________________ अकू(क्कू)र 130 - अभिवानराजेन्द्रः - भाग 1 अकोविय पुट्ठा य तेहि एए, के तुब्भे ता भणाइ ताणेगो। अस्थित्थ मोहनामा, निवई जगतीतलपसिद्धो॥२७॥ तस्सत्थि वइरिकरिकर-हकेसरी रायकेसरी तणओ। तप्पुत्तोऽहं सागर, महासओ सागराऽमिहाणो२८| ममतणओ फुडविणओ, एसो उपरिग्गहामिलासुत्ति। वइसानरस्सधूया, एसा किरकूरयानाम।।२।। इय सुणिय हरिसिया ते, कीलंति परुप्परं तओ मित्तिं / निम्मेइ सागरो सह, सिसूहि न उ कूरयाए वि॥३०|| कुणइ कुरंगो मित्तिं, तेहि समं कूरयाइ सविसेसं। भयाभिभूयत्तिकमा, पत्ता ते तारतारुनं // 31 // अह मित्तपेरियमणा, दविणोवञ्जणकए गहियभंडा। पियरेहि वारिया विहु, चलिया देसंतरम्मि इमे / / 3 / / मिल्लेहि अंतरा अंतरायवसओ य गहियभूरिधणा। उद्धरियथोवदव्वा, धवलपुरं पट्टणं पत्ता // 33 // दविएण तेण तहियं, गहिउँ हट्ट कुणंति ववसायं / दीणारसहस्सदुगं, दुक्खसहस्सेहिं अजंति॥३४॥ तो वढियबहुतण्हा, कप्पासतिलाइ भंडसालाओ। पकुणंतिकरिसणं पिहु, उच्छुक्खित्ताई कारंति॥३५|| तससंसत्ततिलाणं, निपीलणं गुलियमाइ ववहारं। कारंति एव जाया, ताणं दीणारपणसहसा // 36|| तो तहसगे इच्छा, कमेण लक्खे वि जाव तं मिलियं। अह कोडि पूरणिच्छा जाया मित्ताणुभावेण // 37 // तो गुरुगंतीनिवहा, पहिया देसंतरेसु विविहेसु। जलहिम्मि पोयसंघा-यवत्तियां करहमंडलिया // 38 / / गहियाइनिवकुलाओ,पट्टेणबहूणि सुक्कठाणाई। विहियाधणगणियाओ,बद्धाउहयाइहेडाओ॥३९।। इचाइ पावकोडिहिं,जा कोडि वि तेसि संमिलिया। तोपावमित्तवसओ, उववन्नारयणकोडिच्छा||४|| अह खिविऊण सव्वं, पोएते पत्थिया रयणभूमि। ता कूरया विलग्गा, गाढं कन्ने कुरंगस्स ||1|| जंपेइ हंत हंतुं,अंसहरमिमं करेसु अप्पवसं। सयलंदविणमिणं,णिणोसवेविइहसुयणा|४|| इय सा जंपइ निच्चं, तहेव तं परिणयं इमस्स तओ। पक्खिवइ सागरं सा-गरम्मि लहिऊण सो छिदं ||3|| असुहज्झणोवगओ, जलहिजलुप्पीलपीलियसरीरो। मरिऊण तइयनरगम्मिनारओ सागरो जाओ ||4|| काउं मयकिचं भाउगस्स हिट्ठो कुरंगओ हियए। जा जाइ किं पिदूरं, ता फुट्ट पवहणं झत्ति III बुड्डो लोओ गलियं, कयाणगं फलहयं लहिय एसो। कह कहवि तुरियदिवसे, पत्तो नीरनिहितीरम्मि॥४६|| अजिणियधणं भोए,मुंजिस्संइय विचिंतिरोधणिय। भमिरो वणम्मिहरिणा,हणिओधूमप्पहंपत्तो॥४७|| तो भमिय भवं ते दो,वि कहविअंजणनगे हरीजाया। इक्कगुहत्थं जुज्झिय,चउत्थनरए गया मरिउं॥४८|| तो अहिणो इगनिहिणो, कए कुणंता महत्तयं जुज्झं। विज्झायसुद्धझाणा, पत्ता धूमप्पहं पुढविं॥४६ अह बहुभवपज्जंते, एगस्स वणिस्स भविय भज्जाओ। तम्मि मए विहवकए, जुज्झिय मरिउं गया छर्हि // 50 // ममिय भवं पुण जाया, तणया निवइस्स उवरए तम्मि। कलहंता रजकए, मरि पत्ता तमतमाए॥