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________________ अचल 183 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 1 अचल शब्दे द्वि०भा० 1133 पृष्ठे वक्ष्यति) आ०चू० 1 अ० आ०म० प्र०। निर्भयपुराधीश्वरस्य रामचन्द्रस्य सामन्ते, स च स्वगवेषितकपटयोगिनो वधं दृष्ट्वा संवेगमापद्य प्रव्रजितो मुनीश्वरोजातः। तचरितं चैवम् - भयरहिए निब्भयपुरम्मि पुन्नजणविहियगरुयहरिसो वि। रायासि रामचंदो, सलक्खणो रामचंदु व्व // 11 // तस्स गुरुगउरवपयं, अयलोनामेण अस्थि सामंतो। नयसचसोयसोंडीरयाइगणरयणरयणनिही / / 2 / / कइया वि सो नरिंदो, सभागओ भूरिसारपरिवारों / दुक्खभरसूइगाए, गिराइ पउरेहि इय भणिओ!|३|| देव ! नदीसइ चोरो, न य खत्तो न वि य चरणसंचारो। केण वि तह ति मुसिज्जइ, अदिट्ठरूवेण पुरमेयं // 4|| तं सोउं कुविएणं, भणियं रन्ना अहो सुहडसंघा!। किं को वि तक्करं तं, निग्गहिउं भेसमत्थु त्ति? ||5|| जा किंपिन बिंति भडा, ता अयलो आह देव ! मह देसु / आएसं नणु कित्तिय-मित्तं एसो वराओ त्ति॥६॥ रना सहत्थतंबोलदाणपुव्वं पयंपिओस इमं / तह कुणसुभद्द ! सिग्धं, जहलब्भइ तक्करो एसो।।७।। जइ पक्खंतो चोरं, न लहेमि अहं विसामि तो जलणं। इय काउ पइन्नं सो, विजिग्गओ रायभवणाओ।।८।। परिभमिओपुरमज्झे, सिंघाडगतिगचउक्कमाईसु / लद्धो न को विचोरो, नीहरिओ तयणु नयराओ 18/ करकलियखग्गदंडो, निविडीकयपरियरो दढपइनो। सो रयणिपढमपहरे, पत्तो कुंडाभिहमसाणे / / 10 / / तत्थ अइकडुयकक्खडरडतघूयडकुडुंबदुप्पिच्छे। भल्लुक्कचक्कपरिक्क-पिक्चपिक्कारयेवरुद्दे // 11 // एगत्थ कालवेयालजालसंजणियकिलकिलारावे / अन्नत्थमुक्कपुट्ट-ट्टहासपरिभमियभूयउले॥१२॥ जा अखुहिओ अयलो, अयलो इव जाइ किं पि भूभागं / ता साहगगहणपरं, पिसायमेगं स पिच्छेइ / / 13 / / तं पइ भणइ महायस! साहगपुरिसंहणेसि किं एयं?। आह पिसाओ इमिणा,पसाइओह दिणे सत्त // 14 // संपइ अइछुहिएणं, मए इमो मग्गिओमहामंसं। न तरइ दाउं खुद्दो, ता एवं लहु हणिस्सामि // 15 // पर उवयारपहाणो, अयलो पच्चाह मुंच नरमेयं / तुह देमि महामंसं, अहडियं मन्नइ पिसाओ वि॥१६|| तो छुरियाए छित्तुं, नियमसंस तस्स वियरेइ। असइ पिसाओ वि अहो!, अभुत्तपुव्वं ति जंपंतो॥१७|| उक्कित्तिऊणजह जह, अयलो से देइ मसखंडाई। तह तह दिव्योसहिविहि-कय व्व वुड्डि छुहा जाइ / / 18|| नीसेसमंसवियलं, निए विसयलं कलेवरं अयलो। अह जीवियनिरविक्खो, सीसं पिहु छित्तुमारो / / 16 / / धरिऊण पिसाएणं, दाहिणहत्थेण सत्ततुटेण। भणिओ सो अलमेएणं साहसेणं वरेसुवरं / / 20 / / अयलो भणेइ साहग-इ8 पकरेसुजइ सि तुझे मे। एवं कयं चिय मए, मग्गसु अन्नं पि आह सुरो।।२१।। अयलो जंपइ तुज्झ वि, किं सीसइ अमरमुणियकजस्स। नाउं ओहिबलेणं, तं कज्ज आह इय अमरो॥२२॥ तं अयल ! गच्छ सगिहे, वीसत्थो होसु मुंचसु विसायं। एसो चोरपबंधो, गोसे सयलो फुडो होही।।