित्तातं रत्तकंबलसिला, अतिरत्तकंबलसिला। चेव० जेणेव सव्ववक्खारपव्वता० सव्वत्तुवरे य, तं चेव० जेणेव अभिषेकशिला चूलिकायाः पूर्वदक्षिणाऽपरोत्तरासु दिक्षु क्रमेणाऽवगम्या मंदरे जेणेव भद्दसालवणे तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता इति। स्था० 4 ठा०२ उ०। सव्वत्तुवरे य० जाव सव्वोसहि-सिद्धत्थए य गेण्हंति, गेण्हित्ता अभिसेगा-स्त्री०(अभिषेका) गच्छमहत्तरिकायाम, नि०चू० उ० जेणेव नंदणवणे तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता प्रवर्तिनी आगमपरिभाषयाऽभिषेकेत्युच्यते, ध०३ अधि०। भिक्षुक्यां सव्वत्तुवरे य० जाव सव्वोसहिसिद्धत्थएय सरसंच गोसीसचंदणं च नि०चू० 15 उ०। गेहंति, गेण्हित्ता जेणेव सोमणसवणे तेणेव उवागच्छंति, तेणेव अमिसेज्जा-स्त्री०(अभिशय्या) अभिनिषद्यायाम, व्य० 1 उ०॥ यस्यां उवागच्छित्ता सव्वत्तुवरे य० जाव सव्वोसहिसिद्धत्थए य सरसं नषेधिक्यां दिवा निशायां वा स्वाध्यायं कृत्वा रात्रिमुषित्वा च गोसीसचंदणं दिव्वं च सुमणदामंगेण्हंति, सुमणदामं गेण्हित्ता प्रातर्वसतिमुपयान्ति / व्य०१ उ०॥ जेणेव पंडुगवणे तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता अभिस्सगं-पुं०(अभिष्वङ्ग) गेहादिष्वभिलाषे, पं०व०। सटवत्तुवरे य० जाव सव्वोसहि-सिद्धत्थए य सरसं च जो एत्थ अभिस्संगो, संतासंतेसु पावहेतु ति। गोसीसचंदणं दिव्वं च सुमणदामं गेण्हंति, सुमणदामं गेण्हित्ता अट्टज्झाणविअप्पो,.......... जेणेव पंडुगवणे तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता सव्वत्तुवरे य० जावसव्वोसहिसिद्धत्थए य सरसंच गोसीसचंदणं लोकेऽभिष्वङ्गो मू लक्षणः सदसत्सु गेहादिषु पापहेतुरिति दिव्वं च सुमणदामं ददरमलयसुगंधिगंधिए य गंधे गेण्हंति, पापकारणमार्तध्यानविकल्पः। अशुभध्यानभेदोऽभिष्वङ्गः। पं०व०१ गेण्हित्ता एगतो मिलं ति, एगतो मिलित्ता जंबूदीवस्स द्वारा पञ्चा पुरच्छिमिल्लेणं दारेणं णिग्गच्छंति, पुरच्छिमिल्लेणं दारेणं अमिहटु-अव्य०(अभिहृत्य) बलात्कृत्वेत्यर्थे, ''सेवं वदंतस्स परो णिग्गच्छित्ता ताए उक्किट्ठाए० जाव दिव्वाए देव-गतीए अभिहटु अंतोपडिग्गहंसि बहुअट्टियं मंसंपरिभाएत्ता णिहट्टदलएजा''। तिरियमसंखेजाणं दीवसमुद्दाणं मज्झं मज्झेणं वीतीवयमाणा आचा०२ श्रु०१ अ०१० उ०॥ जेणेव विजयारायहाणी तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता अभिहड-न०(अभिहृत) अभि-साध्वभिमुखं हृतमानीतं स्थानाऽन्तराविजयं रायहाणिं अणुप्पयाहिणं करेमाणे करेमाणे जेणेव दभिहृतम् / अभ्याहृते, पञ्चा० 13 विव०। साधुदानाय स्वग्रामात् अभिसेयसभा जेणेव विजयदेवे तेणेव उदागच्छंति, तेणेव परग्रामाद्वा समानीते एकादशोद्गमदोषदुष्टे, पिं० उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं अथाऽभ्याहृतद्वारमाहकटु जएणं विजएणं बद्धार्वति, बद्धावित्ता विजयस्स देवस्स आइन्नमणाइन्नं, निसीहमनिसीहयं अभिहडं वा। तं महत्थं महग्धं महरिहं विपुलं अभिसेयं उवट्ठति। तत्थ निसीहानीयं, ठप्पं वोच्छामि नोनिसीहं तु // टीका पाठसिद्धा / जी०३ प्रति०। राधा औ०। जंo आचार्य- अभ्याहृतं द्विविधम्। तद्यथा-आचीर्णम्, अनाचीर्णं च। तत्रा-ऽनाचीर्ण पदेऽभिषिक्तो यः सोऽभिषेकः / नि०चू०१५ उ०। सूत्राऽर्थतदुभयोपेते द्विधा / तद्यथा- निशीथाऽभ्याहृतं, नोनिशीथाऽभ्याहृतं च / तत्र आचार्ये, व्य०१ उ०। आचार्यपदस्थापनाऽर्ह, बृ०३ उ०। उपाध्याये, निशीथमर्द्धरात्रं, तत्राऽऽनीतं किल प्रच्छन्नं भवति, यत्र साधूनामपि जीता गणावच्छेदके, नि०चू०१५ उ०॥ यदविदितमभ्याहृतं तन्निशीथाऽभ्याहृतम्। तद्विपरीतं नोनिशीथाऽभ्याअभिसे गजलपूयप्प(ण)-पुं०(अभिषेकजलपूताऽऽत्मन्) हृतम् / यत्साधूनामभ्याहृतमिति विदितं भवति। तत्र निशीथाऽभ्याहृतं अभिषेकतो जलेन पवित्रित आत्मा यैस्ते तथा / तथाविध- स्थाप्यम्। अग्रे वक्ष्यत इति भावः। संप्रति पुनर्वक्ष्यामि नोनिशीथाऽभ्याजलचोक्षेषु वानप्रस्थेषु, औ०। हृतमिति। प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति - अभिसे गपेढ-पुं०(अभिषेकपीठ) न०अभिषेकमण्डपाऽन्तर्गते सग्गामपरग्गामे सदेसपरदेसमेव बोधव्वं / अभिषेकसिंहासनाधिष्ठाने पीठे, जं०३ वक्षन दुविहं तु परग्गामे, जलथल नावोडुजंघाए / Page #915 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिहड 731 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अभिहड नोनिशीथाऽभ्याहृतं द्विविधम्। तद्यथा- स्वग्रामे स्वग्रामविषयं, परनामे परग्रामविषयम् / तत्र यस्मिन् ग्रामे साधुर्निवसति स किल स्वग्रामः / शेषस्तु परग्रामः। तत्र परग्रामे परग्रामविषयमभ्याहृतं द्विविधम्। तद्यथास्वदेशं परदेशं च / स्वदेशं स्वग्रामाऽभ्याहृतं, परदेशं परग्रामाऽभ्याहृतं चेति / तत्र स्वदेशो यत्र देशमण्डले साधुर्वर्तते, शेषस्तु परदेशः / एतद् द्विविधमपि प्रत्येक द्विधा / तद्यथा- (जलथल त्ति) सूचनात् सूत्रमिति कृत्वा जलपथेनाऽभ्याहृतं, स्थलपथेनाऽभ्याहृतं च / तत्र जलपथेनाऽभ्याहृतं द्विधा- नावा, उडुपेन च / उपलक्षणमेतत् / तेन स्तोकजल-संभावनायां जडाभ्यामति / तत्र नौस्तारिका, उडुपं तरणकाष्ठम् / तुम्बकादि वोडु पग्रहणेन गृहीतं द्रष्टव्यम् / स्थलपथेनाऽप्यभ्याहृतं द्विधा / तद्यथा- जङ्घया, पद्भ्याम् / उपलक्षणमेतत् / तेन गन्त्र्यादिना च। तत्राऽमूनेव जलस्थलाभ्याssहृतभेदान् सप्रपञ्चं विभावयन् दोषान् प्रदर्शयति - जंघाबाहतरीए, जले थले खंधअरखुरनिबद्धा। संजमआयविराहण, तहियं पुण संजमे काया। अत्थाह गाहपंका, मगरोहारा जले अवायाओ। कंटाहितेणसावय, थलम्मि एए भवे दोसा / / तत्र जलमार्गे स्तोक संभावनायां जवाभ्याम्, अस्तोकसंभावनायां बाहुभ्याम्, यदि वा तरिकया / उपलक्षणमेतत् / उडुपेन वाऽभ्याहृतं संभवति / स्थलमार्गे तु स्कन्धेन, यद्वा-(अरखुरनिबद्ध त्ति) अत्र तृतीयाऽर्थे प्रथमा। ततोऽयमर्थः - अरक-निबद्धा गन्त्री, तया / खुरनिबद्धा रासभबलीवादयः, तैः / अत्र च दोषः संयमविराधना, आत्मविराधना च / तत्र संयमाऽऽत्मविराधना मध्ये संयमविषया विराधना जलमार्गे स्थलमार्गे च, काया अप्कायादयो विराध्यमाना द्रष्टव्याः।जलमार्गे आत्मविराधनामाह-(अत्थाहेत्यादि) अत्र प्राकृतत्वात् क्वचित् विभक्तिलोपः, क्वचित् विभक्तिविपरणिामश्च / ततोऽयमर्थः- अस्ताधे पादादिभिर-लभ्यमानेऽधोभूभागे अधोनिमज्जनलक्षणोऽपायो भवति / तथा ग्राहेभ्यो जलचरविशेषेभ्यः, यद्वा पङ्कतः कर्दमरूपात्, अथवा मकरेभ्यः, यद्वा-(उहारे त्ति) कच्छपेभ्यः / उपलक्षणमेतत्-अन्येभ्यश्च पादबन्धकजन्त्वादिभ्योऽपाया विनाशादयो दोषाः संभवन्ति / स्थलमार्गे आत्मविराधनामाह(कंटेत्यादि) कण्टकेभ्यो, यदि वा अहिभ्यो, यता स्तेनेभ्यः, अथवा श्वापदेभ्यः। उपलक्षणमेतत्- ज्वराद्युत्पादकपरि-श्रमेभ्यश्च स्थले स्थलमार्ग, एतेऽपायरूपा दोषाः प्रतिपत्तव्याः / उक्तमनाचीर्ण परग्रामाऽभ्याहृतं नोनिशीथम्। संप्रति तदेव स्वग्रामाऽभ्याहृतं नोनिशीथं गाथाद्वयेनाऽऽह सग्गामे वि य दुविहं, घरंतरं नोघरंतरं चेव / तिघरंतरा परेणं, घरतरं तत्तु नायव्वं // नोघरतरऽणेगविहं, वाडगसाहीनिवेसणगिहेसु / कापोयखंधमिम्मय-कंसेण व तं तु आणेज्जा / / स्वग्रामविषयमप्यभ्याहृतं द्विविधम् / तद्यथा- गृहान्तरं, नोगृहान्तरं च / तत्र त्रिगृहान्तरात् परेण, त्रीणि गृहाण्यन्तरं कृत्वा परतो यदानीतं तद् गृहाऽन्तरम्। एवं च सति किमुक्तं भवति ? यद् गृहत्रयमध्यादानीयते, उपयोगश्च तत्र संभवति, तद् आचीर्णमवसेयम्। नोगृहान्तरमेनकविधम्, तच वाटकादिविषयम्। तत्र वाटकः प्रतिच्छन्नः प्रतिनियतः सन्निवेशः। साही-वर्तनी, सैवैका अपान्तराले विद्यते, न तु गृहान्तरमित्यर्थः / निवेशनम्- एकनिष्क्रिमप्रवेशानि व्यादिगृहाणि / गृहकेवलं मन्दिरम् / एतच सकलमपि वाटकादिविषयमनाचीर्णमनुपयोगसंभवे वेदितव्यम्। तदपि च गृहाऽन्तराऽऽख्यंच नोनिशीथं स्वग्रामाऽभ्याहृतं प्रतिलाभयितुमीप्सितस्य साधोरुपाश्रयमानयेत् / कापोत्या यदि वा स्कन्धेन / उपलक्षणमेतत्-तेन करादिना च, यदि वा मृन्मयेन भाजनेन, यद्वा कांस्येन / संप्रति अस्यैव स्वग्रामविषयिणो नोनिशीथाऽभ्याहृतस्य संभवमाह - सुन्नं च असइकालो, पगयं च पहेणगं च पासुत्ता। इय एइ काय घेत्तुं, दीवेइ य कारणं तं तु // इह साधुभिक्षामटन् क्वापि गृहे प्रविष्टः, परं तत्तदानीं शून्य बहिर्निर्गतमानुषमासीत् / यद्वा- अद्याऽपि तत्र राध्यते, इत्यसन् अविद्यमानो भिक्षाकालः / यदि वा तत्र प्रकृतं गौरर्वाऽहस्वजनभोजनादिकं वर्तते, ततो न तदानीं साधवे भिक्षा दातुं प्रपारिता, यदि वा विहृत्य साधोर्गतस्य पश्चात् प्रहेणकं लहेणकमागतं, तच्चोत्कृष्टत्वात् किल साधवे दातव्यम्। अथवा तदा श्राद्धिका प्रसुप्ता शयिता आसीत्, ततः साधवे भिक्षानदत्ता / इति एतैः कारणैः, काचित् श्राद्धिका तद्गृहाद् गृहीत्वा साधोरुपा-श्रयमानयेत्, तच्चाऽऽनयनस्य कारणं 'तदा शून्यं गृहमासीत्' इत्यादिरूपं दीपयति प्रकाशयति / तत् एवं नोनिशीथस्व ग्रामाऽभ्याहृतसंभवः। तदेवमुक्तं स्वग्रामपरग्रामभेदभिन्नं नोनिशीथाsभ्याहृतम् / अथ स्वग्रामपरग्रामभेदभिन्नमेव निशीथाऽभ्याहृतमति देशेनाऽऽह - एसेव कमो नियमा, निसीहममिहडे वि होइ णायव्वो। अविइयदायगमावं, निसीहअमिहडं तुनायव्वं / / य एव क्रमः स्वग्रामपरग्रामादिको नोनिशीथाऽभ्याहृते उक्तः, स एव निशीथाऽभ्याहृते नियमाद् ज्ञातव्यः / संप्रति निशीथाऽभ्याहृतस्वरूपं कथयति- "अविइय" इत्यादितः। यतिना न विज्ञातो दायकस्याऽभ्याहृतदानपरिणामो यत्र, तेन अविदित-दायकभावं निशीथाऽभ्याहृतमवगन्तव्यम् / किमुक्तं भवति ? सर्वथा साधुना अभ्याहृतत्वेन यद् अपरिज्ञातं तन्निशीथाऽभ्याहृतमिति परग्रामाऽभ्याहृत उक्तः। स एव निशीथस्याऽभिहडो गाथाचतुष्टयेनोच्यते - अइदूर जलंतरिया, कम्मासंकाए न पेच्छंति। आणे ति संखडीओ, सड्डा सड्डी व पच्छन्नं। निग्गम देउल दाणं, दियाए सन्नाइनिग्गए दाणं। सिट्टम्मि सेसगमणं, दितऽन्ने वारयंतऽन्ने। मुंजण अजीरपुव्व-गाइ अच्छंति भुत्तसेसं वा / / आगम निसीहिगाई,न मुंजई सावगासंका। उक्खित्तं निक्खित्तं, आसगयं मल्लगम्मि पासगए। खामित्तु गया सड्ढा, ते विय सुद्धा असढभावा / / क्वचित् ग्रामे धनावहप्रमुखा बहवः श्रावकाः,धनवतीप्रभृतयश्च श्राविकाः, एते चाऽप्येक कुटुम्बवर्तिनः। अन्यदा तेषामावसथे विवाहः समजनि, वृत्ते च तस्मिन् प्रचुरमोदकाद्युद्वरितम्, ततस्तै रचिन्ति- यथैतत् साधुभ्यो दीयतां, येन महत् पुण्य Page #916 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिहड 732 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अभिहड मस्माकं जायते। अथ च केचित् साधवोऽतिदूरेऽवतिष्ठन्ते, केचित् पुनः प्रत्यासन्नाः, परमन्तराले नदी विद्यते, ततस्तेषु अप्कायेषु विराधनां भावयन्तोनाऽऽगमिष्यन्ति, आगता अपि च प्रचुरमोदकादिकमवलोक्य कथ्यमानमपिशुद्धमाधाकर्मशङ्कया न ग्रहीष्यन्ति। ततो यत्र ग्रामे साधयो निवसन्ति, तत्रैव प्रच्छन्नं गृहीत्वा व्रजाम इति / तथैव च कृतम्। ततो भूयोऽपि चिन्तयन्ति-यदि साधूनाहूय दास्यामस्ततोऽशुद्धमाशङ्कय ते न ग्रहीष्यन्ति / तस्मात् तद् द्विजादिभ्योऽपि किमपि दयः, तच्च तथादीयमानमपि यदि साधवो न प्रेक्ष्यन्ते, ततस्तदवस्थैव तेषामशुद्धाऽऽशङ्का भविष्यति। ततो यत्रोचारादिकार्यार्थ निर्गताः सन्तः साधवः प्रेक्ष्यन्ते, तत्र दद्म इति। एवं च चिन्तयित्वा विवक्षिते कस्मिंश्चित् प्रदेशे कस्यचिद् देवकुलस्य बहिर्भागे द्विजादिभ्यः स्तोकं स्तोकं दातुमारब्धम्, तत उच्चारादिकार्याऽर्थ विनिर्गताः केचन साधवो दृष्टाः, ततस्ते निमन्त्रिताः / यथा भोः साधवः ! अस्माकमुद्वरितं मोदकादिकं प्रचुरमवतिष्ठते, ततो यदि युष्माकं किमप्युपकरोति तर्हि तत् प्रतिगृह्यतामिति। साधवोऽपि शुद्धमित्यवगम्य प्रत्यगृह्णन्। तैश्च साधुभिः शेषाणामपि साधूनामुपादेशियथाऽमुकस्मिन् प्रदेशे प्रचुरमेषणीयमशनादि लभ्यते / ततस्तेऽपि तद्ग्रहणाय समाजग्मुः / तत्र चैके श्रावकाः प्रचुरमोदकादिकं प्रयच्छन्ति। अन्ये च मातृस्थानतो (मायाविशेषात्) निवारयन्ति- यथैवं तावद् दीयतां माऽधिकं, शेषमस्माकं भोजनाय भविष्यति / अन्ये पुनस्तानेव निवारयतः प्रतिषेधयन्ति / यथा-न केऽप्यस्माकं भोक्ष्यन्ते, सर्वेऽपि प्रायो भुक्ताः, ततः स्तोकमात्रेण किञ्चिदुरितेन प्रयोजनं, तस्माद् यथेच्छं साधुभ्यो दीयतामिति / साधवश्च ये नमस्कारसहित प्रत्याख्यानास्ते भुक्ताः, ये चाऽपौरुषीप्रत्याख्यानास्ते भुञ्जाना वर्तन्ते। ये चाऽजीर्णवन्तः पूर्वार्धादि-प्रतीक्ष्यमाणा वर्तन्ते, तेनाऽद्याऽपि भुञ्जते / श्रावकाच चिन्तयामासुः - यथेदानीं साधवो भुक्ता भविष्यन्ति, ततो वन्दित्वा निजस्थानं व्रजाम इति। एवं च चिन्तयित्वा समधिक -प्रहरवेलायां साधुभ्यो वसतावागत्य नैषेधिक्यादिकां सकलामपि श्रावकक्रिमांकृतवन्तः। ततो ज्ञातं यथाऽमी श्रावकाः परमविवेकिनो ज्ञातारश्च परम्परया विवक्षितग्राभवास्तव्याः, ततः सम्यग्विमोद्भावितम्- नूनमस्मन्निमित्तमेतत् स्वग्रामादभ्याहृतमिति, ततो यैर्भुक्तं, तैर्भुक्तमेव / ये त्वद्याऽपि पूर्वार्द्धादि प्रतीक्ष्यमाणान भुञ्जते, तैर्न भुक्तं,येऽपिच भुजाना अवतिष्ठन्ते, तैरपि यः कवल उत्क्षिप्तः, स भाजने मुच्यते, यत्तु मुखे प्रक्षिप्तं नाऽद्याऽपि गिलितं, तद् मुखाद् निःसार्य समीपस्थापिते मल्लके प्रतिक्षिपेत्। शेष तु भाजनगतं सर्वभपि परिस्थापितम्। श्रावक-श्राविकावर्गश्च सर्वोऽपि क्षमयित्वा स्वस्थानं जगाम / तत्र ये भुक्ता ये वाऽर्द्धभुक्तास्तेऽपि सर्वेऽप्यशठभावा इति शुद्धाः। सूत्रं सुगमम्। केवलं (अइदूरं जलंतरिय त्ति) केचित् अतिदूरे, केचित् नद्यन्तरिताः / उक्तं परनामाऽभ्याहृतं निशीयम् / अथ स्वग्रामा-उभ्याहृतं तदेव गाथाद्वयेनाऽऽह - लद्धं पहेणगं मे, अमुगत्थगयाए संखडीए वा। वंदणगट्ठपविट्ठा, देइ तयं पट्ठिय-नियत्ता। नीयं पहेणगं मे, नियगाणं नेच्छियं च तं तेहिं। सागरियसज्झिया वा, पडिकुट्ठा संखडे रुट्ठा। इह काचिदभ्याहृताऽऽशङ्कानिवृत्त्यर्थं किमपि गृहं प्रतिप्रस्थिता, ततो निवृत्ता सती साधोः प्रतिलाभनायोपाश्रयं प्रविश्य साधुसंमुखमेवमाहभगवन् / प्रहेणकमिदममुकस्मिन् गृहे गतया लब्धम् / यद्वा- क्वाऽपि संखड्यां संप्रति वन्दनार्थमहं प्रस्थिता, तत्राऽन्नं प्रतीष्ट, ततो यदि युष्माकमिदमुपकरोति, तर्हि प्रतिगृह्यतामिति तत् आनीतं ददाति। यदा एवमाह-निजकानां स्वजनानामर्थाय प्रहेणकं मया स्वगृहात् नीतं, परं तैर्नेच्छितं ततस्तद्गृहात् प्रतिनिवृत्ता वन्दनार्थमत्रागतेति, ततस्तद् ददाति / यदि वा मायया काचिदभ्याहृतमानीय सागारिकां शय्यातरी, यद्वा-'सज्झितं' वसतिप्रतिवेशनी पूर्वगृहीतसंकेतां, यथा साधवः शृण्वन्ति, तथा प्रवक्ति- गृहाणेदं प्रहेणकमिति। तथा च मातृस्थानतः प्रतिषिद्धम् / यथा- त्वयाऽप्यमुकस्मिन् दिने मदीयं प्रहेणके न जगृहे, ततोऽहमपि त्वदीयं न गृहीष्यामीत्येवं निषिद्धा / ततः साऽपि मातृस्थानतः किञ्चित् परुषं प्रत्युक्तवती। द्वितीययाऽपि तथैव भाषितं, त एवंपरस्परं संखडे कलहे सति सा प्रहेणकनेत्री रुष्टा रोषवती वन्दनार्थ वसतौ प्रविशति, ततोऽनन्तरं वृत्तं वृन्तातं कथयित्वा तदानीतं ददाति। उक्तं स्वग्रामाऽभ्याहृत-मपि निशीथम्। संप्रत्यनाचीर्ण निगमयन्नाचीर्णस्य भेदानाह - एयं तु अणाइन्नं, दुविहं पिय आहडं समक्खायं / आइन्नं पि य दुविहं, देसे तह देसदेसे य॥ एतत् पूर्वोक्तमभ्याहृतं निशीथ-नोनिशीथभेदाद्, यद् वा स्वग्रामपरग्रामभेदाद् द्विविधमप्याख्यातमनाचीर्णमकल्पनीयम् / संप्रत्याचीर्ण वक्ष्ये। तदपि द्विविधम्, तद्यथा- देशे, देशदेशे च / संप्रति देशस्य देशदेशस्य चस्वरूपमाह - हत्थसयं खलु देसो, आरेणं होइ देसदेसो य। आइन्नं तिन्नि गिहा, ते वि य उवओगपुव्वग्गा॥ हस्तशतं हस्तशतप्रमितं क्षेत्रो देशः। हस्तशतादारात् हस्तशत-मध्ये इत्यर्थः, देशदेशः / अत्र हस्तशतप्रमाणे आचीर्णे यदि गृहाणि त्रीणि भवन्ति, नाऽधिकानि, ततः कल्पते / तान्यपि चेद् गृहाणि उपयोगपूर्वकाणि भवन्ति / उपयोगस्तत्र दातुं शक्यते इत्यर्थः / ततः कल्पते, नाऽन्यथेति / संप्रति गृहत्रयव्यतिरेकेण हस्तशतादिसंभवं,तद्विषये कल्पविधिं चाऽऽह - परिसेवणपंतीए, दूरपएसे य घंघसालगिहे। हत्थसया आइन्नं, गहणं परओ उ पडिकुटुं / परिविष्यते ततो भोजनं दीयते येभ्यस्ते परिवेषणा भुजानाः पुरुषाः, तेषां पङ्क्तिः श्रेणिः, तस्यां तत्र, यस्मिन् पर्यन्ते साधु-संघाटको वर्तते, द्वितीयं तु देयं तिष्ठति / तत्र च स्पृष्टाऽस्पृष्टभयाऽऽदिना गन्तुं शक्यते। एवमुत्तरयोरपि पदयोर्भावनीयम् / ततः परिवेषणपक्त्याम् / यद्वादूरप्रदेशे प्रलम्बगमनमार्गछिण्डिकादौ, यदि वा घङ्घशालागृहे, हस्तशतादानीतस्य ग्रहणमाचीर्ण कल्पत इत्यर्थः / परतस्त्वानीतस्य ग्रहणं प्रतिक्रुष्टं निराकृतं तीर्थकरादिभिः। संप्रत्यस्यैवाऽऽचीर्णस्य भेदान् प्रदर्शयति - उक्कोसमज्झिमजह-नगं तु तिविहं तु होइ आइन्नं / करपरियत्त जहन्नं, सयमुक्कोस मज्झमं सेसं / / Page #917 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिहड 733- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अभिहाणहेउकुसल त्रिविधमाचीर्णमभ्याहृतम् / तद्यथा- उत्कृष्टं, मध्यम, जघन्य सिंहवग्धादियाण वा समीवातो जं पावति, सो वा निहत्थो आणत्तो जं च / तत्र यदा ऊर्ध्वादुपरिष्टात् कथमपि हस्तयोगेन मुष्टिगृहीतेन कम्माइए तेणादिपहारे पावति, अंतरा वा पुढवादीए काए विराहेजा, वा मण्डकादिनां, यदि वा स्वपत्यादिपरिवेषणार्थमोदनभृत- बंदिग्गहे तेणेहिं वा बद्धो हिओ वा जुजंतो वा मारितो या, ताहे शाकरो टिकयोत्पादितया व्यवतिष्ठते / अत्राऽन्तरे च कथमपि सयणादिजणो भासति- संजयाण पादे नेतो सावगो मारिओ त्ति / एवं साधुरागच्छति भिक्षार्थ, तस्मै च यदि करस्थं ददाति, तदा कर- उड्डाहो। तस्स वा सयणिज्जा पदोसंगच्छेज्जा, तहव्वण्णस्स वा वोच्छेद प्रवर्तनमात्र जघन्यमभ्याहृतमाचीर्णम् / हस्तशतादभ्याहृत-मुत्कृष्टम्। करेजा / सो वा पदोसं गच्छे वोच्छेदं वा करेजा, जम्हा एवमादि, तम्हा शेषं तु हस्तशतमध्यवर्ति मध्यमम्। तदेवमुक्तमभ्या-हृतम्। पिं० ध०) आहिंडणो गेण्हेजा, अप्पणा गवेसेजा। बितियपदेण गिहत्थाऽऽणीतं पि आचा०ा स्था०ा आवाव्या सूत्रानिचूना'"गिहिणो अभिहर्ड सेयं, गेण्हेजा // 16 // भुंजीओ ण उ भिक्खुणो'' गृहिणां गृहस्थानां यदभ्याहृतं तद्यते क्तुं असिवे ओमोयरिए, रायदुढे भए व गेलण्णे। श्रेयः श्रेयस्कर, नतु भिक्षूणां संबन्धीति (प्रश्नः)। अत्र तनुत्वं चाऽस्या सेहे चरित्तसावय-भए य जयणा इमा तत्थ।।२०।। वाच एवं द्रष्टव्यम् -यथा गृहस्थाऽभ्याहृतं जीवोपमर्दैन भवति, यतीनां सक्खेत्ते पादाए असतीए दुल्लभेसुवा, असिवगहितो वा गंतुमसमत्थो, तूद्गमादि-दोषरहितमिति / सूत्र०१ श्रु०३ अ०। "अत्र प्रायः अहवा पायभूमीए अंतरावा असिवं ओमवा, एवं रायदुट्टबोहिगभयं वा, स्वग्रामाऽभिहडे मासलहुं, परगामाऽभिहडे निप्पचवाए चउलहुं, सयं गिलाणे वावडोवा, सेहस्स वा तत्थ सागरियंमासीदेजा। चरित्तदोसा सपच्चवाए चउगुरुं''। पं०चूलाअभिहृतशब्दव्याख्या वा, तत्थ अणेसणादिया दोसा, सावयभयं वा, तत्थ एवमादिकारणेहिं जे भिक्खू गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुपविट्ठ समाणे इमं जयणं करेति। परं तिघरंतराओ असणं वापाणं वा खाइमंवा साइमंवा अभिहडं अप्पाहिंति पुराणा-दिपादसत्थेण आणयह पायं। आहटु दिन्जमाणं पडिगाहेइ, पडिगाहंतं वा साइज्जइ / / 14|| तेहि च सयमाणीए, गहणं गीतेतरे जयणा // 21 // "जे भिक्खू गाहावतिकुलं असणं वापाणं वा खाइमंवा साइमंवा परं अप्पाहणं संदेसो, पुराणस्स संदिसंति / आदिग्गहणेणं गिहीतातिघरंतराओ'' इत्यादि / तिण्णि गिहाणि तिधिरं, तिघरमेव अंतरं ऽणुव्वयसावगस्सवा, सम्मदिट्ठिणो वा संदिसंति।पादसत्थेण आणयध, तिघरंतरं / किमुक्तं भवति? गृहत्रयात् परत इत्यर्थः / अहवा तिणि दो तेहिं वा आणीता जदि सव्वे गीयत्था तो गेहंति, इतरा अगीयत्था तेसु जयणं करेंति,पुप्पं पडिसेहित्ता छिन्ने भावे तेहिं तेहिं य जदा अत्तट्ठिया अंतरात्परत इत्यर्थः। आयारा गृहीत्वा किंचित् असणादी अभिहडदोसेण तदा गेण्हति। जुत्तं आहटु साहुस्स देज, जो अणाइण्णं तिघरंतरापरेणं, आइण्णे वा अणुवउत्तो गेण्हति, तस्स मासलहुं / नि०चू०३ उ०। (अन्ययूथिकैः एसेव कमो णियमा, आहारे सेसए य उवकरणे। सहाऽभिहतग्रहणव्याख्या 'अण्णउत्थिय' शब्दे 466 पृष्ठे उक्ता) पुव्व अवरे य एए, सपज्जवा एतरे लहुगा // 22 // जे भिक्खू परं अद्धजोयणमेराओ सपञ्चवायंसि अमिहडमा जो पादे विही भणितो, एसेव विधी आहारे, सेसोवगरणे य हटु दिज्जमाणं पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहंतं वा साइजइ।११। दहव्यो / सपज्जवा ते, इतरे पुण निपज्जवा, ते अप्पसत्था चउ लहुगा। नि०चू०११ उ०। अद्धजोयणाओ परओ सपच्चवाएण पहेण अभिहडं, अभि-राभिमुख्ये, अभिहणण-न०(अभिहनन) वेदनोदीरणे, प्रश्न० 1 आश्र० हज-हरणे, अभिमुखं हृतम्, आनीतमित्यर्थः। तंपडिगाहेति जो भिक्खू, द्वा० पादाभ्यामाभिमुख्येन हनने, म०८ श०७ उ०/ अभिसो आणादी पावति, चउगुरुंचसे पच्छित्तं / एसोचेव अत्थो इमो - मुखमागच्छतो हनने, भ० 5 श०६ उ०। आचा० परमद्धजोयणाओ,सपचवायंसि अमिहडाऽऽणीयं। अभिहणमाण-त्रि०(अभिघ्नत्) पादाभ्यामभिघातं कुर्वति, तं जे भिक्खू पायं, पडिच्छते आणमादीणि / / 17 / / खुरचलणचंचूपुडेहिं धरणिअलं अभिहणमाणं। जं०३ वक्ष०। कंठा। इमेहिं वा सावायो पहे अमिहय-त्रि०(अभिहत) आभिमुख्येन हतोऽभिहतः। चरणेन घट्टिते, सावय तेणा दुविहा, सव्वालजला महानदी पुन्ना। "चउरिंदिया अभिहया वत्तियाल्हेसिया'|आव०४ अाधा आचाo/ वणहत्थिदुट्ठसप्पा,पडिणीया चेवनु अवाया|१८|| अभिहाण-न०(अभिधान) अभिधीयते येन तदभिधानम् / निचू० सीहादिया सावया। तेणा दुविहा- सरीरोवगरणे। जले गाहमगराइएहिं 1 उ०। संज्ञायाम्, विशे० शब्दे, विशे०। नाननि, विशे० सव्वाला महाणदी वा अगाधा पुन्ना, वणहत्थी वा दुट्ठो पहे / अर्थाऽभिधानप्रत्ययाश्च लोके सर्वत्र तुल्यनामधेयाः / विशेष कुंभीणसादिसप्पा वा पहे विजंति, गिहीण वा वेरियादिपडिणीया संति, भावे ल्युट्ा उच्चारणे, सूत्र० १श्रु०१६अ। इह द्विविधमभिधानं भवतिएवमादिआऽवाएहिं इमे दोसा // 18 // सतामसतां च / सतां यथा जीवादीनाम्, असतां यथातेणादिसु जं पावति, विराहए अंतरा काया। शशविषाणादीनाम् / आ०चू०१अ० बद्धहियमारितेवा, उड्डाहपदोसवोच्छेदो।।१६।। अभिहाणभेय-पुं०(अभिधानभेद) वाचकध्वनिभेदे, विशे०। सो निहत्थो आणत्तो तेणगसमीवातो जंघातादि पावति। आदिसद्दातो | अभिहाणहे उकुसल-पुं०(अभिधानहेतु कुशल) अभिधानेषु Page #918 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिहाणहेउकुसल 734- अभिवानराजेन्द्रः-भाग 1 अमच्च शब्देषु हेतुसाध्यगमकेषु कुशलो दक्षोऽभिधानहेतुकुशलः / शब्दमार्गे , त्ति' प्राकृतत्वात् / अद्रव्याऽपहारे, अमारिप्रदाने, प्राणिघातनिवारणे चाऽतीव क्षुण्णे, व्य०६ उ०ा बृ०॥ च / पञ्चा०६ विव०। उपा०ध०। प्रश्न। अभिहित(य)-त्रि०(अभिहित) उक्ते, आचा०१ श्रु०८ अ०५उ०। / अमच-पुं०(अमात्य) सहजन्मनि मन्त्रिणि, कल्प०३ क्ष०ा संथा। अभीरु-त्रि०(अभीरु) भी-रुक् / न०त०शतमूल्याम्, नि०चू०। राज्यचिन्तके, प्रश्न० 4 आश्र०द्वा० नि०चू० असंकुचितपत्रत्वात्तस्या अभीरुत्वम् / वाचला सप्तप्रकारभयरहिते, राज्याऽधिष्ठायके, औ० भ०। ज्ञा०! अष्टादशानां प्रकृतीनां महत्तरे, बृ० आचा०२ श्रु०१५ अ०१उ०३चूठा सत्त्वसंपन्ने, ओघा उत्पन्नेमहत्यपि 3 उ०। अमात्यलक्षणमाह - कार्येऽबिभ्यति, बृ०१ उ०। अभीरु म कुतश्चिदपि स्तेनोभ्रामका सज्जणवयं पुरवरं, चिंतंतो अत्थई नरवतिं च / देविविधां विभीषिकां दर्शयतो न बिभेति / बृ० 1 उ०। मध्यमग्रामस्य ववहारनीतिकुसलोऽमचो एय्यारिसो अहवा।। मूर्छनाभेदे, स्था०७ठा यो व्यवहारकुशलो, नीतिकुशलश्च सन् सजनपदं पुरवरं नरपतिं च अभुंजिउं-अव्य०(अभुक्त्वा ) अननुभूयेत्यर्थे, श्रा० चिन्तयन्नवतिष्ठते, स एतदृशो भवति अमात्यः। अथवा- यो राज्ञेऽपि अभुजंतग-त्रि०(अभ्युज्यमान) अव्यापार्यमाणे, बृ०२ उ०। शिक्षा प्रयच्छति स अमात्यः। अभुत्तभोग-त्रि०(अभुक्तभोग) न भुक्ता भोगा येन स अभुक्त ___ तथा चैतदेव सविस्तरं विभावयिषुराह - भोगः / पं०व० 1 द्वा०। स्त्रीभोगानभुक्त्वा प्रव्रजिते कौमारक राया पुरोहितो वा, संघिल्लाउ नगरम्मि दो वि जणा! भावप्रतिबद्धे, नि०चू०१ उ० अंतेउरे धरिसियाऽमचेणं खिंसिया दो वि॥ अभूइभाव-पुं०(अभूतिभाव) अभूतेर्भावोऽभूतिभावः / असंपद्भावे, राजा पुरोहितश्च / वाशब्दः समुच्चये। एतौ द्वावपि जनौ (संघिल्लाउ दश०६ अ०१ उ० त्ति) संघातवन्तौ, परस्परं मरुकावित्यर्थः / नगरे वर्तते / तौ च तथावर्तमानावन्तःपुराभ्यांनिजनिजकलत्रेण धर्षितौ, अमात्येन अभूउन्मावण-न०(अभूतोद्भावन) अलीकभेदे, यथाऽऽत्मा बद्धावपि खिसितौ, निन्दापुरस्सरं शिक्षितावित्यर्थः / एष श्यामाकतन्दुलमात्रः। अथवा सर्वगत आत्मेत्यादि। ध०२ अधि०। गाथाक्षरार्थः / भावार्थः कथानकादवसेयः। तच्चेदम्- "एगो राया, तस्स अभूयाभिसंकण-पुं०(अभूताऽभिशङ्कन) न भूतान्यभि- पुरोहितो, तेसिं दोण्हं वि भजाओ परोप्परं भगिणीओ / अन्नया तेसिं शङ्कन्ते बिभ्यति यस्मात् स तथा। प्रशस्तवाग्विनयभेदे, स्था०७ ठा०। / समुल्लावो जातो / रायभन्जा भणइ- मम वस्सो राया / पुरोहियभन्जा भणइ- मम वस्सो बंभणो / तो पेच्छामो कयराए वस्सो पती। ततो अभेज-त्रि०(अभेद्य) भेद्यः सूच्यादिना चर्मवत्, तन्निषेधा- | पुरोहियभजाए भत्तं उवसाहित्ता रण्णो भज्जा भगिणी निमंतिया / रत्ति दभेद्यः / भ०२ श०५ उ०। सूच्यादिना भेत्तुमशक्ये, "तओ अभेज्जा पुरोहितो भणिओ- मए ओवाइयं कयं, जइ मम वरो अमुगो समिजिए पण्णत्ता। तं जहा- समए पएसे परमाणु'' स्था० 3 ठा०२ उ०। त्ति, ततो भगिणीए समं तव सिरे भायणं काउं जेमेमि / सो य मे वरो संपण्णो। संपयं तव मूलातोपसायं, मग्गामि। पुरोहितो भणइ-अणुग्गहो अभेजक वय-पुं०(अभेद्यकवच) परप्रहरणाऽभेद्याऽऽवरणे, मेय त्ति / रायभजाए राओ भणिओ- अज्ज रत्तिं तव पिट्ठीए विलगिउं भ०७ श०६ उf पुरोहियघरं वचामि। राया भणइ- अणुग्गहो मे, ताहे सारायं पल्लाणित्ता अभेय-पुं०(अभेद) सामान्ये अविशेषे, आ०म०वि० पिट्ठीए विलगिता पुरोहियघरं गंतुं पट्ठिया। पुरोहितो वाहणो त्ति काउं अभोग-पुं०(अभोग) अव्यापारणे संयमोपबृंहणार्थस्वसत्तायाः स्थापने, खंभे बद्धो। ताओ दो विजणीओ पुरोहियस्स उवरि मत्थए भायणं काउं बृ०१०। . पुरोहिएण धरिजमाणे भायणे भुंजंति। राजा खंभे बद्धो हयहेसियं करेइ / अभोजघर-न०(अभोज्यगृह) अहिण्डनीयकुलेषु रजकादि-संबन्धिषु, भोत्तुं गया रायभन्जा / ततो रण्णा पुरोहिएण धरिसितोमि त्ति तस्स सिरं बृ०१उ०। मुंडावियं / अमचेणं तं सव्वं नायं, पभाए राया पुरोहिओ य खिंसितो।" अभोयण-न०(अभोजन) अनभ्यवहारे, पिं० अमुमेवा- ऽर्थमाह - अमइल-त्रि०(अमलिन) स्वच्छे निर्मले, प्रश्न०४ आश्र०द्वा०) छंदाणुवत्ति तुम, मज्झं मीमसणा निवे खलिणं / निसि गमण मरुग थालं, धरेति भुंजंति तो दो वि॥ अमंगलनिमित्त-त्रि०(अमंगलनिमित्त) अङ्गस्फुरणादिषु अमाङ्गलिक तव वा पतिर्मम वा पतिश्छन्दानुवर्तीति न विमर्शव्यतिरेकेण ज्ञातुं निमित्तेषु, प्रश्न०२ आश्रद्वाला शक्यते। ततो मीमांसापरा सा परीक्षां कर्तुमारब्धा / तत्र राजमार्यया अमग्ग-पुं०(अमार्ग)मिथ्यात्वकषायादौ, ध०३ अधिo "अमग्गं नृपे खलीनमारोपितं, ततो निशि रात्रौ पुरोहितगृहे गमनं, ततो मरुको परियाणामि, मगं उवसंपज्जामि" आव०४ अ०) ब्राहाणः पुरोहितः शिरसा स्थालं धरति। तत्र च द्वे अपि भुजाते। एषा अमग्गलग्ग-पुं०(अमार्गलग्न) पार्श्वस्थादिकुतीर्थमार्गप्रवाहपतिते, गाथाक्षरयोजना। भावार्थोऽनन्तरमेव कथितः। अथ कथममात्यो द्वावपि सामान्यप्राणिनि च / दर्शक तौ शिक्षितवान् ? तत आहअमग्घा(माघा)य-पुं०(अमाघात) मालक्ष्मीः, सा च द्वेधा-धनलक्ष्मीः पडिवेसियरायाणो, सोउमिणं परिभवेण हासिहिंति। प्राणलक्ष्मीश्च / तस्या घातो हननं, तस्या-ऽभावोऽमाघातः, 'अमग्धाय थीनिजितो पमत्तो, नया रजं पि पेल्लेज्जा। 이 Page #919 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमच्च 735. अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अमणा प्रातिवेशिका नाम सीमाऽन्तर्वर्तिनः प्रत्यर्थिनो राजान इदं तथा चाऽऽह - श्रुत्वा परिभवन परिभवोत्पादनबुद्ध्या हसिष्यन्ति। न केवलं हसिष्यन्ति, सूयगतहाऽणुसूयग, पडिसूयग सव्वसूयगा चेव। किंतु स्त्रीनिर्जितः प्रमत्त एष इति ज्ञात्वा राज्यमपि प्रेरयिष्यन्ति, पुरिसा कयवित्तीया, वसंति निययम्मि रजम्मि॥ गृह्णीयुरित्यर्थः। सूयग तहाऽणुसूयग, पडिसूयग सव्वसूयगा चेव। धिं तेसि गामनगराण जेसि इत्थी पणायिगा ते य। महिला कयवित्तीया, वसंति निययम्मि रजम्मि॥ धिद्धिक्कया य पुरिसा, जे इत्थीणं वसं जाया / / सूयग तहाऽणुसूयग, पडिसूयग सव्वसूयगा चेव। धिग् निन्दायाम्, तेषां ग्रामनगराणां, येषां स्त्री प्रणायिका पुरिसा कयवित्तीया, वसंति निययम्मि नगरम्मि॥ प्रकर्षण स्वतन्त्रतया नायिका / अत्र धिग्योगे द्वितीया प्राप्ताऽपि षष्ठी, सूयग तहाऽणुसूयग, पडिसूयग सव्वसूयगा चेव। प्राकृतत्यात्। तथा तेऽपि पुरुषाः धिकृताः धिक्कार प्राप्तवन्तो ये स्त्रीणां महिला कयवित्तीया, वसंति निययम्मि नगरम्मि।। वशमायत्ततां जाताः। तथा - सूयग तहाऽणुसूयग, पडिसूयग सव्वसूयगा चेव। इत्थीओ बलवं जत्थ, गामेसु नगरेसु वा। पुरिसा कयवित्तीया, वसंति अंतेउरे रण्णो / सो गामो नगरं वा वि, खिप्पमेव विणस्सइ॥ सूयग तहाऽणुसूयग, पडिसूयग सव्वसूयगा चेव। यत्र ग्रामेषु नगरेषु वा स्त्रियो बलवत्यः, स ग्रामो नगरं वा क्षिप्रमेव महिला कयवित्तीया, वसंति अंतेउरे रण्णो॥ विनश्यति / बहुवचनेनोपसंहारो, जातौ बहुवचनमेकवचनं गाथाषट् कस्याऽपि व्याख्या पूर्ववत् / तत एवं निजचारभवतीति ज्ञापनार्थः / एवमुक्ते राजा पुरोधा वा एवं मनसि पुरुषैः महिलाभ्यो राज्ञः पुरोधसश्च निशि वृत्तममात्यो ज्ञातवान्। तदेवं संप्रधारयेत्। यथा-'नाऽस्माकं ग्रामेषु नगरेषु वा स्त्रियो बलवत्यः' इति, राज्ञोऽपि यः शिक्षाप्रदानेऽधिकारी सोऽमात्य इति / उक्तममात्यस्य तत आह स्वरूपम्। व्य०१ उ०। सूयग तहाऽणुसूयग, पडिसूयग सव्वसूयगा चेव। *अमर्त्य-पुंग देवे, स्या पुरिसा कयवित्तीया, वसति सामंतरजेसु॥ अमच्चपुज्ज-त्रि०(अमर्त्यपूज्य) देवाराध्ये तीर्थकृदादौ, स्या०। तस्याऽमात्यस्य पुरुषाः कृतवृत्तयः कृताऽऽजीविकाः, चतुसृषु दिक्षु चरा ज्ञानाऽर्थ सामन्तराज्येषु प्रतिवेशिकराज्येषु वसन्ति। तद्यथा अमच्छरि(ण)-त्रि०(अमत्सरिन) परसंपदद्वेषिणि, दश०१ चू०। सूचकाः, अनुसूचकाः, प्रतिसूचकाः सर्वसूचकाश्च / सूचकाः - परगुणग्राहिणि, प्रश्न० 4 आश्रद्वा०॥ सामन्तराज्येषु गत्वा अन्तःपुरपालकैः सह मैत्री कृत्वा यत्तत्र रहस्य अमच्छरियया-स्त्री०(अमत्सरिकता) मत्सरिकः परगुणानाम-सोदय, तत्सर्वं जानन्ति / अनुसूचका:- नगराऽभ्यन्तरे चारमुपलभन्ते / तद्भावनिषेधोऽमत्सरिकता / भ०८ श०६ उ०। परगुणग्राहितायाम्, प्रतिसूचकाः - नगरद्वारसमीपे अल्पव्यापारा अवतिष्ठन्ते। सर्वसूचकाः - औ०। स्वनगरं पुनरागच्छन्ति, पुनर्यान्ति / तत्र ये सूचकास्ते श्रुतं दृष्ट वा अमज्जमंसासि(ण)-त्रि०(अमद्यमांसाऽशिन्) मद्यमांसमनश्नति, सर्वमनुसूचकेभ्यः कथयन्ति। अनुसूचकाः सूचककथितं स्वयमुपलब्ध सूत्र०२ श्रु०२ अ०। अमद्यपे, अमांसाशिनि च। दश०२ चू०। च प्रतिसूचकेभ्यः / प्रतिसूचका अनुसूचककथितं स्वयमुपलब्धं च अमजाइल्ल-पुं०(अमर्यादावत्) "मजाया सीमावत्था, न मज्जाया सर्वसूचकेभ्यः। सर्वसूचका अमात्याय कथयन्तिा यथा तस्याऽमात्यस्य चतुर्विधाः पुरुषाः सामन्तराज्येषु वसन्ति, तथा महेला अपि। अमज्जाया, तीए जो वट्टति सो अमज्जाइल्लो' निचू०१ उ०। मर्यादाया अवेत्तरि प्रवर्तके आचार्ये च! निचू०४ उ०। तथा चाऽऽह - अमज्झ-त्रि०(अमध्य) नम्ब०। विभागचयं कर्तुमशक्ये, 'तओ सूयग तहाऽणुयूयग, पडिसूयग सव्वसूयगा चेव। महिला कयवित्तीया, वसंति सामंतरज्जेसु // अमज्झा पण्णत्ता। तं जहा- समए, पएसे, परमाणु" / स्था० 3 ठा० ४उ०। विषमसंख्याऽवयवाऽभावात् क्षेत्रपरमाणौ, भ०२० श०६ उ०। अस्या व्याख्या प्राग्वत्। यथा च पुरुषाः स्त्रियश्च सामन्तराज्येषु समस्तेषु वसन्ति तथा सामन्तनगरेष्वपि राजधानीरूपेषु / अमण-न०(अमन) अधिगमने, अन्तःपरिच्छेदे च स्था०३ठा०४ उ०। तथा चाऽऽह - *अमनस्- नामनोविद्वेषिण्यर्थे , "तिविहे अमणे पण्णत्ते / सूयग तहाऽणुसूयग, पडिसूयग सव्वसूयगा चेव। तं जहा- णोतम्मणे णोतयन्नमणे अमणे' / स्था०३ ठा०३ उ०। पुरिसा कयवित्तीया, वसंति सामंतनगरेषु / / अविद्यमानान्तःकरणे / दर्श०। "झायइ सुणिप्पकम्पो, झाणं अमणो सूयग तहाऽणुयूयग, पडिसूयग सव्वसूयगा चेव। जिणो होइ" प्रयन्तविशेषाद्मनः अपनीय अमना अविद्यमानान्तःकरणो महिला कयवित्तीया, वसंति सामंतनगरेषु / / जिनो भवति। आव०४ अ० ज०।असंज्ञिनि च। क०प्र०) इदं गाथाद्वयमपि पूर्ववत् / यथा च परराज्येषु परनगरेषु च | अमणा-अव्य०(अमनाक्) न मनागमनाक् / नितरां शब्दार्थे, सूत्र० पुरुषाः स्त्रियश्च वसन्ति, तथा निजराज्ये निजनगरे अन्तःपुरे। २श्रु०१अग Page #920 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमणाम 736 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अमर अमणाम-त्रि०(अमनआप) न जातुचिदपि भोज्यतया जन्तूनां मनांसि आप्नोति। जी०१ प्रतिकान मनसा आप्यते प्राप्यते चिन्तया यत्तत्तथा। उपा०८ अ० * अमनोऽम-त्रि०ान मनसा अभ्यते गम्यते, पुनःपुनः स्मरणतो यत्, तदमनोऽमम् / अत्यर्थं मनोऽनिष्ट, भ०१श०५ उ०।। * अवनाम-त्रि०। अवनामयतीति अवनामः / पीडाविशेषकारिणि, "अमणुन्नाओ अमणामओ दुक्खाओ'' सूत्र०२ श्रु०१ अ०। अमणुण्ण-त्रि०(अमनोज्ञ) मनसोऽनुकूलं मनोज्ञ, न मनोज्ञ-ममनोज्ञम्। आव० 4 अ०। न मनसा ज्ञायते सुन्दरतया, इत्थ-ममनोज्ञम् / भ०६ श०३३ शास्वरूपतोऽशोभने, (कदन्ना-ऽऽदौ)। स्था०३ ठा० 1 उ०। मनःप्रतिकूले, सूत्र०१ श्रु०६ अ० असुन्दरे, प्रश्न० 5 संव०द्वा०। अनिष्टे, ग० 1 अधि०। स्था०ा अशुभस्वाभावे, स्था० 8 ठा० विपा०। अमनःप्रह्लादहे तो विपाकतो दुःखजनके, जी० 1 प्रति०। "अमणुण्णदुरूव-मुत्तपूइयपुरीसपुण्णा'' अमनोज्ञाश्च ते दुरूपसूत्रेण पूतिकपुरीषेणचपूर्णाश्चेति विग्रहः / इह च दूरूपं विरूपं, पूतिकंच कुथितम् / (कामभोगाः) भ०६ श०३३ उ०। "अमणुण्णसंपओगसंपउत्ते तस्स विप्पओगसइसमण्णागए यावि भवति" अमनोज्ञोऽनिष्टो यः शब्दादिस्तस्य यः संप्रयोगो योगस्तेन संप्रयुक्तो यः स तथा / स च तथाविधःसन्, तस्याऽमनोज्ञस्य शब्दादेर्विप्रयोगस्मृति समन्वागतश्चाऽपि भवति / विप्रयोगचिन्ताऽनुगतः स्यात् / चाऽपीत्युत्तरवाक्याऽपेक्षया समुच्चयाऽर्थः। असावार्तध्यानं स्यादितिशेषः, धर्मधर्मिणोर-भेदादिति। भ०२५ श०७ उ० ग०। भिन्नसामाचारीस्थिते संविने, पं०व०२ द्वा० असाम्भोगिके, बृ० 3 उ०। नि०चू०। अमणुण्णतर-त्रि०(अमनोज्ञतर)अकान्ततरे,अप्रीततरे च : विपा०१ / श्रु०१० अमणुण्णसमुप्पाय-त्रि०(अमनोज्ञसमुत्पाद) न मनोज्ञममनोज्ञमसदनुष्ठानम्।तस्मादुत्पादः प्रादुर्भावो यस्य दुःखस्य तदमनोज्ञसमुत्पादम्।। स्वकृताऽसदनुष्ठानाजाते दुःखे, सूत्र०१ श्रु० 1 अ० 3 उ०। अमणुस्स-पुं०(अमनुष्य) देवादौ, नं०। रक्षःपिशाचादौ, | (सिद्धान्तकौमुदी)। नपुंसके, नि०यू०१ उ०। अमत्त-न०(अमत्र) भाजने, सूत्र०१ श्रु०६ अ० अमम-त्रि०(अमम) ममत्वरहिते, कल्प०६क्षा उत्त०। पं०सू० दशला | निर्लोभत्वात्। औ०। निरभिष्वङ्गाद् अविद्यमानममेत्यभिलापे, स्था० 6 ठा०ायुगलिकमनुष्यजातिभेदे, जं०४ वक्ष उत्सर्पिण्या भविष्यति द्वादशे तीर्थकरे, अन्त०५ वर्ग। प्रव०ा तिला सा अवसर्पिण्यां जातो नवमो वासुदेवः कृष्णो भारते वर्षे पुण्ड्रेषु जनपदेषु शतद्वारे नगरे द्वादशस्तीर्थंकरो भविष्यति / स्था० 8 ठा०। ती० पञ्चविंशतितमे दिवसमुहूर्ते च। चं० प्र०१० पाहुाज्यो अममत्तय-त्रि०(अममत्वक) न विद्यतेममत्वं मूर्छा यस्य, स अममत्वकः / 'शेषाद्वा' / 7 / 3 / 175 / इति(हैम) सूत्रेण कच् प्रत्ययः। मूर्छारहिते, बृ०१ उ०। निर्ममताके, "अममत्ता परिकम्मा, दारविलन्भंगजोगपरिहीणा''। पं०व०४ द्वा० अममायमाण-त्रि०(अममीकुर्वत्) अस्वीकुर्वतिमनसाऽपि अनाददाने, आचा०१ श्रु०२ अ०५ उ०। अमम्मणा-स्त्री०(अमन्मना) अनवरतवञ्चमानायां वाचि, उपा०२ अ०। राधा अमय-न०(अमृत) सुधायाम, पञ्चा०३ विव०। क्षीरोदधिमथिते, आ०म०प्र० "अमयमहियफेणपुंजसन्निगासं' अमृतस्य क्षीरोदधिजलस्य मथितस्ययः फेनपुञ्चो डिण्डीरपूरस्तत्सन्निकाशं तत्समप्रभम्। रा०ान-मृ-क्तान०ता मोक्षे, होमाऽवशिष्ट-द्रव्ये, जलेघृते, अयाचिते वस्तुनि च। परब्रह्मणि, नामरणशून्ये, त्रि०ा बिभीतके, स्त्रीला वाचा * अमय-त्रि०।अविकृतौ, "अमयो य होइ जीवो, कारणविरहा जहेव आगासं। समयं च हो अनिच्चं, मिम्मयघडतंतुमाईय" ||1|| अमयश्च भवति जीवः। विशे०। चन्द्रे, दे०ना०१ वर्ग। अमयकलस-पुं०(अमृतकलश) अमृतपूर्णघटे, "अमयकलसेण अभिसित्तो''। आ०म०प्र० अमयघोस-पुं०(अमृतघोष) काकन्धा नगर्याः स्वनामख्याते राजनि, सच स्वपुत्रं राज्ये स्थापयित्वा धर्ममनशनं प्रतिपन्न इति। संथा०। अमयणिहि-पुं०(अमृतनिधि) काञ्जनबलानके प्रतिष्ठिते भगवति, ती०४५ कल्प। अमयतरंगिणी-स्त्री०(अमृततरङ्गिणी) महोपाध्यायश्रीकल्याणविजयगणिशिष्य-मुख्यपण्डितश्रीलाभविजयगणिशिष्याऽवतंसपण्डितश्रीजीतविजयगणिसतीर्थ्यतिलकपण्डित श्रीनयविजयगणिचरणकमलसेविना पण्डितश्रीपद्मविजयगणिसहोदरेणोपाध्यायश्रीयशोविजयगणिना विरचितायां नयोपदेशटीकायाम्, नयो। अमयनिग्गम-(देशी) चन्द्रे। देखना०१ वर्ग। अमयप्प(ण)-पुं०(अमृतात्मन्) धर्ममेघसमाधौ, द्वा०२० द्वा०। अमयफल-न०(अमृतफल) अमृतोपमफले, ज्ञा०६ अ०) अमयबल्ली-स्त्री०(अमृतवल्ली) वल्लीविशेषे, प्रव० 4 द्वा०। ध० गुडूच्याम्, वाचा अमयभूय-त्रि०(अमृतभूत) माधुर्यादिभिर्गुणैः सुधासहोदरे, बृ०२ उ०। अमयरसासायण्णु-त्रि०(अमृतरसास्वादज्ञ) अमृतरसस्याऽऽस्वादस्तं जानाति इति अमृतरसाऽऽस्वादज्ञः / अमृत-रसाऽऽस्वादवेत्तरि, "अमृतरसाऽऽस्वादज्ञः, कुभक्तरस-लालितोऽपि बहुकालम्" / षो० 3 विव०॥ अमयवास-पुं०(अमृतवर्ष) तीर्थकृज्जन्मादौ देवैः कृताया-ममृतवृष्टी, आचा०२ श्रु०१५ अ० अमयसाय-पुं०(अमृतस्वाद) अमृतवत् स्वाद्यते इत्यमृत- स्वादम्। अमृततुल्ये, सम्म०३ काण्ड। अमयसार-न०(अमृतसार) न विद्यते मृतं मरणं यस्मिन्, असावमृतो मोक्षः / तं सारयति प्रापयतीति वा। मोक्षप्रतिपादके, सम्म०३ काण्ड। अमर-पुं०(अमर) देवे, कर्म०५ कर्म०। आव०। को०। आ०म०। त्रयोदशे ऋषभदेवपुत्रे, कल्प०७क्ष०। भविष्यतस्त्रयोविंशस्याऽनन्तवीर्य तीर्थक रस्य पूर्व भवजीवे, ती० 21 कल्प / Page #921 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमर 737 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अमरदत्त सिद्धेषु च, तेषामायुषोऽभावात् / औ०। "इमस्स चेव पडिवूहणट्ठाए इहि वेरगगओ, पुरा मए किं कयं ति पुच्छेउं। अमरायइ महासड्डी" (अमरायइ० इत्यादि) अमरायते- न मरः सन् मुणिणो इमस्स पासे, भो भद्द! इहं अहं पत्तो।।१५।। द्रव्ययौवनप्रभुत्वरूपाऽवसक्तोऽमर इवाऽऽचरति अमरायते। आचा०१ जम्माउ वि निययदुह, सुमरिय रोएमि इय भणेऊण। श्रु०२ अ०५ उ०। तेणं पहियनरेणं, नियवुत्तंतं मुणी पुट्ठो॥१६|| अमरकेउ-पुं०(अमरकेतु) विजये (क्षेत्रे) तमाललतानामनगर्या राज्ञः अह विम्हयरसपुण्णो, किं तु कहिस्सइ इमो सुसाहु त्ति?। समरनन्दनस्य मन्दारमञ्जर्या उदरसंभवे पुत्रे, दर्शा सो अमरदत्तपमुहो, एकग्गमणो जणो जाओ // 17 // अमरचंद-पुं०(अमरचन्द्र) नागेन्द्रगच्छीये महेन्द्रसूरिशिष्यशान्तिसूरि- अह वज्जरियं मुणिणा, भो पहिय ! तुम इओ भवे तइए। शिष्ये, येन गुर्जरदेशाऽधिपतिसिद्धराजसकाशाद्व्याघ्रशिशुक इति पदवी मगहे गुव्वरगामे, देविलनामाऽऽसि कुलपुत्तो।।१८।। लेभे, सिद्धान्ताऽर्णवनामा ग्रन्थश्च व्यरचि। इत्येकोऽमरचन्द्रसूरिः। (1) / अण्णदिणे रायगिहे. तुह गच्छंतस्स कोवि मग्गम्मि। जै० इ०। मिलिओ पहिओ कमसो, तए धणड्ढुत्ति सो नाओ।।१९।। वायटीयगच्छीये जिनदत्तसूरिशिष्ये, येन चतुर्वि शतिजिनचरित्रं तंवीससिउं रयणी, हणिय गहिऊण तद्धणं सव्यं / पद्माऽऽनन्दाऽभ्युदयाऽपरनामकं महाकाव्यं, बालभारतं, काव्यकल्प जा जासि तुमं पुरओ, हरिणा छुहिएण ताव हओ।॥२०॥ लता, काव्यकल्पलतापरिमलः,छन्दोरत्नावली, कलाकलापश्चेत्येव पत्तो पढमे नरए, असरिसदुक्खाइँ सहिय बहुयाई। मादयो ग्रन्था विद्वचित्तचमत्कृतिकृतो निरमायिषत / एतस्य तो उव्वट्टियं इहयं, सोएसो सेण संजाओ॥२१॥ शीघ्रकवित्वशक्तेमुग्धः वीशलदेवो नाम गुर्जरधरित्रीश्वरोऽस्मै जो सेण ! तए तइया, पहिओ पहओ भवम्मि सो एसो। बहुमानमदात्। अयं च वैक्रमीयसंवत्सराणां त्रयोदशशतकेऽवर्तत। (2) / अन्नाण तवं काउं, असुरनिकाए सुरो जाओ।।२२।। जै० इ०॥ संभरिय पुव्ववइरेण तेण हणिया तुहंम्मपिउसयणा। निधणं धणं च णीयं, जणिया रोगा तुह सरीरे॥२३॥ अमरण-न०(अमरण) मृत्योरभावे, ध०१ अधि०। छिन्नो तहेव पासो, एसो सुचिरंदुही हवेउत्ति। अमरणधम्म-त्रि०(अमरणधर्मन्) तीर्थकरे, पं०व०४ द्वा०) सो कुणइ अंतरा अंतरा य वियणं परमघोरं // 24 // अमरदत्त-पुं०(अमरदत्त) जयघोषश्रेष्ठिपुत्रे, ध०र०। तं सोउं भवभीओ, पहिओऽणसणं गहित्तु मुणिपासे। कथानकं पुनरेवम् - सुमरंतो नवकारं, जाओ वेमाणिएसुसुरो।।२५।। विदुमसिरिपरिकलियं, अलंकियं बहुसमिद्धलोएहिं। इय सुणिय पहियचरियं, अमरो संवेगपरिगओ अहियं / रयणायरमज्झ पि व, रयणपुरं अत्थि वरनयरं / / 1 / / नामिउं विन्नवइ मुणिं, भयव ! मह कहसु जिणधम्मं // 26 / / / ध०२०। कयसुगयसमयपोसो, पुरसिट्ठी अत्थितत्थजयघोसो। इच्छामि समणुसिडिं, ति भणिय नमिउंच सुगुरुचलणदुगं। जिणमुणिविहियपओसो, सुजसा नामेण से भज्जा / / 2 / / ततो समित्तजुत्तो, गेहं पत्तो अमरदत्तो // 68|| अमराभिहाणकुलदेवयाए दिन्नु त्ति तो अमरदत्तो। सो पिउणा संलत्तो, किंवच्छ! चिराइयं तए तत्थ। नामेण ताण पुत्तो, पसन्नचित्तो सहावेण // 3 // तो मित्तेहिं वुत्तो, वुत्तंतो तस्स सयलो वि IIEEN आजम्मतव्यन्निय- मयवासियहिययइब्भवरकन्न / अह कुविओ जयघोसो, भणेइ दुप्पन्न ! किं अरे! तुमए। पियरहिं पढमजुव्वण- भरम्मि परिणाविओ सो उ||४|| मुत्तु कुलागय सममं,धम्म धम्मतरं गहियं / / 10 / / अह महुसमयम्मि कया- वि अमरदत्तो समित्तसंजुत्तो। तां मुंच इमं धम्म, सियभिक्खूणं करेसु भिक्खूणं / पुप्फकरंडुजाणे, कीलाइकए समणुपत्तो // 5|| अन्नह तए समं मम, संभासो वि हुन जुत्तु त्ति॥१०१।। सो कीलंतो तहियं, तरुस्स हिट्ठा निएइ मुणिमेगं। भणइ य कुमरो हे ताय ! एस सुपरिक्खिऊण चित्तव्यो। तस्सयपासे एणं, रुयमाणं पहियपुरिसंच।।६।। धम्मो वरकणगं पिव, न कुलागयमित्तओ चेव // 102 / / तो कोउगेण अमरो, आसन्नं तस्स होउ पुच्छेइ। पाणिवहालियचोरिकविरइपरजुवइवज्जणपहाणो। किं भव ! रोयसि तुमं?, सगग्गयं सो वि इय भणइ // 7 // पुव्यावरअविरुद्धो, धम्मो एसो कहमजुत्तो ? ||103|| कंपिल्लपुरे सिंधुर-सिहिस्स वसुंधराए दइयाए। जह गिण्हंतो उत्तम- पणियं वणिओ भवे ण वयणिज्जो। ओवाइयलक्खेहि, एगो पुत्तो अहं जाओ॥८|| पडिवन्नुत्तमधम्मो, न हीलणिज्जो तहाऽहं पि॥१०४।। सेणु त्ति विहियनामस्स अइगया जाब मज्झ छम्मासा। तं सुणिय अभिणिविट्ठो, सिट्ठी जपेइ रे दुरायार!। ता सयलविहवसहिया, अम्मापियरो गया निहणं / / 6 / / जं रोयइ कुणसु तयं, न इओ तं भासिउंउचिओ||१०५|| तप्पभिइ पालिओऽहं, जेहिं सयणेहिं गरुयकरुणेहिं। एयं निसामिऊणं, ससुरेण भणाविओ इमो एवं। मम दुक्कयजम्मनिहया, पंचत्तं ते वि संपत्ता // 10 // जइ मह सुयाए कजं, ता जिणधम्मंचयसु सिग्धं / / 106|| बहुलोयाणं संतावकारणं विसतरु व्व कमसोऽहं। मुत्तुं जिणधम्ममिमं, सेसं सव्वमविऽणंतसो पत्तं। देहेण दुब्भरेण य, पवुड्डिओ इचिरं कालं / / 11 / / एवं चिंतिय अमरो, विसज्जए पिउगिहे भग्नं // 107 / / संपइ पुण दड्डोवरि, पिडगसमाणा अमाणदुक्खकरा। अन्नदिणे जणणीए, भणिओ एसो जहा तुमं वच्छ!। मह देहे जरपमुहा, रोगा बहवे समुप्पन्ना।।१२। जो रोयइ तुह धम्मो,तं कुणसु वयं न विग्धकरा।।१०८|| किंच पिसाओ भूओ, व कोवि मह अंतरंतरा अंग। किंतु अमराऽभिहाणं, कुलदेविं निचमेव अचेसु। पीडेइ तह अदिट्ठो, जइ तं वुत्तं पिन तरेमि / / 13 / / एयप्पसायपभवो, तुह जम्मो तो इमो आह !|106 / / तो जीवियव्वभग्गो, नम्गोहतरुम्मि जाव अत्ताणं। अंब! न संपइ कप्पइ, जिणमुणिवइरित्तदेवदेवीसु। अत्ताणं ओबंधेमि ताव पासो विलहु तुट्टो॥१४॥ देवगुरु तिमई मे, भत्ती तह पणमणप्पमुहा॥११०|| Page #922 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमरदत्त ७३८-अभियानराजेन्द्रः-भाग 1 अमहग्घय नो मह तेसु पओसो, मणयं पिन भत्तिमित्तमवि किंतु। . देवगुरुगुणविओगा, तेसु उदासत्तणं अंब!!१११|| गयरागदोसमोह- तणेण देवस्स होइ देवत्तं / तचरियागमपडिमाण दंसणा देवतं नेयं // 112 / सिवसाहगगुणगणगउरवेण सत्थत्थसम्मगिरणेण। इह गुरुणो वि गुरुत्तं, होइ जहत्थं पसत्थं च / / 113 // ता अंब ! पणमिय जिणं, नमिज्जए तिहुयणे दि कह अन्नो? नहु रोयइ लवणजलं, पीए खीरोहियजलम्मि // 114|| इय तेणं पडिभणिया, जणणी मोणं अकासि सविसाया। अह कुविया कुलदेवी, से दसइ भीसणसयाई।।११५॥ नय तस्स किं पिपहवइ, सत्तिक्कधणस्स धम्मनिरयस्स। वहइपओसं अहियं, तो अमरा अमरदत्तम्मि।।११६|| पच्चक्खीहोउ कयावि तीए सो निठुरं इमं भणिओ। रे कूडधम्मगव्विय!,न पणामं मज्झ वि करेसि।।११७।। ता इण्हि हणेमि तुम, दढधम्मोतं भणेइ अमरो वि। जइ आउयं पि बलवं, तो मारिजइन को वितए॥११॥ अह कह वितं पितुटुं, मरियव्ये इहरहा वि ता जाए। को सदसणममलं, मइलइ भवकोडिसयदुलह ? ||116 / / तो अमरा सामरिसा, तस्स सरीरे विउव्वए पावा। सीसच्छिसवणउदरंतनिस्सिया वेयणा तिव्वा / / 120 / / जा इक्का विहुजीय, हरेइ नियमेण इयरपुरिसस्स। दढसत्तो तह वि इमो, एयं चित्ते विचिंतेइ / / 121 / / रे जीव ! तए पत्तो, सिवपुरपहपत्थिएण सत्थाहो। देवो सिरिअरिहंतो, अपत्तपुव्वो भवअरन्ने / / 122|| ता इमिण चिय हियय-हिएण मरणं पितुज्झ भद्दकरं। एयम्मि पुण विमुक्के, होसि जियंतो वि तमणाहो // 123 / / कित्तियमित्तं च इमं, दुक्खं तुह दंसणे अपत्तम्मि। पाविय अणंतपुग्गल-परियट्टदुहस्सनरएसु॥१२४|| किञ्च - पडिकूला हवउ सुरा, मायापियरो परंमुहा हुंतु। पीडंतु सरीरं वाहिणो वि खिसंतु सयणा य॥१२५।। निवडंतु अवायाओ, गच्छउलच्छी वि केवलं इक्का। मा जाउ जिणे भत्ती, तदुत्ततत्तेसु तित्ती य / / 126|| इयनिच्छयप्पहाणं, तच्चित्तं, नाउ ओहिणा अमरा। तस्सत्तरंजियमणा, भणेइ संहरिय उवसग्गे।।१२७।। धन्नोऽसि तं महासय !, ते चिय सलहिज्जसे तिहुयणम्मि। सिरिवीयरायचरणेसु जस्स तुह इय दढाऽऽसत्ती // 128 / / अज्जप्पभिई मज्झ वि, सुचिय देवो गुरू वि सो चेव। तत्तं पितं पमाणं, जंपडिवन्नं तए धीर ! / / 126|| इय भणिरीए तीए, मुक्का अमरस्स उवरि तुट्ठाए। परिमलमिलिय अलिउला, दसद्धवन्ना कुसुमवुट्ठी // 130 / / तंदठु महच्छरियं, तप्पियरो पुरजणो ससुरवग्गो। अमराए वयणेणं, जाओ जिणदंसणे भत्तो।।१३१।। ससुरेण पहिडेणं, तो धूया पेसिया पइगिहम्मि। तप्पभिइ अमरदत्तो, सकुडुबो कुणइ जिणधम्म / / 132 // सुचिरं निम्मलदसण-सारं पालिय निहत्थधम्ममिमो। . जाओ पाणए अमरो, महाविदेहम्मि सिज्झिहिइ // 133 / / अमरदत्तचरित्रमिदं मुदा, गतमलं परिभाव्य विवेकिनः। भजत दर्शनशुद्धिमनुत्तरां, भवत येन महोदयशालिनः / / 134|| ध००। अमरपरिग्गहिय-त्रि०(अमरपरिगृहीत) देवैः स्वीकृते, बृ०३ उ०। अमरप्पभ-पुं०(अमरप्रभ) विक्रमसंवत्सराणां चतुर्दशशतके विद्यमाने भक्तामरस्तोत्रटीकाकारके कल्याणमन्दिरस्तोत्रटीकाकारकगुणसागरगुरुसागरचन्द्रस्य गुरौ, जै० इ०। अमरवइ-पुं०(अमरपति) देवेन्द्रे,"अमरवइमाणिभद्दे |भ० ३श०५ उ०। प्रज्ञा०। मल्लिनाथेनाऽर्हता सहाऽनुप्रव्रजिते ज्ञातकुमारे, ज्ञा०५ अ०। अमरवर-पुं०(अमरवर) महामहर्द्धिकदेवे, तं०1 अमरसागर-पुं०(अमरसागर) अञ्चलगच्छीये कल्याणसागर-सूरिशिष्ये, अयं च उदयपुरनगरे वैक्रमीये 1664 वर्षे जन्म लब्ध्वा 1705 वर्षे प्रव्रज्य 1714 वर्षे खम्भातनगरे आचार्यपदवी प्राप्तः। ततः 1718 वर्षे भुजनगरे गच्छेशपदंलेभे।ततःसं०१७६२ मितेधवलकपुरे स्वर्ग गतः। जै० इ०1 अमरसुह-न०(अमरसुख) देवसुखे, आव०४ अ० अमरसेण-पुं०(अमरसेन) मल्लिनाथेनाऽर्हता सहाऽनुप्रव्रजिते स्वनामख्याते ज्ञातकुमारे, ज्ञा० 8 अ०। स्वनामख्याते राजा- ऽन्तरे च ।दर्श अमरिस -पुं०(अमर्ष) न / मृष् / घञ्। “शर्षतप्तवजे वा" ||2|| इति संयुक्तस्याऽन्त्यव्यञ्जनस्येकारः / प्रा०२ पाद / मत्सरविशेषे, आ०म०द्वि०। महाकदाग्रहे, उत्त०३४ अ० कोपे, प्रश्न०३ आश्रद्वा० / अमरिसण-त्रि०(अमर्षण) अपराधाऽसहिष्णौ, प्रश्न०४ आश्र० द्वा०॥ अपराधिष्वकृतक्षमे, सा * अमसृण-पुं०। प्रयोजनेष्वनलसे, स० अमरिसिय-त्रि०(अमर्षित) अमर्षः संजातोऽस्याऽमर्षितः / संजातमत्सरविशेषे, आ०म०द्वि० अमल-पुं०(अमल) न विद्यते मल इव मलो निसर्गनिर्मलजीवमालिन्यापादनहेतुत्वादष्ट प्रकारकं कर्म येषां ते अमलाः / सिद्धेषु प्रव०२१४ द्वार / निर्मलमात्रे, त्रि० आ०म०प्र०) ऋषभदेवस्य सप्तमे पुत्रे, कल्प०७ क्ष। अमलचंद-पुं०(अमलचन्द्र) वैक्रमीये 1158 वर्षे भृगुकच्छे विहरति स्वनामख्याते गणिनि, जै० इ०॥ अमलवाहण-पुं०(अमलवाहन) विमलवाहने महापद्मतीर्थकरे, ती०२१ कल्प। अमला-स्त्री०(अमला) स्वनामख्यातायां शक्र ाऽग्रमहिष्याम्, भ० 10 श० 5 उ०। ती०। स्था०। ('अग्गमहिसी' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 173 पृष्ठे तत्पूर्वाऽपरभवावुक्तौ) अमहग्घय-त्रि०(अमहार्घक) महती अर्घा यस्य, स महाघः। महाघ एव महाऽर्धकः, न महाघकोऽमहाऽर्घकः / अबहुमूल्ये, उत्त०२० अ०॥ Page #923 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमहद्धण 739 - अभिवानराजेन्द्रः-भाग 1 अमावसा अमहद्धण-त्रि०(अमहाधन) अबहुमूल्ये, पञ्चा० 17 विव०। दोण्णि / तं जहा-रोहिणी 1, मग्गसिरं 2 च / ता आसाढी णं अमाइ(ण)-त्रि०(अमायिन्) माया अस्याऽस्तीति मायी। न मायी अमावासं कति णक्खत्ता जोएंति ? ता तिणि नक्खत्ता अमायी। व्य० 1 उ०। शाठ्यरहिते, प्रव०६४ द्वार / कौटिल्यशून्ये, जोएंति। तं जहा- अदा 1, पुणव्वसू 2, पूसो 3 य। दश०६ अ०३ उ०। सर्वत्र विश्वास्ये, सचाऽऽलोचनादेरर्हः / आचा०१ (दुवालसेत्यादि) द्वादश अमावास्याः प्रज्ञप्ताः / तद्यथा-श्राविष्ठी, श्रु०१ अ०१उ०। "नो पलिउंचे ऽमाई" स्था०१० ठा०व्यo"आव प्रौष्ठपदी इत्यादि / तत्र मासपरिसमापकेन श्रविष्ठा-नक्षत्रेणोपलक्षितो राया चए रज्ज, न य दुचरियं कहे तहा माई / पञ्चा० 15 विव०॥ यः श्रावणो मासः, सोऽप्युपचारात् श्रविष्ठा, तस्यां भवा श्राविष्ठी। किमुक्तं अमाइरूव-त्रि०(अमायिरूप) अमायिनो रूपं यस्याऽसावमायिरूपः।। भवति ? श्राविष्ठी नक्षत्र-परिसमाप्यमानश्रावणमासभाविनी इति / अशेषच्छयरहिते, सूत्र०१ श्रु०१३ अ०) प्रौष्ठपदी नक्षत्र-परिसमाप्यमानभाद्रपदमासभाविनी / एवं सर्वत्राऽपि अमाइल्ल-त्रि०(अमायाविन्) मायारहिते, आचा० १श्रु०६ अ०४ उ० वाक्याऽर्थो भावनीयः 1 (ता साविट्ठी णमित्यादि) ता इति पूर्ववत्। श्राविष्ठीममावास्यां कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति, कति नक्षत्राणि यथायोगं अमाइल्लया-स्वी०(अमायाविता) माइल्लो मायावान, चन्द्रेण सह संयुज्य श्राविष्ठीममावास्यां परिसमापयन्ति ? भगवानाहतदभावस्तत्ता। (मायात्यागे), निरुत्सुकतायाम्, स्था०१० ठा०। (ता दोण्णिमित्यादि) ता इति पूर्ववत् / द्वे नक्षत्रे युक्तः / तद्यथाअमाणिय-त्रि०(अमान्य) अभ्युत्थानाऽकरणादित्यके, "जया यमाणियो / अश्लेषा, मघाचा इह व्यवहारनयमतेन यस्मिन् नक्षत्रे पौर्णमासी भवति होइ, पच्छा होइ अमाणियो / सिट्ठी व कब्बड़े छूढो, स पच्छा तत आरभ्य अक्तिने पञ्चदशे नक्षत्रे अमावास्या। तत आरभ्य पञ्चदशे परितप्पई // 1 // दश०१ चू० नक्षत्रे पौर्णमासी।ततः श्राविष्ठी पौर्णमासी किल श्रवणे धनिष्ठायां चोक्ता। अमाव(वा)सा-स्त्री० [अमाव(वा)स्या] अमासह वसतः चन्द्राऽौ यत्र। / ततोऽमावस्याया-मप्यस्यां श्राविष्ठ्यामश्लेषा मघा चोक्ता / लोके च वस् - यत्, ण्यत्वा। कृष्णपक्षशेषदिने, तद्दिने चन्द्राऽर्को एकराशिस्थौ तिथि-गणितानुसारतो गतायामप्यमावास्यायां वर्तमानायामपि च भवतः। वाचा प्रतिपदि यस्मिन्नहोरात्रे प्रथमतोऽमावस्याऽभूत् स सकलोऽप्यहोरात्रोऽएकस्मिन् वर्षे द्वादशः अमावस्याः। तद्यथा - मावास्येति व्यवहियते। ततो मघानक्षत्रमप्येवं व्यवहारतोऽमावास्यायां बारस अमावसाओ पन्नत्ताओ। तं जहा- साविट्ठी, पोट्ठवती, प्राप्यते, इति न कश्चिद् विरोधः / परमार्थतः पुनरिमाममावास्यां अस्सोती, कत्तिया मग्गसिरी, पोसी, माही, फग्गुणी, चेत्ती, श्राविष्ठीमिमानि त्रीणि नक्षत्राणि परिसमापयन्ति / तद्यथा- पुनर्वसु, विसाही, जेट्ठामूली, आसाढी। पुष्योऽश्लेषा च / तथाहि-अमावास्या चन्द्रयोगपरिज्ञानार्थ करणं प्रागेवोक्तम् / तत्र तद्भावना क्रियते / कोऽपि पृच्छति- युगस्याऽऽदौ द्वादश एव अमावस्याः प्रज्ञप्ताः / तद्यथा- श्राविष्ठी, प्रौष्ठपदी प्रथमा श्राविष्ठ्यमावास्या केन चन्द्रयुक्तेन नक्षत्रेणोपेता सती समाप्तिइत्यादि / तत्र श्रविष्ठा धनिष्ठा, तस्यां भवा श्राविष्ठी, श्रावण मुपयाति? तत्र पूर्वोदितस्वरूपोऽवधार्यराशिः षट्षष्टिमुहूर्ताः,एकस्य च मासभाविनी। प्रोष्ठपदा उत्तरभाद्रपदा, तस्यां भवा प्रौष्ठपदी, मुहूर्तस्य पञ्चद्वाषष्टिभागाः,एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकः सप्तषष्टिभाग भाद्रपदमासभाविनी / अश्वयुजि भवा आश्वयुजी, अश्व इतिप्रमाणो ध्रियते / तत एकेन गुण्यते, प्रथमाया अमावास्यायाः युग्मासभाविनी / एवं मासक्रमेण तत्तन्नामाऽनुरूपनक्षत्रयोगात् शेषा अपि स्पृष्टत्वात् / एकेन च गुणितं तदेव भवतीति राशिस्तावानेव जातः / वक्तव्याः / चं०प्र०१० पाहु०।सु०प्र०) ततस्तस्माद् द्वाविंशमुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य षट्चत्वारिंशतिद्वासम्प्रति (नक्षत्रयोगम्) अमावास्यावक्तव्यतायामाह - षष्टिभागाः, इत्येवंपरिमाणं पुनर्वसु-शोधनकं शोध्यते / ततः दुवालस अमावासाओ पण्णत्ताओ।तं जहा-सावट्ठी पोट्ठवती० षट्षष्टिमुहूर्तेभ्यो द्वाविंशतिमुहूर्ताः शुद्धाः, स्थिताः पश्चात् जाव आसाढी / ता सावट्ठी णं अमावासा कति णक्खत्ता चतुश्चत्वारिंशत् 44 / तेभ्य एकं मुहूर्तमपकृष्य तस्य द्वाषष्टिभागाः जोएंति? ता दोण्णि णक्खत्ताजोएति। तं जहा-असिलेसा 1, क्रियन्ते, कृत्वाचतेद्वाषष्टिभागराशिमध्ये प्रक्षिप्यन्ते, जाताः सप्तषष्टिः। महा 2 य / एवं एएणं अभिलावेण णेयव्वं / ता पोट्ठिवती णं तेभ्यः षट्चत्वारिंशत् शुद्धाः, शेषास्तिष्ठन्त्येकविंशतिः। त्रिचत्वारिंशतो दोणि णक्खत्ता जोएंति। तं जहा- पुटवफग्गुणी 1, उत्तरा 2 मुहूर्तेभ्यः त्रिंशता मुहूर्तेः पुष्यः शुद्धः, स्थिताः पश्चात् त्रयोदश मुहूर्ताः / य। असोतिं दोण्णि / तं जहा- हत्थो 1, चित्ता 2 य / कत्तियं अश्लेषा नक्षत्रं चाऽपार्द्धक्षेत्रमिति पञ्चदशमुहूर्तप्रमाणं, तत इदमागतदोण्णि। तं जहा-साति 1, विसाहारय। मग्गसिरं तिण्णि।तं मश्लेषानक्षत्रमेकस्मिन् मुहूर्ते, एकस्य च मुहूर्तस्य चत्वारिंशति जहा- अणुराहा १,जेट्ठा 2, मूलो 3 या पोसिंच दोण्णि / तं द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तषष्टिधा छिन्नस्य जहा- पुव्वासाढा 1, उत्तरासादारया माहि तिण्णि / तं जहा- षट्षष्टिसंख्येषु भागेषु शेषेषु प्रथमाऽमावास्या समाप्तिमुप-गच्छति। अमिई 1, सवणो 2, धणिट्ठा 3 य / फग्गुणिं तथा च वक्ष्यति- "ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं पढम अमावास दोण्णि / तं जहा- सतमिसया 1, पुव्वपोट्ठवती 2 य / चेति चंदे केणं नक्खत्तेणं जोएइ ? ता असिलेसाहिं असिलेसाणं एको तिपिण / तं जहा- उत्तरमहवदा 1, रेवती 2, अस्सिणी 3 य। मुहूत्तो चत्तालीसं च बावट्ठिभागा, मुहूत्तस्य बावट्ठिभागं च सत्तट्ठिहा विसाहिं दोण्णि / तं जहा- भरणी 1, कत्तिया 2 य। जेट्ठामूलिं| छेत्ता छावट्ठी चुण्णिया भागासेसा'" इति। यदा तु द्वितीयाऽमावास्या Page #924 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमावसा 740 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अमावसा चिन्त्यते, तदा सा युगस्याऽऽदित आरभ्य त्रयोदशी / ततः स | भागेषु तृतीयां श्राविष्ठीममावास्यां परिसमापयति / एवं चतुर्थी ध्रुवराशिः६६।५।१। त्रयोदशभिर्गुण्यते। जातानि मुहूर्तानामष्टौ शतानि / श्राविष्ठीममावास्यामश्लेषानक्षत्रं प्रथमस्य मुहूर्तस्य सप्तसु अष्टापञ्चाशदधिकानि 858 / एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चषष्टिभागाः 65, द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु गतेषु एकस्यचद्वाषष्टि भागस्य 62 सत्काः त्रयोदश 13 सप्तषष्टि 67 भागाः। 7 / 41 / पञ्चमी श्राविष्ठीममावास्यां पुष्यनक्षत्रं त्रिषु मुहूर्तेषु एकस्य च तत्र- "चत्तारि य बायाला, अह सोज्झा उत्तरासाढा'' इति वचनात्। मुहूर्तस्य द्विचत्वारिंशति द्वाषष्टि-भागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुर्भिाचत्वारिंशदधिकैर्मुहूर्तशतैः षट्चत्वारिंशता द्वाषष्टि - चतुष्पञ्चाशति, सप्तषष्टि-भागेषु गतेषु 3 / 42 / 54 / परिणमयति। एवमुक्तेन भागैरुत्तराषाढापर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, स्थितानि पश्चात् मुहूर्तानां प्रकारेण एतेना-ऽनन्तरोदितेनाऽभिलापेन, शेषमप्यमावास्याजातं, चत्वारि शतानि षोडशोत्तराणि, एकस्य च मुहूर्तस्य नेतव्यम्। एकोनविंशतिषिष्टिभागाः / एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सत्काः त्रयोदश विशेषमाह- (पोट्टवयं दोण्णि / तं जहा- पुव्वाफग्गुणी, उत्तरा य त्ति) सप्तषष्टिभागाः। 416, 16/62, १३/६७।तत एतस्मात् त्रीणि शतानि तत्रैवं सूत्रपाठः- "ता पोट्टवयं णं अमावासं कइ नक्खत्ता जोएति ? ता नवनवत्यधिकानि मुहूर्तानाम्, एकस्य च मुहूर्तस्य दोणि नक्खत्ता जोएति / तं जहा- पुव्वफग्गुणी, उत्तरफग्गुणी य," चतुर्विंशतिषष्टिभागाः, एकस्यचद्वाषष्टिभागस्यषट्षष्टिः सप्तषष्टिभागा इदमपि व्यवहारत उच्यते / परमार्थतः पुनस्त्रीणि नक्षत्राणि 366, 24/62, 66/67 इति शोधनीयम् / ततः षोडशोत्तरेभ्यः प्रौष्ठपदीममावास्यां परिसमापयन्ति / तद्यथा- मघा, पूर्वाफाल्गुनी, चतुःशतेभ्यः त्रीणि नवनवत्यधिकानि शुद्धानि, स्थिताः पश्चात् सप्तदश उत्तरफाल्गुनी च। तत्र प्रथमां प्रौष्ठपदीममावस्या-मुत्तरफलल्गुनीनक्षत्रं मुहूर्ताः / तेभ्य एकं मुहूर्तं गृहीत्वा द्वाषष्टिभागाः क्रियन्ते / कृत्वा च चतुर्षु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य षड्विंशतौ द्वाषष्टिभागेषु एकस्य द्वाषष्टिभागा राशौ प्रक्षिप्यन्ते, जाता एकाशीतिः / तस्याश्चतुर्विंशतिः द्वाषष्टिभागस्यद्वयोः सप्त-षष्टिभागयोः 4 / 26 / 2 अतिवान्तयोः। द्वितीयां शुद्धा, स्थिताः पश्चात् सप्तपश्चाशत् / तस्या रूपमेकमादाय प्रौष्ठपदीममावास्यां पूर्वाफाल्गुनीनक्षत्रं सप्तसु मुहूर्तेष्येकस्य च मुहूर्तस्य सप्तषष्टिभागाः क्रियन्ते, तेभ्यः षट्षष्टिः शुद्धा, पश्चादेकोऽवतिष्ठते, एकषष्टौ द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य चद्वाषष्टिभागस्य पञ्चदशसु सप्तषष्टिभागेषु सप्तषष्टिभागराशौ प्रक्षिप्यन्ते, जाताश्चतुर्दश-सप्तषष्टिभागाः / आगतं 7 / 61 / 15 गतेषु / तृतीयां प्रौष्ठपदीपमावास्यां मघानक्षत्रमेकादाशसु पुष्यनक्षत्रम् / षोडशसु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य षट्पञ्चाशति मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुरिंवंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागेष्वेकस्यच द्वाषष्टिभागस्य चतुर्दशसु सप्तषष्टिभागेष्यतिक्रान्तेषु द्वाषष्टिभागस्याऽष्टाविंशतौ सप्त-षष्टिभागेषु 11 / 34 / 28 गतेषु / चतुर्थी द्वितीयां श्राविष्ठीममावास्यां परिसमापयति / यदा तु तृतीया प्रौष्ठपदीममावास्यां पूर्वा-फाल्गुनीनक्षत्रमेकविंशती मुहूर्तेषु, एकस्य च श्राविछ्यमावास्या चिन्त्यते, तदा सा युगादित आरभ्यपञ्च-विंशतितमेति मुहूर्तस्य द्वादशसु द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य चद्वाषष्टिभागस्य द्वाचत्वारिंशति स ध्रुवराशिः 66 / 5 / 1 पञ्चविंशत्या गुण्यते, जातानि षोडश शतानि सप्त-षष्टिभागेषु 21 / 12 / 42 गतेषु / पञ्चमी प्रौष्ठपदीममावास्यां मघापञ्चाशदधिकानि मुहूर्तानाम्, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चविंशदुत्तरशतं नक्षत्रं चतुर्विं शतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तचत्वारिंशति द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चविंशति सप्तषष्टिभागाः द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चपञ्चाशति सप्त१६५०,१२५/६२,२५/६७ / तत्र चतुर्भिाचत्वारिंशदधिकैमुहूर्त- षष्टिभागेष्वतिक्रान्तेषु 24447155 परिसमा-पयति। (आसोई दोण्णि। शतैरेकस्य च मुहूर्तस्य षट्-चत्वारिंशता द्वाषष्टिभागः तं जहा- हत्थो, चिन्ता यत्ति) अत्राऽप्येवं सूत्रपाठः - ता आसोई णं प्रथममुत्तराषाढापर्यन्तं शोधनकं शुद्धम्, स्थितानि पश्चात् मुहूर्तानां अमावासं कई नक्खत्ता जोएंति? ता दोणि नक्खत्ता जोएंति / तं द्वादशशतान्यष्टोत्तराणि 1208, द्वाषष्टिभागाश्च मुहूर्तस्य एकोनाशीतिः जहा- हत्थो, चित्ता य / एतदपि व्यवहारतः / निश्चयतः 76, एकस्य द्वाषष्टि-भागस्य पञ्चविंशतिसप्तषष्टिभागाः 25/67 / पुनराश्वयुजीममावास्यां द्वे नक्षत्रे परिसामापयतः / तद्यथाततोऽष्टभिः शतैरेकोनविंशत्याधिकैः 816 मुहूर्तानाम्, एकस्य च मुहूर्तस्य उत्तरफाल्गुनी, हस्तश्च। तत्र प्रथमामाश्वयुजीममावास्यां हस्त-नक्षत्रं चतुर्विशत्या द्वाषष्टिभागैः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्ट्या पञ्चविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य एकत्रिंशति द्वा-षष्टिभागेषु, एकस्य सप्तषष्टिभागैरेको नक्षत्रपर्यायः शुद्ध्यति। स्थितानि पश्चात् त्रीणि शतानि च द्वाषष्टिभागस्य त्रिषु सप्तषष्टिभागेषु 25 / 31 / 3 / द्वितीयामाश्वयुजीनवाऽशीत्यधिकानि मुहूर्तानाम् 386 / एकस्यच मुहूर्तस्य चतुष्पञ्चाशद् ममावास्यामुत्तर-फाल्गुनीनक्षत्रं चतुःचत्वारिंशति मुहूर्तेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागाः 54/62, एकस्य चद्वाषष्टिभागस्यषड्विंशतिसप्तषष्टिभागाः मुहूर्तेस्य चतुर्षु द्वाषष्टि-भागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षोडशसु 26/67 / ततो भूयस्त्रिभिर्नवोत्तरै-मुहूर्तशतैः, एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तषष्टिभागेषु 441 4 / 16 गतेषु / तृतीयामाश्वयुजीममावास्याचतुर्विंशत्या द्वाषष्टिभागः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्ट्या मुत्तरफाल्गुनीनक्षत्रं सप्तदशमुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य एकोनचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागैरभिजिदादीनि रोहिणीकापर्यन्तानि शुद्धानि स्थितानि, द्वाषष्टि-भागेष्वेकस्य द्वाषष्टिभागस्य एकोनत्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु पश्चाद् मुहूर्ता अशीतिः, एकस्य च मुहूर्तस्य एकोनत्रिंशद्वाषष्टिभागानि, 17 / 36 / 26 / चतुर्थीमाश्वयुजीममावास्यां हस्तनक्षत्रं द्वादशएकस्य द्वाषष्टिभागस्य सप्तविंशति सप्तषष्टिभागाः 50, 26/62,27/ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तदशसु द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च 67 / ततस्त्रिंशता मुहूर्तद्गशिरः शुद्धं, स्थिताः पञ्चाशद् मुहूर्ताः 50 / द्वाषष्टिभागस्य त्रिचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु 12 / 17:43 / गतेषु / ततः पञ्चदशभिरार्द्रा शुद्धा, स्थिताः पञ्चत्रिंशत् 35 / आगतं पुनर्वसु पञ्चमीमाश्वयुजी-ममावास्यामुत्तरफाल्गुनीनक्षत्रं त्रिंशति मुहूर्तेषु, नक्षत्रम् / पञ्चत्रिंशति मुहर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य एकोनविंशति एकस्य च मुहूर्तस्य द्विपञ्चाशतिद्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वाषष्टि भागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तविंशतौ सप्तषष्टि / षट्पञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु 30 / 52056 गतेषु परिसमापयति / Page #925 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमावसा 741 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अमावसा (कत्तिअंदोण्णि। तं जहा-साई, विसाहा यत्ति) अत्राऽप्येवं सूत्रपाठः"ता कत्तिअंणं अमावासं कइ नक्खत्ता जोएंति? ता दोण्णि नक्खत्ता जोएंति / तं जहा-साई, विसाहा य त्ति' एतदपि व्यवहारनयमतेन। निश्चयतः पुनस्त्रीणि नक्षत्राणि कार्तिकी-ममावास्यां परिसमापयन्ति / तद्यथा- चित्रा, स्वातिर्विशाखा च / तत्र प्रथमां कार्तिकीममावास्यां विशाखानक्षत्रं षोडशमुहूर्तेषु, एकस्यचमुहूर्तस्य षट्त्रिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्यचद्वाषष्टिभागस्य चतुर्यु सप्तषष्टिभागेषु 16636 / 4 गतेषु। द्वितीयां कार्तिकीममावास्यां स्वातिनक्षत्रं पञ्चसुमुहूर्तेषु, एकस्य चमुहूर्तस्य नवसु द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तदशसु षष्टिभागेषु 5 / 6 / 17 गतेषु। तृतीयां कार्तिकीममावास्यां चित्रानक्षत्रमष्टसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुश्चत्वारिंशतिद्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु 8/44 / 30 / चतुर्थी कार्तिकीममावास्यां विशाखानक्षत्र त्रयो-दशमुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्यद्वाविंशतौ द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुश्चत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु 13 / 22144 गतेषु / पञ्चमी कार्तिकीममावास्यां चित्रानक्षत्रमेकविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तपञ्चाशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तपञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तपञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु 21,57/62, 57/67 गतेषु समाप्तिमुपनयति। (मग्गसिरी तिण्णि। तं जहा- अणुराहा, जेट्ठा, मूलो य त्ति) अत्राऽपि सूत्राऽऽलापक एवम्- "ता मग्गसिरिंणं अमावासं कइ नक्खत्ता जोएंति ? ता तिणि नक्खत्ता जोएंति तंजहा- अणुराहा, जेठा, मूलोय' इति / एतदपि व्यवहारः / निश्चयतः पुनरिमानि त्रीणि नक्षत्राणि मार्गशीर्षीममावास्यां परिसमापयन्ति / तद्यथा-विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा च। तत्र प्रथमा मार्गशीर्षीममावास्यां ज्येष्ठानक्षत्रं सप्तसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्यैकचत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्यचद्वाषष्टिभागस्य पञ्चसु सप्तषष्टिभागेषु 7 / 41 / 5 / द्वितीयां मार्गशीर्षीममावास्यामनुराधानक्षत्रमेकादशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्दशसु द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्याऽष्टादशसु सप्तषष्टिभागेषु 11 / 14 / 18 / तृतीयां मार्गशीर्षीममावास्यां विशाखानक्षत्रमेकोनत्रिंशति मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य एकोनपञ्चाशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टि-भागस्य एकत्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु 26 / 46 / 31 गतेषु / चतुर्थी मार्गशीर्षी-ममावस्यामनुराधानक्षत्रं चतुर्विशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तविंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पाचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु 24 / 27 / 45 गतेषु / पञ्चमी मार्गशीर्षीममावास्यां विशाखानक्षत्रं त्रिचत्वारिंशति मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य संबन्धिनो द्वाषष्टिभागस्य अष्टापञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु 43 / 0 / 58 परिसमापयति। (पोसिंच दोण्णि / तं जहा-पुव्वासाढा य, उत्तरासाढा यत्ति) तत्रैवं सूत्रालापकः- "ता पोसीण अमावासं कइ नक्खत्ता जोएंति? ता दोण्णि नक्खत्ता जोएंति। तं जहा- पुव्वासाढा य, उत्तरासाढा यत्ति'' एतदपि व्यवहारत उक्तम् / निश्चयतः पुनस्त्रीणि नक्षत्राणि परिसमापयन्ति / तद्यथा-मूलं, पूर्वाषाढा, उत्तराषाढाच। तथाहि-प्रथमांपौषीममावास्यां पूर्वाषाढनक्षत्रमष्टाविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य षट्चत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य चद्वाषष्टि भागस्य षट्सु सप्तषष्टिभागेषु 2846 / 6 गतेषु / द्वितीयां पौषीममावास्यां पूर्वाषाढानक्षत्रं द्वयोर्मुहूर्तयोरेकस्य च मुहूर्तस्य एकोनविंशतौ द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकोनविंशतौ सप्तषष्टिभागेषु 2 / 16 / 16 / तृतीयामधिकमासभाविनी पौषी-ममावास्या-मुत्तराषाढानक्षत्रमेकादशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य एकोनषष्टौ द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु 11 / 56 / 33 गतेषु। चतुर्थी पौषीभमावास्यां पूर्वाषाढानक्षत्रं पञ्चदशसुमुहूर्तेषु, एकस्यच मुहूर्तस्यषट्पञ्चाशतिद्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्चत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु 155646 / पञ्चमी पौषी-ममावास्यां मूलनक्षत्रमेकोनविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चाशद् द्वाषष्टि भागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकोनषष्टी सप्तषष्टिभागेषु 165056 अतिक्रान्तेषु परिसमापयन्ति। (माहिं तिण्णि। तंजहा- अभिई, सवणो, धनिहाय त्ति) अत्रा-ऽप्येवं सूत्रालापकः- "ता माहीणं अमावासं कइनक्खता जोएंति ? ता तिण्णि नक्खत्ता जोएंति। तं जहा- अभिई, समणो, धनिट्ठा य' / एतदपि व्यवहारतः, निश्चयतः पुनरमूनि त्रीणि नक्षत्राणि माघीममावास्यां परिसमापयन्ति / तद्यथा-उत्तराषाढा, अभिजित्, श्रवणश्च / तथाहिप्रथमां माघीममावास्यां श्रवणनक्षत्रं दशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य षडविंशतौ द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य चद्वाषष्टिभागस्याऽष्टसु सप्तषष्टिभागेषु 10 / 26 / 8 गतेषु / द्वितीयां माघीममावास्यामभिजिन्नक्षत्रं त्रिषु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य षड्विंशतौ द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य विंशतौ सप्तषष्टिभागेषु 3 / 26 / 20 गतेषु / तृतीयां माघीममावास्यां श्रवणनक्षत्रं त्रयोविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्यच मुहूर्तस्यैकोन-चत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चत्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु 23 / 36 / 35 // चतुर्थी माघीममावास्या-मभिजिन्नक्षत्रं षट्सु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तत्रिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु 6 / 37 / 47 गतेषु। पञ्चमी माघीममावास्या-मुत्तराषाढानक्षत्रं पञ्चविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य दशसु द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षष्टौ सप्तषष्टिभागेषु 25 / 10 / 60 अतिक्रान्तेषु परिणमयति।। (फग्गुणी दोण्णि।तं जहा-सयभिसया, पुव्वभडवयायत्ति) अत्राऽप्येवं सूत्रालापकः- "ता फग्गुणी णं अमावासं कइ नक्खत्ता जोएंति ? ता दोण्णि नक्खत्ता जोएंति। तं जहा-सयभिसया, पुव्वभवया यत्ति'। एतदपि व्यवहारतः, निश्चयतः पुनरमूनि त्रीणि नक्षत्राणि फाल्गुनीममावास्यां परिसमापयन्ति / तद्यथा- धनिष्ठा, शतभिषक्, पूर्वभाद्रपदाच। तत्र प्रथमां फाल्गुनीममावास्यां पूर्वभाद्रपदा एकस्मिन् मुहूर्ते, एकस्य च मुहूर्तस्य एकत्रिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टि भागस्य नवसु सप्तषष्टिभागेषु 1 / 31 / 6 गतेषु / द्वितीयां फाल्गुनीममावास्यां धनिष्ठानक्षत्रं विंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुषिष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वाविंशतौ सप्तषष्टिभागेषु 20 / 4 / 22 / तृतीयां फाल्गुनीममावास्यां पूर्वाषाढानक्षत्रं चतुर्दशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुश्चत्वारिंशतिद्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट् त्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु, 144436 // चतुर्थी फाल्गुनीममावास्यां शतभिषक्नक्षत्रं त्रिषु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तदशसु द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकोनपञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु 3 / 17 / 46 / पञ्चमी फाल्गुनी-ममावास्यां धनिष्ठानक्षत्रं षट्सु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य द्वि-पञ्चाशतिद्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सत्केषुद्वाषष्टौ सप्तषष्ठिभागेषु 6 / 52 / 62 गतेषुपरिणमयति। Page #926 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमावसा 742 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अमावसा (चेत्तीति ण्णिा तंजहा- उत्तरभद्दवया, रेखई, अस्सिणीयत्ति) अत्राऽप्येवं सूत्रालापकः-"ता चित्तीणं अमावासंकइनक्खत्ता जोएंति? ता तिण्णि नक्खत्ता जोएंति / तं जहा- उत्तरभद्दवया, रेवई, अस्सिणी यत्ति"। एतदपि व्यवहारनयमतेन,निश्चयनयमतेन पुनरमूनि त्रीणि नक्षत्राणि चैत्रीममावास्यां समापयन्ति। तद्यथा-पूर्वभाद्रपदा, उत्तरभाद्रपदा, रेवती च। तत्र प्रथमां चैत्रीममा-वास्यामुत्तरभाद्रपदानक्षत्रं सप्तत्रिंशन्मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य षट्त्रिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य दशसु सप्तषष्टिभागेषु, 37136 / 10 / द्वितीयां चैत्रीमभावास्यामुत्तरभाद्रपदानक्षत्रमेकादशसुमुहूर्तेषु, एकस्यचमुहूर्तस्य नवसुद्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयोविंशतौ सप्तषष्टि-भागेषु 11 / 6 / 23 / तृतीयां चैत्रीभमावास्यां रेवती नक्षत्रं पञ्चसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य एकोनपञ्चाशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तत्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु 5 / 46 / 37, चतुर्थी चैत्रीममावास्यामुत्तरभाद्रपदनक्षत्रं चतुर्विंशतौ मूहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य द्वाविंशतौ द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु 24 / 22 / 50 / पञ्चमी चैत्रीममावास्यां पूर्व-भाद्रपदानक्षत्रं सप्तविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तपञ्चाशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रिषष्टौ सप्तषष्टिभागेषु 27 / 57 / 63 अतिक्रान्तेषु परिसमापयन्ति। (विसाहिं भरणी कत्तिया इति) अत्राऽप्येवं सूत्रपाठः- "ता विसाहिंणं अमावासं कइ नक्खत्ता जोएंति ? तो दोण्णि नक्खत्ता जोएंति / तं जहा-भरणी, कत्तियाय" इति। एतच व्यवहारतः, निश्चयतः पुनस्त्रीणि नक्षत्राणि वैशाखीममावास्यां परिसमापयन्ति।तानि चाऽमूनि। तद्यथारेवती, अश्विनी, भरणी च / तत्र प्रथमां वैशखीममावास्यामश्विनी नक्षत्रमष्टाविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य चत्वारिंशतिद्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकादशसु सप्तषष्टिभागेषु 28140 / 11 / द्वितीयां वैशाखीममावा-स्यामश्विनी नक्षत्रं द्वयोमुहूर्तयोरेकस्य च मुहूर्तस्य एकोनचत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयोविंशतौ सप्तषष्टिभागेषु 2 / 36 / 23 / तृतीयां वैशाखी ममावास्यां भरणीनक्षत्रमेकादशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुष्पञ्चाशत् द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य अष्टत्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु 115438 गतेषु / चतुर्थी वैशाखी-ममावास्यामश्विनीनक्षत्रं पञ्चदशमुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तविंशतौ द्वाषष्टिभागेषु, एकस्यच द्वाषष्टिभागस्य एक पञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु 15 / 27151 / पञ्चमी वैशाखी-ममावास्यां रेवती नक्षत्रमेकोनविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य संबन्धिनो द्वाषष्टिभागस्य सत्केषु चतुष्षष्टौ सप्तषष्टिभागेषु 160 / 64 परिणमयति। (जेट्टामूली रोहिणी मिगसिरं चेति) अत्राऽप्येवं सूत्रालापकः - ता जेट्टामूलिं णं अमावासं कइ नक्खत्ता जोएंति ? ता दोणि नक्खत्ता जोएंतितं जहा- रोहिणी, मिगसिरंच। एतदपि व्यवहारतः, निश्चयतः पुनरिमे द्वेनक्षत्रे ज्येष्ठामूलीममावास्यां परिसमापयतः। तद्यथा- रोहिणी, कृत्तिका च / तत्र प्रथमां ज्येष्ठा-मूलीममावास्यां रोहिणी नक्षत्रमेकोनविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य षट्चत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वादशसु सप्तषष्टिभागेषु / 1646 / 12 गतेषु / द्वितीयां ज्येष्ठामूलीममावास्यां कृत्तिका नक्षत्रं त्रयोविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्यचमुहूर्तस्यैकोनविंशतौ द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य चद्वाषष्टिभागस्य पञ्चविंशतौ सप्तषष्टिभागेषु 23 / 16 / 25 अतिक्रान्तेषु। तृतीयां ज्येष्ठामूलीममावास्यां रोहिणी नक्षत्रं द्वात्रिंशति मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्यैकोनषष्टौ द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकोनचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु 325636 // चतुर्थी ज्येष्ठामूलीममावास्यां रोहिणी नक्षत्रं षट्सु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य द्वात्रिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्विपञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु 6 / 322521 पञ्चमी ज्येष्ठा-मूलीममावास्यां कृत्तिका नक्षत्रं दशसु मुहूर्तेषु, एकस्यच मुहूर्तस्य पञ्चसुद्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चषष्टौ सप्तषष्टिभागेषु 10 / 5 / 65 गतेषु परिसमापयति / (ता आसाढी णमित्यादि) ता इति पूर्ववत् / आषाढी, णमिति वाक्यालङ्कारे। कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति ? भगवानाह- (ता इत्यादि) ता इति पूर्ववत् / त्रीणि युञ्जन्ति / तद्यथा- आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्यश्च / एतदपि व्यवहारत उक्तम्।परमार्थतः पुनरमूनि त्रीणि नक्षत्राणि आषाढीममावास्यां परिणमयन्ति / तद्यथा- मृगशिरः, आर्द्रा, पुनर्वसुश्च / तत्र प्रथमामाषाढीममावास्यामार्द्रा नक्षत्रं दशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य एकपञ्चाशतिद्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयोदशसु सप्तषष्टिभागेषु 10 / 51 / 13 / द्वितीयामाषाढीममावास्यां मृगशिरो नक्षत्रं सप्तविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशतौ द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षड्विंशतौ सप्तषष्टिभागेषु 27 / 24 / 26 / तृतीया-माषाढीममावास्यां पुनर्वसु नक्षत्रं नवसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य द्वयोषिष्टिभागयोरकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु रा४०॥ चतुर्थीमाषाढीममावास्यां मृगशिरो नक्षत्रं सप्तविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य चमुहूर्तस्य सप्त-त्रिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रिपञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु 27 / 37 / 53 गतेषु / पञ्चमीमाषाढीममावास्यां पुनर्वसु नक्षत्रं द्वाविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्यय षोडशसुद्वाषष्टिभागेषु 22 / 1610 गतेषु परिसमापयन्ति इति / तदेवं द्वादशानामप्यमावास्यानां चन्द्रयोगोपेतनक्षत्रविधिरुक्तः। चं०प्र० 10 पाहु०। ज्यो०। संप्रत्येतासामेव कुलादियोजनामाह - ता साविट्ठीणं अमावासं किं कुलं जोएंति, उवकुलं जोएति, कुलोवकुलं वा जोएति. पुच्छा? ता कुलं वा जोएति, उवकुलं वाजोएति, णो लभइ कुलोवकुलं। कुलंजोएमाणे महाणक्खत्ते जोएति, उवकुलं जोएमाणे असिलेसा णक्खत्ते जोएति / ता साविट्ठी णं अमावासं कुलं जोएति, उवकुलं वा जोएति / कु लेण वा जुत्ता उवकुलेण वा जुत्ता साविट्ठी अमावासं जुत्त त्ति वत्तट्वं सिया, एवं णेयव्वं / मग्गसिरीए 1 माहीए 2 फग्गुणीए 3 आसाढीए 4 कुलोवकुलं भाणियव्वं / सेसाणं कुलोवकुला त्थि। जाव कुलोदकुलेण वा जुत्ता आसाढी अमावासं जुत्त त्ति वत्तव्वं सिया। (ता साविट्ठी णमित्यादि) ता इति पूर्ववत् / श्राविष्ठी श्रावण मासभाविनीममावास्यां किं कुलं युनक्ति ? उपकुलं युनक्ति ? कुलोपकुलं वा युनक्ति ? भगवानाह- (ता कुलं वा० इत्यादि) Page #927 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमावसा 743 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अमावसा कुलमपियुनक्ति, वाशब्दोऽपिशब्दार्थः' उपकुलं वायुनक्ति। न लभते योगमधिकृत्य कुलोपकुलम्। तत्र कुलं कुलसंझनक्षत्रं श्राविष्ठीममावास्यां युजन् मघानक्षत्रं युनक्ति / एतच व्यवहारत उच्यते / व्यवहारो हि गतायामप्यमावास्यायां वर्तमानयामपि च प्रतिपदि योऽहोरात्रो मूले अमावास्यायां संबन्धः, ससकलोऽप्यहोरात्रोऽमावास्येति व्यवहियते। तत एव व्यवहारतः श्रावठ्यिाममावास्यायां मघानक्षत्रसंभवादुक्तम्, कुलं युञ्जन् मघानक्षत्रं युनक्तीति / परमार्थतः पुनः कुलं युञ्जन् पुष्यनक्षत्रं युनक्तीति प्रतिपत्तव्यम्, तस्यैव कुलप्रसिद्ध्या प्रसिद्धस्य श्राविष्ठ्याममावास्यायां संभवात् / एतच्च प्रागेव भावितम् / एवमुत्तरसूत्रमपि व्यवहारनयमतेन यथायोगं परिभावनीयम् / उपकुलं युञ्जन् अश्लेषानक्षत्रं युनक्ति। संप्रत्युपसंहारमाह-(ता साविट्ठीणं इत्यादि) यत उक्तप्रकारेण द्वाभ्यां कुलोपकुलाभ्यां श्राविष्ठ्याममावास्यायां चन्द्रयोगः समस्ति, न कुलोपकुले, न ततः श्राविष्ठीममावास्यायां कुलमपि 'याशब्दोऽपिशब्दार्थः' युनक्ति, उपकुलं वा युनक्ति इति वक्तव्यं स्यात् / यदि वा कुलेन वा युक्ता, उपकुलेन वा युक्ता सति श्राविष्ठ्यमावास्या युक्तेति वक्तव्यं स्यात्। (एवं नेयव्वमिति) एवमुक्तेन प्रकारेण शेषमप्यमावास्याजातं, नेतव्यम् / नवरं मार्गशीर्ष्या माध्यां फाल्गुन्यामाषाढ्यां च कुलोपकुलं भणितव्यम्, शेषाणां त्वमावास्यानां कुलोपकुलं नाऽस्ति, ततो न वक्तव्यम्। संप्रतिपाठकानुग्रहाय सूत्रालापका दर्श्यन्ते-"तोपोट्ठवईणं अमावासं किं कुलं जोएइ, उपकुलं वा जोएइ, कुलोवकुलं वा जोएइ ? ता कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, नो लभइ कुलोवकुलं / कुलं जोएमाणे उत्तरफग्गुणी जोएइ, उवकुलं जोएमाणे पुव्वाफग्गुणी जोएइ / ता पोह्रवई णं अमावासं कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलेण वा जुत्ता उवकुलेण वा जुत्ता पोट्टवया अमावासा जुत्त त्ति वत्तव्वं सिया। ता आसोई णं अमावासं किं कुलं जोएइ, उवकुलं जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ ? ता कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, नो लभइ कुलोवकुलं / कुलं जोएमाणे चित्ता नक्खत्ते जोएइ, उवकुलं जोएमाणे हत्थनक्खत्ते जोएइ। ता आसोईणं अमावासं कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलेण वा जुत्ता उवकुलेण वा जुत्ता आसोई अमावासा जुत्ता त्ति वत्तव्यं सिया। ता कत्तियं णं अमावासं किं कुलं जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलोवकुलं वा जोएइ? ता कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, नोलभइ कुलोवकुलं! कुलंजोएमाणे विसाहा नक्खत्ते जोएइ, उपकुलं जोएमाणे साति-नक्खत्ते जोएइ। ता कत्तियं णं अमावासंकुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलेण वा जुत्ता उवकुलेण वा जुत्ता कत्तिई अमावासा जुत्त त्ति वत्तव्वं सिया। ता भग्गसिरि णं अमावासं किं कुलं जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलोवकुलं वा जोएइ? ताकुलं वा जोएइ, उवकुलं वाजोएइ, कुलोवकुलं वा जोएइ / कुलं जोएमाणे मूलनक्खत्ते जोएइ, उवकुलं जोएमाणे जेहानक्खत्ते जोएइ, कुलोवकुलंजोएमाणे अणुराहानक्खत्ते जोएइ। ता मग्गसिरिंणं अमावासं कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलोवकुलं वा जोएइ / कुलेण वा जुत्ता उवकुलेण वा जुत्ता कुलोवकुलेण वा जुत्ता जुत्त त्ति वत्तव्वं सिया' इत्यादि / निश्चयतः पुनः कुलादियोजना प्रागुक्तचन्द्रेण योगमधिकृत्य स्वयं परिभावनीया ! चं०प्र० 10 पाहु०। / "पंच संवच्छरिएणं जुगे बावडिंअमावासाओ'। युगे पञ्च संवत्सराः, तत्र त्रयश्चान्द्राः, तेषु षट्त्रिंशद् अमावास्या भवन्ति, द्वौ चाऽभिवर्द्धितौ संवत्सरी, तत्र षड्विंशतिरमावास्याः। स०६२ सम०। अथैवंरूपा युगे कियन्त्योऽमावास्याः, कियन्त्यश्च पौर्णमास्यः? इति युगे तद्गतसर्वसंख्यामाह - तत्थ खलु इमाओ बावट्ठि पुण्णिमाओ, बावहि अमावासाओ पण्णत्ताओ / एए कसिणा रागा बावहि, एए कसिणा विरागा बावहि, एए चउव्वीसे पव्वसते, एवं चउव्वीसे कसिणरागविरागसए। ता जावइया णं पंचण्हं संवच्छराणं समया एएणं चउव्वीसेणं सतेणं ऊणगा एवतिया णं परिमिता असंखेजा देसराग-विरागसमया भवंतीति।जत्थचउव्वीसे समयसए, तत्थ बावट्ठिसमए कसिणो रागो, बावट्ठिसमए कसिणो विरागो, तव्वञ्जियमक्खाया। (तत्थ खलु इत्यादि) तत्रयुगे खल्विमा एवंस्वरूपाद्वाषष्टिः पौर्णमास्यो, द्वाषष्टिश्चामावास्याः प्रज्ञप्ताः / तथा युगे चन्द्रमस एते अनन्तरोदितस्वरूपाः कृत्स्नाः परिपूर्णा रागा द्वाषष्टिः, अमावास्यानां युगे द्वाषष्टिसंख्याप्रमाणत्वात्, तास्वेव चन्द्रमसः परिपूर्णरागसंभवात्। एते अनन्तरोदितस्वरूपायुगे चन्द्रमसः कृत्स्ना विरागा सर्वात्मना रागाभावा द्वाषष्टिः, युगे पौर्णमासीनां द्वाषष्टिसंख्यात्मकत्वात, तास्वेव चन्द्रमसः परिपूर्णा विरागसंभवात्। तथा युगे सर्वसंख्याया एकं चतुर्विंशत्यधिक पर्वशतम्, अमावास्यापौर्णमासीनामेवपर्वशब्दस्य वाच्यत्वात्, तासांच पृथक् पृथक् द्वाषष्टिसंख्यानामेकत्र मीलने चतुर्विशत्यधिक - शतत्वात् / एवमेव युगमध्ये सर्वसंकलनया चतुर्विंशत्यधिक कृत्स्नरागविरागशतम् / (ता जावइयाणमित्यादि) यावन्तः पञ्चानां चन्द्राऽभिवर्द्धितरूपाणां संवत्सराणां समया एकेन चतु-विंशत्यधिकेन समयशतेनऊनका एतावन्तः परिमिता असंख्याता देशरागविरागसमया भवन्ति, एतेषु सर्वेष्वपि चन्द्रमसो देशतो रागविरागभावात् / यत्र चतुर्विशत्यधिकं समयशतं, तत्र द्वा-षष्टिसमयेषु कृत्स्नो रागः द्वाषष्टिसमयेषु कृत्स्नो विरागः, तेन तद्वर्जनमित्याख्यातम्, मयेति गम्यते / भगवद्वचनमेतत् सम्यक् श्रद्धयम् / चं०प्र० 13 पाहु०। सम्प्रत्यमावास्या विषयंचन्द्रनक्षत्र-योगसूर्यनक्षत्रयोगच प्रतिपिपादयिषुः प्रथमामावास्याविषयं प्रश्नसूत्रमाह - तत एतेसि णं पंचण्हं संवच्छराणं पढम अमावासं चंदे के णं णक्खत्तेणं जोएति ? ता असिले साहिं, असिलेसाणं एको मुहुत्तो, चत्तालीसंच बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स, बावट्ठिभागं च सत्तट्टिहा छेत्ता छावट्टि चुण्णिया भागा सेसा / तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएति ? ता असिलेसाहिं चेव, असिलेसाणं एक्को मुहत्तो, चत्तालीसं बावट्ठिभागा मुहूत्तस्स, बावट्ठिभागं च सत्तहिहा छेत्ता छावहिचुण्णिया भागा सेसा। "ता एएसि णं" इत्यादि सुगमम् / भगवानाह- (ता असिलेसाहिं इत्यादि) ता इति पूर्ववत्। अश्लेषाभिः सह संयुक्तश्चन्द्रः प्रथमामावास्यां परिसमापयति, अश्लेषानक्षत्रस्य च षट्-तारकत्वात् तदपेक्षया बहुवचनम्। तदानीं च प्रथमामावास्या परिसमाप्तिवेलायामश्लेषनक्षत्रस्य एको मुहूर्तः, चत्वारिंशच द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्य, द्वाषष्टिभागंच सप्तषष्टिधा छित्वा षट्-षष्टिचूर्णिका भागाः शेषाः। तथाहि-सएव ध्रुवराशिः 665 / 1 / Page #928 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमावसा 744 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अमावसा प्रथमाऽमावास्या किल संप्रति चिन्त्यमाना वर्तते, इत्येकेन गुण्यते, एकेन च गुणितं तदेव भवतीति तावानेव जातः / तत एतस्मात्- बावीसंच मुहूत्ता, छायालीसं बिसट्ठिभागा या एयं पुण्णवसुस्स य, सोहेयव्वं हवइ पुन्नं / / 1 / / इति वचनाद् द्वाविंशतिर्मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य षट्चत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागा इत्येवं प्रमाणं शोधनकं शोध्यते / तत्र षट्षष्टिमुहूर्तेभ्यो द्वाविंशतिमुहूर्ताः शुद्धाः, स्थिताः पश्चात् चतुश्चत्वारिंशत् 44 / तेभ्य एकं मुहूर्तमपाकृष्य तस्य द्वाषष्टिभागाः कृताः, ते द्वाषष्टिभागराशिमध्ये प्रक्षिप्यन्ते,जाताः सप्तषष्टिः। तेभ्यः षट्चत्वारिंशत् शुद्धाः, शेषास्तिष्ठन्ति एकविंशतिः / त्रिचत्वारिंशतौ मुहूर्तेभ्यस्त्रिंशता पुष्यः शुद्धः, स्थिताः पश्चात् त्रयोदश मुहूर्ताः, अश्लेषानक्षत्रं चाऽर्द्धक्षेत्रमिति पशदशमुहूर्तप्रमाणम् / तत इदमागतम् - अश्लेषानक्षत्रस्य एकस्मिन् मुहूर्ते चत्वारिंशति मुहूर्तस्य द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तषष्टिधा छिन्नस्य षट्षष्टिभागेषु शेषेषु प्रथमाऽभावास्या परिसमाप्तिमुपगच्छति। संप्रत्यस्यामेव प्रथमायाममावास्यायां सूर्यनक्षत्रं पृच्छति-(तं समयं च णमित्यादि) सुगमम्। भगवानाह-(ता असिलेसाहिं चेव इत्यादि) इह य एवामावास्यासु चन्द्रनक्षत्रयोगविषये धुवराशिः, यदेव शोधनकं, स एव सूर्यनक्षत्रयोगध्रुवराशिः, तदेव शोधनकमिति। तदेव सूर्यनक्षत्रयोगेऽपि नक्षत्रं, तावदेव च तस्य नक्षत्रस्य नक्षत्रशेषमिति / तदेवाहअश्लेषाभिर्युक्तः सूर्यः प्रथमामावास्यां परिसमापयति / तस्यां च परिसमाप्तिवेलायां अश्लेषाणामेको मुहूर्तः, एकस्य च मुहूर्तस्य चत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तषष्टिधा छित्त्वा षट्षष्टिचूर्णिता भागाः शेषाः। द्वितीयामावास्या-विषयं सूत्रमाह - ता एते सि णं पंचण्ह संवच्छ राणं दोचं अमावासं चंदे केणंणक्खत्तेणं जोएति? ता उत्तराहिं फग्गुणीहि, उत्तराणं फग्गुणीणं चत्तालीसं मुहुत्ता, पणतीसंच बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स, बावट्ठिभागं च सत्तट्ठिहा छेत्ता पण्णट्टि चुण्णिया भागासेसा / तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ पुच्छा ? ता उत्तराहिं चेवफग्गुणीहि, उत्तराणं फग्गुणीण चत्तालीसं मुहुत्तातंचेव०जाव पण्णट्ठि चुण्णिया भागा सेसा। (ताएएसिणमित्यादि) सुगमम्। भगवानाह-ता उत्तराहि-मित्यादि० उत्तराभ्यां फग्गुनीभ्यां युक्तश्चन्द्रो द्वितीयाममावास्यां परिसमापयति / तदानीं च द्वितीयामावास्याऽपरिसमाप्ति-वेलायामुत्तरयोः / फाल्गुन्योश्चत्वारिंशद् मुहूर्ताः, पञ्चत्रिंशद् द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्य, द्वाषष्टिभागं च सप्तषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्काः पञ्चषष्टिचूर्णिका भागाः शेषाः / तथाहि- स एव ध्रुव राशिः 665 / 1, द्वाभ्यां गुण्यते, जातं द्वात्रिंशदधिकं मुहूर्तानां शतम्। एकस्य मुहूर्त्तस्य द्वाषष्टिभागा दश, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तषष्टिधा छिन्नस्य द्वौ चूर्णिकाभागौ 132 / 10 / 2 / तत्र प्रथमतः पुनर्वसुशोधनकं शोध्यते- द्वात्रिंशदधिकमुहूर्तशताद् द्वाविंशतिमुहूर्ताः शुद्धाः, स्थितं पश्चाद् दशोत्तरं शतम्। तेभ्यो-ऽप्येको मुहूत्र्तो गृहीत्वा द्वाषष्टिभागीक्रियते, कृत्वा च ते द्वाषष्टि- भागा द्वाषष्टिभागराशौ प्रक्षिप्यन्ते, जाता द्विसप्ततिषिष्टिभागाः / तेभ्यः षट्चत्वारिंशत् शुद्धाः / स्थिताः पश्चात् षड्-विंशतिः। नवोत्तराच / मुहूर्तशतात् त्रिंशता पुष्यः शुद्धः, स्थिताः पश्चादेकोनाशीतिः। ततोऽपि पञ्चदशभिर्मुहूर्ते रश्लेषा शुद्धा, स्थिताः पश्चाच्चतुःषष्टिः, ततोऽपि त्रिंशता मधा शुद्धा, स्थिताश्चतु:त्रिंशत् / ततोऽपि त्रिंशता पूर्वाफागुनी शुद्धा, स्थिताः पश्चाचत्वारः, उत्तराफाल्गुनीनक्षत्रं च व्यर्द्धक्षेत्रमिति पञ्चचत्वारिंशत् मुहूर्तप्रमाणम् / तत इदमागतमुत्तराफाल्गुनीनक्षत्रस्य चन्द्रयोगमुपागतस्य चत्वारिंशति मुहूर्तेषु, एकस्य चमुहूर्तस्य पञ्चत्रिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तषष्टिधा छिन्नस्य पञ्चषष्टौ चूर्णिकाभागेषु शेषेषु द्वितीयाऽमावास्या समाप्तिं याति। संप्रत्यस्याममावास्यायां सूर्यनक्षत्रं पृच्छन्ति-(तं समयं चणमित्यादि) सुगमम् / भगवानाह- (ता उत्तराहिं इत्यादि) ता इति पूर्ववत् / उत्तराभ्यामेव फाल्गुनीभ्यां युक्तः सूर्यो द्वितीया-ममावास्या परिसमापयति। तदानीं च द्वितीयामावास्या-परिसमाप्तिवेलायामुत्तरयोः फाल्गुन्योश्चत्वारिंशद् मुहूर्ताः।तंचेव जावत्ति० वचनादेकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चत्रिंशद् द्वाषष्टि-भागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पण्णढिं चुण्णिया भागासेसत्ति एतचोभयोरपि चन्द्रसूर्ययोर्नक्षत्रयोगपरिज्ञानहेतोः करणस्य समानत्वादवसेयम्। तृतीयामावास्याविषयं प्रश्नसूत्रमाह - ता एतेसिण पंचण्हं संवच्छराणं तचं अमावासं चंदे पुच्छा? ता हत्थेणं, हत्थस्स चत्तारि मुहुत्ता, तीसंबावट्ठिभागा मुहूत्तस्स, बावट्ठिभागं च सत्तट्ठिहा छेत्ता चउसट्ठिधुण्णिया भागा सेसा ।तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएति पुच्छा ? ता हत्थेणं चेव। हत्थस्स णं तं चेव चंदस्स। (ता एएसि णमित्यादि) सुगमम् / भगवानाह-(ता हत्थेणं० इत्यादि) हस्तेन युक्तश्चन्द्रस्तृतीयाममावास्यां परिसमापयति / तदानीं च हस्तनक्षत्रस्य चत्वारो मुहूर्ताः, त्रिंशच द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्य, द्वाषष्टिभाग चैकं सप्तषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्काश्चतुष्पष्टिचूर्णिता भागाः शेषाः / तथाहि- स एव ध्रुवराशिः ६६५।१तृतीयस्या अमावास्यायाः संप्रति चिन्तेति त्रिभि-गुण्यते, जातमष्टनवत्यधिकं मुहूर्तानां शतम् / एकस्यच मुहूर्तस्य पञ्चदश द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयः सप्तषष्टिभागाः 168 / 15 / 3 / तत एतस्माद् द्विसप्तत्यधिकेन मुहूर्त-शतेन षट्चत्वारिंशता च मुहूर्तस्य द्वाषष्टिभागैः पुनर्वस्वादीनिउत्तरफाल्गुनीपर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, पश्चादवतिष्ठन्ते पश्चविंशतिमुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य एकत्रिंशद् द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयः सप्तषष्टिभागाः 25 / 31 / 3 / तत आगतं हस्तनक्षत्रस्य चन्द्रेण सह योगमुपागतस्य चतुर्षु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुष्षष्टौ, सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु तृतीया-ममावास्यां परिसमापयति। अत्रैव सूर्यविषयं प्रश्नसूत्रमाह- (तं समयं च णमित्यादि) सुगमम् / भगवानाह-(ता हत्थेणं चेव त्ति) हस्तेनैव नक्षत्रेण युक्तः सूर्योऽपि तृतीयाममावास्यां परिसमापयति / एतच्चोभयोरपि करणस्य समानत्वादवसेयम् / एवमुत्तरसूत्रयोरऽपि द्रष्टव्यम् / शेषे विषये अतिदेशमाह- हत्थस्सणं तं चेवचंदस्स० यथा चन्द्रस्य विषये शेषमुक्तं, तदेव सूर्यस्याऽपि विषयं वक्तव्यम्। तथैवहत्थस्स चत्तारि मुहूत्ता,तीसंच बावट्ठिभागा, मुहुत्तस्स, बावट्टिभागं च सत्तट्टिहा छेत्ता,चउसहिचुण्णिया भागासेसा इति। Page #929 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमावसा 745 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अमावसा संप्रति द्वादशामावास्याविषयं प्रश्नसूत्रमाह - ताएतेसिणं पंचण्हं संवच्छराणं दुवालसमं अमावासं चंदे केणं नक्खत्तेणं जोएति पुच्छा? ता अबाहिं, अद्दाणं चत्तारि मुहुत्ता, दस च बावद्विभागा मुहुत्तस्स, बावट्ठि भागं च सत्तट्ठिहा छेत्ता, चउप्पण्णं चुणिया भागा सेसा / तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएति पुच्छा? ता अदाए चेव / अहाए जं चेव चंदस्स, तं चेव। (ता एएसि णमित्यादि) सुगमम्। भगवानाह-(ता अबाहि-मित्यादि) आर्द्रायुक्तश्चन्द्रो द्वादशीममावास्यां परिसमापयति / तदानीं चायाश्चत्वारो मुहूर्ताः, दश च मुहूर्त्तस्य द्वाषष्टिभागाः, द्वाषष्टिभागं च सप्तषष्टिधा छित्त्वा चतुष्पञ्चाशत्चूर्णिकाभागाः शेषाः। तथाहि- स एव धुवराशिः 66 / 5 / 1 / द्वादश्यमावास्या चिन्त्यमाना वर्तते इति द्वादशभिर्गुण्यते, जातानि सप्तशतानि विनवत्यधिकानि मुहूर्तानाम्, एकस्य च मुहूर्तस्य षष्टिद्वाषष्टि-भागाः, एकस्य चद्वाषष्टिभागस्यद्वादश सप्तषष्टिभागाः 76260 / 12 / एतस्माचतुर्भिः शतैर्द्विचत्वारिंशदधिकै मुहूर्तानाम्, एकस्य मुहूर्तस्य षट्चत्वारिंशता द्वाषष्टिभागै: पुनर्वस्वादीनि उत्तराषाढापर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, स्थितानि पश्चात् त्रीणि शतानि पञ्चाशदधिकानि मुहूर्तानाम्, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्दश द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वादश सप्तषष्टिभागाः 350 / 14 / 12 / ततस्त्रिभिः शतैर्नवोत्तरैर्मुहूर्तानाम्, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशत्या द्वाषष्टि भागः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्ट्या सप्तषष्टिभागैरभिजिदादीनि रोहिणीपर्यन्तानि शुद्धानि, स्थिताः पश्चाच्चत्वारिंशन्मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य एकपञ्चाशद् द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयोदश सप्तषष्टिभागाः 40151 / 13 / ततस्त्रिंशता मुहूर्तमूंगशिरः शुद्धं, स्थिताः पश्चाद् दश मुहूर्ताः, शेषं तथैव 10 / 51 / 13 / तत आगतमानक्षत्रस्य चन्द्रेण सह संयुक्तस्य चतुर्दा मुहूर्तेषु, एकस्य च दशसु द्वाषष्टि-भागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुष्पशाशति सप्तषष्टि भागेषु 4 / 10 / 54 द्वादशी अमावास्या परिसमाप्तिमियंति। संप्रति सूर्यविषयं प्रश्नमाह-(तं समयं च णमित्यादि) सुगमम् / भगवानाह-(ता अदाए चेव) आर्द्रयैव युक्तः सूर्योऽपिद्वादशी-ममावास्यां परिसमापयति। शेषपाठविषये अतिदेशमाह-"अदाए जंचेव चंदस्स,तं चेव' चन्द्रस्य विषये आर्द्रायाः शेषमुक्तम्, तदेव सूर्यविषयेऽपि वक्तव्यम् / अदाए चत्तारि मुहूत्ता, दश य बावट्ठिभागा मुहत्तस्य, बावहिभागं च सत्तट्टिहा छेत्ता चउप्पण्णं चुणिया भागा सेसा० इति। चरमद्वाषष्टितमामावास्याविषयं प्रश्नमाह - ता एतेसिणं पंचण्ह संवच्छराणं चरिमं बावट्ठि अमावासं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएति पुच्छा ? ता पुणव्वसुणा, पुणव्वसुस्स णं बावीसं मुहुत्ता, छायालीसं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स सेसा। तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएति पुच्छा ? ता पुणव्वसुणा चेव, पुणव्वसुस्सणं बावीसं मुहुत्ता, छायालीसंच बावट्ठि-भागा मुहुत्तस्स सेसा। (ता एएसि णमित्यादि) सुगमम्। भगवानाह-(ता पुणव्वसुणा इत्यादि) ता इति पूर्ववत् / पुनर्वसुना युक्तश्चन्द्रश्चरमां द्वाषष्टितमाममावास्यां परिसमापयति। तदानीं चचरमद्वाषष्टि-तमामावास्यापरिसमाप्तिवेलायां पुनर्वसुनक्षत्रस्य द्वाविंशति-मुहूर्ताः, षट्चत्वारिंशच द्वाषष्टिभागाः मुहूर्तस्य शेषाः। तथाहि- स एव ध्रुवराशिः 66 / 5 / 1 / द्वाषष्ट्या गुण्यते, जातानि मुहूर्तानां चत्वारिंशच्छतानि द्विनवत्यधिकानि, एकस्य च मुहूर्तस्य द्वाषष्टि-भागानां त्रीणि शतानि दशोत्तराणि, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वाषष्टिः सप्तषष्टिभागाः 4062,310/62,67 तत एतस्मात् चतुर्भिः शतैाचत्वारिंशदधिकैर्मुहूर्तानाम्, एकस्य च मुहूर्तस्य षट्चत्वारिंशता द्वाषष्टि भागैः प्रथमशोधनकं शुद्धम, जातानि षट्त्रिंशत्शतानि पञ्चाशदधिकानिमुहूर्तानाम्, एकस्य चद्वाषष्टिभागस्य द्वाषष्टि सप्तषष्टिभागाः ३६५०।२६४।६२शततोऽभिजिदाद्युत्तराषाढापर्यन्तसकलनक्षत्रपर्यायविषयं शोधनकम् / अष्टौ शतानि एकोनविंशत्यधिकानि मुहुर्तानाम, एकस्य चतुर्विंशतिः द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्टिसप्तषष्टिभागाः 816 / 24 / 66 इत्येवं प्रमाणं चतुर्भि-गुणयित्वा शोध्यते। स्थितानि पश्चात् त्रीणि शतानि चतुःसप्तत्यधिकानि मुहूर्तानाम्, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुष्षष्ट्यधिकं शतं द्वाषष्टिभागानाम्, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्टिः सप्तषष्टिभागाः 374 / 164 / 66 / ततो भूयस्त्रिभिः शतैर्मुहूर्तानां नवोत्तरैः, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशत्या द्वाषष्टिभागैः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्ट्या सप्तषष्टिभागैः३०६।२४।६६। अभिजिदादीनि रोहिणीपर्यन्तानि शुद्धानि, स्थितानि पश्चात् सप्तषष्टिर्मुहूर्तानाम्, एकस्य च मुहूर्तस्य षोडश द्वाषष्टिभागाः६७।१६। ततस्त्रिंशता मुहूर्तेर्मंगशिरः, पञ्चदशभिरार्द्रा शुद्धा, स्थिताः पश्चात् शेषा द्वाविंशतिर्मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य षोडश द्वाषष्टिभागाः 22 / 16 / तत आगतं चन्द्रेण सह संयुक्तं पुनर्वसु-नक्षत्रं द्वाविंशतौ मुहूर्तेषु, करय च मुहूर्तरयषट्चत्वारिंशतिद्वा-षष्टिभागेषु, शेषेषु चरमां द्वाषष्टितमाममावास्यां परिसमापयति। सूर्यविषयं प्रश्नसूत्रमाह-(तं समयंचणमित्यादि) सुगमम् / भगवानाह(ता पुणव्वसुणा चेव त्ति) सूर्यः पुनर्वसुना चैव सह योगमुपागतश्चरमां द्वाषष्टितमाममावास्यां परिणमति / शेषे अतिदेशमाह-(पुणव्वसुस्सणं बावीसं मुहुत्ता इत्यादि) एतच्च प्राग्वद्भावनीम् / चन्द्रमसः सूर्यस्य चामावास्याविषये नक्षत्र-योगपरिज्ञानहेतोः करणस्य समानत्वात्। चं० प्र० 10 पाहुन संप्रति कियत्सु मुहूर्तेषु गतेषु अमावास्यातोऽनन्तरा पौर्णमासी ? कियत्सु वा मुहूर्तेषु गतेषु पौर्णमास्या अनन्तरममावास्या ? इत्यादि निरूपयति - ता अमावासाओ णं पुण्णिमासिणी चत्तारि बायाले मुहुत्तसते, छायालीसं बावट्ठिभागे मुहुत्तस्स आहिताति वदेजा, ता अमावासाओ णं अमावासा अट्ठा पंचासीते मुहुत्तसते, तीसंच बावट्ठिभागे मुहुत्तस्स अहियाति वदेजा, ता पुणिमासिणीओ णं अमावासा चत्तारि बायाले मुहुत्तसते तं चेव, ता पुण्णिमासिणीओ णं पुण्णिमासिणी अट्ठा पंचासीते मुहुत्तसते, तीसंच बावट्ठिभागे मुहुत्तस्स आहिता०। एस णं एवइए चंदे मासे, एसणं एवइए सगले जुगे। Page #930 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमावसा 746 - अभिवानराजेन्द्रः- भाग 1 अमिय (ता अमावासाओणमित्यादि) सुगमम् नवरं अमावास्याया अनन्तरं अमावास्याश्च नेतव्याः। यदा आश्विनीपूर्णिमा अश्विनीनक्षत्रोपेता भवति, चन्द्रमासस्याऽर्द्धन पौर्णमासी, पौर्णमास्या अनन्तर-मर्द्धमासेन तदा पाश्चात्त्याऽनन्तरा अमावास्या चैत्री चित्रानक्षत्रयुक्ता भवति, चन्द्रमासस्यामावास्या, अमावास्यायाश्च अमावास्या परिपूर्णेन अश्विन्या आरभ्य पूर्व चित्रानक्षत्रस्य पञ्चदशत्वात् / एतच्च चन्द्रमासेन, पौर्णमास्या अपि पौर्णमासी परिपूर्णेन चन्द्रमासेन भवति। व्यवहारनयमधिकृत्योक्तमवसेयम्, निश्चयत एकस्यामप्याश्वयुग्मायथोक्ता मुहूर्तसंख्या। उपसंहारमाह-(एस णमित्यादि) एष अष्टौ सभाविन्याममावास्यायां चित्रानक्षत्राऽसंभवात् / एतय प्रागेव मुहूर्तशतानि पञ्चाशीत्यधिकानि त्रिंशच्च द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्येति, दर्शितम्।यदाच चैत्री चित्रानक्षत्रोपेतापौर्णमासी भवति, तदा पाश्चात्त्या एतावान् एतावत्प्रमाणश्चन्द्रमासः। तत एतावत्प्रमाणं शकलं खण्डरूपं अमावास्या आश्विनी अश्विनीनक्षत्रयुक्ता भवति, एतदपि व्यवहारतः। युगं, चन्द्रमासप्रमितं युगं शकलमेतदित्यर्थः। चं०प्र०१३ पाहु। निश्चयत एकस्यामपि चैत्रमासभाविन्याम मावास्यायामश्विनीनक्षत्रस्यापूर्णिमानक्षत्रात् अमावास्यायाम्, अमावास्यानक्षत्राच ऽसंभवात्। एतदपि सूत्रमाश्विन-चैत्रमासावधिकृत्य प्रवृत्तम्। पूर्णिमायां नक्षत्रस्य नियमेन संबन्धमाह - यदा च कार्तिकी कृत्तिकानक्षत्रयुक्ता पौर्णमासी भवति, तदा वैशाखी विशाखानक्षत्रयुक्ता अमावास्या भवति, कृत्तिकातोऽर्वाक् विशाखायाः जयाणं मंते ! साविठ्ठी पूण्णिमा भवइ, तयाणं माही अमावासा पञ्चदशत्वात्। यदा वैशाखी विशाखानक्षत्रयुक्तापौर्णमासी भवति, तदा भवइ, जया णं भंते ! माही पुण्णिमा भवइ, तया णं साविट्ठी ततोऽनन्तरा पाश्चात्त्याऽमावास्या कार्तिकी कृर्तिकानक्षत्रोपेता भवति, अमावासा भवइ? हंता, गोयमा ! जया णं साविट्ठी० तं चेव विशाखातः पूर्वं कृत्तिकायाः चतुर्दश-त्वात्। एतच कार्तिकवैशाखमासावत्तव्वं / जया णं भंते ! पोट्ठवई पुण्णिमा भवइ, तया णं फग्गुणी ऽवधिकृत्योक्तम् / यदा च मार्गशीर्षी मृगशिरोयुक्ता पौर्णमासी भवति, अमावासा भवइ, जया णं फग्गुणी पुण्णिमा भवइ, तया णं तदा ज्येष्ठामूली ज्येष्ठामूलनक्षत्रोपेता अमावास्या, यदा ज्येष्ठामूली पोट्टवई अमावासा भवइ ? हंता, गोयमा ! तं चेव एवं / एतेणं पौर्णमासी, तदा मार्गशीर्षी अमावास्या / एतच्च मार्गशीर्षज्येष्ठमासाअभिलावणं इमाओ पुण्णिमाओ अमावासाओ णेअव्वाओ। वधिकृत्य भावनीयम् / यदा पौषी पुष्यनक्षत्रयुक्ता पौर्णमासी, तदा अस्सिणी पुणिमा, चेत्ती अमावासा। कत्तिगी पुण्णिमा, विसाही आषाढी पूर्वाषाढानक्षत्रयुक्ता अमावास्या भवति, यदा पूर्वाषाढानक्षत्रयुक्ता अमावासा / मग्गसिरी पुण्णिमा, जेट्ठामूली अमावासा / पोसी पौर्णमासी भवति, तदा पौषी पुष्यनक्षत्रयुक्ता अमावास्या भवति। एतच पुण्णिमा, आसाढी अमावासा। पौषाऽऽषाढमासाऽवधिकृत्योक्तमिति / उक्तानि मासाऽर्द्धमासपरिस(जया णं भंते ! इत्यादि) यदा भदन्त ! श्राविष्ठी श्रविष्ठानक्षत्र-युक्ता माफ्कानि नक्षत्राणि / जं०७ वक्ष / पूर्णिमा भवति, तदा तस्या अक्तिनी अमावास्या माघी मघा-नक्षत्रयुक्ता अमि(मे)ज्ज-त्रि०(अमेय) अमिताऽनेकवस्तुयोगात् क्रय-विक्रयनिषेधाद् भवति / यदा तु माघी मघानक्षत्रयुक्ता पूर्णिमा भवति, तदा पाश्चात्त्या वा / कल्प० 5 क्ष०। अविद्यमानदातव्ये नगरादौ, जं०३ वक्ष। अमावास्या श्राविष्ठी श्रविष्ठानक्षत्रयुक्ता भवतीति काक्वा प्रश्नः ? अविद्यमानमाये, भ०११ श०११ उ०। भगवानाह-(हंतेति) भवति / तत्र गौतम ! यदा श्राविष्ठीत्यादि, तदेव अमि(मे)ज्झ-न०(अमेध्य) न०त० अशुचिद्रव्ये, स्था० 10 ठा०। वक्तव्यं, प्रश्ने समानोत्तरत्वात् / अयमर्थः -- इह व्यवहारनयमतेन | विष्ठायाम, तं० "अमिज्झेण लित्तोसि, न जाणइ केण विलित्तो"। यस्मिन्नक्षत्रे पौर्णमासी भवति, तत आरभ्य अक्तिने पञ्चदशे चतुर्दशेवा आ०म०प्र०) नक्षत्रे नियमतोऽमावास्या, ततोयदा श्राविष्ठी श्रविष्ठानक्षत्रयुक्ता पौर्णमासी / अमि(मे)ज्झपुण्ण-त्रि०(अमेध्यपूर्ण) विष्ठावृते, तं०। भवति, तदा अक्तिनी अमावास्या माघी मघानक्षत्रयुक्ता भवति, अमि(मे)ज्झमय-त्रि०(अमेध्यमय) अमेध्यं प्रचुरमस्मिन्निति / श्रविष्ठानक्षत्रादारभ्य मघानक्षत्रस्य पूर्व चतुर्दशत्वाद् / अत्र सूर्यप्रज्ञप्ति गूथाऽऽत्मके, तंग चन्द्रप्रज्ञप्तिवृत्त्योस्तुमघानक्षत्रादारभ्य श्रविष्ठानक्षत्रस्यपञ्चदशत्वादिति अमि(मे)ज्झरस-पुं०(अमेध्यरस) विष्ठारसे, तं०। पाठः, तेनाऽत्र विचार्यम् / एतच्च श्रावणमासमधिकृत्य भावनीयम्।। यदा भदन्त ! माघी मधानक्षत्रयुक्ता पूर्णिमा भवति, तदा श्राविष्ठी अमि(मे) ज्झसंभूय-त्रि०(अमेध्यसंभूत) विष्ठासंभवे, तं०। श्रविष्ठानक्षत्रयुक्ता पाश्चात्त्या अमावास्या भवति, मघानक्षत्रा-दारभ्य पूर्व अमि(मे)ज्झुक्कर-पुं०(अमेध्योत्कर) उच्चारनिकरकल्पे,षो०१ विव०। श्रविष्ठानक्षत्रस्य पञ्चदशत्वात्। इदंच माघमास-मधिकृत्य भावनीयम्। अमित्त-न०(अमित्र) अहितसाधके, स्था०४ ठा०४ उ०। आचा०। यदा भदन्त ! प्रौष्ठपदी उत्तरभाद्रपदायुक्ता पौर्णमासी भवति, तदा ('पुरिसजाय' शब्देऽस्य चतुर्भङ्गी द्रष्टव्या) पाश्चात्त्या अमावास्या उत्तरफाल्गुनी-नक्षत्रयुक्ता भवति, उत्तरभाद्रपदा- अमिय-त्रि०(अमृत) अमरधर्मिणि, विशे०। मरणाऽभावे, आ० म० द्वि०॥ दारभ्य पूर्वमुत्तरफाल्गुनी नक्षत्रस्य पञ्चदशत्वात् / एतच्च तत्पथ्ये, आव०४ अ०॥"वर्षासुलवणममृतं, शरदिजलं गोपयश्च हेमन्ते। भाद्रपदमासमधिकृत्य अवसेयम् / यदा चोत्तरफाल्गुनी-नक्षत्रयुक्ता शिशिरे चाऽऽमलकरसो, घृतं वसन्ते गुडश्चाऽन्ते" // 1 // सूत्र०१ श्रु०१ पौर्णमासी भवति, तदा अमावास्या प्रौष्ठपदी उत्तरभाद्रपदोपेता भवति, अ०१ उ०। उत्तरफल्गुनीमारभ्य पूर्वमुत्तर-भाद्रपदानक्षत्रस्य चतुर्दशत्वात्। इदं च *अमित-त्रि०ा परिमाणरहिते,ध०२ अधि०। अपरिशेषे,आ० चू० फाल्गुनमासमधिकृत्योक्तम् / एवमेतेनाऽभिलापेन इमाः पूर्णिमा / 1 अ०। अनन्ते, असंख्येये वनस्पतिपृथिवीजीवद्रव्यादौ च / Page #931 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमिय 747 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अमुत्तत्त "केवली पुरच्छिमेणं मियं पिजाणइ, अमियं पिजाणइ" भ०५ श० यत्र तदमृतरसरसोपमम्। सुधाऽऽस्वादमधुरे, "सेसाणं (तीर्थकृताम्) 4 उ०। केवलज्ञाने च। विशे अमियरसरसोवमं आसि' !आ०म०प्र०। अमियगइ-पुं०(अमितगति) दाक्षिणात्ये दिकुमारेन्द्रे, भ०३ श० 8 उ01 | अमियवाहण-पुं०(अमितवाहन) औत्तराहदिकुमारेन्द्र, स्था० 2 ठा० स०ा प्रज्ञा०। स्वनामख्याते माथुरसंघीये माधवसेना- ऽऽचार्यशिष्ये 3 उ०। भ० प्रज्ञा० स० दिगम्बरजैनाचार्ये, स च वैक्रमीये 1050 वर्षे अभवत् / येन अमियासणिय-पुं०(अमितासनिक) अबद्धासने, मुहुर्मुहुः स्थानात् धर्मपरीक्षासुभाषितरत्नसंदोहनामानौ च ग्रन्थौ निर्मितौ। जै००। | स्थानाऽन्तरं गच्छति, अनेकान्यासनानि सेवमाने, कल्प०६ क्ष) अमियचंद-पुं०(अमृतचन्द्र) कुन्दकुन्दाचार्यकृतसमयसार-ग्रन्थोपरि अमिल-न०(अमिल)ऊर्णावस्त्रे, ध०२ अधिवादशा निचूल आचा०। 'आत्मख्याति' नाम्न्याः टीकायाः, तथा प्रवचनसार टीकापञ्चास्ति अमिलक्खु-पुं०(अम्लेच्छ) आर्ये म्लेच्छभाषाऽनभिज्ञे, सूत्र०१ श्रु०१ कायटीका-तत्त्वार्थसार-पुरुषार्थसिद्ध्युपाय-तत्त्वदीपिकादिग्रन्थानांच अ०२ उ०। कारके वैक्रमीये द्वाषष्ट्युत्तरनवमशतके (962) विद्यमाने आचार्ये, जै०३०॥ अमिला-स्त्री०(अमिला) श्रीनेमिनाथस्य प्रथमशिष्यायाम, स०। अमियणाणि (ण)-पुं०(अमितज्ञानिन्) अमितं च तद् ज्ञानं पडिकायां ह्रस्वमहिष्याम्, बृ०१ उ०। चाऽमितज्ञानम्, तद् यस्याऽस्ति सोऽमितज्ञानी। आ०म०प्र०। सर्वज्ञ, अमिलाण-त्रि०(अम्लान) अमलिने, औ०। नि०चू० स०अपरिशेषज्ञानिनि, अनन्तज्ञानिनिचा आ०चू०१अ०। केवलिनि, अमिलाय-त्रि०(अम्लान) न म्लायते शीघ्रं तदिति ! चिरममलिने, पं०चून नि०यू०२ उ01 अमियमणंतं नाणं, तं तेसिं अमियणाणिणो तो ते। अमिलायमल्लदाम-न०(अम्लानमाल्यदामन्) अम्लानपुष्प-दामनि, तं जेण णेयमाणं, तं चाऽणंतं जओ नेयं / / 1050 / / भ०११ श०११ उ०॥ विपा०] अनन्तत्वात् मातुमशक्यममितं केवलज्ञानलक्षणं ज्ञानं, तत् | अमिलिय-त्रि०(अमिलित) असंसक्ते, विशे० अनेकशास्त्र-संबन्धीनि तेषां विद्यते, ततोऽमितज्ञानिनस्ते। कथं पुनः केवलज्ञानस्या- सूत्राण्येकत्र मीलयित्वा यत्र पठति, तत् मिलितम् / असदृशधान्यऽऽनन्त्यम् ? इत्याह- तत् केवलज्ञानं, येन कारणेन ज्ञेयमानं वर्तते, मेलकवत्। अथवा परावर्तमानस्य यत्र पदादि-विच्छेदोन प्रतीयते, तत् ज्ञानस्य ज्ञेयाऽनुवर्तित्वात / तच्च ज्ञेयं सर्वमपि यतोऽनन्तमतः मिलितम्, न तथा, अमिलितम्। मिलितदोषविप्रमुक्ते सूत्रगुणे, अनु०॥ केवलज्ञानस्याऽऽनन्त्यमिति। विशेष पं०चूला ग०। अमिलितं यद् ग्रन्थान्तरवर्तिभिः पदैरमिश्रितं, यथाअमियतेयसूरि-पुं०(अमिततेजःसूरि) स्वनामख्याते सूरिभेदे, "एएसिं सामायिकसूत्रेदशवैकालिकोत्तराध्ययनादिपदानि नक्षिपति।बृ०१ उ०। अमियतेयसूरीणं अंतिए सहजायाए पव्वइउं एवं वि सेसकारणं तेण अमुइ-त्रि०(अमोचिन्) अमोचनशीले, बृ०४ उ०।"अमुइ समुत्ते विजो भणियं" / दर्शन ___ण मुए"। पं०भा०। पं०चू०।। अमियभूय-न०(अमृतभूत) भूतशब्द उपमार्थः। परमपदहेतुत्वाज्जरामर- अमुक्कपुण्णय-त्रि०(अमुक्तपूर्णत) अमुक्ता पूर्णता येन तत् अमुक्तपूर्णतम्। णादिविघातकत्वेनाऽमृततुल्ये जिनवचने, "जिणवयणसुभासियं पूर्णे, ध०२ अधिo अमियभूयं / " आतु०॥ अमुग-त्रि०(अमुक) अदस्-अकच् / उत्वमत्वे कस्य गः / प्रा० अमियमेह-पुं०(अमृतमेघ) दुष्षमदुष्षमाऽन्तेवर्षिणि चतुर्थे महामेघे, जं०। १पाद / अदःशब्दार्थे अज्ञातनामरूपे विवक्षितेऽर्थे, "अमुगंहि भोउं' चतुर्थमेघवक्तव्यतामाह अमुकस्मिन् भवतु। प्रश्न०२ आश्र० द्वा० "अमुगं गामं वचामो, तत्थ तंसि च णं घयमेहंसि सत्तरत्तं णिवतितंसि समाणंसि एत्थ णं दो तिन्नि वा दिवसा अच्छिस्सामो" आ०म० द्वि०। प्राव०। अमियमेहे णामं महामेहे पाउन्भविस्सइ, भरहप्पमाणमित्ते अमुग्ग-त्रि०(अमुद्ग) अविद्यमानमुद्गे, अनु०॥ आयामेणं जाव वासं वासिस्सइ, जे णं भरहे वासे अमुच्छिय-त्रि०(अमूर्छित) न मूञ्छितोऽमूञ्छितः / सूत्र० 1 श्रु० रुक्खगुच्छगुम्मलयवल्लितणपव्वगहरितगओसहिपवालंकु 10 अ० दश०। आहारादौ मूमिकुर्वति, पं०व० 2 द्वार / रमाईए तणवणप्फइकाइए जणइस्सइ।। पिण्डे शब्दादिषु वा गृद्धे, दश० 5 अ०१ उ०। आचा०। (तंसि० इत्यादि) तस्मिंश्च घृतमेघे सप्तरात्रं निपतति सति, अत्र अमुण-पुं०(अज्ञ) अज्ञे, मूर्खे च बृ०१ उ०। प्रस्तावेऽमृतमेघो नाम यथार्थनामा महामेघः प्रादुर्भविष्यति, वर्षिष्यति इतिपर्यन्तं पूर्ववत् / यो मेघो भरते वर्षे वृक्षगुच्छ-गुल्मलतावल्ल्यः , अमुणिय-न०(अज्ञात) नाऽस्ति मुणितं ज्ञातं यत्र, तदमुणितम् / तृणानि प्रतीतानि, पर्वगा इक्ष्वादयः, हरितानि दूर्वादीनि, औषध्यः ज्ञानविकले, प्रश्न०२ आश्र०द्वा०। शाल्यादयः, प्रवालाः पल्लवाः, अङ्कुरा : शाल्यादिबीजसूचय | अमुत्त-त्रि०(अमुक्त) लोकव्यापारप्रवृत्ते सकर्मणि, स्था० १०ठाण इत्यादीनि तृणवनस्पतिकायिकान् बादर-वनस्पतिकायिकान् * अमूर्त-त्रि०। अरूपिणि, आव० 4 अ०॥ जनयिष्यतीति। जं०३ वक्षा अमुत्तत्त-न०(अमूर्तत्व) मूर्तत्वाऽभावसमनियतत्वे,द्रव्या०२ अमियरसरसोवम -त्रि०(अमृतरसरसोपम) अमृतरसेन रस-स्योपमा | अध्या०। 'मूर्तिं दधाति, मूर्त्तत्वममूर्तत्वं विपर्ययात् / '' मूर्तिः Page #932 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमुत्तत्त 748 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अमोहणाधारि(ण) रूपरसगन्धस्पर्शादिसन्निवेशता, तस्या धारणस्वभावो मूर्त्तत्वं, दरिसणं भण्णति। जगारुद्दिहस्स तगारेण णिद्देसो कीरति-(तगं ति), मूर्तस्वभावः, तस्माद्द्यद् विपरीतं, तदमूर्तत्वम्, अमूर्तस्वभावः। द्रव्या० (बेंति) ब्रुवन्ति आचार्याः, कथयन्तीत्यर्थः / अमूढदिट्टि त्ति दारं गयं / / 13 अध्या०। नि०चू०१ उ०॥ अमुत्ति-स्त्री०(अमुक्ति) मुक्तिमोक्षगतिः, न मुक्तिरमुक्तिः। संसारसुखाऽ इयाणिं दिलुतोभिलाषे, आतु०। सलोभतायां षड्वंशे गौण-परिग्रहे, प्रश्न० 5 सुलसा अमूढदिट्ठी, आश्रद्वा० सुलगा साविगा अमूढदिट्टित्ते उदाहरणं भण्णति- भगवं चंपाए णयरीए अमुत्तिमग्ग-न०(अमुक्तिमार्ग) न विद्यते मुक्तेरशेषकर्मप्रच्युति-लक्षणाया समोसरिओ। भगवयाय भवियथिरीकरणत्थं अंबडो परिव्वायगो रायगिह मार्गः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मको यस्मिन्, तदमुक्तिमार्गम्। अधर्मपक्षे गच्छंतो भणिओ- सुलसं मम वयणा सायं पुच्छेज्जसि / सो चिंतेतिविभङ्गस्थाने, सूत्र०२ श्रु०२ अ०| पुण्णमंतिया सा, जंअरहा पुच्छति। तेण परिक्खणणिमित्तं भत्तं मग्गिता, अमुय-त्रि०(अस्मृत) मनोऽपेक्षया स्मृतिमनागते,भ०३ श०६ उ०। अलभमाणेण बहूणि रूवाणि काऊण मगिता / ण दिण्णं / भण्णति यअमुयग-त्रि०(अमृतक) अबाह्याऽभ्यन्तरपुद्गलरचिताऽवयवशरीरिणि परं अणुकंपाए देमि, ण ते पत्तबुद्धीए। तेण भणियं-जदि पत्तबुद्धीए देहि ? जीवे, स्था०ा "अमुयगो जीवेति" देवानां बाह्याऽभ्यन्तरपुद्गलादान- सा भणति- ण देमि / पुणो पउमासणं विउव्वियं / सा भणति- जइ विरहेण वैक्रियवतां दर्शनाबाह्याऽभ्यन्तरपुद्गलरचितावयवशरीरो जीव वि सिक्खा बंभणो, तहा वितेण देमिपत्तबुद्धीए। तओतेण उवसंथारियं इत्यध्यवसायवत् पञ्चमं विभङ्गज्ञानम्। स्था०७ ठा०। सब्भावं च से कहियं / ण दिट्ठिमोहो सुलसाए जाओ। एवं अमूढदिविणा अमुसा-अव्य०(अमृषा) सत्ये, सूत्र०१ श्रु०१०अ०। होयव्यं"। नि०चू०१ उ०। (अस्मिन्नेव भागे 112 पृष्ठे 'अंबड' शब्देऽपि अमुह-त्रि०(अमुख) निरुत्तरे, व्य०६ उ०। कथेयम्) अमुहरि(ण)-त्रि०(अमुखरिन्) अवाचाले, उत्त०१ अ०) अमूढलक्ख-त्रि०(अमूढलक्ष) अमूढः सुनिर्णयो लक्षो बोध विशेषो यस्य सोऽमूढलक्षः / पञ्चा०१४ विव०। अष्टा यथावस्थितवस्तुयेदिनि, बृ० अमूढ-त्रि०(अमूढ) अविप्लुते, दश०१० अ० सन्मार्गज्ञे, सूत्र०१ श्रु० 1 उ०। समस्ततत्त्वाविपरीतवेदने, आ०म०वि०। 14 अ०ा तत्त्वज्ञानिनि, अष्ट०२ अष्टा अमूढणाण-त्रि०(अमूढज्ञान) यथाऽवस्थितज्ञाने, आ०म०वि०। अमेत्तणाण-न०(अमात्रज्ञान) मात्रा मानं, तेन रहितममात्रम्, अमात्रं च तज्ज्ञानं च अमात्रज्ञानम्। अप्रमिते केवलज्ञानिनि, अष्ट०१२ अष्टा अमूढदिट्ठि-स्त्री०(अमूढ दृष्टि) अमूढा तपो विद्याऽतिशयादिकुतीर्थिकर्द्धिदर्शनेऽप्यमोहस्वभावादविचलिता, सा च दृष्टि - अमेहा-स्त्री०(अमेधा) मेधोपघाते, नि००१ उ० श्व सम्यग्दर्शनममूढदृष्टिः / प्रव० 6 द्वार / बुद्धिमत्कुतीर्थिक अमोसलि-न०(अमुशलि) न मुशली क्रिया यस्मिन् प्रत्युषे दर्शनेऽप्यविगीतमेवाऽस्मद्-दर्शनमिति मोहविरहितायां बुद्धौ, उत्त०२ क्षणे, तदमुशलि। सुप्रत्युपेक्षणभेदे, ओघा अ०। अमूढबुद्धिसंपन्ने, मुह्यते स्म अस्मिन्निति मूढः। न मूढोऽमूढस्तस्य अणचाविय अचलियं, अणाणुबंधी अमोसलिं चेव / दृष्टिः / याथातथ्यदृष्टौ, नि०चू०१ उ०। बालतपस्वितपोविद्याऽतिश- छप्पुरिसा ण च खोडा, पाणी पाणे पमजणया / / 25 / / यदर्शनैर्न मूढा स्वरूपात् न चलिता दृष्टिः सम्यग्दर्शनरूपेण यस्थाऽसौ (अमोसलि त्ति) न मुशली क्रिया, यस्मिन् प्रत्युपेक्षणे, तदमुशली अमूढदृष्टिः / ग०१ अधिकाधा पञ्चा० दशा प्रत्युपेक्षणम्। यथा मुशलं कुट्टने ऊर्ध्वं लगति, अधस्तिर्यग् च / एवं न इदाणिं अमूढदिट्ठित्ति दारं-मुह्यते स्म अस्मिन्निति मूढः, नमूढो-ऽमूढः / प्रत्युपेक्षणा कर्तव्या। किंतुयथा प्रत्युपेक्षमाणस्य ऊर्ध्व पीठिषु न लगति, अमूढदृष्टिः, याथातथ्यदृष्टिरित्यर्थः / जहा सा भवति, तहा भण्णति - न च तिर्यक्षु येन भूमौ, तथा कर्त्तव्यम् / ओघ० धा स्था०। उत्त। णेगविहा इड्डीओ, पूर्व परवादिणं च दळूणं / नि०चून जस्स ण मुज्झइ दिट्ठी, अमूढदिहि तगं बेति // 26 // अमोह-त्रि०(अमोघ) अर्थबलाऽऽयातत्वेन विफले, अमिथ्या-रूपे, (णेगविह त्ति) णाणप्पगारा, का ता? (इड्डि त्ति) इड्डीओ-इस्सरियं, विशे०। अवन्ध्ये, दश० 8 अ०) आदित्योदयास्तसमययोतं पुण विजामंतं तवोमंतं वा विउव्वणाऽऽगासगमण-विभंगणाणादि रादित्यकिरणविकारजनितेषु आतामेषु कृष्णेषु श्यामेषु वा ऐश्वर्यम् / (पूय त्ति) असणपाणखादिम-सादिमवत्थकंबलादी- जस्स शकटार्द्ध संस्थितेषु (सूर्यबिम्बस्याऽधःस्थेषु कदाचिदुप-लम्यमानेषु वा जं पाउग्गं, ते णं से पडिलाभे पूया / केसिं सा? (परवादिणं ति) रेखारूपेषु) दण्डेषु, भ०३ श०६ उ० जी०। अनु०) जइण-सासणवइरत्ता परा, ते य परिव्वाययरत्तपडियादी पासंडत्था, अमोह-त्रि०ा मोहनं मोहो वितथग्राहः, न मोहोऽमोहः / अवितथग्राहे, चसद्दाओ गिहत्था धीवरादि / अहवा चसद्दाओ ससासणे वि जे इसे विशे०। मोहरहिते, अष्ट० 32 अष्ट०। जम्बूमन्दरस्य रुचकवरे पर्वत पासत्था, ते पूयासकारादी दर्छ,'च अनुक्करिसणे, पायपूरणे वा दट्ठव्वो' / कूटभेदे, स्था० 8 ठा०ा दी। शोभाञ्जन्या नगर्या उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे (दह्णं ति) दृष्ट्वा जहा तेसिं परवादीणं पूया सक्काररिड्डि- चैत्ये पूज्यमाने यक्षे, विशे० विसेसा दीसंति, ण तहा अम्ह / माणुसए चेव मोक्खमग्गो विसिट्टतरो | अमोहणाधारि(ण)-पुं०(अमोहनाधारिन्) अमोहनं मोहरहितं, भवेजा। अतो भण्णति-(जस्स त्ति) जस्सपुरिसस्स, ‘ण इति पडिसेहे' समस्तम्,आ समन्ताद् धारयतीत्येवंशीलोऽमोहनाधारी / मोहो विण्णाणविवचासो, दिट्ठी दरिसणं, स एवंगुणविसिट्ठो अमूढदिट्ठी सूत्राऽऽदेर्निर्मोहं धारके, व्य०१० उ०। दरिसणं, सरकार ण इति पडिस / अमोहण Page #933 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमोहदंसि(ण) 749 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अम्हिया अमोहदंसि(ण)-पुं०(अमोघदर्शिन) अमोघं पश्यति यथावत् पश्यति, | अम्मो- अव्या "अम्मो आश्चर्य" / / 2 / 205 / इति सूत्रेण अम्मो दश०६अ। इत्याश्चर्ये प्रयोक्तव्यम्। "अम्मो कह पारिजइ" || प्रा०२ पाद। अंमोहवयण-न०(अमोहवचन) धर्मदेशनारूपेऽव्यर्थवचने, स्था० 4 | अम्ह-(अस्माकम्) अस्मद आमा सहितस्य "णे णो मज्झ अम्ह ठा० 3 उ० अम्हं०"।