५१॥ एवं दव्वनिमित्तं, सहियाओ तेहि वेयणा विविहा। नयतं कस्सइ दिन्नं, परिमुत्तं तं सयं नेव // 52|| अह पुव्वभवे काउं, अन्नाणतवं तहाविहं किंपि। जाओ सागरजीवो,तं निव इयरो उ तुहबंधू // 53 / / तुम्हाणवि पचक्खो, इओ परं समरविजयदुत्तंतो / सो काही उवसग्गं, इक्कसि तुह गहियचरणस्स॥५४|| तो कूरयाइ सहिओ, अहिओ तस्स थावराण जीवाणं। दुसहदुहदहियदेहो, भमिहीही भवमणंतमिमो ||5|| इअसुणिअगरुयवेरग्गपरिगओगिण्हएवयंराया। नियभाइणिज्जहरिकुमरवसहसंकमियरज्जधुरो॥५६|| कमसो अइतव सोसिय, देहो बहुपढिय सुद्ध सिद्धंतो। अब्भुज्जयं विहार, उज्जयचित्तो पवज्जेइ / / 7 / / कस्सवि नगरस्स बहि, पलंबबाहू ट्ठिओ य सो भयवं। दिट्ठो पाविट्ठणं, समरेणं कहिंवि गमिरेणं / / 5 / / वइरं सुमरंतेणं, हणिओ खग्गेण कंधराइ मुणी। गुरुवेयणाभिभूओ, पडिओ धरणीयले सहसा // 56 // चिंतइ रे जीव ! तए, अन्नाणवसा विवेगरहिएण। वियणाओ अयणाओ, नरएसु अणंतसो पत्ता // 60|| गुरुभरवहणंकणदो-हवाहसीउण्हखुहपिवासाइ। दुस्सहदुहदंदोली,तिरिएसुविविसहियाबहुसो॥६१।। ता धीर मा विसीयसु, इमासु अइअप्पवेयणासु तुम। को उत्तरि जलहिं, निव्वुडए मुप्पई नीरे // 6 // वजेसुकूरभावं, विसुद्धचित्तो जिएसुसव्वेसु। बहुकम्मखयसहाओ विसेसओसमरविजयम्मि॥६३।। तं लद्धो इह धम्मो,जंन कया कूरया पुरावि तए। इय चिंतंतो चत्तो, पावेण समं स पाणेहि // 6 // सुहसारे सहसारे, सो उववन्नो सुरो सुकयपुन्नो। तत्तो चविय विदेहे, लहिही मुत्तिं समुत्तीवि // 65 // श्रुत्वेत्यशुद्धपरिणामविरामहेतोः, श्रीकीर्तिचन्द्रनरचन्द्रचरित्रमुचैः। भव्या नरा जननमृत्युजरादिभीता, अक्रूरतागुणमगौणधिया दधध्वम् / / 66|| ध०र०। अकेवल-त्रि०(अकेवल) न विद्यते केवलमस्मिन्नित्यकेवलम्। अशुद्धे, सूत्र०२ श्रु०२ अ०॥ अकोऊहल्ल-त्रि०(अकौतूहल) नम्ब०स०॥ नटनर्तकादिषु, अकौतुके, "नो भावए नो वि य भाविअप्पा, अकोऊहल्ले य सया स पुज्जो'|| दश०६ अ०३ उ०॥ अर्काप्प-त्रि०(अकोप्य) अकोपनीये, अदूषणीये, बृ०१ उ० "अकोप्पजंघजुयला' अकोप्यमद्वेष्यं रम्यंजङ्घायुगलं यासांतास्तथा। प्रश्न० आश्र०३ द्वा०। अकोविय-त्रि०(अकोपित) अदूषणीये, "आरियं उवसंपज्जे, सव्वधम्ममकोवियं" सूत्र०१ श्रु०८ अ०॥ अकोविद-पुं० श्रुतेन वयसा चाऽप्राप्तयोग्यताके, व्य०१-उ०॥ अपण्डिते, सच्छास्त्रावबोधरहिते, सूत्र०१ श्रु०१ अ०२ उ० आरंभाई न संकंति, अवियत्ता अकोविया"। सूत्र०१ श्रु०१ अ०३ उ० / सम्यग्ज्ञाननिपुणे, वणे मूढे जहा जंतू, मूढे णेयाणुगामिए / दो वि एए अकोविया, तिव्वं सोयं तियच्छइ"। सूत्र०१श्रु०१ अ०३ उ० दश पिं०