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________________ (144) अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् / [सिद्धहेम० [अ०८पा०४] प्रिय आगतःश्रुता वार्ता ध्वनिः कर्णप्रविष्टः। तस्य 'विरहस्य नश्यतो' धूलिरपि न दृष्टा / / 1 / / (प्रियतम आया / इस समाचार की ध्वनि कान में प्रवेश करते ही अरे ! विरह ऐसा अन्तर ध्यान हो गया कि उसकी रजकण भी कहीं दिखाई नहीं देती है। 432.1) अस्येदे / / 433|| स्त्रियां नाम्नोऽत इत्त्वं स्याद् आकार प्रत्यये परे / 'धूलडिआ वि दिट्ठ न' इति वाक्ये विभाव्यताम् / युष्मदादेरीयस्य डारः // 434|| युष्मदादिभ्य ईय प्रत्ययस्य 'डार' इष्यते / "संदेसें काई तुहारेण जं सङ्गहो न मिलिज्जइ / सुइणन्तरि पिएं पाणिएण पिअ ! पिआस किं छिज्जइ''||१|| संदेशेन कियत् युष्मदीयेन यत् सङ्गाय न मिल्यते। स्वप्नान्तरे पीतेन पानीयेन प्रिय ! पिपासा कि छिद्यते / / 1 / / (हे प्रियतम, संदेशा भेजने से क्या लाभ है, जब तुम्हारा सहवास ही नहीं मिलता? सपने में पानी पीने से क्या प्यास बुझती है? बिलकुल नहीं, कभी नहीं। हे प्रिय संदेशा भेजने के बदले एक बार तुम अवश्य आकर मिल लो। 434.1) अम्हारा च महारा च, वेद्यं चैवं निदर्शनम्। अतात्तुलः // 435 // इदंकिंयत्तदेतद्भयोऽतोः स्थाने 'उत्तुलो' भवेत् / एत्तुलो केत्तुलो जेत्तुलो च तेत्तुलो एत्तलो। त्रस्य उत्तहे // 436|| सवदिस् त्र-प्रत्ययस्य, पदे स्यात् 'डेत्तहे यथा"एत्तहे तेत्तहे वीरघरि लच्छि विसण्ठल ठाइ। पिअ-पब्मट्टव गोरडी निचल कहिंवि न ठाइ"||१|| अत्र तत्र वीरगृहे लक्ष्मी विसंस्थुला तिष्ठति। प्रियप्रभ्रष्टा गौरी निश्चला क्वापि न तिष्ठति / / 1 / / (कभी यहाँ, कभी वहाँ, कभी दरवाजे पर, कभी घर में इधर-उधर विह्वल होकर लक्ष्मी घूमती है। प्रियतम से बिछड़ी हुई गौरी के समान वह स्थिर कहीं भी नहीं ठहरती / (हे प्रियतम तुम्हारे बिना उसका शांत रहना और कहीं भी टिकना मुश्किल है। हे प्रिय, अब तुम्हें जल्दी ही आना पड़ेगा।' 436.1) त्व-तलोः प्पणः // 437|| प्रत्यययोस् त्व-तलोः स्यात्, 'प्पणः', वडप्पणु' स्मृतम् / प्रायोऽधिकाराद् ‘वडुत्तणहो' इत्यपि सिध्यति / तव्यस्य इएव्वउं एव्वउं एवा // 438|| इएव्वउं एव्वउं एवा' तव्यस्य पदे त्रयः। "एउ गृण्हेप्पिणु धूं मई, जइ प्रिउ उव्वारिजइ / महु करिएव्वउं किं पि णवि, मरिएव्वउं पर देजइ ||1|| एतद् गृहीत्वा यन्मया यदि प्रिय ! उद्वार्यते। मम कर्तव्यं किमपि नापि, मर्तव्यं परं दीयते / / 1 / / (इस धन को लेकर यदि इसके बदले में मुझे प्रियतम को अवश्य | देना ही पड़े तो इससे अच्छा तो यह होगा कि प्रियतम को दूसरों को दने के बदले मुझे ही मर जाना चाहिए। 