________________ [सिद्धहेम०] (119) अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०४] 'ओअग्गइ' ततः पक्षे, रूपं 'वावेइ सिध्यति। समापेः समाणः॥१४॥ समाप्नोतेः समाणो वा, समावेइ समाणइ। क्षिपेर्गलत्याडक्ख-सोल्ल-पेल्ल-णोल्ल-छुह-हुल परीवत्ताः॥१४३|| सोल्लपेल्लौ परी-चत्तौ, गलत्थश्च छहो हुलः। अड्डक्खो णोल्ल इत्येते,नयादेशाः क्षिपेस्तु वा। अड्डक्खइच गलत्थइ, सोल्लइ पेल्लइ छुहइ हुलइधत्तइ। णोल्लइ हस्वत्वे गुल्लइ परीइ, पाक्षिकं खिवइ / उत्क्षिपेर्गुलगुञ्छोत्थजाल्लत्थोन्मुत्तोस्सिक्क-हक्खुवाः // 144|| गुलगुञ्छोत्थडाल्लत्थोब्भुत्तोस्सिक्क-हक्खुवा वा स्युः / उत्पूर्वस्य तु क्षिपेर्, धातोः स्थाने षभादेशाः / गुलगुञ्छ। उत्थत इ, अल्लत्थइ हक्खुवइ च उस्सिका। उन्भुत्तइ इतिपक्षे, रूपं वेद्यं तु 'उक्खिवइ / आक्षिपेीरवः॥१४५|| आपूर्वस्य क्षिपेर्धातोर्णीरवो वा विधीयते। ततः सिद्ध पीरवइ, पक्षे 'अक्खिवइ स्मृतम्। __स्वपेः कमवस-लिस-लोट्टाः॥१४६|| 'कमवस-लिस-लोट्टाः' वा, स्युरमी धातोः स्वपेः स्थले क्रमशः। लोट्टइ लिसइ कमवसइ, भवति तुपक्षे 'सुअइ' रूपम्। वेपेरायम्बायज्झौ / / 147 / / वेपेर् 'आयम्ब आयज्झ' इत्यादेशौ विकल्पनात्। आयम्बइ तथा आयज्झर, पक्षे तु 'येवई'। विलपेझइ-वडवडौ॥१४८|| विलपेस्तु विकल्पेन, झको वडवडश्च वा। झवइ वड़वडइ,पक्षे विलवइ स्मृतम्। लिपो लिम्पः॥१४६॥ लिम्पस्तु लिम्पतेः स्थाने, ततो लिम्पइ सिध्यति। गुप्येर्विर-णडौ / / 150 / / स्थाने धातोर्गुप्यतेवी, भवेतां द्वौ "विरो,णडः। विरइ णडइ पक्षे, गुप्पइ सिद्धिमश्नुते। कृपोऽवहो णिः // 151 // अवहस्तु कृपेः स्थाने, ण्यन्तो भवति, तद्यथा। 'कृपां करोति' इत्यर्थे , अवहावेई पठ्यते। प्रदीपेस्तेअव-सन्दुम-सन्धुक्काब्मुत्ताः।।१५२॥ 'तेअव-सन्दुम-सन्धुक्काब्भुत्ता' वा प्रदीप्यतेरेते। सन्धुक्कइ अब्भुत्तइ, सन्दुमइपलीवइतेअवइ। लुभेः समावः / / 153|| संभावो लुभ्यतेर्वा स्यात्, संभावइ चलुब्भइ। शुभेः खउर-पडहौ // 15 // खउरः पडहो वा स्तः, क्षुभेर्धातोः पदे यथा। खउरइ पड्डहइ, पक्षे 'खुब्भइ' सिध्यति। आङो रमेः रम्म-ढवौ / / 15 / / आङ परस्य तु रभेःस्याता रम्भो ढवश्च वा। आरम्भइ आवढइ, पक्षे 'आरभइ' स्मृतम्। उपालम्भेझख-पचार-वेलवाः॥