८।३।११४। इत्यादिसूत्रेणाऽम्हाऽऽदेशः। प्रा०३ पादा वयम्अमोहा-स्त्री०(अमोघा) जम्ब्वाः सुदर्शनाया नाम्नि, (मोघं निष्फलम) अस्मदो जसा सहितस्य "अम्ह अम्हे अम्हो मो वयं भे न मोघा अमोघा / अनिष्फला इत्यर्थः / तथाहि-शाश्वतस्वामिभावेन जसा"1८।३।१०६॥ इति सूत्रेण अम्हाऽऽदेशः / प्रा०३ पाद। "अम्ह प्रतिपन्ना सती जम्बूद्वीपाधिपत्यमुपजनयति, तदन्तरेण तद्विषयस्य चोक्खा चोक्खाऽऽयारा' औol स्वामिभावस्यैवाऽयोगात्, ततोऽनिष्फलेति / जी०३ प्रति०। जं० अम्हइं-(वयम्-अस्मान) "जश्शसोरम्हे अम्हई" ||4|376 उत्तराऽजनाऽद्रेर्दक्षिण-दिग्भागवर्तिन्यां पुष्करिण्याम, द्वी०। इत्यपभ्रंशे अस्मदोजशिशशि च प्रत्येकम्- अम्हे अम्हइंइति आदेशौ। स्था०। जी०। "अवसन सुअहिँ सुअच्छिअहिँ, जि- अम्हइँ तिर्वं ते वि"।"अम्हई अम्बा-पुं०(आम) तामाऽऽमेम्बः।८।२।५६। इति सूत्रेण संयुक्तस्य मयुक्तो देक्खइ''। प्रा० 4 पाद। 'म्बः'।चूत-(आँब) वृक्षे, तत्फले च। प्रा०२ पाद। अम्हं -(अस्माकम् ) "णे णो मज्झ अम्ह अम्हं०" ||3 / 114| अम्बकूणगहत्थगय-त्रि०(आम्फलहस्तगत) स्वकीयतपस्तेजो इत्यादिसूत्रेणाऽऽमा सहितस्याऽस्मदोऽम्हमादेशः। प्रा०३ पाद। अम्हं जनितदाहोपशमनार्थमामाऽस्थिकं चूषति, भ० 15 श०१ उ०॥ धूया णो आढाइ''। विपा०१ श्रु०६ उ०। अम्मड-पुं०(अम्मड) स्वनामख्याते परिव्राजके, भ०१४ श०८ उ०| अम्हक्के र-त्रि०(अस्मदीय) "इदमर्थस्य के रः" |8/21147 / औ०। स्था०। (तद्वक्तव्यता अनुस्वारप्रकरणे 'अंब(म)ड' शब्देऽस्मि इतीदमर्थस्य प्रत्ययस्य 'केर' इत्यादेशः "सेवादौ वा" ARIEEI न्नेव भागे 110 पृष्ठे निरूपिता) इति क-द्वित्वम्। अस्मत्सत्के, प्रा०२ पाद। अम्मया-स्त्री०(अम्बा) पुत्रमातरि, ज्ञा०१ अ०। प्रश्न०। भला नि०। अम्हत्तो-(अस्मभ्यम् )"ममाऽम्हौ भ्यसि" 5 / 3112 / इति सूत्रेण अम्महे-अव्य०(अम्महे) हर्षे, "अम्महे हर्षे" |1 / 254 / इति भ्यसि 'अम्ह' इत्यादेशः। प्रा०२ पाद। शौरसेन्याम् 'अम्महे' इति निपातो हर्षे प्रयोक्तव्यः। "अम्महे एआए अम्हाण-(अस्माकम्) अस्मद आमा सहितस्य- णे णो मज्झ अम्ह०। सुम्मिलाए सुपलिगढिदो भवं'' 1 प्रा०४ पाद। 8 / 3 / 114 / इत्यादिसूत्रेण अम्हाणाऽऽदेशः। प्रा०३ पाद। अम्मापितिसमाण-पुं०(अम्बापितृसमान) मातापितृभ्यां समाने पुत्रेषु मातापित्रोरिव व्यवहारादिष्वविषमदर्शिनि, व्य०३ उ०। उपचारं विनाऽपि अम्हातिस-त्रि०(अस्मादृश) यादृशादेर्दुस्तिः / 141317 / इति साधुषु एकान्तेनैव वत्सले श्रमणोपासके, स्था० 4 ठा० पैशाच्या 'दृ' इत्यस्य स्थाने तिरादेशः / प्रा०४ पाद। 3 उ०। अम्हार-(मम) पैशाच्यां “षष्ठ्याः " ८४॥३५॥इति सूत्रेण षष्ठ्या लुक् / अम्मापियर-पुं०(अम्बापितृ) द्वि०ब०। मातापित्रोः, स्था०३ ठा० 130 // | "संगरसएहिँ जुवण्णिअइ, देक्खु अम्हारा कंतु" प्रा०४ / अम्मापेइय-न०(अम्बापैतृक) मातापितृसम्बन्धिनि, भ०। अम्हारिस-त्रि०(अस्मादृश) "दृशः क्विप्-टक्सकः" 8/1 / 12 / अम्मापेइएणं भंते ! सरीरए केवइयं कालं संचिट्ठए? गोयमा! इति सूत्रेण क्विबाद्यन्तस्य ऋतो रिरादेशः।"पक्ष्म-श्म-म-स्म-झां जावइयं कालं से भवधारणिज्जे सरीरए अव्वावण्णे भवइ, एवइयं म्हः" 1८1७४॥इति संयुक्तस्य स्मभागस्य मकाराऽऽक्रान्तो हकारः। कालं संचिट्ठइ / अहे णं समए समए वोयसिञ्जमाणे प्रा०२ पाद।"अम्हारिसो" अस्मत्-सदृशेषु, प्रा० १पाद। चरिमकालसमयंसि वोच्छिण्णे भवइ। अम्हासुन्तो-अम्हाहिन्तो(अस्मभ्यम्) "ममाऽम्हौ भ्यसि" (अम्मापेइए णंति) अम्बापैतृकं शरीराऽवयवेषु शरीरोपचारात्, 8 / 3 / 11 / इत्यस्मदो भ्यसि अम्हाऽऽदेशः। "भ्यसस् त्तो दो दुहि उक्तलक्षणानि मातापित्रङ्गानीत्यर्थः / (जावइयंति) यावन्तं कालं, हिन्तो सुन्तो" ८1३।इति सूत्रेण भ्यसः 'सुन्तो', हिन्तो' इत्यादेशौ / (सेत्ति) तत् तस्य वा जीवस्य, भवधारणीयं भवधारणप्रयोजनं, प्रा०३पाद। मनुष्यादिभवोपग्राहकमित्यर्थः। (अव्वा-वण्णेत्ति) अविनष्टम्, (अहेणं अम्हि-(अहम्) "अस्मदो म्मि अम्मि अम्हि हं अहं अहयं सिना" ति) उपचयाऽन्तिमसमया-दनन्तरमेतद् अम्बापैतृकं शरीरम् 8 / 3 / 10 / इति सूत्रेण सिना सह 'अम्हि'इत्यादेशः। प्रा०३ पाद। (वोयसिज्जमाणेत्ति) व्यव-कृष्यमाणं हीयमानमिति। भ०१श०७ उ०। अम्हिया-स्त्री०(अस्मिता) अहङ्काराऽनुगमे, द्वा०२६ द्वा०। अम्मि-(अहम्) अस्मदः प्रथमैकवचनान्तस्य"अस्मदो म्मि अम्मि अम्हि यत्राऽन्तर्मु-खतया प्रतिलोमतापरिणामेन प्रकृतिलीने चेतसि हं अहं अहयं सिना''।८।३।१०५। इत्यनेन 'अम्मि' इत्यादेशः। 'उन्नम सत्तामात्रमेव भाति, साऽस्मिता / द्वा० 20 द्वा०। अस्मिता न अम्मि कुविआ'1 प्रा०३ पाद। दृग्दर्शनकता, दृग्दर्शनयोः परुषरजस्तमोऽनभिभूतसात्त्विक Page #934 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अम्हिया 750- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अयण परिणामयोः भोक्तभोग्यत्वेनाऽवस्थितयोरेकता अस्मिता / तदुक्तम् / | दन्तुरं पक्वं शूलाकृतं मांस, तद् भुङ्क्ते इत्येवंशीलोऽजकर्करभोजी। 'दृग्दर्शनशक्त्योरेकात्मतैवास्मिता"। द्वा० 25 द्वा० अजादेः कर्करायितमांसभुजि, "अयककरभोई य, तुन्दिल्ले चिय अम्हे -(वयम्,अस्मान्)जस्शसोरम्हे अम्हइं।।४।३७६।इति सोणिए / आउयं नरए कंखे, जहा एस व एलए''७|| उत्त०७ अ०॥ अपभ्रंशे अस्मदो जसि शसि च 'अम्हे' इत्यादेशः। प्राकृतेऽपि-एवम्- | अयकडिल्ल-न०(अयःकडिल्ल) अयो लोह, तन्मयं यत् कडिल्लंतत्। अम्हे थोवा रिउ बहुअ, कायर एम्ब भणंति। प्रा०४ पाद।। लोहकटाहे, ओघo अम्हे चय-त्रि०(अस्माक) अस्माकमिदम् / युष्मदस्मदोऽञ | अयकरय-पुं०(अजकरक) सप्तदशेमहाग्रहे, सू०प्र०२० पाहु०। कल्प०। एमयः।।२।१६।इत्यस्मदः परस्येदमर्थस्याऽत्रः 'एचय' इत्यादेशः। चं०प्र०ा जंग"दो अयकरगा" स्था०२ ठा०२ उ०। अस्मदीये, प्रा०४ पाद। अयकोट्ठय-न०(अयःकोष्ठक) लोहप्रतापनार्थे कुशूले, भ०१६ श०१ अम्हो-(अस्माकम् ) "णे णो मज्झ अम्ह अम्हं अम्हे | उ०। उपा० जी० अम्हो" ||3 / 114 / इत्यामा सहितस्याऽस्मद अम्हो' इत्यादेशः। अयक्खंत-पुं०(अयस्कान्त) लोहाऽऽकर्षक चुम्बके मणौ, आ० म०प्र०। प्रा०३ पाद। अयगर-पुं०(अजगर) शयुःपर्याये, उरःपरिसर्पविशेषे, प्रश्न०१ अय-पुं०(अज) अजै कपाद्-देवे, स च पूर्वाभाद्रपदानक्षत्रस्य आश्रद्वा०। महाकायसर्प, जं०२ वक्ष०ा से किं तं अयगरा? अयगरा देवता।ज्यो०६ पाहु०। 'दो अया' स्था०२ ठा०३ उ०। अनु०ा सूर्यवंशीये एगागारा पन्नत्ता, से तं अयगरा / प्रज्ञा० 1 पद / जी० रघुपुत्रे, वाचन * अय-पुं०। अयनमयः, इणु गतौ इति धातोः "एरच्" / 3 / 3156 / इति अयगोलय-पुं०(अयोगोलक) अयो लोह, तस्य गोलः पिण्डो ऽयोगोलः / नि०चू०१ उ०। अयःपिण्डे, दशा०७ अ०॥ सूत्र (पाणि०) सूत्रेण अच् प्रत्ययः, आ०म०द्वि०। वेदने, लाभे, प्राप्तौ च / विशे० आ०म०। आव० इष्टफले, ना स्था०१ ठा०१ उ०। शुभे, / अयञ्छ-धा०(कृष्) विलेखने, कृषः कड-साअड्डाऽशाऽस्था०१०ठा। णच्छाऽयछाऽऽइञ्छाः।८।४।१८७। इति सूत्रेण कृषः अयञ्छा-ऽऽदेशः / * अयस्-ना लोहे, निचू०५ उ०। जी०। प्रश्न०। उत्त०। अयञ्छइ, कृषति। ग्रा०४ पाद / अयआगर-पुं०(अयआकर) लोहाऽऽकरे, यत्र लोहमुत्पद्यते। नि०चू०५ अयण-न०(अयन) गमने, आ०म०वि०ा उत्त० स्था०। झा०। प्रापणे, उ०। यत्र वा लोहकारो लोहं ध्मापयति। स्था०७ ठा०। अनु०॥ परिच्छेदे, नं०। ऋतुत्रयमाने, कर्म०४ कर्म०। षड्मासात्मके काले, तं०। जं०। भ01 अनु०। अयनानि-षाण्मासिकानि अयं-पुं०(अयम्) पुंस्त्रियोर्नवाऽयमिमिआ सौ 18 / 3 / 73 / इति दक्षिणायनोत्तरायणलक्षणानि / कल्प०५ क्ष०ा इदम्-शब्दस्य सौ अयाऽऽदेशे अयं / प्रा०३ पाद। "अयं परमटे, सेसे अणटे'' अयमिति प्राकृतत्वादिदम्। औ०। साम्प्रतमयनपरिमाणं वक्तुकाम आह - अयंत-त्रि०(आयत्) आगच्छतिप्रविशति, "जाव अयंतो निसीहियं छहिं मासेहिं दिणयरो, तेसीयं चरइ मंडलसयं तु / कुणइ आ०म०द्वि०। अयणम्मि उत्तरे दाहिणे य एसो विही होइ॥ अयं पुल-पुं०(अयंपुल) अजीविकोपासके गोशालकशिष्ये, षड्भिर्मासैर्दिनकरः सूर्यः त्र्यशीत्यधिक मण्डलशतं चरति। तथाहिभ०८श०५ उ० सर्वाऽभ्यन्तरमन्तरे द्वितीयमण्डले यदा सूर्य उपसंक्रम्य चारं चरति, तदा अयं संधि-त्रि०(अयंसन्धि) "अयं संधीति'' अयमिति प्रत्यक्ष स नवस्य सूर्यसंवत्सरस्य प्रथमोऽहोरात्रः / द्वितीयेन चाऽहोरात्रेण गोचर ..., आर्यक्षेत्रसुकुलोत्पत्तीन्द्रियनिर्वृत्तिश्रद्धासंवेगलक्षण: सर्वाभ्यन्तरात् तृतीयमण्डलं चरति, एवं षड्भिर्मासैस्त्र्यशीत्यधिक सन्धिः। आचा०१ श्रु०५ अ०२ उ०। अयंसन्धीति' सन्धान(सन्धिः) मण्डलशतं चीर्णं भवति। एष दक्षिणाऽयनस्य षण्मासप्रमाणस्य पर्यन्तः। सन्धीयते वाऽसाविति सन्धिः / अयं सन्धिर्यस्य साधोरसावयंसन्धिः। ततः सर्वबाह्याद् मण्डलादर्वागन्तरे द्वितीये मण्डले यदोपसंक्रम्य सूर्यश्वारं छान्दसत्वाद् विभक्तेः अलुक् / यथाकालमनुष्ठानविधायिनि, यो यस्य चरति, तदा स उत्तराऽयणस्य प्रथमो दिवसः। सर्वबाह्याद् मण्डलाद् वर्तमानः कालः कर्तव्यतयोपस्थितस्तत्करणतया तमेव संधत्ते। एतदुक्तं अक्तिनं तृतीयं मण्डलं द्वितीयेनाऽहोरात्रेण चरति, एवं षभिभवति- सर्वाः क्रियाः प्रत्युपेक्षणोपयोगस्वाध्यायभिक्षाचर्याप्रति- मस्त्र्यिशीत्यधिकं मण्डलशतं सर्वाऽभ्यन्तरमण्डलपर्यवक्रमणादिका असंपन्ना अन्योन्याऽबाधयाऽऽत्मीयकर्तव्यकाले सानम् / एष दक्षिणस्मिन् उत्तरस्मिन् वा अयने विधिः प्रकारो करोतीत्यर्थ इति। आचा०१ श्रु०२ अ०५ उ०। भवति। अत्राऽर्थे च करणं विवक्षुः, प्रथमतः तदुपक्षेपमाह - अयकं त-पुं०(अयस्कान्त) अयसां मध्ये कान्तः रमणीयः / तेसीयं दिवससयं, अयणे सूरस्स होइ पडिपुन्न / कस्कादित्वात् सत्त्वम् / कान्तिलोह इति ख्याते लोहभेदे, सुण तस्स कारगविहिं, पुव्वायरिओवएसेणं / / वाचा सन्निधिमात्रेण लोहाकर्षके, (चुम्बक) इतिख्याते प्रस्तरभेदे च / सूर्यस्याऽयनं दक्षिणमुत्तर वा भवति परिपूर्णं त्र्यशीत्यधिकं दिवसशतम्। अयसां प्रियत्वात्, तथात्वम्। आ०म०प्र०॥ कथमेतदवसीयते ? इति चेत् , उच्यते- इह युगमध्ये दश सूर्यस्याऽयनानि अयकक्करभोइ(ण)-त्रि०(अजकर्करभोजिन) अजस्य छागादेः भवन्ति, युगे च दिवसानामष्टादशशतानि त्रिंशदधिकानि 1830 / कर्क रमतिभ्रष्ट, यच्चणकवद् भुज्यमानं कर्क रायते, तन्मेदो- | ततस्त्रैराशिकमवतारयति।यदिदशभिरयनैरष्टादशदिवसशतानि त्रिंशदधिकानि / Page #935 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयण 751 - अभियानराजेन्द्रः - भाग 1 अयण लम्यन्ते, तत एकेनाऽयनेन किं लभ्यत् ? आह- राशित्रयस्थापना 10.1830,1 / अत्राऽन्त्येन राशिना एकलक्षणेन मध्यमस्य राशेर्गुणनं एकेन च गुणितं तदेव भवतीति, जातान्यष्टादशशतानि त्रिंशदधिकानि, तेषामाद्येन राशिना दशकलक्षणेन भागो हियते, लब्धं त्र्यशीत्यधिकं दिवसशतम्। एतावदेकस्यदक्षिणस्योत्तरस्य परिमाणम्। सम्प्रति तस्य दक्षिणस्यैवाऽयनस्य परिज्ञानविषये कारकविधिं करणरूपं प्रकार पूर्वाचार्योपदेशेन प्रतिपाद्यमानंशृणु। तत्र करणमाह - सूरस्स अयणकरणं, पव्वं पन्नरससंगुणं नियमा। तिहिसंखित्तं संतं, बावट्ठीमागपरिहीणं॥ तेसीयसयविभत्त-म्मि तम्मि लद्धं तु रूवमाएजा। जइ लद्धं होइ सम, नायव्वं उत्तरं अयणं / / अह हवइ भागलद्धं, विसमं जाणाहि दक्खिणं अयणं / जे अंसा ते दिवसा होंति पवत्तस्स अयणस्स / / सूर्यस्याऽयनपरिज्ञानविषये करणमिदं, वक्ष्यमाणमिति शेषः / तदेवाहपर्व पर्वसंख्यानं पञ्चदशगुणं नियमात् कर्त्तव्यम्। किमुक्तं भवति ? युगमध्ये विवक्षितदिनात् प्राग् यानि पर्वाणि अतिक्रान्तानि, तत्संख्या पञ्चदशगुणा कर्तव्येति। ततः पर्वणामुपरियाः तिथयोऽतिक्रान्तास्तास्तत्र संक्षिप्यन्ते। ततो (बावट्ठीभाग-परिमाणमिति) प्रत्यहोरात्रम्-एकैकेन द्वाषष्टिभागेन परिहीय-मानेन ये निष्पन्ना अवमरात्रास्तेऽप्युपचाराद् द्वाषष्टिभागा इत्यु-च्यन्ते, तैः परिहीनं विधेयम् / ततस्तस्मिन् त्र्यशीत्यधिकेन शतेन विभक्ते सति यल्लब्धं रूपममेकद्वयादिकं तत् आदेयात्, गृह्णीयात, पृथक् स्थाने स्थापयेदित्यर्थः / तत्र यदि लब्धं समं द्विचतुरादिरूपं भवति, तदा उत्तरमयनमनन्तरमतीतं ज्ञातव्यम् / अथ भवति भागे लब्धं विषम, तदा जानीहि दक्षिणमयनमनन्तरमतीतम्।ये तु शेषा अंशाः पश्चादवतिष्ठन्ते, तत्कालं प्रवृत्तस्याऽयनस्य दिवसस्य दिवसा भवन्ति ज्ञातव्याः। तथाहि-युगमध्ये नवमासाऽतिक्रमे पञ्चम्यां केनापि पृष्ठम्-किमयनमनन्तरमतीतम् ? किं वा साम्प्रतमयनं वर्तते? इति। तत्र नवसु मासेषु अष्टादशपर्वाणि, ततोऽष्टादश पञ्चदशर्भिगुज्यन्ते, जाते द्वे शते सप्तत्यधिके 270 / नवमासानामुपरिपञ्चम्यां पृष्ठमिति पञ्च तत्र प्रक्षिप्यन्ते, जाते द्वे शते पञ्चसप्तत्यधिके 205, नवसु मासेषु चत्वारोऽवमरात्रा भवन्ति, तथा ते चतुर्भिर्डीनाः क्रियन्ते, जाते द्वे शते एकसप्तत्यधिके 271 / अस्य राशेस्त्र्यशीत्यधिकेन शतेन भागो हियते, लब्धमेकं रूपम्, शेषास्तिष्ठन्त्यष्टाशीतिः / तत आगतमिदमेकमयनमतीतं, तदपि च दक्षिणायनम् / साम्प्रतमुत्तरायणं वर्तते, तस्य चाऽष्टासीत्यो दिवसो व्रजतीति, तथा युगमध्ये पञ्चविंशतिमासातिक्रमे दशम्यां के नापि पृष्टम् - क्रियन्त्ययनानि गतानि ? किं वाऽनन्तरमयनमतीतं ? किं वा साम्प्रतमयनं वर्त्तते ? इति / तत्र पञ्चविंशतिमासेषु पञ्चाशत्पर्वाणि, तानि पञ्चदशभिर्गुण्यन्ते, जातानि सप्तशतानि पञ्चाशदधिकानि 750 / तत उपरितना दश प्रक्षिप्यन्ते, जातानि सप्तशतानिषष्ट्यधिकानि७६०। पञ्चविंशतिमासेषु वाऽवमरात्रा अभवन् द्वादश, ते ततोऽपनीयन्ते, जातानि सप्तशतानि अष्टचत्वारिंशदधिकानि 748 / एतेषां त्र्यशीत्यधिकेन शतेन भागो हियते, लब्धाश्चत्वारः, शेषास्तिष्ठन्ति षोडश, आगतानि चत्वारिअयनान्यतिक्रान्तानि, चतुर्थं वाऽयनमन्तरमतीतमुत्तरायणम्। सम्प्रति दक्षिणायनस्या-ऽपवर्तमानस्य षोडशो दिवसो वर्त्तते इति। एवमन्यदपि भावनीयम् / साम्प्रतं चन्द्रगतस्य दक्षिणस्योत्तरस्य वाऽयनस्य परिमाणमाह - तेरसय मंडलाई, चउचत्ता सत्तसट्ठिभागाय। अयणेण चरइ सोमो, नक्खत्ते, अद्धमासेणं / इह नक्षत्रमासार्द्धपरिमाणं चन्द्रायणम् / तत आह- नक्षत्रविषये योऽर्द्धमासस्ततस्तावत्परिमाणेनाऽयनेन सोमश्चरति / तत्र त्रयोदश मण्डलानि चतुश्चत्वारिंशतं सप्तषष्टिभागान्। किमुक्तं भवति? त्रयोदश अहोरात्राः, एकस्य अहोरात्रस्य सत्काश्चतुश्चत्वारिंशत् सप्तषष्टिभागा दक्षिणस्योत्तरस्य वा चन्द्रायणस्य परिमाणमिति। कथमेतदवसीयते इति चेत् ? उच्यते इह नक्षत्रमासस्य परिमाणं सप्तविंशतिदिनानि, एकस्य च दिनस्य सत्का एकविंशतिः सप्तविंशतिभागाः। तत एतस्याऽर्द्ध यथोक्तं चन्द्रायणपरिमाणं भवति / अथवा-युगे चन्द्रायणानां चतुस्त्रिंशदधिक शतं भवति, अहोरात्राणां च युगे अष्टादशशतानि त्रिंशदधिकानि। ततोऽत्र त्रैराशिककर्माव-काशः / यदि चतुस्त्रिंशेन शतेन अहोरात्राणामष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि प्राप्यन्ते, तत एकेन चन्द्रायणेन किं प्राप्नुमः? राशित्रयस्थापना-१३४,१८३०,१। अत्रमध्यस्य राशेरन्त्येन राशिना गुणनं, एके न च गुणितं तदेव भवतीति जातान्यष्टादशशतानि त्रिंशदधिकानि 1830 // तेषामाऽऽधनराशिनाचतुस्त्रिंशदधिकशत-रूपेण भागो ह्रियते, लब्धास्त्रयोदश, शेषास्तिष्ठन्त्यष्टाशीतिः। तत आद्यस्य राशेश्चतुश्चत्वारिंशता गुणने जातानि अष्टपञ्चाशत् षण्णवत्यधिकानि 5866 / तेषां चतुस्त्रिंशेनाऽधिकेन शतेन भागो ह्रियते, लब्धाश्चतुश्चत्वारिंशत् सप्तषष्टिभागाः। सम्प्रति चन्द्रायण-परिज्ञाननिमित्तं करणमाहचंदायणस्स करणं, पव्वं पन्नरससंगुणं नियमा। तिहिपखित्तं संतं, बावट्टीभागपरिहीणं / / नक्खत्तअद्धमासेण भागलद्धं तु रूवमाएज्जा। जइ लद्धं हवइ समं,नायव्वं दक्खिणं अयणं / / अह हवइ भागलद्ध, विसमं जाणाहि उत्तरं ऊ.यणं / सेसाणं अंसाणं, ओसिस्सइ सो भवे करणं / / सत्तट्ठीए विभत्ते, जंलद्धं तइ हवंति दिवसाओ। अंसा य दिवसभागा, पवत्तमाणस्स अयणस्स। चन्द्रगतस्य दक्षिणस्योत्तरस्य वा अयनस्यपरिज्ञानाय करण-मिदम्या. युगमध्ये पर्वाण्यतिक्रान्तानि तत् पर्वसंख्यानं पञ्चदशभिर्गुण्यते, ततः पर्वणामुपरि यास्तिथयोऽतिक्रान्तास्ताः तत्र प्रक्षिप्यन्ते, ततो द्वाषष्टिभागपरिहीनमवमरात्रपरिहीनं क्रियते, ततो नक्षत्रस्याऽर्द्धमासेन तस्मिन् भक्तेसतियद्लब्धमेकद्वि-त्र्यादिरूपं तद् आदेयात्, पृथक्रस्थाने स्थापयेदित्यर्थः / तत्र यदि लब्धं भवति समं, तदा दक्षिणं चन्द्रायणमनन्तरमतीतमवसेयम्। अथ भवति भागलब्धं विषम, तदा उत्तरं चन्द्रायणमनन्तरमतीतं जानीहि / इह युगस्याऽऽदौ प्रथमतः चन्द्रायणमुत्तरं, ततो दक्षिणा-ऽयनमतोऽत्र समे भागे दक्षिणायनमनन्तरमतीतमवसेयम्, विषमेलब्धे उत्तरायणमिति। शेषास्तु अंशाये उद्भरितास्तेषामंशानां सप्तषष्ट्या विभक्ते सति यद् लब्धं, तत् प्रवर्त्तमानस्याऽयनस्य भवन्ति दिवसाः, तत्राऽप्युद्धरिता अंशा दिवसभागा ज्ञातव्याः। Page #936 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयण 752 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अर तथाहि- युगमध्ये नवमासातिक्रमे पञ्चम्यां केनापि पृष्ठम् - किं | अयसीकुसुमप्पयास-त्रि०(अतसीकुसुमप्रकाश) नीले, ज्ञा०१अ०! चन्द्रायणमनन्तरमतीतं ? किं वा साम्प्रतमुत्तरं दक्षिणं वा वर्तते ? तत्र ___ अन्तगाउपा०रा० नवसु मासेषु पर्वाणि अष्टादश, तानि पञ्चदशभिर्गुण्यन्ते, जाते द्वे शते अयसीपुप्फ-न०(अतसीपुष्प) धान्यविशेषस्य प्रसूने, उत्त०३४ अ० सप्तत्यधिके 270 / नवानां च मासानामुपरि पञ्चम्या पृष्ट मिति पञ्च तत्र अयसी(सि)वण्ण-त्रि०(अतसीवर्ण) अतसीकुसुमवणे श्यामवर्णे, उत्त० प्रक्षिप्यन्ते, जाते द्वे शते पञ्चसप्तत्यधिके 275 / नवसु च मासेषु चत्वारोऽवमरात्राः, ते ततोऽपनीयन्ते, जाते द्वे शते एक-सप्तत्यधिके १६अ। 271 / एतस्य राशेनक्षत्रे मासाऽर्धन भागहरणं, तत्र नक्षत्राऽर्द्धमासोन। अयहारि(ण)-त्रि०(अयोहारिन्) लोहस्याऽऽहतरि,सूत्र०१श्रु०३ अ० परिपूर्णः, किन्तु कतिपयसप्तषष्टिभागाऽधिकः, तत एष सर्वोऽप्यवम- 4 उ० रात्रशुद्धः सप्तषष्ट्या गुण्यते, जाता-ऽन्यष्टादशशतानि शतमेकं अयाकिवाणिज्ज-न०(अजाकृपाणीय) ममोपरि कृपाणं पतिष्यतीत्यजा पञ्चाशदधिकम् 18150 / नक्षत्रा-ऽर्द्धमासस्य च दिवसपरिमाणं नवेत्ति, तथा सति अजागले कृपाणपतनरूपे अतर्कितोपस्थिते, आचा० त्रयोदशदिवसाः 13, एकस्य च दिवसस्य चतुश्चत्वारिंशत् सप्तष्टिभागाः १श्रु०१अ०१ उ०। 44/67 / तत्र त्रयोदश दिनानि सप्तषष्टिभागकरणार्थ सप्तषष्ट्या गुण्यन्ते, अयाकुच्छि-त्रि०(अजाकुक्षि) अजायाः कुक्षिरिव कुक्षिर्यस्य जातान्यष्टा-दशशतानि एकसप्तत्यधिकानि, तत्र उपरितनाश्चतुश्चत्वा तदजाकुक्षि / उपा० 2 अ० रिंशत् सप्तषष्टिभागाः प्रक्षिप्यन्ते, जातानि नवपञ्चदशाधिकानि 615 | एतैः पूर्वराशेर्भाग हृतेलब्धा एकोनविंशतिः 16 शेषमुद्वरन्ति सप्तशतानि अयागर(न०)-पुं०(अयआकर) प्राकृतत्वान्नपुंसकत्वम्।लोहाकरे, येषु सप्तसप्तत्यधिकानि७७७। तेषां दिवसाऽऽनयनाय सप्तषष्ट्याभागो ह्रियते, निरन्तरं महामूषास्वयोदलं प्रक्षिप्याऽय उत्पाद्यते / जी० 3 प्रति०। लब्धा एकादश दिवसाः, शेषास्तिष्ठन्ति पञ्चत्रिंशत् सप्तषष्टिभागाः। - अयाणंत-त्रि०(अजानत्) अविदुषि, “पावस्स फलविवागं अयाणमाणा आगतमेकोनविंशतिश्चन्द्रायणा-न्यतिक्रान्तानि, अनन्तरं चन्द्रायणम- 1 वट्टति' / प्रश्न०१ संव० द्वा०। तिक्रान्तमुत्तरायणम्, दक्षिणस्य चन्द्रायणस्य सम्प्रति प्रवृत्तस्यैकादश अयावय-पुं०(अजाव्रज) अजावाटके, "केइ पुरिसे अयासयस्स एग महं दिवसा गताः, द्वादशस्यच दिवसस्य पञ्चत्रिंशत्सप्तषष्टिभागाः, पञ्चम्यां अयावयं करेजा' भ०१६ श०३ उ०। समाप्तायां भविष्यन्तीति। तथायुगमध्ये पञ्चविंशतिमासातिक्रमे दशम्यां अयावयह पुं०(अयावदर्थ) न यावदर्थः / अपरिसमाप्ते, दश० 5 अ० केनापि पृष्टम् - कियन्ति चन्द्रायणान्यतिक्रान्तानि ? किं च 2 उ०) साम्प्रतमनन्तरमतीतं चन्द्रायणं, किं वा संप्रति वर्तते चन्द्रायणं, दक्षिणमुत्तरं वेति ? तत्र पञ्चविंशतिमासेषु पर्वाणि पञ्चाशत, तानि अय्य-पुं०(आर्य) "नवार्यों यः"1८1।२६६ / इति 'य' भागस्य पञ्चदशभिर्गुण्यन्ते, जातानि सप्तशतानि पञ्चाशदधिकानि 750 / तत यः। (अस्याऽर्थस्तु अज्ज' शब्देऽत्रैव भागे 208 पृष्ठे द्रष्टव्यः)"अय्य! उपरितना दश प्रक्षिप्यन्ते, जातानि सप्तशतानि षष्ट्यधिकानि 760 / एशेखुकुमाले मलयकेदू" आर्य! एष खलु कुमारो मलयकेतुः। प्रा०४ पञ्चविंशतिमासेषु चाऽवमरात्रा अभवन् द्वादश, ते पूर्वराशेरपनीयन्ते, पाद। जातानि सप्तशतानि अष्टाचत्वारिंशदधिकानि 748 / तानि अय्यउत्त-पुं०(आर्यपुत्र) "न वा यो य्यः" 14 1 1 266 / इति षष्टिभागकरणार्थं सप्तषष्ट्या गुण्यन्ते, जातानि पञ्चाशत् सहस्राणि शौरसेन्यां यस्य स्थाने य्यः / श्रेष्ठपुत्रे, नाटकसंबोध्ये नायकादौ, षण्णवत्यधिकानि 50066 / तेषां नवभिः शतैः पञ्चदशोत्तरः 615 भागो "अय्यउत्त! पयाकुली कदम्हि" आर्यपुत्र ! पर्याकुलीकृताऽस्मिा प्रा० ह्रियते, लब्धाश्चतुष्पञ्चाशत् / शेषमुद्वरत्यष्टौ शतानि षडशीत्यधिकानि ४पाद। 586 / तेषां दिवसा-ऽऽनयनाय सप्तषष्ट्या भागहरणं, लब्धास्त्रयोदश अय्युण-पुं०(अर्जुन)"जद्ययां यः" / 14 / 292 / इति मागध्यां दिवसाः, शेषाः तिष्ठन्ति पञ्चदश, आगतानिचतुष्पञ्चाशत् चन्द्रायणानि अति-क्रान्तानि। अनन्तरं चाऽतिक्रान्तं चन्द्रायणं दक्षिणं, सम्प्रति वर्तते जस्य स्थाने यः। ('अज्जुण' शब्दे 224 पृष्ठेऽत्रैवप्रथमविभागेऽस्याऽर्थाः)। प्रा०४ पाद। उत्तरं चन्द्रायणम्, तस्यच त्रयोदश दिवसाश्चतुर्दशस्य च दिवसस्य पञ्चदश सप्तषष्टिभागा दशम्यां समाप्तायां भविष्यन्तीति / एवमन्यदपि अर-पुं० न०(अर) ऋ-अच् / चक्र नाभिनेम्योर्मध्यस्थे काष्ठे, भावनीयमिति / ज्यो०११ पाहुणचं० प्र०। सू० प्र० शीघ्र च / वाच० नं०। सर्वोत्तमे महासत्त्वकुले य उपजायते / अयपाद(य)-न०(अयःपात्र) लोहपात्रे, "अयपादाणि वा तंबपादाणि तस्याऽभिवृद्धये वृद्धैरसावर उदाहृतः // 1 // इति वचनाद्,अरः / तथा वा"। आचा०२ श्रु०६ अ०६ उ०। गर्भस्थेऽस्मिन् जनन्या स्वप्ने सर्वरत्नमयोऽरो दृष्ट इति अरः / ध० अयमग्ग-पुं०(अजमार्ग) द्रव्यमार्गभेदे, यत्र वस्त्येनाऽजेन गम्यते / 2 अधि० जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे वर्तमानायामवसर्पिण्यां जाते सप्तमे तद्यथा-सुवर्णभूम्यां चारुदत्तो गतः। सूत्र०१ श्रु०११ अ०। चक्रवत्तिर्नि, स०ा अष्टादशे तीर्थकरे, स०ा आव०॥ तिला स्था०। प्रव०॥ अयवीहि-स्त्री०(अजवीथि) हस्तचित्रास्वातीविशाखाऽनुराधा सुमिणे अरं महरिहं, पासइ जणणी अरो तम्हा / / 46|| पञ्चकरूपमहाग्रहचारविशेषमार्गे, स्था०६ ठा। तत्थ सव्वे वि सव्वुत्तमे कुले सुविद्धिकरा एव जायंति, विसेसो पुणोअयसी-स्त्री०(अतसी) मालवकप्रसिद्ध धान्यविशेष, (तीसी-अलसी) (सुमिणो अरं महरिहं ति) गाहापच्छद्धं / गब्भगते माताए सुमिणे ज्ञा०५ अ०। प्रव०। प्रज्ञा०ा आ०म०। औ० अन्ताजं०रा०) उत्तका सव्वरयणमयो अइसुंदरो अइपमाणो जम्हा अरो दिट्ठो, तहा अरो त्ति से को भङ्ग्याम्, भ०६ श०७ उ०। णामं कतं तिगाथार्थः॥४६॥ आव०२ अ०। आ० चूना Page #937 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर 753 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अरइपरि(री)सहं अरजिनचरित्रं त्वित्थम् - सागरतं चइत्ता णं, भरहं नरवरीसरो। अरोय अरयं पत्तो, पत्तो गइमणुत्तरं / / 40|| च पुनः, अरो अरनामा नरवरेश्वरः सप्तमचक्री सागरान्तं समुद्रान्तं भरतक्षेत्रं षट्खण्डराज्यं त्यक्त्वा अरजस्त्वं प्राप्तः सन् अनुत्तरां गतिं सिद्धगति प्राप्तः, मोक्षंगत इत्यर्थः / चक्रीभूत्वा तीर्थकरपदं भुक्त्वा मोक्षं गत इत्यर्थः / अत्र अरनाथदृष्टन्तः। अरनाथवृत्तान्तःतूत्तराध्ययनवृत्तिद्वयेऽपि नाऽस्ति, तथापि ग्रन्थान्तराल्लिख्यते-प्राविदेहविभूषणे मङ्ग लावतीविजये रत्नसञ्चया पुरी अस्ति / तत्र महीपालनामा भूपालोऽस्ति स्म, प्राज्यं राज्यं भुङ्क्ते स्म / अन्यदा गुरुमुखाद् धर्म श्रुत्वा स वैराग्यमागतः, सतृणमिव राज्यं त्यक्त्वा दीक्षा ललौ। गुर्वन्तिके एकादशाङ्गानि अधीत्य गीतार्थो बभूव / बहुवत्सरकोटीः स संयममाराध्यविशुद्धविंशतिस्थानकैरर्हन्नामकर्म बबन्ध / ततो मृत्वा सर्वार्थसिद्धविमाने देवो बभूव / ततश्च्युत्त्वा इह भरतक्षेत्रे हस्तिनागपुरे सुदर्शननामा नृपो बभूव / तस्या राज्ञी देवीनाम्नी बभूव / तस्याः कुक्षौ सोऽवततार / तदानीं रेवतीनक्षत्रं बभूव / तया चतुर्दश स्वप्ना दृष्टाः / ततः पूर्णषु मासेषु रेवतीनक्षत्रे तस्य जन्म बभूव / जन्मोत्सवस्तदा षट्पञ्चाशद्-दिक्कुमारिकाभिः चतुष्षष्टिसुरेन्द्रनिर्मितः, ततः सुदर्शनराजाऽपि स्वपुत्रस्य जन्मोत्सवं विशेषाचकार / अस्मिन् गर्भगते मात्रा प्रौढो रत्नमयोऽरः स्वप्ने दृष्टः / ततः पित्राऽस्य 'अर' इति नाम कृतम्। देवपरिवृतः स वयसा गुणैश्च वर्द्धते स्म। एकविंशति-सहस्रवर्षेषु अरकुमारस्य पित्रा राज्यं दत्तम्, एकविंशति-वर्षसहस्राणि यावद् राज्य भुक्तवतः तस्य शस्त्रकोशे चक्ररत्नं समुत्पन्न, ततो भरतं संसाध्य एकविंशतिसहस्रवर्षाणि यावत् चक्रवर्तित्वं बुभुजे / ततः स्वामी स्वयं बुद्धोऽपि लोकान्तिक-देवबोधितो वार्षिकं दानं दत्त्वा चतुष्षष्टिसुरेन्द्रसेवितो वैजयन्त्याख्या शिबिकामारूढः सहस्रामवणे सहस्रराजभिः समं प्रव्रजितः। ततश्चतुर्ज्ञानी असौ त्रीणि वर्षाणि छद्मस्थो विहृत्य पुनः सहस्रामवणे प्राप्तः। तत्र शुक्लध्यानेन ध्वस्तपापकर्माऽरः केवलज्ञानं प्राप। ततः सुरैः समवसरणे कृते स्वामी योजनगामिना शब्देन देशनां चकार / ते देशनां श्रुत्वा केऽपि सुश्रावका जाताः, केऽपि च प्रव्रजिताः / तदानीं कुम्भभूपः प्रव्रज्य प्रथमोगणधरोजातः। अरनाथस्य षष्टिसहस्राः साधवो जाताः, साध्व्यः स्वामिनस्तावत्प्रमाणा एव जाताः। श्रावकाश्चतुरशीतिसहसा-ऽधिकलक्षत्रयमाना बभूवुः / सम्मेतशैलशिखरे मासिकाऽनशनेन भगवान् निर्वृतः। देवैर्निर्वाणोत्सवो भृशं कृतः / उत्त० 18 अ० "अरे णं अरहा तीसं धणू उड़े उच्चत्तेणं होत्था''। स०३० सम०ा कल्प०अग्नौ, जै० गा०। (अस्थाऽन्तरं 'अंतर' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 66 पृष्ठ प्रदर्शितम्) अरइ-स्त्री०(अरति) रमणं रतिः, संयमविषया धृतिः, तविपरीता तु अरतिः / उत्त० 2 अ०। संयमविषयेऽधैर्ये , उत्त०२ अ०) संयमोद्विग्नतायाम्, आचा० 1 श्रु०६ अ० 3 उ०। उद्वेगक्षणे मोहनीयोदयजे चित्तविकारे, स्था० 1 ठा० उ०। सूत्रा दशा दशा०) वातादिजन्ये चित्तोद्वेगे, उत्त० 11 अ० अमनोज्ञेषु शब्दादिविषयेषु संयमे वा जीवस्य चित्तोवेगे,०१०। सूत्र०। अनिष्टसंप्रयोगसंभवे मनोदुःखे, प्रव० 41 द्वार / इष्टप्राप्ति-विनाशोत्थे मानसे विकारे, आचा०१श्रु०३अ०१ उ०। सूत्र०। स०। अरइं आउट्टे से मेहावी रमणं रतिस्तदभावोऽरतिः, तां पञ्चविधाऽऽचारविषयां मोहोदयात्कषायाभिष्वङ्गजनितां मातापितृकलत्राद्युत्थापिता,(स इति) अरतिमान्, मेधावी विदितासारसंसारस्वभावः सन्, आवर्तेत निवर्तयेदित्युक्तं भवति / संयमे चाऽरतिर्न विषयाभिष्वङ्गमृते, कण्डरीकस्येव, इत्यत इदमुक्तं भवति-विषयाभिष्वङ्गे रतिं निवर्तेत। निवर्त्तनं चैवमुपजायतेयदि दशविधचक्रवालसामाचारीविषया रतिरुत्पद्यते, पौण्डरीकस्येवेति, ततश्चेदमप्युक्तं भवति- संयमे रतिं कुर्वीत, तद्विहितरतेस्तु न किञ्चिद् बाधायै नाऽपीहाऽपरसुखोत्तरबुद्धिरिति / आह च - क्षितितलशयनं वा प्रान्तभिक्षाऽशनं वा, सहजपरिभवो वा नीचदुर्भाषितं वा। महति फलविशेषे नित्यमभ्युद्यतानां, न मनसि न शरीरे दुःखमुत्पादयन्ति ।।१।।शालिनीवृत्तम्। तणसंथारणिसण्णो, विमुणिवरो भट्टरागमयमोहो। जं पावइ मुत्तिसुह, कत्तो तं चक्कवट्टी वि॥१॥ आचा० 1 श्रु०१ अ० १उ० "अरइं च वोसिरे" अरतिं चाऽनभिमतक्षेत्रादिविषयां व्युत्सृजामि / आतु अरइकाम-न०(अरतिकर्मन्) नोकषायवेदनीयकर्मभेदे, यदुदयात्, सचित्ताऽचित्तेषु बाह्यद्रव्येषु जीवस्याऽरतिरुत्पद्यते। स्था०६ ठा०। अरइकारग-त्रि०(अरतिकारक) अरतिजनके, दश०१ चू० अरइपरि(री)सह-पुं०(अरतिपरि(री) षह) रमणं रतिः संयमविषया धृतिः, तद्विपरीता त्वरतिः, सैव परीषहः, अरतिपरीषहः / उत्त० 2 अ० अरतिर्मोहनीयजो मनोविकारः, सा च परीषहः, तन्निषेधनेन सहनादिति। भ०८ श०८ उ० विहरतस्तिष्ठतो वा यद्यरतिरुत्पद्यते, तत्रोत्पन्नारतिनाऽपि सम्यग्धर्मारामरतेनैव संसारभावमालोच्य भवितव्यम्। परीषहभेदे, आव० 4 अ० गच्छंस्तिष्ठन्निषण्णो वा, नाऽरतिप्रवणो भवेत्। धर्मारामरतो नित्यं, स्वस्थचेता भवेत् मुनिः।।१।। आ० म० द्वि० न कदाऽप्यरतिं कुर्याद, धर्मारामरतिर्यतिः। गच्छं स्तिष्ठस्तथाऽऽसीनः,स्वास्थ्यमेव समाश्रयेत् / / 1 / / ध०३ अधि० अरतिपरीषहमाह - गामाणुगामं रीयंतं, अणगारं अकिंचणं। अरई अणुप्पविसे, तं तितिक्खे परीसहं॥१४|| ग्रामसुत्रम्- ग्रसते बुद्ध्यादीन् गुणानिति ग्रामः / स च जिगमिषितः, अनुग्रामश्च तन्मार्गानुकूलः, अननुकूलगमने प्रयोजनाभावात्, ग्रामाऽनुग्रामम् / यद्वा- ग्रामश्च स एव लघुग्रामश्च तम् / अथवा ग्रामाऽनुग्राममिति रूढिशब्दत्वादेकस्माद् ग्रामादन्योऽनुग्रामः / ततोऽपि ग्रामाऽनुग्राममुच्यते / नगरादि- उपलक्षणमेतत् ततो नगरादींश्च / किमित्याह - (रीयंतं ति) व्यत्ययाद् रीयमाणं विहरन्तम्, अनगारमुक्तस्वरूपम्, अकिञ्चनं नाऽस्य किञ्चन प्रतिबन्धाऽऽस्पदं धनकनकाऽऽदि अस्तीति अकिञ्चनो निष्परिग्रहः, तथाभूतम्, अरतिरुक्तरूपा, अनुप्रविशेत् मनसि लब्धाऽऽस्पदा भवेत्, (तमिति) अरतिस्वरूपं, तितिक्षेत्सहेत, परीषहमितिसूत्रार्थः। तत्सहनोपायमेवाऽऽह - Page #938 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरइपरि(री)सह 754 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अरइमोहणिज अरई पिट्ठओ किच्चा, विरए आयरक्खिए। समुत्पन्नो मूकेन पूर्वोक्तरीत्या पूरितः। पुत्रो जातः / मूकस्तु तं बालं धम्मारामे निरारंभे, उवसंते मुणी चरे॥१५|| लघुमपि करे कृत्वा देवान् साधूंश्च वन्दापयति, परं स दुर्लभबोधित्वेन अरतिं पृष्ठतः कृत्वा विरतो हिंसादेः, आत्मा रक्षितो दुर्गति- तान् दृष्ट्वा रटति / एव-माबालकालादपि भृशं प्रतिबोधितोऽपि स न हेतोरध्यानादेरनेनेत्यात्मरक्षितः, आयो वा ज्ञानादिलाभो रक्षितोऽनेने- बुध्यते। ततो मूकः प्रव्राजितो गतः स्वर्गम्। अथ देवीभूतेन मूकजीवेन स त्यायरक्षितः, धर्मे आरमते रतिमान् स्यात् इति धर्मा-ऽऽरामः / यद्वा- दुर्लभ-बोधिर्बालः प्रतिबोधिकृते जलोदरव्यथावान् कृतः। वैद्यरूपं कृत्वा धर्म एवानन्दहेतुतया पाल्यतया वाऽऽरामोधर्मा-ऽऽरामः, तत्र स्थितः, देवेन उक्तः - अहं सर्वरोगोपशमं करोमि / जलोदरी वक्ति-मम निरारम्भ उपशान्त एवंविधो मुनिश्चरेत् संयमाऽध्वनि, न पुनरुत्पन्नाऽ- जलोदरोपशान्ति कुरु। वैद्येनोक्तम्-तवाऽसाध्योऽयं रोगः, तथाऽप्यह रतिरपध्यानेच्छुः स्यात्।।१५।।। प्रतीकारं करोमि, यदि मम पृष्ठे औषधकोत्थलकं समुत्पाठ्य मयैव अत्र पुरोहितराजपुत्रयोः कथा / यथा- अचलपुरे जितशत्रुनृप-पुत्रः सहागमिष्यसि। तेनोक्तम्- एवं भवतु। ततो वैद्येन स जलोदरी सजीकृतः अपराजितनामा रोहाऽऽचार्यपाा दीक्षितः, अन्यदा विहरन्तगरां नगरी समाधिभाग जातः। ततः तस्योत्पाटनाय औषधकोत्थलकस्तेन दत्तः / गतः, तावता उज्जयिन्या आर्यरोहाचार्यशिष्याः तत्राऽऽगताः। पृष्ट साधुना स तत्पृष्ठे भ्रमन् तं कोत्थलकमुत्पाटयति / देवमायया स तेन उज्जयिन्याः स्वरूपम् / तैरुक्तम्- सर्वं तत्र वरम्, परं कोत्थलकोऽतिभारवान् जातः, तमतिभार वहन् स खिद्यति, परं नृपपुत्राऽमात्यपुत्रौ साधूनुद्वेजयतः। ततोगुरुनापृच्छ्य स्वभ्रातृव्यबोधाऽर्थं तमुत्सृज्य पश्चाद् गन्तुं न शक्नोति, मा भूत् पश्चाद् गतस्य मे शीघ्रमुज्जयिन्यां गतः, तत्र भिक्षावेलायां लोकैर्वार्यमाणोऽपि बाढस्वरेण पुनर्जलोदरव्यथेति विमर्श कुर्वन् वैद्यस्यैव पृष्ठे कोत्थलकं वहन् भ्रमति। 'धर्मलाभ' इति पठन् राजकुले प्रविष्टः, राजपुत्राऽमात्यपुत्राभ्यां एकदा एकस्मिन् देशे स्वाध्यायं कुर्वन्तः साधो दृष्टाः / तत्र तौ गतौ / सोपहासमाकारितः / अत्राऽऽगच्छत, वन्द्यते / ततः स गतः / ताभ्यां वैद्येनोक्तमत्वं दीक्षां यदा गृहीष्यसि, तदा त्वां मुञ्चामि / स भारभग्नो उक्तम्-वेत्सि नर्तितुम् ? तेनोक्तम्-बाढम्, परं युवां वादयतं, तौ तादृशं वतिगृहीष्याम्येव। ततो वैद्येन अस्य दीक्षा दापिता। देवे च स्वस्थानं गते वादयितुं न जानीतः, ततस्तेन तथा तौ कुट्टितौ पृथक् कृत- तेन दीक्षा परित्यक्ता। देवेन पुनरपि तथैव जलोदरं कृत्वा वैद्यरूपधरेण हस्तपादादिसन्धिबन्धनौ, यथाऽत्यन्तमाराटि कुरुतः। तौ तादृशा- पुनरसौ दीक्षां ग्राहितः। पुनर्गत च देवे तेन दीक्षा त्यक्ता। तृतीयवारं दीक्षा वेव मुक्त्वा साधुरुपाश्रये समायातः। ततो राजा सर्वबलेन तत्रा-ऽऽयातः, दापयित्वा वैद्यरूपो देवः सार्धं तिष्ठति स्थिरीकरणाय। एकदा तृणभारं तमुपलक्ष्य प्रसादनाय तस्य पादयोः पपात / उवाच- स्वामिन् ! गृहीत्वा स देवः प्रज्वलद्ग्रामे प्रविशति। ततस्तेन साधुनोक्तम्- ज्वलति सापराधावपि इमौ सज्जीकार्यों, अतः परमपराधं न करिष्यतः / ग्रामे कथं प्रविशसि ? देवेनोक्तम्- त्वमपि क्रोधामानमायालोभैः साधुनोक्तम्- यदीमौ प्रव्रजतस्तदा मुञ्चामि। राज्ञोक्तम् - एवमप्यस्तु। प्रज्वलिते गृहवासे वार्यमाणोऽपि पुनः पुनः कथं प्रविशसि ? वैद्यरूपेण ततस्तौ प्रथमं लोचं कृत्वा प्रव्राजितौ, तत्र राजपुत्रौ निःशङ्कितो धर्म देवेनैव-मुक्तोऽपिस न बुध्यते। अन्यदा तौ अटव्यां गतौ। देवः कण्टकाकरोति, इतरस्तु अमर्षं वहति, अहं बलेन प्रव्राजित इति चेतस्युद्वेगं कुले मार्गे चरति। स प्राह- कस्मादुन्मार्गेण यासि ? / देवेनोक्तम्- त्वमपि वहति / परं पालयित्वा द्वावपि चारित्रं शुद्धं मृत्वा तौ दिवं गतौ / विशुद्ध निर्मलं संयममार्ग परित्यज्य आधिव्याधिरूपे कण्टकाऽऽकीर्णे अस्मिन्नवसरे कौशाम्ब्यां तापसश्रेष्ठी मृत्वा स्वगृहे शूकरो जातः, तत्र संसारमार्गे कस्माद्यासि? एवं देवेनोक्तोऽपि सन बुध्यते। पुनरेकस्मिन् जातिस्मरण प्राप्तवान्, सर्व स्वसुतादिकुटुम्बं प्रत्यभिजानाति, परं वक्तुं देवकुले तौ गतौ। तत्र यक्ष ईप्सित-पूजापूज्यमानोऽपि पुनः पुनरधोमुखः न किश्चित् शक्नोति स्म। अन्यदा सुतै-रेष शूकरो मारितः, ततः स्वगृह पतति / स कथयति- अहो ! यक्षस्य अधमत्वं, यत्पूज्यमानोऽप्यएव सर्पो जातः / तत्राऽपि जाति-स्मरणवान्, पुनस्तैरेव मारितः, ततः यमधोमुखः पतति / देवेनोक्तमत्वमप्येता-दृशोऽधमः,यद् वन्द्यमानः पुत्रपुत्रो जातः / तत्राऽपि जातिस्मरणमाप। स एवं चिन्तयति- कथमेतां पूज्यमानोऽपि त्वं पुनः पुनः पतसि / ततः स साधुर्वक्ति- कस्त्वम् ? पूर्वभववधूं मातरमहमुल्लपामि, कथं चेमं पूर्वभवपुत्रं देवेन मूकस्वरूपं दर्शितं, पूर्वभवसम्बन्धश्च कथितः / स वक्ति- अत्र कः पितरमहमुल्लपामि ? इति विचार्य मौनमाश्रितो मूकव्रतभाग जातः / प्रत्ययः? ततो वैताट्ये चैत्यवन्दापनार्थं देवेनाऽसौ प्रापितः / तत्रैकस्मिन् अन्यदा केनचित् चतुर्ज्ञानिना तद् बोधं ज्ञात्वा स्वशिष्ययोर्मुखात् गाथा सिद्धायतनकोणे दुर्लभबोधिदेवेन स्वबोधाय मूकविदितं स्वकुण्डलयुगलं प्रेषिता - "तावस ! किमिणा मूअव्वएण ? पडिवज जाणिअं धम्म / स्थापितमभूत् / तत् तदानीं दर्शितं, ततस्तस्य जातिस्मरणं जातं, मरिऊण सूअरोरग-जाओ पुत्तस्स पुत्त त्ति' ||1 // एतां गाथां श्रुत्वा तेनाऽस्य चारित्रे दृढताऽभूत् / अस्य पूर्वमरतिः, पश्चाद् रतिः / उत्त० प्रतिबुद्धो गुरूणां सुश्रावकोऽभूत्। एतस्मिन्नवसरेसो-ऽमात्यपुत्रजीवदेवो २अ० महाविदेहे तीर्थङ्करसमीपे पृच्छति- भगवन् ! किमहं सुलभबोधिर्दुर्लभबोधिर्वा ? इति प्रश्ने प्रोक्तं तीर्थङ्करेण - 'त्वं अरइपरि(री)सहविजय-पुं०(अरतिपरि(री)षहविजय) दुर्लभबोधिः कौशाम्ब्यां मूकभ्राता भावी' इति लब्धोत्तरः स सुरो गतो अरतिपरित्यजने, पं० सं०। सूत्रोपदेशतो विहरतस्तिष्ठतोवा कदाचनाऽपि मूकपार्श्वे / तस्य बहुद्रव्यं दत्त्वा प्रोक्तवानन्यदाऽहं त्वन्मातुरुदरे उत्पत्स्ये, / यद्यरतिरुत्पद्यते तदाऽपि स्वाध्यायध्यानभावना-रूपधर्मारामरतत्वेन तदा तस्या आमूदोहदो भविष्यति, स दोहदः साम्प्रतं मद्दर्शितैः यदरतिपरित्यजनं, सोऽरतिपरिषहविजयः। पं० सं०४ द्वार। सदाफलाऽऽम्फलैस्त्वया तदानीं तस्याः पूर्णीकार्यः / पुनस्त्वया तथा अरइमोहणिज-नं०(अरतिमोहनीय) नोकषायभेदे, यदुदयात् विधेयं यथा तदानीं मम धर्मप्राप्तिः स्यात्, एवमुक्त्वा गतो देवः। अन्यदा सनिमित्तमनिमित्तं वा जीवस्य बाह्याऽभ्यन्तरेषु वस्तुषु अग्रीतिर्भवति। देवलोकात च्युत्त्वा स देवस्तस्या गर्भे समुत्पन्नः, तस्याश्चाऽऽमूदोहदः / कर्म०१ कर्मा Page #939 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरइरह 755 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अरहंत - अरइरइ-स्त्री०(अरतिरति) मोहनीयोदयाचित्तोद्वेगोऽरतिः, | रतिः मोहनीयोदयाच्चित्तप्राप्तिः / इति द्वन्द्वः / कल्प० 6 क्ष०। रत्रत्योर्द्वन्द्वे, ''एगा अरतिरती" / अरतिश्च तन्मोहनीयोदयजश्चित्तविकार उद्वेगलक्षणः, रतिश्च तथाविधानन्दरूपा, अरतिरति इत्येकमेव विवक्षितम्, यतः क्वचन विषये या रतिस्तामेव विषयाऽन्तराऽपेक्षया अरतिं व्यपदिशन्ति, एवमरतिमेव रतिम्, इत्यौपचारिकमेकत्वमनयोरस्तीति। रत्यरत्योरेकतायाम्, स्था० 1 ठा० 1 उ०॥ अरइरइसह-पुं०(अरतिरतिसह) अरतिरती सहते, इत्यरतिरति-सहः।। स्त्यरत्योहर्षविषादावकुर्वाणे, कल्प० 5 क्ष०। अरइसमावण्णचित्त-त्रि०(अरतिसमापन्नचित्त) संयमे उद्वेगगताऽभिप्राये, दश० 1 चू० अरंजर-न०(अरञ्जर) लञ्जरमिति प्रसिद्ध उदककुम्भे, स्था०६ ठा०) अरक्खरी-स्त्री०(अरक्षापुरी) चन्द्रध्वजनृपपलिते स्वनामख्याते प्रत्यन्तनगरे, "ततः प्रत्यन्तनगरे, अरक्खरीति नामनि / अस्ति माण्डलिकस्तत्र, जिनचन्द्रध्वजाऽभिधः'' ||14|| आ० कला आ० चूल आवा अरगाउत्त-त्रि०(अरकायुक्त) अरकैरभिविधिनाऽन्विते, भ० 3 श०१ उ०। अरगाउत्तासिय-त्रि०(अरकोत्रासित) अरका उत्-त्रासिता आस्फालिता यत्र / आस्फालिताऽरके, भ०३ श०१ उ०। अरज्जुयपास-पुं०(अरज्जुकपाश) रजुकं विना बन्धने, तं०। अरज्झिय-त्रि०(अरहित) निरन्तरे, "अरज्झियाभितावा तह वी तविति'' अरहितो निरन्तरोऽभितापो दाहो येषां तेऽरहिताऽभितापाः / सूत्र०१ श्रु०५ अ० 1 उ०| अरणि-पुं०(अरणि) अग्न्यर्थं निर्मन्थनीयकाष्ठे, नि० 3 वर्ग / विशे० आव०। ज्ञा० अरणिं महिऊण अगि पाडेइ। आ० म० द्वि०। "अस्थि णं घाणसहगया अरणिसहगया" अरणिरन्यर्थं निर्मन्थनीयकाष्ठ, तेन सहगतो यः स तथा भ० 25 श०८ उ०। अरणिया-स्त्री०(अरणिका) स्कन्धबीजवनस्पतिभेदे, आचा० 1 श्रु०१ अ०५ उ० अरण्ण-न०(अरण्य) कान्तारे, स्था० 1 ठा० 1 उ०। उत्त०। आव० निर्जने, अष्ट० 4 अष्ट०। वने, उत्त०१४ अ० अरण्णवडिंसग-न०(अरण्यावतंसक) एकादशदेवलोकविमानभेदे, स० 22 समा अरत्त-त्रि०(अरक्त) रागरहिते, आचा० 1 श्रु०३ अ०२ उ०। अरत्तदुट्ठ-न०(अरक्तद्विष्ट) रागद्वेषरहिते, दर्शाध०२०। अरय-पुं०(अरक) अवसर्पिण्युत्सर्पिणीलक्षणस्य कालचक्र स्य सुषमसुषमाऽदिरूपे द्वादशे भागे / ति०। अरशब्दार्थे, आ० म० द्वि०। अरकाणां परस्परसादृश्यं यथा - "कुरुदुगि हरिरम्मय दुगि, हेमवएरवइदुगि विदेहे / कमसो सयाऽवसप्पिणि, अरयचउक्काइ समकालो'' 10|| लघुक्षेत्रसमासप्रकरणे। * अरजस्-त्रि०ा स्वाभाविकरजोरहिते, स०। कल्प० प्रज्ञा०| रजोगुणकामक्रोधादिशून्ये,धूलीशून्ये चावाचा त्रयःसप्ततितमे महाग्रहे, "दो अरया"। स्था० 2 ठा०३ उ०। चं० प्र०। कल्प०। सू०प्र०। ब्रह्मलोकस्थविमानप्रस्तटभेदे, न०। स्था०६ ठा०। कुमुदविजयस्थराजधान्याम्, "कुमुदे विजये अरजा राजधानी' / जं० 4 वक्षः। रजसोऽभावे (अव्य० न०) उत्त०१८ अ०) * अरत-त्रि०ा आरम्भनिवृत्ते, निर्ममत्वे च / आधा० 1 श्रु० 5 अ० 3 उ०। सूत्र अरयंबरवत्थधर-त्रि०(अरजोऽम्बरवस्त्रधर) अरजांसि रजोरहितानि च तानि अम्बरवस्त्राणि स्वच्छतयाऽऽकाशकल्पवसनान्यरजोऽम्बरवस्त्राणि, तानि धारयतीति यः स तथा। तथाविधवस्त्रधारके देवादी, भ०३ श०२ उ०। उत्त०। प्रज्ञा०। जं०। अरयणि-पुं०(अरत्नि) वितताऽगुलौ करे, स्था० 4 ठा० 4 उ०। अरविंद-न०(अरविन्द) पद्मविशेषे (कमले,) आ० म०प्र०। प्रज्ञा०। "पुप्फेसुवा अरविंद पहाणं"। सूत्र० १श्रु०६ अ० स्था०। अरस-न०(अरस) अविद्यमानाऽऽहार्यरसे हिङ्ग्वादिभिरसंस्कृते, प्रश्न० 5 संव० द्वा०। अप्राप्तरसे, द०५ अ०२ उ०। ज्ञा० भ०। औ०। अरसजीवि(ण)-पुं०(अरसजीविन्) अरसेन जीवितुं शील माजन्माऽपि यस्य स तथा। अरसाऽऽहारे, स्था० 5 ठा० 1 उ०। अरसाल-वि०(अरसाल) विरसे, 'अरसालं पि भोयणं सुभं गंधजुत्तं"। नि० चू०२ उ01 अरसाहार-पुं०(अरसाहार) अरसं हि ग्वादिभिरसंस्कृतमाहारयन्तीति, अरसो वाऽऽहारो यस्यासावरसाहारः / तथाविधाऽभिग्रहविशेषधारके, स्था० 5 ठा० 1 उ०। भ० औ०। अरह-पुं०(अरहस्) न विद्यतेरह एकान्तो गोप्यमस्य, सकलसन्निहितव्यवहितस्थूलसूक्ष्मपदार्थसार्थसाक्षात्कारित्वात्, इत्यरहाः। स्था० 4 ठा० 1 उ०॥ न विद्यते रहो विजनं यस्य सर्वज्ञात्वादसावरहाः। स्था०६ ठा०। * अर्हत्-पुंग। अशोकाद्यष्टमहाप्रातिहार्यादिरूपां पूजामर्हतीति अर्हन् / पा०। कल्प०। स्थाo1 उत्त०। अशोकादिप्रातिहार्यपूजायोग्ये, कल्प०६क्ष०ा सूत्रका इन्द्रादिभिः पूज्ये, उत्त०६अ। तीर्थकृति, सूत्र 1 श्रु०६अ। जिने, स्था० 3 ठा०४ उ०। "तओ अरहा पण्णत्ता / तं जहा- ओहिनाणअरहा, मणपजवणाणअरहा, केवलणाणअरहा' / स्था०३ ठा०४ उ०॥ अरहंत-पुं० [अर् (र)हत] अर्हन्ति देवादिकृतां पूजामित्यर्हन्तः। अथवा नास्ति रहः प्रच्छन्नं किञ्चिदपि येषां प्रत्यक्षज्ञानित्वात् तेऽरहन्तः। शेषं प्राग्ववत् / एते च सलेश्या अपि भवन्तीति / स्था०३ ठा०४ उ०। अमरवरनिर्मिताऽशोकादिमहाप्रातिहार्यस्मां पूजामर्हन्तीत्यर्हन्तः / अविद्यमानरहस्येषु, अनु०॥ दशा०१०) पं० सून Page #940 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरहंत 756- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अरहण्ण य अरहंते सिद्ध आयरिए उवज्झाए साहवो जत्थ / एएसिं चेव गब्भत्थसब्मावो इमो। तं जहा- सनरामरासुरस्सणं सव्वस्सेव जगस्स अट्ठ महापाडि हाराए पूयाए समोवलक्खियं अणन्नसरिसमचिंतमाहप्पं केवला हिट्ठियं पवरुत्तमत्तं। (अरहते त्ति) अरहता असेसकम्मक्खएणं णिड्वभवंकुरत्ताओ न पुणो हि भवंति, जम्मंति, उववजंति वा, अरहंता वा णिम्महियनिहयनिद्दलियविल्लुयनिट्ठवियअभिभूयसुदुजाया। महा० 3 अ० श्रा० प्रव०॥ दश०। त्रिभुवनपूजायोग्येषु तीर्थकरेषु ऋषभादिषु, कल्प० 1 क्ष०। आजीविककल्पनया गोशालकोऽप्यर्हन्,अत एव तेऽर्हद्-देवताका इत्युच्यन्ते। "अरहंतदेवयागा' गोशालकम्य तत्कल्पनयाऽर्हत्वात् / ब० 8 श० 5 उ०। "जो जाणइ अरहंते, दव्वत्तगुणत्तपज्जवत्तेहिं / सो जाणइ अप्पाणं, मोहो खलु जाइ तस्स लयं" ||1|| नंगा *अरहोऽन्तरम्-न०। अविद्यमानं रह एकान्तरूपो देशोऽन्तश्च मध्यं गिरिगुहादीनां सर्ववदितया समस्तवस्तुस्तोमगतप्रच्छन्नत्व-स्याऽभावेन येषां ते अरहोन्तरः। अर्हत्सु जिनेषु / भ०२ श०१ उ०। * अरथान्त-पुं०। अविद्यमानो रथः स्यन्दनः सकलपरिग्रहोपलक्षणभूतः, अन्तश्च विनाशो जराद्युपलक्षणभूतो येषां तेऽरथाऽन्ताः। भ०१श०१ उ०। * अरहयत्-पुं०। क्वचिदप्यासक्तिमगच्छत्सु क्षीणरागत्वात् प्रकृष्ट रागादिहेतुभूतमनोज्ञेतरविषयसंपर्के ऽपि वीतरागत्वादिकं स्वभावमत्यजत्सु जिनेषु, भ०१ श०१ उ०। अरहंतमग्गगामि(ण)-त्रि०(अर्हन्मार्गगामिन्) अर्हदुपदिष्टन मार्गेण गन्तुं शीलं यस्य / जैने साधौ, "अरहंतमग्गगामी, दिट्ठतो साहुणो वि समचित्ता / पागरएसु गिहीसुं, एसंते अवहमाणा उ" // 151 / / दश०१ अ०॥ अरहंतलद्धि-स्त्री०(अर्हल्लब्धि)लब्धिभेदे, ययाऽर्हत्त्वं समवाप्नोति। प्रव० 270 द्वार। अरहट्ट-पुं०(अरघट्ट) घटीयन्त्रे, "जम्मणमरणारहट्टे, भित्तूण भवा विमुचिहिसि / आतु०। आव०॥ अरहण्णय-पुं०(अर्हन्नत) अर्हन्मित्रभ्रातरि, गला तवृत्तं चेत्थम्क्षितिप्रतिष्ठितं नाम, पुरं द्वौ तत्र सोदरौ। अर्हन्नतोऽर्हन्मित्रश्च, ज्येष्ठभार्या लघौ रता।।१।। लघुर्नेच्छति तां चाऽऽह, भ्रातरं मेनपश्यसि। पतिं व्यापाद्य सा भूयस्तभूचे न त्वमस्त सः॥२॥ निर्वेदेनाऽथ तेनैव, सलघुतमाददे। तद्रक्ता साऽपि मृत्वाऽभूद्, ग्रामे क्वाऽप्यर्तितः शुनी // 3| साधवोऽपि ययुस्तत्र, शुन्याऽदर्शि मुनिः सच। तदैवाऽऽगत्य सा श्लेषं, मुहुर्तुरिवाऽकरोत् // 4 // नष्टः साधुता साऽथ, जाताऽटट्यां च मर्कटी। तस्या एव च मध्येनाऽटव्या यातां कथञ्चन / / 5 / / अन्तर्मुनीनां तं वीक्ष्य, प्रेम्णा शिश्लेष मर्कटी। तां विमोच्याऽथ कष्टेन, स कथञ्चित् पलायितः / / 6 / / मृत्वा तत्राऽपि सा जज्ञे, यक्षी तं प्रेक्ष्य साऽवधेः / नैच्छन्मामेष तच्छिद्राणीक्षते न त्ववैक्षत।।७।। समानवयसोऽवोचन, हसन्तस्तं च साधवः। त्वमर्हन्मित्र ! धन्योऽसि, यच्छुनीमर्कटीप्रियः // 8 // अन्यदाक्रमणालङ्घयं जलवाहं विलजितुम्। प्रमादाद्गतिभेदेन, पदं प्रासारयन्मुनिः / / 6 / / तस्य तच्छिद्रमासाद्य, सा चिच्छेदाचिमूरुतः। स मिथ्यादुष्कृतं जल्पन्नपतत्तज्जला बहिः / / 10 // सम्यग्दृष्टिः सुरी तांच, निर्धाट्य तं मुनेः क्रमम्। तथैवालगयद् भूयो, देवताऽतिशयेन च // 11 // ग० 2 अधि०। आ० म०। आ० चून * अरहन्नक-पुंग तारानगर्यामर्हन्मित्राऽऽचार्यपार्श्वे प्रव्रजितया दत्तवणिग्भार्यया सह प्रव्रजिते पुत्रे, उत्त०२ अ०। (स चोष्णपरीषहमसहमान उत्प्रव्रजित इति 'उण्ह परीसह' शब्दे द्वितीयभागे 754 पृष्ठे वक्ष्यते) चम्पानगरीवासिनि देवदत्त-कुण्डलयुगलं मल्लीनाथाय समर्पके स्वनामख्याते सां- यात्रिकवणिजि, ज्ञा०। अर्हन्नककथा - तत्थ णं चंपाए णयरीए अरहण्णयपामोक्खा बहवे संजत्ता णावावाणियगा परिवसंति अड्डा जाव अपरिभूया / तए णं से अरहण्णगे समणोवासगे यावि होत्था अभिगयजीवाजीवे / वण्णओ। तए णं तेसिं अरहण्णगपामोक्खाणं संजत्तानावावाणियगाणं अण्णया कयाइं एगओसहियाणं इमेयारूवे मिहो कहासंलावे समुप्पज्जेत्था। सेयं खलु अम्हं गणिमं च धरिमं च मेजं च परिच्छेज्जं च भंडगं गहाय लवणसमुहं पोयवहणेण उवगाहित्तए त्ति कटु अण्णमण्णस्स एय-मटुं पडिसुणेति, पडिसुणेइत्ता गणिमं च 4 गिण्हेइ, गिण्हेइत्ता सगडी-सागडं सजेति, सजेतित्तागणिमस्स 4 भंडस्स सगडी-सागडियं भरेति, भरेइत्ता सोहणंसि तिहिकरणणक्खत्तमुहुत्तंसि विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेइ, उवक्खडावेइत्ता मित्तणाइभोअणवेलाए मुंजावेति० जाव आपुच्छेति, आपुच्छेइत्ता गणिमस्स 4 जाव सगडी-सागडियं जोयंति, जोयंतित्ता चपाए नयरीए मज्झं मज्झेणं णिग्गच्छेति, णिग्गच्छे इत्ता जेणेव गंभीरपोयपट्टणए, तेणेव उवागच्छति, उवागच्छइत्ता सगडीसागडियं मोयंति, पोयवहणं सजेति, सज्जेइत्ता गणिमस्स 4 जाव चउव्विहस्स भंडस्स भरंति, तंदुलाए य समियस्स य तेल्लस्स य घयस्स य गुलस्स य गोरसस्स य उदगस्स य भायणाण य ओसहाण य भेसजाण य तणस्स य कट्ठस्स य आवरणाण य पहरणाण य अण्णेसिं च बहूणं पोयवहण पाउगाणं दव्वाणं पोयवहणं भरेति, भरेइत्ता सोहणंसि तिहिकरणणक्खत्तमुहुत्तंसि विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेति, मित्तणाई आपुच्छंति,जेणेव पोयट्ठाणे, तेणेव उवागच्छति, उवागच्छतित्ता तए णं तेसिं अरहण्णगपामोक्खाणं वाणियगाणं ते परियणो० Page #941 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरहण्णय 757 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अरहण्णय जाव ताहिं इट्ठाहिं कंताहिं० जाव वग्गूहिं अभिणंदंता य अभिसंथुयमाणा य एवं वयासी- अज्ज ! ताय ! भाय ! माउल ! भाइणेञ्ज ! भगवया समुद्देणं अभिरक्खिज्जमाणा चिरं जीवह, | भदं च भे, पुणरवि लद्धटे कयकजे अणहसमग्गे णियगं घरं हव्वमागए पासामो त्ति कटु ताहिं सोमाहिं णिद्धाहिं दीहाहिं सपिवासाहिं पप्पुयाहिं दिट्ठीहिं णिरिक्खमाणा मुहुत्तमेत्तं संचिट्ठ ति, तओ समाणिएसु पुप्फबलिकम्मेसु दिण्णेसु सरसरत्तचंदण-दद्दरपंचंगुलितलेसु अणुक्खित्तंसि धूवंसि पुइएसु समुद्दवाएसु संसारियासु वलयवाहासुऊसिएसु सिएसु ज्झयग्गेसु पडुप्पवाइएसु तूरेसु जइएसु सव्वसउणेसु गहिएसु रायवरसासणेसु महिया उक्किट्ठसीहणाय० जाव रवेणं पक्खुभियमहासमुद्दरवभूयं पि व मेइणिं करेमाणा एगदिसिं० जाव वाणियगा पोयणेसुदुरूढा तओ पुस्समाणवो वकं समुदाहुहंभो ! सव्वेसामवि भे अत्थसिद्धओ उवट्ठियाइं कल्लाणाई, पडिहयाई सव्वपावाई, जुत्तो पुस्सो विजयमुहुत्तो अयं देसकालो, तओ पुस्समाणए णं वक्के उदाहरिए हहतुढे कण्णधार-कुच्छिधारगभिज्जसंजत्ताणावावाणियगा वावरिंसु, तं णावं पुण्णुच्छंगं पुण्णमुहिं बंधणाहिंतो मुचंति। तएणं साणावा विमुक्कबंधणा पवणबलसमाहया ऊसियसियपडा विततपक्खा इव गुरुलजुवई गंगासलिलतिक्खसोयवेगेहिं संखुब्भमाणी उम्मीतरंगमालासहस्साइंसमइक्कमाणी समइक्कमाणी कइवएहिं अहोरत्तेहिं लवणसमुई अणेगाई जोयणसयाई ओगाढा / तएणं / तेसिं अरहण्णगपामोक्खाणं वाणियगाणं लवणसमुदं अणेगाई जोयणसयाई ओगाढाणं समाणाणं बहूइं उप्पाइयसयाई पाउन्भूयाई। तं जहा- अकाले गज्जिए, अकाले विजुए, अकाले थणियसद्दे, अभिक्खणं अभिक्खणं आगासे देवतया णचंति / एगं च णं महं पिसायरूवं पासंति- तालजंघं दिवंगयाइं बाहाहिं मसिमसगमहिसकालगं भरिय-मेहवण्णं लंबोटुं णिग्गयग्गदंतं निल्लालियग्गजमल-जुअलजीहं आऊसियवयणगंडदेसं चीणचिविडनासिगं विगयभुग्गभडुहिं खञ्जोयगदित्तचक्खुरागं | उत्तासणगं विसालवच्छं विसालकुच्छिं पलंबकुच्छिं पहसियपयलियपवडियगत्तं पणच्चमाणं अप्फोडं तं अभिवग्गंतं | अभिग्गज्जंतं बहुसो बहुसो अट्टहासो विणिमुयंतं नीलुप्पलगवलगुलियअयसिकुसुमप्पगासं खुरधारं असिंगहाय अभिमुहमापडतं पासंति / तए णं ते अरहण्णगवजा | संजत्ताणावावाणियगा एगं च णं महं तालपिसायं पासंति / तालजंघं दिवंगयाहिं बाहाहिं फुट्टसिरं भ्रमरणिगरवरमासरासिमहिसकालगं भरियमेहवण्णं सुप्पणहं फालसरिसजीहं लंबोटुं धवलवट्टअसिलिट्ठतिक्खथिरपीणकुडिलदाढावगूढवयणं विकोसियधारासिजुयलसमसरिसतणुयचंचलगलंतरसलोलचवलफुरफुरंतनिल्लालियग्गजीह अवयत्थियं महल्लविगयबीभच्छलालापगलं तरत्ततालुयं हिंगुलयसगम्भकंदरबिलं च अंजणगिरिस्स अग्गिजालुग्गिलंतवयणं आउसियअक्खचम्मोडगंडदेसं चीणचिविडवंकभग्गणासं रोसागयधमधमंतमारुयनिठुरखरफरुसजुसिरउभुग्गणासियपुडं धाडुब्भडरइयभीसणमुहं उड्डमुहकण्णसङ्कुलियमहंतविगयलोमसंखालगलंबंतचलियकण्णं पिंगलदिप्पंतलोअणं मिउडितडिनिडालं णरसिरमालपरिणद्धचिंधं विचित्तगोणससुबद्धपरिकर अवहोलंतफुप्फुयंतसप्पविच्छुयगोधुदरणउलसरडविरइयविचित्तवेयच्छमालियागं भोगकूरकण्णसप्पधमधमतलंबंतकण्णपूरं मजारसियाललगियखंधं दित्तं घुग्घुयंतघूयकयकुंभलसिरं घंटारवेण भीमभयंकर कायरजण-हिययफोडणं दित्तमट्टट्टहासं विणिमुयंत वसारुहिरपूयमंसम-लिणपोचडतणु उच्चासणयं विसालवच्छं पेच्छंताभिण्णण-हमुहणयणकण्णवरवग्यचित्तकितीणिवसणं सरसरुहिर-गयचम्मवितत ऊसवियबाहुजुयलं ताहि य खरफरुस-असिणिद्धदित्तअणिट्ठअसुभअप्पियअकंतवग्गूहिय तज्जयंतं पासंति। तंतालपिसायरूवं एजमाणं पासति, पासइत्ता भीया संजातभया अण्णमण्णस्स कायं समतुरंगेमाणा बहूणं इंदाण य खंदाण य रुद्दसिववेसमणणागाणं भूयाण य जक्खाण य अज्जकोट्टकिरियाण य बहूणि उवयाइयसयाईणि उवचीयमाणा चिट्ठति। तएणं से अरहण्णए समणोवासएतं दिव्वं पिसायरूवं एजमाणं पासइ, पासइत्ता अभीए अतत्थे अचलिए असंभंते अणाउले अणुविग्गे अभिण्णमुहरागणयणवण्णे अदीणविमणमाणसे पोयवाहणस्स एगदेसंसि वत्थंतेणं भूमि पमज्जेति, पमज्जइत्ता ठाणं ठायति, ठायइत्ता करलय० जाव त्ति कटु एवं वयासीणमोत्थु णं अरिहंताणं० जाव ठाणं संपत्ताणं / जइणं अहं एत्तो उवसग्गओ मुंचामितो मे कप्पइ पारेत्तए, अहणं एत्तो उवसग्गतो ण मुंचामि, तो मे तहा पञ्च-क्खाएयव्वं ति कटु सागारमत्तं पचक्खाइ।तएणं से पिसायरूवे जेणेव अरहण्णए समणोवासए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता अरहण्णगं समणोवासयं एवं वयासी- हंभो अरहण्णगा ! अपत्थियपत्थिया० ! जाव परिवज्जिया नो खलु कप्पइ तवसीलव्वयगुणवेरमणपचक्खाणपोसहोववासाइंचालित्तएवा एवं खोभित्तएवाखंडित्तएवाभंजित्तए वा उज्झित्तएवा परिचत्तएवा, तंजइणंतुमंसीलव्वयंणपरिचयसि, तो मे अहं पोयवहणं दोहिं अंगुलियाहिं गिण्हामि, गेण्हित्ता Page #942 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरहण्णय 758- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अरहण्णय सत्तट्ठतलप्पमाणमेत्ताइं उठें वेहासं उद्दिवहामि / अंतो जलंसि विउव्वियं समुग्घाति, ताए उक्किट्ठाए० जाव जेणेव लवणसमुद्दे णिव्वोलेमि जेणं तुम अट्टदुहट्टवसट्टे अकाले चेव जीवियाओ जेणेव तुम्हे तेणेव उवागच्छामि, तुम्हाणं उवसग्गं करेमि। नो ववरोविज्ञ्जसि। तए णं से अरहण्णए समणोवासए तं देवं मणसा चेवणं तुम्हे भीया वा,तं जंणं सक्के देविंदे देवराया एवं वयंतिचेव एवं वयासी- अह णं देवाणु प्पिया ! अरहण्णए णामं सचे णं एसमढे, तं दिटे णं देवाणुप्पियाणं इड्डी जुई जसे बले समणोवासए अहिगयजीवाजीवे नो खलु अहं सक्का केणइ देवेण वीरिए पुरिसक्कारे परिक्कमे लद्धे पत्ते अभिसमण्णागए। तं खामेमि वा दाणवेण वा० जाव णिग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए वा णं देवाणुप्पिया ! भुजो मुजो० जाव णो एवं करणयाए त्ति क खोभित्तए वा विपरिणामत्तए वा / तुमं णं जा सढा तं करेहि त्ति टु पंजलिउडे पायवडियाए एयमटुं विणएणं भुजो भुजो खामेइ, कट्टु अभीए० जाव अभिण्णमुहरागनयणवणे अदीण- खामेतित्ता अरहण्णगस्स दुवे कुंडलजुयलं दलइ, दलइत्ता विमणमाणसे णिचले णिप्फंदे तुसिणीए धम्मज्झाणोवगए जामेव दिसिंपाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए। विहरइ। तएणं से अरहण्णए समणोवासए निरुवसग्ग त्ति कट्ट पडिम तएणं से दिव्वे पिसायरूवे अरहण्णगं समणोवासगं दोच्चं पि पारेति / तए णं अरहण्णगपामोक्खा० जाव वाणियगा तचं पि एवं वयासी-हंभो अरहण्णगा ! जाव धम्मज्झाणोवगए दक्खिणाणु कू लेणं वाएणं जेणेव गंभीर-पोयट्ठाणे तेणेव विहरइ / तएणं ते दिव्वे पिसाय-रूवे अरहण्णगं समणोवासयं उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता पोयं ठवेइ। पोयं ठवेइत्ता सगडीधम्मज्झाणोवगयं पासइ, पासइत्ता बलियतरागं आसुरत्ते तं सागडं सजेइ / सज्जेइत्ता गणिमं च 4 सगळि संकामेइ, सगडी पोयवहणं दोहि अंगुलियाई गिण्हइ, गिण्हइत्ता सत्तद्वताल० सागडं जोवें ति, जेणेव मिहिला रायहाणी, तेणेव उवागच्छइ, जाव अरहण्णगं एवं वयासी- हंभो अरहण्णगा ! उवागच्छइत्ता मिहिलाए रायहाणीए बहिया अग्गुजाणंसि सगडीअपत्थियपत्थिया ! नो खलु कप्पइ तवसीलव्वय गुणवेरमणं, सागडिं मोएइ। तएणं अरहण्णगे समणोवासएतं महत्थं विउलं० तहेव० जाव धम्मज्झाणोवगए विहरइ / तए णं से पिसायरूवे जाव रायरिहं पाहुडं कुंडलजुगलं गिण्हइ, गिण्हइत्ता मिहिलाए अरहाणगं जाहे नो संचाएइ, निग्गंथाओ चालित्तए वा तहेव रायहाणीए अणुप्पविसइ / अणुप्पविसइत्ता जेणेव कुंभए राया संते०जाव णिव्विण्णे तं पोयवहणं सणियं सणियं उवरिं जले तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता करयल० जाव कटुतं महत्थं संठवेइ / संठवेइत्ता तं दिव्वं पिसायरूवं पडिसाहरइ / रायारिहं पाहुडं दिव्वं कुंडलजुयलं च पुरओ ठवेइ। पडिसाहरित्ता दिव्वं देवरूवं विउव्वंति, अंतलिक्खपडिवण्णे तए णं से कुंभए राया तेसिं संजत्तगाणं० जाव पडिच्छइ, सखिंखणियं० जाव परिहिए अरहण्णगंसमणोवासयं एवं वयासी पडिच्छइत्ता मल्लिं विदेहरायवरकण्णं सद्दावेइ। सद्दावेइत्ता तं दिव्वं कुंडलजुयलं मल्लीए विदेहराय- वरकण्णगाए पिणद्धइ / हंभो अरहणणगा ! धण्णोऽसि णं तुम देवाणुप्पिया ! जाव पिणद्धइत्ता पडि विसज्जेइ / तए णं से कुं भए राया ते जीवियफले जस्स णं तव निग्गंथे पावयणे इमेयारूवे पडिवत्ती अरहण्णगपामोक्खे० जाव वाणियए विउलेणं वत्थगंधलद्धा पत्ता अमिसमण्णागया, एवं खलु देवाणुप्पिया! सक्के देविंदे मल्लालंकारेणं० जाव उस्सुकं वियरेइ / रायमग्गे मोगाढे य देवराया सोहम्मे कप्पे सोहम्मावडिंसए विमाणे समाए सुहुम्माए आवासे वियरइ, पडिविसजेइ / पडिविसजेइत्ता तए णं बहूणं देवाणं मज्झगए महया सद्देणं आइक्खइ भासइ पण्णवेइ अरहण्णग-संजत्तगा वाणियगा जेणेव रायमग्गे मोगाढे आवासे परूवेइ / एवं खलु जंबुद्दीवे दीवे मारहे वासे चंपाइ णयरीए तेणेव उवागच्छद। उवागच्छइत्ता भंडगववहरणं करेति, पडिभंडे अरहण्णए समणोवासए अहिगयजीवाजीवे नो खलु सक्का केणइ गिण्हइ / गिण्हइत्ता सगडी-सागडं भरेति, जेणेव दवेणे वा० जाव निग्गंथाओ पावयणाओ० जाव परिणामत्तए गंभीरपोयपट्टणे तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छइत्ता पोयवहणं वा। तएणं अहं देवा सक्कस्स देविंदस्स एयमद्वं नो सहहामिनो सजेइ, मंडं संकामेइ, दक्खिणाऽनुकुलेणं वाएणं जेणेव चंपा पत्तियामि नो रोचयामि / तए णं मम इमेयारूवे अब्मत्थिए० णयरी तेणेव उवगच्छइ / उवागच्छइत्ता पोयपयट्ठाणे तेणेव जाव समुप्पजित्था गच्छामि णं अहं अरहण्णगस्स पोयलंबेइ / पोयलंबेइत्ता सगडीसागडि सजे / तं गणिमं 4 समणोवासयस्स अंतियं पाउड्भवामि जाणामि ताव सगडी संकामेइ० जाव महत्थं पाहुडं दिव्वं कुंडलजुयलं अहं अरहण्णगं किं पियधम्मे, नो पियधम्मे ? दढधम्मे गिण्हइ। गिण्हइत्ता जेणे व चंदच्छाए अंगराया तेणे व सीलव्वयगुणे किं चालेति० जाव परिचयइ ? नो परिचयइ त्ति उवागच्छइ / उवागच्छइत्ता तं महत्थं कुंडलजुयलंच उवणेइ। कटु एवं संपेहेमि संपेहित्ता ओहिं पउंजेमि, देवाणुप्पिया! तए णं चंदच्छाए अंगराया तं दिव्वं महत्थं च कुंडलजुयलं ओहिणा आभोएमि उत्तरपुरच्छिमं दिसीमागं उत्तरपुरच्छिम | पडिच्छइ / पडिच्छइत्ता ते अरहण्णगपामोक्खे एवं वयासी Page #943 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरहन्नक 759 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अरहन्नक तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! बहूणि गामागर० जाव आहिंडह वायसादिषु, गृहीतेषु राजवरशासनेषु आज्ञासु पट्टकेषु वा, लवणसमुदं च अभिक्खणं अभिक्खणं पोयवहणेहिं उग्गहेह,तं प्रक्षुभितमहासमुद्ररवभूतमिव तदात्मकमिव, तं प्रदेशमिति गम्यते। अत्थियाहिं भे केइ कहिं वि अच्छेरए दिट्ठपुव्वे। तएणं ते अरहण्ण (तओ पुस्समाणवो वक्कं समुदाहुं ति) ततोऽनन्तरं मागधो मङ्गलवचनं गपामोक्खा चंदच्छायं अंगरायं एवं वयासी- एवं खलु सामी ! ब्रवीति स्मेत्यर्थः / तदेवाह- सर्वेषामेव भवतामर्थसिद्धिर्भवतु, अम्हे इहे व चंपाए नयरीए अरहण्णगपामोक्खा बहवे उपस्थितानि कल्याणानि, प्रतिहतानि सर्वपापानि, सर्वविघ्नाः। (जुत्तो संजत्तानावावाणियगा परिवसामो, तएणं अम्हे अण्णया कयाई त्ति) युक्तः पुष्योनक्षत्रविशेषः चन्द्रमसा, इहाऽवसरे इतिगम्यते। पुष्यनक्षत्रं गणिमं च 4 तहेव अहीणं अतिरित्तं० जाव कुंभगस्स रण्णो हि यात्रायां सिद्धिकरम् / यदाहुः - अपि द्वादशमे चन्द्रे पुष्यः, उवणेमो, तए णं से कुभए राया मल्लीए विदेहरायवरकण्णाएतं सर्वार्थसाधनः, इति मागधेन तदुपन्यस्तम्। विजयो मुहुर्त्तस्त्रिंशतो दिव्वं कुंडलजुयलं पिणद्धेइ / पिणद्धेइत्ता पडिविसज्जेइ / तए णं मुहूर्तानां मध्यात् अयं देशकालः, एष प्रस्तावोगमनस्येति गम्यते। (वक्के सामी! अम्हेहिं कुंभग रायभवणंसि मल्लीए विदेहरायवरकण्णाए उदाहिएत्ति) वाक्ये उदाहृते, दृष्टतुष्टाः, कर्णधारा नियामकाः, कुक्षिधारा अच्छेरए दिढे, इत्तोखलु अण्णा कावितारिसिया देवकण्णगा० नौपार्थनियुक्तका आवेल्लकवाहकादयः, गर्भे भवा गभजाः, नौमध्ये जाव जारिसिया णं मल्ली विदेहकण्णा / तए णं चंदच्छाए राया उच्चाऽवचकर्मकारिणः, संयात्रानौवाणिजकाः, भाण्डपतयः, एतेषां अरहण्णगपामोक्खे सक्कारेइ सम्माणेइ। सम्माणेइत्ता उस्सुक्क द्वन्द्वः / (वावरिंसुत्ति) व्यावृतवन्तः स्वस्व-व्यापारेष्विति। ततस्तांनावं वियरइ, पडिविसज्जेइ / तए णं चंदच्छाए राया वाणियग- पूर्णोत्सङ्गां विविधभाण्डभृतमध्यां, पुण्यमध्यांवा, मध्यभागनिवेशितजाणियहासे दूयं सदावेइ। सद्दावेइत्ता० जाव जइवियणंसासयं माङ्गल्यवस्तुत्वात्। पूर्णमुखी, पुण्यमुखीं वा। तथैव बन्धनेभ्यो मुञ्चन्ति रजसुक्का तएणं से दूर हट्ठतुढे पडिसुणेइ, जेणेव सए गेहे जेणेव विसर्जयन्ति पवनबल-समाहता वा वातसामर्थ्यात् प्रेरिताः / चाउघंटे आसरहे दुरूढे जाव पहारेत्थगमणाए। (ऊसियसिय त्ति) उच्छ्रित-सितपटाः, यानपात्रे हि वायुसंग्रहार्थमहान् (संजत्तानावावाणियग त्ति) संगता यात्रा देशाऽन्तरगमनं संयात्रा, पट उच्छ्रितः क्रियते। एवं चाऽसावुपमीयते- विततपक्षेव गरुडयुवतिः, तत्प्रधाना नौवाणिजकाः पोतवणिजः, संयात्रानौवाणिजकाः / गङ्गासलिलस्य तीक्ष्णा ये स्रोतोवेगाः प्रवाहवेगास्तैः संक्षुभ्यन्ती (अरहण्णगे समणोवासगे याविहोत्थ ति) न केवलमाढ्या-ऽऽदिगुणयुक्तः, संक्षुभ्यन्ती प्रेर्यमाणा प्रेर्यमाणा, समुद्रं प्रतीति। ऊर्मयो महाकल्लोलाः, श्रमणोपासकश्चाऽप्यभूत्। (गणिमंचेत्यादि) गणिमंनालिकेरपूगफलादि, तरङ्गा ह्रस्वकल्लोलाः, तेषां मालाः समूहाः तत्सहस्राणि, (समतियद्गणितं यद्-व्यवहारे प्रविशति / धरिम- यत् तुलाधृतं सद् क्कमाणि त्ति) समतिक्रामन्ती (ओगाढ त्ति) प्रविष्टा। व्यवहियते / मेय-यत् सेतिकापलादिना मीयते।परिच्छेद्य- यद् गुणतः (तालजंघमित्यादि) तालो वृक्षविशेषः, स च दीर्घस्कन्धो भवति। परिच्छिद्यते परीक्ष्यते वस्त्रमण्यादि। (समियस्सय त्ति) कणिकायाश्च, ततस्तालवज्जड़े यस्य तत्तथा / (दिवं गयाहिं बाहाहिं ति) (ओसहाण यत्ति) त्रिकटुकादीनाम्। (भेसजाण यत्ति) पथ्यानामाहार- आकाशप्राप्ताभ्यामतिदीर्घाभ्यां भुजाभ्यां युक्तमित्यर्थः। (मसिमूसगमविशेषाणाम् / अथवा औषधानामेक द्रव्यरूपाणां, भेषजानां हिसकालगं ति) मषी कज्जलं, मूषक उन्दुरविशेषः। अथवा मषीप्रधाना द्रव्यसंयोगरूपाणाम्। आवरणानामङ्गरक्षकादीनां, बोधिस्थप्रक्षराणां च / मूषा तामादिधातुप्रतापनभाजनं मषीमूषा, महिषश्च प्रतीत एव / (अजेत्यादि) आर्य ! हे पितामह !, हे तात ! हे पितः!, हे भ्रातः!, हे तद्वत्कालकं यत्तत्तथा, (भरियमेहवण्णं ति) जलभृतमेघवर्णमित्यर्थः / मातुल!, हे भागिनेय! भगवता समुद्रेणाऽभिरक्षमाणा-श्चिरं यूयं जीवत, तथा लम्बोष्ठम्, (निग्गयम्गदंत त्ति) निर्गतानि मुखादग्राणि येषां ते तथा, भद्रं च भवतां, भवत्विति गम्यते / पुनरपि लब्धान्,ि कृतकार्यान, निर्गताऽग्रा दन्ता यस्य तत्तथा। (निल्लालियजमलजुयलजीहं ति) अनघसमग्रान्, अनघत्वं निर्दूषणतया, समग्रत्वमहीधनपरिवारतया, निर्लालितं विवृतमुखात् निस्सारितं यमलं समं युगलं द्वयं जिह्वयोर्येन निजकं गृहं, 'हव्वं' शीघ्रमागतान् पश्यामि इतिकृत्वेत्यभिधाय, (सोमाहिं तत्तथा। (आऊसिय-वयणगंडदेसं ति) आऊसिय त्ति, आपूसिय त्ति वा ति) निर्विकारत्वात् / (निद्धाहिं ति) सस्नेहत्वात् / (दीहाहिं ति) दूर प्रविष्टौ वदने गण्डदेशौ कपोलभागौ यस्य तत्तथा / यावदवलोकनात्। (सपिवासाहिं ति) सपिपासाभिः पुनदर्शनाऽऽका- (चीणचिविडनासियंति) चीना ह्रस्वा, चिपिटा च निम्ना, नासिका यस्य क्षावतीभिः, दर्शनातृप्ताभिर्वा / (पप्पुयाहिं ति) प्रप्लुताभिरश्रुजला- तत्तथा। (विगय-भुग्गभमुहिति) विकृते विकारवत्यौ, भुग्ने, भग्ने ऽर्द्राभिः, (समाणिएसुत्ति) समापितेषु दत्तेषु, नावीति गम्यते। सरसरक्त- इत्यर्थः / पाठाऽन्तरेण- भुग्नभग्ने अतीववक्रे भुवौ यस्य तत्तथा।खचन्दनस्य दर्दरेण चपेटाप्रकारेण पञ्चाऽङ्गु लिषु तलेषु, हस्तेषु जोयगदित्तचक्खुरागंति० खद्योतकोज्योतिरिङ्गणः, तद्वद्दीप्तश्चक्षूरागो इत्यर्थः / (अणुक्खित्तंसीति) अनुत्क्षिप्ते पश्चादुत्पाटिते धूपे, पूजितेषु लोचनरक्तत्वं यस्य स तथा / उत्तासनकं भयङ्करम्। विशालवक्षो समुद्रवातेषु, नौसांयात्रिक प्रक्रियायां समुद्राधिपदेव-पादेषु या विस्तीर्णोरःस्थलम, विशालकुक्षि विस्तीर्णोदरदेशम्। एवं प्रलम्बकुक्षि। (संसारियासु बालयवहासु त्ति) स्थानाऽन्तरादुचित-स्थाननिवेशितेषु (पहसियपयलिय-पडिवडियगत्तंति) प्रहसितानि प्रहसितुमारब्धानि, दीर्घकाष्ठलक्षणबाहुषु आवेल्लके ष्विति संभाव्यते / तथा- प्रचलितानि च स्वरूपात्, प्रवलिकानि वा प्रजातवलीकानि, प्रपतितानि उच्छूितेषूर्वीकृतेषु सितेषु ध्वजाऽग्रेषु पताकाऽग्रेषु पटुभिः पुरुषः, पटु वा च प्रकर्षेण श्लथीभूतानि, गात्राणि यस्य तत् तथा / वाचनायथा भवतीत्येवं प्रवादितेषु तूर्येषु जयिकेषु जयाऽऽवहेषु, सर्वशकुनेपु | ऽन्तरेविगयभुग्गभमुयपहसियपयलियपडियफुलिंगखजोयदित्त Page #944 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरहन्नक ७६०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अरहन्नक चक्खुरागंति पाठः / तत्र विकृते भुग्ने भुवौ प्रहसिते प्रचलिते प्रपतितेच यस्य स्फुङ्गिवत् खद्योतकवच दीप्तश्चक्षुरागश्च यस्य तत्तथा / "पणच्चमाणं'' इत्यादि विशेषणपञ्चकं प्रतीतम्। (नीलूप्पलेत्यादि) गवलं महिषशृङ्गम्। अतसी मालवक-देशप्रसिद्धोधान्यविशेषः। (खुरहारं ति) क्षुरस्येव धारा यस्य स तथा तमसिं, खड्ग, क्षुरो ह्यतितीक्ष्णधारो भवति, अन्यथा केशानाममुण्डनादिति क्षुरेणोपमा खड्गधरायाः कृतेति / अभि-मुखमापतत् पश्यन्ति / सर्वेऽपि सांयात्रिकाः, तत्राऽर्हन्नकवर्जा यत् कुर्वन्ति, तद् दर्शयितुमुक्त-मेवंपिशाचस्वरूपं सविशेषम्। तेषां तदर्शनं चाऽनुवदन्निदमाह-(तए णमित्यादि)ततस्ते अर्हन्नकवर्जाः सांयत्रिकाः पिशाचरूपं वक्ष्यमाणविशेषणं पश्यन्ति, दृष्ट्वा च बहूनामिन्द्रादीनां बहून्युपयाचितशतान्युप-चिन्वन्तस्तिष्ठन्तीति समुदायार्थः / अथवा-तएणं ते अरहण्णग-वजा, इत्यादिगमाऽन्तरम्, आगासे देवयाओ नचंति, इतोऽनन्तरं द्रष्टव्यम् / अत एव वाचनान्तरे नेदमुपलभ्यते। उपलभ्यते चैवम् - "अभिमुहं आवयमाणं पासंति, तए णं ते अरहन्नगवज्जा नावा-वाणियगा भीया०" इत्यादि। (तत्र तालपिसायं ति ) तालवृक्षाकारोऽतिदीर्धत्वेन पिशाचः तालपिशाचः, तम् / विशेषणद्वयं प्रागिव / (फुट्टसिरं ति) स्फुटितभबन्धनत्वेन विकीर्ण शिर इति शिरोजातत्वात् केशा यस्य स तथा तम् / भ्रमरनिकरवत् वरमाषराशिवत् महिषवच कालको यः स तथा तम्, भृतमेघवर्णम्, तथैव शूर्पमिव धान्यशोधकभाजनविशेषवन्नखायस्य स शूर्पनखस्तम् / फालसदृशजिह्न मिति फालं द्विपञ्चाशत्पलप्रमाणलोहमयो द्रव्यविशेषः, तच वह्रिप्रतापितमिह ग्राह्यम्, तत्साधर्म्य चेह जिह्वाया वर्णदीप्तिदीर्घत्वादिभिरिति / लम्बोष्ठं प्रतीतम् / धवलाभिर्वृत्ताभिरश्लिष्टाभिर्विशरत्वेन तीक्ष्णाभिः,स्थिराभिर्निश्चलत्येन, पीनाभिरुपचितत्वेन,कुटिलाभिश्च वक्रतया, दंष्ट्राऽभिरवगूढं व्याप्तं वंदनं यस्य स तथा, तम् / विकोशितस्याऽपनीतकोशकस्य, निरावरणस्येत्यर्थः / धारा-ऽस्योर्धाराप्रधानखडयोर्यद् युगलं द्वितयं तेन समसदृशावत्य-न्ततुल्ये तनुके प्रतले, चञ्चलं, विमुक्तस्थैर्य यथाभवत्यवि-श्रममित्यर्थः / गलन्त्यौ रसाऽतिलौल्याद् लाला विमुञ्चन्त्यौ रसलोले भक्ष्यरसलम्पटे चपलेचञ्चले फुरफुरायमाणे प्रकम्पे निर्लालिते मुखात् निष्काशिते अग्रजिह्वे जिह्वाऽग्रे इत्यर्थः, येन सतथा, तम्। (अवत्थियंति) प्रसारितमित्येके / अन्ये तु यकारस्याऽलुप्तत्वात् 'अवयत्थियं प्रसारितमुखत्वेन दृष्टं दृश्यमानमित्याहुः। (महल्लंति) महद् विकृतंबीभत्संलालाभिः प्रगलत् क्तंचतालुकाकुदं यस्य स तथा तम् / तथा हिगुलके न वर्णक-द्रव्यविशेषेण सगर्भकन्दरलक्षणं बिलं यस्य स तथा, तमिव / (अंजणगिरिस्सत्ति) / विभक्तिविपरिणामादञ्जनगिरि कृष्णवर्णपर्वतविशेषम् / अथवा 'अवत्थियेत्यादि' हि गुलुयेत्यादि' च कर्मधारयेणैव वक्ष्यमाणवदनपदस्य विशेषणं कार्यम् / यस्य तमित्येवंरूपश्च वाक्यशेषो द्रष्टव्यः / तथा अग्निज्वाला उद्गिरद् वदनं यस्य स तथा तम्। (आउसियत्ति) संकुचितं यदक्ष-चर्म जलाऽपकर्षणकोशस्तद्वत्।(उद्धृत्ति)अपकृष्टावपकर्षवन्तौ संकुचितौ गण्डदेशौ यस्य स तथा, तम्। अन्ये त्वाहुः - आचूषितानि संकुचितानि अक्षाणीन्द्रियाणि चर्म च ओष्ठौ च गण्डदेशौ च यस्य स तथा तम् / चीना ह्रस्वा (चिविड त्ति) चिपिटा निम्ना 'वंका' वक्रा भग्नेव भग्ना, अयोधनकट्टितेवेत्यर्थः, नासिका यस्य स तथा, तम् / रोषादागतः (धमधमंतत्ति) प्रबलतया | धमधमेति शब्दं कुर्वाणो मारुतो वायुर्निष्ठुरो निर्भरः, वरपरुषोऽत्यन्तकर्कशः, शुषिरयोरन्ध्रयोर्यत्र तत्तथा / तदेवंविधमवभुग्नं च वक्र नासिकापुट यस्य स तथा तम् / इह च पदानामन्यथानिपातः प्राकृतत्वादिति / घाताय पुरुषादिवधाय, छाटाभ्यां वा मस्तकाऽवयवविशेषाभ्याम्, उद्भट विकरालं रचितम्, अत एव भीषणं मुखं यस्य स तथा, तमा ऊर्ध्वमुखे कर्णशष्कुल्यौ कर्णावयवौ ययोस्तौ तथा तौ च महान्ति दीर्घाणि विकृतानि लोमानि ययोस्तौ तथा तौ च (संखालगंत्ति) शङ्ख वन्तौ च शव योरक्षिप्रत्यासन्नाऽवयवविशेषयोरालग्नौ संबद्धावित्येके, लम्बमानौ च प्रलम्बौ, चलितौ च चलन्तौ कर्णी यस्य स तथा, तम् / पिङ्गले कपिले दीप्यमाने भास्वरे लोचने यस्य स तथा तम्। भृकुटिः कोपकृत-भूविकारः, सैव तडित् विद्युत् यस्मिन् तत् तथा, तथाविधम् / पाठान्तरेण- भृकुटितं कृतभृकुटिलं ललाटं यस्य स तथा, तम् / नरशिरोमालया परिणद्धं वेष्टितं चिहूं पिशाचकेतुर्यस्य स तथा, तम् / अथवा- नरशिरोमालया यत् परिणद्धं परिणहनं, तदेव चिह्नं यस्य स तथा तम्। विचित्रैर्बहुविधैर्गोनसैः सरीसृपविशेषैः सुबद्धः परिकरः सन्नाहो येन स तथा तम् / (अवहोलंत त्ति) अवघोलयन्तो डोलायमानाः, (पुप्फुयंत त्ति) फूत्कुर्वन्तो ये सर्पा वृश्चिका गोधा उन्दुरा नकुलाः सरटाश्च तैर्विरचिता विचित्रा विविधरूपवती वैक क्षेणोत्तरा-5ऽसङ्गेन मर्कटबन्धेन स्कन्धलम्बनमात्रतया वा मालिका माला यस्य स तथा तम् / भोगः फणः स कूरो रौद्रो ययोस्तौ, तथा तौ च कृष्णसौ च तौ च तौ धमधमायमानौ च तावेव लम्बमानौ कर्णपूरी कर्णाभरणविशेषौ यस्य स तथा तम् / मारिशृगालौ लगितौ नियोजितौ स्कन्धयोर्येन स तथा तम् / दीप्तं दीप्तस्वरं यथा भवत्येवं (घुग्घुयंतत्ति) घूत्कारशब्दं कुर्वाणो यो घूकः कौशिकः स कृतो विहितः (कुंभलत्ति) शेखरकः शिरसि येन स तथा तम्।घण्टानांरवः शब्दस्तेन भीमो यःसतथासचासौभयंकरश्चेति, तं, कातरजनानां हृदयं स्फोटयति यः स तथा, तम् / दीप्तमट्टहासं घण्टारवेण भीमादिविशेषणविशिष्टं विमुञ्चन्तं वसारुधिरपूयमांसमलैर्मलिना (पोचलत्ति) विलीना च तनुः शरीरं यस्य स तथा तम्, उत्त्रासनकं विशालवक्षसं च प्रतीते / (पेच्छंतत्ति) प्रेक्ष्यमाणा दृश्यमानाः, अभिन्ना अखण्डानखाश्च मुखं च नयनेच कर्णौ च यस्यांसा तथा, सा चासौ वरव्याघ्रस्य चित्रा कुर्बरा कृत्तिश्च चर्मेति सा तथा सैव निवसनं परिधानं यस्य स तथा तम् / सरसं रूधिरप्रधानं यद्गजचर्म तद्विततं विस्तारितं यत्र तत्तथा। तदेवंविधं (ऊसवियंति) उच्छ्रितमूर्वीकृतं बाहुयुगलं येन स तथा तम्। ताभिश्च तथाविधाभिः, खरपरूषा अतिकर्क शाः, अस्निग्धा स्नेहविहीनाः, दीप्ता ज्वलन्त्यश्चोपतापहे तुत्वात् / अनिष्टा अनभिलाषाविषयभूताः, अशुभाः स्वरूपेण, अप्रिया अप्रीति-करत्वेन, अकान्ताश्च विस्वरत्वेन या / याचस्ताभिस्त्रस्तान कुर्वाणं त्रस्यन्तं तर्जयन्तं वा पश्यन्ति स्म। पुनस्तालपिशाचरूपं (एजमाणंति) नावं प्रत्यागच्छन्तं पश्यन्ति / (समतुरंगेमाणात्ति) आश्लिष्यन्तः स्कन्दः कार्तिकेयः, रुद्रः प्रतीतः, शिवो महादेवः, वैश्रवणो यक्षनायकः, नागो भवनपतिविशेषः, भूतयक्षा व्यन्तरभेदाः, आर्या प्रशान्तरूपाः, दुर्गा कोट्टक्रिया, सैव महिषारूढरूपा पूजाऽभ्युपगमपूर्वकाणि प्रार्थनानि उपयाचितान्युपचिन्वन्ते / उपाचिन्वन्तो विदधतस्तिष्ठन्ति स्मेति / अर्हन्नक-वर्जानामियमितिकर्तव्यतोक्ता। अधुनाऽर्हन्नकस्य तामाह- "तए णमित्यादि" / (अपत्थिय Page #945 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरहण्णय 761- अभिधानराजेन्द्रः-भाग 1 अरिद्व पत्थिय त्ति) अप्रार्थितं यत् केनापि न प्रार्थ्यते, तत् प्रार्थयति स्म यः स - अरहमित्त-पुं०(अर्हन्मित्र) अर्हन्नतलघुभ्रातरि, यस्मिन् आसक्तया तथा, तदामन्त्रणम् / पाठान्तरण- अप्रस्थितः सन् यः प्रस्थित इव भ्रातृजाययाऽर्हन्नतो मारितः / ग०२ अधि०। (अस्य कथा 'अरहण्णय' मुमूर्षुरित्यर्थः, स तथोच्यते, तदामन्त्रणम्- हे अप्रस्थितप्रस्थित ! शब्द एवोक्ता) द्वारवतीवास्तव्ये रुग्णत्वे वैद्योप-दिष्टं मांसं यावत्करणात् (दुरंतपंतलक्खणत्ति) दुरन्तानि दुष्ट पर्यन्तानि निर्बन्धेऽप्यखादितवत्या अनुद्धर्याः पत्यौ, आ० चू० 4 अ आव० प्रान्तान्यपसदानि लक्षणानि यस्य स तथा, तस्या-ऽऽमन्त्रणम् / ('अत्तदोसोवसंहार' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 503 पृष्ठेऽस्य कथा समुक्ता) (हीणपुण्णचाउद्दसी इति) हीना असमग्रा पुण्या पवित्रा चतुर्दशी अरहया-स्त्री०(अर्हता) तीर्थकरत्वे, पञ्चा० 8 विव०। तिथिर्यस्य जन्मनि स तथा / चतुर्दशीजातो हि किल भाग्यवान् अरहस्सधारक-पुं०(अरहस्यधारक) नाऽस्ति अपरं (रहस्य) भवतीति। आक्रोशे तदभावो दर्शित इति / "सिरिहिरिधीकित्ति- रहस्याऽन्तरं यस्मात् तदरहस्यम् / अत एव रहस्यं छेदशास्त्रावन्जियत्ति' प्रतीतम् / (तवसीलव्वए० इत्यादि) तपः,शीलव्रतान्य- ऽर्थतत्त्वमित्यर्थः / तद् यो धारयति, अपात्रेभ्यो न प्रयच्छति, णुव्रतानि,गुणाः गुणव्रतानि, विरमणानि रागादिविरतिप्रकाराः, / सोऽरहस्यधारकः। योग्यायैव छेदसूत्रदायके, बृ०६ उ०) प्रत्याख्यानानि नमस्कार-सहितादीनि, पोषधोपवासोऽष्टाहिकादिषु, अरहस्सभागि(ण)-पुं०(अरहस्यभागिन्) रहस्यस्य प्रच्छनस्यापर्वदिनेषुपवसन-माहारशरीर-सत्काराऽब्रह्मव्यापारपरिवर्जनमित्यर्थः। ऽभावोऽरहस्यं, तद्भजते, इत्यरहस्यभागी। अर्हति, स्था० 6 ठा०। एतेषां द्वन्द्वः।(चालित्तएत्ति) भड्गकाऽन्तरगृहीतान भङ्गकाऽन्तरेण कर्तु, / कल्प। क्षोभयितुमेतानेवं परिपालयामि (खोभित्तएत्ति) क्षोभविषयान् कुर्तु, अरहस्सर-त्रि०(अरहःस्वर) अप्रकटस्वरे महाशब्दे, सूत्र०१ श्रु० खण्डयितुं देशतः, भक्तुं सर्वतः, उज्झितुं सर्वस्या देशविरतेस्त्यागेन 5 अ०१ उ०। बृहदाक्रन्दशब्दे, सूत्र०१ श्रु०५ अ०२ उ०) परित्यक्तुं, सम्यक्त्वस्याऽपि त्यागत इति। (दोहिं अंगुलयाहिति) अराइ-पुं०(अराति) व्याधौ, आ० म० द्विाआचा०ा विशे० आ० क०। अङ्गुष्ठकतर्जनीभ्याम्, अथवा- तर्जनीमध्यमाभ्यामिति। (सत्तट्ठतल शत्रौ, वाच०। प्पमाणमेत्ताइंति)तलो हस्ततालाभिधानो वाऽतिदी? वृक्षविशेषः, स अरि-पुं०-अरि। द्विषत्प्रत्यर्थिरिपुपर्यायः। निर्दय रिपौ, तं०। सामान्यतः एव प्रमाण मानं तलप्रमाणं, सप्ताऽष्टौ वा सप्ताऽष्टानि तलप्रमाणानि शत्रौ, जं०२ वक्ष०ा ज्ञा० जी० आ० म०। आव०ा जन्मान्तरवैरिणि, परिमाणं येषा ते सप्ताऽष्टतलप्रमाणमात्राः, तान् गगनभागान् यावदिति सूत्र० 1 श्रु०५ अ०२ उ०। रथाङ्गे चक्रे, विट्खदिरे, षट्सु कामादिषु, गम्यते। (उर्ल्ड वेहासंति) उर्ध्वं विहायसि गगने। (उव्विहामित्ति) नयामि, वाचा (जेणं तुमंति) येन त्वं (अट्टदुहट्टक्सट्टेत्ति) आर्तस्य ध्यान-विशेषस्य यो (दुहट्टत्ति) दुर्घटः दुःस्थगो दुर्निरोधो, वशः पारतन्त्र्यं, तेन हृतः पीडितः, अरिंजय-पुं०(अरिञ्जय) श्रीऋषभदेवस्य व्यशीतितमे पुत्रे, कल्प०७ क्षण आर्तदुर्घटवशाऽऽर्तः। अरिछव्वग्ग-पुं०(अरिषड्वर्ग) षण्णां वर्गः समुदायः षड्वर्गः / अरीणां किमुक्तं भवति? असमाधिप्राप्तः। (ववरोविज्जसित्ति) व्यप-रोपयिष्यसे अपेतीभविष्यसीत्यर्थः / (चालित्तएत्ति) इह चलन-मन्यथाभावत्वं, षड्वर्गः / वाचला कामक्रोधलोभमानमोहमदाऽऽरख्ये आन्तरशत्रुषट्के, कथम् ? (खोभित्तएत्ति) क्षोभयितुं संशय्यो-त्पादनतः, तथा सूत्र० 1 श्रु०१ अ०४ उ० तथा अरयः शत्रवस्तेषां षड्वर्गः, अयुक्तितः प्रयुक्ताः कामक्रोधलोभमानमदहर्षाः,यतस्ते शिष्टगृह(विपरिणामित्तएत्ति) विपरिणामयितुं विपरीता-ऽध्यवसायोत्पादनत स्थानामन्तरङ्गाऽरिकार्यं कुर्वन्ति। तत्र परपरिगृहीतास्वनूढासु वा स्त्रीषु इति / 'संते' इति यावत्करणात् / 'तते परितंते' इति द्रष्टव्यस् / तत्र दुरभिसन्धिः कामः 1, अविचार्य परस्याऽऽत्मनो वाऽपायहेतुरन्तर्बहिर्वा श्रान्तः शान्तो वा मनसा, तान्तः कायेन खेदवान्, परितान्तः सर्वतः स्फुरणाऽऽत्मा क्रोधः 2, दानाऽर्हेषु स्वधना-ऽप्रदानम्, अकारणखिन्नः, निर्विण्णस्तस्मादुपसर्ग-करणादुपरतः। (लद्धेत्यादि) तत्र लब्धा परधनग्रहणं चलोभः३, दुरभिनिवेशारोहो युक्तोक्ताऽग्रहणं वा मानः 4, उपार्जनतः प्राप्ताः, तत्प्राप्तेः, अभिसमन्वागता सम्यगासेवनतः कुलबलैश्चर्यविद्यारूपादिभिरहङ्कारकरणं, परप्रधर्ष-निबन्धनं वा मदः५, (आइक्खइ इत्यादि) आख्याति सामान्येन, भाषते विशेषतः। एतदेव निर्निमित्तमन्यस्य दुःखोत्पादनेन स्वस्य द्यूतपापद्धाद्यनर्थसंश्रयेण वा द्वयं क्रमेण पर्याय-शब्दाभ्यामुच्यते- प्रज्ञापयति, प्ररूपयति। मनःप्रमोदो हर्षः 6, ततो-ऽस्याऽरिषड्वर्गस्यत्यजनमनासेवनम्, एतेषां "देवेण वा दाणवेण वा'' इत्यादाविदं द्रष्टव्यम्। अपरं- "किनरेण वा चत्यजनीय-त्वमपायहेतुत्वात्। यदाह-राण्डक्यो नाम भोजः कामाद् किंपुरिसेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वत्ति' तत्र देवो वैमानिको, ब्राह्मण-कन्यामभिमन्यमानः सबन्धुराष्ट्रो विननाश, करालश्च वैदेहः 1, ज्योतिष्को वा / दानवो भवनपतिः, शेषा व्यन्तरभेदाः, 'नो क्रोधाजनमेजयो ब्राह्मणेषु विक्रान्तः, तालजङ्घश्व भृगुषु 2, सहहामीत्यादि' न श्रद्धे, प्रत्ययं न करोमि। (नो पत्तियामित्ति) तत्र लोभादैलश्चातुर्वर्ण्यमभ्याहारायमाणः, सौवीरश्वाजबिन्दुः 3, मानाद्रावणः प्रीतिकं प्रीतिं न करोमि, (नो रोचयामि) अस्माकमप्येवंभूता परदारान् प्रार्थयन्, दुर्योधनो राज्यादशं च 4, मदा-दम्भोद्भवो गुणप्राप्तिर्भवत्वेवं न रुचिविषयीकरोमीति (पियधम्मेत्ति) धर्मप्रियो, भूतावमानी, हैहयश्चाऽर्जुनः 5, हर्षाद् वातापि-रगस्त्यमभ्यासादयन, दृढधर्मा आपदि अपि धर्मादविचलः, यावत्करणाद् वृद्धयादिपदानि वृष्णिसङ्घश्च द्वैपायनमिति 601 अधि०| दृश्यानि। तत्र (इड्डित्ति) गुणद्धिः, द्युतिरान्तरं तेजः, यशः ख्यातिः, बलं अरिट्ठ-पुं०(अरिष्ट) रिष्-हिंसायाम् क्त / न० तालशुने, वाच० शरीरं, वीर्य जीवप्रभवम्, पुरुषकारोऽभिमानविशेषः, पराक्रमः स एव पिचु मन्दे, प्रज्ञा० 1 पद / काके, फलविशेषे च / औ०। निष्पादित स्वविषयः, लब्धादिपदानि तथैव / (उस्सुकं वियरेइत्ति) रुचकद्वीपस्थे रुचकपर्वतस्य पौरस्त्ये पञ्चमे कूटे, द्वी०। पञ्चदशस्य शुल्काऽभावमनुजावनातीत्यर्थः / ज्ञा० 8 अ०1 स्था०। तीर्थकरस्य प्रथमशिष्ये, स० अप्रशस्ते, आ० चू०२ अ०। Page #946 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरिद्व 762- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अरिदुणेमि वृषभाऽसुरे, कङ्कपक्षिणि, कङ्के (रीठा) इति ख्याते फेनिलफलकवृक्षे च / पुं०। अशुभे मरणचिह्न, तक्रे, चक्षुर्जले, सूतिकाऽगारे, मद्ये च / न०। वाचा ल० प्र०। अरिट्ठकु मार-पुं०(अरिष्टकुमार) कौमार्ये वर्तमानेऽरिष्टने मौ, "भृशमरिष्टकुमार ! विचारय'। कल्प०७ क्ष०। अरिष्टुणे मि-पुं०(अरिष्टनेमि) (धर्मचक्रस्य नेमिवन्नेमिः, गर्भस्थे मात्राऽरिष्टरत्नमयनेमेरुत्पतनदर्शनादरिष्टनेमिः) अवसर्पिण्या भरतक्षेत्रजे द्वाविंशे तीर्थकरे, अनु० धर्मचक्रस्य नेमिवन्नेमिः। 'सव्वे धम्मचक्कस्स णेमीभूय त्ति सामन्न, विसेसो गभगते तस्स मायाए अरिहरयणमयो (मह त्ति) महालयो नेमी उप्पिजमाणो सुमिणे दिलो त्ति तेण सोऽरिट्टनेमि त्ति' आव०२ अ०। आ० चू०। __ अथाऽरिष्टनेमिचरितम् - तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहा अरिट्ठनेमी पंच चित्ते होत्था। तं जहा - चित्ताहिं चुए, चइत्ता गब्भं वकंते, तहेव उक्खेवो० जाव चित्ताहिं परिनिव्वुए॥१७०|| (तेणं कालेणं इत्यादि) तस्मिन्काले तस्मिन् समये अर्हन्नरिष्ट-नेमेः पञ्चकल्याणकानि चित्रायामभवन्। तद्यथा- चित्रायांच्युतः, च्युत्वा गर्ने उत्पन्नः, तथैव चित्राऽभिलापेन पूर्वोक्तपावे वक्तव्य इत्यर्थः / यावत् चित्रायां निर्वाणं प्राप्तः // 170|| अथाऽरिष्टनेमेश्च्यवनम् - तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहा अरिठ्ठनेमी, जे से वासाणं चउत्थे मासे सत्तमेपक्खे कत्तिअबहुले,तस्सणं कत्तियबहुलस्स बारसीदिवसेणं अपराजिआओ महाविमाणाओ बत्तीसं सागरोवमट्टिइआओ अणंतरं चयं चइत्ता इहेव जंबूद्दीवे दीवे भारहे वासे सोरियपुरे नयरे समुद्दविजयस्स रन्ने भारिआए सिवाए देवीए पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि जाव चित्ताहिं गब्भत्ताए वक्कं ते सव्वं तहेव सुमिणदंसणदविणसंहरणाइ एत्थ भाणियव्वं / / 171 // (तेणं कालेणं इत्यादि) तस्मिन् काले तस्मिन् समये अर्हन् अरिष्टनेमिः, योऽसौ वर्षाकालस्य चतुर्थो मासः, सप्तमः पक्षः कार्तिकस्य बहुलपक्षः,तस्य कार्तिकबहुलस्य द्वादशीदिवसे अपराजितनामकाद् महाविमानाद् द्वात्रिंशत्सागरोपमाणि स्थिति-यंत्र ईदृशात् अनन्तरं च्यवनं कृत्वा अस्मिन्नेव जम्बूद्वीपे द्वीपे भरतक्षेत्रे सौर्यपुरे नगरे समुद्रविजयस्य राज्ञःभार्यायाः शिवाया देव्याः कुक्षौ पूर्वाऽपररात्रसमये मध्यरात्रौ यावत् चित्रायां गर्भतया उत्पन्नः सर्वतथैव स्वप्नदर्शनद्रव्यसंहरणादिवर्णनमत्र भणितव्यम् // 171 / / अथ भगवतो जन्म, अपरिणयनं चतेणं कालेणं तेणं समएणं अरहा अरिट्ठनेमी, जे से वासाणं पढमे मासे दुचे पक्खे सावणसुद्धे, तस्स णं सावणसुद्धस्स पंचमीदिवसेणं नवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं जाव चित्ताहिं नक्खत्तेणं चंदजोग- मुवागएणं आरोग्गाऽऽरोग्गं दारयं पयाया। जम्मणं समुद्दविजयाभिलावेणं नेयव्वं० जाव तं होऊ णं कुमारे अरिट्ठनेमी नामेणं / (तेणं कालेणं इत्यादि)तस्मिन् काले तस्मिन् समये अर्हन् अरिष्टनेमिः, योऽसौ वर्षाकालस्य प्रथमो मासः, द्वितीयः पक्षः श्रावणशुद्धः, तस्य श्रावणशुद्धस्य पञ्चमीदिवसे नवसु मासेषु बहुपरिपूर्णेषु सत्सु यावचित्रानक्षत्रे चन्द्रयोगमुपागते सति अरोगा शिवा अरोगं दारकं प्रजाता। जन्मोत्सवः समुद्रविजयाऽभिधानेन ज्ञातव्यः, यावत् तस्माद् भवतु कुमारोऽरिष्टनेमि म्ना कृत्वा, यस्माद् भगवति गर्भस्थे माताऽरिष्टरत्नमयं नेमिं चक्रधारां स्वप्नेऽद्राक्षीत्, ततोऽरिष्टनेमिः, अकारस्य अमङ्गलपरिहारा-ऽर्थत्वाच्च अरिष्टनेमिरिति / रिष्टशब्दो हि अमङ्गलवाचीति। कुमारस्तु अपरिणीतत्वात् / कल्प०७ क्ष०। उत्त०। अपरिणयनं तु एवम्- एकदा यौवनाभिमुखं नेमि निरीक्ष्य शिवा देवी समवदत् - 'वत्स! अनुमन्यस्व पाणिग्रहणं, पूरय चाऽस्मन्-मनोरथम्। स्वामीतुयोग्यां कन्यां प्राप्य परिणेष्यामीति प्रत्युत्तरं ददौ।ततः पुनरेकदा कौतुकरोहितोऽपि भगवान् मित्रप्रेरितः संक्रीडमानः कृष्णाऽऽयुधशालायामुपागमत्। तत्र कौतुको-त्सुकैमित्रर्विज्ञप्तोऽङ्गुल्यग्रे कुलालचक्रवञ्चक्रं भ्रामितवान्, शाङ्गधनुर्मृणालवन्नामितवान्, कौमोदकी गदां यष्टिवदुत्पाटित-वान्, पाशजन्यं शङ्ख च मुखे धृत्वा आपूरितवान्। तदा चनिर्मूल्याऽऽलानमूलं व्रजति गजगणः खण्डयन वेश्ममाला, धावन्त्युत्त्रौठ्य बन्धान् सपदि हरिहया मन्दुरायाः प्रणष्टाः। शब्दाऽद्वैतं समस्तंबधिरितमभवत्तत्पुरं व्यग्रमुग्रं, श्रीनेमेर्वक्त्रपद्मप्रकटितपवनैः पूरिते पाञ्चजन्ये॥१॥ स्रग्धरा। त तादृशं च शब्दं निशम्योत्पन्नः कोऽपि वैरीति व्याकुलचित्तः के शवस्त्वरितमायुधशालायामागतः, दृष्ट्वा च नेमि चकितो निजभुजबलतुलनाय 'आवाभ्यांबलपरीक्षा क्रियते' इति नेमिं वदन्तेन सह मल्लाक्षाटके जगाम। श्रीनेमिराह ... अनुचितं ननु भूलुठनादिकं , सपदि बान्धवयुद्धमिहाऽऽवयोः / बलपरीक्षणकृद् भुजवालनं, भवतु नाऽन्यरणः खलु युज्यते॥१।। द्वाभ्यां तथैव स्वीकृतम् - कृष्णप्रसारितं बाहुं, नेमिर्नेत्रलतामिव।। मृणालदण्डवच्छीघ्रं, वालयामास लीलया।१।। शाखानिभे नेमिजिनस्य बाहौ, ततः स शाखामृगवद्विलनः / चक्रे निजं नाम हरियथार्थमुद्यद्विषादद्विगुणाऽसिताऽऽस्यः / / 2 / / ततो महताऽपि पराक्रमेण नेमिभुजेऽवलिते सति विषण्णोचित्तः कृष्णो मम राज्यमेष सुखेन गृहीष्यतीति चिन्ताऽऽतुरः स्वचित्ते चिन्तयामास - क्लिश्यन्ते केवलं स्थूलाः, सुधीस्तु फलमश्नुते। ममन्थ शङ्करः सिन्धु, रत्नान्यापुर्दिवौकसः।।१।। अथवा - क्लिशयन्ते केवलं स्थूलाः, सुधीस्तु फलमश्नुते। दन्ता दलन्ति कष्टन, जिह्ना गिलति लीलया / / 1 / / ततो बलभद्रेण सहाऽऽलोचयति- किं विधास्ये, नेमिस्तु राज्यलिप्सुर्बलवान् च / तत आकाशवाणी प्रादुरभूत- अहो हरे ! पुरा नेमिनाथेन कथितमासीद्- यदुत द्वाविंशस्तीर्थकरो नेमिनामा कुमार एव प्रव्रजिष्यतीति श्रुत्वा निश्चिन्तो निश्चयाऽथ नेमिना सह जलक्रीडां कर्तुमन्तःपुरीपरिवृतः सरोऽन्तरे प्रविष्टः। तत्रच - Page #947 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरिट्ठणेमि 763- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अरिहणेमि प्रणयतः परिगृह्य करे जिनं, हरिरवेशयदाशु सरोऽन्तरे। तदनु शीघ्रमसिञ्चत नेमिनं, कनकशृङ्गजलैधुसृणाविलैः / / 1 / / तथा रुक्मिणीप्रमुखगोपिका अपि ज्ञापितवान्, यदयं नेमि-निःशहूं क्रीडया पाणिग्रहाभिमुखीकार्यः / ततश्च ता अपि - काश्चित केसरसारनीरनिकरैराच्छोटयन्ति प्रभु, काश्चिद् बन्धुरपुष्पकन्दुकभरैर्निघ्नन्ति वक्षःस्थले। काश्चित्तीक्ष्णकटाक्षलक्ष्यविशिखैर्विद्ध्यन्ति नर्मोक्तिभिः, काश्चित्कामकलाविलासकुशला विस्मापयाञ्चकिरे / / 1 / / शार्दूल० ततश्च- तावत्यः प्रमदाः सुगन्धिपयसा स्वर्णादिशृङ्गी शं, भृत्वा तज्जलनिझरैः पृथुतरैः कर्तुं प्रभुं व्याकुलम्।। प्रावर्तन्त मिथो हसन्ति सततं क्रीडोल्लसन्मानसाः, तावद् व्योमनि देवगीरिति समुद्भूता श्रुता चाऽखिलैः / / 2 / / मुग्धाः स्थ प्रमदाः ! यतोऽमरगिरौ गीर्वाणनाथैश्वतुःषट्या योजनमानवक्त्रकुहरैः कुम्भैः सहस्राऽधिकैः / बाल्येऽपि स्नपितो य एष, भगवान्नाऽभूतमनागाकुलः, कुर्तु तस्य सुयत्नतोऽपि किमहो ! युष्माभिरीशिष्यते ? ||3|| ततो नेमिरपि हरि ताश्च सर्वा जलैराच्छोटयति स्म, कमलपुष्पकन्दुकैस्ताडयति स्म, इत्यादि सविस्तरं जलक्रीडां कृत्वा तटमागत्य नेमि स्वर्णाऽऽसने निवेश्य सर्वा अपि गोप्यः परिवेष्ठा स्थिताः / तत्र रुक्मिणी जगौ - निर्वाहकातरतयोद्वहसेन यत्त्वं, कन्यां तदेतदविचारितमेव नेमे!। भ्राता तवाऽस्ति विदितः सुतरां समर्थो, द्वात्रिंशदुन्मितसहस्रवधूर्विवोढा / / 1 / / वसन्ततिलका। तथा सत्यभामाऽप्युवाच - ऋषभमुख्यजिनाः करपीडन, __ विदधिरे दधिरे च महीशताम्। बुभुजिरे विषयांश्च बहून् सुतान्, सुषुविरे शिवमप्यथ लेभिरे।।२।। उपेन्द्रवज्रा। त्वमसि किन्तु नवोऽद्य शिवंगमी, भृशमरिष्टकुमार ! विचारय। कलय देवर ! चारुगृहस्थतां, रचय बन्धुमनःसु च सुस्थताम्॥३।। उपेन्द्रवज्रा। अथ जगाद च जाम्बवती जवात्, शृणु पुरा हरिवंशविभूषण। स मुनिसुव्रततीर्थपतिही, शिवमगादिह जातसुतोऽपि हि॥४॥ उपेन्द्रवजा। पद्मावतीति समुवाच विना वधूटी, शोभा न काचन नरस्य भवत्यवश्यम्। नो केवलस्य पुरुषस्य करोति कोऽपि, विश्वासमेष विट एव भवेदभार्यः॥५॥ वसन्ततिलका। गान्धारी जगौ - सज्जन्ययात्राशुभसङ्घसार्थ पर्वोत्सवा वेश्मविवाहकृत्यम्।। उद्यानिकापुंक्षणपर्षदश्च, शोभन्त एतानि विनाऽङ्गनां नो॥६।। उपजातिः। गौर्युवाच - अज्ञानभाजः किल पक्षिणोऽपि, क्षितौ परिभ्रम्य वसन्ति सायम्। नीमे स्वकान्तासहिताः सुखेन, ततोऽपि किं देवर ! मूढदृक् त्वम्॥७॥ उपजातिः। लक्ष्मणाऽप्यवोचत् - स्नानादिसङ्गिपरिष्क्रियायां, विचक्षणः प्रीतिरसाऽभिरामः ! विसभ्पात्रं विधुरे सहायः, कोऽन्यो भवेत् नूनमृते प्रियायाः॥८॥ उपजातिः। सुसीमाऽप्यवादीत् - विना प्रियां को गृहमागतानां, प्राघूर्णकाना मुनिसत्तमानाम्। करोति पूजाप्रतिपत्तिमन्यः?, कथं च शोभां लभते मनुष्यः ? |6|| उपजातिः। एवमन्यासामपि गोपाङ्ग नानां वाचोयुक्त्या यदूनामाग्रहाच मौनावलम्बितमपि स्मिताऽऽननं जिनं निरीक्ष्य,"अनिषिद्धमनु-मतम्" इति न्यायाद् नेमिना पाणिग्रहणं स्वीकृतमिति ताभिबर्बादमुद्घोषितम्, तथैव जनोक्तिरिति। ततः कृष्णेनोग्रसेनपुत्री राजीमती मार्गिता, लग्नं पृष्ट, क्रोष्टिकनामा ज्योतिर्वित् प्राह - वर्षासु शुभकार्याणि, नाऽन्यान्यपि समाचरेत्। गृहिणां मुख्यकार्यस्य, विवाहस्य तु का कथा ? ||1|| समुद्रस्तं बभाषेऽथ, कालक्षेपोऽत्र नाऽर्हति। नेमिः कथञ्चित् कृष्णेन, विवाहाय प्रवर्तितः।।२।। मा भूद विवाहप्रत्यूहो, नेदीयस्तदिनं वद / श्रावणे मासि तेनोक्ता, ततः षष्ठी समुज्वला // 3 / / अनुष्टुप् / चलितश्च श्रीनेमिकुमारः स्फारशृङ्गारः प्रजाप्रमोदकरो रथाऽऽरूढो धृताऽऽतपत्रसारः श्रीसमुद्रविजयादिदशाह के शवबलभद्रादिविशिष्टपरिवारः शिवादेवीप्रमुखप्रमदाजेगीयमानधवलमङ्गल-विस्तरः पाणिग्रहणाय अग्रतो गच्छंश्च वीक्ष्य सारथिं प्रति कस्येदं कृतमङ्गलभरं धवलमन्दिरम् ? इति पृष्टवान् / ततः सोऽमुल्यग्रेण दर्शयन् इति जगादउग्रसेननृपस्य तव श्वशुरस्याऽयं प्रासाद इति, इमे च तव भार्याया राजीमत्याः सख्यौ चन्द्राननामृगलोचनाभिधाने मिथो वार्तयतः / तत्र मृगलोचना विलोक्य चन्द्राननां प्राऽऽह - हे चन्द्रानने ! स्त्रीवर्ग एका राजीमत्येव वर्णनीया, यस्या अयमेतादृशो वरः पाणिं ग्रहीष्यति। चन्द्रवदनाऽपि मृगलोचनामाह - राजीमतीमद्भुतरूपरम्या, निर्माय धाताऽपि यदीदृशेन / / वरेण नो योजयति प्रतिष्ठा, लभेत विज्ञानविचक्षणः काम् ? ||1|| इतश्च तूर्यशब्दमाकर्ण्य मातृगृहाद् राजीमती सखीमध्ये प्राप्ता, हे सख्यौ ! भवतीभ्यामेव साऽऽडम्बरमागच्छन्नपि वरो विलोक्यते, अहमपि विलोकयितुं न लभेयमिति बलात्तदन्तरे स्थित्वा नेमिमालोक्य साश्चर्य चिन्तयति स्मकिं पातालकुमारः ? किं वा मकरध्वजः सुरेन्द्रः किम् ? | किंवा मम पुण्यानां, प्राग्भारो मूर्तिमानेषः ? ||1 / / आर्या / तस्य विधातुः करयोरात्मानंन्युञ्छनं करोमि मुदा। येनैष वरो विहितः, सौभाग्यप्रभृतिगुणराशिः।।२।। आर्या ! मृगलोचनाराजीमत्यभिप्रायपरिज्ञाय सप्रीतिहासं-हे सखि! चन्द्रानने ! समग्रगुणसम्पूर्णेऽपि अस्मिन् वरे एक दूषणं अस्त्येव, परं परार्थिन्यां राजीमत्यांशृण्वन्त्यांवक्तुंन शक्यते! चन्द्राननाऽपि- हे सखि ! मृगलोचने ! मयाऽपि तद् ज्ञातं, परं साम्प्रतं मौनमेवाऽऽचरणीयम् / राजीमत्यपि त्रपया मध्यस्थतां दर्शयन्ती-हे सख्यौ ! यस्याः कस्या अपि भुवनाद्भुतभाग्यधन्यायाः कन्याया अयं वरो भवतु, परं सर्वगुणसुन्दरेऽस्मिन् वरे Page #948 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरिडणेमि ७६४-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अरिद्रणेमि दूषणंतुदुग्धमध्यात्पूतरकर्षणप्रायमसम्भाव्यमेव। तदनुताभ्यां सविनोद कथितम्- भो राजीमति ! वरः प्रथमं गौरो विलोक्यते, अपरे गुणास्तु परिचये सति ज्ञायन्ते / तद्गौरत्वं तु कज्जलाऽनुकारमेवाऽस्मिन् दृश्यते। राजीमती सेयं सख्यौ प्रत्याह- अद्य यावत् युवां चतुरे इति मम भ्रमोऽभवत्, साम्प्रतं तु स भग्नः / यत् सकलगुणकारणं श्यामत्वं भूषणमपि दूषणतया प्ररूपितम्, शृणुतं तावत् सावधानीभूय भवत्यौ श्यामत्वे श्यामवस्त्वाश्रयणे च गुणान्, केवलगौरत्वे दोषांश्च / तथाहि - भूचित्तवल्लि अगुरू , कत्थूरी घण कणीणिगा केसा। कसवट्ट मसी रयणी , कसिणा एए अणग्धफला।।१।। इति कृष्णत्वे गुणाः। कप्पूरे अंगारो 1, चंदे चिंघं 2 कणीणिगा णयणे 31 भुजे मरिय 4 चित्ते, रेहा 5 कसिणा वि गुणहेऊ ।सा इति कृष्णवस्त्वाश्रयणे गुणाः / खारं लवणं दहिणं, हिमंच अइगोरविग्गहो रोगी। / परवसगुणो अचुण्णो, केवलगोरत्तणेऽवगुणा / / 4 / / एवं परस्परं तासां जल्पे जायमाने श्रीनेमिः पशूनामार्तस्वरं श्रुत्वा साक्षेपम्- हे सारथे ! कोऽयं दारुणः स्वर? सारथिः प्राह- युष्माकं विवाहे भोजनकृते समुदायीकृतपशूनामयस्वरः। इत्यक्तेस्वामी चिन्तयति स्म-धिग् विवाहोत्सवं, यत्राऽनुत्सवोऽमीषां जीवानाम्। इतश्च- हल्ली सहिओ ! किं मे दाहिणं चक्खु परि-प्फुडइ ? त्ति, वदन्तीं राजीमतीं प्रति सख्यौ प्रतिहतममङ्गलम् , इत्युक्त्वा थुथुत्कारं कुरुतः। नेमिस्तुहे सारथे! रथमितो निवर्तय। अत्राऽन्तरे नेमिं पश्यन्नेको हरिणः स्वग्रीवया हरिणी-ग्रीवां पिधाय स्थितः। अत्र कविघटना,स्वामिनं निरीक्ष्य हरिणो ब्रूते - मा पहरसु मा पहरसु, एयं मह हिययहारिणिं हरिणिं। सामी ! अम्हं मरणं, विदुस्सहो पियतमाविरहो।।१।। हरिणी नेमिमुखं निभाल्य हरिणं प्रति ब्रूते - एसो पसन्नवयणो, तिहुयणसामी अकारणं बंधू। तविण्णवेसु वल्लह !, रक्खत्थं सव्वजीवाणं / / 2 / / हरिणोऽपि पत्नीप्रेरितो नेमिं ब्रूतेनिज्झरणनीरपाणं, अरण्णतणभक्खणं च वणवासो। अम्हाण निरवराहाण जीवियं रक्ख रक्ख पहो ! ||3|| एवं सर्वेऽपि पशवः स्वामिनं विज्ञपयन्ति। तावत् स्वामी बभाषे-भोः पशुरक्षकाः ! मुञ्चत मुञ्चत इमान् पशून्, नाऽहं विवाहं करिष्ये। पशुरक्षकाः | श्रीनेमिवचसा पशून् मुञ्चन्ति स्म। सारथिरपि रथं निवर्त्तयति स्म। अत्र कवि:हेतुरिन्दोः कलङ्के यो, विरहे रामसीतयोः। नेमे राजीमतीत्यागे, कुरङ्गः सत्यमेव सः॥१।। इति / समुद्रविजयशिवादेवीप्रमुखाजनास्तु शीघ्रमेव रथं स्खलयन्ति स्म। शिवा च सबाष्पं ब्रूते - पत्थेमिजणणिबल्लह-वच्छ! तुम पढमपत्थणं किंपि। काऊण पाणिगहणं, मह दंसे निअवहूवयणं / / 1 / / नेमिराह - मुशाऽऽग्रहमिमं मात ! मानुषीषु न मे मनः। मुक्तिस्त्रीसङ्गमोत्कण्ठमकुण्ठमवतिष्ठते॥१।। यतः - या रागिणि विरागिण्यस्ताः स्त्रियः को निषेवते? अतोऽहं कामये मुक्तिं, या विरागिणि रागिणी // 1 // इत्यादि। राजीमती- हा दैव ! किमुपस्थितमित्युक्त्या मूछां प्राप्ता, सखीभ्यां चन्दनद्रवैराश्वासिता कथमपिलब्धसंज्ञा सबाष्पंगाढस्वरेण प्राह - हा जायवकुलदिणयर!, हा निरुवमनाण ! हा जगसरण!। हा करुणायर ! सामी!, मं मुत्तूणं कहं चलिओ? ||1|| हा हिअय धिट्ठ ! निट्ठुर!, अज्ज वि निल्लज्ज ! जीविअं वहसि / अन्नत्थ बद्धराओ, जइ नाहो अत्तणो जाओ / / 2 / / पुनर्निःश्वस्य सोपालम्भं जगाद - जइ सयलसिद्धभुत्ताइ मुत्तिगणिआइ धुत्त ! रत्तोऽसि / ता एवं परिणयणाऽऽरंभेण विडंबिआ किमहं ? ||3|| सख्यौ सरोषम् - लोअपसिद्धी वत्तडी, सहिए इक्क सुणिज्ज। सरल विरलं सामलँ, चुक्किअ विही करिज्ज॥१॥ पिम्मरहिअम्मि पिअसहि!, एअम्मि वि किं करेसि पिअभावं?| पिम्मपरं किं पि वरं, अन्नयरं ते करिस्साम्रो / / 2 / / राजीमती कर्णी पिधाय- हा! अश्राव्यं किं श्रावयथःजइ कह विपच्छिमाए, उदयं पावेइ दिणयरो तह वि।। मुत्तूण नेमिनाहं, करेमि नाऽहं वरं अन्नं / / 1 / / पुनरपि नेमिनं प्रति - व्रतेच्छुरिच्छाधिकमेव दत्से, त्वं याचकेभ्यो गृहमागतेभ्यः। मयाऽर्थयन्त्या जगतामधीश !, हस्तोऽपि हस्तोपरि नैव लब्धः // 2 // अथ विरक्ता राजीमती प्राह - जइ विहु एअस्स करो, मज्झ करे नो आसि परिणयणे। तह वि सिरे मह सुचिअ, दिक्खासमए करो होही॥३॥ अथ नेमिनं सपरिकरः समुद्रविजयो जगौ - नाभेयाद्याः कृतोद्वाहाः, मुक्ति जग्मुर्जिनेश्वराः। ततोऽप्युच्चैः पदं ते स्यात्, कुमारब्रह्मचारिणः / / 1 / / नेमिराह - हे तात ! क्षीणभोगकर्माऽहमस्मि / किञ्च - एकस्त्रीसंग्रहेऽनन्त-जन्तुसंघातघातके। भवतां भवतान्तेऽस्मिन, विवाहे कोऽयमाग्रहः? ||1|| अत्र कविः - . मन्येऽङ्गनाविरक्तः, परिणयनमिषेण नेमिरागत्य। राजीमती पूर्वभव-प्रेम्णा समकेतयत् मुक्त्यै / / 1 / / कुमाराऽवस्थावासःअरहा अरिट्ठनेमी दक्खे० जाव तिन्नि वाससयाई कुमारे अगारवासमज्झे वसित्ता, पुणरवि लोगंतिएहिं सव्वं तं चेव भाणियव्वं० जाव दाणं दाइयाणं परिमाइत्ता। अर्हन अरिष्टनेमिः दक्षः, यावत् त्रीणि वर्षशतानि कुमारः सन् गृहस्थावस्थामध्ये उषित्वा पुनरपिलोकान्तिकैरित्यादि सर्वं तदेव पूर्वोक्तं भणितव्यम् / लोकान्तिका देवा यथा- जय निर्जित-कन्दर्प !, जन्तुजाताभयप्रद ! नित्योत्सवाऽवतारार्थ, नाथ ! तीर्थ प्रवर्त्तय।।१।। इति स्वामिनं प्रोच्य स्वामी वार्षिकदानाऽनन्तरं त्रिभुवनमानन्दयिष्यतीति समुद्रविजयाऽऽदीन् प्रोत्साहयन्ति स्म। ततः सर्वेऽपि सन्तुष्टाः / दानविधिस्तु श्रीवीरवद् ज्ञेयः॥१७२|| कल्प०७ क्ष०ा स०) Page #949 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरिद्वणेमि 765 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अरिद्वणेमि अथ निष्क्रमणम् - जे से वासाणं पढमे मासे दुच्चे पक्खे सावणसुद्धे, तस्स णं सावणसुद्धस्स छट्ठीपक्खेणं पुव्वण्हकालसमयंसि उत्तरकुराए सीयाए सदेवमणुआसुराए परिसाए समणुगम्ममाणे० जाव बारवईए मज्झं मज्झेणं निग्गच्छइ। निग्गच्छ इत्ता जेणेव रेवयए उजाणे तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छइत्ता असोगवरपायवस्स अहे सीयं ठावेइ। ठावेइत्ता सीयाओ पचोरुहइ / पचोरुहइत्ता सयमेव आभरणमल्लालंकार ओमुयइ / ओमुयइत्ता सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ / करे इत्ता छ? णं भत्तेणं अपाणएणं चित्ताहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं एगं देवदूससमादाय एगेणं पुरिससहस्सेणं सद्धिं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए / / 173 / / (जे से वासाणं पढमे० इत्यादि) योऽसौ वर्षाकालस्य प्रथमो मासो द्वितीयः पक्षः श्रावणस्य शुक्लः पक्षः / तस्य श्रावणशुद्धस्य षष्ठीदिवसे पूर्वाह्नकालसमये उत्तरकुरायां शिबिकायां स्थितो देवमनुष्याऽसुरसहितया पर्षदा समनुगम्यमानो यावद् द्वारवत्या नगर्या मध्यभागे निर्गच्छति / निर्गत्य यत्रैव रैवतकमुद्यानं तत्रैव उपागच्छति / उपागत्य अशोकनामवृक्षस्य अधस्तात् शिबिका स्थापयति / संस्थाप्य शिबिकातः प्रत्यवतरति / प्रत्यक्तीर्य स्वयमेव आभरणमाल्याऽलङ्कारान् अवमुञ्चति, अवमुच्य स्वय-मेव पञ्चमौष्टिकं लोचं करोति / कृत्वा च षष्ठेन भक्तेन अपानकेन जलरहितेन चित्रायां नक्षत्रे चन्द्रयोगमुपागते सति एकं देवदूष्यं गृहीत्वा एकेन पुरुषाणां सहस्रेण सार्द्ध मुण्डो भूत्वा प्रभुरगारात् निष्क्रम्य साधुतां प्रतिपन्नः // 173 / / कल्प०७क्षा स०) अथ केवलोत्पादः - अरहा अरिट्ठनेमी चउप्पन्नं राइंदियाई निचं वोसट्टकाए तं चेव सव्वं० जाव पणपन्नगस्स राइंदियस्स अंतरा वट्टमाणस्स जे से वासाणं तचे मासे पंचमे पक्खे आसोयबहुले, तस्स णं आयोयबहुलस्स पन्नरसीपक्खेणं दिवसस्स पच्छिमे भाए उजिंतसेलसिहरे वेयसस्स पायवस्स अहे अट्ठमेणं भत्तेणं अपाणएणं चित्ताहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं झाणंतरियाए वट्टमाणस्स अणंतेजाव जाणमाणे पासमाणे विहरइ॥१७॥ (अरहा अरिहनेमी इत्यादि) अर्हन् अरिष्टनेमिः चतुष्पञ्चाशत् अहोरात्रान् यावद् नित्यं व्युत्सृष्टकायः, तदेवपूर्वोक्तं सर्व वाच्यं यावत् पञ्चपञ्चाशत्तमस्य अहोरात्रस्य अन्तरा वर्तमानस्य योऽसौ वर्षाकालस्य तृतीयोमासः, पञ्चमः पक्षः,आश्विनस्य कृष्णपक्षः, तस्य आश्विनबहुलस्य पञ्चदशे दिवसे, दिवसस्य पश्चिमे भागे उज्जयन्तनामशैलस्य शिखरे वेतसनामवृक्षस्य अधस्तात् अष्टमेन भक्तेन अपानकेन जलरहितेन चित्रायां नक्षत्रे चन्द्रयोगमुपागते सति शुक्लध्यानस्य मध्यभागे वर्तमानस्य प्रभोरनन्तं केवलज्ञानं समुत्पन्नं यावत् सर्वभावान् जानन् पश्यंश्च विहरति / तत्र केवलज्ञान रैवतकस्थे सहस्राऽऽमवणे समुत्पेदे, तत उद्यानपालको विष्णोर्व्यजिज्ञपत् / विष्णुरपि महा भगवन्तं वन्दितुमाययौ / राजीमत्यपि तत्राऽऽगता / अथ प्रभोर्देशनां निशम्य वरदत्तनृपः सहस्रद्वयनृपयुतो व्रतमाददे / हरिणा च राजीमत्याः स्नेहकारणे पृष्ठे प्रभुर्धनवतीभवादारभ्यतया सहस्वस्य नवभवसम्बन्धमाचष्टे / तथाहि- प्रथमे भवेऽहंधननामा राजपुत्रः, तदेयं धनवती नाम्नी मत्पत्नी अभूत् 1, ततो द्वितीये भवे प्रथमे देवलोके आवां देवदेव्यौ 2, ततस्तृतीये भवेऽहं चित्रगतिनामा विद्याधरः, तदेयं रत्नवती मत्पत्नी 3, ततश्चतुर्थे भवे चतुर्थे कल्पेद्वावपि देवौ 4, पञ्चमे भवेऽहं अपराजितराजा, एषा प्रियतमा राज्ञी५, षष्ठे एकादशे कल्पेद्वावपि देवौ 6, सप्तमेऽहं शवो नामराजा, एषा तु यशोमती राज्ञी 7, अष्टमेऽपराजिते द्वावपि देवौ 8, नवमेऽहमयम्, एषा राजीमती। ततः प्रभुरन्यत्र विहृत्य क्रमात् पुनरपि रैवतके समवासरत्। अनेकराजकन्यापरिवृता राजीमती तदा, रथनेमिश्च प्रभुपार्श्वे दीक्षां जगृहतुः / अन्यदा च राजीमती प्रभुं नन्तुं प्रतिव्रजन्ती मार्गे वृष्ट्या बाधिता एकां च गुहां प्राविशत्। तस्यां च गुहायां पूर्व प्रविष्ट रथनेमिमजानती सा क्लिन्नानि वस्त्राणि शोषयितुं परितश्विक्षेप। ततश्च तामपहसितत्रिदशतरुणीरामणीयका साक्षात् कामरमणीमिव रमणीयां तथा विवसानां निरीक्ष्य प्रातुर्वैरादिव मदनेन मर्मणि हतः कुललज्जामुत्सृज्य धीरतामवधीर्य स्थनेमिः तां जगाद - अयि ! सुन्दरि! किं देहः शोष्यते तपसा त्वया ? | सर्वाङ्गभोगसंयोग-योग्यः सौभाग्यशेवधिः॥१॥ आगच्छ स्वेच्छया भद्रे!, कुर्वहे सफलं जनुः / आवामुभावपि प्रान्ते, चरिष्यावस्तपोविधिम् // 2 // ततश्च महासती तदाकर्ण्य तं दृष्ट्वा चधृताऽद्भुतधैर्या तं प्रत्युवाचमहानुभाव ! कोऽयं ते-ऽभिलाषो नरकाऽध्वनि। सर्वं सावद्यमुत्सृज्य, पुनर्वाञ्छन्न लजसे ?||1|| अगन्धकुले जातास्तिर्यचो ये भुजङ्गमाः। तेऽपि नो वान्तमिच्छन्ति, त्वं नीचः किं ततोऽप्यसि ? ||2|| इत्यादिवाक्यैः प्रतिबोधितः श्रीनेमिपार्श्वे तदुश्चीर्णमालोच्य तपस्तप्त्वा मुक्तिं जगाम / राजीमत्यपि दीक्षामाराध्य शिवशय्या-मारुढा, चिरप्रार्थितं शाश्वतिकं श्रीनेमिसंयोगमवापायदाह - छद्मस्थावत्सरं स्थित्वा, गेहे वर्षचतुःशतीम्। पञ्चवर्षशतीं राजी, ययौ केवलिनी शिवम्।।१।। 174 / / (कृष्णाऽग्रमहिषीप्रव्राजनम् 'अग्गमहिसी' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 174 पृष्ठेउक्तम् / अथ गणाऽऽदिसंपत् - अरहओ णं अरिट्ठनेमिस्स अट्ठारस गणा, अट्ठारस गणहरा हुत्था॥१७॥ (अरहओणं अरिहनेमिस्स त्ति) अर्हतोऽरिष्टनेमेरष्टादशगणाः, अष्टदश गणधराश्च अभवन्॥१७५|| कल्प०७क्ष०ा अथ श्रमणश्रमणीसंपत्अरहओ णं अरिट्टनेमिस्स वरदत्तपामुक्खाओ अट्ठारस समणसाहस्सीओ उक्कोसिया समणसंपया हुत्था।१७६) (अरहओ णं अरिहनेमिस्सेत्यादि)अर्हतोऽरिष्टनेमेः वरदत्त-प्रमुखाणि अष्टादश श्रमणानां सहस्राणि, उत्कृष्टा एतावती श्रमणसम्पदा अभवत् // 176 // Page #950 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरिडणेमि ७६६-अभिधानराजेन्द्रः-भाग 1 अरिटुणेमि अरहओणं अरिट्ठनेमिस्स उज्जजक्खिणीपामुक्खाओ चत्तालीसं अज्जियासाहस्सीओ उक्कोसिया अज्जिया संपया हुत्था।।१७७।। (अरहओणं अरिष्टनेमिस्स) अर्हतोऽरिष्टनेमेः, आर्यायक्षिणी-प्रमुखाणि चत्वारिंशत् आर्यासहस्राणि उत्कृष्टा एतावती आर्या - सम्पदा अभवत् // 177|| कल्प०७ क्ष०ा स०ा आ० घू० अथ श्रावकसंपत्अरहओ णं अरिट्ठनेमिस्स नंदपामुक्खाणं समणोवा-सगाणं एगासयसाहस्सी अऊणत्तरं च सहस्सा उक्कोसिया समणोवासगाणं संपया हुत्था॥१७८|| (अरहओ णं अरिहनेमिस्सेत्यादि) अर्हतोऽरिष्टनेमेः, नन्द-प्रमुखाणां श्रावकाणामेको लक्षः,एकोनसप्ततिश्च सहस्राः, उत्कृष्टा एतावती श्रावकाणां सम्पदा अभवत्॥१७८|| अरहओ णं अरिट्टनेमिस्स महासुव्वयापामुक्खाणं समणोवासियाणं तिन्नि सयसाहस्सीओ छत्तीसं च सहस्सा उक्कोसिया समणोवासयाणं संपया हुत्था॥१७५।। (अरहओ णं अरिष्टनेमिस्स) अर्हतोऽरिष्टनेमेः महासुव्रता प्रमुखाणां श्राविकाणां त्रयो लक्षाः षट्त्रिंशत् सहस्रा उत्कृष्टा एतावती श्राविकाणां सम्पदा अभवत्।। 176 // अथ चतुर्दशपूर्विणाम् - अरहओ णं अरिट्ठने मिस्स चत्तारि सया चउद्दसपुवीणं अजिणाणं जिणसंकासाणं० जाव संपया हुत्था॥ अर्हतोऽरिष्टनेमेश्चत्वारि शतानि चतुर्दशपूर्विणाम, अकेवलि-नामपि केवलितुल्यानां यावत् सम्पदा अभवत्। कल्प०७ क्ष०ा अथाऽवधिज्ञान्यादिपन्नरससया ओहिनाणीणं पण्णरससया के वलनाणीणं पन्नरससया वेउव्वियाणं दससया विउलमईणं। पञ्चदश शतानि अवधिज्ञानिनां सम्पदा अभवत्, पश्चदश / शतानि केवलज्ञानिनां संपदा अभवत्, पञ्चदशशतानि वैक्रिय-लब्धिमतां संपदा अभवत्, दशशतानि विपुलमतीनां संपदा अभवत्। कल्प०७ क्ष०। अहओ णं अरिहणेमिस्स अट्ठसया वाईणं सदेवाणुयाऽसुराए परिसाए वाए अपराजियाण उक्कोसिया वाइसंपया होत्था। स्था० 8 ठा० स०। अनुत्तरोपपातिकानाम् - सोलससया अणुत्तरोववाइयाणं, पन्नरस समणसया सिद्धा, तीसं | अज्जियासयाई सिद्धाइं॥१८०|| पोडशशतानि अनुत्तरोपपातिनां संपदा अभवत् पञ्चदश श्रमणानां | शतानि सिद्धानि, त्रिंशत् आर्याशतानि सिद्धानि / / 180|| कल्प०७ ! क्ष० अथाऽन्तकृभूमिःअरहओ णं अरिट्ठनेमिस्स दुविहा अंतगडभूमी हुत्था / तं जहाजुगंतगडभूमी य, परियायंतगडभूमी य० जाव अट्ठमाओ | पुरिसजुगाओजुगंतगडभूमी, दुवासपरिआए अंतमकासी // 181 // (अरहओ अरिठ्ठनेमिस्सेत्यादि) अर्हतोऽरिष्टनेमेः द्विविधा अन्तकृत मर्यादा अभवत् / तद्यथा- युगाऽन्तकृद्भूमिः, पर्यायाऽन्तकृद्भूमिश्च / यावत्, इदमग्रे योज्यम्- अष्टमं पुरुषयुगंपट्टधरं युगान्तकृद् भूमिरासीत्, द्विवर्षपर्याये जाते कोऽपि अन्तमकार्षीत्॥१८१॥ कल्प०७ क्ष०ा स्था० अथ भगवत आयुःतेणं कालेणं तेणं समएणं अरहा अरिट्ठने मी तिनि वाससयाई कुमारवासमज्झे वसित्ता, चउप्पन्नं राइंदियाई छउमत्थपरिआयं पाउणित्ता, देसूणाई सत्तवाससयाइं केवलिपरिआयं पाउणित्ता, पडिपुन्नाई सत्तवाससयाइं सामन्नपरिआयं पाउणित्ता, एगं वाससहस्सं सव्वाऽऽउअंपालइत्ता,खीणे वेयणिज्जा-उपनामगुत्ते इमीसे ओसप्पिणीए दूसमसुसमाए बहुविइक्वंताए, जे से गिम्हाणं चउत्थे मासे अट्ठमे पक्खे आसाढसुद्धे, तस्सणं आसाढसुद्धस्स अट्ठमीपक्खे णं उप्पिं उजिंतसेलसिहरंसि पंचहिं छत्तीसेहिं अणगारसएहिं सद्धिं मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं चित्तानक्खत्तेणं जोगमुवागएणं पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि नेसज्जिए कालगए० जाव सव्वदुक्खपहीणे॥१५२ (तेणं कालेणं इत्यादि)तस्मिन् काले तस्मिन् समये अर्हन् अरिष्टनेमिः त्रीणि वर्षशतानि कुमारावस्थायां स्थित्वा चतुः- पञ्चाशदहोरात्रान् छदास्थपर्यायं पालयित्वा, किञ्चिदूनानि सप्तवर्षशतानि केवलिपर्याय पालयित्वा, प्रतिपूर्णानि सप्त-वर्षशतानि चारित्रपर्यायं पालयित्वा, एक वर्षसहस्रं सर्वायुः पालयित्वा, क्षीणेषु सत्सु वेदनीयाऽऽयुर्नामगोत्रेषु कर्मसु अस्यामेव अवसर्पिण्या दुष्षमसुषमनामके चतुर्थेऽरके बहु-व्यतिक्रान्ते सति, योऽसौ उष्णकालस्य चतुर्थो मासः, अष्टमः पक्षः आषाढशुद्धः, तस्य आषाढशुद्धस्य अष्टमीदिवसे उपरि उज्जयन्तनामशैलशिखरस्य पञ्चभिः षट्त्रिंशद्युतैरनगारशतैः सार्द्ध मासिकेन अनशनेन अपानकेन जलरहितेन, चित्रानक्षत्रे चन्द्रयोगमुपागते सति पूर्वाऽपररात्रिसमये मध्यरात्रै निषण्णः सन् कालगतः, यावत् सर्वदुःखप्रक्षीणः॥१८॥ इति / कल्प०७क्षण / स०। अथ नेमिनिर्वाणात् कियता कालेन (प्रकृत)पुस्तकलिखनादि जातमित्याह - अरहओ णं अरिट्टनेमिस्स कालगयस्स जाव सव्वदुक्खप्पहीणस्स चउरासीइं वाससहस्साइं विइक्कंताई पंचासीइमस्स वाससयस्सनववाससयाई विइक्वंताइंदसमस्सय वाससयस्स अयं असीइमे संवच्छरे काले गच्छइ // 183 // अर्हतोऽरिष्टने मेः कालगतस्य यावत् सर्वदुःखप्रक्षीणस्य चतुरशीतिवर्षसहस्राणि व्यतिक्रान्तानि, पञ्चाऽशीतितमस्य वर्षसहस्रस्याऽपि नव वर्षशतानि व्यतिक्रान्तानि, दशमस्य च वर्ष-शतस्य अयं अशीतितमः संवत्सरः कालो गच्छति / / 183|| श्रीनेमिनिर्वाणात् चतुरशीत्या वर्षसहसैः श्रीवीरनिर्वाणमभूत, श्रीपार्थनिर्वाणं तु वर्षाणांत्र्यशीत्या सहसैः सार्द्धः सप्तभिश्च शतैरभृदिति सुधिया ज्ञेयम् / कल्प०७ क्ष०ा ती०। Page #951 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरिडणेमि 767 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अरिहंत उज्जंतसेलसिहरे, दिक्खा नाणं निसीहिया जस्स। रायभीमदेवाऽमिहाणा एगारस नरिंदा / तओ वाघेलाअत्तए तं धम्मचक्कवट्टि, अरिहनेमि नमसामि // 1 // ध०२ अधिक। लूणप्पसायवीरधवलवीसलदेव-अक्षुणदेवसारंगदेवकण्णदेवा (अरिष्ठ ने मिना राजीमतीपरित्यागः, तया प्रव्रजितया कामा- नरिंदा संजाया। ततो अल्लावदीणसुरत्ताणाणं गुज्जरधरित्तीए ऽऽतरथनेभिप्रतिबोधश्च रहनेमि' शब्दे वक्ष्यते) आणा पयट्टा / सो अरिट्टनेमिसामी कोहंडीयपाडिहारो अज्जवि अणहिलपट्टने पूज्यमाने श्रीअरिष्टनेमिदेवे, ती०। तत्कथा चेयम् - तहेव पूइज्जइ ति"। अरिष्टनेमिकल्पोऽयं, लिखितः श्रेयसेऽस्तु वः। पणमिय अरिट्टनेमि, अणहिलपुरपट्टणावयंसस्स। मुखात् पुराविदां श्रुत्वा, श्रीजिनप्रभसूरिभिः ||1|| ती० 26 बंभाणगच्छनिस्सिय-अरिट्ठनेमिस्स कित्तिमो कप्पं / / 1 / / कल्पका दो तित्थगरा नीलुप्पलसमा वन्नेणं पण्णत्ता। तं जहा- मुणिसुव्वए "पुव्वं किर सिरिकन्नउज्जनयरे जक्खो नाम महड्डिसंपन्नो / चेव, अरिहनेमी चेव। स्था०२ ठा०४ उ०। नेगमो होत्था। सो अण्णया वाणिज्जकज्जे महया बइल्लसत्थेण / अरिट्ठा-स्त्री०(अरिष्टा) कच्छविजयक्षेत्रवर्तिराजधानीयुगले, जं०४ कयाणगाणि गणिऊण कन्नउज्जपडिबद्धं कन्नउज्जाहिवसुआए वक्ष०। "दो अरिट्ठाओ' / स्था० 2 ठा० 3 उ०। महणिगाए कंचुलिआसंबाधदिण्णं गुज्जरदेसं पइडिओ, अरिट्ठारि-पुं०(अरिष्टारि)अरिष्टाऽऽख्यवृषभाऽसुरमर्दक श्रीकृष्णे, अधृति आवासिओ अ / कमेण लक्खारामे सरस्सईनईतडे पुट्विं देवकी चक्रे, पृष्टाऽरिष्टारिणा क्षणात्। आ०का अणहिल्लवाडयपट्टणमनिवेसट्ठाणं कारितं आसी। तत्थ सत्थं निवेसित्ता अत्यंतस्स तस्स नेगमस्स पत्तो वासारत्तो / वरिसिउं अरित्ता-स्त्री०(अरिता) सामान्यतः शत्रुभावे, भ० 16 श०५ उ०। पवत्ता जलहरा। अन्नया भद्दवयमासे सो बइल्लसत्थो सव्वो वि अरिदमण-पुं०(अरिदमन) सप्ततितमे श्रीऋषभपुत्रे, कल्प०७ क्ष। कत्थ विगओ, को विन जाणइ, सव्वत्थ गवेसाविओन लद्धो। वसन्तपुरराजनि, यस्य पत्न्याऽभयं दत्त्वा चौरोमोचितः। सूत्र०१ श्रु० तओ सव्वस्स नासे इव अचंतचिंताउरस्स तस्स रत्तीए आगया 6 अ०। (अस्य कथा - 'अभयप्पदाण' शब्देऽस्मिन् एव भागे 708 मृष्ठे सुमिणसि भगवई अंबा देवी। भणियं च तीए - बच्छ ! जगसि, दर्शिता) श्रीप्रभनृपोपद्रावके नृपे, ध० 20 // सुवसि वा? जक्खेण वुत्तं- अम्मो ! कओ मे निद्दा? जस्स अरिरिहो-अव्या पादपूरणे, प्रा०२ पाद। बइल्लसत्थो सव्वस्समूओ विप्पणट्ठो। देवीए साहियं- भद्द! अरिस-न०(अर्शस्) 'हरस' इति लोकप्रसिद्ध गुदाऽकुरेरोगे, तं०जी० एयम्मिलक्खारामे अंबिलिया-थूणस्स हिट्टे पडिमातिगं वट्टए। / जं०। ज्ञा०। विपा०। उपा०। यबलेन वायुर्मूत्रं पुरीषं च प्रवर्तयते, तासां पुरिसतिगं खणावित्ता तं गहियव्वं / एगा पडिमा गुदप्रविष्टानां शिराणां विघातेऽझे रोगो भवति। प्रव० 252 द्वार। अरिट्ठने मिसामिणो, अवरा सिरिपासनाहस्स, अन्ना य अरिसिल्ल-त्रि०(अर्शस) अर्शोरुग्णे, "अरिसिल्लस्स व अरिसा, मा अंबियादेवीए। जक्खेण वायरिअं- तत्थ य अंबिलिआथूणाणं खुम्भं तेण बंधए कमणी" | नि० चू०२ उ०। अर्शोवतः बाहुल्ले सो पएसो कहं नायव्वो ? देवीए जंपिअं-धोउमयं पादतलदौर्बल्यादर्शासिमा क्षुभ्येरन् इति कृत्वा क्रमणिके असौ बध्नाति। मंडलं पुप्फ-प्पयरं जत्थ पाससि,तं चेव ठाणं पडिमातिगस्स बृ०३ उ०। जाणिज्जासि / तम्मि पडिमातिगे पयडीकए पूइजंते अ तुज्झ अरिह-धा०(अर्ह) पूजने, सक० योग्यत्वे, अक० भ्यादि० पर० सेट् / बइल्ला सयमेव आगच्छिहिंति / पहाए तेण उठे ऊण वाचा"ई-श्री-ही-कृत्स्न-क्रिया-दिष्ट्यास्वित्"||२|१०४ / बलिविहाणपुव्वं तहाकए पयडीहूआ तिणि वि पडिमाओ।। इति सूत्रेण संयुक्तस्याऽन्त्यव्यञ्जनात् पूर्व इकारः। पूइयाओ विहिपुव्वं / खणमित्तेण अतक्कियमेव आगया बइल्ला। अरिहइ-अर्हति। प्रा०२ पद। संतुट्टो नेगमो / कमेणं कारिओ तत्थ पासाओ / ठावियाओ *अर्ह-त्रिका योग्ये, सूत्र०१श्रु०३ अ०२ उ० स्था०ालक्षणोपेततयाऽऽ-- पडिमाओ / अन्नया अइच्छिए वासारते अग्गहारगामाओ अट्ठारससयपट्ट-सालियघरअलंकियाओ बंभाणगच्छ चार्यपदयोग्ये, व्य० 10 उ०। पूज्ये, विशे०। प्रशस्ततया पूज्ये, स० मंडणसिरिजसोभद्दसूरिणो खंभाइतनयरोवरि विहरंता तत्थ अरिहंत-पुं०(अर्हत्) अर्हन्त्यशोकाऽऽद्यष्टप्रकारां परमभक्तिपरसुराऽआगया। लोगेहिं विन्नविअं- भगवं ! तित्थं उल्लंघिउं गंतुं न सुरविसरविरचितां जन्माउन्तरमहाऽलवालविरूदाऽनवधवासनाजालाकप्पइ पुरओ। तओ तेहिं सूरिहिं तत्थ ताओ पडिमाओ ऽभिषिक्तपुण्यमहातरुकल्याणफलकल्पां महाप्रातिहार्य रूपा मग्गसिर-पुण्णिमाए धयाऽऽरोवो महूसवपुव्वं कओ। अज्जवि एइ निखिलप्रतिपत्तिप्रक्षयात् सिद्धिसौधशिखराऽऽरोहणं चेत्यर्हन्तः। स्था० वरिसं तम्मि चेव दिट्ठो धयाऽऽरोवो कीरइ / सो य धया 2 ठा०१ उ०ा आव० ज०। सूत्र० / अनु० / म०। जी० आ० चू०। ऽऽरोवमहूसवो विक्कमाइचाओ पंचसु सएसु दुउत्तरेसु (502) विशे०। आचा०) तीर्थकृत्सु, आ०म०द्वि०। सम्प्रति प्राकृतशैल्या वरिसाणं अइक्कं तेसु संवुत्तो / तओ अट्ठसएसु दुउत्तरेसु अनेकधा-ऽर्हच्छब्दनिरुक्तसंभव इति दर्शयन्नाह - विक्कमवासेसु (802) अणहिल्लगोवालए परिक्खियपएसे इंदियविसयकसाए, परीसहवेयणाए उवसग्गे। लक्खारामट्ठाणे पट्टणं चाउक्कडवंसमुत्ताहलेण वणरायराइणा एए अरिणो हंता, अरिहंता तेण वुचंति॥ निवेसियं / तत्थ वणराया खेमरायतूअड वयरसीहरयणा- इन्द्रियादयः पूर्ववत् / वेदना त्रिविधा- शारीरी, मानसी, उभयऽऽइच्चसामंतसीहना-माणो सत्तचाउक्कडवंसरायणो जाआओ। रूपा च / एए अरिणो हंता० इत्यत्र प्राकृतशैल्या छान्दसत्वाच तत्थेव पुरे चोलुक्कवंसे मूलरायचामुंडरायवल्लभरायदुल्लम- विभक्तिव्यत्ययः / ततोऽयमर्थः - एतेषामरीणां हन्तारोऽर्हन्त इति रायभीमदेवकन्नजयसिंहदेवकुमारपालदेवजयदेववालमूल- पृषोदरादित्वादिष्ट रूपनिष्पत्तिः। स्यादेतत्, अनन्तर Page #952 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरिहंत 768- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अरिहंतमणुण्णाय गाथायामेत एवोक्ताः, पुनरप्यमीषामेवेहोपन्यासो न युक्तः / उच्यते- पवजामि'' आव० 4 अ०। (अर्हन्तो लोकोत्तमा इति 'चउसरणगमण' अनन्तरगाथायां नमस्कारार्हत्वहेतुत्वेनोक्ताः, इह पुनरभिधानिरुक्ति- | शब्दे वक्ष्यते) (छयस्थोऽतीन्द्रियमर्थ नानाति, तमेवाऽह जानातीति प्रतिपादनार्थ उपन्यासः। साम्प्रतं प्रकाराऽन्तरतोऽरय आख्यायन्ते, ते वक्ष्यते "छउमत्थ" शब्दे) (अर्हन्त एव सर्वज्ञा इति "सव्वण्णु' शब्दे चाऽष्टौ ज्ञानावरणादिसंज्ञाः सर्वसत्त्वानामेव / तथाचाऽऽह - निरूपयिष्यते) अट्ठविहं पिय कम्म, अरिभूयं होऽ सव्वजीवाणं। जम्बूद्दीवे दीवे भरहेरवएसु वासेसु एगसमए एगजुगे दो तंकम्ममरीहंता, अरिहंता तेण वुचंति / / अरिहंतवंसा उप्पजिंसुवा, उप्पज्जिंति, उप्पजिस्संतिवा।। अष्टविधमष्टप्रकारम्, अपिशब्दादुत्तरप्रकृत्यपेक्षया अनेकप्रकारम् / पञ्चादिकः कालविशेषो युगं, तत्रैकस्मिन्, तस्याऽप्येकस्मिन् समये, चशब्दो भिन्नक्रमः, सचाऽवधारणे। ज्ञानावरणादि कर्मव अरिभूतं शत्रुभूतं | एगसमए एगजुगे० इत्येवंपाठेऽपि व्याख्योक्तक्रमेणैव, इत्थमेवाऽर्थभवति सर्वजीवानां सत्त्वानाम्, अनव-बोधादिदुःखहेतुत्वात् / सम्बन्धात्, अन्यथा वा भावनीयेति / द्वावर्हतां वंशौ प्रवाही, एको तत्कर्माऽरिहन्तारो यतः, तेनाऽर्हन्त उच्यन्ते / रूपनिष्पत्तिः प्राग्वत्। भरतप्रभवः, अन्य ऐरवतप्रभव इति। स्था०२ ठा०३ उ०। अथवा - एकस्मिन् क्षेत्रे एकसमये द्वावर्हन्तौ नोत्पद्यते इति कपिलअरिहंति वंदणनमं-सणाणि अरिहंति पूयसक्कारं / वासुदेवं प्रति मुनिसुव्रतोक्तिः। ज्ञा०१६ अ० जम्बूद्वीपे मन्दरपौरस्त्ये सिद्धिगमणं च अरिहा, अरिहंता तेण वुचंति॥ शीताया महानद्या उत्तरे दक्षिणे च उत्कर्षेण अष्टौ अष्टौ, जम्बूद्वीपे अर्ह-पूजायाम् / अर्हन्ति वन्दननमस्करणे, तत्र वन्दनं शिरसा, मन्दरपश्चिमेन शीतोदाया महानद्या उत्तरे दक्षिणे च उत्कर्षण नमस्करणं वाचा।तथा-अर्हन्तिपूजासत्कारं, तत्र वस्त्र-माल्यादिजन्या अष्टावष्टौ प्रतिकच्छादिविजयक्षेत्रमेकैकस्मिन् द्वात्रिंशत् तीर्थकरा इति / पूजा, अभ्युत्थानादिसंभ्रमः सत्कारः / तथा- सिध्यन्ति निष्ठितार्था स्था० 8 ठा०। (अर्हत्युत्पद्यमाने लोकाऽन्धकारोद्योताविति "अंधयार" भवन्त्यस्यां प्राणिनः सिद्धिःलोकान्तक्षेत्र-लक्षणा। वक्ष्यति- इह बोदिं शब्देऽस्मिन्नेव भागे 107 पृष्ठे समुक्तम्, तथा 'तित्थयर' शब्दे सर्वा चइत्ता णं, तत्थ गन्तूण सिज्झदा तद्गमनं प्रति अर्हन्तीत्यर्हाः योग्याः। वक्तव्यता द्रष्टव्या) "ससिधवला अरिहंता" इति गाथायामर्हदादीनां अच् / 5 / 1 / 46 / इत्यच् / तेन कारणेनाऽर्हन्त उच्यन्ते / / श्वेताद्यारोपः किहेतुकः ? इतिप्रश्ने, अर्हन्तः, पञ्चवर्णाः, सिद्धास्त्ववर्णाः अर्हन्तीत्यर्हन्तः। तथा - शास्त्रेषु व्यक्ततयैवोक्ताः सन्ति, आचार्यादयोऽपि केवलं पीतादिवर्णा एव देवाऽसुरमणुएसु य, अरिहा पूया सुरुत्तमा जम्हा। भवन्ति, तेनैतेषु पूर्वाचार्यैर्वर्णक्रमेण ध्यायमानेषु श्वेताद्येकैकवर्णाऽऽअरिणो हंताऽरिहंता, अरिहंता तेण वुर्चति / / रोपणपूर्वकमेषां ध्यानं सिद्धिकृद् भवतीति, ते तु सर्वास्वपि क्रियासु द्रव्यक्षेत्रकालभावादि-सामग्रीविभिन्नासु प्रवर्तत इति न देवाऽसुरमनुजेभ्यः - सूत्रे पञ्चम्यर्थे सप्तमी, प्राकृतत्वात् पूजा-मर्हन्ति काऽप्यनुपपत्तिः / सेन०२ उल्ला० 157 प्र०। प्राप्नुवन्ति / कुत इति चेत् ? अत आह- यस्मात् सुरोत्तमा अरिहंतकमंभोयभव-त्रि०(अर्हत्क्रमाऽम्भोजभव) अर्हतां श्री उपचितसकलजनासाधारणपुण्यप्राग्भारतया समस्तदेवाऽसुर तीर्थकराणां क्रमाश्चरणाः ते एवाऽम्भोजानि कमलानि, तेभ्यो मनुजोत्तमाः, ततः पूजामष्टमहाप्रातिहार्यलक्षणामर्हन्तीत्यर्हन्तः / भव उत्पत्तिर्यस्य तदर्हत्क्र माऽम्भोजभवम् / जिनेश्वरचरणइत्थमनेकधा त्वर्थमभिधाय पुनः सामान्यविशेषाभ्यामुपसंहरन् आह पङ्कजसम्भवे, द्रव्या०५ अध्या०। (अरिणो हंता० इत्यादि) यतोऽरीणां हन्तारः, तथा- रजो बध्यमानकं कर्म, तस्य रजसो यतो हन्तारः, तेनाऽर्हन्त उच्यन्ते।"अरिहन्तारः" अरिहंतकर्मभोयसमासिय-त्रि०(अर्हत्क्रमाऽम्भोजसमाश्रित) अर्हतां इति वा स्थितस्य अर्हन्त इति निष्पत्तिः प्राग्वत्। आ०म० द्वि०॥ ध०। वीतरागणां क्रमाश्चरणास्त एवाऽम्भोजानि कमलानि तत्र नं० ओ०। सू० प्र०ा आव०। अर्हन् जनानां परमपूज्यः / यो० बिं०। समाश्रितः। अर्हचरणाऽब्जशरणीभूते, द्रव्या०१३ अध्या०। अडवीए देसियत्तं, तहेव निजामया समुद्दम्मि। अरिहंतचेइय-न०(अर्हच्चैत्य) अशोकाद्यष्टमहाप्रातिहार्यादिरूपां छक्कायरक्खणट्ठा, महगोवा तेण वुचंति॥ पूजामहन्तीति अर्हन्तः तीर्थकराः, तेषां चैत्यानि प्रतिमा-लक्षणानि रागद्दोसकसाए, य इंदियाणि य पंचविपरीसहे। अर्हच्चैत्यानि। इदमत्र भावना-चित्तमन्तःकरणं, तस्य भावे कर्मणि वा उवसग्गे नामयंता, नमोऽरिहा तेण वुचंति। विशे०। आ०चूला स्या०। (वर्णदृढादिभ्यट्यण च वा 7 / 1 / 56 / इति हैमसूत्रेण व्यणि) कृते (णमोक्कार' शब्देऽस्य व्याख्या यथास्थानं च) णमो अरिहंताणं चैत्यम् / तत्राऽर्हतां प्रतिमाः प्रशस्त-समाधिचित्तोत्पादकत्वाद् भगवंताणं' / अर्हन्तो नामादिभेदादि-अनेकभेदाः, 'नाम-स्थापना- अर्हचैत्यानि भण्यन्ते / अर्हत्- प्रतिमासु, अरिहंतचेइयाणं करेमि द्रव्य-भावतस्तन्न्यासः' इति वचनात् / तत्र भावोपकारित्वेन काउस्सगं०। आव०५ अ० आ० चू०। प्रति०। ध०॥ भावाऽर्हत्संपरिग्रहार्थमाह- भगवद्भ्यः / ल० प्र०) "अरिहंताणमवन्नं अरिहंतभासिय-त्रि०(अर्हद्भाषित) अर्हद्भिः सम्यगाख्याते, सूत्र०१ वदमाणे अरिहंतपण्णत्तस्स धम्मस्स अवन्नं वदमाणे' इत्यादि / श्रु०६अ। 