438.1) देसुबाडणु सिहिकढणु,घणकुट्टणु जं लोइ / मंजिट्ठए अइरत्तिए, सव्दु सहेव्वउं होइ / / 2 / / देशोच्चाटनं शिखिक्वथनं घनकुट्टनं यल्लोके। मञ्जिष्ट्या अतिरक्तया सर्व सोढव्यं भवति / / 2 / / (जगत में अत्यंत लाल रंग की स्नेहवर्णा-स्नेह-सूचिकास्नेहदर्शिता मजीठ नामक फलवती लता को किसी भाग से (खेत, वन, पर्वत, नदी-नाले के किनारे से) उखाड़ कर लाना, शिखरस्थ उबलते पानी में औटाना और घन से कूटा जाना, यह सब उस स्नेह संदेशिका को सहन करना ही पड़ेगा। 438.2) सोएवा पर वारिआ, पुष्फवईहिं समाणु / जग्गेवा पुणु को धरइ, जइ सो वेउ पमाणु?"||३|| स्वपितव्यं परवारिता पुष्पवतीभिः समम्। जागर्तव्यं पुनः को बिभर्ति यदि स वेदः प्रमाणम् // 3 // (यदि यह वेदों की आज्ञा है कि रजस्वला स्त्री के साथ सोना मना है, (वो ठीक है। वेदों की आज्ञा शिरोधार्य है।) परन्तु (रात-भर या जितना जी चाहे) जागते रहने के लिए किसने मना किया है।४३८.३) क्त्व इ-इउ-इवि-अवयः ||436 / / 'अवि इवि इउ इ' इतीमे, चत्वारः क्त्वः पदे भवन्ति, यथा / हिअडा जइ वेरिअ घणा तो किं अभि चडाहुं / अम्हाहिं बे हत्थडा जइ पुणु मारि मराहुं ||1|| हृदय यदि वैरिणो घनाः तत् किं अभ्रे (आकाशे) आरोहामः। अस्माकं द्वौ हस्तौ यदि पुनः मारयित्वा म्रियामहे ||1|| (हे हृदय, यद्यपि मेघ हमारे शत्रु हैं तो क्या हुआ हम आकाश पर आक्रमण नहीं करेंगे क्या? अवश्य करेंगे भले ही हमारे खाली दो हाथ हैं, यदि मरना ही है तो मरेंगे, लेकिन उन्हें मारने के बाद / (बकरी हैं तो क्या हुआ? सिंग छोटे हैं, तो क्या हुआ? सामने शेर है, तो क्या हुआ, फिर भी सामना करते हुए मरेंगे। शरण में जाकर नहीं। 436.1) रक्खइ सा विस-हारिणी बे कर चुम्बिवि जीउ / पडिबिम्बिअ-मुंजालु जलु जेहि अडोहिउ पीउ ||श रक्षति सा विषहारिणी द्वौ करौ चुम्बित्वा जीवम्। प्रतिबिम्बतमुजालं जलं याभ्यामनवगाहितं पीतम् / / 2 / / (मालवपति) मुंज का जिस जल में प्रतिबिम्ब पड़ा था और उस जल में प्रवेश किए बिना (जल में प्रवेश करने से मुंज का प्रतिबिम्ब नष्ट हो जाता ) जल पिया था, उस विरह-विष-हारिणी ने (मुंज के जल प्रतिबिम्ब का स्पर्श करनेवाले) उन दो हाथों का चुम्बन करके अपने प्राण की रक्षा की / 436.2) [इ] जइ / इवि] चुम्विवि च [ अवि विछोडवि, [इउ ) भजिउ रूपाणि सिध्यन्ति / बाह बिछोडवि जाहि तुहुँ, हउं तेवँइ को दोसु? हिअय-ट्ठिउ जइ नीसरहि, जाणउँ मुञ्ज / सरोसु // 3 // बाहू विच्छोट्य यासि त्वं भवतु तथा को दोषः?
SR No.016143
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri
PublisherRajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
Publication Year2014
Total Pages1078
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size
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