१५६।। उपालम्भेस्त्रयो वा स्युझन-पचार-बेलवाः। पचारइ वेलवइ, उवालम्भइ झङ्कइ। अवेर्जुम्भो जम्मा // 157 // जृम्भेर् जम्भा, न तु वेः परस्य, जम्भाइ भवति जम्भाअइ। किम्? अवेरिति हि निषेधः, 'सुकेलिपसरो विअम्भइ अ'। भाराक्रान्ते नमेणिसुढः॥१५८|| भाराक्रान्ते तु कर्तरि, णिसुढो वा नमेः स्मृतः। णिसुढइ, वा 'णवइ,' आक्रान्तो नमतीत्यतः। विश्रमेणिव्वा / / 15 / / 'णिव्या' विश्राम्यते 'णिव्वाइ, वीसमइ' द्वयम् / आक्रमेरोहावोत्थारच्छुन्दाः॥१६०॥ आक्रमेः 'छुन्द उत्थार ओहायो' वा त्रयो मताः। ओहावइ उत्थारइ, वा अक्कमइ छुन्दइ। प्रमेष्टिरिटिल्ल-दुण्दुल्ल-ढण्ढल्ल-चक्कम्म-मम्मड-ममम-ममाम-तलअण्ट-झण्ट-झम्प-भुम-गुम-फुम-फुसदुम-दुस-परी-पराः॥१६१॥ चक्कम्मो भम्ममो झम्पष्टिरिटिल्लो भुमो गुमः / ढुण्ढुल्लो भममो ढण्ढल्लोभमाडः फुमः फुसः। तलअण्टस्तथा झण्टो,ढुमो दुस-परी-पराः। इत्थमी भ्रमतेरष्टादशादेशा विकल्पनात्। टिरिटिल्लइ दुण्दुल्लइ, ढण्ढल्लइ तलअण्टइ च झण्टइ। भमडइ चक्कम्मइ भम्मडइभमाडइ भुमइ झम्पइ। गुमइ फुमइ फुसइ ढुमइ, दुसइ परीइ चपरइ भमइपक्षे। भ्रमधातोरिह रूपं, विविधं वेद्यं सुधीभिस्तु। गमेरई-अइच्छाणुवजावजसोक्कुसाक्कुस-पचड-पच्छन्द-णिम्मह–णी-णीण-णीलक्क-पदअ-रम्म-परिअल्लवोल-परिअल-णिरिणास-णिवहावसेहावहराः॥१६२।। अई णी पदओऽइच्छोऽणुवोऽवजसोऽक्कुसः। पचड्डो णिवहः पच्छन्दोऽवसेहश्च णिम्महः। परिअल्लःपरिअलो, णिरिणासस्तथोक्कुसः। रम्भो णीणश्च णीलुक्कोऽवहरो बोल इत्यमी। एकविंशतिरादेशा गमधातोस्तु वा मताः। अणुवज्जइपचड्डइ, अवजसइ अकुसइच पच्छन्दइ। णीणइ अईइ रम्भइ, णिरिसासइ णीइ णीलुक्कइ / पदअइ णिम्महइ अइच्छइ परिअल्लइ च उक्कुसइ बोलइ। अवसेहइ अवहरइ च, णिवहइ परिअलइ वा गच्छ।।। [णीहम्मइ आहम्मइ, पहम्मइ णिहम्मइ तु तथा हम्मइ। 'हम्म गतौ' इति धातोरमुनि रूपाणि वेद्यानि।] आङा अहिपुचुअः॥१६३।। आङा सहितस्य गमेः, स्थाने वाऽस्त्वहिपचुअः। 'अहिपचुअई' स्यावा, तथा-ऽऽगच्छइ' पाक्षिकम् / / समा अमिडः॥१६॥ समा युक्तस्य तु गमेर्, 'अब्भिडो' वा विधीयते। सिद्धं ततो 'अभिडइ,' पक्षे--संगच्छइ स्मृतम्।