'अवण्णवाय' शब्देऽत्रैव भागेऽने वक्ष्यते) (अर्हदाशातना आसायणा' / अरिहंतमणुण्णाय-त्रि०(अर्हदनुज्ञात) अर्हद्भिः कर्त्तव्यतयाऽनुज्ञाते, शब्दे द्वितीयभागे 483 पृष्ठे द्रष्टव्या)"अरिहंता लोगुत्तमा, अरिहंते सरणं __ प्रज्ञा० 12 पद। Page #953 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरिहंतसक्खिय 769 - अभिधानराजेन्द्रः- भाग 1 अरूय अरिहंतसक्खिय-न०(अर्हत्साक्षिक) अर्हन्तस्तीर्थकरास्ते साक्षिणः रुणवराऽवभासमहाभद्रौ, अरुणवराऽवभाससमुद्रे अरुणवराऽवभाससमक्षभाववर्तिनो यत्र तत् / “शेषाद्वा'' 17 / 3 / 175 / इति (हैम) वराऽरुणवराऽवभासमहावरौ देवौ। सू० प्र०१६ पाहु० जी० चं० प्र०। सूत्रेण कप्रत्ययविधानादर्हत्साक्षिकम् / अर्हद्भिः कृतसाक्षित्वे, पा०। / अरुणाभ-पुं०(अरुणाभ) अरुणकान्तौ, चन्द्रं गृह्णतो राहोर्दशमे अरिहंतसमणसिजा-स्त्री०(अर्हच्छ्रमणशय्या) अर्हतां श्रमणानां च / कृत्स्नपुद्गले, सू०प्र०२०पाहु०। विमानभेदे, स०८समा स्थाo शय्याऽर्हच्छ्रमणशय्या। चैत्याऽऽलयोपाश्रयरूपासु शय्यासु, जीता अरुणुत्तरवडिंसग-न०(अरुणोत्तराऽवतंसक)। विमानभेदे, स०८ सम० अरिहंतसासण-न०(अर्हच्छासन) जिनाऽऽगमे, प्रश्न०५ संव० द्वा०। अरुणोदग-पुं०(अरुणोदक) अरुणद्वीपस्थपरितः प्रसृते समुद्रे, अरुणोदे अरिहंतसिजा-स्त्री०(अर्हच्छया) चैत्यगृहे, ध०२ अधिका समुद्रे सुभद्र-मनोभद्रौ देवौ। सू० प्र०१६ पाहु०। चं० प्र०) द्वी० भ०| अरिहदत्त-पु०(अर्हद्दत्त) आर्यसुस्थित-सुप्रतिबुद्धयोः पञ्चमे शिष्ये, अरुणोववाय-पुं०(अरुणोपपात) अरुणो नाम देवः, तत्समयनिबद्धो कल्प०८ क्ष० ग्रन्थस्तदुपपातहेतुररुणोपपातः। संक्षेपिकानांदशानां षष्ठेऽध्यने, स्था०। अरिहदिण्ण-पुं०(अर्हद्दत्त) सिंहगिरेश्चतुर्थे शिष्ये, कल्प०८क्षा नन्द्यध्ययनटीकायां चूर्णिकारो भावयतिअरुउवसग्ग-पुं०(अरुगुपसर्ग) रोगरहिते उपसर्ग, तंगा जाहे तमज्झयणं उवउत्ते समाणे अणगारे परियट्टइ, ताहे से * अरूपोपसर्ग-पुं०। आर्षत्वाद्वकारलोपः। रूपरहिते उत्पाते, तं० अरुणे देवे ससमयनिबद्धत्तणओ चलियासणे संभमुभंतलोयणा अरुग-न०(अरुक) व्रणे, "अरुगइहरा कुत्थई"।बृ०३ उ०। पउत्तावही विण्णाय हट्ठपहढेचलचवलकुंडलधरे दिव्वाए जुईए, अरुण-पुं०(अरुण) नन्दीश्वरवरसमुद्रस्य परतोऽरुणोदसमुद्रपरिवेष्टिते दिव्वाए विभूईए, दिव्वाए गईए, जेणामेव से भगवं समणे निग्गंथे द्वीपभेदे, स च वृत्तवलयाऽऽकारसंस्थानसंस्थितः / तत्र अशोक- अज्झयणं परियट्टे माणे अत्थेइ, तेणामेव उवागच्छद। वीतशोकौ देवौ / सू० प्र० 16 पाहु०। अनु० द्वी० जी०। प्रज्ञा० नं०] उवागच्छित्ताभत्तिभरोणयवयणे विमुक्कवरकुसुमगंधवासे उवेइ। स्था०। "रुयगा उ समुदाओ, दीवसमुद्दा भवे असंखिज्जा / गंतूण होइ उवयइत्ता ताहे से समणस्स पुरतो ठित्ता अंतहिए अरुणो, अरुणो दीवो तओ उदही' // 64 // द्वी० / कयंजलीओउवउत्ते संवेगविसुज्झमाणज्झवसाणे तमज्झयणं हरिवर्षनामाऽकर्मभूमिवृत्तवैताठ्यपर्वतस्याऽधि-पतौ देवे, स्था० सुणमाणे चिट्ठइ। सम्मत्ते अज्झयणे भणइ-भयवं! सुसज्झाइयं 4 ठा० 3 उ०ा अरुणोपपातग्रन्थप्रतिपाद्ये देवे, स्था०१०ठा०। उपा०। सुसज्झाइयं, वरं वरेहि ति, ताहे से इहलोयनिप्पिवासे सू० प्र०ा विमानभेदे, अरुणादीनि दश विमानानि, यथा- "अरुणे 1 समतणमणिमुत्ताहललेठुकं चणे सिद्धवररमणिपडिबद्धअरुणाभे २खलु, अरुणप्पह 3 अरुणकंत 4 सिढे 5 / अरुणज्झएयछट्टे निब्भराणुरागे समणे पडिभणइ- न मे भो ! वरेणं अट्ठो त्ति। 6, भूय ७वडिंसेगवेकीले 10" // 5 // शिष्टादिनामान्यरुणपदपूणि ततो से अरुणदेवे अहिग-यरजायसंवेगे पयाहिणं करेत्ता वदंइ, दृश्यानि। उपा०६ उ०। ऋ-उनन् / सूर्ये, सूर्यसारथौ, गुडे, सन्ध्यारागे, नमंसइ, वंदित्ता, नमंसित्ता पडिगच्छदानं०। निःशब्दे, दानवभेदे, कुष्ठभेदे, पुन्नागवृक्षे, अव्यक्तरागे, यदा तदध्ययनमुपयुक्तः सन् श्रमणः परिवर्तयति, तदाऽसावरुणो देवः कृष्णमिश्रितरक्तवर्णे च / तद्वति, त्रि०ा कुडकुमे, सिन्दूरे च / न० स्वसमयनिबद्धत्वाचलितासनः संभ्रमोद्धान्तलोचनः प्रयुक्तावधिस्तमञ्जिष्ठायां, श्यामाकायाम्, अतिविषायां, नदीभेदे, कदम्बपुष्पायां च। द्विज्ञाय दृष्टप्रहृष्टश्चलचपलकुण्डलधरो दिव्यया धुत्या दिव्यया विभूत्या स्त्रीला वाचा दिव्यया गत्या यत्रैवाऽसौ भगवान् श्रमणः अध्ययनं परिवर्तयति, अरुणगंगा-स्त्री०(अरुणगङ्गा) महाराष्ट्रजनपदभूमौ वहति नदीभेदे, ती० तत्रैवोपागच्छति। उपागत्य च भक्ति-भराऽवनतवदनो विमुक्तवरकुसुम२८ कल्प। वृष्टिरवपतति।अवपत्य चतदातस्य श्रमणस्य पुरतः स्थित्वाऽन्तर्हितः अरुणप्पभ-पुं०(अरुणप्रभ)चतुर्थेऽनुवेलन्धरनागराजे, तदावासपर्वतेच। कृताऽञ्जलिक उपयुक्तः संवेगविशुद्ध्यमाना-ऽध्यवसानः तमध्ययनं जी०३ प्रति० स्था०। विमानभेदे, उपा०६अ। राहोश्चन्द्रं गृह्णतो दशमे शृण्वन् तिष्ठति। समाप्ते च भणति- सुस्वाध्यायितं सुस्वाध्यायितमिति कृत्स्नपुद्गले, चं० प्र०२० पाहु०॥ वरं वृण्विति / ततो-ऽसाविहलोकनिष्पिपासः समतृणमणिमुक्तालोअरुणप्पभा-स्त्री०(अरुणप्रभा) नवमस्य तीर्थकरस्य निष्क्रमण टकाञ्चनः सिद्धवरवधूनिर्भरानुगतचित्तः श्रमणः प्रति भणति- न मे शिबिकायाम्, सका वरेणाऽर्थ इति ततोऽसावरुणो देवोऽधिकतरजातसंवेगः प्रदक्षिणां कृत्वा अरुणवर-पुं०(अरुणवर) स्वनामख्याते द्वीपे, समुद्रे च / तत्र अरुणवरे वन्दते, नमस्यति / वन्दित्वा नमंसित्वा प्रतिगच्छति / एवं द्वीपे अरुणवरभद्राऽरुणवरमहाभद्रौ, अरुणवरे समुद्रे अरुणभद्राऽ- वरुणोपपातादिष्वपि भणितव्य-मिति / स्था० 10 ठा० नं० पा० रुणमहाभद्रौ देवौ / सू० प्र० 16 पाहु०। जी०। अनु०। द०५०। द्वादशवर्षपर्यायस्य श्रमणस्य कल्पतेऽरुणोपपातः।व्य०१उ०। अरुणवरोभास-पुं०(अरुणवराऽवभास)स्वनामख्याते द्वीपविशेषे, | अरुय-न०(अरुस्) व्रणे,नाऽतिकंडूइयं सेयं, अरुयस्साऽवरज्झति। समुद्राऽविशेषे च / तत्राऽराणवराऽवभासे द्वीपे अरुणवराऽवभासभद्राऽ- | अरुषो व्रणस्याऽतिकण्डूयितं नखै: विलेखनं ने श्रेयो, Page #954 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरुय ७७०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अलक नशोभनं भवति, अपित्वपराध्यति, तत्कण्डूयनं व्रणस्यदोषमाव-हति। | सूत्र०१ श्रु०३ अ०३ अ० * अरुज्-त्रि०ा आधिव्याधिवेदनारहिते,ध०२ अधि० शरीरमनसोर भावाद् अविद्यमानरोगे सिद्धिस्थाने, स०१समा औ०जी०। कल्पा अरुह-पुं०(अर्हत्) "उचाऽर्हति" || 2 | 111 / इति सूत्रेण संयुक्तस्थाऽन्त्यव्यञ्जननात्पूर्व उद्, अदितौ च भवतः। अरुहो, अरहो, अरिहो / प्रा०२ पाद। योग्ये, तीर्थकरे च। प्रव० 275 द्वार। * अरुह-पुं० न रोहति, भूयः संसारे समुत्पद्यते, इत्यरुहः, संसारकारणानां कर्मणां निर्मूलकाषंकषितत्वात् / अजन्मनि सिद्धे, प्रव० 275 द्वार / क्षीणकर्मबीजत्वात् (अरुहः)। आह च- दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं, प्रादुर्भवति नाऽड्कुरः। कर्मबीजे तथा दग्धे, न रोहति भवाऽडकुरः ||१भ०१श०१ उ० आव०ा दर्शक अरूव-त्रि०(अरूप) न विद्यते रूपं स्वभावो यस्याऽसावरूपः / / अतत्स्वभावे, अने०४ अधि०। अरूवकाय-पुं०(अरूपकाय)अमूर्ते धर्माऽस्तिकायादौ, भ०७श०१० उ अरूवि(ण)-त्रि०(अरूपिन्) रूपं मूर्तिर्वर्णादिमत्त्वं, तदस्याऽस्तीति रूपी, | न रूपी अरूपी। अमूर्ते, स्था०५ ठा०३ उ०ा धर्माऽस्तिकायादौ, / प्रज्ञा०१पद / भ० आवा धम्मत्थिकाएतद्देसे, तप्पएसेय आहिए। अहम्मे तस्स देसे य, तप्पएसे य आहिए।।५।। आगासेतस्स देसेय, तप्पएसे य आहिए। अद्धासमयए चेव, अरूवी दसहा भवे॥६॥ उत्त०३६ अ० (टीकाऽनयोः अजीव' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 203 पृष्ठे दर्शिता) रूपातीते अमूर्त आत्मनि, भ०१७ श०२ उगा दर्शाकर्मरहिते सिद्धे, आ० म० द्विता मुक्ते, स्था०२ ठा० 1 उ०। "अरूवी सत्ता, अपयस्स पयं नत्थि, से णं सघण रूवेण गंधण रसेण फासेण इचेतावंति त्ति बेमि"। (अरूवी सत्तत्ति) तेषां मुक्ताऽऽत्मनां या सत्ता,सा-ऽरूपिणी / अरूपित्वं च दीर्घादिप्रतिषेधेन प्रतिपादितम्। आचा० 1 श्रु०५ अ०६ उ०। अरू विअजीवपण्णवणा-स्त्री०(अरू प्यजीव प्रज्ञापना) रूपव्यतिरेकेणाऽरूपिणो धर्माऽस्तिकायादयः, ते च ते अजीवाश्च अरूप्यजीवाः, तेषां प्रज्ञापना अरूप्यजीवप्रज्ञापना। अजीवप्रज्ञापनाभेदे, प्रज्ञा०१ पद। अरे-अव्य०(अरे) रतिकलहे, "अरे! मए समंमा करेसु उवहासं"। प्रा० २पाद / रोषालाने, नीचसंबोधने, अपकृतौ, असूयायां च। वाचा अरोग-त्रि०(अरोग) निष्पीडे,भ०१८ श०१ उ०। अशेषद्वन्द्वरहिते सिद्धे, सूत्र०१ श्रु०१ अ०१ उ०। अल-न०(अल) अल-अच् / वृश्चिकपुच्छस्थे कण्टकाऽऽकारे पदार्थे, हरिताले च। वाच०। अभीष्टकार्यसमर्थे, आचा०२ श्रु०५ अ०१ उ०। अलादेव्याः सिंहासने, ज्ञा०२ श्रु० अलं-अव्य०(अलम्) पर्याप्त, नि० चू०१ उ०। आचा०। भ०। ज्ञा०ादशा समर्थे, सूत्र०१ श्रु०६ अ०1 अत्यर्थे, औ०। प्रतिषेधे, सूत्र० २श्रु०७अाभूषणे, सामर्थ्य, निवारणे, निषेधे), निरर्थकत्वे,अस्त्यर्थे, अवधारणे च / वाचा अलंकरण-न०(अलङ्करण) शोभाकारके, कल्प०३ क्ष०। अलंकार-पुं०(अलङ्कार) अलक्रियते भूष्यतेऽनेनेत्यलङ्कारः। कटककेयूरादिके, सूत्र 1 श्रु०३ अ०२ उ० औ०। प्रश्न०। रा०| दशा०। आभरणविशेषे, रा०ा आ० म०। बृ०ा अलम् +कृ-करणे घा भूषायाम्, हारादौ भूषणे, साहित्यविषयदोषगुण-प्रतिपादके ग्रन्थे, शब्दभूषणे- अनुप्रासाऽऽदौ, शब्दार्थभूषणे- उपमाऽऽदौ च / वाचा "चउविहे अलंकारे पण्णत्ते / तं जहा-केसाऽलंकारे वत्थाऽलंकारे मल्लाऽलंकारे आभरणाऽलंकारे"। स्था० 4 ठा०३ उ०। आ० चू० अलंकारचूलामणि-पु०(अलङ्कारचूडामणि) स्वनामख्यातेऽलङ्कार ग्रन्थे, यस्य वृत्तिः प्रतिमाशतकनयोपदेशकृता कृता। नयो०। प्रति०। अलंकारिय-पुं०(अलङ्कारिक) नापिते, ज्ञा०१३ अ०) अलंकारियकम्म-न०(अलकारिककर्मन्) नख-ख(म) ण्डनादौ, ज्ञा०२ अ०। क्षुरकर्मणि, विपा०१ श्रु०६ अ० अलंकारियसहा-स्त्री०(अलङ्कारिकसभा) नापितकर्मशालायाम्, ज्ञा० 13 अ०। अलङ्कारिकसभा यस्यामलङ्क्रियते। स्था०५ ठा० 3 उ०। अलंकिय-त्रि०(अलकृत) मुकुटादिभिः (प्रश्न० संव० द्वा०) विभूषिते, दसा० 10 अ० औ०। ज्ञा०ा कृताऽलङ्कारे, भ०६ श०३३ उ०। उत्प्रेक्षादिभिरलङ्कारैर्विभूषिते, विशे० अनु०॥अन्याऽन्यस्फुटशुभस्वरविशेषाणां करणादलङ्कृतम् / स्था० 7 ठा०। अनु०॥ अन्याऽन्यस्वरविशेषकरणेनाऽलड्कृतमिवगीयमाने गीतगुणभेदे, जी० 3 प्रति अलंचपक्खम्पाहि (ण)-पुं०(अलञ्चापक्षग्राहिन) "अलंच-पक्खगाही, एरिसया रुवजक्खाओ' | न कस्याऽपि लञ्चामुत्कोचं गृह्णन्ति, नाऽप्यात्मीयोऽयमिति कृत्वा पक्षं गृह्णन्ति, ते एतादृशा अलञ्चापक्षग्राहिणः / रूपेण मूर्त्या यक्षा इव रूपयक्षाः, मूर्तिमन्तो धर्मकनिष्ठा देवा इत्यर्थः / द्रव्यं गृहीत्वाऽऽत्मीयत्वेन पक्षापरिग्राहकेषु रूपयक्षेषु, व्य०१ उ०। अलंधूम-पुं०(अलंधूम) अत्यन्तमलिने, अष्ट०३ अष्ट०। अलंबुसा-स्त्री०(अलम्बुषा) उत्तरदिग्भागवर्तिरुचकवासिन्यां दिक्कुमार्याम्, जं०५ वक्ष०ा आ० म०। द्वी०। आ० क०। स्था०। आ० चू० अलंभोगसमत्थ-त्रि०(अलभोगसमर्थ) अत्यर्थं भोगाऽनुभवनसमर्थ, औ० अलक-पुं०(अलर्क) वाराणसीनगर्या राजभेदे, अन्त० तत्कथानकं तु अन्तकृद्दशानां षष्ठवर्गस्य षोडशेऽध्ययने प्रति-पादितम्। तद्यथा- तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणारसीए णयरीए काममहावणे चेतिए / तत्थ णं वाणारसीए णयरीए अलक्के नामं राया होत्था। तेणं कालेणं तेणं समणे समएणं भगवं महावीरे०जाव विहरइ,परिसा निग्गया। तए णं अलक्के राया इमी से कहाए लद्ध हट्टतुट्ठ०जहा कुणिए भगवओ महावीरस्स० जाव पजुवासति, धम्मकहातं से अलक्के राया समणस्स जहा उदायणे राया तहा निक्खंतो, नवरं जेट्टपुत्तं रज्जे अभिसिंचति० जाव एकारस अंगाई बहुहिं वासाई परियातो०जाव विपुले सिद्धे। अन्त०७ वर्गास्था०। Page #955 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलक्खणया 771 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अलाभपरि(री)सह अलक्खणया-स्त्री०(अलक्षणता) असमञ्जसाऽभिधायितायाम्, विशे०| अलगापुरी-स्त्री०(अलकापुरी) वैश्रवणयक्षपुर्याम्, अन्त०१ वर्ग०। अलचपुर-न०(अचलपुर) "अचलपुरेच-लोः" / / 2 / 118 / इति सूत्रेण अचलपुरशब्दे चकारलकारयोर्व्यत्ययः। कृष्णावेणानद्याः समीपस्थनगरे, प्रा०२ पाद। अलत्त-पुं०(अलक्त) लाक्षारसे, अनु०॥ अलत्तय-पुं०(अलक्तक) लाक्षारसेन रक्ते, जे रत्तए, ते अलत्तए। यो रक्तो लाक्षारसेन (प्राकृतशैल्यां कन् प्रत्ययः) स एव रश्रुते-लश्रुत्या अलक्तक उच्यते। अनुग अलद्ध-त्रि०(अलब्ध) अनुपाते, स्था०५ ठा०२ उ०। अप्राप्ते च सूत्र० १श्रु०२ अ०३ उ० अलद्धिजुत्त-त्रि०(अलब्धियुक्त) स्वकीयलाभविहीने, पचा० 18 विव० अलद्धिय-त्रि०(अलब्धिक) अलब्धिमति लब्धिरहिते, ओघ०। अलमसिरी-स्त्री०(अलभश्री) अलादेव्या मातरि, ज्ञा०२ अ०| अलमंथु-पुं०(देशी) समयभाषया समर्थे, स्था०४ ठा०२ उ०। अलमत्थु-त्रि०(अलमस्तु) अलमस्तु, निषेधो भवतु / य एवमाह , सोऽलमस्त्वित्युच्यते / निषेधके, स्था०४ ठा०२ उ० अलय-पुं०(अलक) वृश्चिककण्टके,"अलए भंजावेइ" इतिवृश्चिककण्ट कान् शरीरे प्रवेशयतीत्यर्थः / विपा०१ श्रु०६ अ०। अलयभद्दा-स्त्री०(अलकभद्रा) कैलासस्य पूर्वतः पुर्याम, द्वी०। अलया-स्त्री०(अलका) वैश्रवणयक्षपुर्याम् ज्ञा०४ अ०) अलव-त्रि०(अलप) लपन्तीति लपा वाचालाः। घोषिताऽनेकतर्कविचित्र- | दण्डकाः, तथा न लपा अलपाः। मौनव्रतिकेषु निष्ठितयोगेषु गुटिकादियुक्तेषु, यदशाद् अभिधेयविषया वागेवन निस्सरति। सूत्र०२ श्रु०६ अग अलवणसक्कय-त्रि०(अलवणसंस्कृत) विशिष्टसंस्काररहिते, व्य० 4 उ०। अलस-त्रि०(अलस) निरुद्यमे, बृ०१ उ०। मन्दे, जीवा० असमर्थ च। सूत्र०२ श्रु०२ अ० स्था०। गण्डोलके, पुं०।"अलसो त्ति वा गंडूलगो त्ति वा सुसुणागो त्ति वा एगटुं" / नि०चू०१ उ०। अलसग-पुं०(अलसक) "नोवं व्रजति, नाऽधस्तादाहारो न च पच्यते। आमाऽऽशयेऽलसीभूतस्तेन सोऽलसकः स्मृतः" ||1|| इत्युक्तलक्षणे विशुचिकाविशेषलक्षणे, उपा०८ अ०ा हस्त-पादादिस्तम्भे श्वयथौ, आचा०१ श्रु०२ अ०१ उ० अलसमाण-त्रि०(अलसायमान) अनलसोऽलसो भवतीति अलसायते, अलसायत इति अलसायमानः। अत्र "डाच लोहितादिभ्यः पित्"। 3 / 4 / 30 / इति हैमसूत्रेण लोहिता-देराकृतिगणत्वात् च्व्यर्थे क्यड्प्रत्ययः, स च षित्। आलस्यं भजमाने, ग०१ अधि० अलससत्त-न०(अलससत्त्व) कापुरुषे, बृ०१ उ०। अलसी-स्त्री०(अतसी) असती-सातवाहने लः।।२।११। इति सूत्रेण | तस्य लः। प्रा०१ पाद / धान्यभेदे, आचा०१ श्रु०१ अ०५ उ०) अलहुय-न०(अलघुक) अत्यन्तसूक्ष्मे, स्था०१० ठा०) अला-स्त्री०(अला) विद्युत्कुमारीमहत्तरिकाभेदे, स्था०६ ठा०ा धरणस्य नागकुमारेन्द्रस्याग्रमयहिष्याम, ज्ञा०२ श्रु०॥ (अगमहिस शब्देऽस्मिन्नेव भागे 170 पृष्ठेऽस्याः पूर्वाऽपरभवावुक्तौ) अलाउ-न०(अलाबु) तुम्बके, औ०। अनु०। सूत्र०। आलाउच्छेय-न०(अलाबुच्छेद)अलाबुकं छिद्यते येन, तत् अलाबु च्छेदम्। तुम्बच्छेदके पिप्पलादिशस्त्रे, सूत्र०१ श्रु०४ अ०२ उ०। अलाउपाय-न०(अलाबुपात्र) तुम्बकभाजने,औ०। आचा०ा स्था। अलाघवया-स्त्री०(अलाघवता) अविद्यमानं लाघवं लघुता यस्य तथा, तद्भावोऽलाघवता। लाघवाऽभावे, बृ०) अथाऽलाघवत व्याचष्टेउवहि-सरीरमलाघव, देहे णिद्धाइवद्धयसरीरो। संघसगसासभया,ण विहरइ विहारकामो वि॥ अलाघवं गौरवम् / तच द्विधा- उपधौ, शरीरे च / तत्र देहे देहविषयमलाघवमिदम् - स्निग्धं घृतादि, तेन, आदिशब्दाद् गुडशर्करादिमधुरद्रव्यैः प्रतिदिनमस्य च ह्रियमाणैहच्छरीरः सन्मार्गे गच्छतः शरीरजाड्यसमुत्थो यो गात्रसंघर्षों, यश्च श्वासः, तद्भयाद् विहरणकामोऽपि न विहरति। / अथोपकरणेऽलाघवमाह - सागारिपुत्तभाउग- णण्हग दाण अविसद्ध भारभया। ण विहरति ओम सावय, नियईअगणि भाण एजो त्ति। सागारिकेण शय्यातरेण, तदाऽऽदौ स्वपुत्रैभ्रातृभिर्नप्तृभिश्च पौत्रैः कस्याऽपि साधोरविषयस्याऽतीवप्रभूतस्य कम्बल्यादिउपकरणस्यदानमकारि।सच साधुस्तद्भारभयात्न विहरति। अन्यदा तत्राऽवमं दुर्भिक्ष संजातम्। सच तदापिन विहरति (सावय त्ति) श्रावकेण चिन्तितम्- एष साधुः किमद्याऽपि न विहरति ? नूनं बहूपकरणप्रतिबद्धोऽयम् / ततस्तेन श्रावकेण तस्य संयतस्य भिक्षाद्यर्थं विनिर्गतस्य सर्वमप्युपकरणं निष्काश्याऽन्यत्र संगोप्य निकृत्या मायया तदीय उपाश्रयः सर्वोऽपि (अगणि ति) अग्रिना प्रदीपितः / ततः समायातः, दृष्टः प्रतिश्रयोदग्धः। कृतवान्हा! कष्ट, हाहा! कष्ट, बहूपकरणंदग्धमिति। परिखेदं पृष्टश्च श्रावकाः किञ्चिदुपकरणं निष्काशितंन वेति? स प्राह-न शक्तं किमपि निष्काशयितुं, परं (भाण त्ति) भाजनद्वयं महता कष्टन निष्काशितम् / ततः साधुना भणितम्- विहरामि संप्रति यस्यां दिशि सुभिक्षम् / श्रावकः प्राह-(एज त्ति) सुभक्षीभूते भूयोऽप्यागच्छेः / ततः प्रतिपन्नं साधुना तद्वचनम् / समागतः कालाऽन्तरेण पुनरपितत्रैवाऽसौ। निवेदितः श्रावकेण यथावस्थितो व्यतिकरः, क्षमयित्वा च दत्तं सर्वमपि तदीपमुपकरणम् / एवमादयो दोषा उपकरणाऽलाघवे भवन्ति / बृ०२ उ०। पञ्चा०। नि०चू अलाभ(ह)-पुं०(अलाभ) लभनं लाभः,न लाभोऽलाभः / अभिलषितविषयाऽप्राप्ती, उत्त०२ अ०) अलाभ(ह)परि(री)सह-पुं०(अलाभपरिषह) अलाभः प्रतीतः, तत्परिषहणं च,तत्रदैन्याऽभावः। भ०८ श०८ उ०ा प्रवासा प्रश्नानानादेशविहारिणो विभवमपेक्ष्यबहुच-नीचगृहषुभिक्षामनवाप्याऽप्यसंक्लिष्टचेतसोदातृविशेष Page #956 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलाभपरि(री)सह 772 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अलाहि परीक्षा निरुत्सुकस्य अलाभो मे परमं तपः' इत्येवमधिकगुण-मलाभ सोऽपि तथैव जितः, तुर्ये प्रहरे उत्थितं कृष्णं क्रोधपिशाचस्तथैव मन्यमानस्याऽलाभपीडासहने, पं०सं०४ द्वार। स चैवम्-याचितालाभे प्रोक्तवान् / कृष्णः प्राह- मां जित्वा मत्सहायान् भक्षय। ततो यथा यथा सति प्रसन्नचेतसैवाऽविकृतवदनेन भवितव्यम्। आव०४ अ०। तदुक्तम्- क्रोधपिशाचो युध्यति, तथा तथा कृष्णः 'अहो ! बलवान् एष क्रोधपिशाचो परात् पराऽर्थं स्वाऽर्थं वा, लभेताऽन्नादिनाऽपि वा / माद्येत् न लाभाद् युध्यति। यथा यथा कृष्णस्तोषवान् भवति, तथा तथा पिशाचःक्षीयते / नाऽलाभाद्, निन्देत् स्वमथवा परम् / / 1 / / / ध०३ अधि० / परकीयं एवं कृष्णेन पिशाचः सर्वथा क्षीणः स्ववस्त्र मध्ये क्षिप्तः। प्रभाते तदङ्गानि पराऽर्थं च, लभ्येताऽन्नादिनैव वा। लब्धे न माद्येद् निन्देत् वा, स्वपरान् दृष्ट्वा कृष्णेनोक्तम्- किमेतद् भवतां जातम् ? ते सर्वेऽपि रात्रिवृत्तान्तं नाऽप्यलाभतः / / 1 / / आ०म०द्वि०। प्रवृत्तेश्च कदाचित् लाभाऽन्तराय- प्राहुः। कृष्णेन स्ववस्त्रमध्यादाकृष्यदर्शितः। एवं कृष्णवद् यस्तोषवान्, दोषतो न लभेताऽपीति, अलाभपरिषहमाह - भवति सोऽलाभपरीषहं जेतुं शक्नोति। परेसु घासमेसेज्जा, भोयणे परिनिट्ठिए। अथद्वितीयं लोकोत्तरं ढण्ढणकुमारकथानकं कथ्यते - लद्धे पिंडे अलद्धे वा, णाऽणुतप्पेज संजए।।१।। कस्मिंश्चिद् ग्रामे कोऽपि कृशशरीरी कुटुम्बी (पाराशरो विप्रः) वसति अजेवाऽहं न लब्भामि, अवि लाभो सुए सिया। स्म / अन्येऽपि बहवस्तत्र कुटुम्बिनो वसन्ति स्म। वारकेण ते राजवेष्टि जो एवं पडिसंचिक्खे, अलाभो तं न तज्जए॥२॥ कुर्वन्ति स्म। राजसत्कपञ्चशतहलानि वाहयन्ति / स्म। एकदा तस्य आ०चू०४ उ०। कृशशरीरिणः पञ्चशतहलवाहनवारकः समायातः, तेन च वाहिता (परेसु इत्यादि) परेष्विति गृहस्थेषु ग्रासं कवलम्, अनेन च वृषभाः। भक्षपानवेलायामप्येको-ऽधिकश्चाषो दापितः / तदाऽन्तरायं मधुकरवृत्तिमाह- एषयेद् गवेषयेत्, भुज्यत इति भोजनमोदनादि, तस्मिन् कर्म बद्धम्, ततो मृत्वाऽसौ बहुकालमितस्ततः संसारे परिभ्रम्यकस्मिंश्चिद् परिनिष्ठिते सिद्ध मा भूत् प्रथमगमनात् तदर्थ पाकादि-प्रवृत्तिः, ततश्च भवे कृतसुकृत-वशेन द्वारिकायां कृष्णवासुदेवस्य पुत्रत्वेन समुत्पन्नः। लब्धे गृहिभ्यः प्राप्ते, पिण्डे आहारेऽलब्धे वाऽप्राप्ते नाऽनुतप्येत संयतः। ढण्ढणेति तस्यनाम प्रतिष्ठितम्। स ढण्ढणकुमारः श्रीनेमिपार्वे अन्यदा तद्यथा- अहो ! ममाऽधन्यता, यदहं न किञ्चिल्लभे। उपलक्षणत्वात् प्रव्रजितः / लाभान्तरायवशात् महत्यामपि द्वारिकायां हिण्डमानो न लब्धे लब्धिमानहमिति न हृष्येत / यद्वा- लब्धेऽप्यल्पेऽनिष्ट वा किञ्चिदन्नादि लभते / यदि कदाचिल्लभते, तदा सर्वथाऽसार-मेव / संभवत्येवाऽनुताप इति सूत्रार्थः / किमालम्बनमालम्ब्य नाऽनुतप्येत? ततस्तेन स्वामी पृष्टः / स्वामिनातुसकलः पूर्वभववृत्तान्तः तस्य कथितः / इत्याह- (अजेव० इत्यादि) अद्यैवाऽस्मिन्नेवाऽहनि अहं न लभे, न तेन चाऽयमभिग्रहो गृहीतः - परलाभो मया न ग्राह्यः। अन्यदा वासुदेवेन प्राप्नोमि / अपिः संभावने / संभाव्यते- एतल्लाभः प्राप्तिश्च श्वः स्वामिना इति पृष्टम् - भगवन् ! एतावत्सु श्रमणसहस्रेषु को आगामिनि दिने, स्याद्भवेत्। उपलक्षणत्वात् श्व इत्यन्येधुरन्यतरेधुर्या दुष्करकारकः ? स्वामिना ढण्ढणर्षिरेव दुष्करकारक इति उक्तम्। मां स्यादित्यनास्थामाह / य एवमुक्तप्रकारेण(पडिसंचिक्खे त्ति) कृष्णेनोक्तम्-स इदानीं क्वाऽस्ति ? स्वामी प्राह- त्वं नगरं प्रविशन्तं प्रतिसमीक्षते अदीनमनाः सन् अलाभमाश्रित्याऽऽलो चयति, द्रक्ष्यसि। हृष्टः कृष्णः श्रीनेमि-जिनं प्रणम्य उत्थितः। पुरद्वारे प्रविशन्तं अलाभोऽलाभपरीषहः, तं न तर्जयति नाऽभिभवति, अन्यथा साधुं दृष्टवान, हस्तिस्कन्धादुत्तीर्य कृष्णस्तं ववन्दे / तेन वन्द्यमानोऽयं भूतस्त्वभिभूयत इति भावः। उत्त०३ अ०। अथ 'नाऽणुतप्पेज्ज संजये साधुरेकेनेभ्येन दृष्टः। चिन्तितंचतेन- अहो ! एष महात्मा कृष्णेन वन्द्यते। त्ति' सूत्राऽवयवमर्थतः स्पृशन्नुदाहरण-माह एवं चिन्तयतएव तस्यगृहे ढण्ढणर्षिः प्रविष्टः। तेन मोदकैः प्रतिलाभितः। जायणपरीसहम्मी, बलदेवो इत्थ होइ आहरणं / ततः स्वामिसमीपे गत्वा पृच्छति-मम लाभाऽन्तरायः क्षीणः / स्वामिना किसिपारासर ढंढो, अलाभए हो उदाहरणं // 50 // उक्तम्- एष वासुदेवलाभः। मम परलाभो न कल्पते इत्युक्त्वा नगराद् याञ्चापरीषहे बलदेवोऽत्र भवत्याहरणमुदाहरणम्। कृषिप्रधानः पाराशरः बहिर्गत्वा उचितस्थण्डिले मोदकान् विधिना परिष्ठापयन् कृषिपाराशरो, जन्माऽन्तरे (ढंढ इति) ढण्ढणकुमारोऽलाभकेऽला- शुभध्यानाऽऽरोहेण केवली जातः। एवमन्यैरपि अलाभपरीषहः सोढव्यः / भपरीषहे भवत्युदाहरणमिति गाथाऽक्षरार्थः / भावार्थस्तु अलाभात् अनिष्टाऽऽहारलाभात्, अन्त्याऽऽहारप्रान्ताऽऽहारभोजनात् संप्रदायादवसेयः। उत्त०३ अ०५०नि० शरीरे रोगा उत्पद्यन्ते, अतो रोगपरीषहोऽपि सोढव्यः। उत्त०२ अ०) अत्र अलाभपरीषहे कथाद्वयम् -लौकिकं 1, लोकोत्तरं च शतत्र प्रथम अलाय-न०(अलात) उल्मुके, बृ०५ उ०। ज्ञा० जी०। प्रज्ञा०। दश०। लौकिकं कथानकं कथ्यते- एकदा कृष्णः 1, बलदेवः 2, सात्यकिः३, स्था०ा अग्रभागे ज्वलत्काष्ठे, नं०। दारुकः 4 / एते चत्वारोऽप्यश्वाऽपहृता अटव्यां वटवृक्षाऽधो रात्रौ सुप्ताः, अलावडिंसक-न०(अलावतंसक)अलादेव्या भवने, ज्ञा०२ श्रु०॥ आद्ये प्रहरे दारुको यामिको जातः, अन्ये त्रयः सुप्ताः, तदानीं क्रोधपिशाचः तत्राऽऽयातो दारुकं प्रत्याह- अहमेतान सुप्तान साम्प्रतं अलावु-न०(अलाबु) "बो वः" |8||237 / इति सूत्रेण बस्य भक्षयामि, यदि तवैषां रक्षणे शक्तिरस्ति तदा युद्धं कुरु / वः / प्रा०१ पाद / तुम्बे, जं० 3 वक्ष०। "अलावुगा ण भरिजति' / दारुकेणोक्तम्बाढम् / ततो लग्नं युद्धम् / यथा यथा दारुकस्तं पिशाचं नि०चू०१ उ०। हन्तुं न शक्नोति, तथा तथा तस्य क्रोधो वर्द्धते। तथा च दारुकस्य न अलाहि-अव्य०। अलाहि इति निवारणे / / 2 / 186 अलाहि इति युद्धलाभो जातः, पराभूत एव दारुकः सुप्तः / द्वितीये प्रहरे | निवारणे प्रयोक्तव्यम् / अलाहि किं वाउएण लेहेण प्रा०२ पाद। सात्यकिरुत्थितः। क्रोधपिशाचेन तथैव जितः। तृतीये प्रहरे बलदेवः।। *अलम्-अव्य० पर्याप्तौ, अलमत्यर्थं पर्याप्तः शक्तः। भ०१५ श०१उ०। Page #957 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलिउल 773 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अलियवयण अलिउल-न०(अलिकुल) भ्रमरसमूहे, क्लीबे जश्शसोःई।४।३५३। इतिजश्शसोः 'इ' इत्यादेशः।"कमलेइंमेल्लवि अलिउलेइं, करिगंडाई महंति" / प्रा०४ पाद। अलिंग-न०(अलिङ्ग) प्रधाने, (साङ्ख्यपरिकल्पितप्रकृतौ,) द्वा० 20 द्वा०॥ अलिंजर-न०(अलिञ्जर) महदुदकभाजनविशेषे, उपा०७ अ०। उदककुम्भे, स्था०४ ठा०२ उ०। अलिंदग-पु०(अलिन्दक)गृहाद् बहिाराऽग्रवर्तिछण्डिकायाम, बृ०२ उ०। नि००। अलिंदुग-न०(अलिन्दुक) छण्डत्वे, अनु०॥ अलित्त-त्रि०(अलिप्त) अकृतलेपे, अलिप्तस्य तत्त्वसमाधि भवति, पूर्णाऽऽनन्दवृत्तिरपि। अष्ट०११ अष्ट। * अरित्र-न० नौक्षे, पणकाष्ठोपकरणभेदे, आचा०२ श्रु०३ अ०१ उ०। अलिपत्त-न०(अलिपत्र) वृश्चिकपुच्छाकृतौ, विपा०१ श्रु०६ अ०। अलिय-न०(अलीक) - इति सूत्रेण ईकारस्य इत्त्वम् / प्रा०१ पाद / कषायवशाति मथ्याभाषणे, अनृतभाषणे, उत्त०१ अ०। मृषावादे, प्रव०२३७ द्वा०। स्था०। प्रश्ना दर्शा द्विधा अलीकम् अभूतोद्भावनं, भूतनिह्नवश्च / यथा- 'ईश्वरकर्तृकं जगत्' इत्याद्यभूतोद्भावनम् / 'नाऽस्त्यात्मा' इत्यादिस्तु भूतनिहवः / विशे० आ०म० नि००। अनु० मा अलीकवादजनितकर्माऽग्नौ,प्रश्न०२ आश्रद्वा० अलियनियडि सातिजोयबहुलं० अलीकः शुभफलाऽपेक्षया निष्फलो यो निकृतेर्बन्धनप्रच्छादनार्थवचनस्य (साइ त्ति) अविश्रम्भस्य च अविश्वासवचनस्य योगो व्यापारस्तेन बहुलं प्रचुरं यत् तत्तथा। प्रश्न०२ आश्रद्वा०। अलियं न भासियव्वं, अस्थि हुसचं पिजनवत्तव्यं / सचं पि होइ अलियं, जं परपीडाकरं वयणं / / 1 / / दर्श०। अलियणिमित्त-न०(अलीकनिमित्त) मृषावादप्रत्यये, व्य०२ उ०। अलियभीरु-पुं०(अलीकभीरु) सत्यवादिनि, व्य०७ उ०। अलियवयण-न०(अलीकवचन) वितथभाषणे, प्रव०४१ द्वारा यथाकिं दिवा प्रचलायसि ? इत्यादिप्रश्ने- न प्रचलयामि इत्यादिभणने, प्रव०२३५ द्वार / उत्त० स्था०। (पञ्चाऽलीकानि) अथ द्वितीयमणुव्रतं दर्शयतिद्वितीयं कन्यागोभूम्य-लीकानि न्यासनिहवः। कूटसाक्ष्यं चेति पञ्चासत्येभ्यो विरतिर्मतम्॥२६| द्वन्द्वाऽन्ते श्रूयमाणाऽलीकशब्दस्य प्रत्येकं संयोजनात् कन्या-ऽलीकं, गवालीकं, भूम्यलीकं चेति, तानि। तथा- न्यास-निहवः कूटसाक्ष्य चेति, पञ्चसंख्याकानि, अर्थात् क्लिष्टाऽऽशयसमुत्थत्वात् स्थूलाऽसत्यानि, तेभ्यो विरतिविरमणं, द्वितीयं अधिकारादणुव्रतं मतं, जिनैरिति शेषः / तत्र कन्याविषयमलीकं कन्याऽलीक द्वेषादिभिरविषकन्यां विषकन्यां, विषकन्या-मविषकन्यां वा, सुशीला वा दुःशीला, दुःशीला वा सुशीलाम्, इत्यादि वदतो भवति / इदं च सर्वस्य कुमारादिद्विपद-विषयस्याऽलीकस्योपलक्षणम् 1, गवाऽलीकम्अल्पक्षीरां बहुक्षीरां, बहुक्षीरां वाऽल्पक्षीरामित्यादि वदतः / इदमपि सर्वचतुष्पदविषयाऽलीकस्योपलक्षणम् 2, भूम्यलीकं परसक्तामप्यात्मादिसक्ताम्, आत्मादिसक्ता वा परसक्ताम्, ऊषरं वा क्षेत्रमनूषरम्, अनूषरं वोषरमित्यादि वदतः / इदं चाऽशेषाऽपदद्रव्यविषयाऽलीकस्योपलक्षणम्। यदाह- कण्णागहणं दुपयाण सूअगं चउपयाण गोवयणं / अपयाणं दव्वाणं, सव्वाणं भूमिवयणं तु // 1 // ननु यद्येवंतर्हि द्विपदचतुष्पदाऽपदग्रहणं सर्वसंग्राहकं कुतो न कृतम् ? सत्यम् / कन्याद्यलीकानां लोकेऽतिगर्हि तत्वेन रूढत्वाद् विशेषेण वर्जनार्थमुपादानम् / कन्याऽलीकादौ च भोगान्तराय-द्वेषवृद्ध्यादयो दोषाः स्फुटा एव / यत आवश्यकचूर्णा- मुसावाए के दोसा, अकजंतेवा के गुणा? तत्थ दोसा कण्णगं चेव अकण्णगं भणंतो भोगतरायदोसा, पदुट्ठा वा आतघातं करेज, कारवेज वा, एवं सेसेसुभाणिअव्या। इत्यादि। तथाऽन्यस्य ते रक्षणायाऽन्यस्मै समर्प्यते इति 3, न्यासः सुवर्णादिः, तस्या निह्नवोऽपलापस्तद्वचनं स्थूलमृषावादः / इदं चाऽनेनैव विशेषणेन पूर्वाऽलीकेभ्यो भेदेनो-पात्तम्। अस्य चाऽदत्ताऽऽदाने सत्यपि च तस्यैव प्राधान्यविवक्षणात् मृषावादत्वम् 4, कूटसाक्ष्यं लभ्यदेयविषये प्रमाणीकृतस्यलचा-मत्सरादिना कूटं वदतः। यथा- 'अहमत्र साक्षीति' अस्य च परकीयपापसमर्थकत्वलक्षणविशेषमाश्रित्य पूर्वेभ्यो भेदेनोपन्यासः 5 इति / अत्राऽयं भावार्थः - मृषावादः क्रोधमानमायालोभत्रिविधरागद्वेषहास्यभयव्रीडाक्रीडारत्यरतिदाक्षिण्यमात्सर्यविषादादिभिः संभवति / पीडाहेतुश्च सत्यवादोऽपि मृषावादः / सद्भ्यो हितं सत्यमिति व्युत्पत्त्या परपीडाकरमसत्यमेव / यतः - अलिअन भासिअव्वं, अत्थि हु सच्चं पिजंन वत्तत्वं / सच्चं पितं नसचं, परपीडाकर वयणं / / 1 / / स च द्विविधः - स्थूलः, सूक्ष्मश्च। तत्र परिस्थूलवस्तुविषयोऽतिदुष्टविवक्षा-समुद्भवश्व स्थूलः, तद्विपरीतः सूक्ष्मः / आह हि- "दुविहो अ मुसावाओ, सुहुमो थूलो अ तत्थ इह सुहमो। परिहासाइप्पभवो, थूलो पुण तिव्वसंकेसा' ||1|| श्रावकस्य सूक्ष्ममृषावादे यतना, स्थूलस्तु परिहार्य एव / तथाऽऽवश्यकसूत्रम्'थूलगमुसावाद समणोवासओ पचक्खाइ, से अ मुसावाए पंचविहे पण्णत्ते / तं जहा- कण्णालिए 1, गवालिए 2, भोमालिए ३,णासावहारे 4. कूडसक्खे अ५ इति। तचूर्णावपि- "जेण भासिएण अप्पणो परस्स वा अतीव वाघाओ अइसंकिलेसो य जायते, तं अट्ठाए वाऽणट्ठाए वा ण वएज त्ति" / एतयाऽसत्यं चतुर्द्धा- भूत-निहवः 1, अभूतोद्भावनं 2, अर्थाऽन्तरं ३,गर्हाच 4 / तत्र भूतनिहवो यथा- नाऽस्त्यात्मा, नाऽस्ति पुण्यं, नाऽस्ति पाप-मित्यादि 1, अभूतोद्भावनं, यथा- आत्मा श्यामाकतन्दुलमात्रः, अथवा सर्वगत आत्मेत्यादि 2, अर्थाऽन्तरं, यथागामश्व-मभिवदतः३, गर्हा तु त्रिधा-एकासावधव्यापारप्रवर्तिनी, यथाक्षेत्रं कृषेत्यादि 1, द्वितीया अप्रिया, काणं काणं वदतः 2, तृतीया आक्रोशरूपा, यथा- अरे ! बान्धकिनेय ! 3 / इत्यादि। ध० २अधि०। दर्शा पञ्चा० श्रा०ा अलीकवचनप्ररूपणा - जे मिक्खू लहुसयं मुसं वयइ, वदंतं वा साइज्जइ।।१६।। मुसं अलियं, लहुसयं अल्पं, तं वदओ मासलहु। तंपुण मुसंचउव्विहं - Page #958 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलियवयण 774 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अलियवयण दव्वे खेत्ते काले, भावे लहुसगं मुसं होति। एतेसिंणाणत्तं,वोच्छामि अहाणुपुष्वीए।६०। णाणत्ते विसेसो, आणुपुव्वीए दव्वादिउवन्नासकमेण वक्खाणं / इमे दव्वादि उदाहरणादव्वे वत्थपयादिसु,खेत्ते संथारवसहिमादीसु। कालेऽतीतमणागा, भावे भेदा इमे होंति / / 61 // पढमपादस्स वक्खाणंमज्झ पुणो णेस तुहं, णयावि सो तस्स दव्वतो अलियं। गोरस्संच भणंते, दव्वंभूते व जं भणति // 62|| वत्थं पायं च सहसा भणेजा- मज्झ एस, ण तुज्झं, सहसा गोः अश्वं ब्रूते, द्रव्यभूतो वा अनुपयुक्त इत्यर्थः। अहवा दव्वालियं इमंवत्थं वा पायं वा, अण्णेणुप्पाइयं तु सो पुट्ठो। भणति मए उप्पाइय, दव्वा अलियं भवे अहवा॥६३।। वत्थपात्तादि अन्नेण उग्गमिया, अण्णो भणइ- मए उप्पाइया।दव्यओ अलियं गयं। खेत्तओ (संथारवसतिमादीसु इत्यादि) अस्यव्याख्या - णिसिमादीसंमूढो, परसंथारं भणाति मज्झे णं। सो खेत्तवसही व अण्णेऽणुग्गमिया बेति तु मए त्ति॥६॥ (णिसि त्ति) राईए अंधकारसंमूढो परसंथारभूमि अप्पणो भणइ / मासकप्पपाउग्गं वा वासावासपाउग्गं वा खित्तं वसही रिउखमा अण्णेऽणुग्गमिया भणाति- मए त्ति / खित्तओ वा मुसावाओ गओ। 'कालातीतमणागए त्ति' अस्य व्याख्या - केणुवसमितो सड्ढो, मए त्ति उवसामितोऽणयाऽतीए। को णु हु तं उवसामे, अणातिसत्तो अहं एस // 65|| एको अभिग्गहमिच्छोएगेण सामिणा उवसामिओ। अन्नो साहू पुच्छिओकेणेस सड्ढो उवसामिओ? अन्नया विहरंतेण मए त्ति / अवंतीए एगो अभिग्गहमिच्छो अरिहंतसाहुपडिणीओ। साहूण य समुल्लावो-को णु तंउवसामेज ? तत्थएगो साहू अणाति सत्तो भणति- सोय अवस्संमया उवसामियव्यो। एवं एष्यकालं प्रति मृषावादः / अधवा कालं पडुच इमो मुसावादोतीतम्मि, य अट्ठम्मी, पञ्चुप्पण्णे यऽणागते चेव। विधिसुत्ते जं भणितं, भणाति णिस्संकितं भावे // 66 // तीतमणागतपडुप्पन्नेसुकालेसुजं अपरिन्नायं तं निस्संकियं भासंतस्स मुसावाओ भवति। विधिसुत्तं दसवेयालियं, तत्थ विवक्कसुद्धी। तत्थ जे कालंपडुच मुसावायसुत्ता, तेइह दट्ठव्वा / / भावे भेओ इमोति। नि०चू०२ उ०। तेषां च षण्णामपि यथाक्रममियं प्ररूपणा, तामेव प्ररूपणां चिकीर्षुरलीकवचनविषयां द्वारगाथामाह - वत्ता वयणिज्जो वा, जेसु य ठाणेसु जा विसोही य। जे य भणओ अवाया, सपडीपक्खा उणेयव्वा / / यो वक्ता अलीकवचनभाषकः, यश्च वचनीयः, अलीकवचनं यमुद्दिश्य भण्यते, येषु च स्थानेष्वलीकंसंभवति,यादृशीचतत्रशोधिः प्रायश्चित्तम्, ये चाऽलीक भणतो अपाया दोषाः, ते सप्रतिपक्षाः साऽपवादा अत्र भणनीयतया ज्ञातव्याः / इति द्वारगाथासमासार्थः / साम्प्रतं तामेव विवृणोति आयरिए अभिसेगे, भिक्खुम्मि य थेरइ य खुड्डे य। गुरुगा लहुगा गुरुलहु-भिण्णे पडिलोम बिइएणं // इहाऽऽचार्यादिर्वक्ता, वचनीयोऽपि एकैकतरः / तत इदमुच्यतेआचार्यमलीकं भणति चतुर्गुरु, अभिषेकं भणति चतुर्लघु, भिक्षु भणति मासगुरु, स्थविरं भणति मासलघु, क्षुल्लकं भणति भिन्नमासः / (पडिलोम बिइएणं ति) द्वितीयेनाऽऽदेशेनैतदेव प्रायश्चित्तं प्रतिलोम वक्तव्यम्। तद्यथा- आचार्यमलीकं भणति भिन्नमासः, अभिषेकं भणति मासलघु, एवं यावत् क्षुल्लकं भणतश्चतुर्गुरु, एवमभिषेकादीनामप्यलीक भणतां स्वस्थाने परस्थाने च प्रायश्चित्तमिदमेव मन्तव्यम्।अभिलापश्चेत्थं कर्त्तव्यः - अभिषेक-माचार्ये अलीकं भणति चतुर्लघु इत्यादि। तत् तु अलीकवचनं येषु स्थानेषु संभवति, तानि सप्रायश्चित्तानि दर्शयितुकामो द्वारगाथाद्वयमाह - पयला उल्ले मरुए, पचक्खाणाय गमणा परियाए। समुदेससंखडीओ, खुडापरिहारियमुहीओ॥ आवस्सगमणं दिसासु एगकुले चेव एगदवे य॥ पडियाखित्तागमणं,पडियाखित्ताय जणयं॥ प्रचलापदमापदं मरुकपदं प्रत्याख्यानपदं गमनपदं पर्यायपदं समुद्देशपदं संखडीपदं क्षुल्लकपदंपारिहारिकपदं (मुहीओत्ति)पदैकदेशे पदसमुदायोपचाराद्घोटकमुखीपदम्, अवश्यं गमनपदं दिग्विषयपदं, एककुलगमनपदं, एकद्रव्य-ग्रहणपदं, प्रत्याख्याय गमनपदं, प्रत्याख्याय भोजनपदं चेति द्वारगाथाद्वयसमासार्थः / अथैतदेव प्रतिद्वारं विवृणोति - पयलासि किं दिवा? ण य, पयलामिलहु दुह णिण्हवे गुरुगा। अन्नदरसितनिण्हवे, लहुगा गुरुगा बहुतराणं। कोऽपि साधुर्दिवा प्रचलायते, स चाऽन्येन साधुना भणितः - किमेवं दिवा प्रचलायसे? स प्रत्याह-न प्रचलाये, एवं प्रथम-वारं निहवानस्य मासलघु, ततो भूयोऽप्यसौ प्रचलायितुं प्रवृत्तः। तेन साधुना भणितः - मा प्रचलायिष्ठाः। स प्रत्याह-न प्रचलाये। एवं द्वितीयवारं निह्नवेमासगुरु / ततस्तथैव प्रचलायितुं प्रवृत्तः, तेनच साधुना अन्यस्य साधोदर्शितःयथैवं प्रचलायते, परं न मन्यते, ततस्तेनाऽन्येन साधुना भणितोऽपि यदि निहनुते, तदा चतुर्लघु / अथ तेन साधुना बहुतराणां द्वित्र्यादीनां साधूनां दर्शितः, तैश्च भणितोऽपि यदि निह्नते, तदा चतुर्गुरु। निण्हवणे निण्हवणे, पच्छित्तं वड्डए उ जा सपयं / लघुगुरुमासो लहुगो, लहुगादी बायरे हुंति॥ Page #959 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलियवयण 775 - अभिधानराजेन्द्रः-भाग 1 अलियवयण एव निहवने निहवने प्रायश्चित्तं वर्द्धते, यावत् स्वपदम्, पाराञ्चिकं, तद्यथा- पञ्चमं वारं निहनुवानस्य षड्लघु, षष्ठं वारं षड्गुरु, सप्तमं मूलम्, नवममनवस्थाप्यं, दशमं वारं निर्द्ववानस्य पाराञ्चिकम् / अत्र च प्रचलादिषु सर्वेष्वपि द्वारेषु यत्र यत्र लधुमासो वा भवति तत्र तत्र सूक्ष्मो मृषावादः, यत्र तु चतुर्लघुकादिकं भवति, तत्र बादरो मृषावादो भवति गतं प्रचलाद्वारम्। अथाऽऽर्द्रद्वारमाह - किं णीमि, वासमाणे, ण णीसि णणु वासबिंदवो एए। भुंजंति हीण मरुगा, कहिं ति नणु सस्सगेहेसु // कोऽपि साधुर्वर्षे पततिप्रस्थितः,स चाऽपरणे भणितः - किं वासमाणे, वर्षति निर्गच्छामि ? एवं भणित्वा तथैव प्रस्थितः। तत इतरेण साधुना भणितम्- कथं न निर्गच्छामीति भणित्वा निर्गच्छसि ? स प्राह- वासृ शब्दे, इति धातुपाठाद् / वासति शब्दायमाने यो गच्छति स वासति निर्गच्छतीत्यभिधीयते। अत्र तुनकश्चिद् वासति, किन्तु वर्षबिन्दव एते, तेषु गच्छामि / एवं छलवादेन प्रत्युत्तरं ददानस्य तथैव प्रथमवारादिषु मासलघुकादिकं प्रायश्चित्तम्।। अथ मरुकद्वारम्। कोऽपि साधुः कारणे विनिर्गत उपाश्रयमागत्य साधून भगति- साधवो यात, भुञ्जते मरुकाः / एवमुक्ते ते साधव उद्ग्राहितभाजना भणन्ति- (कहिंति त्ति) क्व ते मरुका भुञ्जते? इतरः प्राह- ननु सर्वे आत्मीयगृहेषु, एव छलेनोत्तरं प्रयच्छति। अथ प्रत्याख्यानद्वारमाह - भुजसु पचक्खातं, मए त्ति तक्खण पभुजओ पुट्ठो। किं व ण मे पंचविहा, पञ्चक्खाया अविरईओ॥ कोऽपि साधुना भोजनवेलायां भणितः - भुक्ष्व समुद्दिश / स | प्राहप्रत्याख्यातं मयेति। एवमुक्त्वा मण्डल्यां तत्क्षणादेव प्रभुक्तो, भोक्तुं प्रवृत्तः। ततो द्वितीयेन साधुना पृष्टः - आर्य ! त्वयेत्थं, भणितम्- मया प्रत्याख्यातम् ? स प्राह- किं वा मया प्राणातिपातादिका पञ्चविधा अविरतिर्न प्रत्याख्याता ? येन प्रत्याख्यानं न घटते ? अथ गमनद्वारमाह - वचसि नाहं वचे, तक्खण वच्चए पुच्छिओ भणइ। सिद्धतं न वि जाणसि, नणु गम्मइ गम्ममाणं तु // केनापि साधुना चैत्यवन्दनादिप्रयोजनेव्रजता कोऽपि साधुरुक्तः - किं त्वमपि व्रजसि ? गच्छसीत्यर्थः / स प्राह- नाऽहं व्रजामि / एवमुक्त्वा तत्क्षणादेव व्रजितुं प्रवृत्तः / तेन पूर्वप्रस्थितसाधुना पृष्टः - कथं न व्रजामीति भणित्वा व्रजसि ? स भणति- सिद्धान्तं न जानीषे त्वम्। नन्वित्याक्षेपे। भो मुग्ध ! गम्यमानमेव गम्यते, नाऽगम्यमानम्, यस्मिश्च समये त्वयाऽहं पृष्टस्तस्मिन्नाऽहं गच्छामि ? इति। अथ पर्यायद्वारमाह - एस एयस्स य मज्झ य, पुच्छिय परियाय बेइ उ छलेण / मम नवए वंदिअम्मि, भणाइबे पंचगा दसओ॥ कोऽपि साधुनाऽऽत्मद्वितीयः केनाऽपि साधुना वन्दितुकामेन पृष्टः - | कति वर्षाणि भवतां पर्यायः? इति। स एवं पृष्टो भणति- एतस्य साधोर्मम च दश वर्षाणि पर्याय इति। एवं छलेन तेनोक्ते, स प्रच्छकः साधुः - मम नव वर्षाणि पर्याय इत्युक्त्वा वन्दितुं लग्नः / इतरश्छलवादी भणतिउपविशत, भवन्तः स्वयमेव वन्दनीया इति / कथं पुनरहं वन्दनीयः ? इति तेनोक्ते, छलवादी भणति- मम पञ्च वर्षाणि पर्यायः, एतस्याऽपि साधोः पञ्च / एवं द्वेपञ्चके मीलिते दश भवन्ति। ततोयूयमावयोरुभयोरपि वन्दनीया इति भणति। अथ समुद्देशद्वारमाह - वट्टइ उ समुद्देसो, किं अत्थह कत्थ एस गगणम्मि। वटुंति संखडीओ, घरेसुनणु आउखंडणया / / कोऽपि साधुः कायादिभूमौ निर्गत्य आदित्य राहुणा ग्रस्यमानं दृष्ट्वा साधून स्वस्थान् मौनान् भणति- आर्याः ! समुद्देशो वर्तते किमेवमुपविष्टशस्तिष्ठथ ? ततस्ते साधवो नाऽयमलीकं ब्रूते इति कृत्वा गृहीतभाजनमुपस्थिताः पृच्छन्ति। कुत्राऽसौसमुद्देशो भवति? स प्राहनन्वेष गगनमार्गे सूर्यस्य राहुणा समुद्देशः प्रत्यक्षमेव दृश्यते। अथ संखडीद्वारम् / कोऽपि साधुः प्रथमालिकापानकादिनिमित्तं विनिर्गतः प्रत्यागतो भणति-प्रचुराःसंखड्यो वर्तन्ते, किमेवं तिष्ठथ? ततस्ते साधवो गन्तुकामाः पृच्छन्ति-ब्रूत ताः संखड्यः / स छलवादी भणति- तेषु तेषु गृहेषु संखड्यो वर्तन्त एव / साधवो भणन्ति- कथं ता अप्रसिद्धाः संखड्य उच्यन्ते? छलवादी भणति-नणु आउखंडणयत्तिः ननु इति आक्षेपे। पृथिव्यादिजीवानामायूंषि गृहे गृहे रन्धनादिभिरारम्भैः संखड्यन्ते, ताः कथं न संखड्यो भवन्ति ? / अथ क्षुल्लकद्वारमाह -- खुड्डग ! जणणी ते मिया, रुइए जीवइ त्ति अण्ण भणितम्मि। माइत्ता सव्वजिया, भवेसु तेणेस ते माता। कोऽपि साधुरुपाश्रयसमीपे मृतां शुनीं दृष्ट्वा क्षुल्लकमपि भणति. क्षुल्लक ! जननी तव मृता। ततः क्षुल्लकः प्ररुदितो,रोदितुंलग्नः। तमेवं रुदन्तं दृष्ट्वा स साधुराह- मा रुदिहि, जीवति ते जननी / एवमुक्ते क्षुल्लकोऽपरेच साधवो भणन्ति-कथंपूर्वं मृतेत्युक्त्वा संप्रति जीवतीति भणसि ? स प्राह- एषा या शुनी मृता, सा तव माता भवति। क्षुल्लको ब्रूते-कथमेषा मम माता? मृषावादी साधुराह- सर्वेऽपि जीवा अतीते काले तव मातृत्वेन बभूवुः। तथा च प्रज्ञप्तिसूत्रम् - "एगमेगस्सणंजीवस्स सव्वजिया माइत्ताए पिइत्ताए भायत्ताए पुत्तत्ताए धूयत्ताए भूतपुव्वा ? हंता गोयमा ! एगमेगस्स जीवस्स जीवा तहा भूतपुव्वा' / तेनैव कारणेनैषा शुनी त्वदीया मातेति / अथ परिहारिकद्वारमाह - उज्जाणे दठूणं, दिट्ठा परिहारग त्ति लहु करणे। कत्थुखाणे गुरुयं, वयंति दिढेसु लहुगुरुगा // 1 // छल्लउगा उणिउत्ते, आलोइए तम्मि छग्गुरू होति। परिहरमाणा वि कहं, अप्परिहारी भवे छेदो // 2 // किं परिहरंति णणु थाणुकंटए मूल तुज्झ सव्वे य / अहमेगो अणवटुं, बहिं पवयणस्स पारंची॥३॥ कोऽपि साधुरुधाने स्थितानवसन्नान् दृष्ट्वा प्रतिश्रयमागत्य भणति- मया परिहारिका दृष्टा इति / साधवो जानते, यथा Page #960 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलियवयण 776 - अभियानराजेन्द्रः - भाग 1 अलियवयण शुद्धपरिहारिकाः समागताः। एवं छलाऽभिप्रायेण कथयत एव मासलघु। भूयस्ते साधवः परिहारिकसाधुदर्शनोत्सुकाः पृच्छन्ति- कुत्र ते दृष्टाः ? स प्राह- उद्याने। एवं भणतो मासगुरु।ततः साधवः परिहारिकदर्शनार्थं चलिताः, व्रजन्तो यावत् न पश्यन्ति तावत्तस्य कथयतश्चतुर्लघु / तत्र गतैदृष्टष्ववसन्नेषु कथयतश्चतु-गुरु। अवसन्ना अमी इति कृत्वा निवृत्तेषु कथयतः षड्लघवः / ते साधव ईपिथिकी प्रतिक्रम्य गुरूणामालोचयन्ति- विप्रतारिता वयमनेन साधुनेति, एवं बुवाणेषु तस्य षड्गुरु आचार्यरुक्तम्-किमेव विप्रतास्यसि? सचेष्टोत्तरं दातुमारब्धःपरिहरन्तोऽपि कथमपरिहारिणो भवन्ति ? एवं ब्रुवतश्छेदः / साधवो भणन्ति- किं ते परिहरन्ति येन परिहारिका उच्यन्ते ? इतरः प्राहस्थाणुकण्टकादिकं तेऽपि परिहरन्ति, एवमुत्तरं ददतो मूलम् / ततस्तैः सर्वरपिसाधुभिरुक्तो, दुष्टोऽसियदेवंगतेऽप्युत्तरं ददासीति। ततः स प्राहसर्वेऽपि यूयमेकत्रीभूताः, अहं पुनरेकोऽसहायोऽतः पराजीये, न परिफल्गु मदीयं जल्पितम्, एवं भणतोऽनवस्थाप्यम् / अथ ज्ञानमदावलिप्त एवं ब्रवीति- सर्वेऽपि यूयं प्रवचनस्य बाह्याः, एवं सर्वानधिक्षिपतः पाराश्चिकं भवति। इदमेवाऽन्त्यपदं व्याचष्टे - किं छागलेण जंपह, किं मं कोप्पह एवऽजाणंतं / बहुएहिं को विरोहो, सलमेहिं व नागपोयस्स ?|| किमेवं छागलेन न्यायेन जल्पथ, बोकडवन्मूर्खतया किमेवमेवं प्रलपथेत्यर्थः। किञ्च-मामेवाजानतोऽपि (कोप्पह) गले धृत्वा प्रेरयथ / अथवा- एवमपि बहुभिः सह को विरोधः? शलभैरिव नागपोतस्येति। अथ घोटकमुखीद्वारमाहभणइ य दिट्ठ नियत्ते, आलोए आडं ति घोडगमुहीओ। पूरुस सव्वे एगे, सव्वे बाहिं पवयणस्स॥ मासो लहुओ गुरुओ, चउरो मासो हवंति लहुगुरुगा। छम्मासा लहुगुरुगा, छेओ मूलं तह दुगं च / / 2 / / एकः साधुर्विचारभूमौ गतः, उद्यानोद्देशे वडवाश्चरन्तीरवलोक्य प्रतिश्रयमागतः, साधून विस्मितमुखः कथयति- शृणुत, यदद्य मया यादृशमाश्चर्यं दृष्टम्। साधवः पृच्छन्ति- कीदृशम् ? स प्राह-घोटकमुख्यः स्त्रियो दृष्टाः, एवं भणतो मासलघु। ते साधव ऋजुस्वभावाश्चिन्तयन्तियथा घोटकाकारमुखमनुष्यस्त्रियोऽनेन दृष्टा इति / ततस्ते पृच्छन्तिकुत्र तास्त्वया दृष्टाः ? स प्राह- उद्याने, एवं ब्रुवतो मासगुरु / साधवो द्रष्टव्यास्ता इत्यभिप्रायेण व्रजन्ति, तदानीं कथयतश्चतुर्लघु / दृष्टासु वडवासु चतुर्गुरु। प्रतिनिवृत्तेषु साधुषुषड्लघु।गुरूणामालोचितेषड्गुरु / ततो गुरुभिः पृष्टो यदि भणति आमं, घोटकमुख्य एवैता यतो दीर्घमधोमुखं प्रमुखं वडवानां भवतीत्येवं ब्रवीति तदा छेदः / ततः साधुभिर्भणितःकथं ताः स्त्रिय उच्यन्ते ? इतरः प्रत्याह- यदि न स्त्रियस्तर्हि किं पुरुषाः? एवं ब्रुवाणस्य मूलम्। सर्वे यूयमेकत्र मिलिता, अहं पुनरेक एव, एवं भणतोऽनवस्थाप्यम् / सर्वेऽपि प्रवचनस्य बाह्या इति भणलः पाराञ्चिकम्। अथाऽन्त्यप्रायश्चित्तं प्रकारान्तरेण प्राह - सव्वेगत्था मूलं, अहगं एकल्लओ य अणवढे। सव्वे बहिमावा पवयणस्स वयमाण चरिमं तु // यूयं सर्वेऽप्यकत्र मिलिता इति भणतो मूलम्। अहमेकाकी किं करोमीति भणतोऽनवस्थाप्यम् / सर्वेऽपि यूयं प्रवचनस्य बाह्या इति वदति पाराञ्चिकम् / इदमेवाऽन्त्यपदं व्याख्यानयतिकिं छागलेण जंपह, किं मं कुप्पेह एव जाणंता। बहुएरहिं को विरोहो, सलभेहि व नागपोयस्स?|| गतार्था / अथाऽवश्यंगमनद्वारमाह - गच्छसि ण ताव गच्छं, किं खु ण जासि त्ति पुच्छितो भणति। वेला ण ताव जायति, परलोगं वा वि मोक्खं वा॥ कोऽपि साधुः केनापि साधुना पृष्टः- आर्य ! गच्छसि भिक्षाचर्याम् / स प्राह- अवश्यं गमिष्यामि। इतरेण साधुना भणितम् -यद्येवं तत उत्तिष्ठ, व्रजामः / स प्राह- न ताक्दद्यापि गच्छामि। इतरेण भणितम्- किं खुरिति वितर्के। न यासि गच्छसि, त्वया हि भणितम्- अवश्यं गमिष्यामि ? एवं पृष्टो भणति- न तावद् अद्याऽपि परलोकं गन्तुं वेला जायते, अतो न गच्छामि / यद्वा-मोक्षं गन्तुं नाऽद्यापि वेला, अतो न गच्छामि / अपिः संभावने। किं संभावयति- अवश्यं परलोकं मोक्षं वा गमिष्यामीति। अथ 'दिसासु त्ति' पदं व्याख्यानयति -- कतरि दिसि गमिस्ससि, पुव्वं अवरं गतो भणति पुवे। किं वा ण होति पुव्वा, इमा दिसा अवरगामस्स // एकः साधुरेकेन साधुना पृष्टः- आर्य ! कतरां दिशं भिक्षा- चाँ गमिष्यसि ? स एवं पृष्टो ब्रवीति- पूर्वां गमिष्यामि। ततः प्रच्छकः साधुः पात्रकाण्युद्वाह्याऽपरां दिशं गतः / इतरोऽपि पूर्वदिग्गमनाप्रतिज्ञातां तामेवापरां दिशं गतः / तेन साधुना पृष्टम्- पूर्वा गमिष्यामीति भणित्वा कस्मादपरामायातः ? स प्राह- किं वा अपरस्य ग्रामस्येयं दिक् पूर्वा न भवति? येन मदीयं वचनं निरुध्यते। अथैककुलद्वारमाह - अहमेगकुलं गच्छं, वच्चह बहुकुलपवेसणे पुट्ठो। भणति कहं दोम्मि कुले, एगसरीरेण पविसिस्सं // कश्चित् केनचिद् भिक्षार्थ समपृच्छि। तेनोक्तम्- आर्य ! एहि व्रजावो भिक्षाम्। स प्राह-व्रजत यूयमहमेकमेव कुलंगच्छामि। एवमुक्त्वा बहुषु कुलेषु प्रवेष्टु लनः। ततोऽपरेण साधुना पृष्टः- कथमेकं कुलं गमिष्यामीति भणित्वा बहूनि कुलानि प्रविशसि ? स एवं पृष्टो भणति- द्वे कुले एकेन शरीरेण युगपत् कथं प्रवेक्ष्यामि ? एकमेव कुलमेकस्मिन् काले प्रवेष्टु शक्यम्, न बहूनीति भावः / अथैकद्रव्यग्रहणद्वारमाह - वचह एगं दव्वं, घेत्थं णेगगहे पुच्छिातो भणति। गहणं तु लक्खणं पोग्गलाण गेण्हेमि तेणऽहं एगं / / कोऽपि साधुभिक्षार्थ गच्छन् कमपि साधु भणति-व्रजामो भिक्षायाम् / स प्राह- व्रजत यूयमहमे कं द्रव्यं ग्रहीष्यामि / एवमुक्त्वा भिक्षां पर्यटन्नने कानामोदनद्वितीयाङ्गादीनां बहूना द्रव्याणां ग्रहणं कुर्वन साधुभिः पृष्टो भणति- (गहणं तु० इत्यादि) गतिलक्षणो धर्मास्तिकायः, स्थितिलक्षणोऽधर्मास्ति-कायः, अवग हलक्षण आकाशास्तिकायः, उपयो गलक्षणो जीवा Page #961 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलियवयण 777 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अलियवयण ऽस्तिकायः, ग्रहणलक्षणः पुद्गलास्तिकायः / एषां च पञ्चानां द्रव्याणां मध्यात्पुद्गलानामेव ग्रहणरूपं लक्षणं, नाऽन्येषां धर्मास्ति-कायादीनाम्, तेन अहमेकमेव द्रव्यं गृह्णामि, न बहूनीति व्याख्यातं द्वितीयद्वारगाथायाः पूर्वार्द्धम् / अथ ''पडियाइखित्ताया भुंजणयत्ति" पश्चार्द्ध व्याख्यायते, प्रत्याख्याय 'नाऽहं गच्छामीति प्रतिषिध्य' गमनं करोति / प्रत्याख्याय च 'नाऽहं भुजे इति भणित्वा' भुङ्क्ते / अपरेण च साधुना पृष्टो ब्रवीतिगम्यमानं गम्यतेनाऽगम्यमानम्, भुज्यमानमेव भुज्यते नाऽभुज्यमानम् / अनेन पश्चार्द्धन गमनद्वारप्रत्याख्यानद्वारे व्याख्याते इति प्रति-पत्तव्यम्। इह सर्वत्रापि प्रथमवार भणतो मासलघु / अथाऽभि-निवेशेन वदन् निकाचयति, तदा पूर्वोक्तनीत्या पाराश्चिकं यावद्-दृष्टव्यम् / तदेवं येषु / स्थानेष्वलीक संभवति, यादृशीच यत्रशोधिः, तदभिहितम्। संप्रति ये अपायारते सापवादा इति द्वारम् / तत्राऽनन्तरोक्तान्यलीकानि भणतो द्वितीयसाधुना सह-संखडाद्युत्पत्तिः संयमाऽऽत्मविराधनारूपासप्रपञ्च सुधिया वक्तव्या। अपवाद पदं तु पुरस्ताद्भणिष्यते। बृ०६ उ०ा जीत०। अलीकवचनाख्याऽधर्मद्वारस्य व्याख्या - जंबू ! बितियं च अलियवयणं लहुसगलहुचवलभणियं भयकरदुहकरअयसकरवेरकरगं अरतिरतिरागदोसमणसंकिलेसवियरणं अलियनियडिसाइजोयबहुलं णीयजणणिसे वियं निसंसं अप्पच्चयकारगं परमसाहुगरहणिज्ज, परपीलाकारकं परमकण्हलेससहियं दुग्गतिविणिपायवड्डणं भवपुणब्भवकरं चिरपरिचितमणुगयं दुरंतं कित्तियं बितियं अहम्मदारं। 'जम्बूः!' इति शिष्याऽऽमन्त्रणवचनम्। 'द्वितीयं च' द्वितीयं पुनराश्रवद्वारम्, अलीकवचनं मृषावादः / इदमपि पञ्चभिर्यादृशकादिद्वारैः प्ररूप्यते / तत्र यादृशमिति द्वारमाश्रित्याऽलीक-वचनस्य स्वरूपमाहलधुर्गुणगौरवरहितः, स्व आत्मा येषां ते लघुस्वकाः, तेभ्योऽपि ये लघवस्ते लघुस्वकलघवः, तेच ते चपलाश्च, कायादिभिरिति कर्मधारयः / तैरेव भणितं यत्तत्तथा / तथा- भयकरं दुःखकरमयशःकरं वैरकर च यत्तत्तथा / अरति-रतिरागद्वेषलक्षणं मनःसंक्लेशं वितरति यत्तत्तथा / अलीकः शुभफलापेक्षया निष्फलो यो निकृतेर्बन्धनप्रच्छादनार्थवचनस्य, (साइत्ति) अविश्रम्भस्य च अविश्वासक्चनस्य योगो व्यापारः, तेन बहुलं प्रचुर यत्तत्तथा / नीचैर्जात्यादिहीनैः प्राय इदं निषेवितं तत् तथा / नृशंसं सूकावर्जितं, निःशंसं वा श्लाघारहितम, अप्रत्ययकारक विश्वासविनाशकम्। इतः पदचतुष्टयं कण्ठ्यम्। तथा- भवे संसारेपुनर्भवः पुनःपुनर्जन्म करोतीति, न च पुन-र्भवकरम्, चिरपरिचितमनादि संसारेऽभ्यस्तम्, अनुगत-मव्यवच्छेदेनाऽनुवृत्तं, दुरन्तं विपाकदारुणं, द्वितीयमधर्मद्वारं कीर्तितम्। एतेन यादृश इत्युक्तम्। अथ यन्नामेत्यभिधातुकाम आह - तस्य य णामाणि गोणाणि ति तीसं / तं जहाअलियं 1, सठं 2, अणज्नं 3, मायामोसो 4, असंतगं 5, कूडकवडमवत्थु 6, निरत्थयमवत्थगं च 7, विद्देसगरहणिज्जं ८,अणुजुगं 6, कक्कतकारणा य 10, वंचणा य 11, मिच्छापच्छाकडं च 12, साती 13, उच्छत्तं 14, उक्कूलं च | 15, अट्ट 16, अन्भक्खाणंच 17, किव्विसं 18, वलयं 19, गहण च 20, मम्मणं च 21, नूमं 22, नियती 23, अपचओ 24, असमओ 25, असचसंधत्तणं 26, विवक्खो 27, अवहीयं 28, उवहिअसुद्धं 26, अवलोवोत्ति अविय 30, तस्स एयाणि एवमाईणि णामधेजाणि हुंति तीसं सावजस्स अलियस्स वइजोगस्स अणेगाई। "तस्स" इत्यादि सुगमं यावत्तद्यथा - अलीकं 1, शठः, शठस्य मायिनः कर्तृत्वात् 2, अनार्यवचनत्वादनार्यः 3, मायालक्षणकषायानुगतत्वात् मृषारूपत्वाच्च मायामृषा 4, (असंतगति) असदर्थाभिधानरूपत्वादसत्यम् 5, (कूडकवडमवत्थुत्ति) कटं परवशनार्थ न्यूनाधिक भाषणं, कपटं भाषाविपर्ययकरणम्, अविद्यमानवस्त्वभिधेयोऽर्थो यत्र तदवस्तु, पदत्रयस्याप्येतस्य कथञ्चित् समानार्थत्वेनैकतमस्यैव गणनादिदमेकं नाम ६,(निरत्थयमवत्थयं चेति) निरर्थकं सत्याऽर्थात् निष्क्रान्तम्, अपार्थकम् अपगतसत्यार्थम्, इहापि द्वयोः समानार्थतया एकतरस्यैव गणनादेकत्वम्७.(विद्देसगरहणिजंति) विद्वेषो मत्सरस्तस्माद् गर्हति निन्दति येन, अथवा- तत्रैव विद्वेषाद् गति साधुभिर्यत्त-द्विद्वेषगर्हणीयमिति 8, अनृजुकं वक्रमित्यर्थः 6, कल्कं पापं माया वा, तत्कारणं कल्क माया पापं च 10, वञ्चना च 11, (मिच्छापच्छाकडं चत्ति) मिथ्येति कृत्वा पश्चात्कृतं निराकृतं न्यायवादिभिर्यत्तत्तथा 12, (सातीति) अविश्रम्भः १३.(उच्छत्तंति) अपसदं विरूपंछत्रं स्वदोषाणां परगुणानां चाऽऽवरणमपच्छत्रम्, उच्छत्रं वा न्यूनत्वम् 14, (उचूलं चत्ति) उत्कूलयति सन्मार्गापदध्वंसयति, कूलाद्वा न्यायसरित्प्रवाह-तटादूर्ध्वं यत्तदुल्कूलम् / पाठान्तरेणउत्कूलम् ऊर्ध्व धर्म-कलाया यत्तत्तथा 15 आर्तम्, ऋतस्य पीडितस्येदं वचनमिति कृत्वा 16, अभ्याख्यानं चोद्घाटनम्- असतांदोषाणामित्यर्थः 17, किल्विषं किल्विषस्य पापस्य हेतुत्वात् 18, वलयमिव वलयं, वक्रत्वात् 16, गहनमिव गहने, दुर्लक्ष्याऽन्तस्त्वात् 20, मन्मनमिव मन्मनंच, अस्फुटत्वात् 21, (नूम ति) प्रच्छादनम् 22, निष्कृतिर्मायायाः प्रच्छादनार्थं वचनम् 23, अप्रत्ययः प्रत्ययाऽभावः 24, असमयोऽसम्य-गाचारः 25, असत्यमलीकं संदधाति करोतीति असत्यसन्धः, तद्भावोऽसत्यसन्धत्वम् 26, विपक्षः सत्यस्य, सुकृतस्य चेति भावः 27, (अवहीयंति) अपसदा निन्द्या धीर्यस्मिन्तदपधीकम। पाठान्तरेण-'अण्णाइयं' आज्ञा जिनादेशमतिगच्छत्यतिक्रामति यत्तदाज्ञाऽतिगम् 28 / (उवहिअसुद्धति) उपधिना मायया अशुद्धं सावद्यमुपध्यशुद्धम् 26, अवलोपो वस्तुसद्भाव-प्रच्छादनम्, इत्येवंप्रकारर्थः। अपि चेति समुच्चयार्थः 30 / (तस्स एयाणि एवमाईणि नामधेज्जाणि हुंति सावजस्स अलियस्स वइजोगस्स अणेगाइत्ति)इह वाक्ये एवमक्षरघटना कार्या-तस्याऽलीकस्य सावद्यस्य वाग्योगस्य एतान्यनन्तरोदितानि त्रिंशत् एवमादीन्येवंप्रकाराणि चाऽनेकानि नामधेयानि नामानि भवन्तीति / यन्नामेति द्वारं प्रतिपादितम्। अथ ये यथा चाऽलीकं वदन्ति, ताँस्तथा चाऽऽह - तं च पुण वदंति के इ अलियं पावा असंजया अविरया क वडकु डिलक डु यचडु लभावा कुद्धा लुद्धा भया य Page #962 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलियवयण 778- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अलियवयण हस्सत्थिया य, सक्खीचोरा चारभडा खंडरक्खा जियपूइकरा य, गहितगहणा कक्कगुरुगकारिका कुलिंगा उवहिया वाणियगा य, कूडतुला कूडमाणा कूडकाहावणोवजीवी पडकारककलायकारुइज्जा वंचणपरा चारियचटु यारनगरगुत्तियपरिचारकदुट्ठवाइसूयक अणबलभणिया य / पुवकालियवयणदच्छा सहस्सिका लहुस्सगा असच्चा गारविया असच्चत्थावणाहिचित्ता, उच्चछंदा अणिग्गहा अणियया, छंदेण मुक्कवादी भवंति / अलियाहिं जे अविरया, अवरे णत्थिकवादिणो वामलोकवादी भणंति। (तं चेत्यादि) तत्पुनर्वदन्त्यलीकम् / (केइत्ति) केचिन्न सर्वेऽपि, सुसाधूनामलीकवचननिवृत्तत्वात् / किं विशिष्टाः पापाः पापात्मानः, असंयता असंयमवन्तः, अविरता अनिवृत्ताः। तथा(कवडकुडिलकडुयचडुलभावत्ति) कपटेन हेतुना कुटिलो वक्रः कटुकाश्च विपाकदारुणत्वात् चटुलश्च विविधवस्तुषु क्षणे क्षणे आकाङ्क्षादिप्रवृत्तेः, भावश्चित्तं येषां ते तथा। 'कुद्धा, लुद्धा' इति सुगमम्। (भया यत्ति) परेषां भयोत्पादनाय, अथवा- भयाच / (हस्सत्थिया यत्ति) हासार्थिकाश्च हासार्थिनः / पाठान्तरेण-हासार्थाय / (सक्खित्ति) साक्षिणः चौराः / चारभटाश्व प्रतीताः। (खंडरक्खत्ति) शुल्कपालाः। (जियपूइकरा यत्ति) जिताश्च ते पूतिकराश्चेति समासः। (गहियगहणत्ति) गृहीतानि ग्रहणकानि यैस्ते तथा / (कक्कगुरुगकारगत्ति) कक्कगुरुकं माया, तत्कारकाः। (कुलिंगत्ति) कु लिङ्गिणः कुतीर्थिकाः / (उवहिया वाणियगत्ति) उपधिका मायाचारिणः, वाणिजका वणिजः। किंभूताः ? कूटतुलाः, कूटमानिनः, कूटकार्षापणोपजीविन इति पदत्रयं व्यक्तम्, नवरं कापिणो द्रम्मः / (पडकारककलायकारुइजत्ति) पटकारका-स्तन्तुवायाः, कलादाः सुवर्णकाराः, कारुकेषु वरुटछिम्पकादिषु भवाः कारुकीयाः। किंविधा एते अलीकं वदन्ति ? इत्याह- वशनपराः। तथा-चारिका हैरिकाः, चटुकाराः मुखमङ्गलकराः, नगरगुप्तिकाः कोट्टपालाः, परिचारका ये परिचारणां मैथुनाभिष्वङ्ग कुर्वन्ति, कामुका इत्यर्थः / दुष्टवादिनोऽसत्पक्षग्राहिणः, सूचकाः पिशुनाः, (अणबलभणिया यत्ति) ऋणे गृहीतव्ये बलं यस्याऽसौ ऋणबलो बलवानुत्तमर्णः, तेन भणिताअस्मद् द्रव्यं देहि-इत्येवमाभिहिता ये अधमर्णास्ते / तथा / ततश्चारकादीनांद्वन्द्वः। (पुव्वकालियवयणदच्छत्ति) वक्तुकामस्य वचनाद् यत्पूर्वतर-मभिधीयते पराभिप्राय लक्षयित्वा, तत्पूर्व- कालिकं वचनं, तत्र वक्तव्ये दक्षास्ते तथा, अथवा पूर्वकालिकानामर्थानां वचने अदक्षा निरतिशयनिरागमास्ते तथा। सहसा अवितर्यभाषणे ये वर्तन्ते ते साहसिकाः, लघुस्वकाः लघुकात्मानः, असत्याः सद्भ्योऽहिताः, गौरविकाः ऋद्धयादिगौरवत्रयेण चरन्ति ये। असत्यानामसदभूतानामर्थानां स्थापनं प्रतिष्ठामधिचित्तं येषां ते असत्यस्थापनाधिचित्ताः। उच्चो महानात्मोत्कर्षणप्रवणः छन्दोऽभिप्रायो येषां ते उच्चच्छन्दाः। अनिग्रहाः स्वैराः / अनियता अनियमवन्तोऽनवस्थिता इत्यर्थः / अनिजका वा अविद्यमान-स्वजनाः, अलीकं वदन्तीति प्रकृतम् / तथा छन्देन | स्वाभिप्रायेण मुक्तवाचः प्रयुक्तवचनाः / अथवा छन्देन मुक्तवादिनः सिद्धवादिनः ते भवन्ति। के? इत्याह-अलीकाद्ये अविरताः, तथाऽपरे उक्तेभ्योऽन्ये नास्तिकवादिनो लोकायतिकाः, वाम प्रतीपं लोकं वदन्ति ये, सतां लोकवस्तूनामसत्त्वस्य प्रतिपादनात् ते वामलोकवादिनः, भणन्ति प्ररूपयन्ति। प्रश्न०२ आश्रद्वा०) तथा किमन्यद्वदन्तीत्याह - तम्हा दाणवयपोसहाणं तवसंयमबंभचेरकल्लाणमादियाणं नत्थि फलं, न वि य पाणवहअलियवयणं,नचेव चोरककरणं, परदारासेवणं वा, सपरिग्गहपावकमाइकरणं पिनस्थि किंचि, न नेरइयतिरिक्खमणुयजोणी, न देवलोका वा अत्थि, न य अत्थि सिद्धिगमणं, अम्मापियरो दि नत्थि, न वि य अत्थि पुरिसकारो, पचक्खाणमवि नस्थि, न वि यऽस्थि कालमधू, अरिहंतचक्कवट्टी बलदेवा वासुदेवा नत्थि, नेवऽस्थि केइ रिसओ, धम्माऽधम्मफलं वि न अस्थि किंचि बहुयं व, थोवं व / तम्हा एवं जाणिऊणं जहा सुबहुइंदियाणुकूलेसु सव्वविसएसु वट्टह। नत्थि काइ किरिया वा, एवं भणंति नत्थिकवादिणो / इमं पि बितियं कुदंसणं असब्भावं वादिणो पण्णवेंति मूढा- संभूओ अंडकाओ लोको, सयंभुणा सयं च निम्मिओ, एवं एतं अलियं, पयावइणा इस्सरेण य कय त्ति केइ। एवं विण्हुमयं भयाण सयं च निम्मिओ कसिणमेव य जगदिति केइ। एवमेके वदंति मोसंएको आया, अकारको वेदको य सुकयस्स य दुक्कयस्स य करणानि कारणाणि य सव्वहा सव्वहिंच। णिचो य, णिक्किओ, निग्गुणो य, अणुवलेवओ त्ति अविय। एवमाहंसु असन्मावं जंपि एहिं किंचि जीवलोके दीसंतिसुकयं वा दुक्कयं वाएयं जदिच्छाए वा, सहावेण वा पि, दयिवयप्पभावओवा वि भवति, नऽत्थितत्थ किंचि कयकं तत्तं, लक्खणविहाणं नियतिकारिया एवं के इ जंपंति, इड्डीरससायगारवपरा बहवे करणा-ऽलसा परूवेंति धम्मवीमंसएण मा से, अवरे अहम्माओ रायदुढे अभक्खाणं भणंति अलियं, चोरो त्ति अचोरियं करें। डमराओ त्ति विय एमेव उदासीणं, दुसीलो त्ति य परदारं गच्छंति त्ति मइलिंति सीलकलियं अयं पि गुरुतप्पओ त्ति अण्णे एवमेव भणंति, उवहणंति, मित्तकलत्ताई सेवंति अयं पि लुत्तधम्मो, इमो वि वीसंभघायओ पावकम्मकारी, अकम्मकारी अगम्मगामी अयं दुरप्पा बहुएसु य पातगेसु जुत्तो त्ति एवं जपंति मच्छरी भद्दके वा गुणकित्तिनेहपरलोगनिप्पिवासा। एवं एते अलियवयणदक्खा परदोसुप्पायणसंसत्ता वेटेंति, अक्खयियवीएणं अप्पाणं कम्मबंधणेण मुहरिअसमिक्खियप्पलावी निक्खेवे अवहरंति, परस्स अत्थम्मि गढियगिद्धा, अभिजुजंति य परं असंतएहिं लुद्धाय करेंति कूडसक्खित्तणं, असचा अत्थालियं च, कन्नालियंच, भोमालियंच, तहागवालियं च, गरुयं भणंति, अहरगतिगमणं, अण्णं पिय जाइरूवकुल Page #963 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलियवयण 779 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अलियवयण सीलपच्चवमायानिगुणं, चवला पिसुणं परमट्ठभेदकमसंतकं विदेसमणत्थकारकं पावकम्ममूलं दुहिँ दुस्सुयं अमुणियं निलजं लोगगरहणिज्जं वहबंधपरिकिलेसबहुलं जरामरणदुक्खसोगनेम असुद्धपरिणामसंकिलिटुं भणंति।। यस्माच्छरीरं सादिकमित्यादि, तस्माद्दानव्रतपौषधानां वितरणनियमपर्वोपवासानां, तथा- तपोऽनशनादि, संयमः वृत्त्यादि-रक्षा, ब्रह्मचर्य प्रतीतम् / एतान्येव कल्याणं कल्याणहेतु-त्वात्तदादिर्येषां ते ज्ञानश्रद्धादीनां, तानि तथा, तेषां / नाऽस्ति फलं कर्मक्षयसुगतिगमनादिक, नाऽपि च प्राणिवधाऽलीकवचनम-शुभफलसाधनतयेति गम्यम् / तथैव नैव च चौर्यकरणं, परदार-सेवनं वाऽस्त्यशुभफलसाधनम्, तथैव सह परिग्रहेण यद्वर्त्तते, तत्सपरिग्रह, तच्च तत्पापकर्मकरणं च पातकक्रियासेवन, तदपि नाऽस्ति किञ्चित्, क्रोधमानाद्यासेवनरूपा नारकादिका च जगतो विचित्रता स्व-भावादेव, न कर्मजनिता। तदुक्तम् - "कण्टकस्य च तीक्ष्णत्वं, मयूरस्य च चित्रता / वर्णाश्च तामूचूडानां, स्वभावेन भवन्ति हि" // 1 // इति मृषावादिता चैवमेतेषाम्स्वभावो हि जीवाद्यनर्थाऽन्तरभूतः, तदा प्राणातिपातादिजनितकर्म क्त्रकरोऽसावनान्तरभूतः, ततो जीव एवाऽसौ, तदव्यतिरेकात् तत्स्वरूपवत, ततो निर्हेतुका नारकादिविचित्रता स्यात्। न च निर्हेतुकं किमपि भवति, अतिप्रसङ्गादिति। तथा- न नैरयिकतिर्यड्मनुष्यजाना योनिरुत्पत्तिस्थानं पापपुण्यकर्मफल-भूताऽस्तीति प्रकृतम्। नदेवलोको वाऽस्तीति पुण्यकर्मफल-भूतः, नैवाऽस्ति सिद्धिगमनं, सिद्धेः, सिद्धस्य वाऽभावात्। अम्बापितरावपिन स्तः, उत्पत्तिमात्रनिबन्धनत्वामाता-पितृत्वस्य। न चोत्पत्तिमात्रनिबन्धनस्य मातापितृतया विशेषो युक्तः। यतः कुतोऽपि किञ्चिदुत्पद्यत एव। यथा- सचेतनात् चेतनं यूकामत्कुणादि, अचेतनंच मूत्रपुरीषादि। अचेतनाच सचेतनं, यथा-काष्ठाद घुणकीटकादी, अचेतनं च चूर्णादि। तस्माजन्यजनकभावमात्रमर्थानामस्तिनाऽन्यो मातापितृपुत्रादिविशेष इति / तदभावात्तद्भोगविनाशापमाननादिषु न दोष इति भावः / मृषावादिता चैषां वस्त्वन्तरस्य पित्रोः स्वजनकत्वे समानेऽपि तयोरत्यन्तहिततया विशेषवत्त्वेन सत्वात्। हितत्वं च तयोः प्रतीतमेव। आह च- दुष्प्रतीकारावित्यादि / नाऽप्यस्ति पुरुषकारः, तं विनय नियतितः सर्व प्रयोजनानां सिद्धेः / उच्यते च - "प्राप्तव्यो नियतिबलाश्रयेण योऽर्थः, सोऽवश्यं भवति नृणां शुभाऽशुभो वा / भूतानां महति कृतेऽपि हि प्रयन्ने, नाऽभाव्यं भवति न भाविनोऽस्ति नाशः" ||1|| मृषाभाषिता चैवमेषाम् - सकल लोकप्रतीतपुरुषकारापलापेन प्रमाणातीतनियतिमताऽभ्युपगमादिति / तथाप्रत्याख्यानमपि नाऽस्ति, धर्मसाधनतया धर्मस्यैवाऽभावादिति। अस्य च सर्वज्ञवचनप्रामाण्येनाऽस्तित्वात् , तद्वादिनामसत्यता / तथानैवाऽस्ति कालमृत्युः,तत्र कालो नाऽस्ति, अनुपलम्भात् / यद्य वनस्पतिकुसुमादिकाललक्षणमाचक्षते, तत्तेषामेव स्वरूपमिति मन्तव्यम् / असत्यं तेषामपि, स्वरूपस्य वस्तुनोऽनतिरेकात् कुसुमादिकरणमकारणं तरूणां स्यात् / तथा- मृत्युः परलोकप्रयाणलक्षणः, असावपि नास्ति, जीवाऽभावेन परलोकगमनाभावात्। अथवा कालक्रमेण विवक्षिताऽऽयुष्कर्मणः सामस्त्यनिर्जराऽवसरे मृत्युः कालमृत्युः, तदभावश्च / आयुष एवाऽभावात् / तथा- अर्हदादयोऽपि (नस्थित्ति)न सन्ति, प्रमाणाऽविषयत्वात् ।(नेवऽत्थि केइ रिसओत्ति) नैव सन्ति केचिदपि ऋषयो गौतमादिमुनयः, प्रमाणा-ऽविषयत्वादेव, वर्तमानकाले वा ऋषित्वस्य साध्वनुष्ठानस्याऽसत्त्वात्, सतोऽपि वा निष्फलत्वादिति। अत्र च शिक्षाऽऽदिप्रवाहाऽनुमेयत्वादर्हदाद्यसत्त्वस्यानन्तरोक्तवादिनामसत्यता, ऋषित्वस्याऽपि सर्वज्ञवचनप्रामाण्येन सर्वदा भावादित्येवमाज्ञाग्राह्यार्थाऽपलापिनां सर्वत्राऽसत्यवादिता भावनीयेति / तथा- धर्माऽधर्मफलमपि नाऽस्ति किञ्चिद्, बहुकं वा स्तोकं वा / धर्माऽधर्मयोरदृष्टत्वेन नाऽस्तित्वात्। 'नत्थि फलं सुकए" इत्यादि यदुक्तं प्राक, तत् सामान्यजीवाऽपेक्षया, यच्च "धम्माऽधम्म'' इत्यादि, तविशेषाऽपेक्षयेति, न पुनरुक्ततेति / (तम्ह ति) यस्मा-देवं तस्मादेवमुक्तप्रकारं वस्तु विज्ञाय (जहा सुबहुइंदियाणुकूलेसु त्ति) यथा यत्प्रकारा सुबहुधा अत्यर्थमिन्द्रियाऽनुकूला ये ते तथा, तेषु सर्वेषु, विषयेषु वर्तितव्यम् / नाऽस्ति काचित् क्रिया वा अनिन्द्यक्रिया वा पापक्रिया वा, उभयक्रिययोरास्तिककल्पितत्वेनाऽपरमार्थिकत्वात् / भणन्तिचपिब खाद च चारुलोचने!,यदतीतं वरगात्रि! तन्नते। नहि भीरु ! गतं निवर्तते, समुदयमात्रमिदं कलेवरम्।।१।। एवमित्यादिनिगमनम्। तथा- इदमपि द्वितीयं नास्तिकदर्शना-उपेक्षया कुदर्शनं कुमतमसद्भावं वादिनः प्रज्ञापयन्ति मूढाः व्यामोहवन्तः / कुदर्शनताच वक्ष्यमाणस्यार्थस्याऽप्रामाणिकत्वाद्वादिप्रोक्तप्रमाणस्य प्रमाणाभासत्वाद् भावनीया। किंभूतं कुदर्शनम् ? इत्याह- सम्भूतो जातोऽण्डकाद् जन्तुयोनिविशेषाद् लोकः, क्षितिजलाऽनलाऽनिलनरनारकिनाकितिर्यगृपः / तथा स्वयंभुवा ब्रह्मणा स्वयं चाऽऽत्मना निर्मितो विहितः। तत्राऽण्डकप्रभूतभुवनवादिनो मतमित्थमाचक्षतेपुव्यं आसि जगमिणं, पंचमहब्भूयवञ्जियं गभीरं। एगण्णवं जलेणं, महप्पमाणं तहिं अंड।।१।। वीईपरंपरेणं, घोलंतं अस्थि उ सुइरकालं। फुट्ट दुभागजायं अज्झं भूमी य संयुत्तं / / 2 / / तत्थ सुरासुरनारग-समणुय सचउप्पयंजगं सव्वं / उप्पण्णं भणियमिणं, बंभंडपुराणसत्थम्मि // 3 // तथा स्वयंभूनिर्मितजगद्वादिनो भणन्ति - आसीदिदं तमोभूत- मप्रज्ञातमलक्षणम्। अवितर्कामविज्ञेयं, प्रसुप्तमिव सर्वतः॥१॥ तस्मिन्नेकार्णवीभूते, नष्ट स्थावरजङ्गमे। नष्टामरनरे चैव, प्रनष्टोरगराक्षसे // 2 // केवलं गहरीभूते, महाभूतविवर्जिते। अचिन्त्यात्मा विभुस्तत्र, शय्यानस्तप्यते तपः // 3|| तत्र तस्य शय्यानस्य, नाभेः पद्यं विनिर्गतम्। तरुणरविमण्डलनिभं, हृद्यं काश्चनकर्णिकम् / / 4 / / तस्मिन्पो स भगवान्, दण्डी यज्ञोपवीतसंयुक्तः। ब्रह्मा तत्रोत्पन्नतेन जगन्मातरः सृष्टाः / / 5 / / अदितिः सुरसंघानां, दितिरसुराणां मनुमनुष्याणाम्। विनता विहङ्गमाना, माता सर्वप्रकाराणाम् / / 6 / / नकुलादीनामित्यर्थः / कद्रूः सरीसृपाणां, सुलसा माता च नागजातीनाम्। सुरभिश्चतुष्पदाना-मिला पुनः सर्वबीजानाम् / / 7 / / इति / Page #964 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलियवयण 780 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अलियवयण एवमुक्तक्रमेण एतदनन्तरोदितं वस्तु अलीकं, भ्रान्तज्ञानिभिः प्ररूपितत्वात् / तथा- प्रजापतिना लोकप्रभुणा ईश्वरेण च महेश्वरेण कृतं विहितमिति के चिद्वादिनो वदन्तीति, प्रकृतम् / भणन्ति चेश्वरवादिनः - बुद्धिमत्कारणपूर्वक जगत, संस्थानविशेषयुक्तत्याद् | घटादिवदिति। कुदर्शनता चाऽस्यवल्मीकबुबुदादिभिर्हेतोरनैकान्तिकत्वात् / कुलालादितुल्यस्य बुद्धिमत्कारणस्य साधनेन चेष्टविघातकारित्वादिदि / तथा- एवं यथेश्वरकृतं तथा विष्णुमयं विषण्वात्मकं कृत्स्न मेव च जगदिति, केचिद्वदन्तीति प्रकृतम्। भणन्ति चएतन्मतावलम्बिनः, यथा - जले विष्णुः स्थले विष्णुः, विष्णुः पर्वतमस्तके। ज्वालमालाकुले विष्णुः, सर्व विष्णुमयं जगत्॥१॥ तथा च-अहं च पृथिवी पार्थ!, वाय्वग्निजलमप्यहम्। वनस्पतिगतश्चाऽहं, सर्वभूतगतोऽप्यहम्॥१॥ सो किल जलयसमुत्थेणुदएणेगण्णवम्मि लोगम्मि। वीईपरंपरेणं, घोलंतो उदयमज्झम्मि।।१।। सकिल मार्कण्डेय ऋषिः - मिच्छइ सो तसथावर- पणट्ठसुरनरतिरिक्खजोणीयं। एगण्णवं जगमिणं, महभूयविवज्जियं गहरं / / 2 / / एवंविहं जगम्मी, पिच्छइ नग्गोहपायवं सहसा। मंदरगिरिव तुंगं, महासमुदं वऽविच्छिन्नं / / 3 / / खंधम्मि तस्स सयणं, अच्छइ तह बालओ मण भिरामो। संचिट्ठो सुद्धहिओ, मिउकोमलकुंचियसुकेसो।।४।। विष्णुरित्यर्थः। हत्थो पसारिओ से, महरिसिणो एहि वच्छ ! भणिओ य। खंधे ममं विलजसु, मामरिहिसि उदयवुड्डीए।।५।। तेण य घेत्तुं हत्थे, मिलिओ सो रिसी तओ तस्स। पिच्छइ उदरम्मि जयं, ससेलवणकाणणं सव्वंति॥६॥ पुनः सृष्टिकाले विष्णुना सृष्टम्। कुदर्शनता चास्य प्रतीतिबाधत्वात्। तथा- एवं वक्ष्यमाणन्यायेन एव केचन आत्माऽद्वैतवाद्यादयो वदन्तिमृषा अलीकं, यदुत एक आत्मा। तदुक्तम्- "एक एव हि भूतात्मा, भूते भूते व्यवस्थितः। एकधा बहुधा चैव, दृष्यते जलचन्द्रवत्" ।।१।।तथा"पुरुष एवेदं सर्व, यद् भूतं यच्च भाव्यम्" इत्यादि। कुदर्शनता चाऽस्य सकल-लोकविलोक्यमानभेदनिबन्धनव्यवहारोच्छेदप्रसङ्गात्। तथा- अकारणः सुखहेतूनां पुण्यपापकर्मणामकर्ताऽऽत्मेत्यन्ये वदन्ति, अमूर्तत्वनित्यत्वाभ्यां कर्तृत्वानुपपत्तेरिति / कुदर्शनता चाऽस्य संसार्यात्मनो मूर्तत्वेन परिणामित्वेन च कर्तृत्वोपपत्तेः, अकर्तृत्वे चाऽकृताभ्याऽऽगमप्रसङ्गात्। तथा-वेदकश्च प्रकृत-जनितस्य सुकृतदुष्कृ तस्य च प्रतिबिम्बोदयन्यायेन भोक्ता। अमूर्तत्वे हि कदाचिदपि वेदकता न युक्ता, आकाशस्येवेति कुदर्शनता चाऽस्य। तथा सुकृतदुष्कृतस्य च कर्मणः करणानि इन्द्रयाणि कारणानि हेतवः सर्वथा सर्वप्रकारैः, सर्वत्र च देशे काले च, न वस्त्वन्तरं कारणमिति भावः / करणान्येकादशतत्र वाक्पाणिपाद पायूपस्थलक्षणानि पञ्च कर्मेन्द्रियाणि, स्पर्शनादीनि तु पश बुद्धीन्द्रियाणि, एकादशं च मन इति / एषां चाऽचेतनाऽवस्थायामकारकत्वात् पुरुषस्यैव कारकत्वेन कुदर्शनत्वमस्या तथानित्यश्वाऽसौ। यदाह- "नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः। न चैनं क्लेदयन्त्यापो, न शोषयति मारुतः / / 1 / / अच्छेद्योऽयमभेद्योऽयममूर्तोऽयं सनातनः" / इति। असचैत्, एकान्तनित्यत्वे हि सुखदुःख-बन्धमोक्षाद्यभावप्रसङ्गात्। तथा-निष्क्रियः सर्वव्यापित्वे- नाव-काशाभावाद् गमनागमनादिक्रिया-वर्जितः / असञ्चैतत्देहमात्रोपलभ्यमानतद्गुणत्वेन तन्नियतत्वात्। तथा- निर्गुणश्च, सत्त्यरजस्तमो-लक्षणगुणत्रयव्यतिरिक्तत्वात्, प्रकृतेरेव ह्येते गुणा इति। यदाह- "अकर्ता निर्गुणो भोक्ता, आत्मा कपिलदर्शने'। इति। असिद्धता चाऽस्य सर्वथा निगुणत्वे, चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपमित्यभ्युपगमात्।तथा(अणुवलेवओत्ति) अनुपलेपकः कर्मबन्धनरहितः। आह च-'यस्मान्न बध्यते नाऽपि, मुच्यते नाऽपि संसरन्" / संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृतिः, इति / असचैतत् -मुक्तामुक्तयोरेवमविशेषप्रसङ्गात्। पाठान्तरम् -(अन्नोवलेवओ त्ति) अत्र अन्यश्वापरो लेपनः, कर्मबन्धनादिति / एतदप्यसत्-कथचिदितिशब्दानुपादानात् / -इती रूपप्रदर्शने, अपिचेति-अलीकवादान्तरसमुच्चयार्थः / तथा- एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण (आहंसुत्ति) उच्यतेस्म, असद्भावमसन्तमर्थ, यदुत यदपि यदेव सामान्यतः, सर्वमित्यर्थः, इहाऽस्मिन्, किश्चिदविवक्षितविशेष, जीवलोके मर्त्यलोके, दृश्यते सुकृतं वा आस्तिकमतेन सुकृतफलं, सुखमित्यर्थः / दुष्कृतं वा दुष्कृतफलं, दुःखमित्यर्थः / एतत् (जइच्छाए वत्ति) यदृच्छया वा, स्वभावेन वाऽपि, दैवकप्रभावतो वाऽपि विधिसामर्थ्यतो वाऽपि भवति, न पुरुषकारः कर्म वा, हिताहितनिमित्तमिति भावः। तत्र- अनभिसन्धिपूर्विकाऽर्थप्राप्तिः यदृच्छा / पठ्यते च"अतर्कितोपस्थितमेव सर्वं, चित्रंजनानां सुखदुःखजातम्। काकस्य तालेन यथाऽभिधातो, न बुद्धिपूर्वोऽत्रवृथाऽभिमानः" ||1|| तथा- सत्यं पिशाचस्य वने वसामो, भेरी कराग्रैरपि नस्पृशामः। यदृच्छया सिद्ध्यति लोकयात्रा, भेरी पिशाचाः परिताडयन्ति॥१॥ निःस्वभावः पुनर्वस्तुनः, स्वत एव तथा परिणमति इति भावः। उक्तंच - "कः कण्टकानां प्रकरोति तैक्षण्यं, विचित्रभावं मृगपक्षिणां च / स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्तं, न कामचारोऽस्ति कुतः प्रयत्नः?" ||1|| इति। दैवं तु विधिरिति लौकिकी भाषा / तत्रोक्तम्- "प्राप्तव्यमर्थं लभते मनुष्यः, किं कारण दैवमलङ्गनीयम् / तस्मान्न शोचामि न विस्मयो मे, यदस्मदीयं नहि तत्परेषाम्" ||1|| तथा- "द्वीपादन्यस्मादपि, मध्यादपि जलनिधेर्दिशोऽप्यन्तात्। आनीय झटिति घटयति, विधिरभिमतमभिमुखीभूतः" / / 1 / / इति / असद्भूतता चाऽत्र प्रत्येकमेषां जिनमतप्रतिकूलत्वात्। तथाहि-"कालो सहाव नियई, पुव्वकयं पुरिसकारणेगता। मिच्छत्तं ते चेव उ, समासओ हुतिसम्मत्तं " // 1 // इति। तथा- नाऽस्ति, न विद्यते, तत्र लोके किञ्चिच्छुभमशुभं वा, कृतकं पुरुषकारनिष्पन्नकृतं च कार्य, प्रयोजनमित्यर्थः / पाठान्तरेण- "नस्थि किंचि कयकं तत्तं'। तत्र तत्त्वं वस्तुस्वरूपमिति। तथा- लक्षणानि वस्तुस्वरूपाणि विविधाश्च भेदा लक्षणविधास्तासां लक्षणविधानां, नियतिश्च स्वभावविशेषश्च कारिका की, सा च पदार्थानामवश्यतया। तद्यथा-भवने प्रयोजयित्री, भवितव्यतेत्यर्थः। अन्ये त्वाहु:- यतः मुद्गादीनां राधिस्वभाव-त्वमितरचाऽतत्स्वभावत्वम् / यच राद्धावपि नियतरसत्वं, न शाल्यादिरसता, सा नियतिरिति / "नहि भवति यन्न भाव्य, भवति च भाव्यं विनाऽपि यत्नेन / करतलगतमपि नश्यति, यस्य तु भवितव्यता नास्ति' / / 1 / / असत्या चाऽस्य पूर्ववत् / एवमित्युक्त-प्रकारेण, केचिन्नास्तिकादयो जल्पन्ति / ऋद्धिरससातगौरवपराः, ऋद्ध्यादिषु गौरवमादरस्तत्प्रधाना इत्यर्थः / बहवः प्रभूताः करणालसाश्चरणालसा धर्म प्रति अनुद्यमाः, स्वस्य परेषां च चित्ताश्वासनिमित्तमिति भावः तथा प्ररूपयन्ति / धर्मविमर्शकण धर्मविचारणेन / (मोसं ति) मृषा पारमार्थिकधर्ममपिस्वबुद्धि दुर्विलसितेनाऽधर्म स्थापयन्ति / Page #965 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अलियवयण 781 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अलियवयण एतद्विपर्ययं चेति भावः / इह च संसारमोचकादयो निदर्शनमिति। तथा- (असंतगं ति) असत्कर्मविद्यमानार्थम्, असत्य-मित्यर्थः / असत्त्वकंवा अपरे के चन, अधर्म-तोऽधर्ममङ्गीकृत्य राजदुष्ट नृपविरुद्धम् - सत्त्वहीन, विद्वेष्यमप्रियम्, अनर्थकारकं पुरुषार्थोपघातकं, पापकर्ममूलं 'अभिमरोऽयमित्या-दिकम् अभ्याख्यानं परस्याभिमुखं दूषणवचनं, क्लिष्टज्ञानावरणादिबीजं, दुष्टमसम्यक् दृष्ट दर्शनं यत्र तद् दुर्दृष्टभ, दुष्ट भणन्ति ब्रुवते, अलीकमसत्यम् / अभ्याख्यानमेव दर्शयिमुमाह- चौर श्रुतं श्रवणं यत्र तद्दुःश्रुतं, नाऽस्ति मुणितं ज्ञानं यत्र तदमुणितम्, निर्लज्ज इति भणन्तीति प्रकृतम् / के प्रति ? इत्याह- अचौर्य कुर्वन्तं चौर- लज्जारहितं, लोकगर्हणीय प्रतीतम, वधबन्धपरिक्लेशबहुलं। तत्र- वधो तामकुर्वाणमित्यर्थः / तथा- डामरिको विग्रहकारीति / अपिचेति यष्टयादिभिस्ताडनं,बन्धः संयमनं, पारक्लेश्यमुपतापः, ते बहुलाः प्रचुरा समुच्यये / भणन्तीति प्रकृतमेव। (एमेव त्ति) एवमेव चौरादिकं प्रयोजनं यत्र तत्तथा। भवन्ति चैते असत्यवादिनामिति। जरामरणदुःखशोकनेमम् विनैव, कथंभूतं पुरुषं प्रति ? इत्याह- उदासीनं डामरादीनामकारणम्। जरादीनां मूलमित्यर्थः / अशुद्धपरिणामेन संक्लिष्टं संक्लेशवत्तत्तथा तथा दुःशील इति च हेतोः परदारान् गच्छतीत्येवमभ्याख्यातेन भणन्ति ! के ते भणन्ति? इत्याह - मलिनयन्ति नाशयन्ति, शीलकलितं सुशीलतया परिहारविरतम्। अलियाहिसंधिसंनिविट्ठा असंतगुणुदीरगा य संतगुणनासका तथा- अयमपि न केवलं स एव गुरुतल्पक इति दुर्विनीत इति / अन्ये य हिंसाभूतोवघातियं अलियसंपउत्ता वयणं सावज्जमकेचन, मृगावादिनः, एवमेव निष्प्रयोजनं भणन्ति, उपघ्नन्तः कुसलं साहुगरहणिज्जं अधम्मजणणं भणंति / अणमिगहियविध्वंसयन्तः तवृत्ति-कीर्त्यादिकमिति गम्यते। पुण्णपावा पुणो य अहिकरणकिरिया पवत्तका बहुविहं अनत्थं तथा-मित्रकलत्राणि सेवते सुहृद्दारान् भजते, अयमपिन केवलमसौ, अवमई अप्पणो परस्स य करेंति / एवमेव जंपमाणा, महिसे पुनर्लुप्तधर्मा विगतधर्म इति / (इमो वि त्ति) अयमपि विश्रम्भघातकः सूकरे साहितिघायकाणं, ससपसयरोहिए य साहिति वागुरीणं, पापकर्मकारीति वक्तव्यम् / अकर्मकारी स्वभूमिकाऽनुचितकर्मकारी, तित्तिरवट्टकलावके य कविंजलकवोयके य साहिति सउणीणं, अगम्यगामी भगिन्याद्यभिगन्ता, अयं दुरात्मा (बहुएसु य पातगेसु त्ति) झसमगरकच्छभे य साहिति मच्छियाणं, संखंके खुल्लए य बहुभिश्च पातकैर्युक्त इत्येवं जल्पन्ति, मत्सरिण इति व्यक्तम् / भद्रके वा साहिंति मकराणं, अयगरगोणसमंडिलिदव्वीकरमउली य निर्दोषे विनयादिगुणयुक्ते पुरुषे वा, शब्दभद्रके वा, एवं जल्पन्तीति साहिति वालिपाणं, गोहा सेहा य सल्लगसरडके य साहिति प्रक्रमः। किंभूतास्ते? इत्याह- गुण उपकारः, कीर्तिः प्रसिद्धा, स्नेहः लुद्धगाणं, गयकु लवानरकु ले य साहिति पासियाणं, प्रीतिः, परलो को जन्मान्तरम्, एतेषु निष्पिपासा निरा- सुकबरहिणमयणसालकोइलहंसकु ले सारसे य साहिति काङ्गाः एते। तथा-एवमुक्तक्रमेण, एतेऽलीकवचनदक्षाः, परदोषोत्पादन- पोसगाणं, वधबंधजायणं च साहितिगोम्मियाणं, धणधन्नगवेलए प्रसक्ताः, वेष्टयन्तीति पदत्रयं व्यक्तम् / अक्षतिक-बीजेन अक्षयेण य साहिति तकराणं, गामे नगरपट्टणे य साहिंति चोरियाणं, दुःखहेतुनेत्यर्थः। आत्मानं स्वं, कर्मबन्धनेन प्रतीतेन,(मुहरित्ति)मुखमेव पारघातियपंथघातियाओ साहितिगंथिभेयाणं, कयं च चोरियं अरिः शत्रुरनर्थकारित्वाद्येषां ते मुखारयोऽसमीक्षित- णगरगुत्तियाणं साहिति, लंछणनिल्लंछणधमणदुहणपोसणप्रलापिनः,अपर्यालोचितानर्थकवादिनः। निक्षेपान् माषकानपहरन्ति, वणणदुवणवाहणादियाइं साहिंति बहूणि गोमियाणं, परस्य संबन्धिनि अर्थे द्रव्ये ग्रथित-गृद्धाः अत्यन्तगृद्धिमन्तः / तथा धाउमणिसिलप्पवालरयणागरे य साहिति आगरीणं, पुप्फविहिं अभियोजनन्ति च परमसद्भिः , दूषणैरिति गम्यम् / तथा लुब्धाश्च च फलविहिं च साहिति मालियाणं, अत्थमहुकोसए य साहिति कुर्वन्ति कूटसाक्षित्वमिति व्यक्तम् / तथा- जीवानामहितकारिणः, वणचराणं,जंताई, विसाई,मूलकम्मआहेवणआमिओगजणअर्थालीकं च द्रव्यार्थ-मसत्यं, भणन्तीति योगः। कन्यालीकं च णाणि चोरियाए परदारगमणस्स बहुपावकम्मकरणो अवक्कंदणे कुमारीविषयमसत्यं, भूम्यलीकं च प्रतीतम्। तथा- गवालीकं च प्रतीतं, गामघातिए वणदहणतडागमेयणए बुद्धिविसए वसीकरण गुरुकं बादरं स्क्स्य जिह्वाच्छेदाद्यनर्थकरं, परेषां च गाढोपतापादिहेतुं, भयमरणकिलेसुव्वेगजणिआई भावबहुसंकिलिट्ठमलिणाणि भणन्ति भाषन्ते / इह कन्याऽऽदिभिः पदैर्द्विपदाऽपदचतुष्पदजातय भूयघाओवधाइयाई सच्चाणि विताइं हिंसकाईवयणाइं उदाहरंति उपलक्षणत्वेन संगृहीता द्रष्टव्याः। पुट्ठा वा अपुट्ठा वा, परतत्तिवावडा य असमिक्खियमाणिणो कथंभूतं तत् ? इत्याह- अधरगतिगमनम्, अधोगतिगमन-कारणम्, उवदिसंतिसहसा उट्टा गोणा गवया दमंतु, परिणयवया अस्सा अन्यदपि चोक्तव्यतिरिक्त, जातिरूपकुलशीलानि प्रत्ययकारणं यस्य हत्थीगवेलगकुक्कड़ा य किजंतु, किणावेध य, विक्केह, पचह, तत्तथा, तच्च मायया निगुणं निहतगुणं इति समासः / तत्र जातिकुलं सयणस्स देह, पीयह दासीदासमयकभा-इल्लगा य सिस्सा य मातापितृपक्षः, तेहेतुकं च प्रायोऽलीकं संभवति, यतो जात्यादिदोषात् पेसकजणा कम्मकरा किंकरा य एए सयणपरिजणे य कीस केचिदलीकवादिनो भवन्ति। रूपमाकृतिः, शील स्वभावः, तत्प्रत्ययस्तु अत्थंति भारिया भे करेतु कम्मं, गहणाई वणाइं खित्तखिलभवत्येव, प्रशंसा-निन्दाविषयत्वेन वा जात्यादीनामलीकप्रत्ययता भूमिवल्लराइं उत्तणघणसंकडाई डज्झंतु य सूडिज्जंतु य रुक्खा भावनीयेति। कथंभूतास्ते ? चफ्लाः मनश्चापल्यादिना। किंभूतं तत् ? मिजंतु जंतं भंडाइयस्स उवहिस्स कारणाए, बहुविहस्सय अट्ठाए पिशुनं परदोषाविष्करणरूपम्, परमार्थभेदकं मोक्ष-प्रतिघातकम्।। उच्छु दुजंतु, पीलियतु य तिला, पचावेह इट्ठकाओ मम Page #966 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलियवयण 782 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अलियवयण धरयाए, खेत्ता य कसत, कसावेह वा, लह, गामनगरखेडकब्बडं संनिवेसेह अडवीदेसेसु विपुलसीम, पुप्फाणि कदमूलाई कालपत्ताई गिण्ह, करेह संचयं परिजणस्सऽट्ठयाए, सालीवीहीजवा य लुचंतु मलिज्जंतु उप्पूयंतु य, लहुंच पविसंतु कोट्ठागारं, अप्पमहक्कोसगा यहणंतु पोतसत्था, सेणा णिज्जाउ, जाउ डमरं, घोरा वटुंतु, जयंतु य संगामा, पवहंतु य सगडवाहणाई, उवणयणं चोलग विवाहो जन्नो अमुगम्मि होउ दिवसे सुकरणे सुमुहुत्ते सुनक्खत्ते सुतिहिम्मि य अज्ज होउ ण्हवणं, मुदितं बहुखजपेजकलियं को उकविण्हावणसंतिकम्माणि कुणह, ससिरविगहोवरागविसमेसु, सजणस्स परिजणस्स य निययस्स स जीवियस्स परिरक्खणट्ठयाए परिसीसकाइं च देह, देह य सीसोवहारे विविहोसहिमज्जडं सभक्खअण्णपाणमल्लाणुलेवण-पदीवजलिउज्जला सुगंधधूवोवयारपुप्फ फलसमिद्धे, पायच्छिरो करेह, पाणातिवायकरणेन बहुविहेण विवरीउप्पायदुसुविणपावसउएणअसोम ग्गहचरियअमंगलनिमित्तपडिघायहे उं वित्तिच्छेयं करेह, मा देह किंचि दाणं,सुटूठ हण हण, सुठु छिण्णो भिण्णो त्ति उवदिसंता, एवंविहं करें ति अलियं मणेणं | वायाए कम्मुणा य। अलीके योऽभिसंधिरभिप्रायस्तत्र निविष्टा अलीकाऽभि सन्धिनिविष्टाः, असद्गुणोदीरकाश्चेति व्यक्तम् / सद्गुण-नाशकाच, तदपलापका इत्यर्थः / तथा- हिंसया भूतोपघातो यत्राऽस्ति तद् हिंसाभूतोपधातिक, वचनं भणन्तीति योगः / अलीकसंप्रयुक्ताः संप्रयुक्तालीकाः, कथंभूतं वचनम् ? सावधं गर्हितं गर्हितकर्मयुक्तम् / अकुशलं, जीवानामकुशलकारित्वात्, अकुशलनरप्रयुक्तत्वाद्वा। अत एव साधुगर्हणीयम्, अधर्मजननं, भणन्तीति पदत्रयं प्रतीतम् / कथंभूताः ? इत्याह- अनधिगतपुण्यपापाः अविदितपुण्यपाप-कर्महतव इत्यर्थः / तदधिगमे हि नाऽलीकवादे प्रवृत्तिः संभवति / पुनश्चअज्ञानोत्तरकालम्, अधिकरणविषया या क्रिया व्यापारस्तत्प्रवर्तकाः। तत्रा-ऽधिकरणक्रिया द्विविधा- निवर्तनाधिकरणक्रिया, संयोजना- / ऽधिकरणक्रि या च / तत्राऽऽद्या- खड्गादीनां तन्मुष्ट्यादीनां निवर्तनलक्षणा, द्वितीया तु तेषामेव सिद्धानां संयोजनलक्षणेति। अथवादुर्गतौ यकाभिरधिक्रियते प्राणी, ताः सर्वाः अधिकरण-क्रिया इति, बहुविधमनर्थमनर्थहेतुत्वाद् अपमर्दमुपवर्तनम्, आत्मनः परस्य च कुर्वन्ति, एवमेव अबुद्धिपूर्वकं, जल्पन्तो भाषमाणाः / एतदेवाऽऽहमहिषान् शूकरांश्च प्रतीतान्, साधयन्ति प्रतिपादयन्ति, घातकानां तद्धिसकानाम्, शशप्रशयरोहितांश्च साधयन्ति वागुरिणां, शशादय आटव्याश्च-तुष्पदविशेषाः, वागुरामृगबन्धनं, साएषामस्ति ते वागुरिणः। तित्तिरवर्तकलावकाश्च कपिञ्जलकपोतकांश्च पक्षिविशेषान् साधयन्ति, शकुनेन श्येनादिना मृगयां कुर्वन्तीति शाकुनिकास्तेषाम, 'सउणीणं' इति च प्राकृतत्वात्। झषमकरान् कच्छपांश्च जलचरविशेषान् साधयन्ति, | मत्स्याः पण्यं येषां ते मात्सिकास्तेषाम्, (संखंक त्ति) शखाः प्रतीताः, अड्काश्च रूढिगम्याः, अतस्तान्, क्षुल्लकांश्च कपर्दकान्, साधयन्ति मकरा इव मकरा जलविहारित्वाद् धीवराः, तेषाम् / पाठान्तरे'मग्गिराणं' मार्गयतां तद्गवेषिणाम् / अजगरगोनसमण्डलिदी करमुकुलिनश्च साधयन्ति, तत्र अजगरादयः उरगविशेषाः, दर्वीकराः फणाभृताः, मुकुलिनस्तदितरे, व्यालान् भुजङ्गान्पान्तीति व्यालपास्ते विद्यन्ते तेषां ते व्यालपिनः, तेषाम्। अथवा-व्यालपानमत्र प्राकृतत्वेन "पालवीति'' प्रतिपादितम् / वाचनान्तरे- वालियाणंति' दृश्यते। तत्र व्यालै श्चरन्तीति, वैयालिकानामिति / तथा- गोधाः सेहाश्च शल्यकशरटकांश्च साधयन्तीति लुब्धकानां, गोधादयो भुजपरिसर्पविशेषाः, शरटकाः कृकलासाः / गजकुलवानरकुलानि च साधयन्ति पासिकानां कुलं कुटुम्ब, यूथमित्यर्थः / पाशेन बन्धनविशेषण चरन्तीति पाशिकास्तेषाम् / तथा- शुकाः कीराः, बर्हिणो मयूराः, मदनशालाः शारिकाः, कोकिलाः परभृतः, हंसाः प्रतीताः, तेषां यानि कुलानि वृन्दानि तानि, तथा- सारसांश्च साधयन्ति, सोषकाणां पक्षिपोषकाणामित्यर्थः। तथा- वधस्ताडनं, बन्धः संयमन, यातनं च कदर्थन मिति समाहारद्वन्द्वः / तच साधयन्ति गौल्मिकाना गुप्तिपालानाम् / तथा- धनधान्यगवेलकाश्च साधयन्ति, तस्कराणामिति प्रतीतम् / किंतु गावो बलीवर्दसुरभयः, एलकाः उरभ्राः / तथाग्रामनगरपत्तनानि साधयन्ति चौरिकाणाम, नकरं करवर्जितम् , पत्तनं द्विविधम्- जलपत्तनं, स्थलपत्तनं च / यत्र जलपथेन भाण्डानामागमस्तदाद्यम्, यत्र च स्थलपथेन तदितरत् / चौरिकाणां प्रणिधिपुरुषाणाम् / तथा- पारे पर्यन्ते मार्गे घातिका गन्तृणां हननं पारघातिकाः (पंथघाइयत्ति) पथि मार्गे, अर्द्धपथे इत्यर्थः / घातिका गन्तृणां हननं, पथिघातिकाः, अनयोर्द्वन्द्वोऽतस्ते साधयन्ति च ग्रन्थिभेदानां चौरविशेषाणां, कृतां च चौरिकां चोरणं, नगरगुप्तिकानां नगररक्षिकाणां, साधयन्तीति वर्तते / तथा-लाञ्छनं कर्णादिकर्त्तनाऽङ्कनादिभिः, निलच्छिनं वर्द्धितकरणं, (धमणं ति)ध्मानं वायुपूरणं, दोहनं प्रतीतं महिष्यादीनाम्, पोषणं यवसादिदानतः पुष्टीकरणं, वननं वत्सस्याऽन्यमातरि योजनं, (दुवण ति) दुवनमुपतापनमित्यर्थः / वाहनं शकटाद्याकर्षणम्, एतदादिकानि अनुष्ठानानि साधयन्ति बहूनि, गौमिकानांगोमताम्। तथा- धातुर्ग रिक, धातवो लोहादयः, मणयश्चन्द्रकान्ताद्याः, शिला दृषदः, प्रवालानि विद्रुमाणि, रत्नानि कर्केतनादीनि, तेषामाकराः खनयस्ताः साधयन्ति, आकरिणाम्, आकरवताम् / पुष्पेत्यादिवाक्यं प्रतीतम्, नवरं विधिः प्रकारे तत्र / अर्थश्च मूल्यमानं, मधुकोशकाश्च क्षौद्रोत्पत्तिस्थानम्अर्थमधु-कोशकाः, तान् साधयन्ति, वनचराणां पुलिन्दानाम् / तथायन्त्राणि उच्चाटनाद्यर्थकरलेखनप्रकारान्, जलसंग्रामादियन्त्राणि वा, उदाहरन्तीति योगः / विषाणि स्थावरजङ्गमभेदानि हालाहलानि, मूलकर्म मूलादिप्रयोगतो गर्भपातनादि (आहेवण त्ति) आक्षेपण पुरक्षोभादिकरणम् / पाठान्तरेण- (आहिचणंति) आहित्यं अहितत्वं शत्रुभावम्, पाठान्तरेण- (अविंधणंति) अव्याधनं मन्त्रादेशनमित्यर्थः / आभि-योग्यं वशीकरणादि, तच द्रव्यतो द्रव्यसंयोगजनितं, भावतो विद्या-मन्त्रादिजनितं, बलात्कारो वा मन्त्रौषधिप्रयोगान्नानाप्रयोजनेषु तद्व्यापारणानीति द्वन्द्वः, तान्। तथा- चोरिकायाः परदारगमनस्य बहुपापस्य च कर्मणो व्यापारस्य यत्करणं तत्तथा, अवस्कन्दनाः छलेन परबलमर्दनानि, ग्रामघातिकाः प्रतीताः, वनदहनतडाग-भेदनानि च प्रतीतान्येव, बुद्धेविषयस्य च यानि च तानि। तथा-वशीकरणादिकानि प्रतीतानि, भयमरणक्लेशोद्वेगजनितानि, कतुरिति गम्यते / भावेनाऽध्यवसायेन बहुसंक्लिष्टेन मलिनानि कलु-पानि यानि, तथा भूतानां प्राणिनां घातश्च हननम्, उपघातश्च परम्परा Page #967 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलियवयण 783 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अलियवयण घातः, तौ विद्येते येषु तानि भूतघातोपघातकानि, सत्यान्यपि द्रव्यतस्तानीति यानि पूर्वमुपदर्शितानि हिंसकानि हिंसाणि वचनान्युदाहरन्ति। तथा- पृष्टा वा अपृष्टा वा प्रतीताः, परतृप्ति-व्यापृताश्च परकृत्यचिन्तनाक्षणिकाः, असमीक्षितभाषिणः अपर्यालोचितवक्तारः, उपदिशन्ति अनुशासति, सहसा अकस्माद्-यदुत उष्ट्राः करभाः, गोण्यो गावो, गवया आटव्याः पशुविशेषाः, दम्यन्तां विनीयन्ताम् / तथापरिणतवयसः संपन्नावस्थाविशेषाः, तरुणा इत्यर्थः / अश्वाः, हस्तिनः प्रतीताः, गवेलककुक्कुटाश्च उरभ्रतामूचूडाश्च क्रीयन्ता मूल्येन गृह्यन्तां, क्रापयत च एतान्येव ग्राहयत च, विक्रीणीध्वं विक्रेतव्यम्। तथा-पचत पचनीयं, स्वजनाय च दत्त, पिबत चपातव्यं मदिरादि। वाचनान्तरेणखादत पिबत दत्त च / तथा- दास्यश्चेटिकाः, दासाश्चेटकाः, भृतका भक्तदानादिना पोषिताः,(भाइल्लगत्ति) ये लाभस्य भागं चतुर्भागादिकं लभन्ते, एतेषां द्वन्द्वः / ततस्ते च, शिष्याश्च विनेयाः, प्रेष्यकजनः प्रयोजनेषु प्रेषणीयलोकः, कर्मकरा नियतकालमादेशकारिणः, किंकराश्च आदेशसमाप्ता-वपि पुनः पुनः प्रश्नकारिणः, एते पूर्वोक्ताः, स्वजनपरिजनं च, कस्मादासते अवस्थानं कुर्वन्ति ? (भारिया भेकरिउ कम्मंति) कृत्वा विधाय, कर्म कृत्य, तत्समाप्तौ यतो भारिका दुर्निर्वाहाः 'भे' भवतां "करेतु त्ति' क्वचित्पाठः / तत्र (भारयत्ति) भार्या 'भे' भवतः सम्बन्धिन्यः, कर्म कुर्वन्तु / अन्यान्यपि पाठान्तराणि सन्ति, तानि च स्वयं गमनीयानि / तथा- गहनानि गहराणि, वनानि वनखण्डानि, क्षेत्राणि च धान्यवपनभूमयः, खिलभूमयश्च हलैरकृष्टाः, वल्लराणि च क्षेत्रविशेषाः, ततस्तानि उत्तृणै-रूर्ध्वगतैस्तृणैः, घनमत्यर्थ, संकटानि संकीर्णानि यानि तानि तथा, सानि दह्यन्ताम्। पाठान्तरेण- गहनानि वनानि छिद्यन्ता, खिलभूमिवल्लराणि उत्तृणधनसंकटानि दह्यन्ताम् / (सूडिज्जंतु यत्ति) सूड्यन्तां च वृक्षाः, भिन्दन्तां छिन्दन्तां वा, यन्त्राणि च तिलयन्त्रादिकानि, भाण्डानि च भाजनानि कुण्डादीनि, भाण्डी वा गन्त्री, एतान्यादिर्यस्य तत् / तथाउपधिरूपकरणं तस्य (कारणाएत्ति)कारणाय हेतवे / वाचनान्तरे तुयत्र भाण्ड-स्योक्तरूपस्य कारणाद् हेतोः। तथा-बहुविधस्य च, कार्यसमूहस्येति गम्यम् / अर्थाय इक्षवो (दुजंतुत्ति) दूयन्तां लूयन्तामिति, धातूनामनेकार्थत्वात् / तथा- पीड्यन्तां च तिलाः, पाचयत चेष्टकाः गृहार्थम् / तथा- क्षेत्राणि कृषतां कर्षयता वा / तथा- लघु शीघ्र, ग्रामादीनि निवेशयत, तत्र ग्रामो जनपदप्रायजनाश्रितः, नगरमविद्यमानकरदानं, कर्बट कुनगरम्।क्व? अटवीदेशेषु। किंभूतानि | ग्रामादीनि ? विपुलसीमानि / तथा- पुष्पादीनि प्रतीतानि / (कालपत्ताइंति) अवसरप्राप्तानि गृह्णीत, कुरुत संचयं परिजनार्थम् / तथा- शालयः प्रतीताः, लूयन्ता, मल्यन्ताम्, उत्पूयतां च, लघु च प्रविशन्तु कोष्ठागारम् / (अप्पमहुक्कोसगा यत्ति) अल्पा लघवो, महान्तस्तदपेक्षया, मध्यमा इत्यर्थः / उत्कृष्टा उत्तमाश्च, हन्यन्तां पोतसार्थाः-बोहित्थसमुदायाः, शावकसमूहा वा / तथा- सेना सैन्यं, निर्यातु निर्गच्छतु। निर्गत्य च यातु गच्छतु डमर विड्वरस्थानम्। तथाघोरा रौद्रा वर्तन्तांच, जयन्तां संग्रामारणाः। तथा- प्रवहन्तुच प्रवर्तन्तां शकटवाहनानि, गन्त्र्यो यानपात्राणि च / तथा- उपनयनं बालानां कलाग्रहणं,(चोलगंति)चूडोपनयनं बालप्रथममुण्डनम्, विवाहः पाणिग्रहणं, यज्ञो यागः अमुष्मिन् भवतु दिवसे / तथा- सुकरणं बवादिकानामे कादशानामन्यतरदभिमतं, सुमुहूर्ता रौद्रादीनां त्रिंशतोऽन्यतरोऽभिमतो यः, एतयोः समाहारद्वन्द्वः, ततस्तत्र / तथासुनक्षत्रेषु पुष्यादौ, सुतिथौ च पञ्चानां नन्दादीनामन्यतरस्यामभिमतायाम् / 'अज्ज' अस्मिन्नहनि, भवतु स्नपन सौभाग्यपुत्राद्यर्थ वध्वादेर्मञ्जनं, मुदितं प्रमोदवत् -बहुखाद्यपेयकलितं प्रभूतमांसमद्याद्युपेतम् / तथा- कौतुकं रक्षादिकं (विण्हावणत्ति) विविधैर्मन्त्रमूलाभिः संस्कृतजलैः स्नापनकं विस्नापनकं, शान्तिकर्म चाऽग्निकारिकादिकमिति द्वन्द्वः। ततस्ते कुरुत / केषु ? इत्याहशशिरव्योश्चन्द्रसूर्ययोर्ग हेण राहुलक्षणेन उपराग उपरञ्जनं, ग्रहणमित्यर्थः, शशिरविग्रहोपरागः / स च विषमाणि च विधुराणि दुःस्वप्नाशिवादीनि, तेषु। किमर्थम् ? इत्याह-स्वजनस्य च परिजनस्य च निजकस्य वा जीवितस्य परिरक्षणार्थमिति व्यक्तम् / प्रतिशीर्षकाणि च दत्त स्वशिरःप्रतिरूपाणि पिष्टादिमयशिरांसि आत्मशिरोरक्षार्थ यच्छत, चण्डिकादिभ्य इत्यर्थः / तथा दत्त च शीर्षोपहारान् पश्वादिशिरोबलीन, देवतानामिति गम्यते / विविधौषधिमद्यमांसभक्ष्याऽन्नपानमाल्यानुलेपनानि च, प्रदीपाश्च ज्वलितोज्ज्वलाः, सुगन्धिधूपस्योपकारश्चोपकरणम्-अङ्गारोपरि क्षेपः, पुष्प-फलानि च, तैः समृद्धाः संपूर्णा ये शीर्षोपहाराः, ते तथा, तान्, दत्त चेति प्रकृतम्। तथा- प्रायश्चित्तानि प्रतिविधानानि कुरुत / केन? प्राणातिपातकरणेन हिंसया, बहुविधेन नानाविधेन। किमर्थम् ? इत्याह- विपरीतोत्पाता अशुभसूचकाः प्रकृति-विकाराः,दुःस्वप्नाः, पापशकुनाश्च प्रतीताः / असौम्यग्रह-चरितं च क्रूरग्रहचाराः, अमङ्गलानि च यानि निमित्तानि अङ्गस्फुटितादीनि, एतेषां द्वन्द्वः, तत एतेषां प्रतिघातहेतुमुपहनननिमित्तमिति / तथा-वृत्तिच्छेदं कुरुत, मा दत्त किञ्चिद् दानमिति / तथा- सुष्ठ हत हत, इह तु संभ्रमे द्वित्वम् / सुष्ठ छिन्नो भिन्नश्च विवक्षितः कश्चिदिति, एवमुपदिशन्तः। एवंविधं नानाप्रकारम्।पाठान्तरं वा-त्रिविधं त्रिप्रकार, कुर्वन्त्यलीकं, द्रव्यतो नाऽलीकमपि सत्त्वोपधातहेतुत्वाद् भावतोऽलीकमेव / त्रैविध्यमेवाह- मनसा, वाचा,(कम्मुणा यत्ति) कायक्रियया। तदेतावतो यथा क्रियतेऽलीक, येऽपि तत् कुर्वन्तीत्येतद् द्वारद्वयं मिश्र परस्परेणोक्तम्। अथ ये तान् कुर्वन्ति, तान् भेदानाह - अकुसला अणज्जा अलियसण्णा अलियधम्मनिरया अलियासु कहासु अभिरमंता तुट्ठा अलियं करेउ हुंति य बहुप्पगारं, तस्स य अलियस्स फलस्स विवागं अयाणमाणा वड्डे ति महन्मयं अविस्सामवेयणं दीहकालबहुदुक्खसंकडं णरयतिरियजोणिं, तेणय अलिएण समणुबद्धा आइट्ठा पुणब्भवंधकारे भमंति, भीम दुग्ग-इवसहिमुवगया ते य दीसंति इह दुग्गया दुरंता परवसा अत्थभोगपरिवजिया असुहिता फुडितच्छवीबीमच्छ-विवरणा, खरफरुसविरत्तज्झामज्झुसिरा निच्छाया लल्लविफलवाया असक्कयमसक्कया अगंधा अचयेणा दुब्भगा अकंता काकस्सरा हीणभिन्नघोसा विहिसा जडबहिरमूया य मम्मणा अकंतविकंतकरणा णीया णीयजणणिसेविणो लोगगरहिणिज्जा मिचा असरिसजणस्स पेसा दुम्मेहा लोगवेदअज्झप्पसमयसुतिवजिया नराधम्मबुद्धिवियला अलिएण य तेण य बज्झमाणा असंतएणं अवमाणणपिट्टिमंसाहिक्खेवपिसुण भेयणगुरुबंधव Page #968 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलियवयण 784 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अलेवकड सयणमित्तऽवक्खारणाऽऽदियाई अब्भक्खाणाईबहुविहाईपावंति विकृतानि च विरूपतया कृतानि करणानि यैस्ते तथा / नीचा अमणोरमाई हियय-मणदूमगाइं जावजीव हु दुद्धराई जात्यादिभिः, नीचजननिषेविणो,लोकगर्हणीया इति पद-द्वयं व्यक्तम्। अणिट्ठखरफरुसवयणतज्जणणिभत्थणदीणवयणविमणा भृत्या भर्त्तव्या एव। तथा-असदृशजनस्य असमानशीललोकस्य द्वेष्या कुभोयणा कुवाससा कुवसहीसु किलिस्संतानेव सुहं नेव निव्वुई द्वेषस्थानं, प्रेष्या वा आदेश्याः, दुर्मेधसो दुर्बुद्धयः / (लोगेत्यादि) उवलभंति,अञ्चंतविपुलदुक्खसयसंपलित्ता, एसो सो श्रुतशब्दस्य प्रत्येकं संबन्धात्-लोकश्रुतिः लोकाभिमतं शास्त्र भारतादि, अलियवयणस्स फलविवाओ इहलोइओ परलोइओ अप्पसुहो वेदश्रुतिः ऋक्सामाऽऽदिवेदशास्त्रम्, अध्यात्मश्रुतिः चित्तजयोपायप्रतिबहुदुक्खो महब्भओ बहुप्पगाढो दारुणो कक्कसो असाओ पादनशास्त्र, समयश्रुतिः आर्हतबौद्धादि-सिद्धान्तशास्त्र, ताभिर्वर्जिता वाससहस्सेहिं मुचतो ण य अवेदयित्ता अस्थि हु मोक्खो त्ति, येते तथा। क एते एवंभूताः? इत्याह- नरा मानवाः, धर्मबुद्धिविकलाः एवमाहंसु नायकुलनंदणो महप्पा जिणो उ वीरवरनामधेजो प्रतीतम् / अलीकेन च अलीकवादजनितकाग्निना, तेन कहेसीमं अलियवयणस्स फलविवागं, एयं तं बितियं पि कालान्तरकृतेन, दह्यमानाः (असंतएणंति) अशान्तकेनाऽनुप-शान्तेन अलियवयणं लहुस्सगलहुचवलभणियं भयकरदुहकर- असता वा अशान्तत्वेन रागादिप्रवर्तनयेत्यर्थः / अपमाननादि अयसकरवेरकरणं अरतिरतिरागदोसमणसंकिलेसवियरणं प्राप्नुवन्तीति सम्बन्धः / तत्राऽपमाननं च मानहरणं, पृष्ठमांसं च अलियनियडिसातिजोगबहुलं नीयजणनिसेवियं निसंसं परोक्ष्यस्य दूषणा-ऽऽविष्करणम्। अधिक्षेपश्च निन्दाविशेषः, खलैर्भेदनं अप्पचयकारकं परमसाहुगरहणिज्जं परपीडाकारकं परमकिण्ह- च परस्परं प्रेमसम्बद्धयोः प्रमच्छेदनं, गुरुबान्धवस्वजनमित्राणां लेससहियं दुग्गतिविणिवायवड्डणं भवपुणब्भवकरं चिरपरिचिय- सत्कमपक्षारणं च अपशब्दं क्षारायमाणं वञ्चनपराभिभूतस्य वा मणुगयदुरतं ति बेमि। एषामपक्षकरणं, सांनिध्याऽकरणमित्यर्थः / एतानि आदिर्येषां तानि अकुशला वक्तव्यावक्तव्यविभागानिपुणा अनार्याः पापकर्मणो दूरमयाताः तदादिकानि / तथा- अभ्याख्यानानि असदूषणाभिधानानि (अलियण्ण त्ति) अलीका आज्ञा आगमो येषां ते तथा, त बहुविधानि, प्राप्नुवन्ति लभन्ते इति अनुपमानि / पाठान्तरेण एवाऽलीकधर्मनिरताः, अलीकासु कथास्वभिरममाणाः / तथा-(तुट्ठा अमनोरमाणि, हृदयस्य उरसो, मनसश्च चेतसो, (दूमगा इति) अलियं करेउ हुंतिय बहुप्पगारंति) अत्र-तुष्टा भवन्ति चाऽलीकं बहुप्रकार दावकान्युपतापकानि तानि तथा ! यावजीवं दुर्धराणि आजन्माप्यनुकृत्वा उक्त्वेत्येवमक्षरघटना कार्येति / तथाऽलीक विपाक- द्धरणीयानि, अनिष्टन खर-परुषेण चाऽतिकठोरेण वचनेन यत् तर्जनम्प्रतिपादनायाह- (तस्सत्ति) द्वितीयाऽऽश्रव-त्वेनोच्यतेतस्याऽली- रे! दासपुरुषेण भवितव्यमित्यादि। निर्भर्त्सनम् - अरे दुष्टकर्मकारिन् ! कस्य फलस्य कर्मणो विपाक उदयः, साध्यमित्यर्थः / तमजानन्तो अपसर दृष्टिमार्गादित्यादिरूप. ताभ्यां दीनं वदनं. (विमणत्ति) विगत वर्द्धयन्ति महाभयमविश्रामवेदनां, दीर्घकालबहुदुःखसंकटां, मनो येषां ते तथा। कुभोजनाः, कुवाससः, कुवसतिषु क्लिश्यन्तो, नैव नरकतिर्यग्योनि, तत्रोत्पादनमित्यर्थः / तेन चाऽलीकेन, तपोजनित- सुखं शारीरं, नैव निर्वृत्तिं मनःस्वास्थ्यम्, उपलभन्ते प्राप्नुवन्ति, कर्मणेत्यर्थः / समनुबद्धा अविरहिताः, आदिष्टा आलिङ्गि ताः, अत्यन्तविपुलदुःखशतसंप्रदीप्ताः, तदियता अलीकस्य फलमुक्तम्। पुनर्भवाऽन्धकारे भ्राम्यन्ति, भीमे दुर्गतिवसतिमुपगतास्ते च दृश्यन्ते इह 'एसो' इत्यादिना त्वधिकृतद्वार-निगमनमिति / ख्या त्वस्य जीवलोके। किंभूताः? इत्याह-दुर्गता दुःस्थाः, दुरन्ताः दुष्पर्यवसानाः, प्रथमाऽध्ययनपञ्चमद्वारनिगमनवत् / (एयं तं वितियपि) इत्यादिनाऽपरवशा अस्वतन्त्राः, अर्थभोगपरिवर्जिताः द्रव्येण भोगैश्च रहिताः, ध्ययननिगमनम्। प्रश्न०२ आश्रद्वा०। अपवादपदे-पढम विगिचणट्ठा० (असुहियत्ति) असुखिताः, अविद्यमानसुहृदो वा, स्फुटितच्छवयः आद्यम् अलीक-वचनम्, अयोग्यशैक्षस्य विवेचनाऽर्थं वदेत्। बृ०६ उ०। विपादिकाविचर्चिकादिभिः विकृतत्वचः, बीभत्सा विकृत-रूपाः, विवर्णा अलु क्खि(ण)-त्रि०(अरूक्षिन्) अरूक्षस्पर्शसभावादरूक्षि / विरूपवर्णा इति पदत्रयस्य कर्मधारयः / तथा- खरपरुषा स्निग्धस्पर्शवति, भ०११ श०४ उ०॥ अतिकर्क शस्पर्शाः, विरक्ता रति क्वचिदप्यप्राप्ताः, ध्यामा अलुद्ध-त्रि०(अलुब्ध) अलम्पटे लोभरहिते, प्रश्न०५ संवद्वा० अनुज्ज्वलच्छायाः, झुषिरा असारकाया इति पदचतुष्कस्य कर्मधारयः। "आरादुक्कोसं जो, लधुणं तयं न अत्तट्टे / एस अलुद्धो दारं, निश्छायाः विशोभाः, लल्ला अव्यक्ता विफला फलासाधनी वाग्येषां ते .............." / पं०भ०। पञ्चा०। तथा / (असमयमसक्कयत्ति) न विद्यते संस्कृतं संस्कारो येषां ते असंस्कृताएतादृशा असंस्कृता अविद्यमानसंस्काराः, ततः कर्मधारयः / | अले-अव्य०(अरे) नीचसंबोधने, "अले! किं एशे महेंदे कलअले' प्रा०४ मकारश्च अलाक्षणिकः / अत्यन्तं वा असंस्कृताः / अत एवाऽगन्धाः, पाद। अचेतनाः, विशिष्ट-चैतन्याऽभावात् / दुर्भगा अनिष्टाः, अकान्ता अलेव-पुं०(अलेप) अलिप्ततायाम्, प्रव०४ द्वार। अलेपमध्ये 'मोअणा अकमनीयाः, काकस्येव स्वरो येषां ते काकस्वराः, हीनो ह्रस्वो भिन्नश्च नी रोटी खाखरादिकं कल्पते? न वेतिप्रश्ने- बहुषु ग्रन्थेषु अलेपशब्देन स्फुटितो घोषो येषां ते तथा। (विहिंस त्ति) विहिंसाः, जडाश्च मूर्खाः, वल्लचणकादिकं व्याख्यातमस्ति, बृहत्कल्प-भाष्यवृत्तिमध्ये तुबधिराऽन्धका ये ते तथा / पाठान्तरेण- जडबधिरा मूकाश्च, मन्मना 'मोअणादिरोटीखाखरासाथु-उआटु' इत्यादिकमलेपमध्ये कल्पते इति अव्यक्तवाचः, अकान्तानि अकमनीयानि विकृतानि च करणानि व्याख्यातमस्ति / / 46 / / सेन०२ उल्ला० 46 प्र० / इन्द्रियाणि कृत्यानि वा येषां ते तथा। वाचनान्तरे- अकृतानि न कृतानि अलेवकड-न०(अलेपकृत) वल्लचणकादावपिच्छिले द्रव्ये, पिं०। पञ्चा०। Page #969 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलेवकड 785 - अभिधानराजेन्द्रः-भाग 1 अलोभया तत्राऽलेपकृतानि तावदाह - कंजुसिणचाउलोदे, संसहायामकमूलरसे / कंजियकढिए लोणे, कुट्टा पिज्जा य नित्तुप्पा / / कंजियउदगविलेवी, ओदणकुम्माससत्तुए पिट्ठो / डंडगसडियोसिन्ने, कंजियपत्ते अलेवकडे / / काजिकमारनालम् उष्णोदकमुद्धृत्य त्रिदण्डम्, (चाउलोदग ति) | तन्दुलधावनम्, संसृष्ट नाम गोरससंसृष्टभाजने प्रक्षिप्तंसद्यदुदकंगारसेन परिणामितम्, आयाममवश्रवणम्, (कट्ठमूलरसे त्ति) काष्ठमूलं चणकवल्लकादिद्विदलं, तदीयेन रसेन यत् परि-णामितं, तत काष्ठमूलरसं नाम पानकम्। तथा- यत्काञ्जिक-क्वथितं, (लोणेत्ति) सलवणं यावत्। कुछ चिञ्चिनिका, पेया च प्रतीता, नित्तुप्पाअचोप्पड़ा अवग्घारितावा। तथा- विलेपिका द्विविधा-एका काञ्जिक-विलेपिका, द्वितीया उदकविलेपिका। ओदनस्तन्दुलादिभक्तम्, कुल्माषा उडदाः, राजमाषा वा / सक्तवो भृष्टयवक्षोदरूपाः, पिष्ट मुद्गादिचूर्ण , मण्डकाः सक्कणिका-मयाः, समितम्- अट्टकः, उत्स्विन्नं मुद्गेरकादि, काजिकपत्रं काजिकेन बाष्पितम्- अरणिकादिशाकम् एतानि काजिका-दीन्यलेपकृतानि मन्तव्यानि / बृ०१ उ०। ध०| अलेपकृतपात्रस्य त्यवश्यं कल्पोदातव्यः। ध०३ अधिo अलेसी-पुं०(अलेश्यिन) लेश्यारहिते अयोगिनि, सिद्धे च / स्था० 3 ठा०४ 301 अलोग(य)-पुं०(अलोक) न०ता धर्मादीनां द्रव्याणां वृत्ति-भवति यत्र तत्, तादृशक्षेत्रमिह लोकः, तद्विपरीतं ह्यलोकाऽऽख्यं क्षेत्रम्। आव०५ अ० लोकविरुद्धे अनन्ताकाशास्तिकायमात्रे, सूत्र०१ श्रु०१२ अ०| आ०म०। प्रवका यत्र क्षेत्रे समवगाढौ धर्मास्किायाऽधर्मास्तिकायौ, तावत्प्रमाणो लोकः, शेषः, त्वलोकः / जी०१ प्रति०। 'एगे अलोए" एकोऽलोकोऽनन्त-प्रदेशोऽपि द्रव्यार्थतया। स०१ समासू०प्र०) लोगस्सऽत्थि विवक्खो, सुद्धत्तणओ घडस्स अघडो व्व / स घडाई चेव मई, न निसेहाओ तदणुरूवो॥ अस्ति लोकस्य विपक्षः, व्युत्पत्तिमच्छुद्धपदाभिधेयत्वात् / इह यद् व्युत्पत्तिमता शुद्धपदेनाभिधीयते, तस्य विपक्षो दृष्टः, यथाघटस्याऽघटः / यश्च लोकस्य विपक्षः, सोऽलोकः / अथ स्यात् मतिर्न लोकोऽलोक इति / योऽलोकस्य विपक्षः, स घटादिपदार्थानामन्यतम एव भविष्यति, किमिह वस्त्वन्तर-परिकल्पनया ? तदेतत् न। पर्युदासनञा निषधात निषेध्यस्यैवा-ऽनुरूपोऽत्र विपक्षोऽन्वेषणीयःनि लोकोऽलोक इत्यत्र च लोको निषेध्यः, स चाऽऽकाशविशेषः, अतोऽलोकेनापि तदनुरूपेण भवितव्यम् / यथेहाऽपण्डित इत्युक्ते विशिष्टज्ञानविकलश्चेतन एव पुरुषविशेषो गम्यते, नाऽचेतनो घटादिः, एवमिहाऽपिलोका-ऽनुरूप एवाऽलोको मन्तव्यः। उक्तं च "नयुक्तमिवयुक्तं वा, यद्धि कार्य विधीयते। तुल्याधिकरणेऽन्यस्मॅिल्लोकेऽप्यर्थगतिस्तथा" ||1|| "नञिवयुक्तमन्यसदृशाधिकरणे तथा ह्यर्थगतिः" / तल्लोकविपक्षत्वादस्त्यलोक इति / विशेष| प्रेरकः प्राह- "स घटाई चेव मती, गुरुः प्राह- "न निसेहाओ तदनुरूवो"। स्था०१ ठा०२ उ०ा "सिद्धा निगोयजीवा, वणस्सई कालपुग्गला चेव / सव्व-मलोगागासं, छप्पेएडणतया णेया' / प्रव०२५६ द्वार। (अलोके द्रव्यक्षेत्रकालभावाः सन्ति? न वेति 'अणुयोग' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 343 पृष्ठे दशमाऽधिकारे समुक्तम्। कियानलोकः ? इतितु'लोग' शब्दे वक्ष्यते) अलोभया-स्त्री०(अलोभता) लोभत्यागरूपेऽष्टमे योगसंग्रहे, स०३२ | सम०। प्रश्न। आव०। अलोभतामाहसाएए पुंडरिए, कंडरिए चेक देवि जसभहा। सावत्थि अजिअसेणे, कित्तिमई खुङगकुमारे ||1|| जसभद्दे सिरिकंता, जयसिंघो चेव कन्नपाले अ। नट्टविहीपरिओसे, दाणं पुच्छाइ पवजा ||2|| सुतु वाइअं सुठु गाइअं, सुठु नचिअं सामसुंदरि ! / अणुपालिअ दीयराइयाओ सुमिणते मा पमायए॥३॥ अर्थः कथातो ज्ञेयःसाकेतं नाम नगर, पुण्डरीको नरेश्वरः। युवराजः कण्डरीको, यशोभद्रा च तत्प्रिया / / 1 / / रक्तस्तां वीक्ष्य दूत्योचे, सानैच्छद् मारितोऽनुजः। नंष्ट्वा सार्थेन तत्पत्नी, श्रावस्ती नगरी ययौ // 2 // तत्राऽऽचार्योऽजितसेनः, कीर्तिमती महत्तरा। तत्र साऽपि प्रक्वाज, धारिणीवत्तदन्तिके // 3 // परं न साऽत्यजत्पुत्रं, किन्तु क्षुल्लमचीकरत्। स वयःस्थो व्रतं कर्तुमक्षमो जननी जगौ // 4 // यामीति स्थापितो मात्रो-परोध्य द्वादशाब्दिकाम्। एवं महत्तराऽऽचार्योपाध्यायैरपि य व्रजन्॥५॥ स्थापितोऽत्याहृतैः क्षुल्लोऽष्टाचत्वारिंशदब्दिकाम्। तथाऽप्यतिष्ठन् प्रैषि मात्रोचे त्वं माऽन्यतो गमः / / 6 / / साकेते पुण्डरीकस्ते, पितृव्योऽस्ति नृपस्ततः / / मुद्रां कम्बलरत्नं चाऽऽदाय तत्र व्रजेः सुत ! // 7 // ततोऽस्थाद् यानशालायां, राज्ञः श्वो नृपमीक्षितुम्। पर्षद्याभ्यन्तरायां स, प्रेक्षत प्रेक्षणं निशि।।।। नर्तकी तत्र नर्तित्वा, रङ्गेण सकलां निशाम्। विभातायां विभावयाँ, निनिद्रासुरभूत्ततः / / 6 / / तन्माताऽचिन्तयत्पर्षत्तोषिता तद्धनं बहु। चेत्प्रमादोऽस्या मुष्टाः स्मस्ततो गीतिमिमां जगौ / / 10 / / "सुटु वाइयं सुठु गाइअं.सुठु नचियं सामसुंदरि!'इत्यादि। अत्रान्तरेच स क्षुल्ल-कुमारो रत्नकम्बलम्। युवराजो यशोभद्रो, निर्मलं रत्नकुण्डलम्॥११॥ सार्थवाही निजं हार, राजेभाऽऽरोहकोऽङ्कुशम्। मन्त्री च कटकं लक्ष-मूल्यानि निखिलान्यपि // 12 // त्यागं यस्तत्र दत्ते स्म, समस्तोऽप्यलिख्यत। ज्ञात्वा त्यागे कृते राज्ञस्तोषो रोषोऽन्यथा पुनः॥१३॥ सर्वेऽपि प्रातराहूताः, क्षुल्लः पृष्टोऽब्रवीदिदम्। यावत्तन्मूलमायातो, राज्यलक्ष्मीसमीहया // 14 // गृहाणं राज्यं राज्ञोचे, स नैच्छदिदमूचिवान्। व्रतं निहायिष्यामि, बुद्धो गीत्याऽनयाऽस्म्यहम् / / 15 / / युवराजोऽवदद् राजा, वृद्धो राज्यं ददाति न। मारयित्वा तदादास्ये, इति चिन्ताऽभवत् मम / / 16 / / ऊचे राजाऽधुनाऽप्येतद्, गृह्यतां सोऽपि नैहत। सार्थवाही जगौ पत्युर्गतस्य द्वादशाब्द्यभूत्॥१७।। Page #970 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलोभया 786 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अधंक ततोऽन्याऽऽनयनेच्छातः, श्रुत्वा गीतिमिमां स्थिता। मन्त्र्यूचेऽन्यनृपैः सार्द्ध , घटनातः स्थितोऽधुना॥१८॥ प्रत्यन्तराजभिर्मिण्ठः, प्रोक्तो हस्तिनमानय / यद्वा मारय तन्मेने, निवृत्तं गीतिकाश्रुतेः / / 16 / / अस्मत्कृतेऽनया गीतं, किलेति प्रतिबोधतः / दत्तोऽस्माभिः प्रभो ! त्यागस्तुष्टः सर्वेषु भूपतिः // 20 // सर्वे क्षुल्लकुमारस्य, मार्गलग्नाः प्रवव्रजुः। अलोभतैवं कर्तव्या, सर्वैरपि महात्मभिः // 21 // आ०का अलोल-त्रि०(अलोल) अलुब्धे, नि०चू०१० उ०। अप्राप्त प्रार्थनाऽतत्परे, दश०१०अ०। अलोलुप-पुं०(अलोलुप) सरसाहारादिलाम्पट्यरहिते, उत्त०२ अ०।। अल्ल-त्रि०(आर्द्र) जलसंपृक्ते, "अल्लं चम्म दुरूहइ / आर्द्र चर्माधिरोहति / ज्ञा०१२ अ०। अल्लईकुसुम-न०(अल्लकीकुसुम) पीतवर्णे लोकप्रसिद्धे गुच्छविशेषपुष्पे, प्रज्ञा०१ पद० ज०रा० अल्लकचूर-पुं०(आर्द्रकच्चूर) तिक्तद्रव्यविशेषे, प्रव०४ द्वार। अल्लग-न०(आर्द्रक) शृङ्गबेरे, (आदा इति ख्याते) ध०२ अधि०ा प्रव०। जंग अल्लत्थ--पुं०(उत्+क्षिप्) ऊर्ध्वक्षेपे, "उत्क्षिपेगुलगुञ्छोस्थाऽल्लत्थोब्भुत्तो स्सिक -हक्खुवाः" / 8 / 4 / 144 // अल्लत्थइ-उत्+क्षिपति / प्रा०४ पाद। अल्लमुत्था-स्त्री०(आर्द्रमुस्ता) (नागरमोथा इति ख्याते) आर्द्राऽवस्थे गन्धप्रधाने वनस्पतिमूले, प्रव०४ द्वार। ध०| अल्लाबपुर-नाअल्लाबुद्दीननिवासिते म्लेच्छदेशस्थे नगरभेदे, यत्र गत्वा श्रीजिनप्रभसूरिभिर्लेच्छाः, प्रतिबोधिताः।"पत्ता रायभूमिमंडणं सिरिअल्लाबपुरदुग्गं"। ती०४६ कल्प०। अल्लाबुद्दीणसुरत्ताण- अल्लाबुद्दीनसुलतानपार० शा वैक्रमवत्सराणां द्वादशशतकादौ गुर्जरधरित्र्युपद्रावके तत्कालिक-राजजेतरि यवनराजे, ती०२६ कल्प। अल्लिअ-धा०(उप+सृप) समीपगमने, "उपसर्परल्लिः " / 8 / 4 / 139 / उपपूर्वस्य सृपेः कृतगुणस्य 'अल्लिअ' इत्यादेशः / अल्लिअइ-उपसर्पति। प्रा०४ पाद। "तस्स सरणमल्लियह''।दश०१ उ०। अल्लियावणबंध-पुं०(आलायनबन्ध) द्रव्यस्य द्रव्यान्तरेण श्लेषादिनाऽऽलीनकरणरूपे बन्धे, “से किं तं अल्लियावणबंधे? अल्लियावणबंधेचउविहेपण्णत्ते। तंजहा- लेसणाबंधे, उच्चयबंधे, समुच्चयबंधे, साहणणा बंधे" 108 श०६ उ०। (चतुर्णामेषां व्याख्या स्वस्वथाने प्रदर्शयिष्यते) अल्लियावणवंदणय-न०(आलायनवन्दनक) आचार्यादीनामाश्रयणाय प्रतिक्रमणान्ते ज्येष्ठानुक्रमेण वन्दने, आव०४ अ०। अल्लिव-धा०(अर्पि) क्र-णिच् -पुक्। प्रदाने, अरल्लिव-चचुप्पपणामाः / 81436 / इत्यर्पर्ण्यन्तस्य अल्लिवाऽऽदेशः / अल्लिवइअर्पयति / प्रा०४ पाद। अल्ली-धा०(आ-ली) आत्म०प०। आश्रयणे, "आलीडोऽल्ली"|४|५४॥ इत्यालीयतेरल्लीत्यादेशः। अल्लीअइआलीयते। प्रा०४ पाद। अल्लीउं-अव्य०(आलीतुम्) आश्रयितुमित्यर्थे, बृ०६ उ०। अल्लीण-त्रि०(आलीन) आ-ईषद् लीनः / जीत०। आश्रिते, आतु०॥ कल्प० प्रति०ा ज्ञा०। गुरुसमाश्रितेसंलीने, आसमन्तात् सर्वासु क्रियासु लीनो गुप्तः / अनुल्बणचेष्टाकारिणी, जी० 3 प्रति० / तं०। गुरुजनमाश्रितेऽनुशासनेऽपिन गुरुषु, द्वेषमापद्यमाने, जं०२ वक्ष०ा ज्ञा०। ज्ञानादिषु आसमन्ताल्लीने, व्य०१० उ०/ अल्लीणपलीणगुत्त-त्रि०(आलीनप्रलीनगुप्त) अङ्गोपाङ्गानि सम्यक् संयमयति, दश०८ अ० अव-अव्य०(अव) आधिक्ये, स०१ सम०। अधःशब्दार्थे , प्रव० 216 द्वार। विशे०। आ०म०। प्रज्ञा० नं०। अवनमवः ''तुदादिभ्यो न क्यौ' इत्यधिकारे "अकितो वा' (उणा०) इत्यनेन औणादिकोऽकारप्रत्ययः / गमने वेदने, आ०म०प्र०। विशे० स्था०। अवअक्ख-धा०(दृश्) प्रेक्षणे, "दृशो निअच्छ- पेच्छाऽवयच्छाऽवयज्झ-वज्ज-सव्वव-देक्खौ अक्खाऽवक्खाऽवअक्ख-पुलोअपुलअ-निआऽवआस-पासाः" / 814/181 / इतिसूत्रेण दृशेः 'अवअक्ख' आदेशः। अवअक्खइ-पश्यति। प्रा०४ पाद। अवअक्खिअ-(देशी) निवापितमुखे, दे०ना०१ वर्ग। अवअच्छा-(देशी) कक्षावस्त्रे, देवना०१ वर्ग। अवअच्छ-धा०।-ह्लादि। आह्लादोत्पादे, "हादेवअच्छः" 8 / 4 / 122 // ह्लादतेय॑न्तस्याण्यन्तस्य च 'अवअच्छ' इत्यादेशः / अवअच्छइह्लादयति। प्रा०४ पाद। अवअच्छिअ-(देशी) निवापितमुखे, देवना०१ वर्ग। अवअणिअ- (देशी) असंघाटिते, देवना०१ वर्ग। अवआस-धा०(दृश) "दृशो निअच्छ०" ||४|१८१।इत्यादिना सूत्रेण दृशेः 'अवआस' इत्यादेशः / अवआसइ, पश्यति। प्रा०४ पाद। अवइ-पुं०(अव्रतिन्) अविरतसम्यग्दृष्टौ, बृ०१ उ०। अवउज्जिय-अव्य०(अवकुब्ज्य) अधोऽवनम्येत्यर्थे, आचा०२ श्रु०१ अ०७ उ०। अवउज्झिऊण- अव्य०(अपोह्य) परित्यज्येत्यर्थे, "अवउज्झिऊण इड्डी" |बृ०३ उ० अवउडग-न०(अवकोटक) कृकाटिकाया अधोनयने, विपा० 1 श्रु०२ अ० प्रश्न अवउडगबंधण-त्रि०(अवकोटकबन्धन) अवकोटकेन कृकाटिकाया अधोनयनेन बन्धनं यस्य स तथा ! ग्रीवायाः पश्चाद्भागानयनेन बद्धे, विपा०१ श्रु०२ अ०। बाहुशिरसां पृष्ठदेशे बन्धने, प्रश्न०१आश्रद्वा०। अवऊसणग-न०(अपवसनक-अवजोषणक) तपोविशेषसेवायाम्, पञ्चा०१६ विव० अवंक-पुं०(अवक्र) वक्रोऽसंयतः, न वक्रोऽवक्रः / संयते विरते, व्य० १उ०। सर्वोपाधिशुद्धे ऋजौ, आचा०१ श्रु०३ अ०१ उ०| Page #971 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवंग 787 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अवकिरियव्य अवंग-पुं०(अपाङ्ग) नयनोपान्ते, ज०१ वक्ष०ा ज्ञा०ा आचा अवंगुयदुवार-त्रि०(अपावृतद्वार) कपाटादिभिरस्थगितगृहद्वारे, "अवगुयदुवारा'' सदर्शनलाभेन कुतोऽपि पाखण्डिकाद् बिभ्यति शोभनमार्गपरिग्रहेणोद्घाटशिरसस्तिष्ठन्तीति भाव इति वृद्धव्याख्या। अन्ये त्वाहुः- भिक्षुकप्रवेशार्थमौदार्यादस्थगितगृहद्वारा इत्यर्थः / भ०२ श०५ उ०। दशा०। औ०। उद्घाटितद्वारे, ना बृ०१ उ०ारा। अवंचक-त्रि०(अवञ्चक)पराऽव्यसनहेतौ,"अवंचिगकिरिया''। अवञ्चिका पराऽव्यसनहेतुः क्रिया मनो वाक्कायव्यापाररूपेति द्वितीयमृजुव्यवहारलक्षणम् / ध०र०। ध०। अवंचक जोग-पुं०(अवञ्चकयोग) वञ्चकत्वविकले योगे, षो०। अवञ्चकयोगाश्च त्रयः / तद्यथा- सद्योगाऽवञ्चकः, क्रियाऽवञ्चकः, फलाऽवञ्चकः / तत्स्वरूपं चेदम् - सद्भिः कल्याणसंपन्नैर्दर्शनादपिपावनैः। तथादर्शनतो योगः, आद्योऽवञ्चक उच्यते॥१।। तेषामेव प्रणामादि-क्रिया नियम इत्यलम्। क्रियाऽवञ्चकयोगः स्यात्, महापापक्षयोदयः / / 2 / / फलावञ्चकयोगस्तु, सद्भ्य एव नियोगतः। सानुबन्धफलावाप्तिधर्मसिद्धौ सतां मता / / 3 / / षो०८ विव०। अवंजणजाय-त्रि०(अव्यञ्जनजात) व्यञ्जनान्युपस्थरोमाणि जातानि यस्य स तथा। अजातोपस्थरोमणि, व्य०१० उ०। अवंजणिज्ज-त्रि०(अवन्द्य) निष्कारणे वन्दनानहे, यथा- "पासत्थो ओसन्नो, होइ कुसीलो तहेव संसत्तो। अहछंदो वि य एए, अवंजणिज्जा जिणमयम्मि'' ||1|| ध०२ अधि० अवंतरसामन्न-न०(अवान्तरसामान्य)द्रव्यत्वक मत्वादी सत्ताघटकापरसत्तायाम्, आ०म०द्वि० अवंतिवड्वण- पुं०(अवन्तिवर्द्धन) अवन्तिराजप्रद्योताऽऽत्मजपालकराजस्य पुत्रे, आव०४ अ०। आ०का आ०चू०। अवंतिसुकुमाल-पुं०(अवन्तिसुकुमार) भद्राश्रेष्ठनीपुत्रे, दर्श० / उजेणीए नयरीए जीवंतसामिपडिमाए अजसुहत्थिणामे०। सूरिवरा पज्जुवासणत्थं उज्जाणे समोसढे / भणिया य साहुणो-जहा वसहिं मगह / ततो साहुणो विहरमाणा गया भद्दाए सेट्टिणीए घरे। तीए वि वंदिऊण पुच्छिया, जहा- कओ भयवंताणं आगमणं ? तेहिं सिटुंदेसंतराओ अजसुहत्थिसूरिसंतिया वसहिं जाएमो। ताए वि हट्टतुट्ठाए जाणसाला दरिसिया। अन्नया आयरिया महुरवाणीए नलिणिगुम्म नाम अज्झयणं परियत्तंति / तीसे पुत्तोऽवंतिसुकुमालो णाम / सो वि देवकुमारोवमो सत्ततले पासायवरगओ बत्तीसाए भज्जाहिं समंदोगुंछुगो व्व देवो ललइ / तेण वि मुत्तविउडेण निस्सुयं / चिंतियं च- न एयं नाडयसरसंति सत्तओ उपरिभूमीओभूमी संपहारेइ, कत्थमत्थे गए एरिसं सुयमणुब्भूयपुव्वं / एवं ईहापोह मग्गेणं गवेसणं कुणंतस्स भवियव्वयावसेण तयाऽऽवरणिजकम्मक्खओवसमेणं जाइ-सरणं संपत्तो / तओ य आयरियाणं पायमूले वंदिऊण भणियं-भयवं! एवं सव्वं मज्झ चरियं अहं तत्थ देवो आसि, ता संपयं देहि वयं, उस्सुगोऽहं तिन्नि वासस्स। सूरिहिं भन्नइ- वेठ्ठ ताव जाव पभाए मायरं ते पुच्छामो। ततो तेण सयमेव लोअंकाउं पयट्टो / सूरीहिं चिंतियं- मा एस सयं गिहीयलिंगो होउत्ति कलिउं से समप्पिओ वेसो, दिना दिक्खा / ततो निवडिऊण चलणेसु भणितो- असमत्थोऽहंदीहपव्वजापरियायपरिवालणस्स, ता संपयंचेव अणसणं काऊण इंगिणिं करेमि / ततो एएण अणुजाणविओ नीहरिउ सट्ठाणाओ पत्तो कंथारिकुडंगिसमीवे, इंगियं एस काऊण ठिओ काउस्सग्गेणं / अइसुकुमारयाए सरीरस्स धरणितलफाससंजायरुहिरप्पवाहेण समागया सियाली सह सत्तहिं पिल्लएहिं। ततो एगं जंघ सियालीए खाइयं, बीयं पिल्लक्कएहिं पढमजामे, एवं ऊरू बिइयजामे, तइयजामे पेढें, एवं सो भयवं तं वेयणं सममहियासिऊण तइयजामे समाहीए कालं काऊण गतो तम्मि चेव विमाणे / ततो समागया पचासन्नदेवा, मुक्कं गंधोदयं कुसुमवरिसं, आहयाओ देवदुंदुहीओ, उग्घुटुं चहरिसभर-निब्भरेहि-अहो ! एस महाकालो।घरेयसे भजाणं, परोप्परं समालोओ जाओ, तेसिं सिट्ठ- उट्ठो कत्थ वि गओ। ततो य से भद्दा पुच्छिया। तीए वि समाउलमणाए सूरीहिं सव्वं साहियं / ततो पभायाए रयणीए सव्विड्ढीए नीहरिया भद्दा, सह सव्वसुन्नाहिं सुसाणं पत्ता। दिटुं च कुडंगाओ नेरइयदिसाए आसयट्ठियं कलेवरं / ततो सोयभरविउरिया उम्मुक्तकंठं अणेगपलावगेणं तहा रोइयं, जहा वसीणं वि य तुजंति हिययाइ। ततो कहमवि संठविया सयणवग्गेणं, गया य सिप्पाए नईए तडे, कयं तत्थ संकुद्धरणं, पच्छालोइयकिचाणि, आययणाणि य काराविऊण भद्दाए अइ संवेगाओ सह सुण्हाहिं गहिया पव्वजा। एगा उण गुव्विणि त्ति काऊण ठियाघरे। जातोपुत्तो। तेण पिउमरणठाणे काराविया पिउपडिमा, समुग्धोसियं महाकालो त्ति नामेण आययणं / तं च संपयं लोइएहिं परिगहियं महाकालोत्ति विक्खाय। अवन्ति-सुकुमारकथानकं समाप्तमिति / दर्श०। संथा०। अवंतिसेण-पुं०(अवन्तिसेन) चण्डप्रद्योतपौत्रे पालकस्य राज्ञः पुत्रे, आ०का ('अण्णायया' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 464 पृष्ठऽस्य कथोक्ता) अवंती-स्त्री०(अवन्ती) उज्जयिनीनगरीप्रतिबद्धे जनपदविशेषे, आ०म०वि०॥ अवंतीगंगा-स्त्री०(अवन्तीगङ्गा) गोशालकमतप्रसिद्ध कालविशेषे, "एगा अवंतीगंगा, सत्त अवंतीगंगाओ, सा एगा परमाऽवंतीगंगा'' | भ०२४ श०१ उ०॥ अवंदिम-त्रि०(अवन्द्य) वन्दनानहें, "पच्छा होइ अवंदिमो' / दश०१ चू अवकंखमाण-त्रि०(अवकासत्) पश्चाद्भागमवलोकयति, ज्ञा०६ अ०) अवकं खा-स्वी०(अवकाशा) अभिलाषे, आचा०१ श्रु०२ अ० 2 उ०। सूत्र। औत्सुक्ये, स्था०४ ठा०३ उ०। अवकारि(ण)-त्रि०(अपकारिन्) अपकारणकरणशीले, हा०२६ अष्ट। अवकिरण-न०(अवकिरण) उत्सर्गे, आव०५ अ०॥ अवकिरियव्व-न०(अवकिरणीय) विक्षेपणीये त्याज्ये, प्रश्न०५ आश्रन्द्वान Page #972 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवकंत 788 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अवग्गह अवकंत-त्रि०(अपक्रान्त) सर्वशुभभावेभ्योऽपगते भ्रष्टे, तदन्येभ्योऽतिनि- | अवगाढ-त्रि०(अवगाढ) आश्रिते, स्था०१ ठा०१ उ०। कृष्ट अपक्रमणीये, "जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं इमीसे अवगाढगाढ-त्रि०(गाढावगाढ) अधोव्याप्ते, "अवगाढ-गाढसिरीए अतीव रयणप्पभाए पुढवीए छ अवकंतमहानिरया पण्णत्ता / तं जहा- लोले, उवसोभेमाणा उवसोभेमाणा चिटुंति' / गाढं बाढमवगाढस्तैरेव लोलुए, उघड्ढे, निद्दड्डे, जरए, पज्जरए। चउत्थीएणपंकप्पभाए पुढवीएछ सकलक्रीडास्थानपरिभोगनिहितमनोभिरधो-ऽपि व्याप्ताः, गाढावगाढा अवकंतमहाणिरया पण्णत्ता / तं जहा- आरे, वारे, मारे, रोरे, रोरुए, इति वाच्ये, प्राकृतत्वादवगाढ गाढाः / इह च देवत्वयोगस्य खाडखड्डे' / स्था०६ ठा०॥ जीवस्याऽभिधानेन तदयोग्यः सामर्थ्यादवसीयत एवेति / भ०१ श०१ अव्युत्क्रान्त-त्रिगान व्युत्क्रान्तमव्युत्क्रान्तम् / सचेतने, मिश्रे च / उ01 नि०चू०१७ उ०। अवगार-पुं०(अपकार) विरूपाचरणे, "अपकारसमेन कर्मणा, न अवक्कंति-स्त्री०(अपक्रान्ति) गमने, आचा०१ श्रु०८ अ०६ उ०ा परित्यागे, नरस्तुष्टिमुपैति शक्तिमान् / अधिकां कुरुते हि यातनां, द्विषता ज्ञा०८ अस यातमशेषमुद्धरेत्" // 1 // सूत्र०१ श्रु०८ अ०) अवक्कमण-न०(अपक्रमण) विनिर्गमे, स्था०७ ठा०। आचा०ा अपसर्पणे, अवगास-पुं०(अवकाश) गमनादिचेष्टास्थाने, आव०६अ०॥ "ततो दश०१ अ०। अपसरणे, भ०१५ श०१ उ०। ज्ञा०। निग्गमणमवक्कमणं, लद्धावगासो सयं बुद्धो भणइ" / आ०म०प्र०ा अवस्थाने, स्था० निस्सरणं पलायणं य एगट्ठा / व्य०१०3०। 4 ठा०३ उ०। उत्पत्तिस्थाने, सूत्र०२ श्रु०३ अ०। अवक्कमित्ता-अव्य०(अवक्रम्य) गत्वेत्यर्थे, दश०५ अ०१ उ०। अवगाह-पुं०(अवगाह) अवकाशे, उत्त०२८ अ०॥ अवक्कम्म-अव्य०(अवक्रम्य) विनिर्गत्येत्यर्थे, व्य०१ उा बृ०॥ अवगाहणा-स्त्री०(अवगाहना) जीवादीनामाश्रये, देहे च / स्था० अवक्कय-पुं०(अवक्रय) भाटकप्रदाने, बृ०१ उ०। 4 ठा०३ उ०। (कस्य कीदृगवगाहनेति ओगाहणा' शब्दे तृतीयभागे७६ अवक्कास-पुं०(अप (व)कर्ष) अपकर्षणमवकर्षणं वा अप(व)कर्षः।। पृष्ठे द्रष्टव्या) अभिमानादात्मनः परस्य वा क्रियारम्भात् कुतोऽपि व्यावर्त्तने, भ०१२ / अवगाहणागुण-पुं०(अवगाहनागुण)अवगाहना जीवादीनामाश्रयो गुणः ই0ি4 3o कार्य यस्य सः / तस्या वा गुण उपकारो यस्मात् सोऽवगाहनागुणः / अप्रकाश-पुं०। अभिमानादान्ध्ये, भ०१२ श०५ उ०। तदात्मके / स्था०५ ठा०३ उ०। जीवादीनामवकाशहेतौ बदराणां कुण्ड मोहनीयकर्मणि, स०१२ सम०। इवाऽऽकाशाऽस्तिकाये, भ०२ श०१० उ०। अवक्खंद-पुं०(अवस्कन्द) अव-स्कन्द-आधारे घञ् / जिगीषूणां | अवगिज्झिय-अव्य०(अवगृह्य) उद्दिश्येत्यर्थे, कल्प०६ क्ष) सैन्यनिवेशस्थाने शिबिरे, आक्रमणे, भावे घञ् / वाच०। अवगुण-पुं०(अवगुण) दुर्गुणे, "अवगुण कवण मुएण।" प्रा० "कस्कयो म्नि"पा२।४। इति स्कस्य खः। प्रा०२पाद। 4 पाद सू०३६५। अवक्खक्कण-न०(अवष्वस्कण) पश्चाद् गमने, प्रव०२ द्वार। अवगुणंत-त्रि०(अवगुणत्) अपावृण्वति, भ०१५श०१ उ०। अवक्खारण-न०(अपक्षारण) अपशब्दक्षारणे, प्रश्न०२आश्रद्वा०। अवगूढ-त्रि०(अवगूढ) व्याप्ते. ज्ञा०८ अ० अपक्षरण-ना सान्निध्याऽकरणे, प्रश्न०२ आश्रद्वा०) अवग्गबोहि-पुं०(अपग्रबोधि) समीपगतबोधौ सुलभबोधौ, प्रति०। अवक्खेवण-न०(अवक्षेपण) अव-क्षिप्-धा०-ल्युट / अधः अवग्गह-पुं०(अवग्रह) अवग्रहणमवग्रहः / इन्द्रियाऽ-निन्द्रियनिबन्धने स्थानसंयोगहेतौ, क्रियाविशेषे अधःपातने च / आ०म०वि०। सांव्यवहारिकप्रत्यक्षप्रकारचतुष्टयाऽन्यतमे, रत्ना०। अवगंड सुक्क-त्रि०(अपगण्डशुक्ल) अपगतं गण्डमद्रव्यं यस्य विषयविषयिसन्निपाताऽनन्तरसमुद्भूतसत्तामात्रगोचरतदपगतगण्डम्, तद्वच्छुक्लम् / निर्दोषाऽर्जुनसुवर्णवच्छुक्ले, यदि वा दर्शनाजातमाद्यमवान्तरसामान्याऽऽकारविशिष्ट वस्तुगण्डमुदकफेनम्, तद्वच्छुक्लम्।उदकफेनतुल्यशुभ्रे, सूत्र०१श्रु०६ अ०। ग्रहणमवग्रहः // 7 // अवगणियभवदंड-त्रि०(अपकर्णितभवदण्ड)अवधीरित-संसारभये, विषयः सामान्यविशेषात्मकोऽर्थः, विषयी चक्षुरादिः, तयोः समीचीनो जीवा०१ अधि० भ्रान्त्याद्यजनकत्वेनाऽनुकूलो निपातो योग्यदेशादि अवस्थानं, अवगम-पुं०(अपगम) विनाशे, विशे०| तस्मादनन्तरं समुद्भूतमुत्पन्नं यत् सत्तामात्रगोचरं निःशेषविशेषवैमुख्येन * अवगम- पुं० विनिश्चये, विशे०। सन्मात्रविषयं दर्शनं निराकारो बोधः, तस्माजातमाद्यं अवगय-त्रि०(अवगत) "अवाऽपोते च" / / 1 / 172 / इत्यस्य सत्त्वसामान्यादवान्तरैः सामान्याऽऽकारैर्मनुष्य त्वादिभिर्जातिविशेषैक्वचिदप्रवृत्तेर्न ओत्। प्रा०१ पाद। अवधारिते, आचा०१ श्रु०१ अ०१ विशिष्टस्य वस्तुनो यद् ग्रहणं ज्ञानं तदवग्रह इति नाम्ना गीयते। रत्ना०२ उ०। सम्यगवबुद्धे, "अवगतपत्तसरूवे" अवगतं सम्य-गवबुद्ध पात्रस्य / परि०ा आव०। प्रज्ञान स्था०। योनिद्वारे प्रव०३० द्वारा अवगृह्णाति श्रावणीयस्य प्राणिनः स्वरूपमात्रं येन सोऽवगतपात्रस्वरूपः। ध००। इति अवग्रहः। उपधौ, ओघ०। (अवग्रहभेदादिः 'उग्गह' शब्दे द्वितीयभागे अवगयवेय-त्रि०(अपगतवेद) क्षपितवेदे, प्रव०२६१ द्वारा 668 पृष्ठे वक्ष्यते) Page #973 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवचय 789 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अवच्च अवचय-पु०(अपचय) अपचये, अनु० दशा सूत्र०ा देशतोऽपगमे, भ०११ श०११ उ०ा क्षयोपगमे, सूत्र०१ श्रु०२ अ०३ उ०। अवचिय-त्रि०(अपचित) शोषिते, उत्त०२५ अ० जीवप्रदेशविरहिते, अनु०॥ अवचितमंससोणिय-न०(अपचितमांसशोणित) शोषितमांसरुधिरे, उत्त०२५ अ० अवचुल्ली-स्त्री०(अवचुल्ली) चुल्ल्या अव पश्चाद् अवचुल्ली। राजदन्तादित्वादवशब्दस्य पूर्वनिपातः। अवह्नके, पिं० अवच्च-न०(अपत्य) न पतन्ति यस्मिन्नुत्पन्ने दुर्गतौ अयशः- पले वा पूर्वजास्तदपत्यम्। पुत्रादौ, कल्प०८ क्ष०ा पुत्रे, पुत्र्यां च। आव०१ अ०। संयत्या अपत्ये जनिते आभवनव्यवहारः व्य०। __ सांप्रतमन्य व्यवहारमुपदर्शयतिअहवा अण्णण्णकुला, पडिभजिउकाम समणसमणीओ। अणुसट्ठा पर ण ठिया, करेंति वायंति ववहारं / / अथवेति- व्यवहारस्य प्रकारान्तरोपदर्शने / श्रमणः श्रमणी वेति द्वावप्यन्याऽन्यकुलौ, अन्यकुलः श्रमणः, अन्यकुला श्रमणी, प्रतिभक्तुकामौ प्रतिपतितुकामौ, स्वस्वाचार्येण च ती प्रभूत-मनुशिष्टौ, | परं न स्थितौ स्वस्वकुलममत्वेन वागन्तिकव्यवहारं वागेवान्तः परिसमाप्तिर्वागन्तः, तत्र भवो वागन्तिकः, स चाऽसौ व्यवहारश्व, तं | कुरुतः / तद्यथा- यानि अस्माकमपत्यानि जनिष्यन्ते, तेषां मध्ये ये पुरुषास्ते सर्वे मम, याः स्त्रियस्ताः सर्वाः तव / अथवाऽश्रमणीभूते ये पुरुषास्ते सर्वे मम, स्त्रियः सर्वास्तव। यदि चेदभणति- सर्वाण्यपत्यानि तव, अथवा- सर्वाण्यपत्यानिममेति, तयोः संसारे स्थित्वा पुनः प्रव्रज्यां प्रत्युपस्थितयोर्यदेव वागन्तिकेन व्यवहारेण निश्चितं, तदेव तयोः संभवति। अह न कतो तो पच्छा, तेसिं अब्भुट्ठियाण ववहारो। गोणीआसुब्भामिगकुडुबि खरए य खरिया य॥ अथ न कृतः पूर्व वागन्तिको व्यवहारः, पश्चात् तयोः प्रव्रज्यायामभ्युत्थितयोः स्वस्वकुलममत्वेन व्यवहारो भण्डनमभूत् / तत्र संयतीकुलसत्काः गोदृष्टान्तमुद्घामिकादृष्टान्तं खरक-खरिकादृष्टान्तं चान्तराऽन्तरोपन्यस्यन्ति / संयतकुलसत्काः अश्वदृष्टान्तं, कौटुम्बिकदृष्टान्तं च अथ चेयमन्या दृष्टान्तपरिपाटीगोणीणं संगिल्लं, उन्भामइलाय नीयपरदेसं। तत्तो खेत्ते देवी, रण्णो अभिसेयणे चेव॥ संयतीसमानकुलकाः गवां संगिल्लं समुदायं दृष्टान्तीकुर्वन्ति। तदनन्तरं संयतसकुलकाः या उद्घामिला परदेशं नीता, तां दृष्टान्तीकुर्वन्ति / ततः पुनरपि संयतीसकुलकाः क्षेत्रे बीजम् / ततः संयतकुलकाः देवीं राज्ञोऽभिषेचनं चैवेति। तत्र भण्डने जाते यथा संयतीसकुलका गोदृष्टान्तं कुर्वन्ति, तथा प्रतिपादयतिसंजइइत्त भणंति-संडे अण्णस्स जं तु गोणीए। जायति तं गोणिवइस्स होति एवऽम्ह एयाई॥ (संजइइत्ता) संयतीसत्काः समानकुलकाःब्रुवते- अन्यस्य सत्केन पण्डेन यद् गोर्जायतेऽपत्यं, तत् सर्वं गोपतेर्गोस्वामिनो भवति, न षण्डस्वामिनः / एवमने नैव दृष्टान्तेनाऽस्माकमप्येतान्यपत्यानि आभवन्ति, नयुष्माकमिति / एवमुक्तेबैंतियरे अम्हंतू,जह बडवाए अ अण्णआसेणं / जं जायति मोल्ले नो, दिन्ने तं अस्सियस्सेव।। इतरे संयतसमानकुलका बुवते - अस्माकमेतान्यपत्यानि भवन्ति यथा- मूल्ये अदत्ते यदन्येनाऽन्यसत्केनाऽश्वेन वडवाया जायतेऽपत्यं तद् अश्विकस्यैव अश्वस्वामिन एव, व्यावहारिकैरेवमेव व्यवहारनिश्चयात्। एवमेतान्यप्यस्माकमिति / एवमुक्ते - जस्स महिलाए जायति, उन्मामइलाए तस्स तं होइ। संजइइत्त भणंति, इयरो बिंति इमं सुणसु // यस्य महेलाया भार्यायाः उद्भामिलायाः स्वैरिण्याः जायते सुतः, परतश्च, तस्य तत्सर्वमाभवति, एवमस्माकमपि, इति (संजइइत्ता) संयतीसत्काः समानकुलका भणन्ति / इतरे ब्रुवन्ते- इदं वक्ष्यमाणमुद्भाभिककौटुम्बिककृतं शृणुततेणं कुटुंबिएणं, उडमामइलेण दोण्ह वी दंडो। दिन्नो सा वि य तस्सा, जाया एवऽम्ह एय्याई / / येन स्वैरिण्या अपत्यानि जनितानि, तेन कौटुम्बिके न उद्भामिलेन राजकुले गत्वा कथितम् - यथाऽहं देव ! तस्याः सर्व भोगभरं वहामि स्म, सोऽपि च तत्पतिर्मदीयेन भोगभरेण नियूंढवान्, तस्मात् प्रसादं कृत्वा मदीयान्यपत्यानि दापयतेति। तत एवमुके राजा कुपितः,तथा- भोगभरसंवाददर्शनत एवमिमा-वपत्याय कारणाविति द्वायपि सर्वस्वाऽपहरणतो दण्डितवान्। तथा चाऽऽह- द्वयोरपि दण्डो दत्तो, दापित इत्यर्थः / सा चाऽपत्याऽप-हरणतोऽनन्यगतिका सती तस्य जाता। एवमस्माकमेतान्यपीति। पुणरविय संजइत्ता,बें ति खरियाए अण्णखरएण। जंजायति खरियाहिव तिस्स हाँति एवऽम्ह एय्याई।। पुनरपि संयतीसत्का ब्रुवते - खरिकायां गर्दभ्यामन्यखरके ण अन्यसत्केन गर्दभेन, यद् जायते तत्सर्व खरिकाधिपतेर्भवति, एवमस्माकमप्येतानीति। तदेवं प्रथमदृष्टान्तपरिपाटी भाविता। संप्रति द्वितीयां विभावयिषुः प्रथमतो गोवर्गदृष्टान्तं भावयति - गोणीणं संगिल्लो, नट्ठ अडवीए अण्णगोणेणं / जायाई वच्छागाई, गोणाहिवतीओ गेण्हंति / / गवां स्वीगवानां संगिल्लः समुदायो नष्टोऽटच्यां पतितः, तत्र च तस्याऽन्यगवेनाऽन्यसत्केन पुङ्गवेन, जातानि वत्सकानि वत्सरूपाणि तानि, गवेषणतः कथमपि गवां लाभे गवाधिपतयः स्वीगवीस्वामिनो गृह्णन्ति, न पुङ्गवस्वामिनः / एवमेतान्यप्यस्माकमिति / एवमुक्ते संयतसत्का उद्घामिकादृष्टान्तं पूर्वोक्तमुपन्यस्यन्ति, तथा चाऽऽह - उन्मामिय पुव्वुत्ता, अहवानीया उजा परविदेसं। तस्सेव सा आभवती, एवं अम्हं तु आमवति।। उद्भामिका पूर्वमुक्ता। यथा- सापत्या तस्य जाता। अथवा या Page #974 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवच्च 790 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अवटुंभ पर विदेश नीता, सा तस्यैवाऽऽभवति, पश्चादपि नाऽन्यस्य / यत् गर्हितं निन्द्यम्, अथवा क्रोधादयश्चत्वारोऽवद्यं, तेषां सर्वाऽवद्यहेतुतया एयमेतान्यपत्यान्येषा चाऽस्माकमाभवतीति। एवमुक्ते - कारणे कार्योपचा-रात्! आ०म०वि० भ०। इयरे भणंति बीयं, तुब्भं तं नीयमन्नखेत्तं तु / अवज्जकर-पुं०(अवद्यकर) अवयं पापं तत्करणशीलः / पापिनि, सूत्र० तं होइ खेत्तियस्सा, एवं अम्हं तु एय्याई॥ १श्रु०४ अ०२ उ०। इतरे संयतीसत्का भणन्ति-बीजं युष्मदीयं तत्कालक्षेत्रसादृश्यविप्र- | अवज्जभीरु-त्रि०(अवद्यभीरु) पापभीरौ, ओघा पापाचकिते, बृ० 3 उ०। लम्भतः कथमपि वापकैरन्यत् क्षेत्रं नीतम्, अन्यत्र क्षेत्रे उप्तमित्यर्थः / तद् अवज्झाण-न०(अपध्यान) अप्रशस्तं ध्यानमपध्यानम् / आर्तालोके क्षेत्रिकस्य भवति, एवमेतानि अपत्यान्यस्माकमिति। संयतसत्का दिध्याने, औ०। पापकर्मोपदेशे हिंसकार्पणे, ध०२ अधि०। इह अत्र प्रत्युत्तरमाह - देवदत्तश्रावककोङ्कणसाधुप्रभृतय उदाहरणानि। आव०६ अ०। रण्णो धूयाओ खलु, न माउछंदाउ ताउ दिजंति। अवज्झाणया- स्त्री०(अपध्यानता) आर्तरौद्रादिध्यायित्वे, स्था० 3 न वि पुत्तो अभिसिज्जइ, तासिं छदेण एवऽम्हं / / ठा०३ उ०। न खलु, यो राज्ञो दुहितरः, ता मातृच्छन्दतो मातॄणामभिप्रायेण, अवज्झाणायरिय-पुं०(अपध्यानाचरित) अपध्यानमार्त्तरौद्रदीयन्ते, नाऽपिपुत्रोऽभिषिच्यतेतासां मातृणां छन्देनाऽभिप्रायेण / किन्तु रूपं, तेनाऽऽचरित आसेवितो योऽनर्थदण्डः, सतथा। अनर्थ-दण्डभेदे, राज्ञः स्वाभिप्रायेण / ततो यथा- राजा प्रधानमिति सर्व उत्त०३ अाधन राज्ञ आयत्तम्, एवमत्राऽपि पुरुषः प्रधानमिति सर्वं पुरुषस्या-ऽऽयत्तमतः सर्वमस्माकमाभवति / एवं व्यवहारे वर्तमाने श्रुतधर आचार्यो व्यवहारं अवज्झाय-त्रि०(अपध्यात) दुनिविषयीकृते, उत्त०६ अ०॥ दुष्टचिन्तावति, ज्ञा०१४ अ० छेत्तुकाम इदमाह - एमादिउत्तरोत्तर- दिटुंता बहुविहान उपमाणं। अवटु- पुं०(अवटु) कृकाटिकायाम, भ०१५ श०१ उ०। विपाका पुरिसोत्तरिओ धम्मो, होइ पमाणं पवयणं तु॥ अवटुंभ-पुं०(अवष्टम्भ) स्तम्भाधवलग्ने।, ध०३ अधि०। एवमादय उत्तरोत्तरदृष्टान्ता बहुविधा अभिधीयमाना न प्रमाणम्, किन्तु इदानीमवष्टम्भद्वारं प्रतिपादयन्नाह - प्रवचने पुरुषोत्तरिको धर्म इतिपुरुषः प्रमाणम्। अतः सर्वं पुरुषालभन्ते, अव्वोच्छिन्ना तसा पाणा, पडिलेहा न सुज्झई। नेतरे इति। व्य०४ उ01 तम्हा हवसमत्थस्स, अवटुंभो न कप्पइ / / 507] अवचामेलिय-न०(अव्यत्यामेडित) एकस्मिन्नेव शास्त्रेऽन्यान्यस्थान- अवष्टम्भः स्तम्भादौ न कर्त्तव्यः, यस्मात् प्रत्युपेक्षितेऽपि तस्मिन् निबद्धान्येकार्थानि सूत्राण्येकत्र स्थाने समानीय पठतो व्यत्यामंडितम्। पश्चादपि अव्यवच्छिन्ना अनवरतं असाः प्राणा भवन्ति, ततश्व अथवा- आचारादिसूत्रमध्ये मति-चर्चितानि तत्सदृशानि सूत्राणि कृत्वा तत्र प्रत्युपेक्षणा न शुध्यति / (तम्हा हट्ठसमत्थस्सेति) तस्माद् प्रक्षिपतो व्यत्याने डितम् / अस्थानविरतिकं वा व्यत्यामेडितं, न हृष्टो नीरोगः, समर्थस्तरुणः, तस्य एवंविधस्य, साधोरवष्टम्भो तथाऽव्यत्याने डितम् न कल्पते, नोक्तः / इदानीं के ते त्रसाः प्राणिनः ? इत्येतत् व्यत्यामंडितदोषरहिते सूत्रगुणे, अनु०। गला विशे०ा पंचूना प्रदर्शनायाऽऽह - अवच्छलत्त-न०(अक्त्सलत्य) अवात्सल्यकरणे, व्य०१ उ०। संचरकुंथुद्देहिय- लूआ वा होइ दाली य / अवच्छेय-पुं०(अवच्छेद) विभागे अंशे, स्था०३ ठा०३ उ०। एवं घरकोइलिया, सप्पे वीसंभरे सरडे / / 508|| अवजाणमाण-त्रि०(अवजानान) अपलपति, सूत्र०१ श्रु० 4 अ०४ उ०। तराऽवष्टम्भे स्तम्भादौ, संचरन्ति प्रसर्पन्ति, के ते? कुन्थु-सत्त्वाः, अवजाय-पुं०(अपजात) अप इत्यपसदो हीनः पितुः सम्पदो- उद्देहिकाश्च लूता कोलियकः, तत्कृतो भेदः भक्षणं भवति, तथा च दाली जातोऽपजातः / पितुः सकाशादीषद्धीनगुणे पुत्रभेदे, यथा- राजिर्भवति, तस्यां च वृश्चिकादेराश्रयो भवति, तथाच गृहकोलिया आदित्ययशाः, भरताऽपेक्षया तस्य हीनत्वात्। स्था०४ ठा०१ उ०। घरोलिका, इयमुपरिस्था मूत्रयति, तन्मूत्रेण चोपघातश्चक्षुषो भवति / अवजुय-त्रि०(अवयुत) पृथग्भूते, व्य०७ उ०। पृथग्भावे, नि० चू० सर्पो वा तत्राऽऽश्रितो भवति, वीसंभरो जीवविशेषः, उन्दुरो वा भवेत्, 16 उम सरटः कृकलासः, सवा दशनादि करोति / इदानीं भाष्यकारो अवज-न०(अवद्य) 'अवधपण्य०"।३।१।१०१। इत्यादिना (पाणि०) व्याख्यानयन्नाह - सूत्रेण निपातः। "धर्यो जः"८/२२५ इति यस्यज्जः। प्रा०२ पाद / संचारगा चउद्दिसि, पुव्वं पडिलेहिए वि अण्णेति। पापे, आ०म०द्वि०आव०। आ०चू० सूत्रा विशे० आचा०ा निर्दोषे, उद्देही मूल पुणो, विराहणा तदुभए मेओ // 506 / / उत्त०६ अ० 0aa संथाला मिथ्यात्वकषायलक्षणे, आ०म०प्र०) गर्ने, संचारकाः कुन्थ्वादयः पूर्वोक्ताश्चतसृष्वपि दिक्षु तस्मिन्नवष्टम्भे सूत्र०१ श्रु०१ अ०२ उ०ा विशे०।"कम्ममवज्जं जंगरहियंति कोहाइणो परिभ्रमन्ति, पूर्व प्रत्युपेक्षितेऽपि तस्मिन् स्तम्भाधवष्टम्भे अन्ये व चत्तारि"। कर्माऽनुष्ठानमवा भण्यते। किमविशेषेण ? न, इत्याह- | आगच्छन्ति / (उद्देहि त्ति) कदाचिदसौ स्तम्भादिरवष्टम्भः मूले Page #975 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवटुंभ 791 - अभिधानराजेन्द्रः- भाग 1 अवणय उद्देहिकादिभक्षितः, ततश्च अवष्टम्भं कुर्वत उपरिपतति, पुनश्च विराधना, | अवड-पु०(अवट) कूपे, स्था०२ ठा० 4 उ०। अनु०। प्रज्ञा० आo तदुभये भवति, आत्मनि संयमे च भवति, भेदश्च पत्रकश्च भवति। मा लूआइ य मढणे संजमम्मि आयाइ विच्छुगाईया। अवड-पुं०(अपार्द्ध) अपगतमर्द्ध यस्य तदपाऽर्द्धम्। अर्द्धमात्रे, सू०प्र०१० एवं घरकोइलिया- अहिउंदरसरडमाईसु / / 510 // पाहु। चं०प्र० अर्द्धदिवसे, भ०१६ श०३ उ०। लूतादौ च मढने मर्दने संयभविषया विराधना भवति, आत्मविराधना | अवड्खे त-न०(अपार्द्धक्षेत्र) अपगतमर्द्ध यस्य तदपार्द्धमर्द्धच वृश्चिकादिभिः क्रियते, एवं गृहकोकिलिका-अहि-उन्दुरसरटादिविषया मात्रम् / अपार्द्धमर्द्धमानं क्षेत्रमहोरात्रप्रमितं येषां चन्द्रसंयभविराधना, आत्मविराधना च भवतीत्युक्त उत्सर्गः / इदानीमपवाद योगस्यादिमधिकृत्य तान्यपार्द्धक्षेत्राणि / चं०प्र०१० पाहु०। सू०प्र०) उच्यते समयक्षेत्राऽपेक्षया पञ्चदशमुहूर्तेषु, स्था०६ठा०। अतरंतस्स च पासा, गाढं दुक्खंति तेणऽवट्ठभो। अवड्डगो लगो लच्छाया-स्त्री०(अपार्ट्स गोलगोलच्छाया) संजयपिढे थंभे, सेलसुहाकुडुवेंटीए गोलैर्बहुविधैर्मिलित्वा यो निष्पादित एको गोलः, स गोल-गोलस्तस्य अतरन्तस्य च तिष्ठतो ग्लानादेः पावनि गाढमत्यर्थं दुःखन्ति, तेन छाया गोलगोलच्छाया, अपार्द्धमात्रस्य गोलगोलस्य छाया कारणेन अवष्टम्भं कुर्वीताक्व? अत आह-संयतपृष्ठे स्तम्भेवा (सेल अपार्द्धगोलगोलच्छाया। अर्द्धमात्रमिलितानेकगोलच्छयायाम, चं०प्र०८ त्ति) पाषाणमये स्तम्भे, सुधाऽर्जिते कुड्ये वा अवष्टम्भं पाहु० कुर्वीता अवधिकायां वेण्टिकायां वा कुड्यादौ कृत्वा ततोऽवष्टम्भं करोति / अवडगोलच्छाया-स्त्री०(अपार्द्धगोलच्छाया) अपार्द्धमात्रस्य गोलस्य उक्तमवष्टम्भद्वारम्। ओघ०१६ द्वारा छायायाम, सू०प्र०८ पाहुणचं०प्र०) अवट्ठग-त्रि०(अपार्थक) अपगतपरमार्थप्रयोजने, द्वा०१६ द्वार। / अवगो लजच्छाया-स्त्री०(अपार्द्धगोलपुञ्जच्छाया) अवट्ठाण-न०(अवस्थान) व्यवस्थायाम, व्यवस्था संस्थितिः गोलानां पुञ्जो गोलोत्कर इत्यर्थः। तस्य छाया गोलपुञ्जच्छाया, स्थितिरवस्थानमवस्था चैतान्येकार्थिकानिपदानि। 05 उ०ा स्थिती, अपार्द्धस्य गोलपुञ्जस्य छाया अपार्द्धगोलपुञ्चच्छाया। अपार्द्धमात्रगोलआव०४ अ० (तत्र साधोः किमवस्थानं श्रेयः उताऽटनमिति पुञ्जच्छायायाम, चं०प्र०८ पाहुण सू०प्र० 'आवस्सिया' शब्दे द्वितीयभागे 463 पृष्ठे वक्ष्यते, अवड्डगोलावलिच्छाया-स्त्री०(अपार्द्धगोलावलिच्छाया) अवधिज्ञानस्याऽवस्थानं द्रव्यादिभेदभिन्नमिति 'अपडिवाइ(ण) शब्दे गोलानामावलि\लावलिस्तस्याः छाया गोलावलिच्छाया, अपार्धाया अत्रैव भागे 565 पृष्ठे, 'ओहि' शब्दे तृतीयभागे 151 पृष्ठे च द्रष्टव्यम्) गोलावलिच्छाया, अपार्द्धगोलावलिच्छाया। अपार्द्धमात्रगोलावलिच्छाअवट्ठिइ-स्त्री०(अवस्थिति) मर्यादायाम्, स्था०३ ठा०४ उ०। अवस्थाने यायाम, चं०प्र०८ पाहुका स्थान निष्प्रकम्पतया वृत्तौ, आव०४ अ०। अवड्डचंदसंठाण-न०(अपार्द्धचन्द्रसंस्थान) अपकृष्टमर्द्ध अवट्ठिय-त्रि०(अवस्थित) शाश्वते, स्था०३ ठा०३ उ०॥ नित्ये, ज्ञा० चन्द्रस्याऽपाऽर्द्धचन्द्रः, तस्य यत्संस्थानमाकारः / गजदन्ताऽऽकृती, 5 अ०1"सिज्जायरपिंडे य 1, चाउज्जामे य 2 पुरिसजेडे य 3 / स्था०२ ठा०३ उ किइकम्मस्स य करणे 4, चत्तारि अवट्ठिया कप्पा" ||1|| स्था० अववभाग-पुं०(अपार्द्धभाग) चतुर्थभागे, आचा०२ श्रु०१ अ०१ उ०। 6 ठा०। निश्चले, स्था०५ ठा०उ०। अवर्धिष्णौ, जी०३ प्रति०ा यन्न हीयमानं, न वा वर्द्धमानम्।तंगासा 'अवट्ठियसुविभत्त-विचित्तमंसू'। अवड्डोमोयरिया-स्त्री०(अपार्ड्सवमौदरिका) अवमस्योनस्थोदरस्य अवस्थितान्यवर्धिष्णूनि सुविभक्तानि विविक्तानि विचित्राणि करणमवमौदरिका, अपकृष्ट किश्चिदूनमर्द्ध यस्यां साऽपा , अतिरम्यतयाऽद्भुतानिश्मश्रूणि कूर्चकशा येषां तेऽवस्थितसुविभक्तो द्वात्रिंशतकवलापेक्षया द्वादशानामपाऽर्द्धरूपत्वात् / अपार्द्धा च विचित्रश्मश्रवः / जी०३ प्रति०। अनन्तपर्यायात्मके वस्तुनि, तत्र साऽवमौदरिका चेति / अवमौदरिकाभेदे, "दुवालस कुक्कुडिपर्यायाणामानन्त्येन अविरहाद् द्रव्यावस्थितत्वम् / भ०२ श०१ उ०। अंडगप्पमाणमे ते कवले आहारमाहारेमाणे अवड्डोमोयरिया'। स्वप्रमाणे स्थिते, जी०३ प्रतिकाअनवस्थितविलक्षणे अनुयोगदानयोग्ये द्वादश कुक्कुटाण्डकप्रमाणमात्रान् कवलानाहारमाहारयति अपार्धास्वलिङ्गाऽवस्थिते, संविनविहाराऽवस्थितेच! 01 उ०। ('अणवट्ठिय' ऽवमौदरिका उक्तशब्दार्था भवतीत्येवं सप्तम्यन्तव्याख्यानं नेयम्। शब्देऽत्रैव भागे 301 पृष्ठे व्याख्यात एषः) स्थित्या रक्षिते, "अवहिए प्रथमान्तव्याख्यानं तु धर्मधर्मिणोरभेदादपाविमौदरिका आणाए आराहए याविभवइ / आचा०२ श्रु०१५ अ०चू०। साधुर्भवतीत्येवं नेतव्यम्। भ०७ श०१ उ० व्या अवट्ठियबंध-पुं०(अवस्थितबन्ध) यदातुयावतीः प्रथमसमये बद्धवान्, | अवण-न०(अवन) गमने, वेदनेच।नं० तावतीरेव द्वितीयादिष्वपि समयेषु बध्नाति, तदा स बन्धोऽवस्थित अवणंत-त्रि०(अपनयत) अशक्नुवति, नि०चू०१ उ०। त्वादवस्थितबन्ध इति / पं०सं०५द्वार / प्रकृतिबन्धभेदे, क०प्र०) अवणमंत-त्रि०(अवनमत्) नीचीभवति, रा० यथाऽष्टौ बध्नाति, सप्त बध्नाति, सप्त वा बद्ध्वा षट्, षड् बद्ध्या एका बध्नाति, तथा स एव भूयस्कारोऽल्पतरो वा द्वितीयादिसमयेषु अवणय-पुं०(अपनय) पूजासत्कारादेरपनयने, स्था०८ ठा०ा दोषभाषणे, तन्मात्रस्तावन्मात्रतया प्रवर्त्तमानो-ऽवस्थितबन्धो भवति / कर्म०५ निन्दायां च / प्रव०१४३ द्वार / आ०म०) कर्म * अवनत-त्रिका द्रव्यतो नीचकाये, भावतोऽदीने, दश०५ अ०) Page #976 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवणयण 792 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अवण्णवाय अवणयण-न०(अपनयन) निषेधने, विशे०) अवणीयउवणीयवयण-न०(अपनीतोपनीतवचन) अरूपवती स्त्री, किन्तु सवृत्तेतिरूपेषोडशवचनानांद्वादशे, आचा०२ श्रु०४ अ०१ उ०। प्रज्ञा प्रव०॥ अवणीयचरय-पुं०(अपनीतचरक) अपनीतं देयद्रव्यमध्या-दपसारितम्, अन्यत्र स्थापितमित्यर्थः / तदर्थमभिग्रहतश्वरति तद्गवेषणाय गच्छतीति / अपनीतचरकः। अभिग्रहविशेषधारके, औ० अवणीयवयण-न०(अपनीतवचन) कुरूपा स्त्रीतिवचनभेदे, प्रव०१४० द्वारा अवण्ण-त्रि०(अवर्ण) न विद्यते वर्णः पञ्चविधः सितादिः, अस्येत्य-वर्णम् / वर्णरहिते अमूर्तद्रव्ये, षो०१५ विव०। अश्लाघायाम्, पं०व०४ द्वार / स्था०। अयशसि अकीर्ती, नि०चू०१० उ० वर्णताया अकरणे, औ०। एकदिग्व्याप्य-साधुवादवादे, ग०२ अधि। अवण्णवंत-त्रि०(अवर्णवत्) अश्लाघाकारिणि, स०३० सम०। अवण्णवाइ(ण)-पुं०(अवर्णवादिन) अवर्णं वदितुं शीलमस्येत्यवर्णवादी / अकीर्तिकरे, "नाणस्स केवलीणं, धम्मा-ऽऽयरियाण सव्यसाहूणं / माई अवण्णवाई, किदिवसियं भावणं कुणई // 11 // ग०२ अधि० 0 अवण्णवाय-पुं०(अवर्णवाद) अश्लघायाम्, ध०२ अधि०। अश्लाघावादे, दशा 'अवन्नवायं च परंमुहस्स, पच्चक्खओ" (न भासिज्ज) अवर्णवादं चाऽश्लाघावादं पराङ्मुखस्य पृष्ठतः प्रत्यक्षतश्च, न भाषेत इत्यर्थः / दश०६ अ०३ उ अर्हदादिपञ्चकाऽवर्ण वदन दुर्लभबोधिः -- पंचहिं ठाणेहिं जीवा दुल्लमबोहियत्ताए कम्मं पकरेंति / तं जहा- अरहताणमवन्नं वदमाणे, अरहंतपण्णत्तस्स धम्मस्स अवन्नं वदमाणे, आयरियउवज्झायाणमवन्नं वदमाणे, चाउवनसंघस्स अवन्नं वयमाणे, विविक्कतव-बंभचेराणं देवाणं अवन्नं वदमाणे। "पंचहिं" इत्यादि सुगमम्, नवरं दुर्लभा बोधिर्जिनधर्मो यस्य, स तथा, तभावस्तत्ता / तया दुर्लभबोधिकतया, तस्यैव वा कर्म मोहनीयादि, प्रकुर्वन्ति बध्नन्ति, अर्हतामवर्णमश्लाघां वदन् / यथा "नत्थी अरहंत त्ती, जाणतो कीस भुंजए भोए। पाहुडियं उवजीवइ, स समवसरणादिरूपाए / / 1 / / एमाइ जिणाण अवण्णो' / न च ते नाऽभूवन, तत्प्रणीतप्रवचनोपलब्धेः / नाऽपि भोगाऽनु-भवनादेर्दोषः, अवश्यवेद्यत्वात् तस्या तीर्थकरनामादिकर्मणश्च निर्जरणोपायत्वात्तस्य / तथा- वीतरागत्वेन समवसरणादिषु प्रतिबन्धाऽभावादिति / तथाअर्हत्प्रज्ञप्तस्य धर्मस्य श्रुत-चारित्ररूपस्य / प्राकृतभाषानिबद्धमेतत्, तथा- किं चारित्रेण ? दानमेव श्रेयः, इत्यादिकमवणं वदन्। उत्तरं चाऽत्रप्राकृत-भाषात्वं श्रुतस्य न दुष्टं, बालादीनां सुखाऽध्येयत्वेनोपकारित्वात् / तथा- चारित्रमेव श्रेयो, निर्वाणस्याऽनन्तरहेतुत्वादिति / आचार्योपाध्यायानामवर्ण वदन् / यथा- बालोऽयमित्यादि / न च बालत्वादि दोषः, बुद्ध्यादिभिवृद्धत्वादिति / तथा- चत्वारो वर्णाः प्रकाराः श्रमणादयो यस्मिन् स तथा / स एव स्वार्थि काऽणविधानाचातुर्वर्णः, तस्य संघस्याश्चर्ण वदन्। यथा- कोऽयं संघः ? यः | समवायबलेन पशुसंघ इव अमार्गमपि मार्गीकरोति इति / न चैतत्, साधुज्ञानादिगुणसमुदायात्मकत्वात् तस्य, तेन च मार्गस्यैव मार्गीकरणादिति / तथा विपक्वं सुपरिनिष्ठितं, प्रकर्षपर्यन्तमुपगतमित्यर्थः। तपश्च ब्रह्मचर्यं च भवाऽन्तरे येषाम्, विपक्वं वा उदयागतंतपो ब्रह्मचर्य तद्धेतुकं देवाऽऽयुष्कादि कर्म येषां ते तथा, तेषामवर्णं वदन्।न सन्त्येव देवाः, कदाचना-ऽप्यनुपलभ्यमानत्वात् / किश्च- तैविटरिख कामासक्तमनोभि-रविरतैस्तथा निर्निमेषैरचेष्टश्च मियमाणैरिव प्रवचनकार्याऽनु-पयोगिभिश्चेत्यादिकम् / इहोत्तरम् - सन्ति देवाः, तत्कृता-ऽनुग्रहोपघातादिदर्शनात्। कामसक्तता च मोहसातकर्मोदयात्, इत्यादि। स्था०५ ठा०२ उ०। अथ (ज्ञानादीनां) व्यासार्थमाह - काया वया य ते चिय, ते चेव पमायअप्पमाया य। मोक्खाहिगारियाणं, जोइसजोणीहिं किंच पुणो / इह के चिद् दुर्विदग्धाः प्रवचनाशातनापातक मगणयन्त इत्थं श्रुतस्याऽवर्णं ब्रुवर्त। यथा- षड्जीवनिकायामपि षट्कायाः प्ररूप्यन्ते, शस्त्रपरिज्ञायामपितएव, अन्येष्वध्ययनेषु बहुशस्त एवोपवर्ण्यन्ते। एवं व्रतान्यपि पुनः पुनस्तान्येव प्रतिपाद्यन्ते। तथा-त एष प्रमादाऽप्रमादाः पुनः पुनर्वर्ण्यन्ते। यथोत्तराध्ययने आचाराङ्गे च / एवं च पुनरुक्तदोषः / किं च- यदि के वलस्यैव मोक्षस्य साधनार्थमयं प्रयासस्तर्हि मोक्षाधिकारिणां साधूनां सूर्य-प्रज्ञप्त्यादिना ज्योतिःशास्त्रेण, योनिप्राभृतेन वा किं पुनः कार्यम् ? न किञ्चिदित्यर्थः / तेषामित्थं ब्रुवाणानामिदमुत्तरम् -इह प्रवचने यत्-त एष कायादयो भूयो भूयः प्ररूप्यन्ते, तन्महता प्रयत्नेनाऽमी परिपालनीयाः, इदमेव धर्मरहस्यमित्यादराऽतिशयख्यापनार्थ-त्वात् न पुनरुक्तम् / "अनुवादाऽऽदरवीप्साभृशार्थविनियोग-हेत्वसूयासु / ईषत्संभ्रमविस्मयगणनास्मरणे-ष्वपुनरुक्तम् / / 11 / ज्योतिःशास्त्रादेरेव शिष्यप्रवाजना-दिषु शुभकार्योपयोगफलत्वात् परम्परया मुक्तिफलमेवेति, न कश्चिद् दोषः / गतो ज्ञानाऽवर्णवादः / अथ केवल्यवर्णवादमाह - एगंतरमुप्पाए, अन्नोन्नावरणया दुदेण्हं पि। केवलदसणणाणे, एगे काले व एगत्तं // इह केवलिनामवर्णवादो यथा- किमेषां ज्ञानदर्शनोपयोगौक्रमेण भवतः, उतयुगपत् ? यद्याद्यः पक्षः- ततोयं समयं जानाति,तं समयं न पश्यति, यं समयं पश्यति, तं समयं न जानाति, इत्येवमेकान्तरिते उत्पादेद्वयोरपि केवलज्ञानदर्शनयोरन्यो-ऽन्याऽऽवरणता भवेत, ज्ञानावरणदर्शनावरणयोः समूलकाषंकषितत्वात् / अपरस्य चाऽऽवारकस्याऽभावात परस्पराऽऽ-वारकतैवाऽनयोः प्राप्नोतीतिभावः। अथ युगपदिति द्वितीयः पक्षः कक्षीक्रियते, सोऽपि न क्षोदक्षमः / कुतः ? इत्याह- एककाले युगपदुपयोगद्वये अङ्गीक्रियमाणे, वाशब्दः पक्षाऽन्तरद्योतनार्थः। द्वयोरपि साकाराऽनाकारोपयोगयोरेकत्वं प्राप्नोति, तुल्यकाल-भावित्वादिति। अत्रोत्तरम्- इह यथा जीवस्वाभाव्यादेः सर्वस्यापि केवलिन एकस्मिन् समये एकतरएवोपयोगो भवति, न द्वौ, "सव्वस्स केवलिस्सा, जुगवं दो नत्थि उवओगा''इति वचनात्। यथा चाऽयमेकैकसमये उपयोग उपपद्यते, तथा विशेषावश्यकादिषु श्रीजिनभद्रक्षमाश्रमणादिभिः पूर्वसूरिभिः सप्रपञ्चमुपदर्शित इति ने होपदर्शितः, गृन्थगौरवभयात् / द्वितीयपक्षानुपपत्तिनोदना त्वनभ्युपगतोपालम्भत्वादाकाशरोमन्थनमिव केवलं भवतः प्रयासकारिणीति। Page #977 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवण्णवाय 793 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अवण्णवाय अथ धर्माऽऽचार्याऽवर्णवादमाह - जच्चाईहिं अवन्नं, भासइ वट्टइ न यावि उववाए। अहितो छिद्दप्पेही, पगासवादी अणणुकूले। जात्या, आदिशब्दात कुलादिभिश्च दोषैरवर्ण भाषते / यथा- नैते विशुद्धजातिकुलोत्पन्नाः, नवा लोकव्यवहारकुशलाः, नाऽप्येते औचित्यं विदन्तीत्यादि / न चाऽपि वर्तते उपजाते गुरूणां सेवावृत्ती, अहितोऽनुचितविधायी, छिद्रप्रेक्षीमत्सरितया गुरो र्दोषस्थाननिरीक्षणशीलः, प्रकाशवादी, सर्वसमक्षं गुरुदोषभाषी, अननुकूलो गुरूणामेव प्रत्यनीकः, क्रूरबालकवत् / एष धर्माऽऽचार्याऽवर्णवादः / अथ ] सर्वसाधूनामवर्णवादमाह - अविसहणाऽतुरियगई, अणाणुवत्तीय अवि गुरूणं पि। खणमित्तपीयरोसा, गिहिवच्छलकाऽइसंचइआ॥ अहो ! अमी साधवोऽविषहणाः,न कस्याऽपि पराभवं सहन्ते, अपितु स्वपक्षपरपक्षाऽपमाने संजाते सति देशाऽन्तरं गच्छन्ति / (तुरियगइत्ति)अकारप्रश्लेषादत्वरितगतयो मायया लोका-ऽऽवर्जनाय मन्दगामिनः / अननुवर्तिनः प्रकृत्यैव निष्टुराः गुरूणा-मपि महतामपि, आस्तां सामान्यलोकस्येत्यपिशब्दार्थः / द्वितीयोऽपि शब्दः / संभावनायाम् / संभाव्यन्त एवंविधा अपि साधव इति / क्षणमात्रप्रीतिरोषाः, तदैव रुष्टाः, तदैव च तुष्टाः। अनवस्थितचित्ता इत्यर्थः / गृहिवत्सलाः, तैस्तैश्चाटुवचनैरात्मानं गृहस्थस्य रोचयन्ति / अतिसंचयिनः, सुबहुवस्त्रकम्बला-ऽऽदिसंग्रहशीलाः, लोभबहुला इति भावः / अत्र निर्वचनानि -इह साधवः स्वपक्षाऽऽदि-अपमाने यद् देशाऽन्तरं गच्छन्ति तदप्रीतिकपरोपतापादिभीरुतया, न पराभवाऽसहिष्णुतया / अत्वरितगतयोऽपि स्थावरत्रसजन्तुपीडापरिहारार्थं , न तु लोकरञ्जनार्थम् / अननुवर्तिनोऽपि संयमबाधाविधायिन्या अनुवर्तनाया अकरणात्, न प्रकृतिनिष्ठुरतया। क्षणमात्रप्रीति रोषा अपि प्रतनुकषायतया, न निर्व्यवस्थितचित्ततया / गृहि-वत्सला अपि कथं नु नामाऽमी धर्मदेशनादिना यथानुरूपोपायेन धर्म प्रतिपद्येरन्निति बुद्ध्या, न पुनश्चाटुकारितया / संचयवन्तोऽपि मा भूदुपकरणाऽभावे संयमाऽऽत्मविराधनेतिबुद्ध्या,न तु लोभबहुलतयेत्युत्तरम् / बृ०१ उ० (अर्ह तामवर्ण वदन्, अर्हत्प्रज्ञप्तस्य धर्मस्याऽवर्ण वदन, आचार्योपाध्यायानामवर्ण वदन, चातुर्वर्णस्य सङ्घस्य चाऽवर्णं वदन् उन्मादं प्राप्नुयादिति ' उम्माद' शब्दे द्वितीयभागे 848 पृष्ठे वक्ष्यते) ज्ञान्यवर्णवादेन ज्ञानावरणीयं कर्म बध्यते। कर्म०१ कर्म०। अत्र प्रायश्चित्तमाहजे मिक्खू धम्मस्स अवण्णं वदइ, अवण्णं वदंतं वा साइजइ / / 112|| धृ धारणे, धारयतीति धर्मः / ण वन्नो अवन्नो णाम-अयसो, अकीर्तिरित्यर्थः / वद व्यक्तायां वाचि। दुविहो य होइ धम्मो, सुयधम्मो चरणधम्मो य। सुयधम्मो खलु दुविहो, सुत्तं अत्थे य होति णायव्वा // 23 // दुविहो य चरणधम्मो, अगारमणगारियं चेव। दुविहो तस्स अवण्णो, देसे सव्वे य होति नायव्वा // 24 // मूलगुणउत्तरगुणे, देसे सव्वे य चरणधम्मो उ। अह देस एत्थ लहुगा, सुत्ते अत्थम्मि गुरुमादी॥२५॥ सव्वम्मि तु सुयणाणे, भूया वा ते य भिक्खुणो मूलं / गणि आयरिए सपदं, उदाणमावजणा चरिमं / / 26 / / गिहिणं मूलगुणेसू, देसे गुरुगातु सव्वहिं मूलं / उत्तरगुणेसु देसे, लहुगा गुरुगा तु सव्वेसिं // 27 // मूलगुणउत्तरगुणे, गुरुगा देसम्मि होंति साहूणं। सुत्तणिवातो देसे, तं सेवंतस्स आणादी॥२८|| सामादियमादी उ, सुयधम्मो जाव पुव्वगतं / सामाइयरोई एक्कारसमा उ जाव अंगा तो // 26 // पंचविहो सज्झाओ सुयधम्मो / सो पुणो दुविहो- सुत्ते,अत्थे य।चरित्तधम्मोदुविहो-अगारधम्मो, अणगारधम्मोया एकेको दुविहोमूलुत्तरगुणे सु देसे सव्वे वा / सुयधम्मे अवण्णं वदति / एवं चरिते दुविहो अवण्णो ! सुत्तस्स देसे चउलहुगा, अत्थस्स देसे चउगुरुगा, सव्यसुयस्सअवण्णे भिक्खुणो मूलं, अभिसेयस्स अणवठ्ठो, गुरुगो चरिमं / एयं दाणपच्छित्तं / आवजणाए तिण्ह वि सव्वे सुत्ते अत्थेवा पारंचियं। गिही मूलगुणेसु जदि देसे अवन्नं वदति,तो चउगुरुगं, सव्यहि मूलं, गिही उत्तरगुणेसु जदि देसे अवन्नं वदति, तो चउलहुगा। गिहीणं सव्वुत्तरगुणेसु गुरुगा। साहूणं मूलगुणेसु वा जदि देसे अवन्नं वयति, तो चउगुरुगा / दोसु वि सव्वेसु मूलं / एत्थ अत्थस्स देसे गिहीण य मूलगुणदेसे / साहूण य उत्तरगुणदेसे सुत्तणिवातो भवति। एवं अवन्नवायं सेवंतस्स आणादिया दोसा भवंति / पुव्वद्धं गतार्थत्वात् कंठं, सुयस्स सामादियादि जाव एक्कारस अंगा ताव देसो, एवं चेव सह पुव्वगएण सव्वसुयं / कहं पुण वदेतो आसादेंत? - जीव विरहिए पेहा, जीवाउलमुग्गदंडता मायं। दोसो य परकडेसू, चरणे एमादिया देसे // 30 // काया वया य ते चिय, ते चेव पमायअप्पमाया य। जोतिसजोइणिमित्तेहिं किं व वेरग्गपवणाणं // 31|| (जीवविरहिए वि) जीवेहिं विरहिते जाव पडिलेहणा कजति, सा निरत्थिया, जीवाउले वा लोगे चंकमणादिकिरियं करेंतो कह निद्दोसो ? परित्तेगिंदियाण य संघट्टणे मासलहु, दाणे एवं, अप्पावराहे उग्गदंडया अजुत्ता / जं च बितियपदेण माया यमण भणियं, तं पि अजुत्तं, आहाकम्मादिएसुपरकडेसु को दोसो ? एवमादि चरणस्स देसे अवन्नो। सर्वं यमनियमात्मकं चारित्रं कुशलपरिकल्पितम् / एष सर्वाऽवर्णवादः / इमेरिससुत्ते अवन्नं वदति-(काया वया)अयुत्तं पुणो पुणो कायवयाण वन्नणं, पमायापमादाण य, किं वा वेरग्गपवणाणं जोतिसेण, जोणीपाहुडेण वा, णिमित्तेण वा सव्यं वा वदेत भासाणिवढं / एवमादिसु य आसायणा / एवं अवन्नं वदें तो आणादिया य दोसा, सुयदेवया वा खित्तादिचित्तं करेज, अन्नेण वा साहुणा सहसंखड भवेकीस अवन्नं भाससि त्ति? जम्हा एते दोसा, तम्हा णो अवन्नं वदे। कारणे वदेज्जा वि - बितियपदमणप्पज्झे, वएज अवि कोविते व अप्पज्झे। जाणते वा वि पुणो, भयऽवत्तव्वादिसू चेव // 32 // Page #978 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवण्णवाय 794 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अवद्धंस अणप्पज्झो वा अवि कोवितो, सो वा वएज्ज अवत्तव्वादिसु वि, जो | उंबरकडकुसुममालिया सुरभी। वरतुरगस्स वि रायइ, ओलइया अवन्नवादपक्खगगहणं करेति, सोय जे रायादिबलवन्तो तब्भया वदेन, | अग्गसिंगेसु।।१।। बृ०१ उ० ण दोसा। निचू०११ उ०। (अधर्मस्याऽवर्णवादः 'अहम्म' शब्दे अत्रैव | अवत्थव-त्रि०(अवास्तव) वस्तु पदार्थः, तस्येदं वास्तवम् / भागेऽग्रे वक्ष्यते। रात्रिभोजनस्याऽवर्णवादो 'राइभोयण' शब्दे प्रेक्षणीयः) नवास्तवमवास्तवम्। परसंयोगोद्भवे, अष्ट०१ अष्ट०। अवण्णा-स्त्री०(अवज्ञा) अनादरे, औषो। अवत्था-स्त्री०(अवस्था) भूमिकायाम्, हा०२६ अष्ट०। अवण्हवण-न०(अवह्नवन) मृषादण्डे, आचा०१ श्रु०५ अ०१ उ०। अवत्थातिग-न०(अवस्थात्रिक)दशाविशेषत्रयेछद्मरथा वस्थाकेवअवण्हाण-न०(अपस्ना) तथाविधसंस्कृतजलेन स्नाने। विपा०१ श्रु०१ ल्यवस्थासिद्धावस्थास्वभावे जिनानां छद्मस्थकेवलि-सिद्धत्वे, दर्श०। अ०स्नेहाऽपनयनहेतुद्रव्यसंस्कृतजलेन स्नाने, ज्ञा०१३ अ०। अवत्थापरिणाम-पुं०(अवस्थापरिणाम) घटस्य प्रथमद्वितीययोः क्षणयोः अवतट्ठ-त्रि०(अवतष्ट) तनूकृते, सूत्र०१ श्रु०५ अ०२ उ०। सदृशयोरन्वयित्वेनेवपरिणामे, द्वा०२४ द्वा०। अवत्त-पु०(अव्यक्त) अद्याऽप्यपरिणततवयसि, बृ०१ उ०। शब्दोऽयं अवस्थाभरण-न०(अवस्थाभरण) अवस्थोचिते आभरणे, स्था०८ ठा०। रूपादि इत्यादिना प्रकारेणाऽनिर्देश्ये, विशे०। छगणलिम्पनादिना अवत्थिय-त्रि०(अवस्तृत) प्रसारिते, ज्ञा०८ अ० संस्कृते, ध०३ अधिा स्था०। अवत्ता नाम वसतिः, छगणमृत्ति-काभ्यां अवत्थु-न०(अवस्तु) असति, आ०म०द्वि०। अविद्यमान जलेन चोपलिप्तभूमितला अव्यक्तस्थानयुक्ता वा, निर्वाता वा / ग०१ वस्त्वभिधेयोऽर्थो यत्र तदवस्तु। अनर्थके, प्रश्न०२ आश्रद्वा० अधि०ा नि००। अगीतार्थे, नि०चू०२ उ०) अवत्थोचित-त्रि०(अवस्थोचित) भूमिकाऽनुरूपे, पञ्चा०१८ विव०। अवत्तव्व-त्रि०(अवक्तव्य) अनुचारणीये, दश०७ अ०) आनुपूर्यनानु अवदग्ग-न०(अवदग्र) पर्यन्ते, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। अवसाने, सूत्र० पूर्वी प्रकाराभ्यां वक्तुमशक्ये द्रव्ये, अनु०। द्विप्रदेशिकस्कन्धो २श्रु०५ अ० ऽवक्तव्यमित्याख्यायते। अनु०॥ अवदल-पुं०[अप(व)दल ] अपदलमपसदं द्रव्यं कारणभूतं मृत्तिकादि अवत्तव्वगसंचिय-त्रि०(अवक्तव्यकसञ्चित) यः परिणाम-विशेषोन कति नाऽप्यकतीति शक्यते वक्तुं सोऽवक्तव्यकः, स चैक इति, तत्सञ्चिता यस्याऽसौ अपदलः / अवदलति वा दीर्यते इत्यवदलः। आमपक्वतया असारे, स्था०४ ठा०४ उ० अवक्तव्यकसञ्चिताः। समये समये एकतयोत्पन्नेषु नैरयिकादिषु, उत्पद्यन्ते हि नारका एकसमये एकादयोऽ-संख्येयान्ताः। उक्तं च- "एगे व दो व अवदाय-पुं०(अवदात) गौरे, प्रश्न०४ आश्रद्वाला तिन्नि व, संखमसंखा य एगसमएणं / उववजंते चइया, उव्वटुंता वि अवदालिय-त्रि०[अवदारि(लि)ता विकाशिते, विवृतीकृते, उपा० एमेव'' ||1|| स्था० 3 ठा०१ उ०) 2 अ० "अवदालियपुंडरीयवयणा (नयणा)" अवदारित अवत्तव्वबंध-पुं०(अवक्तव्यबन्ध) बन्धभेदे, यत्र तु सर्वथाऽबन्धको भूत्या रविकिरणैर्विकाशितं यत्पुण्डरीकं सितपद्यं तद्वद्वदनं मुखं, नयने वा पुनः प्रतिपत्य बन्धको भवति, स आद्यसमये अवक्तव्यबन्धः, अयं येषां ते तथा। जं०२ वक्ष पुनरुत्तरप्रकृतीनामेव भवति, न मूल-प्रकृतीनाम्, तासां अवद्दार-न०(अवद्वार) द्वारिकायाम, ज्ञा०२ अ० "तेण अवहारेणं, सो सर्वथाऽबन्धकस्याऽयोगिके वलिनः सिद्धस्य वा प्रतिपाताभावेन अतिगतो असोगवणियाए" आ०म०द्वि० पुनर्बन्धाऽभावात्। कर्म०५ कर्म०। पं०सं०] अवद्दाहण-न०(अपदाहन) तथाविधदम्भने, विपा०१ श्रु०१ अ०॥ अवत्तव्वा-स्त्री०(अवक्तव्या) अमुत्र स्थितापल्लीति कौशिक-भाषावत्, अवद्धंस-पुं०(अपध्वसं) अपध्वंसनमपध्वंसः / चारित्रस्य तत्फलस्य सावद्यत्वेनाऽनुचारणीयायां भाषायाम्, दश०७ अ० चाऽसुरादिभावनाजनिते निवासे, स्था। अवत्तसत्थको डि-पुं०(अवाप्तस्वास्थ्यकोटि) अवाप्ता लब्धा चउविहे अवद्धंसे पण्णत्ते / तं जहा- आसुरे, अभियोगे, स्वास्थ्यकोटिरनाबाधताप्रकर्षपर्यन्तो यैस्ते तथा / सिद्धेषु, हा०३२ संमोहे, देवकिदिवसे। अष्टा तत्राऽसुरभावनाजनित आसुरो येषु चाऽनुष्ठानेषु वर्तमानोअवत्तासण-न०(अवत्रासन) बाहुभ्यां स्त्रिया निष्पीडने कामाऽङ्गे, ऽसुरत्वमर्जयति। तैरात्मनो वासनमासुरभावना। एवं भावना-ऽन्तरमपि। नि०चू०१ उ०। अभियोगभावनाजनितः अभियोगः, संमोह-भावनाजनितः संमोहः, अवत्थंतर-न०(अवस्थाऽन्तर) दशाविशेषे, द्वा०११ द्वार। पर्यायाऽन्तरे, देवकिल्विषभावनाजनितो देवकिल्विष इति / इह च कन्दर्पभावनापञ्चा०१८ विव०॥ जनितः कन्दर्पोऽपध्वंसः पञ्चमोऽस्ति, स च सन्नपि नोक्तः / अवत्थग-न०(अपार्थक)पौर्वापर्याऽयोगादप्रतिसंबद्धाऽर्थे सूत्रदोषे, यथा चतुःस्थानकाऽनुरोधात्। भावना हि पञ्चाऽऽगमेऽभिहिताः। आह च-"कंदप्प दश दाडिमानि, षडपूपाः कुण्डं बदराणि / आ०म०द्विा प्रश्ना विशे० १देवकिव्विस 2, अभिओगा ३आसुराय 4 संमोहा 5 / एसा उसंकिलिट्ठा, यस्याऽवयवेष्वर्थो विद्यते, न समुदाये, असंबद्धमित्यर्थः / यथा- शङ्खः पंचविहा भावणा भणिया" ||1 // आसां च मध्ये यो यस्यां भावनायां वर्तते, कदल्या, कन्दली भेर्याम्। अथवा- वंजुलपुप्फुम्मीसा, / स तद्विधेष्वेव देवेषु गच्छति, चारित्रलेशप्रभावात् / उक्तं च Page #979 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवद्धंस 795- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अवयण अवमार-पुं०(अपस्मार) चित्तविकृतिजे गदे, स च वातपित्तश्लेष्मसंनिपातजत्वाच्चतुर्धा। तदुक्तम् - "भ्रमाऽऽवेशः ससंरम्भोद्वेषोद्रेको हतस्मृतिः। अपस्मार इति ज्ञेयो, गदो घोरश्चतुर्विधः" // 1 // आचा०१ श्रु०६ अ०१ उन अवमारिय-त्रि०(अपस्मारित) अपस्मारः संजातोऽस्य। अपस्माररोगवति अपगतसदसद्विवेकभ्रममूर्छादिकामवस्था-मनुभवति, आचा०१ श्रु०६ अ०१ उ० अवमिय-त्रि०(अवमित) व्रणिते, बृ०३ उ०। अवय-न०(अपद) वृक्षादौ, सूत्र०१ श्रु०११ अ०ा गोशीर्ष-चन्दनप्रभृतौ, सूत्र,१ श्रु०८ अ०। आ०चूला पदहीने, वाच०। * अब्ज-नाप , प्रज्ञा०१ पद। * अवच-त्रि०ाअनुच्चे, उत्त०३ अाजघन्ये, सूत्र०१ श्रु०१० अ०। अवयक्खंत-त्रि०(अवप्रेक्षमाण) पृष्ठतोऽभिमुखं निरूपयति, ओघा अवयक्खमाण-त्रि०(अपेक्षमाण) अपेक्षमाणे, अवकाशति च / "मग्गे रूवाई अवयक्खमाणस्स" अवकाशतोऽपेक्षमाणस्य वा। भ०१०श०२ 30 जो संजओ विएयासु अप्पसत्थासु वट्टइ कहिं चि। सो तविहेसु गच्छइ, सुरेसु भइओ चरणहीणो।।१।। इति / स्था०४ ठा०४ उ०। अवधारियव्व-न०(अवधारयितव्य) संप्रधारणीये, पञ्चा०३ विव०॥ अवधीरिय-त्रि०(अवधीरित) अपमानिते, बृ०४ उ०। अवधूय-पुं०(अपधूत) अव-धू- क्त / अभिभूते, निवर्तिते, चालिते, अनादृते च। 'यो विलध्याऽऽश्रमान्वर्णान्, आत्मन्येव स्थितः पुमान्। अतिवर्णाश्रमी योगी, अवधूतः स उच्यते // 1 // इत्युक्तलक्षणो परमहंसे, वाच०। स्वनामख्याते लौकिके अध्यात्मचिन्तके आचार्ये, यदाहाऽवधूताऽऽचार्यः - न प्रत्ययाऽनुग्रहमन्तरेण तत्त्वशुश्रूषादयः, उदकं पयोऽमृतकल्पज्ञाना-ऽजनकत्वात् / ला विक्षिप्ते, आव०४ अ० अवप्पओग-पुं०(अवप्रयोग) विरुद्धौषधियोगे, बृ०१ उ०। अवबद्ध-त्रि०(अवबद्ध) अर्थग्रहणपूर्वक विद्याऽऽदिग्रहणनिमित्तं विवक्षितकालपरायत्ते, ध०३ अधि०। ग० अवबुद्ध-त्रि०(अवबुद्ध) अवगते, अने०२ अधिका अवबोह-पुं०(अवबोध) निद्रापरिहारे, ध०२ अधि०। ज्ञानित्वे, विशे०। संज्ञायाम, स्मृतौ, संज्ञा, स्मृतिरवबोधः, इत्यनर्थाऽन्तरम्। आचा०१ श्रु०१ अ०१ उ०। अवबोहण-न०(अवबोधन) प्रतारणे, वञ्चने, शिक्षणे च / द्रव्या०८ अध्या अवबोहि-पुं०(अवबोधि) निश्चयाऽर्थप्रतिपत्ती, आ०चू०१ अ०॥ अवभंस-पुं०(अपभ्रंश) अपभ्रश्यते इत्यपभ्रंशः / संस्कृतभाषाविकृतौ,'षष्ठोऽत्र भूरिभेदो देशविशेषादपभ्रंशः" तत्परिज्ञानमेकोनत्रिंशः कलाभेदः / कल्प०७ क्ष०ा अवमास-पुं०(अवभास) तेजसो ज्ञानस्य च प्रतिभासे, सू०प्र० 3 पाहु०। अवभासिय-त्रि०(अवभासित) प्रकाशिते, विशे०। * अपभाषित-त्रिका दुष्टभाषिते, व्य०१ उ०॥ अवमण्णंत-त्रि०(अवमन्यमान) परिहरति, "माएयं अवमन्नंता, अप्पेणं लुपहा बहु"। सूत्र०१ श्रु०३ अ०४ उ०) अवमह-पुं०(अपमर्द) अपवर्तने, “अवमई अप्पणो परस्स य करे ति" / प्रश्न०२ आश्र० द्वार। अवमाण-न०(अपमान) अनादरे, उत्त०१६ अ० विनयभ्रंशे, प्रश्न०५ आश्रद्वार * अवमान-न०। हस्तादौ द्रव्यप्रमाणे, स्था०४ ठा०१ उ०। अवमाणण-न०(अपमानन) यूयमित्यादिवाच्ये त्वमित्यादिरूपे अपूजावचने, प्रश्न०५ संव० द्वार। अनभ्युत्थानादिभिः अपूजने, औ०। प्रश्न अवमाणिय-त्रि०(अपमानित) अपमानं ग्राहिते, ''अवमाणिनो नरिन्देण" / व्य०१ उ०। बृ०॥ अवमाणियदोहला-स्त्री०(अवमानितदोहदा) क्षणमपि लेशेनाऽपि च अनापूर्णमनोरथायाम्, भ०११ श०११ उ०। अवयग्ग-न०(देशी) पर्यन्ते, स्था०३ ठा०१ उ०। "अवयग्गं'' इति देशीवचनोऽन्तवाचकः। भ०१ श०१ उ०। अवयज्झ- धा०(दृश्) "दृशो निअच्छ०।८।४।१८१। इत्यादिना दृशेरवयज्झाऽऽदेशः / अययज्झइ, पश्यति / प्रा०४ पाद। अवयण-न०(अवचन) नञः कुत्सार्थत्वात् कुत्सिते वचने, स्था०६ठा०। अवचनानि नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा इमाई छ अवयणाई वइत्तए / तं जहा- अलियवयणे, हीलियवयणे, खिंसियवयणे, फरुसवयणे, गारत्थियवयणे, विउवसमियं वा पुणो उदीरित्तए। (नो कप्पइत्ति) वचनव्यत्ययाद्नो कल्पन्ते निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां वा इमानि प्रत्यक्षाऽऽसन्नानि, षडिति षट्संख्याकानि, अवचनानि नत्रः कुत्सार्थत्वादप्रशस्तानि वचनानि, वदितुं भाषितुम् / तद्यथाअलीकवचनं, हीलितवचनं, खिसितवचनं, परुषवचनम्, अगारस्थिता गृहिणस्तेषां वचनं, व्यवशमितं वा उपशमितकरणं, पुनः भूयोऽपि, उदीरयितुंन कल्पत इतिक्रमः। अनेन व्यवशमितस्य पुनरुदीरणवचनं नाम षष्ठमवचनमुक्तमिति सूत्रसंक्षेपार्थः। अथ भाष्यकारो विस्तरार्थमभिधित्सुराह - छच्चेव अवत्तव्वा, अलिगे हीलीय-खिस-फरुसेय। गारत्थ-विओसमिए, तेसिंच परूवणा इणमो। षडे वाऽवचनान्यवक्तन्यानि साधूनां वक्तुमयोग्यानि / तद्यथाअलीकवचनं, हीलितवचनं खिसितवचनं, परुषवचनं, गृहस्थवचनं, व्यवशमितोदीरणवचनम्, तेषां च षण्णामपि यथा-क्रममियं प्ररूपणा। बृ०६ उ० (अलीकवचनव्याख्यास्मिन्नेव भागे 'अलियवयण' शब्दे 774 पृष्ठे निरूपिता) Page #980 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवयण 796 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अवयव अत्र प्रायश्चित्तम् - एमेव य हीलाए, खिसा फरुसवयणं च वदमाणो। गारत्थ-विओसमिए, इमं च जंतेसि णाणत्तं / / एवमेव हीलितवचनं, खिसावचनं, परुषवचनमगारस्य वचनं, व्यवशमितोदीरणवचनं च वदतः प्रायश्चित्तं मन्तव्यम्। यच एतेषां नानात्वं तदिदं भवति आदिल्लेसुं चउसु, विसोहि गुरुगादि भिन्नमासंता। पणुवीसओ विभाओ, विसेसितो बितिय पडिलोमं / / आदिमेषु चतुर्यपि हीलितखिंसितपरुषगृहस्थवचनेषुशोधिश्चतुर्गुरुकादिका भिन्नमासान्ता आचार्यादीनां प्राग्वद् मन्तव्या। तद्यथा- आचार्य आचार्य हीलयति चतुर्गुरु 1, उपाध्यायं हीलयति चतुर्लघु 2, भिक्षु हीलयति मासगुरु 3, स्थविरं हीलयति मासलघु ४,क्षुल्लक हीलयति भिन्नमासः 5 / एतान्याचार्यस्य तपःकालाभ्यां गुरुकाणि भवन्ति, एते आचार्यस्य पञ्च संयोगा उक्ताः। उपाध्यायादीनामपि चतुर्णामवमेव पञ्च पञ्च संयोगा भवन्ति। सर्वसङ्ख्यया ते पञ्चविंशतिर्भवन्ति। अत एवाऽऽहपञ्चविंशतिकः पञ्चविंशतिभङ्गपरिमाणो विभागोऽत्र भवति / स च तपःकालाभ्यां विशेषितः कर्तव्यः / द्वितीयाऽऽदेशेन चैतदेव प्रायश्चित्तं प्रतिलोमं विज्ञेयम्, भिन्नमासाद्यं चतुर्गुरुकान्तमित्यर्थः / एवं खिसितः परुषगृहस्थवचनेष्वपिशोधिर्मन्तव्या। बृ०६ उ०। __अथ द्वितीयपदमाह - पढम विगिचणट्ठा, उवलंभविर्गिचणा य दोसु भवे / अणुसासणा य देसी, छट्टे य विगिचणा भणिता।। प्रथममलीकवचनमयोग्यशैक्षस्य विवेचनार्थ वदेत, द्वयोस्तु हीलितखिंसितवचनयोर्यथाक्रममुपालम्भविवेचने कारणे भवतः शिक्षादानम्, अयोग्यशिक्षापरित्यागश्चेत्यर्थः / परुषवचनं तु परसाध्यस्याऽनुशासना कुर्वन, गृहस्थवचनं पुनर्देशी देशभाषामाश्रित्य भणेत् / षष्ठे च व्यवशमितोदीरणवचने, शैक्षस्य विवेचन कारणं भणितम् / गाथायां स्त्रीत्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् / इति द्वारगाथासमासार्थः / अथैना विवरीषुराह - कारणिए दिक्खंता, तरियम्मि कजे जहंति अणलं तु / संजमजसरक्खट्ठा, होट्टुं दाऊण य पलाई। कारणे अशिवादावनलोऽयोग्यः शैक्षो दीक्षितः, ततस्तरिते समापिते तस्मिन् कार्ये तमनलं जहति / कथम् ? इत्याह-संयमयशोरक्षार्थ, संयमस्य, प्रवचनयशःप्रवादस्यच रक्षणार्थ, 'होटुं' गाढमलीकं दत्त्वा पलायन्ते, शीघ्रमन्यत्र गच्छन्तीत्यर्थः / यः पुनराचार्यः समाचार्या, सारणादिप्रदाने वा सीदति, तमुद्दिश्येत्थं हीलितवचनं वदेत् - केण स गणि त्ति कतो, अहो ! गणी भणति वा गणिं अगणिं / एवं तु सीयमाणस्स, कुणति गणिणो उवालंभं / / केनाऽसमीक्षितकारिणाऽयं गणीकृतः। यता- अहो ! अयं गणी, अथवा गणिनमप्यणिनं भणति / एवं गणिनः सामाचार्या शिक्षादाने वा विषीदने उपालम्भं करोति। अगणिं व भणाति गणिं, जदि नाम पठेज गारवेण वितं। एमेव सेसएसु वि, वायगमादीसु जोएज्जा।। यदि कोऽपि बहुशोऽपि भण्यमानो न पठति, ततस्तमगणिनमपि गणिनं भणति, यदि नाम गौरवेणाऽपि पठेत् / एवमेव शेषेषु अपि वाचकादिषु पदेषु द्वितीयपदं योजयेद्, योजनां कुर्यात्। खिंसावयणविहाणा,जे चिय जातीकुलादिया वुत्ता। कारणियदिक्खियाणं, ते चेव विगिचणोवाया / / खिंसावचनविधानानि यान्येव जातिकुलादीनि पूर्वमुक्तानि, त एव कारणिकदीक्षितानामयोग्यानां कारणप्रव्रजितानां विवेचने परिष्ठापने उपायामन्यव्याः। खरसज्झं मउयवयं, अगणेमाणं भणंति फरुसं च / दव्वओ फरुसवयणं, वयंतिदेसिं समासज्ज। इह यः कठोरवचनभणनमन्तरेण शिक्षां न प्रतिपद्यते, स खरसाध्य उच्यते / तं खरसाध्यं मृदुवाचमगणयन्तं परुषमपि भणन्ति / देशी देशभाषां समासाद्य द्रव्यतः परुषवचनमपिवदन्ति, द्रव्यतो नामन हृष्ट भावतया परुष भणन्ति, किन्तु तत्स्वाभाय्यात्, यथामालदास्वामिन्निति, अथवा यथा यथा लोको भणति, तथा तथा देशी देशभाषामाश्रित्य साधवोऽपि भणन्ति। खामियदोसवियाई, उप्पाएऊण दव्वतो रुट्ठो। कारणदिक्खिय अनलं, असंखडीओ त्ति धाति॥ यः कारणे अनलो दीक्षितस्तेन समं समापिते कार्य पुनः क्षामितव्युत्सृष्टान्यधिकारणान्युत्पाद्य द्रव्यतो दुष्टभावं विना रुष्टो कुपितो बहिः कृत्रिमान् कोपविकारान् दर्शयन्नित्यर्थः / असंखडिकोऽयमिति दोषमुत्पाद्य तमनलं शैक्षं धाटयति, गच्छात् निष्कासयति। वृ०६ उ०। अवयव-पुं०(अवयव) अवयविन एकदेशे, अनु०। अनुमिति-वाक्यैकदेशेषु, ते च पञ्च-प्रतिज्ञाहेतूदाहणोपनयनिगमनानि अवयवाः / दश०१ अ०। सूत्र०ा दशाऽवयवा वा- प्रतिज्ञा प्रतिज्ञाविशुद्धिः, हेतुर्हेतुविशुद्धिः, दृष्टान्तो दृष्टान्तविशुद्धिः, उपसंहार उपसंहारविशुद्धिः, निगमनं निगमनविशुद्धिः / दश०१ अ० से किं तं अवयवेणं ? अवयवेणं, जहासिंगी सिही विसाही, दाढी पक्खी खरी नही बाली। दुपय चउप्पय बहुपय, लंगूली केसरी कउही / / 1 / / परिअरबंधणमड जाणिज्जा महिलिअं निवसणेणं। सित्थेण दोणवायं, कविंच एक्काएँ गाहाए // 2 // से तं अवयवेणं। (से किं तं अवयवेणमित्यादि) अवयवोऽवयविन एकदेशः, तेन नाम यथा-'सिंगी सिहीत्यादि'गाथा / शृङ्गमस्याऽस्तीति शृङ्गीत्यादीन्यवयवप्रधानानि सर्वाण्यपि सुगमानि, नवरं द्विपदं स्त्र्यादि, चतुष्पदं गवादि, बहुपदं कर्णशृङ्गाल्यादि। अत्राऽपि पादलक्षणावयवप्रधानता भावनीया ।(कउहित्ति)ककुदं स्कन्धाऽऽसन्नोन्नतदेहावयवलक्षणमस्यास्तीति ककुदी वृषभ इति / 'परिअर' गाथा / परिकरबन्धेन विशिष्टनेपथ्यरचनालक्षणेन, भटं शूरपुरुष, जानीयाल्लक्षयेत् / तथा- निवसनेन विशिष्ट रचनारचितपरिहितपरिधानलक्षणेन महिला स्त्री, तां जानीयादिति सर्वत्र संबध्यते / धान्यानां द्रोणस्य पाकः स्विन्नतारूपः, तं च तन्मध्याद् गृहीत्वा निरीक्षितेनैकेन सिक्थेन जानीयात् / एकया च गाथया लालित्यादिकाव्यधर्मोपेतया श्रुतया कविं जानीयात् / एवमत्राऽभिप्रायःयदा स नेपथ्यपुरुषाद्यवयवरूपपरिकर बन्धादिदर्शन-द्वारेण भटमहिलापाककविशब्दप्रयोगं करोति, Page #981 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवयव ७९७-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अवराइया तदा भटादीन्यपि नामान्यवयवप्रधानतया प्रवृत्तत्वादवयव नामान्युच्यन्त ज्ञा०१ अ०। (तत्र हताया द्रौपद्या आनयनाय कृष्णस्य गमनं 'दवई' इति, इह तदुपन्यास इति / इदं चाऽवयवप्रधानतया प्रवृत्तत्वात् शब्दे वक्ष्यते) एतदर्थप्रतिपादके ज्ञाताधर्मकथायाः षोडशेऽध्ययने, सामान्यरूपतया प्रवृत्ताद् गौणनाम्नो भिद्यत इति / अनु०॥ स०१८ सम०। प्रश्न०। ज्ञा०। आव०। स्था० "कण्हस्सऽवरकंका" अवयवि(ण)-त्रि०(अवयविन) प्रदेशिद्रव्ये, स्था०ा रत्ना०। कृष्णस्य नवमवासुदेवस्य द्रौपदीनिमित्तमपरकङ्कागमनमाश्चर्यम् / कल्प०२क्ष० नन्ववयविद्रव्यमेव नाऽस्ति, विकल्पद्वयेन तस्याऽयुज्यमानत्वात्, खरविषाणवत् / तथाहि- अवयविद्रव्यमवयवेभ्यो भिन्नम्, अवरच्छ-न०(अपरोक्ष) अविद्यमानानि परेषामक्षीणि द्रष्टव्यतया यत्र, अभिन्नं वा स्यात् ? न तावदभिन्नम् / अभेदे हि अवयविद्रव्यव तदपरोक्षम्। असमक्षे, त्रिंशत्तमे गौणचौर्ये च। प्रश्न०३ आश्र० द्वार। दवयवानामेकत्वं स्यात्, अवयववद्वाऽवयविद्रव्यस्याप्यने क- अवरज्झंत-त्रि०(अपराध्यत्) दोषमावहति, सूत्र०१ श्रु०३ अ० त्वं स्यात्, अन्यथा भेद एव स्यात्, विरुद्धधर्माध्यासस्य भेद- ३उवा रजसा श्लिष्यमाणे, सूत्र०१ श्रु०१ अ०३ उ०ा नश्यति, उत्त०७ निबन्धनत्वदिति / भिन्नं चेत् तत् तेभ्यः, तदा किमवयविद्रव्यं अग प्रत्येकमवयवेषु सर्वात्मना समवैति, देशतो वेति ? यदि सर्वात्मना अवरह-पुं०(अपराह्न) दिनस्य चरमप्रहरे, स्था०४ ठा०२ उ०॥ तदाऽवयवसंख्यमवयविद्रव्यं स्यात. कथमेकत्वं तस्य ? अथ "पुव्वावरणहकालसमयंसि" ! पाश्चात्त्यापराह्नकालसमयो दिनस्य देशैः समवैति, ततो यैर्देशैरवयवेषु तद् वर्तते, तेष्वपि देशेषु चतुर्थप्रह रलक्षणः। नि०३ वर्ग। तत्कथं प्रवर्तते- देशतः, सर्वतो वा ? सर्वतश्चेत्, तदेव दूषणम् / अवरहकाल-पुं०(अपराह्नकाल) सूर्यस्य गतिपरिणतस्य पश्चिमेन गमने, देशतश्चेत्तेष्वपि देशेषु कथम्? इत्यादिरनवस्था स्यादिति। आ०चू०१ अ०॥ अत्रोच्यते- यदुक्तं विकल्पद्वयेन तस्याऽयुज्यमानत्वादिति। तदयुक्तम्। अवरत्त-पुं०(अपररात्र) रात्रेरपरे भागे, स्था०४ ठा०२ उ०। 'पुव्वा-ऽवरएकान्तेन भेदाभेदयोरनभ्युपगमात् / अवयवा एव हि तथाविधैकपरिणामतया अवयविद्रव्यतया व्यपदिश्यन्ते, त एव च रत्तकालसमयंसि" / विपा०१ श्रु०६ अ०। तथाविधविचित्रपरिणामाऽपेक्षया अवयवा इति / अवयवि-द्रव्याऽभावे अवरदारिय-न०(अपरद्वारिक) पश्चिमद्वारिकेषु नक्षत्रेषु, स० तु एते घटावयवा एते च पटावयवा इत्येवमसङ्कीर्णा-ऽवयवव्यवस्था न 7 सम०। 'पुस्साइया णं सत्त णक्खत्ता अवरदारिया पण्णत्ता। स्यात्। तथाच प्रतिनियतकार्यार्थिनां प्रति-नियतवस्तूपादानं नस्यात्, तंजहा- पुस्सो, असिलेसा, मघा, पुव्वाफग्गुणी, उत्तराफग्गुणी, हत्थो, तथा च सर्वमसमञ्जसमापनीपद्येत / सन्निवेशविशेषाद्धटाद्यवयवानां चित्ता" / स्था०४ ठा०४ उ०। प्रतिनियतता भविष्यतीति चेत् ? सत्यम्, के वलं स एव अवरदाहिण-पुं०(अपरदक्षिण) अपरदक्षिणदिग्भागे, पञ्चा०२ विव०। सन्निवेशविशेषोऽवयविद्रव्यमिति / यच्चोच्यते- विरुद्धधर्माध्यासो अवरदाहिणा-स्त्री०(अपरदक्षिणा) नैर्ऋत्यां, दिशि, व्य०७ उ०॥ भेदनिबन्धनमिति। तदपि न सूक्तम्। प्रत्यक्षसंवेदनस्य परमार्थापेक्षया अवरद्ध-न०(अपराद्ध) अपराधनमपराद्धम् / पीडाजनकतायाम, पिं०। भ्रान्तत्वेन संव्यवहारापेक्षया त्वभ्रान्तत्वेनाभ्युपगमादिति / यदि नाम विनाशिते, त्रि०ा ज्ञा०१ अ01 भ्रान्तत्वमभ्रान्तत्वं कथमिति ? एवमत्राऽपि वक्तुंशक्यत्वादिति / किञ्च- विद्यते अवयविद्रव्यम्, अव्यभिचारितया तथैव प्रतिभास अवरद्धिय-पुं०(अपराद्धिक) अपराधनमपराद्धम्- पीडाजनकता, मानत्वात, अवयववन्नीलवद्वा / न चाऽयमसिद्धो हेतुः, तथा तदस्यास्तीति अपराद्धिकः। लूतास्फोटे, सऽऽदिदंशे च। पिं०। प्रतिभासस्याऽनुभूयमानत्वात् / नाऽप्यनैकान्तिकत्वविरुद्धत्वे, अवरफाणू-स्त्री०(अपरपाणी) पार्णिकायाम्, व्य०८ उ०। सर्ववस्तुव्यवस्थायाः प्रतिभासाधीनत्वात्। अन्यथा न किञ्चनापि वस्तु अवरमम्मवेहित्त-न०(अपरमर्मवेधित्व) परमर्माऽनुद्घट्टनसिद्ध्येदिति। स्था०१ ठा०१ उ०। रत्ना०। आचा०। सम्म०। स्वरूपत्वे विंशतितमे सत्यवचनाऽतिशये, स०३५ सम०। अवयासण-न०(अवत्रासन) वृक्षादीनां प्रभावेन चालने, पं० व० अवरराय-पुं०(अपररात्र) रात्रेः पाश्चात्त्ये यामद्वये, आचा०१ श्रु० 4 द्वार। 5 अ०३ उ०। * श्लेषण- न० वृक्षादीनामालिङ्गापने, बृ०१ उ०) अवरविदेह-पुं०(अपरविदेह) अपराश्चाऽसौ विदेहश्च / स्था० अवयासाविय-त्रि०(आश्लेषित) आलिङ्गिते, विपा०१ श्रु० 2 ठा०३ उ०। जम्बूद्वीपे पश्चिमतो महाविदेहभागे, स्था०१० ठा०। तत्र 4 अग सदा दुषमसुषमोत्तमद्धिः / स्था०२ ठा०३ उ०। जं०। अवयासेऊण-अव्य०(अवकाश्य) प्रकाश्य प्रकटीकृत्येत्यर्थे, तं०। "दो अवरविदेहाई" स्था०२ ठा०३ उ०! अवर-त्रि०(अपर) अन्यस्मिन्, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। प्रश्न०। नि० चू। अवरविदेहकूड-न०(अपरविदेहकूट) निषधस्य वर्षधरपर्वतस्य सू०प्रज्ञाला 'अवरं वोच्छं' अपरमिति उक्तादन्यद्वक्ष्यामि। सूत्र०१ नीलवर्षधरपर्वतस्य च स्वनामख्याते कूटे, जं०४ वक्ष०ा स्था) श्रु०३ अ०२ उ०। द्वितीयस्मिन्, चं०प्र०३ पाहु०। पश्चात्कालभाविनि, अवरसामण्ण-न०(अपरसामान्य) द्रव्यत्वादौ-सामान्यव्याप्यसामान्ये, आचा०१ श्रु०३ अ०३ उ०। आ०मा पश्चिमे, "अवरेण पभासं ताहे स्या सिंधुदेविं ओवेइ" आ०म० प्र०ा न परोऽपरः / स्वस्मिन, बृ०३ उ०। अवरहा-अव्य०(अपरथा) अन्यथाऽर्थे, पञ्चा०८ विव०। अवरकंका-स्त्री०(अपरकङ्का) धातकीखण्डभरतक्षेत्रराजधान्याम, | अवराइया-स्त्री०(अपराजिता) महावत्सविजयक्षे त्रस्य राज Page #982 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवराइया ७९८-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अवलंबण धानीयुगले, जं०४ वक्ष०ा स्था०। शवविजयक्षेत्रयुगले राजधानीयुगले, अष्टादश सहस्त्राणि, तुरवधारणे, अष्टादशैव, शीलं भाव-समाधिलक्षणं, स्था०२ ठा०३ उ० ज०। उत्ता तस्याऽङ्गानि भेदाः, करणानि वाशीलाङ्गानि, तेषां जिनैः प्रागनिरूपितअवराह-पुं०(अपराध) गुरुविनयलङ्घने, आव०१ अ०॥"एत्थ मे अवराह शब्दाऽर्थः प्रज्ञप्तानि प्ररूपितानि / तेषां शीलाङ्गानां, परिरक्षणार्थ मरिसेह' आ०म०द्विा (अपराधमर्षणे वधूदृष्टान्तोऽन्यत्र)"अवराह- परिरक्षणनिमित्तं, अपराधपदानि प्रागभिहितस्वरूपाणि, वर्जयेद सहस्सघरणीओ'। अपराधसहस्रगृहिणीरूपाः (स्त्रियः), ब्रह्मदत्तमातृ- जह्यादिति गाथार्थः / दश०२ अ०। आ०चू० चुलनीवत्। तं०) अवराहसल्लपभव-त्रि०(अपराधशल्यप्रभव) पृथ्वीसंघट्टादि अतिचारअवराहपय-न०(अपराधपद) मोक्षमार्ग प्रत्यपराधस्थाने, दश०) रूपशल्यनिमित्ते, पञ्चा०१६ विव०। अपराधपदमाह - अवराहुत्त-पुं०(अपराभृत) पश्चान्मुखे,"अवराहुत्तो ठायंति"। आव०४ इंदियविसयकसाया, परीसहा वेयणा य उवसग्गा। अग एए अवराहपया, जत्थ विसीयंति दुम्मेहा।।१८१|| अवरिं-अव्य०(उपरि) "वोपरौ" 5 / 1 / 108 / इति उतोऽत्वम् / इन्द्रियाणि स्पर्शनादीनि, विषयाः स्पर्शादयः, कषायाः क्रोधादयः। "वक्रादावन्तः" / 8/1 / 26 / इत्यनुस्वारागमः / प्रा०१ पाद / इन्द्रियाणि चेत्यादि द्वन्द्वः / परीषहाः क्षुत्पिपासा-5ऽदयः, वेदना प्रथमापञ्चमीसप्तम्यन्ताऽर्थवृत्तेरूवंशब्दस्याऽर्थे, वाच०। अशातानुभवलक्षणाः, उपसर्गा दिव्यादयः / एतान्यपराधपदानि अवरिल्ल-अव्य०(न०) (उपरि) प्रावरणे, "उपरेः संव्याने" / मोक्षमार्ग प्रत्यपराधस्थानानि। यत्र येष्विन्द्रियादिषु सत्सु विषीदन्ति, पा२।१६६॥ इति संव्यानेऽर्थे वर्तमानादुपरिशब्दात्स्वार्थेष्व-विधानात्। आबध्यन्ते। किं सर्व एव ? नेत्याह- दुर्मेधसः, क्षुल्लकवत्। कृतिनस्तु प्रा०२ पाद। एभिरेव कारणीभूतैः संसारकान्तारं तरन्तीति गाथाऽर्थः / क्षुल्लकस्तु | अवरिसण-न०(अवर्षण) अपानीयपाते, दर्श०। पदे पदे विषीदन् संकल्पस्य वशं गतः। कोऽसौ क्षुल्लकः ? कथानकम् अवरुत्तर-पुं०(अपरोत्तर) अपरोत्तरस्यां दिशि, पञ्चा०२ विव०। कुंकणओ जहा एगो खंतो सपुत्तओ पव्वइओ / सो य चेल्लओ तस्स अईव इट्ठो सीयमाणो य भणइ-खंता ! ण सकेमि अणुवाहणो हिंडिउं। अवरुत्तरा-स्त्री०(अपरोत्तरा) वायव्यां दिशि, व्य०७ उ०। अणुकंपाए खंतेण दिण्णाओ उवाहणाओ। ताहे भणइ- उवरितला सीएण अवरोप्पर-न०(अपरस्सर) "परस्परस्याऽऽदिरः" 1111106 // इति फुट्टति / खल्लिता से कयाओ।पुणो भणइ-सीसंमेअईव डज्झइ। ताहे अपभ्रंशे परस्परशब्दस्यादिरकारः / अन्योऽन्यशब्दाऽर्थे, "अवरोप्पर सीसदुवारिया से अणुण्णाया। ताहे भणइ- न सकेमि भिक्खं हिंडिउं। ___ जोहँताहँ, सामिउ गंजिउ जाहँ"। प्रा०४ पाद। तो से पडिसए ठियस्स आणेइ। एवं ण तरामि खंत ! भूमीए सुविउं। ताहे अवरोह-पुं०(अवरोध) अन्तःपुरे, औ०। परचक्रेणाऽऽवेष्टने,नि० चू० संथारो से अणुण्णाओ। पुणो भणइ- ण तरामि खंत ! लोयं काउं। तो 8 उ०। (तत्र भिक्षाटनाऽऽदिव्यवस्था 'उवरोह' शब्दे द्वितीयभागे 607 खुरेण पकिज्जियं / ताहे भणति- अन्हाणयं न सक्के मि / तओ से पृष्ठे द्रष्टव्या) फासुयपाणएण कप्पो दिज्जइ।आयरियपाउगं च जुयलं धिप्पति। एवं जं अवलंब-त्रि०(अवलम्ब) अधोमुखतयाऽवलम्बमाने, औ०। जं भणति, तं तं सो खंतो णेहपडिबद्धो तस्सऽणुजाणति / एवं काले गच्छमाणे पभणिओ-न तरामि अविरइयाए विणा अच्छिउं खंत ! त्ति। अवलंबग-न०(अवलम्बक) दण्डके, व्य०४ उ०। ताहे खंतो भणइ-सढो अजोग्गो त्ति काऊण पडिसयाओ णिप्फेडिओ। अबलंबण-न०(अवलम्बन) अवलम्ब्यत इति अवलम्बनम् / कृद् कम्म काउंण याणइ / अयाणतो छणसंखडीए धणिं काउं अजिण्णेण बहुलमिति वचनात् कर्मण्यनद। विशेषसामान्याविग्रहे, नं०। कथं मओ। विसयविसट्टो मरिउ महिसो आयाओ वाहिजई। सो य खंतो विशेषसामान्यार्थावग्रहोऽवलम्बनम् ? इति चेत् / उच्यते - इह सामण्णपरियागंपालेऊण आउक्खए कालगओ देवेसु उववण्णो, ओहिं शब्दोऽयमित्यपि ज्ञानं विशेषावगमरूपत्वादवायज्ञानम् / तथाहिपउंजइ / ओहिणा आभोएऊण तं चेल्लयं तेण पुव्वणेहेणं तेसिं गाहाणं शब्दोऽयं, नाऽशब्दो रूपादिरिति शब्दस्वरूपावधारणं विशेषाऽवगमः, हत्थओ किणइ। वेउव्वियभंडीए जोएइ वाहेइ य गरुगं तं। अतरंतो वोढुं ततोऽस्माद् यत्पूर्वमनिर्देश्यसामान्यमात्रमव-ग्रहणमेकसामयिकं, स तोत्तएण विंधेउ भणइ-ण तरामि खंता ! भिक्खं हिंडिउं / एवं भूमीए पारमार्थिकोऽर्थावग्रहः / तत ऊर्ध्वं तु यत्किमिदमिति विमर्शनं सा सयर्ण लोय काउं। एवं ताणि वयणाणि उच्चारेति, जाव अविरझ्याए विणा ईहा, तदनन्तरं तु शब्दस्वरूपा-ऽवधारणं, शब्दोऽयमिति न तरामि खंत ! त्ति। ताहे एवं भणंतस्स तस्स महिसस्स इमं चित्तं जायं तदवायज्ञानम्। तत्राऽपियदा उत्तरधर्मजिज्ञासा भवति- किमयं शब्दः - कह एरिसं वक्कं सुअंति? ताहे ईहापूहमग्गणगवेसणं करेइ / एवं शाङ्कः, किंवा शार्ङ्ग:? इति, तदा पाश्चात्त्यं शब्द इति ज्ञानमुत्तरविशेषाचिंतयंतस्स तस्स जातिसरणं समुप्पन्नं / देवेण ओही पउत्ता। संबुद्धो वगमापेक्षया सामान्यमात्रावलम्बनमित्यवग्रह इत्युपचर्यते / स च पच्छा भत्तं पचक्खइत्ता देवलोय गओ''| "एवं पए पर विसीदंतो परमार्थतः सामान्यविशेषरूपार्थावलम्बन इति विशेषसामान्यार्थावग्रह संकप्पस्स वसं गच्छति।जम्हा एसो दोसो, तम्हा अट्ठारससीलंगसह- इत्युच्यते। इदमेव च शब्द इति ज्ञानमालम्ब्य किमयं शाङ्खः, किं वा स्साणं सारणाणिमित्तं एए अवराहपए वजेज्ज। तथाचाऽऽह - शाङ्ग: ? इति ज्ञानमुदयते / ततो विशेषसामान्याऽविग्रहोअट्ठारस उसहस्सा, सीलंगाणं जिणेहिं पन्नत्ता। ऽवलम्बनम् / नं० अवलम्ब्यते इत्यवलम्बनम् / अवतरतामुत्तरतां तेसिंपडिरक्खणट्ठा, अवराहपए उवजेजा॥१२॥ चाऽवलम्बनहेतुभूते अवलम्बनबाहातो विनिर्गतेऽवयवे, जं०१ वक्ष०॥ Page #983 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवलंबण 799 - अभिधानराजेन्द्रः-भाग 1 अवववृणा रा० जी० आ०म०। अवलम्ब्यते इत्यवलम्बनम् / वेदिकायाम्, | अवव-न०(अवव) सङ्ख्याविशेषे, चतुरशीतिरववाङ्गशतसहस्राणि, मस्तकाऽवलम्बे च। नि००। एकमववम्। जी०३ प्रतिका भला कर्म० ज०ा अनु०॥ स्था०। अवलंबणं तु दुविहं, भूमीए संकमे य णायव्वं / अववंग-न०(अववाङ्ग) संख्याविशेषे, चतुरशीतिरडडसहस्राणि, दुहतो व एगतो वा, विवेदिता सा तु णायव्वा / / एकमववाङ्गम्। जी०३ प्रति० कर्म०। अनु०। स्था०] अवलंबणं दुविहं- भूमिए वा, संक्रमे वा भवति / भूमिए विसमे | अववका-स्त्री०(अवपाक्या) तापिकायाम, भ०११श०११ उ०। लग्गणणिमित्तं कजति। संकमे विलग्गणणिमित्तं कज्जति / सो पुण दुहजो अववग्ग-पुं०(अपवर्ग) मोक्षे, आ०म०द्वि०। एगओ य भवति / सा पुण (वेइयत्ति) मतावलंबो, नि०चू० 1 उ०ा भावे अववट्टण-न०(अपवर्तन) कर्मपरमाणूना दीर्घस्थितिकालता-मपगमय्य ल्युट्, करेण बाह्नादि गृहीत्वा धारणे, “सव्वंगियं तु गहणं, करेण अवलंबनं ह्रस्वस्थितिकालतया व्यवस्थापने,पं०सं०५ द्वार। तु देसम्मि'' ति / स्था० 5 ठा०२ उ०। (पर्वतादौ पतन्त्या निन्थ्या अवलम्बनं 'गहण' शब्दे वक्ष्यते) अववट्टणा-स्त्री०(अपवर्तना) अपवय॑ते ह्रस्वीक्रियते स्थित्यादि यया साऽपवर्तना। स्थित्यनुभागयोर्हस्वीकरणे, क०प्र०) अवलंबणया-स्त्री०(अक्लम्बनता) अवलम्बनस्य भावो-ऽवलम्बनता, अवग्रहे, नंग तत्र तावत् स्थितिविषयाऽपर्वतनामाह - ओवटुंतोय ठिइं, उदयावलिबाहिरा ठिइविसेसा। अवलंबणबाहा-स्त्री०(अवलम्बनबाहा) उभयोः पार्श्वयोवलम्बमा निक्खिवइसे तिमागे, समयाहिए सेसमवई य॥२१८|| नानामाश्रयभूतायां भित्तौ, आ०म०प्र० ज० जी०|| वड्डइ ततो अतित्था-वणा य जावालिगा हवइ पुन्ना। अवलंबिऊण-अव्य०(अवलम्ब्य) आश्रित्येत्यर्थे, पं०व०२ द्वार। ग०) तनिक्खेवो समयाहिगालिगुणकम्मठिइठाणा // 21 // विषयीकृत्येत्यर्थे, आव०५ अ० स्थितिमपर्वतयन उदयावलिकाबाह्यान स्थितिविशेषान् स्थितिभेदान अवलंबित्तए-अव्य०(अवलम्बितुम्) आकर्षयितुमित्यर्थे, दशा०७ अ०) अपवर्तयति।के ते स्थितिविशेषाः? इतिचेत्। उच्यते- उदयावलिकाया अवलंबिय-त्रि०(अवलम्बित) अविच्छिन्ने, ज्ञा०।१ अ०॥ उपरि समयमात्रा स्थितिः द्विसमयमात्रा स्थितिः,एवं तावद्वाच्यं यावद् अवलम्ब्य-अव्यकालगित्वेत्यर्थे, "णो गाहावतिकुलस्स दुवारसाहं बन्धावलिकोदयाऽवलिका हीना सर्वाकर्मस्थितिः। एते स्थितिविशेषाः। अवलंबिय अवलंबिय चिट्ठज्जा' आचा०२ श्रु०१ अ०६उ०। उदयावलिकागता च स्थितिः सकलकरणयोग्येति कृत्वा तां अवलद्ध-त्रि०(अपलब्ध) न्यक्कारपूर्वतया लब्धे, स्था०६ ठा०1 नाऽपवर्तयति / तत उक्तम्-उदयावलिकाबाह्यानिति। कुत्र निक्षिपतीति "परधरप्पवेसे लद्धावलद्धाइं"।अन्त०५ वर्ग। चेत् ? उच्यते। अत आह- निक्षिपति, आवलिकायास्विभागे तृतीये अवलाव-पुं०(अपलाप) निहवे, नि०चू०। यथा कस्य सकाशेऽधीतम् ? भागे समयाधिके शेषं समयं न मुञ्चत्युपरितनं त्रिभागद्वयमतिक्रम्य। इयमत्र इति प्रश्ने अन्यसकाशेऽधीतमन्यस्मै कथयति। नि० चू०१ उ०ा आव०) भावना-उदयावलिकाया उपरितनी या स्थितिस्तस्या दलिकमपवर्तयन् अवलिंब-पुं०(अवलिम्ब) देशविशेषे, स्था०२ ठा० 4 ब०। उदयावलिकाया उपरितनौ द्वौ त्रिभागौ समयोनावतिक्रम्याधस्तने समयाधिके तृतीये भागे निक्षपति, एष जघन्यो निक्षेपो, जघन्या अवलेहणिया-स्त्री०(अवलेखनिका) अवलिख्यमानस्य वंशशलाकादेर्वा चाऽतिस्थापना / यदा उदयावलिकाया उपरितनौ द्वौ त्रिभागौ द्वितीया प्रतन्व्या त्यचि, स्था०४ ठा०२ उ०। वर्षावास-कर्दमस्फेटनिकायां स्थितिरपवर्तयते, तदा अतिस्थापना प्रागुक्तप्रमाणा द्विसमयाऽधिका पादलेखनिकायाम्, नि०चू०१ उ०। भवति / निक्षेपस्तु तावन्मात्र एव ! एवमतिस्थापना प्रतिसमयं तावद् अवले हिया-स्त्री०(अवलेहिका) तन्दुलकचूर्णकसिद्धे, दुग्धे,सिद्धे वृद्धिमुपनेतव्या, यावदावलिका परिपूर्णा भवति। ततः परमति-स्थापना लेह्यविशेष, प्रव०४ द्वार। सर्वत्रापि तावन्मात्रैव भवति, निक्षेपस्तु वर्द्धते / स च तावद् , यावद् अवलोअण-न०(अवलोकन) दर्शने, रत्नाधिकादौ मृते क्षपणम बन्धावलिकाऽतिस्थापनाऽऽवलिका-रहिता सर्वाऽपि कर्मस्थितिः। उक्तं स्वाध्यायश्च कार्यः। ततोऽन्यदिने परिज्ञानायाऽवलोकनं कार्यम्।आव०४ च- "समयाहि अइत्थवणा, बंधावलिया य मोत्तु निक्खेवो। कम्मठिई बंधोदय-आवलिअं मुत्तु ओवट्टे" ||1|| कर्मस्थितिबन्धावअवलोयणसिहरसिला-स्त्री०(अवलोकनशिखरशिला) उज्जयन्त - लिकामुदयावलिकां च मुक्त्वा शेषां सर्वामपि अपवर्त्तयति इत्यर्थः / पर्वतशिलाविशेषे, उज्जयन्ते- "अवलोअणसिहरसिला, अवरेणं तत्थ तदेवमुदयावलिकाया उपरितनं समयमात्रं स्थितिस्थानं प्रतीत्य वररसो सवइ।सुअपक्खसरिसवन्नो, करेइ सुच्च वरं हेमं" ॥२७॥ती०४ वर्तमानायामपवर्तनायां समयाधिके आवलिकायाः विभागो निक्षेपः कल्प। प्राप्यते / स च सर्वजघन्यः / सर्वोपरि-तनं च स्थितिस्थानं प्रतीत्य अवलोव-पुं०(अवलोप) वस्तुसद्भावप्रच्छादने त्रिंशत्तमे गौणाऽलीके, प्रवर्त्तमाना-याभपवर्तनायां यथोक्तरूप उत्कृष्टो निक्षेपः / उक्तं चप्रश्न०२ आश्र० द्वार। "उदयावलि उपरित्थं, ठाणं अहिकिच्च होइ अइहीणो / निक्खेवो अवल्लय-न०(अवल्लक) नौकाक्षेपणोपकरणभेदे, आचा० 2 श्रु० सव्वोपरि, ठिइठाणवसा भवे परमो" 1911 एष नियाघाते ३अ०१ उम अपवर्तनाऽधिकारविधिरुक्तः। संप्रति व्याघाते तमाह अ० Page #984 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अववदृणा 800 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अवविह वाघाए समऊणं, कंडगमुक्कस्सिआ अइत्थवणा। डायठिई किंचुणा, ठिइ कंडुक्कस्सगपमाणं / / 220 / / अत्र व्याघातो नाम स्थितिघातः, तस्मिन् सति तं कुर्वत इत्यर्थः / समयोनं कण्डकमात्रमुत्कृष्टा अतिस्थापना / कथं समयोनमिति चेत् ? उच्यते- उपरितनेन समयमात्रेण स्थितिस्थानेनाऽपवर्त मानेन सह अधस्तात् कण्डकमतिक्रम्यते / ततस्तेन विना कण्डक समयोनमेव भवति / कण्डकमानमाह- "डायलिई इत्यादि" / यस्याः स्थितेरारभ्य तस्या एव प्रकृतेरुत्कृष्ट स्थितिबन्धमाधत्ते, ततः प्रभृति सर्वा, साऽपि स्थितिजॅयस्थितिरिति उच्यते। उक्तं च पञ्चसड्ग्रहमूलटीकायाम्- यस्या यस्याः स्थितेरारभ्य उत्कृष्ट स्थितिबन्धं विधत्ते निर्मापयति, तस्या आरभ्य उपरितनानि सर्वाण्यपि स्थितिस्थानानि डायस्थितिसंज्ञानि भवन्ति, सा डायस्थितिः किशिदूना कण्डकस्योत्कृष्ट प्रमाणम्। पञ्चसङ्ग्रहे पुनरेवं मूलटीकाव्याख्याकृता-सा डायस्थिति-रुत्कर्षतः किञ्चिदूना किञ्चिदूनकर्मस्थितिप्रमाणा वेदितव्या / तथाहि- अन्तः कोटीकोटीप्रमाणं स्थितिबन्धमाधाय पर्याप्त-संज्ञिपश्चेन्द्रिय उत्कृष्टसंक्लेशवशादुत्कृष्टां स्थितिं विधत्ते इति।सा डायस्थितिरुत्कर्षतः किञ्चिदूनकर्मप्रमाणस्थितिप्रमाणेति, सा चोत्कृष्ट कण्डकमुच्यते / इयमुत्कृष्टव्याघातोऽतिस्थापना / एतच्चोत्कृष्ट कण्डकं समयमात्रेणाऽपि न्यूनं कण्डकमुच्यते। एवं समयद्वयेन, समयत्रयेण, एवं तावद्न्यूनं वाच्यं, यावद् तत् पल्योपमाऽसंख्येभागमात्रं प्रमाणं भवति, तच जघन्य कण्डकम्। इयं च समयोनजघन्या व्याघातेऽतिस्थापना। संप्रत्यल्पबहुत्वमुच्यते-तत्राऽपवर्तनायां जघन्यो निक्षेपः सर्वस्तोकः, तस्य समयाऽधिकावलिकात्रिभागमात्रत्वात् / ततोऽपि जघन्याऽतिस्था-पना द्विगुणा त्रिसमयोना, कथं त्रिसमयोन द्विगुणत्वमिति चेत् ? उच्यते- व्याघातमन्तरेण जघन्या अतिस्थापना आवलिका त्रिभागद्वयं समयोनं भवति / आवलिका चाऽसत् कल्पना नवसमयप्रमाणा कल्पयते, ततस्त्रिभागद्वयं समयोनं पञ्चसमयप्रमाणमवगन्तव्यम् / निक्षेपोऽपि जघन्यः समयाधिकावलिकात्रिभागरूपोऽसत्-कल्पनया चतुःसमय-प्रमाणो द्विगुणीकृतस्त्रिसमयोनः सन् तावानेव भवतीति / ततोऽपि व्याघातं विना उत्कृष्टा अतिस्थापना विशेषाऽधिका, तस्याः परिपूर्णाऽऽवलिकामात्रत्वात्। ततो व्याघाते उत्कृष्टा अतिस्थापना असंख्येयगुणा, तस्या उत्कृष्ट डायस्थितिप्रमाणत्वात् / ततोऽप्युत्कृष्टो निक्षेपो विशेषाधिकः, तस्य समयाधिकाऽऽवलिका द्विकोनसकलकर्म-स्थितिप्रमाणत्वात् ,ततः सर्वा कर्मस्थितिर्विशेषाऽधिका। संप्रति उद्वर्तनाऽपवर्तनयोः संयोगेनाऽल्पबहुत्वमुच्यते-तत्र उद्वर्तनायां व्याघाते जघन्यावतिस्थापनानिक्षेपौ सर्वस्तोको, स्वस्थाने तु परस्पर तुल्यौ, आवलिकासंख्येयभागमात्रत्वात् / ततोऽपवर्त्तनायां जघन्यो निक्षपोऽसंख्येयगुणः, तस्य समया-ऽधिकाऽऽवलिकात्रिभागमात्रत्वात्। ततोऽप्यपवर्तनायां जघन्या-ऽतिस्थापना द्विगुणा त्रिसमयोना / अत्र भावना प्रागेव कृता / ततोऽप्यपवर्तनायामेव व्याघातं विना उत्कृष्टा अतिस्थापना विशेषाधिका, तस्याः परिपूर्णाऽऽवलिकाप्रमाणत्वात् / तत उद्वर्तनायामुत्कृष्टाऽतिस्थापना संख्येयगुणा, तस्या उत्कृष्टाऽबाधारूपत्वात् / ततोऽपवर्त्तनायां व्याघातो उत्कृष्टा अति-स्थापना असंख्येयगुणा, तस्या उत्कृष्टडायस्थितिप्रमाणत्वात्। तत उद्वर्तनाया / उत्कृष्टो निक्षेपो विशेषऽधिकः, ततोऽप्यपवर्तनाया-मुत्कृष्टो निक्षेपो विशेषाधिकः, ततोऽपि सर्वा स्थितिर्विशेषाऽधिका। क०प्र०ा पं०सं० संप्रत्यनुभागाऽपवर्तनामतिदेशेनाऽऽह - .................एवं ओवट्टणाई उ॥१२१।। एवमुद्वर्तनाप्रकारेणाऽपवर्तनाऽप्यनुभागविषया वक्तव्या, केवलमादित आरभ्य स्थित्यपवर्तनावत्। तद्यथा-प्रथम स्पर्धक नाऽपवर्त्यते, नाऽपि द्वितीयं, नाऽपि तृतीयं, एवं तावद्वक्तव्यं यावदावलिकामात्रस्थितिगतानि स्पर्द्धकानि भवन्ति / तेभ्य उपरितनानि तु स्पर्द्धकान्यपवर्त्यन्ते। तत्र यदा उदयावलिकाया उपरि समयमात्रस्थितिगतानि स्पर्द्धकानि अपवर्त्तवति, तदा समयोना-वलिकात्रिभागद्वयगतानि स्पर्द्धकानि अतिक्रम्याऽधस्तनेषु आवलिकासत्कसमयाऽधिकत्रिभागगतेषु स्पर्द्धकेषु निक्षिप्यते / यदा तूदयावलिकाया उपरि न द्वितीय समयमात्रस्थितिगतानि स्पर्द्धकान्यपवर्तयति, तदा प्रागुक्ता अतिस्थापना समयोनावलिकात्रिभागद्वयप्रमाणा समयमात्रस्थितिगतैः स्पर्धकै रधिकावगन्तव्या। निक्षेपस्तुतावन्मात्र एव, एवं समयवृद्ध्या अतिस्थापना तावद् वृद्धिमुपनेतव्या यावदावलिका परिपूर्णा भवति, ततः परमतिस्थापना सर्वत्राऽपि तावन्मात्रैव / निक्षेपस्तु वर्द्धते, एवं नियाघाते सति द्रष्टव्यम् / व्याघाते पुनरनुभागकण्डकं समयमात्रस्थितिगतस्पर्द्धकन्यूनमति स्थापना द्रष्टव्या / कण्डक्रमानं समयमात्रन्यूनत्वं च यथा प्रास्थित्यपवर्तनायामुक्तं तथाऽत्रापि द्रष्टव्यम्। अत्राऽल्पबहुत्वमुच्यते- सर्वस्तोको जघन्यनिक्षेपः, ततो जघन्याऽतिस्थापना अनन्तगुणा, ततो व्याघाते अतिस्थापना अनन्तगुणा, तत उत्कृष्टमनुभागकण्डकं विशेषाधिकम् तस्या एकसमयगतैः स्पर्द्धकरतिस्थापनातोऽधिकत्वात्।तत उत्कृष्टो निक्षेपो विशेषाधिकः, ततोऽपि सर्वोऽनुभागो विशेषाऽधिकः / क०प्र०। पं०सं०। अववट्टणासंकम-पुं०(अपवर्त्तनासंक्रम) प्रभूतस्य सतो रसस्य स्तोकीकरणे, पं० सं०। अपवर्तनासंक्रमस्तु बन्धेऽबन्धे वा प्रवर्तते / "सव्वत्थाऽववट्टणा ठिइरसाणं" इति वक्ष्यमाणवचनात्। पं०सं०५ द्वार। अववयमाण-त्रि०(अवपतत्) मृषावादमकुर्वति, आचा०१ श्रु० 5 अ०२ उ० अववरोवित्ता-स्त्री०(अव्यवरोपयिता) अभ्रंशकतायाम, जिब्भामयाओ सोक्खाओ अववरोवेत्ता भवइ / स्था०६ ठा०। अववाय-पुं०(अपवाद) परदूषणभिधाने, प्रश्न०२ संव०द्वार / द्वितीयपदाश्रयणे, दर्शाध०॥ विशेषोक्तविधौ, यथा-पुढवाइसु आसेवा, उप्पन्ने कारणम्मि जयणाए। मिगरहियस्स ठियस्सा, अववाओ होइ नायव्वो॥१॥ दर्शधापञ्चा०ा प्रतिकानि०० उत्सर्गस्य प्रतिपक्षे, बृ०१ उ०। (विशेषवक्तव्यता 'सुत्त' शब्दे वीक्ष्या) तथाविधद्रव्यक्षेत्रकालभावापत्सु च निपतितस्य गत्यन्तराऽभावे पञ्चकादियतनयाऽनेषणीयादिग्रहणे, स्या०1 अनुज्ञायाम्, नि०चू०१ उ०। निश्चयकथायाम्, नि०चू०५ उ० अववायकारि(ण)-पुं०(अवपातकारिन्) आज्ञाकारिणि, पं० सं०१ अववायसुत्त-न०(अपवादसूत्र) अपवादिकार्थप्ररूपके सूत्रभेदे, बृ० 1 उ० ('सुत्त' शब्दे विवृतिरस्य द्रष्टव्या) अवविह-त्रि०(अवविध) स्वनामख्याते आजीविकोपासके (गोशालकमतोपासके), भ०८ श०५ उ०। Page #985 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवशल 801- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अवहड अवशल-पुं०(अवसर) मागध्याम्- रसोर्लशौ 18144258 / इत्यनेन अवसावण-न०(अवश्रावण) काञ्जिके, "अवसावणं लाडाणं कंजिअं रूपनिष्पत्तिः / प्रस्तावे, "णं अवशलोपसप्पणीया लाआणो' / प्रा०४ भन्नइ" त्ति। इह लाटदेशेऽवश्रावणकं काञ्जिकं भण्यते। बृ०१उ० पाद 203 सूत्र। अवसिद्धत-पुं०(अपसिद्धान्त) सिद्धान्तादपक्रान्ते, "संसार-कारणाद् * अवस-पुं०(अवश)कर्मपरवशे, उत्त०६अ०। परवशे, सूत्र०१N०३ | घोरादपसिद्धान्तदेशनात् ।स्था०१० ठा०) अ०१उ०। उत्त० प्रश्न अवसे-अव्य०(अवश्यम्) अवश्यमो डें-डौ 841427 / इत्यप अवश्यम्-(अव्य०) अवश्यमो डें-डौ / 841427 / इत्यपभ्रंशे स्वार्थे भ्रंशेऽवश्यमः स्वार्थे 'डे' प्रत्ययः। "अवसें सुक्कहिं पणई'। प्रा० 4 पाद। डः / निश्चये, अशक्यनिवारणे च।"अवस न सुअहि सुअच्छिअहि|| अवसेस-पुं०(अवशेष)अवशिष्ट, स्था०७ ठा० आतु। तदतिरिक्ते, प्रा०४पाद। उपा०१०॥ अवसउण-न०(अपशकुन)अशुभसूचके निमित्तभेदे, बृ० अवसेह-धा०(गम्) गमेरई-अइच्छाणुवज्जा०४।१६। इति सूत्रेण तानि च गमेरवसेहादेशः। अवसेहइ-गच्छति। प्रा०४ पाद। मलिणकुचेले अभंगियल्लए साणखुज्जवडभे य। अवसेह-धा०(नश्)अदर्शने,नशेणिरिणासणिवहाऽवसेह०।' एए तु अप्पसत्था, हवंति खित्ताउ णितस्स। 84178 / इत्यादिसूत्रेणावसेहादेशः।अवसेहइनश्यति। प्रा०४ पाद / अवसोग-पुं०(अपशोक)वीतशोके, जम्बूद्वीपापेक्षयाद्वादशद्वीपाधि-पतौ मलिनः शरीरेण वस्त्रैर्वा मलीमसः, कुचेलो जीर्णादिवस्त्र-परिधानः, देवे, द्वीप अभ्यङ्गितः स्नेहाभ्यक्तशरीरः, श्वा वामपार्श्व-दक्षिणपार्श्वगामी, कुब्जो वरुशरीरः / वडभो वामनः / एते मलिनादयोऽप्रशस्ता भवन्ति अवस्स-त्रि०(अवश्य)अवश्यंपर्यायोऽवश्यशब्दोऽकारान्तोऽप्यस्ति / क्षेत्रान्निर्गच्छतः। आ०म०द्विा प्रश्न०। नियते, आव०४उ०) अवस्सकम्म-न०(अवश्यकर्मन्) अवश्यक्रियायाम, आ०चू०१ अ०। तथारत्तपडचरगतावस-रोगियविगलाय आउए विज्जा। अवस्सकरणिज्ज-न०(अवश्यकरणीय) मुमुक्षुभिरवश्यं क्रियते इति कासायवत्थउर्दू-लिया य जत्तं न साहंति / / अवश्यंकरणीयम्। विशेला आवश्यके, मुमुक्षुभिर्नियमा-ऽनुष्ठेयत्वात्तस्य / अनु०॥ अवश्यकरणमिति प्रश्ने, प्रदीतअन्वर्थत्वादवश्यकरणसंज्ञायाः, रक्तपटाः सौगताः, चरकाः काणादाः, धाटीवाहका वा, तापसा भास्करवत्, अवश्यकरणीय-त्वादवश्यकरणं कुर्वन्तीति। कथमिदमसरजस्काः, रोगिणः कुष्ठादिरोगाक्रान्ताः, विकलाः पाणिपादाद्यवयव वश्यकरणं, कथमियम-न्वर्थेति ? दर्श्यतेअर्थमनुगता या संज्ञा व्यङ्गिताः, आतुरा विविधदुःखोपद्रुताः, वैद्याः प्रसिद्धाः, काषायवस्त्राः साऽन्वर्था, अर्थमङ्गीकृत्य प्रवर्तत इत्यर्थः / कथमिह ? यथा भास्कर कषायवस्वपरिधानाः, उद्धूलिता भस्मोद्धूलितगात्राः धूलीधूसरा वा। संज्ञा अन्वर्था / कथम-न्वर्था ? भासं करोतीति भास्कर इति यो एते क्षेत्रान्निर्गच्छद्भिर्दृष्टाः सन्तो यात्रा गमनं, तत्प्रवर्तकं कार्यमप्युपचारात् भासनार्थः, तमङ्गीकृत्य प्रवर्त्तत इत्यन्वर्था / तथाऽवश्यकरणमिति इयं यात्रा, तां न साधयन्ति। उक्ता अपशकुनाः / बृ०१उ० संज्ञा अन्वर्था / कथमिति चेत् ? ब्रूमहे- अवश्यं क्रियत इत्यवश्यअवसक्कण-न०(अवष्वष्कण)साध्वयाऽवसर्पणे,पञ्चा०१३ विव०। / करणमिति योऽवश्यकरणार्थोऽवश्यकर्त्तव्यता, तमङ्गीकृत्य प्रवर्तते आचा०। पश्चाद् गमने, प्रव०रद्वार। यस्मात्त-स्मात्सर्वकवलिभिः सिद्ध्यद्भिरवश्यं क्रियमाणत्वादवश्यंकरणअवसक्कि(ण)-त्रि०(अवष्वष्किन्)अवसर्पणशीले,सूत्र०२श्रु० 6102 मित्यन्वर्थसंज्ञासिद्धिः / आ० चू०२ अ०॥ उादूरगमनशीले, सूत्र०१श्रु०३अ०२३०। अवस्सकिरिया-स्त्री०(अवश्यक्रिया) पापकर्म निषेधे, "अवस्सकम्मति अवसज्ज-गम् धा० गमेरई-अइच्छाणुवजावसज्जसोकु०१८।४।१६२। वा अवस्सकिरियंति वा एगट्ठा' आ०चू०१अ०। इत्यादिना गमेरवसज्जाऽऽदेशः / अवसज्जइ, गच्छति। प्रा० 4 पाद।। अवह-धा०(कृप) सामर्थ्य, कृपोऽवहो णिः 1811 / 151 / इति कृपेः "अवह' इत्यादेशो ण्यन्तो भवति। अवहावेइकल्पते। प्रा०४पाद। अवसप्पि(ण)-त्रि०(अवसर्पिन)परिहारिणि,सूत्र०१श्रु०२१०२ उ०। अवह-रच्-धा०(चुरा०) प्रतियत्ने, रचेरुग्गहाऽवह-वडविड्डाः / अवसय-त्रि०(अपसद) तुच्छे, स्था०४ ठा०४ उ०। इति रचेर्धातोः 'अवह' आदेशः। अवहइ, रचयति। प्रा०४पाद / अवसर-पुं०(अवसर)प्रस्तावे, विभागेचा दश०१ अ०।"अहुणाऽवसरो अवहइ-स्त्री०(अपहति) विनाशे, विशेला आ०म०। णिसीहचूलाए'' | नि०चू०१उ०। / अवहट्टु-अव्य०(अपहृत्य) परिहृत्य,औ०। परित्यज्य, सूत्र० 1 अवसरण-न०(अवसरण) समवसरणे, प्रव०६२ द्वार। भ०। श्रु०अ०१उ०। दर्शा दशा निकृष्येत्यर्थे, आचा०२श्रु०५ अ०२७०। अवसवस-त्रि०(अपस्ववश) अपगतात्मतन्त्रत्वे, ज्ञा०१६अ०॥ अवहड-त्रि०(अवहृत) प्रत्यादौ डः / / 1 / 206 / इति तस्य डः। अवसह-पुं०(अवसथ) गृहे, उत्त०३२ अ०। प्रा०१ पाद। परिहते, नि०चू०१० उ०। आव० "वालग्गं अवहाय० Page #986 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवहड 802- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अवाय अवहडे विसुद्धे भवइ''। निःशेषवालाग्रलेपापहारात्। भ०६ श०७ उ०। / नि०चू०। आव०॥ देशान्तरं नीते, प्रव०१द्वार। अवहत्थिय-त्रि०(अपहस्तित) निराकृते, नं०। अवहटूटुसंजम-पुं०(अपहृत्यसंयम)अवधिनोच्चारादीनां परिष्ठा-पनतः क्रियमाणे, स०१७ सम०। अवहन्न-न०(अवहनन) उदूखले,बृ०१उ०। अवहमाण-त्रि०(अघ्नत) ननन् अनन्। आरम्भाऽकरणेन पीडाम-कुर्वति, "एसंते अवहमाणा उ' / दश०१० अवहर-धा०(गम्) गमेरईअइच्छा०1८।४। 162 / इत्यादिना गमेरवहरादेशः। अवहरइ-गच्छति। प्रा०४ पाद। *नश्-धा०दिवा०अदर्शने,नशेर्णिरिणास-णिवहावसेह-पडिसाव सेहाऽवहराः।८।४।१७५। इति नशेरवहराऽऽदेशः। अवहरइ-नश्यति। प्रा०४पाद। * अप-धा० ह चोरणे, स्था०५ ठा०१ उ०। स्वीकरणे, सूत्र०१ श्रु० 6 अ० प्रश्न०। उपा०। भूते तु- 'अवहरिसु अपहृतवान् / स्था० 10 ठान अवहाय-अव्य०(अपहाय)त्यक्त्वेत्यर्थे,भ०१५श०१० सूत्र०। अवहार-पुं० (अपहार) अपहरणमपहारः। आ० म० द्वि०ा गर्भादहिकरणे, नि० चूल। वमणविरेगादीहिं, अन्मंतरपोग्गलाण अवहारो। तेल्लुव्वट्टणजलपुप्फचुण्णमादिहिं वज्झाणं / अब्भंतराणं दूसियभंसियपित्तरुहिरादियाण वमणविरेयणादीहिं अवहारो बाहिरो सरीरातो पूयसोणियसिंघाणगलाल गडभमलादि तेल्लुव्वट्टणादिहिं बज्झं अवहरति / नि०चू०७उ०। चौर्ये, उत्त०४अ०। प्रश्नकाजलचरविशेषे, प्रश्न०२आश्रद्वार।। अवहारवं-पुं०(अवधारवत्) अवधारणावति, स्था०१०ठा०। अवहि-पुं०(अवधि) अवशब्दोऽधःशब्दार्थः / अव अधो विस्तृतं वस्तु धीयते परिच्छिद्यतेऽनेनेत्यवधिः। यद्वा-अवधिर्मर्यादा रूपिष्वेव वस्तुषु द्रव्येषु परिच्छेदकतया प्रवृत्तिरूपतया, तदुपलक्षितं ज्ञानमप्यवधिः / प्रत्यक्षज्ञानभेदे, प्रज्ञा०२८ पद / ('ओहि' शब्दे तृतीयभागे १४०पृष्ठे व्याख्यास्यते) अवहेड-धा०(मुच) मोचने, मुचेश्छड्डाऽवहेड-मेल्लोस्सिक्करेअवणिल्लुञ्छ-धंसाडाः। इति मुञ्चतेरवहेडादेशः। 'अवहेडइ', मुञ्चति / प्रा०४पाद। अवहेडिय-त्रि०अवाधःकृत (अवकोटित) प्राकृतल्यात्तथारूपम् / अधस्तादामोटिते, 'अवहेडियपट्टिसउत्तमंगे' / उत्त०१२अ०। अवहोलें त-त्रि०(अवदोलयत्) दोलायमाने, ज्ञा०अ०। अवाइअसंगया-स्त्री०( अवाद्यसङ्गता) जलादिनाऽप्रतिरुद्ध-तायाम्, द्वान "समानस्य जयाद्धामो-दानस्याबाद्यसङ्गता"। उदानस्य कृकाटिका देशादाशिरोवृत्तेर्जयादितरेषां वायूनां निरोधादूर्ध्व-गतित्वसिद्धेरबादिना जलादिनाऽसंगताऽप्रतिरुद्धता / जितोदानो हि योगी जले महानद्यादौ महति वा कर्दमे तीक्ष्णेषु वा कण्टकेषु न सजति, किन्तु लघुत्वात्तूलपिण्डवजलादावनिमज्जन्नुपरि तेन गच्छतीत्यर्थः / तदुक्तं-- "उदानजयाजलपङ्ककण्टकादिष्वसङ्ग उत्क्रान्तिश्च द्वा०२६द्वा०। अवाईण-त्रि०(अवातीन) वातीनानि, वातोपहतानि, न वातीनानि अवातीनानि / वातेनापतितेषु, रा०ा जी०। ज्ञा० अवाउड-त्रि०(अप्रावृत)प्रावरणरहिते,दश०३अ० प्रावरणाऽभावे, नका भ०२श०१उ० अवागिल्ल-त्रि०(अवाग्मिन्) अवाचाले, व्य०७उ०१ अवामणिज-न०(अवामनीय) संसर्गजंगुणदोषं वा संसर्गान्त-रेणाऽवमति द्रव्ये, स्था०१०ठा०। अवाय-पुं० पअपा(वा)यब अप-इ-अच् / रागादिजनितेषु प्राणिनामैहिकामुष्मिकेष्वनर्थेषु, स्था०१ठा०१3०। अपायोऽनर्थः, स यत्र द्रव्यादिषु अभिधीयते, यथा- एतेषु द्रव्यादिविशेषेषु अस्त्यपायः, विवक्षितद्रव्यादिविशेषेष्विव, हेयता चाऽस्य यत्राभिधीयते तदाहरणमपाय इति। उदाहरणभेदे, स्था० 4 ठा०३ उ०। विनाशे, ध०१ अधि०| विश्लेषे,नं०। तत्रापायश्चतुःप्रकारः। तद्यथा- द्रव्यापायः, क्षेत्रापायः, कालापायः, भावापायश्चेति। तत्रद्रव्यादपायो द्रव्यापायः। अपायोऽनिष्टप्राप्तिः / द्रव्यमेव वाऽपायो द्रव्यापायः, अपायहेतुत्वा-दित्यर्थः / एवं क्षेत्रादिष्वपि भावनीयम्। साम्प्रतं द्रव्यापायप्रतिपादनायाऽऽहदव्वावाए दोन्नि उ, वाणियगा भायरो धणनिमित्तं। वहपरिणएकमेकं, दहम्मि मच्छेण निव्वेओ।।५।। द्रव्यापाये उदाहरणम्- द्वौ तु (तुशब्दादन्यानि च) वणिजौ भ्रातरौ धननिमित्तं धनार्थं, वधपरिणतौ एकैकमन्योन्यं हूदे मत्स्येन निर्वेद इति गाथाऽक्षरार्थः / भावार्थस्तु कथानकादवसेयः / तच्चेदम्- "एगम्मि संनिवेसे दो भायरो दरिद्दप्पाया, तेहिं सोरटुंगंतूण साहस्सिओ णउलओ रूवगाणं विढविओ। ते असयंगाम संपत्थिया, इंता तंणउलयं वारएण वहति / जया एगस्स हत्थे तदा इयरो चिंतेइ- 'मारेमिणवरमेए रूवगा ममं होंतु' / एवं बीओ चिंतेइ- 'जहाऽहं एअं मारेमि' / ते परोप्पर वहपरिणया अज्झवस्संति।तओ जाहे सग्गामसमीवं पत्ता, तत्थ नईतडे जिट्टेअरस्स पुणरावत्ती जाया। 'धिरत्थु ममं, जेण मए दव्वस्स कए भाउविणासो चिंतिओ'। परुण्णो य। इयरेण पुच्छिओ। कहिए भणइमम पि एयारिसं चित्तं होतं। ताहे एयस्स दोसेणं अम्हेहिं एवं चिंतियं ति काउं तेहिं सो नउलओ दहे छूढो / तेय घरं गया। सो उणउलओ तत्थ पडतो मच्छरण गिलिओ। सो अमच्छो मेएणमारिओ, वीहीएओयारिओ। तेसिंच भाउगाणं भगिणी मायाए वीहिं पट्टविया, जहा- मच्छे आणेहाज भाउगाणं सिज्झंति / ताए अ समावत्तीए सो चेव मच्छओ आणीओ। चेडीए फालिंतीए णउलओ दिट्ठो। चेडीए चिंतियं एस णउलओ मम चेव भविस्सइ ति उच्छंगे कओ। ठविज्जतो य थेरीए दिह्रो, णाओ अ। तीए भणियं- किमेयं तुमे उच्छंगे कयं ? साऽवि लोहं गया ण साहइ। ताओ दो वि Page #987 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवाय ८०३.अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अवाय परोप्परं पहरंतो।सा थेरी ताए चेडीए तारिसे मम्मप्पएसं आहया, जेण तक्खणमेव जीवियाओ ववरोविया / तेहिं तु दारएहिं सो कलहवइयरो णाओ। स णउलओ दिट्ठो / थेरी गाढप्पहारा पाणविमुक्का णिस्सद्धं धरिणिअले पडिया दिहा। चिंतियं च णेहिं- इमो सो अवायबहुलो अत्थो अणत्थो त्ति / एवं दव्वं अवायहेउ त्ति / लौकिका अन्याहुः"अर्थानामर्जने दुःख-मर्जितानां च रक्षणे। आये दुःखं व्यये दुःखं, धिग् द्रव्यं दुःखवर्द्धनम्।।१।। अपायबहुलं पापं, ये परित्यज्य संसृताः। तपोवनं महासत्वास्ते धन्यास्ते मनस्विनः" || इत्यादि। एवावत्प्रकृतोपयोगि / "तओ तेसिं तमवायं पिच्छिऊण णिव्वेओ | जाओ / तओ तं दारियं कस्सइदाऊण निविनकामभोआपव्वइय ति" गाथार्थः। इदानी क्षेत्राद्यपायप्रतिपादनायाऽऽ हखेत्तम्मि अवक्कमणं, दसारवग्गस्स होइ अवरेणं / दीवायणो अकाले, भावे मंडुक्कियाखवओ // 56|| तत्र क्षेत्र इति द्वारपरामर्शः / ततश्च क्षेत्रादपायः, क्षेत्रमेव वा, तत्कारणत्वादिति / तत्रोदाहरणम्-अपक्रमणमपसर्पणं दशारवर्गस्य दशारसमुदायस्य भवति / अपरेणाऽपरत इत्यर्थः / भावार्थः। कथानकादवसेयः। तच्च वक्ष्यामः / द्वैपायनश्च, काले द्वैपायन ऋषिः। काल इत्यत्रापि कालादपायः, काल एव वा, तत्कारण- त्वादिति। अत्राऽपि भावार्थः कथानकगम्य एवातच वक्ष्यामः। भावे मण्डुक्तिकाक्षपक इति / अत्रापि भावादपायो भावापायः, स एव वा, तत्कारणत्वादिति। अत्रापि च भावार्थः कथा-नकादवसेयः। तच वक्ष्याम इति गाथार्थः / भावार्थ उच्यते- "खित्तापाओदाहरणं-दसारा हरिवंसरायाणी / एत्थ महई कहा- जहा हरिवंसे उवओगियं चेव भणइ-कंसम्मि विणिवाइए सावायं खेत्तमेयं ति काऊण जरासंधरायभएण दसारवग्गो महुराओ अवक्कमिऊण बारवई गओ ति" / प्रकृतयोजना पुनर्नियुक्तिकार एव करिष्यति, किमकाण्ड एव नः प्रयासेन ? "कालावाए उदाहरणं पुणकण्हपुच्छिएण भगवयाऽरिट्ठणेमिणा वागरियं-बारसहिं संवच्छरेहि दीवायणाओ बारवईनयरीविणासो / उज्जोत-रायणगरीए परंपरएण सुणिऊण दीवायणपरिव्वायओ मा गगरि विणासेहामि त्ति कालावधिमण्णओ गमेमि ति उत्तरावहं गओ / सम्मं कालमाणमयाणिऊण य बारसमे चेव संवच्छरे आगओ। कुमारेहिं खलीकओ | कयणियाणो कोवो उववण्णो / तओ य णगरीए अवाओ जाओ त्ति, णऽण्णहा जिणभासियंति"। "भावावाए उदाहरणं खमओ-एगो खमओ चेल्लएण समं भिक्खायरियं गओ। तेण तत्थ मंडुक्कलिया मारिता / चेल्लएण भणियं-मंडुक्कलिया तए मारिया। खमगो भणति-रेदुट्ठ! सेह विर मइया चेव एसा / ते गआ। पच्छा रत्तिं आवस्सए आलोइत्ताण खमगेण सा मंडुक्कलिया नालोइया। ताहे चेल्लएण भणियं-खमगा!तं मंडुक्कलियं आलोएहि। खमओ रुहो तस्स चेल्लयस्स खेलमल्लयं घेत्तूणं उहाइओ अंसियालए खंभे आवडिओ वेगेण / इतो मओ य जोइसिएसु उववन्नो। तओ चइत्ता दिट्ठीविसाणं कुले दिट्ठीविसो सप्पो जाओ / तत्थ एगेण परिहिंडतेण नगरे रायपुत्तो सप्पेण खइओ। आहितुंडएण विजाओ सव्वे सप्पा आवाहिया मंडले पवेसिआ भणिया- अण्णे सव्वे गच्छंतु, जेण पुण | रायपुत्तो खइओ सो अत्थउ। सव्वे गता / एगो ठिओ। सो भणिओअहवा विसं आवियह, अहवा एत्थ अग्गिम्मिणिवडाहि। सोअअगंधणो। सप्पाणं किल दो जाईओ-गंधणा, अगंधणाय। ते अगंधणा माणिणो। ताहे सो अग्गिम्मि पविट्ठो, ण य तेण तं वंतयं पञ्चा-विइयं / रायपुत्तो वि मओ। पच्छा रण्णा रुटेण घोसावियं- रख्ने जो मम सप्पसीसं आणेह तस्साह दीणारं देमि। पच्छा लोओ दीणारलोभेण सप्पे मारेउं आदत्तो। तं च कुलं,जत्थ सोखमओ उप्पन्नो, तंजाइसरं रत्तिं हिंडइ, दिवसओ न हिंडइ, माजीवे दहेहामि त्ति काउं। अण्णया आहिंडिगेहिं सप्पे मगंतेहिं रत्तिंचरेण परि-मलेण तस्स खमगसप्पस्स बिलं दिलु ति! दारे से ठिओ ओसहिओ आवाहेइ। सो चिंतेइ-दिट्ठो मे कोवस्स विवाओ। तो जइ अहं अभिमुहो णिग्गच्छामि तो दहिहामि.ताहे पुच्छेण आढत्तो, णिप्फिडिउं जत्तियं णिप्फेडेइ तावइयमेव आहिंडिओ छिंदेति, जाव सीसं छिण्णं / मओ य सो सप्पो देवयापरिग्गहिओ। देवयाए रण्णो सुमिणए दरिसणं दिण्णं / जहा- मा सप्पे मारेह, पुत्तो ते नागकुलाओ उव्वट्टिऊण भविस्सइ, तस्स दारयस्स नागदत्तनामं करेजाहि / सो य खमगसप्पो मरित्ता तेण पाणपरिचाएण तस्सेव रण्णो पुत्तो जाओ, जाए दारए णाम कयं णागदत्तो / खुद्दलओ चेव सो पव्वइओ / सो अ किर तेण तिरियाणुभावेण अतीव छुहालुओ दोसीणवेलाए चेव आढवेइ भुंजिउं जाव सूरत्थमणवेलं उवसंतो धम्मसद्धिओ य / तम्मि अ गच्छे चत्तारि खमगा, तंजहा-चाउम्मासिओतेमासिओदोमासिओ एगमासिओ त्ति / रत्तिं च देवया वंदिउं आगया। चाउम्मासिओ पढमहिओ। तस्स पुरओ तेमासिओ। तस्सपुरओदोमासिओ। तस्स पुरओ एगमासिओ।ताण य पुरओ खुद्दओ। सव्वे खमगे अतिक्कसित्ता ताए देवयाए खुद्दओ वंदिओ, पच्छा ते खमगा। रुद्वा निग्गच्छंती यगहिया चाउम्मासिअखमएण पोत्ते, भणिया य अणेण-कडपूयणि ! अम्हे तवस्सिणोण वंदसि, एयं कूरभायणं वंदसि त्ति / सा देवया भणइ-अहं भावखमयं वंदामि, ण पूयासक्कारपरे माणिणो अवंदामि। पच्छा ते चेल्लयं तेण अमरिसंवहंति। देवया चिंतेइमा एते चेल्लयं खरिटेहि ति, तो सण्णिहिया चेव अत्थामि, ताऽहं पडिबोहेहामि। बितियदिवसे अचेल्लओसंदिसावेऊण गओ दोसीणस्स, पडिआगओ आलोइत्ता चाउम्मासियखमगं णिमंतेइ / तेण पडिग्गहंसि खेलं णिच्छूट / चेल्लओ भणइ-मिच्छा मे दुक्कड, जं तुब्भे मए खेलमल्लओ ण पणामिओ, तं तेण उप्पराओ चेव फेडित्ता खेलमल्लए छूढं / एवं जाव तिमासिएणं जाव एगमासिएणं वि छूट / तं तेण तहा चेव फेडियं अडुयाणित्तालंबणे गिण्हामि त्ति काउं खमएण चेल्लओ बाहं गहिओ। तं तेण तस्स चेल्लगस्स अदीणमणसस्स विसुद्धपरिणामस्स लेस्साहिं विसुज्झमाणीहिंतदाऽऽवरणिज्जाणं कम्माणं खएण केवलनाणं समुप्पन्नं / ताहे सा देवता भणति- किह तुब्भे वंदियव्वा ? जेणेवं कोहाभिभूया अत्थह / ताहे ते खमगा-संवेगमावण्णा मिच्छा मे दुक्कड ति, अहो ! बालो उवसंतचित्तो अम्हेहिं पावकम्मेहिं आसाइओ। एवं तेसि पि सुहज्झवसाणेणं केवलनाणं समुप्पन्नं / एवं पसंगओ कहियं कहाणयं / उवणओ पुण- कोहादिगाओ अप्पसत्थभावाओ दुग्गईए अवाओ ति"। परलोकचिन्तायां प्रकृतोपयोगितां दर्शयन्नाहसिक्खगअसिक्खगाणं,संवेगथिरट्ठयाएँ दोण्हं पि। दव्वाईया एवं, दंसिज्जते अवायाओ // 57|| Page #988 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवाय 804- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अवायविजय शिक्षकाशिक्षकयोः, अभिनवप्रव्रजितचिरप्रव्रजितयोः, अभि नवप्र- अर्थानामिति वर्तते, अवायं ब्रुक्त इति संसर्गः / एतदुक्तं भवति-शाय व्रजितगृहस्थयोर्वा, संवेगस्थैर्यार्थ द्वयोरपिद्रव्याद्याः, एवमुक्तेन प्रकारेण, एवाऽयं, शाङ्ग एवायमित्याद्यवधारणात्मकः प्रत्ययो-ऽवाय इति / वक्ष्यमाणेन वा दर्श्यन्ते अपाया इति। तत्र संवेगो मोक्षसुखा-भिलाषः, व्यवसायमेवावायं ब्रुवत इति। आ०म०प्र० स्थैर्य पुनरभ्युपगतापरित्यागः। ततश्च कथं नु नाम दुःखनिबन्धनद्रव्या भेदास्तस्यधवगमात्तयोः संवेगस्थैर्ये स्याता, द्रव्यादिषु वा प्रतिबन्ध इति गाथार्थः। से किं तं अवाए ? अवाए छविहे पण्णत्ते / तं जहातथा चाऽऽह सोइंदियअवाए, चक्खिदियअवाए, घाणिंदियअवाए, जिडिंभदवियं कारणगहियं, विगिंचिअव्वमसिवाइखेत्तं च / दियअवाए, फासिंदियअवाए, नोइंदियअवाए / तस्स णं इमे बारसहि एस कालो, कोहाइ विवेगभावम्मि||५|| एगट्ठिया नाणाघोसा नाणावंजणा पंच नामधिजा भवंति / तं इहोत्सर्गतो मुमुक्षणा द्रव्यमेव-अधिकं वस्त्रपात्रादि, अन्यद्वा कनकादि, जहा-आउट्टणया पच्चाउट्टणया अवाए बुद्धी विण्णाणे / से तं न ग्राह्यम् / शिक्षकाहिसंदष्टादिकारणगृहीतमपि तत्परि-समाप्ती अवाए। परित्याज्यम्। अतएवाह- द्रव्यं कारणगृहीतं विकिञ्चितव्यं परित्याज्यम्, "से कि तमित्यादि' / अत्र श्रोत्रेन्द्रियेणावायः श्रोत्रेन्द्रियावायः अनेकैहिकामुष्मिकापायहेतुत्वात् / दुरन्ताग्रहाद्य-पायहेतुत्वात् , श्रोत्रेन्द्रियनिमित्तमविग्रहमधिकृत्य यः प्रवृत्तोऽवायः स श्रोत्रेन्द्रियादुरन्ताग्रहाद्यपायहेतुताच मध्यस्थैः स्वधिया भाव-नीयेति / एवमशि- वाय इत्यर्थः / एवं शेषा अपि भावनीयाः / 'तस्स णमित्यादि वादिक्षेत्रंच, परित्याज्यमिति वर्तते। अशिवादि-प्रधानं क्षेत्रमशिवादि- प्राग्वत् / अत्रापि सामान्यत एकार्थिकानि, विशेषचिन्तायां क्षेत्रम्। आदिशब्दात्तुऊनोदरताराजद्विष्टादि-परिग्रहः। परित्याज्यं चेदम्, पुनर्नानार्थानि। तत्र आवर्तते- ईहातो निवृत्त्याऽपायभावप्रतिअनेकैहिका-मुष्मिकापायसंभवादिति। तथा-द्वादशभिर्वषैरेष्यत्कालः, पत्त्यभिमुखो वर्तते येन बोधपरिणामेन स आवर्तनः, तद्भाव आवर्तनता परि-त्याज्य इति वर्तते / तत एवापायसंभवादिति भावना / एतदुक्तं 1, तथा- आवर्तनं प्रति ये गता अर्थविशेषेषूत्तरोत्तरेषु विवक्षिताभवति- अशिवादिदुष्ट एष्यत्कालो द्वादशभिर्वरनागत एवोज्झितव्य ऽपायप्रत्यासन्नतरा बोध-विशेषास्ते प्रत्यावर्त्तनाः, तद्भावः प्रत्यावर्तनता इति / उक्तंच-"संक्च्छरबारसएण होहि असिवंतितेतओ णिति। सुत्तत्थं 2, तथा- अपायो निश्चयः सर्वथा ईहाऽभावाद्वि निवृत्तस्यावधारणाऽवकुव्वंता, अतिसयमादीहि नाऊणं' ||1|| इत्यादि / तथा- धारितमर्थमवगच्छतो बोधविशेषः सोऽवाय इत्यर्थः 3, ततस्तमेवाऽवक्रोधादिविवेकाभाव इति / क्रोधादयोऽप्रशस्ता भावाः, तेषां विवेकः धारितमर्थ क्षयोपशमविशेषात् स्थिरतया पुनः पुनः स्पष्टतरमवबुध्यनरकपातनाद्यपायहेतुत्वात्परित्यागः। भाव इति भावापाये कार्य इत्ययं मानस्य या बोधपरिणतिः सा बुद्धिः 4, तथा- विशिष्टं ज्ञानं विज्ञानं गाथार्थः / एवं तावद्वस्तुतश्चरणकरणा-ऽनुयोगमधिकृत्यापायः प्रदर्शितः / क्षयोपशमविशेषादेवावधारितार्थविषय एव तीव्रतर धारणाहेतुर्बो - दश०१अ०। (द्रव्यानुयोग-संबन्ध्यपायस्तु 'आता' शब्दे द्वितीयभागे घिविशेषः। "से तं अवाए'' इति निगमनम्।नं० 188 पृष्ठे समुक्तः) अवायडा-स्त्री०(अव्याकृता) गम्भीरशब्दार्थायाम्, अविभा वितार्थत्वात् अवग्रहीतस्य ईहितस्य चार्थस्य निर्णयरूपे अध्यवसाये-शास एवाऽयं अव्यक्ताक्षरयुक्तायां वा भाषायाम्, ध०२ अधि०। शार्ङ्ग एवायमित्यादिरूपे अवधारणात्मके मतिभेदरूपे प्रत्यये, अवायणिज्ज-पुं०(अवाचनीय) वाचनाया अयोग्ये, स्था०१ ठा० आ०म०प्र०। प्रक्रान्तार्थविशेषनिश्चये, स्था०४ ठा०४उ०। व्य०। रा०) 4 उ०। चत्तारि अवायणिज्जा पण्णत्ता। तंजहा- अविणीए, विगइपडिबद्धे, दशा० भ०। ईहितस्यैव वस्तुनः स्थाणु-रेवायमित्यादिनिश्चयात्मके अविउसवियपाहुडे, माई।स्था०४ ठा०३ उ०) बोधविशेषे, प्रव०२१६द्वार। नं०। सम्मका विशे०। अवायदंसि(ण)-पुं०(अपायदर्शिन) अपायान्दुर्भिक्षदुर्बल-त्यादिकान् ईहितविशेषनिर्णयोऽवायः॥ll ऐहिकाननर्थान् पश्यति। अथवा-दुर्लभबोधिकत्यादिकान्सातिचाराणां ईहितस्य ईहया विषयीकृतस्य विशेषस्य कर्णाटलाटादेर्निर्णयो तान् दर्शयतीत्येवंशीलोऽपायदर्शी / ध०२अधि०। अपायाननन् याथात्म्येनावधारणमवाय इति / रत्ना०२ परि०। चित्तभङ्गाऽनिर्वाहादीन दुर्भिक्ष-दौर्बल्यादिकृतान् पश्यतीत्येवंशीलः / अथ मतिज्ञानतृतीयभेदस्यापायस्यस्वरूपमाह सम्यगालोचनायां च दुर्लभबोधिकत्वादीनपायान् शिष्यस्य दर्शयतीति महुराइगुणत्तणओ, संखस्सेवेति जंन संगस्स। अपायदर्शीति। स्था०८ठा०। इहलोकापायदर्शनशीले आलोचनार्हभेदे, विण्णाणं सोऽवाओ, अणुगमवइरेगभावाओ॥२८०|| व्य० 1 उ०ायः सम्यगालोचयति कुञ्चितं वा आलोच्यति दत्तं वा प्रायश्चित्तं मधुरस्निग्धादिगुणत्वात् शङ्खस्यैवायं शब्दो न शृङ्गस्येत्यादि यद् सम्यग् न करोति, तस्य यदि त्वसम्यगालोचयिष्यसि प्रतिकुञ्चितं वा विशेषविज्ञानं सोऽवायो निश्चयज्ञानरूपः।कुतः? इत्याह पुरोवर्त्यधर्मा करिष्यसि दत्तं वा प्रायश्चित्तं न सम्यक् पूरयिष्यसि ततस्ते भूयान् णामनुगमभावात्-अस्तित्वनिश्चयसद्गावात्। तत्राऽ विद्यमानार्थधर्माणां मासिकादिको दण्डो भविष्यतीत्येवमिहलोका- पायान, तथा संसारे तु व्यतिरेकाभावान्नास्तित्वनिश्चयसत्त्वात् / अयं च व्यवहारावग्रहा जन्ममरणादिकं त्वया प्रभूतमनुभवितव्यं, दुर्लभबोधिता च तवैव नन्तरभावी अवाय उक्तः / निश्चयादव-ग्रहानन्तरभावी तु स्वयमपि भविष्यतीत्येवं परलोकापायांश्च दर्शयति, सोऽपायदर्शीति भावः / द्रष्टव्यः / तद्यथा- श्रोतुह्यत्वादि-गुणतःशब्द एवाऽयं, नरूपादिरिति व्य०१उ०। "दुभिक्खदुब्बलाई, इहलोए जाणए अवायाओ / दसेइ य ईहापायविषयाश्च विप्रतिपत्तयः प्रागति निराकृता इति नेहोक्ताः / इति परलोए, दुल्लहबोहित्त संसारे' ||1|| स्था०८ ठा०। दर्श०। पञ्चा०। गाथार्थः // 280|| विशे०। ववसायम्मि अवाओ।नंगा विशिष्टोऽवसायो अवायविजय-न०[अपायविच (ज) य]अपाया रागादिजनिताः व्यवसायः निर्णयो निश्चयोऽवगम इत्यनान्तरम् / तं व्यवसायम्, | प्राणिनामै हिकामुष्मिका अनर्थाः / (विचीयन्ते निर्णीयन्ते Page #989 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवायविजय 805 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अविकार पर्यालोच्यन्ते वा यस्मिँस्तदपायविचयम्) प्राकृतत्वेन विजयमिति। | अविअ-अव्य०(अपिच) समुच्चये, जं०४ वक्षा अपाया वा विजीयन्ते अधिगमद्वारेण परिचितीक्रियन्ते यस्मिन्नित्य- अविअक्खंत-त्रि०(अवीक्षमाण)पृष्ठतो निरूपयति, ध० 3 अधि०। पायविजयम् / / स्था०४ ठा०२ उ०ा ग०। सम्म०। रागद्वेषकषाया अविइय-त्रि०(अद्वितीय) द्वितीयरहिते, द्वितीयभिन्ने च / भ० 3 श०२ श्रवादिक्रियासु प्रवर्त्तमानानामिहपरलोकयोरपायानां ध्याने, ध० उ० 2 अधि० दुष्टमनोवाक्कायव्यापार-विशेषाणामपायः कथं नु मे न अविउट्टमाण-त्रि०(अवित्रुट्यमान) पीड्यमाने, सूत्र०२श्रु०२ अ० स्यादित्येवंभूते संकल्पप्रबन्धे, दोषपरिवर्जनस्य कुशलप्रवृत्तित्वात्। सम्म०१काण्ड / धर्मध्यानस्य प्रथमे भेदे, आव०४ अ० आ०चू०। अविउप्पगडा-स्त्री०(अव्युत्प्रकटा) न विशेषतः उत्प्राबल्यतश्च प्रकटा (विस्तरतोऽस्य स्वरूपं 'धम्मज्झाण' शब्दे वक्ष्यते) अव्युत्प्रकटा। विशेषतोऽप्रकटायाम्, भ०७श०१०उ०। अवायसत्तिमालिण्ण-न०(अपायशक्तिमालिन्य)नरकाऽऽद्यपाय- अविद्वत्प्रकृता-स्त्री० अविद्वद्भिरजानद्भिः प्रकृता प्रस्तुता वा शक्तिमलिनत्वे, द्वा०२२द्वा० अविद्वत्प्रकृता / भ०१८श०७ उ० अविज्ञप्रकृतायाम, भ०१ श०१ अवायहे उत्तदेसणा-स्त्री०(अपायहेतुत्वदेशना) असदाचारा उ० "अम्ह इमा कहा अविउप्पकडा" / भ० 18 श० 7 उ०। ऽनर्थमूलतादेशनायाम, ध०) अपायहेतुत्वदेशनेति / अपायाना "अविउप्पकडे ति" अपिशब्दः सम्भावनार्थः / उत्प्राबल्येन प्रस्तुता मनानाम् इहलोकपरलोकगोचराणां हेतुत्वं प्रस्तावाद सदाचारस्य यो प्रकटा वोत्प्रकृतोत्प्रकटावा, अथवा अविद्वद्भिरजानद्भिः प्रकृता प्रस्तुता हेतुभावस्यस्य देशना विधेया। यथा- "यत् न प्रयान्ति पुरुषाः, स्वर्ग वा अविद्वत्प्रकृता। भ०१८ श०७ उ०॥ यच्च प्रयान्ति विनिपातम्। तत्र निमित्तमनार्यः, प्रमाद इति निश्चितमिदं | अविउसरणया-स्त्री०(अव्युत्सर्जनता) अत्यागे, भ०१ मे' // 1 // प्रमादश्चा-ऽसदाचार इति / ध०१ अधिका अविउस्सग्ग-पुं०(अव्युत्सर्ग) अमुत्कलने, व्य०१उ०। अवायाण-न०(अपादान) अपादीयते वियुज्यते यस्मात्, तद् | अविओग-पुं०(अवियोग) पुत्रमित्राद्यविरहे, तं०। वियुज्यमानावधिभूतम् अपादानम् / अनु०। दोऽवखण्डने / दानं अविओसिय-त्रि०(अव्यवसित) अनुपशान्ते, बृ०४ उ०। अनुपशान्ते खण्डनम् / अपसृत्य आ मर्यादया दानं खण्डनं वियोजनं यस्मात् द्वन्द्वे, "अविओसिए घासति पावकम्मी'। सूत्र०१श्रु०१३ अ०) तदपादानम् / विशे। आचूना अपादीयते अपायतो विश्लेषतः आ अविओसियपाहुड-त्रि०(अव्यवसितप्राभूत)अव्यवसितमनु-पशान्त मर्यादया दीयते, दोऽवखण्डने इति वचनात् ,खण्ड्यते भिद्यते, आदीयते प्राभृतमिव प्राभृतं (नरकपालकौशलिक) तीव्रक्रोधलक्षणं यस्यासाववा गृह्यते यस्मात् तदपादानम्। अवधिमात्रे, तत्र पञ्चमी भवति / यथा व्यवसितप्राभृतः / बृ०४ उ०। अनुपशान्तकोपे, स्था० 4 ठा०३उ०। अपनय गृहाधान्यम्, इतो वा कुशूलाद् गृहाणेति। स्था०८ठा०। "अप्पे वि पारमाणि, अवराहे वयइ खामियंतं च / बहुसो उदीरयंतो, अवायाणुप्पे (वे)हा-स्त्री०(अपायानुप्रेक्षा) अपायानां प्राणाऽतिपा-- अविओसियपाहुडो स खडु' // 1 // पारमाणिं परमक्रोधसमुद्धातं ताद्याश्रवद्वारजन्यानर्थानामनुप्रेक्षाऽनुचिन्तनमपाया- अनुप्रेक्षा / व्रजतीति भावः / स्था०३ठा०४उ०। ('वायणा' शब्देऽस्याऽवाचग०१अधि० भ०। शुक्लध्यानाऽनुप्रेक्षाभेदे, यथा-"कोहो य माणो य नीयत्वम्) अणिग्गहीया, माया यलोभो य पवड्डमाणा। चत्तारिएते कसिणा कसाया, अविंदमाण-त्रि०(अविन्दमान)अलभमाने, विपा०१ श्रु०२ अ०। सिंचिंति मूलाइँ पुणब्भवस्स" ||1|| इह गाथा-"आसवदारावाए, तह संसारोऽसुहाणुभावं च / भवसंताणमनंतं, वत्थूणं विपरिणामंच" ||1|| अविकंप-त्रि०(अविकम्प)मनःशरीराभ्यामचले,पञ्चा० 18 विव० / इति। स्था० 4 ठा०१उन निःस्पन्दे, पञ्चा०१२ विव०। अवारिय-त्रि०(अवारित) अनिवारिते, अकृत्यं कुर्वति, तत्प्र अविकंपमाण-त्रि०(अविकम्पमान) क्रोधकार्यस्य कम्पनस्या-ऽकर्तरि, वर्तकेनाऽनिषिद्धे, निरङ्कुशे, "अजा अवारियाओ, इत्थीरनं न त "विगिंच कोहं अविकंपमाणे" क्रूराध्यवसायः क्रोधस्तं त्यज, तस्य च गच्छं' / ग०२अधि। कार्य कम्पनं तत्प्रतिषेधंदर्शयत्यविकम्पनः आचा०१श्रु०४अ०३उ०। * अवतार्य-अव्य०। अध उत्तार्येत्यर्थे, दश०५अ०२०। अविकत्थण-पुं०(अविकत्थन) नातिबहुभाषिणि, स्वल्पेऽपि केनचिदपअवावकहा-स्त्री०(अवापकथा) शाकघृतादीन्येतावन्ति, तस्यां राद्धे पुनः पुनस्तदुत्कीर्तनेन रहिते गुणवत्सूरौ, प्रव० 64 द्वार / ग०। रसवत्यामुपयुज्यन्त इत्येवंरूपायां कथायाम्, स्था०४ ठा०२उ०। हितमितभाषिणि, आचा०१श्रु०१अ०१उ० अवि-अव्य०(अपि) सम्भावने, उत्त०३अ० स्था० आचा०ा सूत्र०ा व्य०। अविकरण-न०(अविकरण) पूर्वगृहीतवस्तूनां यथास्थानम् प्रक्षेपे, नि०चू०। दशा आ०म०वि०ा पदार्थसंभावने, नि०चू०४ उ०। "संथारय आयाए, अविकरणं कडुय संपव्वइत्ताए" / अविकरणं कृत्वा, समुच्चये,भ०१श०३ उ०ा अष्टादर्श अव-धारणायाम्, नि०चू०१उ०। अविकरणं नाम यत्साधुनां करणं कृतं तृणानां प्रस्तरणं, कम्बिकानां आचा०। वाक्योपन्यासे, आचा० १श्रु० ६अ० 1301 प्रेरणायाम, बन्धनं, फलकस्य स्थापनं तदपनीय संप्रव्रजितुं विहर्तुम् / बृ०३ उ०। निर्णयभवनहेतौ चाखल्वर्थे, व्य०१उ०। अविकार-त्रि०(अविकार) गीतादिविकाररहिते, बृ०१उ०। Page #990 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अविकारि (ण) 806 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अविणीय अविकारि(ण)-पुं०(अविकारिन्) अनुद्भटवेषे, अकन्दर्पशीले च / / बृ०३उ०। अविकोवियपरमत्थ-त्रि०(अविकोपितपरमार्थ) अविज्ञापितसमयसद्भावे, पं०व०१द्वार। अविगइय-त्रि०(अविकृतिक) निर्विकृतिके घृतादिविकृतित्यागिनि, सूत्र०२ श्रु०२० अविगडिय-त्रि०(अविकटित) अनालोचिते, व्य० 1 उ०/ अविगप्प-पुं०(अविकल्प) निश्चये, आ०म०द्वि०ा निर्भेदे च / सम्म०१ काण्ड। अविगय-त्रि०(अविगत) अभ्रष्टे, पिं०। अविगल-त्रि०(अविकल) परिपूर्णे, षो०१ विव०। पञ्चा०। अखण्डे, पो० 5 विव०, अविगलकुल-त्रि०(अविकलकुल) ऋद्धिपरिपूर्णकुले, भ०८ श०३३ उ। अविगिट्ठ-त्रि०(अविकृष्ट) विकृष्टभिन्ने अविकृष्टतपःकर्मकारिणि, षष्ठान्ततपःकारिणि, पञ्चा०१२विव०। अविगियवयण-त्रि०(अविकृतवचन)अनत्यन्तनिर्वादितमुखे, ओघ०) अविगीय-पुं०(अविगीत) विशिष्टगीतार्थरहिते, व्य०३ उ०। निधर्मणि, व्य०१3०। अविगह-पुं०(अविग्रह) वक्त्ररहिते, औ०। अविग्गहगइसमावन्न-पुं०(अविग्रहगतिसमापन्न) उत्पत्तिक्षेत्रो-पपन्ने, भ०१४ श०५ उ०। अविग्रहगतिनिषेधाद् ऋजुगतिके अव- स्थिते, भ० 25 श०३ उ० अविग्घ-न०(अविघ्न)विघ्राभावे,कल्प०५क्षण औ०। निष्प्रत्यूहे, बृ०१ उ०। दर्श०। कारण एवादृष्टसामर्थ्यादपायाभावे, द्वा०२३ द्वा० अविघुट्ठ-न०(अविधुष्ट) विक्रोशनमिव यद्विस्वरं न भवति तद- विघुष्टम, अनु०। विक्रोशन इवादिस्वरे, रा०। स्था०। जी०। अविचित्त-त्रि०(अविचित्र) लोहिते, "अविचित्तो लोहिल्लमित्यर्थः / नि० चू०१६ उ०। अविचुइ-स्त्री०(अविच्युति) तदुपयोगादविच्यवनमविच्युतिः।धारणभिदे, नं०। आ०म० अविच्छिण्ण-त्रि०(अविच्छिन्न)विच्छेदाननुबद्धे, स्था० 4 ठा०१ उ०। अविजाणअ-त्रि०(अजानत्) लुप्तप्रज्ञे, अपगतावधिविवेके, जंसी गुहाए जलणेतिउट्टे, अविजाणओ डज्झइ लुत्तपण्णो। सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ०1 प्रश्न अविजमाणभाव-पुं०(अविद्यमानभाव) नास्तिभावे, "असंप-जय त्ति वा णस्थिभावो त्ति वा अविजमाणभावो ति वा एगट्ठा" / आ० चू०१ | अ० अविजा-स्वी०(अविद्या) कर्मणि, अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते / विद्यया मृत्युती| विद्ययाऽमृतमश्नुते''||१|| नं०। अनवमनने, अग्रहणे, अतत्त्वग्रहणे च ।सम्म०२काण्ड।अविद्या वेदान्तिनां क्लेशः / द्वा० 16 द्वा०। योगशास्त्रप्रसिद्ध क्लेशभेदे, द्वा० 15 द्वा०। "नित्यशुच्यात्मताख्यातिरनित्याशुच्यनात्मसु / अविद्या'' | अष्ट०१४ अष्ट। अविद्योपप्लवादविद्यमानमपि दृश्यते / यत उक्तम्कामस्वप्नभयोन्मादैरविद्योपप्लवात्तथा / पश्यत्यसन्तमप्यर्थ जनः केशेन्दुकादिवत् / / 1 // इति। विशे०॥ अविणय-पुं०(अविनय) कुशास्त्रे, उत्त०३४अ० विशिष्टो नयो विनयः प्रतिपत्तिविशेषः, तत्प्रतिषेधोऽविनयः / अप्रतिपत्तिविशेषे, स्था०। अविणए तिविहे पन्नत्ते / तं जहा-देसच्चाई, णिरालं-बणया, णाणपेम्मदोसे / / (अन्येषां सर्वेषां शब्दानां स्वस्वस्थाने व्याख्या) नवरमियमत्र भावनाआराध्यविषयमाराध्यसम्मतविषयंवा प्रेम, तथाऽऽराध्याऽसम्मतविषयो द्वेष इत्येवं नियतावेतौ विनयः स्यात्। उक्तंच- "सरूषि नतिस्तुतिवचनं, तदभिमते प्रेम तद्विषि द्वेषः। दानमुपकारकीर्तनममन्त्रमूलं वशीकरणम्" ||1 / / इति नाना-प्रकारौ च तावाराध्य तत्सम्मतेतरलक्षणविशेषानपेक्षत्वेनानियत-विषयावविनय इति।स्था०३ ठा०३उ०। अविणासि(ण)-त्रि०(अविनाशिन्) क्षणापेक्षयाऽपि अनिरन्वयनाश धर्मिणि, दश०४ अ०। पा० अविणिच्छय-पुं०(अविनिश्चय) प्रमाणाभावे, पं०व०४ द्वारा प्रतिका अविणीय-त्रि०(अविनीत) अविनयवति, उत्त०१०। विनय-विरहिते, उत्त०११अ० अविनीतलक्षणमाहअह चउदसठाणेहिं, वट्टमाणे उ संजए। अविणीए वुबई सो उ, निव्वाणं च न गच्छइ॥ अहेत्यादि सूत्राष्टकम् / अथेति प्राग्वच्चतुर्भिरधिका दश चतुर्दश, तेषु चतुर्दशसंख्येषु स्थानेषु, सूत्रे तु सुब्व्यत्ययेन सप्तम्यर्थे तृतीया / वर्तमानस्तिष्ठन्। तुः पूरणे / संयतस्तपस्वी अविनीत उच्यते। स तु इति अविनीतः। पुनः किम् ? इत्याह-निर्वाणंच मोक्षं, चशब्दादिहैव ज्ञानादींश्च न गच्छति न प्रायोति / उत्त० 11 अ०। कानि पुनश्चतुर्दश स्थानानि? इत्याहअभिक्खणं कोही हवइ, पबंधं च पकुव्वइ / मित्तिज्जमाणो वमई,सुयं लखूण मज्जइ॥७॥ अवि पावपरिक्खेवी, अवि मित्तेसु कुप्पइ। सुपियस्सावि मित्तस्स, रहे भासइ पावगं ||8|| पइण्णवाई दुहिले, थद्धे लुद्धे अणिग्गहे। असंविभागी अवियत्ते, अविणीए त्ति बुच्चई ||6|| अभीक्ष्णं पुनः पुनः यदा-क्षणं क्षणमभि अभिक्षणमनवरतं, क्रोधी क्रोधनो भवति- सनिमित्तमनिमित्तं वा कुप्यन्नेवास्ते, प्रबन्धं च प्राकृतत्वात् कोपस्यैवाविच्छेदात्मकं (पकुव्वइ ति) प्रकर्षेण कुरुते, कुपितः सन् सान्त्वनैरनेकैरपिनोपशाम्यति, विकथादिषु वा अविच्छेदेन प्रवर्तनंप्रबन्धः, तंच प्रकुरुते।तथा-(मित्तिज्जमाणो त्ति) मित्रीयमाणोऽपि मित्रंममायमस्त्विति दृश्यमानोऽपि, अपिशब्दस्य लुप्तनिर्दिष्टत्वात्, वमति त्यजति, Page #991 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अविणीय 807 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अविभाइम प्रस्तावाद मित्रीयितारं मैत्रीवा / किमुक्तं भवति ? यदि कश्चि-) १अ० 1 उ०। केवलकायक्रियोच्छेदे कर्मणि, सूत्र०१ श्रु० 1 अ०२ उ०/ धार्मिकतया वक्ति, यथा-त्वं न वेत्सीत्यहं तव पात्र लेपयामिततोऽसौ अवितक-पुं०(अवितर्क न विद्यते वितकोऽश्रद्दधानक्रियाफलं देहरूपो प्रत्युपकारभीरुतया प्रतिवक्ति-ममाऽलमेतेन / कृतमपि वा कृतघ्रतया यस्य (भिक्षोः) सोऽवितर्कः / कुतर्करहिते, "सुस-माहितलेसस्स नमन्यत इति वमतीत्युच्यते।तथा(सुयं ति) अपेर्गम्यमानत्वात् , श्रुतमपि अवितक्कस्स भिक्खुणो"।दशा०५ अध्या०। आगममपि, लब्ध्वा प्राप्य माद्यति दर्प याति। किमुक्तं भवति ? श्रुतं हि अवितह-त्रि०(अवितथ) न वितथमवितथम् -सत्यम्। आव० 4 अ०। मदापहारहेतुः, स तु तेनापि दृप्यति / तथा- अपिः संभावनायाम् / संभाव्यत एतत् यथा- असौ पापैः कथञ्चित्समित्यादिषु स्खलितलक्षणैः अव्यभिचारिणि, पञ्चा०१५ विव०। "णिग्गथं पावयणं अवितहमेयं''। परिक्षिपति तिरस्कुरुत इत्येवंशीलः पापपरिक्षेपी, आचार्यादीनामिति पूर्वमभिमतप्रकारयुक्तमपि सदन्यदा विगताभिमतप्रकारमपि किञ्चिगम्यते / तथा-अपिर्भिन्नक्रमः, ततो मित्रेभ्योऽपि सुहृद्भ्योऽपि त्स्यात्। अत उच्यते-अवितथमेतत्, न कालान्तरेऽपि विगताभिमतआस्तामन्येभ्यः कुप्यति क्रुध्यति / सूत्रे चतुर्थ्यर्थे सप्तमी। "क्रुध प्रकारमिति। भ०१०श०५ उ०। प्रश्ना आचा० तथ्ये, आ० चू०४ दुहेासूयार्थानां यं प्रतिकोपः। 1 / 4 / 37 / इत्यनेन (पाणि०) सूत्रणेह अजयथास्थिते, कल्प०१क्ष०ायाथातथ्येन व्यवस्थिते, सूत्र०१श्रु० चतुर्थीविधानात् / तथा- सुप्रियस्याप्यतिवल्लभस्यापि मित्रस्य, 13 अ० यथावदनुष्ठिते, सूत्र० 1 श्रु० 2 अ० 2 उ०। रहस्येकान्ते, भाषते वक्ति, पापमेव पापकम् / किमुक्तं भवति ? अग्रतः यथाऽवस्थितपिण्डिता-ऽर्थवचने, सूत्र०१ श्रु०१६अ। सद्भूतार्थे औ०। प्रियंवक्ति, पृष्ठतस्तुप्रतिसेवकोऽयमित्यादिकमनाचार-मेवाविष्करोति। अवितिण्ण-त्रि०(अवितीर्ण) तिती| पारमगते, सूत्र०१ श्रु०२ अ०१ तथा- प्रकीर्णमितस्ततो विक्षिप्तम्, असंबद्ध-मित्यर्थः / वदति जल्पती- उ त्येवशीलः प्रकीर्णवादी। वस्तु-तत्त्वविचारेऽपि यत्किञ्चनवादीत्यर्थः। अविदिण्ण-त्रि०(अवितीर्ण) अदत्ते, बृ०३उ०। आ०म०। नि०चू० अथवा- यः पात्रमिदम-पात्रमिति चाऽपरीक्ष्यैव कथञ्चिदधिगतं अविदिय-त्रि०(अविदित) न विदितमविदितम् / वस्तुतोऽपरिज्ञाते, श्रुतरहस्यं वदतीत्ये-वंशीलः प्रकीर्णवादीति। प्रतिज्ञया चेदमित्थमेवेत्ये "संवेदनमात्रमविदितं त्वन्यत् / " संवेदनमात्रं वस्तुस्वरूपपराकान्ताभ्यु- पगमरूपया वदनशीलः प्रतिज्ञावादी। तथा-(दुहिल ति) मर्शशून्यमविदितं त्वन्यत्, कथञ्चिद्वस्तुग्राहित्वेऽपि न विदितं द्रोहण- शीलो द्रोग्धा, न मित्रमप्यनभिद्रुह्यारते / तथा-स्तब्धः वस्तु तदित्यविदितमुच्यते। षो०१२ विव०। तपस्व्यहमित्याद्य-हंकृतिमान् / तथा- लुब्धोऽन्नादिष्वभिकाङ्क्षावान् / अविहुय-त्रि०(अविद्रुत) उपद्रवरहिते अनुपप्लवे, षो०१२ विव०। तथा- अनिग्रहः प्राग्वत् / तथा- असंविभजनशीलोऽसंविभागी, नाहारादिक-मवाप्यातिगर्द्धनोऽन्यस्मै स्वल्पमपि यच्छति, किन्त्वात्मा अविद्धत्थ-त्रि०(अविध्वस्त) अव्युत्क्रान्ते, अपरिणते, आचा० नमेव पोषयति। तथा-(अवियत्ते ति) अप्रीतिकरो, दृश्यमानः संभाष्य 2 श्रु०१ अ०८ उ०ा अप्रासुके, आचा०२ श्रु०१अ०७ उ०ा प्ररोहसमर्थे माणो वा सर्वस्याप्रीतिमेवोत्पादयति / एवंविधदोषान्वितोऽविनीत बीजादौ, दश०४ अ० इत्युच्यते इति निगमनम्। उत्त०११अ०1 ('विणय' शब्दे सर्वमधिकार अविधि-पुं०(अविधि) असमाचार्याम्, बृ०३ उ०। व्याख्यास्यामि) सूत्रार्थदातुर्वन्दनादिविनय- रहिते, बृ०४ उ०। अविधिपरिहारि(ण)-पुं०(अविधिपरिहारिन्) संयमार्थे आयुक्ते, अविनीता नाम ये बहुशोऽपि प्रतिनोद्यमानाः प्रमाद्यन्ति / बृ०१ उ०। "संजमट्ठाए त्ति वा आउत्ते त्ति वा अविधिपरिहारि त्ति वा एगट्ठा"। सूत्रार्थदातुर्वन्दनादिविनयरहिते, स्था० 1 ठा०४ उ०। (अस्यावाच- आ००१अ०॥ नीयत्वं वायणा' शब्दे वक्ष्यते) अविप्पओग-पुं०(अविप्रयोग) रक्षायाम, ''सुक्खाणं अविप्प-ओगेणं'। अविणीयप्प(ण)-पुं०(अविनीतात्मन्) विनयरहिते अनात्मज्ञे, प्रज्ञा०३ स्था०४ ठा०४ उ० पदादश अविप्पकट्ठ-त्रि०(अविप्रकृष्ट) न विप्रकृष्ट दूरम्। आसन्ने, ज्ञा० 1 अ०। अविण्णा-स्त्री०(अविज्ञा) अविज्ञानमविज्ञा। अनाभोगकृते, सूत्र० श्रु० अविप्पणास-पुं०(अविप्रणाश) शाश्वातत्वे, विशे०। १अ०१ उ०। अविबुद्ध-त्रि०(अविबुद्ध) भावसुप्ते, व्य०३उ०। अविण्णाय-त्रि०(अविज्ञात) अविदिते, आचा०१श्रु०१अ० 1 उ०। / अविभज-त्रि०(अविभाज्य) विभक्तुमशक्ये, स्था०३ ठा०२उ०ाज्यो०। अविण्णायकम्म(ण)-न०(अविज्ञातकर्मन) अविज्ञातमविदितं कर्म अविभत्त-त्रि०(अविभक्त)अकृतविभागे, बृ०। तत्र यावान् सागारिकादीनां क्रिया व्यापारो मनोवाक्कायलक्षणो यस्य / अज्ञातमन आदिव्यापारे, साधारणचोल्लक उपस्कृतस्तावानद्याप्यखण्डः पुञ्ज एव अधस्तनाआचा०१ श्रु०१ अ० 1 उ०। भागादिविवक्षा कृता सा अंशिका अविभक्ते-त्युच्यते। बृ०२ उ०। अविण्णायधम्म-त्रि०(अविज्ञातधर्मन्) पापादनिवृत्ते अज्ञातधर्मणि, अविभत्ति-स्त्री०(अविभक्ति) विभागाभावे, व्य०३ उ०॥ अविरतसम्यग्दृष्टौ च। भ०८ श०१० उ०। अविभव-पुं०(अविभव) अदारिद्रये, व्य०६ उ०। अविण्णोवइय-न०(अविज्ञोपचित) अविज्ञानमविज्ञा, तयोपचितम्।। | अविभाइम-त्रि०(अविभागिम) अविभागेन निवृत्तोऽविभागिमः / अनाभोगकृते कर्मणि, सूत्र०ा तन्न बध्यते शाक्यसमये / यथा- मातुः एकरूपे, भ०२० श० 5 उ०। विभागेन निवृत्तो विभागिमः, स्तनाद्याक्रमणेनपुत्रव्यापत्तावप्यनाभोगान्न कर्मो-पचीयते। सूत्र०१ श्रु० | तन्निषेधादविभागिमः। भागशून्ये, स्था०३ ठा०२ उ०। Page #992 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अविभाइय 808. अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अविराज्य अविमोयणया-स्त्री०(अविमोचनता) वस्त्रादीनामत्यागे,भ०६ श०३३ उन अविभाइय-त्रि०(अविभाज्य) विभक्तुमशक्ये, "तओ अवि-भाइया | पण्णत्ता / तं जहा-समए, पएसे, परमाणू" स्था०३ ठा०२ उ01 अविभाग-पुं०(अविभाग) संबद्धो विभागो नैरन्तर्याभावः, तदभावोऽविभागः / नैरन्तये, पिं० अविभागपलिच्छेय-पुं०(अविभागपरिच्छेद) परिच्छिद्यन्त इति परिच्छेदा अंशाः, ते च सविभागा भवन्त्यतो विशेष्यन्ते। अविभागाश्च ते परिच्छेदाश्चेत्यविभागपरिच्छेदाः / निरंशेषु अंशेषु, भ० 8 श० 10 उ० / केवलिप्रज्ञया छिद्यमानो यः परमनि- कृष्टोऽनुभागांशोऽभिसूक्ष्मतयाऽर्द्ध न ददाति सोऽविभागपरिच्छेद उच्यते / उक्तं च"बुद्धीइच्छिज्जमाणो, अणुभाग सो न देइ जो अद्ध। अविभागपलिच्छेओ, सो इह अणुभागबंधम्मि"||१|| कर्म०५ कर्म०। बृ०॥ अविभागुत्तरिय-त्रि०(अविभागोत्तर) एकैकस्नेहाविभागेषु, क० प्र०) अविभाव-त्रि०(अविभाव्य) अविभावनीयस्वरूपे, प्रश्न० 1 आश्र० द्वार। अविभूसिय-त्रि०(अविभूषित) विभूषारहिते, बृ०१उ०। अविभूसियप्प(ण)-त्रि०(अविभूषितात्मन्) विभूषाविरहितदेहे, प्रव० | 72 द्वार! आव० अविमण-त्रि०(अविमनस्) अविगतचेतसि, अनु०। अशून्यचित्ते, / अन्त०७ वर्ग०। प्रश्न०। अलाभादिदोषात् अविगतमानसे, प्रश्न० १संव०द्वार। अविमुत्तया-स्त्री०(अविमुक्तता) सपरिग्रहतायाम्, स्था०४ ठा० 4 उ०। अविमुत्ति-स्त्री०(अविमुक्ति) सलोभतायाम, पञ्चा०१७ विव०। गृद्धौ, नि०चू०२उ०। अविमुक्तिद्वारमाहदव्वे भावेऽविमुत्ती, दव्वे वीरल्लण्हाउबंधणता। सउणग्गहणे कड्ढणे, पइच्च मुच्चो वि आणेइ।। अविमुक्तिर्द्विधा-द्रव्यतो, भावतश्च / द्रव्याविमुक्तौ- 'वीरल्लओ' लावकः पक्षी दृष्टान्तः / स च स्नायुसन्तानबन्धनेन पादे बद्धो यत्र तित्तिरिप्रभृतिकः पक्षी दृश्यते तत्र मुच्यते, ततस्तेन यदा तस्य शकुनस्य ग्रहणं कृतं स्यात्तदा भूयोऽपि तथैव तं शय्यातरस्य कर्षणं क्रियते, तत आगतस्य हस्ततालमांसं दीयते ततो मांसे प्रगृद्ध आसक्तः सन्मुक्तोऽपि स्नायुबन्धनमन्तरेणापि शकुनिमानयति, आनीय च तत्रैवावतिष्ठते। एषा द्रव्याविमुक्तिः। अथ भावाविमुक्तिमाहभावे उक्कोसपणी-यगिद्धिंतो तं कुलं न छड्डेति। ण्हाणादीकज्जेसु व, गते विदरं पुणो एंति॥ भावो भावाविमुक्तिः पुनरयम्-उत्कृष्टद्रव्यं शाल्योदनादि, प्रणीतं घृतादि, तयोर्या गृद्धिाल्यं ततस्तत्कुलं शय्यातरसंबन्धि, न परित्यजति / अथवा-स्नानरथयात्रादौ पर्वणि कार्येषु च गणसङ्घप्रयोजनेषु, दूरमपि गता भूयस्तत्रैव समागच्छन्ति। बृ०२ उ० अविय-अव्य०(अपिच) अभ्युच्चये, तं० भ०| अविक-पुं०। मेषे, आचा० 1 श्रु०१ अ०६ उ०॥ अवियत्त-त्रि०(अव्यक्त) अपरिस्फुटे, सूत्र०१श्रु०४अ०२उ०। मुग्धे, सहजविवेकविकले च। सूत्र०१श्रु०१अ०२उ०। अवियत्त-न०(देशी)अप्रीतिके,आ०म०प्र०। स्था०। ग०। अप्रीति - कारणि, प्रश्न०१आश्रद्वार। उत्त०। प्रति०। दश०। स्था०। अवियत्तजंभग-त्रि०(अव्यक्तजृम्भक)अन्नाद्यविभागेन जृम्भके, भ०१४ श०८301 अवियत्तविसोहि-पुं०(अवियत्तविशोधि)अवियत्तस्याप्रीतिकस्याविशोधिः, तन्निवर्तनादवियत्तविशोधिः / विशोधिभेदे, स्था० 10 ठा०। अवियत्तोवघाय-पुं०(अवियत्तोपघात) अप्रीतिकेन विनयादे-रुपघाते, स्था० 10 ठा०। अवियाउरी-स्त्री०(अविजनित्री)अपत्यानामविजननशीलायां स्त्रियाम, ज्ञा०२ अ० "तस्स बंधुमई भजा, अवियाउरी" | आ० म०प्र० अवियाणय-त्रि०(अविज्ञायक) विशिष्टावबोधरहिते, आचा० १श्रु० १अ०२०। अवियार-न०(अविचार) न विद्यते विचारोऽर्थव्यञ्जनयोरितरस्मादितस्त्र, तथा- मनःप्रभृतीनामन्यतरस्मादन्यत्र, यस्य तद- विचार इति / ग०१अधि०। अर्थव्यञ्जनयोगान्तरतोऽसंक्रमणे, आव०४०। भाधा "एगत्तवितके अवियारे' शुक्लध्यान भेदे, स्था०४ठा०१3०। अवियारमणवयणकायवक्क-त्रि०(अविचारमनोवचनकाय-वाक्य) अविचाराण्यविचारितरमणीयानि परमार्थविचारगुणनया युक्त्या वा विघटमानानि मनोवाक्कायवाक्यानि यस्य स तथा / अविचाराण्यविचारणीयानि अशोभनतया निरूपणीयानि अपर्यालोचनीयानि मनोवाकायवाक्यानि यस्य स तथा / अविचारयुगन्तःकरणवाग्देहवाक्ये, सूत्र०२श्रु०४अ० अवियारसोहणट्ठ-पुं०(अविचारशोधनार्थ)संयमस्खलित विशुद्धिनिमित्ते, पं०व०२ द्वार। अविरइ-स्त्री०(अविरति) सावद्ययोगेभ्यो निवृत्त्यभावे, कर्मा द्वादशप्रकाराऽविरतिः / कथम् ? इत्याह- मनः स्वान्तः, करणानीन्द्रियाणि पञ्च, तेषां स्वस्वविषये प्रवर्त्तमानानामनियमो- ऽनियन्त्रणं, तथा षण्णां पृथिव्यतेजोवायुवनस्पतित्रसरूपाणां जीवानांवधो हिंसेति। कर्म० 4 कर्म०। प्राणातिपातादीनामनिषेधे, जीत०। अब्रह्माणि, स्था० ६ठा०। "अविरई पडुच बाले आहिजई' येयमविरतिरसंयमरूपा सम्यक्त्वाभावाद् मिथ्यादृष्टद्रव्यतोऽविरतिरप्यविरतिरेय, तां प्रतीत्याश्रित्य बालवद् बालोऽज्ञः। "तत्थ णं जा सा सव्वतो अविरई एसटाणे आरंभट्ठाणे'' तत्र पूर्वोक्तषु येयं सर्वात्मना सर्वस्माद् अविरतिविरतिपरिणामाभावः। सूत्र०२ श्रु०२ अ०। "अखेदो विषयावेशाद्, भवेदविरतिः किल' विषयावेशाबाह्येन्द्रियार्थव्याक्षेपलक्षणादखेदोऽनुपरमलक्षणःकिलाविरतिभवेत् / द्वा०१६द्वा० अविरमणेषु, प्रश्न Page #993 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अविरह ८०१-अभिधानराजेन्द्रः-भाग 1 अविलुत्त 5 संव० द्वार / अप्रत्याख्याने, स्था०१० ठा०। "जइवि अन जाइ एस असंजय सम्मो, निंदतो पावकम्मकरणं च। अहिगयजीवाजीवो, सव्वत्थ कोइ देहेण माणवो एत्थ। अविरइअव्वयबंधो, तहा वि निचो भवे अवलियदिट्ठी वलियमोहो॥२॥ कर्म०२कर्मा पं०सं० तस्स" ||1|| ध०२ अधिका अविरल-त्रि०(अविरल) घने, औ०। 'अविरलसमसहियचंदमंडलसमअविरइ(य)वाय-पुं०पअविरति (क) वादबअविरतिरब्रह्म, तद्वादो प्पभेहिं" / अविरलानि घनशलाकावत्त्वेन समानि तुल्य-शलाकातया वार्ता / मैथुनचर्चायाम्, स्था०६ठान सहितानि संहितानि अनिम्नाऽनुन्नतशलाकायोगात् चन्द्रमण्डलसमअविरइया-स्त्री०(अविरतिका) न विद्यते / विरतिर्यस्याः सा प्रभाणि च शशिधरबिम्बवत् प्रभान्ति वृत्ततया शोभन्ते यानि तानि तथा अविरतिका / स्त्रियाम, स्था०६ ठा०। बृ०। तैः (छत्रैः)। प्रश्न०४आश्रद्वार। अविरत्त-त्रि०(अविरक्त) अनुरक्ते, औ०। अविरलदंत-त्रि०(अविरलदन्त) अविरला दन्ता यस्याघनरदने, औला अविरय-त्रि०(अविरत) अविरमति स्म सावद्ययोगेभ्योऽनिवर्तते / यस्य हि यथा अनेकदन्ता अपि सन्त एकाकारदन्तपक्तय इव लक्ष्यन्ते। स्मेति / पं०सं०१द्वार / सावद्यादविरते, स्था०२ ठा०१उ०) उत्त० | तंग चं०प्र०। पापस्थानेभ्योऽनिवृत्ते, दश०१०अ० प्रश्न। धol अविरलपत्त-त्रि०(अविरलपत्र) घनपत्रे, "अविरलपत्ता अछिप्राणातिपातादिविरतिरहिते विशेषेण तपस्यरते, भ०१श०१उ०। गृहस्थे, पत्ता'। अत्र हेतौ प्रथमा / ततोऽयमर्थः-यतोऽविरलपत्रा सूत्र०१श्रु०१अ०१उ०ा मिथ्यादृष्टौ च। आव०४अ०॥ अतोऽच्छिद्रपत्राः। जी०३प्रतिकारा०] अविरयवाइ(ण)-पुं०(अविरतवादिन्) वदनशीलो वादी, अविरतस्य अविरह-पुं०(अविरह) विरहाभावे, व्य०१उ०) सातत्येनावस्थाने, वाद्यविरतवादी। परिग्रहवति, आचा०१श्रु०४अ०१उ०। आचा०१श्रु०१अ०६उ०। अविरयसम्मत्त-पुं०(अविरतसम्यक्त्व)अविरतसम्यग्दृष्टी, अविरहिय-त्रि०(अविरहित) सन्तते, पञ्चा०१०विव०। कर्म०५कर्म। अविराहिऊण-अव्य०(अविराध्य)अखण्डमनुपाल्येत्येर्थे, पा०1 सम्यअविरयसम्मद्दिट्ठि-पुं०(अविरतसम्यग्दृष्टि)विरतिर्विरतम्, क्लीबेक्त- पालयित्वेत्यर्थे, ध०३अधि०| प्रत्ययः / तत्पुनः सावद्ययोगे प्रत्याख्यानं, तन्न जानातीति अविराहिय-त्रि०(अविराधित न विराधितोऽविराधितः। देशभग्ने, ल०। नाभ्युपगच्छति, नतत्पालनाय च यततइति त्रयाणां पदानामष्टौ भङ्गाः। अपरा॰, प्रश्न०३आश्र०द्वार। स्थापना अविराहियसंजम-पुं०(अविराधितसंयम) प्रव्रज्याकालादारभ्याऽभग्न5 - 5 - ऽ तत्र प्रथमेषु चतुर्षु भङ्गेषु मिथ्यादृष्टिः, अज्ञानि चारित्रपरिणामे संज्वलनकषायसामर्थ्यात् प्रमत्तगुणस्थानकसामर्थ्याद्वा 5-5-1त्वात्। शेषेषु सम्यग्दृष्टिः, ज्ञानित्यात्। सप्तसु स्वल्पमायाऽऽदिदोषसम्भवेऽप्यनाचरितचरणो-पघाते, भ०१श०२३०) 5-- 5 भङ्गेषु नास्य विरतमस्तीत्यविरतः। "अभ्रादि अविराहियसामण्ण-त्रि०(अविराधितश्रामण्य) आराधितचरणे, भ० 5 - 1 - [भ्यः''७।२।४६॥ इति अप्रत्ययः। चरम 15 श०१ उ०।अखण्डितसकलसुयतिसमाचारे,दर्श०। (अस्योपपातः 1-5-5 भङ्गेषु विरतिरस्तीति / यद्वा-विरमति स्म सावद्य 'उववाय' शब्दे द्वितीयभागे६८१ पृष्ठे द्रष्टव्यः) 1-5- योगेभ्यो निवर्तते स्मेति विरतः। “गत्यर्थाकर्म अविरिक-त्रि०(अविरिक्त) अविभक्तीकृते, व्य०६उ० | - 1 - 5 कपिबभुजेः " / 5 / 1 / 11 / इति कर्तरिक्तप्रत्यये अविरिक्थ-त्रि०। अविभक्तरिक्थे, व्य०२ उ०। 1-1-1 विरतः। न विरतोऽविरतः, सचासौ सम्यग्दृष्टिश्चाविरतसम्यग्दृष्टिः। / अदिरिय-त्रि०(अवीर्य) वीर्यरहिते, विपा०१श्रु०३०॥ इदमुक्तं भवतियः पूर्ववर्णितोप-शमिकसम्यग्दृष्टिः शुद्धदर्शनमोहपुञ्जो- | अविरुद्ध-त्रि०(अविरुद्ध) सङ्गते, पञ्चा० 6 विव०। युक्ते, पञ्चा० दयवर्ती क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टिा क्षीणदर्शनसप्तको वा क्षायिक १७विव०। पूर्वपुरुषमर्यादाऽनतिक्रमेणाऽविरोधभाजि,व्य०१उ० / सम्यग्दृष्टिा परममुनिप्रणीतां सावद्ययोगविरतिं सिद्धिसौधा- वैनयिके, उक्तंच-अविरुद्धो विणयकारी, देवीईण पराएँ भत्तीए / जह ध्यारोहणनिश्रेणिकल्पां जानन्नप्रत्याख्यानकषायोदयविधिनतत्वा- वेसियायणसुओ, एवं अन्ने वि नायव्वा ||1|| ज्ञा० 140 औ०। न्नाभ्युपगच्छति, न च तत्पालनाय यतत इत्यसावविरतसम्यग्दृष्टि- धर्माद्यप्रतिपन्थिनि, "अविरुद्धकुलाचारपालने मितभा- पिता'' | रुच्यते ॥कर्म०२कर्म० / देशविरते श्रावके,स०१४समा आव०। प्रव०। (अविरुद्धस्येति) धर्माद्यप्रतिपन्थिनः कुलाचारस्य पालन-मनुवर्तनम्। पं०सं०। दर्श०। द्वा०१२द्वा०ा विरुद्धराज्यविरहिते ग्रामादौ, बृ०१उ०। अविरयसम्मबिटिगुणट्ठाण-न०(अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान) अविरुद्धवेणइय-पुं०(अविरुद्धवैनयिक)क्षितीशमातापितृअविरतसम्यग्दृष्टः गुणस्थानमविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानम् / चतुर्थे गुरूणामविरोधेन विनयकारिणि, अनु०॥ गुणस्थाने, कर्म० अविलंबिय-त्रि०(अविलम्बित)नातिमन्थरे,भ०१श०७उ०। कल्पना उक्तंचबंध अविरइहेळं, जाणतो रागदोसदुक्खं च। अविला-स्त्री०(अवी) ऊरण्यान, पिं०। विरइसुहं इच्छंतो, विरइं काउंच असमत्थो॥१।। अविलुत्त-त्रि०(अविलुप्त) संसृतराज्ये, व्य०७ उ०। Page #994 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अविवजय 810 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अवीरिय अविवजय-पुं०(अविपर्यय) अतस्मिंस्तबुद्धिर्विपर्ययः, न विपर्ययोऽ- अविसोहिकोडि-स्त्री०(अविशोधिकोटि)आधाकर्मादिगुणेऽविशुद्धवर्गे, विपर्ययः / तत्त्वाध्यवसाये सम्यक्त्वे, विशेष ताश्चषडिमाः स्वतो हन्ति घातयतिघ्नन्तमनुजा-नीते / तथा-पचति, अविवेग-पुं०(अविवेक) असदुपयोगे, अष्ट०१५अष्ट। पाचयति, पचन्तमनुजानीते इति। आचा०१ श्रु०१अ०१उ० अविवेगपरिचाग-पुं०(अविवेकपरित्याग) भावतोऽज्ञानपरित्यागे. पं० | अविस्स-न०(अविस्र) मांसरुधिरे, प्रव०४०द्वार। व०१द्वार। अविस्ससणिज-त्रि०(अविश्वसनीय)विश्वासकर्तुमयोग्ये, तं०। अविसंधि-पुं०(अविसन्धि) अव्यवच्छिन्ने,आव०४०।आ० चूलाधा | अविस्सामवेयणा-स्त्री०(अविश्रामवेदना)विश्रान्तिरहितायामसातअविसंवाइ(ण)-त्रि०(अविसंवादिन्)दृष्टेष्टाऽविरोधिनि, पा०। वेदनायाम् , प्रश्न०१आश्रद्वार। अविसंवाइय-त्रि०(अविसंवादित) सद्भूतप्रमाणाबाधिते। पा० अविहडा-पुं०, देशी०। बालके, "सीहं पालेइ गुहा, अविहडतेण सा अविसंवाद-पुं०(अविसंवाद) संवादे, सच प्राप्तिनिमित्तं प्रवृत्तिहेतुभूता महड्डी य"। बृ०१० र्थक्रियाप्रसाधकार्थप्रदर्शनम्। सम्म०१काण्ड। अविहण्णमाण-त्रि०(अविहन्यमान) न विहन्यमानोऽविहन्यमानः / अविसंवायण(णा)जोग-पुं०[अविसंवादन(ना)योग] विसंवादनमन्य विविधपरिषहोपसर्गरहन्यमाने, "अविहण्णमाणो फलगावतही' / विघातमक्रियमाणे, आचा०१श्रु०६अ०५उ०| थाप्रतिपन्नस्यान्यथाकरणं, तद्रूपो योगो व्यापारः, तेन वा योगः संबन्धो विसंवादनयोगः, तनिषेधोऽविसंवादनयोगः। भ०८० उ०अनाभो अविहवबहू-स्त्री०(अविधववधू)जीवत्पत्तिकनार्याम्,भ० 12 श०२७०। गादिना गयादिकमश्वादिकं यद् वदति, कस्मैचित् किञ्चिदभ्युपगम्य वा अविहाड-स्त्री०(अविघाट) अविकटावर्ते, व्य०७ उ०। यन्न करोति सा विसंवादना, तद्विपक्षेण योगः सम्बन्धोऽविसंवादनायोगः / अविहिंस-त्रि०(अविहिंस) न विद्यते विहिंसा येषां तेऽविहिंसाः / संवादनासंबन्धे, स्था०४ ठा०१ उ०। विविधैरुपायैरहिंसकेषु, आचा०१श्रु०६अ०४उ०। अविसम-त्रि०(अविषम) समतले, तं०। अविहिंसा-स्त्री०(अविहिंसा) विविधा हिंसा विहिंसा, न विहिंसा अविसय-न०(अविषय)बाह्यार्थाभावेन निर्गोचरे,पञ्चा०५ विव०) अविहिंसा। विविधप्राणातिपातवर्जने,"अविहिंसामेव पव्वए, अणुधम्मो अविसहण-त्रि०(अविसहन) कस्यापि पराभवाऽसोढरि, बृ०१ उ०! मुणिणा पवेदितो'। सूत्र०१श्रु०२अ०१उ०। अविसाइ(ण)-त्रि०(अविषादिन) विषादवर्जिते, अणु०३वर्ग / धo) अविहिकय-त्रि०(अविधिकृत) अविधिना कृतमविधिकृतम् / अदीने, प्रश्न०१ संव० द्वार / खेदरहिते, ध०३अधि० किं मे | अशक्त्यादिना न्यूनाधिककरणे, दर्श० जीवितेनेत्यादिचिन्तादिरहिते, अन्त०७ वर्ग | परीषहाद्यभिद्रुतत्वेन अविहिण्णु-त्रि०(अविधिज्ञ) न्यायमार्गाऽप्रवेदिनि, दश०१अ०। कायसंरक्षणादौ दैन्यमनुपयाते, पं०व०१द्वार। अविहिभोयण-न०(अविधिभोजन) "कागसियालयभुत्तं दवि-यरसं अविसारय-त्रि०(अविशारद) अचतुरे, उत्त०२८अ०॥ सव्वओपरामुट्ठ। एसोउ हवे अविही''। इत्युक्तलक्षणे काकदुष्टादिभोजने, ओघा अविसुद्ध-त्रि०(अविशुद्ध) विशुद्धवर्णादिरहिते, स्था०३ ठा० 4 उ०) अविसुद्धलेस्स-त्रि०(अविशुद्धलेश्य) कृष्णादिलेश्ये, जी०३ प्रति०। अविहिसेवा-स्त्री०(अविधिसेवा) अविधेविधिविपर्ययस्य सेवा सेवनम् विभङ्गज्ञानिनि, भ०६श०६ उ० (तत्र अविशुद्धलेश्यो देवो विशुद्धलेश्य अविधिसेवा। निषिद्धाचरणे, षो०५ विव०॥ देवं पश्यतीति विभंग' शब्दे वक्ष्यते) अविहेड्य-पुं०(अविहेठक) नक्वचिदप्युचिते आदरशून्ये,"अविहेडए अविसेस-त्रि०(अविशेष) निर्विशेषे, पञ्चा०१३ विव०। नगनगर जो स भिक्खू" दश०१०अ०। नद्यादिकृतविशेषरहिते अविशेषलक्षणे भूभागादौ, स्था०२ ठा०३उ०। अवीइदव्व-न०(अवीचिद्रव्य) न वीचिद्रव्यमवीचिद्रव्यम् / सम्पूर्णे अविसेसिय-त्रि०(अविशेषित)विभागरहिते, बृ०२उ० अनर्पिते, आहारद्रव्ये, सर्वोत्कृष्टायामाहारवर्गणायां च / भ० 13 श०६ उ०) ('वीइदव्य' शब्देऽस्य व्याख्या) स्था०१०ठा अविसेसियरसपगइ-स्त्री०(अविशेषितरसप्रकृति) रसः स्नेहोऽनुभाग अवीइमंत-त्रि०(अवीचिमत्) अकषायसंबन्धवति, भ०१०श०२ उ०। इत्येकार्थः, तस्य प्रकृतिः स्वभावः / अविशेषिता अविव- क्षिता अवीइय-अव्य०(अविविच्य)अपृथग्भूयेत्यर्थे,भ०१०२० 2 उ०। रसप्रकृतिः, उपलक्षणत्वात् स्थित्यादयो यस्मिन, असाव विशेषितरस- * अविचिन्त्य-अव्या अविकल्प्येत्यर्थे, भ०१०श०२उ०। प्रकृतिः / अविवक्षितानुभावे, क०प्र०। अवीय-त्रि०(अद्वितीय)न०बला एकाकिनि,कल्प०६ क्ष०ा अस-हाये, अविसोहि-पुं०(अविशोधि) उपघाते, शबलीकरणे च। ओघ०।अतिचारे, विपा०१श्रु०२० आ०चू०१ अ० अवीरिय-पुं०(अवीर्य) मानसशक्तिवर्जिते, भ०७ श०६ उ०) Page #995 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवीसंभ 811- अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अवुसराइय अवीसंभ-पुं०(अविश्रम्भ) अविश्वासे, गौणे तृतीये प्राणातिपाते च। | प्रश्न०। प्राणवधप्रवृत्तो हि जीवानामविश्रम्भणीयो भवतीति प्राणवधस्याविनम्भकारणत्वादविश्रम्भव्यपदेशः। प्रश्न०१ आश्र० द्वार। अवीसत्थ-त्रि०(अविश्वस्त) विश्वासरहिते, ग०२ अधिo अवुग्गहट्ठाण-न०(अविग्रहस्थान) कलहाऽनाश्रये, स्था०।''आयरियउवज्झायस्स णं गणसि पंच अवुग्गहट्ठाणा पण्णत्ता / तं जहा आयरियउवज्झाएणंगणसि आणं वाधारण वा सम्म पउंजित्ता भवड 1. एवं महाराइणियाए सम्मं० 2, आयरियउवज्झाए णं गणसि जेसु य पल्लवजाए धारेइ ते काले सम्मं०३, एवं गिलाणसेहयेयावच्चं सम्म०४, आयरियउवज्झाएणं गणसि आपुच्छियचारी यावि भवइ, णो अणापुच्छियचारी।" स्था०५ ठा०१ उ०। अवुत्त-त्रि०(अनुक्त) केनाप्यप्रेरिते, स्था०८ठा। अवुसराइय-पुं० (अवसुराज) रत्नश्रेष्ठ, तद्वद्दीप्तिमति पदार्थमात्रे, मिच्छत्तेणं उदिपणेणं। सेसं कंठ। असंविग्गा संविग्गजणं इमेण आलंबणेण हीलंतिधीरपुरिसपरिहाणी, नाऊणं मंदधम्मिया केइ। हीलंति विहरमाणं, संविग्गजणं असंविग्गो // 331 / / कंठा। के पुण धीरपुरिसा ? इमेकेवलमादि हि चोइस, णवपुव्वीहिं विरहिए एम्हि। सुद्धमसुद्धं चरणं, को जाणति कस्स भावं च? ||332 / / बाहिरकरणेण समं, अमितरयं करेंति अमुणेत्ता। णेगंतेणं च भवे, विवन्जिओ दिस्सते जेण // 333 / / एते संपदं णत्थि, जदिएते होता तो जाणंता, असीदंताणं चरणं सुद्ध, इयरेसिं असुद्धं / केवलमादि णो णाउंपडिचोयंता पच्छित्तं च जहारुहं देंतो चिंतंति, अभितरगो वि एरिसो चेव भावो / ण य एगंतरेण बाहिरकरणजुत्तो अब्भंतरकरण युक्तो भवति / कहं ? उच्यते- जेण विवजितो दीसति, जहा-उदाइमारगस्स पसण्णचंदस्स य बाहिरे अविसुद्धो, भरहो विसुद्धो चेव। जइदाणि णिरतिचारा, हवेज तव्वजिआ व सुज्झिज्जा। नय हुति निरतिचारा, संघयणधितीण दोब्बल्ला।३३४।। संपयकालं जदि णिरतिचारा हवेज, अहवा तव्वजिया णाम ओहिणाणादिवजिआ जइ चरित्तसुद्धी हवेज, तो जुत्तं वत्तुं-इमे अविसुद्धचरणा संघयणधितीण दुब्बलत्तणओय पच्छितं करेंति। संघयणधितिदुबलत्तओ चैव इमंच ओसण्णा भणंतिको हा! तहा समत्थो, जं तेहिं कयं तु धीरपुरिसेहिं। निचू० वसुराजमवसुराजं भगतिजे भिक्खू दुसराइयं अवुसराइयं वदइ, वदंतं वा साइजइ॥१३॥ वसूणि रयणाणि, तेसुराओ वसुराओ। अहवा-राई दीप्तिमान्, राजते शोभत इत्यर्थः / तं विवरीयं जो भणति, तस्स चउलहु। इमा णिज्जुत्तीवसुमं ति वा वि वसिम, वसतिरातिणिओ पज्जया चरणे। तेसु रतो दुसराई, असिम्मि ततो अवुसराई॥३२८।। ते दुविधा-दव्वे, भावे या दव्वे मणिरयण दिया, भावे णाणादिया। इह भाववसुहि अधिकारो / ताणि जस्स अत्थि सो वसुमं ति भषणति / अहवा- इंदियाणि जस्स वसे वटुंति, सो वसिम भण्णति / अहवा- णाणदंसणचरित्तेसु जो वसति णिचकालं सो वसतिरातिणिओ भण्णति / अहवा-व्युत्सृजति पापम्- अन्य-पदार्थाख्यानं, चारित्रं वा वसुमं ति वुचति / वसति वा चारित्रे वसुराती भण्णति। अहवा- (पज्जया चरणे त्ति) एते चारित्तट्ठियस्स पजाया, एगट्ठिया इत्यर्थः / एस वुसराई भण्णति। पडिपक्खे अवुसराई। अहवावुसि संविग्गो भणितो, अदुसि असंविग्ग ते तु वोचत्थं / जहसत्ती पुण कीरति, दढा पइण्णा हवइ एवं // 335 / / धीरपुरिसा तित्थकरादीजहासत्तिए कीरति एवं भणमाणे दढा पइण्णा भवति जो एवं भणति,जो पुण अण्णहा वदति, अण्णहाय करेति, तस्स सच्चा पइण्णा ण भवति। आयरिओ भणतिसव्देसिँ एव चरणं, पुणो य मोयावगं दुहसयाणं / मा रागदोसबसगा, अप्पण सरणं पलीवेह॥३३६।। सव्वेसिं भवसिद्धियाणं, चरणंसरीरमाणसाणं दुक्खाण विमोक्खणकर, तं तुज्झे सयं सीयमाणो अपणो चरित्तेण रागाणु-गता उज्झयचरणाणं दोसमावण्णा मा भणइ-चरणं णत्थि,मा तत्थेव वसह, तं चेव सरणं पलीवेह, णो सहेत्यर्थः। किंचसंतगुणणासणा खलु, परपरिवाओ व होति अलियं वा। जे भिक्खू उवएज्जा, सो पावति आणमादीणि // 329 / / कंठा। 'वोच्चत्थं ति' वुसिराइयं अवुसिराइयं, अवुसिराइयं वुसिराइयं भणति। एत्थ पढ़मं वुसिराइयं अवुसिराइयं भण्णति इमेहिं कारणेहिंरोसेण पडिणिवेसेण वा वि अकयंत मिच्छभावेणं। संतग पोच्छाएत्ता, भासति अणुणेसणे ते उ॥३३०|| कोइ कस्स वि कारणे अकारणे वा रुट्ठो पडिणिवेसेण 'सो पूइजति, अहंण पूइजामि / एवमादिविभासा अकयपूयाए। एतेण तस्स उवयारो कओ, ताहे मा एयस्स पडिउवयारो कायव्वो होहि' त्ति मिच्छभावेणं धम्मे य अबहुमाणा, साहुपदोसे य संसारो // 337 / / चरणं णत्थि त्ति एवं भणंतेहिं साधूणं संतगुणणासो कतो भवति, पवयणस्स य परिभवो कतो भवति, अलियवयणं च भवति। चरणधम्मे पलोविजंते, चरणधम्मे य अबहुमाणो कतो भवति, साधूण य पदोसो कतो भवति, साधुपदोसेण य संसारो वढितो भवति। किंचखय-उवसम-मीसं पि अ, जिणकाले वि तिविहं भवे चरणं। मिस्सातो चिय पावति, खयउवसमं च णाणत्ता // 338|| Page #996 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवुसराइय 812 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अवुसराइय तित्थकरकाले वितिविहंचारित्तं-खाइयं, उवसमियं,खाइ- ओवसामियं च / तम्मि वि तित्थकरकाले मिस्साओ घेव चारि-ताओ खाइयं उवसामियं वा चारित्तं पावति, नान्यस्मात् / बहुतरा य चरित्तविसेसा खओवसमभावे भवंति। किंच तीर्थकरकाले विअइयारो विहु चरणे, ठितस्स मिस्सेण दोस इतरेसु / वच्छातुरदिटुंता, पच्छित्तेणं स तु विसुज्झो॥३३॥ (इयरेसु त्ति) खाइए उवसमिए वा। जहा-वच्छंखारादीहिं सुज्झति, आतुरस्स वा रोगो क्मणविरेयणओसहपओगेहिं सोहिजति, तहा साधुस्स चरणादिअइयारो पच्छित्तेणं सुज्झति। जंच भणियं-अतिसयरहिएहि सुद्धासुद्धचरणं ण सुज्झतिदुविहं चेव पमाणं, पचक्खं चेव तह परोक्खं च / चउवा तिविहा पढम, अणुमाणोपम्मसुत्तितरं॥३४०|| ओहि- मणपजव-केवलं च एवं तिविधं पञ्चक्खं, धूमाद ग्निज्ञानमनुमानम्, यथा गौः तथा गवय औपम्यं, सुत्तमिति आगमः, इयरं ति एयं तिविधं परोक्खं। सुद्धमसुद्धं चरणं,जहा उजाणंति ओहिणाणीओ। आगारेहि मणं पिव, जाणंति तहेतरा भावं // 341 / / पुव्वद्धं कंठ। जहा परस्स सुहणे त्ति बाहिरागारहिं अंतरगतोमणो णज्जति, तहा इयर त्ति परोक्खणाणी आलोयणाविहाणं सोउं पुव्वावरबाहियाहि गिराहिं आचरणेहिं य जाणंति चरित्तं भावं च सुद्धं, सुद्धेतरं च / चोदग आह-जइ आगारेण भावो णज्जति, तो उदाइमार गादीणं किं ण णाओ? आचार्य आहकामं जिणपञ्चक्खा, गूढाचाराण दुम्मणो भावो। तह वियपरोक्खसुद्धी, जुत्तस्स व पण्णवीसाए॥३४२।। काममिति अनुमतार्थे / जइ वि जे उदाइमारगादि गूढायारा, तेसिं छउमत्थेणं दुक्खं उवलब्भति, भावो सो जिणाणं पुण पच्चक्खो, तहा वि परोक्खणाणी आगमाणुसारेण चरित्तसुद्धिं करेंति चेव / कहं ? उच्यते(जुत्तस्स व त्ति) जहा सुत्तोवउत्तो मीसजायज्झोयरो रागो त्ति पण्णरस उग्गमदोसा, दस एसणा दोसा, एते पणवीसं जहा सुत्ताणुसारेण सोहंतो चरणं सोहेंति, तहा सुत्ताणुसारेण पच्छित्तं देंतो करेंतो य चरित्तं सोधेति / अणुज्जतचरणो इमेहिं कजेहिं होज्जाहोज हु वसणप्पत्तो, सरीरदोब्बल्लताए असमत्थो। चरणकरणे असुद्धे, सुद्धं मग्गं परूवेजा।।३४३।। व्यसनं आवती, मज्जगीतादियं वा, तम्मि उज्जमति, अहवासरीरदुब्बलतणओ असमत्थो सज्झायपडिलेहणादि किरियंकाउं,अकप्पियादिपडिसेहणं च / अधवा-सरीरदोब्बलो, असमत्थो य, अदढधम्मा, एवमादिकारणेहिं चरणकरणं से अविसुद्धं। तहा वि अप्पाणं गरिहंतो सुद्धं साहुमग परूवेतो आराधगो चेव भवति। इमे चेव अत्थो भणतिओसण्णादिविहारे, कम्मं सिढिलेति सुलभबोहीए। चरणकरणं णिगृहति, न य बोहिं दुल्लभं जाणे // 34 // कण्ठ्या / जो पुण ओसण्णो होउंओसण्णं मगंउववूहइ, सुद्धचरणमग्ग, गृहति, इमेहिं कारणेहिं इमंच से दुल्लभबोही (अत्थं) फलं / अहवागुणसयसहस्सकलियं, गुणंतरं वा अभिलसंताणं / चरणकरणामिलासी, गुणुत्तरतरं तु सो लहइ // 345 / / गुणाणं सयं गुणसयं, गुणसयाणं साहस्सी, छंदोभंगभया सकारस्स हस्सता कता, तेय अट्ठारस सीलंगसहस्सा, तेहिं कलियं जुत्तं संखियं वा / किं तं? चारित्तं, तं जो य पसंसति / किंच-गुणश्चाऽसौ उत्तरं च गुणोत्तरम्। अधवा- अन्येऽपि गुणाः सन्ति क्षमादयः, तेषामुत्तरं, तं च गुणुत्तरं सरागचारित्तं / गुणुत्तरतरं पुण अहक्खायचारितं भण्णति, तं च जे अभिलसंति तेच उज्जतचरणा इत्यर्थः / ते य उववूहते जो ओसण्णो अप्पणा य उज्जयचरणो होहं तिचरणकरणाभिलासी भण्णति, स एवंवादी गुणुत्तरतरं लभति, अहक्खायचारित्रमित्यर्थः / अथवा-गुणुत्तरतरं पुण मोक्खसुहं भण्णति, तं लभति। जो पुण ओसण्णो - जिणवयणभावितण तु, गुणुत्तरं सो वि जाणेत्ता। चरणकरणाभिलासी, गुणुत्तरतरं तु सो हणति / / 346|| गुणुत्तरतरं चारितं, साधू वा, अप्पणा य चरणकरणोवधाते वट्टति, अहवा- चरणकरणस्स जुत्ताण वा निंदा परोक्घायं करेइ, स एवंवादी गुणुत्तरंचारित्तं, मोक्खसुहं वा, हणति,णलभति,जेणसो दीहसंसारित्तणं णिव्वत्तेति। जो ओसण्णं ओसण्णमग्गं वा उववूहतिसो होती पडिणीतो,पंचण्हं अप्पणो अहितिओय। सुयसीलवियत्ताणं, नाणे चरणे य मोक्खे य॥३४७|| पंचपासत्थादिसुयसीलो विहारलिंगाओ घाइओ कामा, अवियत्ता अगीयत्था णाणचरणमोक्खस्स य एतेसिं सव्वेसिंपडिणीतो भवति - इमेहिं पुण कारणेहिं ओसण्णं ओसण्णमगं वा उववूहेज्जा - बितियपदमणप्पज्झो, वएज अविकोविते व अप्पज्झो। जाणते वा विपुणो, भयसातव्वादिगच्छट्ठा / / 348|| रायासिं य ओसण्णाणुवत्तिओ भया भण्णेज्जा तव्वादं त्ति / कश्चिद्वादी ब्रूयात् -तपस्विनमतस्विनं ब्रुवतः पापं भवतीति नः प्रतिज्ञा / तत्प्रतिघातकरणे वुसिराइयं अवुसराइयं भणेज, दुन्भि-क्खादिसु वा ओसण्णभाविएसु खेत्तेसु अत्यंतो ओसण्णाणु-वत्तीओ गच्छपरिपालणट्ठा भणेज्ज। जे भिक्खू अवुसराइयं दुसराइयंवदइ, वदंतं वा साइजइ॥१४ / / एमेव बितियसुत्ते, दुसराइयं अवुसराइंव। जो पुण वएज्ज भिक्खू, अवुसिराइं तु दुसिराइं // 346 / / कण्ठ्याएगचारियं भणंता, सयं व तेसु य पदेसु वस॒ते / सगदोसछायणट्ठा, केइपसंसंति णिद्धम्मे॥३५०|| कोइ पासत्थादीणं एगचारियं भण्णति- 'एस सुंदरो, एयस्स एगागिणो ण केणइसह रागदोसा उप्पाजंति' / सो वि अप्पणा गच्छपंजरभग्गो तम्मि चेव ठाणे वट्टति / सो य अप्पणिज्जदोसे छादिउकामो तं पासत्थादियं एगचारिं णिद्धम्मं पसंसंति। Page #997 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवुसराइय 813 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अवोगमा तो सिरातियं चउभंगो कायव्यो / चउत्थभंगो अवत्थु, ततियभंगे अणुण्णे, पढमबितिएसु संकमो पडिसिद्धो। पढमे संकमंतस्स मासलहु, बितिए चउलहु। चोदगाह-जुत्तं बितिएपडिसेहो, पढमभंगे किंपडिसेहो ? आचाहि-तत्थ णिकारणे पडिसेहो, कारणे पुण पढमभंगे उपसंपदं करेति। सा य उवसंपया कालं पडुच्च तिविहा इमाछम्मासे उवसंपद, जहण्ण वारससमा उमज्झिमिया। इमंच भणंतिदुक्करयं खुजहुत्ता, वाहट्ठिया विसीदति। एसो निविउयमग्गो, जस्स भवतीय चरणसुद्धी॥३५१।। एवं भणते इमे दोसाअब्भक्खाणं णिस्सं-कयाइ अस्संजमस्स य थिरतं। अप्पा उम्मग्गठिओ, अवण्णवादोय तित्थस्स // 352|| असंजतभावुज्झावणं अब्भक्खाणं अवुसिरातियं भणति / सो य पसंसिज्जमाणो णिस्सको भवति / मंदधम्माण वि असंजमे थिरीकरणं करेति। अण्णंच उम्मगपसंसणाए अप्पणायउम्मग्गद्वितो, ततो तित्थस्स य अन्यपदार्थेन अवर्णवादः कृतो भवति। किंचजो जत्थ होइ मग्गो, ओयासं सो परस्स अविदंतो। गंतुं तत्थ वएंतो, इमं पहाणं ति घोसंति // 35 // अद्धाणिगदिट्ठतेण ओस्सण्णो उवसंथारेयव्यो। सेसं कंठं। किंचपुव्वगयकालियसुय-संतासंतेहि केइ खो ति। ओस्सण्णचरणकरणा, इमं पहाणं ति घोसंति॥३५५|| पुव्वगयकालियसुयणिबंधपच्चयतोदीसंति। तत्थ कालियसुये इमेरिसो आलावगो-बहुमोहो वि य णं पुव्वं विहरित्ता पच्छा संवुडे कालं करेजा किं आराहए, विराहए? गोयमा ! आराहए, णो विराहए। एवं पुटवगहिए वि जे केवि आलावगा ते उच्चरित्ता परं खोभेति, अप्पणा वा खुभंति / सीदंतीत्यर्थः / ते य ओसण्णचरणकरणा इमं ति अप्पणो चरियं पहाणं घोसेंति। इमेसिंपुरतोअबहुस्सुए अगीयत्थे, तरुणे मंदधम्मिणो। परियारपूइयाहेउं, संमोहेउ निरंभति॥३५५।। जेण आयारपगप्पो णऽज्झाइतो एस अबहुस्सुतो, जेण आवस्सगादियाणं अत्थो ण सुओ, सो अगीयत्थो, सोलसवरिसाण आढवेत्तु जाव चत्तालीसवरिसो एस तरुणो, असंवेगी मंदधम्मो / एते पुरिसे विपरिणामेति अप्पणो परिचारहेउं, एतेहि य परिचारितो लोगस्स पूयाणिज्जो होउ, कालियं दिट्टिवाये भणितेहिं अहवा अभणितेहिं या संमोहेउ अप्पणोपासे णिरुंभति, धरतीत्यर्थः। अहवा जो एवं पण्णवेतिएसो चेव अबहुस्सुओ अगीयत्थो तरुणो वा मंदधम्मो वा। सेसं कंठं। जत्थोचिओ विहारो,तं चेव पसंसए सुलभबोही। ओसण्णविहारं पुण, पसंसए दीहसंसारी॥३५६|| जो संविग्गविहाराओ जुओ, तं पसंसति जो, सो सुलभबोही। जो पुण ओसण्णविहारं पसंसति, सो असुलभबोही दीहसंसारी भवति। बितियपदमणप्पज्झो, वएज्ज अविकोविएव अप्पज्झो। जो जाणंता वि पुणो, भयसातव्वादिगच्छट्ठा॥३५७।। पूर्ववत्जे भिक्खू वुसराइयाओ गणाओ अवुसराइयं गणं संकमइ, संकमंतं वा साइज्जइ / / 15|| वुसिराइयागणाओ,जे भिक्खू संकमे अवुसिराई। पढमबियतियचउत्थे, सो पावति आणमादीणि॥३५८|| आवकहा उक्कोसा, पडिच्छसीसेतु आजीवं // 35 // उवसंपदा तिविहा-जहण्णा, मज्झिमा, उक्कोसा य। जहन्ना छम्मासे, मज्झिमा बारसवरिसे, उक्कोसा जावज्जीवं / एवं पडिच्छगस्स एगविहा चेव जावजीवं आयरिओ ण मोत्तव्यो। छम्मासेऽपूरेता, गुरुगा बारससमासु चउलहुगा। तेण परं मासियत्तं, भणितं पुण आरते कब्जे // 360 / / जेण पडिच्छोण छम्मासिआ उवसंपयाकया, सोजदिछम्मासे अपूरित्ता जाति, तस्स चउगुरुगा, जेण बारस वरिसा कया, ते अपूरित्ता जाइ, तो चउलहुँ। जेण जावजीवं उवसंपदा कता, तस्स मासलहुं / छम्मासाणं परेणं णिक्कारणे गच्छंतस्स मासलहुं / जेण बारससमा उवसंपया कया, तस्स वि छम्मासे अपूरेतस्स चउगुरुगा चेव, तस्सेव बारससमाओ अपूरेतस्स चउलहुगा / एस सोही गच्छतो जिंतस्स भणितो। नि० चू० १६उ०) अवेक्खमाण-त्रि०(अपेक्षमाण) निरीक्षमाणे, ज्ञा०६अ। अवेज-त्रि०(अवेद्य) स्वसमानाधिकरणसमानकालीनसाक्षात्काराऽविषये, द्वा०३०द्वा०। अवेज्जसंवेजपय-न०(अवेद्यसंवेद्यपद) महामिथ्यात्वनिबन्धने पशु त्वादिशब्दवाच्ये, द्वा०२३ द्वारा अवेय-पुं०(अवेद) पुरुषवेदादिवेदरहिते, प्रज्ञा०२ पद। सिद्धादौ, स्था०२ ठा०१० अवेयइत्ता-अव्य०(अवेदयित्वा)वेदनमकृत्वेत्यर्थे, प्रश्न० 1 आश्र० द्वार। अवेयण-त्रि०(अवेदन) न विद्यते वेदना यस्य स अवेदनः / अल्पवेदने वेदनारहिते, उत्त०१६अगसाताऽसातवेदनाभावात् सिद्धेच। प्रज्ञा०२ पद। अवेयवच-त्रि०(अपेतवाच) वचनीयतारहिते, बृ०१ उ०। अवेरमणझाण-न०(अविरमणध्यान) न विरमणमविरमणम, तस्य ध्यानम्।मा भूतपुत्रयोर्विरतिबुद्धिरित्यङ्गीकृतामपि देशविरतिं परित्यज्य प्रान्तग्रामसमाश्रितयोः "एते साधवो मांसाशिनो राक्षसाः' इत्यतस्तत्पार्वेनगन्तव्यमिति। तनयविहितविप्रतारणयो गुपुत्रयोरिव, जयदेवेन प्रतिबोद्ध्यमानस्यापि मुहुर्मुहुर्विरतिं त्यजतस्तद्धातुरिव, मेतार्यस्येव वा दुनि, आतु०॥ अवोगडा-स्त्री०(अव्याकृता)अतिगम्भीरशब्दार्थायाम्-अव्यक्ताक्षरप्रयुक्तायां वा अविभावितार्थत्वाद्भाषायाम, प्रश्न०१ संव०द्वार / "अवोच्छिन्नए अवोगडाए" / स०६ सम० अव्याकृता, यथाबालकादीनांथपनिका / दश०७ अ०॥ Page #998 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवोच्छिण्ण 814- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अव्वत्तिय अवोच्छिण्ण-त्रि०(अव्युच्छिन्न)उत्तरोत्तरानुवृत्त्या व्यवच्छेद-शून्ये, अनवगतच्छेदग्रन्थरहस्ये, ध०२अधि०। अव्यक्तोऽगीतार्थस्तस्याआचा०१श्रु०४अ०४० ऽव्यक्तस्य गुरोः पुरतो यदपराधालोचनं तदव्यक्तम् / आलोचनादोषे, अवोच्छित्तिणय-पुं०(अव्यवच्छित्तिनय) श्रुतस्य कालान्तरप्रापणे, व्य०१ उ०। स्था०। "जो य अगीयत्थस्सा, आलोएतं तु होइ अव्वत्तं' स्था०५ठा०३उ०। अव्यवच्छित्तिप्रतिपादनपरो नयोऽव्यवच्छित्ति-नयः सत्या सत्यभामेतिवदव्यक्तवादी संयताऽभ्युपगमे संदिग्धबुद्धौ निहवे, / द्रव्यास्तिकनये, नं० आ०म०द्वि० अवोच्छित्तिणयट्ठ-पुं०(अव्यवच्छित्तिनयार्थ०)६तका द्रव्ये,नं०।। | अव्वत्तगम-त्रि०(अव्यक्तगम) गमनाभावे, नंष्टुमसमर्थे च / सूत्र० 1 अवोच्छित्तिणयट्ठया-स्त्री०(अव्यवच्छित्तिनयार्थता) अव्यवच्छित्तिन श्रु०१४ अ०॥ यार्थस्य भावोऽव्यवच्छित्तिनयार्थता / द्रव्यापेक्षायाम, नं०। अव्व(व)त्तव्वगसंचिय-पुं०(अवक्तव्यकसंचित)द्व्यादिः संख्या व्यवहाअवोसिरण-न०(अव्युत्सर्जन) अपरित्यागे, दशा०१०अध्या०। रतः शीर्षप्रहेलिकायाः परतोऽसंख्यायाश्च संख्या-त्वेनासंख्यात्वेन च वक्तुं न शक्यते असाववक्तव्यः। स च एककस्तेनाऽवक्तव्येन एककेन अवोह-पुं०(अपोह) अपोहनमपोहः / निश्चये, नं० आ०म०। प्राप्तार्थ, एकत्वोत्पादेन संचिता अवक्त-व्यकसंचिताः / कतित्वेनाऽकतित्वेन "तत्तो अवोहए वा" ततः पर्यालोचनानन्तरमपोहते / आ०म०प्र०) चानिर्वचनीयोत्पादेषु, भ०२० श०१० उ०। अपोह्यते स्वाकाराद्विपरीत आकारोऽनेनेत्यपोहः। स्वाकारविपरीताकारोन्मूलके, रत्ना०४ परि०। अव्यापोढपदार्था-धिगतिफलत्वादपोह (अत्रदण्डक 'उववाय' शब्दे द्वितीयभागे 621 पृष्ठवक्ष्यते) इत्युच्यते। सम्म०१ काण्ड। (अपोहः शब्दार्थः प्रसिद्ध इति 'आगम' अव्वत्तदंसण-पुं०(अव्यक्तदर्शन) अव्यक्तमस्पष्ट दर्शनमनुभवः शब्दे द्वीतियभागे 65 पृष्ठे द्रष्टव्यः) अपगत ऊहो वादिसमुद्भावितस्तर्को __ स्वप्रार्थस्य यत्रासावव्यक्तदर्शनः।स्वप्रदर्शनभेदे, भ०१६ श०६ उ०। यस्मात्। ५बहुवादिसमुद्भावित-तर्कनिरासार्थक प्रतिवादिसमुद्रा- | अव्वत्तमय-पुं०(अव्यक्तमत) न ज्ञायतेऽत्र कोऽपि संयतः कोऽप्य-संयत वितेतद्विरुखे तर्कभेदे, वाचा ('अपोह' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 612 पृष्ठे इत्यव्यक्तस्यैव सर्वस्याभ्युपगमान्न व्यक्तमस्फुटमव्यक्तं मतं येषां संक्षेपतोऽयं निरूपितः, विस्तरतस्तु सद्दत्थ' शब्दे वक्ष्यते) तेऽव्यक्तमताः। संयताद्यवगमे संदिग्धबुद्धिषु निहवेषु, विशे० आ०म० अवोहरणिज्ज-त्रि०(अव्यवहरणीय) जीर्णे, नि००१ उ०। आ०चून अव्वईभाव-पुं०(अव्ययीभाव) अनव्ययमव्ययं भवत्यनेन। अव्यय-च्चि- | अव्वत्तरूव-त्रि०(अव्यक्तरूप) अमूर्तत्वादव्यक्त रूपमस्याऽसावव्यक्तभू-करणे घना व्याकरणप्रसिद्ध समासभेदे, वाच०। अनु०॥ रूपः / तथा-करचरणशिरोग्रीवाद्यनवयवतया स्वतो-ऽवस्थानाजीवे, से किं तं अव्वईभावे ? अव्वईमावे अणुगामा, अणुण सूत्र०२श्रु०६अ। इया,अणुफरिहा,अणुचरिआ। सेतं अव्वईभावे समासे। अव्वत्तिय-पुं०(अव्यक्तिक) अव्यक्तमस्फुट वस्तु अभ्युपगमतो विद्यते येषां पूर्वपदार्थप्रधानोऽव्ययीभावः,तत्र ग्रामस्य अनु समीपेन मध्येन ते अव्यक्तिकाः। संयताद्यवगमे संदिग्धबुद्धिषु, स्था०७ ठा०। उत्ता औ०। वाऽशनिर्निर्गता अनुग्रामम् / एवं नद्याः समीपेन मध्येन वा निर्गता __ तदुत्पत्तिर्मतं चेत्थम्, तृतीयनिह्नववक्तव्यतामाहअनुनदि,इत्याद्यपि भावनीयम्। अनु०॥ चोद्दा दो वाससया, तइया सिद्धिं गयस्स वीरस्स। अव्वंग-न०(अव्यंग) अक्षते, यस्य क्षतं कृतं न विद्यते। व्य०७उ०। तो अव्वत्तियदिट्ठी, सेयवियाए समुप्पन्ना॥ अव्वक्खित्त-त्रि०(अव्याक्षिप्त) स्थिरे,'अव्वक्खित्तेण चेयसा' / अव्या चतुर्दशाधिकं वर्षशतद्वयं तदा श्रीमन्महावीरस्य सिद्धिंगतस्याऽऽसीत्, क्षिप्तेन स्थिरेण चेतसा। उत्त०२०अ०अन्यत्रोपभोग-मगच्छतेत्यर्थः। ततोऽव्यक्ताभिधाननिहवानां दृष्टिदर्शनरूपा श्वेत-विकायां नगर्या दश०५अ०१उला पं०व०ाव्याक्षेपमकुर्वति, प्रतीच्छनायोम्ये, वक्खेवणा समुत्पन्नेति। दुसता, दिवसएसुलीहाले।दुगमादीजोयपढतो न करेति विक्खेवं / / 1 / / कथम्?, इत्याहअव्वक्खित्तो एसो, आउत्तो अणण्हमणसो उ। पं०भा०। सेयवियपोलसाढे, जोगे तद्दिवसहिययसूले य। अव्वग्गमण-त्रि०(अव्यग्रमनस्) अव्यग्रमनाकुलितमसमञ्ज सचित्तो- सोहम्मिनलिणिगुम्मे, रायगिहे मुरियबलभद्दे / / परमतो मनश्चित्तमस्येत्यव्यग्रमनाः। अनुकूलचित्ते, उत्त० 15 अ० इह श्वेतविकायां नगर्या पौलाषाढचैत्ये आर्याषाढनामान आचार्याः अव्वत्त-न०(अव्यक्त) न व्यक्तमव्यक्तम् / अनिर्देश्ये स्वस्व- स्थिताः / तेषां च बहवः शिष्या आगाढयोगं प्रपन्नाः / अपरवाचनारूपनामजात्यादिकल्पनारहिते, नं०। सर्वप्रकृतौ साङ्ख्यपरिकल्पिते ऽऽचार्याऽसत्त्वे चतएवाऽऽचार्याषाढसूरयस्तेषां वाचनाचार्यत्वं प्रतिपन्नाः / प्रधाने। आ०म०प्र० स्या०। अव्यक्तादव्यक्तं प्रभवति, ततः षष्टितन्त्रं तथाविधकर्मविपाकतश्चते तत्रैव दिवसे रजन्यां हृदयशूलेन कालं कृत्वा जातम् / आ०म०प्र०। श्रुतवयोभ्यां लधौ, आचा०२ श्रु० 5 अ० सौधर्मे देवलोके नलिनीगुल्मिविमाने देवत्वेनोत्पन्नाः / न च विज्ञाताः 3 उ०। वयसा लघौ श्रुतेनात्यल्पश्रुते, जीत० व्य०। यावत्कक्षादिषु केनापि गच्छमध्ये / ततोऽवधिना प्राक्तनव्यतिकरं विज्ञाय रोमसंभवो न भवति तावदव्यक्तो भवति / नि०चू०१८ उ०। व्य०। साध्वनुकम्पया समागत्य तदेव शरीरमधिष्ठायोत्थाप्य च प्रोक्तास्तेन अव्यक्तोऽष्टानां वर्षाणां मध्ये बालः। ओघ०। अगीतार्थे, नि०चू०२०। / साधवः / यथा- वैरात्रिककालं गृहीत / ततः कृतं साधुभिस्तथैव, Page #999 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव्यत्तिय 815 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अव्वत्तिय श्रुतस्योद्देश- समुद्देशानुज्ञाश्च तदग्रतः कृताः। एवं दिव्यप्रभाव-इतस्तेन देवेन तेषां साधूनां कालभङ्गादिविघ्नं रक्षताशीघ्रमेव विस्तारिता योगाः। ततोऽनेन तच्छरीरं मुक्त्वा दिवंगच्छता प्रोक्ताः साधवः। यथा-'क्षमणीयं भदन्तैर्यदसंयतेन सता मया आत्मनो वन्दनादौ न वारिताः, चारित्रिणो यूयम्। अहं ह्यमुकदिने कालं कृत्वा, दिवंगतोयुष्मदनुकम्पयाऽत्रागतः, निस्तारिताश्च भवतामागाढ-योगाः। इत्याद्युक्त्वा क्षमयित्वा च स्वस्थानं गतः। ततस्ते साधवस्तच्छरीरकंपरिस्थाप्य चिन्तयन्ति- अहो! असंयतो बहुकालं वन्दितः। तदित्थमन्यत्रापि शङ्काको जानाति कोऽपि संयतः, कोऽप्यसंयतो देव इति ? ततः सर्वस्याप्यवन्दनमेव श्रेयः, अन्यथा ह्यसंयतवन्दनं, मृषावादश्च स्यात् / इत्थं तथाविधगुरुकर्मोदयातेऽपरिणतमतयः साधवोऽव्यक्तवादं प्रतिपन्नाः परस्परं न वन्दन्ते। ततः स्थविरैस्तेऽभिहिताः- यदि परस्मिन् सर्वत्र भवतां संदेहस्तर्हि यदुक्तं 'देवोऽहमिति' तत्रापि भवतां कथं न संदेहः? किंस देवो वाऽदेयो या ? इति। अथ तेन स्वयमेव कथितम् -'अहं देवः,तथा देवरूपंच प्रत्यक्ष एव दृष्टमिति न तत्र संदेहः। हन्त! यद्येवं तर्हि य एवं कथयन्ति वयं साधवः, तथा साधुरूपं प्रत्यक्षतएव दृश्यते, तेषुकः साधुत्वसंदेहः, येन परस्परं यूयं न वन्दध्वे ? न च देववचना-देव वचनं सत्यमिति शक्यते वक्तुम, देववचनं हि क्रीडा-द्यर्थमन्यथाऽपि संभाव्यते। न च तथा साधुवचनं, तद्विरत-त्वात्तेषामिति / एवं च युक्तिभिर्यावन्न प्रज्ञाप्यन्ते तावदुद्घाट्य बाह्याः कृताः पर्यटन्तश्च राजगृहं नगरं गताः / तत्र च मौर्यवंशसंभूतो बलभद्रो नाम राजा, स च श्राद्धः / ततः तेन विज्ञाताः। यथाअव्यक्तवादिनो निहवा इह समायाता गुणशिलकचैत्ये तिष्ठन्ति, ततः स्वपुरुषान् प्रेष्य राजकुले आनायिताः / तेन ते कटकमन मारणार्थ चाज्ञप्ताः। ततो हस्तिनिकटेषु च तन्मर्दनार्थमानीतेषु तैः प्रोक्तम्-राजन् ! वयं जानीमः- श्रावकस्त्वं, तत्कथं श्रमणा- नस्मानित्थं मारयसि ? ततो राज्ञा प्रोक्तम् -युष्मसिद्धान्तेनैव को जानाति किं श्रावकोऽहं, न वा ? भवन्तोऽपि किं चौराश्चारिका अभिमरा वेत्यापि को येत्ति? तैः प्रोक्तम्- साधवो वयम् / यद्येव- मव्यक्तवादितया किमिति परस्परमपि यथाज्येष्ठ वन्दनादिकंन कुरुथ? इत्यादिनिष्ठुरैर्मृदुभिश्च वचनैः प्रोक्तास्ते नरपतिना। ततः संबुद्धा लज्जिताश्च निःशङ्किताः सन्मार्ग प्रतिपन्नाः। ततो राज्ञा प्रोक्तम्-भवतां संबोधनार्थमिदं मया सर्वमपि विहितमिति क्षमणीयमिति। अमुमेवार्थ भाष्यकारः प्राहगुरुणा देवीभूए, समणरूपेण वाइया सीसा। सब्भावपरो कहिओ, अय्वत्तियदिट्ठिणो जाया।। गतार्था। कथमव्यक्तदृष्टयो जाताः? इत्याहको जाणइ किं साहू , देवो वा तं न वंदणिज्जो त्ति। होज्जाऽसंजयनमणं, होज मुसावायममुगो ति॥ को जानाति किमयं साधुवेषधारी साधुर्देवो वा ? नास्त्येवात्र निश्चय | इति / अत्र न च वक्तव्यं साधुरेवायं तद्वेषसमा- चारदर्शनाद्भवानिय, आर्याषाढदेवेऽपि साधुवेषसमाचारदर्शने-नानैकान्तिकत्वात्। तस्मान्न कोपि वन्दनीयः, संशयविषयत्वात् / यदि पुनर्वन्येत, तदा आषाढदेववन्दन इवासंयतवन्दनं स्यात, अमुको ब्रवीतीति भाषणे च मुषावादः स्यादिति। अथ प्रतिविधानमाहथेरवयणं जइ परं, संदहो किं सुरो त्ति साहु ति? | देवे कहं न संका, किं सो देवो न देवो ति? // तेण कहियं तिच मई, देवोऽहं रूवदरिसणाओ य। साहु त्ति अहं कहिए, समाणरूवम्मि किं संका? / / देवस्स च किं वयणं, सचं तिन साहुरूवधारिस्स। न परोप्परं पि वंदह, जं जाणंता वि साहु ति॥ तिस्रोऽप्युक्तार्थाः। किञ्च-यदि प्रत्यक्षेष्वपि यतिषु भवतां शङ्का, तर्हि परोक्षेषु जीवादिषु सुतरामसौ प्राप्नोति, ततः सम्यक्त्वस्याप्यभाव इति दर्शयन्नाहजीवाइपयत्थेसु सुहुमव्ववहियविगिट्ठरूवेसुं। अचंतपरोक्खेसु य, किह न जिणाईसु मे संका? गतार्था / अथ जिनवचनाजीवादिषु न शङ्का, तदेतदिहापि मानमित्याहतव्वयणाओ व मई, नणु तव्वयणे सुसाहुवित्तो त्ति। आलयविहारसमिओ, समणोऽयं वंदणिजो त्ति। अथ तद्वचनाजिनवचनाजीवाद्यर्थेषु न शङ्का / ननु यद्येवं, तद्वचने इदमप्यस्ति-यदुत शोभनं साधुवृत्तं श्रमणशीलं यस्यासौ सुसाधु-वृत्त इति हेतोः श्रमणोऽयमिति निश्चयाद्वन्दनीयः सुसाधुवृत्तोऽपि स कथं ज्ञायते,?इत्याह-आलयविहारसमित इति कृत्या। उक्तंच-"आलएणं विहारेणं, ठाणा चंकमणा ण य / सक्का सुविहियं नाउं, भासा वेणइए णये" ||1|| उपपत्त्यन्तरमाहजह वा जिणिंदपडिम, जिणगुणरहिय त्ति जाणमाणा वि। परिणामविसुद्धत्थं, वंदह तह किं न साहुं पि?|| होज न वा साहुत्तं, जइरूवे नस्थि चेव पडिमाए। सा कीस वंदणिज्जा, जइरूवे कीस पडिसेहो ?|| सुगमे / नवरं प्रथमगाथायां प्रतिमायाः साधुरूपेण सह वन्द-नीयत्वे साम्यमुक्तम् / द्वितीयगाथायां तु साधुरूपे विशेष दर्श-यति-यतिरूपे प्राणिनि साधुत्वं भवेद् न वेति संदिग्धमेव, प्रतिमायां तु जिनत्वं नास्त्येवेति निश्चयः / ततः किमिति सा वन्दनीया, यतिरूपे च किमिति वन्दनप्रतिषेधः ? ___ अत्रोत्तरमाहअस्संजइजइरूवे, पावाणुमई मईन पडिमाए। नणु देवाणुगयाए, पडिमाए वि होज सो दोसो।। अथैवंभूता मतिः परस्य भवेत्-असंयतेऽधिष्ठितयतिरूपे वन्द्य-माने तद्गतासंयमरूपपापाऽनुमतिर्भवति, न त्वसौ प्रतिमायाम् / अत्रोच्यतेननु देवताऽधिष्ठितप्रतिमायामप्ययमनुमतिलक्षणो दोषो भवेदिति। अथैवं ब्रूयात्परः, किमित्याहअह पडिमाए न दोसो, जिणबुद्धीए नमिउ विसुद्धस्स / तो जइरूवं नमिउं, जइबुद्धीए कहं दोसो ?|| अथ प्रतिमायां नानुमतिलक्षणो दोषः, किं कुर्वतः ? नमस्यतः, Page #1000 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव्वत्तिय 816 - अभिधानराजेन्द्रः-भाग 1 अव्यत्तिय कया ? जिनबुद्ध्या, कथंभूतस्य ? विशुद्धाध्यवसायस्य / यद्येवं ततो यतिबुद्ध्या यतिरूपं विशुद्धस्य नमस्यतः को दोषो येन भवन्तः परस्परं न वन्दन्ते ? अत्रापरः कश्चिदाह -यद्येवं, लिङ्ग-मात्रधारिणं पार्श्वस्थादिकमपि यतिबुद्ध्याऽविशुद्धस्य नमस्यतो न दोषः / तदयुक्तम्, पार्श्वस्थादीनां सम्यग्यतिरूपस्याप्यभावात् / तदभावश्च 'आलएणं विहारेण' इत्यादियतिलिङ्गस्यानु-पलम्भात् / ततः प्रत्यक्षदोषवतः पार्श्वस्थादीन् वन्दमानस्य तत्सावद्यानुज्ञानलक्षणो दोष एव। उक्तं च - "जह चेलंवगलिंग, जाणंतस्स नमिउहवइ दोसो। निद्धंधसं पिनाउं,ण वंदमाणे धुवो दोसो" // 1 // इत्यादि। प्रतिमायास्तु दोषाभावात्तद्वन्दने सावद्यानुज्ञाभावतो न दोष इति। अत्र पुनरपि पराभिप्रायमाशक्य परिहरन्नाहअह पडिमं पिन वंदह, देवासंकाए तो न घेत्तव्वा / आहारोवहिसेज्जाओ देवकया भवे जंनु॥ अथ प्रतिमामपि न वन्दध्वे यूयम् / हन्त ! यद्येवं शङ्काचारी भवान्, तर्हि- मा देवकृता भवेयुरित्याहारोपधिशय्यादयोऽपि न ग्राह्या इति। किश्चेत्थमतिशङ्कालुतायां समस्तव्यवहारोच्छेदप्रसङ्गः, कुतः? इत्याहको जाणइ किं भत्तं, किमओ किं पाणयं जलं मजं / किमलाईं माणिकं० किं सप्पो चीवरं हारो?|| को जाणइ किं सुद्ध, किमसुद्धं किं सजीवनिजीवं / किं भक्खं किमभक्खं, पत्तमभक्खं तओ सव्वं ? / / को जानाति किमिदं भक्तं, कृमयो वेत्याद्याशङ्कायां भक्तादावपि कृम्यादिभ्रान्त्यनिवृतेः सर्वमभक्षमेव प्राप्तं भवतः। तथा-अलाबुचीवरादौ मणिमाणिक्यसादिभ्रान्त्यनिवृत्तेः सर्वमभोग्यं च प्राप्तमिति। तथाजइणा विन संवासो, सेओ पमया-कुसीलसंका वा। होज गिही व जइत्तिय, तस्साऽऽसीसानदायव्वा / / न य सो दिक्खेयव्वो, भव्वोऽभव्वो त्ति जेण को मुणइ ? चोरो त्ति चारिओ त्ति य, होन्जय परदारगामि ति॥ को जाणइ को सीसो, को वा गुरुओ न तव्विसेसो वि। गज्झा न वोवएसा, को जाणइ सव्वमलियं पि॥ किं बहुणा सव्वं चिय, संदिद्धं जिणमयं जिणिंदा य। परलोयसग्गमोक्खा, दिच्छाए किमत्थ आरंभो? अह संति जिणवरिंदा, तव्वयणाओ य सव्वपडिवत्ती। तव्वयणाओ चिय जइ-वंदणयं वि ते कहं न मतं ? सर्वा अपि प्रकटार्थाः / नवरं "जइणा वि न संवासो' इत्यादिनाऽभ्युपगमविरोधो दर्शितः / (अह संतीत्यादि) अथ सन्ति जिनवरेन्द्राः, तद्वचनसिद्धत्वात् तेषाम् / तद्वचनादेव च सर्वस्यापि परलोकस्वर्गमोक्षादेः प्रत्तिपत्तिर्भवति। एवं तर्हितद्वचनादेव यतिवन्दनमपि कस्मान्न सम्मतमिति? अपिचजइ जिणमयं पमाणं, मुणि त्ति तो बज्झकरणपरिसुद्धं / देवं पि वंदमाणो, विसुद्धभावो विसुद्धो त्ति॥ यदि जिनमतं भवतां प्रमाणं तर्हि मुनिरित्यनया बुद्ध्या आलयविहारादिबाह्यकरणपरिशुद्धं देवमप्यमरमपि वन्दमानो विशुद्धभावो भवेद्दोषरहितो विशुद्ध एव। उक्तं चागमे- "परगरहस्समिसीणं, संमत्तगणिपिडगभसाराणं। परिणामियं पमाणं, निच्छयमवलंब-माणाणं " ||1|| इत्यादि। जइ वा सो जइरूवो, दिट्ठो तह केत्तिया सुरा अन्ने / तुडभेहि, दिट्ठपुव्वा, सव्वत्थापच्चओ जं भे॥ वाइति अथवा, यथा आर्याषाढदेवो यतिरूपधरोऽत्र दृष्टः, तथा कियन्तः सुरास्ततोऽन्ये भवद्भिर्दृष्टपूर्वाः, यद्येतावन्मात्रेणापि सर्वत्राप्रत्ययो (भे) भवतां नहि कदाचित्कथञ्चित् क्वचिदाश्चर्यकल्पे कस्मिंश्चित्तथाभावाशङ्का युज्यत इति भावः / तस्माद् व्यवहारनयमाश्रित्य युक्तं भवताभन्योऽन्यवन्दनादिकम् / उक्तं च- "निच्छयउ दुन्नियंको, भावे कम्मिवट्टएसमणो।ववहारओयजुजइ, जोपुव्वठिओ चरितम्मि" ||1|| इत्यादि। एतदेवसमर्थयन्नाहछउमत्थसमयवजा, ववहारनयाणुसारिणी सव्वा। तं तह समायरंतो, सुज्झइ सव्वो विसुद्धमणो / / संववहारो वि बली, जमसुद्धं पि गहियं सुयविहीए। कोवेइन सव्वण्णू, वंदइयस्स जाइ छउमत्थं // निच्छयववहारनओ-वणीयमिह सासणं जिणिंदाणं / एगयरपरिचाओ, मिच्छं संकादओ जे य॥ जइ जिणमयं पवजह, तो मा ववहारनयमयं मुयह। ववहारपरिचाए, तित्थुच्छेओ भवेऽवस्सं॥ चतस्रोऽपि सुगमाः / नवरं (कोवेइ इत्यादि) न कोपयतिनाप्रमाणीकरोति न परिहरति, भुङ्क्ते इत्यर्थः / (संकादओ इत्यादि) येऽपिशङ्काकासादयस्ते हि मिथ्यात्वमिति संबन्धः / एतावत्युक्ते तत् किं तत्र संजातम् ? इत्याहइय ते नासग्गाहं, मुयंति जाहे बहुं पि भण्णंता। ता संघपरिचत्ता, रायगिहे निवइणा नाउं।। बलभद्देण पयाया, भणंति सावयं तवस्सि त्ति। मा कुरु संकमसंका-रुहेसु भणिए भणइ राया / को जाणइ के तुब्भे, किं चोरा चारिया अभिमरे व त्ति? संजयरूवच्छन्ना, अज्जमहं भे विवाएमि।। नाणचरियाहिँ नजइ, समणोऽसमणो व कीस जाणंतो। तं सावयसंदेह, करेमि भणिए निवो भणइ॥ तुभ चिय न परोप्पर-वीसंभो साहवो त्ति किह मज्झं। नाणचरियाहिँ ता जइ, चोराण व किं न ता संति / / उवउत्तिओ भयाउय, पडिवन्ना उते समयसग्गाह। निवखामियाऽभिगंतुं, गुरुमूलं ते पडिकंता॥ सर्वेऽप्युक्तार्थाः सुगमाश्च, नवरं नृपतिना बलभद्रेण 'ते आगताः' इति ज्ञात्वा आघ्राता: आहूताः, 'के यूयम्' ? इति पृष्टाश्व भणन्ति'हे श्रावक' ? इत्यादि / (नाणचरियाहिं ति) ज्ञानक्रियाभ्यां यो भवतामपि साधव इति विश्रम्भः परस्परं नास्ति, स ताभ्यां कथं मे Page #1001 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव्वत्तिय 817- अभिषानराजेन्द्रः - भाग 1 अव्वाबाह जायते। अपि च-किं ते कृत्रिमे ज्ञानक्रिये चौराणामपिन स्तः, न भवतः। इति त्रयस्त्रिंशद्गाथाऽर्थः // 381 // इति तृतीयोऽव्यक्ता-ऽभिधाननिह्नवः समाप्तः। विशेला आ०म०। आ००। अव्वय-पुं०(अव्यय) न०ताअखण्डने, कथमप्यात्मनोऽव्ययात्। द्वा० 8 द्वा० कियतामप्यवयवानां व्ययाऽभावात् / ज्ञा०५अ०। सदाऽवस्थायिनि, विशेष स्था०। सूत्र०। "धुवे णियए सासए अक्खए अव्वए" अव्ययः, तत्प्रदेशानामव्ययत्वात् / भ० 2 श० 1 उ०। द्वादशाङ्गं प्रवचनमव्यय, मानुषोत्तराद, बहिः- समुद्रवदव्ययत्वादेव / नं०। ननु 'यत्कोकिलः किल मधौ' इत्यत्र यच्छब्दाग्रे का विभक्तिः ? 'तचारुचूतकलिका' इत्यत्र तच्छब्दाग्रे च का विभक्तिः ? अत्र यत्तच्छब्दावव्ययौ वा, अनव्ययौ वेति प्रश्ने- यच्छब्दाग्रे क्रियाविशेषणत्वे द्वितीया विभक्तिर्वाक्यार्थमादाय, अव्ययत्वे तु प्रथमाऽपि संभवति / तच्छब्दागे तुतस्य पूर्वपरामर्शित्वेन प्रथमा विभक्तिः, व्याख्यानान्तरण सप्तम्यपीति यत्तच्छब्दावव्ययावनव्ययौ च वर्तेते इति सर्व सुस्थमिति। सेन०२ उल्ला०१५३प्रश्न०। अव्ववसिय-त्रि०(अव्यवसित) अनिश्चयवति, पराक्रमवति च। स्था०। तओ ठाणा अव्ववसिअस्स अहियाए असुहाए अक्खमाए अणिस्सेसाए अणाणुगामियत्ताए भवंति / तं जहा- सेणं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए णिग्गंथे पावयणे संकिए कंखिए वितिगिच्छिए भेदसमावन्ने कलुससमावन्ने णिग्गंथं पावयणं णो सद्दहइ, णो पत्तियइ, णो रोएइ, तं परीसहा / अभिमुंजिय अभिमुंजिय अमिभवंति / नो से परीसहे अभिमुंजिय अमिजुंजिय अभिभवइ / से गं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए पंचहिं महव्वएहिं संकिए० जाव कलुससमावण्णे, पंच महव्वयाई णो सद्दहइ० जाव नो से परीसहे अभिमुंजिय अमिज़ुजिय अभिभवइ। से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए छहिं जीवनिकाएहिं० जाव अभिभवइ। त्रीणि स्थानानि प्रवचनमहाव्रतजीवनिकायलक्षणानि अव्यवसितस्यानिश्चयवतोऽपराक्रमवतो वाऽहितायाऽपथ्याय, अ-सुखाय दुःखाय, अक्षमाय असंगतत्वाय, अनिःश्रेयसाय अमो- क्षाय, अनानुगामिकत्वायअशुभानुबन्धाय भवन्ति / (से णं ति) यस्य त्रीणि स्थानानि अहितादित्वाय भवन्ति, स शङ्कितो-देशतः सर्वतो वा संशयवान्, काशितः तथैव मतान्तरस्यापि साधुत्वेन मतो, विचिकित्सितः फलं प्रति शङ्कोपेतः, अत एव भेदसमापन्नो द्वैधीभावमापन्नः- एवमिदं, न चैवमिति मतिकः। कलुषसमापन्नो नैतदेवमिति प्रतिपत्तिकः / ततश्च निर्ग्रन्थानामिदं नैन्थिकं प्रशस्तं प्रगतं प्रथमं वा वचनमिति प्रवचनम्आगमः। दीर्घत्वं प्राकृतत्वात् / न श्रद्धत्ते सामान्यतः, न प्रत्येति न प्रीतिविषयीकरोति, न रोचयति न चिकीर्षाविषयीकरोति / तमिति, य एवम्भूतस्तं प्रव्रजिताभासं, परिषह्यन्ते इति परीषहाः क्षुधादयः, अभियुज्य अभियुज्य सम्बन्धमुपागत्य प्रतिस्पयवा अभिभवन्तिन्यक् कुर्वन्ति इति। शेषं सुगमम्। स्था०३ ठा०४ उ०। अव्वसण-पुं०(अव्यसन) लोकोत्तररीत्या द्वादशे दिवसे, जं०७ वक्ष०। अव्वह-न०(अव्यथ) देवाद्युपसर्गजनितं भयं चलनं वा व्यथा, तदभावेऽव्यथा / व्यथाऽभावे शुक्लध्यानालम्बने, भ०२५श० ७उ०। स्था०।गा औ०। अव्वहिय-त्रि०(अव्यथित) परेणानापादितदुःखे, जी०३ प्रतिका पं० सू० अताडिते, भ०३श०२उ०। अदीनमनसि, दश०८अ०अपीडिते, पञ्चा० ५विव०। निष्प्रकम्पमाने धीरे, बृ०१ उ०। अव्वाइद्ध-न०(अव्याविद्ध) सूत्रगुणभेदे, अव्याविद्धं यत्तस्य सूत्रस्याधस्तनपदमुपरितनम्, उपरितनमधो न क्रियते। बृ०१उ०। अव्वाइद्धक्खर-न०(अव्याविद्धाक्षर) विपर्यस्तरत्नमालाग-तरत्नानि इव व्याविद्धानि विपर्यस्तानि अक्षराणि ! यत्र तद् व्याविद्धाक्षरं, न तथाऽव्याविद्धाक्षरम् / व्याविद्धाक्षरत्वदोषरहिते सूत्रगुणे, ग०२अधि०। आ०म०। अनु० अव्वागड-त्रि०(अव्याकृत) अव्यक्तेऽपरिस्फुटे, आचा०१श्रु०१अ०१ उ० अव्वाबाह-न०(अव्याबाध) न विद्यते व्याबाधा यत्र तदव्याबाधम्। द्रव्यतः खड्गाधभिघातकृतया, भावतो मिथ्यात्वादि-कृतया, द्विरूपयाऽपि व्याबाधया रहिते वन्दने, प्रव०रद्वार। अव्वाबाहं दुविहं-दव्ये, भावे य' द्रव्यतः खड्गाद्यभिघातव्याबाधाकारणविकले, भावतः सम्यग्दृष्टश्चारित्रवतो वन्दने, आव०३ अ० शरीरबाधानामभावे, "किं ते भंते ! अव्वाबाहं ? सोमिला! जं मे वातियपित्तियसंमियसण्णिवाइयविविह रोगायं का सरीरगया दोसा उवसंता णो उदीरेंति। से तं अब्वावाहं"। भ०१८श०१०3०1 विविधा आबाधा व्याबाधा, तन्निषेधात् / औ०। व्याबाधावर्जि- तसुखे,औ०।"अव्वाबाहमुवगयाणं'। आ०म०द्वि०। "अव्वा- बाहमव्वाबाहेणं''। अव्याबाधमव्याबाधेन, सुखं सुखेनेत्यर्थः / भ०५श०४ उ०। कल्प० अमूर्तत्वात् / रा० अकर्मकत्वात् / ध० २अधि० परेषामपीडाकारित्वात् / भ०१श०१उ०। केनापि व्याबाधयितुमशक्यत्वात् / जी०३प्रति०] व्याबाधारहिते सिद्धिस्थाने, रागादयो हि न तद् बाधितुं प्रभविष्णवः / प्रज्ञा०३६पदा कल्पका रा०| क्षुधादिबाधारहितत्वात् / ब्रह्मचर्यम् / प्रश्न०४ संव०द्वार / गन्धर्वादिलक्षणभावव्याबाधाविकलो (ध्यानदेशः) अव्याबाध- शब्देन विशिष्यते / आव०५अ० व्याबाधन्ते परं पीडयन्तीति व्याबाधाः, तन्निषेधादव्याबाधाः / त्रि० भ०१४ श०६उ०] उत्त- रयोः कृष्णराज्योरन्तर्गतसुप्रतिष्ठाभविमानवासिलो कान्तिकदेवेषु, स्था०८ठा०। भला "अव्वाबाहाणं देवाणं नव देवा नव देवसया पण्णत्ता, एवं अगिच्छा वि, एवं रिट्ठा वि।" स्था०८ठा०। अत्थि णं मंते ! अव्वाबाहा देवा ? हंता अस्थि / से केणटेणं भंते ! एवं वुचइ अव्वाबाहा देवा? अव्वाबाहा देवा गोयमा! पभूणं एगमेगेअव्वाबाहे देवे एगमेगस्स पुरिसस्सएगमेगंसि अच्छिपत्तंसि दिव्वं देवड़ि दिव्वं देवजुतिं दिव्वं देवाणुभावं दिव्वं बत्तीसइविहं नट्टविहिं उवदंसेत्तए,णो चेव णं तस्स पुरिसस्स किंचि आबाहं Page #1002 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव्वाबाह 818- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 असंक वा पबाहं वा वाबाहं वा उप्पाएइ, छविच्छेदं वा करेइ, सुहुमंच अव्वोगड-त्रि०(अव्याकृत) अविशेषिते, बृ०२ उ०। "अव्वोणं उवदंसेजा, से तेणटेणं० जाव अव्वाबाहा / / 2 / / गडमविभत्तं' / अव्याकृतं नाम यद्दायादैरविभक्तमिति। वास्तुभेदे, बृ०३ (अच्छिपत्तंसि त्ति) अक्षिपत्रे अक्षिपक्ष्मणि (आबाहं वत्ति) ईषद्बाधां उ०। (अत्र दृष्टान्तः 'उग्गह' शब्दे द्वितीयभागे 705 पृष्ठे द्रष्टव्यः) (पबाहं व त्ति) प्रकृष्टबाधां (वाबाहं ति) क्वचित्, तत्र तु व्याबाधां अविसंसृते, दशा०३ अ० विशिष्टामाबाधां (छविच्छेयं ति) शरीरच्छेदं (सुहुमं चणं ति) सूक्ष्ममेवं अव्वोच्छिन्न-त्रि०(अव्यवच्छिन्न)स्ववंशस्य परम्परया समा-गते. व्य० सूक्ष्म यथा भवत्येवमुपदर्शयेत्, नाट्य-विधिमिति प्रकृतम् / भ० 7 उ०) 14 श०८ उ०। अव्वोच्छित्ति-त्रि०(अव्यवच्छित्ति) "अमानोनाः प्रतिषेधे" न अव्वावड-त्रि०(अव्यापृत) व्यापारवर्जित, "सडियपडियं न कीरइ, व्युच्छित्तिरव्युच्छित्तिः। प्रतिपत्तौ, यः स्वयं कृतार्थोऽप्युत्तममवाप्य धर्म जहियं अव्वागडं तयं वत्थु" / यत् शटितपतिते यत्र व्यापारः कोऽपि न परेभ्य उपदिशति / पं०चू०। अव्यवच्छित्त्या श्रुतं वा-चयेत्, श्रुतस्य क्रियते तद्वास्तु अव्यापृतमुच्यते। इति लक्षितस्वरूपे वास्तुभेदे, बृ०३ शिष्यप्रशिष्यपरम्परागततयाऽव्यवच्छित्तिर्भूयादिति पञ्चममव्यवच्छित्तिः उन कारणम् / आ०म०प्र०) अव्वावन्न-त्रि०(अव्यापन्न) अविभिन्ने, व्य०१उ०। अविनष्टे, भ०१श०७ | अव्वोच्छित्तिणयट्ट-पुं०(अव्यवच्छित्तिनयार्थ) अव्यवच्छित्तिप्रधानोउ० नयोऽव्यवच्छित्तिनयः, तस्यार्थः। द्रव्ये, भ०७ श०३ उा अव्वावारपोसह-पुं०(अव्यापारपौषध) व्यापारप्रत्याख्यानपूर्वक क्रिय- अव्वोयडा-स्त्री०(अव्याकृता) गम्भीरशब्दार्थायां मन्मनाक्षर-प्रयुक्तायां माणे पोषधोपयासव्रते, "अव्वापारपोसहो दुविहोदेसे, सव्वे या देसे अमुगं वा अभावितार्थायां वा भाषायाम्, भ०१० श०४ उ०। वावारं करेमि, सव्वे यवहारे से बलसगडघरपरिकम्मादयो न कीरइ"। असइ-स्त्री०(असृति) अश्नुते तत्प्रभवेन समस्तधान्यमानानि व्यानोति आव०६अ। इत्यसृतिः। अवाङ्मुखहस्ततलरूपे, तत्परिच्छिन्ने धान्ये च / अनु०॥ अव्वावारसुहिय-त्रि०(अव्यापारसुखित)तथाविधव्यापार-रहिततया प्रसृतेर॰, ज्ञा०७ अ०1"दो असईओ पसई" ओघ०। सुखिनि,बृ०३उ०। * अस्मृति-स्त्री० अस्मरणे, ध०२ अधि०। अव्वाहय-त्रि०(अव्याहत) अनुपहते, षो०१४विवा स्वपरा-विरोधिनि, असई-अव्य०(असकृत्) अनेकश इत्यर्थे, पञ्चा०१०विव०। आचा०। व्य०१उ०। अव्याधिते, नंग भ०। "असई तु मणुस्सेहिं, मिच्छादंडो पसृजई" असकृद् अव्वाहयपुव्वावरत्त-न०(अव्याहतपूर्वापरत्व) पूर्वापरवाक्याऽविरोध- वारंवारम्। उत्त०६अपं०व०जी०। षो० "असई वोसट्ठचत्त-देहे"। रूपे सत्यवचनातिशये, रा० स० नसकृदसकृत, सर्वदेत्यर्थः / दश०१०अ०। अव्वाहिय-त्रि०पअव्याह(कृ)तबअनाहूते,जी०३प्रति० अकथिते, असई-स्त्री०(असती) दुःशीलायाम्, ध०२ अधि०। दास्याम्, भ० "अव्वाहिते कसाइया''| आचा०१श्रु०६ अ०२उ० ८श०६उ० प्रवन अव्बुक्कंत-त्रि०(अव्युत्क्रान्त) अपरिणतविध्वस्तप्रासुके, ग०।२ अधि०। असईजणपोसणया-स्त्री०(असतीजनपोषण)ना असतीजनस्य अव्वो-अव्य०(अव्वो) संबोधनादौ, व्य०७ उ०।अव्वो सूचनादुःख दासीजनस्य पोषणं तद्भाटिकोपजीवनार्थ यत् तत्तथा / एवमन्यदपि संभाषणापराध-विस्मयानन्दादरभय-खे द-विषाद क्रूरकर्मकारिणः प्राणिनः पोषणमसतीजनपोषणमेवेति / दासीजनस्य पश्चात्तापे / / 2 / 204 / 'अव्वो' इति सूचनादिषु प्रयोक्तव्यम् / क्रूरकर्मकारिणो वा पोषणे, उपा०१०। सूचनायाम्-"अव्वो दुक्करयारअ'।दुःखे-"अव्वोदलंति हिअअं"। असईपोस-०(असतीपोष) असत्यो दुःशीलास्तासां दासीसारिकासंभाषणे-अव्वो किमिणं किमिणं ? / अपराध-विस्मययोः दीनां पोषणं पोषोऽसतीपोषः। तत्र लिङ्गमतन्त्रम्, तेन शुकश्यादीनामपि अव्यो हरंति हिअअं, तह विन वेसा हवंति जुवईण। पुंसां पोषणमसतीपोषः / यदवाचि- "मजार-मोरमक्कडकुक्कडअव्वो किं पि रहस्सं, मुणंति धुत्ता जणब्भहिआ॥१॥ सारीयकुकुराईणं / दुट्ठित्थिनपुंसाईण पोसणं असइपोसणयं" // 1 // प्रव०६ द्वार / दुःशीलानां शुकसारिका मयूरमार्जारमर्कटकुक्कुटआनन्दादरभयेषु कुक्कुरशूकरादितिरश्चां पोषणे, भाटीग्रहणार्थं दास्याश्च पोषे, गोल्लदेशे अव्वो सुपहायमिणं, अव्वो अजम्ह सप्फलं जी। प्रसिद्धोऽयं व्यवहारः / एषां च दुःशीलानां पोषणं पापहेतुरेवेति दोषः / अव्वो अइअम्मि तुमे, नवरं जइ सा न जूरिहिइ।। पञ्चदशं कर्मादानमेतत्। ध०२अधि०। श्रा०ा माध०र०। (असतीपोषणं खेदे-"अब्बो नजामि छेत्तं" / विषादे तु भुञ्जानेन साधुना द्रमकेभ्यो न देयमिति भोयण' शब्दे वक्ष्यते) अव्वो नासें ति दिहि, पुलयं वटुंति देति रणरणयं। असउण -पुं०(अशकुन) न०त०] आक्रन्दध्वनिप्रतिषेधवचनप्रभृतौ एम्हि तस्सेव गुणा, ते चिअ अव्वो कह णु एअं? ||1|| शकुनविपरीते अनिष्टार्थसंसूचके, पञ्चा०७ विवापं०व०ाधo) पश्चात्तापे-अब्बो तह तेण कआ,अहअंजह कस्स सा-हेमि? | प्रा०२ | असंक-न०(अशङ्क) न विद्यते शङ्का यस्य मनसस्तदशकम् / निःशङ्के, पाद। आचा०१श्रु०२१०३उ०। Page #1003 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असंकणिज 819 - अभिधानराजेन्द्रः-भाग 1 असंखलोगसम असंकणिज्ज-त्रि०(अशङ्कनीय) कूटपाशादिरहिते अशङ्का स्थाने, सूत्र०१श्रु०१अ०२ उ०॥ असंकप्पिय-त्रि०(असङ्कल्पित) स्वार्थ संस्कुर्वता साध्वर्थतया मनसाऽप्यकल्पिते, भ०७ श०१उ०। असंकम-पुं०(असङ्क्रम) परस्परममीलने,अष्ट०१८ अष्ट०। असंकमण-त्रि०(अशङ्कमनस्)अशङ्कं मनो यस्यासौ अशङ्कमनाः। तपोदमनियमफलत्वाऽऽशङ्कारहिते आस्तिक्यमत्युपपेते, आचा०१ श्रु० २अ०३ उ०। असंकि(ण)-त्रि०(अशङ्किन) शङ्कामकुर्वाणे, सूत्र० 1 श्रु० 10 २उo असंकिय-त्रि०(अशङ्कित) अशङ्कनीये, "असंकियाई संकंति, संकियाई असंकिणो।" सूत्र०१श्रु०११०२उ० असंकिलिट्ठ-त्रि०(असंक्लिष्ट) विशुद्धाध्यवसाये, आतु०। निर्दूषणे, "असंकिलिट्टाई वत्थाई"। औ० विशुध्यमानपरिणामवति, प्रश्न०१ संव० द्वार। असंकिलिट्ठायार-पुं०(असंक्लिष्टाचार) असंक्लिष्ट इहपर-लोकाशंसारूपसंक्लेशविप्रमुक्त आचारो यस्य सोऽसंक्लिष्टाचारः / व्य०३उ०। सकलदोषपरिहारिणि, व्य०३उ०॥ असं कि ले स-पुं०(असंक्लेश)विशुद्ध्यमानपरिणामहेतु के संक्लेशाभावे, "तिविहे असंकिलेसेणाणसंकिलेसे, दंसणसंकिलेसे, चरित्तसंकिलेसे"। स्था०२ ठा०४ उ०) "दसविहे असंकिलेसे पण्णत्ते। तं जहा- उवहिअसंकिलेसे, जाव चरित्त असंकिलेसे'। स्था० १०टा०। (अस्य 'संकिलेस' शब्दे व्याख्या) असंख-त्रि०(असङ्ख्य) अविद्यमानसङ्ख्ये, उत्त०५अ०) अविद्यमानपरिमाणे च। हा०२६अष्ट०। असंखगुणवीरिय-त्रि०(असंख्यगुणवीर्य) असंख्यातगुणयोगे, कर्म० ५कर्म०। अष्टा असंखड-न०(असंखड) वाचिके कलहे, नि०यू०१उ०। ग०ा वृo! असंखडिय-पुं०(असंखडिक) कलहशीले, बृ०१उ०। असंखय-त्रि०(असंस्कृत) उत्तरकरणेनात्रुटितेपटादिवत्संधातुमशक्ये, उत्त०। असंस्कृतं जीवितमित्युक्तमतस्तद्व्याचिख्यासुराह नियुक्तिकृत्उत्तरकरणेण कयं, जं किं वी संखयं तु णायव्दं / सेसं असंखयं खलु, असंखयस्सेस णिज्जुत्ती॥ / उत्त०नि०१ खण्ड। मूलतः स्वहेतुत उत्पन्नस्य पुनरुत्तरकालं विशेषाधानात्मक करणमुत्तरकरणं, तेन कृतं निर्वर्तितं यत् किञ्चिदित्यविव-क्षितघटादि, (यत्तदोर्नित्यमभिसंबन्धत्वात्) तत् संस्कृतम् / तुरवधारणे / स चैवं योज्यते-यदुत्तरकरणकृतं तदेव संस्कृतं ज्ञातव्यम् / शेषमतोऽन्यत् संस्कारानुचितं विदीर्णमुक्ताफलो-पभमसंस्कृतमेव, खलुशब्दस्यैव पार / असस्कृतामत्यस्य सूत्रावयवस्यैषा वक्ष्यमाणलक्षणा | नियुक्तिरिति निक्षेपनियुक्तिः / बहुवक्तव्यतया च प्रतिज्ञातम् / अथवा- यथाऽऽचारपञ्चमाध्ययनस्य 'आवंती' इत्यादिना पदेन नाम, | तथाऽस्याऽप्यसंस्कृतमिति नाम / ततश्चासंस्कृतनाम्नोऽस्यैवाध्यय- नस्यैषा नामनिष्पन्ननिक्षेप-नियुक्तिः, तत्प्रस्ताव एव व्याख्यातव्येति गाथाऽर्थः उत्त०४ अ० येन करणेनात्र प्रकृतं तदाहकम्मगसरीरकरणं, आउयकरणं असंखयं तं तु / तेणऽहिगारो तम्हा, उ अप्पमादो इह चरित्तम्मि। कर्मकशरीरकरणं कार्मणदेहनिवर्त्तनं, तदपिज्ञानावरणादिभेदतोऽनेकविधमित्याह-आयुष्करणमिति / आयुषः पञ्चम-कर्मप्रकृत्यात्मकस्य करणं निवर्तनमायुष्करणम् / तत्किम् ? इत्याह-(असंखयं तं तु ति) तत्पुनरायुष्करणमसंस्कृतमुत्तरकरणेन त्रुटितमपि पटादिवत्संधातुं न शक्यम् / यतः- "फट्टा तुट्टा च इह, पडमादी संठवंति नयनिउणा / सा का वि नत्थि नीती, संधिज्जइ जीवियं जीए" ||1|| एवं च स्वरूपतो हेतुतो विषयतश्च व्याख्येति / स्वरूपतो हेतुतश्च 'उत्तरकरणेन कयं' इत्यादिना ग्रन्थेन व्याख्यातम्। अनेन त्वायुष्करणस्यासंस्कृतत्वोपदर्शनन विषयतः / इदानीं तूपसंहारमाह-(तेण अहिगारो ति) तेनेत्यायुष्कर्मणा संस्कृतेनाधिकारः 1 (तम्हा उ त्ति) तस्मात् / तुशब्दोऽवधारणार्थः, तस्य च व्यवहितः संबन्धः / ततोऽयमर्थः - यस्मादसंस्कृतमायुष्कर्म तस्मादप्रमाद एव-प्रमादाभाव एव चरित्रे इति चरित्रविषयः कर्तव्य इति गाथार्थः। उत्त० अ०॥ संप्रति सूत्रालापकनिष्पन्ननिक्षेपावसरः, सच सूत्रे सति भवति। तच्चेदम्असंखयं जीविय मा पमायए, जरोवणीयस्स हु नत्थि ताणं / एवं वियाणाहि जणे पमत्ते, कं णु विहिंसा अजया गहिति // संस्क्रियत इति संस्कृतं, न तथा असंस्कृतम् / शक्रशतैरपि सतो वर्द्धयितुं त्रुटितस्य वा कर्णपाशवदस्य संधातुमशक्यत्वात् / किं तत् ? जीवितं प्राणधारणरूपम्। ततः किमित्याह-मा प्रमादीः। किमुक्तं भवति? यदीदं कथञ्चित् संस्कर्तुं शक्यं स्याचतुरङ्गयाप्ते धर्मेऽपि प्रमादो दोषायैव स्यात्, यदा त्विदमसंस्कृतं तदेतत्परिक्षये प्रमादिनस्तदतिदुर्लभमिति प्रमादं मा कृथाः / कुतः पुनरसंस्कृतम् ? जरया वयोहानिरूपया, उपनीतस्य प्रक्रमान्मृत्युसमीपं प्रापितस्य, प्रायो जराऽनन्तरमेव मृत्युरित्येवमुपदिश्यते। हुर्हेतौ, यस्मान्नास्ति न विद्यते त्राणं शरणं, येन मृत्युरक्षा स्यात् / उक्तं च वाचकैः- 'मङ्गलैः कौतुकर्योगैर्विद्यामन्त्रैस्तथौषधैःनि शक्तामरणात्त्रातुं. सेन्द्रादेवगणा अपि" // 1 // यद्वा स्यादेतत्-वार्धक्ये धर्म विधास्यामीत्याशक्याहजरामुपनीतः प्रापितोगम्यमान-त्वात्स्वकर्मनिर्जरोपनीतः, तस्य नास्ति त्राणं, पुत्रादयोऽपि हिन तदा पालयन्ति, तथा चात्यन्तमवधीरणा स्यात् अस्यन धर्म प्रति शक्तिः, श्रद्धा या भावना। यदा त्राणं येनासावपनीयते पुनविनमानीयते न तादृक्करणमस्ति, ततो यावदसौ नासादयति तावद्धर्मे मा प्रमादीः / उक्तं हि-लद्यावदिन्द्रियबलं, जरया रोगैर्न बाध्यते प्रसभम् / तावच्छरीरमूर्छा विहाय धर्मे कुरुष्व मतिम् / / 1 / / उत्त०४ अ०। (जरोपनीतस्य च त्राणं नास्तीत्यत्र दृष्टान्तो-ऽट्टनमल्लः, तत्कथा च 'अट्टण' शब्दे अत्रैव भागे 238 पृष्ठे उक्ता) उत्तराऽध्ययनेषु चतुर्थेऽध्ययने, तच प्रमादाप्रमादाऽभि धायकमप्यादानपदेनासंक्षय मत्युच्यत। सूत्र०१०१०अ०॥ असंखलोगसम-त्रि० (असङ्ख्यलोकसम) असंख्येयलोकाऽऽकाशप्र देशप्रमाणे, कर्म०५कर्म। असंखेज्ज-त्रि०(असंख्येय) संख्याऽतीते,भ०१ श०५ उ०। Page #1004 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असंखेज 820 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 असंखेजब गणनामतिक्रान्ते, आ०चू०१० असंखेजकालसमयट्ठिइ-पुं०(असङ्खयेयकालसमयस्थिति) पल्योपमाऽसडेयभागादिस्थितिषु नैरयिकादिषु एकेन्द्रियविक- लेन्द्रियवर्ज वैमानिकपर्यन्तेषु, स्थावा"दुविहाणेरझ्या पण्णत्ता। तंजहासंखेजकालसमयद्विइया चेव, असंखेजकालसमयविइया चेवा एवं एगिदियविगलेंदियवजा० जाव वाणमंतरा' / स्था०२ ठा० 2 उ०। असंखेज्जगुणपरिहीण-त्रि०(असंख्यातगुणपरिहीण)असं-ख्यातगुणेन परिहीणो यः स तथा। असंख्येयभागमात्रे, औ०। असंखेजजीविय-पुं०(असङ्ख्यातजीवित) असंख्यजीवात्मकेषु वृक्षेषु, भला 'से किं तं असंखेजजीविया ? असंखेज्जजीविया दुविहा पण्णत्ता। तं जहा- एगट्ठिया, बहुट्ठिया य" / भ० 8 श०३ उ०। असंखेज्जय-न०(असंख्येयक) गणनासंख्याभेदे, अनु०॥ से किं तं असंखेज्जए ? असंखेज्जए तिविहे पण्णत्ते / तं जहापरित्तासंखेज्जए, जुत्तासंखेज्जए, असंखेजा-संखेज्जए। से किं तं परित्तासंखेज्जए ? परित्तासंखेञ्जए तिविहे पण्णत्ते / तं जहाजहण्णए, उक्कोसए, अजहण्णमणुक्कोसए / से किं तं जुत्तासंखेज्जए ? जुत्तासंखेज्जए तिविहे पण्णत्ते / तं जहा- जहण्णए, उक्कोसए, अजहण्णमणुक्कोसए। से किं तं असंखेज्जासंखेज्जए? असंखेज्जासंखेज्जए तिविहे पण्णत्ते। तं जहा- जहण्णए, उक्कोसए, अजहण्णमणुक्कोसए। असंख्येयकं तु-परीतासंख्येयकं, युक्तासंख्येयकं, असंख्येयाऽसंख्येयकम् / पुनरेकैकं जघन्यादिभेदात् त्रिविधमिति सर्वमपि नवविधम्। अथ नवविधमसङ्ख्येयकं प्रागुद्दिष्टं निरूपयितुमाहएवामेव उक्कोसए संखेजए रूवे पक्खित्ते जहण्णय परित्तासंखेजय भवइ / तेण परं अजहण्णमणुक्कोसयाइं ठाणाई जाव उक्कोसयं परित्तासंखेज्जयं न पावइ | उक्कोसयं परित्तासंखेज्जयं केवइ होइ? जहण्णयं परित्तासंखेजयं, जहन्नयपरित्तासंखेज्जमेत्ताणं रासीणं अन्नमण्णऽब्भासो रूवूणो उक्कोसं परित्तासंखेज्जयं होइ। (एवामेवं त्ति) असंख्येयकेऽपि निरूप्यमाणे एवमेवानवस्थितपल्यादिनिरूपणा क्रियत इत्यर्थः / तावद्यावदुत्कृष्ट-संख्येयकमानीतं, तस्मिँश्च यावदेकं रूपंपूर्वमधिकं दर्शितं तद्यदा तत्रैव राशौ प्रक्षिप्यते तदा जघन्यं परीतासंख्येयकं भवति / (तेण परमित्यादि) ततः परं परीतासंख्येयकस्यैवाजघन्योत्कृष्टानि स्थानानि भवन्ति यावदुत्कृष्ट परीतासंख्येयकं न प्राप्नोति / शिष्यः पृच्छति-कियत्पुनरुत्कृष्ट परीतासंख्येयकं भवति ? अत्रोत्तरम्-(जहण्णयं परित्तासंखेज्जयं ति) जघन्यपरीतासंख्येयकं यावत् प्रमाणं भवतीति शेषः, तावत्प्रमाणानां जघन्यपरीतासंख्येयकमात्राणां, जघन्यपरीतासंख्येयकगतरूपसंख्यानामित्यर्थः। राशीनामन्योन्यमभ्यासः परस्परं गुणनास्वरूप एकेन रूपेणोन उत्कृष्ट परीतासंख्येयकं भवतीति। इदमत्र हृदयम्-प्रत्येकं जघन्यपरीतासंख्येयस्वरूपा जघन्यपरीतासंख्येयका एव यावन्ति रूपाणि भवन्ति तावन्तः पुजा व्यवस्थाप्यन्ते / तैश्च परस्परं गुणितर्यो राशिर्भवति स एकेन रूपेण हीनमुत्कृष्ट परीतासंख्येयकं मन्तव्यम्। अत्र सुखप्रतिपत्त्यर्थ- मुदाहरण दर्श्यते- जघन्यपरीतासंख्येयके किलासत्कल्पनया पञ्च रूपाणि संप्रधार्यन्ते। ततः। पञ्चैव वाराः पञ्चपञ्च व्यवस्थाप्यन्ते। तथाहि- 55 5 x 5 x 5 x 5-3125 / अत्र पञ्चभिः पञ्च गुणिताः पञ्चविंशतिः। सा च पञ्चभिराहता जातं पञ्चविंश-शतमित्यादिक्रमेणामीषां राशीनां परस्पराभ्यासे जातानि पञ्चविंशत्यधिकान्येकत्रिंशच्छतानि / एतत्प्रकल्पनया एतावन्मानः। सद्भावतस्त्वसंख्येयरूपो राशिरेकेन रूपेण गुणहीन उत्कृष्ट परीतासंख्येयमित्याद्यनन्तरोक्ताद्युक्तासंख्येयकादेकस्मिन् रूपे समाकर्षिते उत्कृष्ट परीतासंख्येयकं निष्पद्यते इति प्रतीयत एव। इत्युक्तं जघन्यादिभेदभिन्नं त्रिविधं परीतासंख्येयकम्। अथ तावद्भेदभिन्नस्यैव युक्तासंख्येयकस्य निरूपणार्थमाहजहण्णयं जुत्तासंखेजयं केवइअंहोइ? जहन्नयंजुत्तासंखेज्जयं जहण्णयपरित्तासंखेञ्जयमेत्ताणं रासीणं अन्नमण्णब्भासो पडिपुण्णो जहन्नयं जुत्तासंखेज्जयं होइ / अहवा उक्कोसए परित्तासंखेन्जए रूवं पक्खित्तं जहण्णयं जुत्तासंखेज्जयं होइ। आवलिआ वि तत्तिआ चेव / तेण परं अजहण्णमणुक्कोसयाई ठाणाइं० जाव उक्कोसयं जुत्तासंखेज्जयं न पावइ / उक्कोसयं जुत्ता-संखेज्जयं केवइ होइ ? जहण्णएणं जुत्तासंखेज्जएण आवलिआ गुणिआ अन्नमण्णब्भासो रूवूणो उक्कोसयं जुत्तासंखेज्जयं होइ / अहवा जहन्नयंअसंखेज्जासंखेजयं रूवणं उक्कोसयं जुत्तासंखेन्जय होइ।। (जहण्णयं जुत्तासंखेजयं केवइअमित्यादि) अत्रोत्तरम्- (जहण्णय परित्तासंखेज्जमित्यादि) व्याख्या पूर्ववदेव / नवरं- (अन्नमन्नडभासो पडिपुन्नो त्ति) अन्योन्याभ्यस्तः सपरिपूर्ण एव राशिरिह गृह्यते, नतु रूप पात्यत इति भावः ।(अहवा उक्कोसए परित्तासंखेज्जए इत्यादि) भावितार्थमेव / (आवलिया तत्तिया चेव त्ति) यावन्ति जघन्ययुक्तासंख्येयके सर्षपरूपाणि प्राप्यन्ते आवलिकायामपि तावन्तः समया भवन्तीत्यर्थः / ततः सूत्रे यत्रावलिका गृह्यते तत्रजघन्ययुक्तासंख्येयकतुल्यसमयराशिमानासा द्रष्टव्या। (तेण परमित्यादि)ततो जघन्ययुक्तासंख्येयकात्परत एकोत्तरया वृद्ध्या असंख्येयान्यजघन्योत्कृष्टानि युक्तासंख्येयस्थानानि भवन्ति, यावदुत्कृष्ट युक्तासंख्येयकं न प्राप्नोति। अत्र शिष्यः पृच्छति-(उकोसयंजुत्तासंखेज्जयमित्यादि) अत्र प्रतिवचनम्(जहण्णएण-मित्यादि) जघन्येन युक्तासंख्येयकेनावलिका समयराशिगुण्यते / किमुक्तं भवति ? अन्योन्यमभ्यासः क्रियते, जघन्ययुक्तासंख्येय-राशिस्तेनैव राशिना गुण्यत इति तात्पर्यम् / एवं च कृते यो राशिर्भवति स एव एकेन रूपेणोन उत्कृष्टयुक्तासंख्येयकं भवति / यदि पुनस्तदेव तद्रूपं गुण्यते तदा जघन्यमसंख्येयासंख्येयकं जायते। अत एवाह-(अहवा जहण्णयं असंज्जासंखेज्जयं रूवूणमित्यादि) गतार्थम्। उक्तं युक्ताऽसंख्येयकं त्रिविधम्। Page #1005 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असंखेजय 821 - अभिधानराजेन्द्रः-भाग 1 असंखेजय इदानीमसंख्येयासंख्येयकं त्रिविधं बिभणिषुराहजहन्नयं असंखेज्जासंखेज्जयं केवइयं होइ? जहन्नएणं ठाणाई जुत्तासंखेज्जएणं आवलिआ गुणिआ अण्णमण्णब्भासो पडिपुण्णो जहण्णयं असंखेज्जासंखेजय होइ। अहवा उक्कोसए जुत्तासंखेजए रूवं पक्खित्तं जहण्णयं असंखेज्जासंखेज्जयं होइ / तेण परं अजहण्णमणुक्कोसयाइं० जाव उक्कोसयं असंखेज्जासंखेज्जयं ण पावइ / उक्कोसयं असंखेज्जासंखेज्जयं केवइयं होइ? जहप्रणयअसंखेज्जासंखेजमेत्ताणं रासीणं अण्णमण्णब्मासो रूवूणो उक्कोसयं असंखेज्जासंखेज्जयं होइ। (जहण्णयं असंखेज्जासंखेज्जयमित्यादि) इदंतु सूत्रं भावितार्थमेव। नवरं (पडिपुण्णो त्ति) परिपूर्णो रूपं न पात्यत इत्यर्थः / अहवा' इत्याद्यपि गतार्थम् / (तेण परमित्यादि) ततः परं (असंखेज्जासंखेज्जकं केत्तियमि त्यादि) अत्रोत्तरम् - (जहण्णय असंखेज्जासंखेज्जयेत्यादि) जघन्यमसंख्येयकं यावद्भवतीति शेषः / तावत्प्रमाणानां जघन्यासंख्येयकरूपं संख्यानामित्यर्थः / राशीनामन्योन्यमभ्यासः परस्परं गुणनास्वरूपः, एकेन रूपेणोन उत्कृष्टमसंख्येयासंख्येयकं भवति / अयमत्र भावार्थःप्रत्येक जघन्यासंख्येयासंख्येयकरूपा जघन्याऽसंख्येयाऽसंख्येयका एव यावन्ति रूपाणि भवन्ति तावन्तो राशयो व्यवस्थाप्यन्ते / तैश्व परस्परगुणितैयाँ राशिर्भवति स एकेन रूपेण हीन उत्कृष्टम संख्येयासंख्येयकं प्रतिपत्तव्यम्। उदाहणं चात्राप्युत्कृष्ट परीतासंख्येयकोक्तानुसारेण वाच्यम् / अनु०। साम्प्रतमसंख्यातानन्तकस्वरूपमाहइय सुत्तुत्तं अन्ने, वग्गियमेकं सि चउत्थयमसंखं / होइ असंखासंखं, लहु रूवजुयं तु तं मज्झं ||8|| (अन्ने वग्गियमित्यादि) अन्ये आचार्या एके सूरय एवमाहुः- यथा चतुर्थकमसंख्यं जघन्ययुक्तासंख्यातकरूपं, वर्गितं तावतैव राशिना गुणितं सत्, (एक्कमिति) एकवारं, भवति जायते संपद्यते-ऽसंख्यासंख्यं, लघु जघन्यं, जघन्यासंख्यातासंख्यातकं भवतीत्यर्थः। अत्रापि मतेऽसंख्यातकमुद्दिश्य मध्यमोत्कृष्ट-भेदप्ररूपणा पूक्तिवेति दर्शयन्नाह(रूवजुयं तुतंमज्झं ति) रूपेण सर्षपलक्षणेन युतं रूपयुतम्।तुरखधारणे, व्यवहितसम्बन्धश्च / तदिति-तदेवानन्तराभिहितं जघन्यासंख्येयासंख्येयादिकम् / किं भवतीत्याह-मध्यं मध्यमासंख्येयासंख्येयादिक भवति ||8|| रूवूणमाइमं गुरु, तिवग्गिउं तं इमं दसक्खेवे। लोगागासपएसा, धम्माधम्मेगजीवदेसाय।।१।। तदेव जघन्यासंख्येयासंख्येयादिकं रूपोनमेकेन रूपेण रहितं सत्, आदिमं तदपेक्षयाऽऽद्यस्य राशेः संबन्धि गुरु उत्कृष्टं भवतीति / अयमत्राशयः-जघन्यासंख्येयासंख्येयकं रूपोनं सद् युक्तासंख्यातकमुत्कृष्ट भवति, जघन्यपरीतानन्तकं रूपोनमसंख्येयासंख्येयकमुत्कृष्टं भवति, जघन्ययुक्तानन्तकं तु रूपोनमुत्कृष्ट परीतानन्तकं भवति, जघन्यानन्तानन्तकं तु रूपोनमुत्कृष्ट युक्तानन्तकं भवतीति / अधुना जघन्यपरीतानन्तकं मतान्तरेण प्ररूपयन्नाह(तिवग्गिउं तं इत्यादि) तदिति प्रागभिहितं जघन्यासंख्येयासंख्येयकं त्रिवर्गयित्वा सदृशद्विराशि, परस्परं त्रीन् वारानभ्यस्येत्यर्थः / अयमत्राशयः- जघन्यासंख्येया-संख्येयकराशेः सदृशद्विराशिगुणनलक्षणो वर्गो विधीयते,तस्या-पि वर्गराशेः पुनर्वर्गः क्रियते, तस्यापि वर्गराशेः पुनरपि वर्गों निष्पाद्यते इति / ततः किमित्याहइमान्, वक्ष्यमाणस्वरूपान्, (दसेति) दशसंख्यान् क्षिप्यन्त इति / "कर्मणि घत्रि" क्षेपाः- प्रक्षेपणीयराशयस्तान् क्षिपस्व निधेहीत्युत्तरगाथायां सम्बन्धः। तथाहि-लोकाकाशस्य प्रदेशाः, धर्मश्चाधर्मश्चैकजीवश्व धर्माधमकजीवाः तेषां देशाः प्रदेशाः। अयमत्रार्थ:-धर्मास्ति-कायप्रदेशाः, अधर्मास्तिकायप्रदेशाः, एकजीवप्रदेशाश्च / / 81 // तथाठिइबंधऽज्झवसाया, अणुभागा जोगछेयपलिभागा। दुण्ह य समाणसमया, पत्तेयनिगोयए खिवसु ॥सा स्थितिबन्धस्य कारणभूतान्यध्यवसायस्थानानि कषायोदयरूपाण्यध्यवसायशब्देनोच्यन्ते, तान्यसंख्येयान्येव / तथाहि ज्ञानावरणस्य जघन्यान्तर्मुहूर्तप्रमाणः स्थितिबन्धः, उत्कृष्टतस्तु त्रिंशत्सागरोपमकोटाकोटिप्रमाणः, मध्यमपदे त्वेकद्वित्रि चतुरादिसमयाधिकान्तमुहूर्तादिकोऽसंख्येयभेदः / एषां स्थिति-बन्धानां निवर्तकान्यध्यवसा यस्थानानि प्रत्येकमसंख्येय-लोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि भिन्नान्येव / एवं च सत्येकस्मिन्नपि ज्ञानावरणेऽसंख्येयानि स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानानि लभ्यन्ते। एवं दर्शनावरणादिष्वपि वाच्यम् / (अणुभाग त्ति) अनुभागा ज्ञानावरणादिकर्मणांजघन्यमध्यमादिभेदभिन्ना रसविशेषाः, एतेषां चानुभागविशेषाणां निर्वर्तकान्यसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणान्यध्यवसायस्थानानि भवन्त्यतोऽनुभागविशेषा अप्येतावन्त एव द्रष्टव्याः, कारणभेदाश्रितत्वात्कार्यभेदानाम् / (जोगछेयपलिभाग त्ति) योगो मनोवाक्कायविषयं वीर्य, तस्य केवलिप्रज्ञाच्छेदेन प्रतिविशिष्टा निर्विभागा भागा योगच्छेदपरिभगाः। तेच निगोदादीनां संज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्यन्तानां जीवानामाश्रिता जघन्यादिभेदभिन्ना असंख्येया मन्तव्याः। (दुण्ह य समाणसमय ति) द्वयोश्च समयोरुत्सर्पिण्यवसर्पिणीकालस्वरूपयोः समया असंख्येयस्वरूपाः / (पत्तेयनिगोयए त्ति) अनन्तकायिकान् वर्जयित्वा शेषाः पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसाः प्रत्येक-शरीरिणः, सर्वेऽपि जीवा इत्यर्थः, ते चासंख्येया भवन्ति / निगोदाः सूक्ष्माणां बादराणां चानन्तकायिकवनस्पतिजीवानां शरीराणीत्यर्थः, ते चासंख्याताः। एवमेते प्रत्येकमसंख्येयस्वरूपा दश क्षेपास्तान क्षिपस्व / / 2 / / अथ राशिदशकप्रक्षेपानन्तरं तस्यैव राशेर्यस्मिन् विहिते यद्भवति तदाहपुणरवि तम्मि तिवग्गिए, परित्तऽणंत लहु तस्स रासीणं / अब्भासे लहु जुत्ता-णतं अभव्वजिअमाणं / / 83|| पुनरपि (तम्मि ति) तस्मिन्ननन्तरोदिते प्रक्षिप्तप्रक्षेपदशके, त्रिवर्गिते श्रीन वारान् वर्गिते सति, परीतानन्तं लघु जघन्य भवति / इदमुक्तं भवति- जघन्यासंख्येयासंख्येयकस्वरूपं वारत्रयं वर्गिते राशौ ते क्षेपाः क्षिप्यन्ते / तत इत्थं पिण्डितो यो राशिः संपद्यते स पुनरपि वारत्रयं वर्म्यते / ततो जघन्यं परीतानन्तकं भवतीति / इदमिदानीं जघन्ययुक्तानन्तकनिरूपणायाह-(तस्स रासीणं Page #1006 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असंखेजय 822 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 असंघयण इत्यादि) तस्य जघन्यपरीतानन्तकस्य, संबन्धिनां राशीना- ___ जघन्योत्कृष्टशब्दवाच्यमनन्तानन्तकंद्रष्टव्यम्। कर्म० 4 कर्मा (यद्यपीदं मन्योन्यमभ्यासे, सति, लघु जघन्यं युक्तानन्तकमभव्यजीवमानं पूर्व 'अणंतग' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 262 पृष्ठे भावितं, तथापि भवति ।इयमत्र भावना-जघन्यपरीतानन्तके ये राशयः सर्षपरूताः, ते मतान्तरेणेहोपन्यस्तम्) पृथक् पृथग्व्यवस्थाप्यन्ते, तेषां तथाव्यवस्थापितानांजघन्यपरीतान असंखेजवित्थड-त्रि०(असंख्येयविस्तृत)असंख्येयानि योजनसहन्तकमानानां राशीनामन्योऽन्याभ्यासे सति युक्ता- नन्तकं जघन्यं स्राणि आयामविष्कम्भेण, असंख्येयानि योजनसहस्राणि परिक्षेपेण च भवति। तथा जघन्ययुक्तानन्तके यावन्ति रूपाणि वर्तन्ते, विस्तृते, जी०३प्रतिका अभव्यसिद्धिका अपिजीवाः केवलिना तावन्त दृष्टा इति॥८३|| असंग-त्रि०(असङ्ग)बाह्याभ्यन्तरसङ्गरहिते,प्रज्ञा०२ पद। आव०। प्रव०) ___ अथ प्रसङ्गतो जघन्यानन्तानन्तकप्ररूपणमप्याह न विद्यते सङ्गोऽमूर्तत्वाद् यस्य स तथा / आचा०१श्रु० ५अ०६ उ०/ तव्वग्गे पुण जायइ, णंताणंत लहु तं च तिक्खुत्तो। वग्गसु आत्मनिसङ्गविकले, षो०८विव०। अभिष्वङ्गा-भाववति, षो०१४विवा तह विन तं होइणंतखेवे खिवसु छ इमे ||4|| मोक्षे, पं०व०३द्वार। सकलक्लेशा- ऽभावात्।औ० सिद्धे, तत्तुल्यावस्थे तस्य जघन्ययुक्तानन्तकराशेर्वर्गे सकृदभ्यासेतद्वर्गे कृते सति, च। "भये च हर्षे च मतेरविक्रिया, सुखेऽपि दुःखेऽपि च निर्विकारता। पुनर्भूयोऽपि जायते संपद्यतेऽनन्तानन्तं लघु जघन्यं, जघन्यानन्तकं स्तुतौ च निन्दासु च तुल्यशीलता, वदन्ति तां तत्वविदोऽभवतीत्यर्थः / उत्कृष्टानन्तानन्तकप्ररूपणायाह- (तं च तिक्खुत्तो / ह्यसङ्गताम्" ||1|| षो०१५ विव०। इत्यादि) तच्चतत्पुनर्जघन्यमनन्तानन्तं त्रिःकृत्वा त्रीन्वारान् वर्गयस्व असंगह-पुं०(असंग्रह) असंग्रहशीले, व्य०४ उ०। तावतैव राशिना गुणय।अयमत्रार्थ:- जघन्या-नन्तानन्तकराशेस्तावतैव राशिना गुणनस्वरूपो वर्गः क्रियते, ततस्तस्य वर्गितराशेः पुनर्वर्गः, असंगहरुइ-पुं०(असंग्रहरुचि) न विद्यते संग्रहे रुचिर्यस्य सः / तस्यापि वर्गितराशेर्भूयोऽपि वर्ग इति / तथाऽपि- एवमपि, वास्त्रयं वर्गे। गच्छोपग्रहकरस्यपीठादिकस्योपकरणस्यैषणादोषविमुक्तस्य लभ्यमाकृतेऽपि, तदुत्कृष्ट-मनन्तानन्तकं न भवति, न जायते / ततः किं नस्यात्मम्भरित्वेन संग्रहे रुचिमनाददाने, प्रश्न०३ संव० द्वार। कार्यम् ? इत्याह-अनन्तक्षेपानिमान् वक्ष्यमाणस्वरूपान् षट् षट् असंगहिय-पुं०(असंग्रहिक) व्यवहारनयमतानुसारिणि विशेष-वादिनि संख्यान् क्षिपस्व निधेहीति // 4 // नैगमे, विशेष तानेव षडनन्तक्षेपानाह असंगृहीत-त्रिका अनाश्रिते, स्था०८ठा० सिद्धा निगोयजीवा, वणस्सई, काल पुग्गला चेव। असंगाणुट्ठाण-न०(असङ्गानुष्ठान) निर्विकल्पस्वरसवाहिप्रवृत्तौ, ध०१ सव्वमलोगनहं पुण, तिवग्गिउं केवलदुगम्मि||८|| अधिकाअष्ट। सर्व एव सिद्धा निष्ठितनिःशेषकर्माणः, निगोदजीवाः समस्ता अपि ध्यानं च विमले बोधे, सदैव हि महात्मनाम् / सूक्ष्मबादरभेदभिन्ना अनन्तकायिकसत्त्वाः, वनस्पतयः प्रत्येकानन्ताः सदा प्रसृमरोऽनभ्रे, प्रकाशो गगने विधोः।।२०।। सर्वेऽपि वनस्पतिजीवाः / काल इति- सर्वोऽप्यतीतानागतवर्तमान (ध्यानं चेति) विमले बोधे च सति महात्मनां सदैव हि ध्यानं भवति, कालसमयराशिः, पुद्गलाः समस्त-पुद्गलराशेः परमाणवः। सर्व समस्तम्, तस्य तन्नियतत्वात्। दृष्टान्तमाह- अनभ्रेऽभ्ररहिते गगने विधोरुदितस्य अलोकनभोऽलोका-काशमिति, उपलक्षणत्वात् सर्वोऽपि लोकालोक प्रकाशः सदा प्रसृमरो भवति, तथाऽवस्था-स्वाभाव्यात्।।२०।। प्रदेशराशिः, इत्येतद्राशिषट्कप्रक्षेपानन्तरं यस्मिन् कृते यद्भवति तदाहपुनः पुनरपि त्रिवर्गयित्वा त्रीन् वाराँस्तावतैव राशिना गुणयित्या, सत्प्रवृत्तिपदं चेहासङ्गानुष्ठानसंज्ञितम्। केवलद्विके केवलज्ञानकेवलदर्शनयुगले क्षिप्ते सति // 5 // संस्कारतः स्वरसतः, प्रवृत्त्या मोक्षकारणम् / / 21 / / खित्तेऽणताणंतं, हवई, जिटुं तु ववहरइ मज्झं। (सदिति) सत्प्रवृत्तिपदं चेह प्रभायामसङ्गानुष्ठानसंज्ञितं भवति, इय सुहमत्थावियारो, लिहिओ देविंदसूरीहिं॥८६|| संस्कारतः प्राच्यप्रयत्नजात, स्वरसत इच्छानरपेक्ष्येण, प्रवृत्त्या प्रकृष्टवृत्त्या, मोक्षकारणम्। यथा-दृढदण्डनोदनादनन्तर मुत्तरश्चक्रभ्रमिक्षिप्ते न्यस्ते सति, अनन्तानन्तकं भवति जायते ज्येष्ठमुत्कृष्टम्, तुः संतानस्तत्संस्कारानुवेधादेव भवति, तथा प्रथमा-भ्यासाद्ध्यानानन्तरं पुनरर्थे, व्यवहितसम्बन्धश्च / व्यवहरति व्यवहारकारि मध्यं तु मध्यम तत्संस्कारानुवेधादेव तत्सदृशपरिणाम-प्रवाहोऽसङ्गानुष्ठानसंज्ञं लभत पुनः / इयमत्र भावना-इह केवलज्ञानकेवलदर्शनशब्देन तत्पर्याया इति भावार्थः // 21 // उच्यन्ते, ततः केवलज्ञानकेवलदर्शनयोः पर्यायेष्वनन्तेषु क्षिप्तेषु सत्स्विति द्रष्टव्यम् / नवरं ज्ञेयपर्यायाणामानन्त्याज्ज्ञानपर्यायाणामप्यानन्त्य प्रशान्तवाहितासंज्ञं, विसभागपरिक्षयः। वेदितव्यम् / एवमनन्तानन्तं ज्येष्ठं भवति, सर्वस्यैव वस्तुजातस्यात्र शिववर्त्म धुवाध्वेति, योगिभिर्गीयते ह्यदः // 22|| संगृहीतत्वात् / अतः परं, वस्तुसत्त्वस्यैव संख्याविषयस्या (प्रशान्तेति) प्रशान्तवाहितासंज्ञं साङ्ख्यानां, विसभागपरिक्षयो भावादित्यभिप्रायः / सूत्राभिप्रायतस्त्वित्थमप्यनन्तानन्तकमुत्कृष्ट न बौद्धानाम्, शिववर्त्म शेवानां, ध्रुवाध्वा महाव्रतिकानाम, इत्येवं हि प्राप्यते, अ-नन्तकस्याष्टविधस्यैव तत्र प्रतिपादितत्वात्। तथाचोक्तम- योगिभिरदोऽसङ्गाऽनुष्ठानं गीयते॥२२॥ द्वा०२४द्वा० षो०। नुयोगद्वारेषु-"एवमुक्कोसयं अणंताणतयं नत्थि'।तदत्र तत्त्वं केवलिनो | असंघयण-न०(असंहनन) आद्यैस्त्रिभिः संहननैर्वर्जिते, नि० चू० विदन्ति / सूत्रे तु यत्र क्वचिदनन्तानन्तकं गृह्यते तत्र सर्वत्रापि | 20 उ०। Page #1007 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असंघाइम 823 - अभिषानराजेन्द्रः - भाग 1 असंजय असंघाइम- त्रि०(असंघातिम) द्विकादिफलकेषु कपाटवदसंघातेन | असंजमकर-त्रि०(असंयमकर) साधुनिमित्तमसंयमकरणशीले, पिंग . निवृत्तेषु, नि०चू०२उ०। असंजमट्ठाण-न०(असंयमस्थान) असमाधिस्थानादिषु, व्य०। असंचइय-पुं०(असाञ्चयिक) बहुकालं रक्षितुमशक्ये दुग्धदधि असमाहिट्ठाणा खलु, सबला य परीसहा य मोहम्मि। पक्वान्नादौ, कल्प०६क्षा पलिओवमसागरोवमपरमाणु ततो असंखेज्जा // असंचयित-त्रि० असंजातसंचये, मासिकत्रैमासिकचातुर्मासिक एष प्रायश्चित्तराशिः कुतः? उच्यतेयानि खल्वसमाधिस्थानानि पाञ्चमासिकषाणमासिके वा प्रायश्चित्ते वर्तमाने, व्य०१उ०। विंशतिः, खलुशब्दः संभावने / स चैतत्संभावयति-असंख्यातानि असंजई-स्त्री०(असंयती) अविरतिकायाम्, बृ०१उ०। देशकालपुरुषभेदतोऽसमाधिस्थानानि, एवमेकविंशतिः शब-लानि, असंजण-न०(असज्जन) असङ्गे, अगृद्धौ च। नि०चू०१उ०। द्वाविंशतिः परीषहाः। तथा- मोहे मोहनीये कर्मणि ये अष्टाविंशतिर्भेदाः, असंजम-पुं०(असंयम) न संयमोऽसंयमः / प्रतिषिद्धकरणे, आ० अथवा मोहविषयाणि त्रिंशत् स्थानानि, एतेभ्योऽसंयमस्थानेभ्य एष चू०४अपं०सं० सावद्यानुष्ठाने, सूत्र०१श्रु०१३अ०। प्राणातिपातादौ, प्रायश्चित्त-राशिरुत्पद्यते। व्य०१३० "असंजमं परियाणामि, संजमं उवसंपज्जामि'' ध०३ अधिक प्रश्न असंयमस्थानभेदाःआ०चूला बालभावे, आचा० १श्रु० 50 ५उ०। "अस्संजममन्नाणं से भयवं ! केवइए असंजमट्ठाणे पण्णते ? गोयमा ! अणेगे मिच्छत्तं सव्वमेव य ममत्तं' असंयम विराधनास्वभावमेकविधम्।आतु०॥ असंजमट्ठाणे पण्णत्ते०जाव णं कायासंजमट्ठाणे / से भय ! सूत्रका "एगिंदिया णं जीवा समारंभमाणस्स पंचविहे असंजमे कजइ। तं कयरे कायासंजमट्ठाणा ? गोयमा! कायासंजमट्ठाणे अणेगहा जहा-पुढ-विकाइयअसंजमे० जाव वणस्सइकाइयअसंजमे' / पण्णत्ते / तं जहास्था०५ठा० उ०। असंजमाः- "तेइंदिया णं जीवा समारंभभाणस्स "पुढविदगागणिवाऊ, वणप्फती तह तसाण विविहाणं। छविहे असंजमेकज्जातंजहा-धाणामाओसोक्खाओ ववरोवेत्ता भवइ, हत्थेण विफरिसणयं, वजेजा जावज्जीवं पि॥ घाणामएणं दुक्खेणं संजोएत्ता भवइ० जावफासमएणं दुक्खेणं संजोयेत्ता सीउण्णखारखित्ते, अम्गी लोणूसअंबिलेणाहे। भवई" || इह चाव्यपरोपणमसंयोजनं च संयमोऽनाश्रवरूपत्वादितरदसंयम इति / स्था०६ठा० "चउरिदिया णं जीवा पुढवीदीण परोप्पर, खयंकरे वजसत्थेए। समारंभमाणस्स अट्ठविहे असंजमे कजइ / तं जहा- चक्खुमाओ पहाणुम्मदणखोभण- हत्थंगलिअक्खिसायकरणेणं / सोक्खाओ ववरोवेत्ता भवइ, चक्खुमएणं दुक्खेणं संजोएत्ता आवीयंते अणंते, आऊजीवे खयं जंति॥ भवइ" / स्था०८ठा० "पंचिंदिया णं जीवा समारंभमाणस्स पंचविहे संधुक्कजालणाणहि, एवं उज्जोयकरणमादीहिं। असंजमे कज्जइ / तं जहा- सोइंदियअसंजमे० जाव फासिंदियअ- वीयणफूमणउज्जा-वणेहि सिहिजीवसंघायं / / संजमे" | स्था०1"सव्वपाणभूयजीवसत्ताणं समारंभमाणस्स पंचविहे जाइ खयं अन्ने विय, छञ्जीवनिकायमइएगं। असंजमे कजइ / तं जहा-एगेंदियअसंजमे, जाव पंचेंदियअसंजमे" | जीवे जलणो सुट्ठु इउ विहु संभक्खइ दस दिसाणं च / / स्था०५ठा०२उ०। पं०सं०1 "सत्तविहे असंजमे पण्णत्ते / तं जहा ओवीयणगतालियंटयचामरओक्खेहत्थतालेहिं। पुढविकाइयअसंजमे० जाव तसकाइयअसंजमे अजीवकाइय धोवणडेवणलंघण-ऊसाईहिंच वाऊणं // असंजमे" / स्था०७ ठा०। "दसविहे असंजमे पण्णत्ते / तं जहापुढविकाइयअसंजमे, अजीवकाइयअसंजमे “स्था०१०ठा०। अंकुरकुहरकिसलय-प्पवालपुप्पफलकंदलाईणं / हत्थफरिसेण बहवे, जंति खयं वणप्फई जीवे // सत्तरसविहे असंजमेपण्णत्ते। तं जहा-पुढविकाइय-असंजमे, आउकाइयअसंजमे, तेउकाइयअसंजमे, वाउकाइय-असंजमे, गमणागमणनिसीयण-सुयणुद्वाणअणुवउत्तयपमत्तो। वणस्सइकाइयअसंजमे, बेइंदियअसंजमे, तेइंदिय-असंजमे, वियलेंदियबितिचउपंचेंदियाण गोयम ! खयं नियमा। चउरिंदियअसंजमे, पंचिंदियअसंजमे, अजीवकाय-असंजमे, पाणाइवायविरई, सेयफलया गिण्हिऊण ता धीमं!। पेहाअसंजमे, उपेहाअसंजमे, अवह?असं जमे अप्पमजणा मरणावयम्मि पत्ते, मरेज विरई नखंडिज्जा॥ असंजमे, मणअसंजमे, वइअसंजमे, काय-असंजमे। अलियवयणस्स विरई, सावजं सव्वमविन भासिज्जा। अजीवकायासंयमो विकटसुवर्णबहुमूल्यवस्त्रपात्र पुस्तकादिग्रहणम्। परदव्वहरणविरई, करेज दिन्ने वि मा लोभं // प्रेक्षायामसंयमो यः स तथा। सच स्थानोपकरणादीनि अप्रत्युपेक्षणम- धरणं दुद्धरबंभ- व्वयस्स काउं परिग्गहव्वयं / विधिप्रत्युपेक्षणं वा। उपेक्षाऽसंयमयोगेषु व्यापा-रणं, संयमयोगेष्वव्या- राईभोयणविरई, पंचिंदियनिग्गहं विहिणा।।" पारणं वा / तथाऽपहृत्यसंयमःअविधि- नोच्चारादीनां परिष्ठापनतो यः। तथा- अप्रमार्जनाऽसंयमः पात्रादेरप्रमार्जनया चेति / मनोवामायाऽ মাogot संयमास्तेषामकुशला-नामुदीरणानीति। स० 17 सम०। ध०। प्रश्न०। असंजमपंक-पुं०(असंयमपङ्क)पृथिव्याद्यपमर्दकर्दमे, बृ०१ उ०। पं०भा०। आन्चू०(मैथुनं सेवमानस्य कीदृशोऽसंयम इति मेहुण' शब्दे) | असंजय-त्रि०(असंयत) न विरतोऽसंयतः। अविरते,आव०४ अ० Page #1008 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असंजय 824 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 असंपगहियप्प (ण) स्था०। मिथ्यादृष्ट्यादौ, भ०६श०३उ०। अविरतसम्यग्दृष्टिपर्यन्ते, असंथड-त्रि०(असंस्तृत) शकट इव विशरारुतया संचरितुमश- क्नुवति, आतु०॥ नं०। कुतश्चिदप्यनिवृत्ते, सूत्र०१श्रु०१०अ० दश०। गृहस्थे, व्य०७उ०। बृला असमर्थे, आचा०२श्रु०१उ०। आचा०२श्रु०२अ०१3०। नि०चू०। स च श्रावकः, प्रकृतिभद्रको वा तवगेलन्नट्ठाणा, तिविहो तु असंथडो तिहे तिविहो। स्यात्। आचा०२श्रु०११०२उ०। गृहस्थ-कर्मकारिणि प्रव्रजिते, नवसंथडमीसस्सा,मासादारोवणा इणमो॥ सूत्र०१श्रु०७अ०। असाधौ, संयमरहिते, भ०१श०१3०। औ०। प्रश्न०। असंस्तृतो नाम षष्ठाष्टमादिना, तपसा क्लान्तो ग्लानत्वेन असमर्थो ज्ञा०ा असंयमवति आरम्भपरिग्रह-प्रमत्ते अब्रह्मचारिणि,स्था०१०ठा०। दीर्घाध्वनि वा गच्छन् पर्याप्तं न लभते, एष त्रिविधोऽसंस्तृतः। (तिहे पार्श्वस्थादौ, ध०२अधि० (असंयतानां कृतिकर्म न कर्त्तव्यमिति तिविहो) त्रिविहो अध्वनियोऽसंस्तृतःस त्रिविधः। तद्यथा-अध्वप्रवेशे, 'किइकम्म' शब्दे वक्ष्यते) (असंयतानां पञ्च जागराः 'जागर' शब्दे अध्वमध्ये, अध्वोत्तारे च / तत्र तणेऽसंस्तृतस्य निर्विचिकित्सस्य वक्ष्यन्ते) मासादिका इह समाहिरारोपणा भवति / बृ०५उ०। असंजयपूया-स्त्री०(असंयतपूजा)असंयमवतामारम्भपरिग्रहप्रसक्तानां असंथरण-न०(असंस्तरण) अनिर्वाह, बृ०१उ०। दुर्भिक्षग्लानाद्ययब्राहाणादीनां पूजायाम, कल्प०२क्ष०। स्थाo1 (सा च नवमदशम स्थायाम, ध०३अधि०। अपर्याप्तलाभे, पं०व०३द्वार / "संथरणम्मि जिनयोरन्तरे प्रवृत्तेति 'अच्छेर' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 200 पृष्ठे उक्ता) असुद्धं, दुण्हं पि गिहतदितयाण हियं / आउरदिलुतेणं, तं चेव हिय जिनानामन्तरेषु साधुषु विच्छेदे सति प्रत्येकबुद्धादिः केवली भवति, न असंथरणे'। नि०यू०१उ०। वा? यदि भवति, तर्हि अन्येषां धर्म कथयति, नेवति ? प्रश्ने, उत्तरम्तीर्थोच्छेदे प्रत्येकबुद्धादेः केवलित्वभवने साक्षादक्षराणि प्रवचनसारो असंथरमाण(असंथरंत)-त्रि०(असंस्तरत)गवेषणामप्यकुर्वति, व्य०४उ01 द्धारवृत्त्यादौ दृश्यन्ते, परंपरेषां धर्मकथनेच निषेधाक्षराणि ग्रन्थे दृष्टानि नस्मर्यन्ते। सेन०१ उल्ला०२६ प्र०) असंथुय-त्रि०(असंस्तुत) असंबद्धे, सूत्र०१श्रु०१२अा असंजल-पुं०(असंज्वल) अनन्तजिनसमकालीने ऐवतजिने, “भरहे | असंदिद्ध-त्रि०(असंदिग्ध) संदेहवर्जिते, दशा०४०। कल्पका निश्चिते . अणंतए जिणो, एरवए असंजले जिणवरिंदो''। ति० स०। सकलसंशयादिदोषरहिते, स्था०६ठाण असंजोएता-त्रि० (असंयोगयितृ) संयोगमकारयति, "सोयामएणं असंदिद्धत्त-न०(असंदिग्धत्व) असंशयकारितायाम्, एकादशे सत्यवदुक्खेणं असंजोएत्ता भवइ" / स्था०१०ठा०। चनातिशये च / स०३५सम०। औ०। रा०। सैन्धवशब्दवल्लवणवसन असंजोगि(ण)-पुं०(असंयोगिन्) संयोगरहिते, सिद्धे च / स्था० तुरगपुरुषाद्यनेकार्थसंशयकारित्वदोषमुक्ते सूत्रगुणे, विशे० अनु०॥ आ०म०॥ २ठा०१उ० असंठविय-त्रि०(असंस्थापित) असंस्कृते, नं०। असंदिद्धवयणया-स्त्री० (असंदिग्धवचनता) परिस्फुटवचनतारूपे वचनसम्परेदे, उत्त०१अास्थाo असंणि(संनि)हिसंचय-पुं०(असन्निधिसंचय)न विद्येत संनिधेर्मोद- | असंदिग्धवचनमाहकोदकखजूरहरीतक्यादेः पर्युषितस्य संचयो धारणं यत्रासावसन्निधिसंचयः / सन्निधिविकले, "इमस्स धम्मस्स० पंचमहव्ययजुत्तस्स अव्वत्तं अफुडत्थं, अत्थबहुत्ता व होति संदिद्धं / असन्निहिसंचयस्स" पा विवरीयमसंदिद्धं, वयणे सा संपया चउहा।। असंत-त्रि०(असत्) अविद्यमाने, नि०चू०१उ०। अशोभने, सूत्र० अव्यक्तं-वाचो व्यक्तताया अभावतः, अस्फुटार्थमक्षराणां सन्निवेश विशेषतः, विविक्षितार्थबहुत्वाद्वा भवति संदिग्धम्। तद्विपरीतमसंदिग्धम्, १श्रु०६अ०। प्रश्न। तद्वचनं यस्यासावसंदिग्धवचनः / एषा वचने संपचतुर्दा चतुष्प्रकारा। * अशान्त-त्रि०। अनुपशान्ते, प्रश्न०२आश्रद्वार। व्य०१००१ असंतइ-स्त्री०(असन्तति)शिष्यप्रशिष्यादिसन्तानानुपजनने.बृ०१3०। असंदीण-त्रि०(असंदीन)पक्षमासावुदकेनाऽप्लाव्यमाने सिंहलद्वीपादौ, असंतग-न०(असत्क) असदर्थाभिधानरूपत्वात् पञ्चमे गौणालीके, ___ आचा०१श्रु०६अ०३उ० प्रश्न०२आश्रद्वार। अविद्यमानार्थके असत्ये, प्रश्न० २आश्र० असंधिम-त्रि०(असन्धिम) अपान्तराले सन्धिरहिते, बृ०५ उ०। द्वार। असद्भूते वचने अशोभने, प्रश्न०२संव०द्वार। असंपउत्त-त्रि०(असंप्रयुक्त) अयुक्ते, नि०चू०१ उ०। अशान्तक-न० अनुपशमप्रधाने, प्रश्न०२संव०द्वार। असंपओग-पुं०(असंप्रयोग) विप्रयोगे, ध०३अधि०। अयोगे, भ० 25 असंतय-न०(असान्तत) रागादिप्रवर्त्तने, प्रश्न०२आश्रद्वार। श०७ उ०। असंताचेल-पुं०(असदचेल) अविद्यमानेषु चेलेषु, अवाससि तीर्थकरे, असंपगहियप्प(ण)-त्रि०(असंप्रगृहीतात्मन्) असंप्रगृहीतोऽनुत्सेकवादेवदूष्यापगमानन्तरं तथाभावात्। पञ्चा०१७विव०। नात्मा यस्य सोऽसंप्रगृहीतात्मा। निरभिमाने, अह-माचार्यो बहुश्रुतः असंति-स्त्री०(अशान्ति) शान्त्यभावे, अनिर्वाणे, संसृतौ च / / तपस्वी सामाचारीकुशलो जात्यादिमान् वा इत्यादिमदरहिते, दशा० सूत्र०१श्रु०६० ३अग अन Page #1009 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असंपगहियया 825 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 असंसट्ट असंपगहियया-स्त्री०(असंप्रगृहीतता)संप्रग्रहरहिततारूपेआचार्य- असंलप्प-त्रि०(असंलप्य) संलपितुमशक्येषु अतिबहुषु, अनु०। सम्पर्दोदे, व्य०। असंप्रगृहीतता नाम जात्यादिमदैर-नुत्सिक्तता। असंलोय-पुं०(असंलोक) अप्रकाशे, आचा०ा असंलोकवति, त्रिका तथाह अनापातेऽसंलोके स्थण्डिले व्युत्सृजेत्। असंलोकं गत्वो चारं प्रस्रवणं आयरिओ बहुस्सुओ, तवसि अहं जाइएहि मयएहिं। वा कुर्यात् / आचा०२श्रु०१०अ०। ध०| जो होइ अणुस्सित्तो, असंपगहिओ वि सो भवइ।। असंवर-पुं०(असंवर) संवरणं संवरः, न संवरोऽसंवरः / पा०ा आश्रये, आचार्योऽहं बहुश्रुतोऽहं तपस्व्यहमिति मदैः, जात्यादिभिर्वा मर्दों स्था०। "पंचविहे असंवरे पण्णत्ते / तं जहा- सोइंदिय- असंवरे० भवत्यनुत्सितः स भवत्यसंप्रगृहीतः, मदसंप्रग्रहरहितत्वात् / जाव फासिंदियअसंवरे" / स्था०५ठा०२उ०। "छविहे असंवरे व्य०१०उ०। पण्णत्ते / तं जहा-सोइंदियअसंवरे० जाव फासिंदिय-असंवरे असंपग्गह-पुं०(असंप्रग्रह) समन्तात् प्रकर्षेण जात्यादिप्रकृत- लक्षणेन णोइंदियअसंवरे" / स्था०६ठा०। "अट्ठविहे असंवरे पण्णत्ते- तं ग्रहणमात्मनोऽवधारणं संप्रग्रहः / तदभावोऽसंप्रग्रहः / उत्त०१अ०। जहा- सोइंदियअसंवरे जाव कायअसंवरे"। स्था० पठाण आत्मनो जात्याधुत्सेकरूपग्रहवर्जने, वाचनासंपर्दोदे, स्था०८ठा० "दसविहे असंवरे पण्णत्ते / तं जहा- सोइंदियअसंवरे० जाव असंपत्त-त्रि०(असंप्राप्त) असंलग्ने, रा०) सुइकुसग्गअसंवरे' / स्था०१०ठा० असंपत्ति-स्त्री०(असंपत्ति) प्रायश्चित्तभारवहनासामर्थ्य,"असंप-तीए असंवलिय-त्रि०(असंवलित) अवर्धिते, तं०। मासलहु संपत्तीए मासगुरु''। नि०चू०१3०। 'असंपत्तिपत्ताणं रयहरणं असंविग्ग-त्रि०(असंविन) न संविनोऽसंविनः / पार्श्वस्थादौ, नि० चू० पचुपेहिज्जा''। महा०७० 1 उ०। शीतलविहारिणि, पं०व०२२द्वार / व्य०) असंविग्ना अपि असंपहिट्ठ-त्रि०(असंप्रहृष्ट)अहर्षिते, उत्त०१५अ०। 'अवग्गमणे द्विविधाः- संविनपाक्षिकाः, असंविनपाक्षिकाश्च / संविग्नपाक्षिका असंपहिट्टा जे से भिक्खू"। उत्त०१५अ०। निजानुष्ठाननिन्दिनो यथोक्तसुसाधु-समाचारप्ररूपकाः, असंविग्नअसंपुड-त्रि०(असंपुट) अव्यावृते, "मुहं वा असंपुडं वाताऽरंभ- दोसेण पाक्षिका निर्धर्माणः सुसाधु-जुगुप्सकाः। अच्छेज्ज''। नि०यू०२०3०1 उक्तशअसंफुर-त्रि०(असंस्फुर) असंवृते,बृ०३ उ०। "तत्थावायं दुविहं सपक्खपरपक्खओ य नायव्वं / असंबद्ध-त्रि०(असंबद्ध) असंश्लिष्टे, "असंबद्धो हविज्जा जग दुविहो होइ सपक्खो, संजय तह संजईणं च / / 1 / / णिस्सिए' / पद्मिनीपत्रोदकवद् गृहस्थैः / दश० 8 अ०। संविग्गमसंविग्गा, संविग्गमणुत्त एयरा चेव। संप्रत्यसंबद्ध इति पञ्चदशं भेदं निरूपयितुमाह असँविग्गा वि य दुविहा, तप्पक्खिय एयरा चेव'' ||2|| भावंतो अणवरयं, खणभंगुरयं समत्थवत्थूणं / प्रव०६१द्वार। संबंधो विधणाइसु, वज्जइ पडिबंधसंबंधं ||74|| भावयन् पर्यालोचयन, अनवरतं प्रतिक्षणं, क्षणभङ्गुरतां सततं असंविग्गपक्खिय-पुं०(असंविग्नपाक्षिक) निर्धर्मणि सुसाधुजुगुप्सके, विनश्वरतां, समस्तवस्तूनां तनुधनस्वजनयौवनजीवितप्रभृतिसर्व प्रव०६१द्वार। भावानां, संबद्धोऽपि बाह्यवृत्त्या प्रतिपालनवर्द्धनादिरूपया युक्तोऽपि असंविभाग-पुं०(असंविभाग) संविभागाभावे, दश०६अ०॥ धनादिषु धनस्वजनकरिहरिप्रभृतिषु, वर्जयति, न करोति बन्धो मूर्छा असंविभागि(ण)-पुं०(असंविभागिन्) संविभजति आनीताहारमतद्रूपं संबन्धं संयोग, नरसुन्दरनरेश्वर इव, यतो भावतो भावयत्येवं न्येभ्यः साधुभ्यः प्रापयतीत्येवंशीलः संविभागी, न संवि- भागी भावश्रावकः- "चित्ता दुपायं च चउप्पयंच, खित्तं गिहंधणधन्नं च सव्वं / असंविभागी। आहारेण स्वकीयमेव उदरं बिभर्ति इत्यर्थः / अन्यस्मै कम्मप्पबीओ अवसो पयाइ, परं भवं सुंदरपावगं व'' ||1|| इत्यादि। न ददाति / उत्त०३३अ०) आचार्यग्लानादीनामेषणागुणविशुद्धिघ००। (नरसुन्दरनरेश्वरकथा ‘णरसुंदर' शब्दे वक्ष्यते) लब्धमविभजमाने, प्रश्न०३संव०द्वार / यत्र क्वचन लाभेऽसंविअसंबुद्ध-त्रि०(असंबुद्ध) अनवगततत्त्वे, उत्त०१०। भागवति, "असंविभागी न हु तस्स मोक्खो" / दश०६ अ01 असंभंत-त्रि०(असंभ्रान्त) अनन्यचित्ते, पं०व०१द्वार / यथावदुप- | असंवुड-त्रि०(असंवृत) इन्द्रियनोइन्द्रियैरसंयते, सूत्र०१श्रु० योगादि कृत्वाऽनाकुले, दश०१अ० भ्रमरहिते, विपा०१श्रु० 10 // १अ०३उ०। हिंसादिस्थानेभ्यो निवृत्ते असंयतेन्द्रिये, सूत्र०१ श्रु० रा०। अनुत्सुके, भ०११श०११उ०। २अ०१उ०अनिरुद्धाश्रवद्वारे, भ०१श०१उ०। प्रमत्ते, भ०७श० असंभम-पुं०(असंभ्रम) भयाऽकरणे, ओघा २उ०। (असंवृतस्यानगारस्य वक्तव्यता अणगार' शब्देऽस्मिन्नेव भागे असंभाविद-त्रि०(असंभावित)"तो दोऽनादौ शौरसेन्यामयुक्त- 273 पृष्ठे समुक्ता) (स्वप्रश्च 'सुविण' शब्दे वक्ष्यते) स्य"1८1१।२६०। इति तस्यदः। संभवमकारिते,प्रा०४पाद। असंसइय-त्रि०(असंशयित) निःसंशयिते, सूत्र०२श्रु०२१०। असंमोह-पुं०(असंमोह) देवादिकृतमायाजनितस्य, सूक्ष्मपदार्थ- असंसट्ठ-त्रि०(असंसृष्ट) अन्यदीयपिण्डैः सहाऽमीलिते, बृ०२उ०। विषयस्य च संमोहस्य मूढताया निषेधे, औ०। ग० स्था०। अखरण्टिते, औ० Page #1010 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असंसहचरय 826 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 असच्चोवाहिसच्च असंसट्ठचरय-पुं० (असंसृष्टचरक) असंसृष्टन हस्तादिना दीयमानस्य | असचमोसमणजोग-पुं०(असत्यामृषमनोयोग) न विद्यते सत्यं यत्र ग्राहके, औ०) . सोऽसत्यः, न विद्यते मृषा यत्र सोऽमृषः / असत्यश्चासौ अमृषश्च, कं असंसट्ठा-स्त्री०(असंसृष्टा) असंसृष्टेन हस्तेनाऽसंसृष्टेन च पात्र नत्रादिभिन्नैः / 3 / 1 / 105 // इति कर्मधारयः / असत्यामृषश्चासौं केण(सावशेष द्रव्यं) भिक्षां गृह्णतः साधोः प्रथमायां पिण्डेष-णायाम, मनोयोगश्चासत्यामृषनोयोगः। मनोयोगभेदे, कर्म० 4 कर्म०। प्रव०६६द्वार। स्था०। आ०चूला नि०चू०। आव आचा०। सूत्र०। ध०। / असबरुइ-पुं०(असत्यरुचि) असत्ये मृषाभाषणे, असंयमे वा पञ्चा०। ('लित्त' शब्देऽसंसृष्टायाः प्ररूपणम्) रुचिर्यस्याऽसावसत्यरुचिः। असत्यं रोचयमाने, व्य०३उ०। असंसत्त-त्रि०(असंसक्त) असंमिलिते, उत्त०२०। विशेला अप्रतिबद्धे, असचवइजोग-पुं०(असत्यवाग्योग)वाग्योगभेदे, कर्म०४कर्म०। दश०८अाअसंबद्धे, उत्त०३अ० असचसंधत्तण-न०(असत्यसंधत्व) असत्यमलीकं संदधाति करोतीति असंसय-न०(असंशय) निश्चिते, द्वा०२द्वा०ा निःसंदेहे, वृ०१उ० असत्यसन्धः, तद्भावोऽसत्यसन्धत्वम् / षड्विंशे गौणालीके, असंसार-पुं०(असंसार) न संसारोऽसंसारः। संसारप्रतिपक्षभूते मोक्षे, प्रश्न०२आश्रद्वार। जी०१ प्रति०ा संसाराभावे, द्वा०११द्वा०। असचामोसा-स्त्री०(असत्यामृषा) यन्न सत्यं नापि मृषा, तत्र " असंसारसमावण्ण-पुं०(असंसारसमापन्न) न संसारोऽसंसारो मोक्षस्तं असत्यामृषा / वस्तुप्रतिषेधमन्तरेण स्वरूपमात्रपर्यालोचनपरे। 'अहो समापन्नः असंसारसमापन्नः। मुक्ते, प्रज्ञा०१पद। सिद्धे, स्था० 2 ठा०१ देवदत्त ! घटमानय, गां देहि मह्यम्' इत्यादि चिन्तनपरे भाषाभेदे, इदं हि उ०। जीन स्वरूपमात्रपर्यालोचनपरत्वान्न यथोक्तलक्षणं सत्यं, नापि मृषा / असक्क-त्रि०(अशक्य) कर्तुमपार्यमाणे, 50) अशक्ये भावप्रति पं०सं०१द्वार। "जं णेव सच्चं, णेव मोसं, णेव सच्चमोसं-असच्चामोस पत्तिरिति / अशक्ये ज्ञानाचारादिविशेष एव कर्तुमपार्यमाणे कुतोऽपि णाम, तं चउत्थं भासज्जातं" चतुर्थी भाषायोच्यमाना न सत्या, नापि धृतिसंहननकालबलादिवैकल्याद्भावप्रतिपत्तिः- भावेनान्तःकरणेन मृषा, नापि असत्यामृषा आमन्त्रणाऽऽज्ञापनादिका साऽत्रासत्यामृषेति। प्रतिपत्तिरनुबन्धः, न पुनस्तत्र प्रवृत्तिरपि, अकालौत्सुक्यस्य तत्त्वत आचा०२श्रु० 4 अ०१ उ०॥ आर्तध्यानत्वादिति। ध०१अधिक सांप्रतमसत्यामृषामाहअसक्कय-त्रि०(असंस्कृत) न विद्यते संस्कृतं संस्कारो यस्य आमंतणि आणवणी, जायणि तह पुच्छणी अ पन्नवणी। सोऽसंस्कृतः / अविद्यमानसंस्कारे, प्रश्न०१आश्रद्वार। पचक्खाणी भासा, भासा इच्छाणुलोमा य।।४।। असक्कयमसक्कय-त्रि०(असंस्कृतासंस्कृत)कर्मधारयः। मकारोऽत्राला आमन्त्रणी, यथा-हे देवदत्त ! इत्यादि / एषा किलाप्रवर्तकत्वात् क्षणिकः / अत्यन्तमसंस्कृते, प्रश्न०४ आश्रद्वार। सत्यादिभाषात्रयलक्षणवियोगतस्तथाविधदलोत्पत्तेरसत्यामृषेति / असक्कहा-स्त्री०(असत्कथा) अशोभनकथायाम्, दर्श०। एवमाज्ञापनी, यथा- इदं कुरु / इयमपि तस्य करणाकरणभावतः परमार्थेनैकत्राप्यनियमात्तथाप्रतीतेः अदुष्टविवक्षाप्रसूतत्वाद सत्याअसक्किरिया-स्त्री०(असत्क्रिया) अशोभनायां चेष्टायाम, पञ्चा०६ मृषेति / एवं स्वबुद्धयाऽन्यत्रापि भावना कार्येति / याचनी, यथा-भिक्षा विव०॥ प्रयच्छति / तथा प्रच्छनी, यथा- कथमेतदिति ? प्रज्ञापनी, यथाअसक्किरियारहिय-त्रि०(असत्क्रियारहित) मूक्षितपिहितादिद्वारेण हिंसादिप्रवृत्तो दुःखितादिर्भवति / प्रत्याख्यानी भाषा, यथाजीवोपमर्दरूपाप्रशस्तव्यापाररहिते, पञ्चा०१३विव०। अदित्सेति / भाषा इच्छानुलोमा च, यथा- केनचित् कश्चिदुक्तःअसगडा-स्त्री०(अशकटा) शकटैरुत्पथं नीतत्वात्स्वनामख्याते साधुसकाशंगच्छाम इति। स आह-शोभनमिदमिति गाथाऽर्थः / / 4 / / आभीरकन्यारत्ने, दश०३अ० (तवृत्तं 'उवहाण' शब्दे द्वितीय-भागे अणभिग्गहिआ भासा, भासा अअभिग्गहम्मिबोधव्वा। 1046 पृष्ठे उदाहरिष्यते) संसयकरणी भासा, वायड अव्वायडा चेव // 43|| असग्गह-पुं०(असद्ग्रह) अशोभनाभिनिवेशे आप्तवचनबाधितार्थपक्ष अनभिगृहीता भाषा-अर्थमनभिगृह्य योच्यते, डित्थादिवत् / भाषा पाते, पञ्चा०१विव०॥ चारित्रवतोऽपि असद्ग्रहः संभवति, मतिमोहमा चाभिग्रहे बोधव्या-अर्थमभिगृह्य योच्यते, घटादिवत्। तथा संशयकरणी हात्म्यादिति। ध००। च भाषा- अनेकार्थसाधारणा योच्यते,सैन्धव-मित्यादिवत् / असच-न०(असत्य) सत्यविपरीते, नास्ति जीव एकान्तसद्रूपो व्याकृतास्पष्ट प्रकटार्था-देवदत्तस्यैष भ्रातेत्यादिवत् / अव्याकृता चैव वेत्यादिकुविकल्पनपरे, पं०सं०१द्वार / उत्त०। अलीके, प्रश्न० अस्पष्टाऽप्रकाटाबालकादीनां थपनिकेत्यादिवदिति गाथार्थः। २आश्रद्वार। असत्यं च महत्तमं पातकं यतो योगशास्त्रान्तर लोके- उक्ताऽसत्यामृषा। दश०७ अ० "एकत्राऽसत्यजं पापं, पापं निःशेषमन्यतः / द्वयोस्तुलाविधृतयो असबोवाहिसच्च-न०(असत्योपाधिसत्य) सशब्दार्थत्वेनासत्या उपाराद्यमेवातिरिच्यते" // 1 // इति। ध०२अधि०। प्रश्न०। आ०चूल। धयो विशेषा वलयागुलीयकादयो यस्य सत्यस्य सर्वभेदानुयायिनः असचमणजोग-पुं०(असत्यमनोयोग) कर्म०स०) नास्ति जीव सुवर्णादिसामान्यात्मनस्तत् सत्यमसत्योपाधि शब्दप्रवृत्तिनिमित्तमएकान्तसद्भूतो विश्वव्यापीत्यादिकुविकल्पचिन्तनपरे मनोयोगे, कर्म० भिधेयम् / सविशेषे सामान्ये, अन्ये त्वाः- यदसत्योपाधिसत्यं स 4 कर्म शब्दार्थः इति। संव०१काण्ड। Page #1011 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सजं 827 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 असज्झाइय असचं-त्रि०(असज्जत्) सङ्गमकुर्वति, "असञ्जमित्थीसु वएज पूयणं''। आचा०१श्रु०५अ०४301 असज्जमाण-त्रि०(असजत्) सङ्गमकुर्वति, उत्त०१४अ० ते कामभोगेसु असज्जमाणा, माणुस्सएसुं जे यावि दिव्वा"॥१४॥ उत्त०१४अ०। "असज्जमाणो य परिव्वएजा' असज्जमानः सङ्गमकुर्वन् गृहपुत्रकलवादिषु परिव्रजेदुयुक्तविहारी। सूत्र०१ श्रु० 10 // असज्झय-त्रि०(असाध्य) अशक्ये, पिं० अनिवर्तनीयस्वभावे, आ०म०द्विा असज्झाइय-न०(अस्वाध्यायिक) आ मर्यादया सिद्धान्तोक्त-न्यायेन पठनम्-आध्यायः, सुष्टु शोभन आध्यायः स्वाध्यायः, स एव स्वाध्यायिकम् / नास्ति स्वाध्यायो यत्र तदस्वाध्यायिकम्। रुधिरादौ स्वाध्यायाकरणहेतौ, प्रव०२६द्वार / न स्वाध्यायिक- मस्वाध्यायिकम् / कारणे कार्योपचाराद् रुधिरादौ, ध०३अधि०। __ अस्वाध्याये स्वाध्यायो न कर्तव्यःणो कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंथीणं वा असज्झाइए सज्झायं करित्तए, कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंथीणं वा सज्झाइए सज्झायं करित्तए। अस्य व्याख्या-न कल्पते निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनांबा अस्वा-ध्यायिके स्वाध्यायं कर्तुम, कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा स्वाध्यायिके स्वाध्यायं कर्तुमिति सूत्राक्षरसंस्कारः। अधुना भाष्यप्रपञ्चःअसझाइयं च दुविहं, आयसमुत्थं परसमुत्थं च / जं तत्थ परसमुत्थं, तं पंचविहं तु नायव्वं / / द्विविधंखल्यस्याध्यायिकम्। तद्यथा- आत्मसमुत्थं, पर-समुत्थम्। चशब्दश्चास्वाध्यायिकतया तुल्यकक्षतासंसूचकः / तत्र यत् परसमुत्थं तत्पञ्चविधं ज्ञातव्यम्। तानेव पञ्च प्रकारानाहसंजमघाउप्पाए, सदेवए वुग्गहे य सारीरे। एएसु करेमाणे, आणाइय मो उ दिटुंतो॥ संयमघाति संयमोपघातिकम्, औत्पातिकमुत्पातनिमित्तं, सदैवं देवताप्रयुक्तं, व्युद्ग्रहः, शरीरंच। एतेषु पञ्चष्वप्यस्वाध्यायिकेषु स्वाध्यायं कुर्वत्याज्ञादयः आज्ञाभङ्गादयो दोषाः, तथाऽऽज्ञां तीर्थकराणां यो भञ्जति, तस्य प्रायश्चित्तं चतुर्गुरु / अन-वस्थयाऽन्येऽपि तथा करिष्यन्तीति, तत्रापि प्रायश्चित्तं चतुर्गुरु, यथा वादी तथा कारी न भवतीति मिथ्यात्वं, तन्निष्पन्नमपि प्रायश्चित्तं चतुर्गुरु। विराधना द्विधासंयमविराधना, आत्मविराधना च / तत्र संयमविराधना ज्ञानाचारविराधना। आत्मविराधनाया-मेवमुदाहरणम् - तदेवाहमेच्छभय घोसण निवे, दुग्गाणि अतीह मा विणस्सहिहा। फिडिया जे उ अतिगया, इयरा हय सेस निवदंडो॥ "कस्स वि रण्णो मेच्छखंधावारो विसयं आगंतुं हणियकामो, तं भयं जाणित्ता रण्णा सविसए सकले वि घोसावियमित्थं-मेच्छखंधावारो आगंतुं विसयं हणिउकामो वट्टति, तुन्भे दुग्गाणि अतीह। तत्थ जेहिं रन्नो | आणा कया, ते मेच्छभयातो फिड्डिआ, जेहिं न कया आणा, ते मेच्छेहिं झूसिआ मारिया य, जे वि तत्थ केइ परिमुक्का ते वि रण्णा दंडिया'। अक्षरयोजना त्वेवम्-म्लेच्छभयमाकर्ण्य नृपेण (गाथायां सप्तमी तृतीयार्थ) घोषणा कारिता / यथा-दुर्गाण्यतिगच्छथ, मा विनश्यथ, तत्र ये अतिगतास्ते म्लेच्छभयात् स्फिटिताः, इतरे हताः, कृतसर्वस्वापहाराश्च कृताः / येऽपि शेषाः कथमपि म्लेच्छभयविप्रमुक्तास्तेषामाज्ञाभङ्गकरणतो नृपेण दण्डः कृतः।व्य०७ उ०। "क्षितिप्रतिष्ठितपुरे, जितशत्रुर्नराधिपः। स्वदेशे घोषितं तेनागच्छतिम्लेच्छभूपतौ / / 1 / / त्यक्त्वा ग्रामपुरादीनि, दुर्गेषु स्थीयतां जनैः / ये राजवचसा दुर्गमारूढास्ते सुखं स्थिताः॥२॥ नारूढा ये पुनर्दुर्ग ,म्लेच्छाद्यैस्ते विलुण्टिताः। आज्ञाभङ्गानृपेणापि, गतशेषं च दण्डिताः॥३॥ अस्वाध्यायेऽपिस्वाध्यायाद् , दण्डः स्यादुभयादपि। देवताच्छलनेत्येकः, प्रायश्चित्तागमोऽपरः // 4 // इहलोके परस्मिश्च, ज्ञानाद्यफलता भवेत् आ०का एष दृष्टान्तोऽयमर्थोपनयःराया इव तित्थयरो, जाणवया साहु घोसणं सुत्तं / मेच्छाय असज्झाओ, रयणधणाई व नाणादी॥ अत्र राजा इव तीर्थकरः,जानपदाइव साधवः, घोषणमिव सूत्र,म्लेच्छा एवं अस्वाध्यायः, रत्नधनानीव ज्ञानादीनि / तत्र ये साधवो ज्ञानपदस्थानीया राजस्थानीयस्य तीर्थकरस्याज्ञां नानुपालयन्ति, ते प्रान्तदेवतया छल्यन्ते, प्रायश्चित्तदण्डेन च दण्ड्यन्ते / व्य०७ उ०। आ०क० केन पुनः कारणेनाऽस्वाध्यायिके स्वाध्यायं करोति? तत आहथोवावसेसपोरिसि, अज्झयणं वा वि जो कुणइ सोचें। णाणाइसारहीणस्स तस्स छलना उ संसारे। स्तोकावशेषायामपि पौरुष्यामध्ययनं पाठ उद्देशो वाऽद्यापि समाप्तिन नीत इति कृत्वा उद्घाटायामपि पौरुष्यामस्तमिते वा सूर्ये, अथवा अस्वाध्यायिकमिति श्रुत्वाऽपि योऽध्ययनं पाठम, अपिशब्दादुद्देशनंच करोति, तस्य ज्ञानादित्रिकं तत्त्वतोऽपगतं, तीर्थकराऽज्ञाभङ्गकरणादिति / ज्ञानादित्रिकसारहीनस्य संसारे नरकादि-भवभ्रमलक्षणे छलना भवति, अपारघोरसंसारे निपतनं भवतीति भावः। अत्रैव दृष्टान्तान्तरं समभिधित्सुराहअहवा दिटुंतियरो,जह रण्णो पंच के पुरिसाउ। दुग्गादी परितोसिउ, तेहि अराया अह कयाई। तो देति तस्स राया, नगरम्मी इच्छियं पयारं तु / गहिए य देह मोल्लं,जणस्स आहारवत्थादी। एगेण तोसियतरो, गिहेऽगिहे तस्स सव्वहिं विधरे। रत्थाइसुं चउण्हं, एविह सज्झाइए उवमा।। अथवेति दृष्टान्तस्य प्रकारान्तरसूचने। इतरो दृष्टान्तः। यथा-राज्ञः केचित्पञ्च पुरुषाः सेबकास्तैरथ कदाचिद् राजा दुर्गादिषु पतितो निस्तारितः, तत्रापि तेषां पञ्चानां मध्ये एकेन केनचित्परम साध्वसमवलम्ब्य भूयस्तरं साहायिकमकारि, ततस्तेषां तेनैकेन Page #1012 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असज्झाइय 828 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 असज्झाइय जितानां चतुर्णा राजा परितुष्टः सन् नगरे रथ्यादिषु गृहचर्यादिषु प्रचारमीप्सितं ददाति / यथा- 'यत्किमपि रथ्यायामापणादिषु, त्रिकचतुष्कचत्वरादिषु वा यदेव वस्त्राहारादिकं प्राप्नुयात्युष्मा-कमेव' / एवं प्रसादे कृते वस्त्राहारादौ नगरादितः स्वेच्छया गृहीते, राजा यस्य सत्कं यद् गृहीतं, तस्य मूल्यं ददाति / येन चैकेन पुरुषेण भूयस्तरसाहायिकं कुर्वता राजा तोषिततरः, यस्य राजा गृहेऽगृहे वा सर्वत्र नगरमध्ये प्रचारमीप्सितं विरतिमन्तराऽनुजानाति। तत्रापि यस्य सत्कं तेन गृह्यते वस्त्राऽऽहारादि, तस्यमूल्यं राज्ञा दीयते। इतरेषां चतुर्णा रथ्याऽऽदिष्वेव प्रचारमनुज्ञातवान्, न गृहेषु / एवमुक्तेन प्रकारेण इह प्रस्तुतेऽस्वाध्यायिके उपमादृष्टान्तः। तदेवमुक्तो दृष्टान्तः। सम्प्रति दान्तिकयोजनामाहपढमम्मि सव्वचेट्ठा, सज्झाओ वा विवारितो नियमा। सेसेसु य सज्झाओ, चेट्ठान निवारिआ अण्णा। प्रथमेऽस्वाध्यायिके संयमोपघातिलक्षणे, सर्वा कायिकी वाचिकी चेष्टा, स्वाध्यायश्च नियमाद्वारितः, तोषकतरपुरुषस्थानीयतया तस्य सर्वत्र साधुव्यापारेषु प्रवृत्तेः / शेषेषु पुनः चतुषु अस्वाध्यायिकेषु स्वाध्यायः, स्वाध्याय एव केवलो निवारितो, नान्या कायिकी वाचिकी या प्रतिलेखनादिका चेष्टा वारिता, तेषां शेषपुरुषचतुष्टय-स्थानीयाना बहिः रथ्यादाविव स्वाध्यायमात्र एव व्यापारभावात् / तदेवं पञ्चस्वप्यस्वाध्यायिकेषु सामान्यतो विशेषतश्चोदाहरणमुक्तम्___ इदानीं प्रथममस्वाध्यायिक संयमोपघाति प्ररूपयतिमहिया य भिन्नवासो, सच्चित्तरए य संजमे तिविहे। दव्वे खेत्ते काले, जहियं वा जचिरं सव्वं / / महिका गर्भमासे पतन्ती प्रसिद्धा, तस्यां, तथा-गृहादौ यत्पतति वर्ष तद्भिन्नवर्ष, तस्मिन्, तथा सचित्तरजसि च, एवंविधे त्रिप्रकारे संयमेपदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् संयमोपघातिनि अस्वा-ध्यायिके निपतति, द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भाषतश्च वर्जनं भवति। तत्र द्रव्यतःएतदेव त्रिविधमस्वाध्यायिकं द्रव्यम् / क्षेत्रतो-(जहियं ति) यावति क्षेत्रे तत्पतति तावत् क्षेत्रम्-कालतो-(यचिरं ति) यावन्तं कालं पतति तावन्तं कालम्। भावतः- सर्व कायिक्यादिचेष्टादिकं वय॑ते। एनामेव गाथां व्याख्यानयति. महिया उ गब्ममासे, वासे पुण होंति तिन्नि उपगारा। बुब्बुए तच फुसीए, सचित्तरजो य आयंबो॥ महिका गर्भमासे प्रतीताः। गर्भमासो नाम कार्तिकादिवित् माघमासः / वर्षे पुनस्त्रयः प्रकारा भवन्ति / तानेवाह-(बुब्बुए त्ति) यत्र वर्षे निपतति पानीयमध्ये बुबुदास्तोयशलाकारूपाः उत्तिष्ठन्ति, ततो वर्षमप्युपचाराद् बुबुदमित्युच्यते। तद्वर्ज बुबुदवर्ज द्वितीय वर्षम्, तृतीयं (फुसीएति) जल-स्पर्शिकनिपतन्त्यः, तत्र बुबुदे वार्यनिपतति यामाष्टकादूर्ध्वम् / अन्ये तु व्याचक्षते- त्रयाणां दिनानां परतः, तद्वर्जे पश्चानां दिनानां जलस्पर्शिकारूपे सप्तानां परतः सर्वमप्कायस्पृष्ट भवति / ततस्तत्र द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च वर्जन प्राग्वद्भावनीयम्, यावच्चाप्कायमयं न भवति, यावदुपाश्रयो निर्गलस्तत्र सर्व स्वाध्यायप्रतिलेखनादि क्रियते, बहिस्तुनिर्गम्यते इति। 'सचित्तरजो नाम व्यवहारसमन्विता यातोद्धता / श्लक्ष्ण-धूलिः, तच सचित्तरजो वय॑ते, ततोऽस्यां गाथायां पुंस्त्वं प्राकृतत्वात्। तच्च दिगन्तरेषु दृश्यते, तदपि निरन्तरपाते त्रयाणां दिनानां परतः सर्वपृथिवीकायाभावितं करोति, तत्रापि पतित-द्रव्यादितो वर्जन प्राग्वत्। तदेव व्याख्यातुमाहदव्वे तं चिय दव्वं,खेत्ते जहियं तु जचिरं काले। ठाणादि भास भावे, मोत्तुं ऊसासउम्मेसं / / द्रव्ये द्रव्यतः- तदेवास्वाध्यायिक महिकं भिन्नवर्ष सचित्तरजो वा वय॑ते / क्षेत्रतो- यत्र क्षेत्रे निपतति, कालतो-यावचिरं कालं पतति, भावतो-मुक्त्या उच्छ्वासमुन्मेषं च,तद्वर्जने जीवितव्या-घातसंभवात्। शेषां स्थानादिकाम, आदिशब्दाद् गमनागमन-प्रतिलेखनादिपरिग्रहः। कायिकां चेष्टां भाषां च वर्जयति। वासत्ताणाऽऽवरिया, निकारण ठवंति कन्ज जयणाए। हत्थंगुलिसन्नाए, पोत्तावरिया व भासंति॥ निष्कारणे कारणाभावे वर्षत्रयाणां कम्बलमयः कल्पः, तेन सौत्रिककल्पान्तरितेन सर्वात्मना आवृतास्तिष्ठन्ति, न कामपि लेशतोऽपि चेष्टां कुर्वन्ति / कार्ये तु समापतिते यतनया हस्तसंज्ञया अड्गुलिसंज्ञया च व्याहरन्ति / पोताऽऽवरिता वा भाषन्ते ग्लानादिप्रयोजने वर्षाकल्पाऽऽवृता गच्छन्ति / गतं संयमोपघात्यस्वाध्यायिकम्। इदानीमौत्पातिकमाहपंसुयमंसयरुहिरं-केससिलावुट्टि तह रओघाए। मंसरुहिरेऽहोरतं, अवसेसे जचिरं सुत्तं॥ अत्र वृष्टिशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते। पांशुवृष्टौ, रुधिरवृष्टौ केशवृष्टी, शिलावृष्टौ च / तत्र पांशुवृष्टि म यदि रजो निपतति, मांसवृष्टिर्मास खण्डानि पतन्ति, रुधिरवृष्टिः रुधिरबिन्दवः पतन्ति / केशवृष्टिर्यद्वारा केशाः पतन्ति, शिलावृष्टिः पाषाणनिपतनं, करकादिशिलावर्षमित्यर्थः / तथा- रजउद्घाते रजस्वलासु दिक्षु सूत्रं न पठ्यते, शेषाः सर्वा अपि चेष्टाः क्रियन्ते / तत्र मांसरुधिर च पतति अहोरात्रं वय॑ते, अवशेषे पांशुवृष्ट्यादौ यावचिरं पाश्वादिपतनकालं, तावत् सूत्र नन्द्या - दिर्न पठ्यते, शेषकालं तु पठ्यते। सम्प्रति पांशुरजउद्घातव्याख्यानमाहपंसू अ अचित्तरजो,रयोसलाओ दिसा रउग्धाते। तत्थ सवाते निव्वा-यए य सुत्तं परिहरंति॥ पांशवो नाम धूमाकारमापाण्डुरमचित्तं रजः / रजउद्घातो रजस्वला दिशः, यासु सतीषु समन्ततोऽन्धकार इव दृश्यते, तत्र पांशुवृष्टौ, रजउद्घाते वा सवाते निति च पतति यावत्पतनं तावत्सूत्रं परिहरन्ति / अत्रैवापवादमाहसाभाविए तिणि दिणा, सुगिम्हए निक्खिवंति जइ जोगे। तो तम्मि पडतम्मी, कुणंति संवच्छरऽज्झायं / / यदि सुग्रीष्मकालप्रारम्भ उष्णप्रारम्भे, चैत्रशुक्लपक्षे इत्यर्थः / दशम्याः परतो यावत् पौर्णमासी, अत्रान्तरे निरन्तरं त्रीणि दिनानि यावत् यदि योग निक्षिपन्ति एकादश्यादिषु त्रयोदशीपर्यन्तेषु, यदि Page #1013 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असज्झाइय 829 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 असज्झाइय वा त्रयोदश्यादिषु पौर्णमासीपर्यन्तेषु अचित्तरजोऽवहेठनार्थ कायोत्सर्ग कुर्वन्ति, तदा तस्मिन्पांशुवर्षे रजोद्घाते वा स्वाभाविके पतति, संवत्सरं यावत्स्वाध्यायं कुर्वन्ति, इतरथा नेति। व्य०७ उ०। 'दसविहे ओरालिए असज्झाइए पण्णत्ते / तं जहा- अट्ठी मंसे सोणिए असुइसामंत मसाणसामंतं चंदोवराए सूरोवराए पडणे राययुग्गह उवस्सयस्स अंतो ओरालिए सरीरे''।स्था०।"दसविहे अंतलिक्खिए असज्झाइएपण्णते। तं जहा- उक्कावाए दिसिदाहे गजिए वीजुए निग्धाए जूयए जक्खालित्तए धूमिए महिया रज्जुग्धाए"।स्था०१०ठा०। आ०चूला व्या इदानीं सदेवमाहगंधव्वदिसाविजुक्क-गजितए जूवजक्खदित्ते य। एक्केकपोरिसिं गज्जियं तु दो पोरिसिं हणति / / गन्धर्वनगरं नाम यचक्रवर्त्यादिनगरस्योत्पातसूचनाय संध्यासमये तस्य नगरस्योपरि द्वितीयं नगरं प्राकाराट्टालकादि संस्थितं दृश्यते (दिस त्ति) दिग्दाहः, विद्युत्प्रतीता, उल्का सरेखा, प्रकाशयुक्तावा, गर्जितं प्रतीतं, यूपको वक्ष्यमाण लक्षणः, यक्षदीप्तं नाम एकस्यां दिशि अन्तराऽन्तरा यद् दृश्यते विद्युत्सदृशः प्रकाशः / एतेषु मध्ये गन्धर्वनगरादिकमेकैकामेककां पौरुषी च हन्ति, गर्जितं पुनढे पौरुष्यौ हन्ति। गंधव्वनगर नियमा, सदेवयं सेसगाणि भजिणीओ। जेण न नजंति फुडं, तेण य तेसिं तु परिहारो॥ अत्र गन्धर्वनगरादिषु मध्ये गन्धर्वनगरं नियमात्सदेवकम, अन्यथा तस्याभावात् / शेषकाणि तु दिग्दाहादीनि भक्तानि विकल्पितानि, कदाचित् स्वाभाविकानि भवन्ति, कदाचित् देवकृतानि / तत्र स्वाभाविकेषु स्वाध्यायोन परिहियते किन्तु देवकृतेषुपरम्। येन कारणेन स्फुट वैविक्त्येन तानिन ज्ञायन्ते, तेन तेषामविशेष-परिहारः। सम्प्रति दिग्दाहादिव्याख्यानमाहदिसि दाह छिन्नमूलो, उक्क सरेहा पगासजुत्ता वा। संज्झच्छेयाऽऽवरणो, उजूवओ सुक्कदिण तिण्णि / / दिशि पूर्वादिकायां छिन्नमूलो दाहः प्रज्वलनं दिग्दाहः / किमुक्तं भवति ? अन्यतमस्यां दिशि महानगरप्रदीप्तमिवोपरि प्रकाशो-ऽधस्तादन्धकार इति दिग्दाहः / उल्का पृष्ठतः सरेखा, प्रकाशयुक्ता वा / यूपको नाम शुक्ले शुक्लपक्षे त्रीणि दिनानि यावत् द्वितीयस्यां तृतीयस्यां चतुर्थ्यां चेत्यर्थः। संध्याच्छेदः संध्याविभागः, स आवियते येन स संध्याच्छेदावरणश्चन्द्रः / इयमत्र भावना- शुक्लपक्षद्वितीया-तृतीयाचतुर्थीरूपेषु त्रिषु दिनेषु संध्यागतश्चन्द्र इति कृत्वा संध्या न विभाव्यते, ततस्तानि शुक्लपक्षे त्रीणि दिनानि यावत् चन्द्रः संध्याच्छेदावरणः स यूपक इति / एतेषु च त्रिषु दिवसेषु प्रादोषिकी पौरुषी नास्ति, संध्याच्छेदादि-भवनादिति। अत्रैव मतान्तरमाहकेसिंचि होंति मोहा, उजूवओ ते तु होंति आइण्णा। जेसिंच अणाइन्ना, तेसिं खलु पोरिसी दोण्णि // केषाश्चिदाचार्याणां मतेन ये भवन्ति शुक्लपक्षे प्रतिपदादिषु दिवसेषु / मोघाः शुभाशुभसूचननिमित्ता वितथोत्पादा आदित्यकिरण विकारजनिता आदित्यस्योदयसमये अस्तमयसमये वा आताम्राः, कृष्णश्यामा वा 'यूपक इति' ते भवन्ति वर्तन्ते आचीर्णाः, नैतेषु स्वाध्यायः परिहियते इत्यर्थः / येषां त्वाचार्याणामनाचीर्णास्तेषां मतेन यूपको द्वे पौरुष्यौ हन्ति। न केवलममूनि सदेवानि, किन्त्वमून्यपि, तान्येवाहचंदिमसूरुपरागा, निग्घाए गुंजिते अहोरत्तं। चंद जहण्णेणऽट्ठ उ, उक्कोसा पोरिसि बिछक्कं / / सूरो जहण्ण बारस, उक्कोसं पोरिसीउ सोलसओ। सम्गह निब्बुड एवं, सूरादी जेणऽहोरत्ता॥ चन्द्रोपरागे सूर्योपरागे च, तद्दिनापगते इति वाक्यशेषः / तथा- साभ्रे निरभ्रेवानभसि व्यन्तरकृतो महागर्जितसमोध्यनिर्निर्घातः। गर्जितस्यैव विकारो गुञ्जावत् गुञ्जमानो महाध्वनिर्गुञ्जितं, तस्मिन् निर्घात गुञ्जितं च, प्रत्येकमहोरात्रं यावत् स्वाध्यायपरिहारः। तत्र जघन्यत उत्कर्षतश्च चन्द्रोपरागं सूर्योपरागं वाऽधिकृत्य स्वाध्यायोचितकालमानमाहचन्द्रो जघन्येनाष्टौ पौरुषीर्हन्ति, उत्कर्षतः पौरुषीद्विषट्कम्, द्वादश पौरुषीरित्यर्थः / कथमिति चेत् ? उच्यते-उद्गच्छन्चन्द्रमा राहुणा गृहीतः, ततश्चतस्रःपौरुषीराबेर्हन्ति, चतस्र आगामिनो दिवसस्य, एवमष्टौ। द्वादश पुनरेवम्-प्रभातकाले चन्द्रमाः सग्रह एवास्तमुपगतः, ततश्चतसः पौरुषीर्दिवसस्य हन्ति, चतस्र आगामिन्या रात्रेः, चतस्रो द्वितीयस्य दिवसस्य। अथवा-औत्पातिकग्रहणेन सर्वरात्रिकं ग्रहणं जातम, सग्रह एव निमग्नः, ततः संदूषित-रात्रेश्चतस्रः पौरुषीः, अन्यचाहोरात्रम्। अथवाअभ्रच्छन्नतया विशेषपरिज्ञानाभावाच्च न ज्ञान-कस्यां वेलायां ग्रहणं ? प्रभाते च ग्रहो निमज्जन् दृष्टः, ततः समग्ररात्रिः परिहता, अन्यचाहोरात्रमिति द्वादश / सूर्यो जघन्येन द्वादश पौरुषीर्हन्ति, उत्क र्षतः षोडश / कथमिति चेत् ? उच्यते- सूर्यः सग्रह एवास्तमुपगतश्चतस्रः पौरुषी रात्रेर्हन्ति, चतस्र आगामिनो दिवसस्य, चतसस्ततः परस्या रात्रेः, एवं द्वादश / षोडश पुनरेवम्- सूर्य उद्गच्छन् राहुणा गृहीतः सकलं च दिनं समुत्पातवशात्सग्रहः स्थित्वा सग्रह एवास्तमुपागतः। ततश्चतस्त्रः पौरुषीर्दिवसस्य हन्ति, चतस्त्र आगामिन्या रात्रेः, ततश्चतस्रः परदिवसस्य, ततोऽपि चतस्रः परतराया रात्रेः, एव षोडश पौरुषीर्हन्ति, सग्रहनिमग्नः, सग्रह एवास्तमितः। तथा चोक्तम्"एयं उग्गमछन्नं गहिए सग्गहनिव्वुडे दट्टयमिति'। (सूरादीजेणऽहोरत्त त्ति) सूर्यादयो येनाहोरात्राः। ततः किमित्याहआइन्नं दिणमुक्के, सो चिय दिवसो य रातीय। निग्घायगुंजएसुं, सो चिय बेला उजा पत्ता॥ यतः सूर्यादिरहोरात्रः, ततो दिनमुक्ते सूर्ये-स एव दिवसः, सैव च रात्रिः स्वाध्यायिकतया परिहियते / चन्द्रे तु तस्यामेव रात्री मुक्ते यावदपरश्चन्द्रो नोदेति, तावदस्वाध्यायः, इति सैवरात्रिः, अपरं च दिनमिति, एवमहोरात्रमस्वाध्यायः / अन्ये पुनराहुराचीर्णमिदम्- चन्द्रो रात्रौ गृहीतो रात्रावेव मुक्तः, तस्या एव रात्रेः शेष वर्जनीयं यस्मादागामिसूर्योदये समाप्तिरहोरात्रस्य जाता। सूर्योऽपि यदि दिवा गृहीतो दिवैव मुक्तस्तस्थैव दिवसस्य शेष, रात्रिश्च वर्जनीया Page #1014 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असज्झाइय ८३०-अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 असज्झाइय इति।तथा-निर्धातगुज्जितयोः प्रत्येकम्,यस्यां वेलायां निर्घातो गुञ्जितं वाऽधिकृते दिने भवेत्, द्वितीयेऽपि दिने यावत्सैव वेला प्राप्ता भवति, तावदस्वाध्याय एव / तयोरप्यस्वाध्यायस्याहोरात्र-प्रमाणत्वात्। उक्तं च-निर्घातो गुञ्जितं च लोकप्रतीतौ, "एए अहोरतं उवहणंति त्ति"। तथाचउसंझासुन कीरइ, पाडिवएसुं तहेव चउसुं पि। जो जत्थ पूजती तं, सव्वेहि सुगिम्हतो नियमा।। चतस्रः सन्ध्याः , तिस्रो रात्रौ / तद्यथाप्रस्थिते सूर्ये, अर्धरात्रे, प्रभाते च, चतुर्थी दिवसस्य मध्यभागे। एतासुचतसृष्वपि स्वाध्यायो न क्रियते / शेषक्रियाणां तु प्रतिलेखनाऽऽदीनां न प्रतिषेधः / स्वाध्यायकरणे चाज्ञाभङ्गादयो दोषाः। तथा- चतस्रः प्रतिपदः। तद्यथाआषाढपौर्णमासीप्रतिपत्, अश्वयुक्पौर्णमासी प्रतिपत्, कार्तिकपौर्णमासीप्रतिपत्, सुग्रीष्मप्रतिपत्, चैत्रमासपौर्णमासी-प्रतिपदित्यर्थः / एतास्वपि चतसृष्वपि प्रतिपत्सु तथैव स्वाध्याय एव न क्रियते, न शेषक्रियाणां प्रतिषेधः / इह प्रतिपद्ग्रहणेन प्रतिपत्पर्यन्ताश्चत्वारो महाः सूचिता इति, एषां चतुर्णा महानांमध्ये यो महोयस्मिन् देशेयतो दिवसादारभ्य यावन्तं कालं पूर्यते तस्मिन् देशे ततो दिवसादारभ्य तावन्तं कालं स्वाध्यायं न कुर्वन्ति। यत्पुनः सर्वेषांपर्यन्तः "सव्वेसिंजाव पाडिवतो" इति वचनात् सुग्रीष्मकश्चैत्रमासभावी पुनर्महामहः सर्वेषु देशेषु शुक्लपक्षप्रतिपद आरभ्य चैत्रपूर्णमासीप्रतिपत्पर्यन्तो नियमात् प्रसिद्धः, ततो यद्यध्वानं प्रतिपन्नस्तथापि चैत्रमासस्य शुक्लपक्षप्रतिपद आरभ्य सर्व पक्षं पौर्णमासी प्रतिपत्पर्यन्तं यावदवश्यमनागाढो योगो निक्षिप्यते, शेषेषु आगाढादिकेषु योगो न निक्षिप्यते, केवलं स्वाध्यायं न कुर्वन्ति / गतं सदेवमस्वा-ध्यायिकम्। व्य०७उ०। ग०| "णो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिगंथीण वाचउहि महापाडिवएहिं सज्झायं करेत्तए / तं जहा-आसाढपाडिवए, इंदपाडिवए, कत्तिअपाडिवए, सुगिम्हपाडिवए। णो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा चउहि संझाहिं सज्झायं करेत्तए। तं जहा-पढमाए पच्छिमाए मज्झण्हे अद्धरत्ते। कप्पइ णिगंथाण वा णिम्गंथीण वा चउक्कालं सज्झायं करेत्तए। पुव्वण्हे अवरण्हे पओसे पचूसे।" स्था०४ठा०२उ०। इदानी व्युद्ग्रहजमाहदुग्गह दंडियमादी, संखोभे दंडिएय कालगते। . अणरायए य सभए, जच्चिरमनिदोच्चऽहोरत्तं / / व्युद्ग्रहे परस्परविग्रहे दण्डिकादीनाम्, आदिशब्दात्सेना-पत्यादीनां च परस्परं विग्रहे अस्वाध्यायः / इयमत्र भावना-द्वौ दण्डिको सस्कन्धावारौ परस्परं संग्रामं कर्तुकामौ यावन्नोप शाम्यतस्तावत्स्वाध्यायः कर्तुंन कल्पते। किं कारणमिति चेत् ? उच्यते-तत्र वाणमन्तराः कौतुकेन स्वस्वपक्षण समागच्छन्ति, ते छलयेयुः, भूयसां च लोकानामप्रीतिः- वयमेवं भीता वर्तामहे, कामप्यापदं प्राप्स्यामः, एते च श्रमणका निर्दुःखं पठन्ति। अत्राऽऽदिशब्दव्याख्यानार्थमिमां गाथामाहसेणाहिवभोइयमह-यरपुंसित्थीण मल्लजुद्धे वा। लोट्ठादिमंडणे वा, गुज्झगउड्डाह अचियत्तं / / द्वयोः सेनाधिपत्योदयो; तथाविधप्रसिद्धिपात्रयोः, तयोः परस्परं ध्युद्ग्रहे वर्तमाने, अथवा मल्लयुद्धे, तथा- द्वयोः ग्रामयोः परस्पर सकलुषभावे बहवस्तरुणाः परस्परं लोष्टयुध्यन्तः, ततो यष्टिभिर्वा लोष्टादिभिर्वा परस्परं भण्डने कलहे यावन्नोपशमो भवति सेनाधिपादिव्युद्ग्रहस्य तावदस्वाध्यायः।अत्र कारणमाह- (गुज्झगउड्डाह अचियत्तं) गुह्यकाः कौतुकेन प्रेक्षमाणाश्छलयेयुः, तथा बहुजनो 'निर्दुःखा एते इति मन्यमानोऽप्रीत्योड्डाहं कुर्यात्- 'लोकोपचारबाह्या एते' इति / तथादण्डिके कालगते (अण्णराए ति) यावदन्यो राजा नाभिषिक्तो भवति तावत्प्रजानां महान् संक्षोभो भवति, तस्मिन्संक्षोभे सति स्वाध्यायो न कल्पते। किमुक्तं भवति? यावत्संक्षोभस्तावदस्वाध्यायः। अत्रापि पूर्वोक्ता दोषाः / सभयं म्लेच्छादिभयाकुलं, तस्मिन्नपि स्वाध्यायो न कर्तव्यः / एतेषु व्युद्ग्रहादिष्वस्वाध्यायविधिमाह- (जचिरमनिदोचहोरत्तं) व्युद्ग्रहादिषु यचिरं यावन्तं कालम्, (अनिदोघं ति) अनिर्भयमस्वस्थमित्यर्थः / तावन्तं कालमस्वाध्यायः / स्वस्थभवनानन्तरमप्येकमहोरात्रं परिहृत्य स्वाध्यायः कर्तव्यः। उक्तंच"निघोसीभूते वि अ- होरत्तमो परिहरित्ता उ। सज्झाओ कीरइ इह, संखोभे दंडिए य कालगए" || अनेनैतदपि सूचितमस्ति ततस्तदभिधित्सुः "संखोभे दंडिए'' इत्येतदपि व्याख्यानयतिदंडिए कालगयम्मी, जा संखोभो न कीरते ताव। तदिवस भोइमहतर-वाडगपतिसेज्जयरमादी॥ दण्डके कालगते सति यावत्संक्षोभस्तावत्स्वाध्यायो न क्रियते, अन्यस्मिस्तु सुराज्ञि स्थापितेऽहोरात्रातिक्रमेण क्रियते, स्वास्थ्यभवनात् / तथा- भोजिके ग्रामस्वामिनि, महत्तरिके ग्रामप्रधाने, वाटकपतौ वसत्यनुरतेवाटकैकस्वामिनि, तथा- शय्यातरे, आदिशब्दादन्यस्मिन्वा शय्यातरसंबन्धिनि मानुषे कालगते, तदिवसमस्वाध्यायः, एकमहोरात्रं यावत्स्वाध्यायपरिहार इत्यर्थः। तथापगए बहुपक्खिए वा, सत्तघरंतर मते च तदिवसं। निहुक्ख त्तिय गरिहं, न पढंति सणीयगं वा वि / / अन्योऽपि यो नाम ग्रामे प्रकृतोऽधिकृतो महामनुष्यः, तस्मिन्, यदि वा-बहुपाक्षिके बहुस्वजने कालगते, अन्यस्मिन्वा प्राकृते स्ववसत्यपेक्षया सप्तगृहाभ्यन्तरे कालगते तदिवसमेकम-होरात्रमस्वाध्यायः। किं कारणमत आह-'निर्दुःखा अमी' इत्यप्रीत्या गर्हणसंभवात, ततो न पठन्ति / अथवा-तथा पठन्ति यथा न कोऽपि शृणोतीति / महिलारुदितशब्दोऽपि यावत् श्रूयते तावन्न पठन्ति। हत्थसमयणाहम्मी, जह सारियमादितो विगिंचिज्जा। तो सुद्धं अविवित्ते, अन्नं वसहिं विमग्गंति / / कोऽप्यनाथो हस्तशताभ्यन्तरे मृतः, तस्मिन्ननाथे हस्तशताभ्यन्तरे कालगते स्वाध्यायो न क्रियते। तत्रेत्थं यतना- शय्यातरस्य वा, तथाविधस्य श्रावकस्य वा भद्रकस्य वार्ता कथ्यते- यथा स्वाध्यायान्तरायमस्माकमनाथमृतकेन कृतमस्ति, ततः सुन्दरं Page #1015 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असज्झाइय 831 - अभियानराजेन्द्रः - भाग 1 असझाइय भवति यदीदं छड्यते / एवमभ्यर्थितो यदि शय्यातरादिर्विगिञ्चयेत् परिष्ठापयेत्, ततः शुद्धं भवतीति स्वाध्यायः कार्यः। अथ चशय्यातरादिर्न कोऽपि परिष्ठापयितुमिच्छति, तदा तस्मिन्ननाथे मृतके अविविक्ते, अपरिष्ठापिते अन्यां वसतिं मार्गयन्ति। अण्णवसहीए असती, ताहे रत्ति वसभा विवेचंति। विक्किने व समंता, जं दिट्ठ अराढए सुद्धा॥ अन्यस्या वसतेरभावो यदि, ततो रात्रौ सागरिकासंलोके वृषभास्तदनाथमृतकं विविचन्ति, अन्यत्र प्रक्षिपन्ति। अथ तत्कलेवरंच शृगालादिभिः समन्ततो विकीर्णं , ततो विकीर्णे तस्मिन्समन्ततो निभालयन्ति, तत्र यद् दृष्ट तत्सर्वमपि विविचन्ति। इतरस्मिस्तु प्रयत्ने कृतेऽप्यदृष्ट 'अराठा' इति कृत्वा शुद्धाः स्वाध्यायं कुर्वन्तोऽपि न प्रायश्चित्तभागिन इति भावः / गतं व्युद्ग्रहजम्। इदानीं शारीरिकमाहसारीरं पिय दुविहं, माणुसतेरिच्छियं समासेण। तेरिच्छं तत्थ तिहा, जलथलखहजं पुणो चउहा॥ शरीरे भवं शारीरं, तदपि समासेन संक्षेपतो द्विविधं द्विप्रकारम्। तद्यथामानुषं तैरश्चं च / तत्र तैरश्चं त्रिधा-जलजं जलमत्स्या -दितिर्यग्भवम्, एवं गवादीनां स्थलजं, खजं मयूरादीनाम् पुनरेकैकं चतुर्कीचतुःप्रकाराः। तानेव प्रकारानाहचम्म रुहिरं च मंसं, अटिं पिय होइ चउविगप्पं तु। अहवा दव्वाईयं, चउव्विहं होइ नायव्वं / चर्म शोणितं रुधिरं, मांसमस्थि इत्येतानि प्रतीतानि / एवमेकैकं जलजादि चतुर्विकल्पं भवति / अथवा- जलजादिकं प्रत्येक चर्मादिभेदतश्चतुर्विकल्पं सत्पुनद्रव्यादिकं द्रव्यादिभेदतश्चतुर्विधं भवति ज्ञातव्यम्। तानेव प्रत्येकं द्रव्यादीन् चतुरो भेदानाहपंचिंदियाण दव्वे, खित्ते सठिहत्थ पोग्गलाकिण्णे। तिकुरत्थंतरिए वा, नगरे बाहिं तु गामस्स॥ द्रव्ये-द्रव्यतः पञ्चेन्द्रियाणां जलजादीनां चतुष्टयमस्वाध्यायिकं, न | विकलेन्द्रियाणाम्। क्षेत्रे-क्षेत्रतःषष्टिहस्ताभ्यन्तरे परिहरणीयं, न परतः। अथ तत्स्थानं तैरश्चन पौद्गलेन मांसेन समन्ततः काककुर्कुराऽऽदिभिर्व्याक्षिप्तेनाऽऽकीर्ण व्याप्तं, तदा यदि संग्रामस्तर्हि तस्मिन् तिसृभिः कुरथ्याभिरन्तरिते विकीर्णे पुद्गले स्वाध्यायः क्रियते / अथवा-नगरे, तदा तत्रयस्यां राजा सबलवाहनो गच्छति, देवयानं, रथोवा, विविधानि वा संवाहनानि गच्छन्ति, तया महत्याऽप्येकया रथ्यया अन्तरिते स्वाध्यायः कार्यः। अथ सग्रामः समस्तोऽपि विकीर्णन पौद्गलेनाकीर्णो विद्यते, न तिसृभिः कुरथ्याभिरन्तरितं तत्पौद्गलमवाप्यते,तदाग्रामस्य बहिः स्वाध्यायो विधेयः / गता क्षेत्रतो मार्गणा। __ संप्रति कालतो भावतश्च तामाहकाले तिपोरिसि अट्ठ व, भावे सुत्तं तु नंदिमादीयं। बहिधोयरद्धपक्के, बूढे वा होति सुद्धं तु॥ तत एकैकं जलजादि गतं चर्मादि कालतस्तिस्रः पौरुषीर्हन्ति। (अट्ठ वेति) यत्र महाकायपञ्चेन्द्रियस्य मूषिकादेराहननं तत्राष्टौ पौरुषीर्यावत्स्वाध्यायविधातः / गता कालतोऽपि मार्गणा / भावत आह-भावतो नन्द्यादिकं सूत्रंन पठति(बहिधोएत्यादि) यदि षष्टिहस्तेभ्यः परतो बहिः प्रक्षाल्य मांसमानीतं, यदि वा राद्धा स्थाली पाकेन, तदा तस्मिन् बहिौते बही राद्धे बहिः पक्वे वा तत्रानीते शुद्धम्, अस्वाध्यायिकं न भवतीति भावः / अथवा यत्र षष्टिहस्ताभ्यन्तरे पतितमस्वाध्यायिक रुधिरं, तेनावकाशेन पानीयप्रवाह आगतः, तेन व्यूढं, तदा पौरुषीत्रयमध्येऽपिशुद्ध-मस्वाध्यायिकमिति स्वाध्यायः कार्यः। अंतो पुण सट्ठीणं, धोयम्मी अवयवा तहिं होति। तो तिण्णि पोरिसीओ, परिहरियव्वा तहिं हुंति॥ यदि पुनः षष्टिहस्तानामभ्यन्तरे मांसं प्रक्षालयति, तदा तस्मिन् धौते यतस्तत्र नियमादवयवाः पतिता भवन्ति, ततस्तिस्रः पौरुष्यः स्वाध्यायमधिकृत्य तत्र परिहर्तव्या भवन्ति। 'अट्ठवा' इति यदुक्तं तदिदानीं भावयतिमहकाये ऽहोरत्तं, मंजारादीण मूसगादिहते। अविभिण्णे गिण्णे वा, पठंति एगे जइ पलाति॥ महाकाये मूषिकादौ मार्जारादिना हते मारिते अहोरात्रमष्टौ पौरुषीर्यावदस्वाध्यायः / अत्रैव मतान्तरमाह-(अविभिन्ने इत्यादि) एके प्राहुः- यदि मार्जारादिना मूषिकादिरविभिन्न एव सन्मारितो मारयित्वा च गृहीत्वा, अथवा गिलित्वा ततःस्थानात्पलायते, तदा पठन्ति साधवः सूत्रं, न कश्चिद्घोषः / अन्ये नेच्छन्ति- यतः कस्तं जानाति अविभिन्नो भिन्नो वा मारित इति। अपरेएवमाहुः- यत्र मार्जारादिः स्वयं मृतोऽन्येन वा केनाप्यविभिन्न एव सन् मारितस्तत्र यावत्कलेवरं न भिद्यते तावन्नाऽस्वा-ध्यायिकम्, विभिन्ने अस्वाध्यायिकमिति / तदेतदसमीचीनम्। यतश्च कर्मादि-भेदतश्चतुर्विधमस्वाध्यायिकं, तस्मादविभिन्नोऽ-- प्यस्वाध्यायिकम्, तस्मादविभिन्नेऽप्यस्वाध्याय एव। अंतो बहिं च मिन्ने, अंमयबिंदूतहा वियाताए। रायपहवूढसुद्धे, परवयणे साणमादीणि॥ अन्तरुपाश्रयमध्ये, यदि वोपाश्रयाद् बहिः षष्टिहस्ताभ्यन्तरे अण्डके पतिते यदि तदण्डकमभिन्नमद्याप्यस्ति, तदा तस्मिन्नुज्झिते स्वाध्यायः कल्पते / अथवा- पतितं सत् तदण्डकं भिन्नं, तस्य वाऽण्डकस्य कललबिन्दुभूमौ पतितः, तदा भिन्ने अण्डके, बिन्दौ च भूमौ पतिते न कल्पते स्वाध्यायः। अथ कललं पतितं सदण्डकं भिन्नं कललबिन्दु तत्र लग्नः, तदा तस्मिन् षष्टिहस्तेभ्यः परतो बहिर्नीत्वा धौते कल्पते। तथा-विजातायां प्रसूतायां तैरश्चामस्वाध्यायः पौरुषीत्रितयं यावत् / तथा- ये राजपथे अस्वाध्यायिकबिन्दवो गलितास्ते न गण्यन्ते / तथाऽन्यत्र प्रतिपतितएवास्वाध्यायिकम्, ततोवर्षोदकप्रवाहेण तस्मिन् व्यूढे कल्पते / अत्र श्वादिकमाश्रित्य परस्य वचनं, तदने भावयिष्यते। इति गाथासंक्षेपार्थः। साम्प्रतमेनामेव विवरीषुरिदमाहअंडयमुज्झियकप्पे, न य भूमि खणंति इहरहा तिण्णि / असज्झाइयपरिमाणं, मच्छियपाया जहिं खुप्पे।। यद्यण्डकमभिन्नमेव पतितं, तदा तस्मिन्नुज्झिते स्वाध्यायः कल्पते, अथ भिन्नं तदा न कल्पते / न च भूमि खनन्ति, इतरथा Page #1016 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असज्झाइय 832- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 असज्झाइय भूमिखननेन यदि तदस्वाध्यायिकमपनयन्ति तथाऽपि तिस्रः पौरुषीर्यावदस्वाध्यायः / अण्डकबिन्दुरस्वाध्यायिकस्य प्रमाणं, यत्र मक्षिकापादा निमज्जन्ति। किमुक्तं भवति?-यावन्मात्रे मक्षिकापादा। बुडन्ति तावन्मात्रेऽप्यण्डकबिन्दौ भूमौ पतति सति अस्वाध्यायः। अधुना 'वियाताए' इति व्याख्यानार्थमाहअजराउ तिण्णि पोरिसि, जराउयाणं जरे पडिए तिण्णि। निजंतुवस्सपुरतो, गलियजति निग्गलं होज्जा / / अजरायुप्रसूतास्तिस्रः पौरुषीः स्वाध्यायं हन्ति अहोरात्रच्छेदं मुक्त्वा, अहोरात्रे तु छिन्ने आसन्नायामपि प्रसूतायां कल्पते स्वाध्यायः, जरायुजानां यावज्जरायुर्लम्बते तावदस्वाध्यायः, जरायो पतितेऽपि सति तदनन्तरं तिस्रः पौरुषीर्यावदस्वाध्यायः / तथा-उपाश्रयस्य पुरतो नीयमानं तदस्वाध्यायिकं गलितं भवति, तदा पौरुषीत्रयवदस्वाध्यायः / यदि पुनर्निर्गल भवेत्तदा तस्मिन्नीते स्वाध्यायः। "रायपह वूढे'' इति व्याख्यानार्थमाहरायपहे न गणिज्जति, अह पुण अण्णत्थ पोरिसी तिण्णि। अह पुण बूढं हुस्सा, वासोदेणं ततो सुद्धं / / राजपथे यद्यस्वाध्यायिकबिन्दवो गलितास्तदा तदस्वाध्यायिकं न गण्यते। किं कारणमिति चेत् ? उच्यते-यतस्ततः स्वयोग्यत आगच्छता गच्छतां च मनुष्यतिरश्वां पदनिपातैरेवोत्क्षिप्तं भवति / जिनाज्ञा चात्र प्रमाणमतो न दोषः / अतः पुनस्तदस्वाध्यायिकं तैरवं राजपथादन्यत्र षष्टिहस्ताभ्यन्तरे पतति, तदा तिस्रः पौरुषीर्यावद स्वाध्यायः / अथ तदपि वर्षोदकेन व्यूढं भवेत्, उपलक्षणमेतत्-प्रदीपनकेन च दग्धं, तदा शुद्धं तत्स्थानमिति कल्पते स्वाध्यायः। संप्रति 'परवयणे साणमादीण'' इति व्याख्यानयतिचोदेति समुद्दिसिउं, सा जो जइपोग्गलं तु पज्जाहि। उदरगतेणं चिट्ठइ, जा ताव उ हो असज्झाओ। अत्र परश्वोदयति-श्वा यदि पौद्गलं तैरश्चं मांसंबहिः समुद्दिश्य (निगाल्य) तत्रागच्छेत्, तर्हि यावत्स तत्र तिष्ठति तावत्तेनोदरगतेन पौद्गलेन अस्वाध्यायः कस्मान्न भवति? सूरिराहभण्णति जइ ते एवं, सज्झाओ एव तो उ नस्थि तुहं। असज्झाइयस्स जेणं, पुण्णोसि तुमं सयाकालं // भण्यते-अत्रोत्तरं दीयते- यदि ते एवं पूवोक्तप्रकारेण मतिः, ततस्तव स्वाध्यायः कदाचनापि नास्त्येवा एवकारो भिन्नक्रमः, स च यथास्थानं योजितः / कस्मान्न स्वाध्यायः कदाचनापीति? अत आह-येन कारणेन सदाकालं सर्वकालं त्वमस्वाध्यायिकस्य पूर्णः, शरीरस्य रुधिरादिचतुष्टयात्मकत्वात्। जइ फुसती तहिं तुंडं, जइ वा लेढारिएण संचिढ़े। इहरा न होति चोयग!, वंतं तं परिणयं जम्हा / / यदि श्वा खरण्टेन मुखेन तत्रागत्याऽऽत्मीयं तुण्डं क्वापि स्पृशति / यदि वा खरण्टितेनैव मुखेन संतिष्ठते, तहा भवत्यस्वाध्यायः, इतरथा यदि पुनर्बहिरेव सुखं लीढ्वा समागच्छति, तदान भवति। तथा यद्यप्यागत्वा वमति, तथापि चोदक! नास्वाध्यायिकम्, यस्मात्तद्द्वान्तं परिणतम् / एवं मार्जारादिकमप्यधिकृत्य भावनीयम् / गतं तैरश्वम्। अधुना मानुषमाहमाणुस्सगं चउद्धा, अट्ठि मुत्तूण सयमहोरत्तं। परियावण्णविवण्णा, सेसे तिग सत्त वऽढे वा।। मानुष्यकं मानुषमस्वाध्यायिकं चतुर्धा / तद् यथा- चर्म, रुधिरं, मांसमस्थिच। एतेष्वस्थिमुक्त्वा शेषेषु सत्सु क्षेत्रतो हस्त-शताभ्यन्तरे न कल्पते स्वाध्यायः / कालतोऽहोरात्रम्। (परिया-वण्णविवण्ण त्ति) मानुष तैरश्चं वा यद् धिरं तद्यदि पर्यापन्नं तेन स्वभाववर्णाद्विवर्णीभूतं भवति खदिरसारसमाससारादिकल्पं, तदा स्वाध्यायिक भवतीति क्रियते, तस्मिन् पतितेऽपि स्वाध्यायः। (सेस त्ति) पर्यापन्नं विवर्ण मुक्त्वा शेषे स्वाध्यायिकं भवति / (तिग ति) यत् अविरताया मासे मासे आर्तवमस्वाध्या-यिकमागच्छति तत्स्वभावतस्त्रीणि दिनानि यावदस्वाध्यायः / त्रयाणां दिवसानां परतोऽपि कस्याश्चित् गलति, परं तदातवं न भवति, किंतु तन्महारक्तं नियमात्पर्यापन्नं विवर्णं भवतीति नाऽस्वाध्यायिकं गण्यते। तथा- यदि प्रसूताया दारको जातस्तदा। सप्त दिनान्यस्वाध्यायिकम्, अष्टमेच दिवसे स्वाध्यायः कर्तव्यः। अथदारिका जाता तर्हि सा रक्तोत्कटेति, तस्यां जातायामष्टौ दिनान्यस्वाध्यायः, नवमे दिने स्वाध्यायः कल्पते। एतमेव गाथाऽवयवं व्याचिख्यासुराहरत्तुक्कडए इत्थी, अट्ठ दिणा तेण सत्त सुक्काहिए। तिण्ह दिणाण परेणं, अणाउयंतं महारत्तं / / निषेककाले यदि रक्तोत्कटता, तदा स्त्री इति, तस्यां जातायां दिनान्यष्टावस्वाध्यायः / दारकः शुक्राधिकः, तेन तस्मिन् जाते सप्त दिनान्यस्वाध्यायः / तथा-स्त्रीणां त्रयाणां दिनानां परतस्तन्महारक्तमनातवं भवति, ततो न गणनीयम्। दंते दिढे विगिचण, सेसऽट्ठिग बारसे न वासाई। झामित वूढे सीयाण पाणमादीण रुद्दघरे / / यत्र हस्तशताभ्यन्तरे दारकादीनांदन्तः पतितो भवति तत्र निभालनीयं, यदि दृश्यते तदा परिष्ठाप्यः / अथ सम्यग्मृगयमाणैरपि न दृष्टस्तदा शुद्धमिति कल्पते स्वाध्यायः / अन्ये तु ब्रुवते- तस्य अवहेडनार्थ कायोत्सर्गः करणीयः / दन्तं मुक्त्वा शेषाङ्गोपाङ्गादि संबन्धिन्यस्थिनि हस्तशताभ्यन्तरे पतिते द्वादश वर्षाणि न कल्पते स्वाध्यायः / अथ तत्स्थानमग्निकायेन ध्यामितं, पानीयेन वा व्यूढं, तदा शुद्धमिति, ध्यामिते व्यूढे वा स्वाध्यायः कल्पते। तथा-(सीयाण त्ति) श्मशाने यानि कलेवराणि दग्धानि तान्य-स्वाध्यायिकानि न भवन्ति, तानि पुनस्तत्र अनाथकलेवराणि न दग्धानि, निखातीकृतानि वा तानि द्वादश वर्षाणि स्वाध्यायं घ्नन्ति / यद्यपि च नाम श्मशानं वर्षोदकेन प्रव्यूढं, तथापि तत्र न कल्पते स्वाध्यायः, मानुषास्थिबहुलत्वात् / (पाणमादीण त्ति) पाणनामाऽऽडम्बरो नाम यक्षो हिरमिकापरनामा दैवतं, तस्याऽऽयतनस्याधस्ताद् मानुषान्यस्थीनि निक्षिप्यन्ते, ततस्तत्र, तथा- मातृगृहे चामुण्डायतने, रुद्रगृहे वाऽधस्ताद् मानुषं कपालं निक्षिप्यते। ततस्तयोरपि द्वादश वर्षाण्यस्वाध्यायः। Page #1017 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असज्झाइय 833 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 असज्झाइय अमुमेव गाथाऽवयवं व्याचिख्यासुराहसीयाणे जं दव, नतं तु मुत्तूणऽणाहनिहयाई। आडंबर रुदमादी-घरेसु हेहऽट्ठिया बारा॥ श्मशाने यत् दग्धमस्थिजातं तदस्वाध्यायिकं न भवति। तम्मुक्त्वा, शेषाणि यानि न दग्धानि, निखातानि वा, तानिद्वादश वर्षाणि स्वाध्यायं प्रन्ति / तथा-आडम्बरे आडम्बरयक्षायतने, रुद्रे रुद्रायतने मातृगृहेषु आडम्बरादीनामधस्तादस्थीनि सन्ति, तेन कारणेन तत्र द्वादश वर्षाण्यस्वाध्यायः। असिवोडघायणेसुं, बारस अविसोहियम्मिन करेंति। झामिय बूढे कीरइ, आवासियसोहिए चेव॥ यत्र ग्रामे समुत्पन्नेनाऽशिवेन, भूयान् जनः कालगतः,नच निष्काशितः, यदि वा-अवमौदर्येण प्रभूतो जनो मृतो, न च निष्काशितः, अथवाआघातस्थानेषु भूयान् जनो मारयित्या निक्षिप्तो वर्तते / एतेष्वशिवावमौदर्यायतनस्थानेषु पूर्व विशोधनं क्रियते, विशोधने च क्रियमाणे यद् दृष्टं तत्परित्यज्यते। अदृष्टविषये च देवतायाः कायोत्सर्ग कृत्वा पठन्ति / अथन क्रियते विशोधनं, ततस्तस्मिन्नविशोधिते द्वादश वर्षाणि यावत् स्वाध्यायं न कुर्वन्ति।अथतत् अशिवादिस्थानमग्निकायेन ध्यामितं, वर्षोदकेन वा प्लावितं, तदा क्रियते तत्र स्वाध्यायः (आवासियसोहिए चेव त्ति) श्मशानं यदि भूयो जनैरावासितं ततस्तस्मिन्नावासिते शोधनं क्रियते, यद् दृश्यते तत् विविच्यते / एवं शोधिते तस्मिन् अदृष्टाद्युपघाताय देवतायाः कायोत्सर्ग कृत्वा स्वाध्यायं प्रस्थापयन्ति। डहरगाममयम्मी, न करेंति जान नीकासियं होति। पुरगामे च महंते, वाडअसाहिं परिहरंति।। डहरके क्षुल्लके ग्रामे कोऽपि मृतः, तस्मिन् मृते तावत्स्वाध्यायो न क्रियते, यावत् कलेवरं न निष्काशितं भवति। पुरे पत्तने महति वा ग्रामे वाटके साहौ या यदि मृतो भवति, तदा तं वाटकं साहिं वा परिहरन्ति। किमुक्तं भवति? तत्र न कुर्वन्ति स्वाध्यायं यावत्तद्वाटकात् साहीतो वा निष्काशितं भवति, वाटकात् साहीतोऽन्यत्र मृते नाऽस्वाध्यायः। जइ य उवस्सयपुरतो, नीइज्जइ तं महल्लयं ताहे। हत्थसयंतो जावउ, तावउ न करेंति सज्झायं / / यदि तत् कलेवरं मृतकं नीयमानं संयतानामुपाश्रयस्य पुरतो हस्तशताभ्यन्तरेण नीयते, ततो यावत् हस्तशतान्तो हस्तशतं व्यतिक्रम्यते, तावन्न कुर्वन्ति स्वाध्यायम, हस्तशतं व्युत्क्रान्ते पठन्ति। अत्र पर आहकोवी तत्थ भणेज्जा, पुप्फादी जाव तत्थ परिसाडी। जा दीसंती तावउ,न कीरए तत्थ सज्झाओ। कोऽपि तत्र ब्रूयात्- या तत्र मृतके नीयमाने पुष्पादीनाम्, आदि-शब्दाद् जीर्णचीवरखण्डादीनामुपाश्रयस्य पुरतो हस्तशताभ्यन्तरे परिशाटिः, सा यावत् दृश्यते तावत्तत्र न क्रियते स्वाध्यायः। अत्र सूरिराह मण्णइ न य तं तु तर्हि, निजंतो मोत्तु हो असज्झायं। जन्हा पाउप्पयारं, सारीरमतो न वजंति॥ भण्यते- अत्रोत्तरं दीयते-तत्र नीयमानं मृतक मुक्त्वा अन्यत् कानकपुष्पादिकं पतितमस्वाध्यायिकं न भवति, यस्मात् शरीरमस्थाध्यायिक चतुःप्रकारं रुधिरादिभेदतश्चतुर्विधम्। पुष्पादिकं च तद्वयतिरिक्तम्, अतोन स्वाध्यायिकतया तत्र वर्जयन्ति। आत्मसमुत्थं त्वतनसूत्रे व्याख्यास्यते / व्य०७ उ०।'ईद' दिनेऽस्वाध्यायः / यथामहाहिंसावत्वेनाऽऽश्विनचैत्रदिनानि सिद्धान्तवाचनादिषु अस्वाध्यायविनानीति कृत्वा त्यज्यन्ते, तद्वत् 'ईद' दिनमपि, तेन हेतुना कथं म त्यज्यतो ? फेचिध मतिनस्तद्दिनं त्यजन्ति, आत्मनां का मर्यादा ? इति प्रश्ने, उत्तरम्-'ईद' दिनास्वाध्यायविषये वृद्धाऽनाचरणमेव निमित्तमवसीयते। ही०३ प्रका०११ प्र०। जे भिक्खू भसज्झाए सज्झायं करेइ, करंतवासाइजइ / / 15 / / जम्मि जम्मि कारणे सज्झाओ ण कीरति तं सव्वं असज्झाय, तं च बहुविहं वक्खमाणं, तत्थ जो करेइ, तस्स चउलहुं, आणाभंगो, अणवत्था, मिच्छत्तं, आयसंजमविराहणा य / नि०चू०१६उ०॥ (स्वाध्याये एव स्थाध्यायः कर्तव्य इति 'सज्झाय' शब्दे चतुर्थभागे वक्ष्यते) णो कप्पइ णिग्गंथाणं वा णिग्गंथीणं वा अप्पणो असज्झाइए समायं करित्तए, कप्पतिणं अण्णमण्णस्स वायणं दिलिइत्तए। नं कल्पते मिग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां वाऽत्मनः समुत्थेऽस्वाध्यायिके स्वाध्यायं कर्तुं, किन्तु कल्पते परस्परस्य वाचनां दापयितुमन्यत्र / यदि वा प्रक्षालनानन्तरं गाढबन्धे प्रदत्ते तत्रापि स्वयमपि वाघमां पातुं कल्पते इति वाक्यशेषः / एतदेव भाष्यकारः सप्रपञ्चमाहआयसमुत्थमसण्मा-श्यं तु एगविह होइ दुविहं वा। एगविहं समणाणं, दुविहं पुण होइसमणीणं / / आत्मनः शरीरात्समुत्थं संभूतमात्मसमुत्थमस्वाध्यायिकमेकविधमाभवति, द्विविधं वा / तत्र यत् एकविधम्- अर्थो भगन्दरादिविषयम्, तत् श्रमणानां भवति / श्रमणीनां पुनर्भवति द्विविधम्-अर्थो भगन्दरादिसमुत्थम्, ऋतुसंभवं च। तत्र यतनामाहधोयम्मि य निप्पगले, बंधा तिण्णव हॉति उकोसा। परिगलमाणे जयणा, दुविहम्मी होइ कायव्वा / व्रणादौ निप्रगले धौते उपरि क्षारप्रक्षेपपुरस्सरं त्रयो बन्धा उत्कर्षतो भवन्ति। तथाऽपि परिगलति द्विविधे व्रणादावार्त्तवे च यतना वक्ष्यमाणा कर्तव्या / एतदेव सप्रपञ्च भावयतिसमणो उवणे व भगं-दरे व बंधेकओ य वाएति। तह गालंते छारं, छोढुं दो तिण्णि बंधाओ॥. श्रमणो व्रणे वा, भगन्दरे वा परिगलति हस्तशताद् बहिर्गत्वा निप्रगलं प्रक्षाल्य चीवरे क्षारं क्षिप्त्वा उपरि अन्यत् चीवरं कृत्या व्रणं भगन्दरं वा बध्नाति, तत एवमेकं बन्धं कृत्वा वाचयति / यदि तथापि परिगलत्यस्वाध्यायिकं, तत उपरिक्षारं निक्षिप्य Page #1018 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असझाइय 834 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 असज्झाइय द्वितीयं बन्धं ददाति, ततो वाचयति / तथाऽप्यतिष्ठति तृतीयमपि बन्धप्रत्यवतारं दत्त्वा वाचयति। जाहे तिण्णि विभिन्ना, ताहे हत्थसयबाहिरा धोउं। बंधिउ पुणो विवाए, गंतुं अण्णत्थ व पढंति / / यदा त्रयोऽपि बन्धास्तेनाऽस्वाध्यायिकेन विभिन्ना भवन्ति, तदा हस्तशताद् बहिर्गत्वा निप्रगलं प्रक्षाल्य, पुनः क्षारं निक्षिप्योपरि चीवरेण बध्वा पुनरपि वाचयति, अन्यत्र वा गन्तुं पठन्ति। एमेव य समणीणं, वणम्मि इयरम्मि सत्त बंधा उ। तह विय अट्ठयमाणे, धोऊणं अहव अन्नत्थ॥ एवमेव श्रमणीनामपि व्रणविषये यतना कर्त्तव्या भवति।इतरस्मिन्नातवे सप्त बन्धाः पूर्वप्रकारेण भवन्ति / तथापि व्रणे इतरस्मिन् वाऽतिष्ठति हस्तशताबहिः प्रक्षाल्य तथैव बन्धान् दत्त्वा वाचयति, अन्यत्र वा गत्वा पठन्ति। एतेसामन्नयरे, असज्झाए अप्पणो उसज्झायं / जो कुणइ अजयणाए, सो पावइ आणमादीणि // एतेषामनन्तरोदितानामन्यतरस्मिन्नात्मनोऽस्वाध्यायिके सति यः स्वाध्यायं करोति, तत्राप्ययतनया, स प्राप्रोत्याज्ञादीनि तीर्थकराज्ञाभङ्गादीनि दूषणानि, आदिशब्दादनवस्थादिपरिग्रहः / न केवलमिमे दोषाः, किंत्विमेसुयनाणम्मि अभत्ती, लोगविरुद्धं पमत्तछलणाय। विजा साहणवेगुण्णधम्मया एवं मा कुणसु / / अस्वाध्यायिके पठने, श्रुतज्ञानस्याऽभक्तिर्विराधना कृता भव- ति, तद्विराधनायां दर्शनविराधना, चारित्रविराधना च, तद्भावे मोक्षाभावः / तथा- लोकविरुद्धमिदं यदात्मनोऽस्वाध्यायिके पठनम् / तथा हिलौकिका अपि व्रणे आर्तवे च परिगलति परिवेषणं देवतार्चनादिकं वा न कुर्वन्ति। तथा- प्रमत्तीभूतस्य प्रान्तदेवतया छलना स्यात्। तथा- यथा विद्या उपचारमन्तरेण साध्य-साधनवैगुण्यधर्मतयान सिध्यति, तथा श्रुतज्ञानमपि। तस्माद् मैवं कार्षीः / __ अत्र परावकाशमाहचोयइजह एवं सोणियमादीहिं होइ असज्झाओ। तो भरितो चिय देहो, एएसिं किण्हु कायव्वं ?|| परश्चोदयति- यद्येवमुक्तप्रकारेणास्वाध्यायो भवति / तत एतेषां / शोणितादीनां देहो भृत इति, तत्र कथं स्वाध्यायः? अत्र सूरिराहकामं भरितो तेसिं, दंतादी अवजुया तह वि वजा। अणवजुया उ अवज्जा, लोए तह उत्तरे चेव // कामं मन्यामहे एतत्- तेषां शोणितादीनां भृतो देहः, तथापि ये दन्तादयोऽवयुताः पृथग्भूताः, ते वा वर्जनीयाः, ये त्वनवयुताः अपृथग्भूता लोकं उत्तरे च अवा अपरिहर्तव्याः। एतमेव भावयतिअभंतरमललित्तो, कुणती देवाणमच्चणं लोए। बाहिरमललित्तो उण, ण कुणइ अवणेइ व ततो णं // आभ्यन्तरमललितोऽपि देवानामर्चनं लोके करोति, बाहा-मललिप्तः पुनर्न करोति। अपनयति वा मलं ततः शरीरात्। एवम-त्रापि भावनीयम्। आउट्ठियावराह, सन्नहिया न क्खमेइजह पडिमा। इय परलोए दंडो, पमत्तछलणा इह सिया उ॥ उपेत्य कृतमपराधं सन्निहितासन्निहितप्रातिहार्यप्रतिमा यथा न क्षाम्यति, इति एवममुना प्रकारेण श्रुतज्ञानमपि कृतमपराधं न क्षमते।तत्र परलोकेषु गतिप्रपातो दण्डः, इह लोके प्रान्त-देवताछलना स्यात्। रागो दोसो मोहो, असज्झाए जो करेइ सज्झायं / आसायणा व का सा, को वा भणितो अणायारो॥ रागात् दोषात् मोहाद्वायोऽस्वाध्याये स्वाध्यायंकरोति तस्य का कीदृशी फलत आशातना? को वा कीदृशः फलद्वारेण भणितोऽनाचारः? तत्र रागद्वेषमोहान् व्याख्यानयतिगणिसद्दमाइमहितो, रागे दोसम्मिन सहत्ते सदं। सव्वमसज्झायमयं, एमादी होइ मोहे उ॥ गणी आचार्यः,आदिशब्दादुपाध्यायो गणावच्छेदक इत्यादि-परिग्रहः / एवमादिभिः शब्दैर्महित उत्कर्षतो योऽस्वाध्याये स्वाध्यायं करोति, स रागे द्रष्टव्यः। यस्त्वन्यस्य गणिशब्द-मुपाध्यायशब्दं वानसहते, अहमपि पठित्वा गणी उपाध्यायो भविष्यामि इति विचिन्त्य यत्रादरपरोऽस्वाध्यायेऽपि स्वाध्यायं विदधाति, स द्वेषेऽवसातव्यः / यस्तु सर्वमस्वाध्यायमय-मित्येवमादि विचिन्त्यास्वाध्यायं करोति, एष भवति मोह इति। सम्प्रत्याचार्यः फलद्वारेणाऽऽशातनामाहउम्मायं व लभेजा, रोगायंकं व पाउणे दीहं। तित्थयरभासिआओ, भस्सइ सो संजमाओ वा।। इहलोए फलमेयं, परलोए फलं न देंति विजाओ। आसायणा सुयस्स य, कुव्वइ दीहं तु संसारं / / उन्मादंवा लभेत, रोगाऽऽतङ्कं वा दीर्घ प्राप्नुयात्, तीर्थकर-भाषिताद्वा संयमाद् भ्रश्यति, इहलोके विद्या अङ्ग श्रुत-स्कन्धादिलक्षणाः फलं, परलोके च मोक्षलक्षणं नददति न प्रयच्छन्तिान केवलं फलदानाभावः, किंतु श्रुतस्याऽऽशातना दीर्घ संसारं करोति / तदेवं फलत आशातनाऽभिहिता। __ साम्प्रतमनाचारं फलत आहनाणायार विराहिए ,दंसण यारो वि तह चरित्तं च। चरणविराहणयाए, मुक्खाभावो मुणेयव्वो॥ अस्वाध्याये स्वाध्यायं कुर्वता ज्ञानाचारो विराधितः, तद्वि-राधनायां दर्शनाचारश्चारित्रं च विराधितम्। चरणविराधनतायां मोक्षाभावः। अत्रैवापवादमाहबितियागाढे सागा-रियादि कालगय असति वुच्छेए। एएहि कारणेहिं, जयणाए कप्पए काउं / / Page #1019 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असज्झाइय 835 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 असह अस्य व्याख्या प्राग्वत्। व्य०७उधo) जे मिक्खू अप्पणो अस्सज्झाइए सज्झायं करेइ, करंतं वा साइज्जइ।।१६| अप्पणो सरीरे समुत्थे असज्झाइए ति सज्झाओ अप्पणा ण कायव्यो। परस्स पुण ण वायणादायव्या महंतेसु गच्छेसु। अव्वाउलाण णिव्वो-ढयाण व होजं ति सज्झाओ। अरिसाभगंदलासुं, इति वायणसुत्त संबंधो॥१३६|| अव्वाउलत्तणओ समणीण य णिव्वोद्यसंभवो नाम सज्झाओ ण भविस्सति, तेण वायणसुत्ते विही भण्णति / नि०चू०१४उ०। अस्वाध्यायदिनत्रयान्तः कृत उपवास आलोचना तपसि एति, न वा ? इति पण्डितरविसागरगणिकृतप्रश्वस्य हीरविजय- सूरिकृतमुत्तरम्- अस्वाध्यायदिनत्रयान्तःकृत उपवास आलोचना तपसि नायाति। ही०२प्रका० चैत्राश्विनमासचतुर्मासकद्रिक-सत्का अस्वाध्यायाः पञ्चमीचतुर्दशीयामद्वयाऽनन्तरं यल्लगन्ति तद्यामद्वयं तिथिभोगापेक्षया, किंवा औदयिकापेक्षयेति प्रश्ने, चैत्राश्विन-मासयोः पश्चमीतिथेर‘दस्वाध्याया लगन्ति, न तु सूर्योदयात्, एवं चतुर्मासकस्याऽ-स्वाध्यायोऽपि चतुर्दशीतिथेराल्लगतीति वृद्धसंप्रदाय इति (156) तथा तिरश्चोऽस्थि सरसंभवति, तस्यास्वाध्यायिक कियतः प्रहरान् यावद्भवतीति प्रश्ने, तिर्यगस्थि त्रिप्रहराणामुपरि यावत्सरसं तावदस्वाध्यायिक भवतीति ज्ञायते (213) / तथाऽऽश्विनमासाऽस्वाध्यायदिनेषु सिद्धान्तगाथापञ्चकं पठन्ति, तस्य तत्पठनं कल्पते नवेति प्रश्ने, अस्वाध्यायदिनेषु सिद्धान्तसंबन्ध्येकगाथापाठोऽपि न शुद्ध्यतीति (236) / तथा- सूर्यग्रहणं यद्भवति तदस्वाध्यायिकं कुत आरम्भ्य कियद्यावद्भवति ? तथा यौगिकानां कियन्ति प्रवेदनानि न शुद्धयन्तीति प्रश्ने, यतः सूर्यग्रहणं भवति, तत आरभ्याऽहोरात्रं यावदस्वाध्यायिक, तदनुसारेणैकं प्रवेदनमशुद्धं ज्ञायत इति (210) / सेन०३ उल्ला०ा तथाऽऽश्विनाऽस्वाध्यायिकदिनत्रयमुपदेशमालादिन गण्यते, तथा चतुर्मासकत्रयास्वाध्यायिके तद् गण्यते नवेति प्रश्ने, तदस्वाध्यायिके दिनत्रयमुपधानमध्ये, न तथा चतुर्मासकत्रये, तस्माच्चतुर्मासक-त्रयास्वाध्यायिके उपदेशमालादि गण्यते (54) / सेन०४ उल्ला०॥ असज्झाइयणिज्जुत्ति-स्त्री०(अस्वाध्यायिकनियुक्ति) अस्वाध्यायिकप्रतिपादकाऽऽवश्यकान्तर्गतप्रतिक्रमणाध्ययनमध्य- गते भद्रबाहुस्वामिकृते नियुक्तिग्रन्थे, आवा "असझाइअनिचुत्तिं, वुच्छामी धीरपुरिसपन्नत्तं / जंनाऊण सुविहिआ, पवयणसारं उवलहति" ||1|| "असझाइअनिजुत्ती, कहिआ भे धीरपुरिसपन्नत्ता। संजमतवट्ठगाणं, निम्गंथाणं महरिसीणं / / 10 // असझाइअनिजुर्ति, जुत्तं जंताव चरणकरणमाउत्ता। साहू खवंति कम्मं, अणेगभवसंचिअमणतं' / / 11 / / गाथाद्वयं निगदसिद्धम्। आव०४ अ०। असढ-पुं०(अशठ) शठभावरहिते, ओघ०। रागद्वेषरहिते कालिकाचार्यादिवत्प्रमाणस्थे, बृ०३उ०। अभ्रान्ते, द्वा०रद्वा० अमाया-विनि, जीत०। सरलात्मनि, जीत०। आ०म० पराऽवञ्चके, ध० १अधि०। ध०र०। अनुष्ठानं प्रति अनालस्यवति, दर्श०। इन्द्रियविषयनिग्रहकारिणि, नि०चू०१०उ०। सप्तमगुणवत्साधौ, शठो हि वञ्चनप्रपञ्चचतुरतया सर्वस्याप्यविश्वसनीयो भवति। प्रव०२३६ द्वार। साम्प्रतमशठ इति सप्तमं स्पष्टयन्नाहअसढो परं न वंचइ, वीससणिज्जो पसंसणिज्जोय। उजमइ भावसारं, उचिओ धम्मस्स तेणेसो // 14 // शठो मायावी, तद्विपरीतोऽशठः परमन्यं न वञ्चति नाभिसंधत्तेऽत एष विश्वसनीयः, प्रत्ययस्थानं भवति / इतरः पुनः पुनः वञ्चयन्नपि न विश्वासकारणम् / यदुक्तम्- "मायाशीलः पुरुषो, यद्यपि न करोति किंचिदपराधम् / सर्प इवाऽविश्वास्यो, भवति तथाऽप्यात्मदोषहतः" ||1|| तथा-प्रशंसनीयः श्लाघनीयश्च स्यात, अशठ इति प्रक्रमः / यदवाचि- "यथा चित्तं तथा वाचो, यथा वाचस्तथा क्रियाः। धन्यास्ते त्रितये येषां, विसंवादोन विद्यते" ||1|| तथोद्यच्छति प्रवर्तते, धर्मानुष्ठाने इति शेषः / भावसारं सद्भावसुन्दरं स्वचित्तरञ्जनानुगतं, न पुनः पररञ्जनायेति, दुष्प्रापं च स्वचित्तरञ्जनम् / तथाचोक्तम्- "भूयांसो भूरिलोकस्य चमत्कार-करा नराः। रञ्जयन्ति स्वचित्तं ये, भूतले तेऽथ पञ्चषाः" ||1|| तथा- "कृत्रिमैडम्बरश्चित्रैः, शक्यस्तोषयितुं परः। आत्मा तु वास्तवैरेव, हंतकः परितुष्यति' / / 1 / / इति / उचितो योग्यो, धर्मस्य पूर्वव्यावर्णितस्वरूपस्य, तेन कारणेनैषोऽशठः, सार्थवाह-पुत्रचक्रदेववत्। चक्रदेवचरितं त्वेवम्अस्थि विदेहे चंपाऽऽवासपुरंपउरपउरपरिकलियं। तत्थाऽऽसि सत्थवाहो, अइरुद्दो रुदेवु त्ति // 1 // तस्स य भज्जा सोमा, सहावसोमा कयाइ गिहिधम्म। सा पडिवाइ गणिणीए बालचंदाए पासम्मि||२|| तं किंचि विसयविमुह, दलृपउट्ठो भणेइसे भत्ता। मुंच पिए ! धम्ममिम, भोगिं पि व भोगविग्धकरं / / 3 / / सा साहइ भोगेहिं, रोगेहि व मह कयं इमो आह / किं चइउंदिट्ठमदिट्ठकप्पणं कुणसितं मूढ ! ||4|| सा भणइ इमे विसया, पसुगणसाहारणा वि पचक्खा। आणिस्सरियाइफलो, विकिं नधम्मो समक्खो ते॥५॥ उत्तरदाणअसत्तो, विलक्खचित्तो अइव स विरत्तो। आलवणाइविरतो, तीए समं वयइ सव्वत्तो // 6 // अन्नं मग्गह कन्नं, सोमा अस्थि त्ति लहइन यतोसो। तम्मारणहेउमहिं, ठवइ मिहंतो घडे खिविउं / / 7 / / भणइ पिए ! अमुगघडाओ दाममाणेसुसा वि सरलमणा। जा खिवइ कर कुंभे, ता डक्का कसिणभुयगेण ||8|| डका अहं ति पइणो, सा साहइ सो वि गाढसढयाए। गारुडिया गारुडिया, इचाइ करेइ हलबोल // 6 // सिग्घं से उल्लडियं, चिउरेहिं निवडियं च दसणेहिं। विसभीएहि व पाणेहि दूरदूरेण ओसरियं // 10 // अचइय सोमा सोहम्म-कप्पलीलावयंससुविमाणे। पलिओवमट्टिईया, सोमा सुरसुंदरी जाया।।११।। रुद्दो सरुद्ददेवो, नागसिरिंनागदत्तसिद्विसुयं। परिणीय नीइबाहाइ भुंजिउं पंचविहविसए॥१२॥ रुद्दज्झाणोवगओ, नरयावासम्मि पढमपुढवीए। खाडक्खडाभिहाणे, पलियाऊ नारओ जाओ||१३|| अह सो सोमाजीवो, चविउंसोहम्मओ विदेहम्मि। Page #1020 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असह 836 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 असह सेलम्मि सुंसुमारे, जाओ दंती धवलकंती // 14 // इयरो वितओव्वट्टिय, जाओ कीरो तहिं चिय गिरिम्मि। कीरीए सह रमतो, नरभासाभासिरो भमइ / / 15 / / कइया वितं गइंद, करेणुयानियरपरिगयं दटुं। पुव्वभवन्भासाओ, बहुलीबहुलो विचिंतेइ।।१६।। विसयसुहाउ इमाओ, किह णु मए वंचियव्वओएस। एवं उवायचिंतण- पवणो पत्तो सए नीडे॥१७|| ता तत्थ चंदलेहा- भिहाणखयरिं हरितु संपत्तो। लीलारइ इति खयरो, भयभीओ भणइ तं कीरं / / 18 / / भो ! इत्थ गिरिनिउंजे, चिट्ठामेगो इहागभी खयरो। न हु से कहियव्योऽहं, गओऽयमसो कहेयव्वो॥१६॥ तो कीर ! खीरमहुमहुर- वयण ! मह एवमुवकयं तुमए। तुज्झ वि अहं अवस्सं, करिस्समणुरूवमुवयारं॥२०॥ अह आगओ सखयरो, अदट्ठलीलारइं पडिनियत्तो। कहियं सुएण एयं, इमस्स सो हरिसिओ हियए।।२१।। इत्थंतरम्मि तत्था-गयं गयंतं जहिच्छिया भभिरं। पासित्तु चिंतइ सुओ, अहह अहो ! सुंदरोऽवसरो।।२२।। तो निवडिनियडिनडिओ, ठाउं करिसंनिहिम्मि भणइ पियं। भणियं वसिट्ठरिसिणा, कामियतित्थं इमं खित्तं // 23 // जो इत्थ भिगुनिवायं, करेइ सो लहइ कामियं खु फलं। इय भणिय पियाए समं तहिं वि पत्तो निलुक्को य॥२४|| तव्वयणपेरिओ पुण, लीलारइखेयरो पियासहिओ। चलउचवलकुंडलधरो, उप्पइओ गयणमग्गम्मि।।२।। तं दट्टु चिंतइ करी, कामियतित्थं इमं खुजं इहयं / खेयरमिहुणं जायं, पडियं किर कीरमिहुणं पि॥२६|| तो किं इमिणा तिरियत्तणेण मज्झं ति चिंतिय नगाओ। झंपावइ सो तहियं, अहुड्डियं कीरमिहुणं तं // 27 // संचुन्नियंगुवंगो, हत्थी गलहत्थिओ वि वियणाए। फुरिय सुहज्झवसाओ, जाओ वंतरसुरो पवरो॥२८।। अइसयकिलिट्ठचित्तो, विसयपसत्तो सुओ वि संपत्तो। रयणाइलोहियक्खे, नरए अइतिक्खदुहलक्खे // 26 // इतश्चअस्थि विदेहे सिरिचक्कवालनयरम्मि सत्थवाहवरो। अप्पडिहयचक्काक्खो,सुमंगला पणइणी तस्स // 30 // अह सो करिंदजीवो, चविऊणं ताण नंदणो जाओ। नामेण चक्कदेवो, सया वि गुरुजणविहियसेवो॥३१॥ उव्वट्टिय इयरो विहु, जाओ तत्थेव जन्नदेवु त्ति। सोमपुरोहियपुत्तो, दुवे वि तरुणत्तमणुपत्ता // 32 // सब्भावकइयवेहिं, जाया मित्तीइ तेसिमन्नोन्नं / पुव्वकयकम्मदोसा, कया वि चिंतइ पुरोहियसुओ॥३३॥ कह एस चक्कदेवो, इमाउ अतुच्छलच्छिवित्थरओ। पाविहिइ फुड भंसं, हुनायं अत्थि इह उवाओ॥३४।। चंदणसत्थाहगिह, मुसिउंदविणं खिवित्तु एयगिहे, कहिउं निवस्स पुरओ, भंसिस्सं संपयाउ इमं / / 35 / / काउंतहेव सभणइ, वयंस ! गोवेसु मज्झदविणमिणं। नियगेहे सो वितओ, एवं चिय कुणइ सरलमणो॥३६॥ वत्ता पुरे पवत्ता, मुटुं चंदणगिह तितो पुट्ठो। सत्थाहसुएणेसो, दंविणमिणं कस्स भो मित्त !? ||37|| सो आह मज्झ दव्यं, तायभया गोविय तुह गिहम्मि। आसंकान मणागवि, कायव्वा चकदेव ! तए॥३८|| इत्तो य चंदणेणं, अमुगं अमुगंच मह गयं दव्यं / कहियं निवस्स तेणं, नयरे घोसावियं एवं // 36 / / चंदणगिहं पमुटुं, जेणं केण वि कहेउ सो मज्झ। इण्हिं न तस्स दंडो, पच्छा सारीरिओ दंडो॥४०॥ अह दिणपणगम्मि गए, पुरोहियपुत्तो निवं भणइ देव ! | जइ विन जुजइ नियमित्तदोसफुडवियडणं काउं॥४१।। परमइविरुद्धमेयं, इति धारिउं पारिमो न हिययम्मि। चंदणधणं अवस्सं, अस्थि गिहे चक्कदेवस्स॥४२॥ (राजा) नणु सो गरिद्वपुरिसो, रायविरुद्धं इमं कह करिज ? / (यज्ञदेवः) गरुया वि लोहमोहियमइणो चिट्ठति बाल व्व // 43 // (राजा) सो संतोससुहारस- पाणप्पवणो सुणिज्जए सययं / (यज्ञदेवः)अवि तरुणो दविणमिणं, पाविय पाएहि पसरंति॥४४॥ (राजा) नणु सो महाकुलीणो, (यज्ञदेवः) को दोसो इह कुलस्स विमलस्स?। अइबहलपरिमलेसु वि, कुसुमेसु न हुँति किं किमओ ? // 45 // (राजा) जइएवं ता किज्जउ, समंतओ गेहसोहणं तस्स। (यज्ञदेवः) एवं किं देवस्स वि, पुरओजंपिज्जएमए अलिय।।४६।। तो निवइणा तलारो, चंदणभंडारिएण सह भणिओ। भो! चक्कदेवगेहे, नट्ठदव्वं गवेसेहि॥४७|| सो चिंतइ नरवइणा, अहह ! असंभावणिज्जमाइटुं। किं कइया पाविज्जइ, रविबिंवे तिमिरपब्भारो ?||48|| अहवा पहुणो आणं, करेमि पत्तो तओ गिहे तस्स। पभणइ चंदणदव्वं, नटुंजाणेसि भो भद्द!॥४६॥ (चक्रदेवः) नहु नहु मुणेमि किंचि वि, (तलवरः) तो भो ! तुमएन कुप्पियव्वं मे। जं रायसासणेणं, तुह गेहं किंपि जोइस्सं / / 5 / / (चक्रदेवः) कोवस्स कोणुसमओ, सया पयापालणत्थमेव जओ। नयकुलहरस्सदेव-स्स एस सयलो वि संरंभो // 51 / / तो तलवरो गिहतो, पविसिय जा निउणयं निहालेइ। ता कंचणवासणयं, चंदणनामंकियं लद्धं // 52 // तो भणइ सदुक्खमिमो, कुओतए चक्कदेव ! पत्तमिणं / किह मित्तत्थवणीयं, पयडेमि नियं ति सो भणइ॥५३॥ तलवरःकह चंदणनामंकं, (चक्र०) नामविवजासओ कह विजायं। तलवरःजइ एवं ता कित्तिय-मित्तं इह वासणे कणगं // 54|| चक्रदेवःचिर गोवियं तिन तहा, सुमरेमि अहं सयंचिय निएह। तलवरःभंडारिय! किंसंखं, धणमिह सो आह अजुयमियं // 55 / / तो छोडाविय नउलं, नियंति सव्वं तहेव तं मिलियं। भणइ पुणो रक्खिपहू, भो भद्द ! फुडक्खरं कहसु // 56 / / अह वीसत्थं सहयं, सुकीलियं कीलियं पचितम्मी। मित्तं दूसेमि कहं, तो चक्कदेवो पुणाह नियं / / 57 / / तलवरःकित्तियमित्तं परसं-तिय धणं तुह गिहम्मि चिट्ठइ। चक्रदेवःनिययं पि अस्थि बहुयं, पजत्तं मम परधणेणं / / 58|| तो तलवरेण सव्वं, गिहं नियंतेण तं धणं पत्तं / Page #1021 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असढ 837- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 असह कुविएण चक्कदेवो, हढेण नीओ निवसमीवे // 56 // रना भणियं नणु जइ, अप्पडिहयचक्कसत्थवाहसुए। न हसंभवइइमंतो, कहेसुको इत्थ परमत्थो ?|60|| परदोसकहणविमुहो, न किंचि जा जंपइ एमो ताहे। बहुयं विडंबिऊणं, निव्विसओ कारिओ रन्ना // 61 / / अह सो विसायविहुरो, गुरुपरिभवदवज्झलंक्कियसरीरो। चिंतइ किं मम संपइ, पणट्ठमाणस्स जीएण?॥६२।। "वरं प्राणपरित्यागो, मा मानपरिखण्डना। प्राणत्यागे क्षण दुःखं, मानभने दिने दिने"।६३।। इय चिंतिय पुरबाहि, वडविडविणि जाव बंधए अप्पं / ता तगुणगणरंजिय-हियया पुरदेवया झत्ति // 64 // ठाउं निवजणणिमुहे, निवपुरओतं कहेइ वुत्तत्तं। उब्बंधणपेरंतं, तो दुहिओ चिंतए राया / / 6 / / "उपकारिणि विश्वास्ये, आर्यजने यः समाचरति पापम्। तंजनमसत्यसंधं,भगवति वसुधे! कथं वहसि ?" // 66 // इय परिभाविय रन्ना, पुरोहियपुत्तं धराविउं तुरियं / तत्थ गएणं, दिट्ठो, सत्थाहसुओ तह कुणंतो॥६७।। छिदित्तु झत्ति पासं, सो गयमारोविऊण हिटेण। महया वि वित्थडेणं, पवेसिओ नयरमज्झम्मि॥६८|| भणिओय भो महायस!, तुज्झ कुलीणस्स जुत्तमेव इम। तह पुच्छिरस्स वि मम, जपरदोसोन ते कहिओ।।६६।। किंतु तुह जमवरद्धं, अन्नाणपमायओ इहऽम्हेहिं। तं खंमियव्वं सव्वं, खमापहाणाखु सप्पुरिसा / / 7 / / इत्थंतरे भडेहिं, बंधिय तत्थाऽऽणिओ पुरोहियसुओ। रोसारुणनयणेणं, रन्ना वज्झो समाणत्तो / / 71 / / तो भणइ चक्कदेवो, वच्छलहियएण पगइसरलेण। महमित्तेण इमेणं, किं नाम विरुद्धमायरियं ? ||72 / / पुरदेवयाए कहियं, कहइ निवो दुट्ठचिट्ठियं तस्स। मन्नभरभरियचित्तो, तो चिंतइ सत्थवइपुत्तो।।७३|| अमयरसाउ विसंपिव, ससहरबिंबाउ अग्गिवट्टिव्च। एरिसमित्ताउ इम, किमसममसमंजसं जायं? ||74 / / एवं सो परिभाविय, गाढं निवडित्तु निवइचलणेसु। मोयावइ नियमित्तं, तो हिट्ठो भणइ नरनाहो // 75|| "उपकारिणि वीतमत्सरे वा, सदयत्वं यदि तत्र कोऽतिरेकः? / अहिते सहसाऽपराधलब्धे, सघृणं यस्य मनः सतां सधुर्यः / / 76|| अह सत्थवाहपुत्तो, सयवत्तसुपत्तनिम्मलचरित्तो। भडचडगपरीयरिओ, नियगेहे पेसिओ रन्ना / / 77 // तेणावि जन्नदेवो, आलविओ पणयसारवयणेहिं। सक्कारिय संमाणिय, पट्टविओ निययभवणम्मि॥७॥ जाओ जणप्पवाओ, धन्नो एसेव सत्थवाहसुओ। अवयारपरे वि नरे, इय जस्स मई परिप्फुरइ // 76 / / वेरग्गमग्गलग्गो, कयावि सिरिअग्गिभूइगुरुपासे। गिण्हेइ चकदेवो, दिक्खं दुहकक्खदहणसमं।।८।। बहुकालं परिपालियं, सामन्नं सो अणन्नसामन्नं। जाओ अजिंभवभो, नवअयराऊ सुरो बंभो // 81 // तत्तो चविय विदेहे, अरिअजिए मंगलावईविजए। बहुरयणे रयणउरे, सत्थप्पहरयणसारस्स।।८२|| सिरिमइपियाए जाओ, चंदणसारु त्ति नंदणो तस्स। कंता य चंदकंता, दुवे वि जिणधम्मपरिकलिया // 83|| मरिउंस जन्नदेवो, विदुचपुढवीए नारओ जाओ। पुण आहेडयसुणओ, मरिउं तत्थेव उववन्नो।।८४|| तत्तो भमिय बहुभवं, जाओ सो रयणसारदासिसुओ। अहणगनामा पीई,पुव्वुत्ता तेसि संजाया ||85 / / अन्नदिणे रयणउरं, दिसि जत्ताण गयम्मि निवइम्मि। सवरवइ विज्झकेऊ, भंजिय गिण्हइ बहुं वंदं॥८६॥ हरिया य चंदकंता, सेसजणो को वि कत्थ विय नट्ठो। आवासिओ य वलिउं, सवरवई जिन्नकूवतडे // 87 // वोलीणे सयलदिणे, निसावसेसे पयाणकालम्मि। अइरहसवसपुरक्खड-नियनियकिच्चेसु भिच्चेसु॥८॥ उत्तालकाहलातरलबहलरवपसरभरियनहविवरे / अग्गाणीयम्मि वहतयम्मिदीणेय बंदिजणे | सा चंदणपाणपिया, सलीलनियसीलखंडणभएण। पंचनमुक्कारपरा, झंपावइ तम्मि कूवम्मि||१०|| भवियव्वयानिओगा, पडिया नीरम्मि जीविया तेण। पडिकूवयम्मि ठाउं,गमेइ सा वासरे कइ वि।।६१|| इत्तो य गया धाडित्ति चंदणो नियपुरे समणुपत्तो। दइया हड त्ति नाउं, जाओ अइविरहदुहदुहिओ // 62|| तो तीए मोयणत्थं, संबलयं दविणनउलयं गहियं। अहणगबीओ चलिओ, वारेण वहति तं भारं ||3|| पत्ता कमेण तं जिन्नकूवदेसं तया पुणो अत्थि। धणजायं पासे दासयस्स इयरस्स पाहेयं / / 64|| तो पुव्वभवज्झासा, दासो चिंतेइ सुन्न-रन्नमिणं / अत्थमिओ गगणमणी, ओल्लसिओ गरुयतिमिरभरो // 65 // ता इत्थ कूवकुहरे, खिविऊणं सत्थवाहसुहमेयं / धणजाएण इमेणं, भवामि भोगाण आभागी।।६६|| तो भणइ निविडनियडी, भिसं तिसा बाहए ममं सामि!। सोऽवि सहावसरलो,जा कूवे नियइ तत्थ जलं // 67|| ता तेण पावभारपिल्लिएण स पिल्लिओ अवडे। तत्तो विपएसाओ, पाविट्ठो अहणगो णट्ठो 68|| अह चंदणो जलंतो, सिरठियपाहेयपुट्टलो पडिओ। पडिकूवे लहु लग्गो, यचंदकंता कह वि छित्ता ||6| भयविहला भणइ नमो, अरिहंताणं तितं सरेण फुडं। उवलक्खिय आह इमो, जिनधम्माणं अभयमभयं / / 100 / / तं सुणिय मुणिय दइयं, सरेण रोएइ तारतारमिमा। तो अन्नुन्नं सुहदुह-वत्ताहि गर्मति तं रयणिं // 101 / / उइए सहस्सकिरणे, तं पाहेयं दुवे विभुंजंति। कइवयदिणेसु एवं, पक्खीणं संबलं सव्वं / / 102 / / अह चंदणो पयंवइ, दइए! एयाउ वियडअवडाओ। गंभीराउ भवाउ य, उत्तारो दुत्तरो नूणं / / 103 // तम्हा कुणिमोऽणसणं, मा मणुयभवं निरत्थयं नेमो। इय जा कहेइ ता से, दाहिणनयणेण विप्फुरियं / / 104 // इयरीए वामेणं, सो आह पिएइ अंगफुरणेहि। एस किलेसोन चिरं, होही अम्हं तितक्केमि // 105 / / इत्थंतरम्मि पत्तो, सत्थवई नंदिवद्धणो तत्थ। रयणउरनयरगामी, उदयत्थं पेसए पुरिसे।।१०६।। ते जा नियंति, कूवं ता चंदणचंदकंतमभिदर्छ। साहित्तु सत्थवइणो, कढति य मंचियाए लहुँ।।१०७|| पुट्ठोय सत्थवइणा, वुत्तंतं कहइ चंदणो सव्वं / संचलिओ नियनयरा-भिमुहं वूढो य दिणपणगं॥१०८|| Page #1022 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असढ 838 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 असढकरण दिवो तेण निवपहे,छट्ठदिणे हरिविदारिओ पुरिसो। हा मित्त ! मित्तवच्छल!,छलदसणरहिय! रहियनयमज्झो। नाउं धणोवलंभा, ह हा ! वराओ अहणगु त्ति / / 106|| इय बहविहं पलिविउं, मयकिच कुणइ सो तस्स / / 137|| तं दव्वं गहिऊणं,पकामसुविसुज्झमाणपरिणामो। जललवतरले जीए, विजुलयाचंचलम्मि तरुणत्ते। रयणउरे संपत्तो, पत्ते सुनिउंजिउंदव्वं / / 110 // को नाम गेहवासे, पडिबंधं कुणइ सविवेओ॥१३८|| गिण्हित विजयवद्धण- सूरिसमीवेऽणवजपव्वज्जं / इय चिंतिऊण सम्मत्तदाइगुरुपासपत्तसामन्नो। जाओ य सुक्ककप्पे, सोलसअयरहिई अमरो।।१११॥ उववन्नो गेविज्जे, सो तइए भासुरो अमरो॥१३६।। तो चविउं इह भरहे, रहवीरपुराभिहाणनयरम्मि। अत्थिह विदेहवासे, वासवदेह व सज्जवजहरं। गेहवइनदिवद्धण- सुंदरिपुर्ता इ सो जाओ।।११२|| अंबयसहस्सकलियं, चंपावासं ति वरनयरं।।१४०।। नामेणऽणंगदेवो, अणंगदेवुव्व बहलरूवेण। तत्थाऽऽसि माणिभद्दो, भद्दोवज्जणमणो सया सिट्टी। सिरिदेवसेणगुरुणो, पासे पडिवन्नगिहिधम्मो // 113 / / जिणधम्मरम्मकामा, तस्स पिया हरिमई नामा // 141 / / अह अहणगो विहरिणा, हणिओ सेलाइनारओ जाओ। सो वीरदेवजीवो, तत्तो गेविजगाउ चविऊण / सीहो भविय तहिं चिय, पुणो विपत्तो असुहचित्तो।।११४|| नामेण पुन्नभद्दो, ताणं पुत्तो समुप्पन्नो॥१४२॥ तो हिंडिय भूरिभवे, तत्थेवय सोमसत्थवाहस्स। तेणंच पढणसमए,घोस पढममवि उच्चरंतेणं। नंदिमइभारियाए, जाओ धणदेवनामसुओ॥११५|| अमरु त्ति समुल्लवियं, वुच्चइ अमरो वि तेणेसो।।१४३।। असढसढमाणसाणं,तेसिंपीई परुप्परं जाया। दोणो विमओ धूमाए बार अयराउ नारओ जाओ। तेदविणज्जणमणसो, कया वि पत्ता रयणदीवे / / 116|| मच्छो सयंभूरमणे, भविउं तत्थेव उववन्नो // 144|| कइवयदिणेहि वलिया, सपुराभिमुहं विढत्तबहुवित्ता। भमिय भवे तत्थ पुरे, नंदावत्तभिहसिट्ठिदइयाए। अह धणदेवो जाओ, नियमित्तपवंचणप्पवणो।।११७।। सिरिनंदाए धूया, संजाया नंदयंति त्ति / / 145 // कम्मि विगामे हट्टे, कराविया मोयगा दुवे तेणं। भवियव्वयावसेणं, परिणीया सा उपुन्नभद्देण। इक्कम्मि विसं खित्तं, एवं मित्तस्स दाहं ति॥११८|| सा पुव्वकम्मवसओ, जाया पइवंचणिक्कमणा / / 146 / / आउलमणस्स जाओ, मग्गे इंतस्स तस्स वचासो। से परियणेण कहियं, वद्धुत्तरकूडकवडनियडिकुडी। सुद्धो सहिणो दिन्नो, सयं तु विसमोयगो भुत्तो॥११६।। अइविसमविसविसप्पिर-गुरुवेयणपसरपरिगओझत्ति / सामिय! पिया तुहेसा, न य सद्दहियं पुणो तेणं / / 147|| धणदेवो परिचत्तो, धम्मेण व जीविएणावि।।१२०|| कइया वि सव्वसारं, कुंडलजुयलं सर्य अवहरित्ता। आउलहियय व्व इमा, साहइपइणो पणट्ठति।।१४८|| बहु सोइऊण तस्सय, मयकिच्चं काउणंगदेवो वि। तेण वि नेहवसेणं, घडाविउं नवयमप्पियं तं से। पत्तो, कमेण सपुरे, तन्नियगाणं कहइ सव्वं // 121 / / तेसिंपभूयदव्यं, दाउं पुच्छित्तु पियरपमुहजणं। इय हरियमन्नमन्नं, तीए दिन्नं पुण इमेण // 146 / / पहाणावसरे, कइया, मुद्दारयणं समप्पियं तीसे। सो पुव्वगुरुसमीवे, गिण्हइ वयमुभयलोयहियं / / 122 / / दुक्करतवचरणपरो, परोवयारिकमाणसो मरिउं। संझाए मग्गियं पुण, सा आह कहिं वि नणु पडियं // 150 / / गुणवीससागराऊ, पाणयकप्पे सुरो जाओ।।१२३॥ तत्तो अइसंभंतो, निउणं एसो निहालइ गिहंतो। कालेण तओ विचओ, जंबुद्दीवम्मि एरवयवासे। भजाभरणसमुग्गे, नटुंदव्वं नियइ सव्यं / / 151 / / गयपुरनयरे हरिनंदिसेट्ठिणों परमसङ्कस्स।।१२४॥ किं कुडलाइदव्वं,गयं पिलद्धं इमीएन गयं वा। लच्छिमइपणइणीए, जाओ पुत्तो य वीरदेवु त्ति। करकलियदविणजाओ, एसो चिंतेइ सवियकं // 152|| सिरिमाणभंगसुहगुरु-समीवकयगिहिवउच्चारो। 125|| इत्तो य सा तहिं चिय, पत्ता इयरो य झत्ति नीहरिओ। धणदेवो विहुतइया, उक्कडविसवेगपत्तपंचत्तो। झाएइ नंदयंती, धुवमिमिणा जाणिया अहयं / / 153 / / नवसागरोवमाऊ, उववन्नो पंकपुढवीए॥१२६।। जा सयणाण वि मज्झे, नो उप्पाएइ लाघवं मज्झं। पुणरवि भविय भुयंगो, दारुणवणदावदड्डसव्वंगो। सज्जो संजोइयकम्मणेण मारेमि ताव इमं / / 154|| जाओ तहिं चि किंचूणअयरदसगाउ नेरइओ॥१२७|| काउंतयं सयंचिय, अणेगमरणावहेहि दव्वेहि। तिरिएसु भमिय सो तत्थ गयपुरे इदंनागसिट्ठिस्स। तमिसम्मि संठवंती, डक्का दट्टेण सप्पेण||१५५|| नंदिमईभज्जाइ, दोणगनामा सुओ जाओ / / 128|| पडिया धस त्ति धरणिं,जाओ हाहारवो अइमहंतो। पुव्वुत्तपीइजोगा, इगहट्टे ववहरति ते दोवि। तत्थागओपई से, आया पवरगारुडिया॥१५६|| वित्त बहुं विढत्तं, तो चिंतइ दोणगो पावो // 126 / / सव्वेसि नियंताण वि,खणेण निहणं गया गया पावा। कह एसो असहरो, हणियव्वो हुं कराविउंइण्हि। छट्ठीए पुढवीए, पुरओ भमिही अणंतभवं // 157 / / नवधवलहरं उच्चत्तणेण नहमणुलिहंतं व // 130|| तं दठ्ठ पुन्नभद्दो, सोयजुओ तीइ काउमयकिचं / तत्थुवरि भुवि अओमय-कीलगजालानियंतियगवक्खं / वेरग्गभावियमणो, जाओ समणो विजियकरणो॥१५८|| भोयणकए निमंतित्तु वीरदेवं कुडुंबजुयं॥१३१॥ सुक्कज्झाणानलद सयलकम्मिंधणो धुणियपावो। तो से दंसिस्समिम, रमणीयत्ता सयं स आरुहिही। सो भयवं संपत्तो, लोयग्गसुसंठियणं / / 156 / / खडहडिऊण निवडिही, पाणेहि वि झत्ति मुचिहिही॥१३२।। निरुनिव्वेयनिमित्तं, पकित्तिया पुरिमपच्छिमिल्लभवा / अह निव्विवायमेसो, विहवभरो मज्झ चेव किर होही। इहयं असढगुणम्मी, पगयं पुण चक्कदेवेण॥१६०॥ नय कोइ जणविवाओ, इय चिंतिय कारइ तहेव / / 133 // इतिफलमतिरम्यं चक्रदेवस्य सम्यक्, जा भुत्तत्तरमेए, वे विधवलहरसिहरमारूढा। प्रतिभवमपि श्राव्यं भावभाजो निशम्य। सइमइरहिओ दोणो, अणप्पसंकप्पभरियमणो // 134 // भक्त भविकलोकाः स्पष्टसंतोषपोषाः, भो मित्त ! एहि इहयं, निजूहे विससु जंपिरो तत्थ। कथमपि हि परेषां वञ्चनाचञ्चवो मा / / 161|| सयमारूढो इक्को, पडिओ मुक्को य पाणेहिं / / 135 / // इति चक्रदेवचरितं समाप्तम्।। हाहारवमुहलमुहो, तुरियं उत्तरिय वीरदेवो वि। असढकरण-पुं०(अशठकरण)मायामदविप्रयुक्ता भूत्वा यथोक्त जा नियइ ता पदिट्ठो, मित्तो पंचत्तमणुपत्तो // 136 / / विहितानुष्ठानकारके, बृ०६उ०। "असढकरर्णा नाम सव्वत्था-दानतो Page #1023 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असढकरण 839 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 असण्णि (ण) अप्पाणं मायाए ठाति असढो होऊणं कसिणं करेति' (नशठो यस्मादिति | पाडिहारिअपीढफलगसिजा-संथारएणं ओसहभेसजेण य भयवं ! विग्रहाभिप्रायेण) नि०चू०२०७०। अणुग्गहो कायव्वो त्ति' पाठपूर्वं भक्त्या कार्यम् / एतच्चोपलक्षणं असढभाव-पुं०(अशठभाव)अमायाविनि,व्य०४उ०।शुद्धचित्ते, आव०६ शेषकृत्य प्रश्नस्यापि। यतो दिनकृत्ये-पचक्खाणं च काऊणं, पुच्छए अ०। स्ववीर्य प्रति मान्द्यं कुर्वाणे, नि०चू०२० उ०। सेसकिययं / कायव्वं मणसा काउं, ओअणं च करे इमं ति। 'पुच्छए' असण-न०(अशन) अश भोजने,ल्युट्। भोजने, नि०चू०११३०ा स्थान इत्यादिना पृच्छति साधुधर्मनिर्वाह-शरीर-निराबाधवाधिशेषकृत्यम्। सूत्र०। अश्यते इत्यशनम्। अश भोजने इत्यस्मात् ल्युट्। ध०२अधिका यथा-निर्वहति युष्माकं संयमयात्रा, सुखं रात्रिर्गता भवतां, निराबाधाः एवं लोके, लोकोत्तरिके तु आशु क्षुधां शमयति इति 'खीरलयादि शरीरेण यूयं, न बाधते वः कश्चिद्व्याधिः, न प्रयोजनं किञ्चिदौषधादिना, फलाणि या"। आ०चू०६अ। ओदनादिभक्ते, प्रव०४ द्वार / दश। नाऽर्थः कश्चित् पथ्यादिनेत्यादि? एवं प्रश्नश्च महानिर्जराहेतुः। यदुक्तम्आचा० आव० उत्ता दर्शा 'अभिगमणवंदणनमंसणेणं पडिपुच्छ-णेण साहूणं। चिरसंचिअंपिकम्म, / तत्र अशनमाह खणेण विरलत्तणमुवेइ / / 1 // प्राग्वन्दनावसरे च सामान्यतः 'सुहराई सुहतप सरीरनिराबाध' इत्यादिप्रश्नकरणेऽपि, विशेषेणाऽत्र प्रश्नः असणं ओअणसत्तुग-मुग्गजगाराइ खजगविही य। सम्यास्वरूपपरिज्ञा-नार्थः, तदुपायकरणार्थश्चेति प्रश्नपूर्व निमन्त्रणं खीराइ सूरणाई, मंडगपभिई उ विन्नेयं / युक्तिमदेवेति / संप्रति त्विति निमन्त्रणं गुरूणां बृहद्वन्दनदानानन्तरं आदिशब्दः स्वगतानेकभेदसूचकः सर्वत्र संबध्यते। तत ओदनादि, श्राद्धाः कुर्वन्ति, ये च प्रतिक्रमणं गुरुभिः सह कृतं, ससूर्योदयादनु यदा सक्त्वादि, मुद्गादि, जगार्यादि, जगारीशब्देन समयभाषया ''रब्बा" स्वगृहादायाति, तदा तत्करोति, येन च प्रतिक्रमणं बृहद्वन्दनकं भण्यते। तथा खजकविधिश्च-खाद्यक -मण्डिका-मोदक-सुकुमारिका चेत्युभयमपिन कृतं, तेनापि वन्दनाद्यवसरे एवं निमन्त्रणं क्रियते, ततश्च घृतपूर-लपनश्री-स्वर्यच्युता-प्रभृतिपक्वान्नविधिः / तथा- क्षीरादि, यथाविधि तत्कालमिति / एष बहिर्दृष्टस्य विधिः / कारणविशेषे तु आदिशब्दाद् दधि-घृत-तक्र-तीमन-रसालादिपरिग्रहः। तथा-सूरणादि, तत्प्रतिश्रयेऽपि गम्यते, तत्राऽप्येष एव विधिः, अग्रेतनोऽपि च। आदि- शब्दाद् आर्द्रकादि-सकलवनस्पतिविकारव्यञ्जनपरिग्रहः / कारणान्याहमण्डक-प्रभृति चमण्डकाः प्रभृतिर्यस्य ठोठिका-कुल्लरिका-चूरीयका परिआय-परिस-पुरिसं,खेत्तं कालंच आगमं नया। इदुरिका-प्रमुखवस्तु-जातस्य तन्मण्डकप्रभृति, विज्ञेयं ज्ञातव्यमशनम्। प्रव०४ द्वार।"असणाणि य चउसट्ठी''स० कारणजाए जाए, जहारिहं जस्स जं जोग / / 4 / / असणं ओयण सत्तुग, मंडग पयरब्ब विदल जगराइ। पर्यायो ब्रह्मचर्य, तत् प्रभूतकालं येन पालितं, परिषद् विनीता कंदवजाई सव्वा, सजलविही सत्त विगई य॥३६।। साधुसंहतिः, तत्प्रतिबद्धं पुरुषं ज्ञात्वा, कथम् ? कुलगुणअसणम्मि सत्त विगई, साइम गुल महु सुराय पाणम्मि। सन कार्याण्यस्याऽऽयत्तानीति, एवं तदधीनं क्षेत्रमिति, कालखाइम पक्कन्न फलाण उहेणय सव्वअसणम्मी॥४०॥ मवमप्रतिजागरणमस्य गुण इति, आगमं सूत्रार्थोभयरूप-मस्याऽस्तीति चण ओद मसुर तुवरी, कुलत्थ निप्पाव मुग्ग मासा य। ज्ञात्वेति। चवल कलाया राई, पमुहं दुदलं व निण्णेह॥४१॥ साम्प्रतमेतदकरणे दोषमाहतिल अयसि सिलिंद कंगू, कुद्दव अणुयादवं सिणेहजं / एआइ अकुव्वंतो, जहारिहं अरिहदेसिए मग्गे। भण्णंति केइ दुदलं, पायं धन्नु व्वतं सव्वं / / 4 / / ण भवइ पवयणभत्ती, अभत्तिमंताइआ दोसा || कठ्ठदलं पक्कन्नं, तक्कर दहि दुद्धपाय मीसं जं। तथाजमणंतकायजायं, पत्त फलं पुप्फ बीयं च // 43 / / उप्पन्नकारणम्मी, किइकम्मं जो न कुन दुविहं पि। पुढविकाऊ सव्वो, बलझिंझप्पभिइ सव्वभिण्णधनं। हिंगुलवण्णी उछप्पभिई असणं बहुविहं जं॥४४।। ल०प्र०। पासत्थाईआणं, उग्धाया तस्स चत्तारि॥६॥ नीलवर्णे बीजकाभिधाने वृक्षविशेषे, आचा०२ श्रु०१०अ० प्रज्ञा (दुविहं पीति) अभ्युत्थानवन्दनलक्षणम्, इत्यलं प्रसङ्गेन / ध०२ रा०ा ही असणग-पुं०(अशनक) बीजकाभिधाने वनस्पतिभेदे, औ०। असणि-पुं०(अशनि) पविरित्यस्य पर्यायः। है। आकाशे पतत्य-निमये कणे, प्रज्ञा०१ पद। विशेषे, सू०प्र०२० पाहुा तं० विद्युद्वजे, वाचा असणदाण-न०(अशनदान) अश्यत इत्यशनमोदनादि, तस्य दानमशनदानम् / तस्मिन्नशनदाने अशनशब्दः पानाद्यपलक्षणार्थः / / असणिमेह-पु०(अशनिमेघ)करकादिनिपातवति पर्वतादिदारणसमआहारदाने, पं०व०२ द्वार। आव०॥ जलत्वेन वा वज्रमेघे, भ०७ श०६ उ०1 असणाइणिमंतण-न०(अशनादिनिमन्त्रण)गुरोराहारनिमन्त्रणे, ध०) असणी-स्त्री०(अशनी) बलेः सोमस्य महाराजस्याग्रमहिष्याम, भ०१० अशनादिनिमन्त्रणमिति / अशनादिभिरशन-पान-खादिम-स्वादिम- श०५ उ०। स्थान वस्त्र - पात्र-कम्बल-पादप्रोज्छन-प्रातिहारिक - पीठ फल- असण्णि(ण) -पुं०(असंज्ञिन) संज्ञिविपरीतोऽसंज्ञी। विशिष्टस्मरणाशय्यासंस्तारकौषधभैषज्यादिभिः निमन्त्रणं, प्रस्तावाद् गुरोरेय / तच दिरूपमनोविज्ञानविकले, कर्म०४ कर्म०1"णेरइया दुविहा पण्णत्ता। गुरोः पादयोलगित्वा "इच्छकारि भगवन् ! पसा-उगरी फासुए" तं जहा-सण्णि चेव, असण्णि चेव / एवं पंचिंदिया सवे, एसणिजेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थ-पडिग्गहकम्बल-पायपुंछणेणूं / विगलिंदियवज्ञा० जाव वेमाणिया"। स्था०२ ठा०२ उ०। पं०सं०। अधिका Page #1024 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असण्णि (ण) 840 - अभिषानराजेना-भाग 1 असब्भावुब्भावणा नं०। असण्णि दुविहा-अणागाढमिच्छदिट्टी, आगाढमिच्छदिही य। रमिति / तथा-ऋजुभावस्य कौटिल्यत्यागरूपस्या-ऽऽसेवनमनुष्ठानं नि०चू०५उ०। देशकेनेच कार्यम् / एवं हि तस्मिन्नविप्रतारणकारिणि संभाविते सति असणिआउय-न०(असंज्ञयायुष) असंज्ञिना सताबद्धे परभव-प्रायोग्ये शिष्यस्तदुपवेशान्न कुतोऽपि दूरवर्ती स्यादिति। ध० 1 अधि०। आयुषि, भ०१ श०२ उ०। ("आउ" शब्दे द्वितीयभागे 15 पृष्ठे 13 असदारंभ-पुं०(असदारम्भ) प्राणवधादौ, पं०व०३ द्वार। "बालो अधिकारे चैतद्व्याख्यास्यते) ह्यसदारम्भः" बालो हि पूर्वोक्तः, असन् असुन्दर आरम्भोऽस्येत्यसअसण्णिभूय-पुं०(असंज्ञिभूत) मिथ्यादृष्टी, भ०१ श०२ उ०। दारम्भः, अविद्यमानं वा यदागमे व्यवच्छिन्नं, तदारभते इत्यसदारम्भः। असण्णिसुय-न०(असंज्ञिश्रुत) मिथ्यादृष्टिश्रुते, तच कालिको-पदेशेन न सदा सर्वदा स्वस्तिकालाद्यपेक्ष आरम्भोऽस्येति वा / "वृत्तं चारित्रं हेतूपदेशेन दृष्टिवादोपदेशेन च त्रिविधम्। नंगा आचूला ('सण्णिसुय खल्यसदारम्भविनिवृत्तिमत्तच्च सदनुष्ठानम्" असदारम्भोऽशोभनाssशब्दे चैतत्वक्ष्यते) रम्भः प्राणातिपाताद्याश्रवपञ्चकरूपः, ततो विनिवृत्तिमद् हिंसादिनिअसण्णिहिसंचय-पुं०(असंनिधिसंचय) न विद्यते संनिधेः पर्युषित- वृत्तिरूपमहिंसाद्यात्मकम् / षो०१ विव०। पञ्चा० खाद्यादेः सञ्चयो धारणं येषां ते तथा / संनिधिशून्ये युगलिकमनुष्ये, असह-पुं०(अशब्द)अर्द्धदिग्व्याप्यसाधुवादे, ग०२ अधि० ब० स०) जं०२ वक्ष०ा तं०जी०। शब्दवर्जित, वृ०३ उ०। असती-स्त्री०(असती) असंप्राप्तौ, नि०चू०१२ उ०ा "पमाएण वा असती असहहंत-त्रि०(अश्रद्दधत्) श्रद्धामकुर्वति, "भरुअच्छे वाणिओ चुक्कखलिएण वा"। महा०५ अ० असहहंतो उल्लेणिए"। बृ०३ उ० "एको देवो असद्दहतो''। नि००१ असत्त-त्रि०(अशक्त) असमर्थे, दर्श०) पिं०। 30 * असक्त-त्रि०) अपाकृतमदनतया समतृणमणिलेष्टुकाधने सम- | असद्दहण-न०(अश्रद्दधान)निगोदादिविचारविप्रत्यये,ध०२ अधिका तापन्ने,आचा०) "जे असता पावेहि कम्मेहिं' ये अपाकृतमदनतया असप्पवित्ति-स्वी०(असत्प्रवृत्ति)असुन्दरप्रवृत्तौ, षो०१६ विव०। समतृणमणिलेष्टुकाञ्चनाः समतापन्नाः पापेषु कर्मस्वसक्ताः पापोपादा असप्पलावि(ण)-त्रि०(असत्प्रलापिन्) असद्भावप्रलापिनि, नि० 50 नानुष्ठानाऽरताः आचा०१ श्रु०५ अ०२ उ०। 16 उ० असत्त्व-न० नास्तित्वे, स्या०। पररूपेणाविद्यमानत्वे, नं० असबल-पुं०(अशबल) मालिन्यमात्ररहिते, प्रश्न०१ संव० द्वार / असत्ति-स्त्री०(अशक्ति) असंयोगे, असंपर्के, षो०४ विव०। शबलस्थानदूरवर्तिनि, आतु०। निरतिचारे, स्था०५ ठा०३ उ० असत्थ-न०(अशस्त्र) निरवद्यानुष्ठानरूपे संयमे, "से असत्थस्स अतिचारपङ्काभावात्। एकान्तविशुद्धचरणे, भ०२५ श०७ उ०) खेयण्णे, जे असत्थस्स खेयण्णे से पज्जवजातस्स खेयण्णे''। आचा० असबलायार-पुं०(अशबलाचार)विशुद्धाचारे, अशबलः सिता१श्रु०३ अ०१ उ०। सितवर्णोपेतबलीवर्द इवाऽकर्बुर आचारो विनयशिक्षाभाषा-गोचरादिको असत्थपरिणय-त्रि०(अशस्त्रपरिणत) अशस्त्रोपहते, आचा० यस्य सोऽशबलाचारः। व्य०३ उ०। २०१अ०८30 ('अपरिणय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 601 पृष्ठेऽस्य सूत्राण्युक्तानि) असम्म-त्रि०(असभ्य) सभोपवेशनाऽयोग्ये खले, औ| आवा स्था०। अशोभने असद्भावप्ररूपकेऽसभ्ये, यथा-श्यामा कतण्डुलमानोऽयअसदायार-पुं०(असदाचार) सदाचारविलक्षणे हिंसाऽनृतादौ, ध० मात्मा, इतिवदन्तः पण्डिताः। नि०चू०१६ उ०॥ असदाचारः सदाचारविलक्षणो हिंसाऽनृतादिर्दशविधः पापहेतुर्भेदरूपः / यथोक्तम्- "हिंसाऽनृतादयः पञ्च, तत्त्वाश्रद्धा-नमेव च / असम्भवयण-त्रि०(असभ्यवचन) खरकर्कशादिके दुर्वचने, क्रोधादयश्च चत्वारः, इति पापस्य हेतवः" ||1|| तस्य गर्दा यथा- "असम्भवयणहि य कलुणा विवन्नत्था''। दश०८ अ०२ उ०। " न मिथ्यात्वसमः शत्रुर्न मिथ्यात्वसमं विषम्। असम्भाव-त्रि०(असद्भाव) अविद्यमानार्थे, औ०। प्रश्न०। ज्ञा० न मिथ्यात्वसमो रोगो, न मिथ्यात्वसमं तमः॥१॥ अतथ्यभावे, आव०५अ०। सद्भावस्याभावे, पिं०। अविद्यमानाः सन्तःद्विषद्विषतमोरोगैर्दुःखमेकत्र दीयते। परमार्थसन्तः, भावा जीवादयोऽभिधेयभूता यस्मिन् तदसद्भावम्। मिथ्यात्वेन दुरन्तेन, जन्तोर्जन्मनि जन्मनि ॥शश सर्वव्याप्यादिरूपात्मादिप्रतिपादके कुप्रवचने, उत्त०३ अ० वरं ज्वालाकुले क्षिप्तो, देहिनाऽत्मा हुताशने। असब्मावठ्ठवणा-स्त्री०(असद्भावस्थापना)अक्षादिषु मुन्याकारवत्यां नेतु मिथ्यात्वसंयुक्तं, जीवितव्यं कदाचन / / 3 / / स्थापनायाम,साध्वाद्याकारस्य तत्राऽसद्भावात्। अनु०। इति तत्त्वाश्रद्धानं गर्हा, एवं हिंसादिष्वपि गयिोजना कार्या / तथातस्याऽसदाचारस्य हिंसादेः स्वरूपकथनं, यथा-प्रमत्तयोगात् असम्भावपट्ठवणा-स्त्री०(असद्भावप्रस्थापना) असदभूतार्थ कल्पप्राणव्यपरोपणं हिंसा, असदभिधानं मृषा, अदत्तादानं स्तेयम् नायाम, भ०११ श०१० उ० जी०। मैथुनमब्रह्म, मूर्छा परिग्रह इत्यादि / तथा-स्वयमाचारकथकेन असम्भावुडभावणा-स्त्री०(असद्भावोद्भावना) 6 त०। अवि परिहारोऽसदाचारस्य संपादनीयः, यत स्वयमसदाचारमपरिहरतो | द्यमानार्थानामुत्प्रेक्षणे, औ०। यथाऽस्त्यात्मा सर्वगतः, श्यामाक धर्मकथनं नटवैराग्यकथनमिवानादेयमयं स्यात्, नतु साध्यसिद्धिक- | तण्डुलमात्रो वेत्यादि / दश०४ अ०) अचौरेऽपि चौरोऽयमित्यादि वा Page #1025 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असब्भावब्भावणा 841 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 असमारंभमाण / ম০২ 05 ভol असत्य-न०(असद्भूय) नसद्भूतमसद्भूतम्। अनृते, आव० 4 अ०) असमंजस-त्रि०(असमञ्जस) अघटमानके, "असमंजसं केइ जपति''। श्रा०ा आचा असमंजसचेट्ठिय-न०(असमञ्जसचेष्टित) शास्त्रोत्तीर्णभाषित-करणे, दर्श०१० अ०। प्राणिवधादौ, पञ्चा०२ विव०। असमण-पुं०(अश्रमण) श्रामण्यादविच्युते, गंतुंताय पुणो गच्छे, ण य तेणासमणो सिया। सूत्र०१ श्रु०३ अ०२ उ० असमणपाउग्ग-त्रि०(अश्रमणप्रायोग्य) साधूनामनाचरणीये, ध०३ अधिक असमणुन्न-त्रि०(असमनोज्ञ)अनिष्ट, स्था०४ ठा०१ उ०। शाक्यादौ, आचा०१ श्रु०८ अ०१ उ०) त्रिषट्यधिके प्राज्ञकशतत्रये, आचा० 1 श्रु० अ०१ उ०। असमनोज्ञेभ्यस्तु दानग्रहणं प्रति सर्वनिषेध इति। आचा०१ श्रु०८ अ०२ उ०] असमणुण्णाय-त्रि०(असमनुज्ञात) 'यदिभवान् कस्मैचिद् ददाति तदा ददातु' इत्येवमननुज्ञाते, आचा०२ श्रु०१ अ०८ उ०। "असमणुण्णायंतस्स अदेंतस्स''नि०चू०१ उ० असमत्त-त्रि०(असमाप्त)अपूर्णो, नि०चू०२०। असमाप्तकल्पे, व्य०४ उन असमत्तकप्प-पुं०(असमाप्तकल्प)असमाप्तश्चापरिपूर्णश्च कल्पः। अपरिपूर्णसहाये विपरीते, ध०३ अधि० उतुबद्धेवासासु उसत्तसमत्तो तदूणगो इयरो। असमत्तो जायाणं, ओहेण ण किंचि आहव्वं / / 1 / / पञ्चा०११ विव०॥ पं०व०॥ असमत्तदंसि(ण)-पुं०(असम्यक्त्वदर्शिन्) न सम्यगसम्यक्, तस्य भावोऽसम्यक्त्वम्, तद् द्रष्टुं शीलमस्य स तथा / मिथ्यादृष्टौ, सूत्र० 1 श्रु०८ अ01 असमत्थ-त्रि०(असमर्थ) अशक्ते, पं० व०१ द्वार / भूक्षेपमात्रभीरौ, सूत्र०१ श्रु०४ अ०१ उ०। हेतुदोषे, यथाऽयं हेतुर्न स्वसाध्यगमक इत्यर्थेनाऽसौ स्वसाध्यघातक इति। रत्ना०८ परि०। असमय-पुं०(असमय) असम्यगाचारे पञ्चविंशे गौणालीके, प्रश्न० 2 आश्र० द्वार। दुष्टकाले, अयोग्यकाले च / याचा असरिसवेसग्गहण-न०(असदृशवेषग्रहण) आदिरनार्यादिनेपथ्यकरणे, पं०व०४ द्वार / स्वयमार्यः सन् अनार्यवेषं करोति, पुरुषो वा स्वरूपमन्तर्हितः सन् स्त्रीरूपं विदधातीत्यादि। तदेतदसदृशवेषग्रहणम्। बृ०१ उ०॥ असमवाइकारण-न०(असमवायिकारण)न समति,सम् अवइणणिनि / न०तका समवायिकारणवर्तिनि कारणभेदे, वाचा यथातन्तुसंयोगाः कारणरूपद्रव्यान्तरस्य दूरवर्तित्वादसम-वायिनः, त एव कारणमसमवायिकारणम्। आ०म०द्विा आ०पू०।। असमाण-पुं०(असमान) न विद्यते समानो यस्य सोऽसमानः। गृह- | स्थान्यतीर्थिकभ्यः सर्वोत्कृष्टे, “असमाणो चरे भिक्खू उत्तान विद्यते समानोऽस्य गृहिष्याश्रयामूञ्छितत्वेनाऽन्यतीर्थिकषु वा नियतविहारादिनाऽनन्यसमानोऽसदृशः / यद्वा-समानः साह-कारो,न तथेत्यसमानः / अथवा- 'समाणो त्ति' प्राकृतत्वादसन्निव सन् यत्राऽऽस्ते। तत्राऽप्यसन्निहित इति / हृदयसन्निहितो हि सर्वः स्वाश्रयस्योदन्तमावहति, अयं तु न तथेति, एवंविधः स चरेद, अप्रतिबद्धविहारितया विहरेद्, भिक्षुर्यतिः / उत्त० 3 अ० असमारंभ-पुं०(असमारम्भ) समारम्भाऽभावे, सत्तविहे असमारंभे पण्णत्ते / तं जहा-पुढविकाइयअसमारम्भेजाव अजीवकायअसमारंभे स्था०७ ठा०।। असमारंभमाण-त्रि०(असमारम्भमाण)अव्यापादयति, स्था० 6 ठा०। असमारम्भमाणानां पञ्चविधादिसंयमः। यथा - एगिंदिया णं जीवा असमारंभमाणस्स पंचविहे संजमे कन्जइ। तं जहा-पुढविकाइयसंजमे० जाव वण-स्सइकाइयसंजमे / एगिदिया णं जीवा समारंभमाणस्स पंचविहे असंजमे कज्जइ। तंजहा-पुढविकाइय असंजमे० जाव वणस्सइकाइयअसंजमे। पंचिंदियाणं जीवाणं असमारंभमाणस्स पंचविहे संजमे कज्जइ। तं जहा-सोइंदियसंजमे०जाव फासिंदियसंजमे। पंचिंदियाणं जीवा समारंभमाणस्स पंचविहे असंजमे कज्जइ / तं जहासोइंदियअसंजमे० जाव फासिंदियअसंजमे / सव्वपाणभूयजीवसत्ताणं असमारंभमाणस्स पंचविहे संजमे कन्जनातं जहाएगेंदियसंजमेजाव पंचें-दियसंजमे। सव्वपाणभूयजीवसत्ताणं समारंभमाणस्स पंचविहे असंजमे कजइ / तं जहा एगेंदियअसंजम० जाव पंचेंदियअसंजमे। (एगिदिया णं जीव त्ति) एकेन्द्रियान्, णमिति वाक्यालङ्कारे। जीवान्, असमारम्भमाणस्य संघट्टादीनामविषयीकुर्वतः, स-सदशप्रकारस्य संयमस्य मध्ये पञ्चविधसंयमोव्युपरमोऽनाश्रवः, क्रियते भवति। तद्यथापृथिवीकायिकेषु विषये संयमः संघट्टाद्युपरमः पृथिवीकायिकसंयमः / एवमन्यान्यपि पदानि। असंयमसूत्रं संयमसूत्रवद्विपर्येण व्याख्येयमिति। (पंचिं-दियाणमित्यादि) इह सप्तदशप्रकारसंयमभेदस्य पञ्चेन्द्रियसंयमलक्षणस्येन्द्रियभेदेन भेदविवक्षणात्पञ्चविधत्वं, तत्र पञ्चेन्द्रियानारम्भे श्रोत्रेन्द्रियस्य व्याघातपरिवर्जनं श्रोत्रेन्द्रियसंयमः। एव चक्षुरिन्द्रियसंयमादयोऽपि वाच्याः। असंयमसूत्रमेतद्विपर्यासेन बोद्धव्यमिति / (सव्व-पाण०इत्यादि) पूर्वमेकेन्द्रिय-पञ्चेन्द्रियजीवाश्रयेण संयमासंयमा-वुक्तौ, इह तु सर्वजीवाश्रयेण, अत एव सर्वग्रहणं कृतमिति / प्राणादीनां चाऽयं विशेषः- "प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ताः, भूतास्तु तरवः स्मृताः / जीवाः पञ्चेन्द्रिया ज्ञेयाः,शेषाः सत्त्वा इतीरियता // 1 // स्था०५ठा०२ उ० तेइंदिया णं जीवा असमारंभमाणस्स छविहे संजमे कज्जइ। तं जहा-घाणामाओ सोक्खाओ अववरोवेत्ता भवइ,धाणामएणं दुक्खेणं असंयोएत्ता भवइ, जिब्भामयाओ सोक्खाओ अववरोवेत्ता भवइ, एवं चेव फासामयाओ वि। तेइंदिया णं जीवा समारंभमाणस्स छविहे असंयमे कञ्जइ। तं जहा-घाणामाओ Page #1026 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असमारंभमाण 842- अभिधानराजेन्द्रः- भाग 1 असमाहिद्वाण सोक्खाओ ववरोवेत्ता भवइ, घाणामएणं दुक्खेणं संजोयेत्ता भवइ० जाव फासमएणं दुक्खेणं संजोएत्ता भवइ / (तेइंदिएणमित्यादि) कण्ठ्यं, नवरं (असमारंभमाणस्स त्ति) अव्यापादयतः / (घाणामाओ त्ति) घ्राणमयात् सौख्याद् गन्धोपादानरूपात् अव्यपरोपयिता अभ्रंशकता घ्राणमयेन गन्धोपालम्भाडभावरूपेण दुःखेनाऽसंयोजयिता भवति / इह चाव्यपरोपणमसंयोजनं च संयमः, अनाश्रवरूपत्वात्, इतरदसंयम इति / स्था०६ ठा०) चउरिदिया णंजीवा असमारंभमाणस्स अट्टविहे संजमे कज्जइ।तंजहाचक्खुमाओ सोक्खाओ अववरोवेत्ता भवइ, चक्खुमएणं दुक्खेणं असंजोएत्ता भवइ, एवं जाव फासामाओ सोक्खाओ अववरोवेत्ता भवइ, फासामएणं, दुक्खेणं असंजोएता भवइ / चउरिदिया णं जीवा समारंभमाणस्स अट्ठविहे असंजमे कजई। तं जहा-चक्खुमाओ सोक्खाओ ववरोवेत्ता भवइ, चक्खुमएणं दुक्खेणं संजोएता भवइ / एवं जाव फासामाओ सोक्खाओ / / स्था० 5 ठा०। पचिंदिया णं जीवा णं असमा-रंभमाणस्स दसविहे संजमे कज्जइ / तं जहा- सोयामयाओ सोक्खाओ अववरोवेत्ता भवइ, सोयामएणं दक्खेणं असंजोडत्ता भवड। एवं जाव फासामएणं दुक्खेणं असंजोएत्ता भवइ / एवं असंजमो वि भाणियव्यो / स्था०१० ठा०। असमाहड-त्रि०(असमाहृत) अशुद्धे, "वितिगिच्छसमावण्णेणं अप्पाणेणं असमाहडाए लेस्साए'' अशुद्धया लेश्ययोद्गमादि दोषदुष्टमिदमित्येवं चित्तविप्लुत्या। आचा०२ श्रु०१ अ०३ उ०। असमाहडसुद्धलेस्स-त्रि०(असमाहृतशुद्धलेश्य) असमाहृताऽनङ्गीकृता शुद्धा शोभना लेश्या येन स तथा / आर्तध्यानोपहततयाऽशोभनलेश्ये, सूत्र०२ श्रु०३ अ० असमाहि-पुं०(असमाधि) अपध्याने, सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ उ०। समाधान समाधिः स्वास्थ्यम्, न समाधिरसमाधिः / अस्वास्थ्य-निबन्धनायां कायादिचेष्टायाम्, आ०म०वि० स्था०। दसविहा असमाही पण्णत्ता। पाणाइवाए० जाव परिग्गहेईरिया असमिइ० जाव उच्चारपासवणखेलसिवाणगपारिट्ठावणिया असमिई। ज्ञानादि-भावप्रतिषेधे अप्रशस्ते भावे, स्था० 10 ठा। असमाहिकर-त्रि०(असमाधिकर) असमाधिकरणशीलोऽसमाधिकरः / आ०म०वि०। चित्ताऽस्वास्थ्यकर्तरि, प्रश्न० 3 संव० द्वार / आ०चू०। असमाधिमरणे च, व्य०४ उ० असमाहिट्ठाण-न०(असमाधिस्थान)समाधिश्चेतसः स्वास्थ्यम, मोक्षमार्गेऽवस्थितिरित्यर्थः। न समाधिरसमाधिः,तस्य स्थाना-न्याश्रयाः। ध०३ अधि०। असमाधिर्ज्ञानादिभावप्रतिषेधः, अप्र-शस्तो भाव इत्यर्थः / तस्य स्थानानि पदानि असमाधिस्थानानि / स्था०१०उ०। चित्ताऽस्वास्थ्यस्याश्रयेषु, प्रश्न०५संव० द्वार / यैर्हि आसेवितैरात्मपरोभयानामिह परत्रोभयत्र वाऽसमाधिरुत्पद्यते। स्था०१० ठा०।। सुयं मे आउसंतेणं भगवया एवमक्खायं-इह खलु थेरेहिं भगवंतेहिं वीस असमाहिट्ठाणा पण्णत्ता / कयरे खलु थेरेहिं भगवंतेहिं वीसं असमाहिट्ठाणा पण्णत्ता ? इमे खलु थेरेहि भगवंतेहिं वीसं असमाहिट्ठाणा पण्णत्ता। तं जहा- दवदवचारिया वि भवति 1, अपमजियचारिया वि भवइ 2, दुपमजियचारिया वि भवति 3, अतिरित्तसेज्जासणिए 4, रायणियपरिभासी 5, थेरोवघातिए 6, भूतोवघातिए 7, संजलणे 8, कोहणे 6, पिट्ठीमंसए यावि भवति 10, अतिक्खणं अतिक्खणं ओहारिए 11, णवाइं अधि-करणाई अणुप्पण्णाई उप्पाइ वा भवति 12, पोराणाई अधिकरणाइं खामित्तविउसमिताइं उदीरित्ता भवति 13, अकाले सज्झायकारिया वि भवति 15, ससरक्खपायिणाए 15, सहकरे 16, भेदकरे झंझकरे 17, कलहक रे असमाहिकरे १८,सूरप्पमाणभोइए 16, एसणाए असमिते यावि भवति 20 // एवं खलु थेरेहिं भगवंतेहिं वीसं असमाहिट्ठाणा पण्णत्ता त्ति बेमि। पढमा दसा सम्मत्ता। ननु यथाकथञ्चित् गुरुविनयभीत्या गुरुपर्षदुत्थितेभ्यो वा सकाशात्, यथोच्यते-"परिसुट्ठियाणं पासे सुणेइ, सो विणय-परिभसि त्ति'। यदुक्तं स्थविरैः- विंशतिरसमाधिस्थानानि प्रज्ञ-तानि / तत्र किं स्थविरैः अन्यतः पुरुषविशेषात्, अपौरुषेयागमात्, स्वतोवा? तत्रोच्यते- भगवतः सकाशादेवावगम्य तैरधिगम्य प्रज्ञप्ताः, 'थेरेहिं ति' कथनाद् ज्ञानस्थविररित्यावेदितं भवति, न तु जातिपर्यायस्थविरैः / जातिपर्यायस्थविरत्वेऽपि श्रुतस्थविरा एव प्रज्ञापयितुं समर्था भवन्ति, इति कृतं प्रसङ्गेन। इत्युक्त उद्देशः। पृच्छामाह-कयरे इत्यादि,कतराणि किमभि-धानानितान्यनन्तर-सूत्रोद्दिष्टानि, खलुवक्यिालङ्कारे। शेष प्राग्वदिति / निर्देशमाह-इमानि, अनन्तरं वक्ष्यमाणत्वाद् हृदि परिवर्त्तमानतया प्रत्यक्षाणि तानि इति, यानि त्वया पृष्टानि। शेषं पूर्ववत्। तद्यथेत्युदाहरणो-पन्यासार्थः। दवदवचारिया वि- भवति) दुर्गतौ यो हि द्रुतं द्रुतं संयमात्मविराधनानिरपेक्षो व्रजति- आत्मानं प्रपतनादिभिरसमाधौ योजयति, अन्यांश्च सत्त्वान् घ्नन्नसमाधौ योजयति, सत्त्ववधजनितेन च कर्मणा परलोकेऽप्यात्मानमसमाधौ योजयति, अतो द्रुतं हन्तृत्वसमाकुलतया चलाधिकरणत्वादसमाधिस्थानम्, एवमन्यत्रापि यथायोगमवसेयम्। चशब्दाद् भुजानो भाषमाणः प्रतिलेखनांच कुर्वन् आत्मविराधनां संयमविराधनां च प्राप्रोति / अपिग्रहणात् तिष्ठन् आकुञ्चन-प्रसारणादिकंवा द्रुतं द्रुतंकुर्वन् पुनःपुनरवलोकयन्नप्रमार्जयन् आत्मविराधनां च प्राप्रोति / शब्दार्थस्तु भावित एव / ननु स्थानशयनादिषु द्रुतत्वनिषेधे सति किमर्थं गमनमेवोपन्य-स्तम् ? उच्यतेयतः पूर्वमीर्यासमिति-स्ततोऽन्या,इति हेतोः पूर्वं गमनमेव मुख्यत्वेनोपात्तमिति १।तथा-(अपमज्जिय त्ति) अप्रमार्जिते अवस्थाननिषीदनशयनोपकरण-निक्षेपोचारादि प्रतिष्ठापनं च करोति / तथादुष्प्रमार्जितचारी 3 / तथा-(अतिरित्तसेज्जासणिए त्ति) अतिरिक्ताअतिप्रमाणा शय्या वसति-रासनानि च पीठकादीनि यस्य सन्ति सोऽतिरिक्तशय्या-सनिकः / स च-अतिरिक्तायां शय्यायां घनशालादिरूपायामन्येऽपि कार्पटिकादय आवासयन्तीति तैः सहाधिकरणसंभवादात्मपराव-समाधौ योजयतीति। एवमासनाधि-क्येऽपि वाच्यमिति / / तथा (रायणिय-परिभासि त्ति) रात्निकपरिभाषी आचार्यादिपूज्यगुरुपरिभवकारी, अन्यो वा महान् कश्चिजातिश्रुतप-र्यायाद्वा शिक्षयति, Page #1027 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असमाहिट्ठाण 843 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 असमिक्खियमासि(ण) तं परिभवति, अवमन्यते, जात्यादिभिर्मदस्थानैः / अथवा- भहरो वैरात्रिकं वा कालग्रहणं कुर्वन् महता शब्देनोल्लपति, अकुलीणोतिय, दुम्मेही दमगमंदबुद्धि त्ति।अवि अप्पलाभलद्धी, सीसो दोषाश्चहोत्तराध्ययनवृत्तेरवसेयाः 16, तथा- भेदकरे त्ति येन कृतेन परिभवति आयरियं / / 1 / / इति, एवं च गुरुं परिभवन् आज्ञोपपातं वा गच्छस्य भेदो भवति तत्तदातिष्ठते, झंझकरे त्ति तत्करोति येन गणस्य कुर्वन् आत्मानमन्यांश्चाऽसमाधौ योजयत्येव 5, तथा-थेरोवघाइ त्ति मनोदुःखमुत्पद्यते, तद्भाषते वा 17, तथा-कलहकरे त्ति आक्रोशादिना स्थविरा आचार्यादिगुरवः, तान् आचारदोषेणशीलदोषेणाऽवज्ञादिभि- येन कलहो भवति तत्करोति, स चैवं गुणयुक्तो हि असमाधिस्थानं भवति वोपहन्तीत्येवंशीलः, स एवं चेति स्थविरोषघातिकः ६,तथा- इति वाक्यशेषः 18, तथा-सूरप्पमाण-भोई त्ति सूरप्रमाणभोजी भूतोवघातिए त्ति भूतान्येकेन्द्रियादीनि तानि उपहन्तीति भूतोपघातिकः, सूर्योदयादस्तसमयं यावदशनपानाद्य-भ्यवहारी, उचितकाले प्रयोजनमन्तरेण, ऋद्धि-रससातगौरवैर्वा, विभूषानिमित्तं या, स्वाध्यायादि न करोति, प्रतिप्रेरितो रुष्यति, अजीणे च आधाकर्मादिकं वा, पुष्टालम्बनेऽपि समाददानः, अन्यद्वा तादृशं किञ्चित् बह्वाहारेऽसमाधिः संजायत इति दोषः १६,तथा- एसणासमिए असमिए भाषते वा करोति, येन भूतोपघातो भवति 7, संजलणे त्ति संज्वलतीति यावि भवति त्ति एषणायां समितश्चापि संयुक्तोऽपि नाऽनैषणां परिहरति, संज्यलनः, प्रतिक्षणं रोषणः, स च तेन क्रोधेनाss-त्मीयं चारित्रं प्रतिप्रेरितश्वाऽसौ साधुभिः सह कलहायते / अनेषणीयं मां परिहरन् सम्यक्त्वं वा हन्ति, दहति वा ज्वलनवत् 8, तथा-कोहणे त्ति क्रोधनः जीवोपरोधिवर्तते। एवं चाऽऽत्मपरयोरसमाधिकरणादसमाधिस्थानमिदं सकृतकुद्धोऽत्यन्तक्रुद्धो भवति, अनुपशान्त-वैरपरिणाम इतिभावः 6, विंशतितममिति 20 / (एवं खल्वित्यादि) एवमित्यनन्तरोक्तेन विधिना, तथा-पिट्ठीमंसए त्ति पृष्टिमासाशिकः, पराङ्मुखस्य परस्याऽवर्णवाद- खलुक्यिालङ्कृतौ / शेषं व्याख्यातार्थम् / (इति बेमि ति) इति कारी, अगुण-भाषीति भावः, स चैवं कुर्वन् आत्मपरोभयेषां च इह परत्र परिसमाप्तावेषमर्थो वा / एतानि असमाधिस्थानानि अनेन वा प्रकारेण चाऽसमाधौ योजयत्येव / अपिशब्दात् साक्षाद्वा वक्ति इति ज्ञेयम् 10, ब्रयीमीति गणधरादिगुरूपदेशतो, न तु स्वोत्प्रेक्षयेत्युक्तोऽनुगमः, तथा-अभिक्खणं अभिक्खणं ओहारिए त्ति अभीक्ष्णं अभीक्ष्णं नयप्रस्तारस्त्वन्यतोऽवसेयः।दशा०१ असा आ०चू०। आव०॥ अवधारयिता शङ्कितस्याप्यर्थस्य निःशङ्कितस्येव, एवमेवाऽयमित्येवं असमाहिमरण-न०(असमाधिमरण) बालमरणे, आतु०। वक्ता। अथवा-अवहारयिता परगुणानामपहारकारी यथा तथा, हासा असमाधिमरणे दोषाः। यथादिकमपि परं प्रति तथा भणति, दासश्चोरस्त्वमित्यादि 11, तथाणवाई जे पुण अट्ठमईया, पयलियसन्ना य वक्कभावा य / इत्यादि, नवानामनुत्पन्नानामधिकरणानां कलहानामुत्पादयिता, असमाहिणा मरंति उ,न हु ते आराहगा भणिया॥५०॥ ताश्चोत्पाद-यन् आत्मानं परं चाऽसमाधौ योजयति। यथावादो भेदो अयसो, हाणी दंसणचरित्तणाणाणं। ये पुनर्जीवाः, अष्टौ मदस्थानानि येषां तेऽष्टमदिकाः / अत्तम-ईआ' इति पाठे आर्ते आर्तध्याने मतिर्येषां ते आर्त्तमतिकाः। स्वार्थे साहुपदोसो संसारवद्धणो साधिकरणस्स||१|| इकक्प्रत्ययः, प्रचलिता विषयकषायादिभिः सन्मार्गात्परिप्रभ्रष्टा संज्ञा अतिभणिए अभणिए वा, तावो मेदो चरित्तजीवाणं। रूवसरिसं ण सील, जिम्हं ति यसो चरति लोए।।२।। बुद्धिर्येषां ते प्रचलितसंज्ञाः / प्रगलितसंज्ञा वा, चः समुच्चये, वञ्च्यते जे अज्जियं समीखल्लएहि तवणियमबंभमइएहिं। संवल्पते आत्मा परो वा ऐहिकपारत्रिकलाभायेन स वक्रः, कुटिलो वा भावो येषांतेतथा, यत एवंविधा अतएवाऽसमाधिना चित्तास्वास्थ्यरूपेण मा हु तयं छिल्जेहिह, बहुवत्तासागपत्तेहिं / / 3 / / मियन्ते / न हु, नैव, हुरेवार्थे, ते आराधका उत्तमार्थसाधका अथवा नवानि अधिकरणानि यन्त्रादीनि तेषाम्-न वावत्त-कलहो वि भवन्तीत्यर्थः / आतु। ण, पढति अवच्छलउ दंसणे हीणो। जह कोवाइ-विवुड्डी, तह हाणी होति चरणे वि / / 1 / / नवोत्पादयिता 12, पोराणाई ति पुरातनानां असमाहिमरणज्झाण-न०(असमाधिमरणध्यान) 'असमाधिना एष कलहानां क्षमितव्यवशमितानां मर्षितत्वेनोपशान्तानां पुनरुदीरयिता मियताम्' इति चिन्तनमसमाधिमरणध्यानम्। स्कन्दकाचार्य प्रतिक्षुण्णं भवति 13, तथा- अकाले सज्झाय० इत्यादि अकाले प्रथमं, यन्त्रे पीलयतोऽभव्यपालकस्येव दुर्व्याने, आतु०। स्वाध्यायकारकः / तत्र कालः- उत्कालिकसूत्रस्य दशवैकालि असमाहिय-त्रि०(असमाहित) अशोभने बीभत्से दृष्ट च / सूत्र० १श्रु० कादिकस्य संध्याचतुष्टयं त्यक्त्वाऽनवरतं भणनम्, कालिकस्य 3 अ०१ उ०। सत्साधुप्रद्वेषित्वात् शुभाध्यवसायरहिते, सूत्र० 1 श्रु० पुनराचाराङ्गादिकस्योद्घाटापौरुषीं यावद् भणनम् / अवसानयामं च 3 अ०३ उ०। मोक्षमार्गाख्याद् भावसमाधेरसंवृततया दूरेण वर्तमाने, दिवसस्य, निशायाश्चाद्ययामं च त्यक्त्वा अपरस्त्वकाल एव / सूत्र०१ श्रु०११अग अकालस्वाध्यायकरणदूषणानि तु बृहत्कल्पवृत्तितोऽवसेयानि, नेह असमिक्खियकारि(ण)-त्रि०(असमीक्षितकारिन्) अनालोचितविस्तरत्वादुक्तानि 14, तथा-ससरक्खपाणीत्यादि सरजस्कपाणि- कारिणि,दश०६ अ० पादो यः सचेतनादिरजोगुण्डितेन दीयमानां भिक्षां गृह्णाति। तथा-यो हि असमिक्खियप्पलावि(ण)-पुं०(असमीक्षिप्रलापिन् )अपस्थण्डिलादौ संक्रामन् न पादौ प्रमार्टि / अथवा-यस्तथाविधकारणे लोचितानर्थकवादिनि, प्रश्न०२ आश्र० द्वार। "अणूहितं पुव्वावरं सचित्तादिपृथिव्यां कल्पादिनाऽनन्तरिताया-मासनादि करोति, स ___ इहपरलोगगुणदोसंवा जोसहसा भणइ, सो असमिक्खि-यप्पलावी" | सरज-स्कपाणिपाद इति / स चैवं कुर्वन् संयमे असमाधिना आत्मानं नि०चू०८ उ०। ('चंचल' शब्दे एतत्स्वरूपं वक्ष्यते) संयोजयति 15, तथा-सद्दकरो त्ति शब्दकरः सुप्तेषु प्रहरमात्रादूर्ध्व रात्रौ असमिक्खियभासि(ण)-पुं०(असमीक्षितभाषिन)अपर्यामहता शब्देनोल्लापस्वाध्यायादिकारको गृहस्थभाषा-भाषको वा | लोचितवक्तरि, प्रश्न०२ आश्र० द्वार। Page #1028 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असमिय 844 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 असव्यय असमिय-पुं०(असमित) समितिषु प्रमत्ते, पञ्चा०१६ विव०। ईर्यादिषु समितिषु अनुपयुक्ते, कल्प०६ क्ष०ा "एसो समिओ भणिओ, अण्णो पुण असमिओ इमो होइ / सो काइयभोमादी, एक्कक्कं नवरि पडिलेहे, ॥१॥नव तिन्नि तिन्नि पेहे, वेति किमेत्थं निविट्ठाहो।"आव० 4 अ० * असम्यच्-त्रि० असङ्गते, आचा०। असमियं तिमण्णमाणस्स एगदा समिया होइ, समियं तिमण्णमाणस्स एगदा असमिया होइ। कस्यचिन्मिथ्यात्वलेश्यानुविद्धस्य-कथं पौरलिकः शब्दः ? इत्यादिकमसम्यगितिमन्यमानस्यैकदेति मिथ्यात्वपरमाणू- पशमतया शङ्काविचिकित्साऽऽद्यभावे गुर्वाद्युपदेशतः सम्यगिति भवति। आचा०१ श्रु०५ अ०५ उ० असमोहय-त्रि०(असमवहत) दण्डादुपरते, अकृतसमुद्घातेचा भ०१६ श०३ उ०॥ असम्मत्त-न०(असम्यक्त्व) दर्शनादुद्वेगे, आव०४ अ०) असम्मत्तपरीसह-पुं०(असम्यक्त्वपरीषह)असम्यक्त्व-सहनकारिणि, सर्वपापस्थानेभ्यो विरतः प्रकृष्टतपोऽनुष्ठायी निस्सङ्गश्वाऽहं, तथाऽपि धर्माधर्मात्मदेवनारकादिभावं नेक्षे, अतो मृषा समस्तमेतदिति असम्यक्त्वपरीषहः / तत्रैवमालोच्यते- धर्माधर्मी पुण्यपापलक्षणौ यदि कर्मरूपौ पुद्रलात्मकौ, ततस्तयोः कार्यदर्शनादनुमानसमाधिगम्यत्वम्। अथ क्षमाक्रोधादिको धर्माऽधौं, ततः स्वानुभवत्वादात्मपरिणामरूपत्वात्प्रत्यक्षविरोधः / देवास्त्वत्यन्तसुखासक्तत्वात् मनुष्यलोके च कार्या-भावादमनुष्यभावाच्च न दर्शनगोचरमायान्ति / नारकास्तु तीव्रवेदनार्ताः पूर्वकृतकर्मोदयनिगडबन्धनवशीकृतत्वादस्वतन्त्राः कथमायान्तीत्येवमालोचयतोऽसम्यक्त्वपरीषहजयो भवति / आव०४ अ०। असयं-अव्य०(अस्वयम्) परत इत्यर्थे, भ०६ श०३२ उ०। असरण-त्रि० (अशरण) अत्राणे, स्था० 4 ठा०१ उ०। स्वार्थ प्रापकवर्जिते, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। शरणमनालम्बमाने, आचा०ाशरणं गृहं, नाऽत्र शरणमस्तीति अशरणः / संयमे, सोगे अदक्खू एताई सोउलाई गच्छति णायपुत्ते असरणाए। आचा०१ श्रु०८अ०१ उ०। असरणभावणा-स्त्री०(अशरणभावना) आत्मनोऽशरणत्वपर्यालोचनायाम्, प्रव०। सा च अशरणभावनापितुर्मातुर्धातुस्तनयदयितादेश्चपुरतः, प्रभूताऽऽधिव्याधिव्रजनिगडिताः कर्मचरटैः। रटन्तः क्षिप्यन्ते यममुख गृहान्तस्तनुभृतो, ह हा ! कष्टं लोकः शरणरहितः स्थास्यति कथम् ? ||1|| शिखरिणी। ये जानन्ति विचित्रशास्त्रविसरं ये मन्त्रतन्त्रक्रियाप्राविण्यं प्रथयन्ति ये च दधति ज्योतिः कलाकौशलम्। तेऽपि प्रेतपतेरमुष्य सकलत्रैलोक्यविध्वंसनव्यग्रस्य प्रतिकारकर्मणि न हि प्रागल्भ्यमाबिभ्रति ।।शा शार्दूल० नानाशरत्रपरिश्रमोद्भटभटैरावेष्टिताः सर्वतो, गत्युद्दाममदेन्धसिन्धुरशतैः केनाप्यगम्याः क्वचित्। शक्रश्रीपतिचक्रिणोऽपि सहसा कीनाशदासैर्बलादाकृष्टा यमवेश्म यान्ति हह हा ! निस्वाणता प्राणिनाम् // 3 // उद्दण्ड ननुदण्डसात्सुरगिरिं पृथ्वी पृथुच्छत्रसात, ये कर्तुं प्रभविष्णयः कृशमति क्लेशं विनैवात्मनः। निःसामान्यबलप्रपञ्चचतुरास्तीर्थंकरास्तेऽप्यहो!, नैवाशेषजनौघघस्मरमपाकर्तुं कृतान्तं क्षमाः॥४॥ कलत्रमित्रपुत्रादि-स्नेहग्रहनिवृत्तये। इति शुद्धमतिः कुर्या-दशरण्यत्वभावनाम् // 5 / / प्रव०६७ द्वा०। अशरणभावना चैवम्"इन्द्रोपेन्द्रादयोऽप्येते, यन्मृत्योर्यान्ति गोचरम्। अहो ! तदन्तकातङ्के, कः शरण्यः शरीरिणाम् ?" ||1|| शरणे साधुः शरण्यः। तथापितुर्मातुः स्वसुर्धातुस्तनयानां च पश्यताम्। अत्राणो नीयते जन्तुः, कर्मभिर्यमसद्यनि॥२॥ शोचन्ति स्वजनानऽन्तं, नीयमानान् स्वकर्मभिः। नेष्यमाणं न शोचन्ति, नाऽऽत्मानं मूढबुद्धयः।।३।। संसारे दुःखदावाऽग्नि- ज्वलद्ज्वालाकरालिते। वने मृगार्भकस्येव, शरणं नाऽस्ति देहिनः ||4|| ध०३ अधिo/ असरणाणुप्पेहा-स्त्री०(अशरणाऽनुप्रेक्षा) जन्मजरामरणभयै-रभिद्रुते व्याधिवेदनाग्रस्ते / जिनवरवचनादन्यत्र, नाऽस्ति शरणं क्वचिल्लोके / / 1 / / इत्येवमशरणस्य (अत्राणस्य) अनुप्रेक्षायाम्, स्था०४ ठा०१ उ०। असरिस-त्रि०(असदृश) विसदृशे, "असरिसजणउल्लाया न हु सहियव्वा' / आव०४ अ० असरिसवेगग्गहण-न०(असदृशवेगग्रहण) आर्यादेरनार्यादिने पथ्य करणे, पं०व०४ द्वार। असरीर-त्रि०(अशरीर)अविद्यमानशरीरोऽशरीरः। औदारिकादिपञ्चविधशरीररहिते, आ०म०द्विका सिद्धे, "असरीरा जीवघणा दंसणनाणो उत्ता"। औ० स्था। असरीरपडिबद्ध-त्रि०(अशरीरप्रतिबद्ध) त्यक्तसर्वशरीरे, भ०१८ श०३ उन असलाहा-स्त्री०(अश्लाघा) अकीर्तिसाधने असाधुवादे, ग०२ अधि० असलिलप्पलाव-पुं०(असलिलप्लाव) अजलप्लावे, जलं विना रेल्लिरित्यर्थः / तं०। असलिलप्पवाह-पुं०(असलिलप्रवाह) अजलप्रवाहे, तं०। असवणया-स्त्री०(अश्रवणता) अनाकर्णने, "इमस्स धम्मस्स असवणयाए''ध०३ अधि० असव्वउज्झण-न०(असद्व्ययोज्झन) पुरुषार्थानुफ्योगिवित्त विनि योगत्यागे, न सद्व्ययोऽसद्व्ययः, तत्र धनोज्झनम्।द्वा० 12 द्वा०ा असव्वग्घ-न०(असर्वघ) न विद्यते सर्वधं यत्र तदसर्वघ्नम् / केवलज्ञानावरणकेवलदर्शनावरणरहिते आवरणे, पं०सं०४ द्वार। असव्वण्णु-त्रि०(असर्वज्ञ) छद्मस्थे अग्दिर्शिनि, 'सर्वज्ञोऽसाविति ह्येतत्, तत्कालेऽपि बुभुत्सुभिः / तज्झानज्ञेयविज्ञानरहितैर्गम्यते कथम् ?" ||1|| सूत्र०१ श्रु०१ अ०२ उ०। असव्वदरिसि(ण)-त्रि०(असर्वदर्शिन) छद्मस्थे, द्वा०२३ द्वा०। असव्वय-न०(असव्रत) असत्ये, "मिच्छ त्ति वा, वितह त्ति वा, Page #1029 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असव्यय 845 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 असाहुदिदि उ01 असचं तिवा, असव्वयं ति वा, अकरणीयं ति वा एगट्ठा' आ० चू०१ असायबहुल-त्रि० (असातबहुल) दुःखप्रचुरे, संथा०'भुजो अ० असायबहुला मणुस्सा" / दशा० 1 चू०। (एतच्च तृतीय स्थानम् असव्वासि (ण)-त्रि०(असर्वाशिन् अल्पभोजिनि,व्य०१ उ०। 'अट्ठारसट्ठाण' शब्देऽत्रैव भागे 246 पृष्ठे व्याख्यातम्) असह-त्रि० (असह) असमर्थे , व्य० 1 उ०। जीत असाय(या)वेयणिज-न०(असातवेदनीय) असातं दुःखं, तद्रूपेण यद् असहाय-त्रि०(असहाय) एकाकिनि, बृ० 4 उ०। आ० म० वेद्यते, तदसातवेदनीयम्। कर्म०६ कर्म०। पं० सं० प्रज्ञा०ा दीर्घत्वं अविद्यमानसहाये, यः कुतीर्थिकप्रेरितोऽपि सम्यक्त्वादविच- प्राकृतत्वात्। स०३७ समावेदनीयकर्मभेदे, स्था०७ ठा०। लनं प्रति परसाहाय्यमनपेक्षमाणस्तस्मिन, दशा० 10 अ०ा औ०। / असार-त्रि०(असार) साररहिते तंगा"उग्गमुप्पायणासुद्धं, एसणादोसअसहिज्ज-त्रि०(असाहाय्य) न विद्यते साहाय्योऽस्य / साहाय्य- | वज्जियं / साहारणं अयाणतो, साहू होइ असारओ" ||1|| ओघ० मनपेक्षमाणे, उपा०१अ०1 ('आणंद' शब्दे द्वितीयभागे 110 पृष्ठेऽस्य / असारंभ-पं०(असारम्भ) प्राणियधार्थभसंकल्पे, “सत्तविहे असारंभे सूत्रं वक्ष्यते) पण्णत्ते / तं जहा-पुढविकाइयअसारंभे० जाव अजीवकाइयअअसहीण-त्रि०(अस्वाधीन) अस्ववशे, "असहीणेहिं सारहीचाउ- सारंभे।" स्था०७ ठा०। रंगेहिं" / दश० 8 अग असावगपाउग्ग-त्रि०(अश्रावकप्रायोग्य) न० त० श्रावकानुचिते, ध० असहु-त्रि०(असह) चरणकरणे अशक्ते, पं० भा०। सुकुमारे राजपुत्रादौ 2 अधि। प्रव्रजिते, स्था०३ ठा०३ उ०। असमर्थे, ओघा ग्लाने, नि० चू०१ असावज्ज-त्रि०(असावद्य) अपापे, "असावज्जमकक्कसं"।दश०७ अ० "अहो जिणेहि असावज्जा, वित्ती साहूण देसिया'। दश० असहिष्णु-त्रि० राजादिदीक्षिते सुकुमारपादे, बृ०३ उ०। 5 अ० चौर्यादिगर्हितकर्मानालम्बने प्रशस्तमनोविनयभेदे, स्था० 7 असहुवग्ग-पुं०(असहवर्ग) असमर्थ राजपुत्रादौ, ध०२ अधिक पं० चू०। ठान असहेज-पुं० (असाहाय्य) अविद्यमान साहाय्यं परसाहायिक- असासय-त्रि०(अशाश्वत) तेन तेन रूपेणोदकधारावच्छश्वद् भवतीति मत्यन्तसमर्थत्वाद् येषां तेऽसाहाय्याः / आपद्यपि देवादि- शाश्वतं ततोऽन्यदशाश्वतम् / आचा० 1 श्रु० 5 अ० 2 उ०। साहाय्यकानपेक्षेषु स्वयं कृतं कर्म स्वयमेव भोक्तव्यमित्य- अशश्वद्भवनस्वभावे, रा०ा प्रतिक्षणं विशरणे, प्रश्न०५ आश्र० द्वार।क्षणं दीनमनोवृत्तिषु, भ०२ श०५ उ०। ये पाखण्डिभिः प्रारब्धाः सम्यक्त्वाद् क्षणं प्रति विनश्वरे, तं० आ०म० भ०|आचा०।अपराऽपरपर्यायप्रापिते, विचलनं प्रति, किन्तु न परसाहायिकमपेक्षन्ते स्वयमेव स्था० 10 ठा० उत्ता स्वप्रेन्द्रजालसदृशे अनित्ये, सूत्र०१ श्रु०१० तत्प्रतीघातसमर्थत्वाजिनशासनात्यन्तभावितत्वात् तेषु तथाविधेषु 3 उ०। संसारिणि, स्था० 2 ठा० 1 उ०। "अशाश्वतानि स्थानानि, श्रावकेषु, भ०२ श०५ उ०। सर्वाणि दिवि चेह च / देवासुर-मनुष्याणामृद्धयश्च सुखानि च" ||1|| असागारिय-त्रि०(असागारिक) सागारिकसंपातरहिते प्रदेशादौ, व्य० सूत्र०१ श्रु०८ अाजन्ममरणादिसहितत्वात् संसारिणि, स्था० 4 ठा० 3 उ०। गृहस्थेनादृश्यमाने, नि० चू०१ उ०। 4 उ०। (भावप्राधान्येन तु) विनाशे, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। अविद्यमानं असाधा(हा)रण-त्रि०(असाधारण)अनन्यसदृशे,दर्श उपादानहेतौ, शाश्वतमस्मिन्नित्यशाश्वतः संसारः / अशाश्वतं हि सकलमिह अने०२ अधिन राज्यादि। तथा हारिलवाचक : - चलं राज्यैश्चर्य धनकनकसारः परिजनो, असाधारणाणेगंतिय-पुं०(असाधारणानैकान्तिक) नित्यः शब्दः, नृपत्वाद्यल्लभ्यं चलममरसौख्यं च विपुलम्। श्रावणत्वात्, इत्यादिसपक्षविपक्षव्यावृत्तत्वेन संशयजनके हेत्वाभासे, रत्ना०६ परि। चलं रूपारोग्यं चलमिह चलं जीवितमिदं, जनो हृष्टो यो वै जनयति सुखं सोऽपि हि चलः।।१।। उत्त० 8 अ०॥ असाय(त)-न०(असात)न० त०ा दुःखे, सूत्र०२ श्रु०१अ०१५ उ०। असुखे, आचा०१ श्रु०२ अ०३ उ०) स्था०। असातवेघ असाहीण-त्रि०(अस्वाधीन) परायत्ते,आचा०१श्रु०२ अ०१ उ०। कर्मणि,सविपाकजे,आचा०१श्रु०४ अ०६उ०। मनःप्रतिकूले दुःखे, असाहु-त्रि०(असाधु) अमङ्गले बृ० 1 उ०। अशोभने, सूत्र० 1 श्रु० आचा० 1 श्रु० 4 अ० 2 उ० अप्रीत्युत्पादके, अनु०। 5 अ०२ उ०। असवृत्ते, सूत्र०२ श्रु०२अाअनर्थोदयहेतौ, सूत्र०१ असातवेदनीयकर्मोदये, प्रश्न०१आश्र०द्वार।"छव्विहे आसाएपण्णत्ते। श्रु० 2 अ० 2 उ०। निर्वाणसाधकयोगापेक्षया / दश० ७अ०। तं जहा-सोइंदियअसाए० जाव नोइंदियअसाए" / स्था०६ ठा०। आजीविकादौ कुदर्शनिनि, नि०३ वर्ग / असंयते, स्था०७ ठा०। असातवेदनीये कर्मणि, उत्त० 33 अ० असाताख्यवेदनीये | षड्जीवनिकायवधाऽनिवृत्ते औद्देशिकादिभोजिनि अब्रह्मचारिणि, स्था० वेदनीयकर्मभेदप्रभवायाम् / प्रश्र० 1 आश्र० द्वार / दुःखरूपायां 10 ठा०। अविशिष्टकर्मकारिणि, सूत्र०१ श्रु०१२ अ०) वेदनायाम्, स्त्री०। प्रज्ञा० 34 पद। असाहुकम्म-न०(असाधुकर्मन्) क्रूरकर्मणि, सूत्र० 1 श्रु० 5 अ० असायजण-न० (अस्वादन) अननुमनने, व्य०२ उ०। 1 उ०। जन्मान्तरकृताऽशुभानुष्ठाने, सूत्र०१ श्रु०५ अ०२ उ०। असा(स्सा)यण-पुं०(आश्वायन) अश्वर्षिसन्ताने, जं०७वक्षा असाहुदिट्ठि-पुं०(असाधुदृष्टि) परतीर्थिकदृष्टौ, व्य०४ उ०। Page #1030 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असाहुधम्म 846 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 असिद्ध असाहुधम्म-पुं०(असाधुधर्म) वस्तुदानस्नानतर्पणादिके असं-यतधर्मे, सूत्र०१ श्रु०१४ अग असाहुया-स्त्री०(असाधुता) कुगतिगमनादिकरूपायाम, सूत्र० 1 श्रु० 4 अ०२ उ०! द्रोहस्वभावतायाम्, उत्त०३ अ० असाहुवं-अव्य०(असाधुवत्) असाधुमर्हति यत्प्रेक्षणं भुकुटिभङ्गादियुक्तं तस्मिन्, असाधुना तुल्यं वर्तने, उत्त० 3 अ० / असि-पुं०(असि) खड्गे 1 उपा०२ अ०। नि० चूला जी०। रा०। व्य०। विपाका संवा औ०। “असिमोग्गरसत्तिकुंतहत्था'' असिमुद्गरशक्तिकुन्ता हस्ते येषां ते असिमुद्गरशक्तिकुन्तहस्ताः। 'प्रहरणात्' / / 3 / 1 / 154 // इति सप्तम्यन्तस्य पाक्षिकः परनिपातः। जी०३ प्रति०। अस्युपलक्षिते सेवकपुरुष, "असिमषीकृषीवाणिज्यवर्जिताः "तत्रासिनोपलक्षिताः सेवकाः पुरुषाः असंयमाः मष्युपलक्षितालेखनजीविनः मषयः, कृषिरिति कृषिकर्मोपजीविनः, वाणिज्यमिति वणिग्जनोचितवाणिज्यकलोपजीविनः / तं०। असिना यो देवो नारकान् छिनत्ति सोऽसिरेव / परमाधार्मिकनिकाये, भ०३ श०६ उ०। हत्थे पाए ऊरू, बाहु सिरा पाय अंगमंगाणि। छिंदंति पगामं तू, असिणेरइए निरयपाला ||7|| (हत्थेत्यादि) असिनामानो नरकपाला अशुभकर्मोदयवर्तिनो नारकानेवं कदर्थयन्ति / तद्यथा-हस्तपादोरुबाहुशिरःपार्थादीन्यङ्ग प्रत्यङ्गानि छिन्दन्ति प्रकाममत्यर्थं खण्डयन्ति, तुशब्दोऽपरदुःखोत्पादनविशेषणार्थ इति / सूत्र०१श्रु०५१०१३०। वाराणस्यां सरिभेदे, ती० 38 कल्प०। असिकुंडतित्थ-न०(असिकुण्डतीर्थ) स्वनामख्याते मथुरास्थेतीर्थे, ती०६ कल्प। असिक्खग-त्रि०(अशिक्षक) चिरप्रव्रजिते, दश० 1 अ०। असिखुरधार-पुं०(असिक्षुरधार) क्षुरस्येव धारा यस्य असेः / अतिच्छेदके खड्गे, उपा०२अ०॥ असिखेडग-न०(असिखेटक) असिना सह फलके, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। असिचम्मपाय-न०(असिचर्मपात्र) स्फुरके, भ०। "असिचम्म-पायं गहाय' / असिचर्मपात्रं स्फुरकः / अथवा-असिश्व खड्गः, चर्मपात्रं च स्फुरकः, खड्गकोशको वा असिचर्मपात्रं, तद् गृहीत्वा / "असिचम्मपायहत्थकिच्चगएणं अप्पणेणं ति" असिचर्मपात्रं हस्तेयस्य सतथा, कृत्य संघादिप्रयोजनं गतः आश्रितः कृत्यगतः, ततः कर्मधारयः, अतस्तेन आत्मना / अथवा-असिचर्मपात्रं कृत्वा हस्ते कृतं येनाऽसौ असिचर्मपात्रहस्त-कृत्वाकृतः,तेन / प्राकृतत्वाच्चैवं समासः। अथवाअसिचर्मपात्रस्यहस्तकृत्यं हस्तकरणं गतः प्राप्तोः यः स तथा, तेन / भ० ३श०५ उ० असिट्ठ-त्रि०(अशिष्ट) अनाख्याते, नि० चू०२ उ०। अकथिते, वृ०२ उ० आ०म० असिणाण-त्रि०(अस्नान) अविद्यमानस्नाने, पंचा० 10 विव०। "असिणाणवियडभोई" अस्नानोऽरात्रिभोजी चेत्यर्थः / उपा० 1 अ०। आचा तम्हा ते ण सिणायंति, सीएण उसिणेण वा। जावजीवं वयं घोरं,असिणाणमहिट्ठिया // 63 दश०६अ।ध० असित्थ-न०(असिक्थ) सिक्थवर्जिते पानकाहारे, पञ्चा० 5 विव०। असिद्ध-पुं०(असिद्ध) संसारिणि, नं० जी०। स्था०। सूत्र हेत्वाभासभेदे, रत्ना०। तत्राऽसिद्धमभिदधतियस्याऽन्यथाऽनुपपत्तिः प्रमाणेनन प्रतीयते, सोऽसिद्धः॥४८|| अन्यथाऽनुपपत्तेर्विपरीताया अनिश्चितायाश्च विरुद्धानैकान्ति-कत्वेन कीर्तयिष्यमाणत्वादिह हेतुस्वरूपा प्रतीतिद्वारकैवाऽन्यथाऽनुपपत्त्यप्रतीतिरवशिष्टा द्रष्टव्या, हेतुस्वरूपा प्रतीति-श्वेयमज्ञानात्, सन्देहाद्, विपर्ययाद् वा विज्ञेया॥४८॥ अथाऽमुं भेदतो दर्शयन्तिस द्विविध उभयासिद्धोऽन्यतरासिद्धश्च // 46|| उभयस्य वादिप्रतिवादिसमुदायस्यासिद्धः, अन्यतरस्य वादिनः प्रतिवादिनो वाऽसिद्धः॥४६॥ तत्राऽऽद्यभेदं वदन्ति - उभयासिद्धो यथा-परिणामी शब्दश्चाक्षुषत्वात् // 50 // चक्षुषा गृह्यत इति चाक्षुषः, तस्य भावश्चाक्षुषत्वं, तस्मात् / अयं च वादिप्रतिवादिनोरुभयोरप्यसिद्धः, श्रावणत्वाच्छब्दस्य॥५०॥ द्वितीयं भेदं वदन्ति - अन्यतरासिद्धो यथा-अचेतनास्तरवो, विज्ञानेन्द्रियायुर्निरोधलक्षणमरणरहितत्वात्॥५१|| ताथागतो हि तरूणामचैतन्यं साधयन् विज्ञानेन्द्रियायु निरोधलक्षणमरणरहितत्वादिति हेतूपन्यासं कृतवान् / स च जैनानां तरुचैतन्यवादिनामसिद्धः / तदागमे द्रुमेष्वपि विज्ञाने-न्द्रियायुषां प्रमाणतः प्रतिष्ठितत्वात् / इदं च प्रतिवाद्यसिद्ध्य-पेक्षयोदाहरणम्। वाद्यसिद्धयपेक्षया तु-अचेतनाःसुखादयः, उत्पत्तिमत्त्वादिति। अत्र हि यादिनः साङ्ख्यस्योत्पत्ति-मत्त्वमप्रसिद्धम्, तेनाविर्भावमात्रस्यैव सर्वत्र स्वीकृतत्वात्। नन्वित्थमसिद्धप्रकारप्रकाशनं परैश्चक्रे-स्वरूपेणासिद्धः,स्व-रूपं वाऽसिद्धं यस्य सोऽयं स्वरूपासिद्धः, यथा- अनित्यः शब्दः, चाक्षुषत्वादिति / ननु चाक्षुषत्वं रूपादावस्ति, तेनाऽस्य व्यधिकरणासिद्धत्वंयुक्तम्।न। रूपाद्यधिकरणत्वेनाप्रति-पादितत्वात्। शब्दधर्मिणि चोषदिष्टं चाक्षुषत्वं न स्वरूप-तोऽस्तीति स्वरूपासिद्धम् / विरुद्धमधिकरणं यस्य, स चासाव-सिद्धश्चेति व्यधिकरणासिद्धः, यथाअनित्यः शब्दः, पटस्य कृतकत्वादिति / ननु शब्देऽपि कृतकत्वमस्ति, सत्यं, न तु तथा प्रति-पादितम् / न चान्यत्र प्रतिपादितमन्यत्र सिद्धं भवति / मीमांसकस्य वा कुर्वतो व्यधिकरणासिद्धम् 2, विशेष्यमसिद्धं यस्यासौ विशेष्यासिद्धः, यथा- अनित्यः शब्दः, सामान्यवत्त्वे सति चाक्षुषत्वात् 3, विशेषणासिद्धः, यथा-अनित्यः शब्दः, चाक्षुषत्वे सति सामान्यवत्त्वात् 4, पक्षैकदेशासिद्धपर्यायः पक्षभागे-ऽसिद्धत्वात भागासिद्धः, यथा-अनित्यः शब्दः, प्रयत्नानन्त-रीयकत्वात् / ननु च वाद्यादिसमुत्थ-शब्दानामपीश्वरप्रयत्नपूर्व-कत्वात् कथं भागासिद्धत्वम् ? नैतत् / प्रयत्नस्य तीव्रमन्दादि भावा- नन्तरं शब्दस्य तथाभावो हि प्रयत्नानन्तरीयकत्वं विवक्षितम् / न चेश्वरप्रयत्नस्य तीव्रादिभावोऽस्ति, नित्यत्वात् / अनभ्युपगतेश्वरं Page #1031 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असिद्ध 847 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 असिद्ध प्रति वा भागासिद्धत्वम् 5, आश्रया-सिद्धः, यथा-अस्ति प्रधानं, विश्वस्य परिणामिकारणत्वात् 6, आश्रयैकदेशासिद्धः, यथा नित्याः प्रधानपुरुषेश्वराः, अकृत-कत्वात् / अत्र जैनस्य पुरुषः सिद्धो, न प्रधानेश्वरौ 7, सन्दिग्धा-श्रयासिद्धः, यथा-गोत्वेन संदिह्यमाने गवये आरण्यकोऽयं गौः, जनदर्शनोत्पन्नत्रासत्वात् 8, संदिग्धाश्रयैकदेशासिद्धः, यथा-गोत्वेन संदिह्यमाने गवये गवि च आरण्यकावेतौ गावौ, जनदर्शनोत्पन्नवासत्वात् 6, आश्रयसंदिग्धवृत्त्यसिद्धः, यथाआश्रयहेत्वोः स्वरूपनिश्चये आश्रये हेतुवृत्तिसंशये मयूरवानयं प्रदेशः, केकायितोपेतत्वात् 10, आश्रयैकदेशसंदिग्धवृत्त्यासिद्धः, यथाआश्रयहेत्वोः स्वरूपनिश्चये सत्येवाऽऽश्रयैकदेशे हेतुवृत्तिसंशये मयूरवन्तावेतौ सहकारकर्णिकारी, ततएव 11, व्यर्थविशेषणा-सिद्धः, यथा-अनित्यः शब्दः, सामान्यवत्त्वे सति कृतकत्वात् 12, व्यर्थविशेष्यासिद्धः, यथा-अनित्यः शब्दः, कृतकत्ये सति सामान्यवत्त्वात् १३,संदिग्धासिद्धः, यथा-धूमबाष्पादिविवेका-निश्चये कश्चिदाह-वह्निमानयं प्रदेशः, धूमवत्त्वात् 14, संदिग्ध-विशेष्यासिद्धः, यथा-अद्यापि रागादियुक्तः कपिलः, पुरुषत्वे सत्यद्याप्यनुत्पन्नतत्त्वज्ञानत्वात् 15, संदिग्धविशेषणासिद्धः, यथा-अद्यापि रागादियुक्तः कपिलः, सर्वदा तत्त्वज्ञानरहितत्वे सति पुरुषत्वात् 16, एकदेशासिद्धः, यथा- प्रागभावो वस्तु, विनाशोत्पादधर्मकत्वात् 17, विशेषणैकदेशासिद्धः, यथा-तिमिरमभावस्वभावम्, द्रव्य-गुणकर्मातिरिक्तत्वे सति कार्यत्वात्। अत्र जैनान् प्रति तिमिरे द्रव्यातिरेको न सिद्धः 18, विशेष्यैकदेशासिद्धः, यथा-तिमिरमभावस्वभावं, कार्यत्वे सति द्रव्यगुणकर्मातिरिक्त-त्वात् 16, संदिग्धैकदेशासिद्धः, यथानाऽयं पुरुषः सर्वज्ञः, रागवक्तृत्वोपेतत्वात्। अत्र लिङ्गादनिश्चिते रागित्वे संदेहः 20, संदिग्धविशेषणैकदेशासिद्धः, यथा- नाऽयं पुरुषः सर्वज्ञः, रागवक्तृत्वोपेतत्वे सति पुरुषत्वात् 21. संदिग्धविशे-ष्यैकदेशासिद्धः, यथा-नाऽयं पुरुषः सर्वज्ञः, पुरुषत्वे सति रागवक्तृत्वोपेत्वात् 22, व्यर्थंकदेशासिद्धः, यथा- अग्निमानयं पर्वतप्रदेशः,प्रकाशधूमोपेतत्वात् 23, व्यर्थविशेषणैकदेशा-सिद्धः, यथा-गुणः शब्दः, प्रमेयत्वसामा न्यवत्त्वे सति बाह्मैकेन्द्रियग्राह्यत्वात् / अत्र बाौकेन्द्रियग्राह्यस्यापि रूपत्वादि-सामान्यस्य गुणत्वाभावाद्व्यभिचारपरिहाराय सामान्यवत्त्वे सतीति सार्थकम्, प्रमेयत्वं तुव्यर्थम् 24, व्यर्थ-विशेष्यैकदेशासिद्धः, यथा-गुणः शब्दः, बाझैकेन्द्रियग्राह्यत्वे सतिप्रमेयत्वसामान्यवत्त्वात् 25, एवमन्येऽप्येकदेशासिद्ध्यादिद्वारेण भूयांसोऽसिद्धभेदाः स्वयमभ्यूह्य वाच्याः / उदाहरणेषु चैतेषु दूषणान्तरस्य सम्भवतोऽप्यप्रकृतत्वादनुपदर्शनम्। त एते भेदा भवद्भिः कथं नाऽभिहिताः? उच्यते-एतेषु ये हेत्वाभासतां भजन्ते, ते यदोभयवाद्यसिद्धत्वेन विवक्ष्यन्ते, तदोभयासिद्धेऽन्तर्भवन्ति / यदा त्वन्यतरासिद्धत्वेन, तदाऽन्यतरासिद्ध इति। व्यधिकरणासिद्धस्तु हेत्वाभासो न भव-त्येव। व्यधिकरणादपि पित्रोाह्मण्यात्पुत्रे बाह्यण्यानुमानदर्शनात, नटभटादीनामपि ब्राह्मण्यं कस्मान्नाऽयं साधयतीति चेत् ? | पक्षधर्मोऽपि पर्वतद्रव्यताः तत्र चित्रभानु किमिति नानुमापयति ? इति समानम्, व्यभिचाराचेत् तदपितुल्यम्।तत्पित्रोर्ब्राह्मण्यं हि तद्गमकम्।। एवं तर्हि प्रयोजनसम्बन्धेन सम्बन्धो हेतुः कथं व्यधिकरणः ? इति चेत्। ननु यदि साध्याधिगमप्रयोजक सम्बन्धाभावाद् वैयधिकरण्यमुच्यते, तदानीं संमतमेवैतदस्माकं दोषः, किन्तु प्रमेयत्वादयोऽपि व्यधिकरणा एव वाच्याः स्युन व्यभिचारोदयः / तस्मात्पक्षान्यधर्मत्वाभिधानादेव व्यधिकरणो हेत्वाभासः,ते सम्मतः, स चागमक इति नियम प्रत्याचक्ष्महे / अथ प्रतिभोहशक्त्याऽन्यथाभिधानेऽपि ब्राह्मणजन्यत्वादित्येवं हेत्वर्थं प्रतिपद्य साध्यं प्रतिपद्यते इति चेत्, एवं तर्हि प्रतिभोहशक्त्यैव पटस्य कृतकत्वादित्यभिधानेऽपि पटस्य कृतकत्वादनित्यत्वं दृष्टम्। एवं शब्दस्यापि, तत एव तदस्त्विति प्रतिपत्तौ नायमपि व्यधिकरणः स्यात्, तस्माद्यथोपात्तो हेतुस्तथैव तद्गमकत्वं चिन्तनीयम्। न च यस्मात्पटस्य कृतकत्वं तस्मात्तदन्येनाप्यनित्येन। भवित-व्यमित्यस्ति व्याप्तिः / अतोऽसौ व्यभिचारादेवागमकः / एवं काककार्यादिरपि। कथं वा व्यधिकरणोऽपि जलचन्द्रो नभश्चन्द्रस्य, कृत्तिकोदयो वा शकटोदयस्य गमकः स्यात् ? इति नास्ति व्यधिकरणो हेत्वाभासः / आश्रयासिद्धताऽपि न युक्ता / अस्ति सर्वज्ञः, चन्द्रोपरागादिज्ञानान्यथाऽनुपपत्तेरित्यादरेपिगमकत्वनिर्णयात्। कथमत्र सर्वज्ञधर्मिणः सिद्धिः इति चेत्, असिद्धिरपि कथमिति कथ्यताम् ? प्रमाणागोचरत्वादस्येति चेत्, एवं तर्हि तवापि तत्सिद्धिः कथं स्यात् ? ननु को नाम सर्वज्ञ-धर्मिणमभ्यघात, येनैष पर्यनयोगः सोपयोगः स्यादिति चेत् ? नैवम्। प्रमाणागोचरत्वादित्यतः सर्वज्ञो धर्मीन भवतीति सिषाधयिषितत्वात् / अन्यथेदमम्बरं प्रति निशिततर-तरवारिच्यापारप्रायं भवेत्। एवं च - आश्रयासिद्धता तेऽनुमाने न चेत् , साऽनुमाने मदीये तदा किं भवेत् ? / आश्रयासिद्धता तेऽनुमानेऽस्ति चेत्, साऽनुमाने मदीये, तदा किं भवेत् ? // 1 // यदि त्वदीयानुमानेनाऽऽश्रयासिद्धिरस्ति, तदा प्रकृतेऽप्यसौ मा भूद्, धर्मिण उभयत्राप्यैक्यात, अन्यस्याऽस्य प्रकृतानुपयोगित्वात्। अथाऽस्तितत्राऽऽश्रयाऽसिद्धिः, तदा बाधकाभावात् एषा कथंमदीयेऽनुमाने स्यादिति भावः / तथा च - विकल्पाद्धर्मिणः सिद्धिः, क्रियतेऽथ निषिध्यते। द्विधाऽपि धर्मिणः सिद्धि-र्विकल्पाते समागता॥१॥ द्वयमपि नाऽस्मि, करोमीत्यप्यनभिधेयम्, विधिप्रतिषेधयोर्युगपद्विधानस्य प्रतिषेधस्य चाऽसंभवात् / यदि च द्वयमपि न करोषि, तदा व्यक्तममूल्यक्रयी कथं नोपहासाय जायसे ? तथा-तायामाश्रयासिद्ध्युद्भावनाऽघटनात् / ननु यदि विकल्पसिद्वेऽपि धर्मिणि प्रमाणमन्वेषणीयम्, तदा प्रमाणसिद्धेऽपि प्रमाणान्तरमन्विष्यताम् / अन्यथा तु विकल्पसिद्धेऽपि पर्याप्त प्रमाणा-न्वेषणेन, अहमहमिकया प्रमाणलक्षणपरीक्षणं परीक्षकाणा-मकक्षीकरणीयं च स्यात्, तावन्मात्रेणैव सर्वस्यापि सिद्धेः। तथा च चाक्षुषत्वादिरपि शब्दानित्यत्वे साध्ये सम्यग्हेतुरेव भवेदिति चेत्। तदत्यल्पम्। विकल्पाद्धिसत्त्वासत्त्वसाधारणं धर्मिमात्र प्रतीयते, न तु तावन्मात्रेणैव तदस्तित्वस्यापि प्रतीतिरस्ति, यतोऽनुमानाऽनर्थक्यं भवेत् / अन्यथा पृथिवीधरसाक्षात्कारे कृशानुमत्त्वसाधनमप्यपार्थकं भवेत् / तस्यानिमतोऽनग्निमतो वा प्रत्यक्षेणैव प्रेक्षणात् / अग्निमत्त्वाऽनग्निमत्त्वविशेषशून्यस्य शैलमात्रस्य Page #1032 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असिद्ध 848 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 असिद्ध प्रत्यक्षेण परिच्छेदाद् नानुमानानर्थक्यमिति चेत्, तहस्ति- संदिग्धवृत्त्यसिद्धोऽपिन साधुः, यतो यदि पक्षधर्मत्वं गमकत्वाङ्गमङ्गीकृतं त्वनास्तित्वविशेषशून्यस्य सर्वज्ञमात्रस्य विकल्पेनाऽऽकलनात् स्यात, तदा स्यादयं दोषः, न चैवम् / तत्किमाश्रयवृत्त्यनिश्चयेऽपि कथभत्राप्यनुमानानर्थक्यं स्यात् ? अस्तित्वनास्तित्वव्यतिरेकेण केकायितान्नियतदेशाधिकरणमयूर-सिद्धिर्भवतु ? नैवम्। केकायितमात्र कीदृशी सर्वज्ञमात्रसिद्धिरिति चेत् ? अग्निमत्त्वानग्निमत्त्वव्यतिरेकेण हि मयूरमात्रेणैवाविनाभूतं निश्चितमिति तदेव गमयति / क्षोणीधरमात्रसिद्धिरपि कीदृशी ? इति वाच्यम् / क्षोणीधरो- देशविशेषविशिष्टमयूरसिद्धौ तु देशविशेषविशिष्टस्यैव केकायितस्याऽयमित्येतावन्मात्रज्ञप्तिरेवेति चेत्, इतरत्रापि सर्वज्ञ इत्येतावन्मात्र- विनाभावावसाय इति केकायितमात्रस्य तद्व्यभिचारसंभवादेवाज्ञप्तिरेव साऽस्तु, केवलमेका प्रमाणलक्षणोपपन्नत्वात् प्रामाणिकी, गमकत्वम् / एवमाश्रयै-कदेशसंदिग्ध-वृत्तिरप्यसिद्धो न भवतीति। तदन्या तु तद्विपर्ययाद्वैकल्पिकीति / ननु किमनेन दुर्भगाऽभरण व्यर्थविशेषणविशेष्या-सिद्धावपि नासिद्धभेदौ, वक्तुरकौशलमात्रत्वाभारायमाणेन विकल्पेनप्रामाणिकः कुर्यादिति चेत् ? तदयुक्तम् / यतः द्वचनवैयर्थ्यदोषस्य। एवं व्यर्थकदेशासिद्धादयोऽपि वाच्याः। ततः स्थितप्रामाणिकोऽपि षट्तीपरितर्ककर्कशशेमुषीविशेषसङ्ख्यावद्विराजि- मेतद्एतेष्वसिद्ध-भेदेषु संभवन्त उभयासिद्धान्यतरासिद्धयोरन्तराजसभायां खरविषाणमस्तिनास्ति वेति केनापि प्रसर्पद्दोद्धरकन्धरण भवन्ति / नन्वन्यतरासिद्धो हेत्वाभास एव नास्ति। तथाहि-परेणासिद्ध सापेक्षं प्रत्याहतोऽवश्यं पुरुषाभिमानी किञ्चिद् ब्रूयाद्, न तूष्णीमेव इत्युद्भाविते यदि वादी न तत्साधकं प्रमाणमाचक्षीत, तदा पुष्णीयात्, अप्रकृतं च किमपि प्रलपन् सनिकारं निस्सार्येत, प्रमाणाभावादुभयोरप्यसिद्धः / अथाऽऽचक्षीत, तदा प्रमाणस्याप्रकृतभाषणे तु विकल्पसिद्ध धर्मिणं विहाय काऽन्या गतिरास्ते ? | पक्षपातित्वादुभयोरप्यसौ सिद्धः। अथवा- यावद् न परं प्रति प्रमाणेन अप्रामाणिके वस्तुनि मूकवावदूकयोः कतरः श्रेयानिति स्वयमेव प्रसाध्यते तावत्तं प्रत्यसिद्ध इति चेत्, गौणं त_सिद्धत्वम्, नहि विवेचयन्तु तार्किकाः? इति चेत्। ननुभवान् स्वोक्तमेव तावद्विवेचयतु, रत्नादिपदार्थस्तत्त्वतोऽप्रतीयमानस्तावन्तमपि काल मुख्यतस्तदामूकतैव श्रेयसीति च पूत्करोति निष्प्रमाणके वस्तुनीति विकल्पसिद्धं भासः / किञ्च-अन्यतरासिद्धो यदा हेत्वाभासस्तदा वादी निगृहीतः धर्मिणं विधाय मूकताधर्म च विदधाती-त्यनात्मज्ञशेखरः / स्यात्, न च निगृहीतस्य पश्चादनिग्रह इति युक्तम्, नापि हेतुसमर्थन तस्मात्प्रामाणिकेनापि स्वीकर्तव्यैव क्वापि विकल्पसिद्धिः। न च सैव पश्चाद् युक्तम्,निग्रहान्तत्वाद्वादस्येति। अत्रोच्यते-यदा वादी सम्यम्हेतुत्वं प्रतिपद्यमानोऽपि तत्समर्थनन्यायविस्मणादिनिमित्तेन प्रतिवादिनं सर्वत्रास्तु, कृतं प्रमाणेनेति वाच्यम्। तदन्तरेण नियतव्यवस्थाऽयोगात्। एको विकल्पयति, अस्ति सर्वज्ञः, अन्यस्तु नाऽस्तीति किमत्र प्रानिकान् वा प्रतिबोधयितुं न शक्नोत्यसिद्धतामपि नानुमन्यते, तदाऽन्यतरासिद्धत्वेनैव निगृह्यते। तथा-स्वयमनभ्युपगतोऽपि परस्य प्रतिपद्यताम् ? प्रमाणमुद्राव्यवस्थापिते त्वन्यतरस्मिन् धर्मे दुर्द्धरोऽपि सिद्ध इत्येतावतैवोपन्यस्तो हेतुरन्यतरासिद्धो निग्रहाधिकरणम्। यथाकः किं कुर्यात् ? प्रमाणसिद्ध्यनर्हे तु धर्मिणि सर्वज्ञखपुष्पादौ साङ्ख्यस्य जैन प्रत्यचेतनाः सुखादयः, उत्पत्तिमत्वाद् घटवदिति / विकल्पसिद्धिरपि साधीयसी, तार्किक-चक्रचक्रवर्तिनामपि तथाव्यवहारदर्शनात् / एवं शब्दे चाक्षुषत्वमपि सिद्धयेदिति चेत् ? सत्यम् / ननु कथं तर्हि प्रसङ्गसाधनं सूपपादं स्यात् ? तथा च प्रमाणप्रसिद्धव्याप्तिकेन वाक्येन परस्यानिष्टत्वापादनाय प्रसञ्जनं तद्विकल्पसिद्ध विधाय यदि तत्रास्तित्वं प्रमाणेन प्रसाधयितुं शक्यते, प्रसङ्गः। यथा-यत्सर्व-थैकंतन्नानेकत्र वर्तते, यथैकः परमाणुस्तथा च तदानीमस्तु नाम तत्सिद्धिः, न चैवम्, तत्र प्रवर्त्तमानस्य सर्वस्य हेतोः सामान्यमिति कथमनेकव्यक्तिवर्ति स्यात् ? अनेकव्यक्तिवर्तित्वाभावं प्रत्यक्षप्रतिक्षिप्तपक्षत्वेनाकक्षीकारा हत्वात् , ततः कथम व्यापक-मन्तरेण सर्वथैक्यस्य व्याप्यस्यानुपपत्तेः / अत्र हि वादिनः स्तित्वाप्रसिद्धौ शब्दे चाक्षुषत्वसिद्धिरस्तु ? एवं च नाश्रयासिद्धो स्याद्वादिनःसर्वथैक्यमसिद्धमिति कथं धर्मान्तरस्थानेकव्यक्तिवर्तित्वाहेत्वाभासः समस्तीति स्थितम् / न चैवं विश्वस्य परिणामिकारण भावस्य गमकं स्यादिति चेत् ? तदयुक्तम्। एकधर्मोपगमेधर्मान्तरोपगमत्वादित्यस्यापि गमकता प्राप्नोति, अस्य स्वरूपासिद्धत्वात् संदर्शनमात्रतत्परत्वेनास्य वस्तुनिश्वायकत्वाभावात्, प्रसङ्गप्रधानासिद्धौ विश्वस्य तत्परिणामित्वासिद्धेः। एवमाश्रयैकदेशासिद्धोऽपि विपर्ययरूपस्यैव मौलहेतोस्तन्निश्चाय-कत्वात् / प्रसङ्गः खल्यत्र न हेत्वाभासः। तर्हि प्रधानात्मानौ नित्यावकृतकत्वादित्ययमप्यात्मनीव व्यापकविरुद्धोपलब्धिरूपः / अनेकव्यक्तिवर्तित्वस्य हि व्यापकमप्रधानेऽपि नित्यत्वं गमयेत् / तदसत्यम्। नित्यत्वं खल्वाद्यन्तशून्य नेकत्वम्, एकान्तैकरूपस्यानेकव्यक्तिवर्तित्वविरोधात्। एकान्तैकसद्रूपत्वम्, आद्यन्तविरहमानं वा विवक्षितम् ? आद्येऽत्यन्ताभावेन रूपस्य सामान्यस्य प्रतिनियतपदार्थाधेयत्वस्वभावादपरस्य व्यभिचारः, तस्याकृत-कस्याप्यतद्रूपत्वात् / द्वितीये सिद्धसाध्यता, स्वभावस्याऽभावेनाऽन्यपदार्थाधयत्वासंभवात् तद्भावस्य तदभावअत्यन्ताभावरूपतया प्रधानस्याद्यन्तरहितत्वेन तदभाववादिभिरपि स्य चाऽन्योन्यपरिहारस्थितलक्षणत्वेन विरोधादिति सिद्धमनेकत्र स्वीकारात्। तर्हि देवदत्तवान्ध्येयौ वक्त्रवन्तौ, वक्तृत्वादित्ययं हेतुरस्तु वृत्तेरनेकत्वं व्यापकम्, तद्विरुद्धं च सर्वथैक्यं सामान्ये संमतं तवेति / नैवम्।नवान्ध्येयो वक्त्रवान्, असत्त्वादित्यनेन तद्बाधनात्। तदसत्त्वं नाऽनेकवृत्तित्वं स्याद्विरोध्यैक्यसद्भावेन व्यापकस्यानेकत्वस्य चसाधकप्रमाणाभावात् सुप्रसिद्धम्। संदिग्धाश्रयासिद्धिरपिन हेतुदोषः, निवृत्त्या व्याप्यस्यानेकवृत्तित्वस्याऽवश्यं निवृत्तेः। न च तन्निवृत्तिहेतोः साध्येनाऽविनाभावसंभवात् / धय॑सिद्धिस्तु पक्षदोषः स्यात् / रभ्युपगतेति लब्धावसरः प्रसङ्गविपर्ययाख्यो विरुद्धव्याप्तोपलब्धिसाध्यधर्मविशिष्टतया प्रसिद्धो हि धर्मी पक्षः प्रोच्यते, न च रूपोऽत्र मौलो हेतुः, यथा-यदनेकवृत्ति तदनेकम् / यथा-अनेकसंदेहास्पदीभूतस्यास्य प्रसिद्धिरस्तीति पक्षदोषेणैवास्य गतत्वान्न भाजनगतं तालफलम्, अनेकवृत्ति च सामान्यमिति एकत्वस्यविरुद्धहेतोर्दोषो वाच्यः ! संदिग्धाश्रयैक्देशासिद्धोऽपि तथैव / आश्रय- | मनेकत्वम् / तेन व्याप्तमनेकवृत्तित्वम्, तस्योपलब्धिरिह मौलत्वं Page #1033 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असिद्ध 849 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 असिलोगभय चाऽस्यैतदपेक्षयैव प्रसङ्गस्योपन्यासात् / न चायमुभयोरपि न सिद्धः, असिप्पजीवि(ण)-पुं०(अशिल्पजीविन) न शिल्पजीवी अशिल्पसामान्ये जैनयोगाभ्यां तदभ्युपगमात्। ततोऽयमेव मौलो हेतुरयमेव च जीवी। चित्रकरणादिविज्ञानेनाऽऽजीविकामकुर्वति,उत्त०१५ अ०) वस्तुनिश्चायकः / ननु यद्ययमेव वस्तुनिश्चायकः कक्षीक्रियते, तर्हि किं "असिप्पजीवे अगिहे अमेत्ते'। उत्त० 15 अ०। प्रसङ्गोपन्यासेन ? प्रागेवायमेवोपन्यस्यताम्। निश्चयानमेव हि ब्रुवाणो असिमसिसरिच्छ-त्रि०(असिमषिसदृक्ष) करवालकज्जलतुल्ये, तं०) वादी वादिनामवधेयवचनो भवतीति चेत् / मैवम् / असिय(त)-त्रि०(असित) कृष्णे, प्रश्न० 3 आश्र० द्वार / आ० मौलहेतुपरिकरत्वादस्य। अवश्यमेव हि प्रसङ्गं कुर्वतोऽर्थः कश्चित् म०। श्यामे, जं०१ वक्ष०। अशुभे, विशे०। अनवबद्धे मूछमिकुर्वाणे निश्चाययितुमिष्टो, निश्चयश्च सिद्धहेतुनिमित्त इति यस्तत्र सिद्धो पकाधारपङ्कजवत्तत्कर्मणा दिह्यमाने, त्रि०ा सूत्र० 1 श्रु० 2 अ० हेतुरिष्टस्तस्यव्याप्यव्यापकभावसाधने प्रकारान्तरमेवैतत्। यत्सर्वथैकं १उ०। असङ्ग कुर्वति, आचा०१श्रु०५ अ०४ उ०) तन्नानेकत्र वर्तते इति व्याप्ति-दर्शनमात्रमपि हि बाधकं विरुद्धधर्माध्या असियके स-त्रि०(असितकेश) असिताः कृष्णाः केशाः येषां ते समाक्षिपतीत्यन्योऽयं साधनप्रकारः। एवं चनान्यतरासिद्धस्य कस्यापि असितकेशाः। कृष्णकेशे (युगलिके),जी०३ प्रतिका गमकत्वमिति // 51 // रत्ना०६ परिक्षण असिद्धिमग्ग-न०(असिद्धिमार्ग)न विद्यते सिद्धेर्मो क्षस्य विशि असियग-न०(असितक) दात्रे, भ०१४ श०७ उ०। आचा०) टस्थानोपलक्षितस्य मार्गो यस्मिस्तदसिद्धिमार्गम् / सिद्ध्यहेतो, असियगिरि-पुं०(असितगिरि) स्वनामख्याते पर्वते, "सव्वाणि वि सूत्र०२ श्रु०२अ०॥ असियगिरिम्मि तावसा समं तत्थगया'| आव० 4 अ०। आ० चू०। असिधारव्वयं-न०(असिधाराव्रत) असिधारायां संचरणीयमित्येवं रूपे असिरयण-न०(असिरत्न) चक्रवर्त्तिनां रत्नोत्कृष्ट खड्गे, स्था० नियमे, ज्ञा० 1 अ० 7 ठा०। स०। असिधाराग-न०(असिधाराक) असेारा यस्मिन् व्रते आक्रमणीयतया, असिरावणिकू वखननसम-त्रि०(असिरावनिकू पखननसम) तदसिधाराकम् / असिधारावदनाक्रमणीये, भ० "असिधारागं वयं असिरायामवनौ कूपखननमखननमेव, अनुदकप्राप्तिफलत्वात्, तेन चरिव्वयं' असेर्धारा यस्मिन् व्रते आक्रमणी-यतया तदसिधाराक, व्रत समम्। अविवक्षितफले, षो० 10 विव०। नियमः, चरितव्यमासेवितव्यम्, तदेतत्प्रवचनानुपालनं तद्वद्दुष्करमि- असिलक्खण-न०(असिलक्षण) खड्गलक्षणपरिज्ञाने, जं० त्यर्थः / भ०६ श०३३ उ० तचैवम् - असिधारागमण-न०(असिधारागमन)खड्गधाराया चलने, उत्त०१६ अङ्गुलशतोर्ध्वमुत्तम ऊनः स्यात् पञ्चविंशतः खड्गः। अ०। अङ्गुलमानाद् ज्ञेयो, व्रणोऽशुभो विषमपर्वस्थः / / 1 / / असिपंजर-न०(असिपञ्जर) खड्गशक्तिपञ्जरे, प्रश्न०२ संव० द्वार। अङ्गुलशतोर्ध्वमुत्तमः खड्गः पञ्चविंशत्यङ्गुलेन ऊनः अनयोः असिपंजरगय-त्रि०(असिपञ्जरगत) असिपञ्जरे शक्तिपञ्जरे प्रमाणयोर्मध्यस्थितः / प्रथमतृतीयपञ्चमसप्तमादिष्वङ्गुलेषु यः स्थितो गतः। खड्गशक्तिव्यग्रकररिपुपुरुषवेष्टिते, प्रश्न०२ संव० द्वार। व्रणः स अशुभः, अर्थादेव समाङ्गुलेषु द्वितीयचतुर्थ-षष्ठाष्टमादिषु यः असिपत्त-न०(असिपत्र) असिःखड्गः, स एव पत्रम्। स्था० 4 ठा०४ स्थितः स शुभः, मिश्रेषु समविषमाङ्गुलेषु मध्यम इत्यादि। जं०३ वक्षः। उ०ा असिः खड्गस्तस्य पत्रमसिपत्रम्।जी०३ प्रति०। अस्याकारपत्रे, ज्ञा०ा औ०। असिलक्षणप्रतिपादके शास्त्रे, सूत्र०१ श्रु०१अ० 1 उ०। भ०३ श०६ उ०ा खड्गे, ज्ञा० 16 अ० स०। असिः खड्गस्त असिलट्ठि-स्वी०(असियष्टि) खड्गलतायाम्,विपा० 1 श्रु०३ अ०। ज्ञान दाकारपत्रवद्वनं विकुळ यस्तत्समाश्रितनारकान-सिपत्रपातनेन औ०। तिलशश्छिनत्ति सोऽसिपत्रः / पुं० सं० 15 सम० भ०। नवमे असिलाहा-स्त्री०(अश्लाघा)असदोषोद्घट्टने,स्था०४ अ०१उ० परमाऽधार्मिके, प्रव०१८ द्वार। असिलील-न०(अश्लील)अमङ्गलजुगुप्साव्रीडाव्यञ्जके दोषविशेषे, अत्र नियुक्तिः - यथा नोदनार्थे चकारादिपदम्। रत्ना०७ परि०। कण्णो?णसकरचरणदसणट्ठणफुग्गऊरुबाहूणं। असिलेसा-स्त्री०(अश्लेषा)सर्पदेवताके नक्षत्रभेदे,ज्यो०६ पाहु०। सू० छयण भेयण साडण, असिपत्तधणूहि पाडंति ||7|| प्र०ा 'असिलेसाणक्खत्ते छत्तारे पण्णत्ते / स्था० 7 ठा०। (कण्णोट्ठ इत्यादि) असिप्रधानाः पत्रधनुर्नामानो नरकपाला | असिलोग-पुं०(अश्लोक)अकीर्ती, स०७ सम०। अयशसि, आव० असिपत्रवनं बीभत्सं कृत्वा तत्र छायाऽर्थिनः समागतान् नारकान्वराकान् 4 अ० अप्रशंसायाम,आव०१ अ०। अवणे, व्य०६ उ०। अस्यादिभिः पाटयन्ति, तथा-कर्णीष्ठनासिकाकरचरणदशनस्तन असिलोगभय-न०(अश्लोकभय) अश्लोकोऽश्लाघाऽकीर्तिरित्यनर्थान्तस्फिगूरुबाहूनां छेदनभेदनशातनादीनि विकुर्वितवाताहृतचलितत- रम् / स एव भयमश्लोकभयम् / अकीर्तिभये, यथा केनचिदानादिना रुपातितासिपत्रादिना कुर्वन्तीति / तदुक्तम् - छिन्नपादभुजस्कन्धा- श्लाघोपार्जिता, पश्चादपि तद्विनाशभीत्याऽकाम एव दानादौ प्रवर्तत इति / श्छिन्नकोष्ठनासिकाः। भिन्नतालुशिरोमेदाः, भिन्नाक्षिहृदयोदराः।।१।। दर्श०। एवं हि क्रियमाणे महदयशो भवतीति तद्भयान्न प्रवर्त्तत्त इति / सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ०।आ० चू०। स्था०७ ठा० आव० स्था०। Page #1034 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असिव 850- अभिषानराजेन्द्रः - भाग 1 असुइत्तभावणा असिव-न०(अशिव) क्षुद्रदेवताकृतज्वराद्युपद्रवे, व्य०२ उ०। ओघol भाषितवानित्यादिद्वेषतोऽयं श्रुतोपदेशेनाऽभाव्य-मनाभाव्यं करोति, व्यन्तरकृते व्यसने, आव० 4 अ०नि० चू० मारौ, व्य०४ उ०। अनाभाव्यमप्यभाव्यम्, सोऽव्यवहारी भावतो-ऽशुचिः / एतदेव असिवण-न०(असिवन)खड्गाकारपत्रवने,प्रश्न०१आश्रद्वार। सुव्यक्तमाहअसिवप्पसमणी-स्त्री०(अशिवप्रशमनी) कृष्णवासुदेवस्य भेर्याम्, "सा दव्वे भावे असुई, दव्वम्मी विट्ठमादिलित्तो उ। तत्थ तालिजइ जत्थ छम्मासे सव्वरोगा पसमंति जो तं सदं सुणति।" पाणऽतिवायादीहिं, भावम्मी होइ असुईओ।। बृ० 10 अशुचिर्दिधा-द्रव्ये भावे च / तत्र द्रव्ये विष्ठादिना लिप्तः, असिवाइखेत्त-न०(अशिवादिक्षेत्र)अशिवादिप्रधानक्षेत्रे, "विगिंचिय- आदिशब्दान्मूत्रश्लेष्मादिपरिग्रहः। भावे प्राणतिपातादिभि-र्भवत्यशुचिः / व्यमसिवाइखेत्तं च।" दश०१ अ०) व्य०३ उ०। असिवावण-न०(अशिवापन) विनाशप्राप्तौ, व्य०७ उ०) अश्रुति-त्रि० शास्त्रवर्जिते, भ०७ श०६ उ०। प्रश्नका असिह-पुं०(अशिख)यः शिरसो मुण्डनमात्रं कारयति,न च रजो- | असुइकुणिम-न०(अशुचिकुणिम) अपवित्रमांसे, तं०। हरणदण्डकपात्रादिकं धारयति,तस्मिन् गृहस्थभेदे,व्य०४ उ०। असुइजायकम्मकरण न०(अशुचिजातकर्मकरण) अशुचीनां जातअसीइ-स्त्री०(अशीति) विंशत्यूनशतसंख्यायाम्, प्रज्ञा०२पद। तं०! कर्मणां करणे, भ०११ श०११ उ०। रानालच्छेदादिकरणे, कल्प० असीभरक-पुं०(असीभरक) सीभरो नाम उल्लपन् परंलालया सिञ्चति, / 5 क्षा तत्प्रतिषेधादसीभरः / प्राकृतत्वात्स्वार्थिकप्रत्यय-विधानादसीभरकः। | असुइट्ठाण-न०(अशुचिस्थान) विट्प्रधाने स्थाने, आव०३ अ०। लालया परमसिञ्चति, व्य०३ उ०। विष्ठास्थाने, दर्श असीलया-स्त्री०(अशीलता) चारित्रवर्जित्वे, प्रश्न०२ आश्र० द्वार। | असुइत्तमावणा-स्त्री०(अशुचित्वभावना) देहस्याऽशुचित्वपर्यालोचअसीलमंत-त्रि०(अशीलवत्) सावधयोगाविरते, अविरतमात्रेच। सूत्र० नायाम, धा अशुचित्वभावनाऽपीत्थम् - 1 श्रु०७ अ०॥ रसासृग्मांसभेदोऽस्थि-मज्जाशुक्रान्त्रवर्चसाम्। असुअ-त्रि०(असुत) अपुत्रे, उत्त०२ अ०॥ अशुचीनां पदं कायः, शुचित्वं तस्य तत्कुतः ? ||1|| नवस्रोतःस्रवद्रिस्र-रसनिःस्यन्दपिच्छिले। असुआगइ-स्त्री०(अस्वाकृति) न्यग्रोधपरिमण्डलादिषु अप्रशस्त देहेऽपि शुचिसंकल्पो, महन्मोहविजृम्भितम् / / 2 / / संस्थानेषु, कर्म०५ कर्म० नवभ्यो नेत्र 2 श्रोत 2 नासा 2 मुख 1 पायूपस्थेभ्यः 1 स्रोतेभ्यो असुइ-त्रि०(अशुचि) न० त०। अपवित्रे, आ० म० प्र० प्रज्ञा०) निर्गमद्वारेभ्यः स्रवन विस्र आमगन्धिर्यो रसः, तस्य निस्यन्दो निर्यासः, अस्पृश्यत्वात्। ज्ञा०६पदा अशौचवति, औला विष्ठाऽसृ-क्लेदप्रधाने, तेन पिच्छिले विजिले। शेष सुगमम्। ध० 3 अधि०। सूत्र०२ श्रु०२ उादशा०। स्नानब्रह्मचर्या-दिवर्जितत्वात्तथाविधेसाधौ, भ०७ श०६ उ०। सदाऽविशुद्धे, तं०। विष्ठायाम्, दश०) पिं०। अमेध्ये, अथाशुचित्वभावनास्था०६ ठा० जी०। जंण अम्ह किंचि असुई भवति, तंणं उदएण य लवणाकरे पदार्थाः, पतिता लवणं यथा भवन्तीह। मिट्टआए अपक्खालिअंसुई भवति, एवं खलु अम्ह चोक्खा चोक्खायारा काये तथा मलाः स्युस्तदसावशुचिः सदा कायः / / 1 / / सुइसुइसमायारा भवेत्ता अभिसेअजलपूआप्पाणो अविग्घेण सग्गं कायः शोणितशुक्रमीलनभवो गर्भ जरावेष्टितो, गमिस्सामो / औ०। रारा तं० "असुइविलीणविगयवीभच्छा मात्राऽऽस्वादितखाद्यपेयरसकैर्वृद्धिं क्रमात्प्रापितः। दरिसणिज्जे" अशुचिषु विलीनो मनसः कलिमलपरिणामहेतुः, (विगयं क्लिद्यद्धातुसमाकुलः कृमिरुजागण्डूपदाद्यास्पदं, इति) विप्रनष्टं तदभिमुखतया प्राणिनां गतं गमनं यस्मिन् स तथा, कैर्मन्येत सुबुद्धिभिः शुचितया सर्वर्मलैः संकुलः? ||2|| बीभत्सया निन्दयाऽदर्शनीयो बीभत्सादर्शनीयः। ततो विशेषणसमासः / सुस्वादं शुभगन्धि मोदकदधिक्षीरेक्षुशाल्योदनअशुचिविलीनविगतबीभत्सादर्शनीयः। जी०३ प्रति०। आहाराद्यर्थम- द्राक्षापर्पटिकाऽमृताघृतपुरस्वर्गच्युताऽऽमादिकम्। व्यवहारिणि, व्य) भुक्तं यत्सहसैव यत्र मलसात्संपद्यते सर्वतः, तमेवाऽशुचिं द्रव्यभावभेदतः प्ररूपयति तं कायं सकलाशुचिं शुचिमहो ! मोहान्धिता मन्वते / / 3 / / दव्वे भावे असुई, भावे आहारवंदणादीहिं। अम्भःकुम्भशतैर्वपुर्ननु बहिर्मुग्धाः शुचित्वं कियत्कप्पं कुणइ अकप्पं, विविहेहिं रागदोसेहिं। कालं लम्भयथोत्तमं परिमलं कस्तूरिकाद्यैस्तथा। विष्ठाकोष्ठकमेतदङ्गकमहो! मध्ये तु शौचं कथंअशुचिर्बिंधा-द्रव्यतो भावतश्च / तत्र योऽशुचिना लिप्तगात्रो यो वा कारं नेष्यथ सूचयिष्यथ कथंकारं च तत्सौरभम् ? ||4|| पुरीषमुत्सृज्य पूतौ न निर्लेपयति, स द्रव्यतोऽशुचिः / भावे भावतः पुनरशुचिराहारबन्धनादिभिर्विविधैर्वा रागद्वेषः कल्प्यमकल्प्यं करोति। दिव्याऽऽमोदसमृद्धिवासितदिशःश्रीखण्डकस्तूरिकाकर्पूराकिमुक्तं भवति ? आहारोपधिशय्यादिनिमित्तं वन्दन-नीचैर्वृत्त्यादिना गुरुकुड्कुभप्रभृतयो भावा यदाश्लेषतः। वा तोषितः, यदि वा एष मम स्वगच्छसंबन्धी स्वकुलसंबन्धी दौर्गन्ध्यं दधति क्षणेन मलतां चाऽऽबिभ्रते सोऽप्यहो!, स्वगणसंबन्धीति रागतः,अथवा- न मामेष वन्दते,विरूपं वा / देहः कैश्चन मन्यते शुचितया वैधेयतां पश्यत / / 5 / / Page #1035 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असुइत्तभावणा ८५१-अभियानराजेन्द्रः-विभाग१ असुरकुमार इत्यशौचं शरीरस्य, विभाव्य परमार्थतः। चतुरिन्द्रियजाति 6 ऋषभनाराच 7 नाराच 8 अर्द्धनाराच हकीलिका सुमतिर्ममतां तत्र, न कुर्वीत कदाचन // 6|| प्रव० 67 द्वार। 10 सेवार्तकसंहनानि 11 न्यग्रोधमण्डलसंस्थान 12 सादि 13 वामन असुइबिल-न०(अशुचिबिल) परमाऽपवित्रविवरे, तं० 14 कुब्ज 15 हुण्डक 16 अप्रशस्तवर्ण 17 अप्रशस्तगन्ध 18 असुइय-त्रि०(अशुचिक) अपवित्रस्वरूपे, तं०। ज्ञा० स्था०। अमेध्ये अप्रशस्तरस 16 अप्रशस्त-स्पर्श 20 नरकानुपूर्वी 21 तिर्यगानुपूर्वी मूत्रपुरीषादौ, स्था० 10 ठा०। 22 उपघात 23 अ-प्रशस्तविहायोगति 24 स्थावर 25 सूक्ष्म 26 साधारण 27 अपर्याप्त 25 अस्थिर 26 अशुभ ३०दुभर्ग 31 दुःस्वर 32 असुइसंकिलट्ठि-न०(अशुचिसंक्लिष्ट) न० त०) अमेध्येन दुष्टे, भ६ / अनादेय 33 अयशोऽकीर्ति 34 रिति / उत्त० 33 अ० प्रव०॥ श०३३ उ० अशुभमनादेयत्वादि।अपूज्ये च कर्मभेदे, स्था०२ ठा०४ उ०। असुइसमुप्पण्ण-त्रि०(अशुचिसमुत्पन्न) अपवित्रोत्पन्ने, तं०। असुम(ह)तरंडुत्तरणप्पाय-(त्रि०)अशुभ (असुख) तर-ण्डोत्तरणप्राय) असुइसामंत-न०(अशुचिसामन्त) अमेध्यानां मूत्रपुरीषादीनां समीपे, अशुभमशोभनं, कण्टकादियोगादसुखं वा, तत एव दुःखहेतुत्वात् तच्च स्था० न 10 ठा० तत् तरण्डं च काष्ठादि, तेन यदुत्तरणं पारगमनं, तत्प्रायस्तत्कल्पोयःस असुखगइ-स्त्री०(असुखगति) अप्रशस्तविहायोगतौ,कर्म०५ कर्म०/ तथा / पञ्चा०६ विव०। कण्टकानुगत-शाल्मलीतरण्डोत्तरणतुल्ये, असुजाइ-स्त्री०(असुजाति) एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियजातिलक्षणासु "असुहतरंडुत्तरणप्पाओ दव्वत्थओ असमत्थो।" प्रतिका अप्रशस्तगतिषु, कर्म० 5 कर्म०। अशुभ(ह)त्त-न०(अशुभत्व)अमङ्गलतायाम्,भ०६श०३ उ०॥ असुज्झमाण-त्रि०(अशुध्यत्)अनपगच्छति, "असुज्झमाणे छेयविसेसा असुम(ह)दुक्खभागि(ण)-त्रि०(अशुभदुःखभागिन्) अशुभा-नुबन्धि विसोहति"। पञ्चा०१६ विव०। नि० चू०। यद्दुःखं, तद्भागिनः। प्रश्न०१ आश्र० द्वार।दुःखा-नुबन्धिदुःखभागिषु, असुद्ध-त्रि०(अशुद्ध) सावध, प्रश्न आश्र०२ द्वार। अविशुद्ध-कारिणि, भ०७श०६उन सूत्र० 1 श्रु० 8 अ० "असुद्धपरिणामसंकिलिट्ठ भणंति" || असुभ(ह)विवाग-न०(अशुभविपाक) असातादित्वेनोदयवति कर्मणि, अशुद्धपरिणामेन संक्लिष्टं संक्लेशवत्तत् तथा भणन्ति / प्रश्न १आश्र० स्था०४ ठा०४ उ०। द्वार। असुभा(हा)-स्त्री०(अशुभा) न विद्यते शुभो विपाको यासांता अशुभाः। असुद्धभाव-पुं०(अशुद्धभाव)अनन्तानुबन्ध्यादिसङ्गतमातृ- स्थानरूपे पं० सं०३ द्वार। विपाकदारुणकटुकरसासु पापकर्म-प्रकृतिषु,पं० सं० अप्रशस्ताऽध्यवसाये, पञ्चा० 18 विव० ३द्वार। (सर्वाश्चैताः 'कम्म' शब्दे तृतीयभागे 262 पृष्ठे वक्ष्यन्ते) असुद्धसभाव-पुं०(अशुद्धस्वभाव)औपाधिके ,उपाधिजनित- | असुभा(हा)णुप्पेहा-स्त्री०(अशुभानुप्रेक्षा) संसाराऽशुभत्वानु-चिन्तने, बहिर्भावपरिणमनयोग्ये, द्रव्या० 12 अध्या०। भ० 25 श०७ उ०। ग०। "कोहो य माणो य अणिग्गहीया, माया या असुभ(ह)-त्रि०(अशुभ) अशोभने, दर्श० अशुभरसगन्ध-स्पर्शयुक्ते, / लोभो य पवड्डमाणा / चत्तारि एते कसिणा कसाया, सिंचंति मूलाइ जी०१प्रति०। अशुभकारिणि, सूत्र०१ श्रु०५ अ० 130 / पापप्रकृतिरूपे पुणब्भवस्स" || स्था० 4 ठा० 1 उ०। कर्मणि, स्था०४ ठा०४ उ०ा आव० अपुण्यबन्धे, स्था०५ ठा०१ असुय-त्रि०(अश्रुत)अनाकर्णिते, स्था०८ ठा०। आचा०। प्रवचनउ०। अशर्मणे, दशा०८ अ०। द्वारेणानुपलब्धे, भ०२ श०८ उ०| असुभ(ह)कम्मबहुल-त्रि०(अशुभकर्मबहुल) कलुषकर्मप्रचुरे, प्रश्न० असुयणिस्सिय-न०(अश्रुतनिश्रित) सर्वथा शास्त्रसंस्पर्श-रहितस्य १आश्र० द्वार। तथातथाविधक्षयोपशमभावत एवमेव यथावस्थितवस्तुसंस्पर्शअसुम(ह)कि रियादिरहिय-त्रि०(अशुभक्रि यादिरहित) मतिज्ञानरूपे बुद्धिचतुष्के, नं०। ('आभिणिबोहियणाण' शब्दे अप्रशस्तकायचेष्टाप्रभृति विकले,आदिशब्दादश्रद्धादुष्ट मनो द्वितीयभागे 253 पृष्ठेऽस्य व्याख्या वक्ष्यते) योगविकलतापरिग्रहः / पञ्चा० 13 विव०॥ असुर-पुं०(असुर) भवनपतिव्यन्तरलक्षणे देवभेदद्वये, स्था०३ ठा०१ असुभ(ह)ज्झवसाण-न०(अशुभाध्यवसान) क्लिष्टपरिणामे, पञ्चा० उ०) पदैकदेशे पदसमुदायोपचारादसुरकुमारे, प्रव० 164 द्वार / नं०। 16 विव०। प्रश्न० भ०ा औ०। आ० म०। सूत्र०। स्था०। असुरस्थानोत्पन्नेषु असुभ(ह)णाम-न०(अशुभनामन्) अशुभानुबन्धि नामकर्मभेदे, उत्त० नागकुमारादिषु, सूत्र० 1 श्रु०१ अ०३ उ०। दानवे, अनु०॥ 33 अ०। यदुदयान्नाभेरधः पादादीनामवयवानामशुभता भवति, असुरकुमार-पुं०(असुरकुमार)असुराश्च ते नवयौवनतया कुमारातदशुभनाम / पादादिना हि स्पृष्टः परो रुष्यतीति तेषाम-शुभत्वम् / श्वेत्यसुरकुमाराः / स्था० 1 ठा० 1 उ०। भवनपतिभेदेषु, प्रज्ञा० कामिनीव्यवहारेण व्यभिचार इति चेत्। नैवम्।तस्य मोहनिबन्धनत्वात्। १पद। स्था० ('ठाण' शब्दे तदावासाः वक्ष्यन्ते) वस्तुस्थितिश्चेह चिन्त्यत इति ततोऽदोषः / पं० सं०३ द्वार / कर्म०। नवरमिहअशुभनामकर्मणः प्रकृतयो मध्यमभेदविव क्षया चतुस्त्रिंशद्भेदा भवन्ति। भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, नमसइत्ता तद्यथा-नरकगति 1 तिर्यग्गति 2 एकेन्द्रिय 3 द्वीन्द्रिय 4 त्रीन्द्रिय 5 एवं वयासी- अत्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे Page #1036 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असुरकुमार 852- अभिवानराजेन्द्रः-विभाग 1 असुरकुमार असुरकुमारा देवा परिवसंति ? णो इणढे समढे, एवं० जाव सद्धिं दिव्वाइं भोगभोगाइं मुंजमाणा विहरित्तए / एवं खलु अहे सत्तमाए पुढवीए, सोहम्मस्स कप्पस्स अहे जाव / अस्थि गोयमा ! असुरकुमारा देवा सोहम्मं कप्पं गया य गमिस्संति णं भंते ! ईसिप्पमाए पुढवीए असुरकुमारा देवा परिवसंति ? य। केवइकालस्सणं भंते ! असुरकुमारा देवा उई उप्पयंति० णो इणढे समढे / से कहिं खाइ णं भंते ! असुरकुमारा देवा जाव सोहम्मं कप्पं गया य गमिस्संति य? गोयमा ! अणंताहिं परिवसंति? गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तर- ओसप्पिणीहि अणंताहिं अवसप्पिणीहिं समइकंताहिं अत्थिणं जोयणसयसहस्सबाहल्लाए एवं असुरदेववत्तव्वयाए० जाव एस-भावे लोयच्छेरयभूए समुप्पजइ / जंणं असुरकुमारा देवा दिव्वाइं भोगभोगाई मुंजमाणा विहरंति / अत्थि णं मंते! उड्ढं उप्पयंति०, जाव सोहम्मे कप्पे। असुरकुमाराणं देवाणं अहे गतिविसए हंता अत्थि। केवइयाणं (एवं खलुअसुरकुमारेत्यादि) एवमनेन सूत्रक्रमेणेति। स चैवम् "उवरि भंते ! असुरकुमाराणं देवाणं अहे गतिविसएपण्णत्ते ? गोयमा ! एणं जोयणसहस्सं ओगाहेत्ता हेट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वजेत्ता मज्झे जाव अहे सत्तमाए पुढवीए, तचं पुण पुढविं गया य गमिस्संति अट्ठहत्तरे जोयणसयसहस्से, एत्थ णं असुरकुमाराणं देवाणं चोसद्धि य। किं पत्तियं णं भंते ! असुरकुमारा देवा तचं पुढविं गया या भवणावाससयसहस्सा भवंतीति अक्खाय-मित्यादि / (विउव्वेमाणा गमिस्संति य? गोयमा ! पुव्ववेरियस्स वा वेयणउदीरणयाए व त्ति) संरम्भेण महद्वैक्रिय शरीरं कुर्वन्तः / (परियारेमाणा व ति) पुव्व-संगइयस्स वेदणउवसामण्णयाए एवं खलु असुर परिचारयन्तः परकीयदेवीनां भोगं कर्तुकामा इत्यर्थः। (अहालहुस्सगाई कुमारा देवा तचं पुढविं गया य गमिस्संति य। अत्थि णं मंते ! ति) यथेति यथोचितानि लघुस्वकानि अमहास्वरूपाणि, महतां हि तेषां असुरकुमाराणं देवाणं तिरियगतिविसए पण्णत्ते? हंता! अत्थिा नेतुं गोपयितुं वा शक्यत्वादिति यथालघुस्वकानि / अथवा-लघूनि केवइयाणं भंते ! असुरकुमाराणं देवाणं तिरियगइविसए महान्ति वरिष्ठानीति च वृद्धाः। (आयाए त्ति) आत्मना, स्वयमित्यर्थः। पण्णत्ते ? गोयमा ! जाव असंखेज्जा दीवसमुद्दा नंदिस्सरवरं पुण (एगंतं ति) विजनं (अंतं ति) देश (से कहमियाणिं पकरेंति त्ति) अथ दीवं गया य गतिस्संति य / किं पत्तियं णं मंते ! असुरकुमारा किमिदानी रत्नग्रहणानन्तरमेकान्तापक्रमणकाले प्रकुर्वन्ति वैमानिकाः, देवा नंदिस्सरवरं दीवं गया य गमिस्संति य? गोयमा ! जे इमे रत्नादा-तृणामिति। (तओ से पच्छा कार्यपव्वहंति त्ति) ततो रत्नादानात् अरहंता भगवंतो एएसिणं जम्मणमहेसु वा निक्खमणमहेसु वा (पच्छत्ति) अनन्तरं (से त्ति) एषांरत्नादातृणामसुराणां कायंदेहं प्रव्यथन्ते णाणुप्पायमहिमासु वा परिनिव्वाणमहिमासु वा एवं खलु प्रहारैः प्रघ्नन्ति वैमानिका देवाः, तेषां च प्रव्यथितानां वेदना भवति, असुरकुमारा देवा नंदिस्सरवरं दीवं गया य गमिस्संति य / अस्थि णं भंते ! असुरकुमाराणं देवाणं उड्डगइविसए ? हंता जघन्येनान्तर्मुहूर्तम्, उत्कृष्टतः षण्मासान् यावत्। भ० 3 श०२ उ०। अत्थि / केवइयं च णं मंते ! असुरकुमारा देवा णं उर्छ किं निस्साए णं भंते ! असुरकुमारा देवा उर्ल्ड उप्पयंति० जाव गतिविसए ? गोयमा! जाव अचुए कप्पे सोहम्मं पुण कप्पं गया सोहम्मे कप्पे ? गोयमा! से जहा नामए इहं सबराइ वा बब्बराइ य गमिस्मंतिय। किं पत्तियं णं भंते ! असुरकुमारा देवा सोहम्म वा टंकणाइ वा भूचुयाइ वा पण्हायाइ वा पुलिंदाइ वा एणं महं कप्पं गया य गमिस्संति य ? गोयमा ! तेसिं देवाणं वणं वा गर्छ वा दुग्गं वा दरिं वा विसमं वा पव्वयं वा णीसाए भवपच्चइयवेराणुबंधे, तेणं देवा विकुव्वेमाणा वा परियारेमाणा सुमहल्लमवि अस्सबलं वा हत्थिबलं वा जोहबलं वा धणूबलं वा आयरक्खे देवे वित्तासेंति, अहालहुस्सगाई रयणाई गहाय वा आगलैंति, एवामेव असुरकुमारा देवा णण्णत्थ अरहंते वा आयाए एगंतमंतं अवक्कमंति / अत्थि णं भंते ! तेसिं देवाणं अरहंतचेइयाणि वा अणगारे भावियप्पणो निस्साए उड्डे अहालहुसगाईरयणाई? हंता अत्थिा से कहमिदाणिं पकरेंति, उप्पयंति० जाव सोहम्मे कप्पे। सव्वे वियणं भंते ! असुरकुमारा तओ से पच्छा कार्य पव्वहंति।