________________ ( 6) [सिद्धहेम० अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०२] सम्मड्डिओ कवड्डो, विच्छड्डो छड्डइ विअड्डी। रूप-स्पयोःफः॥५३॥ गर्दभ वा // 37 // फःष्प-स्पयोर्भवेत्, पुष्पं पुष्पं स्यात्, स्पन्दनं पुन। गर्दभेदस्य डो वा स्याद्, गड्डहो गद्दहो तथा। फन्दणं च प्रतिस्पर्धा पाडिप्फद्धी प्रयुज्यते। कन्दरिका-मिन्दिपाले ण्डः // 38|| बहुलात् क्वापि वैकल्प्यं,यथा-रूपं बुहप्फई। ण्डः संयुक्तस्यवै भिन्दि-पाले कन्दरिकापदे। बुहप्पई च, न क्वापि-निप्पहोच परोप्परं। भिण्डिवालो कण्डलिआ, द्वयं संसिद्धिमृच्छति। भीष्मे ध्मः॥५४|| स्तब्धे ठ-ढौ // 36 // भीष्मे ष्मस्य फकारः स्यात्, रूपं 'भिप्फो यथा भवेत् स्तब्धे संयुक्तयोः स्याता, ठढौ, 'ठड्डो' यथाक्रमम्। लेष्मणि वा // 5 // __ दग्ध-विदग्ध–वृद्धि-वृच्छे ढः॥४०|| श्लेष्मणि ष्मस्य फः, सेफो सिलिम्हो च विकल्पनात्। दग्धे विदग्धे वृद्धौ च, वृद्धे युक्तस्य ढो भवेत्। ताम्राभेम्वः // 56 // दड्डो विअड्डो वुड्डी च बुड्डो, विद्धो कृचिन्मतः [कचिन्न भवति विद्ध-का मुस्यम्बः स्यात् ताम्र आमे, 'तम्ब' अम्बं च सिध्यतः। निरूविअं11 हो भो वा // 57|| श्रद्धर्द्धि-मूर्धार्धेऽन्ते वा // 41 // हृस्य भो वा, यथा-जिडभा जीहा सिद्धिमवाप्नुतः। डः स्याच्छूधर्द्धि-मूर्धाऽर्धेऽन्ते संयुक्तस्य वा, यथा। वा विह्वले वौ वश्च // 56 // सड्डा सद्धा, इड्डी रिद्धी, मुण्ढा मुद्धा अर्बु अद्धं / / विह्वले हस्य भो वा स्याद्, विशब्दे वा च वस्य भः। म्नज्ञोर्णः // 42 // भिन्भलो बिभलो वा च विहलो च त्रयं मतम् / णाणं निण्णं च विण्णाणं, पञ्जुण्णो म्नज्ञयोर्णतः। वोवें // 5 // पञ्चाशत्पञ्चदश-दत्ते॥४३॥ ऊर्चे युक्तस्य भो वा स्याद, उभं उद्धं च सिध्यतः। स्यात् पञ्चाशत्-पञ्चदश-दत्ते युक्तस्य णो, यथा। कश्मीरे म्मो वा // 6 // पण्णासापण्णरह च, दिण्णं त्रयमुदाहृतम्॥ कश्मीर-शब्दे म्भो वा स्यात् संयुक्तस्य, ततो द्वयम्। मन्यौ न्तो वा // 44|| सिद्धिमृच्छति, 'कम्भारा' 'कम्हारा' चेति पाक्षिकम् // मन्यौ युक्तस्यवान्तः स्याद्, मन्तू मन्नू च पठ्यते। __ स्तस्य थोऽसमस्त स्तम्वे // 45|| न्मो मः // 61 // स्तम्ब समस्तं च त्यक्त्वा, 'स्त' स्यथादेश इष्यते। न्मस्य मो वा, यथा--जम्मो वम्महो मम्मणं तथा। ग्मो वा // 62 // थोत्ति थोअंथुई हत्थो, पसत्थो पत्थरोऽत्थिच। तम्बो स्तम्बे, समत्तोतु-समस्तेऽर्थे प्रकीर्तितः॥ ग्मस्य मोवा, यथा-युग्मंजुम्म जुग्गं च कथ्यते। स्तवे वा // 46 // ब्रह्मचर्य-तूर्य-सौन्दर्य-शौण्डीर्ये o रः // 63|| स्तवशब्देस्तस्यथो वा, ततो रूपंथवो तवो। तूर्य-सौन्दर्य-शौण्डीर्य-ब्रह्मचर्येषु 'र्य' स्यरः। पर्यस्ते थ-टौ // 47|| बम्हचेरंचसुन्देरं, सोण्डीरंतूरमित्यपि।। पर्यस्ते स्तस्य तु स्याता,थ-टौ पर्यायभाविनौ। पठ्यते बम्हचरिअं, क्वापिचौर्यसमत्वतः। पल्लत्थो वातु पल्लट्टो,रूपं व्युत्पद्यते द्वयम्। धैर्य वा // 4 // वोत्साहे थो हश्च रः॥४८|| धैर्ये र्यस्य रकारोवा, धीरं धिज्जं च सिद्ध्यतः। उत्साह-शब्दे थादेशः संयुक्तस्य विकल्पनात्। 'सूरो सुजो' इति कथं ? रूपे स्तः, सूर-सूर्ययोः [सूरो सुजो इति तु हस्य रश्चापि, 'उत्थारो, 'उच्छाहो' सिद्धिमाप्नुतः // सूरसूर्यप्रकृति भेदात्।। आश्लिष्टे ल-धौ // 4|| एतः पर्यन्ते // 6 // संयुक्तयोर्यथासंख्यमाश्लिष्ट तुल-धौ स्मृतौ। पर्यन्तशब्दे एतः स्याद्यस्य रस्तेन सिध्यति। आलिद्धो' ईदृशरूपं तदाऽऽश्लिष्टस्य जायते। 'पेरन्तो,' एत इति किम्? 'पजन्तो' परिपठ्यते।। चिह्ने न्धो वा / / 5 / / आश्चर्ये / / 66|| चिह्ने ह्रस्य तु वा न्धः स्याद् ण्हं वाधित्वैव, तद्यथा एतः परस्य रो'र्य' स्याऽऽश्चर्ये, अच्छेरमिष्यते। चिन्धं इन्ध च, चिण्हं तुपक्षे ण्हस्यापि संभवात्। अतो रिआर-रिज-रीअं॥६७|| भस्मात्मनोः पो वा / / 11 / / अतः परस्याश्चर्ये, र्यस्य 'रिआर-रिज-रीअ'-मादेशाः भस्मात्मनोः पकारः संयुक्तस्य, विभाषया भवति। अच्छरिज-मच्छरिअं, तथाऽच्छरीअंच अच्छअरं।। भप्यो भस्सो, अप्पा अप्पाणो, पाक्षिको 'ऽत्ता' ऽपि। पर्यस्त-पर्याण--सौकुमार्ये ल्लः // 68|| रुम क्मोः // 52 // सौकुमार्ये च पर्याणे पर्यस्ते र्यस्य लद्वयम्।। 'ल्ल' इति।। ड्यस्य क्मस्य च पादेशः कुड्यलं कुम्पलं तथा। पल्लट्ट पल्लत्थं पल्लाणं सोअमल्लमिति भवति। रुक्मिणी-रुप्पिणी, रुचमी, रुप्पी च्मः कापि दृश्यते। पलिअङ्को पल्लङ्को पल्यङ्कस्यैव रूपेद्वे।