२३।। इय भणिय गओ अमरो, अयलो वि विसिट्ठदेहलावन्नो। निययावासे पत्तो, निश्चिंतो लहइ निदं च // 24 // ववगयनिहो अयलो,पए पिसाएणपभणिओ भद्द! तं तकरवुत्तंतं, निसुणसुसो आह कहसु फुडं॥२५॥ एयस्सपुरस्स बहिंपुव्वदिसाआसमे वसइजोगी। पव्ययओ से सिद्धो, कविलक्खो चेडओ अत्थि।।२६।। तेणं हरेइ नयरे, सो सारं रमइ निसि जहिच्छाए। काऊण जोगिरूवं, दिवसे पुण कहइ धम्मकहं / / 27 / / तस्सासमभूमिहरे, चिट्ठइ अवहारियेदव्यसव्वास। मा काहिसि इह संसय-मिय भणिय तिरोहिओ देवो // 28 // अह काउ गोसकिचं, अयलो कइवयजणाणुगो पत्तो। सुरकहियआसमे तत्थ तेण दिडो कवडजोगी॥२६॥ ठाऊण य तत्थ खणं, अयलो पत्तो नरिंदपयमूले। निवपुट्ठो एगंते, कहेइ तं चोरवुत्ततं॥३०॥ को इत्थ पचओ इय, नरवरपुट्ठो पयंपए अयलो। तस्सासमभूमिगिहम्मि मोसजायं सयलमस्थि॥३१॥ तो सिरवियणामिसयस-विसज्जियासेसपरियणो राया। सुत्तो तयणु जणेणं, पारद्धा विविहउवयारा ||32|| जाओ न य को विगुणो, आहूया मंतवाइपमुहजणा। ते वि अकयपडियारा, गया विलक्खा सठाणेसु // 33 // तो सुविसन्नमणेण व, सो जोगी वाहराविओ रना। संभासिउमारखो, सायरदिन्नासणो य तयं // 34 // पुरिसे यपेसिऊणं, खणाविओतस्स आसमो झत्ति। निग्गयमसेसमोसं, आणीयं रायभवणम्मि / / 3 / / आहूओ तव्वेलं, महायणो दंसियं तय मोसं। उवलक्खिऊण जं जस्स आसितं तस्स उवणीयं // 36 / / अह वुत्तो सो जोगी, रे रे पासंडियाहड! अणज्ज ! / को एसो वुत्तत्तो, सो भीओ जंपइन किं पि॥३७॥ चेडो दूरीहूओ, सिद्धवजम्मि दुजणु व्य लहुँ। सुबहु विडविउं सो, जोगी माराविओ रन्ना // 38|| इय दतु तस्स मरणं, अयलो चिंतेइ फुरिययेरग्गो। हा ! कह जीवा धणलव-विमोहिया जंति इह निहणं // 36 // धणलोभेणं जीवो, हणेइ जीवे सया मुसं वहइ। पियपुत्तमित्तसुकलत्तपमुहलोयं पिवंचेइ / / 4 / / इह लोइयतुच्छपओयणत्थमित्थं अकिञ्चलक्खं पि। काउं कंखइ जीवो, न य पिच्छइ तकडं दुक्खं // 41 / / अइगरुयलोहमुग्गर-पहारभरगाढविहुरियसरीरा। हा ! किह णु दुग्गदुग्गइ अवडे निवडतिमे जीवा? ||42|| ता सयललोहसंखोह-निविडसरधोरणीखलणदक्खं / कवयं पिव पव्वलं, संपइ गिण्हामि दढसत्तो // 43 // इय जा अचलो अचलिय-संवेगभरो विचिंतए चित्ते। तातत्थ समोसरिओ, सूरी गुणसुंदरो नाम // 44|| सुच्चा गुरुणो तक्खण, सआगमो आगओ गुरुसगासे। पणमियतप्पयपउम, आसीणो उचियदेसम्मि॥४५।। तयणु भवपरमनिव्येय-कारिणी लोहमोह निम्महिणी। विसयाणुरागपायव-करिणी संवेयसंजणणी॥४६।। संसारसमुत्थसमत्थ-वत्थुविगुणत्तपयडणपहाणा। सुइसुहकरेहि वयणेहिं देसणा सूरिणा विहिया / / 47 / / तं सोउंपडिबुद्धो, अयलोपुच्छे वि कह वि नरनाई। गुरुणो तस्स समीवे, संविग्गो गिण्हए दिक्खं // 48||
SR No.016143
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri
PublisherRajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
Publication Year2014
Total Pages1078
LanguageHindi
ClassificationDictionary
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