पभूण मंते! तेसिं असुरकुमारा देवा उड्ढे उप्पयंति० जाव सोहम्मे कप्पे? गोयमा ! णो इणढे देवा तत्थ गया चेव समाणं ताहिं अच्छेरा हिं सद्धिं दिव्वाई समटे / महिड्डिया णं असुरकुमारा देवा उड्न उप्पयंति० जाव भोगभोगाइं मुंजमाणा विहरित्तए ? णो इणढे समढे, तेणं तओ सोहम्मे कप्पे। पडिनियत्तति, पडिनियत्तित्ता इहमागच्छइ, इहमागच्छइत्ता जइ 'सबराइ वा' इत्यादौ शबरादयोऽनार्य विशेषाः (गर्ल्ड व त्ति) णं ताओ अच्छराओ आढायंति परियाणंति / पभू णं भंते ! गर्ताः, (दुग्गं व त्ति) जलदुर्गादि, (दरिंवत्ति) दरी पर्वतकन्दरां, असुरकुमारा देवा ताहिं अच्छराहिं सद्धिं दिव्वाइं भोगभोगाई | (विसमं व त्ति) विषमं गर्ततर्वाद्याकुलभूमिरूपम्, / (निस्साए त्ति) मुंजमाणा विहरित्तए, अह णं ताओ अच्छराओ नो आढायंति निश्रयाऽऽश्रित्य (धणुबलं व ति) धनुर्द्धरबलं (आगलेंति ति) नो परियाणंति, णो णं पभू ते असुरकुमारादेवा ताहिं अच्छराहिं आकलयन्तिजेष्याम इत्यध्यवस्यन्तीति / (नन्नत्थ ति) ननु Page #1037 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असुरकुमार 853 - अभिधानराजेन्द्रः - विभाग 1 असेहिय निश्चितमत्र इहलोके, अथवा (अरिहंते वा णिस्साए उद्धं उप्पयंति) | असुसंधयण-न०(असुसंहनन) ऋषभनाराचादिषु अप्रशस्त-संहननेषु, नाऽन्यत्रतन्निश्रया अन्यत्र न, तां विनेत्यर्थः / भ० 3 श०२ उ०। कर्म०५ कर्मा किंपत्तियं णं मंते ! असुरकुमारा देवा उड्ढे उप्पयंति० जाव | असुह-न०(असुख) दुःखे, स्था०३ ठा०३ उ०। सोहम्मे कप्पे ? गोयमा ! तेसिणं देवाणं अहुणोववण्णगाण वा असूइ-त्रि०(असूयिन्) असूयतीति तच्छीलोऽसूयी। असूयधातोचरिमभवत्थाण वा इमेयारूवे अब्मथिए० जाव समुप्पज्जइ, अहो स्ताच्छीलिक-णक-प्राप्तावपि बाहुलकाद् णिन् / असूयाऽ-स्त्यस्येति णं अम्हेहिं दिव्वा देविड्डी लद्धा पत्ता अभिसमण्णागया असूयी। मत्वर्थीय इनिः / गुणेषु दोषाऽऽविष्कारिणि, स्या० 17 श्लोक जारिसियाणं अम्हेहिं दिव्वा देविड्डी० जाव अभिसमण्णागया असूइय-त्रि०(असूचित) व्यञ्जनादिरहिते, अकथयित्वा वा दते तारिसिया णं सक्केणं देविंदेणं देवरण्णा दिव्वा देविड्डी० जाव भोजनादौ, दश० 5 अ०२ उ०। अभिसमण्णागया, जारिसिया णं सक्केणं देविंदेणं० जाव अभिसमण्णागए तारिसिया णं अम्हेहिं वि जाव अभि असूउ-त्रि०(असूयु) मत्सरिणि, 'अहो! सुदृष्ट त्वदसूयुदृष्टम्' इतिपाठेन समण्णागए, तं गच्छामोणं सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो अंतियं किञ्चिदचारु / असूयुशब्दस्योदन्तस्योदयनाथैन्यायतात्पर्यपरिपाउन्भवामो पासामो, ताव सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो दिव्वं शुद्ध्यादौ मत्सरिणि प्रयोगादिति। स्या० 17 श्लो०) देविड्डि जाव अभिसमण्णागयं पासतु, ताव अम्हेहिं वि सक्कं असूण-त्रि०(अशून) अबलवति, सूत्र०१ श्रु०७ अ०। देविंदे देवराया दिव्वं देविड्व जाव अभिसमण्णागयं तं जाणमो, असूया-स्वी०(असूचा) न० त०ा परस्य दोषप्रतिषेधेनात्मनताव सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो दिव्वं देविनि० जाव स्तादृग्दोषभाषणे, "अप्पणो दोसं भासति, ण परस्स, एसा अभिसमण्णागयं जाणओ, ताव अम्हे वि सक्के देविंदे देवराया असूया / यथा - "अम्हे मो धणहीणा, आसि आगारम्मि इड्डिम दिव्वं देविष्ड्डि आभिसमण्णागयं / एवं खलु गोयमा! असुरकुमारा तुम्भे। एस असूया सूया, णवरं परवत्थुणिद्देसो' ||1 // नि० चू०१० उ०। देवा उड्ढें उप्पयंति० जाव सोहम्मे कप्पे। (इत्यादि 'आगाढवयण' शब्दे द्वितीयभागे 62 पृष्ठे वक्ष्यते) (किंपत्तियं ति) कः प्रत्ययो यत्र तत् किंप्रत्ययम्। (अहुणो-ववण्णगाणं | * असूया-स्त्री०। गुणेषुदोषाविष्करणे, "गुणेष्वसूयां दधतः परेऽमी, मा ति) उत्पन्नमात्राणां (चरिमभवत्थाणं व त्ति) भवचरमभागस्थानं, शिश्रियन्नाम भवन्तमीशम्।" स्या०३ श्लो। च्यवनावसरे इत्यर्थः / भ०३श०२ उ०। असूयावयण-न०(असूयावचन) अक्षमावचसि, दर्श०। असुरदार-न०(असुरद्वार) सिद्धायतनानां दक्षिणद्वारेषु, यत्राऽसुरा | असूरिय-पुं०(असूर्य) न विद्यते सूर्यो यस्मिन् सोऽसूर्यः। बहु-लान्धकारे वसन्ति। स्था०४ ठा०२ उ० कुम्भीपाकाकृती, सर्वस्मिन् वा नरकावासे, "असूरियं नाम महाभितावं, असुरसुर-त्रि०(असुरसुर) सुरसुरेत्यनुकरणशब्दोऽयम्। भ०७श०१ अधंतमंदुप्पतरं महंत'। सूत्र०१श्रु०५१०१ उ०६ उ० न० ब०॥ सुरसुरेत्येवंभूतशब्दवर्जिते, प्रथ०१ संव० द्वार। असूववाय-त्रि०(असूपपाद) दुर्घट, "अतोऽन्यथा सत्त्वमसूपअसुरिंद-पुं०(असुरेन्द्र) चमरे, बलिनि च। स०। ('इंद' शब्दे द्वितीयभागे पादम्।" स्या०२२ श्लो०) 534 पृष्ठेऽस्यव्याख्याऽवसेया) असेजायर-पुं०(अशय्यातर) वसतित्यागादिहेतुभिः शय्या तरत्वेनाआयप्पवायस्सणं पुव्वस्ससोलसवत्थूपण्णत्ता। चमरबलीणं व्यवहार्ये वसतिदातरि, नि०चू०२ उ०। (तत्कारणानि 'सागारियपिंड' उवारिवालेण सोलस जोयणसहस्साइं आयामविक्खंभेणं शब्दे वक्ष्यन्ते) पण्णत्ता। असेय-न०(अश्रेयस्) अकल्याणे, अष्ट० 32 अष्ट। चमरबल्योर्दक्षिणोत्तरयोरसुरकुमारराजयोः (उवारियालेण ति) असे ले सिपडि वनग-पुं०(अशैलेशीप्रतिपन्नक)शैलेशीनामा चमरचक्षाबलीचशाऽभिधानराजधान्योर्मध्योन्नताऽवतरत्पार्श्व- ऽयोग्यवस्था, तां प्रतिपन्नाः शैलेशीप्रतिपन्नाः / स्वार्थिकः कप्रत्ययः / पीठरूपेऽवतारिकल्पने षोडश योजनसहस्राण्यायामविष्कम्भाभ्यां तद्व्यतिरिक्ताः अशैलेशीप्रतिपन्नकाः / अयोग्य-वस्थामनापन्ने सयोगिनि वृत्तत्वात्तयोरिति! स०१६ सम०। संसारिणि, प्रज्ञा० 22 पद। असुरिंदवञ्जिय-त्रि०(असुरेन्द्रवर्जित) चमरबलिवर्जिते, भ० 14 श० असेस-त्रि०(अशेष) शेषरहिते कृत्स्ने, सूत्र०२ श्रु०५ अ०। सकले, * ६उ०ा अष्ट पञ्चा० 15 विव०। सर्वस्मिन्, पञ्चा० 10 विव०। आचा०। असुलभ-त्रि०(असुलभ) दुर्लभे, षो०५ विव०॥ असेससत्तहिय-न० (अशेषसत्त्वहित)समस्तप्राण्युपकारके, "जिणिंअसुवण-न०(अस्वपन) निद्राऽऽलस्यधाते, बृ०१ उ०। दवयण असेससत्तहियं" पञ्चा०१६ विव० असुवण्ण-त्रि०(असुवर्ण) न सुवर्णमसुवर्णम् / अप्रशस्त- असेहिय-न०(असैद्धिक)न० त०। सांसारिके, क्रियासिद्धौ अजाते वर्णगन्धरसस्पर्शषु, कर्म०५ कर्म। आकस्मिके, सूत्र असुविर-त्रि०(अस्वापिन्) अनिद्रालौ, नि०यू०१० उ०। सुहं वा जइ वा दुक्खं, सेहियं वा असेहियं / / Page #1038 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असेहिय 854 - अभिवानराजेन्द्रः-विभाग१ असोचा सुखं सैद्धिकं-सिद्धौ मोक्षे भवं सैद्धिकं, यदि वा दुःखमसैद्धिकं | असोगा-स्त्री०(अशोका) धरणनागकुमारेन्द्रसत्ककालमहाराजसांसारिकम् / अथवा- सैद्धिकमसैद्धिकं च सुखम् / यथा- स्याऽग्रमहिष्याम्, स्था०४ ठा०१उ०। श्रीशीतलस्य शासनदेव्याम्, सा स्रक्चन्दनाङ्गनाद्युपभोगक्रियासिद्धौ भवं सैद्धिकम्, आन्तरं च नीलवर्णा पद्मासना चतुर्भुजा वरदपाशयुक्तदक्षिणपाणिद्वया सुखमानन्दरूपमसैद्धिकम् / तथा-सैद्धिकमसैद्धिकं च दुःखम् / यथा- फलाऽङ्कुशयुक्तवामपाणिद्वया च / प्रव०२७ द्वार / नलिनकशाताडनाङ्कनादिक्रियासिद्धौ भवं सैद्धिकम्, ज्वरशिरो- विजयक्षेत्रपुरीयुगले, नलिनो विजयश्व अशोका पूः / जं०४ वक्ष०ा दो ऽर्तिशूलादिरूपमङ्गोत्थमसैद्धिकं दुःखम्। सूत्र०१श्रु०१अ०२ उ०। असोगाओ' / स्था०२ ठा०३ उ०। असोग-पुं०(अशोक) कङ्केल्लीनामके एकास्थिकवृक्षभेदे, औ०। प्रज्ञा० असोबा-अव्य०(अश्रुत्वा) प्राकृतधर्मानुरागादेव धर्मफलादिकल्प० स्था०। अशोकादयः पञ्च वर्णा भवन्ति ततो प्रतिपादकवचनमनाकघैत्यर्थे, भला विशेषणम्, "किण्हासोएइ वा''। रा०। आचा०ा अनु०। मल्लिजिनस्य अथाऽश्रुत्वा केवलपर्यन्तं लभते नवा? उच्यते - चैत्यवृक्षोऽशोकः / स०| चम्पायां स्वनामख्याते पार्श्वनार्थे, ती० रायगिहे० जाव एवं वयासी- असोचा णं भंते ! केवलिस्स 10 कल्प / पूर्वभवे चतुर्थबलदेवजीवे, स०। ति०। चतुःसप्ततितमे वा केवलिसावगस्स वा केवलिसावियाए वा केवलिउवासगस्स महाग्रहे, "दो असोगा' स्था०२ ठा०३ उ०। चं० प्र०ा सू०प्र०ा कल्प० वा केविलउवासियाए वा तप्पक्खियस्स वा तप्पक्खियसावगस्स अशोकवनदेवे च, जी०३ प्रति०। वीतशोके, त्रिला वाचा वा तप्पक्खियसावियाए वा तप्पक्खियउवासगस्स वा असोगचंद-पुं०(अशोकचन्द्र) श्रेणिकपुत्रे कूणिके, सच पितुः श्रेणिकस्य तप्पक्खियउवासियाए वा केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज पूर्ववैरीति दास्या अशोकवाटिकायामुज्झित इत्य-शोकचन्द्र सवणयाए ? गोयमा ! असोचा णं केवलिस्स वा० जाव नामाऽभवत् / आ० चू०४ अ०। आव०। ती०। ('कूणिय' शब्दे चैतद् तप्पक्खियउवासियाए वा अत्थगेइए केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेज सवणयाए, अत्थेगइए केवलिपन्नत्तं धम्मनोलभेज सवणयाए। दर्शयिष्यते) "राया तए असोगचंदए वेसालिं नगरिं गहेत्थि'। से केणतुणं भंते ! एवं वुच्चइ असोचा णं० जाव नो लभेज आ०म०प्र० आ०चूला('पारिणामिया' 'कूलवालुक' शब्दयोश्चोदा सवणयाए ? गोयमा ! जस्स णं नाणावरणि-जाणं कम्माण हरिष्यते) खओवसमे नो कडे भवइ / से णं असोया केवलिस्स वा० जाव असोगजक्ख-पुं०(अशोकयक्ष) विजयपुरे नगरे नन्दनवने उद्याने तप्पक्खियउवासियाए वा केवलिपण्णत्तं धम्मलभेज सवणयाए। स्वनामख्याते यक्षे, विपा०२ श्रु०३ अ०। जस्स णं नाणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ, असोगदत्त-पुं०(अशोकदत्त) साकेतनगरे स्वनामख्याते इभ्ये, यस्य सेणं असोचा केवलिस्स वा० जाव तप्पक्खिय-उवासियाए वा समुद्रदत्तसागरदत्तनामानौ भ्रातरौ / दर्श०| केवलिपण्णत्तं धम्मं नो लभेज सवणयाए / असोगराय-पुं०(अशोकराज) चम्पायां वासुपूज्यजिनेन्द्रपुत्रमद्य से तेण8 णं गोयमा ! एवं वुचइ, तं चेव० जाव नो लभेज वनृपतिपुत्रीलक्ष्मीकुक्षिजातरोहिणीनाम्न्या अष्टभ्रातृभगिन्याः स्वयं-वरे सवणयाए / असोचा णं भंते ! केवलिस्स वा० जाव वृते पत्यौ, ती०३५ कल्प तप्पक्खियउवासियाए वा केवलं बोहिं बुज्झेज्झा? गोयमा! असोचा णं केवलिस्स वा० जाव अत्थेगइए केवलं बोहिं असोगलया-स्त्री०(अशोकलता) तिर्यक्शाखाप्रसराभावाल्लता बुज्झेजा,अत्थेगइए केवलं बोहिं नो बुज्झेज्झा। से केणटेणं कृतिष्वशोकवृक्षेषु, जं०१ वक्ष०। मंते ! जाव नो बुज्झेज्झा ? गोयमा ! जस्स णं असोगवडिंसग-न०(अशोकावतंसक) सौधर्मादिविमानानां पूर्वस्या दरिसणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ, से दिश्यवतंसके। रा०ा प्रज्ञा०जी०। णं असोचा केवलिस्स वा० जाव केवलं बोहिं बुज्झेज्जा, जस्स असोगवण-न०(अशोकवन) अशोकप्रधाने वने, अनु०॥ णं दरिसणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ, असोगवणिया-स्त्री०(अशोकवनिका)अशोकप्रधाने लघुवने, आ०म० से णं असोचा केवलिस्स वा० जाव केवलं बोहिं नो बुज्झेजा। द्विा ते तेणतुणं० जाव नो बुज्झेजा। असोचा णं मंते ! केवलिस्स वा० जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलं मुंडे भवित्ता असोगवरपायव-पुं०(अशोकवरपादप)अत्युष्कृष्ट अशोकवृक्षे, "ईसिं आगाराओ अणगारियं पव्वएज्जा ? गोयमा ! असोचा णं असोगवरपायवसमुवट्ठिया उ"। जी०३ प्रति०। रा०। केवलिस्स वा० जाव उवासियाए वा अत्थेगइए केवलं मुडे असोगसिरि-पुं०(अशोकश्री) ६ब०॥ चन्द्रगुप्तस्यपौत्रे बिन्दु-सारस्य पुत्रे, भवित्ता आगाराओ अणगारियं पव्वएज्जा, अत्थेगइए केवलं पाटलिपुत्रे नगरे वीरमोक्षानन्तरं चन्द्रगुप्तोबिन्दु- सारोऽशोकश्रीः मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं नो पव्वएज्जा। सेकेणद्वेणं० सम्प्रतिः, राजानश्चैते उत्तरोत्तरं समृद्धिभाजो महाराजा अभवन्। कल्प० जाव नो पव्वएज्जा ? गोयमा ! जस्स णं धम्मंतराइयाणं 8 क्ष०ा "चंदगुत्तपपुत्तो उ, बिंदुसारस्स नत्तुओ। असोगसिरिणो पुत्तो, कम्माणं खओवसमे कडे भवइ, से णं असोचा केवलिस्स अंधो जायइ कागणि" |862 / / विशे०। बृला नि० चू० वा० जाव केवलं मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पव्वएजा। Page #1039 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असोच्चा 855 - अभिधानराजेन्द्रः - विभाग 1 असोचा जस्स णं धम्मंतराइयाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ, से णं असोचा केवलिस्स वा० जाव मुंडे भवित्ता० जाव नो पव्वएज्जा, से तेणढेणं गोयमा ! जाव नो पव्वएजा। असोचा णं भंते ! केवलिस्स० जाव उवासियाए वा केवलं बंभचेरवासं आवसेज्जा ? गोयमा! अत्थेगइए केवलं बंभचेरवासं आवसेज्जा, अत्थेगइए नो आवसेज्जा / से केणतुणं भंते ! एवं वुचइ० जाव नो आवसेजा? गोयमा ! जस्सणं चरित्तावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ, से णं असोचा केविलस्स वा० जाव केवलं बंभचेरवासं आवसेज्जा, जस्स णं चरित्तावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ, से णं असोचा केवलिस्स | वा० जाव नो आवसेजा / से तेणद्वेणं० जाव नो आवसेज्जा। असोचा णं भंते ! केवलिस्स वा० जाव केवलेणं संजमेणं संजमेज्जा ? गोयमा ! असोचा णं केवलिस्स वा जाव० उवासियाए वा अत्थेगइए केवलेणं संजमेणं संजमेजा, अत्थेगइए केवलेणं संजमेणं नो संजमेज्जा / से केणद्वेणं० जाव नो संजमेजा? गोयमा! जस्स णं जयणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ, से णं असोचा केवलिस्स वा० जाव केवलेणं संजमेणं संजमेजा, जस्स णं जयणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ, से णं असोचा केवलिस्स वा० जाव नो संजमेजा। से तेणटेणं गोयमा! जाव अत्थेगइए नो संजमेजा। असोचाणं भंते! केवलिस्सवा० जाव उवासियाए वा केवलेणं संवरेणं संवरेज्जा? गोयमा! असोचाणं केवलिस्स वा० जाव अत्थेगइए केवलेणं संवरेणं संवरेज्जा, अत्थेगइए केवलेणं० जाव नो संवरेजा। से केणतुणं० जाव नो संवरेज्जा ? गोयमा ! जस्सणं अज्झवसाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ, सेणं असोचा केवलिस्स वा० जाव केवलेणं संवरेणं संवरेज्जा, जस्सणं अज्झवसाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ, सेणं असोचा केवलिस्सवा० जाव नो संवरेजा। से तेणटेणं० जाव नो संवरेज्जा / असोचा णं भंते ! केवलिस्स वा० जाव केवलं आमिणिबोहियनाणं उप्पाडेजा? गोयमा ! असोचाणं केवलिस्स वा० जाव उवासियाए वा अत्थेग केवलं आमिणिबोहियनाणं नो उप्पाडेजा,। अत्थेगइए केवलं आमिनिबोहियनाणं उप्पाडेजा, से केण?णं० जाव नो उप्पाडेज्जा? गोयमा! जस्सणं आमिणिबोहियनाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ से णं असोचा केवलिस्स वा० जाव केवलं आभिणिबोहियनाणं उप्पाडेजा, जस्स णं आमिणिबोहियनाणावरणिज्जा णं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ, से णं असोचा के वलिस्स वा० जाव केवलं आमिणिबोहियनाणं नो उप्पाडेजा / से तेणटेणं जाव नो उप्पाडेजा / असोचा णं भंते ! केवलिस्स वा० जाव केवलं सुयनाणं उप्पाडेजा ? एवं जहा आमिणिबोहियनाणस्स वत्तव्वया भणिया, तहा सुयणाणस्स वि भाणियव्वा, नवरं सुयनाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमो भाणियव्यो। एवं चेव केवलं ओहिनाणं भाणियव्वं,नवरं ओहिनाणावरणिज्जाणं खओवसमो भाणियव्यो / एवं केवलं मणपञ्जवणाणं उप्पाडेजा, नवरं मणपज्जवनाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमं भाणियव्वं / असोचा णं मंते ! केवलिस्स वा० जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलनाणं उप्पाडेजा ? एवं चेव,नवरं केवलणाणावरणिज्जाणं कम्माणं खए भाणियब्वे, सेसं तं चेव / से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ० जाव केवलनाणं नो उप्पाडेजा। शुद्धदन्तोद्देशक इति उक्तरूपाश्चाऽर्थाः केवलिधर्मात् ज्ञायन्ते, तं चाऽश्रुत्वाऽपि कोऽपि लभत इत्याद्यर्थप्रतिपादनार्थमाह-(रायगिहेत्यादि) तत्र च (असोच त्ति) अश्रुत्वा धर्मफलादिप्रतिपादकवचनमनाकर्ण्य, प्राकृतधर्मानुरागादेवेत्यर्थः (केवलिस्स व ति) केवलिनो जिनस्य। (केवलिसावगस्स त्ति) केवली येन स्वयमेव पृष्टः श्रुतं वा येन तद्वचनमसौ केयलिश्रावकः, तस्य (केवलिउवासगस्स व त्ति) केवलिन उपासनां विदधानेन केवलिनैवान्यस्य कथ्यमानं श्रुतं येनाऽसौ केवल्युपासकः / (तप्पक्खियस्स त्ति) केवलिपाक्षिकस्य स्वयं बुद्धस्य (धम्म ति) श्रुतचारित्ररूपम्, (लभेज त्ति) प्राप्नुयात्। (सवणयाए त्ति) श्रवणतया श्रवणरूपतया, श्रोतुमित्यर्थः / (नाणावरणिज्जाणं ति) बहुवचनं ज्ञानावरणीयस्य मतिज्ञानावरणादिभेदेनाऽवग्रहमत्यावरणादिभेदेन च बहुत्वात्। इह चक्षयोपशमग्रहणामत्यावरणाद्येव तद्ग्राह्यं, नतु केवलावरणम्, तत्र क्षयस्यैव भावात्, ज्ञानावरणीयस्य क्षयोपशमश्च गिरिसरि-दुपलधोलनान्यायेनाऽपि कस्यचित्स्यात, तत्सद्भावे चाऽश्रुत्वाऽपिधर्म लभेत, श्रोतुं क्षयोपशमस्यैव तल्लाभेऽन्तरङ्गकारणत्वादिति / (केवलं बोहिं ति) शुद्धं सम्यग्दर्शनं (बुज्झेज त्ति) बुध्येताऽनुभवेदित्यर्थः। यथा प्रत्येकबुद्ध्यादिरेवमुत्तरत्राप्युदा-हर्त्तव्यम् / (दरिसणावरणिज्जाणं ति)। इह दर्शनावरणीयं दर्शनमोहनीयमभिगृह्यते बोधः,सम्यग्दर्शनपर्यायत्वात् / तल्लाभस्य च तत्क्षयोपशमजन्यत्वादिति / (केवलं मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं ति) केवलां शुद्धां सम्पूर्णा वाऽनगारतामिति योगः। (धम्मंतराइयाणं ति) अन्तरायो विधः, सोऽस्ति येषु तान्यन्तरायिकाणि धर्मस्य चारित्रप्रतिपत्तिलक्षणस्यान्तरायिकाणि धर्मान्तरायिकाणि,तेषां, वीर्यान्तरायचारित्रमोहनीयभेदाना-मित्यर्थः / (चरित्तावरणिज्जाणं ति) इह वेदलक्षणानि चारित्रावरणीयानि विशेषतो ग्राह्याणि, मैथुनविरतिलक्षणस्य ब्रह्मचर्यवासस्य विशेषतस्तेषामेवावारकत्वात् / (केवलेणं संजमेणं संजमेज त्ति) इह संयमः प्रतिपन्नचारित्रस्य तदतिचारपरिहारा ययतनाविशेषः / (जयणा-वरणिज्जाणं ति) इह तु यतनावरणीयानि Page #1040 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असोच्चा ८५६-अभिधानराजेन्द्रः - विभाग१ असोच्चा चारित्रविशेषविषयवीर्यान्तरायलक्षणानि मन्तव्यानि / (अज्झवसाणावरणिजाणं ति) संवरशब्देन श्रुताध्यवसायवृत्तेर्विवक्षितत्वात्तस्याश्च भावचारित्ररूपत्वेन तदावरणक्षयोपशमलभ्यत्वादध्यवसानावरणीयशब्देनेह भावचारित्रावरणीयान्युक्तानीति। पूर्वोक्तानेवाऽर्थान् पुनः समुदायेनाऽऽहअसोचाणं भंते! केवलिस्सवा० जावतप्पक्खिय-उवासियाए वा केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेज सवणयाए, केवलं बोहिं बुज्झेजा, केवलं मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पव्वएज्जा, केवलं बंभचेरं वासं आवसेजा, केवलेणं संजमेणं संजमेज्जा, केवलेणं संवरेणं संवरेजा, केवलं आमिणिबोहियनाणं उप्पा-डेजा० जाव केवलं मणपज्जवनाणं उप्पाडेज्जा० जाव केवलनाणं उप्पाडेजा ? गोयमा ! असोचा णं केवलिस्स वा० जाव उवासियाए वा अत्थेगइए केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेज सवणयाए, अत्थेगइए केवलिपन्नत्तं धम्मं नो लभेज सवणयाए, अत्थेगइए केवलं बोहिं बुज्झेजा, अत्थेगइए केवलं बोहिं नो बुज्झेजा, अत्थेगइए केवलं मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पव्वएज्जा, अत्थेगइए० जाव नो पव्वएज्जा,अत्थेगइए केवलं बंभचेरवासं आवसेज्जा, अत्थेगइए केवलं० जाव नो आवसेजा, अत्थेगइए केवलेणं संजमेणं संजमेजा, अत्थेगइए केवलेणं संजमेणं नो संजमेजा, एवं संवरेण वि अत्थेगइए केवलं आभिणिबोहियनाणं उप्पाडेजा, अत्थेगइए० जाव नो उप्पाडेजा, एवं० जाव मणपज्जवनाणं, अत्थेगइए केवलनाणं उप्पाडेजा, अत्थेगइए केवलनाणं नो उप्पाडेजा।से केण?णं भंते ! एवं वुबइ असोचा णं तं चेव० जाव अत्थेगइए केवलनाणं नो उप्पाडेजा ? गोयमा ! जस्स नाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ, जस्सणं दंसणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ, जस्स णं धम्मंतराइयाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ, एवं चरित्तावरणिज्जाणं जयणावरणिज्जाणं अज्झवसाणावरणिज्जाणं आमिणिबोहियनाणावरणिजाणं० जाव मणपज्जवनाणावर-णिज्जाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ, जस्स णं केवलनाणावरणिजाणं० जाव खए नो कडे भवइ, से णं असोचा केवलिस्स वा० जाव केवलिपन्नत्तं धम्मं नो लभेज सवणयाए, केवलं बोहिं नो बुज्झेजा० जाव केवलनाणं नो उप्पाडेजा। जस्स णं नाणावरणिज्जाणं खओवसमे कडे भवइ, जस्स णं दरिसणावरणिजाणं खओवसमे कडे भवइ, जस्स णं धमंतराइयाणं एवं० जाव जस्स णं केवलनाणावरणिज्जाणं कम्माणं खए कडे भवइ, से णं असोचा केवलिस्स वा० जाव केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेज सवणयाए, केवलं बोहिं बुज्झेज्जा केवलनाणं उप्पाडेजा। (असोच्चा णं भंते ! इत्यादि) अथाऽश्रुत्वैव केवल्यादिवचनं यथा कश्चित्केवलज्ञानमुत्पादयेत् तथा दर्शयितुमाह तस्स णं भंते ! छटुं छटेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड्डं बाहाओ पगिज्झिय पगिज्झिय सूराभिमुहस्स आयावणभूमीए आयावेमाणस्स पगइभद्दयाए पगइउवसंतयाए पगइपयणुकोहमाणमायालोभयाए मिउ महवसंपन्नयाए अल्लीणयाए भद्दयाए विणीययाए अन्नया कयाइ सुभेणं अज्झवसाणेणं सुभेणं परिणामेणं लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं विसुज्झमाणीहिं अलीणयाए तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहापोहमग्गणगवेसणं करेमाणस्स विभंगे नामं अन्नाणे समुप्पजइ, से णं तेणं विभंगनाणसमुप्पन्नेणं जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं असंखेज्जाइं जोयणसहस्साई जाणए पासइ / से णं तेणं विभंगनाणेणं समुप्पन्नेणं जीवे विजाणए, अजीवे विजाणइ, पासंडत्थे सारंभे सपरिग्गहे संकिलिस्समाणे वि जाणइ, विसुज्झमाणे वि जाणइ, से णं पुव्वामेव सम्मत्तं पडिवाइ, समणधम्म रोएइ, रोएता चरित्तं पडिवज्जइ, लिंगं पडिवज्जइ, तस्सणं तेहिं मिच्छत्तपज्जवेहिं परिहायमाणेहिं सम्मईसणपज्जवेहि वड्डमाणेहिं, से विभंगे अन्नाणे सम्मत्तपरिग्गहिए खिप्पामेव ओही परावत्तइ। (तस्स ति) योऽश्रुत्वैव केवलज्ञानमुत्पादयेत् , तस्य कस्यापि "छटुं छठेणमित्यादि' च यदुक्तम्, तत्प्रायः षष्ठतपश्चरणवतो बालतपस्विनो विभङ्गज्ञानविशेष उत्पद्यत इति ज्ञापनार्थमिति / (पगिज्झिय त्ति) प्रगृह्य, धृत्वेत्यर्थः / “पगइभद्दयाए" इत्यादीनि तु प्राग्वत्। (तयावरणिज्जाणं ति) विभङ्गज्ञानावरणीयानां (ईहापोहमग्गणगवेसणं करेमाणस्स ति) इहेहा सदाभिमुखा ज्ञानचेष्टा, अपोहस्तु विपक्षनिरासो, मार्गणं चाऽन्वयधर्मालोचनं गवेषणं तु व्यतिरेकधर्मालोचनमिति, (सेसं ति) असौ बालतपस्वी (जीवे वि जाणइ त्ति) कथञ्चिदेव, न तु साक्षाद्, मूर्तगोचरत्वात् तस्य / (पासंडत्थे त्ति) व्रतस्थान् (सारंभसपरिग्गहे त्ति) सारम्भान् सपरिग्रहान् सतः। किंविधान जानातीत्याह - (संकिलिस्समाणे वि जाणए ति) महत्या संक्लिश्यमानतया संक्लिश्यमानानपि जानाति (विसुज्झमाणे वि जाणइ त्ति) अल्पीयस्या विशुद्ध्यमानतया विशुद्ध्यमानानपि जानाति, आरम्भादिमतामेवंस्वरूपत्वात् / (से णं ति) असौ विभङ्ग ज्ञानी जीवाजीवस्वरूपपाखण्डस्थ-संक्लिश्यमानतादिज्ञापकः सन् (पुवामेव त्ति) चारित्र-प्रतिपत्तेः पूर्वमेव, (सम्मत्त त्ति) सम्यग्भावं (समणधम्मं ति) साधुधर्म (रोएइ त्ति) श्रद्धत्ते चिकीर्षति वा / (ओहीपरावत्तइ ति) अवधिर्भवतीत्यर्थः। इह च यद्यपि चारित्रप्रतिपत्तिमादावभिधाय सम्यक्त्वं परिग्रहीतं, विभङ्ग ज्ञानमवधिर्भवतीति पश्चादुक्तं, तथापि चारित्रप्रतिपत्तेः पूर्व सम्यक्त्वप्रतिपत्तिकाल एव विभङ्गज्ञानस्यावधिभावो द्रष्टव्यः, Page #1041 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असोच्चा 857 - अभिधानराजेन्द्रः - विभाग 1 असोच्चा सम्यक्त्वचारित्रभावे विभङ्गज्ञानस्याऽभावादिति। अथैनमेव लेश्यादिभिर्निरूपयन्नाहसे णं भंते ! कइसु लेस्सासु होञ्जा ? गोयमा ! तिसु विसुद्धलेस्सासु होज्जा / तं जहा-तेउलेस्साए पम्हलेस्साए सुक्कलेस्साए / से णं भंते ! कइसु नाणेसु होजा? गोयमा ! तिसु आभिणिबोहियनाणसुयनाणओहिनाणेसु होजा / से णं भंते ! किं सजोगी होजा,अजोगी होज्जा ? गोयमा ! सजोगी होजा, नो अजोगी होजा। जदि सजोगी होजा, किं मणजोगी होज्जा, वइजोगी कायजोगी वा होजा? गोयमा ! मणजोगी होञ्जा, वइजोगी होज्जा, कायजोगी वा होजा। से णं भंते ! किं सागारोवउत्ते होजा,अणागारोवउत्ते वा होजा ? गोयमा ! सागारोवउत्ते वा होज्जा, अणागारोवउत्ते वा होजा। से णं भंते ! कयरम्मि संघयणे होजा? गोयमा! वइरो-सहनारायसंघयणे होजा। से णं भंते ! कयरम्मि संठाणे होजा? गोयमा ! छण्हं संठाणाणं अण्णयरे संठाणे होजा। सेणं भंते ! कयरम्मि उच्चत्ते होजा? जहन्नेणं सत्तरयणीए उक्कोसेण पंचधणुसइए होज्जा। से णं भंते ! कयरम्मि आउए होजा ? गोयमा ! जहन्नेणं साइरेगट्ठवासाउए , उक्कोसेणं पुव्वकोडिआउए होना। से णं भंते ! किं सवेदए होजा, अवेदए होजा? गोयमा! सवेदए होजा, नो अवेदए होज्जा / जइ सवेदए होज्जा, किं इत्थिवेदए होज्जा, पुरिसवेदए होज्जा, पुरिसनपुंसग- वेदए होजा, नपुंसगवेदए होजा? गोयमा! नो इत्थिवेदए होजा, पुरिसवेदए वा होज्जा, नो नपुंसगवेदए होज्जा, पुरिसनपुंसगवेदए वा होज्जा। सेणं भंते ! किं सकसाई होजा, अकसाई होजा? गोयमा! सकसाई होजा, नो अकसाई होजा? जइ सकसाई होजा, से णं भंते ! कइस कसाएसु होजा? गोयमा!चउसु संजलणकोहमाणमायालोमेसु होजा / तस्स णं मंते ! केवइया अज्झवसाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! असंखेज्जा अज्झवसाणा पण्णत्ता / ते णं भंते ! किं पसत्था, अप्पसत्था? गोयमा! पसत्था, नो अप्पसत्था। सेणं भंते! तेहिं पसत्थेहिं अज्झवसाणेहिं वडमाणे हिं अणंतेहिं नेरइयभवग्गहणेहिंतो अप्पाणं विसंजोएइ, अणंतेहिं तिरिक्खजोणिय० जाव विसंजोएइ, अणंतेहिं मणुस्सभवग्गहणे हिंतो अप्पाणं विसंजोएइ, अणंतेहिं देवभवग्गहणेहिंतो अप्पाणं विसंजोएइ, जाओ वि य से इमाओ नेरइयतिरिक्खजोणियममुस्सदेवगइनामाओ चत्तारि उत्तरप्पगडीओ य, तासिं च णं उवग्गहिए अणंताणुबंधी कोहमाणमायालोभ खवेइ, खवेइत्ता अपचक्खाणकसाए कोहमाणमायालोभे खवेइ, खवेइत्ता पचक्खाणावरणे कोहमाणमायालोभे खवेइ, खवेइत्ता, संजलणे कोहमाणमायालोभे खवेइ, खवेइत्ता पंचविहं नाणावरणिज्जं नवविहं दरिसणावरणिज्नं पंचविहं अंतराइयं तालमत्थाकडं च णं मोहणिज्ज कटु कम्मरय विकिरणकरं अपुव्वकरणं पविट्ठस्स अणंते अणुत्तरे निव्वाधाए निरावरणे कसिणे पडिपुण्णे केवलवरनाणदसंणे समुप्पज्जइ / (सेणंभंते! इत्यादि) तत्र (सेणं ति) सयो विभङ्गज्ञानी भूत्वाऽवधिज्ञानं चारित्रं च प्रतिपन्नः। (तिसु विसुद्धलेसासु होज्जत्ति) यतो भावलेश्यासु प्रशस्तास्वेव सम्यक्त्वादि प्रतिपद्यते, नाऽविशुद्धास्विति / (तिसु आभिणिबोहियेत्यादि) सम्यक्त्व-मतिश्रुतावधिज्ञानानां विभङ्ग विनिवर्तनकाले तस्य युगपदावादाद्ये ज्ञानत्रय एवाऽसौ तदा वर्त्तत इति / (णो अजोगी होज्ज त्ति) अवधि-ज्ञानकाले अयोगित्वस्याभावात् / 'मणजोगी' इत्यादि च एक-तरयोगप्रधान्यापेक्षयाऽवगन्तव्यम् / (सागारोवउत्ते वेत्यादि) तस्य हि विभङ्गज्ञानान्निवर्त्तमानस्योपयोगद्वयेऽपि वर्तमानस्य सम्य-क्त्वावधिज्ञानप्रतिपत्तिरस्तीति / ननु"सव्वाओ लद्धीओ सागा-रोवओगोवउत्तस्स भवंति'' इत्यागमादनाकारोपयोगे सम्यक्त्वा-वधिलब्धिविरोधः? नैवम्। प्रवर्द्धमानपरिणामजीवविषयत्वा-त्तस्यागमस्यावस्थितपरिणामापेक्षया चानाकारोपयोगेऽपि लब्धि-लाभस्य सम्भवादिति / (वइरोसहनारायसंघयणे होज त्ति) प्राप्तव्यकेवलज्ञानत्वात्तस्य, केवलज्ञानप्राप्तिश्च प्रथमसंहनन एव भवतीति। एवमुत्तरत्राऽपीति। (सवेयए होज ति) विभङ्गस्यावधिभावकाले न वेदक्षयोऽस्तीत्यसौ सवेद एव / (नो इस्थिवेयए होज ति) स्त्रिया एवंविधस्य व्यतिकरस्य स्वभावत एवाऽभावात् / (पुरिसनपुंसगवेयए वत्ति) वर्द्धितकत्वादित्वेन नपुंसकः पुरुषन-पुंसकः / (सकसाई होज ति) विभङ्गावधिकाले कषायक्षय-स्याऽभावात्। (चउसु संजलणकोहमाणमायालोभेसु होज त्ति) स ह्यवधिज्ञानतापरिणतविभङ्गज्ञानश्चरणं प्रतिपन्न उक्तः, तस्य च तत्काले चरणयुक्तत्वात्, संज्वलना एव क्रोधादयो भवन्तीति (पसत्थ त्ति) विभङ्गस्याऽवधिभावो हिनाऽप्रशस्ताध्यवसानस्य भवतीत्यत उक्तम्प्रशस्तान्यध्यवसायस्थानानीति / (अणंतेहिं ति) अनन्तैरनन्तानागतकालभाविभिः / (विसंजोएइत्ति) विसंयोजयति, तत्प्राप्तियोग्यताऽपनोदादिति। (जाओ वि यत्ति) या अपिच। (नेरइयतिरिक्खजोणियमणुस्सदेवगतिनामाओ त्ति) एतद-भिधानाः / (उत्तरप्पयडीओ यत्ति) नामकर्माभिधानाया मूलप्रकृते-रुत्तरभेदभूताः। (तासिंचणं तितासांच नैरयिकात्याधुत्तरप्रकृतीनां, चशब्दादन्यासां च, (उवग्गहिए त्ति) औपग्रहिकान् उपष्टम्भप्रयोजनान्, अनन्तानुबन्धिनः क्रोधमानमायालोभान् क्षपयति। तथा प्रत्याख्यानादींश्च तथाविधानेव क्षपयतीति / (पंचविहंनाणा-वरणिज्जं ति) मतिज्ञानावरणादिभेदान् (नवविहं दरिसणावरणिज्जं ति) चक्षुर्दर्शनाद्यावरणचतुष्कस्य, निद्रापञ्चकस्यचमीलनान्नवविधत्वमस्य। (पंचविहमंतराइयं ति) दानलाभभोगोपभोगवीर्यविशेषतित्वात् पञ्चविधत्वमन्तरायस्य, तत्क्षपयतीति संबन्धः / किं कृत्वेत्यत आह(तालमत्थाकडं चणं मोहणिजंकटु त्ति) मस्तकं मस्तकसूचीकृतं छिन्नं यस्यासौ मस्तककृत्तस्तालश्चासौ मस्तककृत्तश्च तालमस्तककृत्तः / छान्दसत्वाचैवं निर्देशः / तालमस्तककृत्त इव यत्तत्तालमस्तककृत्तम्, अयमर्थः- छिन्नमस्तकतालकल्पं च मोहनीयं कृत्वा / यथाहि Page #1042 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असोच्चा 858 - अभिधानराजेन्द्रः - विभाग असोचा छिन्नमस्तकस्तालः क्षीणो भवति, एवं मोहनीयं च कृत्वा क्षीणकृत्येति सोऽन्यत्र एकज्ञानादेकमुदाहरणं वर्जयित्वेन्यर्थः, तथाविधकल्पभावः / इदं चोक्तमोहनीयभेदशेषापेक्षया द्रष्टव्यमिति / अथ त्वादस्येति / (एगवागरणेण व त्ति) एकव्याकरणा-देकोत्तरादित्यर्थः / करमादनन्तानुबन्ध्यादिस्वभावे तत्र क्षपिते सति ज्ञानावरणीयादि (पव्वावेज व त्ति) प्रव्राजयेद्रजोहरणादि-द्रव्यलिङ्गदानतः। (मुंडावेज क्षपयत्येवेत्यत आह - (तालमत्थेत्यादि) तालमस्तकस्येव कृतं क्रिया व त्ति) मुण्डयेत् शिरोलुञ्चनतः (उवएसं पुण करेज त्ति) अमुष्य पार्च यस्य ततालमस्तककृतं, तदेवंविधं च मोहनीयम् / (कट्ट त्ति) प्रव्रजेत्यादिकमुपदेशं कुर्यात् / “सद्दावईत्यादि" शब्दापातिप्रभृतयो इतिशब्दस्येह गम्यमानत्वात्, इतिकृत्वा इति हेतोः, तत्र यथाक्रम जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्त्यभिप्रायेण हैमवतहरिवर्षरम्यकरण्यवतेषु, क्षपिते ज्ञानावरणीयादि क्षपयत्येवेति, तालमस्तकमोहनीययोश्च क्षेत्रसमासाभि-प्रायेण तु हैमवतैरण्यवतहरिवर्षरम्यकेषु भवन्ति, तेषु च क्रियासाधर्म्यमेव / यथा- तालमस्तक विनाशक्रियाऽवश्यंभाविता- तस्य भाव आकाशगमनलब्धिसंपन्नस्य तत्र गतस्य केवलज्ञानोत्पालविनाशा, एवं मोहनीयकर्मविनाशक्रियाऽप्यवश्यंभाविशेषक- दसद्भावे सति (साहरणं पडुच्च त्ति) देवेन नयनं प्रतीत्य (सोमणसवणे मविनाशेति। आह च- मस्तकसूचिविनाशे, तालस्य यथा धुवो भवति त्ति) सौमनसवनं मेरौ तृतीयं, (पंडगवणे त्ति) मेरौ चतुर्थ, (गहुए वत्ति) नाशः / तद्वत्कर्मविनाशोऽपि मोहनीयक्षये नित्यम् // 1 / / ततश्च गर्ने निम्ने भूभागे अधोलोकग्रामादौ (दरीए व त्ति) तत्रैव निम्नतरप्रदेशे कर्मरजोविकिरणकरं तद्विक्षेपकमपूर्वकरणम् असदृशाध्यवसाय (पायाले व ति) महापातालकलशे वलयामुखादी (भवणे व त्ति) विशेषमनुप्रविष्टस्याऽनन्तम, विषयानन्त्यात्, अनुत्तरं सर्वोत्तमत्वात, भवनवासिदेवनिवासे (पण्णरससु कम्मभूमीसु त्ति) पञ्चभरतानि निर्व्याघातं कुठ्यादिभिरप्रतिहननात्, निरावरणं सर्वथा स्वावरण पञ्चैरवतानि पञ्च महाविदेहा इत्येवंलक्षणासु कर्माणि कृषि-वाणिज्यादीनि क्षयात्, कृत्स्नं सकलार्थग्राहकत्वात्, प्रतिपूर्ण सकलस्वांशयुक्त तत्प्रधानभूमयः कर्मभूमयस्तासु (अड्डाइ इत्यादि) अर्द्ध तृतीयं येषां तयोत्पन्नत्वात्, केवलवरज्ञानदर्शनं केवलमभिधानतो वरज्ञानान्त- तेऽर्द्धतृतीयाः, तेच ते द्वीपाश्चेति समासः, अर्द्ध-तृतीयद्वीपाश्च समुद्रौ च रापेक्षया, ज्ञानंच दर्शनंचज्ञानदर्शनम्। समाहारद्वन्द्वः। ततः केवलादीनां तत्परिमितावर्द्धतृतीयद्वीपसमुद्राः, तेषां, स चासौ विवक्षितो देशरूपो कर्मधारयः / इह च क्षपणाक्रमः "अण्णमिच्छमीससम्म, अट्ठ भागोंशोऽर्द्धतृतीयद्वीपसमुद्रतदेकदेशभागः, तत्र। नपुंसित्थिवेयछवं च। पुमवेयं च खवेई, कोहाईए य संजलणे" 111 / / अनन्तरं केवल्यादिवचनाश्रवणे यत्स्यात्, तदुक्तम्, अथ इत्यादिग्रन्थान्तरप्रसिद्धो न चायऽमिहाऽऽश्रितः, यथा कथशित्क्षप तच्छ्यणे यत्स्यात् , तदाऽऽहणामात्रस्यैव विवक्षितत्वादिति। सोचा णं भंते ! केवलिस्स वा० जाव तप्पक्खियउवासियाए से णं भंते ! केवलिपण्णत्तं धम्मं आघवेज वा पन्नवेज वा वा केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज सवणयाए ? गोयमा ! सोचाणं परवेज वा ? णो इणढे समटे | नण्णत्थ एगणाएण वा केवलिस्स वा० जाव अत्थेगइए केवलिपण्णत्तं धम्म एवं जा एगवागरणेण वा। से णं भंते ! पव्वावेज वा मुंडावेज वा ? नो चेव असोचाए वत्तव्वया, सा चेव सोचाए वि भाणियव्वा, नवरं इणढे समढे, उवदेसं पुण करेजा। से णं भंते ! किं सिज्झइ० अमिलावो सोच त्ति, सेसं तं चेव गिरवसेसं० जाव जस्सणं जाव अंतं करेइ ? हंता सिज्झइ० जाव करेइ। से णं भंते ! किं मणपज्जवणाणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ, उड्ढे होजा, अहे होजा, तिरिय होजा? गोयमा! उड्ढे वा होज्जा, जस्स णं केवलणाणावरणिज्जाणं कम्माणं खए कडे भवइ, से अहे वा होज्जा, तिरियं वा होजा, उड्ढ होजमाणे सद्दावइ णं सोचा केवलिस्स वा० जाव उवासियाए वा केवलिपण्णत्तं वियडावइ गंधावइ मालवंतपरियाएसु वट्टवेयड्डपध्वएसु होजा, धम्मं लभेज सवणयाए, केवलं बोहिं बुज्झेज्ज० जाव केवलणाणं उप्पाडेजा, तस्स णं अट्ठमं अट्ठमेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं साहरणं पडुच्च सोमणसवणे वा पंडगवणे वा होजा, अहे होज्जमाणे गड्डुए वा दरीए वा होज्जा, साहरणं पडुच पायाले वा अप्पाणं भावेमाणस्स पगइभद्दयाए तहेव० जाव गवेसणं करेमाणस्स ओहिणाणे समुप्पज्जइ, से णं तेणं ओहिणाणेणं भवणे वा होज्जा, तिरियं होज्जमाणे पण्णरससु कम्मभूमीसु / समुप्पण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं असंखेन्जाई होजा, साहरणं पडुच्च अड्वाइजदीव-समुद्दतदेक्कदेसमाए होज्जा। अलोए लोअप्पमाणमेत्ताइं खंडाई जाणइ पासइ / से णं भंते ! ते णं मंते ! एगसमएणं केवइया होज्जा ? गोयमा ! जहण्णेणं कइसु लेस्सासु होजा? गोयमा ! छसु लेस्सासु होज्जा / तं एक्को वा दो वा तिण्णि वा उक्केसेणं दस, से तेणटेणं गोयमा ! जहा-कण्हलेस्साए० जाव सुक्कलेस्साए। से णं भंते ! कइसु एवं वुच्चइ, असोचा णं केवलिस्स वा० जाव अत्थेगइए णाणेसु होज्जा ?गोयमा! तिसुवा चउसु वा होज्जा, तिसु होजमाणे केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेजसवणयाए, अत्थेगइए केवलि० जाव तिसु आभिणिवोहियणाणसुअणाणओहिणाणेसु होज्जा, चउसु नो लभेज सवणयाए० जाव अत्थेगइए केवलनाणं उप्पाडेजा, होज्जमाणे आमिणिबोहियनाणसुअणाणओहिणाणमणपज्जअत्थेगइए केवलनाणं नो उप्पाडेजा। वणाणेसु होज्जा / से णं भंते ! किं सजोगी होजा? एवं, (आघवेज त्ति) आग्राहयेच्छिष्यानर्थापयेता, प्रतिपादनतः पूजा जोगोवओगो संघयणसंठाणं उच्चत्तं आउयं च, एयाणि सव्वाणि प्रापयेत् / (पण्णवेज त्ति) प्रज्ञापयेद् भेदभणनतो बोधयेद्वा / (परवेज | जहा असोचाए तहेव भाणियव्वाणि। से णं भंते ! किं सवेदए ति) उपपत्तिकथनतः (णऽण्णत्थएगनाएण वत्ति) न इतियोऽयं निषेधः, | पुच्छा? गोयमा ! सवेदए वा होज्जा, अवेदए वा होज्जा। जइ Page #1043 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असोच्चा 859 - अभिधानराजेन्द्रः - विभाग 1 अस्समुह अवेदए वा होजा, किं उवसंतवेदए, खीणवेदए होज्जा ? यदाह- सम्मत्तसुयं सव्वासु लभइ त्ति'' तल्लाभे चाऽसौ षट्स्वपि गोयमा ! णो उवसंतवेदए होजा खीणवेदए होजा। जइ सवेदए भवतीत्युच्यत इति / (तिसु व त्ति) अवधिज्ञानस्याऽऽद्यज्ञानहोजा, किं इत्थीवेदए होजा पुच्छा? गोयमा! इत्थीवेदए वा द्वयाविनाभूतत्वादधि-कृतावधिज्ञानी त्रिषु ज्ञानेषु भवेदिति। (चउसुवा होआ, पुरिसवेदए वा होज्जा, पुरिसणपुंसगवेदए वा होजा। से होज ति) मतिश्रुतमनःपर्यवज्ञानिनोऽवाधिज्ञानोत्पत्तौ ज्ञानचतुष्टयणं भंते! सकसाई होज्जा, अकसाई होजा? गोयमा! सकसाई भावा- चतुर्षु ज्ञानेष्वधिकृतावधिज्ञानी भवेदिति / (सवेयए वेत्यादि) वा होजा, अकसाई वा होजा। जइ अकसाई होजा, किं अक्षीणवेदस्यावधिज्ञानोत्पत्तौ सवेदकः सन्नवधिज्ञानी भवेत्, क्षीणवेदस्य उवसंतकसाई होजा, खीणकसाई होजा? गोयमा ! णो वाऽवधिज्ञानोत्पत्ताववेदकः सन्नयं स्यात् (नो उवसंतवेयए होज त्ति) उवसंतकसाई होजा, खीणकसाई होजा। जइसकसाई होजा उपशान्तवेदोऽयमवधिज्ञानी न भवति, प्राप्तव्य-केवलज्ञानस्यास्य से णं भंते ! कइसु कसाएसु होजा? गोयमा ! चउसु वा तिसु विवक्षितत्वादिति। (सकसाईवेत्यादि) यः कषायक्षये सत्यवधिं लभते वा दोसु वा एक्कम्मि वा होजा, चउसु होजमाणे चउसु स सकषायी सन्नवधिज्ञानी भवेत्, यस्तु कषायक्षयेऽसावकषासंजलणकोहमाणमायालोमेसु होजा, तिसु होजमाणे तिसु यीति ।(चउसु वेत्यादि) यद्यक्षीणकषायः सन्नवधिं लभते, तदाऽयं संजलणमाणमायालोभेसु होजा, दोसु होज्जमाणे दोसु चारित्रयुक्तत्वाच्चतुर्युसंज्वलनकषायेषु भवति। यदातुक्षपकश्रेणिवर्त्तित्वेन संजलणमायालोमेसु होजा, एगम्मि होज्जमाणे एगम्मि संज्वलनक्रोधे क्षीणेऽवधिं लभते, तदा त्रिषु संज्वलनमानादिषु, यदा तु संजलणलोभे होजा / तस्स णं मंते ! केवइया अज्झवसाणा तथैव संज्वलनक्रोधमानयोः क्षीणयोस्तदा द्वयोः, एवमेकत्रेति / भ०६ पण्णत्ता ? गोयमा! असंखेज्जा, एवं जहा असोचाए तहेव० जाव श०३१ उ० केवलणाणं समुप्पज्जइ। सेणं भंते ! केवलिपण्णत्तं धम्मं आघवेज भगवतीनवमशतकोक्तोऽश्रुत्वाकेवली धर्मोपदेशंदतेन वेत्यत्र एकं ज्ञानं वा पण्णवेज वापरूवेज वा? हंतागोयमा! आघवेज वा पण्णवेज एक प्रश्नं च मुक्त्वा धर्मोपदेशं न दत्ते इति तत्रैवोक्तमस्तीति / ही०२ वा परूवेज वा / से णं भंते ! पव्वावेज वा मुंडावेज वा? हंता! प्रकाश पव्वावेज वा मुंडावेज वा। से णं भंते ! सिज्झइ बुज्झइ० जाव | असोणिय-त्रि०(अशोणित) अरुधिरप्राप्ते, पञ्चा०१६ विव०। अंतं करेइ / तस्स णं भंते ! सिस्सा वि सिज्झंति० जाव अंतं असोम्मग्गहचरिय-न०(असौम्यग्रहचरित) क्रूरग्रहचारे, प्रश्न करेंति ? हंता! सिझंति० जाव अंतं करें ति। तस्स णं भंते! 2 आश्र0 द्वार। पसिस्सा वि सिझंति? एवं चेव, जाव अंतं करेंति / से णं असोयणया-स्त्री०(अशोचनता)शोकानुत्पादने, पा०। ध० भ०| भंते ! किं उद्धं होज्जा, अहे वा ? जहा असोचाए० जाव असोहिट्टाण-न०(अशोधिस्थान) कुशीलसंसाम, ओघ०| तदेकदेसभाए होजा / से णं भंते ! एगसमएणं केवइया अस्स-पुं०(अश्व) घोटके, दश० 1 अ० तं०। प्रज्ञा०। अश्विनी होजा? गोयमा! जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं नक्षत्रदेवतायाम्, ज्यो०१५ पाहु०। सू० प्र०) "दो अस्सा''। स्था०१ अट्ठसयं, से तेणटेणं गोयमा! एवं वुधइ-सोचा णं केवलिस्स ठा०१ उ०। वा० जाव केवलिउवासियाए वा० जाव अत्थेगइया केवलणाणं *अस्व-पुंगगन विद्यते स्वं द्रव्यमस्य सोऽयमस्वः। निर्ग्रन्थे, आचा० उप्पाडेजा, अत्थेगइया केवलणाणं णो उप्पाडेजा। २श्रु०१अ०१ उ०। (सोचाणमित्यादि) अथ यथैव केवल्यादिवचनश्रवणाऽवाप्त-बोध्यादेः अस्सकण्ण-पुं०(अश्वकर्ण) अश्वमुखस्यपरतोऽन्तीप, नं०। केवलज्ञानमुत्पद्यते, न तथैव तच्छ्रवणावाप्तबोध्यादेः, किन्तु अस्सकण्णी-स्त्री०(अश्वकर्णी) कन्दभेदे, भ०७ श०२ उ० जी०। प्रकारान्तरेणेति दर्शयितुमाह - "तस्स णमित्यादि" तस्सत्ति यः श्रुत्वा प्रज्ञा केवलज्ञानमुत्पादयेत्, तस्य कस्याऽपि, अर्थात् प्रतिपन्नसम्य अस्सकरण-न०(अश्वकरण) यत्राऽश्वानुद्दिश्य किञ्चित् क्रियतेतस्मिन् ग्दर्शनचारित्रलिङ्गस्य "अट्ठमं अट्ठमेणं" इत्यादि च यदुक्तं, तत्प्रायो स्थाने, आचा०२ श्रु०१० अ०। विकृष्टतपश्चरणवतः साधोरवधिज्ञानमुत्पद्यत इति ज्ञापनार्थमिति / (लोयप्पमाणमेत्ताई ति) लोकस्य यत्प्रमाण मात्रा, तदेव परिणामं येषां अस्सचोरग-पुं०(अश्वचोरक) घोटकचौरे, प्रशू०३ आश्र० द्वार। तानि तथा / अथैनमेव लेश्यादिभिर्निरूप-यन्नाऽऽह-(से णं भंते ! अस्सतर-पुं०(अश्वतर) एकखुर (खचर) भेदे, प्रज्ञा० 1 पद। इत्यादि) तत्र से णं ति सोऽनन्तरोक्त-विशेषणोऽवधिज्ञानी (छसुलेसासु अस्समुह-पुं०(अश्वमुख) आदर्शमुखस्य परतोऽन्तपि, प्रज्ञा० होज त्ति) यद्यपि भावलेश्यासु प्रशस्तास्वेव तिसृष्ववधिज्ञानं लभते, १पदानं० ('अंतरदीव' शब्देऽस्मिन्नेव भागे६८ पृष्ठेऽस्य वर्णक उक्तः) तथापि द्रव्यलेश्याः प्रतीत्यषट्स्वपिलेश्यासुलभते, सम्यक्त्वश्रुतवत्। अथाकारमुखे पुरुषाकाराऽन्याऽङ्गे च किन्नरे, वाच०। Page #1044 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्समेह 860 - अभिधानराजेन्द्रः-विभाग 1 अस्साववोहितित्थ अस्समेह-पुं०(अश्वमेध) अश्वो मेध्यते हिंस्यतेऽत्र। मेध-घञ्। यज्ञभेदे, वाचा 'षट् सहस्राणि युज्यन्ते, पशूनां मध्यमेऽहनि / अश्वमेधस्य वचनाद्, न्यूनानि पशुभिस्त्रिभिः" ||1|| अनु०। विशे० स्था०। अस्ससेण-पुं०(अश्वसेन) पार्श्वनाथस्य जिनस्य पितरि, प्रव० 11 द्वार। आव०। चतुर्दशे महाग्रहे, चं० प्र०२० पाहु०। सू० प्र०ा स्था०। अस्साउद्दिण्ण-त्रि०(असादोदीर्ण) असादनेन कर्मणोदीरिते, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। अस्साएमाण-त्रि०(अस्वादयत) ईषत्स्वादयति इक्षुखण्डादेरिव बहु त्यजति, भ० १२श०१ उ०। आचा०। अस्सात-पुं०(आस्वाद) रसनाऽऽह्लादके स्वादे, बृ०१उ०। अस्सामित्त-न०(अस्यामित्व) निःसङ्गतायाम्, पं०व०७द्वार। अस्सावबोहितित्थ-न०(अश्वावबोधितीर्थ) स्वनामख्याते तीर्थे, तीन नडिऊण सुव्वयजिणं, परोवयारिकरसिअमसिअरुइं। अस्साववोहितिथिस्स कप्पमप्पं भणाडि अहं / / 1 / / "सिरिमुणिसुव्ययसामी उप्पन्नकेवलो विहरंतो एगयाए इड्डपुराओ एगयाए ठाणगरयणिए सहिजोअणाणि लंघिअ पारद्धअस्समेहजपणेण जियसत्तुराइआ निअसेणा - तुरंगमं सव्वलक्खणसंपन्नं होमिउं मुच्छिओ। इमो अट्टज्झाणाओदुग्गइंजाहित्ति पडिबोहेउं लाडदेसमंडणे नम्मयानईअलंकिए भरुअच्छनयरे कोरिटवणं पत्तो। समवसरणे गया लोआ वंदिउं, राया वि गयारूढो आगम्भ भगवंतं पणमिओ। इत्थंतरे सो हरी सिच्छाए विहरतो नियत्तपुरिसेहिं समं तत्थागओ सामिणो रूवमप्पडिरूवं पासिंतो निचलो संजाओ। सुआ य धम्मदेसणा। तेण भाणिओ असो पुव्वभवो भगवया। जहा पुव्वभवे इहेव जंबुद्दीवे अवरविदेहे पुक्खलविजए चंपाए नयरीए सुरसिद्धो नाम राया अहमासि, मज्झपरममित्तं तुम मइसारो नाम मंती हुत्था। अहं नंदणगुरुपायमूले दिक्खं पडिवज्जिय पत्तो पाणयकप्पे / तत्थ वीसं सागरोवमाइं आउं परिपालित्ता तओ चुओ हं तित्थयरो जाओ। तुमं च उवजिअ नराओ भारहे यासे पउमि णिसंडनयरे सागरदत्तो नाम सत्थवाहो अहेसि मिच्छदिट्ठी विणीओ अ। अन्नया तुमए कारियं सिवाययणं, तप्पूयणत्थं च आरामो रोविओ। भावओ अएगो तस्स चिंताकरणे निउत्तो, गुरुआए से णं सव्यओ वि किरिआओ सव्वाचिंतो तुमं कालं गमेसि, जिणधम्मनामएणं सावएणं तुज्झ जाया परमा मित्ती, तेण सद्धिं एगया गओ तुम साहुसगासे। तेहिं देसणंतरे भणियं-जो कारवेइ पडिमं, जिणाण अंगुट्ठपव्वमित्तम्मि / तिरिनरयगइदुवारे, नूणं तेणऽगला दिण्णा ||1|| एवं सोऊण तुमे गिहिमागंतूण कारिआ हेममई जिणिंदपडिमा, पइहाविऊण तिसंझं पूइउमाढत्तो / तं अन्नदिअहे संपत्ते माहमासे लिंगपूरणपव्वं आराहेउं तुमं सिवाययणं पत्तो। तओ जडाधारीहिं विरसं विअ घयं कुंभीओ उत्तरिओ लिंगपूरणत्थं / तत्थ लग्गाओ घयपिपीलियाओ, जमिएहि निद्दयं पाएहिं मद्दिजमाणओ दद्रूण सिरं धूणित्तासारिउंलग्गो तुम। अहो ! एएसिंदसणीण वि निद्दयया। अम्हारिसा गिहिणो वराया कहं जीवदयं पालइस्संति ? तओ निअचेलं चलेहिं ताओ पउमज्जिया रुट्ठो तुम तेहिं निज्झत्थिउरे धम्मसंकरकारयअरहंतपासंडीहिन विडविओसित्ति। तओ सो सव्वधम्मविमुहो जाओ, परमकिविणो धम्मरसिलोअंहंसंतो मायारंतेहिं तिरिआओ अबंधित्ता भवं भमिऊण जाओ तुमं रायवाहणं तुरंगमो। तुज्झ चेव पडिबोहणत्थं अम्हाण वि मित्थाणगमणं ति ! सामिणो क्यणं सुया तस्स जायं जाइस्सरणं। गहिआयसम्मत्त- मूलदेसविरई, पञ्चक्खायंसचित्तं फासुअं तेण नीरं च गिण्हइ, छम्मासे निव्वाहिअ त्ति अ सो मरिऊण सोहम्मे महिड्डिओ सुरो जाओ / सो ओहिणा मुणिअ पुव्वभवं सामिसमोसरणठाणे रयणमयं चेइअमकासी। तत्थ सुव्वयसामिणो पडिमं अप्पाणं च अस्सरूवं ठाविअ गओ सुरालयं / तओ अस्सावबोहतित्थं तं पसिद्ध / सो देवो जत्तिअसंघविग्घहरणेणं तित्थं पभावितो कालेण नरभवे सिज्झिहइ / कालंतरेण सउलिआविहारू त्ति तं तित्थं पसिद्धं / कहं ? इहेव जंबुद्दीवे सिंहलदीवे रयणदेसे सिरिपुरनयरे चंदगुत्तो राया। तस्स चंदलेहा भारिआ। तीसे सत्तण्हं पुत्ताणं उवरि नरदत्ता देवी आगहणेणं सुदंसणा नाम धूआ जाया, अहीअसकलविज्जा पत्ता जुव्वणं / अन्नया अत्थाणे पि उच्छंगरायाए तीसे धणेसरो नाम नेगमा० भरुअच्छाओ आगतो / विजपासडिअतियमुअगंधे वाणिए य छीयं / तेण 'नमो अरहंताणं' ति पढिअं सोउं मुच्छिआ सा, कुट्टिओ अ वाणियओ, पत्ते चेयणाए य जाइसरणमुवगया एसा दटूण धम्मबंधु त्ति मोइओ। रण्णा मुच्छाकारणं पुच्छिआए तीए भणिअं-जहाऽहं पुटवभवे भरुअच्छे नम्मयातीरे कोरिंटवणे वडपायवे सउलिआ आसी। पाउसे अ सत्तरत्तं महावुट्ठी जाया। अट्ठमदिणे छुहाकिलंता पुरे भमंती अहं वाहस्स घरंऽगणाओ आमिसं घित्तुं उड्डीणा, वडीसहे निविट्ठा य, अणुपयमागएण वाहेण सरेण विद्धा, मुहाओ पडिअंपलं, सरं च गिणिहत्ता गओ सोऽवट्ठाणं / तत्थ करुणं रसंती उव्वत्तणपरिअत्तणपरा दिट्ठा एगेण सूरिणा, सित्ताय जलपत्तजलेणं, दिन्नो पंचनमुक्कारो सद्दहिओ अमए। मरिऊण अहं तुम्ह धूआ जायं ति / तओ सा विसयविरत्ता महानिब्बंधेण पिअरे आपुच्छिय तेणेव संजत्तिएण सद्धिं पट्ठिआ वाहणाणं सत्तसएहिं भरुअच्छे, तत्थ पोअसयं वत्थाणं पोअसयं दव्वनिचयाणं, एवं चंदणागरुदारुणं धन्नजलिंधणाणं नाणा-विहपक्कन्नफलाणं, पहरणाणं एवं छसया पोआणं पण्णासं, सत्थधराणं पण्णासं पाहुडाणं, एवं सत्तसयवाहणजुत्ता पत्ता समुद्दतीरं। तओ रण्णा तं वाहणवूहं सिंहले सरअवक्खंदसंकिण्णा मजिआए सेण्णाए पुरक्खोभनिवारणाय गंतुं पाहुडं च दाउंसुदंसणाआगमणेणं विन्नत्तो राया तेण संजत्तिएण।तओ सो पञ्चोणीए निग्गओ। पाहुड दाऊण पणमिओ। कन्नाए य वेसमहूसवो अजाओ। दिलु तं चेइअं, विहिणा वंदिअंपूइअंच, तित्थोववासो अ कओ, रण्णा दिण्णे पासा पच्छिआ रायणा य अट्ट वेलाउलाई अवसया गामाणं अट्ठसया वप्पाणं अट्ठसया पुराणं दिग्णा, एगदिने अजत्तिभूमि तुरंगमो चरइ, तत्तिअं पुव्वदिसाए, जत्तिअं व हत्थी जाइ, तत्तिआ पच्छिमाए दिण्णा। उवरोहेण सव्वं पडिवण्णं / अन्नया तस्सेवायरियस्स से निअपुव्वभवं पुच्छइ। जहा- भयवं ! केण कम्मुणा अहं सउलिआ जाया, कहं च तेण वाहेण अहं निहयत्ति? आयरिएहिं भणिअं- भद्दे ! वेयड्डपव्वए Page #1045 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्साववोहितित्थ 861- अभिवानराजेन्द्रः-विभाग 1 अहक्खाय उत्तरसेढीए सुरम्मानाम नयरी। तत्थ विजाहरिंदो संखो नाम राया तस्स विजयाभिहाणा तुमं धूआ आसि / अन्नया दाहिणसेड्डीए महिसगामे वचंतीए तुमए नईतडे कुक्कुडसप्पो दिट्टो। सोयरोसवसेणंतएमारिओ। तत्थ नईए तीरे जिणाययणंदळूण वंदिअभयवओ बिंबंपरमभत्तिपरवसाए तुमए। जाओ परमाणंदो। तओ चेइयाओ निगच्छंतीए तुमए दिट्ठा एगा परिस्समरिखन्ना साहुणी / तीए पाए वंदिता धम्मबोहिआ अज्जाए तुमं / तुमए वि तीसे विस्सामणाईहिं सुस्सुसा कया, चिरं गिहमागया। कालेण कालधम्मं पवण्णा अटट्ज्झाण-पराइया कोरंटयवणे सउणी जाया तुमं / सो अकुक्कुडसप्पो मरिऊण वाहो संजाओ। तेण पुव्यवेरेण सउणीभवे तुमबाणेणं पहया। पुत्वभवकयाए जिणभत्तीए, गिलाणसुस्सूसाए अअंते बोहिं पत्तासि तुमं / संपयं पि कुणसु जिणप्पणीअंदाणाइधम्मं ति। एवं गुरूण वयणं सुच्चा सव्वं तं दव्वं सत्तखित्तीए विवा वेइ। चेइअस्स उद्धारं करेइ / चउवीसं च देवकुलयाओ पोसहसालादाणसालाअज्झयणसालाओ कारेइ / अओ तं तित्थं पुव्यभवनामेणं सउलिआविहारु त्ति भण्णइ। अंतोयसलेहणं दव्वभावभेयभिन्न काउं कयाणसणा सा वइसाहे सुद्धपंचमीए ईसाणं देवलोग पत्ता। सिरिसुव्वयसामि-सिद्धिगमणाणंतरं इक्करसेहि लक्खेहिचुलसीइसहस्सेहिं चउसयसत्तरेहिंचवासाणं अईएहिं थिक्कसाहिय व्व संवच्छरो पयहो। जीवंतसुव्वयसामिअविक्खाए पुण एगारसलक्खेहिं अट्ठावीसूणपंचणवइसहस्सेहिंच वासाणं विक्कमो भावी। एसा सउलिआविहारस्स उप्पत्ती।लोइअतित्थाणि अणेगाणिं भरुअत्छे वट्टति / कमेण उदयपुत्ते वाहडदेवेण सित्तुंजयपासायउद्धार कारिए, तदणुजेण अंबडेण पुणऽत्थ सउलिआविहारस्स उद्धारो कारिओ / मिच्छदिट्टीए सिंधवादेवीए अंबडस्स पासायसिहरे नचंतस्स उवसग्गो कओ। सो उ निवारिओ विज्जाबलेण सिरिहेमचंदसूरीहिं। "अस्सावबोहतित्थस्स एस कप्पो समासओ रइओ। सिरिजिणपहसूरीहिं, भविएहिं पढिजउ तिकाल" ||1|| अश्वाव-बोधकल्पः समाप्तः। ती०१० कल्पना अस्सावि(ण)-त्रि०(आस्राविण) आ समन्तात् स्रवति तच्छील आस्रावी। सच्छिद्रे, सूत्र०। "जहा अस्सविणि नावं, जाइ अंधो दुरूहए।'' सूत्र० 1 श्रु०१ अ०२ उ०। अस्सि-पुं०(अस्रि) चतुर्दिग्विभागोपलक्षितासुकोटिषु, स्था० 6 ठा०। * अश्विन-पुं० अश्विन्या देवतायाम्, स्था०२ ठा०२ उ०। अस्सिणी-स्त्री०(अश्विनी) नक्षत्रभेदे, जं० 7 वक्ष०। स्था०। अनु०॥ अश्विन्या अश्वो देवता। सू०प्र०१०पाहुoा 'अस्सिणी नक्षत्ते तितारे पण्णत्ते।" स०३ समका अस्सेसा-स्त्री०(अश्लेषा) नक्षत्रभेदे, जं०७ वक्षः। विशे० अस्सोक्ता-स्त्री०(अश्वोत्क्रान्ता) मध्यमग्रामस्य पञ्चम्यां मूर्च्छनायाम्, स्था०७ ठा० अस्सोती-स्वी०(आश्वयुजी) अश्वयुजि भवाऽऽश्वयुजी / अश्वयु ड्मासभाविन्याममाया, पौर्णमास्यां च। चं० प्र० 10 पहु०। सृ० प्र०) अस्तवदि-पुं०(अर्थपति)"स्थर्थयोः स्तः"।८।४।२६१। इति शस्त स्तः। “पो वः।८।१।२३१॥ इति पस्य वः। धनिनि, प्रा० 4 पाद। ढुंग अह-अव्य०(अथ) आनन्तर्ये, आ० चू० 4 अ०। सूत्र०नि० चू०। दर्श०। अनु० क० प्र०। उपन्यासे, नं। वक्तव्याऽन्तरोपन्यासे, उत्त०३ अ० अवसानमङ्गलार्थे, सूत्र०१ श्रु०१६ अ० वाक्योपन्यासे, आचा०१ श्रु० 6 अ० 1 उ०) सूत्र०। उपप्रदर्शने, आचा० 1 श्रु० 8 अ०1१ उ०। उत्त०ा पक्षान्तरद्योतने, भ०५ श०६ उ०। विकल्पे, जी० 1 प्रतिक्षा विशेषे, स्था० 7 ठा०। प्रक्रियादिष्वर्थेषु, यत उक्तम्अथ प्रक्रिया प्रश्नाऽऽनन्तर्यमङ्ग-लोपन्यासप्रतिवचनसमुचयेषु। बृ०१ उ० जी० आ० म० दशा अनु० स्था० प्र०ा यथार्थे, आ० म० प्र०। वाक्याऽलङ्कारे, सूत्र० 1 श्रु० 7 अ०। पादपूरणे, पञ्चा० 16 विव० अधस्-न० अधस्ताच्छब्दार्थे, आचा००१ श्रु० 1 अ० 5 उ०॥ स्था०। सू० प्र०ा जीवा०। अधोगतौ, "अहो च्छिन्नं" प्रश्न०३ आश्र० द्वार। अधोलोके, स्था० 3 ठा०४ उ०। दिग्भेदे, स्था० 6 ठा०। अहं- सर्व०(अहम्) अस्मदः सिना सहाऽहमादेशः। प्रा०। 'णे णं मि अम्मि०"|८|३|१०७। इत्यादिसूत्रेण अस्मदोऽमा सहाऽहमादेशः। प्रा०३पाद। आत्मनिर्देशे, आ० म०प्र०ा आवा अहंकार-पुं०(अहङ्कार)अहोऽहं, नमो मह्यमित्येवमहङ्करणमहङ्कारः / निजगुणेषु बहुमाने, विशे०। ऐश्वर्यजात्यादिमदजनिते अभिमाने, सूत्र०१ श्रु०६ अ० सुख्यहं न दुःखीत्येवमात्मनः प्रत्यये, सूत्र० 1 श्रु०२ अ० आ० म०। अहमिति स्वस्थभावेनोन्मादपरे परभावकरणे कर्तृतारूपे, अष्ट० 4 अष्ट०। सूत्र०। अहं शब्देऽहं स्पर्शेऽहं गन्धेऽहं रूपेऽहं रसेऽहं स्वामी, अहमीश्वरोऽसौ मया हतः० ससत्त्वोऽमुं हनिष्यामीत्यादिप्रत्ययरूपे, स्या०१५श्लो०।अभिमाने, आव०३अ०॥ यत्राऽन्तःकरणमहमित्युल्लेखनविषयं वेदयते / द्वा० 20 द्वा०। बुद्धिरेवाऽहङ्कारव्यापार जनयन्ती अहङ्कार इत्युच्यते।द्वा०११द्वा०) अहक्कम-अव्य०(यथाक्रम) यथापरिपाटि इत्यर्थे दश० 4 अ०। अहक्खाय-न० पअथा (यथा)ख्यातब अथशब्दो यथार्थे, आड् अभिविधौ, याथातथ्येन, अभिविधिना च यत् आख्यातं (कथितमकषाय चारित्रमिति) तदथाख्यातम्। यथा सर्वस्विन् जीवलोके ख्यातं प्रसिद्धमकषायं भवति चारित्रमिति तथैव यत्तद्यथाख्तातं प्रसिद्धम्। आ०म०प्र०आर्षे यकारलोपः। प्रा०२पाद। अकषाये चारित्रे, आ० चू०१ अ० पञ्चागपं० सं०॥ विशे०। अथ यथाख्यातं विवृण्वन्नाहअहसदो जाहत्थे, आङोऽमिविहीए कहियमक्खायं / चरणमकसायमुदितं, तमहक्खायं जहक्खायं / / 1276 / / अत्थेत्ययं याथातथ्यार्थे, आङ् अभिविधौ, ततश्च याथातथ्येनाऽभिविधिना वाऽऽख्यातं कथितं यदकषायं च चरणं तदथाख्यातम्, यथाख्यातं वा उदितमिति // 1276 / / एतच्च कतिविधमित्याहतं दुविगप्पं छउमत्थकेवलिविहाणओ पुणेकेकं / खयरामजसजोगाऽजोगिकेवलिविहाणओ दुविहं // 1280|| Page #1046 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहक्खाय 862 - अभिधानराजेन्द्रः - विभाग 1 अहम्माणि (ण) तच्च यथाख्यातचारित्रं छद्मस्थकेवलिस्वामिभेदात् द्विविधम् / शीघ्रमागच्छन्तीति। पुरुषाणां प्राकृतपुरुषाणां धर्मो ज्ञानपर्यायलक्षणछद्मस्थसंबन्धि पुनरपि द्विविधम्- मोहक्षयसमुत्थं तदुपशमप्रभवं स्तस्माद्वा सकाशादुत्तरः प्रधानः स एवौत्तरिकः / (अहोवहिए त्ति) च / केवलिसंबन्ध्यपि सयोग्ययोगिकेवलिभेदतो द्विविधमे- नियतक्षेत्रविषयोऽवधिस्तद्-रूपं ज्ञानदर्शनं प्रतीतमिति / / स्था० 10 वेति / 1280 / विशे०। पञ्चा०। उत्त०। आ० म०1 अनु०॥ तदपि द्विविध ठा०। मुपशमकक्षयकश्रेणिभेदात्। शेषं तथैवेति / भ०८ श०२ उ०) अहमहमितिदप्पिय-त्रि०(अहमहमितिदर्पित) अहमहमित्येवंदर्पवति, अहक्खायसंजम-पुं०(अथाख्यातसंयम) अथशब्दो यथार्थः / प्रश्न०३ आश्र०द्वार। तथैवाऽकषायतयेत्यर्थः / आख्यातमभिहितमथाख्यातम् / तदेव | अहम्म-पुं०(अधर्म) पापे, सूत्र०१श्रु०११०२ उादशा सावधानुष्ठाने, संयमोऽथाख्यातसंयमः। अयंचछद्मस्थस्योपशान्तमोहस्य क्षीणमोहस्य दशा०६ अ०। अधर्मस्य वर्णे वदति, नि० चूना च स्यात्, केवलिनः सयोगस्याऽयोगस्य च स्यादिति / अकषायसंयमे, जे भिक्खू अधम्मस्स वण्णं वदइ, वदंतं वा साइजइ // 113|| स्था०५ ठा०२ उ०। कर्म इह अहम्मो भारहरामायणादि पावसुत्तं, चरगादियाण याजपंचग्गितअहक्खायसंजय-पुं०(अथाख्यातसंजत) अकषायचारित्रिणि, "अह वादिया वयविसेसा / अहवा- पाणादिया मिच्छा-दंसणपज्जवसाणा क्खायसंजए पुच्छा। गोयमा दुविहे पण्णत्ते।तंजहा-छउमत्थेय केवली अट्ठारस पावट्ठाणा, एतेसिं वन्नं वदतीत्यर्थः। य"|भ०२५ श०७ उ० एसेव गमो नियमा, वोचत्थे होति तं अहम्मे वि। अहट्ठाण-न०(यथास्थान) स्थानमनतिक्रम्येत्यर्थे, द्वा०२ द्वा०। देसे सव्वे य तहा, पुव्वे अवरम्मिय पदम्मि॥३३|| अहत (य)-त्रि०(अहत) अक्षते, अन्यथानीते च। चं० प्र०१६ पाहु० वोचत्थो, विपक्खे वन्नवायं वदतीत्यर्थः। सेसं कंठं। सू०प्र० इहरह वि ताव लोए, मिच्छत्तं दिप्पए सहावेणं / अहत्त-न०(अधस्त्व) जघन्यतायाम्, भ०६श०३ उ०। किं पुण जइ उववूहति, साहू अजयाण मज्झम्मि।।३।। अहत्थ-त्रि०(यथास्थ) यथावस्थिते, स्था०५ ठा०३ उ०। (इहरह वित्ति) सहावेण प्रादीप्यते प्रज्ज्वलते / किमिति निर्देशे, * यथार्थ-त्रि०ा यथाप्रयोजने, यथाद्रव्ये च ! "अहत्थे वा भावे पुनर्विशेषणे / किं विशेषयति? सुतरां दीप्यते इत्यर्थः / यदीत्यभ्युजाणिस्सामि'' / स्था०५ ठा०३ उ०। पगमे। "अजया अग्गतो उववूहति, ताहे थिरतरं तेसिं मिच्छत्त अहत्थच्छिण्ण-त्रि०(अहस्तच्छिन्न) हस्तौ अच्छिन्नौ यस्य स भवतीत्यर्थः / शेषं पूर्ववत्। नि० चू०११ उ०। धर्मरहिते, विपा० 1 श्रु० तथा। अकृत्तकरे, नि० चू०१४ उ०।। 2 अ०॥ अहत्थवाय-पुं०(यथार्थवाद) यथाऽवस्थितवस्तुतत्त्वप्रख्या अहम्मओ-अव्य०(अधर्मतस्) अधर्ममङ्गीकृत्याऽर्थे, प्रश्न०२ आश्र० पने, स्या०२ श्लो० द्वार। अहत्थाम-न०(यथास्थाम) प्राकृतलक्षणेन यकारस्यलोपे केवलं स्वरः | अहम्मकेउ-पुं०(अधर्मकेतु) केतुर्ग्रहविशेषः, स इव यः, स तथा / / यथाबले, नि० चू०१ उ० पापप्रधाने, ज्ञा० 18 अ०) अहप्पहाण-अव्य०(यथाप्रधान) प्रधानमनुरुध्येत्यर्थे, यो यः प्रधानो अहम्मक्खाइ-पुं०(अधर्माऽऽख्यायिन) न धर्ममाख्यातीत्येवंजन इत्यर्थः। भ० 15 श०१ उ०। शीलोऽधर्माख्यायी / अथवा- न धर्माख्यायी अधमाख्यायी / धर्मकथनाऽशीले, दशा०६ अ० अहम-त्रि०(अधम) जघन्ये, भाव० 4 अ० निन्द्ये, उत्त० 13 अानिकृष्ट, "नरेंदजाई अहमा नराणं'। उत्त०१३ अ०। सूत्र०ा क्षुद्रे, स्था०४ ठा० * अधर्माख्याति-पुंग अधर्मादाख्यातिर्यस्य स अधर्माख्यातिः / 4 उ०। (अधमपुरुषाणां मानम् 'अंगुल' शब्देऽत्रैव भागे 44 पृष्ठे उक्तम्) पापकर्मतया प्रसिद्धे, दशा०६ अ०) अहमंति-पुं०(अहमन्तिन्) अहमेव जात्यादिभिरुत्तमतया पर्यन्त अहम्मजीवि(ण)-पुं०(अधर्मजीविन) अधर्मेण जीवति प्राणान् वर्तीत्यभिमानवति, स्था। धारयतीति अधर्मजीवी / अधर्मेण प्राणधारके, दशा०६ अ०॥ अहम्मट्ठाण-न०(अधर्मस्थान) पापस्थाने, सूत्र०२ श्रु० 2 अ० दसहिं ठाणेहिं अहमंतीति थंभेज्जा / तं जहा- जाइमएण वा, त्रयोदशषु क्रियास्थानेषु, सूत्र०२ श्रु०२ अाधर्मादपेते स्थाने, सूत्र०२ कुलमएण वा० जावइस्सरियमएणवा। नागसुवन्नावा मे अंतिअं हव्वमागच्छंति पुरिसधम्माओ वा मे उत्तरिए अहोवहिए श्रु०२ अ० नाणदंसणे समुप्पन्ने। अहम्मट्टि(ण)-पुं०(अधर्मार्थिन) अर्थोऽस्याऽस्तीत्यर्थी, अध र्मेणाऽर्थी अधमाऽर्थी। अधर्मप्रयोजने, आचा०१ श्रु०६ अ०४ उ०। (दसहीत्यादि) स्पष्ट, नवरं (अहमंतीति) अहम्, अन्ती इति। अन्तो जात्यादिप्रकर्षपर्यन्तोऽस्याऽस्तीत्यन्ती / अहमेव जात्यादिभि अहम्मदाण-न०(अधर्मदान) अधर्मपोषकं दानमधर्मदानम् / रुत्तमतया पर्यन्तवर्ती / अथवाऽनुस्वारः प्राकृततयेति / अहम् अति अधर्मप्रतिपादकत्वाद् द्वाऽधर्म एव। चौरादिभ्यो दाने, स्था० 10 ठा०। अतिशयवानिति / एवंविधोल्लेखेन (थंभेज त्ति) स्तभ्नीयात् स्तब्धो | अहम्मसेवि(ण)-पुं०(अधर्मसेविन्) कलत्रादिनिमित्तषट्का- योपमभवेत्, मायेदित्यर्थः / यावत्करणात् 'बलमएण रूवमएण सुयमएण कारिणि, "चुअस्स धम्माउ अहम्मसेविणो।" दश०१ चू०। तवमएण लाभमएण' इति दृश्यम्। तथा (नागसुवण्ण त्ति) नागकुमाराः अहम्माणि(ण)-पुं०(अहम्मानिन्) अहमेव विद्वानितिमानो गर्वोऽस्येति सुवर्णकुमाराश्च / वा विकल्पार्थ मे मम अन्तिकं समीपं 'हव्वं' | अहम्मानी। अहङ्कारिणि, आ० म० द्वि०) Page #1047 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहय 863 - अभिवानराजेन्द्रः - विभाग अहाछंद अहय-त्रि०(अहत) अक्षते अव्याहते, आ०म०प्र० जी० नवे, भ० / व्यत्तियकाले जंणं णेरइएण वा तिरिक्खजोणिएण वा मणुस्सेण वा देवेण 8 श०६ उ०। रा०। अव्यवच्छिन्ने, कल्प०१०। अखण्डिते, सुत्र० / वा अहाउणिव्वत्तियं से तं पालेमाणे अहाउणिव्वत्तिकाले" || भ०११ 2 श्रु०२ अ०मलमूषादिभिरनुपद्रुते प्रत्यग्रे, ज्ञा०१ अ०॥ श०११ उ०॥ अहर-पुं०(अधर)अधस्तात्काये, आव०३ अ०। अधस्तनदन्त- च्छदे, अहाउय-न०(यथायुष्क) देवाद्यायुष्कलक्षणे कालभेदे, आ० म०द्वि०। औ० प्रज्ञा०ा तंग 'काल' शब्दे तृतीयभागे चैतद्व्याख्यास्यते। यथाबवे आयुषि च। स्था०। अहरगइगमण-न०(अधरगतिगमन) अधोगतिगमनकारणे, प्रश्न० दो अहाउयं पालेइ। तं जहा-देवचेव नेरइयचेव।। 2 आश्र०द्वार। (दो इत्यादि) यथाबद्धमायुर्यथायुः,पालयन्त्यनुभवन्ति नोपक्रम्यते अहरायणिय-अव्य०(यथारत्नाधिक) यथाज्येष्ठाऽऽर्यलयेत्यर्थे, पं०व०२ तदिति यावदिति / "देवा नेराइया वि य, असंख-वासाउया द्वार। तिरियमणुया / उत्तमपुरिसा य तहा, चरमसरीरा निरुव-कमती" ||1|| अहरी-स्त्री०(अधरी) पेषणशिलायाम्, उत्त०। इति वचने सत्यपि देवनारकयोरेवेह भणनं, द्विस्थानकाऽनुरोधादिति। अहरु(रो)ट्ठ-पुं०(अधरोष्ठ) “हस्वःसंयोगेः॥१८४|| इति दीर्घस्य स्था०२ ठा०३ उ०। हस्वः। प्रा०१ पाद / दंष्ट्रिकायाम्, कल्प०१ क्ष०। अहाक (ग)ड-त्रि०(यथाकृत)आत्मार्थमभिनिवर्तिते आहारादौ, अहव-अव्य०(अथवा)"वाऽव्ययोत्खातादावदातः" / / 1 / 67 / "अहागडेसु रीयंति, पुप्फेसुभमरो जहा''।दश० 1 अ०) नि००। बृ०। इत्यातोऽत्त्वम्, अहव अहवा। विकल्पे, प्रा०१ पाद / सा अहाकप्प-अव्य०(यथाकल्प) यथाऽत्रोक्तं तथाकरणे कल्पोऽन्यथा अहवण-अव्य०(अथवा) अहवण त्ति' अखण्डमव्ययपदम्। अथवेत्य त्वकल्प इति यथाकल्पम् / कल्प०६ क्ष०। प्रतिमाकल्पानतिक्रमे स्याऽर्थे, बृ०१ उ०ा विकल्पप्रदर्शने, नि०चू०१ उ०। वाक्याऽलङ्कारे, तत्कल्पवस्त्वनतिक्रमे, दशा०७ अ०। स्था। ज्ञा० कल्पानतिक्रान्ते, अनुग स्थविरकल्पोचिते कल्पनीये च / नापा०ाधo अहवा-अव्य०(अथवा) संबन्धस्य प्रकारान्तरतोपदर्शने, व्य०१ उ०। अहाकम्म-अव्य०(यथाकर्म) कर्मानतिक्रमे, द्वा०१६ द्वा०। पूर्वोक्तप्रकारापेक्षया प्रकारान्तरत्वद्योतने, पश्चा०३ विव०नि०चाधा अहापडिग्गहिय-त्रि० (यथाप्रतिगृहीत) यथाप्रतिपन्ने पुनहाँसमनीते, पं०सं० ग० भ० पक्षाऽन्तरे, सूत्र०१ श्रु०१३ अ०। वाक्योपन्यासे, भ०२ श०५ उ०। सूत्र०२ श्रु०२ अ० अहाछंद-पुं०(यथाछन्द) यथा छन्दोऽभिप्राय इच्छा, तथैवाअहव्वण-पुं०(अथर्वन्) ऋग्वेदादीनां चतुर्थे वेदे, भ०२ श०१ उ०। अनु०। ____ऽऽगमनिरपेक्षयो वर्तते, सयथाछन्दः।व्य०१ उ०। प्रव०॥धा निचू०। औ० यथाकथंचित् नाऽऽगमपरतन्त्रतया छन्दोऽभिप्रायो बोधः प्रवचनार्थेषु अहस्स-न०(अहास्य) हास्यपरित्यागे, आव०४ अ०) यस्य स यथाछन्दः। भ०१श०४ उ०॥ स्वच्छन्दमतिविकल्पिते, आव०३ अहह-अव्य०(अहह)अहं जहाति,अहम्+हा-क-पृषो०। सम्बो-धने, आश्चर्ये, खेदे, क्लेशे, प्रकर्षे च। वाच०। प्रा०२ पाद। जे मिक्खू गणाओ अवक्कम्म अहाछंदं विहारं विहरेज्जा, से य इच्छेज्जा दोच्चं पितमेव गणं उवसंपजित्ता णं विहरत्तिए अच्छिया अहा-अव्य०(अधस्) दिग्भेदे, स्था०६ ठा०। इच्छा से पुणो आलोएज्जा, पुणो पडिक्कमेजा, पुणो * अथ-अव्य०। यथातथ्ये, विशे० आनन्तर्ये, "अहा पंडुर छेयपरिहारस्स उवट्ठाइआ। प्पभाए'। रजनीविघातानन्तरम्। दीर्घत्वमार्षत्वात्। कल्प०३ क्ष०। यः भिक्षुर्गणादपक्रम्य यथाछन्दविहारेण विहरेत्, स इच्छेद् द्वितीयमपि अहाअत्थ-अव्य०(यथार्थ) नियुक्त्यादिव्याख्यानाऽनतिक्रमे, स्था०७ वारं तमेवगणमुपसंपद्य विहर्तुम्, तत्रस पुनरालोचयेत्, पुनः प्रतिक्रामेत, ठा पुनश्छेदपरिहारस्यालोचयेत्। व्य० अ०२ उ० अहाउओवक्कमकाल-पुं०(यथायुष्कोपक्रमकाल) यथा बद्धस्ययुष्क इदानीं यथाछन्दः स्वरूपमुफ्वर्णयतिस्योपक्रमणं दीर्घकालभोग्यस्योपक्रमणं यथा-युष्कोपक्रमः, सचाऽसौ उस्सुत्तमायरंतो, उस्सुत्तं चेव पन्नवेमाणो। कालश्च यथाऽऽयुष्कोपक्रमकालः / कालभेदे, विशे०। एसो य अहाछंदो, इच्छा छंदो य एगट्ठा। अहाउणिव्वत्तिकाल-पुं०(यथायुर्निर्वृत्तिकाल) कालभेदे, स्था०। यथा यत्प्रकारं नारकादिभेदेनाऽऽयुः कर्मविशेषो यथाऽऽयुः / तस्य सूत्रादूर्ध्वम्-उत्तीर्णम् (परिभष्टमित्यर्थः) उत्सूत्र, तदाचरन् रौद्रादिध्यानादिना निवृत्तिर्बन्धनः, तस्याः सकाशात् यः कालो प्रतिसेवमानः, तदेव यः परेभ्यः प्रज्ञापयन् वर्त्तते, एष यथानारकादित्वेन स्थितिर्जीवानां स यथायुर्निर्वृत्तिकालः / अथवा च्छन्दोऽभिधीयते। सम्प्रति छन्दः शब्दार्थ पर्यायेण व्याचष्टइच्छा छन्द यथाऽऽयुषो निर्वृत्तिस्तथा यः कालो नारकादिभवेऽवस्थानं, स इत्येकाऽर्थः / किमुक्तं भवति ? छन्दो नाम इच्छेति / व्युत्पत्तिश्च तथेति / अयमप्यद्धाकाल एवायुष्ककर्मानुभवविशिष्टः सर्वसंसार यथाच्छन्दःशब्दस्य प्रागेवोपदर्शिता। जीवानां वर्तनादिरूपइति। उक्तंच"आउयमित्तविसिहो, स एव जीवाण उत्सूत्रमित्युक्तमत उत्सूत्र व्याख्यानयतिवत्तणाऽऽदिमओ। भण्णइ अहाउकालो, वत्तइ जो जं चिरं तेण" ||1|| उस्सुत्तमणुवदिटुं, सच्छंदविगप्पियं अणणुपाती। स्था०४ ठा०१ उ०। "से किं तं अहाउणिव्वत्तिकाले ? अहाउणि- परतत्तियप्पवित्ते, मतिंतणेऽयं अहाछंदो॥ अ01 Page #1048 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहाछंद 864- अभियानराजेन्द्रः-विभाग 1 अहाछंद उत्सूत्र नाम यत्तीर्थङ्करादिभिरनुपदिष्टम्, तत्र या सूरिपरम्परागता सामाचारी, यथा- नागिला रजोहरणमूर्ध्वमुखं कृत्वा कायोत्सर्ग कुर्वन्ति / चारणानां वन्दनके कथमपीत्युच्यते इत्यादि, साऽप्यङ्गेषूपाङ्गेषु नोपदिष्टत्यनुपदिष्टम् / सङ्केततोऽनुपदिष्टमाह स्वच्छन्देन स्वाभिप्रायेण विकल्पितं, स्वेच्छाकल्पितमित्यर्थः। अत एवाऽननुपाति। सिद्धान्तेन सहाऽघटमानकम् / न केवल-मूत्सूत्रमाचरन् प्रज्ञापयंश्च यथाच्छन्दः, किन्तु यः परतप्तिषु गृहस्थप्रयोजनेषु करणकारणानुमतिभिः प्रवृत्तः परतप्तिप्रवृत्तः / तथा 'मतंतिणो' नाम यः स्वल्पेऽपि केनचित्साधुनाsपराद्धेऽनवरत पुनस्तरुषन् आस्ते, अयमेवंरूपो यथाच्छन्दः। तथा - सच्छंदमतिविगप्पिय, किंची सुखसायविगइपडिबद्धो। तिहि गारवेहि मन्जइ, तं जाणाही अहाछंदं॥ स्वच्छन्दमतिविकल्पितं किञ्चित्कृतं तल्लोकाय प्रज्ञापयति, ततः प्रज्ञापनगुणेन लोकाद् विकृतीर्लभते, ताश्च विकृतीः परिभुञ्जानः स्वसुखमासादयति। तेनचसुखासादनेन तत्रैव रतिमातिष्ठति। तथाचाहसुखासादे सुखासादनविकृतौ च प्रतिबद्धः। तथा-तेन स्वच्छन्दमतिविकल्पितप्रज्ञापनेन लोकपूज्यो भवति, अभीष्टरसांश्चाऽऽहारान् / प्रतिलभते, वसत्यादिकं च विशिष्टमतः सभ्येभ्यो बहु मन्यते। तथाचाहत्रिभिः गौरवैर्ऋद्धिरससात-लक्षणैर्माद्यति य एवंभूतः, तं यथाच्छन्दो जानीहि। इह उत्सूत्रं प्ररूपयन्यथाच्छन्द उच्यते, तत उत्सूत्रप्र रूपणामेव भेदतः प्ररूपयतिअहछंदस्स परूवण, उस्सुत्ता दुविह होइ नायव्वा / चरणेसु गईसुं जा, तत्थ य चरणे इमा होति।। यथाच्छन्दसः प्ररूपणा उत्सूत्रा सूत्रादुत्तीर्णा द्विधा भवति ज्ञात-व्या। तद्यथा- चरणेषु चरणविषया, गतिषु गतिविषया। तत्र या चरणविषया, सा इयं वक्ष्यमाणा भवति। तामेवाहपडिलेहण मुहपोत्तिय, रयहरण निसेज पायमत्तए पट्टे। पडलाइचोल उण्णा-दसिया पडिलेहणापोत्ते॥ या मुखपोत्तिका मुखवस्त्रिका, सैव प्रतिलेखनी-पात्र-प्रत्युपेक्षया पात्रकेसरिका, किं द्वयोः परिग्रहेण ? अतिरिक्तो-पधिग्रहणेन संभवात्। तथा-(स्यहरणनिसेज त्ति) किं रजोहरणस्य द्वाभ्यां निषद्याभ्यां कर्तव्यम्, एका निषद्याऽस्तु ? (पायमत्तए त्ति) यदेव पात्रं तदेव मात्रक क्रियतां, मात्रकं वा पात्रम्, किं द्वयोः परिग्रहेण ? तथा-(पट्टत्ति) य एव पट्टचोलकः, स एव रात्रौ संस्तारकस्योत्तरपट्टः क्रियतां, किं पृथगुत्तरपट्टपरिग्रहेण ? तथा-(पडलाइं चोल त्ति) पटलानि किमिति पृथक् ध्रियन्ते, चोलपट्टएव भिक्षार्थ हिण्डमानेन द्विगुणस्त्रिगुणो वा कृत्वा / पटलकस्थाने निवेश्यताम् / (उण्णादसिय त्ति) रजोहरणस्य दशाः किमित्यूर्णामय्यः क्रियन्ते ? मौक्षिकाः क्रियत्तां, ता यूर्णामयीभ्यो मृदुतरा भवन्ति / तथा-(पडिलेहणापोत्ते त्ति) प्रतिलेखनावेलायामेकं पोतं प्रस्तार्य तस्योपरि समस्तवस्तुप्रेक्षणं कृत्वा तदनन्तरमुपाश्रयात् तद् बहिः प्रत्युपेक्षणीयम् / एवं हि महती जीवदया कृता इति। दंतच्छिन्नमलितं, हरियट्ठिय पसज्जणा य णितस्स। अणुवाइ-अणणुवाई परूवणा चरणमाईसुं॥ हस्तगताः पादगता वा नखाः प्रवृद्धाः दन्तैश्छेत्तव्याः, न नखरदनेन। नखरदनं हि ध्रियमाणमधिकरणं भवति / तथा-(अलिप्तमिति) पात्रमलिप्तं कर्तव्यम् , न पात्रं लेपनीयमिति भावः / पात्रलेपने बहुसंयमदोषसंभवात्। (हरियडिय त्ति) हरितप्रतिष्ठितं भक्तपानादिग्राह्य, तद्ग्रहणे हि तेषां हरित-कायजीवानां भारापहारः कृतो भवति। (पमजणा य नितस्स त्ति) यदि छन्ने जीवदयानिमित्तं प्रमार्जना क्रियते, ततो बहिरप्यच्छन्ने क्रियता, जीवदयापरिपालनरूपस्य निमितस्योभयत्रापि संभवात्। अक्षरघटना त्वेवम्- 'नितस्स' निर्गच्छतः प्रमार्जना भवतु, यथा वसतेरन्तरिति / एवं यथाच्छन्देन चरणेषु च प्ररूपणाऽनुपातिनी अनुसारिणी, अननुपातिनी च क्रियते। अथ किंस्वरूपाऽनुपातिनी ? इत्यनुपातिन्यननुपातिन्योः स्वरूपमाह - अणुवाइत्ती नजइ, जुत्तीरठियं खु भासए एसो। जं पुण सुत्तावेयं, तं होती अणणुवाति त्ति / / यद्भाषमाणः सन् यथाच्छन्दो ज्ञायते- यथा 'खु' निश्चितं युक्तिसङ्गतमेष भाषते, तदनुपातिप्ररूपणम्। यथा -यैव मुख-पोत्तिका, सैव प्रतिलेखनिका इत्यादि / यत्तु पुनर्भाष्यमाणं सूत्रापेतं सूत्रपरिभ्रष्ट तद्भवत्यननुपाति / यथा- चोलपट्टः पटलानि क्रियताम्, यधुपधिकापतनसंभवतो युक्त्यसङ्गततया प्रतिभासमानत्वात् / तत्र चरणे प्ररूपणमनुपात्यननुपाति चोक्तमिदं चाऽन्यद् द्रष्टव्यम्। तदेवाऽऽहसागारियादिपलियंकनिस्सेज्जासेवणाय गिहिमत्ते। निग्गंथिचेट्ठणाई,सेहो वा मा संकप्पस्स। सागारिकः शय्यातरस्तद्विषये ब्रूते- यथा शयातरपिण्डे गृह्यमाणेनास्ति दोषः,प्रत्युत गुणः, वसतिदानतो भक्तपानादि दानतश्च प्रभूततरनिर्जरासंभवात्, आदिशब्दात्स्थापनाकुलेष्वपि प्रविशतो नास्ति दोषः / (पलियंक त्ति) पर्यादिषु परिभुज्यमानेषु न कोऽपि दोषः, केवलं भूमावुपवेशने लाघवादयो बहुतराः दोषाः (निसिज्जासेवण ति) गृहिनिषद्यायामासेव्यमानायां, गृहेषु निषद्याग्रहणे इत्यर्थः / को नाम दोषः? अपि त्वतिप्रभूतो गुणः, ते हि जन्तवो धर्मकथाश्रवणतः संबोधमाप्नुवन्ति (गिहिमत्ते ति) गृहिमात्रके भोजनं कस्मान्न क्रियते ? एवं हि प्रवचनोपधातः परिहृतो भवति / तथा(निम्नथिचेट्ठणादि ति) निर्ग्रन्थीनामुपाश्रये अवस्थानादौ को दोषः? संक्लिष्टमनोनिरोधेन ह्यसंक्लिष्टं तु मा विहारक्रम कार्युरिति। चारे वेरज्जे वा, पढमससोसरण तह य नितिएसु / सुन्ने अकप्पए वा, अन्नाउंछेय संभोए। चारः, चरणं, गमनमित्येकाऽर्थः / तद्विषये व्रतार्थे, तद्यथा- चतुर्युमासेषु मध्ये यद्वर्षे पतति, तावन्मा विहारक्रमकार्षीः, यदातुन पतति वर्ष, तदा को दोषो हिण्डमानस्येति? तथा वैराज्येऽपि ब्रूते यथा वैराज्येऽपि साधवो विहारक्रमं कुर्वन्तु, परित्यक्तं हि साधुभिः परमार्थतः शरीरं, तद्यदि ते गृहीष्यन्ति किंक्षणंसाधूनाम्, सोढव्याः खलुसाधुभिरुपसर्गाः। ततोयदुक्तम्"नो कप्पइ निगंथाणं वेराविरुद्धरजंसि / सञ्ज गमणं सज्जमागमणं ति"। तदयुक्तमिति (पढमेणसमोसरणेत्ति) प्रथमंसमवसरणंनामप्रथमवर्षाकालः, तत्र ब्रूते- यथा प्रथमसमवसरणे उद्गमादिदोषपरिशुद्धं वस्त्रं पात्रं वा Page #1049 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहाछंद 865 - अभिधानराजेन्द्रः-विभाग 1 अहाछंद किं न कल्पते गृहीतुम् ? द्वितीयसमवसरणेऽपि युद्मादिदोषपरिशुद्धमिति कृत्वा गृह्यते, सा च दोषशुद्धिरुभयत्राप्यविशिष्टति। (तह य नितिएसुत्ति) तथा- नित्येषु नित्यवासेषु प्ररूपयति, यथा- नित्यवासेऽपि याद्रमोत्पादनैषणाशुद्धं लभ्यते भक्तपानादि, ततः को दोषः? प्रत्युत काल दीर्घमेकक्षेत्रे वसतां सूत्रार्थादयः प्रभूता भवन्ति / तथा-(सुन्न त्ति) यधुपकरणं न केनापि ह्रियते, ततः शून्यायां यसतौ क्रियमाणायां को दोषः? अथोत्संघ-ट्टनेनोपहन्यते, तच्च चेत्तस्योपधिक उपधातः (तथा अकप्पिय त्ति) अकल्पिको नामाऽगीतार्थः, तद् विषये ब्रूते, यथा- अकल्पिकेन प्रथमशैक्षकरूपेण शुद्धमज्ञातोञ्छं वस्त्रापात्राद्यानीतं किं न परिभुज्यते ? तस्य ज्ञातोञ्छतया विशेषतः परिभोगार्हत्वात् / (संभोए इति) तथा संभोगे ब्रूते, यथा- सर्वे पञ्च महाव्रतधारिणः साधवः, सांभोगिका एव युक्ताः, नाऽसांभोगिका इति। साम्प्रतमकल्पिकोचितं विवृणोति - किंवा अकप्पिएणं, गहिणं फासुयं तु होइ उ अभोज्जं / अन्नाउंछं को वा, होइ गुणो कप्पिए गहिए?|| किं वा केन वा करणेन अकल्पिकेन अगीतार्थेन गृहीतं प्रासुकमज्ञातोञ्छमपि अभोज्यमपरिभोक्तव्यं भवति। को वा कल्पिकेन (अत्र गाथानां सप्तमी तृतीयाऽर्थे) गृहीतो गुणो भवति, उभयत्रापि शुद्धत्वाविशेषात्। अधुना (संभोए) इति व्याख्यानयतिपंचमहव्वयधारी, समणा सव्वेसि किं न भुंजंति / इय चरण- वितहवादी, एत्तो वोच्छं गतीसुं तु // पञ्चमहाव्रतधारिणः सर्वे श्रमणाः किं नैकत्र भुञ्जते ? किं नाविशेषण सर्वे सांभोगिका भवन्ति ? येनके सांभोगिकाः, अपरे असांभोगिकाः क्रियन्ते इति / इत्येवमुपदर्शितेन प्रकारेण यथाच्छन्दोऽनालोचितगुणदोषः, चरणे चरणविषये वितथवादी। अतऊय तुगतिषु वितथवादिनं वक्ष्यामि। यथाप्रतिज्ञातमेव करोतिखेत्तं गतो य अडविं, एको संचिट्ठए तहिं चेद। तित्थगरो त्तिय पियरो,खेत्तं पुण भावतो सिद्धी। स यथाच्छन्दो गतिषु विषये एवं प्ररूपणां करोति-"एगो गहवती, तस्स तिन्नि पुत्ता, ते सव्वे छेत्तकम्मोवजीविणो पियरेण छित्तकम्मे नियोजिया। तत्थेगो खेत्तकम्मं जहाणत्तं करेइ / एगो अडविं गतो, देसं देसेण हिंडइ इत्यर्थः / एगो जिमित्ता जिमित्ता देवकुलादिषु अत्थति। कालंतरेण तेसिं पिया मतो। तेहिंदव्वं पितिसियं ति काउंसव्वं सम्मं विरिक। एवं तेसिंजं एगेण उवज्जियंतं सव्वेसिं सामण्णं जायं। एवं अम्हं पिया तित्थयरो, तस्स वयोवदेसेणं सव्वे समणा कायकिलेसंकुव्यंति। अम्हे न करेमो, जंतुन्भेहिं कयं / अम्हं सामन्नं जहा तुडभे देवलोगं सुकुलपव्वयाई वा सिद्धिं वा गच्छह, तहा अम्हे विगच्छिस्सामो"। एष गाथा-भावार्थः / अक्षरयोजना त्वियम्- एकः पुत्रः क्षेत्रं गतः। एकोऽटवीम्, देशान्तरेषु परिभ्रमतीत्यर्थः। अपर एकस्तत्रैव संतिष्ठते / पितरि च मृते धनं सर्वेषामपि समानम् / एवमत्रापि पिता पितृस्थानीयस्तीर्थकरः / क्षेत्रफलं धनं पुनर्विभावतः परमार्थतः सिद्धिः, तांयूयमिव युष्मदुपार्जनेन वयमपि गमिष्यामः।उक्ता गतिष्यपि यथाच्छन्दस्य वितथप्ररूपणा। संप्रति तेषां यथाच्छन्दानामेवंवदतांदोषमुपदर्शयतिजिणवयण सव्वसारं, मूलं संसारदुक्खमुक्खस्स। सम्मत्तं मइलेत्ता, ते दोग्गइवडगा हुंति। ते यथाच्छन्दावरणेषु गतिषु चैवं ब्रुवाणाः सम्यक्त्वं सम्यग दर्शनम्। कथंभूतमित्याह- जिनानां सर्वज्ञानां वचनं जिनवचनंद्वादशाङ्ग, तस्य सारं प्रधानं, प्रधानवचोऽस्य तदनन्तरेण श्रुतस्य पठितस्याप्यश्रुतत्वात् / पुनः किं विशिष्टमित्याह- मूलं प्रथमं कारणं, संसारदुःखमोक्षस्य समस्तसांसारिकदुःखविमोक्षमोक्षस्य, तदेवंभूतं सम्यक्त्वं मलिनयित्वा आत्मनो दुर्गतिवर्द्धका भवन्ति / दुर्गतिस्तेषामेवंवदतां फलमितिभावः / इह पूर्वमुत्सवेऽनुत्सवे वा गृहीतस्य पाश्वस्थिस्य प्रायश्चित्तमुक्तम्। तत्र उत्सवप्ररूपणार्थमाहसक्कमहादीया पुण, पासत्थे ऊसवा मुणेयव्वा। अहछंदे ऊसवो पुण, जीए परिसाए उ कहेइ॥ पास्थि पाश्वस्थिस्य, उत्सवा ज्ञातव्याः शक्रमहादयः इन्द्रमहादयः। आदिशब्दात् स्कन्दरुद्रमहादिपरिग्रहः / यथाच्छन्दस्य पुनरुत्सवो यस्याः पर्षदः पुरतो यथाच्छन्दः स्वच्छन्दविकल्पितं प्ररूपयति, सा पर्षत् ज्ञातव्या / एतदपि च उत्सवभूते यः पर्षदि स्वकीयकुमतप्ररूपणं चतुर्मासषण्मासवर्षेषु कदाचिद्वा करोति, अभीक्ष्णं वा, ततएतेषु वक्तव्यम्, तच पाश्वस्थिाऽऽगमानुसारेण ज्ञेयम्।अत आह - जहिं लहुगो तहिं लहुगा, जहिं लहुगा चउगुरू तहिं ठाणे। जहिं ठाणे चउगुरुगा, छम्मासे तत्थ ऊ जाणे // जहिं पुण छम्मासा तहिं, छेयं पुण छेयठाणए मूलं। पासत्थे जं भणियं, अहछंदे विविडियं जाणे // यत्र पावस्थिस्य मासलघु प्रायश्चित्तमुक्तं, तत्र यथाच्छन्दसि चत्वारो लघुकाः / यत्र चत्वारो लघुकाः, तत्र स्थाने च चत्वारो गुरवः / यत्र चत्वारो गुरुकास्तत्र षण्मासान् गुरून् जानीहि। यत्र पुनः षण्मासास्तत्र ज्ञातव्यः छेदः, छेदस्थाने च मूलम् / तद्यथा-यधुत्सवाभावे कदाचित्कथयति, ततश्चत्वारो लघुकाःमासाः। अथाभीक्ष्णं कथयति, ततश्चत्वारो गुरुकाः / अथोत्सवे कदाचित् ब्रूते, ततश्चत्वारो गुरुकाः। अभीक्ष्णकथने षण्मासा गुरवः / षण्मासा यावदभीक्ष्णकथने मूलम्। अत्रोत्सवानुत्सव-विशेषरहिततया सामान्यतोऽभिधान-मुक्तमोघेन प्रायश्चित्तम् / अधुना विभागत उच्यते-चतुरो मासान् यावत्कदाचिदुत्सवाभावे प्ररूपणायां चत्वारो लघुमासाः। षण्मासान् यावच्चत्वारो गुरवः / वर्षं यावत् षण्मासा गुरवः / तथा- चतुरो गुरुमासान् यावद् उत्सवाभावेऽभीक्ष्णप्ररूपणायाः चत्वारो गुरुकाः / षण्मासान् यावदुत्सवमभीक्ष्णप्ररूपणायां षण्मासा गुरवः। वर्ष यावदेवं प्ररूपणायां छेदः / चत्वारो मासान यावदुत्सवे कदाचित्प्ररूपणात् चत्वारो मासा गुरवः / षण्मासान् यावदेवंप्ररूपणायां षण्मासा गुरवः / वर्ष यावत्प्ररूपणायां छेदः / तथा-चतुरो मासान् यावदुत्सवेष्वभीक्ष्णं प्ररूपणायां चतुर्गरुकः छेदः। वर्ष यावदेवंप्ररूपणायां मूलमिति। एतदेव सामान्यतो ग्रहणम् / (पासत्थेत्यादि) पाश्वस्थेि यत्र स्थाने यत् Page #1050 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहाछंद 866 - अभिवानराजेन्द्रः-विभाग 1 अहामग्ग भणितं प्रायश्चित्तं, तस्मिन् स्थाने यथाच्छन्दो विवर्द्धितं, विशेषेण वर्द्धितं | अहाणुपुव्वी-स्त्री०(यथानुपूर्वी) यथाक्रमे, ज्यो०२ पाहु०॥"अहाणुपुजानीहि। तच तथैवानन्तरमुपदर्शितम्। कस्माद्धि वर्द्धितं जानीहि इति | वीए स पत्थिया' / रा०। चत् ? उच्यते-प्रतिसेवनात्प्ररूपणाया बहुदोषत्वात्, इह पाश्वस्थित्व | अहातब-न०(यथातत्त्व) अभिधानार्थानतिक्रमे, अन्वर्थसत्यापने त्रयाणामपि संभवति / तद्यथा-भिक्षोर्गणावच्छेदिनः, आचार्यस्य च। / च / स्था०५ ठा०१ उ० दशा० शब्दार्थानतिक्रमे तत्त्वानतिक्रमे च। यथाच्छन्दत्वं पुनर्भिक्षोरेव / ततः पास्थिविषयं सूत्रं त्रिसूत्रात्मकं भ०२श०१ उकास्या० यथाच्छन्दविषयं त्वेकस्वरूपमिति। * यथातथ्य-न० सत्ये, कल्प०६०। व्य०। एकान्ततः यथा येन सम्प्रति कुशीलादीनां प्रायश्चित्तविधिमतिदेशत आह प्रकारेण तथ्यं सत्यं, 'तत्त्वं वा' तेन यो वर्ततेऽसौ यथातथ्यो 'यथातत्त्वं' पासत्थे आरोवण, ओहविभागेण वन्निया पुष्वं / वा / दृष्टार्थाविसंवादिनि, फलाविसंवादिनि च स्वप्नभेदे, भ०ा तत्र सव्वे वि निरवसेसा, कुसीलमादीण नायव्वा।। दृष्टार्थाविसंवादी स्वप्नः, किल कोऽपि स्वप्नं पश्यति,यथा- मह्यं फलं यैव पूर्व पाश्वास्थे प्रायश्चित्तस्योघेन, विभागेन वाऽऽरोपणप्रदानमु हस्ते दत्तं, जागरितस्तत्तथैव पश्यतीति। फलाविसंवादी तु किल कोऽपि पवर्णिता, सैव निरवशेषा ओघेन, विभागेन च ज्ञातव्या। यत्र तु विशेषः, गोवृषकुञ्जराधारूढमात्मानं पश्यति, बुद्धश्च कालान्तरे सम्पदं लभत सतवतु वक्ष्यते / गतं यथाच्छन्दसूत्रम्। व्य०१ उ० भ०। इति। भ०१६ श०६ उ०। जे भिक्खू अहाछंदं पसंसइ, पसंसंतं वा साइजइ॥१८८|| अहापज्जत्त-त्रि०(यथापर्याप्त) यथालब्धे, अणु०३ वर्ग०/ जे भिक्खू अहाछंदं वंदइ, वंदंतं वा साइजइ // 186 अहापडिरूव-त्रि०(यथाप्रतिरूप) उचिते, औ०। नि०चू०। येन अहच्छंद त्ति यकाररूपव्यञ्जनलोपे कृते, स्वरे व्यवस्थिते च प्रतिरूपेण साधूचितस्वरूपं तस्मिन्, विपा०१ श्रु०१अ० भवति / छन्दोऽभिप्रायः, यथाऽस्याभिप्रेतं तथा प्रज्ञापयन् अहाछंदो | अहापणिहिय-त्रि०(यथाप्रणिहित) यथाऽवस्थिते, "अहा-पणिहिएहिं भवति। तं जो पसंसति, वंदति वा तस्स चउगुरुगं, आणादिया य दोसा। | गाएहिं" भ०३ श०२ उ०। नि०चू०। (इतोऽग्रे व्यवहारेण गतार्थः) अहापरिग्गहिय-त्रि०(यथापरिगृहीत)परिग्रहणानुरूपेण स्वी-कृते, ____ कारणे पुण पसंसति वंदति वा "अहापडिग्गहियाई वत्थाइंधारेज्जा' आचा०१श्रु०८ अ०४ उ०। बितियपदमणप्पज्झे, पसंस अविकोविते व अप्पज्झो। अहापरिण्णाय-त्रि०(यथापरिज्ञात) परिज्ञानानुरूपेणाभ्युपगते, जोऽणते वावि पुणो, भयसा तव्वादिगच्छट्ठा॥२१॥ आचा०२ श्रु०२ अ०३ उ० "अहापरिणातं वसामो" यथा-परिज्ञात अहाच्छंदो कोइ राइस्सिओ, तब्भया तं पसंसति, वंदति वा (तव्वादि यावन्मात्रं क्षेत्रमनुजानीते भवान् तावत्क्षेत्रम्। आचा०२ श्रु०२ अ०३ उ०। त्ति) कश्चिदेवं वादी प्रमाणं कुर्यात्-अहाछंदो न वन्द्यो, नापि प्रशंस्यः, अहापवत्त-न०(यथाप्रवृत्त) येनैव प्रकारेणानादिकालेऽभूत् तेनैव प्रवृत्तवद् इति प्रतिज्ञा, कस्माद्धेतोः ? उच्यते-कर्मबन्धकारणत्वात् / को नाप्राप्तपूर्वस्वभावान्तरप्राप्ते, पञ्चा०३ विव०॥ दृष्टान्तः ? अविरतमिथ्यात्ववन्दनप्रशंसनवत्। ईदृशप्रमाणस्य दूषणेन अहापवित्तिकरण-न०(यथाप्रवृत्तिकरण) यथाप्रवृत्तस्य करणे दोषमावहति प्रशंसनवन्दनप्ररूपणं कुर्वन् (गच्छ8 त्ति) कोइ अहाछंदो ओमाइसु गच्छरक्खणं करेति, तं वंदति पसंसति वा, ण दोसो। नि०चू० सम्यक्त्वानुगुणे करणभेदे, कर्म०५ कर्मा अष्टा 11 उ०ा आचार्ये यथाच्छन्दे जातेऽन्यत्रोपसंपत्। व्य०४ उ०१ अहापवित्तिसंकम-पुं०(यथाप्रवृत्तिसंक्रम) यथा यथा जघ न्यमध्यमोत्कृष्टानां योगानां प्रवृत्तिस्तथा तथा संक्रमणे, पं० सं० अहाछंदविहारि(ण)-पुं०(यथाछन्दविहारिन)आजन्मापि यथाछन्दे, 5 द्वार: क०प्र०। ('संकम' शब्दे विवरिष्यते) भ०१० श०४ उ०। अहाबायर-त्रि०(यथाबादर)असारे,भ०३श०१3०) स्थूलप्रकारे, अहाजाय-न०(यथाजात) यथाजातं नाम यथा प्रथमतो जननी "अहावायराई कम्माई'। भ०६ श०१ उ०। कल्पका यथोचितबादरे जठरान्निर्गतो, यथा च श्रमणो जातस्तथैव जातत्वक्रमेण दीयमाने आहारपुद्गले, प्रति वन्दनके,बृ०३ उ० यथाजातं जन्म श्रमणत्वमाश्रित्य,योनिनिष्क्रमणं अहाबीय-न०(यथाबीज) यद्यस्योत्पत्तिकारणं, तस्मिन्, सूत्र०२ श्रु०३ च, तत्र रजोहरणमुखवस्विकाचोलपट्टकमात्रया श्रमणो जातः, अ01 रचितकरपुटस्तु योन्या निर्गतः, एवम्भूत एव वन्दति, तद्व्यतिरेकाच यथाजातं भण्यते कृतिकर्मवन्दनम् / आव०३ अ०। यथाजातं-जातं अहाबोह-अ०(यथाबोध) बोधानतिक्रमे, ध०१ अधिo जन्म, तच द्वेधा-प्रसवः प्रव्रज्याग्रहणं च। तत्र प्रसवकाले रचितकरसंपुटो अहाभद्दग-पुं०(यथाभद्रक) साध्वनुकूले श्रावके, बृ०१ उ०। आव०। जायते, प्रव्रज्याकाले च गृहीतरजोहरणमुखवस्तिक इति / अत एव शासनबहुमानवति, बृ०१ उ०। रजोहरणादीनां पञ्चानां शास्त्रे यथाजातत्वमुक्तम् / तथा च तत्पाठः- अहाभाग-अव्य०(यथाभाग) यथाविषये, दश०५ अ०) "पंच अहाजायाई, चोलयपट्टो 1 तहेव रयहरणं / उण्णिअ 3 खोमिअ अहाभूय-पुं०(यथाभूत) तात्त्विके, स्था० 1 ठा० 1 उ०। 4 निस्सि-जयजुअलं तह य मुहपोत्ती' ||1|| यथा जातमस्य स अहामग्ग-अव्य०(यथामार्ग)ज्ञानादिमोक्षमार्गानतिक्रमेण क्षयो-पशमयथाजातः, तथाभूत एव वन्दते, इति वन्दनमपि यथाजातम् / ध०२ भावानतिक्रमे, दशा०७ अ० ज्ञा०) स्था० औदयिक-भावापगमे, अधि० स्था०७ ठा०व्या कल्प०भ०/ Page #1051 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहारायणिय 867- अभिधानराजेन्द्रः - विभाग 1 अहालंद अहारायणिय-अव्य०(यथारात्निक) यथा यथा रत्नैरधिको भवेत्तदनतिक्रमे, बृ०३ उ०। "अहारायणियं गामाणुगामं दूइज्जेज्जा''। आचा०२ श्रु०३ अ०३ उ० अहारि(ण)-त्रि०(अहारिन्) मनसोऽनिष्ट. आचा०१ श्रु०६ अ० 2 उ०॥ अहारिय-अव्य०(यथर्जु) ऋजुताऽनतिक्रमे, "अहारियं रिएजा" यथा ऋजुभवति, तथा गच्छेद, नार्दवितर्द, विकारंवा कुर्वन् गच्छेत्। आचा०२ श्रु०३ अ०२ उ०। * यथारीत-अव्यका रीतं रीतिः, स्वभाव इत्यर्थः / तदनतिक्रमेण यथारीतम् / स्वभावानतिक्रमे, "अहारीयं रीयइ" यथारीत रीयते गच्छति, यथा स्वाभाविकौदारिकशरीरगत्या गच्छतीत्यर्थः / भ० 5 श०२ उ० * यथार्ह-त्रि०ा यथोचिते, स्था०२ ठा०१ उ०। यथार्हा या यस्योचिता लोकयात्रा, लोकोचितानुवृत्तिरूषो व्यवहारः, सा विधेया / यथार्हलोकयात्राऽतिक्रमे हि लोकचित्तविराधनेन तेषामात्मन्यनादेयतया परिणामापादनेन स्वलाघवमेवोत्पादितं भवति / एवं चान्यस्यापि स्वगतस्य सम्यगाचारस्य लघुत्वमेवोपनीतं स्यादिति। उक्तं च- "लोकः खल्वाधारः, सर्वेषां धर्मचारिणां यस्मात् / तस्माल्लोकविरुद्धं, धर्मविरुद्धं च संत्याज्यम्" ||32|| ध०१ अधि०। औचित्ये, षौ०१० विव०॥ अहालंद-पुं०पअथ (यथा)लन्दब यावन्मात्रे काले, आचा०२ श्रु०७ अ०१ अ०। अथेत्यव्ययम्, लन्दशब्देन कालं उच्यते / तत्र यावता कालेनोदकाः करः शुष्यति, जघन्यतस्तावति काले, कल्प०८ क्षण भेदाःलंदं तु होइ कालो, सो पुण उक्कोसमज्झिमजहन्नो। उदउल्ल करो जाविह, सुक्कइ सो होइ उ जहन्नो // 616 / / लन्दं तु भवति कालः / समयपरिभाषया लन्दशब्देन कालो भण्यत इत्यर्थः। स पुनः कालस्त्रिघा-उत्कृष्टो मध्यमो जघन्यश्च / तर उदकाः करो यावता कालेन इह सामान्येन लोकेषु शुष्यति, तावान् कालविशेषो भवति जघन्यः। अस्य च जघन्यत्वं प्रत्याख्याननियमविशेषादिषु विशेषत उपयोगित्वात्, अन्य-थाऽतिसूक्ष्मतरस्यापि समयादिलक्षणस्य सिद्धान्तोक्तस्य कालस्य संभवात्। उक्कोस पुव्वकोडी, मज्झे पुण हुति णेगठाणाई। इत्थ पुण पंचरत्तं, उक्कोसं होइ अहलंदं॥६२०|| उत्कृष्टः पूर्वकोटीप्रमाणः, अयमपि चारित्रकालमानमाश्रित्य उत्कृष्ट उक्तः, अन्यथा पल्योपमादिरूपस्यापिकालस्य संभवात्। मध्ये पुनर्भवन्त्यनेकानि स्थानानि वर्षादिभेदेन कालस्य। अत्र पुनर्यथालन्दकस्य प्रक्रमे पञ्चरात्रं यथेत्यागमानतिक्रमेण लन्दं काल उत्कृष्टं भवति, तेनैवात्रोपयोगात्। जम्हा उ पंचरत्तं, चरंति तम्हा उहंति अहलंदी। पंचेव होइ गच्छो,तेसिं उक्कोसपरिमाणं // 621 / / यस्मात्पञ्चरात्रं चरन्ति पेटाई, पेटाद्यन्यतमायां वीथ्यां भैक्षनिमित्तं पञ्च रात्रिंदिवान्यटन्ति, तस्माद्भवन्ति यथालन्दिनः, विवक्षितयथालन्दभावात् / तथा पञ्चैव पुरुषा भवन्ति गच्छो गणः, तेषां यथालन्दिकानां पञ्चको हि गणोऽमुं कल्पं प्रतिपद्यते / इति उत्कृष्टमेकैकम्य गणस्य पुरुषपरिमाणमेतदिति। अथ बहुवक्तव्यत्वान्निरवशेषाभिधाने ग्रन्थगौरवप्रसक्त्या यथालन्दिककल्पस्यातिदेशमाहजा चेव य जिणकप्पे, मेग सा चेव लंदियाणं पि। नाणत्तं पुण सुत्ते, मिक्खायरि मासकप्पे य॥६२शा यैव च जिनकल्पे जिनकल्पविषया 'मेरा' मर्यादा पञ्च विधतुलनादिरूपा, सैव च यथालन्दिकानामपि प्रायशः नानात्वं भेदाः पुनर्जिनकल्पिकेभ्यो यथालन्दिकानां सूत्रे सूत्रविषये, तथा भिक्षाचर्यायां, मासकल्पे च / चकारात्प्रमाणविषयं चेति। अथातिदेशपूर्वकमल्पवक्तव्यत्वात्प्रथम मासकल्पना-नात्वमेवाहअहलंदियाण गच्छे, अप्पडिबद्धाण जह जिणाणं तु। नवरं कालविसेसो, उउवासे पणगचउमासो॥६२३।। यथालन्दिका द्विधा- गच्छे प्रतिबद्धा अप्रतिबद्धाश्च / गच्छे च प्रतिबन्धोऽमीषां कारणतः, किञ्चिद् श्रुतस्यार्थस्य श्रवणार्थमिति मतव्यम्। ततो यथालन्दिकानां गच्छे अप्रतिबद्धानाम्, उपलक्षणत्वात्प्रतिबद्धानां च, 'तवेण सत्तेण' इत्यादिभावनारूपा सर्वाऽपि सामाचारी यथा जिनकल्पिकानां पूर्वमुक्ता, तथैव समवसेया। 'नवरं' केवलं द्विविधानामपि यथालन्दिकानां जिनकल्पिकेभ्यः काले कालविषये विशेषो भेदो ज्ञातव्यः / तमेवाह-(उउवासे पणगचउमासो त्ति) ऋतौ ऋतुबद्धकाले, वर्ष वर्षाकाले च, यथासंख्यं दिनपञ्चकं मासचतुष्टयं चैकत्रावस्थानं भवति / इयमत्र भावना-ऋतुबद्धे, काले यथालन्दिकसाधवो यदि विस्तीर्णो ग्रामादिर्भवति, तदा तंगृहपतिरूपाभिः षड्भिर्वीथीभिः परिकल्प्य एकैकस्यां वीथ्यां पञ्च दिवसानि भिक्षामटन्ति, तत्रैव च वसन्ति। एवंषभिर्वीथीभिरेकस्मिन्ग्रामे मासः परिपूर्णो भवति / तथाविधविस्तीर्णग्रामाभावे तु निकटतमेषु षट्सु ग्रामेषु पञ्चपञ्च-दिवसं वसन्ति / उक्तं च कल्पभाष्ये - एकेकंपंचदिणे,पण पण ऊ निहिओ मासो। पं०भा०। एतच्चूर्णिश्च.. "जइ एगो चेव मासो सवियारो त्ति विच्छिन्नो, तो छवीहीओ काउं एकेकीए पंच एव दिवसाणि हिंडंति / बिइयाए वि पंचदिवसे० जाव छट्ठीए वि पंचदिवसा / एवं एगगामे मासो भवइ / अह नत्थि एगो गामो सवियारो, तो हवं जहालंदियाण छगामखित्तस्स परिपेरंतेणं तेसिं एकेक पंचदिवसाणि अत्यंति। एवं मासो विभिन्जमाणो पण पण निट्ठिओ होइ ति" अथ यथालन्दिकानामेव परस्परं भेदमाहगच्छे पडिबद्धाणं, अहलंदीणं तु अह पुण विसेसो। ओग्गह जो तेर्सि तू, सो आयरियाण आभवइ / गच्छप्रतिबद्धानां पुनर्यथालन्दिकानां गच्छप्रतिबद्धेभ्यः सकाशाद् विशेषो भेदो भवति / तमेवाह- तेषां गच्छप्रतिबद्धयथालन्दिकानां यत्क्रोशपञ्चकलक्षणक्षेत्रावग्रहः, स आचार्याणामेव भवति / यस्याऽऽचार्यस्य निश्रया ते विहरन्ति, तस्यैव स क्षेत्रावग्रहो भवतीति भावः। गच्छाप्रतिबद्धानां तु जिन-कल्पिकवत् क्षेत्रावग्रहो नास्तीति / अथ द्विविधानामपि यथालन्दिकानां भिक्षाचर्यानानात्वं विवक्षुराहएगवसहीए पणगं, छवीहीओ य गामि कुव्वंति। दिवसे दिवसे अन्नं,अडंति वीहीसु नियमेण / / 625 / / Page #1052 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहालंद ८६८-अभियानराजेन्द्रः-विभाग 1 अहालंद ऋतुबद्धे काले एकस्यां वसतौ पञ्चकं पञ्च दिवसानि यावदवतिष्ठन्ते। वर्षासुपुनश्चतुरो मासान्यावदेकस्यां वसतौ तिष्ठन्ति। ग्रामे षट् | वीथीः कुर्वन्ति / अयमर्थः- यथालन्दिका गृहपतिरूपाभिः षभिर्वीथीभिग्राम परिकल्पयन्ति / एकैकस्यां च वीथ्यां पञ्च पञ्च दिवसानि भिक्षा पर्यटन्ति / तत्रैव च वसतिं विदधति / उक्तं च पञ्चकल्पचूर्णी - "छठभागेगामो कीरइ, एगेगो पंचदिवसं भिक्खं हिंडंति, तत्थेव वसंति वासासु एगत्थ चउम्मासो त्ति" / तासु च वीथीषु दिवसे दिवसे नियमतोऽन्यामन्यां भिक्षामटन्ति, उद्धृटत्तादिभिक्षा पञ्चकमध्यादेकस्मिन् दिवसे यां भिक्षामटन्ति, न पुनर्द्वितीयेऽपि दिने तामेवाटन्ति, किन्त्वन्यामन्यामिति भावः। इत्थं तावदस्माभिर्व्याख्यातं, सुधिया तु समयाविरोधेनान्यथाऽपि व्याख्येयमिति। अथ सूत्रनानात्वं निर्दिदिक्षुर्यथालन्दिकभेदानेवाहपडिबद्धा इयरे विय, इक्किक्का ते जिणा यथेराय। अत्थस्स उदेसम्मिय, असमत्ते तेसि पडिबंधो॥६२६।। यथालन्दिका द्विविधाः- गच्छप्रतिबद्धाः, इतरे च गच्छाप्रतिबद्धाः। ते पुनरेकैकशो द्विभेदाः-जिनकल्पिकाः स्थविरकल्पि-काश्च / तत्र यथालन्दिककल्पपरिसमाप्त्यनन्तरं ये जिनकल्पं प्रतिपत्स्यन्ते ते जिनकल्पिकाः, ये तु स्थविर-कल्पमेवाश्रयिष्यन्ति ते स्थविरकल्पिकाः / इह च ये गच्छे प्रति-बद्धास्तेषां प्रतिबन्धो अनेन कारणेन भवति-(अत्थस्सेत्यादि) अर्थस्यैव, न सूत्रस्य, देश एकदेशोऽद्याप्यसमाप्तो, न गुरुसमीपे परिपूर्णो गृहीत इति तद्ग्रहणाय गच्छेप्रतिबन्धः, तेषां तस्यावश्यं गुरुसमीपे ग्रहीष्यमाणत्वादिति। अथपरिपूर्ण सूत्रार्थ गुरुसमीपे गृहीत्वैव कथं कल्पंन प्रतिपद्यन्त इत्याहलग्गाइसुत्तरंते, तोपडिवजित्तु खेत्तवाहिठिआ। गिण्हंति, जं अगाहिथं, तत्थ य गंतूण आयरिओ।।६२७|| तेसिं तयं पयच्छइ,खेत्तं इंताण तेसिमे दोसा। वंदंतमवंदंते, लोगम्मी होइ परिवाओ // 628|| न तरेज जई रातुं, आयरिओ ताहि एइ सो चेव। अतंरपल्लि पडिवस-भगामवसहिंय वसहि वा।।६२६॥ तीए य अपरिभोगे, ते वंदंते न वंदई सो उ। तं घेत्तुमपडिबद्धा, ताहि जहिज्छाएँ विहरंति॥६३०|| लग्रादिषु त्वरमाणेषु शुभेषु लग्नयोगचन्द्रबलादिषु झगित्यागतेषु सत्सु अन्येषु च लग्नादिषुदूरकालवर्तिषुनतथा भव्येषु वा गृहीतापरिपूर्णसूत्रार्था अपि लग्रादिभव्यतया कल्पं प्रतिपद्यन्ते / ततः प्रतिपद्य तं कल्पं गच्छानिर्गत्य गुधिष्ठितात् क्षेत्रग्रामन-गरादेर्बहिर्दूरदेशे स्थिता विशिष्टतरनिष्ठुरनिखिलनिजानुष्ठाननिरता गृह्णन्ति यदगृहीतमनधीतमर्थजातं, तत्र चायं विधिः- यदुत आचार्यः स्वयं तत्र गत्वा तेभ्यो यथालन्दिकेभ्यः (तयं ति) तमर्थं शेषं प्रयच्छति ददाति / अथ त एवाचार्यसमीपभागत्य किमिति तमर्थशेषं न गृह्णन्तीत्याह-(खेत्तं इंताणेत्यादि) क्षेत्रमध्यं समागच्छतां तेषां यथालन्दिकानाम् , एते वक्ष्यमाणा दोषाः। तथाहि- वन्दमानेषु गच्छवासिषु साधुषु, अवन्दमानेषु च कल्पस्थितेषु लोकमध्ये परिवादो निन्दा भवति / तथाहि - यथालन्दिकानां कल्पस्थित्यैव आचार्य मुक्त्वा अन्यस्य साधोः प्रणाम कर्तुं न कल्पते, गच्छसाधवश्च महान्तोऽपि तान् वन्दन्ते, ततो लोको वदेत,-यथा दुष्टशीला निर्गुणाश्च एते, येन अन्यान् साधून वन्दमानानपि न व्याहरन्ति, न वन्दन्ति वा / गच्छ-संबन्धिसाधूनां वा उपरि भ्रष्टत्वाऽऽशङ्का भवेत्- अवश्यमेते दुःशीला निर्गुणाश्च, ये न वन्द्यन्ते, आत्मार्थिका वा एते, येन अप्रतिवन्दमानानपि वदन्ते इति / अथ यदि जङ्घाबलक्षीणतया तत्सकाशं गन्तुं (न तरेज त्ति) न शक्नुयात् / आचार्यस्तदा एति आगच्छति / क्वेत्याह- अन्तरपल्ली मूलक्षेत्रात् सार्द्धद्विगव्यूतिस्थं ग्रामविशेषं, यद्वा, प्रतिवृषभग्रामाद् मूलक्षेत्राद् द्विगव्यूतिस्थात् भिक्षाचर्याग्रामात्, अथ वा बहिर्मूलक्षेत्राद् मूलक्षेत्र एव वा अन्यवसति, वाशब्दात् मूलवसतिम् / इयमत्र भावना-यद्याचार्यो यथालन्दिकसमीपे गन्तुंन शक्नोति, तदा यस्तेषां यथालन्दिकानांमध्ये धारणकुशलः, सोऽन्तरपल्लीमागच्छति, आचार्यस्तु तत्र गत्वा अर्थ कथयति / अत्र पुनः साधुसंघाटको मूलक्षेत्राद् भक्तं पानं गृहीत्वा आचार्याय ददाति, स्वयमायार्चः सन्ध्यासमये मूलक्षेत्रमायाति / अथान्तरपल्लीमागन्तुंन शक्नोति, तदा अन्तरपल्ली-प्रतिवृषभग्रामयोरन्तराले गत्वा अर्थ कथयति तत्रापिगन्तुं शक्त्यभावे प्रतिवृषभग्रामे, तत्रापि गन्तुमशक्ते प्रतिवृषभग्राम-मूलक्षेत्रयोरन्तराले, तत्रापि गन्तुमसामर्थ्य मूलक्षेत्रस्यैव बहिर्विजने प्रदेशे, अथ तत्रापि गन्तुमसमर्थास्तदा मूलक्षेत्रमध्य एवाऽन्यस्यां वसतौ गत्वा, तत्रापि गमनशक्त्यभावे मूलवसतावेव प्रच्छन्न-माचार्यस्तस्मै यथालन्दिकायाअर्थशेष प्रयच्छतीति / उक्तं च कल्पचूर्णी- "आयरिए सुत्तपोरिसिं अत्थपोरिसिं च गच्छे नियाण दाउं अहालंदियाणं सगामं गंतुं, अत्थं सारेइ / अह न तरइ, दो वि पोरिसीओ दाउं गंतुं तो सुत्तपोरिसिं दाउं वचइ, अत्थपोरिसिं सीसेण दवावेइ / अत्थसुत्तपोरिसिं पि दातुं गंतुंन तरइ, तो दो विपोरिसीओ सीसेण वायावेइ अप्पणा अहालंदिए वाएइ। जइ न सकेइ आयरिओ खेत्तवसहिं अथालंदियसंगासं गंतुं, ताहे जो तेसिं अहालंदियाणं धारणाकुसलो, सो अंतरपल्लिआसन्ने खेत्तवसहिं एति, आयरियो तस्स गंतुं अत्थं कहति / एत्थ पुण संधाडो भत्तपाणं गहाय आयरियस्सनेइ, गुरू वेयालियं पडिए इति। एवं पि असमत्थे गुरू अंतरपल्लियाए पडिवसभगामस्स य अंतरावाएइत्ति। असति पडिवसभे वाएइ, असति पडिवसभस्स वासगामस्स य अंतरा वाएइत्ति, असति वसभगामस्स बहियाए वाएति।अतरते सम्गामे अन्नाए वसहीए, अतरंते एगवसहीए चेव अपरिभोगे उवासेवाएति इत्यादि। (तीए य अपरभोगो त्ति) तस्यां च मूलवसतावपरिभोगे तथाविधजनाकीर्णे स्थाने तेभ्योऽर्थशेष प्रयच्छतीति योगः ! तत्र च ये गच्छसाधवो महान्तोऽपि यथालन्दिकं वन्दते, स पुनर्यथालन्दिकस्तान् न वन्दत इति / एवं तमर्थशेष गृहीत्वा परिनिष्ठितप्रयोजनत्वाद् गच्छे अप्रतिबद्धाः सन्तो यथालन्दिका स्वेच्छया स्वकल्पानुरूपं विहरन्ति, निजकल्पं परिपालयन्ति इति / प्रव०७० द्वार। बृ०ध० विशे०| अथ जिनकल्पिकस्थविरकल्पिकभेदभिन्नानां परस्परं विशेषमाहजिणकप्पिया य तहियं, किं वि तिगच्छं पिते न कारिति / निप्पडिकम्मसरीरा, अवि अच्छिमलं पिनऽवणेति।६३१।। जिनकल्पिकाश्च यथालन्दिकाः, तदा कल्पकाले मारणा Page #1053 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहालंद 869 - अभिधानराजेन्द्रः-विभाग 1 अहालंद न्तिकेऽप्यातङ्के समुत्पन्ने, न कामपि चिकित्सां ते कारयन्ति, तथाकल्पस्थितेः। अपि च-निष्प्रतिकर्मशरीराः प्रतिकर्मरहित-देहास्ते / भगवन्तस्तत आस्तां तावदन्यत्, अक्षिमलमपि नापनयन्ति, अप्रमादातिशयादिति। थेराणं नाणत्तं, अतरंतं अप्पिणंति गच्छस्स। ते विय से फासुएणं, करिति सव्वं पिपडिकम्मं // 632 / / स्थविरकल्पिकयथालन्दिकानां जिनकल्पिकयथालन्दिकेभ्यो नानात्वं भेदः, यथा अशक्नुवन्तं व्याधिबाधितं सन्तं स्व-साधुमर्थयन्ति गच्छस्यगच्छवासिसाधुसमूहस्यस्वकीयंपञ्चकगणपरिपूरणार्थं च तस्य स्थाने विशिष्टधृतिसंहनना-दिसमन्वितमन्यं मुनिस्वकल्पेप्रवेशयन्ति। तेऽपि च गच्छवासिनः साधवः (से त्ति) तस्य अशक्नुवतः प्रासुकेन | निरवद्येना-ऽन्नपानादिना कुर्वन्ति सर्वमपिपरिकर्मप्रतिजागरणमिति। किञ्चएक्कक्कपरिग्गहगा, सप्पाउरणा हवंतिथेराओ। जे पुणसिं जिणकप्पे, भावे सिंवत्थपायाणि // 633 / / स्थविरकल्पिका यथालन्दिका अवश्यमेव एकैकपतद्ग्रहकाः प्रत्येकमेक "कपतद्ग्रहधारिणः, तथा सप्रावरणाश्च भवन्तिायेपुनरेषां यथालन्दिकानां जिनकल्पे भविष्यन्ति, जिनकल्पिक-यथालन्दिका इत्यर्थः। भावे तेषां वस्त्रपात्रे सप्रावरणाः प्रावरणपतद्ग्रहधारिपाणिपात्रभेदभिन्नभाविजिनकल्पापेक्षया केषांचिद्वस्वपात्रलक्षणमुपकरणं भवति, केषां च नेत्यर्थः। प्रव०७० द्वार। बृ०॥ अथ सामान्येन यथालन्दिकप्रमाणमाहगणमाणओ जहन्ना, तिन्नि गण सयग्गओ य उक्कोसा। पुरिसपमाणे पनरस, सहस्सओ चेव उक्कोसो॥६३४|| गणमानतो गणमाश्रित्य जघन्यतस्त्रयो गणाःप्रतिपद्यमानका भवन्ति। शताऽग्रशश्च शतपृथक्त्वमुत्कृष्टतो गणमानं, पुरुषप्रमाणं त्वेतेषां प्रतिपद्यमानकानां जघन्यतः पञ्चदश, पञ्चको हि गणोऽमुं कल्पं प्रतिपद्यते / गणश्च जघन्यतस्त्रयः, ततः पञ्चभिर्गुणिताः पञ्चदश, उत्कृष्टतःपुनः पुरुषप्रमाणं सहस्रशः सहस्रपृथक्त्यम्। पुरुषप्रमाणमेवाश्रित्य पुनर्विशेषमाहपडिवजमाणगावा, इक्काइ हवेज ऊणपक्खे वि। होति जहन्ना एए, सयग्गसो चेव उक्कोसा॥६३४|| पुव्वपडिवनगाण वि, उक्कोसजहन्नसो परीमाणं। कोडिपहुत्तं भणियं, होइ अहालंदियाणं तु // 63|| प्रतिपद्यमानका एते जघन्यत एकादयो वा भवेयु,नप्रक्षेपे सति, यथालन्दिककल्पे हि पञ्चमुनिमयो गच्छः, तत्र च यदा ग्लानत्वादिकारणवशतो गच्छसमर्पणादिना तेषां न्यूनता भवति, तदैकादिकः साधुस्तं कल्पं प्रवेश्यते, येन पञ्चको गच्छो भवति, एवं जघन्याऽऽपत्तेः प्रतिपद्यमानकास्तथा शताऽग्रश उत्कृष्टाः प्रतिपद्यमानका एवेति॥६३४|| पूर्वप्रतिपन्ननामपि सामान्ये-नोत्कृष्टतो जघन्यतश्च परिमाणं कोटिपृथक्त्वं भणितं यथा-लन्दिकानाम् / उक्तं च कल्पचूर्णी - "पडिवजमाणगा जहन्नेणं तिन्नि गणा, उक्कोसेणं सयपुहत्तं गणाण पुरिसप्पमाणेणं पडिवजमाणगा, जहन्नेणं पन्नरस पुरिसा उक्कोसेणं सहस्सपुहत्तं पुवपडिवनगाणं जहन्नेणं कोडिपुहत्तं, उक्कोसेण वि कोडिपुहत्तमिति'' / केवलं जधन्यादुत्कृष्ट विशिष्टतरं ज्ञेयमिति। प्रव०७० द्वार। बृ०॥ अथ गच्छप्रतिबद्धयथालन्दिकद्वारमाह - पडिबद्धे को दोसो, आगमणेगागिणस्स वासासु / सुयसंघयणादीओ, सो चेव गमो निरवसेसो॥ प्रतिबन्धनं प्रतिबन्धः, गच्छप्रतिबन्ध इत्यर्थः / तत्र कारणे यथालन्दिकानांच वक्तव्यं (को दोस त्ति) को नाम दोषो भवति? यत्ते यथालन्दिका आचार्याऽधिष्ठिते क्षेत्रे न तिष्ठन्ति। (आगम-णेगागिणस्स त्ति) यद्याचार्याः स्वयं क्षेत्रबहिर्गन्तुं न शक्नुवन्ति, तत एकाकिनो यथालन्दिकस्याऽऽगमनं भवति (वासासु त्ति) वर्षासुउपयोगं दत्त्वा यदि जानाति, वर्ष न पतिष्यति, तत आगच्छति, अन्यथा तु नेति / श्रुतसंहननादिकस्तु गमः, स एव निरवशेषो वक्तव्यो यो जिनकल्पिकानाम्। यस्तु विशेषः, स प्रागेवोक्तः / अथ प्रतिबद्धपदं व्याख्यातिसुत्तत्थसावसेसो, पडिबंधो तेसिमो भवे कप्पो। आयरिए किइकम्म, अंतर बहिया य वसहीए। सूत्रार्थस्तैर्गृहीतः परमद्यापि सावशेषो न संपूर्णः / एष तेषां गच्छविषयप्रतिबन्धः / तेषां चाऽयं वक्ष्यमाणः कल्पो, यथा-आचार्यस्यैव कृतिकर्म वन्दनकं दातव्यं, तथा-यद्याचार्यों न शक्- नोति गन्तुं ततोऽन्तरा वा ग्रामस्य, बहिर्वा वसतौ, यथालन्दिकस्य वाचनां ददाति। एतत्तूत्तरत्र भावयिष्यते / अथ को दोष इति द्वारम् शिष्यः पृच्छतियथाऽद्याचार्याधिष्ठित क्षेत्रे ते तिष्ठेयुस्ततः को दोषः स्यात् ? उच्यते - नमणं पुव्वन्मासा, अणमण दुस्सीलथप्पगासंका। आयट्ठ कुकुड ति य वादो लोगे ठिई चेव / / यथालन्दिकानां न वर्त्तते आचार्य मुक्तवा अन्यस्य साधोः प्रणामं कर्तु, तथाकल्पत्वात् / ततस्ते क्षेत्रान्तस्तिष्ठन्तः पूर्वाभ्यासान्नमनं प्रणाम साधूनां कुर्युः, गच्छवासिनश्च यथालन्दिकान् वन्दन्ते, ते पुनर्यथालन्दिकास्तान भूयो न प्रतिवन्दन्ते, ततस्तेषामनमने लोको ब्रूयात्-दुःशीला अशीलाः स्तम्भकल्पा अमी, यतो येषामित्थंवन्दमानानामपि न प्रतिवन्दनं प्रयच्छन्ति, न वा कमप्याला कुर्वन्ति।गच्छवासिषु वा लोकस्यस्थाप्यकज्ञानं भवति। अवश्यंस्थाप्या दुःशीलत्वादवन्दनीयाः कृता अमी, अन्यथा कथं न प्रतिवन्द्यन्ते / आत्मार्थिका वा अमी येनाऽप्रतिवन्दमानानपि वन्दन्ते, कौकुटिका वा मातृस्थानकारिणोऽमी लोकपङ्क्ति-निमित्तमित्थं वन्दन्ते / एवं लोके वाद उपजायते, कारणैः क्षेत्रबहिस्तिष्ठन्ति / अपि च स्थितिरेव कल्प एवाऽयममीषां, यत् क्षेत्राऽभ्यन्तरे न तिष्ठन्ति / अथाऽमीषामेव कल्पमाहदोनि विदाउं गमणं, धारणकुसलस्स देस्स बहि देइ। किइकम्मं चोलपट्टे, ओवग्गहिया निसिजाय / / आचार्यः सूत्रार्थपौरुष्यौ द्वे अपि गच्छवासिनां दत्त्वा यथालन्दिकानां समीपे गमनं करोति, गत्वा च तत्र तेषामर्थं कथयति / अथाचार्यों न शक्नोति तत्र गन्तुं, ततो यस्तेषां यथा-लन्दिकानां मध्ये धारणाकुशलोऽवधारणाशक्तिमान, क्षेत्रबहिरन्तरा पल्लिकायाः प्रत्यासन्ने भूभागे समायाति, तत्र च गत्वा आचार्यस्तस्याऽथ ददाति / Page #1054 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहालंद ८७०-अभिषानराजेन्द्रः-विभाग 1 अहालहुस्सय चूर्णिकृत्- "सवियारो ति विस्तृतः, ततस्तस्मिन् ग्रामे षट् वीथीः परिकल्प्य यथालन्दिका एकैकस्यां वीथ्यां पञ्च पञ्च दिवसान भिक्षामटन्ति, तस्यामेव च वीथ्यां वसतिमपि गृह्णन्ति / एवं प्रतिवीथ्यां 'पणगेणं' रात्रिंदिवपञ्चकेन मासो विभज्यमानः सन् षड्भिरहोरात्रपञ्चकैर्निष्ठितः सम्पूर्णो भवति / अथ नाऽस्ति विस्तीर्णो ग्रामस्ततो। (हवंतऽहालंदियाण छग्गामा इति) मूलक्षेत्रपार्श्वतो ये लघुतरा षट् ग्रामा भवन्ति, तेषु प्रत्येकं पञ्च पञ्च दिवसान् पर्यटतां यथालन्दिकानां तथैव षभिरहोरात्र-पञ्चकर्मासः परिपूर्णो भवतीति। बृ०१ उ०। अहालहुस्सय-न०(यथालघुस्वक) यथेति यथोचितानि लघु-स्वकानि अमहास्वरूपाणि, महतां हि तेषां नेतुं गोपयितुं वा शक्यत्वादिति यथालघुस्वकानि / अथवा लघूनि महान्ति वरिष्ठानीति च वृद्धाः / अमहास्वरूपेषु, भ०। देवाणं अहालहु- सगाई रयणाई हता! अत्थि। भ०३श०२ उ०। अनेकान्तलघुके वीणाग्रहणग्राह्ये, व्य०७ उ०। स्तोके, व्य स च श्रुतभक्तिहेतोराचार्याणां कृति-कर्म वन्दनकं दत्त्वा चोलपट्टकद्वितीय औपग्रहिक्यां निषद्याया- मुपविष्टश्चाऽर्थ शृणोति। अथ 'दोन्नि विदाउंगमणं" इत्येव दर्शयन्नाहअत्थं दो च अदाउं, वचइ वायावए व अनेणं / एवं ता उउबद्धे वासासु य काउमुवओगं / यद्याचार्यो द्वे अपिपौरुष्यौ दत्त्वा गन्तुं न शक्नोति, ततोऽर्थ- मदत्त्वा, तथाऽप्यशक्तो द्वावपि सूत्राऽर्थावदत्त्वा व्रजति, अन्येन वा शिष्येण स्वशिष्यान् वाचयति, वाचनां दापयति / अथाऽऽचार्यस्तत्र गन्तुमशक्तस्ततो यथालन्दिकः सूरिसमीपमायाति, एवं तावत् ऋतुबद्धे द्रष्टव्यम्। वर्षासुचशब्दः पुनरर्थे / वर्षासु पुनरयं विशेषः- उपयोगं कृत्वा किं वर्ष पतिष्यति ? नवेति विमृश्य यदि जानातिपतिष्यति, ततो न आचार्याणां समीपमायाति। अथ गुरवस्तत्र गताः कथं समुद्दिशन्तीत्याहसंघाडो मग्गेणं, भत्तं पाणं च नेइ उगुरूणं / अचुण्डं थेरा वा, तो अंतरपल्लिए एइ॥ गुरूणां यथालन्दिकसमीपमुपगतानां योग्यं भक्तं पानं च गृहीत्वा संघाटको मार्गेण पृष्ठतो गत्वा गत्वा तत्र नयति ! अथ यावता कालेन यथालन्दिकानामुपाश्रयं गुरुवो व्रजन्ति, तावता अत्युष्णमता वा तपश्चरन्ति, स्थविरा वा वार्द्धिकवयः प्राप्तास्ते आचार्यास्ततोऽन्तरपल्लिकायामेको यथालन्दिको धारणासंपन्नः समायाति, तत्र गुरवोऽपिगत्वा तस्यवाचनांदत्वा संघाटकेनाऽऽनीतं भक्तपानं समुद्दिश्य संध्यासमये मूलक्षेत्रमायान्ति। अथाऽन्तरपल्लिमपि गन्तुमसमर्था गुरवः, ततः किमित्याहअंतरपडिवसमे वा, बिइयंतर बाहि वसमगामस्स। अन्नाए वसहीए, अपरीभोगम्मि वाएइ / / अन्तरपल्लिकाप्रतिवृषभग्रामयोरन्तराले गत्वा यथालन्दिकं वाचयति, तत्र गन्तुमशक्तो प्रतिवृषभग्रामे, अथ तत्रापि गन्तुं न शक्नोति, ततो(बिइयंतरं ति) द्वितीयं प्रतिवृषभमूलक्षेत्रयोरपा-ऽन्तराललक्षणं यदन्तरं, तत्र मत्वा वाचनां प्रयच्छति, तत्राऽपि गमनाऽशक्तौ वृषभग्रामस्य मूलक्षेत्रस्य बहिर्विजने प्रदेशे गत्वा वाचयति, यदि तत्रापि गन्तुं न प्रभविष्णुः, ततो मूलक्षेत्र एवाऽन्यस्यां वसतो, तत्राऽपि गन्तुमशक्ती तस्यामेव मूलवसतौ अपरिभोग्ये अवकाशे वाचयति तत्र चेयं सामाचारीतस्स जई किइकम्म, करिति सो पुण न तेसि पकरेइ / जा पढइ ताव गुरुणो, करेइ न करेइ उ परेणं / / तस्य यथालन्दिकस्ययतयो गच्छवासिनः साधवः कृतिकर्म कुर्वन्ति, स पुनर्यथालन्दिकस्तेषां गच्छवासिनां कृतिकर्मन करोति यावच्च पठति। अर्थशेषमधीते / गुरोरपि तावदेव करोति, परतस्तु न करोति, तथाकल्पत्वात्। अमीषामेव मासकल्पविधिमाहएक्को मासवियारो, हवंतहालंदियाण छग्गामा। मासो विभज्जमाणो, पणगेण उ निहिओ होई॥ यदि मूलक्षेत्रस्य बहिरेको ग्रामः सविचारः सविस्तरो वर्तते, आह च | यथालधुस्वकादिव्यवहारप्ररूपणामाहगुरुओ गुरुस्सतरगो, अहागुरुस्सो य होइ ववहारो। लहुसो लहुस्सतरगो, अहालहुस्सो य होइ ववहारो॥ एएसिं पच्छित्तं, वुच्छामि अहाणुपुव्वीए। व्यवहारस्त्रिविधः / तद्यथा- गुरुको गुरुस्वतरको यथागुरु- स्वकश्च / तत्र यो गुरुकः, स त्रिविधः / तद्यथा- लघुशो लघु-स्वतरको यथालधुस्वकश्च / एतेषां व्यवहाराणां, यथानुपूर्व्या यथोक्तपरिपाट्या, प्रायश्चित्तं वक्ष्यामि / किमुक्तं भवति ?एतेषु व्यवहारेषु समुपस्थितेषु यथापरिपाट्या प्रायश्चित्तपरिमाणं अभिधास्ये / यथाप्रतिज्ञातमेव करोति - गुरुगो य होइ मासो, गुरुगतरागो चउम्मासो। अहगुरुओ छम्मासो, गुरुगयपक्खम्मि पडिवत्ती॥ गुरुको नाम व्यवहारो मासो मासपरिमाणः, गुरुके व्यवहारे समापतिते मास एकः प्रायश्चित्तं दातव्य इति भावः / एवं गुरुतरको भवति चतुर्मासपरिमाणः / यथागुरुकः षण्मासः, षण्मासपरिमाणः / एषा गुरुकपक्षे गुरुकव्यवहारे त्रिविधे यथाक्रमं प्रायश्चित्तप्रतिपत्तिः / सम्प्रति लघुस्वकव्यवहारविषयं प्रायश्चित्तप्रमाणमाह तीसाय पण्णवीसा, पन्नरसे पण्णवीसा य। दस पंच य दिवसाई,लहुसगपक्खम्मि पडिवत्ती।। लघुको व्यवहारस्त्रिंशत्, त्रिंशदिवसपरिमाणः / एवं लघुतरकः पञ्चविंशतिदिनमानः / एषा लघुकव्यवहारे त्रिविधे यथाक्रमं प्रायश्चितप्रतिपत्तिः / यथालघुको व्यवहारः पञ्चदशपञ्च-विंशतिदिवसप्रायश्चित्तपरिमाणः / एवं लघुस्वतरको दशदिवसमानः। यथालघुस्वकः पञ्च दिवसानि पञ्चदिवसप्रायश्चित्तानि परिमाणः / एषा लघुस्वकव्यवहारपक्षे प्रायश्चित्तपरिमाणप्रतिपत्तिः / व्य० 2 उ०) सम्प्रति भाष्यकृत् यथालघुस्वकग्रहणं, तृतीयसूत्रगतमन्यतरग्रहणं च व्या-ख्यानयतिदुविहो य अहालहुसे, जहण्णओ मज्झिमो य उवहीओ। अन्नयरग्गहणेण उ,घेप्पइ तिविहो उ उवहीओ / / यथालघुस्वके उपधिर्द्विविधो भवति - जघन्यो मध्यमश्व / Page #1055 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहालहुस्सय ८७१-अभिवानराजेन्द्रः-विभाग 1 अहिंसा अन्यतरग्रहणेन तु त्रिविधोऽप्युपधिः परिगृह्यते / तदेवं कृता | अहाह-अव्य०(अहाह) खेदे, संबोधने, आश्चर्ये, क्लेशे, प्रकर्षे च / वाचा विषमपदव्याख्या भाष्यकृता / व्य०६ उ०। प्रा०॥ अहावगास-अव्य०(यथावकाश) यो यस्याऽवकाशः यद् यस्योत्पत्ति- | अहि-पुं०(अहि) उरःपरिसर्पभेदे, उत्त०३६ अ०। सर्प, उत्त०३४ अ० स्थानम्। अथवा भूम्यम्बुकालाऽऽकाशबीजसंयोगः, तदनतिक्रमे, सूत्रका ज्ञा०। सूत्र०। अस्य भेदाः"तेसिं च णं अहाबीएणं अहावगासेणं इत्थीए"। यथाऽवकाशेनेति। यो से किं तं अही? अही दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-दव्वीकरा य, यस्याऽवकाशो मातुरुदर-कुक्ष्यादिकस्तत्राऽपि किल वामा स्त्रियो, मउलिणो या दक्षिणा कुक्षिः पुरुषस्योभयाश्रितः षण्ढ इति / अत्र चाऽविध्वस्ता अथ के ते अहयः? गुरुराह- अहयो द्विविधाः प्रज्ञप्ताः / तद्यथायोनिरविध्वस्तं बीजमिति चत्वारो भङ्गा / तत्राप्याऽऽद्य एव भड़क दर्वीकराश्च मुकुलिनश्च / तत्र दर्वीय दर्वी फणा, तत्करणशीला उत्पत्तेरवकाशो, न शेषेषु त्रिष्विति। सूत्र०२ श्रु०३ अ० दर्वीकराः,मुकुलं फणाविरहयोग्या शरीरावयवविशेषाकृतिः, सा विद्यते अहावच-पुं०(यथापत्य) यथाऽपत्यानि तथा ये, ते यथापत्याः / येषां ते मुकुलिनः,फणाकरणशक्तिविकला इत्यर्थः / अत्राऽपिच-शब्दो पुत्रस्थानीयेषु, म०३ श०६ उ०। कल्पा स्वगताऽनेकभेदसूचकौ / प्रज्ञा०१ पद / आचा०। (दर्वीकरमुकुलिभेदा अहावचामिण्णाय-त्रि०(यथापत्याभिज्ञात) यथाऽपत्यमेव-मभिज्ञाता स्वस्वस्थाने द्रष्टव्याः) अवगता यथापत्याभिज्ञाताः,अथवा- यथाऽपत्याच तेऽभिज्ञाताश्चेति अहिअ-त्रि०(अहित) हिताऽकारिणि, स०३० सम०। कर्मधारयः। पुत्रस्थानीयेष्वभिज्ञातेषु,भ०३ श०६ उ० अहिअणियट्टि-स्त्री०(अहितनिवृत्ति) प्राणाऽतिपाताधकरणे, पं०व० अहाविह-अव्य०(यथाविध)शास्त्रीयन्यायानतिक्रमे,द्वा०७ द्वा०। 2 द्वार। अ(आ)हिआइ-स्त्री०पुं०(अभिजाति)खघथघमांच/१।१८७।इति अहासंखड-न०(यथासंखड) निष्प्रकम्पे पट्टादौ, नि०चू०२ उ०। भस्य हः / कगचज०1८1१1१७७। इत्यादिना तजयो क् / अतः अहासंथड न०(यथासंस्तृत)शयनयोग्ये, आचा०२ श्रु०२ अ०३ उ०। समृद्ध्यादौ वा / 8/144 / इति अकारस्य दीर्घः / सत्कुलोत्पत्ती, .* यथासंस्कृत-न० यत् तृणादि यथोपभोगाऽहं भवति, तथैव लभ्यते, प्रा०१ पादा ढुं०१ पाद। तस्मिन्, स्था०३ ठा०४ उ01 आचा०। अहिआहिअसंपत्ति-स्त्री०(अधिकाऽधिकसंप्राप्ति) वृद्धौ, पं० 204 अहासंविभाग-पुं०पयथा(आधा)संविभागब यथा सिद्धस्य स्वार्थ द्वार। निर्वर्तितस्येत्यर्थः, अशनादेः समिति सङ्गतत्वेन पश्चात्कर्मादि- अहिऊल-धा०(दह) भस्मीकरणे, सक० "दहेरहिऊलाऽऽलको"। दोषपरिहारेण विभजनं साधवे दानद्वारेण विभागकरणं यथा-संविभागः।। 84 / 208 / इति दह-धातोरहिऊलाऽऽदेशः। अहिऊलइ, डहइ, अतिथिसंविभागवते, उपा०१ श्रु०१ अ० "अहासंविभागो णाम जदि दहति / प्रा०४ पाद। अहाकम्मदेति, तो साधुमहे भजति हेट्ठिल्लेहिं संजमट्ठाणेहिं उत्तारेति, अहिंसअ-त्रि०(अहिंसक) अवधके, प्रश्न०१ संव० द्वार। तेण आहाकम्मेण सो अहासंविभागो भवति / जो अहापवत्ताणं अहिंसण-न०(अहिंसन) अव्यापादने, ध०१अधिका अण्णपाणवत्थ-ओसहभेसनपीढफलगसेज्जासंथारगादीण संविभागो, अहिंसा-स्त्री०(अहिंसा) न हिंसाऽहिंसा / नि०चू०२ उ०) प्राणसो अहा-संविभागो भवति। फासु एसणिज्जं संविभागो त्ति भणियं होइ"। वियोगप्रयोजनव्यापाराऽभावे, द्वा०२१ द्वा०ा प्राणिघातवर्जने, पं०व०१ आ०चू०६अ। आधासंविभाग इत्यनुवेदितव्यः / अस्या द्वार। ऽतिचाराः,तयाऽणंतरं चणं अहासंविभागस्स पंच अइआराजाणियव्या, (1) अहिंसास्वरूपनिर्वचनम्। न समायरियव्वा / तंजहा - सचित्तनिक्खेवणया 1, सचित्तप्पेहणया 2, कालाइकमदाणे 3, परोवदेशे 4, मच्छरया 5 / उपा० 1 अ० (2) अहिंसाव्रतलक्षणम्। ('अइहिसंविभाग' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 34 पृष्ठे उक्तोऽस्य विस्तरः) (3) अहिंसाख्यसंवरद्वारस्याऽशेषा वक्तव्यता। अहासच्च-न०(यथासत्य) यथातथ्ये,आचा०१ श्रु०४ अ०२ उ०। (4) यैरियमुपलब्धा सेविता च, तन्निरूपणम्। अहासत्ति-अव्य०(यथाशक्ति) स्वशक्त्यौचित्ये, द्वा०२२ द्वा०। (5) अहिंसापालनोद्यतस्य यद् विधेयं, तन्निरूपणम्। शक्त्यनुरूपे, पं०सू०४ सू०ा शक्त्यनुसारे, पं०सू०३ सू०। प्रथमव्रतस्य पञ्च भावनाः। अहासुत्त-अव्य०(यथासूत्र) सामान्यतः सूत्राऽनतिक्रमे, दशा० (7) सर्वे प्राणा न हन्तव्याः / 7 अ० स्था०। उपा। ज्ञा०। सूत्राऽनुसारेणाऽऽपादितसत्यताके, व्य० (8) वैदिकहिंसाविचारः। 6 उ०। सूत्राऽविरुद्धे, कल्प०६ क्ष०। (e) किमर्थं सत्त्वान् न हिंस्यादिति प्रतिपादनम्। अहासुह-अव्य०(यथासुख) सुखाऽनतिक्रमे, ज्ञा०१अ० (10) अहिंसाप्रसिद्ध्यर्थनिरूपणम्। अहासुहुम-त्रि०(यथासूक्ष्म) सारे, भ०३ श०१ उ०। "अहाबायरे पुग्गले परिसाडेइ / कल्प०२ क्ष०। (12) सर्वे प्रावादुका अहिंसां मोक्षाऽङ्गभूतां प्रतिपद्यन्ते, न प्राधान्येन। Page #1056 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा 872- अभिवानराजेन्द्रः-विभाग१ अहिंसा (13) अहिंसाविवेचनम्। (14) एकान्तनित्यानित्यात्मनि हिंसा न घटत इति निरूपणम् / (15) आत्मनः परिणामित्वे हिंसाया अविरोधनिरूपणम्। (16) स्वर्गादयो हि यदि स्वकृतकर्मानाऽपादिता एव स्युरिति तदा कर्माभ्युपगमो निरर्थक इति हिंसाऽपि असंभवा जैनानामिति विचारः। (17) आत्मनो नित्यानित्यत्वस्य देहान भिन्नाऽभिन्नत्वस्य च साधने प्रमाणोपदर्शनम्। (18) आत्मनोऽसर्वगतत्वे गुणवर्णनम्। (1) अस्य निक्षेपःहिंसाएपडिवक्खो, होइअहिंसाचउव्विहा साउ। दवे भावे यतहा,अहिंसाऽजीवाइवाउ ति।।५।दश०नि० तत्र प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा / अस्या हिंसायाः, किम् ? प्रतिकूलः पक्षः प्रतिपक्षः, अप्रमत्ततया शुभयोगपूर्वकं प्राणाऽव्यपरोपणमित्यर्थः / किम् ? भवत्यहिंसेति। तत्र चतुर्विधा चतुष्प्रकारा अहिंसा। (दव्वे भावे य ति) द्रव्यतो भावतश्चेत्येको भङ्गः / तथा- द्रव्यतो, नो भावतः / भावतो, न द्रव्यतः / तथा- न द्रव्यतो, न भावत इति / तथाशब्दसमुचितो भङ्गत्रयोपन्यासः, अनुक्तसमुच्चयार्थकत्वादस्येति। उक्तश्च- "तथा समुच्चय-निर्देशाऽवधारणसादृश्यप्रेष्येषु" इत्यादि। तथाचाऽयं भङ्गक-भावार्थः द्रव्यतो भावतश्चेति - "जहा केइ पुरिसे मियवह परि-णामपरिणए मियं पासित्ता आयनाइट्टियकोदंडजीवे सरं णिसिरिज्जा, से य मिए तेण सरेण विद्धे मए, सिया एसा दव्यओ हिंसा, भावओ वि।या पुनर्द्रव्यतो, न भावतः, साखल्वीर्यादिसमितस्य साधोः कारणे गच्छत इति। उक्तं च - उचालियम्मि पाए, ईरियासमियस्स संकमलए। वावज्जेज कुलिंगी, मरिज तं योगमासज्जा / / 1 / / न य तस्स तं निमित्तो, बंधो सुहमो विदेसिओ समए! जम्हा सो अपमत्तो, सा उपमाआ त्ति निद्दिवा'' ||2|| इत्यादि। या पुनर्भावतो, न द्रव्यतः / सेयम्- "जहा के वि पुरिसे मंदमंदप्पगासप्पदेसे संठियं ईसिवलिअकायं रख्खं पासित्ताएस अहि त्ति तव्वहपरिणामए णिकड्डियाऽसिपत्ते दुअं दुअंछिदिज्जा / एसा भावओ हिंसा, न दव्वओ। चरमभङ्गस्तु शून्यः / इत्येवम्भूताया हिंसायाः प्रतिपक्षोऽहिंसेति / एकार्थिकाऽभिधित्सयाऽऽह (अहिंसजीवाइवाओ त्ति) न हिंसा अहिंसा, न जीवाऽतिपातः अजीवाऽतिपातः / तथा च तद्वतः स्वकर्माऽतिपातो भवत्येवाऽजीवश्च कर्मेति भावनीयमिति / उपलक्षणत्वाचेह प्राणाऽतिपातविरत्यादिग्रह इति गाथार्थः। दश०१ अ०। सस्थावरजीवरक्षायाम, संथाका प्रमादयोगात्सत्त्वव्यपरोपणविरतिरूपे प्रथमे व्रते,धा (२)प्रथममहिंसावतलक्षणमाहप्रमादयोगाद् यत्सर्व-जीवाऽस्वव्यपरोपणम्। सर्वथा यावजीवंच, प्रोचे तत् प्रथमं व्रतम् / / 4 / / प्रमादो ज्ञानसंशयविपर्ययरागद्वेषस्मृतिभ्रंशयोगदुष्प्रणिधान धर्माऽनादरभेदादष्टविधः। तद्योगात् तत्संबन्धात् सर्वेषां सूक्ष्मादिभेदभिन्नानां, जीवानां प्राणिनां, येऽसवः प्राणाः पञ्चेन्द्रियबलत्रयोच्छ्वासाऽऽयुर्लक्षणा दश, तेषां यथासंभवेना-ऽव्यपरोपणमविनाशनम्।तद्देशतोऽपि स्याद्, अत्यत आह-सर्वथैति।सर्वप्रकारेण त्रिविधत्रिविधेन भङ्गेनातचेत्वरमपि स्यादित्यत आह-यावजीवं प्राणधारणं यावत् / तत् किम् ? इत्याहप्रथमं व्रतम्- अहिंसाव्रतं, प्रोचे जिनैरिति शेषः / प्रथमत्वं चाऽस्य शेषाऽऽधारत्वात् सूत्रक्रमप्रामाण्याचाऽवसेयम् / द्वितीयो हेतुश्च द्वितीयव्रतादिष्वपि भाव्य इत्युक्तं प्रथमं व्रतम्। ध० 3 अधि० तस्थिम पढमं ठाणं, महावीरेण देसियं / अहिंसा निऊणा दिट्ठा,सव्वभूएसु संयमो ॥६॥दश०६अ०(अष्टादशविधस्थानगणस्य, व्रतषट्कादीनां च व्याख्या 'अट्ठारसट्ठाण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 246 पृष्ठे, स्वस्वस्थाने च द्रष्टव्या) (३)अहिंसाख्यसंवरद्वारस्यैषाऽशेषा वक्तव्यतातत्थ पढमं अहिंसा, तसथावरसव्वभूयखेमकरी। तीसे समावणाए, उ किंचि वोच्छं गुणुद्देसं // (तत्थ ति) तत्र तेषु पञ्चसु मध्ये प्रथमं संवरद्वारमहिंसा (तसथावरसव्वभूयखेमकरि त्ति) त्रसस्थावराणां सर्वेषां भूतानां क्षेमकरणशीला / तस्या अहिंसायाः सभावनायास्तु भावनापञ्चकोपेताया एव (किंचि त्ति) किञ्चनाऽल्पं, वक्ष्ये गुणोद्देश गुणलेशमिति / प्रश्न०। अथ प्रथमसंवरनिरूपणायाऽऽह तत्थ पढमं अहिंसाजा सा सदेवमनुयासुरस्स लोगस्स भवतिदीवो, ताणं, सरणगती, पइट्ठा, निव्वाणं, निव्वुइ, समाही, संती, कित्ती, कंती, रइय विरइय सुयंग तित्ती, दया विमुत्ती, खंती, सम्मत्ताराहणा, महंती, बोही, बुद्धी, धिती, समिद्धी, रिद्धी, विद्धी, ठिती, पुट्ठी, नंदी, भद्दा, विसुद्धी, लद्धी, विसिदिट्ठी, कल्लाणं, मंगलं, पमोओ, विभूति, सिद्धावासो, रक्खा, अणासवो, केवलीणं ठाणं, सिव समियी,सील संजमो त्ति य, सीलधरो, संवरो य, गुत्ती ववसाओ, उस्सतो य, जण्णो, आयतणं,जयणमप्पमाओ, असासो, विसासो, अभओ, सव्वस्स वि अमाघाओ, चोक्खपवित्ती, सुती, पूया, विमलपमासा य, निम्मलतर त्ति / एवमादीणि नियगुणनिम्मियाइं पजवनामाणि हुंति अहिंसाए भगवतीए। (तथेत्यादि) तत्र तेषु पञ्चसु, संवरद्वारेषु मध्ये प्रथममाय संवरद्वारमहिंसा। किंभूता? या सा सदेवमनुजासुरस्य लोकस्य भवति- (दीव त्ति) द्वीपो दीपो वा / यथाऽगाधजलधिमध्यमग्नानां स्वैरश्वापदकदम्बकदर्थितानां महोर्मिमालामध्यमज्जमानगात्राणां त्राणं भवति द्वीपः प्राणिनाम, एवमयमहिंसा संसारसागरमध्यगतानां व्यसनशतश्वापदप्रपीडितानां संयोगवियोगवीचिविधुराणां त्राणं भवति, तस्याः संसारसागरोत्तारहेतुत्वात्, इति अहिंसा द्वीप उक्ता / यथा वादीपाऽन्धकारनिराकृतदृक्प्रसराणां हेयोपादेयाऽर्थहानोपादानमूढमनसां तिमिरनिकरनिराकरणेन प्रवृत्यादिकारणं भवति, एवमहिंसा ज्ञानावरणादिकर्मतमिस्रसंसनेन विशुद्धबुद्धि-प्रभापटलप्रवर्त्तनेन प्रवृत्त्यादिकारणत्वाद् दीप उक्ता / तथा- त्राणं, स्वपरेषामापदः संरक्षणात् / तथा- शरणम्। तथैव- सम्पदः, सम्पादकत्वात्। गम्यते श्रेयोऽर्थिभिराश्रीयत इति गतिः। प्रतिष्ठन्ते आसते सर्वे गुणाः सुखानि वा यस्यां सा प्रतिष्ठा। तथा- निर्वाणं मोक्षः, तद्धेतुत्वात् निर्वाणम् / तथा- निर्वृत्तिः स्वास्थ्यम्, समाधिः समता, शक्तिः शक्तिहेतुत्वात् / Page #1057 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा 873 - अभिवानराजेन्द्रः-विभाग१ अहिंसा शान्तिः द्रोहविरतिः, कीर्तिः, ख्यातिहेतुत्वात् / क्रान्तिः, क्रमनीयताकारणत्वात् / रतिश्च रतिहेतुत्वात् / विरतिश्च निवृत्तिः पापात् / श्रुतं श्रुतज्ञानमङ्गं कारण यस्याः सा श्रुताऽङ्गा। आह च-पढमं नाणं तओ दया, इत्यादि / तृप्तिहेतुत्वात् तृप्तिः / ततः कर्म-धारयः / तथा- दया देहिरक्षा / तथा- विमुच्यते प्राणी सकल-बन्धनेभ्यो यया सा विमुक्तिः / तथा- क्षान्तिः क्रोधनिग्रहः, तज्जन्यत्यादहिंसाऽपि क्षान्तिरुक्ता / सम्यक्त्वं सम्यग्बोधरूप-माराध्यते यया सा सम्यक्त्वाराधना / (महंति त्ति) महती सर्वधर्मानुष्ठानानां बृहती। आह च- एकं चिय एक्कवयं, निद्दिढ़ जिणवरेहिं सव्वेहिं / पाणाइवायविरमणसव्वसत्तस्स रक्खहा।।१।। बोधिः सर्वज्ञ-धर्मप्राप्तिः, अहिंसारूपत्याच, तस्या अहिंसा-बोधिरुता ।अथवाऽहिंसा सानुकम्पा, सा च बोधि-कारणमिति बोधिरेवोच्यते / बोधिकारणत्वं चाऽनुकम्पायाः - अणुकंपा कामनिज्जरबाल-तवे दाणविणयविन्भंगे। संजोग-विप्पओगे, सव्वण्णू सव्व-इड्डिसक्कारे॥१॥ इति वचनादिति। तथा- बुद्धिः, साफल्य-कारणत्वाद् बुद्धिः / यदाहबाहत्तरिकलाकुसला, पंडियपुरिसा अपंडिया चेव / सव्वकलाणं पवरं, जे धम्मकला न जाणंति // 1 // धर्मश्चाऽहिंसैव / धृतिश्चित्तदाय, तत्परिपालनीयत्वादस्या धृतिरेवोच्यते / समृद्धिहेतुत्वेन समृद्धिरेवोच्यते। एवं ऋद्धिवृद्धी / तथा- साद्यपर्यवसितमुक्तिस्थितिहेतुत्वात् स्थितिः। तथा-पुष्टिः, पुण्योपचयकारणत्वात्। आह च-पुष्टिः पुण्योपचयनम् / नन्दयति समृद्धिं नयतीति नन्दा / भन्दते कल्याणीकरोति देहिनामिति भद्रा / विशुद्धिः पापक्षयोपायत्वेन जीवनिर्मलतास्वरूपत्वात्। आह च- शुद्धिः पापक्षयेण जीवनिर्मलता। तथा- केवलज्ञानादि-लब्धिनिमित्तत्वात् लब्धिः / विशिष्टदृष्टिः प्रधानदर्शनमतमित्यर्थः, तदन्यदर्शनस्याऽप्राधान्यात् / आह च- किं तीए पढियाए, पयकोडीए पलालभूयाए। जत्थेत्तियं न नायं, परस्सपीडा न कायव्या // 1 // कल्याणं, कल्याणप्रापकत्वात् / मङ्गलं दुरितोपशान्तिहेतुत्वात् / प्रमोदः, प्रमोदोत्पादकत्वात् / विभूतिः, सर्वविभूतिनिबन्धनत्वात्। रक्षा, जीवरक्षणस्वभावत्वात्। सिद्धावासः, मोक्षावासनिबन्धन-त्वात् / अनाश्रवः, कर्मबन्ध-निरोधोपायत्वात् / केवलिनां स्थानं, केवलिनामहिंसायां व्यवस्थितत्वात् / (सिवसमितिसीलसंजमो ति य ) शिवहेतुत्वेन न शिवसमितिः सम्यक्प्रवृत्तिः, तद्रूपत्वादहिंसा शिवसमितिः / शीलं समाधानं, तद्पत्वाच्छीलम्। संयमो हिंसात उपरमः। इति रूपप्रदर्शने, चः समुच्चये (सीलघरो त्ति) शीलगृहं चारित्र-स्थानम्। संवरश्च प्रतीतः / गुप्तिरशुभानां मनःप्रभृतीनां निरोधः / विशिष्टोऽवसायो निश्चयो व्यवसायः / उच्छ्रयः स्वभावोन्नतत्वम् / यज्ञो भावतो देवपूजा / आयतनं गुणानामाश्रयः / यजनमभयस्य दानं, यतनं वा प्राणिरक्षणं प्रति यत्नः / अप्रमादः प्रमादवर्जनम् / आश्वास आश्वासनं प्राणिनामेव / विश्वासो विश्रम्भः। (अभओ त्ति) अभयं सर्वस्यापीति प्राणिगणस्य। अमाघात अमारिः / चोक्षपवित्रा, एकार्थशब्दद्वयोपादानात् अतिशयपवित्रा / शुचिर्भावशौचरूपा / आह च- सत्यं शौचं तपः शौचं, शौच- / मिन्द्रियनिग्रहः / सर्वभूतदया शौचं, जलशौचं च पञ्चमम् // 1 / / इति।। (पूय त्ति) पवित्रा, पूजा वा भावतो देवताया अर्चनम्। विमलप्रभासा, तन्निबन्धनत्वात् / (निम्मलतर त्ति) निर्मलं जीवं करोति या सा तथा, अतिशयेन वा निर्मला निर्मलतरा / इति नाम्नां समाप्तौ / एवमादीन्येवंप्रकाराणि निजकगुण-निर्मितानि, यथा-ऽर्थानीत्यर्थः / अत एवाऽऽह- पर्यायनामानि तत्तद्धर्माऽऽश्रिताऽभिधानानि भवन्त्यहिंसायाः, भगवत्या इति पूजावचनम्। एसा भगवती अहिंसा, जा सा भीयाणं पिव सरणं, पक्खीणं पिव गयणं, तिसियाणं पिव सलिलं, खुहियाणं पिव असणं, समुहमज्ञ व पोतवहणं, चउप्पयाणंच आसमपयं, दुहट्ठियाणं च ओसहिबलं, अडवीमज्झेच सत्थगमणं, एत्तो विसिकृतरिका अहिंसा जा सा पुढवीजल-अगणि-मारुय-वणप्फती-बीजहरिय-जलचर-थलचर-खहचर-तस-थावर-सव्वभूयखेमकरी। एषासाभगवत्यहिंसा,या सा भीतानामिव शरणमित्यत्रा-ऽऽश्वासिका, देहिनामितिगम्यम्। (पक्खीणं पिव गयणं त्ति) पक्षिणामिव गगनं, हिता, देहिनामिति गम्यम् / एवमन्यान्यपि षट् पदानि व्याख्येयानि / किं भूतादीनां शरणादिसमैव सा ? नेत्याह- (एतो त्ति) एतेभ्योऽनन्तरोदितेभ्यः शरणादिभ्यो विशिष्टतरिका प्रधानतरिका अहिंसा, हिततयेति गम्यते / शरणादितो हित-मनैकान्तिकमनात्यन्तिकं भवति / अहिंसातस्तु तद्वीपरीतं मोक्षा-ऽवाप्तिरिति / तथा- 'या सा' इत्यादि याऽसौ, पृथिव्यादीनि च पञ्च प्रतीतानि, बीजहरितानि च वनस्पतिविशेषा आहारार्थत्वेन प्रधानतया शेषवनस्पतिभेदेनोक्ताः, जलचरादीनि च प्रतीतानि, बसस्थावराणि सर्वभूतानि, तेषां क्षेमकरी या सा तथा, एषा एषैव, भगवती अहिंसा, नाऽन्या / यथा लौकिकैः कल्पिता- कुलानि तारयेत् सप्त, यत्र गौर्वितृषी भवेत्।