________________ 22 दुर्ग्रह नो शान्तिमन्त्र' आदि पुस्तकों में किया जा चुका है, इससे यहाँ फिर लिखना पिष्टपेषण होगा। सम्वत् 1661 का चौमासा शहर 'कूगसी में हुआ इसी चौमासे में सूरीजी महाराज ने हेमचन्द्राचार्य के प्राकृत व्याकरण को छन्दोबद्ध संदर्भित किया, यह बात उसके प्रशस्तिश्लोकों में लिखी है दीपविजयमुनिनाऽहं यतीन्द्रविजयेन शिष्ययुग्मेन / विज्ञप्तः पद्यमयीं प्राकृतविवृतिं विधातुमिमाम् // अत एव विक्रमाव्दे, भूरसनवविधुमिते दशम्यां तु / विजयाख्यां चमुर्मास्येऽहं कूकसीनगरे।। हेमचन्द्रसंगचितप्राकृतसूत्रार्थबोधिनी विवृतिम् / पद्यमयीं सच्छन्दोवृन्दै रम्यामकार्षमिमाम्॥ अर्थात् मुनिदीपविजय और यतीन्द्रविजय नामक दोनो शिष्यों से छन्दोबद्ध प्राकृतव्याकरण बनाने के लिये मैं प्रार्थित हुआ, इसीलिये विक्रम सं० 1961 के चौमासे में आश्विनशुक्ल विजय दशमी को कूकसीनगर में श्रीहेमचन्द्राचार्य रचित प्रकृतसूत्रों की वृत्तिरूप इस प्राकृतव्याकरण को अच्छे छन्दों में मैनें रचा। चौमासे के उतार पर गाँव 'बाग' में 'विमलनाथ स्वामी जी' की अञ्जनशलाका (प्रतिष्ठा) करायी; फिर माह महीने में शहर 'राजगढ़' में ख जानची 'चुन्नीलाल जी' के बनवाये हुए 'अष्टापद जी' के मन्दिर की अञ्जनशलाका (प्रतिष्ठा) करायी। और शहर 'राणापुर' में 'श्री धर्मनाथस्वामी' की अञ्जनशलाका (प्रतिष्ठा) करायी। तदनन्तर 'खाचरोद' शहर में पधारे। यहाँ कुछ दिन ठहर कर शहर जावरे में 'लक्खा जी' के बनवाये हुए मन्दिर की प्रतिष्ठा की, और सम्वत् 1962 का चौमासा शहर 'खाचरोद' में किया। इस चौमासे में आपने चीरोलावालों को बड़े संकट (दुःख) से छुड़ाया। 'चीरोला' मालवे में एक छोटासा गाँव है, यह गाँव ढाईसौ वर्षों से जातिबाहर था, कारण यह था कि शहर 'रतलाम' और 'सीतामऊ' की दो बारातें एकदम एक ही लड़की पर आई, जिसमें सीमामऊ वाले ब्याह (परण) गये और रतलाम वाले योहीं रह गये। इससे इन्होंने क्रोधित हो चीरोलावालों को जातिबाहर कर दिया। फिर वह झगड़ा चला तो बहुत वर्षों तक चलता ही रहा परन्तु जाति में वे लोग न आ सके, यहाँ तक कि मालवे भर में सब जगह चीरोलावाले जातिबाहर हो गये। कई बार चीरोलावालों ने रतलामवाले पंचों को एक-एक लाख रुपया दण्ड देना चाहा लेकिन झगड़ा नहीं मिटसका, तब बासठ 1962 के चौमासे में चीरोलावाले सब श्रावक लोग आकर विनती की और सब हाल कह सुनाया, तब आपने दया कर खाचरोद आदि के श्रीसंघ को समझाया और सबके हस्ताक्षर कराकर बिना दण्ड लिये ही जाति में शामिल करादिया। यह कार्य असाधारण था, क्योंकि इसके लिये बड़े-बड़े साहूकार और साधूलोग परिश्रम कर चुके थे किन्तु कोई भी सफलता को नहीं प्राप्त हुआ था। आपके प्रभाव ने सहज ही में इस कार्य को पार लगा दिया। इसीसे आपकी उपदेश प्रणाली कितनी प्रबल थी यह निःसंशय मालूम पड़ सकती है ; यह एकही काम आपने नहीं किया किन्तु ऐसे सैकड़ों काम किये हैं। सम्वत् 1963 का चौमासा शहर 'बड़नगर' में हुआ, यहाँ चारो महीने धर्मध्यान का अत्यधिक आनन्द रहा और अनेक प्रशंसनीय कार्य हुए। इस प्रकार क्रियाउद्धार करने के बाद आपके 36 उनतालीस चौमासा हुए। इन सब चौमासाओं में अनेक कार्य प्रशंसनीय हुए और श्रावकों ने स्वामीभक्ति अष्टाहिकामहोत्सव आदि सत्कार्यों में खूब द्रव्य लगाया। कम से कम प्रत्येक चौमासे में 5000 हजार से लेकर 20000 हजार तक खरचा श्रावकों की तरफ से किया गया है, इससे अतिरिक्त शेष काल में भी आपने उलटे मार्ग में जाते हुए अनेक भव्यवों को रोक कर शुद्ध सम्यक्त्वधारी बनाया। आपके उपदेश का प्रभाव इतना तीव्र था कि जिसको सुनकर कट्टर द्वेषी भी शान्त स्वभाव वाले हो गये। रात्रिभोजन नहीं करना, जीवों को जानकर नहीं मारना, चोरी नहीं करना इत्यादि अनेक नियम जिन्होंने आपसे लिये हुए हैं और जैनधर्मविषयक