सर्वथा सर्वयत्नेन, भूमिष्ठमुदकं कुरु // 1 // इह गोविषये या दया, सा किल तन्मतेनाऽहिंसाऽस्यां च पृथिव्युदकपूतरकादीनां हिंसाऽस्तीत्येवंरूपा न सम्यगहिंसेति। (4) अथ यैरियमुपलब्धा सेविताच, तानाहएसा भगवती अहिंसा जा सा अपरिमियनाणदसणधरेहिं सीलगुणविणयतवसंजमनायकेहिं तित्थकरेहिं सव्वजगवच्छले हिं तिलोगमहितेहिं जिणचंदेहिं सुख दिट्ठा ओहिनाणेहिं विण्णाया उजुमतीहिं वि दिट्ठा विपुलमतीहिं विदिता पुथ्वधरेहि अघिया विउव्वीहिं पत्तिण्णा आभिणिबोहियनाणीहिं सुयनाणीहिं मणपज्जवणाणीहिं केवलणाणीहिं, आमोसहिपत्तेहिं, खेलोसहिपत्तेहिं जल्लो-सहिपत्तेहिं विप्पोसहिपत्तेहिं सव्वो-सहिपत्तेहिं, बीजबुद्धीएहिं कोहबुद्धीहि पयाणुसारीहिं संभिण्णसोतेहिं सुयधरेहिं, मणबलएहिं वयबलएहिं कायबलएहिं, नाणबलएहिं दंसणबलएहिं चरित्तबलएहिं, खीरासवेहिं महुआसवेहिं सप्पियासवेहिं अखीणमहा-णसिएहिं, चारणेहिं विजाहरेहि, चउत्थभत्तिएहिं छट्ठभत्तिएहिं अट्ठमभत्तिएहिं दसमभत्तिएहिं एवं दुवाल सचउदससोलसअद्धमासमासदोमास-तिमासचउमासपंचमा Page #1058 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा ८७४-अभिधानराजेन्द्रः-विभाग 1 अहिंसा सछमासभत्तिएहिं, उक्खित्तचरएहिं एवं निक्खित्तचरएहिं अंतचरएहिं पंतचरएहिं लूहचरएहिंसमुदाणिचरएहिं अण्णगिलाइएहिं मोणचरएहिं संसट्ठकप्पिएहिं तज्जायसंसट्ठकप्पिएहिं उवनिहिएहिं सुद्धसणिएहिं संखादत्तिएहिं, दिट्ठलाभिएहिं अदिट्ठलाभिएहिं पुट्ठलाभिएहिं, आयंबीलएहिं पुरमडिएहिं एकासणिएहिं निवितिएहिं भिण्णपिंडवातिएहिं परमियपिंडवातिएहिं, अंताहारेहिं पंताहारेहिं अरसाहारेहिं विरसाहारेहिं तुच्छाहारेहिं लूहाहारेहिं, अंतजीवीहिं पंतजीवीहिं लूहजीवीहिं तुच्छजीवीहिं उवसंतजीवीहिं पसंतजीवीहिं विवित्त-जीवीहिं, अखीरमधुसप्पिएहिं अमज्जमंसासिएहिं, ठाणाइएहिं पडिमट्ठाइएहिं ठाणुक्कडुएहिं विरासणिएहिं पोसज्झिएहिं डंडाय एहिं लगडसातिएहिं एगपासाएहिं आयावएहिं अवाउएहिं अणि तुब्भएहिं अकंडुयएहिं धूतकेसमंसुलोमनखेहिं सव्वगायपडिकम्मविप्पमुक्केहिं समणुचिन्नासुयधरविदितत्थकायबुद्धीहिं धीरमतिबुद्धिणो य जे ते आसीविसउग्गतेयकप्पा णिच्छयववसायपज्जत्तकयमतीयाणिचं सज्झायज्झाणं अणुबंधधम्मज्झाणापंचमहव्वयचरित्तजुत्ता समिया समितीसुसमितपावा छव्विहजगवच्छला णिच्चमप्पमत्ता, एएहि य अण्णेहि य,जा सा अणुपालिया भगवती। (पदानामर्थः स्वस्वस्थाने द्रष्टव्यः) नवरं (एतेहि यति) येते पूर्वोक्तगुणा एतैश्वाऽन्यैश्चाऽनुकूललक्षणैर्गुणवद्भिर्याऽसावनु-पालिता भगवती अहिंसा, प्रथमं संवरद्वारमिति हृदयम्। (5) अथाहिंसापालनोद्यतस्य यद्विधेयं, तदुच्यतेइमं च पुढवी-दग-अगणि-मारुय-तरुगण-तस-थावरसव्वभूयसंजयदयट्ठयाए सुद्धं उंछं गवेसियव्वं अकयमकारियमणाहुयमणुट्ठि अकयकडं नवकोडीहिं परिसुद्ध दसहि य दोसेहिं विप्पमुक्कं उग्गमउप्पायणेसणासुद्धववगयचुयचइयचत्तदेहं च फासुयंचन निसिज्ज कदापयोयणफासुउवणीयं न तिगिच्छामंतमूलभेसज्जकहेउं न लक्खणुपायसुमिणजोइसनिमित्तकहकुहकप्पओत्तं / न वि डंभणाए, न वि रक्खणाए, न वि सासणाए, न वि डंभणरक्खण्णसासणाए भिक्खं गवेसियव्वं / न वि वंदणाए, न वि माणणाए, न वि पूयणाए, न वि वंदणमाणणपूयणाए भिक्खं गवेसियव्वं / न वि हीलणाए, न वि नंदणाए, न वि गरहणाए, न वि हीलणानिंदणागरहणाए भिक्खं गवेसियव्वं / न वि भेसणाए, न वि तज्जणाए, न वितालणाए, न विभेसणतज्जणतालणाए भिक्खं गवेसियव्वं / न विगारवेणं,न वि कुहणाए, न वि वणिमयाए, न वि गारवकुहणवणिमयाए भिक्खं गवेसियव्वं / न वि मित्तयाए, न वि पत्थणाए, न वि सेवणाए, न वि मित्तयपत्थणसेवणाए भिक्खं गवेसियव्वं / अण्णाए अगडिए अदुढे अदीणअविमणे अकलुणे अविसाती अपरितंतजोगी जयणघडणकरणचरियविनयगुणजोगसंपउत्ते भिक्खू भिक्खेसणाए णिरए / इमं च | सव्वजगजीव-रक्खणदयट्ठयाए पावयणभगवया सुकहियं अज्झेहियं पेचा भावियं आगमेसिमदं सुद्धं नेयाउयं अकुडिलं अणुत्तरं सव्वदुक्खपावाण विउसमणं। (इमं चेत्यादि) अयं च वक्ष्यमाणाविशेष उञ्छो गवेषणीय इति सम्बन्धः / प्रश्न०१ संव० द्वार। (उञ्छाद्यर्थोऽन्यत्राऽन्यत्र) अथ यदुक्तं- तीसे सभावणाए, उ किंचि वोच्छं गुणुद्देसं, इति। तत्र का भावना ? अस्यां जिज्ञासायामाह (6) प्रथमव्रतस्य (अहिंसारूपस्य) पञ्च भावनाःतस्स इमा पंच मावणाओ पढमस्स वयस्स हुँति / पाणाइवायवेरमणं परिरक्खणट्ठयाए पढमं ठाणगमणगुणजोगझुंजणजुगंतरनिवतियाए दिट्ठीए ईरियव्वं, कीडपयंगतसथावरदयावरेण निचं पुप्फफलतयपवालकंदमूलदगमट्टियबीयहरियपरिवजएण समं / एवं खु सव्वे पाणा ण हीलियव्वा, न निंदियव्वा, न गरहियव्वा, न हिंसियव्वा, न छिदियव्वा, न मिंदियव्वा, न वहेयव्वा, न भयं दुक्खं च किंचि लब्मा पावेउ / जे एवं ईरियासमिइजोगेण भाविओ भवति अंतरप्पा,असबलमसंकिलिट्ठनिव्वणचरित्तभावणाए अहिंसए संजए सुसाहू ||1|| (तस्सेत्यादि) तस्य प्रथमस्य व्रतस्य, भवन्तीति घटना, इमा वक्ष्यमाणप्रत्यक्षाः पञ्च भावनाः, भाव्यते वास्यते व्रतेनाऽऽत्मा यकाभिस्ता भावना ईसिमित्यादयः / किमर्था भवन्तीत्याह - (पाणा इत्यादि) प्रथमव्रतस्य यत्प्राणातिपातविरमणलक्षणस्य परिरक्षणस्वरूपं,तस्य परिरक्षणार्थाय (पढमंति) प्रथम-भावनाऽवस्थितिर्गम्यते, स्थाने गमनेच गुणयोगं चस्वपर-प्रवचनोपघातवर्जनलक्षणगुणसम्बन्धं योजयति करोति या सा। तथा- युगान्तरे युगप्रमाणभूभागे निपतति, या सा युगान्तरनिपा-तिका, ततः कर्मधारयः। ततस्तया, दृष्ट्या चक्षुषा (ईरियव्वं ति) ईरितव्यं गन्तव्यम् / केन ? इत्याह- कीटपतङ्गादयश्च त्रसाश्च स्थावराश्च कीटपतङ्गत्रसस्थावराः, तेषु दयापरो यस्तेन, नित्यं, पुष्पफलत्वक्प्रवालकन्दमूलदकमृत्तिकाबीजहरितपरिवर्जन, सम्यगिति प्रतीतं, नवरं प्रवालः पल्लवाऽङ्कुरः, दकमुदकमिति। अथेर्यासमित्या प्रवर्तमानस्य यत् स्यात्, तदाह- (एवं खु त्ति) एवं च ईर्यासमित्या वर्तमानस्येत्यर्थः, सर्वप्राणाः, सर्वजीवा न हीलचिप्सच्या अवज्ञातव्या भवन्ति, संरक्षणप्रयत- त्वात् न तानवज्ञाविषयी-करोतीत्यर्थः। तथा- न निन्दितव्याः, न गर्हितव्या भवन्ति, सर्वथा पीडावर्जनोद्यतत्वेन गोरव्याणामिव दर्शनात्। निन्दा चस्वसमक्षा, गर्दा वा परसमक्षा / तथा न हिंसितव्याः पादाऽऽक्रमणेन मारणतः, एवं न छेत्तव्या द्विधा-करणतः, न भेत्तव्याः स्फोटनतः, (न वहेयत्व त्ति) न व्यथनीयाः परतापनात्, न भयं भीतिः, दुःखं वा शरीरादि किश्चिदल्पमपि, लभ्या योग्या प्रापयितुम्, 'जे' इति निपातो वाक्याऽलङ्कारे, एव-मनेन न्यायेनेर्यासमितियोगेन ईयर्यासमितिव्यापारेण, भावितो वासितो भवत्यन्तरात्मा जीवः / Page #1059 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा 875 - अभिधानराजेन्द्रः - विभाग अहिंसा किंविधः? इत्याह- अशबलेन मालिन्यमात्ररहितेन, असंक्लिष्टेन विशुद्ध्यमानपरिणामवतो, निव्रणेनाऽक्षतेनाऽखण्डेनेति यावत्। चारित्रेण सामायिकादिना भावना वासना यस्य सोऽशबलाइसंक्लिष्टनिव्रणचारित्रभावनाकः। अथवा- अशबलाऽक्लिष्ट-निव्रणचारित्रभावनया हेतुभूतया अहिंसकोऽवधकः, संयतो मृषावादाद्युपरमाद् मोक्षसाधक इति / प्रश्न०१ संव० द्वार। अभिहणेज्ज वा वत्तेज वा परियावेज वालेसेज वा उद्दवेज वा। ईरियासमिए से णिग्गंथे, णो ईरियाअसमिए त्ति पढमा भावणा॥ इर्रण गमनमीर्या, तस्यां समितो दतावधानः, पुरतो युगमात्र- | भूभागन्यस्तदृष्टिगामीत्यर्थः / न त्वसमितो भवेत् / किमिति ? यतः केवली ब्रूयात् कर्मोपादानमेतद् गमनक्रियायामसमितो हि प्राणिनोऽभिहन्यात् पादेन ताडयेत्, तथा- वर्तयेद् अन्यत्र पातयेत्, तथा परितापयेत्पीडामुत्पादयेत्, अपद्रावयेद्वा जीविताद् व्यपरोपयेदित्यत ईसिमितेन भवितव्यमिति प्रथमा भावना। आचा०२ श्रु० 3 चू० बितिगं च मणेण पावएण पावकं अहम्मिकदारुणं निसंसं वहबंधपरिकिलेसबहुलं जरामरणपरिकिलेससंकिलिटुं न कया विमणेणं पावएणं पावर्ग किंचि विझायव्वं, एवं मणसमितिजोगेण भावितो भवति अंतरप्पा असबलमसंकिलिट्ठनिव्वणचरित्तभावणाए अहिंसए संजए सुसाहू // 2 // द्वितीयं पुनर्भावनावस्तु मनःसमितिस्तत्र मनसा पापं न ध्यातव्यम्। एतदेवाह-मनसा पापकेन पापकमिति काक्या ध्येयम्। ततश्च पापकेन दुष्टेन सता मनसायत्पापकमशुभं, तत्न कदाचित् मनसा पापकं किञ्चिद् ध्यातव्यमिति वक्ष्यमाण-वाक्येन सम्बन्धः। पुनः किभूतं पापकमित्याहअधर्मिकाणा-मिदमाधार्मिकं, तच तद् दारुणं चेति आधर्मिकदारुणं, नृशंसं शूकावर्जितं, वधेन हननेन, बन्धेन संयमेन, परिक्लेशेन च परितापनेन हिंसागतेन बहुलं प्रचुरं यत्तत्तथा / जरामरणपरिक्लेशैः फलभूतैः। वाचनान्तरे - 'भयमरणपरिक्लेशैः', संक्लिष्टमशुभं यत्तत्तथा।न कदाचित् न कञ्चनाऽपि काले (मणेण पावएणं ति) पापकेनैव मनसा (पावगं ति) प्राणातिपातादिकं पापं किञ्चिदल्पमपि ध्यातव्यमेकाग्रतया चिन्तनीयम्। एवमनेन प्रकारेण मनः समिति-योगेन चित्तसत्प्रवृत्तिलक्षणव्यापारेण भावितो वासितो भवत्यन्त-रात्मा जीवः / किंविधः ? इत्याह- अशबलाऽसंक्लिष्टनिव्रणचारित्रभावनाकः, अशबलाऽसंक्लिष्टनिव्रणचारित्रभावनाया वा अहिंसकः, संयतः, सुसाधुरितिप्राग्वत् / प्रश्न०१ संव० द्वार। अहावरा दोचा भावणा-मणं परिजाणए, से णिग्गंथे / जे य मणे पावए सावजे सकिरिए अण्हयकरे छेयकरे भेयकरे अधिकरणिए पाउसिए परिताविते पाणाइ वाइए भूतोवघातिए तहप्पगारं मणं णोपधारेजा,मणं परिजाणति,से णिग्गंथे। जे य माणे अपावत्ते त्ति दोचा भावणा। द्वितीयभावनायां तु मनसा दुष्प्रणिहितेन नो भाव्यम् / तद् दर्शयति- | यन्मनः पापकं सावधं सक्रिय (अण्हयकर ति) कर्माऽऽश्रवकारि, तथाछेदनभेदनकरम्, अधिकरणकरं, कलहकर, प्रकृष्टदोषं प्रदोषिक। तथाप्राणिनां परितापकारीत्यादि न विधेयमिति। आचा०१ श्रु०३ चू० तइयं च वइए पावए पावगं अहम्मिकदारुणं निसंसं वहबंधपरिकिलेसबहुलं जरामरणपरिकिलेससंकिलिटुं न कयावि वइए पावियाए ओ पावगं किंचि वि भासियव्वं, एवं वइसमितिजोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा असबलमसंकिलिट्ठनिव्वणचरित्तभावणाए अहिंसओ संजओ सुसाहू॥३॥ (तइयं च त्ति) तृतीयं पुनर्भावनावस्तु वचनसमितिर्यत्र वाचा पापं न भणितव्यम्। इत्येतदेवाऽऽह-(वइए पावियाए इति) काक्वाध्यातव्यम्। एतद् व्याख्यानं च प्राग्यत्। प्रश्न 1 संव० द्वार। अहावरा तचा भावणा- वई परिजाणति, से णिग्गंथे / जाव वाइपाविया सावज्जा सकिरिया० जाव भूतोवघाइया तहप्पगारं वई णो उच्चारेजावई परिजाणइ, से णिग्गंथे। जाव वई अपाविय त्ति तथा भावणा। अथाऽपरा तृतीया भावना, तत्र निर्ग्रन्थेन साधुना समितेन भवितव्यमिति। आचा०२ श्रु०३ चू० चउत्थं आहारएसणाए सुद्धं उंछं गवेसियव्वं, अण्णाए अकहिए असिढे अदीणे अकलुणे अविसाती अपरितंतजोगी जयणघडणकरणचरित्तविनयगुणजोगसंपउत्ते भिक्खू मिक्खेसणाए जुत्ते समुदाणिऊण मिक्खचरियं उंछं घेत्तूणं आगए गुरुजणस्स पासं गमणागमणातिचारपडिक्कमणपडिकते आलोयणदायणं च दाऊण गुरुजणस्स जहोवएसं निरइयारं अप्पमत्तो पुणरवि अणेसणाए पयत्तो पडिक्कमित्ता पसंतआसीण सुहनिसण्णो मुहुत्तमेत्तं च, झाणसुहजोगनाणसज्झाय गोवियमणे, धम्ममणे अविमणे सुहमणे अविग्गहमणे, समाहियमणे सद्धासंवेगनिञ्जरमणे पवयणवच्छल्लभावियमणे, उढेऊण य पहट्ठो जहराइणियं निमंतइत्ता य साहवे भावओ य विइण्णे य गुरुजणेणं उपविट्ठे संपमजिऊण ससीसं कायं तहा करयलं अमुच्छिए अगिद्धे अगढिए अगरहिए अणज्झोववण्णे अणाइले अलुद्धे अणत्तहिए असुरसुरं अवचवं अणन्भुयमविलंबियम-परिसाडि आलोयणभायणे जयमप्पमत्तेणं ववगयसंजोग-मणिंगालं च विगयधूमं अक्खोवंजणवणाणुलेवणभूयसंजम-जायामायानिमित्तं संजमभारवाहणट्टयाए मुंजेज्जा पाणधारण-ट्ठयाए संजएणं समियं एवमाहारसमितिजोगेण भावितो भवति अंतरप्पा असबलमसंकिलिट्ठनिव्वणचरित्तभावणाए अहिंसए संजए सुसाहू॥४॥ (चउत्थं ति)चतुर्थभावनावस्तु आहारसमितिरिति / तामेवा- ऽऽह(आहारएसणाए सुद्धं उछ गवेसियव्वं ति) व्यक्तम् / इदमेव भावयितुमाह- अज्ञातः श्रीमत्प्रव्रजितादित्वेन दायकजनाऽनवगतः, अकथितः स्वयमेव यथाऽहं श्रीमत्प्रव्रजितादिरिति, Page #1060 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा 876 - अभिवानराजेन्द्रः-विभाग 1 अहिंसा अशिष्टोऽप्रतिपादितः परेण / वाचनान्तरे- 'अन्नाए अकहिए अदुहृत्ति' दृश्यते। 'अदीणे' इत्यादि तुपूर्ववत्। भिक्षुर्भिक्षषणया युक्तः (समुदाणेउण त्ति) अटित्या भिक्षाचर्या गोचरमिवोञ्छ-मल्पाऽल्पगृहीतं भैक्ष्यं गृहीत्वा आगतो गुरुजनस्य पार्श्व समीपं गमनागमनातिचाराणां प्रतिक्रमणेन ईपिथिकादण्डकेनेत्यर्थः / प्रतिक्रान्तं येन स तथा (आलोयण त्ति) आलोचनं यथागृहीत-भक्तपाननिवेदनं, तयोरेवोपदर्शनं च (दाऊण त्ति) कृत्वा (गुरु-जणस्स त्ति) गुरोर्गुरुसंदिष्टस्य वा वृषभस्य (जहोवएसं ति) उपदेशानतिक्रमेण, निरतिचारं च दोषवर्जनन अप्रमत्तः, पुनरपि च अनेषणाया अपरिज्ञातानालोचितदोषरूपायाः, प्रयतो यत्न- वान्, प्रतिक्रम्य कायोत्सर्गकरणेनेति भावः / प्रशान्त उपशान्तो-अनुत्सुकः, आसीन उपविष्टः। स एव विशेष्यते- सुखनिषण्णः अनाबाधवृत्योपविष्टः / ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः। मुहूर्त्तमात्रकं च कालं ध्यानेन धर्मादिना, शुभयोगेन संयमव्यापारेण गुरु-विनयकरणादिना, ज्ञानेन ग्रन्थानुप्रेक्षणरूपेण, स्वाध्यायेन वाऽधीतगुणनरूपेण गोपितं विषयान्तरगमने निरुद्धं मनो येन स तथा। अत एव धर्मे श्रुतचारित्ररूपे मनो यस्य स तथा / अत एवाऽविमना अशून्यचित्तः, शुभमनाः असंक्लिष्टचेताः, (अविग्गहमणे त्ति) अविग्रहमनाः असंक्लिष्टकलहचेताः, अव्युद्ग्रहमना वा अविद्यमानाऽसदभिनिवेशः। (समाहियमणे ति) समं तुल्यं रागद्वेषानाकलितं आहितमुपनीतमात्मनि मनो येन स समाहितमनाः, शमेन चोपशमेन अधिकं मनो यस्य स शमाधिकमनाः, समाहितं वा स्वस्थं मनो यस्य स समाहितमनाः। श्रद्धा च तत्त्वश्रद्धानं, संयमयोगविषयो वा निजाभिलाषः, संवेगश्च मोक्षमार्गाभिलाषः संसारभयं वा, निर्जरा च कर्मक्षपणं मनसि यस्य स श्रद्धासंवेगनिर्जरामनाः। प्रवचनवात्सल्यभावितमना इति कण्ठ्यम् / उत्थाय च प्रदृष्टः तुष्टोऽतिशयप्रमुदितो, यथारात्निकं यथाज्येष्ठ, निमन्त्र्य च साधून साधर्मिकान्, भावतश्च भक्त्या (विइण्णे यत्ति) वितीर्णे च-भुक्ष्व त्वमिदमशनादीन्येवमनुज्ञातेचसति भक्तादौ गुरुजनेन गुरुणा, उपविष्ट उचितासने संप्रमृज्य मुखवस्विकारजोहरणाभ्यां सशीर्ष कायं समस्तकं शरीरं, तथा करतलं हस्ततलंच, अमूर्छिते आहारविषये न मूढिमागतम् / अगृद्धः अप्राप्तरसेऽनाकाजावान, अग्रथितः रसानुगतन्तुभिरसंदर्भितः, अगर्हितः आहारविषये अकृतगर्ह इत्यर्थः / अनुध्युपपन्नो न रसेषु एकाग्रमनाः, अनाविलोऽकलुषः, अलुब्धः लोभविरहितः, (अणत्तट्ठिए त्ति) नाऽऽत्मार्थ एव अर्थो यस्याऽस्त्यसावनात्मार्थिकः,परमार्थकारीत्यर्थः / (असुरसुरंति) एवंभूतशब्दवर्जितः (अचयचवंति) चवचवेतिशब्दरहितम्, अनद्-भुतमनुत्सुकम् / अविलम्बितम् अनतिमन्दम् / अपरिशाटि परिशाटिवर्जितं, 'मुंजेज्जा' इति क्रियाया विशेषणनामानि / (आलोयभायणे त्ति) प्रकाशमुखे अथवाऽऽलोके प्रकाशेनाऽन्धकारे पिपीलिकावालादीनामनुप-लम्भात्, तथा भाजने पात्रे, पात्रं विना जलादि सम्पतित-सत्त्वाऽदर्शनादिति, यतो मनोवाक्कायसंयतत्वेन प्रयत्नेनादरेण व्यपगतसंयोग संयोजनादोषरहितं (अणिंगालं च त्ति) रागपरिहारेणेत्यर्थः। (विगयधूमं ति) द्वेषरहितम्। आह च - "रागेण स इंगालं, दोषेण स धूमगं वियाणीहि त्ति' | अक्षस्य धुर उपाञ्जनम् अक्षोपाञ्जनं, तच्च व्रणानुलेपनं च, ते भूतं प्राप्तं यत्तत्तथा, तत्कल्पतीत्यर्थः / संयमयात्रा संयमप्रवृत्तिः, सैव संयमयात्रामात्रा तन्निमित्तं हेतुर्यत्र तत्संयमयात्रामात्रनिमित्तम् / किमुक्तं भवति ? संयमभारवहनार्थतया, इयं भावनेह- यथाऽक्षस्योपाञ्जनं भारवहनायैव विधीयेत,न प्रयोजनान्तरे, एवं संयमभारवहनायैव साधुर्भुजीत, नबलरूप-निमित्तं,विषयलौल्येन वा। अविकलो हि भोजनसंयमसाधनं शरीरं धारयितुं समर्थो भवतीति (भुजेजत्ति) भुञ्जीत भोजनं कुर्वीत / तथा भोजने कारणाऽन्तरमाह- प्राणधारणार्थतया जीवितव्यसंरक्षणायेत्यर्थः। संयतःसाधुः। णमितिवाक्याऽलङ्कारे। (समियंति) सम्यक् / निगमयन्नाह- एवमाहारसमितियोगेन भावितः सन् भवत्यन्तरात्मा अशबला-ऽसंक्लिष्टनिव्रणचारित्रभावनाकः,अशबलासंक्लिष्टभावनया हेतुभूतया वा अहिंसकः संयतः सुसाधुरिति। प्रश्न०१ संव० द्वार। अहावरा चउत्था भावणा- आयाणभंडनिक्खेवणा-समिए। से णिगंथे णो अणायाणभंडणिक्खेवणासमिए णिग्गंथे / केवली बूया-आयाण भंडणिक्खेवणा असमिए णिग्गंथे पाणाइं भूयाई जीवाइं सत्ताई अभिहणेज वा० जाव उद्दवेज वा आयाणभंडणिक्खेवणासमिए, से णिग्गथे णो आयाणभंडणिक्खेवणा असमिए त्ति चउत्था भावणा। तथा चतुर्थी भावना- आदानभाण्डमात्रनिक्षेपणासमितिः, तत्र निर्ग्रन्थेन साधुना समितेन भवितव्यमिति। आचा०२ श्रु०३ चू० पंचमग्गं पीढफलगसेज्जासंथारगवत्थपत्तकंबलदंडकरयहरणचोलपट्टगमुहपोत्तियपायपुंछणादि / एयं पि संजमस्स उववूहणट्ठयाए वातातपदंसमसगसीयपरिरक्खणट्ठयाए उवगरणं रागदोसरहियं परिहरियव्वं संजएणं निचं पडिलेहणपप्फोडणपमजणाए अहो य राओ य अप्पमत्तेण होइ सययं निक्खियव्वं च गिहियव्वं च भायणभंडोवहि उवकरणं / एवं आयाणभंडणिक्खेवणासमिइं जोगेण भावितो भवति अंतरप्पा असबलमसंकिलिट्ठनिव्वणचरित्तभावणाए अहिंसए संजए सुसाहु // 5 // (पंचमणं ति) पञ्चमभावनावस्तु आदानसमितिनिक्षेप-समितिलक्षण / एतदेवाऽऽह- पीठादिद्वादशविधमुपकरणं प्रसिद्धम्। (एवं पीति) एतदपि अनन्तरोदितमुपकरणम्, अपिशब्दादन्यमपि संयमस्योपबृंहणार्थतया संयभपोषणाय, तथा वाताऽऽतपदंशम-शकशीतपरिरक्षणाऽर्थतया उपकरणमुपकारम् उपधिः, रागद्वेषरहितं क्रियाविशेषणमिदम् / (परिहरियव्वं ति) परिभोक्तव्यं, न विभूषादि-निमित्तमिति भावना, संयतेन साधुना, नित्यं सदा। तथा - प्रत्युपेक्षणाप्रस्फोटनाभ्यां सह या प्रमार्जना, सा तथा तया, तत्र प्रत्युपेक्षणया चक्षुर्व्यापारेण, प्रस्फोटनया आस्फोटनेन, प्रमार्जनयाच रजोहरणादिव्यापाररूपया (अहोयराओ त्ति) अह्नि च रात्रौ च, अप्रमत्तेन भवति सततं निक्षेप्तव्यं च भोक्तव्यं, ग्रहीतव्यं चाऽऽदात-व्यम्। आदातव्यं किं तत् ? इत्याह- भाजनं पात्रं, भाण्डं तदेव मृण्मय, उपधिश्च वस्त्रादि, एतत् त्रयलक्षणमुपकरणमुपकारकारि वस्त्विति कर्मधारयः। निगमयन आह- एवमादानेत्यादि पूर्ववत्, नवरं इहप्राकृतशैल्याऽन्यथा पूर्वाऽपरपदनिपातः, तेन भाण्डस्योपकरणस्याऽऽदानं च ग्रहणं, निक्षेपणा च मोचनं, तत्र समिति Page #1061 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा 877 - अभिवानराजेन्द्रः - विभाग 1 अहिंसा भण्डाऽऽदाननिक्षेपणासमितिरिति वाच्ये, आदानभाण्डनिक्षेपणासमितिरित्युक्तम्। प्रश्न०१ संव०द्वार। अहावरा पंचमा भावणा- आलोइयपाणभोई, से णिग्गंथे णो अणालोइयपाणभोयणमोई। केवली बूयाअणालोइयपाणभोयणभोई से णिग्गंथे पाणातिवा० 4 अभिहणेज्ज वा० जाव उद्दवेज वा / तम्हा आलोइयपाणभोयणभाई से णिग्गंथे, णो अणालोइयपाणभोइ त्ति पंचमा भावणा। तथा परा पञ्चमी भावना- आलोकितं प्रत्युपेक्षितमशनादि भोक्तव्यं, तदकरणे दोषसंभवात्। आचा०१ श्रु०३चूत। अथाऽध्ययनाऽर्थ निगमयन्नाहएवमियं संवरस्स दारं समं संचरियं हुंति, सुप्पणिहियं, इमेहिं पंचर्हि विकारणाहिंमणवयकायपरिरक्खिएहिं, निचं आमरणंतं च एस जोगो नियव्वो धितिमता मतिमता अणासवो अकलुसो अच्छिद्दो अपरिस्सावी असंकिलिट्ठोसुद्धोसव्वजिणमणुण्णातो, एवं पढमं संवरदारं फासियं पालियं सोहियं तिरिय किट्टियं आराहियं आणाए अणु-पालियं भवति, एवं नायमुणिणा भगवया पण्णवियं परूवियं पसिद्ध सिद्धं सिद्धवरसासणमिणं आघवियं सुदेसियं पसत्थं पढमं संवरदारं सम्मत्तं तिबेमि। एवमिति उक्तक्रमेण, इदमहिंसालक्षणं, संवरस्याऽनाश्रवस्य, द्वारमुपायः, सम्यक् संवृत्तम् आसेवितं भवति, किंविधं सद् ? इत्याहसुप्रणिहितं सुप्रणिधानवत्, सुरक्षितमित्यर्थः / कैः किंविधैः ? इत्याहएभिः पञ्चभिः कारणैः भावनाविशेषैः अहिंसापालनहेतुभिः, मनोवाक्कायपरिरक्षिभिरिति / तथा-नित्यं सदा आमरणान्तं च मरणरूपमन्तं यावत् मरणात् परतो-ऽप्यसम्भवात्, एष योगोऽनन्तरोदितभावनापञ्चकरूपो व्यापारो, नेतव्यो, वोढव्य इति भावः। केन? धृतिमता स्वस्थचित्तेन, मतिमता बुद्धिमता / किं भूतोऽयं योगः ? अनाश्रवः नवकर्माऽनुपादानरूपः, यतो-इकलुषोऽपापस्वरूपः, छिद्रमिव छिद्रं कर्मजलप्रवेशात् तन्निषेधेना-ऽच्छिद्रः, अच्छिद्ररूपत्वादेवाऽपरिस्रावी, नपरिस्रवति कर्मजलप्रवेशतः,असंक्लिष्टोन चित्तसंक्लेशरूपः, शुद्धो निर्दोषः, सर्वजिनैरनुज्ञातः सर्वाऽर्हतामनुमतः, एवमितीर्यासमित्यादि-भावनापञ्चकयोगेन, प्रथमं संवरद्वारमहिंसालक्षणं, (फासियंति) स्पृष्टमुचिते काले विधिना प्रतिपन्नं, पालितं सततं सम्यगुपयोगेन प्रतिचरितं, (सोहियं ति) शोभितमन्येषामपितदुचिताना दानादतिचारवर्जनाद्वा, शोधितं वा निरतिचारं कृतं, तीरितं तीरं पारं प्रापितं, कीर्तिमन्येषामुपदिष्टम्, आराधितमेभिरेव प्रकारैर्निष्ठां नीतम्, आज्ञया सर्वज्ञवचनेनाऽनुपालितं भवति। पूर्वकालसाधुभिः पालितत्वाद् विवक्षितकालसाधुभिश्वाऽनु पश्चात् पालितमिति / केनेदं प्ररूपितम् ? इत्याह- एवमित्युक्तरूपं, ज्ञातमुनिना क्षत्रियविशेषरूपेण यतिना, श्रीमन्महावीरेणेत्यर्थः / भगवतैश्वर्यादिभगयुक्तेन, प्रज्ञापितं सामान्यतो विनेयेभ्यः कथितं, प्ररूपितं भेदाऽनुभेद-कथनेन, प्रसिद्धं प्रख्यातं, सिद्धं प्रमाणप्रतिष्ठितं, सिद्धानां निष्ठितार्थानां वरशासनं प्रधानाज्ञा सिद्धवरशासनम्, इदमेतत्- (आघ-वियंति)अर्घः पूजा तस्य आप्तिः प्राप्तिर्जातायस्य तदर्घा-पितम्, अर्थ वा आपितं प्रापितं यत्, तदर्थापितं, सुदेशितं सुष्टु दर्शितं, सदेवमनुजाऽसुरायां पर्षदि नानाविधनयप्रमाणैरभिहितं सुदेशितं, प्रशस्तं मङ्गल्यमिति, प्रथम संवरद्वार समाप्तमिति। संव०१द्वार। पंचमा भावणा-एतावया च पढमं महव्वयं सम्मं कारण फासिए पालिए तीरिए किट्टिते अवद्विते आणाए आराहिए यावि भवति, पढमे भंते महव्वए पाणाइवायाओ वेरमणं / इति इत्येवं पञ्चभिर्भावनाभिः प्रथमं व्रत स्पर्शितं पालितं तीर्ण कीर्त्तितमवस्थितमाज्ञयाऽऽराधितं भवतीति / आचा०२श्रु०३चू०। (7) सर्वे प्राणा न हन्तव्याःसे बेमि-जे य अतीता, जे य पड़प्पण्णा, जे य आगमिस्सा अरहंता भगवंतो / ते सव्वे एवमाइक्खंति, एवं भासंति, एवं पण्णवेंति, एव परूवेंतिसव्वे पाणा, सव्वे भूया, सव्वे जीवा, सव्वे सत्ता / ण हंतव्वा,ण आणावेतव्वा, ण परिघेत्तव्वा, ण परितावेयव्वा,ण उद्दवेयव्वा। येऽतीता अतिक्रान्ताः, ये च प्रत्युत्पन्ना वर्तमानकालभाविनः, ये चाऽऽगामिनः, त एवं प्ररूपयन्तीति सम्बन्धः / तत्राऽतिक्रान्तास्तीर्थकृतः कालस्याऽनादित्वादिति यत्, तमतिक्रान्ताः / अनागता अप्यनन्ता आगामिकालस्याऽनन्तत्वादिति / वर्तमानतीर्थकृतां प्रज्ञापकापेक्षितयाऽनवस्थितत्वे सत्यप्युत्कृष्ट-जघन्यपदिन एव कथ्यन्ते, तत्रोत्सर्गतः समयक्षेत्रसम्भविनं सप्तत्युत्तरशतं पञ्चस्वपि विदेहेषु प्रत्येकं द्वात्रिंशत् क्षेत्रात्मक- त्वादेकैकस्मिन्, द्वात्रिंशत्पश्चस्वपि भरतेषु पञ्च, एवमैरावते-ब्वपीति, तत्र द्वात्रिंशत् पञ्चभिर्गुणिताः षष्ट्युत्तरं शतं भरतैरावतदशप्रक्षेपेण सप्तत्यधिकं शतमिति, जघन्यतस्तु विंशतिः, सा चैव पञ्चस्वपि महाविदेहेषु विदेहान्तर्महानधुभयतटसद्भावात् तीर्थकृतां प्रत्येकं चत्वारः, तेऽपि पञ्चभिर्गुणिता विंशतिर्भरतैरावतयोस्त्वैकान्त-सुखमादावभाव एवेति / अन्ये तु व्याचक्षते- मेरोः पूर्वाऽपरविदेहै-कैकशस्तावात् महाविदेहे द्वावेव पञ्चस्वपि दशैवेति। तथा ते आहुः- "सत्तरिसयमुक्कोसं, इतरे दससमयखेत्तजिणमाणं। चोत्तीसं पढमदीवे, अणंतरद्धे यदूण त्ति' / क इमे अर्हन्तः ? अर्हन्ति पूजासत्कारादिकमिति। तथा- ऐश्वर्याद्युपेता भगवन्तः, ते सर्व एव पर प्रश्नाऽवसरे एवमाचक्षते, यदुत्तरत्र वक्ष्यते, वर्तमाननिर्देशस्योपलक्षणार्थत्वादिदमपि द्रष्टव्यमेवमाचचक्षिरे, एवमाख्यास्यन्ति, एवं सामान्यतः सदेवमनुजायां पर्षदि अर्धमागध्या सर्वसत्त्वस्वभाषाऽनुगामिन्या भाषया भाषन्ते, एवं प्रकर्षण संशीत्यपनोदायाऽन्तेवासिनो जीवाजीवाश्रवसंवरबन्धनिर्जरामोक्षपदार्थान् ज्ञाप-यन्ति, प्रज्ञापयन्ति। एवं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गो मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः स्वपरभावेन सदसती तत्त्वं सामान्यविशेषाऽऽत्मकमित्यादिना प्रकारेण प्ररूपयन्ति, एकार्थानि चैतानीति। किं तदेवमाचक्षत इति दर्शयति- यथा सर्वे प्राणाः, सर्व एव पृथिव्यप्-तेजोवायुवनस्पतयः द्वित्रि-चतुष्पञ्चेन्द्रियाश्चेन्द्रियबलोच्छ्वासनिश्वासायुष्कलक्षणप्राण-धारणात् प्राणाः,तथा- सर्वाणि भवन्ति भविष्यन्त्यभूवन्निति चतुर्दशभूतग्रामान्तपातीति, एवं सर्व एव जीवन्ति, जीविष्यन्ति, अजीविषुरिति जीवाः नारकतिर्यग्नरामरलक्षणाश्वतुर्गतिकाः, तथा सर्व एव स्वकृतसाताऽसातोदयसुखदुःखभाजः सत्त्वा एकाऽर्थाश्चैते शब्दास्तत्त्वभेदपर्यायैः प्रतिपादनमितिकृत्वेति / एते च सर्वेऽपि प्राणिनः पर्यायशब्दावेदिना न हन्तव्याः, दण्डकशाऽऽदिभिः / नाऽऽज्ञापयितव्याः, प्रसह्याऽभियोगदानतः। न परिग्राह्याः भृत्यदासदास्यादिममत्त्वपरिग्रहतो। न परितापयितव्याः, Page #1062 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा 878- अभिधानराजेन्द्रः - विभाग 1 अहिंसा शारीरमानसपीडोत्पादनतो, नाऽपद्रावयितव्याः प्राणव्यपरोपणतः / आचा०१ श्रु०४ अ०१ उ०॥ (8) वैदिकहिंसाविचार:अप्रमत्तस्य योगनिबन्धनप्राणव्यपरोपणस्य अहिंसात्वप्रति-पादनार्थं 'हिंसातो धर्मः' इति वचनं, रागद्वेषमाह- योगनिबन्धनस्य प्राणव्यपरोपणस्य दुःखसंवेदनीयफलनिर्वर्तकत्वेन हिंसात्वोपपत्तेः, अत एव वैदिकहिंसाया अपि तन्निमित्त-त्वेऽपायहेतुत्वमन्यहिंसावत् प्रसक्तम्, न च तस्या अतन्नि- मित्तत्वं, 'चित्रया यजेत पशुकामः' इति तृष्णानिमित्तश्रवणात्। न चैवंविधस्य वाक्यस्य प्रमाणताऽप्युपपत्तिमती, तत्प्राप्तिनिमित्ततद्धिंसोपदेशकत्वात्, तृष्णादिवृद्धिनिमित्ततदन्यतद्विघातोपदेशवाक्यवत्। नचाऽपौरुषेये प्रामाण्यम्, तस्य निषिद्धत्वात्। न च पुरुषप्रणीतस्य हिंसाविधायकस्य तस्य प्रामाण्यम् / ब्राह्मणो हन्तव्य इति वाक्यवत् / न च वेदविहितत्वात् तद्धिंसाया अहिंसात्वम्, प्रकृतहिंसाया अपि तथोपपत्तेः / न च 'ब्राह्मणो न हन्तव्यः, इति तद्वाक्यबाधितत्वात्, न प्रकृतहिंसायास्तद्विहितत्वम् / 'न च हिंस्रो भवेत्' इति वेदवाक्यबाधितचित्रादियजनवाक्यविहितहिंसावत् प्रकृतहिंसायाः तद्विहितत्वोपपत्तेः / अथ ब्राह्मणो हन्तव्य इतिवाक्यं न क्वचिद्वेदे श्रूयते। न उच्छिन्नाऽनेकशाखानां तत्राऽभ्युपगमात्। तथाच 'सहस्रवमा सामवेदः' इत्यादिश्रुतिः। अथ यज्ञादन्यत्र हिंसा-प्रतिषेधः, तत्र च तद्विधानम् / यथा चाऽन्यत्र हिंसाऽपायहेतु-रित्यागमात् सिद्ध, तथा ततएव तत्र स्वर्गहतुरित्यपि सिद्धम्।नच यदेकदैकत्राऽपायहेतुत्वेन सर्वशास्त्रेषु प्रसिद्धेः तृष्णादिनिमित्ता च प्रकृतहिंसेति प्रतिपादितत्वात्, नयन्निमित्तत्वेन यत्प्रसिद्धं, तत्फलान्तरार्थित्वेन विधीयमानमौत्सर्गिक दोषं न निर्वर्तयति / यथाऽऽयुर्वेदप्रसिद्धं दाहादिकं रोगनाशार्थतया विधीयमानं निमित्तं दुःखं क्लिष्टसंबद्धहेतुतया च मखविधानादन्यत्र हिंसादिकं शास्त्रे प्रसिद्धमिति, सप्ततन्तावपि तद्विधीयमानं काम्यमानफलसद्-भावेऽपि तत्कर्मनिमित्तं, तद् भवत्येव। न च हिंसातः स्वर्गादि-सुखप्राप्ता वस्तुनिर्वर्तकक्लिष्टकर्महेतुताऽसंगता, नरेश्वराऽऽराधननिमित्तब्राह्मणादिवधाऽनन्तरावाप्तग्रामादिलाभजनितसुख-संप्राप्ती तद्वदस्याऽपि तथात्वोपपत्तेः / अथ ग्रामादिलाभो ब्राह्मणादिवधनिर्वर्तितादृष्टनिमित्तो न भवति, तर्हि स्वर्गादिप्राप्तिरप्यध्वरविहिताहिंसानिर्वर्तिता न भवतीति समानम् / अथाऽश्वमेधादावलभ्यमानानां छागादीनां स्वर्गप्राप्तेर्न तद्धिंसेति, तर्हि संसारमोचकविरचिताऽपि न एव हिंसा स्यात्, देवतोद्देशतो म्लेच्छादिविरचिता च ब्राह्मणगवादिहिंसा चन हिंसा स्यात्। अथ तदागमस्या-ऽप्रमाणत्वात्, न तदुपदेशजनिता हिंसा अहिंसा। ननु वेदस्य कुतः प्रामाण्यसिद्धिः? न गुरुवत् पुरुषप्रणीतत्वात्, परैस्तस्य तथाऽनभ्युपगमात् / नाऽपौरुषेयत्वात्, तस्याऽसंभवात्। तत्र प्रदर्शिताभिप्रायो हिन हिंसातो धर्माऽऽवाप्तिर्युक्ता, परम-प्रकर्षाऽवस्थज्ञानत्वात् नाऽऽत्मकमुक्तिमार्गस्य दीक्षाशब्देना-ऽभिधाने दीक्षातो मुक्तिरुपपन्नैव, अविकलकारणस्य कार्यनिर्वर्तकत्वात्, अन्यथा कारणत्वायोगात् / तत्र तद्भक्तयुपादानाऽर्थं चैवमभिधानाददोषात् / न हि तद्भक्त यभावे उपादेयफलप्राप्तिनिमित्तसम्याज्ञानादिपुष्टिनिमित्तदीक्षाप्रवृत्तिप्रवणो भवेत्, तत् नाऽन्यपरत्वं प्रदर्शितवचसामभ्युपगन्तव्यम्। तथाऽभ्युपगमे वाऽनाप्तत्वं वेदानां प्रसज्येत, तत्र पूर्वोक्तदोषाऽनतिवृत्तेः / सम्म० 3 काण्ड, गाथा 158 / न हिंस्यात् सर्वभूतानि, स्थावराणि चराणि च / आत्मवत्सर्वभूतानि, यः पश्यति स धार्मिकः ||1 / / अनु०। उपदेशमाहउरालं जगतो जोग, विवज्जासं पलिंति य। सव्वे अकंतदुक्खाय, अओ सव्वेअहिंसिता || (उरालमिति) स्थूलमुदारं, जगत औदारिकजन्तुग्रामस्य, योगं व्यापारं, चेष्टामवस्थाविशेषमित्यर्थः / औदारिकशरीरिणो हि जन्तवः प्राक्तनादवस्थाविशेषाद् गर्भकललाऽर्बुदरूपाद् विपर्यासभूतं बालकौमारयौवनादिकमुदारं योग परि समन्ताद् अयन्ते गच्छन्ति पर्ययन्ते। एतदुक्तं भवति - औदारिकशरीरिणो हि मनुष्यादेबील-कौमारादिकः कालादिकृतोऽवस्थाविशेषोऽन्यथा चाऽन्यथाभवन् प्रत्यक्षेणैव लभ्यते, न पुनर्यादृक् प्राक् तादृगेव सर्वदति / एवं सर्वेषां स्थावरजङ्गमानामन्यथाऽन्यथा च भवनं द्रष्टव्यमिति। अपिच-सर्वे जन्तवः,आक्रान्ता अभिभूताः, दुःखेन शारीरमानसेनाऽसातोदयेन दुःखाक्रान्ताः सन्तोऽन्यथाऽवस्थाभाजो लभ्यन्ते, अतः सर्वेऽपि ते यथाऽहिंसिता भवन्ति, तथा विधेयम्। यदिवा सर्वेऽपि जन्तवोऽकान्तमनभिमतं दुःखं येषां तेऽकान्तदुःखाः, चशब्दात् प्रियसुखाश्च ते, तान् सर्वान् न हिंस्यादित्यनेन वाऽन्यथात्वदृष्टान्तो दर्शितो भवत्युपदेशश्वदत्त इति // 6 // (6) किमर्थं सत्वान्न हिंस्याद् ? इत्याह - एवं खु नाणिणो सारं, जन्न हिंसइ किंचण / अहिंसासमया चेव, एतावंतं वियाणिया ||10|| (एवं खुइत्यादि) खुरवधारणे। एतदेव, ज्ञानिनो विशिष्ट-विवेकवतः, सारं न्याय्यं , यत्किञ्चन प्राणिजातं स्थावरं जङ्गमं वा, न हिनस्ति, न परितापयति। उपलक्षणं चैतत्- तेन न मृषा ब्रूयात्, नाऽदत्तं गृह्णीयात्, नाऽब्रह्माऽऽसेवेत, न परिग्रहं परिगृह्णीयात्, ननक्तं भुञ्जीतेत्येवं ज्ञानिनः सारं यत्र कर्माऽऽश्रवेषु वर्तत इति / अपि च- अहिंसया समता अहिंसासमता, तां चैतावद्विजानीयातायथा-मम मरणंदःखं वाऽप्रियम. एवमन्यस्याऽपि प्राणिलोकस्येति / एवकारोऽवधारणे। इत्येवं साधुना ज्ञानवता, प्राणिनां परितापना-ऽपद्रावणादि वा न विधेयमेवेति / / 10 / / सूत्र०१ श्रु०१अ०४ उ०। (10) तत्राऽहिंसाप्रसिद्ध्यर्थमाहपुढवीआउगणिवाऊ, तणरुक्खसबीयगा। अंडया पोयजराऊ, रससंसेयउब्भिया|||| (पुढवी आउ इत्यादि) तत्र पृथिवीकायिकाः सूक्ष्मबादरपर्याप्तकाऽपप्तिकभेदभिन्नाः, तथाऽप्रकायिका अग्निकायिकाः वायुकायिकाश्चैवंभूता एव। वनस्पतिकायिकान्लेशतः सभेदानाह-तृणानि कुशवञ्चकादीनि, वृक्षाः, चूताऽशोकादिकाः, सह बीजैर्वन्ति इति सबीजानि तु शालिगोधूमयवादीनि, एते एकेन्द्रियाः पञ्चाऽपि कायाः / षष्ठत्रसकायनिरूपणायाऽऽहअण्डजाः शकुनिगृहकोकिलकसरीसृपादयः / तथा-पोता एव पोतजा हस्तिशरभादयः / तथा- जरायुजा ये जम्बालवेष्टिताः समुत्पद्यन्ते गोमनुष्यादयः / तथा रसात् दधिसौवीरकादेर्जाता रसजाः, तथा- संस्वेदाजाताः संस्वेदजा यूकामत्कुणादयः। उद्भिजाः खञ्जरीटकदर्दुरादय इति। अज्ञातभेदा हि दुःखेन रक्ष्यन्त इत्यतो भेदेनोपन्यास इति। एतेहिं छएहिं काएहिं, तं विशं परिजाणिया। Page #1063 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा 879 - अभिधानराजेन्द्रः-विभाग 1 अहिंसा मणसा कायवक्केणं, णारंभी ण परिग्गही / / / / सम्यगनुतिष्ठन्ति / कथम् ? साङ्ख्यानां तावज्ज्ञानादेव धर्मो, न एभिः पूर्वोक्तैः, षड्भिरपि कायैस्त्रसस्थावररूपैः, सूक्ष्मबादरपर्याप्त तेषामहिंसा प्राधान्येन व्यवस्थिता, किंतु पञ्च यमा इत्यादिको विशेष काऽपर्याप्तकभेदभिन्नैर्नाऽऽरम्भी, नाऽपि परिग्रही स्यादिति संबन्धः / इति। तथा- शाक्यानामपि दश कुशला धर्मपथा, अहिंसाऽपि तत्रोक्ता, तदेतद्विद्वान् सश्रुतिको ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया न तु सैव गरयिसी धर्मसाधनत्वेन तैराश्रिता / वैशेषिकामनोवाक्कायकर्मभिर्जीवोपमर्दकारिणामारम्भं परिग्रहं चपरिहरेदिति।।६।। णामपिअभिसेवनोपवासब्रह्मचर्यशुभकुलवासवानप्रस्थदानयज्ञादिन क्षत्रमन्त्रकालनियमादृष्टाः तेषु चाभिषेचनादिषु पर्यालोच्यमानेषु हिंसैव सूत्र० 1 श्रु०६ अ०। संपद्यते, वैदिकानां हिंसैव गरीयसी धर्मसाधनं, यज्ञोपदेशात्। तस्य च सव्वाहिं अणुजुत्तीहिं, मतिमं पडिलेहिया। तया विनाऽभावादित्यभिप्रायः। उक्तं च "ध्रुवः प्राणिवधो यज्ञे // 76|| सव्वे अक्कंतदुक्खा य, अतो सव्वे अहिंसया / (12) तदेवं सर्वे प्रावादुका मोक्षाऽङ्गभूतामहिंसांन प्राधान्येन सर्वा याः काश्चनाऽनुरूपाः पृथिव्यादिजीवनिकायसाधन-त्वेनाऽनुकूला प्रतिपद्यन्त इति दर्शयितुमाहयुक्तयः साधनानि / यदि वाऽसिद्धविरुद्धाऽनैका-ऽन्तिकपरिहारे ते सव्वे पावाउया आदिकरा धम्माणं णाणापन्ना णाणाछंदा पक्षधर्मत्वसपक्षसत्त्वविपक्षव्यावृत्तिरूपतया युक्ति-सङ्गतायुक्तयस्ता- णाणासीला णाणादिट्ठी णाणारुई णाणारंभा णाणाज्झभिर्मतिमान् सद्विवेकी, पृथिव्यादिजीवनिकायान् प्रत्युपेक्ष्य पर्यालोच्य वसाणसंजुत्ता एगं महं मंडलिबंध किच्चा सव्वे एगयाउ जीवत्वेन प्रसाध्य, तथा सर्वेऽपि प्राणिनोऽकान्तदुःखा दुःखद्विषः चिटुंति||८|| सुखलिप्सवश्च मत्वाऽतो मति-मान् सर्वानपि प्राणिनो न हिंस्यादिति। (ते सव्वे इत्यादि) प्रवदनशीलाः प्रावादुकाः सर्वेऽपि त्रियुक्तयश्च तत्प्रसाधिकाः सङ्के पेणेमाइति- साऽऽत्मिका पृथिवी, तदात्मना षष्ट्युत्तरत्रिशतपरिमाणा अपि, आदिकरा यथास्वं धर्माणाम, येऽपि च विद्रुमलवणो-पलादीनां समानजातीयाकुरसद्धावादर्शो विकाराs- तच्छिष्यास्तेऽपि सर्वे, नाना भिन्ना प्रज्ञा ज्ञानं येषां ते कुरवत्। तथा- सचेतनमम्भो, भूमिखननादाविष्कृतस्वभावसंभवाद् नानाप्रज्ञाः / आदिकरा इत्यनेनेदमाह- स्वरूचिविरचितास्ते, न दर्दुरवत् / तथा- साऽऽत्मकं तेजः, तद्योग्याऽऽहारवृद्धया त्वनादिप्रवाहाऽऽयाताः। ननु चाऽर्हतानामपि आदित्वविशेषणम-स्त्येव / वृद्ध्युपलब्धेर्बालकवत् / तथा- सात्मको वायुः, अपराऽप्रेरितनियत- सत्यमस्ति / किन्तु अनादिर्हेतुपरम्परेत्यनादित्वमेव, तेषां च तिरश्वीनगतिमत्त्वा-दम्भोवत् / तथा- सचेतना वनस्पतयो, सर्वज्ञप्रणीताऽऽगमाऽऽनाश्रयणात् निबन्धनाऽभावः, तदभावच्च जन्मजरामरणरोगादीनां समुदितानां सद्भावात्, स्त्रीवत् / तथा भिन्नपरिज्ञानमत एव नानाछन्दाः, छन्दोऽभिप्रायः, भिन्नाभिप्राया क्षतसंरोहणाहारोपादानदौ«दसद्भावस्पर्शसंकोचसायाऽहस्वाप इत्यर्थः / तथाहि- उत्पादव्ययध्रौव्यात्मके वस्तुनि साङ्ख्यैरेप्रबोधाऽऽश्रयोपसर्पणा-दिभ्यो हेतुभ्यो वनस्पतेश्चैतन्यसिद्धिः / कान्तेनाऽऽविर्भावतिरोभावाऽऽश्रयणादन्वयिनमेव पदार्थ सत्यद्वीन्द्रियादीनां तु पुनः कृम्यादीनां स्पष्टमेव चैतन्यम्, तद्वेदना त्वेनाऽऽश्रित्य नित्यपक्षं समाश्रिताः / तथा- शाक्या अत्यन्तक्षणिकेषु पूर्वोत्तरभिन्नेषु पदार्थेषु सत्सु स एवाऽयमिति प्रत्यभिज्ञाप्रत्ययःसदृशाऽश्वोपक्रमिकाः, स्वाभाविकाश्च समुपलभ्यमाना मनोयाक्कायैः पराऽपरोत्पत्तिर्वितथानां भवतीत्येतत्पक्षसमा-श्रयणादनित्यपक्षं कृतकारितानुमतिभिश्च नवकेन भेदेन तत्पीडाकारिण उपमर्दात् समाश्रिता इति। तथा- नैयायिक-वैशेषिकाः केषाञ्चिदाकाशपरमाण्यानिवर्तितव्यमिति॥६॥ एतदेव (पुनः) समर्थयन्नाह - दीनामेकान्तेन नित्यत्वमेव,कार्यद्रव्याणां च घटपटादीनामेकान्तेनाएवं खु णाणिणो सारं,जं न हिंसति कंचण। ऽनित्यत्वमेवाऽऽश्रिताः / एवमनयाऽदिशा-ऽन्येऽपि मीमांसका अहिंसासमयं चेव, एतावंतं विजाणिया||१०|| तापसादयोऽभ्यूह्या इति। तथा- ते तीथिका नानाशीलं येषां ते तथा, (एवं खु इत्यादि) खुशब्दो वाक्यालङ्कारेऽवधारणेवा। एतदेवानन्तरोक्तं शीलं व्रतविशेषः, स च भिन्नस्तेषा-मनुभवसिद्ध एव / तथा- नाना प्राणातिपातनिवर्तन, ज्ञानिनो जीवस्वरूप-तद्वधकर्मबन्धवेदिनः, सारं दृष्टिदर्शन येषां ते / तथा- नाना रुचिरेषां ते नानारुचयः / तथापरमार्थप्रधानम् / पुनरप्यादर- ख्यापनार्थमेतदेवाऽऽह- यत्कञ्चन नानारूपमध्यवसान-मन्तःकरण-प्रवृत्तिर्येषां तेतथा। इदमुक्तं भवतिप्राणिनमनिष्टदुःखं सुखैषिण न हिनस्ति, प्रभूतवेदिनोऽपि ज्ञानिन एतदेव अहिंसा परमं धर्माङ्गम् / सा च तेषां नानाऽभिप्रायत्वादविकलत्वेन सारतरं ज्ञानं, यत् प्राणातिपातनिवर्तनमिति।ज्ञानमपितदेव परमार्थती, व्यवस्थिता / तस्या एव सूत्रकारः प्रधान्यं दर्शयितुमाह- ते सर्वेऽपि प्रावादुका यथास्वपक्षमाश्रिता एकत्र प्रदेशे संयुता मण्डलिबन्धमाधाययत्पीडातो निवर्त्तनम्।यथोक्तम्- किंताएपढियाए, पयकोडीए पयाल तिष्ठन्ति | भूयाए। जस्थित्तियंणणायं, परस्सपीडान कायव्वा / / 1 / / तदेवमहिंसा (13) अहिंसाप्रसिद्ध्यर्थं विवेचनमाहप्रधानः समय आगमः संकेतो वाऽपदेशरूपः, तदेवंभूतमहिंसासमयमेतावन्तमेव विज्ञाय, किमन्येन बहुना परिज्ञानेन ? एतावतैव पुरिसेयं सागणियाणं इंगालाणं पाई बहुपडिपुन्नं गहाय परिज्ञानेन मुमुक्षोर्विवक्षितकार्यपरि-समाप्तेरतो न हिंस्यात् अउमएणं संडासएणं गहाय ते सव्वे पावाउए आइगरा धम्माणं कञ्चनेति / / 10 / / सूत्र०१श्रु०११ अ०।। णाणापन्ना० जाव णाणाज्झवसाणसंजुत्ते एवं वयासी- हंभो पावाउया ! आइगरा धम्माणं णाणापन्ना० जाव णाणा (11) मतान्तरेऽहिंसा न तादृशी अज्झवसाणसंजुत्ता! इमं ताव तुम्ह सागणियाणं इंगालाणं पाई आहुः - कथमेते प्रावादुका मिथ्यावादिनो भवन्ति ? अत्रो-च्यते- बहुपडिपुन्नं गहाय मुहुत्तयं पाणिणा धरेह, णो बहु संडासगं यतस्तेऽप्यहिंसां प्रतिपादयन्ति, न च तां प्रधानमोक्षाङ्गभूतां | संसारियं कुजा, णो बहु अग्गिथंभणियं कुजा, णो बहु साहम्मियं Page #1064 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा ८८०-अभिषानराजेन्द्रः-विभाग१ अहिंसा वेयावडियं कुज्जा, णो बहु परधम्मियं वेयावडियं कुज्जा, उज्जया स्वशरीरोच्छेदाय च भाषन्ते, तथा ते सावद्यभाषिणो भविष्यन्ति, काले णियागपडिवन्ना अमायं कुव्वमाणा पाणिं पसारेह, इति दुचा से जातिजरामरणानि बहूनि प्राप्नुवन्ति / योन्यां जन्म योनिजन्म, पुरिसे तेसिं पावादुयाणं तं सागणियाणं इंगालाणं पाई तदनेकशो बहुशो गर्भव्युत्क्रान्तजाऽवस्थायां प्राप्नुवन्ति / तथाबहुपडिपुन्नं अउमएण संडासएणं गहाय पाणिंसु णिसिरिंति। संसारप्रपञ्चाऽन्तर्गतास्तेजावायुषूच्चैर्गोत्रो-दलनेन कलंकलीभावभाजो तए णं ते पावादुया आइगरा धम्माणं णाणापन्ना० जाव भवन्ति, बहुशो भविष्यन्ति च // 1 // णाणाज्झवसाणसंजुत्ता पाणिं पडिसाहरंति। तएणं से पुरिसे ते ते बहूणं दंडणाणं बहूणं मुंडणाणं तजणाणं तालणाणं अदु सव्वे पावाउए आदिगरे धम्माणं० जाव णाणाज्झवसाणसंजुत्ता बंधणाणं० जाव घोलणाणं, माइमरणाणं पितामरणाणं भाइएवं वयासी- हंभो पावादुया ! आइगरा धम्माणं णाणापन्न० जाव मरणाणं मगिणीमरणाणं भज्जापुत्तधूतसुण्हामरणाणं, दारिदाणं णाणाज्झवसाणसंजुत्ता कम्हा णं तुब्मे पाणिं पडि-साहरह, दोहम्गाणं अप्पियसंवासाणं पियविप्पओगाणं बहूणं दुक्खपाणिं नो डहिज्जा, दड्डे किं भविस्सइ, दुक्खंति मन्नमाणा दोम्मणस्साणं आभागिणो भविस्संति, अणादियं च णं अणपडिसाहरह। एस तुला, एस प्पमाणे, एस समोसरणे / पत्तेयं वयग्गं दीहमद्धं चाउरंत संसारकंतारं भुजो मुजो अणुतुला, पत्तेयं पमाणे, पत्तेयं समोसरणे / तत्थ णं जे ते समणा परियट्टिस्संति / ते णो सिज्झिस्संति, णो बुज्झिस्संति, जाव माहणा एवमाइक्खंति० जाव परूवेंति-सव्वे पाणा० जाव सत्ता णो सव्वदुक्खाणं अंतं करिस्संति, एस तुल्ला, एसपमाणे, एस हंतव्वा अब्जावेयव्वा परिघेतव्वा परितावेयव्वा किलामेतव्वा समोसरणे। पत्तेयं तुल्ला, पत्तेयं पमाणे, पत्तेणं समोसरणे|शा उद्दवेतव्वा ते आगंतु छेयाए, ते आगंतु भेयाए० जाव ते आगंतु तथा-तेबहूनांदण्डादीनां शारीराणांदुःखानामात्मानां भाजनं कुर्वन्ति, जाइ जरामरणजोणिजम्मणसंसारपुणब्भवगब्भवासभव तथा- ते निर्विवेका मातृवधादीनां मानुषाणां दुःखानां, तथाऽन्येषामपवंचकलंकलीभागिणो भविस्संति||१|| प्रियसंयोगार्थनाशादिभिर्दुःखदौर्मनस्यानामा-भागिनो भविष्यन्तीति। तेषां चैवंव्यवस्थितानामेकः कश्चित् पुरुषः, तेषां संविदर्थं किं बहूनोक्तेनोपसंहारव्याजेन गुरुतर-मर्थसंबन्धं दर्शयितुमाह - ज्वलतामगाराणां प्रतिपूर्णा पात्रीमयोमयं भाजनमयोमयेनैव संदंशकेन (अणादियं इत्यादि) नाऽस्यादि-रस्तीत्यनादिः संसारः। तदनेनेदमुक्तं गृहीत्वा तेषां ढौकितवानुवाच तान्- यथा भोः प्रावादुकाः ! भवति- यत्कैश्चिदभिहितं-यथा-ऽयमण्डकादिक्रमेणेत्यादित इति / सर्वोक्तविशेषणविशिष्टाः ! इदमङ्गारभृतं भाजन-मेकैकं मुहूर्त प्रत्येक एतदपास्तम् / न विद्यतेऽवदग्रं पर्यन्तो यस्य सोऽयमनवदग्रोऽपर्यन्त सांसारिकाणामिवाऽग्निस्तम्भनं विधत्ते, नाऽपि च साधर्मिकाऽन्य इत्यर्थः / तदनेनेदमुक्तं भवति- यदुक्तं कैश्विद् यथा- प्रलयकालेऽशेषधर्मिकाणामग्निदाहोपशमादिनोपकारं कुरुत इति, ऋजवो सागरजलप्लावन, द्वादशा-ऽऽदित्योद्गमेन चाऽत्यन्तदाहः, इत्यादिकं मायामकुर्वाणाः पाणि प्रसारयत। तेऽपि च तथैव कुर्युः / ततोऽसौ पुरुषः सर्व मिथ्येति। दीर्घमित्यनन्तपुद्गलपरावर्तरूपंकालाऽवस्थानम्, तथातद्भाजनं पाणौ समर्पयति। तेऽपि चदाहशङ्कया हस्तं संकोचयेयुरिति। चत्वारो-ऽन्ता गतयो यस्य,सतथा। चातुर्गतिक इत्यर्थः। तत्संसार एव ततोऽसौ तानुवाच- किमिति पाणिं प्रतिसंहरत यूयम् ? एवमभिहितास्ते कान्तारः संसारकान्तारो निर्जलः सभयत्राणरहितोऽरण्यप्रदेशः ऊचुः- दाहभयादिति / एतदुक्तं भवति- अवश्यमग्निदाहभयान्न कान्तार इति / तदेवंभूतं भूयो भूयः पौनःपुन्येनाऽनुपरिवर्तिष्यन्ते, कश्चिदग्न्यभिमुखंपाणिं ददातीत्येतत्परोऽयं दृष्टान्तः। पाणिना दग्धेनाऽपि अरहट्टघटीन्यायेन तत्रैव भ्रमन्तः स्थास्यन्तीति। अत एवाऽऽह-यतस्ते किं भवतां भविष्यति? दुःखमिति चेत्, यद्येवं भवन्तो दाहाऽऽपादित प्राणिनां हन्तारः। कुत एतदिति चेत्,सावद्योपदेशात्। दुःखभीरवः सुखलिप्सवस्तदेवं सति सर्वेऽपि जन्तवः संसारोदर एतदपि कथमिति चेद् ? अत औद्देशिकादिपरिभोगाऽनुविवरवर्तिन एवंभूता एवेत्येवमात्मतुलयाऽत्मौपम्येन, यथा- मम ज्ञयेत्येवमवगन्तव्यमित्यतस्ते कुप्रावनिका नैव सेत्स्यन्ति, नैव ते नाऽभिमतं दुःखमित्येवं सर्वजन्तूनामित्यवगम्याऽहिंसैव प्राधान्येनाऽ लोकाग्रस्थामाक्रमिष्यन्ति / तथा- न ते सर्वपदार्थान् केवलऽश्रयणीया। तदेतत् प्रमाणम्। ज्ञानावाप्त्या भोत्स्यन्ते, अनेन ज्ञानातिशयाऽभावमाह / तथा- न एषा युक्तिः - "आत्मवत् सर्वभूतानि, यः पश्यति सपश्यति" / तदेव तेऽष्टप्रकारेण कर्मणा मोक्ष्यन्ते / अनेनाऽप्यसिद्धेरकैवल्या-इवाप्तेश्व समवसरणं, स एष धर्मविचारो, यत्राऽहिंसा संपूर्णा, तत्रैव परमार्थतो धर्म कारणमाह। तथा-परिनिर्वृतिः परिनिर्वाणमानन्द-सुखाऽवाप्तिः, तां ते इत्येवंव्यवस्थिते, तत्र ये केचनाऽविदितपरमार्थाः श्रमणब्राह्मणादय एवं नैव प्राप्स्यन्ते, तेनाऽपि सुखाऽतिशयाऽभावः प्रदर्शितो भवतीति। तथावक्ष्यमाणमाचक्षते, परेषामात्मदायों-त्पादनायैवं भाषन्ते, तथैवमेव धर्म नैते शारीरमानसानां दुःखाना-मात्यन्तिकमन्तंकरिष्यन्तीत्यनेनाऽप्रज्ञापयन्ति व्यवस्थापयन्ति, तथाऽन्येन प्राण्युपतापकारिणा प्रकारेण प्यपायाऽपगमाऽतिशयाभावः प्रदर्शितो भवति। एषा तुला, तदेतदुपमानं, परेषां धर्म प्ररूपयन्ति व्याचक्षते / तद्यथा- सर्वे प्राणा० इत्यादि यावद् यथा सावद्याऽनु-ठानपरायणाः सावधभाषिणश्व कुप्रावचनिका न हन्तव्या दण्डादिभिः, परितापयितव्या धर्माऽर्थमरघट्टादि-वहनादिभिः, सिध्यन्त्येवं स्वयूथ्या अप्यौद्देशिकादिपरिभोगिनो न सिध्यन्तीति / परिग्राह्या विशिष्टकाले श्राद्धादौ रोहितमत्स्या इय, तथाऽपद्राव-यितव्या तदेतत् प्रमाणं प्रत्यक्षाऽनुमानादिकम्। तथाहि- प्रत्यक्षेणैव जीवपीडादेवतायागादिनिमित्तं वस्तादय इवेत्येवं ये श्रमणादयः प्राणिनामु- कारिचौर्यादिबन्धनात् न मुच्यते / एवमन्येऽपीत्यनुमानादिकमपतापकारिणी भाषां भाषन्ते, आगामिनि कालेऽनेकशो बहुशः | प्यायोज्यम् / तथा- तदेतत्समवसरणमागमविचाररूपमिति प्रत्येक Page #1065 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा 881 - अभिधानराजेन्द्रः-विभाग 1 अहिंसा च प्रतिप्राणि प्रतिप्रावादुकमेतत् तुलादिकं द्रष्टव्यमिति // 2 // तत्थ णं जे से समणा माहणा एवमाइक्खंति० जाव परूवेंतिसव्वे पाणा, सव्वे भूया, सव्वे जीवा, सव्वे सत्ताण हंतव्वा, ण अज्झावेयव्वा, ण परिघेत्तव्वा, ण उद्दवेयव्वा / ते णो आगंतु छेयाए, ते णो आगंतु भेयाए० जाव जाइजरामरणजोणिजम्मणसंसारपुणब्भवगब्भवासभवपवंचकलंकलीभागिणो भविस्संति, ते णो बहूर्ण दंडणाणं० जाव णो बहूणं मुंडणाणं० जाव बहूणं दुक्खदोम्मणस्साणं णो भागिणो भविस्संति, अणादियं च णं अणवयरगं दीहमद्धं चाउरंतसंसारकंतारे भुजो भुञ्जो णो अणुपरियट्टिस्संति / ते णं सिज्झंति० जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करिस्संति॥३॥ ये पुनर्विदिततत्त्वा आत्मौपम्येनात्मतुलया सर्वजीवेष्वहिंसां कुर्वाणा एवमाचक्षते। तद्यथा- सर्वेऽपिजीवा दुःखद्विषः सुखलिप्सवस्तेनहन्तव्या इत्यादि। तदेवं पूर्वोक्तं दण्डनादिकं सप्रतिषेधंभणनीयं यावत्संसारकान्तारमचिरेणैव ते व्यति-क्रमिष्यन्तीति।।८३।। सूत्र०२ श्रु०२० "अविहिंसामेव पव्वए, अणुधम्मो मुणिणा पवेदिओ।" सूत्र०२ श्रु०२ अ०१ उ०॥ (14) यद्येकान्तेन नित्येऽनित्ये चाऽऽत्मनि हिंसादयो न घटन्ते, तर्हि क्व घटन्ते ? इत्यत आह - नित्यानित्ये तथा देहाद्, भिन्नाभिन्ने च तत्त्वतः। घटन्ते चात्मनि न्यायाद्, हिंसादीन्यविरोधतः||१|| नित्यश्चाऽसावनित्यश्चेति नित्यानित्ये, तत्र नित्याऽनित्ये आत्मन्यभ्युपगम्यमाने हिंसादीनि, घटन्ते इति संबन्धः। न हि एकान्तेन नित्यमनित्यं वा वस्तु किमपि कस्याऽपि कार्यस्य करणक्षमम्। तथाहिमृत्पिण्डस्य कार्य घटो न भवति, एकरूपत्वेनाऽनतिक्रान्तमृत्पिण्डभावत्वात्, मृत्पिण्डवत्। मृत्पिण्डस्याऽतिक्रमे चाऽनित्यत्वप्राप्तेः। तथामृत्पिण्डस्य कार्य घटो न भवति, सर्वथैवाऽनुगमाऽभावेनाऽनतिक्रान्तमृत्पिण्डत्व-लक्षणपर्यायत्वात्, पटवत्। मृत्पिण्डत्वलक्षणपर्यायाऽतिक्रमाऽभ्युपगमे वाऽनुयायित्वेन नित्यत्वं वस्तुनः स्यादिति / आह च-घटः कार्यं न, पिण्डभावाऽनतिक्रमात्, पिण्डवत्घटवच्चेति। स्यात् क्षयित्वादिरन्यथा / तदेवं नित्यानित्यमेव वस्तु कार्यकरणक्षममिति। ननु नित्यानित्यत्वधर्मयोर्विरुद्धत्वात् कथमेकाऽधिकरणत्वम् / अत्रोच्यते- यथाज्ञानस्य भ्रान्ताऽभ्रान्तत्वे परमा-ऽर्थसंव्यवहाराऽपेक्षया न विरुद्ध, एवं द्रव्यतो नित्यत्वं, पर्याय-तश्चाऽनित्यत्वं न विरुद्धम्।नच द्रव्यपर्याययोः परस्परं भेदः, यतो यदेव वस्त्वनपेक्षितविशिष्टरूपं द्रव्यमिति व्यपदिश्यते, तदेवा-उपेक्षितविशिष्टरूपं पर्याय इति। तथेति वाक्यान्तरोपक्षेपार्थः / देहाच्छरीरात। किमित्याह-भिन्नो व्यतिरिक्तः, स चाऽसावभिन्नश्च व्यतिरेकी भिन्नाऽभिन्नः, तत्र भिन्नाभिन्न एव च जीवः, शरीरात् तस्यैवोपलभ्यमानत्वात्। तथाहि- जीवस्यामूर्तत्वाद् देहस्य च मूर्तत्वात् मूर्ताऽमूर्तयोश्चाऽत्यन्तविलक्षणत्वाद्भेदः / तयोर्देहस्पर्शने च जीवस्य वेदनोत्पत्तेरभेदश्चेति। आह च- जीवसरीराण पिहु, भेयाभेओ तहोवलंभाओ। मुत्तामुत्तत्तणओ, छिकम्मिय वेयणाओ य // 1 // सर्वथा भेदे हि शरीरकृतकर्मणो भवान्तरेऽनुभवाऽनुपपत्तिः स्यात्। अभेदे च परलोकहानिः, शरीरनाशे जीवनाशादिति / चशब्दोऽनुक्तसमुच्चये। ततश्च सदसतीत्यादि अपि द्रष्टव्यम्। आह च- "संतस्स सरूवेणं, तहा विरूवे असंतस्स। हंदि विसिट्टत्तणओ, होति विसिट्ठा सुहाईआ" // 1 // या विशिष्टाः प्रतिप्राणिवेद्याः। तत्त्वत इति परमार्थतः, नित्याऽनित्यादौ, न पुनः कल्पनया, पारमार्थिकत्वं च नित्याऽनित्यत्वादीनां दर्शितमेव / घटन्ते युज्यन्ते, आत्मनि जीवे, न्यायात् परिणामिस्वरूपस्याऽऽत्मनोऽपरापरपर्यायसंपदुप-पत्तिलक्षणया नीत्या, हिंसादीनि आश्रवसंवरबन्धमोक्षसुखादीनि। कथमित्याह-अविरोधतः अविरोधेन, एकान्तपक्षे ये हिंसादिष्वभ्यु-पगम्यमानेषु विरोधा दर्शिताः, तत्परिहारेणेति भाव इति // 1 // (15) आत्मनः परिणामित्वे हिंसाया अविरोधदर्शनायाऽऽहपीडाकर्तृत्वयोगेन, देहव्यापत्त्यपेक्षया। तथा हन्मीति संक्लेशाद, हिंसैषा सनिबन्धना / / 2 / / पीडा दुःखवेदना, तस्याः कर्ता विधाता, तद्भावः पीडाकर्तृत्वं, तस्य तेन वा योगः संबन्धः, तेन पीडाकर्तृत्वयोगेन। तथा- देहस्य शरीरस्य, व्यापत्तिर्विनाशो देहव्यापत्तिः, तस्या अपेक्षा निश्रा देहव्यापत्त्यपेक्षा, तया। तथेति निबन्धनान्तरसमुचये / हन्मि मारयामि, प्राणिनमित्येवरूपात्संक्लेशाचित्तकालुष्यात, हिंसा प्राणव्यपरोपणा, या परिणामवादिभिरभ्युपगतेति गम्यम् / एषा इयं हिंसा, सनिबन्धना सनिमित्ता / परिणामवादे हि पीडकस्य पीडनीयस्य च परिणामित्वात् पीडाकर्तृत्वमुपपद्यते / देहविनाश-संक्लेशौ च एकान्तवादे तु पीडाकर्तृत्वादीनां पूर्वोक्तन्यायेना-ऽयुज्यमानत्वात् हिंसा निर्निबन्धनेति / यथोच्यते-नाशहेतुना देहाद भिन्नो नाशः क्रियतेऽभिन्नो वा? यदि भिन्नः, तदा देहस्य तादवस्थ्यं स्यात्। अथाऽभिन्नः, तदा देह एव कृतो भवतीति / तदयुक्तम्। अभिन्ननाशकरणे हि वस्तुनाशितमेव भवति, नकतं, यथा भिन्नोत्पादकरणे उत्पादितमेव भवतीति. अनेन च श्लोकेन स्थानान्तरप्रसिद्धस्विविधोवधो निर्दिष्टः / तथा च-तप्पज्जाय-विणासो, दुक्खुप्पाओ य संकिलेसो य / एस वहो जिणभणिओ, वजेयव्यो पयत्तेण / / 1 / / नन्वस्माद् घातकाद् मरणमनेन देहिना प्राप्तव्यमित्येवंफलात्, स्वकृत कर्मणोवशाद् हिंसा भवत्यन्यथा वा ? यदि आद्यः पक्षः, तदा हिंसकस्याऽहिंसकत्वमेव, स्वकर्म-कृतत्वात् हिंसायाः, पुरुषान्तरकृतहिंसायामिव तथा कर्म- निर्जराहेतुत्येन हिंसकस्य वैयावृत्त्यकरस्येव कर्मक्षयाऽवाप्तिलक्षणो गुणः स्यात् / अथाऽन्यथेति पक्षः, तदा निर्विशेषत्वात्सर्व हिंसनीयं स्यात्।।२।। (16) तथा स्वर्गसुखादयोऽपि स्वकृतकर्मानापादिता एव स्युरिति कर्माभ्युपगमोऽनर्थक इत्येवमार्हतानामपि हिंसाया असंभव एवेत्याशब्याह - हिंस्यकर्मविपाकेऽपि, निमितत्वनियोगतः। हिंसकस्य भवेदेषा, दुष्टाऽदुष्टाऽनुबन्धतः / / 3 / / हिंस्यते मार्यते इति हिंस्यः, तस्य यत्कर्म, तस्य विपाक उदयो हिंस्यकर्मविपाकः, तत्रापि हिंस्यकर्मविपाकरूपत्वे हिंसायाः, आस्तां हिंस्यकर्मविपाकाभावकल्पनायां, निमित्तत्वस्य निमित्तकारणभावस्य नियोगोऽवश्यंभावो निमित्तत्वनियोगतः, हिंसकस्य व्यापादकस्य, भवेत् जायेत / एषा हिंसा / अयमभिप्रायः - यद्यपि प्रधानहेतुभावेन कर्मोदयाद् हिंस्यस्य हिंसा भवति, तथाऽपि Page #1066 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा 882 - अभिधानराजेन्द्रः-विभाग 1 अहिंसा हिंसकस्य तस्यां निमित्ताभावेनोपयुज्यमानत्वात् तस्याऽसौ भवतीत्युच्यते / न च वाच्यं हिंस्यकर्मणैव हिंसकस्य हिंसायां प्रेरितत्वात्तस्य न दोष इति / अभिमरादेः परप्रेरितस्यापि लोके दोषदर्शनादिति / ननु यदि निमित्तभावेऽपि हिंसा स्यादितीष्यते / तदा वैद्यादीनामपि तत्प्रसङ्गः / सत्यम्, केवलं सा तेषां न, दुष्टाऽदुष्टाऽभिसंधित्वात् / एतदेव व्यतिरेकेणाऽऽह - दुष्टा दोषवती कर्मबन्धनिबन्धनत्वाद् दुष्टाऽनुबन्धतो दुष्टचित्ता-ऽभिसंधर्भवति / यदाह - जो उपमत्तो पुरिसो, तस्स उ जोगं पडुच जे सत्ता / वावजंती नियमा, तेसिं सो हिंसओ होइ / / 1 / न तु शुभाऽभिसंधेः। यदाह-जा जयमाणस्स भवे, विराहणा सुत्तविहिसमग्गस्स। सो होइ निज्जरफला, अज्झत्थविसोहिजत्तस्स ||1|| एतेन च यदुक्तं वैयावृत्त्यकरस्येव हिंसकस्य कर्मनिर्जरण-सहायत्वात् निर्जरालाभ इति। तदपि परिहतम्। यतो न हिंसको वैयावृत्त्यकरवचनाऽभिसन्धिः / शेषं त्वनभ्युपगमात् निरस्तमिति / अधिकृतश्लोकाऽर्थसंवादिनी / चेयं गाथा - नियकयकम्मुव-भोगे, विसंकिलेसो धुवं वहंतस्स। तत्तो बंधो तं खलु, तव्विरईए विवज ति // 1 // एवं परिणामिन्यात्मनि हिंसायाः संभवमाविर्भाव्याऽहिंसायास्तमाहततः सदुपदेशादेः, क्लिष्टकर्मवियोगतः। शुभभावानुबन्धेन, हन्तास्या विरतिर्भवेत्॥५॥ यतः परिणामिन्यात्मनि हिंसाघटते ततस्तस्माद् हिंसाघटनात्, अस्या विरतिर्भवेदिति योगः। सतां ज्ञानगुरुणां जिनादीनामुपदेशो हिंसाहिंसयोः स्वरूपफलादिप्रतिपादनं सदुपदेशः, सतां वा भावानामुपदेशः, सन्था शोभन उपदेशः, स आदिर्यस्य स तथा, तस्मात्, आदिशब्दात् ज्ञानश्रद्धानपरिग्रहोऽभ्युत्थानादिपरिग्रहो वा। आहच- अन्भुट्ठाणे विणए, परक्कमे साहुसेवणाएयासम्म-इंसणलंभो, विरयाविरई य विरईय॥१॥ तथा-क्लिष्टकर्मणां दीर्घस्थितिकज्ञानावरणादीनां, वियोगः क्षयोपशमः, तस्मात् क्लिष्टकर्मवियोगात्। आह च - सत्तण्हं पयडीणं,अभितरओ य कोडिकोडीए / काऊण सागराणं, जई लहइ चउण्हमन्नयरं / / 1 / / शुभभावाऽनुबन्धेन प्रशस्ताऽध्यवसायाऽव्यवच्छेदेन, इत्येवंकारणपरम्परया हन्तेति प्रत्यवधारणार्थः, कोमलाऽऽमन्त्रणार्थों वा। अस्याः परिणाम्यात्महिंसायाः, विरतिर्निवृत्तिर्भवेत् जायेत, घटत इत्यर्थः / / 4 / / ततः किं जातमित्याह - अहिंसैषा मता मुख्या, स्वर्गमोक्षप्रसाधनी। एतत्संरक्षणार्थं च,न्याय्यं सत्यादिपालनम्।।५।। अहिंसा अव्यापादनम्, एषाअनन्तरोक्तोपपत्तिका हिंसाविरतिः, मता इष्टा विदुषां, मुख्या निरुपचरिता। इयं च प्रासङ्गिक-प्रधानफलापेक्षया क्रमेण स्वर्गमोक्षप्रसाधनी देवलोकनिर्वाण- हेतुभूता / अथैतस्या एवं स्वर्गादिसाधनत्वात् किं सत्यादि- पालनेनेत्याशङ्क्याऽऽहएतत्संरक्षणार्थमनन्तरोदिताऽहिंसाव्रतपरित्राणाऽर्थम्, चशब्दः पुनरर्थोऽवधारणाऽर्थो वा / न्याय्यं न्यायादनपेतम्, उपपन्नमित्यर्थः / सत्यादिपालनं मृषावादादि-निवृत्तिनिर्वाहणम्, अहिंसासस्यसंरक्षणे वृत्तिकल्पत्वात् सत्यादि-व्रतानामिति / / 5 / / (17) अथ पूर्वोक्तस्याऽऽत्मनो नित्यानित्यत्वस्य देहाद् भिन्नाऽभिन्नत्वस्य च साधने प्रमाणोपदर्शनायाऽऽहस्मरणप्रत्यभिज्ञान-देहसंस्पर्शवेदनात्। अस्य नित्यादिसिद्धिश्च, तथा लोकप्रसिद्धितः॥६॥ स्मरणं पूर्वोपलब्धार्थाऽनुस्मृतिः, प्रत्यभिज्ञानं सोऽयमित्येवंरूपः प्रत्यवमर्शः, तथा देहस्य शरीरस्य संस्पर्शो वस्त्वन्तरेण स्पर्शनं, तस्य वेदनमनुभवनं, देहसंस्पर्शेन वा वेदनं स्पर्शनीयवस्तुपरिज्ञानं देह संस्पर्शवेदनमिति / पदत्रयस्याऽस्य समाहारद्वन्द्वः, तस्माद् अस्याऽऽत्मनो, नित्यादिसिद्धिः नित्याऽनित्यत्वदेहाद् भिन्नाऽभिन्नत्वप्रतिष्ठा, चशब्दः, पुनः शब्दार्थः / नित्यानित्यत्यादि-विशेषणे आत्मन्यहिंसादिसिद्धिः, नित्याऽनित्यत्वादिसिद्धिः पुनः स्मरणादेरिति भावः / प्रयोगश्चाऽत्रनित्यानित्य आत्मा, स्वयंनिहितद्रव्याऽऽदिसंस्मरणाऽन्यथाऽनुपपत्तेः / तथाहि- न तावद् एकान्तनित्ये स्मरणसंभवः, तस्यैकरूपतयाऽनुभवस्यैव स्पष्टरूपेणाऽनुवर्तनात्, इतरथा नित्यताहानेः, नाऽप्यनित्यत्वे स्मरणसंभवोऽनुभवकालाऽनन्तरक्षण एव कर्तुर्विनष्टत्वात् कस्य स्मरणमस्तु ? न हि अन्येनाऽनुभूतमन्यः स्मरति / अथा-ऽनुभवक्षणसंस्कारात् तथाविधः स्मरणक्षणः समुत्पद्यते। नैवम् / यतोऽनुगमलेशेनापि वर्जितानामत्यन्तविलक्षणानामसंख्येय-क्षणानामतिक्रमे जायमानस्य स्मरणक्षणस्य पूर्वकालीना-ऽनुभवक्षणसंस्कारो यदि परं श्रद्धानगम्यो न युक्ति प्रत्याय्यः, प्राक्तनाऽनुभवक्षणस्य चिरतरनष्टत्वात्, अपान्तरालक्षणेषु च संस्कारलेशस्याऽप्यनुपलब्धेः सहसैवाऽनन्तरक्षणस्य विलक्षणस्मरणक्षणोत्पादोपलब्धेरिति / परिणामपक्षे तु प्राक्तनानुभवक्षणेनाऽऽहितसंस्कारानुगमवत् तत्क्षणप्रवाहरूपात् नानाविधधर्मसमुदयस्वभावादात्मनः सकाशात् स्मरणक्षणोत्पादो युक्ति-युक्त इति / न च वाच्यमपान्तरालक्षणेष्वनुभवसंस्कारो नोपलभ्यत इति, कथं तत्सत्तेति नि/जत्वेन स्मरणस्याऽनुपपत्तिप्रसङ्गादिति / तथा- नित्याऽनित्य आत्मा, प्रत्यभिज्ञानान्यथानुपपत्तेः / तथाहि- एकान्तनित्यत्वेऽनुभवस्यैव साक्षादनुवृत्तेर्न प्रत्यभिज्ञानसंभवः / अनित्यत्वे तु अनित्यत्वादेव पूर्वद्रष्टुः पूर्वदृष्टवस्तुनश्च नष्टत्वा-दपूर्वयोश्चोत्पन्नत्वात्न प्रत्यभिज्ञानसंभवः / न चाऽदृष्टवतोऽदृष्टे प्रत्यभिज्ञानमस्ति, तथा अप्रतीतेरिति / अथ ब्रूषे- लूनपुनर्जात-केशादिष्वपि प्रत्यभिज्ञानमस्तीति ग्राह्यं प्रति तस्य व्यभिचारि-त्वेनाऽप्रमाणतया सर्वत्राऽप्रामाण्यम् / नैवम् / प्रत्यक्षस्याऽपि क्वचिद् व्यभिचारात् सर्वाऽप्रामाण्यप्रसङ्गादिति / तथा देहाद् भिन्नाऽभिन्न आत्मा, स्पर्शवदनाऽन्यथाऽनुपपत्तेः / तथाहि- यद्यसौ देहाद्भिन्नो भवेत्, तदा देहेनस्पृष्टस्य वस्तुनोन संवेदनं स्याद्, देवदत्तस्पृष्टवस्तुन इव यज्ञदत्तस्य न / अथाऽभिन्नो, देहमात्रत्वेन तस्य परलोकाऽभावप्रसङ्गादवयवाऽन्तरहानौ चैतन्यहानि-प्रसङ्गाच्चेति / तथेति समुचये / लोकप्रसिद्धितो जनप्रतीतेर्नित्या-ऽनित्यमात्मादिवस्त्विति गम्यते / यतस्तदेवं वस्त्वेवं परिणत- मिति वदन् वस्तुत्वाविच्छित्तिमवस्थाऽन्तरापत्तिं च प्रतिपद्यमानो जनो लक्ष्यते / न च लोकप्रतीतिविरुद्धमर्थमुपकल्पयन् प्रमाणं प्रमाणताभासादयतीति // 6|| (18) आत्मनो विभुत्वे पूर्वं दोष उक्तोऽथाऽसगतत्वेऽस्य गुणमाह - देहमात्रे च सत्यस्मिन, स्यात्, संकोचादिधर्मिणि। धर्मादेवंगत्यादि, यथार्थं सर्वमेव तु // 7 // देह एव शरीरमेव मात्रं परिमाणं यस्य स देहमात्रः, तस्मिन् देहमात्रे / देहमात्रता चास्य देह एव तद्गुणोपलब्धेः। चशब्दः पुनरर्थः / नित्यानित्यादिधर्मके आत्मनि हिंसादिरुपपद्यते, देहमात्रे पुनः सति Page #1067 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा ८८३-अभिधानराजेन्द्रः-विभाग 1 अहिगरण भवति। अस्मिन्नात्मनि, स्याद्भवेत्, सर्व यथार्थमिति संबन्धः। किंभूते | अहिगमास-पुं०(अधिकमास) अभिवर्द्धितमासे, ज्यो०१ पाहु०। तत्र ? संकोचादिः संकोचनादिः, आदिशब्दात् प्रसरणम्।धर्मः स्वभावो | अहिगय-त्रि०(अधिकृत) प्रस्तुते, विशेला पञ्चा०ाभावे क्तः, अधिकारे, यस्य स तथा, तस्मिन्, संकोचादि-धर्मकत्वं चाऽस्य ना विशेष सूक्ष्मेतरशरीरव्याप्तेः। किंतत्स्यादित्याह - (धर्मादेवंग-त्यादि)धर्मेण * अधिगत-त्रि०। परिज्ञाते,अनु० गीतार्थे,व्य० 1 उ०। दीक्षादिगमनमवं, गमनमधस्ताद्भवति अधर्मेण ज्ञानेनचाऽपवर्गः, इत्यादिकं वचनमिति गम्यते। यथार्थ निरुपचरितं, सर्वमेव निरवशेषमेव, तुशब्दः प्रतिपत्त्याऽङ्गीकृते प्राप्ते, पञ्चा०२ विव०। पूरण इति // 7 // अहिगयगुणवुड्डि-स्त्री०(अधिकृतगुणवद्धि) सम्यक्त्वादिगुणवर्द्धने, उपसंहरन्नाह पञ्चा०२ विवन विचार्यमेतत्सदबुद्ध्या, मध्यस्थेनान्तरात्मना। अहिगयजीव-पुं०(अधिकृतजीव) प्रस्तुतसत्त्वे,यथा दीक्षा- ऽधिकारे प्रतिपत्तव्यमेवेति, न खल्वन्यः सतां नयः ||8|| दीक्षणीय इति। पञ्चा०२ विवा विचार्य विचारणीयम्, एतद्यदनन्तरमहिंसादि विचारितं, सद्-बुद्ध्या अहिगयजीवाजीव-त्रि०(अधिगतजीवाजीव)अधिगतौ सम्य-विज्ञातौ शोभनप्रज्ञया, मध्यस्थेनाऽपक्षपतितेन, अन्तरात्मना जीवेन, मनसा जीवाजीवौ येन स तथा / जीवाऽजीवयोः परमार्थतो विज्ञानवति, राधा वा न केवलं विचार्य, तथा प्रत्तिपत्तव्यमेव, न तु, न स्वीकर्तव्यम् / अहिगयट्ठ-पुं०(अधिगताऽर्थ) अधिगतोऽर्थो येन स तथा, अधिगताऽर्थो इतिशब्दो विवक्षिताऽर्थपरिसमाप्तौ। अथकस्मात् प्रतिपत्त-व्यमेवेत्याह- वाऽर्थावधारणात्, तत्त्वज्ञे, दशा०१० अ० न खलु नैव, अन्य उक्तनय-विलक्षणः, सतां सत्पुरुषाणां, नयो न्याय अहिगयतित्थविहाया-पुं०(अधिकृततीर्थविधातृ)वर्त्तमानइति // 8 // हारि०१६ अष्ट०। द्वा०। विशे०) प्रवचनकर्तरि भगवति महावीरे, पञ्चा०६ विव०। अहिंसालक्खण-पुं०(अहिंसालक्षण) अहिंसा प्राणिसंरक्षणं, लक्षणं अहिगयरगुण-पुं०(अधिकतरगुण)प्रकृष्टतरगुणे,पंचा० 18 विव०। चिह्न यस्य स अहिंसालक्षणः / सत्त्वाऽनुकम्पाऽनुमेयसंभवे, पा०। अहिगयविसिट्ठभाव-पुं०(अधिगतविशिष्टभाव) प्रस्तुतप्रकृष्टशुभाऽध्यदयाचिह्ने, ध०३ अधिo वसाये, पञ्चा० 16 विव०। अहिंसासमय-पुं०(अहिंसासमय) अहिंसाप्रधाने आगमे, संकेते चोपदेशरूपे, सूत्र०१ श्रु०११ अ०। अहिगयसुंदरभाव-पुं०(अधिकृतसुन्दरभाव)प्रस्तुतशोभन- परिणामे, पञ्चा०१८ विव०॥ अहिंसिय-त्रि०(अहिंसित)अमारिते, सूत्र० 1 श्रु०१ अ० 4 उ०) अहिकंखंत-त्रि०(अभिकाङ्क्षत्) अभिलषति, अहिकखंतेहिं अहिगरण-न०(अधिकरण)अधिक्रियतेऽधिकारीक्रियतेदुर्गतावात्मायेन सुभासियाई। पं० व०४ द्वार। तदधिकरणम् / बाह्ये वस्तुनि, स्था० 2 ठा० 1 उ०। आव०। प्रव०। अहिकरण-न०(अधिकरण)नरकतिर्यग्गतिषु,आत्मनोऽधिकरणं वा पापोत्पत्तिस्थाने, आतु०। दुरनुष्ठाने, प्रश्र० 3 संव० द्वार / स्वपक्षपरपक्षविषये विग्रहे, स्था०७ठा०। राटौ, तत्करवचने च। कल्प० तुल्यसत्त्वे इत्यर्थः / कलहे, नि० चू०४ उ० 6 क्ष०ा कलहे, ग० 3 अधिo। खड्गनिवर्त्तनादौ, ज्ञा० 5 अ० औ०। अहिकरणी-स्त्री०(अधिकरणी)सुवर्णकारोपकरणे,स्था०८ ठा०। सूत्र०। कषायाद्याश्रयभूते हलशकटादौ, भ० 7 श० 1 उ०॥ अहिकिच्च-अव्य०(अधिकृत्य) प्रतीत्येत्यर्थे, "पडच त्ति वा पप्प त्ति वा (अधिकरणस्य कर्त्तव्यता क्षामणा च 'अधिगरण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे अहिकिच त्ति वा एगट्ठा' / आ० चू०१ अ01 572 पृष्ठे 571 पृष्ठे च उक्ता, नवरं चातुर्मास्ये) अहिग-त्रि०(अधिक) विशिष्टे, पञ्चा० 3 विव०। वासावासं पजोसवियाणिं नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण अहिगगुणत्थ-त्रि०(अधिकगुणस्थ) अधिकगुणवर्तिनि, षो०७ विव०। वा परं पञ्जोसवणाओ अहिगरणं वइत्तए, जे णं निग्गंथो वा अहिगत्त-न०(अधिकत्व) विशिष्टतरत्वे, पञ्चा०३ विव०। निग्गंथीवा परं पञ्जोसवणाओ अहिगरणं वयइ, सेणं 'अकप्पेणं अहिगम-पुं०(अधिगम) विशिष्टपरिज्ञाने, प्रव० 146 द्वार / अवबोधे, अज्जो वयसि'त्ति वत्तट्वे सिया,जे णं निग्गंथाण वा निग्गंथीण स्था० 7 ठा०। ''णांणं ति वा संवेदणं ति वा अहिगमो त्ति वा वेयणि वा परं पजोसवणाओ अहिगरणं वयइ, से णं निहियव्वे त्ति" / आ० चू० 1 अ०॥ सिया || * अभिगम-पुं० उपचारे, "अभिगमेणं अभिगच्छंति" / औ०। (वासावासं पञ्जोसवियाणमित्यादि) चतुर्मासकं स्थितानां नो कल्पते ('अभिगम' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 712 पृष्ठेऽस्य भेदा उक्ताः) साधूनां साध्वीनां च पर्युषणातः परम्, अधिकरणं, रादिः, तत्कर अहिगमण-न०(अधिगमन) परिच्छेदने, विशे०। वचनमपि अधिकरणं, तत् वक्तुं न कल्पते / अथ यः अहिगमरुइ-पुं०(अधिगमरुचि) स्त्री०। सम्यक्त्वभेदे, तद्वतिचा प्रव० कोऽपि साधुर्वा साध्वी वा परं पर्युषणातः अधिकरणं क्लेशकारि वचनं 145 द्वार। (568 पृष्ठे तथा 712 पृष्ठे चाऽस्मिन्नेव भागे अधि० अभि० वदति, स एवं वक्तव्यः स्यात्-यत् हे आर्य ! त्वमकल्पेन अनाचारेण प्रकरणे द्रष्टव्यम्) वदसि, यतः पर्युषणादिनतोऽर्वाक् तद्दिने एव वा यदधिकरणमुत्पन्न Page #1068 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिगरण 884- अभिधानराजेन्द्रः - विभाग 1 अहिगरणि तत्पर्युषणायां क्षामितं, यच त्वं पर्युषणातः परमपि अधिकरणं वदसि, श्रमणं साधुमभिभवन् गृहस्थो यदि, वा (से) तस्य गृहस्थस्य, परिग्रहः सोऽयमकल्प इति भावः / यश्चैवं निवारितोऽपि साधुर्वा साध्वी वा परिजनः वारितः सन कलहं कुर्यात्, ततः स कलह उपशमयितव्यः। पर्युषणातः परम्, अधिकरणं, वदति, स नि!हितव्यः / एतत्प्रदर्शनाऽर्थमधिकृतसूत्राऽऽरम्भः / अस्य व्याख्या प्राग्वत् / अथ ताम्बूलिकपत्रदृष्टान्तेन सङ्घा बहिः कर्त्तव्यः। यथा- ताम्बूलिकेन विनष्टं सोऽनुपशान्तःसन कुर्याद् विभेदं द्विप्रकारं संयमभेदंजीवितभेदं चेत्यर्थः / पत्रमन्यपत्रविनाशनभयाद् बहिः क्रियते, तद्वदय मप्यनन्ताऽनुबन्धि- तत आहक्रोधाऽऽविष्टो विनष्ट एवेत्यतो बहिः कर्तव्य इति भावः / तथाऽन्योऽपि संजमजीवियभेदे, संरक्खण साहुणो य कायव्वं / द्विजदृष्टान्तः। यथा- खेटवास्तव्यो रुद्रनामा द्विजो वर्षाकाले केदारान् पडिवक्खनिराकरणं, तस्स ससत्तीए कायव्वं / / क्रष्टुं हलं लात्या क्षेत्रं गतः। हलं वाहयतस्तस्य गली बलीवर्द उपविष्टः। संयमभेदे जीवितभेदे वा तेन क्रियमाणे संरक्षणं साधोः कर्तव्यम्। तथातोत्रेण ताङ्यमानोऽपि यावन्नोत्तिष्ठति, तदा क्रुद्धेन तेन तस्य साधोर्यः प्रतिपक्षः, तस्य निराकरणं स्वशक्त्या कर्तव्यम् / कथं केदारत्रयमृत्खण्डरेवाहन्यमानो मृत्खण्डस्थगितमुखःश्वासरोधात् मृतः। कर्तव्यमित्यत आह - पश्चात् स पश्चात्तापं विदधानोमहास्थाने गत्वा स्ववृत्तान्तं कथयन्नुपशान्तो अणुसासणभेसणया, जालद्धी जस्सतं न हावेजा। नवेति तैः पृष्टो, नाऽद्यापि ममोपशान्तिरिति वदन् द्विजैरपाङ्क्तेयश्चक्रे। किं वा सति सत्तीए, होइ सपक्खे उवेक्खाए ? / / एवमनुपशान्तकोपतया वार्षिकपर्वणि अकृतक्षामणः साध्वादिरपि उपशान्तोपस्थितस्यैव मूलं दातव्यम्॥५८ तस्य प्रथमतः कोमलवचनैरनुशासनं कर्तव्यम् / तत्राऽप्यतिष्ठति भीषणमुत्पादनीयम् / तथाऽप्यतिष्ठति, यस्य या लब्धिः, स तां न वासावासं पञ्जोसवियाणं० इह खलु निग्गंथाण वा निग्गयीण हापयेत्, प्रयुञ्जीतेत्यर्थः / एतदेव विपक्षे फलाऽभावोपदर्शने द्रढयति - वा अज्जेव कक्खडे कडुए विग्गहे समु-पज्जित्था। सेहे राइणियं किं वा सत्यां शक्तौ भवति स्वपक्षे स्वपक्षस्य उपेक्षा?, नैव किञ्चिदिति खामिजा, राइणिए वि सेहं खामिजा, खमियव्वं, खमावियव्वं भावः। केवलं स्वशक्तिवैफल्यमुपेक्षानिमित्तं, प्रायश्चित्ताऽऽपत्तिश्च भवति। उवसमियव्वं, उवसामियव्वं सुमइसंपुच्छणाबहुलेणं होयव्वं,। तस्मादवश्यं स्वशक्तिः परिस्फोरणीयेति। व्य०२ उ० स्था०। अधिकरणे जो उवसमइ, तस्स अत्थि आराहणा,। जो न उवसमइ, तस्स प्रायः किलिकिंचं कलह झंझं डमरं वा करेजा गच्छबज्झो / महा०७ नत्थि आराहणा। तम्हा अप्पणा चेव उवसमियव्वं / से किमाह अ०। अहिकरणं पवट्टइ, ताहेन करेइ। आव०६अ। आश्रये, षो०३ भंते!, उवसमसारं खु सामन्नं / / 5 / / विव० सन्निधाने आधारे, स च देशकालादिः / यथा चक्रमस्तकादौ चतुर्मासकं स्थितानामिह खलु निश्चयेन साधुसाध्वीनां च (अजेवत्ति) स्वप्रस्तावे च निष्पद्यते घट इति, एवं पटादावपि भाव्यम्। आ० चू०१ अद्यैव पर्युषणादिन एव च 'कक्खडं' उचैःशब्दरूपः कटुको अ० आ० म०। स चतुर्भेदः / तद्यथा-व्यापक औपश्लेषिकः, जकारमकारादिरूपो विग्रहः कलहः समुत्पद्यते, तदा (सेहे त्ति) शैक्षो सामीप्यको, वैषयिकश्च / तत्र व्यापको, यथा- तिलेषु तैलम् / लघुः रात्निकं ज्येष्ठं क्षामयति / यद्यपि ज्येष्ठः सापराधस्तथापिलधुना औपश्लेषिको, यथा-कटे आस्ते। सामीप्यको, यथा- गङ्गायां घोषः। ज्येष्ठः क्षामणीयः, व्यवहारात् / अथा-ऽपरिणतधर्मत्वाल्लघुयेष्ठ न वैषयिको, यथा- रूपेचक्षुः। आ०म० द्वि०नि० चू०। विशे| स्वपरिणामे क्षमयति, तदा किं कर्तव्यमित्याह- (रायणिए वि सेहं खामिज त्ति) च सामायिकमव्यवच्छिन्नं धरतीत्यधिकरणम् / अधिकरणपरिणामाज्येष्ठोऽपि शैक्षं क्षमयति / ततः क्षन्तव्यं स्वयमेवं क्षमयितव्यः परः, ऽनन्ये सामायिककर्तरि साध्वादौ, विशे०। उपशमितव्यं स्वयमुप-शमयितव्यः परः / (सुमइ त्ति) शोभना मतिः / अहिगरणकर(ड)-त्रि०(अधिकरणकर)अधिकरणं कलहः, तत् सुमती रागद्वेषरहितता, तत्पूर्व या संपृच्छना सूत्रार्थविषया समाधिः प्रश्नो करोति, तच्छीलश्चेत्यधिकरणकरः / कलहकरे, अहिकरणकडस्स वा तद्बहुलेन भवितव्यं, येन सहाऽधि-करणमुत्पन्नमासीत् तेन सह भिक्खुणो। सूत्र० 1 श्रु०२ अ०२ उ०। आचा०। निर्मलमनसा आलापादि कार्यमिति भावः / अथ द्वयोर्मध्ये यद्येकः / अहिगरणज्झाण-न०(अधिकरणध्यान) अधिकरणं पापोत्पत्तिहेतुक्षमयति, नाऽपरस्तदा का गतिरि-त्याह - (जो उवसमइ इत्यादि) य स्थानं, तस्य ध्यानमधिकरणध्यानम्, वापीध्यानतत्परस्य नन्दिमणिउपशाम्यति, अस्ति तस्याऽऽराधना, यो नोपशाम्यति, नाऽस्ति कारस्येव / दुर्व्याने, आतु तस्याऽऽराधना / तस्मात् आत्मना उपशमितव्यम् / (से किमाहु त्ति) / अहिगरणसाल-न०(अधिकरणशाल)लोहपरिकर्मगृहे,भ०१६ श०१ तत्कुत इति प्रश्ने गुरुराह - (उवसमेत्यादि) उपशम-सारमुपशमप्रधानम्, उ०) खु निश्चये, श्रामण्यं श्रमणत्वम् / कल्प०६ क्ष०ा साऽधिकरणस्य अहिगरणसिद्धंत-पुं०(अधिकरणसिद्धान्त)यसिद्धावन्यस्याप्रतिक्रिया - ऽर्थस्याऽनुषङ्गेण सिद्धिः, तस्मिन् सिद्धान्तभेदे,सूत्र०१श्रु०१२अ०। स साहिगरणं भिक्खु गिलायमाणं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेयस्स चाऽसौ अहिगरणो, जहियं सिद्धे सेसं अणुत्तमवि सिज्झे, जह निचत्ते निहित्तए अगिलाए करणिचं वेयावडियं जाव रोगायंकातो सिद्धे अन्नत्तामुत्तत्तसंसिद्धी यस्मिन् सिद्धे शेषमनुक्तमपि सिध्यति, विप्पमुक्के, ततो पच्छा अहालहुस्सगे नाम ववहारे पट्टवियब्वे यथाऽऽत्मनो नित्यत्वे सिद्धे, शरीरादन्यत्वसंसिद्धिर-मूर्त्तत्वसंसिद्धिश्च / सिया इति। एषोऽधिकरणसिद्धान्तः। सूत्र। अथाऽस्य सूत्रस्य कः सम्बन्धः? इति संबन्धप्रति-पादनार्थमाह अहिगरणि-स्त्री०(अधिकरणि) अधिक्रियते कुट्टनार्थ लोहादि यस्यां अमिभयमाणो समणो, परिग्गहो वा से वारितो कलहो। साऽधिकरणिः / लोहकारसुवर्णकाराद्युपकरणे,भ०१६श० 1 उ०| उवसामेयव्वो उ ततो, अह कुज्जा दुविहभेयं तु // स्थान Page #1069 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिगरणिखोडि 885 - अभिधानराजेन्द्रः - विभाग 1 अहिट्ठिय अहिगरणिखोडि-स्त्री०(अधिकरणखोटि) अधिकरणनिवेशन-काष्ठे, मुत्तिसहिआ सिद्धबुद्धकलिआ अंबलुंबिहत्था सिंहवाहणा अंबा देवी यत्र काष्ठेऽधिकरणी निवेश्यते। ब०१६ श०१ उ०। चिट्ठइ। ससिकरनिम्मल-सलिलपडिपुण्णा उत्तराभिहाणा वावी। तत्थ अहिगरणिया-स्त्री०(अधिकरणिकी) अधिकरणविषये व्यापारे, प्रव०। मजणे कए तवट्टे मट्टि आलेवे अ कुट्ठीणं कुट्ठरोगोवसमो हवइ / सा च द्विविधा- निवर्त्तनाऽधिकरणक्रिया, संयोजना-ऽधिकरणक्रिया धनंतरिकूवस्स य पिंजरवण्णाए मट्टिआए गुरूवएसा कंचणं उप्पज्जइ। च। तत्राऽऽद्या खङ्मादीनां तन्मुष्ट्यादीनां निवर्तनलक्षणा। द्वितीया तु - बंभ-कुमतमयरूढाए मंडुक्कबंभीएदलचुण्णेण एगचुल्लगेण खीरेण सम्म तेषामेव सिद्धानां संयोजनलक्षणेति / दुर्गतौ यकाभिरधिक्रियते प्राणी पीएण पन्नामहासंपन्नो निरोगो किंनरस्सरो अ होई। तत्थ य पाएण तासु। प्रश्न०२आश्रद्वार। प्रतिका आव०। अहिगरणियाणं भंते ! किरिया उववणेसु सव्वमहीरुहाणं वंदया उवलभंति, ताणि ताणि अ कज्जाणि कतिविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता / तं जहा- साहति / तहा जयंती नागदमणी-सहदेवी-अपराजिआ-लक्खणासंयोजयणाहिगरणिया य, णिव्वत्तणाहिगरणिया य / प्रज्ञा० 22 पद। तिवण्णी-नउली-सउली-सपक्खी-सुवण्णसिला-मोहली-सोमलीअहिगा(या)र-पुं०(अधिकार) प्रगोजने, प्रस्तावेच। विशे० आ०म०। रविभत्ता-निव्विसी-मोरसिहा-सल्ला-विसल्लापभिइओ महोसहीओ दश०। नि० चूला व्यापारे / आचा०१ श्रु०२अ०१ उ०) संघा० एत्थ वटुंति / लोइआणि अ अणेगाणि हरिहरहिरण्णगब्भचंडिआभअधिक्रियन्ते समाश्रियन्ते इत्यधिकाराः / प्रस्तावविशेषेषु / प्रव० 1 वणबभकुंडाईणि तित्थाणि / तहा एसा नयरी महातवसिस्स सुगिहीयनामधेयस्स कण्हरिसिणो जम्मभूमि त्ति, तप्पय पंकय द्वार। परागकणनिकएण पवित्तीकयाए य वच्छवस्स पाससामिस्स संभरणेण अहिगारि(ण)-त्रि०(अधिकारिन्) तद्योग्ये, प्रय०२ द्वार / आहिवा-हिसप्पविसहरिकारेण चोरजलजलणरायदुट्ठगहमारिभूअपेअआलम्बनाऽपरपर्याये योग्ये, संघाला पञ्चा०ा दर्श०। साइणीपमुहखुद्दोवद्दया न हवंति भविआणं ति। अहिच्छत्ता-स्त्री०(अहिच्छत्रा) जङ्गलदेशप्रतिबद्धेपुरीभेदे, "अहिच्छत्ता "इअ एस अहिच्छत्ता-कप्पो उववण्णिओ समासेणं। जंगलो चेव" अहिच्छत्रानगरी, जङ्गलो देशः, आर्यक्षेत्राणि। प्रय० 148 सिरिजिणपहसूरीहिं, पउमावईधरणकमठपिओ" ||1|| द्वार। सूत्र०। "चंपाए नयरीए उत्तर-पुरिच्छमे दिसि भाए अहिच्छत्ता इति अहिच्छत्राकल्पः समाप्तः। ती०७ कल्प० आचा० नामं नयरी होत्था। ज्ञा० 16 अ०॥ तत्कल्पच, यथाविविधतीर्थकल्पग्रंथे अहिजाय-त्रि०(अभिजात) कुलीने, “अहिजायं महक्खम" अभिजातं तिहुअणभाणुं तिजए, पयर्ड नमिऊण पासजिणचंदं। कुलीनं महती क्षमा यत्र तथा पूज्यं क्षमं समर्म्यत्वं यत् तत् तथा। ततः अहिछत्ताए कप्पं, जहासुहं किंपि जंपेमि / / 1 / / कर्मधारयः / अथ वा- अभिजातानां मध्ये महत् पूज्यं क्षमं समर्थं च यत्तत्तथा। भ०६ श०३३ उ०। इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे मज्झमखंडे कुरुजंगलजणवए संखावई नाम नयरी रिद्धिसमिद्धा हुत्था। तत्थ भयवं पाससामी छउमत्थविहारेणं अहिज्जग-त्रि०(अधीयान) प्रकृति-प्रत्यय-लोपाऽऽगमवर्णविकारविहरतो काउसग्गे ठिओ पुव्वनिबद्धवरेण कमठासुरेण अविच्छिन्नधाराए काल-कारकादिवेदिनि, दश०५ अ०) वाएहि वरिसंतो अंबुहरो विउ-विओ। तेण सयले महीमंडले एगन्नवीभूए अहिज्जमाण-त्रि०(अधीयमान)पठति, व्य०४ उ०। सूत्र०) आकंठमग भगवंतं ओहिणा आभोएऊण पंचगिसाहणजुयं कमठमुणिं अहिजिउं-अव्य०(अध्येतुम्) पठितुमित्यर्थे, दश०४ अ०॥ आणाविअ कड्डावियइ अंतरमजंतसप्पभवउवयारं सुमरेण धरणिंदेण अहिन्जित्ता-अव्य०(अधीत्य)अध्ययनं कृत्वेत्यर्थे / उत्त० 1 अ०॥ नागराएण अग्गमहिसीहिं सह आगंतूण मणिरयणविरइअं सहस्स- पठित्वेत्यर्थे, उत्त०१०) संखफणामंडलछत्तं सामिणो उवरिं करेऊण हिटे कुंडली कयलोयणं अहिज्झियता-स्त्री०(अभिध्यितता) भिध्या लोभः,सा संजाता यत्र स संगिण्हअसो उवसग्गो निवारिओ। तओ परंतीसेनयरीए अहिच्छत्त ति भिध्यितः। न भिध्यितोऽभिध्यितः / तद्भावस्तत्ता। अलोभे, भ०६ नामं संजायं। श०३ उ०। तत्थ पायारएहिं जहाजहा पुरओ ठिओ उरगरूवीधरणिंदो कुडिलगईए अहिट्ठाण-न०(अधिष्ठान) सन्निषद्याऽऽवेष्टिते एवोपवेशने, नि० चू०५ सप्पइ, तहा तहा इट्टनिवेसो कओ। अज्ज वि तहेव पायारे रयणा दीसइ। उ०। भावे ल्युट् / आश्रयणे / सूत्र० 1 श्रु०२ अ०३ उ०। 'अहिट्ठाणं सिरिपाससामिणो चेइयं संघेण कारियं, चेइआओ पुष्वदिसि काऊण ठितो आ०म०वि०ापतित्वे, स्वामित्वेच। आचा०२ श्रु०७ अइमहुरपसन्नोदगाणि कमठजलहरोज्झियजलपुण्णाणि सत्त कुंडाणि अ०१ उ०। चिट्ठति। तज्जले सुविहि-अण्हाणाओ निंदिआ थिरवत्थाओ हवंति। तेसिं अहिद्विजमाण-त्रि०(अधिष्ठीयमान) समाक्रम्यमाणे, स्था०४ ठा०१ कुंडाणं मट्टियाए धाउवाइआ धाउसिद्धिं भणिति, पाहाणलट्ठिमुट्ठिअ महासिद्धरसकूविआ य इत्थं दीसइ / तत्थ निच्छरायणस्स अणेगे अग्गिदाणाइउग्घाडिणोवक्कमा निष्फलीहूआ।तीसे पुरीए अंतो बहिं पत्तेयं अहिट्टित्तए-अव्य०(अधिष्ठातुम्)निषदवादिना परिभोक्तुमित्यर्थे, बृ०३ कूवाणं वीहियाणं च सवायं लक्खं अत्थइ महुरोदगाणं / जत्तागयजणाणं उ०। पाससामिचेइए ण्हवणं कुणंताणं अज्जवि कमठो खरपवरदुद्दिणवुट्टि- अहिट्ठिय-त्रि०(अधिष्ठित) अध्यासिते, ज्ञा० 14 अ०) "संबो गजिअविजुमाइ दरिसेइ / मूलदेवइआओ नाइदूरे सिद्धखित्तंम्मि जुद्धमहिद्वितो" आ०म०प्र०ा आविष्ट, स्था०५ ठा०२ उ०।वश्यतां पाससामिणोधरणिंदपउमावईसेविअस्स चेइअपायारसमीये सिरिनेमि- | गते, "राजाहिट्ठिया" राजाधिष्ठताः राजाधीनाः। ज्ञा०१४ अ०। उ० Page #1070 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिणउलमयमयाहिवयसुह ८८६-अभिवानराजेन्द्रः-विभाग१ अहिपच्चुअ अहिणउलमयमयाहिवयमुह-त्रि०(अहिनकुलमृगमृगाऽधिप-प्रमुख) | पूरणीयाः, तत इदमखण्डतामेष्यतीति प्रबुद्धेन प्रातर्जातप्रमोदेन तथैव भुजगबभुहरिणसिंहप्रभृतिके, प्रमुखग्रहणादश्वमहिष्यादि-परिग्रहः / चक्रे। समपादि भगवानखण्ड-वपुः, सन्धयश्च मिलिताश्चन्दनलेपमात्रेण पञ्चा०२ विव०। क्षणमात्रेण। भगवन्तं विशुद्धश्रद्धया संपूज्य भुक्तवान्। पण्याजीवः पीवरां अहिणंदण-पुं०(अभिनन्दन)अस्यामवसर्पिण्यांजाते भरतक्षेत्रीये चतुर्थे मुदमुद्दहन्ददौ च गुडादि मेदेभ्यः। तदनन्तरं तेन वणिजा मणिजातमिव तीर्थकरे, ध०२अधिo यथा च विविधतीर्थकल्पे - प्राप्य प्रहृष्टन शून्यखेटके पिप्पलतरोस्तले वेदिकाबन्धं विधायसा प्रतिमा "अवन्तिषु प्रसिद्धस्य, सिद्धस्येद्धतरायते। मण्डिता। ततः प्रभृति श्रावकसंघाश्चातुर्वर्ण्यलोकाश्चतुर्दिगन्ता-दागत्य अभिनन्दनदेवस्य, कल्पं जल्पामिलेशतः" // 1 // यात्रोत्सवं सूत्रयितुं प्रवृत्ताः / तत्र अभयकीर्तिभानुकीर्तिअम्बाराजइह कुले इक्ष्वाकुवंशमुक्तामणेः श्रीसंवरराजसूनोः सिद्धार्था कुलास्तत्र मठपत्याचार्याश्चैत्यचिन्तांकुर्वते स्म। अथ प्राग्वाटवंशावतंसेन कुक्षिसरसीराजसूनोः सिद्धार्थाकुक्षिसरसीराजहंसस्य कपि-लांछनस्य थाहडात्मजेन साधुहालाकेन निरपत्येन पुत्रार्थना विरचितमुपयाचामीकररुचेः स्वजन्मपवित्रितश्रीकोशलापुरस्य सार्द्धधनुःशतत्रितयो- चितकम् - यदि मम तनुजो जनिता, तदाऽत्र चैत्यं कारयिष्यामीति / च्छ्रायकायस्य चतुर्थतीर्थेश्वरस्य श्रीमदभि-नन्दनदेवस्य चैत्यं क्रमेणाधिष्ठायकत्रिदशसान्निध्यतः पुत्रस्तस्योदपद्यत कामदेवाख्यः / मालवदेशान्तर्वर्तिमङ्गलपुरप्रत्यासन्नायां महाटवीगतायां मेदपल्ल्या- ततश्चैत्यमुचैस्तरशिखर-मचीकरत्साधुहालाकः। क्रमात्साधुभावडम्य मासीत् / तस्यां त्रिविधचित्रपाप-कर्मवतायामजातनिर्वेदा मेदाः दुहितरं परिणायितः कामदेवः। पित्राऽपि माहाग्रामादाहूय मलयसिंहादयो प्रतिवसन्ति स्म / अन्यदा तुच्छ-म्लेच्छ सैन्येन तत्रोपेत्य भग्नं देवार्चकाः स्थापिताः। महणियाभिख्यो मेदः स्वाङ्गुली भगवदुद्देशेन तजिनायतनम्, नवखण्डीकृतं च / प्रमदोद्धरतया दुरधिष्ठायका- कृत्तवान् किलाहमस्य भगवतोऽङ्गुलीवर्द्धितः सेवक इति / नीकालिकालदुर्ललितानामकल-नीयतया प्रतिहतप्रणतजनबिम्बमपि भगवद्विलेपनचन्दनगलनाच तस्याऽङ्गुलिः पुनर्नवीबभूव। तमतिशयतचैत्यालङ्कारभूतं भगवतो-ऽभिनन्दनदेवस्य बिम्ब केचित्सप्तखण्डा- मतिशायिनं निशम्य श्रीजयसिंहदेवो मालवेश्वरः स्फुरद्भक्तिप्राग्भारनीत्याहुः। तानिच शकलानि संजातमनःखेदैर्मेदैः संमील्य एकत्र प्रदेशे भास्वराऽन्तःकरणः स्वामिनं स्वयमपूजयत् / देवपूजार्थं चतुर्विशतिधारितानि / एवं बंहीयसि गतवत्यनेहसि हरहसितगुणग्रामाऽभिरामाद् हलकृष्यां भूमिमदत्त मठपतिभ्यः। द्वादशहलवाह्यांचाऽवनी देवार्चकेभ्यः धारादुपेत्य नित्यं वणिगेकः स्वकलाच्छेको वइजाभिख्यस्तत्र प्रददाववनिपतिः। अद्याऽपि दिग्मण्डलव्यापिप्रभाववैभवो भगवानभिक्रयाक्रयिकरूपं वाणिज्यमकार्षीत् / स च परमार्हतः / ततः प्रत्यहं नन्दनदेवः तत्र तथैव पूज्यमानोऽस्ति। गृहमागत्य देवमपूपुजत्। सत्यकृतायां देवपूजायां न जातु बुभुजे। ततः "अभिनन्दनदेवस्य, कल्प एष यथाश्रुतम्। पल्लीपल्लीमुपेयिवानेकदाऽनेकदारुणकर्मभिः तैरभिदधे स अल्पीयान् रचयांचक्रे श्रीजिनप्रभसूरिभिः" ||1|| श्राद्धः / किमर्थं त्वमेहिरेयाहिरां कुरुषे अस्यामेव पल्ल्याम् ?, वणिगुचितभोज्यपूरणकल्पवल्यां वल्भ्यां किं न भुड्क्षे ? ततश्च भणितं इति सकलभूवलयनिवासिलोकाऽभिनन्दनस्य श्री अभिनन्दन-देवस्य वणिजा भो राजन्याः ! यावदहमहन्तं देवाधिदेवं त्रिभुवनकृतसेवनं न कल्पः। ती०३२ कल्प। पश्यामि, न पूजयामि चेत्, तावत् न वल्भ्यां प्रगल्भे / किरातैर्जगदे- | अहिणव-त्रि०(अभिनव) नूनविशिष्टवर्णादिगुणोपेते, रा०ा यद्येवं देवं प्रति तव निश्चयस्तदा तुभ्यं दर्शयामस्त्वदभिमतं दैवतम्। अहिणवसड्ड-पुं०(अभिनवश्राद्ध)व्युत्पन्नश्रावके, पिं०] विणिजा प्रोचे-तथाऽस्तु।ततस्तैस्तानिनवापि वा सप्तापि वा खण्डानि अहिणिवोह-पुं०(आभिनिबोध) अर्थाऽभिमुखो नियतः प्रतिस्व-रूपको यथा-ऽवयवन्यासं संयोज्य दर्शितं भगवतोऽभिनन्दनस्य बिम्बं, तद्वसु बोधविशेषोऽमिनिबोधः / मतिज्ञाने, अभिनिबुध्यते-ऽस्मादस्मिन् वेति सूचितरम्यमाणपाषाणघटितं विलोक्य प्रमुदितमुदितवासना-ऽतिशयेन अभिनिबोधः / मत्यावरणक्षयोपशमे। प्रज्ञा० 26 पद। तेन वणिग्वरेण ऋजुमनसा नमस्कृतस्तिरस्कृतदुरन्त-दुरितो भगवान्, पूजितश्च पुष्पादिभिश्चैत्यवन्दना च विरचिता / ततः स तत्रैव अहिण्णु-त्रि०(अभिज्ञ) संयोगादेर्जस्य लुक् ञस्य णत्वद्वित्थे, "ज्ञो भोजनमकरोत् / गुरुतराऽभिग्रह इत्थंकारं प्रतिदिनं जिनपूजानिष्ठा णत्वेऽमिज्ञादौ" / 8 / 1 / 16 1 इति णकारादुत्तरस्यात उः / मनुतिष्ठति सति तस्मिन् वणिजि अपरेधुरुधदविवेकाऽतिरेक- अहिण्णु / प्रा० 1 पाद। ज्ञो ञः"||२१३ / इति ञस्य लुक. बहुलै हलैस्तस्मात् किमपि द्रव्यं धनायद्भिः तबिम्बशकलानि अहिजो। प्रा०२ पाद। प्राज्ञे, वाचा . युतकीकृत्य क्वचिदपि संगोपितानि, वृत्ते यावत्पूजावसरे तां अहितत्त-त्रि०(अभितप्त) अत्यन्तपीडिते, उत्त०२ अ०॥ प्रतिमामनालोक्य नाऽसौ बुभुजे, ततस्तेन विषण्णमनसा विहितं अहित्ता-अव्य०(अधीत्य) पठित्वेत्यर्थे,"अट्टामेयं बहवे अहित्ता, लोगसि भयानकमुपवासत्रयम्।अथस मेदैः अपृच्छि- किमर्थं नाऽश्वासि ? स जाणंति अणागताई"। सूत्र०१ श्रु०१२ अ० यथातथ्यमेवाऽकथयत् / इतः किरातव्रातैरवादि- यदि अस्मभ्यं गुडं ददासि तदा तुभ्यं दर्शयामः, तं देवम् / वणिजा बभाणेवितरिष्याम्य- अहिदट्ठ-न०(अहिदष्ट) सर्पदशने, पञ्चा०१८ विव० वश्यमिति। तत स्तैः तत्सकलमपि शकलानां नवकं सप्तकं वा प्राग्वत् अहिदट्ठाइ-त्रि०(अहिदष्टादि) सर्पदशनप्रभृतौ, "अहिदट्ठाइसु-छयाइ संयोज्य प्रकटीकृतम्। दृष्टं च तेन संयोज्यमानं तद् बिम्बं सुतरां निषाद वजयंतीह तह सेसं"। पञ्चा०१८ विवा संस्पर्शविषादकलुषितहृदयः समजनि / स श्राद्धधुरीणस्तदनु अहिधारणा-स्त्री०(अभिधारणा) प्रस्विन्नो यद्बहिरवतिष्ठते सात्विकतयाऽभिग्रहमग्रहीत् - यावदिदं बिम्बमखण्डं न विलोकये, न तावदोदनमश्वामि / तस्येत्थमनुदिवसमुपवसतः तबिम्बाऽधिष्ठायकैः वातागमनमार्ग तस्मिन्, आचा०१ श्रु०१ अ०७ उ०। स्वप्ने निजगदे- यदस्य बिम्बस्य नव-खण्डसन्धयश्चन्दनलेपेन | अहिपचुअ-धा०(ग्रह)"ग्रहो वल-गेण्ह-हर-पङ्ग-निरुवारा Page #1071 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिपच्चुअ 887 - अभिधानराजेन्द्रः - विभाग 1 अहिराय ऽहिपचुआः" |4206 / इति ग्रहेरहिपचुअ आदेशः / अहिपचुअइ सांप्रतमहितहितस्वरूपमाहगृह्णाति / प्रा०४ पाद। दहितेल्ल समाजोगा, अहिओ खीरदहिकंजियाणं च / अहिम -पुं०(अभिमन्यु) न्यण्यज्ञजां नः |8|4 / 263 / इति पत्थं पुण रोगहरं, न य हेऊ होइ रोगस्स / / 610 / / द्विरुक्तो ञः / प्रा०४ पाद / अभिमन्यौ ज-जौ वा / 8 / 2 / 25/ दधितैलयोः, तथा-क्षीरदधिकाञ्जिकानां च यः समायोगः सोऽहितो, इतिज्ञभागस्य जो जश्च / पक्षे- 'अहिमन्नू / प्रा०२ पाद। विरुद्ध इत्यर्थः। तथा चोक्तम्-"शाकमूलफल- पिण्याककपित्थलवलैः अहिमड-पुं०(अहिमृत) मृताऽहिदेहे, जी०३ प्रति०। सर्पकलेवरे, सह / करीरदधिमत्स्यैश्च, प्रायः क्षीरं विरुध्यते" ||1|| इत्यादि / विपा०१ श्रु०१ अ०॥ अविरुद्धद्रव्यमेलनं पुनः पथ्यं, तच्च रोगहरं प्रादुर्भूतरोगविनाशकरम्।न अहिमर-पुं०(अभिमर) अभिमुखाः परं मारयन्ति ये तेऽभिमराः / च भावितो रोगस्य हेतुः करणम् / उक्तश्च- "अहिताऽशनसंपर्कात् प्रश्न०३ संव० द्वार। दर्दरचौरेषु अश्वहरेषु, नि०चू०१ उ०। सर्वरोगोद्भवो यतः / तस्मात् तदहितं त्याज्यं, न्याय्यं अहिमाझ्य-पुं०(अह्यादि) उरःपरिसादौ, उत्त०३६ अ० पथ्यनिवेषणम्" ||1|| पिंग अहिमास-पुं०(अधिमास) अभिवर्द्धितमासे, आव०१ अ०। अहियास-पुं०(अध्यास) परीषहादीनां सम्यतितिक्षायाम्, आचा०१ अहिय-त्रि०(अधिक) आधिक्यविशिष्टे, आरूढो सोहइ अहियं सिरे श्रु०६ अ०६ उ०। सूत्र०। वर्तने पालने, सूत्र०१ श्रु०७ अ०) चूडामणि जहा / उत्त०२२अ०। जं01 औ०। अक्षरपदादिभि क्षान्तं न क्षमया गृहोचितसुखं त्यक्तं न सन्तोषतः, रतिमात्रमधिके, अनु० हेतोदृष्टान्तस्य चाधिक्ये सति, अधिकं यथा सोढा दुःसहतापशीतपवनाः क्लेशान्न तप्तं तपः। अनित्यः शब्दः, कृतकत्वप्रयत्नाऽनन्तरीयकत्वाभ्याम्, घटपटव ध्यातं वित्तमहर्निशं नियमितं द्वन्द्वैर्न तत्त्वं परं, दित्यादि। एकस्मिन् साध्ये एक एव हेतुर्दृष्टान्तश्च वक्तव्यः। अत्र च प्रत्येक यद्यत्कर्म कृतं सुखार्थिभिरहो! तैस्तैः फलैर्वञ्चितः॥१॥ द्वयाऽभिधानाऽधिक्यमिति भावः / अनु०। विशे०। बृक्षा अधिक सूत्र० १श्रु०२ अ०१ उ०। आचाग उत्त० स्था०ा अविचलकाय-तया यत्पञ्चानामवयवानामन्तरेण समधिकम् / बृ०१ उ०। आ०म०द्वि०। (ज्ञा०१ अ०) सौष्ठवाऽतिरेकेण सहने, स्था०४ ठा०३ उ०। 'अहियसस्सिरीयं" अधिकरूपेण सश्रीकः शोभनो यः स तथा तम्। अहियासणया- स्त्री०(अहिताऽऽसनता)अहितमननु कू लं कल्प०३ क्ष०ा अधिकमपि द्विधा- द्रव्ये भावे च। तत्र द्रव्याधिके तथैव टोलपाषाणाद्यासनं यस्य स तथा तद्भावः, तत्ता 1 अननुकूलाऽऽसने, द्वेऽविरतिके दृष्टान्त औषधैः पीहकेन च (एवं तावदक्षरपदादिभिरधिके स्था०६ ठा। सूत्रे दोषा मासलघुप्रायश्चित्तादयः, हीणक्खर-शब्दे वक्ष्यन्ते) सम्प्रति * अध्यशनता-स्त्री०।अध्यशनमेवाऽध्यशनता। दीर्घत्वंतुप्राकृतत्वात्। भावाऽधिक एवोदाहरणमाह अजीर्णे भोजने, 'अजीर्णे भुज्यते यत्तु, तदध्यशनमुच्यते'' इतिवचपाडलऽसोग कुणाले, उज्जेणी लेहलिहण सयमेव। नात् / स्था०६ ठा० अहिय सवत्तीमत्ताऽहिएण सयमेव वायणया / / मुरियाण अप्पडिहया, आणा सयमंजणं निवे णाणं / अहियासित्तए-अव्य०(अध्यासयितुम्)अधिसोढुमित्यर्थे, आचा० गामग सुयस्स जम्म, गंधव्वाउट्टणा केइ।। 1 श्रु०८ अ०४ उ०। चंदगुत्तपपुत्तो य, बिदुसारस्स नत्तुओ। अहियासित्ता-अव्य०(अधिसह्य) सोवेत्यर्थे, सूत्र०१श्रु०३ अ०४०। असोगसिरिणो पुत्तो, अंधो जायइ कायणिं / / बृ०१ उ०। विशे०। / अहियासिय-त्रि०(अध्यासित)भावे क्तः / कृतेऽधिसहने, "दवियाण * अहित-त्रि०। अपथ्ये / भ०७ श०६ उ०। स्था०। अपाये, स्था०५ | पासअहियासियं।'' आचा० 1 श्रु०६ अ०३ उ०। ठा०१ उ० भावप्रधानोऽयं निर्देशः। परिणामासुन्दरत्वे, दशा०६ अ० अहियासेत्तु-अव्य०(अध्यासह्य)अधिकमासह्य अत्यर्थ सोवे-त्यर्थे, अहियदिण-न०(अधिकदिन) दिनवृद्धौ, स्था०६ ठा०। आचा०१ श्रु०६ अ०१उ०। अहियपोरिसीय-त्रि०(अधिकपौरुषीक) पुरुषप्रमाणाऽधिके, "कुंभी- | अहियासेमाण-त्रि०(अध्यासयत्) सम्यतितिक्षमाणे, आचा०१श्रु० महंताहियपोरिसीया, समूसिता लोहियपूयपुण्णा' / सूत्र० 1 श्रु०५ 6 अ०१ उ०। अ०१उ० अहिरण्णसोवण्णिय-पुं०(अहिरण्यसौवर्णिक) हिरण्यं रजतं, सुवर्ण अहियप्पण्णाण-त्रि०(अहितप्रज्ञान) अहितं प्रज्ञानं बोधो यस्य च हेम, ते विद्येते यस्य स हिरण्यसौवर्णिकः / तथा न। प्रश्न० 3 संव० सोऽहितप्रज्ञानः / अहितबोधे, सूत्र०१ श्रु०१अ०२ उ०) द्वार। हिरण्यं रजतं सौवर्णिकं सुवर्णमयं कनक-कलशादि, न विद्यते अहियरूवसस्सिरीय-त्रि०(अधिकरूपसश्रीक) अतिशोभिते, कल्प० हिरण्यसौवर्णिके यत्राऽसौ अहिरण्य-सौवर्णिकः / उपलक्षणत्वात् ३क्षण सर्वपरिग्रहरहिते, पा०) रजतसुवर्ण-मयकलशादिरहिते, ध० 3 अधि०। अहियहिय-त्रि०(अहितहित) अतिबहुकादिषु तथाविधे भोजने। पिं०। | अहिराय-पुं०(अधिराज) मौलपृथिवीपतौ, बृ० 3 उ०। Page #1072 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिरियया 888- अभिधानराजेन्द्रः - विभाग 1 अहुणोववण्णग अहिरियया-स्त्री०(अहीकता)निर्लज्जतायाम्,उत्त०३४अ० पिं० / अहीय-त्रि०(अधीत) आगमिते, "उवयारो त्ति वा अहीतं ति वा आगमियं अहिरीमण-त्रि०(अहीमनस्) लज्जाकारिणि शीतोष्णादौ परीषहे, | ति वा एगट्ठ'। नि०चू०१ उ०। स्था०। आचा०१ श्रु०६ अ०२ उ० अहीयसुत्त-त्रि०(अधीतसूत्र) गृहीतसूत्रे, "सम्म अहीयसुत्तो, ततो धा०(परि) परणे / "परेरग्घाडाऽग्यवोद्धमाऽगंमा- | विमलयरबोहजोगाओ'। पं०व०१ द्वार। ऽहिरेमाः" |८४११६६।अहिरेमइ पूरइ, पूरयते / प्रा०४ पाद। / अहीरग-न०(अहीरक) छिद्यमानस्यैव न विद्यते हीरिकाः तन्तुलक्षणा अहिलघं(ख)-धा०(काङक्ष) अभिलाषे, काहे राहाऽहिला- मध्ये यस्य तदहीरकम्। तन्तुहीने, प्रव०४ द्वार। ऽहिला-वच०। 84162 / इत्यादिसूत्रेण काङ्क्षतेरहिलंघा- | अहुणाधोय-त्रि०(अधुनाधौत) अचिरौते, अपरिणतेच। दश०५ अ० ऽहिलंखाऽऽदेशः / अहिलंखइ, अहिलंघइ / प्रा०४ पाद। अहुणुव्वासिय-त्रि०(अधुनोद्वासित)अचिरोद्वासिते, ओघा अहिलाण-न०(अहिलान) मुखबन्धनविशेषे, ज्ञा०१७ अ०। मुखसंयमने, साम्प्रतोद्वासिते, व्य०४ उ०। जं०३ वक्ष०ा औ०। कविके, ज्ञा०४ अ०। अहुणोवलित्त-त्रि०(अधुनोपलिप्त) साम्प्रतोपलिप्ते, दश० 5 अ०। अहिलावित्थी-स्त्री०(अभिलापस्त्री) अभिलप्यत इत्यभिलापः, स एव अहुणोववण्णग-त्रि०(अधुनोपपन्नक) अचिरोपपन्ने, स्था०। स्त्री। स्त्रीलिङ्गाभिधाने शब्दे, यथा- शालामालासिद्धि-रिति। सूत्र०१ अधुनोपपन्नो देवो देवलोकेश्रु०४ अ०१० उ० तिहिं ठाणेहिं अहुणोववन्ने देवे देवलोगेसुइच्छेज्जा माणुसं लोग अहिलोयण-न०(अभिलोकन) अभिलोक्यते अवलोक्यते यत्र | हव्वमागच्छित्तए, णो चेवणं संचाएइ हव्वमागच्छित्तए। तं जहातदभिलोकनम् / उन्नतस्थाने, प्रश्न०४ संव०द्वार। अहुणोव्वन्ने देवे देवलोगेसु दिव्वेसु कामभोगेसु मुच्छिए गिद्धे अहिवइ-पुं०(अधिपति) नायके, स्था०५ ठा०१ उ०। रक्षके, जं. गढिए अज्झोववन्ने / से णं माणुस्सए कामभोगे णो आढाइ, णो १वक्ष०ा नरेन्द्रे, प्रश्न०४ आश्रद्वार। परियाणाइ, णो अटुं बंधइ, णो णियाणं पगरेइ, णो ठिइप्पकप्पे अहिवइजंभग-पुं०(अधिपतिजृम्भक)राजादिनायकविषये जृम्भके, पकरेइ, अहुणोववन्ने देवे देवलोगेसु दिव्येसु कामभोगेसु भ०१४ उ०८ उ०। मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोववन्ने / तस्स णं माणुस्सए पेडे अहिवडत-त्रि०(अधिपतत्) आगच्छति, ओघ०) वोच्छिन्ने विच्छिन्ने दिव्वे संकंते भवइ भवित्ता अहुणोववन्ने देवे अहिवासण-न०(अधिवासन) शुद्धिविशेषाऽऽपादनेन बिम्ब प्रतिष्ठायोग्य देवलोएसु दिव्वेसु काम-भोगेसु मुच्छिए० जाव अज्झोववन्ने। ताकरणे, पञ्चा०८ विव० तस्स णमेवं भवइ इयहिं गच्छं, मुहुत्तं गच्छं० तेणं कालेणमप्पाउया माणुस्सा कालधम्मुणा संजुत्ता भवइ / इच्चेएहिं अहिसक्कण-न०(अभिष्वष्कण) विवक्षितकालस्य संवर्द्धने परतः करणे, तिर्हि ठाणेहिं अहुणोववन्ने देवे देवलोगेसु इच्छेज्जा माणुस्सं लोग बृ०१ उ०॥धा हव्वमागच्छित्तए, नो चेव णं संचाएइ हव्वमागच्छित्तए, अहिसरिय-त्रि०(अभिसृत) प्रविष्ट, आ०म०द्वि० अहुणोववन्ने देवे देवलोगेसु दिव्वेसु कामभोगेसु अमुच्छिए अहिसहण-न०(अधिसहन) तितिक्षणे, स्था०६ ठा०। अगिद्धे अगढिए अणज्झोववन्ने, तस्स णमेवं भवइ-अस्थि णं अहीकरण-न०(अधीकरण) अधीरबुद्धिमान् पुरुषः, स तं करोतीत्य- मम माणुस्सए भवे आयरिएइ वा उवज्झाएइ वा पवत्तेइ वा धीकरणम् / कलहे, नि०चू०१० उ०। थेरेइ वागणीइ वा गणहरेइ वा गणावच्छेएइ वा, जेसिं पभावेणं अहीण-त्रि०(अधीन) स्वायत्ते, प्रश्न०४ संव० द्वार। मए इमा एयारूवा दिव्वा देवड्डी, दिव्वा देवजुई, दिव्वे देवाणुभावे लद्धे पत्ते अमिसमण्णागए। तं गच्छामि णं तं * अहीन-त्रिका अन्यूने, ''अहीणपडिपुण्णपंचिंदियसरीरा'' अहीनान्य भगवंतं वंदामिणमंसामि सक्कारेमि सम्माणेमिकल्लाणं मंगलं न्यूनानि स्वरूपतः प्रतिपूर्णानि लक्षणतः पञ्चा-ऽपीन्द्रियाणि यस्मिन् देवयं चेइयं पज्जुवासेमि // 1 // अहुणोववन्ने देवे देवलोगेसु तत् तथाविधं शरीरं यस्याः सा तथा / औ०। ज्ञा०। विपा० भ० दिव्वेसु कामभोगेसु अमुच्छिए० जाव अणुज्झोववन्ने / तस्स अहीनमङ्गोपाङ्गप्रमाणतः परिपूर्णपञ्चेन्द्रिय, प्रतिपुण्यपञ्चेन्द्रियं वा शरीरं णं एवं भवइ- एस णं माणुस्सए भदे णाणीइ वा तवस्सीइ वा यस्य सोऽहीनपरिपूर्णपञ्चेन्द्रिय-शरीरोऽहीनप्रतिपुण्यपञ्चेन्द्रियशरीरो अइदुक्करदुक्करकारगे तं गच्छामिणं भगवंते वंदामि णमंसामि० वा / स्था०६ ठा० कल्पन जाव पज्जुवासामि / / 2 / / अहुणोववन्ने देवे देवलोगेसु० जाव अहीणक्खर-न०(अहीनाक्षर) एकेनाप्यक्षरेणाऽहीने, ग०२ अधिo अणज्झोववन्ने तस्स णमेवं भवइ- अस्थि णं मम माणुस्सए सूत्र०। गुणे, अनु०। गा विशे०। संघा०। ('हीणक्खर' शब्दे कथा वक्ष्यत) भवे मायाइ वा० जाव सुण्हाइवा, तं गच्छामि णं तेसिमंतियं अहीणदेह-त्रि०(अहीनदेह) परिपूर्णदेहाऽवयवे, व्य०३ उ० पाउडभवामि / पासंतु ता मे इमं एयारूवं दिव्वं देवड्डिं, दिव्वं Page #1073 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहुणोववन्नग 889 - अभिधानराजेन्द्रः-विभाग 1 अहुणोववन्नग देवजुइं, दिव्वं देवाणुभावं लद्धं पत्तं अभिसमण्णागयं / इच्चेएहिं तिहिं ठाणेहिं अहुणोववन्ने देवे देवलोगेसु इच्छेज्ज माणुसं लोगं हव्वमागच्छित्तए संचारित्तए हव्वमागच्छित्तए ||3|| अधुनोपपन्नो देवः क्व ? इत्याह-(देवलोगेसु त्ति) इह च बहुवचनमेकस्यैकदाऽनेकेषूत्पादासम्भवादेकार्थे दृश्यम्, वचन-व्यत्ययाद् देवलोकानेकत्वोपदर्शनार्थ वा, देवलोकेषु मध्ये क्वचिदेवलोक इति, इच्छेदभिलषेत् पूर्वसङ्गतिकदर्शनाद्यर्थ मानुषाणामयं मानुषस्तम्। (हव्वं ति) शीघ्रम् (संचाए ति) शक्नोति / दिवि देवलोके भवा दिव्यास्तेषु कामौ च शब्दरूपलक्षणौ भोगाश्च गन्धरसस्पर्शाः कामभोगाः, तेषु / अथवा- काम्यन्त इति कामा मनोज्ञाः,तेच इति भुज्यन्त इति भोगाः शब्दादयः, ते च कामभोगास्तेषु, मूञ्छित एव मूच्छितो मूढः, तत्स्वरूपस्याऽनित्यत्वादेर्विबोधाऽक्षमत्वात् गृद्धः,त-दाकाशावानतृप्त इत्यर्थः / ग्रथित इव ग्रथितस्तद्विषये स्नेहरज्जुभिः संदर्भित इत्यर्थः / अध्युपपन्न आधिक्येनासक्तोऽत्यन्ततन्मना इत्यर्थः / नो आद्रियते, न तेष्वादरवान् भवति, नो परिजानाति-एतेऽपि च वस्तुभूता इत्येवं न मन्यते। तथा तेष्विति गम्यते।नो अर्थ बध्नाति। एतैरिदं प्रयोजनमिति न निश्चयं करोति / तथा- तेषु नो निदानं प्रकरोति- एते मे भूयासुरित्येवमिति / तथा- तेष्वेव नो स्थितिप्रकल्पमवस्थाने विकल्पनम्- एतेष्वहं तिष्ठेयमिति, एते वा मम तिष्ठन्तु स्थिरीभवन्त्वित्येवरूप स्थित्या वा मर्यादया विशिष्टप्रकल्प आचार आसेवेत्यर्थः / तं प्रकरोति कर्तृमारभते, प्रशब्दस्यादिकार्थत्वादिति / एवं दिव्यविषयप्रशक्ति- रित्येकं कारणम् 1 / तथा यतोऽसावधुनोपपन्नो देवो दिव्येषु कामभोगेषु मूञ्छितादिविशेषणो भवति, अतस्यस्य मानुष्यकं मनुष्यविषयं, प्रेम स्नेहो, येन मनुष्यलोके आगम्यते तद्व्यवच्छिन्नम, दिवि भवं दिव्यं स्वर्गगतवस्तुविषय संक्रान्तं तत्र देवे प्रविष्टं भवतीति दिव्यप्रेमसंक्रान्तिरिति द्वितीयम् 2, तथाऽसौ देवो यतो दिव्यकामभोगेषु मूच्छितादिविशेषणो भवति, ततस्तत्-प्रतिबन्धात् (तस्स णं ति) तस्य देवस्य (एवं ति) एवंप्रकार चित्तं भवति, यथा(इयण्डिं ति) इदानीं गच्छामि (मुहत्तं ति) मुहूर्तेन गच्छामि, कृत्यसमाप्तावित्यर्थः / (तेणं कालेणं ति) येन तत्कृत्यं समाप्यते, स च कृतकृत्यत्वादागमनशक्तो भवति, तेन कालेन गतेनेति शेषः / तस्मिन् वा काले गते, 'ण' शब्दो वाक्याऽलङ्कारे। अल्पाऽऽयुषः स्वभावादेव मनुष्यमात्राऽऽदयो यदर्शनार्थमाजिगमिषति, तेन कालधर्मेण मरणेन संयुक्तो भवति / कस्याऽसौ दर्शनार्थमागच्छति ? असमाप्तकर्तव्यता नाम तृतीयमिति (इच्चेत्यादि) निगमनम् 3 / / देवः कामेषु कश्चिदमूञ्छितादिविशेषणो भवति / तस्य च मन इति | गम्यते / एवंभूतं भवति आचार्यप्रतिबोधकप्रव्राज-कादिरनुयोगाचार्यो वा / इति एवं प्रकारार्थो, वाशब्दो विकल्पार्थः / प्रयोगस्त्वेवम्- मनुष्यभवेऽयं ममाऽऽचार्योऽस्तीतिवा, उपाध्यायः सूत्रदाता, सोऽस्तीतिवा। एवं सर्वत्र, नवरं प्रवर्तयति साधूनाचार्योपदिष्टेषु वैयावृत्त्यादिष्विति प्रवर्ती / उक्तं च- "तवसंयमयोगेसुं, जो जोगो तत्थ तं पयट्टेइ / असुहं च नियत्तेइ, गणतत्तिल्लो पवत्तीओ" ||1|| प्रवर्तिव्यापारितान् साधून संयमयोगेषु सीदतः स्थिरीकरोतीति स्थविरः / उक्तञ्च-थिरकरणा पुण थेरो, पवत्ति वावारिएसु अत्थेसु। जो जत्थ सीयइ जइ, संतबलो तं थिरं कुणइ॥१॥ गणोऽस्याऽस्तीति गणी, गणाचार्यः,गणधरो जिनशिष्यविशेषः / आर्यिकाप्रतिजागरको वा साधुविशेषः / उक्तञ्च- पियधम्मे दढधम्मे, संविग्गो उज्जओ य तेयंसी / संगहुबग्गहकुसलो, सुत्तत्थविऊ गणाहिवई / / 1 / / गणस्याऽवच्छेदो विभागोंऽशो-ऽस्यास्तीति / यो हि गणान् संगृहीत्वा गच्छोपष्टम्भायैवोपधि-मार्गणादिनिमित्तं विहरति स गणावच्छेदिकः / आह च- ओहावणापहावण- खेत्तोवहिमग्गणासु अविसाई / सुत्तत्थत-दुभयविऊ, गणावच्छो एरिसो होइ / / 1 / / (इम त्ति) इयं प्रत्यक्षा-सन्ना, एतदेव रूपं यस्याः ,नकालाऽन्तरेरूपान्तरभाक्, सा एतद् रूपा, दिव्या स्वर्गसम्भवा प्रधाना वा देवानां सुराणामृद्धिः श्रीर्विमानरत्नादिसंपद्-देवर्धिः / एवं सर्वत्र, नवरं द्युतिर्दीप्तिः शरीराभरणादिसम्भवा, युतिर्वा युक्तिरिष्टपरिवारादिसंयोग-लक्षणाऽनुभावोऽचिन्त्या वैक्रियकरणादिका शक्तिलब्ध उपार्जितो जन्मान्तरे प्राप्त इदानीमुपनतः, अभिसमन्वागतो भोग्यतां गतः / तदिति तस्मात्तान् भगवतः पूज्यमानान् वन्दे स्तुतिभिर्नमस्यामि, प्रणामेन सत्करोमि अत्यादरकरणेन वस्त्रादिना वा संमानयाम्युचितप्रतिपत्त्या कल्याणं मङ्गलं दैवतं चैत्यमिति बुद्ध्या पर्युपासे, सेवे। इत्येकम् 1 / / (एस णं ति) एषोऽवध्यादिप्रत्यक्षीकृतः मानुष्यके भये,वर्तमान इतिशेषः / मनुष्य इत्यर्थः / ज्ञानीति वा कृत्वा तपस्वीति वा कृत्वा, किमिति दुष्कराणां सिंहाकायोत्सर्गकरणादीनां मध्ये दुष्करमनुरक्तपूर्वोपभुक्तप्रार्थनापरतरुणीमन्दिरवासाऽप्रकम्प-ब्रह्मचर्याऽनुपालनादिकं करोतीति अतिदुष्करकारकः, स्थूलभद्रवत्, तस्मात् / (गच्छामि त्ति) पूर्वमेकवचननिर्देशेऽपीह पूज्यविवक्षया बहुवचनमिति / तान् दुष्करदुष्करकारकान् भगवतो वन्दे इति द्वितीयम् / तथा- 'मायाइ वा पियाइ वा भजाइ वा भइणीइ वा पुत्ताइ वा धूयाइ वा" इति यावत्, शब्दाऽऽक्षेपः / स्नुषा पुत्रभार्या / तदिति तस्मात् तेषामन्तिके समीपे प्रादुर्भवामि प्रकटीभवामि / (ता मे त्ति) तावत् मे ममेति तृतीयम् 3 / स्था०३ ठा०३ उ० चउहिं ठाणेहिं अहुणोववण्णे णेरइए णिरयलोगंसि इच्छेञ्जा माणुसं लोगं हव्वमागच्छित्तए, णो चेव णं संचाएइ हव्वमागच्छित्तए // 1 // अहुणोववन्ने णेरइए णिरयलोगंति समुभूयं वेयणं वेयमाणे इच्छेजा माणुसं लोग हव्वमागच्छित्तए, णो चेवणं संचाएइ हव्व-मागच्छित्तए।।२।। अहुणोववन्ने णेरइए णिरयलोगंसि णिरयपालेहिं भुजो भुजो अहिट्ठिजमाणे इच्छेजा माणुसं लोगं हव्वमागच्छित्तए, नो चेव णं संचाइए हव्वमागच्छित्तए ||3|| अहुणोववन्ने णेरइए णिरयवेयणिज्जंसि कम्मंसि अक्खीणंसि अवेइयंसि अणिजिण्णंसि इच्छेञ्जा, नो चेव णं संचाएइ, एवं निरइया ओअंसि कम्मंसि अक्खीणंसि जाव णो चेवणं संचाएइ हव्वमागच्छित्तए|४|| इथेएहिं चउहिं ठाणेहिं अहुणोववन्ने णेरइए० जाव नो चेव णं संचाएइ हव्वमागच्छित्तए।।५।। अधुना जीवसाधयन्त्रिारकजीवानाश्रित्य तदाह- (चउही-त्यादि) सुगम, केवलं (ठाणेहिं ति) कारणैः / (अहुणोववन्ने त्ति) अधुनोपपन्नोऽचिरोपपन्नो निर्गतोऽयः शुभमस्मादिति निरयो नरकः, Page #1074 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहुणोववन्नग 890 - अभियानराजेन्द्रः - विभाग 1 अहुणोववन्नग तत्र भवो नैरयिकः / तस्य चाऽनन्योत्पत्तिस्थानतां दर्शयितुमाह- __ मूञ्छित एवमूछितो मूढः,तत्स्व-रूपस्याऽनित्यत्वादेविबोधाऽक्षमत्वात् निरयलोकेतस्मादिच्छेत् मानुषाणामयं मानुषः,तं लोकं क्षेत्रविशेष (हव्वं) गृद्धः, तदाकासावान अतृप्त इत्यर्थः। ग्रथित इव ग्रथितः, शीघ्रमागन्तुं (नो चेव त्ति) नैव, 'ण' वाक्याऽलङ्कारे। (संचाएइ) सम्यक तद्विषयस्नेहरजुभिः संदर्भित इत्यर्थतः / अध्युपपन्नोऽत्यन्ततन्मना शक्नोति आगन्तुं (समुन्भूयं ति) समुद्भूता मतिप्रबलतयोत्पन्ना / इत्यर्थः / नाऽऽद्रियते, न तेष्वादरवान् भवति / न परिजानाति एतेऽपि पाठान्तरेण-संमुखभूता-मेकहेलोत्पन्नाम्। पाठान्तरण- अमहतो महतो वस्तुभूता इत्येवंन मन्यते-तथा तेष्विति गम्यते नोऽर्थ प्रतिबध्नातिभवनं महद्भूतं तेन सह या सा समहद्भूता, तां समहद्भूतां वा वेदनां एतैरिदं प्रयोजनमिति निश्चयं करोति। तथा- नो तेषु निदानं प्रकरोतिदुःखरूपां वेदयमानोऽनुभवन् इच्छेदिति मनुष्यलोकागमनेच्छायाः एते मे भूयासुरित्येव-मिति / तथा नो तेषु स्थितिप्रकल्पमवस्थानकारण-मेतदेव वाऽशक्तस्य, तीव्रवेदनाऽभिभूतो हि न शक्त विकल्पनम्- एतेष्वहं तिष्ठामि, एतेवा मम तिष्ठन्तु स्थिराभवन्त्यित्येवंरूपं आगन्तुमिति। तथा- निरयपालैरेवंवादिभिः भूयो भूयः पुनः स्थित्यावा मर्यादया प्रकृष्टः कल्प आचारः स्थितिप्रकल्पः, तं प्रकरोति, पुनरधिष्ठीयमानः समाक्रम्यमाण आगन्तुमिच्छेदित्यागमनेच्छाकारण- कर्तुमारभते, प्रशब्दस्याऽऽदि-कर्माऽर्थत्वादिति / एवं दिव्यविषयमेतदेव वाऽऽ-गमनाऽशक्तिकारणं, तैरत्यन्ताऽऽक्रान्तस्याऽऽगन्तुमशक्त- प्रसक्तिरेक कारणं 1, तथा- यतोऽसावधुनोत्पन्नो देवः कामेषु त्वादिति। तथा- निरये वेद्यते अनुभूयते यद् निरययोग्यं वा यद्वेदनीयम् मूञ्छितादिविशेषणोऽतस्तस्य मानुष्यकमित्यादीति दिव्यप्रेमअत्यन्ताऽशुभनामकर्मादि, असातवेदनीयं वा, तत्र कर्मणि अक्षीणे संक्रान्तिर्द्वितीयम् 2, तथाऽसौ देवो यतो भोगेषु मूञ्छितादिविशेषणो स्थित्या अवेदितेऽननुभूताऽनुभागतयाऽतिजीणे जीवप्रदेशेभ्यो- भवति, ततस्तत्प्रतिबन्धात् / (तस्स णामित्यादीति) देवकार्याऽऽयऽपरिशटिते इच्छेत् मानुषं लोकमागन्तुं, न च शक्नोति अवश्यवेद्य- | ततया मनुष्यकार्याऽनायत्तत्वं तृतीयम् 3 / कर्मनिगड्यन्त्रितत्वादित्यागमनाऽशक्त एव कारणमिति / तथा- तथा- दिव्यभोगमूञ्छितादिविशेषणत्वात् तस्य मनुष्याणामयं (एवमिति) अहुणोववन्ने इत्याद्यभिलापसंसूचनार्थः / निरयायुष्के कर्मणि मानुष्यः स एव मानुष्यको गन्धः प्रतिकूलो दिव्यगन्धविपरीतवृत्तिः अक्षीणे, यावत्कारणात् 'अवेइ' इत्यादि दृश्यमिति निगमयन्नाह- प्रतिलोमश्वाऽपि इन्द्रियमनसोरनाह्लादकत्वात् एकार्थी चैतावत्य(इचेएहिं ति)। इति एवं प्रकारैरेतैः प्रत्यक्षैरनन्तरोक्तत्वादिति। अनन्तरं त्यन्ताऽमनोज्ञताप्रतिपादनायोक्ताविति / यावदिति परिमाणाऽर्थः / नारकस्वरूपमुक्तम्।तेचाऽसंयमोपष्टम्भपरिग्रहादुत्पद्यन्त इति। स्था०४ (चत्तारि पंचेति) विकल्पदर्शनाऽर्थंकदाचिद्भरतादि-ब्वेकान्तसुषमादौ ठा०१ उ० चत्वार्येव, अन्यदा तु पञ्चाऽपि मनुष्य-पञ्चेन्द्रियतिरश्चां बहुत्वेनौदाअधुनोपपन्नो देवो देवलोकेषु रिकशरीराणां तदवयवतन्मलानां च बहुत्वेन दुरभिगन्धप्राचुर्यादिति। चउहिं ठाणेणिं अहुणोववन्ने देवे देवलोगेसु इच्छेज्जा माणुसं आगच्छति मनुष्यक्षेत्रादाजिगमिषु देवं प्रतीति। इदञ्च मनुष्यक्षेत्रस्याऽ शुभस्वरूपत्वमेवोक्तम्।नच देवोऽन्यो वा नवभ्योयोजनेभ्यः परत आगतं लोग हव्वमागच्छित्तए णो चेव संचाएइ हव्वमागच्छित्तए।तं जहा गन्धं जानातीति / अथवा अत एव वचनात् यदिन्द्रियविषयप्रमाणअहुणोववन्ने देवे देवलोगेसु दिव्वेसु कामभोगेसु मुच्छिए गिद्धे मुक्तं,तदौदारिक-शरीरेन्द्रियाऽपेक्षयैव संभाव्यते, कथमन्यथा विमानेषु गढिए अज्झोववण्णे। से णं माणुस्सए कामभोगे णो अढाए, णो योजन-लक्षादिप्रमाणेषु दूरस्थिता देवा घण्टाशब्दं शृणुयुः ? यदि परं परियाणाइ, णो अटुं बंधइ, णो णियाणं पगरेइ, णो ठिइप्पगप्पं प्रति शब्द द्वारेणाऽन्यथा वेति / नरभवाऽशुभत्वं चतुर्थमनापगरेइ / / 1 / / अहुणोववन्ने देवे देवलोएसु दिव्वेसु कामभोगेसु गमनकारणमिति 4 / शेषं निगमनम्। स्था० 4 ठा० 3 उ०। मुच्छिए०४ा तस्स णं माणुस्सए पेमे वोच्छिण्णे दिव्वे संकंते भवइ ।।२।अहुणोववन्ने देवे देवलोएसु दिव्वेसु कामभोगेसु चउहि ठाणेहिं अहुणोववन्ने देवे देवलोएसु इच्छेचा माणुसं लोग हव्वमागच्छित्तए,संचाएइ हव्वमागच्छित्तए। तं जहामुच्छिए०४। तस्सणं एवं भवइ इयण्हिं गच्छं मुहुत्तेण गच्छंतेणं अहुणो-ववन्ने देवे देवलोगेषु कामभोगेषु अमुच्छिए 0 जाव कालेणमप्पाउआ मणुस्सा कालधम्मुणा संजुत्ता भवंति // 3 // अणज्झोववण्णे, तस्स णं एवं भवइ-अस्थि खलु मम अहुणोववन्ने देवे देव-लोएसु कामभोगेसु मुच्छिए०४ तस्सणं माणुस्सए भवे आयरिएइ वा उवज्झाएइ वा पवित्तीइ वा माणुस्सए गंधे पडिकूले पडिलोमे यावि भवइ, उर्ल्ड पि य णं थेरेइ वा गणीइ वा गणहरेइ वा गणा-वच्छे एइ वा, जेसिं माणुस्सएणं गंधे चत्तारिपंच जोयणसयाई हव्वमागच्छइ॥४॥ पभावेणं मए इमा एयारूवा दिव्वा देवड्डी, दिव्वा देवजुई इचेएहिं चउहि ठाणेहिं अहुणोववन्ने देवे देवलोएसु इच्छेज्जा लद्धा पत्ता अभिसमण्णागया। तं गच्छामि णं, ते भगवंते माणुसं लोगं हव्वमागच्छित्तए, णो चेव णं संचाएइ वंदामि० जाव पजुवासामि / अहुणोववण्णे देवे देवलोएसु० हव्वमागच्छित्तए॥५॥ जाव अणज्झोववण्णे / तस्स णमेवं भवइ- एसणं माणुस्सए त्रिस्थानके तृतीयोद्देशके प्रायो व्याख्यातमेवेदं तथाऽपि किञ्चिदुच्यते भवे णाणीइ वा तवस्सीइ वा अइदुक्करकारए, तं गच्छामि - (चउहिं ठाणेहि नो संचाए त्ति) संबन्धः। तथा- देवलोकेषु, देवमध्ये णं ते भगवंते वदामि० जाव पज्जुवासामि ॥शा अहुणोववण्णे इत्यर्थः (हव्वं) शीघ्रम् (संचाएइ) शक्नोति। कामभोगेषु मनोज्ञशब्दादिषु ] देवे देवलोएसु 0 जाव अणज्झोववण्णे तस्स णमेवं अहणोवाआ मणुन माझ्या Page #1075 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहुणोववन्नग 891 - अभिधानराजेन्द्रः - विभाग 1 अहेउवाय भवइ- अस्थि णं मम माणुस्सए भवे मायाइ वा 0 जाव सुण्हाइ वा, तं गच्छामि णं, तेसिमंतियं पाउन्भवामि, पासंतु ता मे इममेयारूवं दिव्वं देवढेिं दिव्वं देवजुई लद्धं पत्तं अभिसमण्णागयं // 3|| अहुणोववपणे देवे देवलाऐसु जाव अणज्झोववण्णे तस्स णमेवं भवइ, अस्थि णं मम माणुस्सए भवे मित्तेइ वा सुहीइ वा सहाएइ वा संगइएइ, वा तेसिं च णं अम्हे अण्णमण्णस्स संगारे पडिसुए भवइ / जो मे पुट्विं चयइ से संबोहियव्वे इच्चेएहिं जाव संचाएइ हव्वमागच्छित्तए||४|| आगमनकारणानि प्रायः प्राग्वत्, तथाऽपि किश्चिदुच्यतेकामभोगेष्वमूञ्छितादिविशेषणो यो देवस्तस्य (एवमिति) एवंभूतं मनो भवति- यदुत अस्ति मे, किं तदित्याह- आचार्य इति वाऽऽचार्य एतद्वाऽस्ति,इति रूपप्रदर्शने, वा विकल्पे / एवमुत्तर-त्राऽपि / क्वचिदितिशब्दो न दृश्यते, तत्र सूत्रं सुगममेवेति / इह चाऽऽचार्यः प्रतिबोधप्रव्राजकादिरनुयोगाचार्यो वा, उपाध्यायः सूत्रदाता, प्रवर्त्तयति साधूनाचार्योपदिष्टेषु वैयावृत्यादिष्विति प्रवर्ती, प्रवर्त्तिव्यापारितान् साधून संयमयोगेषु सीदतः स्थिरीकरोतीति स्थविरो, गणोऽस्यास्तीति गणी, गणाऽऽचार्यो गणधरो वा जिनशिष्यविशेष आर्यिकाप्रतिजागरको वा साधुविशेषः, समयसिद्धान्तो गणस्यावच्छेदोऽस्यातीति गणाऽवच्छेदकः / यो हितं गृहीत्वा गच्छोपष्टम्भायैवोपधिमार्गणादिनिमित्त विहरति / (इमे त्ति) इयं प्रत्यक्षासन्ना, एतदेव रूपं यस्या न कालाऽन्तरादावपि रूपाऽन्तरभाक्सा, तया दिव्या स्वर्गसंभवा प्रधाना वा देवर्द्धिर्विमानरत्नादिका द्युतिः / शरीरादिसम्भवा युतिर्वा युक्तिरिष्टपरिवारादिसंयोगलक्षणा लब्धा उपार्जिता जन्माऽन्तरे प्राप्लेदानीमुपगता, अभिसमन्वागता भोग्यावस्थां गता(तं ति) तस्मात् तान् भगवतः पूज्यान् वन्दे स्तुतिभिनभस्यामि प्रणामेन सत्करोमि, आदरकरणेन वस्त्रादिना वा संमानयाम्युचितप्रतिपत्त्या कल्याणं मङ्गलं दैवतं चैत्यमिति बुद्धया पर्युपास्ये सेवामीत्येकम् 1, तथा- ज्ञाने श्रुतज्ञानादिना इत्यादि द्वितीयम् २,तथा-(भायाइवा भज्जाइ वा भइणीइ वा पुत्ताइवा धूयाइ वेति) यावत् शब्दाक्षेपः, स्नुषा पुत्रभार्या (तं) तस्मात् तेषामन्तिकं समीपं प्रादुर्भवामि प्रकटीभवामि (ता) तावत् (मे) मम इति पाठान्तरमिति तृतीयम् 3, तथा- मित्रं पश्चात् स्नेहवत् सखा बालवयस्यः सुहृत्सज्जनो हितैषी सहायः सहचरः तदेककार्यप्रवृतो वा, संगतं विद्यते यस्याऽसौ साङ्गतिकः परिचितः, तेषां (अम्हे त्ति) अस्माभिः (अण्णमण्णस्स त्ति) अन्योऽन्यं (संगारे त्ति) संकेतः प्रतिश्रुतोऽभ्युपगतो भवति स्मेति / (जो मे त्ति) योऽस्माकं पूर्वं च्यवते देवलोकात् स संबोधयितव्य इति चतुर्थम् 4, इदं च मनुष्यभवे कृत संकेतयोरेकस्य पूर्वलक्षादिजीविषु भवनपत्यादिषूत्पद्य च्युत्वाचनर-तयोत्पन्नस्याऽन्यः पूर्वलक्षादि जीवित्वा सौधर्मादिषूत्पद्य संबोधनाऽर्थं यदिहाऽऽगच्छति, तदवसेयमिति / इत्येतैरित्यादि निगमनमिति। स्था०४ ठा०३ उ० अहे-(अधस्) दिग्भेदे। नि०चू०१८ उ०। भ०। *अथ-अव्य०। अथाऽर्थे, भ०१ श०६ उ०ा 'अहे णं से अम्मापियरे' अथ चैतत्, णमिति वाक्यालङ्कारे। स्था०३ ठा०१ उ०। आचा०। क्षेपे, / नियोगे च / सन अहेउ-पुं०(अहेतु) यथोक्तहेतुप्रतिपक्षे, स० अनुमाना- ऽनुत्थापके हेत्वाभासे, स्था। पंच अहेऊ पण्णत्ता / तं जहा- अहे ण जाणइ० जाव अहेउछउमत्थमरणं मरइ॥६॥ पंच अहेऊ पण्णत्ता / तं जहाअहेउणा न जाणइ० जाव अहेउणा छउमस्थमरणं मरइ / / 7 / / पंच अहेऊ पण्णत्ता / तं जहा- अहेउं जाणइ० जाव अहेउकेवलिमरणं मरइ ||8|| तथा पञ्चाऽहेतवो यः प्रत्यक्षज्ञानादितयाऽनुमानाऽनपेक्षः, स धूमादिकमहेतुनाऽयं हेतुर्ममानुमानोत्थापक इत्येवं जानाति, इत्यतो हेतुभूतं तं जानन्नहेतुरेवाऽसावुच्यते / एवं दर्शनबोधाऽभिसमागमाऽपेक्षयाऽपि तदेवमहेतुचतुष्टयं छद्मस्थमाश्रित्य देशनिषेधत आह(अहेतुमिति) धूमादिकं हेतुमहेतुभावेन न जानाति, न सर्वथाऽवगच्छति, कथञ्चिदेवाऽवगच्छतीत्यर्थः। नञो देश-निषेधार्थत्वात्, ज्ञातुश्वाऽवध्यादिकेवलित्वेनाऽनुमानाऽव्यव- हर्तृत्वादित्येकोऽयमहेतुर्देशप्रतिषेधत उक्तः 1, एवमहेतुं कृत्वा धूमादिकं न पश्यतीति द्वितीयः 2, नबुध्यते, न श्रद्धत्ते इति तृतीयः 3, नाभिसमागच्छतीति चतुर्थः 4, तथाअहेतुमध्यवसानादि-हेतुनिरपेक्षं निरुपक्रमतया छद्मस्थमरणमनुमानव्यवहर्तृत्वेऽप्यकेवलित्वात्तस्याऽयं च स्वरूपत एव पञ्चमोऽहेतुरुक्तः / तथा- पञ्चाऽहेतवो योऽहेतुना हेत्वभावेनाऽवध्यादिकेवलित्वाद् जानात्यसावहेतुरेवेत्येवं पश्यतीत्यादयोऽपि / एवं च छद्मस्थमाश्रित्य पदचतुष्टयेनाऽहेतुचतुष्टयं देशप्रतिषेधत आह। तथाऽहेतुनोपक्रमाऽभावेन छास्थमरणं मियत इति पञ्चमोऽहेतुः स्वरूपत एव उक्तः // 6 // तथापञ्चाऽहेतवोऽहेतु, न हेतुभावेन विकल्पितं धूमादिकं जानाति केवलितया योऽनुमानाऽव्यवहारित्वात् सोऽहेतुरेव / एवं यः पश्यतीत्यादि / तथा अहेतुं निर्हेतुकमनुपक्रमत्वात् केवलिमरण-मनुमानाऽव्यवहारित्वाद् मियते यात्यसावहेतुः पञ्चमः। एते पञ्चाऽपीहा स्वरूपत उक्ताः।।७।। एवं तृतीयाऽन्त-सूत्रमप्यनुसर्तव्यमिति |8|| गमनिकामात्रमेतत्, तत्त्वं तु बहुश्रुता विदन्तीति / स्था०५ ठा० 1 उ०। न विद्यते हेतुरस्येति, अनाद्यपर्यवसिते नित्ये। सूत्र०१ श्रु०१ अ०१ उ०म०। अहेउवाय-पुं०(अहेतुवाद) हिनोति गमयत्यर्थमिति हेतुः, तत्परिच्छि. नोऽर्थोऽपि हेतुः, तं वदतिय आगमः स हेतुवादः / यस्तुवस्तुस्वरूपप्रतिपादकत्वेऽपितद्विपरीतोऽसावहेतुवादः / दृष्टिवादादन्यस्मिन्, सम्म०) (दुविहो धम्मावाओ, अहेउवाओ य हेउवाओ य)। तत्थ उ अहेउवाओ, भवियाभवियादओ भावा॥१५०।। भव्याऽभव्यस्वरूपप्रतिपादक आगमः, तद्विभागप्रतिपादने अध्यक्षादेः प्रमाणाऽन्तरस्याऽप्रवृत्तेः / न हि अयं भव्योऽयमभव्य इत्यत्राऽऽगमप्रमाणेन प्रमाणाऽन्तरप्रवृत्तिसंभवः। अस्मदाद्यपेक्षया, न तुतद्विभागप्रतिपादकं वचो यथार्थमर्हद्वचनत्वात्, अनेकान्ता-त्मकवस्तुप्रतिपादकवचोवदित्यनुमानात् तद्विभागप्रतिपत्तौ कथं न तस्याऽनुमानविषयता ? न / एवमप्यागमादेव तद्विभागप्रतिपत्ते-स्तव्यतिरेकेण प्रमाणाऽन्तरस्य तत्प्रतिपतिनिबन्धन Page #1076 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहेउवाय ८९२-अभिधानराजेन्द्रः-विभाग 1 अहोलोय स्याऽभावात् / अर्हदागमस्य च प्राधान्याऽर्थसंवादनिबन्धनतत्प्रणी- | अहेसत्तमा-स्त्री०(अधःसप्तमी) तमस्तमायां पृथिव्याम, अधोग्रहणं विना तत्वनिश्चयेऽनुमानतोऽतीन्द्रियार्थ विषये प्रामाण्यं निश्चीयत इत्यभ्युप- सप्तमी उपरिष्टाचिन्त्यमाना रत्नप्रभाऽपि स्या-दित्यधोग्रहणम् / गम्यत एव / आगमनिरपेक्षस्य तु प्रमाणा- ऽन्तरस्याऽस्मदादेस्तत्र "अहेसत्तमाए पुढवीए'' स्था०२ ठा०४ उ०। प्रवृत्तिर्न विद्यत इत्येतावता अहेतुवादत्व-मेव विषयाऽऽगमस्योच्यत इति अहो-अव्य०(अहो) न+हा-डो / शोके, धिगर्थे, विषादे, दयायाम्, वचनव्यापार केवलमपेक्ष्याऽयंक्रमः। यदा तु ज्ञानदर्शनचारित्रत्रितये यथा सम्बोधने, प्रशंसायाम्, वितर्के, असूयायां च / वाच०। विस्मये, तदनुष्ठानप्रवणः, तद्विकलश्च पुरुषः प्रतीयते, तदाऽनुमानगम्योऽपि आ०म०प्र० दशला भ०। स्था०। उत्त। सूत्रा आश्चर्ये,अष्ट०१८ अष्ट०। तद्विभागो भवति / यथा भव्योऽभव्यो वाऽयं पुरुषः, सम्यगज्ञानादि प्रतिक आचा०। विपा०। दैन्ये, आमन्त्रणे च / ग०२ अधि०। अनु०॥ परिपूर्णत्वाभ्याम्, लोकप्रसिद्धभव्याऽभव्यपुरुषवत्। अहेतुवादाऽऽगमा सूत्र ऽवगतेधर्मिणि भव्याऽभव्यस्वरूपेतविपरीतनिर्णयफलो हेतुवादः, प्रवृत्ते अहोकरण-न०(अधःकरण) अधोऽधस्तादात्मनः करणम् / कलहे, योऽयमागमे भव्यादिरभिहितः, स तथैव, यथोक्तहेतु-सद्भावा नि०चू०१० उ० दिति। आहभविओ सम्मइंसण-णाणचरित्तपडिवत्तिसंपन्नो। अहोकाय-पुं०(अधःकाय) अधस्तात् कायोऽधःकायः / पादे, आव० 3 अ०॥ णियमा दुक्खंतकडो, त्ति लक्खणं हेउवायस्स॥१४१॥ अहोणिस-न०(अहर्निश) अहोरात्रे, "णिरये णेरइयाणं अहोणिसं भव्योऽयं सम्यग्दर्शनचारित्रप्रतिपत्तिसंपूर्णत्वात्, उक्त पुरुषवत्, पच्चमाणाणं''। सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ०। तत्परिपूर्णत्वादेव नियमात् संसारदुःखाऽन्तं करिष्यति, कर्मव्याधे रात्यन्तिक विनाशमनु भविष्यति,तन्निबन्धनमिथ्या अहोतरण-न०(अधस्तरण) अधोऽधस्तादवतारभूमिं गृहनिःश्रेण्या इव त्वादिप्रतिपक्षाभ्याससात्मीभावात्, व्याधिनिदानप्रतिकूलाऽऽचरण करणमधःकरणम्। कलहे, नि०चू०१० उ०। प्रवृत्ततथाविधाऽऽतुरखत्, यः पुनर्न तत्प्रतिपक्षाऽभ्यास-सात्म्यवात् अहोदाण-न०(अहोदान) विस्मयनीये दाने, "अहोदाणं च घुटुं" अहो नाऽसौ दुःखान्तकृत् भविष्यति, तन्निदानाऽनुष्ठानप्रवृत्ततथाविधाऽऽ- इति विस्मये, विस्मयनीयमिदं दानं कोऽन्यो दाता ? | उत्त०२ अ० तुरवद् इति हेतुवादस्य लक्षणम् / हेतुवादः प्रायो दृष्टिवादः, तस्य कल्प०आ०म०। अहोदानस्याऽयमर्थः - एवं दीयते, एवं हि दत्तं द्रव्याऽनुयोगत्वात्, 'सम्यग्दर्शनज्ञान- चारित्राणि मोक्षमार्गः' भवतीति / आव०१ अ० इत्यादेरनुमानादिगम्यस्यार्थस्य तत्र प्रतिपादनात् / यथाऽत्रानुमाना- अहोदिसिव्वय-न०(अधोदित) दिगधोऽधोदिक्, तत्संबन्धि, तस्या दिगम्यता, तथा गन्धहस्ति- प्रभृतिभिर्विक्रान्तमिति नेह प्रदर्श्यते, वाव्रतमधोदिग्वतम्। एतावती दिगध इन्द्रकूपाद्यव-तारणादवगाहनीया, ग्रन्थविस्तरभयात्। सम्म०३ काण्ड। न परत इत्येवंरूपे दिग्व्रतभेदे, आव०६ अ०। अहेकम्म-न०(अधःकर्मन्) विशुद्धसंयमस्थानेभ्यः प्रतिपत्त्या- | अहोभागि(ण)-त्रि०(अधोभागिन) अधस्ताद् भागिनि, सूत्र० ऽऽत्मानमविशुद्धसंयमस्थानेषु यदधोऽधः करोति, तदधःकर्म / बृ० 2 श्रु०३ अ०। 4 उ०। अधो नरकादेर्येन भक्तेन भुक्ते वाऽत्मा क्रियते, तदधः अहोरत्त-पुं०(अहोरात्र) त्रिंशन्मुहूर्ताऽऽत्मके, ज्यो०२ पाहु०। जं० कर्म / दश० 5 अ०। अन्नविशुद्धेभ्यः संयमादिस्थानेऽधोऽधस्तरामागमने, पिं०ा आधाकर्मणि पिं०। ('अधेकम्म' शब्दे-ऽस्मिन्नेव कर्म० भ० दिवसरात्र्युभयाऽऽत्मके, सू०प्र०१० पाहु०। सूत्र०ा विशे०। अनु०। आ०म०। उत्ता स्था०। कालभेदे, न० "तिविहे अहोरत्ते तीते, भागे 561 पृष्ठेऽस्य व्याख्या) पडुप्पन्ने, अणागए"। स्था०३ ठा० 4 उ०। अहोरात्रे, आ०चू०१अ०। अहेकाय-पुं०(अधःकाय) उर्वादिके, सूत्र०१ श्रु०४ अ०१ उ०) आ०म०। (पौरुषीकालः 'काल' शब्द तृतीयभागे वक्ष्यते) अहेगारवपरिणाम-पुं०(अधोगौरवपरिणाम)येनाऽऽयुःस्वभावेन अहोराइया-स्त्री०(अहोरात्रिकी) त्रिभिर्दिवसैाति प्रतिमा / जीवस्याऽधो दिशि गमनशक्तिलक्षणपरिणामो भवति, तस्मिन् अहोरात्रस्याऽन्ते षष्ठभक्तकरणात् प्रतिमाभेदे, पञ्चा० 18 विव०। गौरवपरिणामभेदे, स्था०६ ठा०] "अहोराइंदिया णवरं छट्ठणं भत्तेणं अपाणएणं बहियागमस्स वा० जाय अहेचर-पुं०(अधश्चर) बिलवासित्वात् सर्पादौ, आचा०१ श्रु० अ०५ रायहाणीए वाईणि दोवि पादे वग्धारितपाणिस्स द्वाणं ठाइ तए, सेसं तं उ०॥ चेव० जाव अणुपालिया भवइ' आ०चू०४ अ०! अहेतारग-पुं०(अधस्तारक) पिशाचभेदे, प्रज्ञा०१ पद। अहोलोय-पुं०(अधोलोक) लोक्यते केवलिप्रज्ञया परिच्छिद्यते इति अहेपन्नगद्धरूव-त्रि०(अधःपन्नगार्द्धरूप) अधोऽधस्तनं, यत् पन्नगस्य लोकः / अधोव्यवस्थितो लोकोऽधोलोकः / अथवाऽधःशब्दोऽशुभसर्पस्याऽर्द्ध तस्येव रूपमाकारो येषां तेऽधःपन्नगाऽर्धरूपाः / पर्यायः, तत्र च क्षेत्रानुभावाद् बाहुल्येनाशुभ एव परिणामो द्रव्याणां, अधःपन्नगाऽर्द्ध वदति, सरलेषु दीर्धेषु च / जी०३ प्रतिकारा० जायतेऽतोऽशुभपरिणामवद् द्रव्ययोगा-दधोऽशुभो लोकोऽधोलोकः / अहेसणिज्ज-त्रि० (यथैषणीय) उत्कर्षणाऽपकर्षणरहिते, अपरिकर्मणि, अहवा अहो परिणामो,खेत्ताणभावेण जेण उसण्णं / "अहेसणिज्जाई वत्थाई जाएजा' / आचा०१ श्रु०८ अ०४ उ०| असुभो अहोति भणिओ,दव्वाणं तेणऽहोलोगो त्ति / / Page #1077 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहोलोय 893 - अभिधानराजेन्द्रः-विभाग 1 अहोहिय लोकभेदे, स च अस्यां रत्नप्रभायां बहुसमभूभागे मेरुमध्ये | अहोवियड-त्रि०(अधोविकट) अधः कुड्यादिरहिते, छन्ने हि उपरि नभःप्रतरद्वयश्च प्रदेशो रुचकः, समस्थितस्य च प्रतरदयस्य मध्ये / तदभावे च। आचा०१ श्रु०६ अ०२ उ०। . एकस्मादधस्तनप्रतरादारभ्याऽधोऽभिमुखं नवयोजनशतानि परिहृत्य | अहोविहार-पुं०(अहोविहार) अहो ! इत्याश्चर्ये, विहरणं विहारः / परतः सातिरेकसप्तरज्वायतोऽधोलोकः। अनु०। चमरादिभवने, आव०१ आश्चर्यभूतोऽहोविहारः / संयमाऽनुष्ठाने, "समुट्ठिए अहोविहारए"। अास्था०। प्रज्ञा आ०म०। अधोलौकिकेषु ग्रामेषु, नं०] "अहोलोऐणं आचा०१श्रु०२अ०१उ०। चत्तारि वि सरीरा, अहोलोए णं सत्त पुढवीओ पण्णत्ताओ, सत्त | अहोसिर-त्रि०(अधःशिरस) अधोमुखे, "अहोसिरा कंटया जायंति" घणोदहीओ पण्णत्ताओ, सत्त घणवाओ पण्णत्ताओ, सत्त तणुवाया अधोमुखाः कण्टकाः भवन्तीति चतुर्दशस्तीर्थकराऽतिशयः / स०३४ पण्णत्ताओ, सत्त उवासंतरा पण्णत्ता। एएस् णं सत्तस उवासंतरेस सत्त समका अधोमस्तके, उत्त०२३ अ० "उर्बुजाणू अहोसिरे" अधोमुखो तणुवाया पइडिया, एएसु णं सत्तसु तणुवाएस सत्त घणवाया पइट्ठिया, नोर्ध्व तिर्यग्वा विक्षिप्तदृष्टिः, किन्तु नियतभूभाग-नियमितदृष्टिः। ज्ञा० सत्तसु घणवाएसु सत्त घणोदही पइडिया, एएसु णं सत्तसु घणोदहीसु 1 अ० विपा०। जं० सू०प्र० भ०। औ०। चं०प्र०ा नि० पिंडलगपिहुलसंठाणसंठियाओ सत्त पुढवीओ पण्णत्ताओ / तं जहा- | अहोहि-त्रि० (अधोऽवधि) परमावधेरधोवयंवधिर्यस्यसोऽधो- ऽवधिः। पढमा० जाव सत्तमा" / स्था०७ ठा० परमावधेरधोवयंवधियुक्ते, रा०। स्था०। अहोवाय-पुं०(अधोवात) अधो गच्छन् यो वाति वातः सोऽधो-वातः। | अहोहिय-त्रि०(यथावधि) यत्प्रकारोऽवधिरस्येति यथाऽवधिः प्रज्ञा०१ पद। अधोनिमज्जति वायुभेदे। ज्ञा०१ पद। नियतक्षेत्र-विषयाऽवधिज्ञानिनि, स्था०२ ठा०६ उ० स० / इति श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-कलिकालसर्वज्ञकल्पप्रभु-श्रीमद्भट्टारकजैनश्वेताम्बराऽऽचार्यश्री 1008 श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वर विरचिते “अभिधानराजेन्द्रे" ह्रस्व-'अ'-काराऽऽदिशब्दसङ्कलनं समाप्तम् / || समाप्तश्चाऽयं प्रथमो विभागः // Page #1078 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ॥श्री पञ्चपरमेष्ठिभ्यो नमः॥ श्रीः इति श्रीमत्सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय __ कलिकालसर्वज्ञकल्पप्रभुश्रीमद्भट्टारक-जैनश्वेताम्बराऽऽचार्य श्री श्री 1008 श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरीश्वरविरचिते 'अभिधानराजेन्द्रे' प्रथमो भागः समाप्तः।